Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] ये सब वनस्पतियां अनन्तजीवात्मक होती हैं; किन्तु कन्दुक्य वनस्पति में भजना (विकल्प) है, (अर्थात् --कोई कन्दुक्य अनन्तजीवात्मक और कोई असंख्यातजीवात्मक होती है / ) // 96 / / [8] जोणिन्भूए बीए जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा / जो वि य मूले जीवो सो वि य पत्ते पढमताए // 17 // सन्धो वि किसलनो खलु उग्गममाणो अशंतनो भणियो। सो चेव विवड्ढंतो होइ परित्तो अणंतो वा // 6 // [54-6] योनिभूत बीज में जीव उत्पन्न होता है, वह जीव वही (पहले वाला बीज का जीव हो सकता है,) अथवा अन्य कोई जीव (भी वहाँ पाकर उत्पन्न हो सकता है / ) जो जीव मूल (रूप) में (परिणत) होता है, वही जीव प्रथम पत्र के रूप में भी (परिणत होता) है। (अतः मूल और वह प्रथमपत्र दोनों एकजीवकर्तृक भी होते हैं।) / / 67 / / सभी किसलय (कोंपल) ऊगता हुमा अवश्य ही अनन्तकाय कहा गया है। वही (किसलयरूप अनन्तकायिक) वृद्धि पाता हुआ प्रत्येकशरीरी या अनन्तकायिक हो जाता है / / 98 // [10] समयं वक्ताणं समयं तेसि सरीरनिव्वत्ती। समयं प्राणुग्गहणं समयं ऊसास-नोसासे NEET एक्कस्स उ जंगहणं बहूण साहारणाण तं चेव / जं बहुयाणं गहणं समासो तं पि एगस्स // 10 // साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च / साहारणजीवाणं साहारणलखणं एवं // 101 // जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवाणिज्जसंकासो। सम्वो अगणिपरिणतो निगोयजीवे तहा जाण // 102 // एगस्स दोण्ह तिण्ह व संखेज्जाण व न पासिउं सक्का / दीसंति सरीराइं णिपोयजीवाणऽणंताणं // 103 / / [54-10] एक साथ उत्पन्न (जन्मे) हुए उन (साधारण वनस्पतिकायिक जीवों की शरीरनिष्पत्ति (शरीररचना) एक ही काल में होती (तथा) एक साथ ही (उनके द्वारा) प्राणापान-(के योग्य पुद्गलों का) ग्रहण होता है, (तत्पश्चात्) एक काल में ही (उनका) उच्छ्वास और निःश्वास होता है ।।६६एक जीव का जो (आहारादि पुद्गलों का) ग्रहण करना है, वही बहुत-से (साधारण) जीवों का ग्रहण करना (समझना चाहिए।) और जो (आहारादि पुद्गलों का) ग्रहण बहुत-से (साधारण) जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है // 100 / / (एक शरीर में पाश्रित) साधारण जीवों का आहार भी साधारण (एक) ही होता है, प्राणापान (के योग्य पुद्गलों) का ग्रहण (एवं श्वासोच्छ्वास भी) साधारण होता है / यह (साधारण जीवों का) साधारण लक्षण (समझना चाहिए।) / / 101 / / जैसे (अग्नि में) अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हुए (सोने) के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत (अग्निमय) हो जाता है, उसी प्रकार (अनन्त) निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होना समझ लो / / 102 / / एक, दो, तीन, संख्यात अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org