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________________ तद्गतचित्त-उसी में-गणिका में चित्त वाला। तम्मणे-उसी में मन रखने वाला। तल्लेसे-तद्विषयक परिणामों वाला। तदझवसाणे-तद्विषयक अध्यवसाय अर्थात् भोगक्रिया सम्बन्धी प्रयत्न विशेष वाला। तदट्ठोवउत्ते-उसकी प्राप्ति के लिए उपयुक्त-उपयोग रखने वाला। तयप्पियकरणे-उसी में समस्त इन्द्रियों को अर्पित करने वाला अर्थात् उसी की ओर जिस की समस्त इन्द्रियां आकर्षित हो रही हैं। तब्भावणाभाविते-उसी की भावना करने वाला तथा। कामज्झयाए-कामध्वजा। गणियाए-गणिका के। बहूणि अंतराणि य-अनेक अन्तर अर्थात् जिस समय राजा का आगमन न हो। छिद्दाणि य-छिद्र-अर्थात् राजा के परिवार का कोई व्यक्ति न हो। विवराणि-विवर-कोई सामान्य मनुष्य भी जिस समय न हो। पडिजागरमाणे-ऐसे समय की गवेषणा करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा था। मूलार्थ-तदनन्तर उस विजयमित्र नामक महीपाल-राजा की श्री नामक देवी को योनिशूल-योनि में होने वाला वेदना-प्रधान रोग विशेष उत्पन्न हो गया। इसलिए विजयमित्र नरेश रानी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य-सम्बन्धी काम-भोगों के सेवन में समर्थ नहीं रहा। तदनन्तर अन्य किसी समय उस राजा ने उज्झितक कुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान में से निकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या को अपने भीतर अर्थात् अन्तःपुर-रणवास में रख लिया और उसके साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार-प्रधान विषयभोगों का उपभोग करने लगा। तदनन्तर कामध्वजा गणिका के गृह से निकाले जाने पर कामध्वजा वेश्या में मूर्च्छित-उस वेश्या के ध्यान में ही-मूढ़-पगला बना हुआ,गृद्ध-उस वेश्या की आकांक्षाइच्छा रखने वाला, ग्रथित-उस गणिका केही स्नेहजाल में जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्नउस वेश्या की चिन्ता में अत्यधिक व्यासक्त रहने वाला वह उज्झितक कुमार और किसी स्थान पर भी स्मृति-स्मरण, रति-प्रीति और धृति-मानसिक शांति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त और मन लगाए हुए, तद्विषयक परिणाम वाला, तत्सम्बन्धी काम भोगों में प्रयत्न-शील, उस की प्राप्ति के लिए उद्यत-तत्पर और तदर्पितकरण अर्थात् जिस का मन-वचन और देह ये सब उसी के लिए अर्पित हो रहे हैं, अतएव उसी की भावना से भावित होता हुआ कामध्वजा वेश्या के अन्तर, छिद्र और विवरों की गवेषणा करता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका-प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में यह वर्णन कर चुके हैं कि वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, महाराज मित्र वहां राज्य किया करते थे। उन की महारानी का नाम श्री देवी था। दोनों वहां सानन्द जीवन बिता रहे थे। आगमों में इस बात का वर्णन बड़े मौलिक शब्दों में उपलब्ध किया जाता है कि पूर्वसंचित कर्मों के आधार पर ही सुख तथा दुःख का परिणाम होता है। यदि पूर्व कर्म शुभ हों प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [305
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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