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________________ योनियों की संख्या असंख्य है। फिर भी जिन योनियों का परस्पर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आदि एक जैसा है उन अनेक योनियों को भी जाति की दृष्टि से एक गिना जाता है, और इस प्रकार विभिन्न वर्णादि की अपेक्षा से योनियों के 84 लाख भेद माने जाते हैं। जैसा कि प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में लिखा है "- केवलमेव विशिष्टवर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयः जातिमधिकृत्य एकैव योनिर्गण्यते-" अर्थात्-जिन उत्पत्ति-स्थानों का वर्ण, गन्ध आदि सम है वे सब सामान्यतः एक योनि हैं, और जिन का वर्ण, गन्ध आदि विषम है, विभिन्न है, वे सब उत्पत्तिस्थान पृथक्-पृथक् योनि के रूप में स्वीकार किए जाते हैं अस्तु / तब इस अर्थविचारणा से प्रकृतोपयोगी तात्पर्य यह फलित हुआ कि मृगापुत्र का जीव सातवीं नरक से निकल कर तिर्यग् योनि के जलचर पञ्चेन्द्रिय मत्स्य, कच्छप आदि जीवों (जिन की कुलकोटियों की संख्या साढ़े बारह लाख है) के प्रत्येक योनिभेद में लाखों बार जन्म और मरण करेगा। "खलीण-मट्टियं खणमाणे" इन पदों का अर्थ है- नदी के किनारे की मिट्टी को खोदता हुआ / तात्पर्य यह है कि मृगापुत्र का जीव जब वृषभ रूप में उत्पन्न होकर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब वह गंगा नदी के किनारे की मिट्टी को खोद रहा था परन्तु अकस्मात् गंगा नदी के किनारे के गिर जाने पर वह जल में गिर पड़ा और जल प्रवाह से प्रवाहित होने के कारण वह अत्यधिक पीड़ित एवं दुःखी हो रहा था, अन्त में वहीं उस की मृत्यु हो गई। "उम्मुक्क० जाव जोव्वण-" पाठ गत "जाव-यावत्" पद से निम्नलिखित समग्र पाठ का ग्रहण समझना :"उम्मुक्कबाल-भावे, विण्णायपरिणयमित्ते२, जोव्वणमणुप्पत्ते-उन्मुक्तबालभावः, विज्ञकपरिणतमात्रो यौवनमनुप्राप्त:-" अर्थात् जिसने बाल अवस्था को छोड़ दिया है, तथा बुद्धि के विकास से जो विज्ञ-हेयोपादेय का ज्ञाता एवं युवावस्था को प्राप्त हो 1. खलीणमट्टियं-त्तिखलीनामाकाशस्थां छिन्नतटोपरिवर्तिनीं मृत्तिकामिति वृत्तिकार: ‘अर्थात्-गंगा नदी के किनारे की भूमि का निम्न भाग जल-प्रवाह से प्रवाहित हो रहा था ऊपर का अवशिष्ट भाग ज्यों का त्यों आकाश-स्थित था, जब वृषभ अपने स्वभावानुसार उस पर खड़ा हो कर मृत्तिका खोदने लगा तब उसके भार से वह आकाशस्थ किनारा गिर पड़ा जिस से वह वृषभ जल प्रवाह से प्रवाहित हो कर मृत्यु का ग्रास बन गया।. .. 1. "विण्णायपरिणयमित्ते"-तत्र विज्ञ एव विज्ञक, स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्ध्यादिपरिणामापन्न एव च विज्ञकपरिणतमात्रः [अभयदेवसूरिः] प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [213
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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