________________ भगवान् फिर बोले-गौतम एक समय की बात है कि इसी 'जम्बूद्वीप नामक द्वीप के ' अन्तर्गत भारतवर्ष (जम्बूद्वीप का एक विस्तृत तथा विशाल प्रांत) में सुप्रतिष्ठ नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, जो कि समृद्धिशाली तथा धन-धान्यादि सामग्री के भंडारों का केन्द्र बना हुआ था। उस में महाराज महासेन राज्य किया करते थे। महाराज महासेन के रणवास में धारिणीप्रमुख एक हज़ार रानियां थीं, अर्थात् उन का एक हज़ार राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ था। उन सब में प्रधान रानी महारानी धारिणी देवी थी, जो कि पतिव्रता, सुशीला और परमसुन्दरी थी। महारानी धारिणी की कुक्षि से एक बालक ने जन्म लिया था। बालक का नाम सिंहसेन था। राजकुमार सिंहसेन माता पिता की तरह सुन्दर, सुशील और विनीत था, उस का शरीर निर्दोष और संगठित अंग-प्रत्यंगों से युक्त था। वह माता-पिता का आज्ञाकारी होने के अतिरिक्त राज्यसम्बन्धी व्यवहार में भी निपुण था। यही कारण था कि महाराज महासेन ने उसे छोटी अवस्था में ही युवराज पद से अलंकृत करके उसकी योग्यता को सम्मानित करने का श्लाघनीय कार्य किया था। इस प्रकार युवराज सिंहसेन अपने अधिकार का पूरा-पूरा ध्यान रखता हुआ आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। जब राजकुमार सिंहसेन ने किशोरावस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया तो महाराज महासेन ने युवराज को विवाह के योग्य जान कर उस के लिए पाँच सौ नितान्त सुन्दर और विशालकाय राजभवनों का तथा उन के मध्य में एक परमसुन्दर भवन का निर्माण कराया, तत्पश्चात् युवराज का पाँच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह कर दिया और पांच सौ दहेज दे डाले। उन राजकन्याओं में प्रधान-मुख्य जो राजकन्या थी, उस का नाम श्यामा था। तात्पर्य यही है कि युवराज सिंहसेन की मुख्य रानी का नाम श्यामा देवी था, तथा इस विवाहोत्सव में महाराज महासेन ने समस्त पुत्रवधुओं के लिए हिरण्यकोटि 1. तिर्यक् लोग के असंख्यात द्वीप और समुद्रों के मध्य में स्थित और सब से छोटा, जम्बू नामक वृक्ष से उपलक्षित और मध्य में मेरुपर्वत से सुशोभित जम्बूद्वीप है। इस में भरत, ऐरावत और महाविदेह ये तीन कर्मभूमि और हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु और उत्तरकुरु ये छ: अकर्मभूमि क्षेत्र हैं। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हज़ार दो सौ सताईस योजन, तीन कोस एक सौ अढ़ाई धनुष्य (चार हाथ का परिमाण) तथा साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। 2. इतने अधिक महलों के निर्माण से दो-तीन बातों का बोध होता है-प्रथम तो यह कि माता-पिता का पुत्रस्नेह कितना प्रबल होता है, पुत्र के आराम के लिए माता-पिता कितना परिश्रम तथा व्यय करते हैं-दूसरी यह कि महाराज महासेन कोई साधारण नृपति नहीं थे, किन्तु एक बड़े समृद्धिशाली तथा तेजस्वी राजा थे। तीसरी यह कि-हमारां भारतदेश प्राचीन समय में समुन्नत, समृद्धिपूर्ण तथा सम्पत्तिशाली था। प्रायः उसके प्रासादों में स्वर्ण और मणिरत्नों की ही बहुलता रहती थी। सारांश यह है कि पुराने जमाने में हमारे इस देश के विभवसम्पन्न होने के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं। यह देश आज की भांति विभवहीन नहीं था। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [679