________________ का घात करता है वह कर्म अन्तराय कहलाता है। अन्तराय कर्म राजभंडारी के समान होता है। जैसे-राजा ने द्वार पर आए हुए किसी याचक को कुछ द्रव्य देने की कामना से भंडारी के नाम पत्र लिख कर याचक को तो दिया, परन्तु याचक को भंडारी ने किसी कारण से द्रव्य नहीं दिया, या भंडारी ही उसे नहीं मिला। भंडारी का इन्कार या उस का न मिलना ही अन्तराय कर्म है। कारण कि पुण्यकर्म-वशात् दानादि सामग्री के उपस्थित होते हुए भी इस के प्रभाव से कोई न कोई ऐसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि देने और लेने वाले दोनों ही सफल नहीं हो पाते। कर्मों की आठ मूल प्रकृतियां ऊपर कही जा चुकी हैं, इन की उत्तर प्रकृतियां 158 हैं। ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय को 9, वेदनीय की 2, मोहनीय की 28, आयु की 4, नाम की 103, गोत्र की 2 और अन्तराय की 5, कुल मिला कर 2158 उत्तरप्रकृति या उत्तरभेद होते हैं। इन समस्त उत्तरभेदों का विस्तृत वर्णन तो जैनागमों तथा उन से संकलित किए गए कर्मग्रन्थों में किया गया है, परन्तु प्रस्तुत में इन का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है (1) ज्ञानावरणीय कर्म के 5 भेद हैं, जिनका विवरण नीचे की पंक्तियों में है १-मतिज्ञानावरणीय-इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान को आवरण-आच्छादन करने वाले कर्म को मतिज्ञानावरणीय अथवा मतिज्ञानावरण कहते हैं। २-श्रुतज्ञानावरणीय-शास्त्रों के वांचने तथा सुनने से जो अर्थज्ञान होता है, अथवामतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिस में हो ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को श्रुतज्ञानावरणीय या श्रुतज्ञानावरण कर्म कहते हैं। ३-अवधिज्ञानावरणीय-इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए रूप वाले द्रव्य का जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। ४-मनःपर्यवज्ञानावरणीय-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना मर्यादा कों लिए हुए जिस में संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जाना जाए उसे मन:पर्यवज्ञान कहा जाता है। इस 1. कर्मों के मूलभेद मूलप्रकृति और उत्तरभेद उत्तरप्रकृतियां कहलाती हैं। 2. इह नाणदंसणावरणवेदमोहाउनामगोयाणि। विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं॥३॥ (कर्मग्रन्थ भाग 1) श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन