________________ को तोड़ कर साधुजीवन को अपनाया था, उस का वह प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। दूसरे शब्दों में सर्वप्रकार के कर्मबन्धनों का आत्यन्तिक विच्छेद कर वह कर्मरहित हो कर जन्म-मरण के दुःखों से सर्वथा छूट जाएगा, आत्मा से परमात्मा बन जाएगा। यह है दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनवृत्तान्त। इसी वृत्तान्त की समानता बताने के लिए सूत्रकार ने-जहा दढपइपणे-यह उल्लेख किया है। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार भी दृढ़प्रतिज्ञ की भांति मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे। -अंतिए मुण्डे जाव पव्वइस्सइ-यहां पठित-जाव-यावत् पद से-भवित्ता अणगारिअं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए / इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। तथामहाविदेहे जाव अड्ढाइं-यहां के जाव-यावत् पद से-वासे जाइंकुलाइं भवंति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थ स्पष्ट ही है। __-सिज्झिहिइ ५-यहां पर दिए गए 5 के अंक से-बुझिहिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं करिहिइ-इन पदों को संगृहीत करना चाहिए। इन का अर्थ निम्नोक्त है सिद्ध होगा-सकल कर्मों के क्षय से निष्ठितार्थ-कृतकृत्य होगा। बुद्ध होगा, केवलज्ञान से सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व को जानेगा। मुक्त होगा-भवोपग्राही (जन्मग्रहण में निमित्तभूत) कर्मांशों से छूट जाएगा। परिनिवृत्त होगा-कर्मजन्य जो ताप (दुःख) है उस के विरह (अभाव) हो जाने से शान्त होगा। जन्म-मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म-मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म तथा मरण रूप भवपरम्परा का उच्छेद कर डालेगा और वह सदा के लिए इस से मुक्त हो जाएगा तथा आत्मा की स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेगा जो कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य-शक्ति रूप है"-यह कह सकते हैं। सुपात्र दान की महानता और पावनता सुबाहुकुमार के सम्पूर्ण जीवन से सिद्ध हो जाती है। सुमुख गाथापति के भव में उस ने सुपात्र में भिक्षा डाली थी, उसी का यह महान् फल है कि आज वह परम्परा से सब का आराध्य बन गया है। इस जीवन से भावना की मौलिकता भी स्पष्ट हो जाती है। किसी भी कार्य में सफलता तभी प्राप्त होती है यदि उस में विशुद्ध भावना को उचित स्थान प्राप्त हो। जब तक भावगत दूषण दूर नहीं होता तब तक आत्मा आनन्दरूप भूषण को हस्तगत नहीं कर सकता। अतः श्री सुबाहुकुमार के जीवन को आचरित करके मोक्षाभिलाषियों को मोक्ष में उपलब्ध होने वाले सुख को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए। यही इस कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार है। 954 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध