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________________ यहां पर जन्म लेकर यावत् इसी जन्म में सिद्ध हुआ।निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ॥पञ्चम अध्ययन समाप्त॥ टीका-प्रस्तुत अध्ययन में जिनदास का जीवनवृत्तान्त संकलित किया गया है। जिनदास महाचन्द्र का पुत्र और अर्हदत्ता का आत्मज था। इस के पितामह का नाम अप्रतिहत और पितामही का सुकृष्णादेवी था। इस की जन्मभूमि सौगन्धिका नगरी थी। जिनदास पूर्वभव में मेघरथ नाम का राजा था। इस की राजधानी का नाम माध्यमिका था। मेघरथ नरेश प्रजापालक होने के अतिरिक्त धर्म में भी पूरी अभिरुचि रखता था। एक दिन उस के पूर्वपुण्योदय से उस के घर में सुधर्मा नाम के एक परम तपस्वी मुनि का आगमन हुआ। मुनि को देख कर मेघरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई, उसने बड़े भक्तिभाव से मुनि को अपने हाथ से आहार दिया। विशुद्ध भाव और विशुद्ध आहार से उक्त मुनिराज को प्रतिलाभित करने से मेघरथ ने मनुष्य आयु का बन्ध किया और समय आने पर मृत्युधर्म को प्राप्त करने के अनन्तर वह इसी सौगन्धिका नगरी में जिनदास के रूप में उत्पन्न हुआ। किसी समय नीलाशोक उद्यान में तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुआ। उस समय यह जिनदास भी जनता के साथ भगवान् का दर्शन करने और धर्मश्रवण करने के लिए आया। धर्मदेशना को सुन कर उस के हृदय में धर्म के आचरण की अभिरुचि उत्पन्न हुई और उस ने भगवान् से गृहस्थधर्म की दीक्षा प्रदान करने की अभ्यर्थना की। भगवान् ने भी उसे श्रावकधर्म की दीक्षा प्रदान कर दी। तब से जिनदास श्रमणोपासक बन गया। इस के अनन्तर उस के श्रमणधर्म में दीक्षित होने से लेकर मोक्षगमन पर्यन्त सारी जीवनचर्या श्री सुबाहुकुमार की तरह ही है। यह है पांचवें अध्ययन का पदार्थ जिस की जिज्ञासा श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से की थी। इस पांचवें अध्ययन के कथासन्दर्भ का तात्पर्य भी मानवभव प्राप्त प्राणियों को दानधर्म और विशेष कर सुपात्रदान में प्रवृत्त कराना है। शास्त्रकारों ने जो सुपात्रदान का फल मनुष्य आयु का बन्ध यावत् मोक्ष की प्राप्ति लिखा है, उस को हृदयंगम कराने के लिए यह कथासन्दर्भ एक उत्तम शिक्षक का काम देता है। -पडिलाभिए जाव सिद्धे-इस संक्षिप्त पाठ में जाव-यावत् पद से आहार देने से लेकर मोक्ष जाने तक के प्रथम अध्ययन में उल्लेख किए गए समस्त इतिवृत्त को संगृहीत करने की ओर संकेत किया गया है। विशेष बात यह है कि वह उसी भव में मोक्ष गया। इस के अतिरिक्त अध्ययन की प्रस्तावना में दान धर्म को मोक्ष का सोपान बताते हुए जो उस के महत्त्व 974 ] श्री विपाक सूत्रम् / पञ्चम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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