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________________ न्यूनता को प्राप्त हो गया था। तते णं-तदनन्तर। ताई-उन। पंच चोरसयाई-पांच सौ चोरों ने। अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय। अभग्गसेणं-अभनसेन / कुमार-कुमार का। सालाडवीए-शालाटवी नामक। चोरपल्लीए-चोरपल्ली में। महया 2 इड्ढी०-अत्यधिक ऋद्धि और सत्कार के साथ / चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति-चोरसेनापतित्व से उस का अभिषेक करते हैं, अर्थात् अभग्नसेन को चोरसेनापति के पद पर नियुक्त करते हैं। तते णं-तदनन्तर अर्थात् तब से। से अभग्गसेणे-वह अभग्नसेन। कुमारे-कुमार। चोरसेणावती-चोरसेनापति। जाते-बन गया, जो कि। अहम्मिए-अधर्मी। जाव-यावत्। कप्पायं-उस प्रान्त के राजदेय कर को। गेण्हति-स्वयं ग्रहण करने लगा। मूलार्थ-तत्पश्चात् किसी अन्य समय वह विजय चोरसेनापति कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया। उस की मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन पांच सौ चोरों के साथ रोता हुआ, आक्रन्दन करता हुआ और विलाप करता हुआ अत्यधिक ऋद्धि-वैभव एवं सत्कारसम्मान अर्थात् बड़े समारोह के साथ विजय सेनापति का निस्सरण करता है। तात्पर्य यह है कि बाजे आदि बजा कर अपने पिता के शव को अन्त्येष्टि कर्म करने के लिए श्मशान में पहुंचाता है और वहां लौकिक मृतककार्य अर्थात् दाह-संस्कार से ले कर पिता के निमित्त किए जाने वाले दान भोजनादि कार्य करता है। कुछ समय के बाद अभग्नसेन का शोक जब कम हुआ तो उन पांच सौ चोरों ने बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्ली में चोरसेनापति की पदवी से अलंकृत किया। चोरसेनापति के पद पर नियुक्त हुआ अभग्नसेन अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् उस प्रान्त के राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लग गया। टीका-संसार की कोई भी वस्तु सदा स्थिर या एक रस नहीं रहने पाती, उस का जो आज स्वरूप है कल वह नहीं रहता, तथा एक दिन वह अपने सारे ही दृश्यमान स्वरूप को अदृश्य के गर्भ में छिपा लेती है। इसी नियम के अनुसार अभग्नसेन के पिता विजय चोरसेनापति भी अपनी सारी मानवीय लीलाओं का संवरण करके इस असार संसार से प्रस्थान कर के अदृश्य की गोद में जा छिपे।। सुख और दुःख ये दोनों ही मानव जीवन के सहचारी हैं, सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख के आभास से मानव प्राणी अपनी जीवनचर्या की नौका को संसार समुद्र में खेता हुआ चला जाता है। कभी वह सुख-निमग्न होता है और कभी दुःख से आक्रन्दन करता है, उस की इस अवस्था का कारण उसके पूर्वसंचित कर्म हैं। पुण्य कर्म के उदय से उस का जीवन सुखमय बन जाता है और पाप कर्म के उदय से जीवन का समस्त सुख दुःख के रूप 386 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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