________________ (1) आधिपत्य-अधिपति राजा का नाम है, उस का कर्म आधिपत्य कहलाता है। अर्थात् राजा लोगों के प्रभुत्व को आधिपत्य कहते हैं। (2) पुरोवर्तित्व-आगे चलने वाले का नाम पुरोवर्ती है। पुरोवर्ती-मुख्य का कर्म पुरोवर्तित्व कहलाता है, अर्थात् मुख्यत्व को ही पुरोवर्तित्व शब्द से अभिव्यक्त किया गया है। (3) स्वामित्व-स्वामी नेता का नाम है। उस का कर्म स्वामित्व कहलाता है, अर्थात् नेतृत्व का ही पर्यायवाची स्वामित्व शब्द है। (4) भर्तृत्व-पालन-पोषण करने वाले का नाम भर्ता है। उसका कर्म भर्तृत्व कहलाता है। भर्तृत्व को दूसरे शब्दों में पोषकत्व से भी कहा जा सकता है। (5) महत्तरकत्व-उत्तम या श्रेष्ठ का नाम महत्तरक है। उसका कर्म महत्तरकत्व कहलाता है। महत्तरकत्व कहें या श्रेष्ठत्व कहें यह एक ही बात है। (6) आज्ञेश्वरसैनापत्य-इस पद के -"आज्ञायामीश्वरः आज्ञेश्वरः आज्ञाप्रधानः, आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिः आज्ञेश्वरसेनापतिः, तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वरसैनापत्यम्। अथवा-आज्ञेश्वरस्य आज्ञाप्रधानस्य यत् सेनापत्यं तदाज्ञेश्वरसैनापत्यम्" इन विग्रहों से दो अर्थ निष्पन्न होते हैं। वे निम्नोक्त हैं (1) जो स्वयं ही आज्ञेश्वर है और स्वयं ही सेनापति है, उसे आज्ञेश्वरसेनापति कहते . हैं। उस का भाव अथवा कर्म आज्ञेश्वरसैनापत्य कहलाता है। आज्ञेश्वर राजा का नाम है। सेना के संचालक को सेनापति कहा जाता है। (2) आज्ञेश्वर का जो सेनापति उसे आज्ञेश्वरसेनापति कहते हैं, उसका भाव अथवा कर्म आज्ञेश्वरसैनापत्य कहलाता है। प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार को प्रथम अर्थ अभिमत है, क्योंकि विजयसेन चोरसेनापति स्वयं ही चोरपल्ली का राजा है, तथा स्वयं ही उसका सेनापति बना हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में शालाटवी नामक चोरपल्ली का विवेचन तथा चोरसेनापति विजयसेन की प्रभुता का वर्णन किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में विजयसेन चोरसेनापति के कुकृत्यों का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से विजए चोरसेणावती बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिछेयगाण य खंडपट्टाण य अन्नेसिं च बहूणं छिन्न-भिन्नबाहिराहियाणं कुडंगे याविहोत्था, तते णं से विजए चोरसेणावई पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं बहूहिं गामघातेहि य नगरघातेहि य गोग्गहणेहि य बंदीग्गहणेहि य पंथकोट्टेहि य खत्तखणणेहि य ओवीलेमाणे 2 श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 340 ]