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________________ उस को आगामी भवों में दुःख-पूर्ण जीवन प्राप्त होना अनिवार्य होता है। यह जो आज रोगाक्रान्त हो कर तड़प रहा है, वह इसी के पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का प्रत्यक्ष फल है। .. "-ठिति जाव नामधिजं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गये "-ठितिपडियं च चन्दसूरदसणं च जागरियं च महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं करेति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते संपत्ते बारसाहे अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन्नं-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। "-पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति-" यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए-तंजहा-खीरधातीए मजण-से लेकर -सुहंसुहेणं-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। तथा प्रकृत सूत्रपाठ में उल्लेख किए गए-“जहा विजयमित्ते कालधम्मणा संजुत्ते गंगादत्ता वि-" तथा "-उम्बरदत्ते वि निच्छूढे जहा उज्झियए-" इन पदों से दुखविपाक के उज्झितक नाम के दूसरे अध्ययन का स्मरण कराया गया है। तात्पर्य यह है कि उम्बरदत्त के विषय में -माता पिता का देहान्त और घर से निकाला जाना-यह सब वर्णन उज्झितक कुमार की तरह जान लेना चाहिए। ____तथा "-१-सासे, २-कासे जाव १६-कोढे-" यहां पठित जाव-यावत् पद से प्रथम अध्ययनगत पढ़े गए "-३-जरे, ४-दाहे, ५-कुच्छिसूले, ६-भगंदरे, ७अरिसे,८-अजीरते, ९-दिट्ठी, १०-मुद्धसूले, ११-अकारए, १२-अच्छिवेयणा, १३कण्णवेयणा, १४-कण्डू, १५-दओदरे-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या प्रथम अध्ययन में की जा चुकी है। -सडियहत्थ० जाव विहरति-यहां के -जाव-यावत्-पद से पूर्व में पढ़े गए"लिए, सडियपायंगुलिए, सडियकण्णनासिए-से लेकर -देहंबलियाए वित्तिं कप्पेमाणे" यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में एकवचनांत पदों का ग्रहण करना अपेक्षित है। अतः अर्थ में एकवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। -पुरा जाव विहरति- यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। ... प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि सेठ सागरदत्त तथा सेठानी गंगादत्ता ने बालक का नाम उम्बरदत्त इसलिए रखा था कि वह उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से अर्थात् उस की मनौती मानने से संप्राप्त हुआ था, इस पर यह आशंका होती है कि कर्मसिद्धान्त के अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [607
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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