________________ वे लोग प्रतिदिन अनेक जाति की मच्छियों को पकड़ते, तथा तित्तर, बटेर, कबूतर, मोर आदि पक्षियों एवं जलचरों, स्थलचरों, और आकाश में उड़ने वाले जानवरों को पकड़, उन का वध करके श्रीद के पास लाते। इसी प्रकार तित्तर, बटेर और कबूतर आदि पक्षियों के जीते जी पर उखाड़ कर उन्हें श्रीद के पास पहुंचाते। श्रीद भी उन जीवों के मांस के छोटे, बड़े, लम्बे और गोल अनेक प्रकार के टुकड़े करता, उन्हें श्यामवर्ण वाले एवं हिंगुल-सिंगरफ के समान वर्ण वाले करता, तथा उन में से कई एक को हिम में रख कर पकाता, कई एक को स्वतः पकने के लिए अलग रख देता, कई एक को धूप से एवं कई एक को वायु अर्थात् भाप आदि से पकाता, तथा उन मांस खण्डों में से कई एक को तक्र से संस्कारित करता, एवं कई एक को आंवलों के रसों से, कई एक को कपित्थ (कैथफल) के रसों से, कई एक को अनार के रसों से एवं कई एक को मत्स्यों के रसों से संस्कारित करता। तदनन्तर उन्हें तलता, भूनता और शूलों से पकाता। इसी भांति मत्स्यादि जीवों के मांसों का रस तैयार करता, एवं विविध प्रकार के हरे शाकों को तैयार करता और उन मांसादि पदार्थों को लाकर भोजन के समय महाराज मित्र नरेश को प्रस्तुत करता और स्वयं भी उक्त प्रकार के उपस्कृत मांसों तथा मदिराओं का यथारुचि सेवन किया करता था। इन्हीं हिंसापूर्ण जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक व्यासक्त रहना उस का स्वभाव बन गया था। अन्त में उसे इन दुष्कर्मों के फलस्वरूप मर कर छठी नरक में उत्पन्न होना पड़ा। .. '. प्रस्तुत सूत्र में श्रीद रसोइए के हिंसापरायण व्यापार का जो दिग्दर्शन कराया गया है और उस के फलस्वरूप उस का जो छठी नरक में जाने का उल्लेख किया गया है, उस पर से हिंसक प्रवृत्ति कितनी दूषित और आत्मा का पतन करने वाली होती है, यह भलीभांति सुनिश्चित हो जाता है। श्रीद ने अपनी क्रूरतम सावध प्रवृत्ति से इतने तीव्र पापकर्मों का बन्ध किया कि उसे अत्यन्त दीर्घकाल तक कल्पनातीत यातनाएं भोगनी पड़ीं। अतः आत्मिक उत्कर्ष के अभिलाषियों को इस प्रकार की सावध प्रवृत्ति से सदा और सर्वथा परांमुख रह कर अपने देवदुर्लभ मानव भव को सार्थक करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस के अतिरिक्त श्रीद रसोइए के जीवनवृत्तान्त का उल्लेख कर के सूत्रकार ने सुखाभिलाषी सहृदय व्यक्तियों के लिए प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान से विरत रहने की बलवती पवित्र प्रेरणा की है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रीद रसोइया अनेकानेक जीवों के प्राणों का विनष्ट करने, मांसाहार तथा मदिरापान की जघन्य प्रवृत्तियों से उपार्जित दुष्कर्मों के कारण छठी नरक में गया, वहां उसे 22 सागरोपम के बड़े लम्बे काल के लिए अपनी हिंसामूलक करणी के भीषण फल का उपभोग करना पड़ा। ठीक इसी भांति जो व्यक्ति प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [633