Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] जस्स कंदस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 1 // जस्स खंधस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 2 // जोसे सालाए कट्ठाओ छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्लो, जा यावऽण्णा तहाविहा // 83 / / [54-6] जिस मूल के काष्ठ की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजोत्र वालो है। इस प्रकार जितनी भी अन्य छाले हों, (उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझो।) / / 8 / / जिस कन्द के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है। इस प्रकार की जितनी भी अन्य छाले हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझना चाहिए / / 8 / / जिस स्कन्ध के काष्ठ की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है। इस प्रकार की अन्य जो भी छाले हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझना चाहिए / / 82 / / जिस शाखा के काष्ठ की अपेक्षा, उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है। इस प्रकार की अन्य जो भी छाले हों, उन्हें, प्रत्येकजीव वाली समझना चाहिए / / 3 / / [7] चक्कागं भज्जमाणस्स गंठी चुण्णघणो भवे / पुढविसरिसेण भेएण अणंतजीवं वियाणाहि // 4 // गूढछिरागं पत्तं सच्छीरं जंच होति णिच्छोरं / जं पि य पणटुसंधि प्रणंतजीवं वियाणाहि // 75 // [54-7] जिस (मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प आदि) को तोड़ने पर (उसका भंगस्थान) चक्राकार अर्थात् सम हो, तथा जिसकी गांठ (पर्व, गांठ या भंगस्थान) चूर्ण (रज) से सघन (व्याप्त) हो, उसे पृथ्वी के समान भेद से अनन्तजीवों वाला जानो / / 84 // जिस (मूलकन्दादि) की शिराएँ गूढ़ (प्रच्छन्न या अदृश्य) हों, जो (मूलादि) दूध वाला हो अथवा जो दूध-रहित हो तथा जिस (मूलादि) की सन्धि नष्ट (अदृश्य) हो, उसे अनन्तजीवों वाला जानो // 8 // [8] पुष्फा जलया यलया य वेंटबद्धाय णालबद्धा य / संखेज्जमसंखेज्जा बोधवाऽणंतजीवा य॥८६॥ जे केइ नालियाबद्धा पुप्फा संखेज्जजीविया भणिता / णिहुया अणंतजीवा, जे यावऽणे तहाविहा // 8 // पउमुप्पलिणोकदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य / एते अणंतजीवा एगो जीवो भिस-मुणाले // 8 // पलंड-लहसणकंदे य कंदली य कुसुबए / एए परित्तजीवा जे यावऽण्णे तहाविहा // 16 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org