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________________ मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों का उपभोग करता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। -नीहरणं जाव राया-यहां का नीहरण शब्द अरथी निकालने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और यह-तए णं से पूसणंदिकुमारे बहुहिं राईसर-तलवर-माडम्बिय-कोडुम्बिय- इब्भ-सेट्ठि-सत्थवाहप्पभितीहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कन्दमाणे विलवमाणे वेसमणस्स रण्णो महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं-इन पदों का परिचायक है। तथा-जाव-यावत्- पद से-करेति 2 बहूई लोइयाइं मयकिच्चाई करेति, तएणं ते बहवे राईसर-तलवर-माडम्बियकोडुम्बिय-इब्भ-सेट्ठि-सत्थवाहा पूसनन्दिकुमारं महया रायाभिसेएणं अभिसिंचन्ति।तए णं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। अर्थात् महाराज वैश्रमण की मृत्यु के अनन्तर बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, सेठ और सार्थवाह आदि से घिरा हुआ पुष्यनन्दी कुमार रुदन, क्रन्दन और विलाप करता हुआ महान् ऋद्धि और सत्कार समुदाय के साथ महाराज वैश्रमणदत्त के शव को बाहर ले जा कर शमशान पहुंचाता है। तदनन्तर अनेकों लौकिक मृतक सम्बन्धी कृत्य करता है। तदनन्तर राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी और सार्थवाह मिल कर पुष्यनन्दी कुमार का महान् समारोह के साथ राज्याभिषेक करते हैं। तब से पुष्यनन्दी कुमार राजा बन गया। शतपाक-के चार अर्थ होते हैं, जैसे कि -(1) जिस में प्रक्षिप्त औषधियों का सौ बार पाक किया गया हो। (2) जो सौ औषधियों से पका हुआ हो। (3) जिस तेल को सौ बार पकाया जाए। (4) अथवा जो सौ रुपये के मूल्य से पकाया जाता हो। इसी प्रकार सहस्रपाक के अर्थों की भावना कर लेनी चाहिए। संवाहना-अंगमर्दन का नाम है। इस से चार प्रकार का शारीरिक लाभ होता है। इस के प्रयोग से अस्थि, मांस, त्वचा और रोमों को सुख प्राप्त होता है अर्थात् इन चारों का उपबृंहण होता है। इसीलिए सूत्रकार ने "-३अद्विसुहाए, मंससुहाए, तयासुहाए, रोमसुहाए-" यह उल्लेख किया है। . किसी-किसी प्रति में "-अद्विसुहाए मं० तया० चम्म० रोमसुहाए चउव्विहाए 1. ईश्वर, तलवर-आदि शब्दों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। 2. १-शतं पाकानाम् औषधिक्वाथानां पाके यस्य। २-औषधिशतेन वा सह पच्यते यत्। ३शतकृत्वो वा पाको यस्य। ४-शतेन वा रूप्यकाणां मूल्यतः पच्यते यत्तत् पाकशतम्। एवं सहस्रपाकमपि। (स्थानांगसूत्र-स्थान 3, उद्देश० 1, सूत्र 135, वृत्तिकारोऽभयदेवसूरिः) इस विषय में अधिक देखने के जिज्ञासु आयुर्वेदीय ग्रंथों के तैलपाकप्रकरणों को देख सकते हैं। 3. अस्थां सुखहेतुत्वात् अस्थिसुखया, एवं मंससुखया, त्वक्सुखया, रोमसुखया संवाधनयासंवाहनया ( अंगमर्दनेन वा विश्रामणया) संवाहिता। (कल्पसूत्रकल्पलता वृत्तिः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [731
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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