SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 659
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समुद्रदत्ता ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक के जन्म से सारे परिवार में हर्ष मनाया गया और कुलमर्यादा के अनुसार जन्मोत्सव मनाया तथा बारहवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया। शौरिक नामक यक्ष की मन्नत मानने से प्राप्त होने के कारण माता पिता ने अपने उत्पन्न शिशु का नाम शौरिकदत्त रक्खा। शौरिकदत्त बालक का -१-गोद में रखने वाली, २-क्रीड़ा कराने वाली, ३-दुग्धपान कराने वाली, ४-स्नानादिक क्रियाएं कराने वाली और ५-अलंकारादि से शरीर को सजाने वाली, इन पांच धायमाताओं के द्वारा पालन पोषण आरम्भ हुआ। वह उन की देख रेख में शुक्लपक्षीय शशिकला की भान्ति बढ़ने लगा। विज्ञान की परिपक्व अवस्था तथा युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। समय की गति बड़ी विचित्र है, इस के प्रभाव में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता। मनुष्य थोड़ी सी आयु लेकर चाहे समय के वेगपूर्वक चलने को स्मृति से ओझल कर दे, किन्तु समय एक चुस्त, चालाक और सावधान प्रतिहारी की भांति अपने काम करने में सदा जागरूक रहता है, तथा प्रत्येक पदार्थ पर अपना प्रभाव दिखाता रहता है। तदनुसार समुद्रदत्त भी एकदिन समय के चक्र की लपेट में आ जाता है और अचानक मृत्यु की गोद में सो जाता है। पिता की अचानक मृत्यु से शौरिकदत्त को बड़ा खेद हुआ, उस के सारे सांसारिक सुखों पर पानी फिर गया। पिता के जीते जी जितनी स्वतन्त्रता उसे प्राप्त थी, वह सारी की सारी जाती रही और विपरीत इस के उस पर अनेक प्रकार के उत्तरदायित्व का बोझ आ पड़ा, जोकि उस के लिए सर्वथा असह्य था। पिता की मृत्यु से उद्विग्न हुए शौरिकदत्त ने मित्र ज्ञाति आदि के सहयोग से पिता का और्द्धदैहिक संस्कार करने के साथ-साथ विधिपूर्वक मृतक-सम्बन्धी क्रियाओं का सम्पादन कर के अपने पुत्रजनोचित कर्त्तव्य का पालन किया। -जायनिहुया-शब्द के अनेकों रूप उपलब्ध होते हैं। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में-जायनि या-यह शब्द मान कर उसका संस्कृत प्रतिरूप "-जातनिद्रुता-" ऐसा दे कर साथ में उसका मृतवत्सा, ऐसा अर्थ लिखा है। अर्धमागधीकोष में "-जायनिंदु याजातनिद्रुता-" ऐसा मानकर उस का "जिस के जन्म पाए हुए बालक तुरन्त मर जाते हैं अथवा मृतक पैदा होते हैं वह माता" ऐसा अर्थ लिखा है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि - जायणिंदुया-ऐसा रूप मान कर इस की "-जातानि उत्पन्नानि अपत्यानि निर्वृतानिनिर्यातानि मृतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिर्द्रता-" ऐसी व्याख्या करते हैं। अर्थात् जिस की सन्तति उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिर्द्वता कहते हैं। अभिधानराजेन्द्रकोषकार जायनिहुया की अपेक्षा मात्र णिन्दू-ऐसा ही मानते हैं और इस की 650 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy