________________ रहते हैं, आगमों का प्रचार एवं प्रसार ही उन के जीवन का सर्वतोमुखी ध्येय है। उन की भावना है कि समस्त आगमों का हिन्दीभाषानुवाद हो जाए। उस भावना की पूर्ति में विपाकश्रुत का यह अनुवाद भी कथमपि कारण बने / बस इसी अभिप्राय से प्रस्तुत टीका का उक्त नामकरण किया गया है। . टीका लिखने में सहायक ग्रन्थ इस विपाकसूत्र की टीका तथा प्रस्तावना लिखने में जिन-जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है, उन के नामों का निर्देश तत्तत्स्थल पर ही कर दिया गया है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि उन ग्रन्थों के अनेकों ऐसे भी स्थल हैं जो ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं। जैसे पण्डित श्री सुखलाल जी का तत्त्वार्थसूत्र तथा कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, पूज्य श्री जवाहरलाल जी म० की जवाहरकिरणावली की व्याख्यानमाला की पांचवीं किरण, सुबाहुकुमार तथा श्रावक के बारह व्रतों में से अनेकों स्थल ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं। जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है उन का नामनिर्देश करने का प्रायः पूरा-पूरा प्रयत्न किया गया है, फिर भी यदि भूल से कोई रह गया हो तो उस के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। . आभारप्रदर्शन सर्वप्रथम मैं महामहिम स्वनामधन्य श्री श्री श्री 1008 श्रीमज्जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज के सुशिष्य मंगलमूर्ति जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज के सुशिष्य गणावच्छेदकपदविभूषित पुण्यश्लोक श्री स्वामी गणपतिराय जी महाराज के सुशिष्य स्थविरपदविभूषित परिपूतचरण श्री जयरामदास जी महाराज के सुशिष्य प्रवर्तकपदालंकृत परमपूज्य श्री स्वामी शालिग्राम जी महाराज के सुशिष्य परमवन्दनीय गुरुदेव श्री जैनधर्म दिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्री वर्धमान श्रमणसंघ के आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज के पावन चरणों का आभार मानता हूँ। आप की असीम कृपा से ही मैं प्रस्तुत हिंदी टीका लिखने का साहस कर पाया हूँ। मैंने आप श्री के चरणों में विपाकश्रुत का अध्ययन करके उस के अनुवाद करने की जो कुछ भी क्षमता प्राप्त की है, वह सब आपश्री की ही असाधारण कृपा का फल है, अतः इस विषय में परमपूज्य आचार्य श्री का जितना भी आभार माना जाए उतना कम ही है। मुझे प्रस्तुत टीका के लिखते समय जहां कहीं भी पूछने की आवश्यकता हुई, आपश्री को ही उस के लिए कष्ट दिया गया और आपश्री ने अस्वस्थ रहते हुए भी सहर्ष मेरे संशयास्पद हृदय को पूरी तरह समाहित किया, जिस के लिए मैं आप श्री का अत्यन्त अनुगृहीत एवं कृतज्ञ रहूंगा। इस के अनन्तर मैं अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता, संस्कृतप्राकृतविशारद, सम्माननीय पण्डित 82 ] श्री विपाक सूत्रम् - [प्राक्कथन