________________ इसलिए तुम अपने मन से भय की कल्पना तक को भी निकाल दो। इस प्रकार अपनी प्रेयसी श्यामा देवी को सान्त्वना भरे प्रेमालाप से आश्वासन दे कर महाराज सिंहसेन वहां से चल कर बाहर आते हैं तथा महारानी श्यामा के जीवन का अपहरण करने वाले षड्यन्त्र को तहस-नहस करने के उद्देश्य से कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर एक विशाल कूटाकारशाला के निर्माण का आदेश देते हैं। इस सूत्र में पति-पत्नी के सम्बन्ध का सुचारु दिग्दर्शन कराया गया है। स्त्री अपने पति में कितना विश्वास रखती है तथा दुःख में कितना सहायक समझती है, और पति भी अपनी स्त्री के साथ कैसा प्रेममय व्यवहार करता है तथा किस तरह उस की संकटापन्न वचनावली को ध्यानपूर्वक सुनता है, एवं उसे मिटाने का किस तरह आश्वासन देता है, इत्यादि बातों की सूचना भली भान्ति निर्दिष्ट हुई है, जो कि आदर्श दम्पती के लिए बड़े मूल्य की वस्तु है। इस के अतिरिक्त इस विषय में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि दम्पती-प्रेम यदि अपनी .. मर्यादा के भीतर रहता है तब तो वह गृहस्थजीवन के लिए बड़ा उपयोगी और सुखप्रद होता है और यदि वह मर्यादा की परिधि का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् प्रेम न रह कर आसक्ति या मूर्छा का रूप धारण कर लेता है तो वह अधिक से अधिक अनिष्टकर प्रमाणित होता है। महाराज सिंहसेन यदि अपनी प्रेयसी श्यामा में मर्यादित प्रेम रखते, तो उन से भविष्य में जो अनिष्ट सम्पन्न होने वाला है वह न होता और अपनी शेष रानियों की उपेक्षा करने का भी उन्हें अनिष्ट अवसर प्राप्त न होता। सारांश यह है कि गृहस्थ मानव के लिये जहां अपनी धर्मपत्नी में मर्यादित प्रेम रखना हितकर है, वहां उस पर अत्यन्त आसक्त होना उतना ही अहितकर होता है। दूसरे शब्दों में-जहां प्रेम मानव जीवन में उत्कर्ष का साधक है वहां आसक्ति-मूर्छा अनिष्ट का कारण बनती है। ___-उप्फेणउप्फेणियं- (उत्फेनोफेनितम्) की व्याख्या वृत्तिकार "-सकोपोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थ:-" इस प्रकार करते हैं / अर्थात् कोप-क्रोध के साथ गरम-गरम बातें जैसे की जाती हैं उसी तरह वह करने लगी। तात्पर्य यह है कि उस के-श्यामा के कथन में क्रोध का अत्यधिक आवेश था। अबाधा और प्रबाधा इन दोनों शब्दों की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि के शब्दों मेंतत्राबाधा-ईषत् पीडा, प्रबाधा-प्रकृष्टा पीडैव इस प्रकार है। अर्थात् साधारण कष्ट बाधा है और महान् कष्ट-इस अर्थ का परिचायक प्रबाधा शब्द है। -ओहयमणसंकप्पंजाव पासति-तथा-ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि-यहां पठित जाव-यावत्-पद से-भूमिगयदिद्वियं, करतलपल्हत्थमुहिं अट्टल्झाणोवगयं-ये 700] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध