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________________ "-मृतप्रजायां स्त्रियाम्, निन्दू महेला यद् यदपत्यं प्रसूयते तत्तन्मियते, एवं यः आचार्यो यं यं प्रव्राजयति स स म्रियतेऽपगच्छति वा ततः स निन्दूरिव निन्दू:-" ऐसी व्याख्या करते हैं। अर्थात् निन्दू शब्द के १-जिस स्त्री की उत्पन्न हुई प्रत्येक सन्तान मर जाए वह स्त्री, अथवा-२-वह आचार्य जिस का प्रत्येक प्रव्रजित शिष्य या तो मर जाता है या निकल जाता है-संयम छोड़ जाता है, वह-ऐसे दो अर्थ करते हैं। तथा शब्दार्थचिन्तामणि नामक कोष में -निन्दुः-ऐसा मान कर उस की "-मृतवत्सायाम्। निंद्यतेऽप्रजात्वेनाऽसौ-" ऐसा अर्थ किया है। अर्थात् सन्तति के विनष्ट हो जाने से जो नारी निंदा का भाजन बने वह / दूसरे शब्दों में मृतवत्सा को निन्दु कहते हैं / संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ नामक कोष में -निन्दुः- ऐसा रूप मानते हुए उसका "-जिस के पास मरा हुआ बच्चा हो वह-" ऐसा अर्थ लिखा है। इन सभी विकल्पों में कौन सा विकल्प वास्तविक है, यह विद्वानों द्वारा विचारणीय है। _ -जहा गंगादत्ताए चिन्ता-यहां पठित चिन्ता पद सातवें अध्याय में पढ़े गए "-एवं खलु अहं. सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूई वासाइं उरालाई-से ले कर - ओवाइयं उवाइणित्तए एवं संपेहेति-" यहां तक के पदों का परिचायक है। अंतर मात्र इतना है कि वहां सेठानी गंगादत्ता तथा सागरदत्त सार्थवाह एवं उम्बरदत्त यक्ष का नामोल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में समुद्रदत्त मत्स्यबंध मच्छीमार तथा समुद्रदत्ता एवं शौरिक यक्ष का। नामगत भिन्नता की भावना कर लेनी चाहिए। शेष वर्णन समान ही है। _ -आपुच्छणा-यह पद सप्तम अध्याय में पढ़े गए"-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिए ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाता जाव उवाइणित्तए-" इस पाठ का बोधक है। अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से उम्बरदत्त यक्ष की मनौती मानने के लिए पूछा था, उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने मत्स्यवध-मच्छीमार समुद्रदत्त को शौरिक यक्ष की मनौती मानने की अभ्यर्थना की। ___ -ओवयाइयं-यह पद "-तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया समुद्ददत्तेणं मच्छंधेणं एतम8 अब्भणुण्णाता समाणी सुबहुं पुष्फ मित्त० महिलाहिं-" से लेकर-तो णं जाव उवाइणति उवाइणित्ता जामेव दिसं पाउब्भूता तामेव दिसं पडिगता-यहां तक के पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ सप्तमाध्ययन में लिखा जा चुका है। अर्थात् जिस तरह गंगादत्ता ने सेठ सागरदत्त से आज्ञा मिल जाने पर उम्बरदत्त यक्ष के पास पुत्रप्राप्ति के लिए मनौती मानी थी, उसी प्रकार समुद्रदत्त मत्स्यबंधक-मच्छीमार से आज्ञा प्राप्त कर समुद्रदत्ता ने पुत्रप्राप्ति के लिए शौरिक यक्ष के सामने मनौती मानी / नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [651
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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