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________________ तथा उसके सैनिकों के प्रहार अमोघ-निष्फल न जाने वाले हैं। उसके सैनिकों के भयंकर आक्रमण ने हमें वापिस लौटने पर विवश ही नहीं किया अपितु हम में फिर से आक्रमण करने का साहस ही नहीं छोड़ा। महाराज ! मुझे तो आज यह दृढ़ निश्चय हो चुका है कि उसे घुड़सवार सेना के बल से, मदमस्त हस्तियों के बल से, और शूरवीर योद्धाओं तथा रथों के समूह से भी नहीं जीता जा सकता। अधिक क्या कहूं, यदि चतुरंगिणी सेना लेकर भी उस पर आक्रमण किया जाए तो भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता। आज का दिन महाबल नरेश के लिए बड़ा ही दुर्दिन प्रमाणित हुआ। ज्यों-ज्यों वे दण्डनायक सेनापित के आक्रमण और महान असफलता को सूचित करने वाले शब्दों पर ध्यान देते हैं त्यों-त्यों उनके हृदय में बड़ा तीव्र आघात पहुंचता है और चिन्ताओं का प्रवाह उस में ठाठे मारने लगता है। उन के जीवन में यह पहला ही अवसर है कि उन्हें युद्ध में इस प्रकार के लज्जास्पद पराजय का अनुभव करना पड़ा, और वह भी एक लुटेरे से। एक तरफ तो वे नागरिकों को दिए हुए रक्षासम्बन्धी आश्वासन का ध्यान करते हैं और दूसरी तरफ अभग्नसेन पर किए गए आक्रमण की निष्फलता का ख्याल करते हैं। इन दोनों प्रकार के विचारों से उत्पन्न होने वाली आन्तरिक वेदना ने महाबल नरेश को किंकर्तव्य-विमूढ़ सा बना दिया। उन को इस पराजय का स्वप्न में भी भान नहीं था। इस समय जो समस्या उपस्थित हुई है उसे किस प्रकार सुलझाया जाए, यह एक विकट प्रश्न था। अगर अभग्नसेन का दमन करके उस के अत्याचारों से पीड़ित प्रजा का संरक्षण नहीं किया जाता तो फिर इस शासन का अर्थ ही क्या है ? और वह शासक ही क्या हुआ जिस के शासन-काल में उसकी शान्ति प्रजा अन्यायियों और अत्याचारियों के नृशंस कृत्यों से पीड़ित हो रही हो ? इस प्रकार की उत्तरदायित्वपूर्ण विचार-परम्परा ने महाबल नरेश के हृदय को बहुत व्यथित कर दिया, और वे चिन्ता के गहरे समुद्र में गोते खाने लगे। कुछ समय के बाद विचारशील महाबल नरेश ने अपने सुयोग्य मन्त्रियों से विचार विनिमय करना आरम्भ किया। मन्त्रियों ने बड़ी गम्भीरता से विचार करने के अनन्तर महाबल नरेश के सामने एक प्रस्ताव रखा। वे कहने लगे-महाराज ! नीतिशास्त्र की तो यही आज्ञा है कि जहां दण्ड सफल न हो सके वहां साम, भेद, दानादि का अनुसरण करना चाहिए, अतः हमारे विचारों में यदि आप उसे-अभग्नसेन को पकड़ना ही चाहते हैं तो उसके साथ दण्डनीति से काम न ले कर साम, भेद अथवा उपप्रदान की नीति से काम लें और इन्हीं नीतियों द्वारा उसे विश्वास में ले कर पकड़ने का उद्योग करें। मन्त्रियों की इस बात का महाबल नरेश के हृदय 408 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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