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________________ से विमुक्त तथा समृद्ध-धन-धान्यादि से परिपूर्ण था। उस में रहने वाले लोग तथा जनपद-बाहर से आए हुए लोग, बहुत प्रसन्न रहते थे। वह मनुष्यसमुदाय से आकीर्ण-व्याप्त था, तात्पर्य यह है कि वहां की जनसंख्या अत्यधिक थी। उस की सीमाओं पर दूर तक लाखों हलों द्वारा क्षेत्रखेत अच्छी तरह बाहे जाते थे तथा वे मनोज्ञ, किसानों के अभिलषित फल के देने में समर्थ और बीज बोने के योग्य बनाए जाते थे। उस में कुक्कुटों, मुर्गों, और सण्डों-सांडों के बहुत से समूह रहते थे। वह इक्षु-गन्ना, यव-जौ और शालि-धान से युक्त था। उन में बहुत सी गौएं, भैंसे और भेड़ें रहती थीं। उस में बहुत से सुन्दर चैत्यालय और वेश्याओं के मुहल्ले थे। वह उत्कोच-रिश्वत लेने वालों, ग्रन्थिभेदकों-गांठ कतरने वालों, भटों-बलात्कार करने वालों, तस्करों-चोरों और खण्डरक्षों-कोतवालों अथवा कर-महसूल लेने वालों से रहित था। अर्थात् उस नगर में ग्रन्थिभेदक आदि लोग नहीं रहते थे। वह नगर क्षेमरूप था, अर्थात् वहां किसी का अनिष्ट नहीं होता था। वह नगर निरुपद्रव-राजादिकृत उपद्रवों से रहित था। उस में भिक्षुकों को भिक्षा की कोई कमी नहीं थी। वह नगर विश्वस्त-निर्भय अथवा धैर्यवान् लोगों के लिए सुखरूप आवास वाला था, अर्थात् उस नगर में लोग निर्भय और सुखी रहते थे। वह नगर अनेक प्रकार के कुटुम्बियों और सन्तुष्ट लोगों से भरा हुआ होने के कारण सुखरूप था। नाटक करने वाले, नृत्य करने वाले, रस्से पर खेल करने वाले अथवा राजा की स्तुति करने वाले चारण, मल्ल-पहलवान, मौष्टिक-मुष्टियुद्ध करने वाले, विदूषक, कथा कहने वाले और तैरने वाले, रासे गाने वाले अथवा "-आप की जय हो-" इस प्रकार कहने वाले, ज्योतिषी, बांसों पर खेल करने वाले, चित्र दिखा कर भिक्षा मांगने वाले, तूण नामक वाद्य बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, ताली बजा कर नाचने वाले आदि लोग उस नगर में रहते थे। आराम-बाग, उद्यान-जिस में वृक्षों की बहुलता हो और जो उत्सव आदि के समय बहुत लोगों के उपयोग में लाया जाता हो, कूप-कूआं, तालाब, बावड़ी, उपजाऊ खेत इन सब की रमणीयता आदि गुणों से वह नगर युक्त था। नन्दनवन-एक वन जो मेरुपर्वत पर स्थित है, के समान वह नगर शोभायमान था। उस विशाल नगर के चारों ओर एक गहरी खाई थी जो कि ऊपर से चौड़ी और नीचे से संकुचित थी, चक्र-गोलाकार शस्त्रविशेष, गदा-शस्त्रविशेष, भुशुण्डी-शस्त्रविशेष, अवरोध-मध्य का कोट, शतघ्नी-सैंकड़ों प्राणियों का नाश करने वाला शस्त्रविशेष (तोप) तथा छिद्ररहित कपाट, इन सब के कारण उस नगर में प्रवेश करना बड़ा कठिन था, अर्थात् शत्रुओं के लिए वह दुष्प्रवेश था। वक्र धनुष से भी अधिक वक्र प्राकारकोट से वह नगर परिक्षिप्त-परिवेष्टित था। वह नगर अनेक सुन्दर कंगूरों से मनोहर था। ऊंची अटारियों, कोट के भीतर आठ हाथ के मार्गों, ऊंचे-ऊंचे कोट के द्वारों, गोपुरों-नगर के द्वारों, 802 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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