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________________ जाओ, जाकर शालाटवी चोरपल्ली का विध्वंस कर दो-लूट लो, और उसके सेनापति अभग्नसेन को जीते जी पकड़ लो, और पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो।राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कर के दण्डनायक ने योद्धाओं के वृन्द के साथ शालाटवी चोरपल्ली में जाने का निश्चय कर लिया है। टीका-प्रस्तुत सूत्र पाठ में अभग्नसेन के गुप्तचरों की निपुणता का दिग्दर्शन कराया गया है। इधर महाबल नरेश चोरसेनापति अभग्नसेन को पकड़ने तथा चोरपल्ली को विनष्ट करके-लूट करके वहां की जनता को सुखी बनाने का आदेश देता है और उस आदेश के अनुसार दण्डनायक-कोतवाल अपने सैन्य बल को एकत्रित करके पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय करता है, इधर अभग्नसेन के गुप्तचर (जासूस) इस सारी बात का पता लगा कर चोरसेनापति के पास आकर वहां का अथ से इति पर्यन्त सारा वृत्तान्त कह सुनाते हैं। उन्होंने अपने सेनापति से जनपदीय-देशवासी पुरुषों का महाबल नरेश के पास एकत्रित हो कर जाना, उस के उत्तर में राजा की ओर से दिए जाने वाले आश्वासन तथा दण्डनायक को बुला कर चोरपल्ली को नष्ट करने एवं सेनापति को जीते जी पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने और तदनुसार दण्डनायक के महती सेना के साथ पुरिमताल नगर से निकल कर चोरपल्ली पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान का निश्चय करने : का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। अन्त में उन्होंने कहा कि स्वामिनाथ ! हमें जो कुछ मालूम हुआ वह सब आप की जानकारी के लिए आप की सेवा में निवेदन कर दिया, अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें। "-करयल जाव एवं-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-करयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट-" अर्थात् दोनों हाथों को जोड़ कर और मस्तक पर दस नखों वाली अंजली (दोनों हथेलियों को मिला कर बनाया हुआ सम्पुट) को करके-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। गुप्तचरों की इस बात को सुन कर अभग्नसेन चोरसेनापति ने क्या किया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावती तेसिं चारपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म पंच चोरसताइंसद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी,एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णगरे महब्बलेणं जाव तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तते णं अभग्गसेणे ताइं पंच चोरसताइं एवं वयासी-तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तं दंडं सालाडविंचोरपल्लिं असंपत्तं अंतरा चेव पडिसेहित्तए। तते णं ताई 398 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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