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________________ कारण अथवा शरीर का नि:शेषतया सम्पूर्ण रूप से रोहण कराने के कारण इसे निरूहनिरूहबस्ति कहा है।] __आचार्य अभयदेव सूरि ने बस्ति कर्म का अर्थ चर्मवेष्टन द्वारा शिर आदि अंगों को स्निग्ध-स्नेह पूरित करना, अथवा गुदा में वर्त्ति आदि का प्रक्षेप करना-यह किया है। और अनुवास, निरूह तथा शिरो बस्ति को बस्ति कर्म का ही अवान्तर भेद माना है। इस के अतिरिक्त अनुवास और निरुह बस्ति के स्वरूप में अन्तर न मानते हुए उन के प्रयोगों में केवल द्रव्य कृत विशेषता को ही स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि अनुवासना में जिन औषधिद्रव्यों का उपयोग किया जाता है, निरूह बस्ति में उनसे भिन्न द्रव्य उपयुक्त होते हैं। कषायक्षरितो बस्तिनिरूहः सन्निगद्यते। यः स्नेहैर्दीयते स स्यादनुवासन-संज्ञकः॥४॥ बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद् बस्तिरिति स्मृतः। निरूहस्यापरं नाम प्रोक्तमास्थापनं बुधैः॥५॥ निरुहो दोषहरणा-द्रोहणादथवा तनोः।। आस्थापयेद् वयो देहं यस्मादास्थापनः स्मृतः॥६॥ निशानुवासात् स्नेहोऽन्वासनश्चानुवासनः॥७॥ विरक्तसम्पूर्णहिताशनस्य, आस्थाप्यशय्यामनुदायते यत्। तदुच्यते वाप्यनुवासनं च, तेनानुवासंश्च बभूव नाम॥८॥ उत्कृष्टावयवे दानाद् बस्तिरूत्तरसंज्ञितः // 9 // इत्यादि अर्थात्-क्वाथ और दूध के द्वारा जो बस्ति दी जाती है उस को निरूह बस्ति कहते हैं। तथा घी अथवा तैलादि के द्वारा जो बस्ति दी जाए उसे अनुवासन कहा है। मृगादि के मूत्राशय की कोथली रूप साधन के द्वारा पिचकारी दी जाती है इस कारण इस पिचकारी को बस्ति कहते हैं। विद्वानों ने निरूह बस्ति का अपर नाम "आस्थापना" बस्ति भी कहा है। निरूह बस्ति दोषों को अपहरण करती है अथवा देह को आरोपण करती है, इस कारण इसकी निरूह संज्ञा है। और आयु तथा देह को स्थापन करती है इस कारण इसे आस्थापनबस्ति कहते हैं // 6 // अनुवासनाबस्ति में रात्रि के समय स्नेह के अनुवासित होने के कारण इसको 1. "अनुवासणाहि य'ति-अपानेन जठरे तैलप्रक्षेपणैः। "बत्थिकम्मेहि य"त्ति चर्मवेष्टन-प्रयोगेण शिरः प्रभृतीनां स्नेहपूरणैः, गुदे वा वादिप्रक्षेपणैः। "निरूहेहि य" त्ति निरुहः अनुवास एव, केवलं.द्रव्यकृतो विशेषः। प्रागुक्त-बस्तिकर्माणि सामान्यानि अनुवासना - निरूह-शिरोबस्त यस्तद् भेदाः। 182 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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