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________________ विदूषक, तैराक, ज्योतिषी, वैद्य, चित्रकार, सुवर्णकार तथा कुम्भकार आदि सभी तरह के लोग रहते थे। नगर का बाज़ार बड़ा सुन्दर था, उस में व्यापारि-वर्ग का खूब जमघट रहता था। वहां के निवासी बड़े सज्जन और सहृदय थे। चोरों, उचक्कों, गांठकतरों और डाकुओं का तो उस नगर में प्रायः अभाव सा ही था। तात्पर्य यह है कि वह नगर हर प्रकार से सुरक्षित तथा भयशून्य था। नगर के बाहर ईशान कोण में पुष्पकरण्डक नाम का एक विशाल और रमणीय उद्यान था। उस के कारण नगर की शोभा और भी बढ़ी हुई थी। वह उद्यान नन्दनवन के समान रमणीय तथा सुखदायक था, उस में अनेक तरह के सुन्दर-सुन्दर वृक्ष थे। प्रत्येक ऋतु में फलने और फूलने वाले वृक्षों और पुष्पलताओं की मनोरम छाया और आनन्दप्रद सुगन्ध से दर्शकों के लिए वह उद्यान एक अपूर्व आमोद-प्रमोद का स्थान बना हुआ था। उस में कृतवनमालप्रिय नाम के यक्ष का एक सुप्रसिद्ध स्थान था जो कि बड़ा ही रमणीय एवं दिव्य-प्रधान था। ' हस्तिशीर्ष नगर उस समय की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। उस में अदीनशत्रु नाम के परम प्रतापी क्षत्रिय राजा का शासन था। अदीनशत्रु नरेश शूरवीर, प्रजाहितैषी और पूरे न्यायशील थे। उन के शासन में प्रजा हर प्रकार से सुखी थी। वे स्वभाव से बड़े नम्र और दयालु थे, परन्तु अपराधियों को दण्ड देने, दुष्टों का निकंदन और शत्रुओं का मानमर्दन करने में बड़े क्रूर थे। उन की न्यायशीलता और धर्मपरायणता के कारण राज्यभर में दुष्काल और महामारी आदि का कहीं भी उपद्रव नहीं होता था। अन्य माण्डलीक राजा भी उन से सदा प्रसन्न रहते थे। तात्पर्य यह है कि उन का शासन हर प्रकार से प्रशंसनीय था। महाराज अदीनशत्रु के एक हज़ार रानियां थीं, जिन में धारिणी प्रधान महारानी थी। धारिणीदेवी सौन्दर्य की जीती जागती मूर्ति थी। इस के साथ ही वह आदर्श पतिव्रता और परम विनीता भी थी, यही कारण था कि महाराज के हृदय में उस के लिए बहुत मान था। एक बार धारिणी देवी रात्रि के समय जब कि अपने राजोचित शयनभवन में सुखशय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी तो अर्द्धजागृत अवस्था में अर्थात् वह न तो गाढ़ निद्रा में थी और न सर्वथा जाग ही रही थी, ऐसी अवस्था में उस ने एक विशिष्ट स्वप्न देखा। एक सिंह जिस की गर्दन पर सुनहरी बाल बिखर रहे थे, दोनों आंखें चमक रही थी, जिसके कंधे उठे हुए थे और पंछ टेढी थी ऐसा सिंह जंभाई लेता हुआ आकाश से उतरता है और उस के मुंह में प्रवेश कर जाता है। इस स्वप्न के अनन्तर जब धारिणी देवी जागी तो उस का फल जानने की उत्कण्ठा से वह उसी समय अपने पतिदेव महाराज अदीनशत्रु के पास पहुँची और मधुर तथा कोमल शब्दों से उन्हें . जगा कर अपने स्वप्न को कह सुनाया। स्वप्न सुनाने के बाद वह बोली कि प्राणनाथ ! इस 796 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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