________________ भगवान् से श्रावकधर्म अंगीकार करना और वहां से उठ कर वापस अपने महलों में चले जाना .. इत्यादि भावों का तथा-पडिलाभिए जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद-धर्मघोष गाथापति का संसार को परिमित करने के साथ-साथ मनुष्यायु का बान्धना, आयुपूर्ण होने पर महाराज अर्जुन के घर या भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना। गौतम स्वामी का-भगवन् ! क्या भद्रनन्दी आपश्री के चरणों में दीक्षित होगा, यह प्रश्न करना, भगवान् का-'हां' में उत्तर देना। तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, भद्रनन्दी का तेलापौषध करना, उस में भगवान के पास दीक्षित होने का निश्चय करना, भगवान् का फिर पधारना, भगवान् का धर्मोपदेश देना, उपदेश सुन कर भद्रनन्दी का माता-पिता से आज्ञा लेकर साधुधर्म को अंगीकार करना और उग्र साधना द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति करना-आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकुमार और भद्रनन्दी जी के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि श्री . . सुबाहुकुमार जी देवलोक आदि के अनेकों भव करने के अनन्तर मुक्ति में जाएंगे जब कि श्री भद्रनन्दी इसी भव में मुक्ति में पहुंच जाते हैं। ॥अष्टम अध्याय समाप्त॥ 986 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध