Book Title: Khavag Sedhi
Author(s): Premsuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसंवलिता 0000000000000000000 000000000000000000 (अपक- श्रेणि) प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च-सिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्रनिष्णाता आचार्यदेव-श्रीमदविजयप्रेमसूरीश्वराः। શાંન્તિલાલ દોશી . . . . . . . . .......... ... प्रकाशिका-भारतीय-प्राच्यतत्त्व-प्रकाशन समितिः, पिण्डवाडा (राजस्थान)। . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।, सकलागमरहस्यवेदि-परमज्योतिर्विच्छीमद्विजयदानसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः । भारतीय-प्राच्यतच्च-प्रकाशन-समिति-संचालिताया आचार्यदेवश्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर-कर्मसाहित्य-जैन-ग्रन्थमालायाः प्रथमग्रन्थः (१) स्वोपज्ञवृत्तिविभूषिता PAL. . एखवगढी (क्षपक-श्रेणिः) नमो तित्थरम) Pos RSHWA R A मोम मरूमिंगस्ट प्रकाशिका श्रीभारतीय प्राप्यतत्वप्रकाशनसामान पिंडवाडा से.मिशेडीमेड (राजस्थान) प्रेटका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च सिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्रनिष्णाता-ऽऽचार्यदेवाः श्रीमविजयप्रेमसूरीश्वराः %3D3D3D 3 D 3D प्रकाशिका-भारतीय-प्राच्यतत्त्व-प्रकाशन-समितिः, पिण्डवाडा। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम - श्रावृत्ति ५०० प्रति ()))))))) * प्राप्तिस्थान * १. भारतीय प्राच्यतच्च प्रकाशन समिति, C/o रमरणलाल लालचन्द, १३५ / १३७ झवेरी बजार, बम्बई २. मूल्य २१) रू० २. भारतीय प्राच्यतच प्रकाशन समिति, C/o शा. समरथमल रायचन्दजी, पिंडवाड़ा, स्टे० सिरोही रोड ( राज० ). ३. १९ थी २२, २५ थी १७६ कृष्णा आर्ट प्रेस, ब्यावर ( राजस्थान ) शा. मनरूपजी प्रचलदास, ९, मस्कती मार्केट, अमदावाद २. ४. शा. रमणलाल वजेचन्द, C/o दिलीपकुमार रमणलाल, मस्कती मार्केट, श्रमदावाद २. मुद्रक वीर संवत २४९२ विक्रम संवत २०२२ (9)))) शेषपेज:- ज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेस, पिन्डवाड़ा, स्टे. सिरोही रोड़ ( राजस्थान ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थसंग्रहकाराः श्रीमत्तपोगच्छगगनाङ्गणदिनमणि- सिद्धान्त महोदधि-सच्चारित्रचूडामणि- कर्मशास्त्रनिष्णातप्रातःस्मरणीयाऽऽचार्यशिरोमणि श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरान्तेवासि स्याद्वादनयप्रमाणविशारद - प्रभावकप्रवचनकार पन्न्यास प्रवर श्रीमद्भानुविजय विनेयमुनिवर्य श्रीधर्मघोष विजयान्तिषदो विद्वद्वर्यगीतार्थमुनि श्रीजयघोषविजयाः, पन्न्यासप्रवरश्री भानु विजयगणिवर्यविनेया मुनिश्रीधर्मानन्दविजयाः, पन्न्यासप्रवरश्री भानुविजयविनेय-स्वर्गतपन्न्यासपद्मविजयगणित्रयविनेया मुनिश्री हेमच. द्रविजया : पन्न्यासप्रवर श्री भानुविजयविनेय जितेन्द्रविजय शिष्यमुनिगुणरत्न विजयश्च मूलगाथाकारो वृत्तिकारश्च तपस्विमुनिराज श्री जितेन्द्रविजयशिष्यो गुणरत्नविजयः संशोधकाः न्यायविशारदा आगमादिशास्त्रकुशलाः श्रीमन्त आचार्यदेवा विजयोदगसुरोश्वराः पदार्थसंग्रहकाराच Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चित्र-परिचय * आ चित्रमा नीचेना भागमा भिन्न भिन्न संकेतोथी प्रासंगिक-६ गुणस्थानकोनो निर्देश करवामां आव्यो छे. ते आ प्रमाणे(१) एकदम काळारंगथी श्लु मिथ्यात्वगुणस्थानक सूचव्यु छ, क्षपक (क्षपकश्रेणि मांडनारा ) आत्माओ आ गुणस्थानकने स्पर्शीने ज आवेला होय छे. (२) काळा भाग वच्चे थोडो थोडो सफेद भाग बताववा द्वारा २जु सास्वादनगुणस्थानक सूचव्युछे. केटलाक क्षपक आत्माओ आ गुणस्थानकने स्पर्शीने अने केटलाक स्पा वगर ज आवेला होय छे. (३) त्रांसा सफेद पट्टाओथी ३जु मिश्रगुणस्थानक सूचव्यु छे. सास्वादनगुणस्थानकनी माफक आ गुण स्थानकने पण क्षपक आत्माओ विकल्पे ( भजनाए ) स्पर्शीने आवेला होय छे. (४) उभा सफेद पट्टाओथी ४थु अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानक सूचव्यु छे. आ गुणस्थानके जिनोत तत्त्व पर सहज रुचि होय छे. (५) ऊभी काळी लीटीओनी वच्चे वधारे पहोळा सफेद पट्टाओथी ५मु देशविरतिगुणस्थानक बताववामां __ आव्युछे. आ गुणस्थानकने क्षपक आत्माओ विकल्पे पर्शीने आवेला होय छे. (६) छूटी काळी रेखाओ अने आछा काळा रंगथी ६/प्रमत्तसंयतगुणस्थानक बताववामां आव्यु छे, सर्व क्षपक आत्माओ आ गुणस्थानकने नियमा स्पर्शीने आवेला होय छे. क्षपकश्रेरिणनो प्रारम्भ(७) ७मु अप्रमत्तगुरणस्थानक-अहींथी क्षपकश्रेणिनो प्रारम्भ थाय छे. चित्रमा कर्मक्षपणानो प्रयत्न करतो महाश्रमण आगे कूच करतो देखाय छे, आ गुणस्थानके क्षपक यथाप्रवृत्तकरण करे छे. (८) ८मुअपूर्वकरण गुरणस्थानक-आ गुणस्थानके क्षपक आत्मा अपूर्वकरण करे छे. (९) ९मु अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानक-आ गुणस्थानके जीव अनिवृत्तिकरण करे छे. १०) १० मुं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानक-आ गुणस्थानकना चरमसमये क्षपक दारूनी उपमावाळा मोहनीयकर्मनो नाश करे छे. (१) १ला वर्तुलमां दारूनो बाटलो फूटेलो बताववामां आव्यो छे. आजुबाजु दारू ढोळाई गयो छे. तेनाथी मोहनीयकर्म नाश पामेलुजाणवु.. (१२) १२मुं क्षीणकषायगुणस्थानक-आ गुणस्थानकना चरमसमये प्रांखेपा जेवा ज्ञानावरण, दरवान जेवा दर्शनावरण अने भंडारी जेवा अन्तराय कर्मनो विनाश करे छे. (२) २ जा वर्तुलमां आंख उपरथी पाटो दूर थयेलो अने फाटेलो बताव्यो छ, तेनाथी ज्ञानावर णनो नाश जाणवो. (३) ३ जा वर्तुलमां दरवान-प्रतिहारीनुमृत्युबताववामां आव्युछे, तेनाथी दर्शनावरणनो नाश समजवो. (४) ४था वर्तुलमां भंडारी (खजानची) मृत्युशय्या पर पोढी गया छे, तेनाथी अन्तरायकर्मनो नाश जाणवो. (१३) १३मुं सयोगिकेवलिगुणस्थानक-बारमा गुणस्थानके ज्ञानावरणादि घातिकर्मोनो नाश थयो होवाथी आ गुणस्थानके आत्माओ अनन्तज्ञानादिविशिष्टगुणयुक्त होय छे. (१४) १४मुं अयोगिकेवलिगुणस्थानक-आ गुणस्थानकना चरमसमये मधुलिप्त तलवारनी धार जेवा वेदनीय, बेडी जेवा आयुष्य, चित्रकार जेवा नामकर्म, कुम्भार जेवा गोत्रकर्मनो नाश करे छे. (५) ५मा वर्तुलमा मधथो लेपायेल तलवारना टुकडा बताया छे,तेनाथी वेदनीयकर्मनो नाश समजवो. (६) ६ हा वतुलमां बेडी तुटेला बतायवामां आवी छे, तेनाथी प्रायुज्यकर्मनो नाश समजवो. (७) ७ मा वर्तुलमा चित्रकारनु मृत्यु बतायवामां आव्युछे, तेनाथी नामकर्मनो नाश जाणवो. (८) ८ मा वर्तुलमां कुम्भारनु मृत्यु बताववामां आञ्युछे, तेनाथी गोत्रकर्मनो नाश समजवो. आठे कर्मोनो नाश थवाथी आत्माओ सिद्ध थाय छे तेथी ते सिद्धात्माओ अयोगिगुणस्थानकनी उपर अर्धचंद्राकार सिद्धशिला पर बताववामां आव्या छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EAR स्वीपज्ञवृत्तिसंवलिता IRANSI खवा-सटी LAALAAG (क्षपक-श्रेणिः) 838 CS गोत्र क्षयः PARIA (HIMILLINDOMS MAMMAR नामक्षयः Inhithalimhinde /oo0 १४ अयोगिकपलिगुण-VINDAGAN अक्सयलय २३ सयोगिकेवलि गुण आयुष्क क्षया AURA . क्षीणकषायगण. . ha Im दर्शनाएवरणक्षया TARA SAMROHD सूक्ष्म सम्परायगुण. वेदनीयक्षयः अनि-वृत्तिबादर VAAWLAN जनावरणक्षयः अपूर्वकरणगण. मोहनीयुक्षयः MPITM IIC... S अप्रमत-गुणस्थानकम् Name JA WIVIE inauth Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharyadeva-Shrimad-Vijaya--Prenasıırishwara-Karma-Sahitya-Granthamala GRANTH No. 1. KHAVAGA-SEDHI [Along with commentary ] By GROUP OF DISCIPLES Inspired and Guided by His Holiness Acharya Shrimad Vijaya PREMASURISHWARJI MAHARAJA the leading authority of the day on Karma philosophy. नमो तित्थस्स। लामो या अरुपममग्य श्रीभारतीय प्रात्यतत्वप्रकाशन समिति TAK Rais (TORIT) Published by Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti, Pindwara. (India) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition Copies 500 } [!! AVAILABLE FROM 7/1 1. BHARATIYA Price Rs. 21/ C/o Shah Ramanlal Lalchand, 135/37 Zaveri Bazzar, Bombay-2. ill PRACHYA TATTVA PRAKASHANA SAMITI, 3. Shah Manarupji Achaldas, 2, Maskati Market, Ahmedabad-2. Pages-19 to 22 & 25 to 176 Krishana Art Press, Beawar (Raj.) 2. BHARATIYA PRACHYA TATTVA PRAKASHANA SAMITI, C/o Shah Samarathmal Rayachandji, PINDWARA, [St. Sirohi Road] (Rajasthan) 4. Shah Ramanlal Vajechand, C/o Dileepkumar Ramanlal, Maskati Market, Amedabad-2. Printed by: { A. D. 1966 Remaining Gnanodaya Printing Press PINDWARA, St. Sirohi Road (Ruj.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ खवगसेढी वि. सं. २०१६तमवर्षस्य माधवमासस्य शुक्लचतुर्थ्यां सिद्धान्तमहोदधिगच्छाधिपति श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरप्रतिष्ठापित-श्रीपिन्ड बाडानगरपार्श्व वर्तिसिरोही रोड (स्टेशन) स्थितजिनप्रासादविभूषक-नमिनाथजिनेन्द्र - विम्बप्रतिबिम्बम् श्रीमहावीर स्वामी श्रीचन्द्रप्रभस्वामी कर्मेन्धनं ज्वलितमाशु जिनेन येन, ध्यानानलेन समत्रापि शिवं च येन । यज्जापसिंहनदनेन पलायते च कर्म द्विपोऽनवरतं स नमिर्न ईष्टाम् ॥ १ ॥ तद्विम्बदर्शनात् सर्वो लोकः सम्यक्त्वमश्नुताम् । क्षपकश्रेणिमारुह्य सम्प्राप्नोतु शिवश्रियम् ॥ २ ॥ श्रीमा 限 BPP Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनमिनाथजिनप्रासाद [खवगसेढी सिरोहीरोड. (राजस्थान) इस 'खवगसेढी' ग्रंथरत्नके प्रकाशनमें द्रव्यसहाय देनेवाले पिन्डवाडानिवासी मान्यवर शा. रतनचन्दजी हीराचन्दजी और शा. खुबचन्दजी अचलदासजीने इस रमणीय जिनप्रासादका अपनी संपत्तिके सद्व्ययसे निर्माण करवाया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुक्रम * 13 16 17-70 17 18 19 22 *प्रकाशक की ओर से .... .... 8-10 कुन्दकुन्दाचार्यने षट्खण्डागम तथा कषाय*सम्पादकीय .... ..... 11.15 प्राभृतनी प्राप्ति .... 44-45 प्रस्तुतग्रन्थk लेखन अने सम्पादन .... त्रिलोकप्रज्ञतिनी अन्तिम २ गाथाओना अर्थनी। 11 विचारणा सम्पादननी शैली 12 .... 41-49 जरूरी परिशियो त्रि० प्र० अने का प्रा. वृणिना कर्ता ओम थी। 14-15 ओ सूचवतां प्रमाणो कृतज्ञता दर्शन .... ... 49-56 *समर्पण मुद्रित कषायप्राभूतचूणिनी प्रस्तावनाभां रजू करायेली मान्यतानी समीक्षा ... 57 *प्रस्तावना क्रर्मप्रकृतिचूर्णि अने कषायप्राभृतचूणि वच्चे। क्षपकश्रेणिनी आवश्यकता पदार्थोना मतभेदो .... .... 57-60 भगवान महावीरदेवनी तीर्थस्थापना 17 क०प्र०चूर्णि अनेक प्रा-चूर्णिनी भाषापद्धतिमां भेद60-61 द्वादशांगी अने तेनु स्वरूप कर्मप्रकृतिचूर्णि बगेरे अककर्तृक होय तो पण ते द्वादशांगीनी परंपरा .... त्रि० प्र० ना कर्ता यतिवृषभथी रचित नथी ते कनु स्वरूप 19-21 सूचवतां प्रमाणो .... .... पूर्वगत कर्मविज्ञान अने वर्तमानकाले कर्मविज्ञान 21 61-62 प्रस्तुत खवासेढी' ग्रन्थ सर्जन .... 21 मुद्रित कर्मप्रकृतिचूर्णिनी भाषा बदल्याना प्रस्तुतग्रन्यनो विषय .... आक्षेपोनी निरर्थकता सूचवतां प्रमाणो ..... 62-64 .... प्रस्तुतग्रन्थनी विशेषताओ .... 23-24 प्रस्तुत ‘खवगसे ढो' ग्रन्थमां आवेला साक्षी ग्रन्थो 65 ... कर्मसाहित्यविषयक प्राचीन ग्रन्थो कर्ममाहित्यसर्जननी प्रवृत्ति 65-67 24-29 6768 कषायप्राभृत तथा तेनी चूरिण .... ग्रन्थोनी रचना पद्धति ... 20-30 दिगम्परपरंपराने अमान्य सेवा कपायप्राभृतचूर्णि । प्रस्तुतग्रन्थनी रचना .... 68.62 ग्रन्थनी उपयोगिता अन्तर्गत पदार्थो .... .... 30-31 श्वेताम्बराचार्यांना ग्रन्थोमां कषायप्राभूतना अन्तिम निवेदन 70 आधार, साक्षी तथा अतिदेशो .... 32-36 प्रस्तावनामां उपयुक्त ग्रन्थोनी यादो 71 कषायप्राभृत तथा तेनी चूर्णिनी रचनानो काळ 36 39 *गुरुस्तुतिः क० प्रा० चूणिरचनाना काल अंगे वर्तमान सम्पा- . ऋविषयानुक्रम .... .... १.२१ दको नी मान्यता .... .... 39-40 *परिशिष्टमूचि .... .... २१ उक्तमान्यता नी समीक्षा . ...40 बृहत्कल्प निशीथचूर्णि वगेरेमा आर्यमंगुनो उल्लेख41 *चित्रसूचि .... .... २१-२२ हिमवंत थेरावली तथा अन्य श्वेताम्बर पट्टायलीओ- स्वोपज्ञवृत्ति युक्त खवगसेडी'ग्रन्थ १-५६४ ना आधारे आर्यमगु अने नागहस्तीना काळ । *परिशिष्टो .... ५६५.५८४ अंगे विचारणा 41 43 श्वेताम्बर परम्परामा पूर्वधरोवाच कहेवाता हता-43 *मृगाथा श्रोनो गुजरातीमां भावानुवाद १.३२ इन्द्रनन्दिनावचनीजयधवलाकारना वचननोबाध44 | *अशुद्धिसंमार्जनपत्र ८५-५९१३ ... 69 निवेदन .... ..... 72 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **-प्रकाशक की ओर से - तपोगच्छगगनदिनमणि आबालवृद्ध तपस्वी विद्वान शासनप्रभावक करीबन २५० मुनिगणके माननीय नेता दीर्घसंयमी सिद्धान्तमहोदधि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. सा० ने वि० सं० २०१५ का चातुर्मास सुरेन्द्रनगर में किया। वहाँ आपके शिष्यप्रशिष्यों के आगमादिशास्त्रों के पठनपाठन का अवलोकन कर कोई भी अत्यन्त प्रसन्न हुए बिना व बारबार जिनेश्वरदेव एवं जिनशासन के ज्ञान व चारित्रमार्ग का मन ही मन अनुमोदन किये बिना नहीं रह सकता था । इसी अर्से में 'जैन साहित्य विकास मण्डल' अंधेरी-बम्बई के मेनेजिंग ट्रस्टी माननीय महाशय अमृतलाल कालिदास दोशी B. A. जो कि पूज्य श्री के मुनिओं द्वारा कुछ साहित्य का संशोधन करवाने के लिये आये थे। प्रासंगिक बातचीत से कर्मसाहित्य के विस्तृतसर्जनको जानकर आपकी निश्रा में लिखे गये व भविष्य में लिखे जाने वाले 'खवगसेढो' आदि कर्मसाहित्य को प्रकाशित करने का सहर्ष स्वीकार किया । पूज्य आचार्यदेवश्री का वि० सं० २०१६ का चातुर्मास शिवगंज में और वि० सं० २०१७ का चातुर्मास पिन्डवाडा में हुआ । उन दिनों में भी श्रीयुत अमृतलाल कालीदास भाई पिन्डवाडा आये और कर्मसाहित्य के प्रकाशन की पूज्यश्री से अनुमति प्राप्तकर बम्बई गये व अपनी 'जैन साहित्य विकास मण्डल' संस्था की मीटिंग बुलाकर प्रस्तुत साहित्य अपनी संस्था की ओर से प्रकाशित करवाने का निर्णय किया। बड़े सौभाग्य की बात है कि पूज्यश्री से कर्मसाहित्यविषयक परामर्श करते ही पिन्डवाडा के धर्मप्रेमी भाईयों को पूर्वकालीन परनारीसहोदर परमाहत श्रीकुमारपाल महाराजा, श्रीवस्तुपाल, तेजपाल और ३६००० सोनामहोरके न्योछावर से श्रीभगवतीमूत्र का श्रवण करने वाले मांडवगढ के महामात्य श्रीपेथडशाह आदि श्रुतभक्त महाश्रावकों का स्मरण हो आया और श्रुतभक्ति से प्रेरित हो पूज्य श्री से प्रस्तुतकार्य जिसे कि श्रीयुत अमृतलाल कालीदास दोशी ने करवाने का स्वीकार किया था, पिंडवाडा के भाईयों ने करवाने की नम्र प्रार्थना की। प्रथम तो पूज्यश्री ने पिन्डवाडा के भाईयों की मांग का स्वीकार न किया, क्योंकि अमृतलालभाई से साहित्य के प्रकाशनादि संबंधी बातचीत पहेले हो चुकी थी, मगर जब पिन्डवाडा के साधर्मिक बंधुओं का अत्यन्त आग्रह व उत्साह देखा तो आपने श्रुतभक्ति का अपूर्व लाभ प्रदान कर उन बन्धुओं को अनुगृहीत किया । इस मंगल कार्य में पिन्डवाडा श्रीसंघ का पूर्ण सहयोग रहा। प्रस्तुत कर्मसाहित्य के प्रचार-प्रकाशनादि विराट कार्य की जिम्मेवारी को समझकर पिन्डवाडा के उत्साही भाईयों ने-(१) शेठ रमणलाल दलसुखभाई खंभात (२) शा समरथमल रायचंदजी पिन्डवाडा (३) शा लालचंद छगनलालजी पिन्डवाडा (४) शा खुबचंद अचलदासजी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से [ 8 पिन्डवाडा (५) शा भूरमलजी सरेमलजी पिन्डवाडा (६) शा मन्नालाल रिखबाजी लुणावा (७) शा हिम्मत मल रुघनाथमलजी बेडा इन ७ सदस्यों की वि० सं० २०१८ में 'भारतीय प्राच्य तच्च-प्रकाशन समिति' की स्थापना की । समिति के सदस्यों ने कर्म साहित्य को जयपुर और ब्यावर में छपवाना शुरु किया। करीब तीन साल काम चलता रहा, काम सुन्दर होने पर भी जिस गति से हो रहा था सम्भव है उस गति से आज तक एक ग्रन्थ भी पुरा नहीं छप पाता। अतः छपाई शीघ्र व सुन्दर हो इस वास्ते समिति के सदस्यों ने समिति का निजी प्रेस पिन्डवाडा में लगवाया । साहित्य व छपाई आदि का कार्य समिति के सदस्यों के शुभ प्रयत्न से ठीक तरह से चलता था व सदस्यों की उदारता और प्रयत्न से आर्थिक समस्या भी हल हो रही थी । मगर कर्मसाहित्य का प्रकाशन व प्रचार आदि का प्रस्तुत कार्य अति विशाल होने से सदस्यों की संख्या बढाना आवश्यक समझकर सं० २०२१ की साल में शेठ जीवतलाल प्रतापशी आदि महानुभावों को समिति के सदस्य बनायेआज हमारी समिति का ट्रस्टीमण्डल इस प्रकार है १ शेठ रमणलाल दलसुखभाई (प्रमुख) २ शेठ माणेकलाल चुनीलाल ३ शेठ जीवतलाल प्रतापशी ४ शा० खूबचंद अचलदासजी ५ शा० समरथमल रायचंदजी (मंत्री) शा० शान्तिलाल सोमचन्द ( भाणाभाई ) (मंत्री) ७ शा॰ लालचन्द छगनलालजी (मंत्री) ८ शेठ रमणलाल वजेचन्द ९ शा० हिम्मतमल रुगनाथमलजी १० शेठ जेठाभाई चुनीलाल घीवाले ११ शा० इन्द्रमल हीराचंदजी १२ शा ० मन्नालालजी रिखवाजी खंभात ई बम्बई पिन्डवाडा पिन्डवाडा खंभात पिन्डवाडा अहमदाबाद लुणावा ज्ञानपिपासु जनता को जानकर हर्ष होगा कि स्वल्पकाल में 'खवगसेढी' व 'ठिइबंधो' ये दो ग्रन्थरत्न हम पाठकों के करकमल में अर्पित कर रहे हैं । 'रसबंधो' तथा 'पएसबंधो' जो दो ग्रन्थ छप रहे हैं, वे भी स्वल्पसमय में पाठकों के करकमलों में अर्पित किये जायेंगे । 1 बम्बई पिन्डवाडा आत्मकल्याण में हेतुभूतस्वाध्याय के लिये प्रस्तुत ग्रन्थराशि अत्यन्त उपयोगी है, इसका विशेष ख्याल ग्रन्थों की प्रस्तावना विषयपरिचय व भावानुवाद पढने पर पाठक पा सकेंगे । आत्मिक शान्ति देने वाले ताविक आध्यात्मिक ग्रन्थों का आलेखन करके भगवंतों ने अपना कर्तव्य बजाया है । आलेखित ग्रन्थों को ताडपत्र व ताम्रपत्र आदि पर प्रतिलेखित करवाकर ज्ञानभंडारों में सुरक्षित रखना व यन्त्रालय आदि द्वारा मुद्रित करवाकर मुमुक्षुजनसमाज में उसका प्रचार करना यह हमारा गृहस्थों का फर्ज है। शास्त्रों में सुनते हैं कि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] प्रकाशक की ओर से सम्यग् ज्ञानको पढने पढाने व लिखने लिखाने वालों की भाँति उसका रक्षण व प्रचार करने वाले भी केवलज्ञानादि आत्मरिद्धि के भोक्ता बनते हैं । इसी शास्त्रवचन को स्मरण में रखकर हमने इन शास्त्रग्रन्थों के प्रकाशन का प्रस्तुत कार्य हाथ में लिया है । ग्रन्थों का प्रकाशन व प्रचारादि सुचारु रूप से हो यह हमारी समिति का उद्देश है । हम गच्छाधिपति सिद्धान्तमहोदधि परमपूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज से अत्यन्त उपकृत हैं, जिन्होंने जैनशासन के निधानरूप इस भव्यातिभव्य कर्मसाहित्य का सर्जन करवाया व जिनकी असीम कृपा से हमने श्रुतभक्ति का अपूर्व अलभ्य लाभ पाया, उन पुण्यपुरुष के पवित्र चरणों में वन्दन कर हम अपनी आत्मा को धन्य मानते है । पदार्थसंग्रहकार विद्वान मुनिवरों, गाथाकार विवेचनकार मुनिराज इन सब महात्माओं को वन्दना करते हैं, जिन्होंने अथाग परिश्रम लेकर कर्मसिद्धांत को विशद रूप दिया मय का व्यय करके इस 'स्वगसेटो' ग्रन्थ की समालोचनात्मक सुन्दर - विशद प्रस्तावना लिखकर पू० मुनिराज श्री हेमचन्द्रविजयजी महाराज ने बडा अनुग्रह किया है । इन सब पूज्य पुरुषों के प्रति सवन्दन कृतज्ञता प्रदर्शित करते हैं । इस 'खवगसेढी' ग्रन्थ के प्रकाशन में रू० १००००) जैसे प्रचुर द्रव्य का विनियोग कर श्री पिन्डवाडा निवासी सिरोहीरोड रेल्वे स्टेशन के पास भव्यात्माओं के बोधिबीजका अवन्ध्यनिमित्त श्री नमिनाथजिनप्रसाद के निर्माता ( १ ) श्रेष्ठिवर्य श्राद्धरत्न रतन चन्दजी होराचन्दजी (२) श्रेष्ठवर्य साधर्मिकन्धु खुबचन्दजी अचलदासजी (पचहत्तर हजार रूपये के चढावे से पिन्डवाडा गाँव के वीरविक्रम प्रासाद के उपर ध्वजा लहराने वाले व भा० प्रा० त० प्र० समिति के ट्रस्टी साहब) ने हमारी समिति को बड़ा सहयोग दिया है । हम इन दोनों महानुभावों के आभारी हैं । इस प्रकाशन कार्य में जिन्होंने अपने तन मन धन का स्वल्प भी व्यय किया है, उन सबको भी बारबार धन्यवाद । भगवान हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज विरचित सिद्धहेमशब्दानुशासन की मध्यमवृत्ति का दूसरा भाग जो समिति के ज्ञानोदय प्रेस में छपा है, वह भी इस के साथ पाठकों के करकमलों में पेश हो रहा है । इस अवसर पर ज्ञानोदय प्रेस के मेनेजर श्रीयुत फतहचन्दजी जैन, प्रेमकॉपी करने वाले श्री पन्नालालजी सी० जैन बाफना (थाना पालडी) चित्रकार पंचाल व प्रेस के अन्य कर्मचारी भी स्मृति पथ में आ रहे हैं, जिन्होंने इस कार्य में आत्मीयता प्रकट की है । पिण्डवाड़ा स्टे• सिरोहीरोड ( राजस्थान ) १३५ / ३७ जौहरी बजार बम्बई २ हस्ताक्षर १ शा० समरथ मल रायचन्दजी (मन्त्री) २ शा० शान्तिलाल सोमचन्द ( भाणाभाई) चोकसी (मन्त्री) ३ शा० लालचन्द छगनलालजी (मन्त्री) भारतीय प्राच्य तत्त्व- प्रकाशन समिति, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलागमरहस्य वे दि - सूरिपुरन्दर - बहुश्रुत गीतार्थ- परमज्योतिर्वित्- परमपूज्य - परमगुरुदेव श्रीमद् - विजयदान सूरीश्वराः Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय कोई रंकने राज्यप्राप्ति स्वप्न ज्यारे सत्य ठरे त्यारे अने केवो आनंद थाय ? 'खवगसेढी' ग्रन्थ तैयार थयेलो जोईने हुं पण अवो ज कोई अवर्णनीय आनंद अनुभव छ, केटलाक सूक्ष्म, गहन अने अगम्यभावोनो तादृशचितार शब्दोमां नथी आपी शकातो. आत्माना केवलज्ञान, केवलदर्शन जेवा महानगुणोने प्राप्त करवामां जे क्षपकश्रेणिनी प्रक्रिया अनिवार्य छे. तेम तेनी प्ररूपणा पण अक गहन विषय छे. छतां अनंतज्ञानी श्रीतीर्थंकर भगवंतोना वचनना सहारे पूर्वमहर्षिओओ ज्ञानलब्धिथी ओ भात्रोनो उचित शब्दोमां समवतार करी शक्य तेटल अनु स्वरूप उपसान्यु ं छे. ते पूर्वमहर्षिओना पगले मारो पण आ अक अल्प प्रयत्न छे. आजे भौतिकविज्ञाननो विकास थई रह्यो छे, तेना प्रत्यक्ष फल रूपे जोई शकाय छे के आध्यात्मिकतानो भव्य वारसो आ भारतदेशमांथी पण झडपथी घसातो जाय छे. ते युगमां पण मने संघकौशल्याधार गच्छाधिपति संयमत्यागतपोमूर्ति सिद्धान्तमहोदधि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेम सूरीश्वरजी महाराजानो सत्समागम थयो अने तेओश्रीओ मारी मोहवासनाने गाळी वि० सं० २०१० मां मंगलमय चारित्रधर्मनु दान कर्यु कर्मसाहित्य जेवा सूक्ष्म, गहन विषयमा रसिक बनाव्यो. असीम उपकार करी व्याकरण न्यायनो अभ्यास करावी क्षपकश्रेणिना विषयमा रस जगाव्यो, तेथी आ ग्रन्थनी सुंदरतानो यश ते पूजनीय अनंत उपकारी महापुरुषना फाळे जाय छे. पूज्य सिद्धान्तमहोदधि परमगुरुदेवश्रीनी कृपा, प्रेरणा अने प्रोत्साहनना बले ज वे हाथे सागर तरवा जेवु आ भगीरथ कार्य उत्साहथी करी शक्यो छु . ग्रन्थ आलेखननी जेम सम्पादननो पण आमा प्रथम प्रयत्न छे. तेथी आवा तात्त्विक, सूक्ष्मतमविषयोना ग्रन्थोनां आलेखननी जेम अनु शुद्ध सम्पादन पण जवाबदारी भर्यु अने प्रयत्नसाध्य लाग्यु . खवगसेढीनु' लेखन अने सम्पादन: परमपूज्य गच्छाधिपति आचार्य भगवंते मने पांच कर्मग्रन्थ त्यारबाद ते ओश्रीनी आज्ञाथी सं० २०१५ मां सुरेन्द्रनगरमां पू० विजयजी महाराजे 'कम्मपयडी' नुं अध्ययन कराव्युं, ते समये मुनिवरो पू० श्री जयघोषविजयजी म०, पू० श्री धर्मानंदवि० म०, पू० श्री हेमचन्द्रविजयजी म०, उपशमनाकरण तथा खवगसेढोना पदार्थोंनु संकलन करी रह्या संगीन अध्ययन कराव्यु. मुनिवर्यश्री हेमचन्द्रसुरेन्द्रनगरमां विद्वद्वर्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] सम्पादकीय इता. पदार्थोंनी नोंध पू० मु० हेमचन्द्र वि० महाराज करता हता, त्यारे पूज्यपाद परमाराध्यपाद आचार्य भगवंते मने संस्कृतमां कर्मसाहित्यनुं सुंदरशैलीमां आलेखन करवा सूचन क . पण ते वखते मने जरा य आत्मविश्वास हतो ज नहि के आ कार्य हुं करी शकीश. विनम्रभावे "हुं अज्ञ शीरी आ सर्जन करी शकुं" ओम में मारी अशक्ति दर्शावी, पण पूज्यश्रीनी वेधक कोई अलौकिक छे. तेओश्रीओ मारा जेवा केई भव्यात्माओनी सुषुप्त शक्तिओने प्रेरणाना बुलंद आवाज थी जाग्रत करी छे. तेओश्रीनी प्रेरणा वारंवार चालु हती. शुक्लध्यानना पायारूप द्रव्यानुयोगना परिशीलननी महत्ता, आवा विषयना आलेखनथी प्राप्त थती आंतरमुखता अने अनेक शास्त्रो प्रासंगिक अवगाहन वगेरे अनेक लाभो दर्शाव्या. तेओश्रीनी वात्सल्यमयी प्रेरणाथी उत्साहित बनी संस्कृतमा लेखन करवा नक्की क अने पूर्वोक्त त्रणे मुनिवरोनी चालती पदार्थ संकलननी प्रवृत्तिमां हुं जोडायो, केटलाक विषयोनु व्यवस्थित संकलन कर्मा पछी उपशमनाकरणनी टीका (विवेचन) लखवानी प्रारंभ कर्यो. ते कार्य पूज्यपादश्रीनी निःसीमकृपाथी अने प्रेरणाथी समाप्त या बाद क्षपकश्रेणिनो विषय संस्कृतमां गद्यरूपे लखवो शरू क. ४ थी ५ हजार श्लोक प्रमाण लखाण थया बाद मने विचार आग्यो, के जुदा जुदा ग्रन्थोमां छूटी छपाई वर्णवाली 'क्षपकश्रेणि' व्यवस्थित कोई अक ग्रन्थमां जोवामां आवती नथी. जैनशासनमां महचनी गणाती 'क्षपकश्रेणि' ना जुदा जुदा ग्रन्थोमांथी संगृहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतंत्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओने घणो लाभदायी बने, गद्य निर्वाधरूपे लखाता ग्रन्थ करतां प्राकृतमां गाथा बनावी टीका द्वारा अनु स्पष्टीकरण थाय, तो ठीक..... .आ विचारधारा पूज्यश्री समक्ष में मूकी. तेओश्रीओ ओ शरते मारी वात कबूल राखी के गाथा रात्रे अंधारामां नववी अने दिवसे सुधारी लई तेना पर विवेचन लखवु . ते ओश्रीनो शुभाशय से हतो के दिवसनो वधु उपयोगी समय गाथा बनाववा पाछल खर्चाई जवो न जोईओ. पूज्यश्रीनी इच्छानुसार ये रीते रात्रे ४०-५० गाथाओ बनाव्या पछी पूर्वकृत कोई अशातावेदनीयकर्मना उदये हुं टाइफॉइडनी विमारीनो भोग बन्यो अने गाथा बनाववानुं काम बंध पड्यु दोढ महिना पछी फरी दिवसे गाथाओ बनाaat शरू करो अने २५० उपर गाथाओमां ग्रन्थनो विषय संकलित थयो. तेना पर टीका आलेखन पण थयुं त्यारबाद कर्मसाहित्यना मुद्रणनी योजना थई, क्षपकश्रेणिग्रन्थ छपाचवा नक्को थयु' अने सम्पादननु कार्य पण मने सोंपायें . सम्पादननी शैली (१) मूलगाथाओनो संस्कृतमां छायारूपे पदसंस्कार आप्यो छे. (२) मूलगाथाओ, पदसंस्कार, वृत्ति वगेरेनी भिन्नता दर्शावत्रा जुदा जुदा टाइपोनी पसंदगी करवामां आवी छे. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय [18 , (३) मूलना प्रतीको ' आवा एकवडा अवतरणचिह्न (सिंगल इनवर्टेड कोमा) नी अन्दर मुकी मोटा अक्षरो (बोल्ड टाइपो ) मां आप्यां छे. (४) मूलना जे शब्दोनुं विवेचन करवामां आव्युं छे, ते शब्दो संस्कृतभाषामां परिवर्तित करी एका अवतरणचिह्न (सिंगल इनवर्टेड कोमा) मां मुक्या छे. (५) वाचकोनी सगवड माटे अल्पविराम पूर्णविराम प्रश्नचिह्न वगेरे यथास्थाने मुकवामां आव्यां छे. (६) प्रमाणतरीके उद्धृत पाठो बेवडा अवतरणचिह्न (डबल इनवर्टेडकोमा ) मां सूकी मोटा अक्षरो ( बोल्ड टाइपो ) मां आप्या छे. (७) प्रमाण तरीके निर्दिष्ट ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारोनां नामो मोटा अक्षरो (बोल्ड टाइपो ) मां आपवामां आव्यां छे. (८) जमणी बाजू हेडिंगमा अधिकारनु ं नाम तथा ते ते विषयनुं सूचन कर्यु छे । डावी बाजू प्रस्तुत ग्रन्थनुं नाम अने गाथाङ्क सूचव्यो छे. ( ९ ) विषयनी विशेष समजुती माटे ४० चित्रो अने विषयने याद राखवा २७ यन्त्रो आपवामां आव्या छे. (१०) मोक्षस्वरूपविचार नामना दार्शनिक प्रकरणमा नैयायिक वगेरे दर्शनकारोना पूर्वपक्ष ज्यां खण्डन करवामां आव्यु छे, त्या पानानी नीचे लीटी दोरी पूर्वपक्षनी दलिलोनो पंक्तिना अंक सहित पृष्ठाङ्क आप्यो छे. (११) विषयानुक्रम विस्तृत बनाववामां आव्यो छे, जेथी वांचको सम्पूर्ण ग्रन्थना विषयने सरलताथी याद राखी शकशे अने ग्रन्थान्तरना संशोधको इष्टविषयनुं अविलंबे निरीक्षण करी शकशे. जरूरी परिशिष्टो (१) प्रथम परिशिष्टमां क्षपकश्रेणिग्रन्थनी २७१ मूलगाथाओ आपी छे. (२) बीजा परिशिष्टमां अकारादिकमे गाथाओनां आद्यपदो आप्यां छे. (३) गाथाओ जे जे छंदोमां बनावी छे. ते ते छंदोनां नामोनो निर्देश त्रीजा परिशिष्टमां कर्यो छे. (४) प्रमाण तरीके उद्धृत ग्रन्थोनां नामोनो उल्लेख चोथा परिशिष्टमां कर्यो छे. (५) प्रमाण तरीके निर्दिष्ट ग्रन्थकारोनां नामो पांचमा परिशिष्टमां जणाव्यां छे. ( ६-७-८) आ त्रण परिशिष्टोमां अनुक्रमे व्याकरणसूत्रो, न्यायो अने गणितकरणसूत्रो दर्शाव्यां छे. (९) आ परिशिष्टमां शतकचूर्णि उपर पूज्य आ० म० श्री मुनिचन्द्रसूरीश्वर महाराजे रचेला टीप्पणनो थोडो अत्युपयोगी भाग आप्यो छे, प्रस्तुत खवगसेढो ग्रन्थमां किट्टिगुणकार वगेरे पदार्थो समर्थन करतो आ टिप्पणनो भाग घणो महन्वनो छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] सम्पादकीय भावानुवाद गुजराती भाषाना रसिक वाचको पण आ ग्रन्थनो सम्पूर्ण विषय संक्षेपथी सारी रीते समजी शके ते माटे गुजराती भाषामां मूलगाथाओनो भावानुवाद ग्रन्थनी पाछळ आपवामां आव्यो छ. कृतज्ञता दर्शन-- परमाराध्यपाद भवोदधितारक सिद्धान्तमहोदधि कृपावतार पूज्य आचार्यभगवंत श्रीमविजयप्रेमसूरीश्वरजीमहाराजाना उपकारोनी संख्या गणी शकाय अबी नथी. तेओश्री वांची शके, तेवा मोटा अक्षरोथी करावेली आ ग्रन्थनी प्रेसकोपीन वृद्धावस्था साथे नरम तबियतमां पण तेओश्री सूक्ष्मदृष्टिथी वांचन, संशोधन करी अक वधु महान उपकार कयों छे. मारा परमोपकारी स्याद्वादविशारद तपोनिधि प्रभावकप्रवचनकार परमगुरुदेव पू० पन्न्यास प्रवरश्री भानुविजयजी गणिवरश्रीओ तथा स्याद्वादविज्ञ पू० मुनिराजश्री जंबूविजयजी महाराजे पोताना अमूल्य समयनो भोग आपी'मोक्षस्वरूपविचार' नामना छेल्ला प्रकरणनी प्रेसकापीनु संशोधन करवा महान कृपा करी छे. आ प्रकरणमां पूज्य मुनिराजश्रो गुणानन्दविजयजी महाराजे पण अविस्मरणीय सहाय करी छे. पदार्थसंग्रहकार मुनिवरो पू० श्री जयघोषविजय म० तथा पूज्य श्री धर्मानंदविजय महाराजे प्रेसकोपीनु तथा प्रफोनु संशोधन काळजीपूर्वक करीने अपूर्व सहायकरी छे. पदार्थसंग्रहकार पू० मुनिराजश्री हेमचन्द्रविजय महाराजे प्रेसकोपीना संशोधनमां तथा परिशिष्टो बनाववामां घणो सहयोग आप्यो छे. आगमप्रभाकर पू० मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराजे प्राचीन हस्तलिखित कर्मप्रकृतिचूर्णिटीप्पन, शतकचूर्णिटोप्पन,संशोधित आवश्यकचूर्णि वगेरे ग्रन्थो वांचनमाटे आपी उदार सौजन्य दाखव्यु छे. तेओश्रीओ आपेला आ ग्रन्थो प्रस्तुत ग्रन्थनां लेखन अने सम्पादनमा घणा सहायक थया छे. पूज्य मुनिराजश्री मित्रानंदविजयजी महाराजे परिशिष्ट-प्रस्तावनादिना प्रफसंशोधनादिमां अने भावानुवादना व्यवस्थितसंकलनमा आत्मीयभावे घणी अगत्यनी सहाय करी छ. ____ जेओश्रीना पावनपगले संयमना मार्गे में प्रयाण आदयु ते मारा संसारपक्षे वडिलबन्धु अने मारा परम उपकारी गुरुदेव तपस्विरत्न मुनिपुगवश्री जितेन्द्रविजयजी महाराजश्रीना अमेय उपकारोने वर्णववा मारी पासे शब्दो नथी. ते पूजनीय गुरुदेवे पूज्य आचार्य भगवंतने मने व्याकरण कराववानी विनंति करी हती. तेना परिणामे हुव्याकरणनो बोध पाम्यो अने आ ग्रन्थ लखवा समर्थ बन्यो. तेओश्रीना चरणोमां अनंतशः वंदना करी कंईक कृतार्थता अनुभवुछु. सुश्रावक पंडित धोरजलाल डाह्याभाई ३० फर्मा जेटली प्रेसकोपीन संशोधन करी अनुमोदनीय श्रुतभक्ति करी छे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ मुद्रित थया पछो: -- न्यायविशारद - सिद्धान्तवाचस्पति वात्सल्यवारिधि आगम-कर्म प्रकृति- लोकप्रकाशादिशास्त्रोना मर्मज्ञ पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयोदयसूरीश्वरजी महाराजाओ क्षपक श्रेणिग्रन्थना बधाए फर्मा वृद्धावस्था साथै नरम तबियतमां पण सारी रीते तपासी, संशोधन करी आपी मारा पर मोटो उपकार क्यों छे. अवसरे अवसरे अनेक उपयोगी सूचनाओ पण तेओश्रीओ करी छे. पूज्य पंन्यासप्रवरश्री नोतिप्रभविजयजी महाराजे उत्साहथी पोताना समयनो भोग आपी पूज्य आचार्य भगवंतने ग्रन्थ वांची संभलावीने अशुद्धिनी नोंध करी छे, तेथी आ बन्ने पूज्योथी घणो उपकृत छ . शुद्धिपत्रकम सहायको - - आगमप्रज्ञ पू० आचार्यदेव श्रीमद् विजय जम्बूसूरीश्वरजी महाराजाओ शरूआतना केटलाक फर्माओनु', तथा पू० मुनिराजश्री अशोक वि० महाराजे शरूआतना ४० फर्माओ वाचन करी शुद्धिपत्रक तैयार करी आप्यु ं छे. पू० मुनिराजश्री हेमचन्द्रवि० म० तथा मुनिराजश्री वोरशेखरविजयजीओ समग्र ग्रन्थनुं वांचन करी अशुद्धिनु संमार्जन कयुं छे. महेसाणा जैन श्रेयस्कर मंडल पाठशालाना प्राध्यापक सुश्रावक पुखराजजी, वढवाणनगरनी पाठशालाना अध्यापक सुश्रावक अमुलखभाई, राजनगरनी पाठशालाओना शिक्षको सुश्रावक रसिकभाई तथा बाबुभाईओ शरूआतना केटलाक फर्माओनु निरीहपणे शुद्धिपत्रक कर्यु छे. पंडितवर्य सुश्रावक धीरजलाल डाह्याभाई अ संपूर्ण ग्रन्थनु संशोधन करी, शुद्धिपत्रक करी आपी श्रुभक्ति अपूर्व लाभ लीधो छे. स्थल. सुश्रावक शकरचंद छोटालाल नो बंगलो १३, श्रीपालनगर, आश्रमरोड. सम्पादकीय अंते उपर्युक्त सर्व पूजनीय आचार्यदेवादि मुनिभगवंतो तथा सुश्रावक अध्यापको प्रत्ये यथोचित कृतज्ञभाव प्रकट करु छु आ ग्रन्थनु संशोधन तथा शुद्धिपत्रक अनेक विद्वानोनी पासे करावयु छे. छतां आ ग्रन्थमां जिनाज्ञा विरुद्ध जे कांई देखाय, दृष्टिदोष, प्रेसदोष के छद्मस्थताना कारणे रही गअल भूलो जणाय, ते वाच को मने जरूर जगावे अज विनंति, भूलो बदल मिच्छामि दुक्कडं आपी सौ कोई आ ग्रन्थनु पठनपाठन वधु ने वधू करे अने मोक्षसुख प्राप्त करे अ ज ओक मङ्गलकामना. अमदावाद १३ स २०२२ महावदि ६ गुरुवार. (15 लि० पूज्यपाद कृपानिधि आचार्य देव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजश्री शिष्यरत्नस्याद्वादनयप्रमाणविशारद तपोनिधि पू०पन्न्यास प्रवर श्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्यरत्न पू० मुनिवर्यश्री जितेन्द्रविजयजी महाराज नो शिष्य मुनि गुणरत्नविजय Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जे महापुरुषे संसारसागरमांथी उद्धार करी संयमनौकामां आरोहण कराव्यु, जेओ मारी जीवननौकाना काबेल सुकानी छे, जेओ श्रीनी निःसीमकृपाथी हुं अल्पज्ञ आ 'खवगसेढी' महाग्रन्थनु' सर्जन -सम्पादन करी शक्यो छु, ते अनन्त उपकारी जैनशासनना परमप्रभावक कर्मशास्त्र निष्णात सिद्धान्तमहोदधि सुविशालगच्छाधिपति आचार्यदेव - श्रीमदूविजय प्रेमसूरीश्वरजीमहाराजाना पवित्र करकमलमां शिशु गुणरत्न विजय. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ग्रन्थसर्जनना प्रेरक, मार्गदर्शक अने संशोधक र सिद्धान्तमहोदधि सुविशालगच्छाधिपति संघकौशल्याधार कर्म शास्त्ररहस्यवेदी शासनशिरताज परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा w.jainelibrary.org Jain Education Internacial Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लेखक-पूज्य मुनिराजश्री हेमचन्द्रविजयजी महाराज अनादिकाळथी संसारमः परिभ्रमण करी रहेला जीवोने ज्यां सुधी "क्षपकश्रेणि" नो प्राप्ति थती नथी, त्यां सुधी घातिकर्मनो क्षय थतो नथी अने केवलज्ञान तथा केवलदर्शननी प्राप्ति थती नथी. केवलज्ञान अने केवलदर्शननी प्राप्ति विना कोई पण जीवनी संसारमांथी मुक्ति थती नथी, जे कोई आत्माओओ मुक्तिनी प्राप्ति करी छे, करी रह्या छे अने करशे, ते बधाय आत्माओ 'क्षपकश्रेणि' उपर आरोहण करीने ज मुक्ति प्राप्त करी शक्या छे, करे छे अने करशे. आम "क्षपकश्रेणि" से मुक्ति प्राप्त करवा माटेनु असाधारण कारण छ, तो आपणने सहेजे प्रश्न थाय के "क्षपकश्रेणि" शी वस्तु हशे ? आत्मा अनादिकाळथी मलिन अवस्थावाळो छे. आत्मानी आ मलिनता नवना कर्मनी माथे संबद्ध थवाना कारणे छ, आत्मा साथे कर्मनो संबंध लोह-अग्निवत् अकमेक थयेलो छे. ओ कर्मना विपाक(फल)भोगाया अजर आ आत्माने पण जन्म मृत्युनी घटमालमा फसावं पड़े छे. आ संसारनीरंगभूमि उपर नवनवा वेश धारण करवा पड़े छे याने स्वरूपे अरूपी आत्माने पण तेवा तेवा शरीर धारण करी, क्यारेक मनुष्य, तो क्यारेक देव, क्यारेक तियच तो वळी कोई वखते नारक तरीके भमवु पड़े छे. आत्मामां केवलज्ञान, केवलदर्शनादि अनंतगुणो होवा छतां ओ वधा गुणो आ कर्मसंबंधना कारणे लगभग आवराई गया छे. तेथी आन्मानी सहजस्वभाषनी स्थिति दवाई गई छे अने कर्मविपाकाश घणी विराम बनी गई छे. चक्रवर्तीनी भिखारी अवस्था जेट ली करुगाने पात्र छे अना करतां अनंतशक्ति अने गुणोना स्वामी अवा आत्मानी वर्तमान कर्मपराधीन, निर्बल, गुणहीन अने दोषपूर्ण अवस्था अनेकगुणी करुगाने पात्र छे. भगवान श्रीतीर्थकरदेवोओ पण क्षपकश्रेणि द्वारा घातिकर्मनो सर्वथा क्षय करी अनादिकाळथी संसारमा मलिनावस्थामा रहेला पोताना आ माने निर्मल बनायो, केवलज्ञान अने केवलदर्शनादि अनंतचतुष्कने प्राप्त कयु अने जगतना जीवो पण 'क्षपकश्रेणि' द्वारा कर्मक्षय करी शके अ माटे धर्मतीर्थनी स्थापना करी. भगवान महावीरदेवनी वर्तमान तीर्थस्थापना मगधदेशमा अपापानगरीनी नजीकमां ऋजुवालिकानदीना तीरे भगवान श्रीमहावीरदेवने केवलज्ञाननी प्राप्ति थई. ते पछी आपानगरीनी पासे महसेनवनमा प्रभुओधर्मतीर्थनी स्थापना करी. ते आरीतेः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 } प्रस्तावना देवताओ प्रभुनी देशना भूमि तरीके र वेला त्रगगडना समवसरणमां विराजी प्रभुओ देशनानो प्रारम्भ कर्यो. नगरीमा इन्द्रभूति आदि अगियार मुख्य विद्वान ब्राह्मणो पोताना सेंकडो विद्यार्थीओ साथै यज्ञ करावा माटे आवेला हता. त्यां पधारेला प्रभुना सर्वज्ञपणानो यश सांभली तेमने ईर्ष्या थई. तेथी तेओ प्रभुनी साथै वाद करवा माटे आव्या. प्रभु तेमना जीवादितच्चो विना संशयाने दूर करीने तेमन प्रतिवोध्या अनं मालीससो विद्यार्थीओ साथे ते अगियारे ब्राह्मणोने चारित्र आपी गणधर पद उपर स्थापित कर्या. ते ज वखते चंदनबाला आदि अनेक राजकुमारीओ वगेरेओ पण प्रभुनी पासे चारित्र ग्रहण कयुं, तेमज अनेक नरनारीओओ श्रावकधर्मनो स्वीकार कर्यो, आम ते समये त्यां वर्तमान अवसर्पिणीना अंतिम तीर्थंकर भगवान श्री वर्धमानस्वामी द्वारा साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकारून चतुध संघ स्थापना थई. द्वादशांगी संघनी स्थापना थतां प्रभुओ इन्द्रभूति आदि गणधरोने " उपन्ने वा, विगमेइ वा धुवेइ वा" रूप त्रिपदी आपी. तेना आधारे अंतर्मुहूर्तकाळमां गणधर भगवंतोओ आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासक दशांग, अंतकृद्दइ.ांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग, प्रश्नव्याकर ग, विपाकसूत्र तथा दृष्टिवाद आ बार अंगोनी रचना करी. बारमा दृष्टिवाद अंगमां चौदपूर्व पण गूंध्या । आ वखते इन्द्र सुगंधी चूर्णनो थाल हाथमां ग्रहण करीने भगवाननी पासे उमा रह्या अने इन्द्रभूत्यादि गणवरदेवो कंकनमेला मस्तके प्रभु समक्ष उभा रह्या. प्रभुए " द्रव्य-गुण- पर्यायथी तीर्थनी अनुजा आपुं छु” ओम कही तेओनां मस्तक उपर सुगंधिचूर्णनो निक्षेप कर्ता, देवोओ पण पुत्र अने चूर्णनी वृष्टि करी. आ ते श्रधर्म अने चारित्रधर्मरूप भगवान महावीरदेवना वर्तमान तीर्थनी आजथी लगनग पचीससो वर्ष पूर्वे वैशाख सुद ११ ना दिवसे अपापापुरीमां मंगल स्थापना थई. द्वादशांगी स्वरूप भगवान श्रीमहावीर देव पाथी प्राप्त थयेल त्रिपदीना आधारे द्वादशांगीनी रचना श्री गौतमादि गणधर भगवंतो करी. द्वादशांगीना अर्थप्रणेता भगवान श्रीमहावीरदेव छे ज्यारे द्वादशांगीना सूत्रप्रणेता गणधर भगवंतो छे. अगियार गणधरोमांथी पांचमा सुधर्मा गणवर भगवान दीर्घ आयुयवाळा होवाथी तेमनी द्वादशांगीनी परिपाटी आगळ वधी अने बाकीना दशे गगधर भगवंतोनी सूत्ररूप द्वादशांगीनो तेमनी पाछळ विच्छेद थयो. द्वादशांगीमां जगतना त्रैकालिकस्वरूपनी यथावस्थित रजूआत होय छे, जगतमा रहेलां धर्मास्तिकायादि सर्वद्रव्यो अने तेना पर्यायोनु निरूपण हो न छे. जगतनी तमाम वस्तुओ अने विषयो द्वादशांगीमां सारी रीते रज् थयेला छे. ओटले द्वादशांगीना ज्ञानी आत्माने समग्र विश्वनी त्रैकालिक अवस्थानु भान थाय छे, पोताना आत्माना असल Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (191 स्वरूपनो ख्याल आवे छे अने आत्मानी वर्तमानकर्मबद्धपरिस्थितिने पण जाणी शकाय छे, अटले आत्माना शुद्धस्वरूप अने आत्माना वर्तमानस्वरूपना अन्तरनी ओळखाण थया पछी स्वरूप-प्राप्ति तरफ प्रयाण थई शके छे. द्वादशांगीनो विषय समुद्र जेवो विशाल छे. तेमांजीव, कर्म, पुद्गल, पुण्य, पाप, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काळ, जीवनी संसारमां गतिओ,योनिओ, अवस्थाओ, पुद्गल(जडद्रव्य)नी अवस्थाओ, जीवनी शक्ति, पुद्गलनी शक्ति, पुद्गलना भेदो, पुद्गलनोजीव उपर प्रभाव, जीव उपर कर्मनुबळ, जीवने कर्मना बंधनमांथी स्वतंत्र थवानो मार्ग वगेरे अनेक विषयोनु विस्तृत वर्णन छे. द्वादशांगीमां अध्यात्म, साहित्य, न्याय, ज्योतिष, वैदक, मंत्र, यंत्र, तंत्र आदि जगतना सर्व विषयोचें ज्ञान रहेलु छे, द्वादशांगीनो विषयविस्तार आपणी कल्पना बहारनो छे. अम कहीओतो चाले के द्वादशांगी अतीर्थकर भगवानना तीर्थन सर्वस्व छे, अटलाज माटे द्वादशांगीने पण तीर्थ कहेवामां आवे छे, द्वादशांगीमां छेल्लु अंग दृष्टिवाद छे. दृष्टिवादनो विषय घणो ज विशाल छे. दृष्टिवादना मुख्य पांच विभाग छ, (१)परिकर्म २) सूत्र (३) प्रथमानुयोग (४) पूर्वगत (५) चूलिका. अमांना पूर्वगतनी अंदर चौदपूर्वनो अधिकार छे. चोदपूर्वनो विषय करोडो पद प्रमाण विस्तृत छे. द्वादशांगीनी परंपरा श्री सुधर्मा गणधर भगवाननी द्वादशांगी जंबूस्वामीने प्राप्त थई, ते पछी तेओश्रीना पट्टधर श्रीप्रभवसामीने अम परंपराओं द्वादशांगीनु ज्ञान उत्तरोत्तर आचार्यभगवंतोने प्राप्त थवा मांडयु परंतु अवसर्पिणीकाळना माहात्म्यने कारणे ज्ञान घटतु घटतु आव्यु तेथी श्रीभद्रबाहुस्वामी सुधी ज सूत्र अने अर्थ उभयथी चौदपूर्वनु ज्ञान पहोंच्यु. स्थूलभद्रस्वामीने सूत्रथी चौदपूर्व तथा अर्थथी दशपूर्वनें ज्ञान मल्यु. त्यार पछी घटतु घटतु वज्रस्वामी सुधी दशपूर्वनु ज्ञान पहोंच्यु, त्यार बाद दशपूर्वना ज्ञाननो पण विच्छेद थयो. आम क्रमशः काळना प्रभावे ज्ञानमां घटाडो थतो आव्यो, छतां होशियार व्यापारी सळगता घरमांथी शक्य तेटलु बचावी ले, तेवी रीते पूर्वाचार्य भगवंतो पण विच्छेद पामता पूर्वना ज्ञानमांथी अनेक प्रकरणादि ग्रन्थोनी रचना करवा द्वारा श्रतनी शक्य तेटली रक्षा करवानो पुरुषार्थ कर्यो, जेना फल रूपे पूर्वना ज्ञाननो सवथा अभाव थवा छतां पूर्वोमांथी उद्धत दशवकालिकादि अनेक ग्रन्थो आजे पण आपणने उपलब्ध थाय छे. चौदपूर्वमांथी बीजा अग्रायणीयपूर्वमां तेमज पांचमा ज्ञानप्रवाद पूर्वमां अने आठमा कर्मप्रवाद पूर्वमां कर्मविषयक सुंदर संग्रह हतो, वर्तमानमां उपलब्ध कर्मप्रकृति, कषायप्राभृत, शतक, सप्ततिका, कर्मप्राभृत आदि अनेक ग्रन्थो पूर्वोमांथी उद्धृत छे. कर्मनु स्वरूप विश्वमा अनंतानंत जीवो छे, तेम अनंतानंत पुद्गलस्कंधो छे. पुद्गलस्कंधोना अनेक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विभागो पडी शके छे, अमांना अक विभागनु नाम कार्मणवर्गणा छे. आ कार्मणवर्गणाना पुद्गलो अतिसूक्ष्म छे, गमे तेटला अकठा थाय तो पण चर्मचक्षुथी देखी शकाय तेवा नथी. कार्मणवर्गणाना आ पुद्गलो समस्त लोकमां व्यापीने रहेला छे, आवा कार्मणवर्गणाना पुद्गलोन संसारी जीव मिथ्यात्वादिना कारणे प्रतिसमय ग्रहण करीने आत्मसात् करे छे. जीव साथे क्षीरनीरनी जेम अकमेक थयेला आ कार्मणवर्गणाना पुद्गलोने कर्म कहेवाय छे. जगतनी विचित्रतानुकारण जो कोई होय तो आ कर्म छे. जगतना जीवोमां सुख दुःख, संपत्तिविपत्ति, यश-अपयश, श्रीमंताई गरीबी, आ वधु कर्मने आधीन छे. कर्मना अस्तित्वना अपलापथी जगतनी अनेकप्रकारनी विषमता घटी शकती नथी. अक सरखां साधनो, संयोगो अने निमित्तो मळवा छता ओक श्रीमंत बने छे, बीजो दरिद्र रहे छे,अक पंडित बने छे, बीजो मूर्ख रहे छे, अरे अकज माताना अक साथे जन्मेला बे पुत्रोमांथी अक राजा बने छे, बीजो रंक रहे छे, अक महान अश्वर्यने भोगवे छे, बीजाने पेट भरवानां फांफां होय छे, आ बधु कर्मना अस्तित्व विना कोई रीते घटी शकतुनथी,माटे ज सर्व आस्तिक दर्शनकारो कर्मना अस्तित्वने अक या बीजा रूपे स्वीकार्य छे. बौद्धोए वासनारूपे, वेदान्तिओओ माया-अविद्यारूपे, सांख्यो प्रकृतिरूपे, वैशेषिकोओ अदृष्टरूपे, अने मीमांसको धर्माधर्मरूपे कर्मने ज मान्यु छे. लोकमां पण दैव, भाग्य, भाविभाव वगेरे शब्दथी कर्मना अस्तित्वने स्वीकारायेल छे, जैनेतरशास्त्रोम कर्मना अस्तित्वन जणावतांप्रमाणो मले छे. जुओ "ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । रुद्रो येन कपालपाणिपुटके मिक्षाटनं सेवते, सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे" || (भर्तृहरि नीतिशतक.) इत एकनवतितमे कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥ जगतो यच्च वैचित्र्यं सुखदुःखादिभेदतः । कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अकस्मानिधिलाभश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । कचित्फलमयत्नेऽपि यत्नेप्यफलता कचित् ॥ तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् व्यमिचारिणः । तेनादृष्टमुपेतव्यमस्य किश्चन कारणम् ॥ . न्यायमञ्जरी उत्तरार्ध पृ०४२ यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । भगवद्गीता अध्याय ४श्लोक ३७ जैनतरदर्शनकारो कर्मनो वासनादिरूपे स्वीकार मात्र कर्यो छे, पण त्यार पछी कर्मना बन्धादिनी विशेष कोई प्रकिया बतावी नथी, ज्यारे जैनदर्शननी ओ विशेषता छ, के कर्मने सूक्ष्म, मृत पुद्गलरूप मानी तेने लगती बंध, उदय, उदीरणा, संक्रमादि अनेक प्रकारनी विशिष्ट प्रक्रिया बतावी छे. अनी सूक्ष्मता अने विश्व संचालन साथेनो सुमेळ जोतां जैनदर्शननो कर्मवाद ज तेना प्रणेता तीर्थकरभगवंतोनी सर्वज्ञताने साबित करे छे. जे समये जीव मन वचन कायानी जेवी शुभाशुभ प्रवृत्तिवाळो बने छे, ते समये कार्मण . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 1 वर्गणाना पुद्गलो तेवा तेवा प्रकारना परिणामवाळा थई आत्मा उपर लागे छे-चोंटे छे. आने कर्मनो बंध कहे छे, जीव प्रतिसमय आ रीते कर्मनो बंध करे छे. जे समये कर्मनो आत्मानी साथे आ रीते सम्बन्ध थाय छे, ते ज समये जीवना परिणामानुसार तेमां सुखदुःखादि आपवानो के आन्माना ते ते ज्ञानादिगुणोने आवरी लेवानो स्वभाव, आत्मानी साथे संबद्ध रहेवानो काल अने फल आपवानी शक्ति पण नक्की थाय छे. कर्मना आ स्वभावने प्रकृति, कालने स्थिति अन शक्तिने रस कहे छे. ज्यारे संबद्ध थयेला कर्माणुना प्रमाणने प्रदेश कहेवाय छे. आ रीते प्रतिसमय कर्मना बंध वखते प्रकृत्यादि चारे वस्तु पण नक्की थई जाय छे अने स्थिति परिपक्व थये ते कर्मो उदयमां आधी शुभाशुभ फल आपी आत्माथी छूटां पड़े छे. आम प्रतिसमय जीवन देशो उपर कर्मोनो आय-व्यय चालु छे अने तेना कारणे सुख-दुःख, जन्ममरण, संसार परिभ्रमण वगेरे चालु छे. कर्मनी ज आ शक्ति छे, के जे जीवोने अनंतकालथी जगतमां परिभ्रमण करावे छे, कार्मणवर्गगामा पहेलथी ज आपी शक्ति होती नथी पण ग्रहण कराता कार्मणपुद्गलोमां जीवे ज रागद्वेषादिपरिणामो बड़े तेवी शक्ति ऊभी करी होय छे, माटे संसार-परिभ्रमणने अटकाववा आत्मा पोते ज पुरुषार्थथी कर्मनी ते शक्तिने तोडवी पड़े, अथवा ओछी करवी पड़े अने ते माटे जीवे पोताना राग द्वेषना परिणामो दूर करवा जरूरी छे. पूर्वगत कर्मविज्ञान तथा वर्तमानकाले उपलब्ध कर्मविज्ञान . कर्म जीवना ज्ञानादिगुणोने ढांके छे, विविध प्रकारनां कर्मोनी विविधप्रकारनी शक्तिओ होय छे, प्रतिसमय कर्म केवी रीते बंधाय छे, तेंना केवां केवां फल छे, केवी रीते छूटे छे, जुदा जुदा प्रकारनी गतिमां रहेंला जीवो केवा केवा प्रकारनां कर्मो बांधे छे, केवी स्थितिवाळां बांधे, छे, केवा रसवाळां बांधे, केटला प्रमाणमां बांधे,केवा परिणामथी केवां कर्मो बंधाय, बंधायेलां कर्मो केटला काले केवी रीते केटला प्रमाणमां भोगवाय, अक कर्म बीजा कर्मरूपे थाय या न थाय, थाय तो केवी रीते थाय, वगेरे कर्मने लगतु घणुज ऊंडु तत्त्वज्ञान अतिशय विस्तारथी पूर्वोमां हतु. अने ओ जे हत्तेनी अपेक्षाओवर्तमान काळमां घणु थोडु छतां जीवनभर अवगाहीतो पण संपूर्ण पार पामी न शकाय तेटलु विस्तृत कर्मविज्ञान उपलब्ध कर्मप्रकृत्यादि ग्रन्थोमां मले छे. प्रस्तुत 'खवगसेढी' ग्रन्थनु सर्जन कर्मविज्ञानविषयक उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थोमांथी सप्ततिका, सप्ततिकाचूर्णि, कषायप्राभृत, कपायप्राभृतचूर्णि, शतक, शतकचूर्णि, कर्मप्रकृतिटीका, पंचसंग्रहटीका आदिमां क्षपकश्रेणिना अधिकारनु सुंदर विवेचन छे परन्तु ते शब्दसंक्षिप्त अने अर्थगंभीर छे. अल्प शब्दोमां धणा भाव तेनी अन्दर भरेला छे. पूर्वाचार्यभगवंतोनी लगभग शैली हती के अल्पशब्दोमां घणा पदार्थोनो संग्रह करव ते मुजब कर्मप्रकृति-कषायप्राभृत वगेरेमां अल्पशब्दोमां घणा पदार्थोनो संग्रह छे. ते ते सूत्रोमांथी ते ते पदार्थोंने खोलवामां आवे अने तेमनु विशदीकरण करवामां Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] प्रस्तावना आवे तो ज ते पदार्थोनो विशाल बोध आपणने थार अने वीजा जीवोने पण लाभ थाय, ओ दृष्टिबिंदुने लक्ष्यमा लईने पूर्वपुरुषोना ग्रन्थोना आधारे आ ‘खवगसेढी' ग्रन्थनु सर्जन थयु छे. - प्रस्तुत ग्रन्थनो विषय प्रस्तुत ग्रन्थ 'खवगसेढी' जेने आपणे संस्कृतमां के गुजरातीमां क्षपकश्रेणि कही छीओ ते सूक्ष्मतत्वज्ञानविषयक ग्रन्थ छे. अमां कर्मविषयक अत्यन्त ऊंडु ज्ञान भरेलु छे. क्षपकश्रेणि अटले कर्मक्षपणा माटे उद्यत थयेला जोवने गुणस्थानको उपर चउवानी श्रेणि अर्थात् कर्मनो नाश करता जीवनो विशिष्ट गुणस्थानको उपर आरोहणनो जे क्रम ते क्षपकश्रेणि. प्रस्तुत ग्रन्थमां क्षपकश्रेणि प्राप्त करवाने योग्य जीव कोण छे, त्यांधी मांडीने मुक्तिनी प्राप्ति सुधीना विषयनो नव अधिकारोमां सुंदर संग्रह करायो छे. क्षपकश्रेणिनो प्रारम्भ करनार जीवनी केवी अवस्था होय छे, ते केटलां कर्मोनो बंधक होय छे,केवी लेश्यावालो होय, केवा उपयोगवालो होय, केवा योगवालो होय, वगेरे विस्तृत रीते बतावीने पछी क्षपकश्रेणिमां जीव केवी रीते आगळ वधे छे, यथाप्रवृत्तकरणमां शुशु करे छे, यथाप्रवतकरणमां केवी विशुद्धि होय छे, केवा अध्यवसाय होय छे, अपूर्वकरणमां स्थितिघातादि कंत्री रीते करे छ, केट ली प्रकृतिओनो बंधमांथी विच्छेद करे छे, त्यार पछी अनिवृत्ति करणमां पण स्थितिघातादिथी कर्मनी स्थिति अने रसने केवी रीते ओछां करतो जाय छे, कषायअष्टक तथाथीणद्धित्रिकादि सोलप्रकृतिनो क्षय करीन अंतरकरण केवी रीते करे छे, त्यार पछी नव नोकषायनो क्षय करी संज्वलनक्रोधनो क्षय केवी रीते करे छे, फरीथी मानादिनी प्रथमस्थिति करीने केवी रीते क्षय करे छे अने छेवटे संज्वलनलोभनी मूक्ष्मकिट्टिओ नवमा गुणस्थानके केवी रीते बनावे छे, सूक्ष्मकिट्टिने वेदता दशमागुणस्थानके बाकीनी किट्टिओनो क्षय करी क्षीणकषायगुणस्थानकने प्राप्त करी शेष त्रण घातिकर्मनो क्षप करी जीव केवलज्ञान केवी रीते प्राप्त करे छे, अबधी वातो आ ग्रन्थमां सुंदर अने विशाल विवेचन पूर्वक बताववामां आवी छे अने तेमां पण साथे भिन्न भिन्न कपाय अने वेदना उदयथी क्षपकश्रेणिनो प्रारम्भ करनार जीवोने प्रक्रियाना तारतम्यनुपण आलेखन करवामां आव्यु छे. उपरांत तेरमा गुणस्थानकना अंते थतां समुद्घात, आयोजिकाकरण अने योगनिरोध तथा चौदमागुणस्थानकरूप शैलेशीकरण द्वारा थता नवा कर्मबंधनो अटकाव अने पूर्वकर्मनी निर्जरानो अधिकार बतावी मुक्तिनी प्राप्ति अने मुक्तिनु स्वरूप वगैरे पदार्थोनो पण ग्रन्थमा संग्रह करवामां आव्यो छे. जेनेतरदर्शनकारोओ मुक्तिना कल्पेला स्वरूपनो युक्तिपूर्वक निरास करवामां आव्यो छे, अने जैनदर्शने वतावेल मुक्तिना स्वरूपनी यथार्थता सिद्ध करवामा आवी छे. आ रीते तर्कशैलीथी दार्शनिकविषय पण ग्रन्थमा सारी रीते आलेखायेलो छे. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ग्रन्थनी विशेषताओ न्याय अने दर्शनना विषय उपरांत ग्रन्थमां अनेक स्थले शब्दोनी व्युत्पत्ति वगेरे करती वखते व्याकरणसूत्रोनी साक्षीओ बतावेली छे, गणितानुयोग पण प्रस्तुतग्रंथमां घणो छे. अने ते सुंदर रीते झळक्यो छे. ग्रन्थनो लगभग छट्ठो भाग गणितानुयोगमां रोकायेलो छे. पुद्गलोना आय-व्यय ( आगमन-गमन), रसनी हानि, स्थितिनो घात, अपूर्वस्पर्धकप्ररूपणा, किट्टिओ वगेरे विपयोमा अंडाणथी अने सूक्ष्मताथी गणितानुयोग रज् थयेलो छे. गणितानुयोगनो विषय सरल करवा माटे असंख्य अने अनंतना कठिन गणितने ठेर ठेर आंकडाओ द्वारा अने संज्ञाओ द्वारासमजावेल छे, जेथी गणितना विषयमा अल्प बोधवाला जीवो पण सुगमताथी समजी शके. संस्कृतभाषामा गणितानुयोगने समजाववामां टीकाकार विद्वान मुनिवर सफल थया छे. अटल जनहि पण गणितानुयोगमां तद्दन बिनअनुभवीने पण कंटाळले न उपजे ओ माटे गणितनो विषय दरेक स्थळे जुदो पाडी देवामां आव्यो छे. पहेलां सामान्यथी पदार्थनु कथन करी, ज्यां गणितायोगमा विशेष अंडा उतरवा जेवु छे त्यां 'अथ गणितविभागः' अम कहीने गणितानुयोगनी शुरुआत करी, पूर्ण करती वखते ' इति गणितविभागः ' अ प्रमाणे गणितानुयोगनी समाप्ति करी छे, जेथी गणितानुयोगनो बोध न होय तेओने गणितानुयोग छोडीने बाकीनो ग्रन्थ वांचवामां बच्चे विषयी संकलना तूटती नथी. [ 23 अश्वकर्णकरणाद्धा अधिकारमां रपर्द्धकोनी रचना केवी रीते होय छे तेमां प्रत्येक वर्गणामां रस अविभाग तथा कर्मप्रदेशो, उत्तरोत्तर वर्गणाओमां रस-अविभागनी वृद्धि अने कर्मप्रदेशोनी हानि थतां थतां प्रथम स्पर्द्धक करतां उत्तरोत्तरस्पर्धकमां जेटलामुं स्पर्धक होय स्थूलदृष्टिथी तेटला गुणा अविभागो तथा सूक्ष्मदृष्टिथी किंचित् न्यून तेटला गुणा अविभागो कंवी रीते थाय, अबधुं असत्कल्पनाथी स्पर्धकों, वर्गणाओ, अविभागो, वर्गणाओनो चय, गुणहानि वगेरेनी संख्याओ नक्की करी स्पष्ट समजाई जाय ते रीते वर्णववामां आव्युं छे. अपूर्वस्पर्धकनी रचना पछी पूर्व अने पूर्वस्पर्धकोना अनुभागने आशरीने स्थापना पण बताबाई छे. किट्टिकरणद्धाना प्रथमसमये पूर्व अने अपूर्व स्पर्धकांथी कलां दलिकोने ग्रहण करी तेमांथी केटली किट्टिओनी रचना केवी रीते करे छे. ते पण बताव्यु ं छे. संग्रह किट्टिओ, अवांतर किट्टिओ वगेरेमां दलिक वर्हेचणीना गणित पण घणी ज सूक्ष्मता निरूपण कयुं छे. किट्टिकरणाद्धा अने किट्टिवेदनाद्वानी अंदर दीयमान अने दृश्यमान दलिकना विषयमा अधस्तनशीपचयदलिक, उभयचयदल, अधस्तन किट्टिदल, अने मध्यमखंड दलनी प्ररूपणामां तो खरेखर गणितानुयोग पराकाष्ठाए पहोंच्यो छे. गणितानुयोगना वर्णनमां ठेर ठेर भास्कराचार्य वगेरेनां गणितसूत्रो पण रजू करवामां आवेलां छे, गणितानुयोगनुं ऊंड अने विशाल विवेचन जोतां आ ग्रन्थ द्रव्यानुयोगनो होवा छतां वर्तमानमां उपलब्ध गणितानुयोगना ग्रन्थोमां पण येणे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कयुं छे. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 24] आ ग्रन्थमा ज्यां ज्यां शस्य बन्यु त्या त्यां ते विषयने जगता जे कोई मतान्तरो होय ते बधांनो संग्रह करवामां आव्यो छे, तेम ज पूर्वाचार्यभगोना ग्रन्थोनी साक्षीओ पण लगभग बधे रजू करवामां आवी छे. ग्रन्थकार पोते मूल गाथामां पदार्थ ने संक्षेपमा रजू करी, टीकामां तेने विस्तृत करी दे छे अने पछी तुरत ज पोते अ पदार्थ बतायता पूर्वाचा भावंतोना ग्रन्थोना साक्षी पाठो रजू करी दे छे, अटले वांवनारने ते शोधवा माटे नवो परिश्रम करवानो रहेतो नथी. आटलाथी पण ग्रन्थकारने संतोप थतो नथी अटले ज्यां ज्यां अमुक विपयन निरूपण पूरु थाय छे, त्यां त्यां ते ते पदार्थोनो टूकमां संग्रह करतां मुद्दासरनां यंत्रोनी स्थापना पण तेमणे करी दीधी छे अने अथी य आगळ वधी ने अमुक अमुक अधिकारोमा पदाथों बराबर स्पष्ट थई जाय ते माटे तेने लगता चित्रोनु पण आलेखन करवामां आव्यु छे. जुदा जुदा विपयोने लगता कुल ४० चित्रो अने २७ यंत्रो प्रस्तुत ग्रन्थमा टीकाकारे रजू करू छे. टीकाकारनो आ परिश्रम, विशद ज्ञान, पदार्थ ने रजू करवानी कला वगैरे आपणने तेमना प्रत्ये खूब ज बहुमान उपजावे छे. अने साथे आवा श्रष्ठ ताचिक ग्रन्थोना सर्जननी स्वपरकल्याणकारक सुन्दर शक्तिनु तेओमां दर्शन करावे छे. __कर्मसाहित्यविषयक प्राचीन ग्रन्थो हवे आपणे प्रस्तुत ग्रन्थना सर्जनमा आधारभूत ग्रन्योमांना केटलाक मुख्य ग्रन्थो विपे थोडी विचारणा करी लई, प्रस्तुत ग्रन्थमां लगभग ८५ ग्रन्थोनी साक्षी छे, साक्षीग्रन्थोनां कर्मप्रकृतिमूल तथा तेनी चूर्णि, शतक, शतकचूर्गि, सप्ततिका, सप्ततिकावूर्णि, कपायाभृतमूल तथा तेनी चूर्णि वगेरे मुख्य आधारभूत ग्रन्यो छे. आ वधा ग्रन्थो प्राचीन छे. कर्मप्रकृति मूलः-आ अतिप्राचीन कर्मविषयक ग्रन्थ छे. ग्रन्थ पद्यमय छे. ग्रन्थमा आठ करण तथा उदय अने सत्तानुवर्णन है. आना कर्ता आचार्यदेव शिवशर्मसूरिमहाराजा छे. तेओओ अग्रायणीच नामना वीजा पूर्वनी, पांचमी वस्तुना, कर्म प्रकृति नामना चोया प्राभृत उपरथी प्रस्तुत ग्रन्थनो उद्धार कयों छे. जुओ--- ___"इय कम्मपगडीओ जहा सुयं नी यमपमइणा वि" (कर्मप्रकृति-सत्ता अधिकार गाथा. ५६) टीका:-'अल्पमतिनापि' अल्पबुद्धिनाऽपि सता इति एवमुक्तेन प्रकारेण गुरुचरणकमलपर्युपासनां कुर्वता गुरुपादमूले यथा मया श्रुतं तथा 'कर्मप्रकृतेः' कर्मप्रकृतिनामका प्राभृतात् । इणिवादे हि चतुर्दशपूर्वाणि तत्र च द्वितीयोऽग्राय गी वाभिवानेऽनेकवस्तुसमन्विते पूर्व पञ्चमं वस्तु विशतिप्राभृतपरिमाणम् , तत्र कर्मप्रकृत्वाख्यं चतुर्थप्राभृतं चतुर्विंशत्य तुयोगद्वारमयं तस्मादिदं प्रकरणं नीतम्-आकृमित्यर्थः । पृ० १६१ ____ आ कर्मप्रकृतिमूल, कर्मप्रकृतिसंग्रहणी तरीके पण ओळखाय छे. चूर्णिकारे पण कर्मप्रकृतिमलनो 'कर्मप्रकृतिसंग्रहणी' तरीके उल्लेख कयों छे. जे चूर्णिना नीचेना पाठ उपरथी जणाय छे. "इममि जिणसासणे दुस्समाबलेण खीयमाणमेहाउसद्धासंवेगउज मारभं अजकालियं साहु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [26 जणं अगुवेत्तुकामेण विच्छिन्न सम्मायडिमहागंथत्थसंबोहणत्थं आरद्धं आयरिएणं तग्गुणणामर्ग कम्मपयडीसंगहणी नाम पारणं ।" (कम् नपयडि चूर्गि पृ० १ ) प्रस्तुत कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनो उल्लेख घणा प्राचीन ग्रन्थोमां पण जोवामां आवे छे. श्रीपन्नवणासूत्रना २३ मा 'कम्मपयति' नामना पदनो वृत्तिमा हरिभद्रसूरिमहाराजाओ पण 'कम्मपयडिसंगहणी' नो उल्लेख करी प्रस्तुत कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनी बे गाथा (७९,८३ ) साक्षी तरीके आपी छे. तेवीं ज रीते वीजा ओक स्थाने (मुद्रित पृ० १३९) कम्मपयडिनी ९६ मी गाथानी साक्षी आपी छे. तत्त्वार्थसूत्रनी सिडसेनोय टीकामां तथा आचारांगसूत्रनी वृत्तिमां पण प्रस्तुत कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनी गाथाओनी साक्षी आवे छे, उपरथी आ कर्मप्रकृतिसंग्रहणी (मूल) ग्रन्थ अतिप्राचीन अने अनेक गीतार्थ बहुश्रुत महापुरुषोने मान्य छे अ सिद्ध थाय छे. कर्मप्रकृतिना कर्ता तरीके आचार्य शिवशर्मसूरि म० ना नामनो उल्लेख कर्मग्रन्थादि अनेक ग्रंथोमां जोवा मळे छ. “यदाह श्रीशिवशर्मसूरिवरः कर्मप्रकृतौ" (४ थो कर्मग्रन्थ गाथा १२ नी टीका १० ११२ अ.) बंधनकरण तथा बंधशतकचूर्णिना नीचेना उल्लेखो परथी पण कर्मप्रकृतिना कर्ता आचार्य शिवशर्मसूरि महाराज सिद्ध थाय छ "एवं बधणकरणे परूविए सह हि बंधसयगेणं" (कर्मप्रकृतिबंधनकरण गाथा १०२.) मलय० टीका:-"एतेन किल शतककर्मप्रकृत्योरेककर्तृता आवेदिता द्रष्टव्या" । तत्थ एयं पारणं पमाणणिप्फन्ननामगं सतगं ति । किं णिमित्तं कयं ? ति णिमित्तं भणियं। केण कयं ? ति शब्दतर्कन्यायप्रकरणकर्मप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेजेण कयं । (शतकप्रकरण गा० १ नी चूर्णि पृ० १) । पंधशतक अने कर्मप्रकृतिना कर्ता अक छे अने बंधशतकना कर्ता तरीके शतकचूर्णिकारे शिवशर्मसूरि म० ना नामनो उल्लेख कर्यो छे, ते उपरथी पण कर्मप्रकृतिना कर्ता तरीके आचार्यशिवशर्मसूरि म० नक्की थाय छे. ___ आ कर्मप्रकृतिसंग्रहणीना कर्ता आचार्य शिवशर्ममूरि महाराज पूर्वधर हता, (दृष्टिवादनाज्ञाता हता) जे शतकनी प्रथमगाथा तथा तेनी चूर्णि उपरथी जणाय छे “योच्छं कइवयाओ गाहाओ दिट्ठिवायाओ"-(गा० १ ली उत्तरार्ध. पृ० १.) दिट्टिवायाओ त्ति आयरियपायमूले विणएण सिक्खियाओ दिद्विवायाओ कहेमि"(शतक चूणि पृ०२.) चूर्णिकार "दिट्टिवायाआ" नो अर्थ करता जणावे छे के 'आवार्यना चरणकमलमां विनयपूर्वक शीखेला दृष्टिवादमांथी कहीश' आ उपरथी जणाय छे के शतकना कर्ता आचार्य शिवशर्मसूरि म दृष्टिवादना ज्ञाता हता. कर्मप्रकृतिनी छेल्ली गाथाना उत्तरार्धमां तेओश्री दृष्टिवादना ज्ञाताओने पोताना ग्रन्थमां थयेल अनाभोगजन्य भूलो सुधारवा माटे जणावे छे ते उपरथी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 26 ] पण कर्मप्रकृतिनी रचना वखते दृष्टिवादना जाणकारो विद्यमान होवानु जणाय छे. छेल्ली गाथानो उत्तरार्ध आ प्रमाणे छे-“सोहियणाभोगकयं कहंतु वरदिहिवायन्नू"।। कषायप्राभृतचूर्णिकारे देशोपशमना कर्मप्रकृतिमाथी जाणी लेवा सूचव्यु छे ते देशोषशमनानो अधिकार कर्मप्रकृतिनी गाथाओमां प्राप्त थाय छे, ते उपरथी पण प्रस्तुत कर्मप्रकृतिसंग्रहणी कषायप्राभूतचूर्णि करतां प्राचीन जणाय छे. जुओ कषायप्राभतचूर्णिनो पाठ"जा सा करणोवसामणा सा दुविहा-देसकरणोवसामणा त्तिविसव्यकरणोयसागणा त्ति वि । देसकरणोषसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसोमणा त्ति वि । अपसत्थउवसामणा त्ति वि । एसा कम्मपयडिसु ।" । (पृ. ७०७) कर्मप्रकृतिचूर्णि:-कर्मप्रकृतिनां वर्तमान उपलब्ध विवेचनोमां सौथी प्राचीन विवेचन कर्मप्रकृति चूर्णि छे. तेमां तेना कर्तानु नाम उपलब्ध थतु नथी तेमज अन्यत्र-टीकाओ वगेरेमां पण कर्मप्रकृतिचूर्णिकारनु नाम प्राप्त थतु नथी, परंतु प्रस्तुत चूर्णिने अनेक ग्रन्थोना टीकाकार पू० मलयगिरि महाराजे तथा समर्थ शास्त्रकार महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजे खूब बहुमानपूर्वक स्वीकारीने तेना आधारे टीझायो रची छे. उपरथी आपणा माटे चूर्णिनी उपादेयता सिद्ध थई जाय छे. जुओ बन्न टीकाकारोना चूर्णिकार माटेना शब्दो'अयं गुणश्चूर्णिकृतः समग्रो यदस्मदादिर्वदतीह किञ्चित् ( मलयगिरि टीका श्लोक २. ) "इह चूर्णिकृदध्वदर्शकोऽभून्मलयगिरिय॑तनोदकण्टकं तम् । इति तत्र पदप्रचारमात्रात्., पथिकस्येव ममास्त्वभीषसिद्धिः ।।२।।(उपाध्यायजी कृत टीका. श्लोक ३.) चूर्णिकारे कर्मप्रकृतिमलनी गाथाओनु सुदर रीते अल्पशब्दोमां विवेचन कयु छे. शतकचूर्णि. सित्तरिचूर्णि वगेरेमां कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनो अतिदेश जे जे विषयो अंगेकर्यो छे ते ते विषयोमांना केटलाकनु दर्शन कर्मप्रकृतिमूळमां तथा केटलाकर्नु प्रस्तुत चूर्णिमां थाय छे. आ उपरथी आ चूर्णि सप्ततिकाचूर्णि अने शतकचूर्णि करतां प्राचीन जणाय छे. बंधशतकमूल तथा तेनी चूर्णि:-बंधशतक ओ पण आचार्य शिवशर्ममूरि महाराज नी कृति छे, जे पूर्वे आपणे जोई गया छीओ. प्रस्तुत ग्रन्थमा कर्मबंधना विषयने लगतु निरूपण छ. आ ग्रन्थ बीजा अग्रायणीय पूर्वनी पांचमी 'क्षणलब्धि' नामनी वस्तु अंतर्गत ४ था कर्मप्रकृति. नामना प्राभृतमाथी उद्धत थयेल छे, जे ग्रन्थनी मूलगाया १ लीना उतरार्ध तथा तेनी चूर्णि परथी जणाय छ "वोच्छं कइवइयाओ गाहाओ दिहिवायाओ'। (बंधशतक गा० १) चूर्णिनो पाठः-किं, परिकम्म, सुत्त, पढमागुयोग, पुव्वगय, चूलिगामइयातो सव्वाओ दिट्ठिवायाओ कहेंसि ? न इत्युच्यते, पुव्वगयाओ, किं उपायपुव्व अग्गेणिय जाव लोगबिंदुसाराओत्ति एयाओ चोदसविहाओ सव्वाओ पुव्वगयाओ कहेसि ? न इत्युच्यते, अग्गेणियातो बीयाओ पुवाओ। किं अट्ठवत्थु परिमाणाओ अग्गेणियपुव्वातो सव्वातो कहेसि ? न इत्युच्यते, पुव्वंते अवरते, धुवे, अधुवे एत्थ खणलद्धीणाम 9 जुओ पृष्ट-३३.३४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 27 पंचमवत्थु तातो पंचमातो यत्थुतो कहेमि । किं सव्यातो वीसपाहुडमेत्तातो कहेसि, न इत्युच्यते तस्स पंचमस्स वत्थुल चउत्थं पाहुडं कम्मपयडोनामवेज्जं ततो कहेमि । किं सञ्चातो चवीसाणुओगदारमइयातो कसि ? न इत्युच्यते, तस्स छट्ठमणुओगदारं बंधणं ति तत्तो कहेमि" । तस्स चत्तारि भेदा तं जहा बंधो, बंग, बंधणी, बंविहाणं ति । किं सव्वातो चउञ्विहाणुओगदारातो कहेसि ? न इत्युच्यते, हात्तिचागुओगदारं ततो कहेभि । तस्ल चत्तारि विभागातं जहा पाइयो, ठिइबंधो अणुभागबंधो, पदेसबंध त्ति, मुलुत्तरपगइभेयभिन्नो, ततो चव्विहातो विकिचि किंचि समुद्धरिय समुद्वरि भणामि । सत्थ संबंधो भणितो । आ रीते बंधशतक ग्रन्थ पण 4 बीजा पूर्वमांथी उद्धृत छे अने पूर्ववरना कालमां रचायेलो छे. शतकचूर्णि से पण शतकग्रन्थपरतु प्राचीन विवेचन छे, जेना आधारे पाछळथी शतकनी टीका तथा भाष्यनी रचना थई छे. प्रस्तावना सप्ततिका तथा तेनी चूर्णि - सप्ततिका अ दृष्टिवादमांथी उद्धत ग्रन्थ छे. अमां बंध, उदय अने सत्तानो संवेध तथा उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिनो अधिकार छे. आ ग्रन्थनो पण बीजा अग्रायणीय पूर्वनी ५मी वस्तुना ४था कर्मप्रकृति नामना प्राभृतमांथी उद्धार थयेलो छ, जे ग्रन्थनी १ ली मूलगाथा तथा तेनी चूर्णि जोतां जणाय छे “सिद्धपएहिं महत्थं बंधोदयसन्तपगइठाणाणं । वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं दिट्टिवायरस || गा०१ || चूर्णि :- 'निस्संदं दिट्टिवायरस'त्ति परिक्रम्म १ सुत्त २पढमाणुओग ३पुव्वगय ४चुलियामय ५ पंचविहमूलभेयस दिवास, तत्थ चोदसण्हं पुत्र्वाणं बीयाओ अग्गेणीय पुत्र्त्राओ, तस्स वि पंचमवत्थूर तस्स वि बीस पाहुडपरिमाणस्स कम्मपयडिणामवेज्जं चउत्थं पाहुडं तओ नीणियं चउविसाणुओगदारमइयमहण्णगोबिंदू, तो वि इमे तिणि अत्याहिगारा नीणिया तम्हा नीसंदो दिट्टिवायरस त्ति भण्णइ | ( पृ० २) आम शतक, सप्ततिका अने कर्मप्रकृति से त्रणे ग्रन्थोनो उद्धार बीजा पूर्वनी पांचमी वस्तुना ४था कर्मप्रकृति नामना प्राभूतमांथी थयेलो छे । 4 कपायप्राभृतचूर्णिनी प्रस्तावनामां प्रस्तावनाकारे शतकग्रन्थनो उद्धार कर्मप्रवाद नामना आठमा पूर्वमाथी बताव्यो छे, ते बराबर नथी. तेमणे आ विषयमां शतकनी अंतिम गाथानी साक्षी आपीछे " एसो बंधसमासो बिदुक्खेवे वन्नियो कोइ । कम्मप्पवायसुयसागरस्स पिस्संदमेत्ताश्रो ।। " (बंधशतक गाः १०४) प्रस्तावनाकारे अहीं कर्मप्रवादरूप श्रुतसागरनो अर्थ कर्मप्रवादनामनु ८ मुं पूर्व कर्यो छे, पण ते वरावर नथीं कारणके 'कम्मपवादसुत्तं' नो अर्थ प्रस्तुतमां 'कर्मप्रकृति प्राभृत' थाय छे. जुओ चूर्णिकारे आ ज गाथानी चूर्णिमां ते बात बताथी छे. “कम्मप्पवाद (य) सुत्तं" ति कम्मविवागं जं भगइ सत्थं तं कम्मप्पवादं कर्मप्रकृतिरित्यर्थः” । तेमज ग्रंथना प्रारंभमां पण चूर्णिकारे वीजा पूर्वनी पांचमी वस्तुना चोथा कर्मप्रकृति नामना प्राभृतमांथी शतक ग्रन्थनो उद्धार बताव्यो ज छे. अटल ज नहि बंधशतकनी गा० १०६ मां ग्रन्थकारे पोते पण प्रस्तुत ग्रन्थने कर्मप्रकृतिगत कह्यो छे. जुओ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] प्रस्तावना शतक अने कर्मप्रकृतिना कर्ता तरीके आचार्य शिवशर्मसूरिमहाराजना नामनो उल्लेख शतकचूर्णि वगेरेमां मळे छे, ज्यारे सप्ततिकाना कर्ताना नामनो उल्लेख क्यांय मळतो नथी परंतु कर्म प्रकृति, शतक अने सप्ततिका आ त्रणेनी अंतिम गाथामां घणुं ज साम्य छे अने शतक तथा सप्ततिकानी आद्य गाथा पण घणे खरे अंशे मळती छे, तेमज कर्मप्रकृतिनी प्रथम गाथा पण थोडे अंशे मळती छे अने शतक तथा कर्मप्रकृतिना कर्ता तो अक ज छे. आ बधा उपरथी त्रणे प्रकरणोना कर्ता अक होवानी कल्पना केटलाक विद्वानो तरफथी कराय छे. त्रणे ग्रंथना आद्य तथा अन्त्य श्लोको आ प्रमाणे छे ॥ ( कर्मप्र० गा० १० २.) ( शतक० गा० १ पृ० १ . ) ( सप्ततिका गा० १ पृ० १.) (कम्मपयडि० गा० ५६ पृ० १६१.) सिद्धं सिद्धत्थसुयं वंदिय णिद्धोय सव्वकम्ममलं । कम्मट्ठगस्स करणट्ठगुदयसंताणि वोच्छामि ॥ सुणह इह जीवगुणसन्निएस ठाणेसु सारजुत्ताओ । वोच्छं कइवइयाओ गाहाओ दिट्टिवायाओ ॥ सिद्ध एहिं मद्दत्थं बंधोदय सन्तपगठाणाणं । वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं दिट्टिवायरस ॥ इय कम्मपगडीओ जहासुयं नीयमप्पमइणा वि । सोहियणाभोगकथं कहंतु वरदिद्विवायन्नू ॥ बंधविहाणसमासो, रइओ अप्पसुयमंदमइणा उ । त बंधमोक्खणिउणा पूरेऊणं परिकर्हेति ॥ जो जत्थ अपडिपुन्नो अत्यो अप्पागमेण बद्धोत्ति । तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहिंतु ॥ ( सप्ततिका गा० ७१ पृ० ६८.) शतक अने सप्ततिकानी आद्य गाथामां घणु ं ज साम्य जणाय छे. कर्मप्रकृतिनी आद्य गाथामां पण शतक अने सप्ततिकानी आद्य गाथावत् अभिधेय कहेलु छे, मात्र गाथामां 'दिद्विवायाओ-दिडिवायस्स' द्वारा दृष्टिवादमांथी कहीश ओम ( शतक गा० १०५ पृ० ५०.) जेम छेल्ला बेग्रन्थनी आद्यकद्दु तेम कर्मप्रकृतिनी "इय कम्मपयडिपगयं संखेबुद्दिदु निच्छियमहत्थं । जो उवजुज्जइ बहुसो, सोनाहिति बंधमोक्ष | (बंधशतक गा० १०६ पृ० ५०) वळी शतकभाष्यकार पण प्रस्तुतग्रन्थनी उत्पत्ति तथा कर्ता अंगे आ गाथाना विवेचनमां आज रीतनो स्पष्ट उल्लेख करे छे, जे नीचेनी भाष्यगाथाओ परथी जणाय छे "इ गाहाए एवं भावत्थं परिकहंति सुत्तधरा । जह दिट्टिवायचंगे अग्रणीए दुइयपुव्वे ॥१०॥ परिधिकष्पाभिहम्मि पंचमवत्थुम्मि कम्मपयडि त्ति। इय नामेण पसिद्धं ति पाहुडं सुयविसेसो त्ति ॥ ११ ॥ प्रासि तो ठारणाश्रो उद्धरिम्रो एस सयगगंथोत्ति । सिवसम्मसूरिया रोगवा यजयलद्धसई रे ||१२|| इयकम्पयडिपगयंति कम्मपर्याड उ सुयविसेसायो । अंतरगयं ति सयगं ग्रंथं इइ वक्कसेसोत्ति ||१३|| आधा उल्लेख तथा शतकटीकाना उल्लेख परथी पण प्रस्तुत शतक ग्रन्थ आठमा कर्मप्रवादपूर्वमाथी नहीं, पण बीजा अग्रायणीयपूर्वनी पांचमी वस्तुना ४ था कर्मप्रकृति नामना प्राभृतमांथी उद्धृत ओम निश्चित थाय छे. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [29 प्रथम गाथामां शेमांथी कहीश ते कानथी. अंतिम गाथाओमां पण घणी ज समानता छे. त्रणेमा ग्रन्थकार पोतानी क्षतिओने सुधारवा माटे दृष्टिवादना जाणकारोने विनंति करे छे. दृष्टिवादना जाणकारो माटे कर्मप्रकृतिनी गाथामां "वरदिद्विवायन्नू" बंधशतकमां "बंधमोक्खणिउणा" अने सप्ततिकामां "बहुसुया" पदनो उपयोग कर्यो छे. आम त्रणे ग्रन्थनी आद्य अंतिम गाथाओनी समानता, त्रणेनो कर्मप्रकृतिप्राभूतमांथी उद्धार, शतक अने कर्मप्रकृतिनु अककतत्व वगेरे जोतां त्रणेग्रन्थना कर्ता अक ज होय तो सप्ततिकाना पण कर्ता आचार्य शिवशर्मसूरि म० नक्की थाय,परंतु अत्यार सुधीना उपलब्ध ग्रन्थोमां के सप्ततिकानी मलयगिरि म० कृत टीका वगेरेमां सप्ततिकाना कर्ता तरीके आचार्य शिवशर्मसूरि म. ना नामनो उल्लेख जणातो नथी अटले अत्यारे तो मात्र कल्पना सिवाय तेनो चोक्कस निर्णय कोई पण प्रबल प्रमाण सिवाय थई शके नहि, परंतु ग्रन्थ प्राचीनकालमा अने पूर्वधरोना कालमां रचायो होय अम तो छेल्ली गाथामां दृष्टिवादना जाणकारोने ग्रन्थ शोधवा माटे करेली विनंति उपरथी जणाय छे, जो के त्यां सप्ततिकामां बहुश्रतोने शोधवा माटे का छे पण "बहुसुया" पदनो अर्थ चूर्णिकारे 'दृष्टिवादना जाणकारो' को छे. जुओ चर्णिनो पाठ "तं खमिऊण 'बहुसुता' तं अबराहं खमिऊण दोसं अघेत्तूण बहुसुता दिट्टिवायण्णे" (पृ० ६९.) वळी सप्ततिका मूलग्रन्थनी साक्षी विशेषणवती ग्रन्थमां आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणे आपेली छे ते पण ग्रन्थनी प्राचीनताने सिद्ध करे छे.सप्ततिकाचणि अ सप्ततिका उपरर्नु प्राचीन विवेचन छे. अने से पण प्राचीन जणाय छे. सप्ततिकाचर्णिना आधारे पू० मलयगिरि महाराजे सप्ततिका उपर टीकानी रचना करेली छे. कषायप्राभूत मूल तथा चूर्णि प्रस्तुत 'खवगसेढी' ग्रन्थमां कषायप्राभूतचूर्णिनो पण सारो अवो आधार लेवामां आव्यो छे. कषायप्राभृत मूलग्रन्थ घणो ज प्राचीन छे, अने पांचमा ज्ञानप्रवादपूर्वनी दशमी वस्तुना त्रीजा प्राभतमाथी तेनो उद्धार थयेलो होय अबु नीचेना उल्लेखो परथी जणाय छे"पुयम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए । पेज्जति पाहुडम्मि दुहवदि कसायाण पाहुडं णाम ।।" (क० प्रा० गा०१) "णाणप्पवादस्स पुव्यस्स दसमस्स वत्थस्स तदियरस पाहुडस्स पंचविहो उबक्कमो।" (क०मा० चूर्णि पृ० २.) मुद्रित कषायप्राभतनी गाथाओ २३३ छे ज्यारे “गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि" अबा उल्लेख परथी १८० सिवायनी बाकीनी ५३ गाथाओ प्रक्षेप गाथाओ होवानो संभव छे. जोके क० प्रा० मूळग्रंथ, चूर्णि तथा जयधवलाटीका साथे मूडविद्रीना दिगम्बरज्ञानभंडारमाथी उपलब्ध थयो छे अने तेनु हिंदी अनुवादसहित अनेक भागोमां भा० दि० जैनसंघ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] प्रस्तावना द्वारा प्रकाशन थई रह्यछे, तथा क० प्रा० मळग्रन्थ चूर्णिनी साथे पं० हीरालाल शास्त्री द्वारा संपादित थई वीरशासन संघ कलकत्ता द्वारा वि० सं० २०१२ मा प्रकाशित थयेल छे, परंतु आटला मात्रथी क० प्रा० मूळ तथा चूणि दिगम्बरपरंपरानां छे अबो निर्णय थई शकतो नथी, केम के दिगम्बरज्ञानभंडारोमां काव्यानुशासन, अभिधानचिंतामणिकोशादि श्वेताम्बराचार्योना ग्रन्थो तेमज श्वेताम्बरज्ञानभंडारोमां दिगम्बराचार्यरचित सिद्धिविनिश्चयटीकादिहस्तलिखितग्रन्थो वर्तमानमां पण उपलब्ध छे. कळी क० प्रा० उपर दिगम्बराचार्योनी टीकाओछे तेथी पण ते दिगम्बराचार्य कृत छे अवो निश्चय थई शकतो नथी, - केम के श्वेताम्बराचार्यकृत ग्रंथो उपर दिगम्बराचार्योनी अने दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थो उपर श्वेताम्बराचार्योनी टीकायो छे. जैनेतरग्रन्थो उपर पण जैनाचार्योनी टीकाओ आजे उपलब्ध थाय छे. पातञ्जलयोगदर्शन नामना जैनेतरग्रन्थ उपर तथा अष्टसहस्री नामना दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ उपर उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराजे टीका रची छे जे वर्तमानमा उपलब्ध थाय छे, तेथी काई पातञ्जलयोगदर्शन अने अष्ट. सहस्री ग्रन्थो श्वेताम्बराचार्यनी कृति तरीके नथी कहेवाता. भगवतीआराधनाना टीकाकारे पोते दशवैकालिक उपर टीका रच्यानो उल्लेख कयों छे, छतां दशकालिकान्य तेमना सम्प्रदायनी कृति नथी कहेवाती, तेवी रीते क० प्रा० मूल तथा चर्णिसूत्रो उपर जयधवला नामनी दिगम्बराचार्यनी टीका होवा मात्रथी ते ग्रन्थ दिगम्बराचार्यनी कृति तरीके निश्चित थई शकतो नथी. अटलु ज नहीं पण (१) कपायाभूत चूर्णि अंतर्गत दिगम्बर परंपराने अमान्य पदार्थो (२) श्वेताम्बराचार्योनी कृतिओमां कषायप्राभृतना आधारो, साक्षी तथा अतिदेशो (३) क० प्रा० मूलग्रन्थ तथा चूर्णिसूत्रना रचयिता (४) रचनानो काल, वगेरे प्रमाणो उपरथी कषायप्राभतमूल तथा तेनी चूर्णि बन्ने श्वेताम्बराचार्यनी कृति अथवा दिगम्बरमतोत्पत्तिपूर्वेनी कृति होवानु विशेषेकरीने जणाय छे. (१) दिगम्बर परंपराने अमान्य तेवा कषायपाभूतचूर्णि अंतर्गत पदार्थों . (i) क्षपकश्रेणिना अधिकारमा क्षपकने सत्तामा कयां कर्मों नियमा अने कयां कर्मो विकल्प होय, ते बतावता चूर्णिकार जणावे छे, "सव्वलिंगेसु च भज्जाणि'' (पृ० ८२७). चूर्णिसूत्रनो अर्थ छे के सर्वलिंगमां बंधायेल कर्मो क्षपकने विकल्पे सत्तामा होय छे, अहीं सर्वलिंगमां निर्ग्रन्थलिंग(द्रव्यचारित्र) पण आवी जाय छे, अटले निग्रेन्थलिंगमां बंधायेल कर्म क्षपकने सत्तामा विकल्प होय छे, अर्थात् होय पण खरं अने न पण होय, आ परथी ओ नक्की थाय छे के क्षपक चारित्रवेवमां होय पण खरो अने न पण होप , चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य-तापसादिना वेशमा रहेल जीव पण क्षपक थई शके छ, अटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बर मान्यताथी विरुद्ध छे, दिगम्बरमान्यताना हिसावे निर्ग्रन्थलिंगमां बंधायेल कर्म तो अवश्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [31 सत्तामां हो जजोई, अनी भजना न होई शके, केमके द्रव्यचारित्र वगर (चारित्रना लिंग वगर) तापसादिना वेशमां केवलज्ञाननी प्राप्ति के क्षपकश्रेणि दिगम्बर परंपराने मान्य नथी. आथी ज चूर्णिनु प्रस्तुत सूत्र निर्ग्रन्थलिंग (चारित्रवेश) विना पण क्षपकश्रेणिनी प्राप्तिनी श्वेताम्बर मान्यताने ज पुष्टिकारक छे, अने अटला ज माटे जयधवलाटीकाकारने प्रस्तुतसूत्रनी व्याख्यामां 'सबलिंग' नो 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाण' अवो अर्थ खेंचीने करवो पडयो छे. चूर्णिसूत्रमाथी आ अर्थ निकळतो ज नथी. जो चूर्णिकारने निर्ग्रन्थलिंगमां बंधायेल कर्म नियमा अने निर्ग्रन्थव्यतिरिक्त लिंगमां बंधायेल कर्म भजनाओ कहेवु होत तो "णिग्गंथेसु णियमा सेसलिंगेसु भज्जाणि" अg कईक जरूर का होत, केम के चूर्णिकार आवा स्पष्ट भेदोपाडे ज छे. क्षेत्र, शाता अशाता, लेश्याओ वगेरेमां बंधायेल कर्मोने लगती सत्ताना चर्णिसूत्रोमां से स्पष्ट रीते जणाय छे. जुओ-'छसु लेसासु सादे असादेण च बद्धाणि अभजाणि । कम्मसिप्पेसु भज्जाणि । खेत्तम्हि सिया अधोलोगिगं, सिया उड्ढ़लोगिगं, णियमा तिरियलोगिगं ।' (क० प्रा० चू० पृ० ८२७) (ii) ऋजुसूत्रनयने कषायप्राभृतचर्णिमां द्रव्यार्थिकनय तरीके जणाव्यो छे. “नेगम-संगह ववहारा सब्वे इच्छंति उजुपुदो ठवणबज्जे" (क० प्रा० चू० पृ० १७.) जयधवलाना प्रस्तावनाकारे का छे के 'दिगम्बर परंपरामा पहेलेथी ज नैगम, संग्रह अने व्यवहारनयने द्रव्यार्थिक अने ऋजुसूत्रादिनयोने पर्यायार्थिक कह्या छे' जुओ-दिगम्बर परंपरा में हम पहिले से ही व्यवहार पर्यन्त नयों को द्रव्यार्थिक तथा ऋजुसूत्रादि नयों को पर्यायार्थिक मानने की परम्परा देखते हैं।" जयधवलाकारे पण द्रव्यनयो नैगमादि त्रण ज स्वीकार्या छे अने ऋजुसूत्रनो पर्यायार्थिक नयमां समावेश को छे. जुओ-"तत्र द्रव्यार्थिकनयत्रिविधः संग्रहो व्यवहारो नैगमश्चेति ।" (जयधवलाभाग १ पृ० २१९ ) पर्यायार्थिकनयो द्विविधः अर्थनयो व्यञ्जननयश्चेति । तत्र ऋजुसूत्रोऽर्थनयः । (जयधवला भाग १ पृ० २२२) अहीं कषायप्राभतर्णिकार ऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिकनयमा समावेश करवा द्वारा श्वेताम्बराचार्यांनी सैद्धांतिक परंपराने अनुसरे छ कारणके श्वेताम्बरोमां सैद्धान्तिकपरम्परा ऋजुसूत्र नयनो द्रव्यार्थिक नयमांसमावेश करे छे. जो के श्वेताम्बर परंपरामांसिद्धसेनदिवाकरसूरि महाराज वगेरे ऋजुसूत्र नयनो समावेश पर्यायार्थिक नयमां करे छे पण ते मतान्तर समजवो. सैद्धान्तिक परंपरा तो ऋजुसूत्र नयनो द्रव्यार्थिकनयमांज समावेश करे छ. जुओ-'आचार्य सिद्धसेनमतेन चेह ऋजुपूत्रस्य पर्यायास्तिकेऽन्तर्भावो दर्शितः । सिद्धान्ताभिप्रायेण तु संग्रह-व्यवहारवद् ऋजुसूत्रस्यापि द्रव्यास्तिक एवान्तर्भावो द्रष्टव्यः तथा चोक्तं सूत्रे-उजुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगं दव्यावस्सयं पुहुत्तं नेच्छइ ।' (वि० आ० भाष्यनी टीका भाग १ पृ० ४३)दिगंबर परंपरामांऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिक नपमा समावेश जणातो नथी, ज्यारे प्रस्तुत चर्णिसूत्र (तथा षटखंडागममूळसूत्र)मां आ रीतनो समावेश जोवामां आवे छे, जे प्रस्तुतचर्णिकार श्वेताम्बर आम्नायने अनुसरनारा अथवा तो दिगम्बरमतोत्पत्तिनी पूर्वे थयानी अमारी मान्यताने विशेष पुष्टि आपे छे. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] प्रस्तावना (२)श्वेताम्बराचार्योना ग्रन्थोमां कषायप्राभृतना आधार, साक्षी तथा अतिदेशो अनेक पूर्वाचार्य( श्वेताम्बराचार्य )भगवंतोना ग्रन्थोमां आपणने कयायप्राभृतनो आधार, कषायप्राभतनी गाथानु उद्धरण, अतिदेशो बगेरे प्राप्त थाय छे, जेमांना केटलाक नीचे प्रमाणे छे. (i) पंचसंग्रहना कर्ताओ पोते पंचसंग्रहग्रन्थनी रचना शतकादि पांच ग्रन्थोना आधारे कर्यान द्वितीय गाथामां जणाव्यु छे. पंच ग्रहनी पहेली गाथानी टीकामां मलयगिरि महाराजे पण शतकादि पांच ग्रन्थोनां नाम आप्या छे, जेमां कपायाभतना नामनो पण समावेश थाय छे __ "सयगाइ पंचगंथा जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता। दाराणि पंच अहवा तेण जहत्थाभिहाणमिणं ।। (पंचसंग्रह गा० २ पृ० ३) टीका:-पञ्चानां शतक-सप्ततिका-कषायप्राभृत-सत्कर्म-कर्मप्रकृतिरक्षणानां ग्रन्थानां अथवा पञ्चानामर्थाधिकाराणां योगोपयोगविषयमार्गणा बंधक बन्दव्य-बन्धहेतु बन्धविधिलक्षणानां सङ्ग्रहः पञ्चसंग्रहः यद्वा पन्चानां ग्रन्थानामर्थाधिकाराणां वा संग्रहो यत्र ग्रन्थे स पंचसंग्रहस्त........ (ii) शतकचूर्णिना हस्तलिखित टिप्पणमां (अद्यापि अमुद्रित) गुणस्थानक अधिकारमा किहिओने लगता विषयमां 'उक्तं च' कहीने अक गाया साक्षी तरीके मूकेल छे. ते आ प्रमाणे "बारस नव छ त्तिन्नि य किट्टीओहोंति अहवणंताओ । एकेकम्मि कसाये तिगतिगमहवा अणंताओ' || प्रस्तुत गाथा मुद्रित कषायप्राभूतमां १६३मी छे. ते आ प्रमाणे"चारस णव छ तिण्णि य किट्टी होति अधव अणंताओ। एक्के कम्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ॥ (क० प्रा० गा० १६३. पृ० ८०६) ___ अहीं फेर मात्र अटलो ज छे के गाथाना उत्तरार्धमां शतकचर्णिटिप्पननी हस्तलिखित प्रतमां 'अहवा' छे, ज्यारे मुद्रित क० प्रा० मां 'अधवा' छे. अने शतकचणि टिप्पणमां गाथाना पूर्वाधमां अहवणंताओ' छ तो मुद्रित क० प्रा० मां 'अधव अणंताओ' छे. आर्याछंदना हिसाबे हस्तलिखितशतकचर्णि टिप्पनगत गाथा विशेष शुद्ध लागे छे. (iii) सप्ततिकाचूर्णिमा केटलांय स्थलोमां चर्णिकारे किट्टिलक्षणादि अंगे कसायपाहुडनो अतिदेश करेलो छ, जे सप्ततिकाचर्णिना नीचेना पाठो उपरथी जणाय छे.-- (१) तं वेयंतो बितियकिट्टीओ तइयकिट्टीओ य दलियं घेत्तूणं सुदुमसापराइयकिट्टी तो करेइ । तेसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे । (पृ० ६६ अ.) (२) एत्थ अपुव्यकरणअणियट्टिअद्धासु अणेगाई वत्तव्यगाई जहा कसायपाहुडे कम्मपगडिसंगहणीए या तहा वत्तव्वं (पृ० ६२ ब.) (३) चउविहबंधगस्स वेदोदए पुरिसवेदबंधे यजुगवं फिट्टे एक्कमेव उदयट्ठाणं लभति । तं चउण्डं संजलणाण एग यरं । एत्थ चत्तारि भंगा; कहं ? भण्णइ, कोयि कोहेण उवट्ठाइ, कोयि माणेण उवदाइ, कोइ मायाए, कोइ लोभेण । एत्थ अएणे अण्णारिसं पढंति । तच्चेदम"पंचाओ य चउक्कं संकममाणस्स होति ते चेव । वेएहिं परिहीणा, चउरो चरिमेसु कसिणेसु ॥" तं च कसायपाहुडादिसु विहडति त्ति काउं परिसेसियं।" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [88 अहीं 'कसायपाहुउ' शब्दथी तेनी चणि पण अंतर्गत समजी लेवानी छे, केम के उक्तविषयोनु दर्शन पूर्णतया आपणने क० प्रा० मूलमां थई शक नथी. सप्ततिका चर्णिकारे कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनो पण केटलांक स्थले अपवर्तनाविधि आदि अंगे अतिदेश कर्यो छे, ते. अपवर्तना विधि आदिनी प्राप्ति पण कर्मप्रकृति मूल अने चर्णि बन्नेमां मळीने थाय छे. सप्ततिकाचूर्णिमां कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनां अतिदेशवाळां केटलांक स्थानो आ प्रमाणे छे - (१) उज्वट्टणाविहि जहा कम्मपगडीसंगहणीए उचलणसंकमे तहा भाणियव्वं । (सित्तरी पृ० ६१ ब०) (२) तत्थ मिच्छदिहिस्स मिच्छत्तउवसामणे विही जहा कम्मपगडीसंगहणीए पढमसम्मत्तं उप्पाएंतस्स सा चेव भाणियव्वा । (पृ० ६१. ब.) (३ अंतरकरणविही जहा कम्मपगडीसंगहणीए । (पृ० ६४ ब.) (४) पढमट्ठितिकरणं जहा कम्मपगडिसंगहणीए । (पृ० ६५ अ.) (१) आमां प्रथमस्थानमां 'उबट्टणाविहि' अटले के, जे अपवर्तनाविधि अंगे कर्मप्रकृतिसंग्रहणीगत उद्वलनासंक्रमनो अतिदेश कयों छे, ते अपवर्तनाविधिनु प्रतिपादन त्यां न कर्मप्रकृतिनी मूलगाथामां नीचे मुजब जोवा मळे छे__ (भथ उचलणसंकमस्स लक्खणं भणति-चूर्णि) "आहारतणूभिन्नमुहूत्ता अविरइगओ पउघलए । जा अविरइओ त्ति उठवलइ पल्लभागे असंखतमे ।। अंतोमुहुत्तमद्धं पल्लासंखिज्जमेत ठिइखंडं । उक्किरइ पुणो वि तहा ऊणूणमसंखगुणहं जा ।। तं दलियं सहाणे समए समए असंखगुणियाए । सेढीए परठाणे विसेसहाणीइ संभइ ॥ जं दुचरिमस्स चरिमे अन्नं संकमइ तेण सव्वं पि । अंगुलअसंखभागेण हीरए एस उचलणा।।" (कर्मप्रकृति-संक्रमकरण गा०६१-६४) जो के उद्वलनाना अधिकारमा अपवर्तनानो विधि चूर्णिमा विस्तारथी प्राप्त थाय छे छतां मूलमां पण अपवर्तना विधिनु वर्णन संक्षेपमां सारी रीते मले छे. (२) सप्ततिकाकार मिथ्यात्वने उपशान्त करवानी विधि कम्मपयडिसंगहणीना प्रथमसम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणामां जोवा जणावे छे. कर्मप्रकृति उपशमनाकरणमां आने लगतो अक जदो अधिकार छे. तथा चूर्णिमां तो ते विस्तारथी छे. (३) अंतरकरणविधि अंगे सप्ततिकाचूर्णिकार कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनो अतिदेश करे छे, कर्मप्रकृति मूलमां प्रस्तुत विषयनी तपास करतां चारित्रमोहनीयनी उपशमनाना अधिकारमा गाथा ४२मां अंतरकरणने लगती मात्र थोडी वात प्राप्त थाय छे, परंतु अंतरकरणविधिनु दर्शन थत नथी. जुओ "संजमघाईणंतरमेत्थ उ पढ़मठिई य अन्नयरे । संजलणावेयाणं वेइज्जंतीण कालसमा ।। (पृ० ४८ कम्म० उपशमना. गाथा ४२.) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] प्रस्तुत गाथामां अंतरकरण वखते प्रथमस्थितिना काल वगेरेनु दिग्दर्शनमात्र छे, परन्तु अंतरकरणनो विधि प्राप्त थतो नथी. प्रथमसम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणामां पण अंतरकरणने लगती गाथाओ . आ प्रमाणे छे प्रस्तावना अनियमित्र एवं तुल्ले काले समा त नामं । संखिज्जइमे सेसे भिन्नमुहुत्तं अहो मुच्चा ॥ गाथा १६. किंचूणमुहुत्तसमं ठिइबंधद्धाए अन्तरं किच्चा । आवलिदुगेक्कसेसे आगाल उदीरणा समिया ॥ गाथा १७. आ गाथाओमां अंतरकरणने लगती प्रथमस्थिति, अंतरनो काल, अंतरकरण क्रियानो काल वगेरे जाणवा मले छे पण अंतरकरण विधि जाणवा मलतो नथी. अंतरकरणविधि ओटले अंतरकरण ज्यां करवानु होय छे ते स्थितिस्थानोमां रहेलां ते ते कर्मोनां दलिकोने क्यां क्यां नाखीने खाली करवां ते. आ अंतरकरणविधि आपणने बन्ने स्थले कर्मप्रकृतिचूर्णिमां उपलब्ध थाय छे, तेमां पण प्रथमसम्यक्त्वोत्पादअधिकार करतां चारित्रमोहोपशमनाधिकारमां विस्तृत रीते मले छे. "अंतरकरमाणे अणियट्टीगुणसेढीनिक्खेवस्स अग्गग्गातो । असंखेज्जतिभागं खण्डेति । ततुकिरिमाणं दलियं पढमट्टितीते बितियद्वितीते य छुभति । एवं अंतरकरणं कयं भवति" । (उपशमनाकरण प्रथमसम्यक्त्वोत्पादअधिकार गाथा - १६-१७नी चूर्णि ) जाहे अन्तरं करे उमादत्तोता हे अन्नं द्वितिं च बंधति अन्नं द्वितिखण्डगं अणुभागखण्डगं च करेति । अणुभागसहस्सेसु गतेसु अन्नं अणुभागखण्डगं तं चेव द्वितिखण्डगं सो चेव द्वितिबन्धो, अन्तरस्स उक्किरणद्वा य समगं समप्पेति । अन्तरं करेन्तो जे कम्मंसे बंधति वेदेति तेसिं उक्किरिज्जमाणं दलिय पढमे बिइए चट्ठिए देति । जेकम्मंसा ण बज्झन्ति वेतिज्जन्ति तेसि उक्किरिजमाणा पोग्गले पढमट्ठितीसु अणुकिरिमाणीसुदेति । जे कम्मंसा बज्झति न वेतिज्जन्ति तेसिं उक्किरिजमाणगं दलियं अणुक्किरिजमाणीसु ती देति । जे कम्मंसा ण बज्झन्ति ण वेतिजन्ति तेसिं उक्किरिजमाणं पदेसग्गं सट्ठाणे ण दिज्जति परट्ठाणे दिज्जति । एएण विहिरणा अंतरं उच्छिन्नं भवति । (चूर्णि गाथा ४२. पृ० ४७ ) आम प्रस्तुत अंतरकरणविधिनु' दर्शन कर्मप्रकृतिमूलने बदले चूर्णिमांज विशेषतया थाय छे. (४) आ विषयी प्राप्ति कर्मप्रकृतिमूलमां नथी थती पण कर्मप्रकृतिचूर्णिमां माननी प्रथमस्थितिकरणविधि बतावी छे त्यां थाय छे, जे आ प्रमाणे छे " जाहे चेव कोहस्स बंधो उदओ, उदीरणा य वोच्छिन्नानि ताहे चेव माणस्स पढमट्टितं बीर्यातीतो दलियं घेत्तृण करेति, पढमसमयवेयगो पढमठिति करेमाणो पढमसमते उड़ते पदेसग्गं थोवं देति से काले असंखेज्जगुणाए सेढिए देति जात्र पढमट्ठितीए चरमसमतो त्ति ॥” ( कर्मप्रकृति उ० गा०४८ नी चूर्णि पृ०-५७.) आम 'कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनो' अतिदेश होवा छतां उक्त विषयोनी प्राप्ति आपणने क्यांक कर्मप्रकृतिमूलमां तथा क्यांक कर्मप्रकृतिचूर्णिमां थाय छे. हवे आपणे सप्ततिका चूर्णिमां रहेला कषायप्राभृतना अतिदेशवाळां स्थानोनी विचारणा करी लईओ. (१) प्रथमस्थानमां तं वेयेतो. ...... Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 13 ..........तेसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे" अही सूक्ष्म सम्रायबिट्टीओना लक्षण अंगे कसायपाहुडनो अतिदेश कयों छे. किन्तु सूक्ष्मकिट्टीओर्नु लक्षण क० प्रा० मूलमां नथी देखातु पण कषायप्राभृतचूर्णिमां आ प्रमाणे मले छे__ "तानि सुहुम तां पराइयकिट्टीणं कम्हि द्वाणं ? तासि टाणं लोभस्स तदियाए संग्रहकिट्टीए हेह्रदो। (पृ. ८६२) आ किट्टिनु लक्षण छे. अहीं आपणे 'तासिं' पदथी जो सूक्ष्मकिट्टीने बदले सामान्यथी मिट्टीचें लक्षण लेपा होय तो तेनो अधिकार कायप्राभृतमूल तथा चर्णि बनेमां आ प्रमाणे मले छ -“लवणव च किमोर त्ति एत्य एक्का भासगाहा । तिसे समुक्कित्तणा।। "गुणसेढि अणंतगुणा लोभादिकोधपच्छिमपदादो । कम्मस्स य अगुभागे किट्टीर लक्षणं एवं ॥ (गाथा १६५ पृ० ८०७.) विहाता । लोभम्स जहणिया किट्टी अणुभागेहि थोत्रा। विदिय किट्टी अणुभागेहि भणंतगुणा। नदि ट्रिी अगुभागेडिं अणंतगुणा । एवमणंतराणतरेण सञ्वत्थ अणंतगुणा जाव कोधस्स चरमकिट्टीत्ति । उगाया कि किट्टां धादियआदिवाणार अणंतभागो । एवं किट्टी थोयो अगुभागो। किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा फिट्टी। एदं लक्खणं ।' (क० प्रा० पृ० ८०८) (२) एथ...... ......... .................तहा वत्तव्यं । ही कयायप्राभृत अने कर्मप्रकृतिसंग्रहणी बन्नेनो, अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणने लगती जे अनेक वातो अंगे सप्ततिकाचर्णिकारे अतिदेश को छे, ते वातो आपणने कर्मप्रकृतिमूलमां तथा चर्णिमा बन्नेनां विस्तारथी मले छ. कर्मप्रकृतिमूलमा अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणना वायने लगती प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्यादअधिकारमा केटलीक गाथाओ छ (गाथा नं. ११ थी १७) अने चूर्णि पण त्यां विस्तारथी छ, तथा कषायप्राभूतचूर्णिमां विस्तारथी मले छे. ( ३ ) चउविबंधास्स वेदोदए........ ... . इति परिसेसियं । अहीं 'कषायपाहुडादिसु विहडतित्ति' वगेरे जे सप्ततिकाकारे का छे ते तो सप्ततिकाचूर्णिकारे पोते खाल कथायग्रामतने ज अनुसरवानु पोतानु वलण बतावेल छे. त्यां मुख्य विषय मे छे के 'मोहनीयना पांचना बंधक अने बे(वेद अने काय)ना उदयवाळा जीपने पुरुषवेदनो बंध अने उदय साथे जाय छे' तेथी चारना बधे अंक प्रकृतिना उदयस्थाननी प्राप्ति थाय छे, अत्रो कनारमाभृतनो मत छ. ज्यारे अन्य आचार्योनो मत भवो छ के 'पुरुषवेदना बंधविच्छेद पछी उदयविच्छेद जाय छे.' तेथी तेओ चारना बंधे पण बे नो उदय थोडो काल माने छ, सप्ततिकार अहीं अन्य आचार्योना मतनी पंचाओ........... वगेरे गाथा रजू करी कषायप्राभतादिमां ते मत नथी मान्यो माटे अमे छोडी दई छीओ, अम स्पष्ट रीते जणावे छ. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86%] आम सप्ततिका चूर्णिकारे जे विषय अंगे कपाप्राभृतचूर्णिनो अतिदेश क्यों छे, तेव योनी प्राप्ति आपणने कैटलेक ठेकागे कायामृतमूलमां तथा केडलांक स्थळे कपानप्राभूतचूर्णिमां थाय छे, अटलु ज नहि, शतकचूर्णिमां पण वर्गणाओना वर्णन वखते धुवाचित आदि वर्गगाओनां नाम, पुलो प्रमाण, वर्गणाओनी संख्या वगेरे आप्युं छे, पण वर्गणाओनो अर्थ जोन माटे "एतासि अत्थो जहा कम्पयसिंगहणी" ( शतक चूर्णि पृ० ४३ ) कहने कर्म प्रकृति संग्रहगीनो अतिदेश कर्यो छे अने ते अर्थनी प्राप्ति आणने कर्म कृतिमूलनां नहि पग चूर्णिमां जोगा मले छे. आ बधा परथी ओम नक्की थाय छे के कर्म प्रकृतिसंग्रहणी अने कपावप्राभृतना नामथी अतिदेशोमां तेनी चूर्णिओ पण लई शकान छे. कर्मप्रकृति अंगेती विचारणामां आपणे अ पण जोई गया छीओ के कसायपाहुडमां अप्रशस्तउपशमना अंगे कर्मप्रकृतिनो अतिदेश छे अने ते अशस्तोपशमनानी प्राप्ति कर्मप्रकृतिसंग्रहणीनी मूलगायाओमां पण मले छे, आ वधुं जोतां कपाचप्राभृतमूल तथा चूर्णि बने अतिप्राचीन अने श्वेताम्बर परंपराने अनुकूल ग्रंथो छे से स्पष्ट निश्चित थाय छे. कपायप्राभृतमूल तथा चूर्णिनी रचनानो काल कषायप्राभृतमूल तथा चूर्णिना रचना कालनी विचारणा पण अमारी उपरोक्त मान्यताने ज वधु पुष्टि आपे छे. कपायप्राभृतमूलमां के चूर्णिमां तेना कर्ताना नामनो उल्लेख नथी, तेनाकर्ताना नामनो उल्लेख जयधवलाटीकाना मंगलाचरणमां प्राप्त थाय छे, अने ते उल्लेख पण कायप्राभृतमूलना कर्ता तथा चूर्णिना कर्ता श्वेताम्बर परंपराने मान्य होवानु' अने दिगंबरमतोत्पत्तिथी पूर्वकालीन होवानु' निश्चित करवामां ज विशेषे करीने सहायक छे, कप यत्राभूतमूलना तथा चूर्णिना कर्ता अंगे जयधवलाकारनो उल्लेख आ प्रमाणे छे. प्रस्तावना "जेहि कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं भणतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर भडारयं वंदे ||६|| गुणहरवयणविणिग्गयगाद्दाणत्थोवहारिओ सव्वो । जेणज्जमखुणा सो सण हत्थी बरं देऊ ||७|| जो अज्जमंखुसीसो अंतेवासी विणा इत्थि । सो वित्तिमुत्तकत्ता जइत्रसहो मे वर देऊ ॥ ( जयधवला भा. १ पृ० ४) जयधवलाना आ श्लोको कपायाभूतमूलना कर्ता तरीके गुणधर अने चूर्णिना कर्ता तरीके आर्यमंगुना शिष्य अने आर्यनागहस्तीना अंतेवासी यतिवृषभनु नाम जगावे छे, अटल ज नहीं पण एक स्थळे जयधवलामां गुणवाने वाचक तरीके पण कया छे, "एतेन शङ्का द्योतिता आत्मीया गुणधरवचाकेन” । काप्राभृतमूलना कर्ता गुणधरनो वाचक तरीके उल्लेख अने मना तरी आनं अने आर्थनागहस्तीने थयेल यातना अर्थनी प्राप्ति बन्ने वातो कायप्राभृतना कर्ता गुणधर वाचकवंशमां थया होवानुं विशेषे करीने सिद्ध करे छे, केम के आर्यमं अने आर्यनागहस्ती तो वाचकांशमां सुप्रसिद्ध छे अने आर्यनागहस्ती कर्मप्रकृति वगेरेना विशेष जाणकार होवानो पण उल्लेख छे. आ वधु जोतां गुणधरवाचक, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [37. आर्यमंगु-नागहस्तीना समानकालीन अने चूर्णिकार यतिवृषभाचार्य आर्यमंगु-नागहस्ती पछी नजीकना कालना होय तेम विशेष करीने जणाय छे. आर्यमंगु, आर्यनागहस्ती वगेरेने लगती वाचकवंशनी पट्टावलि नंदिसूत्रमा आ प्रमाणे आपेली छे-- "सुहम्मं अग्गिवे साणं जंबूनाम च कासवं । पभवं कच्चा यणं वंदे वच्छं सिजंभवं तहा ॥२३॥ जसभद्दतु नियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । भदबाहुच पाइन्नं थूलभदं च गोयनं ॥२४॥ एलाबच्चसगोत्तं वंदामि महागिरिसुत्थिं च । तत्तो कोसिअगोत्तं बहुलस्स सरिव्वयं वन्दे ॥२५॥ हारियगोत्तं साइंच वधिमोहारियं च सामजं । वंदे कोसियगोत्तं संडिल्लं अजजीयधरं ॥२६॥ तिसमुदखायकित्ति दीवसमुसु गहियपेयालं । वंदे अजसमुद अक्खुभियसमुदगभीरं ॥२७॥ भणगं करगं इरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं । वंदामि अजमंगु सुयसागरपारगं धीरं ॥२८॥ नाणमिदंसणंमि अतवविणए णिचकालमुज्जुत्तं। अजनंदिलखमणं सिरसावंदे पसन्नमणं ।।२९।। वड्दउ वायगवंसो जसवंसो अजणागहत्थीणं । वागरणकरणभंगियकम्मपयडीपहाणाणं ॥३०|| (नंदिसूत्र पृ० ४८ थी) नंदिमूत्रनी आ गाथाओमां आपणने भगवान सुधर्मास्वामीथी आर्यनागहस्ती सुधीनी पाटपरंपरा प्राप्त थाय छे, जो के नंदिसूत्रमा तो तेना कर्ता देववाचके छेक पोताना सुधीनी परंपरा बतावी छे, परंतु अहीं ओ बधी उपयोगी नथी माटे आर्य नागहस्ती सुधीनी गाथाओ ज अत्रे वतावी छे. क्रमशः पाटपरंपरामां आवता आचार्योनां नाम आ प्रमाणे छे (१) सुधर्मा भगवान (भग्निवेश्य गोत्र) (२) जम्बूस्वामी (काश्यपगोत्र) (३) प्रभवस्वामी (कात्यायनगोत्र) (४) शय्यंभवस्वामी (वत्सगोत्र) (५) यशोभद्रस्वामी (तुगिक गोत्र) (६) संभूतिविजय (माढरगोत्र) (७) भद्रबाहुस्वामी (प्राचीन गोत्र) (८) स्थूलभद्रस्वामी (गौतम-गोत्र) (९) आर्यमहागिरि (एलापत्य गोत्र) (१०) आर्यसुहस्ती (एलापत्य गोत्र) (११) आर्यवलिस्सह-(कौशिक गोत्र) (१२) आर्यस्वाति (हारीतगोत्र) । (१३) आर्यश्याम (हारीतगोत्र) (१४) आर्यशांडिल्य (कौशिक गोत्र) (१५) आर्य समुद्र (१६) आर्यमंगु (१७) आर्यनंदिल (१८) आर्यनाराहस्ती अहीं 'अजजीयधरं' पदनी व्याख्या टीकाकार मलयगिरिमहाराजे आर्य शांडिल्पना विशेषण तरीके करी छे, साथे 'अन्ये तु व्यावक्षते' कहीने आर्यजीतधरने शांडिल्यना शिष्य तरीके बताच्या छे. उपरनी पट्टावलीथी जाणी शकाय छे, के आर्यमंगु अने आर्यनागहस्ती वगेरे भगवान सुधर्मास्वामीनी पाटपरंपरामां आ रीते लगभग १६ मा अने १८ मा आवेल छे. "वडढउ वायगवंसो जसवंसो अजणागहत्थीण" आ उक्ति अपग बतावे छे के आ बधानो वंश वाचक वंश हतो, उपरनी पट्टावलिमा आर्यस्वातिना नामनो उल्लेख छ, सभवतः ते तचार्थमूत्रना कर्ता Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] वार्य उमास्वाति महाराज छे. आर्यश्याम आर्यस्वातिना "शिष्य ने पनत्रणाना कर्ता छे. आ बघा वाचक तरीके प्रख्यात छे, ओटलु जनहि पण पन्नासूत्री टीका कोरेनां वाचकनो अर्थ पूर्वचित् (पूर्वघर) कर्यो छे. प्रस्तावना वळी श्रुतावतारमां अत्र स्पष्ट निर्देश छे के गुणवरमुनिओ करारानी १८३ गावा तथा अना विवरणनी ५३ गाथा रवी छे अन तेओर तेनी बावना आर्यमंधु अने आर्य गतीन आपीछे जुओ श्रुतावतार गाथा- १५२-१५३-१५४. भथ गुणधरमुनिनाथः सकपायप्राभृतान्त्रयं तत् । प्रायो दोषप्राभृतका रसंज्ञां साम्प्रति कशक्ति उपेक्ष्य ।। १५२३ काशीत्या युक्त शतं च मूलसूत्रगाथानाम् । विवरणगावानां च व्यधिकं पञ्चाशतमकार्षी ॥ १५३॥ एवं गाथासूत्राणि पंचदशनहाधिकाराणि । प्रविरत्र्य व्याचख्यौ स नामहस्त्याय मनुभ्याम् || १५४|| जो के श्रुतावतारमां इन्द्रनन्दि जणावे छे के 'गुणधर, धरसेनना अन्वय (वंश) ने अमे जाणता नथी' परन्तु गुणवरमुनिओ कपायाभूतनी आर्यमंगु अने नागहस्तीने वाचना आम्दानी वात तो श्रुतावतारमां स्पष्ट बतायी छे. आ वधा उपरथी नक्की थाय छे के कपायाभूतना कर्ता गुणधरवाचक वाचक वंशमां आर्यमंगु अने नागहस्तीना समानकालिक होवा जोई अने तेनी पासेथी कषायप्राभृतनी प्राप्ति आर्यमंगु अने आर्य नागहस्तीने थई होगी जो आर्यमंगु तेमज आर्य नागहस्तीनी पाथी यतिवृषभाचार्यने क० प्रा० नो अर्थ प्राप्त थयो अने तेनः उपरथी यतिवृपभाचार्ये चूर्णिसूत्रोनी रचना करी होवी जोईओ. श्रुतावतारमां यतिवृषभे आमंगु अने नागहस्ती पासे कषायप्राभृतनुं अध्ययन करीने चूर्णिमूत्रनी रचना कर्यानो आ प्रमाणे उल्लेख पण छे- पार्श्वेतयोर्द्वयोरप्यधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभः । यतिवृषभनामधे ने बभूव शास्त्रार्थनिपुणमतिः || १५२|| * तेन ततो यतिपतिना तद्वायावृत्तिसूत्ररूपेण । रचितानि पट्सहस्रपन्थान्यथ चूर्णिसूत्राणि ॥ १५६ ॥ अहीं पूर्वनी गाथा साथै सम्बन्ध होवानः कारणं 'तयोः ' पद थी आर्यमंगु अनं आर्य नागस्ती लेवाना छे. अहीं अक प्रश्न थाय के वाचकवंशनी रक्त पट्टावलिमां गुणधरवाचकना नामनो उल्लेख केम नथी ? अनु समाधान ओ छे के पट्टावलिमां पाटपरंपरामां आवनार प्रधानपुरुषोनां ज नामोनो उल्लेख होय छे, ज्यारे ते सिवाय तत्कालीन जे महापुरुषो थया होय तेमनां नामो पट्टामां नथी पण आवतां, तेथी गुणवरवाचक पण आवी ज रीते पाटपरंपरामांन आता होवाना कारणे तत्कालीन पूर्ववर पुरुष होय, तो पण तेमनो पट्टावलिमां नामनिर्देश न होय ओ बने, परंतु तेटला मात्रथी तेमनां अस्तित्वनो निषेध थई शकतो नथी. आर्य मंगुनो काल वीर संवत ४६७ लगभग नो छे, “४६७ वर्षे आर्य मंगु-वृद्धवादि पाइति श्रीसिद्धसेनाद्या वार्या बभूवुः " (गुरुपट्टाबलि- पट्टात्रलीसमुच्चयः पृ० १६६ ) ओटले कावप्राभृतचूर्णिनी रचनानो काल पण Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 39 वीरसंवत ४६७ लगभगनो होई शके छ, केम के चूर्णिकार आर्यमंगुना शिष्य अने आर्यनागहस्तीना अंतेवासी छे. अहीं शिष्य अने अंतेवासी अम बे जुदा शब्दोनु रहस्य ओ होई शके के आर्यनागहस्तीनी निकटमां विशेष श्रुत भणवा माटे रहेनारा अने आर्यमंगुना शिष्य. गमे तेम होय पण यति. वृषभाचार्ये आर्यमंगु अने नागहस्ती बन्ने पासे कषायप्राभृतनो अभ्यास कर्यो छे अने त्यार पछी चर्णिसूत्रनी रचना करी छे, अटले संभव छे के आर्थनंगु अने नागहस्तीना काल दरमियान ज चर्णिमूत्रनी रचना थई होय, अथवा तेमना पछी नजीकना कालमां थई होय. दिगंबरमतोत्पत्तिनो काल वीर संवत ६०० पछी छे. अटले प्रस्तुत कषायप्राभृतमूल तथा चर्णिसूत्रनी रचना दिगंबरमतनी स्थापना पूर्वेनी छे अने तेथी प्रस्तुत बन्न ग्रन्थो बन्ने परंपराने मान्य बन्या होवानो संभव छे. पूर्वे पण आपणे जोई गया छीओ के पंचसंग्रह, सित्तरीचर्णि, शतकचर्णि आदिमां कवायप्राभूतने लगती वातो छ तेमज कर्मप्रकृतिनी भलामण कषायप्राभृतचूर्णिमां छे. आथी सूचित थाय छे के कषायप्राभत तथा तेनी चूर्णिने पंचसंग्रहकार, सप्ततिकार्णिकार, शतकचर्णिकार वगेरेए मान्य करी छे. कर्मप्रकृतिने कषायप्राभतचूर्णिकारे पण मान्य करी छे, ॲटले क० प्रा० चणि अतिप्राचीन तेमज प्रामाणिक ग्रन्थ छे. कषायप्राभूत चूर्णिनी रचनाना काल अंगे वर्तमान संपादकोनी मान्यता ___ कपायप्राभूतमूल तथा चूर्णिनी रचनाकालना आपणा अनुमानथी विरुद्ध जयधवलाकारना उल्लेख तथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी बे गाथा उपरथी कषायप्राभतर्णि तथा जयधवलाना वर्तमान संपादको जे मान्यता ऊभी करी छे, तेनी पण आपणे थोडी समीक्षा करी लईओ. जयधवलाकारे प्रारम्भमां मंगलाचरणमां कषायप्राभृतमूलना कर्ता गुणधर तथा चूर्णिना कर्ता तरीके आर्यमंगु- आर्यनागहस्तीना शिष्य-अन्तेवासी यतिवृषभाचार्यना नामनो उल्लेख मात्र कर्यो छे, पाछळथी द्रव्यागमनी प्रमाणभूतता बतावता जयधवलाकार कषायप्राभतमूलनी रचना करनारने तेमज आर्यमंगु, आर्यनागहस्ती अने यतिवृषभाचायने वीर संवत ६८३ पछी घणा काळे थयेल बतावे छे. तेमना मत मुजब वीर संवत ६८३ वर्षे लोहाचार्यनो स्वर्गवास थयो अने तेनी साथे आचारांगनो पण विच्छेद थयो, त्यार पछी सर्व आचार्यों अंग तथा पूर्वना अकदेशना ज्ञानवाळा थया अने तेमनी परंपराथी अंग अने पूर्वना अक देशनुज्ञान गुणधराचायने मल्यु, तेमणे कालना प्रभावे ग्रन्थविच्छेदना भयथी 'ज्ञानप्रवाद' नामना पांचमा पूर्वनी दशमी वस्तुना त्रीजा पेजदोषपाहुउनो कषायमाभृतग्रन्थरूपे १८० गाथामां उपसंहार (संग्रह)कर्यो. ते पछी आचार्यपरंपराथी चाली आवती ते सूत्रगाथाओ आर्यमंगु अने आर्यनागहस्तीने प्राप्त थई अने ते बन्नेना पादमूलमा गुणधराचार्यना मुखमांथी निकळेली मे १८० गाथाओ ( कायप्राभृतमूल ) ने सम्यग् रीते सांभळी यतिवृषभभट्टारके चूर्णिसूत्रनी रचना करी. जपधवलानो आ संपूर्ण उल्लेख तेमना ज शब्दोमां रजू करी छीओ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना __“पुणो लोहाइरिए सग्गं गदे आयारंगस्स वोच्छेदो जादो । एदेसि सम्वेसि कालाणं समासो छसदपासाणि तेसीदिवासेहि समहियाणि ६८३ । वड्ढमाणजिणिंदे णिव्वाणं गदे पुणो एत्तिएसु वासेसु अइकतेसु एदम्हि भरहखेत्ते सव्वे आइरिया सम्वेसिमंगपुयाणमेगदेसधारया जादा । ____तदो अंगपुन्याणमेगदेसो चेव आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरिय संपत्तो । पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवादपंचमपुव्व-दसमवत्थुतदियकतायपाहुडमहण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण पत्रयणवच्छलपरवसीकयहियएण एदं पेजदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदिसदमेत्तगाहाहि उवसंघारिदं । पुणो ताओ चेत्र सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अज्जमखु- णागहत्थीणं पत्ताओ । पुणो तेसिं दोण्हंपि पादमले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलपिणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं ।" (जयधवला भाग १. पृ० ८६.) तिलोयपण्णत्तिग्रन्थने अन्ते बे गाथाओ आ प्रमाणे छे. "पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं । दटठूण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाढरकवसह।। चुण्णिस्सरूवत्थकरणसरूवपमाण होइ किं जंतं । अट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामार॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी आ बे गाथा परथी त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवृषभने तेओ माने छे अने त्रि० प्र० मां वीर संवत १००० सुधीना राजाओनो इतिहास होवाना कारणे तेनी रचना वीर संवत१००० पछीनी होवान सिद्ध करे छे तथा क० प्रा० चर्णिना कर्ता तरीके यतिवृषभना नामनो उल्लेख जयधवलामा मले छे, तेथी बन्नेना कर्ता यतिवषम अक मानी,कषायप्राभतचूर्णिनी रचना पण वीर संवत १००० पछी थी थई होवानुनक्की करवानो सम्पादकोए प्रयास कयों छे. उक्त मान्यतानी समीक्षा जयधवलाकारना कथन तथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी गाथा उपरथी ऊभी करेली उक्त मान्यता युक्तिसंगत नथी. तेनां कारणो आ प्रमाणे छ, (१) जयधवलाकारना आ उल्लेख तथा श्रुनावतार सिवाय दिगंबर प्राचीन हजारो ग्रन्थोमां तथा पट्टावलिओमांक्यांय वाचकवंशनो, आर्यमंगु, आर्यनागहस्ती के यतिवृषभ वगेरेमांथी कोईनो पण उल्लेख प्राप्त थतो नथी. जयधवलाना प्रस्तावनाकार पोते पण आ बावत खास जणावे छ,जुओ___ "और इन दोनों आचार्योका भी उल्लेख धवला, जयधवला और श्रुतावतारके सिवाय उपलब्ध दिगंबर साहित्यमें अन्यत्र नहीं पाया जाता है।" (पृ०४४.) । जयधवला अने श्रुतावतारमा पण मात्र कषायप्राभृतनी रचना सिवाय गुणधर आर्यमंगु अने नागहस्ती वगेरे विषे कोई विशेष वात जाणवा मलती नथी, श्रुतावतारमा इन्द्रनन्दि जणावे छ के गुणधरवाचकनो वंश तेना जाणकार मुनिजनोना तथा आगमोना अभाव अमने जाणवा मलतो नथी, जुओ जमुद्रित त्रि० प्र० मा0 पाढए' एवो पाठ छे. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [41 गुणधरधरसेनान्त्रयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागम मुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥ त्यारे श्वेताम्बरोनी अनेक पट्टावलिओ उपरांत नंदिसूत्र मूल, तेनी चूर्णि, टीकाओ, हिमत - थेरावली वगेरेमा आर्यमंगु, आर्यन गहस्ती तथा वाचकवंशनो उल्लेख उपलब्ध थाय छे, उपरांत बृहत्कल्प, उपदेशमाला आदि श्वेताम्बरपरंपरामान्य ग्रन्थोमां आर्यमंगुना नामनो उल्लेख अनेक स्थले छे, अटलु' ज नहि पण आर्य मंगुनु कांईक टू'कुं जीवनचरित्र पण ★ निशीथचूर्णिमां उपलब्ध थाय छे. जो के कल्पसूत्रनी पट्टावलिमां आर्यमंगुनु तथा आर्यनागहस्तीनुं नाम नथी आपण ते कारण ओ छे के कल्पसूत्रपट्टावलीमां श्रमण भगवान महावीरदेवनी पाटपरंपरामां आर्यमहागिरि तथा आर्यसुहस्ती बतान्या पछी आर्यमुहस्तीनी पाटपरंपरा बतावी छे, ज्यारे आर्यमंगु अने आर्यनागहस्ती आर्यमहागिरिनी पाटपरंपरामां थयेल छे. नंदिमूत्रनी पट्टावली आर्यमहागिरिनी पाटपरंपरानी छे, तेथी तेमां तेमनां नाम आवे छे. जुओ नंदिनी मलयगिरि म० नी टीका प्रस्तावना “तत्र सुहस्तिन आरभ्य सुस्थितसु प्रतिबद्धादिक्रमेणावलिका विनिर्गता सा यथा दशाश्रुतस्कन्धे तथै या न तयेाधिकारः, तस्यामावलिकायां प्रस्तुताध्ययनकारकस्य देववाचकस्याभावात् तत इह मद्दागिर्यावलिकयाधिकारः " ( नंदिसूत्र मलयगिरिटीका पृष्ठ ४९ ) • चळी आर्यमंगुनो के नागहस्तीनो काल जो के नंदिसूत्रनी पट्टावलिमां बताव्यो नथी, परंतु अन्यत्र पट्टावलिओमां आर्यमंगुनो काल वी० सं० ४६७ लगभगनो बतावेल छे. हिमवंतराव लिमां मंगु ने नागहस्तीना कालनो स्पष्ट निर्देश नथी पण आगळ पाछळना आचार्योंना कालनिर्देशना हिसावे आर्य मंगुनो ४६७ लगभगनो अनं नागहस्तीनो तेनी नजीनो काल जणाय छे. हिमवंतराव मां आचार्योंनो क्रम आ रीते बताव्यो छे अहीं इन्द्रनन्दि, गुणधर साथै धरसेननी पण वंशपरंपरा पोते जाणता नथी. प्रेम जणावे छे. धरसेनाचार्य पासेथी ज्ञानने प्राप्त करी भूतबलि भने पुष्पदन्ते षट्खंडागमनी रचना करी छे. आ षट्खंडागमना सूत्रो मां भवती स्त्रीने संयतादिगुणस्थानकोनी प्राप्ति भने ऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिक नयमां अन्तर्भावादिने लगती ताजता प्रस्तुत ग्रन्थ पण श्व ेताम्बराम्नायने वधु अनुकूल छे. पण आ प्रस्तावनामां ये प्रन्थने लगती विचारणा अप्रस्तुत होई अमे थे बाबतमां उल्लेख करता नथी. भेने लगतु अमे जे संशोधन कयुं छे ते पण अवसरे प्रकाशमां लाववानी भावना रास्त्रीओ छोभे. A ओ बृहत्कल्पभाग १ - पृ० ४४ ★ निशीथचूर्णि भा० २५० १२५, भा० ३ पृ० १५२. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49] प्रस्तावना मार्यमहागिरि भार्यबहुल भार्यबलिस्सह (अंगविद्याशाखना कर्ता) भार्यस्वाति (तत्त्वार्थसूत्रना कर्ता) भार्यश्यामाचार्य (पन्नवणासूत्रना कर्ता) आर्यशांडिल्याचार्य भार्य जीतधर आर्यसमुद्र आर्यमंगु आर्यनंदिल आर्यनागहस्ती आर्यरेवतिनक्षत्र आयसिंह आर्य मधुमित्र आर्यस्कंदिल आर्यगंधहस्ती विक्रमार्क १५३मां वर्षे दुकाल तत्त्वार्थसूत्रपर ८० हजार श्लोकप्रमाण महाभाष्य पछी निर्ग्रन्थोने एकठा करी ११ रच्यु तथा विक्रमार्क २०० पछी आचारांगादिनु विवरण कयु. अंगोने संकलित कर्या. वळी हिमवंतरावलिमां आर्यबलिस्सहे, आर्यस्वातिए अने आर्यश्यामाचार्ये उपरोक्त ग्रन्थोनी रचना खारवेल राजानी विनंतिथी करी होवानुजणाव्युछे अने खारवेलनो राज्यकाल पण वीरसंवत ३०० थी ३३० सुधीनो बताव्यो छे, एटले उपरोक्त त्रणे आचार्योनु ते काले अस्तित्व होय एम जणाय छे. वळी अन्य पट्टावलीओमां पण वीर संवत ३७६मां श्यामाचार्य काल करी गयानो उल्लेख छ "तच्छिष्यः श्यामाचार्यः प्रज्ञापनाकृत् श्रीवीरात् षट्सप्तत्यधिकशतत्रये स्वर्गभाक्' । श्यामाचार्य अने आर्यमंगु बच्चे के आचार्यो आवी गया अटले आर्यमंगुनो निर्वाण काल पण वीर संवत ४६७ लगभगनो संगत थाय छे. आर्यमंगु पछी वळी चार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 43 आचार्यो वा बाद आर्यस्कंदिल आवे छे, अने तेमने विक्रम संवत १५३मां ओटले के वीर संवत ६२३मां अगियार अंगो संकलित कर्यां छे, ओटले आ उपरथी नागहस्तीनो काल आर्यमंगुनी नजीको हो म जणाय छे. हिमवंतरावलिना पाठो आ प्रमाणे छे 1 “आर्यमहागिरीणां जिनकल्पितुलनां कुर्वतां बहुलाख्यो विनेयवरो जिनकल्पितुलनामकरोत् । बलिस्सहुश्च पश्चात् स्थविरकल्पमभजत् । बलिस्सह शिष्याः स्वात्याचार्याः श्रुतसागरपारगास्तत्त्वार्थ सूत्राख्यं शास्त्रं त्रिहितवन्तः । तेषां शिष्यैराश्यामैः प्रज्ञापना प्ररूपिता । श्यामार्गशिष्याः स्थविरा: शाण्डिल्याचार्याः श्रुतसागरपारगा अभवन् । तेषां शाण्डिलाचार्याणां आर्यजीतधरा ऽऽर्य समुद्राख्यौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यसमुद्रस्याऽऽर्यमङ्ग नामानः प्रभावकाः शिष्या जाताः । आर्यमंगूनां चाऽऽर्यनंदिलाख्याः शिष्या बभूवुः । आर्यनंदिलानां चाऽऽर्यना गहस्तिनः शिष्या बभूवुः । आर्यनागहस्तिनां चाऽऽर्यरेवती नक्षत्राख्याः शिष्या अभवन् । आर्यरेवती नक्षत्राणां आर्यसिंहाख्याः शिष्या अभवन् । ते च ब्रह्मद्वीपिकाशाखोपलक्षिता अभूवन् । तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्राऽऽर्यस्कंदिलावार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीव विद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वस्थविरोत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम् । एकादशांगोपरि चाऽऽर्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विवरणानि रचितानि । यदुक्त तद्रचिताचाराङ्गविवरणान्ते यथा रस्सममित्तस्स सेहेहिं तिपुव्वनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविवंदिएहिं ववगयरागाइदो सेहिं ॥१॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गंधहत्थिविबुहेहिं । विवरण मेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ||२|| (१०९.) तयणंतर वीराओ णं तिसयवासेसु विइक्कते सु वुड्ढरायपुत्तो भिक्खुराभो कलिंगा हिवो संजाओ ।" ( पृ० ६) इइ ताणं सव्वाणं णिग्गंठाणं विभाइत्ता कयट्ठो भिक्खुरायणिवो कगंज लिपुडो बलिस्सहुमसाइ सामजाणं थेराणं णमंसित्ता जिणपत्रयणमउडकपपायरस दिट्टिवायरस संगहट्ठा विण्णवेइ । इइ तेणं णिवेणं चोइरहिं तेहि थेरेहिं अज्जेहिं य अवसिहं जिणपत्रयणं दिट्ठिवायं णिग्गंठगणाओ थोवं थोवं साहित्ता भुज्ज-तालवक्कलाइपत्तेसु अक्खरसन्निवायोवयं कारइत्ता भिक्खुराय - णिवमणोरहं पूरित्ता अज्जसोहम्मुइव एसिय-दुवालसंगीरक्खआ ते संजाया। समणाणं णिग्गठाणं णिग्गंठीण य जिणपवयण सुलह बोहट्ठ णं अज्जसामेहिं थेरेहिं य तत्थ पण्णत्रणा परुविया । उमसाइहिं य थेरेहि तत्तत्त्थसुत्तं सणिज्जुइयं परूवियं । थेरेहिं य अज्जवलिस्सहेहिं य विज्ञापवाय पुण्याओ अंग विज्जाइसत्ये परूत्रिए । एसो णं जिण सासणपभावगो भिक्खुरायणिवो गे धम्मज्जाणि किच्चा सुज्झाणोवेओ वीराओ णं तीसाहियतिसयत्रासेसु विइकतेसु सग्गं पत्तो । ( पृ० ७) दुर्भिक्षान्ते च विक्रमार्कस्यैकशताधिकत्रिपञ्चाशत्संवत्सरे स्थविरैरार्यस्कंदिलाचार्यैरुत्तरमथुरायां जैन भिक्षूणां संचो मेलितः । एकशताधिकपञ्चविंशतिजैन भिक्षवः स्थविरकल्पानुयायिनो मधुमित्रगन्धहस्त्यादयः संभिलिताः । सर्वेषां सावशेष मुखपाठान् मेलयित्वाऽऽर्यस्कन्दिलैर्गन्धहस्त्याद्यनुमतैरेकादशाङ्गी पुनर्ग्रथिता | ( पृ० १०.) (२) श्वेताम्बर परंपरामां पूर्वधरने वाचक कहेवामां आवता हता. "वाई य खमासमणे दिवायरे वायगत्ति एगट्ठा। पुत्र्वगयम्निय सुत्ते एए सदा पउंजंति ॥ (जैन कथावली) जयधवलामा गुणधरने वाचक कहेल छे अने तेथी तेओ पूर्वधर हता पण पूर्वना एकदेशना धारक नहीं, केमके पूर्वना एकदेशना धारक माटे पूर्वघर माटे वपराता वाचकशब्दनो प्रयोग करवो विसंवादी जणाय छे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] प्रस्तावना (३) दिगंबरग्रन्थकार इन्द्रनन्दिना वचनथी पण जयधवलाकारर्नु उक्त वचन बाधित थाय छे. ते आ रीते इन्द्रनन्दिना कथन मुजब कषायप्राभृत उपर चूर्णिसूत्रो तथा उच्चारणाचार्यनी टीकानी रचना थया पछी कुडकुदपुरमां पद्मनन्दिमुनिने अनी प्राप्ति थई छे, पद्मनन्दि से प्रसिद्ध दिगंबराचार्य कुंदकुंदाचार्यनुज बीजुं नाम छ, षट्खंडागम अने कषायप्राभूतनी प्राप्ति कुंदकुदाचार्यने थई छे, अटलुज नहीं पण तेमणे षट्खंडना प्रथम त्रणखंड उपर 'परिकर्म' नामनी वारहजार श्लोकप्रमाण टीका रची छे. जुओ श्रुतावतारतस्यान्ते पुनरुच्चारणादिकाचार्यसंज्ञकेन ततः । सूत्राणि तानि सम्यगधीत्य ग्रन्थार्थरूपेण ॥१५७।। द्वादशगुणितसहस्रग्रन्थान्युच्चारणाख्यसूत्राणि । रचितानि वृत्तिरूपेण तेन तच्चूर्णिसूत्राणाम् ।।१५८|| गाथाचूण्र्युचारणसूत्रैरुपसंहृतं कषायाख्यं । प्राभृतमेवं गुणधरयतिवृषभोच्चारणाचार्यैः ॥१५९।। एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिवाटया ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०।। श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थपरिकर्मका पट्खण्डायत्रिखण्डस्य ॥१६१।। वळी धवलामां पण अनक स्थळे परिकमनी साक्षी आवे छे. जुओ (१) त्ति परियम्मवुतं" (धवला अ० पृ० १४९) (२) परियम्मम्मि वुत्तं (धवला अ० पृ० ६७८) (३) परियम्मवयणादो णव्वदे (धवला भ० पृ० १६७) अटलुज नहीं अक स्थले तो धवलाकारे परिकर्मनो बधा आचार्योने सम्मत ग्रन्थ तरीके उन्लेख कयों छे. __ "सयलाइरिय सम्मदपरियम्मसिद्धत्तादो" धवला प्रस्तावनाकारना कथन मुजब प्रायः धवलाना परिकर्मसूत्रने लगता उल्लेखो पण षट्खंडागमना त्रणखंडना विषय उपर ज छे, आ सिवाय पण अनेक प्रमाणोथी 'परिकर्म' नामनी टीका रचायानुजणाय छे. कुदकुंदाचार्ये 'परिकर्म' टीकानी रचना करी छे, ओ उल्लेख स्पष्ट साबित करे छे के कषायप्राभूतचूर्णिकार ओ कुंदकुंदाचार्यथी पूर्ववर्ती छे अने कुंदकुंदाचार्यनो काळ हालनी दिगम्बरमान्यता मुजब गणीये तो पण विक्रमनी पहेली बीजी के त्रीजी सदीनो थाय छे. दिगम्बरपट्टावलीओना आधारे कुन्दकुन्दनो काळ विक्रमना पहेला वीजा सैकानो नक्की थाय छे 'विद्वद्जनयोधक' मां कुन्दकुन्दाचार्यनो काल वीर संवत ७७० नो अटले विक्रम संवत ३०० लगभगनो बताव्यो छे. "वर्षे सप्तशते चैव सप्तत्या च★ विस्मृतौ । उमास्वातिमुनिर्जातः कुन्दकुन्दसथैव च ॥१॥ ओसिवाय कुर्ग इन्स्क्रिपशंसमां मर्कराना ताम्रपत्र उपरथी कुन्दकुन्दनो काल जयधवलानी प्रस्तापनामां विक्रमनी त्रीजी सदी पूर्वेनो वताव्यो छे. गमे तेम होय पण जयधवलाना कथन तथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी गाथाओना आधारे कषायप्राभृतचर्णिनी वीर संवत १००० पछी रचना थई *विसतो, इति प्रतिभाति । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना होवानी मान्यताना हिसावे कुन्दकुन्दचार्यने उक्त सिद्धान्तनी प्राप्ति थई शके नहीं, केम के कुन्दकुन्दाचार्य वीर संवत १००० पछीना होवानी दिगंवर विद्वानोनी पण मान्यता नथी. (३) श्रुतावतारना अनुसारे कुदकुदाचार्यथी केटलोक काल वीत्या बाद शामकुडाचार्य ने कषायप्राभृत अने षटखण्डागमनी प्राप्ति थई छे अने तेना उपर तेमणे पग बार हजार श्लोकप्रमाण संस्कृत , प्राकृत अने कर्णाट( कन्नड )भाषामिश्रित ग्रन्थनी रचना करी छे, त्यार पछी केटलोय काळ बीत्या बाद तुम्वुलर नामना आचार्य तुम्बुलर गाममां थया तेमणे पण पट्खण्डना आद्य पांच खण्ड तथा कपायप्राभृत उपर कर्णाटभाषामां ८४ हजार . श्लोक प्रमाण वामणि नामनी टीका रची छे, पखंड उपर ७००० श्लोक प्रमाण पंजिकारचीछे, त्यार पछी समंतभद्रस्वामी थया, तेमणे पग षटखण्डागमना प्रथम पांच खंडो उपर अतिसुदर अने सरल संस्कृतभाषामां ८४ हजारश्लोक प्रमाण टीका रची छे, जुओ श्रुतावतारकाले ततः कियत्यपि गते पुनः, शामकुण्डसंज्ञेन । आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागमः कासात् ॥१६२।। द्वादशगुणितसहस्र ग्रन्यं सिद्धान्तयोरुभयोः । षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबन्धसंज्ञेन ॥१६३।। प्राकृतसस्कृतकर्णाटभाषया पद्धतिः परा रचिता। तस्मादारात्पुनरपि काले गतवति किययपि च ॥१६४॥ अथ तुम्बुलूरनामाचार्योऽभूत्तम्बुलूरसद्ग्रामे । षष्ठेन विना खण्डेन सोऽपि सिद्धान्तयोरुभयोः ॥१६५।। चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनया युक्ताम् । कर्णाटभाषयाऽकृत महतीं चूडामणिं व्याख्याम् ॥१६६।। सप्तसहस्रग्रन्थां षष्ठस्य च पंचिकां पुनरकार्षीत् । कालान्तरे ततः पुनरासंध्यां पलारि तार्किकार्कोऽभूत् ॥१६७।। श्रीमान समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्यतं द्विविधम् । सिद्धान्तमतः षट्खण्डागमगतखण्डपञ्चकस्य पुनः ॥१६८।। अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसद्ग्रन्थरचनया युक्ताम् । विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ॥१६९॥ ___आ आचार्योनो काल वीर संवत १००० पूर्वनो छे अने क० प्रा० चूर्णिनी रचना तो आ वधी टीकाओनीरचना पूर्वेनी छे तेथीआवधी टीकाओनी रचनाना आधारे कषायप्राभूतचूर्णि रचनानो काल वीर संवत १००० पछी मानी शकाय तेम卐नथी, तेमज आ अनेकानेक टीकाओनो अपलाप पण थई शके तेम नथी. वर्णी अभिनंदन ग्रंथमां "स्वामिसमन्तभद्रका समय और इतिहास' नामना लेखमां स्वामिसमन्तभद्रना काल विषे तिहासिक रीते घणी विचारणा बतावी छे अने जुदा जुदा विद्वानोना मत जगाव्या छे. अने ते वधां मतोना अनुसार वीर संवत १००० वर्ष पूर्वनो ज काल नक्की थाय छे वळी तेज ग्रंथमां 'स्वामिसमन्तभद्र तथा पाटलीपुत्र' लेखमां स्वामिका बहुमान्य समय शक सं० ६० या १३८ ई० है" पृ० ३२० श्रेम सष्ट उल्लेख छे. श्वेताम्बरपट्टावलीओमां पण आचार्य ॐ इन्द्रनंदिने अपने श्रुतावतार में कषायप्राभृत चूर्णिसूत्रों और उच्चारणावृत्तिकी रचना हो जाने के बाद कुण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दिमुनिको उसकी प्राप्ति हुई ऐसा लिखा है और उसके बाद शामकुण्डाचार्य, तुम्बुलूराचार्य और समन्तभद्राचार्य को उसकी प्राप्ति होनेका उल्लेख किया है। यदि यतिवृषभका समय विक्रमकी छट्ठी शताब्दी माना जाता है तो ये सब आचार्य उसके बाइके विद्वान ठहरते हैं । जो कि मान्य नहि हो सकता" (जयधवला भा० १ लो प्रस्तावना पृ० ५७) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वज्रसेनसूरि महाराजना पट्टधर आचार्यचंद्रसूरिना पट्टधर तरीके आचार्यसमन्तभद्रसूरिनो उल्लेख छ अने तेमनो काळ वीर संवत ६५० लगभगनो छे. (४) त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता यतिवृषभ मानवामां पण कोई प्रमाण मळतु नथी. त्रि० प्र० ना अन्तभागमां आवेली जेबे गाथाओ प्रमाण तरीके रजू कराय छे ते बे गाथाओ परथी त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता यतिवृषभ नक्की थई शकता नथी, ते बे गाथाओ आ प्रमाणे छेपणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं । दट्ठूण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाढए(र)वसह।। चुण्णिस्सरूवछकरणसरूवपमाण होइ किं जं तं । अट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ॥ आ बे गाथा मुद्रित त्रिलोकप्राप्तिना अन्ते पृ० ८८२ उपर छे. तेमांनी बीजी गाथामां 'चुण्णिस्सरूवछकरण' छे त्यां हस्तलिखित प्रतमां 'चुण्णिस्सरूवत्थकरण' छे अने 'किं जं तं' ना बदले 'किंजत्तं' छे. मुद्रित त्रि० प्र० ना टिप्पणमां संपादके पोते ज आ हकीकत जणावी छे. प्रथम गाथाना 'जदिवसह' पद उपरथी त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवृषभने मानवामां आवे छे पण ते संगत नथी. गाथामा त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवृषभनु नाम नथी परंतु प्रस्तुत गाथा अंतिम मंगल तरीके छे अने तेमां श्रीजिनेश्वरोने, गुणोथी श्रेष्ठ गणधर भगवंतो वगेरेने नमस्कार करवानग्रन्थकार जणावे छे. गाथानो अर्थ आ रीते थई शके छे- हे भव्यजनो! तमे उत्तम श्रीजिनेश्वर भगवंतो तथा पवित्रगुणोने धारण करनार गणधर भगवंतो, उत्तमपर्षदाने धारण करनार (आचार्यभगवंतो) श्रेष्ठयतिओ अने धर्मसूत्रना श्रेष्ठ पाठको(उपाध्यायभगवंतो) ने देखीने प्रणाम करो. अथवा गाथामां श्री जिनेश्वरदेवो अने गणधर भगवंतोने नमस्कार सूचव्यो छे. गाथार्नु उत्तरार्ध केवल विशेषण तरीके छे. अटले गाथानो अर्थ आ रीते थई शके-हे भव्यजनो 'परिसवसह' अटले उत्तमपर्षदाने तथा 'जइवसहं एटले श्रेष्ठयतिओने 'दहण' जोईने 'धम्मसुत्तपाढरवसहं' धर्मसूत्रनो उपदेश आपनाराओमां श्रेष्ठ अने 'गुणवसहं = गुणोथी श्रेष्ठ एवा 'जिनवसह =उत्तम तीर्थकर भगवंतोने 'पणमह' नमस्कार करो तहेव गणहरवसह तेज प्रमाणे गणधर भगवंतोने नमकार करो । अथवा प्रस्तुतगाथा पंचपरमेष्ठिना नमस्कारना अर्थमां पण होई शके छे, 'जिणवरवसह थी अरिहंत भगवंतने, 'गणहरवसह' थी आचार्यभगवंतने, 'गुणवसह थी सिद्ध भगवंतने (सिद्धभगवंतो सौथी वधु गुणवाना छे) (परिसवसहं ए आचार्यनु विशेषण छे.) तथा 'जइवसहं थी साधुभगवंतने अने 'धम्मसुत्तपाढरवसह' थी उपाध्याय भगपंतने, 'दतॄण' पदथी आ वधाने जोईने अने 'पणमह' थी नमस्कार करवानु भव्यजनने सूचव्यु छे, एटले संपूर्ण गाथानो अर्थ आ रीते थाय-हे भव्यजनो! तमे 'जिणवरवसह' एटले अरिहंतोने, गुणवसहं एटले सिद्ध भगवंतोने, 'परिसवसहं गणहरवसहं' एटले श्रेष्ठपर्षदावाळा आचार्य: भगवंतोने तथा 'जदिवसह एटले साधुभगवंतोने अने 'धम्मसुत्तपाढरवसहं एटले उपाध्याय भगचंतोने 'दण' अटले जोईने नमस्कार करो. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 47 अहीं कदाच प्रश्न थाय के अरिहंतादिने नमस्कार क्रमपूर्वक केम नथी कर्यो, तेनु समाधान मे छ के श्लोकरचनामां छंदना हिसाबे व्युत्क्रमथी पण पद गोठवाय छे, अथवा पंचपरमेष्ठीने अनानुपूर्वीथी पण नमस्कार थई शके छे. अ सूचववा माटे ग्रन्थकारे आ रीते नमस्कार करेल छे, वर्तमानमां आ रीते अनानुपूर्वी नमस्कार करवानी पद्धति पण चालु छे, पंचपरमेष्ठिजापना पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अने अनानुपूर्वीथी कुल १२० भांगा थाय छ, एमां २७ मो भांगो आ नमस्कारनो छ. अथवा 'गुणवसह' ना बदले 'गुणहरवसह' होय अने 'जदिवसह' नो अर्थ यतिवृषभ विशेष नाम तरीके करीए तो पण त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीक यतिवृषभ सिद्ध थता नथी, बल्के ग्रन्थकारे मंगल तरीके जिनेश्वरोने अने गणधर भगवंतोने नमस्कार कर्यो छे, तेनी साथे गुणधराचार्य अने यतिवृषभाचायेने पण नमस्कार कर्यो एम सिद्ध थाय छे, जयधवलाकारे पण सम्यक्त्वअनुयोगद्वारना मंगलाचरणमां आवी ज रीते नमस्कार कर्यो छे अने ते गाथा पण आ गाथाने मळती ज छे. जुओपणमह जिणहरवसहं गणइरवसहं तहेव गुणहरवसहं । दुसहपरिसहविसहं जइवसहं धम्मसुत्तपाढरवसहं ॥ ___ (जयधवलाप्रस्तावना पृष्ठ ३६) । आपणे जोई शकी) छीओ के तिलोयपन्नत्तिनी 'पणमह' वाळी अंतिम गाथा अने आ गाथा लगभग सरखी छे, तेथी जयधवलानी गाथा उपरथी तिलोयपन्नत्तिनी आ गाथानी रचना थई होवानु जणाय छे, केम के वर्तमान तिलोयपन्नत्तिमां घणी गाथाओ बीजा बीजा ग्रन्थोमांथी सीधी अथवा थोडा फेरफार साथे लेवामां आवेली छे जे आगळ आ प्रस्तावनामां बताववामां आवशे. धवलाना पण अनेक गद्य आलावा अक्षरशः तिलोयपन्नतिमा छे. आ वधा उपरथी छेल्ली गाथामां पण जयधवलानु अनुकरण थयुहोवानु विशेषे करीने सिद्ध थाय छे,अटले प्रस्तुतगाथा पण जयधवला पछी त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी रचना थई होवान जे अनेक प्रमाणोथी आगळ सिद्ध करवामां आवशे, तेने ज वधु पुष्ट करे छे. आम आ त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवृषभनु नाम सिद्ध थई शकतु नथी अटलु ज नहि सामान्यबुद्धिथी विचारीओ तोपण ग्रन्थकर्ता पोते पोताना ग्रन्थनी प्रशस्तिमा पोताना वडीलोनी स्तुतिकरे ओ बने पण पोते पोताने नमस्कार करे अबु बनतु नथी, जे समजी शकाय अवी वस्तु छे. 'जदिवसह' नो अर्थ त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता यतिवृषभ करो तो शुग्रन्थकर्ता पोते पोताने नमस्कार करे छे ? जो ग्रन्थ कर्ताने पोतानु नाम जणावQ होत तो माथे पोताना गुर्वा दिनु नाम जोडत, पण तेवूकई ज जणातुनथी. आ बधु जोतां आ गाथा परथी त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवृषभनी कल्पना करवी अने तेना आधारे त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तेमज कषायप्राभूतचूर्णिना कर्ता अंक ज छे अबी कल्पना करी कपायप्राभूतचूर्णिनी रचनानो काल Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] प्रस्तावना 1 वीर संवत १००० पछीतो नक्की करी ले ओ कोई पण प्रमाणथी संगत नथी, । बीजी गाथानो अर्थ पण संपादकोए आत्री रीते कल्पित कर्यो छे, तेओएबीजी गाथानो पाठ आ प्रमाणे स्वीकार्यो छचुणित्सरुवछक्करणसरूवपमाणं होइ किं जं तं । भट्टसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए || मुद्रित त्रिलोकज्ञप्तिमा अर्थनी संगति माटे 'त्थ'ने बदल' छ' अने 'किं जत्त' ने बदले 'किंजंतं' स्वीकारीने संपादको आ गाथानो 'चूर्णिस्वरूप तथा छकरणस्वरूप ग्रन्थनुं जेटलु प्रमाण छे तेलु त्रिलोकप्रज्ञप्तिनुं प्रमाण छ' अत्रो अर्थ करीने शङ्का चिह्न मूके छ े अने चूर्णिपदथी संभवतः कषायप्राभृतचूर्णि होय तेत्री कल्पना करे छ. एटले तेमने पोताने पण आ अर्थ शंकित अने कल्पित लागे छे तो पछी एवा शंकित अने कल्पित अर्थ उपरथी कषायप्राभृतचूर्णि अने तिलोयपण्णसिना कर्त्ता एक मानवानुं अनुमान पण तेटलुज शंकित अने कल्पित बनी जाय छ . वळी त्रिलोकप्रज्ञप्ति प्रमाण गाथामांथी अर्थ तरीके काढवु होय तो उद्देश्य तरीके त्रि० प्र० आत्र जोईओ पण तेम नथी, अर्थात् प्रस्तुत गाथामां त्रि० प्र० ना प्रमाणनी वात होत तो 'तिलोयपण्णत्तिणाम होई किं जत्तं' अबुं पूछाय, पण अने बदल अहीं तो 'चुण्णिस्सरूवत्थकरणसरूवपमाणं होइ किं ? जत्त ओम पूछय छे भेटले चूर्णि स्वरूपार्थ तथा करण स्वरूपनु प्रमाण पूछयु ं छ े माटे संपादकोओ करेलो अर्थ संगत नथी. वळी चूर्णि शब्दथी कावप्राभृतचूर्णिनी कल्पना करवी में पण अप्रस्तुत कल्पना छे. आम आ गाथा उपरथी कल्पनाओ द्वारा अनेक प्रमाणोथी बाधित छतां त्रि० प्र० ना कर्ता तरीके यतित्रपभाचार्यनी अने ते ज क ० प्रा० चूर्णि - कार छे, अवी कल्पना करवी ओ कोई पण हिसावे उचित नथी. ★ कषायप्राभूतचूर्णिनी प्रस्तावनामा लेखके गाथामांना 'त्थ' ने स्थान' 'ड' नी कल्पना करी अढकरण अर्थात् आठकरणवाली कर्मप्रकृतिचूर्णिनी रचना पण यतिवृषभाचार्यना नामे चडावी छे, तेनु ं पण निरसन अमे आ प्रस्तावनामां, कायप्राभृतनी प्रस्तावनामा रजू थयेल केटलीक मान्यताओनी समीक्षा प्रसंगे करीशु. तिलोयपनत्तिनी आ प्रस्तुत गाथाना अर्थ माटेनी अमारी पण थोडी विचारणा रजू करीओ छीओ, हवे पछी आपवामां आवनार प्रमाणोथी प्रस्तुत त्रि० प्र० करतां प्राचीन बीजी त्रि० प्र० छे से सिद्धथाय छ, एथी उपलब्ध त्रि० प्र० अर्वाचीन छ. प्राचीन त्रि० प्र० उपर संभवतः चूर्णिसूत्र तथा तेमां आवतां करणो (गणित प्रक्रिया) नुं पण विवेचन होय ( बन्न अलग होय) अने बन्ने प्रमाण उपलब्ध त्रि० प्र० ना कर्ता ओ बतावेल होय तेम लागे छे. ओटले गाथानो अर्थ आ रीते थाय ★ वीरशासन संघ कलकत्ता तरफथी संपादित मुद्रित कषायप्राभृत तथा चूर्ण. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 49 (१) 'त्रि० प्र० नी चर्णि स्वरूपार्थनु तथा करणस्वरूपनु प्रमाण केटलु छ ? आठ. हजारप्रमाण' आ गाथाना प्रथम त्रण चरणनो अर्थ थयो अने चोथा चरण 'तिलोयपण्णत्तिणामाए' नो अर्थ यो थाय के 'नामथी प्रस्तुत ग्रन्थ त्रिलोकप्रज्ञप्ति छे' अम त्रण चरण अने चोथा चरणने जुदां पाडी अर्थ थई शके छ. (२) अथवा त्रि० प्र० नामनी प्रज्ञप्तिना (केमके 'तिलोयपन्नत्तिणामा' अ स्त्रीलिंगशब्द छे,) चर्णिस्वरूपार्थ तथा करणस्वरूपनु प्रमाण केटलु छ ? आठहजार श्लोक प्रमाण छे अो पण प्रस्तुत आखा श्लोकनो अर्थ थई शके छे. अहीं चूर्णि तरीके कषायप्राभूतचूर्णिनी कल्पना करवी ते अप्रस्तुत छे ज्यारे त्रि० प्र० चूर्णिनी कल्पना करवी अ प्रस्तुत छ, अने त्रि० प्र० नामर्नु प्राचीन सूत्र छे ते तो वर्तमान त्रि० प्र० मां आवता 'तिलोयपन्नत्तिसुत्ताणुसारी' पद उपरथी सूचित थाय छ, अटलुज नहीं पण धवलाना सूचन परथी प्राचीन त्रि० प्र० होवानी पण विशेष संभावना छे. (३) अथवा 'किं जत्तं' ना स्थाने "किज्जन्त" पद होवानी संभावना विद्वानो करे छे. किज्जन्तं अटले क्रियमाणं (करातु-गगातु), अटले गाथानो अर्थ आ रीते थाय-'त्रिलोकप्रज्ञप्तिनामनी प्रज्ञप्तिनु चूर्णि स्वरूपार्थकरणरूप प्रमाण गणतां आठहजार श्लोक थाय अर्थात् त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्रोनो चूर्णिस्वरूपे जे अर्थ कयों छे तेनु प्रमाण गणतां आठहजार श्लोक प्रमाण थाय छे. अटले आ गाथा द्वारा प्राचीन त्रि० प्र० सूत्रनी चर्णिन प्रमाण बताव्यु होय, अम लागे छे. कषायप्राभृतचूर्णि तथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता अक नथी ते सूचवतां अनेक प्रमाणो वर्तमानमां उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति अने कषायप्राभूतचूर्णिना रचयिता अंक नहीं होवानु सावित करतां अनेक प्रमाणो मळे छे, तेमांनां केटलांक अमे अत्रे रजू करी छी (१) त्रिलोकप्रज्ञप्ति पृ० ७६४ उपर मनुष्यलोकनी बहार रहेला चन्द्रादिनु प्रमाण लाववानु वर्णन गयमां आवे छे, ते लगभग अक्षरशः धवला भा० ४ पृ० ७६३. ७६६ पर छ, अने ते पाठ त्रिलोकप्रज्ञप्ति करतां धवलामां वधु संगत छ, केम के अमां ग्रन्थकारे स्वयंभूरमण समुद्रनी पेली बाजु पण अक राजलोकना अर्धच्छंदनी मान्यता रजू करी छ, अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्रनी वेदिकाना अंते ति लोकनो राज संपूर्ण थतो नथी ए बताव्युछे. आ मान्यता धवलाकारनी पोतानी ज छे. अटलुज नहीं पण आ मान्यतामा पूर्वनां परिकर्मादि सूत्रोनो विरोध पण आवे छे. धवलाकारे पोते का छे के आ मान्यता अन्य आचार्यना उपदेशनी परंपरानुसारी नथी, परंतु ज्योतिषदेवना २५६ सूचिअंगुलरूप Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 प्रस्तावना भागहारना त्रिलोकप्रज्ञप्तिना सूत्रने अवलंबीने अमे तर्कथी करी छे. अटलुज नहि धवलाकारे चीजी जे बे मान्यताओ पोते ऊभी करी छे तेनी माफक आ मान्यता पण पोता. नी जछे अम विशेषस्पष्टीकरणार्थे बन्नेमान्यताओ रजू करवा पूर्वक प्रस्तुत वात जणावी छे. धवला तथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिनो समानांश पाठ घणो ज लांबो छ, तेथी अत्रे तेनो केटलोक जरूरी भाग अमे वांचकोनी समक्ष रजू करीअ छी तेण रज्जुच्छेदणासु अण्णेसि पि तप्पाओगाणं संखेज्जरूवाणं हाणिं काऊण गच्छो ठवेदव्यो । एवं कदे तदियसमुहो आदी ण होदि त्ति णासंकणिज्ज सो चेव आदी होदि । सयंभूरमणसमुदस्स परभागसमुप्पण्णरजुच्छेदणयसलागाणमाणयणकारणादो । सयंभूरमणसमुदस्स परदो रज्जुछेदणया अस्थि त्ति कुदो णयदे । बेछप्पणंगुलसदबग्गसुत्तादो । जत्तियाणि दीयसागररूवाणि जंबूदीपच्छेदणाणि च रूवहियाणि तत्तियाणि रज्जुच्छेदणाणि' त्ति परियम्मेण एवं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झदि । तेणेदरस वक्खाणस्स गहणं कायव्यं, ण परियम्मत्त तस्स सुत्तविरुद्ध त्तादो । ण सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होदि, अपसंगादो । तत्थ जोइसिया णत्यि त्ति कुदो णवदे ? एदम्हादो चेत्र सुत्तादो । एसा तपाओग्गसंखेज्जरूवाहियजंबूदीवच्छेदणयसहिददीवसायररूवमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिओदेसपरंपरागुसारिणी केवलं तु तिलोयपत्तिसुत्त गुसारी जोदिसिय देवभागहारपदुप्पाइयसुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयगच्छ साइणहमम्हेहि परूविदा, प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भव लविज भिनगुणप्रतिपन्नप्रतिबद्धासंख्यावलिकावहारकालोपदेशवत् , आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशबद्वा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गहेण असगाहो कायवो. परमगुरुपरंपरा ओवरस्स जुत्तिबलेग विदधावेदुमसकियत्तादो, अदिदिएसु पदत्थेसु छदुमत्थवियाणमविसंवादणियमाभावादो । तम्हा चिरंतणाइरियवक्खाणापरिच्चारण एसा वि दिसा हेदुवादाणुसारि उप्पण्णसिस्साणुरोहेण अउप्पण्णजणउपायणट्ठच दरिसेदया। तदो ण एत्थ संपदायविरोहासंका काययात्ति ।" (धवला खंड ४ थो पृ० १५८) तेण रज्जुच्छेदणासु अण्णेसि पि तप्पाओग्गाणं संखेज्जरूवाणं हाणि काऊण गच्छा ठवेयव्वा । एवं कदे तदियसमुद्दो आदि ण होदित्ति णासंकणिज्ज सोचेव आदी होदि, सयंभूरमणसमुदस्स परभागसमुपण्णरज्जु. च्छेदणयसलागाणमवणयणकरणादो। सयंभरमणसमहस्स परदो रज्जच्छेदणया अस्थि त्ति कुदो णव्यदे। वेछप्पण्णंगुलसदवग्गसुत्तादो। 'जेत्तियाणि दीव-सायररूवाणि जंबूदीवच्छेदणाणि छरूवाहियाणि तेत्तियाणि रज्जुच्छेदणाणि' त्ति परियम्मेणं एदं वक्खाणं किं ण विरुज्झदे। ण, एदेण सह विरुज्झदि किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झदि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहणं कायव्वं, ण परियम्मसुत्तस्स सुत्तविरुद्धत्तादो ।ण सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होदि, भदिप्पसंगादो । तत्थ जोइसिया णस्थि त्ति कुदो णव्वदे । एदम्बादो चेव सुत्तादो। एसा तप्पाउग्गसंखेज्जरूवाहियजबूदीवच्छेदणयसहिददीवसमुद्दरूवमेत्तरज्जुच्छेदणयपमाणपरिक्खाविही ण भण्णाइरियउवदेसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारी, जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाधणहमेसा परूवणा परूविदा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गहेण असग्गाहो काययो, परमगुरुपरंपरागउपएसस्स जुत्ति बलेण विहडावेदुमसक्कियत्तादो, अदिदिएसु पदत्थेसु छदुमत्थवियमाणमविसंवादणियमाभावादो। तम्हा पुवाइरियवक्खाणापरिच्चाएण एसा वि दिसा हेवादाणसारिविउप्पण्णसिस्साणुग्गहण-अवुप्पणजणउप्यायण? च दरिसेदव्या, तदो ण एत्थ संपदायविरोवो कायवोत्ति। (त्रि० प्र०प०७६५.७६६.) आ बन्न पाठो उपरथी आपणे जाणी शकीये छी के धवलाकार कहे छे के आ मान्यता पूर्वाचार्थोना उपदेशानुसारी नथी, परंतु त्रिलोकप्रज्ञप्तिना सूत्रमा आवता ज्योतिपदेवना भाग Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [51 हारना सूत्रना आलंघनथी, पोते प्ररूपी छे, माटे धवलाकार “पयदगच्छसाहणहमम्हेहि परूविदा"अम कहे छे, ज्यारे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमां बधु लखाण सरखु छे, मात्र ‘पयदगच्छसाहणट्टमेसा प्ररूपणा परूविदा' अटलुलख्यु छ, अर्थात् त्यां 'अम्हेहि' शब्द नथी. त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा जो आ मान्यता पूर्वेथी चाली आवती होत तो धवलाकार आ आखी मान्यता त्रिलोकप्रज्ञप्तिना नामे लखत 'अम्हेहि परूबिदा' न लखत, केम के अमने तो अना प्रमाणनी खास आवश्यकता हती. अहीं आपणने विशेष आश्चर्य लागे छ. के त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा 'तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारी' पद मूक्यु छे. आ रीते त्रिलोकप्रज्ञप्तिमां त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी साक्षी शी रीते आवी शके ? अथवा अम कहीए के प्राचीन त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्रनी साक्षी होय तो आधी पण सिद्ध थाय छे के आ त्रिलोकप्रज्ञप्ति अर्वाचीन छे अने मूल प्राचीन त्रिलोकप्रज्ञप्ति जुदी हशे तेथी प्रस्तुत त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी रचना धवलानी रचना थया पछीथी थई होवानु विशेष सुसंगत थाय छे अने तेना कर्ता कषायप्राभृतचूर्णिना कनो यतिवाम होई शकता नथी. (२)धवलामां त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी साक्षी आपवामां आवी छे ते वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्तिमां मळती नथी. “दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो त्ति तिलोयपण्णत्तिसुत्तादो य णव्वदे" (धवला ३ पृ० ३६) प्रस्तुत पाठ उपलब्ध त्रि०प्र०मां शोधवा छतां जोवामां आवतो नथी, तेवी जरीते धवलामां 'वुत्तं च' कहीने साक्षी गाथाओ लखी छे. तेमांनां केटलांक स्थळे आवती गाथाओ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा अक्षरशः मळे छे, छतां अंक पण गाथा आगळ त्रिलोकप्रज्ञप्तिन नाम धवलामां जणाव्यु नथी, धवलामां पंचास्तिकायादिनी साक्षीओ केटलांक स्थाने ग्रन्थना नामपूर्वक आपी छे, जो उक्तगाथाओ यतिषभरचित होय अने धवलाकारे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमांथी लीधी होय तो धवलाकार अकाद स्थले पण तेनो उल्लेख कर्या वगर रहेत नहीं. (३) उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा घणी गाथाओ अबी छ के जे कुदकुंदाचार्यकृत समयसार पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, मूलाचार, भगवती आराधना, लोकविभाग वगेरे अन्य ग्रन्थोमां उपलब्ध थाय छे । अहीं प्रथम कुन्दकुन्दाचार्यकृत पंचास्तिकाय तथा समयसारनी गाथाओनो विचार करी. अ गाथाओ त्यांथी त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा लेवामां आवी होवानुज वधारे शक्य देखाय छ, त्रिलोकप्रज्ञप्तिप्रस्तावनाकारे पोतानी प्रस्तावनामां गाथाओ रजू करीने आ वात सारी रीते सिद्ध करवानो प्रयत्न कयों छे. जुओ-त्रिलोकप्रज्ञप्ति भाग बीजो प्रस्तावना पृ० ३८. तेवी ज रीते प्रवचनसारनी गाथाओ पण त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा छे अने आ बधा उपरथी संपादकोने यतिवृषभनी पूर्वे कुन्दकुन्दाचार्यने माना पड़े छे. जयधवलानी प्रस्तावनाना नीचेना उल्लेख परथी आ वात आपणने स्पष्ट समजाई जशे,-- Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] प्रस्तावना - "त्रिलोकप्रज्ञप्ति में नौ अधिकार हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भमें तो ग्रन्थकारने पंचपरमेष्ठिका स्मरण किया है, किन्तु आगे प्रत्येक अधिकारके अन्त और आदिमें क्रमशः एक एक तीर्थंकरका स्मरण किया है। जैसे प्रथम भधिकारके अन्तमें आदिनाथको नमस्कार किया है। दूसरे अधिकारके आदिमें अजितनाथ को और अन्तमें सम्भवनाथको नमस्कार किया है। इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक अधिकारमें आदि और अन्तमें एक एक तीर्थकरको नमस्कार किया है। इस तरह नौवें अधिकारके प्रारम्भ तक १६ तीर्थंकरोंका स्तवन हो जाता है। शेष रह जाते है आठ तीर्थकर । उन आठोंका स्तवन नौवें अधिकार के अन्तमें किया है । उसमें भगवान महावीर के स्तवनकी "एस सुरासुरमगुसिंदवंदिदं" आदि गाथा वही है जो कुन्दकुन्दके प्रवचनसारके प्रारम्भमें पाई जाती है । अब प्रश्न यह है कि इस गाथाका रचयिता कौन है-कुन्दकुन्द या यतिवृषभ ? प्रवचनसारमें इस गाथाकी स्थिति ऐसी है कि वहाँ से उसे पृथक नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस गाथामें भगवान महावीरको नमस्कार करके उससे आगेको गाथा 'सेसे पुण तित्थयरे' में शेष तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। यदि उसे अलगकर दिया जाता है तो दूसरी गाथा लटकती हुई रह जाती है। कहा जा सकता है कि इस गाथा को त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे लेकर भी उसके आधारसे दूसरी गाथा या गाथाएँ ऐसी बनाई जा सकती हैं जो सुसम्बद्ध हों। इस कथन पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या मंगलगाथा भी दूसरे ग्रन्थसे उधार ली जा सकती है ? किन्तु यह प्रश्न त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी ओरसे भी किया जा सकता है कि जब ग्रन्थकारने तेईस तीर्थंकरों के स्तवनकी गाथाओं का निर्माण किया तो क्या केवल एक गाथाका निर्माण वे स्वयं नहीं कर सकते थे ? अतः इन सब आपत्तियों और उनके परिहारों को एक ओर रखकर यह देखने की जरूरत है कि स्वयं गाथा इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालती है या नहीं ? हमें गाथाके प्रारम्भका 'एष' पद त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारकी दृष्टिसे उतना संगत प्रतीत नहीं होता जितना वह प्रवचनसारके कर्ताकी दृषि से संगत प्रतीत होता है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें प्रथम तो अन्य किसी तीर्थङ्करके स्तवनमें 'एप' पद नहीं आया है दूसरे नमस्कारको समाप्त करते हुए मध्यमें वह इतना अधिक उपयुक्त नहीं जंचता है जितना प्रारम्भ करते हुए जंचता है। तीसरे इस गाथाके बाद 'जयउ जिणवरिंदो' आदि लिखकर 'पणमह चउवीसजिणे' आदि गाथाके द्वारा चोंबीसो तीर्थंकरो को नमस्कार किया गया है। उधर प्रवचनसारमें उक्त गाथाके द्वारा सबसे प्रथम महावीर भगवानको नमस्कार किया गया है और उसके पश्चात् 'सेसे पुण तित्थयरे'के द्वारा शेष तीर्थकरोंको नमस्कार किया गया है। शेष तीर्थंकरोंको नमस्कार न कर के पहले महावीरको नमस्कार क्यों किया ? इसका उत्तर गाथाका 'तित्थं धम्मस्स कत्तारं' पद देता है कि वर्तमान में प्रचलित धर्मतीर्थके कर्ता भगवान महावीरही हैं इस लिये उन्हें पहले नमरकार करके पुण'उसके बाद शेष तीर्थकरोंको नमस्कार करना उचित ही है। प्रवचनसारमें पांच गाथाओंका कुलक है अतः उक्त प्रथम गाथाके 'एष' पदकी अनवृत्ति पांचवी गाथा के अन्तके 'उपसंपयामि सम्म' तक जाती है और बतलाती है कि वह मैं इन सबको नमस्कार करके वीतराग चारित्रको स्वीकार करता हूँ। इसी सम्बन्ध में अधिक लिखना व्यर्थ है, दोनों स्थलोंको देखने से ही विद्वान पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि उक्त गाथा किस ग्रन्थ की हो सकती है ? इसके सिवा यदि प्रवचनसारकी यही एक गाथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाई जाती तो भी एक बात थी, किन्तु इसके सिवा भी अनेकों गाथाएं त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाई जाती हैं। उनमें से कुछ गाथाओंको प्राचीन मानकर दरगुजर किया जा सकता है किन्तु कुछ गाथाएं तो ऐसी हैं जो प्रवचनसार में ही पाई जाती हैं और उसमें उनकी स्थिति आवश्यक एवं उचित है । जैसे सिद्धलोक अधिकारके अन्तमें सिद्धपदकी प्राप्तिके कारणभूत कर्मोको बतलाने वाली जो गाथाएं हैं उनमें अनेक गाथाएं प्रवचनसारकी ही हैं, वे अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं पाई जाती । अतः ये मानना ही पड़ेगा कि कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी बहुत सी गाथाएं त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें हैं और इसलिये कुन्दकुन्द यतिवृषभके बाद के विद्वान नहीं हो सकते । (जयधवला प्रस्तावना पृष्ट ५७.) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 53 जयवलाना संपादको प्रस्तुत प्रमाणोथी यतिवृषभ पूर्वे कुन्दकुन्दाचार्यने मानवा पड़े छो, ज्यारे श्रुतावतारना उल्लेखथी यतिवृषभ पछी कुन्दकुन्दाचार्य आवे छ, आम बन्न े रीते मुश्केली ऊभी थाय छ े, आ मुश्केलीनु कारण त्रिलोकप्रज्ञप्तिना रचयिता तरीके क० प्रा० चूर्णिना कर्त्ता यतिवृषभनी मान्यता छे, माटे आनु खरु निवारण ओछ े के कायप्राभृतचूर्णिमूत्रना कर्ता पछी कुन्दकुन्दाचार्य छे अने त्रिलोकप्रज्ञप्तिना रचयितानी पूर्वे छे. आ रीतना समाधानथी बन मुश्केलीओ दूर थई जाय छ े. हा, पण ओक मुश्केली ऊभी थाय छे अने ते ओ के कषायप्राभृतचूर्णितेमना कल्पित दिगंबराचार्यनी कृति तरीके रही शकती नथी. (४) धवला ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति बन्नेमां शकराजाना काल बावत मान्यता जुदी जुदी छे, त्रिलोकप्रज्ञप्तिमां वीर संवत ४६१ वर्ष पछी, मतांतरे ९७८५ वर्ष ५ मास पछी, अथवा १४७९३ वर्ष पछी अथवा ६०५ वर्ष ५ मास पछी शकराजानी उत्पत्ति बतावी छे "बीरजिणे सिद्धिगदे च सदसिट्ठिवासपरिमाणे । कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ सकराओ || १४९६ ।। अवा वीरे सिद्धे सहरसणवकम्मि सगसयन्भहिए। पणसीदिग्मि यतीदे पणमासे सकणिओ जादो ॥। १४९७ ॥ चोदससहस्ससगसयतेणउदीत्रासकाल विच्छेदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णो सगणिओ अहवा || १४९८|| मित्राणे वीरजिणे छत्राससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा || १४९९ ।। (तिलोयपण्णत्ति भाग १ पृ० ३४०) ज्यारे लामां वेदनाखंडमां शकराजानी उत्पत्ति ६०५ व ५ मास पछी, मतान्तरे १४७९३ वर्ष पछी, अथवा ७९९५ वर्ष ५ मास पछी बतावी छे. अटलु ज नहीं त्रणे मान्यतानी साक्षी गाथाओ पण 'वुत्तं च' कहनेघवलामां मूकी छे ६०५ पुणो एत्थ (६८३) सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु अवणिदेसु पंचमा साहियपंचुत्तरछस्सद्वासाणि हवंति । एसो वीरजिणिदणिवाणनददिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदियकालो । कुदो ? | ६ | एहि काले सगणरिंदकालम्मि पक्खित्ते वड्ढमाणजिणणिव्वुदकालागमणादो | वृत्तं च-पंच या मासा पंच य बासा छच्चेव होंति बाससया । सगकालेण य सहिया थावेयव्त्रो तदो रासी' ॥४१॥ अणे केवि आइरिया चोदस सहस्स- सत्तसदतिणउदिवासेसु जिणणिव्वाणदिणादो अइकतेसु सगणरिंदुपति भणति (१४७९३) वृत्तं च "गुत्तिपयत्थ-भयाइँ चोदसरयणाइ समइकंताई । परिणिव्वुदे जिणिंदे तो रज्जं सगणरिंदस्स || ४२ ॥ आइरिया एवं भणति । तं जहा सत्तसहस्स-णवसयपंचाणउदिवरिसेषु पंचमासाहिएसु वड्ढमाणजिणणिव्वुद्दिणादो अइकंतेसु सगणरिंदरज्जुप्पत्ती जादो त्ति एत्थ गाड़ासत्तसहस्सा णत्रसद पंचाणउदी सपंचमासा य । अइकंता वासाणं जइया तइखा सगुप्पत्ती ॥४३॥ (धवला भाग-९ पृ० १३१-१३३) अहीं खास ध्यानमां लेवा जेवी से बात छे के त्रिलोकप्रज्ञप्तिनो मुख्य मत ४६१ वर्षवाळो धवलामां बताव्यो जनथी, ज्यारे धवलानो मुख्य मत ६०५ वर्ष ५ मासवाळो त्रिलोकप्रज्ञप्तिमां Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 } प्रस्तावभा बताव्यो छे, जे त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी रचना धवला पछी होवानु विशेषे करीने जगावे छे. जो वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्ति यतिवृषभाचार्यनी रचना होय अने ते धवलाकार सन्मुख उपस्थित होय तो धवलाकार के जेमने यतिवृषभाचार्य प्रत्ये खूब ज बहुमान छे, जेमनां वचनोने पोते जयधवलामां सूत्र तरीके जणावे छे अने जेमने जयधवलामां अनेकवार खूब बहुमानपूर्वक याद करे छे, तेमनो मत लेवानु छोडे ज केम ? आ उपरांत पंडित फूलचंदजीओ पण जैन सिद्धान्तभास्करमां त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी रचना यतिवृषभनी नथी अने लगती अनेक दलीलो रजू करी छे, जेमांनी केटलीक नीचे मुजब छे(i) त्रिलोकप्रज्ञप्तिना प्रथम अधिकारमां मंगल आदि छ अधिकारोनु ं वर्णन छे, ते धत्रला टीकाना आदि मंगल साथे मळतु छे तेथी संभव छ के ते त्यांथी लीधुं होय. (ii) 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक लघीयस्त्रयग्रन्थनो छे. जे प्राकृतरूपांतरे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा जोवा मळे छे. लघीयस्त्रयमां आ श्लोक ज्यां छे त्यांथी अलग करी देवामां आवे तो प्रकरण अधुरु रही जाय छे. ज्यारे त्रि प्र० मां आ श्लोक अलग करी देवामां आवे तो पण प्रकरण अक रूप ज रहे छे. धवलाकारे पण आ श्लोकने उद्धृत कर्यो छे. आ श्लोक त्रि०प्र० कारे लघीयस्त्रयमांथी न लेता धवलामांथी लीधो होवानु ं जणाय छ े, केम के धवलामां आ श्लोकनी साथे बीजो पण जे एक श्लोक उद्धृत छे, ते लोकने पण त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारे प्राकृत रूपांतर साथै लीधो छ . धवला तथा त्रि० प्र०ना बन्न श्लोको आ प्रमाणे छे प्रमाण-नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद् भाति, तस्यायुक्त च युक्तवत् ॥ ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरूपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ (धवला भा० ३. पृ० १७) धवलान्तर्गत आवे गाथा प्राकृत रूपान्तरथी त्रिलोकप्रज्ञप्तिना प्रथम अधिकारमां श्लोक ८२८३ तरीके आ मुजब छे जो ण पमाणनयेहिं निक्खेवेणं निरक्खदे अत्यं । तस्साजुत्तं जुत्त जुत्तमजुत्तं च पडिहादि ॥ होदि पमाणं ओ विणादुस्स हिदयभावत्थो । णिक्खेओ वि उत्राओ जुत्तीए अत्यपडिगणं ॥ विशेषे करीने संभव से छे के धवला परथी आ बे गाथा रूपान्तरे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा लेवामां आवी होय, नहितर धवलाकार सन्मुख जो त्रिलोकप्रज्ञप्ति होत तो तेओने सीधी ज गाथा सूकवाने बदले संस्कृत रूपान्तर करीने लेवानी जरूर न पडत. (iii) त्रिलोकप्रज्ञप्ति अंतर्गत घणो गद्यभाग धवलान्तर्गतभागने मळतो छे. जयधवला, श्रुतावतार आदि ग्रन्थोमां पण क्यांय त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवृषभाचार्यनो उल्लेख मळतो नथी. जो वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता क० प्रा० चूर्णिसूत्रकार यतिवृष * यथार्थतः धवलाकी सहायतासे ही तिलोयपन्नत्ति के मंगलविषयक पाठका संशोधन संभव हुआ है । ( ति० प० भा० १ प्रस्तावना. पृ० १८ ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [68 भावार्य होत तो कषायमानाचर्णिसूत्रोनी साक्षी वखते अनेकवार जेम यतिवृषभाचार्यनो कर्ता तरीके उल्लेख करों छे, तेम त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी साक्षीओ रजू करती वखते जयधवलाकारे तेना कर्ता तरीके पण यतिवृषभाचार्यना नामनो अकाद स्थले पण उल्लेख को होत पण अचुकाई जोधा मळतुनथी. एटलुज नहीं पण जयधवलाना प्रस्तावनाकार पण उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति ए यति. वृषभनी कृति होवामां शंकाशील छे. जुओ "वर्तमानमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ जिस रूसमें पाया जाता है उसी रूपमें आचार्य यतिवृषभने उसकी रचना की थी इस बात में हमें स देह है। हमें लगता है कि आवार्य यतिवृषभकृत त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कुछ अंश ऐसा भी है जो बादमें सम्मिलित किया गया है। और कुछ अंश ऐसा भी है जो किसी कारणले उपलव्य प्रतियों में लिखनेसे छूट भी गया है।" (:०६५) आ बधां प्रमागो उपरथी आपणे निश्चित करीशकी छीओ के वर्तमान मां उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा कर्ता अंकायमाभाचूर्णिमूत्रना कर्ता नथी, अटलुज नहि पण धवला, जयधवलानी रचना पछी उपलब्ध त्रिलोकरज्ञप्तिनी रचना थई होवानुज विशेष करीने अनुमान थाय छे. जवधवागारे पण गुणधरवाचक, आर्यमंगु, आर्य नागहस्ती अने यतिवृषभावार्य अंगे वीर संवत ६८३ पछी थयानो जे उल्लेख कयों छे. ते पग आ रीते प्रमाणोथी बाधित थान छे. पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार पण आ वायतमां जणावे छे यहाँ पर मै इतना और बतला देना चाहता हूँ कि धवला और जयधवलामें गौतमस्वामी से आचारांगधारी लोहाचार्य तकके श्रुतधर आचार्योकी एकत्र गणना करके और उनकी रूढ काठाणना ६८३ वर्ष की देकर उसके बाद धरसेन और गुणवर आचार्योका नामोल्लेख किया गया है, साथमें इनकी गुरुपरंपराका कोई खास उल्लेख नहीं किया गया और इस तरह इन दोनों आचार्यों का समय यों ही वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष बादका सूचित किया है यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टिसे कहां तक ठीक है अथवा क्या कुछ आपत्तिके योग्य है। इसके विचारका यहां अवसर नहीं है। फिर भी इतना जरूर कह देना होगा कि भूल सूत्र ग्रन्थोंको देखते हुए टीकाकार का यह सूचन कुछ त्रुटि पूर्ण अवश्य जान पड़ता है। जिसका सष्टीकरण फिर किसी समय किया जायगा । (जैन साहित्य और इतिहास पर विशदप्रकाश पृ०८८) अटले आ बावतमां अमारुं अनुमान अर्बु छे के जयधवलानी रचना वखते पूर्वथी अंक प्रघोप चाल्यो आवतो होय के चर्णिमूत्रनी रचना आर्यमंगु अने आर्यनागहस्तीना अंतेवासीनी छे, ते उपरथी तेमणे मंगलाचरण मां आर्यमंगु अने आर्यनागहस्तीनु स्मरण कयु छे, अने आर्यमंगु अने आयें नागहस्तीनां नाम दिगंबरपट्टावलिमा उपलब्ध नहीं थवाना कारणे तथा प्रस्तुत चूर्णिसूत्र दिगंबराचार्यनी कृति तरीके सिद्ध करवा माटे द्रव्यश्रुतना अधिकारमा लोहार्य सुधीनी पट्टावली आपी, त्यार पछी ओपथी आचार्यपरंपरा अटलु मात्र जणावी गुणधर, आर्यमंगु अने आर्य नागहस्ती वगेरेनो उल्लेख करी दीपो छे. बाकी वीर संवत १००० पछी करायप्राभूतचूर्णिकार थयेल हो तो दिगंबरमान्यतानुसार त्यार पछी मात्र ३०० वर्षना गाळामां थला वीरसेन के जिनसेन आत्रा समर्थ ग्रन्थकारना नाम सिवाय तेना वंश तेनी अन्यकृतिओ वगेरे विषे Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 . प्रस्तावना तद्दन अज्ञात जेवा होय ते पण मानी शकाय तेवु नथी, वळी इन्द्रनन्दिए तावतारमा यतिपृषभाचार्यनी चणि अने जयधवला टीका वच्चे कषायप्राभृत उपर अनेक टीकाओनी रचनाओ आंतरेआंतरे थयानो उल्लेख को छे. चर्णिकार यतिवषम वीर संवत १००० पछी थयानी मान्यताना हिसाबे आ बधी टीकाओनी रचना अटला कालमां थयानी संगति लगभग दुःशक्य जेवी लागे छे. आम आटलां स्पष्ट प्रमाणो होवा छतां त्रिलोकप्रज्ञप्तिना अते रहेली वे गाथाओमांथी प्रथमगाथाना मात्र 'जइवसह' पद अने 'चुण्णिम्सरूवत्थकरणरूवपमाणं' वगेरे बीजी गाथा परथी कल्पित अर्थ करीने त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता तरीके यतिवषभाचार्यने मानी लई, मूळ पायोज खोटो नक्की करी, ते ज यतिवृषभाचार्यने कषायप्राभूतचूर्णिना कर्ता तरीके मानी, कयायप्राभृतचर्णिनी रचना वीरसंवत १००० पर्छीनी मानवानो अने चर्णिकारने त्रिलोकप्रज्ञप्तिना पण कर्ता तरीके नक्की करवानो जे प्रयास थयो छे ते समुचित प्रमाणोना अभावे सफल थतो नथी. टूकमां अमारा आ बधा लखाणनो सार अछे के कषायप्राभृतचूर्णिनी रचना आर्यनागहस्तीना कालनी आसपास अथवा त्यार पछी थोडा ज काले थई होवानो विशेषे करीने संभव छे अने तेथी ते वीरनिर्वाणथी ५ मा के ६ट्ठा सैकानी जणाय छे. दिगंबरमतोत्पत्ति वीर संवत ६०० पछी छे, अटले प्रस्तुत कषायप्राभृतमूल तथा चर्णिमूत्रनी रचना दिगंबरमतोत्पत्ति पूर्वे थई होवाथी बन्न परंपरा आ ग्रन्थ ने मान्य कर्यो होय अम बनवा संभव छे.. ___अहीं कदाच कोईने शंका थाय के कपायप्राभृत उपर आटली वधी दिगम्बगवार्य कृत टीकाओनो उल्लेख छे, तो श्वेताम्बराचार्यनी कोई टीका उपलब्ध केम थती नथी ? अथवा रचायानो उल्लेख पण केम नथी ? अनु समाधान ओ छे के कोईक गुप्त स्थळे भंडा. रोमां श्वेताम्बरटीकाओ पडी होय तो पण शुकही शकाय ? अथवा विच्छेद गई होय अम पण केम न चने ? दिगम्बराचार्योनी पण जयधवला सिवाय सघळी टीकाओमांथी आजे क्या अंक पण टीका उपलब्ध थाय छे ? वळी मुसलमान राज्य दरमियान गुजरात-सौराष्टमां अनेक ज्ञानभंडारोनो नाश थयो छे, ज्ञानभंडारो उपर उपद्रवो आव्या छे, ज्यारे दक्षिणमां तेवा उपद्रवो ओछा आव्या छे, तेथी त्यां ग्रन्थोनी रक्षा थई होय तेमज आ बावतमा विशेष प्रबल कारण तो अमने ओ लागे छे के, कषायप्राभतमूल तथा चूर्णि अमुक काले दक्षिण तरफ चाल्या गया होवानो विशेष करीने संभव छे अने दक्षिण तरफ कालबळे श्वेताम्बराचार्योनो विहार धीमे धीमे ओछो थई गयो अने उत्तर तरफ रहेला आचार्योने तेनी प्राप्ति न थई होवाना कारणे वचगाळामां थयेला श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा करायप्राभूत उपर टीकानी रचनाओ थई न होय, गमे तेम होय पण आ रीते दक्षिणना दिगम्बर ज्ञानभंडारोमां कषायप्राभत मूल तथा चूर्णि सुरक्षित रही शकी अने वर्तमानमां प्राप्त थई शकी छे ते बद्दल आपणे दिगम्बरज्ञानभंडारोनो आभार मानी. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [67 मुद्रित कषायप्राभूतचूर्णिनी प्रस्तावनामां रजू थयेल मान्यतानी समीक्षा __अहीं मुद्रित कषायप्रामृतचूर्णिना प्ररतावनाकारे कषायप्राभूतचूर्णि, कर्मप्रकृतिचूर्णि, शतकचूर्गि अने सप्ततिकाचर्णिना कर्ता अंगे जे विकृत रजूआत करी छे, तेनी पण प्रासंगिक थोडी समीक्षा करी लईअ. प्रस्तावनाबार आ चारे चर्णिओ क ज कर्तानी कृति होवानी मान्यता रज करे छे अने तेना कारणो तरीके तेओ प्रथम कषायमाभाचणि अने कर्मप्रकृतिचर्णिना पाठो रजू करी, बन्न ना पाठोमां रहेली भाषानी तथा पदार्थोनी साम्यता बतावे छे, उपगतमा कर्मप्रकृतिचर्णि, शतकचूर्णि अने सप्ततिकाचूणि अ वर्णनां मंगलाचरण तथा ग्रन्थनी शरूआतनी उत्थानिका, वाक्योनी भाषा तेमज अर्थना साम्यपणाने बतावे छे. आ रीते त्रणे चणिना अंकककत्वने तथा कपायाभत अने कर्मप्रकृतिना अकब तकत्वना हिसाबे चारे चर्णिओनु अककत कत्व सिद्ध करवानो प्रयास करे छे, अटलुज नहि पण आगळ वधीने त्रि० प्र० ना अंते"चुण्णिल्सबढकरणसरूवामाण होइफिजत्तं । अट्ठसहस्सपसाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ॥" आ प्रमाणे गाथा छे अने एनो अर्थ "आठकरणस्वरूपवाळी कर्मप्रकृतिचणि जे प्रमाण छे तेटलुज आठहजार श्लोकप्रमाण तिलोयपणत्तनु छे" एवो थाय छे अम बतावी चारे चूर्णिना कता तरीके आचार्य यतिवषम छे, अम कल्पना करे छे. हवे आपणे प्रस्तावनाकारनी उक्त कल्पनामां रहेली सत्यासत्यता विषे थोडी विचारणा करी लईअ. ___ पहेली बात तो ओछे के समान अर्थना कारणे अकककत्व कहेवुअ युक्तिसिद्ध नथी. तीर्थकर भगवंतोना शासनमांजे कोई समानविषयक शास्त्रो छे तेमां अर्थथी समानागुतो होय ज छे, शब्दथी विभिन्नता होय पण अथथी तो असमानता (विसंवादीषणु, परस्पर विरुद्धपणु) पूर्वाचार्य भगवंतोना ग्रन्थोमां जोवामां आवती नथी. यद्यपि अवसर्पिणी कालना माहात्म्यथी तथाप्रकारनी सामग्रीना अभावे, विशिष्टज्ञानीनी गेरहाजरीना कारणे क्यांक क्यांक जुदा जुदा मतो जोवामां आवे पण ते सिवाय मोटा भागे तो अर्थोनी साम्यता ज श्रीजिनेश्वरदेवोनां शास्त्रोमां होय छे, तेथी समान अर्थवाळा सेंकडो पाठो विभिन्नकर्ताना समान विषयक ग्रन्थोमां पण मेळवी शकाय छे, तेटला मात्रथी ग्रन्थोने अक्कत क न कही शकाय. वळी कपायप्राभतचणि अने कर्मप्रकृतिचूणि वच्चे पदार्थोना मतभेदो पण केटलांक स्थले जणाय छे, जेमांना उदाहरण तरीके केटलाक अमे रजू करी छी (१) मोहनीय कर्मनी सत्तावीस प्रकृतिनी सत्तानास्वामी तरीके कपायप्राभृतमा मात्र मिथ्याष्टि कह्या छे, ज्यारे कर्मप्रकृतिचर्णिमां मिथ्याटि तेमा सम्यमिथ्यादृष्टि बन्ने कया छे, जे नीचेना बन्नेना पाठो उपरथी जणाय छे-- "सत्तावीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइटि।” (कपायप्राभृतचूर्णि पृ० ६१) . तिगं सम्मामिच्छादिहिस्स संतहागाणि । तं जहा-२८-२७-२४-... Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 मिच्छादिटिणा संमत्त उव्यलिय पच्छा संत्तावीससंतकम्मिगोसम्मामिच्छत्तं गतो ते पडुच" (कर्मप्रकृतिचूर्णि सत्ताधिकार पृ० ३५) तात्पर्य ओ छे के सम्यक्त्वमोहनीयनी उद्वलना थई जाय अटले मिथ्या दृष्टिने मोहनीय कर्मन २७ प्रकृतिर्नु सत्तास्थान प्राप्त थाय छे अने आ रीते समकिन मोहनीयनी उबलना कर्या वाद मिश्रगुणस्थानके जीव जई शके छे. तेवा जीवने त्यां अटले के मिश्रगुणस्थाके मोहनीयकर्मनु२७ प्रकृतिनुं सत्तास्थान होय छे, आम कर्मप्रकृतिपूर्णिकारनी मान्यता छे, ज्यारे कषायप्राभृतचर्णिकारनी मान्यतानुसार प्रथमगुणस्थानके समकितमोहनीयनी उबलना कर्या बाद २७ प्रकृतिनी मोहनीयनी सत्तावाको जीव त्यांथी त्रीजा गुणस्थानके जई शकतो नथी, माटे मोहनी पर्नु सत्तावीस प्रकृतिर्नु सत्तास्थान त्रीजा गुणस्थानके होई शक नथी।। (२) संज्वलन क्रोधादिनो जघन्य प्रदेशसंक्रम कर्मप्रकृतिचर्णिकारना मते चरमसमयप्रबद्धनो अन्यत्र संक्रम करता क्षपकने चरमसमये सर्व संक्रमथी होय छे. ज्यारे कषायप्राभृतचणि. कारना मते उपशामकने चरमसमयप्रवद्धनी उपशमना पूर्ण थवाना काले होय छे. जुओ बन्नेना पाठो पुरिसके हमाणमायासंजलणाणं 'घोलमाणेणं' ति जहण्णजोगिणा चरिमबद्धस्स खवरगाए प्रभु. ट्टियस्स अप्पपणो चरिमसमयबद्धस्स 'सगतिमे' त्ति अअपणो चरिमसमए छोभे सवसंकमेणं जहएणतो पदेससंकमो होतित्ति । कहं ? भण्णइ-एतेसिं चतुण्डं बंधवोच्छेयकाले दुआवलियबद्धलतं मोत्तूण भण्णं णत्थि पदेसरग। तं च समर समए खीयमाणं अंतिम समर आइमसमयबद्धस्स असंखेजतिभागो सेसो भवति तेण चरिमसमए जहणतो पदेससंकमो होइ । (कमप्रकृति चणि-संक्रमकरण प० १३३) __कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कल्स ? उवसामयल्स चरिमसमयपबहो जावे उबसामिजमाणो उवसंतो ताचे तस्स कोहसंजलणस जहण्णओ पदेससंकमो। एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं ( कषायप्राभृतचूणि पृ० ४०८) (३) प्रथमउपशमसम्यक्त्वनी प्राप्तिना समये मिथ्यात्वमोहनीयना त्रण पुंज थाय छे, तेथी २६ नी सत्ता २८ नी सत्ता थाय छे, अर्थात् समतिमोहनीय अने मिश्रमोहनीय सत्तामां वधे छे, त्यार पछी नवा थयेला मिश्रमोहनीयनो अंक आपलिका सुधी (सम्यक्त्व मोहनीयमां)संक्रम थतो नथी, मेवी कर्मप्रकृतिचर्णिकारनी मान्यता छे.ज्यारे मिश्रमोहनीयनी सत्तामा उत्पत्तिना बीना समयथी ज तेनो सम्यक्त्वमोहनीयमा संक्रम थाय छे, अपी कषायप्राभूतचूर्णिकारनी मान्यता छे. कर्मप्रकृतिचूर्णिकार अक स्वतंत्र प्रकृति तरीके उत्पन्न थवाना कारणे मिश्रमोहनीयनी अक आवलिकानु वर्जन करे छे, ज्यारे कषायप्राभतचूर्णिकार मिश्रमोहनीप मंदरसबाळा मिथ्यात्वमोहनीयना ज पुद्गलरूप होघाना कारणे आवलिकानुवर्जन करता नथी, आ चन्ने मतो नीचेना बन्नेना पाठो पाथी जणाय छे "उरसमसम्मदिहिस्स वा अट्ठावीससंतकम्मसियस्स सम्मत्तलंभातो आवलियार परतो वट्टमाणस्स Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 1.80 संमत्तं पडिगहो त्ति फेडिए सत्तावीसा सङ्कमति तस्सेव आवलिया अभंतरतो वट्टमाणस्स सम्मामिच्छ. त्तस्स सङ्कमो णस्थि त्ति छव्वीसा सङ्कमति ।" (कर्मप्रकृतिचर्णि-संक्रमकरण पृ०१४) "सम्मामिच्छतस्स संकामओ को होइ ? मिच्छाइटिउज्वेल्लमाणओ सम्माइट्ठी वाणिरासणो। मोत्तुण पढमसमयसम्मामिच्छत्तसंतकम्मियं ( कषायप्राभृतचूर्णि पृ० २५६ ) (४) पुरुषवेदनी पतद्ग्रहता कपायप्राभतर्णिकारनामते स्त्रीवेद उपशांत थतां न नष्ट थाय छे, केम के अंतरकरण कयु त्यारथी आनुपूर्वी संक्रम शरू थई गयो छे अने आनुपूर्वी संक्रम वखते नोकपापनो संक्रन पुरुषवेदमां थतो नथी, अप कमायग्राभृतचर्णिनी मान्यता छे, अटले मात्र रह्यो वेदनो संक्रम अने स्त्रीवेद उपशांत थाय अटले पुरुषवेदमा वेदनो संक्रम पण अटकी जाय छे, अटले त्यां पुरुषवेदनी पतद्ग्रहता नष्ट थाय छे, ज्यारे कर्मप्रकृतिचूर्णि मुजब अंतरकरणथी आनुपूर्वीसंक्रम थाय छे, पण आनुपूर्वी संक्रम वखते नोकपायनो संक्रम पुरुषवेदमां थाय छे अने ते पुरुषवेदनी समयन्यून बे आपलिका बाकी रहे त्यां सुधी चालु रहे छे, तेथी पुरुषवेदनी पतद्ग्रहता तेनी प्रथम स्थितिनी समयोन वे आवलिका बाकी रहे सारे आगालनी साथे नष्ट थान छे, बन्नेनी आ मान्यता अंगे पाठो आ मुजब छे __ "सबस्स मोहणीयस्स आणुपुत्रीय संकमो होदि। लोभकसाये णियमा असंकमो होइ णायव्यो ॥" (क० प्रा० गा० १३६) चूर्णि-अंतरदुसमयकदाहुडि मोहणीयस्स आगुपुव्वीसंकमो । आगुरुबीलंकमो णात किं ? कोहमागमायालोभ एसा परिवाडी आगुपुच्चीसंकमो णाम (पृ० ७६४) आगळ उपर प्रस्तुतविषयमां नीचेनी गाथा पण बतावी छे, "संहदि पुरिसबेदे इत्थीवेदं णवुसयं चेव । सत्तेव णोकसाये णियमा कोहम्मि संछुद्धि" (क० प्रा० गा० १३८) "पुरिसवेयरत पढमट्ठितिते दुयावलियसेसाए आगालो वोच्छिन्नो, अणंतरावलिगातो उदीरणा एति, ताहे छण्हं नोकसायाणं संछोभो णस्थि पुरिसवेदे, संजलणेसु संभति।" ( कर्मप्रकृति चूणि उपशमनाकरण पृ०५५) ___"इयाणिं उत्रसमसम्मदिहिस्स उघसामासेटिं भणामि-चउबीस संतकम्मातो सम्मत्ते पडिग्गहो त्ति फेडिए तेवीसा पंचगे बंधे सम्मत्तसम्मामिच्छत्तसहिते सत्तगे संकामति । तस्सेय पंचविहबन्धास्त अंतरकरणे कृते लोभसंजलणाए अणाणुपुचिसंकमो स्थित्ति फेडिते बावीसा संकमति। तस्सेव नपुंसकवेदे उसंते तेसु चेव सत्सु एकवीसा संकामति। तस्सेव इस्थिवेदे उवसंते तेस चेव सत्तगे वीसा संकमति । ततो पुरिसवेयम्स पढमद्वितीयसमयूणदुआवलियसेसाए पुरिसवेदो पडिग्गहोण होतित्ति वीसा तेसु चेव सत्तसु पुरुसवेयरहिएसु छसु सकमति जाव समयाणा उदो आवलियाउ। ("कर्मप्रकृति संक्रमकरण गाथा११नी चूणि) । क्षपकश्रेणिमां पण संक्रमविधिमां आ ज वात बतावी छ____ ततो तेरसण्डं कम्माणं अन्तरकरण कते लोभसजलणाए अणाणुपुब्वि संकमो णस्थि त्ति लोभे फेडिसे सेसा बारस तंभि चेव पंचविहे बंधे संकमंति अन्तोमुहुत्तं । ततो बारसहिंतो णपुसगवेदं खविर सेसा एक्कारस भवंति । ते एकारस तंमि चे। पंचविहे बन्धे संफर्मति अन्तोमुहुत्तं ततो एकारसउ इत्थीवेदे खविए सेसा दस तंमि चेव पंचविहे संकमंति अंतोमुहुत्तं ततो पुरिसवेयस्स पढमट्टितिए समऊरणदुप्रावलिपाए सेसाए Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] प्रस्तावना पुरिसवेदो पडिग्गहो ण होतित्ति ते दस पुरसवेदूरणेसु चउसु संजलणेसु समयूरणदुप्रावलियमेत्तं संकमिति । (कर्मप्रकृतिचूर्णि पृ० २२.) अटलुज नहि पण उपरोक्त मान्यतानुसारे मोहनीयनी १८ प्रकृतिनो संक्रम पांच अने चार प्रकृतिना पतद्ग्रहमां कर्मप्रकृतिनी प्रक्षिप्त (भाष्य) गाथामां मान्यो छे ज्यारे मात्र चारना ज पतद्ग्रहमा १८ प्रकृतिनो संक्रम कषायप्राभृतनी प्रक्षिप्त (भाष्य) गाथामां मान्यो छे, १८ प्रकृ. तिर्नु संक्रमस्थान उपशमश्रेणिमां क्षायिकसम्यग्दृष्टिने स्त्रीवेदनो उपशम थया पछी प्राप्त थाय छे, (लोभ नपुंसकवेद अने स्त्रीवेद सिवाय) अने ते बखते कर्मप्रकृतिकारना हिसावे पुरुषवेदनी पतद्ग्रहता नष्ट नथी थई, माटे १८ नो संक्रम पांचमां थाय छे, अने पुरुषवेदनी प्रथमस्थिति समयोन बे आवलिका बाकी रहे त्यारे पतद्ग्रहता नष्ट थाय छे, अटले चारना पतद्ग्रहमां१८ नो संक्रम थायछे कषायप्राभृतचूर्णिना हिसावे स्त्रीवेद उपशांत थतानी साथे ज पुरुषवेदनी पतद्ग्रहता नष्ट थती होवाना कारणे चारना पतद्ग्रहमां ज अढार प्रकृतिना संक्रमस्थाननी प्राप्ति थाय छे, पांचना पतद्ग्रहमां अढार प्रकृतिना संक्रमस्थाननी प्राप्ति थती नथी अने लगती पण कर्मप्रकृति अने कषायप्राभृतमां जुदी जुदी गाथाओ नीचे प्रमाणे छ पंचसु एगुणवीसा अट्ठारस पंचगे चउक्के य । (कर्मप्रकृति संक्रमकरण गाथा. १८) पंचसु च ऊणवीसा अट्ठारस चदुसु होति बोद्धव्वा । (कषायप्राभृत गाथा ३५) ततो वीसाउ णपुसकवेदे उवसामिए एगुणवीसा भवति । सा एगुणवीसा तम्मि चेत्र पंचविहे संकमति अन्तोमुहुत्तं । ततो एगुणवीसाउ इत्थीवेदे उवसामिए अट्ठारस भवंति । ते अट्ठारस तंमि चेव पंचविहे बंधे संकमति अन्तोमुहुत्तं । (कर्मप्रकृतिचूर्णि संक्रमकरण पृष्ठ २१.) ___अहीं ध्यान खेंचवा जेवी बाबत अ पण छे के कर्मप्रकृतिना तथा कषायप्राभृतना संक्रमकरणनी केटलीक गाथाओ समान छे, अने बन्नेनी आ गाथाओनी चर्णि मळती नथी. तेमां आ गाथानो पण समावेश थाय छे, बन्ने ठेकाणे प्रक्षेप जणाती गाथाओमां पण आ रीते पदार्थ भेद जोवामां आवे छे, कर्मप्रकृतिनी आ गाथाओ विषे कर्मप्रकृतिचूर्णिटिप्पणमां मुनिचन्द्रसूरि महाराज पाछलथी भाष्यकारे करेली होवार्नु जणावे छे. "छव्वीस सत्तवीसाण संकमो" इत्यादि गाथा एकादश न चूर्णिकृता व्याख्याता अतो ज्ञायते चूर्णिकारोक्त. संक्रमस्थानमार्गणामुपजीव्य भाष्यकारेण पश्चात्कृता।" प्रस्तुत पाठो उपरथी जोई शकाय छे, के कर्मप्रकृतिपूर्णि अने कपायप्राभृतचूर्णिमां पदार्थोनी भिन्नमान्यताओ पण केटलांक स्थलोमां मळे छे, तेथी पदार्थोनी समानताना कारणे अकककत्वनी कल्पना करी लेवी उचित नथी. __ भाषापद्धतिनो भेदः-भाषानी साम्यताने प्रस्तावनाकार अककत कत्वना कारण तरीके बतावे छे. परंतु कर्मप्रकृतिचूर्णि, तथा कषायप्राभृतचूर्णि, बन्नेमा आवता अमुक शब्दोनी साम्यताना कारणे अककत कत्वनो निर्णय थई शके नहि, अटलुज नहि कर्मप्रकृतिचूर्णि अने कषायप्राभत Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [81 चूर्णि नी व्याख्यापद्धति पण जुदा ज प्रकारनी छे, कषायप्राभतचूर्णिमां ठेर ठेर "एत्थ सुत्तगाहा" कहीने सूत्रनी गाथा कही छे, केटलांक ठेकाणे अमुक अर्थमां केटली गाथाओ छे ते पण जणाव्युछे. जेमके 'एत्थ तिण्ण सुत्तगाहाओ हवंति तं जहा' । कोई कोई स्थले “पदच्छेदो तं जहा" कहीने सूत्रगाथानां पदोना अर्थ कर्या छे. “एदासिं गाहाण पदच्छेदो । तं जहा-एस सुत्त फासो" वगेरे पदो कपायप्राभतचर्णिमां अमुक स्थले जोवा मले छे, ज्यारे कर्मप्रकृतिचर्णिमां आ पद्धति नथी. कर्मप्रकृतिचूर्णिमां मुख्यत्वे पदो ने प्रतीकरूपे लई तेनो पदच्छेद करवापूर्वक व्याख्या करी छे, क्यांय 'सुत्तफामा सुत्तगाहा' वगेरे कयुनथी, पदच्छेद करवा पूर्वे पण 'गाहाण बदच्छेदो' पण का नथी. कपायप्राभूतचूर्णिकारे घणां स्थलोमां सूत्रनां पदोनु उच्चारण कर्या विना सूत्र द्वारा सूचित अर्थनी विस्तारथी प्ररूपणा करी छे. आ उपरांत पण बीजी अनेक रीते कपायप्राभूतचूर्णि अने कम्मपयडिचर्णिमा व्याख्याशैलीना भेदो जोवामां आवे छे, जेनो वांचकोने बन्ने चर्णिओ वांचवाथी सुदर रीते ख्याल आवी शके छे.भिन्न कर्तानी भाषाओमां पण घणी वार साम्यता आवे छे, दा० त० कमप्रकृतिनी मलयगिरि म० कृत टीकामां अने उपाध्यायजी यशोविजयजी कृत टीकामां भाषानी घणी ज साम्यता छे, छतां वन्ने टीकाओना कर्ता भिन्न छ, माटे अककत्व साबित करवा भापानी साम्यतानुकारण उपस्थित करायुछे ते प्रमाणभूत नथी. कमां अमारूं कहेवानु तात्पर्य ओछे के जे कारणो ओक कतकत्व माटे रज करायां छे. ते कारणो वास्तविक नथी, अटलुज नहीं पण अमे जे मतभेदोना पाठो आप्या छे, ते अक कर्ताना पण जुदा जुदा ग्रन्थोमां होई शके छे, केम के चूर्णि के टीकाना कर्ता जे ग्रन्थनी चूर्णि के टीका करता होय छे तेओ मुख्यत्वे ते ग्रन्थकारने अनुसरता होय छे, अटले एकज टीकाकारनी जुदा जुदा ग्रन्थनी टीकाओमां पण पदार्थभेद होय छे, समर्थ टीकाकार मलयगिरि महाराज कृत घणी टीकाओमां आवा भेद जोगा मळे छे, अटले बीजां प्रबल प्रमाणो होय त्यारे पदार्थभेदथी भिन्न कर्तानी अने बीजां कोई प्रबल प्रमाण सिवाय अंक मात्र पदाथेनी साम्यता, अने भाषानी आंशिक साम्यताना कारणे अक कर्तृ कत्वनी कल्पना करवी ते उचित नथी. हा, जो अना माटे बीजुं कोई प्रबल प्रमाण प्रस्तावनाकारे रजू कयु होत तो आ बधी चूर्णिओर्नु अककत कत्व जरूर आपणे मानी शकत.तात्पर्य ओ छे के चारे चर्णिओ ओक कर्तानी नथी ज अम अमारे नथी कहेवू परंतु आ चारे चर्णिओ अक कर्ता द्वारा रचायेली छे अवो निर्णय पण उपलब्ध प्रमाणोथी थई शकतो नथी. हाल तो अना कर्ता कोण छ, ते ज्ञानी गम्य ज मानवु रह्य, भविष्यमां विशेषसामग्री मळतां अ बाबतनी विचारणा थई शके.. कदाच भविष्यमां बीजां प्रमाणोथी चारे चूर्णि अकज कर्तानी छे एवु सावित थाय तो पण चारे चूर्णिना कर्ता तरीके त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता सावित थई शकता नथी, केम के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] प्रस्तावना - (१) त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता यतिवृषभ नक्की नथी. (२) चारे चूर्णि त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता यतिवषभनी रचित छे अम जे गाथा परथी नक्की करवा प्रयास थाय छे, ते गाथानो पाठ प्रमाणभूत नथी, केम के 'चुण्णिस्सस्वत्थकरणं' पाठ हस्तलिखितप्रतमां छे, 'चुण्णिस्सरूवछक्करण' अयो पाठ मुद्रित त्रिलोकप्रज्ञप्तिमा छे. परंतु 'चुण्णिस्सरूवठकरण' अो पाठ क्यांय नथी, जयधवला प्रथमभागनी प्रस्तावना, 'तिलोयपण्णत्ति और यतिवृषभ' नामनो पंडित जुगलकिशोर मुख्तारनो लेख (वर्णी अभिनंदनग्रन्थ पृ० १२३) 'लोकविभाग और तिलोयपग्णति' नामनो नायूराम प्रेमोनो लेख ( जैन साहित्य और इतिहास पृ० ६) वगेरेमा आ गाथा ज्यां जोगामां आवे छे, त्यां क्यां य प्रस्तावनाकारे स्वीकारेल 'चुपिणस्सरूवकरण' वाळो पाठ जोवामां आवतो नथी (३) गाथानो अर्थ जे रीते कयों छे ते रीते संगत नथी. वळी कर्मप्रकृतिमा मात्र आठ करणनी ज बात नथी, परंतु आठकरण उपरांत उदय अने सत्तानो अधिकार पण छे. (४) उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्तिने कपापणाभृतचणिना कर्ता क नथी ओअमे पूर्वे अनेक प्रमाणो थी सावित कयु छे. आम गाथामांना 'त्थ' नो 'ट' करीने बंधनादि आठकरणरूप अर्थ ग्रहण करी त्रिलोकप्रज्ञप्तिनी अंतिम गाथामां आवता 'जदिवसह' पद उपरथी त्रिलोकप्रज्ञप्ति ना कर्ता तरीके यतिवषभने कल्पी भाषानु साम्य अने पदार्थोनु साम्य वगेरे कारणो द्वारा चारे चर्णिने त्रिलोकप्रज्ञप्तिना कर्ता दिगम्बराचार्य यतिवपभाचार्यना नामे चडावी देवानो जे प्रयत्न प्रस्तापनाकारे कयों छे ते अनेक प्रमाणोथी बाधित थई जाय छे. कपायप्राभृतचूर्णिना प्रस्तावनाकारे पृ० ५६ उपर कर्मप्रकृतिपूर्णिनी भाषानु छेल्ला अढीसो, त्रणसो वर्षमां जाणीबूजीने परिवर्तन कर्यानो जे आक्षेप कयों छे, तेनो पण उत्तर जरूरी लागवाथी अमे सप्रमाण रजू करीये छीओ प्रस्तावनाकारर्नु अम कहेवुछे के कर्मप्रकृतिचूर्णिना संस्कृतटीकागत पाठो करतां कर्मप्रकृतिनी मुद्रित चूर्णिना पाठोनी भाषा जुदी छे अने तेथी भाषामां जाणीजोईने कोई छेल्ला अढीसो त्रणसो वर्षमा परिवर्तन कयु छे. आ कथनना समर्थनमां तेमणे संस्कृतटीकामांथी उद्धत पांच पाठो अने मुद्रित चूर्णिना ते ज पाठो रजू कर्या छे. अमारे आ बावतमा मात्र अटलुज कहेवानुछे के विद्वान प्रस्तावनाकारे आवो आक्षेप करवा पूर्वे जो कर्मप्रकृतिनी चूर्णिनी तेनी कोई प्राचीन प्रति अथवा फोटोकॉपी लई तेमां पाठोनी भाषा जोई होत तो तेमने आलु लखवानो श्रम लेवो न पडत अने अमारे पण आटलो खुलासो करवो न पडत. प्रस्तावनाकारना आपेलां पांचे स्थानो अमे जेसलमेरना भंडारनी संवत १२२२मां लखायेली प्राचीन प्रतिनी फोटो कॉपीमां जोयां छे, तेभां प्रथम स्थानमां चूर्णिनो पाठ (संस्कृतटीकागत) समान छे ज्यारे वाकीना चारे पाठ मुद्रितचूर्णिनापाठने मळता आव्या छे. प्राकृतग्रन्थोनी प्राचीन प्रतिओमां भाषाना अनेक प्रकारना भेदो होय छे. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना: [69 टीकाकार समक्ष जे प्रत आधी होय तेना हिसावे तेमने पाठ लख्यो होय, ज्यारेते वखते' पीजी प्रतिओमां पाठ जुदा पण होई शके छ, 'त' 'च' वगेरे कोई कोई प्रतोमां होय छे, ज्यारे कोई कोई प्रतोमां तेनो लोप पण करेल होय छे. अकज प्रतमां कोई कोई स्थाने होय छे अने कोई कोई स्थाने नथी पण होता, माटे 'त' 'च' वगेरे पदो मुद्रित प्रतिमां देखाय अने टीकागत चूर्गिमा न देखाय तेथी अ पाठो बदली नांख्यानी कल्पना करवी ओ उचित नयी. मुद्रित चूर्गिनां पांवे स्थानोना पाठो, टीकागत चूर्णिनां उद्धरणोअने जेसलमेर भंडारनी हस्तलिखितताडपत्रीयप्रतना पाठो तथा असिवाय पण 'त' 'च' वगेरे लोपायेला, अने नहि लोपायेला अबआ संख्याध पाठो हस्तलिखित ताडपत्रीयमांथी अमे अहीं रजू करीअछी, ते जोवाथी वावकोने ख्यालमां आवी जशे, के प्रस्तावनाकार द्वारा कराअल आक्षेप तद्दन निरर्थक ठे पांचे स्थानोना पाठो १. मुद्रितचूर्णिः- पिण्डपगडीतो नामपगडीतो। बन्धनकरण पृषु ७२ अ. टीकागतपाठः- पिण्डपगईओ णामपाईओ। बन्धनकरण पृष्ठ ७२ ब. जेसलमेरप्रतनो पाठः- पिण्डपगईओ णामपगईओ । ताडपत्र पृ० ३२ ब. २. मुद्रितचूणि:- पुहुत्तसदो बहुत्तवाची । बन्धनकरण पृ० १९३ ब. टीकातिपाठ:- पुहुत्तसदो बहुत्तबाइति । बन्धनकरण पृ०१९४ अ. जे० प्रतिनो पाठः- पुहुत्तसदो बहुवा वी । ताडपत्र पृ० ९३ अ. ३. मुद्रितचूर्णि:- बंधद्वितीउ संकमठिती संखेज्जगुणा । संक्रमकरण पृष्ट ५९ अ. टीकागलपाठः- बंधठिईओ संतकम्मठिई संखिज्जगुणा संक्रमकरण पृष्ट ५९ ब. जे प्रतिनो पाठ:- बंधट्ठीतितो संतकम्मउिती संखेज्जगुणा । ताडपत्र पृ० ११९ ब. ४. मुद्रितचूर्णि:- एत्थ वाचात इति हितिघातो। संक्रमकरण पृ० १४८ अ. संस्कृत टीकागतपाठः-ठियाओ एत्थ होड वाघाओ। संक्रमकरण प० १४९ ब. जे० प्रतिनो पाठः- इत्थ वावात इति ठितिघातो । ताडपत्र १६४ ब. ५. मुद्रितचूर्णि:- तं आरिसे न मिलति त्ति ण इच्छिज्जति । सत्ता प० ३७ टीकागतपाठः- तं आरिसे न मिलई तेण ण इच्छिज्जइ । सत्ता पृ० ३७ जे० प्रतिनो पाठः- तं आरिसे न मिलइत्ति णेच्छिज्जति । ताडपत्र पृ० २८० ब. जेसलमेरना ज्ञान भंडारनी वि० सं० १२२२ मां लखायेली ताडपत्रीय प्रतना पानामां संक्रमकरणने लगता विषयना फक्त सवा बे पानां वांचतां लगभग ४० जेटला प्रयोगो 'त' 'च' ना लोपबाळा जोगा मळया छे तथा संस्कृत टीकागत प्रयोगोने अनुसरता पण केटलाक प्रयोगो जोवा मळया छे अटलज नहीं पण ज्यां मुद्रित चूर्णिमां 'त' 'च' वगेरे छे त्यां पण 'त' 'च' ना लोपवाळा तथा मुद्रित चूर्णिमां 'त' 'च' नथी अने हस्तलिखितप्रतमां छे, अबा पण केटलाक प्रयोगो छे तेने लगता उदाहरणो अमे वाचको समक्ष रजू करीअछी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 641 प्रस्तावना मु. पृ० १ म तत्थ पगतिहितिअणुभागपदेससंकमार्ण सामण्णलक्खणं भणइ । ता. पृ० ९७ ब तत्थ पगतिवितिअणुभागप्रदेससंकमाणं सामण्णलक्खणं भन्नति । मु. पृ० १० सो संकमो त्ति वुच्चइ जं बंधणपरिणो पओगेणं । पगयंतरत्थदलियं परिणमयइ तयणुभ.वे जं ॥१॥ ता. पृ०९८ अ.सो संव.मो त्ति बुच्चति ज बंधणारिणतो पभोगेणं । पगतितरत्थदलियं परिणमयति तदणुभावे जं॥* ॥ मु. पृ० १ भणियं पयोगेणं दलितं दलितं अतिथोत्रमितं भन्नति ता० ९८ अ. भणितं पओगेणं दलियं दलियं अतिथोत्रमियं भन्नति मु० पृ०२. भ. भणितो ब. संकमति संकमति णियमिजइ भणियं संकामिज्जति । जे०ता० ९८अ. भणितो संकमति संकमइ णियमिज्जति भणितं संकामिज्जति । मु०प० २ब. परिणमयति पगतीए परिणमयी वुन्चति जेता०९८ब. परिणमयति पगडीते परिणमयति बुच्चति मु० पृ० ३अ. भण्णति अवादो णिवारेति णिवारेति दलितं भवति जेता० ९८व. भन्नति अवधादो णिपारेइ णिवारेइ दलियं भवति मु० पृ.अ. आवलियागयं होति भगति जे०ता० ९६अ. आलियागतं होति भणति मु० पृ० ४ भ. इच्छिज्जति भणितो जे० ता० ९९अ. इच्छिज्जति भणितो मु० पृ० ५ अ. (गा०५.) समयूणिगासु पढमहिती पढमहितीए समयूण जे० ता० ९९ब. समऊणियासु पढमठिती पढमहितीए समऊण मु० पृ० ५ब. कायञ्च जे० ता०९९ प. कातव्य मु० पृ० ५ब. साइ अणाइ धुव अधुवा य सव्यधुव संतकम्माणं । साइ अधुवा य सेसा मिच्छा वेयणि यनीरहिं ।। गा० ६॥ जेव्ता-पृ०९९ ब.साति अणाती धूव अधुवा य सवधुव संतकम्माणं । साति य अद्धव सेसा मिच्छ। वेदणियनीएहि ॥ मु० पृ० ५ ब. सम्मत्तसम्मामिच्छत्तणिरयगतिमणुयगतिदेवगति उच्चागोय जे० ता०९९ब. सम्मत्तसम्मामिच्छतगिरयातिमणुपातिदेवगति उच्चागोतं मु०पू०५ ब. पगतीउ आउगवजातो धुवसंताउ जे० ता० ९९ब. पगतीतो आउगवताओ धुवसतातो मु० पृ० ६अ. तीसुतरसयाउ सायासातणो यात्रिच्छतेसु अवगीतेतु जे० ता० ९९ब. तीसुत्तरसतातो सातासातणीयागोतमिच्छत्तंसु अबणोरम मु०५० ६ अ. सातियातिचउन्विहसंकम जे० ता. ९९२. सादियादिचबिहकर्म * आक्रमकरणनी मूलगाथा छे चूर्णिमा मूलगाथाना अपतरणो छे तेना प्रयोगो मूलगाथाथी भिन्न छे. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ 65 अन्य ग्रन्थोनो साक्षी:- उपर्युक्त कर्मप्रकृति, कर्मप्रकृतिचूर्णि, शतक, शतकचूर्णि, सप्ततिका, सप्ततिका चूर्णि, कपायप्राभृत, कपायप्राभृतचूर्णि उपरांत प्रस्तुत खवगसेढी ग्रन्थमां बीजा पण अनेक ग्रंथोनी साक्षीओ आपवामां आवेली छे. तेमां कर्मसाहित्यविषयक ग्रन्थो मुनिचन्द्रसूरिकृत कर्मप्रकृतिचूर्णिटिप्पन, कर्मस्तव, कर्मप्रकृतिटीका, गुणस्थानक नारोह, गुणस्थानक्रमारोहवृत्ति, प्राचीन कर्मस्तव, पंचसंग्रह, पंचसंग्रहटीका वगेरे छे. अवसरे अवसरे टिप्पणमां धवला, जयधवला, गोम्मटसार, क्षपणासार आदि ग्रन्थोनो पण उल्लेख करवामां आवे छे. आ सिवान आगमो, व्याकरणग्रन्थो, कोशी, प्रकरणग्रन्थो, न्यायग्रन्थो वगेरेनी पण अनेक साक्षीओ छे. इतरदर्शनोओ मानेला मुक्तिना स्वरूप निरास करवामां सम्मतितर्क, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका, स्याद्वादमञ्जरी, षड्दर्शनसमुच्चय, न्यायालोक, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोनो ग्रन्थकारे सारो उपयोग कर्यो छे. आ वधा ग्रंथो तथा तेना कर्ता वगेरे प्रसिद्ध छे भेटले अमे से बाबतमां अत्रे विशेष लखता नथी. वर्तमानमां चाली रहेलु कर्मसाहित्यना सर्जननु कार्य परमाराध्यपाद पुनितनामधेय कारुण्यनिधि सिद्धांतमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेबना पवित्र नामथी जैनसंघ सुपरिचित छे. तेओ श्री जीवन संयममार्गनी उच्च आराधनाथी अत्यंत सुवासित छे. पांसवना दीर्घसंयमपर्याय मां ते ओश्रीए जाते रत्नत्रयीनी अपूर्वं साधना करी छे अने बीजा अनेक आत्माओने करावी पण छे. तेओश्रीनी पुनित निश्रामां आजे लगभग अढीसो मुनिवरो संयममार्गने सुखपूर्वक आराधी रह्या छे, तेओश्रीओ पोतानी निश्रामां रहेला मुनिवरोने ज्ञानादिनु अब सुंदर दान कयुं छे के जेना परिणामे आजे अनेक प्रभावक उपदेशक, तचज्ञानी, तपस्वी अनं वेयावच्च करनार मुनिभगवंतोथी तेओश्रीनो विशाळ गच्छ शोभी रह्यो छे अने जगत उपर महान उपकार करी रह्यो छे. वर्त्तमानकाले जैनसंघ उपर अमाप उपकार करनार, पंचाचारना पालनमां प्रवीण, पट्कावजीवना रक्षक, संघकौशल्याधार, बात्सल्यनिधि, आचार्य भगवंतना मार्गदर्शन मुजब तेओश्रीनी अंतरेच्छानुसार कर्म साहित्यनु विशाल सर्जन थई रघु छे, तेमां प्रस्तुत ग्रन्थ प्रथम पुस्तक तरीके प्रगट थई रह्यो छे भेटले पूज्यश्रीनी निश्रामां थई रहेला कर्मसाहित्यना सर्जननी प्रवृत्ति अंगे पण थोडो ख्याल आपको जरूरी लागवाथी अत्रे आपवामां आवे छे. पूज्यपाद पुनितनामधेय आचार्य भगवंते संवत २००५ मां पोताना विद्वान शिष्यरत्न मुनिराजश्री भानुविजयजी (हाल पंन्यासजी तथा मारा पू० गुरुदेवश्री ) महाराजने चातुर्मास माटे मुंबई मोकल्या. पू. गुरुदेव श्रीनी वैराग्यमय वाणी अने तपोमय जीवनथी अनेक आत्माओमां वैराग्यनां बीज खायां अने तेना फळ रूपे संवत २००६नी सालमांत्रण आत्माओए संयममार्गे प्रयाण कर्यु . त्यार पछी संवत २००६मां पू० आचार्यदेवश्रीनु तथा गुरुदेव श्रीनु चातुर्मास पालीताणा मुकामे थयुं. त्यां Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 68 ] पूज्यपादश्रीनी पुनित निश्रामां मुमुक्षु पाठशाळा द्वारा वैराग्यवासित थयेला आत्माओने संयममार्गनी केळवणी आपवामां आवी. चातुर्मास बाद पालीताणाथी पूज्य आचार्यदेवश्रीनु मुंबई तरफ पधारवानु थयु. पू. गुरुदेवश्री आगळ पहोंच्या. रस्तामा सुरत मुकामे त्रण भाईओ तथा बे बहेनोने चारित्र प्रदान करी तेओ मुंबई पधार्या. त्यार पछी पू० आचार्यदेव पण पधार्या. मुंबई नगरीमां तो अक नकुंज आध्यात्मिक चैतन्य प्रगट्यु. पूज्यपादना प्रकृष्ट संयमबले अने पू० पंन्यासजी म० ना वैराग्यमय उपदेशे अनेक आत्माओनो संसारमाथी उद्धार कयों. संवत २००७-२००८ नां चातुर्मास मुंबई लालबागमां थयां. संवत २००९ नु चातुर्मास मुबईना परामां थयु', त्यार पछी बे चातुर्मास दक्षिणमां करी पूज्य आचार्यदेवे संवत२०१२ - चातुर्मास पुनः मुंबईमां कयु, मुंबईनां आ चातुर्मासो दरम्यान संख्यावध वाळ, युवान अने उमरलायक आत्माओओ पूज्यश्रीना सत्समागम अने गुरुदेवश्री ना उपदेशथी संसारना बंधनोने फगावी दई चारित्रना पुनित पंथे प्रयाण कयु. चारित्रमार्गनी प्राप्ति पछी पूज्य आचार्यभगवंतादिगुरुदेवोनी निश्रामा ज्ञान, ध्यान, वेयावच्च, तप, त्याग, समिति, गुप्ति आदिना संस्कारोने झीलता मुनिभगवंतो आध्यात्मिक प्रगतिना पंथे आगळ वध्या. गच्छहितचिंतक पू० (पंन्यासजी)श्रीहेमंतविजयजी म० तथा पूज्य (पंन्यासश्री) पबविजयजी महाराजे पण मुनिओना जीवनघडतर अंगे सारो अवो पुरुषार्थ को. भव्यात्माओना संयमनोकाना सुकानी पू. आचार्यभगवंतना मनमां संयमरक्षानी माफक श्रुतमार्गनी रक्षा अने प्रभावना अंगेनी विचारणा पण रमती ज हती. तेओश्रीनो श्रुतज्ञाननो रस आजे ८३ वर्षनी उमरे शारीरिकस्वास्थ्यनी प्रतिकूलता दरमियान पण हाथमा रहेलां शास्त्रोनां पानां वतावी आपे छे. जैनशासननां निधानभूत आगमो अने कर्मवाद तेओश्रीनो अत्यंत रुचि. कर विषय छे. तेओश्रीओ जाते आगमो अने कर्मसाहित्य विषे घणुज मंथन अने मनन करेलुछे. आचार्यपद जेवा जबाबदारीभर्या स्थाने, शासननी अने गच्छनी अनेकविध चिंताओना बोज कच्चे पण रात्रिना समये कलाको सुधी कर्मप्रकृति, ओघनियुक्तिआदिग्रन्थोना पदार्थोनु चिंतन तेओश्रीने चालु ज रहेतु. कर्मसाहित्यना विशाल सर्जन माटेनी झंखना वर्षाथी तेओश्रीना हृदयमा रमती हती. तेओश्रीओ संक्रमकरणना विवेचनरूप बे भागो, कर्मसिद्धि, मार्गणाद्वारविवरण आदि कर्मविषयक ग्रन्थोनु स्वहस्ते आलेखन कयु छे. तेओश्रीनी अंतरेच्छा कर्मप्रकृतिनां आठे करण उपर विशद विवेचन तैयार करवानी हती. पोतानी अंतरेच्छा पूर्ण करवा माटे तेमनी नजर नवदीक्षित मुनिवृद उपर पडी, मुनिओने संस्कृत-प्राकृत भाषानु अध्ययन कराव्या पछी आचार्यभगवंते पोतेज कर्मसाहित्यनो अभ्यास कराव्यो अने बार मास जेवा टूका गाळामां तो कर्मग्रन्थ, पञ्चसंग्रह अने कर्मप्रकृतिना पदार्थो मुनिओने कंठस्थ करावी दीधा.त्यार बाद सामुदायिक अध्ययनमां परस्परनी सहायथी आ क्षेत्रमा सारु खेडाण थयु. कर्मग्रन्थ, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह वगेरेना पदार्थों Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ or मौखिक तैयार थपा पछी कर्म विषयक ग्रन्थों-छ कर्मग्रन्थ, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, शतक, सप्ततिका, प्राचीनकर्मग्रन्थ वगेरेनी टीकाओ तथा चूर्णिओनुवांचन थयु. त्यार बाद पूज्य आचार्यभगवंते दिगंवर संप्रदायना गोम्मटसार, धवला, जयधवला टीका आदि ग्रन्थोनु पण अवगाहन कराव्यु. आ रीते कर्म विषयक सुंदर बोध पूज्य आचार्य भगवंतनी पुण्यनिश्रामां मुनिश्रो प्राम कर्यो, दरमियान समय मळ्तां न्यायग्रन्थोनु अध्ययन पूज्य गुरुदेव पंन्यासजी श्री भानुविजयजी गणिवर्ये कराव्यु. आगमग्रन्थो अने छेदग्रन्थोनो पण बोध कराव्यो. कर्मसाहित्यविषयक मनन अने मंथनथी मुनिओनी बुद्धि कुशाग्र बनी, अनेक पदार्थोनी हेतुपुरस्सर विचारणाओ अने चर्चाओ मुनिमंडले करवा मांडी अने ऊंडां रहस्यो प्रगट कया. पू० आचार्यभगवंतना हृदयमा कर्मसाहित्यना सर्जननी बात तो वर्षोथी रमती ज हती. अंक पुण्यप्रभाते पूज्यपादश्रीने पुनः मनोरथ थयो के आठे करणो उपर हेतुओनी विचारणापूर्वक, विशाळ विवेचनयुक्त, मार्गणाप्रोमां सत्यदादि द्वारो बड़े कमने लगता पदाथोंनो समावेश करी कर्मसाहित्य तैयार थाय तो कर्मसाहित्यनी विशाळता जगतने जोवा मठे, तेमज हजारो वर्षों मटे या अतिविशाल कमसाहित्यनो वारसो भव्यजीवोने उच्चकोटिना द्रव्यानुयोगना चिंतन अपूर्व कर्मनिर्जरादि-आत्मकल्याणार्थे उपयोगी थाय अने जैनशासनमां कर्मसाहित्यविषयक अंक महान समृद्धि उत्पन्न थाय. पूज्यपादश्रीना आ मनोरथन प्रगट थतांनी साथे तेओश्रीना अंतेवासीओओ झीली लीधो. संवत २०१५ ना चातुर्मासमां सुरेन्द्रनगरमां बारमा तीर्थपति श्रीवासुपूज्यस्वामीनी पुण्यनिश्रामां पू० आचार्यभगवंतना शुभाशीर्वाद अन पू० पंन्यातनी कान्तिविजयजी गणिवर्य, पू० पं० हेमंतविजयजी गणिवर्य पू० पं० भानुविजयजी गणिवर्य, अ पू. पं. पद्मविजयजी गणिवर्यादिना प्रोत्साहनपूर्वक कर्मसाहित्यना विशाल सर्जनना कार्यनो प्रारंभ थयो. शरूआतमां त्रण मुनिवरोए कार्य शरू कयु, "उपशमश्रेणि" अने "क्षपकश्रेणि' ना पदार्थोनो संग्रह थयो. बीजा मुनिभगांतोने कर्मप्रकृति वगेरे कर्मसाहित्यना अभ्यास द्वारा आ कार्य माडे तैयार करवानू काम चालु हतु. जेम जेम कर्मप्रकृति वगेरे ग्रन्थोना अभ्यास द्वारा मुनिओ तैयार थया, तेम तेम तेओने आ कार्यनां पूज्य आवार्यनगते प्रवेश कराव्यो. आजे एना फलरूपे अनेक मुनिवरो प० पू० आचार्यभगवंतनी देखरेख नीचे कर्मविषयक साहित्यसर्जनमा प्रबल पुरुषार्थ करी रह्या छे. ग्रन्थोनी रचना पद्धति पू० मुनिराजश्री जयघोषविजयजी महाराज तथा पू० मुनिराजश्री धर्मानंदविजयजी महाराज प्रस्तुत साहित्यसर्जन कार्यना अग्रणी छे. पदार्थसंग्रहमा अने अन्यमुनिओने आ सूक्ष्मविषयनी दोरवणी आपवामां तेमनो मोटो हिस्सो छे. संगृहीत पदार्थोना स्पष्टीकरणमा जुदां जुदा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 881 शास्त्रोना आधारो, अनेकानेक हेतुओ अने युक्तिमो वगेरेनु प्रतिपादन तेश्रो करे छे अने त्यार पछी तेना आधारे गाथाओ तथा विवेचनो तैयार थाय छे, गाथा रचनार मुनिश्री पण खूप कालजीपूर्वक संक्षेपमा पदार्थों संगृहीत थाय ए रीते गाथाओनी रचना करे छे अने विवेचन कारो पण घगा ज परिश्रम पूर्वक संस्कृतभाषामा टीकाग्रन्थरूप खाण तैयार करे छे. गाथा तथा टीका तैयार थया पछी बन्ने मुनिमगवंतो गाथा पो त गा टीकार्नुलखाग जोई ले छे अने योग्य सुधारावधारा कर्या बाद तैयार थयेली प्रेसकॉपीर्नुपू०आवार्य भगवंत खूबन झीणवटयी वांचन करी तेमा रहेली नानी मोटी क्षतिओनसमार्जन करे छे, उपरांत आ विषयना बीजा निष्णातो द्वारा प्रेसकॉपीनुसंशोधन थाय छे. आ रीते तैयार थयेला ग्रन्थोनु मुद्रण कार्य भारतीय प्राच्य तत्त्वप्रकाशन समिति संभाळी ले छे. फोनु संशोधन अने शुद्धिपत्रक खूब कालजी पूर्वक झीणवटथी थतु होबाथी शुद्धिकरण सारु थाय छे. आ साहित्य सर्जनमा 'खवगसेढी' उपशमनाकरण ग्रन्थो लखाई गया छे, बंधनकरणना विषयने लगता बंधविधान नामना महाशास्त्रनु निर्माण थई रह्यं छे. बंधविधानमात्र घणु विशाल अने महान थशे. तेमां प्रकृतिबंध, स्थितिवन्ध, रसबंध अने प्रदेशवः एम चार विभाग थशे. दरेकना मूल उत्तरभेद तथा भूयस्कारने आशरी लगभग १४ थी १५ ग्रन्थप्रमाण (दोढ थी वे लाख श्लोकप्रमाण) बंधविधान शास्त्र थवानीधारणा छे. बंधविधान ग्रन्थना पदार्थ संग्राहक मुनिश्री जयघोषविजयजी म. धर्मानन्दविजयजी म० तथा मुनिश्री वीरशेखरविजयजी छे. बंधविधानशास्त्रनी लगभग १५ हजार मूलगाथानी प्राकृतभाषामां रचना करनार मुनिश्री वीरशेखरविजयजी छे. तेमज जुदा जुदा भागोनी गाथाओ लई तेना उपर संगृहीत पदार्थोना आधारे तथा बीजां अनेक शास्त्रोनी सहायथी जुदा जुदा मुनिबरो टीकानी रचना करी रह्या छे. मूलप्रकृतिना स्थितिबंधना अधिकारना टीकाकार मुनिश्री जगच्चन्द्रविजयजी महाराज छे, ते 'मूलपडिठिबंधो' ग्रन्थ तैयार थई गयो छे अने प्रस्तुत ग्रन्थनी साथे ज प्रकाशित थई रह्यो छे. प्रस्तुत ग्रन्थनी रचना ग्रन्थना पदार्थो पूज्य मुनिश्री जयघोषविजयजी महाराज, पूज्य मुनिश्री धर्मानन्दविजयजी महाराज, में (मुनि हेमचन्द्रविजय) तथा मुनिश्री गुणरत्नविजयजीए संगृहीत कर्या छे. संगृहीत पदार्थोना आधारे मुनिश्री गुणरत्नविजयजीए प्राकृतगाथाओ तथा संस्कृतटीकारूप ग्रन्थन आलेखन कयु छे. - पदार्थसंग्रहकार पूज्य जयघोषविजय म० तथा पू० धर्मानन्दवि० म० बन्ने कर्मविषयकशास्त्रोना निष्णात छे. आगमोमां अने तेमां पण विशेष करीने छेदसूत्रोमां तेमणे नोंधपात्र परिश्रम कर्यो छे, पू. आचार्यदेवश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजानी पुण्यभावनाने.. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [89. मूर्तस्वरूप आपनार कर्म साहित्यसर्जनकार्यमा अग्रणी आ बे महात्माओ, ज्ञान उपरांत त्याग, तप वेयावचादि अनेकगुणोथी अलंकृत छे. जगत भौतिक वातावरणमां गळाबुड डूबी रह्यु छ ? त्यारे परमात्मा जिनेश्वरदेवना तत्वनिपिने सावधान समृद्ध करवानें काम करनारा आवा मुनिरत्नोथी जैन संघे आजे गौरव लेया जेवु छे. बन्न मां आद्य पू० आवार्यदेवश्रीना विद्वान शिष्यरत्न उग्रतपस्वी न्यायविशारद पू० पंन्यासजी श्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्य शांतमति मुनिराज धर्मघोपविजयजी म. ना शिष्य छे, ज्यारे द्वितीय पू० पंन्यासजी म. ना शिष्य छे. मूलगाथा तथा टीका रचनार मुनिश्री गुणरत्नविजयजी पू० पंन्यासजी श्री भानुविजयजी गणिवर्यना शिष्य तपस्वी मुनिश्री जितेन्द्रविजयजी म.ना शिष्यरत्न(मंसारी लघुपन्यु) छे. व्याकरण, न्याय, कर्मसाहित्य अने प्रकरणादिविषयोनो सुन्दरबोध नानी वयमांज तेमणे प्राप्त कयों छे. सरलशेलीमा टीका रचवामां तथा कठिन पदार्थोंने पण अनेक वार 'इयमत्र भावना' वगेरे द्वारा तद्दन सहेलाईथी समजाय ते रीते रजू करवामां तेओ सारी रीते सफल थया छे. ग्रन्थमा द्रव्यानुयोग उपरांत गणितानुयोगनोविषय पण सारी रीते झलकी उठे छे. मुनिश्रीमां स्वाध्यायनी साथे त्याग, तप, वेगावच्च अने संयमशुद्धि वगेरेनो सुन्दर विकास देखाप छे. बाल अने युवान वयमा चारित्र आपी आत्माओनु आवु सुन्दर घडतर करवानो संम्पूर्ण यश पूज्य आचार्यदेवश्रीना फाळ जाय छ, अटलुज नहि, आग मुनिरत्नोने तैयार करी तेमनी पासे भावी पेढीओने उपयोगी थाय, तेवा महान साहित्यनु सर्जन करावी पूज्य आचार्यदेव. श्री मात्र वर्तमान जैन संघ पर नहीं पण भावी जैन संघ उपर पण महान उपकार कयों छे. जैनसंघ आवा निकारण अकारी पवित्रपुरुषने कदी नहीं विसरे. पोताना महान संयम, शासनप्रेम बहुश्रुतता वगेरे गुणोथी अने जैनशातनना निधानरूप कर्म साहित्य सर्जन करावधाथी तेओश्रीन पुण्यनाम जैन शापननी गौरव गाथामां सुवर्णाक्षरे अंकित थयेलु रहेशे... ___ ग्रन्थनो उपयोगिता-आ ग्रन्थनो स्वाध्याय कर्मविषयक ज्ञाननी सुदर रीते वृद्धि करावनार, द्रव्यानुयोग अने गणितानुगोगनो सुन्दरबोध करावनार, चित्तनी अकाग्रता वधारनार अने ते द्वारा अनंतानंत कर्मनी निर्जरामा अपूर्व सहायक छ. अटलुज नहि पण शुक्लध्यानगा कई वादने पग च वाइनार छे. ओकहीर तो पग वाले के आ॥ ग्रन्यो द्वारा संघमां ज्ञान धोरण घणु ऊचुंजशे. कमविषयकजेसाहित्य वीतराग शासननी महान समृद्धिरूप छे, प्रस्तुत ग्रन्थे तेने वधु समृद्ध बनाव्यु छे. जैनदर्शननो कर्मवाद जगतमा मोखरे छे. इतर दर्शनो पासे कर्मविषयक ज्ञान बिन्दु छे, जैन दर्शन पासे तेनो सिंधु छ. जगतना जीयोने शांति, समाधि, आबादी अने समृद्धिनी प्राप्तिमा 'कर्मवाद' विषयक ज्ञान खूब महत्त्चनु छ, जैनदर्शनना कर्मपादनु यथार्थज्ञान जीवोने दुःखमां समाधि, सुखमा सावचेती अने गमे तेत्री कारमी यातनाओनो हसता मुखे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] . प्रस्तावना सामनो करवानुबल पण आपे छे. दुःखना कारणभूत जूनां कर्मोने नाश करवाना उपाय जाणीने जीवो तेनो नाश करी शके छे, दुःखोनां कारणभूत कोने जाणीने जीव तेने समाधिपूर्वक भोगवी शके छे, माटे ज कर्मवादनु ज्ञान जगतनं महान आशीर्वाद रूप छ, विश्वशान्तिना हिमायतीओ, अने जाते सुखी वा इच्छनार सौ कोईनी फरज छे, के कर्मविषयक ज्ञान संपादन करवु अने जगतमां तेने सारी रीते वहेबडाव. प्रस्तुत ग्रन्थ जगतमां कर्मविषयकज्ञानने वहेवडावनार होई विश्व माटे महान उपकारक छे. ___अंतिम निवेदन:-कर्मसाहित्यविषयक ऊंडा तत्वज्ञानथी भरपूर अनेक शास्त्रीनां नचोडरूप प्रस्तुत ग्रन्थनां अध्ययन, अध्यापन, मनन ओ चिंतनधी भव्यात्माओ कर्मनिर्जराना अपूर्व लाभने प्राप्त करे तथा प्रस्तुत ग्रन्थना प्रेरक अने मार्गदर्शक पूज्य आचार्यदेवनी पुण्यतमनिश्रामां तेओश्रीना अंतेवासीओ द्वारा आवा अनेकानेक ताचिक ग्रन्थोनां निर्माण थाय, अने जैन संघ पण आवा ग्रन्थोना सर्जनमा सहायभूत थई श्रृतभक्तिनो लाभ मेळवे अ ज शुभाभिलार. प्रस्तावनाना आलेखनमां जिनाचनविरुद्ध लखायु होय तेनो मिथ्यादुष्कृत दई चिरमुर्छ तथा विद्वज्जनोने ते अंगे सुधारो सूचववा नम्र विनंति करुं छु. । । भी दानसूरीश्वर ज्ञानमंदिर हो काळपुर रोड प्रमदावाद. वि० सं० २०२२ चैत्र सुद १३ लि. सिद्धान्तमहोदधि पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्र मसूरीश्वरजो भन्तेवासी पू. पंन्यासप्रवर श्रीभानुविजयाणिवर्यना शिष्यरत्न, स्वर्गत पू. पंन्यात श्रीपद्मविजयगणिवरपादपद्मभ्रमर मुनि हेमचन्द्रविजय. ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तालयक्त गणोजी यादी ग्रन्थ प्रकाशक ग्रन्थ प्रकाशक प्राचारागसूत्र-आगमोदय समिति, मुंबई निशीथरिण-भागरला सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा कम प्रकृति संग्रहरणी) मुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोई । ॥ २ रा " " " कर्मप्रकृतिचूणि , ३रा , " " . , टीका (मलयगिरीया) ,, , नीतिशतक(भर्तृहरि)महादेव रामचन्द्र जागुष्ठे अमदावाद .. , , (यशोविजयीया),, , न्यायमञ्जरी-विजया नगर सिरीझ, काशी , चूरिणटिप्पन (हस्तलिखित) जेसलमेर पञ्चसग्रह भाग१लो मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर, डभोई कर्मसाहित्यनो इतिहास-हीरालाल रसिकलाल पट्टावलिसमुच्चय-चारित्र स्मारक-ग्रन्थमाळा कापडिया सूरत वीरमगाम कर्मसिद्धि- जैन प्रवचन मुंबई पन्नवरपासूत्र (सटीक) आगमोदय समिति, सुरत कषायप्राभृत- वीरशासन संघ, कलकत्ता बन्धशतक (मूल)-वीरसमाज, अमदावाद , , चूर्णि , , , , चूर्णि , " चतुर्थ कर्मग्रन्थ (षडशीति)-आत्मानन्द जन सभा भाष्य " भावनगर टीका जयधवला भाग १ ला-भा० दि. जैन संघ चौरासी चूर्णिटिप्पन (हस्तलिखित) जेसलमेर मथुरा जनसाहित्य और इतिहास-हिन्दीग्रन्थरत्नाकर बृहत्कल्प भागश्लो-जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर कार्यालय, बम्बई भगवद्गीता-सस्तु साहित्य वर्धक कार्यालय, अमदावाद जैन साहित्य और इतिहास पर विशुद्ध प्रकाश वर्णी अभिनन्दनग्रन्थ-श्रीवर्णी हीरक जयन्ति महोवीरशासन सघ, कलकत्ता त्सव समिति, सागर जैनपरम्परानो इतिहास-चारित्र स्मारक ग्रन्थमाळा विचारामृतसारसंग्रह-ऋषभदेवजी केसरीमलजीनी पेढी, रतलाम वीरमगाम जैनसिद्धान्त भास्कर भाग ११ किरण १ विशेषणवतो- , , , " तत्त्वार्थसूत्र (सटीक)-देवचंद लालभाई, मुंबई विशेषावश्यकभाष्य ( सटीक ) बाई समरथ जैन त्रिषष्ट्रिशलाकापुरुषचरित्र-जैनधर्म प्रसारक सभा, __ श्वे. मू० ज्ञानोद्धार ट्रस्ट, अमदावाद भावनार वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना क० वि. त्रिलोकप्रज्ञप्ति भाग १ ला-जैनसंस्कृति रक्षक संघ शास्त्रसमिति, जालोर श्रु तावतार (तत्त्वानुशासन) श्रीमाणिकचन्द्र दिग, , , २रा , म्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई धवला भाग १ ला-जनसाहित्योद्धारक फंड कार्यालय | सप्ततिका-मुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोई धवला भाग ३ रा . भमरावती सप्ततिकारिणः- , , , " , ४ था , हिमवंत थेरावली-हीराचन्द रूपचंद, बरलुट नन्दिसूत्र (सटीक) भागमोदय समिति, सुरत सोलापुर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गुरुस्तुतिः यद्यड्गुल्याऽऽकाशो मेयः प्रसृतादिभिश्च पाथोधिः । स्यां च यदि सहस्रमुखस्तदा समर्थस्तदुपकृती वक्तुम् ॥ १ ॥ [स्वोरक्षपकश्रेणिवृत्तिनो प्रशस्तिमाथी उद्धत, श्लोकाङ्क-२१ ] १ तस्य-कर्मसिद्धयादिग्रन्थकृतः कर्मकृतान्तविदः सिद्धान्तमहोदधेः पूज्याचार्यदेवश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरस्य उपकृतयः उपकाराः, ताः। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाह रतनचन्दजी हीराचन्दजी पिन्डवाडा [ राजस्थान ] शाह खुब चन्दजी अचलदासजी पिन्डवाडा [ राजस्थान ] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जपाकशेरापन्थस्य विषयानुक्रमा २३ ० विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः यत्तिकृन्मङ्गलाचरणम् निद्रोदयेऽपि विशुद्धपरिणामस्याऽप्रतिषेधः २१ चरमतीर्थपतिश्रीवीरजिनस्तुतिः ... उदयतो व्यवच्छिद्यमानाः प्रकृतयः .... २२ सर्वसिद्धानां स्तुतिः ... स्थित्युदयोऽनुभागोदयश्च .... २२ गणधरादीनां स्तुतिः प्रदेशोदयः प्रकृतिसत्ता स्थितिसत्ता रससत्ता मूलगाथाकारस्य मङ्गलाचरणम् प्रदेशसत्ता च .... २३ मङ्गलाचरण आक्षेप-प्रतिक्षेपौ। २-अपूर्वकरणाधिकारः २३-३४ अभिधेयं प्रयोजनञ्च अपूर्वकरणस्य व्युत्पत्तिः गुरुपर्वक्रमसम्बन्ध उपायोपे यभावसम्बन्धश्च अपूर्वकरणे विशुद्धिः .... २३-२४ क्षपकश्रेणिग्रन्थस्य नवाधिकाराणां प्रतिपादनम् ९ अपूर्वकरणनाम्नः सान्वर्थत्वम् .... २४ १-यथाप्रवृत्त करणाधिकारः १०-२३ स्थितिघातस्य निरूपणम् अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य क्षपणा जघन्यस्थितिखण्डोत्कृष्टस्थितिखएडयोरल्पप्रावश्यकचूरिणकाराद्यभिप्रायेणाऽनन्तानुबन्धिनां बहुत्वम् ..... २६ दलनिक्षेपः .... जघन्यस्थितिखण्डमुत्कृष्ठस्थितिखण्डं च कस्य । दर्शनत्रिकस्य क्षपणा भवति ? यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रारम्भः स्थितिघातद्विचरमसमयं यावत् स्थितियूंना क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य ध्यानम् १२ न भवति, किन्तु चरमसमय एव स्थितेन्यू नत्वम् यथाप्रवृत्तकरणेऽध्यवसायस्थानानि .... गुणसङ्क्रमस्य निरूपणम् .... यथाप्रवृत्तकरणेऽनुसमयमूर्ध्वमुखी तिर्यमुखी च । रसघातस्य प्रतिपादनम् विशुद्धिः अभिनवस्थितिबन्धस्य समर्थनम् .... यथाप्रवृत्तकरणे जघन्याया उत्कृष्टायाश्च विशुद्धेस्तारतम्यम् गुणश्रेणेाख्यानम् .... १५ विशोधितारतम्यमाश्रित्याऽध्यवसायस्थानानां संसारावस्थायां दलिकापेक्षयोद्वर्तना-ऽपवर्तनयोस्थापना रल्पबहुत्वम् ३१ यथाप्रवृत्तकरणं कुर्वतो योगोपयोगी.... क्षपकश्रेणौ दलिकापेक्षयोद्वर्तनाऽपवर्तनासत्ताक्षपकस्य कषायो वेदो लेश्या च .... नामल्पबहुत्वम् ३१ .... यथाप्रवृत्तकरणे मूलप्रकृतिबन्ध उत्तरप्रकृति अपूर्वकरणप्रथमभागे निद्राद्विकस्य बन्धविच्छेदः ३२ बन्धश्च अपूर्वकरणस्य षष्ठे भागे बन्धतो व्यवच्छिद्यमानाः । बन्धतो व्यवच्छिद्यमानाः प्रकृतयः प्रकृतयः .... ३३ यथाप्रवृत्तकरणे स्थितिबन्धो-ऽनुभागबन्धः अपूर्वकरणस्य चरमसमये बन्धत उदयतश्च । प्रदेशबन्धश्च व्यवच्छिद्यमानाः प्रकृतयः अपूर्वकरणचरमसमये स्थितिसत्त्वम् यथाप्रवृत्तकरणे प्रकृत्युदयः ३४ यथाप्रवृत्तकरणे उदयभङ्गाः २० ३ सवेदाऽनिवृत्तिकरणाऽधिकारः ३४-९३ निद्राद्विकोदये मतद्वयम् २१ । अनिवृत्तिकरणस्य व्युत्पत्तिः ૨૮ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ २ ] क्षपकश्रेणिग्रन्थस्य विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः अनिवृत्तिकरणेऽध्यवसायस्थानानि .... मोहनीयस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रे स्थितिअनिवृत्तिकरणप्रथमसमये स्थितिखण्डम् ३४ बन्धे जाते सप्तकर्मणां स्थितिसत्ता .... ४६ देशोपशमना निकाचना--निधत्तिकरणानां ज्ञानावरणादिबन्धतो मोहनीयबन्धस्याऽसंख्येय. व्यवच्छेदः गुणहीनत्वम अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये स्थितिसत्ता नामगोत्रबन्धतो मोहनीयबन्धोऽसंख्येयगुणप्रथमस्थितिखण्डे घातिते सर्वेषां जीवानां तुल्य- हीनः स्थितिसत्ता वेदनीयबन्धो ज्ञानावरणादिबन्धतोऽसंख्येयगुणः ४८ ततः प्रभृति स्थितिखण्डमपि तुल्यम् .... ३७ नामगोत्रबन्धतो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां अनिवृत्तिकरणसंख्येयतमभागे शेषे सप्तकर्मणाम बन्धो-ऽसंख्येयगुणहीनस्तदानीं च नामगोत्रसंज्ञिबन्धटुल्यस्थितिबन्धः .... ३७ बन्धतो वेदनीयबन्धो विशेषाधिकः .... ४९ चतुरिन्द्रियबन्धेन त्रीन्द्रियबन्धेन द्वीन्द्रियबन्धेनै बन्धवत् स्थितिसत्त्वस्य निरूपणम् केन्द्रियबन्धेन च तुल्यः सप्तानां स्थितिबन्धः ३८ अनिवृत्तिकरणबहुसंख्येयभागान् समाश्रित्य नामगोत्रयोरेकपल्योपमं ज्ञानावरण-दर्शनाव यन्त्रकम् ५६-५७ रण-वेदनीयाऽन्तरायाणां सार्धपल्योपमं मोहनीयस्य असंख्येयसमयप्रघद्धोदीरणा ५८ च द्वे पल्योपमे स्थितिबन्धः .... ४० कपायाष्टकस्य क्षपणा ... तदानीं सतकर्मणां स्थितिबन्धस्याऽल्पबहुत्वं कषायाष्टकस्य जघन्यस्थितिसंक्रम उत्कृष्ठप्रदेशस्थितिसत्त्वञ्च .... संक्रमश्च नामगोत्रयोः स्थितिबन्धस्य संख्येयगुणहानिः ४१ स्थावरादिषोडशप्रकृतीनां क्षपणा .... ६० नामगोत्रयोः पल्योपममात्रबन्धे पूर्णेऽल्पबहुत्वम् ४१ सप्ततिकारिणकारादीनामभिप्रायेण कपायात्रनामगोत्रादीनां क्रमेण बन्धः पल्योपमसंख्येय- कस्य स्थावरादिषोडशप्रकृतीनां च क्षपणा ६१ भाग एकपल्योपमं त्रिभागोत्तरैकपल्योपमञ्च ४२ पावश्यकनियुक्तिकारादीनां मतेन चतुर्विशतिज्ञानावरणादीनामपि स्थितिबन्धस्य संख्येय- प्रकृतीनां क्षपणा .... .... ६२ गुणहानिः । ४२ दानान्तरायादिद्वादशप्रकृतीनां देशघातिरसबन्धः ६३ ज्ञानावरणादीनां पल्योपममात्रबन्धे पूर्ण स्थिति उक्तद्वादशप्रकृतीनां रसबन्धस्य देशघातित्वकरणे बन्धाऽल्पबहुत्वम् .... .... ४२ क्रमोपपत्तिः मोहनीयस्य पल्योपममात्रो बन्धः शेषाणाञ्च असंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणादिकमाश्रित्य यन्त्रकम् ६५ पल्योपमसंख्येयभागः .... .... त्रयोदशप्रकृतीनामन्तरकरणम् .... ६६ सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धस्य संख्येय- उदयमानाऽनुदयमानप्रकृतीनांप्रथमस्थितिः ६७ गुणहानिः वेदानां कषायाणाञ्च प्रथमस्थितेरल्पबहुत्वम् ६७ मोहनीयस्य पल्योपमप्रमाणे बन्धे पूर्णे स्थितिबन्ध- अन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलस्य प्रक्षेपः स्याल्पबहुत्वम् .... .... ४३ निष्पादिताऽन्तरकरणानां सप्ताऽधिकाराः ७० नामगोत्रयोः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमात्रः स्थिति- सप्ताधिकाराणां यन्त्रकम् बन्धस्तदानी चाल्पबहुत्वम् कृतान्तराणामनुभागसत्ता सूक्ष्मै केन्द्रियापेक्षयाशेषाणां ज्ञानावरणादीनां पल्योपमाऽसंख्येयभाग- ऽनन्तगुणहीना ..... .... ७२ मात्रः स्थितिबन्धस्तदानीं चाऽल्पबहुत्वम् ४५ कृतान्तराणामनुभागबन्धोदयसंक्रमाः.... मोहनीयस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रबन्धस्त- कृतान्तराणां प्रदेशबन्धोदयसंक्रमाः .... ७३ दानी चाऽलाबहुत्वम् ४६ । कृतान्तराणामुत्तरोत्तरसमये रसबन्धो रसोद यश्च ७४ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः १ विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः कदा रससंक्रमस्य पूर्वतोऽनन्तगुणहीनत्वम् ? ७५ पुरुषवेदोदयचरमसमयेऽवशिष्यमाणं दलिकम् ८८ उत्तरोत्तरसमये प्रदेशबन्धस्य चातुर्विध्यम् ७५ पुरुषवेदप्रथमस्थितिचरमसमये समयोनद्वयाउत्तरोत्तरसमये प्रदेशोदयः प्रदेशसंक्रमश्च ७६ वलिकाबद्धदलिकं कुतो न सर्वथा क्षीयते ? ८८ वर्तमानसमयं भाविसमयं चाश्रित्य रसस्य पुरुषवेदस्य जघन्यस्थित्युदयो जघन्यानुभागोदय बन्धोदययोरल्पबहुत्वम् .... .... ७६, ७७ उत्कृष्टप्रदेशोदयश्च निष्पादिताऽन्तरकरणानाश्रित्य रसबन्धादीना- पुरुषवेदस्य चरमस्थितिबन्धः .... मल्पबहुत्वानां यन्त्रकम् पुरुषवेदोदयचरमसमये स्थितिसत्त्वम् नपुसकवेदत्य क्षपणा .... पुरुषवेदस्य बन्धोदययोर्व्यवच्छेदः .... स्त्रीवेदस्य क्षपणा ७९ केपाश्चिन्मतेनोदीरणया सहैव पुरुषवेदस्य स्त्रीवेदक्षपणाद्धायाः संख्येयभागे गते त्रयाणां बन्धोदययोर्व्यवच्छेदः .... .... घातिकर्मणां स्थितिबन्धः .... केषाश्चिन्मतेन प्राक् पुरुषवेदस्य बन्धोच्छेदः, तत स्त्रीवेदस्य सर्वथा क्षपणा तदानीं च मोहनीयस्य । उदयविच्छेदः .... .... ९० स्थितिसत्ता ८० नपुसकवेदनयादीनाश्रित्य यन्त्रकम् सप्तनोकषायाणां क्षपणाप्रारम्भः पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिसत्कर्म जघन्यानुभागसतदानी स्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वम् कर्म जघन्यप्रदेशसत्त्वञ्च .... २ तदानीं स्थितिसत्त्वाऽल्पबहुत्वम् . ८२ पुरुषवेदस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमोऽनुभागसप्तनोकपायक्षपणाद्धासंख्येयभागे गतेऽघातित्रय संक्रमश्च स्य स्थितिबन्धः ८२ कर्मप्रकृतिचूणिकाराभिप्रायेण जघन्यप्रदेशसप्तनोकषायक्षपणाद्धाया बहुषु संख्येयभागेषु । ९२ गतेषु त्रयाणां घातिनामघातिनां च स्थितिसत्ता ८३ ४-अश्वकर्णकरणाद्धाधिकारः ९३-१४५ पुरुषवेदस्यागालप्रत्यागालयोर्व्यवच्छेदः ८३ पुरुषवेदस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यानुभागो हयकर्णकरणाद्धाया व्युत्पत्तिः .... ९३ दीरणा च आदोलकरणाद्धा या अपवर्तनोद्वर्तनकरणाद्वापुरुषवेदस्यो कृटप्रदेशोदीरणा .... याश्च व्युत्पत्तिः . ... ९४ पुरुपवेदोदीरणाव्यवच्छेदे परत आवलिकां यावत् । अश्वकर्णकरणप्रथमसमये मोहनीयस्य स्थितिशुद्धस्य वेदोदयस्य सिद्धिः .... ८५ कदा सप्तनोकषायाणां चरमखण्डस्य सर्वथा तदानीं मोहनीयस्य स्थितिबन्धः .... ९५ प्रक्षेपः ? .... ८५ तदानीमनुभागसत्कर्माल्पबहुत्वम् .... ९५ कर्मप्रकृतिचूरिणकारमतेन पुरुषवेदस्य पतद्ग्र- रसबन्धाल्पबहुत्वम् .... हताया व्यवच्छेदः .... प्रथमाऽनुभागखण्डे घात्यमानोऽनुभाग: ९६ हास्यपट् कस्य जवन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यानुभाग- घातितावशेषरसस्पर्धकानामल्पबहुत्वम् .... ९७ संक्रम उत्कृष्टप्रदेशसंक्रमश्च असत्कल्पनया कषायचतुष्कस्य घात्यमानरसस्पर्धकर्मप्रकृतिचूरिणकाराद्यभिप्रायेण पुरुषवेदस्यो कानि घातितावशेषरसस्पर्धकानि च .... स्कृष्टप्रदेशसंक्रमः घात्यमानरसस्पर्धकानां घातितावशेषरसस्पर्धकाकषायप्राभृतचूरिणकाराद्यभिप्रायेण पुरुषवे- नाश्च स्थापनया प्रतिपादनम् .... १०० दस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्य निषेधः .... ८७ अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयमाश्रित्य स्थितिपुरुषवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमे कुतो मतद्वयम् ? ८७ | सत्त्वादीनां यन्त्रकम् .... .... १०१ संक्रमः सत्त्वम् Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपकश्रेणिग्रन्थस्य ....... १०६ विषयः पृष्ठाङ्कः भपूर्वस्पर्धकस्य व्याख्यानम् १०२ रसाविभागस्य निरूपणम् १०२ पूर्वस्पर्धकानां प्रथमादिवर्गणाः १०२ प्रदेशापेक्षयाऽनन्तरोपनिधा १०३ प्रदेशापेक्षया परम्परोपनिधा १०३ द्विगुणहानिव्याख्यानम् १०४ नानाद्विगुणहानिनिरूपणम् १०४ तासामल्पबहुत्वम् .... १०४ चयस्य प्रतिपादनम् .... १०४ भसत्कल्पनया चयस्य प्रतिपादनम् .... १०५ गणितविभागः १०५-१११ भसत्कल्पनया सत्तागतकर्मप्रदेशादयः प्रथमद्विगुणहानिप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशानां निरूपणम् द्वितीयादिद्विगुणहानिप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशानां निरूपणम् .... म् ..... . .... १०६ प्रकारान्तरेणाऽन्तिमद्विगुणहानौ सकलकर्मप्रदेशानां प्रतिपादनम् .... .... १०८ शेषासु द्विगुणहानिषु सर्वकर्मप्रदेशाः.... १०८ विवक्षितद्विगुणहानिगतप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशाः १०९ प्रकारान्तरेण विविक्षितद्विगुणहानिगतप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशानां निरूपणम् .... ११० अनुभागापेक्षयाऽनन्तरोपनिधा .... १११ मनुभागापेक्षया परम्परोपनिधा .... १११ गणितविभागः .... ११२-११९ पूर्वपूर्वस्पर्धकत उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाः .... .... ११२ उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागानां प्राप्तये करणम् .... .... ११२ प्रथमद्विगुणहानौ पूर्वपूर्वस्पर्धकत उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागानामधिकत्वज्ञानाय व्याप्तिः .... ११३ सूक्ष्मगणितानुसारेण वर्गणासु रसाविभागानां निरूपणम् .... ११४ प्रथमद्विगुणहानौ विवक्षितस्पर्धकस्य प्रथमवर्ग- विषयः पृष्ठाङ्क: णायां प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशापेक्षया कर्मप्रदेशानां न्यूनत्वज्ञानाय व्याप्तिः .... ११४ विवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणासर्वपरमाणुगतरसा-- विभागाः .... ११५ असत्कल्पनया वर्गणासु रसाविभागादीन परिकल्प्य निरूपणम् .... .... ११७ प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणापेक्षया द्वितीयादिस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाः .... ११७ रसस्पर्धकेषु देशघात्यादिरसस्य निरूपणम् ११९ देशघातिप्रकृतीनां रसस्पर्धकानि .... १२० सर्वघातिप्रकृतीनां रसस्पर्धकानि .... १२१ मिथ्यात्वमोहनीयजघन्यस्पर्धकप्रथमवर्गणारसाविभागास्तदितरसर्वघातिजघन्यस्पर्धकप्रथमवर्गणारसाविभागैः कुतस्तुल्या न भवन्ति ? १२१ सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनामुत्कृष्टवर्गणामाश्रित्याऽल्पबहुत्वम् .... १२१ अघातिकर्मणां रसस्पर्धकानि तेषां चोत्कृष्टवर्गणामाश्रित्याऽल्पबहुत्वम् .... संज्वलनचतुष्कस्याऽपूर्वस्पर्धकानि .... १२४ पुरुषवेदस्याऽपूर्वस्पर्धकप्रतिषेधः .... प्रथमसमयेऽपूर्वस्पर्धकानां परिमाणम् १२५ अपूर्वस्पर्धकानां निर्वृत्तये भागहारः १२५ उत्तरोत्तरापूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाः उत्तरोत्तराऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां सकलपरमाणूनाश्रित्य रसाविभागाः .... १२७ अनुभागमाश्रित्य पूर्वापूर्वस्पर्धकानां स्थापना १२८ अश्वकर्णकरणप्रथमसमये कषायचतुष्कस्य निर्वय॑मानापूर्वस्पर्धकानामल्पबद्दुत्वम् .... १२९ कषायचतुष्कस्य चरमाऽपूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणायां रसाविभागानां प्रतिपादनम् .... १२९ कषायचतुष्कस्य प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणायांरसाविभागानां निरूपणम् .... .... १३० असत्कल्पनया-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमादिवर्गणासु । रसाविभागानां प्रतिपादनम् .... १३१ १२३ १२४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः १३८ विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः भसत्कल्पनापेक्षया यन्त्रकम् .... १३२ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरव्याख्याने पूर्वपक्षः १६२ वनन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरव्याख्याने प्रथम पदीयमानं दलम् . .... १३३ द्वितीयच समाधानम् .... .... १५ भपूर्वस्पर्धककरणे जघन्याया अप्यतीत्थापनाया लोभतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरव्याख्याने तृतीयं पर्जनं न संभवति १३३ समाधानम् .... पूर्वम्पर्धकेषु दीयमानं दलम् .... १५४ .... १३५ प्रथमसमाधानापेक्षयाऽसत्कल्पनया स्थापना २६६ पूर्वापूर्व स्पर्धकेषु दृश्यमानं दलम् ...... १३६ द्वितीयसमाधानापेक्षयाऽसत्कल्पनया स्थापना १७१ अश्वकर्णकरणप्रथमसमये बन्धोदयौ १३७ द्वितीयादिसमयेष्वपूर्वस्पर्धकनिर्वृत्तिः तृतीयसमाधानापेक्षयाऽसत्कल्पनया स्थापना २७४ द्वितीयादिसमयेषु दीयमानं दृश्यमानं च किट्टिवेदकापेक्षया द्वादशानां संग्रहकिट्टीनां प्रदेदलम .... १३६-१४० शाऽल्पवहुत्वम् .... .... १७८ अश्वकर्णकरणा द्वायां प्रथमानुभागखण्डे विनष्टे किट्टिकारकापेक्षया द्वादशसंग्रहकिट्टीनां प्रदेशाल्पकषायचतुष्कस्याऽनुभागाल्पबहुत्वम् .... १४० बहुत्वम् १८० प्रथमाऽनुभागखण्डे विनष्टेऽष्टादशपदानामल्प- किट्टिकारकापेक्षया द्वादशसंग्रहकिट्टिप्रदेशाल्पबहुत्वम् १४१ बहुत्वसिद्धये गणितप्रक्रिया .... १८० अश्वकर्णकरणाद्धाचरमसमये सप्तकर्मणां स्थि- | किट्टिवेदकापेक्षया द्वादशसंग्रह किट्टीनामवान्तरतिबन्धः स्थितिसत्त्वञ्च .... १४५ किट्टयल्पबहुत्वम् .... १८३ ५-किट्टिकरणाद्धाधिकारः १४६.२३६ लोभ जघन्याऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिक्रोधोत्कृष्टाऽवाकिट्रिवेदनाद्धाप्रमाणं किट्टयाश्च व्याख्या .... १४६ न्तरकिट्टिपर्यवसानासु सर्वासु किट्टिषु दलिकपूर्वापूर्वस्पर्धकेषु दलिकनिरूपणम् .... १४७ प्रक्षेपः असत्कल्पनया पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु दलिनिरूपणम् १४७ गणितप्रक्रियया सर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपः १८५ किट्टिकरणप्रथमसमये पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यो दलि- अन्यया गणितप्रक्रियया सर्वावान्तरकिट्टिषु दलिककस्य ग्रहणं किट्टीनां च निर्वर्तनम् .... १४९ प्रक्षेपः किट्टिपरिमाणम् १५० अवान्तरकिट्टिषु परम्परोपनिधया दीयमानदलसंग्रहकिट्टीनामबान्तरकिट्टीनां च परिमाणम् १५० निरूपणम् क्रोधादीनामुदयेन प्रतिपन्नानां संग्रहकिट्टिपरि भवान्तरकिट्टिष्वनन्तरोपनिधया दृश्यमानदलमाणम निरूपणम् प्रतिसमयं किट्टीनां निर्वृत्तिः .... किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु प्रतिसमयं किद्रितया परिणमनाय गृह्यमाणं दलिकप्रक्षेपविधिः .... दलम् अवान्तरकिट्टिगतरसाविभागानामल्पबहुत्वम् १५४ चरमावान्तरकिट्टितोऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायाकिट्टयन्तरशब्दस्य व्याख्या मनन्तगुणहीनदलप्रक्षेपः .... १८९ उपरितनकिट्टिगतरसाविभागतोऽधस्तनकिट्टिगत- गोपुच्छाकारद्वयेन दृश्यमानदलिकप्रतिपादनम् १९० रसाविभागेषु व्यवकलितेष्वेकोनशेषराशेः एकगोपुच्छाकारेण दृश्यमानदलिकं भवतीत्यन्येषां किट्टयन्तरत्वेन व्याख्याने आक्षेप-परिहारौ १५७ मतम् .... .... १९. भवान्तरकिट्टयन्तरव्याख्यानम् उक्तमतस्य प्रत्यवस्थानम् शंग्रहकिट्टयन्तरव्याख्यानम् ..... १५८ असत्कल्पनयाऽङ्कतः संग्रहकिट्रिषु दीयमानानि भवान्तरकिट्टयन्तराणां संग्रह कियन्तराणाञ्चाऽस्पबहुत्वम् १८९ १८९ १५८ सागर .... १५९ - दलिकानि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] विषयः पृष्ठाङ्कः असत्कल्पनयाऽङ्कतोऽवान्तर कट्टिषु दीयमानानि दलिकानि १९४ २०० असत्कल्पनयाऽङ्कतो दीयमानदलिकानां यन्त्रकम् १९८ किट्टिकरणप्रथम समयात् प्रभृति मोहनीयस्थितिरसयोरुद्वर्तनाप्रतिषेधः द्वितीयादिसमयेष्वपूर्वावान्तर किट्टीनां निर्वृत्तिः २०० द्वितीयादिसमयेषु पूर्वापूर्वावान्तर किट्टिषु दीयमानं दलम् २०२ द्वितीयादिसमयेषु पूर्वा पूर्वावान्तर कट्टिषु दीयमानदलस्योष्ट्रकूटप्ररूपणा दृश्यमानं च दलम् २०६ २०७-२१५ गणितविभागः अधस्तनशीर्षचयदलम् अधस्तनाऽवान्तर किट्टिदलम् उभयचयदलम् मध्यमखण्डदलम् **** क्षपकश्रेणिमन्थस्य .... अधस्तनशीर्षचयादिदलानामल्पबहुत्वम् अधस्तनशीर्षचयदलस्य गणनविधिः अधस्तनाऽवान्तर किट्टिदलस्य गणनविधिः उभयचयदलस्य गणनविधिः मध्यमखण्डदलस्य गणनविधिः अपूर्वावान्तर कट्टिषु गणित प्रक्रियया दीयमानदलम् २११ पूर्वावान्तर कट्टिषु गणितप्रक्रियया दीयमानदलं पूर्वा पूर्वावान्तर किट्टिषु च दृश्यमानदलम् २११ अधस्तशीर्षचयादिकमवलम्ब्य लोभप्रथमसंग्रहकिट्टौ दीयमानदलानां प्ररूपणा अधस्तनशीर्षचयादिकमवलम्ब्य लोभद्वितीयसंग्रह किट्ट दीयमानदलानां निरूपणम् २१३ अधस्तन शीर्ष चयादिकमवलम्ब्य लोभतृतीयसंग्रह किट्ट दीयमानदलानां प्ररूपणा अधस्तन शीर्षचयादिकमाश्रित्य शेषासु नवसु संग्रह किट्टिषु दीयमानदलानां प्ररूपणा अधस्तनशीर्षं चयादिदलिकमाश्रित्य पूर्वापूर्वाधान्तर किट्टिषु दृश्यमानदलप्ररूपणा चतुर्दशमार्गणास्थानानामुत्तरभेदाश्चतुःसप्ततिः २१८ मनुष्यस्यादिषु द्वाचत्वारिंशन्मार्गणासु (४२) बद्धमोहनीय प्रदेशानां नियमतः सत्ता २१९ २१४ २१४ २१५ .... २०७ २०८ २०८ २०९ २०९ २१० २१० २१० २११ २११ विषयः पृष्ठाङ्कः विवक्षितसमये बद्धकर्मप्रदेशानां जघन्यत उत्कृष्टतश्चाऽवस्थानस्याऽऽक्षेपपरिहाराभ्यां प्रतिपाद २२० नम् **** मनुष्यगत्यां बद्धमोहनीयदलानां जघन्यत उत्कृष्टुतश्चाऽल्पबहुत्वम् तिर्यग्गत्यां बद्धमोहनीयदलानां जघन्यत उत्कृष्टतश्चाऽल्पबहुत्वम् एकेन्द्रियादिमार्गणासु बद्धमोहनीयदलानां निय २२१ मतः सत्ता २२१-२२४ नरकगत्यादिषु सप्तविंशतिमार्गणासु (२७) बद्धमोहनीय दलिकस्य भजनया सत्ता नरकगति-देवगत्योर्बद्धमोहनीयदलं तदल्प .... **** बहुत्वं च विकलेन्द्रियादिमार्गणासु बद्धमोहनीयदलस्य भजनया सत्ता .... .... .... २२० केवलज्ञानादिषु पञ्चमार्गणासु बद्वमोहनीयदलानां सत्तायाः प्रतिषेधः सात वेदनीयोदयादिष्वसंख्येयेषु चैकेन्द्रियभवेषु बद्धप्रदेशानां नियमतः सत्ता एकोत्तरवृद्धया संख्यातत्रसभवेषु बद्धदलस्य २२५ २२५ .... २२६ सत्ता लिङ्गादिषु बद्धकर्मदलानां भजनया सत्ता नरकगत्यादिमार्गणासु बद्धमोहनीयदलस्य सत्ताया भजनीयाऽभजनीयत्वापेक्षया यन्त्रकम् २३२ मनुष्यगत्यादिषु बद्धदलस्य किट्टिषु भजनीयाभजनीयत्वम् २२८ २२९ २३३ २३३ किट्टिकरणाद्धायामनुभागवेदनम् किट्टिकरणाद्धाचरमसमये मोहनीयस्य बन्धः २३४ तदान शेषकर्मणां स्थितिबन्धः २३४ किट्टिकरणाद्वाचरमसमये सप्तकर्मणां स्थितिसत्ता २३५ ६ किट्टिवेदनाद्धाधिकारः २३७-४१८ क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिमपकृष्य क्रोधप्रथम संग्रहPage: प्रथमस्थितेः करणं वेदनं च किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये स्थितिबन्धः प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च वेद्यमानसंग्रहकिया दलिकानामवस्थानम् २३० २३० २३७ २३८ २३८ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ विषयः विषयः पृष्ठाङ्कः प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च क्रोधप्रथमसंग्रह २३९ संक्रमदलतो निर्वर्त्यमानास्ववान्तर किट्टयन्तरजाकिया दलिकानामवस्थानम् स्वपूर्वावान्तर कट्टिषु दलिकप्रक्षेपः . २६७ स्थित्यामवेद्यमानसंग्रह किट्टया दलिकानामवस्थानम् २३९ | किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमये पूर्वा पूर्वावान्तरकिट्टि - स्थित्यां वेद्यमान संग्रह किट्टयाः किट्टीनामवस्था २६७ नम २६९ उदयसमयेऽनुभागह्रासप्रतिपादन स्थित्यामवेद्यमानसंग्रह किट्टयाः किट्टीनामवस्था २७० २७१ नम् स्थित्यां क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टा: किट्टीनामत्रस्थानम् भवश्व किट्टवेदनाद्वाप्रथमसमये स्थितिसत्ताऽनुभाग सत्ता च किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये किट्टीनां बन्धोऽनु .... २४२ २४३ विमुच्यमानायान्तरकिट्टीनां मध्यमावान्तर किट्टीनाञ्चाऽल्पबहुत्वम् मोहनीयानुभागस्यानुसमयापवर्तना गोमूत्रिकासह शक्रमेणोदये बन्धे चोत्कृष्टाऽवान्तर किट्टिः गोमूत्रिकासह शक्रमेण बन्ध उदये च जघन्यावान्तर कट्टिः संग्रह किट्टि प्रदेशसंक्रमस्याऽवधिः वेद्यमान संग्रह कियनन्तरसंग्रह किट्टौ संक्रम्यमाणदेशनिरूपणम् संग्रहकट्टषु संक्रम्यमाणप्रदेशाग्रस्याऽल्पबहु त्वम् **** विषयानुक्रमः पृष्ठाङ्कः .... २४० २४१ **** २४१ २४१ २४५ २४६ २४६ २५१-२५४ २५४ २५५ २५७ २५८ स्वस्थानगोपुच्छाकाररचना परस्थानगोपुच्छाकाररचना गणितप्रक्रियया घातदलिकप्रक्षेपः बन्धप्रदेशतोऽपूर्वावान्तरकिट्टीनां निवृत्तिः गणितप्रक्रिया बन्धाऽपूर्वावान्तर किट्टयः २५९ बन्धदलतः पूर्वा पूर्वान्तर किट्टिषु दलनिक्षेपः ....२६० संक्रमप्रदेशाप्रतोऽपूर्वावान्तरकिट्टीनां निवृत्तिः २६२ संक्रमप्रदेशाग्रतो निर्वर्त्यमानाऽपूर्वावान्तर किट्टीनामल्पबहुत्वम् २६३ गणितप्रक्रियया संक्रमप्रदेशाप्रतो निर्वर्त्यमानापूर्वावान्तर कट्टिनिर्वृत्तिः । .... संक्रमदलतो निर्वर्त्यमानासु संग्रह किट्टयन्तरोत्पनास्त्रपूर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपः २४८ २४९ २५० २६४ २६६ षु दलिकप्रक्षेपः प्रकारान्तरेण दलिकनिक्षेपविधिः अधस्तनशीर्ष चयदलम् अधस्तना- पूर्वावान्तर किट्टिदलम् अवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तर कट्टिी दलम् उभयचयदलम् २७२ क्रोधप्रथम संग्रह किया उभयचयदलम् शेषाणामेकादशसंग्रह किट्टी नामुभयचयदलम् २७३ मध्यमखण्डदलम् २७४ २७४ बन्धदलस्य विभागचतुष्टयम् बन्धाऽपूर्वावान्तर किट्टिसमानखण्डदलम् बन्धापूर्वाचान्तरकिट्टिचयदलम् २७४ २७५ 33 बन्धचयदलम् २७७ २७८ बन्धमध्यमखण्डदलम् गणितप्रक्रियया लोभतृतीयसंग्रह किट्टौ दलप्रक्षेपः २७८ २८० द्वितीय प्रथम " " २८१ .... 11 " .... 29 19 " "" .. अतिदेशेन क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिचरमावान्तरकिट्टि यावद् दलिकप्रक्षेपः در २७१ २७१ क्रोधप्रथम संग्रह किट्ट दलिकप्रक्षेपः क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिबद्धदलं कदा द्वादशसंग्रहकिट्टिषु भवति ? २८४ मानादिप्रथमसंग्रह किट्टीनां बद्धदलं कदा शेषसर्वकट्टषु भवति उदयस्थितौ समयप्रबद्धानां प्रक्षेपः भवबद्धानां प्रक्षेपः समयबद्धशेषकस्य व्याख्या भवबद्धशेषकस्य व्याख्या २८३ २८३ .... २८८ एकस्यां स्थितौ समयप्रबद्धशेषकाणि भवबद्धशेषकाणि च एकसमयप्रबद्धशेषकनाना समयप्रबद्धशेषकर विरहितस्थिती नामल्पबहुत्वम् २८९ २८६ २८६ २८७ २८७ २८८ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपक श्रेणिपन्थस्य २०२ ३१० विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः एकसमयप्रबद्धस्यैकभवबद्धस्य च शेषकाणि असत्कल्पनया मतद्वयमाश्रित्य निर्लेपनस्थानानां क्षपकस्य कतिषु स्थितिषु वर्तन्ते ? .... २९० प्रतिपादनम् एकसमयप्रबद्धस्यैकभवबद्धस्य च शेषकाण्यक्षपक- अनन्तरोपनिधयैकजीवापेक्षया जघन्यादिनिस्य कतिषु स्थितिषु वर्तन्ते ? .... २९१ लेपनस्थानेष्यतीतकाले व्यतिक्रान्तकालः क्षपकापेक्षयैकादिस्थितिषु येषां समयप्रबद्धा- परम्परोपनिधयोक्तः कालः ३०६ नां शेषकाणि वर्तन्ते. तेषामल्पबहुत्वम् २९१ यत्रमध्यादिकम् .... .... ३०७ यवमध्यस्य व्युत्पत्तिः २९२ पल्योपमार्धच्छेदनकानामसत्कल्पनया प्रतिपादयवमध्यस्योपरितनानां स्थानानां निरूपणम् २९२ नम् ... ३०७ भक्षपकापेक्षयैकादिस्थितिषु येषां समयप्रब- नानाद्विगुणहानीनां द्विगुणहान्योरन्तरस्य चाल्पद्वानां शेषकाणि वर्तन्ते, तेषामल्पबहुत्वं यव- बहुत्वम् .... ३०७ मध्यादिकश्च .... .... २९३ भवबद्धस्य निर्लेपनस्थानानां व्याख्या ३०८ सामान्यस्थितीनां व्यार या २९४ समयप्रबद्धनिर्लेपनस्थानतो भवबद्धनिर्लेपनअसामान्यस्थितीनां व्याख्या २९४ स्थानानां हीनत्वस्य युक्त्या प्रतिपादनम् ३०९ क्षपकापेक्षयाऽसामान्यस्थितयः भवबद्धसमयप्रबद्धयोरेकत्र यवमध्यम् ३०९ क्षपकापेक्षयाऽसामान्यस्थितिष्वाक्षेपपरिहारौ २९५ भवबद्धसमयप्रबद्धयोरेकत्र चरमस्थानम् भक्षपकस्याऽसामान्यस्थितयः एकादिप्रदेशैर्निर्लेपितसमयप्रबद्धाः .... ३१० क्षपकापेक्षया प्रथमविकल्पेन सामान्याऽसामा अक्षपकापेक्षयाऽनुसमयनिर्लेपनकालः ३१२ न्यस्थितयः क्षपकापेक्षयाऽनुसमयनिर्लेपनकालः ३१३ अक्षपकापेक्षया प्रथमविकल्पेन सामान्याऽसा एकादिसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रबद्धाः ३१४ मान्यस्थितयः एकादिसमयान्तरेण निर्लेपितभवबद्धाः ३१५ उत्कृष्टं निर्लेपनान्तरम् .... ३१५ क्षपकापेक्षया द्वितीयविकल्पेन सामान्याऽसामा एकसमयेन निर्लेपिताः समयप्रबद्धा भवबद्धाश्च ३१६ न्यस्थितयः अक्षपकापेक्षया त्रयोदशपदानामल्पबहुत्वम् ३१८ अक्षपकापेक्षया द्वितीयविकल्पेन सामान्याऽसा अभव्यप्रायोग्यप्ररूपणाऽपेक्षया यन्त्रकम् ३२१ मान्यस्थितयः ३०० क्रोधप्रथमसंग्रह किया अवान्तरकिट्टीनां विनाक्षपकापेक्षया तृतीयविकल्पेन सामान्याऽसामा- शस्य निरूपणम् .... ... ३२४ न्यस्थितयः ... ३०० वेद्यभानसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाभक्षपकापेक्षया तृतीयविकल्पेन सामान्याऽसा शेषायामागालव्यवच्छेदः .... .... ३२५ मान्यस्थितयः वेद्यमानसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितौ समयाधिकाक्षपकापेक्षया चतुर्थविकरुपेन सामान्याऽसामा- वलिकाशेषायां जघन्यस्थित्युदीरणा चरमोदयश्च३२५ न्यस्थितयः क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा क्रोधप्रथमसंग्रहभक्षपकापेक्षया चतुर्थविकल्पेन सामान्या-ऽसा- किटेश्व चरमोदयः .... .... ३२५ मान्यस्थितयः ३०२ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये त्रैराशिक्षपकतोऽक्षपकस्य विशेषः .... ३०३ केन मोहनीयस्थितिबन्धस्य प्रतिपादनम् ३२६ प्रथममतेन निर्लेपनस्थानानां निरूपणम् ३०४ क्रोधप्रथमसंग्रहकिदिवेदनचरमसमये त्रयाणां द्वितीयमतेन निर्लेपनस्थानानां प्रतिपादनम् ३०५ । घातिनां कर्मणां स्थितिबन्धः .... ३२६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये त्रयाणा- | क्रोधद्वितीयसंग्रहकिदिवेदनचरमसमये सप्तकर्मणां मघातिनां कर्मणां स्थितिबन्धः .... ३२७ स्थितिसत्त्वम् .... ३३७ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये त्रैराशि- क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये उदयकेन मोहनी यस्थितिसत्त्वस्य निरूपणम् ३२७ समयाधिकाबलिकागतं नूतनं च बद्धं दलं विहाय तदानीं च षण्णां शेषकर्मणां स्थितिसत्ता ३२८ शेषस्य सर्वस्य क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलस्य नूतनबद्धदलमुदयसमयाधिकावलिकागतदलं च संक्रमः .... ३३५ वर्जयित्वा शेषस्य सर्वस्थ क्रोधप्रथमसंग्रह- क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टयाः प्रथमस्थितेः करणं वेदकिट्टिदलस्य संक्रमः .... .... ३२९ नञ्च .... ३३८-३३९ पचपष्टयधिकशततमादिगाथाश्रितं यन्त्रकम ३२९ क्रोधतृतीयसंग्रहकिटेश्वरमसमयमाश्रित्य स्थितिक्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितेः करणं बन्धादीनां यन्त्रकम् ... .. ३३८ वेदनं च .... ३३० क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनशेषप्ररूपणा ३३९ वेद्यमानसंग्रहाकिट्टिवेदनप्रथमसमये प्राग्वेदित क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिवेदनचरमसमये क्रोधस्य संग्रहकिट्टया दलिकम् .. ३३० जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यानुभागोदीरणा सप्ततिकारिणकाराभिप्रायेण क्रोधप्रथमसंग्रह गुणितकांशापेक्षया चोत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा ३३९ कि रुदयावलिकागतस्य दलस्य स्तिबुकसंक्रमः ३३१ तदानीं क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदयो जघन्यानुभागोमलयगिरिपादाभिप्रायेण वेद्यमानकिट्टयन्तर्ग दय उत्कृष्टप्रदेशोदयश्च तत्वेन वेदनम् ..... ३३१ तदानीं मोहनीयस्य स्थितिबन्धः .... ३४. निषेकविवक्षया क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथम तदानीं मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वम् .... ३४१ स्थितिः समयोनावलिकाप्रमाणा .... ३३१ क्रोधस्य बन्धोदयोदीरणानां व्यवच्छेदः ३४१ कालविवक्षया त्वावलिकाप्रमाणा .... ३३१ उदयसमयाधिकावलिका गतं नूतनं च बद्धं दलं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनप्रथमसमयमाश्रित्य विहाय शेषस्य सर्वस्य क्रोधतृतीयसंयहकिट्टियन्त्रकम ..." ३३२ दलस्य संक्रमः .... .... ३४१ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनप्रथमसमयतः प्रभृ क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३४१ ति बन्धस्योदयम्याऽवान्तरकिट्टिनाशस्य प्रदेश मानप्रथमसंग्रहकिट्याः प्रथमस्थितेः करणं संक्रमस्य च प्रतिपादनम् ३३२ वेदनञ्च ..... ३४२ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालेऽपूर्वावान्तरकिट्टिनिवृतिः ... .... ३३३ संज्वलनक्रोधस्य जघन्यस्थितिसत्ता जघन्यानुएकादशसंग्रहकिट्टीनां प्रदेशाऽल्यवहुत्वम् ३३३ भागसत्ता च . ३४२ एकादशसंग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयल्पबहुत्यम् ३३४ संज्वलनक्रोधस्य जघन्यप्रदेशसता क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले बध्यमानाः संजालनक्रोधस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यासंग्रहकिट्ट यः .... ३३५ नुभागसंक्रमश्च .... ३४३ आगालव्यवच्छेदः .... कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण क्रोधक्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा .... ३३५ स्य जघन्यप्रदेशसंक्रमः... .... ३४३ क्रोधद्वितीयसंबहकिटेश्वरमोदयः .... ३३५ मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनस्य शेषा प्ररूपणा ३४३ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३३६ ! मानस्य जघन्या स्थित्युदीरणा .... क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनचरमसमये सप्तकर्मणां मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये स्थिस्थितिबन्धः ३३६ । तिबन्धः स्थितिसत्त्वञ्च ३४४ ३४३ ३३५ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ १० ] क्षयकोणिग्रन्थस्य विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्क: समयाधिकोदयावलिकागतं नूतनं च बद्धं दलिक उदयसमयाधिकालिकागर्त नूतनंच बद्धंदलं विपरित्यज्य शेषस्य सर्वस्य मानप्रथमसंग्रहकिट्टि- हाय शेषस्य सर्वस्य मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलस्य दलस्य संक्रमः ... .... ३४५ संक्रमः .... ३५३ मानप्रथमसंग्रहकिट्टि वेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३४६ मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३५३ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थित्याः करणं वेद- मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितेः करणं । नन्च वेदनं च .... .... ३५४ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये मोह- मायाया जघन्या स्थित्युदोरणा .... ३५४ नीरायशितिबन्धः .... .... ३४७ मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये मोहमानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये सप्तकर्मणां । स्य स्थितिबन्धः सप्तकर्मणाञ्च स्थितिसत्त्वम् ३५४ स्थितिसत्त्वम् .... ३४८ उदयसमयाधिकावलिकागतं नूतनं च बद्ध दलं उदयसमयाधिकावलिकागतं नूतनं च बद्धं दलं वर्जयित्वा शेषस्य सर्वस्य मायाद्वितीयसंग्रहविमुच्य शेषस्य सर्वस्य मानद्वितीयसंग्रहकिट्टि किट्टिदलस्य संक्रमः ..... .... ३५५ दलस्य संक्रमः .... .... ३४८ मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३५५ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३४८ मायातृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितेः करणं ३५६ मानतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थिते: करणं वेदनच वेदनं च मायाया जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यानुभागोमानतृतीयसंग्रहकिट्टया वेदनविधिः .... ३४९ दीरणोत्कृष्टप्रदेशोदीरणा जघन्यस्थित्युदयो जघमानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये मानस्य । न्यानुभागोदय उत्कृष्प्रदेशोदयश्च .... ३५६ जघन्य स्थित्युदीरणा जघन्यानुभागोदीरणो संज्वलनद्विकस्य स्थितिबन्धो मायाया जधन्यत्कृष्टप्रदेशोदीरणा जघन्यस्थित्युदयो जघन्या स्थितिबन्धो जघन्याऽनुभागबन्धश्च .... ३५६ नुभागोदय उत्कृष्टप्रदेशोदयश्च .... ३४९ मायावेदनचरमसमये त्रयाणां घातिनामघातिमानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये स्थिति नाच कर्मणां स्थितिबन्धः .... ३५७ बन्धः .... .... ३४९ मायाया बन्धोदयोदीरणानां व्यवच्छेदः ३५७ तदानीमनुभागबन्धः स्थितिसत्त्वं च ३५० मायावेदनचरमसमये सप्तकर्मणां स्थितिसत्त्वम्३५७ मानस्य बन्धोदयोदीरणानां व्यवच्छेद उदय उदयसमयाधिकावलिकागतं नूतनञ्च बद्धं समयाधिकावलिकागतं नूतनं च बद्धं दलं विहाय दलं परित्यज्य शेषस्य सर्वस्य मायातृतीयसंग्रहशेषस्य सर्वस्य मानतृतीयसंग्रहकिट्टिदलस्य सं किट्टिदलस्य संक्रमः ३५८ क्रमः " ३५० मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् .... ३५८ मानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ३५० लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितेः करणं मायाप्रथमसंग्रह कियाः प्रथमस्थितेः करणं वेदनकच वेदनं च .... .... मायाया जघन्यस्थितिसत्त्वं जघन्यानुभागमायाया जघन्यस्थित्युदीरणा .... ३५२ सत्त्वं जघन्यप्रदेशसत्ता च .... .... ३५९ मायाप्रथमसंग्रहकिटिचरमसमये मोहनीयस्य संज्वलनमायाया जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यास्थितिबन्धः स्थितिसत्त्वं च .... ३५२ नुभागसंक्रमश्च .. ३५९ त्रयाणां घातिनामघातिनाञ्च कर्मणां स्थिति- लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये लोभस्य सत्त्वम् .... ३५३ । स्थितिबन्धः स्थितिसत्ता च .... .... ३५१ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः विषयः नम् विषयः पृष्ठाङ्क: पृष्ठाङ्कः तदानीं शेषाणां कर्मणां स्थितिबन्धः स्थिति लोभतृतीयसंग्रहकिट्यामुभयचयदलम् ३७४ सत्ता च .. ३६० | मध्यमखण्डम् ३७४ उदयसमयाधिकावलिकागतं नूतनं च बद्धं दलं बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डम् .... ३७५ वर्जयित्वा शेषस्य सर्वस्य लोभप्रथमसंग्रह- बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलम् .... ३७५ किट्टिदलस्य संक्रमः .... .... ३६० बन्धचयदलम् ३७६ लोभप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनमाश्रित्य यन्त्रकम् ....३६१ बन्धमध्यमखण्डम् ३७७ सूक्ष्मकिट्टीनां निर्व त्तिः .... .... ३६२ गणितप्रक्रियया सूक्ष्मकिट्टिषु दीयमानं दलम् ३७७ सूक्ष्मकिट्टिषु क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयतिदेशस्य । गणितप्रक्रियया लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयां दीयत्रयो विकल्पाः .... .... ३६३ मानं दलम् सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्वायां संक्रमपरिपाटिः .... ३६३ गणितप्रक्रियया लोभद्वितीयसंग्रह किट्टयां दीयसूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां संक्रम्यमाणप्रदेशाग्रस्या- मानं दलम् ३७८ ऽल्पबहुत्वम् .... .... ३६३ गणितप्रक्रियया द्वितीयादिसमयेष्वपूर्वसूक्ष्मकिसूक्ष्मकिट्टीनां प्रमाणं ज्ञातुमल्पबहुत्वम् .... ३६४ ट्टिनिर्वर्त्तनम् . ३८० असंख्येयभागप्रमाणदलतो निर्वय॑मानाः सूक्ष्म- गणितप्रक्रियया पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु किट्टयः कथं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितो विशेषा- दीयमानं दलम् ३८२ धिकाः ? अधस्तनशोर्षचयदलम् .... ३८२ उत्तरोत्तरसमये सूक्ष्मकिट्टीनां निर्वृत्तिः .... ३६६ अधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्म किट्टिसमानखण्डदलम् ३८२ सूक्ष्मकिट्टिकरणस्य प्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टिषु । अन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलम् ३८३ दलिकनिक्षेपः .... .... ३६६ उभयचयदलम् .... ___.... ३८३ तदानीं बादरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेप: .... ३६७ मध्यमखण्डदलम् .... ३८३ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये बादराऽपूर्व- गणितप्रक्रियया द्वितीयसम किट्टिनिवृत्तेर्युक्त्या प्रतिपादनम् .... ३६८ किट्टिषु दीयमानं दलम् .... बादरपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपः .... ३६८ गणितप्रक्रियया तृतीयादिसमयेषु पूर्वापूर्वसूक्ष्मबन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिपु दलिकप्रक्षेपः .... ३६९ किट्टिषु दीयमानं दलम् .... .... ३८५ गणितप्रक्रियया बादरकिट्टीनां स्वस्थानगोपुच्छा- सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु काररचनम् .... .... ३७० बादरकिट्टिषु च दलिकप्रक्षेपः .... ३८६ गणितप्रक्रियया बादरकिट्टीनां पर स्थानगोपुच्छा आलव्यवच्छेदः .... ३८७ काररचना ... ३७० लोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा .... ३८७ असत्कल्पनयाऽङ्कतो बादरकिट्टीनां परस्थान- नूतनं बद्धमुदयाघलिकागतं च दलं वर्जयित्वा गोपुच्छाकाररचना ३७१ शेषस्य बादरलोभस्य सूक्ष्मकिट्टिषु संक्रमः ३८७ सूक्ष्मकिटिच यदलम् .... बादरलोभोदयचरमसमये सप्तकर्मणां स्थितिबन्धः सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलम् ३७२ स्थितिसत्त्वञ्च .... .... ३८८ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयानधम्तन शीर्षच यदलम् ३७२ संज्वलनलोभबन्धस्य बादरकषायस्योदयोदीरलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयामधस्तनशीषेचयदलम् ३७३ णयोर्व्यवच्छेदोऽनिवृत्तिकरणसमाप्तिश्च .... ३८९ अपूर्वावान्तरकिट्टिदलमुभयचयदलञ्च .... ३७३ एकाधिकद्विशततमादिगाथाः समाश्रित्य यन्त्रकम्३८९ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयामुभयचयदलम् सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकप्रतिपत्तिः .... ३९० ३८४ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५) क्षपक श्रेणिग्रन्थप विषयः पृष्ठाङ्क: विषयः पृष्ठाङ्कः सूक्ष्मसम्परायप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टीनां प्रथम- | प्रावश्यकचूादिग्रन्थाभिप्रायेण पुरुषस्थित्याः करणं वेदनञ्च .... .... ३९० वेदादीनां क्षपणा . ४०८ गुणश्रेण्यामन्तरकरणस्थिती द्वितीयस्थितौ च भिन्नभिन्नकषायोदयेन भिन्नभिन्नवेदोदयेन च । दलिकप्रक्षेपः .... .... ३९१ क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तिः .... गणितप्रक्रिययाऽन्तरकरणस्थितौ द्वितीयस्थितौ । मानोदयेन क्षपकश्रेणिमारूढानां प्रथमस्थितिः ४१० च दलिकप्रक्षेपः .... ... ३९४ क्रोधप्रथमस्थिति-क्रोधक्षपणाद्धयोर्भदः । ४१० सक्ष्मसम्परायप्रथमसमयतो दृश्यमानं दलम ३९६ मायोदयारूढानां प्रथमस्थितिः .... ४१० द्वितीयादिस्थितिघातकाले दीयमानं दृश्यमानं लोभोदयेन प्रतिपन्नानां प्रथमस्थितिः .... ४११ च दलम् मानादिकषायोदयेन प्रतिपन्नानां क्षपकाणां गुणश्रेणिवर्जशेषस्थितिषु विद्यमानदलस्य क्रियाभेदः ...... .... ४११ गोपुच्छाकारत्वस्य साधनायाऽल्पबहुत्वम् .... ३९८ स्त्रीवेदोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य तद्वेदप्रथमसमये वेद्यमानाः सूक्ष्मकिट्टयः .... ३९९ प्रथमस्थितिः ... ४१३ वेद्यमानाऽवेद्यमानसूक्ष्मकिट्टीनामल्पबहुत्वम् ३९९ स्त्रीवेदस्यागालव्यवच्छेदः ..... ४१४ मोहनीयस्य चरमस्थितिघातस्तदानीं च दलिक स्त्र वेदस्य जघन्या स्थित्युदीरणाऽनुभागोदीरणोप्रक्षेपः .... .... ४०० त्कृष्टा च प्रदेशोदीरणा ... .... ४१४ सूक्ष्मसम्परायचरमसमये दलिकप्रक्षेपः .... ४०१ स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्याऽनुभाग संक्रमश्च मोहस्य स्थितिघातोच्छेदः .... ४०२ ४१४ चरमस्थितिखण्डे घातिते मोहनीयस्य स्थिति स्त्रीवेदस्य जघन्याऽनुभागोदय उत्कृष्प्रदेशोदयश्च .... ४१५ सत्त्वम् पुरुषवेदस्य बन्धोच्छेदः स्त्रीवेइस्य चोदयसत्त्वलोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यानु योव्यवच्छेदः .... .... ४१५ भागोदीरणोत्कृष्ठप्रदेशोदीरणा जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यानुभागसंक्रमश्च ... ४०३ स्त्रीवेदोदयारूढस्य सप्तनोकषायाणां क्षपणा ४१५ लोभस्योदीरणाव्यवच्छेदः .... ४०३ नपुसकवेदोदयारूढस्य तद्वेदप्रथमस्थितिः ४१६ लोभस्य जघन्यानुभागोदय उत्कृष्प्रदेशोदयश्च ४०४ नपुंसकवेदोदयारूढस्य स्त्रीवेद-नपुंसकवेदयोः क्षपणा सूक्ष्मसम्परायचरमसमये त्रयाणां घातिकर्मणां नपुसकवेदस्यागालविच्छेदः .... ४५६ स्थितिबन्धोऽनुभागबन्धः स्थितिसत्त्वञ्च ४०४ नपुसकवेदस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यानुभागोसूक्ष्मसम्परायचरमसयेऽघातिकर्मणां स्थिति दीरणोत्कृष्ठा च प्रदेशोदीरणा .... ४१६ बन्धोऽनुभागबन्धः स्थितिसत्त्वमुत्कृष्टप्रदेशस नसकवेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यानुभागस्वमुत्कृष्ठप्रदेशसंक्रमश्च ... ४०५ संक्रमश्च सूक्ष्मसम्परायचरमसमये ज्ञानावरणादीनां बन्ध नपुसकवेदस्य जघन्यानुभागोदयादिकम् ४१७ स्य व्यवच्छेदो मोहनीयस्य चोदयसत्तयोरु- स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोः सर्वथा क्षपणा च्छेदः .... ४०६ पुरुषवेदस्य बन्धव्यवच्छेदो नपुसकवेदस्य चोदगाथाद्वयं (२१५-२१६) समाश्रित्य यन्त्रकम् ४०६ यसत्त्वयोर्व्यवच्छेदः .... .... ४१७ किट्टिक्षपणाया उपसंहारः नपुसकोदोदयारूढस्य सप्तनोकषायक्षपणा ४१८ सूक्ष्मकिट्टिप्रभृतिक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिपर्यवसा- पुरुषवेदभिन्नवेदोदयारूढानां पुरुषवेदस्य नवेदनकालाऽल्पबहुत्वम् ४.८ जघन्यस्थितिबन्धादीनां प्रतिषेधः ४१७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय: ७ अपगतक पायाद्धाधिकारः क्षीणकषायगुणस्थानकप्राप्तिरी र्यापथिककर्म बन्धश्च ४१९ पथिककर्मणो विशेष व्याख्यानम्.... ४२०-४२१ स्थितिघात रसघात क्षीणकषायगुणस्थानके गुणश्रेणयः ४२२ ध्यानस्य कर्मक्षयकारणता ४२३ क्षीणकपाये चरमस्थितिखण्डस्य व्याख्यानम् ४२३ कर्मक्षयकारणभ्यानं द्विविधम धर्मध्यानस्य चत्वारो भेदाः ४२४ ४२४ ४२४ ४२५ ४२७ ४२७ आज्ञात्रिचयाख्यधर्मध्यानस्य स्वरूपम् अनायविचयाख्यधर्मध्यानस्य स्वरूपम् विपाकविचयाभिवधर्मध्यानस्य स्वरूपम् संस्थानविचयाभिधधर्मध्यानस्य स्वरूपम् धर्मध्यानस्य ध्यातारः ध्यायकस्य भावनादयः **** पृष्ठाङ्कः ४१९-४४३ .... विषयानुक्रमः .... ४३० धर्मेध्यानध्यायिनो लिङ्गम् शुक्लध्यानस्य चत्वारो भेदा: ४३१ पृथक्त्वविर्तकस विचाराख्यप्रथम शुक्लध्यानम् ४३१ एकत्ववितर्काविचाराभिवद्वितीयशुक्लध्यानम् ४३२ शुक्लध्यानध्यायिनो लिङ्गानि चरमस्थितिखण्डे घातिते घातित्रयस्य स्थिति ४३४ .... ४२९ ४२९ सत्त्वम् घातित्रयस्य स्थितिघातव्यवच्छेदः घातित्रयस्य जघन्यस्थित्युदीरणा मतिज्ञानावरणादीनां चतुर्दशप्रकृतीनां जघन्यानुभावोदीरणोप्रदेशोदीरणा जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्याऽनुभागसंक्रमश्च घातित्रयस्योदीरणाव्यवच्छेदः क्षीणकषायगुणस्थानक द्विचरमसमये निद्राद्विकस्योदयसत्त्वयोर्व्यवच्छेदः ४३६ मतान्तरेण निद्राद्विकस्य सत्त्वमेव व्यवच्छि द्यते, उदयस्तु क्षपकश्रेणौ मूलत एव न भवति ४३६ मतान्तरेण द्विचरमसमये देवगत्यादीनामपि सत्ताया उच्छेदः ४३४ ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ विषय: चरमसमये मतिज्ञानावरणादीनां जघन्याऽनुभागोदय उत्कृष्ट प्रदेशोदयश्च चरमसमये मतिज्ञानावरणादीनां चतुर्दशप्रकृतीनां जधन्यस्थित्युदयः काल: मतान्तरेण तु मतिज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थित्युदय आलिकां यावद् भवति मोहनीयस्य नामगोत्रयोश्च जघन्य स्थित्युदयस्य मतद्वयेन भावना ४३९ ४३९ चतुर्दशप्रकृतीमुदय सत्त्वयोर्व्यवच्छेदः अघातिकर्मणां व्यवच्छेद आक्षेपपरिहारौ ४३९ व्यवहारनयाभिप्रायेणाऽऽवरणस्य क्षीयमाणताऽनन्तरसमये केवलज्ञानोत्पत्तिप्रतिपादनार्थं पूर्वपक्ष उत्तरपक्षश्च क्षीयमाणं क्षीणमिति निश्चयनयेन श्रीयमाणतासमय एव केवलज्ञानोत्पत्तिप्रतिपादनार्थं पूर्वपक्ष उत्तरपक्षश्च उभयोर्नययोः समन्त्रयः ४४०-४४१ .... क्षीणकषाय चरमसमयमाश्रित्य यन्त्रकम् ८ सयोगिकेवलिगुणस्थानकाधिकार : ४४४-४९३ सयोगिकेवलिप्रथमसमयेऽनन्त केवलज्ञाना .... .... .... ४४४ ४४५ दीनां प्राप्तिः सयोगिकेवलिगुणस्थानक उपयोगपरावृत्तिः ४४५ केवलज्ञानस्य निरूपणम् तीर्थ नामकर्मण उत्कृष्टस्थित्युदय उत्कृष्टस्थित्युदीरणा च सयोगिकेवलिगुणस्थानस्य जघन्यत उत्कृष्टतरच .... [ ** पृष्ठाङ्कः .... ४३८ **** ४३८ **** ४३९ ४४१-४४२ ४४३ ४४३ सयोगिकेवलिगुणस्थानके गुणश्रेणिः आयोजिकाकरणस्य निरूपणम् आवश्यककरणस्य प्रतिपादनम् अवश्यकरणस्य विवेचनम् आवर्जितकरणस्य व्याख्यानम् आवर्जीकरणस्य व्युत्पत्तिः सयोगिकेवलिनां विशुद्धितारतम्यहेतुतया शुभयोगव्यापारविशेषस्य प्रतिपादनम् ४४६ ४४७ ४४७ ४४८ ४४८ ४४८ ४४९ ४४९ ४५० Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धिः क्षपकणिप्रन्यारव विषयः विषयः पृष्ठाङ्कः आवर्जीकरणस्य कर्तव्यत्वेऽपि समुद्घातस्याऽव- | मन्थानप्रतरयोमिथः शब्दभेदेऽप्यर्थभेदाभावश्यंकर्तव्यता .... .... ४५१ ...... .... ४६२ आवर्जीकरणस्य कालः .... .... ४५१ मन्थानशब्देन स्थितिरसहासस्य प्रतिपादनम् ४६३ आवर्जीकरणमावर्जितकरणमित्यादिशब्दभेदेऽ- प्रतरकारिणः स्थित्यनुभागयो_तः.... ४६३ प्यर्थभेदाभावः ... चतुर्थसमये लोकपूरकस्य जीवप्रदेशानां विस्तआवर्जीकरणकालेऽयोगिकेवलिगुणश्रेणिकर रणम् .... ४६४ णम् समुद्घातशब्दार्थ : .... ४५२-४५४ चतुर्थसमये स्थितिरसयोर्विघातः .... ४६४ समुद्रातं कः करोति ? .... ४५२ लोकपूरणाऽवस्थायां वेदनीयादीनां स्थितिउत्कृष्टतः षण्मासप्रमाण आयुषि शेषे केवलि- सत्त्वम् समुद्घातं करोतीति वदतां खण्डनम् ४५४ लोकपूरणादीनां संहरणम् .... ४६५ समुद्घातकरणे कृतनाशादिदोषप्रसक्तिस्तद्वा- पञ्चमसमये प्रतरस्थस्य स्थितिघातो रसघातश्च ४६६ रणं च षष्ठसमये प्रतरं संहृत्य कपाटे तिष्ठतः वेदनीयादित आयुष्कस्य प्रभूतत्व आक्षेपपरिहारौ४५५ | स्थितिघातकालो रसघातकालश्चाऽऽन्तमौहूर्तिकः ४६७ समुद्घातारम्भे सयोगिकेवलिनां कृतकृत्यत्व- कषायप्राभूतचूरिंगकाराभिप्रायेण तु पञ्चमसमव्याघातप्रसक्तिस्तत्सरिहारश्च .... ४५६ यात्प्रभृति स्थितिघातकालो रसघातकालवेदनीयस्योदीरणाऽभावेऽपि समुद्घातोप- श्वाऽऽन्तमौहूर्तिकः .... .... ४६७ पत्तिः ... ४५६ समुद्घातस्य सप्तमसमयोऽश्मसमयश्च ४६८ केवलिसमुद्घातकरणप्रथमसमये दण्डादिकर- सयोगिकेवलिचरमसमयं यावत् संख्येयानि णम् स्थितिखण्डानि .... .... ४६८ प्रथमसमये दण्डं कुर्वतो जीवप्रदेशानां विस्तर- ग्रन्थान्तरे सयोगिकेवलिचरमसमयं यावदसंख्येणम् यानि स्थितिखण्डानीत्यशुद्धेयु क्त्या प्रदर्शनम् ४६८ दण्डं कुर्वतः स्थितिघातः ४५८ केवलिसमुद्घातावस्थायां योगस्य प्रतिपादनम ४६९ दण्डं कुर्वतो रसघातः ४५९ समाप्तसमुद्घातसयोगिकेवलिनो योगत्रयम् ४६६ प्रावश्यकचूरिणकारादीनामभिप्रायेण प्रशस्त- योगनिरोधे हेतुः .... .... ४७० प्रकृतीनामप्यनुभागघातः .... ४५९ योगनिरोधस्य संक्षिप्तव्याख्यानम .... ४७० आवश्यकरिणकारादीनां मतेनाऽऽतपोद्योत- योगनिरोधस्य विस्तृत व्याख्याने मतद्वयम ४७१ योग्रहणम् .... .... ४५९ मतद्वयस्याऽपि प्रामाण्यसाधनाय युक्तिः ४७१ अप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तनामकर्मणोहणं प्रावश्यकरिणकारादीनां मतेन बादरका ययोगकार्मग्रन्थिकाऽभिप्रायकम् .... बलेन बादरवाङ्मन उच्छवासकाययोगनिरोधः ४७२ द्वितीयसमये कपाटं कुर्वत आत्मप्रदेशानां विस्त- शतकणिकृदाद्यभिप्रायेण सूक्ष्म काययोगोरणम् पष्टम्भाद् बादरकाययोगनिरोधः .... ४७३ असंख्येयगुणहीनाः प्रदेशा असंख्येयगुणं क्षेत्रं योगस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकानि किट्टयश्च ४७३ कथं व्याप्नुवन्तीत्याशङ्का तत्समाधानं च ४६० सूक्ष्मवचनयोग-सूक्ष्ममनोयोगयोनिरोधः ४७३ कपाटकारिणः स्थितिघातोऽनुभागघातश्च ४६१ योगनिरोधप्रतिपादकान्यावश्यकचूर्यक्षतृतीयसमये प्रतरं कुर्वतआत्मप्रदेशानां विस्तरणम४६२ । राणि ४७३-४७६ ४५८ " . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः टिप्पण्यामाकर्षणशब्दार्थः सूक्ष्म काययोगनिरोधः ... सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यान बलेन वदनोदरादि विवर पूरणम गुणस्थानकक्रमारोह ग्रन्थप्रतिपादितो योगनिरोध: ४७६ ४७७ ४७८ असत्यपि प्रवर्तमानयोगे तन्निरोधोपपादनम् ४७७ herrorभृतचूरिंगकारादीनां मतेन बादरमनोयोगबाग्योगोच्छ्वासकाययोगनिरोधः कषायप्राभृतचूरिंगकारादीनामभिप्रायेण सूक्ष्ममनोयोगादीनां निरोधः ... सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानेन योगस्याऽपूर्वस्पर्धा - कानां निवृत्तिः पूर्वापूर्वस्पर्धा कवर्गणासु जीवप्रदेशप्रक्षेपः प्रथमसमयेऽपूर्वस्पर्धकानां प्रमाणम् ... अपूर्वस्पर्धककरणाद्धा तस्यां चाऽपूर्वस्पर्धा ४७८ ४७९ ४७९ कानां प्रमाणम् योगकिट्टिशब्दार्थस्तन्निर्वृत्तिश्च योग किट्टषु जीव प्रदेशानां प्रक्षेपः प्रतिसमय पूर्व किट्टीनां निर्वृत्तिः द्वितीयादिसमयेषु योग किट्टिषु जीवप्रदेशनिक्षेपविधिः .... विषयानुक्रमः पृष्ठाङ्कः ४७४ ४७६ .... ४७६ ४८० ४८१ ४८२ ४८२ गुणकार इत्यस्य विकल्पत्रयम् किट्टिकरणाद्धायां निर्वर्तितकिट्टीनां प्रमाणम् द्विचरमसमयं यावत् किट्टीनां विनाशः सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानस्य ध्यानम् सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानस्वरूपम् चरमसमये सर्वासां योग किट्टीनां विनाशः ४८७ वेदनीयादीनामयोगिकेवलिकाल तुल्यस्थितिकर ४८५-४८६ ४८३ ४८३ ४८४ ४८४ ४८५ णम् ४८७ चतुर्नवतिप्रकृतीनां (९४) जघन्यस्थितिसंक्रमः ४८८ द्वाष्टिप्रकृतीनां (६२) जघन्यस्थित्युदीरणा ४८८ चरमसमये सुस्वरदुःस्वरोच्छ्वासानां जघन्यस्थित्युदीरणायां विरोधोद्भावनं तत्समाधानश्च ४८९ तैजससप्तकादिपञ्चविंशतिप्रकृतीनामुत्कृष्टानु भागोदीरणा ४९० [ १५ विषयः पृष्ठाङ्कः कृष्ण नीलादिनवप्रकृतीनां जघन्यानुभा गोदीरणा ४९० औदारिकसप्तकादिद्वापञ्चाशत्प्रकृतीनां (५२ ) ४९० जघन्यस्थित्युदय उत्कृष्टप्रदेशोदयश्च तैजससप्तकादिपञ्चविंशतिप्रकृतीनामुत्कृष्टानु भागोदयः ४९० कृष्णनीलादिनवप्रकृतीनां जघन्यानुभागोदयः ४९० सयोगिकेवलिचरम समय उदयत्रिच्छेदः ४९१ arateeafरणकाराद्यभिप्रायेण चरमसमये उच्छ्वासनिरोधः **** सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानसामर्थ्येनाऽवगाहना **** ४९२ ४९२ ४९२ ४६३ त्रिभागहीनत्वम् सप्तपदार्थानां व्यवच्छित्तिः सयोगिकेवलिचरमसमयापेक्षया यन्त्रकम् ९ अयोगिगुणस्थानकाधिकारः ४९४ अयोगिगुणस्थानशब्दार्थः व्यवच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपातिध्यानस्य स्वरूपम् ४९४ शैलेशी निरूपणम ४९४ ४९६ अयोगिकेलिनः प्रदेशानां निर्जरणम् ४९७ द्विचरमसमये द्वशीतिप्रकृतीनां (८२) सत्ताविच्छेदः **** ४३८ सादिद्वादशप्रकृतीनां जघन्यस्थित्युदयो मनुष्यायुना चैकादशानामुत्कृष्ट प्रदेशोदयः ४९९ चरमसमये मनुष्यगत्यादित्रयोदशप्रकृतीनां सत्ताविच्छेदः चरमसमये मनुष्यगत्यादिद्वादशप्रकृतीनां सत्ताविच्छेदः ४९९ ५०० 4444 मतान्तरेण मनुष्यानुपूर्व्याः सत्ताविच्छेदो द्विचरमसमये भवति अस्प्रशद्गतिः ५०० ५०१ निश्चयव्यवहारनयाभ्यां कर्मक्षय- देहवियोगादि५०१ सिद्धयतो गतौ चतस्रो युक्तयः ५०२ अयोगिकेवलिगुणस्थानके प्रतिपादितानां पदार्थानां यन्त्रकम् ५०४ गुणस्थानकेषुञ्चाशदधिकशतप्रकृतीनां क्षपणायाः संज्ञेतः प्रतिपादनम् ५०५ अकर्मणां क्षयादष्टानां गुणानां प्रादुर्भावः ५०५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] विषयः नामगोत्रकर्मक्षयजन्येऽमूर्ताऽनन्तावगाह नाख्य एकगुण आक्षेप - परिहारौ सिद्धशिलाया वर्णनम् मोक्षस्वरूपविचारः .... नैयायिक वैशेषिकाणां पूर्वपक्ष: नानामात्म विशेषगुणानां बुद्धयादीनामत्यन्तोच्छेदो मोक्षः ५०७ सन्तानत्व हेतु आत्मविशेषगुणोच्छेदसिद्धिः ५०८ आत्मविशेषगुणोच्छेदो मोक्ष इत्यस्य संवादक .... क्षपकश्रेणिग्रन्थस्य पृष्ठाङ्कः भागमः ज्ञानस्य मोक्षहेतुता सञ्चितयोर्धर्माधर्मयोरुपभोगात् प्रक्षयः उपभोगात् प्रक्षय आक्षेपः समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य कायव्यूहद्वारोप ५१० भोगतः क्षयोपपत्तिः तत्त्वज्ञानिन उपभोगाभिलाषविरहाद् न कायव्यूद्वारोपभोगः अभिलाषाभावेऽप्युपभोगोपपत्तिः सञ्चितकर्मक्षये तत्त्वज्ञानस्य कायव्यूद्द्द्वारा ५१० ५१० हेतुता मोक्षावस्थायां विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरशरीराणि प्रारभन्त इति केषाञ्चिन्मतस्य स्थापनम् ५०६ ५०७ ५०७.५५४ ५०७-५१२ .... ५०८ ५०९ ५०९ ५१० अनन्तरोक्तमतस्य प्रतिक्षेपः विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे मुक्तेरनित्यत्वे आक्षेपस्तत्परिहारश्च उत्तरपक्षः ५१० ५१० ५११ आत्मतोऽत्यन्तभिन्नानां बुद्ध्यादीनां स्वीकारे सन्तानत्वहेतोराश्रयसिद्धता ५१२ बुद्धघादीनामात्मतोऽभिन्नत्वस्य स्वीकारे दोष: ५१२ बुद्धयादीनामात्मतः कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नत्वस्वीकारे स्याद्वादनयमताङ्गीकार प्रसङ्गः ५१२ सन्तानत्व हेतोः सामान्यरूपत्वे स्वरूपासिद्धि: ५१२ सन्तानत्वहेतोः सत्तारूपपरसामान्यत्वव्याख्यान स्वरूपासिद्धेरुद्धारस्तत्प्रतिविधानञ्च सन्तानत्व हे तोर पर सामान्यत्वे दोषः ५११ ५१२-५२० ५१२ ५१२ विषय: सन्तानत्व तो शेषरूपत्वे विकल्पचतुष्कस्याव तारस्तत्प्रत्यवस्थानच सन्तानहेतोर्विरुद्धम् ५१३ ५१३ प्रदीपवदिति दृष्टान्तस्य साध्यविकलता ५१३ प्रदीपादीनामुत्तरपरिणामस्याऽप्रत्यक्षत्वेन तभिश्चयाभाव भाक्षेप - परिहारौ ५१३ ध्वस्त प्रदीपस्य विकारान्तरेणावस्थाने दोषस्तपरिहारश्च .... प्रदीपस्य पूर्वापर स्वभावपरिहार स्वीकार-स्थितिलक्षणपरिणामस्याऽनुमानप्रयोगेण सिद्धिः सन्तान चरमक्षणस्य क्षणान्तराऽजनकत्वे प्रदीपबुद्धपादीनामसत्त्वोपपादनम् सन्तानहेतोः सत्प्रतिपक्षता सन्तानत्वहेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम् आत्म विशेषगुणसन्तानोच्छेदसाधकाऽनुमाने किं साध्यतयेन्द्रियजानां बुद्धयादीनामुच्छेदः, उतातीन्द्रियाणाम् ? ५१५ प्रथमपक्षे सिद्धसाधनम् द्वितीयपक्षे दोषोद्भावनम् नैयायिकवैशेषिकाणामुपहास: 'न ह वै सशरीरस्य' इत्याद्यगमस्याऽन्यथा व्याख्यानम् किं मुक्त बुद्धयादिगुणानामभात्रः कारणाभावात् उतविरुद्धत्वात् ? प्रथमपक्षे ज्ञानादिविशेषगुणत्वावच्छिन्नं प्रति शरीरादेर्निमित्तकारणत्वं प्रत्यवस्थाप्येन्द्रियजबुद्धयादिगुणत्वावच्छिन्नं प्रति शरीरादेर्निमित्तकारणत्वस्य मोक्षावस्थायां ज्ञानसुखादिकं च प्रत्यन्येषां कारणतायाः प्रतिपादनम् ५१५ ..... ५१५ मुक्तौ बुद्धयादिगुणानां जन्यत्वेन तेषां ध्वंसापत्तिस्ततश्च न तेषामनन्तत्त्रम् .... .... पृष्ठाङ्कः **** ५१३ ५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५१५ तत्खण्डनायाऽभाववद् भावस्याऽप्यविनाशि प्रतिपादनम् विनाश-जन्यभावयोः कार्यकारणभावो नास्तीतिप्रतिपादनम् ५१६ ५१६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः ५२१ .... .... ५१७ विषयः विषयः पृष्ठाकः विनाश-जन्यभावयोः कार्यकारणभावस्वीकारेऽपि समानकालीनसमानाधिकरणदुःखप्रागभाषान मोक्षे ज्ञानसुखादीनां सर्वथोच्छेदः .... ५१६ - समानदेशो दुःखध्वंसो मोक्ष इति केषाठिच. भनन्तज्ञानेऽनुमानम् न्मोक्षलक्षणम् .... .... ५२० विरुद्वत्वाद् ज्ञानादीनामभाव इति द्वितीयपक्ष- समानाधिकरणदुःखप्रागभावासहवृत्तिदुःखध्वंसो । स्य प्रत्यवस्थानम् मोक्ष इति लक्षणं तत्पदकृत्यब्च .... ५२० ज्ञा दीनामत्यन्तोन्छेदे सौगततः को विशेषो दुःखसन्ततिरत्यन्तमुच्छिद्यते सन्ततित्वादिति । नैयायिकादीनाम् ? .... .... ५१७ प्राचामनुमानं तत्प्रतिविधानच .... ५२१ ज्ञानादीनामभावस्य साधने न प्रत्यक्षप्रमाणम्, आत्मकाला-ऽन्यवृत्तिध्वंसप्रतियोग्यवृत्तिदुःखत्वं नाऽप्यनुमानम .... .... ५१७ दुःख पागभावानधिकरणत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्ति, तत्त्वज्ञानस्य मोक्षहेतुतास्वीकारो ज्ञानादिगुणा- सत्कार्यमात्रवृत्तित्वात प्रदीपत्ववदिति श्रीवर्धभावस्य चास्वीकारः ..... .... ५१७ मानादीनां सर्वमुक्तिसाधकमनुमानम् ५२१ उपभोगत एव कर्मप्रक्षयेऽनुपपत्तिः ५१७ पक्षस्य विचारस्तत्पदकृत्यं च उपभोगतः कर्मप्रक्षय उअन्यस्ताऽनुमानस्य साध्यस्य विचारः .... निरासः माध्यस्य पदकृत्यम् .... ५२२ कायव्यूहद्वारा फलोपभोगतः कर्मक्षयाभ्युपगमे हेतोः पदकृत्यम् ५२३ नृपतिवत् प्रचुरकर्मोत्पादः .. ५१८ चैत्रादिमुक्तिसिद्धयेऽनुमानम् ५२३ आतुरस्याऽपि नोरुग्भावाऽभिलाषेणैवौषधाद्या- श्रीवर्धमानप्रभृत्युक्तानुमानस्य प्रतिविधानम् ५२३ चरणे प्रवर्तनम् .... .... ५१८ आत्यन्तिकःखप्रागभावो मोक्ष इति प्राभाकराणां सञ्चितकर्मक्षये कायव्यूहद्वारा तत्त्वज्ञानस्य हेतु- मतं तत्खण्डनच ... ५२४ तायाः प्रत्यवस्थानम् .... .... ५१८ दुःखाऽत्यन्ताभावो मोक्ष इति केषाचिन्मतं प्रारब्धकर्मणः फलोपभोगतः क्षयः, सश्चित- तत्प्रत्यवस्थानं च .... .... ५२५ कर्मणस्तु पापक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रोपबृहित- विशिष्टदुःखसाधनध्वंसो मोक्ष इति मतं तत्त्वज्ञानतः प्रणाशः .... .... ५१८ तत्खण्डनं च ताशतत्त्वज्ञानस्य सञ्चितकर्मक्षय-भाविकर्मानु- दःखध्वंसस्तोमो मोक्ष इति केषाचिन्मतं त्पादहेतुतायामुष्णस्पर्शदृष्टान्तः .... ५१८ तत्प्रत्यवस्थानच .... .... ५२५ परिणामिजीवादिपदार्थविषयकज्ञानस्यैव तत्त्व- नित्यनिरतिशयमुखाभिव्यक्तिर्मोक्ष इति ज्ञानत्यम् , न तु तदितरस्य .... ५१९ तौतातितानां पूर्वपक्षः .... ५२६-५२७ तत्त्वज्ञानिनां नित्यनैमित्तिकानुष्टानस्वीकारः ५१९ अविद्यायां निवृत्तौ परमानन्दस्वभावताया शैलेशी फरणावस्थायां सकलप्रवृत्त्यभावः ५१९ अभिव्यक्तिः .... ५२६ विशिष्गुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्तेरस्वी "आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते" कार आत्मन एकान्तनित्यत्वाभावो बुद्धयादिभि- इत्यस्यां श्रुतौ षष्ठयाऽभेदः सूचितः .... ५२६ श्व सहाननः कथञ्चित तादात्म्यम् ५१९ नित्यसुखस्वीकारे सर्वदा सुखानुभवप्रसङ्ग इत्याबुद्धयादिगुणानामुच्छेदो मोक्ष इत्यस्वीकारे मोक्षे. शङ्का तत्समाधानं च। ... ५२६ ऽपि धर्मादीनामनुवृत्त्या संसारमोक्षयोरविशेष आत्मा सुखस्वभावः, अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वाद् इत्याशङ्का अनन्यपरतयोपादीयमानत्वाच्च, वैषयिकसुखउक्ताशङ्कायाः समाधानम् .... ५२० वदित्यनुमानम् ..... ५२६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपकणिप्रभस्य : विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्क: आत्मा सुखस्वभावः, मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वाद् दुःखहानिरिष्टा सुखहानिस्त्वनिष्टेति प्रतिनिरुपचरितप्रेयःशब्दवाच्यत्वाद्वा .... ५२७ पादनेन नैयायिकाभिप्रायस्य खण्डनम् ५३० मुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टार्थप्राप्त्यर्था प्रेक्षापूर्वकारि- सुखहानेरनिष्टत्वं विरागिभिर्न वेद्यत इति । प्रवृत्तित्वात् नैयायिककथनं तत्खण्डनञ्च .... ५३१ शास्त्रीय उपदेश इष्टार्थप्राप्त्यर्थः,उपदेशत्वात् ५२७ दुःखाभाव एव सुखमिति नैयायिकाभिप्रायसुखस्य निरतिशयत्वे-ऽनुमानम् ५२७ स्तत्खण्डनं च उत्तरपक्षः ५२७-५३७ अभिलाषनिवृत्तिः सुखं तदात्मकश्च मोक्ष । किं सुखं नित्यम् , उताऽनित्यम् ? .... ५२७ इति मतं तत्खण्डनं च .... .... ५३१ प्रथमपक्षे दोषोद्भावनम् विषयोपभोगस्याऽभिलाषाऽनिवर्तकत्वम् ५२७ ५३१ द्वितीयपक्षे विकल्पद्वयम्-फिनित्यसुखं स्वप्रकाश विषयेषु दोषदर्शनादभिलाषनिवृत्तिः .... ५३२ कम् , उत तद्भिन्नप्रमाणान्तरप्रमेयम् ? ५२७ अभिलाषनिवृत्तिः सुखमित्यभ्युपगमे विषयोपप्रथमविकल्पे मुक्तसंसारिणोरविशेषप्रसङ्गः ५२७ भोगेन जायमानाऽभिलाषनिवृत्त्यात्मकसुखतो उक्तप्रसङ्गवारणप्रयासस्तत्खण्डनं च .... ५२७ विषयदोषदर्शनेन जायामानाऽभिलाषनिवृत्त्यात्मकद्वितीयविकल्पे दोषोद्भावनम् .... ५२८ सुखस्य विशिष्टतरत्वं न स्यात् ... ५३२ "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्यस्यागमस्यैवाऽ अभिलाषातिरेकात् तन्निवृत्त्या सुखातिरेकाभि मान इति कथनं तत्खण्डनं च .... ५३२ प्रामाण्यम् नैयायिकमतेन दुःखेन निर्विष्णस्य मुमुक्षोरिच्छाउक्तस्यागमस्य प्रामाण्यस्वीकारेऽपि तत्प्रतिपादित विच्छेदाद् वैराग्यस्याप्युपपत्तिः, ततश्च तेषां सुखस्य दुःखाभावत्वेन व्याख्यानाद न दोषः ५२८ मोक्षः, न तु परमानन्दाकाक्षिणाम् ... ५३३ द्रव्यतो नित्यं सुखं पर्यायतश्चानित्यमिति स्या द्वेषराहित्यलक्षणप्रशान्तत्वविरहात् कथं नैयायिकानां द्वादिमतम् मोक्षः ? मोक्षावस्थायां सुखाभ्युपगमे तद्रागेण तत्र प्रवृत्ती नेच्छाविच्छेदसामान्यं वैराग्यपदार्थः, किन्तु मोक्षाभावः स्यादित्याशङ्का .... ५२९ विषयेच्छाविच्छेदः ... .... ५३३ उक्ताशङ्कायाः समाधानम् .... ५२९ न्यायमते दुःखनिवृस्यात्मकमोक्षस्वीकारे दुःख नित्यसु वस्य संवेदनं किं नित्यम्, उताऽनित्यम् ? इति नैयायिकाशङ्का द्वषेण तत्र प्रवृत्ती मोक्षाभावप्रसङ्गः ... ५३० .... .... ५३३ न्यायमतेन तद्वारणम् .... .... ५३० नित्यसंवेदनपक्षे दोषाः .... ... ५३३ तुल्यन्यायेन सुखात्मकमोक्षस्वीकारेऽपि मोक्षा- नित्यसंवेदनस्य प्रतिबन्धाभ्युपगमे केन प्रतिभावप्रसङ्गवारणम् .... ... ५३० बन्धः (१) किं शरीरादिना, (२) अथवा वैषयिक"दुःखसंस्पर्शशून्यशाश्वतिकसुखसंभोगाऽसम्भ- सुखेन, (३) उताऽविद्यया, (४) उतस्विद् बाह्यव्यायात्" इति नैयायिकोक्तस्य खण्डनम् .... ५३० सङ्गेन ? .... .... .... ५३४ सुखदुःखयोरेकभाजनपतितविषमधुनोर्मधूत्पन्न- उक्तविकल्पचतुष्कस्य खण्डनम .... सुखकणिकापेक्षविषप्रयोज्यतीव्रतरमरणादि- नित्यसुखसंवेदनस्याऽनित्यत्वपक्षे दोषाः ५३४ दुःखजनकयोरिव विवेकहानस्य दुःशक्यत्वाद् ५३३ पृष्ठे उत्थापितशङ्कायाः समाधानम् ५३५ उभेऽपि सुखदुःखे त्यज्येतामिति नैयायिका- संग्रहनयेन आवरणच्छित्त्याऽभिव्यङ्गयः सुखभिप्रायस्य खण्डनम् .... ५३० । ज्ञानादिस्वभावो मोक्षः .... .... ५३५ ५३३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- "विषयानुक्रमः [ 8 विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्क ऋजुसूत्रादिनयमतेन प्रतिसमयमुत्पद्यमानं सुख- उक्ताशङ्कायाः समाधानम् ५४० ज्ञानादिकं मोक्षः मिथ्यारोपव्यवच्छेदार्थमसत्यपि मोक्तर्यात्मनि । व्यवहारनयानुसारेण कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ५३६ नैरात्म्याभ्यासरूपो यत्नः कर्तव्यः .... ५४० "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इति अतिर्न विरुध्यते । उक्तभावनाविरहे त्विन्द्रियादिषूपभोगाश्रयत्वेन । स्याद्वादमते ' .... ५३६ गृहीतेष्वात्मबुद्धेर्निवारणाऽसम्भवेन स्नेहसद्भावामुमुक्षुप्रयत्नेन तु यदाऽनाद्यविद्या निवर्तते, द् न वैराग्यस्य संभवस्ततश्च कथं मोक्षः ? ५४० तदाऽऽनन्दस्वरूपप्रतिपत्तिर्भवति, सैव मोक्ष 'नोपभोगाश्रयत्वबुद्धिनिबन्धनस्वत्वबुद्धित इत्यस्य स्वीकारः, किन्त्वविद्यात्वेन कर्म ग्राह्यम् ५३६ आत्मीयस्नेहः, किन्तु गुणदर्शनतः' इति पक्ष-. आत्मा सुखस्वभावः, अत्यन्तप्रियबुद्धिविषय- स्तत्खण्डनं च .... ५४० स्वाद अनन्यपरतयोदीयमानत्वाच्चेत्यस्यानु नैरात्म्यभावनाविरहेऽपि कायक्लेशलक्षणतपसः मानस्य खण्डनम् .... .... ५३६ सकलकर्मप्रक्षयाद् मोक्षः स्यादिति मतं आत्मा सुखस्वभावः, मुख्यप्रेयोबुद्धिविषय तत्खण्डनं च .... ५४० त्वाद् निरुपचरितप्रेयःशब्दवाच्यत्वादित्यस्य विचित्रशक्तिकं कर्म कथमेकरूपात् कायक्लेशात् खण्डनम् .... .... ५३६ क्षीयते ? ५२७ पृष्ठे प्रोक्तशेषाऽनुमानानां नित्यसुख्न कर्मशक्तीनां संकरेण क्षयकरणशीलं तप इत्येकसाधनत्वेन खण्डनम .... .... ५३७ रूपादपि कर्मक्षय इति पक्षस्तत्खण्डनं च ५४१ अविद्यायां निवृत्तायां विज्ञानसुखात्मकः केवल उत्तरपक्षः ५४१-५४६ आत्मा मोक्ष इति वेदान्तिनां मतं तत्खडनं च ५३७ आनन्दमयपरमात्मनि जीवात्मलयो मोक्ष इति ज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽसम्भवस्य । खण्डनम् .... ५४१ त्रिदण्डिनां मतं तत्खण्डनं च .... ५३८ मौक्तिकोणनिकरानुस्यूतकसूत्रकल्पात्मनोऽ सौगतानां पूर्वक्षः ... ५३८-५४१ निरुपप्लवा चित्सन्ततिर्मोक्ष इति मतम् स्वीकारे कृतनाशाऽकृतागम-संसारभङ्ग-मोक्ष५३८ भङ्गाः स्मृत्यनुपपत्तिश्च ज्ञानक्षणव्यतिरिक्तात्मनोऽसम्भवः ..... .... ५४१ ५३८ स्मरणोपपत्तये प्रयासस्तत्प्रतिविधानं च आत्मदर्शिनां मुक्त्यभावः, .... ५३८ यथा रक्तकपासबीज उप्ते फलं रक्तवर्ण लभ्यते, नैरात्म्यभावनातो मोक्षः मुक्तावस्थायां शरीराद्यभावात् कुतश्चित्सन्तति तथैव यस्मिन् सन्ताने वासनाऽधिवसति तत्र स्मृतिसंभवः ? .... ५३९ रिति दृष्टान्तेन स्मृत्यनुभवयोरैकाधिकरण्योपपत्तये ज्ञानं प्रति शरीरादीनां न कारणत्वम् , किन्तु प्रयासस्तत्खण्डनं च .... ५४२ पूर्वपूर्वविज्ञानक्षणानाम् .... ५३९ एकसन्तानत्वस्य खण्डनम ... ५४३ सुषुप्ती ज्ञानाभावादुत्तरज्ञानक्षणोत्पत्त्यभार स्मृत्यभावे निहितप्रत्युन्मार्गण प्रत्यर्पणादिव्यवइत्याक्षेपस्तत्प्रतिक्षेपश्च .... ५३९ हारलोपप्रसङ्गः ... ... ५४३ अभिभूतज्ञानक्षणतोऽनभिभूतज्ञानस्य रागद्वेष- मुक्तिस्त्वात्मदर्शिनो न भवत्येवेत्यस्य खण्डनम् ५४३ कलुषितज्ञानक्षणतश्च रागद्वेषविनिमुक्तज्ञान- पूर्वपूर्वविज्ञानक्षणानामेवोत्तरोत्तरविज्ञानक्षणं स्य कथमुत्पत्तिः ? इत्याशङ्का .... ५३९ प्रति कारणत्वमित्येतद् अन्वयिद्रव्यस्वीकार एवोउक्ताशङ्कायाः समाधानम् .... ५३९ पपन्नम, नाऽन्यथा ... .... ५४३ निरन्वयविनश्वरचित्सन्ततौ बद्धोऽहं मोक्ष्यामीत्यु- 'पूर्वपूर्वज्ञानक्षणानां तत्तदतिशयवत्त्वेन' इत्यादि दिश्य यत्नो न स्यात् ? इत्याशङ्का .... ५४० कथनमप्यन्वयिद्रव्यस्वीकार एवोपपन्नम् ५४३ ५३९ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] विषय: निरन्वयचित्सन्तत्यामुत्तरोत्तरक्षणानामत्यन्तनानात्वेऽपि तर कत्वाध्यारोपेणात्माभिसन्धानाद् मिध्याध्यारोपस्य व्यवच्छेदार्थं नैरात्म्याभ्यासभावनारूपयत्नः कर्तव्य इत्यस्य बौद्धमतस्य खण्डनम् ऐकाधिकरण्ये सत्येव बन्धमोक्षव्यवस्थोपपत्तिः, बौद्धमते तु तद्विरहाद् न बन्धमोक्षव्यवस्थोपपत्तिः 'किञ्चिदिदमतो मम स्यादि' त्यनुसन्धानेनैव प्रेक्षावत्प्रवृत्तिः, बौद्धमते तु कोडनुसन्धाता ? किं क्षणः सन्तानो वा ? प्रथमपक्षस्य प्रतिविधानम् द्वितीयपक्षस्य प्रत्यवस्थानम् एकान्तानित्यत्वेऽर्थक्रियाकारित्वविरहेण नैरात्म्यभावनाया मिथ्यारूपत्वात् कथं तस्या मोक्षहेतुत्वम् ? मोक्षार्थस्य ५४५ ५४५ निरन्वयविनश्वरत्वाऽभ्युपगमे प्रयासस्य वैयर्थ्यापत्तिः 'उपभोगाश्रयत्वेन गृहीतेष्विन्द्रियादिषु' इत्यादिबौद्धप्रतिपादनस्य खण्डनम् विवेकज्ञा उपभोगाश्रयमात्यन्तिक सुखसाधनं मन्यन्ते, न तु तादात्विक सुखसाधनं स्त्र्यादिकम् ५४५ इन्द्रियादिषु लेशतोऽपि सुखहेतुत्वस्य सम्भषात् तत्रात्मबुद्धिं न परित्यजतीत्याक्षेपस्तत्परिशरश्व क्षपक श्रेणिमन्थस्य .... पृष्ठाङ्कः ... ५४४ ५४४ ५४४ ५४४ ५४५ उपभोगाश्रयेन्द्रियादिषु तादात्विकगुणदर्शनात् तन्निबन्धनस्नेहो मोक्षप्रतिबन्धकः, विवेकिनां तु तादृशगुणदर्शनं नास्ति, अपि तु तत्र दोषदर्शनमस्ति, तच कुतः स्नेहव्यावर्तकं न भवेत् ? ५४६ दोषदर्शनेन विरक्तस्तत्काले निवर्तते, पुनः सुखलेशदर्शनतः पुनस्तत्र रागी स्यादिति बौद्धविधानं तत्प्रतिविधानश्र्च .. उपभोगाश्रयेषु दुःखहेतुत्वं पश्यन् विरज्यते, तर्ह्यात्मन्यपि तस्य विरागः स्यादित्याशङ्का तत्समाधानं च व्रतोपबृद्दककायक्लेशस्य तपस्त्वेन प्रतिपादनम् ५४६ ५४६ ५४६ ५४५ ५४५ विषयः 'कायक्लेशस्य कर्म फलत्वेन' इत्यादि सौगतकथनस्य खण्डनम् स्वल्पेनैवैकोपवासादिना प्रदर्शित सर्वकर्मक्षयापतेरिष्टापत्तित्वेन स्वीकारः प्रदीपनिर्वाणवत् सर्वथा ज्ञानसन्तानोच्छेदो मोक्ष इति केषाञ्चिन्मतम् २४६ ... उक्तमतस्य खण्डनम् खड्गिनो निराश्रवं चित्तं नोपादेयक्षणमारभते सहकारिविरहादित्यनुमाने दोषोद्भावनम् ५४७ अन्त्यचित्क्षणस्यार्थक्रियाकारित्वविरहे तस्यावस्तुत्वापत्तिः, तत्र चाऽऽक्षेपप्रतिक्षेपौ ५४७ ५४८-५५० स्वातन्त्र्यं मोक्ष इति केषाञ्चिन्मतं तत्खण्डनं च ५४८ आत्मानं मोक्ष इति चार्वाकमतं तत्खण्डनञ्च ५४८ साङ्खानां पूर्वपक्ष: विवेकख्यातिबलेनो परतायां प्रकृतौ पुरुपस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति मतम् प्रबुद्वैश्व प्रतिपादनम् शेषाणां त्रयोविंशतितत्त्वानां निरूपणम् प्रकृति-पुरुषयोरन्धपङ्गवन् संयोगः . पुरुषस्य चैतन्यशक्तिर्विषयपरिच्छेदशून्या बुद्धेर्विषयपरिच्छेदस्योपपत्तिः ***. **** .... पृष्ठाङ्कः अचेतनाऽपि बुद्धिश्चिच्छक्तिसान्निध्याच्चैतन्यवतीव प्रतिभासते ५४९ ५५० अचेतना ज्ञानादय उत्पत्तिमत्वादित्यनुमानम् ५४६ विवेकख्यातितः प्रकृतिनिवृत्तिः नर्तकी कल्पा प्रकृतिः प्रकृतेरेव बन्धसंसारमोक्षाः पुरुषस्य त्वौपचारिकाः ५५० ५५० उत्तरपक्षः ५५०-५५५ www. ५४६ ५४७ ५४७ .... प्रकृति-पुरुषयोः संयोगस्त्वन्धपङ्गवदित्यस्य प्रतिविधानम् ५५० ५५०-५५१ दिक्षायाः खण्डनम् संयोगस्यानुपपत्तेर्वियोगस्य दुर्घटत्वम् ५५२ पुरुषस्य चैतन्यशक्तिर्विषयपरिच्छेदशून्येत्यस्य प्रतिविधानम् कर्तृत्वभोक्तृत्वादिधर्मविर हे सुखदुःख भोगाश्रमत्वानुपपत्तिः ५५२ ५५२ ५४८ ५४८ ५४९ ५४६ ५४९ ५४९ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : परिशिष्टानां चित्राणां च सूचिः [ २१ - . विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्क: मचेतनाऽपि बुद्धिश्चिच्छक्तिसान्निध्याचैतन्य- | पुरुषस्याऽपि परिणामिनित्यत्वसंभवः ५५४ वतीव प्रतिभासत इत्यस्य प्रतिविधानम् ५५२ पुरुषस्यैव बन्धमोक्षौ ५५५ शरीरादेश्चेतनत्वापत्तिः श्रेणिप्रतिपत्तो मतद्वयम् 'अचेतनाऽपि' इत्यादिकथन आरोगो ध्वन्यत अतिममङ्गलम् आरोपश्चाऽनुपपन्नः .... .... ५५२ श्रीचरमतीर्थपतिस्तुतिः ५५६ 'अचेतना ज्ञानादय उत्पत्तिमत्त्वादित्यनुमान- प्रन्थकृत उपकारिणां गुरूणां स्तुतिः स्य खण्डनम् ५५३ पदार्थसंग्रहकाराः ५५७ संज्ञान्तरेण कर्मणः स्वीकारः क्षपकश्रेणिग्रन्थस्य रचयिता ५५८ बुद्धेः कार्योऽहङ्कार इत्यस्य खण्डनम् .... ५५३ स्खलितविशोधने प्रार्थना ५५८ पञ्चकर्मेन्द्रियाणां खण्डनम् .... ५५३ वृत्तिकृतः प्रशस्तिः ५५९-५६४ व्योमादीनां शब्दतन्मात्रजवनिराकरणम ५५४ श्रीवीरजिनादीनां स्तुतिः .... ५५९ विवेकख्यातेः खण्डनम् ५५४ श्रीमुनिचन्द्रसूरीश्वरादीनां स्तुतिः .... ५६० नर्तकीदृष्टान्तस्य सायमतव्याघातकारित्वम् ५५४ पूज्यगुरूणां स्तुति: संशोधकादयश्च .... ५६१ कुलवधूदृष्टान्तेन प्रकृतेर्निवृत्त्युपपादनम् ५५४ | मुद्रणे द्रव्यसहायौ ___.... .... ५६२-५६४ प्रकृतेः परिणामिनित्यत्वम् .... ५५४ | ग्रन्थानादि पाशिErari सूचि (१) मूलगाथाः ... .... ५६५-५७३ । (६) क्षपकणिटीकान्तर्गतानि व्याकरण(२) अकारादिक्रमेण मूलगाथानामाद्यांशाः५७४-५७७ ५८१-५८२ (३) मूलगाथानां छन्दसूचिः .... ५७७-५७८ (७) क्षपकश्रेणिटीकान्तर्गता न्यायाः ५८२ (४) क्षपक श्रेणिटीकान्तः प्रमाणतयोद् (८) क्षपकश्रेणिटीकान्तर्गतानि गणितसूत्राणि ५८२ धृतानां ग्रन्थानां सूचिः ... ५७८-५८० (९) एकाशीतितमगाथाप्रभृतिप्रतिपादितपदार्थ(५) क्षकश्रेणिटीकान्तर्गतानां ग्रन्थ स्य संवादकं श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरीश्वरः कृन्नाम्नां सूचिः .... ५८०-५८१ । । विरचितशतकटिप्पनम् .... ५८३-५८४ सूत्राणि चागाचा भपूर्वकरणे प्रवर्तमानस्य स्थितिवातस्य चित्रम् २७ । अपूर्वकरणद्वितीयसमयेऽनुदयवतीनां प्रकृतीनां अपूर्वकरणे प्रवर्तमानस्य स्थितिबन्धस्य चित्रम् २९ गुणश्रेणेश्चित्रम् .... .... ३० अपूर्वकरणप्रथमसमय उदयवतीनां प्रकृतीनां अन्तरकरणं कुर्वतः प्रथमस्थितेश्चित्रम् , गुणश्रेणेश्चित्रम् .... .... ३० तथाऽन्तरकरणं कुर्वतोत्कीर्यमाणदलं यासु स्थितिषु प्रक्षिप्यते, तासां चित्रम् .... ६९ अपूर्वकरणद्वितीयसमय उदयवतीनां प्रकृतीनां अन्तरकरणे कृत उदयवतीनां प्रकृतीनां प्रथमगुणश्रेणेश्चित्रम् .... .... ३० । स्थितेर्द्वितीयस्थितेश्च चित्रम् .... ६१ अपूर्वकरणप्रथमसमयेऽनुदयवतीनां प्रकृतीनां अन्तरकरणे कृतेऽनुदयवतीनां प्रकृतीनां प्रथमगुणश्रेणेश्चित्रम .... ३० । स्थितेर्द्वितीयस्थितेश्च चित्रम् .... ६९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रम् २२ ] · चित्रसूचिः पृष्ठाकः भश्वकर्णकरणाद्धायाचित्रम् ९४ निरन्तरासामान्यस्थितीनां यवमध्यस्य चित्रम् २९८ भादोलकरणाद्धायाश्चित्रम् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाद्विचरमसमयं मसत्कल्पनया पूर्वस्पर्धकरचनामाश्रित्य चित्रम् १११ यावत् क्रोधसंग्रहकिट्टीनां दलिकापेक्षयाऽवस्थाअश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु । नस्य चित्रम् ... ... ३२९ दीयमानं दृश्यमानं च दलमाश्रित्य चित्रम् ... १३७ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये क्रोधकिट्टिकरणाद्धामाश्रित्य चित्रम् १४६ प्रथमसंग्रहकिट्याः सङक्रमणे जाते क्रोधस्य किट्रिकरणाद्धाप्रथमसमयकिट्रिप्ररूपणामाश्रित्य द्वयोः संग्रहकिट्टयोर्दलिकापेक्षयाऽवस्थानस्य चित्रम् चित्रम् ... . ... ३२६ किट्टिकरणाद्धाद्वितीयसमयदीयमानदलस्योष्ट्रकूट सूक्ष्म किट्टिषु संक्रम्यमाणदलस्य निरूपणमाश्रित्य प्ररूपणामाश्रित्य चित्रम् ... ... . २०७ किट्टिकरणाद्धाद्वितीयसमये दीयमानदलप्ररूपणा सूक्ष्मकिट्टीनां प्रमाणं दर्शयच्चित्रम् .... ३६६ माश्रित्य चित्रम् .... .... २१७ सूक्ष्मकिट्रिकरणाद्धाप्रथमसमये बादरकिट्टिकिट्टिकरणाद्धाचरमसमयमाश्रित्य चित्रम् २३६ परस्थानगोपुच्छाकाररचनाप्रदर्शनार्थ चित्रम् ३७१ किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयमाश्रित्य चित्रम् २४४ सूक्ष्म किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टिषु । गोमूत्रिकासदृशक्रमेण बन्धोदयावान्तरकिट्टीना बादरकिट्टिषु च दलनिक्षेपमाश्रित्य चित्रम् ३८० मुत्कृष्टरसमाश्रित्य चित्रम् ... २४७ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाद्वितीयसमये दलनिक्षेपगोमूत्रिकासदृशक्रमेण बन्धोदयावान्तरकिट्टीनां विधिमाश्रित्य चित्रम् .... ३८५ जघन्यरसमाश्रित्य चित्रम् .... २४८ द्वादशसंग्रहकिट्टीनां संक्रम्यमाणप्रदेशानाश्रित्य सूक्ष्मसम्परायाखाप्रथमसमये दीयमा दल. चित्रम् प्ररूपणां दृश्यमानदलप्ररूपणां सूक्ष्मसम्पराया २५४ लोभसंग्रहकिट्टित्रयपरस्थानगोपुच्छाकाररचना द्धादीनाञ्चाऽल्पबहुत्वं समाश्रित्य चित्रम् ... ३९४ प्रदर्शनार्थ चित्रम् .... ... २५६ सूक्ष्मसम्परायाद्धायां द्वितीयादिस्थितिघातावसरे किट्टिवेदनाद्धायां सङ्क्रमदलतो बन्धदलतश्च- दृश्यमानदल रूपणामाश्रित्य चित्रम् ....३९० पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपः .... २६९ सूक्ष्मसम्परायाद्धासंख्येयतमभागे शेषे मोइकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये गणितप्रक्रियया पूर्वा नीयचरमस्थितिघाताद्धाद्विचरमसमयं यावद् पूर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपमाश्रित्य चित्रम् २८४ दीयमानदलप्ररूपणामाश्रित्य चित्रम् ... ४०१ समयप्रबद्धशेषकप्ररूपणाश्रित्य चित्रम् २६४ भिन्नभिन्नकषायोदयेन मिन्नभिन्नवेदोदयेन च समयप्रबद्धानां यवमध्यस्य चित्रम् ... क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नानां कर्मक्षपणायाश्चित्रम् ४१८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिविभूपिता खवगसैटी (क्षपकश्रेणिः) [ यन्त्र-चित्र-परिशिष्ट-मूलगाथागौर्जरभावानुवादसंशोभिता] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ ही आई" नमः ॥ A ॥ श्रीशङ्खेश्वरपार्श्वनाथो विजयतेतमाम् ॥ सकलागमरहस्यवेदि-श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरेभ्यो नमो नमः । सिद्धान्तमहोदधि-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः । *G श्रीमत्तपोगच्छगगनाङ्गणदिनमणि-सुविहितगच्छाधिपति-सिद्धान्तमहोदधि-सच्चारित्रचूडामणि- कर्मशास्त्रनिष्णात - प्रातःस्मरणीयाचार्यशिरोमणि - श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरान्तेवासि - स्याद्वादनयप्रमाणविशारद - पन्न्यासप्रवरश्रीमद्-भानु विजयगणिवर्य शिष्यप्रशिष्य-श्रीमद्गच्छनायकप्राध्यापित-वाचंयममतल्लिका-जयघोषविजय-धर्मानन्दविजय हेमचन्द्रविजय-गुणरत्नविजयसंगृहीतकर्मक्षपणापदार्थका मुनिपुङ्गव जितेन्द्र विजयचरणारविन्दचञ्चरीकायमाणाऽन्तिषदा मुनि - गुणरत्नविजयेन विरचिता स्वोपज्ञवृत्तिविभूषिता खवगसेठी [ क्षपक-श्रेणिः ] श्रीवरं तं वन्दे निजजननमहे यः सुरेशाभिषिक्तः दत्तं दानं च वर्षं सकलहितकरं भव्यवर्गाय येन । प्रात्राजीद्यः स्वकीयं विततभवविपत्कर्मशत्रु निहन्तु, येन ध्यानानिशक्त्या खलु झटिति कृतो घातिकाष्ठप्रणाशः ॥ १ ॥ (खग्धरा) * हरिणाङ्किततनुरर्जुनरुचिरमृतकरः कलाश्रयो वीरः । जनतापापहर: श्रीभाक् सकले विष्टपे जयति ॥ २ ॥ ( पयार्या) * (१) हरिणा = सिंहेन " सिंहः कण्ठीरवो हरिः" इति हैमवचनात् अङ्किता = लान्छिता तनुः = शरीरापरपर्याया यस्य, स तथा,श्रीमतो हि भगवतो वर्धमानस्वामिनो लाञ्छनं हरिः, तच्च भगवतः सव्येतरजङ्घा - रूपे शरीरे भवतीत्यागमः । अर्जुनवत् = चामीकरवत् "तपनीय - चामीकर- चन्द्रभर्माऽजुन निष्क- कार्तस्वरकर्बुरारिण” (श्लोकाङ्कः १०४४) इत्यभिधानचिन्तामणिकोशे सुवर्णवाचकत्वादर्जुन शब्दस्य, रुचिः=छवियँस्य, स तथा,अमृतं करोतीत्यमृतकरः, शिवकर इत्यर्थः, अमृतशब्दो हि शिवत्राचकः, यदुक्तमभिधानचिन्तामणिकोशे"महानन्दोऽमृतं सिद्धिः कैवल्यमपुनर्भवः । शिवं (लो० ७४) इति । कलानां सर्वकलानाम् आश्रयः= आस्पदं कलाश्रयः, सर्वकलानिपुणत्वाद् भगवतः । हरतीति हर; "अच्” (सिद्धहेम० ५-१-४९) इत्यनेन सूत्रेण कर्तर्यच्प्रत्ययः । जनानां समूहो जनता, तस्याः पापानि = दुरितानि जनतापापानि तेषां हरो जनतापापहरः, सकलजनदुरितविनाशीत्यर्थः श्रियं = केवलज्ञानरूपामष्टमहाप्रातिहार्यलक्षणां वा भजतीति श्रीभाक वीरः=अपश्चिमजिनपतिः, सकले= निखिले विष्टपे - विश्वे जयति = इन्द्रिय-विषय-कषाय-परिषहोपसर्ग-घातिकर्मादिशत्रुगणपरिजयात् सर्वानप्यतिशेते । इति प्रथमो ऽर्थः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेही. [ मङ्गलाचरणम् ध्येयास्ते सर्वसिहा विमलशिवगतौ संस्थिताः कर्ममुक्ता *लोकन्ते लोकभावान् समभुवनविदो भोगिनः सिद्धिवध्वाः । जयद्ध्यानाऽगं श्रयन्ते शिवगतिफलकं स्वीयकर्माऽऽतपघ्नं संसारस्फारसत्रे जनिमरणजरातापसंतप्तभव्याः॥३॥ (स्रग्धरा) (२) यद्वा हरिणा-अश्वेन, यदुक्तमभिधानचिन्तामणिकोशे-गन्धर्वोऽर्वा सप्तिवीती वाहो वाजी हयो हरिः (श्लो० १२३३) इति, अङ्किततनुः, श्रीमान् संभवनाथस्तृतीयजिनेश्वर इत्यर्थः,तस्य लाग्छनमागमेऽश्वो निरूप्यते । वीरशब्दश्चात्र यौगिको व्याख्येयः । तथाहि-वि=विशिष्टा सकलभुवनाद्भुता स्वर्गापवर्गादिका ई:= लक्ष्मीः, सा वीः, तां राति भव्येभ्यो यच्छति 'रांक दाने' इति वचनाद् इति वीरः, “प्रातो डोऽह्वावामः" (सिद्धहेम०५-१-७६) इत्यनेन डप्रत्ययः । ददाति च भगवान् सर्वभाषापरिणतया स्ववाण्या निःश्रेयसाभ्युदयसाधनोपायोपदेशेन भव्येभ्यो भुवनाद्भुतां श्रियम् । शेषं पूर्ववद् व्याख्येयम् । इति द्वितीयोऽर्थः। (३) यद्वा हरिशब्दः कपिवाचको ज्ञेयः, यदुक्तमभिधानचिन्तामरिणकोशे-"प्लवङ्गः प्वलगः शाखा. मृगो हरिबलीमुखः ॥" (श्लो० १२९२) इति । ततश्चायमर्थ:-हरिणा-कपिना अङ्किततनुः,अभिनन्दनस्वामीत्यर्थः, निरूप्यते चागमे चतुर्थस्य भगवतो लाञ्छनं कपिरिति। शेषं पूर्ववद् वर्णनीयम् । इति तृतीयोऽर्थः ।। . (४) यद्वा हरिणेति पदं तृतीयान्तं न व्याख्येयम्, किन्तु समासस्थो हरिणशब्दोऽयम् , स च मृगवाचकः । ततश्चायमर्थः-हरिणेन-मृगेण अङ्किता तनुर्यस्य, स हरिणाङ्किततनुः, षोडशः श्रीशान्तिनाथो भगवानित्यर्थः, तस्य भगवतो लाञ्छनं मृग इत्यागमे प्रतिपाद्यते, शेषं पूर्ववद् वर्णनीयम् । इति चतुर्थोऽर्थः । (५) यद्वाऽयं श्लोकः श्रीचन्द्रप्रभप्रभुमधिकृत्य व्याख्येयः । तथाहि-हरिशब्दोऽत्र चन्द्रवाचको ज्ञातव्यः । यदुक्तममरकोशे... यमानिलेन्द्रचन्द्रार्कविष्णुसिंहाशुवाजिषु ।। शुकाहिकपिभेकेषु हरिर्ना कपिले त्रिषु....॥ ( ३-३-१७५ ) इति, ततश्चायमर्थो भवति-हरिणा=चन्द्रेण अङ्किततनुः, श्रीचन्द्रप्रभोऽष्मस्तीर्थकर इत्यर्थः, तस्य भगवतो लाञ्छनं चन्द्र इति सिद्धान्त उपदिश्यते। अर्जुनशब्दश्चात्रः श्वेतवाचको ग्राह्यः । यदुक्तमभिधानचिन्तामरणो"... श्वेतः श्येतः सितः शुक्लो हरिणो विशदः शुचिः।१।” प्रवदातगौरशुभ्रवलक्षधवलार्जुनाः ....'(श्लो० १३९३ )इति । अर्जुना-श्वेता रुचिः-छविर्यस्य,सोऽर्जुनरुचिः,श्वेतकायो हि भगवांश्चन्द्रप्रभः । यदुक्तम् “शुक्लौ च चन्द्रप्रभपुष्पदन्तौ" । इति । शेषं तु पूर्ववद्योज्यम् । इति पञ्चमोऽर्थः। (६) अथवाऽयं श्लोकः श्रीपाश्वनाथमधिकृत्य वर्णनीयः । तद्यथा- हरिशब्दोऽत्र सर्पवाचको बोद्धव्यः । यदुक्त विश्वकोशे-“हरितार्कचन्द्रन्द्रयमोपेन्द्र मरीचिषु । सिहाश्वकपिभेकाहिशुकलोकान्तरेषु च।" इति, ततश्चायमर्थः-हरिणा सर्पण अङ्किततनुः, श्रीपार्श्वनाथ इत्यर्थः, तस्य हि भगवतो लाञ्छनं सर्प इति सिद्धान्ते प्रतिपाद्यते, अर्जुनशब्दश्चात्र मयूरार्थको व्याख्येयः। यदुक्तं मेदिनीकोशे-"अर्जुनः ककुभे पार्थे कार्तवीर्यमयूरयोः...॥” इति, अर्जुनवद्-मयूरवत्-मयूरनीलवर्णवद् रुचिः द्युतिर्यस्य सोऽर्जुनरुचिः, नीलविग्रहो हि भगवान् श्रीपार्श्वनाथः । उक्तं चाऽभिधानचिन्तामणिकोशे-“कृष्णौ पुनर्नेमिमुनी, विनोलो श्रीमल्लिपाश्वों कनकत्विषोऽन्ये ॥” इति । शेषं पूर्ववद् निरूपणीयम् । इति षष्ठोऽर्थः । (७) प्रस्तुतव्याख्यानषटकं प्रतिपाद्य सम्प्रत्यस्य श्लोकस्याऽप्रस्तुतव्याख्यानं दर्श्यते । तथाहि-अर्जुना श्वेता रुचिः-छविर्यस्य सोऽर्जुनरुचिः,चन्द्रस्य विशेषणमिदम् ,एवमग्रेऽपि । अमृतं कराः धुतयो यस्य चन्द्रस्य स तथा,कलानां षोडशभागानाम् आश्रयः निलयः कलाश्रयः । विशेषेण ईरयति-प्रेरयतीति वीरः,कामादिविषयाणां हि प्रेरकश्चन्द्रः । जनानां लोकानां तापः जनतापः,तमपहरतीति जनतापापहरः,शीतलत्वाच्चन्द्रस्य, हरिणेन-मृगेण अङ्किता लान्छिता तनुर्यस्य,स हरिणाकिततनुः,चन्द्र इत्यर्थः,सकले विष्टपे जयति,सर्वत्र तदालोकत्वात् । इति सप्तमोऽर्थः । *लोकन्तेपश्यन्ति । समभुवनषिदः-सकललोकविज्ञाः । ॐ अगः=वृक्षः । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मङ्गलाचरणम् ] खवगसेढी वन्दे तं गौतमाख्यं प्रथमगणधरं वीरविभ्वायशिष्यं प्राप्तो योऽष्टापदाद्रिं निजक-बलभराद् निर्वृतेनिर्णयाय । दीक्षव्याजाजनेभ्यो य इह खलु ददौ केवलज्ञानदीप्ति प्राप्ते श्रीवर्धमानेऽचलमरुजशिवं केवलं येन लब्धम् ॥४॥ (स्रग्धरा) मिथ्यामोहतमोयुतेऽतुलबलप्रद्युम्नभिल्लाकुले, *नानाकर्मलताऽऽस्पदे खलु युते के दुर्भेदकर्माद्रिभिः । दुर्वाद्योघवचाकुशादिगहने शोकानलस्याश्रये, स्तूयन्ते हितकारिणो भववने दानान्विताः सूरयः ॥५॥ (शार्दूलविक्रीडितम् ) वैराग्यामतपानपुष्ट हृदयो यो यश्च गच्छाधिपः, स्वाध्याये चरणे तथा सुकरणे नित्यं च यत्प्रेरणा । दाक्षिण्यैकनिधिस्तथा मधुरगीवागमज्ञश्च यः , सत्सिद्धान्तमहोदधिर्विजयते स प्रेमसूरीश्वरः ॥ ६॥ (शार्दूलविक्रीडितम् ) यः स्याद्वादनयप्रमाणविदुरो वैराग्यवारान्निधिमोहग्रीष्मसुतप्तभव्यभुवने यद्गीः पयोदायते । यो नित्यं तपते तपः कृशतनुः संसारसंतापहं स श्रीमान् खलु पातु भानुविजयः पन्न्यासपादो गुरुः ॥७॥ (शार्दूलविक्रीडि गम् ) भवाब्धेनिस्तारे प्रवहणसमः क्षान्तिसदनस्तपोवह्निवातैर्दुरितदलिकं * ज्वालयति यः । तथा यः संपूज्यश्चरणकुशलः सोदरचरो । जितेन्द्रः स्तात् सिद्ध्यै स विजयपदान्तो मम गुरुः ॥८॥ (शिखरिणी) पापानि विलयं यान्ति , यन्नामस्मृतिमात्रतः । । ते सर्वे मुनयः सन्तु, श्रेयसे भृयसे मम ।। ९ ।। (अनुष्टुप् ) & रचिता क्षपकणिः स्वपरेषां हिताय या। तत्स्वाध्यायसुयोगेन भृयान्नः कर्मसंक्षयः ॥१०॥ (अनुषुप् ) श्रुतदेवों हृदि स्मृत्वा पूज्यानां च प्रसादतः । स्वोपज्ञां क्षपकणिं विवृणोमि यथागमम् ।।११।। (अनुषुप् । इह खलु बहुभवोपार्जितशुभाशुभकर्मकलापजनितसंयोगवियोगसंकल्पविकल्पादिमच्छकच्छपादिजलजन्तुसंव्याप्त दुःसहकामवाडवाग्निप्रजाज्वन्यमाने क्रोधादिकषायावर्तपरिपूरिते विषयागेरि *कर्माणि व्यापाराः प्रवृत्तय इति पर्यायाः। कर्माणि ज्ञानावरणादिलक्षणानि । * दलिकं काष्ठम् । * प्राकृतभाषायां निबद्धा। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] खासेढी [गाथा-१ कूटसंभृतेऽनायनन्तसंसारपारावारे निमजता भव्यजन्गुनाऽनेकभवदुष्प्रापां प्रशस्तमानुषजन्मादिसामग्री कथमपि संप्राप्य भवाब्धिसमुत्तरणैकप्रवहणममे सकललोकालोकविलोकनैककुशलविमलकेवलालोकललितलक्ष्मीविलासितीर्थकरप्ररूपिते धर्मे यत्नः कर्तव्यः । यदुक्तम् ___ "भवकोटोदुष्पापामवाप्य नृभवादिसकलसामग्रीम् । भवजलधियानपात्रे धर्मे यत्नः सदा कार्यः ॥१॥” इति । तत्राऽपि विशेषतः परोपकारकरणे प्रवर्तितव्यम् , तस्याऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यामपि पुण्यबन्धकर्मनिर्जरादिनिबन्धनत्वात् । स चोपकारो द्विविधो द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्योपकारो भोजनशयनादिप्रदानादिस्वरूपः, स चाऽल्पीयान् अनात्यन्तिक ऐहिकदुःखोच्छेदेऽप्यसमर्थः, भावोपकारस्तु गरीयान् आत्यन्तिक ऐहिकामुष्मिकसर्वदुःखोच्छेदक्षमो जैनेन्द्रप्रवचनोपदेशादिलक्षणः । यन्न्यगादि "नोपकारो जगत्यस्मिंस्तादृशो विद्यते कचित् । यादृशी दुःखोच्छेदाद् देहिनां धर्मदेशना ॥१॥" इति । स चोपदेशो यद्यप्युपदेष्टव्यभेदादनेकविधः,तथापि क्षपकश्रेणिविषयः कर्मक्षपणाविधिः प्रथमत उपदेष्टव्यः,तदुपदेशेन यवबुद्धकर्मक्षपणाप्रक्रियाः प्राणिनः कर्मोच्छेदोपायानुपादाय कर्मोच्छेदं विधाय परमानन्दपदमासादयिष्यन्तीत्यवगत्य बहुविस्तराऽतिगम्भीर-कर्मप्रकृति-शतक-सप्ततिकाकषायप्राभृतादितच्चूर्णिवृत्यादिप्रतिपादितक्षपणाप्रक्रियास्वरूपसुबोधार्थं च तत्तद्ग्रन्थोक्तकर्मक्षपणापदार्थान् सगृह्य क्षपकश्रेणिनामक ग्रन्थं प्रारिप्सुरादौ तावत् समस्तप्रत्यूहव्यूह विध्वंसाय शिष्टसमयपरिपालनाय च मङ्गलगा प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यर्थं चाऽभिधेयादिगां प्रथमगाथां प्राह पणमिअ सिरिपासजिणं सुरअसुरणरिंदवंदिअंणाहं । वुच्छामि खवगसेढिं सपरहिअटुं गुरुपसाया ॥१॥ प्रणम्य श्रीपार्श्वजिनं सुरासुरनरेन्द्रवन्दितं नाथम् । वक्ष्यामि क्षपकश्रेणिं स्वपरहितार्थ गुरुप्रसादात् ॥११॥ इति पदसंस्कारः। 'पणमिअ' इत्यादि, 'प्रणम्य' अत्र प्रशब्दः प्रकर्षार्थकः, ततो मनसा प्रणिधाय वचनेन स्तुत्वा कायेन नत्वा चेत्यर्थः, इत्थं प्रकर्षार्थकप्रशब्देन केवलद्रव्यनमस्कारोऽपाक्रियते, अन्यथा वीरकादिनमनवद् द्रव्यनमस्कारस्याकिञ्चित्करत्वेन फलाभावः स्यात् । तथाप्रकर्षार्थकप्रशब्द उपहासनमस्कारमपि निराकरोति,अन्यथा"नमस्यं तत्सखि प्रेम घण्टारसितसोदरम् । क्रमक्रशिमनिस्सारमारम्भगुरुडम्बरम् ॥” इत्यादिवदुपहासनमस्कारभ्रमोऽपि स्यादिति । कं प्रणम्य ? इत्याह 'सिरिपासजिणं' ति 'श्रीपार्श्वजिनम् ' तत्र स्पृशति ज्ञानेन सर्वभावानिति पार्श्वः, यद्वा भगवति गर्भस्थे जनन्या निशि शयनीयस्थयाऽन्धकारे सपों दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति निरुक्ता Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरणम् ] aartar [" त्पार्शः, अथवा पार्श्वः = पार्श्वनामा यक्षो भगवतो वैयावृत्यकरः, तस्य नाथः पार्श्वनाथः, ततः “ते लुग् वा” (सिद्धहेम० ३-२-१०८) इत्यनेन सूत्रेण नाथशब्दस्य लोप:, तेन पार्श्वः, जयति रागद्वेषमोहानिति जिनः पार्श्वश्वासौ जिनश्च पार्श्वजिनः, उपान्त्यजिन पतिरित्यर्थः, श्रीः केवलज्ञानलक्ष्मीलक्षणाऽष्टमहाप्रातिहार्यस्वरूपावा, तया युक्तः पार्श्वजिनः श्रीपार्श्वजिनः, तम् । किंविशिष्टं श्रीपाद नाथम् ? इत्याह- 'णाहं' ति' नाथम्" नाथुङ् उपनापैश्वर्याशीः षु च” नाथति = इष्टे = ईश्वरो भवतीति नाथः, नाथवातो: "अच्" (सिद्ध हेम ० ५-१-४९) इत्यनेन सूत्रेण कर्तरि अच्प्रत्ययः, घनघातिकर्मपदलक्षयेण परप्रवादिचेतश्चमत्कार्यष्टमहाप्रातिहा यैश्वर्यैयुक्तत्वात्तस्यैव - मार्थतो नाथत्वं घटते, न त्वैहिकभूपत्यादीनाम् । यद्वा धातूनामनेकार्थत्वात् नाथति = योगक्षेमौ करोतीति नाथः, पूर्ववद् अच्प्रत्ययः । तत्राप्राप्तानां सम्यक्त्वादीनां प्राप्तिर्योगः, प्राप्तानां सम्यक्त्वादीनां संरक्षणं क्षेमः । तीर्थकृतामचिन्त्यमाहात्म्यादेव भव्याः प्रागप्राप्तसम्यक्त्वादीनश्नुवत इति योगकरत्वं तीर्थकृताम् । प्राप्त नम्यवादयो भव्यास्तीर्थ कृन्माहात्म्यात् तत्तद्रागाद्युपद्रवाद्यभावेन सम्यक्त्वादिषु स्थिरीभवन्तीति क्षेमकृवं तीर्थकृताम् । अतो युक्तियुक्तमेतद्-भव्यानां योगक्षेमकरो भगवानिति, तम् । पुनः किंविशिष्टम् ? इत्याह- 'सुरअ सुरणरिंदवंदिअं' ति 'सुरासुरनरेन्द्रवन्दितम् ' "सुरत् ऐश्वर्य दीप्त्योः" सुरन्ति = विशिष्टैश्वर्यमनुभवन्ति, यद्वा दिव्याभरणकान्त्या सहजशरीरकान्त्या च दीप्यन्त इति सुरा: "नाम्युपान्तप० " ( सिद्धहेम ०-५-१-५४ ) इत्यनेन सूत्रेण कर्तरि कप्रत्ययः, यदि वा “रज्जू दोसौं ”सुष्ठु राजन्त इति सुराः, "क्वचित् ” (सिद्धम० ५-१-१७१) इत्यनेन सूत्रेण डप्रत्ययः, अथवा सुन्वन्तीति सुराः, यद्वा सुरा एषामस्तीति सुर: “अनादिभ्यः” (सिद्धहेम०७-२-४६) इत्यनेन अप्रत्ययः, यतोऽब्धिजा सुरा तैः पीतेति प्रसिद्धम्, देवा इत्यर्थः । "असूच् क्षेपणे" अस्यन्ति क्षिपन्ति देवानित्यसुराः “वाश्यसि ०" (सिद्धहेम० उणादि ४२३ ) इत्यनेन सूत्रेण उरप्रत्ययः, सुरविरुद्धत्वाद्वा न सुरा असुराः, अनर्थवद् नत्र समासः, दानवा इत्यर्थः । नृशू नये” नृणन्तीति नरा: "अच्" (सिद्ध हेम ० ५-१-४९) इत्यनेन सूत्रेण कर्तरि अच्प्रत्ययः, मनुष्या इत्यर्थः, सुराश्चाऽसुराश्च नराश्च सुरासुरनराः, "इदु पर मैश्वर्ये" इन्दन्तीति इन्द्रा: "भोवृधि० " (सिद्ध हेम० उण दि- ३८७ ) इत्यनेन सूत्रेण रप्रत्ययः, स्वामिन इत्यर्थः सुरासुरनराणामिन्द्राः सुरासुरनरेन्द्राः, तैः सुरासुरनरेन्द्रः, इन्द्रशब्दोऽत्र प्रत्येकमभिसम्बध्यते, "द्वन्द्वान्ते श्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसंबध्यते” इति न्यायोपलम्भात् । ततश्चायमर्थः- सुरेन्द्रैश्वासुरेन्द्रैश्च नरेन्द्रैश्च वन्दितं= स्तुतिगोचरीकृतम् अभिवादनविषयीकृतं वा, एतेन सकललोकालोकप्रकाशककेवलादर्श सङ्क्रान्तसमस्तभावाना मुन्मूलितापारसंसारकाननपरिभ्रमणैककारण मोहनी यकर्मणां सकल मच्चहितकरपञ्चत्रिंशद्गुणसमन्वितवाचां निजकमलकोमलक्रमकान्त्योद्योतितभक्तिभरभृतहृत्सुरासुरनरनायकन मन्मौलिमुकुटमणिप्रभाणां तीर्थकृतां त्रिभुवनपूज्यत्वमावेदितं तथा विघ्नविघाताय शिष्टसमय परिपालनाय च मङ्गलोपन्यासः कृतः । Jain Education international Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खगढी [ गाथा - १ ननु प्रस्तुतग्रन्थः श्रुतरूपत्वात् श्रुतस्य च ज्ञानपञ्चकान्तःपातित्वेन तस्य भावनन्दित्वात् स्वयमेव मङ्गलम् । यदुक्तम् - "तंच सुयनाणं मंगलं, कम्हा ? भन्नइ गंदी भावमंगलं ति काउं ।” इति । अपि च क्षपकश्रेणिग्रन्थो निर्जरार्थः तथा च सति तपोवत् सर्व एव ग्रन्थो मङ्गलम् । इह "पणमिअ" इत्यादिमङ्गलोपन्यासात् त्वस्य ग्रन्थस्यामङ्गलता प्रसज्यते, अमङ्गले मङ्गलोपादानस्य सार्थक्यात् । यदि पुनर्मङ्गलेऽप्यस्मिन् ग्रन्थेऽन्यन्मङ्गलं क्रियते, तर्ह्यनवस्था । तथाहियथा मङ्गलस्याऽप्यस्य ग्रन्थस्य सतोऽन्यद् मङ्गलमुपादीयते, तथा मङ्गलस्याऽपि तद्रूपस्य सतो - ऽन्यद् मङ्गलमुपादेयम्, तस्याऽप्यन्यद् अन्यस्याऽप्यपरम्, अपरस्याऽप्यन्यदित्येवमनवस्थाssपततीति चेत्, न, अस्य हि ग्रन्थस्य मङ्गलरूपत्वेऽपि " पणमिअ" इत्यादिना कृतस्य मङ्गलस्य न नैरर्थक्यं नवाऽनवस्था । तद्यथा - यतोऽयं क्षपकश्रेणिग्रन्थो मङ्गलम्, तत एवाऽस्यैकदेशोभीष्टदेवतास्तुतिख्यापको मङ्गलत्वेन ज्ञापितः । न मङ्गलपदार्थस्यावयवे कदापि मङ्गलत्वं सम्भवति, कटुनिम्बैकदेशे माधुर्याऽसम्भववत् । यच्चात्र ग्रन्थैकदेशस्य विभज्य मङ्गलत्वेन प्रादुष्करणम्, तद् अस्य ग्रन्थस्याऽपरिकर्मितमतीनां जनानां मङ्गलत्वप्रत्ययनाय, अनास्वादितमोदकानां तन्माधुर्यावबोधाय तत्कणिकासमर्पणवत् । } , किञ्च यद्येतावानप्यस्य ग्रन्थस्यावयवः सर्वेष्टार्थसम्पादनक्षमः, तर्हि समस्तो- ऽयं ग्रन्थोऽभ्यस्तोऽस्माकं महते समभ्युदयाय भविष्यतीति विशेषावगमाद् विशेषतः प्रवर्तेरन्निह प्राथमिकाः, तथा शास्त्रकृतामपि सर्वा प्रवृत्तिर्मङ्गलाय भिधानपूर्विका भवति । यदुक्तं तै: "प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं फलादित्रितयं बुधैः । मङ्गलं चैव शास्त्रादौ वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥” इति । प्रकृते गाथार्धेन तीर्थकृतः सर्वस्वपर संपत्संहतिसर्वस्वदेश्याश्चत्वारोऽतिशया अपि संसूचिता भवन्ति । तथाहि-- श्रीपार्श्वजिनमित्यत्र जयति रागद्वेष मोहानिति जिनः " जीणशीदीबुध्यविमीभ्यः कितु” (उणादि - २६१) सूत्रेण नप्रत्ययः, इति व्याख्यानेनाऽपायापगमातिशयः संज्ञापितः, अत्र च श्रीशब्दस्य केवलज्ञानलक्ष्मीरिति व्यक्तीकरणेन ज्ञानातिशयो बोधितः । सुरासुरनरेद्रवन्दितमित्यनेन पूजातिशयः प्रकटितः । नाथमित्यनेन वचनातिशयोऽभिव्यज्यते, तथाहि -नाथो योगक्षेमकरः, प्रागुक्तौ योगक्षेमो सर्वजगज्जन्तुजातचित्तचमत्कारिसुरनिकररचिताऽष्टमहाप्रातिहार्य कृतपूजस्य लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञानयुक्तस्याऽपगतघातिकर्मणस्तीर्थकृतो मुखारविन्दाद् विनिर्गतयैककालानेकजन्तुसंदेहसंदोहापनयनकारिण्या विश्वसच्चस्वस्वभावापरिणामिन्या भारत्या पि संभवतः, इत्थं नाथमित्यनेन भगवतो वचनातिशयः संदिष्टः । एते चत्वारोऽपि देहसौगन्ध्यादीनामतिशयानामुपलक्षणम्,तानन्तरेणैषामसंभवात् । तेन चतुरतिशयै चतुस्त्रिंशदप्यतिशया गाथायाः पूर्वार्धेन निष्टङ्कयन्ते । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधेयादि ) खवगसेढी इत्थं कृतमङ्गलोपन्यासः शास्त्रकृत् क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासापेक्षत्वात् तां व्याहरति-'वुच्छामि' त्ति 'वक्ष्यामि' भणिष्यामि । काम् ? इत्याह-खवगसेटिं' ति 'क्षपकश्रेणि' क्षपकस्य कर्माणि क्षपयतः श्रेणिःक्रमः क्षपकश्रेणिः, ताम् . क्षपणाक्रमश्चायम्-आदौ मोहनीयम् , ततो घातित्रयम् , ततोऽघातिचतुष्कं विनाशयति । प्रयोजनं अन् पुनः प्राह-'सपरहिअट्ठ' ति 'स्वपरहितार्थम् ',स्वस्य-आत्मनः परेषाम् अन्येषां च, हितं मोक्षः, स्वपरहितम् , तदेव अर्थ: प्रयोजनं यत्र तत्तथा, क्रियाविशेषणत्वात् "क्रियाविशेषणात्" (सिद्ध हेम० २-२-४१) इत्यनेन सूत्रेण द्वितीया विभक्तिः। साम्प्रतं स्वस्यौद्धत्यं परिहरन् प्राह-'गुरुपसाय ति गुरुप्रसादात्' तत्र गृणन्ति=उपदिशन्ति धर्ममिति गुरवः, अर्थापेक्षया तीर्थङ्कराः, सूत्रापेक्षया तु गणधराः, यत् प्रत्यपादि "अत्थं भासह अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।” इति ।। यद्वाऽस्मदादिगुरुपर्यन्ताः सर्वे गुरुपदवाच्याः, तेषामपि सूत्रार्थप्रदानतो धर्मोपदेशकत्वस्याऽक्षतत्वात् । विशेषतस्तु परमगीतार्थानामशेषशेमुपीशालिकुलविद्वस्यमानानां सकलागमरहस्यज्ञानां भीमकान्तादिगुणैर्गरिष्ठानां श्रीमद्विजयदानसूरीश्वराणां विनेयवृषभा गच्छाधिपतयो-ऽनेकबाल युववृद्धमुनिपुङ्गव पृङ्गः संसेव्यमानचरणारविन्दाः प्रातःस्मरणीयाः श्रीमविजयप्रेमसूरीश्वरा गुरुपदेन ग्राह्याः, प्रवज्याप्रदान-सम्यग्ज्ञानदानादिना तेषामासनोपकारित्वात् । तेषाम्, प्रसादात्= अनुग्रहात् , न तु निजबुद्धिप्रतिभादिवलात् । शक्तिविकला अपि जना गुरुप्रसादाद् दुष्कराणामपि कार्याणां पारं प्रयान्तीति श्रदधानोऽहमपि गुरुप्रसादात क्षपकश्रेणिग्रन्थग्रथने समर्थो भूत्वा तां वक्ष्यामीति भावः । 'खवगसेटिं' इत्यनेन प्रेक्षावत्प्रवृत्यर्थमभिधेयनिर्देशः कृतः, एतदुक्तौ हि शास्त्रश्रवणादिप्रवृत्तः । उक्तं च "श्रुत्वाऽभिधेयशास्त्रादौ पुरुषार्थोपकारकम् । श्रवणादौ प्रवर्तन्ते तज्जिज्ञासादिनोदिताः ॥१॥” इति । 'सपरहिअट्ट' इत्यनेन प्रयोजनं दर्शितम् ,तद्विना कृतिनां प्रवृत्यभावात् । न्यगादि च- . "प्रयोजनमनुद्दिश्य, न मन्दोऽपि प्रवर्तते । एवमेव प्रवृत्तिश्चेच्चैतन्येनास्य किं भवेत् ॥१॥” इति । तच्च प्रयोजनं शास्त्रक श्रोत्रोरनन्तरपरम्परभेदाच्चिन्त्यम् । तत्र शास्त्रकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्चानुग्रहः, बहुविस्तरशास्त्रपठनायसमर्थानां संक्षिप्तरुचिजन्तूनां संक्षिप्तशास्त्र प्रवृत्तेः। यदुक्तम् "सुयसायरो अपारो आऊ थोवं जिआ य दुम्मेहा। तं किं पि सिक्खियव्वं जं कज्जकरं च थोवं च ॥१॥" इति ! . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी [गाथा-१ कर्मनिर्जरा वा ग्रन्थग्रथनलक्षणस्वाध्यायादभ्यन्तरतपसो बहुतरनिर्जरासंभवात् । स्वदृढस्मृ.. तिर्वा, ग्रन्थविरचनादिना हि तत्कतुः स्मृतिढा दृढतरा दृढतमा च जायते । परम्परप्रयोजनं त्वपवर्गावाप्तिः, धर्मोपदेशदानस्य हि मोक्षफलत्वात् । तथा चोक्तम्"सर्वज्ञोक्तोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति दुःखतप्तानां समाप्नोत्यचिराच्छिवम् ॥१॥" इति । श्रोतुरनन्तरं प्रयोजनं तु क्षपकश्रेणिविषयकं ज्ञानम्, परम्परं तु निर्वाणावाप्तिः । तथाहि-विज्ञातसारभूतकर्मक्षपणाक्रमाः प्राणिनः प्रकृत्यसारात् संसाराद् विरज्यन्ते । ततः कर्मक्षयाय प्रयत्नं समाचरन्ति,क्षीणे च कर्मणि निःश्रेयसमासादयन्ति । यदुक्तम् "सम्यकशास्त्रपरिज्ञानाद् विरक्ता भवतो जनाः ।। क्रियासक्ता ह्यविघ्नेन गच्छन्ति परमां गतिम् ॥१॥" इति । मङ्गला-ऽभिधेय-प्रयोजनानि प्रोक्तानि, सम्प्रति प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं सम्बन्धोऽपि वक्तव्यः । यदुक्तम् "उक्तार्थ ज्ञातसम्बन्धं श्रोतु श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥१॥" इति । स च द्विविधः, गुरुपर्वक्रमलक्षण उपायोपेयस्वरूपश्चेति । तत्रायः श्रद्धाऽनुसारिणः प्रति, स च "गुरुपसाया” इत्यनेन दर्शितः । तथाहि-धनघातिकर्मचतुष्के विलयमापादिते लब्धलोकालोकप्रकाशककेवलज्ञानेनाऽष्टमहापातिहार्यपरमार्हन्त्यसम्पत्समद्धेन भगवता श्रीमहावीरेण संसारमहीरुहोन्मूलनैकहेतुपञ्चत्रिंशद्गुणसमन्वितसर्वजगजन्तुजातस्वस्वभाषापरिणामिभारत्या सुरासुरनरेश्वरनिकरपरिकरितपर्षद्यर्थतः कर्मक्षपणाक्रमः प्रतिपादितः स च गणभृता सुधर्मस्वामिना सूत्रतो रचितः। तदनु जम्बूस्वामि-प्रभव-शय्यम्भव-यशोभद्र-सम्भूतिविजय-भद्रबाहु-स्थूलभद्रकर्मप्रकृतिकार-सप्ततिकाकार-कषायप्राभृतकार-तच्चूर्णिकार-त्तिकारादिभिः स्वकीयस्वकीयशास्त्रेषूपनिबद्धः । ततस्तत्तच्छास्त्राध्ययनाऽध्यापनादिना समानीतो यावदस्मद्गुरुचरणाः। ततो विनययावृत्त्यादिना प्रसन्नस्तैमा प्राध्यापितः । इत्थं परम्परया सर्वज्ञमूलकर्मक्षपणाक्रमो यस्मात् गुरुप्रसादाद् मया प्राप्तः, तमेवाश्रित्य परम्परया समागतं क्षपणाक्रम क्षपकश्रेणिग्रन्थरूपेण भवन्तं वक्ष्यामीति, तदेवं “गुरुपसायः" इत्यनेन गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धः सूचितः। उक्तसम्बन्धविरहे तु छमस्थावस्थाऽगोचरविविधाऽतीन्द्रियपदार्थसार्थप्रतिपादके शास्त्रे सुधियो न प्रवतेरन्, अभिदध्युश्च ते यथा-नाऽऽरम्भणीयमेतच्छास्त्रम्, सम्बन्धवन्ध्यत्वात् स्वेच्छारचितशास्त्रवदिति । द्वितीयस्तु तर्कानुसारिणः प्रति । स चैवम्-वचनरूपाऽऽपन्नः क्षपकश्रेणिग्रन्थ उपायः, तत्परिज्ञानं चोपेयम् । सामर्थ्यादेष सम्बन्धो ज्ञायते, साक्षात् तु नासो कथितः ॥१॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाधिकारप्रतिपादनम् ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः [s अभिहितं मङ्गलाभिधेयादि । सम्प्रति क्षपकश्रेणिं प्रतिपादवितुकाम आदौ तावत् तस्या tar-sधिकारान् गाथायेन प्राह तत्थ य णव अहिगारा अहापत्र तकरणं तह हवे | करणमपुत्रं हवए सवेअअणियट्टिकरणं च ॥२॥ हयकण्ण-किट्टिकरण-तयणुहव अवगय कसायअद्धा य । तह अस्थि सजोगिगुणट्टणमजोगिगुणठाणं च ॥३॥ तत्र च नवाधिकारा यथाप्रवृत्तकरणं तथा भवति । करणमपूर्वं भवति सवेदा ऽनिवृत्तिकरणं च ॥ २ ॥ कर्ण - किट्टिकरण- तदनुभवाऽपगत रुपायाद्वा च । तथाऽस्ति सयोगिगुणस्थानम योगिगुणस्थानञ्च ||३|| इति पदसंस्कारः । 1 'तत्थ' इत्यादि, 'तत्र च' ग्रन्थरूपायां क्षपकश्रेणी 'नव' नवसङ्ख्याका अधिकाराः सन्तीत्युपस्कारः । अथाऽधिकारान् नामग्राहं भणति - 'अहापचत्तकरणं' इत्यादि, प्रथमोऽविकारो यथाप्रवृत्तकरणम्, कथयिष्यते च "अणच उगं" इत्यादिगाथाभिः । तथाशब्दः समुच्चये, एवमग्रेऽपि, 'करणमपूर्वम्' द्वितीयोऽधिकारोऽपूर्वकरणं भवति । भाषिष्यते च "काय वं सेकाले” इत्यादिगाथाभिः । 'हवए सवेअअणियटिकरणं च'त्ति चकारः समुच्चये, एवमग्रेऽपि, तृतीयोऽधिकारः सवेदानिवृत्तिकरणं भवति, तत्र वेदेन - वेदोदयेन सह सवेदम्, "सहस्तेन" (सिद्धहेम० ३-१-२४ ) इत्यनेन सूत्रेण बहुव्रीहिसमासः, सवेदं च तद निवृत्तिकरणं च सवेदाऽनिवृत्तिकरणम् । एतदुक्तं भवति - अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयात् प्रभृति पुरुषवेदोदयचरमसमयं यावद् या क्षपणप्रक्रिया भवति, साऽस्मिन्नधिकारे निरूपयिष्यते । प्रतिपादयिष्यते चाऽयमधिकारः "सेकाले अनियहिं" इत्यादिगाथाभिः । 6 'हयकण्ण०' इत्यादि, 'हयकर्ण - किट्टिकरण- तदनुभवा ऽपगतकषायाद्धा च' करणशब्दो द्वाभ्यां सम्बध्यते, अद्धाशब्दश्च प्रत्येकमभिसम्बध्यते, “न्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते । "इति न्यायात् । ततथायमर्थः -हयकर्ण करणाद्धा, किट्टिकरणाद्धा, तदनुभवाद्धा = किट्टिवेदनाद्वा, तच्छब्दस्य पूर्ववस्तुपरामर्शित्वेन कि: पर मर्शाई, अरगत रुपायाद्धा क्षीणकषायकालो द्वादशगुणस्थानककाल इत्यर्थः, तत्र सर्वथा कषायापगमनदर्शनात् । न चाऽपगतकपायशब्देन सयोगिकेवलिगुणस्थानका-ऽयोगिकेवलिगुणस्थानकेऽपि कुतो न गृह्येते ? इति वाच्यम्, तयोरग्रे वक्ष्यमाणत्वेन तत्र पुनरुक्तताप्रसङ्गात् । भावार्थः पुनरयम् - चतुर्थोऽधिकारो हयकर्णकरणाद्धा, विवर्णयिष्यते च "हकण्णा०" इत्यादिगाथाभिः, इहाऽपूर्वकरणवदनिवृत्तिकरणमेकाऽधिकारमनभिधायाऽनिवृत्तिकरणे यत् पृथक्पृथक्सवेदाऽनिवृतिकरण- हय कर्णकरणाद्धादिकाऽभिधानम् तत्प्रयोजनमग्रे वक्ष्यते । पञ्चमोऽधिकारः किट्टिकरणाद्वा, दर्शयिष्यते च "पुणे हथकण्णे" इत्यादिगाथाभिः । षष्ठोऽधिकारः किट्टिवेदनाद्वा, निरूपयिष्यते " तत्तो य कोहपढमं " 1 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] खबगसेष्टी - गाथा-४ इत्यादिगाथाभिः । सप्तमो-ऽधिवारः क्षीणकपायाद्धा, प्रतिपादयिष्यते च “से कालेऽवगयकसायगुणं" इत्यादिगाथाभिः । "तह' इत्यादि,तथा 'सयोगिगुणस्थानं' "भीमो भोमसेनः" इति न्यायात् पदेकदेशेन पदसमुदायस्य गम्यमानत्वात् सयोगिकेवलिगुणस्थानकमष्टमोऽधिकारोऽस्ति,कथयिष्यते च 'सेकाले पावेई" इत्यादिगाथाभिः । 'अयोगिगुणस्थानच' अयोगिकेवलिगुणस्थानकं च नवमो-ऽधिकारोऽस्ति, वर्णयिष्यते च 'सेकाले लहई" इत्यादिगाथाभिः ।।२, ३॥ अथ "यथोदेशं निर्देशः" इति न्यायेन प्रथमाऽधिकारं विवर्णयितुकामः प्राहअणचउगं दिद्वितिगं च खविय उज्जमइ सेसखवणाए । आढवइ अप्पमत्तो अहापवत्तकरणं समणो ॥४॥ अनचतुष्कं दृष्टित्रिकच क्षपयित्वोद्यच्छते शेषक्षपणाये। आरभतेऽप्रमत्तो यथाप्रवृत्तकरणं श्रमणः ।।४।। इति पदसंस्कारः । 'अणचउर्ग' इत्यादि-'अनचतुष्कम्' पदकदेशेन पदसमुदायस्य गम्यमानत्वाद् अनन्तानुबन्धिचतुष्कम् अनन्तानुवन्धिक्रोध-मान-माया लोभलक्षणम् , 'दृष्टित्रिकञ्च' मिथ्यात्वमोहनीयसम्यमिथ्यात्वमोहनीय-सम्यक्त्वमोहनीयलक्षणं दर्शनत्रिकं च 'क्षपयित्वा' निःसत्ताकीकृत्य 'शेषक्षपणायै शेषाणाम् अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलनकषाय-नवनोकशायरूपमोहनीयस्य ज्ञानावरणादीनां च क्षपणायै विनाशाय 'उद्यच्छते' चेष्टते जीवः । अयम्भावः-चतुर्गतिकोऽविरतसम्यग्दृष्टिर्देशविरतस्तिर्यङ् मनुष्यो वा सर्वविरतस्तु मनुष्य आन्तौहूर्तिकानि यथाप्रवृत्तकरणाऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणाख्यानि त्रीणि करणानि कुरुते, तत्रा ऽपूर्वकरणप्रथमसमयतः प्रभृति स्थितिघातं रसघातमपूर्वस्थितिबन्धं गुणश्रेणि गुणसंक्रमं च करोति,तथाऽनन्तानुवन्धिक्रोध-मान-माया-लोभानां प्रदेशाग्रं गुणसङ्क्रमेणोद्वलनासंक्रमानुविद्धन विनाशयति शेषकषायत्वेन स्थापयतीत्यर्थः । अपूर्वकरणं विधायाऽनिवृत्तिकरणं कुरुते । तत्र चाऽनन्तानुबन्धिनां स्थिति यथाक्रममपवर्तनाकरणेन घातयन् पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणां विधत्ते । अपवर्तनाविधिश्च कर्मप्रकृत्युक्तोद्वलनासक्रमवद् बोध्यः। अनन्तानुवन्धिनां पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणस्थितिगतमपि दलमधस्तादावलिकामानं परित्यज्य बध्यमानमोहनीयप्रकृतिषु प्रतिसमयमसंख्येय गुणक्रमेण परिणमयंश्चरमसमये सर्वसङ्क्रमेण परिणमयति । यच्चावलिकागतं दलिकम् ,तत् स्तिबुकर न मेण वेद्यमान सु परप्रकृतिषु संक्रमयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तात् परतोऽनिवृत्तिकरणपर्यवसाने शेतकर्मणामपि स्थितिघातादीन् न करोति, किन्तु स्वभावस्थ एव भवति । आवश्यकचूर्णिकाराद्यभिप्रायेण त्वनन्तानुबन्धिनामनन्ततमभागप्रमाणं दलं मिथ्यात्वे प्रक्षिपति,ततो यदा दर्शनत्रिकक्षपणामारभते, तदा मिथ्यात्वं तदंशेन सहैव क्षपयति । तथा चोक्त Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनत्रिकस्य क्षपणा ] यथाप्रवृत्तफरणाधिकारः [ ११ मावश्यकचूर्णी-"अणंताणुवंधिकोह-माण-माया-लोभा जुगवं खवंति,पच्छा ताणं अणंतभागं मिच्छत्तवेयणिज्जे कम्मे छभति,नाहे तं खवेति ।” इति । इह कालान्तरे कश्चिद् मिथ्यात्वोदयाद् भूयो-ऽप्यनन्तानुबन्धिन उपचिनोति, तद्बीजस्य मिथ्यात्वस्याविनाशात् । अन्यस्तु विनाशितानन्तानबन्धी जीवो जघन्यतोऽन्तमुहर्तमानं कालमुत्कृष्टतच सागरोपमाणां सातिरेके द्वे पट्पष्टी व्यतिक्रम्य दर्शनत्रिकक्षपणाय प्रयतते । तत्र जिनविहरणकालसंभवी वर्षाष्टकस्योपरि वर्तमानः प्रथमसंहननो मनुष्यो दर्शनत्रिकक्षपणार्थ यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि करोति । तत्रादो तावद् यथाप्रवृत्त कागं करोति, ततोऽपूर्वकरणम् । अपूर्वकरणेऽनुदितयोमिथ्यात्व-सम्यमिथ्या क्योलिक गुणसंक्रमेण सम्यक्त्वमोहनीये प्रक्षिपति, उद्वलनासंक्रममपि तयोरारभते । तद्यथा-प्रथमस्थितिखण्डं बहत्तरमुद्वलयति, ततो हिलीयं विशेषहीनम् , ततस्तृतीयं विशेषहीनम् ,ततोऽपि चतुर्थ विशेषहीनम् । एवं तावद्वाच्यम् , यावदपूर्वकरणचरमस्थितिखण्डम् । ततो-ऽनिवृत्तिकरणं विधत्ते । तत्र स्थितिघातादयः पूर्ववत् प्रवर्तन्ते । अनि वृत्तिकरणे प्रथमसमयतो दर्शनमोहस्य देशोपशमना-निधति-निकाचनाकरणानि व्यवच्छिद्यन्ते । दर्शनत्रिकस्य स्थितियत्कर्माऽनिवृत्ति करणप्रथमसमयादारभ्य स्थितिघातादिभिर्धात्यमानं स्थितिखण्डसहस्रषु गतेष्वमंतिपञ्चेन्द्रियस्थितिसत्कर्मतुल्यं भवति । ततः स्थितिखण्डसहस्रपृथक्त्वे गते चतुरिन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानं भवति, ततोऽपि तावन्मात्रषु स्थितिखण्डेषु वजितेषु त्रीन्द्रियस्थितिसत्कर्मतुल्यं भवति । ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्थिति वण्डेषु व्यतिक्रान्तेषु द्वीन्द्रियस्थितिसत्कर्म समानं भवति । ततस्तावन्मात्रेषु स्थितिखण्डेषु व्यतीतेष्वेकेन्द्रियस्थितिसत्कर्मतुल्यं स्थितिसचं भवति । ततोऽपि तावन्मात्रेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु स्थितिसचं पल्पोपममात्रं जायते, ततो दर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्कर्मण एकं संख्येयभागं विमुच्य शेषान् संख्येयान् बहून् भागान् विनाशयति । एतच्च कर्मप्रकृतिचूर्णिकाराद्यभिप्रायेण प्रोक्तम् । पञ्चसंग्रहकाराभिप्रायेण तु पल्योषमसंख्येयभागमात्रस्थितिसत्कर्मभवनानन्तरं स्थितिसत्कर्मणः संख्येयान् भागान् विनाशयति । एवं स्थितिघाताः सहस्रशो गच्छन्ति, तदनन्तरं मिथ्यात्वस्याऽसंख्येषभागान् विनाशयति, सम्यक्त्वमोहनीयसम्यमिथ्यात्वमोहनीययोस्तु पूर्ववत् संख्येयान् भागान् विनाशयति । अनेन क्रमेण बहुषु स्थितिखण्डेषु गतेषु मिथ्यात्वमुदयावलिकारहितं सर्व क्षीणम् । यच्चावलिकागतम् , तत् स्तिबुकसक्रमेण सम्यक्त्वमोहनीये प्रक्षिपति । तदानीं सम्यक्त्वमोहनीय-सम्यमिथ्यात्वमोहनीययोः स्थितिसत्कर्म पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रमवतिष्ठते । तस्याऽसंख्येयभागान् स्थितिखण्डेन विनाशयति, एकमसंख्येयभागं मुञ्चति । ततःप्रभृतेषु स्थितिखण्डेषु व्रजितेषु सम्यमिथ्यात्वमावलिकामात्रमवतिष्ठते, शेषं सर्व क्षीणम् ,सम्यक्त्वमोहनीयस्य च स्थितिसत्कर्माऽष्टवर्षमात्रं भवति । अष्टवर्षमात्रस्थितिसत्कर्मा निश्चयनयमतेन दर्शनमोहनीयक्षपक उच्यते । ततः परमान्तर्मोहूर्तिकान्यनेकानि स्थिति Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] खवगढी [ गाथा-४ खण्डानि विघातयति । तत्र चरम स्थितिखण्डे घातितेऽसौ क्षपकः कृतकरणो भण्यते । अस्यां च कृतकरणाद्धायां वर्तमानः कश्चित् कालमपि कृत्वा चतसृणां गतीनामन्यतमायां गतौ समुत्पद्यते, तदानीं च लेश्यापरावृत्तिरपि भवति । एवं दर्शनत्रिकक्षपणायाः प्रस्थापको मनुष्यो भवति, निष्ठापकस्त्वन्यतमश्चतुर्गतिकः । यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी- 'पडवगो उ मणूसो निवगो होइ उसु गईसु" इति । विशेषार्थिना त्वस्मत्कृतोपशमनाकरण वृत्तित्वलोकनीया, तत्र विस्तरेण दर्शन त्रिकक्षपणायाः प्रतिपादितत्वात् । अबद्धाको वेदितसम्यक्त्वमोहनीयशेषोऽन्तर्मुहूर्तं विश्रम्य चारित्रमोहनीयादिकक्षपणाय यतते, यद्यसौ न तीर्थ नामसत्कर्मा, तथा चोक्तं श्रीकर्मप्रकृतिचूर्णो- "अह न बडाउओ तो स्ववगसेढिमेव पडिवज्जति, जति न तित्थयरसंतकंमिगो ।” इति । बद्धायुष्कः पुनर्यदि तदानीं कालं न करोति, तथापि नामौ तद्भवे चारित्रमोहादिक्षपणाय यतते किन्तूत्कृष्टतः सातिरेकत्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि व्यतिक्रम्याऽवश्यं चारित्रमोहनीयादिक्षपणाय यतते । चारित्रमोहनीयादिक्षपणाय प्रयतमानो जीव आदौ किं करोति ? इत्यत आह- ' आढवइ' इत्यादि, अप्रमत्तः 'श्रमण: ' श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः संयत इत्यर्थः यथाप्रवृत्तकरणमारभते । अयं भावः - क्षीणसप्तकः प्रमत्तगुणस्थानकमप्रमत्तगुणस्थानकं च बहुशः स्पृशति, ततश्चारित्रमोहनीयादिक्षपणायोग्यविशुद्धि प्राप्तो वर्षाष्टकस्योपरि वर्तमानोऽसौ प्रथमसंहननोऽप्रमत्तसंयतो यथाप्रवृत्तकरणं करोति । तत्र पूर्व - विदप्रमत्तश्चेत्, तर्हि शुक्लध्यानोपगतोऽपि अन्ये तु धर्मध्यानोपगताः । इदं तु शतकलघुचूर्णिकृदाद्यभिप्रायेण बोध्यम्, तच्च न विरुध्यते, ध्यानशतककृद्भिरप्रमत्तानामपि पूर्व - धराणां शुक्लध्यानद्वयस्य स्वीकारात् । तथा च तद्ग्रन्थः " सव्वष्पमायरहिया मुणओ खोणोवसंतमोहा य । ज्झायारो नाणधणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा ॥ १ ॥ - एएच्चिय पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा । ..." इति । अयं भावः- ये धर्मध्यानस्य ध्यातारोऽप्रमत्तसंयतादयो भवन्ति, त एव पूर्वयोः - पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्ववितर्काऽविचारलक्षणयोर्ध्यायिनो भवन्ति, अयं तु विशेषः - सुप्रशस्तसंहननाः आद्यसंहननयुक्ताः पूर्वधराः = चतुर्दशपूर्व विदस्तदुपयुक्ताः, इदं त्वप्रमत्तसंयतानां विशेषणम्, निर्ग्रन्थानां तु माषतुषादिवदन्यथाऽपि शुक्लध्यानोपपत्तेः । तदेवं क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य पूर्वविदः शुक्लध्यानद्वयं न विरुध्यते । शतकबृहच्चूर्णिकारादीनामभिप्रायेण पुनः सर्वे श्रेणिं प्रतिपत्तुकामा धर्मध्यानोपगता एव भवन्ति, सूक्ष्मसम्परायं यावद् धर्मध्यानस्यैव स्वीकारात् । न चैतत्स्वमनीषिकयाऽभिहितम्, शतकभाष्यकारैरप्युक्तत्वात् । तथा च तद्ग्रन्थः Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यवसायस्थानानि ] यथाप्रवृत्त करणाधिकारः [ १३ "सुहमोऽहवेयगो इह सुक्कज्झाणेण उहइ कम्म ति। जं वुत्तं तं आसन्नवीयरागत्तणमवेक्ख ॥१॥ दहव्वमनहा ऊ सुहमस्स उ धम्मझाणमेवेगं । होई एवं पुण गुरुयचुन्निभिप्पायओ वुत्तं ॥२॥ लहुचुनिअभिप्पारणं सुक्कज्झाण आइयदुभेयं । न विरुद्ध पुव्वधराण होइ सुत्ते जओ भणियं ॥३॥” इति । धर्मध्यानशुक्लध्यानयोः स्वरूपं तु क्षीणकषायगुणस्थानकाद्धाप्ररूपणाऽवसरे वक्ष्यामः ॥४॥ सम्प्रति यथाप्रवृत्तकरणेऽध्यवसायस्थानानि तेषां चोर्ध्वमुखीं तिर्यमुखीं च विशुद्धि निरुरूपयिषुराह परिणामट्ठाणाइं अणुसमयमसंखलोगमेत्ताणि । उड्ढमुहाऽणंतगुणा सोही तिरिया उछट्ठाणा ॥५॥ परिणामस्थानान्यनुसमयमसङ्घपलोकमात्राणि । ऊर्ध्वमुख्यनन्तगुणा शोधिस्तिर्यक् तु षट्स्थाना ॥५॥ इति पदसंस्कारः। 'परिणामहाणाई' इत्यादि, 'परिणामस्थानानि' अध्यवसायस्थानानि 'अनुसमय समये समय इत्यनुसमयम् , “योग्यतावीप्सा.” (सिद्धहेम० ३-१-४०) इत्यनेन मूत्रेण वीप्सायामव्ययाभावसमासः, प्रतिसमयमित्यर्थः, 'असङ्ख्यलोकमात्राणि' विशुद्धिभेदेनाऽसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति । ननु यथाप्रवृत्तकरणं प्रतिपन्नानां कालत्रयापेक्षया जीवानामनन्तत्वेना-ऽध्यवसायस्थानानामनन्तत्वं कुतो न भवति ? इति चेत् , उच्यते-सत्यम् , स्यादेवम् , यदि यथाप्रवृत्तकरणं प्रतिपन्नानां सर्वेषां जीवानामध्यवसायस्थानानि पृथक् पृथग भिन्नान्येव म्युः, तच्चेह नास्ति, बहूनामेकाऽध्यवसायस्थानवर्तित्वात् । यथा क्वचिदशीतिश्चारित्रिणो दशस्वध्यवसायस्थानेषु वर्तन्ते, अष्टानामष्टानां चारित्रिणामेकाध्यवसायस्थानवतित्वात् ,तथेवेहाऽपि यथाप्रवृत्तकरणं प्रतिपन्नानामनन्तानामनन्तानां जीवानामेकध्यवसायस्थानवर्तित्वात् तेऽसंख्येयेष्वेवाऽध्यवसायस्थानेषु वर्तन्ते । तेन यथाप्रवृत्तकरणे प्रतिसमयमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राण्येवाऽध्यवसायस्थानानि,न ततोऽधिकानि । अयमत्र विशेषः-यथाप्रवृत्तकरणे प्रतिसमयमध्यवसायस्थानान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राण्यभिहितानि,तानि न प्रथमादिसमयेषु मिथस्तुल्यानि भवन्ति, किन्तु यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमयतो द्वितीयसमयेऽध्यवसायस्थानानि विशेषाधिकानि भवन्ति, ततोऽपि तृतीयसमये विशेपाधिकानि, एवं तावद् वक्तव्यानि, यावद् यथाप्रवृत्तकरणचरमसमयः । स्थाप्यमानानि पुनरेतानि विषमचतुरस्रक्षेत्रमास्तृणन्ति । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] खवगसेढी [ गाथाः ६-८ अथोक्ताऽध्यवसायस्थानानां विशुद्धिमभिधत्ते-'उड्ढमुहा' इत्यादि, "अणुसमयम्" इति पदस्याऽत्राऽपि सम्बन्धाद् , अनुसमयम् ऊर्ध्वमुखी 'शोधिः' विशुद्धिरनन्तगुणा भवति, 'तिर्यक् तु' तिर्यमुखी विशुद्धिस्तु ‘पट स्थाना' पटस्थानविशिष्टा षट्स्थानपतितेत्यर्थः । भावार्थः पुनरयम्-उत्तरोत्तरसमयेऽध्यवसायस्य विमृश्यमाना विशुद्धिरूर्ध्वमुखी विशुद्धिर्भण्यते, विवक्षितैकसमयभाविनां बहूनामध्यवसायस्थानानां मिथो विमृश्यमाना विशुद्धिस्तिर्यमुखी विशुद्धिनिंगद्यते । इह यथाप्रवृत्तकरणे प्रथमसमयतो द्वितीयसमये विशुद्धिरनन्तगुणा भवति, ततोऽपि तृतीयसमयेऽनन्तगुणा भवति, एवं तावद्वक्तव्या, यावच्चरमसमयः । तेन यथाप्रवृत्तकरणे प्रतिसमयमूर्ध्वमुखी विशुद्धिरनन्तगुणा भणिता । तथा यथाप्रवृत्त करणविवक्षिकसमयभाविनामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राणामध्यवसायस्थानानामेकतमस्याध्यवसायस्य विशुद्धिरन्याऽध्यवसायस्थानविशुद्धयपेक्षयाऽनन्तभागवृद्धा वा-ऽसंख्येयभागवृद्धा वा संख्येयभागद्धा वा संख्येयगुणवृद्धा वाऽसंख्येयगुणवृद्धा वा-ऽनन्तगुणवृद्धा वा भवति,एवं षड्विधहानिविशिष्टा-ऽपि भवति । तेन यथाप्रवृत्तकरणे तिर्यमुखी विशुद्धिः षटस्थानपतिता । इह यथाप्रवृत्तकरणे या प्रतिसमयमूर्ध्वमुखी विशुद्धिरनन्तगुणा प्रतिपादिता, सैकजीवापेक्षयैव बोद्धव्या, नानाजीवाऽपेक्षया तु षट्रस्थानपतिता सम्भवति । वक्ष्यमाणाऽपूर्वकरणे त्वनेकजीवापेक्षयाऽप्यूर्ध्वमुखी विशुद्धिरनन्तगुणा न विरुध्यते, पूर्वपूर्वसमयभाव्युत्कृष्टविशोधितोऽप्युत्तरोत्तरसमयभाविजघन्यविशोधेरनन्तगुणत्वात् । तिर्य खी विशुद्धिस्तु सर्वत्र नानाजीवापेक्षयैवाऽवगन्तव्या, एकजीवस्यैकसमये नानाऽध्यवसायानामसम्भवात् ॥५॥ __यथाप्रवृत्तकरणे प्रतिसमयमध्यवसायस्थानानि विशोधिभेदेनासंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राणि प्रोक्तानि । सम्प्रति विशोधितारतम्यमार्यात्रिकेण प्रदर्शयति करणस्स पढमसमये सव्वत्थोवा जहणिया सोही। तो पढमसंखभागं जाव जहण्णा अणंतगुणा ॥६॥ तत्तो पढमे समये उक्कोसा होअए अणंतगुणा। तो उवरि पढमसमये होइ जहण्णा अणंतगुणा ॥७॥ एवं हेतु उवरि य जाव जहण्णाऽस्थि चरिमसमयम्मि । तत्तो सेसुकोसा कमेण हुन्ते अणंतगुणा ॥८॥ करणस्य प्रथमसमये सर्वस्तोका जघरमा शोधिः । ततः प्रथमसङ्ख्यभागं यावज्जघन्याऽनन्तगुणा ॥६॥ ततः प्रथमे समय उस्कृष्टा भवत्यनन्तगुणा । तत उपरि प्रथमसमये भवति जघन्या-ऽनन्तगुणा ||७|| Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ अघन्योत्कृष्टा च विशोधिः ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः एवमध उपरि च यावज्जधन्याऽस्ति चरमसमये। तर शेषोत्कृष्टाः क्रमेण भवन्त्यनन्तगुणाः ।।८।। इति पदसंस्कारः। 'करणसर.' इत्यादि, 'करणस्य' प्रस्तुतत्वाद् "भामा सत्यभामा" इति न्यायाच्च यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमये जघन्या 'शोधिः' विशोधिः सर्वस्तोका भवति,तदितरासांप्रभूतत्वात् । ततः 'प्रथमसङ्ख्यभागं' यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसङ्ख्येयभागं यावज्जघन्या विशोधिरनन्तगुणा । इद मुक्तं भवति-यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमयभाविजघन्यविशोधितो यथाप्रवृत्तकरणस्य द्वितीय समये जघन्य. विशोधिरनन्तगुणा, ततोऽपि तृतीयसमये जवन्यविशोधिरनन्तगुणा, ततोऽपि चतुर्थसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा । एवंक्रमेण तावद् वक्तव्या,यावद् यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसंख्येयभागचरमसमयभाविजघन्यविशोधिः । 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसंख्येयभागचरमसमयभाविजघन्यविशोधितः 'प्रथमे समय' यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमे समय उत्कटा विशोधिरनन्तगुणा भवति, 'ततः' यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमयभाव्युत्कृष्टविशोधितः 'उपरि' यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसङ्ख्येयभागस्योपरि प्रथमसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा भवति । एवं' इत्यादि, 'एवम्' अनेन क्रमेणाध उपरि च विशोधिर्यत्तदोमिथः सापेक्षत्वात्तरत्र यच्छब्दोपादानाच्च तावद् वक्तव्या,यावत् 'चरमसमये' यथाप्रवृत्त करणचरमसंख्येयभागाऽन्तिमसमये जघन्या विशोधिः अस्ति' भवति । इयमत्र भावना-यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसंख्येयभागोपरितनप्रथमसमयभाविजघन्यविशोधितो यथाप्रवृत्तकरणद्वितीयसमय उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा भवति , ततो यथाप्रवृत्त करणप्रथमसंख्येयभागोपरितनद्वितीयसमयं जघन्या विशोधिरनन्तगुणा। ततोऽपि ययाप्रवृत्तकरणतृतीयसमय उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा । ततोऽपि यथाप्रवृत्त करणप्रथमसङ्ख्येयभागोपरितनतृतीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा । एवंक्रमेणा-ऽध उपरि चोत्कृष्टा जघन्या च विशोधिस्तावदभिधातव्या , यावद् यथाप्रवृत्तकरणचरमसंख्येयभागचरमसमयभाविजघन्यविशोधिः,सा च यथाप्रवृत्त करणचरमसमयभाविजघन्यविशोधिः । 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' यथाप्रवृत्तकरणचरमसमयभाविजघन्यविशोधितः 'शेषोत्कृष्टाः' यथाप्रवत्तकरणचरमसंख्येयभागगता या अनुक्ताः शेषा उत्कृष्टा विशोधयः, ताः क्रमेणाऽनन्तगुणा भवन्ति । तद्यथा-यथाप्रवृत्त करणचरमसमयभाविजघन्यविशोधितो यथाप्रवृत्त करणचरमसङ्ख्येयभागप्रथमसमय माव्युत्कृष्टविशोधिरनन्तगुणा भवति, ततोऽपि यथाप्रतकरणचरमसङ्ख्ययभागद्वितीपसमयभाव्युत्कृष्ट विशोधिरनन्तगुणा । ततोऽपि यथाप्रवृत्तकरण वरमपङ्ख्ययभागतृतीय समयभाव्युत्कृष्टविशोधिरनन्तगुणा । एवमनन्तगुणक्रमेणोत्तरोत्तरसमय उत्कृष्टा विशोधिस्तावद् वक्तव्या, यावद् यथाप्रवृत्तकरणचरमसमयभाव्युत्कृष्टविशोधिः । अध्यवसायस्थानानामनुकृष्टयादयस्त्वस्मत्कृतोपशमनाकरणगतसम्यक्त्वोत्पाद-- यथाप्रवृत्तकरणटीकायां निरूपिताः, ततोऽवसेयाः, ग्रन्थगौरवमयानाऽत्र वितन्यन्ते ॥६-८॥ * यथाप्रवृत्तकरणे विशोधितारतम्यमाश्रित्याऽध्यवसायानां स्थापना * Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याप्रवृत्तकरणस्य तृतीयसमयाज .... चरमसंख्येय भाग: . द्वितीयसमय.. प्रथमसमयाजा - .06. 0 प्रय था प्रवृत्त क र म्: यथाप्रवृत्तकरणस्य . । द्वितीयमंरव्येय समयः 3. ३समय: यभामः स्य प्रथमसरले. यथाप्रवृत्तकरण ज :::13. प्रथमसमयः खवगदी [ गा . चरमसमय: ज. .. उ० १२स उ०९९समयः ९०समयः समयः समयः) ७समयः ६समय पूसमयः ४समयः ज.---/.! उ० तृतीयसमय:. द्वितीयसमय: २समयः प्रथमसमयः ९समयः ....निर्यक्स्थापितैरेभिविन्दुभिरध्यवसायस्थानानि सूचितानि, तानि च परमार्थतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राणि,पूर्वपूर्वसमयतश्चोत्तरोत्तरसमये विशेषाधिकानि। स्थाप्यमानानि च विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । ज०= तत्तत्समये प्रथमबिन्दुना यदध्यवसायस्थानं सूचितं, तस्य या विशोधिः, सा जघन्या। उ०= तत्तत्समयेऽन्तिमबिन्दुना यदध्यवसायस्थानं सूचितं, तस्य या विशोधिः, सोत्कृष्टा। शेषबिन्दुभिः सूचिताऽध्यवसायस्थानानां या विशोधिः, सा मध्यमा, सा च मिथः षट्स्थानातिता। असत्कल्पनया यथाप्रवृत्तकरणस्य १२ समयाः कल्पिताः, तत्संख्येयभागश्च चतुरप्तमयमात्रः। → एतचिह्नमनन्तगुणतां सूचयति।। एतर्हि यथाप्रवृत्त करणे वर्तमानस्य जीवस्य योगादीन् प्रतिपिपादपिपुराहमणवयणोरालाणं जोगे वट्टेइ अण्णयरे । सुअउवजोगे मइ-सुअ-चक्खु-अचक्खूसु वा इगकसाये ॥९॥ (उद्गीतिः) मनोवचनौदाराणां योगे वर्तते-ऽन्यतरस्मिन् । श्रुतोपयोगे मति श्रुतःचक्षुरचक्षुष्पु वैककषाये ॥९॥ इति पदसंस्कारः । 'मण' इत्यादि, 'मनोवचनौदाराणां' क्षपकश्रेणिं प्रतिपत्तुकामो मनोयोगचतुष्काचनयोगचतुष्कौदारिककाययोगानाम् 'अन्यतरस्मिन्' अन्यतमे योगे वर्तते, औदारिकमिश्रकाययोगादिषु क्षपकश्रेणिप्रतिपत्त्यसंभवात् । यदुक्तं कषायप्राभतचूर्णी-"जोगे त्ति विहासा अण्णदरो मणजोगो अण्णदरो चिजोगो ओरालियकायजोगो वा" इति । 'सुअ०' इत्यादि, 'श्रुतोपयोगे'क्षपकश्रेणि प्रतिपत्तुकामः श्रुतोपयोगलक्षणे साकारोपयोगे वर्तते। केचित तु मत्याद्यपयोगेष्वन्यतम उपयोगे वर्तमानो भवतीति मन्यन्ते, तन्मतं दर्शयितुकाम आह-'मइ.' इत्यादि, ‘मतिश्रुतचक्षुरचक्षुष्यु वा मतिज्ञानोपयोग-श्रुतज्ञानोपयोग-चक्षुदर्शनोपयोगाऽचक्षुर्दर्शनोपयोगेष्वन्यतरस्मिन्नुपयोगे वर्तमानो भवति,वाशब्दो मतान्तरद्योतकः । यदवादि कषायप्राभतचूर्णी-"एक्को उवएसो णियमा सुदोवजुत्तो होदूण खवगसेहिं चउदि त्ति एक्को उवदेसो सुदेण वा मदीए वा चक्खुदंसणेण वा अचक्खुदंसणेण वा।" इति । न च मतिश्रुतज्ञानचक्षुरचक्षुर्दर्शनोपयोगवदवविज्ञानेन वा मनःपर्यायज्ञानेन वाऽवधिदर्शनेन वा क्षपक Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः वेदादयः ] [१७ श्रेणि कुतो न प्रतिपद्यते ? इति वाच्यम् , सिद्धान्तेऽवधिज्ञानोपयोगेन वाऽवधिदर्शनोपयोगेन वा मनःपर्यायज्ञानोपयोगेन वा क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तरस्वीकारात् । 'इगकसाये' त्ति 'एककषाये' अनन्तानुवन्धिनां क्षीणत्वाद् अप्रमत्तगुणस्थानके च प्रत्याख्यानावरणादीनामुदयविरहात् संज्वलनक्रोध-मान-माया-लोभानाम् एकस्मिन् अन्यतमे कपाये वर्तते क्षपकश्रेगेरारोहकः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-कसाये त्ति विहासा-अण्णदरो कसायो।" इति ॥९॥ सम्प्रति यथाप्रवृत्त करणं कुर्वतो जीवस्य वेदादिकं प्राह पुरिसाईणं वे अण्णयरम्म य विसुज्झयरसुक्काए। पयइठिइरसपअसा पडुच्च णेयाणि बन्धुदयसंताई॥१०॥ (आर्यागोतिः) पुरुषादीनां वेदेऽन्यतरस्मिंश्च विशुद्धतरशुक्लायाम् । प्रकृति-स्थिति-रस-प्रदेशान् प्रतीत्य ज्ञेयानि बन्धोदयसत्त्वानि ॥१०॥ इति पदसंस्कारः । 'पुरिसाईणं' इत्यादि, 'वई' इति पूर्वगाथोक्तपदमत्राऽप्यनुवर्तते, तेन 'पुरुषादीनां' पुरुषवेद-स्त्रीवेद-नपुंसकवेदानामन्यतरस्मिन् वेदे वर्तते क्षपकश्रेणेः प्रतिपत्ता । यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी- 'वेदो य को भवे त्ति विहासा अण्णदरो वेओ।” इति । चकारः समुच्चयार्थो भिन्नक्रमश्च, स चोतरत्र योज्यः। 'विशुद्धतरशुक्लायां च पूर्वपूर्वसमयभाविशुक्ललेश्याऽपेक्षयोत्तरोत्तरसमये विशुद्धतरायां शुक्ललेश्यायां वर्तते क्षपकणेः समारोहकः, अनुभागापेक्षया कषायाणामुदयस्याऽनन्तगुणहीनत्वेन शुभलेश्याया हानेरवस्थानस्य चाऽसम्भवात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"लेस्सा त्ति विहासा णियमा सुक्कलेसा णियमा वड्ढमाणलेसा।” इति । अथ यथाप्रवृत्तकरणं विदधानम्य बन्धादिकं सूचपति-पयई' इत्यादि प्रकृति-स्थिति-रसप्रदेशान् 'प्रतीत्यसमाश्रित्य बन्धुदयसन्ताई' ति,इह सदिति निर्देशस्य भावप्रधानत्वात् सच्छब्देन सचं व्याख्येयम् । बन्धोदयसचानि 'ज्ञेयानि' स्वयमेवाभ्यूह्यानि, सुगमत्वात् , पाठकेभ्यो वा बोद्धव्यानि । एतदुक्तं भवति-यथाप्रवृत्तकरणं कुर्वतो जीवस्य प्रकृतिवन्धः स्थितिबन्धो रसबन्धः प्रदेशबन्धश्च ज्ञातव्यः, एवं प्रकृत्युदयः स्थित्युदयो रसोदयः प्रदेशोदयश्च बोद्धव्यः, तथा प्रकृतिसत्ता स्थितिसत्ताऽनुभागसत्ता प्रदेशसत्ता चाऽवसेया । ___अथ विनेयबुद्धिवैशधार्थ विस्तरेण प्रकृतिबन्धादयः प्रतिपाद्यन्ते तत्रादौ तावद् मूलप्रकृतिबन्धः-क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यमान आयुर्वर्जशेषाणि सप्तैव कर्माणि बध्नाति, क्षपकश्रेण्यामायुर्वन्धाऽसम्भवाद् विशुद्धिप्रकर्षाच्च । अथोत्तरप्रकृतिवन्धः-मतिज्ञानावरण-श्रुतज्ञानावरणा-ऽवधिज्ञानावरण--मनःपर्यवज्ञानावरण केवलज्ञानावरणरूपं ज्ञानावरणप्रकृतिपश्चकं चक्षुर्दर्शनावरणा-ऽचक्षुर्दर्शनावरणा-ऽवधिदर्शनावरण Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ खवगसेढी [ गाथा-१० केवलदर्शनावरण-निद्रा-प्रचलालग दर्शनावरणप्रकृतिषट्कं सातवेदनीयं संज्वलनक्रोध-मान-मायालोभ-पुरुषवेद-हास्य रति-भय-जुगुप्सारूपं मोहनीयप्रकृतिनवकमुच्चैर्गोत्रं दानान्तराय-लाभान्तरायभोगान्तरायोपभोगान्तराय-वीर्यान्तरायलक्षणमन्तरायपञ्चकञ्चेति नामकर्मवर्जशेषकर्मणां सप्तविंशतिं (२७)प्रकृतीबध्नाति,नामकर्मणस्तु देवगति-पञ्वेन्द्रियजाति-क्रियशरीर-तैजस-कार्मगशरीर-वैक्रियाङ्गोपाङ्ग समचतुरस्रसंस्थान-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-देवानुपूर्वी शुभखगति-बस-बादर-पर्याप्त प्रत्येक स्थिर-शुभ-सुभग सुस्वरा-ऽऽदेय-यशःकीगुरुलधूपघात-पराघात-श्वासोच्छ वास-निर्माणरूपाऽष्टाविंशतिप्रकृतीबध्नाति । तेन जघन्यतः क्षपकः पञ्चपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकं (५५) बन्धस्थानं बध्नाति । कश्विजीवस्तु जिननामाऽपि बध्नातीति नामकर्मण एकोनत्रिंशत्प्रकृतीबंधनन् जीवः षट्पञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकं (५६) बन्वस्थानं बध्नाति । अन्यस्तु नामकर्मणः प्रागुक्तदेवगत्यायष्टाविंशतिप्रकृतीराराहारकशरीराऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणं चा-ऽऽहारकद्विकं बनातीति नामकर्मणस्त्रिंशत्प्रकृतीनन् जीवः सप्तपश्चाशत्प्रकृत्यात्मकं (५७) बन्धस्थानं बध्नाति । कश्चिज्जीवः पुनर्नामकर्मणः प्रोक्तदेवगत्याधष्टाविंशतिप्रकृतीराहारकद्विकं जिननाम च बध्नाती ति नामकर्मण एकत्रिंशत्प्रकृतीबंधनन् जीवोऽष्टपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकं (५८) बन्धस्थानं बध्नाति । यन्त्रकम बन्धस्थानम् ५५ प्रकृत्यात्मकम् प्रकृतयः ज्ञानावरणस्य ५, दर्शनावरणस्य ६, वेदनीयस्य १, मोहनीयस्य ९, नाम्नः २८, गोत्रस्य १, अन्तरायस्य च ५ ५५+जिननाम ५५+आहारकदिकम् ५५+आहारकद्विकम+जिननाम ५८ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पदार्थचिन्ता कर्तव्या । इहान्वयेन कृता प्रकृतिबन्धचिन्ता । सम्प्रति व्यतिरेकेण क्रियते मूलकर्मस्वायुष्कस्य बन्धो व्यवच्छिन्नः । उत्तरकर्मसु नामकर्मवर्जशेषकर्मणांस्त्यानर्द्धित्रिका-ऽसातवेदनीय-द्वादशकपाय-मिथ्यात्व-शोकाऽरति-स्त्रीवेद-नपुंसकवेदाऽऽयुष्कचतुष्क-नीचैर्गोत्ररूपपड्विंशतिप्रकृतीनां वन्धोव्यवच्छिन्नः,नामकर्मणश्च देवगतिवर्जगतित्रिक-पञ्चेन्द्रियवर्जजातिचतुष्कौदारिकशरीरोदारिकाङ्गोपाङ्ग-संहननपटक-प्रथमसंस्थानवर्जशेषसंस्थानपञ्चक-देवानुपूर्वीवर्जशेषानुपूर्वीत्रिकाऽशुभखगत्यातपोद्योत-स्थावर-सूक्ष्माऽपर्यातसाधारणा-ऽस्थिरा-ऽशुभ-दुर्भग-दुःस्वराऽनादेया-ऽयशःकीर्तिरूपपट्त्रिंशत्प्रकृतीनां बन्धः स्माऽपग Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धोदयौ ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः [१६ च्छति । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"थोणगिडितियमसाद-मिच्छत-बारसकसाय-अरदि-सोग-इत्थिवेद-णवुसयवेद-सव्वाणि चेव आउगाणि परियत्तमाणियाओ णामा ओ असुहाओ सव्वाओ चेव मणसगइ-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणमणसगइपाओग्गाणुपुव्वोआदावुज्जोवणामाओ च सुहाओ णीचागोदं च एदाणि कम्माणि बंधेण वोच्छिण्णाणि।"अत्र"परियत्तमाणियानो णामाओ असुहायो सव्वाओ येव" इत्यनेन नरकतिर्यगगति-जातिचतुष्कायवर्जसंस्थानपञ्चकायवर्जसंहननपञ्चक-नरकतिर्यगानुपूर्वी-कुखगतिस्थावर-सूक्ष्मा-ऽपर्याप्त-साधारणा-ऽस्थिराऽशुभ-दुर्भग-दुःस्वरा-ऽनादेया-ऽयशःकीर्तिरूपाः प्रकृतयो ग्राह्याः, तासां परावर्तमानाऽशुमनामकर्मत्वात् ।। अथ स्थितिबन्धोऽभिधीयते-सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धोऽन्तःसागरोपमकोटाकोटिप्रमाणो भवति, स च सत्तागत्तस्थितितः संख्यातगुणहीनो भवति । तथा प्रत्यन्तमुहूर्त पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्थितिवन्धः पल्योपमसंख्येयभागेन हीनो हीनतरो जायते । इदमुक्तं भवति-यथाप्रवृतकरणप्रथमसमये यः स्थितिबन्धः प्रारभ्यते, सोऽन्तमुहूर्त यावत् प्रवर्तते । तस्मिन् पूर्णेऽन्यः पल्योपमसंख्येयभागेन हीनः स्थितिबन्धः प्रारभ्यते, सोऽप्यन्तमु हूत यावत् प्रवर्तते । एवमग्रेऽपि प्रत्यन्तमुहूर्त पल्योपमसंख्येयभागेन हीनो हीनतरः स्थितिबन्धः प्रवर्तते । ___ अथाऽनुभागबन्धो विविच्यते शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानकमशुमानां प्रकृतीनां पुनढिस्थानकमनुभाग बध्नाति, तमपि प्रतिसमयं शुमानामनन्तगुणवृद्धमशुभानां चाऽनन्तगुणहीनं बध्नाति । सम्प्रति प्रदेशबन्धोऽभिधीयते-उत्कृष्टयोगी निद्राद्विक-हास्य-रति-भय-जुगुप्सा-देवद्विक-वैक्रियद्विक-प्रथमसंस्थान-शुभखगति-सुभगत्रिकरूपसप्तदशप्रकृतीनामुत्कृष्टं प्रदेशाग्रं बध्नाति । शेषाणां चत्वारिंशत्प्रकृतीनामनुत्कृष्टमेव प्रदेशं बध्नाति । अत्र कारणमस्मत्कृतोपशमनाकरणगतप्रथमौपशमिकसम्यक्त्वटीकातोऽवसेयम् । नामकर्मण एकोनत्रिंशत्प्रकृत्यात्मकं बन्धस्थानं तथा त्रिंशत्प्रकृत्यात्मकं बन्धस्थानं बध्नन्नुत्कृष्टयोगी क्रमेण जिननाम्न आहारकद्विकस्य वोत्कृष्टप्रदेशाग्रं बध्नाति, तदानीं शेषाणां नामप्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशाग्रं बध्नाति । अनुत्कृष्टयोगी तु निद्रादीनां सर्वप्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशाग्रं बध्नाति । अथ प्रकृत्युदयो निरूप्यतेमूलप्रकृत्युदयः-अष्टानामपि मूलकर्मणामुदयो विद्यते । उत्तरप्रकृत्युदयः-ज्ञानावरणपञ्चकं दर्शनावरणचतुष्कमन्यतरदिनीयं संज्वलनक्रोधादिष्वन्यतमः कषायोऽन्यतमो वेदोऽन्यतरं युगलमन्तरायपञ्चकं मनुष्यायुरुच्चैर्गोत्रं चेति नामवर्जशेषक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] aaraढी 1 [. गाथा - ११ र्मणां जघन्यत एकविंशतिप्रकृतीनामुदयः प्रवर्तते । नामकर्मणः पुनर्वर्ण चतुष्क- तैजस कार्मणशरीरागुरुलघुनिर्माण- स्थिरा ऽस्थिर- शुभा - ऽशुमरूपद्वादशघ्र वोदयप्रकृतीनां तथा मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिरौदारिकद्विकं प्रथम संहननं षट्स्वन्यतमं संस्थानमन्यतरा खगतिः पराघात उच्छ्वास उपघातस्त्रचतुष्कं सुभग आदेयो यशः कीर्तिः स्वर द्विकेऽन्यतरश्चेत्यष्टादशाऽध्र वोदयप्रकृतीनामुदयो भवति । एवं सर्वसंख्यया त्रिंशत्प्रकृतीनामुदयः प्रवर्तते । इत्थं जघन्यत एकपञ्चाशत्प्रकृतय उदयन्ति, अन्यस्य जन्तोर्निद्राद्विकेऽन्यतरा भय-जुगुप्सयोरन्यतरा वोदेतीति तस्य जन्तोर्द्वापञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकमुदयस्थानकम्, इतरस्य पुनर्भयजुगुप्सयोरन्यतरा तथा निद्राद्विकेऽन्यतरा यद्वा भयजुगुप्से उदित इति तस्य जन्तोस्त्रयःपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकमुदयस्थानकं निश्च तव्यम् । कस्यचिज्जन्तोनिद्राद्विकेऽन्यतरा भयजुगुप्से चोदयन्तीति तस्य जन्तोश्चतुःपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकमुदयस्थानकं भवति । तत्रैकमुदयस्थानकं भिन्नभिन्नप्रकृतीराश्रित्याऽनेकविधं भवति । तथाहि - कश्चित् क्रोधोदय विशिष्टो जन्तुः क्षपकश्रेणिमारोहेत् | अन्यां मानोदयविशिष्टः, इतरः पुनर्मायोदयविशिष्टः, अपरस्तु लोभोदयविशिष्टः । एवंविधाश्वत्वारोऽपि जन्तवोऽसातोदय विशिष्टाः सातोदय विशिष्टा वा क्षपकश्रेणि प्रतिपित्सवो भवेयुः । इत्थं प्रकृतिभेदेनै कस्योदयस्थानकस्य यावन्तः प्रकारा भवन्ति, तावन्तस्तस्यो - दयस्थानकस्य भङ्गा भवन्ति । तत्र प्रथमस्योदयस्थानकस्य द्वापञ्चाशदधिकैकादशशतानि (११५२), द्वितीयस्याष्टोत्तरषट्चत्वारिंशच्छतानि (४६०८), तृतीयस्य षष्ट्यधिकसप्तपञ्चाशच्छतानि (५७६०), तुर्यरूप व चतुरधिकत्रयोविंशतिशतानि (२३०४) । न्यासस्त्वेवं कार्य:-- प्रथममुदयस्थानकम्, प्रकृतयः, कषायः, वेदः, युगलम्, वेदनीयम्, संस्थानम्, खगतिः, स्‍ ५१ ४ x ३ x २ X २ x ६ X द्वितीयमुदयस्थानकम् प्रकृतयः ५२, ५१ + अन्यतरा निद्रा ५.१ + भयः ५१+ जुगुप्सा तृतीयमुदयस्थानकम् प्रकृतयः ५३, ५१ + अन्यतरा निद्रा + भयः + जुगुप्सा ५१ + 19 ५१ + भयः + जुगुप्सा ४ x ३ x २ ४ x ३ x २ ४ x ३ x २ चतुर्थमुदयस्थानकम्, प्रकृतयः ५४, ५१ + भयजुगुप्से+अन्यतरा निद्रा ४ x ३ × २ x x x ४ x ३ x २ x ४ x ३ x २ ४ x ३ x २ X X X x X x २ X २ X २ × ६ X × ६ × ६ २ २ २ × ६ २ x ६ * ६ x X X X x & X :,स्वरः, निद्रा, भङ्गाः २ x २ - ११५२ २ x २x२=२३०४ २ x २ = ११५२ = ११५२ २ x २ ४६०८ २ x २x२= २३०४ २ x २x२= २३०४ २ x २ = ११५२ ५७६० २ x २x२= २३०४ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयः ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः [२१ ___एवं चतुर्णामुदयस्थानकानां समुदितभङ्गाश्चतुर्विंशत्यधिकाष्टशतोत्तरत्रयोदशसहस्राणि भवन्ति । न्यासः-११५२ + ४६०८ +५७६० + २३०४=१३८२४ । ये क्षपकश्रेणी निद्राप्रचलयोरुदयं न मन्यन्ते, तेषां मतेनाऽष्टाधिकषट्चत्वारिंशच्छतं (४६०८) भङ्गा ज्ञातव्याः। ननु के आचार्याः क्षपकश्रेणौ निद्राद्विकोदयं मन्यन्ते के पुनर्न स्वीकुर्वन्ति ? इति चेत्, उच्यते--प्राचीनकर्मस्तवकारादयस्तु क्षीणकपायद्विचामसमयं यावदभ्युपगच्छन्ति । तथा चा-त्र प्राचीनकर्मस्तवः--"निद्दापयलाए तहा खीणदुचरिमम्मि उदयवोच्छेप्रो।” एतेन सिद्धं यत्क्षपकश्रेणावपि निद्राप्रचलोदयः कर्मस्तवकारादीनां मतेन विद्यते । उक्तं च मेरुतुङ्गसूरिपादैः- "अन्ये तु पुनराचार्याः क्षोणमोहद्विचरमसमयं यावदुदये दर्शनावरणस्य चतस्रःप्रकृतयः पञ्चकंवा ब्रुवते,क्षपकस्याऽपि निद्राप्रचलयोरुदयमिच्छन्तीत्यर्थः।" सप्ततिकाचूर्णिकारादयस्तु क्षपकस्य निद्राप्रचलोदयं न मन्यन्ते । यदुक्तं सप्ततिकाचू # "खवगा अच्चन्तविहत्ति काउं तेण निद्दापयलागं उदयो नत्थि, अविसुद्धस्स चासंकिलिट्ठस्स वा निद्दोदओ ति ।" उपशमश्रेणौ तु सर्वेऽपि शास्त्रकारा निद्राप्रचलोदयमिच्छन्ति । न चोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानः प्रतिसमयमनन्तगणक्रमेण विशुद्धया प्रवर्धमानो भवति, निद्रोदयश्च चैतन्यापायकारणमस्ति, तेनोपशमश्रेणौ निद्रोदयः कथं भवति, विशिष्टचैतन्यभावादिति वाच्यम्, यतो य उपशमश्रेणौ निद्राद्विकमध्येऽन्यतरस्या उदयः, स तत्र क्षणे सर्वाधिवाधिव्याधिविकल्पव्यपगमसमुद्भूताननुभूतपूर्वसमाधिविलयविशेषे सति योगनिद्रारूप एवाऽवसेयः। निद्राप्रचलोदयेऽपि परिणामविशुद्धिरिष्यते एव, अन्यथा यामद्व यशायिनामपि मुनीनामप्रमत्तगुणस्थानका-ऽनवकाशत्वेन प्रमत्त गणस्थानकस्याऽन्तमु हूतोभ्यधिकः कालःप्रसज्येत,न चाऽयमिष्टः, सिद्धांते प्रमत्तगणस्थानकालस्याऽन्तमु हूर्तमात्रत्वप्रतिपादनात् । वैराग्यतरङ्गतरङ्गितचेतसां च निद्रोदयेऽपि तथाविधसुस्वप्नदर्शनात् विशुद्धः परिणामोऽनुभवसिद्धः । एवं ये क्षपकश्रेणौ निद्राद्विकोदयं मन्यन्ते ।तेषां मते निद्राद्विकोदयो न विशुद्धपरिणामस्य प्रतिबन्धको भवति, इति दिक् । अत्रैकजीवमाश्रित्योत्कृष्टतश्चतुःपञ्चाशत्प्रकतय उदयमानाः प्रोक्ताः, नानाजीवगोचरोदयमानप्रकृतयस्तु सप्ततिर्भवन्ति । तथाहि-ज्ञानावरणपञ्चकं स्त्यानचित्रिकवर्जदर्शनावरणषटकमन्तरायपञ्चकं *उक्त च जयधवलाकारैरपि चारित्रमोहक्षपणाऽधिकारे-“कधं पुण एदस्स खीणकसा यस्स त्रिदियसुक्कज्माणग्गिणा घादिकम्मिधणाणि दहमाणस एदम्मि अत्रत्यंतरे णिद्दापयलाणमुदयवोच्छेदसंभवो, झाणपरिणामविरुद्ध सहवत्तादो त्ति णासंकणिज्ज, अवत्तवसरूवस्त, तदुदयस्स झाणोवजुत्तेसु वि संभवं पडि विरोहाभाबादो।" Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] aarसेढी [ गाथा - ११ वेदनीयद्विकं संज्वलनचतुष्कं नवनोकषाया मनुष्यायुरुच्चैर्गोत्रं चेति नामवर्जशेष कर्मणां त्रयस्त्रिशत्प्रकृ तय उदयन्ति। नामकर्मणस्तु ध्रु वोदया द्वादश मनुष्यगति-पञ्चेन्द्रियजात्यौदा रिकद्विक-वज्रर्षभनारा - चसंहनन-संस्थानषट्क-खगतिद्विक-पराघातोच्छ्वासोपघात -स्वरद्विक त्रसचतुष्क-सुभगादेय-यशः कीर्तिरूपपञ्चविंशतिप्रकृतयश्चोदयन्तीति नानाजीवापेक्षया सप्ततिप्रकृतीनामुदयो भवति । न च कर्मस्तवादिग्रन्थेष्वप्रमत्त गुणस्थान के षट्सप्ततिप्रकृतीनामुदयो निगदितः, अत्र यथाप्रवृत्त करणे सप्ततिप्रकृतीनामुदयः कथमुच्यते ? इति वाच्यम्, तत्र सप्तमगुणस्थानकमाश्रित्योक्तत्वादत्र च क्षपक र धिकारत्वेन प्रथमवर्जसंहनन पञ्चक- सम्यक्त्वमोहनीयरूपपट् प्रकृतीनामुदयासंभवात् । अधोदयेन व्यवछिन्नाः प्रकृतय उच्यन्ते नामकर्मवशेषकर्मणां स्त्यानर्द्धित्रिक मिथ्यात्व - सम्यङ् मिध्यात्व- सम्यक्त्वमोहनीय-द्वादशकषाय-मनुष्यवर्जायुस्त्रय-नीचैर्गोत्ररूपा द्वाविंशतिः प्रकृतयो नामकर्मणश्च मनुष्यवर्जगतित्रिका नुपूर्वीचतुष्क- पश्च न्द्रियवर्जज तिचतुष्क-वैकियद्विकाऽऽहारकद्विक-प्रथमवर्जसंहननपञ्चकाऽऽतपोद्योत- स्थावरसूक्ष्म-साधारणाऽपर्याप्त-दुर्भगाऽनादेयाऽयशः कीर्तिरूपा एकोनत्रिंशत्प्रकृतय उदयेन व्यवच्छिन्ना जाताः । केषांचिज्जन्तूनां जिननामकर्मणस्त्वनुदयो विद्यते, क्षीणकषायगुणस्थानकादूर्ध्वं तेषां तदुदयसंभवात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूण- “थोणगिद्धितियं मिच्छत्तसम्मत्त सम्मामिच्छत्तबारसकसाय- मणुसाउगवज्जाणि आउणाणि णिरयगति-तिरिक्खगह- देवगइपाओग्गणामाओ आहारदुगं च वज्जरि सहसंघ उणवज्जाणि सेसाणि संघडणाणि मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी अपज्जत्तणामं असुहतियं तित्थयरणामं च सिया, णीचागोदं दाणि कम्माणि उदयेण वोच्छिण्णाणि " । अत्र “णिरयगइ - तिरिक्खगड - देवगइपाओग्गणामाओ" इत्यनेन नरकगति - तिर्यग्गति- देवगति-मनुष्यवर्जानुपूर्वीत्रिक जातिचतुष्क-वैक्रियद्विका - ऽऽतपोद्योतस्थावर-सूक्ष्म-साधारणप्रकृतीनां ग्रहणं कर्तव्यम् । “असुहतिगं" इत्यनेन दुर्भगानादेयायशः कीर्तीनां ग्रहणं कर्तव्यम् । उदीरणा तु वेदनीयद्विक- मनुष्यायुर्लक्षणप्रकृतित्रयं वर्जयित्वा शेषाणामुदयमानानां प्रकृतीनां भवति । तथा चोक्तं कषायप्राभृतचूर्णो- “आउगवेदणीयवज्जाणं वेदिज्जमाणाणं कम्माणं पवेसगो ।" अथ स्थित्युदयोऽभिधीयते - सर्वकर्मणामुदयप्राप्तस्यैकस्थितिस्थानकस्य तथोदीरणाकरणेन वेदनीयायुर्वर्जशेषकर्मणामुदयावलिकाया उपरितनानामन्तः सागरोपमकोटा कोटिमात्राणां स्थितीनामुदयों भवति । प्ररूप्यते - उदयमानानां प्रकृतीनामनुभागो ऽजघन्याऽनुत्कृष्ट अथानुभागोदयः उद वर्तते । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वकरणव्याख्यानम् ] अपूर्वकरणाधिकारः [२३ अथ प्रदेशोदयो निरूप्यते-उदयमानानां प्रकृतीनामजघन्यानुत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति । सम्प्रति क्रमप्राप्ता प्रकृतिसत्ताऽभिधीयते-दर्शनसप्तक-मनुष्यायुर्वजशेषायुष्कत्रिकलक्षगदशप्रकृतिवर्जशेषाऽष्टाचत्वारिंशदुत्तरशतप्रकृतयः (१४८) क्षपकणेरारोहकस्य सत्तायामुत्कृष्टतो भवन्ति । येन जीवेन जिननाम न बद्धम् , तस्य सत्तायां सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतप्रकृतयो (१४७) भवन्ति । येन त्याहारकसप्तकं न बद्धम् , तस्यैकचत्वारिंशदधिकशतं (१४१) प्रकृतयः सत्तायां भान्ति । येन त्वाहारकसप्तकजिननामरूपाऽष्टप्रकृतयो न बद्धाः, तस्य चत्वारिंशदुत्तरशतप्रकृतयः (१४०) सत्तायां भवन्ति । इत्थं यथाप्रवृतकरणे चत्वारि सत्तास्थानानि । अथ स्थितिसत्ता भण्यते-मनुष्यायुर्वर्जानां शेषकर्मणां स्थितिमत्ताऽन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा । अथ रससत्ता निगद्यते-अशुभानां कर्मणां द्विस्थानकरस पत्ता, शुभानां च चतु:स्थानकरससत्ता भवति । अथ प्रदेशसत्ता प्रतिपाद्यते-सर्वप्रकृतीनामजघन्यानुत्कृष्टप्रदेशसत्ता। संख्येयेषु स्थितिबन्धेषु गतेष्वन्तर्मुहूर्तप्रमाणं यथाप्रवृत्तकरणं परिसमापयति ॥१०॥ “यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायाद् यथाप्रवृत्त करणमभिधाय द्वितीयाधिकारमपूर्वकरणं प्रतिपादयितुमनाः प्राह-- सेकाले कुणइ अपुवकरणमेअम्मि होअइ विमोही। गोमुत्तिकमेण जहण्णा उकोसा अणन्तगुणा ॥११॥ अनन्तरकाले करोत्यपूर्वकरणमेतस्मिन भवति विशोधिः।। गोमूत्रिकाक्रमेण जघन्योत्कृष्टाऽनन्तगुणा ॥११।। इति पदसंस्कारः 'सेकाले' इत्यादि, सेशब्दो मगधदेशप्रसिद्धोऽथार्थकः, अथशब्दश्चात्राऽनन्तरार्थको योध्यः, 'मङ्गला-ऽनन्तरारम्भ-प्रश्न-कात्स्न्येष्वथो अथ ।” इत्यमरकोशवचनात् । एवमग्रेऽपि यथास्थानं व्याख्येयम् । 'अनन्तरकाले यथाप्रवृत्त करणवरमसमयादनन्तरसमये 'अपूर्वकरणं' संसारेऽप्राप्तपूर्वत्वाद् अर्वकरणव्यपदेशाह करणं करोति' विदधाति । यदुक्तं तत्त्वार्थसूत्रवृत्तौ “स ततः क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्य चरित्रघातिनोः शेषाः । क्षपयन् मोहप्रकृतोः प्रतिष्टते शुद्धलेश्याकः ॥१॥ प्रविशत्यपूर्वकरणं प्रस्थित एवं ततोऽपरं स्थानम् । तदपूर्वकरणमिष्टं कदाचिदप्राप्तपूर्वत्वात् ॥२॥” इति । अपूर्वाणि करणानि-स्थितिघातादीनां निर्वर्तनादीनि यत्रेति व्युत्पत्तिस्त्वनन्तरगाथया मूल एव दर्शयिष्यते । ___ अथाऽपूर्वकरणे विशोधि प्राह-एअम्मि' इत्यादि, 'एतस्मिन्' अपूर्वकरणे 'विशोधिः' विशुद्धिः 'गोमूत्रिकाक्रमेण' गोमूत्रधारासदृशक्रमेण जघन्योत्कृष्टा चाऽनन्तगुणा भवतीत्युपस्कारः। अयं भावः-इहाऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राण्यध्यवसायस्थानानि Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] . खवगसेढी [ गाथा १२-१३ भवन्ति, द्वितीयसमये तदन्यानि विशेषाधिकानि भवन्ति, ततोऽपि तृतीयसमये विशेषाधिकानि, एवं तावद्वाच्यानि, यावदपूर्वकरणचरमसमयः । एतानि स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्रक्षेत्रमभिव्याप्नुवन्ति । ननु द्वितीयादिसमयेष्वध्यवसायानां वृद्धौ किं कारणम् ? इति चेत् , उच्यते-प्रतिसमयं विशुद्धयन्तः खल्विह प्रतिपत्तारः स्वभावत एव बहवो विभिन्नेष्यध्यवयायस्थानेषु वर्तन्ते । अत्र यथाप्रवृत्तकरणचरमसमयभाव्युत्कृष्टविरोधितोऽपूर्वकरणप्रथमसमये जघन्यविशोधिरनन्तगुणा । ततस्तस्मिन्नेव समय उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणाः । ततोऽप्यपूर्वकरणस्य द्वितीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा । ततोऽपि तस्मिन्नेव समय उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा, एवंक्रमेण तावद् वाच्या, यावदपूर्वकरणचरमसमयः । अयं क्रमो गोमूत्रिकोपमया दर्शितः । तथाहि-गौ:बलिबदः, तस्याध्वनि गच्छतो वक्रतयेतस्ततः पतिता मूत्रधारा गोमूत्रिका भण्यते, यथा गोमूत्रिका वामभागतो दक्षिणभागे दक्षिणभागतश्च वामभागे वक्राकारेणाऽऽस्ते, तथैव जघन्यविशोधित उत्कृष्टविशोधिरुत्कृष्टविशोधितश्चाऽनन्तरससमयभाविजघन्यधिशोधिरनन्तगुगक्रमे ग तिष्ठति । तेनायं क्रमो गोमूत्रिकोपमया दर्शितः। इहाऽपूर्वकरणेऽपि यथाप्रवृत्तकरणवत् प्रतिसमयमूर्ध्वमुखी विशुद्धिरनन्तगुणा,तिर्यङमुखी चषट्स्थानपतिता भवति । नवरमूर्ध्वमुखी विशुद्धिर्नानाजीवापेक्षयाऽपि प्रतिसमयमनन्तगुणा भवति ॥११॥ सम्प्रत्यपूर्वकरणं नाम सान्वर्थमिति व्युत्पिपादयिषुराहबीयकरणपढमसमयओ ठिइघाओ सुहासुहाण तहा। गुणसंकमो असुहपयडीणं अणुभागघाओ य ॥१२॥ अण्णो य द्विइबंधो गुणसेढि त्ति अहिगारपंचतयं । जुगवं पयट्टइ तओ णाम अपुवकरणं अत्थि ॥१३॥ द्वितीयकरणप्रथमसमयतः स्थितिघातः शुभाऽशुभानां तथा । गुणसंक्रमोऽशुभप्रकृतीनामनुभागघातश्च ॥ १२ ॥ अन्यश्च स्थितिबन्धो गुणश्रेणिरित्यधिकार पश्चतयम् । युगपत्प्रवर्तते ततो नामाऽपूर्वकरणमस्ति ।। १३ ।। इति पदसंस्कारः । 'बीयः' इत्यादि, 'द्वितीयकरणप्रथम मयतः' अपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य 'शुभाशुभानां' शुभानाम् आयुर्वर्जसातवेदनीयादीनाम् अशुभानां मतिज्ञानाधरणादीनां स्थितिघातः' स्थितेः प्रत्यन्तर्मुहूर्त पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणस्थित्या घातः अपर्वतनाकरणेनाऽल्पीकरणम् , 'तहा'इत्यादि तथा' तथाशब्दः समुच्चये, अशुभप्रकृतीनाम्-अवध्यमानानामप्रत्याख्यानावरणादिप्रकृतीनां 'गुणसङ्क्रमः' गुणेन प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण सङ्क्रमः अन्यरूपेण परिणमनम् , 'अणुभागविधाओ य' त्ति, घण्टालालान्यायेन 'असुहपयडीणं'ति पदमत्राऽपि सम्बध्यते । ततश्चाऽयमर्थः-अशुभप्रकतीनां मतिज्ञानावरणादीनां 'अनुभागघातश्च' अनुभागस्यबह्वनन्तभागप्रमाणस्य रसस्य 'घातः' खण्डनम् , चकारः समुच्चये, एवमग्रेऽपि । 'अण्णो' इत्यादि, 'अन्यश्च स्थितिबन्धः' अन्यो-यथा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिखण्डम् ] अपूर्वकरणाधिकारः [२५ प्रवृत्तकरणस्य चरमस्थितिवन्धतः पल्योपमसंख्येयभागहीन इतरोऽभिनवः स्थितिबन्धः,चकारः समु. च्चये, 'गुणसेढी' त्ति 'गुणश्रेणिः' गुणेन-प्रतिसमयमसंख्येयगुणक्रमेण दलिकंगृहीत्वाऽन्तमुहूर्तमात्रनिषेकाणामुदयनिषेकादारभ्य प्रतिनिषेकेऽसंख्येयगुणकारेण श्रेणिः-दलरचना, इतिशब्द इयत्ताऽवधारणार्थकः, 'अधिकारपञ्चतयं' स्थितिघातगुणसंक्रमरसघाताऽपूर्वस्थितिबन्धगुणश्रेणिरूपं युगपत्प्रवर्तते । तत्र पञ्चाऽवयवा अस्य समुदायस्येति पञ्चतयम् , “अवयवात् तयट्" ( सिद्धहेम० ७-१-१५१ ) इति सूत्रेण तद्धिततयट्प्रत्ययः, अधिकाराणां पञ्चतयमिति षष्ठीतत्पुरुषसमासः, पश्चानामधिकाराणां समुदाय इत्यर्थः। न चात्रा-ऽधिकारशब्दस्य पञ्चशब्दस्य चा-ऽभेदान्वये पञ्चशब्दस्या-ऽधिकारशब्दसापेक्षत्वेना-ऽसामर्थ्यात्तद्धिता-ऽनुपपत्तिः, "सापेक्षमसमर्थम्" इति वचनादिति वाच्यम्, यतः पञ्चाऽवयवा अस्य समुदायस्येति पञ्चतयमिति प्रथमं व्युत्पाद्य पञ्चशब्दस्याधिकारशब्दमनपेक्ष्येव समुदायेऽन्वयान्नास्त्यसामर्थ्यम् । पश्चाच्चा-ऽधिकाराणां पञ्चतयमित्यधिकारशब्दः समुदायेऽन्वेति, तस्य प्रत्ययार्थतया प्रधानत्वात् । न त्वधिकारशब्दस्य पञ्चतयशब्दैकदेशभूतपञ्चशब्देना-ऽभेदान्वयः "पदार्थः पदार्थेनाऽन्वेति न तु तदेकदेशेन", इति न्यायात् । ततश्चाऽधिकारशब्दपञ्चशब्दयोः परस्परवार्ताऽनभिज्ञयोरेव शब्दमर्यादया समुदायेऽन्वये सति पश्चात् संख्यायाः परिच्छेदकत्वस्वभावतया पञ्चत्वस्य परिच्छेद्यपालोचनायां प्रत्यासत्त्याऽधिकारा एव परिच्छेद्यतया सम्बध्यन्ते-पञ्चानामधिकाराणां समुदाय इति । "तओ" इत्यादि, 'ततः' अधिकारपञ्चतयस्य युगपत्प्रवर्तनाद् अपूर्वकरणं नाम 'अस्ति' भवति, अपूर्वाणि-अभिनवानि करणानि-स्थितिघातरसघातगुणसंक्रमगुणश्रेणिस्थितिबन्धानां निर्दतनानि यस्मिन् तदपूर्वकरणमिति व्युत्पत्तेरित्यर्थः ॥१२-१३॥ अपूर्वकरणं व्युत्पाद्य तत्र प्रवर्तमानस्थितिघाताऽऽदीनां स्वरूपं व्याजिहीर्घ रादौ स्थितिघातस्य स्वरूपं प्रकटयति उक्कोसं ठिइखण्डं वि पल्लसंखेज्जभागमाणं । खंडइ अवरत्तो संखेज्जगुणं जाव तक्करणं ॥१४॥ उत्कृष्टं स्थितिखण्डमपि पल्यसंख्येयभागमानं खलु । खण्डयत्यपरस्मात् संख्येयगुणं यावत् तत्करणम् ॥ १४ ॥ इति पदसंस्कारः । स्थितिघातो नाम स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमभागात् स्थितिं घातयति । तत्र जघन्यतः पल्योपमसंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डं प्रत्यन्तमुहूत विघातयति । प्रथमौपशमिकसम्यक्त्वोत्पाद-देशविरति-सर्वविरत्यनन्तानुबन्धिविसंयोजना-दर्शनत्रिकक्षपणाप्रभृतिषूत्कृष्टतः स्थितिखण्डं सागरोपमपृथ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] खवगसेढी [ गाथा-१४ क्त्वप्रमितं भवति । इह चारित्रमोहनीयक्षपणायां कियद्भवतीति शङ्कापरिहारार्थमाह-"उक्कोसं" इत्यादि, उत्कृष्टमपि अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वेनाऽत्र योजनात् , स्थितिखण्डं पल्यसंख्येयभागमानं खलु 'खण्डयति' विघातयति, दर्शनत्रिकक्षपणायां घातितावशेषस्थितिसत्कर्मणः सागरोपमपृथक्त्वप्रमाणखण्डा-निर्हत्वात् क्षीणसप्तकस्य स्थितिसत्कर्मणो वृद्धरसंभवाच्च । उक्तं च कषायप्राभृतची-"जहा दंसणमोहणीयस्स उवसामणाए च दंसणमोहणीयस्स खवणाए च कसायाणमुवसामणाए च एदेसिं तिण्हं आवासयाणं जाणि अपुव्वकरणाणि तेसु अपुव्वकरणेसु पढमहिदिखंडयं जहण्णयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो उक्कस्सयं सागरोवमपुधत्तं, एत्थ पुण कसायाणं खवणाए जं अपुव्वकरणं तम्हि अपुव्वकरणे पढमहिदिखंडयं जहण्णयं पि उक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदि. भागो।" ननूत्कृष्टं स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागमानं भवदपि जघन्यतः कियद्गुणं भवति ? इत्यत आह–'अवरत्तो' इत्यादि, 'अपरस्मात्' जघन्यस्थितिखण्डात् संख्येयगुणमुत्कृष्टस्थितिखण्डं भवति । ननु जघन्यस्थितिखण्डतः उत्कृष्टस्थितिखण्ड संख्येयगुणं कियन्तं कालं भवति ? इत्यतः प्राह-'जाव' इत्यादि, यावत् 'तत्करणम्' अपूर्वकरणम्, अपूर्वकरणे प्रथमस्थितिखण्डादारभ्य चरमस्थितिखण्डं यावत् जघन्यस्थितिखण्डत उत्कृष्टस्थितिखण्डं संख्येयगुणं भवतीत्यर्थः । जघन्यस्थितिखण्डं कस्य जन्तोर्भवति, उत्कृष्टं पुनः कस्य भवतीति जिज्ञासानोदिता वयमभिदध्महे एको जन्तुर्दर्शनमोहनीयं क्षपयित्वा यथासंभवं कालान्तरे उपशमश्रेणिमारोहति, तदानीमेवा-ऽन्योऽक्षपितदर्शनमोहनीय उपशमश्रोणि प्रतिपद्यते । तत उभौ पततः । पतित्वा च द्वितीयो जन्तुर्दर्शनत्रिक क्षपयति । तदनन्तरमुभौ जन्तू युगपत् चारित्रमोहक्षपणामुपक्रमेते । तत्रा-ऽपूर्वकरणे प्रथमजन्तोः स्थितिसत्त्वं द्वितीयजन्तुतः संख्येयगुणं भवति, यत उपशमश्रेणी उभयोः स्थितिसत्त्वं मिथः सदृशं जातम् । ततः पुनदर्शनत्रिकक्षपणा-ऽपूर्वकरणे द्वितीयजन्तुना स्वस्थितिसचं संख्येयगुणहीनं क्रियते, प्रथमजन्तुना तु स्वस्थितिसचं संख्येयगुणहीनं न निवेत्येते, उपशमण्यारोहणतः प्राग दर्शनत्रिकस्य क्षपितत्वात् । इत्थं द्वितीयपुरुषतो प्रथमपुरुषस्य स्थितिसत्त्वं संख्ययगुणं भवति । एवं प्रकारान्तरेणाऽपि संख्यातगुणं स्थितिसत्त्वं भावनीयम् । स्थितिखण्डस्य च स्थितिसत्त्वानुसारित्वादपूर्वकरणे द्वितीयपुरुषस्य प्रथमस्थितिखण्डतः प्रथमपुरुषस्य प्रथमस्थितिखण्डं संख्येयगणं सिध्यति । एवमेव द्वितीयपुरुषस्य द्वितीयखण्डतः प्रथमपुरुषस्य द्वितीयखण्डं संख्येयगुणं भवति, एवं तावद्वाच्यम् , यावदपूर्वकरणस्य चरमस्थितिखण्डम् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"दो कसायक्खवगा अपुवकरणं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसंक्रमः ] अपूर्वकरणाधिकारः समगं पविट्ठा,एक्कस्स पुण द्विदिसंतकम्मं संखेजगुणं एक्कस्य हिदिसंतकम्मं संखेजगुणहीणं, जस्स संखेजगुणहीणं डिदिसंतकम्म तस्स हिदिखंउयादो पढमादो संखेजगुणहिदिसंतकम्मियस्स ठिदिखंडयं पढमं संखेजगुणं, विदियादो विदियं संखेनगुणं, एवं तदियादो तदिगं, एदेण कमेण सव्वम्हि अपुव्वकरणे जाव चरिमादो ठिदिखंडयादो त्ति तदिमादो तदिम संखेजगुणं ।” अपूर्वकरणप्रथमसमयात्प्रभृति प्रतिसमयं पल्योषमसंख्येयभागप्रमाणस्थितिखण्डतो दलिकमुत्किरति, उत्कीर्य चा-ऽधस्तात् प्रक्षिपति । एवं स्थितिघाताद्धाया द्विचरमसमयं यावत् पल्योपमसंख्ययभागप्रमाणां स्थिति दलिकापेक्षया तन्वीं करोति, चरमसमये तु तद्गतशेषसर्वदलं गृहीत्वा-ऽ धस्तात् प्रक्षिपति, तेन तदानीं सत्तायां पल्योपमसंख्येयभागेन स्थितियूंना भवति । स्थितिघाताद्धा चा-ऽन्तमुहूर्तप्रमाणा भवति । प्रथमस्थितिघाते पूर्णे पुनः पल्योपमसंख्येयभागमानं द्वितीयं स्थितिखण्डमुत्करितुमारभते, अन्तमुहूर्तप्रमाणस्थितिघाताद्धाया द्विचरमसमयं यावत् स्थितिखण्डगतां स्थितिं प्रदेशापेक्षया तन्वीं करोति, चरमसमये तु तद्गतं शेपं सर्व प्रदेशाग्रमुत्कीर्या-ऽधस्तात प्रक्षिपति, तेन तदानीं सत्कर्मणि पुनः पल्योपमसंख्येयभागेन स्थितिींना भवति । इत्थं द्वितीयस्थितिघातः पूर्णो भवति । एवंक्रमेण संख्यातसहस्रषु स्थितिघातेषु गतेष्वपूर्वकरणं परिसमाप्ति याति । (पश्यन्तु यन्त्रकम्-१) स्थितिघातस्य विशेषस्वरूपं तु कर्मप्रकृतिग्रन्थे उपशमनकरणगतसम्यकत्वोत्पादटीकायां निरूपितम् , विशेषार्थिना ततो-ऽवसेयम् ॥१४॥ सम्प्रति गुणसंक्रमं निगदितुकाम आहअसुहपयडीण-ऽसंखगुणं दलिअंखिवइ अन्नासु। बंधतासु सपयडीसु अणुखणं स गुणसंकमो णेयो ॥१५॥ (उद्गीतिः) अशुभप्रकृतीनामसंख्यगुणं दलिकं क्षिपत्यन्यासु। बध्यमानासु स्वप्रकृतिष्वनुक्षणं स गुणसंक्रमो ज्ञ यः ।। १५ ।। इति पदसंस्कारः। 'असुह०' इत्यादि, अपूर्वकरणप्रथमसमयात्प्रभृति 'अशुभप्रकृतीनाम्' "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः” इति न्यायाद् अबध्यमानानामशुभप्रकृतीनामप्रत्याख्यानावरणादिरूपाणां 'दलिक' प्रदेशाग्रम् 'अनुक्षणं' प्रतिसमयम् 'असंख्यगुणम्' असंख्यातगुणं येन संक्रमेण यत्तदोः सापेक्षत्वादुत्तरत्र तत्पदोपादानदर्शनाद् यत्पदोपादानम्, बध्यमानासु 'अन्यासु' परासु 'स्वप्रकृतिषु' स्वजातीयप्रकृतिषु 'क्षिपति' संक्रमयति, स गुणसंक्रमो 'ज्ञयः' बोद्धव्यः । यदुक्तं कषायप्राभृत Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] खवगसेढी [ गाथा-१६ चूणौँ-"जे अपसत्थकम्मंसाण बज्झति तेसिं कम्माणं गुणसंकमोजादो।" अयं भावः गुणसंक्रमेणा-ऽपर्वकरणप्रथमसमये बध्यमानासु परप्रकतिष्धबध्यमाना-ऽशुभपकृतीनां यावत् प्रदेशाग्रं संक्रमयति, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं संक्रमयति, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् । एवमग्रेतनेष्वपि समयेषु वक्तव्यम् ।। १५॥ गुणसंक्रममभिधाय रसघातं व्याख्यातुकाम आहखंडइ अणंतभागा रसस्स णत्थि च सुहाण रसवात्रो। एक्केक्कम्मि ठिइविधाये रसघाया सहस्साइं॥ १६ ॥ खण्डयत्यनन्तभागान् रसस्य नास्ति च शुभानां रसघातः । एकैकस्मिन् स्थितिविघाते रसघाताः सहस्राणि ।। १६ ॥ इति पदसंस्कारः । 'खंडई' इत्यादि, तत्र 'रसस्य' शुभप्रकृतीनां प्रतिषेधस्य वक्ष्यमाणत्वात् सामर्थ्यात् सत्तागता-ऽशुभप्रकृतीनामनुभागस्य 'अनन्तभागान्' अनन्तबहुभागान् ‘खण्डयति' रसघाताद्धया विघातयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"अणुभागखंडयं च आगाइदं, तं पुण अप्पसत्थाणं कम्माणमणंता भागा ।” इदमत्र हृदयम्-रसघाताद्धाऽन्तमुहूर्तमात्रा भवति । एकस्यां रसघाताद्धायां सत्तागता-ऽनुभागस्या-ऽनन्ता बहुभागा विनाश्यन्ते,एकश्चाऽनन्ततमभागः सत्कर्मणि विमुच्यते । एवं प्रतिरसघाताद्धमनन्तबहुभागान् घातयित्वैकभागं परित्यज्य प्रत्यन्तमुहूर्तमनुभागसत्त्वमनन्तगुणहीनं करोति । अशुभानां प्रकृतीनामेव रसघातो भवति, अतः शुभानां रसघातनिषेधाय भणति—'णत्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न भवति च 'शुभानां' सातवेदनीयादीनां रसघातः । 'एकैकस्मिन्'-एकस्मिन् एकस्मिन् “वीप्सायाम्” (सिद्धहेम० ७-४-८०) इति द्विरुक्त एकशब्दः। “प्लुप चादावेकस्य स्यादेः” (सिद्धहेम०७-४-८१) इति द्विक्तस्यैकशब्दस्य स्यादेलुप् भवति, प्रत्येकस्मिन्नित्यर्थः, स्थितिघाते रसघाताः सहस्राणि भवन्तीति शेषः । अयं भावः-स्थितिघातेन सहैव रसघातः प्रारभ्यते, तनिष्ठा तु स्थितिघाततः प्रागेव भवति, एकस्मिन् स्थितिघाते रसघातसहस्राणां दर्शनात् । यदा पुनरभिनत्रः स्थितिघातः प्रारभ्यते, तदा रसघातोऽपि प्रारभ्यते । अपूर्वकरणाद्धायां स्थितिघातानां सहस्रत्वप्रतिपादनाद्रसपाता अपि सहस्राणि गच्छन्ति ॥१६॥ अथाभिनवस्थितिबन्धं व्याचिख्यासुराह बंधो अंतोकोडाकोडी सत्ताउ संखगुणहीणो। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ] यन्त्रकम् - १ (चित्रम् - १) अपूर्वकरणे चित्रेण प्रदर्श्यमानः स्थितिघातः (गाथा - १४) [ खवगसेडी पूर्वकरणप्रथमसमये अन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं स्थितिसत्कर्म जघन्यं स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागमात्रम्, ततः संख्ये यगुणमुत्कृष्टं स्थितिखण्डम्, तदपि पल्योपमसंख्येयभाग प्रमाणम् । स्थितिखण्डम् यभागप्रमाणं पल्योपमसंख्ये स्थितिघाताद्धाद्विचरमसमयं यावत् पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणा स्थितिर्दलिकापेक्षया तन्वी भवति । स्थितिघाताद्धाचरमसमये तत्स्थितिखण्डगत सर्वदलिकानि गृहीत्वाऽधस्तात् प्रक्षिपति, तेन तदानीं स्थितिसत्ता पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूना भवति । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगसेढी ] बध्यमानानां कर्मप्रदेशानां निषेकरचना यन्त्रकम् - २ ( चित्रम् - २ ) अपूर्वकरणे चित्रेण प्रदर्श्यमानः स्थितिबन्धः अपूर्वकरणे प्रथमस्थितिबन्धः अबाधा अपूर्वकरणप्रथमस्थितिबन्धोऽन्तः सागरोपमकोटी कोटी प्रमाणः स्थितिसत्कर्मतश्च संख्ये गुणहीनः । अपूर्वकरणे प्रथमस्थितिबन्धाद्धायां पूर्णायां द्वितीयस्थितिबन्धः प्रथमस्थितिबन्धापेक्षया पल्योपमसंख्येयभागेन न्यूनो भवति, एवमग्रेऽपि । बध्यमानानां कर्मप्रदेशानां निषेकरचना [ २९ अबाधा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ववगसेढी ] यन्त्रकम् - ५ ( चित्रम् - ५ ) । अपूर्वकरणप्रथमसमयेऽनुसमय उदयवतीनां प्रकृतीनां गुणश्रेणिः गुणश्रेण्या उपरि द्वितीयादिनिषेकेषु विशेषहीनक्रमेण दलं दीयते, उदयावलिकावर्ज करणद्वयकालतो विशेषाधिको गुणश्रेण्यायामः १०००००००• १००००००.. -१०००००... -20000 -१००० .१०० -९० 00 000 प्रथमसमयतः समयोनो गुणश्रेण्यायामः गुणश्रेण्या उपरि द्वितीयादिनिषेकेषु विशेषहीनक्रमेण दलं दीयते । यन्त्रकम् - ६ (चित्रम् - ६ ) [३० अपूर्वकरण द्वतीयसमयेऽनुदयवतीनां प्रकृतीनां गुणश्रेणिः 900000000 20000000 *१०००००० १-१००००० -१०००० -9000 -£ 3 *** ㄎㄚ •••• अनेन चिनी यमानं दलं सूचितम् । ०००० अनेन चिह्न ेन दीयमानदलिकतो व्यतिरिक्तं सत्तागतं दलं सूचितम् । उदयेनैकनिषेकः क्षीणः । उ= उदद्यावलिका । क = अपूर्वकरणप्रथमसमय उदद्यावलिकाया उपरितनः प्रथमो निषेक आसीत् सोऽधुना चोदयावलिकायां प्रविष्टः । तस्मिंश यद् दलमपूर्वकरणप्रथमसमये प्रक्षिप्तम्, तद् अनेन चिह्न ेन सूचितम् । दशसंख्या त्वत्राऽसंख्येयत्वेन परिकल्पिता । तेनोत्तरोत्तरगुणश्रेणिनिषेके दशगुणक्रमेण दीयमानानि दलिकानि चित्रे दर्शितानि वस्तुतस्त्वसंख्येयगुणक्रमेण दर्शयितव्यानि । गुणण्या उपरि प्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणहीनं दलं दीयते ततः परं सर्वत्र विशेषद्दीनक्रमेण । 00 PO Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ] यन्त्रक-३.(चित्रम्-३) । ( यन्त्रकम्-४ (चित्रम्-४) [ ३० अपूर्वकरणप्रथमसमय उदयवतीनां प्रकृतीनां गुणश्रेणिः अपूर्वकरणद्वितीयसमय उदयवतीनां प्रकृतीनां गुणश्रेणिः 0000 100000 0.0000000 60909 1000000 -100000 ..100.००.०० Fort-6000 0000000.0000 OHORDPRO 190/980 गुणश्रेणेरुपरितनेषु निषेकेषु दलिकनिक्षेपः गुणश्रेण्यायामः, स च करणद्वयकालतो विशेषाधिकः । तत्र चासंख्येयगुणक्रमेण दलिकप्रक्षेपः । Media: 10000 00000 ०००००००0000000000000000000 0000000000000000000000000000 00000000000000000000000 9000000 ०००००००००० DOO गुणश्रेणेरुपरितनेषु निषेकेषु दलिकनिक्षेपः गुणश्रेण्यायामः, स च प्रथमसमयापेक्षयैकसमयेन हीनः, तत्र चासंख्येयगुणक्रमेण दलिकप्रक्षेपः -10.००० *.10...... । .10.. ....। 100०१००० -1000०.. ...100.00 ..10. ... 000 200000000000०००० १०००००००००००००० an 2000000000..०००० +१000000bhaooooo -००००००० .00000000.leo००० ००००००० ०००००००० -.-..-.-०००००००० 20000... -०००००००० Ppo00०००००००० --.-०००००००० -200.....lo०००००० R:...100०००००० 1-8000000000000......is Pana90000000 10....०.००.०० 4१०000000000 6.०००.०० २००ccapaba. 10.6666०००। Roanapatro 1064680.. १0000000 • 10660/0940 HEoooooo 160609 Likooca: 10....०००१ 120000 16.600000000 ००००००००० 2000 सङ्केतविवरणम्१३ (१) ००० एभिः शून्यैर्गुणश्रेणितः प्राग निषेकरचना सूचिता । । (२) .....“एतैबिन्दुभिरपूर्वकरणप्रथमसमये दीयमानं दलं सूचितम् । (३) दशसंख्या-ऽत्राऽसंख्येयत्वेन कल्पिता, तेन गुणश्रेण्यामुत्तरोत्तरनिषेके दशगुणं दलं दोयते,वस्तुतस्त्वसंख्येयगुणं'दलं दीयते । गुणश्रेणिचरमनिषेकतोऽसंख्येयगुणहीनं दलं तदुपरितने निषेके प्रक्षिपति, ततः सर्वत्र विशेषहीनक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावदतीत्थापनाऽप्राप्ता भवति । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणश्रेणिः ] अपूर्वकरणाधिकारः [ २६ पूरणे ठिइबंधे अण्णो होजइ पल्लसंखभागोणो ॥१७॥ (गीतिः) बन्धोऽन्तःकोटिकोटि सत्तायाः संख्यगुणहीनः । पूर्णे स्थितिबन्धो-ऽन्यो भवति पल्यसंख्यभागोनः ॥१७।। इति पदसंस्कारः । 'बंधो' इत्यादि, अपूर्वकरणप्रथमसमये 'बन्ध' : स्थितिवन्धः 'अन्तःकोटिकोटि' अन्तःसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणः सागरोपमकोटिशतसहस्रपृथक्त्वमात्र इत्यर्थः । ननु तदानीं स्थितिसत्त्वमप्यन्तःसागरोपमकोटिकोटिमितं भवति, द्वाविंशतितमगाथायां तत्प्रतिपादनदर्शनात्, तर्हि किं स्थितिबन्धस्थितिसत्चयोस्तुल्यत्वम्, उत वैषम्यमिति शंकापरिहारार्थमाह-'सत्ताउ' इत्यादि, 'सत्तायाः' स्थितिसत्कर्मतः संख्यगुणहीनः स्थितिबन्धो भवति, न तुल्यः । उक्तं च कषायप्राभृतची-"तदो ठिदिसंतकम्म ठिदिबंधो च सागरोवमकोडिसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडाकोडीए बंधादो पुण संतकम्मं संखेजगुणं।" कषायप्राभृतचूर्णो स्थितिवन्धतः स्थितिसत्त्वस्य संख्येयगुणत्वप्रतिपादनात् स्थितिसत्त्वतः स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनः सिध्यति । अपूर्वकरणप्रथमसमये प्रारब्धः स्थितिबन्धोऽन्तमुहूतं यावत्प्रवर्तते । प्रथमस्थितिवन्धे पूर्णे यो विशेषस्तं दर्शयति-'पूष्णे' इत्यादि, 'पूर्णे स्थितिवन्धे' प्रथमस्थितिबन्धे निष्ठिते 'अन्य' द्वितीयः ‘पल्यसंख्यभागोनः' पल्यस्य-पल्योपमस्य संख्यभागः-संख्यातभागः, तेन ऊनः-हीनः, “ऊनार्थपूर्वाद्यः" ( सिद्धहेम० ३-१-६७ ) इति तृतीयातत्पुरुषसमासः, स्थितिबन्धो 'भवति' जायते । उपलक्षणमेतद्, तेन द्वितीयस्थितिबन्धे पूर्णे तृतीयस्थितिवन्धः पूर्वतः पल्योपमसंख्येयभागेन हीनः प्रारभ्यते । एवंक्रमेण पूर्वपूर्वतः पल्योपमसंख्येयभागेन हीनो हीनतरः स्थितिबन्धो जायते । स्थितिबन्धाद्धा स्थितिघाताद्धया तुल्या भवति, तेन स्थितिबन्धः स्थितिघातश्च युगपदारभ्येते युगपनिष्ठां च यातः । अपूर्वकरणे स्थितिघातानां संख्येयत्वोपलम्भात् स्थितिबन्धा अपि संख्येया व्रजन्ति । ( पश्यन्तु यन्त्रकम्-२ ) ॥ १७ ।। अथ गुणश्रेणिं विवर्णयिपुराहगुणसेढीए अायामो हवए करणदुगऽहिरो गलियो। खिवइ दलं कमसो घेत्तण-ऽणुसमयं असंखगुणणाए ॥१८॥ (गीतिः) गुणश्रेणेरायामो भवति करणद्विकाऽधिको गलितः । क्षिपति दलं क्रमशो गृहीत्वा-ऽनुसमयमसंख्यगुणनया ॥१८॥ इति पदसंस्कारः । अपूर्वकरणप्रथमसमयादेवायुर्वर्जसप्तकर्मणां गुणश्रेणिः प्रवर्तते । तत्र गुणश्रेणिनिक्षेपः कियान् भवतीत्यत आह-'गुणसेढीए' इत्यादि, गुणश्रेणेः 'आयामः' उदयसमयप्रभृतिगुणश्रेणिशिरःपर्यव Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] खवगसेढी [गाथा-१८ साननिषेकरूपः 'करणद्विकाऽधिकः'करणद्विकेन-अपूर्वकरणानिवृत्ति करणाभ्यामधिकोस भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी--"अपुवकरणडादो अणियट्टिकरणडादो च विसेसुत्तरकालो।" सचाऽऽयामोऽन्तमुहूर्तमात्रो भवन्नपि 'गलितः'गलितावशेषमात्रो ज्ञातव्यः, पूर्वपूर्वसमये क्षीणे शेषेषु शेषेषु समयेषु दलिकनिक्षेपो भवतीत्यर्थः । ननु निरुक्तगुणश्रेण्यायामे केन क्रमेण दलिकं गृहीत्वा प्रक्षिपति ? इत्यत आह–'खिवई' इत्यादि, 'असंखगणणाए' इति पदं ग्रहणक्रियायां प्रक्षेपक्रियायां चोभयत्राऽन्वेति । 'असंख्यगणनया' असंख्ययगणकारेण 'अनुसमयं प्रतिसमयं दलं 'गृहीत्वा' आदायाऽसंख्येयगुणकारेण 'क्षिपति' निक्षिपति । इदमत्र हृदयम्-अपूर्वकरणप्रथमसमयादुदयमानप्रकृतीनां सत्तागतप्रेदशतो दलं गृहीत्वा नव्यशतककारादीनां मतेनोदयसमयादारभ्या-ऽन्तमुहूर्तमात्रा-ऽऽयामे-ऽरांख्ययगुणकारेण दलं रचयति । तथा चा-ऽत्र नव्यशतकम्-"कथंपुनर्दलरचना ? कस्माच्चारभ्य केन च गुणकारेण विधीयते जन्तुनेत्याहअनुसमयं समय समयमनुलक्षीकृत्य प्रतिसमयमित्यर्थः । उदयादुदयक्षणादारभ्याऽसंख्येयगुणनयाऽसंख्यातगुणकारेण ।" कषायप्राभूतचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण तूदयावलिकाया उपरितननिषेकादारभ्या-ऽन्तमुहूर्तप्रमाणे आयामे गणश्रेणिं करोति, असंख्योयगणकारेण दलं रचयतीत्यर्थः । तथा च तद्ग्रन्थः-"गुणसेढी उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता।" भावार्थः पुनरयम्-अपूर्वकरणप्रथमसमये दलिकमुत्कीर्य गुणश्रेण्यायामगतोत्तरोत्तरनिषेकेऽसंख्योयगणक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावद् गुणश्रेण्यायामसत्कचरमनिषेकः । तदनन्तरोपरितननिषेके ऽसंख्योयगुणहीनं दलिकं निक्षिप्योपरि विशेषहीनक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावदतीस्थापना-ऽप्राप्ता भवति । पुनर्द्वितीयसमयो प्रात्त नसमयगृहीतदलतो-ऽसंख्योयगुणदलमादाय प्रथमसमयत एकसमयोनप्राक्तनगुणश्रेण्यायामे उत्तरोत्तरनिषेके-ऽसंख्येयगुणक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावद् गुणश्रेण्यायामसत्कचरमनिषकः, एकसमयस्योदयोन वेदितत्वात् । तदनन्तरोपरितननिषेके तु गुणश्रेण्यायामचरमनिषकतो-ऽसंख्योयगुणहीनं दलिकं निक्षिपति, तत ऊर्ध्वं विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । एवमुत्तरोत्तरसमो पूर्वपूर्वतो-ऽसंख्येयगुणं दलमादाय गलिता-ऽवशेषमात्रे गुणश्रेण्यायामे-ऽसंख्ययगुणक्रमेण निक्षिपति । अनुदयवतीनां प्रकृतीनां पुनर्गुणश्रेणिरुभयेषां मतेनोदयावलिकाया उपरितननिषेकात्प्रभृति भवति । (पश्यन्तु यन्त्रकम्-३, ४, ५, ६) ॥१८॥ * आधिक्यं च जयधवलाकारैः सूक्ष्मसम्परायक्षीणमोहच्छमस्थगुणस्थानकाद्धाद्वयेन किश्चिदधिक दर्शितम् । तथा च तद्ग्रन्थः-"एत्थ विसेसाहियपमाणं सुहुमसाम्पराइयखीणकसायद्धाहितो विसेसुत्तरमिदि घेत्तन्वं।" . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] अपूर्वकरणाधिकारः [३१ ननु संसारावस्थायां संक्लिष्टपरिणामा मिथ्यादृष्टिप्रभृत्यप्रमत्तसंयतपर्यवसानाः सर्वे जीवाः सर्वाः स्थिती( कां स्थितिं वा-ऽऽश्रित्योत्कीर्णदलिकतो बहुदलमुद्वर्तयन्ति,स्तोकं त्वपवर्तयन्ति । मध्यमपरिणामास्तु यावद् दलमुद्वर्तयन्ति, तावद् दलमपवर्तयन्ति । विशुद्धपरिणामाः पुनः स्तोकमुद्वर्तयन्ति बहु दलमपवर्तयन्ति । अनुत्कीर्ण सत्तागतदलं तु त्रिविधानामपि जन्तूनामुद्वर्तनातो-ऽपवर्तनातो वाऽसंख्येयगुणं विद्यते । यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-"अक्खवगाणुवसामगस्स पुण सव्वाओ हिदीओ एगहिदि वा पडुच्च वढीदो हाणी तुल्ला वा विसेसाहिया विसेसहीणा वा । अवठाणमसंखेजगुणं ।" करणाभिमुखानां तूद्वर्तनातोऽपवतेनायामसंख्येयगुणं दलिकं भवति, ततोऽनुत्कीर्यमाणं सत्तागतदलमसंख्येयगुणं भवतीति, तर्हि क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य जन्तोरुद्वर्तनादीनामल्पबहुत्वं कथं भवतीति शंकापरिहारार्थमाह उवट्टणाअ खु असंखगुणा अोवट्टणा तो सत्ता। जं उक्किएणस्स असंखंसो उव्वट्टणाअ होएइ ॥१६॥ (गीतिः) उद्वर्तनायाः खल्पसंख्यगुणाऽपवर्तना ततः सत्त्वम् । यद् उत्कीर्णस्य असंख्यांश उद्वर्तनायां भवति ।।१६।। इति पदसंस्कारः। 'उव्वदृणाअ' इत्यादि, 'उद्वर्तनायाः' उद्वर्तनातः 'खु' त्ति खलु-निश्चयेन "हु खु निश्चयवितर्कसंभावने विस्मये" (सिद्धहेम० ८-२-१९८) इति वचनात् असंख्यगुणा अपवर्तना, 'ततः' अपवर्तनातः सत्ताऽसंख्येयगुणा । अत्र सत्ताशब्देन उद्वर्तनाऽपवर्तनागतदलं वर्जयित्वा शेषप्रदेशसत्ता ग्राह्या । अयं भावः-एकनिषेकं सर्वनिषेकांश्चा-ऽऽश्रित्योद्वय॑मानप्रदेशाग्रतोऽपवर्त्यमानप्रदेशाग्रमसंख्येयगुणं भवति, ततः सत्तागतप्रदेशाग्रं यद् नोद्वय॑ते, नवाऽपवाते, तदसंख्येयगुणं भवति, सतागतदलसत्काऽसंख्येयभागमात्रस्यौव दलस्योत्कीर्णत्वात् । ननूद्वर्तनातोऽपवर्तनाऽसंख्योयगुणा कुतो भवतीत्याह-'ज' इत्यादि, 'यद्' यतः 'उत्कीर्णस्य' उत्कीर्णप्रदेशाग्रस्य 'असंख्यांशः' एकोऽसंख्योयभाग उद्वर्तनायां भवति, शेषा बहुभागास्त्वपवर्तनायां भवन्तीत्यर्थः । तेन क्षपकस्योद्वर्तनागतदलतोऽपवर्तनागतदलमसंख्योगुणं भवति । तथाहि-यस्मात्कस्माच्चिदपि निषेकात् सत्तागतदलं पल्योपमाऽसंख्यभागरूपभागहारेण भक्त्वैकभागमुत्किरति, शेषान् बहुभागान् सत्तायां विमुञ्चति । पुनरुत्कीर्णदलं पल्या-ऽसंख्येयमागप्रमाणभागहारेण विभज्यौकभाग उद्वय॑ते बहुमागाश्चाऽपवर्त्यन्ते, तेनेदमल्पबहुत्वं सङ्गच्छते-दलिकस्योद्वर्तनातोऽपवर्तनाऽसंख्योयगुणा, उद्वर्तनातोऽपवर्तनायामुत्कीर्णदलस्याऽसंख्येयबहुभागमात्रत्वात् । अपवर्तनातो-अनुत्कीर्यमाणदलिकसत्ता-ऽसंख्ोयगुणा, सत्तागतदलिकसत्का-ऽसंख्ययभागस्योत्की Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] खवगसेढी [ गाथा-२०-२१ र्णत्वात् । एवं सर्वनिषेकानाश्रित्याऽपि वक्तव्यम् । तथाहि-आगमा-ऽविरोधेन सत्तागतसर्वनिषेकगतदलं पल्योपमाऽसंख्योयभागेन भक्त्वैकभागमुत्किरति । उत्कीर्णदलं पुनः पल्योपमा-ऽसंख्योयभागेन विभज्य भागमुद्वर्तयति बहुभागांचा-उपवर्तयति । इत्थं सर्वनिषेकानाश्रित्या-ऽप्युद्वर्तनातो दलिकाऽपवर्तनाऽसंख्येयगुणा भवति, ततोऽनुत्कीर्यमाणदलिकसत्ता-ऽसंख्येयगुणा जायते । उक्त च कषायप्राभृते "वड्ढीदु होइ हाणी अहिगा हाणीदु तह अवठ्ठाणं। गुणसेढी असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्वा ॥ १॥" एवं तच्चूर्णावपि—“विहासा, जं पदेसग्गमुक्कड्डिजदि सा वढि त्ति सण्णा । जमोकड्डिज दि सा हाणि त्ति सण्णा । ज ण ओकड्डिज दि,ण उक्कड्डिजदि पदेसग्गं तमवहाणं त्ति सण्णा । एदीए सण्णाए एक्कं ठिदि पडुच्च सव्वाओ हिदीओ पडुच्च अप्पाबहुअं । तं जहा-वडूढी थोवा, हाणी असंखेजगुणा, अवट्ठाणमसंखेजगुणं ।" इयं प्ररूपणोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानस्या-ऽपि ज्ञातव्या, विशेषाभावात् ॥१९॥ सम्प्रत्यपूर्वकरणे बन्धोदयोर्व्यवच्छेदं व्याजिहीपुराह पढमंसेऽपुव्वस्स उ बे णिद्दा सुरगइप्पभिइतीसा। छटुंसे हासरइभयदुगुच्छाऽन्ते य बंधत्तो ॥२०॥ वोच्छिज्जति छ हासाई उदयत्तो य ठिइबंधो । पढमसमयो चरिमसमम्मि संखेजगुणहीणो ॥२१॥(उपगीतिः) प्रथमांशे-ऽपूर्वस्य तु द्वे निद्र सुरगतिप्रभृतित्रिंशत् । षष्ठांशे हास्य-रति-भय-जुगुप्सा अन्ते च बन्धतः ॥ २० ।। व्यवच्छिद्यन्ते षट् हास्यादय उदयतः स्थितिबन्धः । प्रथमसमयतश्चरमसमये संख्येयगुणहीनः ।। २१ ।। इति पदसंस्कारः । 'पढमसे' इत्यादि, अपूर्वकरणाद्धायाः सप्तभागाः कर्तव्याः । एकैकमागे संख्येयाः स्थितिबन्धा व्रजन्ति । तत्र 'अपूर्वकरणस्य अपूर्वकरणाद्धायाः 'प्रथमांशे' प्रथमसप्तभागपर्यवसाने तु 'द्वे निद्रे' स्त्यानद्धित्रिकस्य प्रागेव व्यवच्छेदात् निद्रामचलारूपे बन्धतो व्यवच्छिद्यते इति क्रियया सहा-ऽन्वयः । इह बध्यते, उत्तरत्र न बध्यते, तद्वन्धाध्यवसायस्थानाभावात् । इतः परं निद्राद्वि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिसत्त्वम् ] अपूर्वकरणाधिकारः [ ३३ कस्य गुणसंक्रमः प्रवर्तते, तस्या-ऽशुभा-ऽबध्यमानत्वात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"एवं ठिदिबंधसहस्सेहिं गदेहिं अपुव्वकरणडाए संखेजदिभागे गदे तदो निद्दापयलाणं बन्धवोच्छेदो । ताधे चेव गुणसंक्रमेण संकमति ।" 'सुर०' इत्यादि, तत्र 'षष्ठांशे' अपूर्वकरणाद्धायाः षष्ठसप्तभागप्रान्ते 'सुरगतिप्रभृतित्रिंशत्' सुरगतिप्रभृतीनां त्रिंशत-त्रिंशत्संख्याका देवगत्यादयो बन्धतो व्यवञ्छिद्यन्ते । अयं भावः-देवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजाति-वैक्रियद्विका-ऽऽहारकद्विक-तैजसकामणशरीर--समचतुरस्रसंस्थान-वर्णचतुकःशुभखगति-त्रसनवक-जिननाम-निर्माणा-ऽऽगुरुलघूपघात-पराघात-श्वासोच्छ्वासरूपास्त्रिंशत्प्रकृतयो- पूर्वकरणाद्धायाः षष्ठसप्तभागपर्यवसाने बन्धतो व्यवच्छिद्यन्ते , उत्तरत्र न बध्यन्ते इत्यर्थः । अतः परमुपघातस्य गुणसंक्रमः प्रवर्तते, तस्या-ऽशुभा-ऽबध्यमानत्वात् । ___'हास.' इत्यादि, 'हास्य-रति-भय-जुगुप्साः' एताश्चतस्रः प्रकृतयः 'अन्ते' अपूर्वकरणस्य चरमसप्तमागपर्यवसाने अपूर्वकरणाद्धाचरमसमये इत्यर्थः, बन्धतो व्यवच्छिद्यन्ते, उत्तरत्र न बध्यन्ते इत्यर्थः । अतः परं हास्य-रति-भय-जुगुप्सानां गुणसंक्रमः प्रवतेते, अशुभा-ऽबध्यमानत्वात् । ___'छ हासाई' इत्यादि, अपूर्वकरणस्य चरमसमये 'षट्' षसंख्याकाः 'हास्यादयः' हास्यरति-शोका-ऽरति-भय-जुगुप्सारूपा उदयतो व्यवच्छिद्यन्ते, विशुद्धतरपरिणामत्वादुत्तरत्र तेषामुदयो न भवतीत्यर्थः। अथ स्थितिबन्धं प्रकटयितुकामः प्राह-'ठिइ.' इत्यादि, 'स्थितिबन्धः' आयुर्वर्जसप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धः 'प्रथमसमयतः' अपूर्वकरणसत्का-ऽऽद्यसमयतश्चरमसमये संख्येयगुणहीनो भवति, संख्येयभागमात्रो भवतीत्यर्थः ॥२०-२१॥ अथाऽपूर्वकरणचरमसमये स्थितिसत्त्वं विभणिपुराह जं ठिइसंतं अंतोकोडाकोडी अपुवाइखणे । तं संखेज्जगुणणं अंते ठिघायसंखेहि ॥२२॥ यस्थितिसत्त्वमन्तःकोटिकोटयपूर्वा-ऽऽदिक्षणे।। तत्संख्येयगुणोनमन्ते स्थितिघातसंख्यैः ।।२२।। इति पदसंस्कारः। 'जं.' इत्यादि, तत्र 'अपूर्वादिक्षणे'अपूर्वकरणप्रथमसमये यस्थितिसत्वम् 'अन्तःकोटिकोटि' कोटिकोटीनां-सागरोपमकोटिकोटीनाम् अन्तर-मध्ये, अन्तःकोटिकोटि, "पारेमध्येऽप्रे-ऽन्तः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] खबगसेढी [ गाथा-२३ षष्ठ्याव" (सिद्धहेम०३-१-३०)इत्यनेना-ऽव्ययीभावसमासः, सागरोपमकोटिशतसहस्रपृथक्त्वमित्यर्थः, आसीत् इति शेषः, तत् स्थितिसत्त्वं स्थितिघातसंख्यः' संख्यशब्दो-ऽत्र बहुत्ववाची, तेन स्थितिघातसंख्यातसहसैर्घातितं सद् 'अन्ते' अपूर्वकरणचरमसमये 'संख्येयगुणोनं' संख्येयगुणहीनं संख्योयभागमानं भवतीत्यर्थः । उपलक्षणमेतद् , तेन स्थितिबन्धो-ऽपूर्वकरणप्रथमसमयतअरमसमये संख्येयगुणहीनो भवतीत्युपलक्ष्यते । एवं स्थितिखण्डसंख्यातसहस्सैरपूर्वकरणं परिसमाप्तं भवति ॥२२॥ . प्राप्रतिज्ञातनवा-ऽधिकारेष्वधिकारद्वयं निरूप्य तृतीया-ऽधिकारं विस्तरतो निजिगदिपुराह-- से काले अनियट्टि विणासेउं प्राइवेइ ठिइखंडं । तं हस्सत्तो संखेज्जभागअहिअंतु उक्कोसं ॥२३॥ अनन्तरकाले-ऽनिवृत्ति विनाशयितुमारभते स्थितिखण्डम् । तद् ह्रस्वतः संख्येयभागा-ऽधिकं तूत्कृष्टम् ।। ३ ।। इति पदसंस्कारः । 'से काले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले'अपूर्वकरणस्य चरमसमयादनन्तरे समये इत्यर्थः, 'अनिवृत्ति' अनिवृत्तिकरणं भवति, अनिवृत्तिशब्देन 'भोमो भीमसेनः' इतिन्यायाद् अनिवृत्तिकरणं ग्राह्यम् , न विद्यते निवृत्तिः-तुल्यकाले प्रविष्टानां जन्तूनां सम्बन्धिनामध्यवसायस्थानानां परस्परं व्यावृत्तियस्मिन् तदनिवृत्ति, अनिवृत्ति च तत्करणं च अनिवृत्तिकरणम् , अस्य करणस्यो. पर्युक्तव्युत्पत्तेस्तिर्यगमुखी विशुद्धिरस्मिन् करणे न भवति, केवलं पूर्वत उत्तरोत्तरसमये ऊर्ध्वमुखी विशुद्धिरनन्तगुणक्रमेणा-ऽवतिष्ठते । तेना-ऽध्यवसायस्थानेषु तुल्यकालप्रविष्टजन्तूनां विवक्षितसमये एकमेवाऽध्यवसायस्थानं भवति, न पुनर्यथाप्रवृत्त करणादिवदसंख्येयलोकप्रदेशमात्राणि । तथाहि-अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये ये वर्तन्ते ये च वृत्ता थे च वर्तिष्यन्ते, तेषां सर्वेषामप्येकरूपमेवा-ऽध्यवसायस्थानम् , द्वितीयसमयेऽपि ये वर्तन्ते ये च वृत्ता ये च वर्तिष्यन्ते, तेषां सर्वेषामेकरूपमध्यवसायस्थानम् । एवं तावद् वाच्यम्,यावद निवृत्तिकरणचरमसमयः। नवरं प्रथमसमयभाव्यध्यवसायस्थानतो द्वितीयसमरे-ऽध्यवसायस्थानमनन्तगणं विशुद्धं भवति । ततोऽपि तृतीयसमये ऽनन्तगणं विशुद्धम् । एवं पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमयेऽनन्तगणं विशुद्धं तावद् वाच्यम्,यावच्चरमसमयः । अत एवा-ऽस्य करणस्य यावन्तः समयास्तावन्त्यध्यवसायस्थानानि पूर्वपूर्वसमयतश्चऽनन्तगुणवृद्धानि भवन्ति, स्थाप्यमानानि पुनर्मुक्तावलीसंस्थानेन तिष्ठन्ति । : अथाऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमये कार्यविशेष प्रतिपादयति-'विणा०' इत्यादि, अनिवृत्तिकरणप्रथमसमयवर्ती जीवः 'स्थितिखण्डम्' अभिनवं पल्योपमसंख्येयभागमितं स्थितिकण्डक "विनाश Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशोपशमनादिकरणविच्छेदः ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ३५ , यितु' विधातयितुम् ' आरभते' उपक्रमते । तत् घात्यमानं स्थितिखण्डं किमपूर्वकरण वज्जघन्यत उत्कृष्टं संख्येयगुणं भवति, उत प्रकारान्तरेणेति शङ्काव्युदासाय भगति - 'तं' इत्यादि, 'तत्' घात्यमानं स्थितिखण्डं ' ह्रस्वात् ' जघन्य स्थितिखण्डात् ' संख्येयभागाधिक' संख्येयतमभागेनाऽधिकमुत्कृष्ट ं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूण-- “पढमट्ठिदिखंडयं विसमं जहण्णयादो उक्कस्सयं संखेज्जभागुत्तरं । " कथमेतदवसीयते ? इति चेद् शृणुत- अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये जघन्य स्थिति सत्कर्मत उत्कृष्टस्थितिकर्मणः संख्ये भागेना -ऽऽधिक्यात स्थितिखण्डस्य प्रायः स्थितिसत्कर्मानुसारित्वाच्च जघन्यत उत्कृष्टं स्थितिखण्डं संख्येयभागेनाऽधिकं भवति, न त्वपूर्वकरणवत् संख्येयगुणम् । , न चानिवृत्तिकरणप्रथमसमये जघन्यत उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्येयगुणं कथं न भवतीति वाच्यम्, तथा स्वाभाव्यात् । एतदुक्तं भवति — यद्यप्यपूर्वकरणे जघन्यत उत्कृष्टं स्थितिसचं संख्येयगुणं दृश्यते, तथापि तत्र तेन क्रमेण स्थितिघातं करोति, येना-ऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमये घातिताऽवशेष स्थितिसत्त्वं जघन्यत उत्कृष्टं केवलं संख्येयभागेना -ऽधिकं भवति । , अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये स्थितिखण्डं विनाशयितुमारभते इत्येतदुपलक्षणम् तेन तदानीमेवाऽपूर्वकरण चरम स्थितिबन्धतः पल्योपमसंख्येयभागेन हीनमभिनवं स्थितिबन्धमभिनवं च रसघातमारभते इत्युपलक्ष्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - "पढमसमयअणियहिस्स अण्णं द्विदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, अण्णमणुभागखंडयं सेसस्स भागा, अण्णो द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण होणो । ” इति ॥ २३ ॥ सम्प्रत्यनिवृत्तिकरणप्रथमसमये देशोपशमनादिकरणत्रयस्य व्यवच्छेदमनिवृत्तिकरणे प्रथमस्थितिबन्धं च व्याजिहीर्षु राह पढमखणे देसोव समानिकायणनिहत्तिकरणाई । वोच्छिन्नाइं अंतोलक्खं पढमो उठिइबंधो ॥ २४ ॥ प्रथमक्षणे देशोपशमना-निका चना-निधत्तिकरणानि । व्यवच्छिन्नान्यन्तर्लक्षं प्रथमस्तु स्थितिबन्धः || २४ ॥ इति पदसंस्कारः । 'पढम ० ' इत्यादि, 'प्रथमक्षणे' अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये देशोपशमनानिकाचनानिधत्तिकरणानि व्यवच्छिन्नानि भवन्ति, सत्तागतसर्वकर्मणां प्रदेशेषु देशोपशमना-निधत्ति-निकाचनाकरणानि न प्रवर्तन्ते, तथा सत्तागतसर्वकर्मणां सर्वप्रदेशा देशोपशमना-निकाचना-निधत्तिकरणैर्विरहिता . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] गढी [ गाथा - २५-२६ भवन्ति, यथासंभवं चोदय संक्रमोद्वर्तना- ऽपवर्तन करणसाध्या भवन्तीत्यर्थः । अनिवृत्तिकरणे प्रथमस्तु तुर्वाक्यभेदे “स्यात्तु भेदेऽवधारणे” इति वचनात् स्थितिबन्धः 'अन्तर्लक्षम् ' लक्षस्य - शत सहत्रस्य अन्तर-मध्ये 'पारेमध्येऽग्रे ऽन्तः षष्ठ्या वा" ( सिद्धहेम० ३-१-३० ) इत्यनेन सूत्रेणाऽव्ययीभावसमासः, सागरोपमसहस्र पृथक्त्वमात्रः स्थितिबन्धो जायत इत्यर्थः । यदवादि कषायमाभूतचूर्णी- “डिदिबंधो सागरोपमसहस्सपुधत्तमंतोसदसहस्सस्स ।” इति ॥ २४ ॥ - निवृत्तिकरण प्रथमसमये स्थितिसत्त्वं प्रतिपिपादयिषुराह जं दिसतं अंतोकोडाकोडी पुढमखणे | होजा तं अंतोकोडी अनियद्विपमखामि ॥ २५ ॥ यत्स्थिति सत्त्वमन्तःकोटिकोटय पूर्व प्रथमक्षणे । भवति तदन्तः कोटय निवृत्तिप्रथमक्षणे || २५ || इति पदसस्कारः । 'जं' इत्यादि, यत् स्थितिसत्त्वं 'अपूर्वप्रथमक्षणे' अपूर्वकरणप्रथमसमये 'अन्तःकोटिकोटि ' सागरोपमकोटिशतसहस्र पृथक्त्वमात्रमासीत् तत् 'अनिवृत्ति प्रथमक्षणे' अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये 'अन्तःकोटि 'कोटेरन्तः सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्वं भवतीत्यर्थः । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णो- “ट्ठिदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडीए ।” अपूर्वकरणप्रथमसमये सप्तकर्मणो यत् स्थितिसत्कर्म सागरोपम कोटिशतसहस्रपृथक्त्वप्रमितमासीद्, तत् प्रत्येकस्थितिघातेन पल्योपमसंख्येयभागोनं भवत् संख्यातैः स्थितिघातसहस्रैर्घातितं सागरोपमशतसहस्र पृथक्त्वप्रमितं भवतीति फलितार्थः ||२५|| स्थितिसत्त्वस्य प्रमाणमभिधाय सम्प्रति त्रिकालगोचरनानाजीवा ऽपेक्षयाऽनिवृत्ति करणे समानं स्थितिसत्त्वं स्थितिखण्डं च प्रतिपिपादयिषुराह— पढमे ठिइखंडे पृणे तुल्लं हवइ संतकम्मं तु । सव्वेसिं जीवाणं ठिइखंडं य वि हवइ तुल्तं ॥ २६ ॥ प्रथमे स्थितिखण्डे पूर्णे तुल्यं भवति सत्कर्म तु / सर्वेषां जीवानां स्थितिखण्डं चा ऽपि भवति तुल्यम् ||२६|| इति पदसंस्कारः । 'पढ' इत्यादि, अनिवृत्तिकरणे 'प्रथमे' आदिमे स्थितिखण्डे 'पूर्णे' अपगते 'सर्वेषां जीवानां युगपत्प्रविष्टानां नानाजीवानां 'सत्कर्म तु' स्थितिसत्त्वं तु 'तुल्यं' समानं भवति । उक्तं Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धनिरूपणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ३७ च कषायप्राभृतचूर्णी-“पढमे ठिदिखंडए हदे सव्वस्स तुल्लकाले अणियटिपविहस्स ठिइसंतकम्मं तुल्लं।" अनिवृत्तिकरणे प्रथमस्थितिखण्डे पूर्णे सर्वेषां जीवानां न केवलं स्थितिसत्कर्म मिथस्तुल्यं भवति, किन्तु स्थितिखण्डमपि । तदेव प्राह-'ठिइखण्डं' इत्यादि, सर्वेषां जीवानां 'स्थितिखण्ड' द्वितीयादिस्थितिखण्डं चा-ऽपि तुल्यं समानं भवति, स्थितिसत्त्वस्य सदृशत्वात् स्थितिखण्डस्य प्रायेण स्थितिसच्चानुसारित्वाच्च । एतदुक्तं भवति-अनिवृत्तिकरणे प्रथमे स्थितिखण्डेऽपगते सति तुल्यकाले प्रविष्टेष नानाजीवेष्वेकतमस्य जीवस्य द्वितीयस्थितिखण्डेनाऽपरस्य द्वितीयस्थितिखण्डं तुल्यं भवति । एवमेकस्य तृतीयस्थितिखण्डेनेतरस्य तृतीयं स्थितिखण्डं सदृक्षं भवति । एवमग्रेऽपि । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ठिदिखंउयं पि सव्वस्स अणियहिपविट्ठस्स विदियहिदिखण्डयादो विदियहिदिखण्उयं तुल्लं, तदो पहुडि तदियादो तदिगं तुल्लं।" इति ॥ २६ ॥ नन्वनिवृत्तिकरणे उत्तरोत्तरस्थितिबन्धे पल्योपमसंख्येयमागेन स्थितिन्यूना न्यूनतरा भवति । तत्र संख्यातैः स्थितिबन्धैरनिवृत्तिकरणस्य संख्येयबहुभागेषु गतेषु स्थितिबन्धः कियान् भवति ? इत्यत आह ठिइबंधसंखगमणे असण्णितुल्लो पहवइ ठिइबंधो। चउतिदुएगिदियतुल्लो बंधो अंतरे य बहुबंधा॥२७॥(गीतिः) स्थितिबन्धसंख्यगमने-ऽसंज्ञितुल्यः प्रभवति स्थितिबन्धः।। चतुस्त्रिद्वय केन्द्रियतुल्यो बन्धो-ऽन्तरे च बहुबन्धाः ।। २७ ॥ इति पदसंस्कारः। 'ठिइबंधः' इत्यादि, अनिवृत्ति करणे ‘स्थितिबन्धसंख्यगमने' सति स्थितिबन्धसंख्यातेषु गतेषु सत्स्वित्यर्थः, अनिवृत्तिकरणस्य संख्येयतमे भागेऽवशिष्यमाणे सप्तानां कर्मणां स्थितिबन्धः 'असंज्ञितुल्यः' असंज्ञिस्थितिबन्धेन सदृशः 'प्रभवति' जायते, मोहनीयस्य सागरोपमसहस्रचतुःसप्तभागमात्रः (१०१०४४ सा०),ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां सागरोपमसहखत्रिसप्तभागप्रमाणः (१०००४३ सा०)स्वस्थाने तु मिथः सदृशः, नाम-गोत्रयोः सागरोपमसहखद्विसप्तभागमितः (१०००४२ सा० ) स्वस्थाने परस्परं तुल्यः स्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्रातभचूर्णी-“एवं संखेज्जेसु ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु तदो अण्णो ठिदिबंधो असण्णिहिदिबंधसमगो जादो।” ततः क्रमेण चतुस्त्रिद्वय केन्द्रियतुल्यो 'बन्धः' स्थिति Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] aarसेढी [ गाथा - २७ बन्धो भवति, 'अन्तरे च' मध्ये च बहुबन्धा' बहवः स्थितिबन्धा भवन्ति, न पुनरसंज्ञिबन्धतुल्यबन्धादनन्तरं चतुरिन्द्रियबन्धसमानः स्थितिबन्धो भवति, अपि त्वन्तरे बहुस्थितिबन्धेषु गतेषु - चतुरिन्द्रियबन्धेन तुल्यः स्थितिबन्धो भवति, एवं चतुरिन्द्रियबन्धतुल्यस्थितिबन्धभवनाद् बहुषु - स्थितिबन्धेषु गतेषु त्रीन्द्रिय स्थितिबन्धसदृशः स्थितिबन्धो भवति । एवमग्रेऽपि । सप्तभागमात्रः सा० भावार्थ: पुनरयम् - असंज्ञिस्थितिबन्ध तुल्य स्थितिबन्धभवनात् संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु चतुरिन्द्रियस्थितिबन्धेन सदृशः स्थितिबन्धो भवति, मोहनीयस्य सागरोपमशतचतु:), ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां सागरोपमशतत्रसप्तभागमितः (१००× ३ सा०), नाम - गोत्रयोस्तु सागरोपमशतद्विसप्तभागमानः (१००४१ सा० ) स्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः । ततः पुनः संख्यातेषु स्थितिवन्ध सहस्रेषु व्रजितेषु सत्सु त्रीन्द्रिय-स्थितिबन्धसमानः स्थितिबन्धो भवति, मोहनीयस्य पञ्चाशत्सागरोपमचतुःसप्तभागमानः (XX सा० ) ज्ञानावरणादीनां चतुर्णां पञ्चाशत्सागरोपमत्रि सप्तभागप्रमितः ), '५० ४४. ७ ५०x३ -सा० १००x४. の ( नाम - गोत्रयोः २५४४. २५ x ३ -सा० ७ ७ पञ्चाशत्सागरोपम द्विसप्तभागप्रमाणः सा०) स्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः । ततः संख्यातेषु स्थितिबन्धेष्वपगतेषु सत्सु द्वीन्द्रियस्थितिबन्धेनैकादृक्षः स्थितिबन्धो भवति, मोहनीयस्य पञ्चविंशतिसागरोपमचतुःसप्तभागप्रमितः (सा० 10), ज्ञानावरण- दर्शनावरण–वेदनीया-ऽन्तरायाणां पञ्चविंशतिसागरोपमत्रिसभागमानः ( ०), नामगोत्रयोः पञ्चविंशतिसागरोपमद्विसप्तभागप्रमाण: ( २५४२ सा० ) स्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः । ततः पुनः स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रेषु व्यतिक्रान्तेष्वेकेन्द्रिय स्थितिबन्ध सदृशः स्थितिबन्धो जायते, मोहनीयस्य सागरो पमचतुःसप्तभागमितः (सा० ), ज्ञानावरणदर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां सागरोपमत्रिसप्तभागमात्रः (सा० ), नामगोत्रयोः सागरोपमद्विभागमितः (सा० ) स्थितिबन्धो भवति । युक्तियुक्तमेतत् सर्वम्, त्रैराशिकेन साधितत्वात् । तथाहि-- यदि सप्ततिसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्यैकसागरोपम स्थितिको बन्ध एकेन्द्रिये भवति, तर्हि चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्य चारित्रमोहनीयस्य कियान् स्थितिबन्धो भवेदिति त्रैराशिकेन [ ७० सा० को० को० । ४० सा० को० को ० | १ सा० । लब्धम् सा० । ] मोहनीयस्य सागरोपमचतुः सप्तमात्रः साध्येत । तथा चात्र त्रैराशिककरणसूत्रम् - "प्रमाणमिच्छा च समानजाती आद्यन्तयोस्तत्फलमन्यजातिः । ५०x२ ७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धनिरूपणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [३६ मध्ये तदिच्छाहतमाद्यहृत स्यादिच्छाफलं व्यस्तविधिर्विलोमे ॥ १ ॥” प्रमाणमत्र सप्ततिसागरोपमकोटिकोटयः, इच्छा च चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटयः, प्रमाणफलम् पुनः सागरोपमः । ततः प्रमाणफलमिच्छया गुण्यते, ततो गुणितं प्रमाणेन विमज्यते, तदा "शून्यं शन्येन पातयेत्" इति वचनात् चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागा लभ्यन्ते। तथा सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्यैकसागरोपममात्रः स्थितिबन्ध एकेन्द्रिये भवति, तर्हि त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानां ज्ञानावरणादीनां कियान् स्थितिबन्धो भवेदिति त्रैराशिकेन [७० सा० को० को० । ४० सा० को० को० । १ सा० । लब्धम् 3 सा०] ज्ञानावरणादीनां सागरोपमत्रिसप्तभागमात्रः स्थितिबन्धः प्राप्तव्यः। तथा सप्ततिसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्यैकसागरोपमः स्थितिवन्ध एकेन्द्रिये भवति, तर्हि विंशतिसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकयो म-गोत्रयोः कियान् भवेदिति त्रैराशिकेन [ ७० सा० को० को० । ४० सा० को० को० । १ सा० । लब्धम् 3 सा० ] नाम-गोत्रयोः स्थितिबन्धो सागरोपमद्विसप्तभागप्रमितः साध्यः । एवं द्वीन्द्रियादिष्वपि त्रैराशिकेन स्थितिबन्धः साधनीयः, नवरं तत्र यथाक्रमं पञ्चविंशतिगुणः पञ्चाशद्गुणः शतगणः सहस्रगुणश्च स्थितिवन्धो वक्तव्यः । उक्तं च कषायप्रामृतचूर्णी-"तदो संखेज्जेसु ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु चउरिंदियहिदिबंधसमगो जादो। एवं तीइंदियसमगो, बीइंदियसमगो एगिंदियसमगो जादो।" इति ॥ २७ ॥ अथ लाघवार्थ्यधिकारगाथा भणतिठिबंधबहुसहस्सेसु गयेसु होइ जं तु एककं । तं णिहामो णत्थि विसेसे णियमो कहिमु बंधं ॥ २८ ॥ स्थितिबन्धबहुसहस्र सु गतेषु भवति यत्त्वेकैकम् । तद्भणियामो नास्ति विशेषे नियमो कथयामो बन्धम् ।। २८ ।। इति पदसंस्कारः। 'ठिइ.' इत्यादि, स्थितिबन्धबहुसहस्रेषु गतेषु यत्त्वेकैकं भवति, तत् भणिष्यामः । इदमुक्तं भवतिबहुशब्दः संख्यातवाची। ततश्चायमर्थः-इतः परं यानि वस्तूनि वक्ष्यामः, तेपामेकं स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रेषु गतेषु वक्तव्यम् , ततः पुनः स्थितिबन्धसंख्यातसहसेषु गतेष्वन्यदेकं निगदितव्यम् । ततो भूयः स्थितिवन्धसंख्यातसहस्रेषु व्यतिक्रान्तेवितरदेकमभिधातव्यम् । एवं संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु गतेष्वेकै भाषितव्यम् । यथा-ऽनन्तरगाथायां नामगोत्रादीनां स्थितिबन्धं वक्ष्यति, स एकेन्द्रियवन्धतुल्यस्थितिवन्यभवनात् संख्यातेषु स्थितिबन्धसहतेष गतेषु ज्ञातव्यः। एवं ततोऽप्यग्रे यद्यद्वक्ष्यति तत्तत्संख्यातेप स्थितिवन्धसहस्रेषु गतेषु वक्तव्यम् । ननु किमियं व्याप्तिः सर्वत्र ज्ञातव्या, उता-ऽस्ति कश्चिद् विशेषः १ इत्यत आह–णत्थि' इत्यादि, 'विशेष' Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] खवगसेढी [ गाथा-२६ प्ररूपणाविशेषे नियमो नास्ति, संख्यातेषु स्थितिबन्धसहखेषु गतेषु भवतीति व्याप्तिनियमो नास्ती. त्यर्थः, यथा “पूण्णे" इत्यादि द्वात्रिंशत्तमगाथायाम् एकस्मिन् स्थितिबन्धे पूर्णेऽल्पबहुत्वमभिधास्यति, तत् प्राक्तनबन्धतः संख्येषु स्थितिबन्धेषु गतेषु स्थितिबन्धे पूर्णे न पक्तव्यम, किन्तु तस्मिन्नेव स्थितिबन्धे पूर्णे-ऽभिधातव्यम् । एवमन्यत्रा-ऽपि, विशेषेण सामान्यस्य बाधद र्शनात् । अथ प्रतिजिज्ञासुराह-'कहिमु बंध' ति 'कथयामः' निरूपयामः 'बन्धं' मोहनीयादीनां स्थितिबन्धम् ॥ २८ ॥ अथ प्रतिज्ञातमेव प्राह एग-दिवढ-दु-पल्लाणि वीसगाणं य तीसगाणं य । मोहस्स य परिवाडीअ दुगस्स उ संखगुणहीणो ॥२६॥ एक-द्वधर्ध-द्विपल्यानि विंशतिकयोश्च त्रिंशकानां च । मोहस्य च परिपाटया द्विकस्य तु संख्यगुणहीनः ।। २६ ।। इति पदसंस्कारः । 'एग०' इत्यादि, एकेन्द्रियवन्धतुस्थितिबन्धभवनात्संख्यातेषु सहसेषु स्थितिबन्धेष व्यतिक्रान्तेषु 'विंशतिकयोश्च' विंशतिसागरोपमकोटिकोटीस्थितिकयोर्नाम-गोत्रयोरित्यर्थः, चकारः समुच्चये,एवमग्रेऽपि 'त्रिंशत्कानां' त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकानां च ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया-ऽन्तरायाणां चेत्यर्थः मोहस्य' मोहनीयकर्मणश्च स्थितिबन्धः 'परिपाट्या' क्रमेण 'एकद्वयर्धद्वि-पल्यानि एक-सार्ध-द्विपल्योपमानि भवति । इदमुक्तं भवति-नाम-गोत्रयोः स्थितिबन्ध एकपल्योपममात्रो ज्ञानावरणादीनां सार्धपल्योपममानो मोहनीयस्य तु द्विपल्योपमप्रमितो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"एइंदियट्टिदिधंधसमगादो डिदिबंधादो संखेज्जेसु हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु णामागोदाणं पलिदोवयढिदिगो बंधो जादो, ताधे णाणावरणीय-दसणावरणीय वेदणीय-अंतराइयाणं दिवड्डएलिदोवमहिदिगो बंधो मोहणीयस्स बे पलिदोवमट्टिदिगो बंधो।” युक्तियुक्तमिदं वचनम् । तथाहि-यदि विंशतिसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकयो म-गोत्रयोः स्थितिबन्ध एकपल्योपममात्रो भवति, तर्हि त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकानां ज्ञानावरणादीनां कियान् स्थितिबन्धो भवेदिति त्रैराशिकेन [ २० सा० को० को० । ३० सा० को० को० । १ पल्यो० । लब्धम् १३ पल्या० । ] ज्ञानावरणादीनां स्थितिवन्धः सार्धपल्योपममात्रः साध्यः । तथा विंशतिसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकयो मगोत्रयोः स्थितिबन्धो यदि पल्योपमप्रमाणो भवति, तर्हि चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्य मोहनीयस्य स्थितिबन्धः कियान् भवेदिति राशिकेन [२० सा० को० को०। ४० सा० को० । १ पल्यो । लब्धे २ पल्यो० ] मोहनीयस्य स्थितिबन्धो द्विपल्योपमप्रमितोऽवाप्यते । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धनिरूपणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ४१ तदानीं स्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वमित्थं द्रष्टव्यम् - नामगोत्रयोः सर्वाल्पः स्थितिबन्धः, स्वस्थाने तु मिथः सदृशः, पल्योपममात्रत्वात् । ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां विशेषाधिकः, सार्धपल्योपममात्रत्वात् । ततो मोहनीयस्य विशेषाधिकः, द्विपल्योपममितत्वात् । इतः पूर्वमप्यनेनैव क्रमेण स्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वं वक्तव्यम् । यदवादि कषायप्राभृतचूण - "जाघे णामागोदाणं पलिदोव महिदिगो बंधो, ताधे अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो, तं जहा - णामागोदाणं ठिदिबंधी थोवो, णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय-अंतराइयाणं ठिदिबंधो विसेसाहिओ, मोहणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । अदिक्कता सव्वे ठिदिबन्धा एदेण अप्पाबहुअ विहिणा गदा ।" इति । यदा नाम-गोत्रयोः स्थितिबन्धः पल्योपममात्रो भवति, तदा-निवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयात् सहस्रः स्थितिवातैर्वातितं सत् तत्प्रथमसमयतः संख्येयगुणहीनं भवदपि सप्तानामपि कर्मणां स्थितिसत्त्वमद्यापि सागरोपमशतसहखपृथक्त्वप्रमाणं विद्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी"ताधे ठिदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्स पुधन्तं ।" इति । 'दुस्स' इत्यादि, नाम - गोत्रयोः पल्योपममात्रे स्थितिबन्धे पूर्णे सति 'द्विकस्य' नाम - गोत्ररूपस्य स्थितिबन्धः संख्यगुणहीनो भवति, प्राक्तनस्थितिबन्धतो नाम- गोत्रयोः संख्येयगुणहीनः पल्योपमसंख्येयभागमितः स्थितिबन्धो जायते इत्यर्थः, यतः प्रभृति यस्य कर्मणः पल्योपममितः स्थितिबन्धो भवति, ततः परं तस्य कर्मण उत्तरोत्तर स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो जायते इति व्याप्तेः । शेषाणां पञ्चानां कर्मणां तु स्थितिबन्धः प्राक्तनस्थितिबन्धतः पूर्ववत् पल्योपमसंख्येयभागेन हो भवति । यदभाणि कषायप्राभृतचूर्णो- “ तदो णामागोदाणं पलिदोवमट्ठिदिगो बंधो, पुण्णे जो अण्णो ठिदिबंधो सो संखेज्जगुणहीणो, सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो विसेस होणो |" इति । नामगोत्रयोः पल्योपममात्रे स्थितित्रन्धे पूर्ण स्थितिबन्धा -- पबहुत्वमित्थं प्ररूपयितव्यम् - नाम - गोत्रयोः सर्वान्पः स्थितिबन्धः, स च पल्योपम संख्येय भागप्रमाणः । ततो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां संख्येयगुणः, पल्योपमसंख्येयभागन्यूनसार्थपल्योपममात्रत्वात् । ततो मोहनीयस्य विशेषाधिकः, पल्योपमसंख्येयभागोन द्विपल्योपममितत्वात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - " ताघे अप्पा बहुअं- णामागोदाणं ठिदिबंधो धोवो, चदुण्हं कम्माणं द्विदिबंधो तुल्लो संखेज्जगुणो, मोहणीयस्य द्विदिबंधो विसेसाहिओ ।" इति ॥ २६ ॥ ततः परं संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु नामगोत्रादीनां स्थितिवन्धं वक्तुकाम आह- Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] . खवगसेढी [ गाथा-३० संखंसेगतिभागुत्तरपल्लाइ खलु वीसगाईणं। ताउ परं तीसाणं तहेव संखेजगुणहीणो ॥३०॥ संख्यांशैकत्रिभागोत्तरपल्यानि खलु विंशतिकादीनाम् । तस्मात्परं त्रिंशतां तथैव संख्येयगुणहीनः ॥ ३० ।। इति पदसंस्कारः । 'संख०' इत्यादि, अनन्तरोक्ता-ऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यातेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्सु 'विंशतिकादीनां विंशतिकत्रिंशत्कचत्वारिंशत्कानां-नामद्विक-ज्ञानावरणचतुष्क-मोहनीयानां क्रमेण स्थितिवन्धः संख्यांशैकत्रिभागुत्तरपल्यानि भवति, खलु क्यालङ्कारे । एतदुक्तं भवति-प्रागुक्ता-ऽल्पवहुत्वक्रमेण संख्यातेषु स्थितिबन्धसहखेबु गतेषु सत्सु नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागमानः, ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां पल्योपममात्रः, मोहनीयस्य तु त्रिभागोत्तरपल्योपममितो जायते । यदुक्तं कषायमाभृतचूर्णी--"एदेण संखेजाणि विदिबंधसहस्साणि गदाणि, तदो णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं पलिदोवमहिदिगो बंधो जादो । ताधे मोहणीयस्सतिभागुत्तरपलिदोवमहिदिगो बंधो जादो।" इति । इदं वचनं युक्तिमदेव । तथाहि-यदि त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकानां ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्ध एकपल्योपममात्रो जायते, तर्हि चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्य मोहनीयस्य स्थितिवन्धः कियान् भवेदिति त्रैराशिकेन [३० सा० को-को० । ४० सा-कोठको० । १ पल्यो० । लब्धम् १३पल्यो०। मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्त्रिभागाधिकपल्योपममात्रः साध्यते । 'ताउ परं'इत्यादि, 'तस्मात'ज्ञानावरणादीनां पल्योपममात्रस्थितिबन्धभवनात परं त्रिंशतांत्रिंशसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणामित्यर्थः, तहेवत्ति 'तथैव' तथाशब्दः साम्ये, नामगोत्रवन स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवतीति शेषः, प्राक्तनस्थितिबन्धतो ज्ञानावरणादीनां संख्येयगुणहीनः पल्योपमसंख्येयभागमितः स्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः। उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो अण्णो हिदिवंधो चहुण्हं कम्माणं संखेज्जगुणहीणो।” इत्थं नाम-गोत्र-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणामुत्तरोत्तरस्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति, मोहनीयस्य तु पल्योपमसंख्येयभागेन हीनः संजायते । ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया ऽन्तरायाणां पन्योपममात्रे स्थितिबन्धे पूर्णे स्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वं चिन्त्यते । तद्यथा-नाम-गोत्रयोः सर्वस्तोकः स्थितिबन्धः, स च पल्योपमसंख्येयभाग-- प्रमाणः । ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां पल्योपमसंख्ययभागमात्रो भवन्नपि संख्यातगुणो भवति । ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणः, पल्योपमसंख्येयभागन्यूनविभागोत्तरपल्योपमप्रमाणत्वात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे अप्पाबहुअं-णामागोदार्ण Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धनिरूपणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ४३ हिदिबंधो धोवो, चटुण्हं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जगुणो मोहणीयस्स विदिबंधो संखेज्जगुणो ।” इति ॥ ३० ॥ ततः परं संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु वजितेषु स्थितिबन्धमाविश्चिकीषु राहमोहस्स पल्लमेत्तो साणं पल्लसंखभागभियो । तापरं सव्वेसिंकम्माणं संखगुणहीणो ॥ ३१ ॥ मोहस्य पल्यमात्रः शेषाणां पल्यसंख्यभागमितः । तस्मात्परं सर्वेषां कर्मणां संख्यगुणहीनः ॥ ३१ ॥ इति पदसंस्कार | 'मोहस्स' इत्यादि, निरुक्तस्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यातेषु सहस्रेषु स्थितिबन्धेषु व्रजितेषु सत्सु 'मोहस्य' मोहनीय कर्मणः 'पल्यमात्र ः ' एकपल्योपममात्रः स्थितिबन्धो जायते, 'शेषाणां उक्तोद्धरितानां नाम - गोत्र - ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायरूपाणां ' पल्यसंख्य भागमितः' पल्योपमसंख्येयतमभागप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी"एदेणेव कमेण संखेज्जाणि हिंदिबन्धसहस्साणि गदाणि, तदो मोहणीयस्स पलिदोव महिदिगो बंधो, सेसाणं कम्माणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो हिदिबंधो ।" 'ता पर' इत्यादि, 'तस्मात् ' मोहनीयस्य पल्योपममात्र स्थितिबन्धभवनात् परं 'सर्वेषां कर्मणां ' आयुर्वजनां सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धः संख्यगुणहीनो भवति, प्राक्तन स्थितिबन्धत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धः संख्ये यगुणेन हीनो हीनतरो जायते इत्यर्थः ॥ ३१ ॥ मोहस्य पल्योपममात्रे स्थितिबन्धे पूर्णे सत्यारभ्यमाणस्थितिबन्धस्याऽल्पबहुत्वमभिधि त्सुराह पुणे बंधेऽणुकमं तु वीसगाई संखगुणो । तो वीस गाण जाय पलिया संखेजभागमि ||३२|| ( उपगीतिः) पूर्णे बन्धेनुक्रमं तु विंशतिकादीनां संख्यगुणः । ततो विंशतिकयोर्जायते पल्योपमाऽसंख्येयभागमितः ॥ ३२ ॥ इति पदसंस्कारः । 'पुणे' इत्यादि, तत्र 'बंधे' त्ति एकवचननिर्देशात् एकस्मिन् बन्धे स्थितिबन्धे 'पूर्णे' समाप्तिं गते, मोहनीयस्य यः पल्योपममात्रः स्थितिबन्धः प्रारब्धः, तस्मिन् पूर्णे इत्यर्थः, 'विंशतिकादीनां विंशतिसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकत्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकचत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटिस्थितिकरूपाणां नाम गोत्रयोर्ज्ञानावरण-दर्शनावरण - वेदनीया - ऽन्तरायाणां मोहनीयस्य चेत्यर्थः, 'अनुक्रमं तु' क्रममनतिक्रम्य "योग्यता- वीप्सार्था ऽनतिवृत्तिसादृश्ये" (सिद्धहेम • Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] खबगसेढी [गाथा-३२ ३-१-४०) इति सूत्रेणा-ऽनतिवृत्तौ अव्ययीभावसमासः, तुरवधारणे यथाक्रममेवेत्यर्थः, स्थितिबन्धः संख्यगणो भवति । इदमुक्तं भवति-मोहनीयस्य पल्योपममात्रे स्थितिबन्धे पूर्णे नाम-गोत्रयोः सर्वाल्पः स्थितिवन्धः, स च पल्योपमसंख्येयभागमितः, स्वस्थाने मिथस्तुल्यः, ततो ज्ञानावरणदर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां पल्योपमसंख्येयभागमात्रो भवन्नपि संख्येयगुणो भवति, ततो मोहनीयस्य संख्येयगणो भवति, सोऽपि पल्योपमसंख्येयभागमात्रः, प्राक्तनस्थितिबन्धस्य पल्योपममात्रत्वेन सर्वेषां कर्मणां पल्योपममात्रस्थितिवन्धभवनादूर्ध्वमुत्तरोत्तरस्थितिबन्धस्य संख्येयगणहानिदर्शनात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"एदम्हि हिदिबंधे पूण्णे मोहणीयस्स हिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो चेव । ताधे वि अप्पाबहुअं-णामागोदाणं हिदिबंधो थोवो, णाणावरण-दसणावरण-वेदणीय-अन्तराइयाणं हिदिबन्धो संखेज्जगुणो, मोहणीयस्स हिदिबन्धो संखेजगुणो।" इति । 'तो' इत्यादि, 'ततः' अनन्तरोक्तस्थितिबन्धाल्पबहुत्वतः संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु 'विंशतिकयोः' नाम-गोत्रयोः स्थितिवन्धः 'पल्या-ऽसंख्येयभागमितः' पल्योपमाऽसंख्येयभागमितो जायते । शेषाणां पञ्चानां तु पूर्ववत्पल्योपमसंख्येयभागप्रमितः स्थितिबन्धो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"एदेण कमेण संखेजाणि द्विदिबन्धसहस्साणि गदाणि, तदो अपणो हिदिबन्धो,जाधे णामागोदाणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागों, ताधे सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेजदिभागो ।" इति । नामगोत्रयोः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमिते स्थितिवन्धे जाते स्थितिबन्धाल्पबहुत्वमित्थमभिधातव्यम्नाम-गोत्रयोः सर्वस्तोकः स्थितिवन्धः, पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमात्रत्वात, ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां स्थितिबन्धो-ऽसंख्येयगुणः, तस्य पल्योपमसंख्येयभागमात्रत्वात्, ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागमितो भवन्नपि संख्येयगणो भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे अप्पाबहुअं-णामागोदाणं ठिदिबन्धो थोवो, चदुण्हं कम्माणं ठिदिबन्धो असंखेजगुणो, मोहणीयस्स ठिदिबन्धो संखेजगुणो।" ततः ___ अनन्तरोक्ताल्पबहुत्वक्रमेण संख्येयेषु स्थितिबन्धसहस्रषु गतेषु सत्सु नाम-गोत्रयोः पत्योपमा. संख्येयभागप्रमाणश्चरमस्थितिबन्धो दूरापकृष्टिसंज्ञको भवति । तद्वयाख्या च कर्मप्रकृतिग्रन्थे-ऽस्माभिरुपशमनाकरणटीकायां कृता, ततोऽवसेया। दूरापकृष्टिसंज्ञकबन्धतः परं नामगोत्रयोरसंख्येयबहुभागाः स्थितिबन्धतोऽपगच्छन्ति । तेन तदानीं नामगोत्रयोः प्रथमस्थितिबन्धः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणो भवतीत्याहुर्जयधवलाकाराः । तथा च तद्ग्रन्थः- "एवमेदेण अप्प/बहुविहिणा सव्वेसि कम्माणं पलिदो०संखेज्जभागिगेसु संखेज्जेसु दिदिबंधसहस्सेलु गदेसु तदो णामागोदाणं वा पच्छिमे पलिदोवमस्स संखेज्ज. भागिगे ट्ठिदिबंधे दूरावकिट्टिसंणिदे संपत्ते तदो असंखेज्जे भागे दिदिबंधेणोसरमाणस्स जाधे णामागोदाणं पलिदो असंखभागिओ पढमो दिदिबंधो जादो। ताधे अण्णारिसमप्पाबहुअं होदि त्ति।" इति । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ स्थितिबन्धनिरूपणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः प्रभृति नाम-गोत्रयोरुत्तरोत्तरस्थितिबन्धोऽसंख्यातगुणहीनो जायते, शेषाणां तु पूर्ववत् संख्यातगुणहीनो भवति ॥ ३२ ॥ निरुक्ता-ऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु ज्ञानावरणादीनां मोहनीयस्य च स्थितिबन्धमाविश्चिकीर्ष राह तो तीसगाण पल्लस्स असंखंसो तो य मोहस्स। पल्लअसंखंसोऽन्तोलक्खं संतं य सत्तण्हं ॥३३॥ ततस्त्रिशत्कानां पल्यस्या-ऽसंख्यांशस्ततश्च मोहस्य । पल्या-ऽसंख्यांशो-ऽन्तर्लक्षं सत्त्वं च सप्तानाम् ।। ३३ ।। इति पदसंस्कारः । 'तो' इत्यादि, 'ततः' नाम-गोत्रयोः स्थितिबन्धस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रत्वभवनात् स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु 'त्रिंशत्कानां' ज्ञानावरण-दर्शनावरण वेदनीया-ऽन्तरायाणां बन्धः ‘पल्यस्याऽसंख्यांशः' पल्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमितो भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णो-“तदो संखेजेसु ठिदिवन्धसहस्सेसु गदेसु तिण्हं घादिकम्माणं वेदणोयस्स च पलिदोवमस्स असंखेज दिभागो ठिदिवन्धो जादो।" यदा ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्धः पल्योपमाऽसंख्येयभागमितो भवति, तदा स्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वं निगद्यते-नाम-गोत्रयोः सर्वस्तोकः स्थितिबन्धः, स च पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणो भवति, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः । ततो ज्ञानावरणदर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां स्थितिबन्धः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रो भवन्नप्यसंख्येयगणो भवति । ततो मोहनीयस्या-ऽसंख्येयगणः, पल्योपमसंख्येयभागमात्रत्वात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे अप्पाबहुअं-णामागोदाणं ठिदिबन्धो थोवो, चउण्हं कम्माणं ठिदिबन्धो असंखेजगुणो, मोहणीयस्स ठिदिबन्धो असंखेजगुणो।" ततो ज्ञानावरणादीनामप्युत्तरोत्तरस्थितिबन्धो-ऽसंख्यातगणहीनः प्रवर्तते । मोहनीयस्य स्थितिबन्धमाविश्चिकीर्ष भणति-'तओं य' इत्यादि, 'ततश्च' ज्ञानावरणादीनां पन्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणस्थितिबन्धभवनाच्च प्रागुक्ता-ऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यातेषु स्थितिव अनन्तरोत्ता-ऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यातस्थितिबन्धेषु सहस्रषु गतेषु ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया-ऽन्तरायाणां चरमः पल्योपमसंख्येयभागमानः स्थितिबन्धो दूरापकृष्टिसंज्ञको भवति । ततश्चतुणा ज्ञानावरणादीनामसंख्येयबहुभागाः स्थितिबन्धतोऽपगच्छन्ति । तेन ज्ञानावरणादीनां प्रथमस्थितिबन्धः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रो भवतीति जयधवलाकाराः । अक्षराणि त्वेवम् --"एवमेदेण अप्पाबहुअविधिणा पुणो वि संखेज्जसहस्समेत्तेसु द्विदिबंधेसु समइक्कतेसु तदो णाणावरण-दसणावरण वेदणीय-अंतराइयाणं पि दुरावकिट्टीविसथे संपत्ते तदो प्पहुडि तेसि पि असंखेज्जे भागे दिदिबन्धेणोसरमाणस्स पढमे पलिदो० असंखे० भागिए पडिबंधे जादे तत्तो पाए अण्णारिसमप्पाबहुअं पयट्टदि ।" Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] खरगसेढी [ गाथा-३३ न्धसहस्रेषु व्यतिक्रान्तेषु 'मोहस्य' मोहनीयस्य कर्मणः 'पल्या-ऽसंख्यांशः' पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रः स्थितिवन्धो भवतीत्यर्थः । इत्थं तदानीं सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धः पन्योपमाऽसंख्ययभागमितो भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी--"तदो संखेज्जेसु हिदिबन्धसहस्सेसु गदेसु मोहणीयस्स वि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो ठिदिबन्धो जादो।" इतः प्रभृति सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमात्रस्तावद् वक्तव्यः ,यावत् स्थितिबन्धे विशेषो नाभिधीयेत । यदा मोहनीयस्य स्थितिवन्धः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमितो भवति, तदा स्थितिबन्धाल्पबहुत्वं भएयते-नाम-गोत्रयोः सर्वाल्पः स्थितिबन्धः, स्वस्थाने तु मिथः समानः, ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः, ततो मोहनीयस्याऽसंख्येयगुणः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "जाधे पढमदाए मोहणीयस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबन्धो जादो, ताधे अप्पाबहुअं-णामागोदाणं ठिदिवन्धो थोवो, चदुण्हं कम्माणं ठिदिबन्धो तुल्लो असंखेजगुणो, मोहणीयस्स हिदिबन्धो असंखेजगुणो।” इतः प्रभृति मोहनीयस्या-ऽप्युत्तरोत्तरस्थितिबन्धो-ऽसंख्येयगुणहीनो भवति । यदा मोहनीयस्य पल्योषमा-ऽसंख्येयभागमितो भवति, तदा स्थितिसत्वं विभणिषुराह'न्तोलक्खं' इत्यादि, सन्धिविश्लेषे सत्यकारे प्राप्ते अन्तोलक्खंति 'अन्तर्लक्षम्' लक्षस्य-सागरोपमशतसहस्राणामन्तर-मध्ये सागरोपमसहस्रपृथक्त्वमित्यर्थः, 'सत्त्वं' स्थितिसत्कर्म 'सप्तानाम्' आयुर्वर्जानां कर्मणां भवतीति शेषः । अयं भावः-यदा नाम-गोत्रयोः स्थितिबन्धः पल्योपममात्रोऽभवत्, तदा-ऽऽयुर्वर्जानां सर्वेषां कर्मणां यत् स्थितिसत्वं सागरोपमशतसहस्रपथक्त्वमात्रमासीत्, तत् संख्यातसहस्रः स्थितिघातर्घातितं सदिदानी सागरोपमसहस्रपृथक्त्वप्रमितं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूौँ-"ताधे हिदिसंतकम्मं सागरोपमसहस्सपुधत्तमंतोसदसहस्सस्स।" ॥ ३३ ॥ * ज्ञानावरणादीनां पल्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमितस्थितिबन्धभवनादुक्तस्थितिबन्धा-ऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रषु गतेषु सत्सु मोहनीयस्य दूरापकृष्टि प्राप्तस्य जन्तोः पल्योपमसंख्येयभागमितश्चरमस्थितिबन्धो जायते, ततो मोहनीयस्य स्थितिबन्धतो-ऽसंख्येयबहुभागा अपगच्छन्ति, एकभागश्च बध्यते । तदानीं मोहनीयस्य प्रथमः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमानः स्थितिबन्धो भवतीति जयधवलाकाररुक्तम् । अक्षराणि त्वेवम् – “एवमेदेणाणंतरपरूविदेण अप्पाबहुअविहाणेण पुणो वि संखेजसहस्समेत्तेसु दिदिबंधेसु वदिक्कितेसु मोहणीयस्स वि दूरावकिट्टिविसये जहाकम संपत्ते तदो पहुडि तस्स वि असंखेज्जे भागे दिदिबंधेणोसरमाणस्स पलिदोवमस्सासंखेजदिभागिओ पढमो दिदिबंधो समाढतो त्ति ।" Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धनिरूपणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ 800 ततः संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु मोहनीयस्य स्थितिबन्धः क्रमेण ज्ञानावरणादीनां नाम -गोत्रयोश्चाऽधस्ताद् गच्छति, तदाविविकीषु राह ― ता संखगुणो एकपहारेणेइ तीसगाण हो । मोहबंध तो बीसगट्ठा कमेण - Sसंखगुणो ॥ ३४ ॥ (गीतिः) तस्मादसंख्येगुरण एकप्रहारेणैति त्रिंशत्कानामधः । मोहस्थितिबन्धस्ततो विंशतिका-ऽधस्तात् क्रमेणा - ऽसंख्यगुणः ||३४|| इति पदसंस्कारः । 'ताउ' इत्यादि, ' तस्मात् ' मोहनीयकर्मणः पल्योपमा - ऽसंख्येय भागप्रमाणस्थितिबन्धभवनात् स्थितिबन्धसंख्यसहस्र षु गतेषु 'एक०' त्ति "लुक्" (सिद्धहेम०८-१-१०) इति सन्धिसूत्रेण 'ए' ति पदस्थे एकारे परे णकारोतरा-कारस्य लोपो जातः सन्धिविश्लेषे पुनरकार: प्राप्त इति कृत्वा 'एक पहारेख ' ति 'एकप्रहारेण' एकहेलयैव 'त्रिंशत्कानां ' ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीया - ऽन्तरायाणामधो ऽसंख्येयगुणो 'मोहस्थितिबन्धः, मोहनीयकर्मणः स्थितिबन्धः 'एति' गच्छति, एकप्रहारेण ज्ञानावरणादितो मोहनीयस्य स्थितिबन्धो ऽसंख्येयगुणहीनो जायते इत्यर्थः, तत्प्राक्तना मोहनीयसंख्येय सहस्र स्थितिबन्धा ज्ञानावरणादितो ऽसंख्येयगुणवृद्धा व्यतिक्रान्ताः, सम्प्रत्यनन्तरपूर्वस्थितिबन्धाऽपेक्षया मोहनीयस्थितिबन्धस्यैतावद्धानिर्भवति, येन ज्ञानावरणादितो ऽसंख्येयगुणहीनो मोहनीयस्थितिबन्धो जायते, मोहनीयस्या- प्रशस्ततमत्वात् प्रभुता हानिर्न विरुध्यते इति भावः । तदानीमल्पबहुत्वमित्थं प्ररूपयितव्यम् - नाम - गोत्रयोः सर्वस्तोकः स्थितिबन्धः स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः, ततो मोहनीयस्या - ऽसंख्येयगुणः, ततो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीयाSन्तरायाणां स्थितिबन्धो ऽसंख्येयगुणः, स्वस्थाने तु मिथः समानः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - "एदेण कमेण संखेजाणि हिदिबन्धसहस्साणि गदाणि तदो जम्हि अण्णो seबंध तहि एक्कसराहेण णामागोदाणं द्विदिबन्धो धोवो, मोहणीयस्स डिदि - बन्धो असंखेजगुणो, चदुन्हं कम्माणं द्विदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो ।” इति । 'तो' इत्यादि, 'ततः ' ज्ञानावरणाद्यपेक्षया मोहनीयस्थितिबन्धस्या- ऽसंख्येयगुणहीनत्वभवनात् स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रपु गतेषु मोहनीयस्थितिबन्ध एकप्रहारेण 'विंशतिका-ऽधस्तात् ' नाम - गोत्रयोरधस्तादसंख्येयगुण एति, नामगोत्रतो ऽसंख्येयगुणहीनो जायते मोहनीयस्या प्रशस्वतमत्वेन प्रभूतहानिसम्भवादित्यर्थः । इदमुक्तं भवति - इतः पूर्व ये संख्येयसहस्राणि मोहनी - यस्य स्थितिबन्धा व्यतिक्रान्ताः, ते सर्वे नामगोत्रयोः स्थितिबन्ध तो - ऽसंख्येयगुणवृद्धाः, सम्प्रत्येकहेलयैव नामगोत्रतो मोहनीय स्थितिबन्धो ऽसंख्येयगुणहीनो जायते । तदानीमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह - "कमेण " इत्यादि, प्रागपि नामगोत्रयोः स्थितिबन्धतो ज्ञानावरणादीनामसंख्येयगुण Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] खवगसेढी [गाथा-३५ आसीत्, मोहनीयस्य तु सम्प्रति नामगोत्रतोऽसंख्येयगुणहीनो जातः । तेन मोहनीयस्य नामगोत्रयोर्ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां च स्थितिबन्धः क्रमेणाऽसंख्यगुणो भवति । तथाहि-मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः, ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः, ततोऽपि ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः, स्वस्थाने तु मिथः सदृक्षः । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी-"एदेण कमेण संखेज्जाणि हिदिबन्धसहस्साणि गदाणि, तदो जम्हि अण्णो हिदिबन्धो, तम्हि एक्कसराहेण मोहनीयस्स हिदिबन्धो थोवो, णामागोदाणं हिदिबन्धी असंखेजगुणो, चतुण्डं कम्माणं हिदिबन्धो तुल्लो असंखेजगुणो।" इति ॥ ३४ ॥ नामगोत्रा-उपेक्षया मोहनीयस्थितिबन्धस्या-ऽसंख्येयगुणहीनत्वभवनात् यद्भवति, तद्वक्त - काम आह तो वेअणिजबंधो सेसाणं तीसगाण उवरि उ। तो सेसतीसगाणं टिइबंधो वीसगाए अहो ॥३५॥ तस्माद् वेदनीयबन्धः शेषाणां त्रिशकानामुपरि तु । तस्मात् शेषत्रिंशत्कानां स्थितिबन्धो विंशतिक योरधः ॥ ३५ ॥ इति पदसंस्कारः । 'तो' इत्यादि, 'असंखगुगो एकपहारेणेई' इति पदत्रयं पूर्वतोऽनुवर्तते । 'तस्मात्' नामगोत्रस्थितिवन्धतो मोहनीयस्थितिबन्धस्याऽसंख्येयगुणहीनत्वभवनात् संख्यातेषु स्थितिवन्धसहसेषु गतेषु 'वेदनीयबन्धः' वेदनीयकर्मणः स्थितिबन्ध एकप्रहारेण 'शेषाणां त्रिंशत्कानां' ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामुपरि असंख्यगुण एति-गच्छति, ज्ञानावरणादितो-ऽसंख्येयगुणो जायते, ज्ञानावरणादीनामप्रशस्ततरत्वेन प्रसूतहानिसंभवादिति भावः । 'तु'तुः पादपूरण । इदमुक्तं भवतिइतः प्रागुत्तरोत्तरस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणहीनो भवन् ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां मिथः समान आसीत्, सम्प्रत्येकहेलयैव ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायाणां प्रभूतः स्थितिबन्धो हीयते, येन वेदनीयतो ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणहीनः संजायते । ततश्च ज्ञानावरणादितो वेदनीयस्य स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणो भवति । तदानीं स्थितिबन्धाल्पबहुत्वं चिन्त्यते-मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः, ततो नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुणः,ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-न्तरायाणामसंख्येयगुणो भवति, ततो-ऽपि वेदनीयास्या-ऽसंख्येयगुणः । उक्तं च कषाय प्राभूतचूर्णी-"एदेण कमेण संजाणि हिदिबंधसहस्साणि गदाणि, तदोजम्हि अण्णो हिदिबंधो तम्हि एक्कसराहेण मोहणीयस्स ठिदिबंधो थोवो, णामागोदाणं ठिदिबंधो असंखजगुणो तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो असंख जगुणो, वेदणीयस्स ठिदिबंधो असंखजगुणो । 'तो' इत्यादि, 'तस्मात्' घातित्रयतो वेदनीयस्थितिबन्धस्या-ऽसंख्येयगुणत्व Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिसत्त्वम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ४६ भवनात् संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु जितेषु सत्सु 'शेषत्रिंशत्कानां' शेषत्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामित्यर्थः, स्थितिबन्ध एकप्रहारेण 'विंशतिकयो।' नाम-गोत्रयोः 'अधः' अधस्ताद् असंख्येयगुणो गच्छति, नामगोत्रतोऽसंख्येयगुणहीनो जायते, ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामप्रशस्ततरत्वेन प्रभूतहानिसंभवादित्यर्थः ॥ ३५ ॥ तदानीं नाम-गोत्रतो वेदनीयस्य स्थितिबन्धः कियान् भवति ? इत्यत आह ताहे वीसगबंधा तइयस्स विसेसअहिगो खु । एवंकमेण गच्छइ बंधो अह भणिमु ठिइसंतं ॥३६॥ (उपगीतिः) तदा विंशतिकबन्धात् तृतीयस्य विशेषाधिकः खलु । एवंक्रमेण गच्छति बन्धोऽथ भणामः स्थितिसत्त्वम् ॥ ३६ ॥ इति पदसंस्कारः। 'ताहे' इत्यादि, 'तदा' यदा ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्धस्या-ऽधस्तादसंख्यगुणो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धो गच्छति, तदानीमित्यर्थः, 'विंशतिकबन्धात्' नाम-गोत्रयोः स्थितिबन्धात् 'तृतीयस्य' वेदनीयकर्मणः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः खलु-निश्चयेन जायते, न ततो-ऽधिकः, विंशतिसागरोपमकोटीकोटिस्थितिकनामगोत्रतस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकवेदनीयस्थितिबन्धस्य त्रिद्विभागगुणसंभवात् । तदानी स्थितिबन्धाल्पबहुत्वमित्थं निरूपयितव्यम्-मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः, ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण-ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः, ततो नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुणः, ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकः । उक्तं च कषायप्राभूतचों-"एवं संखेजाणि ठिदिबन्धसहस्साणि गदाणि, तदो अण्णो हिदिबन्धो एक्कसराहेण मोहणीयस्स हिदिबन्धो थोवो, तिण्हं घादिकम्माणं हिदिबन्धो असंखेज्जगुणो, णामागोदाणं हिदिबन्धो असंखेजगुणो, वेदणीयस्स हिदिबन्धो विसेसाहिओ।" 'एवंकमेण' इत्यादि, ‘एवंक्रमेण' चरमाऽल्पबहुत्वक्रमेण 'वन्धो' अभिनवोऽभिनवः स्थितिबन्धो 'गच्छति'' व्यतिक्रामति । स्थितिबन्धं विस्तरतो-ऽभिधाय सम्प्रति स्थितिसत्त्वं निजिगदिषुराह-'अह' इत्यादि, 'अथ' अथशब्दोऽनन्तरार्थकः, स्थितिबन्धप्ररूपणा-ऽनन्तरमित्यर्थः, 'स्थितिसत्त्वं' सप्तानामप्यायुवर्जानां कर्मणां स्थितिसत्कर्म 'भणामः' शब्दतः प्रतिपादयिष्यामः ॥ ३६॥ प्रतिज्ञातमेवा-ऽऽह तत्तो असण्णितुल्लं ठिइसंतं ताउ बंधव्व । ता णेयं जावंतप्पबहुत्तं खलु ण पाविज॥३७॥ (उपगीतिः) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] खवगसेढी ततोऽसंज्ञितुल्यं स्थितिसत्त्वं तस्माद् बन्धवत् । तावज्ज्ञेयं यावदन्ता-ऽल्पबहुत्वं खलु न प्राप्येत ||३७|| इति पदसंस्कारः । 'ततो' इत्यादि, 'ततः' मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वाल्पस्ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणस्ततो नाम - गोत्रयोरसंख्येयगुणस्ततो वेदनीयस्य विशेषाधिक इत्येवंरूपस्थितिबन्धा-ऽल्पबहुत्वभवनात् परं संख्येषु स्थितिबन्धसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु 'असंज्ञितुल्यं' असंज्ञिस्थितिबन्धेन तुल्यं -सदृशं 'स्थितिसत्त्वं' आयुर्वर्ज सप्तकर्मणां स्थितिसत्कर्म भवति, मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं सागरोपमसहस्रचतुः सप्तभागप्रमितं (१०००x४ ) ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां सागरोपमसह 6) [ गाथा - ३७ स्त्रत्रिसप्तभागमानं (१००० -) नाम - गोत्रयोः सागरोपमसहस्र द्विसप्तभागमात्रं -) भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "एदेणेव कमेण संखेजाणि हिदिबन्ध सहसाणि गदाणि तदो ठिदिसंतकम्ममसण्णिठिदिबन्धेण समगं जादं ।" इति । 'ताउ' इत्यादि, 'तस्मात् ' असंज्ञिबन्ध तुल्यस्थितिसत्त्वभवनात्परं ' बन्धवत्' स्थितिबन्धवत् तावज्ज्ञेयम् यावद् 'अन्ता ऽल्पबहुत्वम्' चरमाऽल्पबहुत्वम् मोहनीयस्थितिसत्त्वं स्तोकं ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणं ततो नाम- गोत्रयोरसंख्येयगुणं ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकमित्येवंलक्षणं खलु न प्राप्येत । इदमुक्तं भवति - सप्तानामपि कर्मणामसंज्ञिस्थितिबन्धतुल्यस्थितिसत्त्वभवनात् संख्यातेषु स्थितिबन्धेषु सहस्रेषु गतेषु सत्सु सप्तानां कर्मणां चतुरिन्द्रियस्थितिबन्धेन सदृशं स्थितिसच्चं भवति, मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं सागरोपमशतचतु:सप्तभागमितम् (2 ४), ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां सागरोपशतत्रिसप्तभागमात्रम् (१००×३), नाम-गोत्रयोः सागरोपमशतद्विसप्तभागमानं (२००२), भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - " तदो संखेज्जेसु ठिदिबन्धसहस्सेसु गदेसु चाउरिंदियबिन्घेण समगं जादं ।" इति । १००४४ १०००X२ ७ ततः पुनः संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु त्रीन्द्रियस्थितिबन्धसमानं स्थितिसखं भवति, मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं पञ्चाशत्सागरोपम चतुःसप्तभागप्रमितम् (२०१४), ज्ञानावरणादीनां चतुर्णां पञ्चाशत्सागरोपमत्रिसप्तभागप्रमितम् (२०x३ ), नाम-गोत्रयोस्तु पञ्चाशत्सागरोपमद्विसप्तभागप्रमित (५०X२ ), भवतीत्यर्थः । ततः संख्यातेषु सहस्रस्थितिबन्धेषु ब्रजितेषु सत्सु द्वीन्द्रियस्थितिबन्धसदृशं स्थितिसत्त्वं भवति, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिसत्त्वनिरूपणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ५१ मोहनीयस्य स्थितिसत्कर्म पञ्चविंशतिसागरोपमचतुःसप्तभागप्रमाणम् (२५४४ ), ज्ञानावरणदर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां पञ्चविंशतिसागरोपमत्रिसप्तभागमितम् (२५४३),नामगोत्रयोः पञ्चविंशतिसागरोपमद्विसप्तभागमानं (२५४२), भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतची-"एवं तीइंदियबीइंदियठिदिबन्धेण समगं जादं ।” इति । ततो भूयः संख्यातस्थितिबन्धसहखेषु व्यतिक्रान्तेषु स्थितिसत्त्वमेकेन्द्रियस्थितिबन्धेन सदृशं भवति,मोहनीयस्य सागरोपमचतुःसप्तभागप्रमाणम् (3) ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयाऽन्तरायाणां सागरोपमत्रिसप्तभागमात्रम् (3) नाम-गोत्रयोः सागरोपमद्विसप्तभागप्रमितं (3) भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभूतची-"तदो संखेन्जेसु हिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु एइंदियठिदिबन्धेण समगं हिदिसंतकम्मं जादं।" अत्र कषायप्राभूतचूर्णिकारैः स्थितिखण्डसहस्रषु गतेष्वित्युक्तम् , स्थितिघाताद्धायाः स्थितिबन्धाद्धया तुल्यत्वेनाऽन्यतरोपादाने विरोधाभावात् । तेन वयमपीतः परं स्थितिबन्धसहस्रषु गतेष्वित्यस्य स्थाने स्थितिखण्डसहस्रेषु गतेष्वित्यभिधास्यामहे । एकेन्द्रियवन्धतुल्यस्थितिसत्त्वभवनात् संख्यातेषु स्थितिखण्डसहस्रषु गतेषु सत्सु नामगोत्रयोः स्थितिसत्त्वं पल्योपममात्रं भवति, ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां सार्धपल्योषममितं भवति, मोहनीयस्य तु पल्योपमद्वयमात्रं भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचो -"तदो संखेजेसु हिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु णामागोदाणं पलिदोवमट्टिदिसंतकम्मं जादं। ताधे चदुण्हं कम्माणं दिवढपलिदोवमहिदिसंतकम्म, मोहणीयस्स वि बेपलिदोवमठिदिसंतकम्म।" अत्र युक्तिस्तु स्थितिबन्धवदुपन्यसनीया, एवमग्रेऽपि । तदानी स्थितिसवा-ऽल्पबहुत्वमित्थं प्ररूपयितव्यम्-नामगोत्रयोः स्थितिसत्त्वं सर्वस्तोकम् , स्वस्थाने मिथस्तुन्यम् । ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां विशेषाधिकम् , सार्धपल्योपममात्रत्वात् स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यम् । ततो-ऽपि मोहनीयस्य विशेषाधिकम् , पल्योपमद्वयमात्रत्वात् । इतः परं नाम-गोत्रयोः स्थितिसत्त्वस्य संख्येयगुणहानिर्भवति, प्रतिस्थितिघातेन सत्तागतस्थितेः संख्येयबहुभागा विनाश्यन्त इत्यर्थः, यतः प्रभृति यस्य कर्मणः पल्योपममात्रं स्थितिसत्त्वं भवति, ततः परं प्रतिस्थितिघातेन तस्य कर्मणः स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणहीनं भवतीति व्याप्तेः। शेषाणां पञ्चानां कर्मणां तु पल्योपमसंख्येयमागमितं स्थितिखण्डं विनाशयति । तेन नाम-गोत्रयोः पल्योपममात्रस्थितिसत्त्वभवनादेकस्मिन् स्थितिखण्डे घातिते नाम-गोत्रयोः स्थितिसत्त्वं पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणं मवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"एदम्हि द्विदिखंडये उक्किण्णे गामागोदाणं पलिदोवमस्स संखेनदिभागियं ठिदिसंतकम्मं ।” ज्ञानावरण-दर्शनावरण Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] aaraढी [ गाथा - ३७ वेदनीया - न्तरायाणां देशोन सार्धपल्योपममात्रं स्थिति सच्चम्, मोहस्य पुनर्देशोन द्विवल्योपममात्रं भवति । तदानीमल्पबहुत्वं चिन्त्यते - नामगोत्रयोः सर्वस्तोकं स्थितिस्त्वम्, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यम्, तच्च पल्योपमसंख्येयभागमानं भवति । ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां संख्येयगुणम् देशोनसापल्योपममितलात्, स्वस्थाने तु मिथ एकादृक्षम् । ततो ऽपि मोहनीयस्य विशेषाधिकम्, देशोनपल्योपमद्वयमात्रत्वाद । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "ताधे अप्पाबहुअं - सव्वत्थोवं णामागोदाणं द्विदिसंतकम्मं चतुण्हं कम्माणं ट्ठिदिसंतकम्मं तुल्लं संखेजगुणं, मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं ।” इति । 1 i अनेन स्थितिसत्त्वा ऽल्पबहुत्वक्रमेण स्थितिखण्ड संख्यातसहस्रेषु गतेषु सत्सु ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणामपि पल्योपममात्रं स्थितिसत्त्वं भवति, मोहनीयस्य तु त्रिभागाधिकपल्योपमप्रमितं जायते । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी - " देण कमेण ठिदिखण्डयपुधत्ते गदे तदो चउन्हें कम्माणं पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मं, ताधे मोहणीयस्स पलिदोवमतिभागुत्तरं ठिदिसंतकम्मं ।” अतः परं ज्ञानावरणादीनां प्रतिस्थितिघातेन स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणहीनं भवति, व्याप्तेः प्रागुक्तत्वात् । मोहनीयस्य तु पूर्ववत् प्रतिस्थितिवातेन पल्योपमसंख्येयभागं नाशयति । तेन ज्ञानावरणादीनां पल्योपममात्रस्थितिसत्त्वभवनादेकस्मिन् स्थितिघाते पूर्णे ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायाणामपि स्थितिसत्वं पल्योपमसंख्येयभाग प्रमितं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - " तदो हिदिखण्डये पूणे चतुण्हं कम्माणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो हिदिसंतकम्मं ।" मोहनीयस्य तु देशोन त्रिभागोत्तरपल्योपममात्रं भवति । तदानीं स्थितिसस्वा ऽल्पबहुत्वं निगद्यते - नाम- गोत्रयोः स्थितिसचं सर्वस्तोकम्, तच्च पल्योपमसंख्येय भागमानम्, स्वस्थाने मिथस्तुल्यं भवति, ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणarater-sन्तरायाणां पल्योपमसंख्येयभागप्रमितं भवदपि संख्येयगुणम्, स्वस्थाने तु मिथः सदृशम्, ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणम्, तस्य देशोन त्रिभागाधिकपल्योपममात्रत्वात् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णौ - "ताघे अप्पाबहुअं- सव्वत्थोवं णामागोदाणं द्विदिसंतकम्म, चदुहं कम्माणं ठिदिसंतकम्मं तुल्लं संखज्जगुणं, मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्मं संखज्जगुणं |" इति । 1 अनेन स्थितिसवा पबहुत्वक्रमेण स्थितिघातसहस्रेषु ब्रजितेषु सत्सु मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं पल्योपममात्रं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - " तदो ठिदिखण्डयपुधत्तेण मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं पलिदोवमं जादं ।” इतः परं प्रतिस्थितिघातेन मोहनीयस्थितिसवमपि संख्येयगुणहीनं भवति, व्याप्तेः प्रागुक्तत्वात् । इत्थमितः परं सर्वेषां कर्मणां प्रतिस्थितिघातेन स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणहीनं जायते । तेन मोहनीयस्य पल्योपममात्रस्थितिसत्त्वभवनादेक Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिसत्त्वनिरूपणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ५३ स्मिन् स्थितिघाते पूर्णे मोहनीयस्याऽपि स्थितिसत्कर्म पल्योपमसंख्येयभागमितं भवति । अत एव तदानीं सर्वेषां कर्मणां स्थितिसत्त्वं पल्योपमसंख्येयभागमात्रं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी -- "तदो ठिदिखण्डए पुण्णे सत्तण्हं कम्माणं पलिदोवमस्स संख ज्जदिभागो ठिदिसंतकम्मं जाएं ।” इति । तदानीं स्थितिसत्त्वाऽल्पबहुत्वमित्थं निगदितव्यम् - नाम - गोत्रयोः स्थितिसत्त्वं सर्वस्तोकम्, ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणां संख्येयगुणम्, ततोऽपि मोहनीयस्य संख्येयगुणम् । ततः परं संख्यातेषु स्थितिघातसहस्रेषु व्यतिक्रान्तेषु नाम - गोत्रयोः स्थितिसत्त्वं पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - " तदो संखेज्जेसु हिदिखण्डयस हस्सेसु गदेसु णामागोदाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिसंतकम्मं जादं ।" तदानीमपबहुत्वं विचार्यते - नाम - गोत्रयोः स्थितिसच्वं सर्वस्तोकं स्वस्थाने मिथः समानम्, तच्च पल्योपमाऽसंख्येयभागमानम्, ततो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणम्, पल्योपम संख्येयभागमात्रत्वात्, स्वस्थाने तु मिथः सदृशम्, ततो मोहनीयस्य पल्योपमसंख्येयभागमितं भवदपि संख्येयगुणं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ - "ताघे अप्पाबहुअं- सव्वत्थोवं णामागोदाणं ठिदिसंतकम्मं, चउण्हं कम्माणं ठिदिसंतकम्मं तुल्लमसंखेज्जगुणं, मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं ।" इति । इतः प्रभृति नामगोत्रयोः स्थितिसत्त्वं प्रतिस्थितिघातेना संख्येयगुणहीनं जायते । ततः परमनन्तरोक्ता - ऽल्पबहुत्वक्रमेण स्थितिखण्डेषु संख्यातसहस्रेषु व्यतीतेषु ज्ञानावरणदर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायाणां स्थितिसचं पल्योपमा संख्येयभागप्रमाणं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ - - " तदो ठिदिखण्डयपुधत्तेण चउन्हं कम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिसंतकम्मं जादं ।" मोहनीयस्य तु पल्योपम संख्येय भागप्रमाणं भवति । तदानीं स्थितिसच्चाऽल्पबहुत्वं भण्यते - नाम - गोत्रयोः सर्वस्तोकं स्थितिसत्कर्म, स्वस्थाने -तु मिथस्तुल्यम्, तच्च पल्योपमाऽसंख्यभागप्रमाणं भवति, ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायाणां पल्योपमा - ऽसंख्येयभागमात्रं भवदप्यसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं सदृशम्, ततो मोहनीयस्या --ऽसंख्येयगुणम्, पल्योपमसंख्येयभागमात्रत्वात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ"ताचे अप्पाबहुअं - णामागोदाणं द्विदिसंतकम्मं थोवं, चउण्हं कम्माणं डिदिसंतकम्म तुल्लमसंखेज्जगुणं, मोहणीयस्स डिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं ।” इति । इतः प्रभृति ज्ञानावरणादीनामपि स्थितिसच्चं प्रतिस्थितिघातेना संख्येयगुणहीनं जायते । ततो भूयः स्थितिखण्ड संख्य सहस्र ष्वतिक्रान्तेषु सत्सु मोहनीय कर्मणः स्थितिसत्कर्म पल्योपमा - संख्येयभागमानं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो- “तदो ठिदिखण्डयपुधत्तेण मोहणीयस्स वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो हिदिसंतकम्म जादं ।" इत्थमितः प्रभृति सर्वेषां Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ गाथा-३७ कर्मणां स्थितिसत्त्वं पल्योपमा - संख्येयभागमितं तावद्वक्तव्यम्, यावद्विशेषो ना - ऽभिधीयेत । साम्प्रतमल्पबहुत्वमित्थं द्रष्टव्यम् - नाम - गोत्रयोः स्थितिसत्त्वं सर्वापं स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यम्, ततो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणं स्वस्थाने मिथः समानम्, ततो मोहनीयस्या-ऽसंख्येयगुणम् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - "ताधे अप्पा बहुअं जधा-णामागोदाणं द्विदिसंतकम्म थोवं, चदुपहं कम्माणं ठिदिसंतकम्मं तुल्लमसंख जगुणं, मोहणीयस्स ठिदिसन्तकम्म असंखं जगुण ।” इति । इतः प्रभृति मोहनीयस्या - पि स्थितिसत्त्वं प्रतिस्थितिघातेना - ऽसंख्येयगुणहीनं जायते । aarसेढी ततः परमुक्तान्पबहुत्वक्रमेण स्थितिखण्ड संख्यसहस्र ष्वतिक्रान्तेषु सत्सु मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमेक प्रहारेणैव ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणामधस्ताद संख्येयगुणं गच्छति, ज्ञानावरणादितोऽसंख्येयगुणहीनं जायते इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति — इतः प्राग् ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा स्थितिसवतो मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणमासीत्, इदानीं पुनरेक स्थितिघातेन ज्ञानावरणादीनां स्थितिसत्त्वतो मोहनीयस्य स्थिति सच्चमसंख्येयगुणहीनं संजायते । इदन्त्ववधेयम्अनन्तरोक्तस्थितिसत्त्वा ऽल्पबहुत्वतः परं व्रजितानां संख्यातसहस्रस्थितिघातानां द्विचरम स्थितिघातं यावज्ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वतो मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणं भवति स्म, चरमस्थितिघातेन तु मोहनीयस्यैतावत्प्रभूतं स्थितिसत्त्वं घातयति, येन ज्ञानावरणदर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वतो मोहनीयस्य स्थिति सत्वमसंख्येयगुणहीनं भवति । एवमग्रेऽपि यत्रैकप्रहारेणेति वच्यते, तत्रेत्थमेव भावनीयम् । तदानीं स्थितिसत्त्वा ऽल्पबहुत्वं भण्यतेनामगोत्रयोः सर्वस्तोकं स्थितिसत्त्वं स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यम्, ततो मोहनीयस्या - Sसंख्येयगुणम्, ततोऽपि ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीयाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यम् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिखण्डयसहस्साि गदाणि तदो णामागोदाणं ठिदिसंतकम्म थोवं, मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मम संख जगुण, चउण्हं कम्माण ठिदिसंतकम्म तुल्लमसंख ज्जगुणं ।” इति । ततः परमनन्तरोक्तस्थितिसत्त्वा ऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्यसहस्रेषु स्थितिखण्डेषु व्यतीतेषु मोहनीयस्य स्थिति सत्वमेकप्रहारेणैव नामगोत्रयोरधस्तादसंख्येयगुणं गच्छति, नामगोत्रतोऽसंख्येयगुणहीनं जायते इत्यर्थः । इतः प्राग् नाम - गोत्रयोः स्थितिसत्त्वतो मोहनीयस्य यत्स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणमासीत्, तदतः प्रभृत्यसंख्येयगुणहीनं जायते । तदानीं स्थितिसत्त्वा ऽल्पबहुत्वं प्रतिपाद्यते — मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं सर्वाल्पम्, ततो नाम - गोत्रयोरसंख्येयगुणम्, स्वस्थाने तु मिथः सदृक्षम्, ततो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणम्, स्वस्थाने तु परस्परं समानम् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो – “तदो ठिदिखण्डयपुघत्ते Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिसत्त्वनिरूपणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ५५ गदे एक्कसराहेण मोहणीयस्स हिदिसंतकम्म थोवं, णामागोदाणं हिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं, चउण्हं कम्माणं हिदिसंतकम्म तुल्लमसंखेज्जगुणं ।" इति । अनन्तरोक्तस्थितिसत्त्वा-ऽल्पबहुत्वक्रमेण स्थितिखण्डसंख्यसहस्रषु गतेषु वेदनीयस्य स्थितिसत्त्वं ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामुपर्यसंख्येयगुणं गच्छति, ज्ञानावरणादितोऽसंख्येयगुणं संजायते इत्यर्थः । इतः प्राग ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां वेदनीयस्य च स्थितिसत्त्वं परस्परं तुल्यमासीत् , अतः प्रभृति ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वतो वेदनीयस्य स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणं जायते । इदानी स्थितिसत्त्वा-ऽल्पबहुत्वमित्थं भणितव्यम्-मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं सर्वाल्पम् , ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणम् , ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणम् , ततो वेदनीयस्या-ऽसंख्येयगुणम् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो द्विदिखण्उयपुधत्तेण मोहणीयस्स हिदिसन्तकम्म थोवं, णामागोदाणं द्विदिसंतकम्म असंखेजगुणं, तिण्हं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्ममसंखेजगुणं, वेदणीयस्स हिदिसन्तकम्ममसंखेजगुणं ।" इति । ततः परं संख्यसहस्रेषु स्थितिखण्डेषु जितेषु ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामुपर्यसंख्येयगुणं नामगोत्रयोः स्थितिसत्त्वं गच्छति, ज्ञानावरणादितोऽसंख्येयगुणं भवतीत्यर्थः, ततो वेदनीयस्य स्थितिसत्त्वं केवलं विशेषाधिकं भवति । प्राक्तु नाम-गोत्रयोः स्थितिसत्त्वतोज्ञानावरण दर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणमासीत् , ततो वेदनीयमसंख्येयगुणम् , इदानीं पुनर्ज्ञानावरणादितो नामगोत्रयोः स्थितिसत्वमसंख्येयगुणं भवति, नामगोत्रयोश्च स्थितिसत्त्वतो वेदनीयस्य स्थितिसत्त्वं केवलं विशेषाधिकं भवतीति भावः । स्थितिसत्त्वाऽल्पवहुत्वं पुनरित्थमभिधातव्यम्मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं सर्वस्तोकम् , ततो ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामसंख्येयगुणम् , स्वस्थाने तु मिथः सदृशम् , ततोऽपि नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुणम् , स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यम् , ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकम् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-“तदो द्विदिखण्डयपुधत्तेण मोहणीयस्स हिदिसन्तकम्मं थोवं, तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं असंखेजगुणम्, णामागोदाणं ठिदिसन्तकम्ममसंखेजगुण, वेदणीयस्स ठिदिसंतकम विसेसाहियं ।" इति ॥ ३७॥ साम्प्रतमनिवृत्तिकरणप्रथमसमयात्प्रभृत्यनन्तरोक्तस्थितिसत्त्वाऽल्पबहुत्वं यावत् सर्वा प्ररूपणा यन्त्रके दश्यते । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 09 । यन्त्रकम् (i) अनिवृत्तकरणप्रथमसमये देशोपशमनानिधत्तिनिकाचनाकरणानि व्यवच्छिन्नानि । (ii) , स्थितिबन्धो-ऽन्तःसागरोपमकोटिप्रमितः, स्थितिसत्कर्म पुनरन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणम् । (iii) जघन्यस्थितिखण्डत उत्कृष्टस्थितिखण्डं संख्येयभागाधिकम् । (iv) प्रथमे स्थितिखण्डे घातिते सर्वजन्तूनां स्थितिखण्डं मिथस्तुल्यम् । एवं स्थितिसत्कर्माऽपि । मोहनीयस्य ज्ञानावरणादीनाम् नामगोत्रयोः (१) स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रषु गतेष्वनिवृत्तिकरणस्य संख्येयतमभागे शेषे स्थितिबन्धः ४०७० सा० ३७० सा० २०७० सा० असंज्ञिबन्धतुल्यः (२) ततः स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रेषु व्यतिक्रान्तेषु स्थितिबन्धः ४७०, ३०, २००, चतुरिन्द्रियबन्धतुल्यः २७, १४, १७०, त्रीन्द्रियबन्धतुल्यः १७. ७५, ५०, द्वीन्द्रियबन्धतुल्यः 3. एकेन्द्रियबन्धतुल्यः नामगोत्रयोः ज्ञानावरणादीनाम् मोहनीयस्य अल्पबहुत्वम् (६) ततः स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रषु गतेषु बन्धः १ पल्योपमम् । १॥ पल्योपमम् । २ पल्योपमे । (१)नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः स्तोकः । स्थितिसत्त्वं इतः परं । । (२) ततो ज्ञानावरणादीनां संख्येयगुणः। तु साग०बन्धः संख्य । (३) , मोहनीयस्य विशेषाधिकः । शतसहस्रगुणहीनः । पृथक्त्वम् । प्राक्तनाः सर्वे बन्धाअनेनाऽल्पबहुत्वक्रमेण गताः । (७) . " , पल्यसंख्य- १ पल्योपमम् । १३ पल्योपमम्। (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धो-ऽल्पः । गाथा-३० भागः । इतः परं (२) ततो ज्ञानावरणादीनां संख्येयगुणः । ," संख्यगुणहीनः। (३) ततो मोहनीयस्य विशेषाधिकः । "" () , , , पल्यसंख्य- पल्यासंख्य- १पल्योपमम् । बन्धे पूर्णे (१) नामगोत्रयोर्बन्धोऽल्पः । गा०-३१-३२ भागः । भागः । इतः परं (२) ततो ज्ञानावरणादीनां संख्यगुणः , , संख्यगुणहीनः। (३) , मोहनीयस्य , , , (६) ततः स्थितिबन्धसंख्यातसहस्रेषु गतेपु बन्धः पल्यासंख्य- पल्यसंख्य- पल्यसंख्य- (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः स्तोकः । गा०-३२ - भागः, इतः । भागः । भागः । (२) ततो ज्ञानावरणादीनामसंख्येयगुणः। ,, प्रभृत्यसं (३) , मोहनीयस्य संख्येयगुणः। , " . ख्यगुणहीनः। अपूर्णम् खवगसेढी [ गाथा-३७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा-३७] भागः यन्त्रकम् नामगोत्रयोः ज्ञानावरणादीनाम् मोहनीयस्य अल्पबहुत्वम् (१०) ततःस्थितिबन्धसंख्यसहस्रेषु गतेपुबन्धः | पल्या-ऽसंख्य-| पल्या-ऽसंख्य- पल्यसंख्य- (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः स्तोकः गाथा भागः भागः भागः | (२) ततो ज्ञाना० असंख्यगुणः ३३ इतः प्रभृत्यसं. (३) ततो मोहनीयस्या-ऽसंख्यगुणः । ख्यगुणहीनः (११), (११) " " " " "पल्या-ऽसंख्य-| पल्या-ऽसंख्य- पल्या-ऽसंख्यभागः । (१) नामगोत्रयोर्बन्धोऽल्पः । सत्त्वं तु भागः इतः प्रभृत्यसं- (२) ततो ज्ञाना असंख्यगुणः । साग०स ख्यगुणहीनः । (३) ततो मोहस्या ऽसंख्यगुणः। हस्रपृथक्त्वम् अधोमोहबन्धो- - । (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धोऽल्पः। गाथाऽसंख्यगुणहीन (२) ततो मोहनीयस्या-ऽसंख्यगुणः। | ३४ एकप्रहारेण (३) ततो ज्ञाना० असंख्यगुणः । (१३) " " " " अधो मोहबन्धो--- (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धोऽल्पः। 'गाथाऽसंख्यगुणहीन (२) ततो नामगोत्रयोरसंख्यगुणः। | ३४ । एकप्रहारेण (३) ततो ज्ञाना० असंख्यगुणः। । १४) " " " " | नामगोत्रयोः घातित्रयस्य वेदनीयस्य मोहनीयस्य अल्पबहुत्वम् उपरि वेद (१) मोहनीयस्य बन्धोऽल्पः। नीयबन्धोऽ (२) ततो नामगोत्रयोरसंख्यगुणः । संख्यगुण (३) ततो ज्ञाना० असंख्यगुणः। ---- -- एकप्रहारेण । (४) ततो वेदनीयस्या-ऽसंख्यगुणः। अधो ज्ञानाव नामगोत्रतो (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः स्तोकः रणादिबन्धोऽ विशेषाधिकः (२) ततो घातित्रयस्था-ऽसंख्यगुणः । संख्यगुणहीन (३) ततो नामगोत्रयोरसंख्यगुणः । एकप्रहारेण (४) ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकः । (१०), " , सत्त्वम्। २०७० सा० । 3800 साल ।४ सा०। असज्ञिबन्धतुल्यमित्यर्थः । गा-३७ .ततः स्थितिबन्धवत् स्थितिसत्कर्म तावद् वक्तव्यम् , यावत् पञ्चदशस्थानोक्तमल्पबहुत्वं न प्राप्येत । खवगसेढी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] खत्रगसेढी [ गाथा - ३८ ततः संख्यातेषु स्थितिखण्ड सहस्रेषु गतेष्वसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा जायते, तां व्याजि - ही राह चरिमप्पबहुत्ता असंखखणपवद्धदीरणा होइ । तो साया खवए जहणणठिइसको चरिमे ॥ ३८ ॥ चरिमा - ऽल्पबहुत्वादसंख्यक्षरण प्रबद्धोदीरणा भवति । ततोऽष्टकषायान् क्षपयति जघन्यस्थितिसंक्रमश्चरमे ॥ ३८ ॥ इति पदसंस्कारः । 1 'चरिम ० ' इत्यादि, 'चरमाल्पबहुत्वात् ' मोहनीयस्य स्थितिसचं स्तोकं ततो ज्ञानावरण-दर्शनावराऽन्तरायाणामसंख्येयगुणं ततो नामगोत्रयोरसंख्ययेगुणं ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकमित्येवंरूपात् संख्यातेषु स्थितिखण्ड सहस्रेषु गतेषु 'असंख्यक्षण प्रवद्धोदीरणा' असंख्येय समय प्रबद्धोदीरणा 'भवति' जायते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "एदेण कमेण संखेजाणि ट्टिदिखंडयसहस्साणि गदाणि तदो असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा ।" इति । ननु का नामा-संख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा ? इति चेत्, उच्यते - इतः पूर्वमपकृष्टदलं पल्योपमाऽसंख्येयभागेन विभज्य तदेकभागं गुणश्रेयर्थं गृह्णाति स्म, शेषांशाऽसंख्येयबहुभागान् गुणश्रेण्युपरितननिषेकेषु निक्षिपति स्म । गुणश्रेण्यर्थं गृहीतदलमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्रेण भागहारेण भक्त्वा तदेकभागमुदयावलिकायां प्रक्षिप्य बहुभागानुदयावलिकाया उपरितनेषु गुणश्रेणिनिपेकेषु प्रक्षिपति स्म तेनैकसमय प्रबद्धसत्काऽसंख्येयभागमितं दलमुदीरणायामागच्छति स्म, इदानीं पुनगुणश्रेण्यर्थं गृहीतदलं पल्योपमा ऽसंख्येयभागेन विभज्यैकभागमुदयावलिकायां निक्षिप्य बहुभागानुदयावलिकाया उपरितनेषु गुणश्रेणिनिषेकेषु निक्षिपति । तेनेदानीमुदीरणायां दलमसंख्येयसमयप्रवद्धमात्रं वर्तते । एकसमयेन यावद्दलं बध्यते, तदेकसमयप्रबद्धमुच्यते । इतः प्रभृति क्षपकस्योदीरणायाम संख्येयसमयप्रबद्धदलमागच्छति । तस्मात् कारणाद् इयमसंख्येय समयप्रबद्धोदीरणा व्यपदिश्यते इति भावः । कर्मप्रकृतिचूर्णि कारादिमतेना-ऽसंख्येयसमयप्रवद्धोदीरणा नाम यावत्यः स्थितयो बध्यन्ते, तदपेक्षया याः पूर्वबद्धाः सत्तागताः समयादिहीनाः स्थितयस्ता एवोदीरणामुपगच्छन्ति, नान्याः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्षिकारैरुपशमनाकरणे- “जाहे पलिओवमस्त असंखेजतिभागं डितिबन्धन्ति, तम्मि *; * जयधवलाकारैरपि इत्थमेव व्याख्याता संख्येयसमय प्रबद्धोदीरणा । न्यगादि च तैश्चारित्रमोहोपशमनाधिकारे-"हेट्ठ। सव्वत्थेव असंखेज्जलोगपडिभागेण पयट्टमाणा उदीरणा, एहि परिणामपा हम्मेण पुव्वत्तकिरियाकला वस्सुवरि असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा च पवत्तदि । दिवङ्गुणहाणीमेत्त समयपबद्धाणमोकडुणभागहारादो असंखेज्जगुणेण भागहारेण खंडिदेयखंडस्त असंखेज्जसमयपबद्ध पमाणस्सेत्युदीरणा सरूवे ये पवेसदंसणादो। इति । तथैव चारित्रमोहक्षपणाधिकारेऽपि - “ XXX X तदो परिणामप्पा हम्मेण सव्वेंस कम्माणं वेदिज्जमाणाणं असंखेज्जलोगपडिभागिया उदीरणा णस्सियूण असंखेज्जाणं समयपबद्वाणं उदीरणा पारद्वा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो त्ति ।" इति । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ कषायाष्टकक्षपणा] अनिवृत्तिकरणाधिकारः कालेजातो कम्मद्वितीतोबज्झमाणहितीओ समयादिहीणातो तातो हितीतो उदीरणं एन्ति, उवरिमाउ न इंति उदोरणं ।” इति । इतः परं सर्वत्रा-ऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा ज्ञातव्या । अल्पबहुत्वं चेत्थं प्ररूपयितव्यम्, तदानी प्रदेशोदीरणा स्तोका भवति, ततः प्रदेशोदयोऽसंख्येयगुणो भवति,उदीरणाया असंख्येयसमयप्रबद्धत्वेऽप्युदयस्ततोऽसंख्येयगुणो भवतीत्यर्थः । इदन्त्ववधेयम्-सर्वत्र क्षपकश्रेणौ तद्वयतिरिक्तावस्थायां चोदीरणादलिकत उदयदलिकमसंख्येयगुणं भवति । सम्प्रत्यष्टकपायाणां क्षपणां भणितुकाम आह—'तो' इत्यादि, 'ततः' असंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणातः संख्यातेषु स्थितिखण्डसहस्रषु गतेषु 'अष्टकपायान्' अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणचतुष्कलक्षणान् 'क्षपपति' बध्यमानासु परप्रकृतिषु संक्रमयन् क्षपयितुमारभते, यद्यप्यपूर्वकरणतः प्रभृति कषायाष्टकस्य गुणसंक्रम आसीत्, किन्त्वितः प्रभृति तस्य विशेषघातो जायते, तेन तस्य क्षपणा निगद्यते । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो संखेज्जेसु ठिदिखंडयसहस्सेसुगदेसु अट्टण्हं कसायाणं संकामगो।” इति । अत्रापि 'अट्ठएहं कसायाणं संकामगो' इत्यनेनाऽष्टानां कषायाणां क्षपणायाः प्रारम्भको ज्ञातव्यः, अन्यथा तेषां संक्रमकस्तु पूर्वमपूर्वकरणेऽप्यासीत् । ततः परं संख्यातेषु स्थितिखण्डसहस्रषु व्यतिक्रान्तेष्वावलिकाप्रमाणं स्थितिसत्कर्म विमुच्य शेषं सर्वे कषायाऽष्टकं विनाशयति, तदानीं 'जहण्ण.' इत्यादि, चरमे-चरमप्रक्षेपे 'जघन्यस्थितिसंक्रमः' कपापाष्टकस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमितो जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो अट्ठकसाया ठिदिखंउयपुधत्तेण संकामिजंति । अट्ठण्हं कसायाणं अपच्छिमठिदिखंडए उक्किण्णे तेसिं संतकम्ममावलियं पविट्ठ सेसं । xxxx अट्ठण्हं कसायाणं जहण्णटिदिसंकमो कस्स ? खवयस्स तेसिं चेव अपच्छिमहिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स जहणणयं।" इति । तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि-"सेसगाणं' ति वुत्तसेसाणंथीणगिद्वितिगतरसणामा अट्ठकसायणवणोवकसाया कोहसंजलणमाणमायासंजलणाणं-ए यासिं छत्तीसाए कम्मपगतीणं 'खवणक्कम्मेण' त्ति खवणपरिवाडिते चेव अप्पणो चरिमसंछोभे वद्यमाणो अणियटिजहण्णहिगतिसंकमसामी ।" इति । तदानीमेव शीघ्रं क्षपणायाऽभ्युत्थितस्य गुणितकर्मा शस्य जन्तोरुत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । उक्त च कर्मप्रकृतिचूर्णी-"थीणगिद्धितिगछन्नोकसायासत्तणामअट्ठकसायाणं एतासिं चउवीसाए पगतीणं गुणितकमंसितस्स अणियहिकरणे वट्टमाणस्स उक्कोसपदेससंकमो सव्वसंकमेण लब्भति ।” इति । एवं कषायप्राभृतचूर्णावपि ।।३८॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खबगसेढी [ गाथा-३६ ततः परं कपायाष्टकस्यावलिकामानं स्थितिसत्कर्म स्तिबुकसंक्रमेण प्रतिसमयं संक्रम्य कपायाष्टकं सर्वात्मना निर्लेपयति । स्थितिखण्डसहस्रषु च गतेषु सत्सु स्थावरादिषोडशप्रकृती: क्षपयितुमारभते, तद्वक्तुकाम आह तो थावरतिरिनिरयायवद्गसाहारणेगविगलाई। थीणद्धितिगं य खवइ तो बंधइ देसघाईणि ॥३६॥ ततः स्थावरतिर्यढ निरया-ऽऽतपद्विकसाधारणकविकलानि । स्त्यानचित्रिकं च क्षपयति ततो बध्नाति देशघातीनि ॥३६॥ इति पदसंस्कारः । ___ 'तो' इत्यादि, 'ततः' कषायाष्टकसत्कक्षपणातः परं संख्यातेषु स्थितिघातसहस्रषु गतेषु'स्थाचरतिर्यनिरया-ऽऽ-तपद्विकसाधारणकविकलानि' स्थावरतिर्यनिरयाऽऽतपद्विकमित्यत्र द्विकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते । ततश्चायमर्थः-स्थावरद्विकम्-स्थावर-सूक्ष्मरूपम्, तिर्यद्विकम्-तिर्यगगति-तिर्यगानुपूर्वीलक्षणम्,निरयद्विकं-नरकगति-नरकाऽऽनुपूर्वीस्वरूपम्,अातपद्विकम्-आतपोद्योताख्यम्,साधारण-साधारणनामकर्म च एकविकलानि' एकेन्द्रियजाति-द्वीन्द्रियजाति-त्रीन्द्रियजाति-चतुरिन्द्रियजातिरूपाणि च, तत इतरेतरद्वन्द्वसमासः, 'स्त्यानचित्रिक' निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचला-स्त्यानद्धिलक्षणं 'च' चकारः समुच्चयार्थकः 'क्षपयति' अनन्तरोक्तषोडशप्रकृती शयितुमुपक्रमते । उक्त च कषायप्राभतचूर्णी-"तदो ठिदिखंउयपुधत्तण णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिडीणं णिरयगदितिरिक्खगदिपाओग्गणामाणं संतकम्मरस संकामगो ।” स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते आवलिकाप्रमाणं सत्कर्म विमुच्य शेषं सर्व षोडशप्रकृतीनां स्थितिसत्त्वं विनाशयति, तदप्यावलिकामानं स्थितिसत्त्वं स्तिबुकसंक्रमेण संक्रम्य निरुक्तषोडशप्रकृतीः सर्वथा निर्लेपयति । उक्तं च कषायप्राभती -"तदो ठिदिखंउयपुधत्तेण अपच्छिमे ठिदिखंडए उक्किपणे एदेसिं सोलसएहं कम्माणं ठिदिसंतकम्ममावलियम्भंतरं सेसं।" इति । एवं कर्मप्रकृतिचूर्णावपि"निरयगतितिरियगति-एगिदियजाति जाव चोरिंदिजाति णरयाणुपव्वि तिरिया पुव्वि आयावं उज्जोवं थावरं सुहुम साहारणं एए तेरस, थोणगिद्धितिगेण सह सोलस उवरि' ति अट्ठसु कसातेसु खविएसुवरि संखेज्जेसु हितिखंडेसु गतेसु सोलस वि जुगवं णरसंति ।" इति । एतासां पोडशप्रकृतीनां चरमप्रक्षेपे जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति, स च पन्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणो ज्ञातव्यः । यथागर्म गुणितकर्मा शस्य चोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । सप्ततिकाचूर्णिकारादिभिः कषाया-ऽष्टकस्थावरादिषोडशप्रकृतीनां क्षपणा वित्थं प्रदर्शिता अणियटिबायरे थोणगिडितिग-णिरयतिरियणामाउ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोडशप्रकृति क्षपणा ] निवृत्तिकरणाधिकारः संखेज्जइमे सेसे तप्पा ओगाउ खीयंति ॥ १ ॥ अणियट्टिबारे थोण० गाहा, अणियहिअडाए [ अ ]संखेज्जेसु भागेसु गतेसु धोण गिडितिगनिरयगति-तिरियगति-एगिंदिय-बे० ते ० - चउरिंदियजाइनर - तिरियाणुपुवीओ आयाव उज्जीव-धावर सुहुम साहारणमिति एएसिं सोलसण्हं कम्माणं उचलणविहिणा उव्वहिज्ज माणा उव्वट्टिजमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमेत्ता ठिती जाया । तओ बज्झमाणियासु गुणसंकमेण क्रुभंताणि क्रुन्भंताणि खोणाणि भवंति । एत्तो हइ कसायट्ठगं पि पच्छा पुंसगं इत्थि । तो गोकसायक' भइ संजलणकोहम्मि ॥ १ ॥ [ ६१ 'एतो हणइ० 'गाहा, अट्ठकसाया अपच्चक्खाणावरणपच्चक्खाणावरणा, एए अट्ठवि पुव्वं खवित्तुमाढत्ता, अंतोमुहुत्तं स्वविज्जमाणा खविजमाणा गया न ताव खविया । तत्थ कर सोलस पुत्ताणि कम्माणि खविउमादत्ताणि खविज्जमाणाणि खविजमाणाणि अंतरे खीणाणि भवंति । पच्छा कसाया उव्वलणविहिणा अंतोमुहुत्तेणं खोयंतित्ति एयं एगेसिं मतं । अण्णे यायरिया भणति सोलसकम्माणि पुवं खविउमाढविज्जति तओ अंतरे पुव्वं अट्ठकसाया खोयंति, पच्छा सोलसकम्माणि, एस सुत्ताएसो ।” इति । सप्ततिकावृत्तिकारैः श्रीमदुपाध्यायपुङ्गवैश्वापीत्थमेव चतुर्विंशतिप्रकृतीनां क्षपणा निरूपिता, नवरं तैरनिवृत्तिकरणाद्वायाः प्रथमसमये कषायाष्टकं पल्योपमाऽसंख्येयभागमितस्थितिकं भवतीत्युक्तम् । तथा चात्र सप्ततिकावृत्ति:- "तत्राऽपूर्वकरणे स्थितिघातादिभिरप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकं तथा क्षपयति स्म यथाऽनिवृत्तिकर पाणां षोडशप्रकृतीनामुद्रलनासंक्रमेणोद्वल्यमानानां डायाः प्रथमसमये तत् पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्र स्थितिकं जातम् | अनिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु स्त्यानडिंत्रिक-नरकगति- तिर्यग्गति-नरकानुपूर्वी - तिर्यगानुपूर्वक द्वित्रिचतुरिन्द्रियजाति-स्थावराऽऽपोद्योत - सूक्ष्म-साधारणरूपल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रा स्थितिर्जाता । ततो बध्यमानासु प्रकृतिषु तानि षोडश कर्माणि गुणसंक्रमेण प्रतिसमयं प्रक्षिप्यमाणानि प्रक्षिप्यमाणानि निःशेषतः क्षीणानि भवन्ति । इहाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकं पूर्वमेव क्षपयितुमारब्धं परं तत्राद्यापि क्षीणं, केवलमपान्तराल एवं पूर्वोक्तप्रकृतिषोडशकं क्षपितम् । ततः पश्चात्तदपि कषायामन्तर्मुहूर्तमात्रेण क्षपयति, तथा चाह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] aaraढी [ गाथा - ३६. 'अfreeबायरे थोणगिडितिगनिरयतिरियनाभाउ । संखेज्जइमे सेसे तप्पाउगाओ खीयंते ॥ १ ॥ एत्तो हणइ कसायट्ठगं पि पच्छा नपुंसगं इत्थों । तो नोकसायछक्कं छुग्भइ संजलणकोहम्मि ||२|" अनिवृत्तिबादरगुणस्थानके संख्येयतमे भागे शेषे स्त्यानडित्रिकं निरयगति-तिर्यग्गतिनाम्नी 'तत्प्रायोग्याश्च' निरयगतितिर्यग्गतिप्रायोग्याश्च एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रियजाति-निरयानुपूर्वी तिर्यगानुपुर्वी - स्थावराSSतपोद्योत सूक्ष्म- साधारणरूपाः सर्वसंख्यया षोडश प्रकृतयः क्षीयन्ते । तत' इत:' प्रकृतिषोडशकक्षयादनन्तरं निःशेषतः कषायाष्टकं हन्ति । अन्ये पुनराहुः षोडश कर्माण्येव पूर्व क्षपयितुमारभते, केवलमपान्तरालेऽष्टौ कषायान् क्षपयति, पश्चात् षोडश कर्माणि ।” इति । एवं श्रीमदुपाध्यायपुङ्गवविरचितकर्मप्रकृतिटीकायामपि दृश्यते । इत्थं केषां चिदाचार्याणां मतेनादौ कपायाष्टकं सर्वथा क्षपयति, ततः संख्यातेषु स्थितिखण्डसहस्रेषु तेषु स्थावरप्रभृती: पोडशप्रकृतीः सर्वात्मना क्षपयति । अन्येषामाचार्याणां मतेन प्रथमतः स्थावरप्रभृतीः षोडशप्रकृतीनिश्शेषं विनाशयति, ततः संख्यातेषु स्थितिखण्डसहस्रं षु ब्रजितेषु कषायाष्टकं सर्वथा क्षपयति । आवश्यक नियुक्तिकारादिमतेन प्राक् कपायाष्टकं क्षपयितुमारभते, ततो दर्शनावरणस्य तिस्रः प्रकृतीर्नामकर्मणश्च त्रयोदशप्रकृतीः सर्वात्मना युगपत् क्षपयति, किन्तु पूर्वतोऽयं विशेष:पोद्यतयोः स्थानेऽपर्याप्ताऽप्रशस्त विहायोग तिलक्षणप्रकृतिद्वयं क्षपयति, ततः कषायाष्टकं सर्वात्मना क्षपयति । तथा चात्रावश्यकनियुक्तिः - " गतिआणुपुव्वि दो दो जातिनामं च जाव चउरिंदी | अपसत्या विहगगती थावरणामं च सुमं च ॥ १ ॥ साहारणमपज्जत्तं निद्दानि च पयलपयलं च । योणंखवेति ताहे अवसेसं जं च अहं ॥ २ ॥ एवमावश्यकचूर्णावपि - "तत्थ तहेव संजलणवजे अट्ठ वि कसाए एगट्टे * उक्तं च धवलाकारैरपि - " एवं काऊण अणियद्विगुणद्वाणं पविसिय तत्थ वि अणियट्टिअद्धाए संखेज्जे भागे अपुव्वकरणविहाणेण गमिय अणियट्टिअद्धाए संखेजदिभागे सेसे थीणगिद्धितियं निरयगइतिरिक्खगइ - एइंदिय-बीइंदिय-तेइं दिय- चउरिदियजादि-निरयगइ-- तिरिखखगइपाओग्गाणुपुव्वि आदावुज्जोवथावर - सुहुम-साहारणा त्ति एदाओ सोलस पयडीओ खवेदि । तदो तो मुहुत्तं गंतूण पच्चक्खाणाऽपच्चक्खाणावरण को धमाणमायालोमे अक्कमेण खवेदि । एसो संतकम्मपाहुडउवएसो । कसायपाहुडउवएसो पुण अट्ठासु खीणे पच्छा अंतोमुहुत्तं गंतूण सोलसकम्माणि खविज्जंति त्ति ।" Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशघातिरसबन्धः ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [६३ चेव खवेति,जाहे तेसिं अट्ठण्हं कसायाणं संखेजतिभागं खवेमाणो गतो भवति,ताहे नामस्स कम्मस्स इमाओ तेरस पयडीओ खवेइ । तं जहा-निरयगइनामं तिरियगइनामं एगिदियजातिनामं बेइदिय तेइंदिय० चउरिंदियजातिनामं निरयाणुपुवोनामं तिरिक्खजोणियाणुपुत्वोनाम अप्पसत्थविहायोगतिनाम थावरनामं सुहुमनामं साहारणनामं अपज, तहा दरिसणावरणीयस्स इमाओ तिन्नि पयडीओ,तं जहानिद्दानिद्दा पयलापयला थीणागिडोय । तासिं अट्ठण्हं सेसं तं पि ।" तथैव बृहत्कल्पकृतावप्युक्तम् । तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति । ___ 'तो' इत्यादि, 'ततः' षोडशप्रकृतिक्षपणातः स्थितिघातपृथक्त्वे गते 'बध्नाति देशघातीनि' दानान्तरायमनःपर्यवज्ञानावरणादीनि वक्ष्यमाणानि कर्माणि क्रमेण देशघातीनि बध्नाति, अश्रेणिगता अशेषजनास्तानि कर्माणि सर्वघातीन्येव बध्नन्ति, उपशमश्रेणौ क्षपकश्रेण्यां वा महात्मानो विशुद्धिमाहात्म्येन तानि कर्माणि देशघातीनि बध्नन्तीति भावः ॥ ३६॥ ननु कानि तानि कर्माणि यानि श्रेणौ देशघातीनि बध्यन्ते ? इत्यत आहदाणंतरायमणपजवाण तो लाभप्रोहिदुगकम्माणं । तो सुप्रअचक्खुभोगाण तो चक्खुस्स अहुवभोगमईगं।४०। (आर्यागीतिः) तो वीरियस्स रसबंधो हवए देसघाई उ। तो तेरसपयडीण-ऽन्तरं कुणेइ टिइबंधकालेण॥४१॥(उद्गीतिः) दानान्तराय-मनःपर्यवयोस्ततो लाभाऽ-वविद्विककर्मणाम् । ततः श्रुता-चक्षुभॊगानां ततश्चक्षुषोऽथोपभोगमत्योः ॥ ४० ॥ ततो वीर्यस्य रसबन्धो भवति देशघाती तु। ततस्त्रयोदशप्रकृतीनामन्तरं करोति स्थितिबन्धकालेन ॥ ४१ ।। इति पदसंस्कारः । 'दाणं०' इत्यादि, स्थावरादिषोडशप्रकृतिक्षपणातः परं स्थितिघातसंख्यातसहस्रेषु गतेषु सत्सु 'दानान्तरायमनःपर्यवयोः' 'रसबंधो हवए देसघाई' इति वक्ष्यमाणं पदत्रयं सर्वत्र योज्यम् । तेना-ऽयमर्थः-दानान्तरायमनःपर्यत्रज्ञानावरणयोः 'रसवन्धो' अनुभागबन्धो देशघाती 'भवति' जायते, अनयोरनुभागो देशघाती बध्यत इत्यर्थः। उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो ठिदिखंउयपुधत्तेण मणपजवणाणावरणीयदाणंतराइयाणं च अणुभागो देसघादी जादो।” इति । 'तो' इत्यादि, 'ततः' दानान्तराय-मनःपर्यवज्ञानावरणसत्कदेशघातिरसबन्धभवनात् संख्यातेषु Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ गाथा- ४०-४१ स्थितिघातसहस्रेषु त्रजितेषु सत्सु 'लाभावधिद्विककर्मणां' पदैकदेशेन पदसमुदायस्य गम्यमानत्वात् लामा - ऽन्तराया - ऽवधिज्ञानावरणा-ऽवधिदर्शनावरण प्रकृतीनां रसबन्धो देशघाती भवति, एतेषां कर्मणामनुभागो देशघाती बध्यते इत्यर्थः । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णो – “तदो ठिदिखंडयपुधत्तेण ओहिणाणावरणीय ओहिदंसणावरणीय-लाहंतरायाणमणुभागो बंघेण देशघादी जादो ।" इति । निवृत्तिकरणाधिकारः 'तो' इत्यादि, 'ततः' अवधिज्ञानावरणादीनां बन्धे देशघातिरसभवनात् स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सति 'श्रुताऽचक्षुर्भोगानां ' श्रुतज्ञानावरणा-ऽचक्षुर्दर्शनावरण-भोगान्तरायाणां कर्मणां रसबन्धो देशघाती भवति । न्यगादि च कषायप्राभृतचूण - "तदो ठिदिखंडय धत्तेण सुदणाणावरणीय अचक्खुदंसणावरणीय-भोग तराइयाणमणुभागो बंधेण देशघादी जादो ।" इति । 'ततः ' श्रुतज्ञानावरणादीनां बन्धे देशवातिरसभवनात् परं स्थितिघातपृथक्त्वे ऽतीते 'चक्षुषः, चक्षुर्दर्शनावरणस्य रसबन्धो देशघाती भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूण - "तदो ठिदिखंडयपुधन्तेण चक्खुदंसणावरणीयस्स अणुभागो बंधेण देशघादी जादो ।" इति । 'अर्थ' चक्षुर्दर्शनावरणस्य देशघातिरसबन्धभवनानन्तरं स्थितिघातपृथक्त्वे गते सति 'उपभोगमत्योः' उपभोगान्तराय-मतिज्ञानावरणयो रसबन्धो देशघाती भवति । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णौठिदिांडयपुत्ते आभिणिबोहियणाणावरणीय परिभोग तराइयाणमणुभागो बंधेण देशघादी जादो ।" इति । 'तो' इत्यादि, 'ततः' उपभोगान्तराय - मतिज्ञानावरणयो रसबन्धस्य देशघातित्वभवनात् स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते 'वीर्यस्य' वीर्यान्तरायस्य रसबन्धो देशघाती भवति । 'तु' तुः पादपूरणे । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "तदो ठिदिखंडयपुधतेण वीरियंतराइयस्स अणुभागो बंधे देघादी जादो ।" इति । न च दानान्तरायादीनामनुभागबन्धस्य देशघातित्वकरणेऽयं क्रमः कथमवसीयते इति वाच्यम्, क्षपकाऽनिवृत्तिकरणेऽनुभागबन्धाल्पबहुत्वक्रमस्य तथाविधत्वेनाऽस्य क्रमस्योपपत्तौ विरोधाभावात् । तथाहि क्षपकानिवृत्तिकरणे विवक्षित कालावच्छेदेन मनः पर्यवज्ञानावरणदानान्तराययोर्यावाननुभागो बध्यते, ततोऽनन्तगुणोऽनुभागो ऽवधिज्ञानावरणा-ऽ-वधिदर्शनावरणलाभान्तरायाणां बध्यते, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः । ततोऽनन्तगुणः श्रुतज्ञानावरणा चक्षुर्दर्शनावरण-भोगान्तरायाणामनुभागबन्धो भवति, स्वस्थाने तु मिथः सदृशः । ततश्चक्षुदर्शनावरणस्याऽनन्तगुणो ऽनुभागबन्धो भवति, ततोऽनन्तगुणो मतिज्ञानावरणोपभोगान्तराययोः, स्वस्थाने Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशप्रकृतिक्षपणा ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [६४ तु परस्परं सदृशः, ततो-ऽनन्तगुणो वीर्यान्तरायस्य । अनेन क्रमेणा-ऽनुभागबन्धा-ऽल्पबहुत्वस्य सद्भावात् मनःपर्यवज्ञानावरण-दानान्तराययोर्बन्धे-ऽनुभागस्याऽवधिज्ञानावरणादितोऽनन्तगुणहीनत्वात् प्रथमं तयोरनुभागो देशघाती बध्यते,ततः परं प्रतिसमयमवधिज्ञानावरणादीनामनुभागोऽनन्तगुणेन हीयमानः सन् स्थितिखण्डपृथक्त्वे गतेऽवधिज्ञानावरणा-ऽवधिदर्शनावरण-लाभान्तरायाणामनुभागो देशघाती बध्यते । एवंक्रमेण श्रुतज्ञानावरणादीनामपि देशघात्यनुभागबन्धो व्युत्पादनीयः। असंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणाप्रभृतयो यन्त्रके दर्श्यन्ते । यन्त्रकम् (१) चरमा-ऽल्पबहुत्वतः स्थितिखण्डसंख्यसहस्रेषु | असंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा जायते । गाथा-३८ गतेषु (२) ततः स्थितिखण्डसंख्यातसहस्रेषु गतेषु कषायाष्टकं क्षपयितुमारभते । गाथा-३८ कपायाष्टकं सर्वथा क्षीणम् , नवरमावलिकामात्रमव शिष्यते । गाथा-३८ (१) तदानीं कषायाष्टकस्य जघन्यस्थितिसंक्रमः । (२) तदानीमेव गुणितकर्मा शस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमः। ___ आवलिकामात्रं सत्कर्म स्तिबुकेन संक्रमयति । स्थावरादीः षोडशप्रकृतीः क्षपयितुमुपक्रमते । गा.-३६ , , सर्वथा विनाशयति । गा.-३६ नवरमावलिकामानं नासां सत्त्वमवशिष्यते। (१) तदानीं तासां जघन्यस्थितिसंक्रमः । (२) तदानीमेव यथागमं गुणितकर्मा शस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमः । श्रावलिकां स्तिबुकेन संक्रमयति । दानान्तरायमनःपर्यवज्ञानावरणयोरसो देशघातो बध्यते । गाथा-४० लाभान्तरायावधिज्ञानावधिदर्शनावरणानां रसो देशघाती बध्यते। श्रुतज्ञानावरणाऽचक्षुर्दर्शनावरणभोगान्तरायाणां रसो देशघाती बध्यते। चक्षुर्दर्शनावरणस्य रसो देशघाती बध्यते । (१०) , . , . उपभोगान्तरायमतिज्ञानावरणयो रसो देशघाती बध्यते। (११), " " वीर्यान्तरायस्य रसो देशघाती बध्यते । माथा-४१ (८) . . . . , Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arrar [ गाथा-४२ प्रतिपादयति- 'तो' इत्यादि, 'ततः ' अथा-निवृत्ति करणे न्यं क्रियाविशेषं बन्धे देशघातिर सभवनात् स्थितिखण्ड सहस्रेषु संख्येयेषु गतेषु 'त्रयोदशप्रकृतीनां' संज्वलन चतुष्क- नवनोकषायरूपाणां प्रकृतीनाम् ' अन्तरम्' अन्तरकरणम्-अन्तर्मुहूर्तमात्रस्थितौ दलिकाभावलक्षणं 'स्थितिबन्धकालेन ' एकवचननिर्देशाद् एकस्थितिबन्धाद्धया 'करोति' अधस्तादुपरि च कियतीञ्चित् स्थितिं विमुच्याऽन्तर्मुहूर्तमितमध्यमस्थितेर्निषेकाणां दलिकशून्यत्वमेकस्थितिबन्धाद्धया सम्पादयतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो- "तदो हिदिखण्डयस हस्सेसु गदेसु अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखण्डयमणो हिदिबंधो अंतरद्विदीओ च उक्कीरिडु चत्तारि वि एदाणि करणाणि समगमाढतो । चण्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसायवेदणोप्राण मेदेसि तेरसहं कम्माणमंतर, सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं ।" इति । तथैव सप्ततिकाचूर्णावपि - "तओ अंतोमुत्तणं णवण्हं नोकसायाणं चउण्हं संजलणाणं च अंतरकरणं करेति । " इति । -- ६६ ] वीर्यान्तरायस्य सत्सु भावार्थः पुनरयम् - अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्व- सम्यङ् मिथ्यात्व सम्यक्त्वमोहनीयलक्षणस्य दर्शन सप्तकस्या- प्रत्याख्यानावरणचतुष्क- प्रत्याख्यानावरणचतुष्कलक्षणकपायाष्टकस्य च प्राग् नष्टवेन वीर्यान्तरायस्य बन्धे देशघातिरसभवनात्स्थितिखण्डसहस्त्रेषु गतेषु मोहनीयस्या - Sवशिष्यमाणसंज्वलनचतुष्क- नवनोकपायरूपत्रयोदशप्रकृतीनामन्तरकरणं कर्तुमारभते, तदानीं चाऽभिनवं स्थितिबन्धं स्थितिघातं रसघातं चारभते, अधस्तादुपरि च स्थितिं विमुच्य मध्यस्थाया अन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थितेर्दलानि प्रतिसमय मुत्रिति । एकस्थितिबन्धकालेना - ऽन्तमुहूर्त प्रमाणां स्थितिं सर्वथा दलिकाभाववतीं करोति, तदानीं च स्थितिबन्धाद्धया सह स्थितिघाताद्धा रसघाताद्वा च निष्ठां यातः, किन्तु तावता कालेन रसघाताद्वाः सहस्राणि गच्छन्ति, एकस्मिन् स्थितिघाते रसघातानां सहस्रत्वप्रतिपादनात् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी - "संपहि अवदिअणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णमणुभागखंडयं जो च अंतरे उनकीरिज्जमाणे हिदिबंधो पesो जं च ठिदिखंडयं जाव अंतरकरणडा, एदाणि समगं गिट्ठाणियमाणाणि णिट्ठिदाणि ।” इति ॥४०-४१ ॥ अन्तरकरणं कुर्वन्नधस्तात् कियतीं स्थितिं परित्यजति ? इत्यत आह भिन्नमुहुत्तं उदियाणं श्रावलिया पराण पढमठिई । संढत्थी समाप्पा पुरिसाई कम सो विसेसहिया ॥ ४२ ॥ (गीतिः) भिन्नमुहुर्तमुदितानामावलिका परासां प्रथमस्थितिः । षण्ढत्रियोः समाऽल्पा पुरुषादीनां क्रमशो विशेषाऽधिका ।। ४२ ।। इति पदसंस्कारः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम स्थितिनिरूपणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ६७ 'भिन्न०' इत्यादि, अन्तरकरणे क्रियमाणेऽधस्ताद् या स्थितिर्विमुच्यते, सा प्रथमस्थितित्वेन व्यपदिश्यते । तत्र 'उदितानां' उदयवतीनां प्रकृतीनां 'भिन्नमुहूर्तम्' अन्तर्मुहूर्त प्रथमस्थितिभवति । 'परासाम्' अनुदितानां - उदयरहितानां प्रकृतीनाम् 'आलिका' आवलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिर्भवति । अयं भावः - चतुर्षु संज्वलनक्रोधादिष्वन्यतमस्य यस्य संज्वलनस्योदयः, त्रयाणां च वेदानां पुरुषादीनामन्यतमस्य यस्य वेदस्योदयः, तयोः कपायवेदयोरन्तमुहूर्त मात्रा प्रथम स्थितिभवति । शेषाणामेकादशप्रकृतीनां प्रथम स्थितिरावलिकाप्रमाणा भवति, यथा पुरुषवेदोदयारूढजीवस्य पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्तमात्रा, इतरवेदद्वयस्य त्वावलिकामात्रा । एवं स्त्रीवेदोदयेन प्रतिपन्नस्य स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्तमात्रा, अन्य वेदद्वयस्य पुनरावलिकामात्रा, तथैव नपुसंक वेदोदयेन समारूढस्य नपुंसक वेदस्य प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्तमिता, अन्य वेद द्विकस्य त्वावलिकामात्रा | तथा क्रोधोदयेन प्रतिपन्नस्य जन्तोः संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्तमिता शेषसंज्वलन - त्रिकस्य पुनरावलिकामात्रा, मानोदयेनारूढस्य जन्तोः संज्वलन मानस्यान्तर्मुहूर्तमात्रा प्रथमस्थितिः, शेषसंज्वलनत्रयस्य त्वावलिका प्रमिता । एवं मायालो भयोरपि वक्तव्या । हास्यपट्कस्य त्वावलि - कामात्रैव प्रथमस्थितिर्भवति, उदयरहितत्वात्तस्य । नूयमानानां सर्वासां प्रकृतीनां किं प्रथम स्थितिस्तुल्या भवति, उत विषमा ? इत्यत आह- 'संढ०' इत्यादि, 'पण्ठस्त्रियो:' नपुंसक वेदस्त्रीवेदयोः प्रथम स्थितिः 'समा' मिथः समाना 'अल्पा' स्तोका च भवति, 'पुरुषादीनां' पुरुषवेदक्रोधमानमायालोभरूपाणां प्रथमस्थितिर्विशेषाधिका भवति । तथाहि - एको नपुंसक वेदोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्यते, अन्यस्तु स्त्रीवेदोदयेन, तत्र प्रथमजन्तोनपुंसक वेदस्य यावती प्रथमस्थितिर्भवति तावत्येव द्वितीयजन्तोः स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थितिर्भवति, सा च स्तोका, ततः पुरुषवेदोदयेन क्षपकश्रेणिमारूढस्य जीवस्य पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिति: संख्येयतमभागेन विशेषाधिका भवति, संख्येयतमभागश्च वक्ष्यमाणहास्यषट्कक्षपणाकालमात्र बोद्धव्यः, एतच्चाग्रे वेदनानात्वे स्फुटीभविष्यति । पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितितः क्रोधोदयेन क्षपकश्रेणि समारूढस्य क्रोधस्य प्रथमस्थितिः संख्येयतमभागेन विशेषाधिका भवति, संख्येयतमभागच वच्यमाणाऽश्वकर्णकरणाद्धाकिट्टिकरणाद्धामात्रो ज्ञेयः । क्रोधप्रथम स्थितितो मानोदयेन क्षपकश्रेणिमधिगतस्य मानस्य प्रथमस्थितिः संख्येयभागेन विशेषाधिका भवति, संख्येयतमभागश्च वक्ष्यमाणक्रोधकिट्टिक्षपणकालप्रमाणो निश्चेतव्यः । मानप्रथम स्थितितो मायोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य मायायाः प्रथम स्थिति: संख्येयभागेन विशेषाधिका भवति, संख्येयतमभागश्च वक्ष्यमाणमानक्षपणाकालप्रमितोऽधिगन्तव्यः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढी [ गाथा- ४३ मायाप्रथम स्थितितो लोभोदयेन क्षपकश्रेणिं समधिगतस्य लोभस्य प्रथमस्थिति: संख्येयaभागेन विशेषाधिका भवति, संख्येयतमभागश्च मायाक्षपण | कालमितो - वसेयः । एतत्सर्वमग्रे कषायनानात्वे व्यक्ती भविष्यति ।। ४२ ।। ६८ ] नन्वेकचत्वारिंशत्तमगाथायां त्रयोदशप्रकृतीनामन्तरकरणमन्तर्मुहूर्त प्रमाणमध्यम स्थितिगतदलिकाऽभावसम्पादनलक्षणं प्रतिपादितम् । तत्राऽन्तमुहूर्तप्रमाणस्थितौ दलिका-भावं सम्पादयंस्तत्स्थितिगतदलं कुत्र निक्षिपति ? इत्यत आह सुयाणं पयडीणं पढमठिईए खिवेइ उक्किण्णं । दलिअं बंधंतीण बाहुवरिमवीयगठिईए ॥ ४३ ॥ सोदयानां प्रकृतीनां प्रथमस्थितौ क्षिपत्युत्कोर्णम् । दलिकं बध्यमानानामबाधोपरितनद्वितीयस्थितौ ।। ४३ ।। इति पदसंस्कारः । 'दया' इत्यादि, 'सोदयानाम्' उदयेन सह वर्तन्ते इति सोदयाः "सहार्थस्तेन" (सिद्धहे० ३-१-२४) इत्यनेन बहुव्रीहिसमासः, तासाम्, उदयवतीनामित्यर्थः, प्रकृतीनां प्रथमस्थितौ 'उत्कीर्णम्' अन्तरकरणत उद्धरितं दलिकं 'क्षिपति' निक्षिपति | 'बंधंतीण' इत्यादि, बध्यमानानां प्रकृतीनामनुत्कीर्यमाणायामवाधोपरितन द्वितीयस्थितौ अन्तरकरणत उत्कीर्ण दलिकमुद्वर्तनाकरणेन प्रक्षिपति, उद्वर्तनायामवाधाया अतीत्थापनत्वेन तत्र दलिकं न प्रक्षिपति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - " जाओ अन्तरद्विदोओ उक्कोरंति, तासिं पदेसग्गमुक्कीरमाणियासु द्विदोसु ण दिज्जदि । जासि पयडोणं पढमट्ठिदो अत्थि, तिस्से पढमट्ठिदीए जाओ संपहि विदीओ उक्कीरंति, तमुकोरमाणगं पदेसग्गं संछुहृदि । अध जाओ बज्झति पयडीओ तासिमाबाहमधिच्छियूण जा जहणिया णिसेगठिदी रामादिं काढूण बज्झमाणियासु ठिदीसु उक्कड्डिजदे ।” इति । भावार्थः पुनरयम् - (१) यस्याः प्रकृतेर्वन्ध उदयश्च विद्येते, तस्या अन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदल स्वप्रथमस्थितौ बध्यमानोदयमानानां परप्रकृतीनां प्रथमस्थितौ च प्रक्षिपति, तथाऽबाधाकालमतिक्रम्याऽनुत्कीर्यमाणायां स्वकीयद्वितीय स्थितौ बध्यमान परप्रकृतिसत्कद्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, यथा पुरुषवेदारूढः पुरुषवेदस्या-ऽन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलं पुरुषवेदप्रथमस्थितौ बध्यमानोदयमानक्रोधादिरूपपरप्रकृतीनां प्रथमस्थितौ च प्रक्षिपति, तथाऽबाधामतिक्रम्या - ऽनुकीर्यमाणायां पुरुषवेदद्वितीयस्थितौ बध्यमानक्रोधादीनां च द्वितीयस्थितौ प्रक्षिपति । (२) यस्याः प्रकृतेर्बन्धो विद्यते, उदयश्च न भवति, तस्या अन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी] यन्त्रकम्-७ (चित्रम्-७) अन्तरकरणं कुर्वतः प्रथमस्थितेश्चित्रम् (गाथा-४२) । तथा अन्तरकरणं कुर्वतोत्कीर्यमाणदलं यासु स्थितिषु प्रक्षिप्यते, तासां चित्रम् (गाथा-४३) अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा सा स्थितिः, यस्या दलमुत्कीर्याऽन्तरकरणं क्रियते" Due baktnk सङ्केतस्पष्टीकरणम् १=मोहनीयस्यानुदयवतीनां प्रकृतीनां प्रथमस्थितिः, तस्यां चा-ऽन्तरकरणत उत्कीर्यमाणं दलं न प्रक्षिपति, सा चावलिकाप्रमाणा। २=अन्यतमस्य यस्य वेदस्य यस्य च कषायस्योदयः, तयोः प्रथमस्थितिः, तस्याञ्चा-ऽन्तरकरणत उत्कीर्यमाणं दलं प्रक्षिपति । अयन्तु विशेष:-वेद्यमानवेदप्रथमस्थितितो वेद्यमानकषायप्रथमस्थितिविशेषाधिका बोध्या। ३-गुणश्रेणेः सङ्ख्येयतमभागः, तं चाऽन्तरकरणं कुर्वन् घातयति । ४बध्यमानानां पुरुषवेद क्रोध-मान-माया-लोभानां द्वितीयस्थितिः, तस्यां चाऽन्तरकरणत उत्कीर्य माणं दलं प्रक्षिप्यते। ५=अबध्यमानानां स्त्रीवेद-नपुसकवेद-हास्पषटकानां द्वितीयस्थितिः, तस्यां चा-ऽन्तरकरणत उत्कीर्य माणं दलं न निक्षिप्यते । ६-गुणश्रेणिशिरः । ration यत्र दलिकं प्रक्षिपति, तद् -..."अनेन चिह्नन दर्शितम्। २ F or Private &Personal use only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ ] यन्त्रकम्-८ (चित्रम्-८) एकस्थितिबन्धाद्धया-ऽन्तरकरणे कृते उदयवतीनां प्रथमस्थितिव॑ितीयस्थितिश्च यन्त्रकम्-९ (चित्रम्-९) [ खवगसेढी एकस्थितिबन्धाद्धया-ऽन्तर करणे कृतेऽनुदयवतीनां प्रकृतीनां प्रथमस्थितिद्वितीयस्थितिश्च REEREN द्वि ती य स्थितिः द्वितीय स्थितिः अन्तरकरणगता स्थितिः, तत्र च मोहनीयदलिकस्य सर्वथाऽभावः । अन्तरकरणगता स्थितिः, तत्रच मोहनीयदलिकस्य सर्वथाऽभावः । Food60500boobook उदयवतोर्वेद-कषाययोरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा प्रथमस्थितिः । अनुदयवतीनां प्रकृतीनामावलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिः Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलनिक्षेप निरूपणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ६६ बध्यमानोदय मानपर प्रकृतिप्रथमस्थितौ एव निक्षिपति, तस्या उदयरहितत्वेन तत्प्रथम स्थित्यमा - चात् । तथा-ऽबाधामुल्लङ्घया नुत्कीर्यमाणायां स्वद्वितीय स्थितौ बध्यमानपरप्रकृति सत्कद्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । यथा क्रोधोदयारूढो मानादीनामन्तरकरणत उत्कीर्यमाणप्रदेशाग्रं क्रोधपुरुषवेदप्रथमस्थितौ प्रक्षिपति, तथा वाधामतिक्रम्यानुत्कीर्यमाणायां स्वद्वितीयस्थितौ बध्यमानपुरुषवेदक्रोधादिरूपपरप्रकृतीनां द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । (३) यस्याः प्रकृतेरुदयो विद्यते, बन्धश्च न भवति, तस्या अन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलं स्वप्रथमस्थितौ बध्यमानोदय मानपरप्रकृतिसत्कप्रथमस्थितौ च प्रक्षिपति, तथा वाधामुल्लङ्घया-S नुत्कीर्यमाणायां बध्यमानपरद्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, न तु स्वद्वितीयस्थितौ तस्याश्रबध्यमानत्वेन स्वस्थाने उद्वर्तनाभावात् । यथा स्त्रीवेदक्रोधोदयारूढः स्त्रीवेदस्याऽन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलिकं स्वप्रथमस्थितौ क्रोधप्रथम स्थितौ च प्रक्षिपति, क्रोधस्य बध्यमानत्वे सत्युदयमानत्वात्, -तथा-वाधामतिक्रम्याऽनुत्कीर्यमाणायां पुरुषवेदक्रोधादीनां द्वितीयस्थितौ प्रक्षिपति । (४) यस्याः प्रकृतेरुदयो न विद्यते, ना-ऽपि बन्धः, तस्या अन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलं सबन्धोदय-परप्रकृतिप्रथमस्थितौ एव प्रक्षिपति, तस्या उदयरहितत्वेन तत्प्रथमस्थित्यभावात्, तथा-s बाधां विमुच्यनुत्कीर्यमाणायां बध्यमानपरद्वितीयस्थितौ एव प्रक्षिपति, न तु स्वद्वितीयस्थितौ, तस्या अवध्यमानत्वेन स्वस्थाने उद्वर्तनाभावात् । यथा पुरुषवेदोदयारूढः नपुंसकवेदस्याऽन्तरकरणत उत्कीर्यमाणं दलं पुरुषवेदादीनां प्रथमस्थितौ अवाधामतिक्रम्य चाऽनुत्कीर्यमाणायां पुरुषaaraai द्वितीयस्थितौ प्रक्षिपति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकाणि ७-८-६ | इति । । ४३ । । अन्तरकरणत उत्कीर्यमाणप्रदेशानां निक्षेपमभिधायाऽधुना निष्पादिताऽन्तरकरणानां क्षपकारणां वक्ष्यमाणाः सप्ताऽधिकारा युगपत् प्रवर्तन्ते तान् व्याजिहीर्षु राह मोहस्स संखवरिसा बंधो इगठाणिआ य बंधुदया । तस्सेव प्रपुव्वी संकमणमसंक्रमो य लोहस्स ॥ ४४ ॥ ( गीतिः ) तह आवलिंगासु बसु उदीरणा संढवेयखवणा य । कयअंतराण सत्त - हिगारा जुगवं पयट्टंते ॥४५॥ मोहस्य संख्यवर्षा बन्ध एकस्थानिकौ बन्धोदयौ । तस्यैवाऽऽनुपूर्वी संक्रमणमसंक्रमच लोभस्य ॥ ४४ ॥ *यद्यप्युदयरहितानां प्रकृतीनामावलिकामात्रा प्रथम स्थितिर्भवति, तथाप्युदयरहित प्रकृतीनामुदयाकाय दलनिक्षेपो न संभवति, अतस्तत्प्रथमस्थित्यभावादित्युक्तम् । एवमग्रे ऽपि यथास्थानं भावनीयम् । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] खगढी तथाSSत्रलिकासु षट्सुदीरणा षण्ढवेदक्षपणा च । कृताऽन्तराणां सप्ताधिकारा युगपत् प्रवर्तन्ते || ४ || इति पदसंस्कारः | 'मोहस्स' इत्यादि, (१) 'मोहस्य' मोहनीय कर्मण: ' संख्यवर्षाः ' संख्येयवर्षप्रमितो 'बन्धः' स्थितिबन्धो भवतीति शेषः । इदमुक्तं भवति -- इतः पूर्वमन्तरकरणसमाप्तिं यावत् सानामपि कर्मणां स्थितिबन्धो - Sसंख्येयवर्पप्रमाणो भवति स्म, अतः प्रभृति मोहनीयस्य संख्यातवार्षिकः स्थितिबन्धो जायते स च पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तर: संख्येयगुणहीनो भवति, बन्धस्य संख्येयवार्षिकत्वभवनात्, न तु पूर्वत्रद संख्येयगुणहीनः, द्वितीय स्थितिबन्धस्याऽन्तमुहूर्तमात्रत्वप्रसङ्गात् । शेषकर्मणां तु पूर्ववदसंख्येयवर्ष प्रमाणः स्थितिबन्धो भवन्नुत्तरोत्तरो ऽसंख्येयगुणहीनो भवतीति प्रथमो ऽधिकारः । 'इग॰' इत्यादि, एकस्थानको च बन्धोदयौ, चकारः समुच्चयार्थकः, ततश्चाऽयमर्थः(२) इतः प्रभृति मोहनीयकर्मण एकस्थानको ऽनुभागो बध्यते, प्राग् हि द्विस्थानको बध्यते स् द्वितीयो ऽधिकारः । (३) प्राग् मोहनीयस्य द्विस्थानको ऽनुभागोदय आसीत्, इतः प्रभृति मोहयस्यैकस्थानको नुभागोदयो जायते इति तृतीयो ऽधिकारः । [ गाथा-४४-१५ 1 'तस्सेव' इत्यादि, (४) 'तस्यैव' मोहनीयस्यैव 'आनुपूर्वी संक्रमणम्' आनुपूर्व्या- परिपाट्या संक्रमणम् -संक्रमो भवति । तथाहि - अन्तरकरणक्रियासमाप्त्यनन्तरं नपुंसक वेदस्य स्त्रीवेदस्य च दलं पुरुषवेदे संक्रमयति, ना - ऽन्यत्र । तथा पुरुषवेद- हास्यपटक रूप सप्तप्रकृतीनां दलं संज्वलन - क्रोधे संक्रमयति, नान्यत्र । यभाणि कषायप्राभृते "संहृदि पुरिसवेदे इत्थोवेदं णव सयं चेव । सत्तेव णोकसाये णियमा कोहम्हि संहृहदि || १ ||" इति । तथैव तच्चूर्णावपि -- "ए दिस्से तदियाए गाहाए विहासा, तं जहा - इत्थीवेदं व' रायवेदं च पुरिसवेदे संछुहृदि, ण अण्णत्थ । सत्तणोकसाये कोहे संछुहृदि, पण अण्णत्थ ।" इति । तथा संज्वलनक्रोधदलं संज्वलनमाने संक्रमयति, संज्वलनमानस्य प्रदेशाग्रं संज्वलनमायायां संक्रमयति, संज्वलनमायाया दलं संज्वलनलोभे संक्रमयति । उक्तं च कषायप्राभृते "कोहं च छुहइ माणे माणं मायाए णियमसा छुहइ । मागं च छुह लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि || १ ||" इति । अनेन क्रमेण मोहनीयकर्मणः प्रदेशाग्रं संक्रमयति, तेनाऽऽनुपूर्वी संक्रम उच्यते । प्राक्त्व- Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ताधिकारनिरूपणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ७१ नानुपूर्व्या संज्वलनक्रोधप्रदेशाग्रं पुरुषवेदे मानादिषु च संज्वलन मानस्य तु पुरुषवेदे क्रोधे मायादिषु च संक्रमयति स्मेति चतुर्थोऽविकारः । 'असंकमो' इत्यादि, (५) तत्र 'लोभस्य' संज्वलनलोभस्य 'असंक्रमः' संक्रमा- भावो जायते । एतदुक्तं भवति - प्राग हि संज्वलन लोभस्य प्रदेशाग्रं शेषसंज्वलनत्रिके पुरुषवेदे च संक्रमयति स्म, इतः प्रभृत्यानुपूर्वी संक्रमसद्भावेन प्रतिलोमसंक्रमा-भावात् संज्वलनलोभस्य संक्रमो न भवति । न चानुपूर्वी संक्रमनिर्देशादेव संज्वलनलोभस्य संक्रमाऽभावः सिध्यति, पुनः कुतः प्रतिपाद्यते ? इति वाच्यम्, शिष्य बुद्धिवैशद्यार्थ मन्दधीलोका - ऽनुग्रहार्थं च तत्प्रतिपादनात् इति पञ्चमो - ऽधिकारः । 'तह आवलि० ' इत्यादि, (६) 'तथा पट्स्वावलिकासु' बन्धसमयादारभ्य पट्स्वावलिकासु व्यतिक्रान्तास्वेव 'उदीरणा' सर्वकर्मणामुदीरणा भवति । श्रयं भावः - मोहनीयकर्मण इतरकर्मणां च याः प्रकृतयो वध्यन्ते, तासां परणामावलिकानां मध्ये उदीरणा न भवति, किन्तु पट्स्वावलिकासु व्यतिक्रान्तास्त्र, अधुनातननूतनबन्धस्य तथाविधस्वभावत्वसंभवात् । इतः पूर्वं तु बद्धदलं बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायामुदीरणायामायाति स्म । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी - "छमु आवलियासु गदासु उदीरणा णाम किं भणिदं होइ ? विहासा- जहा णाम समयपबद्धो बडो आवलियादिक्कतो सक्को उदीरेदुमेपमंतरादो पढमसमयकदादा पाए जाणि कम्माणि बज्झति मोहणीयं वा मोहणीयवज्जाणि वा, ताणि कम्माणि छसु आवलियासु गदासु सक्काणि उदीरे, ऊणिगासु सु आवलियासु ण सक्काणि उदीरेदु । एसा सु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति सण्णा ।" इति । षष्ठोऽधिकार | "संढवे खवण" इत्यादि, (७) 'पढवेद क्षपणा च चकारः समुच्चये, `पण्ढवेदस्य–नपुंसकवेदस्य क्षपणा - विनाशनं प्रवर्तते । एतदुक्तं भवति —— अन्तरकरणे कृते नपुंसक वेदं क्षपयितुमुपक्रमते । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णो - "अंतरं करेत्त नपुंरागवेयं खवेतुमाहवेति ।" क्षपणाविधिश्चायम्- प्रथमसमये नपुंसकवेदस्य स्तोकं दलं पुरुषवेदे निक्षिप्य क्षपयति, द्वितीयसमये ऽसंख्येयगुणं प्रक्षिप्य क्षपयति, ततोऽपि तृतीयसमये ऽसंख्येयगुणं निक्षिप्य क्षपयति । एवं प्रतिसमयमसंख्येयगुणक्रमेण नपुंसकवेददलं पुरुषवेदे प्रक्षिप्य क्षपयति । इति सप्तमोऽधिकारः । इत्येते ' कृतान्तराणां' कृतं - निष्पादितम् अन्तरम् - अन्तरकरणं यैः क्षपकैः, ते कृतान्तराः, तेषां सप्त- सप्तसंख्या अधिकारा युगपत् प्रवर्तन्ते, न तु व्यवधानेनेत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभृतचूण- ताधे चेव णवं सयवेदस्स अजुत्तकरणसंकामगो । मोहणीयस्स संखेज्जवस्सडिदिगो बंधो। मोहणीयस्स एगट्ठाणिया बंधोदया । जाणि कम्माणि बज्झति, तेसिं हसु आवलियासु गदासु उदीरणा । मोहणीयस्स आणुपुव्वीसंकमो । लोहसंजलणस्स असंकमो । एदाणि सत्त करणाणि अंतरदुसमयकदे आराणि ।” इति । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ गाथा-४६ अन्तरकरणे निष्पादिते घातिकर्मणामनुभागसत्कर्म सूक्ष्मैकेन्द्रियतोऽनन्तगुणहीनं जायते । न्यगादि च कर्मप्रकृतिचूर्णौ – खवयगस्स अणुभागो जाव अंतरकरणं न कीरति, ताव 'घाती'' सव्वघातिदेसघातोणं सुहमए गिंदियस्स अणुभागसंतकम्मातो अनंतगुणितो होइ | अंतरकरणे कते सुहुमस्त अणुभागतो हेट्ठा भवति |" इति ॥४४-४५॥ यन्त्रकम् गढी अन्तरकरणे कृते सप्त पदार्था युगपत् प्रवर्तन्ते । ( गाथा-४४-४५ ) (१) मोहनीयस्य सख्यातवार्षिक स्थितिबन्धः । (२) मोहनीयस्यैकस्थानको ऽनुभागबन्धः । (३) मोहनीयस्यैकस्थानको ऽनुभागोदयः । (४) मोहनीयप्रकृतीनामानुपूर्वी संक्रमः । (५) संज्वलनलोभस्याऽसंक्रमः । (६) पट्स्वावलिकासु गतासु नूतनबद्ध कर्मणामुदीरणा ।(७) नपुंसक वेदस्य क्षपणा । घातिनामनुभागसत्त्वं सूक्ष्मै केन्द्रियतोऽनन्तगुणहीनम् । नन्वन्तरकरणे कृते सति प्रथमसमयादारभ्य मोहनीयकर्मणो ऽनुभागविषयको बन्ध उदयः संक्रमच परस्परं किं समा हीना अधिका वा भवन्ति ? इति शङ्काव्युदासायव्याहरतिकयअंतराण मोहस्स बंधुदयसंकमा रसे होन्ति । कपसो अांतगुणसेढीए ग्रह ते दले भणिमो ॥ ४६ ॥ कृतान्तराणां मोहस्य बन्धोदयसंक्रमा रसे भवन्ति । क्रमशोऽनन्तगुणश्रेण्या-ऽथ तान् दले भणामः || ४६ ।। इति पदसंस्कारः । 'कयअंतराण' इत्यादि, कृतान्तराणां' निष्पादिता - ऽन्तरकरणानां जीवानां 'रसे' विषयसप्तमीयम्, ततश्चाऽयमर्थः - अनुभागविषया 'मोहस्य' मोहनीय कर्मणो बन्धोदयसंक्रमाः 'क्रमशः ' क्रमेण अनन्तगुणश्रेण्या भवन्ति । एतदुक्तं भवति - अन्तरकरण क्रियासमाप्तितः परं विवक्षितसमये मोहस्य यावाननुभागो बध्यते, ततस्तदानीमेवा ऽनन्तगुणो ऽनुभाग उदयेना - ऽनुभूयते, सत्तागतपुरातना-ऽनुभागस्या ऽनन्तगुणत्वेनोदयेना-ऽनुभूयमानस्या - ऽनन्तगुणत्वे विरोधाभावात् । ततोऽप्यनन्तगुणो ऽनुभागः संक्रम्यते । कुतः ? इति चेत्, उच्यते - क्षपकश्रेणौ सत्तागता -ऽनुभागोऽनन्तगुणहीनीभूयोदये श्रागच्छति, संक्रमे तु सत्तागतो ऽनुभागो यावान् भवति, तावान् परप्रक्रतिषु संक्रामति । तेनोदयतः संक्रमेऽनुभागोऽनन्तगुणो भवति । यदुक्तं कषायप्राभृते"बंघेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ । गुणसेढी अनंतगुणा बोडव्वा होइ अणुभागे ॥ १॥” इति । तथैव तच्चूर्णावपि - "विहासा - अणुभागेण बंधो थोवो, उदओ अनंतगुणो, कमो अनंतगुणो ।" इति । 'मोहस्स' इति पदं पञ्चाशत्तमगाथां यावदनुवर्तते । 'अह' इत्यादि, अथशब्दोऽनन्तरार्थकः, 'तान्' तच्छदस्य पूर्ववस्तुपरामर्शित्वात् बन्धोदयसंक्रमान् 'दले' प्रदेशविषयान् 'भणामः' भविष्यत्यर्थे "सत्सामीप्ये सहद् वा " (सिद्धहेम. ५ - ४ - १ ) इत्यनेन वर्तमाना, प्रदेशाग्रमाश्रित्य बन्धादीनामल्पबहुत्वं वच्याम इत्यर्थः ||४६ || Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशबन्धा दीनामल्पबहुत्वम ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः अथ प्रतिज्ञाताल्पबहुत्वमुत्तरोत्तरसमये ऽनुभागबन्धोदयौ च वक्तुकाम आह होन्ति पलेसे कमसो, बंधउदयसंकमा असंखगुणा। से काले से काले रसवंधुदया अणंतगुणहीणा ॥४७॥ (गीतिः) भवन्ति प्रदेशे क्रमशो बन्धोदयसंक्रमा असंख्यगुणाः । अनन्तरकाले-ऽनन्तरकाले रसबन्धोदगावनन्तगुणहीनौ ॥४७॥ इति पदसंस्कारः। 'होन्ति' इत्यादि, 'प्रदेशे' प्रदेशविषया मोहनीयकर्मणो बन्धोदयसंक्रमाः ‘क्रमशः' क्रमेण असंख्यगुणा भवन्ति । तथाहि-अन्तरकरणे कृते सति विवक्षितसमये पुरुषवेदादीनां बध्यमानप्रकृतीनां यावत् प्रदेशाग्रं बध्नाति, ततस्तदानीमेवोदयेना-ऽसंख्येयगुणं दलमनुभवति, किं कारणम् ? इति चेत्, उच्यते-विवक्षितसमये एकसमयप्रबद्धदलिक बन्धे वर्तते, उदीरणायां पुनरसंख्येयसमयप्रबद्धमानं दलिकं वर्तते, तदानीमसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणायाः प्रवर्तमानत्वात् । उदीरणातथाऽप्युदये दलिकमसंख्येयगुण भवति, गुणश्रेण्या प्रभूतदलिकस्य रचितत्वात् । अतो बन्धतः सुतरामुदये प्रदेशाग्रमसंख्येयगुणं सिध्यति । ततो-ऽपि संक्रम्यमाणं दलमसंख्येयगुणं भवति । अत्र संक्रमशब्देन गुणसंक्रमो यथाप्रवृत्तसंक्रमश्च ग्राह्यः । तेन यासां नपुंसकवेदादीनां प्रकृतीनां . गुणसंक्रमोऽस्ति, तासामुदयमानप्रदेशतो गुणसंक्रमेण संक्रम्यमाणं दलमसंख्येयगुणं भवति । यासां पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधादीनां प्रकृतीनां पुनर्यथाप्रवृत्तसंक्रमो-ऽस्ति, तासां प्रकृतीनामुदयमानदलतो यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रम्यमाणं दलिकमसंख्येयगुणं भवति । ननु गुणसंक्रमभागहारस्योत्कर्षणापकर्षणभागहारतो-ऽसंख्येयगुणहीनत्वेनोदयमानदलिकतो गुणसंक्रमेण संक्रम्यमाणं दलिकमसंख्येयगुणमस्तु, यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रम्यमाणं दलिकमुदयगतदलिकतोऽसंख्यातगुणं कथं घटते ? यथाप्रवृत्तसंक्रमभागहारस्योत्कर्षणापकर्षणभागहारतो-ऽसंख्येयगुणत्वात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"ओकडडुक्कड्डणाए कम्मरस अवहारकालो थोवो, अधापवत्तसंकमेण कम्मरस अवहारकालो असंखेज्जगुणो।" इति । यथाप्रवृत्त संक्रमभागहारस्य प्रभूतत्वे संक्रम्यमाणं दलमुदयदलिकतः स्तोकं संभवतीति चेत्, उच्यते-समीचीनमेतद्, किन्तूत्कर्षणा-ऽपकर्षणभागहारेण विभज्य यावद्दलमपवर्तयति, तत्सर्व गुणश्रेणौ न निक्षिपति, अपि तु तदसंख्येयभागमात्रमेव । यथाप्रवृत्तसंक्रमभागहारेण पुनर्विभज्यगृहीतं सर्व दलं संक्रमयति । तेन यथाप्रवृत्तसंक्रमभागहारस्य प्राधान्येनोदयगतदलिकतो यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रम्यमाणं दलमसंख्येयगुणं सिध्यति । न्यगादि चेदमल्पबहुत्वं कषायप्राभृते "बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। गुणसेढी असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोडव्वा ॥१॥” इति । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] खगढी [ गाथा- ४७ तथैव तच्चूर्णावपि - "विहासा, जहा - पदेसग्गेण बंधो थोवो, उदयो असंखेगुणो, संकमो असंखेज्जगुणो |" इति । नन्वनुभागबन्धोदयौ किं स्वस्थाने तुल्यौ वाऽधिको वा हीनौ वा प्रवर्तेते ? इति जिज्ञासानोदित आह-' -' से काले' इत्यादि 'अनन्तरकालेऽ- नन्तरकाले ' विवक्षितसमयादनन्तरो परितनसमये ततः परं तदनन्तरोपरितनसमये, उत्तरोत्तरसमये इत्यर्थः मोहनीयस्य रसबन्धोदयौ अनन्तगुणहीनौ भवतः, पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमये ऽनुभागबन्धोऽनन्तगुणहीनो भवति । एवं पूर्वपूर्व समयत उत्तरोत्तरसमयेऽनन्तगुणहीनो ऽनुभागोदयः प्रवर्तत इत्यर्थः । इदमत्र हृदयम्अन्तरकरणे कृते सति प्रथमे समये पोहनीयस्य यावाननुभागो बध्यते, ततो ऽनन्तरभ / विसमयेऽनन्तगुणहीनो ऽनुभागो बध्यते ततस्तृतीयसमयेऽनन्तगुणहीनो ऽनुभागो बध्यते, ततश्चतुर्थसमयेऽनन्तगुणहीनो बध्यते, विशुद्धेरनन्तगुणत्वाद् । एवमुत्तरोत्तरसमये वक्तव्यम् । तथाऽन्तरकरणे कृते सति प्रथमसमये यावाननुभाग उदेति, ततोऽनन्तगुणहीनो ऽनुभागो द्वितीयसमये उदेति, ततस्तृतीयसमये ऽनन्तगुणहीन उदेति, ततोऽपि चतुर्थसमये ऽनन्तगुणहीन उदयते । एवमुत्तरोत्तरसमये निश्च तव्यः । उक्तं च कषायप्राभृते "बंधोदएहिं णियमा अणुभागो होदि पंतगुणहोणो x x x x॥१॥ गुणसेढी अनंतगुणेणूणाए वेदगो दु अणुभागे × × × × ॥२॥ गुणदो अनंतगुणहीणं वेदयदि नियमसा दुअणुभागे ।×××× ॥३॥” इति । तथैव कषायप्राभृतचूर्णावपि - "विहासा- अस्सिं समये अणुभागबंधो बहुओ, सेकाले अनंतगुणहोणो । एवं समये समये अनंतगुणहीणो । एवमुदओ वि काव्वो । अस्सिं समए अणुभागदयो बहुगो से काले अनंतगुणहीणो, एवं `सव्वत्थ ।” इति । इदन्त्ववधेयम् अनेन क्रमेण प्रतिसमयं हीयमानो ऽनुभागो यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रभृति बध्यते उदेति च, तथापि मन्दबुद्धिजनानां स्मृत्यै अत्राप्यभिहितः ॥४७॥ उत्तरोत्तरसमयेऽनु भागबन्धोदयौ व्याहृत्याऽनुभागसंक्रमं प्रदेशवन्धं चाऽभिधित्सुराह— रससंकमो उ खण्डे पुराणे होज्जइ प्रणतगुणहीणो । से काले से काले पअसबंधी चउविहो य ॥ ४८ ॥ रस संक्रमस्तु खण्डे पूर्णे भवत्यनन्तगुणहीनः । अनन्तरकाले ऽनन्तरकाले प्रदेशबन्धञ्चतुविर्धश्च ॥ ४८ ॥ इति पदसंस्कारः । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रससक्रमाल्पबहुत्वम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ७५ 'रससंकमो' इत्यादि, रससंक्रमस्तु' तुः पुनरर्थे, मोहनीय कर्मणो ऽनुभाग संक्रमः पुनः 'खण्डे' एकवचननिर्देशाद् एकस्मिन् रसखण्डे 'पूर्णे' निष्ठां गते 'अनन्तगुणहीनः ' प्राक्तना - ऽनुभागसंक्रमतो ऽनन्तगुणहीनो भवति, नार्वाक्, रसघाताद्धाया अन्तर्मुहूर्त प्रमाणत्वात् । रसखण्डं यावन घातयति, तावदनुभाग संक्रमस्तुल्यो भवति । ततो ऽन्यद् रसखण्डं घातयितुमुपक्रमते तस्मिन्नपि घातिते सत्यनुभागसंक्रमो ऽनन्तगुणहीनो जायते, ततोऽर्वागनुभागसंक्रमः सदृशो जायते । भावार्थः पुनरयम्-यावद्विवक्षिता ऽनुभागखण्डं परिसमाप्तं न भवति, तावदनुभाग संक्रमः सदृशो भवति । तस्मिन्ननुभागखण्डे परिपूर्णे ऽन्यदनुभागखण्डं प्रारभ्यते, तदा पूर्वतो ऽनन्तगुणहीनोऽनुभागसंक्रमो भवति, प्राक्तनाऽनुभागखण्डविनाशेना-ऽनुभागसत्कर्मणो ऽनन्तगुणहीनत्वसम्पा-दनात् । सोऽपि चैकादृक्षस्तावत् प्रवर्तते, यावदनुभागखण्डं निष्ठां न याति । कथमेतदवसीयते ? इति चेद् - उच्यते, रसघातकालस्याऽन्तर्मुहूर्तमात्रत्वेनाऽन्तर्मुहूर्तं यावदेकादृशोऽनुभासंक्रमो जायते, ततः परमभिनवरसघातारम्भे पूर्वतो ऽनन्तगुणहीनो ऽनुभागसंक्रमः प्रवर्तते, प्राक्तनाऽनु-भागखण्डविनाशेनानुभागसत्कर्मणोऽनन्तगुणहीनत्वसम्पादनात् । ततः परमनुभागसंक्रमः सदृशो भवन् रसघाताद्धायां पूर्णायामनन्तगुणहीनो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूण– “संकमो जाव अणुभागखंडयमुक्कीरेदि, ताव तत्तिगो तत्तिगो अणुभागसंकमो । अण्णम्हि अणुभागखंडए आदते अनंतगुणहोणो अणुभागसंकमो ।" इति । 'से काले से काले' त्ति 'अनन्तरकाले ऽनन्तरकाले' पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरसमये इत्यर्थः, 'प्रदेशबन्धः' स्थितिरसनिरपेक्षद लिकसंख्याप्रधानरूपो बन्धचतुर्विधो वृद्धो हीनो वा संभवति । चकारः समुच्चयार्थः, स चावस्थितोऽपि प्रदेशबन्धः संभवतीति संचिनोति, योगस्य चतुर्विधवृद्धिहान्यवस्थान संभवेन तत्प्रयोज्य प्रदेशबन्धस्य चतुर्विधवृद्धिहान्यवस्थानत्वे विरोधाभावात् । इदमुक्तं भवति - अन्तरकरणे कृते सति कचिज्जीवो विवक्षितसमये मोहस्य यावत् प्रदेशाग्रं बध्नाति ततो ऽनन्तरसमये योगानुसारेणाऽसंख्येयभागवृद्धं वा संख्येयभागवृद्धं वा संख्येयगुणवृद्धं वा-ऽसंख्येयगुणवृद्धं वा बध्नाति । एवमन्यो योगानुरूपम संख्येय भागहीनं वा संख्येयभागहीनं वा संख्येयगुणहीनं वा संख्येयगुणहीनं वा बध्नाति । यद्वाऽपरो - ऽवस्थितयोगेन तावदेव बध्नाति । उक्तं च कषायप्राभृते - " से काले से काले भज्जो बंधो पदेसग्गे ।" तथैव तच्चूर्णावपि - "पदेसबंधो चउव्विहाए वड्डीए चउव्विहाए हाणीए अवट्ठाणे च भजियव्वों" । इति ॥ ४८ ॥ उत्तरोत्तरसमये प्रदेशवन्धमभिधाय प्रदेशोदयं प्रदेशसंक्रमं चाभिधातुकाम ग्रहसे काले से काले पसउदो असंखगुणो । से काले से काले दलसंकमणं असंखगुणं ॥ ४६ ॥ (उपगीतिः ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] गढी अनन्तरकाले ऽनन्तरकाले प्रदेशोदयो ऽसंख्यगुणः । अनन्तरकाले ऽनन्तरकाले प्रदेशसंक्रमणमसंख्यगुणम् ||४६ ॥ इति पदसंस्कारः । [ गाथा-४६-५० 'से काले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले - ऽनन्तरकाले' उत्तरोत्तरसमये इत्यर्थः, 'प्रदेशोदयो' मोहनीयकर्मणः प्रदेशोदयो - Sसंख्यगुणो भवति । इदमुक्तं भवति - अन्तरकरणे कृते सति प्रथमसमये मोहनीयकर्मणः प्रदेशोदयः स्तोको भवति, ततो द्वितीयसमये - ऽसंख्येयगुणो भवति, ततो-पि तृतीयसमये संख्येयगुणो जायते । एवमुत्तरोत्तरसमये वक्तव्यम्, गुणश्रेण्योत्तरोत्तरनिषेकेऽसंख्येयगुणदलिकस्य रचितत्वात् । अभाणि च कषायप्राभृतचूर्णो — “ पदेसुदयो अस्सि समए थोवो, से काले असंखेज्जगुणो, एवं सव्वत्थ ।" इति । 'से काले' इत्यादि, अन्तरकरणे कृते 'अनन्तरकालेऽनन्तरकाले' उत्तरोत्तरसमये 'दलसंक्रमणं' प्रदेशसंक्रमो ऽसंख्यगुणो भवति । एतदुक्तं भवति - अन्तरकरणे कृते सति विवक्षितसमये मोहनीयस्य यावत्प्रदेशाग्रं संक्रम्यते, ततो द्वितीयसमये ऽसंख्येयगुणं संक्रम्यते, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणं संक्रम्यते, एवमुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येगुणक्रमेण प्रदेशसंक्रमो वक्तव्यः । अभ्यधायि च कषायप्राभृते " गुणसेढी असंखेज्जा च पदेसग्गेण संकमो उदओ ।" इति । तथैव तच्चूर्णावपि - " पदेसुदओ अस्सिं समये थोवो, से काले असंखेज्जगुणो, सव्वत्थ । जहा उदओ, तहा संकमो वि कायव्वो ।" इति । अत्र दलसंक्रमशब्देन यासां प्रकृतीनां गुणसंक्रमो भवति, तासां दलसंक्रमः प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण भवतीति ज्ञातव्यम् । यासां प्रकृतीनां पुनर्यथाप्रवृत्तसंक्रमः प्रवर्तते, तासां श्रेणिवर्जस्थाने प्रदेशसंक्रमः प्रतिसमयमसंख्येयगुणो न भवतीति सुप्रतीतम् । श्रेणौ तु यथा-ssगमं भावनीयः ॥ ४९ ॥ साम्प्रतं वर्तमानभाविलक्षण कालद्वयमाश्रित्याऽनु भागबन्धोदयौ विभणिपुराह ――――― संपइ बहुगो उदयो तत्तो बंधो ऽत्थि ताउ अणुभागे । से काले उदयो तत्तो बंधो ऽणंतगुणहीणो ॥ ५० ॥ सम्प्रति बहु उदयस्ततो बन्धोऽस्ति तस्मादनुभागे । श्रनन्तरकाले उदयस्ततो बन्धो ऽनन्तगुणहीनः || ५० इति पदसंस्कारः । 'संपइ' इत्यादि, 'अणुभागे' त्ति पदं उमस्कमणिन्यायेन सर्वत्र सम्बध्यते । 'सम्प्रति' अन्तरकरणे कृते सति विवक्षितवर्तमानसमये इत्यर्थः, 'अनुभागे' मोहस्या- ऽनुभागविषय उदयो 'बहुक:' प्रभूतो भवति, 'ततः' निरुक्तसमय सत्कानुभागोदयात् तदानीमेवा - ऽनुभागविषयो बन्धो Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोदयाल्पबहुत्वम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः ऽनन्तगुणहीनो 'अस्ति' भवति । 'अणंतगुणहीणो' इति दरस्थं पदमत्राःऽपि सम्बध्यते । एवमग्रेऽपि योजनीयम् । 'तस्मात्' निरुक्तसमयसत्काऽ-नुभागबन्धात् 'अनन्तरकाले' निरुक्तसमयस्या-ऽनन्तरोपरितनसमये इत्यर्थः, अनुभागविषय उदयोऽनन्तगुणहीनः प्रजायते, प्रतिसमयमनुभागोदयस्य विशुद्धिमाहात्म्येना-ऽनन्तगुणहीनत्वदर्शनात्, स चा-ऽवस्तनसमयभाविवन्धतोऽप्यनन्तगुणहीनो जायते, इति सिद्धमनेन विधानेन । 'ततो' निरुक्तसमयस्या-ऽनन्तरोपरितनसमये योऽनु. भागोदयः, ततः इत्यर्थः, निरुक्तसमयस्या-ऽनन्तरोपरितनसमये एवा ऽनुभागविषयो बन्धो-ऽनन्तगुणहीनो भवति । उक्तं च कषायप्राभृते "उदओ च अणंतगुणो संपहिबंधेण होइ अणुभागे। से काले उदयादो संपहिबंधो अणंतगुणो ॥ १॥" इति । तच्चूर्णावपि- 'से काले अणुभागबंधो थोवो, से काले चेव उदओ अणंतगुणो, अस्सिं समए बंधो अणंतगुणो, अस्सिं चेव समए उदओ अणंतगुणो।" इति । एवं गाथापश्चकेना-ऽन्तरकरणे कृते सति बन्धादीनामल्पबहुत्वादिकमभिहितम् । एता एव पञ्चगाथाः प्रागप्यपूर्वकरणादौ यथा-ऽऽगमं व्याख्येयाः ॥ ५० ॥ अन्तरकरणे निष्पादिते मोहनीयमाश्रित्या-ऽल्पबहुत्वानि (यन्त्रकम्) (१) अनुभागबन्धोदयसंक्रमा-ऽल्पबहुत्वम्(गा.४६) । (२) प्रदेशबन्धोदयसंक्रमा-ऽल्पहुत्वम् (गाथा-४७) (i) मोहनीयस्यानुभागबन्धोऽल्पः । (i) मोहनीयस्य प्रदेशबन्धः स्तोकः। (ii) ततो मोहस्यानुभागोदयोऽनन्तगुणः । (ii) ततो मोहनीयस्य प्रदेशोदयोऽसंख्यगुणः । (iii) ततो मोहस्यानुभागसंक्रमोऽनन्तगुणः। (iii) , , प्रदेशसंक्रमो-ऽसंख्यगुणः । (३) उत्तरोत्तरसमये रसबन्धाल्पबहुत्वम् (गा.४७) (४) उत्तरोत्तरसमये रसोदया-ऽल्पबहुत्वम् (गा.-४७) (i) प्रथमसमये मोहस्य रसबन्धो-ऽल्पः।। (i) प्रथमसमये मोहस्य रसोदयोऽल्पः । (ii) ततो द्वितीयसमये मोहस्य रसबन्धोऽनन्त- (ii) ततो द्वितीयसमये मोहस्य रसोदयोऽनगुणहीनः । न्तगुणहीनः। (iii) ततस्तृतीयसमये , , " (iii) ततस्तृतीयसमये , गुणहीनः । एवमुत्तरोत्तरोसमये रसबन्धोऽनन्त- न्तगुणहीनः । एवं मुत्तरोत्तरसमये रसोदयोगुणहीनक्रमेण भवति । ऽनन्तगुणहीनक्रमेण भवति । (५) उत्तरोत्तरसमये-ऽनुभागसंक्रम:-(गाथा ४८) । (६) उत्तरोत्तरसमये प्रदेशबन्धः-(गाथा-४८) (i) प्रथमसमये मोहस्य यावान रससंक्रमो प्रथमसमयतो द्वितीयसमये मोहस्य प्रदेशबन्धभवति । श्चतुर्विधहान्या चतुर्विधवृद्धया-ऽवस्थानेन वा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी [ गाथा-५१ (ii) द्वितीयसमयेऽपि मोहस्य तावानेव रससं- । भवति, योगानुरूपत्वात्तस्य । एवं शेषसमयेष्वपि क्रमो भवति । भावनीयम् । (iii) ततस्तृतीयसमयेऽपि मोहस्य तावानेव रस संक्रमो भवति, एवं तावद्वक्तव्यम्, यावद न्तमुहूर्तम् । (i) ततोऽनन्तरसमये मोहस्य रससंक्रमोऽन न्तगुणहीनः। (ii) ततो द्वितीयसमये मोहस्य रससंक्रमस्तावा नेव । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावदन्तमुहूर्तम् । इत्थमन्तमुहूर्त यावद् रससंक्रमस्तुल्यो भवति, पूर्णे त्वन्तमुहूर्तेऽनन्तगुणहीनो जायते । (७) उत्तरोत्तरसमये प्रदेशोदया-ऽल्पबहुत्वम(गा.४६) (5) उत्तरोत्तरसमये प्रदेशसंक्रमा-ऽल्पबहुत्वम्(i) प्रथमसमये मोहस्य प्रदेशोदयोऽलः । (गाथा-४६) (ii) ततो द्वितीयसमयेऽसंख्यगुणः । (i) प्रथमसमये प्रदेशसंक्रमोऽल्पः । (iii) ततस्तृतीयसमये-ऽसंख्यगुण । (ii) ततो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणः । एवमुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्यगुणक्रमेण वक्तव्यः ।। (iii) ततस्तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणः। एवमुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणक्रमेण वक्तव्यः। (९) रसबन्धोदयोमिथो-ऽल्पबहुत्वम्--(गाथा-५०). () न्यास:(i) प्रथमसमये मोहस्य रसोदय स्तोकः ।। अनन्तरसमये ३ अनन्तरसमये (ii) ततस्तस्मिन्नेव समये मोहस्य रसबन्धो- रसबन्धः ४ में रसोदयः ___ऽनन्तगुणहीनः । (iii) ततो-ऽनन्तर समये मोहस्य रसोदयो- वर्तमान समये र १ वर्तमानसमये ऽनन्तगुणहीनः । रसबन्धः २ रसोदयः (iv) ततस्तदानीमेव मोहस्य रसबन्धो →एतचिह्नमनन्तगुणहीनतां बोधयति । ऽनन्तगुणहीनः। पुरुषवेदोदयारूढस्य जीवस्य नपुंसकवेदसत्कां निःशेषतः क्षपणां स्त्रीवेदक्षपणां च विवर्णयिपुराह टिइखंडेसु गयेसु संढ सव्वं खवेइ तत्तो थिं । खवणद्धासंखंसे, बंधो संखवरिसा तिघाईणं ॥ ५१ ॥ (गीतिः) स्थितिखण्डेषु गतेषु षण्ढं सर्व क्षपयति ततः स्त्रियम् । क्षपणाद्धासंख्यांशे बन्धः संख्यवर्षास्त्रिघातिनाम् ।। ५१ ॥ इति पदसंस्कारः । 'ठिइखंडेसु' इत्यादि, अन्तरकरणे कृते सति प्रथमसमये द्वितीयस्थितिगतं नपुंसकवेदस्य Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीवेदक्षपणा ] अनिवृत्तिकर णाधिकारः स्तोकं प्रदेशाग्रं पुरुषवेदे संक्रम्य क्षपयति, ततोऽसंख्येयगुणं द्वितीयसमये क्षपयति । एवंक्रमेण 'स्थितिखण्डेषु' स्थितिखण्डसहतेषु 'गतेषु' जितेषु सत्सु 'पण्ड' सवें नपुंसकवेद 'क्षपयति' नपुंसकवेदक्षपणाद्धाचरमसमये नपुंसकवेदं पुरुषवेदे सर्वसंक्रमण संक्रम्य सर्वात्मना विनाशयतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो संग्वेज्जेसु हिदिखंउयसहस्सेसु गदेसु णवुसयवेदो संकामिज्जमाणो संकामिदो।" सप्ततिकाचूण्योदो नपुंसकवेदं परप्रकृतिषु संक्रम्य विनाशयति,न केवलं पुरुषवेदे इत्युक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थः- 'अंतरकरणस्स उवरिमठितिदलियं उच्चटिज्जमाणं उव्वटिजमाणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमेत्तं जायं, तओतंपरपगईसु असंखेज्जगुणेणं संछुब्भमाणं संभमाणं अंतोमुहुत्तेण संछुढं भवति । एवं नपुंसगवेदो खीणो।" इति । एवं कर्मप्रकृतिटीकायां श्रीमदुपाध्यायपादैरपि न्यगादि-."अन्तरकरणं च कृत्वा नपुंसकवेददलिकमुपरितनस्थितिगतमुहलनविधिना क्षपयितुमारभते, तच्चाऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रं भवति । ततः प्रभृति बध्यमानासु प्रकृति गुणसंक्रमेण तद्दलिकं प्रक्षिपति। तच्चैवं प्रक्षिप्यमाणं प्रक्षिप्यमाणमन्तर्मुहूर्तमात्रेण निःशेष क्षीयते ।" इति । ___तदानीं चरमप्रक्षेपे शीघ्रं क्षपणायोद्यतस्य गुणितकर्मा शस्य जन्तोनपुंसकवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी- "अहवासिगो सत्तमासब्भतिगो, तस्स खवणाए अब्भुष्ठितस्स 'पपुसगे सञ्चसंकमेण' णपुंसगवेदस्स सव्वसंछोभे गुणितकंमंसितस्स उक्कोसो पदेससंकमो लभति ।" इति । 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' नपुसकवेदक्षपणासमनन्तरं 'स्त्रियं स्त्रीवेदं क्षपयति, 'खिवेइ' इति पदस्य देहलीदीपकन्यायेना-त्राऽपि सम्बन्धात् । तत्र स्त्रीवेदक्षपणाद्धाप्रथमसमये स्त्रीवेददलं स्तोकं क्षपयति, ततो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणं क्षपति,ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणं क्षपयति । एवंक्रमेण प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण क्षपयति । स्त्रीवेदक्षपणारम्भसमयादभिनवः स्थितिघातः स्थितिबन्धो रसघातश्चारभ्यन्ते । 'क्षपणाद्धासंख्यांशे' प्रक्रमात् स्त्रीवेदक्षपणाद्धायाः संख्येयतमे भागे गते-नपुंसकवेदक्षयस्या-ऽनन्तरसमयात् प्रभृति स्त्रीवेदक्षपणाद्धाचरमसमयं यावद् यो-ऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः कालः, स स्त्रीवेदक्षपणाद्धा व्यपदिश्यते, तस्याः संख्येयतमे भागे नपुंसकवेदक्षयात् परं स्थितिखण्डपृथक्त्वेन ब्रजिते इत्यर्थः, 'त्रिघातिनां' त्रयाणां घातिकर्मणां-ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायाणामित्यर्थः, 'बन्धः' स्थितिबन्धः 'संख्यवर्षाः' संख्येयवर्षप्रमाणो भवति । प्राग य एतेषां कर्मणां स्थितिबन्धो-ऽसंख्यवर्षप्रमाण आसीत् , सो-ऽसंख्यगुणहान्या हीयमानः सन् सम्प्रति संख्यातवार्षिको जायते इति फलितार्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी"तदो से काले इत्थिवेदस्स पढमसमयसंकामगो, ताधे अएणं हिदिखंडयमण्णमणुभागखंडयमण्णो हिदिबंधो च आरडाणि । तदो हिदिखंडयपुधत्तेण इत्थिवेद . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [ गाथा-५२-५३ क्खवणडाए संखेज्जदिभागे गदे णाणावरण- दंसणावरण-अंतराइयाणं तिहं घादिकम्माणं संखेज्जवस्सद्विदिगो बंधो ।" इति । इत ऊर्ध्वं ज्ञानावरण- दर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थितिबन्धः प्रत्यन्तमुहूर्त संख्येयगुणेन हीनो हीनतरो भवति ।। ५१ ।। स्त्रीवेदस्य निःशेषतः क्षपणां मोहस्य च स्थितिसत्त्वमभिधित्सुराह— aaढी तत्तो ठिहखंडपुहुत्तेणं इत्थं खवेइ णिस्सेसं । ता संतं मोहस्य संखवासपमिअं होई ॥ ५२ ॥ ततः स्थितिखण्डपृथक्त्वेन स्त्रियं क्षपयति निश्शेषम् । तदा सत्त्वं मोहस्य संख्यवर्षप्रमितं भवति ॥ ५२॥ इति पदसंस्कारः । 1 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः ' घातित्रय सत्कस्थितिबन्धस्य संख्येयवर्षमात्रत्वभवनात् स्थितिखण्डपृथक्त्वेन स्त्रीवेदक्षपणाद्धायाः शेषेषु संख्येयेषु बहुभागेषु गतेषु 'स्त्रियं' स्त्रीवेदं 'निःशेषं' सर्वात्मना 'क्षपयति' विनाशयति । ततः परं सत्कर्मणि स्वस्वरूपेण स्त्रीवेदस्यैकमपि दलं न विद्यते इत्यर्थः । उक्त ं च कषायप्राभृतचूर्णो – “तदो डिदिखंडयपुधत्तेण इत्थवेदस्स जं ठितिसंतकम्मं तं सव्वमागाइदं ।" इति । गुणितकर्मा शस्य शीघ्रं क्षपणायोद्यतस्य जीवस्य स्त्रीवेदस्योत्कृष्ट प्रदेसंक्रमो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णो -- "अट्ठवासिगो सत्तमासमहिओ खवणाए अम्भुट्ठितो सो, 'सव्वसंक्रोभे' इति गुणियकम्मं सिगो चरिमसंच्छ्रो वट्टमाणो इत्थिवेदस्स उक्को सपदेस संकमगो |" इति । तदानीं मोहनीयकर्मणः स्थितिसत्त्वं निगदितुकाम आह - 'ताहे' इत्यादि, 'तदा' यस्मिन् समये स्त्रीवेदः सर्वथा क्षपितस्तस्मिन् समये इत्यर्थः, 'मोहस्य' मोहनीयकर्मणः 'सत्र ' स्थितिसत्कर्म संख्यवर्ष प्रमितं' संख्यातवर्षप्रमाणं 'भवति' जायते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - "ताधे चेव मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्त्राणि ।” इति । अतः परं प्रतिस्थितिखण्डेन मोहनीय कर्मणः संख्यातगणहीनं स्थितिसचं जायते, शेषाणां कर्मणां पुनरसंख्येयगुणहीनं भवति, यतो ज्ञानावरण- दर्शनावरण- वेदनीया - ऽन्तराय- नाम-गोत्राणां स्थितिसत्त्वमद्यापि पल्योपमा ऽसंख्येयभागप्रमाणं विद्यते ।। ५२ ।। स्त्रीवेदक्षपणाया अनन्तरसमयात् पुरुषवेदहास्यषट्कलक्षण सप्तनोकषायान् क्षपयितुमारभते sa aayari स्थितिबन्ध स्थितिसत्त्वयोरल्पबहुत्वं च प्ररुरूपयिषुराह - से काले खवए सत्तणोकसाये ऽप्पबहुअं य । मोहस्स द्विबंधी थोवो घाई संखगुणो ॥ ५३ ॥ (उपगीतिः) - . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिकरणाधिकरः [८१ सप्तकषायक्षपणा ] तो वीसाण असंखगुणो तो तइयस्स खलु विसेसहियो। ठिइसंतं मोहस्सप्पं घाईणं असंखगुणं ॥ ५४॥ तो वीसाण असंखगुणं तो तइयस्स खलु विसेसहिअं। खवणद्धासंखंसे-ऽघाईणं संखावासिगो बंधो ॥५५॥ अनन्तरकाले क्षपयति सप्तनोकषायानल्पबहुत्वं तु ।। मोहस्य स्थितिबन्धः स्तोको घातिनां संख्यगुणः ॥ ५३॥ ततो विंशतिकयोरसंख्यगुणस्ततस्तृतीयस्य खलु विशेषाधिकः । स्थितिसत्त्वं मोहस्या.ऽल्पं घातिनामसंख्यगुणम ॥ ५४॥ ततो विंशतिकयोरसंख्यगुणं ततस्तृतीयस्य खलु विशेषाधिकम् । क्षपणाद्धासंख्यांशे ऽघातिनां संख्यवार्षिको बन्धः ॥५५ ।। इति पदसंस्कारः । 'से काले' इत्यादि 'अनन्तरकाले स्त्रीवेदक्षपणाया अनन्तरसमये 'सप्तनोकषायान्' स्त्रीनपुंसकवेदयोः क्षीणत्वात् हास्यपटक-पुरुषवेदलक्षणान् 'क्षपति' युगपत्क्षपयितुमुपक्रमते । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी-“से काले सत्तण्हं णोकसायाणं पहमसमयसंकामगो।" एवं सप्त. तिकाचूणांवपि-"तओ सत्त वि नोकसाए जुगवं खवेतुमाढवेति ।" इति । सप्ततिकाचूणिकारादीनां मतेनाऽतः प्रभृति हास्यपट कं पुरुषवेदे न संक्रमयति, किन्तु संज्वलनक्रोधे । तथा चाऽत्र सप्ततिकाचूर्णिः-'तओ पभिति छण्णोकसाया पुरिसवेदम्मि न संकमंति, कोहसंजलणाए संकमंति।" एवमुपाध्यायपुङ्गवैरप्युक्तम्-"ततः षड्नोकषायान् युगपत् क्षपयितुमारभते । ततः प्रभृति तेषामुपरितनस्थितिगतं दलिकं पुवेदे न संक्रमयति, अपि तु संज्वलनक्रोधे।” इति । कषायप्राभूतचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण पुनरन्तरकरणक्रियानिष्ठातः प्रभृति हास्यषटकं क्रोधे एव संक्रमयति । तथा च तद्ग्रन्थ:"अन्तरादो दुसमयकदादो पाये छण्णोकसाये कोहे संछुहदि, ण अण्णम्हि कम्हि वि।" इति । अकारस्य लुप्तत्वात् 'अप्पबहुअं य' ति 'अल्पबहुत्वं च' चकारः समुच्चये, तदानीं च स्थितिबन्धस्थितिसचयोः स्तोकबहुत्वं वक्तव्यमिति शेषः । आदौ तावत् स्थितिबन्धा-अल्पबहुत्वमभिधातुकाम आह–'मोहस्स' इत्यादि, 'मोहस्य' मोहनीयकर्मणः स्थितिबन्धः 'स्तोकः' अल्पः, उपरि मण्यमानकर्मणां स्थितिबन्धस्य प्रभूतत्वात् । स च संख्येयवर्षप्रमाणः। ततः 'घातिनां' मोहनीयस्योक्तत्वात् ज्ञानावरण दर्शनावरणा-ऽन्तरायलक्षणानां कर्मणामित्यर्थः, स्थितिबन्धः संख्येयवर्षमात्रो भवन्नपि 'संख्यगुणः' संख्येयगुणो भवति । 'तो' इत्यादि, 'ततः' घातित्रयस्य स्थितिबन्धाद् ‘विंशतिकयोः' विंशतिसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकयो मगोत्रयोरित्यर्थः, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] खरगसेढी [ गा० ३-५५ 'असंख्यगुणः' असंख्येयगुणः स्थितिबन्धो भवति, तस्या-ऽसंख्येयवर्षप्रमाणत्वात् । 'ततः' नामगोत्रस्थितिबन्धतः 'तृतीयस्य' वेदनीयकर्मणः 'खलु' खलुवाक्यालङ्कारे स्थितिवन्धो-ऽसंख्येयवर्षप्रमितो जायमानोऽपि विशेषाधिको भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-सत्तण्हं णोकसायाणं पढमसमयसंकामगस्स हिदिबंधो मोहणीयस्स थोवो. णाणावरण दसणावरण अंतराइयाणं हिदिबंधो संखेज्जगुणो, णामागोदाणं डिदिबंधो असंवेज्जगुणो वेदणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ." इति । पूर्ववत् स्थितिबन्धो घातिकर्मणां प्रतिस्थितिघाताद्ध संख्येयगुणहीनो जायते, नामगोत्रवेदनीयानामसंख्येयगणहीनो भवति । अभ्यधायि च कषायप्राभूतचू -"हिदिबंधो णामा-गोद-वेदणीयाणं असंखेज्जगुणहीणो, घादिकम्माणं हिदिवंधो संखेज्जगुणहीणो।" इति । ___ अथ सप्तनोकषायक्षपणाप्रथमसमये स्थितिसत्त्वाऽल्पबहुत्वं निगदति-ठिइसतं' इत्यादि, "स्थितिसत्त्वं' स्थितिसत्कर्म 'मोहस्य' मोहनीयकर्मणः 'अल्पं स्तोकं भवति, उपरि भणिष्यमाणकर्मणां स्थितिसत्त्वस्य प्रभूतत्वात् , तच्च संख्येयवार्पिकं भवति, ततः घातिनां' मोहनीयस्यामिहितत्वात् ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायरूपाणां कर्मणां स्थितिसत्त्वमसंख्यगणं भवति, तत्या-ऽसंख्येयवर्षप्रमाणत्वात् । 'ततः' घातित्रयस्थितिवन्धतः 'विंशतिकयोः' नामगोत्रयोः स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षप्रमाणं भवदप्यसंख्येयगणं भवति । 'ततः' नामगोत्रस्थितिसच्चात् 'तृतीयस्य' वेदनीयकर्मणः खलु विशेषाधिकं स्थितिसत्त्वं भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी"ताधे ठिदिसंतकम्मं मोहणीयस्स थोवं, तिर्ह घादिकम्माणं हिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं, णामागोदाणं हिदिसंतकम्ममसंखेज्जगुणं, वेदणीयस्स हिदिसंतकम्म विसेसाहियं ।” इति । स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते नाम-गोत्र-वेदनीयानां स्थितिबन्धमभिधातुमना आह-'खवणहासंखंसे' इत्यादि, 'क्षपणाद्धासख्यांशे' सप्तनोकषायक्षपणाप्रारम्भतः परं स्थितिखण्डपृथक्त्वेन हास्यषटकपुरुषवेदसत्कक्षपणाद्धायाः संख्येयतमे भागे गते सतीत्यर्थः 'अघातिनाम' नामगोत्र वेदनीयानां 'संख्यवार्षिकः' संख्यातवर्षप्रमाणो 'बन्धः' स्थितिबन्धो भवति, प्रागेतेषां कर्मणामसंख्ययवर्षप्रमितः स्थितिबन्ध आसीत्, सम्प्रति संख्येयर्षप्रमाणो भवतीति फलितार्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "तदो द्विदिखंडयपुधत्ते गदे सत्तण्हं णोकसायाणं खवणडाए संखेज्जदिभागे गदे णामा-गोद-वेदणोयाणं संखेज्जाणि वस्साणि द्विदिबंधो।" इति । इत्थं सर्वेषां कर्मणां स्थितिबन्ध इदानीं संख्येयवर्षमात्रो जायते । तथा चोत्तरोत्तरः स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति ॥ ५३-५४-५५ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिकरणाधिकारः सप्तकषायक्षपणा ] [८३ सप्तनोकपायसत्कक्षपणाद्धायाः संख्येयेषु बहुभागेषु गतेषु घातिकर्मणां स्थितिसत्त्वं पुरुषवेदस्या-ऽऽगालप्रत्यागालयोर्व्यवच्छेदं च वक्तुकाम आहखावणाद्धासखंसेसु संतं संखावासिअं घाईणं । आगालो पडिअागालोप्रालिदुगे य सेसगेवोच्छिन्ना ॥५६॥ (प्रार्यागीतिः) क्षपणाद्धासंख्यांशेषु सत्त्वं संख्यवाषिकं घातिनाम् । श्रागालः प्रत्यागाल आवलिकाद्विके च शेषे व्यवच्छिन्नौ ।।५६।। इति पदसंस्कारः । 'खवणाडा०' इत्यादि, 'क्षपणाद्धासंख्यांशेषु' अघातित्रयस्य संख्येयवर्षमात्रस्थितिबन्धप्रारम्भात् परं स्थितिखण्डपृथक्त्वेन सप्तनोकषायाणां क्षपणाद्धायाः संख्यातेषु बहुभागेषु गतेषु सत्स्वित्यर्थः, 'घातिना' स्त्रीवेदक्षपणाद्धाचरमसमये एव मोहस्य स्थितिसत्कर्मणः संख्यातवार्षिकत्वप्रतिपादनात् ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायरूपाणां त्रयाणां कर्मणां 'सत्त्वं' स्थितिसत्कर्म संख्यवार्षिकं भवति, संख्येयवर्षप्रमितं जायते इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभूतचूौँ -"तदो द्विदिखंडयपुधत्ते गदे सत्तण्हं णोकसायाणं खवणडाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरणदसणावरण अंतराइयाणं संखेज्जवस्सहिदिसंतकम्मं जादा।" इति । ततः परमुत्तरोत्तरस्थितिघाते पूर्णे मोहनीयवद् ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामपि स्थितिसचं संख्येयगुणहीनं भवति, स्थितिसत्कर्मणः संख्येयवार्षिकत्वात् , अघातित्रयस्य च पूर्ववदसंख्येयगुणहीनं संजायते, स्थितिस कर्मणो-ऽसंख्येयवर्षप्रमाणत्वात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो पाए [घादिकम्माणं ] हिदिबंधे हिदिखंडए च पुण्णे पुण्णे हिदिबंधट्टिविसंतकम्माणि संखेज्जगुणहोणाणि,णामागोदवेदणीयाणं पुगणे डिदिखंडए असंखेज्जगुणहीणं ठिदिसंतकम्म।" इति । ___ 'आगालो' इत्यादि, आगालः प्रत्यागालश्च, उत्तरस्थस्य चकारस्य व्यवहितसम्बन्धत्वेनाऽत्र योजनात् 'आवलिकाद्विके' पुरुावेदस्य प्रथमस्थितौ आवलिकाद्वये 'शेषे' अवशिष्टे व्यवच्छिन्नौ भवतः । एतदुक्तं भवति-आगलनम्-आगालः, आपूर्वको गलिधातुः, “गल भक्षणे स्रावे च" ततः 'भावोकत्रोंः' (सिद्धहेम० ५-३-१८) इत्यनेन भावे घन , द्वितीयस्थितितः कर्मप्रदेशानामुदीरणाप्रयोगेणोदये आगमनमित्यर्थः । न्यगादि च कर्मप्रकृतिचूर्णी सम्यक्त्वोत्पादाधिकारे-"जं वितीयठितीतो आणेउ पोग्गले छुभति; तस्स आगाल त्ति सग्णा।” इति । प्रत्यागलनं प्रत्यागालः, प्रथमस्थितितः कर्मप्रदेशानामुद्वर्तनया द्वितीयस्थिती गमनमित्यर्थः । पुरुषवेदस्याऽऽगालप्रत्यागालौ तावत् प्रवर्तेते, यावत् प्रथमस्थितेरावलिकाद्वयं शेषं Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] खवगसेढी [ गाथा-५६ भवति, ततो व्यवच्छिद्येते, न प्रवर्तेते इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"पुस्सिवेदस्स दो आवलियासु पढमहिदीए सेस.सु आगालपडिआगालो वोच्छिण्गो ।" इति । आगालप्रत्यागालव्यवच्छेदात् परं प्रथमस्थितितः पुरुषवेदस्योदीरणा पूर्ववत् प्रवर्तते ।।५६।। अथ पुरुषवेदस्य जघन्योदीरणां चरमोदयं च व्याजिहीर्घ राहसमयाहिश्रावलिसेसाअ जहण्णा उदीरणा होइ। चरिमे समयूणदुश्रावलिबद्धमुदयठिई सेमा ॥५७ ॥ समयाधिकावलिकाशेषायां जघन्योदीरणा भवति । चरमे समयोनद्वधावलिकाबद्धमुदयस्थितिः शेषा ॥५८॥ इति पदसंस्कारः । 'समया०' 'समयाधिकावलिकाशेषायां' पुरुषवेदसत्कायां प्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकायां शेषायां 'जघन्योदीरणा' एकसमयस्थितिका जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यानुभागोदीरणा च भवति । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी- “समयाहियाए आवलियाए सेसाए जहपिणया ठिदिउदोरणा।" xxxxx पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? पुरिसवेदखवगस्त समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स।' इति । तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि-"ताए पढमठितोए समयाहियावलिसेसाए मिच्छत्तस्स तिण्हं वेयाणं चउण्हं संजलणाणं सम्मत्तस्स चजहणिया ठितिउदोरणा भवति। पंचविहअंतराइयकेवलणाणकेवलदसणावरण-चउण्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसायाणं एयासिं वीसाए पगईणं अप्पप्पणो उदीरणंते जहणिया अणुभागउदोरणा होति " इति । पुरुषवेदस्य प्रदेशोदीरणा तु तदानीं गुणितकर्मा शस्य महात्मन उत्कृष्टा भवति । तथा चोक्तं कषायप्रा. भूतचूर्णी-"पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयपुरिसवेदगस्स ।" इति । तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि-"याणं तिण्हं पि अप्पप्पणो समयाहियावलियचरिमसमयवेयगो।” इति । ततः परं पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितेरावलिकायां शेषायामित्यर्थः, पुरुषवेदस्योदीरणा व्यवच्छिन्ना भवति । केवलमुदयः प्रवर्तते, कथमेतदवसीयते ? इति चेद्, शृणुत, वेदस्य जघन्या-ऽनुभागोदयः क्षपकश्रेण्यामेव प्राप्यते, विशुद्धेः प्राबल्यात् । स च जघन्या-ऽनुभागोदयो जघन्या-ऽनुभागोदीरणया सदृशो न भवति, यतो वेदस्योदीरणायां व्यवच्छिन्नायां परत आवलिकामतिक्रम्य तच्चरमसमये * एवं जयधवलाकारैरपि- पढमविदियट्टिदीणमुक्कडुणोकडणवसेण परोप्परं विसयसंकमो आगालपडिआगालो त्ति भण्णदे । सो पुरिसवेदपढमट्ठिदीए आवलियपडिआवलियमेत्तसेसाए उप्पादाणुच्छेदेण वोच्छिण्णो त्ति भणिदं होदि।" इति । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तनोकषायक्षपणा अनिवृत्तिकरणाधिकारः [८५ जघन्या-ऽनुभागोदयो जायते । उक्तं च कर्मप्रकृती "अणुभागुदओ वि जहएणं नवरि आवरणविग्धवेयाण । संजलणलोभसम्मत्ताण य गंतूणमावलिगं ॥१॥” इति । तथैव तहोकायामपि--"नवरं ज्ञानावरणपञ्चका-ऽन्तरायपञ्चक-दर्शनावरणचतुष्टय-वेदत्रय-संज्वलनलोभ-सम्यक्त्वादीनामुदोरणाव्यवच्छेदे सति परत आवलिकां गत्वा-अतिक्रम्य तस्या-आवलिकायाश्चरमसमये जघन्याऽनुभागोदयो वक्तव्यः।” इति । तेनोदीरणायां व्यवच्छिन्नायामपि केवलं शुद्ध उदयः प्रवर्तते इति सिद्धम् । न केवलं युक्त्या साध्यते, सप्ततिकाचूर्णिकारैरप्युक्तम् । अक्षराणि त्वेवम्-"तिण्हं वेयाण तेण तेण वेदेण सेटिं पउिवण्णस्स अंतरकरणे कए पढमहितीर जाव आवलिया सेस त्ति ताव उदओ य उदोरणा य जुगवं । ततो आवलियामेत्तं कालं उदओ चेव । उदीरणा णत्थि।" इति । पुरुषवेदं केवलेन शुद्धेनोदयेना-ऽनुभवन् पुरुषवेदोदयस्य द्विचरमसमये संख्येयवर्षस्थितिकं हास्यपटकं संज्वलनक्रोधे सर्वसंक्रमेण सर्वात्मना क्षपयन् पुरुषवेदस्य चरमस्थितिखण्डं घातयति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, शृणुत-पञ्चप्रकृत्यात्मकसत्तास्थानस्य कालो जघन्यत उत्कृष्टतश्च समयोनद्वयावलिकामात्रो भवति, यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी प्रकृति विभक्तयधिकारे- "पंचण्हं वित्तिओ केवचिरं कालादो ? जहण्णुक्कस्सेण दोआवलिओ समयूणाओ।" इति । स च जघन्योत्कृष्टकाल इत्थं भावनीयः-पुरुषवेदोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नः पुरुषवेदप्रथमस्थितेचिरमसमये सर्व हास्यपटकं पुरुषवेदस्य चैकामुदयस्थितिमावलिकाद्वयबद्धनूतनदलं च वर्जयित्वा शेषं पुरुषवेदं सर्वात्मना क्षपयति । ततोऽनन्तरसमये-ऽर्थात् पुरुषवेदप्रथमस्थितिचरमसमये पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्करूपाः पञ्चप्रकृतयः सत्कर्मणि विद्यन्ते । तेन ततः प्रभृति पञ्चप्रकृत्यात्मकं सत्तास्थानं प्राप्यते, तच्च तावद् भवति, यावत् समयोनावलिकाद्वयेन बद्धनूतनपुरुषवेदः क्रोधे निश्शेषतः संक्रान्तो न भवति * । इदं तु नयविशेषण बोध्यम्, सामान्येन तु पुरुषवेदप्रथमस्थितिदिचरमसमये हास्यपट्के क्षीणे आपलिकाद्वयं यावत् पञ्चप्रकृत्यात्मकं सत्तास्थानं संभवति, एतच्च सूक्ष्मधिया परिभावनीयम् । न च क्षपयतु हास्य कएवं धवलाकारैरप्युदयप्ररूपणायामुक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थ:--"पचणाणावरणीय-चत्तारिदंसणावरणीय-सम्मत्त-तिण्णिवे-दलोहसंजलण-पंचअंतराइयाणं जहण्णओ अणुभाग उदओकस्स ? जो एदेसि कम्माणं जहण्णअणुभागउदीरओ होदूण तदो आवलियाए अदिक्कंताए सो चेव ज ण्णाणुभागवेदओ होदि।" इति। ___ * भावितश्च वमेव जयधवलाकारैरपि, तथा च तद्ग्रन्थः-कुदो ? कोधसंजलणपुरिसवेदोदएण क्खवगसेढिं चडिदस्स सवेदियदुचरिमसमए छण्णोकसाएहि सह खविदपुरिसवेदचिराणसंतस्स सवेदियचरिमसमए समयूणदोआवलियमेतपुरिसवेदणवकसमयपबद्धाणमुवलंभादा। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] खवगसेढी [गाथा-५७ षटकं पुरुषवेदोदयद्विचरमसमये, पञ्चप्रकृत्यात्मकसत्तास्थानसत्कस्य कालस्य समयोनावलिकाद्वयमात्रत्वात्, पुरुषवेदस्य चरमस्थितिखण्डं तदानीमेव धात्यते इत्येतत् कथमवगन्तव्यम् ? इति वाच्यम्, कषायप्राभृतचूर्णी प्रदेशविभक्त्यधिकारे उक्तत्वात् । तथाहि-पुरुषवेदो. दयद्विचरमसमये पुरुषवेदस्य चरमस्थितिखण्डं सर्वात्मना घात्यते । तथा चात्र कषायप्राभूतचूर्णि:-"दुचरिमसमयसवेदस्स चरिमहिदिखंउगं चरिमसमयविणहूँ।" तथा कर्मप्रकृतिचूर्णावपि सत्ताधिकारे प्रथमस्थितेचिरमसमये पुरुषवेदस्य चरमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये यज्जघन्यं प्रदेशसत्त्वं भवति, तत आरभ्य एकैकपरमाणुना वृद्धमुस्कृष्टप्रदेशसत्त्वं यावद् यावन्ति स्थानानि लभ्यन्ते, तेषामेकं स्पर्धकं विहितम् । तथा चा-त्र कर्मप्रकृतिचूर्णिः-- दुचरिमसमयपुरिसवेयगस्स अपच्छिमठितिखंडगस्स चरिमसमए जहण्णगं पदेससंतं आदि काऊण जाव अप्पणो उक्कोसं पदेससंतं निरंतराणि ठाणाणि लम्भंति ।" इति । अत्र वेदोदयद्विचरमसमये-ऽर्थात् पुरुषवेदप्रथमस्थितिद्विचरमसमये स्थितिघाताद्धायाश्चरमसमयप्रतिपादनाद् एतत् सूपपद्यते, यत् पुरुषवेदोदयद्वि चरमसमये पुरुषवेदस्य चरमस्थितिखण्डं घात्यते । अन्ये पुनराहुः-पुरुषवेदोदयचरमसमये हास्यषट्कं सर्वथा क्षीयते, हास्यषटकक्षयसमकाले पुरुषवेदबन्धस्य व्यवच्छेदप्रतिपादनात् । उक्त च श्रीमदुपाध्यायपुङ्गवः-“यस्तु पुरुषवेदेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्तस्य नोकषायषट्कक्षयसमकालं पुरुषवेदस्य बन्धव्यवच्छेद इति ।” एवं पुरुषवेदोदयचरमसमये नवकवद्धपुरुषवेदं विहाय शेषः पुरुषवेदः क्षीयते इति मन्यन्ते । - अन्यच्च कर्मप्रकृतिचूर्णिकृता पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ समयोनद्वयावलिकायां शेषायां पुरुषवेदस्य पतद्ग्रहत्वं निषिद्धम् । अक्षराणि त्वेवम्-"ततो पुरिसवेयस्स पढम द्वितिए समऊणदुआवलिआए सेसाए पुरिसवेदो पडिग्गहो ण होति त्ति ते दस पुरिसवेदणेसु चउसु संजलणेसु समयूणदुआवलियमेत्तं संकमंति।" इति । तच्च मतान्तरमन्यथा वा परिभावनीयम् । कषायप्राभूतचूर्णिसप्ततिकाचर्णिकारादिमतेन तु स्त्रीवेदे क्षीणे पुरुषवेदः पतद्ग्रहो न भवति, यतः कषायप्राभृतचूर्णिकारमतेना-ऽन्तरकरणनिष्ठातः प्रभृति हास्यषटकं पुरुषवेदे न संक्रमयति, केवलं स्त्रीनपुंसकलक्षणवेदद्वयं संक्रमयति, तस्य च क्षीणत्वात् न कांचिदपि प्रकृति पुरुषवेदे संक्रमयति । सप्ततिकाचर्णिकाराद्यभिप्रायेण स्त्रीवेदे क्षीणे हास्यषट्कं संज्वलनक्रोधे संक्रामन्ति, न पुरुषवेदे, तच्च प्राग् दर्शितम् । आनुपूर्वीसंक्रमसद्भावाच्च क्रोधादयः पुरुषवेदे न संक्रामन्ति । हास्यपट कस्य चरमस्थितिखण्डं संक्रमयतो जन्तोर्हास्यपट कस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिकरणाधिकारः [ =9 कषायक्षपणा ] जघन्याऽनुभागसंक्रमश्च भवति, प्रदेशसंक्रमस्तु गुणितकर्मा शस्य जन्तोरुत्कृष्टो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी - "सेसगाणं ति वृत्तसेसाणं धीणगिडितिग-तेरसणामा अट्ठकसायणवणोकसाया कोह संजलणमाणमायासंजलणाणं एयासिं छत्तीसाए कम्मपगतीणं 'खवणकमेण' त्ति खवणपरिवाडिते चेव अप्पणो चरिमसंछोभे वहमाणो अनियजिहण डितिसंक्रमसामी । x x x x अंतरकरणे कए उवरि जासिं घातिकम्माणं जहिं जहण्णगो हितिसंक्रमो भणितो, तासि अप्पप्पणो डाणे तहिं जह orgभागको । xxx थीणगिडितिग-उन्नोकसायासन्तणाम- अट्ठकसायाणं एतासिं चवीसाए पगतीणं गुणितकंमंसितस्स अणियट्टिकरणे वट्टमाणस्स उक्कोस्सो पदेससंकमो सव्वसंकमेण लभति ।" इति । एवं कषायप्राभृतचूर्णावपि । तदानीमेव कर्मप्रकृतिका रादीनामभिप्रायेण पुरुषवेदोदयारूढस्य गुणितकर्मा शस्य क्षपकस्य पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो भवति । अक्षराणि त्वेवम् - - " ततो चुतो 'लहुं'ति मासपुहुत्तट्ठवासिगो 'पुरिसं संभमाणस्स' त्ति खवणाए उवडियस्स पुरिसवेदं चरिमसंलोभणाए संछुभमाणस्स पुरिसवेदस्स उक्कोस्सगो पदेस संकमो संसारे वचियस्स दलियस्स गुणसंकमेण संचियस्स चरिमसंठो होइ । दोहिं आवलियाहिं बन्धवोच्छेदो होहिति त्ति जं तंमि काले दलितं बर्ड, तण्ण होति संसारोवचियं । मोत्तु सेसस्स उक्कोसो पदेससंकमो भवति ।" इति । कषायप्राभृतचूर्णिकारादीनां मतेन पुनर्यो गुणितकर्मा शः स्त्रीवेदोदयेन वा नपुंसक वेदोदयेन वा क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यते स एव पुरुषवेदस्योत्कृष्टतः प्रदेशाग्रं संक्रमयति, न पुरुषवेदोदयारूढः कथमेतदवसीयते इति चेत् ? उच्यते, यः पुरुषवेदोदयेन क्षपकश्रेणिमधिगच्छति, तस्य जीवस्य वेदस्य प्रथमस्थितिः स्त्रीवेदोदयारूढस्य वेदप्रथमस्थितितः संख्ये मागेनाऽधिका भवति, स्त्रीवेदे क्षीणे कषायप्राभृतकारादीनां मतेन पुरुषवेदोदयारूढस्य जीवस्य पुरुषवेदे न काचिदपि प्रकृतिः संक्रामति, तेन स्त्रीवेदक्षयादुपरि केवलं बन्धेनैकसमयप्रबद्धद लिकमा गच्छति, उदयेन तु प्रतिसमयमसंख्य समयप्रबद्धदलं निर्जरामेति, एवभायतो व्ययः प्रभूतो भवति, तेन पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो गुणिताकर्माशस्य स्त्रीवेदोदयारूढस्य नपुंसक वेदोदयारूढस्य च जीवस्य पुरुषवेदसत्कचरमखण्डाद्धाचरमसमये भवति, तस्यैवोत्कृष्ट प्रदेशसञ्चयसम्भवात् । न च कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादयो ऽपि पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमः परवेदोदयेनाssरूढस्य गुणितकर्मा शस्य जीवस्य कुतो न मन्यन्ते । इति वाच्यम्, मतान्तरसम्भवेन विरोधाभावात्, तथाहि-- कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादयः पुरुषवेदस्य पतद्ग्रहता पुरुषवेदप्रथमस्थितौ समयोनद्वयावलिका शेषायामपगच्छतीति मन्यन्ते, न तु कषायप्राभृतचूर्णिसप्ततिका चूर्णिका Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी [ गाथा-५७ रादिवत् स्त्रीदे क्षीणे । यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी संक्रमकरणाधिकारे-“ततो पुरिसवेयस्स पढमहितीए समऊणदुआवलिआए सेसाए पुरिसवेदो पडिग्गहो ण होदि त्ति ।" इति । एवं स्त्रीवेदे क्षीणे-ऽपि पुरुषवेदस्य पतद्ग्रहत्वात् हास्यपकं पुरुषवेदे संक्रमयति कर्मप्रकृ. तिचूर्णिकारमतेन । तेन पुरुषवेदस्य प्रभूतसञ्चयः पुरुषवेदोदयारूढस्य जीवस्य भवति । यद्यपि परवेदोदयारूढापेक्षया प्रथमस्थितेर्विशेषाधिकत्वेन प्रतिसमयमुदयेनाऽसंख्येयसमयप्रबद्धं प्रदेशाग्रं परुषवेदस्य निर्जरति, किन्तु हास्यपट कतः प्रतिसमयं दलिक गुणसंक्रमेणा-ऽऽगच्छति, अतः परुषवेदोदयेन प्रतिपन्नस्य क्षपकस्य गुणितकर्मा शस्य जीवस्य पुरुषवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसञ्चयो भवति, व्ययत आयस्य प्रभूतत्वात् । तेन कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादीनां मतेन स्वोदयारूढस्य जीवस्य पुरुषवेदसत्कोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । कषायप्राभृतचर्णिकारादीनां मतेन पनः परोदयेनारूढस्यैव जीवस्य परुषवेदसत्कोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति, स्त्रीवेदे क्षीणे परुषवेदस्य पतद्ग्रहत्वाभावेना-ऽऽयतो व्ययस्य प्रभूतत्वात् । ___ अथ पुरुषवेदस्य चरमोदयं तदानीं चा-ऽवशिष्यमाणं पुरुपवेदस्य दलं प्ररुरूपयिषुराह'चरिमें' इत्यादि, 'चरमे' पुरुषवेदोदयचरमसमये 'समयोनद्वयावलिकाबद्धं पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्वयेन बद्धं नतनप्रदेशाग्रं शेषं विद्यते, द्वितीयस्थितौ समयोना-ऽऽवलिकाद्वयबद्धदलं सत्कमण्यवशिष्यते इत्यर्थः, तथा 'उदयस्थितिः शेषा' पुरुषवेदस्यैकोदयस्थितिः शेषा भवति, शेषः सर्वः पुरुषवेदः सर्वात्मना क्षीणः । न्यगादि च कषायप्राभृतचूौँ – “तदो चरिमसमयसवेदो जादो, ताधे छण्णोकसाया संमृद्धा । पुरिसवेदस्स जाओ दो आवलिआओ समयूणाओ, एत्तिगा समयपपडा बिदियठिदीए अत्थि, सेसं पुरिसवेदस्स संतकम्मं सव्वं संछुद्धं ।” इति । ननु समयोनद्वयावलिकाबद्ध-नूतनपुरुषवेददलं प्रथमस्थितिचरमसमये कुतो न सर्वथा क्षपयति ? इति चेत्, शृणुत - परुषवेदस्य प्रथमतो बन्धः प्रवतते, तेन यथा चिरकालबद्धदलं क्षपयति, तथैव नूतनबद्धदलिकमपि क्षपति, किन्तु बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायामेव, नार्वाग्, बन्धावलिकायाः सकलकरणा-ऽयोग्यत्वात् । अतः पुरुषवेदप्रथमस्थितिसत्कद्विचरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसमये पुरुषवेदस्य बद्धं दलिक बन्धसमयादारभ्याऽऽवलिकाचरमसमरं यावत्तदवस्थं तिष्ठति, तत्क्षपणं नास्ति,बन्धावलिकायाः सकलकरणा-ऽयोग्यत्वात् । तदनन्तरं प्रथमस्थितिचरमाऽऽवलिकाप्रथमसमयात् प्रभृति क्षपयितुमारभते, एकसमयेन बद्धं दलिकं क्षपयितुमावलिकाप्रमाणः कालो गच्छतीति कृत्वा प्रथमस्थितिसत्कद्विचरमावलिकाप्रथमसमयेन बद्धं दलं चरमावलिकायाश्वरमसमये सर्वथा क्षपयति, द्विचरमावलिकाद्वितीयसमयेन बद्धं दलं चरमा ज्वलिकायाः प्रथमसमयं पावत्तदवस्थं तिष्ठति । ततश्चरमावलिकाया द्वितीयसमयात् प्रति प्रतिसमयं क्षपयंश्वरमावलिका Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषवेदक्षपणा ] निवृत्तिकरणाधिकारः चरमसमये न सर्वथा क्षपयति, किन्त्यपगत वेदप्रथमसमये सर्वथा क्षपयति, एवं द्विचरमावलिकासत्कतृतीयादिसमयैरपि बद्धदलिकं पुरुषवेदोदयचरमसमये न सर्वात्मना क्षपयति । तेन पुरुष - वेदोदय चरमसमये समयोना-ऽऽवलिकाद्वयबद्धदलिकं न निश्शेषतः क्षीणं भवति, तावता कालेन बद्धदलं तदानीं सत्कर्मणि विद्यते इत्यर्थः इत्यलं प्रपञ्चन । तच्च नूतनदलमश्वकर्णकरणाद्धायां तावता कालेन पयिष्यति । " पुरुषवेदोदय चरमसमये जघन्य स्थित्युदयो जघन्याऽनुभागोदयश्च भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतौ - "ठिइउदओ वि ठिक्वयपयोगसा ठिइउदीरणा अहिगो । उठिए हस्सो छत्तीसा एगउदयठिई ॥ १ ॥ अणुभागुदओ वि जहणं नवरि आवरणविग्धवेयाण । संजलणलोभसम्मत्ताण य गंतूणमावलिगं ॥ २ ॥” इति । तदानीमेव गुणितकर्मा शस्य जीवस्य पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशोदयो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णो - "संमत्तस्स चउण्हं संजलणाणं तिन्हं वेयाणं तेसिं अट्ठण्ह खवगस्स गुणियकंमंसिगस्स अप्पप्पणो उदयचरिमसमते वद्यमाणस्स उक्कोसतो पदेसुदओ ।" इति ॥ ५७ ॥ पुरुषवेदस्य चरम स्थितिबन्धं स्थितिसच्चं च निजिगदिपुराह - पुरिसस्त वरिसा सोलसवरिसाणि संजलणगाणं । बंधो संतं घाइघाईणं संख संखवासाई ॥ ५८ ॥ ( गीतिः) पुरुषस्या- ऽष्टवर्षाः षोडशवर्षाणि संज्वलनानाम् । बन्धः सत्त्वं घात्यघातिनां संख्या ऽसंख्यवर्षाणि ।। ५८ ।। इति पदसंस्कारः । [=& 'पुरिसस्स' इत्यादि, 'पुरुषस्य' पुरुषवेदस्य 'बन्धः' स्थितिबन्धः 'अष्टवर्षाः' अष्टवर्ष प्रमाणो भवति । 'संज्वलनानां' संज्वलन क्रोधमानमाया लोभानां 'षोडशवर्षाणि' पोडशवर्ष प्रमाणः स्थितिबन्धो जायते, शेषाणां षट्कर्मणां स्थितिबन्धः पूर्ववत् संख्येयवर्षसहस्रप्रमाणो भवति । न च स्त्रीवेदक्षपणाद्धासंख्येयतमे भागे गते त्रयाणां घातिकर्मणां सप्तनोकषायक्षपणाद्धासंख्येयतमभागे च वजितेऽघातित्रयस्य संख्येयवर्षमात्रः स्थितिबन्धो ऽभिहितः, इदानीं पुनः संख्ये यवर्ष - सहस्रप्रमितः कुत उच्यते ? निरुक्तस्थानतः प्रभृति निरुक्तकर्मणां स्थितिबन्धे प्रत्यन्तमुहूर्त संख्येयगुणहानिदर्शनादिति वाच्यम्, तदानीमसंख्येयवार्षिकत्वनिषेधायाऽभिहितत्वात, वस्तुतस्तदानीमपि संख्यातसहस्रवर्षमितस्थितिबन्धस्येष्टत्वेऽपि संख्यातराशेरनेकविधत्वेन संख्यातसहस्राणामपि Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] खवगसेढी [ गाथा ५८ संख्यातराशौ समावेशात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "सत्तण्हंणोकसायाणं संकामयस्स चरिमो हिदिबंधो पुरिसवेदस्स अट्ठवस्साणि, संजलणाण सोलसवस्साणि, सेसाणं कम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि हिदिबंधो।” इति । ___ अथ स्थितिसत्त्वं विभणिषुराह-'संत' इत्यादि, 'सत्त्वं' स्थितिसत्त्वं 'घात्यघातिनां' घातिकर्मणामघातिकर्मणां च यथासंख्य संख्या-ऽसंख्यवर्षाणि संख्यवर्षाण्यसंख्यवर्षाणि च भवति । सप्तनोकषायक्षपणाद्धासत्कसंख्येयभागशेषतः प्रभृति संख्येयः स्थितिखण्डसहस्रर्धातितं सद् इदानीमपि ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तराय-मोहनीयानां स्थितिसत्त्वं संख्येयवर्षमात्रं नाम-गोत्र-वेदनीयानां चा-ऽसंख्येयवर्षप्रमितमवतिष्ठते इत्यर्थः । अभाणि च कषायप्राभृतचूर्णी- "ट्ठिदिसंतकम्मं पुण घादिकम्माणं चदुण्हं पि संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि, णामा-गोदवेदणीयाणमसंखेज्जाणि वस्साणि।” इति । ___ तदानीमेव पुरुषवेदस्य बन्धोदयौ व्यवच्छिद्यमानौ व्यवच्छिन्नौ भवतः । केचित्तूदीरणा सहैव बन्धोदयौ व्यवच्छियेते, न त्वावलिकायाः पूर्वमुदीरणा व्यवच्छिद्यते इत्याहुः । तथा चात्र सप्ततिकाचूर्णि:-"तओ खविज्जमाणा खविजमाणा अंतोमुहुत्तेणं तो नोकसायछकं पि छुब्भति, संजलणकोहम्मि' त्ति छन्नोकसाया कोहसंजलणाए संहा। तम्मि चेव समए पुरिसवेयस्स बंधोदयोदोरणवोच्छेओ।" इति । तथैवोक्त श्रीमदुपाध्यायपुङ्गवैः कर्मप्रकृतिटीकायाम्--"तत्समये एव च पुवेदस्य बन्धोदयोदीरणोच्छेदः ।" इति । एतच्च मतान्तरं संभवति, अन्यथा सप्ततिकाचूर्णा येवोदयविच्छेदतः प्रागुदीरणाविच्छेदो य उक्तः, अक्षराणि त्वेवम्-"तिण्हं वेयाण तेण तेण वेदेण सेडिं पउिवएणस्स अंतरकरणे कए पढमहितीए जाव आवलियासेस त्ति ताव उदओ य उदोरण य जुगवं । ततो आवलियामेत्तं कालं 'उदओ चेव, उदीरणा नत्थि ।” इति । स न घटेत । अत्र मतद्वयसंग्रहार्थे सप्ततिकाचूर्णिकारैरुभयथा प्ररूपितम् , यद्वा कारणान्तरेण, तदभिप्रायं तु वयं न विद्मः । अन्ये पुनराहुः-बन्धोदयो युगपन्न व्यवच्छियेते, किन्तु प्राग बन्धो व्यवच्छिद्यते, तत उदयः । कथमेतदवसीयते ? इति चेद्, उच्यते-केचित् संज्वलनक्रोधादिचतुष्प्रकृत्यात्मकबन्धस्थानकाले पुरुषवेदसंज्वलनक्रोवत्रिकरूपचतुष्प्रकृत्यात्मकसंक्रमस्थानसद्भावे वेदोदयं मन्यन्ते, तेन तेषां मतेन चतुर्विधवन्धकस्य जन्तोर्वेद-कषायलक्षणद्विकोदये द्वादशभङ्गाः संभवन्ति । तथा चात्र पञ्चसंग्रहमूलटीका-"चतुर्विधबन्धकस्याप्याद्यविभागे त्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्योदयं केचिदिच्छन्ति, अतश्चतुर्विधबन्धकस्या ऽपि द्वादश द्विकोदयात् जानीहोति ।” इति । तथैव सप्ततिकाचूर्णिः-"एत्थ अण्णे अण्णारिसं पढंति । तच्चेदम्पंचाओ चउक्कं संकममाणस्स हाँति ते चेव । वेएहिं परिहोणा चउरो चरिमेसु Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोकषायक्षपणायन्त्रम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [६१ कसिणेसु।" इति । तथैव सप्ततिकावृत्तावपि न्यगादि--' इह केचिच्चतुर्विधबन्धसंक्रमणकाले त्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्योदयमिच्छन्ति, ततस्तन्मतेन चतु. विधबन्धकस्याऽपि प्रथमकाले द्वादश द्विकोदये भगा लभ्यन्ते ।" इति । इत्थमिदं स्फुटीभवति, यत् पुरुषवेदस्योदये-ऽपि तद्बन्धो नास्ति, वेदकषायलक्षणद्विकोदयेऽपि क्रोधमानमायालोमात्मकचतुष्प्रकृत्यात्मकबन्धस्थानस्योपलम्भात् । नपुसकवेदक्षयप्रभृतयो यन्त्रके प्रदर्श्यन्ते । (१) (i) अन्तरकरणनिष्पादनतः संख्ये यसहस्रस्थितिन्धेषु गतेषु नपुसकवेदः सर्वथा क्षीणो भवति । गा०-५१ ___(ii) तदानीं गुणितकर्मा शस्य शीघ्रक्षपकस्य जीवस्य नपुसकवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो भवति । (२) ततः स्त्रीवेदं क्षपयितुमारभते । गाथा-५१ (३) स्थितिखण्डपृथक्त्वेन स्त्रीवेदक्षपणायाः संख्येयतमे भागे गते त्रिघातिकर्मणां संख्येयवार्षिक: स्थि तिबन्धो भवति । इत ऊर्ध्व घातित्रयस्य स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनः । गाथा-५२ (४) (i) ततः स्थितिखण्डपृथक्त्वेन शेषेषु स्त्रीवेदक्षपणाद्धायाः संख्येयबहुभागेषुगतेषुस्त्रीवेदःसर्वात्मनाक्षीणः। (ii) तदानीं गुणितकर्मा शस्य जीवस्य स्त्रीवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । गाथा-५२ (५) तदनन्तरसमये सप्तनोकषायाणां क्षपणारम्भः। गाथा-५३-५४-५५ (i) तदानी स्थितिबन्धाल्पबहुत्वम् । (ii) तदानीं स्थितिसत्त्वाल्पबहुत्वम् (१) मोहनीय स्थितिबन्धः स्तोकः । (१) मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं स्तोकम् (२) ततो घातित्रयस्य स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । (२) ततो घातित्रयस्य स्थितिसत्त्वमसंख्येयगुणम् (३) ततो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः (३) ततो नामगोत्रयोः , (५) ततो वेदनीयस्य स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। (४) ततोऽपि वेदनीयस्य स्थितिसत्त्वं विशेषा धिकम् । (६) ततः स्थितिखण्डपृथक्त्वेन सप्तनोकषायक्षपणाद्धायाः संख्ये यतमे भागे गतेऽघातिनां कर्मणां संख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धो जायते । गाथा-५५ ततः स्थितिखण्डपृथक्त्वेन सप्तनोकषायक्षपणाद्धाया. संख्येयेषु बहुभागेषु गतेषु ज्ञानावरणदर्शना वरणाऽन्तरायाणां संख्येयवर्षप्रमितं स्थितिसत्त्वं जायते । गाथा-५६ () पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितावावलिकाद्वयशेषायामागालप्रत्यागालौ व्यवच्छिन्नौ। (E) (i) पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ समयाधिकाबलिकाशेषायां पुरुषवेदस्य जघन्या स्थित्युदीरणा जघन्यानु भागोदीरणा च भवति । (ii) तदानीमेव गुणितकर्मा शस्य जीवस्योत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा भवति । (१०) (i) तत श्रावलिकायां गतायां पुरुषवेदस्य चरमोदयः । (ii) तदानीं हास्यषटकं निश्शेष क्षीणं समयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलं च वर्जयित्वा शेषः पुरुषवेदः क्षीणः । __ अपूर्णम् * उक्तञ्च गोमटसारटीकायामपि-"पुरुषवेदोदयेन श्रेण्यारूढे पुवेदस्य बन्धव्युच्छित्तिः उदयव्युच्छित्तिश्च द्वे युगपदेव । अथवा चक्षब्दाद् बन्धव्युच्छितिः उदयद्विचरमसमये स्यात् ।” इति । | Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] गढी (iii) पुरुषवेदस्य बन्धोदयौ व्यवच्छिद्यमानौ व्यवच्छिन्नौ । . (iv) केचित् बन्धोदयाभ्यां सहैवौदीरणा व्यवच्छिन्ना भवतीति मन्यन्ते । (v) के चिदाहुः - पुरुषवेदस्य बन्धः प्राग् व्यवच्छिद्यते, तत उदयः । (vi) पुरुषवेदस्य जघन्य स्थित्युदयो जघन्यानुभागोदयो गुणितकर्माशस्य चोत्कृष्ट प्रदेशोदयो भवति । (vii) स्थितिबन्धः पुरुषवेदस्याष्टवर्ष प्रमाणः । चतुष्कस्य षोडशवार्षिकः । [ गाथा-५८ (viii) 25 99 (ix) शेषाणां षणां कर्मणां स्थितिबन्धः संख्यातवार्षिकः । (x) घातिकर्मणां स्थितिसत्त्वं संख्येयानि वर्षाणि (xi) अघातिनां चाऽसंख्येयानि वर्षाणि । (११) ततोऽश्वकर्णकरणाद्वाप्रारम्भः, पुरुषवेदस्य बद्धनूतनदलं यथागमं प्रतिसमयं संक्रमयति । पुरुपवेदस्य चरमोदयस्थितिमनुभूयाऽश्वकर्णकरणाद्वायां प्रविशति । तत्राऽश्वकर्णकरणाद्वायाः प्रथमसमयात् पुरुषवेदस्य समयोना - ऽऽवलिकाद्वयेन बद्धनूतनदलं संज्वलनक्रोधे संक्रमयन् तावता कालेन सर्वथा क्षपयति । तत्र पुरुषवेदक्षपणाचरमसमये पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिसत्कर्म जघन्याऽ-नुमागसत्कर्म जघन्ययोगिना बद्धपुरुषवेददलिकस्य जघन्य प्रदेश सत्त्वं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- 'पुरिसवेदस्स जहण्णडिदिविहत्ती कस्स ? पुरिसवेदखवयस्स चरमस मयअणिल्लेविदपुरिस वेदस्स । XXXX पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स? पुरिसवेदेण उवदिस्स चरिमसमयअसंकामयस्स । XXX X पुरितवेदस्प जहण्णयं पदेस संतकम्मं कस्स ? चरिमसमयपुरिसवेदोदयक्खवगेण घोलमाणजहण्णजोगडा वहमाणे जं कम्मं बद्धं तं कम्ममावलिय समयअवेदो संक्रामेदि । जत्तो पाए कामेदि, तत्तो पाए सो समयपबडो आवलियाए अक्रम्मं होदि । तदो एगसमयमोक्किदूण जहण्णयं पदेससंतठाणं |" इति । तदानीं च स्वबन्धचरमसमयेन बद्धं पुरुषवेदं निःशेषतः सर्वसंक्रमेण संक्रमयतो जन्तोः पुरुषवेदस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमो ऽनुभागसंक्रमश्च भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी -' कोहसंजणस्स जहणडिदिसंकमो कस्स ? खवयस्स को संजलणस्स अपमिहिदिबंधचरिमसमयसंहमाणयस्स तस्स जहण्णयं, एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं । x x x x कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? चरिमाणुभागवंध चरिमसमयअणिल्लेवगो, एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं ।" इति तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि - "ततो पुरिसवेदं खवेति, तस्स समयूणदुआवलियबंधो सव्वजन्नगो ठितिसंकमो लग्भति । अंतरकरणे कए उवरि जासि घातिकम्माणं जहिं जहण्णगो द्वितिसंकमो भणितो, तासिं अप्पप्पणो द्वाणे तहिं जहण्णाणुभागसंकमो ।” तदानीमेव कर्मप्रकृतिचूर्णौ जघन्य प्रदेश संक्रमोऽप्युक्तः । तथा च तद्ग्रन्थः- “पुरिसको हमाणमाया संजलणाणं 'घोलमाणेणं' ति जहण्णगजोगिणा ' चरिमबद्धस्स' Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ] li {ffecule /// यन्त्रकम् - १० (चित्रम् - १० ) अश्वकर्णकरणाद्धायाश्चित्रम् [ ९४ संक्षेपतो विवरणम् - अस्मिंश्चित्रेऽश्वस्य कर्णो दर्शितः, स च मध्यभागे बाहल्यतः प्रभूतः, ततो हीनो हीनतरः, एवमेवाऽश्वकरणाद्धायां प्रथमे ऽनुभागखण्डे विनाशिते संज्वलनक्रोधादीनां क्रमशः सत्तागतो ऽनुभागो हीनो हीनतरः भवति । इहा- ऽश्वकर्णोऽनन्तगुणक्रमेण हीनो हीनतरो न सम्भवति, किन्तु विशेषहीनः संख्यातगुणहीनो वा सम्भवति, तेन सादृश्यं केवल ही नत्वहीनतरत्वाद्यापेक्षया बोध्यम्, न त्वनन्तगुणहीनत्वाद्यपेक्षया । “लोभवेदनकालस्याद्यत्रिभागोऽश्वकर्णकररणाद्धा, यथा ह्यश्वकरणातले बहुस्थूलः क्रमेणाऽपकर्षतो यावदन्तं तावतरूपस्तथा वस्थितस्योपशम कस्योपरितनस्थितेः पूर्वत्पद्धकानामवतया विधानेन तदाकृतिभावादनुभागोऽश्वकर्ण इवाश्वकर्णस्तस्य करणाद्धेति ।" इति श्रीमुनिचन्द्रसूरिपाद. श्रीशतकचूरिपटिप्पने ऽश्वकर्णकरणाद्वार्थो व्याख्यातः सोऽपि नाऽत्र विरुध्यते क्षपकैण्यपूर्वकानां निर्वृत्तेः । लेभिः माया मान : क्रोधः Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] यन्त्रम् - ११ (चित्रम् - ११) आदोलकरणाद्वायाश्चित्रम् ०-७० ओष क्रोधः मानः माया लोभः संक्षेपतो विवरणम् अस्मिंश्चित्रे आदोलो दर्शितः, तत्र वृक्षशाखाया रज्ज्याचान्तरालगत आकारस्त्रिकोणीभूय क्रमेण हीनो etad भवति, एवमेवास्यामद्धायां प्रथमाऽनुभागखण्डे घातिते संज्वलनक्रोधादीनामनुभाग सत्कर्माऽनन्तगुणक्रमेण हीनं हीनतरं भवति, इह चित्रे त्रिकोणाकारो विशेषहीनक्रमेण सम्भवति, न त्वनन्तगुणहीनक्रमेण, तेन सादृश्यं केवलहीनत्वाद्यपेक्षया बोध्यम् । [ खवगढी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायनामानि ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [६३ खवणाए अन्भुट्टियस्स अप्पप्पणो चरिमसमयबद्धस 'सगअंतिमेत्ति अप्पप्पणो चरिमसमए छोभे सव्वसंकमणं जहणतो पदेससंकमो होति त्ति । कहं ? भण्णइएतेसिं चतुण्हं बंधवोच्छेयकाले दुआवलियबद्धलतं मोत्तण अण्णं णत्थि पदेसग्गं, तं च समए समए खीयमाणं अंतिमे समए अंतिमसमयबद्धस्स असंखेज्जतिभागो सेसो भवति, तेण चरिमसमए जहण्णतो पदेससंकमो होइ ।” इति । कषायप्राभृतचूर्णिकारैस्तु चरमसमयबद्धप्रदेशाग्रं संक्रमयत उपशमकस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमो ऽभिहितः । तथा च तद्ग्रन्थः- “कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? उवसामयस्स चरिमसमयबडो जाधे उवसामिज्जमाणों उवसंतो, ताधे तस्स कोहसंजलणस जहण्णओ पदे ससंकमो, एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं । इति ॥ ५८ ॥ तदेवमभिहितस्तृतीया-ऽधिकारः । सम्प्रति "हयकण्ण" इत्यनेनोद्दिष्टस्य चतुर्था-ऽधिकारस्या-ऽवसरः । यद्यपि चतुर्थाधिकारः पञ्चमा ऽधिकारो बादरकिट्टिपर्यसानः षष्ठाऽधिका श्चेत्येते.ऽनिवृत्तिकरणे एव भवन्ति, वादरकिट्टिवेदनचरमसमयं यावदनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानस्योपलम्भात् , तथापि क्रियाविशेषप्रतिपादनार्थमनिवृत्तिकरणतः पृथगधिकारत्वेन हयकर्णकरणाद्धादयो निर्दिष्टाः । अनिवृत्तिकरणं तु बादरकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये व्यवच्छेत्स्यति । पुरुषवेदोदयेऽपगते क्रोधवेदनाद्धायास्त्रयो भागाः कर्तव्याः। तत्र प्रथमभागे हयकर्णकरणाद्धा, द्वितीयभागे किट्टिकरणाद्धा, तृतीयभागे च क्रोधकिट्टिवेदनाद्धा । अथ चतुर्थाऽधिकारं हयकर्णकरणाद्वालक्षणं विभणिपुरादौ तावद् हयकर्ण करणाद्धायाः पर्यायनामानि प्राह हयकरणादोलोव्वट्टणउव्वट्टणकरणश्रद्धा। हयकण्णकरणकालस्स तिनि णामाणि णेयाणि ॥५६॥ (उपगीतिः) हयकर्णा-ऽऽदोला-ऽपवर्तनोद्वर्तनकरणा-ऽद्धा । हयकर्णकरणकालस्य त्रीणि नामानि ज्ञेयानि ।।५६ ।। इति पदसंस्कारः। 'हयकण्ण' इत्यादि, 'हयकर्णा-ऽऽदोलापवर्तनोद्वर्तनाकरणाद्धा' करणाद्धाशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । ततश्चा-ऽयमर्थः-हयकर्णकरणाद्धा आदोलकरणाद्धा अपवर्तनोद्वर्तनकरणाद्धा च 'हयकर्णकरणकालस्य' अश्वकर्णकरणाद्धायाः 'त्रीणि' त्रिसंख्याकानि नामानि' पर्यायना. मानि 'ज्ञेयानि' सार्थकानि ज्ञातव्यानि । उक्तं च कषायप्राभृतौँ -"अस्सकण्णकरण त्ति वा आदोलकरणे त्ति ओवट्टणउव्वट्टणकरणे ति तिणि णामाणि अस्सकपण. करणस्स ।" इति । एतदुक्तं भवति-हयति हिनोनि वा हयः ॥ अच्" (सिद्धहेप० ५-१-४६) इत्यनेन सूत्रेण हिधातो कर्तरि अच्प्रत्ययः, अश्व इत्यर्थः । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गढी "घोटकस्तुरगस्तार्क्ष्यस्तुरङ्गोऽश्वस्तुरङ्गमः । तस्य कर्णः कण्यतेऽनेनेति कर्णः, "भावाकर्त्रीः " गन्धर्वोsa सप्तवति वाहो वाजी यो हरिः ॥ १ ॥ इति वचनात् । ( सिद्धहेम ० ५ -३ - १८ ) इत्यनेन प्रत्यय, यद्वा किरत्यनेन " इणुवी० " ( उणादि ० १८२ ) इत्यनेन णप्रत्ययः । श्रोत्रम - त्यर्थः, "कर्णः श्रोत्रं श्रवणं च" इति वचनात् हयकर्णवत् करणं प्रथमे ऽनुभागखण्डे - ऽपगते संज्वलन को धप्रभृतिसंज्वलन लोभपर्यवसानानां कषायाणां यथाक्रममनन्तगुणहीनाऽनुभागव्यवस्थापनम् हयकर्णकरणम्, तस्य अद्धा कालः, हयकर्णकरणाद्धा अश्वकर्णकरणाद्धेत्यर्थः, यथा ऽश्वकणों मध्यात् प्रभृत्या ssi हीनो हीनतरो भवति, तथैवा ऽस्यामद्वायामपि प्रथमे ऽनुभागे खण्डे विनष्टे संज्वलन क्रोधादीनां सत्तागतो ऽनुभागः क्रमशो ऽनन्तगुणहीनत्वेन व्यवस्थाप्यते । सम्प्रत्यादोलकरणाद्धा व्युत्पाद्यते - आदोल्यते ऽस्मिन्निति आदोल: "भावकर्त्रा : " (सिद्धहेम ० ५-३-१८) इति श्रधिकरणे घञ्प्रत्ययः, प्रेङ्खोलनमित्यर्थः । आदोल इव करणं संज्वलनक्रोधादीनां यथाक्रममनन्तगुणहीनाऽनुभागव्यवस्थापनम् आदोलकरणम्, तस्याऽद्धा आदोलकरणाद्धा । यथा आदोले वृक्षशाखाया रज्ज्वो वाऽन्तरालगत आकारस्त्रिकोणीभूय क्रमेण हीयमानो दृश्यते, तथैवाऽस्यामद्धायामपि संज्वलनक्रोधादीनामनुभाग सत्कर्मा - ऽनन्तगुणहीनक्रमेण दृश्यते । अथ अपवर्तनोद्वर्तन करणद्धा व्युत्पाद्यते - अपवर्तनं नाम हानि:, उद्वर्तनं नाम वृद्धिः । अस्यामद्धायां प्रथमे ऽनुभागखण्डे जिते सति क्षपकः संज्वलनक्रोधादीनामनुभागसत्कर्म क्रमशो ऽनन्तगुणहीनं करोति, संज्वलन लोभादीनामनुभागसत्त्वं पुनर्यथाक्रममनन्तगुणवृद्धत्वेन व्यवस्थापयतीत्यपवर्तनोद्वर्तनकरणाद्धा व्यपदिश्यते । यद्वा-ऽस्यामद्धायां प्रथमा-ऽनुभागखण्डे - ऽनुभागस्पर्धकानि संज्वलन लोभादीनां विशेषहीनक्रमेण दृश्यन्ते, संज्वलनक्रोधादीनां पुनर्विशेषाधिकक्रमेण दृश्यन्ते इत्यपवर्तनोद्वर्तन करणाद्धा व्यपदिश्यते । पश्यन्तु पाठका यन्त्राणि १०-११ इति ।। ५९ ।। सम्प्रत्यश्वकर्णकरणाद्धायाः प्रथमसमये स्थितिसत्त्वं स्थितिबन्धं च विभणिपुराह - ठिइसंतं संख सहस्सवासमेतं तयाणि मोहस्स । अंतोमुहुत्तऊणो सोलसवासपमित्र बंधो ॥ ६० ॥ स्थितिसत्त्वं संख्यसहस्रवर्षमात्र तदानीं मोहस्य | अन्तर्मुहूर्तोनः षोडशवर्षप्रमितो बन्धः ||३०|| इति पदसंस्कारः । , 'ठिइसतं' इत्यादि, तत्र 'तदानीं ' प्रत्यासत्तेरश्वकर्णकरणाद्वायाः प्रथमसमये 'मोहस्य' मोहनीयकर्मणः संज्वलन चतुष्कस्येति यावत् स्थितिसत्त्वं संख्यसहस्रवर्षमात्रं भवति, पूर्वमपि स्त्रीवेदक्षपणाद्धाचरमसमये मोहनीय कर्मणः स्थितिसत्रं संख्येयसहस्रवर्षप्रमितमासीत्, स्थितिखण्डसहस्रैर्घातितं सत् सम्प्रत्यपि संख्येयसहस्रवर्षप्रमाणं भवति, किन्तु पूर्वतः संख्येयगुणहीनं भवतीत्यर्थः न च स्त्रीवेदक्षपणाद्धाचरमसमये पुरुषवेदक्षपणाद्धाचरमसमये च मोहनीयसत्कर्म संख्येय ६४ ] गाथा - ६० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसबन्ध सत्पयोरल्पबहुत्वम ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ ६५ वार्षिक्रमभिहितम् | निरुकस्थानतः प्रभृति संख्येयगुणहानिदर्शनाद् इदानीं संख्येयसहस्रवर्षप्रमितं मोहनीय स्थितिसत्रं कुतो भव्यते ? इति वाच्यम्, तदानीमपि संख्येय सहस्त्रवर्णप्रमाणसत्कर्मण इष्टत्वेऽपि संरूपातराशेने कविन्वात् संख्यात सहस्राणामपि संख्यातराशौ समावेशात् । एवमन्यत्राऽपि बोद्धव्यम् । स्थिति एडसहसैर्वातितं सत् पूर्ववच्छेतिकर्मणामपि स्थितिलयं संख्येप - सहस्रवर्षप्रमाणं नामगोत्रवेदनीयानां चाऽघातिकर्मणामसंख्येवर्षप्रमितं ज्ञातव्यम् । 1 घण्टालाला न्यायेन " तयाणि मोहस्स" इति पदद्वयमुत्तत्राऽपि सम्बन्धनीयम् । 'अंतो' इत्यादि, तदानीं 'मोहस्य' सज्वलनचतुष्कस्य 'बन्धः' स्थितिबन्धो 'अन्तर्मुहूर्तोनः' अन्तमुहूर्त न्यूनः षोडशवर्षप्रमितो भवति । एतदुक्तं भवति - पुरुषवेदोदयचरमसमये संज्वलन चतुष्कस्य पोडशवर्गमाणः स्थितिबन्ध आसीत्, सम्प्रत्यन्तमुहूर्त न्यून षोडशवर्णप्रमाणं स्थितिबन्धमारभते, अतः प्रभृति हि संज्वलनस्थितिबन्धस्याऽन्तमुहूर्तप्रमाणा हानिर्भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूण--"डिदिबंधो सोलसवस्साणि अंतोमुहूत्तूणाणि ।" इति । शेषकर्मणां तु पूर्ववत् स्थितिबन्धः संख्येयवर्णप्रमाणो ज्ञातव्यः, पूर्व पूर्वतश्च संख्येवगुणेन हीनो हीनतरो भवति ॥ ६०॥ ककरण प्रथमसमयेऽनुभाग सत्कर्मविषयकमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह - रससंतं मास्समह विसेसाहि कमेण खलु । होज्जा कोहम | या लोहाणं तव्व बंधो वि ॥ ६१॥ रससत्त्वं मानस्याल्पमथ विशेषाधिकक्रमेण खलु । भवति क्रोधमाया लोभानां तद्वद् बन्धो ऽपि ॥ ६१॥ इति पदसंस्कारः | 'रससंतं' इत्यादि, 'रससत्त्वम्' अश्वकर्णकरणाद्धायाः प्रथमसमये ऽनुभागसत्कर्म मानस्य 'अल्पम्' स्तोकम्, उपरि भण्यमान क्रोधादीनामनुभागसत्कर्मणः प्रभूतत्वात् । 'अह' त्ति 'अर्थ' अथशब्द आनन्तर्यार्थः, मानस्याऽनुभागसत्त्वं स्तोकमभिहितं तदनन्तरमित्यर्थः, विशेषाधिकक्रमेण भवति क्रोधमायालोभानां रससत्त्वमिति गम्यते । एतदुक्तं भवति - अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये संज्वलनमानस्यानुभागसच्चं सर्वाल्यम्, ततः संज्वलन क्रोधस्या - ऽनुभागसत्कर्म विशेषाधिकम्, आधिक्यं चा-ऽनन्तै रसस्पर्धकैर्द्रष्टव्यम् । ततोऽपि मायाया विशेषाधिकम्, ततो लोभस्य विशेषाधिकम् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो – “अणुभागसंतकम्मं सह आगाइदेण माणे थोवं, कोहे विसेसाहियं, मायाए विसेसाहियं, लोहे विसेसाहियं ।" इति । अत्र 'अणुभागसंतकम्मं सह आगाइदेण" इतिपदत्रयेणा - ऽश्वकर्णकरणाद्धायां प्रविशता जन्तुना यदनुभागखण्डं घात्यते, तेन सह तात्कालिका- अनुभागसत्कर्म बोध्यम् । * तथा चाहुर्जयधवलाकारा अपि - " एत्थ सह आगाइदेण त्ति वृत्ते अस्सकण्णकरणमाढवण जमणुभागखंडयमा गाइदं तेण सह तक्कालभावियस्स अणुभागसंतकम्मस्स एदमप्पाबहुअं कीरदि ति भणिदं होदि । एत्थ विसेसाहियपमाणमणंताणि फद्दयाणि ।" इति । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी [ गाथा-६२ अथा-ऽश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयेऽनुभागवन्यस्याऽल्पबहुत्वमतिदिदिक्षुराह-'तव' इत्यादि, 'तद्वत्' अनुभागसत्कर्मवत् 'बन्धोऽपि' अनुभागबन्धो-ऽपि भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी--बंधो वि एवमेव ।" इति । इदमुक्तं भवति--अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये मानस्याऽनुभागवन्धः स्तोकः, ततः क्रोधस्य विशेषाधिकः, ततो मायाया विशेषाधिकः, ततो-ऽपि लोभस्य विशेषाधिकः ॥६१॥ अनुभागसत्त्वं रसबन्धं च प्ररूप्या ऽश्वकर्णकरणाद्धायाः प्रथमसमये प्रथमाऽनुभागखण्डेन संज्वलनचतुष्कस्य घात्यमानमनुभागं व्याजिहीर्ष राह रसखंडं कोहादीण कमेण विसेसअहिअमह । घाइअध्वसेसफड्डाई लोहादीणऽणंतगुणणाए ॥६२॥ (उद्गीतिः) रसखण्ड क्रोधादीनां क्रमेण विशेषाधिकमथ । घातिता ऽवशेषस्पर्धकानि लोभादीनामनन्तगुणनया ॥ २॥ इति पदसंस्कारः। - 'रसखंड' इत्यादि, अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये 'रसखंडम्' अनुभागखण्डं क्रोधादीनां क्रमेण विशेषाधिकं भवति । एतदुक्त भवति-अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथम-ऽनुभागखण्डे क्रोधस्या-ऽनुभागस्पर्धकानि स्तोकानि, ततो मानस्य विशेषाधिकानि, ततो मायाया विशेषाधिकानि, ततोऽपि लोभस्य विशेषाधिकानि विद्यन्ते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी--अणुभागखंडयं पुण जमागाइदं, तस्स अणुभागखंउयस्स फद्दयाणि कोधे थोवाणि, माणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि, मायाए फदयाणि विसेसाहियाणि, लोभे फद्दयाणि विसेसाहियाणि।" इति । इतः प्रागनुभागखण्डे घात्यमानस्पर्धकानामल्पबहुत्वमित्थमासीत्-मानस्य स्पर्धकानि स्तोकानि, ततः क्रोधस्य विशेषाधिकानि, ततो-ऽपि मायाया विशेषाधिकानि, ततोऽपि लोभस्य विशेषाधिकानि, अनुभागसत्त्वस्य तथात्वेनाऽनुभागखण्डस्य चाऽनुभागसत्कर्मानुरूपत्वेनाऽनुभागखण्डगताऽनुभागस्य तथाविधा-ऽल्पबहुत्वसंभवात् । न चा-ऽश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये-ऽपि मानक्रोधमायालोभानां यथाक्रममनुभागसत्त्वं विशेषाधिकं क्रमेण तिष्ठति, तर्हि रसखण्डा-ऽल्पबहुत्वस्य सत्त्वाऽल्पबहुत्वेन सह वैषम्यं कुतो दृश्यते ? इति वाच्यम् , अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमे-ऽनुभागखण्डे विनष्टे संज्वलनक्रोधादीनां यथाक्रममनुभागसत्कर्मणो-ऽनन्तगुणहीनत्वदर्शनात् । यदि च सवानरूपेणैवा-ऽश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमा-ऽनुभागखण्डे रसस्पर्धकानि भवेयुः, तर्हि तस्मिन्ननुभागखण्डे पूर्णे-ऽनुभागसत्त्वं क्रोधादीनामनुक्रममनन्तगुणहीनं न स्यात् । पद्वा-ऽपूर्वस्पर्धककिट्टिकरणादिभिर्विनाशयिष्यमाणं यस्या-ऽनुभागसत्कर्म मन्दं मन्दतरं कृत्वा पश्चाद् निःशेषतः क्षपयिष्यते, तस्या-ऽनुभागः प्रभूतः प्रभूततरो घात्यते इति । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातितावशेषरससत्त्वम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [६७ ___ 'अहं' इत्यादि, 'अथ' अथशब्दो-ऽत्र प्रकरणान्तरसूचकः, प्रथमा-ऽनुभागखण्ड़े स्पर्धकाऽल्पबहुत्वमुक्तम्, सम्प्रति घातिता-ऽवशेषा-ऽनुभागस्पर्धकानामल्पबहुत्वमभिधीयते इति सूचयति । घातिताऽवशेषस्पर्धकानि' अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमा-ऽनुभागखण्डेन यदनुभागसत्कर्म पात्यते, तेन रहितमनुभागसत्कर्म पूर्वस्पर्धक-वक्ष्यमाणाऽपूर्वस्पर्धकलक्षणानि धातिता-ऽवशेषस्पर्धकान्युच्यते, तानि 'लोभादीनां लोम-माया-मान-क्रोधानां क्रमेण 'अनन्तगुणनया' अनन्तगुणकारेणाऽवतिष्ठन्ते इति गम्यते, लोभस्य घातिता-ऽवशेषस्पर्धकानि स्तोकानि तिष्ठन्ति, ततो मायाया अनन्तगुणानि, ततो मानस्या-ऽनन्तगुणानि, ततो-ऽपि क्रोधस्या-ऽनन्तगुणानि तिष्ठन्तीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-'आगाइदसेसाणि पुण फद्दयाणि लोभे थोवाणि, मायाए अणंतगुणाणि, माणे अणंतगुणाणि, कोधे अणंतगुणाणि ।" इति । नन्वश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये ऽनुभागसत्त्वं मान-क्रोध-माया-लोभानां यथाक्रमं विशेषाधिकमासीत्, तथाऽश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमानुभागखण्डेन क्रोधादीनामनुक्रमं केवलं विशेषाधिकानि स्पर्धकानि घात्यन्ते, तर्हि घातिता-ऽवशेषा-ऽनुभागस्पर्धकानि लोभादीनां क्रमेणा-ऽनन्तगुणानि कथं सम्पधन्ते ? इति चेत्, उच्यते-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये मानस्यानुभागसत्कर्मतः क्रोधस्या-ऽनुभागसत्कर्म विशेषाधिकं भवति । मानस्थानुभागसत्त्वतः क्रोधस्य यावन्ति स्पर्धकान्यधिकानि, तावन्ति स्पधेकानि बुद्धया-ऽपनीय पृथक स्थापयितव्यानि । ततः क्रोधस्या-ऽनुभागखण्डेन समानं मानस्याऽनुभागखण्डं बुद्धया गृहीतव्यम् । ततश्चा-ऽधस्तनमनुभागसत्कर्म मानक्रोधयोमिथस्तुल्यं दृश्यते, बुद्धयोभयोरपि सदृशखण्डग्रहणात् । अथ मानस्या-ऽवशिष्टा-ऽनुभागसत्कर्मणो-ऽनन्तानि खण्डानि कृत्वैकं खण्डं तत्रैव विमुच्य शेषाणि बहूनि खण्डानि प्रागुक्तऽनुभागखण्डेन सह विघाताय गृह्णाति, इमानि च गृह्यमाणान्यनन्तानि खण्डानि मानस्य सकला-ऽनुभागसत्कर्मणो-ऽनन्ततमभागमात्राण्युपरितनपृथक्स्थापित-क्रोधाऽनुभागस्पर्धकतोऽनन्तगुणानि भवन्ति । उपरितनपृथक्स्थापित-क्रोधा-ऽनुभागस्पर्धकानि क्रोधस्या-ऽनुभागखण्डेन सह विधातयति । इत्थमश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमा-ऽनुभागखण्डे क्रोधस्य घात्यमानस्पर्धकतो मानस्य घात्यमानस्पर्धकानि विशेषाधिकानि भवन्ति । ततो घातितेषु तेषु स्पर्धकेषु घातिता-ऽवशेषस्पर्धकानि मानतः क्रोधस्याऽनन्तगुणानि तिष्ठन्ति । ___प्रदर्श्यते एतत्सर्वमसत्कल्पनया-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये क्रोधस्याऽनुभागसत्त्वं त्रयोदशाधिकपञ्चशतान्यनुभागस्पर्धकानि (५१३) कल्पयितव्यम् , मानस्य तु द्वादशाधिकपञ्चशती (५१२)। चतुःसंख्या चा-ऽनन्तराशित्वेन परिकल्पनीया । एवमुपरितनं क्रोधस्यैकं स्पर्धकं मानतो-ऽधिकं भवति, तत् पृथक्स्थापयितव्यम् । ततः क्रोधस्य चतुरशीत्यधिकशतत्रयस्पर्धकमात्रखण्डेन (३८४) सदृशं मानस्य चतुरशीत्यधिकत्रिशतस्पर्धकमात्रं खण्डं (३८४) गृह्णाति । अथ मानस्या-ऽवशिष्टाष्टाविंशत्युत्तरशतस्पर्धकानाम् (१२८) अनन्तानि खण्डानि कृत्वैकखण्डं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खत्रगढी [ गा०-६२ ६८ ] द्वात्रिंशत्स्पर्धकप्रमाणं (३२) तत्रैव विमुच्य शेषाणि परणवतिस्पर्धकानि (६६) चतुरशीत्यधिकत्रिशतस्पर्धकात्मकानुभाग खण्डेन ( ३८४ ) सह विघाताय गृह्णाति । इमानि च गृह्यमाणानि षण्णवतिस्पर्धकानि (६६) मानस्य सकला - ऽनुभागसत्कर्मणो द्वादशाधिकपञ्चशतस्पर्धकलक्षणस्याऽनन्ततममागमात्राण्युपरितन पृथक्स्थापितक्रोध का अनुभागस्पर्धकतो ऽनन्तगुणानि भवन्ति । उपरितनपृथकस्थापितको काऽनुभागस्पर्धकं चतुरशीत्यधिकत्रिशतस्पर्धकात्मकाऽनुभागखण्डेन सह घातयति । इत्थं प्रथमखण्डे क्रोधस्य घात्यमानपञ्चाशीत्युत्तरत्रिशतस्पर्धकतो ( ३८५) मानस्य घात्यमानान्यशीत्यधिकचतुः शतस्पर्धकानि (४८०) विशेषाधिकानि भवन्ति । तेन प्रथमा -ऽनुभागखण्डे वातिते घातिताऽवशेषस्पर्धकानि क्रोधस्याऽष्टाविंशत्युत्तरशतं ( २८ ) तिष्ठन्ति, मानस्य तु द्वात्रिंशत् (३२) । इत्थं मानस्य घातिताऽवशेषद्वात्रिंशत्स्पर्धकतः क्रोधस्या - ऽनन्तगुणानि घातिताऽवशेषस्पर्धकान्यष्टाविंशत्युत्तरशतं ( १२८) भवन्ति चतुः संख्याया अनन्तत्वेन परि कल्पनात् । एवं मानस्या ऽनुभागसत्कर्मतो मायाया अनुभागसत्कर्म विशेषाधिकं विद्यते । मानतो यावन्ति स्पर्धकान्यधिकानि तावन्ति बुद्धया पृथक् स्थापयितव्यानि । ततो मानस्याऽनुभागखण्डेन सदृशं मायाया अनुभागखण्डं बुद्धया गृहीतव्यम् । ततो ऽधस्तनमनुभागसत्कर्म मानमाययोः समानं दृश्यते, बुद्धयोभयोरपि सदृशखण्डग्रहणात् । अथ मायाया अवशिष्टा ऽनुभागसत्कर्मणो ऽनन्तानि खण्डानि कृत्वैकं खण्डं तत्रैव विमुच्य शेषाणि बहुभागमात्राण्यनन्तानि खण्डानि प्रागुता - sनुभागखण्डेन सह विघाताय गृह्णाति । इमानि च गृह्यमाणान्यनन्तानि खण्डानि मायायाः सकला ऽनुभाग सत्कर्मणोऽनन्ततमभागप्रमाणानि भवन्ति, उपरितनपृथक्स्थापित-मायाऽनुभाग स्पर्धतोऽनन्तगुणानि भवन्ति । तत उपरितन पृथक्स्थापित - मायास्पर्धकानि मायाया अनुभागखण्डेन सह घातयति । इत्थं मानस्य घात्यमानस्पर्धकतो मायाया घात्यमान स्पर्धकानि विशेषाधिकानि भवन्ति । ततः प्रथमे ऽनुभागखण्डे विनाशिते घातिताऽवशेषस्पर्धकानि मायातो मानस्याऽनन्तगुणानि भवन्ति । भाव्यते चेदमसत्कल्पनया - अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये मायाया अनुभागसत्कर्म चतुर्दशाधिकपञ्चशतान्यनुभागस्पर्धकानि ( ५१४) कल्पयितव्यम्, मानस्य तु पूर्ववद् द्वादशाधिकपञ्चशतानि (५१२) । अथोपरितने मायाया द्वे स्पर्धके मानतो ऽधिके स्तः, ते पृथक्स्थापयितव्ये | ततो मानस्या- ऽशीत्यधिकचतुश्शतस्पर्धकप्रमाणखण्डेन (४८०) सदृशं मायाया अशीत्युत्तर चतु:शतस्पर्धकप्रमाणं (४८०) खण्डं गृह्णाति । अथ मायाया अवशिष्टद्वात्रिंशत्स्पर्धकानाम् (३२) अनन्तानि खण्डानि कृत्यैकं खण्डमष्टस्पर्धकमात्रं (८) तत्रैव विमुच्य शेषाणि चतुर्विंशतिस्पर्धकान्यशीत्यधिकचतुःशतस्पर्धकात्मकानुभागखण्डेन सह विघाताय गृह्णाति । इमानि च गृह्यमाणानि चतुर्विंशतिस्पर्धकानि (२४) मायाया सकला - ऽनुभाग सत्कर्मणश्चतुर्दशाधिकपञ्चशत स्पर्धकरूपस्याभागमात्राणि भवन्ति, उपरितन पृथक्स्थापित-माया सत्कस्पर्धक यतश्था ऽनन्तगुणानि । तत Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [EE धातितावशेषरससत्त्वम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः उपरितनपृथक्स्थापित-माया ऽनुभागस्पर्धकद्वयं मायाया अनुभागखण्डेन सह घातयति । इत्थं प्रथमे ऽनुभागखण्डे मानस्य घात्यमाना-ऽशीत्यधिकचतुःशतस्पर्धकतो (४८०) मायाया घात्यमानषडुत्तरपञ्चरातस्पर्धकानि (२-४८० + २४=५०६) विशेषाधिकानि भवन्ति । ततः प्रथमेऽनुभागखण्ड विनाशिते मानस्य घातिता-ऽवशेषस्पर्धकानि द्वात्रिंशत् मायाया घातिता-ऽवशेषाष्टस्पर्धकतो-ऽनन्तगुणानि भवन्ति, चतुःसंख्याया अनन्तत्वेन ग्रहणात् ।। __ एवं मायालोभयोरपि वक्तव्यम् । तथाहि-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये मायाया अनुभागसत्कर्मतो लोमस्या-ऽनुभागसत्कर्म विशेषाधिकं भवति । यावद्भिः स्पर्धकैरधिकं भवति, तावन्ति स्पर्धकानि बुद्धया पृथक स्थापयितव्यानि । ततो मायाया अनभागखण्डेन सदृशं लोभस्या ऽनुभागखण्डं बुद्धया गृहीतव्यम् ततो-ऽधस्तनमनभागसत्कर्म मायालोमयोः सदृशं भवति, बुद्धयोभयोरपि सदृक्खण्डग्रहणात् । अथ लोभस्या-ऽवशिष्टानुभागसत्त्वस्या-ऽनन्तानि खण्डानि कृत्वक खण्डं तत्रैव विमुच्य शेष ण्यनन्तानि खण्डानि प्रागुक्ता-ऽनुभागखण्डेन सह विधाताय गृहणाति । इमानि च गृह्यमाणान्यनन्तानि खण्डानि लोभस्य सकला-ऽनुभागसत्कर्मणो-ऽनन्ततमभागप्रमाणानि भवन्ति, उपरितनपृथक्स्थापितलोभसत्का-ऽनभागस्पर्धकतश्चा-ऽनन्तगुणानि भवन्ति । तत उपरितनपृथक्स्थापितलोभस्पर्धकानि लोभस्या-ऽनुभागखण्डेन सह घातयति । इत्थं लोभस्य घात्यमानस्पर्धकानि मायाया घात्यमानस्पर्धकतो विशेषाधिकानि जायन्ते । ततः प्रथमे-ऽनभागखण्डे घातिते मायाया घातिता-ऽवशेषस्पर्धकानि लोभतो-ऽनन्तगुणानि भवन्ति । ___ भाव्यते चेदमसत्कल्पनया-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये लोभस्या-ऽनुभागसत्कर्म पञ्चदशाधिकपञ्चशतानि (५१५) अनुभागस्पर्धकानि कल्पयितव्यम्, मायायाश्च पूर्ववत् चतुर्दशाधिकपञ्चशतानि (५१४) अथोपरितनमेकं स्पर्धक लोभस्य मायातो-ऽधिकमस्ति, तत् पृथक्स्थापयितव्यम् । ततो मायाया षडुत्तरपञ्चशतस्पर्धकप्रमाणखण्डेन (५०६) सदृशं लोभस्य षडुत्तरपञ्चशतस्पर्धकप्रमाणं (५०६) खण्डं गृह्णाति । अथ लोमस्याऽवशिष्टाष्टस्पर्धकानामनन्तानि खण्डानि कृत्वकं खण्डं द्विस्पर्धकमितं (२) तत्रैव परित्यज्य शेषाणि षट् स्पर्धकानि (६) षडधिकपञ्चशतस्पर्धकात्मकखण्डेन (५०६) सह विधाताया-5ऽददाति । इमानि चादीयमानानि षटस्पर्धकानि (६) लोभस्य सकला-ऽनुभागसत्त्वस्य पञ्चदशाधिकपञ्चशतस्पर्धकलक्षणस्याऽनन्ततमभागमात्राणि भवन्ति, उपरितनपृथक्स्थापितलोभसत्कैकस्पर्धकतश्चा-ऽनन्तगुणानि भवन्ति । तत उपरितनपृथक्स्थापितलोभसत्कैका-ऽनुभागस्पर्धकं लोभस्या-ऽनुभागखण्डेन सह घातयति । इत्थमश्वकर्णकरणाद्धायाः प्रथमे-ऽनुभागखण्डे मायाया घात्यमानषडुत्तरपञ्चशतस्पर्धकतो (५०६) लोमस्य धात्यमानत्रयोदशाधिकपञ्चशतस्पर्धकानि (१+५०६+६=५१३) विशेषाधिकानि भवन्ति । ततः प्रथमे-ऽनुभागखण्डे-ऽपगते मायाया पातिता-ऽवशेषस्पर्धकान्यष्टसंख्याकानि (८) लोभस्य घातिताऽवशेषस्पर्धकद्वयतो-ऽनन्तगुणानि भवन्ति, चतुःसंख्याया अनन्तत्वेन परिकल्पनात् ॥ ६२ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अश्वकर्णकरणाद्धा-प्रथमसमयेऽनुभाग सत्कर्म क्रोधस्य ५१३ स्पर्धकानि मानस्य ५१२ स्पर्धकान घातितावशेषस्पर्धकानि ३२ घातिताशेषस्पर्धकानि १२= मायायाः ५१४ स्पर्धकान लोभस्य ५१५ स्पर्धकानि 00000 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 मानस्य प्रथमाऽनुभागखण्डे धात्यमानस्पर्धकानि ३८४ + ६६ = ४८० ००००० घातितावशेषस्पर्धकानि ८ स्पर्व. २४ ०००० घातितावशेष स्पर्ध स्पर्ध. ६६ 0 स्पध. क्रोधस्य प्रथमखण्डे वात्यमानस्पर्धकानि ३८४ +१=३=५ खण्डे ३८४ स्पर्धकान मायाया: प्रथमरसखण्डे धात्यमानस्पर्धकानि ४ + २४ + २ = ५०६ ०००००००० ०० ३८४ स्पर्धकान मानवत ४८० स्पर्धकानि 00000 मायावत् ५०६ स्पर्धकानि ०००००० 00 O लोभस्य प्रथमरसखण्डे वात्यमानस्पर्धकानि ५०६+६+१= ५१३ 0 स्प. स्पर्ध. २ ००० | स्पर्ध. ० ००० इमानि शून्यानि स्पर्धकानि सूचयन्ति । अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमखण्डे घात्यमानस्पर्धकानि अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये ऽनुभाग सत्कर्मणि स्पर्धकान घातिताऽवशेष स्पर्धकानि १०८ ܒ ३२ ४८० ५१२. मानस्य २ स्थापना ३८५ ५१३ क्रोधस्य ५०६ ५१४ मायाया ५१३ ५१५ लोभस्य १०० ] aaraढी गाथा-६२ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०१ यन्त्रकम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः अश्वकर्णकरणाडायाः प्रथमसमये स्थितिसत्त्वादोनामल्पबहुत्वादोनि (१) प्रथमसमये स्थितिसत्कर्म, गाथा-६० । (२) प्रथमसमये स्थितिबन्धः, गाथा- ६० (१) मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयसह- । (१) मोहस्य बन्धोऽन्तर्मुहूर्तन्यूनषोड- स्रवर्षाणि । शवर्षमात्रः । (२) ज्ञानावरणादीनामपि सत्त्वं संख्येयस- (२) शेषकर्मणां बन्धः संख्यातवार्षिकः । हस्रवर्षाणि। (३) नामगोत्रवेदनीयानामसंख्येयवर्षाणि। (३) प्रथमसमयेऽनुभागसत्कर्माऽल्पबहुत्वम् . गाथा-६१ अङ्कतः (१) प्रथमसमये मानस्या ऽनुभाग सत्कर्म स्तोकम् । (५१२) (२) तत. क्रोधस्यानुभागसत्कर्म विशेषाधिकम् । (३) ततो मायाया अनुभागसत्कर्म विशेषाधिकम्। (५१४) (४) ततो लोभस्या ऽनुभागसत्कर्म विशेषाधिकम् । (४) प्रथमसमयेऽनुभागबन्धाल्मबहुत्वम्, गाथा-६१ (१) प्रथमसमये मानस्याऽनुभागबन्धः स्तोकः । (२) ततः क्रोधस्या ऽनुभागबन्धो विशेषाधिकः । (३) ततो मायाया अनुभागबन्धो विशेषाधिकः । (४) ततो लोभस्याऽनुभागबन्धो विशेषाधिकः । (५१३) । स्तकानि घात्यन्त । (५) अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमरसखण्डवर्तिस्पर्धकानामल्पबहुत्वम् गाथा-६२ अङ्कतः (१) क्रोधस्यानुभागस्पर्धकानि (३८५) (२) ततोमानस्यानुभागस्पर्ध__कानिविशेषाधिकानिं घात्यन्ते। (४८०) (३) ततो मायाया अनुभागस्पर्ध कानि विशेषाधिकानि घात्यन्ते। (५.६) (४) ततो लोभस्यानभागस्पर्धकानि विशेषाधिकानि घात्यन्ते। (५१३) (६) घातितावशेषस्पर्धकानामल्पत्रहुत्वम्, गाथा-६२ - अङ्कतः (१) लोभस्य घातिताऽवशेष___ स्पर्धकानि स्तोकानि । (२) ततो मायाया घातिताऽवशेष_ स्पर्धकान्यनन्तगुणानि। (८) (३) ततो मानस्य घातिताऽवशेष स्पर्धकान्यनन्तगुणानि। (३२) (४) ततः क्रोधस्य घातिताऽवशेष स्पर्धकान्यनन्तगुणानि (१२८) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२] खवगसेढी [ गाथा-६३ अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयात् प्रभृति संज्वलनचतुष्कस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि कतु मारभते । तान्यपूर्वस्पर्धकानि कथं करोति ? इत्यत आह संजलणजहण्णगपुव्वफड्डगत्तो अणंतगुणहीणं । करए उक्कोसमपुव्वफड्डगं तं वयं न पुव्वं ति ॥६३॥ (गीतिः) संज्वलनजघन्यपूर्वस्पर्धकादनन्तगुणहीनम।। करीत्युत्कृष्टमपूर्वस्पधकं तत् कृतं न पूर्वमिति ।। ६३ ।। इति पदसंस्कारः । 'संजलण.' इत्यादि, अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये 'संज्वलनजघन्यपूर्वस्पर्धकात्' संज्वलनक्रोध-मान-माया-लोभसत्कस्वस्वजघन्यपूर्वस्पर्धकत उत्कृष्टमपूर्वस्पर्धकमनन्तगुणहीनं 'करोति' निवर्तयति । नन्वपूर्वस्पर्धकं कुत उच्यते ? इत्यत आह-तं' इत्यादि, 'तत् ' अपूर्वस्पर्धक 'पूर्वम् ' अश्वकर्णकरणाद्धातः प्राग् न कृतं-निष्पादितमिति हेतोरपूर्वस्पर्धकमुच्यते । तात्पर्यार्थः पुनरयम् - संसारा-ऽवस्थायामप्राप्तस्वरूपाणि हयकर्णकरणाद्वायामेव जघन्यपूर्वस्पर्धकतो-ऽनन्तगुणहीनरसतामापाद्य निर्वय॑मानानि स्पर्धकान्यपूर्वस्पर्धकान्युच्यन्ते, अश्वकर्णकरणाद्धायामेव लब्धस्वरूपत्वात् । तेषामपूर्वस्पध कानां यत् तीव्रानुभागकं सर्वोत्कृष्टस्पध कम्, तदपि जघन्यपूर्वस्पर्धकतो-ऽनन्तगुणहीनं भवति । - अपूर्वस्पर्धकस्वरूपपरिज्ञानस्य पूर्वस्पर्ध कस्वरूपपरिज्ञानपूर्वकत्वात् प्रथमतस्तावत् पूर्वस्पर्धकः - स्वरूपमुच्यते सत्तागते एकैकपरमाणौ जघन्यतोऽपि सर्वजीवा-ऽनन्तगुणा रसाऽविभागास्तिष्ठन्ति ।। रसा-ऽविभागो नाम केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेनाऽविभाज्यो रसस्या-ऽन्ततमोऽशः । सत्कर्मण्यनन्तकर्मपरमाणवो विद्यन्ते, तत्र येषु कर्मपरमाणुषु सर्वस्तोका रसाऽविभागा भवन्ति, तेषां समृहः प्रथमा वर्गणा, तस्यां च कर्मपरमाणवः प्रभूततमाः। तत एकेन रसाऽविभागेनाधिका ये परमाणवः, तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा, प्रथमवर्गणात एते परमाणवो विशेषहीना भवन्ति । तत एकेन रसाऽ-विभागेन वृद्धानां परमाणूनां समुदायस्ततीय वर्गणा । एवंक्रमेणा-ऽभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्ततमभागतुज्या वर्गणा वाच्याः । तावतीनां वर्गणानां समूहः स्पर्धकमुच्यते, एकोत्तररसाऽविमागवृद्धया परस्परं स्पर्धन्ते वर्गणा यत्र तत् स्पर्धकमिति व्युत्पत्तेः । एतच्च स्पर्धकं प्रथमं ज्ञातव्यम् । इत ऊध्वमेकेन रसाऽविभागेन वृद्धः कश्चिदपि परमाणुः सत्कर्मणि न प्राप्यते, नाऽपि द्वाभ्यां रसा-ऽविभागाभ्यां वृद्धः परमाणुः सत्कर्मणि तिष्ठति, नापि संख्येयैः, नाप्यसंख्येयैः, नाप्यनन्तः, किन्तु प्रथमस्पर्धकचरमवर्गणातः सर्वजीवा- नन्तगुणै रसाविभागैरधिकाः परमाणवः प्राप्यन्ते, तेषां समुदायो द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथम Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्पर्धक स्वरूपम् ] अश्वकरणाधिकारः [ १०३ वर्गणा । द्वितीयस्पर्धकं कुतो भण्यते ? इति चेत् उच्यते--प्रथम स्पर्धकच रमवर्गणात एकोत्तर र साऽविभा-गक्रमण वृद्धेरदर्शनात् द्वितीयस्पर्धकमुच्यते, एवमग्रेऽप्यन्तरस्य दर्शनादेकोत्तरक्रमेण च वृद्धेरदर्शनात् नवानि नवानि स्पर्धकानि ज्ञातव्यानि । ततो द्वितीयस्पर्धकेऽपि पूर्ववदेकोत्तरसाविभागवृद्धयाऽभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा वर्गणा वक्तव्याः, तासां समुदायो द्वितीयस्पर्धक्रम् । ततः पुनः सर्वजीवा ऽनन्तगुणरसाऽविभागैरन्तरमभिधाय सर्वजीवा ऽनन्तगुणैरभ्यधिकाः परमाणवः प्राप्यन्ते, तेषां समुदायस्तृतीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणा । तत एकोत्तररसाविभागवृद्धया परमाणूनां वर्गणा अभव्येभ्यो ऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा वक्तव्याः । ततः सर्वजीवानन्तगुणैरन्तरमभिधातव्यम् । एवंक्रमेण सत्कर्मणि सर्वाण्यभव्येभ्यो ऽनन्तगुणानि सिद्धानन्तभागप्रमितानि स्पर्धकानि भवन्ति । अथाऽनन्तरोपनिधा - उपनिधानम् - उपनिधा मार्गणमित्यर्थः, अनन्तरेणोपनिधा अनन्तरोपनिधा । सा चात्राऽनुभागं प्रदेशाग्रं चाश्रित्य द्विधा । तत्र आद्या-नुभागापेक्षयाऽनन्तरोपनिधा नामाऽनन्तरवर्गणातस्तदुत्तरवर्गणायां रसाऽविभागमार्गणम् । द्वितीया प्रदेशापेक्षयाऽनन्तरोपनिधा नामा-ऽनन्तरवर्गणातस्तदुत्तरवर्गणायां प्रदेशाप्रमार्गणम् । अनुभागोपेक्षयाऽनन्तरोपनिधाऽग्रे वच्यते । अथ प्रदेशापेक्षया - Sनन्तरोपनिधा विविच्यते । प्रदेशापेक्षया ऽनन्तरोपनिधा - प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां सर्वप्रभूतं प्रदेशायं भवति, ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं प्रदेशाग्र भवति, एवंक्रमेणोत्तरोत्तरवर्गणायां प्रदेशाय पूर्वपूर्ववर्गगातो विशेषहीनं विशेषहीनं वक्तव्यम् । परम्परोपनिधा-परम्परया उपनिधा-मार्गणम् =परम्परोपनिधा । सा ऽपि द्विधा, अनुभागप्रदेशभेदात् । स्पर्धकवर्गणानां रसाऽविभागानां परम्परया मार्गणमनुभागा-पेक्षया परम्परोपनिधा । स्पर्धकवर्गणायां प्रदेशानां परम्परया मार्गणं प्रदेशाश्रिता परम्परोपनिधा व्यपदिश्यते । अनुभागाsपेक्षा परम्परोपनिधाऽग्रे वच्यते । अथ प्रदेशापेक्षया परम्परोपनिधा भण्यते । प्रदेशापेक्षया परम्परोनिधाप्रथम स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणात उत्तरोत्तरवर्गगायां विशेषहीनक्रमेण विद्यमानाः प्रदेशाः कतिपयेष्वनन्तेषु स्पर्धकेषु गतेषु प्राप्यमाणस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणाSasu | ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्पर्धकेषु व्यतिक्रान्तेषु तत्रत्यस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायामर्धाः पुद्गला भवन्ति । एवमग्रे ऽपि वक्तव्यम् । तत्र प्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणातो विशेषहीनक्रमेण विद्यमाना यावत्यायामे गते प्रथम स्पर्धकप्रथमवर्गणातः प्रदेशा अर्धा भवन्ति, तावान् आयामो I Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] स्ववगसेढी [ गाथा - ६३: द्विगुणहानिरिति परिभाष्यते । तस्यां चा ऽभव्येभ्यो ऽनन्तगुणानि सिद्धानन्तभागप्रमाणानि स्पर्धकानि भवन्ति । एकैकस्मिन् स्पर्धके वर्गणास्त्वभव्येभ्यो ऽनन्तगुणाः सिद्धानन्तभागमात्राः प्रागुक्ता एव । तत्रैकद्विगुणहानौ स्पर्धकानि स्तोकानि भवन्ति तत एकस्मिन् स्पर्धक वर्गणा अनन्तगुणा विद्यन्ते । नानाद्विगुणहानयः- प्रथम स्पर्धकप्रथमवर्गणातो यावत्यायामे गते तत्रत्यस्पर्धक सत्क-प्रथमवर्गणायां प्रदेशा अर्धा भवन्ति, स आयामः प्रथमा द्विगुणहानिः, ततः पुनस्तावत्यायामे गते तत्रत्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रदेशा अर्धा भवन्ति, प्रथम स्पर्धकप्रथमवर्गणा - ऽपेक्षया तु चतुर्भागमात्रा भवन्ति, स आयामो द्वितीयद्विगुणहानिः । ततः पुनस्तावत्यायामे जिते तत्रत्यस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रदेशा अर्धा भवन्ति । प्रथमवर्गगा ऽपेक्षया त्वष्टभागमात्राः । स आयामस्तृतीया द्विगुणहानिः । एवं सत्तागतस्पर्धकेषु यावत्यो द्विगुणहानयो लभ्यन्ते, ता नाना-द्विगुणहानय उच्यन्ते, नानारूपा द्विगुणहानयो नानाद्विगुणहानय इति व्युत्पत्तेः । ताश्च प्रगणनातो - नन्ता भवन्ति । अत्रा - ऽल्पबहुत्वम् - (१) नानाद्विगुणहानयः स्तोकाः । (२) ततो ऽनन्तगुणा द्विगुणहानिः, एकद्विगुणहा निगतवर्गणास्थानान्यनन्तगुणानीत्यर्थः । तथा (१) एकद्विगुणहानी स्पर्धकानि स्तोकानि भवन्ति, (२) तत एकस्मिन् स्पर्धके वर्गणा अनन्तगुणाः, ततो ऽपि नानाद्विगुणहानयोsaगुणा भवन्ति । प्रत्येकं द्विगुणहान्यां स्पर्धकानां राशिस्तुल्या भवति । एवं वर्गणानामपि । चयः - प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातो द्वितीयवर्गणायां यावन्तः प्रदेशा हीयन्ते, तावतां परमाणूनां समूहश्चय उच्यते, एवं द्वितीयवर्गणातस्तृतीयवर्गणायां हीयमानानां प्रदेशानां समुदायो ऽपि यो निगद्यते । उत्तरोत्तरवर्गणायां हीयमान परमाणूनां समुदायश्चय उच्यते इति यावत् । एकस्यां द्विगुणहानौ चयः पूर्वपूर्ववर्गणात उत्तरोत्तरवर्गणायां समानस्तिष्ठति । प्रथमद्विगुणान्यां यश्चयो भवति, ततोऽश्वयो द्वितीयद्विगुणहानौ भवति । ततो ऽपि तृतीयद्विगुणहानौ अर्धो भवति । एवं पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरद्विगुणहान्यां चयोऽर्धोऽर्धो भवति, किं कारणम् ? इति चेत्, उच्यते - प्रथमद्विगुणहानिगत प्रथमवर्गातों द्वितीय द्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां प्रदेशा अर्धा भवन्ति, ततोsपि तृतीय द्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां प्रदेशा अर्धा भवन्ति, एवमग्रे ऽपि । तत्र विवक्षितद्विगुणहानिगत प्रथमवर्गणाप्रदेशा द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यन्ते, तदा लब्धि *उक्त च धवलाकारैरपि - " सव्वत्थोवा णाणापदे सगुणहाणिट्ठारांतर सलागाओ । एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतर मरणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिं अतगुणो सिद्धाणमरणंतभागमेत्तो ।" इति । भाज्याद्भाजको यावद्वारं विशुद्धयति, तद्वारसंख्या लब्धिसंज्ञिका भवति, भजनफलं लब्धिसंज्ञकं भवतीत्यर्थः । यथा २५६, ३२, अनयोः संख्ययोः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयलक्षणसंख्यातो द्वात्रिंशद्र पसंख्याऽष्टवारं विशुद्धयति । भाज्योऽत्र २५६, भाजकः ३२, लब्धिश्च । अत्र पट्पञ्चाशदधिकद्विशतसंख्या द्वात्रिंशत्संख्यया विभक्ता चेल्लब्धिरष्टसंख्या भवतीति व्यवह्रियते । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्पर्धक गणितविभाग: ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १०५ लब्धिस्तद्विगुणहानिसत्कचयो भवति । तेन प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथम वर्गणाप्रदेशा द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यन्ते, तदा लब्धिः प्रथमद्विगुणहानिचयो भवति । प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गातोर्घा द्वितीय द्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणाप्रदेशा द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यन्ते, तदा द्वितीयद्विगुणहानिचयः प्राप्यते, स च प्रथमद्विगुणहानिचयतोऽर्धो भवति, द्विगुणहानिद्वयलक्षणभाजकस्य समानत्वे सति भाज्यस्यार्धमात्रत्वात् । एवमुत्तरोत्तरद्विगुणहानौ चयोऽर्थोऽधः साधयितव्यः । प्रदर्श्यते चैतदसत्कल्पनया (१) कल्प्यन्तां प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गणायां षट्पञ्चाशदधिकद्विशती (२५६) प्रदेशाः । तेन द्वितीयद्विगुणहानिसत्कप्रथमवर्गणायां परमाण्वो ऽष्टाविंशत्यधिकशतं (१२८) तिष्ठन्ति । (२) द्विगुणहानिः षोडशवर्गणा मात्रा कल्प्यते । अथ प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणा सत्कप्रदेशाः षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशती (२५६) द्विगुणहानिद्वयरूपद्वात्रिंशता (३२) विभज्यते, तदा लब्धश्चयोऽष्टौ (८) प्रदेशा:, तेन प्रथमद्विगुणहान्यां चयोऽष्टप्रदेशमात्रो भवति । द्वितीयगुणहानिगतप्रथमवर्गणाप्रदेशा अष्टाविंशत्यधिकशतं (१२८) द्विगुणहानिद्वयलक्षणद्वात्रिंशता (३२) भज्यते, तदा लब्धश्चयश्चत्वारः (४) प्रदेशाः । तेन प्रथमद्विगुणदानितो द्वितीयस्यां द्विगुणहानौ चयोऽर्धो जायते । एवमन्यस्यामप्यनन्तरानन्तरद्विगुणहानौ चयो -sa-Sर्धो भवति । अथ गणितविभागः अथ सत्तागतपरमाणूनां वर्गणास्पर्धकादिरचना - ऽसत्कल्पनया प्ररूप्यते— कल्प्यतां (१) सत्तागतकर्मप्रदेशा अशीत्युत्तराष्टपञ्चाशच्छतानि (५८८० ) । (२) नानाद्विगुणहानयश्चतस्रः ( ४ ) । (३) द्विगुणहानिः षोडशवर्गणा मात्रा (१६) । (४) तत्रैकैकद्विगुणहानौ स्पर्धा कानि चत्वारि ( ४ ) | (५) एकैकस्मिन् स्पर्धके वर्गणाश्चतसः (४) । (६) किञ्चिन्न्यून सार्धं द्विगुणहानिः पुन पञ्चत्रिंशदुत्तरसप्तशतानि द्वात्रिंशद्भागाः (किञ्चिन्यून ७३५) कुतः १ इति चेत्, उच्यते - द्विगुणहानिः पोडशवर्गणाप्रमाणा, तेन सार्धं द्विगुणहानिश्चतुर्विंशतिवर्गणाप्रमिता सिध्यति, किन्तु प्रकृते सा किञ्चिन्न्युनाऽपेक्षिता, तेन द्वाविंशतिर्वर्गणा एकत्रिंशच्च द्वात्रिंशद्भागाः (२२२२ ) इति कल्प्यते । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] खवगसेढी . [गाथा-६३ यद्यप्येकद्विगुणहानिगतस्पर्धकत एकस्पर्धके वर्गणा अनन्तगुणाः, ततो नानाद्विगुणहानयो-ऽनन्तगुणा भवन्ति, किन्तु गणितप्रक्रियासौकर्याथै त्रीण्यपि पदानि चतुःसंख्यकानि कल्पितानि । अथ प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां कर्मप्रदेशा निरूप्यन्ते सत्तागतकर्मप्रदेशेषु किञ्चिन्यूनसाद्विगुणहान्या विभक्तेषु प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणासत्ककर्मप्रदेशा लभ्यन्ते । अतः प्रकृते पञ्चत्रिंशदुत्तरसप्तशतैत्रिंशद्भागैः सत्तागतकर्मप्रदेशेष्वशीत्युत्त राष्टपञ्चाशच्छतमितेषु विभाजितेषु प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणासत्काः प्रदेशाः पट्पञ्चाशदधिकद्विशती (२५६) लभ्यन्ते । न्यासः-प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गणाकर्मप्रदेशाः सत्तागतपरमाणव: किञ्चिन्यूनसार्धद्विगुणहानिः प्रकृतेऽङ्कतः , , = ५८८०४ ३२ , , = २५६ चयः-विवक्षितद्विगुणहानिसत्कप्रथमवर्गणागतपरमाणवो द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यन्ते, तदा तद्विगुणहानिसत्कश्चयो लभ्यते इति करणम् । प्रकृते द्विगुणहानिद्वयलक्षणद्वात्रिंशता (३२) पटपञ्चाशदधिकशतद्वये भाजिते चयो-ऽष्टपरमाणुमात्रः प्राप्यते । न्यास:तत्तद्विगुणहानिचयः = तत्तद्विगुणहानिप्रथमवर्गणाप्रदेशाः द्वे द्विगुणहानी प्रकृतेऽङ्कतः प्रथमद्विगुणहानिचयः = २५६ . २४१६ प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमवर्गणातः परमुत्तरोत्तरवर्गणायामष्टपरमाणुभिहीना हीनतराः प्रदेशा भवन्ति, चयस्या-ऽष्टपरमाणुमात्रत्वात् । तथाहि-प्रथमद्विगुणहानिसत्कप्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गनायां परमाणवः षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशती (२५६), द्वितीयवर्गणायामष्टचत्वारिंशदधिकद्विशती (२४८), तृतीयवर्गणायां चत्वारिंशदुत्तरद्विशती (२४०), चतुर्थवर्गणायां द्वात्रिंशदधिकद्विशतमिता (२३२) भवन्ति । ततः प्रथमद्विगुणहानिसत्कद्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां द्विशती चतुर्विंशतिश्च (२२४), द्वितीयवर्गणायां षोडशोत्तरद्विशती (२१६) । एवमेकैकचयेन हीना हीनतराः कर्मपरमाणवस्तावदभिधातव्याः, यावच्चतुर्थस्पर्धकस्य चतुर्थवर्गणा । तस्यां च पट्त्रिंशदधिकशतं (१३६) कर्मप्रदेशा भवन्ति । द्वितीयद्विगुणहानिसत्कप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशाः-प्रथमद्विगुणहानेश्चतुर्थर्धकचतुस्पर्थवर्गणासत्केभ्यः षटत्रिंशदधिकशतप्रदेशेभ्योऽष्टपरमाणुमात्रैकचयो विशोध्यते, तदा-ऽष्टा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढो ] ( अनुसन्धानं षडधिकशततमपृष्ठषष्ठपङ्क्तौ ) [ १०६ ननु प्रथम द्विगुणहानिप्रथम सर्वकप्रथमवर्गगाप्रदेश प्राप्त्यर्थं किञ्चिल्यून सार्धद्विगुणहान्या कुतो विभज्यन्ते सत्तागत सर्व प्रदेशाः ? इति चेत्, उच्यते इहादौ तावत् प्रथमद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदेश का द्विगुणहा निवर्गणामाज्यो वर्गणाः स्थाप्याः, असत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकद्विशतप्रदेशकाः(२५६) पोडश (१६) वर्गणाः । सत्तामाश्रित्य सर्ववणास्तुल्यप्रदेशका न भवन्ति, परन्तु प्रथमवर्गणापेक्षया द्वितीयवर्गणायामेकचयेन हीनाः प्रदेशा भवन्ति, तृतीयस्यां द्वाभ्यां चयाभ्यां हीनाः, चतुर्थ्यां त्रिभिश्चयैर्हीना भवन्ति, एवंक्रमेण प्रथमद्विगुणानेश्चरमसर्धक चरमवर्गणायां प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणापेक्षयैको न द्विगुणहानिवर्गणाराशिमात्रै चयैर्हीनाः प्रदेशा भवन्ति । ताँश्चयान् सङ्कलय्य तेपां प्रथमवर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदेशका वर्गणा निष्पादयितव्याः, निष्पाद्य च तासु प्राक्त्याच्याभ्यो द्विगुणहानिवर्गणात्रमा गाभ्यो वर्गणाभ्यो विशोधितासु शेपाः प्रथमवर्गणाप्रदेशतुल्य प्रदेशका वर्गणाः प्रथमद्विगुणहानिसर्वप्रदेशनिष्पन्नाः । इह चयानां सङ्कलनं वर्गणादिनिष्पादनादिकं चैवम्-"सैकपदध्नपदार्धमथै काद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या " इत्यनेन करणसूत्रेण सर्वचयाः सङ्कलयितव्याः पदं चेह द्विगुणहानिगाराशिः, असत्कल्पनचा १६ । अनेन करणसूत्रेणाऽसत्कल्पनामाश्रित्य सङ्कलिताश्चयाः (१५+१) ×१५=१२० । प्रथमद्विगुरणहानिसङ्कलितचयैः प्रथम द्विगुणहान्येकचयप्रदेशा गुण्यन्ते, तदा प्रथमद्विगुणहानि सर्वचयप्रदेशाः प्राप्यन्ते, असत्कल्पनया १२०x८=९६०, ते च प्रथम द्विगुणहानिप्रथम स्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशैर्विभज्यन्ते, तदैकवर्गणोनद्विगुणहानेचतुर्भा प्रमाणाः प्रथम द्विगुणहानिप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदेशका वर्गणा लभ्यन्ते, असत्कल्पनया ईV=VY,V = *=३ | ताश्च द्विगुणहानिवर्गणाप्रमाणाभ्यो वर्गणाभ्यो विशोधयितव्याः, विशोधने कृते प्रथमत्रर्गणाचतुर्भागाधिकद्विगुणहानित्रिचतुर्भागप्रमाणाः प्रथमद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशतुल्य प्रदेशका वर्गणाः, ताश्चाऽसत्कल्पनया १६-३३ = १२४, | प्रतिवर्गणं प्रदेशास्तु २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, ६४ । इत्थं यथोत्तरमेकैकचयहीन प्रदेशकत्वेनाऽवतिष्ठमानाः प्रथमद्विगुणहानि सर्ववर्गणाः स्वप्रथमवर्गणाप्रदेश तुल्यप्रदेशकाः क्रियन्ते, तदा स्त्रप्रथमवर्गणा प्रदेशतुल्यप्रदेशका वर्गणाः स्वप्रथमवर्गणाचतुर्भागाधिकद्विगुणहानित्रिचतुर्भागप्रमाणा भवन्ति, असत्कल्पनया १२ । एवं शेषद्विगुणहानीनामपि वर्गणाः स्वस्त्रप्रथम स्पर्धक प्रथमवर्गणाप्रदेशतुल्य प्रदेशकाः क्रियन्ते, तदा स्वस्व प्रथम वर्गणाप्रदेशतुल्य प्रदेशका वर्गणाः स्वस्वप्रयमवर्गणाचतुर्भागाधिकद्विगुणहानित्रिचतुर्भागप्रमाणा लभ्यन्ते, असत्कल्पनया १२ । यदि पुनस्ताः प्रथमद्विगुणहानिप्रथम स्पर्धकप्रथम वर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदेशकाः क्रियन्ते तदा पूर्वपूर्वद्वगुणहानिर्वाणाasa अर्धा भवन्ति, असत्कल्पनया ६३ २१ १३, उत्तरोत्तरद्विगुणहानिप्रथम वर्गणाप्रदेशानां द्विगुणहीनत्वात् । अथ प्रथमद्विगुणहानित्रर्जशेषद्विगुणहानीनां प्रथमद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धक प्रथम वर्गणाप्रदेश तुल्यप्रदेशका वर्गणाः सङ्कलयितव्याः, सङ्कलिताश्च ताश्वरमद्विगुणानि प्रदेश निष्पन्न प्रथमद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धक प्रथम वर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदे शकवर्गणा हीनप्रथमद्विगुणहानिसत्कस्व प्रथम वर्गुणाप्रदेश तुल्यप्रदे शकस वर्गणाप्रमाणा भवन्ति, असत्कल्पना+ ३१४+१३३=१०३३,(१२४-१३३ ) = १०३३ । ताश्च स्वप्रथमवर्गणा चतुर्भागाधिकद्विगुणहा नित्रिचतुर्भा प्रमाणासु प्रथमद्विगुणहानिवर्गणासु प्रक्षिप्यन्ते, तदा प्रथम द्विगुणहानिप्रथम स्पर्धक प्रथम वर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदेशका वर्गणा: किञ्चिन्न्यूनसार्धद्वि गुणहानिप्रमाणा लभ्यन्ते, असत्कल्पनया १२४+१०३३=५३ = २२३ । एतावत्प्रथमवर्गणामात्राः प्रदेशाः सत्तायां भवन्ति । यत एतावत्प्रथमवर्गणामात्राः प्रदेशाः सत्तायां भवन्ति, तत एतावतीभिर्वणाभिर्विभक्तेषु प्रदेशेषु प्रथमद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणाप्रदेशा लभ्यन्ते । तथा यत एव द्विगुणहानीनां सर्वप्रदेशाः स्वस्वप्रथम स्पर्धकप्रथम वर्गणाचतुर्भागाधिकद्विगुणहानित्रिचतुर्भागप्रमाणस्वस्थप्रथम स्पर्धक वर्गणाप्रदेशतुल्यप्रदे शकवर्गणामात्रा भवन्ति, ततस्ताभिः ( द्विगुणहानि: + ) तत्तद्विगुणानिसकलप्रदेशेषु विभक्तेषु तत्तद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशा लभ्यन्ते । तेन नत्रोतराविकशततमपृष्ठे कोनविंशतितमपौ "द्विगुणहानि त्रिचतुर्भागी कृत्यै० इत्यादिकरणमुक्तम् । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पूर्वस्पर्धकगणितविभागः ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १०७ विंशत्यधिकशतपरमाणवो-ऽवशिष्यन्ते, ते च द्वितीयद्विगुणहानिसत्कप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागता भवन्ति, न च ते-ऽसिद्धाः, करणसूत्रेण तावतामेव लाभात् । तथा चा-ञ करणसूत्रम्-प्रथमद्विगुणहानिसत्कप्रथमवर्गणागतपरमाणुषु द्विकेन हृतेषु द्वितीयद्विगुणहानिसत्कप्रथमवर्गणागतकर्मप्रदेशाः प्राप्यन्ते। एतेन षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशतयोढिकेन भाजितयोरष्टाविंशत्यधिकशतप्रमिता द्वितीयद्विगुणसत्कप्रथमवर्गणागतपरमाणवो लभ्यन्ते । न्यासः..... द्वितीयद्विगुणहानिप्रथमवर्गणाप्रदेशाः = प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गणाप्रदेशाः प्रकृते-ऽङ्कतो , , , २ = १२८ चयः-प्रथमद्विगुणहान्यां यश्चयः प्राप्तः, तद? द्वितीयद्विगुणहान्यां भवति । तेन द्विकेन विभक्तः प्रथमद्विगुणहानिगतचयश्चतुष्परमाण्वात्मको द्वितीयद्विगुणहानिगतचयो लभ्यते । न्यास: द्वितीयद्विगुणहानौ चयः = प्रथमद्विगुणहानिचयः प्रकृते.ऽङ्कतो , " =३ यद्वा द्वितीयद्विगुणहानिसत्कप्रथमवर्गणास्थितपरमाणवो द्विगुणहानिद्वयेन विभज्यन्ते, तदा द्वितीयद्विगुणहानिसत्कचयः प्राप्यते । अनेन विधिनाऽप्यष्टाविंशत्यधिकशते द्विगुणहानिद्वयरूपद्वात्रिंशता विभक्ते चयश्चतुष्परमाण्वात्मको लभ्यते । न्यास द्वितीयद्विगुणहान्यां चयः = द्वितीय द्विगुण हानिप्रथमवर्गणागतपरमाणवः द्वे द्विगुणहानी , " , = प्रकृतेऽङ्कतो ३२ ' एवं पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरद्विगुणहानौ प्रथमवर्गणायां परमाणवो-ऽर्धा अर्धा भवन्ति, तथैव पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरद्विगुणहानौ चयो-ऽप्य/-ऽधों भवति । उत्तरोत्तरवर्गणायां च कर्मप्रदेशा एकैकचयेन हीना वक्तव्याः । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] प्रथमं स्पर्धक द्विगु०. चयः, वर्गणा - प्र० द्वि० तृ० च० प्रथमा ८ परमाणवः - २५६, २४८, २४०, २३२ १२८, १२४,१२०,११६ ६४, ६०, ६०, ५८ द्वितीय ४ तृतीया २ चतुर्थी १ ३२, ३१, ३०, २६ द्वितीयं स्पर्ध तृतीयं स्पर्धकम् चतुर्थ स्पर्धक प्र० द्वि० ० च० प्र० द्वि० ० च० प्र० द्वि० तृ० च० २२४,२१६, २०८, २०० १६२, १८४, १७६, १६८१६०, १५२, १४४, १३६ ११२, १०८, १०४,१००६६, ६२,८४८०, ७६,७२, ६८ ५६, ५४, ५०, ५०४,४६, ४४, ४२ ४०, ३८, ३६, ३४ २८, २७, २६, २५ २४, २३. २२.२१२०, १६, १८, १७ " सम्प्रति प्रकारान्तरेणैषैव वक्तव्यता प्रदश्यते— कर्मप्रदेशादीनामसत्कल्पना पूर्ववत् कर्तव्या । न्यास: " प्रस्तुतेऽङ्कतो aarसेढी सत्तागत- सर्वपरमाणूनां वर्गणास्पर्धकादीनि दर्शयन्त्रकम् - " अन्तिमद्विगुणहानौ परमाणवः - नानाद्विगुणहानि संख्याप्रमाणद्विकानां परस्परं गुणनं कृत्वा गुणिततो रूपं विशोध्या - ऽवशिष्टेन सत्तागतपरमाणवो विभक्तव्याः, लब्धौ प्राप्यमाणपरमाणवश्वरमद्विगुणहानिसत्का भवन्ति । एतदुक्तं भवति — सत्कर्मणि यावत्यो द्विगुणहानयो भवन्ति, तावन्ति द्विकानि स्थापयितव्यानि । ततो द्विकानि परस्परं गुणयितव्यानि गुणिततो रूपं विशोध्या - ऽवशिष्टेन सत्तागतपरमाणवो विभक्तव्याः, लब्धिस्तु चरमद्विगुणहानिगतसकलपरमाणुराशिर्भवति । अन्तिम द्विगुणहानिगत परमाणवः "" 13 = = सत्तागतपरमाणवः द्विगुणद्दानयः (२) ५८८० (२) ४-१ ५८८० (२x२x२x२) - १ ५८८० १६-१ ३६२ [ गाथा - ६३ -१ शेषासु द्विगुणहानि परमाणुनामुपलब्धिः -- पूर्वानुपूर्व्या यतितमद्विगुणहान्याः परमाखवो ऽभिप्रेता भवन्ति, तावत्संख्यान्यूननानाद्विगुणहानिसंख्या प्रमाणद्विकानि मिथो गुणयित्वा गुणितैश्वरमद्विगुणहानिगतपरमाणवो गुण्यन्ते, तदा निरुक्तद्विगुणहानिगतपरमाणवो लभ्यन्ते । भावार्थः पुनरयम्-य - यतितमद्विगुणहानेः परमाणवो ऽभिप्रेता भवेयुः तावतीं संख्यां नानाद्विगुणहानितो व्यवकलय्या - sवशिष्टा यावती संख्या भवति, तावन्ति द्विकानि स्थापयित्वा परस्परं गुणयितव्यानि गुणनफलं च पुनश्वरम द्विगुणहानिगतपरमाणुभिर्गुण्यते, तदा विवक्षितद्विगुणहानिगतपरमाणवः प्राप्यन्ते । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्पर्धकगणितविभागः ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [१०६ न्यास: नानाद्विगुणहानयः-इष्टद्विगुणहानिः विवक्षितद्विगुणहान्यां परमाणवः = चरमद्विगुणहानिपरमाणवः (२) प्रकृते-ऽङ्कतः प्रथमद्विगुणहान्यां प्रदेशाः = ३६२४ (२४-१ = ३६२४(२)3 = ३६२४ (२x२x२) = ३६२४८ = ३१३६ द्वितीयद्विगुणहान्यां प्रदेशाः == ३६२४ (२)४-५ ३६२४ (२)२ = ३६२४(२४२) = ३६२४४ = १५६८ तृतीयद्विगुणहान्यां परमाणवः = ३६२४ (२)४-3 = ३६२४(२) = ३६२४२ = ७८४ विवक्षितद्विगुणहानिगतप्रथमादिवर्गणासु कर्मपरमाणूनां निरूपणम्-द्विगुणहानि त्रिचतुर्भागीकृत्यैकरूपस्य चतुर्मागं संकलय्य सङ्कलितेन तद्विगुणहानिगतपरमाणुषु विभक्तेषु तद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणासत्काः परमाणवः प्राप्यन्ते इति करणम् ।। अनेन करणेन प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशा निरूप्यन्ते न्यास: विवक्षितद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां परमाणवः तद्विगुण हानिगतपरमाणवः ( द्विगुणहानिः) प्रकृतेऽङ्कतः प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां परमाणवः = . ३१३६ (x १६) + ३१३६ १२+ ३१३६ - ३१३६ -४४ ४६ उत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकचयेन परमाणवो हीयन्ते, चयस्त्वष्टपरमाणुमात्रः प्रथमविकल्पवत् साधनीयः। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा-६३ ११०] खवगसेढी सम्प्रत्यनन्तरोक्तकरणेन द्वितीयद्विगुणहानिगतप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशा निरूप्यन्ते-- द्वितीयद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां परमाणवः = (१x१६)+3 १५६८ १२ +3 १५६८.४४ ४६ तत उत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकचयेन परमाणवो हीना हीनतरा वक्तव्याः, चयस्तु चतुष्परमाणुप्रमितः प्रथमविकल्पवत् साध्यः । एवं शेषद्विगुणहान्योः प्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशाः साधयितव्याः। ___ अथवा द्वितीयविकल्पमाश्रित्यकैकद्विगुणहानिगतपरमाणून प्राप्य वक्ष्यमाणप्रकारेण प्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशा अभिधातव्याः । तत्तद्विगुणहानिगतपरमाणवः पदेन विभक्तव्याः । लब्धिश्च मध्यमधनं भवति । मध्यमधनं पुनरेकोनपदार्धन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यते, तदा तत्तद्विगुणहानिगतचयः प्राप्यते । चये तु द्विगुणहानिद्वयेन गुणिते तत्तद्विगुणहानिसत्कप्रथमवर्गणागतपरमाणवः प्राप्यन्ते, तत उत्तरोत्तरवर्गणायामकैकचयेन हीनाः परमाणवो वक्तव्याः । पदं चाऽत्र द्विगुणहानिमात्रं बोध्यम् । न्यास: मध्यमवनम तत्तद्विगुणहानिगतसकलपरमाणवः पदम् चयः = मध्यमधनम द्व द्विगुणहानी _ पदम्-१ २. तत्तद्विगुणहानिगतप्रथमवर्गणायां परमाणवः = चयः ४ व द्विगुणहानी उत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकचयेन परमाणवो हीना वक्तव्याः । अनया रीत्याऽङ्कतः प्रथमद्विगुणहानिगतप्रथमादिवर्गणासु कर्मप्रदेशाःप्रथमद्विगुणहानी सकलपरमाणवः = ३१३६ मध्यमधनम् --३१३६ चयः (२४१६) - १६-१ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ jeuoneujaju uoneonp3 uier खवगसेढो] यन्त्रकम्-१२ (चित्रम्-१२) [ १११ असत्कल्पनया पूर्वस्पर्धकानां रचना ण हा निः । द्वितीयद्विगुणहानिः तस्यामसत्कल्पनया सर्वसंख्यया स्पर्धकानि चत्वारि (४), षोडश (१६) वर्गणाः, षट्त्रिंशदधिकै कत्रिंशच्छ तसंख्याकाः ( ३१३६) तस्यां कर्मप्रदेशाः १५६८ कर्मप्रदेशाः, परमार्थतस्तु स्पर्धकानि वर्गणाः कर्मप्रदेशाचा ऽनन्ता भवन्ति । ग -कर्मप्रदेशाः, उत्तरोत्तरवर्गणायाञ्च ते एकैकचयन हीना । | अन्तरम् अन्तरम् अन्तरम Auo asn leuosied PRIDIOH कर्मप्रदेशाः २५६ र०१००००० कर्मप्रदेशाः २४८ २०१००००१ कर्मप्रदेशाः २४० र०१००००२ कर्मप्रदेशाः २३२ र०१००००३ ९९,९९७ रसा० कर्मप्रदेशाः २२४ र०२००००० कर्मप्रदेशाः २१६ २०२००००१ कर्मप्रदेशाः २०८ २०२००००२ कर्मप्रदशा. २०० २०२००००३ ९९, ९९७ रसा० कर्मप्रदशाः १९२ र०३००००० कर्मप्रदेशाः १८४ र०३००००१ कर्मप्रदेशाः १७६ र०३००००२ कर्मप्रदेशाः १६८ र०३००००३ ९९, ९९७ रसा० कर्मप्रदेशाः १६. र० ४००००० कर्मप्रदेशाः १५२ २०४००००१ कमंप्रदेशा: १५४ र०४००००२ कर्मप्रदेशाः १३६ कर्मप्रदेशा. १२८ र०५००००० कर्मप्रदेशा. १२४ र० ५००००१ कर्मप्रदेशाः १० र०५०.००२ कर्मप्रदशा ११६ | प्रथम प ध क म् | | द्विती य प ध कम् | तृ ती यस ध क म् || च तु थ स प्रथमम्पकम सङ्केतस्पष्टीकरणम्१=प्रथमवर्गणा । २=द्वितीयवर्गणा। र०-एकप्रदेशे रसाविभागाः रसा-रसाविभागाः ३=तृतीयवर्गणा। ४-चतुर्थवर्वाणा। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी] यन्त्रकम्-१२ (चित्रम्-१२) प्रदेशापेक्षया-ऽनन्तरोपनिधा प्रथमद्विगुणहान्यां चयोऽष्टप्रदेशात्मकः, द्वितीयद्विगुणहान्यां तु तदर्धश्चतुष्प्रदेशात्मकः । तेन प्रथमद्विगुणहान्यामुत्तरोत्तरवर्गणायामष्टभिरष्टभिः प्रदेशै ना हीनतराः प्रदेशा भवन्ति, द्वितीयद्विगुणहान्यां तु चतुर्भिश्चतुर्भिहीना हीनतरा भवन्ति, असत्कल्पनयेह चित्रे प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गणायां प्रदेशाः २५६, द्वितीयवर्गणायाम् २४८, तृतीयवर्गणायाम् २४०, एवमग्रेऽपि । प्रदेशापेक्षया परम्परोपनिधा अत्र षोडशवर्गणाप्रमाणा द्विगुणहानिः कल्पिता । तेनाऽसत्कलनया प्रथमद्विगु गहान्याः प्रथमवर्गणायां ये पट्पञ्चाशदधिकद्विशतसंख्याकाः ( २५६ ) प्रदेशा भवन्ति, तदर्धाः प्रदेशा द्वितीयद्विगुणहानिप्रथमवर्गणायामष्टाविंशत्युत्तरशतसङ्ख्याका ( १२८ ) भवन्ति, तदर्धास्तृतीयद्विगुणहानिप्रथमवर्गणायां चतुष्षष्टिः (६४) । एवमग्रेऽपि । अनुभागापेक्षया-ऽनन्तरोपनिधा प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गणायां रसाविभागाः १०००००, एकाधिकारते द्वितीयवर्गणायाम् १००००१, एवमुत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकेनाऽधिका वाच्याः, इहैकस्पर्धके चतुर्वर्गणानां कल्पनात् चरमवर्गणायाम् १००००३ । ९९,९९७ रसाविभागास्वन्तरत्वेन कल्पिताः, तेन प्रथमद्विगुणहानिद्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाः २०००००, एवमग्रे-ऽपि वक्तव्याः । अनुभागाऽपेक्षया परम्परोपनिधा प्रथमद्विगुणहानिप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाधिभागतः [ १००००० ] द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां द्विगुणाः २००००० रसाविभागाः । तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां तु त्रिगुणा: ३०००००, एवमग्रेऽपि प्रथमद्विगुणहानिप्रथमवर्गणापेक्षया यतिसंख्यं स्पर्धकं भवति, तत्संख्यगुणा रसाविभागास्तस्पर्धकप्रथमवर्गणायां भवन्ति ।। अथ प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणा तरसाविभागतो [ १००००० ] द्वितीयम्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागा द्विगुणा: २००००० भवन्ति, द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणा तरसाविभागतः (२०००००] तृतीयाकप्रथमर्वाणायां विद्विभागगुणाः । २०००००४३ ) ३००००० भवन्ति, ततश्चतुर्थस्पर्धकप्रथमवर्गणायां चतुस्त्रिभागगुणाः । ३०००००x४] ४००००० भवन्ति । एवमग्रेऽपि । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व स्पर्धकगणितविभागः ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १११ १६६ -३२-३ १६६ - ४६ २ प्रथमवर्गणायां कर्मप्रदेशाः =EX(२x१६) DEx३२ 3२५६ तत उत्तरोत्तरवर्गणायामष्टपरमाणुलक्षणैकैकचयेन हीना हीनतराः कर्मप्रदेशा निगदितव्याः। एवं शेषद्विगुणहानिगतवर्गणासु कर्मप्रदेशा निश्चेतव्याः । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-१२ । गणितविभागः समाप्तः । स्पर्धकेषु वर्गणास्तत्र च परमाणून्निरूप्य सम्प्रति रसाऽविभागानभिदध्महे । अनुभागा-ऽपेक्षया-ऽनन्तरोपनिधा-प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां सर्वस्तोका रसाऽविभागा भवन्तोऽपि सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणा विद्यन्ते । तत एकेनाधिका रसाऽविभागा द्वितीयवर्गणायां भवन्ति । ततोऽप्येकेना-ऽधिकास्तृतीयवर्गणायाम, एवं तावद् वक्तव्यम् , यावत् प्रथमस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । ततो द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाऽविभागाः सर्वजीवानन्तगुणैरधिका भवन्ति, प्रथमस्पर्धकस्य चरमवगणातो द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसा-ऽविभागानां मार्गणमप्यनन्तरोपनिधा भण्यते, प्रथमस्पर्धकचरमवर्गणातो द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणाया अनन्तरत्वात् । द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातस्तद्वितीयवर्गणायां रसाऽविभागा एकेनाधिका भवन्ति, ततस्तत्तृतीयायामेकेनाधिकाः । एवंक्रमेण यत्र यत्र स्पर्धकद्वयस्य सन्धिर्भवति, तत्र तत्र प्राक्तनवर्गणातो-ऽनन्तरोत्तरवर्गणायां रसाऽविभागाः सर्वजीवाऽनन्तगुणरधिका वक्तव्याः, अन्यत्रैकेन रसाऽविभागेनाऽधिका वक्तव्याः । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावच्चरमस्पर्धकस्य चरमवगेणा । अनुभागापेक्षया परम्परोपनिधा-प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातस्तत्स्पर्धकस्याऽन्यासु वर्गणास्वनन्ततमभागेनाधिका रसा-ऽविभागा भवन्ति, न पुनरसंखेयभागादिभिवृद्धाः तथा प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणायां यावन्तो रसा-ऽविभागा भवन्ति, ततो द्विगुणा रसाऽविभागा द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां भवन्ति, तृतीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां तु त्रिगुणाः, चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां तु चतुर्गुणा भवन्ति । एवं प्रथमद्विगुणहानौ यतिसंख्यं यतिसंख्यं स्पर्धकं चिन्त्यते, तत्तत्संख्यागुणिताः प्रथमस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणागता रसाऽविभागास्ततिसंख्यस्य ततिसंख्यस्य स्पर्धकस्या-ऽऽदिवर्गणायां वक्तव्याः। तदेवं प्रथमद्विगुणहानौ परम्परोपनिधा गता, शेषद्विगुणहानिषु तु यथागमं भावनीया । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] खवगसेढी [ गाथा-६३ अथ गणितविभागः अथ पूर्वपूर्वस्पर्धकत उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाऽविभागाः सुबोधार्थ निरूप्यन्ते-प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातो द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां द्विगुणा रसाऽविभागा भवन्ति, द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातस्ततृतीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां त्रिद्विमागगणा रसाऽविभागा भवन्ति, तृतीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातश्चतुर्थस्पर्धकगतप्रथमवर्गणायां चतुस्त्रिभागगुणा रसाऽविभागा भवन्ति, चतुर्थस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातः पञ्चमस्पर्धकगतप्रथमवर्गणायां पञ्चचतुर्भागगुणा रसाऽविभागा भवन्ति, पञ्चमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातः षष्ठस्पर्धकगतप्रथमवर्गणायां पटपञ्चभागगुणा रसाऽविभागा भवन्ति । इदमत्र करणम्-प्रथमद्विगणहानी यतिसंख्यं स्पर्धकमुद्दिष्टं भवति, एकोनतत्संख्याविभक्ततत्संख्यागुणा रसाऽविभागा उद्दिष्टस्पर्धकस्य प्रथमवगणायां तत्प्राक्तनस्पर्धकप्रथमवर्गणातो भवन्तीति। न्यासविवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागास्तत्प्राक्तनस्पर्धकप्रथमवर्गणातः = यतितम स्पर्धकं तत्संख्या ग रूपोनतत्संख्या गुणा नन्वनन्तरोक्त करणेन शततमस्पर्धकगतप्रथमवर्गणायां रसाविभागास्तत्प्राक्तनस्पर्धकप्रथमवर्गणातः कियद्गणा रसाविभागा भवन्ति ? इति चेत्, उच्यते-शत-नवनवतिभागगणा भवन्ति । न्यासः शततमस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागास्तत्प्राक्तनस्पर्धकवर्गणातः = १०० गुणाः ६ - ननु कतितमस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाऽविभागास्तत्प्राक्तनस्पर्धकप्रथमवर्गणातः प्राक्तनस्पर्धकगतप्रथमवर्गणासत्करसाऽविभागानामुत्कृष्टसंख्येयभागेना-ऽधिका भवन्ति ? इति चेत्, शणुत-जघन्यपरित्ता-ऽसंख्येयतमस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां भवन्ति, कथमेतदवगन्तव्यम् ? इति चेद. उच्यते-जघन्यपरित्ता-ऽसंख्येयतमस्य स्पधेकस्य प्रथमवर्गणायां रसाऽविभागाः प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातो-ऽसंख्येयगुणा भवन्ति, तत्पूर्ववर्तिस्पर्धकस्य च प्रथमवर्गणायामुत्कृष्टसंख्येयगुणा विद्यन्ते, उत्कृष्टसंख्येयतमस्पर्धकस्य जघन्यपरित्ताऽसंख्येयतमस्पर्धकतोऽनन्तरपूर्ववर्तित्वात् । __ असत्कल्पनया प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाः 'क' इति, तेन जघन्यपरित्ताऽसंख्येयतमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाः कजघन्यपरित्तासंख्येयमिति, जघन्यपरित्ताऽसंख्येयतमा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व स्पर्धकगणितविभागः ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ ११३ स्पर्धकात्पूर्ववर्तिनः स्पर्धकस्योत्कृष्टसंख्येयतमस्पर्धकरूपस्य प्रथमवर्गणायां पुना रसाऽविभागाक Xउत्कृष्टसंख्यातमिति । जघन्यपरित्ताऽसंख्येयतमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणागतरसाऽविभागत उत्कृष्टसंख्येयतमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणागतरसाऽविभागान् विशोध्य शेषा रसाऽविभागा उत्कृष्टसंख्येयतमस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणागतरसाऽविभागाऽपेक्षयाऽधिका भवन्ति । तेन जघन्यपरित्ताऽसंख्यातम् - क इत्येतस्माद् उत्कृष्टसंख्यातम् ४ क इत्येतद्विशोध्य शेष 'क' विद्यते । एवं जघन्यपरित्तासंख्येयतमस्पर्धकप्रथमवर्गणायामुत्कृष्टसंख्येयतमस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणाऽपेक्षया 'क' इत्येतै रसाऽविभागैरधिका भवन्ति । न्यासः (जघन्यपरिताऽसंख्यातम् ४ क)-(उत्कृष्टसंख्यातम् ४ क) =(जघन्यपरित्ताऽसंख्यातम- उत्कृष्टसंख्यातम्)xक जघन्यपरित्ताऽसंख्यातम् = उत्कृष्टसंख्यातम् + १ = (उत्कृष्टसंख्यातम् +१- उत्कृष्टसंख्यातम्) x क -१xक क न्यासः- क= उत्कृष्टसंख्यातम् 'क' इत्येते रसाऽविभागा उत्कृष्टसंख्यातम् - क इत्येतेषां रसाऽविभागानामुत्कृष्टसंख्येयतमभागमात्रा भवन्ति ___ उत्कृष्टसंख्यातम् x क _ जघन्यासंख्यतमस्पर्धकापेक्षपूर्ववर्तिस्पर्धकाद्यवर्गणाऽविभागाः उत्कृष्टसंख्यातम् ___ अतो यस्मिन् स्पर्धके तत्पूर्ववर्तिस्पर्धकप्रथमवर्गणात उत्कृष्टसंख्येयभागेनाऽधिका रसाविभागा भवन्ति, तत्स्पर्धकं जघन्यपरित्ताऽसंख्याततमं भवति । __ इयमत्र व्याप्तिः-प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकतः प्रभृति विवक्षितस्पर्धकापेक्षप्राक्तनस्पर्धकं यतितमं भवति, तत्स्पर्धकप्रथम वर्गणागतरसाविभागानां ततिभागेना-ऽधिका रसाविभागा विवक्षितस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां पूर्ववर्तिस्पर्धकापेक्षया भवन्ति । न्यासःइष्टस्पर्धकाद्यवर्गणायां रसाविभागाः प्राक्तनस्पर्धकाद्यवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणारसाविभागाः राधिका - यतितमं पूर्वस्पर्धकं, तत्संख्या अतो विवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाः = पूर्वस्प०प्र०व०रसाविभागाः+_ पूर्वस्प० प्र०व० ___यतितमं पूर्वस्पर्धक, तत्संख्या अत एव जघन्यपरित्ता-ऽसंख्येयतमस्पर्धकं यावत् पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाः संख्येयभागेना-ऽधिका भवन्ति, ततः परं जघन्यपरित्ता-ऽनन्ततमस्पर्धकं यावत् पूर्व Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] aarसेढी [ गाथा - ६३ पूर्वत उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागा असंख्येयभागेना - ऽधिका भवन्ति । तथा जघन्यपरित्ता ऽनन्ततम स्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाऽविभागास्तत्पूर्ववर्तिस्पर्धक सत्कप्रथमवर्गणास्थितरसाविभागतः पूर्ववर्तिस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणागतरसाविभागानाममुत्कृष्टा संख्याता संख्यात भागेना-ऽधिका विद्यन्ते । ततः परं सर्वत्र पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागा अनन्ततमभागेना - sधिका भवन्ति । सम्प्रति वर्गणासु रसाविभागाः सूक्ष्मगणितानुसारेणाऽभिधीयन्ते, अनन्तरोक्त प्ररूपणायाः स्थूलगणितानुसारेण दर्शितत्वात् । कथमेतदवगन्तव्यम् ? इति चेद्, उच्यतेयद्यपि प्रथम स्पर्धक प्रथमवर्गणासत्कैकैकपरमाणुगतरसाऽविभागतो द्वितीयस्पर्धक प्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणौ रसाऽविभागा द्विगुणा भवन्ति, तथापि प्रथम स्पर्धक प्रथमवर्ग या सत्कसकलपरमाणुस्थितनिखिलरसा ऽविभागतो द्वितीयस्पर्धक प्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुगता - शेषर साऽविभागा द्विगुणा न भवन्ति, किन्तु किञ्चिन्न्यून द्विगुणाः, प्रथम स्पर्धक प्रथमवर्गणातो द्वितीय स्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकल परमाणूनां विशेषहीनत्वात् । एवमुत्तरोत्तरस्पर्धक प्रथमवर्गणायां परमाणूनां हीयमानत्वात् प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागत सर्व रसाऽविभागतस्तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां सकलरसाऽविभागाः किञ्चिन्न्यूनत्रिगुणा भवन्ति, चतुर्थस्पर्धकप्रथमवर्गणायां च सर्वरसाऽविभागाः किञ्चिन्न्यूनचतुगुणा भवन्ति । ननु तेषां न्यूनत्वं कियद्भवति ? इति चेत्, उच्यते - प्रथम स्पर्धकप्रथमवर्गणातस्तद्वितीय वर्ग - गायां परमाणव विशेषहीना भवन्ति, एकचयेन हीना भवन्तीत्यर्थः । ततोऽप्येकेन चयेन हीनास्तृतीयवर्गणायां परमाणवो भवन्ति, ततश्चतुर्थवर्गणायामेकचयेन हीना भवन्ति, ततोऽप्येकचयेन हीनाः पञ्चमवर्गणायां भवन्ति । एवमेकचयहीनक्रमेण तावद् वाच्याः, यावच्चरम स्पर्धकस्य चरमवर्गणा । तस्मात् कारणात् प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातो द्वितीयवर्ग णायामेकचयेन हीनाः परमाणवो भवन्ति, प्रथमवर्ग' गातस्तृतीयवर्ग णायां चयद्वयेन हीना भवन्ति, चतुर्थवर्ग णायां त्रिभिचयैर्हीना भवन्ति, पञ्चमवर्ग णायां चतुर्भिश्चयैहींना भवन्ति, अनेन क्रमेण चरमवर्ग णायामे - को स्पर्धकवर्ग णाराशिमात्रैश्वयैहना भवन्ति, द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्ग णायां तु प्रथम स्पर्धक - प्रथमवर्गात एक स्पर्धकगतवर्ग णाराशिमात्र चयैहीनाः परमाणवो भवन्ति, तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्ग'णागतपरमाणवः स्पर्धकद्वयगतवर्ग'णाराशिप्रमाणचयैहना भवन्ति । इयमत्र व्याप्तिः --- प्रथमद्विगुणहानौ यतितमं विवक्षितस्पर्धकं भवति, एकोनतत्संख्यागुणितैक स्पर्धकवर्गणाराशिमात्रचयगताः परमाणवः प्रथम द्विगुणहानी विवक्षित स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातो हीना भवन्ति । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्पर्धकगणितविभागः । अश्वकर्णकरणाधिकारः [११५ न्यासः प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकादिवर्गणतो विवक्षितस्पर्धकादिवर्गणायां हीयमानचयाः = यतितमं विवक्षितस्पर्धकम्, एकोनतत्संख्या x एकस्पर्धकवर्गणाः . प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकादिवर्गणातो विवक्षितस्पर्धके हीयमानपरमाणवः = हीयमानचयाः X एकचयगतपरमाणवः तस्मात् कारणात् प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतनिखिलरसाविभागतो द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां निखिलरसाविभागा एकस्पर्धकगतवर्गणाराशिमात्रचयगतपरमाणुभिर्द्विगुणान् प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाविभागान् गुणयित्वा गुणितैन्यूना द्विगुणा भवन्ति, तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्गणागतनिखिलरसाविभागास्तु स्पर्धकद्वयगतवर्गणाराशिमात्रचयगतपरमाणुभिस्त्रिगुणान् प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाविभागान् गुणयित्वा गुणितैन्यूनास्त्रिगुणा भवन्ति । न्यासःसङ्केतसूचिः (१) प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाविभागाः = र (२) प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतपरमाणवः (३) एकस्पर्धकगतवर्गणाः द्वितीयस्पर्धकादिवर्गणागतसकलरसाविभागाः = २ (र x प) - { (वX चय)x२xर } तृतीय , , , , = ३ (रxप) - { (२x२xचय.)४३४र } इयमत्र व्याप्तिः-प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतपरमाणुतो विवक्षितस्पधकप्रथमवर्गणायां यावन्तः परमाणवो हीयन्ते, तावद्गुणितैः, यावतिथं प्रथमद्विगुणहानिसत्कं विवक्षितं स्पर्धकं भवति तत्संख्यागुणैः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाविभागैन्यूंनाः, यतितमं विवक्षितस्पर्धकं भवति, तत्संख्यागुणाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागा विवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसर्वपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागा भवन्ति । एतदुक्तं भवति-प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतपरमाणूनपेक्ष्येष्टस्पर्धकप्रथमवर्गणायां यावन्तः परमाणवो हीयन्ते, तावतः परमाणूनिष्टस्पर्धकेन गुणयित्वा गुणितं पुनः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाविभागैस्ताडयित्वा प्राप्यमाणेन्यूना इष्टस्पध केन गुणिताः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुप्रतिबद्धनिखिलरसाविभागा इष्टस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कनिखिलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागा भवन्ति । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] न्यास: सङ्केतसूचि:- (१) विवक्षितस्पर्धकम् (इष्टस्पर्धकम् ) = अ (२) प्रथमस्पर्धकादिवर्गणातो हीयमानपरमाणवः = ब (३) प्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणासत्कै कपरमाणुगतरसाविभागाः सत्कसर्व सर्वरसाविभागाः = ड = स (४) " " " प्रथम स्पर्धकादिवर्गापेक्षया विवक्षितस्पर्धकप्रथमत्रर्गणायां रसाविभागाः अX ड ३X२,५६,००,००० ७,६८,००,००० = अङ्कतः = = = ७,६८,००,००० = ५,७६,००,००० 22 खवगढी : न्यास:-- { ब (अ x सं) { ६४ (३×१,००,००० ) } {६४X३,००,०००} १,१२,००,००० छात्र प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणायां यावन्तः परमाणवो भवन्ति, तावन्त एव यदि द्वितीय स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां भवेयुः तर्हि द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां सकलपरमाणुगतसकलरसाऽविभागा द्विगुणाः स्युः, द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायामेकैकपरमाणौ रसाऽविभागानां प्रथमस्पर्धकप्रथम - वर्गणासत्कै कै कपरमाणुगतरसाविभागतो द्विगुणत्वदर्शनात् । परन्तु प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतपरमाणुतो द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायामेक स्पर्धकगतवर्गणाराशिमात्रचयैः परमाणवो हीना भवन्ति । न यावन्तः परमाणवो हीयन्ते, तावद्गुणितैर्द्विगुणैः प्रथम स्पर्धक प्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाऽविभाग नाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतस कलरसाऽविभागतो द्विगुणा द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणातः सकलरसाऽविभागा भवन्ति । एवं प्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणागतपरमाणुतस्तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां यावन्तः परमाणवो हीयन्ते, तावद्गुणितैस्त्रिगुणैः प्रथमस्पर्धा केप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसा -ऽवि [ गाथा - ६३ असत्कल्पनया ऽङ्कतः ३ ६४ न्यू नाः प्रथमस्पर्धा प्रथम वर्गणागतसकलरसा ऽविभागतस्त्रिगुणास्तृतीयस्पर्धकप्रथम वर्गणागतसकलरसाऽविभागा भवन्ति । एवमग्रे ऽपि वाच्यम् । १,००,००० २,५६,००,००० ननु प्रथमद्विगुणान्यां विवक्षितस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातः कया व्याप्त्या परमाणवो हीयन्ते १ इति चेत्, उच्यते - प्रथमद्विगुणहानौ यतितमं विवक्षितस्पर्धकं भवति, एकोनतत्संख्यागुणितैक स्पर्धक वर्गणाराशिमात्रचयगताः परमाणवः प्रथम द्विगुणहानौ विवक्षितस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाणातो हीना भवन्ति । ( एम व्याति ११४ तम पृष्ठे पोका । ) = प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकादिवर्गणातो विवक्षितस्पर्धके हीयमानचयाः यतितमं स्पर्धकम्, एकोनतत्संख्या X एक स्पर्धकवर्गणाः X चयः • प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकादिवर्गणातो विवक्षित स्पर्धके हीयमानपरमाणवः = हीयमानचयाः x एकचयगतपरमाणवः Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११७ पूर्वस्पर्धकगणितविभागः ] अश्वकर्णकरणाधिकारः अनन्तरोक्तवक्तव्यता वर्गणासु रसाविभागादीन् परिकल्प्य स्फुटीक्रियते । तथाहि-प्रथमद्विगुणहानौ पूर्वपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणात उत्तरोत्तरस्पर्धकप्रथमवर्गणायां सप्तनवत्युत्तरनवशताधिकनवनवतिसहसः (86,६६७) रसाविभागैरधिका रसाविभागाः कल्प्यन्ते, ते चेहाऽन्तरत्वेन व्यपदेष्टव्याः । चयोऽष्टपरमाणुमात्रः कल्पयितव्यः, एकस्मिन् स्पर्धक वर्गणाश्चतस्रः परिकल्प्यन्ते । अथ प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां परमाणवः षट्पञ्चाशदधिकद्विशती (२५६) कल्प्यन्ते, तत्र चैकैकपरमाणौ रसाविभागा एकलक्षं (१,००,०००) परिकल्प्यन्ते । द्वितीयवर्गणायां परमाणवोऽष्टचत्वारिंशदधिके द्वे शते (२४८) अभिधातव्याः, चयस्याऽष्टपरमाणुमात्रत्वपरिकल्पनात् एकैकपरमाणौ चैकाधिकलक्ष(१,००,००१)रसाविभागा वाज्याः,उत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकरसाविभागस्य वृद्ध प्रतिपादितत्वात् । एवं तृतीयवर्गणायां परमाणवः द्वे शते चत्वारिंशच्च (२४०) एकैकपरमाणौ च रसाविभागा व्युत्तरलक्षम् (१००००२), चतुर्थवर्गणायां परमाणवो द्वात्रिंशदधिके द्वे शते (२३२) एकैकपरमाणौ च रसाविभागास्व्युत्तरलक्षम (१,००,००३) । तथा द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां परमाणवश्चतुर्विशत्युत्तरे द्वे शते (२२४), एकैकस्मिंश्च परमाणौ रसाविभागा के लक्ष (२,००,०००), सप्तनवत्युत्तरनवशताधिकनवनवतिसहस्राणां (९९९९७) रसाविभागानामन्तरत्वेन परिकल्पनात् । द्वितीयस्पर्धकस्य द्वितीयवर्गणायां परमाणवः षोडशाधिकद्विशती (२१६) प्रत्येकस्लिश्च परमाणौ रसाऽविभागा एकाधिके द्वे लक्षे (२००००१), तृतीयवर्गणायां चाष्टाधिकद्विशती (२०८) परमाणवी रसाविभागाश्च एकैकपरमाणौ द्वयधिके द्वे लक्षे (२००००२) । चतुर्थवर्गणायां च परमाणवो द्विशती (२००), एकैकपरमाणौ च रसाविभागास्त्र्युत्तरे द्वे लक्षे (२००००३)। ततीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां परमाणवो द्विनवतं शतं (१६२) एककस्मिश्च परमाणौ रसाविभागास्त्रीणि लक्षाणि (३,००,०००),द्वितीयवर्गणायां परमाणवश्चतुरशीत्यधिकशतं (१८४), रसाविभागाश्चैकाधिकानि त्रीणि लक्षाणि (३००००१)तृतीयचतुर्थवर्गणयोरेकैकचयेन हीनाः परमाणव एकोत्तरवृद्धया च रसाविभागा वक्तव्याः। सम्प्रति प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातो द्वितीयादिस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागा भाव्यन्ते-प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातोद्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायामेकस्पर्धकगतवर्गणामात्राश्चत्वारश्चया हीयन्ते, एकचयश्चाऽष्टपरमाणुमात्रः, तेन द्वात्रिंशत् परमाणवो हीयन्ते, तथा प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातस्तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां स्पर्धकद्वयगतवर्गणामात्रा अष्टौ चया हीयन्ते, परमाणवस्तु चतुःषष्टिीयन्ते, प्रथमद्विगुणहानौ यतितमं विवक्षितं स्पर्धकं भवति, एकोनतत्संख्यागुणितैकस्पर्धकवर्गणाराशिमात्रचयगताः परमाणवः प्रथमद्विगुणहानौ विवक्षितस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातो हीना भवन्तीति व्याप्तेरुक्तत्वेनेहैकस्पर्धके चतसृणां वर्गणानां कल्पितत्वात् एकचयस्य चाऽष्टपरमाणुमात्रत्वपरिकल्पनात् । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ गाथा-६३. ११८] खबगसेढी न्यासः-द्वितीयस्पर्धकादिवर्गणायां हीयमानाश्चयाः (२-१)४४ =१४४ द्वितीयस्पर्धकादिवर्गणायां हीयमाना: परमाणवः=४४८ तृतीयस्पर्धकादिवर्गणायां हीयमानाश्चयाः = (३-१)४५ %3D२४४ तृतीयत्पर्धकादिवर्गणायां हीयमाना परमाणवः =८४८ एवं शेषस्पर्धकप्रथमवर्गणायां हीयमानपरमाणवो भावनीयाः । अथ प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागाः परमाणुसंख्यया षट्पश्चाशदुत्तरद्विशतरूपया गुणिता एकपरमाणुस्थितैकलक्षरसाविभागाः षट्पञ्चाशल्लक्षोत्तरद्विकोटिमिताः (२५६ ४ १,००,००० = २,५६,०००००) भवन्ति । द्वात्रिंशत्परमाणुगुणितैर्द्विगुणैः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतैकलक्षरसाविभागैन्युना द्विगुणाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुस्थितषट्पञ्चाशल्लक्षोत्तरद्विकोटिरसाविभागा द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां भवन्ति, तथा चतुःषष्टिपरमाणुगुणितैस्त्रिगुणैः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुस्थितैकलक्षरसाविभाग न्यू नास्त्रिगुणाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणा सत्कसकलपरमाणगतपटपञ्चाशल्लक्षद्विकोटिरसाविभागास्तृतीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायांभवन्ति, प्रथमद्विगुणहानौ प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतपरमाणुतो विवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणायां यावन्तः परमाणवो हीयन्ते, तावद्गुणितैः, यावतिथं प्रथमद्विगुणहानिसत्कं विवक्षितं स्पर्धकं भवति, तत्संख्यागुणैः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणुगतरसाविभाग न्यूनाः, यतितमं विवक्षितस्पर्धकं भवति तत्संख्यागुणाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुगतसकलरसाविभागा विवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसर्वपरमाणुस्थितसकलरसाविभागा भवन्तीति व्याप्तेरुक्तत्वात् । न्यास :द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां सकलरसाविभागा = २ x २५६००.८०-१३२ ४ (२४ १००.००)} =५१२०००००-१३२४००००००} =५१२०००००-६४००००० =४४८००००० दृतीय , " = ३ ४ २५६०००००-१६४४ (३ x १०००००)} =७६८०००००-१६४४३०००००} = ७६८०००००-१६२००००० =५७६०००००.. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्पर्धकगणितविभागः ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ ११६ तदेवं द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायां सर्वपरमाणुस्थितसकलरसाविभागा अष्टचत्वारिंशल्लक्षोत्तरचतुष्कोटिमिताः, तृतीयस्पर्धकादिवर्गणायां पुनः षट्सप्ततिलक्षाधिकपञ्चकोटिप्रमाणा लभ्यन्ते । न चैतदसिद्धम्,त्रैराशिकविधिना-ऽपि यथोक्तमानोपलब्धेः,तथाहि-द्वितीयस्पर्धकादिवर्गणासत्कैकपरमाणौ ढे लक्षे (२०००००) रसाविभागाः परिकल्पिताः, परमाणवः पुनश्चतुर्विशत्युत्तरे द्वे शते (२२४)। यदि एकपरमाणौ द्वे लक्षे रसाविभागा भवन्ति, तर्हि चतुर्विंशत्यधिकद्विशतप्रमाणेषु परमाणुषु कियन्तो भवेयुरिति त्रैराशिकेनाऽष्टाचत्वारिंल्लक्षाधिकचतुष्कोटिमिता रसाविभागा लभ्यन्ते । एवं तृतीयस्पर्धकप्रथवर्गणासत्कसकलपरमाणुस्थितनिखिलरसाविभागास्त्रैराशिकविधिना भणितव्याः । त्रैराशिककरणसूत्रं च सप्तविंशतितमगाथायाष्टीकायां निरूपितम् । न्यासः-प्रमाणम् | प्रमाण फलम् । इच्छा । इच्छाफलम् २००००० | २२४ । ४४८००००० लब्धा द्वितीयस्पर्धकाद्यवर्गणायाम् . १ । ३००००० । १२ । ५७६००००० लब्धास्तृतीयस्पर्धकाद्यवर्गणायाम् एवं पूर्वोक्तव्याप्त्या चतुर्थादिस्पर्धकप्रथमवर्गणायां सकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागतः किञ्चिन्न्यूनाश्चतुरादिगुणाः साध्याः । तथा (१) यतिसंख्यं स्पर्धकमुद्दिष्टं भवति, एकोनतत्संख्याविभक्ततत्संख्यागुणा रसाविभागा उद्दिष्टस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां तत्प्राक्तनस्पर्धकप्रथमवर्गणातो भवन्ति, (२) प्रथमस्पर्धकतः प्रभृति प्रथमद्विगुणहानौ विवक्षितस्पर्धकापेक्षप्राक्तनस्पर्धकं यतितमं भवति, तत्स्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागानां ततिभागेना-ऽधिका रसाविभागा विवक्षितस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां पूर्ववर्तिस्पर्धकापेक्षया भवन्ति, इति यद्व्याप्तिद्वयं प्रागुक्तम् , तत्रापि विवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागाः किश्चिन्न्यूनाः सूक्ष्मगणितानुसारेण वाच्याः, न्यूनप्रमाणं चा-ऽनन्तरोक्तविधिनैव साध्यम् । प्रथमव्याप्तिमाश्रित्य स्थापनाविवक्षितस्पर्धकादिवर्गणागतसकलरसाविभागास्तत्प्राक्तनस्पर्धकादिवर्गणागतसकलरसाविभागतः यतितमं स्पर्धक, तत्संख्या _ रूपोनतत्संख्या-गुणाः- बx (अxस)} द्वितीयव्याप्तिमाश्रित्य स्थापनाविवक्षितस्पर्धकप्रथमवर्गणायां सकलरसाविभागास्तत्प्राक्तनस्पर्थकादिवर्गणागतसकलरसविभागतः - पूर्वस्पर्षकप्रथमवर्गणागतैकपरमाणुस्थितरसाविभागाः इत्येतैरधिकाः- बx(4xस) यतितम पूर्वस्पर्धकं तत्संख्या समाप्तो गणितविभागः। सम्प्रति घातिप्रकृतीराश्रित्या-ऽनुभागस्पर्धकेष्ठ देशघात्यादिरसप्ररूपणाजघन्यरसस्पर्धकादारभ्याऽनन्तरसस्पर्धकान्येकस्थानकाऽनुभागविशिष्टानि भवन्ति । तेषामुपर्य Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] 'खवगढी [ गाथा - ६३. नन्तरसस्पर्धकानि द्विस्थानका - ऽनुभागकानि भवन्ति । पुनस्तेषामुपर्यनन्तानि रसस्पर्धकानि त्रिस्थानकाऽनुभागकानि विद्यन्ते, भूयस्तेषामुपर्युत्कृष्टरसस्पर्धक पर्यन्तान्यनन्तानि रसस्पर्धकान चतुःस्थानकाs-नुभागकानि तिष्ठन्ति । जघन्यरसस्पर्धकात् प्रभृति सर्वाण्येकस्थानकाऽनुभागकानि द्विस्थानका अनुभागकानां च रसस्पर्धकानामाद्याऽनन्ततमभागकल्पानि रसस्पर्धकानि देशघातीनि वक्तव्यानि । तेषां सर्वोत्कृष्टं रसस्पर्धकमुत्कृष्टं देशघातिरसस्पर्धकमुच्यते । ततो द्विस्थानका - Sनुभागकानां रसस्पर्धकानामनन्ततमभागस्योपरि प्रथमं जघन्य सर्वघातिरसस्पर्धकं वक्तव्यम् | ततः परं शेषद्विस्थानका - ऽनुभागकानि स्पर्धकानि त्रिचतुःस्थानाऽनुभागविशिष्टानि च सर्वाणि रसस्पर्धकानि सर्वघातीनि भणितव्यानि । तेषां सर्वोत्कृष्टं रसस्पर्धकमुत्कृष्टसर्वघातिस्पर्धकमुच्यते । न्यास : एकस्थानकानुभागकानि १०००००००००००००० १ = सर्वजघन्य देशघातिस्पर्धकम् । २ = सर्वात्कृष्टं देशघातिस्पर्धकम् । द्विस्थाननुभागकानि 1000R 1030occo I त्रिस्थानानुभागकानि चतुःस्थानानुभागकानि ooooocor | ३ = सर्वजघन्यं सर्वघातिस्पर्धकम् । ४ = सर्वोत्कृष्टं सर्वघातिस्पर्धकम् । ०००००००० । घातिप्रकृतयो द्विविधा भवन्ति, देशघातिसर्वघातिभेदात् । सत्कर्मणि सम्यक्त्वमोहनीयवर्जदेशघातिप्रकृतीनां रसस्पर्धकानि देशघातीनि सर्वघातीनि च भवन्ति, सम्यकत्वमोहनीयस्य तु देशघातीन्येव, सर्वघातिप्रकृतीनां पुना रसस्पर्धकानि सर्वघातीन्येव भवन्ति । अथ देशघातिप्रकृतीनां रसस्पर्धकानि विविच्यन्ते - केवलज्ञानावरणं वर्जयित्वा शेषज्ञानावरणचतुष्कं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणलक्षणं दर्शनावरणत्रिकं संज्वलनचतुष्कं नवनोकपायाः सम्यक्त्वमोहनीयं पञ्चान्तराया इति षड्विंशतिदेशघातिप्रकृतीनां जघन्यरसस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रत्येकस्मिन् परमाणौ रसाऽविभागा मिथस्तुल्या भवन्ति । इदुमुक्तं भवति - अक्षपकजीवमाश्रित्य मतिज्ञानावरणस्य जघन्यस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणौ यावन्तो रसाऽविभागा भवन्ति, तावन्त एव रसाऽविभागाश्चतुर्दर्शनावरणस्य जघन्यस्पर्धक सत्कप्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणौ विद्यन्ते । एवं सर्वासां देशघातिप्रकृतीनां परस्परं वक्तव्याः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ“सव्वस्स अक्खवगस्स सव्वकम्माणं देसघादिफद्दयाणमादिवग्गणा तुल्ला ।" इति । एवंविधाद् देशघातिप्रकृतीनां जघन्यरसस्पर्धकात् प्रभृत्युत्कृष्टदेशघातिरसस्पर्धकं यावद् रसस्पर्धकान देशघातीनि वक्तव्यानि । तेषामुपरि सम्यक्त्वमोहनीयवर्जशेषपञ्चविंशतिदेशघातिप्रकृतीनां सर्वाणि रसस्पर्धकानि सर्वघातीन्यवतिष्ठन्ते । सम्यकत्वमोहनीयस्य तु सर्वोत्कृष्टदेशघातिरसस्पर्धकात् परं रसस्पर्धकं न विद्यते, तस्य सर्वधातिरसस्पर्धका-ऽभावात् । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वघातिस्पर्धकनिरूपणम् ] [ १२१ अथ सर्वघातिप्रकृतीनां रसस्पर्धकानि विविच्यन्ते — सत्कर्मा-पेक्षया केवलज्ञानावरणं केवलदर्शनावरणं निद्रापञ्चकं संज्वलनवर्जद्वादशकषाया मिश्रमोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयं चेत्येकविंशतिप्रकृतीनां देशघातीनि रसस्पर्धकानि सत्कर्मणि न विद्यन्ते, अपितु सर्वघातीन्येव । तत्र मिथ्यात्ववर्ज शेष विंशतिप्रकृतीनां जघन्य सर्वघातिरसस्पर्धा कस्य प्रथमवर्गणासत्कैकैकपरमाणौ रसाविभागाः परस्परं तुल्या भवन्ति । इदमुक्तं भवति केवलज्ञानावरणस्य जघन्यरसस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणौ यावन्तो रसविभागां भवन्ति, तावन्त एव रसाऽविभागाः केवलदर्शनावरणस्य जघन्यरसस्पर्धा 'कसत्कप्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणौ विद्यन्ते, एवं विंशतिप्रकृतीनामन्योऽन्यं द्रष्टव्याः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - " सव्वधादीणं पि मोत्तूण मिच्छत्तं, सेसाणं कम्माणं सव्वधादीणमादिवग्गणा तुल्ला ।” इति । अश्वकर्णकरणाधिकारः मिथ्यात्वमोहनीयस्य तु जघन्यरसस्पर्धकप्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणुस्थितरसाऽविभागास्तदितरसर्वघातिप्रकृतेर्जघन्य स्पर्धक प्रथमवर्गणागतैकैकपरमाणौ विद्यमाने रसाविभागः सदृशा न भवन्ति । किं कारणम् ? इति चेत्, उच्यते - सम्यक्त्वमोहनीयस्य सर्वोत्कृष्टदेशघातिरसस्पर्धकानन्तरं सम्यङमिथ्यात्वस्य जघन्य रसस्पर्धकं प्राप्यते, तत्प्रथमवर्गणायां मिथ्यात्ववर्जशेषसर्वघातिप्रकृतीनां जघन्यस्पर्धकसत्कप्रथम वर्गणागतरसाविभागैः ः सदृशा रसाऽविभागास्तिष्ठन्ति । सम्यङ् मिथ्यात्वस्य जघ - न्यरसस्पर्धकादारभ्य द्विस्थानकाऽनुभागविशिष्टानां स्पर्धकानामनन्ततमे भागे गते एव मिथ्यात्व - स्य जघन्यं रसस्पर्धकं प्राप्यते, तेन मिथ्यात्वस्य जघन्यरसस्पर्धकगतप्रथमवर्गणायां रसा ऽविभागा इतरसर्वघातिप्रकृतिसत्कजघन्यरसस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाऽविभागैस्तुल्या न भवन्ति । इदं त्ववधेयम् - मिश्रवशेष सर्वघातिप्रकृतीनां सर्वघातिस्पर्धकानि तावद्वक्तव्यानि यावत्सर्वोत्कृष्टं चतुःस्थानकाऽनुभागविशिष्टं रसस्पर्धकं प्राप्यते, मिश्रस्य तु सर्वोत्कृष्टं सर्वघातिस्पर्धकं मध्यम द्विस्थानकाऽनुभागकं भवति, अग्रे मिश्रस्याऽभावात् । तथा सम्यक्त्वमोहनीयवर्णानां सर्वासां देशघातिप्रकृतीनामुत्कृष्टर सस्पर्धकं चतुःस्थानकं भवति, तच्च सर्वघाति । सम्यक्त्वमोहनीयस्य तूत्कृष्टस्पर्धकं द्विस्थानकरसोपेतं भवति, तथा देशघाति भवति । 1 सप्तचत्वारिंशतो घातिकर्मणामुत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणागतरसाऽविभागा मिथस्तुल्या न भवन्ति, तथाहि – ( १ ) सम्यक्त्वमोहनीय स्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाऽविभागा स्तोका भवन्ति, देशघातित्वात् । ( २ ) ततः सम्यङ् मिथ्यात्वमोहनीयस्योत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, सर्वघातित्वात् । ( ३ ) ततो हास्य मोह - नीयस्योत्कृष्ट स्पर्धकस्य चरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, सर्वघातित्वे सति चतुःस्थानकानुभागवत्त्वात् । (४) ततो रतिमोहनीयस्योत्कृष्टस्पर्धकस्य चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (५) ततः पुरुषवेदस्योत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] aarat [ गाथा - ६३ भवन्ति । भवन्ति । (६) ततः स्त्रीवेदस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा (७) ततः प्रचलाया उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (८) ततो निद्राया उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( ६ ) ततः प्रचला - प्रचलाया उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१०) ततो निद्रानिद्राया उत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति ( ११ ) ततो जुगुप्सा - मोहनीयस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( १२ ) ततो भयमोहनीयस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१३) ततः शोकमोहनीयस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१४) ततोऽरतिमोहनीयस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१५) ततो नपुंसक - वेदस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१६-१७-१८) ततो मन:पर्यवज्ञानावरण-स्त्यानर्द्धि-दानान्तरायाणामुत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्याः । ( १६ - २०-२१) ततोऽवधिज्ञानावरणा - ऽवधिदर्शनावरणलाभान्तरायाणामुत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थाने तु मिथः समानाः । (२२-२३-२४) ततो भोगान्तराया - ऽचक्षुर्दर्शनावरण- श्रुतज्ञानावरणानामुत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । (२५) ततश्चक्षुदर्शनावरणस्योत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( २६-२७) ततो मतिज्ञानावरण- परिभोगान्तराययोरुत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थाने तु मिथः समानाः । (२८) ततोऽप्रत्याख्यानावरणमानस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (२६) ततोऽप्रत्याख्यानावरणक्रोधस्योत्कृष्ट स्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (३०) ततोऽप्रत्याख्यानावरणमायाया उत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (३१) ततोऽप्रत्याख्यानावरणलोभस्योत्कृष्ट स्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (३२) ततः प्रत्याख्यानावरणमानस्योत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसा विभागाअनन्तगुणा भवन्ति । ( ३३ ) ततः प्रत्याख्यानावरणक्रोधस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । ( ३४ ) ततः प्रत्याख्यानावरणमायाया उत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गरसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (३५) ततः प्रत्याख्यानावरण लोभस्योत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । ( ३६ ) ततः संज्वलनमानस्योत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( ३७ ) ततः संज्वलनक्रोधस्योत्कृष्ट स्पर्धक - चरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (३८) ततः संज्वलनमायाया उत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । ( ३६ ) ततः संज्वलन लोभस्योत्कृष्ट स्पर्धक -- चरमवर्गणायां रसाविभागाः विशेषाधिका भवन्ति । (४०) ततोऽनन्तानुबन्धिमानस्योत्कृष्टस्पर्धक -- Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घात्यघातिर साल्पबहुत्वम् ] श्वकर्णकरणाधिकारः चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( ४१ ) ततोऽनन्तानुबन्धिक्रोधस्योत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (४२) ततोऽनन्तानुबन्धिमायाया उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । (४३) ततोऽनन्तानुबन्धिलो मस्योत्कृष्टस्पर्धक चरम वर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । ( ४४-४५-४६ ) ततः केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणवीर्यान्तरायाणामुत्कृष्ट स्पर्धक चरम वर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । (४७) ततो मिथ्यात्वमोहनीयस्योत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभाग अनन्तगुणा भवन्ति । अनन्तरोक्तसप्तचत्वारिंशत्प्रकृतितो ऽनिवृत्तिकरणस्थक्षपकस्य सत्कर्मणि संज्वलनचतुष्कं विना द्वादशकपाया दर्शन त्रिकं च न विद्यन्ते, प्रागेव क्षपितत्वात् । तेन तेषां रसस्पर्धकमपि सत्कर्मणि न भवति । शेषाणां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनां क्षपकस्य सत्कर्मण्यनुत्कृष्टस्पर्धकमेव विद्यते, घातिकर्मणामुत्कृष्टानुभागस्य मिथ्यात्वगुणस्थान के एवोपलम्भात् । 1 [ १२३ सम्प्रत्यघातिकर्मणां रसस्पर्धकानि प्ररूप्यन्ते - अघातिप्रकृतीनां जघन्यरसस्पर्धकात् प्रभृति चतुःस्थानकानु भागविशिष्टोत्कृष्टरसस्पर्धकपर्यवसानानि रसस्पर्धकानि वाच्या ि जघन्यरसस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाः परस्परं समाना अवतिष्ठन्ते, उत्कृष्ट स्पर्धक - चरमवर्गणायां तु विषमाः । तद्यथा - ( १ ) तिर्यगायुष उत्कृष्टस्पर्धकस्य चरमवर्गणायां रसाविभागाः स्तोका भवन्ति । (२) ततो मनुष्यायुष्कस्योत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (३) ततो नरकायुष उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (४) ततो देवायुष उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (५) ततस्तियं - ग्गतेरुत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति (६) ततो नरकगतेरुत्कृष्ट स्पर्धक - चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( ७-८ ) ततो ऽयशः कीर्त्तिनीचैर्गोत्रयोरुत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, स्वस्थाने मिथस्तुल्याः । ( ६ ) ततो- सातवेदनीयस्योत्कृष्ट स्पर्धक चरम वर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१०) तत औदारिकशरीरनामकर्मण उत्कृष्ट स्पर्धकस्य चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (११) ततो मनुष्यगतेरुत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ( १२ ) ततो वैक्रियशरीरनामकर्मण उत्कृष्ट स्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१३) तत आहारकशरीर नामकर्मण उत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१४) ततस्तैजसशरीरनामकर्मण उत्कृष्टस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१५) ततः कार्मणशरीरनामकर्मण उत्कृष्टचरमस्पर्धकवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१६) ततो देवगतेरुत्कृष्टस्पर्धक चरमवर्गणायां रसा विभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१७-१८) ततो यशःकीयु च्चैर्गोत्रयोरुत्कृष्टस्पर्धकस्य Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] ... खवगसेढी [गाथा-६४ चरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । (१६) सनः सातवेदनीयस्योत्कृष्ट स्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । तत्र वैक्रियशरीरादीनां पञ्चप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागः क्षपकेणाऽपूर्वकरणगुणस्थानके सञ्चितः । सातवेदनीय-यशःकीत्त्युच्चैर्गोत्राणामुत्कृष्टानुभागं सूक्ष्मसम्परायचरमसमये क्षपकः संचेष्यति । शेषाणामुत्कृष्टानुभागं यथागमं संसारा-ऽवस्थायां संचिनोति जीवः । क्षपकस्य सत्कर्मणि दैवनारकतैर्यगायुष्काणां तु सर्वथा-ऽभावः प्राग् दर्शित एव । तदेवं प्रसङ्गतो घात्यघातिकर्मणां रसस्पर्धकानि विवर्णितानि । सम्प्रति प्रकृतमनुसरामःएवं विधेषु पूर्वस्पर्धकेषु संज्वलनचतुष्कस्य यानि पूर्वस्पर्धकानि, तेभ्योऽसंख्येयभागमितं प्रदेशाग्रं गृहीत्वा स्वस्त्रजघन्यपूर्वस्पर्धकगतप्रथमवर्गणातो-ऽनन्तगुणहीनानुभागकान्यनन्तान्यपूर्वस्पर्धकान्यश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये निर्वतयति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी--"तदो चदुण्हं संजलणाणमपुव्वफद्दयाई णाम करेदि। ताणि कधं करेदि ? लोभस्स ताव लोहसंजलणस्स पुव्वफद्दएहिंतो पदेसग्गस्स असंखेजदिभागं घेत्तूण पढमस्स देसघादिफद्दयस्य हेट्ठा अणंतभागे अण्णाणि अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तयदि ।xxxxxx xxxxx जहा लोभस्स अपुवफद्दयाणि परूविदाणि पढमसमए, तहा मायाए माणस्स कोधस्स परूवेयव्वाणि ।” एवं शतकचूर्णावपि सो पुव्वफड्डगाणं हेहा अण्णाणि फड्डगाइं तु । पकरेइ अपुव्वाई अणंतगुणहीयमाणाई॥१॥ न चात्राऽश्वकर्णकरणाद्धायां पुरुषवेदस्य समयोनाऽवलिकाद्वयवद्धनूतनाऽनुभागसंभवात् पुरुषवेदस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि कुतो न निर्वतयति ? इति वाच्यम् , कषायामाभृतचूर्णिकारैः सप्ततिकाचूर्णिकृद्भिश्च संज्वलनचतुष्कस्यैवा- पूर्वस्पर्धकानामुपदिष्टत्वात् । तथा-चाऽत्र कषायप्राभृतचूर्णि:-"तदो चदुण्हं संजलणाणमपुव्वफद्दयाइणाम करेदि ।" इति । तथैव सप्ततिकाचूणि:-"तत्थ अस्सकण्णकरणाडाए वद्यमाणो अणंताई समए समए अपुव्वफडगाईचउण्हं संजलणाणं करोति ।" इति । पुरुषवेदस्य त्वपूर्वस्पर्धकनिवृत्तिं विना समयोनाऽवलिकाद्वयेन बद्धनूतनाऽनुभागं बन्धावलिकाऽपगमेऽश्वकर्णकरणाद्धायां तावता कालेन संज्वलनक्रोधे संक्रमयति ॥६३॥ नन्वश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयेऽपूर्वस्पर्धकानि कति निवर्तयति ? इत्यत आह ताणि अपुवाणिगदुगुणहाणिफड्डाणऽसंखइमभागो। एत्थ पुण भागहारो अोकड्डणश्रो असंखगुणो॥६४॥ तान्यपूर्वाण्येकद्विगुणहानिस्पर्धकानामसंख्यतमभागः । अत्र पुनर्भागहारोऽपकर्षणतो-ऽसंख्यगुणः ।।६४।। इति पदसंस्कारः । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ अपूर्वस्पर्धकपरिमाणम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः ___ 'ताणि' इत्यादि. 'तानि' संज्वलनचतुष्कस्य पूर्वस्पर्धकानामनन्तगुणहीनरसतामापाद्य निवर्त्यमानानि 'अपूर्वाणि' अपूर्वस्पर्धकानि 'एकद्विगुणहानिस्पर्धकानाम् 'एकस्यां द्विगुणहानी यावन्ति स्पर्धकानि भवन्ति, तेषां 'असंख्यतमभागः' असंख्येयतमभागप्रमितानि भवन्ति, एतानि चाऽनन्तानि । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"ताणि पगणणादोअणंताणि,पदेसगुणहाणिहाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो, एत्तियमेत्ताणि ताणि अपुव्वफद्दयाणि ।" इति । नन्वस्मिन् प्रस्ताव मागहारः कियन्मानः ? इत्याह-'एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्नश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयाख्यप्रकरणे भागहारः पुनः 'अपकर्षणतः' उत्कषणाऽपकर्षणभागहारतोऽसंख्यगुणो ज्ञातव्य इति शेषः । एतदुक्तं भवति-प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतपरमाणुत उत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकचयेन न्यूना भवन्तः परमाणवो यावत्यायामे गतेऽर्धा भवन्ति, तावान् आयामो द्विगुणहानिरुच्यते इति प्रागपि प्रतिपादितम् । तत्रैकद्विगुणहानी यावन्ति स्पधेकानि लभ्यन्ते, तावन्त्येकद्विगुणहानिस्पर्धकानीति व्यवाहियते। तानि च गणनातो.ऽभव्येभ्यो-ऽनन्तगुणानि सिद्धानन्तभागकन्पानि भवन्ति । तथा येन पल्योपमा-संख्येयभागेना-श्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये सत्तागतदलिकानि विभज्योत्मिरति जीवः, स भागहार इहोत्कर्षणा-ऽपकर्षणभागहारो व्यपदिश्यते । तत्रैकद्विगुण हानिस्पर्धकान्युत्कर्षणापकर्षणभागहारतो-ऽसंख्येयगुणेन भागहारेण विभज्यैकभागमात्राण्यपूर्वस्पर्धकानि निर्वय॑न्ते ।। ६४ ॥ ____ ननूत्कर्षणापकर्षणभागहारस्य पन्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणत्वेन ततो-ऽसंख्येयगुणो भागहारो-ऽसंख्येयपल्योपममितो-ऽपि स्यात् ? इति परमाशङ्कय प्राहसो पुण असंखभागो पल्लपढमवग्गमूलस्स । कमसो अपुब्वगाणाइवग्गणा-उत्थि य विसेस-हिया ॥६५॥ (उपगीतिः) स पुनरसखभागः पल्यप्रथमवर्गमूलस्य । क्रमशो-पूर्वेषामादिवर्गणा-ऽस्ति च विशेषाधिका ॥६५।। इति पदसंस्कारः 'सो' इत्यादि, 'सः' अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयभाव्युत्कर्षणा-उपकर्षणभागहारतो-ऽसंख्येयगुणो भागहारः पुनः 'असंख्यभागः' असंख्ययतमभागः कस्य ? इत्याह-'पल्ल०' ति पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्या-ऽसंख्येयतमभागकल्पो भवतीत्यर्थः। ___ न च निरुक्तभागहार उत्कर्षणायकर्षणभागहारतो-ऽसंख्येयगुणः पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्यचाऽसंख्येयभागकल्प इत्येतत् कथमवसीयते ? इति वाच्यम्, तत्प्रतिपादकाऽल्पबहुत्वस्य दर्शनात् । तथा चाऽत्र कषायप्राभृतचूर्णिः- “पढमसमयअस्सकपणकरणकारयस्स जं पदेसग्गमोकड्डिज्जदि, तेण कम्मस्स अवहार कालो थोवो, अपुव्वफद्दएहिं पदेसगुणहाणिहाणंतरस्स अवहारकालो असंखेज्जगुणो, पलिदोवमवग्गमूलमसंखेज्जगुणं ।" इति । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] खवगसेढी [ गाथा-६५ चूर्यक्षराणामिदं व्याख्यानम्-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये यावत्प्रदेशाग्रमपकर्षति, तेन प्रमाणेन कर्मण्यपह्रियमाणे यो-ऽपहारकालो गच्छेत, सो-ऽपहारकाल उत्कर्षणापकर्षणभागहारनामा स्तोको भवति । ततो निर्वय॑मानैरपूर्वस्पर्धकैरपहियमाणे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरे यो-ऽपहारकालो व्यतिक्रामेत्, स पल्योपमा-ऽसंख्ययभागप्रमितो भवनप्यसंख्येयगुणो भवति । इदमुक्तं भवति–प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातः प्रभृत्युत्तरोत्तरवर्गणायां परमाणवो विशेषहीनक्रमेण तिष्ठन्ति । तत्र प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणातो-ऽभव्यानन्तगुण-सिद्धानन्तभागमात्रेषु स्पर्धकेषु गतेषु प्रथमस्पर्धकादिमवर्गणा-ऽपेक्षया द्विगुणहीना भवन्ति, ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्पर्धकेषु व्रजितेषु प्रदेशा द्विगुणहीना भवन्ति, पुनस्तावन्मात्रेषु स्पर्धकेषु गतेषु प्रदेशा द्विगुणहीना भवन्ति । तत्र द्वयोर्द्विगुणहान्योरपान्तराले यत् स्पर्धकजातं भवति, तद् एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरमुच्यते, यदस्माभिर्द्वि गुणहानिरिति प्राक् परिभाषितम् । अश्वकणकरणाद्धाप्रथमसमयभाव्युत्कर्षणापकर्षणभागहारतो-ऽपूर्वस्पर्धकैरपह्रियमाणानामेकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरगतस्पर्धकानामपहारकालः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमात्रो भवन्नप्यसंख्येयगुणो भवति, तथा चासौ पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणो भवतीति कृत्वा चूर्णिकारैरपूर्वस्पर्धकैरेकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरस्याऽपहारकालतः पन्योपमप्रथमवर्गमूलमसंख्येयगुणं भवतीत्युक्तम् । इत्थमश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये उत्कर्षणापकर्षणभागहारतोऽसंख्येयगुणेन पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्य चासंख्येयभागप्रमितेन पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणभागहारेणैकद्विगुणहानिस्थितस्पर्धकानि विभज्यैकभागमितान्यपूर्वस्पर्धकानि करोति ।। सम्प्रति रसाविभागानाश्रित्या-ऽपूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणां दर्शयति-'कमसो' इत्यादि, 'क्रमशः' क्रमेण 'अपुव्वगाण'त्ति प्राकृतत्वात् स्वार्थिकः कप्रत्ययः, 'अपूर्वेषां' संज्वलनचतुष्कस्याऽपूर्वस्पर्धकानां 'आदिवर्गणा' प्रथमवर्गणा विशेषाधिका 'अस्ति' भवति, चकारः पादपूत्यै । इदमुक्तं भवति-संज्वलनलोभस्य प्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलरसाविभागतो द्वितीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रतिबद्धसकलरसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । ततस्तृतीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणास्थितसकलरसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । एवं तावद्वक्तव्यम्, यावच्चरमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणा । यथा लोभस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणागतरसाविभागाः प्ररूपिताः, तथैव मायामानक्रोधानामपि प्रथमवर्गणागतरसाविभागा वक्तव्याः। 卐उक्त च जयधवलाकारैरपि-"एदेण सुत्तेण ओकड्डुक्कड्डणभागहारादो असंखेजगुणेण पलिदोवमपढमवग्गमूलादो च असंखेबगुणहीणेण पलिदो० असंखे० भागेण एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दएसु ओवट्टिदेसु जं भागलद्धं, तत्तियमेत्ताणि कोहादिसंजलणाणमपुव्वफद्दयाणि होति त्ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो।" इति। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भपूर्वस्पर्धकवर्गणाविशेषनिरूपणम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १२७ इदं तु संक्षिप्तव्याख्यानम् । अथ विस्तरव्याख्यानेन प्ररूप्यते-इह तावदश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमो संज्वलनचतुष्कस्याऽपूर्वस्पर्धकानि करोति । तत्र लोभस्य प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणौ यावन्तो रसाविभागा भवन्ति, ततो द्वितीयापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणौ द्विगुणा रसाविभागा भवन्ति, प्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणौ स्थितेभ्यो रसाविभागेभ्यस्तृतीयापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कैकपरमाणौ रसाविभागस्त्रिगुणा भवन्ति । एवं प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकापेक्षया यतिसंख्यं यतिसंख्यमपूर्वस्पर्धकं भवेत, तत्संख्यागुणिताः प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागास्ततिसंख्यस्य ततिसंख्यस्याऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां भवन्ति । तेन प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातश्वरमाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणागतरसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, अपूर्वस्पर्धकानामेकद्विगुणहानिस्थितस्पर्धकसत्काऽसंख्येयभागमात्रत्वेनाऽभव्यानन्तगुण-सिद्धानन्तभागमात्रत्वात् । यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-"जाणि पढमसमये अपुव्वफह्याणि णिव्वत्तिदाणि, तत्थ पढमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणा थोवा। चरिमस्स अपुव्वफद्दयस्स आदिवग्गणा अणंतगुणा ।" इति । चरमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातः प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागा अनन्तगुणा भवन्तीत्यनुक्तसिद्धम् , प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातोऽनन्तगुणहीनरसतामापाद्य-ऽपूर्वस्पर्धकानां निवृत्तेः। उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी"पुव्वफद्दयस्सादिवग्गणा अणंतगुणा।” इति । तथा प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागतो द्वितीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागा द्विगुणा भवन्ति । द्वितीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातस्तृतीयापूर्वस्पर्धकाथमवर्गणायां रसाविभागा एकद्विभागेनाऽधिका भवन्ति । तृतीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातश्चतुर्यापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागास्त्रिभागेनाऽधिका भवन्ति । ततोऽपि पञ्चमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाश्चतुर्भागेनाधिका भवन्ति । एवं यतिसंख्यमपूर्वस्पर्धकं चिन्त्यते, एकोनतत्संख्यामागेनाधिका रसाविभागास्तत्पूर्ववर्त्यपूर्वस्पर्धकापेक्षया वक्तव्याः । तेन जघन्यपरित्ताऽसंख्येयतमाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागा उत्कृष्टसंख्येयभागेनाऽधिका भवन्ति, तदुपरितनाऽपूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणायां पूर्वपूर्वतोऽसंख्येयभागेनाधिकास्तावद्वक्तव्याः, यावजघन्यपरित्ताऽनन्ततमस्पर्धक प्राप्यते । तत उपरि पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तराऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागा अनन्ततमभागेन वृद्धा भवन्ति । इदं तु प्रथमवर्गणागतैकपरमाणुमाश्रित्य प्रोक्तम् । ___ अथ प्रथमवर्गणागतसकलपरमाणूनाश्रित्याऽभिधीयते-प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविभागतो द्वितीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्कसकलपरमाणुगतसकलरसाविभागा द्विगुणा न भवन्ति, किन्तु किचिन्न्यूनद्विगुणा भवन्ति, प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलपरमाणुतो द्वितीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणास्थितसकलपरमाणूनामनन्तमागेन Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] खवगसेढी [ गाथा-६५ हीनत्वात् । तेन प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलपरमाणुस्थितसर्वरसाविमागतो द्वितीयापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलपरमाणुषु सकलरसाविभागा अनन्तबहुभागैरधिका भवन्ति । द्वितीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसर्वपरमाणुस्थितसकलरसाविभागतस्तृतीयाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासत्क-- समस्तपरमाणुषु रसाविभागा किञ्चिन्न्यूनद्विभागेनाधिका भवन्ति । ततश्चतुर्था-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलपरमाणुषु रसाविभागाः किञ्चिन्न्यूनत्रिभागेनाऽधिका भवन्ति । एवं संख्येयभागेनाऽधिकास्तावद्वक्तव्याः, यावञ्जधन्यपरित्तासंख्येयतमाऽपूर्वस्पर्धकं प्राप्यते । तदुपर्यसंख्येयभागेना-ऽधिकास्तावदनुगन्तव्याः, यावजघन्यपरित्तानन्ततमस्पर्धकं प्राप्यते । तत उपर्यनन्ततमभागेना. ऽधिकास्तावदवबोद्धव्याः, यावद् द्विचरमा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसकलपरमाणुप्रतिबद्धरसाविभागतश्चरमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतसमस्तपरमाणुषु सकलरसाविभागा अनन्ततमभागेन विशेषाधिकाः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"एवमणंतराणंतरेण गंतूण दुचरिमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपउिच्छेदादो चरिमस्स अपुव्वफद्दयस्स आदिवग्गणा विसेसाहिया अणंतभागेण ।" इति । अनुभागमाश्रित्य पूर्वापूर्वस्पर्धकानां स्थापना अपूर्वस्पर्धकानि पूर्वस्पर्धकानि लोभस्य'०००००००००००००००००२००३ ४०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००५ मायायाः १०००००००००००००००२००३ ४०००००००००००००००००००००००००००००००००००००५ मानस्य १००००००००००००२००३ ४००००००००००००००००००००००००००००००५ क्रोधस्य १००००००००२००३ ४०००००००००००००००००००००००००००००००००५ सङ्कतादीनां विवरणम्-- १ = लोभादीनामपूर्वस्पर्धकानां जघन्यवर्गणा। तत्र लोभाऽपूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणायां स्तोका रसाविभागाः। मायाऽ- , ' विशेषाधिकाः । । मानस्या -5, , , " " " । क्रोधस्या-s , , , , , , । २ = लोभादीनां चरमाऽपूर्वस्पर्धकगतप्रथमवर्गणाप्रतिबद्धा रसाविभागा मिथस्तुल्या. । ३% , , , चरम , , ४%3D , पूर्वस्पर्धकगतप्रथमवर्गणाप्रतिबद्धा रसाविभागा मिथस्तुल्याः । ५= , चरमपूर्वस्पर्धकगतचरमवर्गणायां रसाविभागाः । तत्र मानस्य पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागाः स्तोका भवन्ति, ततो विशेषाधिकाः क्रोधस्य पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां भवन्ति, ततोऽपि मायायाः पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां विशेषाधिका भवन्ति । ततोऽपि लोभस्य पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां विशेषाधिका भवन्ति । अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमेऽनुभागखरडे घातिते तु लोभस्य पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां रसाविभागाः स्तोका भवन्ति, ततो मायायाः पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायामनन्तगुणा भवन्ति, ततो मानस्य पूर्व स्पर्धकचरमवर्गणायामनन्तगणा भवन्ति । ततः क्रोधस्य पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायामनन्तगुणा भवन्ति ॥६५॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वस्पर्धकाल्पबहुत्वम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [१२६ ननु संज्वलनचतुष्कस्या- पूर्वस्पर्धकान्येकद्विगुणहानिगतस्पर्धकानामसंख्येयभागमितानि करोति, तत्र कि क्रोधादीनामपूर्वस्पर्धकानि मिथस्तुल्यानि निर्वर्तयति, उता-ऽस्ति कश्चिद् विशेषः ! इत्यत आह कोहाईण अपुव्वाणि फड्डगाइं अणुकमेण । कुणए विसेसअहियाई पढमखणे य अस्सकण्णस्स ॥६६॥ (गीतिः) क्रोधादीनामपूर्वाणि स्पर्धकान्यनुक्रमेण । करोति विशेषाधिकानि प्रथमक्षणे चाश्वकर्णस्य ॥६६॥ इति पदसंस्कारः। - 'कोहाईण' इत्यादि, 'क्रोधादीनां' क्रोधमानमायालोमरूपाणां चतुर्णा संज्वलनकषायाणामपूर्वाणि स्पर्धकानि 'अनुक्रम' यथोत्तरं विशेषाधिकानि 'अश्वकर्णस्य पदैकदेशे पदसमुदायस्योपचाराद् अश्वकर्णकरणाद्धायाः 'प्रथमक्षणे' प्रथमसमये 'करोति' निर्वर्तयति । इदमुक्तं भवतिअश्वकर्णकरणाद्धापथमसमये क्रोधस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि स्तोकानि निर्वर्तयति, ततो विशेषाधिकानि मानस्य, आधिक्यं चाऽनन्ततमभागेन ज्ञातव्यम् । एवमुत्तरत्राऽपि । मानस्याऽपूर्वस्पर्धकतो मायाया अपूर्वस्पर्धकानि विशेषाधिकानि निर्वर्तयति, ततोऽपि लोभस्य विशेषाधिकानि । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"पहमसमए जाणि अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि, तत्थ कोधस्स थोवाणि, माणस्स अपुव्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि, मायाए अपुन्वफदयाणि विसेसाहियाणि. लोभस्स अपुवफद्दयाणि विसेसाहियाणि, विसेसो अणंतभागो।” इति ॥६६॥ ननु संज्वलनक्रोधादीनां निर्वय॑मानाऽपूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणायां रसाऽ-विभागा मिथस्तुल्या भवन्ति, उत विषमाः १ इत्यत आह अणुभागे चरिमश्रपुब्वाण हवइ पढमवग्गणा तुल्ला। लोहाईण अणूए अविभागा खलु विसेसअहियकमा ॥६७॥ (गीतिः) अनुभागे चरमा-ऽपूर्वेषां भवति प्रथमवर्गणा तुल्या।। लोभादीनामणौ अविभागाः खलु विशेषाधिकक्रमाः । ॥६॥ इति पदसंस्कारः। 'अणुभागे' इत्यादि, तत्र 'लोहाईण' त्ति 'लोभादीनां' लोभमायामानक्रोधलक्षणानां कषायाणां 'चरमाऽपूर्वेषां' चरमाऽपूर्वस्पर्धकानाम् 'अनुभागे' अनुभागविषया प्रथमवर्गणा 'तुल्या भवति' रसाऽविभागानाश्रित्य समाना भवतीत्यर्थः । अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये लोभस्य चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां यावन्तो रसाऽविभागा भवन्ति, वावन्त एव रसावि Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] खवगसेढी [ गाथा-६७ भागा मायायाश्चरमाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां भवन्ति । एवं मानक्रोधयोरपि चरमा- पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागा मिथस्तुल्या वक्तव्याः। यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-"एवं चदुण्हं पि कसायाणं जाणि अपुव्वफद्दयाणि, तत्थ चरिमस्स अपुवफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिछेदग्गं चदुण्हं पि कसायाणं तुल्लमणंतगुणं " इति ।। ननु कषायचतुष्कस्य जघन्यायां वर्गणायां केन क्रमेण रसाविभागा भवन्ति ? इत्यत आह–'लोहाईण' इत्यादि, लोभादीनाम् 'अणौ' प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकानां जघन्यवर्गणायाम् 'अविभागाः' रसा-ऽविभागाः खलु 'विशेषाधिकक्रमाः' विशेषेणा-ऽधिकः क्रमो येगा ते विशेषाधिकक्रमाः, भवन्तीति गम्यते । इदमुक्तं भवति-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये लोभस्य प्रथमा- पूर्वस्पर्धकजधन्यवर्गणायां रसाविभागाः स्तोका भवन्ति, ततो मायायाः प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति, ततो मानस्याऽपूर्वस्पर्धकजधन्यवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति, ततोऽपि क्रोधस्याऽपूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणायां रसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-संज्वलनचतुष्कस्य चरमाऽपूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणा रसाविभागानाश्रित्य मिथः समानाः, संज्वलनक्रोधादीनामपूर्व स्पर्धकानि पुनः क्रमेण विशेषाधिकानि भवन्तीत्यनुपदमुक्तम् । तत्र चरमापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागाः स्वस्त्रापूर्वस्पर्धकराशिना भज्यन्ते, तदा लोभादीनां प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रतिबद्धरसाविभागाः प्राप्यन्ते, प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागतो द्वितीयाद्यपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागानां द्विगुणादिक्रमेणावस्थितत्वात् । अनया रीत्या लोभादीनामपूर्वस्पर्धकानामादिवर्गसायां लब्धाः प्रथमवर्गणागतरसाविभागाः क्रमेण विशेषाधिका भवन्ति, भाज्यराशेः समानत्वे सति भाजकस्य वैषम्यात् । उक्त च कषायमाभृतचूर्णी-"तेसिं चेव पढमसमए णिव्वत्तिदाणमपुव्वफद्दयाणं लोभस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं थोवं । मायाए आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । माणस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । कोहस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं।" इति । इदन्त्ववधेयम्-यथा संज्वलनचतुष्कस्य चरमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासु रसाविभागाः परस्परं तुल्या भवन्ति, तथैवाऽनन्तापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणासु रसाविभागा मिथस्तुल्या भवन्ति, किन्तु क्रोधस्य यावन्त्यपूर्वस्पर्धकानि व्यतिक्रम्या-ऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाश्चिन्त्येरन् , ततो मानस्याधिकान्यपूर्वस्पर्धकानि गत्वाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागाश्चिन्तनीयाः। ततो मायाया अधिकान्यपूर्वस्पर्धकानि वजित्वाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां विमर्शनीयाः । ततो लोभस्याधिकान्यपूर्वस्पर्धकानि व्यतिक्रम्याऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाश्चिन्तनीयाः। तद्यथा-क्रोधस्य प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणाप्रतिबद्धरसाविभागतो मानस्य प्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागान् विशोध्य में Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वस्पर्धक प्रथम वर्गणारसाविभागा ] अश्वकर्णकरणाधिकारः १३१ रसाविभागा शेषत्वेन प्राप्यन्ते । तैर्मानस्य प्रथमाऽपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणागतरसा विभागा विभक्तव्याः । विभक्तेषु च यद् लभ्यते, तावन्मात्राणि क्रोधस्याऽपूर्वस्पर्धकानि, ततः साधिकानि मानस्य, ततः साधिकानि मायायाः, ततः साधिकानि लोभस्या- पूर्वस्पर्धकानि गत्वा प्राप्यमाणाऽपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणायां रसाऽविभागा मिथः समाना भवन्ति । पुनस्तावन्ति स्पर्धकानि व्यतिक्रम्य प्राप्यमाणाऽपूर्वस्पर्धक प्रथम वर्गणायां रसाविभागा मिथस्तुल्या भवन्ति । एवमनन्तान्य पूर्वस्पर्धका नि लभ्यन्ते येषां प्रथमवर्गणायां रसाविभागा मिथः सदृशा भवन्ति । 1 असत्कल्पनया कल्प्यन्तां संज्वलनचतुष्कस्य प्रत्येकं चरमा पूर्व स्पधक प्रथमवर्गणायां रसाविभागा द्वाचत्वारिंशच्छतानि ( ४२०० ) मिथस्तुल्यत्वात् । कल्प्यन्तां क्रोधस्याऽपूर्वस्पर्धका पञ्चविंशतिः (२५) मानस्य त्रिंशत् (३०), मायायाः पञ्चत्रिंशत् (३५), लोभस्य चत्वारिंशत् (४०), क्रोधादीनां क्रमेणापूर्वस्पर्धकानां विशेषाधिकत्वात् । अथ द्वाचत्वारिंशच्छतानि स्वस्वाऽपूर्वस्पर्धकराशिना खण्ड्यन्ते, तदा क्रोधस्य प्रथमापूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणायां रसाविभागा अष्टाषष्ट्यधिकशतं (४२०० --- २५ = १६८),मानस्य प्रथमा पूर्वस्पर्धप्रथमवर्गणायां रसाविभागाश्चत्वारिंशदुत्तरशतं (४२००÷३० = १४० ) मायाया: प्रथमाऽपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणायां रसाविभागा विंशत्यधिकं शतं(४२००÷३५ = १२०) लोभस्य प्रथमा- पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाः पञ्चाधिकशतं (४२००÷४० = १०५) प्राप्यन्ते । एवं क्रोधादीनां प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणासु रसाविभागास्तुल्या न भवन्ति । For at प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणागतेभ्योऽष्टाषष्ट्यधिकशतरसाविभागेभ्यो मानस्य प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागत चत्वारिंशदधिकशतरसा विभागेषु विशोधितेष्वष्टाविंशती रसाविभागा (२८) अवशिष्यन्ते, तैर्मानप्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गण । गतचत्वारिंशदुत्तरशतरसा विभागा विभ ज्यन्ते, तदा पञ्च प्राप्यन्ते, तेन क्रोधस्य पञ्चा - ऽपूर्वस्पर्धकानि, मानस्य पट, मायायाः सप्त, लोभस्य त्वष्टौ गत्वा प्रथमवर्गणायां रसाविभागाः परस्परं तुल्या भवन्ति । तद्यथा- क्रोधस्य पञ्चमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां रसाविभागाश्चत्वारिंशदधिकाष्टशतानि (१६८ *५ - ८४०), मानस्य षष्ठाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामपि रसाविभागाश्चत्वारिंशदधिकाष्टशतानि (१४०×६ = ८४०), मायायाः सप्तमाऽपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणायामपि रसाविभागाश्चत्वारिंशदधिकाष्टशतानि (१२०४७ = ८४०), लोभस्याष्टमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामपि रसाविभागाचत्वारिंशदधिकाष्टशतानि ( १०५४८ =८४०) । पुनरेतावत्स्वपूर्वस्पर्धकेषु गतेषु प्रथमवर्गणायां रसाविभागा मिथस्तुल्या भवन्ति । तद्यथा - क्रोधस्य दशमा पूर्वग्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां रसाविभागा श्रशीत्युत्तर षोडशशती (१६८×१०=१६८०), मानस्य द्वादशा- पूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायामपि रसाविभागा प्रशीत्युतरषोडशशती (१४० × १२ = १६८०) । मायायाः पञ्चदशा- पूर्व स्पर्धकस्याद्यवर्गणायामपि रसाविभागा अशीत्युत्तरषोडशशती (१२०×१४ = १६८०) । लोभस्य विंशतितमाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायामपि रसाविभागा अशीत्युत्तरषोडशशती (१०५४१६ - १६८० ) । एवमग्रे ऽपि ज्ञातव्यम् ॥ ६७॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्कल्पनामाश्रित्य यन्त्रकम् १३९] ता ४८० ४२० ८४० षष्ठम् ८४० अपूर्वस्पर्धकम् । प्रथमवर्गणायां क्रोधस्य मानस्य मायायाः | लोभस्य अपूर्वस्पर्धकम् प्रथमवर्गणायां क्रोधस्य | मानस्य मायायाः लोभस्य प्रथमम् रसाविभागाः १६८ । १४० १२० १०५ विंशतितमम् रसाविभागा: ३३६० २८०० | २४०० २१०० द्वितीयम् ३३६ । २८० २४० २१० । एकविंशतितम् ३५२८ २६४० २५२०* २२०५ तृतीयम् ५०४ ४२० ३१५ | ३६६६ ३०८० २६४० २३१० चतुर्थम ६७२ |५६० त्रयो, ३८६४ ३२२० २७६० २४१५ चतुर्विशतितम् | ४०३२ ३३६० २८८० २५२०१ पञ्चमम् १००८ | ८४० ७२० पञ्चविंशतितमम् ४२००+ ३५०० ३००० २६२५ सप्तमम् ११७६ १८० ८४० ३६४० ३१२० २७३० १३४४ ११२० अष्टमम् सप्त ३७८० ३२४०। २८३५ नवमम् १५१२ १२६० १०८० अष्टा ३६२० ३३६० २९४० दशमम् १६८०* १४०० १२०० १०५० नव ४०६० ३४८०३०४५ एकादशम् १८४८ १५४० १३२० ११५५ त्रिंशत्तम ४२००+ ३६०० | ३१५० द्वादशम् २०१६ १६८० १४४० १२६० एकत्रिंशततमम् ३७२०- ३२५५ त्रयोदशम् २१८४ १८२० १५६० १३६५ द्वात्रिंशत्तमम् ३८४० ३३६०A २३५२ चतुर्दशम् १६६० १६८० १४७० त्रयस्त्रिंशत्तमम् ३६६०३४६५ पञ्चदशम् २५२०* २१०० १८०० १५७५ ४०८० ३५७० षोडशम् २६८८ २२४० १९२० १६८०* पञ्चत्रिंशत्तम् ४२००+ ३६७५ सप्तदशम् २८५६ २३८० २०४० १७८५ षट्त्रिंशम् ३७८० अष्टादशम् ३०२४ २५२०* २१६० १८० सप्तत्रिंशम् ३८८५ एकोनविंशतितमम ३१६२ २६६० २२८० १६६५ अष्टात्रिंशम् ३६६० नवत्रिंशम् ४०६५ चत्वारिंशत्तमम् ४२००+ खवगसेढी + * * A + एतैश्चिह्नः सूचिताः प्रथमवर्गणा रसाविभागानाश्रित्य मिथस्तुल्या भवन्ति । •r-tam ] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वस्पर्धकेषु दीयमानदलम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १३३ अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये-ऽपूर्वस्पर्धकेष्वनुभागनिरूपणं विधाय दीयमानं प्रदेशाग्रमभिधातुमना आह देइ अपुव्वेसु विसेसूणकमेणं दलं तो देइ । पुबाईश्र असंखगुणूणं सेसासु उण विसेसूणं ॥६॥ (गीतिः) ददात्यपूर्वेषु विशेषोनक्रमेण दलं ततो ददाति । पूर्वादौ असंख्यगुणोनं शेषासु पुनर्विशेषोनम ।। इति पदसंस्कारः। 'देई' इत्यादि, 'अपूर्वेषु' प्रक्रमाद् अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये-ऽपूर्वस्पर्धकेषु 'दलं' प्रदेशाग्रं 'विशेषोनक्रमेण' विशेषहीनक्रमेण ददाति । इदमुक्तं भवति-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये सर्वपूर्वस्पधेकेभ्य उत्कर्षणापकर्षणभागहारेण विभज्यैकभागमात्रं दलं गृहीत्वा गृहीतं भूयः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागेन खण्डयित्वा बहुभागप्रमाणं दलं पूर्वस्पर्धकेषु निक्षेप्तुं स्थापयति । शेषमेकभागप्रमितं दलं गृहीत्वा प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलिकप्रमितं सकलाःपूर्वस्पर्धकवर्गणाप्रमाणैश्चयैरधिकं दलं प्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां ददाति, तच्च प्रभूतं भवति, तत एकचयेन हीनं दलं प्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकद्वितीयवर्गणायां ददाति । तत एकचयेन हीनं दलं प्रथमा- पूर्वस्पर्धकतृतीयवर्गणायां ददाति । एवमुत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकचयेन हीनं हीनतरं दलं तावत् प्रक्षिपति, यावत् चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । द्वाभ्यां च द्विगुणहानिभ्यां प्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदले विभक्ते एकचयदलं लभ्यते, तच्चा-ऽनन्ततमभागप्रमाणं भवति । तेनोत्तरोत्तरवर्गणायां विशेषहीनं दलं दीयते इति सिध्यति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“पढमसमये णिव्वत्तिज्जमाणगेसु अपुव्वफद्दएसु पुव्वफद्दएहिंतो ओकड्डियूण पदेसग्गमपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए बहुअं देदि, विदियाए वग्गणाए विसेसहोणं देदि । एवमणंतरागंतरेण गंतूण चरिमाए अपुव्वफद्दयवग्गणाए विसेसहोणं देदि।" इति । इत्थमनन्तरोपनिधयोत्तरोत्तरवर्गणायामनन्ततमभागमितेनैकैकचयेन हीनं दलं प्रक्षिपति । परम्परोपनिधया पुनः प्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातश्चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायामसंख्येयभागहीनं प्रदेशाग्रं ददाति, नाधिकम्, निवेत्येमाना-ऽपूर्वस्पर्धकानामेकद्विगुणहानिगतस्पर्धकसत्का-ऽसंख्येयभागकल्पत्वात् । ___अत्र केचित् जघन्यस्पर्धकतः प्रभृति जघन्याऽतीत्थापनामात्राणि मन्दानुभागकान्यनन्तानि स्पर्घकानि विमुच्योपरितनपूर्वस्पर्धकेभ्यो-ऽसंख्येयभागप्रमाणं प्रदेशाग्रं गृहीत्वाऽपूर्वस्पर्धकानि करोतीत्याहुः, तन्न घटते, तथाहि-उपरितनस्पर्धकगता-ऽसंख्येयभागमितदलादपूर्वस्पर्धकनिचौ स्वीक्रियमाणायामपूर्वस्पर्धकेषु सकलं दीयमानं दलं सत्तागतदलस्या-ऽनन्ततमभागमात्रं स्यात् । कथम् ? इति चेत् , उच्यते--जघन्या-ऽतीत्थापनायामनन्तद्विगुणाहानिस्पर्धकानां दर्शनात् Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] खबगसेढी [ गाथा-६८ जघन्यातीत्थापनाया उपरितनेषु स्पर्धाकेषु सकलदलं सत्तागतसर्वदलस्या-ऽनन्ततमभागमात्रं संभवति । न च जघन्या-ऽतीत्थापनायामनन्तद्विगुणहानिस्पर्धकान्यसिद्धानीति वाच्यम्, तथाविधाल्पबहुत्वदर्शनात् । तथाहि-एकद्विगुणहानिस्पर्धकतो-ऽनन्तगुणानि स्पर्धकानि जघन्या-ऽतीत्थापनायो भवन्ति । तथा-चाऽत्र कषापप्राभृतचूर्णि:-"सव्वत्थोवाणि पदेसगुणहाणिहाणंतरफद्दयाणि, जहण्णओ णिक्खेवो अणंतगुणो, जहणिया अइच्छावणा अणंतगुणा।" इति तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि भणितम्-"सव्वत्थोवं पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं । जहण्णओ णिक्वेवो अणंतगुणो । जहण्णिता अतित्थावणा अणंतगुणा।” तेन जघन्यातीत्थापनायामेकद्विगुणहानिस्पर्धकतो.ऽनन्तगुणानि स्पर्धकानि भवन्तीतिसिद्धम्।। ननु गृह्णातु सकलसत्तागतदलस्याऽनन्तभागप्रमितं दलमपूर्वस्पर्धकनिर्वृत्तये विरोधाभावादिति चेद्, उच्यते-अपूर्वस्पर्धकनिव त्तये सकलसत्तागतदलस्या-ऽनन्ततमभागेऽभ्युपगम्यमाने सत्यपूर्व स्पर्धकचरमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दलमनन्तगुणं स्यात्, अपूर्वस्पर्धकार्थ गृहीतस्याऽनन्ततमभागप्रमितदलस्यैकद्विगुणहानिस्पर्धकसत्काऽसंख्येयभागमात्रा ऽपूर्वस्पर्धकेषु प्रक्षेपात् । न चा-ऽस्त्वपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामनन्तगुणं दलमिति वाच्यम्, विरोधोपलम्भात् । तथाहि-यद्यपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दलिकमनन्तगुणं स्वीक्रियेत, तर्हि पूर्वाऽपूर्वयोः स्पर्धकयोदृश्यमानदलमेकगोपुच्छाकारेण न स्यात्, अपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दृश्यमानदलस्या-ऽनन्तगुणत्वप्रसङ्गात् । प्रतिपादयिष्यते च एकोनसप्ततिमगाथया पूर्वापूर्वम्पर्धकयोदृश्यमानदलमेकगोपुच्छाकारेण, तेन सह विरोधः स्यादित्यर्थः । किञ्च कषायमाभृतचूर्णी अपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो-ऽपि पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दलं विशेषहीनमेवाऽभिहितम्, तथा चाऽत्र कषायप्राभूतचूणिः- "तम्हि चेव पढमसमए जं दिस्सदि पदेसरगं, तमपुवफहयाणं पढमाए वग्गणाए बहुअं, पुष्वफद्दयआदिवग्गणाए विसेसहीणं ।" इति । तेन सहा-ऽपि विरोधः स्यात् । केचित्तु प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाया अधस्तादनन्तस्पर्धकान्यन्तरयित्वा-ऽपूर्वस्पर्धकानि निवर्तयति, अन्तरितस्पर्धकानि पुनः शून्यरूपेण परित्यज्य न निवर्तयति। तावन्ति स्पर्धकान्यतीत्थापनात्वेन मन्तव्यानीत्याहुः, तदपि नातिक्षोदक्षमम् । तथा-ऽभ्युगमेऽपूर्वस्पर्धकार्थ गृह्यमाणस्याऽपकर्षितदलसत्का-संख्येयभागमितस्य दलस्या-ऽतीत्थापना सूपपद्यत । किन्त्वपकर्षितदलसत्काऽसंख्येयबहुमागप्रमितदलिकस्य पूर्वस्पर्धकेषु निक्षिप्यमाणस्याऽतीत्थापना घटां कथमृच्छेत् ? तेन तथास्त्राभाव्यादेवा-ऽस्मिन् प्रस्तावेऽनुभागाऽपवर्तनाऽतीत्थापनां विनाऽपि संभवति । तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्ति । इत्थमविशेषेणसत्तागतसर्वपूर्वस्पर्धकेभ्यो ऽसंख्येयमागमात्र दलं गृहीत्वा-ऽपूर्वस्पर्घकानि निवर्तयति। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्पर्धकेषु दीयमानदलम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १३५ अथ पूर्वस्पर्धकेषु दीयमानं दलं प्ररुरूपयिषुराह-'तओ' इत्यादि, 'ततः' अपूर्वस्पर्धकतः परं चरमाऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः परमित्यर्थः 'पूर्वादौ' पूर्वस्पर्धकादिवर्गणायां प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामित्यर्थः, 'असंख्यगुणोनम्' असंख्येयगुणहीनं दलं ददाति । इदमुक्तं भवतिचरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां यावद् दलं ददाति, ततोऽसंख्येयगुणहीनं प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां ददाति । किं कारणम् ? इति चेद् , उच्यते-पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलं सार्धद्विगुणहान्या गुण्यते, तदा सत्तागतसकलदलं प्राप्यते । सत्तागतसर्वदलमुत्कर्षणापकर्षणमागहारेण विभज्यैकभागप्रमाणदलमुत्किरति । उत्कीर्णदलं पुनः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागेन भक्त्वैकभागप्रमाणदलमपूर्वस्पर्धकेषु विशेषहीनक्रमेण ददत् चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलिकत एकचयेनाऽधिकं ददाति । शेषा-ऽसंख्येयबहुभागप्रमाणं दलं विशेषहीनक्रमेण सर्वपूर्वस्पर्धकवर्गणासु ददाति, तत्र प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां यावद्दलं ददाति, तावद्दलं यदीतरवर्गणास्वपि दद्यात्, तर्हि सार्धद्विगुणहानिप्रमाणवर्गणासु गतासूत्कीर्णदलस्याऽसंख्येयबहुभागप्रमाणं दलं परिसमाप्याद् इति कृत्वोत्कीर्णदलस्या-ऽसंख्येयबहुभागप्रमितदलं सार्धद्विगुणहान्या विभज्यते, तदा य एक भागो लभ्यते, तावन्मानं दीयमानं दलं प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां भवति । तच्च प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रतिबद्धप्राक्तनसत्तागतदलस्या-ऽसंख्येयभागमात्रं भवति । तेन प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दीयमानदलमपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातो-ऽसंख्येयगुणहीनं भवति, चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां दीयमानदलस्यैकचयेनाऽधिकपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलपमितत्वात् प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां च दीयमानदलस्य स्वपुरातनसत्तागतदलसत्का-ऽसंख्येयभागप्रमाणत्वात् । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो चरिमादो अपुव्वफद्दयवग्गणादो पढमस्स पुन्वफद्दयस्स आदिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीर्ण देदि।" इति । न्यास :सत्तागतदलम् = प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलम् x सार्धद्विगुणहानिः उत्कीर्यमाणदलम = सत्तागतदलम् : उत्कर्षणापकर्षणभागहारः अपूर्वस्पर्धकार्थं गृह्यमाणं दलम् = उत्कीर्यमाणदलम् : पल्योपमा- संख्येयभागः । पूर्वस्पर्धकेषु निक्षिप्यमाणं दलम् = उत्कीर्यमाणदलम्- अपूर्वस्पर्धकतया परिणमनाय गृहीतदलम प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दीयमानं दलम् पूर्वस्पर्धकेषु निक्षिप्यमाणं दलम् : सार्धद्विगुणहानिः = स्वसत्तागतदलम् : असंख्यातम् चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां दीयमानदलम् = आद्यपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणादलम्+एकाचयः । ...चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां दीयमानदलतः प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयगुणहीनं दलं ददाति । ___ एतर्हि पूर्वस्पर्धकानां शेषवर्गणासु दलिकनिक्षेपं वक्तुकाम आह–'सेसासु' इत्यादि, 'शेषासु' प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणां वर्जयित्वा शेषासु पूर्वस्पर्धकानां सर्ववर्गणासु पुनर्विशेषोनं दलं Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] खवगसेढी [गाथा-६६ ददातीति सम्बध्यते । तथाहि-प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दीयमानदलतस्तद्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं दलं ददाति, विशेषश्चो-ऽनन्ततमभागो बोद्धव्यः । ततोऽपि तृतीयवर्गणायां विशेषहीनं दलं ददाति । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावच्चरमनिक्षेपपर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा। उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो विदियाए पुवफद्दयवग्गणाए विसेसहोणं देदि, सेसास सव्वासु पुवफद्दयवग्गण सु विसेसहोणं देदि ।" इति ॥८॥ दीयमानदलमभिधाय साम्प्रतं पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु दृश्यमानदलं प्ररूपयतिदिस्सइ दलिअं पुव्वापुब्वेसु फड्डगेसु गोपुच्छेणं । पुव्वाईअ अपुब्वाइत्तो दिस्सइ असंखभागविहीणं ॥६६॥ (अार्यागीतिः) दृश्यते दलिकं पूर्वा-ऽपूर्वषु स्पर्धकेपु गोपुच्छेन । पूर्वादावपूर्वादितो दृश्यते ऽसंख्यभागविहीनम् ॥ ६६ ।। इति पदसंस्कारः । 'दिस्सई' इत्यादि, इह तावत् प्रथममनन्तरोपनिधया दृश्यमानदलं निरूपयति । तत्र दृश्यमानं दल नाम तदानीं निक्षिप्यमाणदलेन सहितं पुरातनसत्तागतदलम् । अपूर्वस्पर्धकेष यन्निक्षिप्यमाणं दलं तदेव दृश्यमानं दलं भवति, तत्र पुरातनसत्तागतदलस्या ऽभावदर्शनात् । पूर्वस्पर्धकेप त्विदानी निक्षिप्यमाणदलेन सहितं पुरातनसत्तागतदलिकं दृश्यमानं भवति । तत्र 'पुवापुवेसु" ति 'पूर्वापर्वेषु' पूर्वस्पर्धकेष्वपूर्वस्पर्ध केषु च 'गोपुच्छेन' गोपुच्छाकारेण 'दलिक' प्रदेशाग्रं दृश्यते । अयं भावः-प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दृश्यमानं दलं प्रभूतं भवति । ततः प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकद्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं दृश्यमानं दलं भवति, निक्षिप्यमाणदलस्य विशेषहीनत्वात् । अयं हेतुरग्रेऽपि यथास्थानं योजनीयः । ततोऽपि तृतीयवर्गणायां दृश्यमानं दलं विशेषहीनं भवति, एवं विशेषहीनक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावच्चरमा-ऽपर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । अपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दृश्यमानं दलं विशेषहीनं भवति, ततोऽपि प्रथमपूर्वस्पर्धकद्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं दृश्यमानं दलं विद्यते । एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यम्, यावच्चरमपूर्वस्पध कस्य चरमवर्गणा । विशेषश्चा-ऽनन्ततमभागो ज्ञातव्यः । अथ परम्परोपनिधया दृश्यमानं दलं प्ररूपयितुकाम आह- "पुव्वाईअ" इत्यादि, 'पर्वादौ' पदैकदेशेन पदसमदायस्य गम्यमानत्वात् पूर्वस्पधकादिवर्गणायां प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामित्यर्थः, 'असंख्यभागविहीनम्' असंख्येयतमभागेन न्यूनं दलं दृश्यते । उक्त च कषायप्राभृती -"तम्हि चेव पढमसमये जं दिस्सदि पदेसग्गं, तमपुव्वफद्दयाणं पढमाए वग्गणाए बहुअं। पुव्वफद्दयआदिवग्गणाए विसेसहोणं ।" इति विशेषथाना-ऽसंख्येयभागो बोद्धव्यः। कुतः ? इति चेत्, शृणुत-अपूर्वस्पर्धकानामेकद्विगुणहानि. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ ] प्रथम स्पर्धकम् । पू भ यन्त्रकम् - १३ (चित्रम् - १३) अश्वकर्ण करणाद्धाप्रथम समयेऽपूर्वस्पर्धकेषु पूर्वस्पर्धकेषु च दीयमानं दृश्यमानं च दम् । अन्तरम् अन्तरम् ********* । द्वितीय सर्धकम् । । तृतीय स्पर्धकम् । स्प धे अन्तरम् केचि त्वन्तस्तिस्पर्धकान्यतीत्थापनात्येनाहुः [ लवगढी । चतुर्थ स्पर्ध कम् । । प्रथम पूर्व स्पर्धक म् । नि पूर्वस्पर्धकान का सङकेत स्पष्टीकरणम् - सकलापूर्वस्पर्धकानि वस्तुत एकद्विगुणहानिस्पर्धकानाम संख्येयभागमात्राणि भवन्ति, असत्कल्पनयाsत्र चत्वारि दर्शितानि १ = प्रथमवर्गणा । २ = द्वितीयवर्गणा । ३ = तृतीयवर्गणा । ४ = चतुर्थवर्गणा । *= सकलापूर्वस्पर्धकवर्गणाराशिप्रमाणैश्चयैरधिकं प्रथमपूर्व सर्व कप्रथमवर्गणाग नदलिकं प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां दीयते तच्च प्रभूतम्, तत उत्तरोत्तरवर्गणायामेकैकचयेन हीनं हीनतरं तावद्दीयते, यावत् चरमापूर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । एतत्सर्वम् इत्यनेन चिह्न ेन सूचितम् । ००० = अनेन चिह्नन चरमापूर्वस्पर्धक चरमवर्गणातः प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयगुणहीनं दलं दीयत इति सूचितम् । * = अनेन चिह्न ेन पूर्वस्पर्धकेषु पुरातनसत्तागतं दलं सूचितम् ★अनेन चिह्न ेन सूचितस्य पूर्वस्पर्धकेषु पुरातन सत्तागतदलस्य सवावर मापूर्वस्पर्धकचरमवर्गणापेक्षया पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायाम संख्येयगुणहीनं दलं दीयते, अन्यथैकगोपुच्छाकारेण पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु दलं न दृश्येत । प्रथमपूर्वस्पर्धकप्रथमत्रर्गणायां दीयमानं दलं स्वपुरातनसत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं भवति । •••• = अनेन चिह्न ेन प्रथमपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गेणात उत्तरोत्तरवर्गणायां विशेषहीनं दलं दीयत इति सूचितम् । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७] यन्त्रकम्-१३ (चित्रम्-१३) [ खवगसेढी अनुभागापेक्षयाऽनन्तरोपनिधा-प्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथमर्वाणायामनुभागः स्तोकः, ततस्तद्वितीयणायामेकरसाविभागेनाऽधिकः, एवमुत्तरोत्तरवर्गणा यां वाच्यः, नवरं यत्र द्वयोः स्पधेकयो. सन्धिर्भवति, तत्राऽधस्तनस्पर्धकचरमवर्गणात उपरितनस्पर्धकप्रथमवर्गणायामनुभागः सर्वजीवानन्तगुणर साविभागैरविको भवति । यत्र च पूर्वापूर्वस्पर्धकयोः सन्धिर्भवति, तत्राऽपूर्वस्पर्धकच रमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामनुभागोऽनन्तगुणो भवति । अनुभागापेक्षया परम्परोपनिधा-प्रथमापूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणातो द्वितीयापूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां' रसाविभागा द्विगुणा भवन्ति, तृतीयस्पर्धकप्रथमवणायां त्रिगुणाः, एवं यतिसंख्यं स्पर्धकम, तत्संख्यगुणा रसाविभागाः प्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणारसाऽविभागापेक्षया भवन्ति । दृश्यमानदलापेक्षया-ऽनन्तरोपनिधा दृश्यमानदलमपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रभूतं दलं भवति, ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनम् , एवमुत्तरोत्तर वर्गणायां तावद्वाच्यम् , यावद् चरमपूर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा। दृश्यमानदलापेक्षया परम्परोपनिधा-प्रथमापूर्वस्पर्धकत आरभ्य यावत् सकलापूर्वस्पर्धकानामसंख्ये बतमभागकल्पान्यनन्तान्यपूर्वस्पर्धकानि व्यतिक्रम्यन्ते, तावदपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो कस्याञ्चिदपि वर्गणायामनन्तभागहीनं दल दृश्यते, ततः परं सर्वापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां प्रथमपूर्वसर्धकप्रथमवर्गणायां चाऽसंख्येयभागहीनं दलं दृश्यते । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमसमये बन्धोदयौ ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १३७ स्पर्धकानामसंख्येयभागमात्रत्वाद् अपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणात एकद्विगुणहानिस्पर्धकानामसंख्येयमार्ग व्यतिक्रम्य पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाऽवतिष्ठते । यद्यपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणात एकद्विगुणहानिगतस्पर्धकान्यतिक्रम्येरन् , तीपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो द्विगुणहीनाः प्रदेशा भवेयुरर्धाः स्युरित्यर्थः । अत्र त्वेकद्विगुणहानिस्पर्धकानामसंख्येयभाग एव व्यतिक्रान्तः, तेनाऽपर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयभागेन हीनं दलं तिष्ठति । इदमत्रा-ऽवधेयम्-न केवलमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयभागहीनं दलं दृश्यते, अपि तु प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकतो यावत् सकलाऽपूर्वस्पर्धकानां तत्प्रायोग्याऽसंख्येयतमभागकल्पान्यपूर्वस्पर्धकानि न व्यतिक्रम्यन्ते, तावदपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो-ऽनन्तभागहीनं दलं दृश्यते, तदुपरितनसर्वाऽपूर्वस्पर्धकवर्गणायामप्यसंख्येयभागहीनं दलं दृश्यते । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-१३ । इति ॥ ६६ ।। अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये-ऽपूर्वस्पर्धकानि प्ररूप्या-ऽश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयेऽनुभागबन्धौदयौ प्रतिपिपादयिपुराहपढमसमये अपुवाणि फड्डगाइं अणंतभागमिश्राइं। हेट्ठाणि पराण उदिण्णाई बंधो तहेवऽयंतगुणूणो ॥७०॥ (आर्यागीतिः) प्रथमसमये-ऽपूर्वाणि स्पर्धकान्यनन्तभागमितानि । अधस्तनानि परेषामुदीर्णानि बन्धस्तथैवाऽनन्तगुणोनः ॥ ७० ॥ इति पदसंस्कारः । 'पढमसमये' इत्यादि, 'प्रथमसमये' अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये 'अपूर्वाणि' अपूर्वस्पर्धकानि 'परेषां' पूर्वस्पर्धकानां च 'अनन्तभागमितानि' अनन्ततमभागकल्पान्यधस्तनानि स्पर्धकान्युदीर्णानि भवन्ति । इदमुक्तं भवति-अश्वकर्णकरणाद्धायाः प्रथमसमयेन क्रियमाणसकला-ऽपूर्वस्पर्धकेभ्यः कियन्तश्चित् प्रदेशास्तदानीमेवोदीरणाप्रयोगेणोदयस्थितौ निक्षिप्यन्ते, न सर्वे प्रदेशाः । एवं पूर्वस्पर्धकानामनन्ततमभागमात्राऽधस्तनाल्पानुभागकपूर्वस्पर्धकेभ्यः कियन्तश्चित् प्रदेशा उदीरणाप्रयोगेणोदयस्थितौ प्रक्षिप्यन्ते, न तु तदुपरितनपूर्वस्पर्धकेभ्यः, नवा-ऽधस्तनपूर्वस्पर्धकेभ्यः सर्वे प्रदेशाः । इत्थं सकलाऽपूर्वस्पर्धकानि पूर्वस्पर्धकानां चाऽ-नन्ततमभागमात्राणि सर्वाण्यधस्तनपूर्वस्पर्धकानि स्वस्वरूपेणोदयन्ति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "उदयपरूवणा, जहा-पढमसमये चेव अपुव्वफद्दयाणि उदिण्णाणि च अणुदिण्णाणि च, पुव्वफद्दयाणं पि आदोदो अणंतभागो उदिण्णो च अणुदिण्णो च ।” इति । एतेषामक्षराणामयं भावः-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये परिणम्यमानसर्वा-ऽपूर्वस्पधेकभ्यः कियन्तश्चित् प्रदेशा उदीरणाप्रयोगेणोदयस्थितौ प्रक्षिप्यन्ते, अपूर्वस्पर्धकानां द्वितीयस्थिताववस्थानात्, शेषाश्च न प्रक्षिप्यन्ते । इहोदये निक्षिप्यमाणानपूर्वस्पर्धकसत्कप्रदेशानाश्रित्य चूर्णिकारैरपूर्वस्पर्धकान्युदीर्णानीत्युच्यते, अनिक्षि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] खवगसेढी [ गाथा-७१ प्यमाणानपूर्वस्पर्धकप्रदेशानवलम्ब्या-ऽपूर्वस्पर्धकान्यनुदीर्णानीति व्यवह्रियते । तथा पूर्वस्पर्धकानामनन्ततममागमात्रपूर्वस्पर्धकेभ्यः कियन्तश्चित् प्रदेशा उदये निक्षिप्यन्ते, तेना-ऽनन्ततमभागमितानि पूर्वस्पर्धकान्युदीर्णानीति व्यपदिश्यते, तेभ्यश्च शेषाः प्रदेशा उदये न निक्षिप्ताः, तेन तान्यनुदीर्णान्याप व्यवह्रियन्ते । अधस्तनाऽनन्ततमभागमात्रपूर्वस्पर्धकानि वर्जयित्वा शेषाणि पूर्वस्पर्धकान्यनुदीर्णानि ज्ञातव्यानि, तेभ्य एको-ऽपि प्रदेश उदयस्थितौ स्वस्वरूपेण न प्रक्षिप्यते इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"उवरि अणंता भागा अणुदिण्णा । ” इति । साम्प्रतमनुभागबन्धमतिदिदिक्षुराह-'बंधो तहेव' ति 'बन्धस्तथैव' यथा साण्यपर्वस्पर्धकान्यनन्तभागप्रमाणानि च पर्वस्पर्धकान्युदोर्णानि भवन्ति, तथैव सर्वाण्यपर्वस्पधकान्येकस्थानकपूर्वस्पर्धकानां चा-ऽनन्ततमभागप्रमाणानि पूर्वस्पर्धकानि बध्यन्ते, अनुभागमाश्रित्य सर्वाऽपूर्वस्पर्धफेरनन्ततमभागप्रमाणपूर्वस्पर्धकैश्च सदृशानि स्पर्धकानि बध्यन्ते इत्यर्थः । उक्तं च कषायमाभृतचूर्णी-- "बंधेण निव्वत्तिज्जंति अपुव्वफदयं पढममादि कादूण जाव लदासमाणफदयाणमणंतभागो त्ति ।" इति 'तहेव' इत्यनेनोदयातिदेशं कृत्वा बन्धे उदयतो यो विशेषः, तं दर्शयति 'अणंतगुणणो' ति 'अनन्तगुणोनः' बन्ध उदयतो-ऽनन्तगुणहीनो भवति, उदयमानस्पर्धकेभ्यो बध्यमानस्पर्धकान्यनन्तगुणहीनानि भवन्तीत्यर्थः ॥ ७० ॥ अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमयमधिकृत्य प्ररूपणां कृत्वा द्वितीयादिसमयेऽवपूर्वस्पर्धकानि दर्शयति अणुसमयमसंखगुणं दलिअं घेत्तृण पकुणेइ । पडिसमयमपुव्वाणि खलु असंखेज्जगुणहीणाई ॥७१॥ (उपगीतिः) अनुसमयमसंख्यगुणं दलिकं गृहीत्वा प्रकरोति । प्रतिसमयमपूर्वाणि खल्वसंख्येयगुण हीनानि ।। १।। इति पदसंस्कारः । 'अणुसमयमसंखगुणं' ति, अनुसमयमसंख्यगुणं 'दलिक' प्रदेशाग्र 'गृहीत्वा' अपकृष्य प्रतिसमयमसंख्येयगुणहीनानि 'अपूर्वाणि' अपूर्वस्पर्धकानि खलु 'प्रकरोति' निर्वर्तयति । इदमुक्तं भवति-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये यान्यपूर्वस्पर्धकानि कृतानि, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणहीनान्यन्यान्यपूर्वस्पर्धकानि निर्वर्तयति, दलिकं तु प्रथमसमयतो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणमपकर्षति ।' ततस्तृतीयसमये-ऽसंख्येयगुणहीनान्यन्यान्यपूर्वस्पर्धकानि निवर्तयति, दलिकं त्वसंख्येयगुणमपकर्षति । एवमुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणं दलिकमपकृष्या-ऽसंख्येयगुणहीनान्यन्यान्यपूर्वस्पर्धकानि निवर्तयति । न्यगादि च कषायमाभृतचूणौं Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयादिसमयेषु दीयमानदलम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [१३६ "पढमसमए अपुव्वफदयाणि णिव्वत्तिदाणि बहुआणि । विदियसमए जाणि अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि, ताणि असंखेज्जगुणहोणाणि । तदियसमए अपुवाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि,ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । एवं समए समए जाणि अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि,ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । इति ॥७१।। अथा-ऽश्वकर्णकरणाद्धाया द्वितीयादिसमयेषु दीयमानं दृश्यमानं च दलं विवर्णयितुकामो भणति तक्कालिअसु देइ अपुब्वेसु दलं विसेसूणं । तो पुव्विल्लअपुवादी असंखगुणहीणदलं ॥७२॥ (उपगीतिः) तत्तो विसेसहीणकमेणं जा पुवचरिमाश्रा। दिस्सइ दलिअं पुव्वापुव्वेसु विसेसहीणकमं ॥७३॥ (उपगीतिः) तात्कालिकेषु ददात्यपूर्वेषु दलं विशेषोनम् । ततः प्राक्तना-ऽपूर्वादौ असंख्यगुणहीनदलम् ।। ७२ ॥ ततो विशेषहीनक्रमेण यावत्पूर्वचरमा। दृश्यते दलिकं पूर्वापूर्वेषु विशेषहीनक्रमम् ॥ ७३ ।। इति पदसंस्कार । 'तक्कालियेसु' इत्यादि, 'तात्कालिकेषु' तस्मिन् काले भवानि तात्कालिकानि "व्यादिभ्यो णिकेकणी" (सिद्धहेम०६-३-३४) इति सूत्रेण णिकप्रत्ययो वा इकणप्रत्ययो वा, तेषु, तत्कालभाविष्वित्यर्थः, 'अपूर्वेषु' अपूर्वस्पर्धकेषु 'दलं' प्रदेशाग्रं 'विशेषोनं' विशेषहीनं ददाति' निक्षिपति । 'ततः' तात्कालिका-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः 'प्राक्तना-ऽपूर्वादो' प्राक्तनसमयकृतापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयगुणहीनदलं ददातीति सम्बध्यते। 'ततः' प्रथमसमयकृता-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो विशेषहीनक्रमेण यत्तदोः मिथः सापेक्षत्वात् तावद् ददाति 'यावत्पूर्वचरमा' यावत् पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणा । भावार्थः पुनरयम्-अश्वकर्णकरणाद्धाद्वितीयसमये प्रथमसमयतो-ऽसंख्येयगुणं दलमपकृष्या-ऽसंख्येयगुणहीनान्यन्यान्यपूर्वस्पर्धकानि निवर्तयति । तत्र द्वितीयसमये निर्वय॑मानप्रथमाऽपर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां प्रभूतं दलिकं ददाति, ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं दलिकं निक्षिपति, ततोऽपि तृतीयवर्गणायां विशेषहीनं दलं ददाति । एवं क्रमेण तावद् ददाति, यावद् द्वितीयसमयनिर्वयमानचरमा-ऽपूर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । द्वितीयसमयनिर्वQमान-चरमा-ऽपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः प्रथमसमयकृतप्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायामसंख्येयगुणहीनं दलिकं ददाति, ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं ददाति, ततस्तृतीयवर्गणायां विशेषहीनं ददाति । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावत् प्रथमसमय Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. ] खवगसेढी [ गाथा-७२-७३ कृतचरमाऽपूर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । ततः प्रथमपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां विशेषहीनं दलिक निक्षिपति, ततोऽपि द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं ददाति । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् निक्षिपति, यावच्चरमनिक्षपपूर्वस्पर्धकस्य चरमवगणा। उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"विदियसमये अपुव्वफदएसु पदेसग्गस्स दिज्जमाणयस्स सेढिपरूवणं वत्तइस्सामो,तं जहा-विदियसमए अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि, विदियाए वग्गणाए विसेसहोणं । एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणं दिज्जदि ताव, जाव जाणि विदियसमए अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि, तदो चरिमादो वग्गणादो पढमसमए जाणि अपुवफदयाणि कदाणि, तेसिमादिवग्गणाए दिज्जदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं । तदो विदियाए वग्गणाए विसेसहोणं दिज्जदि, तत्तो पाए अणंतरोवणिधाए सव्वत्थ विसेसहीणं दिज्जदि । पुवफदयाणमादिवग्गणाए विसेसहोणं दिज्जदि। सेसासु वि विसेसहीणं दिज्जदि।" इति । यथा द्वितीयसमये दीयमानदलप्ररूपणा कृता, तथा शेषसमयेष्वपि कर्तव्या, यावदश्वकर्णकरणाद्धाचरमसमयः। ___ अथ द्वितीयादिसमयेषु दृश्यमानदलं प्ररूपयति-दिस्सई' इत्यादि, तत्र 'पुधापुव्वेसु' 'त्ति' 'पूर्वापूर्वेषु' पूर्वस्पर्धकेष्वपूर्वस्पर्धकेषु च विशेषहीनक्रमं दलिकं दृश्यते । तथाहि-अश्वकर्णकरणाद्धाया द्वितीयसमये निर्वयंमानप्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रभूतं दलिकं दृश्यते, ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं दृश्यते । ततोऽपि तृतीयस्यां विशेषहीनम् । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् वाच्यम्, यावद् द्वितीयसमये निवर्त्यमानचरमस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । ततः प्रथमसमयकृतप्रथमाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां विशेषहीनं दलिकं दृश्यते । ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीनं दृश्यते । एवं विशेषहीनक्रमेण तावदभिधातव्यम् , यावच्चरमपूर्वस्पर्धकस्य चरमवर्गणा । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूर्णी-"विदियसमये अपुव्वफदएसु वा पुचफदएसु वा एकेकिस्से वग्गणाए जं दिस्सदि पदेसग्गं, तमपुव्वफद्दयआदिवग्गणाए बहुअं । सेसामु अणंतरोवणिधाए सव्वासु विसेसहीणं ।" इति । अनेन क्रमेण दृश्यमानदलं तावन्निगदितव्यम् , यावदश्वकर्णकरणाद्धायाश्चरमसमयः । अश्वकर्णकरणाद्धायामनेन विधिना-ऽपूर्वस्पर्धकानि निर्वर्तयतो जीवस्य प्रथमेऽनुभागखण्डे विनष्टे लोभ-माया-मान-क्रोधानां यथाक्रममनुभागसत्कर्माऽनन्तगुणं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "जहा तदियसमए एस कमो ताव, जाव पढममणुभागखंउयं चरिमसमयअणुकिण्णं ति, तदो से काले अणुभागसंतकम्मे णाणत्तं । तं जहा-लोभे अणुभागसंतकम्मं थोवं, मायाए अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं, माणस्साणुभागसंतकम्ममणंतगुणं, कोहस्साणुभागसंतकम्मणंतगुणं ।" इति । एतच द्वाषष्टितमगाथया प्राग् भावितम् ॥७३॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशपदानामल्पबहुत्वम् । अश्वकर्णकरणाधिकारः [१४१ अथा-ऽश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमे-ऽनुभागखण्डे विनष्टे-ऽष्टादशपदानामल्पबहुत्वमभिधित्सुराह इगखंडे पुण्णे-ऽप्पाबहुगं अट्ठारसपयाणं । कोहादोण अपुब्वाइं फड्डाइं विसेसअहियाइं ॥७४॥ (उद्गीतिः) तत्तो एगदुगुणहाणिफड्डगाइं असंखगुणिश्राणि । तत्तो अणंतगुणिया इगफड्डगवग्गणा होन्ति ॥७॥ तत्तो य वग्गणा कोहअपुव्वगफड्डगाणऽणतगुणा । माणादीण अपुब्वगफड्डाणं वग्गणा विसेसऽहिया ॥७६॥ (गीतिः) लोहस्स पुव्वफड्डाणि अणंतगुणाणि वग्गणा सिं य । एवं जाव अणंतगुणा कोहस्स खलु वग्गणा होति ॥७७॥ (गीतिः) एकखण्डे पूर्णे-ऽल्पबहुत्वमष्टादशपदानाम् । क्रोधादीनामपूर्वाणि स्पर्धकानि विशेषाधिकानि ॥७४।। तत एकद्विगुणहानिस्पर्धकान्यसंख्यगुणितानि । तेभ्यो-ऽनन्तगुणिता एकस्पर्धकवर्गणा भवन्ति ।।७।। ताभ्यश्च वर्गणाः क्रोधा-ऽपूर्वस्पर्धकानामनन्तगुणाः । मानादीनामपूर्वस्पर्धकानां वर्गणा विशेषाधिकाः ॥७६।। लोभस्य पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगुणानि वर्गणास्तेषां च । एवं यावदनन्तगुणाः क्रोधस्य खलु वर्गणा भवन्ति ।।७७।। इति पदसंस्कारः ।। 'इगखंडे' इत्यादि, 'एकखण्डे' "भामा सत्यभामा” इति न्यायेनात्र खण्डशब्देना-ऽनुभागखण्डं ग्राह्यम् , ततश्चायमर्थः-अश्वकर्णकरणाद्धायामेकस्मिन्ननुभागखण्डे 'पूर्णे' निष्ठां गते घातिते इत्यर्थः, 'अष्टादशपदानाम्' अष्टादशसंख्यकानां पदानां क्रोधा- पूर्वस्पर्धकादिरूपाणाम् 'अल्पबहुत्वं' स्तोकबहुत्वं भणितव्यमिति शेषः । तदेव दर्शयति-'कोहादीण' इत्यादि, 'क्रोधादीनाम्' क्रोधमानभायालोभरूपाणां 'अपूर्वाणि' प्रागुक्तस्वरूपाण्यपूर्वाणि स्पर्धकानि विशेषाधिकानि भवन्ति, विशेषाधिकक्रमेण तेषां निवृत्तेरुक्तत्वात् । एतदुक्तं भवति (१) संज्वलनक्रोधस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि सर्वस्तोकानि, (२) ततः संज्वलनमानस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि विशेषाधिकानि, (३) ततः संज्वलनमायाया अपूर्वस्पर्धकानि विशेषाधिकानि भवन्ति (४) ततो-ऽपि संज्वलनलोभस्या- पूर्वस्पर्धकानि विशेषाधिकानि । (५) 'तत्तो' इत्यादि, 'तेभ्यः' संज्वलनलोभस्या-ऽपूर्वस्पर्धकेभ्य एकद्विगुणहानिस्पर्धकानि 'असंख्यगुणितानि' असंख्येयगुणानि मवन्तीत्यर्थः, किं कारणम् ? Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] खवगसेढी [गाथा-७४-७७. इति चेत, उच्यते-एकद्विगुणहानिस्पर्धकानामसंख्येयभागमितान्येवा-ऽपूर्वस्पर्धकानि करोति । तेन पूर्वपदत इदं पदमसंख्येयगुणं सिध्यति । गुणकारश्च पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्या-ऽसंख्येयभागकल्पो ज्ञातव्यः । (६) 'तत्तो' इत्यादि, 'तेभ्यः' एकप्रदेशद्विगुणहानिगतस्पर्धकेभ्य एकस्पर्धकवर्गणा 'अनन्तगुणिताः' अनन्तगुणा भवन्ति । अत्र स्पर्धकशब्देन पूर्वस्पर्धकमपूर्वस्पर्धकं वा ग्राह्यम्, उभयत्राऽपि वर्गणानां समानत्वात् । यथैकद्विगुणहानिस्पर्धकान्यभव्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानां चाऽनन्तभागमितानि, तथैवैकस्मिन् स्पर्धके वर्गणा अपि अभव्येभ्यो-ऽनन्तगुणाः सिद्धानां चाsनन्तभागकल्पा भवन्ति । किन्त्वेकद्विगुणहानिगतस्पर्धकत एकस्पर्धकगतवर्गणा अनन्तगुणा भवन्तीत्येतदनेनाऽल्पबहुत्वेन ज्ञापितम् । (७) 'तत्तो य' इत्यादि, 'ताभ्यश्च' एकस्पर्षकगतवर्गणाभ्यः 'कोहअपुव्वगफडगाणं' ति, अपूर्वशब्दात् “'कश्च"(सिद्धहेम० ८-३-१)इत्यनेन प्राकृतसूत्रेण स्वार्थे कप्रत्ययः, एवमुत्तरत्राऽपि, क्रोधाऽपूर्वस्पर्धकानां' संज्वलनक्रोधसत्का-ऽपूर्वस्पर्धकानां वर्गणा अनन्तगुणा भवन्ति, चकारः 'तत्तो' इत्यस्योत्तरत्राऽनुवृत्यर्थः । पूर्व टेकस्पर्धकगतवर्गणा उक्ताः, अस्मिन् पदे सकलाऽपूर्वस्पर्धकगतवर्गणा भण्यन्ते, अपूर्वस्पर्धकानि त्वेकद्विगुणहानिगतस्पर्धकानामसंख्येयभागप्रमितानि गणनातश्चा-ऽनन्तानि क्रियन्ते । तेन पूर्वपदत इदं पदमनन्तगुणं भवति । गुणकारश्चाऽभव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानां चाऽनन्तभागमात्रो बोद्धव्यः । स पुनरेकप्रदेशंद्विगुणहानिगतस्पर्धकानामसंख्येयभागमात्रो भवति । ताभ्यः-क्रोधस्या-ऽपर्वस्पर्धकगतवर्गणाभ्यः 'माणादीण' इत्यादि, 'मानादीनां' मान-माया-लोभलक्षणानां क्रमेण सकलानामपूर्वस्पर्धकानां वर्गणा विशेषाधिका भवन्ति, क्रोधतो मानादीनामपूर्वस्पर्धकानां क्रमेण विशेषाधिकत्वात्, सर्वत्रैकस्मिन् स्पर्धके वर्गणानां समानत्वाच्च । तथाहि-(८) संज्वलनक्रोधस्य सकला-ऽपूर्वस्पर्धकगतवर्गणातः संज्वलनमानस्य सकला-ऽपूवस्पर्धकगतवर्गणा विशेषाधिका भवन्ति, क्रोधतो मानस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानां विशेषाधिकत्वात् । (8) मानस्य सर्वा-ऽपूर्वस्पर्धकवर्गणातो मायाया निखिला- पूर्वस्पर्धकगतवर्गणा विशेषाधिकाः, मानतो मायाया अपूर्वस्पर्धकानां विशेषाधिकत्वात् । (१०) ततोऽपि लोभस्य सकलाऽपूर्वस्पर्धगतवर्गणा विशेषाधिकाः, मायातो लोभस्य निखिला-ऽपूर्वस्पर्धकानां विशेषाधिकत्वात् । (११) ताभ्यो 'लोभस्य' संज्वलनलोभस्य पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगुणानि वक्तव्यानि । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , शृणुत-लोभस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानामेकद्विगुणहानिगतस्पर्धकसत्का-ऽसंख्येयभागमात्रत्वात् सकला-ऽपूर्वस्पर्धकतः पूर्वस्पर्धकसत्कायामेकस्यामेव द्विगुणहानौ असंख्येयगुणानि पूर्वस्पर्धकानि तिष्ठन्ति । पूर्वस्पर्धकविषयकाणां नानाद्विगुणहानीनामनन्तत्वात् सर्वा-ऽपूर्वस्पर्धकतः Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशपदानामल्पबहुत्वम् ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १४३ सर्वपूर्वस्पर्धकान्यनन्तगुणानि भवन्ति, तथैकस्पर्धकगतवर्गणातो नानाद्विगुणहानीनामनन्तगुणत्वात् सर्वा-ऽपूर्वस्पर्धकगतवर्गणातो लोभस्य पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगुणानि सिध्यन्ति । न्यास: सकलपूर्वस्पर्धकानि = एकद्विगुणहानिगतस्पर्धकानि x नानाद्विगुणहानयः नानाद्विगुणहानयः = एकस्पर्धकगतवर्गणाः x अनन्तराशिः .:. सकलानि पूर्वस्पर्धकानि = एकद्विगुणहानिगतस्पर्धकानि x एकस्पर्धकगतवर्गणाः x अनन्तराशिः निखिला- पूर्वस्पर्धकानि = एकद्विगुणहानिगतस्पर्धकानि:असंख्यातम् सर्वा-ऽपूर्वस्पर्धकवर्गणाः = एकद्विगुणहानिगतस्पधेकानि x एकस्पर्धकगतवर्गणाः असंख्यातम् कस्पधकगतवर्गणाः ... सर्वाऽपूर्वस्पर्धकगतवर्गणातो लोभस्य पूर्वस्पर्धकानि असंख्यातम् .x १ द्विगुणहानिस्पर्धकानि १ स्पर्धकवर्गणाः ४ अनंतराशिः १ द्विगुणहानिस्पर्धकानि x १ स्पर्धकगतवर्गणाः इत्येतावद्गुणानि = असंख्यातम् अनन्तराशिरित्येतावद्गुणानि भवन्ति । (१२) 'सिं च वग्गणा' इत्यादि 'तेषां' लोभपूर्वस्पर्धकानां च वर्गणा अनन्तगुणा भवन्ति 'अणंतगुणाणि' इत्यस्य लिङ्गविपरिणामात् 'अनन्तगुणा' इति पदं लब्धम् । लोभसकलपूर्वस्पर्धकेभ्यो लोभसर्वपूर्वस्पर्धकानां वर्गणा अनन्तगुणा भवन्तीत्यर्थः । गुणकारश्चात्रैकस्पर्धकगतवर्गणाराशिप्रमाणो ज्ञेयः । 'एवं' यथा लोभस्य पूर्वस्पर्धकानि तद्वर्गणाश्च क्रमेणाऽनन्तगणानि निगदितानि, तथैव मायादीनां यथाक्रमं पूर्वस्पर्धकानि तद्वर्गणाश्चाऽनन्तगुणानि तावद्वक्तव्यानि, यावत् क्रोधस्य पूर्वस्पर्धकानां वर्गणाः खलु अनन्तगुणा भवन्ति । अयं भावः (१३) लोभस्य सकलपूर्वस्पर्धकगतवर्गणातो मायायाः पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगुणानि वाच्यानि । न च कथमेतदवसीयते ? इति वाच्यम् , प्रथमे ऽनुभागखण्डे घातिते लोमादीनामनुक्रम पूर्वस्पर्धकानामनन्तगुणत्वदर्शनात् । न च भवतु नाम संज्वलनलोभपूर्वस्पर्धकतो मायायाः पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगुणानि प्राक् प्रतिपादितत्वात् । संज्वलनलोभपूर्वस्पर्धकगतवर्गणातो मायायाः पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगणानि कुतो भवन्ति ? इति वाच्यम्, एकस्पर्धकगतवर्गणागणकारतो पूर्वस्पर्धकगणकारस्या-5 नन्तगुणेन बृहत्तरत्वात् । अयं हेतुरग्रे-ऽपि यथास्थानं योजनीयः । ____(१४) मायापूर्वस्पर्धकतो मायाया वर्गणा अनन्तगुणा निश्चेतव्याः । गुणकारश्चैकस्पर्धकगतवर्गणाप्रमाणो बोद्धव्यः। __ (१५) ततो मानस्य पूर्वस्पर्धकान्यनन्तगणानि बोद्धव्यानि, कारणं तु त्रयोदशपदवद्भणितव्यम् । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] खवगसेढी [ गाथा-७८ (१६) ततो मानस्य पूर्वस्पर्धकगतवर्गणा अनन्तगुणा अभिधातव्याः । गुणकारश्चैकस्पर्धकगतवर्गणाराशिमात्रो बोध्यः । (१७) ततः क्रोधस्य पूर्व स्पर्धकान्यनन्तगुणानि निगदितव्यानि । हेतुस्तु त्रयोदशपदवद् बोधनीयः। (१८) ततः क्रोधस्य पूर्वस्पर्धकगतवर्गणा अनन्तगुणा अभिधातव्याः । गुणकारश्चैकस्पर्धकवर्गणामितो ज्ञातव्यः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-'अस्सकण्णकरणस्स पढमे अणुभागखंडए हदे अणुभागस्स अप्पाबहुअंवत्तइस्सामो । तं जहा (१) सव्वत्थोवाणि कोहस्स अपुव्वफद्दयाणि, (२) माणस्स अपुव्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि, (३) मायाए अपुव्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि, (४) लोभस्स अपुव्वफदयाणि विसेसाहियाणि, (५) एयपदेसगुणहाणिहाणंतरफदयाणि असंखेज्जगुणाणि (६) एयफदयवग्गणाओ अणंतगुणाओ, (७) कोधस्स अपुव्वफद्दयवग्गणाओ अणंतगुणाओ, (८) माणस्स अपव्वफदयवग्गणाओ विसेसाहियाओ, (९) मायाए अपव्वफदयवग्गणाओ विसेसाहियाओ,(१०) लोभस्स अपुव्वफदयवग्गणाओ विसेसाहियाओ। (११) लोभस्स पुव्वफदयाणि अणंतगुणाणि, (१२) तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ, (१६) मायाए पुव्वफदयाणि अणंतगुणाणि, (१४) तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ, (१५) माणस्स पुव्वफदयाणि अणंतगुणाणि, (१६) तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ, (१७) कोहस्स पुव्वफदयाणि अणंतगुणाणि , (१८) तेसिं चेव वग्गणाओ अणंतगुणाओ।" इति । ७४-७५-७६-७७ ।। अश्वकर्णकरणाद्धायां प्रथमेऽनुभागखण्डे ब्रजिते द्वितीयमनुभागखण्डं घातयितुमारभ्यते । एवं सहस्ररनुभागखण्डरश्वकर्णकरणाद्धासत्का प्रथमस्थितिघाताद्धा प्रथमस्थितिबन्धाद्धा च पूर्यते। एवं प्रतिसमयमसंख्येयगुणहीनान्यसंख्येयगुणहीनानि नवान्यपूर्वस्पर्ध कानि कुर्वन् स्थितिघातसहस्ररश्वकर्णकरणाद्धायाश्चरमसमयं प्राप्नोति, तदानीं स्थितिबन्धं व्याजिहीर्घ राह चरिमे समये मोहस्स अटुवस्सपमिश्रो हवइ बंधो । इयराण संखवस्ससहस्साई भणिमु ठिइसंतं ॥७॥ चरमे समये मोहस्या-ऽष्टवर्षप्रमितो भवति बन्ध । इतरेषां संख्यवर्षसहस्राणि भणामः स्थितिसत्त्वम् ।।७।। इति पदसत्कारः ।। चरिमे समये' इत्यादि, 'चरमे समये' अश्वकर्णकरणाद्धाचरमसमये 'मोहस्य' संज्वलन Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घरमसमये बन्धसत्ते ] अश्वकर्णकरणाधिकारः [ १४५ क्रोधमानमायालोभलक्षणस्य 'बन्धः' स्थितिबन्धो-ऽष्टवर्षप्रमितो भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"अस्सकण्णकारगस्स चरिमसमये संजलणाणं हिदिबंधो अवस्साणि" इति । अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये यो-ऽन्तमुहूतन्यूनषोडशवर्षप्रमाणः स्थितिबन्ध आसीत, स प्रतिस्थितिबन्धाद्धमन्तमुहूर्तेन हीयमानो भवन्नश्वकर्णकरणाद्धाचरमसमये-ऽष्टवार्षिको जायते इत्यर्थः । 'इयराण' इत्यादि, इतरेषां' ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तराय-नाम-गोत्रकर्मणां संख्यवर्षसहस्राणि स्थितिबन्धो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी--"सेसाणं कम्माणं हिदिवंधो संखेन्जाणि वस्ससहस्साणि ।" इति । अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये यः.संख्यातसहस्रवर्षमात्रः स्थितिबन्ध आसीत्, स प्रत्यन्तमु हूत संख्येयगुणहीनो भवन् संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रषु गतेष्वपि संख्यातवर्षसहस्रप्रमाण एव भवतीति फलितार्थः । सम्प्रति स्थितिसत्त्वं वक्तुकामः प्रतिजानीते-'भणिमु' इत्यादि, स्थितिसत्त्वं 'भणामः'प्रतिपादयिष्यामः । अथ प्रतिज्ञातमेवाह घाईण संखवाससहस्साणि पराणऽसंखवासाइं ! एवं हयकरणकरणअद्धं खलु परिसमावेइ ॥७॥ घातिनां संख्यवर्षसहस्राणि परेषामसंख्यवर्षाणि।। एवं हयकर्णकरणाद्धां खलु परिसमापयति ॥७६।। इति पदसंस्कारः । 'घाईण' इत्यादि, अश्वकर्णकरणाद्धाचरमसमये 'घातिनां' ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायमोहनीयकर्मणां संख्यवर्षसहस्राणि स्थितिसत्वं भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"चउण्हं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि।" इति । इदमत्र हृदयम्-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये घातिचतुष्टयस्य संख्येयसहस्रवर्षमात्र स्थितिसत्त्वमासीत् ,तत्प्रतिस्थितिघातं संख्येयगुणहीनं भवत् संख्यातसहस्रषु स्थितिघातेषु ब्रजितेष्वपि चरमसमये संख्येयसहस्रवर्षप्रमाणं भवति । 'पराण' इत्यादि, 'परेपाम्' अघातिनां नामगोत्रवेदनीयरूपाणामित्यर्थः, असंख्यवर्षाणि स्थितिसचं भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"णामागोदवेदणीयाणं हिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि।" इति । एतदुक्तं भवति-अश्वकर्णकरणाद्धाप्रथमसमये यदघातिकर्मणामसंख्यातवर्षप्रमाणं स्थितिसत्त्वमासीत्, तत् प्रतिस्थितिघातेना-ऽसंख्येयगुणहीनं मवत् संख्यातसहस्रस्थितिघातेषु व्यतिक्रान्तेष्वपि चरमसमये-संख्येयवर्षप्रमितं तिष्ठति । 'एवं' इत्यादि, 'एवं प्रागुक्तविधिना 'हयकर्णकरणाद्धाम्' अश्वकर्णकरणाद्धामन्तर्मुहूर्तप्रमाणा खलु ‘समापयति' निष्ठां गमयति ॥७॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा - ८० अश्वकर्णकरणाद्धां निरूप्य "किट्टिकरण" इत्यनेनोद्दिष्टं पञ्चमाधिकारं किट्टिकरणावालक्षणं व्याचिख्यासुराह- १४६ ] गढी पुणे करणे आढवे किट्टिकरणं तम्मि । निव्वत्तर पुव्वा पुव्वफड्डगत्तो य किट्टी ॥ ८०॥ (उपगीतिः) पूर्णे इयक आरभते किट्टिकरणं तस्मिन् । निर्वर्तयते पूर्वाऽपूर्वस्पर्धकेभ्यश्च किट्टीः ॥ ०॥ इति पदसंस्कारः । 1 'पुणे' इत्यादि, तत्र 'हयकपणे' ति 'हयकर्णे' 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायेन कर्णकरणकाले 'पूर्णे' व्यतिक्रान्ते क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नः किट्टिकरणम् ' आढवेइ' त्ति आरभते, किट्टिकरणकालं प्रविशतीत्यर्थः । इदमत्र हृदयम् - हास्यषट्के सवथा क्षीणे यः क्रोधवेदनकालः, तस्य यो विभागाः कर्तव्याः । तत्राद्यो विभागोऽश्वकर्णकरणाद्धा, द्वितीयो विभागः किट्टिकरणाद्धा, तृतीयश्च किट्टिवेदनाद्वा । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "छसु कम्मेसु संक्रुद्धेसु जो कोधवेदगडा, तिस्से कोधवेदगडाए तिन्नि भागा । जो तत्थ पढमतिभागो (सो) अस्सhor करणा, विदियो तिभागो किट्टोकरणडा, तदियनिभागो किट्टीवेदगडा ।" इति । इदन्त्ववधेयम् — यथाऽस्मत्कृतोपशमनाकरणटीकायां चारित्रमोहोशमनाधिकारे ऽश्वकर्णकरणाद्धादयो यथाक्रमं विशेषहीना उक्ताः, तथैवात्राऽप्यश्वकर्णकरणाद्धा, या हास्यपट्के क्षीणे शेषक्रोधवेदनाद्वायाः किञ्चिदधिकत्रि भागमात्रा, सा प्रभूता । ततो विशेषहीना किट्टिकरणाद्धा किञ्चिन्न्यून त्रिभागप्रमिता, ततोऽपि किट्टिवेदनाद्वा किञ्चिन्न्यूनत्रिभागमिता विद्यमानाऽपि विशेषहीना संभवतीति वयं ब्रूमः 1 किट्टिकरणाद्धां प्रविष्टः सन् किं करोति ? इत्याह- 'तम्मि' इत्यादि, 'तस्मिन् ' किट्टि - करणकाले पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यः किट्टी: 'निर्वर्तयते' करोति । इदमुक्तं भवति — किट्टयो नाम संज्वलनानां पूर्वा-पूर्वस्पर्धकेभ्यो वर्गणा गृहीत्वा तासामनन्तगुणहीनरसतामापाद्यैकोत्तररसाविभागवृद्धेः परित्यागेनाऽनन्तगुणवृहदन्तरालतया व्यवस्थापनम् । इदमत्र हृदयम् - अपूर्वस्पर्धका नि पूर्वपर्धा गृहीत्वाऽनन्तगुणहीनरसतामापाद्य ता एकोत्तररमाऽविभागवृद्धया स्थापयति स्म | सत्कल्पनया पूर्वस्पर्धक सत्कानां यासां वर्गणानामनुभागा-ऽविभागा शीत्युत्तरषोडशशतानि, एकाशीत्यधिकषोडशशतानि, ( १६८०, १६८१ ) इत्यादि, आसन्, पूर्वस्पर्धकेषु तासामेवाऽनन्तगुणहीनरसतामापाद्यैकोत्तरवृद्धया रसाविभागा अष्टापष्ट्य तरशतम्, एकोनसप्तत्यधिकशतम् (१६८, १६६ ) इत्यादि, स्थाप्यन्ते स्म । किट्टिकरणाद्धायां तु सर्वजघन्याऽपूर्वस्पर्धकतोऽप्यनन्तगुणहीनरसतामापाद्य पूर्वापूर्वस्पर्धकानां वर्गणा एकोत्तररसाऽविभागवृद्धिपरि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कियाख्या ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १४७ त्यागेन व्यवस्थाप्य लोभजघन्यकिट्टरारभ्य पूर्वपूर्वतो नियमेनाऽनन्तगुणवृद्ध्या तावद् विन्यस्यति, यावत् क्रोधस्योत्कृष्टकिट्टिः । असत्कल्पनया किट्टिषु रसाऽविभागाः पञ्च, विंशतिः (५, २०) इत्यादि । नया-पूर्वस्पर्धक प्रथमवगणातः क्रोधस्य सर्वोत्कृष्टा किट्टिरप्यनन्तगुणहीना वर्तते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"लोभस्स जहणिया किट्टी अणुभागेहिं थोवा, विदियकिटो अणुभागेहिं अणंतगुणा, तदिया किट्टी अणुभागेहिं अणंतगुणा, एवमणंतराणंतरेण सव्वत्थ अणंतगुणा जाव कोधस्स चरिमकिहि त्ति । उक्कस्सिया वि किहो आदिफद्दयआदिवग्गणाए अणंतभागो ।" इति । इह संज्वलानानामनुभागसत्कर्माऽत्यन्तं कृश्यते-अल्पीक्रियते, तस्मात् किट्टिरिति व्यपदिश्यते इति संक्षेपः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- 'किसं कम्मं कदं जम्हा, तम्हा किहो।” इति । किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये संज्वलनचतुष्कस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यो दलं गृहीत्वा निरुक्तस्वरूपाः किट्टीनिवर्तयति ।। ननु संज्वलनचतुष्कस्य पूर्वापर्वस्पर्धकेभ्यो दलिकमादाय किट्टीनिवर्तयति, तर्हि पर्वापर्वस्पर्धकेषु केन क्रमेण प्रदेशाग्रं विद्यते ? इति चेत्, शृणुत-संज्वलनक्रोधस्य सर्वपूर्वापूर्वस्पर्धकेषु सर्वप्रभूतं दलं तिष्ठति, ततः संख्येयगुणहीनं संज्वलनलोभस्य निखिलपूर्वापूर्वस्पर्धकेषु, ततो विशेषहीनं संज्वलनमायाया निखिलपूर्वापूर्वस्पधकेषु, ततोऽपि विशेषहीनं संज्वलनमानस्य सर्वपूर्वापूर्वस्पर्धकेषु तिष्ठति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते-अन्तरकरणे कृते सत्यानुपूर्वीसंक्रमदर्शनात् षण्णोकषायाणां पुरुषवेदस्य च दलं संज्वलनक्रोधे एव संक्रमयति । तेन संज्वलनक्रोधस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु सर्वप्रभूतं दलं भवति । तथाहि—प्राक चारित्रमोहनीयसत्तागतदलं विभागद्वये विमक्तमासीत्, एको भागः कषायाणामासीत्, अन्यः पुननोंकपायाणाम् । तत्राऽपि कपायाणां दलं चारित्रमोहसकलदलस्य किश्चिदधिकाप्रमाणमासीन् । नोकषायाणां पुनश्चारित्रमोहसत्कसकलदलस्य किञ्चिन्न्यूनाधप्रमितमासीत् । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणानां क्षीणत्वात् तेषां प्रभूतं दलं संक्रमेण संबलनक्रोधमानमायालोभलब्धम् । तेन चारित्रमोहनीयसत्तागतदलसत्का-ऽर्धदलं यत् कषायसत्कमासीत्, तद्दलं संज्वलनचतुष्टये विभक्तव्यम् । विभक्त च संज्वलनक्रोधेन मोहनीयसत्तागतसकलदलस्या-ऽष्टभागकल्पं दलं प्राप्तम् । एवं संज्वलनमानेन संज्वलनमायायाः सर्वमोहनीयदलस्याष्टभागदेशीयं प्राप्तम, लोभेन तु मोहनीयसर्वदलस्य किञ्चिदधिका-ऽष्टभागप्रमाणं दलं प्राप्तम् , सत्कर्मणि लोभदलस्येतरतः सर्वप्रभूत्वदर्शनात् । तथा चाऽत्राऽल्पबहुत्वम्-संज्वलनलोभस्य प्रभूतं दलम् , ततो विशेषहीनं संज्वलनमायायाः, ततोऽपि विशेषहीनं क्रोधस्य, ततोऽपि मानस्य विशेषहीनं भवति । एवं प्रत्येकस्मिन् क्रोधादिकषाये आसन्नाष्टभागप्रमाणं दलं विद्यते । नोकपायसत्कस्य मोहनीयसर्वदलसत्ककिश्चिन्न्यूनार्धमात्रदलस्य संज्वलनक्रोधे संक्रमेण प्रक्षेपात् किश्चिन्न्यूनपञ्चाष्टभागप्रमाणदलं जायते । लोभे तु किश्चिदधिकैकाष्टभागप्रमितं तिष्ठति, मानमाययोः पुनः किञ्चिन्न्यूनाष्टभाग Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] खवगसेढी [गाथा-८० प्रमाणं विद्यते । तेन क्रोधस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु सर्वप्रभूतं दलं विद्यते, तच्च किश्चिन्न्यूनपश्चाष्टभागप्रमाणम् । ततः संख्येयगुणहीन लोभस्य पूर्वापूर्वस्पधेकेषु विद्यते, किश्चिदधिकाटभागप्रमाणत्वात् ततो विशेषहीनं मायायाः पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु, किञ्चिन्न्यूनाष्टभागप्रमितत्वात् । ततोऽपि मानस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु किश्चिन्न्यूनाष्टमागप्रमितं भवदपि विशेषहीनं विद्यते । न्यास: असत्कल्पनया मोहनीयसत्तागतदलम् = 'क' इति कल्प्यते। तदर्धम्= + :: नोकषायाणां दलम् = क - किश्चिद्दलम् । ... कषायाणां दलम् = क + ,, , : कषायचतुष्कस्य दलम् = आसन्नक :.एकैककषायस्य दलम् - -:आसन्न गाभ तत्र लोभदलस्य किञ्चिदधिकत्वात् लोभदलम्= + + किकिचहलम् : मायामानक्रोधानामेकैकस्य दलम् = किञ्चिहलम् संज्वलनक्रोधे नोकषायदलप्रक्षेपात् क्रोधदलम् = ( -किश्चिद्दलम्) + (-किञ्चिहलम्) = ++ -(किञ्चिद्दलम् + किञ्चिलम्) कश्चिदलम् - किञ्चिद्दलम् । तच्च प्रभूतं भवति । संज्वलनक्रोधे दलम् =५+ ,, लोभे , - + , , । तेन पूर्वतः संख्यातगुणहीनम् । , , । तेन पूर्वतो विशेषहीनम् । ,, मायायां ,, = - 1 8 119 " माने , - ,, ,, । किन्तु पूर्वतो विशेषहीनम्। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ ] यन्त्रकम् - १४ (चित्रम् - १४) किट्टिकरणाद्वामाश्रित्य चित्रम् .द्वितीयस्थिति: अ न्त र क र ण म् सङ्केतस्पष्टीकरणम् ००० अनेन चिह्नन किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयः सूचितः । किट्टिकरणाद्ध । प्रथमसमयतः प्रभृति संज्वलनचतुष्कस्य द्वितीयस्थितौ संज्वलनक्रोध - मान-माया लोभानां पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यो दलमादाय किट्टीः कतुमारभते । १- किट्टिकरणाद्धायां पूर्वापूर्वस्पर्धकानि वेदयति, न तु. किट्टीः, वक्ष्यते चैतद् चतुर्दशाधिकशततम गाथया (११४) । * अनेन चिह्न ेन किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः सूचितः । 4 अनेन चिह्न ेन पूर्वापूर्वस्पर्धकरूपेण विद्यमानस्य क्रोधस्य प्रथमस्थितिः सूचिता । [ खचग सेढी किट्टिकरणाद्धाचरमसमयः किट्टीकरणाद्धा १ किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयः Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिपरिमाणम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १४६ संज्वलनक्रोधादिचतुष्टयस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकस्थसर्वदलमुत्कर्षणापकर्षणभागहारेण विभज्यैकभागमपकर्षति । क अपकृष्टदलं पुनः पन्योपमाऽसंख्येयभागेन खण्डयित्वैकखण्डं किट्टयर्थं गलाति, शेषाणि बहूनि खण्डानि पूर्वावस्पर्धकेषु प्रतिपति । तत्र किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये संज्वलनक्रोधस्य पूर्वापूर्वस्पर्वकेभ्यों दलं गृहोत्या संचलनक्रोधस्य किट्टीः करोति, एवं संज्वलनमानस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यो दलमादाय संज्वलनमानस्य किट्टीनिवर्तयति, संज्वलनमायायाः पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यो दलिकं गृहोत्वा संचलनमायायाः किट्टीरुत्पादयति । संज्वलनलोभस्य पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यः प्रदेशाग्रमादाय संज्वलनलोमस्य किट्टीर्जनयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो-"पढमसमयकिट्टोकारगो कोधादो पुव्वफदएहितो च अपुव्वफदएहिंतो च पदेसग्गमोकड्डियूण काहकिटोओ करेदि । माणादो ओकड्डियूण माणकिट्टोओ करेदि । मायादो ओकड्डियूण मायाकिटोओ करेदि, लोभादो ओकडियूण लोभकिटीओ करेदि।” इति ॥८०॥ एवं शतकचूर्णावप्युक्तम् "तत्तो अपुव्वफडगहेहा बहुगा करेइ किटीओ। पुव्वाओ य अपुव्वेहिंतो वोकड्डिय पएसे ॥१॥” इति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-१४।इति ॥८॥ अथोत्कृष्टकिट्टरनुभागं किट्टिपरिमाणं च दर्शयितुकाम आह जेट्ठा किट्टी उ अणंतगुणूणा पढमवग्गणाहितो। किट्टीयो फड्डस्स अणंतिमभागपमिश्रा होति ॥८१॥ ज्येष्ठा किट्टिस्त्वनन्तगुणोना प्रथमवर्गणायाः । किट्टयः स्पर्धकस्याऽनन्ततमभागप्रमिता भवन्ति ।।८१।। इति पदसंस्कारः। 'जेट्ठा' इत्यादि, तत्र ‘पढमवग्गणाहिंतो' त्ति 'प्रथमवर्गणायाः' अपूर्वस्पर्धकस्य अभ्यधायि च जयधवलाकारैरपि-"पढमसमयकिट्टीकारगो पुव्वापुवफदएहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जदिभागमोकड्डियूण पुण ओकड्डिदसयलदव्वस्सासंखेज्जदिभागमेतं दव्वं किट्टीसु णिक्खिवदि।" इति । क्षपणासारकृद्धिस्तु अपकृष्टदलस्य बहुभागमानं दल किंट्टिष्वेकभागमानं च पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु ददातीति भणितम् । अक्षराणि त्वेवम् "कोहादीणं सगसगपुव्वापव्वगयफड़येहितो । उक्कड्डिदण दव्वं ताणं किट्टी करेदि कमे ॥१॥ उक्कट्टिददव्वस्स य पल्लासंखेज्जभागबहुभागो । बादरकिट्टिणिबद्धो फड्डयगे सेसइगिभागो ॥२॥" इति । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] खवगसेढी [ गाथा-८२. प्रथमवर्गणात इत्यर्थः, 'अनन्तगुणोना' अनन्तगुणहीना 'ज्येष्ठा किद्विस्तु' क्रोधस्य सर्वोत्कृष्टा कि ट्टिस्तु भवति, जघन्यवर्गणागतानुभागतोऽनन्तगुणहीनरसतामाषाद्य किट्टिनिर्वर्तनस्य प्रतिपादितत्वात् । ननु प्रथमसमये कियत्यः किट्टयो भवन्ति ? इत्याह- किट्टीओ' इत्यादि, 'किट्टयः' चतुर्णामपि संज्वलनानां विट्टयः स्पर्धकस्याऽनन्ततमभागप्रमिता भवन्ति । इदमुक्तं भवतिएकस्मिन् स्पर्धके वर्गणा अभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानां चाऽनन्ततमभागमिता भवन्ति, तासामेकाऽनन्ततमभागप्रमाणाः किट्टयो निर्वय॑न्ते। उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"एदाओ सव्वाओ विचउधिहाओ किट्टीओ एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो।" इति ॥८१॥ अथ क्रोधादीनामेकैककपायस्य किट्टिपरिमाणं निदिदिक्षुराहएगेगस्स कसायस्स तिण्णि तिषिण अहवाऽणंता। संगहकिट्टी तिन्नि अवतरकिट्टी अणंताओ॥२॥ (उपगीतिः) एकैकस्य कषायस्य तिस्रस्तिस्रो-ऽथवा-ऽनन्ताः । संग्रह किट्टयस्तिस्रो-ऽवान्तरकिट्टयो-ऽनन्ताः ॥८२।। इति पदसंस्कारः। 'एगेगस्स' इत्यादि, किट्टिकरणाद्धायाम् "एकस्य कषायस्य' संज्वलनक्रोधादीनामेकैकस्य कषायस्येत्यर्थः 'तिस्रस्तिस्त्रः' “वीप्सायाम" (सिद्धहेम० ७-४-८०) इत्यनेन द्विवचनम्, किट्टयो भवन्ति, प्रथमादिसंग्रहकिट्टिभेदात् । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी-“एककस्स कसायरस तिपिण तिपिण-पढमकिट्टी, बितियकिट्टी, ततियकिट्टि त्ति ।" इति । 'अहवा' ति 'अथवा' प्रकारान्तरेण क्रोधादीनामेकैककषापरया-ऽनन्ताः किट्टयो जायन्ते । ननु प्रकारद्वयेन किट्टिपरिमाणकथने कोऽभिप्रायः ? इत्यत आह-'संगह०' इत्यादि, 'संग्रहकियस्तिस्रः' एकैककषायस्य यास्तिस्रस्तिस्रः विट्टयः प्रोक्ताः, तातिपः किट्टयः संग्रहकिय इति व्यपदिश्यते इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-“एक्ककम्हि कसाए तिणि तिण्णि संगहकिट्टीयो त्ति एवं तिग तिग।" इति । 'अवंतर०' इत्यादि, 'अवान्तरकिट्टयोऽनन्ताः' एकैकस्य कषायस्य या अनन्ताः किट्टय उत्पद्यन्ते, ता अवान्तरकिट्टयो भण्यन्ते, गणनातश्च ता अनन्ता भवन्ति । कुतः ? इति चेत् , उच्यते-एकस्यां संग्रहकिट्टौ अनन्तानामवान्तरकिट्टीनामु. पलम्मादेकैककषायस्या-ऽनन्तकिट्टयः सूपपद्यन्ते । यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी- एक्ककिस्से संगहकिट्टीए अणंताओ त्ति एदेण अधवा अणंताओ जादा ।" इति । ॥२॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिपरिमाणम् । किट्टिकरणाद्धाधिकारः अथ क्रोधादीनामुदयेण प्रतिपन्नः कियती: संग्रहकिट्टीः करोति ? इत्यतः प्राहकोहादीणं उदयेणं पडिवनस्स कमसो हि । बारस णव च्छ तिणि य संगहकिट्टीउ जायन्ते ॥८३॥ (उपगीतिः) क्रोधादीनामुदयेन प्रतिपन्नम्य भवन्ति क्रमशा हि। द्वादश नव षट तिस्रश्च संग्रह किया जायन्ते ।।३।। इति पदसंस्कारः । 'कोहादोण' इत्यादि, 'क्रोधादीनां क्रोधमानमायालोभलक्षणानामुदयेन 'प्रतिपन्नस्य' क्षपकश्रेणिमारूढस्य क्रमशः 'हि' निश्चयेन द्वादश नव षट् तिस्रश्च संग्रहकिट्टयो 'जायन्ते' उत्पद्यन्ते । उक्तं च कषायप्राभृते - "बारस णव छ तिणि य किट्टोओ होति xxx" इति । ____ भावार्थः पुनरयम्-क्रोधोदयेन क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नश्चतुष्कषायाणां द्वादश संग्रहकिट्टीः करोति, एकैककमायस्य संग्रहकिट्टित्रयप्रतिपादनात् । उक्त च सप्ततिकाचूर्णी-"किट्टिकरणखाए वट्टमाणो समए समए चउण्हं संजलणाण बारस किट्टीओ करेति, xxx, एवं कोहेण पडिवण्णस्स।" तथैव कषायप्राभूतचूर्णावपि-"जइ कोहेण उवहायदि, तदो बारस संगहकिट्टीओ होति ।" इति । - संज्वलनमानोदयेन क्षपकश्रेणिं समारूढः शेषसंज्वलनत्रयस्य नव संग्रहकिट्टीः करोति, मानाऽश्वकर्णकरणाद्धायाः प्राक् संज्वलनक्रोधस्य स्पर्धकस्वरूपेण क्षपितत्वेन संज्वलनक्रोधस्य किट्टयसंभवात् । उक्तं च सप्ततिकाचू!-"माणेण पउिवण्णो कोहे खविए उव्वलणालक्खणेणं सेसाणं तिण्हं कसायाणं नव किट्टोओ करेति पुव्वकमेणं ।" इति । एवं कषायप्राभृतचूर्णावपि-"माणेण उवहिदस्स णव संगहकिट्टीओ।" इति ।। ___ मायोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नो मायालोभयोः षट् सग्रहकिट्टीनिवर्तयति, मायाश्वकर्णकरणाद्धायाः प्राक् क्रोधमानयोः किट्टिपरिणाममृतं स्पर्धकस्वरूपेण पितत्वात् । उक्तं च सप्ततिकाचू -"मायाए पउिवण्णो कोहमाणेहिं खविरहिं सेसद्गस्स छ किट्टीओ करेति पुव्वकमेणं ।” इति । तथैव कषायप्राभूतचूर्णावपि-"मायाए उवहिवस्स छ संगहकिट्टीओ।" इति । संज्वलनलोभोदयेन क्षपकश्रेणिमधिगतः संज्वलनलोभस्य तिखः संग्रहकिट्टीनिवर्तयति, लोभा-ऽश्वकर्णकरणाद्धाया अाक् संज्वलनक्रोधादित्रयस्थ स्पर्धकस्वरूपेण विनाशितत्वात् । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी-"लोभेणं पउिवण्णो हेहतिगे खविए लोभस्स तिणि किडीओ • Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] खवगसेढी [गाथा-८४-८५ करेति।" इति । तथैव कषायमाभृतचूर्णावपि-"लोभेण उपट्टिदस्स तिणि किट्टीओ।" इति । ॥ ८३ ॥ कषायचतुष्कस्य संग्रहक्ट्टिीरुक्त्वा सम्प्रत्येकैकस्यां संग्रहकिट्टौ कति किट्टयो भवन्ति ? तथा पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमये कियत्यः किट्टयो जायन्ते ? इत्याशङ्कय प्राह एगेगाए संगहकिट्टीअ अवंतराअ उ अणंता। होति य किट्टीअो पडिसमयमसंखगुणहीणाश्रो ॥४॥ एकैकस्यां संग्रहकिट्टी अवान्तरास्त्वनन्ताः। भवन्ति च किट्टयः प्रतिसमयमसंख्यगुणहीनाः ॥८४।। इति पदसंस्कारः । 'एगेगाए' इत्यादि, संज्वलनचतुष्कस्यकैकस्यां संग्रहकिटौ अवान्तरास्तु कियोऽनन्ता भवन्ति, एकैकसंग्रहकिट्टी अवयवकिट्टयोऽनन्ता भवन्तीत्यर्थः । 'होति य' इत्यादि, 'भवन्ति च' जायन्ते च 'प्रतिसमय समये समये इति वीप्सायाम् “योग्यतावीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्ये (सिद्धहेम० ३-१.४०) इति सूत्रेणा-ऽव्ययीभावसमासः, अनुसमयमित्यर्थः; 'किट्टयः' कषायचतुष्कस्याऽभिनवाऽवान्तरकिट्टयोऽसंख्येयगुणहीनाः । इदमुक्तं भवति-किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये बहूरवान्तरविट्टीः करोति, द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणहीना अभिनवा अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति, असंख्येयभागमात्रा निवर्तयतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"विदियसमए अण्णाओ अपुवाओ किट्टीओ करेदि, पढमसमए णियत्तिदकिट्टीणमसंखेज्जभागमेत्ताओ।" इति एवं पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरसमये-ऽसंख्येयगुणहीना अभिनवा किट्टयस्तावद्वक्तव्याः, यावत् किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः ॥८४॥ ननु प्रतिसमय किट्टितया परिणमनाय कियद् दलं गृह्णाति ? इति परमाशङ्कय प्राहदलिअं उ पडिखणं उकिरइ असंखगुणिअं य किट्टीणं । अह किट्टीणं अणुभागप्पाबहुअं भणिज्जेइ ॥८५ ॥ . दलिकं तु प्रतिक्षणमुत्किरत्यसंख्यगुणितं च किट्टिभ्यः । अथ किट्टीनामनुभागाल्पबहुत्वं भण्यते ॥८५।। इति पदसंस्कारः । 'दलिअं' इत्यादि, तत्र 'किट्टीणं' त्ति प्राकृतत्वात् 'तादथ्य (सिद्धहेम० २-२-५४) इति सूत्रेण विहितायाश्चतुर्थ्याः स्थाने "चतुर्थ्याःषष्ठी” (सिद्धहेम०८-१-१३१) इति सूत्रेण षष्ठी विमक्तिः, किट्टिभ्यः किट्टितया परिणमनायेत्यर्थः 'दलिक' प्रदेशाग्रं तु 'प्रतिक्षणम्' अनुसमयम् असंख्यगुणितं च 'उत्किरति' अपकर्षति । चकारः पादपूशैं । इदमुक्तं भवति-किट्टिकरणाद्धाप्रथम Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किषनुभागाल्पबहुत्वम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १५३ समयतो-ऽनन्तगुणविशुद्धत्वाद् द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणं दलं गृहीत्वा किट्टिषु ददाति, ततो-ऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणं दलं गृहीत्वा किट्टिषु प्रक्षिपति । एवं प्रतिसमयं विशुद्धरनन्तगुणक्रमेण प्रवर्धमानत्वादुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणमसंख्येयगुणं दलं गृहीत्वा किट्टिषु ददाति । अनेन क्रमेण तावद्वक्तव्यम्, यावत् किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"जं पदेसग्गं सम्वसमासेण पढमसमए किट्टोसु दिज्जदि, तं थोवं, विदियसमए असंखेज्जगुणं, तदियसमए असंखेज्जगुणं । एवं जाव चरिमादो त्ति असंखेज्जगुणं ।” इति । __ 'अह' इत्यादि, अथशब्दः प्रकरणान्तरं सूचयति । 'किट्टीणं' ति किट्टीनाम् 'अनुभागाऽल्पबहुत्वम्' अनुभागविषयका-ऽल्पबहुत्वं 'मण्यते' प्रतिपाद्यते ॥८॥ अथ किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये किट्टिकारस्य किट्टिगतरसा-ऽविमागानाश्रित्य पूर्वगाथायां प्रतिज्ञाता-ऽल्पबहुत्वं विवर्णयतिलोहस्स पढमसंगहकिट्टी जहणणगाश्र खलु । थोवा रसाविभागा तत्तो बिइयाऽणंतगुणिआऽस्थि ॥८६॥ (उद्गीतिः) एवं जाव चरिमकिट्टीए बीयपढमाश्रऽणंतगुणा । पुव्वव्व जाव अंतिमकिट्टीए ताउ तइयाए ॥ ८७॥ पढमाअऽणंतगुणिया जावं चरिमाश्र एवं य । मायाए तिण्हं किट्टीसु मुणेया अणंतगुणणाए॥८॥ (उद्गीतिः) तत्तो माणगकोहाणं तिरह रसाविभागा य। कमसो उ जाव कोहुक्कोसाए होज्जऽणंतगुणा ॥८६॥ (उपगीतिः) लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टया जघन्यायां खलु । स्तोका रसाविभागास्तेभ्यो द्वितीयस्यामनन्त गुणिताः सन्ति ।।८६।। एवं यावच्चरमकिट्टी द्वितीयप्रथमायामनन्तगुणा । पर्ववद्यावदन्तिमकिठौ तेभ्यस्तृतीयस्याः ॥७॥ प्रथमायामनन्तगुणिता यावत् चरमायामेवं च । मायायास्तिसणां किट्टिषु ज्ञेया अनन्तगुणनया |८|| तेभ्यो मानक्रोधयोस्तिसणां रसाऽविभागाश्च । क्रमशस्तु यावत् क्रोधोत्कृष्टायां भवन्त्यनन्तगुणा IIEI। इति पदसंस्कारः । 'लोहस्स' इत्यादि, 'लोभस्य' संज्वलनलोमस्य प्रथमसंग्रह कियाः 'जघन्यायां प्रथमाऽवान्तरक्ट्टिौ स्तोका रसाऽविभागा भवन्ति । रसाऽविभागा इति पदमग्रेऽप्यनुवर्तनीयम् । 'तेभ्य: Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] खवगसेढी [गाथा-८६-८ संज्वलनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसविमागेभ्यो 'द्वितीयस्यां' लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टया द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टौ 'अनन्तगुणिताः' अनन्तगुणा रसाविभागाः 'सन्ति' भवन्ति, किट्टिगतानुभागस्य पूर्वानुपूर्व्याऽनन्तगुणवृद्धिं परित्यज्या-ऽन्यस्याऽसंभवात् । ‘एवं' इत्यादि, "एवं यावच्चरमकिट्टी' एवंशब्दस्य साम्यार्थकत्वात् उत्तरोत्तरा-ऽवान्तरकिट्टौ अनन्तगुणक्रमेण रसाविभागास्तावदभिधातव्याः, यावद् लोमस्य प्रथमसंग्रहकिद्देश्वरमा-ऽत्रान्तरकिट्टी द्विचरमा-5वान्तरकिट्टितोऽनन्तगुणाः । _ 'पोयपढमाअ' 'इत्यादि, द्वितीयप्रथमायां' अत्र द्वितीयपदेन "भीमो भीमसेनः" इति न्यायात् द्वितीयसंग्रहकिट्टिबोद्धव्या, ततश्चायमर्थः-संचलनलोभस्य द्वितीय संग्रह कियाः प्रथमाऽवान्तरकिट्टी प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कवरमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागतो-ऽनन्तगुणा रसाविभागा भवन्ति, गुणकारश्च द्वादशसंग्रहकिट्टीनां स्वस्थानगुणकारतो.ऽनन्तगुणो ज्ञातव्यः । इदमुक्तं भवतिविवक्षितसंग्रहकिट्टि सत्कवरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः सन्तस्तदुतरसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमावान्तरकिट्टिगतरसाविभागाजायन्ते, स परस्थानगुगकार उच्यते। ततत्संग्रहकिट्टौ विवक्षिता-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागः येन गुणकारेण गुणिताः सन्तस्तदुतरावान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा जायन्ते, स स्वस्थानगुणकार उच्यते । उपर्युक्त सरस्थानगुण कारो द्वादशानामपि संग्रहकिट्टोनां स्वस्थानगुगकारतोऽनन्तगुगो ज्ञातव्यः, क्रोधरतीयसंग्रहकिट्टिगतचरमाचान्तरकिट्टयन्तरतोलोमप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तस्यानन्तगुणत्वदर्शनात, आविष्करिष्यते चेदं किट्टयन्तरप्ररूपणायाम् । 'पुव्वव्व'इत्यादि, 'पूर्ववत् प्रथमसंग्रहकिट्टिवत् यत्तदोःसापेक्षत्वेनोत्तरत्र यत्पदोपादानाद तावद्वक्तव्याः, यावत् 'अन्तिमकिट्टी' अन्ते भवा अन्तिमा “पश्चादाद्यन्ताग्रादिमः" (सिद्धहेम० ६-३-७५) इत्यनेन इमप्रत्ययः । अन्तिमा चाऽसौ किट्टिश्च, सा-ऽन्तिमकिट्टिः, तत्र, लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कायां चरमाऽवान्तरकिट्टी इत्यर्थः, रसा-ऽविभागा वक्तव्याः । इदमुक्तं भवति लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमा-वान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागतो द्वितीयाऽवान्तरकिट्टी रसाऽविभागा अनन्तगुणा विद्यन्ते, ततोऽपि तृतीयावान्तरकिट्टौ अनन्तगुणा रसाऽविभागा वर्तन्ते, एवंक्रमेण तावद्वक्तव्याः, यावद् द्विचरमा-ऽवान्तरकिट्टितश्चरमावान्तरकिटौ रसाऽविभागा अनन्तगुणास्तिष्ठन्ति । ताउ' इत्यादि 'तेभ्यः' लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिसत्कवरमा-बान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागेभ्यः 'तृतीयस्याः लोभतृतीयसंग्रहकिट्टेः 'प्रथमायाँ' प्रथमाऽवान्तरकिटी अनन्तगुणिता रसाऽ. विभागा भवन्ति । ततोऽपि द्वितीयाऽवान्तरकिट्टौ अनन्तगुणा रसाऽविभागा भवन्ति । ततोऽपि तृतीयस्यामवान्तरकिट्टावनन्तगुणा रसाऽविभागा भवन्ति, एवंक्रमेण तावद् वक्तव्याः, यावच्चरमाऽवान्तरकिट्टिः। तदेवा-ऽऽह-'जाव चरिमाअ' ति यावत् 'चरमायां' लोभतृतीयसंग्रह किट्टिसत्क Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टवनुभागाल्पबहुत्वम् ] [ १५५ चरमावान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा द्विचरमावान्तर किट्टितोऽनन्तगुणा भवन्तीत्यर्थः । ' एवं ' इत्यादि, ' एवं ' एवंशब्दः सादृश्यार्थकः, यथा लोभस्य तिसृणां संग्रह किट्टीनामवान्तर किट्टिषु रसाऽविभागाः प्ररूपिताः, तथैवेत्यर्थः मायायाः 'तिसृणां प्रथम- द्वितीय तृतीयरूपाणां संग्रह किड्डीनां किट्टिषु' अवान्तर किट्टिष्वनन्तगुणनया रसाऽविभागा वक्तव्याः । चकारः समुच्चये । एतदुक्तं भवति संज्वलन - लोभस्य तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचर माऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागतो मायायाः प्रथमसंग्रह किट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ततोऽपि मायायाः प्रथमसंग्रह किट्टि - सत्कद्वितीयाऽवान्तरविट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । एवं तावद्वक्तव्याः, यावन्मायायाः प्रथम संग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तरविट्टौं रसाऽविभागा द्विचरमाऽवान्तरकिट्टितोऽनन्तगुणा भवन्ति । मायायाः प्रथम संग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागतो मायाया द्वितीयसंग्रह किट्टि सत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति ततोऽपि मायाया द्वितीय संग्रह - किट्टिसत्कायां द्वितीयाऽवान्तर विद्यावनन्तगुणा भवन्ति, ततो मायाया द्वितीयसंग्रह किट्टि - सत्कायां तृतीयाऽवान्तरविद्वावनन्तगुणा रसाऽविभागा भवन्ति । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्याः, यावद् मायाया द्वितीयसंग्रह किट्टिसत्कद्विचरमा ऽवान्तर किट्टितश्चरमावान्तरविद्वौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । मायाया द्वितीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमा - ऽवान्तर किट्टिगत रसाऽविभागतोऽनन्तगुणा रसाऽविभागा मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कायां प्रथमावान्तरविद्वौ तिष्ठन्ति, ततोऽपि द्वितीयाsवान्तरविट्टावनन्तगुणा रसाविभागा वर्तन्ते, एवमनन्तगुणक्रमेण तावद्वक्तव्याः यावत् तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिः । किट्टिकरणाद्धाधिकारः 'तत्तो' इत्यादि, 'तेभ्यो' मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचर माऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागेभ्यो 'मानक्रोधयोः ' संज्वलनमानक्रोधयोः 'तिसृणां' संग्रह किट्टित्रयस्य अवान्तर किट्टिगता रसाऽविभागाश्च क्रमशस्त्वनन्तगुणास्तावद्भवन्ति यावत् 'क्रोधोत्कृष्टायां' क्रोध तृतीय संग्रह किट्टि - सत्कचरमावान्तरकिट्टौ रसाऽविभागाः । तथाहि मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागतो मानस्य प्रथम संग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तर किट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा अवतिष्ठन्ते । ततोऽपि मानस्य प्रथमसंग्रह किट्टिसत्कद्वितीया ऽवान्तर किड्डावनन्तगुणा रसाविभागा भवन्ति, एवं क्रमेण तावद्वक्तव्याः, यावत् प्रथमसंग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तर किट्टिगतरसाविभागाः । , मानस्य प्रथम संग्रह किट्टिसत्कचरमा-ज्वान्तरकिट्टितो मानस्य द्वितीयसंग्रह किट्टिसत्कप्रथमा - Saान्तर किट्टौ रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ततोऽपि द्वितीयसंग्रह किट्टिसत्कद्वितीयाऽवान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा वर्तन्ते । एवमनन्तगुणक्रमेण तावद्वक्तव्याः, यावन्मानस्य द्वितीय संग्रह किट्टिसत्कचरमा-ऽवान्तर किट्टिगतरसा ऽविभागाः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ aar [ गाथा-६६-६ मानस्य द्वितीय संग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तरकिट्टितो मानस्य तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तर कट्टिगतरसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति ततोऽपि तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कद्वितीयाsaान्तर किट्टौ रसाविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । एवमुत्तरोत्तरावान्तरकिट्टौ अनन्तगुणक्रमेण रसाऽविभागास्तावद्वक्तव्याः, यावन्मानस्य तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचर माज्यान्तर किट्टिगतरसाविभागाः । मानस्य तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागतः क्रोधस्य प्रथमसंग्रह किसिकप्रथमा - Saन्तरकिट्टी रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । ततः क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिसत्कद्वितीया-वान्तरकि रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति । एवमुत्तरोत्तरा-वान्तरकिट्ट (वनन्तगुणक्रमेण रसाऽविभागास्तावद्वक्तव्याः यावत् क्रोधप्रथम संग्रह किट्टि सत्कचरमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागाः । क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागतः क्रोध द्वितीय संग्रह किट्टि सत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, ततोऽपि क्रोधद्वितीय संग्रह किट्टिसत्कद्वितीया-ज्वान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा वर्तन्ते । एवमुत्तरोत्तरायान्तर किडावनगुणक्रमेण रसाऽविभागास्तावदभिधातव्याः यावत् क्रोध द्वितीय संग्रह किट्टिसत्कचरमा-वान्तर किट्टिगतरसा -ऽविभागाः । क्रोधद्वितीय संग्रहकट्टसत्कच (मा ज्यान्तरविट्टिगतरसाऽविभागतः क्रोधतृतीय संग्रह किट्टि - सत्कप्रथमावान्तरकि रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, ततोऽपि क्रोध तृतीय संग्रह किट्टिसक्कद्वितीयावान्तरकिट्टौ रसाऽविभागा अनन्तगुणा वर्तन्ते । एवमुत्तरोत्तराध्वान्तर किड्डावनन्तगुणक्रमेण रसाऽविभागास्तावद्वक्तव्याः यावत् क्रोध तृतीय संग्रह किट्टिसकर मात्रान्तरकिट्टिगतरसाविभागाः । अपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणायां क्रोध तृतीय संग्रह किड्डित्कचरमा ऽवान्तरकिट्टिनोऽनन्तगुणा रसाऽविभागा अनुक्तसिद्धाः, किट्टिगताऽनुभागस्य स्पर्धकाऽनुभागतोऽनन्तगुगहीनत्वदर्शनात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो- 'पढमसमए णिव्वत्तिदाणं किट्टीणं तिव्वमंददाए अप्पाबहुअं वत्तइस्साम । तं जहा - लोभस्स जहण्णिया किट्टो धोवा, विदिया किट्टी अनंतगुणा । एवमणंतगुणाए सेढीए जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिम किहि त्ति । तदो विदियाए संगह किट्टीए जहण्णिया किट्टी अनंतगुणा । एस गुणगारो बारसहं पि संगह किट्टीणं सत्थाणगुणगारेहिं अनंतगुणो । विदियाए संगह किट्टीए सो चैव कमो जो पढमाए संगहकिट्टीए । तदो पुण विदियाए च तदियाए च संगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव । एवमेदाओ लोभस्स तिण्णि संगह किट्टीओ । लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमा किट्टी, तदो मायाए जहण्णकिट्टी अणंतगुणा । " Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तरायबहुत् प्रतिज्ञा | किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १५७ मायाए वि तेणेव कमेण तिण्णि संगह किट्टीओ । मायाए जा तदिया संगह किट्टी, तिस्से चरिमादो किट्टीदो माणस्स जहणिया किहो अनंतगुणा । माणस्स वि तेणेव कमेण तिष्णि संगहकिट्टीओ । माणस्स जा तदिया संगह किड्डी, तिस्से चरिमादो कोदो कोधस्स जहणिया किड्डी अनंतगुणा । कोहस्स वि तेणेव कमेण तिण्णि संगह किट्टीओ । कोधस्स तदिवाए संगह किट्टोए जा चरिमकिट्टी, तदो लोभस्स अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणा अनंतगुणा ।" इति । ८६-८७-८८-८६ । लोभादीनां कियो-नुभागमाश्रित्य पूर्वपूर्वतो ऽनन्तगुणा भवन्तीत्युक्तम् । तत्र गुणकारः सर्वत्र न समानः । तद्यथा-लोभस्य प्रथमसंग्रह किड्ड जैव न्या-वान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागतो द्वितीयान्तरकि रसाऽविभागा अनन्तगुणा भवन्ति, तत्र यो गुणकारः, तेन गुणकारेण द्वितीयाऽवान्तर किट्टितृतीयावान्तर किड्डयोरन्तरालगतो गुणकारो न सदृशः, अपि त्वनन्तगुणो भवति, एवमग्रेऽपीति प्रदर्शयितुं कियन्तराणामनबहुत्वं प्रतिजानीते यह संगह किट्टी अंतराण तहध्वंतरंतरण खलु । भणिहामो पावहुअं जं श्रत्थि सुरुवं ॥ ६० ॥ अथ संग्रह कियन्तराणां तथाऽत्रान्तरान्तराणां खलु । भणिष्यामो ऽल्पबहुत्वं यदस्ति श्रुतानुरूपम् ॥ ६० ॥ इति पदसंस्कारः । 'अ' इत्यादि, तत्र यन्तरं नाम द्वयोः किट्टयोरन्तरालगतो गुणकारः । किमुक्तं भवति १ विवचितकिट्टितस्तदनन्तरकिट्टि लब्धुं यो गुगकारो युज्यते, सकिट्टिगुणकारः कियन्तरमुच्यते, किया- न्तरालप्रमाणसूचको गुणकारः कियन्तरमिति संक्षेपः । ननु कियन्तरशब्देनोपरितनकिट्टिगतरसाऽविभागतोऽधस्तन किट्टिगतरसाऽविभागान् व्यवकलय्यैकोनशेषराशिः कुतो न गृह्यते ? एकोत्तर - रसाविभागवृद्धिक्रमस्यादर्शनादिति चेत्, शृणुतएतत्समीचीनम् । किन्त्वयं दोष उद्भवति – लोभस्य प्रथम संग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तर किट्टिगत• रसाविभागान् द्वितीय संग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागतो विशोध्यैकोन शेषं प्रथम संग्रह कियन्तरं मन्येत, द्वितीयसंग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तरकिट्टिगत रसाऽविभागांश्च द्वितीयसंग्रह किसिकद्वितीयाऽवान्तर किट्टिगतरसा ऽविभागतो व्यवकलय्यैकोनशेषं द्वितीय संग्रह किट्टि - गत प्रथमावान्तरकियन्तरमभ्युपगम्येत, तर्हि प्रथम संग्रह कियन्तरतो द्वितीय संग्रह किट्टिगत प्रथमाSवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं स्यात् । न चाऽस्तु प्रथम संग्रह कियन्तरतो द्वितीय संग्रह किट्टि प्रथमावान्तर किड्डयन्तरमनन्तगुणमिति वाच्यम्, विरोधोपलम्भात् । तथाहि - अग्रे क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिगत चरमावान्तर Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढी [ गाथा - ११-१३: किट्टयन्तरतोऽप्यनन्तगुणं प्रथम संग्रह किट्टयन्तरं भवतीति वक्ष्यते, तेन सह विरोधः स्यात् । तस्मादत्र किट्टयन्तरशब्देन किट्टिगुणकारो ग्राह्यः । १५८ ] तच्च किट्टयन्तरं द्विविधम्, स्वस्थानपरस्थान गुणकार भेदेनाऽवान्तर किट्टयन्तर संग्रह - - किट्टचन्तरभेदात् । तत्राऽवान्तरकिट्टयन्तरं नाम यस्यां कस्याञ्चित् संग्रह किट्टौ संलग्नयोर्द्वयोरवा-न्तरकिट्टयोरन्तरालगतः स्वस्थान गुणकारः । एकैकस्यां च संग्रह किट्टौ अवान्तरकिट्टीनामभव्येभ्योऽनन्तगुणत्वात् सिद्धाऽनन्तभागमात्रत्वाच्चावान्तर विदूयन्तराण्यनन्तानि भवन्ति, रूपोनाऽवान्तरकिद्विराशेरवान्तरकिट्टयन्तरत्वेन दर्शनात् । कषायप्राभृतचूर्णिकारास्तु किट्टयन्तराणि भणन्ति, न त्ववान्तर किट्टयन्तराणि । तथा चात्र कषायप्राभृतचूणि "एक्किकिस्से संगह किट्टीए : अताओ किट्टीओ | तासिमंतराणि वि अनंताणि । तेसिमंतराणं सण्णा किट्टीअंतराइणाम । " इति । इह त्ववान्तर किट्टीनामन्तराणि अवान्तर किट्टयन्तराणीति व्युत्पत्तेबलजीवबोधाया-ऽवान्तरकिट्टयन्तराणीत्युक्तम् वस्तुतस्तूभयोरभेदः । संग्रहकथन्तरं नाम विवक्षितसंग्रह किडिगतचरमाऽवान्तर किट्टि तदुत्तरसंग्रहकिगतप्रथमाSवान्तरकिट्ट चोरन्तरालगतः परस्थानगुणकारः । संग्रह किट्टीनां द्वादशत्वादन्तराणां च रूपोन संग्रह -- किट्टिराशित्वात् संग्रह किट्टयन्तराण्येकादश भवन्ति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ"संगह किट्टीएच अंतराणि एक्कारस, तेसिं सण्णा संगह किट्टीअंतराइणाम ।" इति । अथ द्विविधानां विट्टयन्तराणामल्पबहुत्वं भणितुं प्रतिजानीते- 'अह' इत्यादि, अथशब्दोऽधिकारान्तर सूचकः, संग्रह किट्टयन्तराणां तथा 'अवान्तरान्तराणाम्' अवान्तरविट्टयन्तराणां खलु : 'पबहुत्वं' स्तोकबहुत्वं 'भणिष्यामः ' प्ररूपयिष्यामः । 'जं' इत्यादि, यदल्पबहुत्वं 'श्रुतानुरूपं ' कषायप्राभृतचूर्ण्यादिग्रन्थानुसार मस्ति, एतेना- ऽल्पबहुत्वस्य कपोलकल्पितत्वं निरस्तम् ॥ ९० ॥ अथ प्रतिज्ञाताऽल्पबहुत्वं विभणिपुराह— तत्थ य लोहपढमवंतर किट्टीअंतराउ आढविऊणं । कोहचरिमऽवंतर किट्टियंतरं जावऽणंतगुणिअं णेयं ॥ १॥ (आर्यागीतिः) . तो लोहस्स पढमसंगह किट्टीअंतरं अनंतगुणं । तो बीयअंतरमह तझ्यकिट्टीअंतरं प्रणतगुणं ॥ ६२ ॥ ( गीतिः ) अह लोहगमायाणंतरं अनंतगुणिअं तहेवियराणं । कोहचरिमाउ लोहअव्वाइमवग्गणान्तरं विष्णेयं ॥ ३ ॥ (श्रार्यागीतिः) . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तराल्पबहुत्त्रम् ] किट्टीकरणाधिकारः तत्र च लोभप्रथमाऽवान्तर किट्टयन्तरादारभ्य। क्रोधचरमावान्तर किट्टयन्तरं यावदनन्तगुणितं ज्ञेयम् ॥११॥ तस्माल्लोभस्य प्रथमसंग्रह किट्टघन्तरमनन्तगुणम् । तस्माद् द्वितीयाऽन्तरमथ तृतीयक्रिट्टयन्तरमनन्तगुणन ॥६२॥ अथ लोभमा योरन्तरमनन्तगुणितं तथैवेतरेषाम् । क्रोधचरमाल्लोभा-पूर्वादिवर्गणा - ऽन्तरं विज्ञेयम् ||१३|| इति पदसंस्कारः | 'तस्थ य' इत्यादि, 'तत्र च ' अल्पबहुत्वप्ररूपणायां च 'लोभप्रथमावान्तर किट्ट्यन्तराद् लोभप्रथम संग्रह किट्टिगत प्रथमाऽवान्तरकिट्टचन्तराद् आरभ्य 'कोष वरमावान्तर किड पन्तर" क्रोध तृतीय संग्रह किट्टिगतचरमावान्तरकिट्टयन्तरं यावत् क्रमेणानन्तगुणितं ज्ञेयम् उत्तरोत्तरावान्तर किट्टयन्तरमिति शेषः । तथाहि – लोभस्य प्रथम संग्रह किट्टिगत प्रथमा-ज्वान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता लोभस्य प्रथम संग्रह किट्टिगत द्वितीयाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति स गुणकारः संज्वलन लोभस्य प्रथम संग्रह किट्टो प्रथममवान्तरकिट्ट चन्तरमुच्यते तच्च - सर्वस्तोकम् उपरि भण्यमानपदानां प्रभूतत्वात् । , [ १५६ aat लोमस्य प्रथम संग्रहकट्टी द्वितीयायान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । संज्वलन - - लोभस्य प्रथमसंग्रहकसितक द्वितीयाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा येन गुगकारेण गुणिताः सन्तः प्रथम संग्रह कितित्तृतीया-वान्तर कट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति स गुणकारो द्वितीयमवान्तरकियन्तरमुच्यते तच्च पूर्वपदतोऽनन्तगुणं भवतीति फलितार्थः । ततो लोभस्य प्रथमसंग्रहकट्टौ तृतीयमवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं निश्चेतव्यम् । तत "उत्तरोत्तराऽवान्तर किट्टयन्तरमनन्तगुणक्रमेण तावदभिधातव्यम्, यावत् प्रथमसंग्रह किट्टौ द्विचरमावान्तरकिट्टयन्तरतश्चरमाऽवान्तरकिट्टचन्तरमनन्तगुणं भवति । प्रथम संग्रह किट्टि सत्कद्विचरमावान्तर कट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः सन्तः प्रथमसंग्रह किट्टिसत्कचरमा-वान्तरकट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारश्वर माध्वान्तरकिट्टयन्तरमुच्यते । अत्राह प्रेरकः -- ननु यथा प्रथमावान्तर किट्टि द्वितीया- ऽवान्तर किट्टयो (न्तरालगत गुणकारः प्रथममवान्तरकिट्टचन्तरमुच्यते, तथा द्विचरमावान्तर कट्टिचरमाऽवान्तरकिद्वयोरन्तरालगतो गुणकारो द्विचरमाऽवान्तर किड्ड चन्तरं वक्तव्यम्, चरमावान्तर किट्टचन्तरं कुतो व्यपदिश्यते ? । अत्रोच्यते - प्रथमद्वितीयादीनि पदानि नावान्तर किट्टीनां विशेषणानि अपि त्ववान्तरकिट्टचन्तराणां विशेषणानि । तेन प्रथमा - Sवान्तर कट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्ट योरन्तरालगत गुणकारः प्रथममवान्तर किट्टयन्तरम्, ततोऽग्रे द्वितीयमवान्तरकिट्ट्यन्तरम् । एवं क्रमेणाऽन्त्यमवान्तर किट्ट्यन्तरं चरममवान्तरकिट्टचन्तरमुच्यते, • कर्मधारय समासात् पुनश्वरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमिति प्रयुज्यते । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] खवगसेढी [ गाथा-११-६३: अथ लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिगतचरमाऽवान्तरकियन्तरतो लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिछौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगणं भवति । किमुक्तं भवति ? उच्यते-द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गणिताः सन्तो द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कद्वितीया-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो द्वितीयसंग्रहकिट्टौ प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमुच्यते । तच्च प्रथमसंग्रहकिट्टिगतचरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरतोऽनन्तगणं भवति । ___ न च प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कचरमा वान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः सन्तो द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारोऽत्र कुतो न गृह्यते ? इति वाच्यम् , तस्य संग्रहकिट्टयन्तरव्यपदेशभाक्त्वेनोपरि भणिष्यमानक्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरविट्टयन्तरतोऽपि बृहत्तरत्वात् । एवं सर्वत्र संग्रहकिट्टयन्तरस्य बहत्तरत्वादवान्तरकिट्टयन्तरेषु मणितेष्वेव संग्रहकिट्टयन्तराणि यथास्थानमग्रे वक्ष्यन्ते । लोमस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिगतप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरतो द्वितीयसंग्रहकिट्टिगतद्वितीयाs. वान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । एवमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तगुणक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावद् द्वितीयसंग्रहकिट्टि गतचरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ___लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिगतचरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरतस्तृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । ततोऽनन्तरानन्तरेणाऽनन्तगुणक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावद् लोमस्य तृतीयसंग्रहकिट्टो चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ततो मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । ततो मायायाः प्रथमसंग्रह किट्टौ द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । एवमनन्तगणक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावत् प्रथमसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ततो मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्ता णम् । ततोऽपि मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टौ द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तग्मनन्तगुणम् । एवमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तगुणं तावद्वक्तव्यम् , यावद् मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ततो मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । ततो मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टी द्वितीयाऽत्रान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगणं भवति । एवमुत्तरोत्तराऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं तावद्वक्तव्यम् , यावद् मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टो चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ततो मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगणम् । ततो मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । एवमुत्तरोत्तराऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगणं तावद्वक्तव्यम् , यावद् मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टयन्तराल्पबहुत्वम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १६१ ततो मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । ततो मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । एवमुत्तरोत्तराऽवान्तरकियन्तरमनन्तगुणं तावद्वक्तव्यम् , यावन्मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ततो मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । ततोऽपि मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । एवमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तगुणं तावद्वक्तव्यम् , यावन्मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् ।। ततः क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । ततः क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगणं भवति । एवमुत्तरोत्तरा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं तावदभिधातव्यम् , यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ____ ततः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रह किट्टौ प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्। ततः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । एवमनन्तरान्तरेणाऽनन्तगणं तावनिगदितव्यम् , यावत् क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ततः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । ततो-ऽपि क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणम् । एवमुत्तरोत्तराऽवान्तरकियन्तरमनन्तगुणं तावद् निश्चेतव्यम् , यावत् क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ चरमाऽवान्तरकिट्यन्तरम् । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"एदीए णामसण्णाए किट्टीअंतराणं संगहकिट्टीअंतराणं च अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । तं जहा--लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए जहणणयं किट्टीअंतरं थोवं, विदियं किट्टीअंतरमणंतगुणं । एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । लोभस्स चेव विदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । एवमणंतराणंतरेण जाव चरिमादो त्ति अणंतगुणं । लोमस्स चेव तदियाए संगहकिट्टोए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं। एत्तो मायाए पढमसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुर्ण । एवमणंतराणंतरेण मायाए वि तिण्हं संगहकिट्टीणं किट्टीअंतराणि जहाकमेण अणंतगुणाए सेढीए णेदव्वाणि । एत्तो माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं। माणस्स वि तिण्हं संगहकिट्टीणमंतराणि जहाकमेण अणंतगुणाए सेढीए णेदव्वाणि । एत्तो कोधस्स पढमसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । कोहस्स वि तिण्हं संगहकिट्टीणमंतराणि जहाकमेण जाव चरिमादो अंतरावो त्ति अणंतगुणाए सेढीए णेदव्वाणि ।" इति । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] खवगसेढी [ गाथा-११-१३ 'तो' इत्यादि, 'तस्मात्' क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिगतचरमावान्तरकिट्टयन्तरात् लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । इदमुक्त भवति-लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कचरमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स परस्थानगुणकारो लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरमुच्यते । तच्च चरमस्वस्थानगुणकारलक्षणक्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकियन्तरतो-ऽनन्तगुणं भवति । अस्मादेव परस्थानगुणकारमाहात्म्यादेकैकस्य कषायस्य तिस्रस्तिस्रः संग्रहकिट्टयः प्ररूपिताः, अन्यथैकैकस्य कषायस्य विभागत्रयं नोपपद्यत । 'तो' इत्यादि, 'तस्मात्' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरात् 'द्वितीयाऽन्तरं' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिमकचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागा येन गुणकारेण गुणिता लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा जायन्ते, स गुण कारो लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमुच्यते, तच्च पूर्वपदतोऽनन्तगुणं भवतीत्यर्थः । 'अह' इत्यादि, अथशब्दोऽनन्तरार्थकः । उक्त चाऽमरकोशे-'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वयो अथ ।" इति । ततश्चायमर्थः-लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतोऽनन्तरं 'तृतीयान्तरं' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति, लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतस्तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवतीत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-'तदो लोभस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं, विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं, तदियसंगहकिट्टीअंतरमणतगुण।" इति । ननु किं नाम लोभस्य तृतीयसंग्रहकियन्तरम् ? किं लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमा - वान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गणिताः सन्तो लोमस्यैवा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागा भवन्ति, स गुणकारो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरपदेन गृह्यते ? आहोस्वित् लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गणिता मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो गृह्यते ? न तावत् प्रथमविकल्पः, संग्रहकिट्टयन्तराऽल्पबहुत्वप्रसङ्ग संग्रहकिट्टिस्पर्धकान्तरा-ऽल्पबहुत्वस्या-ऽसंगतस्वात् । यथाकथं संगतौ निरूपितायामप्युपरितनपदस्य मायाप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरलक्षणस्याऽस्मात् पदादनन्तगुणत्वं न सिध्येत् , किट्टिस्पर्धकाऽन्तरतः किट्टयन्तरस्या-ऽनन्तगुणहीनत्वसंमवेन विरोधोपलम्भात् । नाऽपि द्वितीयविकल्पः, उपरि भण्यमानेन लोभमाययोरन्तरमनन्तगणमित्यनेन पदेन सिद्धत्वात् प्रस्तुतपदस्य पुनरुक्तदोषवत्त्वेन वैयर्थ्यात् । न च पुनरुक्तदोषमपाकतु लोभमाययोरन्तरमनन्तगणमित्येतद् लोभसत्कर्म येन गणकारेण गुणितं मायासत्कर्म भवति, स गणकारो लोभमाययोरन्तरमिति व्याख्येपमिति वाच्यम् , सत्कर्माऽन्तरतः किट्टयन्तरस्या-ऽनन्तगणहीनत्वदर्शनेनोपरि मण्यमानस्य मायाप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरस्य लोममायाऽन्तरतोऽनन्तगुणत्वाऽसंभवात् । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह किट्टयन्तराल्पबहुत्वम् ] [ १६३ अत्रोच्यते - (१) लोमस्य तृतीयसंग्रह किट्टचन्तरमित्यनेन पदेन लोभस्य द्वितीय संग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता लोभस्य तृतीयसंग्रह किड्डिसत्कचरमाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो ग्राह्यः । एवंविधगुणकाररूपं तृतीयसंग्रह किट्टयन्तरं द्वितीय संग्रह कियन्तरतोऽनन्तगुणं भवति । तथाहि - तृतीयसंग्रह किट्टिगत सर्वावान्तरविट्टयन्तराणि परस्परं गुणयितव्यानि, गुणितानि च पुनर्द्वितीय संग्रह किट्ट्यन्तरेण गुणायित-. व्यानि ततो लब्धं गुणनफलमत्र गुणकाररूपं तृतीय संग्रह किट्ट्यन्तरं बोद्धव्यम् । तेन तृतीयसंग्रह कियन्तरं सुतरां द्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरतोऽनन्तगुणं सिध्यति, परस्परगुणित- तृतीयसंग्रहकिसिक- सर्वावान्तर किट्टचन्तरै द्वितीय संग्रह कियन्तरस्य गुणितत्वात् । गुणकारोऽत्र तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कपरस्पर गुणित सर्वाऽवान्तर किट्टयन्तरमात्रो ज्ञातव्यः । न चेदं न प्रतिपादनीयम्, अनुक्तसिद्धत्वादिति वाच्यम्, लोभमाययोरन्तरमाहात्म्यदर्शनाय प्रतिपादितत्वात् । तथाहि - द्वितीयसंग्रहकिन्तरगुणिततृतीय संग्रह किट्टिगत परस्पर गुणित सर्वाऽवान्तर किट्टचन्तरलक्षण तृतीयसंग्रह कियन्तरतोऽपि लोभस्य तृतीय संग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता मायायाः प्रथम संग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, तद्गुणकारस्वरूपं लोभमायाऽन्तरमनन्तगुणं भवति । अतः साफल्यमस्य पदस्य । 'अह तइय०' इत्यादीनां मूलगाथोक्ता-ऽक्षराणामर्थस्त्वित्थं कार्य : – 'अथ' अथशब्दस्या- ऽनन्तरार्थकत्वात् द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतोऽनन्तरं तृतीय संग्रह किट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति, अथ - ततोऽनन्तरं लोभमा यो - रन्तरमनन्तगुणितं भवति । द्वितीय संग्रह किट्टयन्तरतो लोभतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरगुणं भवति । ततोऽपि लोममाययोरन्तरमनन्तगुणं भवतीत्यर्थः । (२) अथवा लोभस्य तृतीय संग्रह किट्टिसत्क-चरमाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण सङ्गुणिता लोभस्याऽपूर्वस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणागत- रसाऽविभागा भवन्ति स गुणकारोऽत्र तृतीयसंग्रह कियन्तरपदेन ग्राह्यः सङ्गतिस्तु किट्टिस्पर्धकयोस्तत्तत्कषायसम्बन्धित्वाद् बोध्या । लोभमयान्तरपदेन च लोभस्य तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तरविट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता मायाप्रथम संग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो बोद्धव्यः । न चेत्थं व्याख्याते लोभस्य तृतीयसंग्रह किट्ट्यन्तरतो लोभमाययोरन्तरमनन्तगुर्ण न स्यात्, संग्रह कियपूर्वस्पर्धकान्तरतो किट्टयन्तरस्याऽनन्तगुणहीनत्वादिति वाच्यम्, लोभस्य द्वितीयसंग्रह कियन्तरतो लोमस्य तृतीय संग्रह कियन्तरमनन्तगुणं प्ररूप्य ततः पुनर्लोभस्य द्वितीयसंग्रह किन्तरं प्रति निवृत्य लोभस्य द्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरतो लोभमाययोरन्तरमनन्तगुणं किट्टिकरणाद्धाधिकारः * अभ्यधायि च जयधवलाकारैरपि - "लोभस्स तदियसंगह किट्टी अंतरमिति वृत्ते लोभस्स विदियसंगट्टिए चरिम किट्टी जेण गुणकारेण गुणिदा लोभस्स चेव तदियसंगह किट्टीए चरिमकिट्टि पावेदि, सो गुणगारो घेत्तव्वो, पुण्वुत्तविदियसंग किट्टी-अंतरादो परिष्फुड मे वेदस्साांतगुणत्तदंसणादो । को एत्थ गुणगारो ? तदियसंग किट्टीए पविट्ठ सेस सत्थाणगुणगाराण मरणोपण संवग्गो ।” इति । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी १६४] [गाथा-११-६३ भवतीत्यभिप्रेतत्वात्। "अह तहयः" इत्याद्यक्षराणामर्थस्त्वेवं कार्यः 'अर्थ' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतोऽनन्तरं तृतीयसंग्रहकिदृयन्तरमनन्तगुणं भवति, 'अथ' अथशब्दो विकल्पार्थकः । यन्न्यगादि मेदिनीकोशे "अथाथो संशये स्यातामधिकारे च मङ्गाले। विकल्पानन्तरप्रश्नकात्ारम्भसमुच्चये ॥ १॥” इति ॥ ततश्चायमर्थः-अथवा द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतो लोभमाययोरन्तरमनन्तगुणितं भवति । (३) अथवा लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमित्यनेन लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारोऽत्र ग्राह्यः, लोभस्य मायायाश्चाऽन्तरमित्यनेनाऽपि स एव गुणकारो व्याख्येयः। न च तथाविधव्याख्याने पुनरुक्तदोष उद्भवतीति वाच्यम्, पूर्व सामान्येन अथ तृतीयसंग्रहकिट्ट यन्तरमनन्तगुणमित्यभिधाय तस्यैव अथ लोभमाययोरन्तरमनन्तगुणं भवतीति व्याख्यानरूपेणाऽभिहितत्वात्। मूलगाथोक्ता-ऽक्षरार्थस्त्वेवम् -अथ द्वितीयसंग्रहकिड्यन्तरतोऽनन्तरं ततीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्, 'अथ' द्वितीयसंग्रहकियन्तरतो-ऽनन्तरं लोभस्य मायायाश्चाऽन्तरमनन्तगुणितमित्यर्थ इति शेषः । एवमग्रेऽपि यथास्थानं समाधानत्रिकं भावनीयम, विरोधाऽनुपलम्भात्, वस्तुतः केवलज्ञानिनां केवलादर्शे एक एव विकल्पः प्रतिविम्बितो भवति, तथा स एव साधुः, किन्तु तं ते एव जानन्ति, बहुश्रुता वा । साम्प्रतं तेषामभावात् न जानीमः, को विकल्पो तेषां ज्ञानादर्श प्रतिविम्बित इति कृत्वा त्रयो विकल्पाः प्रतिपादिताः। एतानि त्रीण्यपि समाधानान्यवलम्ब्याऽग्रे स्थापना प्रदर्शयिष्यते । 'अह' इत्यादि, अथ लोभमाययोरन्तरमनन्तगणितम् । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी"लोभस्स मायाए च अंतरमणतगुणं ।" इति सुगममेतत्, प्राग विस्तरतो भावितत्वात् । अथ शेषकषायेष्वतिदिदिक्षराह–'तहेव' इत्यादि, 'तथैव' यथा लोभस्य संग्रहकिट्टयन्तराणि व्याख्यातानि, तथैव 'इतरेषां' माया-मान-क्रोधलक्षणानां कषायाणां संग्रहकिट्टयन्तराणि अतथा चोक्त जयधवलायामपि-"अधवा तदियसंग्रहकिट्टीए अपुवाहयादिवग्गणाए च अंतरं तदियसंगहकिट्टीअंतरमिदि घेत्तव्यं । संगहकिट्टीफदयतरस्स वि कथंचि संगहकिट्टीअंतरत्तेण णिहे से विरोधाभावादो। ण तहाब्भुवगमे एत्तो उवरि मायालोभाणमंतरस्स अणतगुणत्तविरोधा णेहासंकणिज्जो, लोभस्स सत्थाणप्पाबहुए भएणमाणे एवं होदि त्ति अप्पणो अपुवफद्दएहिं संधाणं कादूण पुणो तत्तो णियत्तिदूण हेटि. मपदं चेव घेत्तण तत्तो लोभमायाणमंतरस्साणंतगुणत्तेण णि सावलंबणे नहासाणुवलंभादो।" इति । * न्यगादि च जयधवलाकारैरपि-"अधवा लोभस्स तदियसगहकिट्टोअतरमणंतगुणं इदि वुत्ते लोभमायाणमेव तदियपढमसंगहकिट्टीणं संधिगुणगारो गहेयव्वो। ण च तहावलंबिज्जमाणे उवरिमसुत्तेण पुणरुत्तभावो वि, तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणमिदि सामरणणिद्दे सेण तं कदममिदि संदेहे समुप्पएणे तरिणरायरणमुहेण लोभमायाणमंतरमेव तदियसंगहकिट्टीअंतरमिह विवक्खियं, ण तत्तो अएणमिाद पदुपायणट्ठमुवरिमसुत्तारंभे पुणरुत्तदोसासंभवादो।" इति । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह किट्टपन्सराल्पबहुत्वम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १६५ व्याख्येयानि । लोभ प्ररूपयता लोभस्य मायायाश्चान्तरमुक्तम्, तत्र क्रोधे यो विशेषस्तं दर्शयति'कोहचरिमाउ' इत्यादि, क्रोधचरमकिट्ट:-क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टित आरम्य 'लोभाऽपूर्वादिवर्गणान्तरं' लोभप्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणां लब्धु यो गुणकारी योज्यते, स इत्यर्थः, अनन्तगुणं 'विज्ञ यम्' विशेषतोऽवधेयम् । ___ भावार्थः पुनरयम्-लोभमाययोरन्तरतो मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति, मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसा-ऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरमुच्यते । तच्च पूर्वपदतोऽनन्तगुणं भवतीत्यर्थः । ततोऽपि मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्, मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्काथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमुच्यते; तच्च पूर्वपदतोऽनन्तगुणं भवति । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-"मायाए पढमसंगहकिट्टीअंतरमणतगुणं, विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं ।" इति । ततो मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्, अथ मायाया मानस्य चाऽन्तरमनन्तगुणम् । उक्त' च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदियसंगहकिट्टोअंतरमणंतगुणं, मायाए माणस्स च अंतरमणतगुणं ।" इति। लोभवद् व्याख्येयम्, नवरं लोभस्थाने माया वक्तव्या, मायास्थाने च मानो भणनीयः । ततोऽपि मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्, संज्वलनमानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागा येन गुणकारेण गुणिता मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागा भवन्ति, स गुणकारो मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरं भण्यते, तच्च पूर्वपदतोऽनन्तगुणं भवतीति भावः ।। ततोऽपि मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति, मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागा येन गुणकारेण गणिता मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमुच्यते, तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं भवतीत्यर्थः । न्यगादि च कषायप्राभूतचूर्णी-"माणस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टोअंतरमणंतगुणं ।” इति । ततोऽपि मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्, अथ मानस्य क्रोधस्य चाऽन्तरमनन्तगुणं भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदियसंगहकिटीअंतरमणंतगुणं। माणस्स कोहस्स च अंतरमणंतगुणं ।" इति व्याख्यानं तु लोभवत् कर्तव्यम्, नवरं लोमस्थाने मानः, मायास्थाने च क्रोधो वक्तव्यः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] खवगसेढी [ गाथा-११-१३ ततोऽपि क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति, क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरं निगद्यते. तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणमित्यर्थः। ततोऽपि क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तर्राट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गणिताः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गणकारः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिदृयन्तरमभिधीयते, तच्च पूर्वपदतोऽनन्तगुणं भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "कोहस्स पढमसंगहकिट्टी-अंतरमणंतगुणं, विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंगुण।" इति । ततः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमनन्तगुणम्, अथ क्रोधचरमावान्तरकिट्टि-लोभप्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाऽन्तरमनन्तगुणम् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदियसंगहकिट्टीअंतरमण तगुण, कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अंतरमणतगुण।" इति । व्याख्यानं तु लोमतृतीयसंग्रहकिट्टिवत् समाधानत्रिकमाश्रित्य कर्तव्यम्, नवरं लोभस्थाने क्रोधो वक्तव्यः, मायायाश्च स्थाने लोभाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणा कथनीया । तथाहिक्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरमित्यनेन क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारो ग्राह्यः। स च क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतो-ऽनन्तगणां भवति, ततोऽपि क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमावान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिता लोभस्याऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाऽविभागा भवन्ति, तद्गुणकाररूपं क्रोधततीयसंग्रहकिट्टिसत्कचरमा-ऽवान्तरकिट्टि-लोभा- पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणा-ऽन्तरमनन्तगुणं भवतीति प्रथमविकल्पः । __ प्रथमसमाधानमाश्रित्या-ऽसत्कल्पनया स्थापना किट्टयन्तरा-किट्टयनुभाल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि तस्यां रसाविभागाः 'स' " , , , प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् 卐२ "" ", द्वितीयावान्तरकितिः तस्यां रसाविभागाः २ स ,, ,, द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् | 0४ प्रलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागा येन गुणकारेण गुणिता लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कद्वितीया-ऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागा भवन्ति, स गुणकारो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमुच्यते । प्रकृते लोभप्रथमसंग्रहकिट्ट : प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टौ रसाविभागा: 'स' इति कल्प्यन्ते, द्वितीयाऽवान्तरकिट्टौ तु '२ स' इति । अथ द्विकेन गुणिताः 'स' रसाविभागाः (२स' भवन्ति, तेन प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरं द्विकं भवति । एवं द्वितीयाद्यवान्तरकिट्रयन्तराणि दर्शयितव्यानि । द्विकं चा-ऽत्रा-ऽनन्तत्वेन कल्पितम् । तेन प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयन्तरतो द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टपन्तरस्य द्विगुणत्वाद् द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुणं भवति । .. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमसमाधान स्थापना ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १६० किट्टयन्तरा-किट्टयनुभापूर्वतोऽनुवर्तमाना प्रथमसमाधानमाश्रित्य स्थापना ल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितृतीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाःस " " " , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् , , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः x तस्यां रसाविभागाः ६४स लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम् ३२ अरे लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि तस्यां रसाविभागाः २०४८ अरेस "" " , प्रथमावान्तरकिट्रयन्तरम १६ " " " , द्वितीयावान्तरकिदिः तस्यां रसाविभागाः १२७६८अस " " " , द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम " , , , तृतीयावान्तरकिट्टि तस्यां रसाविभागाः १६अस | , , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , , चतुर्थावान्तरकिाट्टः तस्यां रसाविभागाः १०२४ अस लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् ६४ अरे लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा: अस " " ," प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् १२८ , , , ,, द्वितीयावान्तरकिट्टि तस्यां रसाविभागाः१२८असा " , , ,, द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् २५६ " , , ,, तृतीयावान्तरकिट्टि तस्यांरसाविभागाः२२७३८अस " , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् ५१२ , , , , चतुर्थावान्तरकिट्टः तस्यारसाविभागाः २५६अस लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् A१६३८४ अ * एकैकस्यां सग्रहकिट्टी त्राण्यवान्तरकिट्टयन्तराणि भवन्ति, चतसृणामवान्तरकिट्टीनां परिकल्पनात्। * एकैकस्यां संग्रहकिट्टी चतस्रो-ऽवान्तरकिट्टयः कल्पिताः । इह सर्वसंग्रहकिट्टिष्ववान्तरकिट्टयो मिथस्तुल्या न भवन्ति, किन्तु ग्रन्थगौरवभयाद् असत्कल्पनया तुल्याः परिकल्पिताः, अन्यथा लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसकसकला-ऽवान्तरकिट्टित क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिसत्कसर्वा-ऽवान्तरकिट्टयः संख्येयगुणाः कल्पयितव्याः, लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिमक सर्वा-ऽवान्तरकिट्टितः क्रोवतृनोयसंग्रह किट्टिसत्कसकलावान्तरकिटोनां संख्येयगुणत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् । A लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसकचरमाऽवान्तरकिट्टी रसाविभागा: १.२४ अ3 स' इति भवन्ति, ते च '१६३८१ 43' इत्यनेन गुणिता लाभतृतीयसंग्रइकिट्टिमत्कचरमाऽत्रान्तरकिट्टिगता रसाविभागाः '२५६ अस' इति जाताः। तेन १६३२५ अ' इत्येतद् लाभतृतोयसग्रहकिट्टयन्तरं भवति । -न्यासः-लोभततीयसंग्रहकिट्टि चरमावान्तरकिट्टिरसाविभागाः = १०२४ 43 1 (द्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमा बान्तरकिट्टिरसाविभागा:)४१६३८४ अरे 3 १०२४४१६३८४ अस = १६.७७२१६ अस तथा लोमतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् = १६३८४ अ' - ६४ २ ( द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् )x १२% x २५६४५१२ ( - परस्परगुणित तोयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयन्तराणि) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] मायालो भयोरन्तरम् मायाप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमावान्तर किट्टिः 35 23 " " " "" "" "" " " 55 " 39 " 99 19 33 " " 19 " " "" 39 " ا मायाप्रथम संग्रहकियन्तरम् मायाद्वितीयसग्रह किट्टप्रथमावान्तर किट्टिः "3 " " " 33 12 23 21 " 39 19 "" ע 21 " 93 39 31 39 17 39 मायाद्वितीय संग्रह कियन्तरम् माया तृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमावान्तर किट्टिः " " وا " " 32 23 39 ار पूर्वतोऽनुवर्तमाना प्रथमसमाधानमाश्रित्य स्थापना ,, प्रथमावान्तर क्रिट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तर किट्टिः द्वितीयावान्तर किट्टयन्तरम् तृतीयावान्तर किट्टिः तृतीयावान्तर किट्टयन्तरम् चतुर्थावान्तर कट्टिः 35 23 " " " 95 "" " 95 35 "" ور 19 "" 99 "" 21 माया तृतीय संग्रह कियन्तरम् मायामानयोरन्तरम् मानप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमावान्तर किट्टिः 59 " " प्रथमावान्तर किट्टियन्तरम् द्वितीयावान्तर किट्टिः द्वितीयावान्तर किट्टयन्तरम् तृतीयावान्तर किट्टिः तृतीयावान्तर किट्टयन्तरम् चतुर्थावान्तर कट्टिः " प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तर किट्टिः द्वितीयावान्तर किट्टयन्तरम् तृतीयावान्तर किट्टिः तृतीयावान्तर किट्टयन्तरम् चतुर्थान्तरकि 35 arrat प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तर कट्टिः *३२७६= ३ १२८ अ ११ स १०२४ तस्यां रसाविभागाः २ १२स २०४८ | तद्ररसाविभागाः ४०६६ अस ४०६६ तस्यां रसाविभागाः २५६ १३ स अ४ तस्यां रसाविभागाः २५६ अ १७ स ८१६२ तस्यां रसाविभागाः ३२ स १६३८४ तस्यां रसाविभागाः ८ १६स ३२७६८ तस्यां रसाविभागाः ४ अ२० स २ ४ तस्यां रसाविभागाः ८ अ २४स ६५५३६ = अ तस्यां रसाविभागाः ८ अस २ श्र तस्यां रसाविभागा १६ २६ स ४ अ तस्यां रसाविभागाः ६४ २७ स १६ अ ३२ अ तद्ररसाविभागाः २०४८ ३४ स ८ अ तद्ररसाविभागाः १६३८४ ३ स [ गाथा - ११-१३ किट्टयन्तरा । किट्ट्यनुभा ल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्वक्रमाङ्कः क्रमाङ्कः ४० १० ११ १२ ४१ १३ १४ १५ ४२ १६ १७ १८ xxx ४३ ४४ १६ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० २६ * लोभतृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमा ऽवान्तर किट्टिगता रसाविभागा २५६ अस' इति भवन्ति । ते च '३२७६८ अ'' इत्यनेन गुणकारेण गुणिता मायाप्रथम संग्रह किट्टिसत्कप्रथमा-ऽवान्तर किट्टिगतरसाविभागाः ‘१२८ अ ११स' इति जाताः । तेन '३२७६८ अ' इत्येतद् मायालो भयोरन्तरम् । तच्च प्राग्दर्शितलोभ तृतीय संग्रह कियन्तरतोऽनन्तगुणं भवति, द्विकस्या- ऽनन्तत्वेन परिकल्पनात् । * षट्त्रिंशदधिकपञ्चशतो त्तरपञ्चषष्टिसहस्राणां स्थाने 'अ' इति कल्प्यते । २१ २२ २३ २४ २५ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमसमाधानस्थापना] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [१६६ पूर्वतोऽनुवर्तमाना प्रथमसमाधानमाश्रित्य स्थापना किट्टयन्तरा-1 किट्टयनुभाल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्वक्रमाङ्कः क्रमाङ्कः मानप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् , , , , तृतीयावान्तरकिट्टिः " , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , , चतुर्थावान्तरकिट्रि: मानप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम् मानद्वितीयसंग्रहकिट्टि प्रथमावान्तर्राकट्टिः " " " , प्रथमावान्तरविदृयन्तरम "" "" द्वितीयावान्तरकिति: "" ", द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , , तृतीयावान्तरकिट्रि: , , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः मानद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् मानतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि " , , , प्रथमावान्तरकिट्टपन्तरम " , , ,, द्वितीयावान्तरकिट्टिः " , , ,, द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , ,, तृतीयावान्तरकिट्टि , , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् , , , ,, चतुर्थावान्तरकिट्टिः मानतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् मानक्रोधयोरन्तरम् तस्यां रसाविभागाः ४७स ३२ अ तस्यां रसाविभागा.१२८अ उस ६४ अ तस्यारसाविभागा:८१६२२४५स ६४ अ | तस्यां रसाविभागा: ८४°स १२८ अ तस्यां रसाविभागाः १०२४१४८स २५६ अ तस्यां रसाविभागाः४ अ५°स १२८ अ" तस्यां रसाविभागा:५१२५°स ५१२ श्र तस्यां रसाविभागाः ४५६स १०२४ अ तस्यां रसाविभागा:४०६६० २०४८ अ तस्यां रसाविभागाः १२८२स ३२ १२ ६४ अ१२ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागा:८१६२४स " , , , प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् ४०६६ अ " , , , द्वितीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा ५१२७स " , , ,, द्वितीयावान्तरकिट्रयन्तरम ८१६२ अ " , , , तृतीयावान्तरकिट्रि. तस्यां रसाविभागाः ६४अस! ,, , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् १६२८४ अ , , ,.,. चतुर्थावान्तरकिट्रिः तस्यां रसाविभागा:१६अस! ॐ ननु '३२१२' इत्यस्य कोऽर्थः ? उच्यते-द्वादश अकाराः पृथक् पृथक् स्थाप्याः, ततः परस्पर गुणयितव्याः । गुणनफलं च पुनर्वात्रिंशता गुणनीयम् । गुणकारेण प्राप्तम् ३२ अ१२ इति भवति । एवं यत्र यत्र 'अ' इत्यस्योपरि योऽङ्कः स्थापितो भवेत, तत्संख्यका अकाराः स्थापयितव्याः, ततः परस्परं गुणयितव्या. । षट्त्रिंशदधिकपञ्चशतोत्तरपञ्चषष्टिसहस्राणां च स्थाने 'अ' इति कल्प्यत इति तु प्राग दर्शितमेव । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] खवगसेढी [ गाथा-६१-१३ किट्टयन्तरा-|किट्टयनुभापूर्वतोऽनुवर्तमाना प्रथमसमाधानमाश्रित्य स्थापना ल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम् १२८ अ१२ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तस्यांरसाविभागाः२०४८२स ,, ,, ,, प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् ३२७६८ अ " , , ,, द्वितीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः१०२४१६४स , , , , द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , , तृतीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा.१०२४४६६स ,, ,, ,, तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् । , , , ,, चतुर्थावान्तरकिट्टिः तसाविभागा:२०४८असा क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् २५६ अ१२ क्रोधतृतीयसग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः ८११११स , ,, ,, प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम ४ अरे ,, ,, द्वितीयावान्तरकिट्टिः तस्यारसाविभागाः ३२११३स , ,,, द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् ,, ,, ,, तृतीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा:२४६१११ ,, ,, , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् १६ अरे ,, ,, ,, ,, चतुर्थावान्तर किट्टिः तद्रसाविभागाः ४०९६१११°स क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् २१९ क्रोधचरमावान्तरकिट्टि-लोभापूर्वस्पर्धकादिवर्गणान्तरम् | अ६८ लोभापूर्वस्पर्धकादिवर्गणा तद्रसाविभागाः ४४.२ ३५स (२) अथवा क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः क्रोधस्यैवाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाऽविभागा भवन्ति, स गुणकारः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरं निगद्यते, तच्च क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरतोऽनन्तगुणं भवति, तथा द्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरत एव प्रागुक्तस्वरूपं क्रोधचरमाऽवान्तरकिट्टिलोभा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणयोरन्तरमप्यनन्तगुणं भवतीति द्वितीयो विकल्पः । . Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय समाधानस्थापना ] लोभप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमावान्तर किट्टिः 22 ," 12 23 " 39 33 " " " 33 33 33 " " 19 " " 12 :9 " "1 ". 22 लोभप्रथम संग्रह किट्टचन्त रम् लोभद्वितीयसंग्रह किट्टप्रथमावान्तर किट्टिः " " 19 27 " " 33 " 12 23 23 " 33 93 " " " 33 دو " 55 " 32 " लोभ द्वितीयसंग्रहविट्टयन्तरम् " लोभ तृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमावान्तर किट्टिः " 21 द्वितीय समाधानमाश्रित्यासत्कल्पनया स्थापना " 33 21 "" " 33 " 31 "" " " " प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तर किट्टिः द्वितीयावान्तर किट्ट घन्तरम् तृतीयावान्तर कट्टिः तृतीयात्रान्तर किट्टयन्तरम् चतुर्थावान्तर कट्टिः 33 19 प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तर कट्टि द्वितीयावान्तर किट्टपन्तरम् तृतीयावान्तर किट्टिः तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् चतुर्थात्रान्तरकट्टिः " प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तर कट्टिः " द्वितीयावान्तर किट्टघन्तरम् तृतीयात्रान्तरकिट्टिः ,” तृतीयावान्तर किट्टचन्तरम् चतुर्थावान्तर किट्टिः 53 लोभतृतीय संग्रह कट्टयन्तरम् लोभाऽपूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणा लोभमाययोरन्तरम् किट्टिकरणाद्धाधिकारः तस्यां रसाविभागाः 'स' २ तस्यां रसाविभागाः २ स ४ तस्यां रसाविभागाः स ८ तस्यां रात्रिभागाः ६४ स ३२ अ तस्यां रसाविभागाः २०४८ स १६ तस्यां रसाविभागाः ३२७६८अ स ३२ तस्यां रसाविभागाः १६ स ६४ तस्यां रसाविभागाः १०२४२३ स ६४ अ तस्यां रसाविभागाः अस १२८ तस्यां रसाविभागाः १२८ ६ स २५६ तस्यां रसाविभागाः ३२७६८अ स ५१२ तस्यां रसाविभागा २५६ अस १६ अ २२८ तद्रसाविभा० ४०६६ २ ३ ४ स १२= श्र [ १७१ | किट्टयन्तरा | किट्ट्यनुभाल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः क्रमाङ्कः १ १ २ ३ ३७ ४ ५ ६ ३८, क ७ In c फख ३६ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ह १० ११ १२ ★ 'क' इत्यस्मात् 'ख' इत्येतदनन्तगुणम् । ननु किं नाम 'ख' ? इति चेत्, उच्यते - लोभतृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तर किट्टिगतरसाविभागाः ‘२५६अ ँस' इत्येतावन्तः '१६ २२८' इत्यनेन गुणकारेण गुणिता लोभप्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथम वर्गणागता रसाविभागाः '४०६६ २३ स' इत्येतावन्तो भवन्ति । तेन '१६ २ २ ८१ इत्येतद् लोभतृतीयसंग्रहविट्टयन्तरं भवति, तच्च खसंज्ञकम् । तत्पुनः कसंज्ञकतो ( लोभ द्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरतो) अनन्तगुणं भवति । 4 लोभतृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमावान्तर किट्टिप्रतिबद्धरसाविभागाः '२५६ अ 'स' इत्येतावन्तः '१२८ २' इत्यनेन गुणिता मायाप्रथम संग्रह किट्टिसत्कप्रथमावान्तर किट्टिगतरसाविभागाः '३२७६८ अस इत्येतावन्तो भवन्ति, तेन '१२८ २' इत्येतद् लोभमाययोरन्तरम्, तच्च लोभद्वितीयसंग्रह किट्टपन्त रतो-Sनन्तगुणं भवति । एवं मायादीनामपि प्ररूपणा - ऽवसेया । ४६ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] खवगसेढी [गाथा-६१-६३ किट्टयन्तरा-|किट्टयनुभा पूर्वतोऽनुवर्तमाना द्वितीयसमाधानमाश्रित्य स्थापना ल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः ३२७६८ अस " , , , प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् १०२४ " , , , द्वितीयावान्तरकिदिः तस्यां रसाविभागा:५१२अस " , , ,, द्वितीयावान्तरकियन्तरम २०४" , , ,, तृतोयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा:१६१स " ,, ,, ,, तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् ,, ,, ,, चतुर्थावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा: अ१२स मायाप्रथमसंग्रहकिट्ट यन्तरम् २५६ अरे मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः २५६अ "स " , , , प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम ८११२ » » » » द्वितीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः३२१५स " " " " द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् १३२८४ " , , , तृतीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा:८ अस " , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् ३२७६८ , , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः ४अस ___ मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् ५१२ अरे ४१,च* मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि तद्रसाविभागा:२०४८अस " , , , प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् ६५५३६ = अ " , , , द्वितीयावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः२०४८२.स " , , , द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् २ अ , . , ,, तृतीयावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागा ४०६६अस " " " " तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् ४ अ " " " " चतुर्थावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागा:१६३८४ अ२२स | मायातृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् १६३८४२१२ मायाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणा तद्रसावि० ४०६६अ२३५स* मायामानयोरन्तरम् मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा:२५६अ२"स " " ""प्रथमावान्तरकिटथन्तरम श्र , , .. द्वितीयावान्तरकिट्टिः 'तद्रसाविभागा:२०४८अस | ★ 'च' इत्यस्मात् 'छ' इत्येतदनन्तगुणम् । के परमार्थतो लोभादीनां क्रमेण प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रतिबद्धरसाविभागा विशेषाधिका भवन्ति । इह तु स्थूलदृष्टया-ऽधिकत्वस्याऽविवक्षणात् चतुर्णामपि कषयाणां प्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाविभागास्तुल्या दर्शिताः । - एवमग्रेऽप्यने नचिह्न नाऽयमेवार्थो बोध्यः । विशब्दविशिष्टोऽङ्कः पूर्वपदत्तः स्वस्य विशेषाधिकत्वं बोधयति, शेषास्त्वनन्तगुणतां सूचयन्ति । १०२४ अ२ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयसमाधानस्थापना] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [१७३ पूर्वतोऽनुवर्तमाना द्वितीयसमाधानमाश्रित्य स्थापना किट्टयन्तरा-|किट्टयनुभा ल्पबहुत्व- | गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्क: मानप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयावान्तरकिट्ट यन्तरम् ६ " . , , तृतीयावान्तरकिट्टिः | तद्रसाविभागा:३२७६८अ२"स " " " " तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम ३२ अ " " " " चतुर्थावान्तरकिट्टिः | तस्यांरसाविभागा:१६असा __ मानप्रथमसंग्रह किट्टयन्तरम् २०४: अरे मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि ः तद्रसात्रिभागाः३२७६८अस " , , . प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् ६४ अ , , , , द्वितीयावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः ३२333स , , , , द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् १२८ अ , , , , तृतीयावान्तरकिट्टि. तद्रसाविभागा:४०६६१३४स " " " " तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् २५६ श्र , , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः १६ अस मानद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् । ४०१६ अरे मानतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः अ३६स " " " , प्रथमावान्तरकिट्थन्तरम ५१२ अ " " " " द्वितीयावान्तरकिट्रिः तस्यां रसाविभागा.५१२४°स " , , , द्वितीयावान्तरकिट्टथन्तरम् | १०२४ अ " " " " तृतीयावान्तरकिट्टि तस्यां रसाविभागाः अस " , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम २०४८ अ " , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः१६३८४ अस __ मानतृतीयसंग्रहकियन्तरम् । १६३८४ असा मानापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणा तद्रसाविभागाः४०६६.२३ "सका मानक्रोधयोरन्तरम् ८१६२ अरे क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि : तद्रसाविभागाः२०४८४६स " " " , प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम् ४०६६ अ " , , , द्वितीयावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः१२८अस " " " , द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् ८१६२ अ " , , , तृतीयावान्तर किट्टिः तस्यां रसाविभागाः १६अ५०स , , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् १६३८४ अ " , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः ४अ५२स . क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम् । १६३८४ अरे । ४६ * 'ट' इत्यस्मात् 'ठ' इत्येतदनन्तगुणम् । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तर किट्टिः "" " प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् "" द्वितीयावान्तर किट्टिः द्वितीयावान्तर विट्टयन्तरम् " तृतीयावान्तर किट्टिः तृतीयावान्तरकिःट्टघन्तरम् चतुर्थावान्तर किट्टिः क्रोधद्वितीय संग्रह कियन्तरम् क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमावान्तर किट्टिः "" ". 59 93 99 99 "" "3 39 "" "" 35 99 " "" 95 39 91 13 "3 "" 33 "" प्रथमावान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयावान्तरकिट्टः द्वितीयावान्तर किट्टयन्तरम ” तृतीयावान्तर किट्टिः 99 " तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् चतुर्थावान्तर किट्टिः 99 क्रोध तृतीयसंग्रह कियन्तरम् क्रोधापूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणा क्रोधचरमावान्तर कि. हिलो भापूर्वस्पर्धक प्रथमवर्ग णयोरन्तरम लोभाऽपूर्वस्पर्धक प्रथम वर्गणा 19 23 "3 " पूर्वतोऽनुवर्तमाना द्वितीयसमाधानमाश्रित्य स्थापना 99 "" 95 "" 11 11 " 39 99 29 59 " ,, लोभप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमावान्तर कट्टिः 99 91 19 99 "" 19 22 aarसेढी "" 95 तस्यां रसाविभागाः २५५ ३२७६८ अ तद्रसाविभागाः ३२७६८अ" स ६५५३६अ = अर तद्रसाविभागा ३२७६८अस २ अ तस्यां रसाविभागाः ६ स ३२७६८ अ तद्रसाविभागाः ३२७६८६ उस ४ अ २ तस्यां रसाविभागाः २ ६ ६ स प्रथमात्रान्तर किट्टयन्तरम् द्वितीयाऽवान्तर किट्टिः द्वितीयावान्तर किट्टयन्तरम् ८ अर तस्यां रसाविभागा. १६अ ६ स १६ २ तस्यां रसाविभागा २५६७° स १६ १६५ तद्रसावि० ४०९६अ २३५स ★ १६ १६१ 4 तद्रसावि० ४०६६ २३५ स तस्यां रसाविभागाः स २ तस्यां रसाविभागाः २ स ४ [ गाथा - ६१-६३ किट्टयन्तरा | किट्टचनुभाल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्वक्रमाङ्कः | क्रमाङ्कः ४१ ३१ ३२ ३३ ४७ त★ (३) अथवा क्रोधस्य तृतीय संग्रह कियन्तरमित्यनेन क्रोधस्य तृतीयसंग्रह किट्टिसत्कचरमाऽवान्तर किट्टिगतरसाऽविभागा येन गुणकारेण सङ्गुणिता लोभस्याऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतरसाऽ विभागा भवन्ति, स गुणकारो ग्राह्यः, स एव च क्रोधचरमाऽवान्तर किट्टिलोभाऽपूर्व स्पर्धक प्रथमवर्गशयोरन्तरं निगद्यते, नान्यः । सामान्य विशेषभावश्च लोभवत्प्रतिपादनीय इति तृतीयो विकल्पः । तृतीय समाधानमाश्रित्यासत्कल्पनया स्थापना ३४ ३५ ३६ थ ४८ स★ ४२ १ ४३ ल ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ५२ वि किन्तरा | कट्टनुभाल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्वक्रमाङ्कः क्रमाङ्कः १ 39 23 ★ 'त' इत्यस्मात् 'थ' इत्येतदनन्तगुणम् । यद्यपि क्रोध तृतीय ग्रह विट्टयन्तरतः क्रोधचरमावान्तर किट्टिलोभापूर्वस्पर्धक प्रथम वर्गणयोरन्तरमनन्ततमभागेन हीनं भवति । तथापि स्थूलदृष्टया तस्याऽविवक्षणादुभयोरपि तुल्यता दर्शिता । शेषं तु प्रथमसमाधानवद् बोध्यम | २ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयसमाधानस्थापना] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [१७५ ३२ किट्टयन्तरा-1 किट्टयनुभा पूर्वतोऽनुवर्तमाना तृतीयसमाधानमाश्रित्य स्थापना ल्पबहुत्व-गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितृतीयावान्तरकिट्टिः | तस्यां रसाविभागाः८स । " , , ,, तृतं याऽवान्तरकिट्टयातरम् ,, ,, ,, चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः ६१ स लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम् ३२ अर लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टि तस्यां रसाविभागा:२०४८ असा , , , ,, प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम " , ", द्वितीयाऽवान्तरकिट्रि: तद्रसाविभागाः ३२७६८अस ,,,,,, द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम " " " , तृतीयाऽवान्तरकिट्टि, तस्यां रसाविभागा: १६अस , , , ,. दृतीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् ,,, ,, ,, चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसात्रिभागा १०२४ अस लोभद्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरम् ६४ अरे लोभतृतीयसंग्रहक्किट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा: असि ,, ,, ,, ,, प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम १२८ " ,, ,, ,, द्वितीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः १२८अस , , , ,, द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम " , , ,, तृतीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा:३२७६८अस " , ,, तृतीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम " , ,, ,, चतुर्थाऽत्रान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा: २.६अस लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् = लोभमायबोरन्तरम् १२८ अरे मायाप्रथमसंग्रह किट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः | तद्रसाविभागा ३२७१८अस " , , , प्रथमाऽत्रान्तरकिट्टयन्तरम् १०२४ " , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा:५१२१°स " , ,, ,, द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम् २०४८ "" , , तृतीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः १६अ 'स " , , , तृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् " , , ,, चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः अ१२स मायाप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम २५६ अरे २५६ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिगतरसाविभागाः '२५६अस' इत्येतावन्तः १२८ अ२ इत्यनेन गुणकारेण गणिता मायाप्रथमसंग्रहकिट्रिप्रथमाऽवान रसाविभागाः '३२७६८ अस' इत्येतावन्तो भवन्ति, तेन '१२८ अर' इत्येतद् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरं भवति । तदेव च लोभमाययोरन्तरं भवति, तच्च लोभद्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरतोऽनन्तगुणं भवति । एवं मायादीनामपि प्ररूपणा कर्तव्या। शेषं प्रथमसमाधानस्थापनावद् बोध्यम् । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] खवगसेढी [ गाथा-११-६३ १७ - - किट्टयन्तरा- किट्टयनुभापूर्वतोऽनुवर्तमाना तृतीयसमाधानमाश्रित्य स्थापना ल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः मायाद्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः२५६१४स " " " " प्रथमावान्तरक्ट्टियन्तरम ८१६२ ,, , ,, ,, द्वितीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागा.३२५स " , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् १६३४ " , , ,, तृतीयाऽवान्तर किट्टिः तस्यां रसाविभागा: ८१६स । , , , , तृतीयाऽवान्तरकिदृयन्तरम् ३२७६८ ,, ,, ,, ,, चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः असि मायाद्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरम् ५१२ अर मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागा:२०४८१६स "" "" प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम ६५५३६-अ " , , , द्वितीयाऽत्रान्तरकिट्टि तद्रसाविभागा:२०४८अरेस ,, , , ,, द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् " , , ,, तृतीयाऽवान्तरकिट्रिः तद्रसाविभागा:४८४६२१स , , , ,, तृतीयाऽवान्तर्राकट्टयन्तरम् , , , , चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागा:१६३८४१२२स मायातृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् = मानमाययोरन्तरम् १०२४ अर मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः २५६१२५स " , , , प्रथमाऽवान्तरकिट्टपन्तरम """, द्वितीयाऽवान्तरकिदिः तद्रसाविभागाः २०४८२६स " , , , द्वितीयाऽवान्तर किट्टियन्तरम् १६ अ " , , , तृतीयाऽत्रान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः ३२७६८अ२७स " , ,, तृतीयाऽवान्तरक्ट्टियन्तरम् " " , , चतुथोऽत्रान्तर्राष्टिः तस्यां रसाविभागा:१६अरस मानप्रथमसंग्रहकिट्रयन्तरम्। २०४८ अरे मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागा.३२७६८अ 'स " , , , प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् ६४ अ " , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्रि: तस्यां रसाविभागा.३२433स " , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् १२८ अ " , , , तृतीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः४०६६२३ " , ", तृतीयाऽवान्तरकिट्रयन्तरम २५६ अ " , , , चतुर्थाऽवान्तर किट्टि : तस्यां रसाविभागा:१६५३६स मानद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् ४०६६अर मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तर्राकाट्ट | तस्यां रसाविभागाः अ स । " " " , प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् ५१२ अ " " " , द्वितीयाऽवान्तरकिटिः तस्यां रसाविभागाः५१२४स ३४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयसमाधानस्थापना] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [१७७ किट्टयन्तरा-किट्टयनुभापूर्वतोऽनुवर्तमाना तृतीयसमाधानमाश्रित्य स्थापना ल्पबहुत्व- गाल्पबहुत्व क्रमाङ्कः । क्रमाङ्कः मानतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् १०२४ अ " , , , तृतीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः ८ २ स , , ,, ,, तृतीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् २०४८ अ , , , , चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः१६३८४ उस मानतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरम् क्रोधमानयोरन्तरम् ८१९२ अरे क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः २०४८स | " ,, ,, ,, प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् ४०९६ अ " , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः १२८८स " , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् ८१९२ अ " " " , तृतीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः १६३५°स , , , , तृतीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् १६३८४ अ " , , , चतुर्थावान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः४ अ५२स क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरम् १६३८४ अरे क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः अ५५स " " " " प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् । ३२७६८ अ ,, , , , द्वितीयाऽवान्तरकिट्टिः | तद्रसाविभागाः३२७६८ अस " " " " द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् " " " " ततीयाsवान्तरकिट्रिः तद्रसाविभागाः३२७६८अ५८ स " " " " तृतीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् . २२ , " " " चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः अस क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरम् ३२७६८ अ२ क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः तद्रसाविभागाः ३२७६८अस "" " " प्रथमाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् " " " " द्वितीयाऽवान्तरकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः २अस " , " " द्वितीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् " " " " तृतीयावान्तकिट्टिः तस्यां रसाविभागाः १६८स " " " " तृतीयाऽवान्तरकिट्टयन्तरम् १६ अरे " " " " चतुर्थाऽवान्तरकिट्टिः तस्यांरसाविभागाः२५६५ °स क्रोधंतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरम् क्रोधचरमाऽवान्तर ____ किट्टिलोभापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणान्तरम् लोभापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणा तस्यां रसावि०४०९६१२३५स अरे ४ अरे ८ अर १६१६५ तचं तु केवलिनो बहुश्रुता वा जानन्ति ॥ ९१।९२।९३ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] खवगसेढी [ गाथा - ९४-९७ अथ द्वादशसंग्रह किट्टीनां प्रदेशाऽल्पबहुत्वमवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वं च विभणिपुराह— अह संगहकिट्टीणं पएसअप्पाबहुत्तं । माणस्स पढमसंगहकिट्टीअ पसगा थोवा ॥ ९४ ॥ ( उपगीतिः ) तत्तो बीयाए उ विसेस हि होन्ति माणस्स । तो तहआए अहिआ तो कोहस्स बिझ्याअ अब्भहिआ || १५ || ( उद्गीतिः) तो तइआए अहिआ तो मायाएऽ हि कमा तीसु । तो लोस्स कमेणं ती विसेसाहिआ तत्तो ॥ ९६ ॥ कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए होंति संखगुणा । एवमवंतर किट्टीणऽप्पा बहुअं मुणेयव्वं ॥ ९७॥ (उपगीतिः) अथ संग्रह किट्टीनां प्रदेशाल्पबहुत्वं तु । मानस्य प्रथम संग्रह किट्टौ प्रदेशाः स्तोकाः || ९४ || तेभ्यो द्वितीयस्यां तु विशेषाधिका भवन्ति मानस्य । ततस्तृतीयायामधिकास्ततः क्रोधस्य द्वितीयस्यामभ्यधिकाः || ९५|| ततस्तृतीयस्यामधिकास्ततो मायाया अधिकाः क्रमात तिसृषु । ततो लोभस्य क्रमेण तिसृषु विशेषाधिकास्तेभ्यः || ९६ || क्रोधस्य प्रथम संग्रह किट्टौ भवन्ति संख्यगुणाः । एवमवान्तरकिट्टी नामल्पबहुत्वं ज्ञातव्यम् ||१७|| इति पदसंस्कारः | 'अह' इत्यादि, अथशब्दः प्रकरणान्तरसूचकः, किट्ट्यन्तराणि भणितानि, सम्प्रति प्रदेशापबहुत्वं भणना-वसर इति प्रकरणान्तरं सूचयति । 'संग्रह किट्टीनां' द्वादशसंग्रह किट्टीनां 'प्रदेशाल्पबहुत्वं, प्रदेशविषयकाऽल्पबहुत्वं तु भण्यत इति शेषः । अथ प्रतिज्ञाताऽल्पबहुत्वं भणति - 'माणस्स' इत्यादि, 'मानस्य, संज्वलनमानस्य प्रथमसंग्रह 'पसगा' त्ति "स्वार्थे कश्च वा ( सिद्धहेम० ८-२-१६४ ) इति प्राकृतलक्षणेन स्वार्थे कप्रत्ययः, प्रदेशाः स्तोका भवन्ति । अत्र प्रभूताऽनुभागका संग्रहकिट्टिः प्रथमा, ततो मन्दानुभागका द्वितीया, ततोऽपि मन्दतराऽनुभागका संग्रहकिट्टिस्तृतीयाऽस्ति । तेनाऽत्र प्रथम संग्रह - कट्टिरित्युक्ते वक्ष्यमाणस्य किट्टिवेदकस्य प्रथम संग्रह किद्धिर्ज्ञातव्या, वेदकस्य प्रथमं तीव्रानुभाग * यद्यपि "कर्मजा तृचा च" ( सिद्धम० ३-१-८३ ) इति सूत्रेण कर्मषष्ठीसमासो निषिध्यते, तथापि वेद्यवेदकभावाख्यसम्बन्धविवक्षायां किट्टिवेदकः, निर्वर्त्यनिर्वर्तकभावाख्यसम्बन्धविवक्षायां च किट्टि - कारक इति षष्ठ्ययत्नाच्छेषे" (सिद्धम० ३-१-७६ ) इति सूत्रेण षष्ठीसमासो न विरुध्यते । अथवा याजकादेराकृतिगणत्वात् कर्मषष्ठीसमासे ऽपि न काचित् क्षतिः । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह किट्टिप्रदेशाल्पबहुत्वम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १७९ वेदनात् । किट्टिकारकस्य त्वनुभागमाश्रित्य तृतीया ज्ञातव्या, तंत्र प्रभूततमाऽनुभागस्य सत्त्वात् । एवं तृतीयसंग्रहकिट्टिरित्युक्ते किट्टवेदकस्यैव तृतीयसंग्रह किट्टर्ज्ञातव्या, मन्दतमाऽनुभागस्य पश्चाद् वेदनात्, किट्टिकारकस्य तु सैवाऽनुभागमाश्रित्य प्रथमा बोद्धव्या, मन्दतमनुभागसद्भावात् । ( २ ) ' तत्तो' इत्यादि, 'तेभ्यः' मानप्रथम संग्रह किट्टिगतप्रदेशेभ्यो मानस्य द्वितीयस्यां विशेष विद्यन्ते, तीव्राऽनुभागविशिष्टप्रदेशाग्रतो मन्दानुभागविशिष्टप्रदेशाग्रस्य विशेषाधिकत्वे विरोधाभावात् । आधिक्यं च पल्योपमाऽसंख्येय भागभाजितप्रथम संग्रह किट्टिप्रदेशराशिना ज्ञातव्यम्, मानस्य प्रथम संग्रह किट्टिगत प्रदेशराशिं पल्योपमाऽसंख्येयभागेन विभज्य लब्धैकभागेनाऽधिकाः प्रदेशा मानस्य द्वितीयसंग्रहकट्टौ भवन्तीत्यर्थः । ( ३ ) 'तो' इत्यादि, 'ततः ' मानस्य द्वितीयसंग्रह किट्टिगत प्रदेशेभ्यः 'तृतीयायां' संज्वलनमानस्य तृतीयसंग्रह किट्टी 'अधिकाः ' विशेषाधिकाः प्रदेशा भवन्ति । अधिकत्वं च पल्योपमा - संख्ये भागभाजितमानद्वितीय संग्रह किट्टि प्रदेशराशिना बोद्धव्यम् । ( ४ ) 'तो' इत्यादि, ततः 'क्रोधस्य' संज्वलनक्रोधस्य 'द्वितीयस्यां ' द्वितीय संग्रह किडौ 'अभ्यधिकाः ' विशेषाधिकाः प्रदेशा भवन्ति । ( ५ ) 'तो' इत्यादि, 'ततः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रह किट्टिगतसकलप्रदेशतः 'तृतीयस्यां ' तृतीयसंग्रह प्रदेशाः 'अधिका' विशेषाधिका भवन्ति । 'तो' इत्यादि, ततो मायायास्तिसृषु प्रथमद्वितीयतृतीयलक्षणासु संग्रहकिट्टिषु ' क्रमात् ' क्रमेण 'अधिका' विशेषाधिकाः प्रदेशा भवन्ति । अयं भावः- ( ६ ) संज्वलनक्रोधस्य तृतीयसंग्रह किट्टिगत सकलप्रदेशतः संज्वलनमायायाः प्रथमसंग्रहकट्टौ प्रदेशा विशेषाधिका भवन्ति । ( ७ ) ततः संज्वलनमायाया द्वितीयसंग्रह किडौ विशेषाधिकाः प्रदेशास्तिष्ठन्ति । ( ८ ) ततोऽपि संज्वलनमायायास्तृतीयसंग्रहकिद्वौ विशेषाधिकाः प्रदेशा वर्तन्ते 'तो इत्यादि, 'ततः' मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टिगतसर्वप्रदेशतः 'लोभस्य' 'तिसृषु' प्रथमद्वितीयतृतीयरूपासु संग्रह किट्टिषु क्रमेण विशेषाधिकाः प्रदेशा भवन्ति । एतदुक्तं भवति - ( ९ ) मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टिगत प्रदेशाग्रतो लोभस्य प्रथम संग्रह - ट्टिगत समस्तप्रदेशा विशेषाधिका भवन्ति । (१०) ततोऽपि लोभस्य द्वितीयसंग्रह किट्टौ प्रदेशा विशेषाधिकास्तिष्ठन्ति । (११) ततोsपि लोभस्य तृतीयसंग्रह किडौ प्रदेशा विशेषाधिका भवन्ति । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] खवगसेढी [ गाथा--९४-९७ (१२) 'तत्तो' ति 'तेभ्यः' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिगतसकलप्रदेशतः 'कोहस्स' इत्यादि, क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टी प्रदेशाः संख्यगुणा भवन्ति । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूर्णी-(१) माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं । (२) विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (३) तदियाए संगहकिटोए पदेसग्गं विसेसाहियं । विसेसो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागो। (४) कोहस्स विदियाए संगहकिटीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (५) तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (६) मायाए पढमसंगहकिटीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (७) विदियाए संगहकिटीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (८) तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (९) लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (१०) विदियाए संगहकिटोए पदेसग्गं विसेसाहियं । (११) तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । (१२) कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेजगुणं ।” इति । ___ अनन्तरोक्ताऽल्पबहुत्वं किट्टिकारकापेक्षया तु प्रथमसंग्रहकिट्टिस्थाने तृतीयसंग्रहकिट्टि तृतीयसंग्रहकिट्टिस्थाने च प्रथमसंग्रहकिट्टिमुक्त्वा प्रतिपादनीयम् । तथाहि - (१) मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशाः स्तोकाः । (२) ततो मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशा विशेषाधिकाः । (३) ततो मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रदेशा विशेषाधिकाः । (४) ततः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशा विशेषाधिकाः । (५) ततः क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टी प्रदेशा विशेषाधिकाः । (६) ततो मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशा विशेषाधिकाः । (७) ततो मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टौ प्रदेशा विशेषाधिकाः । (८) ततो मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रदेशा विशेषाधिकाः । (९) ततो लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशा विशेषाधिकाः । (१०) ततो लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशा विशेषाधिकाः । (११) ततो लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रदेशा विशेषाधिकाः। (१२) ततः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशाः संख्येयगुणाः । ननूक्ताऽल्पबहुत्वं कथमवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-मोहनीयकर्मणः सकलप्रदेशाग्रं सत्कर्मणि सार्धद्विगुणहानिगुणितप्रथमवर्गणाप्रदेशप्रमाणं विद्यते । तत्र लोभस्य प्रदेशाग्र किश्चिदधिकाष्टभागप्रमाणं भवति, संज्वलनमायायाः किश्चिन्न्यूनाष्टभागमानं तिष्ठति, मानस्याऽपि किञ्चिन्न्यूनाष्टभागप्रमाणं वर्तते, संज्वलनक्रोधस्य तु किश्चिन्न्यनपश्चाष्टभागप्रमाणमस्ति, नो Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकिट्टिप्रदेशाल्पबहुत्यम] किट्टिकरणादाधिकारः [ १८१ कषायदलस्य तत्र प्रक्षिप्तत्वात् । प्रदेशाऽल्पबहुत्वं चेत्थम् (१) मानस्य स्तोकं प्रदेशाग्रम् (२) ततो विशेषाधिकं मायायाः, आधिक्यं चाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागभाजितमानप्रदेशमात्रेण राशिना बोद्धव्यम् । (२) ततोऽपि लोभस्य विशेषाधिकम् , आधिक्यं चाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागभाजितमायाप्रदेशमाग राशिना निश्चेतव्यम्, प्रकृतिविशेषस्य तथात्वात् । (३) ततः किश्चिन्यूनपञ्चगुणं क्रोधस्य, लस्य मोहनीयसकलदलपश्चाष्टभागप्रमाणत्वात् पूर्वपदस्य त्वेकाष्टभागप्रमाणत्वात् ।। किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये प्रदेशसत्कर्मानुरूपं प्रदेशाग्रमुत्किरति । (१) तेन मानस्योत्कीर्णप्रदेशाग्र स्तोकं भवति । तच्च कपायचतुष्कसत्कोत्कीर्णदलस्य किश्चिन्न्यूनाष्टभागप्रमाणं भवति । (२) ततो विशेशाधिकं मायायाः, प्रदेशसत्कर्मणो विशेषाधिकत्वात् । तदपि किश्चिन्न्यूनाऽटभागप्रमाणं भवति । (३) ततोऽपि लोभस्य विशेषाधिकमुत्कीर्ण प्रदेशाग्रं भवति, मायातो लोभप्रदेशसत्कर्मणो विशेषाऽधिकत्वात् । तच्च साधिकाष्टभागमात्रं भवति (४) ततः क्रोधस्योत्कीर्णप्रदेशाग्र किश्चिन्यूनपश्चगुणं भवति, लोभसत्कर्मतः क्रोधप्रदेशसत्कर्मणस्तावद्गुणत्वात् । एतानुत्कीर्णप्रदेशान् पल्योपमाऽसंख्येयभागेन विभज्य बहुभागप्रमाणदलं पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु निक्षिप्यैकभागप्रमितदलं संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिमणयति । तत्र संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य किंचिन्न्यूनाऽष्टभागप्रमाणं दलं मानकिट्टितया परिणमनाय गृह्णाति, तच्च स्तोकम् । ततो विशेषाधिकं दलं मायाकिट्टितया परिणमनाय गृह्णाति, ततोऽपि संज्वलनचतुककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य किश्चिन्यूनाष्टभागप्रमाणं भवति । ततो विशेषाधिक लोभकिट्टितया परिणमनाय गृह्णाति । तच्च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य साधिकाष्टभागप्रमितं भवति । ततः क्रोधकिट्टितया परिणमनाय संख्येयगुणं दलं गृह्णाति । तच्च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य किञ्चिन्न्यूनपश्चाष्टभागमात्रं भवति । . अथ मानकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य प्रथमादिभेदेन तिस्रः संग्रहकिट्टीनिवर्तयते । तत्र मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ स्तोकं दलं ददाति, तस्यास्तीवाऽनुभागकत्वात् । ततो विशेषाधिकं द्वितीयसंग्रहकिट्टी ददाति, मन्दानुभावकत्वात् । ततो विशेषाधिकं प्रथमसंग्रहकिट्टो ददाति, मन्दतराऽनुभागकत्वात् । एवं मानकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य विभागत्रये विभजनाद् मानकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्याऽऽसन्नत्रिभागप्रमाणं दलं प्रत्येकं मानसंग्रहकिट्टी ददाति । इत्थं कषायचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्याऽऽसन्नचतुर्विंशतिभागप्रमाणं दलं मानस्यैकैकसंग्रहकिट्टी दीयते । सम्प्रतीदमेव त्रैराशिकेन साध्यते । तथाहि-यदि संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य किश्चिन्यूनाष्टभागप्रमाणं दलं मानकिट्टितया परिणमनाय गृहीत्वा संग्रहकिट्टित्रये ददाति, तबैकस्यां संग्रहकिट्टी संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीत Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ खवगसेढी [ गाथा--९४-९७ दलस्य कियद्भागमात्रं दलं ददाति ? इति "प्रमाणमिच्छा च समानजातो, आद्यन्तयोस्तत्फलमन्यजातिः। मध्ये तदिच्छाहतमाद्यहृत् स्यादिच्छाफलं ।” इति भास्करत्रैराशिककरणसूत्रेण मानस्य प्रत्येकं संग्रहकिट्टौ संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्यासन्नचतुर्विंशतिभागप्रमाणं दीयमानं दलिकं प्राप्यते । न्यासः--प्रमाणम् ३ । प्रमाणफलम् आसन्न है। इच्छा १ । इच्छाफलम् आसन्न ४ लब्धं मानैकसंग्रहकिट्टिदलम्। एवं मायालोभयोरप्येकैकसंग्रहकिट्टौ संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्यासन्नचतुर्विंशतिभागप्रमाणं दलं प्रक्षिप्यते । अथ संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य किञ्चिन्न्यूनपञ्चाष्टभागप्रमाणं दलं संज्वलनक्रोधकिट्टितया परिणमनाय गृहणाति । तत्र यत् किंचिन्न्यूनचतुरष्टभागप्रमाणं (६) दलं नोकषायतः क्रोधतया परिणतम् , तत् क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी दीयते । शेषं किंचिन्न्यूनाष्टभागप्रमाणं दलं क्रोधस्य प्रथमद्वितीयतृतीयलक्षणासु तिसृषु संग्रहकिट्टिषु दीयते । तेन मानवत् क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी प्रथमसंग्रहकिट्टौ च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय ग्रहीतसकलदलस्याऽऽसनचतुर्विशतिभागप्रमाणं दलं प्रक्षिप्यते । एवं संज्वलनक्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयामप्यासन्नचतुर्विंशतिभागप्रमाणं दलं प्रक्षिप्यते । ततः क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टयामासनचतुविंशतिभागप्रमाणं तथा प्राग विहितं नोकषायतः परिणतं किंचिन्न्यूनचतुरष्टभागप्रमाणं दलं प्रक्षिप्यते । इत्थं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रक्षिप्यमाणदलं संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य त्रयोदशचतुर्विशतिभागप्रमाणं (३+२४३) भवति । ___ अथोपसंहियते-संज्वलनमान-क्रोध-माया-लोभानां किट्टितया परिणमनाय दलिकं यथोत्तरं विशेषाधिक्रमेण गृह्णाति । गृहीत्वा च तृतीयसंग्रहकिट्टितो द्वितीयसंग्रहकिट्टौ विशेषाधिकं ददाति, ततोऽपि विशेषाधिकं प्रथमसंग्रहकिट्टी ददाति, नोकषायतश्च पूर्वापूर्वस्पर्धकरूपक्रोधतया परिणतं दलं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टौ ददाति । इत्थं मानतृतीयसंग्रहकिट्टि-द्वितीयसंग्रहकिट्टि-प्रथमसंग्रहकिट्टिक्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसंग्रहकिट्टि-मायातृतीयसंग्रहकिट्टि-द्वितीयसंग्रहकिट्टि-प्रथमसंग्रहकिट्टिलोभतृतीयसंग्रहकिट्टि-द्वितीयसंग्रहकिट्टि-प्रथमसंग्रहकिट्टिषु यथाक्रम निक्षिप्यमाणं विशेषाधिकं दलं भवदपि संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्याऽऽसन्नचतुर्विशतिभागप्रमाणं भवति । क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टौ तु संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्यासन्नत्रयोदशचतुर्विशतिभागप्रमाणं दलं निक्षिप्यते । अतो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टी संचलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य निक्षिप्यमाणमासन्नकचतुर्विशतिभागप्रमाणदलतःक्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रक्षिप्यमाणमासन्नत्रयोदशचतुर्विशतिभागप्रमाणदलमासन्नत्रयोदशगुणलक्षणं संख्येयगुणं भवति । इत्थं लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टितः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ दलं संख्येयगुणं भवति। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर किल्पबहुत्वम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १८३ इदन्त्ववधेयम् - यद्यपि मानस्य प्रथमसंग्रह किट्टिगतैकैकाऽवान्तरकिट्टिगत प्रदेशतः क्रोध ि - तीयसंग्रह किट्टिगतैकैकाऽवान्तरकिडौ दलं विशेषहीनं शततमगाथया वक्ष्यते, तथापि मानप्रथमसंग्रह किट्टिसकलाऽवान्तर किट्टितः क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिनिखिलाऽवान्तरकिट्टीनां विशेषाधिकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वाद् मानप्रथम संग्रह किट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगत सर्वप्रदेशतः क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टि समस्तावान्तरकिट्टिगत सकलप्रदेशा विशेषाधिका भवन्ति । । सम्प्रत्यवान्तरकिट्ट्यल्पबहुत्वमतिदिदिक्षुराह - 'एव०' इत्यादि, 'एवम्' यथैकैकसंग्रह किट्टि - गतप्रदेशानामल्पबहुत्वं सार्धगाथात्रयेण प्रतिपादितम्, तथैव 'अवान्तर किट्टीनाम् ' एकैकसंग्रह किट्टि - गताऽवान्तरकिट्टीनामल्पबहुत्वं ज्ञातव्यम्, विशेषाभावात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूणौ - "जहा पदेसग्गेण विहासिदं, तहा वग्गणग्गेण विहासिदव्वं ।” इति । तथाहि - (१) मानस्य प्रथम संग्रह किट्ट्यामवान्तरकिट्ट्यः स्तोकाः, ताचा - ऽनन्ताः, एकैकस्यां संग्रहकिट्टावनन्तानामवान्तरकिट्टीनां प्राक् प्रतिपादितत्वात् । (२) ततो मानस्य द्वितीयसंग्रह किट्ट्यामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति । आधिक्यं च पल्योपमाऽसंख्येयभागभाजितप्रथमसंग्रह किट्टिगताऽवान्तरकिट्टिमात्रेण राशिना ज्ञातव्यम् । (३) ततो मानस्य तृतीयसंग्रह किट्ट्यामवान्तर किट्टयो विशेषाधिका बोद्धव्याः । (४) ततः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रह किट्ट्यामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका बोद्धव्याः । (५) ततः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकियामवान्तरकियो विशेषाधिका वक्तव्याः । ( ६ ) ततो मायायाः प्रथमसंग्रह किट्ट्यामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका अभिधातव्याः । (७) ततो मायाया द्वितीयसंग्रह किट्ट्यामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका अधिगन्तव्याः । ( ८ ) ततो मायायास्तृतीयसंग्रह कियामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका वाच्याः । (९) ततो लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्ट्यामवान्तरकियो विशेषाधिका ज्ञातव्याः । (१०) ततो लोभस्य द्वितीयसंग्रह किट्ट्यामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका अवसेयाः । (११) ततो लोभस्य तृतीयसंग्रह कियामवान्तरकियो विशेषाधिका अभिधेयाः । ( १२ ) ततोऽपि क्रोधस्य प्रथम संग्रह किट्ट्यामवान्तरPage: संख्येयगुणा निगदितव्याः । अत्रापि पूर्ववत् प्रथमसंग्रह किट्टिरित्युक्ते किट्टिवेदकस्य प्रथम संग्रह किट्टिर्ज्ञातव्या । किट्टि - कारकस्य तु तृतीयसंग्रह किट्टिबद्धव्या । एवं तृतीयसंग्रह किट्टिरित्युक्ते किट्टवेदकस्य तृतीयसंग्रहकिट्टर्ज्ञातव्या, किट्टिकारकस्य तु प्रथम संग्रह किट्टिर्वोद्धव्या । तेन किट्टिकारकापेक्षयाल्पबहुत्वमित्थं भणनीयम् - ( १ ) मानस्य तृतीयसंग्रह किद्वाववान्तरकिट्टयः स्तोकाः । (२) ततो मानस्य द्वितीय संग्रह किद्वाववान्तरकियो विशेषाधिका वर्तन्ते । ( ३ ) ततो मानस्य प्रथम संग्रह किद्वाववान्तरकियो विशेषाधिका भवन्ति । * अत्र वर्गणाशब्देनाऽवान्तरकिट्टयो ग्राह्याः, तासाम् अग्र - समुदाय इति वर्गणाग्रम्, तेन । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] खवगसेढी [ गाथा-९८ (४) ततोऽपि क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति । (५) ततोऽपि क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयो विशेषाधिका विद्यन्ते । (६) ततो मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयो विशेषाधिका बोद्धव्याः । (७) ततो मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भणनीयाः । (८) ततो मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयो विशेषाधिका अभिधातव्याः । (९) ततो लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टयामवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका ज्ञेयाः । (१०) ततो लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयो विशेषाधिका वाच्याः । (११) ततो लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयो विशेषाधिका वक्तव्याः । (१२) ततोऽपि क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयः संख्येयगुणा निगदितव्या इति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , शृणुत-वक्ष्यमाणपरम्परोपनिधयाऽपि किट्टिषु दृश्यमानप्रदेशाग्रस्य केवलं विशेषहीनत्वस्य शततमगाथया वक्ष्यमाणत्वात् प्राक्प्रतिपादितं लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिगतप्रदेशत आसन्नत्रयोदशगुणंदलं गृहणन् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिगतकिट्टित आसन्नत्रयोदशगुणलक्षणाः संख्यातगुणा अवान्तरकिडीनिवर्तयति, अन्यथा परम्परोपनिधया विशेषहीनं दलं नोपपद्येत ॥९४-९५-९६-९७॥ संग्रहकिट्टिषु दीयमानं दलं प्ररूप्य सम्प्रत्यवान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं निरुरूपयिषुराह लोहजहण्णगकिट्टिपहुडिकोहुकोसकिट्टिअंतासु । सवासुदेइ दलं विसेसहीणकमेण खलु ॥ ९८ ॥ लोभजघन्यकिट्टिप्रभृतिक्रोधोत्कृष्टकिट्टयन्तासु। सर्वासु ददाति दलं विशेषाधिकक्रमेण खलु ॥९९।। इति पदसंस्कारः । 'लोह०' इत्यादि, 'लोभजघन्यकिट्टिप्रभृतिक्रोधोत्कृष्टकिट्टयन्तासु' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिक्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टिपर्यवसानासु 'सर्वासु' सर्वाऽवान्तरकिट्टिषु 'दलं' प्रदेशाग्रं 'खलु खलुशब्दो वाक्या-ऽलङ्कारे "निषेधवाक्यालङ्कारे जिज्ञासानुनये खलु” इत्यमरकोशवचनात्, विशेषहीनक्रमेण ददाति । इदमुक्तं भवति-लोभप्रथमसंग्रहकिट्टः प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टौ प्रभूतं दलं ददाति, ततोऽनन्तभागेन हीनं द्वितीयावान्तरकिट्टी ददाति, ततो-ऽप्यनन्तभागेन हीनं तृतीया-वान्तरकिट्टौ ददाति । एवमनन्तभागहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमा-ऽवान्तरकिंट्टिः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या दीयमानदलिकानि ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १८५ “पढमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा -लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं, विदियाए किट्टीए विसेसहीणं । एवमणंतरोवfuary विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोहस्स चरिमकिट्टि त्ति ।" इति । अथ गणितविभागः । सम्प्रति गणितरीत्या दीयमानदलं दश्यते किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये पूर्व्वापूर्व्वस्पर्धकेभ्यो ऽसंख्येयभागमात्रदलमुत्कीर्योत्कीर्णदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं किट्टितया परिणमयति । शेषाऽसंख्येयबहुभागमात्रदलं पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु ददाति । किट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलिकतः प्रभूतं दलिकं लोभप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमाऽवान्तरकिट्टौ ददाति । तद्यथा - किट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलं पदेन विभक्तव्यम् । लब्धं च मध्यमदलमिति व्यवह्रियते । किट्टिराशिच पदं वक्तव्यः । मध्यमदलं पुनरर्धीकृतैकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यते, तदैकचयदलं प्राप्यते । एकचयदलं तु द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां ताड्यते, तदा ताडितं दलं लोभप्रथम संग्रह किप्रिथमावान्तरकिट्टी दीयमानदलं भवति । ततो द्वितीया - ऽवान्तरविद्वावेकचयेन हीनं ददाति । ततो द्वितीयावान्तरकिट्टितस्तृतीयावान्तरकिट्ट्यामेकचयेन हीनं ददाति । एवमेकचयहीनक्रमेण तावद् ददाति यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टिः । असत्कल्पनया किट्टिकरणाद्वाप्रथमसमये चतुर्नवत्यधिकपञ्चविंशतिशतानि ( २५९४ ) किट्टी र्निर्वर्तयति, किट्टितया च परिणमनाय द्व-ऽब्जे सप्ताशीतिकोटयस्त्रयोनवतिलक्षाणि पञ्चा - शीतिसहस्राणि पञ्चनवत्यधिकत्रिशतानि ( २८७९३८५३९५ ) दलिकानि गृह्णाति, द्विगुणहानिश्च सप्तपञ्चाशदधिकषट्शताधिकपञ्चपञ्चाशत्सहस्रोत्तरपञ्चलक्षमात्रेति कल्प्यते । अथ किट्टितया परिणमनाय गृहीतानि पञ्चनवत्यधिकत्रिशतो त्तरपञ्चाशीतिसहस्राधिकत्रयोनवतिलक्षोत्तरसप्ताशीतिकोट्यधिकद्वयब्जसंख्यकानि (२८७९३८५३९५ ) दलिकानि चतुनवत्यधिकपञ्चविंशतिशत लक्षणेन किट्टिराशिना विभज्यन्ते, तदा मध्यमदलं लभ्यते, तत्पुनरर्धीकृdate किट्टि शिन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां द्विकविभाजितपञ्चत्रिंशदधिकविंशतिसहस्रोत्तरद्वाविंशतिलक्षराशिनेत्यर्थः, विभज्यते, तदैकचयदलमेकं लभ्यते । तत् पुनर्द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां चतुर्दशाधिकत्रिशतोत्तरैकादशसहस्रयुक्त कलक्षरूपाभ्यां ( ११११३१४ ) गुण्यते, गुणने च कृते लोभप्रथमसंग्रह किट्टिप्रथमा - ऽवान्तरकिट्टौ दीयमानं दलं चतुर्दशाधिकत्रिशतोतरेकादशसहत्राधिकैकलक्षमात्रं प्राप्यते । न्यास:---- निर्वर्त्यमानकिट्टि राशिः पदम् = किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलम् द्विगुणहानिः = = २५९४ २८७९३८५३९५ ५५५६५७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] अङ्कतो खवगसेढी [गाथा-९८ . किट्टयर्थं गृहीतदलम् मध्यमदलम् = पदम् २८७९३८५३९५ २५९४ एकचयदलम् = मध्यमदलम् ’ (द्वं द्विगुणहानी- पदम ) २८७९३८५३९५ : ( २४५५५६५७ .... २५९४१) २५९४ २८७९३८५३९५ * ( ११११३१४ ---.२५९४ --१) २५९४ २८७९३८५३९५ : ( २२२२६२८-२५९३ ) २५९४ २८७९३८५३९५ : २५९४ २८७९३८५३९५.२२२००३५ २५९४ ५७५८७७०७९० - ५७५८७७०७९० १२८-२५९३ तदेवमेकचयदलमेकं प्राप्तम् । लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाड- ___ = एकचयदलम् x द्वे द्विगुणहानी वान्तरकिट्टी दीयमानं दलम् । .:. अङ्कतो = १ ४ (२४ ५५५६५७ ) = १ x ११११३१४ = ११११३१४ इत्थं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टी चतुर्दशाधिकशतत्रयोत्तरकादशसहस्राधिकैका" दशलक्षप्रमितानि ( ११,११,३१४ ) दलिकानि ददाति । तत एकचयेन हीनानि त्रयोदशाधिकत्रिशतोत्तरैकादशसहस्राधिकैकादशलक्षमितानि ( ११,११,३१३ ) ददाति । एवमुत्तरोचरकिट्टावेकैकचयेन हीनानि दलिकानि तावद् ददाति, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमा-ऽवान्तरकिट्टिः । अथवा भणितप्रकारेणैकचयदलं ज्ञात्वा चयाः परिगणनीयाः। तद्यथा-क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टथा द्विचरमा-ज्वान्तरकिट्टयामेकश्चयः प्रक्षिप्यते, त्रिचरमा-ऽवान्तरकिट्टौ द्वौ चयौ, एवं पश्चानुपूव्यैकोत्तरवृद्धया चयप्रक्षेपस्तावद् वाच्यः, यावद् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिरिति कल्पयित्वा “सैकपदघ्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या” इत्यनेन करणसूत्रेण सर्वे चयाः प्राप्तव्याः । तत एकचयदलं सर्वचयैस्तावितव्यम् । गुणनफलं च सर्वचयदलं भवति । तच्च किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्या-ऽनन्ततमभागमात्रं भवति । अथ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या दीयमानदलिकानि ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १८७ किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलतः सर्वचयदलं विशोध्य शेषं दलं किट्टिराशिना विभज्यैकैकखण्डं सर्वकिट्टिषु ददाति । तथा चयदलिकत एकोनकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ ददाति, द्वितीयावान्तरकिट्टी द्वय नकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् ददाति, तत एकैकचयेन हीनं तावद् ददाति, यावत् क्रोधततीयसंग्रहकिट्टिद्विचरमावान्तरकिट्टिः, तेन तस्यामेकचयदलं ददाति । ततः क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टौ चयदलतो दलिकं न प्रक्षिपति, पूर्वोक्तमेकखण्डदलं तु प्रक्षिपत्येव । एवंक्रमेण दलिकप्रक्षेपे सति लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ दलं प्रभूतं निक्षिप्यते, एकोनकिट्टिराशिप्रमाणचययुतैकखण्डमात्रत्वात्, ततो द्वितीयावान्तरकिट्टावेकचयेन हीनं निक्षिप्यते, द्वय नकिट्टिराशिप्रमाणचयसमन्वितैकखण्डप्रमितत्वात् । एवं तावद् वक्तव्यम् , यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः ।। ___ एतदेवा-ऽसत्कल्पनया दश्यते-किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये किट्टिराशिः किट्टितया च परिणमनाय गृहीतं दलमित्येतत् सर्व पूर्ववत् कल्पनीयम् । एकचयदलं पूर्वोक्तरीत्यैकदलिकमात्रं साधनीयम् ।। सर्वचयराशिस्तु “सैकपदघ्नपदार्धमथैकाद्यतयुतिः किल सङ्कलिताख्या।" इत्यनेन श्रीभास्करकरणसूत्रेणैकविंशत्यधिकैकशतोचरत्रयःषष्टिसहस्राधिकत्रयस्त्रिंशल्लक्षसंख्यको(३३,६३,१२१) लभ्यते । तथाहि एकोनकिट्टिषु चयप्रक्षेपात् पदमौकोनकिट्टिराशिस्त्रयोनवत्यधिकपञ्चविंशतिशतमात्रमित्यर्थः, तदेकेन सहितं जातं चतुर्नवत्यधिकपञ्चविंशतिशतप्रमाणम् ( २५९३+१= २५९४) । अथ चतुर्नवत्यधिकपञ्चविंशतिशतानि द्विकविभक्तत्रयोनवत्युत्तरपञ्चविंशतिशतलक्षणेन पदार्धन विभज्यन्ते, तदा सर्वचयराशिरेकविंशत्यधिकैकशतत्रयःषष्टिसहस्रोत्तरत्रयस्त्रिंशल्लक्षमात्रः (३३,६३,१२१) उपलभ्यते । स चैकचयदलेनैकसंख्यकेन गुण्यते, तदा सर्वचयदलमेकविंशत्यधिकैकशतोत्तरत्रयःषष्टिसहस्राधिकत्रयरित्रशल्लक्षामितं ( ३३,६३,१२१) भवति । अथोक्तसर्वचयदलं किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलिकेभ्यः पञ्चनवत्यधिकत्रिशतोत्तरपञ्चाशीतिसहस्राधिकत्रिनवतिलक्षोत्तरसप्ताशीतिकोटीसंयुक्तद्वयब्जसंख्यकेभ्यो (२८७९३८५३९५) विशोध्यते, तदा चतुःसप्तत्यधिकद्विशतोत्तरद्वाविंशतिसहस्राधिकषष्टिलक्षसंयुक्तसप्ताशीतिकोटयधिकद्वयब्जप्रमाणानि (२८७९३८५३९५-३३६३१२१=२८७६०२२२७४) दलिकान्यवशिष्यन्ते, तानि किट्टिराशिना चतुर्नवत्युत्तरपञ्चविंशतिशतमानेन ( २५९४) विभज्यते, तदैकखण्डमेकविंशत्यधिकसप्तशतोत्तराष्टसहस्राधिकैकादशलक्षदलिकप्रमाणं ( ११०८७२१ ) प्राप्यते । न्यास :कल्प्यते किट्टितया परिणनाय गृहीतं दलम् = २८७९३८५३९५ किट्टिराशिः = २५९४ द्विगुणहानिः = ५५५६५७ सर्वचयाः = ( पदम्+१) x पदम् Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] = खवगसेढी [गाथा--९६ अङ्कतः सर्वचयाः = ( २५९३+१ ) x २५९३ " = २५९४ ४ २५९३ = ३३६३१२१ एकचयदलम् = १ पूर्वोक्तकरणेना-ऽत्रा-ऽपि साधनीयम् .:. सर्वचयदलम् = १४ ३३६३१२१ ३३६३१२१ सर्वचयदलरहितं किट्टितया परिणमनाय गृहीतं दलम् = २८७९३८५३९५ -- ३३६३१२१ २८७६०२२२७४ सर्वचयदलरहितं किट्टयर्थ गृहीतं दलम् एकखण्डदलम् किट्टिराशिः प्रकृते-ऽङ्कत २८७६०२२२७४ , = २५९४ ११०८७२१ ___ अथ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टावेकखण्डमेकविंशत्यधिकसप्ताशीतिशतोत्तरैकादशलक्षदलमितम् (११०८७२१) एकोनकिट्टिराशिप्रमाणांश्च त्रयोनवत्यधिकपश्चविंशतिशतसंख्याकांश्चयान् ( २५९३ ) प्रक्षिपति, तेन तत्र दीयमानानि दलिकानि चतुर्दशाधिकशतत्रयोत्तरैकादशसहस्राधिकैकादशलक्षप्रमितानि [११०८७२१ + (१४२५९३ ) = ११११३१४ ] भवन्ति । ततो द्वितीया-ऽवान्तरकिट्टयामेकखण्डमेकविंशत्यधिकसप्ताशीतिशतोत्तरैकादशलक्षप्रदेशमात्रं ( ११०८७२१) प्रथमा-ऽवान्तरकिट्टयपेक्षया चैकोनचयान् विनवत्यधिकपञ्चविंशतिसंख्यकान् ( २५९२) प्रक्षिपति, तेन तत्र दीयमानदलिकानि त्रयोदशा-ऽधिकत्रिशतोत्तरैकादशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि [११०८७२१ + (१४ २५९२ ) = ११११३१३ ] भवन्ति । ततः परमेकैका-ऽवान्तरकिट्टयामेकखण्डदलं पूर्वपूर्वतश्चोत्तरोत्तरा-वान्तरकिट्टावेकैकचयहान्या चयदलं तावद् ददाति, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमा-ऽवान्तरकिट्टिः। अनेन क्रमेण दलिकप्रक्षेपे सति पूर्वपूर्वा-ऽवान्तरकिट्टित उत्तरोत्तरा-ऽवान्तरकिट्टी दीयमानदलान्येकचयेन हीनानि भवन्ति, तच्चतश्चैकचयदलस्यैकखण्डदला-ऽनन्ततमभागमात्रत्वात् सर्वाऽवान्तरकिट्टिषु दीयमानदलमनन्तभागहीनक्रमेण भवति । गणितविभागः समाप्तः ॥९८॥ अनन्तरोपनिधया किट्टिषु दलं प्ररूप्य सम्प्रति परम्परोपनिधया दलं निरुरूपयिषुराह लोहस्स जहण्णगकिट्टित्तो कोहस्स जेट्टकिट्टीए। दलिअं परंपराअ वि दिज्जेइ विसेसहीणं हि ॥१९॥ लोभस्य जघन्यकिट्टितः क्रोधस्य ज्येष्ठकिट्टी। दलिकं परम्परयाऽपि दीयते विशेषहीनं हि ॥९९॥ इति पदसंस्कारः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिषु दृश्यमानदलिकम्] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [१८९ 'लोहस्स' इत्यादि, 'लोभस्य जघन्यकिट्टितः' संज्वलनलोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतदलतः 'क्रोधस्य' संज्वलनक्रोधस्य 'ज्येष्ठकिट्टी' ततीयसंग्रह किट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टी परम्परयाऽपि 'दलिक' प्रदेशाग्रं विशेषहीनमेव हिशब्दस्य “हि हेताववधारणे” इत्यमरकोशवचनेना-ऽवधारणार्थकत्वात् 'दीयते' प्रक्षिप्यते । हीनत्वं चा-ऽनन्ततमभागेन बोध्यम् , किट्टिराशेरेकस्पर्धकवर्गणाऽनन्ततमभागमात्रत्वेनैकद्विगुणहानिगतस्थाना-ऽनन्ततमभागप्रमाणत्वात् । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी-“परंपरोवणिधाए जहणियादो लोभकिट्टीदो उक्कस्सियाए कोधकिटीए पदेसग्गं विसेसहोणमणंतभागेण ।” इति ।। विवक्षितसमये यद् दलं दीयते, तद् दीयमानं दलं निगद्यते । विवक्षितसमये दीयमानदलेन सहितं प्राक्तनसत्तागतदलं दृश्यमानं दलमुच्यते । किट्टिषु दीयमानं प्राग् दलं दर्शितम् । सम्प्रति किट्टिषु दृश्यमानदलं निजिगदिषुराह - दलिअं तु दिस्समाणं लोहजहण्णाउ पहुडि कोहस्स । उक्कोसं किट्टि जाव विसेसूणक्कमेणऽथि ॥१०॥ दलिकं तु दृश्यमानं लोभजघन्यायाः प्रभृति क्रोधस्य । उत्कृष्ां किट्टि यावद् विशेषोनक्रमेणाऽस्ति ॥१००॥ इति पदसंस्कारः । 'दलिअं' इत्यादि, तत्र दृश्यमानं दलिकं तु 'लोभजघन्यायाः' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टितः प्रभृति 'क्रोधस्य' संज्वलनक्रोधस्य 'उत्कृष्टां किट्टि' तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टि यावद् विशेषहीनक्रमेण 'अस्ति' विद्यते, किट्टिषु विशेषहीनक्रमेण दलिकस्य निक्षिप्तत्वात् पुरातनदलिकाभावाच्च । ___ अथ किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये पूर्वापूर्वस्पर्धकेषु दलनिक्षेपविधिर्भण्यते-उत्कीर्णदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं किट्टिषु निक्षिपति, शेपवह्वसंख्येयभागप्रमाणं दलं पूर्वा-ऽपूर्वस्पर्धकेषु निक्षिपतीति प्रागुक्तम् । तत्र प्रथमाऽपूर्वस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ निक्षिप्तदलतो-ऽनन्तगुणहीनं दलं निक्षिपति, तत उत्तरोत्तरवर्गणायां विशेषहीनक्रमेण निक्षिपति । ननु क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ निक्षिप्तदलतोऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामनन्तगुणहीनंदलं निक्षिपतीत्येतत् कथमवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावनन्ता-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशप्रमाणं दलं निक्षिप्या- पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां पुरातनसत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागं प्रक्षिपति । तेन क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिगतप्रदेशतोऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामनन्तगुणहीनं प्रक्षिप्यत इति लब्धम् । तथाहि-अपूर्वस्पर्धक Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] खबगसेढी [ गाथा--१०० प्रथमवर्गणागतदले सार्धद्विगुणहान्या गुणिते सत्तागतसकलदलं प्राप्यते, तत् सत्तागतदलमुत्कपणापकर्षणभागहारेण विभज्यैकभागमुत्किरति, तस्या-ऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं किट्टिषु निक्षिपति । तेन बहुभागान् पृथक् स्थापयित्वैकभागं पूर्वोक्तविधिना विभज्यैकैकावान्तरकिट्टौ दलं निक्षिपति, तच्चाऽनन्तापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशप्रमाणं भवति । पृथक्स्थापितमुत्कीर्णदलबहुभागप्रमाणं दलं सार्धद्विगुणहान्या विभज्यैकभागमपूर्वस्पर्द्धकप्रथमवर्गणायां निक्षिपति । तच्च निक्षिप्यमाणं दलमपूर्वस्पर्द्धकपुरातनदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं भवति । तेन क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ निक्षिप्तदलतोऽनन्तगुणहीनं दीयमानं दलं प्रथमापूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां भवति । तथा च दृश्यमानमपि दलं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टिगतदलतोऽनन्तगुणहीनमपूर्वस्पर्द्धकप्रथमवर्गणायां भवति, क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावनन्ताऽपूर्वस्पर्द्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशप्रमाणस्य दलस्य निक्षिप्तत्वात् । इत्थं सत्कर्मणि दृश्यमानं दलं गोपुच्छाकारद्वयेन तिष्ठति, किट्टिविषयकगोपुच्छाकारदलं स्पर्धकविषयकगोपुच्छाकारदलं चेति । ____ अन्ये तु किट्टिषु स्पर्धकेषु चैकगोपुच्छाकारेण दलं तिष्ठतीत्येवं मन्यमानाः क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टी निक्षिप्यमाणप्रदेशतोऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयगुणहीनं दलं प्रक्षिप्यते, अन्यथा किट्टिस्पर्धकयोरेकगोपुच्छाकारदलभङ्गः प्रसज्येतेति वदन्ति । एतेषां मतेन किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयं परित्यज्य किट्टिकरणाद्धायाः शेषसमयेष्वेकसमयप्रवद्धदलसम्बन्ध्यनन्ततमभागप्रमाणमेव दलं फिट्टितया परिणतं स्यात् । कथम् ? इति चेत् , शृणुत-यद्युत्कीर्णदलस्या-ऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं गृहीत्वा साधिकाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलप्रमाणामेकैकामवान्तरकिदि कुर्यात् , तमुवान्तरकिट्टय एकप्रदेशद्विगुणहानिस्थानानामसंख्येयभागमात्रा भवेयुः, उत्कीर्णदला-ऽसंख्येयभागस्यैकद्विगुणहानिगतप्रदेशाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । तच्च नेष्यते, सूत्र एकस्पर्धकगतवर्गणाऽनन्तभागमात्राणामवान्तरकिट्टीनां प्ररूपितत्वात् । तेनैकस्पर्धकगतवर्गणाऽनन्ततमभागप्रमाणानामवान्तरकिट्टीनां निवृत्तय उत्कीर्णदलाऽनन्ततमभागप्रमाणं दलं ग्रहीतव्यम् । गृहीत्वा च साधिकाऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतदलप्रमाणामेकैकां किट्टि कुर्यात् । अनया रीत्या किट्टिनिवृत्तये गृहीतं दलमेकसमयप्रवद्धस्याऽनन्ततमभागमानं संभवति, असंख्येयसमयप्रबद्धप्रमाणोत्कीर्णदलाऽनन्ततमभागप्रमाणत्वात् । तेन चरमसमयं परित्यज्य शेषसमयेवनन्ततम ___*तथा चोक्त जयधवलाकारैरपि-"कोहचरमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो अपुवफयादिवग्गपाए रिणवदमारणपदेसग्गमवंतगुरणहीणं होदि । कि कारणं ? कोधचरिमकिट्टीए अरगंतानो अपुव्वफयादिवग्गणाओ रिणक्खिविय पुरणो अपुव्वफद्दयवग्गणाए तत्थ पुवावट्ठिददव्वस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं चेव णिविखवमारणस्स तदवलद्धीए बाहाणवलंभादो। एत्थ दोण्ड पि दवारणमोवद्ररणं ठविय पयदत्थ विसये सिस्सारणं पडिबोहो कायन्वो। दिस्समारगदव्वं पि कोधचरमकिट्टीए बहुअं, अपुवफद्दयादिवग्गगाए अरणंतगुरगहीणमिदि दट्ठव्वं । तदो एत्थ दो गोपुच्छाप्रो जादाओ, किट्टीसु एया गोपुच्छा, पुव्वा. पुव्वफद्दएसु अण्णा गोपुच्छा त्ति ।" इति। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ ] यन्त्रकम्-१५ (चित्रम्-१५) किद्धिकरणाद्वाप्रथमसमये किट्टिप्ररूपणा चित्रेण दश्यते [ खवगसेढ़ी In Education International CONCanop .......... RECEMicle स्तरमा Contact .. . n म .. CRICHINCRENORE श ERINER शरार 30 लाभप्रथमसंग्रहकिदृयन्तरम् NOTICICICIARIES लामतृतीयसंग्रफिथतरम-लाभमाययोरन्तरम् KARACHAR शमा कांधतृतीयसंग़रुवियन्तरम-क्रोधकिहिलमाडपर्वमपर्यकालम El/R/ लाभद्वितीयसंग्रहकिट्य मानवतीयसंग्रहकिदृथन्तरम् मानकोथयारस्तरम् मायातृतीयसंग्रहक्रियन्तरमन्मायामानयारकारम Iries NEL CARTONECTION मायाद्वितीयसंग्रहकिन्यन्तरम् बनव-N ME.. मातप्रथमसग्रहाकदृयन्तरम् Sta मानद्वितीयसंग्रहकिदृथ CONSIDERE.. 3rRROKhub फ्राधद्वितीयसंग्रहा ARAC38655 अपूर्व पानि S JU K प्रथम- संगर किदिः द्वितीय- संग्रहकिट्टिः तृतीय- संग्रहकिट्टि प्रथम- द्वितीय तृतीय- प्रथम द्वितीय- संग्रह किट्टिः संग्रहकिट्टिः संग्रहकिट्टिः संगृहकिट्टिः संगहकिट्टिः तृतीय- संग्रहफिाई HI प्रथम- द्वितीय तृतीय संग्रहकिट्टिः संशहकिहिः मशइकिहिः सं व ल न लो भः सं उप ल न मा या संघल न मा | नः | सं ब ल न क्रोधः संकेतविवरणम अवान्तरकिट्टीनामनन्तत्वादवान्तरकिट्टयन्तराण्य- | यद्यपि लोभप्रथमसंग्रहकिट्टः प्रथमावान्तरकि१ कि-प्रथमावान्तरकिट्टिः। प्यनन्तानि भवन्ति, एकोना-ऽवान्तरकिट्टिराशे- दृषन्तरतो द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरमनन्तगुण२कि द्वितीयावान्तरकिट्टिः। रबान्तरकिट्टयन्तरराशिल्वात् । तेन प्रकृते त्रीण्य- मस्ति, तथापि चित्रे तुल्यं दर्शितम् , तावदव३ कि-तृतीयावान्तरकिट्टिः । बान्तरकिट्रयन्तराणि भवन्ति । काशस्याऽसम्भवात् । वस्तुतो-ऽनन्तगुणमेव । ४.कि-चतुर्थावान्तरकिट्टिः । | an (i) उत्तरोत्तरावान्तरकिट्टी दलमेकैकचयेन हीनं एबमने-ऽपि । यद्यपि परमार्थतोऽवान्तरकिट्टयो-ऽनन्ता | | हीनतरं दीयते। अतः परं पूर्वस्पर्धकानि। भवन्ति. किन्त्वसत्कल्पनया चतस्त्र एव (ii) उत्तरोत्तराबान्तरकिट्टयामनुभागो-ऽनन्त- ख-किट्टिवेदकाऽपेक्षया तृतीयसंग्रहकिट्टिः। दर्शिताः। गुणक्रमेण भवति। क-किट्टिवेदकाऽपेक्षया प्रथमसंग्रहकिट्टिः । १ अंप्रथमावान्तरकिट्टयन्तरम। १.२-३-४.....यथाक्रममेतैरङकैर्षिशेषाधिकक्रमेण २अं द्वितीयावान्तरकिट्टयन्तरम। प्रदेशा अवान्तरकिट्टयश्च सूचिताः, नवरं द्वादशा३ अंतृतीयावान्तरकिट्टयन्तरम् । कन संख्येयगुणा ज्ञापिताः । इह चित्रे तु प्रभूताबकाशाभावात् तुल्या दर्शिताः । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्कल्पनया किट्टिषु दीयमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १९१ भागमात्रं दलं किट्टितया परिणतं स्यात् , असंख्येयसमयैरप्यनन्ततमभागस्यैव किट्टितया परिणतिसंभवात् । चरमसमये तु पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यः सर्वदलं गृहीत्वा किट्टीनिवर्तयति, तेन चरमसमयेऽनन्तबहुभागमात्रदलं किट्टितया परिणतं भवेत् । न चाऽस्तु शेषसमयेषु किट्टितया परिणतं दलमनन्ततमभागमात्रमिति वाच्यम् , विरोधोपलम्भात् । तथाहि-किट्टिकरणाद्धाचरमसमये सर्वदलं किट्टितया परिणमयति । यद्यत्र द्विचरमसमयं यावत् किट्टितया परिणतं दलं सत्तागतदलाऽनन्ततममात्रं भवेत् , तर्हि द्विचरमसमयतश्चरमसमये किट्टितया परिणम्यमानं दलमनन्तगुणं भवेत् , सत्तागतसर्वदलस्य किट्टितया परिणम्यमानत्वात् । कषायप्राभृतचूर्णिकारादिभिस्त्वसंख्येयगुणक्रमणैव दलं प्रतिसमयं किट्टितया परिणमयतीत्युक्तम् , तथा च तद्ग्रन्थः-"जं पदेसग्गं सव्वसमासेण पढमसमए किट्टीसु दिजदि, तं थोवं, विदियसमए असंखेजगुणं, तदियसमए असंखेजगुणं, एवं जाव चरिमादो त्ति असंखेजगुणं।" इति । तेन सह विरोधः स्यात् । तस्मात् प्रथमविकल्प एव सङ्गतिं प्राञ्चति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-१५ । अथ गणितविभागः अथ निरुक्तपदार्थो-ऽसत्कल्पनयाऽङ्कतः प्रदर्यते-संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनायदलिकानि द्वऽब्जे सप्ताशीतिकोटयस्त्रिनवतिलक्षाणि पश्चाशीतिसहस्राणि त्रिशतानि पञ्चनवतिश्च (२८७९३८५३९५) गहणाति । तस्य किञ्चिन्न्यूनाष्टभागप्रमाणानि दलिकानि चतुस्त्रिंशकोटयोऽष्टानतिलक्षाण्यष्टादशशतानि त्रिंशच (३४,९८,०१,८३०) मानकिट्टितया परिणमयति, तानि स्तोकानि भवन्ति । ___अथ संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनायगृहीतसकलदलानां किञ्चिन्न्यूनाष्टभागप्रमाणानि दलिकानि षटत्रिंशत्कोटयोऽष्टानवतिलक्षाण्यष्टानवतिसहस्राण्यष्टनवत्यधिकत्रिशतानि च (३६,९८,९८,३९८) मायाकिट्टितया परिणनाय गृह्णाति । तानि पूर्वतो विशेषाधिकानि भवन्ति । ततो विशेपाधिकानि सप्तसप्तत्यधिकैकादशसहस्रोत्तरा-ऽष्टात्रिंशत्कोटयो (३८,००,११,०७७) दलिकानि लोभकिट्टितया परिणमनाय गृहणाति । तानि च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलस्य साधिकाष्टभागप्रमाणानि भवन्ति । ततः क्रोधकिट्टितया परिणमनाय संख्येयगुणान्येकाजं सप्तसप्ततिकोटयः षण्णवतिलक्षाणि चतुस्सप्ततिसहस्राणि नवतिश्च(१,७७,९६,७४,०९०) दलिकानि गृह्णाति । तानि च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृही सकलदलस्य किञ्चिन्यूनपञ्चाष्टभागप्रमाणानि विद्यन्ते । तत्र मानकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य तिस्रः संग्रहकिट्टीनिवर्तयति। मानस्य तृतीय Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] खवगसेढी [ गाथा-१०० संग्रहकिट्टौतु स्तोकानि दलिकानि ददाति । तानि च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानामासन्नचतुर्विंशतिभागप्रमाणान्येकादशकोटयश्चतुष्पञ्चाशल्लक्षाणि नवसप्ततिसहस्राणि षट्पञ्चाशदधिकशतं च (११,५४,७९,१५६) दलिकानि भवन्ति । ततो विशेषाधिकान्येकादशकोटयः षट्षष्टिलक्षाणि पञ्चोत्तरपञ्चशतानि च (११,६६,००,५०५) दलिकानि मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ ददाति, ततोऽपि विशेषाधिकान्येकादशकोटयः सप्तसप्ततिलक्षाणि द्वाविंशतिसहस्राण्येकोनसप्तत्यधिकशतंच(११,७७,२२,१६९)दलानिप्रथमसंग्रहकिट्टो ददाति । तथैव मायाकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलिकेभ्यो द्वादशकोटय एकविंशतिलक्षाणि षट्सप्ततिसहस्राणि पञ्चनवत्यधिकत्रिशतानि च (१२,२१,७६,३९५) दलानि मायातृतीयसंग्रहकिट्टौ ददाति । तानि च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानामासन्नचतुर्विशतिभागप्रमाणानि भवन्ति । ततो विशेषाधिकानि द्वादशकोटयो द्वात्रिंशल्लक्षाणि नवनवतिसहस्राणि पञ्चपञ्चाशदधिकत्रिशतानि च (१२,३२,९९,३५५) दलिकानि मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टी ददाति । ततोऽपि विशेषाधिकानि द्वादशकोटयश्चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाणि द्वाविंशतिसहस्राण्यष्टचत्वारिंशदधिकषट्शतानि च (१२,४४,२२,६४८) दलानि मायाप्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रक्षिपति ।। ___लोभकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलेभ्यः सप्तसप्तत्यधिकद्विशतोत्तरषट्चत्वारिंशत्सहस्राधिकपञ्चपञ्चाशल्लक्षोत्तरद्वादशकोटयः (१२,५५,४६,२७७) दलानि लोभतृतीयसंग्रहकिट्टी ददाति । तानि च संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानामासन्नचतुर्विशतिभागप्रमाणानि भवन्ति । ततो विशेषाधिकानि लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टौ पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशतोत्तरससतिसहस्राधिकषट्षष्टिलक्षोत्तरद्वादशकोटयः (१२६६७०२४५) दलानि ददाति । ततोऽपि विशेषाधिकानि प्रथमसंग्रहकिट्टी द्वादशकोटयः सप्तसप्ततिलक्षाणि चतुर्नवतिसहस्रागि पञ्चपञ्चाशदुत्तरपञ्चशतानि च (१२७७९४५५५) दलानि ददाति । ____ संज्वलनक्रोधकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलेभ्यो नवत्यधिकचतुस्सप्ततिसहस्रोत्तरपण्णवतिलक्षाधिकसप्तसप्ततिकोट्युत्तरैकाजसंख्यकेभ्यः (१,७७,९६,७४,०९०) संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलिकानां किञ्चिन्यूनचतुरष्टभागप्रमाणान्येकाजमेकचत्वारिंशत्कोटयो नवनवतिलक्षाप्येकाशीतिसहस्राणि चत्वारिंशदधिकचतुश्शतानि च (१,४१,९९,८१,४४०) नोकषायतः परिणतक्रोधदलिकानि तृतीयसंग्रहकिट्टी ददाति । शेषाणि किञ्चिन्यूनाष्टभागप्रमाणानि पञ्चत्रिंशत्कोटयः षण्णवतिलक्षाणि द्विनवतिसहस्राणि पञ्चाशदधिकषट्शतानि च (३५,९६,९२, ६५०) दलानि क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टि-द्वितीयसंग्रहकिट्टि-तृतीयसंग्रहकिट्टिषु ददाति । तत्र क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टयामेकादशकोटयो-ऽष्टनवतिलक्षाणि सप्तनवतिसहस्राणि द्विचत्वारिंशदुत्तरचतुश्शतानि च (११,९८,९७,४४२) दलानि ददाति, ततो विशेषाधिकानि प्रथमसंग्रहकिट्टी द्वादशकोटयो दशलक्षाण्येकोनविंशतिसहस्राणि त्रिंशदधिकचतुश्शतानि च (१२,१०,१९,४३०) दलानि ददाति । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९३ असत्कल्पनया किट्टिषु दीयमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः तृतीयसंग्रहकिट्टौ त्वेकादशकोटयः सप्ताशीतिलक्षाणि पञ्चसप्ततिसहस्राण्यष्टासप्तत्युत्तरसप्तशतानि च (११,८७,७५,७७८) दलानि ददाति, तथा प्रागुक्तानि नोकषायपरिणतक्रोधदलिकान्येकाऽब्जमेकचत्वारिंशत्कोटयो नवनवतिलक्षाण्येकाशीतिसहस्राणि चत्वारिंशदुत्तरचतुश्शतानि च (१,४१,९९,८१,४४०) प्रक्षिपति । तेन तृतीयसंग्रहकिट्टयामष्टादशाधिकद्विशतोत्तरसप्तपञ्चाशत्सहस्राधिकसप्ताशीतिलक्षाधिकत्रिपञ्चाशत्कोट्यधिकमेकाब्जं (१,५३,८७,५७,२१८) दीयमानानि दलानि जायन्ते । मानतृतीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य चतुरधिकशतम् (१०४) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति, मानद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य पञ्चोत्तरशतम् (१०५) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति, मानप्रथमसंग्रहकिट्टितया च परिणमनाय गृहीतदलस्य पडधिकशतम् (१०६) अवान्तरकिट्टीः करोति । एवं मायातृतीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य दशाधिकशतम् (११०) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति, मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्यैकादशोत्तरशतम् (१११) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । मायाप्रथमसंग्रहकिट्टितया च परिणमनाय गृहीतदलस्य द्वादशाधिकं शतम् (११२) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । ___ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य त्रयोदशाधिकशतम् (११३) अवान्तरकिट्टीनिर्वतयति । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य चतुर्दशोत्तरशतम् (११४) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितया च परिणमनाय गृहीतदलस्य पञ्चदशाधिकशतम् (११५) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्या-ऽष्टाधिकशतम् (१०८) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति, क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य नवोत्तरशतम् (१०९) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टितया च परिणमनाय गृहीतदलस्य सप्ताशीत्युत्तराणि त्रयोदशशतान्यवान्तरकिट्टीनिवर्तयति (१३८७), किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्य प्रभूतत्वात् । इत्थं किट्टितया परिणमनाय गृहीतसर्वदलिकानां पञ्चनवत्यधिकत्रिशताधिकपञ्चाशीतिसहस्रोत्तरत्रिनवतिलक्षाधिकसप्ताशीतिकोटयधिकद्वयजमात्राणां (२,८७,९३,८५,३९५) चतुर्नवत्यधिकपञ्चविंशतिशतानि (२५९४) अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ १९४] खबगसेढी [गाथा--१०० चतुर्नवतितमादिगाथानां वृत्तिमाश्रित्य द्वादशसंग्रहकिट्टीनां प्रदेशाग्रस्या-बान्तरकिट्टीनां च यन्त्रकम् अवान्तरकिट्टयः तदल्पबहुत्वम्। सकलदलानि । तदल्पबहुत्वम् (१) मानस्य तृतीयसंग्रह किट्टी १०४ स्तोका: ११५४७९१५६ | स्तोकानि (२) मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ १०५ विशेषाधिकाः ११६६००५०५ विशेषाधिकानि (३) मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टी ११७७२२१६९ (४) क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिटौ १०८ ११९८९७४४२ (५) क्रोधस्य प्रथमसंग्रह किट्टी १२१०१९४३० (६) मायायास्तृतीयसंग्रहकिटौ ११० १२२१७६३९५ (७) मायाया द्वितीयसंग्रह किटौ १११ १२३२९९३५५ (८) मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टी ११२ १२४४२२६४८ (९) लोभस्य तृतीयसंग्रहफिट्टी ११३ १२५५४६२७७ (१०) लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी ११४ १२६६७०२४५ (११) लोभस्य प्रथम संग्रहफिट्टो १२७७९४५५५ (१२) क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी १३८७ संख्यगुणाः १५३८७५७२१८ संख्यातगुणानि (किञ्चिन्न्यून- (१४१९९८१४००+ (ईषदूनत्रयोत्रयोदशगुणाः) ११८७७५७७८) | दशगुणानि।) ११५ अथाऽवान्तरकिट्टिषु दीयमानदलं भण्यते लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गहीतदलिकेभ्यो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टावेकादशलक्षाण्येकादशसहस्राणि त्रिशतानि चतुर्दश च (११,११,३१४) दलिकानि ददाति । तदानयनप्रकारस्तु प्राग्दर्शितः। तत एकचयेन हीनानि दलानि लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयावान्तरकिट्टयामेकादशलक्षाण्येकादशसहस्राणि त्रयोदशाधिकानि त्रिशतानि च (११,११,३१३) प्रक्षिपति, प्रागेकचयस्यैकपरमाणुत्वेन संस्तवात्, तत एकैकचयेन हीनं दलं तावद् ददाति, यावद् लोभप्रथमसंग्रहकिटिचरमा-ऽवान्तरकिट्टिः। तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचामाऽवान्तरकिट्टौ द्विशताधिकैकादशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,११,२००) दलानि ददाति। कथम् ? इति चेत् , उच्यतेयतिसंख्याकायामवान्तरकिट्टयांदलं प्राप्तमिष्यते, एकोनतत्संख्यागुणितैकचयदलं प्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतदलतो विशोध्याऽवशिष्यमाणदलं तस्यामवान्तरकिट्टी दीयत इत्यनेन करणेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टः पञ्चदशाधिकशततमत्वेनैकोनतत्संख्यालक्षणचतुर्दशाधिकशतगुणितैकचयगतदललक्षणचतुर्दशाधिकशतदलैन्यूनानि प्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतदलानि द्विशताधिकैकादशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,११,२००) दलानि प्रक्षिपति । एवमग्रेऽप्यनेन करणेन दलिकनिक्षेपो बोद्धव्यः। अथ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलिकेभ्यो दलान्यादाय लोभप्रथमसंग्रहकिट्टि Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्कल्पनया किट्टिषु दीयमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १९५ चरमाऽवान्तरकिट्टित एकचयेन न्यूनानि दलानि नवनवत्यधिकशताधिकैकादशसहस्रोत्तरैकादशलक्षमितानि (११,११,१९९) ददाति । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयावान्तरकिट्टावष्टानवत्यधिकशतोत्तरैकादशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,११,१९८) दलिकानि ददाति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि दलानि तावत् प्रक्षिपति, यावद् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । तेन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ षडशीत्युत्तरैकादशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,११,०८६) दलिकानि ददाति । ___ ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टावेकचयेन न्यूनानि दलानि ददाति । तानि च पञ्चाशीत्यधिकैकादशसहस्रोत्तरैकादशलक्षमात्राणि (११,११,०८५) भवन्ति । ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिरितीयाऽवान्तरकिट्टी चतुरशीत्यधिकैकादशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,११,०८४) दलानि ददाति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि दलिकानि तावद् ददाति, यावद् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः। तेन लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ त्रयःसप्तत्युत्तरनवशताधिकदशसहस्राधिकान्येकादशलक्षाणि (१११०९७३) दलिकानि ददाति । ___ तत एकचयेन हीनानि मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टी द्वासप्तत्यधिकनवशताधिकदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११.१०,९७२)दलिकानि ददाति । ततो मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टावेकचयेन हीनानि दलानि प्रक्षिपति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि तावद् ददाति, यावद् मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टिः । तेन मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावेकषष्टयधिकाष्टशतोत्तरदशसहस्राधिकान्येकादशलक्षाणि (११,१०,८६१)दलिकानि प्रक्षिपति । तत एकचयेन हीनानि मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टी षष्टयधिकाष्टशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,८६०) दलिकानि प्रक्षिपति, ततो मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टावेकोनषष्टयु त्तराष्टशताधिकदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,८५९) दलिकानि ददाति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि दलानि तावद् ददाति, यावन्मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । तेन मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टौ पश्चाशदधिकसप्तशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,७५०) दलिकानि ददाति । तत एकचयेन हीनानि मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टावेकोनपञ्चाशदुत्तरसप्तशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,७४९) दलिकानि ददाति । ततो मायातृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टावष्टाचत्वारिंशदुत्तरसप्तशताधिकदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,१०७४८) दलिकानि निक्षिपति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि दलिकानि तावत् प्रक्षिपति, यावन्मायातृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । तेन मायातृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ चत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,६४०) दलिकानि प्रक्षिपति । तत ऊर्ध्वं मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टी नवत्रिंशदधिकाटशताधिकदशसहस्रोत्तरै Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ । खवगसेढी [गाथा--१०० कादशलक्षाणि (११,१०,६३९) दलिकानि प्रक्षिपति । ततः परं मानप्रथमसंग्रहकिट्टिद्धितीयाsवान्तरकिट्टयामष्टात्रिंशदधिकषट्शतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,६३८) दलिकानि प्रक्षिपति, एवमनन्तरानन्तरेणैकेकचयेन हीनानि दलिकानि तावद् ददाति, यावन्मानप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । तेन मानप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टी चतुस्त्रिंशदधिकपञ्चशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,५३४) दलिकानि प्रक्षिपति । तत ऊर्च मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाध्यान्तरकिट्टौ त्रयस्त्रिंशदधिकपञ्चशतोत्तरदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,१०,५३३) दलिकानि ददाति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि तावद् निक्षिपति, यावन्मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः। तेन मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावेकोनत्रिंशदधिकचतुःशताधिकदशसहस्रोत्तराण्येकादशलक्षाणि (१११०४२९) दलिकानि ददाति । तत ऊर्ध्वं मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टावष्टाविंशत्यधिकचतुःशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,४२८) दलिकानि ददाति । ततः परं मानतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिटौ सप्तविंशत्यधिकचतुःशताधिकदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (१११०४२७) दलिकानि ददाति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि दलिकानि तावद् ददाति, यावन्मानतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः। तेन मानतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ पञ्चविंशत्यधिकत्रिशताधिकदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,१०,३२५) दलिकानि प्रक्षिपति । तत ऊवं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टी चतुर्विशत्यधिकत्रिशतोत्तरदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,१०,३२४) दलिकानि ददाति । ततः परं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयाsवान्तरकिट्टौ त्रयोविंशत्यधिकत्रिशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,३२३) दलिकानि ददाति । एवमनन्तरानन्तरेण कैकचयेन हीनानि दलानि तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । तेन क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ षोडशोत्तद्विशताधिकदशसहस्रोत्तरैकादशलक्षाणि (११,१०,२१६) दलिकानि प्रक्षिपति । ... ततः परं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ पञ्चदशाधिकशतद्वयोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,२१५) दलिकानि प्रक्षिपति । तत ऊर्ध्वं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टी चतुर्दशाधिकशतद्वयोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,२१४) दलिकानि प्रक्षिपति । एवमनन्तरानन्तरेणैकैकचयेन हीनानि दलानि तावद् ददाति, यावत् क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः। तेन क्रोधद्वितीयसंग्रहकिटिचरमाऽवान्तरकियामष्टोत्तरशताधिकदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,१०८) दलिकानि प्रक्षिपति । अत्र क्रोवद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ पञ्चदशाधिकद्विशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,२१५) दलिकानि प्रक्षिप्यन्ते । मानस्य तु प्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ चतुस्त्रिंशदविकपश्चशतोत्तरदश Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्कल्पनया किट्टिषु दीयमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १९७ सहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,५३४) दलिकानि प्रक्षिप्तानि । किन्तु मानप्रथमसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टयः षडुत्तरशतं (१०६) भवन्ति, क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टयस्तु विशेषाधिका अष्टोत्तरशतं (१०८) भवन्ति । तेन मानप्रथमसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसर्वदलिकेभ्यो नवष्टियुक्तैकशताधिकद्वाविंशतिसहस्रोत्तरसप्तसप्ततिलक्षाधिकैकादशकोटिभ्यः (११,७७,२२,१६९) क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिसकलावान्तरकिट्टिगतानि दलानि द्वाचत्वारिंशदधिकचतुःशतोत्तरसप्तनवतिसहस्राधिकाष्टनवतिलक्षाधिकैकादशकोटयो (११,९८,९७,४४२) विशेषाधिकानि भवन्ति । ___तत ऊर्ध्वं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ सप्ताधिकशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,१०,१०७) प्रक्षिपति । ततः परं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टी पडधिकशतोत्तरदशसहस्राधिकान्येकादशलक्षाणि (११,१०,१०६) दलिकानि प्रक्षिपति । एवमनन्तरानन्तरेणैककचयेन हीनानि दलिकानि तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । तेन क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टयामेकविंशत्यधिकसप्तशतोत्तराष्टसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (११,०८,७२१) दलिकानि प्रक्षिपति । ___ इत्थं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टितः प्रभृत्यनन्तरानन्तरेणाऽनन्ततमभागेन हीनं दीयमानं दलं तावद् भवति, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः।। प्रथमसमये किट्टिषु दृश्यमानदलस्य दीयमानदलतोऽनतिरेकादनन्तरोपनिधया दृश्यमानदलमप्यनन्तरानन्तरेण विशेषहीनं भवति । परम्परोपनिधया-ऽपि दीयमानंदलमनन्ततमभागेनैव हीनं भवति। तथाहि-लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ चतुर्दशाधिकत्रिशतोत्तरैकादशसहस्राधिकान्येकादशलक्षाणि (११,११,३१४) दलानि दीयन्ते, क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ त्वेकविंशत्यधिकसप्तशतोत्तराष्टसहस्राधिकान्येकादशलक्षाणि (११,०८,७२१) दलानि दीयन्ते । इह च किञ्चिदधिकचतुश्शतानामनन्तत्वेन परिकल्पनाद् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टितः क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावनन्ततमभागेन हीनं दीयते । एवं दृश्यमानमपि दलं परम्परोपनिधयाऽनन्ततमभागेन हीनं भवति, दीयमानतो दृश्यमानदलस्या-ऽनतिरेकात् ॥१०॥ एतत्सर्व यन्त्रे सुबोधार्थे प्रदश्यते । इदन्त्ववसेयम्-समानाऽन्तराणां राशीनां योग इभ्यमाण आदिधनेन सहितमन्त्यधनं गच्छार्धेन गुण्यते, गुणने च कृते सर्वधनं लभ्यते । यदुक्त श्रोनिशीथभाष्ये-“अंतिमधणमादिजुयं गच्छद्धगुणं तु सव्वधनं।” इति । इह प्रथमावान्तरकिट्टी दीयमानदलान्यन्त्यधनम, चरमावान्तरकिट्टी दीयमानदलान्यादिधनम्, अवान्तरकिट्टिराशिश्च गच्छ इति । यथाऽसत्कल्पनया मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तर्राकट्टौ दीयमानदलान्यष्टाविंशत्यधिकचतुश्शतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (१११०४२८) अन्त्य Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [ गाथा--१०० द्वितीय, , , १०५ १९८ ] खवगसेढी धनम् , मानतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टौ दीयमानदलानि पञ्चविंशत्यधिकत्रिशतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षाणि (१११०३२५) आदिधनम् , गच्छश्च चतुरधिकं शतम् (१०४)। अनन्तरोक्तकरणमाश्रित्याष्टाविंशत्यधिकचतुश्शतोत्तरदशसहस्राधिकैकादशलक्षैर्युतानि पञ्चविंशत्यधिकत्रिशतोत्तरदशसहस्रसंयुक्तकादशलक्षाणि त्रिपञ्चाशदधिकसप्तशतयुक्तविंशतिसहस्रोत्तरद्वाविंशतिलक्षाणि (१११०४२८+१११०३२५=२२२०७५३) भवन्ति । तानि च गच्छार्धेन द्वापञ्चाशल्लक्षणेन गुण्यते, तदा मानतृतीयसंग्रहकिट्टी दीयमानसर्वदलानि षट्पञ्चाशदधिकशतोत्तरैकोनाशीतिसहस्राधिकचतुष्पञ्चाशल्लक्षयुक्तैकादशकोटयः (११५४७९१५६) प्राप्यन्ते । एवमुक्तकरणेन शेषसंग्रह किट्टीनामपि प्रदेशा यन्त्रे प्रदर्शिताः। किढिकरणाडाप्रथमसमयेऽसत्कल्पनया दीयमानदलयन्त्रकम्मानः क्रोवः तृतीयसंग्रहकिट्टापवान्तरकिट्टयः १०४ तृतीयसंग्रहफिट्टाववान्तरकिट्टयः १३८७ (१२८०-५-१०७) द्वितीय , , , , १०८ प्रथम , , , " प्रथम , , , , १०९ मानस्य सकलाऽयान्तरकिटयः ३१५ क्रोधस्य सकलावान्तरकिट्रयः १६०४ तृतीयसंग्रहकिटिचरमावान्तरकिट्टी दलानि १११०३२५ तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टौ दलानि ११०८७२१ ,, ,, ,, द्वितीया ,, ,, ,, १११०४२७ ,, ,, ,, द्वितीया ,, , , १११०१०६ ,, ,, ,, प्रथमा ,, , , १११०४२८ ,, ,, ,, प्रथमा ,, ,, , १११०१०७ ..तृतीयसंग्रहकिट्टिसकलावान्तरकिट्टिगतसकलदलानि ..तृतीयसंग्रहकिट्टिसकलावान्तरकिट्टिगतदलानि =(१११०३२५+१११०४२८)x १०४ =(११०८७२१+१११०१०७ )-१३०७=१५३८७५७२१८ =२२२०७५३४५२=११५४७९१५६ द्वितीयसंग्रहकिटिचरमावान्तरकिट्टी दलानि १११०१०८ द्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टी दलानि १११०४२९ , . , ,, द्वितीया ,, ,, ,, १११०२१४ " , , द्वितीया ,, ,, , १११०५३२ " , " , ,, प्रथमा ,, ,, ,, १११०२१५ " , , प्रथमा " " " १११०५२३.:.द्वितीयसंग्रहकिट्रिसकलाऽवान्तरकिट्रिगतसमस्तदलानि ..द्वितीयसंग्रहकिट्टिसकलावान्तरकिट्टिगतसकलदलानि " =(१११०१०८+ १११०२१५)x००११९८९७४४२ =(१११०४२९ +१११०५३३ )x१०५ ११६६००५०५ प्रथमसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टौ दलानि १११०५३४ प्रथमसंग्रह किट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टी दलानि १११०२१६ a , ,, ,, द्वितीया ,, ,, १११०६३८ , , द्वितीया ,, ,, ,, ,, १११०३२३ " " । ,, ,, ,, प्रथमा ,, ,, ,, १११०३२४ , , ,, , प्रथमा ,, ,, १११०६३९ " ..प्रथमसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसकलदलानि |:.प्रथमसंग्रह किट्टिसकलावान्तरकिट्टिगतसर्वदलानि =(१११०५३४-+१११०६३९) १०६=११७७२२१६९ =(१११०२१६+ १११०३२४)x-१० =१२१०१९४३० मानकिट्टितया परिणतानि सर्वदलानि क्रोधकिट्टितया परिणतानि सर्वदलानि =(१११०३२५ +१११०६३९) ४ ३१५ =३४९८०१८३० =(११०८७२१ + १११०३२४)x१६०४=१७७९६७४०९० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ असत्कल्पनया दीयमानदलस्य यन्त्रम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ १९९ किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये दीयमानदलयन्त्रकम् माया लोभः तृतीयसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयः ११० तृतीयसंग्रहकिट्टाववान्तरकिट्टयः ११३ द्वितीय,, , , , १११ द्वितीय , , " " प्रथम , , , " प्रथम , , " ११५ " मायायाः सकलाऽवान्तरकिट्टयः ३३३ लोभसकलाऽवान्तरकिट्रयः ३४२ तृतीयसंग्रहकिटिचरमाऽवान्तरकिटौ दलानि १११०६४० तृतीयसंग्रह किट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टौ दलानि १११०९७३ ,, ,, ,, द्वितीया ,, ,, ,, १११०७४८ ,, ,, ,, द्वितीयाऽ ,, , , ११११०८४ , ,, ,, प्रथमा , , , १११०७४९ , , , प्रथमाऽ , , , ११११०८५ ..तृतीयसंग्रह किट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसकलदलानि ..तृतीयसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसकलदलानि =(१११०६४० + १११०७४९)x ११० =१२२१७६३९५ =(१११०९७३+११११०८५) ४ ११३=१२५५४६२७७ द्वितीयसंग्रहकिटिचरमाऽत्रान्तरकिट्टी दलानि १११०७५० द्वितीयसंग्रहकिटिचरमाऽवान्तरकिट्टौ दलानि ११११०८६ ,, ,, ,, द्वितीया ,, ,, ,, १११०८५९ , , , द्वितीया , , , १११११९८ ,, ,, प्रथमा , , , १११०८६० , , , प्रथमाऽ , , , १११११९९ .:.द्वितीयसंग्रहकिटिसकलावान्तरकिट्टिगतसर्वदलानि ..तृतीयसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसर्वदलानि =(१११०७५० +१११०८६०)x १११ =१२३२९१३५५ =(११११०८६+१११११९९) ११४ =१२६६७०२४५ १४२ प्रथमसंग्रहकिटिचरमाऽवान्तरकिट्टौ दलानि १११०८६१ प्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाध्यान्तरकिट्टौ दलानि ११११२०० ,, ,, ,, द्वितीया ,, ,, ,, १११०९७१ , , , द्वितीया ,, ,, , ११११३१३ ,, ,, ,, प्रथमा , , , १११०९७२ , , , प्रथमा , , , ११११३१४ ..प्रथमसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसर्वदलानि ..प्रथमसंग्रहकिट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टिगतसकलदलानि =(१११०८६१ -+-१११०९७२) x १९२=१२४४२२६४८ =(११११२००+११११३१४ )४६१२७७९४५५५ मायाकिट्टितया परिणतानि सर्वदलानि लोभकिट्टितया परिणतानि सर्वदलानि =(१११०६४० + १११०९७२)x २२२ =३६९८९८३९८ =(१११०९७३+११११३१४) ४२४२ =३८००११०७७ संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानि(१) मानकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानि= ३४९८०१८३० (२) मायाकिट्रितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानि= ३६९८९८३९८ (३) लोभकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानि= ३८००११०७७ (४) क्रोधकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलानि=१७७९६७४०९० ::. संज्वलचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसर्वदलानि-२८७९३८५३९५ ॥ गणितविभागः समाप्तः ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] aara [ गाथा--१०१-१०२ किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये किट्टिनिवृत्तिमभिधाय सम्प्रति किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयात् प्रभृति क्षपकस्य मोहनीयस्थितिरसयोरपवर्तनैव भवति, ततोऽन्यस्य तुद्वर्तनाऽपवर्तना चोभेऽपि भवत इति चिख्यापयिषुराह किट्टी कुणमाणो ओवट्ट सो य न उब्वट्टर ओवट्ट मोहस्स ठिइरसा णियमा । उब्वट्टर परो उ ॥ १०१ ॥ (उपगीतिः) किट्टीः कुर्वाणोऽपवर्तयति मोहस्य स्थितिरसौ नियमाद् । स च नोद्वर्तयत्यपवर्तयत्युद्वर्तयति परस्तु ॥ १०१ ॥ इति पदसंस्कारः । 'hिar' इत्यादि, किट्टी: 'कुर्वाणः' निर्वर्तयन् प्रस्तुतत्वात् क्षपकः 'मोहस्य' मोहनीयस्य स्थितिरसौ नियमाद् अपवर्तयति, मोहनीयस्य सत्तागत स्थितिरसौ नियमतो हास्यतीत्यर्थः । 'स' किट्टिकरणाद्धावर्ती च क्षपको नोद्वर्तयति, मोहनीयस्य सत्तागतस्थितिरसौ न वर्धयतीत्यर्थः । किट्टिकारेतरस्य को विशेषः १ इत्यत आह- 'ओवह ' इत्यादि, तत्र 'परस्तु' किट्टिकरणाद्वाया अधस्ताद् वर्तमानो जीवस्तु तुर्वाक्यभेदे, मोहनीयस्य स्थितिरसावपवर्तयत्युद्वर्तयति च । उक्त च कषायप्राभृते "ओवट्टणमुव्वट्टण किट्टीवज्जेसु होदि कम्मेसु । ओव्हणा च णियमा किट्टीकरणम्हि बोडव्वा ॥ १ ॥” इति तथैव कर्मप्रकृतावपि - "आबंधा उक्कड्ढइ सव्वहिमोकढणा ठिइरसाणं । किट्टीवज्जे उभयं, किट्टी ओव्वट्टणा एक्का || १ ||" इति । एवं कषायप्राभृतचूर्णावप्युक्तम् - "खवगो किट्टीकरणप्पहुडि जाव संकमो, ताव ओडगो पदेसग्गस्स ण उक्कड्डगो ।” इति । अथ किरणाद्धायाद्वितीयादिसमयेषु यद्भवति तदभिधातुकाम आह— बीयाइखणे असंखगुणकमेणं दलं तु घेत्तणं । कुड़ अहो संगह किट्टीण अपुव्वा असंखगुणहीणा ॥ १०२ ॥ ( गीतिः ) द्वितीयादिसमयेष्त्रसंख्यगुणक्रमेण दलं तु गृहीत्वा । करोत्यधः संग्रह किट्टी नामपूर्वा असंख्यगुणहीनाः || १०२ || इति पदसंस्कारः । 'बीयाpaणेसु' इत्यादि, 'द्वितीयादिक्षणेषु' किट्टिकरणाद्वाया द्वितीयादिसमयेषु असंख्यगुणक्रमेण 'दलं' प्रदेशाग्र' तु 'गृहीत्वा' आदाय 'संग्रह किट्टीनां' द्वादशानां संग्रह किट्टीनामधः 'अपूर्वा :' अभिनवा अवान्तरकिट्टी : 'असंख्यगुणहीनाः ' पूर्वसमय तोऽसंख्येय गुणहीनाः 'करोति' Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयादिसमयेऽवपूर्वानान्तरकिट्टयः] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [२०१ निर्वर्तयति । अपूर्वत्वं च प्राक्तनसमये तादृशाऽनुभागकानामवान्तरकिट्टीनामदर्शनादवसेयम्, उत्तरोत्तरसमये-ऽनन्तगुणहीनरसत्वसंपादनात् । इदमुक्त भवति-प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया प्रवर्धमानायां विशुद्धौ प्रवर्त्तमानत्वात् किट्टिकरणाद्धायाः प्रथमसमयतो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं दलं गृहीत्वा प्रथमसमयतोऽसंख्येयगुणहीना अभिनवा अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"जं पदेसग्गं सव्वसमासेण पढमसमए किट्टीसु दिनदि, तं थोवं । विदियसमए असंखेनगुणं । xxx विदियसमए अण्णाओ किट्टीओ करेदि । पढमसमये णिव्वत्तिदकिटोणमसंखेजदिभागमेत्ताओ।" इति । ताश्च अभिनवा अवान्तरकिट्टयो द्वादशसंग्रहकिट्टीनामवस्तात् क्रियन्ते । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-“एककिस्से संगहकिट्टीए हेट्ठा अपुवाओ किटीओ करेदि ।” इति । तद्यथा-संज्वलनक्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टया अधस्ताद् द्वितीयसमयेऽनन्तगुणहीनानुभागकाः प्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागमिता अपूर्वा अवान्तरकिट्टीः करोति, तथा द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टथा अधस्तात् प्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमाणा अपूर्वा अवान्तरकिट्टीनिर्वर्तयति। एवं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टया अप्यधस्तादनन्तगुणहीनानुभागकाः प्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमाणा अभिनवा अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । एवमेव मानमायालोभानां स्वस्वप्रथमादिसंग्रहकिट्टीनामधस्तादनन्तगुणहीनाऽनुभागका अपूर्वा अवान्तरकिट्टीः करोति । यस्याः संग्रहकिया अधस्ताद् या अपूर्वाऽवान्तरकिट्टयः क्रियन्ते, ता अपूर्वाऽवान्तरकिट्टयस्तत्संग्रहकिट्टिसम्बन्धन्यो व्यपदिश्यन्ते । इत्थं प्रथमसमयतो द्वितीयसमयेऽसंख्येयभागप्रमाणा मन्दतराऽनुभागका अवान्तरकिट्टय एकैकस्यां संग्रहकिट्टौ वर्धन्ते । संज्वलनक्रोधस्य किट्टीनां विन्यासःद्वितीपसमयकृता अपूर्वावान्तरकिट्टयः प्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टयः kkkkkkkkkkkxप्रथमसंग्रहकिट्टिः । ★★★★★★★★★★★★★★★★द्वितीयसंग्रहकिट्टिः 鲁些带整卷整登给普普 kattrakattttttttttt.तृतीयसंग्रहकिट्टिः परमार्थतः प्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टितो द्वितीयसमयकृतावान्तरकिट्टयो- संख्येयगुणहीना भवन्ति । इह तु द्विगुणहीना दर्शिताः, द्विकस्याऽसंख्येयत्वेन परिकल्पनात् । एवं मानमायालोभानामपि न्यासो द्रष्टव्यः । ततस्तृतीयसमये द्वितीयसमयतोऽसंख्येयगुणं दलं गृहीत्वा द्वितीयसमयतोऽसंख्येयगुणहीना अपूर्वा अवान्तरकिट्टीर्वादशसंग्रहकिट्टिसत्कस्वस्वप्रथमाऽवान्तरकिट्टया अधस्ताद् निर्वतयति । एवं प्रतिसमयमसंख्येयगुणक्रमेण दलं गृहीत्वाऽसंख्येयगुणहीना अपूर्वावान्तरकिट्टीस्तावनिवर्तयति, यावत् किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः ॥१०२।। ** *** ********** Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] aaraढी [ गाथा-- १०३-१०४ करणाद्धाद्वितीयादिसमयेष्ववान्तरविट्टिषु दीयमानप्रदेशाग्र दृश्यमानप्रदेशाग्र च विभणिपुराह - देइ अपुव्वंतत्तो पुव्वादीए असंखभागूणं । पुव्वताउ अपुव्वादीअ असंखंसउत्तरं दलिअं ॥ १०३ ॥ ( गीतिः ) सासु विसेसूणं तेणं तेवीसउकूडाणि । होते दीसह दलिअं सव्वत्थ अनंतभागूणं ॥ १०४ ॥ ददात्यपूर्वान्तातः पूर्वादावसंख्यभागोनम् । पूर्वान्ताया अपूर्वादी असंख्यांशोत्तरं दलिकम् ॥१०३॥ शेषासु विशेषोनं तेन त्रयोविंशत्युष्ट्रकूटानि । भवन्ति दृश्यते दलिकं सर्वत्र अनन्तभागोनम् ||१०४ || इति पदसंस्कारः । 'देह' इत्यादि, 'बीयाइखणेसु' इति पूर्वतोऽनुवर्तते, किट्टिकरणाद्धाया द्वितीयादिसमयेषु 'अपूर्वान्तातः' अपूर्वास्त्रवान्तरकिट्टिषु या अन्ता चरमाऽवान्तरकिट्टिः, ततः, चरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टित इत्यर्थः, 'पूर्वाद' पूर्वास्ववान्तरविट्टिषु या आदिः प्रथमावान्तरकिट्टिः, तस्याम्, प्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्ट्यामित्यर्थः, 'असंख्य भागोनम्' असंख्येयभागहीनं दलिकं 'ददाति निक्षिपति । 'पुव्वताउ' इत्यादि, 'पूर्वान्ताया: ' पूर्वास्ववान्तरकिट्टिषु या अन्ता - चरमाऽवान्तरकिट्टिः, ततः, चरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टित इत्यर्थः, 'अपूर्वादी' पूर्वाऽवान्तरविट्टिसमनन्तरं या अपूर्वावान्तरकियोऽवतिष्ठन्ते, तासु या आदिः - प्रथमा - ऽवान्तर किट्टिः, तस्याम् प्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टयामित्यर्थः, 'असंख्यांशोत्तरम्' असंख्येयभागाधिकं दलिकं ददाति । 'सेसासु' इत्यादि, 'शेषासु' उक्तेतरासु पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु 'विशेषोनं' विशेषहीनं दलिकं निक्षिपति । 'तेणं' इत्यादि, 'तेन' उक्तदलनिक्षेपक्रमेण द्वितीयादिसमयेषु दीयमानदलस्य त्रयोविंशत्युष्ट्रकूटानि भवन्ति, न न्यूनाधिकाः । तथाहि किट्टिकरणाद्धायाद्वितीयसमये संज्वलनलोभस्य प्रथम संग्रह किद्विप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्ट सर्वप्रभूतं दलं ददाति । प्रथम संग्रहकट्टप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिश्च प्रथमसंग्रह किया अधस्तादनन्तगुणहीनाऽनुभागकासु तदानींतनास्वनन्तास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु सर्वमन्दानुभागका बोद्धव्या । एवमग्रे ऽपि यथास्थानं भावनीयम् । ततः प्रथमसंग्रहविट्टिद्वितीयापूर्वाऽवान्तरकिट्टी विशेषहीनं दलं ददाति, हीनत्वं चाऽनन्ततमभागेन ज्ञातव्यम् । एवमनन्तरानन्तरेण तावद् वक्तव्यम्, यावद् लोभस्य प्रथमसंग्रहकिविचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । उक्तं च कषायप्राभृतचूण" लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि, विदियाए किटीए विसेसहोणमणंतभागेण, ताव अनंतभागहोणं, जाव अपुव्वाणं चरिमादो ति ।" इति Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विती गदिसपयेषु दलिकनिक्षेपक्रमः] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २०३ द्वितीयसमयेन निर्वय॑मानलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानप्रदेशतःप्रथमसमयकृतलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागहीनं दलं ददाति । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो पढमसमए णिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहोणमसंखेजदिभागेण ।" इति । कथमेतदवसीयते ? इति चेद्, उच्यते-प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशुद्धः प्रवर्धमानत्वात् फिट्टिकरणाद्धायाः प्रथमतमयतो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणं दलमवान्तरकिट्टितया परिणमनाय गहणाति । अपूर्वाऽवान्तरकिट्टयस्त्वसंख्येयगुणहीना निर्वय॑न्ते। अथ प्रथमसमयकृतप्रथमावान्तरकिट्टा यावद् दलं प्रथमसमयेऽदात् , यदि तावदेव दलं द्वितीयसमये चरमापूर्वान्तरकिट्टो दद्यात् , तीपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं सकलं दलं द्वितीयसमये किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं स्यात् , प्रथमसमयतो द्वितीयसमये निवर्त्यमानकिट्टीनामसंख्येयगुणहीनत्वात् किट्टितया च परिणमनाय गृहीतदलस्या-ऽसंख्येयगुणत्वात् । बह्वसंख्येयभागप्रमाणदलस्य तु निक्षेपो न स्यात् । न चैतामापत्तिमपाक बहसंख्येयभागमात्रदलं यथाविभागं पूर्वावान्तरकिट्टिषु प्रक्षेप्तव्यमिति वाच्यम् , यतस्तथाऽभ्युपगमे पूर्वसमयापेक्षया दलिकस्या-ऽसंख्येयगुणत्वेना-ऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टो दृश्यमानदलतः पूर्वावान्तरकिट्टो दृश्यमानमपि दलमसंख्येयगुणं स्यात् । तच्च नेष्टम् , पूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु दृश्यमानदलिकस्यैकगोपुच्छाकारेण वक्ष्यमाणत्वात् । तेनैकैकपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रथमसमये यावद् दलिकं प्रदत्तम्, ततोऽसंख्येयगुणं दलमेकैकपूर्वावान्तरकिट्टयामेकैकापूर्वावान्तरकिट्टौ च ददाति, किन्तु यावद् दलमेकैकापूर्वावान्तरकिट्टी प्रक्षिप्यते, ततोऽसंख्येयभागेन हीनं दलमेकैकपूर्वावान्तरकिट्टी दीयते । कुतः ? इति चेत्, उच्यतेपूर्वाऽवान्तरकिट्टयां पुरातनसत्तागतदलमसंख्येयभागप्रमाणं विद्यते, तथा द्वितीयसमये केवलमपूर्वीवान्तरकिट्टितः पूर्वाऽवान्तरकिट्टी दलमनन्ततमभागेन हीनं तिष्टति, दृश्यमानदलस्य विशेषहीनक्रमेण वक्ष्यमाणत्वात् । यद्येकैकापूर्वावान्तरकिट्टौ यावद् दलं ददाति, तावदेव दलमेकैकपूर्वावान्तरकिट्टयामपि दद्यात्, तीपूर्वावान्तरकिट्टितः पूर्वावान्तरकिट्टौ दृश्यमानदलमसंख्येयभागाधिकं स्यात्, पूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागप्रमाणस्य पुरातनदलस्य सद्भावात् । तच्च नाऽभिप्रेतम्, विशेषहीनदलस्य वक्ष्यमाणत्वात् । तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टितः प्रथमसमयकृतलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टयामसंख्येयभागहीनं दलं ददाति । एवमग्रेऽप्यपूर्वाऽवान्तरकिट्टीनां चरमापूर्वाऽवान्तरकिट्टितः पूर्वाऽवान्तरकिट्टीनां प्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दीयमानदलमसंख्येयभागेन हीनं वक्तव्यम् । लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमसमयकृतप्रथमाऽवान्तरकिट्टितो विशेषहीनंदलं प्रथमसमयकृतद्वितीयाऽवान्तरकिट्टी ददाति । हीनत्वं चाऽनन्ततमभागेन ज्ञातव्यम् । ततोऽपि प्रथमसमयकृततृतीयाऽवान्तरकिट्टी विशेषहीनं ददाति । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावद् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टिः। उक्तञ्च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो विदि Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] खवगसेढी [ गाथा १०३-१०४ याए अणंतभागहोणं। तेण परं पढमसमए णिव्वत्तिदासु लोभस्स पढमसंगहकिहीए किट्टीसु अणंतराणंतरेण अणंतभागहोणं दिज्जमाणगं जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिहि त्ति । "इति । लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिया द्वितीयसमयनिर्वयंमानप्रथमापूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दलमसंख्येयभागेनाधिकं ददाति । उक्तश्च कषायप्राभूतचूर्णी-"लोभस्स चेव विदियसमए विदियसंगहकिट्टीए तिस्से जहणियाए किट्टीए दिज्जमाणगं विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण।" इति । कुतः? इति चेत्, उच्यतेयदि लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टौ यावद्दलं ददाति, तावदेव लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयसमयनिर्वयंमानप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टी प्रक्षिपेत्, तर्हि दृश्यमानदलमेकगोपुच्छाकारेण न तिष्ठत्, अपि त्वसंख्येयभागेन हीनं तिष्ठेत् । तथाहि-लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टी निक्षिप्यमाणदलिकापेक्षयाऽसंख्येयभागमात्रं दलंपुरातनसत्तागतं विद्यते । अथ प्रथमसमयकृतप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कवरमाऽवान्तरकिट्टी यावद्दलं दीयते, यदि तावन्मात्रमेव दलं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयसमयनिर्वय॑मानप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ प्रक्षिपेत् , तर्हि तत्र पुरातनसत्तागतदलस्याऽभावेन केवलं दीयमानदलसद्भावाल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयसमयनिर्वय॑मानप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिटौ दृश्यमानं दलमसंख्येयभागेन हीनं स्यात् । न च तदिष्यते, पूर्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टीनां दृश्यमानं दलं यथोत्तरमनन्तभागेन हीनं भवदेकगोपुच्छाकारेण तिष्ठतीति स्वीकारात् । तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टितोलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयसमयनिर्वयंमानप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेनाधिकं दलं ददाति, । एवमसंख्येयभागाधिके दलिके प्रक्षिप्ते दृश्यमानं दलं गोपुच्छाकारेण तिष्ठति । एवमन्यत्रापि यत्राऽसंख्येयभागेनाधिकं दलं प्रक्षिपति, तत्रेदं कारणं प्ररूपयितव्यम् । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयसमयनिर्वय॑मानप्रथमाऽपूर्वान्तरकिट्टितो द्वितीयसमयनिर्वत्यमानद्वितीयाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ विशेषहीनंदलं ददाति, हीनत्वं चाऽनन्ततमभागेन ज्ञातव्यम् । एवमनन्तरानन्तरेण विशेषहीनं विशेषहीनं तावद् वक्तव्यम्, यावद् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयसमयनिर्वर्त्यमान वरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"तेण परमणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो त्ति ।" इति । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टथा द्वितीयसमयनिर्वय॑मानचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसमयकृतप्रथमापूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेन हीनं ददाति । ततः परमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं दलं तावद् ददाति, यावद् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टिः। लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसमयकृतचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीय Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयादिसमयेषु दलिकनिक्षेपक्रमः ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २०५ समयनिर्वर्त्यमानप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दलमसंख्येयभागेनाऽधिकं दलं ददाति । ततः परमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं तावद् ददाति यावद् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसमयनिर्वर्त्यमानचरमा पूर्वावान्तरकिट्टिः । " लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसमयनिर्वर्त्यमानचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितः प्रथमसमयनिर्वर्त्तित लोभ तृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिड्डावसंख्येयभागेन हीनं दलं ददाति, ततः परमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं तावद् ददाति यावत् प्रथमसमयकृत लोभतृतीयसंग्रहकिडिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । प्रथमसमयकृत लोभतृतीय संग्रह किडिचरमपूर्वऽवान्तरकिट्टितो द्वितीयसमयनिर्वर्त्यमानमायाप्रथम संग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिडौ दलमसंख्येयभागेनाऽधिकं ददाति । ततः परमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं तावद् ददाति यावद् द्वितीयसमयनिर्वर्त्यमान-मायाप्रथम संग्रह किट्टिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । उक्त' च कषायप्राभृतचूर्णी "तदो लोभस्स चरिमादो किट्टीदो मायाए जा विदियसमए जहण्णिया किट्टी, तिस्से दिज्जदि पदेसग्गं विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण, तदो पुणमणंतभागहोणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो ति । " मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसमय निर्वर्त्यमानचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितः प्रथमसमयकृतमायाप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेन हीनं दलं ददाति, ततः परमनन्तभागेन हीनं दलं तावद् ददाति यावत् प्रथमसमयकृत - मायाप्रथमसंग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । एवं मायामानक्रोधानां यथाक्रमं यत्र यत्र पूर्वाऽवान्तरकिट्टिसमनन्तरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः प्राप्यते, तत्र तत्र पूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दत्तदलतोऽसंख्येयभागेनाधिकं दलं ददाति । यत्र यत्र पुनरपूर्वावान्तरकिट्टिसमनन्तरं पूर्वाऽवान्तरकिट्टिः प्राप्यते, तत्र तत्राऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दत्तदलतोऽसंख्येयभागेन हीनं दलं ददाति । अन्यत्र सर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरविद्विषु क्रमेणाऽनन्तभागहीनं दलं ददाति । उक्त ं च कषायप्राभृतचूर्णौ - "एवं जम्हि जम्हि अपुव्वाणं जहण्णिया किट्टी, तम्हि तम्हि विसेसाहियमसंखेज दिभागेण, अपुव्वाणं चरिमादो असंखेज्जदिभागहीणं । Xxx सेसेसु किट्टिट्ठाणेसु अनंतभागहीणं दिज्जमाणगस्स पदे सग्गस्स ।" इति । एवं क्रमेण दलिकं निक्षिपन् द्वादशसु पूर्वाऽवान्तरकिट्टिस्थानेष्वसंख्येयभागेन हीनं दलं ददाति, अपूर्वावान्तरकिट्टयाः पूर्वाऽवान्तरकिट्टयाश्च द्वादशसन्धिदर्शनात् । एकादशसु चाऽपूर्वाऽवान्तरकिस्थानेष्वसंख्येयभागेनाधिकं दलं ददाति, पूर्वा ऽवान्तरकिट्टपूर्वा ऽवान्तरवििट्टयोरेकादशसन्धिदर्शनात् । उक्त' च कषायप्राभृतचूर्णी - "एदेण कमेण विदियसमए णिक्खिवमाणगस्स पदेसग्गस्स बारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जदिभागहीणं, एक्कारससु किहिडासु असंखेजदिभागुत्तरं दिज्ज माणगस्स पदेसग्गस्स” । इति । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... २०६] खबगसेढी [गाथा-१०३-१०४ __इत्थं द्वितीयसमये दीयममानदलस्य द्वादशस्थानेष्वसंख्येयभागहीनत्वाद् एकादशस्थानेषु राऽसंख्येयभागाधिकत्वात् तथा शेषेष्वनन्तस्थानेष्वनन्ततमभागेन न्यूनत्वाद् दीयमानदलस्यैप क्रम उष्ट्रकूटतुल्यो जातः । यथा उष्ट्रस्य पृष्ठं पश्चिमभाग उन्नतं भवति, ततः क्रमेण ईपनिम्नतया तिष्ठत् स्थानविशेषे प्रभूतनिम्नं भवति, ततः क्रमेणेषनिम्नतया तिष्ठत् पुनरुन्नतं भवति । ततः क्रमेणेषनिम्नतया तिष्ठति । तथैवाऽत्रापि लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानं दलं प्रभूतं भवति, ततोऽनन्तरानन्तरेणा-ऽनन्ततमभागेन हीनं भवद् अपूर्वावान्तरकिट्टयाः पूर्वाऽवान्तरकिट्टयाश्च सन्धौ सति लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेन हीनं भूत्वाऽधो गच्छति । ततः क्रमेणाऽनन्ततमभागेन हीनं भवत् पूर्वाऽवान्तरकिट्टया अपूर्वावान्तरकिट्टयाश्च सन्धौ सति लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयामसंख्येयभागाधिकं भूत्वोन्नतं भवति । ततः क्रमेणा-ऽनन्तभागेन हीनं भवति । तेन दीयमानदलमुष्ट्रकूटतुल्यं जातम् । उक्त च कषायप्राभतचूर्णी-विदियसमये दिजमाणयस्सपदेसग्गस्स एसा उद्दकूडसेढी।" इति । इहोष्ट्रकूटशब्देन सादृश्याद् निम्नोनतस्थानानि बोध्यानि, तानि च सर्वसंख्यया त्रयोविंशतिर्भवन्ति । तेन दीयमानदलस्य त्रयोविंशतिरुष्टकूटान्युपपद्यन्ते । न च कूटशब्दस्य शिखरवाचकत्वेनोष्ट्रकूटशब्देन सादृश्यात् केवलान्युनतस्थानानि कुतो न गृह्यन्ते ? इति वाच्यम्, यत उष्ट्रकूटशब्देन मादृश्यात् केवलेषूनतस्थानेषु गृहीतेषूष्टकूटान्येकादश स्युः, एकादशस्थानेष्वेवाऽसंख्येयभागाधिकदलिकप्रक्षेपात् । न च तदिष्टम्, कषायप्राभूतचूादौ त्रयोविंशत्युष्ट्रकूटानां प्रतिपादनात् । ननूष्टकूटशब्देन निम्नोनतस्थानेषु गृहीतेपूष्टकूटान्यनन्तानि स्युः, अनन्तावान्तरकिट्टिषु दीयमानदलस्यानन्तभागहीनत्वेन निम्नस्थानानामनन्तत्वादिति चेत्, न, यत इह यस्मिन् किट्टिस्थानेऽसंख्येयभागहीनं दलं दीयते, तनिम्नतया विवक्षितम् । यत्र त्वनन्तभागहीनं दीयते, तत् सदपि निम्नं निम्नतया न विवक्ष्यते, यथा-ऽनुदरा कन्या । यथा द्वितीयसमये दीयमानदलस्य क्रमो दर्शितः, तथैव किट्टिकरणाद्धायाः शेषसमयेष्वपि बोद्धव्यः, विशेषाभावात् । यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-“जहा विदियसमए किट्टीसु पदेसग्गं, तहा सव्विस्से किट्टीकरणडाए दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स तेवोसमुहकूडाणि ।” इति । इत्थं किट्टिकरणाद्धायां द्वितीयादिसमयेष्वपि दीयमानदलस्य त्रयोविंशतिरुष्टकूटानि भवन्ति । अथ किट्टिकरणाद्धाया द्वितीयादिसमयेषु दृश्यमानं दलं प्ररूपयति-'दोसई' इत्यादि, तत्र 'सव्वत्थ' ति सर्वत्र' सर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु 'अनन्तभागोनम्' अनन्ततमभागेन ऊन-हीनं 'दलिक' प्रदेशाग्रं दृश्यते, किट्टिकरणाद्धाया द्वितीयादिसमयेषु पूर्वापूर्वसर्वाऽवान्तरकिट्टिषु यथोत्तरं दृश्यमानं दलमनन्ततमभागेन हीयमानं भवदेकगोपुच्छाकारेण तिष्ठतीत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी- "दिस्समाणयं सव्वम्हि अणंतभागहोणं"। इति । अयं भावः -किट्टिकरणाद्धाया द्वितीयादिसमयेष्वपि संज्वलनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ] यन्त्रकम्-१६ (चित्रम्-१६) [ खवगसेढी किट्टिकरणाद्धाया द्वितीयसमये दीयमानदलस्योष्ट्रकूटप्ररूपणा सङ्केतस्पष्टीकरणम्क लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टौ प्रभूतं दलं दीयते । ख=लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयाद्यपूर्वावान्तरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण दलं दीयते । ग-लोभप्रथमसंग्रहकिद्रिप्रथमपूर्वावान्तरकिटौ लोभप्रथमसंग्रहकिटिचरमापूर्वावान्तरकिट्टितोऽसंख्येयभागहीनं दलं दीयते । तेनाऽत्र प्रथम उष्ट्रकूटो भवति । स च १ इत्यनेन सूचितः। घ-ततः परं लोभप्रथमसंप्रहकिट्टिद्विती पादिपूर्वावान्तरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण दलं दीयते। -लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टौ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावा न्तरकिट्टितोऽसंख्येयभागाधिक दलं दीयते । तेनाऽत्र द्वितीय उष्ट्रकूटो भवति । स च २ इत्यनेनाङ्कन सूचितः । इदृशाकार उष्ट्रों ‘गोबी' (Gobi) इत्याख्ये वने दृश्यते। D.DOLOGEECE ROOT १ किट्टिः ।। २ किट्टिः ॥ ३ किट्टि ।। १ किट्टिः ॥ २ किट्टिः ॥ ३ किट्टिः॥ १ किट्टिः ॥ २ किट्टिः ॥ ३ किट्टिः॥ १ किट्टिः ॥२ किट्टिः ॥ ३ किट्टिः ॥ सं य ल न लो भः ॥ सं ज्व ल न मा या ॥ सं ज्च ल न मा नः ॥ सं घ ल न क्रो धः ॥ संकेतस्पष्टीकरणम्-अद्वितीयसमये निर्वय॑माना अपूर्वावान्तरकिट्टयः । पू-पूर्वावान्तरकिट्टयः । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७] यन्त्रकम्-१६ (चित्रम्-१६) [खवगसेढी * अनेन चिह्नन अपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं सूचितम् ,तच्च लोभप्रथमसंग्रह कियाः प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टौ प्रभूतं भवति, द्वितीयापूर्वावान्तरकिट्टी विशेषहीनम , एवमुत्तरोत्तरापूर्वावान्तरकिट्टी विशेषहीनं विशेषहीनं भवति । • • •=अनेन चिह्न न पूर्वावान्तरकिट्टिषु पुरातनदलं सूचितम् ।। ००० अनेन चिह्नन पूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं सूचितम, तत्र लोभप्रथमसंग्रह किट्टयाश्वरमापूर्वावान्तरकिट्टौ यद् दलं दीयते, ततोऽसंख्येयभागेन हीनं लोभप्रथमसंग्रह किट्टयाः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी दीयते, तत्र ( • • • ) अनेन चिह्नन सूचितस्य पुरातनदलस्य सत्त्वात् । इह दीयमानदलस्य प्रथम उनकूटः (१), तत उत्तरोत्तरपूर्वावान्तरकिट्टी विशेषहीनक्रमेण दलं तावद् दीयते, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिटिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयभागाधिकं दीयते, अत्र दीयमानदलस्य द्वितीय उष्ट्रकूटः, (२) ततो विशेषहीनक्रमेण दीयते । एवंक्रमेण द्वादशसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिषु दलिके प्रक्षिप्ते एकादशस्थानेष्वसंख्येयभागाविक दीयमानं दलं भवति, एकादशस्थानानि च २, ४, ६, इत्यादियुग्माङ्क र्दशितानि, द्वादशस्थानेषु चाऽसंख्येयभागहीनं दीयमानं दलं भवात । द्वादशस्थानानि च १, ३, ५, इत्याद्योजोऽङ्कः सूचितानि । अनया रीत्या दीयमानदलस्य त्रयोविंशतिरुष्ट्रकूटा भवन्ति । शेषस्थानेषु विशेषहीनक्रमेण दलं दीयते । चित्रेऽनेकान उष्ट्रान् परिकल्प्य २३ उष्ट्रकूटा दर्शिताः, विशेषहानिश्च • • • अनेन चिह्नन सूचिता। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या द्वितीयादिसमयेषु दलनिक्षेपः ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २०७ sarन्तरकि मानं दलं प्रभूतं भवति, ततोऽनन्तभागेन हीनं संज्वलनलोभप्रथम संग्रह किट्टि - द्वितीयावान्तरकिट्टौ दृश्यमानं दलं विद्यते । एवमनन्तरानन्तरेण तावद् वक्तव्यम्, यावत् संज्वलनक्रोधतृतीय संग्रह किडिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । न चा- ऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु यावद् दलं दीयते, तावदेव दृश्यमानं भवति । पूर्वाऽवान्तरविट्टिषु पुनर्दीयमानदल- पुरातनसत्तागतदलयोः समुदायो दृश्यमानं दलं भवति । तेन चरमाऽपूर्वाऽवान्तरविट्टितः प्रथमपूर्वाऽवान्तरविट्टौ दृश्यमानं दलमधिकं कुतो न भवति इति चेत्, उच्यते - एतत् समीचीनम् । किन्तु प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं पुरातनसत्तागतं दलं तथा चरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दीयमानदलतोऽसंख्येयभागेन हीनं तस्यां दीयमानं दलमित्येतयोः समुदायस्य चरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दीयमानदलतोऽनन्तभागहीनत्वाच्चरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितः प्रथमपूर्वा ऽवान्तरकिद्वावनन्तभागेन हीनं दलं दृश्यते । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् - १६ । -: अथ गणितविभागः : अथोपर्यार्थी गणितानुसारेण स्फुटीक्रियते — प्रथमसमये यावतों दलिकस्यावान्तरकिट्टीः करोति, द्वितीयसमये ततोऽसंख्येयगुणं दलं गृहीत्वाऽभिनवा अवान्तरकिट्टीः कुर्वन् पूर्वाऽवान्तरकिट्टीरपि पुष्णाति, पूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वपि दलिकं ददातीत्यर्थः । तत्र द्वितीयसमये किट्टितया परिणमनाय गृहीतसर्वदलं विभागचतुष्टये विभक्तव्यम् । तद्यथा - (१) अधस्तनशीर्षचयदलम्, (२) अधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलम्, (३) उभयचयदलम्, (४) मध्यमखण्डदलं चेति । (१) अधस्तनशीर्षचयदलम् - किट्टिकरणाद्वाप्रथमसमयकृतायां सर्वजघन्याऽनुभागका - ऽवान्तरकिट्टौ दलं प्रभूतं विद्यते, ततो द्वितीयाऽवान्तरकिडौ विशेषहीनं विद्यते, ततोऽपि तृतीया - वान्तरकि विशेषहीनम्, एवंक्रमेण तावद् विद्यते, यावच्चरमाऽवान्तरकिट्टिः । अथ द्वितीयसमये किट्टितया परिणमनाथ गृहीतदलिकतो दलमादाय तेन क्रमेण प्रथमसमयकृद्वितीयाद्यवान्तरकिवयः पूरयितत्र्याः, येन सर्वा अप्यवान्तरकिट्टयः प्रदेशाग्रमाश्रित्य प्रथमसमयकृतप्रथमाऽवान्तर किट्टिसदृशा भवेयुः । प्रथमसमयकृतद्वितीयाद्यवान्तरकिट्टीनां समीकरणार्थं यावद् दलमपेक्ष्यते तावद् दलमधस्तनशीर्षचयदलमुच्यते । नन्वधस्तनशीर्षचयदलं कुतः कल्प्यते ? इति चेत्, उच्यते - द्वितीयसमय एकैकस्यामवान्तरकिद्वावभिनवश्चय इष्यते, एकैका - वान्तरकिट्ट प्रथमसमयतो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणदलिकस्य प्रक्षेपात् । स च प्रथमसमयकृतद्वितीयावान्तरकट्टिषु प्रथमसमयकृत प्रथमाऽवान्तरकिट्टिसदृशासु कृतास्वेव सुज्ञो भवतीति हेतोः प्रदेशानाश्रित्य प्रथमसमयकृतद्वितीयाद्यवान्तरकिट्टयः प्रथमसमयकृतप्रथमाऽवान्तरकिट्टितुल्याः क्रियन्ते । तदेवमधस्तनशीर्षचयदलस्य कल्पना सार्थका । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] खवगसेढी [ गाथा-१०३-१०४ (२) अधस्तनाऽवान्तरकिटिदलम्-प्रथमसमयकृतद्वितीयाद्यवान्तरकिट्टिष्वधस्तनशीर्षचयदले प्रक्षिप्ते प्रथमसमयकृताः सर्वा अवान्तरकिट्टयस्तुल्यप्रदेशका भवन्ति । प्रदेशापेक्षया तत्सदृशाः प्रथमसमयकृताऽवान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमिता अपूर्वाऽवान्तरकिट्टयः प्रथमसमयकृततत्तत्संग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टया अधस्तात् स्थापयितव्याः । स्थापितायामेकैकस्यामवान्तरकिट्टौ यद्दलं भवति, तदधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलमुच्यते । तच्च सकलमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिगुणितप्रथमसमयकृतप्रथमावान्तरकिट्टिगतदलप्रमाणं भवति । (३) उभयचयदलम्-अधस्तनशीर्षचयदलिकेऽधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलिके च प्रक्षिप्ते सर्वाः पूर्वाऽपूर्वा अवान्तरकिट्टयः समानदलिका जायन्ते । तासां दलिकं गोपुच्छाकारं कर्तु चरमाऽवान्तरकिट्टयामेकचयमात्रं दलं प्रक्षिपति, द्विचरमाऽवान्तरकिट्टी द्वौ चयौ, त्रिचरमाऽवान्तरकिट्टी त्रींश्चयान् प्रक्षिपति, एवंक्रमेण द्वितीयसमयनिर्वय॑मानप्रथमापूर्वाऽवान्तरकिट्टौ पूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । एकचयमितं दलमुभयचयदलमुच्यते, पूर्वापूर्वसूभयास्ववान्तरकिट्टिषु प्रक्षिप्यमाणत्वात् । सर्वाऽवान्तरकिट्टिषु निक्षिप्तानां सर्वचयानां दलं सर्वोभयचयदलं भवति । न चोभयचयः कुतः कल्प्यते ? इति वाच्यम्, यतः सर्वाः पूर्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टयः प्रदेशापेक्षया सत्कर्मणि समाना न विद्यन्ते, किन्तु गोपुच्छाकारेण, पूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु दृश्यमानदलस्य गोपुच्छाकारेण प्रतिपादित्वात् । किञ्च किट्टिकरणाद्धायाः प्रथमसमयेऽवान्तरकिट्टिषु यश्चय आसीत्, द्वितीयसमये स एव न भवति, किन्त्वसंख्येयगुणो भवति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-प्रथमसमयकृताऽवान्तरकिट्टिषु यद् दलमासीत्, तत् तथा रचितमासीत् यथाऽवान्तरकिट्टय एकद्विगुहानिस्थानमात्रा अभविष्यंश्चेत्, प्रथमाऽवान्तरकिट्टित एकद्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु दलिकमर्धमभविष्यत् । अत्र च द्वितीयसमये प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशकाऽवान्तरकिट्टितोऽसंख्येयगुणं दलमपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ ददाति, वक्ष्यमाणैकमध्यमखण्डस्यैकाऽधस्तनाऽवावान्तरकिट्टिदलतोऽसंख्येयगुणत्वात् । अभिनवावान्तरकिट्टयस्तु पूर्वसमयतोऽसंख्येयभागमात्रा एव निर्वय॑न्ते, तासु चदलिकनिक्षेपं तथा करोति, यथैकद्विगुणहानिस्थानमात्राः किट्टयो-ऽभविष्यंश्चेत्, द्वितीयसमयनिर्वय॑मानप्रथमावान्तरकिट्टित एकद्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु दलमर्धमभविष्यत् । एवं प्रथमसमयतो द्वितीयसमययेकैकापूर्वावान्तरकिट्टौ निक्षिप्यमाणदलस्याऽसंख्येयगुणत्वाद् द्वितीयसमये चयोऽसंख्येयगुणो भवेत् , अन्यथा प्रथमसमये यावांश्चय आसीत्, तावानेव चयो द्वितीयसमयेऽपि भवेत्, तकद्विगुणहानिस्थानानि पूर्वसमयापेक्षयाऽसंख्येयगुणानि कल्पयितव्यानि। तच्च नेष्टम्, एकद्विगुणहानिस्थानानां नैयत्यात् । एवं प्रथमसमयतो द्वितीयसमये चयस्याऽसंख्येयगुणत्वादुभयचयः कल्प्यते । तत्र क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावेकमुभयचयम्, द्विचरमाऽवान्तरकिट्टौ द्वा उभयचयौ, त्रिचरमाऽवान्तरकिट्टौ त्रीनुभयचयान् प्रक्षिपति, एवमेकोत्तर Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या दीयमानदलिकानि ] कट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २०९ वृद्धया तावत् प्रक्षिपति यावद् लोभप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । तेन लोभप्रथमसंग्रह किडिप्रथमाऽपूर्वान्तरकिड्डी सर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् प्रक्षिपति । मध्यमखण्डदलम् - द्वितीयसमये किट्टितया परिणमनाथ गृहीतदलत उपर्युक्तदलत्रयं विशोध्याऽवशिष्टदले पूर्वा पूर्वाऽवाऽन्तरकिट्टिराशिना विभक्त लब्ध एकभागो मध्यमखण्डमुच्यते । तच्चैकैकस्यां पूर्वावान्तरकिट्ट्यामपूर्वावान्तरकिडौ च दीयते । सर्वासामवान्तरकिट्टीनां मध्यमखण्डदलं सर्वमध्यमखण्डदलमुच्यते । ननूपर्युक्तदलत्रयस्य प्रक्षेपादेव सर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकं गोपुच्छाकारेण जातम्, तर्हि मध्यमखण्डं कुतः परिकल्प्यते ? इति चेत्, शृणुत प्रथम समयकृताऽवान्तरकिड्डीनामसंख्येयभागमिता एव द्वितीयसमयेऽपूर्वा अवान्तरकिट्टयो निर्वर्त्यन्ते, दलिकं च किट्टितया परिणमनाथ प्रथमसमयतोऽसंख्येव गुणं गृह्यते । उपर्युक्तविभागत्रये च यद् दलं दत्तम्, तत् किट्टितया परिणमनाथ गृहीत दलिकस्याऽसंख्येयभागकल्पं भवति, अधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलवर्जशेषदलिकस्याऽनन्ततमभागमात्रत्वे सत्यधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलिकस्याऽसंख्येय भागप्रमाणत्वात् । किट्टितया परिणमनाय गृहीत सकलदलत उपर्युक्तदलत्रयं विशोध्य शेषं दलं तथा दातव्यम्, यथा गोपुच्छाकारेण रचितदलं न व्याहन्येत । अतः शेषदलं पूर्वा पूर्वाऽवान्तराकेद्विराशिना खण्डयते, खण्डने च कृते प्राप्यमागमेकखण्डं मध्यमखण्डमुच्यते । तच्चैकैकावान्तरकिट्टी दीयते । अथोपर्युक्तदलिकचतुष्टयस्याऽल्पबहुत्वमभिधोयते - (१) सर्वाधस्तन शीर्षचयदलं सर्वस्तोकम्, उपरितनपदानां प्रभूतत्वात् । ( २ ) ततोऽसंख्येयगुणं सर्वोभयचयदलम् । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते - प्रथमसमयेऽवान्तरकिट्टिषु यावद् दलिकमासीत्, ततोऽसंख्येयगुणं दलिकमवान्तरकट्टिषु द्वितीयसमये भवति । चयस्य च सत्तागतदलिकानुसारित्वात् प्रदेशापेक्षया पौर्वसमधिकचयत इदानीन्तनचयोऽसंख्येयगुणो जायते । तेन सर्वावस्तनशीर्षचयदलतः सर्वोभयचयदलमसंख्येयगुणं भवति । (३) ततः सर्वाऽधस्तनावान्तरकिट्टिदलिकमनन्तगुणं भवति । कथम् ? इति चेत्, उच्यते - एकस्यामेव प्रथमसमयकृताऽवान्तरकिड्डौ दलं सर्वाऽधस्तनशीर्षचयदलतोऽनन्तगुणं भवति, प्रथमसमयकृतप्रथमावान्तरकिडावेकद्विगुणहानिमात्र चयानां सद्भावात् सर्वाधरतनशीर्षचयानां चैकद्विगुणहान्यनन्ततमभागप्रमाणत्वात् । तथा सर्वाऽधस्तनशीर्षचयदलतः सर्वोभयचयदलं केवलमसंख्येवगुणं भवति । तेन सर्वोभयचयदलतोऽपि प्रथमसमयकृतै कावान्तरकिट्टिदलमनन्तगुणं भवति । एकाऽधस्तनावान्तरकिट्टिदलं च प्रथमसमयकृतप्रथमावान्तरकिट्टि प्रदेशमात्रं भवति । तेनैकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलमपि सर्वेभयचयदलतोऽनन्तगुणं भवति । तथैका स्तनावान्तरकिट्टिदलिकस्य सर्वोभयचयदलतो ऽनन्तगुणत्वात् सर्वाऽधस्तनावान्तरकिदिलिकं सर्वोभयचयदलतोऽनन्तगुणं सुतरां सिध्यति । ( ४ ) ततोऽपि सर्वमध्यमखण्डदलमसंख्येयगुणं भवति । कथमेतदवबुध्यते ? इति चेत्, शृणुत - पूर्वोक्तदलिकत्रि के प्रदत्ते सत्यवशिष्यमाणं दलं किट्टितया परिण Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी २१० ] [गाथा-१०३-१०४ मनाय गृहीतदलस्य बह्वसंख्येयभागकल्पं भवति, विभागत्रयेऽसंख्येयभागमात्रस्यैव दलिकस्य प्रक्षिप्तत्वात् । अतः सर्वाऽधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलतोऽसंख्येयगुणं सर्वमध्यमखण्डदलं भवति । (१) अधस्तनशीर्षचयदलस्य गणनविधिः-प्रथमसमयकृतप्रथमाऽवान्तरकिट्टावधस्तनशीर्षचयदलं नददाति । प्रथमसमयकृतद्वितीयावान्तरकिट्टयामेकमवस्तनशीर्षचयं प्रक्षिपति । प्रथमसमयकृततृतीयाऽवान्तरकिट्टी द्वावधस्तनशीर्षचयो प्रक्षिपति, चतुर्थाऽवान्तरकिट्टौ त्रीनधस्तनशीर्षचयान् प्रक्षिपति, एवंक्रमेण प्रथमसमयकृतचरमाऽवान्तरकिट्टावेकोनावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । अथ प्रक्षिप्यमाणाः सर्वाधस्तनशीर्षचयाः “सैकपदन्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल संकलिताख्या।” इति श्रीभास्कराचार्योक्तकरणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । पदं चात्रैकोनप्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टिराशिर्बोध्यम् । ततः प्रथमसमयकृतावान्तरकिट्टिसत्कैकचयगतदले सर्वाधस्तनशीर्षचयैर्गुणिते सर्वाधस्तनशीर्षचयदलं प्राप्यते । न्यासः-सर्वाधस्तनशीर्षचयदलम् = सर्वाधिस्तनशीर्षचयाः - प्रथमसमयकृतकिट्टिसकैफचयदलम् (२) अधस्तनाऽवान्तरकिटिदलगणनविधिः-अपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिना प्रथमसमयकृतप्रथमाऽवान्तरकिट्टिगतदले गुणिते सर्वाऽधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलं प्राप्यते । न्यासः-अधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलम् अपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिः ४ प्रथमसमयकृतप्रथमाऽवान्तरकिट्टिदलम् (३) उभयचयदलगणनविधिः-समयद्विकेन किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलं पदेन विभज्यते, तदा लब्धिमध्यमदलं भवति । मध्यमदलं चा/कृतकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां भज्यते, तदैकोभयचयदलं प्राप्यते । पदं चात्र प्रथमसमय-द्वितीयसमयकृताऽवान्तरकिट्टिराशिवक्तव्यम् । न्यास:-मध्यमदल - समयद्विकेन किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलम पदम् मध्यमदलम् एकोभयचयदलम् द्वे द्विगुणहानी--पदम्-१ अथ चरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेक उभयचयो दीयते, विचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टी द्वा उभयचयो दीयेते, त्रिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टी त्रय उभयचया दीयन्ते, एवंक्रमेण द्वितीयसमयनिर्वय॑मानप्रथमावान्तरकिट्टौ सर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते । ते च सर्वे "सैकपदन्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या।” इत्यनेन करणेन सङ्कलयितव्याः । पदं चात्र सर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । न्यासः-सर्वोभयचयाः (पदम्+१) पदम् Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या किट्टषु दीयमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः एकोभयचयदलं सर्वोभयचयैगुण्यते, तदा सर्वोभयचयदलं प्राप्यते न्यासः -- सर्वोभयचयदलम् = (पदम् + १ ) x- पदम् -x एकोभयचयदलम् २ (४) अथ मध्यमखण्डदलगणनविधिः – द्वितीयसमये किट्टितया परिणमनाय गृहीतदलतो-ऽधस्तनशीर्षचयादिदलत्रयं विशोध्य शेषं दलं सर्वमध्यमखण्डदलं भवति । तच्च सर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकमध्यमखण्डं प्राप्यते । [ २११ अपूर्वा ऽवान्तर कट्टिषु दीयमानं दलम् - सर्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वेकैकं मध्यमखण्डमेकैकं चाऽधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलं च दीयते । उभयचयास्तु विषमा दीयन्ते । तथाहि -लोभप्रथमापूर्वाऽवान्तरकिड सर्वपूर्वापूर्वावान्तर किट्टिराशिप्रमाणा उभयचया दीयन्ते । द्वितीयाऽपूर्वावान्तरकिद्वावेको सर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचया दीयन्ते । एवं लोभप्रथमसंग्रह किट्टि - प्रथमापूर्वावान्तरकियपेक्षया विवक्षिताऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितिसंख्याका किट्टिर्भवति, एकोनतत्संख्यान्यून सर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयदलचयास्तस्यामपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दीयन्ते, अधस्तनशीर्षचयदलं त्वपूर्वावान्तरकिट्टौ न दीयते । पूर्वावान्तर किट्टिषु दीयमानं दलम् - सर्वपूर्वाऽवान्तरविद्विष्वेकैकं मध्यमखण्डं दीयते । तथा लोभप्रथम संग्रहकट्टप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयपेक्षया यतिसंख्याका विवक्षित पूर्वाऽवान्तरकिट्टिीर्भवति, एकोनतत्संख्यान्यूनसर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचयाः, तथा प्रथमपूर्वावान्तरकिट्ट्यपेक्षया यतिसंख्याका विवक्षित पूर्वाऽवान्तरकिट्टिर्भवति, एकोनतत्संख्यामिता अधस्तन शीर्षचयास्तस्यां पूर्वाऽवान्तरकिट्टी दीयन्ते । एवं प्रथमापूर्वाऽवान्तर किट्टावधस्तनशीर्षचयदलं न ददाति, तथा सर्वासु पूर्वावान्तर कट्टिष्वधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलं न ददाति । दृश्यमानदलम्- अपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ यावद्दीयमानं दलं भवति, तावदेव दृश्यमानं भवति, पुरातनदलसत्कर्माभावात् । पूर्वाऽवान्तरकिट्ट पुनर्दीयमानं दलं पुरातनसतागतदलं चेत्येतयोः समुदायो दृश्यमानं दलं भवति । अधाधस्तनशीर्षचयदलादोनवलम्ब्य दीयमानं दलं विमृश्यते - लोभस्य प्रथमसंग्रह किट्टि प्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिडावेकमध्यमखण्डमेका धस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलं सर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिविराशिप्रमाणाश्वोभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते । लोभप्रथमसंग्रह किट्टिद्वितीयाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ पुनरेकमध्यमखण्डमेकाऽधस्तनावान्तरकिट्टिदलम्, एकोनसर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाश्चोभयचया निक्षिप्यन्ते । ततस्तृतीयाऽपूर्वाSवान्तरकिट्टौ द्वय नसर्वपूर्वा पूर्वाऽवान्तरकिद्विराशिप्रमाणा उभयचया एकमध्यमखण्डमेकाध स्तनाऽवान्तरकिट्टिदलं च निक्षिप्यन्ते, एवमनन्तरानन्तरेण लोभप्रथम संग्रह किट्टितृतीयायपूर्वाऽवान्तर Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] खवगसेढी [ गाथा--१०३--१०४ किट्टिष्वेकैकेन न्यूना उभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते । एकोभयचयदलस्यैकाऽवान्तरकिट्टिगतदलानन्तभागमात्रत्वाल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिपर्यवसानास्वपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं पूर्वपूर्वतोऽनन्ततमभागेन हीनं भवति । ___ ततः परं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेकमध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वाञ्वान्तरकिट्टिराशिमिताश्चोभयचया दीयन्ते, अधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलमधस्तनशीर्षचयदलं च तस्यां न दीयते । इत्थं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोमप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टी दीयमानं दलमेकाधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलेनैकेन चोभयचयेन हीनं भवति । तत्रैकाधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलमसंख्येयभागप्रमितं भवति, एकमध्यमखण्डदलस्यैकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलतोऽसंख्येयगुणत्वात् । एकोभयचयगतदलं च लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमान सकलदलस्याऽनन्ततमभागप्रमाणं भवति । तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दत्तदलतोऽसंख्येयभागेनाऽनन्ततमभागेन च हीनं दलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दीयते, अनन्ततमभागस्य चा-संख्येयभागेऽन्तर्गतत्वाद् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेन हीनं दलं दीयते । __ततः परं लोभप्रथमसंग्रह किट्टिद्वितीयपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेकमध्यमखण्डमेकाधिकलोभप्रथमसंग्रहकिट्टयपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिन्यून-सर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचया एकाधस्तनशीर्षचयदलं च दीयन्ते । अत्र लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टित एकोभयचयेन हीनमेकाधस्तनशीर्षचयेन चाऽधिकं दीयमानं दलं जातम् । तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेकाधस्तनशीर्षचयगतदलन्यूनोभयचयेन हीनं दलं दीयते । उभयचयगतदलस्य लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्ववान्तरकिट्टी दत्तदलानन्ततमभागमात्रत्वादेकाधस्तनशीर्षचयन्यूनोभयदलचयगतदलमप्यनन्ततमभागमात्रं भवति । इत्थं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वाऽवान्तरकिट्टावनन्तभागेन हीनं दीयमानं दलं भवति । एवमनन्तरानन्तरेण तावद् वक्तव्यम्, यावद् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः। तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेकमध्यमखण्डमेकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचया एकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाचाऽधस्तनशीर्षचयाः प्रक्षिप्यन्ते । __इदन्त्ववधेयम्-यद्यप्युत्तरोत्तराऽपूर्वावान्तरकिट्टावुत्तरोत्तरपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ चाऽनन्ततमभागेन हीनं दलं दीयते, तथाप्यपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु हीयमानोऽनन्ततमभाग उभयचयप्रमाणो भवति, पूर्वाऽवान्तरकिट्टियु तु हीयमानोऽनन्ततमभाग एकाऽधस्तनशीर्षचयन्यूनोभयचयमात्रो भवति । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या किट्टिषु दीयमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २१३ लोभस्य प्रथमसंग्रहकिटौ दीयमानदलं विमृश्य लोभद्वितीयसंग्रहकिटौ दीयमानं दलं चिन्त्यते-लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयामेकमध्यमखण्डमेकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाथोभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते । इत्थंलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितोद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेकोभयचयेनैकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमिताऽधस्तनशीपंचयैश्च हीनमेकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलेन पुनरधिकं दलं दीयते । अत्रोभयचयगतदलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टौ दत्तदलस्याऽनन्ततमभागमानं भवति । तथैव चरमपूर्वावान्तरकिट्टौ दत्ताऽधस्तनशीर्षचयगतदलमप्यनन्ततमभागमात्रं भवति । तथोभयोः कलापोऽप्यनन्ततमभागमात्रमेव भवति । अधस्तनावान्तरकिट्टिदलं त्वसंख्येयभागमानं भवति, अधस्तनावान्तरकिट्टिदलतो दीयमानमध्यमखण्डदलस्याऽसंख्येयगुणत्वात् । तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दत्तदलतो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेनाधिकमनन्ततमभागेन च हीनं दलं दीयते, अनन्ततमभागस्य स्वल्पत्वेन तस्मिन् व्यवकलितेऽपि लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमा पूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयभागेनाधिकं दलं दीयते। लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयापूर्वावान्तरकिट्टावेकमध्यमखण्डमेकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलमेकाधिकलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वकिट्टिराशिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाश्चोभयचयाःप्रक्षिप्यन्ते । तेन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टावेकोभयचयेन हीनं दलं दीयते । एकोभयचयदलस्य चाऽनन्तरपूर्ववर्त्यवान्तरकिट्टी दत्तदला- . ऽनन्ततमभागमात्रत्वादनन्तरपूर्ववर्त्यवान्तरकिट्टी दत्तदलतो-ऽनन्ततमभागेन हीनं दलं दीयते । एवमनन्तरानन्तरेण तावद् वक्तव्यम्, यावद् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । ततः परं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टयां लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाधस्तनशीर्षचयन्यूनैकोभयचयाधिककाधस्तनावान्तरकिट्टिदलमात्रगाऽसंख्येयभागेन हीनं दीयते, यतो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टयामेकमध्यमखण्डमेकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टयपूवाघान्तरकिट्टिराशिविरहितसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयांश्च प्रक्षिपति स्म, लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टयां त्वेकं मध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टयपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाधस्तनशीर्षचयांश्च निक्षिपति । ततः परं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिटिवदनन्तरानन्तरेणैका-ऽधस्तनशीर्षचयन्यूनैको Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] खवगसेढी [गाथा--१०३-१०४ भयचयमात्रेणाऽनन्ततमभागेन हीनं दलं तावद् दीयते, यावद् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः। ___ ततः परं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयां लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टित एकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाधस्तनशीर्षचययुक्तकोभयचयदलन्यूनैकाधस्तनाऽवान्तरकिट्टिदलमात्रेणाऽसंख्येयभागेनाधिकं दलं दीयते । यतो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टयामेकंमध्यमखण्डमेकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान एकन्यूनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयांश्च प्रक्षिपति स्म, तृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टी त्वेकं मध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयांस्तथैकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलं प्रक्षिपति । ततः परं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयपूर्वावान्तरकिट्टिवदुत्तरोत्तरावान्तरकिट्टयामेकोभयचयप्रमाणेनाऽनन्ततमभागेन हीनं प्रदेशाग्र तावद् दीयते, यावद् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टिः । ततः परं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टयां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाऽधस्तनशीर्षचयन्यूनैकोभयचयाधिकैकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलप्रमाणेनाऽसंख्येयभागेन हीनं दलिकं प्रक्षिप्यते, यतो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टयामेकं मध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराश्येकोनलोभतृतीयसंग्रहकिट्टयार्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनस वान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयानेकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलं चादात् , लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी त्वेकं मध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिलोभतृतीयसंग्रहकिट्टयपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिमात्राधस्तनशीर्षचयाँश्व प्रक्षिपति । ___ततः परं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिवदुत्तरोत्तरावान्तरकिट्टयामधस्तनशीर्षचयन्यूनो। भयचयप्रमाणेना-ऽनन्ततमभागेन हीनं दलिकं तावद् ददाति, यावद् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः। अनयैव रीत्या माया-मान-क्रोधानां संग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिषु दीयमानदलस्य क्रमो वाच्यः । इदमत्रावधेयम्- यथा लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयामपूर्वावान्तरकिट्टयाः पूर्वावान्तरकिट्टयाश्च सन्धौ सति चरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टयां दलिकमुभयचयाधिकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलप्रमाणेनाऽसंख्येयभागेन हीनं दीयते, न तथा शेषास्वेकादशसंग्रहकिट्टिषु, किन्तु किञ्चिन्न्यूनकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलप्रमाणेना-ऽसंख्येयभागेन हीनं दीयते, तत्र प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टयामधस्तनशीर्षचयानामपि प्रक्षेपात् । तथा सर्वत्र पूर्वावान्तरकिट्टया अपूर्वावान्तरकिट्टयाश्च सन्धौ सति पूर्ववर्तिसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टित उत्तरवर्तिसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयां दलं Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या किट्टषु दृश्यमानद्लम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २१५ किञ्चिन्न्यूनैकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलप्रमाणेनाऽसंख्येयभागेनाधिकं दीयते । शेषास्वनन्तासु पूर्वावान्तरकट्टिषु यथोत्तरमेकाधस्तनशीर्षचयन्यूनोभयचयमात्रेणाऽनन्तभागेनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु च यथोत्तरमुभयचयप्रमाणेनाऽनन्ततमभागेन न्यूनं दलिकं दीयते । तथाऽपूर्वावान्तरकिया: पूर्वावान्तरकिट्टयाश्च सन्धिस्थानानि द्वादश, पूर्वावान्तरकिट्ट्यपूर्वावान्तरकिट्टयोश्च सन्धिस्थानान्येकादश भवन्ति । तेन दीयमानद लिकमाश्रित्यासंख्येय भागहानिस्थानानि द्वादश, असंख्येयभागवृद्धि स्थानानि चैकादश भवन्ति । तथा दीयमानदलिकापेक्षयाऽनन्तभागहानिस्थानान्यनन्तानि भवन्ति, पूर्वा पूर्वावान्तरकिट्टीनामनन्तत्वात् । अथाऽधस्तन शीर्षचयादिदलिकमाश्रित्य पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दृश्यमानं दलं दश्यते—अपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु दृश्यमानं दलं दीयमानदलतो नाऽतिरिणक्ति । तेन दीयमा नदलवल्लोभप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टप्रभृतिलोभप्रथम संग्रह किडिचर माऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टि पर्यवसानास्व पूर्वाऽवान्तरकिट्टिध्वनन्तरानन्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं दृश्यमानं दलं भवति । लोभप्रथमसंग्रहकिडिचरमाऽपूर्वाऽवान्तरविट्टितो लोभप्रथम संग्रह किद्विप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिड्डावपि दृश्यमानं दलमनन्ततमभागेन हीनं भवति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, शृणुत - लोभप्रथमसंग्रह किडिचरमापूर्वावान्तर किडावेकमध्यमखण्डमेकोनलोभप्रथमसंग्रह कियपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूसर्वावान्तरविद्विराशिप्रमाणा उभपच्या एकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलं चेत्येतेषां त्रातं दीयमानं दलं भवति, तदेव च दृश्यमानं दलं भवति । लोभप्रथमसंग्रह किट्टि प्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ त्वेकमध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्ट्यपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिन्यून सर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिमात्राच उभयचया दीयन्ते, पुरातनसत्तागतं पुनर्दल मे काऽधस्तनाऽवान्तर किट्टिदलप्रमाणं विद्यते । तेन दृश्यमानं दलं लोभप्रथम संग्रहवि.ट्टिचर माऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रह किट्टि प्रथमपूर्वाऽवान्तर किट्टावेकोभयचयेन हीनं भवति, अधस्तनावान्तरकिङ्किदलस्थाने पुरातनसत्तागतदलस्य भावात् । एकोभयचयस्य चाऽनन्ततमभागप्रमाणत्वादनन्ततमभागेन हीनं दृश्यमानं दलं जायते । लोभप्रथमसंग्रहद्वितीयपूर्वावान्तरकिडावेकमध्यम खण्डमेकाधिकलोभप्रथमसंग्रहकट्टपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यून सर्वावान्तरकिद्विराशिप्रमाणा उभयचया एकाधस्तनशीर्षचयदलं चेत्येतद् दीयमानदलं भवति । अथ निरुक्तावान्तरकिट्ट पुरातनसत्तागतदलस्यैकाऽधस्तन शीर्षचयदलन्यूनाऽधस्तनावान्तरकिट्टिदलमात्रत्वात् पुरातन सत्तागतदलं दीयमानदलं चेत्येतयोः समुदायो दृश्यमानदलमेकमध्यमखण्डमेकाधिकलोभप्रथम संग्रह किट्ट्यपूर्वाऽवान्तरविद्विराशिन्यून सर्वावान्तरकिद्विराशिमात्रा उभयचया एकाधस्तन शीर्षचयदल - पुरातन सत्तागतदलयोः कलापोऽधस्तनावान्तरकिट्टिदलप्रमाणश्वेत्येतेषां समुदायो भवति । तेन लोभप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रह किट्टि द्वितीय पूर्वाऽवान्तर किट्टौ दृश्यमानं दलमेकोभयचयेन हीनं तिष्ठति । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] खवगसेढी -१०३-१०४ न्यासः सङ्केतसूचिः(१) एकमध्यमखण्डम् =म (५) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वाधान्तरकिट्टिराशिः पू (२) एकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलम् =अ (६) उभयचयाः उ (३) सर्वावान्तरकिट्टिराशिः =स (७) अधस्तनशीर्षचयाः =अध (४) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयपूर्वावान्तरकिट्टिराशिः =अपू (८) पुरातनसत्तागतदलम् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टौ दृश्यमानं दलम् = म + २ स-(अपू-१) उ+ अ = म + स–अपू + १ उ+ अ लोभप्रथमसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टयां दृश्यमानं दलम् = म + (स-अपू) उ + पु = म + (स-अपू) उ +अ :: प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतपुरातनदलमधस्तनावान्तरकिट्टिदलतुल्यम् .:. लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमापूर्वावान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दृश्यमानं दलमेकोभयचयेन हीनं तिष्ठति । तथा लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वाधान्तरकिट्टौ दृश्यमानं दलम् =म+ स—(अपू+१) उ+१अध+पु =म+ स–अपू-१ । उ+ अ :: पुरातनसत्तागतदलमेकाधस्तनशीर्षचयेन न्यूनमधस्तनावान्तरकिट्टि दलप्रमाणम् .:. लोभप्रथमसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वाधान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टयां दृश्यमानं दलमुभयचयेन हीनं भवति ततः परमुत्तरोतरावान्तरकिट्टौ दृश्यमानं दलमेकोभयचयेन हीनं तावद् वक्तव्यम् , यावद् लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । इह यद्यपि पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरावान्तरकिट्टौ दीयमानदलमेकाधस्तनशीर्षचयन्यूनैकोभयचयेन हीनं भवति, तथाप्युत्तरोत्तरावान्तरकिट्टयामेकोभयचयेन हीनं दलं दृश्यमानं भवति, पूर्वसमयकृतास्ववान्तरकिट्टिषु यथोत्तरं पुरातनसत्तागतदलस्यैकैकाधस्तनशीर्षचयेन हीनत्वात् । ___ न्यासः- सङ्केतसूचिः पूर्ववद् बोध्या। प्राक्तनपूर्वावान्तरकिट्टितो निक्षेपमाश्रित्योत्तरपूर्वावान्तरकिट्टौ हीयमानं दलम् = १उ-१अध , , किट्टतः पुरातनसत्तामाश्रित्योत्तरपूर्वावान्तरकिट्टौ ,, = १अध .:. , , किट्टित उत्तरोत्तरपूर्वावान्तरकिट्टी हीयमानं दलम् =१अध+१उ--१अध =१उ __अथ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयां दृश्यमानं दलमेकोभयचयेन हीनं भवति । कथम् ? इति चेत् , उच्यते-लोभप्रथमसंग्रहकिटिचरमपूर्वावान्तरकियामेकमध्यमखण्डमेकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिाशिन्यूनसर्वावान्तरकिट्टिराशिमात्रा उभयचया एकोनलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिमात्राश्चाऽध Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेटी ] १ संग्रह किट्टिः लो २ संग्रह | ३ संग्रह किट्टिः किट्टिः भः १ संग्रहकिट्टिः मा यन्त्रकम् - १७ (चित्रम०१७) किट्टिकरणाद्धाद्वितीयसमये दीयमानदलप्ररूपणा २ संग्रहकिट्टिः ३ संग्रहकिट्टिः या १ संग्रहकिट्टिः मा २ संग्रहकिट्टिः किट्टिः ३ संग्रह- । १ संग्रहकट्ट न क्रो २ संग्रह - किट्टिः [ २९७ ३ संग्रहकिट्टिः धः सङ्केत पोकरणम् अपू=अपूर्वा वशन्तरकिट्टयः, ताश्च तत्तत्संप्रकिया अधस्तात् निर्वर्त्यन्ते, परमार्थतोऽनन्ताः पूर्वावान्तर किट्टीनाञ्चासंख्येयभागप्रमाणा भवन्ति, इह द्वे एव दर्शिते, प्रभूतावकाशाभावात् । | पू= पूर्वावान्तर किट्टयः, ताश्च किट्टिकरणप्रथम समये निर्वर्त्यन्ते । परमार्थतोऽनन्ता अपूर्वावान्तर किट्टितश्चाऽसंख्येयगुणा भवन्ति, इहाऽसत्कल्पनया - पूर्वावान्तर किट्टिभ्यां तुल्ये द्वे एव दर्शिते, प्रभूतावकाशाभावात् । ०=अनेन चिह्न ेन अधस्ता नावान्तर किट्टिदलं सूचितम, तच्च लोभप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तर किट्टिदलप्रमाणं भवति । अधत्तनावान्तर किट्टिदलमेकैकस्यामपूर्वावान्तर किट्टौ ददाति । --अनेन चिह्न ेन मध्यमखण्डदलं सूचितम् तच सर्वासु पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु ददाति परमार्थत एकमध्यमखण्डदलं लोभप्रथम संग्रह कट्टि - प्रथम पूर्वान्तर कट्टिदलतोऽसंख्येयगुणं भवति । (((0) पि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवग सेढो] यन्त्रकम्-१७ (चित्रम्-१७) [ २९७ । अनेन चिह्न नोभयचयदलं सूचितम, लोभप्रथमसंग्रह कियाः प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टी पूर्वापूर्भावान्तरकिट्टिराशि प्रमाणात अनन्तान असत्कल्पनया स्त्रचत्वारिंशद् (४८) उभयचयान् प्रक्षिाति । ततो यथात्तरमेकैकेन होनानुभव चया प्रतिसति । ते प्रक्षिषु सर्ग अवान्तरकिया प्रदेशापेक्षया गोपुच्छाकारेण संस्थिता भवन्ति । ... अनेन चिह्नन पूर्वावान्तरकिट्टिषु पुरातनसत्तागतदलं सूचिनम् , तच्चोत्तरोत्तरपूर्वावान्तरकिट्टी विशेष हीनक्रमेण भवति । x अनेन चिह्नन अधस्तनशीर्षचयदलं सूचितम् , लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीय पूर्वाधान्तरकियामेकावस्तनशीर्ष चयं प्रक्षिपति, तत एको तरवृद्वयाऽध ६.नशीर्षचयान पूर्वावान्तरकिट्टिषु तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रहकिटिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः, तेनाऽसत्कलपन या क्रोधतृतीयसंग्र इकिट्टि. चरमपूर्वावान्तरकिटौ त्रयोविंशतिमधस्तनशीर्षचयान प्रक्षिपति । अधस्तनशीर्ष चयदले प्रक्षिप्त सर्वाः पूर्वावान्तरकिट्टयो लोभप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिलिप्रदेश ल्यप्रदेशका भवन्ति । दीयमानदलनिरूपणम्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानम् 1 2 इत्यनेन सूचितं दलं प्रभूतं भवति । ततो विशेषहीनक्रमेण दीयमानमनन्तास्वपूर्धावान्तर किट्टिषु भवति, इह द्वे एवाऽपूर्वावान्तरकिट्टी परिकल्पिते, तेनैकस्यामपूर्वाधान्तकिट्टी विशेषहीनं दीयमानं दलं भवति । ततोऽसंख्ये यभागहीनम् । A इत्यनेन सूचितं दीयमानं दलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौ भवति, ततो विशेष होनम् X । A इत्यनेन सूचितं दीयमानं दलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टी भवति। एवं क्रमेणाऽग्रेऽपि दलिकनिक्षेपो वक्तव्यः । दृश्यमानं दलं तूत्तरोत्तरावान्तरकिटो विशेषहीनक्रमेण भवति । म Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या किट्टिषु दृश्यमानदलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः 1 स्तनशीर्षचया इत्येतावन्ति दीयमानदलिकानि तथैकोनलोभप्रथमसंग्रह किट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणावस्तनशीर्षचयदलन्यूनाऽधस्तनावान्तरकिट्टिदलमात्राणि पुरातनसत्तागतदलानीत्येतेषां समुदायो दृश्यमानं दलं भवति । लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमा पूर्वावान्तरकियां त्वेकं मध्यमखण्डमेकाधस्तनावान्तरकिट्टिदलं लोभप्रथमसंग्रह किट्टिपूर्वा पूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यून सर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाश्रोभयचया इत्येतेषां वातो दृश्यमानं दलं भवति । तेन लोभप्रथम संग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीय संग्रह किट्टि प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयां दृश्यमानं दलमेकेनोभयचयेन हीनं सम्पद्यते । न्यासः - सङ्केतसूचिः पूर्ववद् बोद्धव्या । लोभप्रथम संग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टौ दृश्यमानं दलम् =म+2 स—(अपू+पू – १) (3+ ( पू--१) अध+पु =म+२ स—-(अपू+पू--१) (3+ (पू--१) अध+अ-- (पू- १) अध: पु-अ-- (पू-- १) अध =म+2 स – (अपू+पू – १) (3+अ =म+२ स—अपू—–पू+१ (उ+अ लोभद्वितीयसंग्रह प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टौ तु दृश्यमानं दलम् =म+2 स – (अपू+पू) (उ+अ म + - स-अपू--पू ) ( उ+अ .. लोभप्रथम संग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तर किट्टितो लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमापूर्वावान्तर किट्टयामुभयचयेन हीनं दृश्यमानं दलं भवति । ततः परं लोभप्रथम संग्रह किट्टिवल्लोभद्वितीयसंग्रहकिद्वावप्युत्तरोत्तराऽवान्तरकिट्टा वेकैकोभयचयेन न्यूनं न्यूनतरं दलं तावद् दृश्यते, यावल्लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । [ २१७ ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिडिचरम पूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टाको भयचयेन न्यूनं दृश्यमानं दलं भवति । तच्च पूर्ववद् भावनीयम् । ततः परं पूर्ववत् सर्वाऽवान्तरकिट्टिषु यथोत्तरमेकैको भयचयेन हीनं हीनतरं दृश्यमानं दलं तावद् वक्तव्यम्, यावत् क्रोधतृतीयसंग्रह किडिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । इत्थं द्वादशसंग्रहकट्ट सर्वाऽवान्तरकिडयः प्रदेशाश्रमाश्रित्य पूर्वपूर्वतोऽनन्ततमभागेन न्यूना न्यूनतरास्तिष्ठन्ति गोपुच्छाकारेण विद्यन्त इत्यर्थः । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् - १७ ।। इति ॥ १०४ ॥ किट्टिषु दीयमानं दृश्यमानं च दलं निरूप्य सम्प्रति नरकगत्यादिमध्यात् कतिषु मार्गणासु बद्धप्रदेशा' किट्टि काराणां किट्टिवेदकानां च किट्टिषु नियमतो वा भजनया वा विद्यते १ इति परप्रश्नं समाधातुकाम आदौ यासु मार्गणासु बद्धकर्मदलं नियमतः सत्तायां विद्यते, ताः संगृह्य प्राहनरतिरियइगपणिंदितसदुओरालिय सरीरजोगेसु । मणवयजोगचउक्क नपुं चउकसायमग्गणासु य ॥ १०५ ॥ (गीतिः ) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] खगढी णाणाणाणदुगाविरइसामइअचक्खुदुगछलेसासु । भवमिच्छुवसमवेयगखाइअसम्मेसु सण्णिइयरासु ॥ १०६ ॥ (गीतिः ) आहारम्मिय बद्ध असा होअन्ति नियमत्तो | किट्टीकाराणं किट्टवेअगाणं य संतम्मि ॥ १०७ ॥ (उपगीतिः) [ गाथा - १०५-१०७ नरतिर्यगेकेन्द्रियपश्च न्द्रियत्रसद्वयौदारिकशरीरयोगेषु । मनोवचोयोगचतुष्के नपुं चतुष्कषायमार्गणासु च ॥ १०५ ॥ ज्ञानाऽज्ञानद्विकाऽविरतिसामायिकचक्षुर्द्विकषट्लेश्यासु । भव्य मिथ्यात्वोपशमवेदकक्षायिक सम्यक्त्वेषु संज्ञीतरयोः || १०६ ॥ आहारे च बद्धप्रदेशा भवन्ति नियमतः । किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्तायाम् || १०७|| इति पदसंस्कारः | 'नर०' इत्यादिना नरप्रभृतिमार्गणास्थानेषु बद्धकर्मप्रदेशाः किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्तायां नियमतो वर्तन्त इति सूचितम् । इह विशेषनिर्देशाभावेऽपि मनुष्यादिमार्गणासु बद्धमोहनीयदलस्यैव प्ररूपणाऽवसेया, किट्टिप्ररूपणायाः प्रस्तुतत्वात् किट्टिषु च मोहनीय प्रदेशाग्रस्यैव भावात् । अत्र चेयं मार्गणास्थानप्रतिपादिका गाथा " गइदिए य काए जोए वेए कसायनाणे य । संजमदंसणलेसा भवसम्मे सन्निआहारे | ॥ १ ॥ ।” तत्र गतिश्चतुर्धा, नरक-तिर्यग्-नर- देवगतिभेदात् । इन्द्रियं पञ्चधा, स्पर्शन - रसन-प्राण-चक्षुःश्रभेदात् । इन्द्रियग्रहणेन च तदुपलक्षिता एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्वेन्द्रिया ग्राह्याः । कायः षोढा, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्र सकायभेदात् । योगः पश्चदशविधः सत्यमनोयोगोऽसत्यमनोरोगः सत्यासत्यमनोयोगोऽसत्यामुषमनोयोगः सत्यवाग्योगोऽसत्यवाग्योगः सत्यासत्यवाग्योगोऽसत्यामृग्योगो वैक्रियकाययोगो वैक्रियमिश्रकाय रोग आहारककाययोग आहारकमिश्रकाययोग औदारिककाययोग औदारिकमिश्र काययोगः कार्मणकाययोश्चेति । वेदस्त्रिविधः स्त्रीपुरुषनपुसकवेदभेदात् । कायश्चतुर्धा, क्रोध - मान-माया-लोभ भेदात् । ज्ञानं पञ्चधा, मतिज्ञान - श्रुतज्ञाना - ऽवधिज्ञान- मनः पर्यायज्ञान- केवलज्ञानभेदात् । ज्ञानग्रहणेन चाज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्यते । तच्च त्रिविधम् मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानभेदात् । इत्थं ज्ञानमार्गणास्थानमष्टधा | संयमः=चारित्रम्, स च पञ्चधा, सामायिकसंयमः छेदोपस्थापन संयमः परिहारविशुद्धिकसंयमः सूक्ष्म सम्परायसंयमो यथाख्यात संयमश्चेति, संयमग्रहणेन तद्देशभूत स्तत्प्रतिपक्षभूतश्च यथाक्रमं देशसंयमोऽसंयम चोपलक्ष्यत इति संयममार्गगास्थानं सप्तवा । दर्शनं चतुर्विधम्, चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदात् । लेश्या षड्विधा, कृष्ण-नील-कापोत- तेजः-पद्म-शुक्रलेश्याभेदात् । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासु बद्धमभजनीयं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २१९ भव्यः सिद्धिगमनयोग्यः, भव्यग्रहणेन तत्प्रतिपक्षभूतोऽभव्योऽपि ग्राह्यः । तेन भव्यमार्गणास्थानं द्विविधं बोद्धव्यम् । सम्यक्त्वं त्रिविधम् , क्षायिकौपशमिकक्षायोपशमिकभेदात् । सम्यक्त्वग्रहणेन तत्प्रतिपक्षभूतं मिश्रं सास्वादनं मिथ्यात्वं च गृह्यते । इत्थं सम्यक्त्वमार्गणास्थानं पोढा । संज्ञी विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्चकसमन्वितः, तत्प्रतिपक्षभूत एकेन्द्रियादिरूपोऽसंज्ञी। सोऽपि संज्ञिग्रहणेन सूचितः । इत्थं संज्ञिमार्गणास्थानं द्विविधम् । आहारयति-गृहणात्योजआहार-लोमाहार-कवलाहाराणामन्यतममित्याहारः, आहारक इत्यर्थः, आहारकग्रहणेन तत्प्रतिपक्षभूतमनाहारकमार्गणास्थानमपि ग्राह्यम् । तेनाऽऽहारकमार्गणास्थानं द्विविधम् । इत्थं चतुर्दशमूलमार्गणास्थानानामेतान्युत्तरमार्गणास्थानानि चतुःसप्ततिर्भवन्ति । ग्रन्थान्तरे तानि द्वापष्टिरुक्तानि, अत्र तु योगमार्गणाया उत्तरमार्गणास्थानानां पञ्चदशानां भावितत्वाद् द्वादशभिरधिकान्यभिहितानि । मार्गणानां विशेषप्रतिपत्तये त्वस्मद्गुरुचरणकृत-मार्गणाद्वारविवरणाख्यग्रन्थोऽवलोकनीयः, तत्र विस्तरेण मार्गणानां व्याख्यातत्वात् । ___ अथ प्रकृतमनुसरामः-नरादयः कृतद्वन्द्वाः सप्तम्या निर्दिष्टाः । नरः-मनुष्यगतिः, तिर्यगतिर्यग्गतिः,इन्द्रियशब्दःप्रत्येकं सम्बध्यते, "द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदंप्रत्येकमभिसम्बध्यते।" इति न्यायात् । ततश्चायमर्थः-एकेन्द्रियः, पञ्चेन्द्रियः, त्रस:-त्रसकायः, द्वयौदारिकशरीरयोगौ-औदारिककाययोगौदारिकमिश्रकाययोगलक्षणौच,तत इतरेतरद्वन्द्वसमासः,तेषु, 'मणवयजोगचउक्के'ति चतुष्कपदं प्रत्येकं सम्बध्यते, मनोयोगचतुष्के सत्या-ऽसत्यसत्यासत्याऽसत्यामषलक्षणे, वचोयोगचतुष्के सत्याऽसत्यसत्यासत्याऽसत्यामपलक्षणे च 'नपुचउकसायमग्गणासुय' त्ति 'नपुचतुष्कषायमार्गणासु च' नपुंसकवेदमार्गणायां क्रोध-मान-माया-लोभलक्षणचतुष्कषायमार्गणासु, चकारः समुच्चयार्थः, 'णाणा०' इत्यादि, द्विकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते । ततश्चायमर्थः-ज्ञानद्विकंमतिज्ञानश्रुतज्ञानलक्षणम् , अज्ञानद्विकं मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानलक्षणम् , अविरतिः, सामायिकः, चक्षुकिं-चक्षुर्दर्शनाऽचक्षदर्शनलक्षणम्, षडलेश्याः कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्ललेश्यारूपाः, तत इतरेतरद्वन्द्वसमासः, तासु, 'भव०' इत्यादि, भव्यो-भव्यमार्गणास्थानम् , मिथ्यात्वं मिथ्यात्वमागणास्थानम् , अतः परं सम्यक्त्वपदं प्रत्येकं योज्यम् , उपशमसम्यक्त्वम् औपशमिकसम्यक्त्वम् , वेदकसम्यक्त्वं क्षायोपशमिकसम्यक्त्वापरपर्यायम् , क्षायिकसम्यक्त्वम् , तत इतरेतरद्वन्द्वसमासः, तेषु, 'सण्णिइयरासु' त्ति 'संज्ञीतरयोः' संश्यसज्ञिनोः 'आहारे' आहारकमार्गणास्थान इत्यर्थः, चकारः समुच्चयार्थः, सर्वसंख्यया द्वाचत्वारिंशन्मार्गणास्थानेषु (४२) 'बद्धपोसा' इत्यादि, 'बद्धप्रदेशाः' बद्धमोहनीयकर्मप्रदेशाः, 'किट्टिकाराणां' किट्टीः कुर्वते-निवर्तयन्त इति किट्टिकाराः "कर्मणोऽण" (सिद्धहेम० ५-१-७२) इति सूत्रेण कर्तरि अण्प्रत्ययः, तेषाम् , किहिवेयगाणं' ति, वेदयन्ति-अनुभवन्तीति वेदकाः, “णकतृचौ” (सिद्धहेम० ५-१-४८) इति सूत्रेण कतरि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] खवगसेढी [ गाथा-१०५-१०७ णकप्रत्ययः, किट्टीनां वेदकाः किट्टिवेदकाः, अत्र “कर्मजा तृचाच" (सिद्धहेम०-३-१-८३) इति सूत्रेण षष्ठीसमासे प्रतिषिद्धेऽपि याजकादेराकृतिगणत्वात् “याजकादिभिः" (सिद्धहेम०३-१-७८) इत्यनेन षष्ठीसमासः । यद्वा कर्मणोऽविवक्षायां वेद्यवेदकभावलक्षणसम्बन्धमात्रे किट्टिशब्दात् “शेषे" (सिद्धहेम० २-२-८१) इत्यनेन षष्ठी विभक्तिः । ततः सम्बन्धषष्ठयाः “षष्ठययत्नाच्छेषे” (सिद्धहेम० ३-१-७६) इत्यनेन सूत्रेण समासः, तेषाम् , चकारः समुच्चयार्थः, 'संतम्मि' ति गाथायां निर्देशो भावप्रधानः, तस्मात् 'संतम्मि' इत्यनेन सत्ता व्याख्येया, सत्तायां भवन्ति । भावार्थः पुनरयम्-विवक्षितकाले बद्धकर्मदलिकमुद्वर्तनाकरणेनोपयुपरि गत्वोत्कृष्टतः कर्माऽवस्थानकालं यावत् सत्तायां विद्यते । ततः परमवश्यमेव निजीणं भवति, तथा विवक्षितकाले बद्धकर्मदलिकमुद्वर्तनाकरणेनोपयु परि गत्वा जघन्यतोऽपि पल्योपमाऽसंख्येयभागोनकाऽवस्थानकालं यावद् नियमतः सत्कर्मणि तिष्ठति, वक्ष्यमाणनिलेपनस्थानानां केवलं पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । अयं नियमो-ऽश्रेण्यपेक्षया द्रष्टव्यः, क्षपकश्रेणी बद्धकर्मप्रदेशाग्रस्याऽन्तमुहूर्तकालेनाऽपि निर्जरणात् , उपशान्तमोहादिभिश्च बद्धकर्मणः समयमात्रेण निर्जरणात् ।। __नन्वन्तःकोटिकोटिसागरोपमाद्यल्पस्थितिकं बद्धकर्मदलिकं जघन्यतोऽपि यावत् पल्योपमाऽसंख्येयभागोनकावस्थानकालं कथं तिष्ठेत् ? इति चेत् , उच्यते-बन्धकालेऽल्पस्थितिकं यत् कर्म बद्धम् , तस्य बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायामुद्वर्तनाकरणेन कतिपयानि दलिकानि यथासम्भवमुपरितनस्थितिषूद्वर्तयति जीवः । उद्वर्तितदलिकेषूदयावलिकयाऽप्राप्तेषु पुनः कतिपयानि दलिकान्युपरितनासु स्थितिषूद्वर्तयति । एवंविधया पुनः पुनरुद्वर्तितानि दलिकानि पल्योपमाऽसंख्येयभागोनकर्माऽवस्थानकालमवश्यमेव सत्तायां विद्यन्ते । यद्यपि कर्मावस्थानकालेऽपवर्तनासंक्रमादीन्यपि भवन्ति, तथापि विवक्षितसमये बद्धलिकमुद्वर्तनाकरणमाहात्म्यात् पल्योपमाऽ संख्येयभागन्यूनकर्मावस्थानकालमवश्यं तिष्ठति । ततः परं सर्वात्मना निर्जरितुमर्हति । ____ अथ मनुष्यगतौ बद्धमोहनीयदलं क्षपकस्य सत्तायां नियमतोऽवतिष्ठते । कथमेतदवसेयम् ? इति चेत् , उच्यते-मनुष्यगतावेव क्षपकश्रेणेः संभवात् तद्भवे च बद्धकर्मदलस्य कर्माऽवस्थानकालस्याऽनतिक्रान्तत्वात् सर्वेषां क्षपकाणां सत्कर्मणि मनुष्यगती बद्ध दलं नियमतो विद्यते । इदमत्राऽवधेयम्-मनुष्यगतौ बद्धमोहनीयदलं सत्तायां जघन्यतोऽनन्तस्कन्धमानं भवति । तच स्तोकम् । ततोऽसंख्येयगुणं मनुष्यगतौ बद्धमोहनीयदलमुत्कृष्टतो विद्यते । तत्र पूर्व कर्मावस्थानकाले मनुष्यत्वेनाऽपरिणम्य गत्यन्तरत आगतस्याऽथवा सकृन्मनुष्यत्वेनोत्पद्य क्रमेण कालं कृत्वा गत्यन्तरे कर्माऽवस्थानकालं ततोऽपि वाऽधिकं कालं व्यतिक्रम्य तत आगतस्य यथासंभवं क्षपितकाशलक्षणयुक्तस्य शीघ्रं क्षपणोद्यतस्य सत्कर्मणि मनुष्यगतौ बद्धकर्मदलं जघन्यं संभवति । तथा कर्मावस्थानकाले गुणितकशिविधिना यथासंभवमनेकवारं मनुष्यत्वेनोत्पद्य चिरेण क्षपकश्रेणिमारोहतो जीवस्य सत्तायां मनुष्यगतौ बद्धकर्मण उत्कृष्टप्रदेशाग्र विद्यते । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२१ मार्गणासु बद्धमभजनीयं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः तथा तिर्यग्गतौ बद्धमोहनीवदलं क्षपकाणां सत्कर्मणि नियमतो वर्तते, तिर्यग्गतौ मोहनीयं बद्ध्वा ततो निर्गत्य शेषगतित्रये कर्माऽवस्थानकालस्याऽनतिक्रान्तत्वेन सर्वथा तस्य विनाशाऽदर्शनात् । तथाहि-तिर्यगगतौ कर्मदलं बद्ध्वा ततो निर्गत्य शेषगतित्रय उत्कृष्टतः सागरोपमशतपृथक्त्वकालं भ्राम्यति । ततः परं क्षपकश्रेणिमप्राप्तोःजन्तुरवश्यमेव तिर्यग्गत्यामुत्पद्यते, यतस्तिर्यगगतेरुत्कृष्टतोऽप्यन्तरं साधिकसागरोपमशतपृथक्त्वमस्ति। तथा चोक्तं जीवसमासवृत्ता अन्तरद्वारे श्रीमन्मलधारगच्छीयहेमचन्द्रपादैः-"तावत्तिर्यग्गतेर्निर्गत्य शेषगतित्रये पर्यटतां पुनरपि तिर्यक्त्वप्राप्तो जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकसागरोपमशतपृथक्त्वमन्तरं भवति, सातिरेकत्वं चाल्पत्वेनेहानुक्तमपि स्वयमेव द्रष्टव्यम् ।” इति । इत्थं क्षपकश्रेणौ वर्तमानो जन्तुः सागरोपमशतपृथक्त्वतःप्राक् तिर्यगगताववश्यमेवाऽऽसीत् । तेन तिर्यग्गतौ बद्धदलमिदानीं तस्य जन्तोः सत्कर्मणि विद्यत एव, तत्र बद्धकर्मणः कर्माऽवस्थानकालस्य व्यतिक्रान्ताभावात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-“एदस्स खवगस्स दुगदिसमजिदं कम्मं णियमा अत्थि । तं जहा-तिरिक्खगदिसमज्जिदं च मणुसगदिसमज्जिदं च ।"इति। इदमत्रावसेयम्-तिर्यग्गतौ बद्धदलं सत्कर्मणि जघन्यतोऽनन्तस्कन्धमात्रं भवति । तच्च स्तोकम् । ततस्तिर्यग्गतौ बद्धदलं सत्कर्मण्युत्कृष्टतोऽसंख्येयगुणं विद्यते । तत्रैकेन्द्रियभवे क्षपितकमांशलक्षणेन कर्माऽवस्थानकालं परिपाल्य ततो निर्गत्य शेषगतिषु साधिकसागरोपमशतपृथक्त्वकालं परिभ्रम्य क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य जन्तोः सत्तायां तियग्गतौ बद्धकर्मदलं जघन्यतो विद्यते । तथा तिर्यग्गतावेव गुणितकमांशलक्षणयुक्तो यः कर्माऽवस्थानकालं व्यतिक्रमयन् प्रभूतं कर्मदलिकमुपचिनोति । स तिर्यग्गतितो निर्गत्य मनुष्यगतौ यदि शीघ्र क्षपकश्रेणिमारभते, तर्हि तस्य जीवस्य सत्तायां तिर्यग्गतौ बद्धकर्मदलिकमुत्कृष्ट तिष्ठति । एवमग्रेऽपि यथासंभवं वक्तव्यम् । एकेन्द्रियमार्गणायां बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमतो विद्यते, यत एकेन्द्रियस्योत्कृष्टमप्यन्तरं सातिरेकसागरोपमसहस्रद्वयप्रमाणं समस्ति । उक्तं च जीवसमासेऽन्तरद्वारे"एगिंदियाण तसकालो।" इति । तथैव तट्टीकायामपि-"पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां जीवानां तद्भावं परिहृत्याऽन्यत्रोत्पन्नानां पुनरप्येकेन्द्रियत्वप्राप्तौ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतस्तु त्रसकालोऽन्तरं भवति । स चेहैव ग्रन्थे पूर्व कालद्वारे त्रसजीवकालाभिधानप्रक्रमे निर्दिष्टः सातिरेकसागरोपमसहस्रद्धयलक्षणोऽवगन्तव्यः।" इति । एतेन क्षपक उत्कृष्टतः सातिरेकसागरोपमसहस्रद्वयात् पूर्वमवश्यमेवैकेन्द्रियत्वेनासीत् । अतस्तत्र बद्धकर्मदलस्य कर्मावस्थानकालो नाऽतिक्रान्तः। तेन क्षपकस्यैकेन्द्रियभवे बद्धदलं सत्कर्मणि नियमतो विद्यते। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] aarसेढी [ गाथा-- १०५-१०७ अथ पञ्चेन्द्रियमार्गणास्थाने बदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि विद्यते, क्षपकश्रेणेः पञ्चेन्द्रियत्वाऽविनाभावित्वात् । एवं काये बद्धकर्मदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमतो विद्यते, क्षपकश्रेणेस्त्रसत्वाऽविनाभावित्वात् । उक्त ं च कषायप्राभृतचूर्णौ- "तसकाइयं समज्जिदं णियमा अत्थि । "इति । औदारिककाययोगमार्गणायामौदारिकमिश्रकाययोगमार्गणायां चतसृषु मनोयोगमार्गणासु चतसृषु च वचनयोगमार्गणासु बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमेन विद्यते, चरमभवेऽपि निरुक्तदशयोगानां दर्शनात् । उक्त च कषायप्राभूते " ओरालिए सरोरे ओरालियमिस्सए च जोगे दु । चदुविधमणव चिजोगेच अभज्जाXXXXX ॥ १ ॥” इति । तथैव तच्चूर्णावपि - "ओरालियेण ओरालियमिस्सयेण चउव्विद्देण मणजोगेण चविण वचिजोगेण बडाणि अभज्जाणि ।” इति । तथा नपुंसक वेदमार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो विद्यते, उत्कृष्टतोऽपि नपुंसक वेदान्तरस्य साधिकसागरोपमशतपृथक्त्वमात्रत्वात् । उक्त च कषायप्राभृते - “ XXXणवु सयए सम्मत्ते । कम्माणि अभज्जाणिXX ।” इति । तथैव तच्चूर्णावपि - "XXXणवु सयवेदेण च एवं भावभूदेण बद्धाणि णियमा अत्थि ।” इति । I 1 क्रोध-मान-माया-लोभरूपचतुष्कषायमार्गणासु बद्धप्रदेशाग्र किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो वर्तते, मनुष्यभवेऽप्यन्तमुहूर्ततः परं कषायोदयपरावृत्तिदर्शनात् । उक्त ं च कषायप्राभृतचूर्णौ – कोहमाणमायालो भोवजुत्ते हिं बडाणि अभजियव्वाणि । " इति । मतिज्ञानमार्गणायां श्रुतज्ञानमार्गणायां च बद्धदलं नियमतो विद्यते, चरमभवेऽपि मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्दर्शनात् । तथा मत्यज्ञानमार्गणायां श्रुताज्ञानमार्गणायां च बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो वर्तते, मिथ्यात्वसहचरितत्वात् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी - "सुदणाणे अण्णाणे, मदिणाणे अण्णाणे, एदेसु उवजोगेसु पुव्वबडाणि forमा अस्थि ।” इति । अत्र मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयोर्हेतुभावना तु तयोर्मिथ्यात्वसहचरितत्वाद् वक्ष्यमाणमिथ्यात्ववत् कार्या । अविरतिमार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो विद्यते, वर्तमानभवेऽपि जघन्यतः साविकत्रर्वाष्टकं यावदविरतिमार्गणायाः प्रवृत्तत्वात् । सामायिकसंयममार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमेन वर्त्तते संयममृते क्षपकश्रेणेरसंभवात् शेषसंयमानामपि सामायिक संयमपूर्वकत्वात् । " Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासु बद्धमभजनीयं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २२३ चक्षु दर्शनमार्गणायामचक्षुर्दर्शन मार्गणायां च बद्धदलं किडिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कमणि नियमतो भवति, वर्तमानभवेऽप्यनयोर्मार्गणयोः क्षपकस्य नियमतो दर्शनात् । न्यगादि च कषायप्राभृते- “कम्माणि अभज्जाणि दु अणगारअचक्खुदंसणुवजोगे ।” इति । कृष्णादिषट्लेश्यामार्गणासु बद्धप्रदेशाग्र किडिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो विद्यते, वर्तमानमनुष्यभवेऽपि लेश्याया अन्तर्मुहूर्त कालेन परावृत्तेः । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी - "छसु लेसासु सादेण असादेण च बद्धाणि अभज्वाणि ।” इति । भव्यमार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो वर्तते, भव्यस्यैव क्षपकश्रेण्यारोहणात् । मिथ्यात्वमार्गणायां बद्धदलं नियमेन किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि विद्यते । कथमेतदवसीयते १ इति चेत्, उच्यते- संसारस्थो जन्तुर्मिथ्यात्वरहितदशायामुत्कृष्टतः साधिके द्व षट्षष्टी सागरोपमाणां स्थातुमर्हति, यतो मिथ्यात्वोत्कृष्टान्तरं तावन्मात्रम् । उक्तं च पञ्चसंग्रहाऽन्तरद्वारे श्रीमन्मलयगिरिसूरिपादैः- “मिथ्यादृष्टेः परित्यक्तमिथ्यात्वस्य भूयस्तद्भावप्रतिपत्तावुत्कृष्टमन्तरं द्वे षट्षष्टी अतराणां सागरोपमाणाम् । कथं द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणाम् ? इति चेत्, उच्यते कश्चिन्मिथ्यादृष्टिः सम्यक्त्वमासाद्य षट्षष्टिसागरोपमाणि यावत् सम्यक्त्ववानवतिष्ठते, ततस्तदनन्तरमन्तरालेऽन्तमुहूर्तकालं सम्यङमिथ्यात्वमनुभूय भूयोऽपि षट्षष्टिसागरोपमाणि यावत् सम्यक्त्वमनुभवति । तत एतदनन्तरं कोऽपि महात्मा मुक्तिपदवीमासादयति, कोऽपि पुनरधन्यो मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते, तत्र यो मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते, तस्य मिथ्यात्वपरिभ्र शकालादारभ्य भूयो मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमानस्याऽन्तरं द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणां भवतः । नन्वेवं सम्यङ्मिथ्यात्व सम्बन्धिनाऽन्तर्मुहूर्तेनाधिके द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणां प्राप्येते, तत्कथमधिकृतसूत्रे ते परिपूर्णे उक्ते ? उच्यते, स्तोकत्वात्तदन्तर्मुहूर्तं न विवक्षितमित्यदोषः ।" इति । इत्थं मिथ्यात्वोत्कृष्टाSन्तरस्य कर्माऽवस्थान कालतो न्यूनत्वाद् मिथ्यात्वमार्गणायां बद्धदलं किडिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमेन वर्तते । उक्तं च कषायप्राभृते - "XXमिच्छत्तणवु सए च सम्मते, कम्माण अभजाणिXXX।" इति । औपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमेन विद्यते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते - कार्मग्रन्थिकाऽभिप्रायेण षड्विंशतिसत्कर्मा जी औपशमिसम्यक्त्वं लब्ध्चैव यथाक्रमं क्षायोपशमिकसम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्वेऽश्नुते । तथोत्कृष्टतो मोहनीयस्य षड्विंशतिप्रकृतिस्थानस्याऽन्तरं साधिके सागरोपमाणां द्वो पट्पष्टी प्रोक्तम् तथा चात्र Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] खवगसेढी [गाथा १०५-१०७ कषायप्राभृतचूर्णि:--"छव्वीसविहत्तीए केवडीयमन्तरं ? जहण्णणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। उक्कस्सेण बे छावहिसागरोपमाणि सादिरेयाणि।" इति । तदेवं पड्विंशतिप्रकृतिस्थानविरहस्य सागरोपमसातिरेकषट्षष्टिद्वयप्रमाणत्वात् षड्विंशतिसत्ताकस्य च जीवस्यौपशमिकसम्यक्त्वेन विना क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-क्षायिकसम्यक्त्वयोरलाभात् क्षपकश्रेणिमारूढेन जीवेन सागरोपमसातिरेकपटषष्टिद्वयकालाभ्यन्तरयौपशमिकसम्यक्त्वमवश्यमेव लब्धम् । सातिरेकयोश्च द्वयोः षषष्टयोः सागरोपमाणां कर्मावस्थानकालतो न्यूनत्वादोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां बद्धप्रदेशाः क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमतो भवन्ति । क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमेन विद्यते । कथमेतदवसीयते? इति चेत् , उच्यते-क्षायिकसम्यक्त्वस्योत्कृष्टतोऽपि कालः सातिरेकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणो भवति, यत एकविंशतिप्रकृत्यात्मकसत्तास्थानकोत्कृष्टकालः सातिरेकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रः । अभ्यधायि च कषायप्रामतचूणौँ-"एक्कावोसाए विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।" इति । क्षायिकसम्यक्त्वस्य च क्षपकश्रेणाववश्यंभावित्वात् क्षायिकसम्यक्त्वतश्च प्राक क्षायोपशमिकसम्यक्त्वस्य नियमेन दर्शनात् तथा कर्माऽवस्थानकालस्य साधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमतोऽधिकत्वात् क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमतो विद्यते । क्षायिकसम्यक्त्वमार्गणायां बद्धदलं नियमेन क्षपकस्य सत्कर्मणि विद्यते, क्षायिकसम्यक्त्वमृते क्षपकणेरसंभवात् । संज्ञिमार्गणायां बद्धढलं नियमेन किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि विद्यते, संज्ञिन एव क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तः। ___ असंज्ञिमार्गणायामपि बद्धदलं नियमेन किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मगि विद्यते । कथमेतदवसीयते? इति चेत् , उच्यते-पंजिन उत्कृष्टतः कायस्थितिः सातिरेकसागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाणा लक्ष्यते । न्यगादि च श्रोप्रज्ञापनासूत्रे कायस्थितिद्वारे-"सण्णोणं भंते ! पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उ० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं,।" इति । अयं भावःकश्चित् जन्तुभूयो भूयः संज्ञित्पद्यते, तदा सातिरेकसागरोपमशतपृथक्त्वकालं यावत् । ततः परमवश्यमेवाऽसंशिषूत्पद्यते । तेनोत्कृष्टसंज्ञिकायस्थितेराग नियमतोऽयं क्षपकोऽसंज्ञित्वेनासीत् । इत्थं संज्ञिसत्कायाः कायस्थितेः कर्माऽवस्थानकालतो न्यूनत्वादसंज्ञिमार्गणायां बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि नियमेन विद्यते। आहारकमार्गणायां बद्धदलं नियमेन किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि विद्यते । सुगममेतत् , आहारकाणामेव क्षपकश्रेण्यारम्भात् । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासु बद्धं भजनीयं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २२५ न च किट्टिकरणाद्वायां किट्टिवेदकमाश्रित्य प्ररूपणाऽसंगतेति वाच्यम् , प्रकृतप्ररूपणामाश्रित्य किट्टिकारतः किट्टिवेदकं प्रति विशेषाभावेन तस्या अदुष्टत्वात् ॥ १०५-१०६-१०७ ॥ ____ अथ यासु मार्गणासु बद्धकर्मदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि विकल्पेन विद्यते, ताः संगृह्य प्राह निरयसुरविगलपुढवीजलानलपवणवणस्सईसु तह । वेउव्वाहारगदुगकम्मणजोगित्थिपुरिसवेअसु॥१०८॥(गीतिः) ओहिविहंगमणेसु तह देसविरइपरिहारछेअसु। ओहिगदंसणमिस्सासायणणाहारगेसु भयणाए ॥१०९॥ (गीतिः) निरयसुरविकलपृथिवीजलाऽनलपवनवनस्पतिषु तथा। वैक्रियाहारकद्विककार्मणयोगस्त्रीपुरुषवेदेषु ॥१०८॥ अवधिविभङ्गमनस्सु तथा देशविरतिपरिहारच्छेदेषु । ___अवधिदर्शनमिश्रास्वादनानाहारकेषु भजनया ॥१०९।।इति पदसंस्कारः। 'निरय०' इत्यादि, बद्धप्रदेशाः किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानांच सत्कर्मणीति पूर्वतोऽनुवर्तते, तच्च यथास्थानं योजनीयम्। निरयादयः कृतद्वन्द्वा निर्दिष्टाः। भजनयेति सर्वत्र सम्बध्यते । तथाहिनिरये-नरकगतौ सुरे-देवगतौ च बद्धप्रदेशाः किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि 'भजनया' विभाषया विद्यन्ते, कस्यचित् क्षपकस्य सत्कर्मणि विद्यन्ते, कस्यचित् पुनर्न विद्यन्त इत्यर्थः । उक्तंच कषायप्राभूतचूर्णी-"देवगदिसमजिदं च णिरयगदिसमजिदं च भजियव्वं ।” इति । भावार्थः पुनरयम्-देवगतौ नरकगतौ वाऽगत्वा मरुदेव्यादिवत् तिर्यग्गतित आगत्य मनुष्यगतौ क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य सत्कर्मणि देवगतौ नरकगतौ वा बद्धकर्मदलं न विद्यत एव । यद्वा देवगति नरकगतिं वा गत्वाऽपि तत्र च कर्मदलं बद्ध्वा ततो निर्गत्य शेषगतित्रये वा तिर्यगगतौ वा कर्माऽवस्थानकालं ततोऽपि वाऽधिकं कालं व्यतिक्रम्य मनुष्यगता आगतस्य क्षपकस्य सत्कर्मण्येकमपि दलं देवगतौ नरकगतौ वा बद्धं न विद्यते, कर्माऽवस्थानकालतः परं बद्धकर्मदलस्य सत्कर्मण्यदर्शनात् ।। ___यः कश्चिज्जन्तुर्देवगतौ नरकगतौ वा समुत्पद्य कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे मनुष्यो भूत्वा क्षपकश्रेणिमारोहति । तस्य निरुक्तगतिबद्धदलं सत्कर्मणि विद्यते, यतो निरुक्तगतिबद्धदलस्य कर्माऽवस्थानकालो नातिक्रान्तः । ___इदन्त्ववधेयम् –देवगतौ वा नरकगतौ वा बद्धकर्मदलं जघन्येनैककर्मपरमाणुः सत्कर्मणि वर्तते, उत्कृष्टतस्त्वनन्तकर्मदलिकानि । इदमत्राऽल्पबहुत्वम्-(१) देवगतौ वा नरकगतौ वा बद्धकर्मदलं सत्कर्मणि जघन्यतः स्तोकम् , उत्कृष्टतस्त्वनन्तगुणम् । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] aarसेढी [ गाथा - १०८-१०९ 'विगल' त्ति विकलेषु- द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियलक्षणमार्गणास्थानेषु बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि विभाषया तिष्ठति । कथमेतदवगन्तव्यम् ? इति चेत्, उच्यतेद्वीन्द्रियादितयाऽनुत्पद्यैकेन्द्रियत आगतस्य क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य जन्तोः सत्कर्मणि द्वीन्द्रियादिमार्गणासु बद्धकर्मदलं न विद्यते, अथवा विकलेन्द्रियतयोत्पद्यैकेन्द्रियभवेषु कर्माऽवस्थानकालं ततोऽपि वाऽधिककालं व्यतिक्रम्य क्षपकश्रेणिमारूढस्य सत्कर्मणि द्वीन्द्रियादिमार्गगासु बद्धदलं न विद्यते । यः पुनद्वन्द्रियादितया समुत्पद्य कर्मावस्थानकालाभ्यन्तरे मनुष्यगतौ क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यते, तस्य सत्कर्मणि द्वीन्द्रियादिमार्गणासु बद्धकर्मदलमुपलभ्यते, कर्माऽवस्थानकालस्यानतिक्रान्तत्वात् । 'पुढat' त्ति पृथिवीकाये बद्धदलं किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्कर्मणि भजनया विद्यते । तद्यथा - यः कचिज्जन्तुः पृथिवी कायमगत्वाऽथवा गत्वाऽप्यन्यत्राऽप्कायादिषु कर्माऽवस्थानकालं परिपाल्य मनुष्यगतौ क्षपकश्रेणिं समारोहति, तस्य सत्कर्मणि पृथिवीकाय मार्गणायां बद्धदलं न विद्यते, यः पुनः पृथिवीकायं गत्वा कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे मनुष्यगतौ क्षपकश्रेणिमारोहति, तस्य सत्कर्मणि पृथिवीकाय मार्गणायां बद्धदलं नियमेन विद्यते । 'जलानलपवण' त्ति 'जले' अकायमार्गणायाम् 'अनले' तेजःकाय मार्गणायां 'पवने' वायुकायमार्गणायां च बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि विभाषया वर्तते । भावना तु पृथिवीकायवत् कार्या । 'वनस्पती' वनस्पतिकायमार्गणायां च बद्धकर्मदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि भजनया भवति । कथमेतदवगम्यते ? इति चेत्, शृणुतवनस्पतिकायतो निर्गतस्याऽन्यत्र पृथिवीकायादौ कर्माऽवस्थानकालं यावत् प्रोष्य मनुष्यगतौ क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य सत्कर्मणि वनस्पतिकाये बद्धदलं न विद्यते, यतो वनस्पतिकाये बद्धकर्मदलस्य कर्माऽवस्थानकालोऽतिक्रान्तः । यः पुनर्वनस्पतिकायतो निर्गत्य कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे क्षपकश्रेणिं समारोहति, तस्य सत्कर्मणि वनस्पतिकाये बद्धदलं नियमेन विद्यते, बद्धकर्मसम्बन्धिकर्माऽवस्थानका लस्यानतिक्रान्तत्वात् । अभिहितं च कषायप्राभृतचूर्णी - " पुढवि काइय-आउकाइय-ते उकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइएस एत्तो एक्केकेण कारण समज्जिदं भजियव्वं ।" इति । ' तथा ' तथाशब्दः समुच्चये, 'वेउव्वाहारगदुगकम्मण० ' इत्यादि, द्विकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, वैक्रियद्विकं वैक्रियकाययोगतन्मिश्रकाययोगलक्षणम् आहारककम्=आहारककाययोगाऽऽहारकमिश्रयोगलक्षणं कार्मणकाययोगः पुरुषवेदः स्त्रीवेदश्व, तेषु, बद्धदलं क्षपकसत्कर्मणि भजनया विद्यते, निरुक्तमार्गणास्थानेष्वगत्वाऽथवा गत्वाऽपि कर्माऽवस्थानकालं ततोऽधिकं कालं वा प्रतिपक्षमार्गणास्थानेषूषित्वा क्षपकश्रेणि समारूढस्य सत्कर्मणि निरुक्तमार्गणासु बद्धकर्मदलं न विद्यते । तत्र गत्वा कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे क्षपकश्रेणिमारूढस्य तु तत्र बद्धदलं सत्कर्मणि नियमतो विद्यते । व्याहारि च कषायप्राभृतचूर्णौ-"सेसजोगेसु बडाणि भज्जाणि । xxxइत्थीए पुरिसेण सम्मामिच्छाइट्ठिणा च एवं भावभूदेण बडाणि भज्जाणि । " इति । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणासु बद्धं भजनीयं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २२७ 'ओहिविहंगमणस्सु'त्ति, तत्र 'ओहि' ति अवधिज्ञाने, न तु स्ववधिदर्शनमार्गणायाम्, विभङ्गसाहचर्यात्, विभङ्गज्ञाने, 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायेन मनः शब्दाद् मनः पर्यायज्ञाने च, न तु मनोयोगे, तत्रा - भजन यो क्तत्वात् बद्धदलं विभाषया क्षपकस्य सत्कर्मणि विद्यते । निरुक्तमार्गणास्थानत्रये कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरेऽवश्यंभाविगमनाविरहात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो- "ओहिणाणे अण्णाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुव्ववाणि भजियव्वाणि ।" इति । 'तह देस' त्ति तथा देशविरतिमार्गणायाम् 'परिहार' त्ति पदैकदेशेन पदसमुदायस्य गम्यत्वात् परिहारविशुद्धिकसंयममार्गणायां छेदे-छेदोपस्थापनसंयममार्गणायां च बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि विभावया विद्यते । कथमेतदवबुध्यते ? इति चेत्, उच्यते - निरुक्तमार्गगास्थानान्यप्राप्याऽथवा प्राप्याऽपि कर्माऽवस्थानकालमविरत्यादिमार्गणासु व्यतिक्रम्य क्षपकश्रेणिमविगतस्य जन्तोः सत्कर्मणि निरुक्तमार्गणासु बद्धदलं न विद्यते यस्तु निरुक्तमार्गणास्थानानि समधिगत्य कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे क्षपकश्रेणिमारोहति, तस्य सत्कर्मणि देशविरत्यादिमार्गणासु बद्धदलं नियमेन विद्यते । 'ओहिग०' इत्यादि, तत्र 'ओहिग' त्ति अवधिदर्शनमार्गणायाम्, 'मिस्स' त्ति मिश्रमार्गणायां च बद्धलं क्षपकस्य सत्कर्मणि भजनया विद्यते कर्माऽवस्थान कालाभ्यन्तर एतयोर्मार्गणास्थानयोः प्राप्तौ नियमाभावात् । उक्त च कषायप्राभृते - " अह ओहिदंसणे पुण उवजोगे होंति भजाणि । XXX मिस्सगे भज्जा ।" इति । 'आसायण' त्ति आस्वादन सम्यक्त्वमार्गणायां बद्धदलं विभाषया सत्कर्मणि विद्यते, कर्माsaस्थानकालाभ्यन्तरे निरुक्तमार्गणाया लाभे नियमानुपलम्भात् । अनाहारके - अनाहारकमार्गणायां बद्धदलं सत्कर्मणि भजनया विद्यते, संसारावस्थायामाहारकमार्गणाया विग्रहगतावेव लाभाद् विग्रहगते श्चोत्कृष्टान्तरस्याऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसfर्पणीका उमात्रत्वेन कर्मावस्थानका लाभ्यन्तरे प्रकृतमार्गणाया अवश्यंभावविरहात् । इत्थं सप्तविंशतिमार्गणास्थानेषु वद्धदलं प्रस्तुतक्षपकसत्कर्मणि विभावया वर्तते, कर्मावस्थानकाले निरुतमार्गगागमननियमाभावात् ॥ १०८ - १०९ ॥ अथ येषु पञ्चमार्गणास्थानेषु बद्धदलं नियमतः सत्कर्मणि न विद्यते, तान्यभिधित्सुराह तथा चोक्त' जयधवलाकारैरपि - "सासरणसम्माइट्टिरणा च बद्धारिण भयरिगज्जाणि त्ति एसो fa प्रत्थो एत्थ वक्खायव्वो, मिस्सरिणद्द सस्सेदस्स देसामासयभावेण पवृत्तिप्रब्भुवगमादो ।" इति । "2 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] खवगसेढी [गाथा-११०-१११ केवलदुगअभवियसुहुमअहक्खायेसु णियमत्तो।। बद्धपोसा णत्थि य संते संभवअभावत्तो ॥११०॥ (उपगीतिः) केवलद्विकाऽभव्यसूक्ष्मयथाख्यातेषु नियमतः । बद्धप्रदेशा न सन्ति च सत्तायां संभवा-ऽभावात् ॥११०॥ इति पदसंस्कारः । 'केवलदुगः' इत्यादि, कृतद्वन्द्वाः सप्तम्या निर्दिष्टाः केवलद्विकादयः। तत्र 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे बद्धप्रदेशाः किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां च सत्तायां नियमतो 'न सन्ति' न भवन्ति । अयम्भावः-जीवः सयोगिगुणस्थानकं लब्ध्चैव केवलज्ञानं केवलदर्शनं च प्राप्नोति, अनेन क्षपकेण तु न कदापि सयोगिगुणस्थानकमासादितम्। किञ्च सयोगिगुणस्थानके मोहनीयवन्धसंभवोऽपि नास्ति, अनिवृत्तिवादरसम्परायचरमसमये तद्विन्छेदात् । अतो-ऽनयो योर्मार्गणयोर्बद्धदलं सत्कर्मणि नियमतो न विद्यते । _ 'अभविय' ति अभव्यमार्गणायां बद्धप्रदेशाः क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमतो न विद्यन्ते, अभव्यस्य सिद्धिगमनाऽयोग्यत्वेन क्षपकश्रेणिप्रतिपत्यसं नवात् । ___ 'सहुम' त्ति "भीमो भीमसेनः” इति न्यायात् मूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणायां बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमेन न विद्यते, संभवाभावात् । न च कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरयुपशमश्रेणिमारुह्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकमासादितवतो जीवस्य निरुक्तमार्गणायां बद्धदलं सत्कर्मणि कुतो न संभवति ? इति वाच्यम् , मोहनीयदलस्येष्टत्वेन मूक्ष्मसम्परायमार्गणायां मोहनीयस्य बन्धाभावात् । एवमग्रेऽपि । ____ यथाख्याते-यथाख्यातसंयममार्गणायां बद्धदलं सत्कर्मणि नियमेन न विद्यते । कुतः ? इति चेत्, उच्यते-यथाख्यातसंयम उपशान्तमोहादिगुणस्थानकेषु प्राप्यते । न च तत्र मोहनीयबन्धोऽस्ति, तेन तत्र बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि न भवति । ननु निरुक्तपञ्चमार्गणासु बद्धप्रदेशाः सत्कर्मणि कुतो न विद्यन्ते ? इत्यत आह-संभवअभावत्तो' त्ति सम्भवाभावात् । सुगममेतद् व्याख्यातत्वात् ॥११०॥ चतुर्दशमार्गणानामुत्तरमार्गणास्थानेषु बद्धदलं सत्कर्मणि चिन्तयित्वा सम्प्रति येषु सातोदयादिस्थानेषु बद्धमोहनीयदलं नियमतः क्षपकस्य सत्तायां विद्यते, तानि सङ्ग्रह्य प्राह सायासायेसुपज्जत्तापज्जत्तगेसु च । एगिदियाण च असंखिज्जेसु भवेसु णियमत्तो ॥१११॥(उपगीतिः) सातासातयोः पर्याप्तापर्याप्तकयोश्च । एकेन्द्रियाणाञ्चाऽसंख्येयेषु भवेषु नियमतः ॥१११॥ इति पदसंस्कारः । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२९ सातोदयादिषु बद्धं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः 'सायासायेसु' इत्यादि, 'बद्धपअसा संतम्मि' इति पदद्वयं पूर्वतोऽनुवर्तते । 'सातासातयोः' सातोदयस्थानेऽसातोदयस्थाने च 'पर्याप्ताऽपर्याप्तकयोच पर्याप्तजीवभेदे-ऽपर्याप्तजीवभेदे चैकेन्द्रियाणामसंख्येयेषु भवेषु च बद्धप्रदेशाः क्षपकस्य सत्तायां नियमतो विद्यन्ते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-मनुष्यतिर्यवन्तमुहूर्तकालेन सातासातोदययोः परावृत्तेः क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तेश्च मनुष्यगतावेवोपलम्भात् साताऽसातयोद्धदलिकं किट्टिकारस्य किट्टिवेदकस्य च क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमेन विद्यते । तद्भवेऽपि पर्याप्तत्वात् पर्यातजीवभेदे बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमेन विद्यते । अपर्याप्तसम्बन्ध्युत्कृष्टविरहस्य कर्मावस्थानकालतः संख्येयगुणहीनत्वादपर्याप्तजीवभेदे बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमन विद्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-पज्जत्तण अपज्जत्तण मिच्छाइद्विणा सम्माइटिणा णवुसयवेदेण च एवंभावभूदेण बडाणि णियमा अस्थि "xxxसादेण असादेण च बद्धोणि अभज्जाणि ।” इति ।। नन्वेकेन्द्रियाणामसंख्येयेषु भवेषु बद्धदलं नियमतः क्षपकस्य सत्कर्मणि विद्यतइत्येतत् कथमवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-त्रसकायस्य कायस्थितिरुत्कृष्टतोऽपि संख्यातवर्षाधिकसागरोपमद्विसहस्रप्रमाणाऽभिहिता । यदुक्तं श्रीप्रज्ञापनासूत्रे कायस्थितिपदे-"तसकाइए णं भंते ! तसकाइए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासब्भहियाइं ।” इति । तथैव जोवसमासवृत्तावपि-"दिगुणं च सातिरेकसागरोपमसहस्रं सानां कायस्थितिः, द्विगुणेन च संख्येयवर्षाधिकसागरोपमसहस्रव्यमवगन्तव्यम् ।” इति । एकेन्द्रियस्य तूत्कृष्टतो भवस्थितिः संख्येयाऽऽवलिकाप्रमाणा भवति। अथ जघन्यतो भवानां लाभाय संख्येयवर्षाधिकसागरोपमसहस्रद्वयलक्षणत्रसकायकायस्थितिन्यूनजघन्यकर्माऽवस्थानकाल एकेन्द्रियभवप्रमाणाभिः संख्येयावलिकाभिर्विभक्तव्यः, विभक्ते च पल्योमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणा एकेन्द्रियभवाः प्राप्यन्ते । इत्थं जघन्यतोऽपि पल्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणेष्वेकेन्द्रियभवेषु बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि नियमतो विद्यते, निरुक्तभवेषु बद्धदलिकसम्बन्धिकर्माऽवस्थानकालस्याऽनतिक्रान्तत्वात् । उत्कृष्टतः पुनः साधिकवर्याष्टकन्यूनकर्माऽवस्थानकालेऽन्तर्मुहूर्तकालेन विभक्ते यल्लभ्यते, तन्मात्रेष्वेकेन्द्रियभवेषु बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि वर्तते ॥१११॥ सम्प्रति यावत्सु त्रसभवेषु बद्धदलं सत्कर्मणि विद्यते, तावतस्त्रसभवान् व्याहरन् लिङ्गकर्मशिल्पादिषु बद्धदलं भजनया सत्तायां प्राह Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] aaraढी एगुत्तरवुड्ढी संखतसभवेसु बद्धदलमत्थि । संतम्मि सव्वलिंगेसु कम्म सिप्पगुरुठिइरसेसु वा ॥ ११२ ॥ ( गीतिः ) एकोत्तरवृद्धया संख्यत्रसभवेषु बद्धदलमस्ति । सत्तायां सर्वलिङ्गेषु कर्मशिल्पगुरुस्थितिरसेषु वा ||११२ || इति पदसंस्कारः । 'एगुत्तरवुड्ढीए' इत्यादि, एकोत्तरवृद्ध्या 'सङ्ख्यत्र स भवेषु' सङ्ख्यामर्हन्तीति संख्या 3, 'दण्डादेर्यः' (सिद्धहेम ० ६-४-१६८) इति सूत्रेण यप्रत्ययः, संख्येया इत्यर्थः तेषु सभवेषु बद्धदलं क्षपकस्य सत्तायाम् 'अस्ति' भवति । तद्यथा - यः कचिज्जीन एकेन्द्रियतो निर्गत्य मनुष्यत्वेन समुत्पन्नो मरुदेव्यादिवत् क्षपकश्रेणिमारोहति, तस्य जीवस्य सत्तायामेकस्मिंस्त्र सभ बद्धदलं विद्यते । यः कचिज्जीव एकेन्द्रियतो निर्गत्य त्रसत्वेनोत्पद्यते, ततो मृत्वा मनुष्यत्वेनोत्पन्नः क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्यते । तस्य जीवस्य सत्कर्मणि सभवये बद्धदलं वर्तते । एवं त्रिषु चतुर्षु यावत् तत्प्रायोग्यसंख्यातेषु निरन्तरत्रसभवेषु बद्धदलं सत्कर्मणि विद्यते, संख्येयवधिकसागरोपमसहस्रद्वयलक्षण कावस्थितौ निरन्तरं संख्येयत्रतभवेभ्योऽविकानामसंभवात् । उक्तं च कषायप्राभृते [ गाथा-- ११२ "एइंदियभवरगहणेहिं असंखेज्जेहिं णियमसा बद्धं । एगादेगुत्तरियं संखेज्जेहि य तसभवेहिं ॥ | १ ||" इति । कस्थानकालाभ्यन्तरेऽसंख्येया अपि भवा संभवन्ति, कर्माऽवस्थानकालेsसंख्येयवारान् यावद् देशविरतिप्राप्तेः, देशविरतेच सभव एव लाभादिति वाव्यम्, अत्र नैरन्तर्येणैकाधिकक्रमेण त्रसभवानां व्याख्यानात्, असंख्येयवारान् यावद् देशविरतिप्राप्तेस्तु स्थावरभवैरन्तरयित्वा निर्दिष्टत्वात् । अथ लिङ्गादिषु बद्धदलं सत्कर्मणि भजनया दर्शयति- 'सव्वलिंगेसु' इत्यादि, सर्वलिङ्गषु बदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि 'वा' विभावया विद्यते, लिङ्गशब्देनात्र तापस-परिव्राजक -यत्यादिद्रव्यलिङ्गानां ग्रहणं कर्तव्यम् । तत्र यो जन्तुः कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे तापसलिङ्गमप्रतिपद्य क्षपकश्रेणिमारोहति, तस्य सत्कर्मणि तल्लिङ्ग बद्धदलं न विद्यते, येन कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे तापसलिङ्ग प्रतिपद्य क्षपकश्रेणिः प्रतिपन्ना, तस्य सत्कर्मणि तल्लिङ्ग बद्धं दलं नियमतो विद्यते । एवं मरुदेव्यादिवद् भवचक्र कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे यतिलिङ्गमप्रतिपद्य यः क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्यते, तस्य सत्कर्मणि यतिलिङ्ग े बद्धदलं न विद्यते, यः पुनर्थतिलिङ्ग' कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे प्रतिपद्य क्षपकश्रेणिमारोहति, तस्य सत्कर्मणि निरुक्तलिङ्ग बद्धदलं नियमतो विद्यते । एवं शेषलिङ्गपु भजना भावनीया । यदस्यधायि कषायप्रोभृतचूर्णो - "सव्वलिंगेसु भज्जाणि ।” इति । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मशिल्पादिषु बद्धं दलम् ] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २३१ 'कम्म० ' इत्यादि, कर्मादयः कृतइन्द्राः सप्तम्या निर्दिष्टाः, तत्र कर्मसु - अङ्गारप्रभृतिलक्षणेषु बद्ध क्षपकस्य सत्कर्मणि विभाषया विद्यते । अयं भावः - ये य आरम्भा अनिविराधनारूपाः, ते तेऽङ्गारकर्मोच्यन्ते । तद्यथा - काष्ठदाहेनाङ्गारनिष्पादनं भ्रष्ट्रकरणाद्यनेकविधमङ्गारकर्म । उक्त च योगशास्त्रे - "अङ्गारभ्राष्ट्रकरणं कुम्भायः स्वर्णकारिता ठठारत्वेष्टकाविति यङ्गारजीविका ।" इति । एवं शेषाणां कर्मणां व्याख्यानं ग्रन्थान्तरादवसेयम् । एवंप्रकारेष्वङ्गारादिषु कर्म बद्ध क्षपकस्य सत्कर्मणि विभाषया विद्यते, कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तर एतेषामवश्यं - भावनियमानुपलम्भात् । शिल्पेषु बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि विभाषया विद्यते । तत्र शील्यत इति शिल्पम्, पम्पाशिल्पादयः (उणादि० ३००) इति साधुः, नृत्यादिकलेति यावत् । उक्तं चाऽभिधानचिन्तामणौ - " शिल्पं कला विज्ञानं च ।" इति । कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे शिल्पानि शिक्षितवतः क्षपकस्य सत्कर्मणि शिल्पेषु बद्धदलं विद्यते, कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरेऽशिक्षितवतस्तु न विद्यते। उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- “कम्म-सिप्पेसु भज्जाणि ।” इति । " गुरुस्थितिरसयोः- उत्कृष्टस्थित्यामुत्कृष्टरसे च बद्धदलं क्षपकस्य सत्कर्मणि विभाषया विद्यते । अत्र मुग्वोदक आह- ननूत्कृष्टस्थितिमुत्कृष्टानुभागं च क्षपको न बघ्नाति, तर्हि विभापयाऽपि सत्कर्मण्युत्कृष्टस्थित्यामुत्कृष्टाऽनुभागे च बद्धदलं कथं संभवति ? इति अत्रोच्यते - उत्कृष्टस्थितित्रन्त्रकाले बद्धं कर्मदमुत्कृष्टस्थितौ बद्दलपुव्यते, एवमुत्कृष्टाऽनुभागबन्धकाले बद्धं कर्मदलमुत्कृष्टानु भागे बद्धदलमभिधीयते तव्च क्षपकस्य सत्कर्मणि भजनया विद्यते, येन क्षपकेण कर्मा-ऽवस्थानकालाभ्यन्तर उत्कृष्टस्थितिबन्धकाल उत्कृष्टाऽनुभागबन्धकाले च कर्मदलं बद्धम्, तस्य सत्कर्मण्युत्कृष्टस्थित्यामुत्कृष्टाऽनुभागे च बद्धदलं विद्यते, येन क्षपकेण कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे सर्वत्रैवाऽनुत्कृष्टस्थितिरनुत्कृष्टाऽनुभागश्चाऽवध्यत । तस्य सत्कर्मण्युत्कृष्टस्थित्यामुत्कृष्टानुभागे च बद्धदलं न विद्यते, संभवविरहात् । यदुक्तं कषायप्राभृतचूर्णी- “उक्कस्स डिदि - बद्धाणि उक्कस्सअणुभागबडाणि च भजिदव्वाणि ।” इति । इहोत्कृष्टस्थित्यनुभागौ मोहनीयस्यैव गृह्येते तस्यैव प्रस्तुतत्वात् । यद्यपि सप्तानामपि कर्मणामुत्कृष्टस्थितिग्रहणे न कचिद् दोषः, तथाप्युत्कृष्टानुभागः शुभानां ग्रहीतुं न शक्यते, शुभानां गोत्र - वेदनीय-नामरूपाणां कर्मणामुत्कृष्टानुभागस्य क्षपकसूक्ष्मसम्परायचरमसमये बन्धसद्भावेन किट्टिकरणाद्धायां तदसम्भवात् ।।११२॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशमार्गणानामुत्तरमार्गरणासु बद्धदलस्य भजनीयाऽभजनीया च सत्ता (गाथा:-१०५-१०६-१०७-१०८-१०६-११०) १ गतिः २ इन्द्रियम् ३ कायः ४ योगः ५ वेद: ६ कषायः ७ ज्ञानम् ८ संयमः ६ दर्शनम् १० लेश्या ११ भव्यः १२ सम्य-१३ संज्ञी १४पाहायासु बद्धदलं मनुष्यः एकेन्द्रियः त्रसकाय: ४मनोयो० नपुंसक: ४ कषायाः मतिज्ञानम् अविरतिः चक्षुदर्श- |६ लेश्याः भव्यः कत्वम् संज्ञी रक: सत्तायां नियमतो तिर्यग पञ्च न्द्रियः ४वचो ,, श्रु त , सामायि-- नम् मिथ्यात्वम् असंज्ञी आहारक: विद्यते, ता: १ौदामत्य, क: प्रचक्षुर्द प्रौपशमि० रिक: श्र ता" क्षायोप१तन्मिश्र: क्षायिकम् सर्वसंख्यया १० | । २ । ६ शमिकम् । यासु बद्धदलं नरक: सत्तायां विभाषया सुरः वर्तते, ता: द्वीन्द्रियः पृथिवी- वैक्रियः स्त्रीवेद: त्रीन्द्रियः कायः तन्मिश्रः पुरुषवेद: चतुरि- अप्कायः आहारक: न्द्रियः तेज:कायः तन्मिश्रः वायुकाय: कार्मण: वनस्पति अवधि० देशवि- अवधिदर्शन मनःपर्या रतिः नम् विभङ्गज्ञा-परिहार० १ नम् छेदोप० मिश्रमार्गणा सास्वा-- दनम् अनाहारक: १२७ प्रभव्यः यासु बद्धदलं सत्तायां नियमतो न विद्यते, ता: कवलज्ञा- सूक्ष्मसं० केवलनम् यथाख्या० दर्शनम् सातसातादिषु बद्धदलिकस्य भजनीयाऽभजनीया च सत्ता (गाथा-१११-११२) यत्र बद्धदलिकस्य सत्ता नियमात् भवति- यत्र बद्धदलिकस्य सत्ता विकल्पेन भवति(१) सातवेदनीयोदयः (१) सर्वलिङ्गानि (२) असातवेदनीयोदयः (२) अङ्गारादिकर्माणि (३) पर्याप्तजीवभेदः (३) शिल्पम् (४) अपर्याप्तजीवभेदः (४) उत्कृष्टस्थितिः (५) असंख्येया एकेन्द्रियभवाः ५) उत्कृष्टानुभागः एकतः प्रभृति संख्येयेषु त्रसभवेषु बदलिकस्य सत्ता भवति (गाथा–११२) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३३ किट्टिकरणाद्धायां रसवेदनम्] किट्टिकरणाद्धाधिकारः साम्प्रतं मनुष्यगत्यादिमार्गणासु सातोदयादिस्थानेषु च बद्धदलं सत्कर्मणि नियमतो यद् विद्यते, तत् सर्वकिट्टिषु प्रक्षिप्तं भवतीत्येतदभिधातुकाम आह खवगाणं संते णियमत्तो कहियदलिअं तु वट्टइ। सबट्टिईसु तह सव्वासुकिट्टीसु णियमेणं ॥११३॥ क्षपकाणां सत्तायां नियमतः कथितदलिकं तु वर्तते। सर्वस्थितिषु तथा सर्वासु किट्टिषु नियमेन ॥११३।। इति पदसंस्कारः । 'खवगाणं' इत्यादि, 'क्षपकाणां' किट्टिकाराणां किट्टिवेदकानां चेत्यर्थः, सत्तायां नियमतः 'कथितदलिक' मनुष्यगत्यादिमार्गणासु सातोदयादिस्थानेषु च बद्धत्वेन कथितं प्रदेशाग्रंतु 'सर्वस्थितिषु' मोहनीयस्य जघन्यस्थितितः प्रभृत्युत्कृष्टस्थितिं यावत् सर्वस्थितिस्थानेषु तथा सर्वासु किट्टिषु लोभप्रथमावान्तरकिट्टित आरभ्य क्रोधचरमाऽवान्तरकिट्टि यावत् सर्वावान्तरकिट्टिषु 'नियमेन' अभजनया वर्तते । उक्त च कषायप्राभृते "एदाणि पुव्वबद्धाणि होति सव्वेसु हिदिविसेसेसु। सव्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्टीसु ॥१॥इति । यासु मार्गणासु बद्धकर्मदलिकं भजनया भवति, तासु बद्धदलं जघन्यत एकस्थित्यामेकावान्तरकिट्टौ च विद्यते, तत एकोत्तरवृद्धिक्रमेणोत्कृष्टतः सर्वस्थितिषु सर्वावान्तरकिट्टिषु च विद्यत इत्यपि ज्ञातव्यम् ॥११३॥ किट्टिकरणाद्धायां वर्तमानो जीव किं स्पर्धकानि वेदयते? उत किट्टीरप्यनुभवति? इत्याशङ्काव्युदासाय प्राह किट्टीकरणे पुवापुब्वाइं फड्डगाणि अणुहवइ ॥ पढमट्टिईअ आवलिंगासेसाए समत्तद्धा ॥११४॥ किट्टिकरणे पूर्वापूर्वाणि स्पर्धकान्यनुभवति । प्रथमस्थित्यामावलिकाशेषायां समाप्ताद्धा ॥११४।। इति पदसंस्कारः। 'किट्टी' इत्यादि, 'किट्टिकरणे' किट्टिकरणाद्धायां वर्तमानः क्षपकः पूर्वापूर्वाणि स्पर्धकानि' पूर्वस्पर्धकान्यपूर्वस्पर्धकानि च 'अनुभवति' वेदयते, किट्टीस्तु न वेदयते । यदभिहितं कषायमाभृतचूर्णी-"किट्टीओ करेंतो पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च वेदेदि, किट्टीओण वेदयदि ।” इति । यथाऽश्वकर्णकरणाद्धायामपूर्वस्पर्धकानि कुर्वाणः क्षपकः पूर्वस्पर्धकैः सहा- पूर्वस्पर्धकान्यपि वेदयति स्म, तथा किट्टिकरणाद्धायां किट्टीनिवर्तयन् किट्टीनं वेदयति, किन्तु किट्टिकरणाद्धायामपि पूर्ववत् पूर्वापूर्वस्पर्धकानि वेदयतीति फलितार्थः । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] खगढी [ गाथा-- ११५ सम्प्रति किट्टिकरणाद्धायाः समाप्तिमभिधत्ते - ' पढमहिईअ' इत्यादि, 'प्रथमस्थित ' पूर्वा पूर्वस्पर्धकतया विद्यमानस्य संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थित्यामावलिकाशेषायां 'समत्ता' ति अद्धा - प्रस्तुतत्वात् किट्टिकरणाद्धा समाप्ता भवति । निगदितं च कषायप्राभृतचूर्णौ - "किट्टीकरणडा गिट्ठायदि पढमट्ठिदोए आवलियाए सेसाए ।” इति ॥ ११४ ॥ अथ किट्टिकरणाद्धाचरमसमये स्थितिबन्धं व्याजिहीर्षु राह किकरणस्स चरिमे बंधो मोहस्स चउमासा । अंतोमुहुत्तअहिया पराण संखियसहस्सवासाई ॥ ११५ ॥ (उद्गगीतिः) किट्टिकरणस्य चरमे बन्धो मोहस्य चतुर्मासाः । अन्तर्मुहूर्ताधिकाः परेषां संख्यसहस्रवर्षाणि ॥ ११५ ॥ इति पदसंस्कारः । 'ago इत्यादि, 'किट्टिकरणस्य किट्टिकरणाद्वायाः 'चरमे' चरमसमये 'मोहस्य' संज्वलन - चतुष्कस्य प्रत्येकं बन्धः' स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्त्ताधिकाञ्चतुर्मासा भवति । व्याहारि च कषायप्राभृतचूर्णी - "किट्टीकरणडाए चरिमसमए संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा अंतोमुहुत्त भहिया ।" इति । ननु गाथायां चतुर्मासा इति समस्त निर्देशोऽसाधुः, यतो "विशेषणं विशेष्येणैकार्थ कर्मधारयश्च" (सिद्धम०३ - १ - ९६ ) इति सूत्रेण कर्मधारय समाससिद्धौ 'संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम्” (सिद्धहेम ०३ - १ - ९९ ) इत्येतत्सूत्रारम्भो नियमार्थः । नियमाकारचऽयम् - - संख्यावाचि परेण नाम्ना समाहारसंज्ञातद्वितोत्तरपद एव समस्यते, नाऽन्यथा । तेन चत्वारो मासा इति चतुर्मासा इति समासो 'विशेषणं विशेष्येणैकार्थं कर्मधारयश्च" ( सिद्धहेम०३-१-९९ ) इत्यनेन सूत्रेणाऽपि न भवेत् यथाऽष्टौ प्रवचनमातर इति चेत्, मैत्रम्, चतुःसंख्यका मासा इति मध्यमपदलोपाच्चतुर्मासाः । अयं भावः - आदौ चतुश्शब्दस्य संख्याशब्देन सह बहुब्रीहिसमासः, ततश्चतुः संख्यकशब्दस्य मासशब्देन कर्मधारय समासो मध्यमपद लोपश्वेति न कविद् दोषः । अश्वकर्णकरणाद्धायाश्वरमसमये योऽष्टवर्पप्रमाणः स्थितिबन्ध आसीत् स प्रतिस्थितिबन्धाद्धं हीनो हीनतरो भवन् किट्टिकरणाद्धाचरमसमयेऽन्तर्मुहूर्ताधिकचतुप्रमाणो भवतीत्यर्थः । 'पराण' इत्यादि, 'परेषां मोहनीयवर्णानां ज्ञानावरणादीनां षण्णां स्थितिबन्धः संख्यसहस्रवर्षाणि भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो — “सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ।" इति । अथकर्णकरणाद्धाचरमसमये यः संख्येयवर्षसहस्रप्रमाणः स्थितिबन्धः शेषकर्मणामासीत्, स संख्येयगुणेन हीनो हीनतरो भवन्निदानीमपि संख्येयवर्ष - सहस्रमात्रो भवति, संख्येयसहस्राणां संख्येयभेदत्वादित्यर्थः ॥ ११५ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिकरणाद्धाचरमसमये सत्ता] किट्टिकरणाद्धाधिकारः [ २३५ अथ किट्टिकरणाद्धाचरमसमये स्थितिसचं निगदितुकाम आइ ठिइसंतं मोहस्सऽडवासा अंतोमुहुत्तअभहिआ। घाईण संखवरिससहस्साणि असंखवच्छराऽन्नाणं ॥११६॥(गीतिः) स्थितिसत्त्वं मोहस्याष्टवर्षा अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकाः । घातिनां संख्यवर्षसहस्राण्यसंख्यवत्सरा अन्येषाम् ।।११६।। इति पदसंस्कारः । 'ठिइसंत' इत्यादि, तत्र मोहस्य' संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिसत्त्वम् अन्तर्मुहूर्ताऽभ्यधिकाः' अन्तर्मुहूर्तकालेनाऽविका अष्टवर्षा भवति, अवकर्णकरणाद्धाचरमसमये मोहनीयकर्मणो यत् स्थितिसचं संख्यातवार्षिकं भवति स्म, तत् संख्येयमहलस्थितिघातैर्घातितं सदिदानीमन्तमुहूर्ताविकाष्टवर्षप्रमाणं जायत इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- चेव किट्ठीकरणडाए चरिमसमये मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं संखेज्जणि वस्ससहस्साणि हाइदूण अट्ठवस्सिगमंतोमुहुत्तब्भहियं जादं ।" इति । _ 'घाईण' इत्यादि, 'घातिनां' मोहनी पस्योक्तत्वाद् मोहनीयवर्जशेषघातिकर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायलक्षणानां त्रयाणां कर्मणां स्थितिसचं किट्टिकरणाद्धाचरमसमये संख्यवर्षसहस्राणि भवति । उक्त च कषायप्राभृतचूर्यो-"तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्म संखेजाणि वस्ससहस्साणि।" इति । 'असंख०' इत्यादि, तत्र 'अन्येषाम्' अघातिकर्मणां नाम-गोत्र-वेदनीयानां स्थितिसचम् 'असंख्यवत्सराः' असंख्येयानि वर्षसहस्राणि भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी“णामागोदवेदणोयाणं ठिदिसंतकम्ममसंखेज़ाणि वस्ससहस्साणि ।” इति । घातित्रयस्याऽघातित्रयस्य चाऽश्वकर्णकरणाद्धाचरमसमयेऽनुक्रम संख्येयवर्षसहस्रप्रमितमसंख्येयवर्षप्रमाणं च यत् स्थितिसचमासीत्, तत् प्रतिस्थितिघातकालेन हीनं भवत् संख्यातेषु स्थितिघातेषु गतेष्वपि यथाक्रम संख्येयसहस्रवर्षमात्रमसंख्येयवर्षसहस्रप्रमितं चैव विद्यत इत्यर्थः ॥११६॥ समाप्तः किटिकरणाडाख्य; पञ्चमोऽधिकारः । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] ० ० 2 ० ० ↑ ० ० • 9 • ० ० 2 ० O ० ० O O ० ० aarसेटी किकिरणाद्धाचरमसमयमाश्रित्य चित्रम् ↑ ० सर्व दलं किट्टितया ० ० ० ० ० 0 ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० O ० ० ० • द्वितीयस्थितिः ० ० ० ० ० ० परिणतम् ० अ न्त र क र ण म् ० ० O ० ० ० O 3 ० כי * एतच्चिह्नमुपरितनीं स्थिति सूचयति । ० ० ० एतानि शून्यानि कर्मलिकानि सूचयन्ति । १= आवलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिः, तस्यां च पूर्वापूर्व स्पर्धकानि । २ = किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः । ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० • ० ० ० O ० ० ० ३ [ चित्रम् (अ) तदानीं मोहनीयस्य स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्ताधिकाञ्चत्वारो मासाः ( गाथा - ११५ ) ब) तदानीं शेषकर्मणां स्थितिबन्धः संख्येयानि वर्षसहस्राणि । ( गाथा - ११५ ) (स) तदानीं मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूताधिकानुवर्ष प्रमितम् । (गाथा- ११६ ) (द) तदानीं घातिकर्मणां स्थितिसत्त्वं संख्यातवार्षिकम् (गाथा- ११६ ) (न) तदानीमघातिकर्मणां स्थितिसत्त्वमसंख्ये यवर्षप्रमितं भवति । ( गाथा - ११६ ) ३= तदानीं समयोन द्वयावलिकाबद्धनूतनदलमा त्रलिकामात्रप्रथमस्थितिगतं च दलं वर्जयित्वा शेषं सर्व मोह नीदलं किट्टितया परिणमयति । ★ समयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलं किट्टितया न परिणतम् । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिप्रथम स्थिति: ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [२३७ अथ “यथोद्देशं निर्देशः " इति न्यायेन क्रमप्राप्त षष्ठमधिकारं किट्टिवेदनाद्धाख्यं विवर्णयिपुराह तत्तो य कोहपढमं ओकड्ढित्त करेइ पढमठि । वेयइ बंधो मोहस्स उ चउमासा पराण पुव्वत्तो ॥ ११७ ॥ (गीतिः) • ततश्च क्रोधप्रथमामपकृष्य करोति प्रथमस्थितिम् । वेदयतिबन्ध मोहस्य तु चतुर्मासा परेषां पूर्वोक्तः ॥ ११७ ॥ इति पदसंस्कारः । ' तत्तो' इत्यादि, 'ततश्च' किट्टिकरणाद्धाचरमसमयाच्चाऽनन्तरं क्षपकः ' क्रोधप्रथमां' क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिमपकृष्य प्रथमस्थिति 'करोति' निर्वर्तयति 'वेदयति' अनुभवति च । अत्र चशब्दाभावेऽपि चशब्दार्थः समुच्चयः प्रतीयते । यथा अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम् । वैवस्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी ॥१॥ इत्यत्र चशब्दमन्तरेणाप्येकस्यां नयनक्रियायां गवादीनां समुच्चीयमानतया समुच्चयप्रतीतिरस्त्येव, तथा प्रस्तुतेऽपि क्षपकलक्षण एकस्मिन् कर्तरि करण-वेदन क्रिययोः समुच्चयश्चशब्दं विनाऽपि प्रतीयत इति भावः । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी- “किट्टोकरण डाए निट्ठिदाए कोहेण पडिवण्णो सेकाले पढमकिट्टीदलियं विदियठिदिगयं उक्कड्ढेत्तु पढमठितियं करेइ वेदेह य ।" इति । इदमत्र हृदयम्-किट्टिकरणाद्वायां क्रोधादीनां या प्रभूताऽनुभागका तृतीया संग्रहकिट्टिरासीत्, सा किट्टिवेदकस्य प्रथमा संग्रह किट्टिर्ज्ञातव्या, एवं किट्टिकारस्य या प्रथमा संग्रह किट्टिरासीत्, सा किट्टिवेदकस्य तृतीया संग्रहकिट्टिबद्धव्या, पश्चानुपूर्व्या संग्रहकट्टीनां वेदनात् । न च किट्टि - करणाद्धायां या प्रथमसंग्रह किट्टिरासीत्, सैवाऽत्र ग्रहीतव्या, विपर्यासस्य गौरवादिति वाच्यम्, विरोधोपलम्भात् । तथाहि त्रक्ष्यत एकविंशत्यधिकशततमया (१२१) गाथया क्रोधादीनां वेद्यमानायाः संग्रह किया असंख्येयवहुभागा वध्यन्ते वेद्यन्ते चेति । तत्र बन्ध उदयश्चाऽनुभागमाश्रित्य प्रतिसमयमनन्तगुणहीनक्रमेण प्रवर्तेते । तेन किट्टिकारस्य या प्रभूतानुभागका तृतीया संग्रह किट्टिः सैवादौ वेदवितव्या, अन्यथा प्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्वायां पूर्णायामनन्तरसमये द्वितीयसंग्रह किट्टिं वेदयंस्तस्या बहुसंख्येयभागान् बध्नीत वेदयेच्च । तथा च सति तात्कालिको बन्धोदयावनुभागमाश्रित्य पूर्वसमयतोऽनन्तगुणी प्रसज्येताम् किट्टिकारस्य प्रथम संग्रह किट्टितो द्वितीय संग्रह किट्टया अनन्तगुणत्वात् । न च तदिष्यते, प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धयां प्रवर्धमानस्य किट्टिवेदकस्य बन्धोदययोरनुभागमाश्रित्याऽनन्तगुणहीनत्वात् । न चात्रादौ तृतीयसंग्रहकिट्टि वेदयतीत्युच्यतामिति वाच्यम् पूर्वमहर्षिभिः कषायप्राभृतचूर्णिकारसप्ततिकाचूर्णिकारादिभिः प्रथमं प्रथमसंग्रह किट्टिं वेदयति, ततो द्वितीयां ततस्तृतीयामित्युतत्वाद् इति दिग् । " Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] खवगसेढी [ गाथा-११८ अथ किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये द्वितीयस्थितिगतकोवप्रथमसंग्रहकिट्टितः प्रदेशान समाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति । वेदनकालस्य पश्चानुपूर्व्या विशेषाधिकत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् क्रोधवेदनकालस्य साधिकत्रिभाग क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालतश्चाऽऽवलिकयाऽधिककाले क्रोधप्रथमसंग्रहकिदृथाः प्रथमस्थितिं करोति । तत्र दलनिक्षेपविधिश्वाऽयम्-उदयनिषेके स्तोकं दलं प्रक्षिपति, ततोऽनन्तरनिषेकेऽसंख्येयगुणं प्रक्षिपति । ततोऽप्यसंख्येयगुणं तृतीयनिषेके प्रक्षिपति । एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिहिवेदनकालत आवलिकयाऽधिकां स्थिति प्राप्नोति । ततो द्वितीयस्थितिगतप्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलिकं प्रक्षिपति । तत ऊर्ध्व विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । यस्मिन् समये क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिं करोति, तस्मिन्न व समये क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टि वेदयत्यपि ।। ___अथ किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये स्थितिबन्धं भणति-'बंधो' इत्यादि, बन्धः' स्थितिबन्धः मोहस्य' मोहनीयकर्मणस्तु'चतुर्मासाः' चातुर्मासिको भवति, प्राक्तनसमये योऽन्तमुहूर्ताऽधिकचातुर्मासिको जायते स्म, स इदानीमन्तमुहूर्तेन हीनो भूत्वा चातुर्मासिको जायत इत्यर्थः। 'परेषां' ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तराय-नाम-गोत्र-वेदनीयरूपाणां कर्मणां बन्धः पूर्वोक्तो भवति, पञ्चदशाधिकशततमगाथया शेषकर्मणां संख्येयवर्षसहस्राणि यः स्थितिबन्धः प्रोक्तः, स किट्टिवेदनप्रथमसमयेऽपि संख्येयसहस्रवर्षाणि भवति, किन्तु पूर्वतः संख्येयगुणहीनो भवतीत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-"किहोणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा, णामगोदवेदणीयाणं चेव घादिकम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि।" इति ॥११७|| किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये प्रथमस्थितिमुक्त्वा सम्प्रति प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च दलिकावस्थानं प्रारूपयिषुः संग्रहगाथां भणतिवेइज्जमाण किट्टीअ दलमसंखगुणणाअ पढमठिईए। चरिमणि सेगा बीयपढमे असंखगुणमुवरि तु विसेसूणं ॥११८॥ (गीतिः) वेद्यमानकिट्टया दलमसंख्यगुणनया प्रथमस्थितौ।। चरमनिषकाद् द्वितीयप्रथमेऽसंख्यगुणमुपरि तु विशेषोनम् ॥११८॥ इति पदसंस्कारः 'वेइज्ज०' इत्यादि, वेद्यमानकिट्टयाः' या संग्रहकिट्टिद्यते, तस्याः 'प्रथमस्थितौ' आदिमस्थितौ 'दलं' प्रदेशाग्रम् 'असंख्यगुणनया' असंख्येषगुणकारेण भवतीति शेषः, असंख्येयगुणक्रमेण प्रथमस्थितौ दलिकस्य प्रक्षिप्तत्वात्, वेद्यमानसंग्रहकिट्टया उदयनिषेके स्तोकं दलं भवति, ततो द्वितीयनिषेकेऽसंख्येयगणं भवति, ततोऽपि तृतीयनिषेकेऽसंख्येयगुणं भवति, एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावद् वक्तव्यम् , यावद् वेद्यमानसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितेश्वरमनिषेक इत्यर्थः । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमस्थितिद्वितीयस्थित्योदलावस्थानम् ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ २३९ 'चरिमणिसेगा' इत्यादि, चरमनिषकात्' वेद्यमानसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितेश्वरमनिषेकतो 'द्वितीयप्रथमे' वेद्यमानसंग्रहकिट्टिद्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दलिकमसंख्येयगुणं भवति,प्रथमस्थितेर्यश्चरमनिपेकः, तस्योपर्यन्तरकरणं परित्यज्य द्वितीय स्थितेयः प्रथमनिषकः, तस्मिन् प्रथमस्थितिचरमनिपेकतोऽसंख्येयगुणं दलं भवतीत्यर्थः । कथमेतदवसीयते? इति चेत्, उच्यते-वेद्यमानसंग्रहकिट्टिप्रदेशसत्कर्मणोऽसंख्येयभागमात्रं दलं द्वितीयस्थितितः संख्यातगुणहीनायां प्रथमस्थितौ यथाविभागं प्रक्षिप्तम्, सत्तागतदलाऽसंख्येयभागस्योत्कीर्णत्वात् । द्वितीयस्थितौ तु बह्वसंख्येयभागमात्रदलं द्वितीयस्थितेः संख्येवावलिकामात्रत्वेन प्रथमस्थितितः संख्यातगुणायां विशेषहीनक्रमेण तिष्ठति । तेन प्रथमस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं भवति । किञ्च प्रथमस्थितिं कुर्वता प्रथमस्थितिचरमभिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलिकं प्रक्षिप्तम्, तेनाऽपि सिध्यति-प्रथमस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं भवतीति । अथ द्वितीयस्थितेर्दितीयादिनिपेकेषु दलिकावस्थानं दर्शयति-'उवरि' इत्यादि' 'उपरितु' वेद्यमानसंग्रहकिट्टिद्वितीयस्थितिप्रथमनिपेकस्योपरि तु 'विशेषोनं' विशेषहीनक्रमेण दलिकं भवति । इदमुक्त भवति-वेद्यमानसंग्रहफिट्टिद्वितीयस्थितेः प्रथमनिषेकतो द्वितीयस्थितिद्वितीयनिषेके विशेषहीनं दलिकं भवति, ततोऽपि तृतीयनिके विशेषहीनं दलमवतिष्ठते, एवं विशेषहीनक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावद् वेद्यमानसंग्रहकिट्टिद्वितीयस्थितेश्वरमनिषेकः । यदुक्तं कषायप्राभतचो—“जं किटिं वेदयदे, तिस्से उदयहिदीए पदेसग्गं थोवं, विदियाए हिदीए पदेसग्गमसंखेजगुणं । एवमसंखेजगुणं जाव पढमहिदीए चरिमहिदि त्ति । तदो विदियहिदीए जा आदिद्विदी, तीसे असंखेजगुणं, तदो सव्वत्थ विसेसहीणं।” इति। इयं तु संग्रहगाथा । संग्रहगाथा नाम संक्षेपगाथा, सर्वासां वेद्यमानकिट्टीनां दलिकावस्थानस्यैकयैव गाथया कथनात् । प्रकृते तु क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया वेद्यमानत्वात् क्रोधप्रथमसंग्रहकियाः प्रथमस्थितौ दलिकमसंख्येयगुणक्रमेण तिष्ठति, ततः प्रथमस्थितेश्वरमनिषेकतो द्वितीयस्थितेः प्रथमनिषेके-ऽसंख्येयगुणं तिष्ठति, ततो विशेषहीनक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिद्धितीयस्थितेश्वरमनिपेकः । अयमों यथास्थानं क्रोधद्वितीयादिवेद्यसंग्रहकिट्टिप्ररूपणावसरे भावनीयः। अवेद्यमानसंग्रहकिट्टयास्तु प्रथमस्थित्यभावाद् द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकतः प्रभृति चरमनिषेकं यावत् प्रदेशाग्र विशेषहीनक्रमेण तिष्ठति । तदेवं दर्शितं संग्रहकिट्टियनन्तरोपनिधया दलिकावस्थानम्। सम्प्रति परम्परोपनिधया तत् प्रतिपाद्यते, सर्वासां वेद्यमानाऽवेद्यमानसंग्रहकिट्टीनां द्वितीयस्थितेश्वरमनिषेकतः प्रथमनिषेकेऽसंख्येयभागाधिकं दलं भवति, स्थितिसत्कर्मणो Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] किट्टवेदनाद्वाधिकारः [ गाथा- ११९ वर्षपृथक्त्वमात्रत्वात् । इदमुक्त' भवति - द्वितीयस्थितिनिषेकेषु प्रदेशाग्र विशेषहीनं तेन क्रमेण तिष्ठति, येन प्रथमनिषेकतः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते प्रदेशाग्र द्विगुणहीनं भवेत् । अत्र तु स्थितिसत्कर्मणो वर्षपृथक्त्वमात्रत्वाच्चरमनिषेकः पल्योपमाऽसंख्येयभागस्याऽसंख्येयभाग एव ग प्राप्यते, तेन द्वितीयस्थितिप्रथम निषेकगत प्रदेशाग्रतो द्वितीयस्थितिचरमनिषेकगतप्रदेशाय विशोधिते शेषोऽसंख्येयभागः प्राप्यते, स च वर्षपृथक्त्वसमयभाजितपल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणनिषेकभागहारेण द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकं विभज्य यल्लभ्यते, तन्मात्रो भवति । यदुक्तं कषायप्राभूते "विदियहिदिआदिपदा सुद्धं पुण होदि उत्तरपदं दु । सेसो असंखेज्जदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥ १ ॥” इति । तथैव तच्चूर्णावपि - "विदियाए द्विदीए उक्कस्सिगाए पदेसग्गं तिस्से चैव जहण्णिगादो ट्ठिदोदो सुद्धं सुद्ध सेसं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागियं ।” इति ॥ ११८ ॥ किट्टवेदनाद्वायाः प्रथमसमये स्थितिषु दलिकावस्थानं प्ररूप्य सम्प्रति वेद्यमानसंग्रह - किट्ट्यास्तदितरासां च प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ चाऽनुभागावस्थानं प्रतिपिपादयिपुराह - वेइज्जमाण किट्टीए सव्वठिईसु होन्ति सव्वा किट्टी | नवरं उदये खल मज्झिमाऽत्थि सव्वा पराण बिइयठिईए ॥ ११९ ॥ (आर्यागीतिः) वेद्यमान कियाः सर्वस्थितिषु भवन्ति सर्वाः किट्टयः । नवरमुदये खलु मध्यमाः सन्ति सर्वाः परासां द्वितीयस्थितौ ॥ ११९ ॥ इति पदसंस्कारः । 'वेइज्ज०' इत्यादि, 'वेद्यमानकिट्टयाः ' वेद्यमान संग्रह किट्टयाः 'सर्वस्थितिषु' सर्वेषु प्रथमस्थितिनिपेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु च सर्वाः 'किट्टयो' अवान्तरकिट्टयो भवन्ति । सामान्येनाऽभिधायाऽपवादं दर्शयति- 'नवरं' इत्यादि, नवरम्' उदये' उदयनिषेके खलु 'मध्यमाः’असंख्येभागप्रमाणास्तत्रानुभागका मन्दानुभागकाच वर्जयित्वा शेषा अवान्तरकिट्टयः 'सन्ति' विद्यन्ते, असंख्येयभागप्रमाणाऽवान्तरकिड्डीनां मध्यमावान्तर किट्टिरूपेण परिणतत्वात् । इदमुक्तं भवतिवेद्यमानसंग्रह कियाः सर्वा अवान्तरकियो द्वितीयस्थितेरेकैकनिषेके भवन्ति, एकैकस्या अवान्तरकिट्ट्याः प्रदेशास्तस्मिंस्तिष्ठन्तीत्यर्थः । न च कश्चिद् द्वितीयस्थितिनिषेकस्तादृशोऽस्ति, यस्मिन् कस्याश्चिदवान्तरकिट्टयाः प्रदेशा न भवेयुः । प्रथमस्थितौ त्वयं विशेष:- द्वितीयस्थितिगतसर्वा - वान्तरकिट्टिभ्यः प्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयसमयादारभ्य प्रथमस्थितिचर मनिषेकं यावदेकैकाऽवान्तर Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिष्ववान्तरकिट्टीनामवस्थानम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२४१ किट्टिप्रदेशान् प्रक्षिपति, किन्तूदयसमयेऽसंख्येयभागप्रमाणानां तीव्रानुभागकानां मन्दानुभागकानां चावान्तरकिट्टीनां प्रदेशान् मध्यमावान्तरकिट्टिस्वरूपेण परिणमयति । एवं किट्टिवेदनाद्धाद्वितीयादिसमयेष्वप्युदये प्रविष्टानामसंख्येयभागप्रमाणानामवान्तरकिट्टीनां प्रदेशान् मध्यमावान्तरकिट्टिस्वरूपेण परिणमयति, तेनोदयनिषेके सर्वा अवान्तरकिट्टयो न भवन्ति, किन्तु बह्वसंख्येयभागप्रमाणा मध्यमा भवन्ति, शेषप्रथमस्थितिनिषकेषु तु वेद्यमानसंग्रहकिट्टिसर्वावान्तरकिट्टयो भवन्ति । न चोदयसमयेऽनुभागहासोऽसिद्ध इति वाच्यम् , कषायप्राभूतचूर्णिकारादीनां वचनप्रामाण्येन तस्य सिद्धत्वात् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णिकारैः-"तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तण सेसेसु समएसु जा संगहकिट्टी वेदिजमाणिगा, तिस्से अंतरकिटोओ सव्वाओ ताव धरिज्जंति, जाव ण उदयं पविट्ठाओ त्ति । उदयं जाधे पविट्ठाओ, ताधे चेव तिस्से संगहकिट्टीए अग्गकिहिमादि कादूण उवरि असंखेज्जदिभागो जहणियं किहिमादि कादूण हेट्ठा असंखेज्जदिभागो च मज्झमकिट्टीसु परिणमति ।” इति । अथाऽवेद्यमानसंग्रह किट्टीनामनुभागावस्थानं प्ररुरूपयिषुराह-सव्वा' इत्यादि, तत्र 'परासां' वेद्यमानसंग्रहकिट्टितोऽन्यासामवेद्यमानसंग्रहकिट्टीनामित्यर्थः, द्वितीपस्थितौ' द्वितीयस्थितिगतसर्वनिषेकेषु 'सर्वाः' अवेद्यमानसंग्रहकिट्टिसर्वावान्तरकिट्टयो भवन्ति, एकैकावान्तरकिट्टयाः प्रदेशा द्वितीयस्थितिगतैकैकनिषेके तिष्ठन्तीत्यर्थः । प्रथमस्थितेरभावात् प्रथमस्थिताववेद्यमानसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयो न भवन्ति । ___ इयं तु संग्रहगाथा । तेन प्रकृते क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया वेद्यमानत्वात् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयाः सर्वाऽवान्तरकिट्टयः सर्वेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषूदयनिषेकं च वर्जयित्वा सर्वेषु प्रथमस्थितिनिषेकेषु भवन्ति, उदयनिषेके पुनर्बह्वसंख्येयभागप्रमाणा मध्यमा अवान्तरकिट्टयो भवन्ति । अवेद्यमानानां क्रोधद्वितीयादिसंग्रहकिट्टीनां द्वितीयस्थितिसर्वनिषेकेषु सर्वा अवान्तरकिट्टयो भवन्ति । एवं शेषसंग्रहकिट्टिवेदनप्ररूपणावसरेऽप्ययमर्थो भावनीयः । यदुक्तं कषायप्राभूतचूरें-“कोधस्स पढमसंगहकिहि वेदंतस्स तिस्से संगहकिट्टीए एकेका किट्टी विदियहिदीसु सव्वासु पढमहिदीसु च उदयवजासु एक्कका किट्टी सव्वासु हिदीसु । उदयट्टिदीए पुण वेदिजमाणियाए संगहकिटोए जाओ किट्टीओ, तासिमसंखेज्जा भागा। सेसाणमवेदिज्जमाणिगाणं संगहकिट्टीणमेकेका किट्टी सव्वासु विदियहिदीसु, पढमहिदीसु णत्थि ।” इति ॥११९॥ अथ किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमनुभागसचं चाभिधातुकामः प्राह Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] खवगसेढी [गाथा-१२० ठिइसंतं मोहस्स वरिसट्टगं देसघाइ रससंतं । णवरं समयूणावलियाए कोहस्स सव्वघाइ भवे ॥१२०॥ (गीतिः) स्थितिसत्त्वं मोहस्य वर्षाष्टकं देशघाति रससात्त्वम् ।। नवरं समयोनाबलिकायां क्रोधस्य सर्वघाति भवेत् ॥१२०॥इति पदसंस्कारः । 'ठिइसंत' इत्यादि, तत्र 'मोहस्य' किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये संज्वलनक्रोध-मान-मायालोभात्मकमोहनीयस्य स्थितिसचं वर्षाष्टकं भवति, प्राक्तनसमयेऽन्तमुहर्त्ताधिकान्यष्टौ वर्षाणि यत् स्थितिसच्चमासीत्, तत् किट्टिवेदनकालप्रथमसमयेऽष्टवार्षिकं जायत इत्यर्थः । शेषकर्मणां तु स्थितिसत्त्वं पूर्ववदवसेयम् । तथाहि-मोहनीयवर्जघातित्रयस्य स्थितिसचं संख्येयसहस्रवर्षप्रमाणमघातित्रयस्य चाऽसंख्येयानि वर्षाणि भवति । किन्तु पूर्वत एकस्थितिखण्डेन हीनं भवति । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-"किटोकरणे णिहिदे किटीणं पढमसमयवेदगस्स णामागोदवेदणीयाणं विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि, मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्ममह वस्साणि । तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि।" इति। अथ मोहनीयस्या-ऽनुभागसत्त्वं भणति-'देसघाइ' इत्यादि, तत्र संज्वलनक्रोध-मान-मायालोभात्मकमोहस्य 'रससचम्' अनुभागसत्त्वं देशघाति भवति । तत्रापि द्विसमयोनद्वथावलिकाबद्धनूतनाऽनुभागः सत्कर्मणि स्पर्धकरूपेण विद्यते, किट्टिकरणकाले किट्टिरूपेण बन्धाभावात् शेषः सर्वोऽनुभागः किट्टिस्वरूयो वर्तते । यदभ्यधायिकषायप्राभृतचूर्णी-"संजलणाणं जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा, ते देसघादी, तं पुण फद्दयगदं । सेसं किटिगदं।" इति । क्रोधस्यानुभागसत्तायामपवादं दर्शयति-'णवरं' इत्यादि, नवरं 'समयोनावलिकायां' एकसमयन्यूनोदयावलिकायां 'क्रोधस्य' संज्वलनक्रोधस्य रससचं सर्वघाति भवति, तत्र पुरातनाऽनुभागसत्कर्मणो विद्यमानत्वेन सर्वघातित्वे विरोधाभावात् । यत् प्रत्यपादि कषायप्राभृतचूर्णी"अणुभागसंतकम्मं कोहसंजलणस्स जं संतकम्मं समयूणाए उदयावलियाए छट्टिदल्लिगाए तं सव्वघादि ।” इति । भावार्थः पुनरयम्-किट्टिकरणाद्धाया विचरमसमयं यावत् किट्टितया परिणतसकलप्रदेशाग्रतः स्पर्धकगतसकलप्रदेशाग्रमसंख्येयगुणं भवति, स्पर्धकगतगतसकलप्रदेशसत्कर्मणोऽसंख्येयभागमात्रस्य दलस्य किट्टितया परिणतत्वात् । किट्टिकरणाद्धाचरमसमये तु स्पर्धकगतं सर्व दलं फिट्टितया परिणमयति, नवरं क्रोवस्व विमुच्यमानप्रथमस्थितिचरमाऽऽवलिकामात्रस्थितिगतं संज्वलनचतुष्कस्य च समयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धनूतनदलगतमनुभागसत्कर्म किट्टितया न परिणमयति, उदयापलिकागतत्वाद् नूतनबद्धत्वाच्च । किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये क्रोधस्य प्राङमुक्ताऽऽवलिकायाः प्रथमनिषेकगतं दलं संक्रमेण किट्टितया परिणम्यते । तेन फिट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये क्रोवस्य समयोन Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर किट्टीनां बन्ध उदयश्व ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ २४३ विमुच्यमानावलिकागतमनुभाग सत्कर्म स्पर्धकस्वरूपेण सर्वघाति विद्यते, उदयावलिकायां प्राक्तनानुभागस्य सद्भावेन सर्वघातित्वसंभवात् । तथा संज्वलनचतुष्कस्य द्विसमयोनाऽऽवलिकाद्वयबद्धनूतनदलगता - Sनुभाग सत्कर्म स्पर्धकरूपेण देशघाति विद्यते, किट्टिकरणाद्वायां देशघातिस्पर्धकानां बन्धात् । शेषं सर्वमनुभागसत्कर्म किट्टिगतं भवति ॥ १२०॥ तर्हि किट्टवेदनाद्वाप्रथमसमये किट्टीनां बन्धं वेदनं चाऽभिधित्सुराह - को हाइपढमसंग हकिट्टीए बहुअसंखभागमिआ । मज्झिमकिट्टी बज्झते वेइज्जति कोहपढमाए ॥ १२२ ॥ ( गीतिः ) क्रोधादिप्रथम संग्रह किया बह्वसङ्ख्यभागमिताः । मध्यमकियो बध्यन्ते वेद्यन्ते क्रोधप्रथमायाः || १२१ || इति पदसंस्कारः । 'को हाइ०’ ०' इत्यादि, किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमये 'क्रोधादिप्रथम संग्रह किया ः ' क्रोध-मानमाया- लोभ लक्षणानां संज्वलनकषायाणां प्रथमसंग्रह किझ्या: 'बह्वसङ्घयभागमिताः ' बह्वसंख्येयभागप्रमाणा: 'मध्यमट्टियो' मध्यमावान्तर किडयो बध्यन्ते, क्रोधादीनां शेष संग्रह किट्टीनामवान्तरकियो न बध्यन्ते । क्रोधप्रथमायाः संज्वलनक्रोधप्रथम संग्रह किया बह्वसंख्येयभागप्रमाणा मध्यम कियो 'वेद्यन्ते' अनुभूयन्ते, शेषाः संग्रहकियो न वेद्यन्ते । प्रतिपादितं च श्रीकषायप्राभृतचूर्णो - " ताहे कोहस्स पढमाए संगह किहोए असंखेजा भागा उदिण्णा, एदिस्से चेव कोहस्स पढमाए संगह किट्टीए असंखेजा भागा बज्झंति, सेसाओ दो संगहकिट्टीओ ण बज्झंति, ण वेदिज्जति । xxx किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स माणस्स पढमाए संगह किट्टीए किट्टीणामसंखेज्जा भागा बज्नंति, सेसाओ संगहरुहोओ ण बज्झति, एवं मायाए, एवं लोभस्स वि ।" इति । 1 , भावार्थः पुनरयम्-किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथमसमयेऽपूर्वस्पर्धकानि न बध्नाति, किन्तु सर्वजघन्याऽवान्तर किट्टि पर्यवसानास्तत्तत्पापप्रथम संग्रह किट्टवान्तर किट्टीनामेकासंख्येय भागप्रमाणा अधस्तनीर्मन्दानुभागका अवान्तर किट्टीस्तथा सर्वोत्कृष्टावान्तरकिट्टिपर्यवसाना असंख्येय भागप्रमाणा उपरितनी: प्रभूतानुभागका अवान्तरकिट्टीर्वर्जयित्वा शेषा मध्यमाः संज्वलनचतुष्टयस्य प्रथमसंग्रह कियवान्तरकिट्टीबंध्नाति तत्तदवान्तरकिट्टिगतानुमागतो हीनानुभागका अधिकानु नागका चाचान्तरharastra | एवं क्रोधस्य प्रथम संग्रहकट्ट सर्वावान्तरकिट्टी नाम संख्येय नागप्रमाणा अथस्तनीर्मन्दानुभागका असंख्येयभागमात्री श्वोपरितनीः प्रभूतानुभागका अवान्तरकिडीमुक्त्वा शेषा मध्यमाऽवान्तरकिट्टीर्वेदयति । इदन्त्ववधेयम् - क्रोधप्रथम संग्रह किया बध्यमानाऽवान्तर किट्टयो वेद्यमानाऽवान्तरविट्टितो विशेषहीना भवन्ति, बन्धत उदयस्याऽनन्तगुणत्वेन बध्यमानाऽवान्तरकिट्टितो वेद्यमानाऽवान्तरकिट्टीनां विशेषाधिकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् ।। १२१|| Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] खवगसेढी [चित्रम् ० | • • सर्व • किट्टिगतं ° लम् ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टेर्द्वितीयस्थितिः ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० .००० अन्तरकरणम् ( ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० । क्रोधप्रथसंग्रहकिट्रिवेदनाद्धाचरमसमयः १क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमय सङ्केतस्पष्टीकरणम्१ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमय उदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणक्रमेण स्ववेदनकालत आवलि. काधिकायां स्थितौ दलं प्रक्षिप्य प्रथमस्थितिं करोति । (गाथा-११७) २ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिः, सा च क्रोधकिट्टिवेदनकालस्य साधिकत्रिभागमाना प्रथमसंग्रह किट्टिवेदनकालतश्चाऽऽवलिकयाऽधिका । (गाथा-११७) ३ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा (अ) क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनप्रथमसमये संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धश्चत्वारो मासाः। (गा०-११७) (ब) तदानीं शेषकर्मणां स्थितिबन्धः संख्येयवर्षसहस्राणि भवति (गाथा–११७) ४=क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलमुदयसमयादारभ्य प्रथमस्थितिचरमसमयं यावदसंख्येयगुणक्रमेणाऽवतिष्ठते । (गाथा-११८) ५=द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकः, तस्मिंश्च प्रथमस्थितिचरमनिषेकतोऽसंख्येयगुणं दलमवतिष्ठते (गाथा-११८), ततः परं विशेषहीनक्रमेण भवति। ६=द्वितीयस्थितिगतक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वावान्तरकिट्टिभ्यः प्रदेशा आकृष्य प्रथमस्थितौ प्रक्षिप्यन्ते । (गाथा-११९) ७ असंख्येयभागप्रमाणास्तीत्रानुभागका अवान्तरकिट्टयस्तथा ८=असंख्येयभागप्रमाणा मन्दानुभागका अवान्तरकिट्टयो मध्यमायान्तरकिट्टिस्वरूपेण परिणताः । एवं प्रतिसमयमुदयसमये मध्यमावान्तरकिट्टिस्वरूपेण परिणमन्ति । (गाथा–११९) क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमष्टवर्षप्रमितं भवति । (गाथा-१२०) ९-क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये समयोनावलिकागतमनुभागसत्त्वं सर्वघाति भवति । (गा०-१२०) १०-उदयसमये स्पर्धकगतानुभागः संक्रमेण किट्टितया परिणतः । (गाथा-१२०) । ११ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये द्विसमयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलं देशघातिस्पर्धकगतं तिष्ठति। क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयतः प्रभृति क्रोध-मान-माया-लोभानां प्रथमसंग्रहकिट्टेर्बह्वसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टयो बध्यन्ते । ( गाथा-१२१ ) । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४५ किट्टीनामल्पबहुत्वम्] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः साम्प्रतमध उपरि च विमुच्यमानाऽवान्तरकिट्टीनां मध्यमाऽवान्तरकिट्टीनां चाऽल्पबहुत्वं वक्तुकाम आह कोहपढमाअ हेट्ठिमणुभया थोवा तओ हविज्जन्ति अहिआ हेट्ठिमुदिण्णा तत्तो उवरिल्लअणुभया अहिआ॥१२२॥(गीतिः) तत्तो उवरिमुदिण्णा विसेसअहिया हवन्ति तत्तो वि । होन्ति असंखेज्जगुणा उभयाउ अवन्तरा किट्टी ॥१२३॥ क्रोधप्रथमाया अधस्तनानुभय्यः* स्तोकास्ततो भवन्ति । अधिका अधस्तनोदीर्णास्तत उपरितनानुभय्योऽधिकाः ॥१२२।। तत उपरितनोदी विशेषाधिका भवन्ति ततोऽपि । भवन्त्यसंख्येयगुणा उभय्यो-ऽवान्तराः किट्टयः ॥१२३।। इति पदसंस्कारः। 'कोह०' इत्यादि,इह खल्वधस्तनीरसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीरुपरितनीश्चाऽसंख्येयभागप्रमाणा अन्तरकिट्टीविमुच्य शेषा अवान्तरकिट्टयो बध्यन्ते, तथैवाऽधस्तनीरसंख्येयभागप्रमिता उपरितनीश्चा-ऽसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीः परित्यज्य शेषा अवान्तरकिट्टयो वेद्यन्ते । किन्तु बध्यमानावान्तरकिट्टितो वेद्यमानावान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति । तत्र या अवान्तरकिट्टयो न बध्यन्ते, नापि स्वरूपतो वेद्यन्ते, ता अनुभय्य उच्यन्ते । यद्यपि सर्वकिट्टिगतदलमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति, तथापि कियतीश्चिदुपरितन्योऽधस्तन्यश्चावान्तरकिट्टय उदयनिषेके मध्यमावान्तरकिट्टिस्वरूपेण परिणमन्ति । तत्र मध्यमावान्तरकिट्टिरूपेण परिणता मन्दानुभागका अधस्तनाऽनुभयो वान्तरकिट्टय उच्यन्ते, तीव्राऽनुभागकास्तूपरितनाऽनुभय्योऽवान्तरकिट्टयो निगद्यन्ते । अधस्तन्यो मन्दानुभागका या अवान्तरकिट्टयः केवलं वेद्यन्ते, न बध्यन्ते,ता अधस्तनोदीर्णा अवान्तरकिट्टयो व्यवह्नियन्ते । उपरितन्यस्तीत्रानुभागका या अवान्तरकिट्टयः केवलं वेद्यन्ते,न बध्यन्ते,ता उपरितनोदीर्णा अवान्तरकिट्टयो व्यपदिश्यन्ते । या मध्यमा अवान्तरकिट्टयो वध्यन्ते वेद्यन्ते च,ता उभय्योऽवान्तरकिय उच्यन्ते । अथ गाथोक्ताऽल्पबहुत्वं व्याख्यायते-'क्रोधप्रथमायाः' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया अधस्तनाऽनुभय्योऽवान्तराः किट्टयः 'स्तोकाः' अल्पा भवन्ति, ताश्च कोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वावान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमाणा मन्दानुभागका न बध्यन्ते, नापि स्वस्वरूपेण वेद्यन्ते । 'ततः' अधस्तनानुभयावान्तरकिट्टितो अधिकाः' विशेषाधिका अधस्तनोदीर्णा अवान्तरकिट्टयो भवन्ति,ताश्चावान्तर्राकट्टयः केवलमनुभूयन्ते,न बध्यन्ते । 'ततः' अधस्तनोदीर्णावान्तरकिट्टित उपरितनानुभय्यो वान्तरकिट्टयो 'अधिकाः' विशेषाधिका भवन्ति, ताश्च तीव्रानुभागका अवान्तरकिट्टयो न बध्यन्ते, नापि स्वस्वरूपेण वेद्यन्ते । 'ततः' उपरितनानुभयावान्तरकिट्टित उपरितनोदीर्णा अवान्तरकिट्टयो ★ अयं प्रयोगः सिद्धहमव्याकरणाद्यनुसारेण नोयः। पाणिनीया हि उभयशब्दाद् दो प्रत्ययं नेच्छन्ति, ततस्तन्मतानुसारेणाऽधस्तनानुभया इति प्रयोगो भवेत् । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] खवगसेढी [गाथा-१२४ विशेषाधिका भवन्ति, ताश्चावान्तरकिट्टयः केवलं वेद्यन्ते, न बध्यन्ते । 'ततोऽपि' उपरितनोदीर्णावान्तरकिट्टितोऽपि, उभय्यः या अवान्तरकिट्टयो बध्यन्ते वेद्यन्ते च, ताः, असंख्येयगुणा भवन्ति , उपरितनोदीर्णाऽवान्तरकिट्टीनां क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिगतसकलाऽवान्तरकिट्टयसंख्येयभागप्रमाणत्वात् , एतासां च क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिगतसकलाऽवान्तरकिट्टिबह्वसंख्येयभागप्रमाणस्वात् । गुणकारश्चात्र पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रः । उक्तं च कषायप्राभृतौँ -"पढमाए संगहकिट्टीए हेहदो जाओ किट्टीओ ण बज्झंति, ण वेदिज्जंति, ताओ थोवाओ । जाओ किडीओ वेदिज्जति, ण बझंति, ताओ विसेसाहियाओ। तिस्से चेव पढमाए संगहकिट्टीए उरि जाओ किडीओ ण बज्झंति, ण वेदिज्जंति, ताओ विसेसाहियाओ । उवरि जाओ वेदिज्जति, ण बज्झंति, ताओ विसेसाहियाओ। मझे जाओ किटोओ बज्झंति च वेदिज्जति च , ताओ असंखेजगुणाओ।" इति ॥१२२-१२३॥ अथ किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमवान्प्रभृति मोहनीयस्याऽनभागाऽपवर्तनामुत्कृष्टानुभागबन्धोदयाल्पबहुत्वं च व्याजिहीपुराह मोहस्सऽणुभागाण अणुसमयोवट्टणा गुरू किट्टी। गोमुत्तियाअ उदये बंधेऽणुखणं अणंतगुणहीणा ॥१२४॥ (गीतिः) मोहस्याऽनुभागानामनुसमयाऽपवर्तना गुरुः किट्टिः। गोमूत्रिक योदये बन्धेऽनुक्षणमनन्तगुणहीना ॥१२४॥ इति पदसंस्कारः । 'मोहस्स०' इत्यादि, 'मोहस्य' किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयतः प्रभृति मोहनीयकर्मणोऽनुभागानामनुसमयापवर्तना भवतीत्युपस्कारः । निरूपितं च कषायप्राभतचूर्णी-"किट्टीणं पढमसमयवेदगप्पहुडि मोहणीयस्स अणुभागाणमणुसमयोवट्टणा ।" इति । अयम्भावः-पूर्व किट्टिकरणाद्वायां किट्टीः कुर्वतः क्षपकस्य रसघातोऽन्तमुहूर्तकालेन भवति स्म, इतः प्रभृति संग्रहकिट्टि भेदेन यो द्वादशविधः किट्टिस्वरूपोऽनुभागोऽस्ति,तस्य तनये समयेऽनन्तगुणहान्या घातो भवति, स घातोऽनुसमयापवर्तना व्यपदिश्यते । ज्ञानावरणादिकर्मणां तु पूर्ववदन्तमुहूर्त्तकालेनाऽनुभागघातो जापते । तथा सप्तानामपि स्थितिघातः पूर्ववत् प्रवर्तते । 'गुरू' इत्यादि, 'गुरुः किष्टिः' किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमयतः प्रभृत्युत्कृष्टावान्तरकिंट्टिगोमूत्रिकयोदये बन्धे च 'अनुक्षणं'प्रतिसमयमनन्तगुणहीना भवति । इदमुक्तं भवति-किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये क्रोधप्रथमसंग्रह किया या अनन्ता मध्यमा अवान्तरकिट्टय उदयन्ति, तासु या सर्योस्कृष्टाऽवान्तरकिट्टिः, सा प्रभूताऽनुभागका भवति । ततः किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथम एव समये क्रोधप्रथमसंग्रहकिया या अनन्ता मध्यमा अान्तरकिट्टयो अध्यन्ते,तासु या सर्वोत्कृष्टाऽवान्तरकिट्टिः, साऽनन्तगुणहीना भवति । ततो द्वितीयसमय उदययुत्कृष्टाऽवान्तरकिट्टिरन्तगुणहीना भवति । ततो - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धोदय योरुत्कृष्टावान्तर किट्टिः ] [ २४७ sपि द्वितीय एव समये बन्धयुत्कृष्टाऽवान्तरकिट्टिरनन्तगुणहीना भवति । ततोऽपि तृतीय समय उदय उत्कृष्टाऽवान्तरकिट्टिरनन्तगुणहीना भवति । ततस्तृतीय स्मिन्नेवसमये बन्ध उत्कृष्टाऽवान्तरकिविरनन्तगुहीना भवति । एवं गोमूत्रिकया तावद्वक्तव्यम्, यावत् किट्टिवेदनाद्वायाश्वरमसमयः । तत्र गोः = चलिवर्दः, तस्याऽध्वनि गच्छतो वक्रतयेतस्ततः पतिता गोमूत्रधारा गोमूत्रिका निगद्यते, यथा गोमूत्रिका वक्राकारेण वामभागतो दक्षिणभागे दक्षिणभागतच वामभागे पतति, तथोत्कृष्टावान्तरकिट्टिरप्यनन्तगुणहीनत्वेनोदयतो बन्धे बन्धतश्वोदये तिष्ठति । तेनाऽनन्तगुणहीनक्रमो गोमूत्रिकोपमया दर्शितः । प्रत्यपादि च कषायप्राभृतचूण- “पढमसमयकिट्टीवेदगस्स को किट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी, बंधे उक्कस्सिया अनंतगुणहीणा । विदियसमये उदये उक्कस्सिया अनंतगुणहीणा, बंधे उक्कस्सिया अनंतगुणहीणा । एवं सव्विस्से को वेदगडाए ।” इति ॥ १२४ ॥ गोमूत्रिका बन्धोदयावान्तर किट्टीनामुत्कृष्टरसमाश्रित्य चित्रम् १ १ రేంంంర్ बध्यमानावान्तरकिट्टयः ३ किट्टवेदनाद्धाधिकारः १ २. तृतीयसमयः 000000000003 उदद्यमानावान्तरकिट्टयः pooog 0000000000000 २ चतुर्थसमयः सङ्केतस्पष्टीकरणम्ज=जघन्यावान्तर किट्टिः । उ = उत्कृष्टावान्तरकिट्टिः । ← = एतच्चिह्नमनन्तगुणहीनतामावेदयति । १ = बध्यमानावान्तर किट्टयः स्तोकाः । २= बध्यमानावान्तरकिट्टित उदद्यमानावान्तरकिट्टयो विशेषाधिकाः । ३=एवमग्रेऽपि बन्धोदययोर्गोमूत्रिकयाऽनन्तगुणहीनक्रमेण तत्तत्समयोत्कृष्टावान्तर किट्टिर्वाच्या । अथ किट्टवेदनाद्धायां बन्धोदय जघन्यावान्तरकिट्ट्यल्पबहुत्वमवान्तरविद्विघातं च वक्तु कामः प्राह गोमुत्ती पडिखणं बंधे उदये अनंतगुणहीणा । हस्सा णास संग किट्टीणुवरिमअसंखंसं ॥ १२५ ॥ गोमूत्रिका प्रतिक्षणं बन्धयुदयेऽनन्तगुणहीना | . ह्रस्वा नाशयति संग्रकिट्टी नामुपरितनाऽसंख्यांशम् ॥ १२५ ॥ इति पदसंस्कारः । १ २ द्वितीयसमयः गोमूत्रिक याऽनन्तगुणक्रमेणोत्कृष्टावान्तरकिट्टयः २ प्रथमसमयः Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढी [ गाथा-- १२५ 'गोमुत्तीअ' इत्यादि, गोमूत्रिकया 'प्रतिक्षणं' प्रतिसमयं बन्ध उदये च अनन्तगुणहीना 'हवा' जघन्या - ऽवान्तरकिट्टिर्भवति । इदमुक्त' भवति - किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथमसमये क्रोधस्य या मध्यमा अवान्तरकियो बध्यन्ते, तासु या सर्वजघन्याऽनुभाग काऽवान्तरकिट्टिर्भवति, सा प्रभूताऽनुभागका भवति, ततः किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथम एव समये क्रोधस्य या मध्यमा अवान्तरकिंट्टय उदयन्ति, तासु या सर्वजघन्यानुभाग कावान्तरकिट्टिः साऽनन्तगुणहीना भवति । ततः किट्टिवेदनाद्वाया द्वितीयसमये बन्धे सर्वजघन्याऽवान्तरकिदिरनन्तगुणहीना भवति, ततोऽपि द्वितीय एव समय उदये सर्व जघन्याऽवान्तरकिट्टिरनन्तगुणहीना भवति, एवं गोमूत्रिकया तावद्वक्तव्यम्, यावत् किट्टिवेदनाद्वायात्मसमयः । यथा गोमूत्रिका वक्राकारेण वामभागतो दक्षिणभागे पतति, दक्षिण भागतश्च वामभागे प्रपतति, तथा जघन्याऽवान्तरकिट्टिरप्यनन्तगुणहीनत्वेन बन्धत उदययुदयतश्च बन्धेऽवतिष्ठते । तेना-ऽनन्तगुणहीनक्रमो गोमूत्रिकोपमया दर्शितः । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णौ“पढमसमए बंधे जहण्णिया किट्टी तिव्वाणुभागा, उदये जहण्णिया किट्टीअनंतगुणहोणा । विदियसमये बंधा जहण्णिया किट्टी अणंतगुणहीणा, उदये जहणिया अनगुणहोणा । एवं सव्विरसे किट्टोवेदगडाए समये समये णिव्वग्गणाओ जहण्णियाओ विय।" इति । गोमूत्रिका बन्धोदयावान्तरकिट्टीनां जघन्यरसमाश्रित्य चित्रम् రేయింబర్ २४८ ] बध्यमानावान्तरकिट्टयः उ ूउ 00000 ༣ चतुर्थसमयः उदयमानावान्तरकिट्टयः goog तृतीयसमयः 000000 ज००००००० 3 गोमूत्रिकया Sऽनन्तगुणहीनक्रमेण जघन्यावा ०००००००००००००००९ न्तरकिट्टयः द्वितीयसमय: प्रथमसमयः संकेत स्पष्टीकरणम्-ज=जघन्यावान्तरकिट्टिः । उ = उत्कृष्टावान्तरकिट्टिः । ← = एतच्चिह्नमनन्तगुणहीनतामा वेदयति । १ = एवमग्रेऽपि बन्धोदयो मूत्रिकाऽनन्तगुणहीनक्रमेण तत्तत्समयजघन्यात्रान्तर किट्टिर्वक्तव्या । अथाऽनन्तरोक्तगाथया प्रतिपादिताया मोहनीयाऽनुभागानामनुसमयापवर्तनायाः फलं दर्शयति- 'णासह ' इत्यादि, तत्र 'संग्रह किट्टीनां' द्वादशानां संग्रह किट्टीनामुपरितनाऽसङ्ख्यांश 'नाशयति' विघातयति, किङ्किवेदना प्रथमसमये द्वादशसंग्रहकट्टीनां तीव्रानुभागका असंख्येयभागमा अनन्ता अवान्तरकिट्टी रपवर्त्य नन्दानु नागकाऽवान्तरकिट्टिस्वरूपेण स्थापयतीति तात्पर्यम् । अवावि च कषायप्राभृतचूर्णो – “किट्टीणं पढमसमयवेदगो बारसण्हं पि संगह Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह किट्टिसंक्रमदलक्रमः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २४९ किट्टीणमग्गमादि काढूण एक्वेकिस्से संगह किट्टीए असंखेज्जदिभागं विणासेइ ।” इति । एवं द्वितीयादिसम येष्वप्यसंख्येय भागप्रमाणास्तीवानुभागका अवान्तरकिट्टीर्घातयति ।। १२५ ।। ननु कस्याः संग्रहकिङ्ख्या दलं कुत्र संक्रमयति, किं सर्वत्र, उताऽस्ति तत्र कचिद् विशेषः ? इति पृष्ट उत्तरयति संगह किट्टीण दलं हेट्ठे संकामए ण उण उपिं । संकामइ तास दलं तावं जाव सगहेट्ठिमा पढमा ॥ १२६ ॥ ( गीतिः ) संग्रहकट्टीनां दलमधस्तात् संक्रमयति न पुनरुपरि । संक्रमयति तासां दलिकं तावद् यावत् स्वाधस्तना प्रथमा || १२६ ॥ इति पदसंस्कारः । 'संगह०' इत्यादि, किट्टिवेदक: 'संग्रहकिट्टीनां' द्वादशानां संग्रह किट्टीनां 'दल' प्रदेशाग्रमधस्तात् संक्रमयति, न पुनरुपरि । नन्वधस्तात् किं सर्वत्र संक्रमयति ? उताऽस्ति कश्चित् विशेषः ? इत्यत आह-'संकामइ' इत्यादि, तत्र 'तासां' द्वादशसंग्रहकिट्टीनां दलं तावत् संक्रमयति, यावत् स्वास्ना 'प्रथम' प्रथम संग्रह किट्टिः, न ततोऽप्यधस्तात् । अत्र तत्तत्कषायस्य द्वितीयस्यां तृतीयस्यां च संग्रह किट्टापवर्तनासंक्रमेण दलं सङ्क्रमयति, परप्रथमसंग्रह किट्टौ तु यथाप्रवृत्तसंक्रमेण, बध्यमान प्रकृतीनां परप्रकृतौ यथाप्रवृत्तसंक्रमसद्भावात् । तद्यथा - क्रोधप्रथम संग्रह किया: प्रदेशाग्र क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकट्टा तथा तृतीयसंग्रह किट्टयामपवर्तनासंक्रमेण मानस्य च प्रथम संग्रह किडौ यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमयति, न ततोऽप्यधस्तान्मानद्वितीयादिसंग्रह किट्टिषु । क्रोधस्य द्वितीयसंग्रह किट्टि प्रदेशाग्रमपवर्तनासंक्रमेण क्रोधस्य तृतीयसंग्रह किट्टौ मानस्य च प्रथम संग्रह किट्टौ यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमवति, न ततोऽस्तात् । क्रोधस्य तृतीयसंग्रह किट्टया दलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मानस्य प्रथमसंग्रहकिद्वावेव संक्रमयति, नान्यत्र । एवं मानस्य प्रथम संग्रह किया: प्रदेशाग्रमपवर्त - नासंक्रमेण मानस्य द्वितीयसंग्रह किट्टी तथा तृतीयसंग्रह किट्टौ मायायाश्च प्रथम संग्रह किट्टी यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमयति, नान्यत्र । मानस्य द्वितीयसंग्रहकिया दलमपवर्तनासंक्रमेण मानस्य तृतीयसंग्रह मायायाश्च प्रथम संग्रह किट्टी यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमयति । मानस्य तृतीय संग्रह किदिलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मायायाः प्रथमसंग्रह किट्ट्यामेव संक्रमयति । 1 मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्ट्या दलमपवर्तनासंक्रमेण मायाया द्वितीय संग्रहकिट्टौ तथा तृतीयसंग्रह लोभस्य च प्रथम संग्रह किट्टी यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमयति, न ततोऽधस्तात् । मायाया द्वितीयसंग्रह किया: प्रदेशाग्रमपवर्तनासंक्रमेण मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टौ लोभस्य च प्रथम संग्रह - कियां यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमयति । मायातृतीय संग्रह किया: प्रदेशाग्रं यथाप्रवृत्त संक्रमेण लोभप्रथम संग्रहकट्टावेव संक्रमयति । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] खवगसेढी . [ गाथा-१२७-१३० - लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रदेशाग्रमपवर्तनासंक्रमेण लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी तृतीयसंग्रहकिट्टौ च संक्रमयति । लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिया दलमपवर्तनासंक्रमेण लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टावेव संक्रमयति । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रदेशाग्रमन्यत्र कुत्रचिदपि न संक्रमयति, आनुपूर्वीसंक्रमसद्भावात् किट्टि वेदकानां च मोहनीपस्योदर्तनाभावात् ॥१२६।। अथ संक्रम्यमाणप्रदेशनियमं दर्शयति जं संगहकिट्टि अणुहवए तयणंतराअ इयरत्तो। संकामइ दलिअं संखगुणं अप्पबहुअं भणिमो ॥१२७॥ . यां संग्रहकिट्टिमनुभवति तदनन्तरायामितरतः । संक्रमयति दलिकं संख्यगुणमल्पबहुत्वं भणामः ॥१२७।।इति पदसंस्कारः । . 'ज' इत्यादि, यां संग्रहकिट्टिमनुभवति, तदनन्तरायां संग्रहकिटौ 'इतरतः' इतरसंग्रहकिट्टी संक्रम्यमाणप्रदेशाग्रतः संख्यगुणं 'दलिकं' प्रदेशाग्र संक्रमयति । शेषासु संग्रहकिट्टिषु संक्रम्यमाणदलस्य प्रमाणं वक्ष्यमाणाऽल्पबहुत्वेन व्यक्तीभविष्यति । अथाऽल्पबहुत्वं प्रतिजानीते'अप्प०' इत्यादि, 'अल्पबहुत्वं' संक्रम्यमाणप्रदेशानां स्तोकबहुत्वं 'भणामः' निरूपयामः । क्रोधद्वितीयादिसंग्रहकिट्टीनां कति प्रदेशान् मानप्रथमादिसंग्रहकिट्टिषु संक्रमयतीति शङ्कासम्बन्धिनिर्णयप्रतिपादनपरमल्पबहुत्वं प्ररूपयाम इत्यर्थः ॥१२७।। ___साम्प्रतं प्रतिज्ञातमेव प्राहकोहबिइयतइयत्तो माणगपढमाअ माणगतिगत्तो । मायापढमाए माया तिगत्तो य लोहपढमाए ।।१२८।। (गीतिः) लोहपढमाउ तब्बिइयाए ताउ चिअ तइयाए । संकामेइ पअसा विसेसअहिअक्कमेण तत्तो वि ।।१२९।। (उद्गीतिः) कोहपढमाउ माणपढमाअ संखेज्जगुणिआ तो। तइयाअ विसेसहिआ तो संखगुणा च कोहबिइयाए ।।१३०॥(उद्गीतिः) क्रोधद्वितीयतृतीयाभ्यां मानप्रथमायां मानत्रिकात् । मायाप्रथमायां मायायास्त्रिकाञ्च लोभप्रथमायाम् ॥१२॥ लोभप्रथमायास्तद्वितीयस्यां तस्या एव तृतीयस्याम् संक्रमयति प्रदेशान् विशेषाधिकक्रमेण ततोऽपि ॥१२९॥ क्रोधप्रथमाया मानप्रथमायां संख्येयगुणितांस्ततः । तृतीयस्यां विशेषाधिकांस्ततः संख्यगुणांश्च क्रोधद्वितीयस्याम् ॥१३०॥इति पदसंस्कारः। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकिट्टिसंक्रमदलाल्पबहुत्वम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः । [२५१ 'कोहबिइयतइयत्तो' इत्यादि, 'क्रोधद्वितीयतृतीयाभ्यां' क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टितः तृतीयसंग्रहकिट्टितश्च 'मानप्रथमायां' मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टी, ततोऽपि 'मानत्रिकात्' मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टितो द्वितीयसंग्रहकिट्टितस्तृतीयसंग्रहकिट्टितश्च 'मायाप्रथमाया' मायाप्रथमसंग्रहकिट्टी, ततोऽपि 'मायायास्त्रिकाच्च' मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टितो द्वितीयसंग्रहकिट्टितस्तृतीयसंग्रहकिट्टितश्च'लोभप्रथमायां' लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टी, ततोऽपि 'लोभप्रथमायाः' लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टितः 'तद्वितीयस्यां' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टो 'तस्या एव' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टित एव पञ्चम्यन्ततत्पदेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः परामर्शात् , 'तृतीयस्यां' लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ विशेषाधिकक्रमेण प्रदेशान् संक्रमयति । 'तत्तो वि' इत्यादि, 'ततोऽपि' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टौ संक्रम्यमाणेभ्यः प्रदेशेभ्योऽपि 'क्रोवप्रथमायाः' क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टितः 'मानप्रथमाया' मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ 'संख्येयगुणितान्' संख्येयगुणान् प्रदेशान् संक्रमयति । 'ततः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टित एव 'तृतीयस्यां' क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टौ विशेषाधिकान् प्रदेशान् संक्रमयति । 'ततः' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टित एव 'क्रोधद्वितीयस्यां' क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ संख्यगुणांश्च प्रदेशान् संक्रमयति । ___इदमुक्तं भवति-किट्टिवेदकाद्धायाः प्रथमसमये क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकियाः प्रदेशाग्र यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ सर्वस्तोकं संक्रमयति । ततो विशेषाधिक क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टया दलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ संक्रमयति, मन्दानुभागकायां संग्रहकिट्टी प्रदेशाग्रस्याधिकत्वेन पूर्वपदापेक्षया संक्रम्यमाणदलस्याधिक्यस्य न्याय्यत्वात् । ततोऽपि विशेषाधिकं मानस्य प्रथमसंग्रहकिझ्याः प्रदेशाग्रं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टौ संक्रमयति । ननु चतुर्नवतितमप्रभृतिगाथासु मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रदेशाग्र स्तोकं भवति, ततो विशेषाधिक मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ भवति । ततो विशेषाधिक मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी प्रदेशाग्र भवति। ततो विशेषाधिक क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौदलं भवति, ततोऽपि विशेषाधिकं दलं क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टी भवतीति स्तोकबहुत्वमुक्तम् । अत्र पुनः प्रदेशसंक्रमप्ररूपणाऽवसरे मानतृतीयसंग्रहकिट्टितोऽपि विशेषाधिकप्रदेशकायाः क्रोधद्वितीयसंग्रहकियाः प्रदेशाग्रं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मानप्रथमसंग्रहकिट्टौ स्तोकं संक्रमयति । ततस्तत्रैव क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टया दलं विशेषाधिकं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रम्य ततो विशेषाधिकं मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टया दलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टो संक्रमयति । इदं च नोपपद्यते, अल्पतरप्रदेशसत्ताकमानप्रथमसंग्रहकिट्टया अधिकं दलं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टौ संक्रमयति बहुप्रदेशसत्ताकक्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टयाश्च दलं स्तोकं मानप्रथमसंग्रहकिट्टी संक्रमयतीति युक्तिविरोधाद्, इति चेत्, मैवम्, तथास्वाभाव्यात् कुत्रचित् प्रदेशसंक्रम आधारानुरूपो भवति, कुत्रचिदाधेयाऽनुरूपो भवति, क्वचित् पुनरुभयानुरूपो भवति । अत्राऽऽधारानुरूपः प्रदेशसंक्रमः प्रवर्तते । तेन क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिसंक्रम्यमाणदलपतद्ग्रहरूपाऽऽधारमानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशसत्कर्मापेक्षया मानप्रथमसंग्रहकिट्टिसंक्र Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] aarसेढी [ गाथा - १२८-१३० म्यमाणदलपतद्ग्रहलक्षणाधारमायाप्रथम संग्रहकिट्टि प्रदेशसत्कर्मणो विशेषाधिकत्वात् प्रदेशसंक्रमो विशेषाधिकः सिध्यति । किञ्च पूर्वमहर्षिवचनप्रामाण्यादध्यसावुपपद्यते, आगमोपपत्तिगम्यत्वात् तत्त्वस्य । यदुक्तमध्यात्मोपनिषदि - "अनर्थायैव नार्थाय जातिप्रायाश्च युक्तयः । हस्ती हन्तीति वचने प्राप्ताप्राप्तविकल्पवत् ॥ १ ॥ ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात् तेषु निश्चयः ॥२॥ आगमोपपत्तिश्च सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये || ३ || " इति एवमग्र ेऽपि लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं लोभद्वितीयसंग्रह किट्टी संक्रम्यमाणदलतो लोभ तृतीयसंग्रहको विशेषाधिकं संक्रम्यते तथा क्रोधप्रथम संग्रह किट्टि प्रदेशाग्र मान प्रथम संग्रह किट्ट्यां संक्रम्यमाणदलतः क्रोधतृतीय संग्रहकट्टौ विशेषाधिकं संक्रम्यत इति वक्ष्यते, तत्राऽपीत्यमेव भावनीयम् । अथ मायायाः प्रथमसंग्रह किट्टी मानस्य प्रथमसंग्रह किट्टयाः संक्रम्यमाणप्रदेशतो मानस्य द्वितीय संग्रह किया दलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मायायाः प्रथमसंग्रहको विशेषाधिकं संक्रमयति, तो मायाप्रथम संग्रहको संक्रम्यमाणमानद्वितीय संग्रह किट्टिप्रदेशाग्रतो मानस्य तृतीयसंग्रह किया दलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण मायायाः प्रथमसंग्रह किडौ विशेषाधिकं संक्रमयति । ततो मायायाः प्रथम संग्रह कट्टिदलं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण लोभस्य प्रथमसंग्रहको विशेषाधिकं संक्रमयति । ततो मायाया द्वितीय संग्रह किट्टिप्रदेशाग्रं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण लोभस्य प्रथम संग्रह किट्टो विशेषाधिक संक्रमयति । ततो विशेषाधिकं मायायास्तृतीयसंग्रह किट्टया दलिकं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण लोभस्य प्रथमसंग्रहको संक्रमयति । ततो लोभस्य प्रथम संग्रह किया: प्रदेशाग्रमपवर्तनासंक्रमेण लोभस्य द्वितीय संग्रहको विशेाधिक संक्रमयति, सर्वत्र प्रदेशसत्कर्मणो विशेपाधिकत्वात् । ननु क्रोधद्वितीयादिसंग्रह किट्टीनां दलं मानादीनां प्रथमसंग्रहकट्टा यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रमयति, अत्र पुनर्लोभप्रथम संग्रह किट्टया दलं लोभद्वितीय संग्रहकट्टौ परप्रकृत्यभावादपवर्तनासंक्रमेण संक्रमयति, तर्हि यथाप्रवृत्तसंक्रमभागहारत उत्कर्षापकर्षणभागहारस्याऽसंख्येयगुणहीनत्वाद् यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रम्यमाणदलतोऽपवर्तन संक्रमेण संक्रम्यमाणदलमसंख्येयगुणं स्यात्, विशेषाधिकं कुत उच्यते ? इति चेत्, भग्यते एतत्समीचीनं भागहारविवक्षया, किन्तु नाsभागहारो विवक्षितः, अपि तु विशोविमाहात्म्याइ यथाप्रवृत्तसंक्रम भागहार उत्कर्षणापकर्षणभागहारानुसारेण प्रवर्तते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते - अनेनाऽल्पबहुत्वेनास्मिन् Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहकिट्टिसंक्रमदलाल्पबहुत्वम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२५३ । प्रकरण उत्कर्षणापकर्षणभागहारानुसारेण यथाप्रवृत्तसंक्रमभागहारः प्रवर्तत इति सिध्यति । तस्माद् मायातृतीयसंग्रहकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशसत्कर्मणो विशेषाधिकत्वेन पूर्वपदतो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रदेशाग्रं लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ विशेषाधिकं संक्रमयति, अन्यथाऽसंख्येयगुणं स्यात् । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टौ संक्रम्यमाणलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिदलतोऽपि लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टया एव दलं लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ विशेषाधिकं संक्रमयति, ततः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रदेशाग्रं मानस्य प्रथमसंग्रहको संख्येयगुणं संक्रमयति, लोमप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशसत्कर्मतः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशसत्कर्मणस्त्रयोदशगुणत्वेन क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसंक्रम्यामाणप्रदेशाग्रस्य संख्यातगुणत्वोपलम्भात् । ततः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टः प्रदेशाग्र क्रोधस्यैव तृतीयसंग्रहकिट्टी विशेषाधिक संक्रमयति । ततोऽपि क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टया दलं क्रोधस्य द्वितीयसंग्रह किट्टौ संख्येयगुणं संक्रमयति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-प्राक्तनपतद्ग्रहतोऽस्य पतद्ग्रहस्य विशेषहीनत्वेऽपि वेद्यमानसंग्रहकिट्टिसमनन्तरसंग्रहकिट्टो संक्रम्यमाणदलस्य संख्येयगुणतायाः सप्तविंशत्यधिकशततमगाथयोक्तत्वात् पूर्वपदतः संख्येयगुणं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं क्रोवद्वितीयसंग्रहकिट्टी संक्रमति । प्रत्यपादि च कषायप्राभतचूर्णी-“पढमसमयकिटोवेदगस्स कोहस्स विदियकिट्टीदो माणस्स पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । कोहस्स तदियकिटोदो माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । माणस्स पढमादो संगहकिट्टोदो मायोए पढमकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । माणस्स विदियादो संगहकिटोदो मायाए पढमसंगहकिटोए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । माणस्स तदियादो संगहकिटोदो मायाए पढमसंगहकिटोए संकमदि पदेसरगं विसेसाहियं । मायाए पढमसंगहकिट्टीदो लोभस्स पढमसंगहकिटोए संकमदि पदेसरगं विसेसाहियं । मायाए विदियादो संगहकिटोदो लोभस्स पढमाए संगहकिटीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । मायाए तदियादो संगहकिटोदो लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । लोभस्स पढमकिट्टीदो लोभस्स चेव विदियसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । लोभस्स चेव पढमसंगहकिटोदो तस्स चेव तदियसंगहकिटीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । कोहस्स पढमसंगहकिट्टीदो माणस्स पढमसंगहकिटोए संकमदि पदेसरगं संखेज्जगुणं । कोहस्स चेव पढमसंगहकिटोदो कोहस्स चेव तदियसंगहकिटोए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] - खबगसेढी । गाथा--१२८-१३० कोहस्स पढम(संगह)किट्टीदो कोहस्स चेव विदियसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं ।” इति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-१८ । अथ गणितविभागः। विवक्षितसंग्रहकिट्टितो यद्दलं संक्रमेणा-ऽन्यसंग्रहकिट्टि गच्छति, तद् व्ययदलं व्यपदिश्यते । अन्यसंग्रहकिट्टितः संक्रमेण विवक्षितसंग्रहकिट्टौ यद्दलमागच्छति, तद् आयदलमुच्यते । तत्र क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टावन्यसंग्रहकिट्टितो दलं नागच्छति, तेन तस्यामायदलं न भवति, लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितथाऽन्यां संग्रहकिट्टि दलं न गच्छति, तेन तस्यां व्ययदलं न भवति । किट्टिकरणाद्धायां द्वादशसंग्रहकिट्टीनां सर्वाऽवान्तरकिट्टयः प्रदेशाग्रमाश्रित्य गोपुच्छाकारेण तिष्ठन्ति स्म, सर्वमन्दानुभागकलोमतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टित आरभ्य सर्वतीवाऽनुभागकां क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टि यावत् सर्वाऽवान्तरकिट्टयोऽनन्ततमभागहीनक्रमेण तिष्ठन्ति स्मेत्यर्थः । अथ किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयतः प्रभृति द्वादशसंग्रहकिट्टिदलस्य गमनागमनदर्शनात् पौर्वसमयिकः स्वस्थानगोपुच्छाकारो विनश्यति । तत्र स्वस्थानगोपुच्छाकारो नाम प्रदेशापेक्षयकचयहान्या विवक्षितसंग्रहकिट्टिसम्बन्ध्युत्तरोत्तराऽवान्तरकिया अवस्थानम् । तथा पञ्चविंशत्युत्तरशततमगाथया द्वादशसंग्रहकिट्टयु परितनाऽसंख्येयभागमात्रावान्तरकिट्टिनाशस्याभिहितत्वात् परस्थानगोपुच्छाकारो विनश्यति । परस्थानगोपुच्छकारो नाम विवक्षितसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टितस्तदनन्तरोपरितनसंग्रहकिट्टिप्रथमाध्वान्तरकिट्टी दलस्यैकचयेन हीनतयाऽवस्थानम् । किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमय उभयोः स्वस्थानपरस्थानगोपुच्छाकारयो शो जायते । तदेवं स्वस्थानगोपुच्छाकारः संक्रमतो व्ययदलेन विनश्यति, परस्थानगोपुच्छाकारश्चैकैकसंग्रहकिट्टयु परितनाऽसंख्येयभागमात्रीणामवान्तरकिट्टीनां घाततो प्रणश्यति । न च स्वस्थानगोपुच्छाकारः संक्रमतो व्ययदलेन नष्ट आयदलेन पुनः कुतो न विरच्यते ? इति वाच्यम्, आयव्ययदलयोः समानत्वाभावात् । तथाहि-कस्याञ्चित् संग्रहकिट्टयामायदलतो व्ययदलमधिकं भवति, कस्यांविद्धीनं भवति, परस्यां पुनरायदलमेष न भवति, तेनाऽऽयदलेन स्वस्थानगोपुच्छाकारः पुनने विरच्यते ।। __ अथ स्वस्थानगोपुच्छाकाररचना भण्यते एकैकसंग्रहकिटेरुपरितना असंख्येयभागप्रमाणा या अवान्तरकिट्टयोऽनुसमयाऽपवर्तनया घात्यन्ते, तासां दलं घातदलमुच्यते । घात्यमानाचाऽवान्तरकिट्टयो घाताऽवान्तरकिट्टयो व्यवहियन्ते । अथ घातदलतो व्ययदलप्रमाणं दलं गृहीत्वा तत्तत्संग्रहकिट्टीनां घाताऽवान्तरकिट्टिरहितासु सर्वास्ववान्तरकिट्टिषु व्ययदले दत्ते तत्तत्संग्रहकिट्टिसर्वावान्तरकिट्टिष्वेकगोपुच्छाकारेण दलं दृश्यते । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] [ खवगसेढी यन्त्रकम्-१८ (चित्रम्-१८) द्वादशसंग्रहकिट्टीनां संक्रम्यमाणप्रदेशानाश्रित्य चित्रम् - ०6०००० *44*xx * * * * * * * * * 1. किरा र संकि किस किस किसिफिरिः संकि संकी: मिशि: संग्रा- हिर सं ज्वलन लो सं व ल न मा या सं य ल न मा नः सं व ल न क्रोधः संकेतस्पष्टीकरण अनेन चिह्न न विवक्षितसंग्रहकिट्टितो ऽनन्तरसंग्रहकिट्टौदलं संक्रामतीति सूचितम् ( गाथा १२६ ) ०००० अनेन चिह्नन प्रथमसंग्रहकिट्टितो तृतीयसंग्रहकिट्टी दलं संक्रामतीति सूचितम् , तथा मायाद्वितीयसंग्रह किट्टितो लोभप्रथमसंग्रह कि दृयामपि संक्रम्यमाणदलमनेनैव चिह्न न सूचितम् । (गाथा-१२६॥ * अनेन चिह्नन प्रथमसंग्रहकिट्टितो.ऽनन्तरकषायप्रथमसंग्रह किट्टौ दलं संक्रामतीति सूचितम् । (गाथा-१२६) - - - अनेन चिह्न न द्वितीयसंग्रहकिट्टितो-ऽनन्तरकषायप्रथमसंग्रहकिटौ दलं संक्रामतीति सूचितम् , तथा मायाप्रथमसंग्रह किट्टितो मायातृतीय संग्रहकिट्टावपि संक्रम्यमाणदलमनेनैव चिह्नन सूचितम् ।* Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] यन्त्रकम्-१८ (चित्रम्-१८) [ खबगसेढी १,२,३.. एतैरङ फैर्यथाक्रमं सङक्रम्यमाणदलं विशेषाधिकं सूचितम । नवरं दशमाङ्कत एकादशाङ्कः संख्येयगुणं सूचयति, तथैव द्वादशाइतस्त्रयो दशाङ्को-ऽपि संख्येयगुणं सूचयति (गाथा – १२८. .१२९. १३०)। क-असंख्येयभागप्रमाणास्तीवानुभागका अवान्तर किट्टयो ऽनुसमयापवर्तन या नाश्यन्ते। (गाथा-१२५) ताश्च A इत्यनेन चिहन दर्शिताश्चित्रे। ख=असंख्येयभागप्रमाणमन्दानुभागका अवान्तरकिट्टयो नोदयन्ति. ग-असंख्येयभागप्रमिताश्च तीव्रानुभागका अवान्तरकिट्टयो नोदयन्ति, ताश्च ००० इत्यनेन चिह्न न सूचिताः (गाथा-१२१) । घबह्वसंख्येयभागप्रमाणमध्यमावान्तरकिट्टय उदयन्ति (गाथा-१२१) । ॐ इह चित्रकारस्य स्खलना जाता, अन्यथा मायाद्वितीयसंग्रह किट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टो संक्रयमाणं दलम - - - इत्यनेन चिह्नन दर्शयितव्यम् । * इहाऽपि चित्रकारस्य स्खलना जाता, अन्यथा मायाप्रथमसंग्रह किट्टितो मायातृतीयसंग्रह किट्टौ संक्रम्यमाणं दलम 000 इत्यनेन चिह्न न दर्शयितव्यम्' Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या गोपुच्छाकाररचना] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २५५ अथ परस्थानगोपुच्छाकाररचना निगद्यते लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टया उपरितनास्वसंख्येयभागमात्रीष्ववान्तरकिट्टिषुधातितासु तत्संग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिगतदलतस्तदनन्तरसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टयामेकाधिकघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचगैर्हीनं दलं जायते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते-लोभतृतीयसंग्रहकिटेरुपरितनानामसंख्येयभागप्रमितानामवान्तरकिट्टीनां घातात् प्राग लोभततीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टितो द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ दलमेकचयेन हीनं विद्यते स्म । अथोपरितनास्ववान्तरकिट्टिषु घातितास्विदानी या लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः, ततो द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ दलमेकाधिकघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचीनं विद्यते, असंख्येयभागप्रमाणाऽवान्तरकिट्टीनां घातितत्वात् । तेन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया घातदलतो घातावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयान् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ प्रक्षिपति । प्रक्षिप्तेषु च घाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयेषु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टयामेकचयेन हीनं दलं दृश्यते । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाद्यवान्तरकिट्टिषु तृतीयसंग्रहकिट्टियाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयांस्तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टियातिताऽवशेषाऽवान्तरकिट्टिषु चरमाऽवान्तरकिट्टिः । इत्थं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टत आरभ्य लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टि यावद् दलं गोपुच्छाकारेण सम्पद्यते । अथ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टया घातिताऽवशेषासु या चरमाऽवान्तरकिट्टिः, ततो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टावेकाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयीनं दलं विद्यते । किं कारणम् ? इति चेत् ? उच्यते-द्वितीयसंग्रहकिटेपरितनानामवान्तरकिट्टीनांघातात् प्राग् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कप्रथमाऽवान्तरकिट्टयामेकचयेन हीनं दलं विद्यते स्म । सम्प्रति लोभद्वितीयसंग्रहकिटेपरितना असंख्येयभागप्रमिता अवान्तरकिट्टयो घात्यन्ते, तेन लोभद्वितीयसंग्रहकिटेर्घातितावशेषावान्तरकिट्टिषु या चरमाऽवान्तरकिट्टिः, तदपेक्षयकाधिकलोभद्वितीयसंग्रह किट्टिघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयीनं दलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ जायते । तथा लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेलोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाश्च परस्थानगोपुच्छाकाररचनायै तृतीयसंग्रहकिट्टिधातावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयानां द्वितीयसंग्रहकिट्टथवान्तरकिट्टिषु प्रक्षिप्तत्वात् तावद्भिरपि चयीनं दलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौसम्पद्यते । इत्थं लोभद्वितीयसंग्रहकिटेर्घातितावशेषाऽवान्तरकिट्टिषु या चरमाऽवान्तरकिट्टिः, ततो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टी दलमेकाधिकद्वितीयसंग्रहकिट्टितृतीयसंग्रहकिट्टिघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाचयीनं जायते । तेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टियातदलतो दलं गृहीत्वा लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितृतीयसंग्रह Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] खवगसेढी [ गाथा- १२८-१३० किट्टिधाताऽवान्तरकिट्टि राशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । वयेषु च प्रक्षिप्तेषु लोभद्वितीय संग्रह किट्टि - चरमाऽवान्तरकिट्टितो लोभप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमाऽवान्तरकिट्ट्यामेकचयेन न्यूनं दलं जायते । ततः परं लोभप्रथम संग्रह किट्टिद्वितीयाद्यवान्तरकिट्टिषु लोभद्वितीयसंग्रह किट्टि - तृतीयसंग्रह किट्टि - घाताऽवान्तरकिट्टिप्रमाणांश्चयांस्तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोभप्रथम संग्रह किया घातिताऽवशेषावान्तकिट्टिषु चरमाऽवान्तर किट्टिः । एवमग्रे ऽपि विवक्षित संग्रहकिट्टया अधस्ताद् यावत्यः संग्रह किट्टयो व्यतिक्रामन्ति, तावत्संग्रहकिट्टीनां घाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् विवक्षितसंग्रह किट्टिघातदलतो विवक्षित संग्रह - किट्टिप्रथमावान्तरकिट्टिप्रभृतिचरमाऽवान्तरकिट्टि पर्यवसानास्ववान्तर किट्टिषु प्रक्षिपति । तथाहिमातृतीयसंग्रह किया अवान्तरविट्टिषु स्वघातदलतो लोभसंग्रह किट्टित्रयघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । मायाया द्वितीय संग्रह कियवान्तरविट्टिषु स्वघातदलतो लोभसंग्रह किट्टित्रयस्य माया तृतीयसंग्रह किट्ट्याच घाताऽवान्तर किट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । मायाप्रथम संग्रह - किट्टवान्तर कट्टिषु स्वघातदलतो लोभसंग्रह किट्टित्रयस्य मायासंग्रह किट्टिद्वयस्य च घाताऽवान्तरकिट्टिशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । मानतृतीय संग्रह किट्टवान्तरकिट्टिषु स्वघातदलतो लोभसंग्रह किट्टित्रयस्य मायासंग्रह - किट्टित्रयस्य च घातावान्तरकिट्टिराशिश्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । मानद्वितीय संग्रह कियवान्तरकिट्टिषु घातदलतो लोभसंग्रह किट्टित्रयस्य मायासंग्रह किट्टित्रयस्य मानतृतीयसंग्रह किट्ट्याच घाताऽवान्तर किट्टिराशिप्रमाणांश्रयान् प्रक्षिपति । एवंक्रमेण घातदलतो मानप्रथम संग्रह किट्टवा - न्तरकट्टिषु संग्रह कियष्टकस्य, क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टवान्तर किट्टिषु संग्रह किट्टिनवकस्य, क्रोवद्वितीयसंग्रह किट्टवान्तरविट्टिषु संग्रह किट्टिदशकस्य, क्रोधप्रथम संग्रह कियवान्तरविट्टिषु संग्रहकियेकादशकस्य घाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमितांचयान् प्रक्षिपति । अनेन क्रमेण घातदले प्रक्षिप्ते लोभतृतीय संग्रह किद्विप्रथमावान्तर किट्टितः प्रभृति क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिचरमाऽवान्तरकट्टि यावत् सर्वा अन्तरकिट्टयः प्रदेशाप्रमाश्रित्यैकगोपुच्छाकारेण तिष्ठन्ति । (पदयन्तु पाठका यन्त्रकम् - १९) आयदलस्य निक्षेपविधिरय संक्रमतो निर्वर्त्यमानावान्तरकिट्टीनां प्ररूपणाऽवसरे वक्ष्यते, आयदलस्य संक्रमदलतोऽनतिरेकेण संकमदलतोऽवान्तरकिट्टीनां निर्वृत्तेः । स्वस्थानगोपुच्छाकारचनायै परस्थानगोपुच्छाकाररचनायै च यद् दलं प्रक्षिप्तम्, तत् सर्वं सर्वघातदला - संख्येयभागमात्रं भवति । तथा ऽवेद्यमान संग्रह किट्टिए संक्रमदलतोऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टीर्निर्वर्तयन् संक्रमदलतः पूर्वापूर्वावान्तर किट्टिष्वधस्तनशीर्षचयादिभेदेन दलं प्रक्षेप्स्यति । वेद्यमान संग्रहकिट्टौ त्वायद लाभावेन संक्रमाऽपूर्वार्वान्तरकिट्टीरनिर्वर्तयन् तत्पूर्वावान्तरकिट्टिषु वक्ष्यमा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [ खवगसेढी यन्त्रकम्-१९ (चित्रम्-१९) लोभसंग्रहकिट्टित्रयपरस्थानगोपुच्छाकाररचनाप्रदर्शनार्थ चित्रम् 1oooooooooooooooooooooo 1.00000000000000000000 00000000000000000000001 0000000000000000000000 oooooooooooooooooooo 0000000000000000000000 10000000000000000000000 oooooooooooooooooooooo I COOO 0000 00000000000000 L-ObDOO00000000000000001 cho beoooooooooooo60s 10000000000000000000000 Toco Oooooooooooooooo २३५९९०१२३४५६७९१२ 000000000000000000 Od 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भवन्ति, किन्त्वसत्कल्पनया लोभतृतीय Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] चित्रम्-१९ [ खवगसेढी ___ संग्रहकिट्टौ द्वाविंशतिः (२२) अवान्तरकिट्टयाः परिकल्पिताः, लोद्वितीयसंग्रहकिट्टी विंशतिः (२०), लोभप्रथमसंग्रहकिट्टी चाष्टादश (१८) । (ब) किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयेऽनुभागापवर्तनयकै कसंग्रहकिट्टया द्वेऽवान्तरकिट्टी घात्येते,परमार्थतन्तु सर्वावान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमाणा अबान्तरकिट्टयो घात्यन्ते । (२) अवान्तरकिट्टीनां घाते जाते लोभतृतीयसंग्रहकिटिचरमावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसग्रहाकट्टिप्रथमा वान्तरकिट्टा एकाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिवातावान्तरकिष्ट्टिराशिप्रमाणैश्चर्यहीनं दलं जायते, इह त्वसत्कल्पनया द्वेऽवान्तरकिट्टी घातिते, तेन त्रिभिश्चर्यहीनं दलं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाघान्तरकिटौ भवति,यतो याविंशतितमावान्तरकिट्टिरासीत् ,सैवाऽधुना चरमावान्तरकिट्टिभवति। तद्योतनाय चित्रे लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टी त्रयोदश (१३) शून्यानि दर्शितानि, लोभद्वितीयसंग्रह प्रथमावान्तरकिटौ च दश (१०) । एवं लोभप्रथमसंग्रह किट्टिप्रथमावान्तरकिट्टायपि बोध्यम् । (३) (अ) लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिधातदलतो दलमादाय लोभरितीयसंग्रहफिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टी लोभ तृतीयसंग्रहकिट्टिघातावान्तरफिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान असत्कल्पनया तु द्वौ चयौ प्रक्षिपति, ततः परं सर्वासु लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाद्यवान्तरफिट्टिषु प्रक्षिपति, तद्द्योतनाय चित्रस्योपरितने भागे .. बिन्दुद्वयं दर्शितम् । दलप्रक्षेने जाते लोभतृतीयसंग्रह किट्टितः प्रभृति लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिचरमात्रान्तरकिटिं यावत् सो अवान्तरकिट्टय एकगोपुच्छाकारेण भवन्ति । (ब) लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपे जाते लोभद्वितीयसंग्रहकिटिचरमावान्तरकिहितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टो परमार्थत एकाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टि-द्वितीयसंग्र. हकिट्टिघातावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचौरसत्कल्पनया तु पञ्चभिश्चयही दलं भवति, तद्योतनाय चित्रे लोभद्वितीयसंग्रहकिटिचरमावान्तरकिटौ बिन्दु द्वयसहितशून्यानि द्वादश (१२), लोभप्रथम संग्रहकिट्टिप्रथमात्रान्तरकिट्टो तु सात (७) । अथ लोभप्रथमसंग्रहकिटि प्रथमावान्तरकिटौ लोभतृतीय संग्रहकिट्टि-द्वितीयसंग्रहकिट्टिघातावान्तरकिट्टिराशिप्रत्राणांश्चयान असत्कल्पन या तु चतुश्चयान प्रक्षि पति । ततः परं सर्वासु लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिषु तावतश्चयान प्रक्षिपति । प्रक्षिप्तेषु च तेषु लोभतृतीयसंग्रहकिट्रिप्रथमावान्तरकिट्टिप्रभृतिलोभप्रथमसंबहकिटिचरमावान्तरकिट्टिपर्यवसानाः सर्वावान्तरकिट्टय एकगो पुच्छाकारेण भवन्ति । गोपुच्छाकाररचनायां सम्पन्नायां शेषघातदलं विशेषहीनक्रमेण दीयते । यथा लोभस्य तिस्रः संग्रहकिट्टीः स्थापयित्वा प्ररूपणा दर्शिता, तथैव शेषकपायाणामपि संग्रहकिट्टीरुपयपरि स्थापयित्वा दर्शयितव्या। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातदलनिक्षेपविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२५७ ॥ णाऽधस्तनशीर्वचयादिरूपं यद् दलं दास्यांते, तत् सर्व सर्वघातदलाऽसंख्येयभागमात्रमेव भविष्यति, तच घातदलत एव दास्यति । तेन तद् दलं पृथक् स्थापयितव्यम् । तन्निक्षेपविधिस्त्वने सप्तत्रिंशदधिकशततमगाथायाष्टीकायां वक्ष्यते ।। ___ अनन्तरोक्तदलत्रयमपि सर्वघातदला- संख्येयभागमात्रं भवति । सर्वघातदलतश्योपयुक्तदलत्रयं विशोध्य शेषसर्वघातदलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टितः प्रभृति क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टि यावद् घाताऽवान्तरकिट्टिरहितासु सर्वास्ववान्तरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण निक्षेपणीयम् । निक्षेपविधिश्वेत्थं इष्टव्यः-शेषघातदलं विभागइथे विभजनीयम् । तत्राऽऽद्यो विभाग उत्तरदलम् , द्वितीयस्त्वादिदलम् । __ अथोत्तरदलं दयते-शेषघातदले पदेन विभक्ते मध्यमदलं प्राप्यते । ततो मध्यमदलमींकृतकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां भज्यते, तदैकचयदलं प्राप्यते । पदं चात्र घातरहितानां सर्वाऽवान्तरकिट्टीनां राशिर्वक्तव्यम् । ततः क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावेकं चयं प्रक्षिपति । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिद्विचरमाऽवान्तरकिटौ द्वौ चयो प्रक्षिपति, एवं पश्चानुपूव्यकोत्तरवृद्धया चयान् ददल्लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टी पदप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । "सैकपदन्नपदार्धमथैकाद्यतयुतिः किल संकलिताख्या।” इत्यनेन करणेन चयान् सङ्कलय्य घातरहितानां सर्वानान्तरकिट्टिषु प्रक्षिपाति । सङ्कलितचयैश्च गुणितमेकचयगतदलं सर्वोचरदलं सम्पद्यते । न्यासः-- शेषघातदलम् मध्यमदलम् पदम् मध्यमदलम् .:. एकचयगतदलम् द्विगुण हानी-- (पद-१) सर्वचयाः (पद+१) पदम् सर्वोत्तरदलम् सर्वचयाः एकचयगतदलम् अथाऽऽदिदलं प्रदर्यते-शेपघातदलत उत्तरदलं विशोध्याऽवशिष्टदलमादिदलमुच्यते, आदिदलं च पदेन भज्यते, तदैकमादिदलखण्डं प्राप्यते । आदिदलखण्डं घातरहितासु सर्वाऽचान्तरकिट्टिषु ददाति । न्यास: आदिदलम् =शेषघातदलम्-उत्तरदलम आदिदलम् एकमादिदलखण्डम्प दा Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] खवगसेढी [ गाथा--१३१-१३२ अथ निक्षेपक्रमो भण्यते-क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिघरमा-ऽवान्तरकियामादिदलत एकमादिदलखण्डमुत्तरदलतश्चैकचयं ददाति । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिद्विचरमाऽवान्तरकिट्टयामादिदलत एकमादिदलखण्डमुत्तरदलतश्च द्वौ चयौ प्रक्षिपति । एवं पश्चानुपूर्व्या घातरहितसर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वकोत्तरवृद्धया चयानेकैकं चादिदलखण्डं तावद् ददाति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टिः। एवंक्रमण दले प्रक्षिप्ते शेषसर्वघातदलं परिसमाप्तं भवति, सर्वाऽवान्तरकिट्टयश्चैकगोपुच्छाकारेण सम्पद्यन्ते । समाप्तो गणितविभागः ॥१२८-१२९-१३०॥ __संक्रमदलाऽल्पबहुत्वं गाथात्रयेणोक्तम् । सम्प्रति संक्रमदलतोऽवान्तरकिट्टीः केन विधिना निवर्तयतीति वक्तव्यम् । तत्राऽपि संक्रमदलतोऽवान्तरकिट्टिनिवृत्तरर्वाग् बन्धप्रदेशतो-ऽवान्तरकिट्टिनिवतिः प्रतिपादनीया, संक्रमावान्तरकिट्टिनितिप्ररूपणायामुपयोगित्वात् तस्याः । तेन बन्धप्रदेशादपूर्वाऽवान्तरकिट्टीनां निवृत्तिं प्रतिपिपादयिषुराह बंधपअसा णिवत्तए अपुब्बा अवन्तरा किट्टी। पढमाण चउण्ह अवंतरकिट्टीअंतरसुतु ॥१३१॥ ___ बन्धप्रदेशाद् निवर्तयत्यपूर्वा अवान्तराः किट्टीः।। प्रथमानां चतसृणामवान्तरकिट्टयन्तरेषु तु ॥१३१।। इति पदसंस्कारः । . 'बंधपअसा' इत्यादि, 'बन्धप्रदेशाद्' जात्यामेकवचनम् , बन्धप्रदेशेभ्यः 'चतसृणां' क्रोधमानमायालोभसम्बन्धिनीनां चतुःसंख्याकानां 'प्रथमानाम्' आद्यसंग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयन्तरेषु तु 'अपूर्वा' अभिनवा अवान्तराः किट्टीनिवर्तयति, न तु वक्ष्यमाणसंक्रमदलवत् संग्रहकिट्टीनामधस्तादपि । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते-चतसृणां प्रथमसंग्रहकिट्टीनां मध्यमा एवाऽवान्तरकिट्टयो बध्यन्ते, न तु संग्रहकिट्टिसर्वजधन्यावान्तरकिट्टिापि ततो हीना । तेन संग्रहकिट्टया अधस्ताद् बन्धदलादपूर्वाऽत्रान्तरकिट्टयो न निर्वय॑न्ते ॥१३०॥ ननु बन्धप्रदेशतोऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टीः किं सर्वाऽवान्तरकिट्टयन्तरेषु निर्वतयति ? उतास्ति कश्चिद् विशेषः ? इति, उच्यते-न तावत् सर्वेष्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु । अथ यतिष्यवान्तरकिट्टयन्तरेषु गतेष्वपूर्वा अवान्तरकिट्टीनिवर्तयति, तदभिधित्सुराह गंतूण असंखगुणिअपल्लपढमवग्गमूलठाणाणि । एगिगबंधअपुब्बं किट्टि खलु किट्टिअंतरे कुणइ ॥१३२॥ (गीतिः) गत्वाऽसंख्यगुणितपल्पप्रथमवर्गमूलस्थानानि। ___ एकैकबन्धाऽपूर्वा किट्टि खलु फिट्टयन्तरे करोति ॥१३२॥ इति पदसंस्कारः। 'गंतूण' इत्यादि,तत्र 'असंख्यगुणितपल्यप्रथमवर्गमूलस्थानानि' असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्राण्यवान्तरकिट्टयन्तराणि' गत्वा' उल्लङ्घन्य 'किट्टयन्तरे' अवान्तरकिट्टयन्तर एकैकबन्धाऽपूर्वाऽ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धापूर्वावान्तरकिट्टीनामन्तरम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २५९ वान्तरकिट्टि खलु 'करोति' निवर्तयति । भावार्थः पुनरयम्-उपरितनमधस्तनं चाऽसंख्येयभागं मुक्त्वा शेषा अवान्तरकिट्टयोबध्यन्ते । तत्र जघन्यावान्तरकिट्टया द्वितीयावान्तरकिट्याश्च यदन्तरं भवति, तत् प्रथममवान्तरकिट्टयन्तरमुच्यते । द्वितीयावान्तरकिट्टयास्तृतीयावान्तरकिट्टयाश्चान्तरं द्वितीयमवान्तरकिट्टयन्तरमभिधीयते,एवमग्रऽपि वक्तव्यम् । तत्र प्रथमावान्तरकिट्टयन्तरे बन्धदलतोऽपूर्वावान्तरकिट्टि न निवर्तयति। द्वितीयेऽप्यवान्तरकिट्टयन्तरे बन्धदलतोऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टि न निवर्तयति । एवं प्रथमादवान्तरकिट्टयन्तरादसंख्येयपन्योपमप्रथमवर्गभूलप्रमाणान्यवान्तरकिट्टयन्तराणि गत्वा बन्धदलत एकामपूर्वाऽवान्तरकिट्टि निवर्तयति, ततः पुनरसंख्येयपल्योपमग्रथमवर्गमूलप्रमाणान्यवान्तरकिट्टयन्तराणि व्यतिक्रम्य द्वितीयामपूर्वाऽवान्तरकिट्टि निवर्तयति । ततोऽप्यसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्रावान्तरकिट्टयन्तराण्युल्लङ्घन्य तृतीयामपूर्वाऽवान्तरकिट्टि निवर्तयति । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम्, यावद् बन्धप्रदेशतो निर्वय॑मानचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः, सा चोपरितनानामसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणानांबन्धे वर्तमानानामवान्तरकिट्टीनामधस्तानियते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"किटोअंतराणि अंतरट्टदाए असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि, एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किटो णिव्वत्तिज्जदि। पुणो वि एत्तियाणि किटोअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्वत्तिज्जदि।” इति । अनया रीत्या बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टयसंख्येयभागमात्यो बन्धापूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते । न्यासः-निवर्त्यमानबन्धापूर्वावान्तरकिट्टयः= र.. बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिराशिः वावान्तराकट्टयः- असंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलानि अथ गणितविभागः । . लोभस्य किट्टितया परिणतं दलं सार्धद्विगुणहानिगुणितैकसमयप्रबद्धप्रमाणं भवति । एकद्विगुणहानिश्चाऽसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणाऽस्ति । निरुक्तदलस्य च तिस्रः संग्रहकिट्टयो निर्वर्तिताः । तत एकैकसंग्रहकिट्टो सार्धद्विगुणहानित्रिभागगुणितैकसमयप्रबद्धप्रमाणं सकलाऽवान्तरकिट्टितया दलं परिणतं भवति । यदि साद्विगुणहानित्रिभागगुणितैकसमयप्रबद्धप्रमाणेन दलेनैकैकसंग्रहकिट्टौ सकलाऽवान्तरकिट्टयो निर्वर्तिताः, तपेकसमयप्रबद्धप्रमाणेन दलेन कति बन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टयो निर्वत्यैरन् ? इति त्रैराशिकेन सावनीया बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टयः । असत्कल्पनया (१) द्विगुणहानिः षोडश (१६) कल्प्यताम् । सार्धद्विगुणहानिः चतुर्विशतिः (२४)। (२) एकसमयप्रबद्धदलम् ='अ' कल्प्यताम् 'लोभसंग्रहकिट्टितया परिणतं दलम् एकसमयप्रबद्धम् सार्धद्विगुणहानिः 'प्रकृते लोभसंग्रहकिट्टितया परिणतं दलम्=२४xअ=२४ अ अतो लोभस्यैकसंग्रहकिट्टितया परिणतं दलम्=२४ अ:३८ अ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] खवगसेढी [गाथा-१३३-१३४ लोभस्यैकसंग्रहकिट्टितया परिणतदलस्य '८ अ' इत्यस्य द्वासप्ततिरवान्तरकिट्टयो निर्वर्तिता इति कल्प्यताम् । ८ अ' इत्यनेन द्वासप्ततिः (७२) अवान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते, तर्हि 'अ' इत्यनेन कत्यवान्तरकिट्टयो निर्वयेरन् ? “प्रमाणमिच्छा च समानजाती, आद्यन्तयोस्तत्फलमन्यजातिः। मध्ये तदिच्छाहतमाद्यहृत् स्यादिच्छाफलम् ।” इति श्रीभास्करकरणसूत्रेण प्राप्तव्यो बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिराशिः। तद्यथा-अत्र प्रमाणम्= ८ अ', इच्छा='अ', प्रमाणफलम् =७२। तत इच्छाहतं फलमिदम्-७२xअ=७२ अ, तच्च ८ अ' इति आयेन-प्रमाणेन हृत् इच्छाफलम्= ७२ अ:८ अ=९ । अत एकसमयप्रबद्धन नव (९) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते । ताश्च परमार्थतः सार्धप्रदेशद्विगुणहानित्रिभागभाजितकसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिप्रमिताः सत्यः पूर्वाऽवान्तरकिट्टयसंख्येयभागप्रमाणा भवन्ति । ____ अथ नव (९) बन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिभिरेकसंग्रहकिट्टिसकलपूर्वाऽवान्तरकिट्टयोऽन्तर्यन्ते, तयंकबन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टयाः कति पूर्वाऽवान्तरकिट्टयोऽन्तर्येरन् ? इति त्रैराशिकेनाऽन्तरं साधनीयम् । प्रमाणमत्र ९, प्रमाणफलम् ७२, इच्छा १ । 'प्रमाणमिच्छा०' इत्यनन्तरोक्तभास्करवचनेन इच्छागुणितं प्रमाणफलमिदम्-७२४१-७२, तच्च ९ इति प्रमाणेन भक्तव्यम्, तदा इच्छाफलमिदम्-१८ । तच्च सार्धद्विगुणहानिर्बिभागमात्रम् , चतुर्विशतेः साद्विगुणहानित्वेन परिकल्पनात् । अष्टाविति च राशिरसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलकल्पो भवति, सार्धद्विगुणहान्या त्रिभागमात्रत्वात् । तेनैकैकाऽपूर्वावान्तरकिट्टिरसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणावान्तरकिट्टयन्तराणि गत्वा गत्वा निर्वय॑ते । एवं मायामानक्रोधानां प्रथमसंग्रहकिट्टावपि प्ररूपयितव्यम् , नवरं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टौत्रयोदशगुणं दलं स्थापयित्वा प्ररूपणा विधेया॥१३२॥ ॥ समाप्तो गणितविभागः ॥ अथ बन्धदलतः पूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपविधि विभणिषुराहबंधादिपुवकिट्टीअ पएसग्गं बहुं देई । तत्तो विसेसहीणकमेण जा हेट्ठिमा अपुवाए ॥१३३॥ (उद्गीतिः) तत्तो अपुवकिट्टीअ अणंतगुणं तओ देई। पुव्वाअ अणंतगुणूणं एवं जाव बंधचरिमकिट्टी ॥१३४॥ (उद्गीतिः) बन्धादिपूर्वकिट्टी प्रदेशाग्रं बहु ददाति । ततो विशेषहीनक्रमेण यावदधस्तनाऽपूर्वस्याः ॥ १३३ ।। ततोऽपूर्वकिट्टा अनन्तगुणं ततो ददाति । पूर्वस्यामनन्तगुणोनमेवं यावद् बन्धचरमकिट्टिः ॥ १३४ ॥ इति पदसंस्कारः । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २६१ ___ 'बंधादि०' इत्यादि. 'बन्धादिपूर्वकिट्टी' बन्धप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टी प्रदेशाग्र 'बहु' प्रभूतं ददाति । इदमुक्त भवति-चतसृणां प्रथमसंग्रहकिट्टीनामधस्तनमुपरितनं चाऽसंख्येयभागं परित्यज्य शेषा मध्यमा अवान्तरकिट्टीबध्नाति । अथ मध्यमाऽवान्तरकिट्टिस्वरुपेण यमनुभागं बध्नाति, स पूर्वाऽवान्तरकिट्टिस्वरुपोऽपूर्वान्तरकिट्टिस्वरुपश्च भवति । तत्र बन्धे या सर्वजघन्याऽनुभागकाऽवान्तरकिट्टिः, तस्यां प्रभूतं प्रदेशाग्र बन्धदलतो ददाति । 'तत्तो' इत्यादि, ततः परं बन्धद्वितीयादिपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावद् 'अपूर्वस्याः' बन्धापूर्वाऽवान्तरकिया 'अधस्तना' अधस्तनबन्धपूर्वावान्तरकिट्टिः, अन्यथैकगोपुच्छाकारभङ्गः प्रसज्येत । जघन्यवन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टित आरभ्याऽसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वनन्ततमभागहीनक्रमेण प्रदेशाग्रं ददाति, प्रथमादवान्तरकिट्टयन्तरादसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणेष्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु गतेषु सत्सु बन्धाऽवान्तरकिट्टिनिवृत्तिदर्शनादिति भावः । 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' बन्धप्रथमाऽपूर्वान्तरकिट्टितः प्राग या बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टिस्तत इत्यर्थः, 'अपूर्वकिट्टी' बन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टयामनन्तगुणं प्रदेशाग्रं ददाति । 'ततः' बन्धप्रथमापूर्वाऽवान्तरकिट्टितः पूर्वस्यां बन्धावान्तरकिट्टौ 'अनन्तगुणोनम्' अनन्तगुणहीनं प्रदेशाग्रं ददाति । सम्प्रत्यतिदिदिक्षुराह-एवं' इत्यादि, एवं' यथा बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण दलिकं ददाति, यावदपूर्वकिट्टिरप्राप्ता भवति । ततोऽपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्तगुणं दलिकं ददाति, ततः पूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणहीनं ददाति, तथैव तावदभिधातव्यम्, यावद् ‘बन्धचरमकिट्टिः' बन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । भावार्थः पुनरयम्-बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु यथोत्तरमनन्तभागेन हीनं ददाति । बन्धपूर्वावान्तरकिट्टितोऽनन्तरायां बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्तगुणं दलं प्रक्षिपति, ततोऽनन्तरायां बन्धपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणहीनं दलं ददाति, ततो बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु यथोत्तरमनन्तभागेन हीनं दलिकं ददाति । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावद् बन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः। उक्तश्च कषायप्राभृतचूर्णी-“बज्झमाणयस्स पदेसग्गस्स णिसेगसेढिपख्वणं वत्तइस्सामो-तत्थ जहणियाए किटोए बज्झमाणियाए बहुअं । विदियाए किट्टीए विसेसहोणमणंतभागेण, तदियाए विसेसहोणमणंतभागेण । चउत्थीए विसेसहोणं । एवमणंतरोवणिधाए ताव विसेसहोणं जाव अपुव्वकिहिमपत्तो त्ति । अपुव्वाए किट्टीए अणंतगुणं । अपुव्वादो किटोदो जा अणंतरकिट्टी, तत्थ अणंतगुणहोणं, तदो पुणो अणंतभागहोणं । एवं सेसासु सव्वासु ।” इति॥१३४॥ . बन्धप्रदेशतोऽवान्तरकिट्टिनिवृत्ति विस्तरतो-ऽभिधाय संक्रमदलतोऽवान्तरकिट्टिनिर्वृत्ति व्याचिख्यासुराह Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] खवगसेढी गाथा-१३५-१३६ कुणए वज्जिय कोहपढमं तु एगारसाण हे?म्मि। तहऽवंतरकिट्टीअंतरेसु संकमदला अपुवाओ ॥१३५॥ [गीतिः ] करोति वर्जयित्वा क्रोधप्रथमां त्वेकादशानामधस्तात् तथाऽवान्तरकिट्टयन्तरेषु संक्रमदलादपूर्वाः ॥१३५॥ इति पदसंस्कारः। 'कुणए' इत्यादि, तत्र'क्रोधप्रथमां' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टि तु वयित्वा शेषाणामेकादशानां संग्रहकिट्टीनामधस्तात् तथैकादशानां संग्रहकिट्टीनाभवान्तरकिट्टयन्तरेषु 'संक्रमदलात्' संक्रमप्रदेशाग्राद् 'अपूर्वाः' अपूर्वाऽवान्तरकिट्टीः करोति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"जाओ संकामिज्जमाणियादो पदेसग्गादो अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तिज्जंति, ताओ दुसु ओगासेसु । तंजहा-किट्टीअंतरेसु च संगहकिटोअंतरेसु च।” इति । अत्र क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकिट्टि वर्जयित्वा शेषाणामेकादशानां संग्रहकिट्टीनामवस्ताद् योऽवकाशः, स संग्रहकिट्टयन्तरं ज्ञातव्यः । तथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टि वर्जयित्वा शेषकादशसंग्रहकिट्टीनां संलग्नयोद्वयोः स्वस्वावान्तरकिट्टयोमध्ये योऽवकाशः, सोऽवान्तरकिट्टयन्तरं वाच्यः । न च संक्रमदलतः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया अधस्तात् तथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयन्तरेष्वपूर्वी अवान्तरकिट्टयः कुतो न निर्वय॑न्त इति वक्तव्यम्, तस्या विनाश्यमानत्वेन तत्र संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिनिर्वर्तनाऽभावात् । तदेवं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टो बन्धप्रदेशत एवाऽपूर्वा अवान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते । मान-मायालोभानां च प्रथमसंग्रहकिट्टी बन्धप्रदेशतः संक्रमप्रदेशतश्चाऽपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वयन्ते । क्रोधादीनां शेपास्वष्टासु संग्रहकिट्टिषु केवलं संक्रमप्रदेशत एवाऽपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्त इति फलितार्थः । इदन्त्ववधेयम्बन्धप्रदेशतः क्रोधादिप्रथमसंग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयन्तरेषु निर्वय॑माना अपूर्वावान्तरकिट्टयः स्तोका भवन्ति, एकसमयप्रबद्धप्रदेशाग्रेण तासां निवृत्तेः । ततोऽसंख्येयगुणाः संक्रमप्रदेशतः क्रोधादीनां द्वितीयाद्येकादशसंग्रहकिट्टीनामधस्तात् क्रोधादीनां चैकादशसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयन्तरेषु निर्वय॑माना अपूर्वा अवान्तरकिट्टयो भवन्ति, संक्रमप्रदेशाग्रस्याऽसंख्येयसमयबद्धमात्रत्वात् । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूर्णी-"बज्झमाणयादो थोवाओ णिव्वत्तेदि । संकामिज्जमाणयोदो असंखेज्जगुणाओ।" इति ॥१३५।। साम्प्रतं संक्रमदलतो निर्वय॑मानाऽपूर्वावान्तरकिट्टीनामल्पबहुत्वमभिधत्तेसंकमओ णिव्वत्तिजमाणकिट्टीसु संगहंतरजत्तो। होंति अवंतरकिट्टीअंतरजाओ असंखगुणिआऽपुव्वा ॥१३६॥ (आर्यागीतिः) ___ संक्रमतो निर्वय॑मानकिट्टिषु संग्रहान्तरजाभ्यः । भवन्त्यवान्तरकिट्टयन्तरजा असंख्यगुणिता अपूर्वाः ॥१३६।। 'संकमओ' इत्यादि, 'संक्रमतः' संक्रमदलतो निर्वय॑मानकिट्टिषु 'संग्रहान्तरजाभ्यः' Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमा पूर्वावान्तर किट्टी नामल्पबहुत्वम् ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ २६३ संग्रहकियन्तरजाभ्योऽपूर्वावान्तर किट्टिभ्यो ऽवान्तरविट्ट्यन्तरजाः 'असंखगुणितापुव्वा' ति "शेष संस्कृतवत् सिद्धम्' (सिद्धहेम० ८-४-४४८) इति प्राकृतलक्षणदर्शनाद् आकारोऽकारेण सह दीर्घो जातः, विश्लेषे चाऽकारः प्राप्तः तेन 'असंखगुणिआ अपुव्वा' त्ति 'असंख्यगुणिताः' असंख्येयगुणा अपूर्वा :- अपूर्वावान्तरकिट्टयो 'भवन्ति' जायन्ते । उक्तं च कषायप्राभृतचूणौं- “जाओ संगह किट्टीअंतरेसु, ताओ धोवाओ। जाओ किट्टीअंतरेसु, ताओ असंखेज गुणाओ ।" इति । अयं भावः - किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथमसमये संक्रमदलतः क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टि वर्जयित्वैकादशसंग्रह किट्टीनामवस्तात् तथा तासामेवैकादश संग्रह किट्टीनामवान्तरकियन्तरेष्वपूर्वा अवान्तरकिट्टयो निर्वर्त्यन्त इति प्रागुक्तम् । तत्र क्रोधप्रथम संग्रहकिद्धिं परित्यज्यैकादशसंग्रहकिट्टीनामधस्ताद् योऽवकाशः, स संग्रह किट्टयन्तरम् । तत्र या अपूर्वा अवान्तरकिट्टयो जायन्ते, ताः संग्रह किट्टयन्तरजा उच्यन्ते । तथा क्रोधप्रथम संग्रहकिद्धिं विहायैकादश संग्रह किट्टीनामवान्तरकियन्तरेषु या अपूर्वा अवान्तरवििडयो जायन्ते, ता अवान्तरवििट्टयन्तरजा व्यपदिश्यन्ते । तत्रैकादशसंग्रहकियन्तरेषु यावत्संक्रमदलिकतोऽपूर्वावान्तरकिट्टी र्निर्वर्तयति, ततोऽसंख्येयगुणं संक्रमदलिकमादायैकादशसंग्रहकिट्टी नामवान्तरकिट्टयन्तरेष्वपूर्वावान्तरकिट्टीनिंष्पादयति । तेन संग्रह कियन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टितोऽवान्तरकिट्ट्यन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकियोऽसंख्येयगुणा भवन्ति । संग्रहकिट्टयन्तरजा अपूर्वावान्तरकिट्टयो निरन्तरं तिष्ठन्ति, न तु पूर्वावान्तरविट्टिभिर्व्यवहिताः, तत्र पूर्वावान्तरकिट्टीनामभावात् । अवान्तर किट्टयन्तरोत्पन्नास्त्वपूर्वावान्तरकिट्टयो न निरन्तरमवतिष्ठन्ते, अपि तु विवक्षितसंग्रहकिट्ट्याः सर्वजघन्यपूर्वावान्तरकिट्टितः पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागे गते सति । तथाहि —विवक्षितसंग्रह किट्टयाः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टि द्वितीयपूर्वान्तरकिट्टयोर्यदन्तरं भवति, तत् प्रथममवान्तरकिट्टयन्तरम् । तत्र संक्रमदलतोऽपूर्वावान्तरकिट्टिं न निर्वर्तयति, एवं द्वितीयेऽवान्तरकिट्टयन्तरेऽप्यपूर्वावान्तरकिट्टिं न निर्वर्तयति । एवंक्रमेण पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागमात्राण्यवान्तरकिट्ट्यन्तराणि व्यतिक्रम्याऽवान्तरकिट्ट्यन्तरयेकामपूर्वाऽवान्तरकिद्धिं निर्वर्तयति । ततः पुनः पल्योपमप्रथमवर्गमूळ संख्येयभागमितान्यवान्तरकिंट्टयन्तराणि गत्वैकामपूर्वऽवान्तरकिसिं निर्वर्तयति, ततः पुनः पल्योपमप्रथम वर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणान्यवान्तरकिट्टयन्तराण्युल्लङ्घये कामपूर्वाऽवान्तरकिट्टि निर्वर्तयति । एवं तावद्वक्तव्यम्, यावत् संक्रमप्रदेशाग्रतो निर्वर्त्यमाना चरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । न चाऽवान्तरकियन्तरेषु पल्योपमवर्गमूलाऽसंख्येयभागमात्राणि स्थानानि गस्यैकैकाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिर्निर्वर्त्यत इत्येतत्कथमवसीयते १ इति वाच्यम्, अग्रिमगाथया दलनिक्षेपविधानावसरे पल्योपमप्रथम वर्गमूलाऽसंख्येयभागमात्रस्याऽन्तरस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] खगढी : अथ गणितविभागः । सम्प्रति द्वात्रिंशदधिकशततमगाथोक्तबन्धापूर्वावान्तरकिट्टीनामेतद्दाथोक्तसंक्रमापूर्वावान्तरकि ट्टीनां चान्तरादिकं गणितरीत्या प्रदर्श्यते - एकसमयप्रबद्ध दलमसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणसार्धद्विगुणहान्या गुणयितव्यम्, गुणने च कृते लोभस्य किट्टितया परिणतं दलं लभ्यते, तत्पुनत्रिकेण भाजितं सदेकसंग्रह किट्टिसकलाऽवान्तरकिट्टितया परिणतं दलं भवति । ततः सार्धद्विगुणहानित्रिभागगुणितैकसमयप्रबद्धदलमुत्कर्षणापकर्षणभागहारेण भज्यते, तदैकैकसंग्रह किट्टरुत्कीर्णदलं प्राप्यते । सम्प्रति तूत्कीर्णदलेन निर्वर्त्यमानाऽपूर्वावान्तर किट्टीनां प्रमाणमिष्यत इतिकृत्वा सागुणहानि त्रिभागगुणितैकसमयबद्ध दले नै कैक संग्रह कि यदि सकलाSवान्तरकियो निर्वर्तिताः, तत्कीर्णन कियत्योऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टयो निर्वत्र्येरन् ? इति त्रैराशिकेन साधनीयाः संक्रमदलतो निर्वर्त्यमाना अपूर्वावान्तरवििट्टयो लोभप्रथमसंग्रह किट्टी । असत्कल्पनया (१) एकद्विगुणहानिः = १६ : सार्धद्विगुणहानिः = २४ | (२) एकसमयप्रबद्ध दलम् = 'अ' (३) लोभप्रथम संग्रह किट्टौ निर्वर्तिता अवान्तरकिट्टयः = ७२ । (४) उत्कर्षापकर्षणभागहारः =४ | (५) असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलानि च ८ इति कल्प्यताम् । - लोभत्रि संग्रह किट्टितया परिणतं दलम् = २४ =२४ अ -- . लोभप्रथमसग्रह किट्टितया कियो निर्वर्तिताः " ?? . उत्कर्षणापकर्षणभागहारः =४ -- लोभप्रथम संग्रह किट्टित उत्कीर्णदलम् = ८ अ ÷ = २ [ गाथा-१३६ - =२४ ३÷३=८ अ, तस्य च ७२ अवान्तर 'अ' इत्यनेन द्वासप्ततिः ( ७२ ) अवान्तरकियो निर्वर्तिताः, तर्हि '२ अ' इत्यनेन कियत्योsपूर्वाऽवान्तरकिट्टयो निर्वत्येरन् १ प्रमाणमिच्छा च समानजातो. आद्यन्तयोस्तत्फलमन्यजातिः । मध्ये तदिच्छाहतमाद्यहृत् स्यादिच्छाफलं ।” इति श्री भास्कर वचनेन साध्याः । तथाहिप्रमाणम् = ८अ, प्रमाणफलम् = ७२, इच्छा = २ अ, इच्छाहतमिदम् - ७२x२अ = १४४अ, आद्येन - प्रमाणेन हृत् इच्छाफलम् - १४४ अ÷८ अ = १८ । एवमष्टादश (१८) अपूर्वाऽवान्तरकिय उत्कीर्णदलतो निर्वर्त्यन्ते, ताश्च परमार्थत उत्कर्षणापकर्षणभागहार भाजितै कसंग्रह किट्टिगताञ्वान्तरकि ट्टि प्रमाणा भवन्ति । उत्कर्षणापकर्षणभागहारस्य पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणत्वात् संक्रमदलतो निर्वर्त्यमाना अपूर्वावान्तरकियो लोभस्यैकसंग्रह किट्टा पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागभाजि - तैकसंग्रहकिट्टिगतावान्तरकिट्टियमाणा भवन्ति । 1 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या बन्धसंक्रमापूर्वावान्तर किट्टयः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः न्यासः- लोभप्रथमसंग्रह किट्टौ सर्वाः संक्रमापूर्वा त्रान्तरकिट्टयः = तत्संग्रह किट्टिगता ऽवान्तरकिट्टयः पल्योपम प्रथमवर्गमूलासंख्यभागः यद्यपि द्वात्रिंशदधिकशततमगाथायाष्टीकायां बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिराशिर्गणितरीत्या दर्शितः, तथापीह संक्रमापूर्वान्तरकिट्टिराशिना सह तुलनां कर्तुं पुनः प्रदर्श्यते । एवमन्तरमपि । लोभस्य बन्धदलम् 'अ', एकसमयबद्धत्वात् । बन्धदलतो ऽनन्ततमभागमात्रं दलं पृथक् स्थापयित्वा शेषं बन्धापूर्वावान्तरकिद्वित्वेन परिणमयति । स्थूलदृष्टया 'अ' इति दलं बन्धाऽपूर्वावान्तर किट्टितया परिणमयति, अनन्ततमभागस्याविवक्षणात् । यदि '८ अ' इत्यनेन दलेन द्वासप्ततिः (७२) अवान्तरकियो निर्वर्तिताः, तर्हि 'अ' इत्यनेन कत्यवान्तरकिट्टयो निर्वयेरन् ? इति त्रैराशिकेन नत्र ( ९ ) अवान्तरकिय: साध्यन्ते । ताच परमार्थतोऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलभाजितलोभप्रथम संग्रह किट्टिगतावान्तरकिट्टियमाणा भवन्ति । तेन बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टितोसंख्येयगुणाः संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वर्त्यन्त इति सिध्यति, उत्कर्षणापकर्षणभागहारतोऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलानाम संख्येयगुणत्वान् । अथाऽन्तरं साध्यते - अष्टादशसंक्रमाऽपूर्वावान्तरविट्टिभिरेकसंग्रह किट्टि सर्वपूर्वावान्तरकिट्टयो द्वासप्ततिसंख्याका अन्तर्यन्ते, तो कसंक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्ट्याः कति पूर्वावान्तरकिट्टयोऽन्तरयितव्याः १ इति त्रैराशिकेन साधनीयमन्तरम् । तद्यथा - प्रमाणमत्र १८, प्रमाणफलम् ७२, इच्छा १ । "प्रमाणमिच्छा ० " इति श्री भास्कर वचनेनेच्छागुणितं प्रमाणफलमिदम्-७२x१=७२, तच्च १८इति प्रमाणेन भक्तव्यम्, तदा इच्छाफलम् ३ = ४, तच्च परमार्थत उत्कर्षणापकर्षणभागप्रमाणं भवत् पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभाग प्रमितं भवति । [ २६५ यद्यपि प्रथमतोऽन्ततश्चाऽसंख्येयभागं विहाय पूर्वावान्तरकिट्टय एकैकबन्धापूर्वावान्तरकिट्टया व्यवधीयन्ते, तथापि स्थूलदृष्ट्या सर्वपूर्वावान्तरकिट्टयो व्यवधीयन्त इति कल्प्यते, असंख्येयभागस्याविवक्षणात् । यदि नवभिर्वन्धापूर्वावान्तरकिट्टिभिरेकसंग्रह किट्टिसर्वपूर्वावान्तरकिट्टयो द्वासप्ततिसंख्याका अन्तर्गन्ते, तहॊकया बन्धापूर्वावान्तरकिया कियत्यः पूर्वावान्तरकिट्टयो व्यवधातव्याः १ इति त्रैराशिकेन व्यवधीयमानाः पूर्वावान्तर किट्टयः साध्याः । ७२ न्यासः -- प्रमाणम् =९, प्रमाणफलम् = ७२, इच्छा-१, इच्छाफलम् - =< ९ असत्कल्पनया - sष्टौ (८) परमार्थतस्त्वसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणाः पूर्वावान्तर किट्टीरतिक्रम्यैकां बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टि निर्वर्तयति, संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिस्त्वसत्कल्पनया चतस्रः (४) परमार्थतः तः पुनः पल्योपम प्रथमवर्गमूला - ऽसंख्येयभाग प्रमाणाः पूर्वाऽवान्तरकिट्टीरुल्लङ्घय निर्वर्त्यन्ते । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] खवगसेढी [ गाथा-१३७ तेन संक्रमापूर्वावान्तरकिट्टीनामन्तरं स्तोकतरं भवति, बन्धापूर्वावान्तरकिट्टयन्तरतोऽसंख्येयगुणहीनं भवतीत्यर्थः ॥१३६।। ॥गणितविभागः समाप्तः ॥ अथ संक्रमप्रदेशाग्रतो निर्वय॑मानापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपमतिदेशेन भणति संगहअंतरजासु णिखेवो किट्टिकरणब्ब बंधव । परजासु पल्लमूलासंखंसो अंतरं णवरं ॥१३७॥ संग्रहान्तरजासु निक्षेपः किट्टिकरणवद् बन्धवद् । परजासु पल्यालासंख्यांशोऽन्तरं नवरम् ॥१३७॥इति पदसंस्कारः । 'संगह०' इत्यादि, 'संग्रहान्तरजासु' संग्रहकिट्टयन्तरजास्थपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु 'निक्षेपः' दलनिक्षेपः किट्टिकरणवद् बोद्धव्य इति शेषः। 'पाजातु' अवान्तरकिट्टयन्तरजास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु 'बन्धवद्' बन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिवद् दलनिक्षेपो बोद्धव्य । सामान्येनाऽतिदिश्याऽन्तरविषयकमपवादमाह—'पल्ल' इत्यादि, तत्र नवरं 'पल्यमूलासंख्यांशः' पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागमात्रमन्तरं ज्ञेयम् । बन्धापूर्वावान्तर किट्टिदलनिक्षेपेऽन्तरमसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणमासीत् । इह तु पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणं ज्ञातव्यमिति भावः । यदभ्यधायि कषायप्राभूतचूणौँ-"जाओ संगहकिट्टीअंतरेसु, तासिं जहा किटीकरणे अपुव्वाणं णिव्वत्तिजमाणियाणं किट्टीणं विधो, तहा कायव्वो। जाओ किट्टोअंतरेसु, तासिं जहा बज्झमाणएण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्वत्तिजमाणियाणं किहोणं विधी, तहा कायव्वो। णवरि थोवदरगाणि किटोअंतराणि गंतूण संछन्भमाणपदेसग्गेण अपुव्वा किही णिव्वत्तिजमाणिगा दिस्सदि। ताणि किट्टीअंतराणि पगणणादो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो।” इति । . भावार्थः पुनरयम्-संग्रहकिट्टयन्तरजास्वपूर्वावान्तरकिट्टिा किट्टिकरणसदृशो यो दलनिक्षेप उक्तः । तत्र सादृश्यार्थ उष्ट्रकूटाकारापेक्षया बोध्यः, अन्यथा सादृश्यं न संभवति, । तथाहिकिट्टिकरणाद्धायां प्रतिसमयमवान्तरकिट्टितयाऽसंख्येयगुणक्रमेण दलं परिणम्यते स्म, तेन पूर्वावान्तरकिट्टिगतदलत उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येषगुणं दलं किट्टितया परिणम्यते स्म । तथाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु यथोत्तरमनन्ततमभागेन हीनं दलिकं ददच्चरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयभागेन हीनं दलं ददाति स्म, ततोऽनन्तभागेन हीनं हीनतरं ददच्चरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितः प्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयभागेनाविक दलं ददाति स्म । किट्टिवेदनाद्धायां पुनस्तादृशो दलनिक्षेपो न संभवति । कुतः ? इति चेत्, उच्यते Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपः] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२६७ किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमये मोहनीयसर्वदलस्य किट्टितया परिणतत्वात् किट्टिवेदनाद्धायाश्च प्रथमसमये पूर्वसत्तागतदलाऽसंख्येयभागमात्रदलस्योत्करणात् पूर्वाऽवान्तरकिद्विगतदलिकापेक्षयाऽसंख्येयभागप्रमाणं दलमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितया परिणमनायोत्किरति, एवं द्वितीयादिसमयेध्वपि । यद्यपि प्रतिसमयं किट्टिवेदनाद्धायामप्यसंख्येयगुणं दलमुत्किरति, तथाप्युत्कीर्यमाणं सर्व दलं पूर्वसत्तागतसर्वदलासंख्येयभागप्रमाणं भवति। तेन किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये संग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नास्ववान्तरकिट्टिषु या चरमापूर्वावान्तरकिट्टिः,तस्यां निक्षिप्यमाणदलतोऽसंख्येयगुणहीनं प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौदलंनिक्षिपति,अन्यथा पूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टीनां दृश्यमानंदलमेकगोपुच्छाकारेण न स्यात् । एवं चरमपूर्वावान्तरकिट्टितोऽसंख्येयगुणं प्रथमायां संग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नायामवान्तरकिटौनिक्षिपति, अन्यथा दृश्यमानदलस्य गोपुच्छाकारभङ्गः प्रसज्येत । इहोष्ट्रकूटापेक्षया तु सादृश्यार्थः सूपपद्यते, असंख्येयगुणहानेरसंख्येयगुणवृद्ध चोपलम्भेन निम्नोनतत्वोपलम्भात् । तथाऽवान्तरकिट्टयन्तरजास्वपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसदृशो यो दलिकनिक्षेपः प्रतिपादितः । तत्र सादृश्यार्थोऽन्तरापेक्षया ज्ञातव्यः । यथा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु पूर्वाऽवान्तरकिट्टीरन्तरयित्वाऽन्तरयित्वादलं प्रक्षिपति, तथाऽवान्तरकिट्टयन्तरजासु संक्रमापूर्वऽवान्तरकिट्टिष्वपि पूर्वाऽवान्तरकिट्टीरन्तरयित्वाऽन्तरयित्वा दलं प्रक्षिपति, न तु नैरन्तर्येण, अन्यथा सादृश्यं न संभवति । तद्यथा-यथा बन्धजधन्यपूर्वावान्तरकिट्टितो यथोत्तरमनन्तभागेन हीनं हीनतरं दलिकं दददसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणबन्धपूर्वाऽत्रान्तरकिट्टिषु गतासु बन्धपूर्वावान्तरकिट्टितो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणं दत्त्वा तदनन्तरबन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टावनन्तगुणहीनं दलं ददाति स्म, तथा संग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितः संक्रमजघन्यपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयगुणहीनं दलं दत्त्वा संक्रमद्वितीयादिपूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वनन्तभागेन हीनं हीनतरं दलिकं ददत् पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणासु पूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु गतासु न संक्रमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टावनन्तगुणं दलं दत्वाऽनन्तरसंक्रमपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणहीनं ददाति, अपि तु संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्यातगुणं दलं दत्वाऽनन्तरसंक्रमपूर्वावान्तरकिट्टयामसंख्यातगुणहीनं ददाति, अन्यथा संक्रमपूर्वावान्तरकिट्टितोऽवान्तरकिट्टयन्तरजायां संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ दृश्यमानदलस्याऽनन्तगुणत्वप्रसङ्गेन गोपुच्छाकारभङ्गः प्रसज्येत । अतो बन्धवदित्यत्र सादृश्यार्थोऽन्तरापेक्षया बोध्यः। तेन किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये दलिकनिक्षेप इत्थं प्ररूपयितव्यः-सर्वमन्दानुभागका या लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः, तस्या अधस्तात् किट्टिवेदको लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरे या अपूर्वावान्तरकिट्टीनिवर्तयति, तासु या सर्वजघन्याऽनुभागकावान्तरकिट्टिः, तस्यां प्रभूतं दलिकं ददाति । ततो द्वितीयस्यां लोमतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरजायामपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तभागेन हीनं दलं ददाति, ततोऽनन्तरानन्तरेण विशेषहीनक्रमेण दलं तावद् ददाति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरजचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टेिः । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकि Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] खवगसेढी [ गाथा-१३७ ट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्यातगुणहीनं दलं ददाति, ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्ततमभागेन हीनं दलं ददाति । एवंक्रमेण तावद् ददाति, यावत् पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणा लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टयो व्यतिक्रामन्ति, ततोऽनन्तरायां संक्रमतो निर्वामानायां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमायामवान्तरकिट्टयन्तरजायां संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्यातगुणं दलं निक्षिपति । ततोऽनन्तरायां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वाधान्तरकिट्टावसंख्येयगुणहीनं दलं ददाति । तत उत्तरोत्तरस्यां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्ताकिट्टयामनन्तभागेन हीनं दलं ददाति । यत्र च पूर्वावान्तरकिट्टया अपूर्वावान्तरकिट्टयाश्च सन्धिर्भवति, तत्र पूर्वाऽवान्तरकिट्टितोऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येषगुणं दत्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितोऽनन्तरपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयगुणहीनं दलं ददाति । शेषाऽवान्तरकिट्टिष्वनन्ततमभागेन हीनं दलं ददाति । एवंक्रमेण ददल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिड्यन्तरजायां प्रथमायामपूर्वावान्तरकिट्टापसंख्येयगुणं दलं ददाति । ततो विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावल्लोभातीयसंग्रहकिट्टयन्तरजा चरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरजचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टथामसंख्यातगुणहीनं दलं ददाति । ततः परं यथोत्तरमनन्तभागेन हीनं हीनतरं ददाति । नवरं पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणासु पूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु गतासु यत्र यत्र पूर्वाऽवान्तरकिट्टरवान्तरकिट्टयन्तरजायाचाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टेः सन्धिर्जायते, तत्र तत्र पूर्वाऽवान्तरकिट्टितोऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं दलं दत्त्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टितोऽनन्तरपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्यात गुणहीनं ददाति । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरजायां प्रथमायामपूर्वावान्तरकिट्टयामसंख्यातगुणं दलं ददाति । तत उत्तरोतराऽपूर्वावान्तरकिट्टौ विशेषहीनं दलं तावद् ददाति, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरजा चरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । ततो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्यातगुणहीनं दलं निक्षिपति । ततः परमनन्तरानन्तरेण सर्वत्र विशेषहीनक्रमेण दलं तावद् ददाति, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । नवरं पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणासु पूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु गतासु यत्र यत्र पूर्वावान्तरकिट्टरपूर्वाऽवान्तरकिटेश्च सन्धिर्भवति, तत्र तत्र पूर्वावान्तरकिट्टितोऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं दलं दत्त्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टितोऽनन्तरपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयगुणहीनं दलं प्रक्षिपति । ___ ततो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिहितो मायातृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरजायां मायाप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टयामसंख्यातगुणं दलं ददाति । ततः सर्वत्र लोभवद् वक्तव्यम् । अयम्भावः—यथा लोभसंग्रहकिट्टित्रये दलनिक्षेप उक्तः, तथैव मायामानयोः संग्रहकिट्टित्रये . Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेदी ] [ २६९ यन्त्रकम्-२० (चित्रम्-२०) । किट्टिवेदनाद्वायां सङ्क्रमदलतो बन्धदलतश्च पूर्वापूर्वानान्तरकिट्टिपु दलिकप्रक्षेपः 11111111111 *11111111111111 01111211311110111 11111111111: 11:11111111।।। मानामा 12IL ||11-11-11 GK000 Od AN 2. 9M म १२३४५६७८९०१२३४५६७८९०१२३४५६७८९० १२३.१२३४५६७८९०१२३४५६७८९०१२३४५६७८६१२३४५६७८६०१२३४५६७८९०१२३४५ लो भ तृ ती य सं य ह कि ट्टिः । लो भ द्वि ती य संग्रह कि ट्टिः । लो भ प्रथम संग्रह कि ट्रिः । सङ्केतस्पष्टीकरणम्*=अनेन चिह्नन तत्तत्संग्रहकिट्टया अधः संक्रमदलतो निर्वय॑मानास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं दर्शितम् । असत्कल्पनया लोभस्य तृतीय संग्रहकिट्टया अधस्तात् पूर्वावान्तरकिट्टयश्चतस्रो निय॑न्ते, द्वितीयसंग्रहकिट्टया अधस्तात् तिस्रः (३), प्रथमसंग्रहकिट्टयाश्चाऽधस्ताद् द्वे (२) । परमार्थतस्त्वनन्ता अधस्तन्योऽपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते, अवान्तरकिट्टयन्तरेषु च निर्वय॑मानापूर्वावान्तरकिट्टितोऽसंख्येयगुणहीना निर्वय॑न्ते । .. = अनेन चिह्नन पूर्वावान्तरकिट्टिषु पुरातनसत्तागतदलं सूच्यते । परमार्थतः पूर्वावान्तरकिट्टयो-ऽप्यनन्ताः, असत्कल्पनया तृतीयसंग्रहकिट्टी २०, द्वितीयसंग्रहकिट्टी १८, प्रथमसंग्रहकिट्टौ १६ । ---=अनेन चिह्नन पूर्वावान्तरकिट्टिषु संक्रमदलतो दीयमानं दलं सूचितम् । ००००=अनेन चिह्न नाऽवान्तरकिट्टयन्तरेषु निर्वय॑मानास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं सूचितम् , ताश्चाऽपूर्वावान्तरकिट्टयोऽसत्कल्पनया लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ ९, द्वितीयसंग्रहकिटौ ८, प्रथमसंग्रहकिट्टौ च ५, परमार्थतस्त्वनन्ताः, पूर्वावान्तरकिट्टीनां चाऽसंख्येयभागप्रमाणाः । एकैका चाऽपूर्वावान्तरकिट्टियोः पूर्वावान्तरकिट्टयोरन्तरे निर्वय॑ते, तथा पल्योपमप्रथमवर्गभूलाऽसंख्येयभागमात्रेष्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु गतेषु निर्वय॑ते, असत्कल्पनया तु द्वयोरवान्तरकिट्टयन्तरयोव्रजितयोनिवर्त्यते ....= अनेन चिह्नन बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं सूचितम्, असत्कल्पनया बन्धपूर्वावान्तरकिट्टयः १५ कल्पिताः, वस्तुतो-ऽनन्ताः । अत्रेदमव धेयम्-लोभप्रथमसंग्रहकिट्टौ बन्धजघन्यपूर्वावान्तरकिट्टया उपरि बन्धोत्कृष्टपूर्वावान्तरकिट्टयाश्चाऽधस्ताद् संक्रमदलतोऽवान्तरकिट्टयन्तरेषु Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ] यन्त्रकम्-२० (चित्रम्-२०) । निय॑माना अपूर्वावान्तरकिट्टयोऽपि बन्धपूर्वावान्तरकिट्टित्वेन गृह्यन्त इति । A अनेन चिह्नन बन्धापूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानं दलं सूचितम् , असत्कल्पनया द्वे बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टी, वस्तुतोऽनन्ता बन्या पूर्वावान्तरकिट्टयः, असंख्ये यपल्योपमप्रथमवर्गमूल प्रमाणासु च बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु गतास्कैका बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिनिवर्त्यते, इह त्वसत्कल्पन या पञ्चसु बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु गतासु निर्वय॑ते । बन्धदलिकनिक्षेपःचित्रे लोभप्रथमसग्रहकिट्टी या पष्ठावान्तरकिट्टिः, सा लोभप्रथमसंग्रह किट्टया बन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिष्टिः, तस्यां प्रभूतं दलिकं ददाति, तच्च• इत्यनेन चिह्नन सूचितम् , ततो विशेषही नक्रमेणाऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणास्पसत्कल्पनया पञ्चपु बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु तावद् ददाति, यावद् बन्धापूर्वावान्तरकिट्टया अधस्तनी बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिः, असत्कल्पन या तु दशमो। ततोऽनन्तगुणं दलिकं बन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टी ददाति, तच्च / इत्यनेन चिह्नन सूचितम् । तदनन्तरं बन्धपूर्वावान्तरकिट्टयामसकल्पनया लोभप्रथमसंग्रहकिट्या द्वादश्यामवान्तरक्रियामनन्तगुण हीनं दलं ददाति, तच्च • इत्यनेन चिह्न सूचितम् , ततो विशेषहोनं ददाति । एवंक्रमेणाग्रेऽपि बन्धदलिकनिक्षेपो वक्तव्यः ( गाथा १३३-१३४) 'किट्टिकरणव्व' इत्यस्योष्ट्रकूटाकारापेक्षया संक्रमदलिकप्रक्षेपः लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नायां प्रथमापूर्वावान्तरकिटौ प्रभूतं दलिकं ददाति, तच्च * इत्यनेन चिह्नन सूचितम् , ततो विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोल्पन्नचरमापूर्वावान्तरफिट्टिः, असत्कल्पान या लोभतृततीयसंग्रहट्टियाश्चतुर्था वान्तरकिट्टिः । ततोऽसंख्येयगुणहीनं दलिक लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी चित्रे तु पञ्चमावान्तरकिट्टौ ददाति, तच्च - - - इत्यनेन चिह्नन सूचितम् , तदेवमत्र दलनिक्षेपस्यो ट्रकूटा कारः । ततो विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावत् पल्योपमप्रथम मूलाऽसंख्येयभाप्रमागा लोभतृतीयसंग्रहकिट्टि पूर्वाशन्तरकिट्ट गो व्यतिक्रामन्ति । इह तु चित्रे प्रभूताव काशा भावान तावत्योऽत्रान्तरकिटयो न दर्शिताः, किन्तु द्वे एत्र पूर्वावान्तरकिट्टी दर्शिते । ततः सङ्क्रमदलतो निर्वय॑मानाशं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमायामवान्तरफिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टयामसंख्येवगुणं दलिकं प्रक्षिपति, तच्च ० ० ० इत्यनेन चिह्न इर्शितम् । ततोऽनन्तरायां पूर्वावान्तरकिट्टयां चित्रे त्वरमावान्तरकिटावसंध्ये घगुणं हीनं दलिकं दाति, तच्च- - - इत्यनेन चिह्न सूचितम् । ततो विशेषहीनक्रमेण पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येयभागप्रमाणातु पूर्वावान्तमिट्टिषु दलिक प्रक्षिपति, ततः पुनर्लोभतृती:संग्रामिटेर्द्विनी स्थानवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्ना वामपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्ये यगुणं दलिकं प्रक्षिपति, ततस्तदनन्तरायां पूर्वावान्तरकिटावसंख्येयगुणहीनं दलं प्रक्षिाति । ततो विशेषही क्रमेण पल्योपमप्रथमवर्गमू यासंख्येयभागप्रमागासु पूर्वावान्तरकिट्टिषु प्रक्षिपति । तदेवं 'बन्धन्व' इत्यस्य सादृश्यार्थोऽन्तरापेक्षया बोध्यः । एवमग्रेऽपि दलिफप्रक्षेपो वाच्यः । 'किट्टिकरणव' इत्यस्य नैरन्त यापेक्षया सङ्क्रमदलिकप्रक्षेपः लोभतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरोत्पन्नायां प्रथमायामपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रभूतं दलिकं ददाति, ततो द्वितीस्वां विशेषही लम्, ततोऽपि तृतीयस्यां विशेषहीलम, 'किट्टिकरणव्व' इत्यस्य सादृश्यार्थो नैरन्तर्यापेक्षया ज्ञेयः । लोभतृतीयसंग्रहकिटिचरमापूर्वावान्तरफिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणहीनं दलं ददाति, ततो विशेषहीनक्रमेण पल्योपमप्रथम मूलाऽसंख्येयभा प्रमाणासु पूर्वावान्तरक्रिट्टिषु ददाति, ततोऽनन्तगुणं दलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमायामवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नायामपूर्वावान्तरकिट्टी ददाति । ततस्तदनन्तरपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्तगुणहीनं दलं प्रक्षिपति, ततो विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । एवमग्रेऽपि दलिकप्रक्षेपो वाच्यः ।। एवं शेषकषायाणामपि संग्रहकिट्टीनां चित्रं दर्शयितव्यम् । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्याऽवान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २६९ क्रोधस्य च तृतीयसंग्रहकिट्टि-रितीयसंग्रहकिट्टयोदलनिक्षेपो वक्तव्यः । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टौ तु संक्रमदलतोऽपूर्वावान्तर्राकट्टयो न निर्वयन्ते । अथ प्रकारान्तरेण दलिकनिक्षेपविधिाख्यायते-संग्रहकिट्टयन्तरजायावरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टेः प्रथमपूर्वाऽवान्तरकिटेश्च सन्धौ सति संग्रहकिट्टयन्तरजचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितः प्रथमपूर्वावान्तरकियामनन्तगुणहीनं दलं ददाति । किट्टिकरणवद्' इत्यत्र सादृश्यार्थश्व नरन्तर्यापेक्षया बोध्यः, यथा किट्टिकरणाद्धायामेकैकसंग्रहकिट्टयपूर्वावान्तरकिट्टिषु निरन्तरं दलमनन्तभागेन हीनं ददाति, तथैव किट्टिवेदनाद्धायां संग्रहकिट्टेरवस्तात् निर्वत्यमानासु संग्रहकिट्टयन्तरजास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु यथोत्तरं निरन्तरमनन्ततमभागेन हीनं हीनतरं दलं ददाति । पूर्वाऽवान्तरकिटेरवान्तरकिट्टयन्तरजायाश्चाऽपूर्वावान्तरकिटेः सन्धौ सति पूर्वावान्तरकिट्टितोऽवान्तरकिट्टयन्तरजायामपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्तगुणं दलं ददाति, अपूर्वावान्तरकिट्टितोऽनन्तरपूर्वाऽवान्तरकिट्टयामनन्तगुणहीनं दलं ददाति । 'बन्धवद्' इत्यत्र सादृश्यार्थश्च प्राग्वदन्तरापेक्षया बोद्धव्यः । अनेन विकल्पेन दलनिक्षेपविधिरित्थं प्ररूपयितव्यः-लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिटेरधस्ताद् या अपूर्वाऽवान्तरकिट्टय उत्पद्यन्ते, तासु या सर्वजघन्याऽनुभागका भवति, तस्यां प्रभूतं दलिकं ददाति । ततो द्वितीयस्यां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नायामपूर्वावान्तरकिट्टौ विशेषहीनं दलं प्रक्षिपति । ततोऽनन्तरानन्तरेण विशेषहीनं दलं तावद् ददाति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः। लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणहीनं दलं ददाति । ततः परमनन्तरानन्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं तावद् ददाति, यावत् संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति । ___ततः पूर्वावान्तरकिट्टितः संक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणं दलं ददाति । ततोऽनन्तगुणहीनं दलं पूर्वावान्तरकिट्टौ ददाति । ततः परं सर्वत्र यथोत्तरमनन्तभागेन हीनं दलं ददाति । नवरं यत्र यत्र पूर्वावान्तरकिट्टेरपूर्वावान्तरकिटेश्च सन्धिर्जायते, तत्र तत्र पूर्वावान्तरकिहितो-ऽपूर्वावान्तरकिट्टावनन्तगुणं दलं ददाति, अपूर्वावान्तरकिट्टितवानन्तरपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्तगुणहीनं दलं ददाति । एवं लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसंग्रहकिट्टयोर्मायामानयोः संग्रहकिट्टित्रये क्रोवस्य च तृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टयोर्दलनिक्षेपो वक्तव्यः, विशेषाभावात् । इत्थं यथागमं व्याख्यानद्वयं दर्शितम् , तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२० । अथ गणितविभागः ॐ अथ संक्रमदलस्य बन्धदलस्य चाऽधस्तनशीर्षचयदलादिभिः प्ररूपणा क्रियते--अन्यसंग्रहकिट्टितो विवक्षितसंग्रहकिट्टि संक्रमतो यद् दलं गच्छति, तद् आयदलमिति प्राक् परिभाषितम् , Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] aarसेढी [ गाथा-- १३७ तेन संक्रमदलमेवाऽऽयदलं भवति, न तद्व्यतिरिक्तम् । क्रोधप्रथम संग्रहकिट्टिं च परित्यज्यैकादशसंग्रहकिट्टिष्वायदलतोऽधस्तनशीर्षचयादिदलं ददाति, क्रोधप्रथम संग्रहकिट्टौ तु क्रोधप्रथम संग्रह - किट्टिघातदलतो ददाति । एवमग्रे ऽपि वेद्यमानसंग्रह कियामायदलाभावेन घातदलतोऽधस्तनशीर्षचयादिदलं ददाति । (१) अधस्तनशीर्षचयदलम् - लोभस्य तृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रभूतं दलं विद्यते स्म, ततो लोभतृतीयसंग्रह किविद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्ट्यामेकचयेन हीनं दलम्, ततोऽप्येकचयेन hi लोभतृतीयसंग्रह किट्टितृतीयपूर्वावान्तरकिट्टौ विद्यते स्म । एवंक्रमेण तावद् विद्यते स्म यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः । अथ किट्टवेदनाद्धायाः प्रथमसमये सर्वपूर्वावान्तरकियस्तेन क्रमेण पूरयितव्याः, येन सर्वपूर्वावान्तरकिट्टयः प्रदेशानाश्रित्य लोभतृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टितुल्या भवेयुः । ततो लोभप्रथम संग्रह किट्टि द्वितीयपूर्वावान्तरकियामेकचयं ददाति, लोभतृतीयसंग्रह किट्टितृतीय पूर्वावान्तरfast at a प्रक्षिपति । एवमेकोत्तरवृद्धया चयांस्तावत् प्रक्षिपति यावत् क्रोधाद्वितीय संग्रह किट्टि - चरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । एते च दीयमानचया अधस्तनशीर्षचया उच्यन्ते । अनेन क्रमेणैकादशसंग्रहकट्टीनां पूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमाना अधस्तनशीर्षचयाः " सैकपदघ्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या” इति करणसूत्रेण सङ्कलयितत्र्याः । पदं चात्र रूपोनैकादशसंग्रह किट्टिसर्वपूर्वाऽवान्तरकिङ्किरा शिर्ज्ञातव्यम् । एकचयगतदलमेकादशानां संग्रहकिट्टीनामधस्तनशीर्षचयैगुण्यते, तदैकादशसंग्रह किडीनां सर्वाऽधस्तनशीर्षचयदलं प्राप्यते । पदम न्यासः – एकादशसंग्रह किट्टीनामधस्तनशीर्षचयाः = (पदम् + १ ) x २ पदम् एकादश संग्रह किट्टीनां सर्वाधस्तनशीर्षचयदलम् = (पदम् +- १)x - २ एकादश संग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु देयं सर्वाऽधस्तनशीर्षचयदलमायदलतो दातु पृथक् 'स्थापयितव्यम् । अथ क्रोधप्रथम संग्रहक्रिट्टि प्रथमपूर्वावान्तरकियामेकादशसंग्रहङ्किट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । तत एकोत्तरवृद्धया चयाँस्तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधप्रथम संग्रहकट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । अनेन क्रमेण क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टि पूर्वावान्तरकिंट्टिषु दीयमानाश्चयाः “व्येकपदन्नचयो मुखयुक् स्यादन्त्यधनं मुखयुग्दलितं तत् । मध्यधनं पदसंगुणितं तत् सर्वधनं गणितं च तदुक्तम् ||१||" इत्यनेन करणसूत्रेण संकलयितव्याः । x एकचयगतदलम् Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ गणितरीत्याऽवान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२७१ अत्र मुखम् आदिधनम् , तच्चैकादशसंग्रहकिट्टिपूर्वान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयाः, अन्त्यधनं द्वादशसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयाः, चयश्चैको ज्ञातव्यः, एकोत्तरवृद्धया चयानां दर्शनात् । पदं च क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिर्बोद्धव्यम् । न्यासः-अन्त्यधनम्=(पदम्--१)xचयः+आदिधनम् अन्त्यधनम+-आदिधनम् मध्यमधनम् सर्वधनम्= मध्यमधनम् पदम् .:. वेद्यमानक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टेः सर्वाधस्तनशीपचयाः मध्यमधनम् पदम् सर्वाऽधस्तनशीर्षचयैर्गुणितमेकचयगतदलं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टेः सर्वाऽधस्तनशीर्षचयदलं जायते । तच्च घातदलतो दा पृथक् स्थापयिनव्यम् । न्यास:-क्रोवप्रथमसंग्रहकियाः सर्वाधस्तनशीर्षचयदलम् तत्सर्वाधस्तनशीर्षचयाः एकचयदलम् (२) अधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलम्-पूर्वावान्तरकिट्टिष्वधस्तनशीर्षचयदले यथायोग्यं प्रक्षिप्ते सर्वाः पूर्वाधान्तरकिट्टयः प्रदेशापेक्षया सदृशा जायन्ते । एकादशसंग्रहकिट्टीनामधस्ताद् या अपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते, ताः प्रदेशाग्रमाश्रित्य लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टितुल्याः स्थापयितव्याः । स्थापितापावैकैकस्यामवान्तरकिट्टो यद् दलं भवति, तदधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमुच्यते, एकाधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकादशसंग्रहकिट्टयन्तरजाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिना गुण्यते, तदा सर्वाऽधस्तनाऽपूर्वाधान्तरकिट्टिदलं लभ्यते । तच्चाऽऽयदलतो दातुं पृथक् स्थापयितव्यम् । वेद्यमानक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया अधस्तादपूर्वाऽवान्तरकिट्टयो न निवर्त्यन्ते संक्रमदलाभावात् उक्तकिट्टिराशिस्त्ववान्तरकिट्टयन्तरे तनापूर्वावान्तरकिट्टिराशितोऽसंख्येपणहीनः । (३) अवान्तरकियन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिटिदलम्-अवान्तरकिट्टयन्तरेषु या अपूर्वाऽवान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते, तासामेकैकाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतप्रदेशतुल्यं प्रदेशाग्रं प्रक्षेप्तव्यम् । एकस रामपूर्वावान्तरकिट्टौ यद् दलं प्रक्षिप्यते, तदेकाऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमुव्यते । तच्चैकादशसंग्रहकिट्टीनां सर्वाऽवान्तरकियन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिना गुण्यते, तदा सर्वाऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलं लभ्यते । एतत्सर्वमापदलतो दातुं पृथक् स्थापयितव्यम् । अवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽ पूर्वावान्तरकिट्टीनां राशिश्चैकादशसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टीनामसंख्येषभागप्रमितो ज्ञातव्यः, यतः पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागप्रमाणानु पर्वावान्तरकिट्टियु गतास्वेकैकाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टि निर्वय॑ते । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टो त्ववान्तरकियन्तरेष्वपूर्वाऽवान्तरकिट्टयः संक्रमदलतो न निर्वत्र न्ते, तत्र संक्रमदलाभावात् । (४) उभयचयदलम्-पूर्वोक्तदलत्रये यथायोग्यं प्रक्षिप्ते संक्रमपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टये Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] खवगसेढी [ गाथा-१३७ बन्धपूर्वावान्तरकिट्टयश्च समानदलिका जायन्ते, तासां दलिकं गोपुच्छाकारं कर्तुं क्रोधप्रथमसंग्रहकिटेश्वरमपूर्वावान्तरकिट्टयामेकं चयं प्रक्षिपति । असौ च प्रक्षिप्यमाणश्चय उभयचय उच्यते, द्विचरमपूर्वावान्तरकिट्टी द्वा उभयचयो प्रक्षिपति । एवंक्रमेण पश्चानुपूर्व्या लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ बन्धसंक्रमसर्वपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् प्रक्षिपति । नवरं बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिष्वनन्तभागदलन्यूनानुभयचयान् प्रक्षिपति, बन्धमध्यमखण्डबन्धचयरूपेण तावद्दलस्य प्रक्षेप्स्यमानत्वात् तथा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टियूभयचयस्थाने वक्ष्यमाणबन्धापूर्वान्तरकिट्टिचयान् बन्धदलतो दास्यति । नन्वेकोभयचयः कियद्दलप्रमाणो भवति ? इति चेत्, उच्यते- मोहनीयसत्तागतसर्वदलं पदेन विभज्यते, तदा मध्यमदलं प्राप्यते । तत्पुनरीकृतैकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यते, तदैक उभयचयः प्राप्यते । पदं चात्र बन्धसंक्रमसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । न्यासः ___ मध्यमदलम-मोहनीयसर्वदलम पदम् एक उभयचयः मध्यमदलम् - द्विगुणहानिद्वयम्- (पदम्-१) सम्प्रति क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टौ प्रक्षिप्यमाणमुभयचयदलं प्रदर्श्यते-क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टयामेकमुभयचयं प्रक्षिपति, क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिद्विचरमपूर्वावान्तरकिट्टो द्वा उभयचयौ प्रक्षिपति । एवंक्रमेण क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् प्रक्षिपति । अनेन क्रमेण क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टो प्रक्षिप्यमाणा उभयचयाः “सैकपदघ्नपदार्धमथैकाद्ययुतिः किल सङ्कलिताख्या।" इति श्रीभास्करकरणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । पदं चाऽत्र क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वोभयचयैरेकोभयचयदलं गुण्यते, तदा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वोभयदलं प्राप्यते । उभयचयदलं च पूर्वावान्तरकिट्टिषु घातदलतो दीयते, बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु तु बन्धदलतो दीयते । बन्धदलतश्चबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिषु किञ्चिन्न्यूनोभयचयदलं यद् दीयते,तबन्धपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलमिति परिभाषिष्यामहे । तच्च वक्ष्यमाणप्रकारेण संकलय्य सर्वोभयचयदलतो विशोधयितव्यम् । विशोधिते च तस्मिन् शेषतः पुनरनन्तभागप्रमाणदलं विशोधवितव्यम्, पूर्वापूर्वबन्धावान्तरकिट्टिषु बन्धमध्यमखण्डबन्धचयदलस्वरूपेणाऽनन्तभागप्रमाणदलस्य दायिष्यमाणत्वात् । शुद्धशेषमुभयचयदलं घातदलतो दातव्यम् । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्याऽवान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २७३ न्यासः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टी निक्षिप्यमाणाः सर्वोभयचयाः = (पदम्+१) x पदम् , , ,, सर्वोभयचयदलम् = सर्वोभयचयाः ४ एकोभयचयदलम् ,, ,, ,, घातदलतो दातव्यमुभयचयदलम् =सर्वोभयचयदलम्-बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलम् -(बन्धमध्यमखण्डम्+बन्धचयदलम्) अथैकादशसंग्रहकिट्टीनामुभयचयदलमुच्यते-क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टयामेकाधिकक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् प्रक्षिपति । क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्विचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टी द्वयधिकक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् निक्षिपति । एवं पश्चानुपूव्यकोत्तरवृद्धया चयान पूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु तावद् ददाति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । एकादशसंग्रहकिट्टिषु “व्येकपदनचयो मुखयुक् स्यादन्त्यधनं मुखयुग दलितं तत् । मध्यधनं पदसगुणितं तत् सर्वधनं गणितं तदुक्तम्॥१॥” इति गणितकरणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः प्रक्षिप्यमाणोभयचयाः । मुखम् आदिधनम् , तच्चाकाधिकक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचयाः । अन्त्यधनं द्वादशसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचयाः, लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ तावतां चयानां प्रक्षेपात् । पदमेकादशसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । चयश्चैको बोद्धव्यः, एकोत्तरवृद्धः । _____ एकादशसंग्रहकिट्टीनामुभयचयैरेकोभयचयदलं गुण्यते, तदैकादशसंग्रहकिट्टिसर्वोभयचयदलं प्राप्यते, तच्च वक्ष्यमाणेन मानमायालोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलेन क्रोधवर्जकषायत्रयबन्धपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु च निक्षेप्यस्यमानबन्धमध्यमखण्डबन्धचयदलेन न्यूनं वक्तव्यम् , तावद्दलस्य बन्धदलतो दास्यमानत्वात् । न्यासः-- अन्त्यधनम् = (पदम्-१) ४ चयः + आदिधनम् मध्यमधनम अन्त्यधनम् + आदिधनम् २ .:.एकादशकिट्टीनां सर्वोभयचयाः मध्यमधनम् ४ पदम् ..एकादशसंग्रहकिट्टिषु प्रक्षिप्यमाणं सर्वोभयचयदलम् = एकादशसंग्रहकिट्टीनां सर्वोभयचयाःxएकोभयचयदलम् आयदलतो निक्षिप्यमाणं सर्वोभयचयदलम् । = सर्वोभयचयदलम्-क्रोधवर्जकषायत्रयप्रथमसंग्रहकिटिबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलम् --(क्रोधवर्जकषायत्रयबन्धमध्यमखण्डम् + क्रोधवर्जकषायत्रयबन्धचयदलम् ) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] खत्रगसेढी [ गाथा-१३७ (४) मध्यमखण्डदलम्-एकादशसंग्रहकिट्टीनामधस्तनशीर्षचयदलमधस्तनाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिदलमवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टिदलमुभयचयदलञ्वेति चतुर्विधं दलमायदलतो विशोध्य शेषमायदलं मध्यमखण्डदलमुच्यते, तच्चैकादशसंग्रहकिट्टिबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिराशिरहितपूर्वाऽपूर्वाकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकमध्यमखण्डदलं प्राप्यते। तच्च य आचार्या अपूर्वावान्तरकिट्टितस्तदनन्तरपूर्वाऽवान्तरकिट्टी निक्षिप्यमाणं दलमसंख्यातगुणहीनं मन्यन्ते, तेषां मतेन लोभतृतीपसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतदलाऽसंख्येयभागप्रमाणं भवति । ये पुनरपूर्वावान्तरकिट्टितस्तदनन्तरपूर्वावान्तरकिट्टौ निक्षिप्यमाणं दलमनन्तगुणहीनं स्वीकुर्वन्ति, तेषामभिप्रायेण लोमतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतदलाऽनन्ततमभागमात्रं भवति । इदं च मध्यमखण्डमेकैकमेकादशसंग्रहकिट्टीनां बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिरहितासु सर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्यविशेषेण दातव्यम् । निरुक्तकमध्यमखण्डदलं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वाधान्तरकिट्टिराशिना गुण्यते, तदा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वमध्यमखण्डदलं प्राप्यते । तच्च घातदलतो दातव्यम् । एकैकमध्यमखण्डदलं चक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वावान्तरकिट्टिष्वविशेषेण दातव्यम् । त्रिंशदधिकशततमगाथायाष्टीकायां पृथक्स्थापितघातदलात् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टी यथायोग्यमधस्तनशीपंचयदलमुभयचयदलं मध्यमखण्डदलं चेति दलत्रये प्रक्षिप्ते पृथक्स्थापितं घातदलं परिसमाप्तं भवति । शेषासु संग्रहकिट्टिषु यथायोग्यं पञ्चविधे दलिके प्रक्षिप्ते सर्वमायदलं परिसमाप्तं भवति ।। ___अथ बन्धदलं बन्धाऽपूर्वावान्तरकिटिसमानखण्डदलादिभिर्विविच्यतेकिट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये मोहनीयस्य बन्धत आगतं दलं बन्धदलमुच्यते । मोहनीयैकसमयप्रबद्धदलं मानादिषु विभजति । तत्र माने स्तोकं दलं ददाति । ततो विशेषाधिकं क्रोधे ददाति, ततो मायायां विशेषाधिकं ददाति, ततोऽपि विशेषाधिक लोभे ददाति । इदं च बन्धदलं प्रथमसंग्रहकिट्टावेव दीयते, तस्या एव बध्यमानत्वात् । सम्प्रति वन्धदलं विभागचतुष्टये स्थापयितव्यम्(१) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डम् (२) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलम् , (३) बन्धवयदलम् (४) बन्धमध्यमखण्डदलं चेति । तत्र सर्वबन्धदलतोऽनन्ततमभागमात्रं दलं बन्धमध्यमखण्डा) बन्धचयदलार्थं च पथक्स्थापयितव्यम्, शेषबह्वनन्तभागप्रमाणदलं बन्धाऽपूर्वावान्तरसमानखण्डदले बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदले च विभजति । ' (१) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिसिमानखण्उदलम्-बन्धदलतश्चतुस्संग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयन्तरेषु या अपूर्वाऽवान्तरकिट्टय उत्पयन्ते, तासु बन्धदलतः प्रागुक्तैकसंक्रममध्यमखण्डाधिकं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतदलं दातव्यम् , तच्चैकं बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डमुव्यते । सर्ववन्धाऽपूर्वाधान्तरकिट्टिराशिना च संक्रममध्यमखण्डाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्ववान्तरकिट्टिगतदले गुण्यते, तदा सर्वबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं प्राप्यते । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या बन्धदलनिरूपणम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २७५ (२) बन्धापूर्वावान्तरकिटिचयदलम्-क्रोधादीनां प्रथमसंग्रहकिटेरसंख्येयभागप्रमाणा अधस्तनीरुपरितनीश्वाऽवान्तरकिट्टीर्विमुच्य शेषाः प्रथमसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयो बध्यन्ते, तत्राऽपि तत्तत्कषायबन्धचरमपूर्वान्तरकिट्टेधस्तादसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणा बन्धपूर्वावान्तरकिट्टीरुल्लङ्घय बन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिर्निवयते। ततः परं पुनरसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणा बन्धपूर्वावान्तरकिट्टीर्व्यतिक्रम्य बन्धद्विचरमापूर्वावान्तरकिट्टिर्निवय॑ते । ततः पुनरसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणा बन्धपूर्वावान्तरकिट्टीरुल्लङ्घय बन्धविचरमापूर्वावान्तरकिट्टिनिर्वय॑ते । एवं पश्चानुपूर्ध्या तावद् निर्वत्येते, यावत् तत्तत्कपायबन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टिः । तेन क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टित आरभ्य पश्चानुा यतिसंख्याका क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिर्भवति, तत्संख्याका बन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रक्षेप्तव्याः। ततोऽसंख्येपपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणैन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयैरधिका बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचया बन्धद्विचरमापूर्वावान्तरकिट्टौ प्रक्षेपणीयाः। ततोऽप्यसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणैरधिका बन्धविचरमापूर्वावान्तरकिट्टौ प्रक्षेप्तव्याः । एवंक्रमेण तावत् प्रक्षेप्तव्याः, यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टिः, अन्यथा दृश्यमानं दलं बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिष्वेकगोपुच्छाकारेण न स्यात् । तथाहि-बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु संक्रमदलतोऽधस्तनशीर्षचयदले प्रक्षिप्ते बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टयः प्रदेशानाश्रित्य लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रदेशतुल्या जायन्ते स्म । ततः पुनस्तास्वेकं संक्रममध्यमखण्डं यथायोग्यं चोभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते । एकैकस्यां बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ तु संक्रममध्यमखण्डाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिगतप्रदेशप्रमाणमेव दलमेकबन्धापूर्वोऽवान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं प्रक्षिप्तम् । यदि बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचया न प्रक्षिप्येरन्, तर्हि बन्धपूर्वावान्तरकिट्टितो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टी दृश्यमानं दलंबन्धपूर्वावान्तरकिट्टी प्रक्षिप्तैरुभयचयैन्युनं स्यात् । न च तदिष्यते, दृश्यमानदलस्य गोपुच्छाकारेण निरूपयिष्यमाणत्वात् । तेन पूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषुदलिकं गोपुच्छाकारं कक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टित आरभ्य पश्चानुपूर्व्या यतिसंख्याका क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिर्भवति, तत्संख्यका बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयास्तत्र निक्षिप्यन्ते । ततः परमसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणा बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टीयतिक्रम्य बन्धद्विचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः प्राप्यते, तेन बन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टयपेक्षयाऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणैरधिका बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचया बन्धद्विचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टी प्रक्षिप्यन्ते । एवं पश्चानुपूष्यकैकस्यां बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणैरधिका अधिकतरा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयास्तावत् प्रक्षिप्यन्ते, यावत् क्रोधस्य बन्धप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । “व्यकपदनचयो मुखयुक् स्यादन्त्यधनं मुखयुग्दलितं तत् । मध्यधनं पदसंगुणितं तत् सर्वधनं गणितं च तदुक्तम् ॥१॥” इति गणितकरण Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] | गाथा - १३७ सूत्रेण क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः सङ्कलयितव्याः । मुखं चात्र क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टि प्रभृतिक्रोधबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा बन्धाऽपूर्वावान्तर कट्टिचयाः, अन्त्यधनं क्रोधप्रथमसंग्रह किडिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतितद्बन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टि पर्यवसानावान्तरकिट्टिराशिमात्रबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयाः, चयथासंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः, पदं तु क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेरवान्तरकिट्टयन्तरेषु जायमानानामपूर्वावान्तरकिट्टीनां राशिर्ज्ञेयम् । aarसेढी एकबन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयगतदलं क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेः सर्वैर्बन्धाऽपूर्वावान्तरकिङ्किचयते, तदा क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टि सर्वबन्धाऽपूर्वावान्तरकिडिचयदलं प्राप्यते । न्यासः -- अन्त्यधनम् = ( पदम् - - १ ) x चयः 8 + मुखम् मध्यमधनम् = _अन्त्यधनम+मुखम् २ क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेः सर्वे बन्धापूर्वावान्तर किट्टिचयाः = मध्यमधनम् x पदम् क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेः सर्वेषां बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयानां दलम् = एकत्रन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलम् सर्वे बन्धापूर्वा बान्तर किट्टिचयाः X एवं मानस्य प्रथम संग्रह किट्टिबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिद्वौ क्रोधचरमपूर्वावान्तरकिट्टित आरभ्य मानप्रथम संग्रह किट्टिबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिं यावत् यावत्योऽवान्तरवििट्टयो व्यतिक्रामन्ति, तावन्तो बन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः प्रक्षेप्तव्याः । ततः क्रोधवदसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणेरधिका अधिकतराः पश्चानुपूर्व्योत्तरोत्तरबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रक्षेप्तव्याः । ते च "व्येकपदघ्न० " इत्यादि करणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । मुखं चात्र क्रोधचरमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिमान प्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानावान्तरविट्टिराशिप्रमाणा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः, अन्त्यधनं क्रोधप्रथमसंग्रहकिडिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिमान प्रथमसंग्रह किट्टिबन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयाश्चयश्चासंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणबन्धापूर्वावान्तर किट्टिचयाः, पदन्तु मानप्रथम संग्रह किट्टिबन्धाऽपूर्वायान्तरकिट्टीनां राशिर्ज्ञातव्यम् । एकबन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिङ्घ्रिचयगतदलं मानप्रथमकिट्टेः सर्वैर्धन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयैते, तदा मानप्रथम संग्रह किट्टिसर्वबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं प्राप्यते । न्यासः -- अन्त्यधनम् - (पदम् - - १ ) x चय: ★ + मुखम् मध्यमधनम् = _अन्त्यधनम्+मुखम् २ * अत्र चयः=असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः । ★ अत्राऽपि चय: =असंख्यात पल्योपमप्रथम वर्गमूलप्रमाणबन्धापूर्वावान्तर किट्टिचयाः । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७७ गणितरीत्या बन्धदलनिरूपणम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः मानप्रथमसंग्रहकिट्टेः सर्वे बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयाः मध्यमधनम् पदम् मानप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वबन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयदलम् =एकबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयगतदलम् सर्वे मानप्रथमसंग्रहकिटिबन्धापूर्यायान्तरकिट्टिचयाः । - एवं मायालोभयोरपि प्रथमसंग्रहकिट्टेः सर्ववन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं प्रापणीयम् । नवरं मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टेः सर्वबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयानां प्राप्तये मुखं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपू. वान्तरकिट्टिप्रभृतिमायाप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमापूर्वावान्तर्राकट्टिपर्यवसानावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः, अन्त्यधनं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिमायाप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानावान्तरकिट्टिराशिमात्रा बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयाः, पदं तु मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । लोभस्य प्रथमसंग्रहकिद्रौ सर्वबन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयानामवाप्तये तु मुखं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिलोभप्रथमसंग्रहकिटिबन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा बन्धा-ऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः, अन्त्यधनं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः, पदन्तु लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशितिव्यम् । ___ततश्चतुर्णामपि क्रोधादीनां प्रथमसंग्रहकिन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं सङ्कलयितव्यम् । सङ्कलितश्च सर्वबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं भवति। नन्वेकबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं कियनवति ? इति चेद् , उच्यते-संक्रमदलप्ररूपणाप्रस्तावे यदेकोभयचयदलं प्राक् साधितम्, तदनन्तभागेन न्यूनमेकबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं भवति, DARB । बन्धावान्तरकिट्टिष्वेव तस्य प्रक्षेपात् बन्धपदमुपातम्, तत्राऽप्यपूर्वास्वेव निक्षेपादपूर्वपदोपादानम् । __ (३) बन्धचयदलम्-वन्धदलस्य योऽनन्ततमभागो बन्धमध्यमखण्डार्थबन्धचयदलार्थ च पृथक्स्थापित आसीत्, स पदेन विभक्तव्यः । विभक्ते च मध्यमदलं लभ्यते, तच्चैकोनपदार्धन्यूनद्विगुणहानिद्वयेन विभज्यते, तदैकवन्धचयगतदलं प्राप्यते । पदं त्वत्र संज्वलनचतुष्कस्य बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । न्यासः अनन्ततमभागमानं बन्धदलम् मध्यमदलम् पदम् एकबन्धचयगतदलम= _ मध्यमदलम् द्विगुणहानिद्वयम् - (पदम्-१) क्रोधप्रथमसंग्रहकिटेबन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टावेकबन्धचयं ददाति,क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टेबन्धद्विचर Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यासः २७८ ] खवगसेढी [ गाथा-१३७ मपूर्वावान्तरकिट्टी द्वौ बन्धचयो ददाति । एवमेकोत्तरवृद्धिक्रमेण बन्धचयान् बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु तावद् ददाति, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धजघन्यपूर्वावान्तरकिट्टिः । ते च बन्धचयाः “सैकपदनपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या।” इति गणितकरणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । पदं त्वत्र क्रोधमानमायालोभानां बध्यमानपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिर्बोद्धव्यम् । ___ एकबन्धचयगतदलं सर्वबन्धचयैगुण्यते, तदा सर्वबन्धचयदलं प्राप्यते । सर्वबन्धचयाः = (पदम् + १) x पदम् सर्वबन्धचयदलम्=एकबन्धचयगतदलम् सर्वबन्धचयाः । (४) बन्धमध्यमखण्डदलम्-प्रागुक्ताद् बन्धदलाऽनन्ततमभागप्रमाणदलात् सर्वबन्धचयंदलं विशोध्य शेषवन्धदलं बन्धमध्यमखण्डदलं भवति,तच्च बध्यमानपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकं बन्धमध्यमखण्डं प्राप्यते । तच्चैकैकं बन्धमध्यमखण्डं सर्वासु बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिष्वविशेषेण दातव्यम् । एकबन्धमध्यमखण्डदलं चैकबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलस्यानन्ततमभागकल्पं भवति । ___ बध्यमानपूर्वावान्तरकिट्टिषु संक्रमोभयचयदलं बध्यमानाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु च बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं येना-ऽनन्ततमभागेन हीनं प्राक्षिप्यत, सोऽनन्ततमभागो बन्धमध्यमखण्डे यथायोग्यं च बन्धचयदले प्रक्षिप्ते परिपूर्यते । अथ बन्धदलस्य संक्रमदलस्य घातदलस्य च निक्षेपविधिर्भण्यते-तृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिश्च न बध्यते, तेन तत्र पञ्चविधसंक्रमदलत एव दलिकं यथासंभवं दीयते । प्रथमसंग्रहकिट्टी तु बन्धदलतः संक्रमदलतश्च दलिकं यथायोग्यं दीयते,वेद्यमानसंग्रहकिट्टी च बन्धदलतो घातदलतश्च यथायोग्यं दलं प्रक्षिप्यते । तथाहि-लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्ना या सर्वप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः, तस्यां संक्रमदलत एकाऽधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकमध्यमखण्डं सर्व पूर्वाऽपूर्वाधान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् ददाति । ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्न द्वितीयाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ संक्रमदलत एकाधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकमध्यमखण्डमेकोनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् ददाति । इत्थं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्न द्वितीयाऽपूर्वावान्तरकिट्टयामनन्ततमभागरूपेणैकोभयचयेन हीनं ददाति । ततः परं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नतृतीयाद्यपूर्वावान्तरकिट्टिषु संक्रमदलन एकैकाधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकैकमध्यमखण्डमेकोत्तरहान्या चोभयचयाँस्तावत् प्रक्षिपति, यावत् तृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । इत्थं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमा पूर्वावान्तरकिट्टि Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या बन्धादिदल निक्षेपविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२७९ यावत् पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरावान्तरकिट्टी दीयमानं दलमनन्तभागस्वरूपेणैकैको भयचयेन हीनं भवति । ततो लोभतृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमपूर्वावान्तर किट्टौ संक्रमदलत एकमध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रह कियन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तर किट्टि राशिन्यून सर्व पूर्वा पूर्वावान्तर किद्विराशिप्रमाणांचोभयचयान् प्रक्षिपति । तदेवं लोभतृतीयसंग्रहकिदृयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रह किट्टिीप्रथम पूर्वावान्तरकिट्टावेकाऽधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलेनैको भयचयेन च हीनं दलं ददाति । इत्थञ्च लोभ तृतीयसंग्रह कियन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीय संग्रहकट्टप्रथम पूर्वावान्तरकि मानदल संख्ये गुणहीनं भवति, मध्यमखण्डतोऽधस्तनाऽपूर्वायान्तरकिट्टिदलस्याऽसंख्येयगुणत्वात्, येषां मतेन पुनर्लोभ तृतीय संग्रहकट्टप्रथम पूर्वावान्तर किट्टिदलाऽनन्ततमभागप्रमाणं मध्यमखण्डं भवति, तेषां मतेन दीयमानदलमनन्तगुणहीनं वक्तव्यम् । एवमग्रे ऽपि । ततः परं लोभ तृतीयसंग्रह किट्टिद्वितीयपूर्वाऽवान्तरकिट्टी संक्रमदलादेकमध्यमखण्ड मे काधस्तनशीर्षचयमेकाधिकलो भतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तर कट्टिराशिन्यून सर्व पूर्वा पूर्वावान्तरकिट्टिशशिप्रमाणांवोभयचयान् प्रक्षिपति । तेन लोभतृतीय संग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीय संग्रहकिट्टिद्धितीय पूर्वावान्तर किट्टी दीयमानं दलमेकावस्तनशी चियेनाऽधिकमेकोभयचयेन च हीनं. भवति । इत्थं लभतृतीयसंग्रह किट्टित्रथम पूर्वान्तर कट्टितो लोभतृतीयसंग्रह किट्टिद्वितीय पूर्वावान्तरकिट्ट्यामेकाधस्तनशीर्षचयदलन्यूनोभयचयदलेन हीनं ददाति । एकोभयचयदलस्य प्राकन पूर्वायान्तरकिट्टिपतितदलिकाऽनन्ततम भागमात्रत्वे सत्यधस्तनशीर्षचयस्यो भयचयदलतोऽपि हीनत्वाल्लो भतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रह किट्टिद्वितीय पूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानं दलमनन्तभागेन हीनं भवति । एवमग्रे ऽपि यथासंभवं भावनीयम् । 1 तत ऊर्ध्वं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितृतीयादिपूर्वायान्तरकिट्टिषु पल्योपम प्रथम वर्गमूला संख्येयभागप्रमाणासु संक्रमदलत एकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयाने कोत्तर हान्योभयचयानेकैकमध्यमखण्डं च तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोभ तृतीय संग्रह किट्ट संक्रमदलतो निर्वर्त्यमानाऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टरप्राप्ता भवति । ततो लोभतृतीयसंग्रह किट्टवान्तरविट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ संक्रमदलत एकावान्तरकिट्ट्यन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तर किट्टिदलमेकं मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तर किट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्ताऽवान्तरकिट्टिराशिन्यून सर्वपूर्वा पूर्वाचान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांचोभयचथान् प्रक्षिपति । इत्थं प्राक्तन पूर्वावान्तरकिट्टितोऽस्यामवान्तरकिट्टयन्तरो - त्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानदलमसंख्येयगुणं भवति, लोभतृतीयसंग्रह किट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वावान्तर किट्टि राशिप्रमाणाऽधस्तनशीर्षचयगतदलयुक्तैकमध्यमखण्डगतदलत एकाऽवान्तरकिट्ट्यन्तरोत्पन्नाऽपूर्वाचान्तरकिट्टिदलस्याऽसंख्येयगुणत्वात् येषां मतेन पुनर्लोभतृतीयसंग्रह किट्टप्रथम पूर्वावान्तरकिट्टिदलाऽनन्तभागप्रमाणं मध्यमखण्डं भवति, तेषां मतेन दीयमान दलमनन्तगुणं जायते । ततोऽनन्तरायामुपरितन्यां लोभतृतीयसंग्रह किट्टिपूर्वाऽवान्तर Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] खवगसेढी [ गाथा-१३७ किट्टयामेकं मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टेिराशिप्रमाणानुभयचयान् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चाऽधस्तनशीर्षचयान् प्रक्षिपति । इत्थं प्राक्तनाऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टितोऽस्यां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ दीयमानदलमसंख्येयगुणहीनं जायते, अस्यां पूर्वावान्तरकिट्टौ निक्षिप्यमाणदलादधस्तनशीर्षचयसहितमध्यमखण्डलक्षणादवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलस्याऽसंख्येयगुणत्वात् । येषां मतेन पुनरवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टिदलं निक्षिप्यमाणाधस्तनशीर्षचयमध्यमखण्डदलतोऽनन्तगुणं भवति, तेषां मतेनाऽनन्तगुणहीनं जायते । तत उत्तरोत्तरावान्तरकिट्टयामेकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकोत्तरहान्योभयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः, नवरं पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागे गते यत्र यत्रावान्तरकिट्टयन्तरेऽपूर्वावान्तरकिट्टि निर्वर्तयति, तत्र तत्राऽधस्तनशीर्षचयान् न प्रक्षिपति, किन्तु तत्स्थानेऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलं ददाति । इत्थं पूर्वावान्तरकिट्टितोऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं दीयमानं दलं भवति, हेतुस्तु प्रागवद् भावनीयः । मतान्तरेण त्वऽनन्तगुणं भवति । तथाऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावन्तरकिट्टितः पूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयगुणहीनं दीयमानं दलं भवति, मतान्तरेण त्वनन्तगुणहीनं भवति । ... ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टो संक्रमदलादेकाऽधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकं मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् प्रक्षिपति । इदं च दीयमानं दलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टितोऽसंख्येयगुणं भवति, मतान्तरेण त्वनन्तगुणं भवति । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिदृयन्तरोत्पन्नद्वितीयाद्यपूर्वावान्तरकिट्टिष्वेकैकमध्यमखण्डमेकैकाधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकोत्तरहान्या चोभयचयांस्तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः। तेन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितः प्रभृति लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिटिं यावत् सर्वास्वपूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वेकैकोभयचयेन हीनं प्रक्षिप्यमाणं दलं भवति, उभयचयस्य चाऽनन्ततमभागमात्रत्वेनाऽनन्ततमभागेन हीनं दीयमानं दलं भवति । ततः परं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी संक्रमदलत एकं मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयान् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरजाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्योभयचयान प्रक्षिपति । इत्थं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानं दलमसंख्यातगुणहीनं भवति, हेतुस्तु प्राग्वद् भावनीयः, मतान्तरेण त्वनन्तगुणहीनम् । ततः परं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेः पूर्वावान्तरकिट्टिष्ववान्तरकिट्टय Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या बन्धादिदलनिक्षेपविधिः] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२८१ न्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु च दीयमानं दलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिवत् तावद् वक्तव्यम् , यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । ___तत ऊवं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टी संक्रमदलत एकाधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकं मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वोऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् प्रक्षिपति । इदं च लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानं दलं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टितोऽसंख्येयगुणं भवति, मतान्तरेण त्वनन्तगुणम् । हेतुस्तु प्राग्वत् अपश्चनीयः । ततः परमेकोत्तरहान्योभयचयानेकैकाधस्तनाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमेकैकं च मध्यमखण्डं तावद् ददाति, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वाचान्तरकिट्टिः । __ततः परं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितः प्रभृति दलं दातुमुपक्रमते । तत्र लोभप्रथमसंग्रहकिटेबध्यमानत्वेन चतुर्विधवन्धदलात् पञ्चविधसंक्रमदलाच्च पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलं यथायोग्यं ददाति । किन्त्वसंख्येयभागप्रमाणा मन्दानुभागका असंख्येयभागमिताश्च तीत्रानुभागका या अवान्तरकिट्टयो न बध्यन्ते, तासु केवलं संक्रमदलत एव दलं ददाति । तथा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु केवलं बन्धदलत एव दलं ददाति, । तद्यथा-लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौ संक्रमदलत एकंमध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयान् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वीवान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वोपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् प्रक्षिपति । इत्थं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नचरमाऽपूर्वावान्तरकिहितो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानं दलमसंख्येयगुणहीनं भवति, मतान्तरेण त्वनन्तगुणहीनम् । हेतुस्तु प्राग्वत् प्ररूपयितव्यः । ततः परं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयाः पूर्वावान्तरकिट्टिषु संक्रमतश्च निर्वय॑मानाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिवद् दलं तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिटेर्जघन्या बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति । ततो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कायां जघन्यायां बन्धपूर्वावान्तरकिटौ संक्रमदलत एकमध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयान् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणोभयचयदलं चैकोभयचयदलाऽनन्ततमभागेन हीनं प्रक्षिपति, बन्धमध्यमखण्डबन्धचयदलरूपेणैकोभयचयदला-ऽनन्ततमभागमात्रस्य दलस्य बन्धदलतः प्रक्षिप्यमाणत्वात् । बन्धदलतः पुनरेकं बन्धमध्यमखण्ड सर्वबन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्च बन्धचयान् ददाति । ततः परं बन्धदलत एकैकं बन्धमध्यमखण्डमेकोत्तरहान्या च बन्धचयान् प्रक्षिपन् संक्रमद Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] खवगढी लतो लोभतृतीयसंग्रह किट्टवत् तावत् प्रक्षिपति यावदसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्रबन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु गतासु लोभप्रथम संग्रह किट्टिबन्धप्रथमाऽपूर्वावान्तर किट्टितः प्राक्तनी लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धपूर्वावान्तरकिट्टिः, नवरमुभयचयदलमनन्ततमभागेन हीनं ददाति, तावद्दलस्य बन्धचयबन्धमध्यमखण्डरूपेण प्रक्षेपात् । ततो लोभप्रथम संग्रह किट्टवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नबन्धप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ बन्धदलत एकं बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डं लोभतृतीय संग्रह किट्ट्यन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिविप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वाऽपूर्वावान्तरविट्टिशशिन्यून सर्वपूर्वा पूर्वावान्तबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयान् लोभप्रथम संग्रह किट्टिबन्धप्रथम पूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबन्धपूर्वावान्तरविट्टिराशिन्यून सर्वबन्धपूर्वा पूर्वायान्तर किविराशिप्रमाणान् बन्धचयानेकं च बन्धमध्यमखण्डं ददाति । तस्यां संक्रमदलतो दलिकं न ददाति । इत्थं प्राक्तन पूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानबन्धदलतोऽस्यामपूर्वाऽवान्तरकिट्टी दीयमानं बन्धदलमनन्तगुणं भवति, बन्धमध्यमखण्डबन्धचयदलत एकबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलस्याऽनन्तगुणत्वात् । रकिट्टिराशिप्रमाणान् ततः परमनन्तरायां लोभप्रथम संग्रह किट्टि पूर्वावान्तरकिट्टौ संक्रमदलतो लोभ तृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिविप्रभृतिव्यतिक्रान्त पूर्वाऽवान्तरकिट्टिशशिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयाननन्ततमभागेन हीनं लोभतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमापूर्वाऽवान्तर किट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वाऽपूर्वावान्तरकट्टिराशिन्यून सर्व पूर्वाऽपूर्वावान्तर किट्टिराशिप्रमाणोभयचयगतदलमेकं च मध्यमखण्डं बन्धदलतः पुनरेकं बन्धमध्यमखण्डं लोभप्रथम संग्रह किट्टिबन्धप्रथमपूर्वात्रान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबन्ध पूर्वापूर्वावान्तर किद्विराशिन्यून सर्वबन्धपूर्वा पूर्वावान्तरकिट्टिशशिप्रमाणांच बन्वचयान् प्रक्षिपति । इत्थं प्राक्तनबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टी निक्षिप्तदलतोऽस्यां पूर्वावान्तरकिट्टौ निक्षिप्यमाणबन्धदलमनन्तगुणहीनं जायते, बन्धमध्यमखण्डवन्धचयदलस्य बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमान खण्डदलतोऽनन्तगुणहीनत्वात् । ततः परं संक्रमदलत एकोत्तरहान्योभयचयाने कोत्तरवृद्धया चाऽधस्तनशीर्षचयानेकैकं च मध्यमखण्ड बन्धदलतः पुनरेकोत्तरहान्या बन्धचयानेकैकं च बन्धमध्यमखण्डं तावद् ददाति, यावल्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः, नवरं यत्र यत्र संक्रमदलतोऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टि निर्वर्तयति, तत्र तत्र संक्रमदलतोऽवस्तशीर्षचयदलस्थानेऽवान्तरकियन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलं ददाति तथाऽसंख्यातपल्योपम प्रथमवर्गमूल प्रमाणासु बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु गतासु यत्र यत्र बदलतोऽपूर्वावान्तर किट्टि निर्वर्तयति, तत्र तत्रोभयचयस्थाने बन्धदलतो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयानधस्तनशीर्षचयस्थाने च बन्धदलतो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं ददाति, संक्रममध्यमखण्डं तु तत्र न प्रक्षिपति । ततो लोभप्रथम संग्रह किट्टिबन्धचरमपूर्वावान्तर किट्ट्या उपरितन पूर्वावान्तरकिट्टेरारभ्य लोभप्रथमसंग्रहकिविचरमपूर्वावान्तर कट्टिं यावत् पूर्वापूर्वावान्तरकिडिष्वधस्तनाऽपूर्वावान्तर किड्डि [ गाथा - १३७ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टौ बन्धादिदलनिक्षेपविधिः ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ २८३ दलं वर्जयित्वा शेपसंक्रमदलचतुष्टयं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिवद् यथायोग्यं प्रक्षिपति । यथा लोभस्य संग्रहकिट्टिवये प्रक्षिप्यमाणदलस्य विधिरभिहितः, तथैव मायामानयोः संग्रहकिट्टित्रये क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टो द्वितीयसंग्रहकिट्टौ च दलनिक्षेपविधिर्भणितव्यः, विशेषाभावात् । अनेन विधिना क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टि यावद् दले प्रक्षिप्ते सर्व संक्रमदलं परिसमाप्त भवति । अथ क्रोधप्रथमसंग्रहकिटौ दलनिक्षेपविधिरभिधीयते--क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टो संक्रमदलं न भवति, तेन तस्यां संक्रमदलतः संग्रहकिट्टयन्तरेऽवान्तरकिट्टयन्तरे चा-ऽपूर्वावान्तरकिट्टीने निवर्तयति । किन्तु पथरस्थापितघातदलतो यथायोग्यमधस्तनशीचयान् मध्यमखण्डमुभयचयांश्च ददाति । चतुर्विधवन्धदलाच्च यथायोग्यं बन्धदलं ददाति । तथाहि-क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौ घातदलत एकं मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानवस्तनशीर्षचयान् लोभत्तीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान प्रक्षिपति । ततः परं घातदलत एकैकमध्यमखण्डमेकोत्तरहान्योभयचयानेकोत्तरवृद्धया चाऽधस्तनशीर्षचयान् पूर्वावान्तरकिट्टिषु तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति । ततः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिटौ घातदलत एकोभयचयस्याऽनन्तभागेन हीनं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तत्पन्नरोप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूवोपूवोऽवान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणोभयचयदलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वावान्तरकिट्टिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयानेकं च मध्यमखण्डं प्रक्षिपति, बन्धदलतश्चैकं बन्धमध्यमखण्डं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबन्धपूर्वापूवान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वबन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्च बन्धचयान् प्रक्षिपति । ततः परं घातदलत एकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकोत्तरहान्योभयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं बन्धदलत पुनरेकैकं बन्धमध्यमखण्डमेकोत्तरहान्या च बन्धचयाँस्तावत् प्रक्षिपति, यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः, नवरमसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु गतासु यत्र यत्र बन्धदलतोऽपूर्वावान्तरकिट्टि निर्वर्तयति, तत्र तत्रोभयचयस्थाने बन्धदलतो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयानधस्तनशीर्षचयस्थाने च बन्धदलतो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं ददाति, घातदलतश्च मध्यमखण्डं न प्रक्षिपति । अनेन क्रमेण क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टि यावद् बन्धदले प्रक्षिप्ते सर्वबन्धदलं परिसमाप्तं भवति । ततः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमबन्धपूर्वावान्तरकिटेरनन्तरायामुपरितन्यां क्रोवप्रथमसंग्रह Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] खवगसेढी [ गाथा--१३८ किट्टिपूर्वावान्तरकिट्टौ घातदलत एक मध्यमखण्डं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानधस्तनशीर्षचयान् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांथोभयचयान् प्रक्षिपति । ततः परं घातदलत एकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकोत्तरहान्योभयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावत प्रक्षिपति, यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः। अनेन विधिना क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टि यावद् घातदले प्रक्षिप्ते सर्वघातदलं परिसमाप्त भवति । ___ इह दीयमानदलस्याऽनन्तान्युष्ट्रकूटानि भवन्ति । तथाहि-यथोष्टकूटं निम्नमुन्नतं च भवति, तथैवेह दीयमानं दलमपि कुत्रचित् प्रभूतं भवति, क्वचित् स्तोकं भवति, कुत्रचित्पुनरधिकं भवति, पुनः क्वचिद्धीनं भवति, अवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टीनाञ्चाऽनन्तत्वाद् दीयमानदलस्याऽनन्तान्युष्टकूटानि किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये भवन्ति । यथा किट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमये दलनिक्षेपविधिरभिहितः, तथैव किट्टिवेदनाद्धाद्वितीयादिसमयेष्वप्यभिधातव्यः । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२१ । ॥गणितविभागः समाप्तः ॥ दृश्यमानदलं तु सर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिष्वनन्ततमभागेन हीनं भवति ॥१३७॥ तदेवं प्रतिपादितो दलिकनिक्षेपविधिः। साम्प्रतं संक्रमवशात् क्रोधादिप्रथमसंग्रहकिट्टेर्वद्धदलं कदा द्वादशसंग्रहकिट्टिषु भवति ? इति परशङ्काव्युदासाप प्राह पंचमआलीए कोहबद्धदलिअं तु सब्वकिट्टीसु। माणादीण वि बद्धदलिअं जहासंभवं गेयं ॥१३८॥ पञ्चमाऽऽवलिकायां क्रोधबद्धदलिकं तु सर्वकिट्टिषु ।। मानादीनामपि बद्धदलिकं यथासंभवं ज्ञेयम् ।।१३८॥ इति पदसंस्कारः । 'पंचम०' इत्यादि, तत्र 'क्रोवबद्धदलिक क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबद्धदलं तु बन्धसमयात् परं पञ्चमाऽऽवलिकायां सर्वकिट्टिषु' संक्रमेण द्वादशसंग्रहकिट्टिषु भवतीति शेषः । इदमत्र हृदयम्क्रोधप्रथमसंग्रहकिदिवेदनाद्धाप्रथमसमये यत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं बध्नाति, तदावलिकां यावत् तदवस्थं तिष्ठति, बन्धावलिकागतकर्मणः सकलकरणाऽयोग्यत्वेनाऽपवर्तनासंक्रमपरप्रकृतिसंक्रमयोरभावात् । ततो द्वितीयाऽऽवलिकाप्रथमसमये क्रोधस्य संग्रहकिट्टिद्वये मानस्य च प्रथमसंग्रहफिट्टो संक्रमयति, न ततोऽधस्तनीषु, कस्याश्चित् संग्रहकिटेर्दलं स्वाधस्तनप्रथमसंग्रहकिट्टि यावत् संक्रमयति, न ततोऽधस्तादित्युक्तत्वात् । इत्थं किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबद्धकोषप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं द्वितीयाऽऽवलिकायां क्रोधसंग्रहकिट्टित्रये मानस्य च प्रथमसंग्रहकिट्टौ भवति । आव Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] पन्त्रकम्-२१ (चित्रम्-२१) [खवगसेडी किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये गणितरीत्या पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलिकप्रक्षेपः चित्रै सङ्घतम्-09 AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAN TAASALALAMALAAAAAAAAAAAAALAAN 2144AAAAAAAAAAT AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAN AAAAAAAAAAAAAAAAAAAY 11111111111111111111111111111111 HILLIHI11111111111111111 1111111111111111 1111111111111111111INITIL ITILLH111111111111LIMILITIIIIIII+IIHITHI 11111111111111111111111111111 111111111111111111 1 111111111111ILLIANT HAR 100 RA RAR 04 HAPATRA SAR AAAAA - -- - - यषषधापन एन ए पनप पवापरब प्रपूनूप पनप पनप पधधपून्पून पपपपन्न्पू न पपन् प.पून पप धधपपूनगपञ्बबबबबबबबबबनप्पू लोभस्य तृ ती य सं ह कि ट्टिः । द्वि ती य सं न ह कि ट्टिः । प्र थ म संग्रह कि ट्रिः सकेतस्पष्टीकरणम् ध-संग्रह किट्टीनामधस्ताद् निर्बय॑माना अपूर्वावान्तरकिट्टयः, ताश्च लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ चतस्रः (४), द्वितीयसंग्रहकिटौ तिस्रः (३), प्रथम संग्रह किट्टयाञ्च द्वे (२), वस्तुतोऽनन्ताः, अवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टितश्चाऽसंख्येयगुणहीनाः । पू-पूर्वावान्तरकिट्टयः, ताश्चाऽसत्कल्पनया लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ २०, द्वितीयसंग्रहकिट्टौ १८, प्रथमसंग्रह किट्टौ १६ । नू अवान्तरकिट्टयन्तरेषु संकमदलतो निवर्त्यमाना अपूर्वावान्तरकिट्टयः, ताश्च तृतीयसंग्रहकिट्टौ नव (९), द्वितीयसंग्रहकिट्टयामष्टौ (८),प्रथमसंग्रहकिट्टी च पञ्च (५) । वस्तुतोऽनन्ताः पूर्वावान्तरकिट्टीनां चाऽसंख्येयभागप्रमाणाः । एकैका चापूर्वावान्तरकिट्टिः पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येयभागप्रमाणे ध्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु गतेषु निर्वय॑ते, असत्कल्पनयाँ तु द्वयोरवान्तरकिट्टयन्तरयोजितयोर्निर्वय॑ते। बबन्धपूर्वावान्तरकिट्टयः, ताश्चाऽसत्कल्पनया पञ्चदश ( १५ ) वस्तुतो-ऽनन्ताः । इह प्रथमसंग्रहकिट्टी बन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टया परि निर्वत्येमानसंक्रमापूर्वावान्तरकिट्टयोऽपि बन्धपूर्वावान्तरकिट्टित्वेन बोध्याः। ब अ=बन्धापूर्वावान्तरकिट्टयः, वस्तुतोऽनन्ताः, इह त्वसत्कल्पनया द्वे बन्धापूर्वावान्तरकिट्टी कल्पिते, एकैका च बन्धापूर्वाधान्तरकिट्टिः पञ्चसु बन्धपूर्वा वान्तरकिट्टिषु गतासु निर्वय॑ते । वस्तुतस्त्वसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु गतासु निवर्त्यते।। अनेन चिह्नन अधस्तनापूर्वावान्तरकिट्टिदलं सूचितम्, तच्च लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिदलप्रमाणं भवति, अधस्तनापूर्वावान्तर किट्टिदलं च संग्रहकिट्टीनामधस्ताद् निर्वय॑मानास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु प्रक्षिपति । ---=अनेन चिह्नन मध्यमखण्डदलं सूचितम्, एकमध्यमखण्डदलं च लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं मतान्तरेण Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] यन्त्रकम्-२१ (चित्रम्-२१) [खवगसेढो अनेन चिह्नन उभयच यदलं सूचितम्, लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिटौ कषायचतुष्कपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशि प्रमाणानुभयचयान प्रक्षिपति, तत एकैकेन हीनान् प्रक्षिपति । x=अनेन चिह्नन अधस्तनशीर्षचयदलं सूचितम , लोभतृतीयसंग्रहकिट्टया द्वितीयपूर्वावान्तर किट्टयामेकमधस्तनशीर्षचयं प्रक्षिपति, तृतीयस्यां द्वौ, चतुर्थी त्रीन, एकमेकोत्तरवृद्धचाऽधस्तनशीर्षचयान प्रक्षिपति, तेन लोभप्रथमसंग्रहकिटिचरमपूर्वावान्तरकिट्टावेकोनलोभसंग्रहकिट्टियपूर्वाधान्तर किट्टिराशिप्रमाणाननन्तानधस्तनशीपचयान, असत्कल्पनया तु चतुष्पञ्चाशत्तमपूर्वावान्तरकिट्टी त्रिपञ्चाशदधस्तनशीर्षचयान निक्षिपति । ...अनेन चिह्न न पूर्वावान्तरकिट्टिषु पुरातनदलं सूचितम्, तच्चोत्तरोत्तरपूर्वावान्तरकिट्टौ विशेषहीनक्रमेण भवति ।। 0 0 0=अनेन चिह्नन अवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टिदलं सूचितम् , तच्च लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिदलप्रमाणं भवति । अवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टिदलं चावान्तरकिट्टयन्तरेषु निर्वय॑मानास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु प्रक्षिपति । १=बन्धचययुक्तबन्धमध्यमखण्डम् , लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी कषायचतुष्कबन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणान् बन्धचयान् प्रक्षिपति, तत एकैकेन हीनान हीनतरान् बन्धान प्रक्षिपति, तथा बन्धमध्यमखण्डं सर्ग बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिष्यविशे मेण निक्षिपति । एतत्सर्वमनेन चिह्नन सूचितम् । २=बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलम् , लोभपथमसंप्रहकिटिबन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्टौ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टि प्रभृतिव्यतिक्रान्तावा. न्तरकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणान बन्धापूर्वावान्तरकिटिव यान प्रक्षिपति । ततोऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलराशिप्रमाणेहीनान् , असत्कल्पनया तु षड्भिहींनान् बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयान प्रक्षिपति । अनेन क्रमे गाऽनन्तासु बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिषु बन्धापूर्वाधान्तरकिट्टिचयदलप्रक्षेपो वक्तव्यः । इह तु द्वे एव बन्धापूर्वावान्तरकिट्टी कल्पिते, तेन द्वयोरेव दर्शितः ।। +अनेन चिह्नन बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं सूचितम् , तञ्च संक्रम मध्यमखण्डाविकलोभतृतीयसंग्रहफिट्टि प्रथमपूर्वा वान्तराष्टिदलप्रमाणं भवति । बन्धापूर्वावा तरकिट्टिसमानखण्डदलं चैकैकबन्धापूर्वावान्तरकिट्टी दीयते । संक्रमदलतो दीयमानदलम्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टया अधस्तात् निय॑मानायां प्रथमापूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानदलम (#1) इत्येतैश्चिह्न सूचितं प्रभूतं भवति । द्वितीयापूर्वावान्तरकिट्टावेकचयेन हीनं भवति, ततो विशेषहीनक्रमेण तायद् वक्तव्यम , यावल्लोभतृतीयसंग्रह किट्टया अधस्ताद् निर्वय॑माना चरमापूर्वाधान्तरकिट्टिः । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टया अधस्ताद् निर्वय॑मानचरमापूर्वावान्तरफिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथ नपूर्वाधान्तरकिट्टी दीयमानम् (I A ) इत्याभ्यां सूचितं दलमसङ्ख्येयगुणहीनं भवति, मतान्तरेण त्वनन्तगुणहीनं भवति, तत्र (...) इत्यनेन चिह्न न सूचितस्य पुरातनदलस्य सत्त्वात् । ततो विशेषत्री विशेषहीनं दलम् (XIA) इत्येतः सूचितं पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येयभागप्रमाणासु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयते, असत्कल्पन या त्वेकस्यामवान्तरकिटौ दो यने, ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टया अवान्तरकिट्यन्तरोत्पन्न प्रथमापूर्वा वान्तरकिट्टी दीयमानम् (12) इत्येतैः सूचितं दलमसंख्येयगुणं मतान्तरेण त्वनन्तगुणं भवति, तत्र ( ०० ० ) इत्यनेन सूचितदलस्याऽपि प्रक्षेपात् । ततोऽनन्तर-पूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानम ( x IA) इत्येतैः सूचितदलमसंख्ये यगुणहीनं मतान्तरेण त्वनन्तगुणहीनं भवति, तत्र (....) इत्यनेन सूचितस्य पुरातनदलस्य सत्त्वात् । एवमग्रे ऽपि । बन्धदलतो दीयमानइलम्-लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिबन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानम् १ इत्यनेन सूचितं दलं प्रभूतं भवति, ततो विशेषहीनक्रमेणाऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु असत्कल्पनया तु पञ्चसु बन्धपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं दलं भवति । ततोऽनन्तरायां बन्धप्रथमापूर्वावान्तरकिट्री दीयमानम + १ २ इत्यतः सूचितं दलमनन्तगुणं भवति, तदनन्तरबन्धपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानम् १ इत्यनेन सूचितमनन्तगुणहीनं भवति । एवमग्रेऽपि वक्तव्यम् । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८५ द्वादशसंग्रहकिट्टिषु क्रोधबद्धदलम् ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः लिका यावत् संग्रहकिट्टिचतुष्टययेव तिष्ठति, संक्रमावलिकागतकर्मणः सकलकरणायोग्यत्वात् । ततः परं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टितो मानप्रथमसंग्रहमिट्टयामागतं दलं तत्संक्रमाऽऽवलिकायां पूर्णायां तृतीयाऽऽवलिकायाः प्रथमसमये मानस्य शेषसंग्रहकिट्टिद्वये मायायाश्च प्रथमसंग्रहकिट्टौ संक्रमयति, न ततोऽधस्तात् , हेतुस्तुपूर्ववद् भावनीयः। तेन तृतीयाऽऽवलिकायां किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबद्धक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं संग्रहकिट्टिसप्तके भवति । ततः परं यत् किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबद्धक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टि संप्राप्तम् , तत् संक्रमाऽऽवलिकायां व्यतिक्रान्तायां चतुर्थाऽऽवलिकाप्रथमसमये मायायाः शेषसंग्रहकिट्टिद्वये लोभस्य च प्रथमसंग्रहकिट्टौ संक्रमयति, न ततोऽधस्तात्, हेतुस्तु पूर्ववद् बोद्धव्यः । इत्थं किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबद्धक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं चतुर्थावलिकायां दशसु संग्रहकिट्टिषु भवति । ततः परं यत् किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबद्धक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टि संप्राप्तम्, तत् संक्रमाऽऽवलिकायामतिक्रान्तायां पञ्चमाऽऽवलिकाप्रथमसमये लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी तृतीयसंग्रहकिट्टौ चापवर्तनासंक्रमेण संक्रमयति, आनुपूर्वीसंक्रमदर्शनात् । एवं किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबद्धक्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं पञ्चमाऽऽवलिकायां द्वादशसु संग्रहकिट्टिषु भवति । उक्तञ्च कषायप्राभृते "जा चावि बज्झमाणी आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुव्वावलिया णियमा अणंतरा चदुसु किट्टीसु ॥१॥ तदिया सत्तसु किट्टीसु चउत्थो दससु होइ किटोसु। तेण परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥२॥” इति । तथैव तच्चूर्णावपि-"जं पदेसग्गं बज्झमाणयं कोधस्स, तं पदेसग्गं सव्वं बंधावलियं कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए दोसइ । तदो आवलियादिकंतं तिसु वि कोहकिट्टीसु दोसइ, माणस्स च पढमकिटोए। एवं विदियावलिया चदुसु किट्टीसु दोसइ । तदो ज पदेसरगं कोहादो माणस्स पढमकिट्टीए गदं, तं पदेसगं तदो आवलियाए पुण्णाए माणस्स विदियतदियासु मायाए च पढमसंगहकिटोए संकमदि। एवं तदिया आवलिया सत्तसु किटोसु त्ति भण्णइ । जं कोहपदेसग्गं संछुन्भमाणयं मायाए पढमकिटोए संपत्तं, तं पदेसग्गं तत्तो आवलिया दिक्कतं मायाए विदियतदियासु च किट्टीसु लोभस्स च पढमकिट्टीए संकमदि। एवं चउत्थो आवलिया दससु किटोसु त्ति भण्णइ । जं कोहपदेसग्गं संछुन्भमाणं लोभस्स पढमकिट्टीए संपत्तं, तदो आवलियादिकंतं लोभस्स विदियतदियासु किट्टीसु दीसइ । एवं पंचमी आवलिया सव्वासु किट्टीसु त्ति भण्णइ ।” इति । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] खवगसेढी [गाथा-१३९ ___ अथाऽतिदिदिक्षुराह—'माणादीण' इत्यादि, 'मानादीनामपि' मान-मायालोभानामपि 'बद्धदलिक' प्रथमसंग्रहकिट्टिबद्धप्रदेशाग्रं सर्वसंग्रहकिट्टिषु यथासंभवं ज्ञेयं' ज्ञातव्यम् । तद्यथा-मानप्रथमसंग्रहकिट्टिबद्धप्रदेशाग्र चतुर्थावलिकायां नवस्वपि संग्रहकिट्टिषु भवति, मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टिबद्धप्रदेशाग्रं तृतीयावलिकायां षट्स्वपि संग्रहकिट्टिषु भवति, लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिबद्धदलिकं द्वितीयावलिकायां तिसृषु संग्रहकिट्टिषु भवति । भावना तु सुगमा ॥१३८॥ प्राग एकविंशत्यधिकशततमगाथायां मध्यमाऽवान्तरकिट्टयो वेद्यन्त इत्युक्तम् । तत्रोदयस्थितौ कति समयप्रबद्धाः प्रक्षिप्ता भवन्ति ? कति चाक्षिप्ता भवन्ति ? एवं कति भवबद्धा उदयस्थितौ निक्षिप्ता भवन्ति ? इति परशङ्कां व्यपनुनुदिषुराह उदयठिईए छण्हं आवलियाणं हवन्ति अच्छूढा । समयपबद्धा छूढा सेसा तह सवभवबद्धा ॥१३९॥ उदयस्थितौ षण्णामावलिकानां भवन्त्यक्षिप्ताः । समयप्रबद्धाः क्षिप्ताः शेषास्तथा सर्वभवबद्धाः ।।१३९।। इति पदसंस्कारः। 'उदयठिईए'इत्यादि, 'उदयस्थितौ' किट्टिवेदकैः स्वोदयनिषेके षण्णामावलिकानां समयप्रयद्धा 'अक्षिप्ता' उदीरणाकरणेनानिक्षिप्ता भवन्ति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , भण्यते--अन्तरकरणे निष्पादिते ये कर्मप्रदेशा बध्यन्ते, ते नियमत आवलिकापट्काऽभ्यन्तरे नोदयन्ति, किन्तु षट्स्वावलिकासु व्यतिक्रान्तास्वेव, तेन षडावलिकासमयग्रबद्धा उदयस्थित्यामुदीरणाकरणेन न प्रक्षिप्यन्ते । न केवलं किट्टिवेदकैः स्वोदयस्थितौ षडावलिकासमयप्रबद्धा अक्षिप्ता भवन्ति, किन्त्वन्तरकरणनिष्पादनतः षट्स्वावलिकासु गतासु सर्वैः क्षपकैः स्वोदयस्थितौ पडावलिकासमयप्रबद्धा न क्षिप्यन्ते । यदभ्यधायि कषायप्राभृतचूर्णी-"जत्तो पाए अंतरं कदं, तत्तो पाए समयपबद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिजदि । अंतरादो कदादो तत्तो छसु आवलियासु गदासु तेण परं छण्हमावलियाणं समयप्रबड़ा उदये अछुडा भवंति ।” इति । इदमुक्तं भवति-अन्तरकरणसमाप्तिप्रथमसमय एकावलिकासमयप्रबद्धा उदयस्थित्यामक्षिप्ता भवन्ति, बन्धावलिकागतकर्मणः सकलकरणाऽयोग्यत्वेना-ऽऽवलिकाबद्धकर्मग उदयाभावात् । अन्तरकरणसमाप्तिद्वितीयसमयेऽप्येकावलिकासमयप्रबद्धा उदयस्थितावक्षिप्ता भवन्ति, अन्तरकरणसमाप्तेरधस्ताद् बद्धकर्मण आवलिकां यावत्सकलकरणाऽयोग्यत्वेनावलिकायां व्यतिक्रान्तायां क्रमेणोदीरणाप्रयोगेणोदयात् । एवंक्रमेणा-ऽन्तरकरणसमातिप्रथमसमयतः प्रभृत्यावलिकाचरमसमयं यावदावलिकासमयप्रबद्धा उदयेऽक्षिप्ता भवन्ति । ततः परं समयाविकावालेकासमयप्रबद्धा उदयेऽक्षिप्ता भवन्ति, अन्तरकरणसमातिप्रथमसमयबद्धप्रदेशाग्रस्यावलिकापट्के गत. उदीरणा . Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थितौ भवसमयप्रबद्धनिरुपणम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२८७ भवनात् । तदुपरितनसमये द्विसमयाधिकावलिकासमयप्रबद्धा उदयेऽक्षिप्ता भवन्ति, तदुपरितनसमये त्रिसमयाधिकावलिकासमयप्रबद्धा उदयेऽक्षिप्ता भवन्ति, एवमेकैकसमयवृद्धया तावद्वक्तव्यम्, यावदन्तरकरणसमाप्तितः समयोनावलिकाषट्कस्य चरमसमयः । तदानीं हि समयोनपडावलिकासमयप्रबद्धा उदयेऽक्षिप्ता भवन्ति । तदनन्तरसमये षण्णामावलिकानां समयप्रबद्धा उदयनिषेकेऽक्षिप्ता भवन्ति, तत उर्च सर्वत्र षण्णामावलिकानां समयप्रबद्धा उदयस्थितो अक्षिप्ता भवन्ति । 'छुढा' इत्यादि, तत्र 'शेषाः' षडावलिकानां समयप्रबद्धान् वर्जयित्वा शेषाः सर्वे समयबद्धास्तथा सर्वभवबद्धा उदयस्थितो 'क्षिप्ता' उदीरणाकरणेन प्रक्षिप्ता भवन्ति । अयम्भावः–यदि कर्मावस्थानकालाभ्यन्तरेसंचितयत्समयप्रबद्धस्यैकोऽपि कर्मपरमाणुरुदये प्रक्षिप्यते,तर्हिस समयप्रबद्ध उदये क्षिप्त इति व्याख्यानात् षडावलिकानां समयप्रबद्धान् परित्यज्य शेषाः सर्वे समयप्रबद्धा उदये वर्तन्ते । एवं यदि कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तर विवक्षित एकस्मिन् भवे बद्धानां समयप्रबद्धानामेकसमयप्रबद्धस्यैकोऽपि कर्मपरमाणुरुदये प्रक्षिप्यते, तर्हि विवक्षितभवबद्ध उदये निक्षिप्त इति व्याख्यानात् सर्वे भवबद्धा उदये प्रक्षिप्ता भवन्ति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"भवबहा पुण णियमा सव्वे उदये संछुहा भवंति।” इति । इत्थं समयप्रबद्धा उदयस्थिती प्रक्षिप्ता अप्रक्षिप्ताश्च भवन्ति, भवप्रबद्धाः पुनः सर्व उदयस्थितौ प्रक्षिप्ता भवन्ति ॥१३९ ।। उदयस्थितौ समयप्रबद्धा भवबद्धाश्च प्ररूपिताः, सम्प्रति क्षपकस्यैकस्यां स्थितौ समयप्रबद्धशेषकाणि भवबद्धशेषकाणि च प्रतिपादनीयानि । इह तावदेकस्मिन् समये बद्धः प्रदेशपिण्डः समयप्रबद्ध उच्यते, तत्र कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे यथासंभवं वेदितस्य यस्य समयप्रवद्धस्य वेदितशेषं यत्प्रदेशाग्र सत्कर्मणि भवति, अनन्तरसमये चोदयस्थितिं वर्जयित्वा शेषासु स्थितिषु. तस्य समयबद्धस्यैकोऽपि प्रदेशो न वर्तिष्यति, उदयस्थितिं त्वपकर्षण प्राप्स्यति, तत्प्रदेशाग्रं समयप्रबद्धस्य शेषकं व्यपदिश्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“जं समयपबद्धस्स वेदिदसेसगं पदेसग्गं दिस्सइ, तम्मि अपरिसेसिदम्मि एगसमएण उदयमागदम्मि तस्स समयपबहस्स अण्णो कम्मपदेसो वा णत्थि, तं समयपबहसेसगं णाम ।” इति । न च कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे समयप्रबद्धस्य वेदितशेषमुदये वर्तमानं प्रदेशाग्र समयप्रबद्धशेषकं कुतो नोच्यते ? इति वाच्यम् , यतस्तथाविधे व्याख्यान एकस्यामेवोदयस्थितौ शेषकस्याऽवस्थानस्वीकारप्रसङ्गः स्यात् । न चेदमिष्यते, अनेकासु स्थितिषु समयप्रबद्धशेषकस्य वक्ष्यमाणत्वात् । समयप्रबद्धस्य जघन्यतः शेषकमेकं दलं भवति, द्वेवा दले शेषके भवतः, त्रीणि वा दलानि शेषकाणि भवन्ति । एवंक्रमेणोत्कृष्टतोऽनन्तकर्मदलिकानि शेषकाणि भवन्ति । एवं भवबद्धशेषकाण्यपि व्याख्येयानि । न्यगादि च Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] खवगसेढी [गाथा-१४० कषायप्राभृतचूर्णी-“एवं चेव भवबद्धसेसयं ।" इति । तथाहि-एकस्मिन् भवे बद्धः प्रदेशसमूहो भवबद्ध उच्यते । तत्र कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे यथासंभवं वेदितस्य यस्य भवबद्धस्य वेदितशेषं यत्प्रदेशाग्र सत्कर्मणि विद्यते, अनन्तरसमये चोदयस्थितिं मुक्त्वा शेषासु स्थितिषु तस्य भवबद्धस्यैकमपि दलं न वस्य॑ते, उदयस्थिति त्वपउँण प्राप्स्यति, तत्प्रदेशाग्र भवबद्धशेषकमुच्यते ।जघन्यतो भवबद्धशेषकमेकं भवति, उत्कृष्टतस्त्वनन्तानि भवबद्धशेषकाणि भवन्ति । नन्वेकस्थिती कतीनां समयप्रबद्धानां भववद्वानां च शेषकाणि विद्यन्ते ? इति परप्रश्नं समाधातुकामः प्राह एगठिईअ इगाहियकमेण खलु समयभवपबद्धाणं होज्जन्ति सेसगाई जेट्ठाउ पलियअसंखभागस्स ॥१४०॥ (गीतिः) एकस्थितावेकाधिकक्रमेण खलु समयभवप्रबद्धानाम् । भवन्ति शेषकाणि ज्येष्ठात् पल्यासंख्यभागस्य ॥१४०।। इति पदसंस्कारः । "एगठिईअ" इत्यादि, 'एकस्थितौ क्षपकस्यैकस्यां स्थिता एकाधिकक्रमेण 'ज्येष्ठात्' उत्कृष्टतः पल्याऽसंख्यभागस्य पल्योपमाऽसंख्यातभागमात्राणां 'समयभवपबहाणं'ति “द्वन्द्वान्तेश्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते ।" इति न्यायात् समयप्रबद्धानां भवप्रबद्धानां च शेषकाणि भवन्ति । खलुवाक्यालङ्कारे। अयं भावः-क्षपकस्यैकस्यां स्थितौ जघन्यत एकसमयप्रबद्धस्यैकस्मात् प्रभृत्यनन्तानि कर्मपरमाणुरूपाणि शेषकाणि विद्यन्ते । एवमेकस्यां स्थितौ द्वयोर्वा समयप्रबद्धयोः शेषकाणि भवन्ति, त्रयाणां वा समयप्रबद्धानां शेषकाणि वर्तन्ते । एवमेवैकोत्तरवृद्धया समयप्रबद्धानां शेषकाणि तावद् द्वाच्यानि,यावदेकस्थित्यामुत्कृष्टतः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमितानां समयप्रवद्धानां शेपकाणि । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी क्षपकप्ररूपणाऽवसरे-"एक्कम्हि हिदिविसेसे कदिण्हं समयपबहाणं सेसाणि होज्जासु ? एकस्स वा समयपबहस्स, दोण्हं वा, तिण्हं वा, एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणं समयपबडाणं ।" इति । तथा क्षपकस्यैकस्थितौ जघन्यत एकस्य भवनबद्धस्य शेषकाणि भवन्ति, द्वयोर्वा भवप्रबद्धयोः शेषकाणि विद्यन्ते,एवमेकोतरवृद्धयोत्कृष्टतः पल्योपमाऽसंख्यानभागप्रमाणानां भवप्रबद्धानां शेषकाण्येकस्यां स्थितौ विद्यन्ते। उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी क्षपकप्रस्तावे-"भवबहसेसयाणि वि एक्कम्हि ठिदिविसेसे एकस्स वा भवबडस्स, दोण्हं वा, तिण्हं वा, एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं भवबहाणं।” इति । एवमक्षपकस्याऽप्येकस्यां स्थितो समयप्रबद्धशेषकाणि भवप्रवद्धशेषकाणि च प्ररूपवितव्यानि,विशेषाभावात् । न्यगादि च कषायप्राभूतचूर्णावक्षपकप्ररूपणाऽवसरे–“एकम्हि ठिदिविसेसे एक्कस्स वा Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयप्रबद्धशेषकसहितस्थित्यल्पबहुत्वम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२८९ समयपबद्धस्स सेसयं दोण्हं वा तिण्हं वा उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । एवं चेव भवबद्धसेसाणि।"इति । इदमत्राऽवधेयम्-क्षपकस्याऽक्षपकस्य चैकस्थितावुत्कर्षेण भवप्रबद्धतोऽसंख्येयगुणानां समयप्रबद्धानां शेषकाणि भवन्ति ॥१४०॥ तदेवं दर्शितमेकस्यां स्थित्यामेकसमयप्रबद्धतः प्रभृत्युत्कृष्टतः पल्योपमासंख्येयभागमात्राणां समयप्रबद्धानां शेषकाणामवस्थानम् । तत्र किमेकसमयप्रद्धशेषकविशिष्टाः स्थितयः स्तोका भवन्ति ? आहोस्वित् पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राणां समयप्रबद्धानां शेषकैविशिष्टा स्थितयः ? इत्यादिके पृष्टेऽल्पबहुत्वं प्राह इगसमयपबद्धस्स तु सेसेण ठिई जुआऽप्पगाऽणेगाणं । होन्ति असंखगुणा पल्लअसंखंसपमिआण च असंखंसा ॥१४१॥ (आर्यागीतिः) एकसमयप्रबद्धस्य तु शेषेण स्थितयो युता अल्पका अनेकेषाम् ।। भवन्त्यसंख्यगुणाः पल्या-ऽसंख्यांशप्रमितानां चाऽसंख्यांशाः ॥ १४१ ॥ इति पदसंसकरः। 'इग०' इत्यादि, एकसमयप्रबद्धस्य तु 'शेषेण' शेषकेण'युताः' मिश्रिता अविरहिता इत्यर्थः, स्थितयः 'अल्पकाः' स्तोका भवन्ति । क्षपकस्य वर्षपथक्त्तमात्रस्थितिष्वेकसमयप्रबद्धशेषकेणाऽविरहिताः स्थितय आवलिकाऽसंख्येयभागप्रमिता भवन्त्योऽपि सर्वस्तोका भवन्तीत्यर्थः। 'णेगाणं' इत्यादि, ततो 'अनेकेषां' द्विप्रभृतितत्प्रायोग्याऽसंख्यातपर्यवसानानां समयप्रबद्धानां शेषकेणाऽविरहिताः स्थितयोऽसंख्यगुणा भवन्ति, एकसमयप्रबद्धशेषकयुक्तस्थितितोऽनेकसमयप्रबद्धशेषकाऽविरहितस्थितीनामसंख्यातगुणत्वस्य न्याय्यत्वात् । ननूत्कृष्टतोऽनेकसमयप्रवद्धशेषकेणाविरहिताः कति स्थितयो भवन्ति ? इत्यत आह--'पल्ल०' इत्यादि, 'पल्योपमाऽसंख्यांशप्रमिताना' पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमितानां समयप्रबद्धानांशेषकेणाऽविरहिताःस्थितयो 'असंख्यांशाः' क्षपकस्य वर्षपृथक्त्वमात्रस्थितेह्वसंख्येयभागमात्र्यो भवन्ति, तेन शेषाणां तत्प्रायोग्याऽनेकसमयप्रबद्धानां शेषकेणाऽविरहिताः स्थितय आवलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणा भवन्त्यः सकलस्थितीनामसंख्येयभागमात्र्यो भवन्ति । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"जाओ ताओ अविरहिदहिदोओ, ताओ एगसमयपबद्धसेसरण अविरहिदाओ थोवाओ । अणेगाणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जगुणाओ। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबडाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जा भागा।” इति । अत्र मुग्धचोदको भणति-नन्वेकसमयप्रबद्धस्य शेषकेणा-ऽविरहिताः स्थितयः स्तोकाः, ततो द्वयोः समयप्रबद्धयोः शेषकेणा-विरहिता विशेषाधिकाः, ततोऽपि त्रयाणां समयप्रबद्धानां शेषकेणाऽविविरहिता विशेषाधिकाः। एवंक्रमेणाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागे च गते द्विगुणा इत्यादिक्रमेण पल्यो Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढी [ गाथा - १४२ पमाऽसंख्येयभागप्रमाणानां समयप्रबद्धानामल्पबहुत्वं कुतो न भण्यते ? इति अत्रोच्यते — क्षपकस्य वर्षपृथक्त्वतोऽधिकाः स्थितयो न संभवन्ति । यद्येकसमयप्रबद्धतः प्रभृत्येकोत्तरवृद्धया पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणानां समयबद्धानां शेषकमाश्रित्य स्थानानि प्रारूपयिष्यन्त, तर्हि तानि वर्षपृथक्त्वप्रमाणस्थितितोऽसंख्यातगुणान्यभविष्यन् । न चाऽस्तु वर्ष पृथक्त्वतोऽसंख्येयगुणानि स्थानानीति वाच्यम्, वर्षपृथक्त्वतोऽधिकस्थितेरसंभवेन ततोऽधिकतराणां स्थानानामभावात् । इत्थमेकोत्तरवृद्धया समयबद्धानां शेषकेणाऽविरहितानां स्थितीनां प्ररूपणा न संभवति, अतो यथासंभवमनेकसमयप्रबद्ध शेषकेणाऽविरहिताः स्थितय एकसमयप्रबद्धशेषकेणाऽविरहितस्थितितोऽसंख्यातगुणा वाच्याः, ततोऽसंख्येयगुणाः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्र समयप्रवद्धशेषकेणाऽविरहिताः स्थितयः ।। १४१ ।। २९० ] अथैकसमय प्रबद्धस्यैकभवप्रबद्धस्य च शेषकाणि जघन्यत उत्कृष्टतश्च कतिषु स्थितिषु तिष्ठन्ति ? इति पृष्टे प्राह खणभवपबद्धसेसाणि इगठिईए इगाहि कमेणं । समयाहिअउदयावलियं वज्जिय सव्वगठिईसु ॥१४२॥ क्षणभवप्रबद्धशेषाण्येकस्थितावेकाधिकक्रमेण । समयाधिकोदयावलिकां वर्जयित्वा सर्वस्थितिषु || १४२ || इतिपदसंस्कारः । 'खण०' इत्यादि, 'क्षणभव प्रवद्धशेषाणि' इत्युक्त एकसमयबद्धस्यैकभवप्रबद्धस्य च शेषकाणीत्यर्थो ग्राह्यः । न चैकशब्दोऽनुक्तोऽपि कुतो गृह्यते ? इति वाच्यम्, "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः ।” इति न्यायाश्रयणात् । तत्रैकसमयप्रबद्धस्यैकभवप्रबद्धस्य च शेषकाण्येकस्थित वर्तन्त इति शेषः, एकाधिकक्रमेण समयाधिकोदयावलिकां वर्जयित्वा 'सर्वस्थितिषु' अन्तरकरणे दलिकाभावात् क्षपकस्य सर्वेषु प्रथमस्थितिनिषेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु च वर्तन्ते । इदमुक्तं भवतिएकसमयप्रबद्धस्यैकभवप्रबद्धस्य च शेषकाणि जघन्यत एकस्यां स्थितौ वर्तन्ते, द्वयोर्वा स्थित्योर्वर्तन्ते, तिसृषु वा स्थितिषु वर्तन्ते, एवमेकोत्तरवृद्धयोत्कृष्टतः समयाधिकोदयावलिकां परित्यज्य शेषासु क्षपकस्य वर्षपृथक्त्वमात्रप्रथमस्थितियुक्तद्वितीयस्थितिष्वेकसमयबद्ध काण्यवतिष्ठन्ते । न च समयाधिकावलिकायामेकसमयप्रबद्धस्य शेषकाणि कुतो न वर्तन्ते ? इति वाच्यम्, तेषां लक्षणभङ्गप्रसङ्गात् । तथाहि-उदयस्थितौ समय प्रबद्धस्य शेषकाणि न संभवति, अनन्तरसमये निर्लेपयिष्यमाणानां कर्मप्रदेशानां शेषकत्वेन व्युत्पादनात् उदयस्थितौ च तात्कालिकनिर्लेपनदर्शनेन शेषकत्वव्युत्पत्तौ विरोधस्योद्भवनात् । न च तथाप्युदयावलिकाया उपरितनप्रथमस्थितौ समयप्रबद्धशेषकाणि संभवन्तीति वाच्यम्, अनन्तरसमये तस्याः स्थितेरुदयावलिकायां प्रविक्ष्यमाणत्वादुदयावलिकागतकर्मणश्च सकलकरणाऽयोग्यत्वेनाऽनन्तरसमययुदयावलिकागतकर्मदलानामपर्षणेनोदयस्थितौ " Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिषु भवसमयप्रबद्धानामवस्थानम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [२९१ प्रक्षेपाऽयोगात् । एवमुदयावलिकागततृतीयादिस्थितिष्वपि न संभवति । नन्दयस्थितरुपरितना याऽनन्तरा द्वितीयस्थितिः, तस्यां कुतो न संभवन्ति ? इति चेत्, उच्यते-अपकर्षगेनाऽनन्तरसमययुदयस्थितौ निश्शेषतो निर्लेपयिष्यमाणाः कर्मप्रदेशाश्शेषकत्वेन व्युत्पादिताः, अनन्तरद्वितीयस्थितिगतप्रदेशास्तूदयस्थितावपकर्षणेन न प्रक्षिप्यन्ते, किन्तु स्वभावतोऽधस्तनस्थितिक्षयेनोदयस्थितौ प्रविशन्ति । यद्वा व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायेनोदयस्थितेरनन्तरोपरितनस्थितावप्येकसमयप्रबद्धस्य शेषकाणि तिष्ठन्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् । एवमेकभवप्रबद्ध शेषकाण्यपि निरूपणीयानि । उक्तश्च कषायप्राभतचूर्णी-“समयप्रबडसेसयमेकम्मि ठिदिविसेसे, दोसु वा, तीसु वा, एगादिएगुत्तरमुक्कस्सेण विदियहिदीए सव्वासु हिदोसु पढमहिदीए च समयाहियउदयावलियं मोत्तण सेसासु सव्वासु हिदीसुxxxxxxr" इति । एवमेकभवप्रबद्धशेषकेषु ग्रन्थान्तरसंवादो द्रष्टव्यः । क्षपकस्यैकसमयप्रबद्धस्य शेषकाण्युत्कर्षतो वर्षपृथक्त्वस्थितिषु दृश्यन्ते, अधिकस्थितेरभावात् । अक्षपकस्य त्वधिकास्वपि स्थितिषु दृश्यन्ते । तथाहि-एकसमयप्रबद्धशेषकाणि जघन्यत एकस्यां स्थितौ तिष्ठन्ति, यद्वा द्वयोः स्थित्योस्तिष्ठन्ति, यद्वा तिसृषु स्थितिष्ववतिष्ठन्ते । एवमेकोत्तरवृद्धयोत्कृष्टतोऽक्षपकस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणासु स्थितिष्वेकसमय प्रबद्धशेषकाणि वर्तन्ते। उक्तश्च कषायप्राभूतचूण्योमक्षपकप्रस्तावे-“समयप्रबडसेसयमेकिस्से ठिदीए होज्ज, दोसु तीसु वा, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेसु।" इति ॥१४२॥ ___ तदेवमभिहितम्-विवक्षितैकसमयभवप्रबद्धशेषकाणि जघन्यत एकस्यां स्थितौ वर्तन्ते, उत्कृष्टतश्च समयाधिकोदयावलिकावर्जसस्थितिधिति । तत्र किमेकस्यां स्थित्यां येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि विद्यन्ते, ते प्रभृता भवन्ति ? उत द्वयादिस्थितिषु येषां समयप्रबद्धानां शेषकाण्यवतिष्ठन्ते, ते प्रभूताः ? इति परशङ्काव्यपनोदाय पाहजाणं समयपबद्धाणं सेसाणिगठिईअ ते थोवा । दोसुअहिआ आवलिअसंखंसे उ दुगुणा य जवमझं ॥१४३॥ (गीतिः) येषां समयप्रबद्धानां शेषाण्येकस्थितौ ते स्तोकाः । द्वयोरधिका आधलिकाऽसंख्यांशे तु द्विगुणाश्च यवमध्यम् ॥१४३।। इति पदसंस्कारः । 'जाणं' इत्यादि, येषां समयप्रबद्धानां 'शेषाणि शेषकाण्येकस्थिताववतिष्ठन्ते, ते समयप्रबद्धाः स्तोका भवन्ति । तद्यथा-यस्य समयप्रबद्धस्य शेषकाण्येकस्यामेव स्थिताववतिष्ठन्ते, तस्यैका शलाका ग्रहीतव्या । ततः पुनरप्यन्यस्यैकस्य समयप्रबद्धस्य शेषकाण्यन्यस्यामेकस्यां स्थितौ विद्य Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] aarसेढी [ गाथा--१४३ न्ते, तस्य द्वितीयैका शलाका ग्रहीतव्या । एवं यस्य समयप्रबद्धस्य शेषकाण्येकैकस्थिताबवतिष्ठन्ते, तस्य तस्यैकैका शलाका ग्रहीतव्या, गृहीताच सर्वाः शलाकाः स्तोका भवन्ति । 'दोसु' इत्यादि, 'द्वयोः' ततो येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि द्वयोः स्थित्योरवतिष्ठन्ते, ते 'अधिकाः' विशेषाधिकाः, यस्य यस्य समयप्रबद्धस्य शेषकाणि स्थितिद्वये विद्यन्ते, तस्य तस्यैकैका शलाका ग्रहीतव्या, गृहीताच सर्वाः शलाका: पूर्वपदतो विशेषाधिका भवन्तीत्यर्थः । ततो येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि तिसृषु स्थितिष्ववतिष्ठन्ते, ते समयप्रवद्धा विशेषाधिका भवन्ति । एवमेकोत्तरवृद्धयापन्नस्थितिषु समयप्रवद्धा विशेषाधिकक्रमेण गच्छन्ति । 'आवलिकाऽसंख्यांशे तु ' आवलिका संख्येयभागे गते तु द्विगुणाः समयप्रबद्धा भवन्ति । चकारः समुच्चयार्थको भिन्नक्रमथ, ततश्चायमर्थः - यवमध्यं चाऽऽवलिकाऽसंख्यांशे=प्रथमस्थानतः प्रभृत्यावलिकाऽसंख्यातभागप्रमाणद्विगुणवृद्धिस्थानाऽतिक्रमे यवमयं प्राप्यत इति भावः । " इदमत्र तात्पर्यम् — येषां समयबद्धानां शेषकान्येकस्यां स्थितौ वर्तन्ते, ते समयप्रबद्धाः स्तोकाः, ततो येषां समयबद्धानां द्वयोः स्थित्योर्वर्तन्ते, ते विशेाधिकाः, ततो येवां समयप्रबद्धानां शेषकाणि तिसृषु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेवाधिका भवन्ति । एवं विशेाधिकक्रमेणाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु प्रथमस्थानतः समयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति, इदञ्च प्रथमं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु समयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति, इदश्च द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम्, ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु समयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति । इदञ्च तृतीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । अनेन क्रमेणाssवलिका संख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते । अथ किं नाम यवमध्यम् ? इति चेत्, उच्यते - यथा यवाख्यधान्यविशेषः प्रारम्भभागतो विशेषाधिकक्रमेण तावद्वर्धते, यावत् तस्य मध्यस्थानम् । ततो विशेषहीन क्रमेण तावद्धीयते, यावत् तस्य पर्यन्तभागः, तथैवैकोत्तरवृद्धयापन्नस्थितिषु समयप्रवद्धा विशेषाधिकक्रमेण तावद् वर्धन्ते, यावदावलिकाऽसंख्येयभागमात्राणि स्थानानि । तत एकोत्तरवृद्धयापन्नस्थितिषु समयबद्धा गच्छन्ति, यावच्चरमस्थानम् । तत उपमयेह यवमध्यमुच्यते । ततो यवमध्यस्यावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणस्थितिलक्षणस्योपर्येकोत्तरवृद्धयापन्नस्थितिषु समयप्रबद्धा विशेषहीनक्रमेण गच्छन्ति । यवमध्यत आवलिका संख्येयभागप्रमाणस्थानेषु गतेषु द्विगुणहीनाः समयबद्धा भवन्ति, ततः पुनरेतावत्सु स्थानेष्यतीतेषु समयप्रबद्धा द्विगुणहीनाः सम्पद्यन्ते । एवंक्रमेण यवमध्यस्योपरि तावद् गच्छन्ति, यावद् वर्षपृथक्त्वमात्रस्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते, मध्ये चाऽसंख्येयद्विगुणहानिस्थानानि व्यतिक्रामन्ति । उक्तं च कषायप्राभृतचूण"समयपबद्धस्स एक्क्क्स्स सेसगमेकिस्से द्विदीए, ते समयपबडा थोवा । जे दोसु ठिदीसु, ते समयपबडा विसेसाहिया । आवलियाए असंखेज्जदिभागे . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादिस्थितिषु समयप्रबद्धाल्पबहुत्वम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २९३ दुगुणा। आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमझं । तदो हायमाणट्ठाणाणि वासपुधत्तं ।" इति । एवं भवप्रबद्धानामपि यवमध्यादिप्ररूपणा कर्तव्या, विशेषाभावात् । __ अक्षपकस्याऽप्येकादिस्थितिषु समयप्रबद्धानामवस्थानक्रमः क्षपकवज्ज्ञातव्यः, नवरं पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणवृद्धिस्थानं द्विगुणहानिस्थानं वा भवति, एवं पन्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेष्वक्षपकस्य यवमध्यं जायते, क्षपकस्य त्वावलिकाऽसंख्येयभागे संजातम् । तथाहि-येषां समयप्रबद्धानां शेषकाण्यक्षपकस्यैकस्यामेव स्थितौ भवन्ति, ते समयप्रबद्धाः स्तोकाः । ततो येषां समयप्रवद्धानां शेषकाण्यक्षपकस्य द्वयोः स्थित्योरवतिष्ठन्ते, ते समयप्रबद्धा विशेषाधिका भवन्ति । एवमेकोत्तरवृद्ध्यापनस्थितिषु समयप्रबद्धा विशेषाधिकक्रमेण गच्छन्ति । पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रस्थानेषु गतेषु समयप्रबद्धा हिगुणवृद्धा भवन्ति । इदं चायं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु समयबद्धा द्विगुणा भवन्ति । इदं द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । एवंक्रमेण पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु सत्सु यवमध्यं प्राप्यते । यवमध्यस्थाने पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणस्थितिलक्षणे सर्वप्रभूताः समयप्रबद्धा भवन्ति। ततो यवमध्यस्योपर्येकोत्तरवृद्ध यापनस्थितिषु समयप्रबद्धा विशेषहीनक्रमेण गच्छन्ति । पल्योपमाऽसंख्येयभागे च गते द्विगुणहीनाः समयप्रबद्धा भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्यातभागेऽतीते समयप्रबद्धा द्विगुणहीना भवन्ति । एवंक्रमेण यवमध्यस्याधस्तनस्थानतोऽसंख्यातगुणेषु स्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । तत्र नानाद्विगुणवृद्धिहानिस्थानानि स्तोकानि भवन्ति । ततो द्विगुणहान्योरन्तरालवर्तीनि स्थानान्यसंख्येयगुणानि । एवं भवबद्धा अपि प्ररूपयितव्याः, विशेषाभावात् । उक्तञ्वेदमेव भङ्गयन्तरेण कषायप्राभूतचूौँ । तथा च तद्ग्रन्थ:-"समयपबद्धसेसयाणि एक्कम्हि हिदिविसेसे जाणि, ताणि थोवाणि। दोसु ठिदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । तिसु ठिदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे जवमझं। णाणंतराणि थोवाणि, एगंतरमसंखेज्जगुणं । एवं भवबडसेसयाणि ।" इति । चूर्णिसूत्राणामयं भावः-एकस्य समयप्रबद्धस्य भवबद्धस्य च वेदितशेषः कर्मप्रदेशोऽनन्तरसमययुदयस्थितिं प्राप्तो निश्शेष निर्लेपयिध्यमाणो यथासंख्यं समयप्रबद्धशेषकं भवबद्धशेषकं चोच्यते । तत्राऽक्षपकस्यै कस्यां स्थिती वर्तमानस्य समयप्रबद्धशेषकस्यैका शलाका ग्रहीतव्या । पुनरन्यसमयप्रबद्धशेषकस्यैकस्यां स्थिताववतिष्ठमानस्य द्वितीया शलाका ग्रहीतव्या । एवमेकस्थित्यामवतिष्ठमानानां समयप्रबद्धशेषकाणामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । तथा द्वयोः स्थित्योर्यत्समयप्रबद्धशेषकं विद्यते, तस्यैका शलाका ग्रहीतव्या । पुनरन्यसमयप्रबद्धशेषकं यद् द्वयोः स्थित्योर्विद्यते, तस्य द्वितीया शलाका ग्रहीतव्या । एवं द्वयोः स्थित्योरवतिष्ठमानानां समयबद्धशेषकाणामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । एवंक्रमेणैकोत्तरवृद्ध्यापन्नस्थितिष्ववतिष्ठमानानां समयप्रबद्धशेषकाणामेकैका Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] खवगसेढी [ गाथा--१४४ शलाका ग्रहीतव्या। तत्रैकस्थित्यामवतिष्ठमानानां समयप्रबद्धशेषकाणां गृहीताः सर्वाः शलाकाः स्तोका भवन्ति । ततो द्वयोः स्थित्योरवतिष्ठमानानां समयप्रबद्धशेषकाणां गृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति । एवं विशेषाधिकक्रमेण पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणस्थानेषु गतेषु शलाका प्रथमस्थानापेक्षया द्विगुणा भवन्ति, इदश्च प्रथमं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु वजितेषु शलाका द्विगुणा भवन्ति, इदञ्च द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । एवंक्रमेण पन्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु व्रजितेषु यवमध्यं लभ्यते । तस्योपरि शलाका हीयमाना गच्छन्ति । पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु च स्थानेषु गतेषु द्विगुणहीनाः शलाका भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु शलाका द्विगुणहीना भवन्ति । एवंक्रमण द्विगुणवृद्धिस्थानतोऽसंख्यगुणेषु द्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु सत्सु चरमस्थानं प्राप्यते । तत्र नानाद्विगुणवृद्धिहानिस्थानानि स्तोकानि, द्विगुणवृद्धिहानिस्थानानां सर्वाः सम्पिण्डिताः शलाकाः स्तोका भवन्तीत्यर्थः, ततो विवक्षितस्थानतो यावत्सु स्थानेषु गतेषु द्विगुणवृद्धिस्थानं प्राप्यते, तान्येकान्तरसंज्ञकान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति । एवमेव भवबद्धशेषकाणि निरवशेषं प्ररूपयितव्यानि, विशेषाभावात् । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२२ ॥१४३॥ सम्प्रति समयप्रबद्धशेषकाणां भवबद्धशेषकाणां चाधारभूता अनाधारभूताश्च सामान्यस्थितीरसामान्य स्थितीश्च प्ररुरूपयिषुराहसेसाणि जट्ठिईए सा सामण्णा परा असामण्णा । एगा इगाहिअकमा निरंतराऽऽवलिअसंखभागमिआ ॥१४४।। (गीतिः) शेषाणि यस्थितौ सा सामान्या पराऽसामान्या। एकैकाधिकक्रमाद् निरन्तरा आवलिकाऽसंख्यभागमिताः ॥१४४॥इति पदसंस्कारः। 'सेसाणि' इत्यादि 'शेषाणि' समयप्रबद्धशेषकाणि भवबद्धशेषकाणि च 'यस्थितो' यस्यां स्थितौ विद्यन्ते “यत्राऽन्यत् क्रियापदंन श्रूयते तत्राऽस्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते" इति न्यायदर्शनेन अस्तिना च भवतिर्विद्यतिरित्यादीनां ग्रहणाद् विद्यन्त इति क्रियापदाभिधानम् , सा शेषकाणामाधारभूता सामान्या स्थितिरुच्यते, तत्र समयभवप्रबद्धशेषकाख्यकर्मप्रदेशानामितरेषां च कर्मप्रदेशानां साधारणत्वेनावस्थानात् । 'परा' सामान्यतोऽन्या, यस्यां स्थितौ समयप्रवद्धशेषकाणि भवबद्धशेषकाणि च न विद्यन्ते, सा असामान्या स्थितिरुच्यत इत्यर्थः । समयप्रबद्वशेषकाणां भवबद्धशेषकाणां चाऽऽधारभूताः स्थितयः सामान्याः, तेषामनाधारभूताः स्थितयोऽसामान्या व्यपदेष्टव्या इति संक्षेपार्थः । उक्तश्च कषायप्राभृतचूर्णी-“एक्कम्हि ठिदिविसेसे जम्हि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] .. .. अनेक CA मोम यन्त्रकम् २२ (चित्रम् -२२) [खवगसेढी एतच्चिह्नसूचितानि विवक्षितसमयप्रबद्धस्य शेषकाण्येकस्यां स्थितौ वर्तन्ते (गाथा १४२) । अनेन चिह्नन सूचितानि विवक्षितसमयप्रबद्धस्य शेषकाणि द्वयोः स्थित्योरवतिष्ठन्ते। व एतच्चिह्नसूचितानि विवक्षितसमयप्रबद्धस्य शेषकाणि तिसृषु स्थितिष्ववतिष्ठन्ते। यद्यपि विवक्षितसमयप्रबद्धशेषकाण्यधिकाधिकतराधिकतमासु स्थितिषु चिह्नान्तरैर्दर्शयितव्यानि, तथापीहाऽवकाशाभावाद् न दर्शितानि । छ एतच्चिह्नसूचितानि विवक्षितसमयप्रबद्धशेषकाणि समयाधिकोदयाबलिकावर्जसर्वस्थितिषु वर्तन्ते । एतचिह्नसूचितस्थित्यां पल्योमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणसमयप्रबद्धानां शेषफाणि विद्यन्ते ( गाथा १४० ) । असत्कल्पनया इदृशाः स्थितयः ७२ । . . . . . बिन्दवः शेषकतो भिन्नानि कर्मदलिकानि सूचयन्ति । ए=एकसमयप्रबद्धशेषकयुक्ता: स्थितयः ।। अने=अनेकसमयप्रबद्धशेषकयुक्ताः स्थितयः ।। अल्पबहुत्वम्-एकसमयप्रबद्धशेषकयुक्ताः स्थितयः स्तोकाः गाथा १४१), असत्कल्पनया चित्रे (२) स्थिती दर्शिते । ततोऽनेकसमयप्रबद्धशेषकयुक्ताः स्थितयो-ऽसंख्यगुणाः (गाथा १४१), असल्कल्पनया चित्रे १२ स्थितयो दर्शिताः । ततश्चित्रे कृष्णसमचतुरस्रप्रतरात्मकचिह्न न सूचिताः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रसमयप्रबद्धशेषकयुक्ताः स्थितयोऽसंख्यगुणाः, असत्कल्पनया चित्रे ७२ स्थितयो दर्शिताः। उ-समयाधिकोदयावलिका, यस्यां समयप्रबद्धशेषकाणि न विद्यन्ते । (गाथा-१४२) । अ=एतदक्षरसूचितस्थित्यां विवक्षितैकसमयप्रबद्धस्य शेषकाणि विद्यन्ते (गाथा १४०)। ब= , , , विवक्षितद्विसमयप्रबद्धशेषकाणि वर्तन्ते। स= , , , , त्रि" , " " । ड= , , , चतुः,, , , । क-प्रस्तुतचित्रं तं.क्षपकमाश्रित्य दर्शितम् , यस्य क्षपकस्योत्कृष्टत एकसमयप्रबद्धशेषकाणि समयाधिकोदयावलिकावर्जासु सर्वासु स्थितिष्ववतिष्ठन्ते । तेन प्रस्तुतचित्रे वक्ष्यमाणस्वरूपाः सामान्यस्थितय एव दशिताः । नानाजीवेषु पुनः केषाञ्चित् क्षपकाणां सामान्यस्थितयो निरन्तरा न भवन्ति, किन्तु समयप्रबद्धशेषकविरहिताभिरसामान्यस्थितिभिरन्तरिता भवन्ति । ताश्च वक्ष्यन्ते गाथाद्वयेन ( १४४-१४५ ) । A एतचिह्न न सूचितशेषकाण्येकस्यां स्थितौ येषां समयप्रबद्धानाम्, ते स्तोकाः, ( गाथा १४३ ) असत्कल्पनया चित्रे ८। मनपा अन्तर-करणम् Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] यन्त्रकम् - २२ (चित्रम् - २२ ) [ खवगसेढा ★ = एतचिह्न ेन सूचितशेषकाणि द्वयोः स्थित्योर्येषां समयप्रवद्धानाम, ते विशेषाधिकाः, असत्कल्पनया १२ । = एतच्चिह्नसूचितशेषकाणि तिसृषु स्थितिषु येषां समयप्रबद्धानाम्, ते विशेषाधिकाः, असत्कल्पनया १६ । येषां समयप्रबद्धान शेषकाणि चतसृषु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषाधिकाः, असत्कल्पनया २४ चित्रे त्ववकाशाभावाद् न दर्शिताः, एवमग्रेऽपि । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि पञ्चसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषाधिकाः, असत्कल्पनया ३२ । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि षट्सु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया २४ । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि सप्तसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया १६ । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाण्यसु स्थितिषु वर्तन्ते ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया १२ । येषां समयबद्धानां शेषकाणि नवसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया ८ | येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि दशसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया ६ । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाण्येकादशसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया ४ । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि द्वादशसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया ३ । येषां समयप्रबद्धानां शेषकाणि त्रयोदशसु स्थितिषु वर्तन्ते, ते विशेषहीनाः, असत्कल्पनया २ । ययोः समयप्रबद्धयोः शेषकाणि त्रयोदशस्थितिषु, तौ २ येषां समयप्रबद्धानां ते ३ ४ "" " 39 22 39 99 " " *** " "" " " 39 23 39 و " " 39 در "" द्वादश 35 " एकादश” दश नव " " " 23 "" " " 22 99 अष्ट सप्त षट् पञ्च " चतुः त्रि "1 22 " " " " " ,, ६ 39 " ८ " १२ १६ २४ १६ " द्वयोः स्थित्योः, ते १२ एकस्थितौ ते ८ , २४ ,, ३२ - चरम-स्थानम् इहाऽऽवलिका ऽसंख्येयभागः समयद्वयप्रमाणः कल्पितः, तेन प्रथमस्थानतः स्थानद्वये गते द्विगुणाः समयप्रबद्धाः षोडश (१६) भवन्ति । पुनः स्थानद्वये गते समयप्रबद्धा द्वात्रिंशत् (३२) भवन्ति । आवलिकाSसंख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेष्वसत्कल्पनया द्वितीयद्विगुणवृद्धिस्थाने यवमध्यं लभ्यते । यवमध्य श्योपर्यकोत्तरवृद्धयापन्नस्थितिषु समयप्रत्रद्वा विशेषहीनक्रमेण तावद् गच्छन्ति, यावद् वर्षपृथक्त्वस्थानेष्वसत्कल्पनयाऽष्टमस्थाने चरमस्थानं प्राप्यते । यवमध्यत उपर्यावलिका संख्येयभागप्रमाणस्थानेषु गतेष्व सत्कल्पन स्थानद्वये गते द्विगुणहीनाः समयप्रब: पोडश (१६) भवन्ति, पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु समवद्धा ६ गुणहीना भवन्ति । एवं क्रमेण तात्रद्वाच्याः, यावच्चरमस्थानम् । द्विगुणहीनाः द्विगुणहीना : द्विगुणहीना : यवमध्यम हिगुणाः प्रथम स्थान भू Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्याऽसामान्यस्थितिनिरूपणम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ २९५ समयपबद्धसेसयमत्थि, सा हिदी सामण्णा त्ति णादव्वा । जम्मि णत्थि, सा हिदी असामण्णा त्ति णादव्वा ।" इति । __ अथ जघन्यत उत्कृष्टतश्च निरन्तरं कियत्योऽसामान्यस्थितयो भवन्ति ? इति परप्रश्नमुत्तरयितु भणति-'एगा' त्ति 'एका' जघन्यत एकाऽसामान्या स्थितिर्भवति, न च जघन्यतः सामान्या स्थितिरेका भवतीत्यर्थोऽत्र कुतो न गाते ? इति वाच्यम् , प्रत्यासत्याऽसामान्यस्थितेरेव ग्रहणसंभवात् । 'इगाहिअकमा' इत्यादि, तत एकाधिकक्रमाद् ‘निरन्तराः' सामान्यस्थितिभिरनन्तरिता उत्कृष्टतः क्षपकस्याऽऽवलिकाऽसंख्येयभागमिता असामान्यस्थितयो भवन्ति, न ततोऽधिकाः । अयम्भावः-द्वयोः पार्श्वयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्ये जघन्यत एकाऽसामान्यस्थितिर्भवति, पुनयोः पार्श्वयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्ये द्वेऽसामान्यस्थिती निरन्तरं भवतः । पुनयोः पाश्चयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्ये तिस्रोऽसामान्यस्थितयो निरन्तरं भवन्ति, एवमेकोत्तरवृद्धयोत्कृष्टतो निरन्तरं क्षपकस्याऽऽवलिकाऽसंख्येयभागप्रमिता असामान्याः स्थितयो भवन्ति, न ततोऽधिकाः, आवलिकाऽसंख्येयभागे च गते नियमतः सामान्यस्थितीनां सद्भावात् । उक्तञ्च कषायप्राभूतचूणौँ-"एवमसामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा दो वा उकस्सेण अणुबद्धाओ आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तीओ।" इति । ____ अत्र चोदक आह-ननु द्वाचत्वारिंशदुत्तरशततमगाथायां जघन्यत एकस्थितौ समय- . प्रबद्धशेषकाणि भवप्रबद्धशेषकाणि च विद्यन्त इत्युक्तम् । ततः पारिशेष्यात् क्षपकस्य भवसमयप्रबद्धशेषकै रहिता भवसमयप्रबद्धानामनाधारभूता असामान्याः स्थितयो निरन्तरमुत्कृष्टतो वर्षपृथक्त्वमाव्यः संभवन्ति, क्षपकस्य वर्षपृथक्त्वमात्रस्थितिकत्वात् , आलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणा एव उत्कृष्टतः कुतो निरूप्यते ? इति, अत्रोच्यते-नैष दोषः, द्वाचत्वारिंशदधिकशततमगाथायां ह्येकसमयप्रबद्धस्यैकमवप्रबद्वस्य च शेषकमाश्रित्य तथा प्ररूपितम् , अत्र तु नानासमयप्रबद्धानां नानाभवबद्धानां चापि शेषकाण्याश्रित्य निरन्तरमावलिकाऽसंख्येयभागमिता एव उत्कृष्टतोऽसामान्यस्थितयो भवन्तीति प्ररूप्यते । अयं भावः-जघन्यत एकसमयप्रबद्धस्यैकभवप्रबद्धस्य च शेषकाण्येकस्यां स्थितौ वर्तन्ते, शेषासु स्थितिषु निरुक्तसमयप्रबद्धस्य निरुक्तभवप्रबद्धस्य च शेषकामि न विद्यन्त इत्युक्त द्वाचत्वारिंशदधिकशततमगाथायाम् , न तत्र यथासंभवं नानाभवसमयप्रबद्धशेषकाणामनेकस्थितिष्ववस्थानस्य निषेधःप्रतिपादितः । असामान्यस्थितयस्त्वेकभवसमयप्रवद्धनानाभवसमयप्रबद्धानां शेषकाणामभाव एव व्यपदिश्यन्ते । इत्थं विवक्षितैकसमयप्रवद्धस्य शेषकाणां जघन्यत एकस्थितौ सद्भावेन शेषासु स्थितिषु तदभावेऽपि यथासंभवं विवक्षितभवसमयप्रबद्धतो भिन्नैकभवसमयबद्धनानाभवसमयप्रबद्धानां शेषकाणामप्रतिषेधादुत्कृष्टतो वर्षपृथक्त्वमात्र्योऽसामान्यस्थितयो न लभ्यन्ते, किन्तूत्कृष्टतो निरन्तरमावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणा एवं प्राप्यन्ते । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] खवगसेढी [ गाथा-१४५ अक्षपकस्य तूत्कृष्टतो निरन्तरं पल्योपमाऽसंख्येयभागमिता असामान्याः स्थितयो वर्तन्ते, न त्वावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणाः । उक्तश्च कषायप्राभृतचूर्णावक्षपकप्ररूपणाऽवसरेअसामण्णाओ हिदीओ एका वा दो वा तिणि वा, एवमणुबद्धाओ उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेवदिभागो।” इति । इदमुक्त भवति-उभयोः पार्श्वयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्ये जघन्यत एकाऽसामान्यस्थितिर्भवति, पुनई यो पार्श्वयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्ये द्वऽसामान्यस्थिती भवतः । एवंक्रमेण द्वयोः पार्श्वयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्ययुत्कृष्टतः पल्योपमाऽसंख्येयभागमिता असामान्यस्थितयो भवन्ति ॥१४४॥ अथ निरन्तराऽसामान्यस्थितीनामल्पबहुत्वं व्याजिहीपुराहएक्केक्केणं थोवा ताअ कमेणं विसेसअहिआओ। आवलिअसंखभागे दुगुणा तह होइ जवमझं ॥१४५॥ एकैकेन स्तोकास्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः । आवलिकाऽसङ्ख्यभागे द्विगुणास्तथा भवति यवमध्यम् ॥१४३॥ इति पदसंस्कारः । 'एककेण' इत्यादि (१) 'एकैकैन' एकैकरूपेण स्तोकाः, काः ? इत्याह-'ताअ' ति ता:असामान्यस्थितयः, तच्छब्देन प्रत्यासत्याऽसामान्यस्थितेः परामर्शात् 'कमेणं' इत्यादि, क्रमेण विशेषाधिका असामान्यस्थितयो भवन्ति, द्विकेन विशेषाधिका भवन्ति, त्रिकेण विशेषाधिका भवन्ति, एवमेकोत्तरवृद्धयापन्नाऽसामान्यस्थितयो विशेषाधिका विशेषाधिका भवन्तीत्यर्थः । 'आवलि०'इत्यादि, आवलिका-ऽसंख्यभागे' आवलिकाऽसंख्येयभागे गतेऽसामान्यस्थितयो द्विगुणा भवन्ति । आवलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु च द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते। तदेव प्राह-तह' इत्यादि, तथा यवमध्यं भवति, आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यत इत्यर्थः। उक्तश्च कषायप्राभृतचूर्णी-"एकोकण असामण्णाओ थोवाओ, दुगेण विसेसाहियाओ, तिगेण विसेसाहियाओ। आवलियाए असंखेजदिमागे दुगुणाओ। आवलियाए असंखेजदिभागे जवमउझं ।” इति । भावार्थः पुनरयम्-क्षपकस्य स्थितिसत्कर्म वर्षपृथक्त्वप्रमितं भवति । तत्र द्वयोः पार्श्वयोरेका वाऽनेका वा सामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये चैकाऽसामान्यस्थितिर्विद्यते, तस्या एका शलाका ग्रहीतव्या । पुनद्वयोः पार्श्वयोरेकस्यामनेकासु वा सामान्यस्थितिषु सतीषु मध्येऽन्यैकाऽसामान्यस्थितिवर्तते, तस्या द्वितीयैका शलाकाऽऽदातव्या । एवंक्रमणकैकाऽसामान्यस्थितेरेकैका शलाका ग्रहीतव्या । । एवमुभयोः पार्श्वयोरेकाऽनेका वा सामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये च निरन्तरं द्वऽसामान्यस्थिती Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९७ प्रथममतेन सामान्यासामान्यस्थितिनिरूपणम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः भवतः, तयोरेका शलाका ग्रहीतव्या। ततः पुन योः पार्थ योरेकाऽनेका वा सामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये च निरन्तरमन्ये द्व- सामान्यस्थिती भवतः, तयोदितीयैका शलाका ग्रहीतव्या । उक्तरीत्याऽसामान्यस्थितिदिकानामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । एवमेकोत्तरवद्धयाऽऽवलिकाऽसंख्येय भागमात्रीणामसामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । तत्रैकैकरूपेण या असामान्यस्थितयो भवन्ति, तासां गहीताः सर्वाः शलाकाः स्तोका भवन्ति, ताश्च शलाका आवलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणा भवन्ति । ततो द्विकरूपेण या असामान्यस्थितयः, तासां गृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति, आधिक्यं चावलिकाऽसंख्ययभागेन प्रथमपदगतशलाकाः खण्डयित्वैकखण्डेन बोध्यम्, आवलिकाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणवद्धिकथनात् । ततस्त्रिकस्वरूपेण विद्यमानानामसामान्यस्थितीनां सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति । ततश्चतुष्करूपेण विद्यमानानामसामान्यस्थितीनां सर्वाः शलाकाः विशेषाधिका भवन्ति । एवमेकोत्तरवद्धयापननिरन्तराऽसामान्यस्थितीनां शलाका विशेराधिकक्रमेण तावद् गच्छन्ति, यावद् यवमव्यम् । प्रथमस्थानत आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु विशेषाधिकस्थानेषु गतेषु निरन्तरा-ऽसामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाकाः प्रथमस्थानापेक्षया द्विगुणा भवन्ति, इदं चाऽऽयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु वजितेषु प्रथमद्विगुणवृद्धिस्थानतोऽसामान्यस्थितीनां शलाका द्विगुणा भवन्ति, प्रथमस्थानतश्च चतुर्गुणाः, इदं च द्वैतीयीकं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु द्वितीयडिगुणवृद्धिस्थानतो निरन्तराऽसामान्यस्थितीनां शलाका द्विगुणा भवन्ति, इदं च तृतीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । एवंक्रमणाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते । यवमध्येऽपि निरन्तरावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणाऽसामान्यस्थितीनां सर्वाः शलाका आवलिकाऽसंख्ययभागप्रमाणा एव भवन्ति । ततो यवमध्यस्योपर्येकोत्तरक्रमेण वृद्धांनां निरन्तरा- सामान्यस्थितीनां शलाका विशेषहीनक्रमेण गच्छन्ति, आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेवु च स्थानेषु गतेषु शलाका द्विगुणहीना भवन्ति, इदं च प्रथमं द्विगुणहानिस्थानम् । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु निरन्तराऽसामान्यस्थितीनां शलाका द्विगुणहीना भवन्ति, इदं च द्वितीयं द्विगुणहानिस्थानम् । एवंक्रमेणाऽसंख्यातेषु द्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु प्रथमस्थानगतनिरन्तराऽसामान्यस्थितीनां शलाकाभिः समानाः शलाकाः प्राप्यन्ते, ततोऽप्युपर्येकोत्तरक्रमेण वृद्धानां निरन्तराऽसामान्यस्थितीनां शलाका हीयमाना गच्छन्ति, यावच्चरमस्थानस्य शलाकाः प्राप्यन्ते । ताश्चाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणा भवन्त्यः सर्वस्तोका भवन्ति । तथा सर्वाण्यपि स्थानान्यावलिकाऽसंख्योयभागमात्राणि भवन्ति । असत्कल्पनया निरन्तरैकैकाऽसामान्यस्थितीनां शलाकाः सर्वसंख्ययाऽष्टौ, ततो विशेषाधिका निरन्तराऽसामान्यस्थितिद्विकानां शलाका द्वादश, ततो विशेषाधिका निरन्तराऽसामान्यस्थितित्रिकाणां शलाकाः पोडश, ततो विशेषाधिका निरन्तराऽमानान्यस्थितिचतुष्काणां शलाका चतुर्विशतिः, ततो विशेषाधिका Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढी [ गाथा - १४५ निरन्तराऽसामान्यस्थितिपञ्चकानां शलाका द्वात्रिंशत् । अत्र चाऽसत्कल्पनया यवमध्यमम् । ततो विशेषहीना निरन्तराऽसामान्यस्थितिषट्कानां शलाकाश्चतुर्विंशतिः, ततो विशेषहीना निरन्तराऽसामान्यस्थितिसप्तकानां शलाकाः षोडश, ततो विशेषहीना निरन्तराऽसामान्यस्थित्यष्टकानां शलाका द्वादश, ततो विशेषहीना निरन्तराऽसामान्यस्थितिनवकानां शलाका अष्टौ ततो विशेषहीना निरन्तराऽसामान्यस्थितिदशकानां शलाका: पट् । ततो विशेषहीना निरन्तरा - सामान्यस्थित्येकादशकानां शलाकाश्चतस्रः । ततो विशेषहीना निरन्तरा - सामान्य स्थिति द्वादशकानां शलाकास्तिस्रः, ततो विशेषहीन । निरन्तराऽसामान्यस्थितित्रयोदशकानां शलाके । परमार्थतो द्विगुणवृद्धिस्थानान्तरमावलिकाऽसंख्येयभागमात्रम्, असत्कल्पनया पुनः स्थानद्वयमात्रं परिकल्पितम् । तेन प्रथमस्थानतः स्थानद्वये गते शलाका द्विगुणा षोडश भवन्ति, ततः पुनः स्थानद्वये गते द्विगुणा द्वात्रिंशद् । अत्र चाऽसत्कल्पनया यवमध्यम्, यतः परमार्थत आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु सत्सु यवमध्यं प्राप्यते, असत्कल्पनया पुनर्द्विगुणवृद्धिस्थानद्वये गते यत्रमध्यं लभ्यते । यवमध्यस्योपरि स्थानद्वये गते शलाका द्विगुणहीनाः षोडश भवन्ति, ततः पुनः स्थानद्वये ते शलाका द्विगुणहीना अष्टौ भवन्ति, ततः पुनः स्थानद्वये गते शलाका द्विगुणहीनाश्चतस्रो भवन्ति । एवमग्रे ऽपि । निरन्तरा - सामान्यस्थितित्रयोदशकानां परमार्थतस्त्वावलिका संख्येयभागप्रमाणानामसामान्यस्थितीनां शलाकाश्चरमस्थानम् । २९८ ] निरन्तरासामान्य स्थिनित्रयोदशकानां शलाके निरन्तरासामान्य स्थितिद्वादशकानां शलाका: निरन्तरासामान्य स्थित्येकादशकानां शलाका: निरन्तरा सामान्यस्थितिदशकानां शलाका: निरन्तरासामान्यस्थितिनवकानां शलाका: निरन्तरासामान्य स्थित्यष्टकानां शलाका: निरन्तरासामान्य स्थितिसप्तकानां शलाका: निरन्तरासामान्य स्थितिषटकानां शल | का निरन्तरासामान्यस्थितिपञ्चकानां शलाका: निरन्तरासामान्यस्थितिचतुरकाणां शलाकाः निरन्तरासामान्यस्थितित्रिकाणां शलाका: निरन्तरासामान्यस्थितिद्विकानां शलाका: निरन्तर का सामान्यस्थितीनां शलाकाः यवमध्यस्य चित्रम् २ ३ ४ ६ ८ १२ १६ : ४ ३२ २४ १६ १२ चरम-स्थानम् द्विगुणहीनाः द्विगुणहीना : दिगुणहीना : यवमध्यम् द्विगुणाः प्रथम स्थान म् Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयमतेन सामान्याऽ- सामान्यस्थितिनिरूपणम् ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ २९९ अक्षपकस्याऽप्यसामान्यस्थितीनां प्ररूपणैवमेव कर्तव्या, नवरं पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु द्विगुणवृद्धिर्द्विगुणहानिर्वा भवति, न त्वावलिका संख्येयभागप्रमितेषु स्थानेषु गतेषु । एवं पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते, तथा सर्वाणि स्थानानि पल्योपमाऽसंख्येयभागमितानि भवन्ति । (२) अथवा 'एक्केण थोवा' इत्यादीनामक्षरैरेकैकेन सामान्यस्थितिस्थानकेनाऽन्तरितानामसामान्यस्थितीनां शलाका: स्तोका भवन्तीत्याद्यर्थो व्याख्येयः । तथाहि - द्वयोः पार्श्वयोरेकैका सामान्यस्थितिर्विद्यते, मध्ये चैकाऽसामान्यस्थितितः प्रभृति यावत्योऽसामान्य स्थितयो भवन्ति, तासां सर्वासामेका शलाका ग्रहीतव्या । पुनरन्यत्र द्वयोः पार्श्वयोरेकैका सामान्यस्थितिर्भवति, मध्ये चैका वाऽनेका वा यावत्योऽसामान्यस्थितयो भवन्ति, तासां द्वितीयैका शलाका ग्रहीतव्या । एवमेकैकया सामान्यस्थित्याऽन्तरितानामसामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । तत उभयोः पार्श्वयोद्वे द्वे सामान्यस्थिती भवतः मध्ये च यावत्योऽसामान्यस्थितयो भवन्ति, तासामेका शलाका ग्राह्या । पुनरन्यत्रोभयतोऽन्ये द्व े द्व े सामान्यस्थिती भवतः, मध्ये च यावत्योऽसामान्यस्थितयो विद्यन्ते, तासां द्वितीयैका शलाका ग्रहीतव्या । एवं द्वाभ्यां द्वाभ्यां सामान्यस्थितिभ्यामन्तरितानामसामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । इत्थमेकोत्तरक्रमेण वृद्धाभिः सामान्यस्थितिभिरन्तरितानामसामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । तत्रैकैकया सामान्यस्थित्याऽन्तरितानामसामान्यस्थितीनां संपिण्डिताः सर्वाः शलाकाः स्तोका भवन्ति, द्वाभ्यां द्वाभ्यां सामान्यस्थितिभ्यामन्तरितानामसामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति । आधिक्यं चाऽधस्तनशलाका आवलिका संख्येयभागेन खण्डयित्वैकखण्डेन ज्ञातव्यम्, आवलिकाऽसंख्येपभागे गते द्विगुणवृद्धेः । ततोऽपि तिसृभिस्तिसृभिः सामान्यस्थितिभिरन्तरितानामसामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाऽधिका भवन्ति । एवमावलि - काऽसंख्येय भागप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु तत्रत्यस्थानेऽसामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाका: प्रथमस्थानतो द्विगुणा भवन्ति इदं च प्रथमं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु तत्रत्यस्थानेऽसामान्य स्थितीनां शलाका द्विगुणा भवन्ति, इदं च द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । एवंक्रमेणाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते । ततो यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेण शलाका गच्छन्ति । यवमध्यतश्चावलिका संख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु शलाका द्विगुणहीना भवन्ति । इदं चाद्यं द्विगुणहानिस्थानम् । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु तत्रत्यस्थानेऽसामान्यस्थितीनां शलाका द्विगुणहीना भवन्ति, इदं च द्वितीयं द्विगुणहानिस्थानम् । एवंक्रमेण यवमध्यस्याधस्तनद्विगुणवृद्धिस्थानतोऽसंख्येयगुणेषु द्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] खवगसेढी [गाथा-१४५ अक्षपकस्याऽप्येकसामान्यस्थितितः प्रभृत्येकोत्तरक्रमेण वृद्धाभिः सामान्यस्थितिभिरन्तरितानामसामान्यस्थितीनां निरूपणं क्षयकवत् कर्तव्यम् , नवरं पल्योपमाऽसंख्येयभागे गतेऽसामान्यस्थितीनां शलाका द्विगुणवद्धा द्विगुणहीना वा भवन्ति, पल्योपमाऽसंख्येयभागे च गते यवमध्यं प्राप्यत इति वक्तव्यम् । (३) यदिवेदं व्याख्यानान्तरं कर्तव्यम्- 'एककेणं' इत्यादि, एकैकैन स्तोकाः । काः ? ताः= सामान्यस्थितयः, "विचित्रा सूत्राणां शैलो" इति न्यायेन व्यवहितस्याऽपि चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमगाथोक्तसामान्यस्थितिपदस्य तच्छब्देन परामर्शात् । इदमत्र हृदयम्-उभयोः पाचोरेका वाऽनेका वा-ऽसामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये चैकसामान्यस्थितिर्विद्यते, तस्या एका शलाका ग्रहीतव्या । ततः पुनरुभयोः पार्श्वयोरेका वाऽनेका वा ऽसामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये चाऽन्यैका सामान्यस्थितिर्भवति, तस्या द्वितीयैका शलाका ग्रहीतव्या । एवमसामान्यस्थितीनां मध्ये स्थिताया एकैकस्याः सामान्यस्थितेरेकैका शलाका ग्रहीतव्या । एवमेव द्वयोः पार्श्वयोरेका वाऽनेका वाऽसामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये च निरन्तरे द्व सामान्यस्थिती भवतः, तयोरेका शलाका ग्रहीतव्या । पुनरन्यत्र द्वयोः पार्श्वयोरेका वाऽनेका वाऽसामान्यस्थितयो भवन्ति, मध्ये व निरन्तरेऽन्ये दु सामान्यस्थिती भवतः, तयोरेका द्वितीया शलाका ग्रहीतव्या । एवं निरन्तरसामान्यस्थितिद्विकानामेकैका शलाका ग्राह्या । ततो निरन्तरसामान्यस्थितित्रिकाणामेकैका शलाका ग्राह्या । ततो निरन्तरसामान्यस्थितिचतुष्काणामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । एवमेकोत्तरक्रमेण वृद्धानां निरन्तरसामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । तत्रैकैकरूपेण विद्यमानानां सामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाकाः स्तोकाः । 'कमेणं' इत्यादि, विकरूपेण विद्यमानानां सामान्यस्थितीनां शलाका विशेषाधिका भवन्ति । आधिक्यं चाऽधस्तनशलाका आवलिकाऽसंख्येयभागेन विभज्यैकखण्डेन ज्ञातव्यम् , आवलिकाऽसंख्येयभागे गते डिगुणवृद्धः । ततोऽपि त्रिकरूपेण स्थितानां सामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति । एवमेकोत्तरवद्धिक्रमेण निरन्तरं स्थितानां सामान्यस्थितीनां शलाका विशेषाधिकक्रमेण गच्छन्ति । आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु च स्थानेषुगतेषु तत्रत्यस्थानस्य शलाकाः प्रथमस्थानतो द्विगुणवद्धा भवन्ति, इदं चायं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु तत्रत्यस्थाने निरन्तरसामान्यस्थितीनां शलाका गुिणा भवति, इदं च द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । एवंक्रमेणाऽऽवलिकाऽसंख्येयभागप्रमितेषु द्विगुणवद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते । अथ यवमध्यस्योपर्येकोत्तरक्रमेण वृद्धानां निरन्तरसामान्यस्थितीनां शलाका विशेषहीनक्रमेण गच्छन्ति । यवमध्यस्य चोपर्यावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु तत्रत्यस्थाने निरन्तरसामान्यस्थितीनांशलाका द्विगुणहीनाः, अर्धा भवन्तीत्यर्थः । इदं च प्रथमं द्विगुणहानिस्था Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयेन चतुर्थेन च मतेन सामान्यासामान्यस्थितयः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३०१ नम् । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु निरन्तरसामान्यस्थितीनां शलाका द्विगुणहीनाः, इदं च द्वितीयं द्विगुणहानिस्थानम् । एवंक्रमेणाऽसंख्यातेषु द्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । शलाका: अक्षपकस्याऽप्यसामान्यस्थितिभिरन्तरिताना मे कादिनिरन्तर सामान्यस्थितीनां क्षपकवत् रूपयितव्याः, नवरं पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते शलाकानां द्विगुणवृद्धत्वं द्विगुणहीनत्वं च वाच्यम्, पल्योपमाऽसंख्येयभागे च व्रजिते यवमत्र्यं वक्तव्यम्, न त्वावलिका संख्येयभागे । (४) अथवा 'एक्केकेण थोवा' इत्याद्यक्षरैरेकैकेनाऽसामान्यस्थितिस्थानेनाऽन्तरितानां क्षपकस्य सामान्यस्थितीनां शलाकाः स्तोका भवन्तीत्याद्यर्थो व्याख्येयः । तथाहि - द्वयोः पार्श्वयोरेकैकाऽसामान्यस्थितिर्विद्यते मध्ये चैकसामान्यस्थितितः प्रभृति यावत्यः सामान्यस्थितयो विद्यन्ते, तासामेका शलाका ग्रहीतव्या । ततः पुनद्वयोः पार्श्वयोरन्यैकैकाऽसामान्यस्थितिर्विद्यते, मध्ये च यावत्यः सामान्यस्थितयो वर्तन्ते, तासां द्वितीयैका शलाका ग्राह्या । एवमेकैकयाऽसामान्यस्थित्याऽन्तरितानां सामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्राह्या । ततः पुनः योः पार्श्वयो दोसामान्यस्थिती भवतः मध्ये च यावत्यः सामान्यस्थितयस्तिष्ठन्ति, तासामेका शलाका ग्रहीतव्या । पुनद्व द्वयोः पार्श्वयोरन्ये सामान्यस्थिती भत्रतः, मध्ये च यावत्यः सामान्यस्थितयो वर्तन्ते, तासां द्वितीयैका शलाका ग्रहीतव्या । एवं द्वाभ्यां द्वाभ्यामसामान्यस्थितिभ्यामन्तरितानां सामान्यस्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । एवमेकोत्तरक्रमेण वृद्धाभिरसामान्यस्थितिभिरन्तरितानां सामान्य स्थितीनामेकैका शलाका ग्रहीतव्या । तत्रैकैकयाऽसामान्यस्थित्याऽन्तरितानां सामान्यस्थितीनां गृहीताः सर्वाः शलाकाः स्तोका भवन्ति । भ्यामसामान्य स्थितिभ्यामन्तरितानां सामान्यस्थितीनां संगृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति । अधिवयं चाधस्तनशलाका आवलिका संख्येयभागेन खण्डयित्वैकखण्डेन बोद्धव्यम् । ततस्तिसृभिस्तिसृभिः सामान्यस्थितिभिरन्तरितानां सामान्यस्थितीनां संगृहीताः सर्वाः शलाका विशेषाधिका भवन्ति । एवमावलिका संख्येय भागप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु तत्रत्यस्थानस्य गृहीताः सर्वाः शलाकाः प्रथमस्थानतो द्विगुणा भवन्ति, इदं चाद्यं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनरावलिका संख्येयभागप्रमाणेषु स्थानेषु वजितेषु तत्रत्यस्थानस्य गृहीताः सर्वाः शलाका द्विगुणा भवन्ति इदं च द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । एवंक्रमेणा ऽऽवलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते । ततो यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेण शलाका गच्छन्ति । यवमध्यतश्चावलिकाऽसंख्येयभागे गते शलाका द्विगुणहीना भवन्ति । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागे गते शलाका द्विगुणहीना भवन्ति । एवंक्रमेण यवमध्यस्याऽधस्तनद्विगुणवृद्धि - स्थानतोऽसंख्येयगुणेषु द्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] aara 1 गाथा-- १४५ अक्षपकस्याप्यसामान्यस्थितिभिरन्तरितानां सामान्यस्थितीनां प्ररूपणा क्षपकवद्विधेया, नवरं पल्योपमाऽसंख्येयभागे द्विगुणावृद्धा द्विगुणहीना वा सामान्यस्थितीनां शलाका भवन्ति । पल्योपमाऽसंख्येयभागे च गते यवमध्यं प्राप्यते, न त्वावलिकाऽसंख्येयभाग इति वक्तव्यम् । तथाहि - एकैकयाऽसामान्यस्थित्याऽन्तरितानां सामान्यस्थितीनां शलाकाः स्तोकाः, ततो द्वाभ्यां द्वाभ्यामसामान्यस्थितिभ्यामन्तरितानां सामान्यस्थितीनां शलाका विशेषाधिका भवन्ति । एवं पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु प्रथमस्थानतः शलाका द्विगुणवृद्धा भवन्ति, एवंक्रमेण पल्योपमासंख्येय भागमात्रेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु द्वयोः पार्श्वयोः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमिताभिरसामान्यस्थितिभिरन्तरितानां सामान्यस्थितीनां शलाका यवमध्यमुत्पादयति । ततो यत्रमध्यस्योपर्येकोत्तरवृद्धयापन्नाऽसामान्यस्थितिभिरन्तरितानां सामान्यस्थितीनां शलाका विशेषहीनक्रमेण गच्छन्ति । यवमध्यतश्च पल्पोपमासंख्येयभागे गते शलाका द्विगुणहीना भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते शलाका द्विगुणहीना भवन्ति । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम्, यावद्यवमध्यस्याऽधस्तनस्थानतोऽसंख्यातगुणेषु स्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । चरमस्थाने च पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणाऽसामान्यस्थितिभिरन्तरितानां सामान्यस्थितीनां शाकाः सर्वस्तोका भवन्ति । अत्राऽक्षपकस्य नानादिगुणवृद्धिहानिस्थानानि स्तोकानि भवन्ति । ततो द्वयोर्द्विगुणवृद्धयोद्विगुणहान्योऽन्तरे यानि स्थानानि, तान्यसंख्येयगुणानि ज्ञातव्यानि । उक्तञ्च कषायप्राभृतचूर्णावक्षपकप्रस्तावे - "सामण्णडिदोओ एक्कंतरिदाओ थोवाओ, दुअंतरिदा विसेसाहिया । एवं गंतॄण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे [जवमज्झं ] । णाणागुणहाणिस लागाणि थोवाणि, एक्कंतरमसंखेज्जगुणं ।" इति । इदमुक्तं भवति - प्रथमस्थानतः पल्योपमाऽसंख्ये प्रभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु प्रथमं द्विगुणवृद्धिस्थानं प्राप्यते, तस्यैका शाका ग्रहीतव्या, ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषु गतेषु द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं लभ्यते । तस्यैका द्वितीया शलाका ग्रहीतव्या, एवमेकैकस्य द्विगुणवृद्धिस्थानस्यैकैका शलाका ग्राह्या । तथा यवमध्यस्योपरि पल्योपमाऽसंख्येयभागे गत एकैकं द्विगुणहानिस्थानं प्राप्यते । तस्यैकैका शलाका ग्रहीतव्या । तत्र द्विगुणवृद्धिहानिस्थानानां सम्पिण्डिताः सर्वाः शलाकाः स्तोका भवन्ति । ततो द्वयोर्द्वगुणवृद्धयोद्विगुणहान्योऽन्तरे यानि स्थानानि तान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति, विवक्षितस्थानतो यावत्सु स्थानेषु गतेष्वेकं द्विगुणबुद्धिस्थानं द्विगुणहानिस्थानं वा प्राप्यते तावन्ति द्वयोर्द्विगुगहा-योर्द्विगुणवृद्धयोर्वाऽपान्तरालवतींन्येकान्तरसंज्ञकानि स्थानानि भवन्ति तानि च पूर्वतोऽसंख्येयगुणानि भवन्तीत्यर्थः ।। १४५॥ अथ क्षपकतोऽक्षपकस्य योsविशेषः, तं विभणिपुरन्यच्च प्रतिजिज्ञासुराह- Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभव्यप्रायोग्ये निर्लेपनस्थाननिरूपणम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३०३ संपइ अभव्वपाउग्गे आवलियाअसंखभागठाणे। पल्लासंखंसो ति विसेसो णेयो इआणि भणिमो अण्णं ॥१४६॥ (आर्यागोतिः) सम्प्रत्यभव्यप्रायोग्य आवलिकाऽसंख्यभानस्थाने। पल्याऽसंख्यांश इति विशेषो ज्ञेय इदानी भणामोऽन्यत् ॥१४६॥ इति पदसंस्कारः । 'संपई' इत्यादि, सम्प्रति 'अभव्यप्रायोग्ये अभव्यप्रायोग्यविषये, यत्र भव्यसिद्धिकानामभव्यसिद्धिकानां च स्थितिबन्धानुभागवन्धादिपरिणामाः सदृशा भवन्ति, सोऽभव्यप्रायोग्यविषयः, तत्र, आवलिकाऽसंख्यभागस्थाने 'पल्याऽसंख्यांशः' पल्योपमा- संख्येयतमभाग इति 'विशेषः' अनन्तरोक्तगाथाषटके यथासम्भवं विशेषो ज्ञयो' बोध्यः, शेषं तु थपकवदभव्यप्रायोग्येऽपि बोध्यम् । एतत्सर्वं यथास्थानं तत्रैवाऽस्माभिर्भावितम्, अतो नेह पुनः प्रपञ्च्यते । न च क्षपकाधिकारेऽक्षपकाणां प्ररूपणाऽसङ्गतेति वाच्यम् , यतो भव्यजनानां शङ्काव्युदासाय ग्रन्थकृदन्यानपि पदार्थान् अधिकारान्तरेऽपि प्ररूपति, अन्यथा लक्षणेकचक्षुषो विद्वज्जना अपि संशय्याना भवेयु:-क्षपकस्य समयप्रबद्धादिकमवलम्ब्य यावती प्ररूपणा कृता, अक्षपकस्य किं तावत्येव सम्भवति ? उताऽस्ति कश्चित् तत्र विशेषः ? इति । सम्प्रत्यभव्यप्रायोग्येऽन्यत् प्रतिपिपादयिषुः प्रतिजानीते-'इआणि' इत्यादि, इदानीम् 'अन्यत्' समयप्रबद्धादीनां सम्बन्ध्यन्यद् निर्लेपनस्थानादिकं 'भणाम' : प्रतिपादयिष्यामः ॥१४६॥ सम्प्रति प्रतिज्ञातं निर्वाहयन्नादौ तावत् समयप्रबद्धानां निर्लेपनस्थानान्यभिधित्सुराहपिल्लेवणठाणाई पल्लस्स असंखभागमेत्ताणि । अण्णे भणंति कम्मअवट्ठाणस्स उ असंखंसा ॥१४७॥ निर्लेपनस्थानानि पल्यस्याऽसंख्यभागमात्राणि । अन्ये भणन्ति कर्माऽवस्थानस्य त्वसंख्याशान् ॥१४७॥ इति पदसंस्कारः। 'णिल्लेवणठाणाई' इत्यादि, निर्लेपनस्थानानि 'पल्यस्य' पल्योपमस्याऽसंख्यभागमात्राणि । इदमुक्तं भवति-तत्र विवक्षितैकसमयेन विवक्षितैकभवेन च बद्धकर्मप्रदेशा बन्धाऽऽवलिकायां व्यतिक्रान्तायां सान्तरं निरन्तरं चाऽनुभूयमाना यस्मिन् समये सर्वे निःशेषतोऽनुभूयन्ते, स यथाक्रमं निरुक्तसमयप्रबद्धस्य निरुक्तभवप्रबद्धस्य च निर्लेपनस्थानमुच्यते, तदानीमेव निःशेषतो निर्लेपनात् । तत्राऽपि विवक्षितकर्माऽवस्थानकालस्य प्रथमसमये यो बद्धः कर्मप्रदेशसमूहः, स बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां सान्तरं निरन्तरं चोदयेनाऽनुभूयमानोऽपि बन्धसमयतः प्रभृति कर्माऽवस्थानकालस्य बहूनसंख्येययभागान् यावद् न निश्शेषत उदयेनाऽनुभूयते । कर्माऽवस्थानकालस्य तु पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रे काले शेषे सति यस्मिन् समय उदयोन सर्वथा निर्लेप्यते, स समयः प्रथम Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] [ गाथा-- १४७ निर्लेपनस्थानम् । अथवा तस्मिन्ननिर्लेप्य तदुपरितनसमये निःशेषत उदयेन निर्लेप्यते, स द्वितीयं निर्लेपनस्थानम् । यद्वा तस्मिन्ननिर्लेप्य तदुपरितनसमये निःशेषत उदयेन निर्लेप्यते, स तृतीयं निर्लेपनस्थानम् । एवंक्रमेणैको तरवृद्धया तावद्वक्तव्यम् यावत् कर्माऽवस्थानकालस्य चरमसमयः । एवंक्रमेण सर्वसंख्यया निर्लेपनस्थानानि पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणानि भवन्त्यप्यसंख्येयपल्यापम प्रथम वर्गमूल प्रमाणानि भवन्ति । aaraढी यद्वा विवक्षितकर्माऽवस्थान कालस्य प्रथम पमयेऽनेकै जीवैर्यो बद्धः कर्मप्रदेशसमूहः, स बन्धावलिकाऽतिक्रमे सान्तरं निरन्तरं चोदयेनानुभूयमानोऽपि बन्धसमयतः प्रभृति कर्मावस्थानकालस्य बहूनसंख्येयभागान् यावन्न निःशेषत उदयेनाऽनुभूयते, कर्माऽवस्थानकालस्य तु जघन्यतः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रे काले शेषे सति यस्मिन् समये केनचिज्जीवेन निरुक्तसमयबद्ध उदयेन निःशेषं निर्लेप्यते स समयः प्रथमं निर्लेपनस्थानम् । द्वितीयस्मिन् समय इतरेण जीवेन निरुक्तसमयबद्धो निर्लेप्यते स द्वितीयं निलेपनस्थानम्, तृतीयसमयेऽपरेण जीवेन निरुक्तसमयप्रबद्धो निर्लेप्यते स तृतीयं निर्लेपनस्थानम् । एवं क्रमेण तावद् वाच्यम्, यावत् कर्मावस्थानकालस्य चरमसमयः । इत्थमपि निर्लेपनस्थानानि पल्योपमाऽसंख्येयभागमितानि भवन्ति, विशेषपरिमाणतः पुनरसंख्येयपल्योपम प्रथमवर्गमूलप्रमाणानि भवन्ति । 'अण्णे' त्ति 'अन्ये' अपर आचार्यपादाः 'भणन्ति' प्रतिपादयन्ति । किम् ? इत्यत आह- 'कम्म० ' इत्यादि, कर्माऽवस्थानकालस्य तु 'असंख्पांशान्' वह्नसंख्यभागमात्राणि निर्लेपनस्थानानि । इदमुक्तं भवति-विवक्षितकर्माऽवस्थानकालस्य प्रथमसमये यो बद्धः कर्म प्रदेशसमुदायः, स बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां यथासंभवमनुभूयमानोऽपि बन्धसमयतः प्रभृति पल्योपमाऽसंख्येयभागं यावद् न निःशेषतो निर्लेप्यते, बन्धसमयतस्तु पल्योपमा-Sसंख्येयभागे गते यस्मिन् समये निःशेषत उदयेन निर्लेप्यते स समयः प्रथमं निर्लेपनस्थानम् । अथवा तदुपरितनसमययुदयेन सर्वथा निर्लेप्यते स द्वितीयं निर्लेपनस्थानम्, यहा तदुपरितनसमय उदयेन सर्वथा निर्लेप्यते स तृतीयं निर्लेपनस्थानम् । एवमेकसमयोत्तरवृद्धया तावद् वक्तव्यम्, यावत् कर्माऽवस्थानकालस्य चरमसमयः । यद्वा कर्माऽवस्थानकालस्य प्रथमसमयेऽनेकै जीर्वैर्यो बद्धः कर्मप्रदेशसमूहः, स बन्धावलिकायामपगतायां यथासंभवमनुभूयमानोऽपि बन्धसमयात् प्रभृति पल्योपमाऽसंख्येयभागं यावद् न निश्शेषतो निर्लेप्यते, तत एकेन जीवेन बन्धसमयतः पल्योपमाऽसंख्येयभागे व्यतीते यस्मिन् समये निरुक्तसमयप्रबद्धो निर्लेप्यते स समयः प्रथमं निर्लेपनस्थानम् । द्वितीयसमयेऽन्येन जीवेन निरुक्तसमयप्रबद्धो निर्लेप्यते स द्वितीयं निर्लेपनस्थानम् । तृतीयसमयेऽपरेण निर्लेप्यते स तृतीयं निर्लेपनस्थानम् । एवमेकसमयोत्तरवृद्धचा तावद् त्राच्यम्, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्कल्पनया निर्लेपनस्थाननिरूपणम् ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ ३०५ यावत् कर्माऽवस्थानकालचर मसमयः । तेन कर्माऽवस्थान कालस्य बह्वसंख्येवभागप्रमाणानि समयप्रबद्धस्य निर्लेपनस्थानानि । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णो – “तत्थ पुवं गमणिज्जा पिल्लेवणडाणाणमुवदेसपरूवणा । एत्थ दुविहो उवदेसो । एक्केण उवदेसेण कम्मद्विदोए असंखेज्जा भागा पिल्लेवणद्वाणाणि । एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । जो पवाइज्जइ उवएसो, तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि वग्गमूलाणि णिल्लेवणडाणाणि । " इति । असत्कल्पनया कर्मावस्थान कालः सहस्र समयमात्र ः (१०००) कल्प्यते । पल्योपमाऽसंख्येयभागश्च पञ्चाशत्समयप्रमाणः (५०) परिकल्प्यते । प्रथममतेन कचिज्जीवः कर्मावस्थानका प्रथमसमये प्रदेशाग्र बद्ध्वैकपञ्चाशदधिकनवशततमसमये (९५१) सर्वथा निर्लेपयति, तेन स समयो जघन्यनिर्लेपनस्थानम् । यद्वा द्विपञ्चाशदaaaaaaa ( ९५२) सर्वात्मना निर्लेपयति, तेन स द्वितीय निर्लेपनस्थानम् । यद्वा त्रिपञ्चाशदधिकनवशततम समये (९५३) सर्वथा निर्लेपयति, तेन स तृतीय निर्लेपनस्थानम् । एवंक्रमेण पञ्चाशद् (५०) निर्लेपनस्थानानि लभ्यन्ते । परमार्थतस्तु तानि पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राणि भवन्त्यप्यसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणानि भवन्ति । I वक्ष्यमाणभवबद्धस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानं तु पञ्चपञ्चाशदधिकनवशततमे (९५५) समये प्राप्यते, समयप्रबद्धस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानादूर्ध्वमन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थानेषु गतेषु तस्य लभ्यमानत्वादन्तमुहूर्त कालस्य च चतुस्समयप्रमाणत्वकल्पनात् । द्वितीय मतेन तु कर्मावस्थान कालप्रथमसमयबद्धप्रदेशाग्रमेकपञ्चाशत्तमे ( ५१ ) समये सर्वथा निर्लेप्यते, तेन स समयो जघन्यनिर्लेपनस्थानम्, यद्वा द्विपञ्चाशे (५२) समये सर्वात्मना निर्लेप्यते, तेन स द्वितीयं निर्लेपनस्थानम् । एवंक्रमेण पञ्चाशदुत्तरनवशतानि (९५०) निर्लेपनस्थानानि लभ्यन्ते, परमार्थतस्तानि कर्मावस्थानकालवह्न संख्येयभागप्रमाणानि भवन्ति ॥ १४७॥ तदेवं भणितानि निर्लेपनस्थानानि, अथैकजीवमाश्रित्थाऽतीतकाले जघन्यनिर्लेपनस्थानप्रभृत्युत्कृष्टनिर्लेपनस्थानपर्यवसानेषु निर्लेपनस्थानेषु निर्लेपितानां समयबद्धानां निर्लेपनकालमनन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया चाऽभिधातुकाम आह जीवस्स जहण्णगणिल्लेवणठाणे अईअकालम्भि । पिल्लेवियाण समयपवद्धाणाऽप्पो गओ कालो ॥१४८॥ तत्तो बीये अहिओ तत्तो तइये विसेस हिओ । पलिओवमस्स य असंखेज्जंसे होअए दुगुणो ॥ १४९ ॥ (उपगीतिः ) Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] ... खवगसेढी [गाथा--१४८-१५० ठाणअसंखंसे जवमझ पल्लस्स छेदणअसंखंसो। णाणागुणहाणी तो असंखगुणमंतरं दुगुणहाणीणं ॥१५०॥(अर्यागीतिः) जीवस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानेऽतीतकाले । निर्लेपितानां समयप्रबद्धानामल्पो गतः कालः ॥१४८।। ततो द्वितीयेऽधिकस्ततस्तृतीये विशेषाधिकः । पल्योपमस्य चाऽसंख्येयांशे भवति द्विगुणः ।।१४९।। स्थानाऽसंख्यांशे यवमध्यं पल्यस्य च्छेदनाऽसंख्यांश: । नानागुणहानयस्ततोऽसंख्यगुणमन्तरं द्विगुणहान्योः ॥१५१।। इति पदसंस्कारः । 'जीवस्स' इत्यादि, तत्र 'अईअकालम्मि' ति अतीतकाले 'जीवस्य एकवचननिर्देशाद् एकजीवस्य जघन्यनिर्लेपनस्थाने निर्लेपितानां समयप्रबद्धानाम् 'अल्पः' स्तोकः कालो 'गतो' व्यतिक्रान्तः । भावार्थः पुनस्यम्-असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गभूलप्रमाणानि निर्लेपनस्थानानि पूर्वमुक्तानि । तत्र यत् प्रथमं निर्लेपनस्थानम्, तत्र पुनः पुनः स्थित्वा समयप्रबद्धान् निर्लेपयत एकजन्तोरतीतकालाभ्यन्तरे योऽनन्तसमयप्रमाणः कालो व्यतिक्रान्तः, स सम्पिण्डितः स्तोको भवति । 'तत्तो' इत्यादि, ततो द्वितीये निर्लेपनस्थाने 'अधिको विशेषाधिकः कालो व्यतिक्रान्तः, जघन्यनिर्लेपनस्थानतो द्वितीयस्मिन् निर्लेपनस्थाने पुनः पुनः स्थित्वा समयबद्धान निर्लेपयत एकजन्तोरतीतकालाभ्यन्तरे व्यतिक्रान्तः कालो विशेषाधिको भवतीत्यर्थः । आधिक्यं च पूर्वोक्तनिर्लेपनकालं पल्योपमाऽसंख्येयभागेन भक्त्वैकभागेन ज्ञातव्यम्, पल्योपमाऽसंख्योयभागे गते द्विगुणवृद्धिस्थानस्य वक्ष्यमाणत्वात् । 'ततः' अतीतकालयेकजीवस्य द्वितीयनिर्लेपनस्थाने निर्लेपितसमयप्रबद्धानां व्यतिक्रान्तकालतस्तृतीयस्मिन् निर्लेपनस्थाने निलंपितसमयप्रबद्धानां व्यातिक्रान्तकालो विशेषाधिको भवति । उक्त च कषायप्राभतचूर्णी-“अदीदे काले एगजीवस्स जहण्णए पिल्लेवणठाणे जिल्लविदपुव्वाणं समयपबद्धाणमेसो कालो थोवो, समयुत्तरे विसेसाहिओ।” इति । एवमनन्तरोपनिधया विशेगाधिकक्रमेण तावद् वक्तव्याम्, यावद् यवमध्यामप्राप्तं भवति, यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेण तावद् वक्तव्यम्, यावदुत्कृष्टनिर्लेपनस्थानम् । ___अथ परम्परोपनिधया भणति-'पलिओव०' इत्यादि, 'पल्योपमस्य चाऽसंख्यांशे' असंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्रेषु च स्थानेषु गतेषु प्रस्तुतकालो द्विगुणो भवति, । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-“पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते दुगुणो।” इति । इदमत्र हृदयाम्जघन्यनिर्लेपनस्थानात् पल्योपमासंख्येयभागमात्र निर्लेपनस्थानेषु गतेषु तत्रत्यनिर्लेपनस्थानेऽतीतकालयोकजीवस्य निर्लेपितसमयप्रबद्धानां व्यतिक्रान्तकालो जघन्यनिर्लेपनस्थानव्यतिक्रान्त Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयप्रबद्धानां जघन्यादिनिर्लेपनस्थानेषु काल:] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३०७ कालतो द्विगुणो भवति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रनिर्लेपनस्थानेषु गतेषु तत्रत्यनिर्लेपनस्थाने व्यतिक्रान्तः कालो गुिणो भवति । एवंक्रमेण द्विगुणवद्धिस्थानानि तावद्वक्तव्यानि, यावद् यवमध्यान । वतः पल्योपमाऽसंख्ययभागप्रमाणनिर्लेपनस्थानातिक्रमे प्राप्यमाणनिर्लेपनस्थाने व्यतिक्रान्तकालो द्विगुणहीनो भवति । ततः पुनरेतावत्स्थानातिक्रमे निर्लेपनस्थाने व्यतिक्रान्तकालो द्विगुणहीनो भवति । एवं गुणहानिस्थानानि तावद् वाच्यानि, यावत् सर्वोत्कृष्टं निर्लेपनस्थानम् । 'ठाणअसंखंसे' इत्यादि, 'स्थानाऽसंख्यांशे' निर्लेपनस्थानानामसंख्येयतमे भागे यवमध्यं भवति । यदभ्यधायि कषायप्राभृतचूर्णी-"ठाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमझं।" इति । इदमुक्तं भवति-निर्लेपनस्थानानामेकसंख्येयतमभागेऽसंख्यातदिगुणवृद्धिस्थानेषु व्रजितेषु सत्सु यवमध्यं प्राप्यते, तस्योपर्यसंख्येयतमेषु बहुषु भागेषु निर्लेपनकालो हीयमानो गच्छति । तेन वृद्धिस्थानतो हानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति । - अथ नानाद्विगुणहानिस्थानानि कियन्ति भवन्ति? इत्यत आह--'पल्लस्स' इत्यादि, 'पल्यस्य' पल्योपमस्य'छेदनाऽसंख्यांशः' अर्धच्छेदनकानामसंख्येयभागमात्राणि 'नानागुणहानयो' नानातिगुणहानिस्थानानि भवन्ति । भावार्थः पुनरयम्-पल्योपमगतसमया द्विकेन पुनः पुनस्तावच्छिद्यन्ते, यावदेकसमयः, तत्र यतिकृत्वो विभज्यन्ते, तत्संख्याप्रमाणानि पल्योपमस्यार्धच्छेदनकानि भवन्ति, यथा षट्पश्चाशदुत्तरद्विशतयोरर्धच्छेदनकान्यष्टौ । पल्योपमस्यार्धच्छेदनकानां चाऽसंख्येयभागे यावन्त्यर्धच्छेदनकानि प्राप्यन्ते , तावन्ति नानाद्विगुणहानिस्थानानि भवन्ति । तथाहि-यवमध्यस्योपरि पल्योपमाऽसंख्येयभागे गत एकं द्विगुणहानिस्थानं प्राप्यते, पुनस्तावत्सु स्थानेषु गतेष्वेन्यदेकं द्विगुणहानिस्थानं प्राप्यते, एवंक्रमेण यवमध्यस्योपरितनानि द्विगुणहानिस्थानानि तावद् वक्तव्यानि, यावच्चरमस्थानम् । तथा यवमध्यस्याऽधः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गत एकं द्विगुणहानिस्थानं प्राप्यते, पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गतेऽन्यदेकं द्विगुणहानिस्थानं लभ्यते, एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावत् प्रथमस्थानम् । पूर्व तूारोहणेन प्रतिपादितम् , तेन यवमध्यस्याऽधस्तनानि स्थानानि द्विगुणवद्धिस्थानानि प्रोक्तानि, सम्प्रति स्वधस्तनस्थानान्यधोऽवतरणेन प्रतिपाद्यन्ते, तेन द्विगुणहानिस्थानान्यभिधीयन्ते । एतानि सर्वाणि यवमध्यस्योपरितनान्यधस्तनानि च द्विगुणहानिस्थानानि नानाद्विगुणहानिस्थानानि व्यपदिश्यन्ते । तानि पुनः सर्वेषु निर्लेपनस्थानेषु द्विगुणहान्येकाऽन्तरस्थानैविभक्तेष्वैकखण्डप्रमाणानि भवन्ति, परिमाणतः पुनः पल्योपमार्धच्छेदनकाऽसंख्ययभागमात्राणि । विवक्षितस्थानतो यावत्सु स्थानेषु गतेषु निर्लेपितसमयप्रबद्धानां कालो? भवति, तावन्ति स्थानानि द्विगुणहान्यन्तरमुच्यन्ते । अथाऽल्पबहुत्वमभिधत्ते-'तो' इत्यादि, ततः' नानाद्विगुणहानिस्थानेभ्यो 'असंख्यगुणम्' असंख्येयगुणं द्विगुणहान्योरन्तरम्, द्वयोर्डिगुणहान्योरेकाऽपान्तराले यानि स्थानानि, तानि नानाद्विगुणहानि Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] खवगसेढी [ गाथा--१५१ स्थानतोऽसंख्येयगुणानि भवन्तीत्यर्थः । न्यगादि च कषायमाभृतचूर्णी-"णाणागुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि, एयगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं ।” इति ॥१४८-१४९-१५०॥ तदेवं निरूपित एकजीवमाश्रित्याऽतीतकाले जघन्यादिनिर्लेपनस्थानेषु निर्लेपितसमयप्रवद्धानां निर्लेपनकालः, सम्प्रति तमतिदिदिक्षुराह एवं भवबद्धाण परं लहु पिल्लेवणट्ठाणं । गंतु असंखठाणाणुप्पिं एगत्थ दोण्ह जवमझं ॥१५॥ . एवं भवबद्धानां परं लघु निर्लेपनस्थानम् । गत्वाऽसंख्यस्थानानामुपर्येकत्र द्वयोर्यवमध्यम् ॥१५२।। इति पदसंस्कारः। 'एवं' इत्यादि, 'एवम्' एवंशब्दः सादृश्यार्थकः, यथाऽतीतकालयेकजीवस्य जघन्यादिनिर्लेपनस्थानेषु निर्लेपितानां समयप्रवद्धानां व्यतिक्रान्तः कालो निरूपितः, तथैव भवबद्धानां निरूपणीय इति गम्यते । सामान्येनातिदिश्य विशेषं दर्शयति-परं' इत्यादि, परं' नवरं 'लघु' प्रस्तुतत्वाद् भवबद्धानां जघन्यं निर्लेपनस्थानम् 'असंख्यस्थानानामुपरि गत्वा' समयबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानतः परमसंख्येयस्थानानि गत्वा लभ्यत इति शेषः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी"भवबडाणं पिल्लेवणहाणं जहण्णगं समयपबहस्स णिल्लेवणहाणाणं जहण्णादो असंखेजाओ हिदीओ अब्भुस्सरियूण ।” इति । ___ तथाहि-एकस्मिन् भवे सञ्चितानां समयप्रवद्धानां समूहो भवबद्ध उच्यते । स च बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां सान्तरं निरन्तरं चानुभूयमानः कर्माऽवस्थानकालस्य बहुष्पसंख्येवतमभागेषु गतेषु यस्मिन् समये सर्वथा निर्लेप्यते, स समयो भवबद्धस्य जघन्यं निर्लेपनस्थानम् , अन्येन जीवेन तदुपरितनसमये निःशेषतोऽनुभूयते, स द्वितीयं निर्लेपनस्थानम् । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावत्कर्माऽवस्थानकालस्य चरमसमयः । एतानि सर्वाणि निर्लेपनस्थानान्यसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्राणि भवन्ति । तत्र भवबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानं समयप्रबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानतोऽसंख्येयानां निर्लेपनस्थानानामुपरि प्राप्यते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , शृणुत-तिरश्चि मनुष्ये वोत्पद्य जघन्यतोऽन्तमुहूर्तप्रमाण आयुषि कर्मप्रदेशांस्तावत् बध्नाति, यावद् आयुर्न समाप्तिमेति । तस्मिन्नन्तर्मुहूर्तप्रमाणे मनुष्यस्य तिरथो वा भवे सञ्चिताः समयप्रवद्धा अन्तर्मुहूर्तसमयमात्रा भवन्ति । एतावत्समयबद्धानां समूह एकभवबद्ध उच्यते । तस्य भवस्य प्रथमसमयेन बद्धकर्मप्रदेशा बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां सान्तरं निरन्तरं चाऽनुभूयमानाः कर्माऽवस्थानकालस्याऽसंख्येयतमेषु बहुषु भागेषु गतेषु यस्मिन् समये निःशेषतो निर्लेप्यन्ते, स समयः समयप्रबद्धस्य जघन्यं निर्लेपनस्थानं भवति । तदानीं च प्रथमसमयोननिरुक्तभवबद्धान निःशेषतो निर्लेपिताः । ततः क्रमेण समयोनाऽन्तमुहूर्तप्रमाणाः समयप्रबद्धा यस्मिन् समये निःशेषतो Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवबद्धानां जघन्यादिनिर्लेपनस्थानेषु कालः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [३०९ निर्जरिष्यन्ति, स समयो निरुक्तभवबद्धस्य जवन्यं निर्लेपनस्थानमिति कृत्योभयोजघन्यं निर्लेपनस्थानमेकत्र न प्राप्यते, किन्तु समयबद्धजघन्यनिर्लेपनस्थानस्योपर्यन्तमुहूर्तसमयप्रमाणेषु निर्लेपनस्थानेषु गतेषु भवबद्धस्य जघन्यं निर्लेपनस्थानं प्राप्यते । न च यस्मिन् समये भवप्रथमसमयप्रबद्धो निलेप्यते, तस्मिन्नेव समये शेषाः समयबद्धाः कुतो युगपन्न निर्लेप्यन्ने, भवबद्धसमयबद्धयोरेका जघन्यनिर्लेपनस्थानलाभसंभवाद् ? इति वाच्यम् , प्रथमसमयप्रबद्धस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानतः प्रभृति समयोत्तरक्रमेण निर्लेप्यमानानां समयप्रबद्धानां स्वस्त्रजघन्यनिर्लेपनस्थानतो गनिर्लेपनत्रसङ्गादन्तर्मुहूर्तप्रमाणभवद्वितीयादिसमयसंगृहीतसमयप्रब द्धानां च जघन्यकर्माऽवस्थानकालतः कर्माऽवस्थानकालस्य न्यूनत्वप्रसङ्गात् । इह समयप्रबद्धवदतीतकाल एकजीवस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानादिषु निर्लेपितभववद्धानां निलेपनकालोऽनन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया च भावनीयः, तत्रोभयोर्भवबद्धसमयप्रबद्धयोर्यवमध्यमेकत्र भवति, न तु जघन्यनिर्लेपनस्थानस्य भेदाद् यवमध्यमन्यत्र भवतीत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभतचूर्णी--"जम्हि चेव समयपबद्धणिल्लेवणहाणाणं जवमझ, तम्हि चेव भवबडणिल्लेवणहाणाणं जवमझं।” इति । तदेव प्राह-एगत्थ' इत्यादि, तत्र 'द्वयोः' भवबद्ध-समयप्रबद्धयोरकत्र यवमध्यं भवति । भावार्थः पुनरयम्-भवबद्धानां यज्जघन्यं निर्लेपनस्थानं भवति, तत्र पुनः पुनः स्थित्वा भवबद्धान् निर्लेपथत एकजन्तोरतीतकालाभ्यन्तरे योऽनन्तसमयप्रमाणः कालो व्यतिक्रान्तः, स समुदितः स्तोकः, ततो भवबद्धस्य द्वितीये निर्लेपनस्थाने भववद्धान् निर्लेपयतो जन्तोरतीतकाले व्यतिक्रान्तः कालो विशेषाधिकः । एवमनन्तरानन्तरेण विशेषाधिकस्तावद् वक्तव्यः, यावद् यवमध्यम् । यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेण तावद् वक्तव्यम्, यावच्चरमनिर्लेपनस्थानम् । जघन्यनिर्लेपनस्थानतः पल्योपमाऽसंख्येषभागे गते व्यतिक्रान्तः कालो द्विगुणो भवति, ततः पुनः पल्योपमासंख्येयभागे गते व्यतिक्रान्तः कालो द्विगुणो भवति । एवंक्रमेण द्विगुणवृद्धिस्थानानि तावद्वक्तव्यानि, यावद् यवमध्यम् । यवमध्यस्योपरि निरुक्तक्रमण द्विगुणहानिस्थानानि तावद्वक्तव्यानि, यावच्चरमनिर्लेपनस्थानम् । यत्र च समयप्रबद्धानां यवमध्यं प्राप्यते स्म, तत्रैव भवबद्धानां यवमध्यं प्राप्यते । न च समयप्रबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानतोऽन्तमुहूर्तप्रमाणानि निर्लेपनस्थानान्युल्लङ्घय भवबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानस्य लाभादुभयोर्यवमध्यमेकत्र कथं प्राप्यते, युक्तिविरोधाद् ? इति वाच्यम् , पूर्वमहर्षिभिस्तथैवोक्तत्वादतीन्द्रियपदार्थेषु च केवलयुक्तरप्राधान्यात् । तदेवं समयप्रबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानं पूर्व प्राप्यते, ततोऽन्तमुहूर्तप्रमितानि निर्लेपनस्थानानि गत्वा भवबद्धस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानं प्राप्यते, समयप्रबद्धप्ररूपणावसरे प्रोक्तयवमध्यं त्वकत्र प्राप्यते । तेन भवबद्धयवमध्यस्याधस्तननिर्लेपनस्थानतः समयप्रबद्ध Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] [ गाथा-- १५२-१५३ यवमभ्यस्याऽधस्तननिर्लेपनस्थानान्यन्तर्मुहूर्त प्रमाणैर्निर्लेपनस्थानैरधिकानि भवन्ति । यवमध्यस्याधस्तननिर्लेपनस्थानतोऽसंख्येयगुणानि यवमध्यस्योपरि निर्लेपनस्थानानि गत्वा समयबद्धानां भवबद्धानां चैकत्र चरमनिर्लेपनस्थानं प्राप्यत इति फलितार्थ: ।। १५१ ।। अथाऽतीतकालाभ्यन्तरयेकादिप्रदेशाग्रेण ये समयप्रबद्धा निर्लेपिताः तान् विस्तरत aaraढी आविविकीषु राह पण अईएsपाणिल्लेविया तु समयपबद्धा । कमसो अहिया ठाणअसंखंसे च दुगुणा तहा जवमज्झं १५२ (आर्यागीतिः ) णाणतराणि पल्लस्स छेदणअसंखभागमेत्ताणि । तो एगअंतरमणंतगुणं भणियं सुअम्मि खलु ॥१५३॥ एकप्रदेशेनाऽतीतेऽल्पा निर्लेपितास्तु समयप्रबद्धाः । क्रमशोऽधिकाः स्थानाऽसंख्यांशे च द्विगुणास्तथा यवमध्यम् ।। १५२ ।। नानान्तराणि पल्यस्यच्छेदनाऽसंख्यभागमात्राणि । तत एकान्तरमनन्तगुणं भणितं श्रुते खलु ॥ १५३ ॥ इति पदसंस्कारः । 'एग०' इत्यादि, अतीतकाले पूर्वोक्ताऽसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्र निर्लेपन स्थानेषु यत्र वा तत्र वा कदाचिदेकैकेन प्रदेशेन शेषीभूतेन समयप्रबद्धा निर्लेपिताः, कदाचित् द्वाभ्यां द्वाभ्यां प्रदेशाभ्यां निर्लेपिताः, कदाचित्पुनस्त्रिभिस्त्रिभिः प्रदेशैर्निर्लेपिताः, एवं क्रमेणोत्कृष्ट तोऽनन्तप्रदेशैः शेषीभूतैः समयप्रबद्धा निर्लेपिताः । तत्र 'अतीते' अतीतकाले पूर्वोक्तनिर्लेपनस्थानेषु यत्र वा तत्र वा 'एकप्रदेशेन' एकैकेन कर्मप्रदेशेन शेषीभूतेन निर्लेपितास्तु समयबद्धाः सर्वे मिलित्वाऽनन्तराशिका भवन्तोऽपि 'अल्पाः ' स्तोकाः उपरितनानामधिकत्वप्रतिपादनात् । 'कमसो अहिया' त्ति क्रमशो ‘अधिका' विशेषाधिकाः । अयं भावः- ततो द्वाभ्यां द्वाभ्यां कर्मप्रदेशाभ्यां शेषीभूताभ्यां निर्लेपिताः समयबद्धा विशेषाधिका वाच्याः । ततस्त्रिभिस्त्रिभिः कर्मप्रदेशैः शेषीभूतैर्निर्लेपिताः समयप्रबद्धा विशेषाधिका अभिधातव्याः । एवं विशेषाधिकक्रमेणाऽनन्तानि स्थानानि वक्तव्यानि । यदुक्तं कषायप्राभृतचूर्णो – “अदीदे काले जे समयपबडा एक्कण पदेसग्गेण पिल्लेविदा, ते थोवा । वेहिं पदेसेहिं विसेसाहिया, एवमणंतरोवणिधाए अाणि द्वाणाणि विसेसाहियाणि ।” इति । एवमनन्तरान्तरेण विशेषाधिकक्रमेण 'स्थानाSसंख्यांशे' स्थानानाम् = अनन्तराशिकानां सर्वेषां स्थानानामसंख्येयतमे भागे च गते निर्लेपिताः समयप्रवद्धा 'द्विगुणा' द्विगुणवृद्धा भवन्ति । इदमुक्तं भवति - जघन्य स्थानतः सकलस्थानानामसंख्येयतमे भागे गते समयबद्धाद्विगुणवृद्धा भवन्ति । ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषु गतेषु निर्लेपिताः समयप्रबद्धा द्विगुणवृद्धा भवन्ति । ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषु त्रजितेषु समयप्रबद्धा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादिप्रदेशैर्निर्लेपितसमयप्रबद्धाः] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३११ द्विगुणवृद्धा भवन्ति । एवं सर्वस्थानानामसंख्येयभागे गते यवमध्यमपि प्राप्यते, तद्वयाजिहीपुराह-'तहा जवमझ ति 'तथा' एवं यवमध्यम्, यथा स्थानानामसंख्योयभाने समयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति, तथैव यवमध्यमपि स्थानानामसंख्योयतमे भागे प्राप्यत इत्यर्थः । इदमत्र हृदयम्एकपरमाणुत आरभ्य एकसमोनोत्कृष्टतो निर्लेप्यमानानकसमयाप्रवद्धाऽसंख्योयभागप्रमाणानन्तपरमाणून् यावदेकोत्तरक्रमेण यावन्ति स्थानानि लभ्यन्ते, तावतामभव्योम्योऽनन्तगुणानां सिद्धानां चाऽनन्तभागमात्राणां स्थानानासंख्योयतमभागे यवमध्यं भवति । यद्यपि द्विगुणवृद्धिस्थानमपि स्थानानामसंख्योयतमभागे प्राप्यते, एवं यवमध्यमपि, तथाप्यसंख्यातेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं लभ्यते, भाजकस्याऽसंख्येयत्वेनासंख्येय भेदत्वात् । यवमध्यस्योपरि द्विगुणवृद्धिस्थानतोऽसंख्यगुणानि द्विगुणहानिस्थानानि भवन्ति । ननु स्थानानामसंख्येयभागे यवमध्यमुक्तम् , तदत्र कः प्रतिभागः? इति चेत्, उच्यते-पल्योपमासंख्येयभागमात्रः । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ठाणाणं पलिदोवमस्स असंखेजज्जदिभागपडिभागे जवमझ। इति । भावार्थः पुनरयम्सकलानि स्थानानि पल्योपमाऽसंख्येयभागेन विभक्तव्यानि । ततो लब्धैकभागप्रमाणानि स्थानान्युल्लवय यवमध्यं प्राप्यते, तस्योपरि विशेषहीनक्रमेण निर्लेपिताः समयप्रबद्धा भवन्ति, यवमध्यतश्च स्थानानामसंख्योयतमभागे गते द्विगुणहीना भवन्ति, पुनस्तावत्प्रमाणेषु स्थानेषु व्रजितेषु द्विगुणहीना भवन्ति, एवं द्विगुणहीना द्विगुणहीनास्तावदभिधातव्याः, यावच्चरमस्थानम् । ___ अथ नानाद्विगुणहानिस्थानानि वक्तुकामोऽभिधत्ते-'णाणंतराणि' इत्यादि, 'नानान्तराणि नानाप्रकराणि अन्तराणि-द्विगुणवृद्धिद्विगुणहानिरूपाणि मध्यगतानि स्थानानि, अयं भावः-एकैकेन प्रदेशेन शेषीभूतेन निर्लेपिताः समयप्रबद्धाः स्तोका भवन्ति,ततोद्वाभ्यांद्वाभ्यांप्रदेशाभ्यां शेषीभताभ्यां निर्लेपिता विशेषाधिका भवन्ति, एवं विशेषाधिकक्रमेणाऽनन्तेषु स्थानेषु गतेषु द्विगुणवृद्धा भवन्ति, इदं चाद्यं विगुणवृद्धिस्थानम्, तस्यौका शलाका स्थाप्या, ततः पुनस्तावत्सु स्थानेषु व्यतिक्रान्तेषु पुनर्द्विगुणवृद्धा भवन्ति, इदं च द्वितीयं द्विगुणवद्धिस्थानम्, तस्यैका शलाका स्थाप्या। एवंक्रमेण यावन्ति द्विगुणवृद्धिस्थानानि लभ्यन्ते, तावत्यः शलाकाः स्थाप्याः, ततो यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेणाऽनन्तेषु स्थानेषु गतेषु समयप्रबद्धा द्विगुणहीना भवन्ति, इदं च प्रथम द्विगुणहानिस्थानम्, तस्यैका शलाका स्थापयितव्या । ततः पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषुगतेषु द्वितीयं द्विगुणहानिस्थानम्,तस्य द्वितीयका शलाका स्थाप्या । एवंक्रमेण यावन्ति द्विगुणहानिस्थानानि भवन्ति,तावत्यश्शलाकाः स्थाप्याः। द्विगुणवृद्धिस्थानानां स्थापितसर्वशलाका द्विगुणहानिस्थानानां च स्थापितसर्वशलाका मिलित्वा यावत्यः शलाका भवन्ति, तावन्ति नानान्तराणि भवन्ति । तानि प्रमाणतः कति भवन्ति ? इत्यत आह-'पल्लस्य' इत्यादि, 'पल्यस्य' पल्योपमस्य 'छेदनकाऽसंख्यभागमात्राणि' अर्धच्छेदनकानामसंख्येयभागप्रमाणानि भवन्ति । उक्तच कषायप्राभृतचूर्णी"अंतराणि अंतरविदाए पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिभागो।” इति । 'तो' Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] aarसेढी [ गाथा-- १५४ इत्यादि, 'ततो' नानाद्विगुणहानिस्थानेभ्य 'एकान्तरमनन्तगुणं' द्वयोर्द्विगुणवृद्ध यो गुणहान्योर्वैकस्मिन्नन्तराले यानि स्थानानि तान्यनन्तगुणानि 'श्रुते' कषायप्राभृतचूर्ण्यादिलक्षणे 'खल’ निश्चयेन 'भणितं ' प्ररूपितानि । तथाहि - नानागुणहानिस्थानानि पल्योपमाऽर्धच्छेदनकानामध्यसंख्येयभागप्रमाणानि भवन्ति । तानि स्तोकानि, ततो द्वयोर्द्वगुणवृद्ध योर्द्वगुणहान्योर्वै काऽपान्तरालवर्तीनि स्थानान्यनन्तगुणानि भवन्ति । यदभिहितं कषायप्राभृतचूण - णाणंतराणि थोवाणि । एक्कं तरमणंतगुणं ।” इति । ननु तेषामनन्तगुणत्वं कुतः सिध्यति ? इति चेद्, शृणुत - सकलानि स्थानान्यनन्तानि भवन्ति तानि च नानाद्विगुणहानिस्थानलक्षणपल्योपमार्धच्छेदन का संख्येयभागेन विभज्यन्ते, तदैकभागमात्राणि द्वयोर्द्विगुणवृद्धयोर्द्वगुणहान्योर्वैकाऽन्तरालवर्तीनि स्थानानि प्राप्यन्ते, तानि चाऽनन्तानि, अनन्तराशेः पल्योपमार्धच्छेदन काऽसंख्येयभागेन विभाजितत्वात् । इह नानागुणहानिस्थानानि स्तोकानि, असंख्येयत्वात् । तेभ्यो द्वयोर्द्वगुणवृद्धयोर्द्विगुणहान्योर्वै काऽपान्तरालवतीनि स्थानान्यनन्तगुणानि, प्रमाणतोऽनन्तत्वात् । एवं भवबद्धानामपि यवमध्यादिप्ररूपणा कर्तव्या, विशेषाभावात् ।। १५३ ।। अथ समयबद्धानां भवबद्धानां च निरन्तरनिर्लेपनकालं प्ररूपयति एगसमइयो ऽणुसमयणिल्लेवणकालगो पहूओ ईओ । आलिअसंखंसे दुगुणूणो आवलिअसंखभागो जेट्टो ॥ १५४ ॥ ( आर्यागीतिः ) एकसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालः प्रभूतोऽतीतः । आवलिका संख्यांशे द्विगुणोन आवलिकाऽसंख्यभागो ज्येष्ठः || १५४ || इति पदसंस्कारः । 'एग०' इत्यादि, एकसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालः प्रभूतो 'अतीतो' व्यतिक्रान्तः । एतदुक्तं भवति - अनुसमयनिर्लेपनकालो नाम समयबद्धानां भगवद्धानां वा निरन्तरनिर्लेपनकालः । स च जघन्यत एकसमयप्रमाणो भवति । उभयोः पार्श्वयोस्ते स्थिती उदितः, ययोः समयबद्धा वा भवबद्धा वा न निर्लेप्यन्ते, मध्ये चैकस्यामुदयमानस्थित्यामेकसमयमात्र्यां निर्लेप्यन्ते स एकसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकाल उच्यते, एवमुभयोः पार्श्वयोस्ते स्थिती अनुभूयेते, ययोः समयप्रबद्धा भववद्धा वा न निर्लेप्यन्ते, मध्ये च द्वयोर्निरन्तरस्थित्योर्निर्लेप्यन्ते, स द्विसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकाल उच्यते, एवमेकोत्तरवृद्धया निरन्तरमनुसमयनिर्लेपन काल उत्कृष्टत आवलिका संख्येयभागप्रमाणो लभ्यते । तत्रैकस्याऽक्षपकस्याऽतीतकाल एकसामयिकः समयप्रवद्धानां भववद्धानां वाऽनुसमयनिर्लेपन कालः प्रभूतो 'अतीतो' व्यतिक्रान्तः, अक्षपकस्याऽतीतकाले द्वयोः पार्श्वयोरनिर्लेपनस्थित्योरुदयो जातः, मध्ये चैका निर्लेपनस्थितिरुदेति स्म, पुनः कदाचिद् द्वयोः पार्श्वयोरनिर्लेपनस्थित्योरुदयो जातः, मध्ये चैका निर्लेपनस्थितिरुदेति स्म । एवं पुनः पुनर्लब्धः समुदितोऽ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१३ क्षपकाक्षपकयोरनुसमयनिर्लेपनकालः] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः ऽनन्तसमयप्रमाण एकसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकाल: प्रभृतः । ततो द्विसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालो विशेषहीनः, ततस्त्रिसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालो विशेषहीनः । एवंक्रमेण आलिअसंखंसे' त्ति'आलिकाऽसंख्यांशे' आवलिकाऽसंख्येयभागे 'द्विगुणोनो' द्विगुणहीनः। इदमुक्तं भवति-प्रथमस्थानत आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेष्वेकसामयिकनिर्लेपनकालतो द्विगुणहीनो ज्ञेयः, ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु द्विगुणहीनो बोध्याः । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु द्विगुणहीनो ज्ञेयः । एवंक्रमेण तावद्वाच्यम्, यावच्चरमस्थानम् । नानाद्विगुणहानिस्थानान्यावलिकाऽसंख्येयभागमात्राणि भवन्ति, सकलस्थानानामप्यावलिकाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । क्षपकस्याऽपीत्थमेवाऽनुसमयनिर्लेपनकालः प्ररूपयितव्ययः । तथाहि-एकसामयिकः समयप्रबद्धानां भवबद्धानां वाऽनुसमपनिलेपनकालः प्रभृतः, स चाऽतीतकाले नानाक्षपकापेक्षयाऽनन्तसमयप्रमाणः, एकक्षपकं त्वाश्रित्याऽऽचलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणो ज्ञातव्यः, ततो विशेषहीनो द्विसामयिकः समयप्रबद्धानां भववद्धानां वाऽनुसमयनिर्लेपनकालः, सोऽपि नानाक्षपकापेक्षयाऽनन्तसमयप्रमाणः, एकक्षपकं तु प्रतीत्याऽऽचलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणः । एवं विशेषहीनक्रमेण गच्छनावलिकाऽसंख्येयभागिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालो द्विगुणहीनो भवति । स च नानाक्षपकापेक्षयाऽनन्तसमयप्रमाणः, एकक्षपकाऽपेक्षया त्वावलिकाऽसंख्येयभागप्रमाणः । प्रत्यपादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"खवगस्स वाअक्खवगस्स वा समयप्रबद्धाण भवबहाणं अणुसमयणिल्लेवणकालो एगसमइओ बहुगो । दुसमइओ विसेसहोणो । एवं गंतूण आवलियाए असंखेजदिभागे दुगुणहोणो।" इति । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणहीनो भवति । नानाद्विगुणहानिस्थानान्यावलिकाऽसंख्येयभागमात्राण्यावसेयानि, सर्वेषां स्थानानामावलिकाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । अथोत्कृष्टोनुसमयनिर्लेपनकालं भणति-"आव०' इत्यदि, तत्र ज्येष्ठः' उत्कृष्टःक्षपकस्याक्षपकस्य वाऽनुसमयनिर्लेपनकाल आवलिकाऽसंख्येयभागो ज्ञातव्यः, नाधिकः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“उकस्सओ वि अणुसमयणिल्लेवणकालो आवलियाए असंखेजदिभागो ।" इति ॥१५४॥ अथाऽनिर्लेपनस्थितिभिरन्तरितनिर्लेपनस्थितीनामुदयेन निर्लेपितानां समयप्रबद्धानां भवबद्धानां चाऽल्पबहुत्वमक्षपकस्याऽतीतकालमाश्रित्याऽभिधित्सुराह एगसमयंतरेणं अप्पा णिल्लेवियक्खणपबद्धा। कमसो अहिआ दुगुणा पल्लासंखेजभागम्मि ॥१५५॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] aarसेढी जवमज्झं ठाणअसंखेजड़भागे तहेव भववद्धा । गुरु पिल्लेवण अंतरमसंखभागो उ पल्लस्स ॥ १५६ ॥ एकसमयान्तरेणाऽल्पा निर्लेपितक्षणप्रबद्धा: । क्रमशोऽधिका द्विगुणाः पल्या संख्येयभागे ॥ १५५ ।। यवमध्यं स्थानाऽसंख्येयतमभागे तथैव भवबद्धाः खलु । गुरु निर्लेपनान्तरमसंख्यभागस्तु पल्यस्य || १५६ || इति पदसंस्कारः | 'एग०' इत्यादि, एकसमयान्तरेण 'निर्लेपितक्षणप्रबद्धाः ' निर्लेपितसमःप्रबद्धाः 'अल्पा : ' स्तोकाः । इदमुक्तं भवति - अक्षपकस्याऽतीतकाले द्वयोः पार्श्वयोरेकैकाऽनिर्लेपनस्थितिरुदेति, मध्ये चैकस्यां वाऽनेकासु वोदयमानासु निर्लेपनस्थितिषु यावन्तः समयप्रबद्धा निर्लेपिताः, ते गणयितव्याः, ततः पुनद्वयोः पार्श्वयोरेकैकाऽनिर्लेपन स्थितिरुदेति, मध्ये चोदयमानासु निर्लेपनस्थितिषु यावन्तः समयप्रबद्धा निर्लेपिताः, ते गणयितव्याः । एवं पुनः पुनरेकैकाऽनिर्लेपनस्थित्यन्तरेण निर्लेपिताः सर्वे समुदिताः समयबद्धाः स्तोका भवन्ति, ते च नानाकर्माऽवस्थानकालाऽपेक्षयाऽनन्ताः, एककर्माऽवस्थानकालं त्वाश्रित्याऽसंख्येया भवन्ति । [ गाथा - १५५-१५६ 'कमसो' इत्यादि क्रमशो 'अधिकाः' विशेषाधिका भवन्ति । इदमुक्तं भवति - एकसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रवद्धतोऽतीतकाले द्विसमयान्तरेण निर्लेपिताः समयबद्ध विशेषाधिका भवन्ति । तथाहि - अतीतकाले द्वयोः पार्श्वयोद्वे द्वेोऽनिर्लेपनस्थिती उदितः मध्ये चैकस्यामने - कासु वोदयमानासु निर्लेपनस्थितिषु निर्लेपिताः समयवद्धा विशेपाविका भवन्ति, ते च नानाकर्माऽवस्थानकालापेक्षयाऽनन्ताः, एककर्माऽवस्थानकालं त्वाश्रित्याऽसंख्येयाः । एवमग्रे ऽपि वक्तव्यम् | आधिक्यं चैकसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रवद्धान् पल्योपमाऽसंख्येयभागेन भक्त्वैकखण्डेन ज्ञातव्यम्, पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणत्वात् । ततो द्विसमयान्तरेण निलेंपितसमय प्रबद्ध तस्त्रिसमयान्तरेण निर्लेपिताः समयप्रवद्धा विशेषाधिकाः, ततश्चतु समयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रवद्धा विशेषाधिकाः । एवंक्रमेण पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणा भवन्ति । तदेवाह - - ' दुगुणो' इत्यादि, तत्र 'पल्यासंख्येयभागे' पल्योपमस्याऽसंख्येयभागे गते 'द्विगुणा: ' द्विगुणवृद्धा भवन्ति । अयम्भावः - अतीतकाले द्वयोः पार्श्वयोः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्र्योऽनिर्लेपनस्थितय उदयन्ति मध्ये चोदयमानासु निर्लेपनस्थितिषु निर्लेपिताः समयप्रबद्धा एकसमयान्तरेण निर्लेपितसमयबद्धतो द्विगुणा भवन्ति । ते च नानाकर्माऽवस्थानका - लापेक्षयाऽनन्ताः, एककर्माऽवस्थानकालं त्वाश्रित्यासंख्येपा भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमासंख्येयभागे गते निर्लेपिताः समयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति । एवमसंख्यातेषु द्विगुणवद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते, तदभिधित्सुराह - 'जवमज्झं' इत्यादि, यवमध्यं 'स्थानाऽसंख्येयतमभागे' सर्वस्थानानामसंख्येयतमे भागे गते भवतीति शेषः । भावार्थः पुनरयम् - सकलानि स्थानानि Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसमयेन निर्लेपितभवसमयप्रबद्धाः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३१५ पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणानि भवन्ति, उत्कृष्टतो निर्लेपनान्तरस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् । तत्र सकलस्थानानामसंख्येयतमभागमात्रेषु स्थानेषु गतेषु यवमध्यं प्राप्यते । ततो यवमध्यस्योपरि समयोत्तरक्रमेण वृद्धसमयान्तरेण निलेपितसमयप्रबद्धा विशेषहीना विशेषहीना भवन्ति, पल्योपमाऽसंख्येयभागे च गते द्विगुणहीना भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमासंख्ययभागे ब्रजिते द्विगुणहीना भवन्ति । एवंक्रमेणाऽसंख्येयद्विगुणहानिस्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । __तहेव' इत्यादि, 'तथैव' यथैकसमयाद्यन्तरेण निर्लेपितसमयप्रबद्धा विशेषाधिकक्रमेण निरूपिताः,पल्योपमाऽसंख्येयभागे च गते द्विगुणा दर्शिताः, तथैव भवबद्धा अपि बोध्याः, स्थानानां चाऽसंख्येयतमभागे यवमध्यं ज्ञातव्यम् । यदभ्यधायि कषायप्राभृतचूर्णी-"अखवगस्स एगसमएण अंतरेण णिल्लेविदा समयपबद्धा वा भवबडा वा थोवा, दुसमएण अंतरेण णिल्लेविदा विसेसाहिया, एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागे दुगुणा । ठाणाणमसंखेजदिभागे जवमझं ।" इति । अथ चरमस्थानस्य स्पष्टप्रतिपत्तये भणति-गुरु' इत्यादि, 'गुरु' उत्कृष्ट निर्लेपनाऽन्तरमसंख्यभागस्तु पल्यस्य भवति, उत्कृष्टतोऽप्यक्षपकस्याऽनिर्लेपनस्थितयः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणा एव निरन्तरमुदयन्ति, एताभ्योऽधिका अनिर्लेपन स्थितयो न संभवन्तीत्यर्थः । तथा चोक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-"उक्कस्सं पि पिल्लेवणंतरं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।” इति। क्षपकस्य तूत्कृष्टतोऽप्यनिर्लेपन स्थितय आवलिकाऽसंख्येयभागमिता निरन्तरमुदयन्ति, ताभ्योऽधिकाः, तेन क्षपकस्योत्कृष्ट निलेपनाऽन्तरमावलिकाऽसंख्येयभागप्रमितं भवति ॥१५५-१५६॥ ___ अथैकसमयेन निलेप्यमानभवसमयप्रबद्धान् निर्लेपितभवसमयप्रबद्धानां चाल्पबहुत्वं व्याजिहीर्ष राहसमयम्मि पहुडि इगओ पल्लासंखंसखणभवपबद्धा। णिल्लेविज्जन्ति इगेगेणं पिल्लेविया थोवा ॥१५॥ कमसो अहिआ पल्लअसंखंसम्मि दुगुणा तहा जवमझं । णाणंतरेहि एगंतरछेयणयाइ खलु असंखगुणाई॥१५८॥ (आर्यागीतिः) समये प्रभृत्येकतः पल्यासंख्यांशक्षणभवप्रबद्धाः । निर्लेप्यन्त एकैकेन निर्लेपिताः स्तोकाः ।। १५७ ।। क्रमशो-ऽधिकाः पल्याऽसंख्यांसे द्विगुणास्तथा यवमध्यम् । नानान्तरेभ्य एकान्तरच्छेदनकानि खल्वसंख्यगुणानि ॥ १५८ ॥ इति पदसंस्कारः । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] [ गाथा - १५७-१५८ वा 'समये' इत्यादि, 'समये' एकवचननिर्देशाद् एकस्मिन् समये 'एकतः' प्रत्यासच्या एकसमयबद्धादेकभवप्रबद्धाच्च प्रभृति पल्यासंख्यांशक्षण भवप्रबद्धाः ' पल्योपमाऽसंख्येव भागप्रमाणाः समयबद्धा भववप्रद्धा निर्लेप्यन्ते । इदमुक्तं भवति - एकस्मिन् समय एकः समयबद्ध निर्लेप्यते, एवमेकस्मिन् समये द्वौ समयप्रबद्धौ भववद्धौ वा निर्लेप्यतः, एवमेकोत्तरवृद्धया तावद् वक्तव्यम्, यावदेकस्मिन् समये पल्योपमाऽसंख्यात भाग प्रमिताः समयप्रबद्धा भवबद्धा वा निर्लेप्यन्ते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "एक्करेण समएण पिल्लेविज्जंति समयपबडा वा भवबडा वा एक्को वा, दो वा तिष्णि वा उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।” इति । arrat 'इगेगेणं' इत्यादि, अतीतकालयेकस्मिन् समययेकैकेन निर्लेपिताः 'स्तोकाः' अल्पाः समयबद्धा भवबद्धा वा भवन्ति । क्रमशो 'अधिका: ' विशेषाधिका भवन्ति । इदमत्र हृदयम् - एकसमये एकसमयबद्ध एकभवप्रबद्धो वा निर्लेपितः, अन्यस्मिन्नेकसमये पुनरेकसमयप्रबद्ध एकभवबद्धो वा निर्लेपितः । अनेन क्रमेणाऽतीतकाल एकैकसमयप्रवद्धा एकैकभववद्धा वा यावन्तो निर्लेषिताः, ते सर्वेऽनन्तराशिप्रमाणा भवन्तोऽपि स्तोका भवन्ति । तत एकसमये द्विसमयबद्धा द्विविद्धा वातीतकाले निर्लेपिता विशेषाधिका भवन्ति, आधिक्यं च प्रागुक्तपदं पल्योपमासंख्येयभागेन खण्डयित्वैकखण्डप्रमाणेन ज्ञातव्यम् । ततोऽप्येकसमये निर्लेपिता स्त्रित्रि समयप्रबद्वास्त्रित्रिभवप्रश्रद्धा वा विशेषाधिका भवन्ति । यदवादि कषायप्राभृतचूणौं – “एक्केकेण पिल्लेविज्जति, ते थोवा, दोण्णि णिल्लेविज्जंति विसेसाहिया । तिष्णि णिल्लेविज्जति विसेसाहिया ।" इति । एवं विशेषाधिकक्रमेण गच्छन्तः पन्योपमाऽसंख्येयतमभागे गते द्विगुणा भवन्ति, इदञ्च प्रथमं द्विगुणवृद्धिस्थानम् । ततः पुनः पल्योपमा - ऽसंख्येय मागे गते द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं लभ्यते । ततः पुनः पल्योपमा - 5-संख्येयभागे गते तृतीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं प्राप्यते । एवंक्रमेण पल्योपमा ऽसंख्येयभागप्रमाणेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु त्रजितेषु यवमध्यं प्राप्यते । तदेव दर्शयति- 'पल्ल० ' इत्यादि, 'पल्यासंख्यांशे' पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते 'द्विगुणा: ' एकस्मिन् समये निर्लेपिता समयबद्धा भवप्रश्रद्धा वा द्विगुणा भवन्ति, 'तथा यवमध्ये ' पल्योपमाs - संख्येयभागे च गते यवमध्यं भवतीति शेषः । अयम्भावः - प्रथमस्थानतः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गत एकसमये निर्लेपितेभ्य एकैकसमयप्रवद्वेभ्य एकैकमा प्रबद्धेभ्यश्च यथाक्रमं तत्प्रायोग्यपल्योपमाऽसंख्येयभागमिता एकसमये निर्लेपिताः समयबद्धा भवप्रवद्धाश्च द्विगुणा भवन्ति । उक्त ं च कषायप्राभृतचूण - " एवं गंतॄण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे दुगुणा । " इति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्वितीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं लभ्यते । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे व्यतिक्रान्ते तृतीयं द्विगुणवृद्धिस्थानं प्राप्यते । एवमसंख्यातेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यवमध्यं जायते । यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेण वक्तव्याः, I पल्यो . Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपकमाश्रित्य त्रयोदशपदानामल्पबहुत्वम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३१७ पमाऽसंख्येयभागे च गते द्विगुणहीना निगदितव्याः । एवं द्विगुणहीना द्विगुणहीनास्तावदभिधातव्याः, यावद् यवमध्यस्याऽवस्तनस्थानेभ्योऽसंख्यातगुणेषु स्थानेषु गतेषु चरमस्थानं प्राप्यते । अथाऽल्पबहुत्वमभिधत्ते-'णाणंतरेहि' इत्यादि, 'नानान्तरेभ्यो' नानाप्रकारेभ्योऽन्तरेभ्यो द्विगुणवृद्धिहानिरूपेभ्यो मध्यगतेभ्यः स्थानेभ्यो नानाद्विगुणवृद्धिहानिस्थानेभ्य इत्यर्थः, 'एकान्तरच्छेदनकानि'द्वयोगुिणहान्योर्द्विगुणवृद्धयोकाऽन्तरे स्थितानां स्थानानामर्धच्छेदनकान्यसंख्यगुणानि भवन्ति । न्यगादि च कषायप्राभूतचूर्णी-“णाणंतराणि थोवाणि, एकंतरच्छेदणाणि वि असंखेजगुणाणि ।” इति । इदन्त्ववधेयम्-नानाद्विगुणवृद्धिहानिस्थानेभ्यो द्विगुणहानिस्थानाऽन्तरार्धच्छेदनकानामप्यसंख्येयगुणत्वाद् द्वयोर्द्विगुणहान्योदिगुणवृद्धयोर्वेकाऽपान्तरालवतीनि स्था- . नानि सुतरामसंख्यातगुणानि सिध्यन्ति । तानि च पल्योपमप्रथमवर्गमूला-ऽसंख्येयभागमितानि, अनन्तरवक्ष्यमाणगाथाय एकसमयेन निर्लेपितसमयप्रबद्धतः पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्या-ऽसंख्येयगुणत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् ॥१५७-१५८॥ अथाऽक्षपकस्य त्रयोदशपदानामल्पबहुत्वमभिधातुकाम आहजेट्ठोऽणुसमयणिल्लेवणकालोऽप्पो तओ इगे समये । णिल्लेविया उ भवबद्धा तत्तो य समयपबद्धा ॥१५९॥ तो खणपबद्धसेसयरहियठिई ताउ वग्गमूलं य । पल्लस्स तो पसगुणहाणिठाणंतरं तत्तो ॥१६०॥ भवबद्धाणं णिल्लेवणठाणाइं कमा असंखगुणाई। समयपबद्धाणं पिल्लेवणठाणाणि उण विसेस हिआई ॥१६१॥ (आर्यागीतिः) अणुसमयअवेयणकालोऽसंखगुणो उ खणपबद्धस्स । अंतो कम्मठिईए तोऽणुसमयवेयणअनेहो ॥१६२॥ ताउ अवेयणकालो सब्वो तो सव्वगो उ वेयणकालो । कमसो य असंखगुणो तो कम्मठिई विसेसअहिआ होज्जा ॥१६३॥ (आर्यागोतिः) ज्येष्ठोऽनुसमयनिर्लेपनकालोऽल्पस्तत एकस्मिन् समये । निर्लपितास्तु भवबद्धास्तेभ्यश्च समयप्रबद्धाः ॥१५९।। तेभ्यः क्षणप्रबद्धशेषक-रहितस्थितयस्ताभ्यो वर्गमूलश्च । पल्यस्य ततः प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरं ततः ॥१६०॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] खवगसेढी [गाथा-१५९-१६३ भवबद्धानां निर्लेपनस्थानानि क्रमादसंख्यगुणानि । समयप्रबद्धानां निर्लेपनस्थानानि पुनर्विशेषाधिकानि ॥१६१॥ अनुसमयाऽवेदनकालोऽसंख्यगुणस्तु क्षणप्रबद्धस्य । अन्तः कर्मस्थित्यास्ततोऽनुसमयवेदनाऽनेहाः ॥१६२।। तस्मादवेदनकालः सर्वस्ततः सर्वस्तु वेदनकालः । क्रमशश्वाऽसंख्यगुणस्ततः कर्मस्थितिर्विशेषाधिका भवति ॥१६३।। इति पदसंस्कारः । 'जेट्ठो' इत्यादि, 'ज्येष्ठः' उत्कृष्टोऽनुसमयनिर्लेपनकालो 'अल्पः' स्तोकः, स च समयप्रबद्धानां भवप्रबद्धानां वा ग्राह्यः, स पुनः प्रमाणत आवलिकाऽसंख्येयभागमात्रो भवति । 'क्रमा असंखगुणाई' ति 'क्रमादसंख्यगुणानि' वक्ष्यमाणानि षट्पदानि क्रमादसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि । तद्यथा-तओ' इत्यादि, 'ततः' उत्कृष्टाऽनुसमयनिर्लेपनकालत एकस्मिन् समये निलपितास्तु भवबद्धा असंख्योयगुणा भवन्ति, पल्योपमाऽसंख्योयभागप्रमाणत्वात् । न चाऽयं हेतुरसिद्ध इति वाच्यम् , एकस्मिन् समय उत्कृष्टतः पल्योपमाऽसंख्योयभागमात्राणां भवबद्धानां निर्लेपनस्य प्राक्प्ररूपितत्वात् । 'तत्तो य' इत्यादि, तेभ्यश्चैकसमये निलंपितभवबद्धेभ्य एकस्मिन् समये निर्लपिताः समयप्रबद्धा असंख्येयगुणा भवन्ति । एतेऽपि पल्योपमऽसंख्येयभागप्रमाणा भवन्ति, किन्त्वेकस्मिन् भवबद्धे निर्लेप्यमानेऽसंख्येवसमयप्रबद्धा निलेप्यन्ते, जघन्यतोऽप्येकभवबद्धेऽन्तमुहर्तमात्राणां समयप्रबद्धानां संभवात् । तेन पूर्वपदतोऽसंख्यातगुणमिदं पदं सिध्यति । 'तो' इत्यादि, 'तेभ्यः' एकस्मिन् समये निलंपितसमयप्रबद्धतः 'क्षणप्रबद्धशेषकरहितस्थितयः' समयप्रबद्धशेषकैविरहिता असामान्यलक्षणा निरन्तराः स्थितयोऽसंख्यातगणा भवन्ति, एता अपि पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणाः, किन्त्वेकसमये निलेपितसमयप्रबद्धतोऽसंख्येयगुणाः पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्य चाऽसंख्येभागमायो भवन्ति, एताभ्यो वर्गमूलस्याऽसंख्योयगुणत्वात् । एतासां पल्योपमा-ऽसंख्योयभागमात्रत्वं च चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमगाथायाष्टीकायामसामान्यस्थितिप्ररूपणावसरे प्राक्प्रतिपादितम् । _ 'ताउ' इत्यादि, 'ताभ्यः' समयप्रबद्धशेषकविरहिताभ्यः स्थितिभ्यः ‘पल्यस्य' पल्योपमस्य वर्गमूलं' प्रथमवर्गमूलमसंख्यातगुणं भवति, सुगममेतद् । ततः प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरमसंख्योयगुणम् , असंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणत्वात् । तथाहि बन्धसमयेऽवाधाकालादूर्ध्व प्रथमस्थितिस्थाने यद् दलं निषिञ्चति, ततो विशेषहीनं दलं द्वितीयस्थितिस्थाने निषिञ्चति । ततोऽपि विशेषहीनं तृतीयस्थितिस्थाने निषिञ्चति । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् निषिञ्चति,यावच्चमस्थितिस्थानम् । तत्र प्रथमस्थानतः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्र स्थानेषु गतेषु प्रथमस्थानापेक्षया दलं द्विगुणहीनं भवति । ततः पुनरेतावत्सु स्थानेषु गतेषु दलं द्विगुणहीनं भवति । एवं तावद् Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षपकमाश्रित्य त्रयोदशादानामल्पबहुत्वम ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३१९ वाव्यम् , यावच्चरमस्थानम् । इह विवक्षितस्थानतो यावत्सु स्थानेषु गतेषु दलं दिगुणहीनं भवति, तावन्ति स्थानानि प्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तरमुच्यन्ते, तच्चाऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणम् । यदुक्तं पञ्चसंग्रहटीकायाम्--"एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे यानि निषेकस्थानानि, तानि असंख्येयगुणानि, तेषामसंख्येयानि पल्योपमवर्गमूलानि परिमाणं इति कृत्वा ।" इति । ततो भवबद्धानां निर्लेपनस्थानान्यसंख्येयगुणानि भान्ति । एतान्यप्यसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमितानि प्राक्प्ररूपितानि, किन्तु पूर्वतोऽसंख्येयगुणानि बोद्धमानि । ततः पुनः समयप्रवद्धानां निर्लेपनस्थानानि विशेषाधिकानि भवन्ति, आधिक्यं चाऽन्तमुहर्तसमयराशिमात्रेण ज्ञातव्यम् । कथमेतदवगन्तव्यम् ? इति चेत् , उच्यते-समयप्रबद्धानां जघन्यनिर्लेपनस्थानतोऽन्तमुहूर्तप्रमाणानि निर्लेपनस्थानान्युल्लङ्घय भवबद्धानां जघन्यं निर्लेपनस्थानं प्राप्यते, चरमनिर्लेपनस्थानं त्वेकत्र । तेन भवबद्धनिर्लेपनस्थानतः समयप्रबद्धनिर्लेपनस्थानान्यन्तमुहूर्तप्रमाणनिर्लेपनस्थानैरधिकानि भवन्ति । ततः कस्थित्या अन्तर-मध्ये कर्मावस्थानकालाभ्यन्तर इत्यर्थः, "क्षणप्रवद्धस्य' एकवचननिर्देशाद् एकसमयप्रबद्धस्याऽनुसमयाऽवेदनकालस्तु तुशब्दस्य भिन्नक्रमत्वेनाऽत्र योजनाद्, 'असंख्यगुणः' असंख्येयगुणो भवति । कर्माऽवस्थानकालस्य प्रथमसमये सञ्चितसमयबद्धस्य बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणं निरन्तरवेदनकालं व्यतिक्रम्य यत्र वा तत्र वा कर्नाऽवस्थानकालाभ्यन्तरे निरन्तरमवेदनकाल उत्कृष्टतोऽसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणो लभ्यते, उद्वर्तनाऽपवर्तनावलेनोत्कृष्टतो निरन्तरमेतावतां निरुक्तसमयप्रबद्धविशिष्टनिषेकाणां शून्यत्वसम्पादनात् । स च निरुक्तसमयप्रवद्धस्याऽनुसमयावेदनकाल उच्यते, परिमाणतश्चाऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणो भवति, किन्तु पूर्वपदतोऽसंख्येयगुणो भवतीति ज्ञाप्यतेऽनेनाल्पबहुत्वेन । अथ वक्ष्यमाणानां त्रयाणां पदानामसंख्येयगुणत्वं भवतीति प्रकटयितुकामः प्राह-'तो' 'इत्यादि, 'खणपबद्धस्स' इत्यनुवर्तते, 'ततः' कर्मावस्थानकालाभ्यन्तरे निरन्तरावेदनकालतः 'अनुसमयवेदनानेहा' अनेहःशब्दः कालवाचकः, यदुक्तमभिधानचिन्तामणौ-"स्यात् काल: समयो दिष्टानेहसौ सर्वमूषकः ।" इति । कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरयेकसमयप्रबद्धस्य निरन्तरवेदनकालोऽसंख्यगुणो भवतीत्यर्थः । एकस्मिन् समये बद्धप्रदेशसमूहो बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायामसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणं कालं निरन्तरं वेद्यते, तावान् कालः समयप्रबद्धस्याऽनुसमयवेदनकाल उच्यते, स चाऽ-संख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्रो भवन् पूर्वतोऽसंख्यातगुणो भवति । ताउ' इत्यादि, 'तस्मात् कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तर एकसमयप्रबद्धस्य निरन्तरवेदनकालात् सर्वोऽवेदनकालोऽसंख्यगुणो भवति । अयं भावः-एकसमयप्रबद्धो बन्धावलिकाऽतिक्रमेऽसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलमानं कालं यावनिरन्तरं वेद्यते, ततः कदाचिद् वेद्यते, कदाचिन वेद्यते । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] aarसेढी | गाथा - - १५९-१६३ ar कर्मावस्था कालाभ्यन्तरे सान्तरनिरन्तरस्वरूपेण यावन्तं कालं न वेद्यते, समुदितस्तावान् कालः सर्वाऽवेदनकालो भण्यते, पूर्वपदतथाऽसंख्यातगुणो भवति । सोऽप्यसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलमात्रो भवति । 1 'तो' इत्यादि, 'ततः' कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरयेकसमयबद्धस्य सर्वाऽवेदनकालतः 'सर्वस्तु वेदनकाल:' कर्मा-वस्थान कालाभ्यन्तर एकसमयप्रबद्धस्य सर्वो वेदनकालोऽसंख्यगुणो भवति । इदमुक्त' भवति - एकसमयप्रबद्धो बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां निरन्तरं पल्योपमाऽसंख्येयभागं यावद् वेद्यते, तत एकसमयतः प्रभृति समयोत्तरवृद्धिक्रमेणोत्कर्षतः पल्योपमाऽसंख्येयभागं यावन्न वेद्यते । ततः पुनर्निरुक्तसमयप्रबद्धः समयोत्तरवृद्धिक्रमेणोत्कृष्टतो निरन्तरं पल्योपमाऽसंख्येयभागं यावद् वेद्यते । ततः पुनरेकादिसमयैरन्तरयित्वा वेद्यते, एवं कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे यावन्तं कालं निरुक्तसमयबद्ध वेद्यते, समुदितस्तावान् कालः सर्ववेदनकाल उच्यते, पूर्वपदतश्चाऽसंख्या - तगुणो भवति, स च कर्माऽवस्थान कालस्य बहुसंख्येय भागप्रमाणो बोद्धव्यः, पूर्वपदस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रत्वेन कर्माऽवस्थानकालाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् अस्माच्च पदात् कर्मावस्थानकालस्य विशेषाधिकत्वात् । 'तो' इत्यादि, 'ततः' कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे समयबद्धस्य सर्ववेदनकालात् 'कर्मस्थितिः' कर्माऽवस्थानकाललक्षणा स्थितिर्विशेषाधिका भवति । निरुक्तसमयबद्धस्य सर्ववेदनकालः सर्वाऽवेदनकालश्वोभौ मिलित्वा कर्मावस्थानकालो भवतः । अथ निरुक्तसमयबद्धसर्वावेदनकालस्य सर्ववेदनकालाऽसंख्येयभाग प्रमाणत्वात् कर्माऽवस्थान कालः सर्ववेदनकालतः सर्वाऽवेदककालेन विशेषाधिको भवति । प्रत्यपादि च कषायप्राभृतचूर्णी - "अप्पाबहुअं(१) सव्वत्थोवमणुस मयणिल्लेवणकंडयमुक्कस्सयं । (२) जे एगसमएण पिल्लेविनंति भवबडा, ते असंखेज्जगुणा । (३) समयपबडा एगसमएण पिल्लेविज्जंति असंखेज्जगुणा । (४) समयपबडसेसएण विरहिदाओ णिरंतराओ हिंदीओ असंखेज्जगुणाओ । (५) पलिदोवमवग्गमूलमसंखेज्जगुणं । (६) णिसेगगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । (७) भवबडाणं णिल्लेवणद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । (८) समयपबsti पिल्लेवणाणाणि विसेसाहियाणि । (९) समयपबडस्स कम्मट्ठदोए अंतो अणुसमयअवेदगकालो असंखेज्जगुणो । (१०) समयपबडस्स कम्मद्विदीए अंतो अणुसमयवेदगकालो असंखेज्जगुणो । (११) सब्वो अवेदगकालो असंखेज्जगुणो । (१२) सव्वो वेदगकालो असंखेज्जगुणो । (१३) कम्मट्ठिदी विसेसाहिया । " इति ।। १५९ - १६० - १६१-१६२-१६३ ।। ? Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभव्यप्रायोग्यप्ररूपणाश्रितयन्त्रकम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३२१ . अभव्यप्रायोग्यप्ररूपणामाश्रित्य यन्त्रकम् (१) निर्लेपनस्थानानि (अ) निर्लेपनस्थानानि पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमितानि भवन्ति । (गाथा-१४७ ) (ब) मतान्तरेण तु कर्माऽवस्थानकालबह्वसंख्येयभागमात्राणि भवन्ति । ( गाथा-१४७ ) (२) एकजीवमाश्रित्य निर्लेपनस्थानेषु निर्लेपितसमयप्रबद्धानां व्यतिक्रान्तकालाल्पबहुत्वम्(१) अतीतकाले जघन्यनिर्लेपनस्थाने निर्लेपितसमयप्रबद्धानां व्यतिक्रान्तः कालोऽल्पः । (गाथा-१४८-१४९) (२) ततोऽतीतकाले द्वितीयनिर्लेपनस्थाने निर्लेपितसमयप्रबद्धानां व्यतिक्रान्तः कालो विशेषाधिकः । (३) ततोऽतीतकाले तृतीयनिर्लेपनस्थाने निर्लेपितसमयप्रबद्धानां व्यतिक्रान्तकालो विशेषाधिकः । एवं विशेषाधिकक्रमेण ताबद्वक्तव्यम् , यावद् यवमध्यम् । यवमध्यस्योपरितन उत्तरोत्तरनिर्लेपनस्थाने व्यतिक्रान्तः कालो विशेषहीनक्रमेण तावद्गच्छति, याव. दुत्कृषनिर्लेपनस्थानम् । परम्परोपनिधया तु जयन्यनिर्लेपनस्थानतः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते व्यतिक्रान्तकालो द्विगुणो भवति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते व्यतीतः कालो द्विगुणो भवति । एवं तावद्वाच्यम् , यावद् यवमध्यम् । तस्योपरि पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणहीनो भवति, ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणहीनो भवति । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावदुत्कृष्ठनिर्लेपनस्थानम् ।। (३) अल्पबहुत्वम्(१) नानाद्विगुणहानयः स्तोकाः, ताश्च पल्योपमाऽर्धच्छेदनकाऽसंख्येयभागप्रमाणाः । ( गाथा--१५० ) (२) ताभ्यो द्विगुणहान्यरन्तरमसंख्येयगुणम् ।। (४) एकजीवमाश्रित्य भवबद्वाऽपेक्षया प्ररूपणम्समयप्रबद्धवद् भवबद्धानप्याश्रित्य वक्तव्यम् , नवरं समयप्रबद्धस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानतोऽन्तमुहूर्तप्रमाणेषु स्थानेषु गतेषु भवबद्धस्य जघन्यनिर्लेपनस्थानं प्राप्यते । (गाथा-१५१) (५) एकादिप्रदेशैनिर्लेपितभवसमयप्रबद्धानामल्पबहुत्वम्(१) एकप्रदेशेन निर्लेपिताः समयप्रबद्धाः स्तोका भवन्ति । ( गाथा--१५२) (२) द्वाभ्यां प्रदेशाभ्यां निर्लेपिताः समयप्रबद्धा विशेषाधिका भवन्ति । (३) त्रिभिः प्रदेशैर्निर्लेपिताः समयप्रबद्धा विशेषाधिका भवन्ति । ___ एवं विशेषाऽधिकक्रमेण तावद्वक्तव्यम् , याद् यवमध्यम् । यवमध्यस्योपर्येकोत्तरवृद्धथापनप्रदेशैनिर्लेपितसमयप्रबद्धा विशेषहीनक्रमेण तावद् गच्छन्ति, यावच्चरमस्थानम् । अथ परम्परोपनिधयाऽ-ल्पबहुत्वम्-- एकप्रदेशेन निर्लेपितसमयप्रबद्धतः सकलस्थानासंख्येयभागे गते निर्लेपितसमयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति, ततः पुनस्तावत्स्थानेषु गतेषु निर्लेपितसमयप्रबद्धा द्विगुणा भवन्ति । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावद् यवमध्यम् । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] खवगसेढी [अभव्यप्रायोग्यप्ररूपणाश्रितयन्त्रकम् यवमध्यस्योपरि सकलस्थानाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणहीना भवन्ति, पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषु गतेषु द्विगुणहीना भवन्ति । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावच्चरमस्थानम् । एवं भवबद्धा अपि बोध्याः। (६) अल्पबहुत्वम्(१) तत्र नानाऽन्तराणि स्तोकानि । ( गाथा--१५३) (२) तत एकान्तरमनन्तगुणम् । (७) अतीतकालयेकजीवमाश्रित्याऽनुसमयनिर्लेपनकालाल्पबहुत्वम्(१) एकसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालः सर्वप्रभूतः । (गाथा--१५४ ) (२) ततो द्विसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालो विशेषहीनः । (३) ततस्त्रिसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालो विशेषहीनः । (४) ततश्चतुःसामयिकोऽनुसमयनिर्लेपनकालो विशेषहीनः । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावदावलिकाऽसंख्येयभागः । परम्परोपनिधयाऽल्पबहुत्वम्-एकसामयिकाऽनुसममनिर्लेपनकालत आवलिकाऽसंख्येयभागे गतेऽनुसमयनिर्लेपनकालो द्विगुणहीनो भवति । ततः पुनरावलिकाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणहीनो भवति । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावच्चरमस्थानम् । (८) एकादिसमयान्तरेण निर्लेपितभवसमयप्रबद्धानामल्पबहुत्वम्-- (१) एकसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रबद्धाः स्तोकाः ( गाथा--१५५--१५६ ) (२) ततो द्विसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रबद्धा विशेषाऽधिकाः । (३) ततस्त्रिसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रबद्धा विशेषाऽधिकाः । एवमेकोत्तरवृद्ध्यापन्नसमयान्तरेण निर्लेपिताः समयप्रबद्धा विशेषाधिकक्रमेण तावद्वक्तव्याः, यावद् यवमध्यम् । ततो यवमध्यस्योपर्येकोत्तरवृद्धयापन्नसमयान्तरेण निर्लेपितसमयप्रबद्धा विशेषही मक्रमेण गच्छन्ति, यावच्चरमस्थानम् । तत्र प्रथमस्थानतः पल्योपमा-ऽसंख्येयभागमात्रस्थानेषु गतेष्वेकं द्विगुणवृद्धिस्थानं प्राप्यते । पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषुगतेषुद्विगुणवृद्धिस्थानंलभ्यते। एवमग्रेऽपि। सर्वस्थानानाञ्चाऽसंख्येयभागे यवमध्यं प्राप्यते । तत एकोत्तरवृद्धयापन्नसमयान्तरेण निर्लेपिताः समयप्रवद्धा विशेषहीनक्रमेण गच्छन्ति, पल्योपमासंख्येयभागमात्रस्थानेषु च गतेषु द्विगुणहीना भवन्ति, पुनस्तावन्मात्रेषु स्थानेषु गतेषु द्विगुणहीनाः । एवं तावद् वाच्यम् , यावच्चरमस्थानम् । एवं भवबद्धा अपि बोध्याः। (९) एकसमये निर्लेपितभवसमयप्रबद्धाः-- एकसमये जघन्यत एकसमयप्रबद्धो एकभवबद्धो वा निर्लेप्यते । उत्कृष्टतः पुनरेकसमये पल्यो - - - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभव्यप्रायोग्यप्ररूपणाश्रितयन्त्रकम् ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः पमाऽसंख्येयभागमिताः समयप्रबद्धा भवप्रबद्धा वा निर्लेप्यन्ते । ( गाथा-- १५७ ) अनन्तरोपनिधयाऽल्पबहुत्वम् (१) एकसमय एकैकेन निर्लेपिताः समयप्रबद्धाः स्तोकाः । (२) तत एकसमये द्वाभ्यां द्वाभ्यां निर्लेपिताः समयप्रबद्धा विशेषाधिकाः । (३) तत एकसमये त्रिभिस्त्रिभिर्निर्लेपिताः समयप्रबद्धा विशेषाधिकाः । एवमेकोत्तरवृद्धया निर्लेपिताः समयप्रश्रद्धा विशेषाधिकक्रमेण तावद् वाच्याः, यावद् यवमध्यम् । यवमध्यस्योपरि विशेषहीनक्रमेण तावद्वाच्यम्, यावच्चरमस्थानम् । परम्परोपनिधयाऽल्पबहुत्वम् -- एकसमययेकैकेन निर्लेपितेभ्यः समयप्रबद्धेभ्यो भवबद्धेभ्यो वैकसमये निर्लेपिताः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राः समयप्रबद्धा भवबद्धा वा द्विगुणा भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमा - संख्येयभागे गते द्विगुणा भवन्ति । ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुणा भवन्ति । एवं क्रमेणा संख्येयेषु द्विगुणवृद्धिस्थानेषु गतेषु यत्रमध्यं प्राप्यते । यवमध्यस्योपरि पल्यो माऽसंख्येयभागे गते द्विगुणहीना भवन्ति, ततः पुनः पल्योपमाऽसंख्येयभागे गते द्विगुगहीना भवन्ति, एवं तावद्वाव्यम्, यावच्चरमस्थानम् । (१०) अल्पबहुत्वम् (गाथा-- १५९-१६३) (१) अनुसमयनिर्लेपनकालः स्तोकः । (२) तत एकसमयेन निर्लेप्यमाना भवबद्धा असंख्यगुणाः । (३) तत एकसमयेन निर्लेप्यमानाः समयप्रबद्धा असंख्यगुणाः । (४) ततः समयप्रबद्धशेषक-विरहिता निरन्तरस्थितयोऽसख्येयगुणाः । (५) ततः पल्योपमस्य वर्गमूलमसंख्ये यगुणम् । (६) ततः प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरमसंख्ये यगुणम् (७) ततो भवबद्धानां निर्लेपनस्थानान्यसंख्ये यगुणानि । (८) ततः समयप्रबद्धानां निर्लेपनस्थानानि विशेषाधिकानि । (९) ततः कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे समयप्रबद्धस्याऽनुसमयाऽवेदनकालोऽसंख्यगुणः । (१०) ततः कर्माऽस्थानकालाभ्यन्तरे समयप्रबद्धस्याऽनुसमयवेदन कालोऽसंख्यगुणः । (११) ततः कर्मावस्थानकालाभ्यन्तरे समयप्रबद्धस्य सर्वोऽवेदन कालोऽसंख्येयगुणः । (१२) ततः कर्माऽवस्थानकालाभ्यन्तरे समयप्रबद्धस्य सर्ववेदन कालोऽसंख्येयगुणः । (१३) ततः कर्माऽवस्थानकालो विशेषाधिकः । [ ३२३ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढी [ गाथा - १६४ पञ्चविंशत्यधिकशततमगाथायां द्वादशसंग्रह किट्टीनामुपरितनीरसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीर्घातयतीत्युक्तम् । अथ क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेरवान्तरविट्टयः केन क्रमेण कति च द्विचरमसमयं यावद् घातिता भवन्ति ? इति शङ्कामपनेतुमाह- ३२४ ] जा दुरिमसमयमसंखगुणूणकमेण कोहपढमाए । नट्टा किट्टी पढमखणाबंधअसंखभागपमिया ता ॥ १६४ ॥ ( गीतिः ) यावद् द्विचरमसमयमसंख्यगुणोनक्रमेण क्रोधप्रथमायाः । ser: यः प्रथमक्षणाऽबन्धाऽसंख्यभाग प्रमितास्ताः || १६४ || इति पदसंस्कारः । 'जा' इत्यादि, यावद् 'द्विचरमसमयं क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्वाया उपान्त्यस्मयम् 'असंख्यगुणोनक्रमेण' असंख्येय गुणहीनक्रमेण 'क्रोधप्रथमायाः' क्रोधप्रथम संग्रह किट्टयाः 'किट्टयः' अवान्तरकियो 'नष्टाः' नाशं प्राप्ताः । परिमाणतः सर्वविनष्टावान्तरकिवयः कति भवन्ति ? इत्यत आह - 'पढम ० ' इत्यादि, 'प्रथमक्षणाबन्धाऽसंख्य भाग प्रमिताः' क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयवर्तिबन्धविरहिताऽवान्तर किट्ट्यसंख्येय भागप्रमाणाः 'ताः ' क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयप्रभृतिद्विचरमसमयपर्यवसानेषु समयेषु विनष्टाः समुदिताः सर्वा अत्रान्तरकिट्टयो भवन्ति । इदमुक्त भवति - किट्टिवेदनाद्धा प्रथमसमये क्रोधप्रथम संग्रह किया उपरितन्योऽसंख्येयभागमिता अवान्तरकियोऽनुसमया - ऽपवर्तनाचलेन विनाशयति, ताश्च प्रभूता भवन्ति । प्रथमसमय तो द्वितीये समसंख्य गुणहीना विनाशयति, ततोऽपि तृतीय समयेऽसंख्येय गुणहीना विनाशयति । न चोत्तरोत्तरसमये विशुद्धेरनन्तगुणत्वादवान्तरकिट्टीनां नाशोऽसंख्येयगुणहीनक्रमेण कुतो जायते ? इति वाच्यम्, तथास्वाभाव्यात् । ततोऽपि चतुर्थसमयेऽसंख्येयगुणहीना अवान्तरकिट्टी नाशयति एवमसंख्येयगुणहीनक्रमेण तावक्तव्यम्, यावत्क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्वायाद्विचरमसमयः । चरमसमये तु समयोनावलिकाद्व्यबद्धनूतनावान्तर किट्टीरावलिकामात्रप्रथमस्थितिगताऽवान्तरकिट्टी वर्जयित्वा निखिलाः क्रोधप्रथम संग्रह किट्टवान्तरवििट्टयो नाश्यन्ते, तेन यावद् द्विचरमसमय इत्युक्तम् । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णो- “किट्टीओ जाओ पढमसमये विणासि - ज्जति, ताओ बहुगोओ। जाओ विदियसमये विणासिज्जंति, ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ । एवं ताव दुचरिमसमयअविणटुकोहपटमसंगहकिट्टी ति ।" इति । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये यावत्यः क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टेरवान्तरकियो न बध्यन्ते, तासामसंख्येयभाग प्रमिता एवाऽवान्तरकिट्टयः क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्धाद्विचरमसमयं यावद् विनाशिताः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ - "एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेीओ सव्वकट्टीसु पढम (विदिय) समयवेदगस्स कोधस्स पढमकिट्टीए अबज्झमाणियाणं कट्टणमसंखेज्जदिभागो ।” इति । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२५ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः यथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया अवान्तरकिट्टीनां विनाशक्रमो दर्शितः, तथैव शेषाणामप्येकादशसंग्रहकिझ्यवान्तरकिट्टीनां प्रतिसमयं विनाशक्रमस्तावदवगन्तव्यः, यावत्स्वस्ववेदनकालस्य द्विचरमसमयः ॥ १६४ ॥ पूर्वोक्तविधानेन क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टि वेदयन् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां समयाऽधिकाऽऽवलिकाशेषायां च प्रवर्तमानपदार्थान् निरुरूपयिषुः संग्रहगाथया सर्वासां संग्रहकिट्टीनां स्वस्वप्रथमस्थितौ द्वथावलिकाशेषायां समयाधिकावलिकाशेषायां च प्रवर्तमानपदार्थान् दर्शयति-- वेइज्जताइठिईअ दुआवलिसेसयाअ आगालो। छिण्णो खणुत्तरावलिसेसाअ जहण्णुदीरणाऽन्तुदओ ॥१६५।। (गीतिः) वेद्यमानादिस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालः । । छिन्नः क्षणोत्तराऽऽवलिकाशेषायां जघन्योदीरणाऽन्तोदयः ॥१६५॥ इति पदसंस्कारः । 'वेइज्ज०' इत्यादि, 'वेद्यमानादिस्थितौ' या संग्रहकिट्टिद्यते, तस्याः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालः 'छिन्नो' व्यवच्छिन्नो भवति, तथा 'क्षणोत्तरावलिकाशेषायां वेद्यमानसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकाऽऽवलिकाशेषायां 'जघन्योदीरणा' जघन्यस्थित्युदीरणा 'अन्तोदयः' चरमोदयश्च जायते । अथाऽस्याः संग्रहगाथाया अर्थः प्रस्तुतमनुसृत्य परिभाव्यते-क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूप आगालो व्यवच्छिद्यते । समयाधिकावलिकाशेषायां च क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । तथाहि-क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकाऽऽवलिकाशेषायां प्रथमस्थितिचरमनिषेकत उदये दलं प्रक्षिपतः क्षपकस्य क्रोधस्य जघन्या स्थित्युदीरणा जायते । न च द्वितीयस्थितित उदीरणा कुतो न जायते ? इति वाच्यम् , प्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेष आगालस्य व्यवच्छिन्नत्वात् । तथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयाश्चरमोदयो भवति । ततः परं तस्या उदयो न प्रवर्तते, क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टया उदयात् । उक्तं च कषायप्राभृतौँ -"कोहस्स पढमकिहिं वेदयमाणस जा पढमहिदी, तिस्से पढमहिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए एदम्हि समये जो विही, तं विहिं वत्तइस्सामो । तं जहा-ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो ठिदिउदीरगो। कोहपढमकिट्टीए चरिमसमयवेदगो जादो।" इति । एवमग्रेऽपि वेद्यमानक्रोधद्वितीयादिसंग्रहकिट्टीनां प्ररूपणा यथावसरं कर्तव्या ॥ १६५ ॥ अथ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये सप्तानां कर्मणां स्थितिबन्धं व्याजिही राहअंतोमुहुत्तहीणा बंधो मोहस्स सयदिणा घाईणं । अंतोमुहुत्तहीणा दसवासा संखवासपमिओऽनाणं ॥१६६॥ (आर्याशीतिः) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] खवगढी अन्तर्मुहूर्तहीना बन्ध मोहस्य शतदिना घातिनाम् । अन्तर्मुहूर्तहीना दशवर्षाः सङ्ख्यवर्षप्रमितोऽन्येषाम् ॥ १६६ ॥ इति पदसंस्कारः । 1 'अंतो० ' इत्यादि, तत्र क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकाऽऽवलिकाशेपायां 'मोहस्य' संज्वलनचतुष्कस्य 'बन्धः ' स्थितिबन्धः अन्तर्मुहूर्तहीनाः शतदिना भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ —“चदुसंजलणाणं ठिदिबंधो वे मासा चत्तालीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तणा ।" इति । भावार्थः पुनरयम् - किट्टिवेदना प्रथमसमये संज्जलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धातुर्मासिक आसीत्, स क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमयेऽन्तर्मुहूर्त्त न्यूनशतदिवसमात्रो जायते । इत्थं क्रोधप्रथम संग्रह किट्टवेदनकाले स्थितिबन्धस्याऽन्तर्मुहूर्ताधिकविंशतिदिनैर्हानिर्जाता । युक्तियुक्तैषा, त्रैराशिकेन साधितत्वात् । तथाहि-- क्रोधवेदनाद्वायाश्चरमसमये स्थितिबन्धो द्वैमासिको भविष्यति यः क्रोवप्रथम संग्रह किट्टिवेदनप्रथमसमये चातुर्मासिक आसीत् । तेन क्रोधसंग्रह कित्रियवेदनकाले द्विमासप्रमितो मोहस्य स्थिति etra | यदि क्रोधसंग्रह कित्रियवेदन काले स्थितिबन्धो द्विमासप्रमाणो हीयते, तर्ह्येकस्याः क्रोधसंग्रहकिट्ट्या वेदनकाले कियान् स्थितिबन्धो हीयेत ? इति त्रैराशिकमवलम्ब्य प्रमाणकलमिच्छया गुणयित्वा प्रमाणेन विभज्यते, तदा स्थितिबन्धस्य हानिर्लभ्यते । प्रमाणमत्र संग्रह किट्टित्रिक वेदनकालः, प्रमाणफलं मासद्विकमिच्छा चैकसंग्रहकिट्टिवेदनकालः । तेन प्रमाणफलं षष्टिदिवस लक्षणमिच्छयैकलक्षणया गुण्यते, तदा षष्टिर्लभ्यते, सा पुनस्त्रिकरूपेण प्रमाणेन विभज्यते, तदा लब्धा विंशतिर्दिवसाः । न्यासः - प्रमाणम् प्रमाणफलम् इच्छा इच्छाफलम् ३। २ मासौ । १ । २० दिवसाः [ गाथा- १६६ इत्थं त्रैराशिकेन विंशतिदिनमितः स्थितिबन्धः क्रोधस्यैकैक संग्रह किट्टिवेदनकाले परिहातव्यः, किन्तु क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिकालतस्तृतीयसंग्रह किट्टिवेदनकालतञ्च क्रोधप्रथम संग्रह कट्टि - वेदकालस्य विशेषाधिकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वादन्तर्मुहूर्ताधिकविंशतिदिन प्रमाणो हीयते क्रोधप्रथमसंग्रहfagaraat | कोवस्य द्वितीय संग्रह किट्टिवेदनकाले तृतीय संग्रह किट्टिवेदनकाले च यथासंभवमन्तर्मुहूर्तन्यूनविंशतिदिनैः स्थितिबन्धो हीयते । 'घाई' इत्यादि, 'घातिकर्मणां मोहनीयस्योतत्वाज्ज्ञानावरण-दर्शनावरण -ऽन्तरायाणामित्यर्थः, स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तहीना दशवर्षा भवति । किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमये यः स्थितिबन्धः संख्यातवार्षिक आसीत्, स इदानीमन्तमुहूर्त न्यूनदशवर्षाप्रमाणो जायत इत्यर्थः । प्रतिपादितं च कषायप्राभृतचूर्णी- “तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो दसवस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि ।” इति । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये स्थितिसत्ता ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३२७ 'संख०' इत्यादि, तत्र 'अन्येषां' नाम-गोत्र-वेदनीयलक्षणानामघातिकर्मणां स्थितिबन्धः 'संख्यवर्षप्रमितः' संख्यातसहस्रवर्षमात्रो भवति । किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये-ऽघातिकर्मणां स्थितिबन्धः संख्यातवार्षिकोऽभवत् , ततः संख्यातेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयेऽपि संख्यातसहस्रवर्षप्रमाण एव भवति, नवरमसौ किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबन्धतः संख्येयगुणहीनो भवति । ॥१६६॥ अथ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये सप्तानामपि कर्मणां स्थितिसत्त्वमभिधत्तेसंतं मोहस्संतोमुहुत्तहीणअडमासहिअछद्दा । घाइअघाईण कमा संखासंखवरिसा णेयं ॥१६७॥ सत्त्वं मोहस्याऽन्तर्मुहूर्तहीनाऽष्टमासाधिकषडब्दाः । घात्यघातिनां क्रमात् सङ्ख्याऽसङ्घयवर्षा ज्ञेयम् ।।१६७।। 'संत' इत्यादि, तत्र क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये 'मोहस्य' संज्वलनचतुष्कस्य 'सच' स्थितिसत्त्वम् 'अन्तमुहूर्तहीनाष्टमासाधिकषडब्दाः' अन्तमुहूर्तन्यूनाष्टमासाधिकषड्वर्षा भवति । अत्राऽब्दशब्दो हि वर्षवाचकः, “स संपर्यनूभ्यो वर्ष हायनोऽब्दं समा शरत्" इति हेमीयवचनात् । “अब्दो वर्षे दरस्त्रासे” इति लिङ्गानुशासनवचनाच पुस्त्वम् । भावार्थः पुनरयम्किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये संज्वलनचतुष्कस्य यत् स्थितिसत्त्वमष्टवार्षिकमासीत्, तत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमयेऽन्तमुहूर्तन्यूनाऽष्टमासाऽधिकषड्वर्षप्रमितं भवति । इत्थमन्तमुहूर्ताधिकषोडशमासैः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकाले मोहनीयस्थितिसत्त्वस्य हानिर्जाता । सा च युक्तियुक्ता, राशिकेन साधितत्वात् । तथाहि-क्रोधवेदनाद्धायाश्चरमसमये स्थितिसत्त्वं चतुर्वर्षप्रमितं भविष्यति, यत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयेऽष्टवार्षिकमासीत् । तदेवं क्रोधसंग्रहकिट्टित्यवेदनकाले स्थितिघातैश्चतुर्वर्षमात्रं स्थितिसचं घात्यते । यदि क्रोधसंग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले चतुर्वर्षप्रमितं स्थितिसत्त्वं घात्यते, तोकस्याः क्रोधप्रथमसंग्रहकिटेर्वेदनकाले कियत् स्थितिसचं घात्येत ? इति प्रमाणफलमिच्छया गुणयित्वा प्रमाणेन विभज्यते, तदेच्छाफलं चतुर्मासाधिकवर्षप्रमाणं प्राप्यते । न्यासः- प्रमाणम् प्रमाणफलम इच्छा इच्छाफलम् ३। ४ वर्षाणि। १। चतुर्मासाधिकवर्षः । इत्थं त्रैराशिकेन चतुर्मासाधिकवर्षप्रमाणं स्थितिसत्वं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकाले घातयितव्यम् , परं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालतस्तृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालतश्च क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालस्य विशेषाधिकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् तत्रा-ऽन्तर्मुहूर्ताधिकषोडशमासप्रमाणं स्थितिसत्त्वं घात्यते । शेषयोस्तु द्वयोः संग्रहकिट्टयोर्वेदनकाले यथायोग्यमन्तमुहूर्तन्यूनषोडशमासप्रमितं स्थितिसत्त्वं घातयिष्यते । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] खवगसेढी [गाथा-१६७ 'घाइअघाईण' इत्यादि, 'पात्यघातिना ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां नाम-गोत्र-वेदनीयानां च कर्मणां स्थितिसचं क्रमेण सङ्ख्याऽसङ्ख्थवर्षा भवति । किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये घातिकर्मणां सङ्ख्यातवर्षमितमघातिकर्मणां चाऽसङ्ख्यातवर्षमितं स्थितिसत्वमासीत् , ततः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकाले संख्यातेषु स्थितिघातेष्वतिक्रान्तेष्वपि घातित्रयस्य स्थितिसचं संख्यातवर्षाण्यघातित्रयस्य चा-ऽसंख्यातवर्षाणि विद्यते, किन्तु यथाक्रम संख्येयगुणहीनमसंख्येयगुणहीनं च भवतीत्यर्थः । उक्तञ्च कषायप्रोभृतचूर्णी-“घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्म संखेजाणि वस्साणि, सेसाणं कम्माणं ठिदिसंतकम्ममसंखजाणि वस्साणि ।" इति । ___क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये क्रोधप्रथमसंग्रहकिटेरुदयसमयाधिकावलिकागतं समयोनद्वथावलिकावद्धं च नूतनं दलं वर्जयित्वा शेषं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसर्वदलं गृहीत्वाऽसंख्येयभागप्रमाणदलं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टितृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु मानप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु च यथासंभवं संक्रमयति । शेषवह्वसंख्येयभागप्रमाणदलतः क्रोधद्वितीयसंग्रहकिटेरधस्तादपूर्वाऽवान्तरकिट्टीनिवर्तयति । इत्थं क्रोधप्रथमसंग्रहकिर्बह्वसंख्येयभागकल्पं दलं संज्वलनक्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टी संक्रमयति । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिसकलदलस्य च त्रयोदशचतुविंशतिभागप्रमाणत्वात् क्रोद्वितीयसंग्रहकिट्टी दलं मोहनीय सकलदलस्य चतुर्दशचतुर्विशतिभागमानं (१४) जायते । इत्थं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टौ दलमितरसंग्रहकिट्टयपेक्षया चतुर्दशगुणं भवति । इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् । एवमवान्तरकिट्टयोऽपि वक्तव्याः । ननु यद्यत्र बह्वसंख्येयभागप्रमितदलमधस्तना-ऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितया परिणम्येत, तर्हि क्रोधद्वितीयसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्ना-ऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानसर्वदलतो-ऽसंख्येवगुणं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमान सर्वदलं स्यात् । तथाऽभ्युपगमे च प्रागुक्तं यत् षट्त्रिंशदुत्तरशततमगाथायाष्टीकायां संग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्ना-ऽपूर्वावान्तरकिट्टियु निक्षिप्तसर्वदलतो-ऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टिष्वसंख्येयगुणं दलं दीयत इति, तेन सह विरोधः स्यादिति, मैवम् , प्राक सर्वदलस्याऽसंख्येयभागमानं दलमपूर्वावान्तरकिट्टितया परिणमयति स्म । इदानीं तु क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रतिबहुदलं तिीयसंग्रहकिट्टितया परिणमयति। तेनाऽवान्तरकिट्टयन्तरेषु निर्वय॑मानास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानदलतोऽसंख्येयगुणं दलं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरे निवर्त्यमानास्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानं भवति । पूर्ववत् क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु दीयमानदलतोऽवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिष्वसंख्येयगुणदलनिक्षेपाभ्युपगमे त्वेकैकस्मिन्नवान्तरकिट्टयन्तरे त्रयोदशाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टयो निष्पादषितव्याः, द्वितीयसंग्रहकिट्टिपुरातनसत्तागतदलतस्त्रयोदशगुणत्वात्क्रोधाथमसंग्रहकिट्टिदलस्य । एकैकस्मिन्नन्तरे त्रयोदशाऽपूर्वावान्तरकिट्टिनित्यभ्युपगमे तु पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेप इत्थं प्रसज्येत Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवाठार किठ्ठयः (रस) क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्धाद्विचरमसमयं यावत् क्रोधसंग्रह किट्टीनां दलिकापेक्षया -ऽवस्थानम् भवान्तर किद्रयः अवान्तर किठ्ठयः (ई) क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिः क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिः क्रो ध प्र थ सं ग्र कि क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये समयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलमुदयावलिकागतं च दलं वर्जयित्वा सर्वदलस्य बहसंख्येयभागमात्रदलं क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टितया परिणमयति । तेन क्रोधद्वितीय संग्रह किट्टिसकलदलं चतुर्दशचतुर्विंशतिभागप्रमाणं (३४) जायते । एवं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिया अत्रान्तरकियो-पि चतुर्दशचतुर्विंशतिभागप्रमाणाः सम्पद्यन्ते । तेनोपरि दर्शितचित्रतो ऽस्मिंश्चित्रे क्रोधद्वितीय किट्टयायाम एकचतुर्विंशतिभागेनाऽधिको दर्शितः । क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिः को od द्वि ती • ठ्ठ य म कि दृ: सं ग्र ह ho ट्टिः कि شش खगढी ] यन्त्रकम् २३ (चित्रम् - २३) [ ३२९ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमयः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३२९ क्रोधद्वितीय संग्रह किट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टितोऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं दलं दत्वा यथोत्तरं द्वादशस्ववान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्ना-ऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु विशेषहीनं दद्यात् । ततः पुनः पूर्वाऽवान्तर किट्ट्यामसंख्येयगुणहीनं प्रक्षिपेत् । ततो ऽपूर्वा ऽवान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं प्रक्षिपेत् । ततः परं यथोत्तरं द्वादशस्ववान्तरविट्ट्यन्तरोत्पन्नापूर्वावान्तरकिट्टिषु विशेषहीनं दलं दद्यादिति स्वीकर्तव्यम्, अन्यथैकगोपुच्छाकारभङ्गः प्रसज्येत । न च कुत्रचिदपि ग्रन्थेऽनेन प्रकारेण दलनिक्षेपविधिर्भणितः, तेन क्रोधद्वितीय संग्रह किट्टेवान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्ना-ऽपूर्वाऽवान्तरकि द्विषु दीयमानदलतः क्रोधाद्वितीय संग्रह कियन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तर किट्टिष्वसंख्येयगुणं दलं दीयमानं भवति । दीयमानदलस्य चा- संख्येयगुणत्वात् क्रोधाद्वितीयसंग्रह किट्टेरवान्तरकिट्ट्यन्तरोत्पन्नाऽपूर्वाऽवान्तर किट्टितः क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टयन्तरेऽसंख्येयगुणा अपूर्वाऽवान्तरकियो निर्वर्त्यते । एवमग्रे ऽपि तत्तत्संग्रह किट्टिवेदन कालचरमसमये यथायोग्यं भावनीयम् । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् - २३ । शेष संग्रह किट्टि प्रदेशसंक्रमस्तु पूर्ववद् भणितव्यः, विशेषाभावात् ॥ १६७॥ पञ्चषष्ट्यधिकशततम पट्षष्ट्यधिकशततमरूपगाथाद्वयं समाश्रित्य यन्त्रकम् - (१) क्रोवप्रथम संग्रहकट्टप्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेष आगालो व्यवच्छिद्यते । ( गाथा - १६५) (२) यदा क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिप्रथमस्थितेः समयाधिकावलिका शेषा भवति, तदा (क) क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा । (गाथा - १६५) (ख) क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेश्चरमोदयः । ( गाथा - १६६) (ग) संज्वलन चतुष्कस्य बन्धोऽन्तर्मुहूर्त न्यूनशतदिवसाः । (घ) शेषघातित्रयस्य स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्त न्यूनदशवर्षाः । (ङ) अघातिकर्मणां स्थितिबन्धः संख्यातवार्षिकः । (च) संज्वलन चतुष्कस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूर्त न्यूनाष्टमासाधिकषड्वर्षाः । (गाथा - १६७) (छ) शेषघातिकर्मणां स्थितिसत्त्वं संख्यातवार्षिकम् । (ज) नामगोत्रवेदनीयानां स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षप्रमितम् । (झ) क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाद्विचरमसमयं यावत् क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयबन्धविरहिताऽवान्तरकिट्टी नाम संख्येयभागमाच्योऽवान्तरकिट्टयो नाश्यन्ते, चरमसमये तूदयसमयाधिकावकागतं समयोद्वावलिकाबद्धनूतनं च दलं वर्जयित्वा शेषं सर्व क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिप्रतिबद्धदलं यथासंभवं क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टितृतीयसंग्रह किट्टिमानप्रथमसंग्रह किट्टितया परिणमयति । क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिचरमोदयं परिपाल्य क्षपको यत्करोति, तदाहसेकाले ओढित्तु बिइकिट्टिं कुणेइ पढमठिहं । ताहे च एव वेयइ बीयं कोहस्स किट्टिं तु ॥१६८॥ अनन्तरकालेऽपकृष्य द्वितीयकिट्टिं करोति प्रथमस्थितिम् । तदानीं चैव वेदयति द्वितीयां क्रोधस्य किट्टि तु || १६८|| इति पदसंस्कारः । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] खगढी [ गाथा-- १६९ 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' क्रोवप्रथम संग्रह कि द्विवेदनाद्वासमाप्तेरनन्तरसमय इत्यर्थः, 'द्वितीयकिहिं' क्रमप्राप्तत्वात् क्रोधाद्वितीयसंग्रह किट्टिमपकृष्य द्वितीयस्थितिस्थितक्रोधद्वितीय संग्रह किट्टिगत प्रदेशाग्रमुत्कीर्येत्यर्थः, उदयसमयादारभ्य द्वितीय संग्रह किट्टिवेदनकालत अवलियाsधिका स्थितिध्वसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' प्रत्यासच्या क्रोधद्वितीयसंग्रहकिद्वयाः प्रथमस्थितिं करोति । उक्तञ्च कषायप्राभूतचूर्णी - " से काले को हस्स विदियकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण कोहस्स पढमट्ठिदिं करेदि” । इति । अष्टादशाऽधिकशततमैकोनविंशत्युत्तरशततमगाथोक्तं स्थितिषु वेद्यमाना वेद्यमान संग्रह किड्डीनां प्रदेशावस्थानमनुभागऽ-वस्थानं चाऽत्रापि भावनीयम् । 'ताहे' इत्यादि, तदानीं चैव क्रोधद्वितीयसंग्रह कि द्विप्रथम स्थितिकरणसमययेव 'द्वितीयां किट्टि' क्रोधस्य द्वितीयां संग्रहकिट्टि तु 'वेदयति' अनुभवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूण“ताधे कोहस्स विदियकिट्टीवेयगो ।” तथैव सप्ततिकाचूर्णावपि - "तम्मि समए बितिकिट्टीओ दलियं उक्कडिदत्तु पढमठितिं करेइ वेदेह य ।" इति ।। १६८ ।। अथ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदन प्रथमसमये क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेः कियद् दलं सत्कर्मणि विद्यते ? इति जिज्ञासायां संग्रहगाथया कथयति — इज्माण की पढमसमम्मि पुव्वकिट्टी | सेसं दुखणूणदुआवलिबद्ध उदय आवलिगयं य ॥ १६९ ॥ ( गीतिः ) वेद्यमान कियाः प्रथमसमये पूर्व कट्टयाः । शेर्पा द्विक्षणोनद्वयावलिकाबद्धमुदयावलिकागतं च ॥ १६९ ॥ इति पदसंस्कारः । 'वेइज्ज०' इत्यादि, 'वेद्यमान कियाः प्रथमसमये' वेद्यमान संग्रह किट्टिवेदनकालप्रथमसमये 'पूर्वकिडया:' वेद्यमान संग्रह कियपेक्षया प्राक्तन संग्रह किद्वयाः 'शेष' अवशिष्यमाणप्रदेशाग्रं तु दिक्षणोनद्वयावलिकाबद्धं नूतनमुदयावलिकागतं च भवति, ततोऽन्यद्दलस्यान्यकिट्टितया परिणत्वात् । इह प्रथम स्थितेरुदयावलिकागतं क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिदलं यथाक्रमं स्तिबुकसङ्क्रमेण वेद्यमान संग्रहको संक्रम्य विनाशयति, द्विसम योन यावलिकाबद्धनूतन दलमपि यथागमं वेद्यमान संग्रहको संक्रम्य विनाशयति । यदुक्त' कषायप्राभृतचूर्णी - "जं संगहकिहिं वेदेदृण तदो से काले अणं संगह किहिं पवेदयदि, तदो तिस्से पुव्वसमयवेदिदाए संगह किट्टीए जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा आवलियपविट्ठा च अस्सि समए वेदिज्जमाणिगाए संगह किट्टीए पयोगसा संकमति ।" इति । अथोपयुक्तसंग्रह Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेः शेषदलम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३३१ गाथा प्रस्तुतमाश्रित्य व्याख्यायते - क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिवेदनाद्वाचरमसमये समयोन यावलिकाबद्धनूतनदलं समयाधिकाऽऽवलिकागतं च प्रदेशाग्र मुक्त्वा क्रोधप्रथम संग्रह किट्टयाः सर्वदलं संङ्कान्तम् । अथ क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमये नूतनबद्धदलमपिं यथायोग्यं संक्रमयति, तेन द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलं क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेर्द्वितीयस्थितौ विद्यते । तथा क्रोधप्रथम संग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिरुदयावलिकाप्रमाणाऽवशिष्यते, प्रागुक्तसमयाधिकावलिकात उदयेनैकस्य निषेकस्य क्षीणत्वात् । इत्थं क्रोधप्रथम संग्रह किया द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनद्लमुदयावलिका गतं च दलं क्रोधद्वितीय संग्रहकिट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमये विद्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी"ताधे कोहस्स पढमकिट्टीए संतकम्मं दो आवलियबंधा दुसमयूणा सेसा, जंच उदयावलियं पवि, तं च सेसं पढमकिट्टीए ।” इति । प्रथमस्थितेरुदयाऽऽ-वलिकागतं च दलं क्रमशः स्तिबुकसंक्रमेण वेद्यमानसंग्रह किट्टौ संक्रम्य नाशयति । एवमग्रे ऽपि शेषाणां क्रोधद्वितीय संग्रह किट्टिप्रभृतिलोभद्वितीयसंग्रह किट्टिपर्यवसानानामुदयावलिकागतं दलिकं वेद्य मानसंग्रह किडौ स्तिबुकसंक्रमेण संक्रम्य विनाशयति । यदुक्त सप्ततिकाचूर्णौ सूक्ष्मसम्परायप्ररूपणावसरेअतीयम्मि आवलिया हड्डियाओ, ताओ सव्वत्थ वेतिज्जमाणीसु थिबुगसंक्रमेणं विपच्चति । एसो पुव्वमवक्खाणिओ अत्थो, अओ इयाणि भणितो " इति । श्रीमन्मलयगिरिपादादयस्तु तृतीयसंग्रह किट टेरेवावलिकागतं दलं स्तिबुकसङ्क्रमेण संक्रमयति, प्रथमसंग्रह किट्टिद्वितीय संग्रहकियोस्तु यथास्वं द्वितीय संग्रह किङितृतीय संग्रह कियन्तर्गतं वेद्यत इत्याहुः । तथा च तद्ग्रन्थः -- पूर्वोक्ताश्चावलिकास्तृतीयकिट्टिगताः शेषीभूता अपि वेद्यमानासु परप्रकृतिषु स्तिबुकसङ्क्रमेण सङ्क्रमयति, प्रथमद्वितीयकिट्टिगताश्च यथास्वं द्वितीयतृतीयकयन्तर्गता वेद्यन्ते ।" इति । इदन्तु बोध्यम्-इह निषेकविवक्षया क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टेः समयोनावलिकामात्री प्रथमस्थितिः क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदन प्रथमसमये बोध्या, उदयावलिकागतप्रथमनिषेकदलस्य क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणतत्वात् । कालविवक्षया पुनः क्रोधप्रथम संग्रह किट्टिप्रथमस्थितिरावलिकामात्री, यत उदयनिषेकस्य संक्रान्तत्वेऽपि प्रथमस्थितिचरमनिषेक आवलिकाया अन्ते प्राप्यते, तं निषेकमाश्रित्य कालविवक्षया क्रोधप्रथमसंग्रहकट्टिप्रथमस्थितिरावलिकाप्रमाणा भवति, यथाऽबाधायां दलनिक्षेपाभावेऽपि स्थितिवरमनिषेकमाश्रित्य भण्यते । एवं क्रोधतृतीयादिसंग्रह किट्टिवेदनाद्वाप्रथम समयेऽयमर्थो भावनीयः । ॥ १६९ ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] खवगसेढी [गाथा-१७० क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनप्रथमसमयमाश्रित्य यन्त्रकम् (१) क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायाः प्रथमसमय उदयसमयादारभ्य स्ववेदनकालत आवलिकयाऽधिकायां स्थितौ दलमसंख्येयगुणक्रमेण प्रक्षिप्य क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टयाः प्रथमस्थितिं करोति ।। (२) कालविवक्षयाऽऽवलिकाप्रमाणा निषेकविवक्षया तु समयोनाऽऽवलिकाप्रमाणा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथम स्थितिरवशिष्यते। (३) उदयनिषेकगतं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं द्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणतम् । (४) प्रथमस्थित्यामुदयावलिकागतं द्वितीयस्थितौ च द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलमव शिष्यते। (५) स्थितिषु वेद्यमानाऽवेद्यमानसंग्रहकिट्टीनां प्रदेशावस्थानमनुभागावस्थानं चाऽष्टाधिकशततमैकोनविंशत्युत्तरशततमगाथोक्तमत्राऽपि बोध्यम् । क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमसमयतः प्रभृति स्ववेदनकालचरमसमयं यावत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदकविधिमतिदिदिक्षुराह-- बंधो उदओ णासो संकमणमपुवकिट्टिणिवत्ती। किट्टीअप्पाबहुअं पोसथोवबहुअं य पढमव्व ॥ १७० ॥ (गीतिः) बन्ध उदयो नाशः संक्रमणमपूर्वकिट्टिनिर्वृत्तिः । किट्टयल्पबहुत्वं प्रदेशस्तोकबहुत्वं च प्रथमावत् ।। १७० ॥ इति पदसंस्कारः। 'बंधो' इत्यादि, बन्ध उदयो नाशः संक्रमणमपूर्वकिट्टिनित्तिः किट्टयल्पबहुत्वं प्रदेशाल्पबहुत्वं च 'प्रथमावत्' क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनका लवज्ज्ञातन्यम् । तथाहि-क्रोधद्वितीयसंग्रहकिटेपरितनीरधस्तनीश्वऽसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीवर्जयित्वा शेषा मध्यमाः स्वस्वरूपेणाऽवान्तरकिट्टय उदयन्ति, बध्यन्ते च । तत्रापि बन्धत उदये विशेषाधिका अवान्तरकिट्टयो भवन्ति, तथा बन्धोदययोर्जघन्योत्कृष्टतोऽल्पबहुत्वं गोमूत्रिकया वक्तव्यम् । .. अवान्तरकिट्टिनाशोऽपि प्रथमसंग्रहकिट्टिवद् बोध्यः । इदमुक्त भवति-यथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदकः सर्वसंग्रहकिट्टीनामुपरितनीरसंख्येयभागमिता अवान्तरकिट्टीशियति स्म, तथा क्रोद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदकोऽपि संग्रहकिट्टीनामुपरितनीरसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीविनाशयति । क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदकस्य संक्रमोऽपि क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदकवज्ज्ञातव्यः । तथाहिक्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टी मानप्रथमसंग्रहकिट्टौ च संक्रमयति । क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिदलंमानप्रथमसंग्रहकिट्टावेव संक्रमयति । मानप्रथमसंग्रहकिट्टिदलंमानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी तृतीयसंग्रहकिट्टौ मायायाश्च प्रथमसंग्रहकिट्टी संक्रमयति । मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं मानतृतीय Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्वायां संक्रमादिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३३३ संग्रहकिटौ मायाप्रथमसंग्रहकिट्टौ च संक्रमयति । मानतृतीयसंग्रहकिट्टिदलं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टावेव संक्रमयति । मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टी तृतीयसंग्रहकिट्टौ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टौ च सङ्क्रमयति, मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं तृतीयसंग्रहकिट्टौ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टौ च संक्रमयति । मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टिदलं लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयामेव संक्रमयति, लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिदलं लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ तृतीयसंग्रहकिट्टौ च संक्रमयति । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं लोमतृतीयसंग्रहकिट्टौ संक्रमयति । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिदलं त्वन्यत्र न संक्रमयति, अनानुपूर्वीसंक्रमाऽभावात् । न्यगादि च कषायप्राभूतचूौँ-"एत्थ संकममाणयस्स पदेसग्गस्स विधिं वत्तइस्सामो । तं जहा-कोहविदियकिट्टीदो पदेसग्गं कोहतदियं च माणपढमं च गच्छदि । कोहस्स तदियादो किटोदोमाणस्स पढमं चेव गच्छदि । माणस्स पढमादो किटोदो माणस्स विदियं तदियं मायाए पढमं च गच्छदि। माणस्स विदियकिट्टीदो माणस्स तदियं च मायाए पढमं च गच्छदि । माणस्स तदियकिट्टीदो मायाए पढमं गच्छदि । मायाए पढमादो पदेसग्गं मायाए विदियं तदियं च लोभस्स पढमकिडिं च गच्छदि। मायाए विदियादो किट्टीदो पदेसग्गं मायाए तदियं लोभस्स पढमं च गच्छदि । मायाए तदियादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स पढमं गच्छदि । लोभस्स पढमादो किटोदो पदेसग्गं लोभस्स विदियं तदियं च गच्छदि । लोभस्स विदियादी पदेसग्गं लोभस्स तदियं गच्छदि।" इति । इदमत्राऽवधेयम-"जं संगहकिहि" इत्यादि सप्तविंशत्यधिकशततमगाथाया व्याख्यानात् क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टितः क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टावितरसंग्रहकिट्टयपेक्षया संख्यातगुणं दलं संक्रमयति, शेषाऽल्पबहुत्वं च पूर्ववत् स्वयमेवोहनीयम् , सुगमत्वान्नाभिधीयते । यथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टि वेदयन् संग्रहकिट्टयन्तरेषु निष्पाद्यमानाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितोऽवान्तरकिट्टयन्तरेषु निष्पाद्यमानाऽपूर्वावान्तरकिट्टीरसंख्येयगुणा निवर्तयति स्म, तासु च दलनिक्षेपं करोति स्म, तथैव क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदकोऽपि करोति । संग्रहकिट्टीनां प्रदेशानामवान्तरकिट्टीनां चाऽल्पबहुत्वं प्रथमसंग्रहकिट्टिवेदकवज्ज्ञातव्यम् , नवरमत्रैकादशसंग्रहकिट्टीराश्रित्य प्रदेशानामवान्तरकिट्टीनां चाऽल्पबहुत्वमभिधातव्यम् , तत्राऽपि क्रोधद्वितीयसंग्रहकिटेर्दलमितरसंग्रहकिट्टितः संख्यातगुणं वक्तव्यम् , क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिबह्वसंख्येयभागमात्रदलस्य तत्र प्रक्षिप्तत्वात् । एवमवान्तरकिट्टयोऽपि वाच्याः। तथाहि-मानस्य प्रथमसंग्रहकिट्टी प्रदेशाः स्तोका भवन्ति । ततो विशेषाधिका मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी भवन्ति, आधिक्यं Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] खवगसेढी [ गाथा-१७० च पूर्वपदगतप्रदेशान् पल्योपमाऽसंख्येयभागेन खण्डयित्वैकखण्डेन बोध्यम् । एवमग्रेऽपि स्वस्थाने वक्तव्यम् । ततो विशेषाधिकाः प्रदेशा मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टावभिधातव्याः । ततो विशेषाधिकाः प्रदेशाः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिट्टौ निश्चेतव्याः । आधिक्यं च पूर्वपदगतप्रदेशानावलिकाऽसंख्येयभागेन भक्त्वैकखण्डेन ज्ञातव्यम् । एवमग्रेऽपि परस्थाने वक्तव्यम् । ततो विशेषाधिकाः प्रदेशा मायायाः प्रथमसंग्रहकिट्टी वक्तव्याः । ततो विशेषाधिकाः प्रदेशा मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टी निश्चेतव्याः । ततो विशेषाधिकाः प्रदेशा मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टौ भणितव्याः । ततो विशेषाधिका लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टौ मन्तव्याः। ततोऽपि विशेषाधिका लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टो वाच्याः। ततोऽपि लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ प्रदेशा विशेषाधिका अवगन्तव्याः । ततः सङ्ख्यातगुणाः प्रदेशाः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टी निगदितव्याः, गुणकारश्चात्र चतुर्दशराशिः । तथाहि-लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ मोहनीयदलस्य चतुर्विंशतिभागप्रमाणं दलं विद्यते । क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टावपि स्वदलं मोहनीयसकलदलस्य चतुर्विशतिभागप्रमाणं विद्यते स्म, त्रयोदशचतुर्विशतिभागप्रमाणं च क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयां संक्रमेण प्रक्षिप्तम् , तेन तस्यां चतुर्दशचतुविंशतिभागप्रमितं दलं जायते । तच्चाऽधरतनराशिनकचतुर्विंशतिभागलक्षणेन विभज्यते, तदा गुणकसंख्या चतुर्दश प्राप्यते ।। ____संग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयोऽप्यनेनाऽल्पबहुत्वक्रमेण वक्तव्याः, दलिकानुसारेणैवाऽवान्तरकिट्टिराशिदर्शनात् । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णी-“कोधविदियकिट्टीए पढमसमयवेदगस्स एक्कारससु संगहकिट्टीसु अंतरकिटोणमप्पाबहुअंवत्तहस्सामो । तं जहासव्वत्थोवाओ माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिटोओ, विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिटोओ विसेसाहियाओ, तदियाए गहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ कोहस्स तदियाए संगहकिटीए अंतरकिटीओ विसेसाहियाओ । मायाए पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिटीओ विसेसाहियाओ, विदियाए संगहकिटीए अंतरकिटोओ विसेसाहियाओ, तदियाए संगहकिटोए अंतरकिटोओ विसेसाहियाओ । लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिटीओ विसेसाहियाओ, विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिटीओ विसेसाहियाओ, तदियाए संगहकिटोए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ, कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ संखेज्जगुणाओ । पदेसग्गस्स वि एवं चेव अप्पाबहुअं।” इति ॥१७०॥ ननु क्रोधद्वितीयसंग्रहकिटेर्वेदकस्य बन्धः “पढमव्व” इत्यनेनातिदिष्टः, तत्र क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टि वेदयन् सर्वेषां कषायाणां प्रथमसंग्रहकिट्टि बध्नाति स्म । अत्र किं द्वितीयसंग्रहकिट्टि वेदयन् सर्वेषां द्वितीयसंग्रहकिट्टि बध्नाति ? उताऽस्ति कश्चिद् विशेषः ? इति जिज्ञासायां संग्रहगाथया भणति • Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद्यमान संग्रह किट्टिकाले बन्धः ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः santrata कसायरस अणुहवए तु जं किट्टिं । तं चैव बंधइ पराणं पढमं बंधए न परं ॥ १७१ ॥ [ ३३५ वेद्यमानस्य कपायस्यानुभवति तु यां किट्टिम् । तां चैव बध्नाति परेषां प्रथमां बध्नाति न पराम् || १७१ || इति पदसंस्कारः । 'वेइज्ज० ' इत्यादि, 'वेद्यमानस्य' अनुभूयमानस्य तु 'कपायस्य' क्रोव - मान-माया-लोभानामन्यतमकपायस्य 'यां किट्टि प्रथम संग्रह किट्टिद्वितीयसंग्रह किट्टितृतीयसंग्रह किवीनामन्यतमां यां संग्रहकिट्टिमनुभवति, तां चैव संग्रहकिद्धिं बध्नाति । 'पराणं' इत्यादि, 'परेपाम्' अवेद्यमानक पायाणां प्रथमां संग्रहकिट्टिं बध्नाति, न 'परां' द्वितीय संग्रह किट्टितृतीयसंग्रह किट्टिलक्षणामन्याम् । उक्तञ्च कषायप्राभृतचूर्णो- “जस्स जं किहिं वेदयदि, तस्स कसायस्स तं किहिं बंधदि, सेसाणं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि ।" इति । इयं च संग्रहगाथा । तेन प्रकृतेऽस्याः संग्रहगाथाया व्याख्यानं दर्श्यते - क्रोतिीय संग्रहकहिं वेदयन् क्षपकः क्रोधस्य द्वितीयसंग्रह किट्टि बध्नाति, मानादीनां तु प्रथम संग्रह किटिं बध्नाति । एवमग्रे ऽपि यथास्थानं भावनीयम् । I अनेन विधिना क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टि वेदयतो जीवस्य क्रोधाद्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेपायां 'वेइज्जं ० ' इत्यादि पञ्चषष्ट्यधिकशततमगाथा प्रस्तुतमाश्रित्य व्याख्यायेत । तथा हि- क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टि प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेपायामागालो व्यवच्छिद्यते । अभाणि च कषायप्राभृतचूर्णी - "कोहस्स विदियकिहिं वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी, तिस्से पढ़दिए आवलिय-पडिआवलियाए सेसाए आगाल - पडिआगालो वोच्छिष्णो ।” इति । न च किट्टिकरणात्प्रभृति मोहनीयकर्मण उद्वर्तना न भवतीत्युक्त मेकोत्तरशततमगाथायाम् । तेन प्रस्तुत प्रथमस्थितितो द्वितीयस्थितौ प्रदेशगमनलक्षणस्य प्रत्यागालस्य व्यवच्छेदो व्यर्थः, प्रवृत्तस्यैव विच्छेदस्य न्याय्यत्वादिति वाच्यम्, द्वितीयस्थितितः प्रथमस्थितावपवर्तनया दलिerssanनस्य संभवेन तन्निषेवस्याssवश्यकत्वेनाऽऽगालव्यवच्छेदस्य न्याय्यत्वेन तत्साहचर्यात् पाठमङ्गभयाद्वा चूर्णिकाराणां प्रत्यागालोक्तिसंभवात् । ततः समयोनाऽऽवलिकायां गतायां क्रोधप्रथम संग्रह किट्टि प्रथमस्थितौ समयाऽधिकाऽऽवलिकाशेषायां प्रथमस्थितिचरम निषेतः क्रोधमुदये प्रक्षिपतः क्षपकस्यैक स्थितिप्रमाणा क्रोधस्य जघन्य स्थित्युदीरणा भवति । तदानीं चैव द्वितीयसंग्रह किडिचरमोदयः प्रवर्तते, ततः परं क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिवेदनात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूण - "तिस्से चेव पढमहिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए ताहे कोहस्स विदियकिट्टीए चरिमसमयवेदगो ।" इति ॥ १७१ ॥ 55 समाहितं च जयधवलाकारैरपि जइ वि एत्थ किट्टीकरणद्वापारंभप्पहूडि मोहरणीयस्स उड्डणाभावेरण पढमट्ठिदीदो विदियट्टिदिग्मि पदेससंचारो गत्थि, तो वि विदियट्ठिदोदो पढमट्ठिदीए श्रोडिजमाप देगस्स एन्हिमरणागमणं पेक्खियूरणागालपडिश्रागालवोच्छेदो गिट्टिो |" इति । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवासेढी [गाथा-१७२ - यन्त्रकम् (गाथा-१७०) (१) क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयतः प्रभृति क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टया अधस्तनीरुपरि ___ तनीश्चाऽसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीवर्जयित्वा शेषा अवान्तरकिट्टीबध्नाति वेदयति च । (२) बध्यमानावान्तरकिट्टित उदयमाना अवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति । (३) प्रतिसमयमनुसमयापवर्तनाघातेनोपरितनाऽसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीर्घातयति । (४) क्रोधप्रथमकिट्टिवेदकवत् संग्रहकिट्टयन्तरेष्यवान्तरकिट्टयन्तरेषु चाऽपूर्वावान्तरकिट्टीनियर्त यति । (५) एकादशानां संग्रहकिट्टीनां प्रदेशाल्पबहुत्वमवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वञ्च चतुर्नवतितमादिगाथाभिर्यथाऽ भिहितम् , तथैवा-ऽत्र बोध्यम् , नवरं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितः क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टयाः प्रदेशा ____ अवान्तरकिट्टयश्च संख्येयगुणा वाच्या ।। (६) क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थित्यां द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते। (७) क्रोधद्वितीयसंग्रह कियाः प्रथमस्थितौ समयाधिकाथलिकाशेषायां क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । (८) क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टयाः प्रथमस्थित्यां समयाधिकावलिकाशेषायां क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयाश्चर मोदयः । अथ चरमोदये सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धमभिधित्सुराह चरिमे बंधो मोहस्स देसऊणा दिणा असीई उ। घाईणदपुहुत्तं पराण संखियसहस्सवरिसाइं ॥१७२॥ (गीतिः) चरिमे बन्धो मोहस्य देशोना दिना अशीतिस्तु । घातिनामब्दपृथक्त्वं परेषां संख्यसहस्रवर्षाणि ॥१७२।। इति पदसंस्कारः । 'चरिम' इत्यादि, 'चरमें क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टयु दयचरमसमये क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाऽधिकाऽऽवलिकाशेषायामित्यर्थः, 'मोहस्य' संज्वलनचतुष्कस्य 'बन्धः' 'स्थितिबन्धो' 'देशोनाः' अन्तमुहर्तन्यूना 'अशीतिस्तु' अशीतिसंख्याकास्तु 'दिनाः' दिवसा भवति, क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमयप्ररूपणाऽवसरे द्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले स्थितिबन्धस्याऽन्तमुहर्तन्यूनविंशतिदिनप्रमाणहानेस्त्रैराशिकेन साधितत्वात् । 'घाईण' इत्यादि, घातिनां कर्मणां स्थितिबन्धो 'अब्दपृथक्त्वं' वर्षपृथक्त्वं भवति । अत्र घातिशब्देन ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तराया ग्राह्याः, मोहनीयबन्धस्य पृथगभिहितत्वात् । अयं भावः--मोहनीयस्य स्थितिबन्धो विशेषतो देशोनाऽशीतिदिवसाः प्रोक्तः । इह तु सामान्येन घातिकर्मणां स्थितिबन्ध उच्यते, तेन मोहनीयस्य स्थितिबन्धो देशोनाऽशीतिदिवसा भवति, वर्षपृथक्त्वं तु धातिवचनेन ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां जायते, अन्यथा पृथग मोहनीयस्थितिबन्धविधानस्य वैयर्थ्यं प्रसज्येत । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये घातित्रयस्य Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्वाऽन्ते बन्धसत्ते] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३३७ स्थितिबन्धोऽन्तमुहर्तन्यूनदशवर्षप्रमाण आसीत् , स क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले संख्यातेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये वर्षपथक्त्वमात्रो जायते । __'पराणं' इत्यादि, 'परेषां' त्रयाणामघातिकर्मणां नाम-गोत्र-वेदनीयलक्षणानां स्थितिबन्धः 'संख्यसहस्रवर्षाणि भवति, क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमयतः प्रतिस्थितिबन्धमघातिकर्मणां स्थितिवन्धो हीयमानः सन्निदानीमपि संख्यातसहस्रवर्षप्रमाणो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"ताधे संजलणाणं ठिदिबंधो वे मासा वीसं च दिवसा देसूणा। तिण्हं घादिकम्माणं हिदिबंधो वासपुधत्तं । सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । "इति ॥१७२॥ अथ क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये सप्तानामपि कर्मणां स्थितिसत्चमभिधित्सुराहमोहस्स देसऊणा चउमासऽहिअपणहायणा घाईणं । संखसहस्सवरिसगाइं इयराणं असंखबरिसा संतं ॥१७३॥ (आर्यागीतिः) मोहस्य देशोनाश्चतुर्मासाधिकपञ्चहायना धातिनाम् । सङ्ख्यसहस्रवर्षाणीतरेषामसङ्ख्यवर्षाः सत्त्वम् ॥१७३।। इति पदसंस्कारः। 'मोहस्स' इत्यादि, क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनादायाश्चरमप्तमये 'मोहस्य' संज्वलनचतुष्कस्य सच' स्थितिसत्त्वं चतुर्मासाधिकपञ्चहायनाः' च भिर्मासैरधिकानि पश्चवर्षाणि जायते, क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयप्ररूपणाऽवसरे क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालेऽन्तमुहूतन्यूनपोडशमासैः स्थितिसत्त्वस्य हानेस्त्रैराशिकेन साधितत्वात् । अयं भावः-क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये मोहनीयस्य यस्थितिमत्वमन्तमुहर्तन्यूनाऽष्टमासाधिकषड्वर्षप्रमाणमासीत् , तत् क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालेऽन्तमुहूर्तोनपोडशमासै_नं सदन्तमुहूर्तन्यूनचतुर्मासाऽधिकपञ्चवर्षप्रमाणमिदानीं जायते । _ 'घाईणं' इत्यादि, तथा 'घातिनां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां स्थितिसचं 'सङ्खयसहस्रवर्षाणि' संख्यातसहस्रवर्षप्रमितं विद्यत इति शेषः, 'परेषाम्' अघातिकर्मणां-नामगोत्र-वेदनीयानां स्थितिसचम् 'असंख्यवर्षाः' असंख्यातवार्षिकं विद्यते । क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये घात्यघातिकर्मणां यस्थितिसत्त्वं क्रमेण संख्येयासंख्येयवर्षाग्यासीत् , तत् संख्यातस्थितिघातसहस्र _तितं सत् क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमयाऽपेक्षया घात्यघातिनां क्रमेण संख्येयाऽसंख्येषगुणहीनं भवदपि संख्येयाऽसंख्येयवर्वतो न्यूनं न भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायमाभृतचूण -"संजलणाणं लिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तणा । तिण्हं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्मं संखेन्जाणि वस्ससहस्साणि । णामागोदवेदणोयाणं तकम्ममसंखेजाणि वस्साणि ।" इति । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] [ गाथा- १७४ तथा क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये क्रोधद्वितीयसंग्रह किट टेरुदयसमयाधिकावलिकागतं समयोनयावलिकाबद्धं च नवीनं दलं परित्यज्य शेषं क्रोधद्वितीय संग्रहकट्टेः सर्वं दल गृहीत्वाऽसंख्येयभागप्रमाणदलं क्रोध तृतीयसंग्रह किट्टेर्मानप्रथमसंग्रह किट्टेश्व पूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु यथायोग्यं संक्रमयति । शेषवद्वसंख्येयभागमात्रदलतः क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टरधस्तादपूर्वाऽवान्तरकिट्टीर्निर्वर्तयति । तेन क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिबह्वसंख्येवभागप्रमाणं दल को तृतीयसंग्रह किट्टी संक्रम्यते । इत्थं तस्यां दलं मोहनीयसकलदलस्य पञ्चदशचतुर्विंशतिभागकल्पं ( 23 ) जायते, क्रोधद्वितीय संग्रहकिट्टिसम्बद्धस्य चतुर्दशचतुर्विंशतिभागप्रमाणस्य दलस्य तदानीं तत्तया (= क्रोध तृतीयसंग्रहकिट्टितया परिणतत्वात् । तथा क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टी दलमितर संग्रह कियपेक्षया पञ्चदशगुणं जायते, इतरसंग्रहकिट्टीनां दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं क्रोधतृतीय संग्रहकट्टेरवान्तरकियोsपि बोध्याः || १७३ || aarat यन्त्रकम् (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्त न्यूनाशीतिदिवसाः । (२) शेषघातित्रयस्य स्थितिबन्धो वर्षपृथक्त्वम् । (३) अघातित्रयस्य स्थितिबन्धः संख्ये यवर्षसहस्राणि । (४) मोहनीस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूर्त न्यूनचतुर्मासाधिकाः पञ्च वर्षाः । (५) घातित्रयस्य स्थितिसत्त्वं संख्यातसहस्रवर्षाणि । (६) अघातित्रयस्य स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षाणि । (७) समयाधिको दयावलिकागतदलं समयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदकं च वर्जयित्वाऽसंख्येयभागमात्रं दलं मानप्रथम संग्रह किट्टौ प्रक्षिप्य शेषं क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिबहसंख्येयभागप्रमाणं दलं क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टित्वेन परिणमयति । तेन क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्य पञ्चदशचतुर्विंशतिभागकल्पं ( 2 ) जायते । एवं क्रोध तृतीयसंग्रह किट्टेरवान्तर किट्टयोऽपि वाच्याः । क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनविधिं परिपाल्य तदनन्तरसमये यत्करोति, तद् व्याजिहीर्षु राहसेकाले तइयं किट्टिं ओकड्ढित्तु आइमठिहं उ । कुणe des areव्व य से सपरूवणा या ॥ १७४॥ अनन्तरकाले तृतीयां किट्टिमपकृष्याऽऽदिमस्थितिं तु । करोति वेदयति द्वितीयावच्च शेषप्ररूपणा ज्ञेया || १७४ || इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' क्रोधाद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्वासमाप्तेरनन्तरसमय इत्यर्थः, 'तृतीयां किट्टि ' द्वितीयस्थितिस्थको तृतीय संग्रह किट्टिगत प्रदेशाग्रमपकृष्योदयसमयादारभ्य शेषक्रोधवेदनकालत आवलिकयाऽधिकासु स्थितिष्वसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपन् 'आदिमस्थिति' Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध तृतीयसंग्रह किट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३३९ क्रोध तयसंग्रहकट्टेः प्रथमस्थितिं तु करोति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - " तदो से काले कोहस्स तदिकिट्टीदो पदेसग्गमोक्कड्डियूण पढमडिदिं करेदि ।” इति । 'वे' ति तदानीमेव 'वेदयति' क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिमनुभवति च, उक्त च सप्ततिकाचूर्णी - "तओ से काले कोहस्स ततियकिहोओ दलियं कङ्क्षिन्तु ततियकिट्टीए पढमठितिं करेति वेदेति य ।" इति । अत्र नवषष्ट्यधिकशतनम संग्रहगाथा प्रकृतमनुलक्ष्य व्याख्येया । तद्यथा-क्रोथतृतीय संग्रह किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथमसमये क्रोधाद्वितीयसंग्रह किट्टेर्द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्ध नूतनदलं द्वितीयस्थितौ प्रथमस्थितौ चोदयाऽऽवलिकागतं च दलं सत्कर्मणि विद्यते, ततोऽधिकं न विद्यते, शेषसर्वदलस्य क्रोध तृतीय संग्रह किट्टिमानप्रथम संग्रह किट्टितया परिणतत्वात् । अथ क्रोधतृतीय संग्रह किट्टिवेदनविधौ क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनविधिमतिदिदिक्षुराह'बोयव्व' इत्यादि, 'द्वितीयावच्च' क्रोधाद्वितीय संग्रह किडिवच्च 'शेष प्ररूपणा' बन्धोदयनाशसंक्रमाऽपूर्वावान्तरकिट्टि निर्वृच्यवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वादिप्ररूपणा 'ज्ञेया' ज्ञातव्या, विशेषाभावात् । यदभाणि कषायप्राभृतचूण- "जो विदियकिहिं वेदयमाणस्स विधी, सो चेव विधी तदिकिहिं वेदयमाणस्स वि कायव्वो ।" इति । नवरं संग्रह किट्टीनां प्रदेशाग्रमवान्तरकिट्टीचाश्रित्य दशपदकमल्पबहुत्वं ज्ञेयम् । तत्राऽपि लोभतृतीयसंग्रह किट्टेः प्रदेशेभ्यः क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टेः प्रदेशाः संख्यातगुणा भवन्ति । एवमवान्तरकियोऽपि । एकसप्तत्यधिकशततम संग्रहगाथा प्रस्तुतमनुलक्ष्य भावनीया । तथाहि - क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टि - मनुभवन् क्षपकः क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकिद्धिं बध्नाति, मानादीनां तु प्रथमसंग्रहकहिं बध्नाति । एवंविधान को तृतीयसंग्रह किट्टिं वेदयतो जीवस्य क्रोध तृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमस्थितौ द्वयावकाशेषायां 'वेइज्ज' ०' इत्यादि पञ्चषष्ट्यधिकशततम संग्रहगाथा प्रकृतमाश्रित्य व्याख्येया । तथाहि-क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेवयागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकाप्रमाणां प्रथमस्थितिमनुभूय क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टि प्रथमस्थितेः समयाधिकायामावलिकायां शेषायां क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा क्रोध तृतीयसंग्रहकिट्टेव चरमोदयो जायते । इत्थं त्रिः क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा क्रोधकिट्टिवेदनाद्वायां जाता । क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमय एव संज्वलनक्रोधस्य जघन्यानुभागोदीरणा गुणितकर्माशस्य च क्षपकस्य संज्वलन क्रोधस्योत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा च भवति । प्रत्यपादि च कर्मप्रकृतिचूर्णौ — “पंचविहअंतराइयकेवलणाणकेवलदंसणावरणचउन्हं संजलणाणं वहं णोकसायाणं एवासि वोसाए पगईणं अप्पप्पणो उदीरणंते जहणिया अणुभागउदीरणा होति । xxx घातिकम्माणं सव्वेसिं अणुभागउदीरणम्मि Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] खवगसेढी [ गाथा--१७५ जस्स जो जो जहण्णसामी भणितो, सो चेव उक्कोसपदेसउदोरणाए उक्कोससामो गुणियकम्मंसिगो य जाणियव्वो।" इति । तथैव कषायप्राभृतचूर्णावपि"कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदोरणा कस्स ? खवगस्स चरिमसमयकोहवेदगस्स। xxx कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदोरणा कस्स ? खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स।" इति । एवं जघन्याऽनुभागोदयो गुणितकमांशस्य चोत्कृष्टप्रदेशोदयो वाच्यः, संज्वलनत्रिकस्य जघन्याऽनुभागोदीरणोत्कृष्टप्रदेशोदीरणयोः स्वामिना तुल्यत्वाद् यथाक्रमंजघन्यानुभागोदयोत्कृष्टप्रदेशोदययोः स्वामिनाम् । एवमग्रेऽपि मानमाययोर्भाव्यम् । क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां क्रोधस्य चरमोदयः,ततः परं तस्य क्षपकस्य क्रोधोदयाऽभावात् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदियकिहिं वेदेमाणस्स जा पढमहिदी, तिस्से पढमहिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए चरिमसमयकोधवेदगो जहण्णगो ठिदिउदीरगो।" इति ॥१७४॥ ___ अथ क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टया उदयचरमसमये मोहनीयस्य स्थितिबन्धं स्थितिसचं च निरुरूपयिषुराह चरिमुदये संजलणाणं ठिइबंधो दुमासिओ होइ। ठिइसंतं उण चत्तारि होइ वरिसाणि मोहस्स ॥१७५॥ चरमोदये संज्वलनानां स्थितिबन्धो द्वैमासिको भवति । __ स्थितिसत्त्वं पुनश्चत्वारि भवति वर्षाणि मोहत्य ॥१७५।। इति पदसंस्कारः । ___'चरिमुदये' इत्यादि, 'चरमोदये' क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमोदये कोधतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायामित्यर्थः, 'संज्वलनानां' संज्वलनक्रोध-मान-माया-लोभानां स्थितिबन्धो द्वैमासिको भवति, क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये यः स्थितिवन्धोऽन्तमुहूर्तन्यूनाऽशीतिदिवसा भवति स्म, स क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले त्रैराशिकसाधितैरन्तमुहूतन्यूनविंशतिदिवसीनो भवन् सम्प्रति द्विमासप्रमाणो जायत इत्यर्थः । न्यगादि च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे ठिदिबंधो संजलणाणं दो मासा पउिपुण्णा।" इति । संज्वलनक्रोधस्य त्वेष जघन्यस्थितिबन्धः । यदभ्यधायि श्रीमन्मलयगिरिपादैः स्थितिबन्धप्ररूपणावसरे"संज्वलनचतुष्टयपुरुषवेदानामनिवृत्तिबादरक्षपकः तद्वन्धस्य यथास्वं चरमस्थितिबन्धे वर्तमानो जघन्यस्थितिबन्धकः तबन्धकेष्वस्यैवातिविशुद्धत्वात् ।” इति । तथा तदानीमेव संज्वलनक्रोधस्य सर्वजघन्याऽनुभागबन्धो जायते । यदुक्तं श्रीमन्मलयगिरिपादैरनुभागबन्धस्वामित्वप्रस्तावे-“पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्कयोरनिवृत्तिबादरः क्षपकः स्वबन्धव्यवच्छेदसमये समयमेकं तथा, तस्यापि तद्वन्धकेष्वतिविशुद्धत्वात् ।” इति । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ ३४१ अथ स्थितिसचं दर्शयति — 'ठिइसंत' इत्यादि, क्रोधतृतीय संग्रह किट्टिप्रथमस्थितेः समयाधिकाऽऽवलिकायां शेषायां 'मोहस्य' संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिसचं पुनश्चत्वारि वर्षाणि भवति । इदमुक्तं भवति - क्रोधाद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये संज्वलनचतुष्कस्य यत् स्थितिसच्चमन्तमुहूर्त न्यून चतुर्मासाधिकपञ्चवर्षाण्यासीत् तत् त्रैराशिकेन साधितैरन्तर्मुहूर्त न्यूनषोडशमासैर्हीनं सत् चतुर्वार्षिकं जायते । यदुक्तं कषायप्राभृतचूर्णौ-संतकम्मं चत्तारि वस्साणि पुष्णाणि ।” इति । शेषाणां त्रयाणां घातिकर्मणां स्थितिसत्त्वं संख्येयानि वर्षसहस्राण्यघातित्रयस्य चाऽसंख्येयवर्षसहस्राणि बोध्यम्, पूर्वमुक्तत्वाद् इह नाऽभिहितम् । “व्यवहारनयश्चलितमेव चलितमिति मन्यते, निश्चयस्तु चलदपि चलितमिति" श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्तिकारवचनात् निश्चयनयेन व्यवच्छिद्यमानाः संज्वलनक्रोधस्य बन्धोदयोदीरणा युगपद् व्यवच्छिन्नाः । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णौ- “ XXX खिवंतो खिवंतो जाव ततियकिट्टिवेदगडाए चरिमसमओ, ताव आगओ । तम्मि समए कोहसंजलणाए बंधोदओदीरणा य जुगवं फिहंति ।" इति । क्रोधस्य तृतीयसंग्रहकट्टिवेदनचरमसमये समयाधिकावलिकागतं दलं समयोनाऽऽवलि - काद्वयबद्धनूतनदलं च विहाय शेषक्रोबदलतो मानप्रथम संग्रह किट्टेः पूर्वावान्तरविद्विष्ववान्तरकिट्टयन्तरोत्पन्नाऽपूर्वावान्तरकिट्टिषु चाऽसंख्येयभागप्रमाणदलं दत्वा शेषवह्वसंख्येयभागमितं दलं मानप्रथम संग्रह किट्टेरधस्ताद पूर्वावान्तरकिट्टिषु संक्रमयति । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णो- "संतकम्मं पि समयूण आवलियबद्धं मोत्तणं सव्वं माणम्मि पक्खित्तं ।" इति । तेन मानप्रथमसंग्रहकिडौ दलं षोडशचतुर्विंशतिभागप्रमाणं ( 2 ) जायते, संज्वलन क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिसम्बद्धपञ्चदशचतुर्विंशतिभागप्रमाणदलस्य ( 2 ) तदानीं मानप्रथम संग्रह किट्टितया परिणतत्वात् तथा मान प्रथम संग्रह किट्टिदलमितर संग्रह कियपेक्षया षोडशगुणं जायते, इतरसंग्रह किंट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं मानप्रथम संग्रहकिट्टेवान्तरकियोऽपि ज्ञातव्याः ॥ १७५ ॥ क्रोधतृतीय संग्रहकिट्टिवेदनाद्वाप्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थक्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिप्रदेशाप्रमपकृष्य क्रोध तृतीय संग्रह किया: प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । (२) क्रोधद्वितीयसंग्रह किया द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलं द्वितीयस्थित्यामुदयावलिकागतं चदलं प्रथमस्थितौ विद्यते । (३) शेवं क्रोधद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनवद् बोध्यम्, नवरं संग्रह किट्टीनां प्रदेशाश्रमवान्तर किट्टीश्चाश्रित्य दशपदकमल्पबहुत्वं वाच्यम् । तत्राऽपि लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रदेशेभ्यः क्रोधतृतीयसंग्रह किट्टिप्रदेशाः संख्येयगुणा वक्तव्याः । एवमवान्तरकियोऽपि । (४) क्रोधस्य तृतीयसंग्रह किट्टैि बध्नाति, मानादीनां तु पूर्ववत् प्रथमाम् । (५) क्रोध तृतीयसंग्रह किट्टयाः प्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेष आगालो व्यवच्छिद्यते । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] खवगसेढी । गाथा--१७६ पूर्वतोऽनुवर्तमानं क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्ररूपणायन्त्रकम् (६) क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायाम् । (क) क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टयाश्चरमोदयः । (ख) क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यस्थित्युदयश्च । (ग) क्रोधस्य जघन्यानुभागोदीरणा जघन्यानुभागोदयश्च । (घ) गुणितकांशस्य जीवस्य क्रोधस्योत्कृष्टप्रदेशोदीरणोत्कृष्प्रदेशोदयश्च । (ङ) संज्वलनानां स्थितिबन्धो द्वैमासिकः । (च) संज्वलनक्रोधस्य जयन्यस्थितिबन्धः । (छ) संज्वलनक्रोधस्य जघन्याऽनुभागबन्धः । (ज) संज्वलनानां स्थितिसत्त्वं चत्वारि वर्षाणि । (झ) निश्चयनयमतेन संचलनक्रोधस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिद्यमाना युगपद् व्यवच्छिन्नाः । (ब) समयाधिकोदयावलिकागतदलं समयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलं च वर्जयित्वा शेषक्रोधदलस्य मानप्रथमसंग्रह किट्टित्वेन परिणामः । तेन मानप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्य षोडशचतुर्विंशतिभागकल्पं (३४) जायते । एवं मानप्रथमसंग्रहकिट्टेरवान्तरकिट्टयोऽपि बोध्याः ।। अथ क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनविधि परिपाल्याऽनन्तरसमये यत्करोति, तदभिधित्सुराहसेकाले माणपढमकिट्टि ओकड्ढिऊण पढमठिइं। कुणए वेयइ सवो य विही कोहपढमव्व णायब्वो ॥१७६॥ (गीतिः) अनन्तरकाले मानप्रथमकिट्टिमपकृष्य प्रथमस्थितिम् । करोति वेदयति सर्वश्च विधिः क्रोधप्रथमावज्ज्ञातव्यः ॥१७६।। इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धासमाप्तेरनन्तरसमये 'मानप्रथमकिट्टि' द्वितीयस्थितिस्थमानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्योदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणक्रमेण मानवेदनाद्धायाः साधिकत्रिभागे मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालतस्त्वावलिकयाऽधिकासु स्थितिषु निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' मानप्रथमसंग्रहकिडिप्रथमस्थिति 'करोति' निर्वर्तयति । यदवादि कषायप्राभतचूर्णी-“से काले माणस्स पढमकिहिमोकड्डियूण पढमहिदि करेदि ।" इति । 'वेयई' त्ति तदानीमेव मानप्रथमसंग्रहकिट्टि च 'वेदयति' अनुभवति । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी-"तओ से काले माणस्स पढमकिटीओ दलिअं ओकढित्तु पढमठिति करेति वेदेइ ताव, जाव अंतोमुहुत्तं ।” इति । तदानीं प्रथमस्थितौ यत् क्रोधदलमुदयावलिकायां विद्यते, तत् प्रतिसमयं वेद्यमानमानप्रथमसंग्रहकिट्टौ स्तिबुकसंक्रमेण संक्रम्य विनाशयति । यत्पुनर्द्वितीयस्थितौ द्विसमयोनावलिकाद्वयेन बद्धदलं विद्यते, मानप्रथमसंग्रहकिट्टि वेदपमानेन तावता कालेन पुरुषवेदवत् संक्रमेण तत् संक्रमयता जीवेन चरमप्रक्षेपेऽसंक्रम्यमाणे संज्वलनक्रोधस्य जघन्यस्थितिसचं जघन्याऽनुभागसत्वं च प्राप्यते । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"कोहसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३४३ खवगस्स चरिमसमयअणिल्लेविदे कोहसंजलणे । Xxxकोहसंजलणस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरिमसमयअसंकामयस्स।" इति । ___ तथा क्रोधोदयचरमसमये जघन्ययोगिना बद्धक्रोधस्य तदानीं जघन्यं प्रदेशसत्कर्म भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“कोहसंजलणस्स जहण्णयंपदेससंतकम्मं कस्स ? चरिमसमयकोधवेदगेण खवगेण जहण्णजोगट्ठाणे जं बहं, तं जं वेलं चरिमसमयअणिल्लेविदं, तस्स जहण्णयं संतकम्मं ।" इति । तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि"जहन्नगं संतकम्मं 'णियगसंतकम्मंते' त्ति अप्पप्पणो संतकम्मरस अंते भवति ।” इति । तदानीं चरमप्रक्षेपे संक्रम्यमाणे संज्व ठनक्रोधस्थ जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्याऽनुभागसंक्रमश्च जायते । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-“कोहसंजलणस्स जहण्णहिदिसंकमो कस्स ? खवयस्स कोहसंजलणस्स अपच्छिमहिदिबंधचरमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स जहाणयं । xxx कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? चरिमाणुभागबंधस्स चरिमसमयअणिल्लेवगो। "इति । तथा कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण क्रोधोदयचरमसमये जघन्ययोगेन बद्धनूतनक्रोधदलिको जीव इदानीं क्रोवस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमं करोति । तथा चात्र कर्मप्रकृतिचूर्णि:-"पुरिसकोहमाणमायासंजलणाणं' 'घोलमाणेण' त्ति जहण्णगजोगिणा 'चरिमबद्धस्स' खवणाए अभुट्टियस्स अप्पप्पणो चरिमसमयबद्धस्स 'सगअंतिम त्ति अप्पप्पणो चरिमसमयलोभे सत्वसंकमेणं जहणतो पदेससंकमो होति त्ति ।" तथैव पञ्चसंग्रहेऽपि "पुसंजलणतिगाणं जहण्णजोगिस्स खवगसेढीए । सगचरिमसमयबद्धं जं छुभइ सगंतिमे समए॥१॥" इति । कषायप्राभूतचूर्णिकाराणामभिप्रायेण तदानीं जघन्यप्रदेशसंक्रमं न करोति, तैरुपशमकस्यैव जघन्यप्रदेशसंक्रमस्य प्रतिपादितत्वात् । तथा च तद्ग्रन्थः-"कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? उवसामयस्स चरिमसमयपबडो जाधे उवसामिजमाणो उवसंतो, ताधे तस्स कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो, एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं ।" इति । ___'सव्वो' इत्यादि, सर्वश्च 'विविः' वेदनादिविधिः'क्रोधप्रथमावत्' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनवज्ज्ञातव्यः, विशेषाभावात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"जेणेव विहिणा कोधस्स पढमकिट्टी वेदिदा,तेणेव विधिणा माणस्स पढमकिहिं वेदयदि।" इति । इदमुक्तं भवतियथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायामधस्तनीरुपरितनीश्चाऽसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तर Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] खवगसेढी [गाथा-१७७ किट्टीवर्जयित्वा शेषा अबध्यन्ताऽवेद्यन्त च । तत्रापि वन्धत उदयेऽवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति स्म । संज्वलनानां प्रथमसंग्रहकिट्टिरेव बध्यते स्म, प्रतिसमयमनुसमयाऽपर्वतनाघातेन उपरितन्योऽवान्तरकिट्टयो घात्यन्ते स्म, यथायोग्यं संग्रहकिट्टयन्तरेष्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु चाऽपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते स्म, पूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु दलनिक्षेपः, संग्रहकिट्टिगतानामवान्तरकिट्टीनामल्पबहुत्वं संग्रहकिट्टिप्रदेशाग्राऽल्पबहुत्वञ्चेत्यादिविधिः प्ररूपितः, तथैव मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायां प्ररूपयितव्यः । नवरं बन्धः संज्वलनत्रिकप्रथमसंग्रहकिटेर्वक्तव्यः, तथा नवसंग्रहकिट्टिगतानामवान्तरकिट्टीनामल्पबहुत्वं वक्तव्यम् , तत्रापि लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितो मानप्रथममंग्रहकिट्टेरवान्तरकिट्टयः संख्यातगुणा भणितव्याः। एवं नवसंग्रहकिट्टीनां प्रदेशाग्रस्याऽप्यल्पबहुत्वं वक्तव्यम्, प्रदेशसंक्रमाऽल्पबहुत्वे संक्रमावलिकाया विशेषस्तु स्वयमेव भावनीयः। ___एवंविधानेन मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेषे पञ्चषष्टयधिकशततमसंग्रहगाथा प्रस्तुतापेक्षया व्याख्येया । तथाहि-मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकायां गतायां मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितेः समयाधिकाऽऽवलिकायां शेषायां मानस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जायते । तदानींचैव मानप्रथमसंग्रहकिट्टेश्वरमोदयः प्रवर्तते । ॥१७६॥ ___साम्प्रतं मानप्रथमसंग्रहकिट्टिसत्कोदयचरमसमये मोहनीयकर्मणः स्थितिबन्धं स्थितिसचं चाऽऽविश्चिकीर्षु राह चरिमुदये संजलणतिगस्स उ पण्णासवासरा बंधो। अंतोमुहुत्तऊणा चत्ता मासा हवइ संतं ॥१७७॥ चरमोदये संज्वलनत्रिकस्य तु पश्चाशद्वासरा बन्धः । अन्तर्मुहूर्तोनाश्चत्वारिंशन्मासा भवति सत्त्वम् ॥१७७।। इति पदसंस्कारः । 'चरिमुदये' इत्यादि, 'चरमोदये' संज्वलनमानप्रथमसंग्रहकिटेरुदयचरमसमये मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितो समयाधिकाऽऽवलिकाशेषायामित्यर्थः, 'संज्वलनत्रिकस्य' संज्वलनमान-माया-लोभरूपस्य तु 'बन्धः' स्थितिवन्धः 'पञ्चाशद्वासरा' पञ्चाशदिवसाः (५०) अन्तमुहूर्तोना भवति । सम्प्रति मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमभिधित्सुराह-'चत्ता'इत्यादि, चत्वारिंशन्मासाः,घण्टालालान्यायेन' अंतोमुहुत्तऊणा' इति पदमत्राऽपि योज्यम् । ततश्चाऽयमर्थः-अन्तम होनाश्चत्वारिंशन्मासाः (४०) 'सचं' संज्वलनत्रिकस्य स्थितिसचं 'भवति' जायते । व्याहारि च कषायप्राभतचूर्णी-“एदेण कमेण माणपढमकिहिं वेदयमाणस्स जा पढमहिदो, तिस्से पढमविदोए जाधे समयाहियावलियसेसा, ताधे तिण्हं संजलणाण ठिदिबंधो मासो वोसं च दिवसा अंतोमुहत्तणा । संतकम्मं तिणि वस्साणि चत्तारि Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३४५ मासा च अंतोमुहुत्तणा।" इति । इदमुक्तं भवति-क्रोधवेदनाद्धाचरमसमये संज्वलनानां स्थितिबन्धो यो द्वैमासिक आसीत् , स मानवेदनाद्वायाश्चरमसमय एकमासप्रमाणो भविष्यति । तेन मानसंग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले त्रिंशदिवसप्रमाणः स्थितिबन्धो हीयते । यदि मानसंग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले स्थितिवन्धस्त्रिशदिवसप्रमागो हीयते, तय कस्याः संग्रहकिटेदनकाले कियान् स्थितिबन्धो हीयेत ? इति त्रैराशिकेन दशदिवसा लभ्यन्ते । न्यासः-- प्रमाणम् प्रमाणफ ठम् इच्छा इच्छाफलम् ३ । ३० दिवसाः। १ । १० दिवसाः एवमेकस्या मानसंग्रहकिटेर्वेदनकाले स्थितिबन्धो दिवसदशकमात्रः परिहातव्यः, किन्तु मानद्वितीयसंग्रहफिट्टिवेदनकालतस्तृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालतश्च मानप्रथमसंग्रहकिटेर्वेदनकालस्य विशेषाधिकत्वादन्तमुहर्वाधिकदशदिवसप्रमितः स्थितिबन्धो हीपते, मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले तृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले च प्रत्येकं यथासंभवमन्तमुहूर्तन्यूनदशदिवसप्रमाणो हीयते । इत्थं मानप्रथमसंग्रहफिट्टिवेदनकाले स्थितिवन्धस्याऽन्तमुहूर्ताधिकदशदिवसानिभवनाद् मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तन्यूनविंशतिदिवसाधिकमासप्रमितो भवति । एवं संज्वलनत्रिकस्य स्थितिसचहानिरप्पन्तमहाधिकाष्टमासप्रमाणा त्रैराशिकेन साधयितव्या । तथाहि-क्रोधवेदनाद्धाचरमसमये संज्वलनानां स्थितिसचं चत्वारि वर्षाग्यासीत्, मानवेदनाद्धाचरमसमये तु द्विवार्षिकं भविष्यति । इत्थं मानसंग्रहकिट्टित्र पवेदनकाले स्थितिघातैवर्षद्वयमात्रं स्थितिसचं घात्यते । यदि मानसंग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले चतुर्विंशतिमासप्रमाणं स्थितिसचं घात्यते, तईकस्या मानसंग्रहकिटेर्वेदनकाले किरस्थितिसचं घात्येत ? इति । त्रैराशिकेनाऽटमासाः प्राप्यन्ते । न्यासः- प्रमाणम् प्रमाणफलम् इच्छा इच्छाफलम् ३ । २४ मासाः । १ । ८ मासाः। किन्तु मानप्रथमसंग्रहकिटेर्वेदनकालः प्रभूतो भवति, द्वयोस्तु स्तोक इति मानस्य प्रथमसंग्रहकिटेर्वेदनकालेऽन्तमहाधिकाष्टमासप्रमितं सत्चंघात्यते, शेषयोस्तु द्वयोः संग्रहकिट्टयोः प्रत्येकं वेदनकालेऽन्तमुहर्तन्यूनाऽष्टमासप्रमाणं घात्यते । अथ चतुर्वतोऽन्तमुहूर्ताधिकाष्टमासेषु विशोधितेष्वन्तमुहूर्तन्यूनचतुर्मासाधिकत्रिवर्षप्रमाणं स्थितिसचं मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये जायते । त्रयाणां घातिकर्मणां स्थितिसत्कर्म संख्येषवर्षसहस्राण्यघातिकर्मणां चाऽसंख्येययानि वर्षसहस्राणि बोध्यम् , पूर्व निगदितत्वाद् इह नोक्तम् । तदानीं च मानप्रथमसंग्रहकिटेरुदयसमयाधिकावलिकाप्रमाणप्रथमस्थितिगतं द्वितीयस्थितिगतं च समयोनाऽऽवलिकाद्वयबद्धं नूतनं दलं विहाय शेषं मानप्रथमसंग्रहकिट्टेलमादाय ततश्चाऽसंख्येयभागमानं दलं यथायोग्यमन्यत्र संक्रम्याऽवशिष्टं सर्वदलं मानद्वितीयसंग्रहकिटटेरधस्तात् संक्रमयति । इत्थं मानद्वितीयसंग्रहकिट्टी दलं मोहनीयसकलदलस्य सप्तदशचतुर्विशतिभागप्रमाणं (३६) जायते, मानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रतिबद्धस्य षोडशचतुर्विंशतिभागप्रमाणस्य दलस्य Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] खवगसेढी [ गाथा-१७७ तदानीं मानद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणतत्वात् । तथा मानद्वितीयसंग्रहकिट्टौ दलमितरसंग्रहकिट्टयपेक्षया सप्तदशगुणं जायते, इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं मानद्वितीयसंग्रहकिट्टरवान्तरकिट्टयोऽपि ज्ञातव्याः॥१७७॥ मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनविधियन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थमानप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्य मानप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च। (२) मानवेदनाद्धाप्रथमसमयात्प्रभृति मानप्रथमसंग्रहकिटेरधस्तनीरुपरितनीश्वाऽसंख्येयभागमिता ___अवान्तरकिट्टीवर्जयित्वा शेषा अवान्तरकिट्टीबध्नाति वेदयति च । (३) बध्यमानाऽवान्तरकिट्टित उदयमानाऽवान्तरकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति । (४) संज्वलनत्रिकस्य प्रथमसंग्रहकिट्टि बध्नाति । (५) प्रतिसमयमनुसमयाऽपवर्तनाघातेनोपरितनाऽसंख्येयभागप्रमाणावान्तरकिट्टीर्घातयति । (६) यथायोग्यं संग्रहकिट्टयन्तरेष्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु चाऽ-पूर्वावान्तरकिट्टीनिवर्तयति । (७) नवसंग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वं पूर्ववद् वक्तव्यम् , नवरं लोभतृतीसंग्रहकिट्टितो मान प्रथमसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयः संख्येयगुणा निगदितव्याः । (८) एवं नवसंग्रहकिट्टीनां प्रदेशाल्पबहुत्वमपि भणितव्यम् । __ मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायां क्रोवस्य चरमप्रक्षेपेऽसंक्रयमाणे (९) संज्वलनक्रोधस्य जघन्यस्थितिसत्त्वम् । (१०) संज्वलनक्रोधस्य जघन्याऽनुभागसत्कर्म । (११) क्रोधोदयचरमसमये जघन्ययोगिना बद्धक्रोधस्य जघन्यप्रदेशसत्कर्म भवति । चरमप्रक्षेपं संक्रमयतो जीवस्य तु (१२) संज्वलनक्रोधस्य जघन्यस्थितिसंक्रमः । (१३) संज्वलनक्रोधस्य जघन्यानुभागसंक्रमः। (१४) कर्मप्रकृतिचूरिणकृदभिप्रायेण क्रोधोदयचरमसमये जघन्ययोगेन बद्धस्य नूतनक्रोधदलिकस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमो भवति । (१५) मानप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । (१६) मानप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौसमयाधिकावलिकाशेषायांमानस्य जघन्यस्थित्युदीरणाभवति । (१७) मानप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथास्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां मानप्रथमसंग्रहकिद्देश्चरमोदयः । ___मानप्रथमसंग्रहकिट्टेरुदयचरमसमये (१८) संज्वलनत्रिकस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तन्यूनपञ्चाशदिवसप्रमाणः । (१९) संज्वलनत्रिकस्य स्थितिसत्त्वमन्तमुहूर्तन्यूनचतुर्मासाधिकत्रिवर्षमात्रम् । (२०) ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां संख्यातवर्षसहस्राणि स्थितिसत्कर्म । (२१) नामगोत्रवेदनीयानामसंख्येयवर्षसहस्राणि स्थितिसत्कर्म । (२२) समयाधिकोदयावलिकागतं समयोनावलिकाद्वयबद्धं च दलं मुक्त्वा शेषं प्रभूतं मानप्रथमसंग्रह किट्टिदलं यथासंभवं मानद्वितीयसंग्रहकिट्टित्वेन परिणतम् । तेन मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्य सप्तदशचतुर्विशतिभागकल्पं (३४) जायते। | (२३) इतरसंग्रह किट्टयपेक्षया मानद्वितीयसंग्रहकिट्टेः प्रदेशा अवान्तरकिट्टयश्च सप्तदशगुणा जायन्ते । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [३४७ एतर्हि मानप्रथमसंग्रहकिटेश्वरमोदयसमनन्तरं यत्करोति, तदभिधातुकाम आहसेकाले माणविइयकिट्टि ओकड्ढिऊण पढमठिई। करए वेयइ अण्णो सम्बो विही य पुवब्ब ॥१७८॥ अनन्तरकाले मानद्वितीयकिट्टिमपकृष्य प्रथमस्थितिम् । ___ कुरुते वेदत्यन्यः सर्वो विधिश्च पूर्ववद् ॥१७८।। इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालसमाप्तितोऽनन्तरसमय इत्यर्थः, 'मानद्वितीयकिट्टि' संज्वलनमानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रदेशानपकृष्योदयसमयादारभ्य किश्चिन्न्यूने मानवेदनाद्धायास्त्रिभागे स्ववेदनकालतस्त्वावलिकयाऽधिकासु स्थितिष्वसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थिति'करोति' निर्वतयति । अभ्यधायि च कषायप्राभूतचूर्णी-"से काले माणस्स विदियकिटोदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमहिदि करेदि ।" इति । 'वेयई' तिवेदयति तदानीमेव मानद्वितीयसंग्रहकिट्टः प्रथमस्थितिमुदयेनाऽनुभवति । अभाणि च सप्ततिकाचूर्णी-“तओ से काले माणस्स बितियकिटीओ द ल ' उक्कद्वित्तु पढमहितिं करेइ वेदेइ यxxxi" इति । 'अण्णो' इत्यादि, अन्यः सर्वो विधिः पूर्ववज्ज्ञातव्यः । इदन्त्ववधेयम्--अत्र मानस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टियध्यते, शेरयोस्तु प्रथमा । तथा मानद्वितीयसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितः संख्येयगुणा भवन्ति । पञ्चषष्टयधिकशततमगाथा प्रस्तुतमाश्रित्य भावनीया । तथाहि-मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेषयागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकायां व्यतिक्रान्तायां मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकाऽऽवलिकाशेषायां मानस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जायते, तदानीं च मानद्वितीयसंग्रहकिटेश्वरमोदयो भवति, तदनन्तरं मानतृतीयसंग्रहकिटेरुदयात् ॥१७८॥ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये संज्वलनत्रिकस्य बन्धं सत्वं च व्याजिहीपुराह अंतम्मि मोहबंधो चत्तालीसा दिणा उ देसूणा । संतं देसूणा बत्तीसा मासा कसायाणं ॥ १७९ ॥ अन्ते मोहबन्धश्चत्वारिंशद् दिनास्तु देशोनाः । सत्त्वं देशोना द्वात्रिंशद्मासाः कषायाणाम् ।। १७९ ।। इति पदसंस्कारः । 'अंतम्मि' इत्यादि, 'अन्ते' मानद्वितीयसंग्रहकिट्टयाश्चरमोदये मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायामित्यर्थः, 'मोहबन्धो' मानमायालोभरूपाणां कषायाणाम्, क्रोधस्य क्षीणत्वात् , स्थितिबन्धो 'देशोनाः' अन्तर्मुहूर्तन्यूनाश्चत्वारिंशद् (४०) दिनास्तु भवति, त्रैराशिकसाधितैरन्तर्मुहूर्तन्यूनदशदिनैर्मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायां हीनो जात इत्यर्थः । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] aareer [ गाथा - १७९ 'संत' इत्यादि, तत्र 'कषायाणां' त्रयाणां संज्वलनानां 'सत्त्वं' स्थितिसत्त्वं 'देशोना' अन्तर्मुहूर्तपरिहीना द्वात्रिंशन्मासा भवति, त्रैराशि कसाधितैरन्तर्मुहूर्त न्यूनाष्टमासैर्मान द्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्वायां घातितं सदिदानीमेतावज्जायत इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- "तेणेव विहिणा संपत्ती माणस्स विदियकिहिं वेदयमाणस्स जा पहमट्ठिदी, तिस्से समयाहियावलियसेसा त्ति, ताथे संजलणाणं ठिदिबंधो मासो दस च दिवसा देसॄणा । संतकम्म दो वस्त्राणि अट्ठे च मासा देसृणा ।" इति । त्रयाणां घातिकर्मणां स्थितिसचं पूर्ववत् संख्येयानि वर्षसहस्राण्यघातित्रयस्य चाऽसंख्येयानि वर्षसहस्राणि निश्चेतव्यम्, पूर्वमभिहितत्वाद् इह न गदितम् । तथा मानद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये मानद्वितीयसंग्रह किया उदयसमयाधिकावलिकागतं समयोनद्वयावलिकाबद्धं च नूतनं दलं विमुच्य शेषं मानद्वितीयसंग्रह किट्टेलं गृहीत्वा ततश्चाऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं यथायोग्यमन्यत्र संक्रम्य शेषसर्वदलं मानतृतीयसंग्रह कि टेरधस्तात् संक्रमयति, इत्थं मानतृतीयसंग्रह किडौ दलं मोहनीय सकलदलस्याऽष्टादशचतुर्विंशतिभागकन्यं ( 5 ) जायते, मानद्वितीय संग्रह किद्वयाः सप्तदशचतुर्विंशतिभाग प्रमाणदलस्य तदानीं मानतृतीय संग्रह किट्टितया परिणतत्वात् । तथा मानतृतीय संग्रह किट्टिदलमितर संग्रह कियपेक्षयाऽष्टादशगुणं जायते, इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमितत्वात् । एवं मानतृतीयसंग्रह किया अवान्तरकियोऽपि निश्चेतव्याः ॥ १७९॥ मानद्वितीय संग्रह किट्टिवेदन प्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थमानद्वितीयसंग्रह किट्टिगतप्रदेशाश्रमपकृष्य मानद्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । शेषविधिस्तु पूर्ववद् बोध्यः । (२) मानद्वितीयसंग्रह किट्टेः प्रथमस्थितौ द्वयावलि काशेवायां मानद्वितीयसंग्रह किट्टे रागालो व्यव च्छिद्यते । मानद्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेपायाम् (३) मानद्वितीयसंग्रह किट्टे रुदय चरमसमयः | (४) संज्वलनमानस्य जघन्यस्थित्युदीरणा । (५) संज्वलनत्रिकस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्त न्यूनचत्वारिंशदिवसाः । (६) संज्वलनत्रिकस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूर्त न्यू नाष्टमासाधिकद्विवर्षप्रमितम् । (७) ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थितिसत्त्वं संख्येयानि वर्षसहस्राणि । नामगोत्र वेदनीयानां स्थितिसत्त्वमसंख्ये यवर्षसहस्राणि । (९) समयाधिकोदयावलिकागतं समयोनालिकाद्वयबद्धं च नूतनं दलिकं वर्जयित्वा शेषं प्रभूतं मानद्वितीयसंग्रह किट्टिदलं यथागमं मानतृतीयसंग्रह किट्टितया परिणम्यते । तेन मानतृतीयसंग्रह किट्टि दलं मोहनी सर्व दलस्याऽष्टादशचतुर्विंशतिभागकल्पं ( 2 ) जायते । (१०) मानतृतीयसंग्रह किट्टिदल मितरसंग्रह किट्टयपेक्षयाऽष्टादशगुणं भवति । (११) एवं मानतृतीयसंग्रह किट्टे रवान्तर किट्टयोऽपीतरसंग्रह किट्टी नामवान्तरकिट्टिभ्योऽष्टादशगुणा भवन्ति । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [३४९ मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनविधि परिपाल्य यत्करोति, तद् विभणिपुराहसेकाले माणतइयकिट्टि उकिरिय करइ पढमठिइं। वेयइ मोहस्स तु बंधो मासोऽन्ते दुवरिसा संतं ॥१८०॥ __ अनन्तरकाले मानतृतीयकिट्टिमुल्कीर्य करोति प्रथमस्थितिम् । वेदयति मोइस्य तु बन्धो मासोऽन्ते द्विवर्षों सत्त्वम् ॥१८०॥ इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धासमाप्तितोऽनन्तरसमये 'मानतृतीयकिट्टि' मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणक्रमेण स्त्रवेदनकालत आवलिकयाऽधिकासु स्थितिषु निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' मानतृतीयसंग्रहकिटेरादिमस्थिति 'करोति' निवर्तयति । अभ्यधाथि च कषायप्राभूतचूर्णी-“से काले माणतदियकिटोदो पदेसग्गमोक्कड्डियूण पढमहिदि करेदि ।” इति । 'वेयई' त्ति तथा तदानीमेव 'वेदयति' मानतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथमस्थितिं चानुभवति । अवादि च सप्ततिकाचूर्णी-"ततो से काले माणस्स ततियकिट्टीओ दलिअं उक्कढित्तु पढमहितिं करेति वेदेइ य।" इति । तदानीं प्रथमस्थित्यामुदयावलिगतं द्वितीयस्थितौ च द्विसमयोनद्यावलिकाबद्धं नूतनं दलं मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिसम्बन्धि विद्यते । शेषा सर्वा प्ररूपणा पूर्ववत्कर्तव्या, विशेषाऽभावात् । नवरं मानस्य तृतीयसंग्रहकिट्टिमेव बध्नाति, शेषयोस्तु प्रथमाम् , मानतृतीयसंग्रहाकट्टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्व यथासंख्यं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टेवान्तरकिट्टितः प्रदेशेभ्यश्च संख्येयगुणा भवन्ति । एवंक्रमेण मानतृतीयसंग्रहकिट्टि वेदयतः क्षपकस्य मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकायामतिकान्तायां मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितेः समयाधिकावलिकायां शेषायां मानस्य जघन्यस्थित्युदीरणा मानतृतीयसंग्रहकिट्टयाश्च वेदनचरमसमयो भवति । इत्थं मानकिट्टिवेदनाद्धायां मानस्य त्रिर्जघन्यस्थित्युदीरणा जाता । तथा तदानीमेव संज्वलनमानस्य जघन्याऽनुभागोदीरणा गुणितकर्माशस्य च जन्तोः संज्वलनमानस्योकृष्टप्रदेशोदीरणा जायते । एवं संज्वलनमानस्य जघन्याऽनुभागोदयो गुणितकर्माशस्य च मानस्योत्कृष्टप्रदेशोदयो जायते । 'मोहस्स' इत्यादि, तत्र 'अन्ते' मानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये 'मोहस्य' संज्वलनमानमायालोभरूपमोहनीयकर्मणस्तु बन्धो मासो भवति, मानद्वितीयसंग्रहकिदिवेदनचरमसमयतस्त्रैराशिकसाधितैरन्तमुहूर्तन्यूनदशदिवसीनो भवन्नकमासिकः स्थितिबन्धो जायत इत्यर्थः। स च मानस्य स्थितिवन्धः सर्वजघन्यो ज्ञातव्यः । एवमनुभागबन्धोऽपि मानस्य जघन्यो जायते । 'संत' इत्यादि, संज्वलनत्रिकस्य स्थितिसत्त्वं द्विवर्षों' वर्षद्वयं जायते, मानद्वितीयसंग्रहकिद्विवेदनचरमसमयाऽपेक्षया त्रैराशिकसाधिताऽन्तमुहर्तन्यूनाष्टमासीनं सद् द्विवार्षिकं जायत इत्यर्थः । उक्तं Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] खवगसेढी [ गाथा--१८० च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे चरिमसमयवेदगो । ताधे तिण्हं संजलणाणं द्विदिबंधो मासो पउिवुण्णो । संतकम्मं ये वस्साणि पडिवुण्णाणि ।” इति । निश्चयनयापेक्षया तदानीं मानस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिद्यमाना व्यवच्छिन्नाः, तथा समयाधिकोदयावलिकागतं दलं समयोनद्वयावलिकाबद्धं च नूतनदलं विमुच्य शेपं मानदलमादाय ततश्चाऽसंख्येयभागप्रमाणं यथायोग्यमन्यत्र संक्रम्याऽवशिष्टं सर्वदलं मायाप्रथमसंग्रहकिटेरधस्तात् संक्रमयति । उक्तश्च सप्ततिकाचूर्णी-"xxवेदेइ य कमेण ताव, जाव समयाहियावलिया सेस त्ति । तम्मि समए माणस्स बंधोदयोदोरणा य जुगवं फिति । संतकम्मं पि समयूणदुआवलियबद्धं मोत्तण सव्वं मायाए संछुद्ध ।" इति । इत्थं तदानीं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्यैकोनविंशतिंचतुर्विंशतिभागप्रमाणं (१९) जायते, मानतृतीयसंग्रहकिट्टिसम्बद्धस्याऽष्टादशचतुर्विशतिभागप्रमाणदलस्य तदानीं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टित्वेन परिणतत्वात । तथा मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलमितरसंग्रहकिट्टयपेक्षयकोनविंशतिगुणं भवति, इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टरवान्तरकिट्टयोऽपि वक्तव्याः ॥१८०॥ मानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनप्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थमानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्य मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । शेषविधिः पूर्ववद् बोध्यः । (२) मानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमय उदयावलिकागतं द्वितीयस्थितौ च द्विसमयोनद्वया वलिकाबद्धं नूतनं दलं मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कं सत्कर्मणि विद्यते । (३) माजस्य तृतीयसंग्रहकिट्टि बध्नाति, शेषयोस्तु प्रथमाम्। (४) मानतृतीयसंग्रहकिट्टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितः संख्येयगुणाः । (५) मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां मानस्यागालो व्यवच्छिद्यते । (६) मानतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायाम् । (क) मानस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यस्थित्युदयश्च । (ख) गुणितकर्मा शस्य जन्तोरुत्कृष्टप्रदेशोदीरणोत्कृष्टप्रदेशोदयश्च । (ग) संज्वलनत्रिकस्य स्थितिबन्ध एकमासप्रमाणः। (घ) मानस्य सर्वजघन्यस्थितिबन्धः । (ङ) मानस्य सर्वजघन्याऽनुभागबन्धः । (च) संघल नत्रिकस्य स्थितिसत्त्वं द्विवार्षिकम् । (छ) समयाधिकोदयावलिकागतं समयोनद्वयावलिकाबद्धं च नूतनं दलं विहाय शेषं सर्व मानतृतीयसंग्रहकिट्टिदलं यथागमं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टित्वेनपरिणमयति । तेनमायाप्रथम संग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसर्वदलस्यैकोनविंशतिचतुर्विंशतिभागकल्पं (३६) भवति । (ज) मायाप्रथमसंग्रहकिट्टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाच इतरसंग्रहकिट्टित एकोनविंशतिगुणाः । (झ) निश्चयनयापेक्षया मानस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिद्यमाना व्यवच्छिन्नाः। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायाप्रथम संग्रह किट्टिवेदनविधिः ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ ३५१ मानतृतीयसंग्रह किट्टिवेदनविधिमनुपाल्याऽनन्तरसमये यत्करोति, तदाविश्चिकीषु राह— सेकाले मायाsss कि उक्किरिय करइ पढमठिहूं । des अण्णो सव्वो य विही पुव्वव्व णायव्व ॥ १८१॥ अनन्तरकाले मायाssदिमकिट्टिमुत्की करोति प्रथमस्थितिम् । वेदयत्यन्यः सर्वश्च विधिः पूर्ववज्ञातव्यः || १८१ ।। इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले ' मानवेदन चरमसमयसमनन्तरसमये 'मायाऽऽदिमकट्टि द्वितीयस्थितिस्थमाया प्रथम संग्रह किट्टि प्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयसमयाद् मायावेदनकालस्य साधिकत्रिभागे मायाप्रथम संग्रह किट्टेवे दनकालतः पुनरावलिकयाऽधिकासु स्थितिष्वसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपन् 'प्रथमस्थितिं' माया प्रथम संग्रह किट्टेरादिमस्थिति 'करोति' निर्वर्तयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "तदो से काले मायाए पढमकिट्टीए पदेसग्गमोक्कड्डियूण पढदिं करेदि ।" इति । 'वेयइ' त्ति तदानीमेव मायाप्रथम संग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितिं 'वेदयति' अनुभवति च । उक्त चसप्ततिकाचूर्णौ- "तओ से काले मायाए पढमकिट्टीओ दलियं ओकड्ढेत्तु पढमठितं करेइ वेदेइ य कमेण ताव, जाव अंतोमुहुत्तकालं ।” इति । तदानीं यद् मानतृतीयसंग्रह किट्टिदलं प्रथमस्थित्यामुदयावलिकागतं विद्यते, तद् वेद्यमानमायाप्रथम संग्रहकि प्रतिसमयं स्तिकसंक्रमेण संक्रम्य विनाशयति, द्वितीयस्थितौ च यद् द्विसमयोनाऽऽवलिकायेन बद्धनूतनदलं विद्यते, तत् पुरुषवेदवत् तावता कालेन संक्रमयता जन्तुना चरमप्रक्षेपेऽसंक्रम्यमाणे संज्वलनमानस्य जघन्यस्थितिसत्त्वं जघन्यानुभागसत्त्वं च, तथा जघन्ययोगेन मानचरमसमये प्रदेश बद्धवता जन्तुना मानस्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्यते । चरमप्रक्षेपे च संक्रम्यमाणे मानस्य जवन्यस्थितिसंक्रमो जघन्याऽनुभागसंक्रमच भवति । कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण पुनर्मानजघन्य प्रदेश संक्रमोऽपि भवति । 'अण्णो' इत्यादि, अन्यः सर्वच विधिः पूर्ववज्ज्ञातव्यः, विशेषाभावात् । नवरमत्र मायालोभयोरुभयोः प्रथमसंग्रहकिट्टिर्वध्यते । लोभतृतीय संग्रह किट्टितो मायाप्रथम सग्रह कि टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्येयगुणा वक्तव्याः । एवंविधानेन मायाप्रथम संग्रह किद्विप्रथम स्थितौ दयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकाव्यतिक्रमे मायाया जघन्यस्थित्युदीरणा जायते, मायाप्रथम संग्रहकिट्टेश्व चरमोदयः ॥१८१॥ अथ मायाप्रथम संग्रह किटेरुदयचरमसमये मोहनीयस्य स्थितिबन्धं स्थितिसचं प्रकाशयितुकामः प्राह च Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ३५२ ] [गाथा-१८२ संजलणदुगस्स तु बंधो देसूणपणवीसदिवसाइं । चरिमे संतं देसूणवीसमासा मुणेयव् ॥१८२॥ संज्वलनद्विकस्य तु बन्धो देशोनपञ्चविंशतिदिवसानि ।। चरमे सत्त्वं देशोनविंशतिमासा ज्ञातव्यम् ।।१८२।। इति पदसंस्कारः । 'संजल०' इत्यादि, तत्र 'चरमे' मापाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदन चरमसमये 'संज्वलनदिकस्य' माया-लोभलक्षणस्य कषायद्वयस्य 'बन्धः स्थितिबन्धो 'देशोनपञ्चविंशतिदिवसानि' अन्तर्मुहूर्तन्यूनपश्चविंशतिदिनानि भवति। तथाहि-मानवेदनचरमसमये संज्वलनानां यः स्थितिवन्ध एकमासप्रमाण आसीत् , मायावेदनाद्धाचरमसमये स पञ्चदशदिवसप्रमाणो भविष्यति । इत्थं माया संग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले पञ्चदशदिवसप्रमाणः स्थितिवन्धो हीयते ।। ___ यदि मायासंग्रहकित्रियवेदनकाले पञ्चदशदिवसमात्रः स्थितिबन्धो हीयते, तकस्या मायासंग्रहकिटेर्वेदनकाले कियान् स्थितिबन्धो हीयेत ? इति त्रैराशिकेन पञ्चदिवसा लभ्यन्ते । न्यासः- प्रमाणम् प्रमाणफलम् इच्छा इच्छाफलम् . ३ । १५ दिवसाः । १ । ५ दिवसाः । तत्रापि पश्चानुपूर्व्या संग्रहकिट्टीनां वेदनकालस्य विशेषाधिकत्वान्मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालेऽधिकः स्थितिबन्धो हीयते, ततो हीनो मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले, ततोऽपि हीनतरो मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले । तेनाऽन्तर्मुहूर्ताधिकपश्चदिवसप्रमाणः स्थितिबन्धो मापाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकाले हीयते । ततश्चाऽन्तमुहूर्तन्यूनपञ्चविंशतिदिवसप्रमाणः स्थितिवन्धो मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये जायते । _ 'संत' इत्यादि, 'सच' मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये संज्वलनदिकस्य स्थितिसत्त्वं 'देशोनविंशतिमासाः' अन्तर्मुहूर्तन्यूनविंशतिमासप्रमाणं ज्ञातव्यम् । तथाहि-मानवेदनाद्धाचरमसमये मोहस्य स्थितिसचं दिवार्षिकमासीत् , तद् मायावेदनाद्धाचरमसमययेकवर्षप्रमितं भविष्यति । इत्थं मायासंग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले द्वादशमासप्रमाणं स्थितिसचं घात्यते । यदि मायासंग्रहकिट्टित्रयवेदनकाले द्वादशमासप्रमाणं स्थितिसत्वं घात्यते, तर्खेकस्या मायासंग्रहकिया वेदनकाले कियस्थितिसचं घात्येत ? इति त्रैराशिकेन चत्वारो मासा लभ्यन्ते । न्यामः-- प्रमाणम् प्रमाणफलम् इच्छा इच्छाफलम् ३। १२ मासाः । १। ४ मासाः । पश्चानुपूर्व्या संग्रहकिट्टीनां वेदनकालस्य विशेषाधिकत्वाद् मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालेऽधिकं स्थितिसचं पात्यते । ततो हीनं मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले घात्यते । ततो हीनतरं मायाततीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले घात्यते, तेनाऽन्तर्मुहूर्ताधिकचतुर्मासप्रमाणं स्थितिसचं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकाले पात्यते । ततश्च मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये स्थितिसचमन्तमुहूर्तन्यू Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायाप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ ३५३ नाष्टमासाधिकवर्षमात्रं भवति । व्याहृतं च कवायग्रामृत -"एदेणेव विहिणा संपत्तो मायापढमकिटिं वेदयमाणस्स जा पढमहिदी, तिस्से समयाहियावलिया सेसात्ति, ताधे ठिदिबंधो दोण्हं संजलणाणं पणुवोसं दिवसा देसूणा । ठिदिसंतकम्मं वस्समह च मासा देसूणा ।" इति । ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां स्थितिसचं तु संख्येयानि वर्षसहस्राणि, नामगोत्रवेदनीयानां चाऽसंख्येयानि वर्षसहस्राणि बोध्यम्, पूर्वमभिहितत्वाद् इह नोक्तम् । तदानीं चोदयसमयाधिकावलिकागतं समयोना-ऽऽवलिकाद्वयबद्धं च नूतनं दलं विहाय शेषं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं गृहीत्वा ततश्चाऽसंख्येयभागमात्रं यथायोग्यमन्यत्र संक्रम्य शेषसर्वदलं मायाद्वितीयसंग्रह किटटेरधस्तादपूर्वावान्तरकिट्टितया परिणमयति, इत्थं मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टी दलं मोहनीयसकलदलस्य विंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणं (३४) जायते, मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलस्यैकोनविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमितस्य तदानीं मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टितथा परिणतत्वात् । तथा मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलमितरसंग्रहकिट्टयपेक्षया विंशतिगुणं जायते, इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टेखान्तरकिट्टयो-ऽपि वाच्याः ॥ १८२ ॥ मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनप्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थमायाप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्य मायाप्रथमसंग्रहकिट्टयाः प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च। शेषविधिस्तु पूर्ववद् बोध्यः, नवरं संज्वलनद्विकस्य प्रथमसंग्रहकिट्टि बध्नाति । तथाऽवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वं प्रदेशाल्पबहुत्वञ्च षट्पदकं वाच्यम् , तत्राऽपि लोभतृतीसंग्रह किट्टितो मायाप्रथमसंग्रह किट्टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्येयगुणा वाच्याः । मायाप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धायां मानस्य चरमप्रक्षेपेऽसंक्रम्यमाणे (२) संज्वलनमानस्य जघन्यस्थितिसत्त्वं जघन्याऽनुभागसत्कर्म च ।। (३) मानोदयचरमसमये जघन्ययोगिना बद्धसंज्वलनमानस्य जघन्यप्रदेशसत्कर्म भवति । (४) चरमप्रक्षेपं संक्रमयतो जीवस्य तु संज्वलनमानस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यानुभागसंक्रमश्च । (५) तथा कर्मप्रकृतिचूणिकृदभिप्रायेण मानोदयचरमसमये जघन्ययोगेन बद्धस्य नूतनमानदलिकस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमो भवति । (६) मायाप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते। (७) मायाप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां मायाया जघन्यस्थित्युदीरणा (८) मायाप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां मायाप्रथमसंग्रहकिट्टेश्वरमोदयः । ___मायाप्रथमसंग्रहकिट्टेरुदयचरमसमये (९) संज्वलनद्विकस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तन्यूनपञ्चविंशतिदिवसप्रमाणः । (१०) संज्वलनद्विकस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूर्त न्यूनाष्टमासाधिकैकवर्षमात्रम् । (११) घातित्रयस्य संख्यातवर्षसहस्राण्यघातित्रयस्य चासंख्येयवर्षसहस्राणि स्थितिसत्कर्म । (१२) समयाधिकोदयावलिकागतं समयोनावलिकाद्वयबद्धं च दलं मुक्त्वा शेषं प्रभूतं मायाप्रथमसंग्रह किट्टिदलं यथासंभवं मायाद्वितीयसंग्रहफिट्टित्वेन परिणतम् । तेन मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्य विंशतिचतुर्विंशतिभागकल्पं (३३) जायते।। (१३) इतरसंग्रहकिट्टयपेक्षया मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टेः प्रदेशा अवान्तरकिट्टयश्च विंशतिगुणा जायन्ते। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] खवगसेढी [ गाथा--१८३ मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायाः समाप्तेरनन्तरं यत्करोति, तद् निजिगदिपुराहसेकाले पढमठिइं मायाबीयाउ करइ अणुहवएऽन्ते । देसूणा वीसदिणा बंधो मोहस्स सोलमासा संतं ॥१८३॥ (आर्यागीतिः) अनन्तरकाले प्रथमस्थिति मायाद्वितीयस्याः करोत्यनुभवत्यन्ते।। देशोना विंशतिदिना बन्धो मोहस्य षोडशमासाः सत्त्वम् ॥१८३॥ इति पदसंस्कारः। 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' मायाप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनकालपमाप्तितोऽनन्तरसमय इत्यर्थः, 'मायाद्वितीयस्याः' गम्यस्य यवन्तस्योत्पूर्वककृधातोः कर्मणि पञ्चमी विभक्तिः, ततश्चायमर्थः-मायाद्वितीयामुत्कीर्य-मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयसमयादारभ्य स्ववेदनकालत आवलिकयाऽधिकासु स्थितिष्वसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' मायाद्वितीयसंग्रहकिटटेः प्रथमस्थितिं करोति । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी-से काले मायाए विदियकिटोदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमहिदिं करेदि ।” इति । 'अणुहवए' ति 'अनुभवति' तथा तदानीमेव मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिं वेदयति । अभिहितं च सप्ततिकाचौँ-"तओ से काले मायाए बितियकिटोओ दलिअं ओकढित्तु पढमठितिं करेइ वेदेइ य ।” इति । तदानीमुदयावलिकागतं प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धमभिनवं मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं सत्कर्मणि विद्यते । अन्यः सर्वविधिः पूर्ववज्ज्ञातव्यः, नवरं मायाया द्वितीयसंग्रहकिट्टिबध्यते, लोभस्य तु पूर्ववत् प्रथमा । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितो मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्येयगुणा बोद्धव्याः, तथा मायाद्धितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकायां गतायां मायाया जघन्यस्थित्युदीरणा जायते, मायाद्वितीयसंग्रहकिटटेश्च चरमोदयः प्रवर्तते । _ 'अन्ते' चरमे मायाद्वितीयसंग्रहकिटेरुदयचरमसमय इत्यर्थः, मोहस्य मायालोभात्मकस्य मोहनीयकर्मणो बन्यो 'देशोना' अन्तमुहूर्तन्युना विंशतिदिना जायते । अथ मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये स्थितिसत्वं भणति—'सोलमासा' इत्यादि, 'देसूणा'तिपदमत्राऽपि योज्यम् , देशाना-अन्तमुहर्तन्यूनाः षोडशमासाः 'सत्त्वं' स्थितिसचं जायते, बन्धस्य सत्वस्य च त्रैराशिकसाधितप्रमाणेन हानिदर्शनात् । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी-ताधे ठिदिबंधो वोसं दिवसा देसूणा, ठिदिसंतकम्मं सोलस मासा देसूणा ।” इति । घातित्रयस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयानि वर्षसहस्राण्यघातित्रयस्याऽसंख्येयानि वर्षसहस्राणि ज्ञेयम् , पूर्व प्रतिपादितत्वात् नेह निगदितम् । तदानीमुदयसमयाधिकावलिकागतं समयोनाद्वयावलिकाबद्धं च नूतनं दलं परित्यज्य शेषं सर्व मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं गृहीत्वा Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायाद्वितीयसंग्रह फिट्टिवेदनविधिः ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ ३५५ ततथाऽसंख्येवभागमात्रं यथायोग्यमन्यत्र संक्रम्य शेषसर्वदलं माया तृतीय संग्रह किट्टेरधस्तादपूर्वावान्तरकिट्टितथा संक्रमयति । इत्थं मायातृतीयसंग्रह किट्टिदलं मोहनीय सकलदलस्यैकविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणं (३४) जायते, मायाद्वितीयसंग्रह किट्टिदलस्य विंशतिचतुर्विंशतिभागत्रमितस्य तदानीं माया तृतीयसंग्रह किट्टितया परिणतत्वात् । तथा मायातृतीयसंग्रह किट्टिदलमितरसंग्रह किट्टयपेक्षयैकविंशतिगुणं जायते, इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं माया तृतीयसंग्रह किट देखान्तरकियोऽपि वक्तव्याः ॥ १८३॥ मायाद्वितीय संग्रह किट्टिवेदन प्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थमायाद्वितीयसंग्रह किट्टिगतप्रदेशाग्रमपकृष्य मायाद्वितीयसंग्रह किट्टि प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । शेषविधिस्तु पूर्ववद् बोध्यः । नवरं मायाया द्वितीयसंग्रह किट्टिं बध्नाति, लोभस्य तु पूर्ववत् प्रथमाम्, तथाऽवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वं प्रदेशाल्पबहुत्वञ्च पञ्चपदकं वक्तव्यम्, तत्राऽपि तृतीयसंग्रह कट्टितो मायाद्वितीयसंग्रह किट्टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्येयगुणा वाच्याः । (२) मायाद्वितीयसंग्रह किट्टेः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां मायाद्वितीयसंग्रह किट्टे रागालो व्यवच्छिद्यते । मायाद्वितीयसंग्रह किट्टप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायाम् (३) मायाद्वितीयसंग्रह किट्टे रुदच चरमसमयः । (४) संज्वलनमायाया जघन्य स्थित्युदीरणा । (५) संज्वलनद्विकस्य स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्त न्यूनविंशतिदिवसाः । (६) संज्वलनद्विकस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूर्त न्यूनचतुर्मासाधिकैकवर्षप्रमितम् । (७) ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां स्थितिसत्त्वं संख्येयानि वर्षसहस्राणि । (८) नामगोत्रवेदनीयानां स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षसहस्राणि । (९) समयाधिको दयावलिकागतं समयोनावलिकाद्वयबद्धं च नूतनं दलिकं वर्जयित्वा शेषं प्रभूतं मायाद्वितीयसंग्रह किट्टिदलं यथागमं मायातृतीयसंग्रह किट्टितया परिणम्यते । तेन मायातृतीयसंग्रह किट्टिदलं मोहनीयसर्वदलस्यैकविंशतिचतुर्विंशतिभागकल्पं (३४) जायते । (१०) मायातृतीयसंग्रह किट्टिदलमितर संग्रह किट्टयपेक्षयैकविंशतिगुणं भवति । (११) एवं मायातृतीयसंग्रह किट्टे रवान्तरकिट्टयोऽपीतरसंग्रह किट्टी नामवान्तरकिट्टिभ्य एकविंशतिगुणाः । मायाद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धासमाप्तितः परं यत्करोति, तदभिधातुकाम आह सेकाले पढमठिहं मायातइयाउ कुणइ अणुहवए । पण्णरसदिणा बंधो संजलणदुगस्स चरिमुदये ॥ १८४॥ अनन्तरकाले प्रथमस्थितिं मायातृतीयायाः करोत्यनुभवति । पञ्चदशदिना बन्धः संज्वलनद्विकस्य चरमोदये || १८४ ॥ इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' मायाद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धासमाप्तितोऽनन्तरसमये 'मायातृतीयायाः' मायातृतीयामुत्कीर्य - मायातृतीयसंग्रह किट्टि प्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयसमयादारभ्य माया Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] खवगसेढी [ गाथा--१८५ वेदनकालत आवलिकयाऽधिकासु स्थितिष्वसंख्येयगुणक्रमेण दलं प्रक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' मायातृतीयसंग्रहकिटेः प्रथम स्थितिं 'करोति' निवर्तयति । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूर्णी-“से काले मायाए तदियकिटोदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमठिदिं करेदि ।” इति । 'अणुहवई' ति अनुभवति' तदानीमेव च मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिं वेदयते । प्रत्यपादि च सप्ततिकाचूर्णी-"तओ से काले मायाए ततियकिटीओ दलियं ओकढित्तु पढमठितिं करेइ अंतोमुहुत्तपमोणं वेदेइ य ।" इति । तदानीमुदयावलिकागतं प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धं मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं सत्कर्मणि भवति । अन्यः सर्वविधिः पूर्ववज्ज्ञातव्यः । नवरं मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टिबध्यते, लोभस्य तु पूर्ववत् प्रथमा । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितो मायातृतीयसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्यातगुणा भवन्ति । एवंविधानेन मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनावलिकाऽतिक्रमे मायाया जघन्यस्थित्युदीरणा जायते, मायातृतीयसंग्रहकिट्टयाश्चोदयचरमसमयः । तदानीं संज्वलनमायाया जघन्यानुभागोदीरणा गुणितकमांशस्य च जन्तोर्मायाया उत्कृष्टप्रदेशोदीरणा जायते । तदानीमेव मायायाश्चरमोदयो भवति, अनन्तरसमये लोभस्योदयात् । उदीरणावत् संज्वलनमायाया जघन्यानुभागोदयो गुणितकमोशस्य च क्षपकस्य मायाया उत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति ।। 'पण्ण' इत्यादि, तत्र 'चरिमुदये' त्ति'चरमोदये' संज्वलनमायाया उदयचरमसमये मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थिती समयाधिकावलिकाशेपायामित्यर्थः, 'संज्वलनदिकस्य' मायालोभरूपस्य कषायद्वयस्य 'बन्धः' स्थितिवन्धः पश्चदशदिना भवति । मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये विहितस्थितिबन्धः क्रमेण हीनः सन् मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायां त्रैराशिकसाधितप्रमाणेन हीनो भृत्वेदानी पञ्चदशदिवसमात्रो जायत इत्यर्थः। निरदेशि च कषायप्राभृतचूर्णी-“ताधे मायाए चरिमसमयवेदगो। ताधे दोण्हं संजलणाणं द्विदिबंधो अडमासो पडिवुण्णो।" इति । अयं च स्थितिबन्धो मायायाः सर्वजघन्यस्थितिबन्धः । मायाया अनुभागबन्धोऽपि तदानीं सर्वजघन्यो भवति ॥ १८४ ॥ अथ मायावेदनचरमसमये मोहनीयवर्जानां षण्णां कर्मणां स्थितिबन्धं मोहनीयस्य च स्थितिसत्त्वमभिधित्सुराह घाईणं मासपुहुत्तं इयराणं य संखवरिसाणि । ठिइसंतं दुण्हं संजलणाणं होइ इगवासो ॥१८५॥ घातिनां मासपृथक्त्वमितरेषां च सञ्जयवर्षाणि । स्थितिसत्त्वं द्वयोः संज्वलनयोर्भवत्येकवर्षः ॥१८५।। इति पदसंस्कारः । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३५७ 'घाईण' इत्यादि, मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये 'घातिनां' ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां कर्मणां स्थितिवन्धो मासपृथक्त्वं भवति । क्रोवद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये यस्त्रयाणां घातिकर्मणां स्थितिबन्धो वर्षपृथक्त्वमात्र आसीत् , स क्रमेण हीयमानः सन् मायावेदनाद्धाचरमपमये मासपृथक्त्वप्रमितो जायते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो मासपुधत्तं ।" इति । ___ 'इयराणं इत्यादि, 'इतरेषाम्' अघातिकर्मणां नामगोत्रवेदनीयरूपाणां च स्थितिवन्धः सङ्खथवर्षाणि भवति, पूर्वमपि संख्यातवार्षिक आसीत् , संख्यातस्थितिबन्धेषु गतेष्वपीदानी सङ्ख्यातवार्षिको भवति, नवरं पूर्वतः संख्येयगुणहीनो भवति । निश्चयनयमतमाश्रित्य तदानीमेव व्यवच्छिद्यमाना मायाया बन्धोदयोदीरणा युगपद् व्यवच्छिन्नाः । न्यगादि च सप्ततिकाचूर्णी-"तम्मि समए मायाए बंधोदओदीरणा य जुगवं फिति ।" इति । अथ स्थितिसत्त्वमभिधत्ते 'दुण्ह' इत्यादि, 'द्वयोः संज्वलनयोः' मायालोभरूपयोः कषाययोः स्थितिसत्त्वमेकवर्षो ‘भवति' जायते । मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयोक्तस्थितिसत्त्वतः क्रमशो हीनो भवद् मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकाले त्रैराशिकसाधितप्रमाणेन हीनं भूत्वेदानीमेकवर्षअमितं जायत इत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-"ठितिसंतकम्ममेकं वस्सं पडिवुण्णं ।" इति ॥ १८५ ॥ अथ षट्कर्मणां स्थितिसचं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनं चाऽभिधातुकाम आहघाइअघाईण कमा संखासंखियसमासहस्साइं। सेकाले पढमठिइं कुणेइ लोहपढमाउ वेयइ य॥१८६॥ (गीतिः) घात्यघातिनां क्रमात् संख्यासंख्यसमासहस्राणि । अनन्तरकाले प्रथमस्थितिं करोति लोभप्रथमाया वेदयति च ॥१८६।। इति पदसंस्कारः । घाइ०' इत्यादि, मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये घात्यघातिनां कर्मणां क्रमात् स्थितिसत्त्वं संख्यासंख्यसमासहस्राणि जायते, मोहनीयस्पोक्तत्वाच्छेषघातित्रयस्य स्थितिसत्वं संख्यातानि वर्षसहस्राण्यघातित्रयस्य चाऽसंख्येयानि वर्षसहस्राणि भवतीत्यर्थः । प्रत्यपादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेजाणि वस्ससहस्साणि । इदरेसिं कम्माणं ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ।" इति । तदानीमेवोदयसमयाधिकाऽऽवलिकागतं समयोनद्वयावलिकाबद्धं च नूतनं दलं वर्जयित्वा शेष मायातृतीयसंग्रहकिट्टिदलं गृहीत्वा ततश्चासंख्येयभागमानं दलं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तर Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] खवगसेढी [ गाथा--१८६ किट्टित्वेन परिणम्य शेषं सर्वदलं लोभप्रथमसंग्रहकिटेरधस्तादपूर्वावान्तरकिट्टितया संक्रमयति । तथा चोक्त सप्ततिकाचूर्णी-fxxxवेदेइ य ताव, जाव समयाहियावलिया सेस त्ति । तम्मि समये xxxxxxxx संतकम्म पि समऊणदुयावलियाबद्ध मोत्तूण सेसं सव्वं लोभसंजलणम्मि पक्खित्तं ।" इति । इत्थं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्य द्वाविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणं (३१) जायते, मायातृतीयसंग्रहकिट्टिदलस्यैकविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमितस्य तदानीं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणतत्वात् । तथा लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिदलमितरसंग्रहकिट्टयपेक्षया द्वाविंशतिगुणं जायते, इतरसंग्रहकिट्टयोः प्रत्येकं दलस्यैकचतुर्विंशतिभागप्रमितत्वात् । एवं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टेवान्तरकिट्टयोऽपि वक्तव्याः । मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनप्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थमायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्य मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । शेषविधिस्तु पूर्ववद् बोध्यः । यो विशेषः, स दर्यते(अ) मायातृतीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमय उदयावलिफागतं द्वितीयस्थितौ च द्विसभयोनद्वया वलिकाबद्धं नूतनं दलं मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिसत्कं सत्कर्मणि विद्यते । (ब) मायाया तृतीयसंग्रहकिट्टि बध्नाति, लोभस्य तु पूर्ववत् प्रथमाम् । (स) अबान्तरकिट्टयल्पबहुत्वं प्रदेशाल्पबहुत्वञ्च चतुष्पदकं वक्तव्यम् । तत्राऽपि मायातृतीयसंग्रहकि टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च लोभतृतीयसंग्रह किट्टितः संख्येयगुणा वाच्याः। (२) मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ द्वधावलिकाशेषायां मायाया आगालो व्यवच्छिद्यते । (३) मायातृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायाम् । (क) मायाया जघन्यस्थित्युदीरणा जघन्यस्थित्युदयो जघन्यानुभागोदीरणा जघन्यानुभागदयश्च । (ख) गुणितकर्मा शस्य जन्तोरुत्कृष्टप्रदेशोदीरणोत्कृष्टप्रदेशोदयश्च । (ग) संज्वलनद्विकस्य स्थितिबन्धः पञ्चदशदिवसप्रमाणः । (घ) मायायाः सर्वजघन्यस्थितिबन्धः । (ढ) मायायाः सर्वजघन्याऽनुभागबन्धः । (च) संज्वलनद्विकस्य स्थितिसत्त्वमेकवर्षप्रमाणम् । (छ) समयाधिकोदयावलिकागतं समयोनद्वयावलिकाबद्धं च नूतनं दलं विहाय शेषं सर्व मायातृतीयसंग्रहकिट्टिदलं यथागमं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टित्वेन परिणमयति । तेनलोभप्रथम संग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसर्वदलस्य द्वाविंशतिचतुर्विंशतिभागकल्पं (३४) भवति । (ज) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्चेतरसंग्रहकिट्टितो द्वाविंशतिगुणाः । (झ) निश्चयनयापेक्षया मायाया बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिद्यमाना व्यवच्छिन्नाः । अथ लोभवेदनकालं विवर्णयिषुराह- 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनकालसमाप्तितोऽनन्तरसमये 'लोभप्रथमायाः' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणक्रमेण बादरलोभवेदनकालस्य साधिकद्विभागप्रमाणासु लोभवेदनकालस्य च साधिकत्रिभागमितासु लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालतस्त्वावलिकयाऽधिकासु स्थितिषु Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३५९ निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' संज्वलनलोभप्रथमसंग्रहकिटेरादिमस्थितिं करोति । अवादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो से काले लोभस्स पढमकिटीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमहिदि करेदि ।" इति 'वेयइ य' त्ति 'वेदयति च' तदानीमेव लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिमनुभवति च । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णी-"तओ से काले लोभस्स पढमकिटीओ दलियं ओकढित्तु पढमठितिं करेइ अंतोमुहत्तप्पमाणमेनं, तं च लोभवेयगडाए तिभागो वेदेइ य।" इति । तदानीं प्रथमस्थितावुदयावलिगतं यद् मायातृतीयसंग्रहकिट्टिदलं विद्यते, तत् प्रतिसमयं संज्वलनलोभे स्तिबुकसंक्रमेण संक्रम्य विनाशयति । द्वितीयस्थितौ च द्विसमयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धं यद् मायातृतीयसंग्रहकिट्टिदलं विद्यते, तत् तावता कालेन पुरुषवेदवत् संक्रमयता जन्तुना चरमप्रक्षेपेऽसंक्रम्यमाणे संज्वलनमायाया जघन्यस्थितिसचं जघन्याऽनुभागमचं च, तथा जघन्ययोगिना बद्धनूतनदलिकस्य जघन्यप्रदेशसत्कर्म प्राप्यते । तदानीं च चरमप्रक्षेपे संक्रम्यमाणे संज्वलनमायाया जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्यश्चानुभागसंक्रमो भवति । कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादोनामभिप्रायेण मायोदयचरमसमये जघन्ययोगिना जन्तुना बद्धनूतनमायादलिकस्य तदानीं जघन्यप्रदेशसंक्रमोऽपि जायते ।। शेषसर्वविधिः पूर्ववद् वेदितव्यः, नवरं लोभस्यैव प्रथमसंग्रहकिट्टिबध्यते, अवान्तरकिट्टयल्पबहत्वं प्रदेशाऽल्पबहुत्वञ्च त्रिपदकं वक्तव्यम्, तत्राऽपि लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितोलोभप्रथमसंग्रहकिट्टीनामवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्यातगुणा भवन्ति । ___ एवंविधानेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समथोनावलिकायां गतायां प्रथमस्थितेः समयाधिकावलिकायां शेषायां संज्वलनलोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवति, तदानीं च लोभप्रथमसंग्रहकिटेश्वरमोदयः ॥१८६॥ अथ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धं मोहस्य च स्थितिसचं निजिगदिषुराह चरिमे बंधो लोहस्स मुहुत्तो तहेव संतं वि । बंधो घाईण दिणपुहुत्तमघाईण वच्छरपुहुत्तं ॥१८७॥ (गीतिः). चरमे बन्धो लोभस्य मुहूर्तान्तस्तथैव सत्त्वमपि । बन्धो घातिनां दिनपृथक्त्वमघातिनां वत्सरपृथक्त्वम् ।।१८७।। इति पदसंस्कारः । 'चरिमे' इत्यादि, 'चरमे' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायाश्चरमसमये 'लोभस्य' संज्वलनलोभस्य 'बन्धः' स्थितिबन्धो 'मुहूर्तान्तः' अन्तर्मुहूर्तं भवति । मायातृतीयसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये यः स्थितिबन्धः पञ्चदशदिवसप्रमाण आसीत् , स क्रमेण हीनो भवन् सम्प्रत्यन्त Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ३६० [ गाथा-१८८ मुहूर्तप्रमितो जायत इत्यर्थः । 'तहेव' इत्यादि, 'तथैव सचमपि' लोभस्य स्थितिसत्त्वमपि स्थितिबन्धवदन्तमुहूर्तप्रमाणं भवति । अभिहितं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे लोभसंजलणस्स ठिदिबंधो अंतोमुहुत्तं । हिदिसंतकम्मं पि अंतोमुहुत्तं ।" इति । इदमत्राऽवधेयम्-उभयोरन्तमुहूर्तमात्रत्वेऽपि स्थितिबन्धतः स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणं भवति । 'बंधो' इत्यादि, तत्र 'घातिना' मोहनीयस्योक्तत्वाज्ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तराषाणां 'बन्धः' स्थितिबन्धो दिनपृथक्त्वं लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनचरमसमये भवति, यो मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये मासपथक्त्वप्रमित आसीत् । 'अघातिनां' नामगोत्रवेदनीयानां स्थितिवन्धो 'वत्सरपृथक्त्वं' वर्षपृथक्त्वं भवति, यो मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये तत्प्रायोग्यसंख्येयवर्षप्रमाण आसीत् । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"ताधे लोभसंजलणस्स ठिदिबंधो अंतोमुहुत्तं । तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो दिवसपुधत्तं । सेसाणं कम्माणं वासपुधत्तं ।" इति ॥१८७॥ मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वमुक्तम् । अथ षण्णां कर्मणां स्थितिसचं प्रदर्शयितुकाम आह घाईणं संतं संखसहम्साणि वरिसाण होज्जेइ । तिण्ह अघाईण असंखेजाइं वच्छराणि खलु ॥१८८॥ घातिनां सत्त्वं संख्यसहस्राणि वर्षाणां भवति । त्रयाणामघातिनामसंख्येयानि वत्सराणि खलु ॥१८८।। इति पदसंस्कारः । 'घाईणं' इत्यादि, लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये 'घातिनां' ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां कर्मणां 'सर्च' स्थितिसचं वर्षाणां संख्यसहस्राणि भवति, पूर्वमपि मायावेदनाद्धाचरमसमये ज्ञानावरणादीनां स्थितिसचं संख्येयवर्षसहस्रमात्रमासीत् , ततोऽन्तमुहूर्तप्रमाणायां लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायां गतायां संख्येयगुणहीनं भवदपि संख्येयवर्षसहसत्रमाणं विद्यत इत्यर्थः । 'तिण्ह' इत्यादि, लोभप्रथमसंग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये त्रयाणामघातिनां कर्मणां नामगोत्रवेदनीयलक्षणानां स्थितिसचं खल्पसंख्येयानि 'वत्सराणि' वर्षाणि भवति, सुगममिदम् । यत् प्रतिपादितं कषायप्राभृतचूर्णी-“घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्म संखेन्जाणि वस्ससहस्साणि, सेसाणं कम्माणमसंखेजाणि वस्साणि ।" इति । ___ तदानीमेवोदयसमयाधिकालिकागतं समयोनद्वथावलिकाबद्धं च नूतनं दलं विहाय शेष लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिदलं गृहीत्वा ततश्च यथायोग्यमन्यत्र किश्चिद्दलं संक्रम्य शेवसर्वदलं लोभद्वितीयसंग्रहकिटेरधस्तादपूर्वावान्तरकिट्टितया संक्रमयति । इत्थं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं मोहनीयसकलदलस्य त्रयोविंशतिचतुर्विशतिभागप्रमाणं (३३) जायते, लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिगतस्य द्वाविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणस्य दलस्य तदानीं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितया परिणतत्वात् । तथा लोभ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभथमसंग्रहकिट्टिवेदनविधिः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३६१ द्वितीयसंग्रहकिट्टिदलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिदलतस्त्रयोविंशतिगुणं जायते, लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिदलस्यैकचतुर्विशतिभागप्रमाणत्वात् । एवं लोभद्वितीयसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयोऽपि ज्ञातव्याः॥१८८॥ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनप्ररूपणायन्त्रकम् (१) द्वितीयस्थितिस्थलोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्य लोभप्रथमसंग्रह किट्टयाः प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च। शेषविधिस्त पर्ववद बोध्यः, नवरं संचलनलोभस्य प्रथमसंग्रहकिर्ति बनाति । तथाऽवान्तरकिट्टयल्पबहुत्वं प्रदेशाल्पबहुत्वञ्च त्रिपदकं वाच्यम् , तत्राऽपि लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितो लोभप्रथमसंग्रह किटेरवान्तरकिट्टयः प्रदेशाश्च संख्येयगुणा वाच्याः । लोभप्रथमसंग्रह किदिवेदनाद्धायां मायायाश्चरमप्रक्षेपऽसंक्रम्यमाणे (२) संज्वलनमायाया जघन्यस्थितिसत्तम । (३) संज्वलनमायाया जघन्याऽनुभागसत्कर्म । (४) मायोदयचरमसमये जघन्ययोगिना बद्धमायाया जघन्यप्रदेशसत्कर्म भवति चरमप्रक्षेपं संक्रमयतो जीवस्य तु (५) संज्वलनमायाया जघन्यस्थितिसंक्रमः । (६) संज्वलनमायाया जघन्यानुभागसंक्रमः । (७) कर्मप्रकृतिरिणकृदभिप्रायेण मायोदयचरमसमये जघन्ययोगेन बदस्य नूतनमायादलिकस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमो भवति । (८) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । (९) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितो समयाधिकावलिकाशेषायां लोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा । (१०) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टेः प्रथलस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां लोभप्रथमसंग्रहकिद्देश्चरमोदयः। - लोभप्रथमसंग्रहकिटेरुदयचरमसमये (११) संज्वलनलोभस्य स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः । (१२) संज्वलनलोभस्य स्थितिसत्त्वमप्यन्तमुहूर्तमात्रम् । (१३) ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां स्थितिबन्धो दिवसपृथक्त्त्वं भवति । (१४) वेदनीय-नाम-गोत्राणां स्थितिबन्धो वर्षपृथक्त्वं भवति । (१५) घातित्रयस्य संख्यातवर्षसहस्राण्यघातित्रयस्य चाऽसंख्येयवर्षाणि स्थितिसत्कर्म । । (१६) समयाधिकोदयावलिकागतं समयोनावलिकाद्वयबद्धं च दलं मुक्त्वा शेपं प्रभूतं लोभप्रथमसंग्रह फिट्टिदलं यथागमं लोभद्वितीयसंग्रह किट्टित्वेन परिणतम् । तेन मायाद्वितीयसंग्रह किट्टिदलं __ मोहनीयसकलदलस्य त्रयोविंशतिचतुर्विंशतिभागकल्पं (३३) जायते। (१७) इतरसंग्रहकिट्टयपेक्षया लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेः प्रदेशा अवान्तर किट्टयश्च त्रयोविंशतिगुणाः । लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धासमाप्तितोऽनन्तरसमये यत्करोति, तद् व्याजिहीपुराहसेकाले लोहबिइयमोक्कड्डित्तु पढमट्टिइं तु करिज्जा। वेयइ ताहे लोहगबिइयातइयाउ कुणइ य सुहुमकिट्टी।१८९(आर्यागीतिः) अनन्तरकाले लोभद्वितीयामपकृष्य प्रथमस्थितिं तु करोति । वेदयति तस्मिन् काले लोभद्वितीयातृतीयाभ्यां करोति च सूक्ष्मट्टिीः ।।१८९॥ इति पदसंस्कारः । ___ 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धासमाप्तितोऽनन्तरसमय इत्यर्थः, 'लोभद्वितीयां' लोमद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रदेशाग्रमपकृष्य लोभवेदनाद्धाया द्वितीये त्रिभागयुदय Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ३६२ ] [गाथा--१९० समयादारभ्य स्ववेदनकालत आवलिकयाऽधिकासु स्थितिष्वसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपन् 'प्रथमस्थिति' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेः प्रथमस्थितिं तु 'करोति' निर्वर्तयति । उक्त च कषायप्राभूतचूर्णी-"तत्तो से काले लोभस्स विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमठिदि करेदि।" इति । तथैव सप्ततिकाचूर्णावपि-"तओ से काले लोभस्स बितियकिट्टीओ दलिअं ओकढित्तु पढमट्ठितिं करेइ बीयतिभागमे ।" इति । 'वेयइत्ति 'वेदयति. तदानीमेव च लोभद्वितीयसंग्रहकिटटेः प्रथमस्थितिमनुभवति । इयं च द्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाऽप्युच्यते, अस्यां सूक्ष्मकिट्टीनां निवृत्तेः । अथ सूक्ष्मकिट्टिनिवृत्तिं दर्शयति-'ताहे' इत्यादि, 'तस्मिन् काले' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनप्रथमसमय एव 'लोभद्वितीयातृतीयाभ्यां' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितथाऽसंख्येयभागप्रमितं दलिकं गृहीत्वा सूक्ष्मकिट्टीः 'करोति' निर्वर्तयति, अन्यथा तृतीये त्रिभागे सूक्ष्मकिट्टिवेदनं नोपपद्येत । न च लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धायां सूक्ष्मकिट्टिकरणं प्रतिपाद्यतामिति वाच्यम् , लोभतृतीयसंग्रहकिटेः स्वस्वरूपेणाऽनुदयात् । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिटोदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसापराइयकिट्टीओ णाम करेदि ।" इति । तथैव सप्ततिकाचूर्णावपि-"तं वेयंतो वितियकिटीओ तइअकिटीओ य दलियं घेत्तणं सुहमसंपराइयकिटोओ करेइ ।" इति ॥ १८९ ॥ ननु ताः सूक्ष्मकिट्टीः कुत्र कथं च करोति ? इति पृष्ट आहसुहुमा किट्टीओ तइयाए हे?म्मि कुणइ खलु खवगो । ता सुहुमा कोहपढमसंगहकिट्टिब्व पण्णता ॥१९०॥ सूक्ष्माः किट्टीस्तृतीयस्या अधस्तात्करोति खलु क्षपकः ।। ताः सूक्ष्माः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवन् प्रज्ञप्ताः ॥१९०।। इति पदसंस्कारः । 'सुहमा'इत्यादि, तत्र ‘खवगो' त्ति 'क्षपक' क्षपकश्रेणिमारूढो जीवो लोभद्वितीयसंग्रहकिyि वेदयमानः खलु सूक्ष्माः किट्टीः 'तृतीयस्याः' लोभतृतीयसंग्रहकिटेरधस्तात् करोति, लोभतृतीयसंग्रहकिट्टेः सर्वजधन्यावान्तरकिटेरधस्तादनन्तगुणहीनरसतामापाद्य सूक्ष्मकिट्टीनां सर्वोत्कृष्टां सूक्ष्मकिट्टि निर्वर्तयति, ततोऽधस्ताद् द्विचरमसूक्ष्मकिट्टिम् , ततोऽप्यधस्तात् त्रिचरमसूक्ष्मकिट्टिम्, एवं तावद् निर्वर्तयति, यावत् प्रथमसूक्ष्मकिट्टिरिति तात्पर्यम् । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"तासि सुहुमसांपराइयकिट्टीणं कम्हि हाणं ? तार्सि हाणं लोभस्स तदियाए संगहकिटीए हेह्रदो।" इति । 'ता' इत्यादि, 'ताः' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टेधस्ताद् निर्वय॑मानाः 'सूक्ष्माः' सूक्ष्मकिट्टयः Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां संक्रम्यमाणदलम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३६३ क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवत् 'प्रज्ञप्ताः' निरूपिताः पूर्वमहर्षिभिरिति शेषः । प्रतिपादितं च कषायप्राभूतचूर्णी-"जारिसो कोहस्स पढमसंगहकिट्टी, तारिसी एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी।" इति । भावार्थः पुनरयम्-(१) यथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टरवान्तरकिट्टय इतरसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकमवान्तरकिट्टिभ्यः संख्यातगुणा आसन् , तथैव क्रोधकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयवर्तिनीभ्यः क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवर्जशेषसंग्रहकिट्टीनां प्रत्येकमवान्तरकिट्टिभ्यः संख्यातगुणाः सूक्ष्मकिट्टयो भवन्ति । इत्थं सूक्ष्मकिट्टीनां प्रमाणं “कोहपढमसंगहकिट्टिव्व” इत्यनेन सूचितमिति प्रथमो विकल्पः । (२) अथवा यथा क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिरपूर्वस्पर्धकानामधस्तादनुभागापेक्षयाऽनन्तगुणहीना क्रियते स्म, तथैव लोभतृतीयसंग्रहकिटेरधस्तादनुभागापेक्षयाऽनन्तगुणहीनाः सूक्ष्मकिट्टयः क्रियन्त इति द्वितीको विकल्पः। (३) यदिवा यथा क्रोधप्रथमसंग्रहकियवान्तरकिट्टयो जघन्यावान्तरकिट्टितः प्रभृत्युत्कृष्टावान्तरकिट्टि यावदनुभागापेक्षयाऽनन्तगुणक्रमेण तिष्ठन्ति स्म, तथैव सूक्ष्मकिट्टयोऽपि जघन्यसूक्ष्मकिट्टितः प्रभृत्युत्कृष्टसूक्ष्मकिट्टि याघदनुभागाऽपेक्षयाऽनन्तगुणक्रमेण विद्यन्त इति तृतीयो विकल्पः ॥१९॥ अथ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां संक्रमपरिपाटिं दर्शयितुकाम आहलोहस्स विइयकिट्टित्तो तइयाअ तह सुहुमकिट्टीसु। तइयत्तो सुहुमासुसंकमइ दलं न अण्णत्थ ॥१९१॥ लोभस्य द्वितीयकिट्टितस्तृतीयस्यां तथा सूक्ष्मकिट्टिषु । तृतीयातः सूक्ष्मासु संक्रामति दलं नाऽन्यत्र ॥१९१।। इति पदसंस्कारः । . 'लोहस्स' इत्यादि, लोभस्य' संज्वलनलोभस्य द्वितीयकिट्टितो' द्वितीयसंग्रहकिट्टितो 'दलं' प्रदेशाग्रं संज्वलनलोभस्य 'तृतीयस्यां' तृतीयसंग्रहकिट्टी तथा सूक्ष्मकिट्टिषु संक्रामति । 'तइयत्तो' इत्यादि, 'तृतीयातो' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितो सूक्ष्मासु किट्टिषु दलं संक्रामति, नाऽन्यत्र, आनुपूर्व्या संक्रमस्य प्रवर्तमानत्वात् किट्टिवेदनाद्धायां चोद्वर्तनाऽभावात् ॥१९१॥ अथ संक्रम्यमाणप्रदेशाग्रस्याऽल्पबहुत्वं व्याजिहीर्घ राहसुहुमासु तइयत्तोऽप्पं बीयाउ तइयाअ संखगुणं । तो बीयत्तो सुहुमासु दलं संकमइ संखगुणं ॥ १९२ ॥ सूक्ष्मासु तृतीयातोऽल्पं द्वितीयस्यास्तृतीयस्यां संख्यगुणम् । ततो द्वितीयातः सूक्ष्मासु दलं संक्रामति सङ्ख्यगुणम् ॥१९२।। इति पदसंस्कारः । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] खवगसेढी [ गाथा-१९३.१९४ 'सुहुमासु' इत्यादि, 'सूक्ष्मासु' सूक्ष्मकिट्टिषु 'तृतीयातः' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितो 'अल्प' स्तोकं 'दलं' प्रदेशाग्रमपवर्तनासंक्रमेण संक्रामति । ततः 'बोयाउ' इत्यादि, 'द्वितीयातः' लोभद्वितीयसंग्रह किट्टितः 'तृतीयस्यां' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ संख्यगुणं दलं संक्रामति, लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिदलतो द्वितीयसंग्रहकिट्टिदलस्य त्रयोविंशतिगुणत्वेन संख्येयगुणत्वात् । 'तो' इत्यादि, ततो 'द्वितीयातो' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितः 'सूक्ष्मासु' सूक्ष्मकिट्टिषु संख्येयगुणं दलं संक्रामति, लोद्वितीयसंग्रहकिट्टितोऽनन्तरवेद्यमानत्वेन तत्र संख्येयगुणदलसंक्रमस्य न्याय्यत्वात् । न्यगादि च कषायमाभृतचूर्णौ-"सुहमसांपराइकिट्टीसु कीरमाणीसु लोभस्स चरिमादो बादरसांपराइयकिट्टीदो सुहुसांपराइयकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । लोभस्स विदियकिटोदो चरिमबादरसांपराइयकिट्टीए संकमदि पदेसरगं संखेजगुणं । लोभस्स विदियकिट्टीदो सुहुमसांपराइयकिटोए संकमदि पदेसग्गं संखेजगुणं ।" इति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२४ ॥१९२॥ अथ सूक्ष्मकिट्टीनां प्रमाणं जिज्ञापयिपुरल्पबहुत्वं भणतिथोवा आसि अवन्तरकिट्टी कोहपढमाअ कोहखये । माणपढमाअ माणे खीगे मायापढमगाए ॥१९३॥ मायाणासे लोहपढमाअ पढमखणकयसुहुमकिट्टी। कमसो अभहिआओ सगसंखेज्जइमभागेणं ॥१९४॥ स्तोका आसन्नवान्तरकिट्टयः क्रोधप्रथमायाः क्रोवक्षये । मानप्रथमाया माने क्षीणे मायाप्रथमायाः ॥१९३।। मायानाशे लोभप्रथमायाः प्रथमक्षणकृतसूक्ष्मकिट्टयः । क्रमशोऽभ्यधिकाः स्वसंख्येयतमभागेन ॥१९४।। इति पदसंस्कारः । 'थोवा' इत्यादि, तत्र 'क्रोप्रथमायाः' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टरवान्तरकिट्टयः स्तोका आसन् । 'अवन्तरकिट्टी ति पदमग्रेऽपि स्थानत्रयेऽनुवर्तते । 'क्रोवक्षये' संज्वलनक्रोवतृतीयसंग्रहकिटटेर्मानप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणामे सति 'मानप्रथमायाः' मानप्रथमसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयः, 'माणे इत्यादि, 'माने' मानतृतीयसंग्रहकिट्टी 'क्षीणे' मायाप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणतायां 'मायाप्रथमायाः' मायाप्रथमसंग्रहकिटटेरवान्तरकिट्टयः, 'मायानाशे' मायातृतीयसंग्रहकिटेर्लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणमने सति 'लोभप्रथमायाः' लोभप्रथमसंग्रहकिट्टरवान्तरकिट्टयः, 'प्रथमक्षणकृतसूक्ष्मकिट्टयः' सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयनिर्तितसक्ष्मकिट्टयश्च 'क्रमशः' यथाक्रमं स्वसंख्येयतमभागेनाऽभ्यधिकाः । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णी“कोहस्स पढमसंगहकिटीए अंतरकिटोओ थोवाओ, कोहे संछुद्धे माणस्स पढम Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] यन्त्रकम्-२४ (चित्रम्-२४) [ खवगसेढी सूक्ष्म किटिषु संक्रम्यमाणइलस्य निरूपणम् लोम-तृतीय-संग्रह-किकि क ०० 4U लोभस्य सूक्ष्म किय: लोभ द्वितीय संग्रह कि दि: सङ्केतस्पष्टीकरणम् ★=तृतीयसंग्रह किट्टया अवान्तरकिट्टयः ।। *==लोभतृतीयसंग्रह किट्टेः सर्वजघन्यावान्तरकिट्टिः, तस्या अधस्तात् अनन्तगुणहीनरसतामापाद्य चरमसूक्ष्म किट्टिर्निर्वय॑ते, सा च A इत्यनेन चिह्नन सूचिता । तस्या अधस्तात् द्विचरमसूक्ष्म किट्टिः, एवं पश्चानुपूर्ध्या तावद् वक्तव्या, यावत् प्रथमसूक्ष्मकिट्टिः (गाथा-१९०) । (१) 0000 अनेन चिह्नन लोभतृतीयसंग्रहकिट्टितः सूक्ष्म किट्टिषु प्रदेशाग्रं सक्रामतीति सूचितम् , (गाथा-१९१), तच्च स्तोकम् , उपरि भण्य माणस्य प्रभूतत्वात् (गाथा-५९२) (२) ... अनेन चिह्नन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयां दलिकं सक्रामतीति सूचितम् (गाथा-१९०), तच्च पूर्वपदतः संख्येयगुणं भवति, (गाथा-१९२)। । (३) - - - अनेन चिह्न न लोभद्वितीयसंग्रह किट्टितः सूक्ष्मकिट्टिषु सङ्क्रम्यमाणदलं सूचितम् (गाथा-१९१), तच्च पूर्वपदतः संख्येयगुणं भवति (गाथा-१९२)। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मकिट्टिप्रमाणप्रतिपत्तयेऽल्पबहुत्त्रम् ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ ३६५ संगह किट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ | माणे संक्रुद्धे मायाए पढमसंग - हकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । मायाए संछुडाए लोभस्स पढमसंगहकिहोए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । सुहुमसांपराइयकिहोओ जाओ पढमसमये कदाओ, ताओ विसेसाहियाओ । एसो विसेसो अणंतराणंतरेण संखेज्जदिभागो ।” इति । भावार्थ: पुनरयम् - (१) क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिदल मोहनीय सकलदलस्य त्रयोदशचतुर्विंशतिभागप्रमाणमासीत् । तच्च प्राग दर्शितम् । अवान्तरकिट्टयश्च दलिकानुसारेण भवन्ति स्म, तेन क्रोधप्रथम संग्रह किट्टेवान्तरकियोsपि मोहनीयस कलावान्तरकिट्टीनां त्रयोदशचतुर्विंशतिभागप्रमाणा ( ३३ ) भवन्ति स्म, तव स्तोकाः उपरितनानां पदानां विशेषाधिकत्वात् । , (२) ततः संज्वलनक्रोध तृतीयसंग्रह किट्टी मानप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणतायां मानप्रथमसंग्रहकिट्टेरवान्तरकिट्टयः संख्येयभागेनाऽधिका भवन्ति स्म । कथमेतदवगन्तव्यम् ? इति चेत्, उयते - को तृतीयसंग्रह किट्टिदले मानप्रथम संग्रह किट्टितया परिणते मानप्रथम संग्रह किडिदलस्य षोडशचतुर्विंशतिभागमात्रत्वाद् (३३) मानप्रथम संग्रह किट्टेवान्तरकियोऽपि मोहनी यस कलावान्तरकिट्टीनां पोडशचतुर्विंशतिभागप्रमिता ( ३ ) जायन्ते स्म । तेन क्रोधप्रथम संग्रहकिट्टिगताभ्यरत्रयोदशचतुर्विंशतिभागप्रमिताभ्यः ( ) अवान्तरकिट्टिभ्यः स्वसंख्येयभागेनाऽधिकाः क्रोधे मानतया सर्वथा परिणते मानप्रथम संग्रह किट्टे रवान्तरकिट्टयो भवन्ति स्म । (३) ततो मानतृतीयसंग्रहकट्टौ मायाप्रथम संग्रहकिट्टितया परिणतायां संख्येयभागेन। ऽधिका मायाप्रथम संग्रहकिट्टे रवान्तरविद्वयो जायन्ते स्म । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते - मानतृतीय संग्रह किट्टिदले मायाप्रथम संग्रह किट्टितया परिणते मायाप्रथम संग्रह किट्टिदलस्यैकोनविंशतिचतुविंशतिभागप्रमाणत्वाद् (३) मायाप्रथम संग्रह किट्टवान्तरकियोऽप्येकोनविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणा जायन्ते स्म । तेन मानप्रथम संग्रह किट्टिगताभ्यः षोडशचतुर्विंशतिभागप्रमिताभ्यो ( ) अवान्तरकिट्टिभ्यः स्वसंख्येयभागेनाऽधिका माने मायातया सर्वथा परिणते मायाप्रथम संग्रह - किट्टेवान्तरकियो भवन्ति स्म । (४) ततो मायातृतीय संग्रह किट्टौ लोभप्रथम संग्रहकिट्टितया परिणतायां लोभप्रथम संग्रहकिट्टेवान्तरकिट्टयः संख्येयभागेनाऽधिका भवन्ति स्म । कथमेतद् निश्चीयते ? इति चेत्, उच्यते—–मायातृतीयसंग्रह किट्टिदले लोभप्रथम संग्रह किट्टितया परिणते लोभप्रथम संग्रह किट्टिदलस्य द्वाविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वाद् ( ३३ ) लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रतिबद्धाऽवान्तरकियोऽपि द्वाविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणा ( ३ ) जायन्ते स्म । तेन मायाप्रथमसंग्रह किट्टिप्रतिबद्धाभ्य Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] खवगसेढी [ गाथा-१९५ एकोनविंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणाभ्यो (१६) अवान्तरकिट्टिभ्यः स्वसंख्येयभागेनाऽधिका मायायां लोभतया सर्वथा परिणतायां लोमप्रथमसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयो जायन्ते स्म । ततोऽपि लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टि वेदयतः प्रथमसमयकृतसूक्ष्मकिट्टयो विशेषाधिका भवन्ति । ननु लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये सत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागमानं दलिकं गृहीत्वा सूक्ष्माः किट्टीः करोतीति प्रागुक्तम् । अथ मायातृतीयसंग्रहकिट्टौ लोभप्रथमसंग्रहकिट्टितया परिणतायां मोहनीयसकलदलस्य द्वाविंशतिचतुर्विंशतिभागकल्पेन दलेन निर्तिताभ्यो लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिभश्चतुर्विंशतिचतुर्विंशतिभागप्रमाणमोहनीयसकलदलस्याऽसंख्येयभागकल्पेन दलेन विशेषाधिकाः सूक्ष्मकिट्टीः कथं निर्वतयेत् ? यतोऽसंख्येयभागप्रमाणदलेन लोभप्रथमसंग्रहकिट्टथवान्तरकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमिता एव सूक्ष्मकिट्टिकरणप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टयो निवर्तयितव्या इति चेत् , उच्यते-सत्यम् , यदि प्रथमसमययेकैकसूक्ष्मकियां बादरसंग्रहकिट्टिगतेकैकावान्तरकिट्टिदृश्यमानदलतुल्यं दलं प्रक्षिपेत् , तीसंख्येयमागप्रमाणाः सूक्ष्मकिट्टीनिर्वतयेत् । किन्तु सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये बादरसंग्रहकिट्टिप्रतिवद्धैकैकावान्तरकिट्टौ यावद् दलं दृश्यमानं भवति, ततोऽसंख्येयगुणहीनं दलमेकैकस्यां सूक्ष्मकिट्टौप्रक्षिपति । कथमेतदवसीयत ? इति चेत् , उच्यतेद्विशततमगाथया सूक्ष्मकिट्टितो बादरप्रथमावान्तरकिट्टयामसंख्येयगुणं दलं दृश्यमानं वक्ष्यति । सूक्ष्मकिट्टौ च दृश्यमानस्य दलस्य दीयमानदलतोऽनतिरिक्तत्वाद् बादरावान्तरकिट्टिदृश्यमानदलतः सूक्ष्मकिट्टी दीयमानं दलमसंख्येयगुणहीनं सिध्यति । तेन सत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागकल्पं दलं गृहीत्वैकैकवादरावान्तरकिट्टिदृश्यमानदलतोऽसंख्येयगुणहीनं दलमेकैकमूक्ष्मकिट्टयां तथा प्रक्षिपति, यथा मायायां लोभकिट्टितया परिणतायां लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिसकलावान्तरकिट्टितः सूक्ष्मकिट्टयो विशेषाधिकाः समुत्पद्यन्ते । अत एव मायायाः सर्वथा लोभतया परिणतो सत्यां लोभप्रथमसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टितः प्रथमसमयकृतसूक्ष्मकिट्टीनां विशेषाधिक न विरुध्यते । पश्यन्तु पाठकाः यन्त्रकम्-२५ ॥१९३-१९४॥ किट्टिकरणाद्धायां येन विधिना किट्टीनिवर्तयति, तेनैव विधिना सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां सूक्ष्मकिट्टीनिवर्तयति । एतदेव विस्तरतो विभणिपुराह करइ सुहुमकिट्टीउ असंखगुणूणकमेण अणुसमयं । पडिसमयमसंखगुणकमेण दलं देइ सुहुमासु ॥ १९५॥ करोति सूक्ष्मकिट्टीरसंख्यगुणोनक्रमेणाऽनुसमयम् । प्रतिसमयमसंख्यगुणक्रमेण दलं ददाति सूक्ष्मासु ॥ १९५ ।। इति पदसंस्कारः । 'करई' इत्यादि, तत्र 'अनुसमय समये समये 'असंख्यगुणोनक्रमेण' असंख्येयगुणहीनक्रमेण सूक्ष्मकिट्टीः 'करोति' निर्वर्तयति । अयं भावः-लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टि वेदयन् सूक्ष्मकिट्टि Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेडी ] लो ****** १ भः ......................... *****... यन्त्रकम् - २५ (चित्रम् - २५) कोवप्रथम संग्रह किट्टिवेदनप्रथम समयतः संग्रह किट्टवान्तरकिट्टीनां चित्रम् २ १ का क्रा संज्वलनक्रोधस्य नाशे सति चित्रम् 3 मा १ भः भः 3 ३ २ १ मा या १ मा नः 3 ३ २ मा मा ३ संज्वलनमाने क्षीणे चित्रम् अवान्तरकियो विशेषाधिकाः 'अवान्तकियो अवान्तरकिंदृयः स्तोकाः(23) U: १ १ नः विशेषाधिका: (i) या मायायां क्षयं गतायां चित्रम् अवान्तरकियों 'विशेषाधिका: (22) 'लो भः लोभ द्वितीयसंग्रह किट्टि प्रथमसमये सूक्ष्म किट्टीनां चित्रम् सुक्ष्मकिय विशेषाधिकाः. [ ३६६ सङ्कतस्पष्टीकरणम्ः - १ - प्रथम संग्रह किट्टिः । २- द्वितीयसंग्रह किट्टिः । ३ - तृतीयसंग्रह किट्टि : (पृष्ट परावर्तयन्तु पाठकाः) Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेखवगढी ] संक्षेपतश्चित्रविवरणम्ः - (चित्रम् - २५ ) (१) क्रोधप्रथम संग्रह करवान्तरकिट्टयः प्रथमचित्रे दर्शिताः । तेन ताः स्तोकाः । (२) क्रोधे क्षीणे मानप्रथम संग्रह किया अवान्तर किट्टयः द्वितीयचित्रे दर्शिताः । तेन ताः क्रोधप्रथमसंग्रह किट्टवान्तरकिट्टितः संख्ये भागेना -ऽधिकाः । आधिक्यं च चित्रे स्पष्टतया दर्शितम् । (३) माने क्षीणे मायाप्रथम संग्रह किट्टेश्वान्तर किट्टयः संग्रह किट्टवान्तरकिट्टितः संख्येयभागेना ऽधिकाः । आधिक्यञ्च चित्रे सुम्पष्टम् । [ ३६६ तृतीयचित्रे प्रदर्शिताः, तेन ता मानप्रथम (४) मायायां क्षीणायां लोभप्रथम संग्रह किया अवान्तरकिट्टय चतुर्थचित्रे दर्शिताः तेन ता मायाप्रथमसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टितः संख्येयभागेना-ऽधिकाः, आधिक्यं च चित्रे स्पष्टम् । (५) लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिवेदनप्रथमसमये कृताः सूक्ष्म किट्टयो लोभप्रथम संग्रह किट्टवान्तरकट्टितो संख्येयभागेना-ऽधिकाः । आधिक्यं च चित्रे सुस्पष्टम् । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मकिट्टिा दलनिक्षेपविधिः ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ ३६७ करणाद्धाप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टीः प्रभूता निर्तयति, ततो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणहीना अपूर्वाः सूक्ष्मकिट्टीनिवर्तयति, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणहीना अपूर्वाः सूक्ष्मकिट्टीनिवर्तयति । एवं प्रतिसमयमसंख्येयगुणहीनक्रमेणाऽपूर्वाः सूक्ष्मकिट्टीस्तावद् निर्वर्तयति, यावत् सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाचरमसमयः । अभ्यधायि च कषायप्राभतचूर्णी-"सुहुमसांपराइयकिटीओ जाओ पढमसमए कदाओ, ताओ बहुगाओ। विदियसमये अपुवाओ कोरंति असंखेज्जगुणहोणाओ। अणंतरोवणिधाए सव्विस्से सुहमसापराइयकिटीकरणडाए अपुव्वाओ सुहुमसांपराइयकिटोओ असखेज्जगुणहीणाए सेढीए कोरंति।" इति । __अथ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां वर्तमानोऽनन्तगुणवृद्धायां विशुद्धयां प्रवर्धमानः सूक्ष्मकिट्टिषु प्रतिसमयमसंख्यातगुणक्रमण दलं प्रक्षिपतीति ज्ञापनार्थमाह-पउिसमय०' इत्यादि, प्रतिसमयमसंख्यगुणक्रमेण दलं सूक्ष्मासु किट्टिषु 'ददाति' निक्षिपति । तथाहि-सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये सक्ष्मकिट्टिषु स्तोकं दलं ददाति । ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं दलं सक्ष्मकिट्टिषु ददाति ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणं दलं सूक्ष्मकिट्टिषु ददाति । एवं प्रतिसमयमसंख्यगुणक्रमेण सूक्ष्मकिट्टिषु दलं तावद् ददाति, यावत् सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः । भणितं च कषायप्राभूतचूर्णी "सुहुमसांपराइयकिटीसु पढमसमये पदेसग्गं दिज्जदि, तं थोवं, विदियसमये असंखेज्जगुणं। एवं जाप चरिमादो त्ति असंखेज्जगुणं ।” इति ॥१९५।। सूक्ष्मकिट्टिषु सामान्यतो दलनिक्षेपं विधाय सामान्यज्ञानस्य विशेषजिज्ञासायां हेतुत्वात् प्रथमसमये क्रियमाणासु सूक्ष्मकिट्टिषु विशेषतो दलनिक्षेपविधि प्रसङ्गतश्च बादरकिट्टिषु दलनिक्षेपविधिं विभणिषुराह पढमसुहुमाअ देइ दलं बहु उप्पिं विसेसहीणकमेणं बादरपढमाम असंखगुणूर्ण उवरिमासु य विसेसूणं ॥१९६॥ (आर्यागीतिः) प्रथमसूक्ष्मायां ददाति दलं बहूपरि विशेषहीनक्रमेण । बादरप्रथमायामसंख्यगुणोजमुपरितनीषु च विशेषोतम् ॥१९६॥ इति पदसंस्कारः । 'पढम' इत्यादि, सत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागप्रमितं दलिकं गृहीत्वा सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये 'प्रथमसूक्ष्मायां' प्रथमसमयेन याः सूक्ष्मकिट्टयो क्रियन्ते, तासां या सर्वजघन्या किट्टिः, सा प्रथमसूक्ष्मकिट्टिरुच्यते, तस्याम् , 'दलं' प्रदेशाग्र 'बहु' प्रभूतं ददाति । 'उप्पिं' इत्यादि, 'उपरि' प्रथमसूक्ष्मकिट्टया उपरि विशेषहीनक्रमेण दलं ददाति । भावार्थः पुनरयम्-सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये जघन्यायां सूक्ष्मकिट्टी प्रभूतं प्रदेशाग्रं ददाति । ततोऽनन्तभागेन हीनं द्वितीयस्यां सूक्ष्मकिट्टौ ददाति । ततोऽप्यनन्तभागेन हीनं तृतीयस्यां सूक्ष्मकिट्टौ ददाति । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] खवगसेढी [ गाथा-१९६ एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति , यावच्चरमसूक्ष्मकिट्टिः । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णी-"सुहुमसांपराइयकिटोसु पढमसमये दिजमाणगस्स पदेसग्गस सेटिपरूवणं वत्तहस्सामो । तं जहा-जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । बिदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । तदियाए विसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए गंतूण चरिमाए सुहुमसांपराइयकिटीए पदेसग्गं विसेसहोणं ।” इति । पूर्वार्धस्थं 'देइ दलं ति पदव्यमुत्तरार्धेऽप्यनुवर्तते । लोभद्वितीयसंग्रहकिलोभतृतीयसंग्रहकिटेश्चावान्तरकिट्टयो बादरकिट्टय उच्यन्ते । तत्र 'बादरपढमाअ' ति 'बादरप्रथमायां' चरमसमकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिद्विप्रथमावान्तरकियामित्यर्थः, 'असंख्यगुणोनम' असंख्येयगुणहीनं दलं ददाति । तत उपरितनीषु च वादरकिट्टिषु 'विशेषोनं' विशेषहीनं यथाक्रमं निक्षिपति । यदवाचि कषायप्राभूतचूर्णी-"चरिमादो सुहुमसांपराइयकिट्टीदो जहण्णियाए बादरसांपराइयकिट्टीए दिजमाणगं पदेसग्गमसंखेजंगुणहीणं । तदो विसेसहीणं ।" इति । इदमत्र हृदयम्-सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये चरमसूक्ष्मकिट्टितोऽसंख्येयगुणहीनं दलं लोमतृतीयसंग्रहकिटेः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी प्रक्षिपति, ततोऽनन्तभागेन हीनं द्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रक्षिपति । ततोऽपि विशेषहीनं तृतीयपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रक्षिपति, एवं विशेषहीनक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावल्लोमतृतीयसंग्रहट्टियपूर्वावान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति, ततोऽपूर्वावान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं दलं प्रक्षिपति । ननु प्रस्तुतग्रन्थे कषायमाभतचूर्णी च बादराऽपूर्वावान्तरकिट्टीनां निवृत्तिस्तासु च दलनिक्षेपो नोक्तः, तत्र तु बादरकिट्टिषु विशेपहीनक्रमेण दलनिक्षेपः प्रतिपादितः, न त्वन्तरे निर्वय॑मानायामपूर्वाऽवान्तरकिट्यामसंख्येयगुणः, अतो-ऽनुक्तो दलनिक्षेपः प्रामाणिको भवितुं नार्हति ? इति चेत् , मैवम् , यतः किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये प्रकृतग्रन्थे कषायप्राभतचूर्णी च वेद्यमानसंग्रहकिट्टित इतरसंग्रहकिट्टावपूर्वावान्तरकिट्टीनां निवृत्तिस्तासु च दलनिक्षेपोऽभिहितः । ततः किट्टिवेदनाद्धाशेषसमयेष्वनुक्तोऽप्युक्तो ज्ञातव्यः, अप्रतिषेधात् । उक्तार्थस्य च पुनः कथने ग्रन्थगौरवं परित्यज्य फलविशेपान्तराऽसंभवः । न च किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयप्रवर्तमानप्ररूपणायाः शेषसमयेष्वप्रतिषेधेऽपि किट्टिवेदनाद्धायां सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयतः प्रभृत्यपूर्वावान्तरकिट्टयो न निर्वय॑न्ते, दलनिक्षेपस्य बादरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण विहितत्वादिति वाच्यम् , दलनिक्षेपस्य सामान्यतो विशेषहीनक्रमेणविहितत्वेन तथाऽनिष्टत्वात् । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते--तृतीयसंग्रहकिट्टो संक्रम्यमाणदलतः सूक्ष्मकिट्टिषु संख्यातगुणं दलं संक्रम्यते, तच्च दर्शितं दिनवत्यधिकशततमगाथया । तेन सूक्ष्मकियां संक्रम्यमाणदलतस्तृतीयसंग्रहकिट्टो संक्रम्यमाणदलं संख्यातगुणहीनं जायते, तथा लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयोऽपि सूक्ष्मकिट्टितः संख्यातगुणहीना भवन्ति, लोभतृतीयसंग्रह Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादरकिट्टषु दलप्रक्षेपः ] [ ३६९ , किट्ट्यवान्तरकिट्टीनां मोहनीयस कलावान्तरकिट्टये कचतुर्विंशतिभागप्रमाणत्वात् सूक्ष्मकिडीनां पुनमोहनीय कलावान्तर कट्टि द्वाविंशति चतुर्विंशतिभागकल्पाभ्यो लोभप्रथम संग्रह किट्टवान्तरकिट्टिभ्योऽपि विशेकत्वात् । तेन यदि चरमसूक्ष्मकिट्टितोऽसंख्येयगुणहीनं दलं लोभतृतीय संग्रहकिद्विप्रथमावान्तरकिट्टौ प्रक्षिप्य विशेषहीनक्रमेण सूक्ष्मकिट्टीनां संख्येयभागप्रमाणासु लोभतृतीयसंग्रह किट्टिगताऽवान्तरकिट्टिषु दलं प्रक्षिपेत् तर्हि तृतीयसंग्रह किट्टौ निक्षिप्यमाणं दलं सूक्ष्मकिट्टिषु निक्षिप्यमाणदलतोऽसंख्यातगुणहीनं स्यात् । ततश्च द्विनवत्यधिकशततमगाथया सूक्ष्मकिट्टिषु संक्रम्यमाणदलतः संख्यातगुणहीनं दलं तृतीयसंग्रह किट्टौ संक्रमयतीति यदुक्तम्, तद् न सङ्गच्छेत । संक्रम्यमाणदलस्याऽल्पबहुत्वं तु संगमयितुमपूर्वाऽवान्तरकियो निर्वर्तथितव्याः, तासां निर्वृत्तिस्त्ववान्तरकिट्टयन्तरेषु संभवति । कुतः ? इति चेत्, उच्यते- चरमसूक्ष्म किट्टितः प्रथमबादरकिट्टावसंख्येयगुणहीनं दलं ददातीति विहितम्, यदि लोभतृतीयसंग्रह किट्टयन्तरे लोभतृतीयसंग्रहकिय पूर्वावान्तरकिट्टीः कुर्यात्, तर्हि लोभ तृतीय संग्रह किट्टि पूर्वावान्तर किट्टिभिः सहाऽभिनवानां क्रियमाणानां लोभतृतीयसंग्रह कियवान्तरकिट्टीनां दलमेकगोपुच्छाकारेण कतु चरमसूक्ष्मकिट्टितोऽसंख्येयगुणं दलं निक्षिपेत् । न चाऽनेन विधानेन दलनिक्षेपोऽभिहितः । तेनेदानीं लोभतृतीयसंग्रह कियन्तरे लोभतृतीयसंग्रह कियपूर्वावान्तरवििट्टयो न निर्वर्त्यन्ते । किन्तु तृतीयसंग्रह किट्टेवान्तरकियन्तरेषु निर्वर्त्यन्ते, ताथ न निरन्तराः, किन्तु पूर्ववत् ल्योपमा प्रथम वर्गमूलाऽसंख्येपभागप्रमाणासु पूर्वावान्तरकिट्टिषु व्रजितास्वे कैका पूर्वावान्तर कट्टर्न । किट्टवेदनाद्वाधिकारः अथ प्रस्तुतमनुसरामः- ततोऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टितः पूर्वाऽवान्तरविद्वावसंख्यातगुणहीनं दलं ददाति । ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति यावदपूर्वाऽवान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति । ततोऽपूचवान्तरकिट्टावसंख्येयगुणं दलं ददाति । ततः पूर्वाऽवान्तरविद्वावसंख्येयगुणहीनं दलं ददाति । तत ऊर्ध्वं विशेषहीनक्रमेण ददाति । एवंक्रमेण पूर्वाऽवान्तरकिट्टिषु तावद् ददाति, यावल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । ततो लोभतृतीयसंग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानदलतो विशेषहीनं दलं लोभद्वितीयसंग्रहकट्टेः प्रथमावान्तरकिट्टौ ददाति, ततोऽपि विशेषहीनं द्वितीयस्यामवान्तरकिट्टौ ददाति, ततोऽपि विशेषहीनं तृतीयस्याम् । एवंक्रमेण तावद् ददाति यावल्लोभद्वितीय संग्रह किट्टिचरमान्तरकट्टिः । नवरं यत्र यत्र बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिर्निर्वर्त्यते, तत्र तत्र प्राक्तनावान्तरकिट्टी दबन्धदलतोऽनन्तगुणं बन्धदलं ददाति बन्धापूर्वावान्तरकिट्ट्यां च दत्तबन्धदलतो बन्धपूर्वावान्तरकिट्टी बन्धदलमनन्तगुणहीनं ददाति । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] खवगसेढी [ गाथा-१९६ अथ गणितविभागः। लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धावरमसमये लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टयश्चैकगोपुच्छाकारेण तिष्ठन्ति स्म । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टितः सूक्ष्मकिट्टिषु, द्वितीयसंग्रहकिट्टितस्तु तृतीयसंग्रहकिट्टौ सूक्ष्मकिट्टिषु च प्रदेशाग्रं संक्रमयति । तेन स्वस्थानगोपुच्छाकारो विनश्यति । तथाऽनुसमया-ऽपवतैनाघातेन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेस्तृतीयसंग्रहकिटेश्वोपरितनीरसंख्येयभागमात्रीरवान्तरकिट्टीविनाशयति । तेन परस्थानगोपुच्छाकारो विनश्यति । इदमुक्तं भवति-लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमानान्तरकिट्टौ दलमेकचयेन हीनमासीत् । साम्प्रतं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टरुपरितनीरसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीविनाशयति । तेनाऽसंख्येयभागमात्रीष्ववान्तरकिट्टिषु घातितासु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टितो लोमरतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमा-ऽवान्तरकिट्टावेकाधिक-घाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणचयीनं दलं जायते ।। ___ अथ घातदलतो लोभतृतीयसंग्रहकिदृयवान्तरकिट्टिषु लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिषु च यथायोग्यं दलं दत्वा स्वस्थानगोपुच्छाकारो रचयितव्यः ।। परस्थानगोपुच्छाकाररचनम् लोभद्वितीयसंग्रहकिटेर्याताऽवान्तरकिट्टीनां घातदलं गृहीत्वा लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टौ तृतीयसंग्रहकिट्टिघाताऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति, ततः परं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीया-ऽऽद्यवान्तरकिट्टिषु तावतश्चयांस्तावत् प्रक्षिपति, यावलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टियातिताऽवशेषचरमाऽवान्तरकिट्टिः । इत्थं घातदलतो दलिके प्रक्षिप्ते लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टितः प्रभृति लोभद्वितीयसंग्रहकिटे_तितावशेषचरमाऽवान्तरकिट्टि यावत प्रदेशाग्र गोपुच्छाकारेण दृश्यते । इदं च सुखावबोधार्थमसत्कल्पनया दश्यते । कल्प्यन्तां लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टौ विंशतिरवान्तरकिट्टयस्तृतीयसंग्रहकिट्टौ च दशावान्तरकिट्टयस्तथा लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टयामेककोटी (१,००,००,००० ) प्रदेशाः, चयस्त्वेकलक्षप्रदेशमात्रः। स्थापना लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिः प्रथमा द्वितीया तृतीया चरमा (दशमी) १००००००० ९९००००० १८००००० ९१०००००। लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिः प्रथमा द्वितीया तृतीया चरमा (२० तमी) प्रदेशाः ९०००००० ८९००००० ८८००००० ७१००००० । अथ लोभतृतीयसंग्रहकिटेश्वतस्रो (४) लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेवाऽष्टाववान्तरकिट्टयो पात्यन्त इति कल्प्यताम् । ततश्चतसृष्ववान्तरकिट्टिषु घातितासु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टी पञ्च Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ३७१ ] यन्त्रकम्-२६ (चित्रम्-२६) [ खबगसेढी सूक्ष्म किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये वादरकिट्टीनां परस्थानगोपुच्छाकाररचना बादरकिट्टीनां स्थापना संक्षेपतो विवेचनम् इह परमार्थतो लोभतृतीयसंग्रहकिटौ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टौ चा-ऽनन्ता अवान्तरकिट्टयो भवन्ति, किन्त्वसत्कल्पनया तृतीयसंग्रहकिट्टौ दश (१०),द्वितीयसंग्रहकिट्टीच विंशतिः (२०) दर्शिताः। अथ तृतीयसंग्रहकिट्टयाश्चतस्रः (४) द्वितीयसंग्रहकिट्टयाश्चाष्ठावान्तरकिट्टयोऽनुसमया-ऽपवर्तनया घात्यन्ते । ताश्च परमार्थतस्तत्तत्संग्रहकिट्टया असंख्येयभागप्रमाणाः । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टि प्रथमावान्तरकिट्टौ १,००,००,००० प्रदेशाः । ततो १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ ३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ यथोत्तरं १,००,००० प्रदेशात्मकचयेन हीना लो भ तृ तो य संग्रह कि टिः भ द्वि ती य संग्रह कि तिः । हीनतराः । तेन तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तर| लो | किट्टौ ९१,००,०००, द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ च ९०,००,००० प्रदेशाः, एकचयेन हीना इत्यर्थः, चित्रे हानिदर्शनार्थ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टी द्वादश (१२) बिन्दवो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टयाञ्चैकादश (११) बिन्दवो दर्शिताः। असंख्येयभागप्रमाणानां बादरकिट्टीनां घाते जाते वादरकिट्टीनां स्थापना ___ असंख्येयभागप्रमाणानां बादरकिट्टीनां घाते जाते-ऽसत्कल्पनया लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाश्चतस्तृणामवान्तरकिट्टीनां घाते जाते तृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टित एकाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिघातावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणैः पञ्चभिश्चर्यहीनाः प्रदेशा द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्री, यतो या षष्ठी अवान्तरकिट्टिरासीन ,सैबा-ऽधुना लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयाश्वरमावान्तरकिट्टिः, तस्यां च ९५००००० प्रदेशाः,तेन ५००००० प्रदेशैहीना द्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टी ९०००००० प्रदेशा भवन्ति । तद्योतनाय चित्रे लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टौ १३ बिन्दवः, लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टयाञ्च ११ बिन्दवो दर्शिताः, एवं च बिन्दुद्वयहानिर्दर्शिता, उपरितने चित्रे त्वेकबिन्दुहानिर्दर्शिता । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिः लोभ-द्वितीय-संग्रह-किट्टिः T KAJALRM4MTKXXILAIGARM RKARINAKAL. COM SALARAKICHIKI RAJSIL.JAGRICKMAKAL 1383000NO600XNJLLN830889 RA TWITTER 8.66300036383 XXRAKA33004308304638 30LSKINERNMENEERICRA AITRINAKKAR XXLL20RRICULALI . 2 . . ३५"ONR Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ ] LORDLIRLOD . A CICCHCHOCOROSCRISIC CAMERA MANORRENTS 10........ CROBACCOMSCHOKANCS यन्त्रकम्-२६ (चित्रम्-२६) [ खवगसेढी परस्थानगोपुच्छाकाररचना ____ चलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिघातावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ प्रक्षिपति । एकैकच यस्य च १००००० प्रदेशात्मकत्वकल्पनात् ४००००० प्रदेशान् प्रक्षिपति । तेन लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टयां ९४००००० प्रदेशा भवन्ति । तदेवं लोभतृतीयसंग्रह किट्टिचरमावान्तरकिट्टिप्रदेशतः (.९५०००००६) लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टयामेकचयेन (१००००० हीनाः प्रदेशा भवन्ति । तद्योतनाय प्रस्तुचित्रे लोभ तृतीयसंग्रहकिटिचरमावान्तरकिटौ १३ बिन्दवः, लोभद्वितीयसंग्रहकि१२३४५६७८९ १० ११ १२ ट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ च १२ बिन्दवो दर्शिताः । ततः परं सर्वत्र तावतः लोद्वितीयसंग्रहकिट्टिः (४०००००) प्रदेशान् निक्षिपति। प्रक्षिप्तेषु च तेषु प्रदेशेषु सर्वाऽवा न्तरकिट्टय एकगोपुच्छाकारेण प्रदेशापेक्षया भवन्ति । RECCCCXXXKARA 06.28 ....... LALKILLMILM NILE . 0. ......... ..... २३५६ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिः SANA VIDEO Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्थानपरस्थानगोपुच्छाकाररचनाः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३७१ नवतिलक्षाणि (९५०००००) प्रदेशा भवन्ति, षष्ठाऽवान्तरकिट्टित्वात् तस्याः । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ तु प्रदेशाः पूर्ववद् नवविलक्षाणि (९००००००) विद्यन्ते । तदेवं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टितो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टोपश्चलींनाः प्रदेशा भवन्ति, एकचयस्य चैकलक्षप्रदेशमात्रत्वात् पञ्चभिश्चयैींना भवन्ति । लोभद्वितीयसंग्रहकिटेश्वाऽटास्ववान्तरकिट्टिषु घातितासु चरमाऽवान्तरकिट्टी प्रदेशा नवसप्ततिलक्षाणि (७९०००००)भवन्ति । ___ अवान्तरकिट्टीनां घाते जाते स्थापना लोभतृतीयसंग्रहकिट्टयपान्तरकिट्टि : प्रथमा द्वितीया तृतीया । चरमा (षष्ठी) प्रदेशा : १००००००० ९९००००० ९८००००० ९५००००० लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिः प्रथमा द्वितीया तृतीया चरमा (द्वादशी) प्रदेशा : ९०००००० ८९००००० ८८००००० ७९००००० तेन द्वितीयसंग्रहकिट्टिघातदलतो दलमादाय लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टितः प्रभृति घातितावशेषचरमावान्तरकिट्टि यावत् सर्वास्ववान्तरकिट्टिषु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिघातावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाश्चत्वारश्चयाः प्रक्षेप्तव्याः,एकवयस्य चैकलक्षप्रदेशप्रमितत्वाच्चतुर्लक्षाणि प्रदेशाः प्रक्षेप्तव्याः । एवं प्रक्षिप्तेषु प्रदेशेषु परस्थानगोपुच्छरचना जायते । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२६ । स्थापना लोभतृतीयसंग्रहकिट्ययान्तरकिट्टि : प्रथमा द्वितीया तृतीया चरमा (षष्ठी) प्रदेशा : १००००००० ९९००००० ९८००००० ९५००००० लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टिः प्रथमा द्वितीया तृतीया । चरमा (द्वादशी) प्रदेशा : ९४००००० ९३००००० ९२००००० ८३००००० इह लोभतृतीयसंग्रहकिटौ संक्रमतोऽपूर्वावान्तरकिट्टीनिवर्तयन् संक्रमदलतः पूर्वावान्तरकिट्टिष्वपि मध्यमखण्डादिरूपेण दलं प्रक्षिपति । वेद्यमानसंग्रहकिट्टी तु स्वपूर्वावान्तरकिट्टिषु वक्ष्यमाणाऽधस्तनशीषेचयमध्यमखण्डोभयचयदलं यद् दास्यति, तद्घातदलत एव दास्यति । तच्च पृथक्स्थापयितव्यम् । अथ स्वस्थानगोपुच्छरचनाय प्रक्षिप्तदलं तथा परस्थानगोपुच्छरचनाय दत्तदलं पृथक्स्थापितं च लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवक्ष्यमाणाऽधस्तनशीर्षचयमध्यमखण्डोभयचयदलमित्येतद्दलसमूहः सर्वघातदलतो विशोध्य शेषसर्वघातदलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टितः प्रभृति लोद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टि यावत् सर्वासु घातरहितास्ववान्तरकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । गणितरीत्या च निक्षेपः किट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयवद् दर्शयितव्यः । अथ तृतीयसंग्रहकिट्टौ सूक्ष्मकिट्टिषु च संक्रमेणाऽऽगतदलस्य लोभद्वितीयसंग्रहकिटेच बध्यमानत्वेन तत्र बन्धत आगतस्य दलस्य तथा पृथक्स्थापितघातदलस्याऽधस्तनशीषचयदलादिभिः प्ररूपणा क्रियते Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] खवगसेढी [ गाथा-१९६ तत्रादौ तावत् सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये बादरकिट्टितः सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलं विभागद्वये विभजनीयम्-(१) सूक्ष्मकिट्टिचयदलं (२) सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलं चेति । अथ सूक्ष्मकिटिचयदलम्-सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलं पदेन विभक्तव्यम् । विभक्ते च मध्यमदलं प्राप्यते । तदप्यीकृतैकोनपदार्धन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्या विभज्यते, तदैकसूक्ष्मकिट्टिचयदलं प्राप्यते । तच वक्ष्यमाणसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डस्याऽनन्ततमभागमात्रं भवति । पदं त्वत्र सूक्ष्मकिट्टिराशिर्बोध्यम् । चरमसूक्ष्मकिट्टयामेकं सूक्ष्मकिट्टिचयं ददाति, विचरमसूक्ष्मकिट्टी द्वौ सूक्ष्मकिट्टिचया ददाति । एवं पश्चानुसूयकोत्तरवृद्धया तावद् ददाति, यावत् प्रथमसूक्ष्मकिट्टिः । ते च सक्ष्मकिट्टिचयाः"सैकपदध्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल संकलिताख्या” इति करणसत्रेण सङ्कलयितव्याः । सङ्कलितैः सर्वैः सूक्ष्मकिट्टिचयैरेकसूक्ष्मकिट्टिचवगतदलं गुण्यते, तदा सर्वसूक्ष्मकिट्टिचयदलं प्राप्यते । सूक्ष्मकिसिमानखण्उदलम्-सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाप गृहीतसकलदलतः सूक्ष्मकिट्टिचयदलं विशोध्य शेषदलं सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलमुव्यते । तच सूक्ष्मकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकं सक्ष्मकिट्टिसमानखण्डं प्राप्यते । तच्च वक्ष्यमाणवादरकिट्टिसंक्रममध्यमखण्डतोऽसंख्येयगुणं भवति । एकैकस्यां च सूक्ष्मकिट्टावविशेषेणैकैकं सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डं दातव्यम् । अथ बादरावान्तरकिटोनामधस्तनशीर्षचयादिदलं निरूप्यते (१) अधस्तनशीर्षचयदलम्-लोभस्य तृतीयसंग्रहकिट्टेः प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टौ प्रभूतं दलं विद्यते, तत एकचयेन हीनं द्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टो विद्यते । एवंक्रमेण तावद् विद्यते, यावलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । समकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये सर्वपूर्वावान्तरकिट्टयस्तेन क्रमेण पूरयितव्याः, येन सर्वपूर्वावान्तरकिट्टयः प्रदेशानाश्रित्य लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टितुल्या भवेयुः । अतो लोमतृतीयसंग्रहकिट्टेर्दितीयपूर्वावान्तरकिट्टावेकचयं ददाति । तृतीयपूर्वावान्तरकिट्टी द्वौ चयौ ददाति । एवमेकोत्तरवृद्धया तावद् ददाति, यापल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिवरमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिः । निक्षिप्यमाणाश्चैते चया अधस्तनशीचया उच्यन्ते । ते च "सैकपदध्नपदार्धमथैकायङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या।” इति गणितकरणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः। पदं त्वत्रकोनलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिर्बोध्यम् । सङ्कलिताऽवस्तनशीचियरेकावस्तनशीर्षचयदलं गुण्यते, तदा तृतीयसंग्रहकिट्टिसर्वा-ऽधस्तनशीर्षचयदलं प्राप्यते । तच्च लोभनृतीयसंग्रहकिट्टौ संक्रम्यमाणदलतो दातु पृथक्स्थापयितव्यम् । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधस्तनशीर्षचयादिदलम् ] किदिवेदनाद्धाधिकारः [ ३७३ न्यास: तृतीयसंग्रइकिट्टेः सर्वेऽधस्तनशीर्षचयाः = (पदम् + १) ४ । तृतीयसंग्रहकट्टिसविस्तनशीपचयदलम् :- सविस्तनशीर्षचयाः एकाधस्तनशीर्षचयदलम् ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टौ लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । ततो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयावान्तरकियामेकाधिकान् लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति, एवमेकोत्तरवृद्ध्या तावत्प्रक्षिपति, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमावान्तरकिट्टिः । अनेन क्रमेण लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टी दीपमानाश्चयाः "व्येकपदनचयो मुखयुक् स्यादन्त्यधनं मुखयुग्दलितं तत् । मध्यधनं पदसंगुणितं तत् सर्वधनं गणितं च तदुक्तम् ।" इति गणितकरणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । अत्र मुखम्= आदिधनम् , तच्च लोभतृतीसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिद्विराशिप्रमाणाश्चयाः। चयश्चैको ज्ञातव्यः, एकोत्तरवृद्धिदर्शनात् । पदं तु लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिट्टिराशिर्बोध्यम् । न्यास:अन्त्यधनम् = (पदम् - १) x चयः + आदिधनम् अन्त्यधनम् + आदिधनम मध्यधनम् = र .:. लोनद्वितीयसंग्रहकिट्टेः सर्वेऽधस्तनशीपचयाः = मध्यधनम् ४ पदम् द्वितीयसंग्रहकिट्टिसर्वाऽधस्तनशीचयैरेकाऽधस्तनशीचियदलं गुण्यते, तदा लोभद्वितीयसंग्रहफिट्टिसकलाऽधस्तनशीर्षचयदलं प्राप्यते । तच्च घातदलतो दातु पृथक्स्थापयितव्यम् । (२) अपूर्वावान्तरकिट्टिदलम्-लोभतृतीयसंग्रहकिटटेरवान्तरकिट्टयन्तरेषु या अपूर्वावान्तरकिट्टयो निर्वय॑न्ते, तातामेकैकस्यामपूर्वावान्तरकिट्टो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतप्रदेशतुल्यं दलिकं प्रक्षेप्तव्यम् , त चै काऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलमुच्यते । तत्पुनर्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टेरपूर्वावान्तरकिट्टिराशिना गुण्यते, तदा लोमतृतीयसंग्रहकिट्टिसर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलं प्राप्यते । तच्च तृतीयसंग्रहकिट्टो संक्रमेण प्राप्यमाणदलतो दातुं पृथक्स्थापयितव्यम् । अपूर्वाऽवान्तरकिटीनाश्च राशिलाभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वाऽवान्तरकिट्टी नामसंख्येवमागप्रमाणो ज्ञातव्यः, पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येयभागमात्रीषु पूर्वावान्तरकिट्टिषु ब्रजितास्वेकैकस्या अपूर्वावान्तरकिटेनित्तेः । (३) उभयचयदलम्-पूर्वोक्तदल ये यथायोग्यं प्रक्षिप्ते सर्वपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टयः समानदलिका जायन्ते । तासां दलिकं गोपुच्छाकारं कर्तुं लोभद्वितीयसंग्रहकिटेश्वरमावान्तरकिट्टावेकं चयं प्रक्षिपति । द्विचरमावान्तरकिट्टी द्वौ चयौ प्रक्षिपति । एवंक्रमण पश्चानुपूर्त्या लोभत्तीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टो पूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चयान् प्रक्षिपति । प्रक्षिप्यमाणचयाथोभयचया उच्यन्ते । सूक्ष्मकिट्टितया परिणम्यमानं मोहनीयदलिकं वर्जयित्वा शेष मोहनीयसत्तागत Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] खवगसेढी [ गाथा--१९६ दलं पदेन विभज्यते, तदा मध्यमदलं प्राप्यते । तत्पुनरीकृतैकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यते, तदैकखण्डं यल्लभ्यते, तदेकोभयचयदलं भण्यते । पदं त्वत्र बादरपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिख़तव्यम् । ___ इह लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसर्वावान्तरकिट्टिषु निक्षिप्यमाणा उभयचयाः “सैकपदन्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिताख्या” इति करणसूत्रेण संकलयितव्याः । पदं त्वत्र लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टथवान्तरकिट्टिराशिर्बोध्यम् । ___ संकलितैरुभयचयैरेकोभयचयदलं गुण्यते, तदा लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसर्वोभयचयदलं प्राप्यते । उभयचयदलं च लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेः पूर्वावान्तरकिट्टिषु घातदलतो बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिषु तु बन्धदलतो दीयते । तत्र बन्धदलतो बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिषु किश्चिन्न्यूनोभयचयदलं यद् दीयते, तद् बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलमिति परिभाषिव्यते । तच्च वक्ष्यमाणप्रकारेण सङ्कलय्य सर्वोभयचयदलतो विशोधयितव्यम् । विशोधिते च तस्मिन् शेषतः पुनरनन्ततमभागमात्रं दलं विशोधनीयम्, तावदलस्य बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिपु बन्धचयवन्धमध्यमखण्डस्वरूपेण बन्धदलतो दास्यमानत्वात् । शुद्धशेषमुभयचयदलं घातदलतो दातव्यम् । __ ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टावेकाधिकलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसकलावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् प्रक्षिपति । ततः पश्चानुपूव्यकोत्तरवृद्धयोभयचयान् प्रक्षिपति । ते च "व्येकपदनचयो मुखयुक् स्यादन्त्यधनं मुखयुग दलितं तत् । मध्यधनं पदसंगुणितं तत् सर्वधनं गणितं च तदुक्तम् ।" इति करणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । मुखमादिधनम् , तच्चाकाधिकलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिनकलावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाश्चयाः । चयस्त्वेकः, एकोत्तरवृद्धेः । पदं तु लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिबोध्यम् । न्यासः-लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ निक्षिप्यमाणाः सर्व उभयचयाः--. अन्त्यधनम् = (पदम् - १) + चयः + मुखम् मध्यधनम = अन्त्यधनम् + आदिधनम .. लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ निक्षिप्यमाणाः सर्व उभयचयाः -- मध्यधनम् ४ पदम् । तृतीयसंग्रहकिट्टिसर्वोभयचयैरेकोभयचयदलं गुण्यते, तदा लोपतृतीयसंग्रह किट्टिसर्वोभयचयदलं प्राप्यते । तच्च संक्रमदलतः पृथक्स्थापयितव्यम् । (४) मध्यमखण्डम्-लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ निक्षिप्यमाणमधस्तनशीर्षचयदलमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयदलमुभयचयदलञ्चेति दलत्रयं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ प्राप्यमाणसंक्रमदलतो विशोध्य तृतीयसंग्रहकिट्टेः शेषसंक्रमदलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकमध्य Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धदलनिरूपणम् ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ ३७५ मखण्डं प्राप्यते । तच लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिगतदलस्यासंख्येयभागमानं भवति । मतान्तरेण त्वनन्त मागमात्रं संभवति । इह प्रकरणे प्रथममतमाश्रित्य सर्व प्ररूपयिष्यते द्वितीयमतं तु प्रतीत्य स्वयमेव भावनीयम् , किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमय उभयमतेन दर्शितत्वात् ।। निरुक्तकमध्यमखण्डदलं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिपूर्वावान्तरकिद्विराशिना गुण्यते, तदा लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टः सर्वमध्यमखण्डदलं प्राप्यते । तच्च घातदलतो दातव्यम् । एकैकमध्यमखण्डं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसर्वपूर्वाऽवान्तरकिट्टिष्वविशेषेण दातव्यम् । ___लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टावधस्तनशीपचयदलमुभयचयदलं मध्यखण्डदलं चेति दलत्रिके यथायोग्यं प्रक्षिप्ते स्वस्थानपरस्थानगोपुच्छरचनाऽवसरे पृथक्स्थापितं घातदलं परिसमाप्तं भवति । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ च यथायोग्यमधस्तनशीर्ष चयादिदलचतुष्टये दत्ते तृतीयसंग्रहकिट्टयामागतं संक्रमदलं परिसमाप्तं भवति । अथ बन्धदलं बन्धाऽपूर्वावान्तरकिष्टिसमानखण्उदलादिभिर्विवर्ण्यते लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टियते । तेन तद्वन्धत आगतं दलमपि यथायोग्यं विभजनीयम् । तत्र बन्धदलं विभागचतुष्टये स्थापयितव्यम् । (१) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं (२) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं (३) बन्धचयदलं (४) बन्धमध्यमखण्डदलं चेति । (१) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिटिसमानखण्डदलम्-बन्धदलतो लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयामवान्तरकिट्टयन्तरेषु या अपूर्वानान्तरकिट्टयो निर्वयन्ते, तासामेकैकस्यामवान्तरकिट्टी बन्धदलत एकसंक्रममध्यमखण्डाधिकलोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिदलं दातव्यम् । तच्चैकं बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डमुच्यते । बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिनैकान्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डं गुण्यते, तदा सर्ववन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं प्राप्यते । न्यासः-एकबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलम् = १ संक्रममध्यमखण्डम् + लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिदलम् । सर्वबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलम् = १ बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलम् - बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिराशिः । (२) बन्धाऽपूर्वावान्तरकिटिचयदलम्-यदेकोभयचयदलं प्राक् साधितम् , तदनन्ततमभागेन न्यूनमेकवन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं भण्यते, - अथ लोभद्वितीयसंग्रहकिटेरधस्तनीरुपरितनीश्वाऽसंख्येयभागप्रमाणा अवान्तरकिट्टीविमुच्य शेषा लोभद्वितीयसंग्रहकिटेरवान्तरकिट्टयो बध्यन्ते । तत्राऽपि बन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टेधस्तादसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणा बन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टीयतिक्रम्य बन्धचरमापूर्वावान्तरकिट्टिनिर्व Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] खवगस्खेढी [ गाथा--१९६ यते । तस्यां च लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टित आरभ्य पश्चानुपूा यतिसंख्याका लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिबन्धचरमाऽपूर्वाऽवान्तरकिर्भिवति, तत्संख्याका बन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः प्रक्षेपणीयाः । ततः पुनरसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु पूर्वावान्तरकिट्टिषु गतासु द्विचरमबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिर्निर्वय॑ते, तत्र बन्धचरमाऽपूर्वावान्तरकिट्टितोऽसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलराशिप्रमाणैर्वन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयैरधिका बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयाः प्रक्षेप्तव्याः । एवं पश्चानुपूर्व्या बन्धाऽपूर्वावान्तरकियामसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणैरधिका अधिकतरा बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयास्तावद् दातव्याः, यावद् बन्धप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिः । एते च निक्षिप्यमाणाः सर्वे बन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः "व्येकपदनचयो मुखयुक् स्यादन्त्यधनं मुखयुक् दलितं तत् । मध्यधनं पदसंगुणितं तत्सर्वधनं गणितं च तदुक्तम् ।" इति करणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । मुखमादिधनम् , तच्चात्र लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिबन्धप्रथमाऽपूर्वावान्तरकिट्टिपर्यवसानाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणा बन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः, चयश्चाऽसंख्येयपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणबन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयाः । पदं पुनर्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिबन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिज्ञातव्यम् । न्यास: अन्त्यधनम् = ( पदम् - १) x चयः + आदिधनम् । मध्यधनम् = अन्त्यधनम् + आदिधनम। .:. लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिसर्वबन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचयाः = मध्यधनम् x पदम् । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयाः सर्वन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयैरेकबन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयदलं गुण्यते, तदा लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टेः सर्ववन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयदलं प्राप्यते । (३) बन्धचयदलम्-बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलं बन्धापूर्वाऽवान्तरकिट्टिचयदलं च बन्धदलतो विशोध्य शेषं बन्धदलं पदेन विभजनीयम् । विभक्त च मध्यमदलं प्राप्यते । तदप्यीकृतैकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यते, तदैकबन्धचयगतदलं प्राप्यते । पदं त्वत्र लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिबन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिफ़्तव्यम् । इह लोभद्वितीयसंग्रहकिटेर्बन्धचरमावान्तरकिट्टावेकं बन्धचयं ददाति, बन्धद्विचरमावान्तरकिट्टी द्वौ बन्धचयौ ददाति, एवं पश्चानुपूव्यकोत्तरवृद्धथा बन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु तावद् ददाति, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिबन्धजघन्यपूर्वावान्तरकिट्टिः । ते च बन्धचयाः “सैकपदन्नपदार्धमथैकाद्यङ्ग्युतिः किल सङ्कलिताख्या" इति गणितसूत्रेण संकलयितव्याः । पदं त्वत्र लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिबन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिर्बोध्यम् । एकबन्धचयदलं सर्वबन्धचयैगुण्यते, तदा सर्वबन्धचयदलं प्राप्यते । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या सूक्ष्मवादरकिट्टिषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३७७ (४) बन्धमध्यमखण्डम्-बन्धदलतः पूर्वोक्तबन्धदलत्रयं विशोध्य शेषबन्धदलं बन्धपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकं बन्धमध्यमखण्डं लभ्यते । तच्चैकैकं बन्धमध्यमखण्डं बन्धपूर्वापूर्व रावान्तरकिट्टिष्वविशेषेण दातव्यम् । वध्यमानपूर्वावान्तरकिट्टिषु येनाऽनन्ततमभागेन हीनं संक्रमोभयचयदलं बध्यमानाऽपूर्वावान्तरकिट्टिपु चोभयचयापेक्षया येनानन्ततमभागेन हीनं बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयदलं प्रक्षिप्यत, सोऽनन्ततमभागो वन्धमध्यमखण्ड़े यथायोग्यं च बन्धचयदले प्रक्षिप्ते परिपूर्यते । अथ सूक्ष्मकिटिषु लोभसंग्रहकिद्रिये च दीयमानदलविधिर्भण्यते सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये प्रथमसूक्ष्मकिट्टयामेकं सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डं सूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणांश्च सूक्ष्मकिट्टिचयान् ददाति । इदं च दीयमानं दलं सर्वप्रभूतं भवति । ततः परं द्वितीयसूक्ष्मकिट्टयामेकं सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डमेकोनसूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणांश्च समकिट्टिचयान् ददाति । इत्थं प्रथमसूक्ष्मकिट्टितोऽस्यां दीयमानं दलमेकसूक्ष्मकिट्टिचयेन हीनं भवति, सक्ष्मफिट्टिचयस्याऽनन्ततमभागमात्रत्वादनन्ततमभागेन हीनं दीयमानदलं भवति । ततः परमुत्तरोत्तरसूक्ष्मकिट्टावेक सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डमेकोत्तरहान्या च सूक्ष्मकिट्टिचयाँस्तावद् ददाति, यावचरमसूक्ष्मकिट्टिः । एकसूक्ष्मकिट्टिचयस्याऽनन्ततमभागमात्रत्वादुत्तरोत्तरसूक्ष्मकिट्टी दीयमानं दलमनन्तभागेन हीनं भवति । इत्थं सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलं परिसमाप्तं भवति । ___ अथ लोभतृतीयसंग्रहकिटि-चरमसूक्ष्मकिट्टित ऊचं बादरजघन्यकिट्टिस्वरूपायां लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाधान्तरकिट्टो संक्रमदलत एकं मध्यमखण्डं बादरपूर्वाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् ददाति । इदं च दीयमानं दलं चरमसूक्ष्मकिट्टी दीयमानदलतो-:संख्यातगुणहीनं भवति, सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डतो मध्यमखण्डस्या-ऽसंख्येयगुणहीनत्वादुभयचयदलस्या चाऽनन्ततमभागमात्रत्वेनाऽकिश्चित्करत्वात् । ___ ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टावेकाऽधस्तनशीर्षचयदलमेकोनबादरपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिप्रमाणानुभचयानेकं च मध्यमखण्डं ददाति । इत्थं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्ताकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानदलमेकाऽधस्तनशीर्षचयेनाधिकमकोभयचयदलेन च हीनं भवति । तेन लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानदलमेकाऽधस्तनशीपचयदलन्यूनैकोभयचयदलेन हीनं भवति । अधस्तनशीर्षचयदलस्योभयचयदलतो हीनत्वाल्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टौ दलमनन्ततमभागेन हीनं ददातीति सिध्यति । एवमग्रेऽपि भावनीयम् । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयपूर्वावान्तरकिट्टितः परमेकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकोत्तरहान्योभयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावत् Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] खवगढी [ गाथा - १९६ " प्रक्षिपति यावदपूर्वावान्तरकिट्टरप्राप्ता भवति । अपूर्वावान्तरकिट्टौ चैकाऽपूर्वावान्तर कट्टिदलं लोभ तृतीय संग्रह किट्टप्रथमपूर्वावान्तर किट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबादरपूर्वावान्तरकिङ्गिराशिन्यूनवादरसर्वपूर्वाऽपूर्वावान्तरविट्टिराशिप्रमाणोभयचयानेकं च मध्यमखण्डं ददाति । तेन प्राक्तनपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानदलतोऽस्यां दीयमानदलमसंख्यातगुणं भवति, प्राक्तन पूर्वावान्तरकिडौ प्रक्षिप्तमधस्तनशीर्षचयदलं मध्यमखण्डदलं चेत्येतद्दलद्वयतोऽपूर्वावान्तरकिट्टिदलस्यासंख्येयगुणत्वात् । ततोऽनन्तरायामुपरितन्यां लोभतृतीयसंग्रह किट्टिपूर्वावान्तरकिद्वावेकं मध्यमखण्डं बादरप्रथमपूर्वावान्तरकिद्विप्रभृतिव्यतिक्रान्तबादरपूर्वा पूर्वाचान्तरकिद्विराशिन्यूनवाद र सर्वपूर्वा पूर्वावान्तरकिहिराशिप्रमाणानुभयचयान् वादरप्रथमपूर्वाशन्तरकिविप्रभृतिव्यतिक्रान्तादरपूर्वावशन्तर किंडिशशिप्र माणाऽधस्तनशीर्षचयांच प्रक्षिपति । तेन प्राक्तनाऽपूर्वावान्तरकिद्वितोऽस्यां पूर्वान्तरकिट्टो दीयमानदलमसंख्येयगुणहीनं जायते, अस्यां निक्षिप्यमाणाऽवस्तनशीर्षचयमध्यमखण्डदलस्याऽपूर्वावान्तर कट्टिदलतोऽसंख्येयगुणहीनत्वात् । तत उत्तरोत्तराऽवान्तरकिट्ट्यामेकोत्तरवृद्धयाऽधस्तन शीर्षचयाने कोत रहान्यो भयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावत्प्रक्षिपति, यावल्लोभतृतीय संग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः, नरं पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागे गते यत्र यत्रा - पूर्वावान्तरविद्धिं निर्वर्तपनि, तत्र तत्राऽवस्तनशीर्षचयान्न प्रक्षिपति, किन्तु तत्स्थानेऽपूर्वावान्तर किडिदलं ददाति । तेन पूर्वाऽवान्तरकिङ्कितोऽपूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानं दलमसंख्येयगुणं तथाऽपूर्वावान्तरकिट्टितः पूर्वाऽवान्तरकिड दीयमानं दलमसंख्यातगुणहीनं भवति । अथ लोभद्वितीयसंग्रह किहि: - अतः परं लोमद्वितीयसंग्रहको दलं दातुमुपक्रमते । अस्या बध्यमानत्वेन चतुर्विधबन्धदलाद् वेद्यमानत्वेन च त्रिविधघातदलाद् यथायोग्यं दलं ददाति । तत्राऽसंख्येयभागमिता मन्दानुभागकास्तीत्रानुभागकाच या अवान्तरकियो न वध्यन्ते, तालु घातदमेव ददाति । बन्धा - पूर्वावान्तरकिट्टिषु केवलं बन्धदलं ददाति, न घातदलम् । तथाहि - रोमद्वितीयसंग्रह किट्टि प्रथमपूर्वावान्तरकिट्टी घातदलादेकं मध्यमखण्डं वादरप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिभूतिव्यतिक्रान्त पूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाऽधस्तनशीर्षचयान् वावर प्रथम पूर्वावान्तरविट्टिप्रभृतिव्यतिकान्तबादरपूर्वाऽपूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनबादरसर्वपूर्वा पूर्वावान्तरकि द्विराशिप्रमाणो भयचयां ददाति । तेन लोभतृतीयसंग्रह किडिचरमपूर्वावान्तर किट्टितो लोभद्वितीय संग्रह किट्टि प्रथम पूर्वावान्तरकिट्टी दीयमानं दलिकमनन्ततमभागेन हीनं जायते, लोभतृतीय संग्रह किडिचरमाऽवान्तरकियपेक्षयाऽधस्तनशीर्षचयदलन्यूनैको भयचयदलेन हीनदलस्य प्रक्षेयात् । ततो लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिद्वितीयादिपूर्वावान्तरकिट्टिषु घातद् लादेकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयाने कोत्त रहान्योभयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावद् ददाति, यावल्लोभाद्वितीयसंग्रह किट्टिबन्धप्रथम पूर्वावान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या बादरकिट्टिषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३७९ ततो लोभद्वितीय संग्रहकिर्जघन्यायां बन्धपूर्वावान्तरकिट्टौ घातदलत एकं मध्यमखण्डं बादरप्रथमपूर्वाऽधान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबादरपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाऽधस्तनशीर्षचयान् बादरप्रथमपूर्वानान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तवादरपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यनवादरसर्वपूर्वापूर्वावान्तरफिट्टिराशिप्रमाणोपयचयदलं चैकोभयचयदलाऽनन्ततमभागेन हीनं ददाति, एकोभयचयदलाऽनन्ततमभागप्रमाणदलस्य बन्धचयवन्धमध्यमखण्डरूपेण प्रक्षिप्यमाणत्वात् । बन्धदलतः पुनरेकं बन्धमध्यमखण्डं बन्धसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणांश्च बन्धचयान् प्रक्षिपति ।। ततः परमसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु पूर्वावान्तरकिट्टिषु बन्धदलादेकोत्तरहान्या बन्धमानेकैकं च बन्धमध्यमवण्डं घातदलतः पुनरेकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकोत्तरहान्योभयचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावद् ददाति, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमवन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिरप्राप्ता भवति । नवरमुभयचयदलमनन्ततमभागेनहीनं प्रक्षिपति, बन्धचयवन्धमध्यमखण्डरूपेण तावदलस्य प्रक्षेपात् । ___ ततो लोभक्तिीयसंग्रहकिट्टिप्रथमवन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टी बन्धदलत एकं बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिपमानखण्डं लोभत्तीयसंग्रहकिट्टिप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनबादरसर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणान् बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयान् लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवन्धप्रथमपूर्वाध्यान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबन्धपूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिन्यूनबन्धसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिमप्राणान् बन्धवयाने च बन्धमध्यमखण्डं ददाति । घातदलतस्तु तस्यां दलं न प्रक्षिपति । इत्थं प्राक्तनपूर्वावान्तरकिटौ दीपमानबन्धदलतोऽस्यामपूर्वावान्तरकिट्टौ दीयमानवन्धदलमनन्तगुणं भवति, बन्धचय-बन्धमध्यमखण्डदलतो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयबन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डदलस्याऽनन्तगुणत्वात् । ततः परमनन्तरायां पूर्वावान्तरकिट्टौ घातदलतो बादरप्रथमपूर्वाऽवान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वाऽवान्तरफिट्टिराशिप्रमाणाऽधस्तनशीर्षचयांस्तथाऽनन्ततमभागेन हीनं बादरप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तवादरपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनवादरसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणोभयचयदलमेकं च मध्यमखण्डं प्रक्षिपति । बन्धदलतः पुनरेकं बन्धमध्यमखण्डं बन्धप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तवन्धपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिन्यूनवन्धसर्वपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणान् बन्धचयान् प्रक्षिपति । इत्थं प्राक्तनबन्धापूर्वावान्तरकिट्टौ निक्षिप्तदलतोऽस्यां पूर्वावान्तरकिट्टी निक्षिप्यमाणबन्धदलमनन्तगुणहीनं भवति, बन्धचय-बन्धमध्यमखण्डदलस्य बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिचय-बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानदलतोऽनन्तगुणहीनत्वात् । ततः परं घातदलत एकोत्तरहान्योभयचयानेकोत्तरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकैकं च मध्यमखण्डं बन्धदलतः पुनरेकोत्तरहान्या बन्धचयानेकैकं च बन्धमध्यमखण्डं तावद् ददाति, Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] . खवगसेढी । गाथा-१९७ यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिबन्धचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः, नवरमसंख्यातपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमाणासु पूर्वावान्तरकिट्टिषु गतासु यत्र यत्र बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिर्निर्वयते, तत्र तत्रोभयचयस्थाने बन्धदलतो बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टिचयानधस्तनशीपचयस्थाने च बन्धाऽपूर्वाऽवान्तरकिट्टिसमानखण्डं ददाति, घातदलतश्च मध्यमखण्डं न ददाति । लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमबन्धपूर्वाऽवान्तरकिटेपरितनपूर्वाऽवान्तरकिट्टौ घातदलत एकं मध्यमखण्डं बादरप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबादरपूर्वावान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाऽधस्तनशीर्षचयान् बादरप्रथमपूर्वावान्तरकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तबादरपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिन्यूनबादरसर्वपूर्वापूर्वाऽवान्तरकिट्टिराशिप्रमाणाँश्चोभयचयान् प्रक्षिपति । ततः परं घातदलत एकोत्तरवृद्धया-ऽधस्तनशीर्षचयानेकोत्तरहान्योभयचयाने कैकं च मध्यमखण्डं तावद् ददाति, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमपूर्वावान्तरकिट्टिः । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२७। समाप्तो गणितविभागः। इत्थं भणितः सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये दलनिक्षेपविधिः ॥१९६॥ उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणहीना अपूर्वसूक्ष्मकिट्टीनिवर्तयतीति प्रतिपादितं पञ्चनवत्यधिकशततमगाथया । अथ ताः कुत्र निर्वतयति ? किं किट्टिकरणाद्धावत् पूर्वासामेवाधस्ताद् निर्वतयति, उत क्रोधादिकिट्टिवेदनाद्धावदुभयत्र ? काश्च स्तोका निर्वतयति, काच प्रभूताः ? इति पृष्ट आह वीयाइखणेसु अपुव्वा पुव्वाणन्तरेसु हे? य । कुणए हेठेऽप्पा ताउ अंतरेसु असंखगुणा ॥१९७॥ द्वितीयादिक्षणेष्वपूर्वाः पूर्वासामन्तरेष्वधस्ताच्च । करोत्यधस्तादल्पास्ताभ्योऽन्तरेष्यसंख्यगुणाः ।। १९७ ।। इति पदसंस्कारः । 'बोयाइखणेसु' इत्यादि, द्वितीयादिक्षणेषु' सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाया द्वितीयादिसमयेषु 'पूर्वासां' पूर्व सूक्ष्म किट्टीनाम् ‘अन्तरेषु' द्वयोद्वयोः पूर्वसूक्ष्मकिट्टयोर्मध्ये यान्यन्तराणि, तेषु, 'अधस्ताच्च' पूर्वसूक्ष्मकिट्टीनाश्चाऽधस्ताज्जघन्यपूर्वसूक्ष्मकिटेरप्यधस्तादित्यर्थः, 'अपूर्वाः' अपूर्वसूक्ष्मकिट्टीः 'करोति' निवर्तयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"सुहुमसांपराइयकिट्टीकारगो विदियसमये अपुव्वाओ सुहुमसांपराइयकिटोओ करेदि, असंखेजगुणहोणाओ । ताओ दोसु ठाणेसु करेदि । तं जहा-पढमसमए कदाणं हेहा च अंतरे च ।" इति । कषायप्राभतचूर्णिकृद्भिस्तृतीयादिसमयेषु द्वितीयसमयभाव्यपूर्वसूक्ष्मकिट्टिानेकृत्तिरतिदिष्टा । तेन तृतीयादिसमयेष्वपि क्षपकः पूर्वसूक्ष्मकिटेरधस्तात् सूक्ष्मकिट्टयन्तरेषु चाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टीनिवर्तयतीति सिध्यति । अधस्तात् 'स्तोकाः' अल्पा अपूर्वसूक्ष्मकिट्टीः करोति, Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] छ सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डम् सूक्ष्मकिट्टिचयदलम् | पुरातन दलम् | मध्यमखण्डदलम् उभयचयदलम् **28 566 00 00 00 30000 2005 1899 1908 1905 2006 YOUR 10000 482000 Aw सू * x MP क्ष्म पश्यन्तु २ अ ३ अ ४ अ पूअ यन्त्रकम् - २७ (चित्रम् - २७) सूक्ष्म किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टिषु चादरकिट्टिषु च दलिकनिक्षेपः अधस्तनशीर्षचयदम्म् अपूर्णवान्तर कट्टिदलम् ६ अ 9 अ [ षन्धचययुक्तबन्धमध्यमखण्डम् C [2] बन्धापूर्वाचान्तरकिट्टिसमानखण्डदलम् ९अ न्यायवान्तर कट्टिचयदलम् १०अ FTER कि DAT hw BOULARTA - VOL. XIX XXXX ૨૩ ૨૪ ૨૫ ૨૬૨ ૨૮૨૦ ૨૦ ૨૩૨ यः १२३४५६७८ लोभतृतीय संग्रह किट्टिः NEXT पू – पूर्वावान्तरकिट्टयः । ताचाष्टादश (१८) अत्र परिकल्पिताः, वस्तुतोऽनन्ताः । ३ अ -- पूर्वावान्तर कट्टिषु पुरातनं दलम्, तच्चोत्तरोत्तरपूर्वाऽवान्तर किट्टौ विशेषहीनम् । aloo EMA 10 CONCER 200 2 GO [ लबगढी EXIG 31 poa 1000550 000000 CORDS १२३ ५५७ ९ १० ११ १२ १३ १४ लोभ - द्वितीय - संग्रह - किट्टिः संकेतस्पष्टीकरणम् १. ....३२ - यद्यपि परमार्थतः सूक्ष्म किट्टियो ऽनन्ता निर्वर्त्यन्ते, किन्त्य सस्कल्पनया द्वात्रिंशत् (३२) परिकल्पिताः । १ अ - तच सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डं प्रत्येकं सूक्ष्म किट्टी दीयते । २ भ - असत्कल्पनया प्रथमायां सूक्ष्म किट्टौ द्वात्रिंशत् सूक्ष्मकिट्टिचयान् प्रक्षिपति, वस्तुतस्त्यनन्तान् सूक्ष्मकिट्टिचयान् प्रक्षिपति, ततोऽसत्कल्पनया द्वितीयस्यामेकत्रिंशत् । एवमेकोत्तरहान्या तावत् प्रक्षिपति, यावचचरमसूक्ष्मकिट्टिः । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] यन्त्रकम् - २७ (चित्रम् - २७) ४ अ - सर्वपूर्वा पूर्वावान्तर किट्टिश्वेकैकं मध्यमखण्डं ददाति, नवरं बन्धाऽपूर्वावान्तरकिट्टौ न ददाति । ५ अ - लोभतृतीयसंग्रह किट्टप्रथमावान्तर किडौ सर्व पूर्वा पूर्वावान्तर किट्टिराशिप्रमाणान् असत्कल्पनया द्वाविंशतिमुभयचयान प्रक्षिपति । ततः [ खगढी परं यथाक्रममेकोत्तरहान्या प्रक्षिपति । ६ अ - लोभ तृतीयसंग्रह किट्टिद्वितीय पूर्वाचान्तरकियामेकाचस्तन शीर्षचयं प्रक्षिपति, ततः परं यथाक्रममेकोत्तरवृद्धया पूर्वात्रान्तरकिट्टिषु तावत् प्रक्षिपति, यावल्लभ द्वितीयसंग्रह किट्टिचरमपूर्वावान्तर किट्टिः । तेन लोभ द्वितीयसंग्रह किट्टिचरम पूर्वावान्तर किट्टयाम सत्कल्पनया सप्तदश ( १७ ) अधस्तन शीर्षचयान प्रक्षिपति, असत्कल्पनया पूर्वावान्तर किट्टीनामष्टादशत्वात् । वस्तुतस्त्वनन्तानधस्तनशीर्षचयान प्रक्षिपति परमार्थतः पूर्वावान्तर किट्टीनामनन्तत्वात् । अधरतनशीपचयेषु प्रक्षिप्तषु सर्वपूर्वावान्तर किल्ल्य प्रदेशका भवन्ति । अ पू संक्रमदलतो निर्वर्त्यमाना पूर्वावान्तर किट्टिः । असत्कल्पनया द्वे ऽपूर्वोवान्तर किट्टी कल्पिते, तृतीया पष्ठी चेति, वस्तुतोऽनन्ता अपूर्वावान्तरकियो नि । ७ अ - तच्च लोभतृतीयसंग्रह किट्टिप्रथम पूर्वायान्तरकिट्टिदलप्रमाणं भवति । अपूर्वावान्तरकिट्टी चा पूर्वावान्तर किट्टिदलं ददाति । बपू बन्धपूर्वावान्तर कट्टिः, ताचात्र पट् कल्पिताः, वस्तुतो ऽनन्ता भवन्ति । A ८ अ - एकादशावान्तर किट्टी = बन्धचरमपूर्वात्रान्तरकिट्टौ एकं बन्धचयं प्रक्षिपति । ततः परमेकोत्तरवृद्धया तावत् प्रक्षिपति यावद् बन्धप्रथमपूर्वावान्तर कट्टिः । इत्थं बन्धप्रथम पूर्वावान्तर किट्टयाम सत्कल्पनया ऽष्टौ बन्धचयान् प्रक्षिपति, असत्कल्पनया बन्धपूर्वा पूर्वावान्तर किट्टी नामत्यात परमार्थतस्त्वनन्तबन्धचयान् प्रक्षिपति, परमार्थतो बन्धपूर्वा पूर्वावान्तर किट्टीनामनन्तत्वात् । बन्धमध्यमखण्डं च सर्वासु बन्धपूर्वापर्यावान्तर किनिष्यविशेषेण प्रक्षिपति । एतत्सर्वम् अनेन चिह्न ेन सूचितम् । ब अपू - बन्धा - पूर्वावान्तरकिट्टिः । अत्सकल्पनया द्वे बन्धापूर्वावान्तरकिट्टी कल्पिते, वस्तुतस्तु ता अनन्ताः । ९ अ - तच्च संक्रममध्यमखण्डाधिक लोभतृतीयसंग्रह किट्टि प्रथम पूर्वाचान्तरकिट्टिदलप्रमाणम् । बन्धापूर्वायान्तरकिट्टौ तद् ददाति । १० अ - नवम्यामयान्तरकिद्रौ=बन्ध चरमा पूर्वावान्तरकिट्टयां पड् (६) बन्धापूर्वावान्तर कट्टिचयान् प्रक्षिपति, तस्या लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिचरमात्रान्तरकिट्टयपेक्षया पष्ठकिट्टित्वात । वस्तुतस्त्वनन्तान् बन्धापूर्वावान्तर कट्टिचयान् प्रक्षिपति, वस्तुतो लोभद्वितीयसंग्रह किट्टिचर मात्रान्तरकिट्टयपेक्षया बन्धचरमापूर्वात्रान्तरकिया अनन्ततम किट्टित्वात् । बन्धद्विचरमापूर्वावान्तर किट्टौ च बन्धचरमापूर्वावान्तर कियपेक्षयाऽसत्कल्पनया त्रिभिरधिकान् बन्धापूर्वायान्तर किट्टिचयान् ( =९) प्रक्षिपति, वस्तुतोऽसंख्ये यपल्योपमप्रथमवर्गमूलैरविकान् प्रक्षिपति । इ साऽसत्कल्पनया पष्ठी किट्टि, बन्धा पूर्वायान्तरकिट्टिद्वयकल्पनाच्च सैव बन्धप्रथमापूर्वावान्तर कट्टिः । सर्वसूक्ष्म किट्टषु दृश्यमानं दलं विशेषहीनक्रमेण विद्यते, एवं बादरावान्तरकट्टियपि, नवरं सूक्ष्मचरमकिट्टितो बादरप्रथमावान्तर किड्डौ विशेषहीनं दलं न भवति, किन्त्य संख्येयगुणं भवति । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८१ पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः ताभ्यः 'अन्तरेषु' पूर्वसूक्ष्मकिट्टयन्तरेष्वसंख्यगुणा अपूर्वसूक्ष्मकिट्टीः करोति । यदुक्त कषायप्राभूतचूर्णी-हेट्ठा थोवाओ, अंतरेसु असंखेज्जगुणाओ।” इति ॥१९७॥ अथ पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु दलनिक्षेपं विभणिपुराह देइ दलिअं अपुबसुहुमकिट्टित्तो अणंतराए तु । पुवसुहुमकिट्टीए हीणमसंखेज्जभागेणं ॥१९८॥ पुबाउ असंखंसाहियं अणंतरअपुवकिट्टीए। सेसासुपुब्बापुवासु कमेणं विसेसूणं ॥१९९॥ ददाति दलिकमपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽनन्तरायां तु पूर्वसूक्ष्मकिट्टयां हीनमसंख्येयभागेन ॥१९८।। पूर्वस्या असंख्यांशाधिकमनन्तरापूर्वकिट्टी। शेषासु पूर्वापूर्वासु क्रमेण विशेषोनम् ॥१९९॥ इति पदसंस्कारः । 'देइ' इत्यादि, तत्राऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽनन्तरायां तु पूर्वसूक्ष्मकिट्टयामसंख्येयभागेन हीनं दलिकं ददाति । 'पुव्वाउ' इत्यादि, 'पूर्वस्याः' पूर्वसूक्ष्मकिट्टितो 'अनन्तराऽपूर्वकिट्टी' अनन्तरापूर्वसूक्ष्मकिट्टी 'असंख्यांशाधिकम्' असंख्येयभागाधिक दलं ददाति । 'सेसासु' इत्यादि, 'शेषासु' उक्तोद्धरितासु'पूर्वापूर्वासु' पूर्वसूक्ष्मकिट्टिष्वपूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु च क्रमेण 'विशेषोनम्' अनन्ततमभागेन हीनं दलं ददाति । इदमुक्तं भवति-सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाया द्वितीयसमये प्रथमसमयकृतजघन्यकिटेरधस्ताद् याः सूक्ष्मकिट्टीः करोति, तासां सर्वजघन्याऽधस्तना- पूर्वसधमकिट्टौ दलिकं प्रभूतं ददाति । ततो द्वितीयस्यामधस्तना-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टावनन्तभागेन हीनं दलं ददाति, ततोऽनन्तरान्तरेणाऽनन्तभागेन हीनं तावद्ददाति, यावच्चरमाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः । ___ ततः परं चरमाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽसंख्यातभागेन हीनंदलं प्रथमसमयकृतप्रथमसूक्ष्मकिट्टिलक्षणायां प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टौ ददाति । अत्र कारणं तु किट्टिकरणाद्धायां पूर्वावान्तरकिट्टयपूर्वावान्तरकिट्टयोः सन्धौ यथा प्ररूपितम् , तथैवा-ऽनुगन्तव्यम् , विशेषाभावात् । ततो द्वितीयादिषु पूर्वसमकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावदन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिरप्राप्ता भवति । ततोऽन्तरजा-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टयामसंख्येयभागाधिकं दलं ददाति, ततोऽसंख्येयभागेन हीनं दलं तदनन्तरपूर्वसमकिट्टौ ददाति, ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावच्चरमपूर्वसक्षमकिट्टिः, नवरं यत्र यत्राऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिर्निवत्यते, तत्र तत्र प्राक्तनपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽसंख्येयभागाधिकं दलिकं ददाति, तदनन्तरपूर्वसूक्ष्मकिट्टो चाऽसंख्येयभागेन हीनं दलं ददाति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"विदियसमये दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स सेढिपख्वणा-जा विदियसमए जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टो, तिस्से पदेसग्गं दिनदि बहुअं । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] खगसेढी [गाथा - १९८-१९९ विदियाए किट्टीए अनंतभागहोणं । एवं गंतॄण पढमसमर जा जहणिया सुहुमसांपराइय किट्टी, तत्थ असंखेजदिभागहीणं । तत्तो अनंतभागहोणं जाव अपुव्वं णिव्वत्तिजमाणगं ण पावदि, अपुव्वाए णिव्वत्तिज्जमाणिगाए किट्टीए असंखेज्जदिभागुत्तरं पुच्वणिव्यत्तिदं पडिवज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स असंखेज दिभागहीणं । परं परं पडिवजमाणस्स अनंतभागहीणं ।" इति । यथा द्वितीयसमये सूक्ष्मकिट्टिषु दल निक्षेपविधिः प्ररूपितः, तथैव तृतीयादि समयेष्वपि तावत् ग्ररूपयितव्यः, यावत्सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाचरमसमयः । अभाणि च कषायप्राभृतचूर्णो- "जो विदियसमए दिज्ज माणगस्स पदेसग्गस्स विधी, सो चैव विधो सेसेसु वि समएसु जाव चरिमसमयबादरसंपराइयो त्ति ।" इति । बादर किट्टिषु दलनिक्षेपस्तु प्रथमसमयवज्ज्ञातव्यः । अथ गणितविभागः । साम्प्रतं सूक्ष्म किट्टिकरणाद्धाया द्वितीयसमये दलिकनिक्षेपोऽवस्तनशीर्षचयादिप्ररूपणया स्पष्टीक्रियते । सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाद्वितीयसमये प्रथमसमयतोऽसंख्यातगुणं दलं सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृह्णाति । अथ द्वितीयसमये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलं विभागपञ्चके विध जनीयम् - (१) अधस्तनशीर्षचयदलम् (२) अधरतनाऽपूर्व सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलम् (३) अन्तरजा--पूर्वसूक्ष्म किट्टिसमानखण्डदलम् (४) उभयचयदलं (५) मध्यमखण्डदलं चेति । (१) अथाऽधस्तनशीर्षचयदलम् - सर्वाः पूर्व सूक्ष्मकिट्टी : प्रथम समयकृत जघन्य सूक्ष्मकिट्टिगत प्रदेश तुल्याः कतु द्वितीयपूर्व सूक्ष्म किट्टा बेकचयं ददाति तृतीय पूर्वसूक्ष्म किडी द्वौ चयाँ ददाति । एवमेकोत्तरवृद्धया तावद् ददाति यावच्चरमपूर्वसूक्ष्म किट्टिः । एते च चया अधस्तनशी च्या उच्यन्ते । सर्वाधस्तन शीर्षचयाथ "सैकपदन्नपदार्थ मथैकाद्यङ्कयुतिः किल संकलिताख्या ।" इति करणसूत्रेण सङ्कलयितव्याः । पदं त्वत्रैकोनपूर्वसूक्ष्म किट्टिराशिर्बोध्यम् । एकाऽधस्तशीर्षचयदलं सर्वाऽधस्तनशीर्षचयेगु ण्यते, तदा सर्वाऽधस्तनशीर्षचयदलं प्राप्यते । (२) अधस्तनाऽपूर्व सूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलम् - पूर्वसमयकृत प्रथमसूक्ष्मकिट्टिगतप्रदेशतुल्या अधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टयः स्थापयितव्याः । स्थापितायाञ्चैकैकस्यां किट्टौ यद् दलं भवति, तदेकाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलमुच्यते । एकाऽधस्तनापूर्वसूक्ष्म किट्टिसमानखण्डदलमधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्म किडिराशिना गुण्यते, तदा सर्वाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्म किट्टिदलं प्राप्यते । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधस्तनशीर्पचयादिदलम ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३८३ (३) अन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिटिसमानखण्डदलम्-पूर्वसमयकृतप्रथमसूक्ष्मकिट्टिगतप्रदेशतुल्या अन्तरजाऽपूर्वसक्ष्मकिट्टयः स्थापयितव्याः । स्थापितायाञ्चैकैकस्यां सूक्ष्मकिट्टौ यद् दलं भवति, तदेकान्तरजा-ऽपूर्वसूक्ष्मकिद्विसमानखण्डदलमुच्यते । एकाऽन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलमन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिना गुण्यते, तदा सर्वा-ऽन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलं प्राप्यते । (४) उभयचयदलम्-पूर्वोक्तदलत्रये यथायोग्यं प्रक्षिप्ते सर्वपूर्वाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टयः समानदलिका जायन्ते । तासां दलिकं गोपुच्छाकारं कतु चरमपूर्वसूक्ष्मकिट्टयामेकश्चयः प्रक्षेपणीयः, विचरमपूर्वसूक्ष्मकिट्टी द्वौ चयौ प्रक्षेपणीयो । एवंक्रमेण पश्चानुपूयों चयास्तावत् प्रक्षेप्तव्याः, यावद् द्वितीयसमये क्रियमाणप्रथमाऽधस्तना-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः । ते च "सैकपदघ्नपदार्धमथैकायङ्कयुतिः किल संकलिताख्या।” इति करणसूत्रेण संकलयितव्याः । पदं त्वत्र पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशितिव्यम् । एते च चया उभयचया उच्यन्ते । सर्वोभयचयैरेकोभयचयगतदलं गुण्यते, तदा सर्वोभयचयदलं प्राप्यते । नन्वेकोभयचयगतदलं कियद् भवति ? इति चेत्, उच्यते—प्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलं द्वितीयसमये च सूक्ष्मकिट्टितया परिण मनाय गृह्यमागदलमिति दलद्वयं पदेन विभज्यते, तदा मध्यमदलं प्राप्यते । तत्पुनरीकृतैकोनपदन्यूनाभ्यां द्वाभ्यां द्विगुणहानिभ्यां विभज्यते, तदैकोभयचयदलं प्राप्यते । पदन्त्वत्र समयद्वयकृतसूक्ष्मकिट्टिराशिरवगन्तव्यम् । न्यास:मध्यमदलम समयद्वये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलम। पदम् मध्यमदलम् एकोभयचयदलम् = (पदम् -१) द्वे द्विगुणाहानी-- (५) मध्यमखण्डदलम्--द्वितीयसमये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलतः पूर्वोक्ताधस्तनशीपचयादिदलचतुष्टयं विशोध्य शेषदलं मध्यमखण्डदलमुच्यते । तच्च पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिना विभज्यते, तदैकं मध्यमखण्डं प्राप्यते । एकमध्यमखण्डदलं चाऽधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलतोऽसंख्येयगुणं भवति । एकैकं मध्यमखण्डं सर्वपूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिष्वविशेषेण दातव्यम् । लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिसंक्रमदलस्याऽधस्तनशीर्षचयादिविभागचतुष्टयं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टयाश्च घातदलस्या-ऽधस्तनशीर्षचयादिविभागत्रयं बन्धदलस्य च बन्धापूर्वावान्तरकिट्टिसमानखण्डादिविभागचतुष्टयं पूर्ववदवसेयम् । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] खवगसेढी [ गाथा-१९८-१९९ ___ अथ पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिद्दिषु दलनिक्षेपो भण्यते-द्वितीयसमये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय गृहीतदलात् प्रथमा-ऽधस्तनापूर्वसधमकिट्टावकमधस्तनाऽपूर्व सक्षमकिट्टिसमानखण्डं पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयानेकंच मध्यमखण्डं ददाति । तच्च दीयमानं दलं प्रभूतं भवति, उपरि दीयमानदलस्य हीनत्वात् । ततो द्वितीया-ऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टयामेकमधस्तना-ऽपूर्वकिट्टिसमानखण्डमेकोनपूर्वापूर्वसक्षमकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयानेकं च मध्यमखण्डं ददाति । इत्थं प्रथमा-ऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टितो द्वितीया-ऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टयामेकोभयचयेन हीनं दलं ददाति । उभयचयदलस्याऽनन्ततमभागमात्रत्वात् प्रथमा-ऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टितो द्वितीयाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टावनन्ततमभागेन हीनं दलं ददातीति सिध्यति । ततः परं तृतीयाद्यधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिष्वेकैकमधस्तना-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डमेकैकं मध्यम खण्डमेकोत्तरहान्या चोभयचयांस्तावत् प्रक्षिपति, यावच्चरमाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः । ततः परं प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टावेकं मध्यमखण्डं सर्वाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिन्यून-पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणांश्चोभयचयान् ददाति । तदेव चरमा-ऽधस्तनाऽपूर्वसमकिट्टितः प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टयामेकोभयचयेनैकेन चाऽधस्तना-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टि समानखण्ड़े न हीनं दलं ददाति । इत्यश्च चरमा-ऽधस्तना-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टितः प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टी दीयमानदलमसंख्येयभागेन हीनं जायते, एकमध्यमखण्डदलत एकाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलस्याऽसंख्येवगुणहीनत्वादुमयचयदलस्य चाऽधस्तनाऽपूर्वसमकिट्टिसमानखण्डदलाऽनन्ततमभागमात्रत्वात् । ततो द्वितीयपूर्वसूक्ष्मकिट्टावेकमधस्तनशीपचयमेकं मध्यमखण्डमेकाधिका-ऽधस्तना-ऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिन्यूनपूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणाँचोभयचयान् ददाति । तेन प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽस्यां दीयमानदलमनन्तभागेन हीनं जायते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् उच्यते-प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽस्यां दीयमानदलमेकाऽधस्तनशीर्षचयेनाऽधिकं जायते, एकोनयचयेन च हीनम् । तेनैकाऽधस्तनशीर्षचयदलन्यूनैकोभयचयदलेन हीनं दीयमानदलं प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टितो द्वितीयपूर्वसूक्ष्मकिट्टौ जायते । अधस्तनशीर्षचयदलस्य केवलमुभयचयदला-ऽसंख्येयभागमात्रत्वादुभयचयदलस्य चाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्म किट्टिसमानखण्डदलानन्ततमभागमात्रत्वात् प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टितो द्वितीयपूर्वसूक्ष्मकिट्टावनन्तभागेन हीनं दीयमानं दलं भवति । एवमग्रेऽपि भावनीयम् । ततः परं तृतीयादिपूर्वसूक्ष्मकिट्टिप्वकैकं मध्यमखण्डमेकोत्तरवृद्धया-ऽधस्तनशीर्षचयानेकोतरहान्या चोभयचयान् यथाक्रमं पल्योपमाऽसंख्यभागमात्रारवसंख्यातासु सूक्ष्मकिट्टिषु तावत्प्रक्षिपति, यावदन्तरजाऽपूर्वसक्ष्मकिट्टिरप्राप्ता भवति । __अन्तरजापूर्वसूक्ष्मकिट्टावेकं मध्यमखण्डं प्रथमाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिन्यूनसर्वपूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणानुभयचयानेकं चाऽन्तरजाऽपूर्व Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ] यन्त्रकम्-२७ अ [ ३८५ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाद्वितीयसमये प्रीयमयदलनिक्षेपविधिः ववव IDOORoo fol 2 6 .01 १२०४५६७८९०२१ २२ मरा २५ २०१२ मरा २५६७८२६३.१३४५६३3३८3530 सङ्केतस्पष्टीकरणम् अपू=द्वितीयसमये निर्वत्यमाना-ऽधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, असत्कल्पनया सर्वाधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टयस्तिस्रः (३), वस्तुतो-ऽनन्ताः । पू-पूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, असत्कल्पनया पूर्वसूक्ष्मकिट्टयो द्वात्रिंशत् , (४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १४, १५, १६, १७, १९, २० २१, २२, २४, २५, २६, २७, २९, ३०, ३१, ३२, ३४, ३५, ३६, ३७, ३९, ४०, ४१, ४२)।। अं=सूक्ष्मकिट्टयन्तरे निर्वय॑माना अपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, असत्कल्पनयाऽन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टयः सप्त (८, १३, १८, २३, २८, ३३, ३८) । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ] ०००अनेन चिह्न ना-ऽधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखपडं सूचितम् , तच्चैकैकाधनस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टौ दीयते । एकाधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमान खण्डदलं तु प्रथमसमयकृतजघन्यपूर्वसूक्ष्मकिट्टिप्रदेशतुल्यम् । .."अनेन चिह्नन पूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु पुरातनदलं सूचितम् , तच्चोत्तरोत्तरपूर्वसूक्ष्मकिट्टी विशेषहीनक्रमेण भवति । अ-अधस्तनशीर्षचयदलम् । * प्रदेशापेक्षया सर्वपूर्वसूक्ष्मकिट्टीः प्रथमसमयकृतजघन्यपूर्वसूक्ष्मकिट्टिप्रदेशतुल्याः कर्तुं द्वितीयपूर्वसूक्ष्मकिट्टयामेकाधस्तनशीर्षचयः प्रक्षिप्यते, तृतीयपूर्वसूक्ष्मकिट्टी द्वा अधस्तनशीपचयौ, चतुर्थपूर्वसूक्ष्मकिट्टौ त्रयो-ऽधस्तनशीर्षचयाः, एवमेकोत्तरवृद्धया पूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु तावत् प्रक्षिप्यन्ते यावच्चरमपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, तस्यामसकल्पनयैकत्रिंशद् (३१) अधस्तनशीर्षचयाः प्रक्षिप्यन्ते, पूर्वसूक्ष्मकिट्टीनां द्वात्रिंशत्त्वात् , वस्तुतस्त्वनन्ता अधस्तनशीर्षचया निक्षिप्यन्ते, पूर्वसूक्ष्मकिट्टीनां परमार्थतोऽनन्तत्वात् ।। * अन्तरजापूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलम , तच्च सूक्ष्मकिट्यन्तरे निर्वय॑मानायामेकैकस्यामपूर्वसूक्ष्मकिट्टी दीयते । एकान्तरजापूर्वसूक्ष्म किट्टिसमानखण्डदलं तु प्रथमसमयकृतजघन्यपूर्वसूक्ष्मकिट्टिप्रदेशतुल्यम् । । अनेन चिह्नन मध्यमखण्डं सूचितम् , तच्चैकैकं पूर्वापूर्वसूक्ष्म किट्टिषु दीयते, एकमध्यमखण्डदलं जैकाधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्ड दलतो वैकान्तरजापूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलतो वाऽसंख्ये यगुणं भवति । उउभयचयदलम् । चरमसूक्ष्मकिट्टयामेक उभयचयः प्रक्षिप्यते, द्विचरमसूक्ष्मकिट्टो द्वा उभयौ प्रक्षिप्येते, त्रिचरमसूक्ष्म किट्टौ त्रय उभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते, एवमेकोत्तरवृद्धयोभयचयाः पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिपु तावत् प्रक्षिप्यन्ते,यावत् प्रथमाधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टि , तस्यां च पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिप्रमाणा उभयचयाः प्रक्षिप्यन्ते, असत्कल्पनया तु द्वाचत्वारिंशत् (४२), वस्तुतोऽनन्ताः, परमार्थतः पूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टीनामनन्तत्वात् । अनेन क्रमेण दलिके प्रक्षिप्त प्रथमाधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टी प्रक्षिप्यमाणं सर्वदलम् | A इत्यनेन सूचितं प्रभूतं भवति, ततो विशेषहीनक्रमेण तावत् , यावच्चरमाधस्तनापूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, असत्कल्पनया तु तृतीया सूक्ष्मकिट्टिः । ततोऽसंख्येयभागेन हीनम्। A इत्यनेन सूचितं दीयमानं सर्वदलं प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टी,असत्कल्पनया तु चतुर्थसूक्ष्मकिट्टौ । ततो द्वितीयादिपूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणास्वसंख्यातास्वसत्कल्पनया तु तिसृषु सूक्ष्मकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण तावद् भवति,यावदन्तरजापूर्वसूक्ष्मकिट्टिरप्राप्ता। ततस्तदनन्तरान्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टा असत्कल्पनयाऽष्टमसूक्ष्मकिट्टयामसंख्येयभागेनाधिकम् *IA इत्यनेन सूचितं दीयमानं दलं भवति, तदनन्तरपूर्वसूक्ष्म किट्टावसंख्येयभागहीनम । A इत्यनेन सूचितं दीयमानं दीलं भवति,ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावद् भवति, यावच्चरमपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, नवरं यत्र यत्राऽपूर्वसूक्ष्म किट्टिर्निर्वय॑ते, तत्र तत्र प्राक्तनपूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽसंख्येयभागाधिकम् , तदनन्तरपूर्वसूक्ष्मकिट्टौ चासंख्येयभागेन हीनं दलं दीयते। एवं सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायाः शेषसमयेष्वपि वक्तव्यम्। दृश्यमानदलं सूक्ष्म किट्टिकरणाद्धायाः सर्वसमयेषु सर्वपूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेण भवति । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितरीत्या सूक्ष्म किट्टषु दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३८५ सूक्ष्मकट्टिसमानखण्डं ददाति । इत्थं प्राक्तनपूर्व सूक्ष्मकिद्वितोऽस्यामपूर्व सूक्ष्म किट्टी दीयमानंदलमसंख्येयभागाधिकं जायते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते- पूर्वसूक्ष्मकिट्टितोऽस्यामन्तरजा--पूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डमधिकं ददाति, तच्च मध्यमखण्डस्याऽसंख्येयभागमात्रं भवति, तेन पूर्वसूक्ष्मकिट्टितो ऽसंख्येयभागाधिकं दलिकमस्यां सूक्ष्मकिट्टौ दीयमानं दलं भवति । अत्र यद्यपि पूर्वसूक्ष्मकिट्टित एकोभयचयेन निरुक्ताऽधस्तनशीर्षचयैश्च हीनं दलं ददाति, तथापि तेषामन्तरजा पूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलाऽनन्त भाग मात्र त्वेनाऽकिञ्चित्करत्वम् । ततोऽनन्तरायां पूर्वसूक्ष्मकिद्वावेकं मध्यमखण्डं प्रथमाऽधस्तनाऽपूर्वसूक्ष्म किङ्किप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वापूर्वसूक्ष्मकिट्टिराशिन्यून सर्वपूर्वा पूर्वसूक्ष्म किट्टिराशिप्रमाणानुभयचयान् प्रथमपूर्वसूक्ष्मकिट्टिप्रभृतिव्यतिक्रान्तपूर्वसूक्ष्मकिट्टि प्रमाणाऽधस्तनशीचयान् प्रक्षिपति । तेन पूर्ववर्त्यन्तरजा पूर्व - सूक्ष्म किट्टितोऽनन्तरपूर्वसूक्ष्म किड्डी दीयमानं दलमसंख्येयभागहीनं जायते मध्यमखण्डदलतोअन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टिसमानखण्डदलस्याऽसंख्येयगुणहीनत्वात् । तत ऊर्ध्वमेकोत्तरहान्योभयचयानेकोचरवृद्धयाऽधस्तनशीर्षचयानेकैकं च मध्यमखण्डं तावद् ददाति यात्रच्चरमपूर्वसूक्ष्मकिट्टिः, नवरं पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमितास्त्रसंख्यातासु पूर्वसूक्ष्मविद्विषु वजितासु यत्र यत्राऽपूर्वसूक्ष्मकिविं निर्वर्तयति, तत्र तत्राऽधस्तनशीर्षचयस्थानेऽन्तरजाऽपूर्वसूक्ष्म किट्टिसमानखण्डं ददाति । तेन पूर्वा पूर्वासूक्ष्मकिट्टिसन्धौ सति पूर्वसूक्ष्म किट्टितोऽपूर्व सूक्ष्म कियाम संख्यात भागेनाधिकं तथाऽपूर्वसूक्ष्मकिट्टेः पूर्वसूक्ष्मकिटेश सन्धी सत्यपूर्वसूक्ष्मकिट्टितः पूर्वसूक्ष्म किट्टयाम संख्येयभागेन हीनं दीयमानदलं जायते, शेषासु पूर्वसूक्ष्मकिट्टिषु विशेषहीनक्रमेणैव दीयमानदलं भवति । इत्थं द्वितीयसमये सूक्ष्मकिट्टितया परिणमनाय यहलं गृहीतम्, तत्सर्व प्रक्षिप्तं भवति । ( पश्यन्तु यन्त्र कम्-२७ अ ) ततः परं बादरपूर्वापूर्वावान्तरकिट्टिषु दलं निक्षिपति । तत्र लोभतृतीयसंग्रहकिड्डौ चतुर्विधसंक्रमदलाल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टौ च त्रिविधघातदलाच्चतुर्विधत्रन्धदलाद् यथायोग्यं दलं निक्षिपति । तत्र चरमसूक्ष्मकिट्टितो लोभतृतीय संग्रह किङ्गिप्रथम पूर्वावान्तरकिडौ दलमसंख्यातगुणहीनं ददाति, ततः शेषास्वपि सूक्ष्म किडिकर गाद्धाप्रथम समयवद् भावनीयम्, विशेषाभावात् । इति गणितविभागः । यथा सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धाया द्वितीयसमये गणितरीत्या दलिकनिक्षेपो भणितः, तथैव तृतीयादिसमयेषु भणितव्यः । ॥। १९८-१९९॥ अथ सूक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायां दृश्यमानदलं विवर्णयिषुराह— पढमसुमाउ चरिमं जावं दीसह दलं विसेसूणं । तोय असंखगुणं बायर पढमाअ उवरिं विसेणं ॥ २००॥ ( गीतिः) Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] खवगसेढी [ गाथा-२००-२०१ प्रथमसूक्ष्मायाश्चरमां यावद् दृश्यते दलं विशेषोनम् । ततश्चाऽसंख्यगुणं बादरप्रथमायामुपरि विशेषोनम् ।।२००॥ इति पदसंस्कारः । 'पढम०' इत्यादि, 'प्रथमसूक्ष्मायाः' प्रथमसूक्ष्मकिट्टितः प्रभृति 'चरमां' चरमसूक्ष्मकिट्टि यावद् 'दलं' प्रदेशाग्र 'विशेषोनं' विशेषहीनं दृश्यते । 'तो' इत्यादि, 'ततः' चरमसूक्ष्मकिट्टितश्चाऽसंख्यगुणं दलं 'बादरप्रथमायां' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमावान्तरकिट्टी दृश्यते । 'उवरिं' इत्यादि, उपरि विशेषोनं दृश्यते । इदमुक्तं भवति-सक्ष्मकिट्टिकरणाद्धायाः प्रथमसमयात् प्रभृति चरमसमयं यावत् प्रथमसूक्ष्मकिट्टौ प्रभूतं दलं दृश्यते । ततो विशेषहीनं दलं द्वितीयस्यां सक्ष्मकिट्टी दृश्यते । एवं विशेपहीनक्रमेण तावद् दृश्यते, यावच्चरमसूक्ष्मकिट्टिः। चरमसूक्ष्मकिट्टितच लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टावसंख्यातगुणं दलं दृश्यते । किं कारणम् ? इति चेत् , उव्यते-बादरकिट्टिगतदलस्याऽसंख्येयभागप्रमितमेव दलं गृहीत्वा बादरकिट्टितो विशेषाधिकाः सूक्ष्मकिट्टीः करोति । तेन चरमसूक्ष्मकिट्टितो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टावसंख्यातगुणं दलं दृश्यते । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"सुहुमसांपराइयकिटोकारगस्स किटोसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपख्वणं । तं जहा-जहणियाए सुहुमसांपराइयकिटोए पदेसग्गं बहुगं, तत्तो अणंतभागहीणं जाव चरिमसुहुमसांपराइयकिष्टि त्ति । तदो जहणियाए बादरसांपराइयकिटोए पदेसग्गमसंखेजगुणं । एसा सेढिपरूवणा जाव चरिमसमयबादरसांपराइओ त्ति।" ततो लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिप्रथमाऽवान्तरकिट्टितो विशेषहीनं दलं लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिद्वितीयाऽवान्तरकिट्टौ दृश्यते । ततः परमनन्तरानन्तरेण विशेषहीनक्रमेण तावद् दृश्यते, यावल्लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिचरमाऽवान्तरकिट्टिः ॥ २० ॥ ____ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टि वेदयतो जीवस्यावलिकात्रिकमात्रप्रथमस्थितिभवनानन्तरं यो विशेषः प्रवर्तते, तं विभणिषुराह जा आवलितिगसेसा पढमठिई ताव संकमेइ दलं । बीयत्तो तइयाए तओ परं संकमेइ सुहुमासु ॥२०१॥ (गीतिः) यावदावलि कात्रिकशेषा प्रथमस्थितिस्तावत् संक्रामति दलम् । द्वितीयातस्तृतीयस्यां ततः परं संक्रामति सूक्ष्मासु ॥२०१।। इति पदसंस्कारः । 'जा' इत्यादि, लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टि वेदयतः क्षपकस्य यावद् आवलिकात्रिकशेषा 'प्रथमस्थितिः' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिर्भवति, तावद् 'द्वितीयातो' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितः 'तृतीयस्यां' लोभतृतीयसंग्रहकिट्टौ दलं संक्रामति । 'ततो' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टि Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८७ बादरकिट्टीनां सर्वथा सूक्ष्मकिट्टिषु संक्रमः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः प्रथमस्थितेरावलिकात्रिका-परं लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितो दलं 'सूक्ष्मासु' सूक्ष्मकिट्टिष्वेव संक्रामति, प्राक्तूभयत्राऽपि संक्रामति स्मेत्यर्थः । प्रत्यपादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"लोभस्स विदियकिडिं वेदयमाणस्स जा पढमहिदी, तिस्से पढमहिदीए जाव तिणि आवलियाओ सेसाओ, ताव लोभस्स विदियकिट्टीदो लोभस तदियकिट्टीए संछुन्भदि पदेसग्गं। तेण परं ण संछुब्भदि, सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संछुब्भदि।" इति । प्रथमस्थितौ द्वथावलिकाशेषायामागालो व्यवच्छिद्यते । ततः समयोनाऽऽवलिकायां गतायां लोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जायते । तदानीमेव बादरलोभस्य चरमोदयः ॥२०१॥ अथ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितो समयाधिकावलिकाशेषायां बादरकिट्टीनां सर्वथा सूक्ष्मकिट्टितया परिणति प्रतिपिपादयिपुराह खणअहिआवलिसेसाए बिइयातइयगाण सव्वदलं। संकामइ सुहुमासु वज्जिय णवबद्धमावलिगयं य ॥२०२॥ (गीतिः) क्षणाधिकावलिकाशेषायां तु द्वितीयातृतीययोः सर्वदलम् । संक्रमयति सूक्ष्मासु वर्जयित्वा नवबद्धमावलिकागतं च ।।२०२।। इति पदसंस्कारः । 'खण०' इत्यादि, लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ 'क्षणाधिकाऽऽवलिकाशेषायां' समयाधिकावलिकाशेषायां 'नवबद्धं' द्वितीयसंग्रहकिट्टेः समयोनद्यावलिकाबद्धं द्वितीयस्थितिस्थम् 'आवलिकागतं तस्या एवोदयावलिकायां प्रविष्टं च प्रथमस्थितिगतं दलिकं वर्जयित्वा द्वितीयातृतीययोः' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टितृतीयसंग्रहकिट्टयोः सर्वदलं 'सूक्ष्मासु' सूक्ष्मकिट्टिषु संक्रमयति, सूक्ष्मकिट्टितया परिणमयतीत्यर्थः । न्यगादि च कषायप्राभृतचूणौँ-"लोभस्स विदियकिहिं वेदयमाणस्स जा पढमहिदी, तिस्से पढमहिदोए आवलियाए समयाहियाए सेसाए ताधे जा लोभस तदियकिट्टी, सा सव्वा णिरवयवा सुहुमसंपराइयकिट्टीसु संकता । जा विदियकिटी, तिस्से दो आवलिया मोत्तण समयूणे उदयावलियपविठं च सेसं सव्वं सुहुमसंपराइयकिट्टीसु संकंतं ।” इति ॥२०२॥ लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेषायां मोहनीयस्य यश्चरमस्थितिबन्धो जायते, तमभिदधच्छेषकर्मणामपि स्थितिबन्धं भणतिलोहस्स मुहुरंतो बंधो घाईण दिवसंतो। हवइ अघाईणं वासंतो अह भणिमु ठिइसंतं ॥२०३॥ (उपगीतिः) लोभस्य मुहूर्तान्तर्बन्धो घातिनां दिवसान्तः । भवत्यघातिनां वर्षान्तरथ भणामः स्थितिसत्त्वम् ।।२०३।। इति पदसंस्कारः । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] खवगसेढी [ गाथा--२०४ 'लोहस्स' इत्यादि, लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये 'लोमस्य' संज्वलनलोभस्य 'मुहूर्तान्तः' मुहूर्तस्य अन्तर-मध्ये, अन्तमुहूर्तमात्र इत्यर्थः, 'बन्धः' स्थितिबन्धो 'भवति' जायते, मोहनीयस्याऽन्तमुहूर्तमात्रः स्थितिवन्धो भवतीत्यर्थः । अयं च मोहनीयस्य सर्वजघन्यस्थितिबन्धः । एवं मोहनीयस्यानुभागबन्धोऽपि सर्वजघन्यो भवति । 'घाईण' इत्यादि, 'घातिनां' मोहनीयस्योक्तत्वाज्ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्नरायरूपाणां कर्मणां स्थितिवन्धो 'दिवसान्तः' दिवसस्य-अहोरात्रस्य अन्तर=मध्ये भवति, लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये यो घातित्रयस्य स्थितिबन्धो दिवसपृथक्त्वमात्र आसीत् , स क्रमेण हीयमानः सन् सम्प्रत्यन्तरहोरात्रप्रमाणो जायत इत्यर्थः । 'अघाईणं' इत्यादि, तदानीं चाऽघातिनां कर्मणां नामगोत्रवेदनीयलक्षणानां स्थितिबन्धो 'वर्षान्तः' वर्षस्याऽन्तर्जायते । प्रतिपादितं च कषायप्राभृतचूर्णी--"तम्हि चेव लोभसंजलणस्स ठिदिबंधो अंतोमुहत्तं तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो अहोरत्तस्स अंतो । णामागोदवेदणीयाणं बादरसांपराइयस्स जो चरिमो ठिदिबंधो, सो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं हाइड्ण वस्सस्स अंतो जादो।" इति । ___ अथ प्रतिजिज्ञासुराह-'अह' इत्यादि, 'अर्थ' स्थितिबन्धप्ररूपणानन्तरम् , आनन्तर्यार्थकत्वाद् अथशब्दस्य, 'भणामः' प्रतिपादयामः, किम् ? इत्याह-'ठिइसंतं' ति 'स्थितिसच' सप्तानामपि कर्मणां स्थितिसत्कर्म ॥२०३॥ अथ प्रतिज्ञां निवर्वोढुकामः सप्तानामपि स्थितिसत्त्वं व्याहरति लोहस्स मुहत्तंतो संखसहस्सवरिसा य घाईणं । होज्जेइ अघाईण उण असंखेज्जवरिसा चरिमे ॥२०४॥ लोभस्य मुहूर्तान्तः संख्यसहस्रवर्षाश्च घातिनाम् ।। भवत्यघातिनां पुनरसंख्येयवर्षाश्चरमे ।।२०।। इति पदसंस्कारः । 'लोहस्स' इत्यादि, तत्र'चरिमें' त्ति 'चरमे' लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमये 'लोभस्य' संज्वलनलोभस्य स्थितिसचं 'मुहुर्तान्तः' अन्तर्मुहूतं भवति । 'संख०' इत्यादि, तत्र 'घातिनां' ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायरूपाणां च कर्मणां स्थितिसचं संख्यसहस्रवर्षा भवति । 'अघाईण' इत्यादि, 'अघातिनां' नाम-गोत्र-वेदनीयलक्षणानां कर्मणां पुनः स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षा भवति, लोभप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयतः परं संख्यातेषु स्थितिघातेषु गतेषु स्थितिसत्वं हीनं सदिदानीमप्येतावद् भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी"चरिमसमयबादरसांपराइयस्स मोहणीयस्स हिदिसंतकम्ममंतोमुहत्तं । xxx Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिकरणसमाप्ति: ] किट्टवेदनाद्धाधिकारः [ ३८९ तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणिxxxx णामागोदवेदणोयाणं 'ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्त्राणि । " इति । निश्वयनयमाश्रित्य तदानीमेव व्यवच्छिद्यमानः संज्वलन लोभस्य बन्धो व्यवच्छिन्नः । एवं चादरकषायस्योदयोदीरणे व्यवच्छिन्न तथाऽनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानकाद्धाऽपि व्यवच्छिन्ना । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णो- “एवं अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेति ताव, जाव लोभस्स बितिपट्टिीए पढमट्ठितो समयाहियावलियसेस त्ति । तम्मि समए लोभसंजलणाए बंधवोच्छेओ, बायरकसायाणं उदओदीरणावोच्छेओ य अनिकालवोच्ओ य जुगवं भवंति ।" इति । तदेवं समर्थिता बादरकिट्टिवेदनाद्वा । तस्यां च समर्थितायां समाप्तमनिवृत्तिकरणनिरूपणम् ॥२०४॥ एकाधिकद्विशततमप्रभृतिगाथाः समाश्रित्य यन्त्रकम् (१) यात्रल्लो भद्वितीयसंग्रह किया आवलिकात्रिकप्रमाणा प्रथमस्थितिः शेषा भवति, तावद् द्वितीयसंग्रहकट्टितस्तृतीयसंग्रह कियामपि दलं संक्रामति । ततः परं द्वितीयसंग्रह किट्टिदलं तृतीयसंग्रह किट्टौ न संक्रामति, किन्तु सूक्ष्म किट्टिष्वेव । (२) लोभ द्वितीयसंग्रह किट्टप्रथमस्थितेर्द्वयावलिकयोः शेषयोरागालो व्यवच्छिद्यते । (३) लोभ द्वितीयसंग्रह किट्टिप्रथमस्थितेः समयाधिकावलिकायां शेषायाम् (क) लोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । (ख) समयोनद्वयावलिकाबद्धनूतनदलमुदयावलिकाप्रविष्टदलं च वर्जयित्वा शेषं सर्व बादरकिट्टिदलं सूक्ष्म किट्टितया परिणमयति । (ग) मोहनीयस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तमात्रः । (घ) घातित्रयस्य स्थितिबन्धो ऽन्तरहोरात्रम् । (ङ) अघातित्रयस्य स्थितिबन्धोऽन्तवर्षम् । (च) लोमस्य स्थितिसत्त्वमन्तर्मुहूर्तम् । (छ) घातित्रयस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयसहस्रवर्षाणि । (ज) अघातित्रयस्याऽसंख्येयवर्षाः स्थितिसत्त्वं भवति । (झ) मोहनीयस्य सर्वजघन्यस्थितिबन्धः । (ञ) मोहनीयस्य सर्व जघन्यानुभागबन्धः । (ट) निश्चयनयमाश्रित्य (अ) तदानीं व्यवच्छिद्यमानः संज्वलनकषायस्य बन्धो व्यवच्छिन्नः (ब) तदानीं व्यवच्छिद्यमाने बादरकषायस्योदयो दीरणे व्यवच्छिन्न । (स) एवमेवानिवृत्तिकरणगुणस्थानकाद्धाऽपि व्यवच्छिन्ना । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ] खबगसेढी [गाथा-२०५-२०७ अनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानकसमाप्तिसमनन्तरं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं प्रतिपद्यते । तेन सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके प्रक्रियाविशेष प्रदर्शयितुकामः प्राह सेकाले सुहुमगुणहाणं पडिवजए तयाणि य । गुणसेटिं करइ सुहुमकिट्टी उक्किरिय वेयइ य ॥२०५॥ अनन्तरकाले सूक्ष्मगुणस्थानं प्रतिपद्यते तदानीञ्च ।। गुणश्रेणिं करोति सूक्ष्मकिट्टीरुत्कीर्य वेदयति च ॥२०५।। इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' बादरकिट्टिवेदनाद्धासमाप्तितोऽनन्तरसमये 'सूक्ष्मगुणस्थानं' सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं प्रतिपद्यते, परिणाममाहात्म्यात् । तदानीं किं करोति ? इत्यत आह'तयाणिं य' इत्यादि, तदानीञ्च 'सक्ष्मकिट्टी' समकिट्टिगतप्रदेशानुत्कीय गुणश्रेणि' गुणेन-उदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणकारेण श्रेणि-प्रदेशरचनां 'करोति' निवर्तयति । उदयसमयतः प्रभृत्यसंख्येयगुणक्रमेण दलिकं निक्षिप्य प्रथमस्थितिं विदधातीत्यर्थः । 'वेदयति च तदानीञ्चैव सूक्ष्मकिट्टीरनुभवति । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णी--तओ सेकाले सुहुमसंपराइगकिट्टीओ दलिअं ओकड्डित्तु पढमहितिं करेइ । ततियतिभागमेत्तं वेदेइ य, तओ सुहुमसंपराइओ वुच्चइ ।" इति । एवं शतकचूर्णावपिः "वायररागेण कया सुहुमो वेएइ सुहुमकिटोओ। तम्हा सुहुमकसाओ सुहुमो सुडप्प योगप्प ॥१॥” इति ॥२०५॥ ननु गुणश्रेणिनिक्षेपः सूक्ष्मकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये कियान् भवति ? तथा गुणश्रेण्यां तदुपरितनस्थितिषु च दलिकनिक्षेपः कथं भवति ? इत्याशङ्काव्युदासाय प्राह सुहुमगुणत्तो गुणसेढीणिक्खेवो विसेसअब्भहिओ। तत्थ असंखगुणकमेणं णिखिविज्जा पसग्गं ॥२०६॥ चरिमाउ असंखगुणं अंतरआइम्मि ताउ य विसेसूणं । उवरि तओ बीयाइम्मि ताउ संखगुणहीणयं तो हीणं ॥२०७॥ (आर्यागोतिः) सूक्ष्मगुणतो गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाभ्यधिकः । तत्राऽसंख्यगुणक्रमेण निक्षिपति प्रदेशाग्रम् ।।२०६।। चरमादसंख्यगुणमन्तरादौ तस्माच्च विशेषोनम् । उपरि ततो द्वितीयादौ तस्मात् संख्यगुणहीनं ततो हीनम् ।।२०।। इति पदसंस्कारः । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसम्परायप्रथमसमये दलप्रक्षेपः ] किट्टवेदनाद्वाधिकारः [ ३९१ 'सुमगुणत्तो' इत्यादि, 'सूक्ष्मगुणतः ' पदैकदेशे पदसमुदायस्योपचारात् सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धातो 'गुणश्रेणिनिक्षेपो' मोहनीयस्य गुणश्रेण्यायामोऽन्तरस्थितीनां संख्येयभागकल्पो भवन् विशेषाधिको भवति । भणितं च कषायप्राभृतचूण- “गुणसेढिणिक्खेवो सुमसांपराइयडादो विसेसुत्तरो ।" इति । एवं ज्ञानावरणादीनामपि गलितावशेषगुणणिनिक्षेपः सूक्ष्मसम्परायाद्धातो विशेषाधिको भवति, नवरं मोहनीयगुणश्रेणिनिक्षेपतः शेषकर्मणां तात्कालिकगलितावशेष - गुणश्रेणिनिक्षेपोऽन्तमुहूर्त कालेनाऽधिको भवति, क्षीणकषायगुणस्थानकालस्योऽपरि शेषकर्मगुणश्रेणिशिरोदर्शनात् । अथ मोहनीयगुणश्रेणौ तदुपरि च दलनिक्षेपं भणति'तत्थ' इत्यादि, 'तत्र' सूक्ष्मसम्परायाद्धातो विशेषाधिकाऽऽयामलक्षणे गुणश्रेणिनिक्षेपेऽसंख्यगुणक्रमेण प्रदेशा' 'निक्षिपति' प्रक्षिपति । अयम्भावः सूक्ष्मकिट्टिगतस्य दलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं दलमुत्कीर्योत्कीर्णस्य च दलस्याऽसंख्येयभागप्रमितं दलं गृहीत्वोदयनिषेके स्तोकं दलं ददाति । तदनन्तरोपरितन द्वितीयनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं ददाति । ततोऽपि तृतीयनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं ददाति । एवमसंख्यातगुणक्रमेण तावद् ददाति यावदन्तमुहूर्तप्रमाणगुणश्रेणिनिक्षेपस्य चरमनिषेकः । अवाचि च कषायप्राभृतचूर्णो - "तदो पदेसग्गमोकड्डियूण उदये थोवं दिण्णं । अंतोमुहुत्तडमेत्तमसंखेजगुणाए सेढोए देदि ।" इति । ततो बह्वसंख्येयभागप्रमितं दलं गृहीत्वा 'चरमात्' प्रत्यासच्या गुणश्रेणिनिक्षेपचरमनिषेकतोऽसंख्यगुणं प्रदेशम् 'अन्तराद' अन्तरकरण प्रथमनिषेके निक्षिपति । इदमुक्त' भवति - इदानीमती स्थापनां वर्जयित्वा सर्वत्र दलनिक्षेपं करोति, तेनाऽन्तरकरणं न संभवति, तथाप्यनिवृत्तिकरणे निष्पादितस्याऽन्तरकरणस्य गुणश्रेणिं वर्जयित्वा येषु निषेकेषु दलनिक्षेपं करोति, ते "भूतपूर्वकस्तदुपचारः” इति न्यायेनाऽन्तरकरणनिषेका भण्यन्ते, तेषां च प्रथमनिषेके गुणश्रेणिशिरस उपरितने प्रथमनिषेक इति यावत्, गुण चिरमनितोऽसंख्येयगुणं दलिकं निक्षिपति । 'ताउ' इत्यादि, ‘तस्मात् ' अन्तरप्रथमनिषेक्तच विशेषोनं दलमुपरि यथाक्रमं निक्षिपति, यावदन्तरचरमनिषेकः, तस्योपरि भिन्नक्रमेण दलिकनिक्षेपप्रतिपादनात् । अथ द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दलनिक्षेपं व्याहतु कामः प्राह - 'तओ' इत्यादि, ' ततः' अन्तकरणचरमनिषेकतो 'द्वितीयादौ' द्वितीयायाः -- द्वितीपस्थित्या आदौ - प्रथमनिषेके 'संखगुणहोणयं'ति कप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वात् संख्यगुणहीनं दलं प्रक्षिपति । समवादि च कषायप्राभृतचूर्णौ -- “गुणसेढिसोसगादो जा अणंतरठ्ठिदी, तत्थ असंखेज्जगुणं । ततो विसेसहोणं ताव, जाव पुव्वसमये अंतरमासी तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरद्विदोदो त्ति पुव्वसमये जा विदियहिदी, तिस्से आदिट्ठदोए दिज्जमाणगं पदेसग्गं संखेज्जगुणहोणं तत्तो विसेसहीणं ।” इति । इहापि द्वितीयस्थितिव्यपदेशस्तु "भूतपूर्वकस्तदुपचारः” इति न्यायाद् बोध्यः । अयं भावः – सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकप्रथमसमये सत्तागतदलस्याऽसंख्येयभाग प्रमितं दलमुत्कीर्य 1 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ] खवगसेढी [ गाथा-२०६-२०७ तस्यैकाऽसंख्येयभागप्रमितं दलं गृहीत्वा गुणश्रेणौ निक्षिप्य शेषान् बहूनसंख्येयभागान् गुणश्रेणेरुपरि निक्षिपति । तत्रापि बह्वसंख्येयभागमात्रदलस्य बहून् संख्येयभागानेकं वा संख्येयभागमन्तरस्थितिषु विशेषहीनक्रमेण निक्षिप्य शेषदलं द्वितीयस्थितौ समयाऽधिकाऽऽवलिकाप्रमाणातीत्थापनान्यूनायां विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । इह यथा प्रथमपक्षे दोषाभावः, तथा द्वितीयेऽपि । तथाहि-अपकृष्टसर्वदलस्या-ऽसंख्येयभागप्रमाणं दलमन्तरस्थितिनिषेकतः संख्यातगुणहीनेषु गुणश्रेणिनिषेकेषु यथाविभागं ददाति, बहसंख्यातभागप्रमितदलस्य च संख्येयतमभागं पृथक्स्थाप्य बहून् संख्येयभागान् यथाविभागं गुणश्रेणिनिषेकतः संख्यातगुणेष्वन्तरस्थितिनिषेकेषु ददाति । इत्थं गुणश्रेणिचरमनिषेकतोऽन्तरस्थितिप्रथमनिषेके दीयमानदलमसंख्येयगुणं जायते, संख्यातगुणनिषेकेष्वसंख्यातगुणदलिकस्य प्रक्षेपात् । ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावद्ददाति, यावदन्तरस्थितिचरमनिषेकः । पृथक्स्थापितैकसंख्येयभागन्त्वन्तरस्थितितः संख्यातगुणेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु यथाविभागं निक्षिपति । इत्थमन्तरस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दीयमानं दलं संख्यातगुणहीनं जायते, संख्यातगुणनिषेकेषु संख्येयभागमात्रदलिकस्य प्रक्षिप्यमाणत्वादिति प्रथमपक्षः। __ अथ द्वितीयपक्षो व्युत्पाद्यते-अपकृष्टसकलदलस्याऽसंख्येयभागः पूर्ववद् गुणश्रेणिनिषेकेषु दातव्यः । शेषाणां बह्वसंख्येयभागानां संख्येयतमभागमन्तरस्थितिनिषेकेषु यथाविभागं निक्षिपति । इत्थमपि गुणश्रेणिचरमनिषेकतोऽन्तरस्थितिप्रथमनिषेके दीयमानं दलमसंख्येयगुणं जायते, संख्यातगुणनिषेकेष्वसंख्यातगुणदलिकस्य निक्षिप्यमाणत्वात् । ततः शेषान् बहुसंख्ययभागान् समयाधिकाऽवलिकारूपामतीत्थापनां वर्जयित्वा द्वितीयस्थितिसर्वनिषेकेषु विशेषहीनक्रमेण ददाति । इत्थमप्यन्तरस्थितिचरमनिषकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दीयमानं दलं संख्येयगुणहीनं भवति, अन्तरस्थितौ दीयमानदलतो द्वितीयस्थितौ दीयमानदलस्य संख्येयगुणत्वेऽप्यन्तरस्थितिनिषेकतो द्वितीयस्थितिनिषेकाणां संख्येयगुणत्वात् । एवंक्रमेण दलिकप्रक्षेपस्तावद्वाच्यः, यावत् सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके प्रथमस्थितिघातः पूर्णो भवति, नवरं प्रथमस्थितिघाताद्धाचरमसमययुत्कीर्णस्य दलस्य बहसंख्येयभागमात्रदलस्य ___ जयधवलाकारा अपिप्रथमपक्षं प्रदर्य द्वितीयपक्षेऽपि दोषाभावं स्वीकुर्वन्ति । तथा च तद्ग्रन्थः"कुदो ? अंतरदिदीसु पुश्वुत्तदव्वस्स संखेज्जे भागे रिणसिंचियूरण पुणोसेससंखेज्जदिभागमेतदव्वमंतरायामादो संखेज्जगुरगविदियट्टिवीए जहापविभागं रिणसिंचमारणस्स परिप्फुडमेवेदम्मि संधिविसये दिज्जमारणपदेसग्गस्स संखेज्जगुरणहीरणत्तदंसरणादो।xxxx जइवि एत्थ अंतरदिदीसु प्रोकड्डिदसयलदव्वस्स संखेजदिभागमेत्तमेव दव्वं रिणसिंचदि, विदियट्टिदीए च संखेज्जे भागे रिणसिंचदि त्ति घेप्पइ । तो विपयदत्थसिद्धीए पत्थि पडिबंधो, अंतरायामादो विदियट्टिदोमायामस्स (स्सा)संखेज्जगुणत्तमस्सियूण तस्स सिद्धीए बाहाणुवलंभादो।" इति । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसम्परायप्रथमस्थितिघातचरमसमये दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३९३ संख्येयतमभागमेवा-ऽन्तरस्थितिषु निक्षिपति, न तु प्रथमविकल्पेन बहुसंख्येयभागान् । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते-सूक्ष्मकिट्टिवेदनाद्धायां प्रथमस्थितिघाताद्धाया द्विचरमसमयं यावत् स्थितिखण्डगतदलस्याऽसंख्येयभागमात्रमेव दलमुत्कीर्णं भवति, अपकर्षणभागहारेण मोहनीयदलं भक्त्वैकभागस्योत्करणात् । तेन स्थितिखण्डगतदलबह्वसंख्येयभागमात्रदलं प्रथमस्थितिघाताद्धाचरमसमये गृह्यते, तच्च मोहनीयसर्वदलस्य संख्येयभागमानं भवति, स्थितिघातेन मोहनीयस्य घात्यमानस्थितीनां तत्स्थितिसत्कर्मसंख्येयभागप्रमाणत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् । तथा स्थितिघातेन घात्यमानस्थितितः संख्यातगुणहीना अन्तरस्थितयो भवन्ति, अल्पबहुत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् । अत्र यद्युत्कीर्णदलस्य बहुसंख्येयभागमात्रं दलमन्तरस्थितौ प्रक्षिप्यैकसंख्येयतमभागप्रमाणं दलं द्वितीयस्थितौ प्रक्षिपेत् , तीन्तरस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दृश्यमानं दलमेकगोपुच्छाकारेण न स्यात् , घात्यमानस्थितिनिषेकतः संख्यातगुणहीनेषन्तरस्थितिनिषेकेषु घात्यमानस्थितिगतबहुसंख्येयभागप्रमितदलप्रक्षेपस्वीकारात् । किन्त्वन्तरस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दृश्यमानं दलं संख्यातगुणहीनं प्रसज्येत । वक्ष्यति च प्रथमस्थितिघाते पूर्गे नवोत्तरद्विशततमगाथायां गुणश्रेणिं मुक्त्वोपरितननिषेकेषु दृश्यमानं दलिकं गोपुछाकारेण तिष्ठनोति । तेन सह विरोधः स्यात् । तस्मात् प्रथमस्थितिघाताद्धाचरमसमययुत्कीर्णदलस्याऽसंख्येयभागप्रमितं दलं गुणश्रेणिनिषेकेषु प्रक्षिप्य शेषबह्वसंख्येयभागमात्रदलस्य संख्येयभागप्रमाणं दलमन्तरस्थितिनिषेकेषु निक्षिप्य बहुसंख्येयभागप्रमाणं दलं स्थितिखण्डरहितद्वितीयस्थितिनिषेकेषु निक्षिपति । तथाहि-सूक्ष्मसम्परायकाले प्रथमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये मोहनीयदलस्य संख्येयभागमानं दलमुन्किरति, घात्यमानस्थितिखण्डस्य स्थितिसत्कर्मसंख्येयभागप्रमाणत्वात् , उत्कीर्य चोत्कीर्णदलस्याऽसंख्येयभागमानं दलं गृहीत्वोदयसमयतः प्रभृत्यसंख्येयगुणक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावद् गुणश्रेणिशिरः। बह्वसंख्येयभागप्रमाणदलतस्तु दलमादाय गुणश्रेणिशिरस उपरितनेऽन्तरस्थितिप्रथमनिषेके गणश्रेणिचरमनिषेकतोऽसंख्येयगुणं दलं प्रक्षिपति । ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावदन्तरस्थितिचरमनिषेकः । ततः परं द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके संख्यातगणहीनं दलं प्रक्षिपति । ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावद् घात्यमानरहितद्वितीयस्थितिचरमनिषेकः । नन्वन्तरस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके संख्यातगुणहीनंदलं प्रक्षिपतीत्येतत् कथमवसीयते ? इति चेत् , उच्यते-प्रथमस्थितिघाताद्धाद्विचरमसमयं यावद् द्वितीयस्थितिगतसर्वदलस्याऽसंख्येयभागकल्पं दलमन्तरस्थितौ निक्षिप्तम् । प्रथमस्थितिघाताद्धाचरमसमये तु स्थितिखण्डतः सर्व दलमुत्कीर्योत्कीर्णदलस्य संख्येयभागमानं दलमन्तरस्थितिनिषेकेषु निक्षिपति,बहुसंख्येयभागप्रमाणं च संख्यातगुणेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु निक्षिपति । तत्र द्वितीयस्थितेरेकैकनिषेके पुरातनसत्तागतदलस्य संख्येयभागमात्रं दलं निक्षिप्यमाणं भवति, ततश्च संख्यातगुणं दलमन्तरस्थितेरेकै Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ ] खवगसेढी [ गाथा-२०६-२०७ कनिषेके निक्षिपति, अन्यथा स्थितिघाते पूर्णे दृश्यमानदलमेकगोपुच्छाकारेण नवाधिकद्विशततमगाथायां यद्वक्ष्यति, तन्नोपपद्येत । इत्थमन्तरस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितेः प्रथमनिषके संख्यातगुणहीनं दलं प्रक्षिपति । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-२८ ।। अथ गणितविभागः । गणितरीत्येत्थं दर्शयितव्यम्-अन्तरस्थितिनिषेकैः स्थितिखण्डनिषेकराशिर्विभज्यते, तदा संख्यातरूपाणि लभ्यन्ते, अन्तरस्थितिनिषेकतः स्थितिखण्डस्य संख्येयगुणेन बृहत्तरत्वात् । तानि संख्यातरूपाणि पृथक्पृथक् स्थापयितव्यानि । अथ संख्यातरूपैः स्थितिखण्डसर्वनिषेकान् खण्डयित्वा पृथक्पथक्स्थापितेषु संख्यातरूपेष्वेकैकं खण्डं दातव्यम् । तत्रैकरूपे लम्वनिषेकाः सर्वान्तरस्थितिनिषेकप्रमाणा भवन्ति । अथैकरूपे प्राप्तनिषेकान् गृहीत्वाऽन्तरस्थितिनिषेकराशिना विभज्यैकैकनिषेकमन्तस्थितेरेकैकनिषेके प्रक्षिपेत् । इत्थश्च जाते प्रक्षेपेऽन्तरस्थितिचरमनिषेके द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकतो दृश्यमानदलं किञ्चिदधिकं जायते, पुरातनदलस्य तत्र सचात् । ततो द्वितीयरूपे प्राप्तनिषेकान् संख्यातराशिना विभज्यैकखण्डमन्तरस्थितिनिषेकेषु यथाविभागं पुननिक्षिपति, शेषाणि बहूनि खण्डानि गृहीत्वा यथाविभागं द्वितीयस्थितिनिषेकेषु निक्षिपति, संख्यातराशिश्वाऽत्रान्तरस्थितिनिषेकराशिभाजितगुणश्रेणिवर्जशेषाऽधात्यमानस्थितिसत्कर्मनिषेकप्रमाणो बोद्धव्यः। एवं तृतीयादिरूपेषु स्थापितनिषेकगतदलमन्तरस्थितिनिषेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु च यथागमं निक्षिपति । एवंक्रमेण निक्षिपतो जीवस्याऽन्तरस्थितिचरमनिषेके निक्षिप्तसंकलदलतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके निक्षिप्तसकलदलं संख्यातगुणहीनं भवति । अथासत्कल्पनया दयते--कल्प्यन्तां गुणश्रेणिनिक्षेपनिषकाश्चत्वारः (४), अन्तरस्थितिनिका अष्टौ (८), प्रथमस्थितिखण्डं पुनर्वात्रिंशभिषेकमात्रम् (३२), शेषद्वितीयस्थितिस्त्वष्टचत्वारिंशदधिकद्विशतनिषेकप्रमाणा (२४८),प्रथमस्थितिघाताद्धायाश्च द्विचरमसमयं यावदन्तरस्थितिप्रथमनिषेके निक्षिप्तदलानि षट् सहस्राणि (६०००)। तत उत्तरोत्तरनिषेके दलिकदशकरूपेण (१०) चयेन हीनानि हीनतराणि तावनिक्षिप्तानि, यावदन्तरस्थितिचरमनिषेकः । तेनाऽन्तरस्थितिचरमनिषके त्रिंशदधिकनवपञ्चाशच्छतमात्रं (५९३०) दलं प्रक्षिप्तम् । अथ द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकयेकलक्षमात्रं (१०००००) दलं कल्प्यम् । तत उत्तरोत्तरनिषेके विंशतिदलिकात्मकचयेन हीनं हीनतरं दलं तावत् कल्प्यम्, यावत् प्रथमस्थितिखण्डचरमनिषकः । तेन प्रथमस्थितिखण्डचरमनिषेके दलमशीत्यधिकपञ्चपञ्चाशच्छतन्यूनलक्षमात्रम् । इह यद्यपि द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकतः प्रभृति प्रथमस्थितिखण्डचरमनिषेकं यावद् दलिक विशेषहीनं भवति, तथापि विशेषहीनत्वं न विवक्षणीयम्, गणितप्रक्रियासौकर्यलाभाद् अकिश्चित्करत्वाच्च । अतो द्वितीयस्थतिप्रथमनिषेकतः प्रथमस्थितिखण्डचरमनिषेकं यावदेकैकस्मिन् निषेकयेकलक्षमात्र दलं बोद्धव्यम् । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ] यन्त्रकम्-२८ (चित्रम्-२८) [ ३९४ २०६-२०७ गाथाद्वयमाश्रित्य सूक्ष्मसम्परायाद्धाप्रथमसमये दीयमानदलप्ररूपणा २०८ गाथामाश्रित्य सूक्ष्मसम्परायाद्धाप्रथमसमये दृश्यमानदलप्ररूपणा २१० गाथाश्चाश्रित्य सूक्ष्मसम्परायाद्धादीनामल्पबहुत्वम् । अतीत्थापना .... • * ..दायमान:::दलम:::::........ • स्थिति स ता ग त दलम xxx Xx प्रथास्थितिवण्डम् य xx xxx xxx रात ती xxxx दि * * * ** * * *x * xxxx x xxxx * R * * * * * xxxbxx xx द्वितीयस्थिति. प्रथमनिषेकः । * * * * अन्तरचरम*अन्तरस्थिति निषेकः * * * * * अन्लरकरणप्रथमानक । गुणश्रेणि १ चरमनिषेक सङ्केतविवरणम: १- सूक्ष्मसम्परायाद्धा, सा च स्तोका (गाथा-२०६, २१०) । २- गुणश्रेणिनिक्षेपः, स च सूक्ष्मसम्परायाद्धातो विशेषाधिकः (गाथा-२०६, २१०) तस्मिंश्च दीयमानं दलं यथोत्तरमसंख्येयगुणक्रमेण भवति (गाथा-२०६)। एवं दृश्यमानमपि (गाथा-२०८) ३- अन्तरस्थितिनिषेकाः, ते च गुणश्रेणिनिक्षेपतः संख्येयगुणाः (गाथा-२१०) । A अन्तरकरणप्रथमनिषेके गुणश्रेणिचरमनिषेकतो-ऽसंख्येयगुणं दीयमानं दलम् । ततो यथो___त्तरं विशेषहीनं विशेषहीनम् (गाथा-२०७) । एवं दृश्यमानमपि (गाथा-२०८)। (पृष्ठं परावर्तयन्तु) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी] (चित्रम्-२८) [३९४ .(i) अन्तरस्थितिचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिपेके संख्येयगुणहीन दीयमानं दलम् । ततः परमतीत्थापनां वर्जयित्वा यथोत्तरं सर्वत्र विशेषहीनक्रमेण दीयमानदलम् (गाथा-२०७)। (ii) दृश्यमानं त्वन्तरस्थितिचरमनिपेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलम् । ततः परं यथोत्तरं सर्वत्र विशेषहीनं विशेषहीनम् (गाथा-२०८) । ४- प्रथमस्थितिखण्डम , तच्चा-ऽन्तरस्थितिनिषेकेभ्यः संख्येयगुणम्। (गाथा-२१०) सूक्ष्मसम्परायाद्धाप्रथमसमये मोहनीयस्थितिसत्ता प्रथमस्थितिखण्डतः संख्येयगुणा (गाथा-२१०) . . . लघुभिबिन्दुभिर्गुणश्रेण्यां दलं दर्शितम् । * अनेन चिह्नना-ऽन्तरस्थितौ दलं सूचितम् । * अनेन चिह्नन प्रथमस्थितिखण्डरहितद्वितीयस्थितौ पुरातनदलं सूचितम् । ० ०० एतैः शून्यैर्द्वितीयस्थितौ दीयमानं दलं दर्शितम्। ..... एतैरुभिर्बिन्दुभिः प्रथमस्थितिखण्डे दलं दर्शितम् । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्कल्पनया सूक्ष्मसम्पराप्रथमसमये दलनिक्षेपः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३९५ अथाऽन्तरस्थितिनिकैरष्टभिः (८) स्थितिखण्डराशिभत्रिंशद् विभज्यते, तदा संख्यातरूपाणि चत्वारि (३२=४) लभ्यन्ते । तानि च पृथक्पृथक्स्थापयितव्यानि १-१-१-१ । अथ संख्यातरूपेश्चतुर्भिः (४) स्थितिखण्डगतनिषेका द्वात्रिंशद् (३२) भज्यन्ते, तदैकखण्डमष्टनिषेकप्रमाणं प्राप्यते (३१८) । तच्चैकैकं खण्डं पृथक्स्थापितसंख्यातरूपेषु दातव्यम् । १११। इत्थमेकरूपेऽष्टौ निषेकाः प्राप्यन्ते, ते चाऽन्तरस्थितिप्रमाणा भवन्ति । एकरूपे च प्राप्तनिषेका अष्टौ (८) अन्तरस्थितिराशिनाऽष्टरूपेण भज्यन्ते, तदैकनिषेको लभ्यते । स चाऽन्तरस्थितेरेकैकनिषेके प्रक्षेप्तव्यः । दीयमानयेकैकनिषेकयेकलक्षमात्रदलस्य कल्पितत्वादन्तरस्थितेरेकैकस्मिन् निषेके लक्षसङ्ख्यं दलिकं प्रक्षिपति । तेनाऽन्तरस्थितिचरमनिषेके द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकतः किञ्चिदधिकं दलं जायते, तत्र पुरातनदलस्य त्रिंशदधिकनवपश्चाशच्छतमात्रस्य सच्चात् । द्वितीयरूपे प्राप्ताऽष्टनिषेकगतदलमष्टलक्षमात्रं संख्यातराशिना विभक्तव्यम् । संख्यातराशिश्वात्राऽन्तरस्थितिराशिनाष्टाख्येन गुणश्रेणिवर्जसर्वाऽधात्यमानस्थितिनिषेकेषु पटपञ्चाशदधिकद्विशतमात्रेषु विभक्तेषु द्वात्रिंशल्लभ्यते। (२४६=३२)। तेनैकखण्डं पञ्चविंशतिसहस्रदलप्रमाणं (८०००००=२५०००) भवति । ततस्तदेकं खण्डं गृहीत्वाऽष्टनिषेकमात्रेवन्तरस्थितिषु यथाविभागं प्रक्षिपति । तेनाऽन्तरस्थितेरेकैकस्मिन् निषेके साधिकत्रिसहस्रमात्रं दलं प्रक्षिपति । द्वितीयस्थितौ तु बहूनि खण्डानि पादोनाष्टलक्षदलनिष्पन्नानि यथाविभागं (७७५०००) प्रक्षिपति, तेन द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽपि साधिकत्रिसहस्रमानं दलं प्रक्षिप्तं भवति । __एवंक्रमेण तृतीयादिरूपेषु प्राप्तनिषेकान् गृहीत्वा यथाविभागमन्तरस्थितिनिपेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु च तथा प्रक्षिपति, यथाऽन्तरस्थितिनिषेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु च दृश्यमानं दलं गोपुच्छाकारेण भवतीति । अनेन क्रमेण दलिके प्रक्षिप्ते द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके प्रक्षिप्यमाणानि दलिकानि सर्वसंख्यया साधिकैकविंशतिसहस्रमात्राणि जायन्ते (साधिकानि २१०००), अन्तरस्थिातेचरमनिषेके तु साधिकैकविंशतिसहस्रोत्तरलक्षमात्राणि (साधिकानि १२१०००) भवन्ति । इत्थमन्तरस्थितिचरमनिषेके दत्तदलिकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दीयमानदलं संख्येयगुणहीनं जायते ॥२०६-२०७॥ दीयमानदलं प्ररूप्य सूक्ष्मसम्परायाद्वाप्रथमसमयतः प्रभृति दृश्यमानदलं निरुरूपयिपुराहदीसइ अंतरपढमं जाव दलमसंखगुणकमेणं तत्तो। हीणकमेणं बीयाइम्मि असंखगुणमुवरि तु विसेसूणं ॥२०॥ (आर्यागीतिः) दृश्यतेऽन्तरप्रथमं यावद् दलमसङ्ख्यगुणक्रमेण ततः । हीनक्रमेण द्वितीयादावसंख्यगुणमुपरि तु विशेषोनम् ।।२०८।। इति पदसंस्कारः । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी [ गाथा--२०८ _ 'दीसई' इत्यादि, तत्र 'अन्तरप्रथमम्' अन्तरकरणप्रथमनिषेकं यावद् 'दलं प्रदेशाग्रम् 'असंख्यगुणक्रमेण' असंख्यातगुणक्रमेण दृश्यते । इदमुक्त भवति-सूक्ष्मसम्परायाद्धाप्रथमसमययुदयस्थितौ स्तोकं दलं दृश्यते । ततो द्वितीयनिषेकेऽसंख्यातगुणम् , ततोऽपि तृतीयनिषेकेऽसंख्यातगुणम् , एवंक्रमेण तावद् दृश्यते , यावद् गुणश्रेणिशिरः । ततोऽपि गुणश्रेणिशिरसोऽनन्तरोपरितननिषेकेऽन्तरकरणप्रथमनिषेक इत्यर्थः, असंख्येयगुणं दलं दृश्यते, दीयमानदलतो दृश्यमानदलस्याऽनतिरिक्तत्वेन दीयमानदलवद् दृश्यमानदलस्याऽपि तथाविधक्रमोपपत्तेः। 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' अन्तरस्थितिप्रथमनिषेकतः परं 'हीनक्रमेण' विशेषहीनक्रमेण दलं दृश्यते, यावदन्तरस्थितिचरमनिषेकः, द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणदृश्यमानदलस्य प्रतिपादनात् । अयं भावः-अन्तरस्थितिप्रथमनिषेकतोऽन्तरस्थितेर्द्वितीयनिषेके विशेषहीनं दलं दृश्यते , ततोऽपि तृतीयनिषेके विशेषहीनं दृश्यते, एवंक्रमेण तावद् दृश्यते, यावदन्तरस्थितेश्वरमनिषेकः, अन्तरस्थितौ दृश्यमानदलस्य दीयमानदलतोऽनतिरेकेण तथाविधक्रमोपपत्तेः । 'बोयाइम्मि' 'द्वितीयादौ द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकेऽन्तरस्थितिचरमनिषेकतोऽसंख्यगुणं दलं दृश्यते । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते--अन्तरस्थितौ सत्तागतसकलदलस्याऽसंख्येयभागमा दलं प्रक्षिप्तम् , उत्कीर्णस्य सकलस्याऽपि दलस्य मोहनीयसकलदलाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । बह्वसंख्यातभागप्रमाणदलं चाऽन्तरस्थितितः संख्यातगुणेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु यथाविभागं तिष्ठति । तेनाऽन्तरस्थितितो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दृश्यमानं दलमसंख्येयगुणं भवति । 'उवरि' इत्यादि, 'उपरि' द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकस्योपरि तु 'विशेपोनं' विशेषहीनं दलं यथोत्तरं दृश्यते । इदमुक्त भवति-द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके दृश्यमानदलतो द्वितीयस्थितिद्वितीयनिषेके दलं विशेषहीनं दृश्यते, ततोऽपि तृतीयनिषेके विशेषहीनम् । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् दृश्यते, यावद् द्वितीयस्थितिचरमनिषेकः । अनेन क्रमेण दृश्यमानं दलं तावद्वक्तव्यम् , यावत्सूक्ष्मसम्परायाद्धायां प्रथमस्थितिखण्डं निःशेषतो नोत्कीयते, प्रथमस्थितिखण्डे तूत्कीर्ण उत्तरगाथया द्वितीयादिस्थितिघातेषु दृश्यमानदलस्य भिन्नक्रमेण प्रतिपादनात् । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स उदये दिस्सदि पदेसग्गं थोवं । विदियाए हिदीए असंखेजगुणं दीसदि। (एवं) ताव जाव (गुणसेढिसोसयं ति) गुणसेडिसीसयादो अण्णा च एक्का ठिदि त्ति । तत्तो विसेसहोणं ताव, जाव चरिमअंतरहिदि त्ति। तत्तो असंखेजगुणं। तत्तो विसेसहोणं। एस कमो ताव, जाव सुहुमसांपराइयस्स पढमढिदिखंडयंचरिमसमयअणिल्लेविदं ति।” ॥२०८॥ प्रथमस्थितिघाते पूर्णे द्वितीयादिस्थितिघातकाले दीयमानं दृश्यमानं च दलं विभणिपुराह-- Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ ] [खवगसेढी यन्त्रकम्-२९ (चित्रम्-२९) सूक्ष्मसम्परायाद्धायां द्वितीयादिस्थितिघातावसरे दृश्यमानदलप्ररूपणा वायमस्वतिः अन्तरचरमनिषेकः । {द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकः अन्तर (अन्तरप्रथम(निषेकः २ (गुणश्रेणेश्वरम निषेकः सङ्केतविवरणम्: १-गुणश्रेणिनिक्षेपः, तस्मिँश्चोत्तरोत्तरनिषेकेऽसंख्येयगुणक्रमेण दलिकं दृश्यते। २-स च गुणश्रेणेरुपरितनः प्रथमनिषेकः, तस्मिँश्च गुणश्रेणिचरमनिषेकतोऽसंख्येयगुणं दलं दृश्यते । ततः परं सर्वत्र विशेषहीनक्रमेण दलं दृश्यते । तेना-ऽन्तरचरमनिषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके विशेषहीनं दलं दृश्यते । एवमन्यत्रा-ऽपि । यथा दृश्मानं दलं चित्रे दर्शितम् , तथैव दीयमानमपि दलं बोध्यम् । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयादिस्थितिघातकाले दीयमानं दृश्यमानञ्च दलम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः बीयाइट्टिइघायेसु ं गुणसेढिउवरिल्लपढमणिसेगं । जावं दिज्जंतं दीसंतं य असंखगुणकमा तो हीणं । २०९ | (आर्यागीतिः) द्वितीयादिस्थितिघातेषु गुणश्रेण्युपरितनप्रथम निषेकम् । यात्रद् दीयमानं दृश्यमानञ्चाऽसंख्यगुणक्रमात् ततो हीनम् ||२०९ || इति पदसंस्कारः । [ ३९७ 'चोयाइ०' इत्यादि, दलमिति पदं पूर्वतोऽनुवर्तते । 'द्वितीयादिस्थितिघातेषु' सूक्ष्मसम्परायाद्धायां प्रथमस्थितिघाते पूर्णे द्वितीयादिस्थितिघातेषु 'गुणश्रेण्युपरितनप्रथमनिषेकं यावद्' गुणश्रेणेरुपरितनं प्रथमनिषेकं यावद संख्यगुणक्रमाद् दीयमानं दृश्यमानञ्च दलं भवति । 'तो' इत्यादि, 'ततो' गुणश्रेणेरुपरितनप्रथमनिषेकतः परं 'हीनं' विशेषहीनं विशेषहीनं दीयमानं दृश्यमानञ्च दलिकं भवति । इदमुक्तं भवति - सूक्ष्मसम्परायाद्धायां प्रथमस्थितिघाते पूर्णे द्वितीयस्थितिघातप्रथमसमयतः प्रभृति सत्तागतसकलदलाऽसंख्येयभागमात्रं दलमुत्कीर्योत्कीर्णदलाऽसंख्येयभागप्रमितं च दलं गृहीत्वोदयनिषेके स्तोकं दलं ददाति । ततोऽनन्तरद्वितीयनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं ददाति । ततोऽप्यसंख्येयगुणं तृतीयनिषेके । एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावत्प्रक्षिपति, यावद्गुणश्रेणिशिरः । तत उत्कीर्णदलस्य बह्वसंख्येयभागप्रमाणाद् दलाद् दलमादाय गुणश्रेणिशीर्षस्योपरितने प्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं ददाति । ततो विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति यावदतीत्थापनाऽप्राप्ता भवति, नवरं स्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये सत्तागतदलस्य संख्येयभागमात्रदलमुत्कीर्य स्थितिखण्डप्रमाणामतीत्थापनां वर्जयित्वा शेषस्थितिषु पूर्वोक्तक्रमेण दलं ददाति । एवंक्रमेण तावद्वक्तव्यम्, यावत्सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके मोहनीयस्य चरम स्थितिघातः । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णौ - "विदियादो ठिदिखंडयादो ओकड्डियूण (जं) पदेसग्गमुदये दिज्जदि, तं थोवं । तदो दिज्जदि असंखेज्जगुणाए सेटीए ताव, जाव गुणसेढोसोसयादो उवरिमाणंतरा एक्का डिति त्ति, तदो विसेसहीणं । एत्तो पाए हुमसांपराइयस्स जाव मोहणीयस्स ठिदिघादो ताव एसो कमो ।” इति । एवं दृश्यमानमपि दलं गुणश्रेणेरुपरितनं प्रथमनिषेकं यावदसंख्येयगुणकारेण भवदुपरि मोहनीयचरमनिषेकं यावद् विशेषहीनक्रमेण तिष्ठति । प्रत्यपादि च कषायप्राभृतचूण - "पढमे ठिदीखंड पिल्लेविदे (जं) उदये पदेसग्गं दिस्सदि, तं थोवं । विदियाए ठिदीए असंखेज्जगुणं । एवं ताव, जाव गुणसेढिसोसयं । गुणसेढिसोसयादो अण्णा च एका ठिदित्ति असंखेज्जगुणं दिस्सदि । तत्तो विसेसहीणं जाव उक्कस्सिया मोहणीयस्स ठिदित्ति ।” पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् - २९ ॥ २०९॥ ननु प्रथमस्थितिखण्डे घातिते गुणश्रेणिं मुक्त्वा शेषस्थितिषु दलमेकगोपुच्छाकारेण कुतो भवति ? इति शङ्कां समाधातुकामोऽल्पबहुत्वं भणति - Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढी ३९८ ] सुहुमद्धा थोवा तत्तो गुणसेढी विसेसअन्भहिआ । तत्तोऽन्तरं पढमखंडं तह संतं कमेण संखगुणं ॥ २१० ॥ ( गीतिः ) सूक्ष्माद्धा स्तोका तो गुणश्रेणिर्विशेषाभ्यधिका । ततोऽन्तरं प्रथमखण्डं तथा सत्त्वं क्रमेण संख्यगुणम् ॥ २१०॥ इति पदसंस्कारः । [ गाथा-२१० 'सुहुमडा' इत्यादि, 'सूक्ष्माद्वा' सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धा 'स्तोका' अल्पा, उपरितनपदानां प्रभूतत्वदर्शनात् । ' तत्तो' इत्यादि, 'ततः' सूक्ष्मसम्परायाद्धातः 'गुणश्रेणिः ' सूक्ष्मसम्परायप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टिदलमुत्कीर्य या गुणश्रेणिः क्रियते सा विशेषाभ्यधिका भवति, गुणश्रेणिनिका विशेषाधिका भवन्तीत्यर्थः । 1 'तो' इत्यादि, 'ततो' मोहनीयगुणश्रेणिनिषेकतोऽन्तरं प्रथमखण्डं तथा 'सच्चं ' स्थितिसत्त्वं क्रमेण प्रत्येकं संख्यगुणं भवति । अन्तरसाहचर्यात् प्रथमस्थितिखण्डं स्थितिसचं च मोहनीयस्य ग्रहीतव्ये । इदमुक्तं भवति - मोहनीयगुणश्रेणिनिषेकतोऽन्तरस्थितिनिषेकाः संख्यातगुणा भवन्ति । ततोऽपि सूक्ष्मसम्परायाद्धायां घात्यमानं मोहनीयप्रथमस्थितिखण्डं संख्यातगुणं भवति, ततोऽपि मोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं संख्यातगुणं तिष्ठति । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूण" सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइयडा, पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स गुणसेढिणिक्खेवो विसेसाहिओ | अंतरद्विदीओ संखेज्जगुणाओ, सुहुमसांपरा - यस्स पढमडिदिखंडयं मोहणीये संखेज्जगुणं पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं ।” इति । नन्ववतरणे यदभिहितम्, प्रथम स्थितिखण्डे घातिते गुणश्रेणि मुक्त्वा शेषस्थितिषु दलमेकगोपुच्छाकारेण कुतो भवतीति शङ्कात्र्युदासायेद - मल्पबहुत्त्रमवतीर्णमिति, तत्कथं सङ्गच्छते ? इति चेत्, उच्यते - अन्तरस्थितिनिषेकतः संख्यातगुणाः प्रथमस्थितिखण्डगतनिषेका भवन्ति, तेन प्रथम स्थितिघाताद्धाचरमसमय उत्कीर्णदलतोऽन्तरस्थितिनिषेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु च दलिकं तेन क्रमेण प्रक्षिपति, येन दृश्यमानदलमेकगोपुच्छाकारेण जायते । प्रथमस्थितिखण्डगतनिषेकतोऽन्तरस्थितिनिषेकाणां बहुत्वे तु दृश्यमानं दलमन्तरस्थितिचरम निषेकतो द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेक एकचयेन हीनं न स्याद् । ततश्चाऽन्तरस्थितिनिषेकेषु द्वितीयस्थितिनिषेकेषु चैकगोपुच्छाकारेण दलं न स्यात् । तेनेदमल्पबहुत्वमेकगोपुच्छाकारदलसाधनायाऽलं भवति ॥ २१० ॥ सूक्ष्मसम्परायाद्धाप्रथमसमये सूक्ष्मकिट्टीनां प्रथमस्थितिं कृत्वा वेदयतीति प्राक् सामान्यत उक्तम् | सामान्यज्ञानस्य च विशेषजिज्ञासा हेतुत्वात् सम्प्रति विशेषतः सूक्ष्मकिट्टीनामुदयं विवर्णपुराह Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद्यमानावेद्यमानसूक्ष्मकिट्टयः, तासाञ्चाल्पबहुत्वम् ] फिट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ३९९ सुहुमाण हेट्ठिमा उवरिल्लाअ असंखभागमेतीओ। न अणुहवेज्जन्ते सेसा वेइज्जन्ति किट्टीओ ॥२११॥ सूक्ष्माणामधस्तन्य उपरितन्यश्चाऽसंख्यभागमाभ्यः । ना-ऽनुभूयन्ते शेषा वेद्यन्ते किट्टयः ।। २११ ॥ इति पदसंस्कारः। 'सुहुमाण' इत्यादि, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धाप्रथमसमये 'सूक्ष्माणां' सूक्ष्मकिट्टीनाम् 'अधस्तन्यः' मन्दानुभागकाः 'उपरितन्यश्च तीव्रानुभागकाश्चाऽसंख्येयभागमाच्यः सूक्ष्मकिट्टयो 'ना-ऽनुभूयन्ते' उदयेन न वेद्यन्ते । ननु काः सूक्ष्मकिट्टयो वेद्यन्ते ? इत्याह-'सेसा इत्यादि, 'शेषाः' उपर्युक्तादन्याः, उपरितन्योऽधस्तन्यश्चासंख्येयभागमात्र्यो याः सूक्ष्मकिट्टयोऽवेद्यमानाः,ताभ्योऽन्या . बह्वसंख्येयभागमाग्यो मध्यमाऽनुभागका इत्यर्थः, 'किट्टयः सूक्ष्मकिट्टयो 'वेद्यन्ते' उदयेना-ऽनुभूयन्ते । यदुक्तं कषायप्राभृतचूर्णी-“से काले पढमसमयसुहुमसांपराइओ। ताधे सुहमसांपराइयकिटोणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा ।" इति । इदमुक्तं भवति-प्रथमसमये द्वितीयस्थितितः सर्वसूक्ष्मकिट्टिभ्यो दलिकमपकृष्य प्रथमस्थितिं करोति । तत्राऽसंख्येयभागप्रमाणास्तीवानुभागका मन्दानुभागकाश्चोदयनिषेके मध्यमकिट्टिस्वरूपेण परिणम्य वेदयति, इत्थमसंख्येयभागप्रमाणानां स्वरूपेण वेदनाभावाच्छेषा बह्वसंख्येयभागप्रमाणा मध्यमसूक्ष्मकिट्टीर्वेदयति । एवं द्वितीयादिसमयेष्वपि सूक्ष्मकिट्टिवेदनविधिर्वक्तव्यः, नवरं पूर्वपूर्वसमयत उचरोचरसमये-ऽसंख्येयभागेनाऽधिका अधिकतरा उपरितन्यः सूक्ष्मकिट्टयः स्वरूपेण न वेद्यन्ते, तथा-ऽपूर्वेणाऽसंख्येयभागेनाऽधिका अधिकतरा अधस्तन्यः सूक्ष्मकिट्टयो वेद्यन्ते । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावत्सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धाचरमसमयः ।। २११ ॥ उदीर्णा-ऽनुदीर्णसूक्ष्मकिट्टीरभिधाय सम्प्रति तासामल्पबहुत्वं विभणिषुराहहेट्ठिल्ला अणुदिण्णा थोवा तत्तो विसेसअहिआओ। उवरिल्ला तत्तो य असंखेज्जगुणा उदिण्णाओ॥२१२॥ अधस्तन्योऽनुदीर्णाः स्तोकास्ततो विशेषाधिकाः।। अरितन्यस्ततश्चाऽसंख्येयगुणा उदीर्णाः ।। २१२ ॥ इति पदसंस्कारः । 'हेहिल्ला' इत्यादि, सूक्ष्मसम्परायाद्धाप्रथमसमये 'अधस्तन्यो' मन्दानुभागका अनुदीर्णाः सूक्ष्मकिट्टयः स्तोका भवन्ति, या मन्दानुभागकाः सर्वसूक्ष्मकिट्टयसंख्येयभागप्रमाणाः सूक्ष्मकिट्टयो न वेद्यन्ते, ताः स्तोका भवन्तीत्यर्थः। 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' अनुदीर्णा-ऽधस्तनसूक्ष्मकिट्टितः 'उपरितन्यः' तीवानुभागका अनुदीर्णाः सर्वसूक्ष्मकिट्टयसंख्येयभागप्रमाणा भवन्त्योऽपि विशेषाधिकाः । 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' अनुदीर्णोपरितनसूक्ष्मकिट्टित उदीर्णा मध्यमाऽनुभागकाः सूक्ष्मकिट्टयोऽसंख्येयगुणा भवन्ति, पूर्वोत्तानामनुदीर्णोपरितनसूक्ष्मकिट्टीनामसंख्येयभाग Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] खवगसेढी [ गाथा--२१३ प्रमाणत्वाद् , आसां च बहसंख्येयभागप्रमाणत्वात् । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"हेढा अणुदिण्णाओ थोवाओ, उवरि अणुदिण्णाओ विसेसाहियाओ। मज्झे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइयकिटोओ असंखेज्जगुणाओ।” इति । एवं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानाद्धायाः शेषसमयेष्वपि भावनीयम् , विशेषाभावात् ॥२१२।। एवंविधिना संख्यातेषु स्थितिघातसहस्रषु गतेषु मोहनीयस्य चरमस्थितिघातकाले यद्भवति, तद्वक्तुकाम आह सुहुमद्धाए संखेज्जइभागे सेसगे विणासेइ । गुणसेढिसंखभागं अन्तिमखण्डं विघातंतो ॥२१३॥ सूक्ष्माद्धायाः संख्येयतमभागे शेषके विनाशयति । गुणश्रेणिसंख्यभागमन्तिमखण्डं विघातयन् ।। २१३ ।। इति पदसंस्कारः । 'सुहुमडाए' इत्यादि, संख्यातैः स्थितिघातसहस्रः 'मूक्ष्माद्धायाः' सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धायाः 'संख्येयतमभागे शेषके' बहुषु संख्यातभागेषु गतेष्वेकस्मिन् संख्येयतम मागे शेषे 'अन्तिमखण्ड' मोहनीयस्य चरमस्थितिखण्डं "विघातयन्' विनाशयन् 'गुणश्रेणिसंख्यभागम्' अग्रतो गुणश्रेणिनिक्षेपस्य संख्येयतमभागं 'विनाशयति' घातयति । अभाणि च कषायप्राभृतचूर्णी-"सुहुमसांपराइयस्स संखेज्जेसु ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं ठिदिखंडयं मोहणीयस्स, तम्हि हिदिखंडये उक्कीरमाणे जो मोहणीयस्स गुणसेदिणिक्खेवो, तस्स गुणसेदिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागो आगाइदो ।” इति । भावार्थः पुनरयम्-सूक्ष्मसम्परायाद्धायाः संख्येयतमे भागे शेपे मोहनीयस्थितिखण्डमन्तमुहूतमात्रं घातयति, तथा यः सूक्ष्मसम्परायाद्धातो विशेषाधिको गुणगिनिक्षेपः प्रागुक्तः, तस्याऽग्रतः संख्येयतमभागमपि घातयति । घातयश्च सूक्ष्मसम्परायाद्धाचरमसमयेऽभिनवगुणश्रेणिशिरो निवर्तयति । एवं सूक्ष्मसम्परायजीवश्वरमस्थितिखण्डेन गुणश्रेगिपंखोयभागप्रमागनिषेकांस्ततश्च संख्यातगुणानन्यानुपरितननिषेकान् घातगत । तदानों दलनिक्षेपस्त्वनन्तावक्ष्यमागाकारेण संभाव्यते, दर्शनमोहक्षपणाधिकारे सम्यक्त्वमोहनीयदलनिक्षेपस्य कषायप्रामतचूर्णिकारादिभिस्तथाप्रतिपादितत्वात् । अथ दलप्रक्षेपक्रमः-मोहनीयचरमस्थितिघाताद्धाप्रथम पमये दलिकमुत्कीर्योदयनिषेके स्तोकं दलं प्रक्षिपति । ततो द्वितीयनिषेकेऽसंख्येयगुणं दलं निक्षिति, ततोऽपि तृतीयनिषेकेऽसंख्येयगुणम् । एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावत्प्रक्षिपति, यावत् सूक्ष्मसम्परायाद्धाचरमनिषेकलक्षणमभिनवश्रेणिशिरः । ततोऽनन्तरनिषेकेऽसंख्ये गुणहीनं दलं ददाति । ततः परं विशेषहीनक्रमेण तावददाति, यावत्पुरातनगुणश्रेणिशिरः। ततः परमनन्तरनिषेकेऽसंख्येवगुणहीनं ददाति । तत ऊर्ध्व विशेषहीनक्रमेण तावत् ददाति, यावदतीत्थापनाऽप्राप्ता भवति । अयं दलनिक्षेपक्रमस्ता Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किटिवेदनाद्धाधिकारः [४०१ धद्वक्तव्यः, यावद् मोहनीयचरमस्थितिघाताद्धाद्विचरमसमयः। चरमसमये तु दलमुत्कीर्योदयनिषेके स्तोकं दलं ददाति, ततोऽसंख्येयगुणं द्वितीयनिषेके ददाति, ततोऽपि तृतीयनिषेकेऽसंख्येय गुणं ददाति, एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावद्ददाति, यावत्सूक्ष्मसम्परायाद्धाचरमनिषक: 5 ॥२१३॥ सूक्ष्मसम्परायाद्धायाः संख्येयतमभागे शेषे मोहनीयस्थितिघाताद्धाया द्विचरमसमयं यावद् दीयमानदलिकप्ररूपणा । चरमस्थितिखण्डायामः। Boo००००००० २०००००००० १ सूक्ष्मसम्परायाद्धा, तस्यां चाऽसंख्येयगुणक्रमेण दलं प्रक्षिप्यते । २=गुणश्रेणेरभिनवकिरा ३-शुणश्रेणिनूतनशिरस उपरितनाऽनन्तरनिपेकः, तस्मिश्च गुणश्रेणिनूतनशिरसि प्रक्षिताद दा दसंख्येयगुणहीनं दलं प्रक्षिप्यते । ततः परं विशेषही नक्रमेण निक्षिप्यते । ४=गुणश्रेणिनिक्षेपस्याऽग्रतः संख्येयतमभागः, स च चरमस्थितिखण्डे धात्यते । ५-गुणश्रेणेः पुरातनशिरः । ६-गुणश्रेणिपुरातनशिरस अरितनोऽनन्तरनिषे,तस्मॅिश्च गुणश्रेणिपुरातनशीप्रक्षिप्तदलतोऽसंख्येय. गुणहीनं दलं प्रक्षिप्यते । ततः परं विशेषहीनक्रमेण । ...अनेन चिह्नन दीयमानं दलंसूचितम।"अनेन चिह्नन घात्यमाजस्थिती पुरातनसत्तागा दल सचितम । * अनेन चिह्ननाऽघात्यमानस्थितौ पुरातनसत्ता-तं दल सूचितम् । ७=मोहनीय चरमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमयः। तदानीं मोहनीयसर्वदलमुत्कीर्य गणश्रेणिजूतनशी यावदसंख्येयगुणक्रमेण दलं दीयते, न ततः परम् । अजयधवलाकारैरप्यनेनैव क्रमेण दलिकनिक्षेपो दर्शितः । अक्षराणि त्वेवम्-"संपहि चरिमदिदिखंडयस्स पढमसमये उकीरिजमारणपदेसग्गस्स सेढिपरूवरखं सत्तसचिदं वत्तहस्सामो ताचे चेव पढमफालीदव्वमोकड्डियूरण उदये पदेसगंथोवं देदि । से काले असंखेनगुणं देदि । एवमसंखेजगुणाए सेढीए रिणक्खिवमारणो गच्छदि, जाव सुहुमसांपराइयचरमसमयो ति । एवं च एण्हि मोहणीयस्स गुणसेढिसीसयमिदि घेत्तव्वं । तत्तो उवरिमाणंतरदिदीए असंखेजगुणहीरणं देदि। तत्तो विसेसहीणं रिणक्सिवमारणो गच्छदि जाव चिरागगुरगसेढिसोसयं पत्तो त्ति । तदो उवरिमारणंतराए एक्किस्से टिदीए असंखेजगुणहीणं णिक्खिवदि । तत्तो परं सम्वत्थ विसेसहीरणं चेव रिणक्खिवदि, जाव अप्परको चरिमदिदिमइच्छावरणावलियमेत्तेरण अपत्तो त्ति । एवं विदियादिफालीसु वि रिणवदमारिणयासु एरिसी चेव दिखमारणगस्स सेढिप्ररूवरणा णिव्वामोहमणुगंतव्वा, जाव चरिमट्टिदिखंडयस्स दुचरिमफालि ति। पुरणो चरिमफालिदव्वं घेत्तूण उदये पदेसगं थोवं देदि । से काले असंखेजगुरणं। एवमसंखेजगुरगाए सेढीए मिक्खिवमारणो गच्छदि, जाव सुहुमसांपराइयचरिमट्ठिदि ति।" इति । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arrat मोहनीयचरमस्थितिखण्डे घातिते यद्भवति तद्वक्तुकाम आह-चरिमे खंडे णट्ठे तु णत्थि मोहस्स ठिघाओ । ठिइसतं उण सुहुमद्धापमिअं होइ मोहस्स ॥ २१४॥ (उपगीतिः) ४०२ ] चरमे खण्डे नष्टे तु नास्ति मोहस्य स्थितिघातः । स्थितिसत्त्वं पुनः सूक्ष्माद्धाप्रमितं भवति मोहस्य || २१४ || इति पदसंस्कारः । 'चरिमे' इत्यादि, 'चरमे खण्डे' मोहनीयकर्मणश्चरमस्थितिखण्डे नष्टे तु 'मोहस्य' मोहनीयकर्मणः स्थितिघातो 'नास्ति' न भवति शेषाणां ज्ञानावरणादीनां कर्मणां स्थितिघातादयः पूर्ववत् प्रवर्तन्ते । उक्तं च सप्ततिका चूर्णी - "तओ पभिति मोहस्स ठिति - घाओ णत्थि, सेसाणं कम्माणं ठिदिघातादओ पवत्तंति चेव ।” इति । तथैव कषाप्राभृतचूर्णावपि, नवरं कषायप्राभृतचूर्णिकारैर्ज्ञानावरणादिकर्मणां स्थितिघातादीनां प्रवृतिर्न दर्शिता, पूर्वतः प्रवृत्तानां प्रतिषेधाभावेनाऽनुक्तसिद्धत्वात् । अक्षराणि त्वेवम् "तम्हि ठिदिखंडये उक्किण्णे तदोप्पहूडि मोहणीयस्स णत्थि ठिदिघादो ।" इति । अथ तदानीं स्थितिसत्त्वं प्ररूपयति- 'ठिइसंत' इत्यादि, मोहनीयचरमस्थितिखण्डे विनष्टे ‘मोहस्य' मोहनीयकर्मणः स्थितिसचं पुनः 'सूक्ष्माद्धाप्रमितं ' शेषसूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धाप्रमाणं 'भवति' जायते, नाधिकम् । न्यगादि च कषायमाभृतचूर्णो- “जत्तियं सुहमसांपराइयडाए सेसं, तत्तियं मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं सेसं ।" इति । तदपि पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमय एकैकसमयेन हीनं हीनतरं भवति, उदयेनैकैकनिषेकस्याऽनुभवनात् ॥ २१४॥ I [ गाथा-२१४-२१६ मोहनीयचरमस्थितिखण्डं घातयित्वा सूक्ष्म किट्टीरुदयेनाऽनुभवतो जीवस्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानककाले समयाधिकावलिकाशेषे लोभजघन्यस्थित्युदीरणादयः पदार्थाः प्रवर्तन्ते, तान् व्याजिहीषु राह समयाहियआवलिसेसम्म टिइउदीरणा जहणंते । तिन्हं घाईणं बंधो तह संतं मुहुत्तो ॥ २१५ ॥ णामदुगस्स अडमुहुत्ता तह तइयस्स बारस मुहुत्ता । बंधी संतं तु अघाईण असंखेज्जवासाणि ॥ २१६ ॥ समयाधिकावलिकाशेषे स्थित्युदीरणा जघन्याऽन्ते । त्रयाणां घातिनां बन्धस्तथा सत्त्वं मुहूर्तान्तः || २१५ ।। नामद्विकस्याऽष्टमुहूर्तास्तथा तृतीयस्य द्वादश मुहूर्ताः । बन्धः सत्त्वं त्वघातिनाम संख्येयवर्षाणि ॥ २१६ || इति पदसंस्कारः । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसम्पराये जघन्यस्थित्युदीरणादयः ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ४०३ 'समया०' इत्यादि, समयाधिकावलिकाशेवे सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाले “लुक्” (सिद्धहेम ० ८-१-११) इति प्राकृतसन्धिलक्षणेन लुप्ताऽऽकारस्य दर्शनात् 'जहण्णा' त्ति' जघन्या स्थित्युदीरणा प्रस्तुतत्वाल्लोभस्य, तदानीमेकनिषेकत उदीरयतः क्षपकस्य संज्वलनलोभस्य जघन्य स्थित्युदीरणा जायत इत्यर्थः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूण- "समरण अहिगा आवलियां समयाहिआवलिया, ताए समएण अहिगाए आवलियाए 'पढमठितोए उ सेसवेलाए' ति अंतरकरणे कए मूल्लिल्ला टितो पदमठितो, उवरिल्ला ठितो बितोयठितो । ताए पढमठितीए समयाहियावलियसेसाए मिच्छत्तस्स तिन्हं वेयाणं चउण्हं संजलगाणं सम्मत्तस्स य जहणिया ठितिउदीरणा भवति ।" इति । लोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवत्येतदुपलक्षणम् तेन संज्वलनलोमस्य जघन्यानुभागोदीरणा गुणित कर्माशस्य च जीवस्य लोभस्यो कष्टप्रदेशोदीरणोपलक्ष्येते । अवादि च कषायप्राभृतचूर्ण्यामनुभागोदोरणाऽधिकारे प्रदेशोदोरणाऽधिकारे च - "लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? खवयस्स समयाहियावलियचरिमसमयसकसायस्स | xxxxx लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदोरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसकसायस्स।” इति । तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावप्यनुभागोदीरणाऽधिकारे प्रदेशोदीरणाधिकारे च - "खवणाए' त्ति खवणाए अब्भुट्टियस्य 'विग्घकेवलसंजलणाण यसनोकसायाणं सयसयउदोरणंते' त्ति पंचविहअंतराइय- केवलणाण- केवलदंसणावरणच उन्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसायाणं एयासि वोसाए पगईणं अष्पष्पणो उदोरणंते जहणिया अणुभागउदीरणा होति ।xxxxx घादिकम्माणं सव्वेसिं अणुभाग उदीरणम्मि जस्स जस्स जो जो जहण्णसामी भणितो, सो चेव उक्कोसपदेसउदोरणाए उक्कोससामी गुणियकम्मंसिगो य जाणियव्वो ।" इति । तदानीमेव लोभस्यैकसमयप्रमाणो जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्याऽनुभाग संक्रमश्च जायते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ स्थितिसंक्रमाधिकारेऽनुभागसंक्रमाधिकारे च - " लोभसंजलणस्स जहण्णडिदिसकमो कस्स ? आवलियसमयाहियसकसायरस खवयस्स । xxx लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? समयाहियावलियचरिमसमयसकसायो खवगो ।" इति । निश्चयनयमाश्रित्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानककाले समय धिकाऽऽवलिकाशेषे व्यवच्छिद्यमाना संज्वलन लोभस्योदीरणा व्यवच्छिन्ना । ततः परं केवलेन शुद्धोदयेन लोभसूक्ष्मकिट्टीरनुभवन् क्रमेण सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानचरमसमयं प्राप्नोति । अभ्यधायि च सप्ततिकाचूर्णो- "तं ओव Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] खवगसेढी [ गाथा-२१५-२१६ ट्टियठितिं उदओदीरणाहिं वेद॑तो गओ ताव, जाव समयाहियावलियसेस त्ति । तम्मि समए उदीरणा पुव्वुत्ता फिट्टा । उदएण चेव वेदेति ताव, जाव चरिमसमओ त्ति ।” तदानीं च लोभस्य जघन्याऽनुभागोदयोगुणितकमांशस्य च संज्वलनलोभस्योत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति । न्यगादि च कर्मप्रकृतिटीकायां श्रीमन्मलयगिरिपादैरनुभागोदयाधिकारेप्रदेशोदयाधिकारे च-"नवरं ज्ञानावरणपञ्चकाऽन्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयवेदत्रयसंज्वलनलोभसम्यक्त्वानामुदीरणाव्यवच्छेदे सति परत आवलिका गत्वा = अतिक्रम्य तस्या आवलिकायाश्चरमसमये जघन्याऽनुभागोदयो वाच्यः । xxx तथा मोहानां = मोहनीयप्रकृतीनां सम्यक्त्वसंज्वलनचतुष्कवेदत्रयाख्यानामष्टानांगुणितकर्माशस्य क्षपकस्य स्वस्वोदयचरमसमये उत्कृष्टप्रदेशोदयः।" इति । ___ अथ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमये स्थितिवन्धं स्थितिसचं चाभिवातुकाम आह'अंते' इत्यादि, 'अन्ते' मूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकाद्धाचरमसमये 'त्रयाणां घातिनां' मोहनीयबन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वाज्ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां 'बन्धः' स्थितिवन्धः 'तथा' तथाशब्दः समुच्चयार्थकः 'सत्त्वं' स्थितिसचं 'मुहूर्तान्तः' अन्तमुहूर्तमानं भवति । भावार्थः पुनरयम्-अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकाद्धायाश्चरमसमये घातित्रयस्य यः स्थितिबन्धोऽन्तरहोरात्रप्रमाण आसीत्, स क्रमेण हीयमानः सम्प्रत्यन्तमुहूर्त जायते । स्थितिसत्त्वं पुनरनिवृत्तिकरणबादरसम्परायचरमसमये संख्येयवर्षाण्यासीत्, तत्क्रमेण संख्यातसहस्रः स्थितिघातीयमानमिदानीमन्तमुहूर्तप्रमाणं जायते । प्रत्यपादि च कषायप्राभूतचूर्णी--"जाधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो,ताधेxxx तिण्हंघादिकम्माणं डिदिबंधोअंतोमुहुत्तं । तिण्हंघादिकम्माणं हिदिसंतकम्मअंतोमुहुत्त।'' इति । अयं च चरमस्थितिबन्धो ज्ञानावरणपश्चकस्य दर्शनावरण चतुष्कस्याऽ-तरायपञ्चकस्य च सर्वजघन्यो ज्ञातव्यः । उक्तं च कर्मप्रकृतिटीकायां श्रीमदुपाध्यायपुङवैः-"ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्काऽन्तरायपञ्चकसातवेदनोययशःकोयुच्चैौत्राणां सूक्ष्मसम्परायक्षपकश्चरमस्थितिबन्धे वर्तमानो जघन्यस्थितिबन्धकः, तबन्धकेष्वस्यवाऽतिविशुद्धत्वात् ।" इति । तथा सूक्ष्मसम्परायचरमसमय एव ज्ञानावरणादीनां चतुर्दशानां जघन्याऽनुभागबन्धो जायते । अवादि च कर्मप्रकृतिटोकायाम्-"ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयाऽन्तरायपञ्चकरूपाणां चतुर्दशानां प्रकृतीनां क्षपकः स्वबन्धव्यवच्छेदसमये वर्तमानः समयमेकं तथा, तबन्धकेषु तस्य विशुद्धतमत्वात् ।' इति । इदमत्राऽवधेयम्-मूक्ष्मसम्परायचरमसमये केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणयोरनुभागबन्धो जघन्यो भवन्नपि सर्वघाती भवति, बन्धे तयोरनुभागस्य देशघातित्वाऽनुपलम्भात् । शेषाणां द्वादशानां प्रकृतीनामनुभागबन्धो देशघाती भवति, अनिवृत्तिकरणेऽपि देशघातित्वप्रतिपादनात् । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्प्रसम्परायचरमसमये बन्धः सत्त्वञ्च ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ ४०५ अथाऽघातिकर्मणां स्थितिबन्धं भणति - 'णामदुगस्स' इत्यादि, 'नामद्विकस्य' नाम - गोत्ररूपस्य 'बन्धः ' स्थितियन्त्रः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमयेऽष्टमुहूर्ता भवति, योनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानकचरमसमयेऽन्तर्वर्षप्रमाण आसीत्, स क्रमेण हीयमान इदानीमष्टमुहूर्तप्रमाणो जायत इत्यर्थः । 'तइयस्स' इत्यादि, 'तृतीयस्य' वेदनीयस्य स्थितिबन्धो 'द्वादश मुहूर्ता' द्वादशमुहूर्तप्रमाणो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो – “जाघे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो, ताधे णामागोदाणं ठिदिबंधो अट्ठ मुहुत्ता, वेदणीयस्स ठिदिबंधो बारस मुहुत्ता ।" इति । I अयं स्थितिबन्धो यशःकीच्यु च्चैर्गोत्रयोः सातवेदनीयस्य च सर्वजघन्यो ज्ञातव्यः । तदानीमेव च यशःकी च्चै गत्रियोः सातावेदनीयस्य च सर्वोकृष्टाऽनुभागबन्धो जायते । प्रतिपादितं च कर्मप्रकृतिटीकायाम् - "तथाऽप्रमत्तसंयतो देवायुष उत्कृष्टाऽनुभागस्वामी सर्वेभ्यस्तद्बन्धकेभ्यो ऽस्याऽतिविशुद्धत्वात् । सात वेदनीययशः कीत्यु - चैत्राणां सूक्ष्मसम्परायचरमसमये वर्तमानस्तथा, तदुबन्धकेभ्योऽस्यैवातिविशुद्धत्वात् । " इति । 'संत' इत्यादि, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमये 'सच्चं ' स्थितिसचं तुर्वाक्यभेदे 'अघातिनां' नामगोत्र वेदनीयरूपाणां कर्मणाम् 'असंख्येयवर्षाणि' असंख्येयवर्षमात्रं भवति । तदानीं यथासमयं चतुरो वारानुपशमश्रेणिमारुह्य क्षपकश्रेणि शीघ्रं प्रतिपन्नस्य गुणित कर्माशस्य जीवस्य सातवेदनीययशः की चैर्गोत्राणामुत्कृष्ट प्रदेशसचं भवति । यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी - "गुणियकम्मंसिगो चत्तारि वारे कसाए उवसामेति, उवसामेंतस्स बहुगा पुग्गला लम्भंतित्ति काउं ततो विप्पमेव खवणाए अन्भुडितो, तस्स सुडुमरागस्स सुहुमरागचरिमसमते वट्टमाणस्स साय - जस- उच्चागोयाणं उक्कोसं पदेससंतं ।” इति । तथा तदानीमेव गुणित कर्माशस्य जीवस्य निद्राद्विकिाऽसातवेदनीय-नीचैर्गोत्र- प्रथमवर्जसंस्थानपश्ववाऽनाद्यसंहननपञ्चकाऽशुभवर्णादिनवकोपघाताप्रशस्त विहायोग त्यपर्याप्ताऽस्थिराऽशुभ- दुर्भग- दुःस्वराऽनादेयाऽयशः कीर्त्तिरूपाणां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो जायते । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ – “कम्मच उक्के' दंसणावरणवेतणिज्जणामगोतेसु 'असुभाणं अबज्झमाणीण' णिद्दादुगअसातावेयणिज्जआदिल्लवज्ज संठाणसंघयणं कुवण्णणवगं उवघातअपसत्थविहायगतिअपज्जत्तगअथिरादिछक्क गणीतागोत एयासिं बत्तीसाए कंमाणं खवगस्स 'सुहुमरागंते' सुहुमरागस्स चरिमसमए उक्कोसो पदेससंकमो, गुणितकंमंसितस्स गुणसंकमेण लब्भति संछोभ इत्यर्थः ।" इति । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] [ गाथा--२१५-२१६ निश्चयनयमाश्रित्य व्यवच्छिद्यमानः सूक्ष्मसम्परायचरमसमय एव ज्ञानावरणपञ्चकदर्श - नावरणचतुष्काऽन्तरायपञ्चको चै गोत्र यशः कीर्त्तीनां बन्धो व्यवच्छिन्नः, एवं व्यवच्छिद्यमाने मोहनी - यस्योदयसवेऽपि व्यवच्छिन्ने ॥ २१५-२१६ ॥ aarसेढी यन्त्रकम् (गाथा - २१५-२१६) सूक्ष्मसम्परायाद्धायां समयाधिकावलिकाशेषायाम् (१) संज्वलनलोभस्य जघन्यस्थित्युदीरणा । (२) संज्वलनलोभस्य जघन्या - ऽनुभागो दीरणा । (६) गुणित कर्माशस्य जीवस्य लोभस्योत्कृ प्रदेशो दीरणा । (४) संज्ञलनलोभस्य जघन्यस्थितिसंक्रमः । (५) संज्वलनलोभस्य जघन्या - ऽनुभागसंक्रमः । (६) निश्चयनयमाश्रित्य संज्ञलनलोभस्योदीरणा व्यवच्छिद्यमाना व्यवच्छिन्ना । सूक्ष्म सम्परायाद्धायाश्चरमसमये (७) संज्वलन लोभस्य जघन्याऽनुभागोदयः । (८) गुणितकर्माशजीवस्य संज्ञलत लोभस्योत्कृष्टप्रदेशोदयः । (९) ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तमात्रः, स च सर्वजवन्यः । (१०) ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थिति सत्त्रमन्तर्मुहूर्तमात्रम् । (११) ज्ञानावरणदर्शनावरणा-ऽन्तरायाणां जघन्यो- ऽनुभागबन्धः । (१२) नामगोत्रयोर मुहूर्तमात्रः (८) स्थितिबन्धः । (१३) वेदनीयस्य द्वादशमुहूर्तप्रमाण: (१२) स्थितिबन्धः । (१४) यशःकी चैर्गोत्रयोः सातवेदनीयस्य च सर्वजघन्यस्थितिबन्धः । (१५) यशःफी चैत्रसतिवेदनीयानामुत्कृष्टा ऽनुभागबन्धः । (१६) नामगोत्र वेदनीयानां स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षाणि । (१७) गुणितकर्मा जीवस्य यशः कीत्युच्चैत्रसातवेदनीयानामुत्कृप्रदेशसत्त्वम् । (१८) गुणितकर्माशजीवस्य निद्राद्विकाऽसातवेदनीय नीचैर्गोत्र - प्रथमवर्ज संस्थानपञ्चक प्रथमवर्जसंहननपचका-शुभवर्णादिनवकोपघाताऽप्रशस्तविहायोगत्य पर्याप्ताऽस्थिरा ऽशुभ - दुर्भग-दुःस्वरा-ऽनादेया यशः कीर्त्तिरूपाणां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनाम् (३२) उत्कृषुप्रदेशसंक्रमः । (१९) निश्चयनयमाश्रित्य -- (अ) मोहनीयस्योदयसत्त्वे व्यवच्छिद्यमाने व्यवच्छिन्ने । (ब) ज्ञानावरणपञ्चक - दर्शनावरणचतुष्का-ऽन्तरायपञ्चकोच्चैर्गोत्र यशः कीतीनां बन्धोऽपि व्यवच्छिद्यमानो व्यवच्छिन्नः । अथ किट्टिक्षपणां निगमयन्नाह - खविआ एगारस किट्टी अणुहवणेण संकमेणं य । दुखणूण दुआली संकमेण य अणुहवणेण सुहुमाओ ॥ २१७॥ (गीतिः) क्षपिता एकादश कियोऽनुभवनेन संक्रमेण च । द्विक्षणोद्वधावलिके संक्रमेण चाऽनुभवनेन सूक्ष्माः || २१६ || इति पदसंस्कारः । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिक्षपणाया उपसंहारः] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ४०७ 'खविआ' इत्यादि, 'क्षपिताः' विनाशिताः' एकादश किट्टयः' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिप्रभृतिलोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिपर्यवसाना एकादशसंख्यकाः संग्रहकिट्टयः 'अनुभवनेन' विपाकोदयस्वरूपेण वेदनेन 'संक्रमेण च यथासंभवमन्यसंग्रहकिट्टिषु संक्रान्त्या च । इदमुक्तं भवति-क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टयादिवेदनाद्धाप्रथमसमयतः प्रभृति स्वस्ववेदनाद्धाचरमसमयं यावत् तत्तत्संग्रहकिट्टथवान्तरकिट्टीरुदयेन वेदयमानोऽन्यसंग्रहकिट्टयवान्तरकिट्टितया च परिणमयन् क्षपयति स्म, एतच्च प्राग् विस्तरेण परिभावितम् । 'दुखणणः' इत्यादि, "द्विक्षणोनद्वयावलिके' द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धाः किट्टयः, स्वस्ववेदनाद्धायां क्षीणायामपि या द्विसमयोनद्वथावलिकाबद्धाः किट्टयस्तत्तत्संग्रहकिट्टिस्वरूपेण तिष्ठन्ति स्म, ता इत्यर्थः, 'संक्रमेण वेद्यमानसंग्रहकिट्टौ संक्रमेण क्षपिताः, स्वस्त्रवेदनाद्धायां क्षीणायां द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धकिट्टीनां संक्रमेणैव क्षपणासंभवात् । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थको भिन्नक्रमश्च, स चैकादशसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिचरमावलिकागतावान्तरकिट्टीर्लोभतृतीयसंग्रहकिट्टिश्चाऽपि संक्रमेणैव क्षपयति स्मेति सचिनोति । 'अनुभवनेन' विपाकोदयस्वरूपेण वेदनेन 'सूक्ष्माः' सूक्ष्मकिट्टयः क्षपिताः, न तु परत्र संक्रमण, पतद्ग्रहाऽभावात् । उक्तं च कषायप्राभृते “पढमं विदियं तदियं वा वेदेंतो वि संछहंतो वा। चरिमं वेदयमाणो खवेदि उभएण सेसाओ ॥१॥ एवं तच्चूर्णावपि-" पढमं कोहस्स किहिं वेदेंतो वा खवेदि, अधवा अवेदंतो संछुहंतो। जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा, ते अवेदतो खवेदि, केवलं संछुहंतो चेव । पढमसमयवेदगप्पहुडि जाव तिस्से किटीए चरिमसमयवेदगो ति ताव एवं किटिं वेदेतो खवेदि। एवमेदं पि पढमकिटिं दोहिं पयारेहिं खवेदि-किंचिकालं वैदेतो, किंचि कालमवेयेंतो संछुहंतो। जहा पढमकिटिंखवेदि, तहा विदियंतदियं चउत्थंजाव एक्कारसमि त्ति, बारसमीए बादरसांपराइयकिटोए अव्ववहारो । 'चरिमं वेदेमाणो'त्ति अहिप्पाओ-जा सुहमसांपराइयकिटी, सा चरिमा,तदो तं चरिमकिटिं वेदतो खवेदि, ण संछुहंतो । सेसाणं किटोणं दो दो आवलियबंधे दुसमयूणे चरिमे संछुहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो । चरिमकिटिं वज्ज दो आवलियदुसमयूणबंधे च वज ज सेसकिहीणं, तमुभएण खवेदि।" इति ॥२१७॥ मोहनीयस्य सर्वथा क्षपणां व्याहृत्य किट्टिवेदनकालस्या-ऽल्पबहुत्वं भणति, अन्यथा किट्टिवेदनकालानुगमो न स्यात् , किं क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनकालोऽल्प आसीत् ? उत सूक्ष्मकिट्टिवेदनकालः ?आहोस्विद् इतरसंग्रहकिट्टिवेदनकाल इति ? सुहुमगकिट्टीवेयणकालत्तो जाव कोहपढमाए। वेयणकालं कालो अहिओ पच्छाणुपुब्बीए ॥२१८॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८] खवगसेढी [गाथा-२१८ सूक्ष्मकिट्टिवेदनकालतो यावत् क्रोधप्रथमायाः । वेदनकालं कालोऽधिकः पश्चानुपूर्व्या ॥२१८।। इति पदसंस्कारः । 'सुहुम०' इत्यादि, प्राकृतत्वात् स्वार्थिकः कप्रत्ययः, सूक्ष्मकिट्टिवेदनकालतः प्रभृति 'क्रोधप्रथमायाः' क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टया वेदनकालं यावत् 'कालः' किट्टिवेदनकाल: 'अधिको' विशेषाधिको भवति । इदमुक्त भवति-लोभस्य सूक्ष्मकिट्टिवेदनाद्धा सर्वस्तोका भवति , ततो लोभस्य द्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिकाऽभिधातव्या, आधिक्यं च संख्येयतमभागेन बोद्धव्यम् । एवमग्रेऽपि । ततोऽपि लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेपाधिका वाच्या । ततो मायायास्तृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिका वक्तव्या । ततो मायाद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिकाऽभिधेया । ततो मायाप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेपाधिका निगदितव्या । ततो मानतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिका वक्तव्या । ततो मानद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिका कथयितव्या । ततो मानप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिकाऽभिधातव्या । ततः क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिका भणितव्या । ततः क्रोधद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेषाधिका व्याहर्तव्या । ततोऽपि क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धा विशेपाधिका प्ररूपयितव्या । यदुक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-पच्छिमकिहिमंतोमुहुत्तं वेदयदि, तिस्से वेदगकालो थोवो, एक्कारसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ, दसमीए किटीए वेदगकालो विसेसाहिओ, णवमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। अट्ठमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। सत्तमोए किटोए वेदगकालो विसेसाहिओ, छट्ठीए किहोए वेदगकालो विसेसाहिओ, पंचमोए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ, चउत्थोए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ, तदियाए किटोए वेदगकालो विसेंसाहिओ, विदियाए किटोए वेदगकालो विसेसाहिओ, पढमाए किट्टीएवेदगकालो विसेसाहिओ । विसेसो संखेज्जिदिभागो।” इति । आवश्यकादिग्रन्थाभिप्रायेण मोहनीयस्य क्षपणेत्थं प्रतिपादनीया तद्यथा-हास्यषटकस्य क्षपणातः परं पुरुषवेदं खण्डवयं करोति । तत्र खण्डद्वयं युगपत्क्षपयति, तृतीयखण्डं तु संज्वलनक्रोधे प्रक्षिपति । ततः संज्वलनक्रोधं खण्डत्रयं करोति । द्व' खण्डे युगपत्क्षपयति, तृतीयखण्डं तु माने प्रक्षिपति । ततः संज्वलनमानं खण्डत्रयं करोति । खण्डद्वयं युगपत् क्षपयति, एकखण्डं तु मायायां प्रक्षिपति । ततः संज्वलनमायां त्रीणि खण्डानि करोति, खण्डद्वयं युगपत्क्षपयति, एकखण्डं तु संज्वलनलोभे प्रक्षिपति । ततः संज्वलनलोभं खण्डत्रयं करोति । खण्ड़े युगपत् क्षपयति । एकखण्डं तु संख्येयानि खण्डानि करोति, तेभ्य एकं संख्येयतमखण्डं मुक्त्वा शेषाणि सर्वखण्डानि पृथक पृथक कालभेदेन क्षपयति बदरसम्परायः। ततः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकवर्ती क्षपक एकं संख्येयतमभागमसंख्येयानि खण्डानि करोति, Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०९ कषायनानात्वम् ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः तान्यपि समये समय एकै क्षपयति । क्षपितलोभश्च यथाख्यातचारित्री छद्मस्थवीतरागो भवति । अक्षराणि त्वेवम् .. "ताहे णपुसगवेदं, ताहे इत्थिवेदं, ताहे छकं हास-रति-अरति-भयसोग-दुगंछाओ, ताहे पुमवेदं तिन्नि भागे करेति । दो भागे जुगवं, एगं संजलणकोहे छुभति । ताहे संजलणकोहं तिन्नि भागे करेति, दो भागे जुगवं खति, एगं भागं संजलणे माणे छुभइ । ताहे तं पि तिन्नि भागे करेति । दो भागे जुगवं खवेति । एगं संजलणमायाए छुहइ, ताहे तं पितिन्नि खंडाइ करेति, दो भागे जुगवं खवेति, एगं संजलणे लोभे छुहइ, ताहे तं पि तिन्नि भागे करेति, दो भागे जुगवं खवेति, एगं भागं संखेजाइं खंडाई करेति । एत्थ बादरसंपरायो खवओ ताहे खवेति, (एगं संखिजइमं भागं मोत्तण सव्वं खवेति) जं संखेजतिमं खंडं, तं असंखेज्जे भागे करेति । तेऽवि कमेण खवेति, तत्थ खवगो सुहमसंपराओ। जाहे तं पि खवितं भवति, ताहे खवगणियण्ठो लम्भति ।” इति ॥२१८॥ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं यावदधस्तादुक्ता सर्वा प्ररूपणा पुरुषवेदक्रोधोदयेन प्रतिपन्नस्य ज्ञातव्या । क्षपकश्रेणिं पुनः कश्चिज्जन्तुः पुरुषवेदक्रोधोदयेन प्रतिपद्यते, कश्चित्पुनः पुरुषवेदमानोदयेना-ऽऽरोहति, अन्यः पुरुावेदमायोदयेन, इतरः पुरुषवेदलोभोदयेन, परस्तु स्त्रीवेदक्रोधोदयेन । पुरुषवेदोदयवत् स्त्रीवेदोदयस्यापि चत्वारो विकल्या वक्तव्याः, एवं नपुसकवेदोदयस्या-ऽपि चत्वारो विकल्पा भणितव्याः । इत्थं सर्वसंख्यया विकल्पा द्वादश भवन्ति । तत्र सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं यावत् पुरुषवेदक्रोधोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य मोहनीयक्षपणाविधिदर्शितः । सम्प्रति भिन्नभिन्नकषायोदयेन भिन्नभिन्नवेदोदयेन च क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यमानानां क्रियाभेदो वक्तव्यः, अन्यथा तनिर्णयो न स्यात् । न च त्रिकालमाश्रित्य सर्वक्षपकाणामनिवृत्तिकरणे परिणामसाहश्यात् क्रियाभेदः कथं घटेत् ? इति वाच्यम्, करणपरिणामानां सादृश्येऽपि भिन्नभिन्नवेदकषायोदयलक्षणसहकारिकारणोपलम्भेन क्रियाभेदे विरोवा-ऽभावात् । तत्र सर्वेषां क्षपकाणां पुरुषवेदादिमिः क्रोधादिभिश्च क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नानामन्तरकरणक्रियातः प्राक कश्चिदपि भेदो नास्ति । उक्तञ्च कषायप्राभतचूर्णी-"अंतरे अकदे णत्थिणाणत्।” इति अन्तरकरणे क्रियमाणे यो भेद उपलभ्यते, तं प्रदिदर्शयिपुः प्रथमं तावत् प्रथमस्थितिभेदमाविष्करोति माणादीहिं चडिआणं पढमठिई उ माणपहुडीणं । कोहादिगदुतिखवणद्धाजुअकोहपढमट्टिइपमाणा ॥२१९॥ (गीतिः) मानादिभिरारूढानां प्रथमस्थितिस्तु मानप्रभृतीनाम् । ___ क्रोधाद्य कद्वित्रिक्षपकाद्धायुतक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा ॥२१९।। इति पदसंस्कारः । 'माणा' इत्यादि, 'मानादिभिः' मानमायालोभलक्षणैः कषायैः' आरूढानां' क्षपकश्रेणि Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] .. खवगसेढी [ गाथा--२१९ प्रतिपन्नानां क्षपकाणां 'मानप्रभृतीनां' मान-माया-लोभरूपाणां कषायाणां प्रथमस्थितिस्तु 'क्रोधाधेक-द्वि-त्रिक्षपणाद्धायुतक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा' क्रोधादीनां क्रोध-मान-मायानाम् एक-द्वि-विक्षपणाद्धायुक्तक्रोधप्रथमस्थितिप्रमिता भवति । इदमुक्त भवति-एकस्य-क्रोधस्य याऽन्तमुहूर्तप्रमाणा क्षपणाद्धा, तया युक्ताऽन्तरकरणे क्रियमाणे क्रोधप्रथमस्थितियवती भवति, तावती मानोदयेन क्षपकश्रेणिं समारूढस्य जीवस्य मानस्य प्रथमस्थितिर्भवति । ननु क्रोधोदयारूढः क्रोधप्रथमस्थितिं वेदयन्नेव यथायोग्यं संक्रमेण वेदनेन च क्रोधसंग्रहकिट्टित्रयं क्षपयति । तेन क्रोधक्षपणाद्वायाः क्रोधप्रथमस्थितावेवा-ऽन्तर्भावसम्भवात् क्रोधक्षपणाद्धायुतक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा मानप्रथमस्थितिरित्यत्र क्रोधक्षपणाद्धायुतेति विशेषणस्य वैयर्थेनाऽनुपादेयत्वमिति चेत् , मैवम् , यतोऽन्तरकरणे क्रियमाणे क्रोधोदयाऽऽरूढस्य जीवस्याऽन्तरकरणस्याऽधस्ताद् यावती क्रोधस्थितिर्भवति, यस्यां च स्थितोऽन्तरकरणं कृत्वा ततो यथाक्रमं वेदत्रिकं क्षपयित्वा-ऽश्वकर्णकरणाद्धां च समाप्य किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयं प्राप्नोति, तावती स्थितिः क्रोधप्रथमस्थितिरत्र विवक्षिता । द्वितीयस्थितितो दलं गृहीत्वा क्रोधसंग्रहकिट्टित्रयस्य यथाक्रमं प्रथमस्थितिं कृत्वा वेदयन् सक्रमेण यावता कालेन क्रोधं क्षपयति, तावान् कालस्तु क्रोधक्षपणाद्धा व्यपदिश्यते । एवमग्रेऽपि मानादीनां क्षपणाद्धा व्याख्येया । इत्थमन्तरकरणक्रियाप्रारम्भप्रथमसमयप्रभृतिकिट्टिकरणचरमसमयपर्यवसानाद्धा क्रोधप्रथमस्थितिः, क्रोधप्रथमसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमयप्रभृतितृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयपर्यवसाना तु क्रोधक्षपणाद्धति विवेकः, तेन क्रोधक्षपणाद्धा क्रोधप्रथमस्थितो ना-ऽन्तर्भवति । अनन्तर्भावाद् न विशेषणस्य वैयर्थ्यम् , अवैयर्थ्याच नाऽनुपादेयतेत्यलं प्रसङ्गेन । __मानोदयारूढः क्रोधक्षपणाद्धायुक्तकोधप्रथमस्थितिप्रमाणां मानप्रथमस्थितिं वेदयन् यथाक्रम वेदत्रयस्य क्रोधस्य च क्षपणामश्वकर्णकरणाद्धां किट्टिकरणाद्धां च परिसमापयति । तस्य जीवस्य क्रोधस्य प्रथमस्थितिर्न भवति । यदाहुः कषायप्राभृतचूर्णी-"अन्तरकरणे कदे कोहस्स पढमहिदी णत्थि, माणस्स अस्थि । सा केम्महंतो ? जद्देही कोहेण उवढिदस्स कोहस्स पढमहिदी कोहस्स चेव खवणडा, तबेहो चेव एम्महंती माणेण उवहिदस्स माणस्स पढमहिदी।" इति । ___मायोदयेन क्षपकश्रेणिं समारूढस्य जीवस्य मायायाः प्रथमस्थितिः क्रोधमानक्षपणाद्धायुक्तक्रोधप्रथमस्थितिप्रमिता भवति । क्रोधक्षपणाद्धाप्राग व्याख्याता । मानसंग्रहकिट्टित्रयं वेदनेन संक्रमेण च यावता कालेन क्षपयति, तावान् कालो मानक्षपणाद्धा व्यपदिश्यते । इत्थं क्रोधस्य क्षपणाद्धा मानस्य क्षपणाद्धा क्रोधोदयेन चाऽऽरूढस्य क्रोधप्रथमस्थितिरित्येतत्त्रयप्रमाणा मायोदयेन समारूढस्य मायायाः प्रथमस्थितिभवति । उक्तञ्च कषायप्राभूतचूर्णी-“कोहेण उवढिदस्स Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानादिभिरारूढानां क्रियाभेदः] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [४११ जम्महंती कोहस्स पढमहिदी, कोहस्स चेव खवणद्धा माणस्स च खवणहा, मायाए उवहिदस्स एम्महंती मायाए पढमहिदी ।" इति । ____ लोभोदयेन क्षपकश्रेणिं समधिगतस्य जन्तोर्लोभस्य प्रथमस्थितिः क्रोध-मान-मायासम्बन्धिक्षपणाद्धा-न्वितक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा भवति । प्रत्यपादि च कषायमाभृतचूर्णी“जबेहो कोहेण उवहिदस्स कोहस्स पढमहिदी, कोहस्स माणस्स मायाए च खवणडा, तद्देही लोभेण उवहिदस्स पढमहिदो।” इति । अत एव द्वाचत्वारिंशत्तमगाथोक्ताल्पबहुत्वं मूपपद्यते ॥२१९॥ अथ मानादिकषायोदयेन प्रतिपन्नानां क्षपकाणां क्रियाभेदमभिधित्सुराहइग-दु-ति-खवणं किया कमेण हयकण्णकिट्टिकरणाइं । माणाईहिं चडिओ करइ विणासइ तओ सेसं ॥२२०॥ एक-द्वि-त्रि-क्षपणां कृत्वा क्रमेण हयकर्ण-किट्टिकरणे ।। मानादिभिरारूढः करोति विनाशयति ततः शेषम् ।।२२०।। इति पदसंस्कारः । 'इगदुः' इत्यादि, तत्र 'मानादिभिः' मानमायालोभलक्षणैः कषायैः 'आरूढः' क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नः 'एक-द्वि-त्रि-क्षपणाम्' एकश्च द्वौ च त्रयश्चेत्येकद्वित्रयः, तेषां क्षपणा, ताम् , ततश्चायमर्थः-एफस्य-क्रोधस्य, द्वयोः-क्रोधमानयोः, त्रयाणां-क्रोधमानमायानां क्षपणां-विनाशं 'कृत्वा' विधाय 'क्रमेण हयकर्णकिट्टिकरणे क्रमेणाऽश्वकर्णकरणं किट्टिकरणं च करोति 'विणासइ' इत्यादि, तत्र 'ततः' किट्टिकरणाद्धापरिसमाप्तेः परं 'शेष' यथासंभवं मानादित्रयरूपं मायालोभरूपं वा लोभलक्षणं वा मोहनीयं 'विनाशयति' यथाक्रमं किट्टिस्वरूपेण क्षपयति । अयमस्य भावार्थ:-क्रोधोदयेन समारूढः पुरुग्वेदक्षपणा-ऽनन्तरं यदा-ऽश्वकर्णकरणाद्वायां संज्वलनचतुष्कस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि निर्वर्तयति, तदा मानोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नः संज्वलनक्रोधं पूर्वस्पर्धकस्वरूपेणैव क्षपयति, प्रकारान्तरा-ऽसंभवात् । ततः क्रोधोदयारूढः संज्वलनचतुष्कस्य किट्टिकरणाद्धामारभते, मानोदयप्रतिपन्नस्तु क्षपितक्रोधो-ऽश्वकर्णकरणाद्धामारभते, तत्र च संवनत्रिकस्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि करोति । तेन मानोदयारूढस्य जीवस्यैकस्य क्रोधस्य क्षपणाद्धानन्तरमश्वकर्ण करणाद्वा प्रवर्तत इति सूपपन्नम् । ततः क्रोधोदयेन प्रतिपन्नस्य क्रोधसंग्रहकित्रियवेदनकाल लक्षणः क्रोधक्षपणाकालः प्रवर्तते, मानोदयेन तु प्रतिपन्नस्य किट्टिकरणाद्धा प्रवर्तते, तदानीं च संज्वलनत्रिकस्य नवानामेव संग्रहकिट्टीनां निर्वर्तनं संभवति, क्रोधस्य प्रागेव स्पर्धकस्वरूपेण क्षीणत्वात् । तच त्र्यशीतितमगाथया दर्शितम् । ततः क्रोधोदयेन समारूढो मानसंग्रहकिट्टिप्रथमस्थितिं कृत्वा मानक्षपणाद्धामारभते, तदानीमेव च मानोदयारूढोऽपि मानक्षपणाद्धामुपक्रमते । समवादि च कषायप्राभृतचूर्णी-"जम्हि कोहेण उवहिदो अस्सकण्णकरणं करेदि,माणेण उवहिदो तम्हि काले कोहं खवेदि,कोहेण उव Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] aaraढी [ गाथा - २२० दिस्स जा किट्टीकरणडा, माणेण उवदिस्स तम्हि काले अस्सकण्णकरणडा | कोहेण उवदिस्स जा कोहस्स खवणडा, माणेण उवदिस्स तम्हि काले किहोकरणडा । कोहेण उचट्ठिदस्स जा माणस्स खवणडा, माणेण उवदिस्स तम्हि चेव काले माणस्स खवणडा ।" इति। मानक्षपणाद्वा प्रथमसमये तु मानोदयाऽऽरूढस्य किट्टिवेदनाद्वाप्रथमसमये मोहनीयस्य स्थितिसचं चर्वाधिकं जायते, क्रोवतृतीय संग्रह किट्टिवेदनाद्वाचरमसमये मोहनीयस्थितिसत्कर्मणश्चतुर्वार्षिकत्वप्रतिपादनात् । अभाणि च कषायप्राभृतचूणमाणेण उवदिस्स पढमसमय किटीवेदगस्स द्विदिसंतकम्मं चत्तारि वस्त्राणि ।” इति । ततः परं सर्वप्ररूपणा क्रोधोदयारूढवदविशेषेण कर्तव्या । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी"एन्तो पाए जहा कोहेण उवदिस्स विहो, तहा माणेण उवदिस्स ।" इति अथ मायोदयेन प्रतिपन्नस्य विशेषोऽभिधीयते-- क्रोधोदयारूढः पुरुषवेदक्षपणाऽनन्तरं यदाsaकर्णकरणाद्धायां संज्वलन चतुष्कस्याऽपूर्वस्पर्धकानि करोति, तदा मायोद्यारूढः क्षपकः पूर्वस्पर्धकस्वरूपेणैव क्रोधं संक्रम्य क्षपयति । ततः क्रोधोदयारूढः किट्टिकरणाद्धां प्रवर्तयति, मायोदयारूढस्तु पूर्वस्पर्धस्वरूपेणैव मानं संक्रम्य क्षपयति । ततः क्रोवोदयारूढः क्रोधसंग्रह किट्टित्रयं क्षपयति, तदानीं मायोदयप्रतिपन्नस्त्वश्वकर्ण करणाद्धामारभमाणो मायालोमयो र पूर्वस्पर्वका करोति । इत्थं द्वयोः = कोधमानयोः क्षपणानन्तरं मायोदयेन प्रतिपन्नस्याऽश्वकर्णकरणाद्धा प्रवर्तते । ततः क्रोधोदयारूढो मानं क्षपयति, मायोदयेन समारूढस्तु मायालो भयोः पट् संग्रहकट्टीः करोति । ततः क्रोधोदयेन प्रतिपन्नो मायाकिट्टीर्वेदयन् मायां विनाशयति, मायोदयेन क्षपकश्रेणिमधिगतोऽपि मायायाः किट्टीर्वेदयन् मायां क्षपयति । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णी - "कोहेण उवदो जहि अस्सकण्णकरणं करेदि, मायाए उवद्विदो तम्हि कोहं खवेदि । कोहेण दो जहि किट्टीओ करेदि, मायाए उवद्विदो तम्हि माणं खवेदि | को दो जहि कोधं खवेदि, मायाए उवट्ठिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । कोहेण उचट्ठिदो जम्हि माणं खवेदि, मायाए उवडिदो तम्हि किट्टीओ करेदि । कोहेण उवहिदो जम्हि मायं खवेदि, तम्हि चेव मायाए उवद्विदो माय खवेदि ।” इति । मायाकिट्टिवेदनाद्धाप्रथमसमये तु मायोदयाऽऽरूढस्य जीवस्य मोहनीयस्य स्थितिसचं द्विवार्षिक भवति, क्रोधोदयारूढस्य मानतृतीय संग्रह किट्टिवेदनाद्धाचरमसमये स्थितिसत्कर्मणो द्विवार्षिकत्वसंस्तवात् । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूर्णो - "मायाए उवदिस्स पढमसमयकिट्टी वेदगस्स वे वस्साणि मोहणीयस्स हिदिसंतकम्मं ।" इति । ततः परं क्षपितमायः क्रोधोदयारूडवद् मायोदयारूढोऽपि लोभं क्षपयति । उक्तञ्च कषायप्राभृतचूर्णौ - "एत्तो पाए लोभं खवेमाणस्स णत्थि णाणत्तं ।" इति । सम्प्रति यो लोभोदयेन क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यते, तस्य भेदो दर्श्यते-- क्रोधोदयारूढः पुरु Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनानाम् ] किट्टवेदनाद्वाधिकारः [ ४१३ पवेदक्षपण -ऽनन्तरमव कर्ण करणाद्धानां संज्वलनचतुष्कस्या- पूर्वस्पर्श्वकानि करोति, लोभोदयारूढः पूर्वस्पर्धस्वरूपेणैव संज्वलनको क्षपयति । ततः क्रोवोदयारूढः संज्वलनचतुष्कस्य किट्टी: करोति, लोभोदयेन प्रतिपन्नस्तु पूर्वस्पर्वकस्वरूपेणैव मानं क्षपयति । ततः क्रोधोदयेन क्षपकश्रेणि समारूडः क्रोवं क्षपयति, लोभोदयेन क्षपकश्रेणिमधिगतस्तु पूर्वस्पर्वकस्वरूपेणैव मायां क्षपयति, क्रोधोदयेन क्षपकश्रेणिं समारूडो मानं क्षपयति, लोभोदयारूडस्त्वश्वकर्ण करणाद्धामारभमाणो लोभस्या-पूर्वस्पर्धकानि निर्वर्तयति । इत्थं त्रयाणां क्रोधमानमायानां क्षपणातः परं लोभो - दयारूडो ऽश्वकर्ण करणाद्धामारभते । ततः क्रोधोदयारूडो मायां क्षपयति, लोभोदयेन प्रतिपन्नस्तु संज्वलन लोमस्य तिस्रः संग्रह किट्टीः करोति । ततः क्रोधोदयेन क्षपकश्रेणिमधिगतः किट्टिगतं लोभं क्षपयति, लोभोदयारूढोऽपि किट्टिगतं लोमं क्षपयति । अभिहितं च कषायप्राभृतचूण“कोहेण उवहिदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, लोभेण उवडिदो तम्हि कोहं खवेदि । कोहेण उवट्ठिदो जम्हि किट्टीओ करेदि, लोभेण उवद्विदो तम्हि माणं खवेदि । कोहेण उवद्विदो जम्हि कोहं खवेदि, लोभेण उवविदो तम्हि मायं खवेदि । कोहेण उवद्विदो जम्हि माणं खवेदि, लोभेण उवहिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । कोहेण उवद्विदो जम्हि मायं खवेदि, लोभेण उवडिदो तम्हि कीओ करेदि । कोहेण उवद्विदो जम्हि लोभं खवेदि, तम्हि चेव लोभेण उवहिदो लोभं खवेदि ।" इति । लोनं क्षपयतो जीवस्य किट्टिवेदनाद्धा प्रथमसमये मोहनीयस्थितिसचमे - कवर्षमात्रं भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "लोभेण उवदिस्स पढमसमयको - वेदगस्स मोहणीयस्स हिदिसंतकम्ममेकं वस्सं ।” इति । ततः क्रोधोदयारूढवत् ताव - दवम् यावत्सूक्ष्मसम्परायचरमसमयः || २२० ॥ , निभिन्न पायोदयेन क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नानां क्रियाभेदो दर्शितः । सम्प्रति भिन्नभिन्नवेदोदयेन क्षपकश्रेणिं समारूडानां क्रियाभेदमाविविकीषुः प्रथमतस्तावत् स्त्रीवेदोदयेन प्रतिपन्नस्य जीवस्य क्रियाभेदं दर्शयति इत्थी खलु पुरिसुदयेणं पडिवन्नस्स इत्थखवणांतं । पढमठिहं ठावे अवेआ सत्त जुगवं विणासेइ ॥ २२२ ॥ (गीतिः ) स्त्री खलु पुरुषोदयेन प्रतिपन्नस्य स्त्रीक्षपणान्ताम् । प्रथमस्थितिं स्थापयत्यवेदा सप्त युगपद् विनाशयति || २२१ || इति पदसंस्कारः । 'इत्थी' इत्यादि, 'स्त्री' स्त्रीवेदोदयेन क्षपकश्रेणिं समारूडो जीवः 'खलु' खलुर्वाक्यालङ्कारे, पुरुषवेदोदयेन प्रतिपन्नस्य जन्तोः 'स्त्रीक्षपणान्तां' स्त्रियाः - स्त्रीवेदस्य क्षपणाक्षपणाकालोऽन्ते यस्याः, सा, ताम् 'प्रथमस्थितिं' प्रस्तुतत्वात् स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थितिं स्थापयति, पुरुषवेदोदया Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा-२२१ रूढस्या-ऽन्तरकरणक्रियाप्रथमसमयप्रभृतिस्त्रीवेदक्षपणाद्धाचरमसमयपर्यवसाना पुरुावेदस्य यावती प्रथमस्थितिर्भवति, तावतीं प्रथमस्थितिं स्त्रीवेदस्य स्त्रीवेदोदयारूढो जीवः स्थापयतीत्यर्थः । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी - "जद्देहो पुरिसवेदेण उचट्ठिदस्स इत्थोवेदस्स ववणाडा, तदेह इत्थोवेदेण उवदिस्स इत्थोवेदस्स पढमट्ठिदो ।" इति । अत एव द्वाचत्वारिंशत्तम गाथया प्रतिपादितं प्रथमस्थित्यल्पबहुत्वं सूपपद्यते । अन्तरकरणनिष्पादनतः पूर्वं क्रियाभेदो नास्ति । अन्तरकरणं विधाय निरुक्तस्त्रीवेदप्रथम स्थितिं वेदयन् पुरुषवेदोदयाऽऽरूढवद् नपुंसकवेदं परिक्षप्य ततः स्त्रीवेदं क्षपयति । स्त्रीवेदप्रथमस्थितेrissa fearद्वये शेषे स्त्रीवेदस्यागालो व्यवच्छिद्यते । ततः परं स्त्रीवेदप्रथम स्थित समयाधिकावfoकाशेषायां स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ - "ताए पढमठितोए समयाहियावलियसेसाए मिच्छत्तस्स, तिन्हं वेयाणं, चउन्हं संजलणाणं, सम्मत्तस्स य जहण्णिया ठितिउदीरणा भवति ।" इति । तदानीमेव जघन्या--- भागोदीरणा गुणितकर्माशस्य च क्षपकस्योत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा जायते । उक्त च कर्मप्रकृतिचूर्यामनुभागोदोरणाऽधिकारे प्रदेशोदोरणा-ऽधिकारे च "पञ्चविहअंतराइयकेवलणाण केवलदंसणावरण- चउन्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसायाणं एयासिं वीसाए पगईणं अप्पप्पणी उदीरणंते जहणिया अणुभागउदीरणा होति । xxx dard तिहं पि अष्पष्पणो समयाहियावलियचरिमसमयवेयगो ।" इति । तथैवाऽभिहितं कषायप्राभृतचूर्णावप्यनुभागोदीरणाधिकारे प्रदेशोदीरणाधिकारे च“इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? इन्थिवेदखवगस्स समयाहियावलिय चरिमसमयसवेदस्स । xx इत्थवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयइत्थिवेदगस्स ।" इति । ४१४ ] aara ततः परं यदा स्त्रीवेदस्य चरमस्थितिखण्डं संक्रमयति, तदा तस्य जीवस्य स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति । तदानीमेव च स्त्रीवेदस्य वरमाऽनुभागखण्डं संक्रमवतो जघन्याभागसंक्रमोऽपि भवति । अत्र श्रीमन्मलयगिरिपादादयस्तु स्त्रीवेोदयारूडस्यैव जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति, नाऽन्यवेदोदयारूढस्य, स्त्रीवेदोदयारूउस्पोदयो दीरणाभ्यां प्रभूतायाः स्थितेस्त्रोटनादित्याहुः । उक्त ं चतैः कर्मप्रकृतिवृत्तौ - "स्त्रीवेदेन च प्रतिपन्नो नपुंसकवेदक्षयानन्तरमन्तर्मुहूर्तेन कालेन स्त्रीवेदं क्षपयति । एतावता च कालेनोदयोदोरणाभ्यां बह्वी स्थितिस्त्रुदयति । यद्यपि च पुरुषवेदेनापि प्रतिपन्नस्यैतावान् कालो लभ्यते, तथापि तस्य स्त्रोवेदसत्के उदयोदोरणे न भवत इति । स्त्रोवेदप्रतिपन्नस्यैव स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमः, न शेषस्य ।" इति । एवमनुभागसंक्रमोऽपि जघन्यः स्त्रीवेदोदयारूढस्यैव बोद्धव्यस्तेषां मतेन । अन्ये तु त्रयाणामन्यतमेन वेदेन प्रतिपन्नस्य चरमस्थिति 1 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीवेदोदयेन क्षपकश्रेणेरारोहणम् ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ ४१५ खण्डं संक्रमयतो जीवस्य स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थितिसङ्क्रमो भवति । इयं च तेषां युक्तिः-स्त्रीवेदोदयारूढो यस्मिन् स्थाने स्त्रीवेदं सर्वथा संक्रमयति, तस्मिन्नेव स्थाने पुरुषवेदोदयारूढो नपुंसकवेदोदयारूढचाऽपि । तदेवं वेदत्रयारूढानामेकस्मिन् स्थाने स्त्रीवेदस्य सर्वथा संक्रमणाइन्यतमवेदेनारूढानां क्षपकाणां स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति, स्थित्युदयोदीरणयोः सत्योरपि ताभ्यां स्थितिघाताऽभावात् । उक्त चकर्मप्रकृतिचूर्णिटिप्पनके श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिपादैः"स्त्रीवेदस्य तु वेदत्रयेणारूढस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो लभ्यते । सर्वत्रापि स्वस्थाने एव तस्य क्षयादिति । एवमनुभागसंक्रमोऽपि द्रष्टव्यः।। ___ तदानीं यथा पुरुषवेदोदयारूढस्य गुणितकाशस्य स्त्रीवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति, न तथा स्त्रीवेदोदयारूढस्य स्त्रीवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमः, उदयोदीरणाभ्यां कतिपयानां दलानां क्षपितत्वात् । स्त्रीवेदप्रथमस्थितिचरमसमये स्त्रीवेदस्य जघन्या-ऽनुभागोदयो गुणितकाशजन्तोवोत्कृष्टप्रदेशोदयो जायते । तदानीमेव स्त्रीवेदस्य जघन्यस्थितिसचं जघन्याऽनुभागसचं च भवतः । यदुक्तं कषायप्राभृतचूर्णी स्थितिविभक्त्यधिकारेऽनुभागविभक्त्यधिकारे च"इत्थिवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयइथिवेदोदयखवयस्स । xxxxइत्थिवेदस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवयस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स ।” इति । ___निश्चयनयमाश्रित्य तदानीमेव व्यवच्छिद्यमानः पुरुषवेदस्य बन्धो व्यवच्छिन्नः, स्त्रीवेदस्य चोदयसच्चे व्यवच्छिद्यमाने व्यवच्छिन्ने । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी-“एमेव इत्थिवएण वि उवट्ठियस्स, नवरि नपुंसगवेओ पढमं खिजइत्ति । तओ अंतोमुहुत्तेण इत्थिवेयस्स उदयसंतकवओ पुरिसवेयबंधवोच्छेए य जुगवं भवइ ।” इति ।। _ 'अवेआ' ति 'अवेदा' न विद्यते वेदो-वेदोदयो यस्याः, साऽवेदा, अपगतवेदामानुषीत्यर्थः, स्त्रीवेदं परिक्षप्याऽन्तर्मुहुर्तकालेन 'सत्त' इत्यादि, ‘सप्त' हास्यपटकपुरुषवेदरूपाणि सप्तकर्माणि युगपत् सर्वात्मना क्षपयति, नाऽवशिष्यते समयोनद्वयावलिकाबद्धः पुरुषवेदः, अन्तमुहुर्तात् प्रागेव स्त्रीवेदक्षयचरमसमये पुरुषवेदबन्धोच्छेदात् । पुरुषवेदोदयारूढस्तु वेदोदयचरमसमये समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनपुरुषवेददलं मुक्त्वा शेषं पुरुषवेदं हास्यषटकेन सह परिक्षप्य ततो-ऽवेदभावे तावता अजयधवलाकारैरप्युक्तम्-एस्थित्थिवेदोदयक्खवयस्सेत्ति वयणं सेसवेदोदयक्खवयपडिसेहफलं । णिरत्थयमिदं विसेसणं, अण्णवेदोदएण वि चढिदस्स खवयस्स जहण्णढिदिसंकमाविरोहादो । ण च सोदय-परोदएहि चढिदाणं खवयाणमित्थिवेदचरिमट्ठिदिखंडयम्मि विसरिसभावो अत्थि, णव॑सयवेदस्सेव तदणुवलंभादो । तम्हा अण्णदरवेदोदइल्लस्स खवयस्सेत्ति सामित्तणि सो कायव्यो त्ति । एत्थ परिहारो-- सच्चमेदमुदाहरणमेत्तं तु इत्थिवेदोदयक्खवयावलंबणं, णेदं तंतमिति घेत्तव्यं । xxxxxxxx. तम्हा सोदए वा परोदएण वा पयदसामित्तमविरुद्धं ।" इति । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] खवगसेढी [गाथा-२२२ कालेन पुरुषवेदं सर्वथा क्षपयति स्म । उद्यञ्च कषायप्राभूतचूर्णी-"तदो अवगतवेदो सत्तकम्मंसे खवेदि। सत्तण्हं पि कम्माणं तुल्ला खवणडा।” इति । एवं सप्ततिकावृत्त्यामप्युक्तम् ॥२२१॥ अथ नपुंसकवेदोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य क्रियाभेदो द्रष्टव्यः । तत्रा-ऽन्तरकरणनिष्पादनतः प्राक् क्रियाभेदो नास्ति । अन्तरकरणकि प्रारम्भतो यः क्रियाभेदः, तं दर्शयति संढो ठावइ पढमठिइं इत्थीपढमठिइमिअं खवइ । वेअदुगं जुगवं अवगयवेओ सत्त परिखवइ ॥२२२॥ पण्डः स्थापयति प्रथमस्थिति स्त्रीप्रथमस्थितिमितां क्षपयति । वेदद्विकं युगपदपगतवेदः सप्त परिक्षपयति ।।२२२।। इति पदसंस्कारः । 'संढो' इत्यादि, 'पण्ढः' नपुंसको-नपुंसकवेदोदयेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नो जीव इत्यर्थः, 'प्रथमस्थिति नपुंसकवेदस्या-ऽऽदिमस्थिति स्त्रीवेदप्रथमस्थितिप्रमितां स्थापयति, स्त्रीवेदोदयेन क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नो यावती स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थिति स्थापयति, नपुंसकवेदोदयाऽऽरूढोऽपि नपुसकवेदस्य तावतीं प्रथमस्थिति स्थापयति, परावेदस्त्रीवेदयोः प्रथमस्थिति न स्थापयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"जम्महंतो इत्थोवेदेण उवट्टिदस्स इत्थीवेदस्स पढमहिदी, तम्महंती णवुसयवेदेण उवडिदस्स णवुसयवेदस्स पढमहिदो।" इति । अत एव द्वाचत्वारिंशत्तमगाथोक्ताल्पबहुत्वं सूपपद्यते । ततः क्रमेण प्रथमस्थितिचरमसमयं प्राप्तो जीयो 'वेदद्विक' स्त्रीवेदन सकवेदलक्षणं युगपत् 'परिक्षपयति' सर्वात्मना विनाशयति, न तु पुरुग्वेदोदयारूडयद् नपं सम्वेदं यथास्थानं परिक्षप्य ततः स्त्रीवेदं क्षपयतीत्यर्थः । अयं भावः-नपुसकवेदोदयारूडोऽप्यन्तरकरणकियां परिसमाप्य नपुसकवेदं क्षपयितुमारभते, तं च प्रतिसमयमसंख्येयगुणक्रमेण क्षपयन् गच्छति । यदा पुरुावेदोदयारूढो नपुंसकवेदं सर्वथा क्षपयति स्म,न तदा-ऽयं नपुंसकोदोदयारूढो नपुंसकवेदं सर्वात्मना क्षपयति, किन्तु ततः प्रभृति नपुसकवेदेन सह रखीवेदमपि क्षपयितुमुपक्रमते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“जद्देही पुरिसवेदेण उवहिदस्स णवुसयवेदस्स खवणडा, तद्देही णवुसयवेदेण उवहिदस्स णवुसयवेदस्स खवणडा गदा, ण ताव णसयवेदो खोयदि, तदो से काले इत्थिवेदं खवेदुमाढत्तो णसयवेदं पि खवेदि ।” इति । ततो वेदद्वयं क्रमेण क्षपयन् नपुंसकवेदप्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां नपुंसकवेदस्यागालो व्यवच्छिद्यते । ततः परं नपुसकवेदप्रथमस्थितौ समयाधिकावलिकाशेवायां नपुसकवेदस्य जघन्यस्थित्युदीरणा जायते । तदानीमेव नपुंसकवेदस्य जघन्या-ऽनुभागोदीरणा गुणितकर्मा शस्य च जीवस्योस्कृष्टप्रदेशोदीरणा जायते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णावनुभागोदोरणा-ऽधिकारे प्रदेशोदोरणा-ऽवसरे च-"णवुसयवेदस्स जहण्णानुभागुदीरणा कस्स ? णवुसयवेदखव Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसकवेदोदयेन क्षपकश्रेणेः प्रतिपत्तिः ] किट्टिवेदनाद्वाधिकारः [ ४१७ यस्ससमयाहियाऽऽवलियचरिमसमयसवेदग्गस्स।xxणवुसयवेदस्सउक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयणवुसयवेदगस्स।" इति । तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णावपि-ततः परं यदा नपुंसकवेदोदयारूढो नपुंसकवेदस्य चरमस्थितिखण्डं संक्रमयति, तदा तस्य जीवस्य नपुंसकवेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति, पुरुग्वेदोदयारूढस्य तु स न भवति स्म । अत्रेयं युक्तिः यदा जीवः पुरुषवेदोदयेन क्षपकश्रेणिमारोहति, स यस्मिन् स्थाने नपुसकत्रेदं सर्वथा क्षपयति, तत ऊर्ध्वमन्तमुहूर्तं गत्वा नपुंसकवेदोदयारूढो नपुसकवेदं सर्वात्मना क्षपयति । अर्वा चा-ऽल्पविशुद्धत्वेन पुरुषवेदोदयारूढो नपुंसकवेदस्य स्थितिं सर्वजघन्यां न करोति, नपुसकवेदोदयारूढस्त्वन्तमुहूर्तमूवगत्वा स्त्रीवेदेन सह नपुसंकवेदं सर्वथा क्षपयन् नपुंसकवेइस्य सर्वजघन्यां स्थिति संक्रमयति, अन्तमुहूर्तकाले प्रभूतविशुद्धया प्रभूतायाः स्थितेरपवर्तितत्वात् । उक्तञ्च श्रीमुनिचन्द्रसूरिपादैः कर्मप्रकृतिचूर्णिटिप्पनके-“यदा पुरुषवेदेन स्त्रीवेदेन चोदयमागतेन क्षपकश्रेणिमारोहति जन्तुः, तदा नपुसकवेदस्य स्वस्थान एव क्षयादजघन्यस्थितिसंक्रमः। तदा तस्य मनागशुद्धत्वेन सर्वजघन्यनपुंसकवेदस्थितिकरणाऽभावात् । यदा तु नपुसकवेदोदयेनारोहति, तदा नपुंसकवेदं जुगवं खवेति त्ति वचनात् स्त्रोवेदेन सह क्षयं नयतीति तदा तस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो लभ्यते, शुद्धत्वेन स्थितीनां बह्वपवर्तितत्वात् ।” इति । एवं नसकवेदोदयारूढस्य नपुंसकवेदस्य जघन्याऽनुभागसंक्रमोऽपि वाच्यः । यदुक्तं कषायप्राभृतचूण्याम्-णवु सयवेदयस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरमसमयणसयवेदयस्स ।” इति । ___नपुंसकवेदप्रथमस्थितिचरमसमये नपुंसकोइस्य जघन्याऽनुभागोदयो गुणितकांशस्य च जन्तोउत्कृष्टप्रदेशोदयो जायते । तदानीं च सर्वसंक्रमेण नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं च पुरुषवेदे संक्रम्य सर्वात्मना क्षपयति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"पुरिसवेदेण उवहिदस्स जम्हि इत्थीवेदो खोणो, तम्हि चेव णवुसयवेदेण उवहिदस्स इत्थिवेद-णसयवेदा च दो वि सह खिजंति ।" इति । एवं सप्ततिकावृत्तावपि-"यदा तु नपुसकवेदेन प्रतिपद्यते, तदा प्रथमतः स्त्रीवेद-नपुसकवेदौ युगपत् क्षपयति ।” इति । यथा पुरुषवेदोदयारूढस्य चरमस्थितिखण्डसंक्रमे नपुंसकोदोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमः प्राग् दर्शितः, न तथा नपुसंकवेदोदयप्रतिपन्नस्य नपुसकवेदस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति, कतिपयानां दलिकानामुदयोदीर्णाभ्यां क्षपितत्वात् । निश्चयनयमाश्रित्य तदानीमेव व्यवच्छिद्यमानः पुरुषवेदस्य बन्धो व्यवच्छिन्नः, एवं व्यवच्छिद्यमाने नपुंसकवेदस्योदयसत्त्वेऽपि व्यवच्छिन्ने । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी-“णपुंसगवएण Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] खवगसेढी [ गाथा--२२३ उवट्ठियस्स नपुंसक-इत्थिवेयसंतक्खए पुरिसवेयबंधवोच्छेए य जुगवं कए तस्स एक्कारससंतं ।” इति । ___'अवगय०' इत्यादि, स्त्रीवेदनपुंसकवेदक्षयानन्तरम् 'अपगतवेदः' अपगतो व्यवच्छिन्नो वेदो चेदोदयो यस्य, सजीवोऽपगतवेदः, व्यवच्छिन्नवेदोदयो जीव इत्यर्थः, अन्तमुहूर्तकालेन ‘सप्त' पुरुषवेद-हास्यषटकलक्षणानि सप्तसङ्ख्यानि कर्माणि युगपत् सर्वात्मना क्षपयति, अन्तर्मुहूर्तात् प्रागेव नपुंसकवेदक्षयचरमसमये पुरुषवेदवन्धोच्छेदेन समयोनद्वयावलिकाबद्धपुरुषवेदस्यावशिष्टत्वाभावात् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो अवगयवेदो सत्त कम्मंसे खवेदि । सत्तण्हं कम्माणं तुल्ला खवणडा।" इति । एवं सप्ततिकावृत्त्यादावपि । ॥२२२॥ भिन्नभिन्नवेदोदयेन प्रतिपन्नानां क्रियाभेददर्शनात् स्त्रीवेदनपुंसकवेदोदयारूढानां जीवानां पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिबन्धो न भवतीत्याविश्चिकीर्षुराह इत्थीसंढाणं पुरिसस्स जहण्णो न होइ ठिइबंधो। सेसं तु पुरिसवेअव्व भासियं वेदणाणत्तं ॥२२३॥ स्त्रीषण्ढयोः पुरुषस्य जघन्यो न भवति स्थितिबन्धः। शेषं तु पुरुषवेदवद् भाषितं वेदनानात्वम् ।। २२३ ।। इति पदसंस्कारः । 'इत्थी' इत्यादि, 'स्त्रीपण्ढयोः' स्त्रीवेदोदयेन प्रतिपन्नस्य नपुंसकवेदोदयाऽऽरूहस्य चेत्यर्थः 'पुरुषस्य' पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिवन्धो-ऽष्टवर्षप्रमाणो न भवति । कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते-पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिवन्धः पुरुषवेदोदयारूढस्य प्रथमस्थितिचरमसमये भवति स्म, स्त्रीनपुंसकवेदोदयेन प्रतिपन्नानां क्षपकाणां वेदस्य प्रथमस्थितिः पुरुषवेदोदयारूढवेदप्रथमस्थितितः संख्येयभागप्रमाणया हास्यपटकक्षपणाद्धया हीना भवति, सा च प्राग् दर्शिता द्वाचत्वारिंशत्तमगाथयाऽनन्तरोक्तगाथद्वयेन च । पुरुषवेदस्य चरमस्थितिबन्धस्तु वेदप्रथमस्थितिचरमसमये भवति । तेन स्त्रीनपुंसकोदयप्रतिपन्नानां पुरुषवेदस्य चरमबन्धः पुरुषवेदोदयारूढतोऽर्वाग् भवति, अर्वाक च विशुद्धेरल्पत्वात् पुरुषवेदोदयारूढवज्जघन्यस्थितिबन्धो न भवति । उपलक्षणमेतद् , तेन स्त्रीवेदनपुंसकवेदोदया-ऽऽ-रूढानां पुरुषवेदस्य जघन्या नुभागबन्धोऽपि न भवति । तथा प्रागुक्ताः पुरुषवेदस्य जघन्यस्थित्युदीरणा-जघन्याऽनुभागोदीरणोत्कृष्टप्रदेशोदीरणाजघन्यानुभागोदयोत्कृष्टप्रदेशोदया न भवन्ति, पुरुषवेदोदयाभावात् , परायेदस्य च जघन्यस्थितिसत्ता-जघन्यानुभागसत्ता-जघन्यप्रदेशसत्ता - जघन्यस्थितिसंक्रम-जघन्या-ऽनुभागसंक्रम-जघन्यप्रदेशसंक्रमा न भवन्ति, पुरुषवेदोदयचरमसमयबन्धमाश्रित्य निरुक्तानां लाभात् । 'सेसं' इत्यादि, उपर्युक्तादन्यच्छेषम्, तच्च पुरुषवेदवदवसेयम् , विशेषाऽभावात् । अथ निगमयति-"भासियं' इत्यादि, 'भाषितं' कथितं 'वेदनानात्वं वेदमाश्रित्य क्रियाभेदः, भिन्नभिन्नवेदोदयेन समारूढानांक्षपकाणां क्रियाभेदः प्रतिपादित इत्यर्थः । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्-३० ॥२२३॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] यन्त्रकम्-३० (चित्रम्-३०) [ खवगसेही भिन्नभिन्नकषायोदयेन भिन्नभिन्नवेदोदयेन च क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नानां कर्मक्षपणायाचित्रम् कोपस्व प्रक्षास्थिति- भार काम प्रथम-स्थिति: समावस्व मानत जम रिजाल मावायाः प्रमा-मिति भस्य मनोदश्य Eter: सौरभ्य प्रथम स्थिति: पदम्त .बिति | मदादया शि सपिगतस्य मोदन सकषि प्रतिराम्य IDDLA मानादवेब नपसकवेतो. दयारूढः स्त्रीवेदोदया पुरुषवेदोद यारूढः क्रोधोदयारूढः मानोदयारूढः . मायोदयारूढः . दयारूढः सङ्केतस्पष्टीकरणम् वामपार्वे नपुसकवेदोदयारूढस्य जीवस्य नपुंसकवेदस्य प्रथमस्थितिः स्तोका दर्शिता, सा च स्त्रीवेदप्रथमस्थितिप्रमाणा । तस्मात् कारणात् स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोः प्रथमस्थितिर्मिथस्तुल्या भवति । ततो हास्यषट्कतपणाकालमात्रेण संख्येयभागेनाधिका पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिर्भवति, यतः स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थितिः पुरुषवेदोदयारूढस्त्रीवेदक्षपणाद्धाचरमसमयपर्यवसाना, पुरुषवेदस्य तु प्रथमस्थितिहोस्यषटकक्षपणाद्धाचरमसमयपयेवसाना । (गाथाः-४२, २२१, २२२ ) । १=नपुसकवेदप्रथमस्थितिचरमसमयः, तदानीं स्त्रीवेद-नपुंसकवेदलक्षणं वेदद्वयं युगपत् क्षपयति । तदानीमेव नपुंसकवेदस्य जघन्यानुभागोदयो जघन्यस्थितिसत्त्वं जघन्यानुभागसत्त्वं गुणितकर्मा - शस्य च जीवस्य तदुत्कृष्ट प्रदेशोदयः, पुरुषवेदस्य'च बन्धोच्छेदो वाच्यः । . २=तदानीं स्त्रोवेदोदयारूढः पुरुषवेदोदयारूढश्च नपुंसकवेदं सर्वथा क्षपयतः । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] यन्त्रकम्-३० (चित्रम्-३०) [ खवगसेढी र स्त्रीवेदप्रथमस्थितिचरमसमयः, तदानी स्त्रीवेदं सर्वथा क्षपयति, स्त्रीवेदस्य जघन्यानुभागोदयो जघन्यस्थितिसत्त्वं जघन्यानुभागसत्त्वं गुणितकमांशस्य च तदुत्कृष्टप्रदेशोदयः, पुरुषवेदस्य च बन्धोच्छेदः । ३-तदानीं पुरुषवेदोदयारूढः स्त्रीवेदं सर्वात्लना क्षपयति । ४-स्त्रीवेदोदयारूढो नपुंसकवेदोदयारूढश्चा-ऽवेदौ हास्यषटकं पुरुषवेदव्च क्षपयन्तौ तदानीं सर्वथा युगपत् क्षपयतः । ५-पुरुषवेदोदयारूढस्य पुरुषवेदप्रथमस्थितिचरमसमयः, तदानीं हास्यष्टकं निश्शेष क्षीणम , समयोनयावलिकाबद्धनूतनदलं च वर्जयित्वा शेषः पुरुषवेदः क्षीण: (गाथा-५७ ) तथा पुरुषवेदस्य जघन्यानुभागोदयो गुणितकाशस्य जीवस्य तदुत्कृष्प्रदेशोदयोऽश्वार्पिकः स्थितिबन्धः संज्वलनानां षोडशवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धः, व्यच्छिद्यमानश्च पुरुषवेदस्य बन्धो व्यवच्छिन्नः । चित्रे पुरुषवेदप्रथमस्थितितः क्रोधोदयारूढाश्वकर्णकरणाद्धाकिट्टिकरणाद्धारूपसंख्येयभागेनाऽधिका क्रोधोदयारूढक्रोधप्रथमस्थितिर्दर्शिता (गाथा-४२)। मानोदयारूढमानप्रथमस्थितिः क्रोधोदयारूढक्रोधक्षपणाद्धायुक्तक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा, तेन क्रोधोदयारूढक्रोधप्रथमस्थितितो मानोदयारूढमानप्रथमस्थितिः संख्येयभागेनाऽधिका । मायो दयारूढमायाप्रथमस्थितिः क्रोधोदयारूढक्रोधमानक्षपणाद्धायुक्तक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा, तेन मानोदयाबढमानप्रथमस्थितितो मायोदयारूढमायाप्रथमस्थितिः संख्येयभागेनाऽधिका । लोभोदयारूढलोभप्रथमस्थितिः क्रोधमानमायाक्षपणाद्धायुक्तक्रोधप्रथमस्थितिप्रमाणा, तेन लोभोदयारूढ'प्रथमस्थितियोदयारूढमायाप्रथमस्थितितः संख्येयभागेनाऽधिका । ( गाथा-४२, २१९) मानादिभिः क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नाः क्रोधादीन् पूर्वस्पर्धकस्वरूपेणैव क्षपयित्वा-ऽश्वकर्णकरणं किट्टिकरणं चारभन्ते (गाथा-२२०) । क-क्रोधतृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयः, तदानीं संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धो द्विमासप्रमाणः, क्रोधस्य जघन्यस्थितिबन्धो जघन्याऽनुभागबन्धश्च । संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिसत्त्वं चत्वारि वर्षाणि। ख-मानतृतीयसंग्रह किटिवेदनाद्धाचरमसमयः, तदानीं संज्वलनत्रिकस्य स्थितिबन्ध एकमासमात्रः, मानस्य जघन्यस्थितिबन्धो जघन्यानुभागबन्धश्च, संज्वलनत्रिकस्य स्थितिसत्त्वं वर्षद्वयमात्रम् । ग-मायातृतीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयः, तदानीं संज्वलनद्धिकस्य स्थितिबन्धः पञ्चदश दिवसाः, मायाया जयन्यस्थितिबन्धो जवन्यानुभागवन्धश्च संज्वलनद्विकस्य स्थितिसत्त्वमेकवर्षप्रमाणम् । घ-लोभद्वितीयसंग्रहकिट्टिवेदनाद्धाचरमसमयः, तदानी लोभस्य स्थितिबन्धः स्थितिसत्त्वं चान्तर्मुहूतम, अनिवृत्तिबादरसम्परायाख्य-नवमगुणस्थान फस्य च समाप्तिः त Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीण कषायगुणस्थान झम् ] असंगतकषायाद्धाधिकारः [ ४१९ तदेवं समाप्तः षष्ठोऽधिकारः । तत्समाप्तौ च समाप्तो मोहनीयक्षपणाविधिः । मोहनीये च क्षीणे परेसां कर्मणां विनाशोऽवश्यंभावी । यदुक्त श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्यकारैः "पूर्वार्जितं क्षपयतो यथोक्तः क्षयहेतुभिः । संसारबोजं कार्येन मोहनीयं प्रहीयते ॥१॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्न-दर्शनघ्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रोणि कर्माण्यशेषतः ॥२॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा तालो विनश्यति । तथा कर्म क्षयं याति मोहनोये क्षयं गते ॥३॥” इति । तेन शेषाणां त्रयाणां घातिकर्मणां क्षपणप्रक्रियां दिदर्शयिषुः सप्तमा-ऽधिकारं विवर्णयति सेकालेऽवगयकसायगुणं लहए स पत्तहक्खायो। ठिइरसरहियं तइयं बंधइ पयइप्पअसेहिं ॥२२४॥ अनन्तरकाले-ऽपगतकपायगुणं लभते स प्राप्ता-ऽथाख्यातः । स्थितिरसरहितं तृतीयं बध्नाति प्रकृतिप्रदेशाभ्याम् ।।२२४।। इति पदसंस्कारः 1 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' मोहनीयनिश्शेषक्षयानन्तरसमय इत्यर्थः 'स' जितमोहः क्षपकः 'प्राप्ता-ऽथाख्यातः' मोहनीयपरिक्षयात् प्राप्त लब्धम् अथाख्यातम् अथशब्दोऽत्र याथातथ्ये, आङ् अभिविधौ, आ समन्ताद् याथातथ्येन-कवायोदयाभावेन निरतिचारत्वात् पारमार्थिकरूपेग ख्यातं तदथाख्यातं येन, स प्राप्ता-ऽथाख्यातः, 'अपगतकक्षायगुणं' पदैकदेशे पदसमुदायस्योपचाराद् अपगतकपायगुणस्थानकं क्षीणमोहगुणस्थानकमित्यर्थः, 'लभते' अश्नुते । ननु प्राप्तक्षीणकषायगुणस्थानकः किं करोति ? इत्यत आह-ठिइ०' इत्यादि, स्थितिरसरहितं 'तृतीयं सातवेदनीयकर्म प्रकृतिप्रदेशाभ्यां बध्नाति, तद्वन्धस्य योगनिमित्तकत्वात् । इदमुक्तं भवति-स्थितिबन्धो रसबन्धश्च कषायप्रत्ययौ । क्षीणकषायगुणस्थानके च कषायाभावात् स्थितिरसौन बध्यते । प्रकृतिवन्धः प्रदेशबन्धश्च योगप्रत्ययौ । क्षीणकषायगुणस्थानके च गात्रसचारादिरूपयोगसद्भावात् सातवेदनीयस्य प्रकृतिवन्धः प्रदेशबन्धश्च जायते । अयं च सातवेदनीयबन्ध ईर्यापथिककर्मबन्ध उच्यते । अयम्भाव:-"ईर गतिप्रेरणयोः” इत्यस्माद् भावे ध्यण्प्रत्ययः, ईरणम्-ईर्या=गमनम् , तस्यास्तया वा पन्थाः ईर्यापथः, तत्र भवम् ईर्यापथिकम् । व्युत्पत्तिनिमित्तमेतद्, यतस्तिष्ठतोऽपि तद्भवति । प्रवृत्तिनिमित्तं तु गात्रसश्चरादिरूपेण योगेन यत्कर्म बध्यते, तदीर्यापथिकम् , योगनिमित्तकमित्यर्थः । तच्च प्रथमसमये बध्यते,कषायाभावेन स्थित्यभावाद् द्वितीयसमये वेद्यते,तृतीयसमये चा-ऽकर्मतामेति । तच्च प्रकृतितः सातवेदनीयं भवति, स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतोऽनुत्तरोपपातिकसुखातिशायि,प्रदेशतश्चः स्थूल रूक्ष-शुक्ल-मन्द-महाव्यय-बहुप्रदेशम् । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] [ गाथा-२२४ तथा चोक्तम् आचाराङ्गटीकायां श्रीमद्भिः शोलाङ्गाचार्यपादैः - " तदेवं सूक्ष्मतरगात्रसञ्चाररूपेण योगेन यत्कर्म्म बध्यते, तदोर्यापथिकम् - ईर्याप्रभवम्, ईर्याहेतुकमित्यर्थः तच्च द्विसमयस्थितिकम्, एकस्मिन् समये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमये तदपेक्षया चाऽकर्मतामेति । कथमिति ? उच्यते यतस्तत्प्रकृतितः सातवेदनोयमकषायत्वात् स्थित्यभावेन बध्यमानमेव परिशटत्ति, अनुभावतोSनुत्तरोपपातिक सुखातिशायि, प्रदेशतः स्थूलरूक्ष शुक्लादिबहुप्रदेशमिति । " इति । तथैव सूत्रकृताङ्गवृत्तावपि - "याऽसावकषायिणः क्रिया, तया यद् बध्यते कर्म, तत्प्रथमसमय एव बद्धं स्पृष्टं चेतिकृत्वा तत्क्रियैव बडस्पृष्टेत्युक्ता तथा द्वितीयसमये वेदितेत्यनुभूता, तृतीयसमयेऽतिजीर्णा । एतदुक्तं भवति-कर्म योगनिमित्तं बध्यते, तत्स्थितिश्च कषायायत्ता, तदभावाच्च न तस्य साम्परायिकस्येव स्थितिः, किन्तु योगसद्भावाद् बध्यमानमेव स्पृष्टतां संश्लेषं याति । द्वितीयसमये त्वनुभूयते तच्च प्रकृतितः सातवेदनीयं स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतः शुभा. नुभावमनुत्तरोपपातिकदेवसुखातिशायि, प्रदेशतो बहुप्रदेशमस्थिरबन्धं बहुव्ययं च ।" इति । aarat तथा श्रीमच्छीलाङ्गाचार्यैरोर्यापथिककर्मप्रतिपादिकेयं गाथा दर्शिता - "अप्पं बायरमउयं बहु च लुक्खं च सुकिलं चैव । मंदं महव्वतं ति य सातबहुलं तं कम्मं ॥ १ ॥ " अथास्य अर्थः प्रतिपाद्यते - ईर्यापथिककर्म सातावेदनीयं 'अप्पं' ति 'अल्यं' स्तोकं स्थितितः कषायभावेन स्थितिबन्धस्या- योग्यत्वात् प्रथमसमये कर्मरूपेण परिणतस्य द्वितीयमये वेदितस्य तृतीयसमये चाऽकर्मतामापन्नस्याऽल्पत्वमुच्यत इत्यर्थः । बादरं = स्थूलं परिणामतः, तथाविधसूक्ष्मपरिणामविरहात् । न चाऽनुभागतो बादरं कुतो न भण्यते, सूक्ष्मसम्परायतोऽनन्तगुणविशुद्धेरुपलम्भाद् ? इति वाच्यम्, कपायाभावेन तत्प्रत्यया ऽनुभागबन्धस्या ऽभावात् । नन्वेवं तर्हि कार्मणवर्गणास्कन्धाः कर्मत्वेन परिणमनकाले सर्वजीवाऽनन्तगुणाऽनुभागका भवन्ति, अन्यथा कर्मत्वेन परिणत्यनुपपत्तेरिति । तत् कथमुपपद्यताऽनुभागबन्धाभावः ? इति चेत्, भण्यते - इह जघन्यानुभागबन्धस्थानजघन्यवर्गणातोऽनन्तगुणहीनरस विशिष्टकार्मणवर्गणास्कन्धानामपि बन्धो न विरुध्यते,यतो यद्यपीर्यापथिककर्मणो जघन्यानुभागबन्धस्थानाद्यवर्गणातोऽनन्तगुणनरसता भवति, केवलयोगप्रत्ययत्वात्, तथापि नामप्रत्ययोत्कृष्टवर्गणातो योगप्रत्ययाद्यस्पर्धकाद्य वर्गया अनन्तगुणत्वादीर्यापथिककर्मस्कन्धाः सर्वजीवानन्तगुणरसाऽविभागकाः । उक्तञ्च कर्मप्रकृ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईर्या पथिककर्मनिरूपणम] अपगतकषायाद्धाधिकारः [४२१ तिचूनिटिप्पनके श्रीमुनिचन्द्रसूरिपादैः-"तत्र च योऽकषायावस्थाभावी, तस्य जघन्यस्पर्धकायवर्गणाऽपि नामप्रत्ययिकस्पर्धकोत्कृष्टवर्गणातोऽनन्तगुणरसाविभागा, कषायप्रत्ययिकसर्वजघन्यानुभागस्थानकजघन्यस्पर्धकाद्यवर्गणातः पुनरनन्तगुणहोनरसाविमागा, तुच्छरसत्वाद् योगप्रत्ययिकबन्धस्य ।" इति । कपायप्रत्ययजघन्यरसबन्धस्थानतथाऽस्य बन्धस्याऽनन्तगुणहीनत्वात् कायप्रत्ययानुभागवन्धरहितत्वाचाऽनुभागबन्धो नास्तीति भणितम् । अत एव यथा स्थित्वपेक्षयर्यापथिककर्माऽल्पं भणितम् , तथा रसाऽपेक्षयाऽप्यल्पं बोध्यम् । उक्तश्च कर्मप्रकृतिचूर्णिटिप्पनके-“अल्पं स्तोकं कषायाभावेन तत्प्रत्ययस्थित्यनुभागापोढतया अल्पस्थित्यनुभागत्वात् । तथाहि-तत्कर्म प्रथमसमये बडम्, द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमये निर्जीयत इति। अनुभागतस्तु कषायप्रत्ययसर्वजन्यानुभागस्थानस्य सर्वजघन्यस्पर्धकादप्यनन्तगुणहोनरसमिति ।” इति । 'म उअं' ति मृदु अनुभावतः, मृद्वनुभावकमित्यर्थः । उक्तश्चाचाराङ्गवृत्तौ-“बादरं परिणामतोऽनुभावतो मृहनुभावम् ।” इति । यद्वा स्वरूपदर्शकं विशेषणमिदं मृदुस्पर्शप्रतिपादकम् , तैजसवर्गणाया उपरितनकार्मणादिवर्गणागतपुद्गलेषु मृदुस्पर्शस्याऽवस्थितिदर्शनात् । उक्त च वर्गणाधिकारे श्रीमदुपाध्यायपादैः-'तत्र मृदुलघुरूपौ हौ स्पर्शाववस्थितौ”। इति । न चैतद् व्याख्यानमसिद्धमिति वाव्यम् , ग्रन्थान्तरेऽपि तथाव्याख्यातत्वात् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णिटिप्पनके "मृदु, कर्कशादिस्पर्शाभावेन ।” इति । ___'बहुअं ति बहु प्रदेशतः । इदमुक्त भवति-सकषायजीवैर्बध्यमानसातवेदनीयप्रदेशतः संख्यातगुणाः प्रदेशाः क्षीणमोहप्रभृतिगुणस्थानके बध्यन्ते, सातवेदनीयरूपस्यैकस्यैव कर्मणो बध्यमानत्वेन सर्वेषां गृह्यमाणप्रदेशानां सातवेदनीयरूपत्वात् सकषायगुणस्थानकेषु तु यथासंभवमष्टानां सप्तानां पण्णां कर्मणां बध्यमानत्वेन प्रदेशानां यथाविभागं तत्तत्कर्मरूपेण परिणम्यमानत्वात् क्षीणकषायादिगुणस्थानकापेक्षया तत्र वेदनीयप्रदेशानां स्तोकत्वोपलम्भात् । इत्थं सकपायप्रदेशबन्धतो-ऽकषायसातवेदनीयप्रदेशबन्धस्य संख्यातगुणत्वाद् ईर्यापथिककर्मणो बहुत्वं सुनिरूपितं भवति । चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः, तेन सुगन्धि सुच्छायं चेत्यपि ज्ञातव्यम् । 'लक्खं' ति रूक्षं स्पर्शतः, चिरकालावस्थानगुणाऽननुगतत्वात् । 'मुक्किलं' ति शुक्लं वर्णतः, ईयोपथिककर्मस्कन्धाः शुक्लवर्णा भवन्तीत्यर्थः । एवकारोऽवधारणे, स च सर्वत्र सम्बन्धनीयः, ततोऽल्पमेव बादरमेवेत्यवं सर्वत्र विपक्षक्षेपो द्रष्टव्यः । 'मंद' ति मन्दं लेपतः, स्थूलचूर्णमुष्टिमृष्टकुडयापतितलेपवत् । 'महव्वतं' ति महाव्ययम् , एकसमयेनैव सर्वप्रदेशानां निःशेषतो निर्जीर्णत्वदर्शनात् । 'सातबहुलं' ति सातबहुलमनुत्तरोपपतिकसुखातिशायित्वात् ॥२२४॥ ___ अथ क्षीणकषायगुणस्थानके स्थितिघातादीन् विवर्णयिषुराह Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] arrat होज्जा पुव्वव्व छकम्माणं ठिइरसविधायगुणसेढी । दलिअं पडुच्च गुणसेदिनिज्जरा उण असंखगुणा ॥२२५॥ [ गाथा--२२५-२२३ भवन्ति पूर्ववत् षट्कर्मणां स्थितिरसविवातगुणश्रेणयः । दलिकं प्रतीत्य गुणश्रेणिनिर्जरा पुनरसंख्यगुणा ||२२५|| इति पदसंस्कारः | 'होज्जा' इत्यादि, तत्र 'षट्कर्मणां ' ज्ञानावरण - दर्शनावरणान्तराय वेदनीय- नाम- गोत्राणां 'स्थितिर सविघातगुणश्रेणयः' स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिश्च पूर्ववद् भवन्ति । इदमुक्त भवति - क्षीणकषायगुणस्थानके त्रयाणां घातिकर्मणामन्तर्मुहूर्तप्रमाणं स्थितिखण्डं घातयति, अनुभागखण्डेन पुनः सत्तागताऽनुभागस्य बह्वनन्तभागान् घातयति । तथा नाम - गोत्र-वेदनीयानां स्थितिखण्डम संख्यातवर्षप्रमाणं घातयति, तथा तेषामेवा - शुभप्रकृतीनां सत्तागताऽनुभागस्य बह्वनन्तभागाननुभागखण्डेन विनाशयति । तथा स्थितिघातं कुर्वन् प्रदेशाग्रमुत्कीर्योकी - र्णदलस्याऽसंख्येयभागप्रमाणं दलं गृहीत्वोदयनिषेके स्तोकं दलं ददाति, ततो ऽसंख्येयगुणं द्वितीयनिषेके ददाति । ततो-पि तृतीयनिषेके ऽसंख्येयगुणं निक्षिपति । एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावत् प्रक्षिपति यावत् क्षीणक पायगुणस्थानकतो विशेषाधिकाद्वायां गुणश्रेणिचर मनिषेकलक्षणगुणश्रेणिशिरः । ततो बहसंख्येयभागमात्रदलाद् दलमादाय गुणश्रेणि चरमनिपेकतो ऽसंख्येयगुणं दलं गुणणिशिरस उपरितने प्रथम निषेके प्रक्षिपति, । ततो विशेषहीनक्रमेण तावददाति, यावदतीत्थापनाप्राप्ता भवति । शेषाघातिकर्मणां प्ररूपणाऽस्मत्कृतोपशमनाकरणटीकायां दर्शनमोहक्षपणाधिकारे प्रतिपादितसम्यक्त्वमोहनीयक्षपणावदवसेवा, विशेषाभावात् । 1 अथ सूक्ष्मम्परातो गुणश्रेणी विशेषं दर्शयति- 'दलिअं' इत्यादि, 'दलिक' प्रदेशात्र 'प्रतीत्य ' आश्रित्य ' गुणश्रेणिनिर्जरा' सूक्ष्मसम्परायचरमसमयभाविगुणश्रेणिनिर्जरातः क्षीणकपायप्रथमसमयभाविगुणश्रेण्या कर्मप्रदेशानां परिशाटनम् 'असंख्यगुणा' असंख्येयगुणं भवति, पुनर्वाक्यभेदे, यदुक्तं तत्त्वार्थ सूत्र - "सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरता-ऽनन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनि र्जराः ।” इति । ॥ २२५॥ उक्तविधिना तावद् निरूपणीयम् यावत् क्षीणकषायगुणस्थानकस्य बहुसंख्येयभागा गता भवन्ति । तत एकस्मिन् संख्येयतमभागे शेषे यद्भवति तदर्शयितुकाम आह— सेसम्म संखभागे खीणकसायरस हणइ झाणेण । अन्तिमखंडेणं तस्स उवरिमठिहं तिघाईण || २२६ ॥ शेषे सङ्ख्यभागे क्षीणकषायस्य हन्ति ध्यानेन । अन्तिमखण्डेन तस्योपरितनस्थि त्रिघातिनाम् ॥ २२६॥ इति पदसंस्कारः । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानस्य कर्मक्षयकारणता ] किट्टिवेदनाद्धाधिकारः [ ४२३ 'सेसम्मि' इत्यादि, तत्र 'क्षीणकषायस्य' क्षीणकवायगुणस्थानकाद्धाया अन्तर्मुहूर्तप्रमाणायाः 'संग्ख्यभागे' संख्येयतमभागे शेषे 'अन्तिमखण्डेन' त्रयाणां घातिकर्मणां चरमस्थितिखण्डेन 'त्रिघातिना' त्रयाणां घातिकर्मणां ज्ञानावरण-दर्शनावरणाऽन्तरायरूपाणां 'तस्य' तच्छब्दस्य पूर्ववस्तुपरामर्शित्वेनाऽनन्तरोक्तक्षीणकषायस्य परामर्शात् क्षीणकषायगुणस्थानकस्योपरितनस्थिति ध्यानेन 'हन्ति' विनाशयति । 'झाणेण' इत्यनेन कर्मक्षये हेतुरुक्तः, ध्यानमन्तरेण कर्मोन्मूलनाऽनुपपत्तेः। अत्र कर्मक्षये ध्यानस्य हेतुत्वप्रतिपादिका तत्त्वार्थवृत्त्युक्तकारिका "प्राप्नोति परं हादं हिमातपाभ्यामिव विमुक्तम् । तेन ध्यानेन यथाख्यातेन च संयमेन घातयति ॥ शेषाणि घातिकर्माणि युगपदपरञ्जनानि ततः। कात्या॑न्मस्तकशूच्यां यथा हतायां हतो भवति तालः । कर्माणि क्षीयन्ते तथैव मोहे हते कात्स्न्यात् ॥” इति । तथैवोक्तं ध्यानशतके-ऽपि जह चिरसंचियमिंधणमनलो पवणसहिओ दुयं दहइ । तह कम्मंधणममियं खणण झाणाणलो उहइ ॥१॥ जह वा घणसंघाया खणण पवणाहया विलयमिति । झाणपवणावहूया तह कम्मघणा विलिजति ॥२॥” इति । इदमत्र हृदयम्-संख्यातः स्थितिघातसहस्रः क्षीणकषायगुणस्थानकस्य बहुसंख्यातभागेषु गतेषु सत्सु घातिकर्मणामन्तमुहूर्तप्रमाणं चरमस्थितिखण्डं घातयन् गुणश्रेणिनिक्षेपस्य संख्येयतमभागमपि विनाशयति, ध्यानमुपगतः क्षीणकरायगुणस्थानकस्योपरितनीर्घातिकर्मणां गुणश्रेणिसंख्येयतमभागमात्रीस्ततश्च संख्येयगुणा अन्याः स्थितीश्वरमस्थितिखण्डेन घातयतीत्यर्थः । दलनिक्षेपक्रमस्तु मोहनीयचरमस्थितिखण्डवत् संभवति । त्रयाणां घातिकर्मणां चरमस्थितिखण्डे घातिते ज्ञानावरणपश्चक-दर्शनावरणषटका-ऽन्तरायपञ्चकरूप-पोडशप्रकृतीनां स्थितिसत्त्वं शेषक्षीणकषायगुणस्थनकालप्रमाणं जायते, नवरं निद्रादिकस्य समयोनं भवति । ततः परं घातिकर्मणा स्थितिघातो न भवति । तच्च वक्ष्यत्यष्टाविंशत्यधिकदिशतमगाथायाम् । शेषाणां त्रयाणामघातिकर्मणां तु भवत्येव । उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी-“एवं खोणकसायद्याअंतोमुहुत्तपमाणमेत्ताए संखेजेसु भागेसु गतेसु संखेजइमे सेसे पंचणाणावरण-छइंसणावरण-पंचण्हमंतराइगाणं एएसिं सोलसण्हं कम्माणं ठितिसंतकम्मं सव्वोवट्टणाए उव्वहेत्तु सेसखीणकसायहासमं करेइ । तओ पभिई एयासिं ठितिघाओ फिटो, सेसाणं Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] aareढी [ गाथा--२२७ 1 अस्थि चैव । नवरं निद्दादुगस्स एक्केण समएण ऊणियठिर्ति ठवेइ, दलियं पडुच्च, कालो उ तुल्लो ।” इति ॥ २२६ ॥ , ननु भवता प्रोक्तम्- ध्यानेन क्षीणकषायगुणस्थानस्योपरितनीं घातिकर्मस्थितिं विनाशयतीति । तत् किं नाम ध्यानम् ? कतिविधं च तत् ? इति चेत्, उच्यते - ध्यायते - चिन्त्यते तचमनेनेति ध्यानम्, एकाग्रचिन्तानिरोध इत्यर्थः । अग्रम् - आलम्बनम् एकं च तदग्रं चेत्येकाग्रम् । चलं चित्तमेव चिन्ता, तस्य निरोधः = एकत्र व्यवस्थापनमन्यत्राऽप्रचारः, एकाग्र = एकावलम्बने चिन्ता निरोध इत्येकाग्रचिन्तानिरोधः । एवंस्वरूपं ध्यानं चतुर्विधम्, आर्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लभेदात् । किन्तु द्वयोरेव धर्म्य-शुक्लाख्ययोर्निर्वाण साधनत्वेन कर्मक्षयकारणत्वम् शेषयोस्तु भवकारणत्वेन कर्मबन्धप्रयोजकता । यदुक्तं ध्यानशतके "अहं रुद्द धम्मं सुकं झाणाइ तत्थ अंताई । निव्वाणसाहणाई भवकारणमहरुहाई ॥ १ ॥” इति । इह च कर्मक्षयस्याऽधिकृतत्वात् कर्मक्षयकारणलक्षणविशेषणं पुरस्कृत्य ध्यानस्य द्वैविध्यं प्रतिपिपादयिपुराह - कम्मखयकारणं झाणं दुविहं धम्मसुक भेअत्तो । एक्केक होइ चविहं णायव्वं पवयणत्तो ॥ २२७॥ , कर्मक्षयकारणं ध्यानं द्विविधं धर्म्यशुक्लभेदात् । एकैकं भवति चतुर्विधं ज्ञातव्यं प्रवचनतः || २२७॥ इति पदसंस्कारः । 'कम्म०' इत्यादि, 'कर्मक्षयकारणं' ज्ञानावरणादिकर्मविनाशनिबन्धनं 'ध्यानम् उक्तशब्दार्थं 'द्विविधं' द्विप्रकारं भवति, धर्म्यशुक्लभेदात् । तत्र धर्मात् क्षमादिलक्षणादनपेतं धर्म्यम्, “हृद्य-पद्य तुल्य-मूल्य- वश्य-पथ्य- वयस्य- धेनुष्या- गार्हपत्य जन्य-धर्म्यम्" (सिद्धहेम०७-१-११) इति निपातनाद् यप्रत्ययान्तः । शुचम् अष्टविधकर्मलक्षणां क्लमयति-लपयति-निरस्यतीति शुक्लम्, यद्वा शुक्लं-निर्मलं कर्मक्षयहेतुत्वात् । यद्वा शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलमिति शुक्लम् । अथ धर्म्यस्य शुक्लस्य च ध्यानस्य चातुर्विध्यमुपवर्णयति- 'एक्केक' इत्यादि, 'एकैकं धर्म्यं शुक्लं च प्रत्येकं पुनः 'चतुर्विधं' चतुष्प्रकारं भवति, 'ज्ञातव्यं तच्च बोध्यं 'प्रवचनतः' जिनेन्द्रप्रणीताऽऽगमतः, न विस्तरेण प्रदर्श्यत इति भावः । अथ ध्यानद्वयस्य किञ्चित् स्वरूपं वर्ण्यते, अन्यथा मन्दबुद्धिजनानां तद्विषयकबोधो न स्यात् । तत्राद्यं धर्म्यध्यानं चतुर्विधमाज्ञाविचया - ऽपायविचय-विपाकविचय-संस्थानविचयभेदात् । तत्रादौ तावद् आज्ञाविचयः - कुशलकर्माण्याज्ञाप्यन्ते प्राणिनोऽनयेत्याज्ञा सर्वज्ञ प्रणीतागम इत्यर्थः, तस्या विचयः=पर्यालोचनमित्याज्ञाविचयः । तथाहि - केवलालोकेन विनाशिता - शेषसंशय Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञाविचयाख्यमपायविचयाख्यञ्च धर्मध्यानम् ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४२५ तिमिराणां तीर्थकृतां सुनिपुणां सूक्ष्मद्रव्याधुपदर्शकत्वाद् मत्यादिप्रतिपादकत्वाच्च, द्रव्यादेशापेक्षयाऽ-नाद्यपर्यवसितां, सर्वजीवनिकायहिताम् , अनेकान्तपरिच्छेदात्मिका, महायां सर्वोत्तमत्वाद्, अपरिमिताम् एकसूत्रस्याऽनन्तार्थकत्वाद् , अजितां परप्रवचनैरपराजितत्वाद् , महार्थों पूर्वापराविरोधित्वादनुयोगद्वारात्मकत्वान्नयगर्भत्वाच्च, महानुभावां चतुर्दशपूर्वविदां सर्वलब्धिसम्पन्नत्वात् प्रभूत्कार्यकरणाच्च, महाविषयां सकलद्रव्यादिविषयत्वाद् , अकुशलजनदुर्जेयां नैगमादिनय-भङ्गप्रमाण-गमगहनामात्रां चिन्तयेत् । यः पुनर्ज्ञानावरणोदयेन मतिदौर्बल्यात् तथाविधाचार्याभावाद् वा ज्ञेयगहनत्वाद्वोपयुक्तोऽपि दुरविगम्यां भगवदाज्ञां ना-ऽवयुध्यते, सोऽपीत्थं ध्यायेत्--परैरनुपकृतेऽपि धर्मोपदेशादिना परानुग्रहोयुक्तानां जितरागदोषाणामपितथवादिनां भगवतां तीर्थकृतां वचनमघितथमेव, रागद्वेषाऽभावेनवितथकारणाऽनुपलम्भादिति । उक्तं च ध्यानशतके “सुनिउणमणाइनिहणं भूयहियं भूयभावणमहग्छ । अमियमजियं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥१॥ झाइजा निरवजं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं। अणिउणजणदुण्णेयं नय-भंग-पमाण-गमगहणं ॥२॥ तत्थ य मइदोब्बलेण तविहायरियविरहओ वा वि । णेयगहणत्तणेण य णाणावरणोदएणं च ॥३॥ हेऊदाहरणासंभवे य सइ सुटु जं न बुज्झेजा। सव्वण्णुमयमवितहं तहावि तं चिंतए मइमं ॥४॥ अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावादिणो तेणं ॥५॥” इति । अथ द्वितीयमपायविचयाख्यं धर्मध्यानमुच्यते-अपायाः विपदः शारीरमानसानि दुःखानीत्येकार्थाः, तेषां विचयः-चिन्तनम् । तथाहि-इह खलु जन्मजरामरणसंव्याप्तसंसारसागरे सांसारिकसुखेष्ववितृप्तचेतसः सचा रागद्व षकषायाऽऽश्रवादिषु प्रवर्तन्ते, ते च नरकादिगतिषु चक्रम्यन्ते । केचित् पुनरिहैत्र कृतवैरानुबन्धाः परस्परमाक्रोशवधायपायभाजो दृश्यन्ते क्लिश्यन्ते चेत्यादि भवचक्र भ्रमतां जन्तूनामिहलोकपरलोकापायाँश्चिन्तयतो-ऽपायविचयाख्यधर्मध्यानं भवति । उक्तंच ध्यानशतके "रागबोसकसायाऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं । इह-परलोयावाए झाइजा वजपरिवजी ॥१॥” तथा चात्र श्रीकलिकालकल्पतरुकल्पानां श्रीमद्हरिभद्रसूरीश्वराणां तट्टीका“रागद्वेषकषायाऽऽश्रवादिक्रियासु प्रवर्तमानानामिहपरलोकापायान् ध्यायेत् , Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] खवगसेढी [गाथा-२२७ यथा रागादिक्रिया ऐहिका-ऽऽमुष्मिकविरोधिनी, उक्त च "रागः सम्पद्यमानोऽपि दुःखदो दुष्टगोचरः । महान्याध्यभिभूतस्य कुपथ्यान्नाभिलाषवत् ॥१।। तथाद्वेषः सम्पद्यमानोऽपि तापयत्येव देहिनम् । कोटरस्थो ज्वलन्नाशु दावानल इव द्रुमम् ॥२॥ तथादृष्टयादिभेदभिन्नस्य रागस्यामुष्मिकं फलम् । दीर्घः संसार एवोक्तः, सर्वज्ञः सर्वदर्शिभिः ॥३॥ इत्यादि, तथा"दोसानलसंतत्तो इह लोए चेव दुक्खिओ जीवो। परलोगंमि य पावो पावइ निरयानलं तत्तो ॥१॥" इत्यादि, तथा कषायाः क्रोधादयः, तदपायाः पुनः कोहो पाइं पणासेइ माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो ॥१॥ कोहो य माणो य अणिग्गहीया माया य लोहो य पवढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥२॥" तथा-ऽऽश्रवाः-कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वादयः, तदपायाः पुनः "मिच्छत्तमोहियमई जीवो इहलोग एव दुक्खाइं । निरओवमाहं पावो पावइ पसमाइगुणहोणो ॥१॥” तथा"अज्ञानं खल कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥१॥” तथा"जीवा पार्विति, इहं पाणवहादविरईए पावाए। नियसुयघायणमाई दोसे जणगरहिए पावा ॥१॥ परलोगंमि वि एवं आसवकिरियाहि अजिए कम्मे । जीवाण चिरमवाया निरयाइगई भमंताणं ॥२॥” इत्यादि। आदिशब्दः स्वगता-ऽनेकभेदख्यापकः, प्रकृति-स्थित्यनुभावप्रदेशबन्धभेदग्राहक इत्यन्ये, क्रियास्तु कायिक्यादिभेदाः पञ्च, एताः पुनरुत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः । विपाकः पुनः 'किरियासु वट्टमाणा काइगमाईसु दुखिया जीवा । इह चेव य परलोए संसारपवढया भणिया ॥१॥" Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकविचाख्यं तृतीयं धर्मध्यानम् ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४२७ ततश्चैवं रागादिक्रियासु वर्तमानानामपायान् ध्यायेत्, किंविशिष्टः सन्नि त्याह-'वर्ज्यपरिवर्जी' तत्र वर्जनीयं वर्ज्यम् - अकृत्यं परिगृह्यते, तत्परिवर्जी- अप्रमत्त इति गाथार्थः ।” इति । अथ विपाकविचयाख्यं तृतीयं धर्मध्यानमुच्यते-वि-विविधो विशिष्टो वा पाको विपाकः - अनुभाव इत्यर्थः, नरकादिगतिषु कर्मणां विपाकस्य विचयः -पर्यालोचनमिति विपाकविचयः । ज्ञानावरणादिकमष्टप्रकारकं कर्म प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश भेदभिन्नमिष्टानिष्टविपाकपरिणामं जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिकं विविधविपाकम् । तयथा- ज्ञानावरणाद् दुर्मेधस्त्वम्, दर्शनावरणाच्चक्षुरादिवैकल्यं निद्रायुद्भवथ, असातावेदनीयाद् दुःखं सातवेदनीयात्सुखम्, मोहनीयाद् विपरीतग्राहिता चारित्रनिवृत्तिश्च, आयुषोऽनेकभवप्रादुर्भावः नाम्नोऽशुभप्रशस्तदेहादिनिवृत्तिः, गोत्रा - दुच्च नीच कुलोत्पत्तिः, अन्तरायादलाभ इत्यादिकर्मविपाकं चिन्तयतो विपाकविचयाख्यं तृतीयं धर्मध्यानं भवति । उक्तं च ध्यानशतके "पयइ-ठिइ-पएसा ऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं । जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचिंतेजा ॥१॥ अथ संस्थानविचयनामधेयं चतुर्थं धर्मध्यानमुच्यते- संस्थानम्-आकारविशेषो लोकस्य द्रव्याणां च । संस्थानस्य विचयो - अनुस्मरणमिति संस्थानविचयः । न केवलं लोकस्य द्रव्याणां च संस्थानं चिन्तयेच्चतुर्थधर्मध्यानोपगतः, अपि तु षड्द्रव्याणां लक्षणाऽऽसन-विधान-प्रमाणानि तथोत्पाव्यादिपर्यायानपि चिन्तयेत् । उक्तं च " जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणा-SSसण-विहाण-माणाई । उप्पायइिभंगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं ॥ १ ॥” इति । इह लक्षणं धर्मास्तिकायादीनां गत्यादि । तथा संस्थानं मुख्यवृच्या पुद्गलरचनाकाररूपं परिमण्डलाद्यजीवानाम् उक्तं च "परिमंडले य वट्टे तंसे चउरंस आयते चेव ।” इति । जीवशरीराणां च समचतुरस्रादि, उक्तञ्च Jain Educatión International "समचउरंसे नग्गोहमंडले साइ वामणे खुज्जे । हुडे वि संठाणे जोवाणं छ मुणेयव्वा ॥ १ ॥” इति । तथा धर्माधमर्योरपि लोकक्षेत्रापेक्षया संस्थानं भावनीयम् । लोकसंस्थानं चेत्थं भावनी - यम् - अधोलोको वेत्रासनसंस्थानः, तिर्यग्लोकः पुनर्झल्लरीसंस्थानः, ऊर्ध्वलोकस्तु मृदङ्गसंस्थानः । यदुक्तं जीवसमासे "हेट्ठा मज्झे उवरिं वेत्तासण-झलरी-मुइंगनिभो । मज्झिमवित्थाराहिय चोदसगुणमायओ लोओ ॥१॥" Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] खवगसेढी [गाथा--२२७ आसनानि चाऽत्राधारलक्षणानि, धर्माऽस्तिकायादीनां लोकाकाशादीनि स्वस्वरूपाणि वा । तथा विधानानि-धर्मास्तिकायादीनां भेदाः । प्रमाणानि च धर्मास्तिकायादीनामेवात्मीयानि, तथा धर्मास्तिकायादीनामुत्पादस्थितिव्ययादिपर्यायाः । उत्पादादिपर्यायेषु चेयं युक्तिश्शास्त्रवासमुचये प्रतिपादिता श्रीहरिभद्रसूरिपादैः “घट-मौली-सुवर्णार्थी नाशोत्पत्तिस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥१॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयो-ऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥२॥” इति । इह धर्मास्तिकायो विवक्षितसमयसम्बन्धरूपा-ऽपेक्षयोत्पद्यते, तदनन्तराऽतीतसम्बन्धरूपाऽपेक्षया तु नश्यति, धर्मास्तिकायत्वेन तु नित्य इति । पञ्चास्तिकायमयो लोकः, स च कालतो-ऽनाधनिधनः । क्षेत्रतश्च लोकस्त्रिविधः, अधोलोकादिभेदैः । तत्राऽप्यष्टानां क्षितीनां घर्माद्यानां पृथ्वीनामेकविंशतेघनोदधिधनवाततनुवातात्मकानां धर्मादिसप्तपृथिवीवलयानां जम्बूदीपप्रभृतिस्वयम्भूरमणद्वीपपर्यवसानानामसंख्येयद्वीपानां लवणप्रभृतिस्वयंभूरमणपर्यवसानानामसंख्येयानां सागराणां सीमन्तकप्रभृत्यप्रतिष्ठानावसानानां चतुरशीतिलक्षाणां (८४,००,०००) निरयाणामसंख्येयानां ज्योतिष्कादिसम्बन्धिविमानानां द्वासप्ततिलक्षोत्तरसप्तकोटीनाम् (७,७२,००,०००) असुरादिदशनिकायसम्बन्धिनां भवनवास्यालयरूपभवनानामसंख्येयानां व्यन्तरनगराणां स्थानानि, व्योमादिप्रतिष्ठानं च लोकस्थितिविधानमित्यादि चिन्तयतो जीवस्य चतुर्थं धर्मध्यानं भवति । किञ्च साकाराद्यपयोगलक्षणो जीवो नित्य औदारिकादिशरीरेभ्यः पृथग्भूतो-ऽमूर्तः स्वज्ञानावरणादिकर्मणां कपिभोक्ता चाऽस्ति । तस्य जीवस्य स्वकर्मजनितो जन्मादिजलो व्यसनशतवापदः कषायपाताठो मोहनीयकर्मावर्तो महाभयानको ज्ञानावरणकर्मोदयजनिताऽज्ञानवायुप्रेरितसंयोगवियोगवीचिसन्तानोऽनाद्यपर्यवसितोऽशमः संसारसागरो-ऽस्तीत्यादि चतुर्थधर्मध्यानोपगतो ध्यायति । किंबहुना भाषितेन , निश्शेष जीवा-ऽजीव-पुण्य-पापा-ऽऽश्रव-संवर-निर्जरा-बन्ध-मोक्षाख्य-नवपदार्थविस्तरोपेतं द्रव्यास्तिकायादिसर्वनयसमन्वितं जिनेन्द्रभाषितं सिद्धान्तं ध्यायतो जीवस्य चतुर्थं धर्मध्यानं भवति । यदुक्तं ध्यानशतके "पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं । णामाइभेयविहियं तिविहमहोलोयभेयाइं ॥१॥ खिइ-वलय-दोव-सागर-निरय-विमाण-भवणाइसंठाणं । वोमाइपइहाणं निययं लोगटिइविहाणं ॥२॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यानस्य स्वामिनः ] अपगतकषायाद्वाधिकारः उवओगलक्खणमणाइनिहणमत्थंतरं सरोराओ । जोवमरूविं कारिं भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥३॥ तरस य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं । वसणसयसावयमणं मोहावत्तं महाभीमं ॥४॥ अण्णाणमारुएरिय संजोग विजोगवीइसंताणं । संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेजा ||५|| किं बहुना ? सव्वं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं । सव्वनय समूहमयं झाएजा समयसम्भावं ॥ ६ ॥” इति । अथ धर्मध्यानस्य ध्यातारो निगद्यन्ते - अप्रमत्तगुणस्थानकवर्तिप्रभृतिक्षीणकषायगुणस्थानकवर्त्तिपर्यवसाना जीवा धर्मध्यानस्य ध्यातारः । ते च दर्शन - ज्ञान - चारित्रलक्षणरत्नत्रय - वैराग्यभावनाभिर्भावितात्मानोऽनियते च देशे काल आसने वर्तमाना वाचनापृच्छनाद्यालम्बनयुक्ता - स्तेजःप्रभृतिलेश्याका भवन्ति । उक्ताश्च ध्यानशतके भावना- देश - काला-ऽऽसना -ऽऽलम्बन-लेश्याः । अक्षराणि त्वेवम्— "पुव्वकय भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गयमुवेइ | ताओ य नाण- दंसण-चरित्त-वेरग्गनियता (जणिया) ओ ॥ १ ॥ णाणे णिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिचलमईओ || २ || (इति ज्ञानभावना ) संकाइदोसर हिओ पसम-थेजाइगुणगणोवेओ । होइ असंमूढमणो दंसणसुडोइ झामि ॥३॥ (इति दर्शनभावना) नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभाऽऽयाणं । चारित्त भावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ॥४॥ ( इति चारित्र भावना) सुविदियजगरसभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य । वेरग्गभावियमणो झाणंमि सुनिचलो होइ ||५|| ( इति वैराग्यभावना ) निच्चं चिय जुवइ-पसू-नपुं सग-कुसोलवज्जियं जईणो । ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालमि ॥६॥ थिरकयजोगाणं पुण मुणोण झाणे सुनिच्चलमणाणं । भामंमि जणाइपणे सुपणे रणे व ण विसेसो ||७|| [ ४२९ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] खवगढी तो जत्थ समाहाणं होज मणो-वगण-कायजोगाणं । भूओवरोहर हिओ सो देसो झायमाणस्स ॥८॥ ( इति ध्यातुर्देशः प्रतिपादितः) कालो-वि सोचिय जहिं जोगसमाहणमुत्तमं लहइ । न उ दिवस-निसावेलाइनियमणं शाइणो भणियं ॥ ९ ॥ ( इति कालो ध्यातुः) जचि देहावस्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ । -झाइजा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निव्वण्णो च ॥ १०॥ सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु | वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समयपावा || ११ || (इति ध्यातुरासनानि ) आलंबणाइ वायण-पुच्छृण-परियहणाऽणुचिंताओ । सामाइयाइयाई सम्मावस्सयाई च ॥ १२ ॥ विसममि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो । सुताइकालम्बो तह झाणवरं समारुहइ || १३|| (इति ध्यायकस्यालम्बनानि) होंति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्ह-सुकाओ । धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्वमंदाइभेयाओ || १४ || (इति ध्यायिनो लेश्याः) [ गाथा - २२७ नवे जीवा धर्मध्यानोपगता इत्येतत् कथमवसीयते ? इति चेत्, उच्यते – लिङ्ग ेन । अयं भावः=लिङ्ग्यतेऽनेनेति लिङ्गम् । यथा धूमात्मकलिङ्गन पर्वतो वह्निमानिति ज्ञायते, तथैव श्रद्धानादिलिङ्ग ज्ञायन्ते यदेते जीवा धर्मध्यायिन इति । तच्च लिङ्गमागमोपदेशत आज्ञानिसर्गतश्च तीर्थङ्करप्ररूपितद्रव्यादिपदार्थानां श्रद्धानम्, अवितथा एत इत्यादिलक्षणं, जिनसाधुगुणोत्कीर्तनप्रशंसाविनयदानसम्पन्नता श्रुत-शील-संयमरमणश्च । उक्तं च ध्यानशतके "आगम उवएसा - SSणाणिसग्गओ जं जिणपणोयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिङ्ग ं ॥ १ ॥ जिणसाहूगुणकित्तण-पसंसणा विणय-दाण संपण्णो । सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयच्वो ||२||" इति । अत्र आगम: - सूत्रम्, तदनुसारेण कथनमुपदेशः, निसर्गः -स्वभावः । तदेवं गतं धर्मध्यानम् । पूर्वatar: ayat धर्मध्यानवलेन मोहनीयकर्म निश्शेषतो विनाश्य क्षीणकषायगुस्थानकं प्रतिपद्यते । पूर्ववित्क्षपकस्तु शतकलघुचूर्णिकाराद्यभिप्रायेण शुक्लध्यानेनाऽपि मोहनीयं परिक्षपय्य क्षीणकषायगुणस्थानकं प्रतिपद्यते । तत्त्वार्थसूत्रकृदाद्यभिप्रायेण सर्वे धर्मध्यानोपगता एव मोहनीयं क्षपयति, ततः क्षीणकषाया भवन्ति, उपशान्तमोहप्रभृतिगुणस्थानेषु Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथक्त्ववितर्कसविचाराख्यं प्रथमशुक्लध्यानम् ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४३१ शुक्लध्यानस्वरात् । क्षीणकषायगुणस्थानके तु सर्वेषां मतेनाद्यशुक्लध्यानद्वयमपि भवति । अतः शुक्लध्यानद्वयं सप्रभेदं प्ररूप्यते , शुक्लध्यानम् — शुक्लध्यानं चतुर्विधम् पृथक्त्ववितर्कसविचारादिभेदात् । तत्राद्यं पृथक्त्ववितर्कसविचारम्, द्वितीयमेकत्ववितर्का विचारम्, तृतीयं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति चतुर्थं च व्युपरतक्रियमनिवतीति । 9 अथ प्रथमं शुक्लध्यानं पृथक्त्ववितर्कसविचारं विविच्यते-- पृथक्त्वं भेदः, वितर्क्यते=आलोच्यते पदार्थो येन स वितर्कः करणे घञ्प्रत्ययः, मतिज्ञानविकल्प इत्यर्थः, तदनुगतं श्रुतमपि वितर्को व्यपदिश्यते, तदभेदात् । अथ व्युत्पच्यन्तरं दर्श्यते--विगतं तर्क-वितर्क संशयविपर्यया ऽपेतं श्रुतज्ञानमित्यर्थः । विचरणं विचारः, अर्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रान्तिरित्यर्थः, तत्राऽर्थः परमाण्वात्मादिः, व्यञ्जनम् - अर्थस्य वाचको शब्दः, योग: = मनोवाक्काययोगस्वरूपः, तेषु संक्रान्तिविचार उच्यत इति यावत् । अर्थाद् व्यञ्जने संक्रामति, व्यञ्जनादर्थे, मनोयोगात् काययोगे, काययोगाद् वाग्योगे, वाग्योगात् काययोग इत्यादौ संक्रामति । ततश्च पृथक्त्वेन = एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन पृथुत्वेन वा विस्तीर्णभावेनेत्यन्ये वितर्कः = श्रुतं यस्मिन् ध्याने तत्पृथक्त्ववितर्कम्, यद्वा पृथक्त्वेन = एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन पृथुत्वेन वा विर्तको विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यस्मिन् ध्याने, तत्पृथक्त्वविर्तकम् । विचारेण =अर्थादिषु संक्रान्त्या सह वर्तते, तत् सविचारम्, अर्थाद् व्यञ्जनं संक्रामति व्यञ्जनादर्थमित्यादि, तेनेदं सविचारमुच्यत इत्यर्थः, पृथक्त्ववितर्क च तत् सविचारं चेति पृथक्त्ववितर्कसविचारं प्रथमशुक्लध्यानमित्यर्थः । यदुक्तं ध्यानशतके “उपाय ठितिभंगाइ पज्जयाणं जमेगदव्वंमि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥ १ ॥ सवियारमत्थ- वंजण- जोगंतरओ तयं पढमसुकं । होति पुहुत्तवियक सवियारमरागभावस्स || २ ||" इति । तथैव तद्वृत्तावप्युक्तं कलिकालत मोदिवाकरैः श्रीमडरिभद्रसूरिपादैः- “विचारः-अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रम इति, आह च-अर्थ-व्यञ्जन-योगान्तरतः - अर्थ:-द्रव्यं, व्यञ्जनं= अर्थाद्वयञ्जनं शब्दः, योगः- मनःप्रभृति, एतदन्तरतः = एतावद्भेदेन सविचारम्, संक्रामतीति विभाषा, तकम् - एतद् प्रथमशुक्लं आद्यशुक्लं भवति । किं नामेत्यत आह-पृथक्त्ववितर्क सविचार, पृथक्त्वेन भेदेन विस्तीर्णभावेनाऽन्ये वितर्कः श्रुतं यस्मिन् तत्तथा ।" इति । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] खगढी [ गाथा - २२७ अथ प्रकारान्तरेण व्युत्पाद्यते-पृथक्त्वम् अनेकत्वं तेन सहगतो वितर्कः पृथक्त्ववितर्कः पृथक्त्वमेव वा वित-वितर्कपुरोगं - पृथक्त्ववितर्कम्, पृथक्त्वञ्चात्र परमाणुजीवादावेकद्रव्य उत्पाद-व्ययधौव्यादिपर्यायाऽनेकनयार्पितत्वम् । पृथक्त्वेन पृथक्त्वे वा तस्य चिन्तनं वितर्कसहचरितं पृथक्त्ववितर्कम्, पृथक्त्ववितर्क च तत् सविचारं चेति पृथक्त्ववितर्कस विचारम् । इदमुक्तं भवति-त्रयाणां योगानामन्यतमे योगे वर्तमान उत्तमसंहननो जीवः प्राक् परमाण्यात्मादिकवाचकशब्दं गृह्णाति । ततस्तत्स्वरूपं चिन्तयति, ततस्तत्पर्यायं चिन्तयति, ततस्तदर्थं नानानयैः पूर्वगतभङ्गिश्रुतज्ञानबलेन पूर्ववित् तदितरस्तु मरुदेव्यादिवदन्यथा चिन्तयति, “पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्व-विदः, मरुदेव्यादोनां त्वन्यथा ।” इति ध्यानशतकवृत्तौ प्रतिपादनात् । ग्रन्थान्तराभिप्रायेण तु मरुदेव्यादीनां निश्चयतो भावसूत्रयोगस्वीकाराद् न विरुध्यते तेषामपि यथोक्तश्रुतज्ञानबलेन चिन्तनम् । यदुक्तमुपदेशरहस्यवृत्तौ - "येषामपि मरुदेव्यादीनां व्यवहारतो नोपलभ्यन्त एते, तेषामपि निश्चयत एतत्सत्त्वमभ्युपगन्तव्यम्, तत्फलस्य संपन्नत्वात्, अत एवाद्ये पूर्वविद इत्यादिकमुपपद्यते, केवलज्ञानप्राप्तियोग्यतयाऽनुमीयमानस्याss शुक्लद्वयस्य तत्र भावतः पूर्ववित्त्वं विनाऽसंभवात् ।” इति । ततः शब्दार्थयोः स्वरूपविशेचिन्ताप्रतिबन्धः प्रणिधानम् । ततोऽन्तर्मुहूर्तकाले गते पर्यायान्तरं चिन्तयति, अथवा द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा तेनेदं ध्यानं सपृथक्त्वमुच्यते । कचित्पुनरर्थादर्थान्तरं गच्छति, शब्दाच्छदान्तरे संक्रामति । अन्यः पुनः पूर्वयोगतो ऽन्यतरस्मिन् योगे वा संक्रामति, तेनेदं ध्यानं सविचारं भण्यते । श्रुतज्ञानaa चिन्तयति तेन सवितर्कच्यते । उक्तं च गुणस्थानकक्रमारोहे— "स्वशुद्धात्मानुभूतात्मभावश्रुतालम्बनात् । अन्तर्जल्पो वितर्कः स्यात् यस्मिंस्तत्सवितर्कजम् ||१|| अर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छन्दान्तरे च संक्रमः । योगायोगान्तरे यत्र सविचारं तदुच्यते ॥२॥ द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद्याति गुणान्तरम् । पर्यायादन्य पर्यायं सपृथक्त्वं भवत्यतः ||३||” इति । संक्षेपत एकस्मिन् परमाण्वादौ द्रव्य उत्पाद -स्थिति-भङ्ग-मूर्ताऽमूर्त-नित्याऽनित्यादिपर्यायाणां द्रव्यास्तिकादिनानानयैश्विन्तनपरं प्रथम शुक्लध्यानम् । न च अर्थादर्थाऽन्तरं गच्छतो जन्तोर्थ्यानविनाशो भवेदिति वाच्यम्, चित्तस्याऽन्यत्र गमनाभावेन ध्याननाशाऽभावात् । अथ द्वितीयं शुक्लध्यानमेकत्ववितर्काऽविचारं निरूप्यतेएकत्वेन=अभेदेन=उत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थो वितर्कः - व्यञ्जन Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्ववितर्काऽविचाराख्यं द्वितीयशुक्लध्यानम् ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४३३ रूपोऽर्थरूपो वा यस्य तत्तथा इदमपि पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति, न विद्यते विचारः=अर्थ-व्यञ्जनयोरेकतरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतमादन्यत्र सञ्चारो निर्वातगृहगतप्रदीपस्येव यस्य तदविचारम् | एकत्ववितर्कं च तदविचारं चेत्येकत्ववितर्का विचारं द्वितीयशुक्लध्यानमुच्यते । उक्तश्व "जं पुण सुनिप्पकंपं निवायसरणप्पदीवमिव चित्तं । उपाय- ठिइ-भंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ १ ॥ अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बिइयं सुक्कं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवियकमवियारं ||२||” इति । इदमुक्त' भवति - एकस्य भाव एकत्वम्, एकत्वगतो वितर्क एकत्ववितर्कः । यत्रक एव योगस्त्रयाणामन्यतमस्तथा-ऽर्थो व्यञ्जनं चैकमेव पर्याया- ऽन्तरा ऽनर्पितमेकपर्यायचिन्तनम् - उत्पादव्ययधौव्यादिपर्यायाणामेकस्मिन् पर्याये निर्वात गृहप्रतिष्ठितप्रदीपवद् निष्प्रकम्पं पूर्वगतश्रुतानुसारि चित्तं निर्विचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु तदेकत्ववितर्का विचारम् | अद्वितीयध्यान एकं द्रव्यं पर्यायं गुणं वा चिन्तयति, तेन एकत्वपदमुपादीयते । एकयोगेन निश्चलस्य चिन्तयतो ऽर्थाद् व्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे योगादन्ययोगे संक्रमणं - विचारो न भवतीत्यविचारपदमुपादीयते श्रुतानुसारेण चिन्त्यते, तेन वितर्कपदोपादानम् । उक्त च गुणस्थानकक्रमारोहे "निजात्मद्रव्यमेकं वा पर्यायमथवा गुणम् । निश्चलं चिन्त्यते यत्र, तदेकत्वं विदुबु धाः ॥ १ ॥ यञ्जनार्थ योगेषु परावर्तविवर्जितम् । चिन्तनं तदविचारं स्मृतं सद्ध्यानकोविदैः ||२|| निजशुद्धात्मनिष्टं हि भावश्रुता ऽवलम्बनात् । चिन्तनं क्रियते यत्र सवितर्क तदुच्यते ॥ ३॥ तथा तत्त्वार्थटीकायामपि श्रीसिद्धसेनगणिभिः— "क्षीणकषायस्थानं, तत् प्राप्य ततो विशुद्धलेश्यः सन् । एकत्ववितर्काऽविचारं ध्यानं ततो ऽध्येति ॥ १ ॥ एकार्थाश्रयमिष्टं योगेन च केनचित् तदेकेन । ध्यानं समाप्यते यत् कालोऽल्पोऽन्तर्मुहूर्तश्च ||२॥ श्रुतमुच्यते वितर्कः, पूर्वाभिहितार्थनिश्चितमतेश्च । ध्यानं तदिष्यते येन तेन सवितर्कमिष्टं तत् ॥ ३ ॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] खवगसेढी [ गाथा--२२८ अर्थव्यञ्जनयोगानां संक्रान्तिरुदितो हि विचारः । तदभावात् तदध्यानं प्रोक्तमविचारमर्हद्भिः॥४॥” इति । अयं महात्मा शुक्लध्यानीत्येतदववा-ऽसंमोह-विवेक-व्युत्सर्गरूपलिङ्ग आयते । तत्रोपसर्गः परिषहश्च न बिभेति, नाऽपि चाल्यते ध्यानादित्यवधलिङ्गम् । अत्यन्तगहनेषु पदार्थेषु देवमायासु च न मुह्यतीत्यसंमोहलिङ्गम् । शरीरादात्मानं पृथक् पश्यतीति विवेकलिङ्गम् । देहोपधीनां सङ्ग त्यजतीति व्युत्सर्गलिङ्गम् । उक्तं च ध्यानशतके "अवहा-संमोह-विवेग-विउसग्गा तस्स हाँति लिंगाइं । लिंगिजइ जेहिं मुणो सुक्कज्झाणोवगयचित्तो ॥१॥ चालिजइ बोभेइ य धीरो न परिसहोवसग्गेहिं । सुहमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥२॥ देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥३॥ तथैव तत्त्वार्थवृत्तावपि श्रीसिद्धसेनगणिपादैः "व्युत्सर्गविवेका(त्संमोहाव्ययलिङ्गमिष्यते शुक्लम् । न च सम्भवन्ति कात्न्येन तानि लिङ्गानि मोहवतः ॥१॥ व्युत्सर्गः सङ्गत्यागः देहोपधीनां विवेकः । प्रोत्यप्रोतिविरहितं ध्यायंस्तदुपेक्षपकः प्रसन्नं सः ॥२॥” इति शुक्लध्यानस्य ध्याता शुक्ललेश्याक एव भवति । अभ्यधायि च ध्यानशतके-“सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुकलेस्साए ।" इति । शेषं शक्लध्यानद्वयमा यथावसरं वक्ष्यते ।।२२७॥ ध्यानबलेन यथाख्यातसंयमबलेन च घातित्रयस्य चरमस्थितिखण्डं घातयित्वा क्षीणकषायगुणस्थानस्याऽवशिष्टाऽद्धामात्रं स्थितिसचं क्रियत इति प्रतिपादितं षड्विंशत्यधिकद्विशततमगाथया । अथ चरमस्थितिखण्डे घातिते यद्भवति, तदाऽऽविश्चिकी राह चरिमे खंडे उकिण्णम्मि तिघाईण णत्थि ठिङ्घाओ समयहिअआलिसेसे हस्सठिइउदीरणा तिघाईणं ॥ २२८॥ (गीतिः) चरमे खण्ड उत्कीर्णे त्रिघातिनां नास्ति स्थितिघातः ।। समयाधि कालिकाशेषे ह्रस्वस्थित्युदीरणा त्रिवातिनाम् ।। २२८ ।। इति पदसंस्कारः। 'चरिमें इत्यादि, देहलोदीपकन्यायेन 'घाईणं' ति पदमत्रापि सम्बध्यते, 'त्रिघातिना' ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायरूपाणां कर्मणां चरमे खण्डे' अन्तिमे स्थितिखण्डे 'उत्कीर्णे' घातिते घातिकर्मणां स्थितिघातो 'नास्ति' न भवति । नाम-गोत्र-वेदनीयरूपाणां त्रयाणामघातिकर्मणां तु स्थितिघातादयः पूर्ववत् प्रवर्तन्ते, प्रतिषेधाभावात् । इतः प्रभृति ज्ञानावरणादीनां दलं केवलमुदयोदीरणाभ्यामसंख्येयगुणक्रमेण क्षपयति । 'समयाधिकावलिकाशेषे' क्षीणकषायगुणस्थानकाले समया Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थित्युदीरणादयः ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४३५ धिकावलिकामात्रे शेषेत्रिघातिनां ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायरूपाणां कर्मणां 'हस्वस्थित्युदीरणा' जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । समयाधिकावलिकाप्रमाणस्थितिसत्त्वस्य चरमनिषेकत उदीरणाप्रयोगेणोदयनिषेके दलं निक्षिपतो जन्तोरेकस्थितिप्रमाणा जघन्यस्थित्युदीरणा जायत इत्यर्थः । उपलक्षणमेतद्, तेन तदानीमेव केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरण-पश्चाऽन्तरायाणां, सर्वोत्कृष्टचतुर्दशपूर्वधरं च प्रतीत्य मति-श्रतज्ञानावरण-चक्षरचक्षदर्शनावरणानां, प्राप्तपरमावधिकस्यात्मनो-ऽवधिज्ञानावरणा-ऽवधिदर्शनावरणयोर्विपुलमतिभृतश्च मनःपर्यवज्ञानावरणस्य जघन्याऽनुभागोदीरणा जायते। गुणितकाशस्य च शीघ्रं क्षपकश्रेणिमारूढस्य ज्ञानावरणपञ्चक-दर्शनावरणचतुष्क-पश्चाऽन्तरायरूपचतुर्दशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशोदीरणा जायते, नवरं लब्धावधिज्ञानस्य जन्तोरवधिज्ञानावरणा-5वधिदर्शनावरणयोरुत्कृष्टप्रदेशोदीरणा न भवति, अवधिप्राप्तौ प्रभूतानां कर्मपुद्गलानां परिशटनात्, तथा सर्वेषांक्षपकाणां चतुर्दशानां मतिज्ञानावरणादीनां जघन्यस्थितिसंक्रमो जघन्या-ऽनुभागसंक्रमश्च जायत इत्युपलक्ष्यते । यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी-चक्खुदंसणावरण-अचक्खुदंसणावरण-केवलदसणावरण-पंचअंतराइय-पंचविहणाणावरणजहणियहिदिसंकमसामी खोणकसातो समयाहियावलियसेसे वहमाणो। xxx अंतरकरणे कए उवरि जासिं घातिकम्माणं जहिं जहण्णगो वितिसंकमो भणितो, तासिं अप्पप्पणो हाणे तहिं जहण्णाणुभागसंकमी । के ते ? भण्णइ-णवणोकसाया चत्तारि संजलणा णिद्दा पयला पंचणाणावरण चत्तारि सणावरण पंच अंतरायमिति-एतेसिं एगूणतीसाए पगतोण अंतरकरणस्स उवरिंजहण्णगहितिसंकमो भवति।xxछउमत्थखीणरागेत्ति खोणकसाय त्ति 'चउदस समयाहियावलियठितिए' (पञ्च)णाणावरण-दसणावरणचउकं पंचण्हमंतराइयाणं एया सें चोदसण्हं कम्माणं समयाहियावलियसेसाए ठितिए जहणिया ठितिउदीरणा भवति ।xxxसुयकेवलि = चउद्दसपुव्वी सव्वुकोसपज्जवेहिं तस्स मइ-य-चक्खु-अचक्खुणं उदोरणा मंदत्ति काउं तेण आभिणिवोहियणाणावरण-सुयणाणावरण-चक्खुदंसणावरणाणं अचक्खुदंसणावरणाणं जहण्णाणुभागुदोरणा खवणाए अब्भुष्ट्रियस्य खोणकसायरस समयाहियावलियासेसे वट्टमाणस्स । 'विपुलपरमोहिगाणं मणणाणोहोदुगस्सावि' त्ति-विपुलमणपज्जवणाणिस्स मणपज्जवणाणावरणस्स तस्सेव खोणकसायस्स । ओहिणाणावरणाणं ओहिदंसणावरणाणं वि परमोहिस्स खोणकसायस्स समयाहियावलियसेसे वहमाणस्स ।' xxचउण्हं णाणावरणोयाणं तिण्हंदसणावरणीयाणं सुतकेवलो वा इयरो वा सव्वे वि उक्कोस (पएस) उदोरणासामी, मणपज्जवणाणावरणीयस्स वि लडिसहिओ वा इयरो वा उक्कोसउदोरणासामी।ओहिनाण-ओहिदंस-णावरणीयाणं (जस्स) लंभोणस्थि,तस्स उक्कोसिया पदेसउदोरणा।लडिसहि Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] खगसेढी [ गाथा-२२९ यस्स बहुया ओहिदुगावरणपोप्ता खिज्जति तिणेच्छिजइ लड़ी। एवं संखेवेण भणियं, तहावि असंमोहणिमित्तं विसेसयरं भणामि-ओहिणाणावरणवजाणं चउण्हं णाणावरणाणं चक्खु-अचक्खु-केवलदसणावरणीयाणं एतेसिं सत्तण्हं उक्कसिया पदेसउदोरणा समयाहियावलियसेसे छउमत्थस्स, तस्सेव ओहिदुगस्स ओहिरहियस्स उक्कोसिया पदेसुदोरणा ।” इति तदानीं व्यवच्छिद्यमाना घातित्रयस्योदीरणा व्यवच्छिन्ना ।।२२८॥ ततः परं केवलमुदयेन घातिकर्मत्रयं वेदयन् क्षीणकपायगुणस्थानस्य द्विचरमसमयं प्राप्नोति, - तदा निद्राद्विकक्षयं ततश्च चरमसमये चतुर्दशप्रकृतीनां क्षयं प्रदिदर्शयिषुराह-- वोच्छिन्ना सन्तुदया निद्ददुगस्स तु दुचरिमसमये-ऽन्ते। णाणंतरायचउदंसणाण फिट्टन्ति सन्तुदया ॥२२९॥ व्यवच्छिन्नी सत्तोदयौ निद्राद्विकस्य तु द्विचरमसमयेऽन्ते ।। ज्ञानावरणाऽन्तरायचतुर्दर्शनावरणानां भ्रश्यतः सत्तोदयौ ।। २२९ ।। इति पदसंस्कारः । 'वोच्छिन्ना' इत्यादि, तत्र 'दुचरिमसमये' त्ति 'विचरमसमये द्वितीयश्चामो यस्मात् =यत आरभ्य चरमसमयो द्वितीयो भवति, स विचरमः पृषोदरादित्वात् तीयलोपः, यदि वा द्वी चरमौ यस्माद्यत आरभ्य द्वौ समयो चरमौ भवतः, स द्विचरमः, ततः समयशब्देन सह कर्म धारयसमासाद् द्विचरमसमयः, उभयथाऽपि सामयिक्या परिभाषया चरमसमयाइनन्तरं पाश्चात्यः समयः, तस्मिन् , क्षीणकषायगुणस्थानस्य चरमसमयादनन्तरप्राक्तनसमय इत्यर्थः, 'निद्रादिकस्य' निद्राप्रचलाख्यस्य 'सन्तुदया' ति गाथायां सदिति निर्देशस्य भावप्रधानत्वेन सदित्यनेन सत्ताया व्याख्येयत्वात् सत्तोदयौ व्यवच्छिन्नौ भवतः, ततः परं निद्राद्विकं सत्कर्मणि न दृश्यत इत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"तदो दुचरिमसमये निद्दापयलाणुदयसंतवोच्छेदो।" इति । एवं कर्मस्तवादावपि। तुशब्दो विशेषार्थकः, स चा-ऽन्येषामाचार्याणां मतेन निद्राद्विकस्य सत्वमेव व्यवच्छिद्यते, उदयस्तु पूर्वमपि क्षीणकरायगुणस्थानकेन भवतीति विशिनष्टि, यदुक्त श्रीमन्मेरुतुङ्गाचार्यपादैः सप्ततिकाभाष्यवृत्ती-“तस्य च मोहवर्जशेषकर्मणां स्थितिघातादयः पूर्ववत्प्रवर्तन्ते, यावत् क्षोणमोहाडायाः संख्येया भागा गच्छन्त्येको-ऽवतिष्ठते । तस्मिश्च भागे ज्ञानावरणाऽन्तरायपञ्चक-दर्शनावरणचतुष्क-निद्राद्विकरूपाणां षोडशप्रकृतीनां स्थितिं सर्वाऽपवर्तनयाऽपवर्त्य क्षोणमोहाडासमां विधत्ते, केवलं निद्राद्विकस्य स्वरूपं प्रतोत्यैकसमयोनां कर्मत्वमात्रा-ऽपेक्षया तु तुल्यां, कोऽर्थः ? क्षीणमोहस्य द्विचरमसमये निद्राद्विकस्य दलिक स्तिवुकाः दर्शनावरणप्रकृतिचतुष्के सङ्क्रमयिष्यन्ति, संक्रमच दलिकं किञ्चित् स्वरूपं जहातीति Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीण कपायाद्धाया द्विचरमसमयः ] अपगत को याद्धाधिकारः निद्राद्रिकत्वलक्षणस्वकीयरूपावस्थानमाश्रित्य समयोना क्षीणमोहाडासमा स्थितिः । अथ च संक्रमान्त्यसमये प्रकृतिचतुर्दशकरूपतया (प्रकृतिचतुषकरूपतया) स्थित्वा तेन साकंक्षेष्यतोति, परप्रकृतिरूपकर्मत्वमात्रापेक्षया तुल्येति, तदुक्त कर्मप्रकृतिटोकायाम्-'अनुदयवतं हि चरमसमये स्तिवुक्रसंक्रमेणोदयवतीषु प्रकृतिषु मध्ये प्रक्षिपति, तत्स्वरूपेण वा-ऽनुभवति, तेन चरमसमये तासां दलिकं स्वरूपेण न प्राप्यते, किन्तु पररूपेण' इत्यादि । एवमग्रे प्यनुदयवत्कर्मणां समयोनता भावनीया । सा च क्षीणाहाऽद्यापन्तमुहर्तनाना, नतः प्रभृति च तासां स्थितिघातादयः स्थिताः, शेषाणां तु भवत्येव । ताश्च प्रकृतोनिद्राद्रिकवर्जमुदयोदोरणाभ्यां वेदयमानस्तावद् गतो यावत् समयाधिकावलिकामानं शेषः, तत्रोदीररणा निवृत्ता, तत आवलिकां यावदुदयेनैव केवलेन वेदयते, यावत् क्षीणमोडाया विचरमसमयः । तत्र च निद्रादिकं स्तिवुकसंक्रमणोदयवतीषु प्रकृतिषु संक्रान्तत्वात् स्वरूपसत्तापेक्षया क्षीणम् । अत एव 'उदये पुण खवगाणं चत्तारि उ दंसणावरणे' इति सूत्रेण क्षपक श्रेण्यां निद्राद्विकोदयः प्राग्न्यषेधि-यत उदयवतोनां प्रकृतीनां प्राक्संक्रमाभावात्स्वरूपेण प्रान्त्यसमयं यावद्दलिकं दृश्यते, एतयोश्च दलिकं विचरमसमय एव क्षीणं, अतो ज्ञायते-निद्रादिकस्य क्षपकश्रेणावुदयो नास्तीति । तदुक्तं चूौँ—“दुचरिमसमए एवं निदादुगं खोणं उदयाभावाउ' अत्र 'उदयाभावाउ' इति यस्मादेतयोः क्षपकश्रेणावुदयाभावोऽत एते स्तिवुकसंक्रान्त्या द्विचरमसमय एव क्षोणे इत्यर्थः ।" इति केषाश्चिदाचार्याणामभिप्रायेण क्षीणकषायगुणस्थानकद्विचरमसमये निद्रादिकेन सह देवगति-देवानुपूर्वी-वैक्रियशरीरा-ऽऽहारकशरीर-वनभनाराचवर्जसंहननपञ्चका-ऽनुदितसंस्थानपञ्चकरूपचतुर्दशप्रकृतयो-ऽपि सवतो व्यवच्छिद्यन्ते, अतीर्थकरप्रतिपत्तस्तु जिननामकर्मणोऽपि सत्त्वतो व्यवच्छेद इति । यदुक्तमावश्यकचूर्णी-"अन्ने भणंति-जत्थ निदं पयलं च खवेति, तत्व नामस्स इमाओ पयडोओखवेति, तंजहा-देवगति देवाणुपुव्वो विउव्वियदुगं पढमवजाइं पंच संघयणाई पंच संठाणाइं तित्थगरनामं जदि अतित्थगरो।" इति । अन्यत्रा-ऽपि प्रतिपादितम् "वोसमिऊण नियंठो दोहि उ समए हिं केवले सेसे । पढमं निदं पयलं नामस्स इमाउ पयडीओ ॥१॥ देवगइ-आणुपुव्वी-उव्विय-संघयणपढमवजाइं । अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारनामं च ॥२॥" एवं बृहत्कल्पवृत्तावप्यभिहितम् ।। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ]. ... खबगसेढी. .... .. ... ... .. गाथा--२२९ ततः परं क्षीणकषायगुणस्थानकचरमसमये केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरण-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्या-ऽन्तरायाणां तथा सर्वोत्कृष्टचतुर्दशपूर्वधरं प्रतीत्य मतिज्ञानावरण-श्रतज्ञानावरण-चक्षुर्दर्शनावरणाचक्षुर्दर्शनावरणानां, प्राप्तावधिज्ञानांश्च जीवानाश्रित्याऽवविद्वि कस्य तथा विपुलमतिं प्रतीत्य मनःपर्यत्रज्ञानावरणस्य जघन्यानुभागोदयो जायते, तथा गुणितकमांशस्य शीघ्र क्षपकश्रेणिमारूढस्य चतुर्दशप्रकृतीनां मतिज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टप्रदेशोदयो जापते, नवरं प्राप्ताऽवधिलब्धिकस्य न वाच्यः, अवधिप्राप्तौ प्रभूतानां प्रदेशानां परिशटनात् । उक्तश्च कर्मप्रकृतिवृत्तौ-"नवरं ज्ञानावरणपञ्चकाऽन्तरायपञ्चक-दर्शनावरणचतुष्टय-वेदत्रय-संज्वलनलोभ-सम्यक्त्वानामुदीरणाव्यवच्छेदे सति परत आवलिकां गत्वा-अतिक्रम्य तस्या आवलिकायाश्चरमसमये जघन्यानुभागोदयो वाच्यः। xxx 'आवरण' ति आवरणं-पञ्चप्रकारं ज्ञानावरणं चतुष्पकारं दर्शनावरणं 'विग्ध' त्ति पञ्चप्रकारमन्तरायं एतासां चतुर्दशप्रकृतीनां लघुक्षपणया-शीघ्रक्षपणार्थ अभ्युद्यतस्य । विविधा हि क्षपणा लघुक्षपणा चिरक्षपणा च। तत्र योऽष्टवार्षिक एव सप्तमासाभ्यधिकः संयम प्रतिपन्नः, तत्प्रतिपत्त्यनन्तरं चाऽन्तर्मुहूर्तेन क्षपकश्रेणिमारभते । तस्य या क्षपणा, सा लघुक्षपणा । यस्तु प्रभूतेन कालेन संयमं प्रतिपद्यते, संयमप्रतिपतेरप्यूवं प्रभूतेन कालेन क्षपकश्रेणिमारभते, तस्य या क्षपणा, सा चिरक्षपणा । तया च प्रभूताः पुद्गलाः परिशटन्ति, स्तोका एव च शेषा भवन्ति । ततो न तया उत्कृष्टः प्रदेशोदयो लभ्यते, तत उक्त लघुक्षपणयाऽभ्युस्थितस्येति । तस्य गुणितकाशस्य क्षीणमोहगुणस्थानकचरमसमये गुणश्रेणिशिरसि वर्तमानस्योत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति । नवरं 'ओहोण णोहिलडिस्स' त्ति अवध्योरवधिज्ञानावरणाऽवधिदर्शनावरणयोरनवधिलब्धिकस्या-ऽवधिलधिरहितस्य क्षपणायोस्थितस्योकृत्टः प्रदेशोदयो वाच्यः । अवधिज्ञानं ह्युत्पादयतो बहवः पुद्गलाः परिशटन्ति-क्षोयन्ते। ततो नाऽवधियुक्तस्योत्कृष्टप्रदेशोदयलाभ इत्यनवधिलब्धियुक्तस्येत्युक्तम् ।” इति । तदानीमेव मूलकर्माऽपेक्षया ज्ञानावरण-दर्शनावरण-ऽन्तरायाणामुत्तरकापेक्षया च पञ्चज्ञानावरण--चतुर्दर्शनावरण-पश्चाऽन्तरायाणां जघन्यस्थित्युदयो भवति, कमप्रकृतिवृत्तौ श्रीमन्मलयगिरिपादैः "* षट्त्रिंशत्प्रकृतीनां जघन्यः स्थित्युदयः समयमाौकस्थित्युदय ★ पटत्रिंशत्प्रकृतयो नामतः पुनरिमाः-ज्ञानावरणपञ्चकं दर्शनावरणचतुष्कं सातवेदनीयमसातवेदनीयं संज्वलनलोभो वेदत्रिकं सम्यक्त्वमोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयं चत्वार्यायुष्माणि मनुष्याति-पञ्चेन्द्रियजाति-त्रस-बादर-पर्याप्त-सुभगा-ऽऽदेय-यशःकीर्तयो जिननामोच्चैर्गोत्रमन्तरायपश्चकं चेति । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीणकषायाद्धायाश्चर मरामयः ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४३९ प्रमाणो वेदितव्यः, समयमात्रा चैका स्थितिः चरमस्थितिरवसेया ।" इत्युक्तत्वाद् निरुतकर्मणां च चरमस्थितेः क्षीणकषायचरमसमय एव लभ्यमानत्वात् । ग्रन्थान्तराभिप्रायेण तु निरुक्तकर्मणां जघन्य स्थित्युदयः स्वोदीरणाव्यवच्छेदात् परमावलिकां यावत् प्रतिसमयं भवति, उदीरणाऽपवर्तनयोर्व्यवच्छिनत्वेन केवलोदयेन प्रति समयमेकैकस्याः स्थितेः क्षयात् * । एवमेवेह ग्रन्थे मोहनीयस्य जघन्यस्थित्युदयः सूक्ष्मसम्परायचरमावलिकाचरमसमये नामगोत्रयोऽयोगिकेवलिगुणस्थान चरमसमये प्रथममतेन भावनीयः, द्वितीयमतेन तु मोहनीयस्य जघन्यस्थित्युदयः सूक्ष्मसम्परायचरमावलिकाप्रमाणे काले नामगोत्रयोश्चाऽयोगिकेवलिगुणस्थानाद्धाप्रमाणेऽन्तमुहूर्त काले प्रतिपादनीयः । उक्तनीत्या पुरुषवेदादीनामपि जघन्यस्थित्युदयः स्वमत्या यथास्थानं परिभावनीयः । निश्चयनयमाश्रित्य क्षीणक पायगुणस्थानकचरमसमये श्रीयमाणानि त्रीणि घातिकर्माणि निश्शेषतः क्षीणानि, तदभिधातुकाम आह— 'अन्ते' क्षीणकषायगुणस्थानकचरमसमये 'णात०' त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् ज्ञानावरणा-ऽन्तराय चतुर्दर्शनावरणानां-प्रति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्याय-केवलज्ञानावरण-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरण-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्यान्तरायरूपाणां चतुर्दशप्रकृतीनामित्यर्थः, 'सन्तुदया' ति प्राकृतत्वाद् “द्विवचनस्य बहुवचनम्” (सिद्धहेम०८-३-१३०) इत्यनेन सूत्रेण बहुवचनम्, सत्तोदयौ 'फिहन्ति' ति 'भ्रश्यत' : व्यवच्छिद्यते । उक्तं च सप्ततिका चूर्णौ- "आवरणमंतराए छउमत्थो चरिमसमयम्मि ति एयासि चोद्दसहं पगडोणं उदयसंतखओ खोणकसायरस चरिमसमए भवति ।" इति । तथैवोक्तं कषायप्राभृतचूर्णावावश्यकचूर्णौ चाऽपि । इत्थं क्षीणमोह गुणस्थानकचरमसमये शेषाणि त्रीणि घातिकर्माणि परिक्षीयन्ते । न च तदानीमेव घातिकर्मवदघातिकर्माणि कुतो न परिशटन्ति, कर्मत्वनोभयेषामप्यविशेषत्वाद् ? इति वाच्यम्, अघातिकर्मणां तदानीं पल्योपमा-ऽसंख्येयभागप्रमाणस्थितेः सद्भावेन कर्मा-पेक्षयाऽविशेषत्वेऽपि नाम-गोत्रा -ऽऽयुर्वेदनीयानां प्रशस्ताऽप्रशस्तत्वेना- प्रशस्तज्ञानावरणादितो विलक्षणत्वात् । तयथा - मोहनी - यस्या-ऽप्रशस्ततरत्वात् सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानक एव तत्क्षयो जातः । ज्ञानावरणादीनामप्रशस्तत्वात् क्षीणकषायगुणस्थानके तद्विनाशो जायते । अघातिकर्मणां तु प्रशस्ता प्रशस्तत्वात् क्षीणकषायगुणस्थानकेऽपि तत्क्षयो न भवति, किन्त्वयोगिकेवलिगुणस्थानके । एवमघातिकर्मणां प्रशस्ताप्रशस्तत्वप्रयुक्त वैचित्र्यस्य सद्भावात् क्षीणकषायगुणस्थानके तानि निश्शेषतो न क्षीयन्ते । * उक्तञ्च धवलाकारैरपि - "गारणावरणीय दंसरणावरणीय अंतराइयारणं जहरपट्ठिदिउदी कस्स ? चरिम (समय) छउ मत्थमादि कारण जाव श्रावलियचरिमसमयछदुमत्थो त्ति ।" Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खत्रगसेढी [ गाथा--२२९ निश्चयनयाऽभिप्रायेण यस्मिन्नेव समय आवरणक्षयः, तस्मिन्नेव समये केवलज्ञानमुत्पद्यते, क्रियाकाल- निष्ठाकालयोरैक्येन क्षीयमाणस्य क्षीणत्वात् । ४४० ] व्यवहारनयाऽभिप्रायेण तु यस्मिन् समय आवरणक्षयः, तदनन्तरसमये केवलज्ञानस्योत्पत्तिः, क्रियाकाल-निष्ठाकालयोर्भेदेना-ऽऽवरणक्षयसमये श्रीयमाणत्वात् क्षीयमाणस्य चाऽक्षीणत्वात् । उक्तञ्च श्रीविशेषावश्यकभाष्ये— “आवरणक्वयसमए निच्छनयस्स केवलुप्पत्ती । तत्तो ऽणंतरसमए ववहारो केवलं भणइ ॥ १ ॥ " इति । भावार्थ: पुनरयम् - श्रुताख्यप्रमाणविषयीभूतस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः- स्वाभिप्रेतैकां - - स्तदितरां - शौदासीन्यतो नीयते = ज्ञायते येना - ऽभिप्रायविशेषेण, स नयः, स च यद्यपि द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च निश्चयो व्यवहारथ, द्रव्यात्मको भावात्मकच, क्रियात्मको ज्ञानात्मकश्चेत्यादिविविधरूपः शास्त्रान्तरेषु दृश्यते, तथाप्यत्र व्यवहार-निश्चयौ विधिच्येते, तयोरेवा-त्राऽधिकृतत्वात् । तत्रादौ तावद् व्यवहारनयाभिप्रायो व्यक्तीक्रियते तथाहि - यदविद्यमानम्, तदुत्पद्यते, न तु विद्यमानम्, असत्कार्यवादी हि व्यवहारनयः । तत्राऽनुमानप्रमाणमाह-यद् विद्यमानम्, न तत् केनचित् क्रियते, यथा पूर्वनिष्पन्नो घटः । अथ कृतमपि क्रियते, तदा क्रियतां नित्यमिति क्रियान्यापारानुपरमप्रसङ्गः, किञ्चैवं सति नैकस्याऽपि कार्यस्याऽनन्तकालेनाऽपि परिसमाप्तिः स्यात्, अपिच यदि कृतमपि क्रियते, तर्हि घटादिकार्य उत्पाद्ये चक्रभ्रमणादिक्रियाया वैयर्थ्या-ssपत्तिः, कार्यस्य प्रस्तुतक्रियायाः प्रागेव सच्चात् । प्रत्यक्षविरोधश्च सत्कार्यवादे, यतः पूर्वं मृत्पिण्डाद्यवस्थायामसदेव घटादिकार्यं कुम्भकारादिव्यापारेणोत्पद्यमानं दृश्यते । ननु यस्मिन्नेव समये कार्यं प्रारभ्यते, तस्मिन्नेव समये निष्पद्यते, अतो निष्पन्नमेव तत् क्रियते, क्रियाकाल-निष्ठाकालयोरभेदात् । इत्थं च सदुत्पद्यत इति चेत्, न, उत्पद्यमानानां हि घटादीनां प्रदीर्घः क्रियाकाल: प्रत्यक्षप्रतीतः, यतो मृदानयन- तत्पिण्डविधान-चक्रारोपण-शिवकादिविधानादिचिरकालेनैव घटाद्युत्पत्तिर्दृश्यते, न तु घटाद्यारम्भकाल एव । ननु भवतु नाम दीर्घः क्रियाकाल:, घटादिकार्यं त्वारम्भसमयेऽप्युपलभ्यत इति चेत्, मैवम्, यतः क्रियारम्भकाले घटादिकार्यनिष्पत्तिर्न दृष्टा केनचित् नाऽपि शिवक-स्थास - कोश- कुशूलादिकाले, किन्तु दीर्घक्रिया कालपरिसमाप्तिसमये घटादिकार्यं दृश्यते, तस्मात् क्रियाकालपर्यन्त एव घटादिकार्यसत्त्वं युज्यते, न तु पूर्वम्, तत्रा- ऽनुपलभ्यमानत्वात् । तदेवं क्रियाकाले कार्यं नास्ति, अनुपलभ्यमानत्वात्, किन्तु तन्निष्टाकाल एव तत्रौवोपलब्धेः । ततो नाssवरणं श्रीयमाणं क्षीणम्, क्रियाकाले तस्य क्षीयमाणत्वात्, निष्टाकाल एव च क्षीणत्वात्, क्रियाकाल-निष्ठाकालयोश्चाऽत्यन्तं भेदात् । तयोरैक्ये तु क्रियाकालेऽपि कार्यस्य सच्चात् क्रियावैयर्थ्यप्रसङ्गः । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयव्यवहार यो र्निरूपणम् ] अपगतकषायाद्धाधिकारः [ ४४१ न च समानकालभाविनोः क्रिया-कार्ययोः कार्यकारणभावो युज्यत इति वाच्यम्, समानकालभाविनोः सव्येतरगोविषाणयोः परस्परं कार्यकारणभावप्रसङ्गात् । न चाऽऽवरणे श्रीयमाणे केवलज्ञानोत्पत्तिर्युक्तेति वाच्यम्, क्षीयमाणस्य क्रियाकालत्वात् तत्काले च कार्यसच्चाभ्युपगमे कार्यकारणभावव्यवस्थाभङ्गप्रसङ्गात् । इत्थं श्रीयमाणतानन्तरसमये क्षीण एव तदावर केवलज्ञानं युज्यते, अस्य निष्ठाकारत्वात् । क्रियाकाल- निष्ठाकालयोश्चैक्यं प्रतिविहितमेव, इति व्यवहारनयः । अथ निश्चयनयः परिभाव्यते - पदसत्कार्यवादिना व्यवहारनयेनाऽभिधीयते यदविद्यमानम् तदुत्पद्यते, न तु विद्यमानमिति, तत्र सत्कार्यवादी निश्चयनयो ब्रूते - विद्यमानमेवोत्पद्यते, नाऽविद्यमानम्, प्रमाणयति च - नाऽविद्यमानमुत्पद्यते, अभावत्वात् खपुष्पवद् । अथाऽविद्यमानमपि जायते, तर्हि खरविषाणमपि जायताम्, असच्चाविशेषात् । अपि चाऽसत्कार्यवादिना नित्यकरणादयो ये दोषा उद्भाविताः, ते तत्पक्षेऽपि समाना एव । तथाहि - अत्राऽपि शक्यते वक्तुमिदम् - यद्यसत् क्रियते, तर्हि क्रियतां नित्यम्, असत्त्वाऽविशेषात् । न चैत्रमेकस्या- ऽपि कार्यस्थानन्तेना-ऽपि कालेन परिसमाप्तियुज्यते, खरविषाणदेश्ये चाऽसति कार्ये क्रियावैफल्यमित्यादि । किञ्च व्यवहारनयमतेनोको दुष्परिहार्यतरत्वम् । विद्यमानस्यैव कार्यस्य केनाऽपि पर्यायविशेषेण करणं सम्भवति, लोकेऽपि सतामाकाशादीनां पर्यायविशेषा -ऽऽधाना-पेक्षया करणस्य रूढत्वात् । खरविषाकल्पे वसति कार्ये न केना- ऽपि प्रकारेण करणं संभवति । अथोत्पद्यमानानां घटादीनां प्रदीर्घः क्रियाकालः प्रत्यक्षप्रतीत इति यदुक्तम्, तत्रोच्यतेप्रतिसमयमुत्पद्यमानानां परस्परविलक्षणानां मृत्खनन - संहरण- रासभपृष्ठारोपण -ऽम्भः सेचन-परिमदन - पिण्डविधान-भ्रमण - चक्रारोपण-शिवक-स्थास- कोश-कुशुलादिकार्याणां यदि प्रदीर्घः क्रियाकालो दृश्यते, तर्हि घटस्य किमायातम् । अयमत्र भावः - प्रतिसमयं विलक्षणा एव क्रियाः, विलक्षगान्येव च मृत्खननादीनि कार्याणि, घटस्तु चरमसमये प्रारब्धः, तत्रैव च परिसमाप्तः । ततच प्रतिसमयभिन्नानामनेककार्याणां यदि दीर्घः क्रियाकालो भवति, तर्हि चरमैकक्रियाक्षणमात्र भाविनि घटे दीर्घ क्रियाकालप्रेरणं व्यवहारनयस्याऽल्पज्ञतां सूचयति । अथ क्रियारम्भकाले घटादिकार्यनिष्पत्तिर्न दृष्टा केनचिदित्यादिकं यदुक्तम्, तत् प्रतिविधीयते न खलु प्रारम्भकाले घटः प्रारब्धः, किन्तु मृत्खनन - चक्रमस्तकमृत्पिण्डारोपणादिकार्याणि प्रारब्धानि न चान्यारम्भेऽन्यद् दृष्टम्, पटारम्भे घटवत् । न हि शिवकादयो घटः, अतः शिवकादिकाले घटदर्शनं कथं स्यात् ? अन्यारम्भकाले ऽन्यस्य दर्शनानुपपत्तेः । व्यवहारनयस्तु प्रतिसमयकार्यकोटीनिरपेक्षत्वेन स्थूलमतित्वात् प्रतिसमयं शिवकादिकार्यसम्बन्धिनमपि कालं घटकालमध्यवस्यति, तेन शिवकादिकालेऽपि घटदर्शनम Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] खगढी [ गाथा--२२९ भिकाङ्क्षति । अयम्भाव:वः - प्रतिसमयमपरा - ऽपराण्येव शिवकादीनि कार्याण्युत्पद्यन्ते दृश्यन्ते च, तानि च तथोत्पद्यमानानि व्यवहारनयो नाऽवबुध्यते, घटोत्पत्तिनिमित्तैवेयं सर्वाऽपि मृच्चक्रचीवरादिसामग्रीत्येवं केवलघटाभिलापयुक्तत्वात्, ततस्तन्निरपेक्ष एव स्थूलमतितया सर्वमपि कालं घटकालत्वेन मन्यते, ततश्च प्राक्तनक्रिया समयेष्वनुत्पन्नत्वाद् घटमदृष्ट्वैवं ब्रूते - क्रियाकाले घटात्मकं कार्यं न दृश्यत इति इदं तु नावबुध्यते, यदुत चरमक्रियासमय एव घटः प्रारभ्यते, प्राक्तनक्रियाकाले तु शिवकादीन्येवा -ऽऽरभ्यन्ते, अन्यारम्भे चाऽन्यद् न दृश्यत एवेति । ननु यदि प्रथमसमयादारभ्याऽपरा - ऽपराणि शिवकादीनि कार्याण्यारभ्यन्ते, तर्हि कोऽयश्वरमसमय नियमः, येन प्रथमसमये घटादीनि कार्याणि न समुत्पद्यन्त इत्युच्यत इति चेत्, न, न ह्यकारणं कार्यमुत्पद्यते, अतिप्रसङ्गात् । तेनाऽन्त्यसमय एव घटादिकार्यस्य कारणं विद्यते, अतस्तत्रैव कार्यमुत्पद्यते, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणभावस्य गम्यमानत्वात् । इत्थञ्च दीर्घक्रियाकालपरिसमाप्तिसमये घटादिकार्यं दृश्यत इत्युक्तम्, तद्युक्तमेव, तदानीमेव तस्य प्रारब्धत्वात् । तच्च कार्यं क्रियासमये क्रियमाणं कृतमेव समयस्य निरंशत्वात् । यच्च कृतम्, तत् सदेव । ततः सदेव क्रियते, नाऽसत् यच्च सत्, तदुपलभ्यत एव । इत्थं क्रियाकाल - निष्ठाकालयोरभेदः । ततश्च यस्मिन्नेव समय आवरणक्षयः, तस्मिन्नेव समये केवलज्ञानोत्पादः, क्रियाकाल-निष्ठाकालयोर्भेदे त्वन्यत्र काले क्रिया, अन्यत्र च कार्योत्पत्तिरिति स्यात् तच्च न युक्तम्, क्रियाविरहेऽपि कार्योत्पत्यभ्युपगमप्रसङ्गन किया प्रारम्भात्पूर्वमपि कार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । , • ननु व्यवहारनयेनाssवरणस्य क्षये केवलज्ञानोत्पत्तिरिष्यते न त्वावरणे क्षीयमाणे । तत्र विकल्प द्वयमवतरति - किमावरणक्षयकाले क्रिया समस्ति, नवा ? यदि नास्ति, तर्हि क्रियां विना-वरणक्षये कोऽन्यः हेतुः १ न कोऽपीत्यर्थः, अथाऽस्त्यावरणक्षयकाले तद्हेतुभूता क्रिया, तया च तत्क्षय विधीयते, तर्हि बलादायातं क्रियाकाल-निष्ठाकालयोरैक्यम् । किञ्च यदि क्रियाकालयावरणक्षयो नास्ति, तर्हि पश्चादप्यसौ न स्यात्, अक्रियत्वात् । यदि च द्वितीयसमये क्रियान्युपरत्यामक्रियस्य सत आवरणक्षयोऽभ्युपगम्यते, तर्हि क्रियाविन्त - प्रथमसमये क्रियाया वैयर्थ्यं स्यात्, तामन्तरेणाऽप्यात्ररणक्षयोपपत्तेः क्रियाविरहित द्वितीयसमयवद् । अन्यच्च श्रीविवाहप्रज्ञप्तौ " णिज्जरिज्जमाणे णिज्जिपणे" इत्युक्तम्, अतः क्षीयमाणं क्षीणमेवेति न क्रियाकाल-निष्ठाकालयोर्भेदः । एवमावरणक्षीयमाणतासमय आवरणस्य क्षीणत्वेन प्रतिबन्धकविरहात् केवलज्ञानोत्पत्तिः केन निवारयितुं शक्यते ? यदि चावरणक्षीयमाणतासमये प्रतिबन्धकाभावेऽपि केवलज्ञानं नोत्पद्यते, तदुत्तरकाले तु पश्चादुत्पद्यते, तर्ह्यकारणः स्यात् केवलोत्पादः, ततचा कारणत एव तद्विनाशः सम्पद्येत । तस्मात् केवलज्ञानस्य तदावरणस्य च प्रकाश-तमसोरिव युगपदेवोत्पाद- विना " Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय व्यवहारात्मकं जिनमतम् ] अपगतकपायाखाधिकारः [४४३ शायभ्युपगन्तव्यौ, यथा हि यस्मिन्नेव समये तमसो विनाशः, तस्मिन्नेव समये प्रदीपादिप्रकाशस्योत्पत्तिर्भवति । एवमत्राऽपि यस्मिन्नेव समय आवरणस्य क्षयः, तस्मिन्नेव समये केवलज्ञानस्योत्पत्तिः, तत्र हि समय आवरणस्य क्षीयमाणस्य क्षीणत्वात् केवलज्ञानस्योत्पद्यमानस्योत्पनत्वात् । __. तदेवं दर्शितौ निश्चयनय-व्यवहारनया आक्षेपपरिहाराभ्याम् । जिनमतं तूभयनयात्मकम् । तेन क्रियाकाल-निष्ठाकालयोर्भेदाभेदः । ततश्च निश्चयनयेन क्षीणकषायचरमसमये केवलज्ञानस्योत्पत्तिः, व्यवहारनयेन त्वनन्तरसमये, तन्मतेन च साऽनन्तरगाथायां प्रतिपादयिष्यत इत्यलं विस्तरेण ॥२२९।। क्षीणकषायचरमसमयमाश्रित्य यन्त्रकम् (१) केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरण-पञ्चाऽन्तरायाणां जघन्याऽनुभागोदयो जायते (२) सर्वोत्कृष्चतुर्दशपूर्वधरस्य मतिज्ञानावरण-श्रुतज्ञानावरण-चक्षुर्दर्शनावरणा-ऽचक्षुर्दर्शनावरणानां ज घन्याऽनुभागोदयो भवति । (३) विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानभृतो जीवस्य मनःपर्यायज्ञानावरणस्य जघन्यानुभागोदयो जायते। (४) गुणितकाशस्य शीघ्रक्षपणायोद्यतस्य मतिज्ञानावरण-श्रुतज्ञानावरण-मनःपर्यवज्ञानावरण-केवल'ज्ञानावरण-चक्षुर्दर्शनावरणा-ऽचक्षुर्दर्शनावरण-केवलदर्शनावरण-पश्चाऽन्तरायरूपाणां द्वादशप्रकृती नामुत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति । (५) गुणितकाशस्याऽवधिलब्धिरहितस्य शीघ्र क्षपकश्रेणिमारूढस्याऽवधिज्ञानावरणाऽवधिदर्शनावर णयोरुत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति । (६) त्रीण्यपि घातिकर्माणि क्षीयमाणानि सर्वथा क्षीणानि । (७) निश्चयनयाभिप्रायेणाऽऽवरणक्षयसमय एव केवलज्ञानमुत्पद्यते । समाप्तः सप्तमाधिकारः। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] खवगसेढी [ गाथा-२३० सम्प्रत्यष्टमा-ऽधिकारं प्रतिपिपादयिषुरादौ तावद् व्यवहारनयमतमाश्रित्य केवलज्ञानादिलाभं समर्थयति सेकाले पावेइ सजोगिगुणं लहइ केवलं णाणं । तह केवलं दरिसणं णिरन्तरायं च वीरियमणंतं ॥२३०॥ (गीतिः) अनन्तरकाले प्राप्नोति सयोगिगुणं लभते केवलं ज्ञानम् । तथा केवलं दर्शनं निरन्तरायञ्च वीर्यमनन्तम ।।२३०॥ इति पदसंस्कारः । 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' घातिकर्मक्षयादनन्तरसमये जीवः ‘सयोगिगुणं' पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् सयोगिगुणस्थानकं प्राप्नोति' आसादयति । तत्र मनःपर्ययज्ञानिभिरनुत्तरदेवादिभिर्वा मनसा पष्टो व्याकरणाय मनोवर्गणापुद्गलानादाय मनोयोगं युनक्ति केवली भगवान्, तेन भगवतो मनोयोगो घटते । देशनाऽऽमन्त्राणादौ वाग्योग्यपुद्गलानादाय वचनयोगं प्रयुनक्ति । तत्राऽपि च सत्यवाग्योगो-ऽसत्यामृषवाग्योगश्चेति द्वा एव वाग्योगी भगवतः, नेतरौ द्वौ भेदौ, वीतरागत्वात् सर्वज्ञत्वाच्च । आगमनादौ च काययोगः, तद्यथाभगवान् कार्यवशतः कुतश्चित् स्थानाद् विवक्षिते स्थाने समागम्छेत् , यदिवा क्वापि गन्छेत् , अथवा तिष्ठेत्, ऊर्ध्वस्थानेन वा-ऽवतिष्ठेत निपीदेवा, तथाविधश्रमापगमाय त्वग्वर्तनं वा कुर्यात्, अथवा विवक्षिते स्थाने तथाविधसाम्पातिकसत्त्वाकुलां भूमिमवलोक्य तत्परिहाराय जन्तुरक्षानिमित्तमुल्लवनं प्रलङ्घनं वा कुर्यात् । एवं भगवतः केवलिनः योगत्रयस्य सद्भावात् योगेन सह वर्तत इति सयोगी, यद्वा योगो वीर्यपरिस्पन्द इति सुप्रसिद्धम् , सह योगेन वर्तन्त इति सयोगा मनोवाक्कायाः, ते सन्त्यस्येति सयोगी, "अतोऽनेकस्वरात्” (सिद्धहेम०७-२-६) इत्यनेन सूत्रेण इन्प्रत्ययः । सयोगिनो गुणस्थानकं सयोगिगुणस्थान कम्, तत् क्षीणघातिकर्मा लभते । ननु सयोगिगुणस्थानकं लभमानः पुनः किमासादति ? इत्यत आह-'लहइ'इत्यादि, 'लभते' आसादयति केवलं ज्ञानं तथा केवलं दर्शनं निरन्तरायं च वीर्यमनन्तम् , तथाशब्द-चकारशब्दो समुच्चयाथौं, अनन्तपदं च अन्त्यदीपकन्यायेन प्रत्येकमभिसम्बयते, ततश्चायमर्थः-अनन्तकेवलज्ञानमनन्तकेवलदर्शनं निरन्तरायञ्चाऽनन्तवीर्यं प्राप्तसयोगिकेवलिगुणस्थानकोऽश्नुत इति । उक्त च तत्त्वार्थसूत्रवृत्तौ श्रीमद्भिः सिद्धसेनगणिपादैः "तस्य हि तस्मिन् समये केवलमुत्पद्यते गततमस्कम् । ज्ञानं च दर्शनं चावरणद्यसङ्क्षयाच्छुद्धम् ॥१॥ वीर्य निरन्तरायं भवत्यनन्तं तथैव तस्य तदा । कल्पातीतस्य महात्मनोऽन्तरायक्षयः कात्ात् ॥२॥” इति । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञाननिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४४५ तदानीं च मूलकर्मा-पेक्षया चत्वार्यघातिकर्माण्युत्तरकर्मा-पेक्षया तु पञ्चनवतिः कर्माणि जरद्वस्त्रकल्पानि जायन्ते । प्राप्तकेवलज्ञानकेवलदर्शनो भगवान् त्रिकालसहितं सर्वलोकालोकं युगपत् पश्यति । यदवादि तत्त्वार्थ सूत्रवृत्तौ - चित्रं चित्रपटनिभं त्रिकालसहितं ततः सलोकमिमम् । पश्यति युगपत्सर्वं सालोकं सर्वभावज्ञः ॥ १ ॥” इति तथैवावश्यकाऽनियुक्त्यामपि - "संभिन्नं पासंती लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं । तं नत्थि जं न पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ॥ १ ॥” इति । स च भगवान् केवलज्ञानेन सर्वं जानीत इति सर्वज्ञ उच्यते, केवलदर्शनेन सर्वं पश्यतीति सर्वदर्शी भण्यते, यदुक्तं वाचकमुख्यैः श्रीप्रशमरतौ " कृत्स्ने लोकालोके व्यतीतसाम्प्रतभविष्यतः कालान् । द्रव्य-गुण- पर्यायाणां ज्ञाता द्रष्टा च सर्वार्थैः ॥ १ ॥” इति । सयोगिगुणस्थानकप्रथमसमये महात्मनः केवलज्ञानोपयोगो भवति, द्वितीयसमये केवलदर्शनोपयोगः, तृतीयसमये पुनः केवलज्ञानोपयोगः, चतुर्थसमये केवलदर्शनोपयोगः, एवंक्रमेण ज्ञानदर्शनोपयोगौ परावर्तेते | अथ केवलज्ञानादीनां स्वरूपं किञ्चिदुव्यते - केवलम् = असहायं = मत्यादिज्ञानरहितम्, ज्ञानं = संवेदनम्, केवलं च तज्ज्ञानं चेति केवलज्ञानम्, तच्चानन्तम्, अपर्यवसानत्वादनुच्छेदित्वाच्च । या सर्व जीवाजीवादिद्रव्याणां प्रयोगवित्र लोभवजन्योत्पादव्ययत्रौव्यादिपर्यायाणां भावस्य परिच्छित्तेः कारणं केवलज्ञानं भवति, क्षेत्रादीनामपि द्रव्यत्वात् केवलज्ञानं सर्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भावपरिच्छेदकं भवति । इत्थं च ज्ञेवस्या - Sऽनन्त्यात् केवलज्ञानमप्यनन्तं सुनिश्चितं भवति । तच्च शाश्वतमप्रतिपाति च, तत्र शश्वद् भवं शाश्रतम्, सदोपयोगवदित्यर्थः, प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति, न प्रतिपाति = अप्रतिपाति, सदा ऽवस्थायीत्यर्थः । उक्तं चागमे - "तं चेव केवलणाणं सव्वदव्वाणं परिणामस्स सव्वभावाणं च परिणामस्स विन्नत्तिकारणं भवति, एगगहणे तज्जातोयाणं सव्वेसिंति काऊण दव्वभावग्गहणेण सव्वखेत्तपरिणामस्स सव्वकालपरिणामस्स य दोन्ह वि विन्नत्तिकारणं भवति । जम्हा य सव्वदव्व- खेत्त-काल- भावाणं चउण्ह वि सव्वपरिणामाणं विन्नतिकारणं भवति । अतो तं केवलणाणं अनंतं दट्ठव्वं ति । तत्थ दव्वपरिणामो णाम- दव्वं दुविहं भवति । तं जहा जीवदव्वं अजीवदव्वं च, Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] . खवगसेढी [ गाथा-२३० तस्स दुविहस्सावि दव्वस्स जो उप्पायट्ठितिभंगेहिं पजायभावो सो दव्वपरिणामो भन्नति, तत्थ खेत्तगहणेण आगासथिकायस्स गहणं कयं, तस्स खेत्तपरिणामो परपच्चइओ पोग्गलत्थिकायादिणो दव्वे पडुच्च भवतीति तत्थ कालपरिणामो णाम समयावलियमुहुत्तादी अणेगभेदो भवति, भावपरिणामो णाम एगगुणकालादो अणेगभेदो दट्टव्वो त्ति । एतेसिं चउण्ह वि दव्व-खेत्त-काल-भावाणं जो परिणामो, तस्स सव्वपरिणामस्स विन्नत्तिकारणमणतं केवलणाणं भवतीति । तत्थ विन्नत्तिकरणं विन्नत्तिकारणं वा, जाणितव्वगसामत्थजुत्तं ति वा, विन्नत्तिहेउभूयं ति वा एगठा, जहा य केवलणाणं भवति, तहा सासतं अपउिवादो एगविहं च भवति । तत्थ एगविहं णाम आभिणिबोहियनाणादिभेदविउत्तं ति वुत्तं भवति ।” इति । एवं केवलदर्शनमपि प्रतिपादनीयम् । न च ज्ञानदर्शनयोरेकतरोपयोगेन सकललोकालोकप्रत्यक्षसंभवेऽन्यस्य वैयापत्तिरिति वाच्यम् , आगमग्रन्थेधूपयोगद्वयस्य ज्ञानदर्शनलक्षणस्य क्रमेण प्रतिपादितत्वात् । उक्तं च केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठी हिऽणंताहिं ॥१॥” इति । अनन्तवीर्यस्योपलक्षणत्वाद् अनन्तदान-लाभ-भोगोपभोगलब्धय आविर्भवन्तीत्युपलक्ष्यते, दानान्तरायाणां संक्षीणत्वात् ।। ईर्यापथिककर्मबन्धस्तु क्षीणकपायवद् भवति । अर्हद्भक्तिप्रमुखविंशतिपुण्यस्थानविशेषाऽऽराधनाद् येन प्राक् तीर्थकुन्नामकर्म समुपार्जितम् , तस्य निरुक्तनामकर्मण उदयो भवति, तदुदयाच भूमिमस्पृशन् कनककमले स्वपादौ निदधत् सुरासुरनरेन्द्रः स्तूयमानश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितो-ऽष्टमहाप्रतिहार्यश्रीयुक्तः पृथ्वीतले धर्मतीर्थं प्रवर्तयन् सद्देशनाभिश्च तीर्थकन्नामकर्म वेदयन् विहरति । उक्त च गुणस्थानकक्रमारोहे “स सर्वातिशययुक्तः, सर्वामरनरैर्नतः । चिरं विजयते सर्वोत्तमं तीर्थं प्रवर्तयन् ॥१॥ वेद्यते तीर्थकृत्कर्म, तेन सद्देशनाभिः । भूतले भव्यजीवानां प्रतिबोधादि कुर्वता ॥२॥” इति । सयोगिगुणस्थानकप्रथमसमये तीर्थकृत्कर्मण उत्कृष्टस्थित्युदयोदीरणे भवतः ॥२३०॥ अथ त्रयोदशगुणस्थानकस्य कालं गुणश्रेणिं च प्रदर्शयितुकाम आह Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयोगिकेवलिनः कालः ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः हस्सो भिन्नमुत्तं जेट्टो सूपुव्वकोडी से । कालो अवट्टिया गुणसेढी आयोजिकाअ परि ॥२३१॥ ह्रस्वो भिन्नमुहूर्त ज्येष्ठो देशो न पूर्वको टिस्तस्य । कालो - sवस्थिता गुणश्रेणिरायोजिकायाः परि || २३१|| इति पदसंस्कारः । 'हस्सो' इत्यादि, ‘ह्रस्वः' जघन्यो 'भिन्नमुहूर्तम्' अन्तर्मुहूर्तम् 'ज्येष्ठः' उत्कृष्टो 'देशोनपूर्वकोटिः' साधिकाऽष्टवर्ष न्यूनपूर्वकोटिवर्षप्रमाणो भवति । कः? इत्याह- 'से कालो' त्ति 'तस्य' लब्धसयोगी गुणस्थानस्य कालः । भावार्थ: पुनरयम् - यथा- पूर्वकरण गुणस्थानकवर्ती जघन्यत एकसमयं संयतत्वेन स्थित्वा पञ्चत्वं गच्छति, न तथा प्राप्तसयोगिगुणस्थानकः, किन्तु जघन्यतो ऽन्तमुहूर्तं योगित्वेन स्थित्वा - योगिगुणस्थानकं सम्प्राप्य निर्वाणमेति । तेन सयोगिगुणस्थानकस्य जघन्यकालोऽन्तर्मुहूर्तं भवति । यः पूर्वकोटियुको सप्तमासा ऽभ्यधिकवर्षाष्टके प्राप्तसंयमः क्षपकश्रेणिमारोहति, सोऽन्तमुहूर्त कालेन सयोगिगुणस्थानकं समासाद्योत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटिवर्षाणि तत्र तिष्ठति, ततः शैलेशीं प्रतिपद्य निःश्रेयसमश्नुते । एवं सयोगिगुणस्थानकस्योत्कृष्टकालः साधिकवर्षाष्टकन्यूनपूर्वकोटिवर्षप्रमाणो लभ्यते । [ ४४७ सम्प्रति सयोगिगुणस्थानके गुणश्रेणि प्रपञ्चयति- 'अवडिया' इत्यादि, 'अवस्थिता' प्रदेशाग्रमाश्रित्य कालं च प्रतीत्याऽवस्थिता गुणश्रेणिर्भवति । किं सर्वत्र सयोगिगुणस्थानके -ऽवस्थिता गुणश्रेणिर्भवति ? इति चेत्, न किं तर्हि ? इत्याह-- ' आयोजिकाअ परि' त्ति 'आयोजिकायाः परि' परिशब्देन वर्ज्यवर्जकभावसम्बन्धो द्योत्यते । तेन आयोजिकाशब्दात् "पर्यपाभ्यां वर्ज्ये” (सिद्धहेम०२-२-७१ ) इत्यनेन सूत्रेण पञ्चमी विभक्तिः, आयोजिकां वर्जयित्वेत्यर्थः, वक्ष्यमाणाऽऽयोजिकाकरणात् प्राक् सर्वत्र सयोगिगुणस्थानके गुणश्रेणिरवस्थिता भवतीति फलितार्थः । इदमत्र हृदयम् - सयोगिकेवलिगुणस्थानकप्रथमसमयतः प्रभृति क्षीणकषायगुणस्थानकगुणश्रेग्यपेक्षया संख्येयगुणहीनः सयोगिकेवलिगुणश्रेणिनिक्षेपो भवति । स चा ऽवस्थितः, पूर्वपूर्वसमये क्षीणे उपर्युपरि वर्धनात् । तदेवं कालतो ऽवस्थिता गुणश्रेणिः । तथा सयोगिप्रथमसमये क्षीणकपायगुणश्रेण्यां परिणमनाय गृहीतदलतो ऽसंख्येयगुणं दलं गृह्णाति, छद्मस्थपरिणामतः केवलिपरिणामानां विशुद्धतमत्वनेव क्षीणकषायगुणश्रेणितः सयोगिगुणस्थानकगुणश्रेणेः शास्त्रे - संख्येयगुणत्वप्रतिपादनात् । दलच गृहीत्वा गुणश्रेणिशिरो यावदसंख्येयगुणक्रमेण प्रक्षिपति । द्वितीयसमयेऽपि तावदेव दलं गृहीत्वा गुणश्रेणिशिरो यावदसंख्येयगुणक्रमेण दलं प्रक्षिपति, परिणामानामवस्थितत्वात् । एवं प्रतिसमयं देवदलं गृहीत्वा गुणश्रेणिशिरो यावदसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपति । एवं गुणश्रेण्यर्थं प्रतिसमयं दलिकमवस्थितं तावद् गृह्णाति, यात्रदायोजिकाकरणं नारभते । तेन दलिका ऽपेक्षया सयोगिगुणस्थानगुणश्रेणियोजिकाकरणतः प्रागवस्थिता भवति ॥२३१॥ नवयोजिकाकरणं कदा करोति ? इत्यत आह Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] खरगसेढी [गाथा-२३२-२३३ आयोजिगाकरणमाउगम्मि अंतोमुहुत्तसेसम्मि । करए अहवा आवस्सयकरणमवस्सकरणं वा ॥२३२॥ आवजियकरणं वा-ऽऽवज्जीकरणं तओ समुग्घायं । कुणए जस्साउत्तो तईआईइं पहूआई ॥२३३॥ आयोजिकाकरणमायुष्यन्तमुहूर्तशेषे । करोत्यथवा-ऽऽवश्यककरणमवश्यकरणं वा ।।२३२।। आवर्जितकरणं वा-ऽऽवर्जीकरणं ततः समुद्घातम् । करोति यस्यायुस्तस्तृतीयादीनि प्रभूतानि ।।२३३।। इति पदसंस्कारः । 'आयोजि०' इत्यादि, तत्रा-ऽन्तमुहर्तशेष आयुष्यायोजिकाकरगं करोति, अयम्भावःसर्वोऽपि केवली भगवान् जघन्यतोऽन्तमुहूतकालमुत्कृष्टतश्च देशोनपूर्वकोटिवर्षप्रमाणं कालं विहृत्य स्वायुष्यन्तमुहूर्तमात्र शेष आन्तमा हर्तिकमायोजिकाकरणमुदयावलिकायां कर्मपुद्गलनिक्षेपव्यापाररूपमुदीरणाविशेषात्मकमारभते । इयमत्र व्युत्पत्तिः-आ-मर्यादया योजनं-केवलिदृष्टया शुभानां योगानां व्यापार इत्यायोजिका, “भावे” (सिद्धहेम०५-३-१२२) सूत्रेण भावे णकप्रत्ययः, आयोजिकायाः करणमित्यायोजिकाकरणम् । उक्तं च श्रीमन्मलयगिरिपादैः-"इह सर्वोऽपि सयोगिकेवली समुद्घातादर्वाक आयोजिकाकरणमान्तमु हर्तिकमुदयावलिकायां कर्मपुद्गलप्रक्षेपव्यापाररूपमुदोरणाविशेषात्मकमारभते । अथ आयोजिकाकरणमिति कः शब्दार्थः ? उच्यते, आङ् मर्यादायाम्, आ-मर्यादया केवलिदृष्टया योजनं व्यापारणं, शुभानां योगानामिति गम्यते, आयोजिका, तस्याः करणमायोजिकाकरणम् । इति । 'अहवा' इत्यादि, अथवाशब्दो मतान्तरयोतकः, अथवा-ऽन्ये प्राहुः-स्वायुष्यन्तमुहूर्तशेषे केवली भगवान् आवश्यककरणं करोतीति । कः शब्दार्थः ? उच्यते-अवश्यंभावः आवश्यकम् , “चोरादेः” (सिद्धहेम०७.१-७३) इति सूत्रेण भावे अकञ्चत्ययः, आवश्यकेन अवश्यंभावेन करणमित्यावश्यककरणम् , यथा लोके साटकेन कक्षां बद्ध्वा ततः परं कृतावश्यककक्षावन्धकरणो योद्धमुपक्रमते तथा-ऽन्तमुहूर्तायुःशेषेण सर्वकेवलिना सिध्यता प्रथममेवेदं करणमवश्यं कर्तव्यमित्यावश्यककरणम् । यदुक्तमावश्यकचूर्णी-"सर्वे च भगवन्तः केवलिनस्तीर्थकराश्च नियमादावश्यकरणं कुर्वन्ति ।” इति । 'अवश्यकरणं वा' वाशब्दो मतान्तरद्योतकः, एवमग्रऽपि, अवैके भणन्ति-सयोगीकेवली भगवानन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुषि शेषे-ऽवश्यकरणं करोतीति,सर्वकेवलिभिःसिद्धयद्भिरवश्यंक्रियमाणत्वादवश्यकरणमिति व्यपदिश्यते, अवश्यंक्रियत इत्यवश्यकरणमिति व्युत्पत्तेः। अभ्यधायि चाऽऽ-वश्य Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयोजिकाकरणादिनिरूपणम् ] [ ४४९ कचूर्णी - "स्वोपात्तमनुष्यायुषोऽन्तःप्रक्षयवशाद् भुक्तस्याऽन्तर्मुहूर्तशेषे सिध्यत्पर्यायाभिमुखा अवश्यकरणं कुर्वन्तोति । कथमिदमवश्यकरणमिति प्रश्ने, प्रदश्यतेअन्वर्थत्वादवश्यकरणसंज्ञायाः भास्करवत्, अवश्यकरणीयत्वादवश्यकरणम् । कथमियमन्वर्थेति दश्यते - अर्थमनुगता या संज्ञा सा ऽन्वर्था, अर्थमङ्गीकृत्य प्रवर्तत इत्यर्थः । कथम् ? इह यथा भास्करसंज्ञा अन्वर्था, कथमन्वर्था ? भासं करोतीति भास्करः इति यो भासनार्थः, तमङ्गीकृत्य प्रवर्तते इत्यन्वर्था, तथा - ऽवश्यकरणमिति इयं संज्ञा अन्वर्था, कथमिति चेत्, ब्रूमहे अवश्यंक्रियते इत्यवश्यकरणं इति योऽवश्यकरणार्थोऽवश्यकर्तव्यता, तमङ्गीकृत्य प्रवर्तते, यस्मात्, तस्मात् सर्वकेवलिभिः सिद्ध्यद्भिरवश्यं क्रियमाणत्वादवश्यकरणमित्यन्वर्थसंज्ञासिद्धिः ।" इति । सयोगिगुणस्थानाद्वाधिकारः 'आवज्जि०' इत्यादि, तत्र 'वा' अथवा परे भणन्ति- 'आवर्जितकरणं' करोतीति । नन्वावर्जितकरणं कुतो व्यपदिश्यते ? इति चेत्, उच्यते - आवर्जितस्य - तथाभव्यत्वेन मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं शुभयोगव्यापारणमित्यावर्जितकरणम् । यदवादि कषायप्राभृतचूर्णो - "अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्धादं करेदि । " इति । तथैवावश्यकवृत्तावपि - "केचिदावर्जितकरणमित्याहुः । अयं शब्दार्थः - आवर्जित:अभिमुखीकृतः । आवर्जितस्य तथाभव्यत्वेन मोक्षगमनं प्रति अभिमुखीकृतस्य करणं-क्रिया-शुभयोगव्यापारणम् आवर्जितकरणम् ।" इति । 'आवजकरणम्' काकाक्षिगोलकन्यायेन वाशब्दोऽत्राऽऽपि सम्बध्यते, वा = अथवा विशेषावश्यक भाष्यकारादयो हरिभद्रसूरिपादादयश्च भणन्ति - केवली भगवानन्तर्मुहूर्त मात्र आयुषि शेष आवर्जीकरणं करोतीति । उक्तञ्च भाष्यकृद्भिः " तत्थाज्य से साहियकम्मसमुग्धायणं समुग्धाओ । तं गन्तुमणो पुव्वं आवज्जीकरणमभेइ || १ ||" इति । एवं श्रीमद्हरिभद्रसूरिपादैरप्यावश्यकवृत्तौ - "इह समुद्घातं प्रारभमाणः प्रथममेवा - Ssaर्जीकरणमभ्येति ।" इति । नन्वावर्जीकरणं कुतो व्यवह्रियते ? इति चेत्, भण्यतेआवर्जनम् = आवर्ज:, आपूर्वकाद् वर्जिधातोर्भावे घञ्प्रत्ययः, आत्मानं प्रति मोक्षस्याऽभिमुखीकरम् - आत्मनो मोक्षं प्रत्युपयोग इत्यर्थः, मयाऽधुनेदं कर्तव्यमित्येवंरूपः, यद्वा आवर्ज्यते-अभिमुखीक्रियतेऽनेनेत्यावर्जः, उदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपो व्यापार इत्यर्थः, यदुक्तं भाष्यकृद्भिःआवज्जणमुवओगो वावारो वा तदत्थमाईए । अंत्तोमुहुत्तमेत्तं काउं, कुरुए समुग्धायं ॥ १ ॥” इति । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] aareer [ गाथा- २३२-२३३ आवय वा यण्प्रत्ययान्तशब्दः, तदर्थस्तु मोक्षं प्रत्यभिमुखीकर्तव्य इति, अनावर्जस्याssनावर्ण्यस्य वाssवर्जस्याऽऽवर्ज्यस्य वा करणम् अभूततद्भावविवक्षायां "कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्त्व च्विः (सिद्धम० ७-२-१२६ ) इत्यनेन चित्रप्रत्यये सत्यावर्जीक - रणमिति । नन्वावर्जीकरण शब्दव्युत्पत्त्यवसरे आवर्जः = उदद्यावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपव्यापार इत्युक्तम्, तच्चा-ऽयुक्तम्, आवर्जीकरणात्पूर्वमप्युदीरणायाः प्रवर्तमानत्वेनोदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपव्यापारस्य पूर्वमपि प्रवृत्तत्वेन विशेषाभावादिति चेत्, उच्यते - सत्यमेतद्, किन्त्वावर्ज किरणात्पूर्वं या प्रदेशोदीरणा भवति सा स्तोका भवति, आवर्जीकरणे त्वधिका । कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यतेकर्मप्रकृतिचूर्णिकारैस्तीर्थकुन्नामकर्मणो जघन्य प्रदेशोदीरणा ऽऽवजीकरणात् प्राग् दर्शिता । अक्षराणि त्वेवम् - "तित्थकरनामाए पढमसमते केवलिमादिकाउं जाव आजोजोकरणस्स अकारगो ताव जहण्णपदेसुदोरणा ।" इति । तेन ज्ञायते - आवर्जीकरणे प्रदेशोदीरणा विशिष्टा जायत इति । ततश्रोदयावलिकायां कर्मक्षेपरूपव्यापारस्य पूर्वं सच्चे ऽप्यावर्जीकरणावस्थायां शुभयोगव्यापारविशेषेण विशिष्टप्रदेशोडीरणायाः सद्भावात् समस्ति विशेषोऽत्र । अस्ति च सयोगिकेवलिनो ऽपि विशुद्धितारतम्यहेतुः शुभयोगव्यापारविशेतः । न च सयोगिकेवल्यादीनां वीतरागाणामेकस्यैव संयमस्थानस्य तत्र तत्र प्रतिपादनादावर्जीकरणे विशुद्धितारताम्यमसिद्धमिति वाच्यम्, संयमस्थानस्यैकत्वेन तदाश्रितविशुद्धितारताम्यस्याभावेऽपि शुभयो गव्यापारविशेषाधीनस्य तस्याऽक्षतत्वस्याऽभ्युपगमनीयत्वात् सयोगिकेवलिनो हि विशुद्धेः सदैकरूपत्वाऽभ्युपगमे तु तच्चरमसमये मनुष्यगत्यादीनां द्वाषष्टिप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशोदीरणा नोपपद्येत, अपि तु सर्वदैव सयोग्यवस्थायां सम्पद्येत, विशुद्धेरविशेषत्वाभ्युपगमात् । तच्च नेटम् यतो विशुद्धिविशेषमाश्रित्य सयोगिकेवलिचरमसमय एव मनुष्यगत्यादीनामुत्कृष्टप्रदे शोदीरणा तत्र तत्र प्रतिपाद्यते । तथा चोक्तं श्रीकर्मप्रकृतिवृत्तौ - "सयोगोकेवली 'अन्ते' - चरमसमये, उदीरको यासां ता योग्यन्तोदोरकास्तासां - मनुजगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकसप्तकतैजससप्तकसंस्थानपट्कप्रथम संहननवर्णादिविशत्यगुरुलधूपघातपराधातविहायोगतिद्विकत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येक स्थिरा स्थिर शुभाशुभसुभगादेययशः कीर्त्तिनिर्माणतीर्थकरोच्चैत्राणां द्विषष्टिसंख्यानां प्रकृतोनां सयोगिकेवली चरमसमये उत्कृष्टप्रदेशोदीरकः । तथा केवलिनः स्वरद्विकप्राणापानयोः 'निजकान्ते' - स्वस्वनिरोधकाले उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा । तथाहि स्वरनिरोधकाले सुस्वरदुःस्वरयोः, प्राणापाननिरोधकाले च प्राणापाननाम्न उत्कृटा प्रदेशोदोरणा । इह सर्वकर्मणामुत्कृष्टप्रदेशोदीरणायामेषा परिभाषा - यो यः स्वस्वोदोरणाधिकारी, स तस्य कर्मणः सर्वविशुद्ध उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणास्वामी वेदितव्यः।” इति । तदेवं सयोगिनो 3 , Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवर्जीकरणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४५१ विशुद्धितारतम्यहेतोः शुभयोगव्यापारविशेषस्य सिद्धौ शुभयोगव्यापारविशेषादावर्जीकरणे विशिष्टा प्रदेशोदीरणा निराबाधा सिध्यति । ततश्च युज्यत एव निरुक्त आवर्जशब्दार्थः । नन्वेवं ताव करणं कुर्वन्नुदयावलिकायां कर्मदलं क्षपति, ततश्चैवा-ऽऽयुषा सह समानानि शेषकर्माणि भविष्यन्ति, किं वक्ष्यमाणेन समुद्घातेनेति वाच्यम् , आवर्जीकरणे विशिष्टप्रदेशोदीरणासद्भावे-ऽपि तादृशविशिष्टस्थितिघातादीनां समुद्घातेन विना-ऽनुपपत्तेः । इदं चा-ऽऽवर्जीकरणमान्तमुहृर्तिकं भवति, यदुक्त श्रीप्रज्ञापनासूत्रे-“कइसमइए णं भंते ? गोयमा ! असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए आउन्जीकरणे पन्नत्ते ।” इति ।। न च प्रज्ञापनादिष्वावर्जीकरणस्य कालोऽभिहितः, किन्तु य आचार्या आयोजिकाकरणादिकं करोतीति अवते, तेषां मतेना-ऽऽयोजिकाकरणादिकालः कियद्भवति ? इति न निश्चीयत इति वाच्यम् , शब्दभेदेन भेदेऽप्यर्थभेदाऽभावात् । न च "तं गंतुमणो पुव्वं आवज्जीकरणमब्भेइ ।” इति वचनात् केवलिसमुद्घातकारिण एव जीवस्या-ऽऽवर्जीकरणं भवति, न त्वन्येषां जीवानामिति समस्त्यर्थभेदोऽपीति वाव्यम्, तादृशवाक्यानां तादृशनियमपरत्वे मानाऽभावात् , प्रत्युत-ननु यदि सर्वोऽपि केवल्यावर्जीकरणं कुरुते, तर्हि समुद्घातस्य कारकः किं पूर्वमावर्जीकरणं कुरुते, उत समुद्घातमित्याशङ्काव्युदासाय समुद्घातात् प्रागावर्जीकरणं करोतीति नियमप्रदर्शनपरत्वस्य तादृशवाक्यानां समर्थनीयत्वात् । निरुक्तकरणप्रथमसमये नाम-गोत्र-वेदनीयानां प्रदेशाग्रमुत्कीर्योदयनिषेके स्तोकं निक्षिपति । ततो द्वितीयनिषेके-ऽसंख्येयगुणं प्रदेशाग्र प्रक्षिपति । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावत् शेषसयोगिगुणस्थानकाला-ऽयोगिगुणस्थानकालतो विशेषाधिके काले गुणश्रेणिशिरः प्राप्यते । अयं च गुणश्रेणिनिक्षेपः प्राक्प्रतिपादितसयोगिगुणश्रेणिनिक्षेपतः प्रदेशाग्रमाश्रित्या-ऽसंख्येयगुणम् , कालं प्रतीत्य पुनः संख्यातगुणहीनो भवति, यतः सयोगिगुणश्रेणितो-ऽयोगिगुणश्रेणिः प्रदेशानश्रित्या-ऽसंख्येयगुणा, कालं प्रतीत्य पुनः संख्यगुणहीना भवति । गुणश्रेणिशिरस्तः परमुपरितन एकस्मिन्निषेकेऽसंख्यातगुणं दलं प्रक्षिपति, तत उर्ध्व विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । एवमयोगिगुणस्थानकस्य गुणश्रेणिं निरुक्तकरणकाले विरचयति, अयोगिगुणस्थानके तु केवलं प्रतिसमयमसंख्येय गुणं निर्जरयति । यदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ श्रीमडरिभद्रसूरिपादैः-तेषु च शैलेषोसमयेषु 'पुव्वरइयं चणं कम्मं तिआउज्जोकाले चेव गुणसेढो करेति।" इति । उक्तकरणं विधाय केवलिसमुद्घातमारभते, तं विवर्णयिषुराह-'तओ' इत्यादि, 'ततः' उक्तकरणसम्पादनानन्तरं सयोगिकेवली समुद्घातं करोति, कः ? इत्याह-'जस्सा०' इत्यादि, यस्य सयोगिकंवलिनः 'आयुष्टः' आयुष्ककर्मतः तृतीयादीनि' वेदनीयादीनि कर्माणि 'प्रभूतानि' अधिकस्थितिकानि भवन्ति, स समुद्घातं करोति, न त्वायोजिकाकरणवत् सर्वे Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] arrat [ गाथा--२३२-२३३ केवलिनः । ननु समुद्धात इति कः शब्दार्थः ? इति चेत्, उच्यते-सम्यक् = अपुनर्भावेन उत् = प्राबल्येन घातो - वेदनीयादीनां कर्मणां हननं विनाशो यस्मिन् प्रयत्नविशेषे, स सद्घात इत्युच्यते, अथ व्युत्पच्यन्तरं दर्श्यते - सं= सामस्त्येन उत्- प्राबल्येन घातो - हननं शरीराद् बहिर्जीव प्रदेशानां निस्सारणमिति समुद्घातः, “हनंकू हिंसागत्योः" इति हनुधातोर्गत्यर्थकत्वाद् निस्सारणस्य चाऽपि गतिविशेषत्वात् । अयं भावः - प्रभूतस्थितिकस्य वेदनीयादेरायुषा सह समीकरणार्थं जीवप्रदेशानामूर्ध्वमधस्तिर्यक् शरीराद् बहिर्निस्सारणं समुद्धात उच्यत इति यावत्, यथा चा-ऽऽर्द्राशाटिका विस्तारिता सती क्षिप्रं शुभ्यति, तथैव विस्तारितानां जीवप्रदेशानां कर्मोंदकं शीघ्रं शुष्यति, यदुक्त श्रीभद्रबाहुस्वामिभिः " नाऊण वेअणिजं अइबहुअं आउअं च थोवागं । गंतॄण समुग्धायं खवंति कम्मं निरवसेसं ॥१॥ जह उल्ला साडोआ आसु सुकइ विरल्लिआ संती | तह कम्मलहुअसमए वच्चंति जिणा समुग्धायं || २ ||" इति । तथैवाssवश्यकचूर्ण्यमपि - " सिग्धं कम्मं खविज्जति तो समुग्धाओ समो आयुषो कर्मणां उद्घातः समुद्घातः सव्वे जीवपदेशे विसारेति ।" इति । एवम न्यत्राऽप्युक्तम् "आयुषि समाप्यमाने शेषाणां कर्मणां समाप्तिः । न स्यात् स्थितिवैषम्याद् गच्छति ततः समुद्घातम् ॥ १॥ स्थित्या च बन्धनेन च समोक्रियार्थं हि कर्मणां तेषाम् । अन्तर्मुहूर्तशेषे तदा-SSयुषि समुज्जिघांसति सः ॥ २ ॥ आर्द्र विरल्लितं सद् वस्त्रं मङ्क्ष्वेव ननु विनिर्वाति । संवेष्टितं तु न तथा, तथा हि कर्मणां मूर्त्तत्वात् ॥ ३ ॥” स्नेहक्षयसाम्यात् ( स्थितिबन्धहेतुर्हि) स्नेहः स च होयते समुद्घातात् । क्षीणस्नेहं शटति हि, भवति तदल्पस्थिति च शेषम् ॥४॥ आयुष्कस्याऽपि विरल्लितस्य न हास्यते स्थितिः कस्मात् । इति वा चोयं चरमशरीरोऽनुपक्रमायुर्यत् कङ्कटुकवत् ॥५॥” इति । येषां महात्मनामायुष्ककर्मतो वेदनीयमधिकस्थितिकं भवति, ते नियमात् समुद्घातं कुर्वन्ति, येषां पुनरायुष्ककर्मणा सह स्वभावत एव समस्थितिकानि वेदनीयादिकानि कर्माणि जायन्ते, ते समुद्घातं न कुर्वन्ति । न्यगादि चाssवश्यकचूर्णौ - " येषां बहु सदेयमस्ति, आयुचाल्पमवतिष्ठते, ते नियमात्समुद्घातं कुर्वन्ति नेतर इति । ” अतीतकालेऽनन्त केत्रलिनः समुद्घातमकृत्वा सिद्धिं प्राप्ताः, यदुक्तं प्रज्ञापनासूत्रे - Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगगुणस्थानाद्धाधिकारः जस्साउएणतुल्लातिं बन्धणेहिं ठितीहि य । भवोवग्गहकम्माई समुग्धायं से ण गच्छइ ॥ १ ॥ तूर्णं समुग्धातं अनंता केवलो जिणा । जरमरणविप्पमुक्का सिद्धिं वरगई गया ||२||" इति । अत्र बध्यन्त इति बन्धनानि "भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने " (मिद्धहेम ०५-३-१२८) इत्यनेन कर्मणि अनप्रत्ययः, कर्मपुद्गला इत्यर्थः, तैः, शेषं सुगमम् । उक्तश्च वाचकमुख्यैरपि-" यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम् । स समुद्घातं गतवानथ गच्छति तत्समोकतु म् ॥ १ ॥” इति । तत्राप्यावश्यकचूर्णिकाराभिप्रायेण येषां महात्मनामन्तर्मुहूर्तात्प्रभृति पण्मास आयुषि शेषे केवलज्ञानमुत्पन्नम्, ते नियमात् समुद्घातमारभन्ते, शेषास्तु विभाषया केचिदारभन्ते, केचिद् नेत्यर्थः यद्वा शेषा ना -ऽऽरभन्त इत्यर्थः । उक्तं चाऽऽवश्यकचूर्णो - "ये ऽन्तर्मुहर्तमादिकृत्वोत्कर्षेण आ मासेभ्यः षड्भ्य आयुषो ऽवशिष्टेभ्यः अभ्यन्तरे आविभूत केवलपर्यायाः, ते नियमात्समुद्घातं कुर्वन्ति, ये तु षण्मासेभ्यः उपरिष्टादाविर्भूतकेवलज्ञानाः शेषास्ते समुद्घातकाद्[समुद्घातकरणाद्] बाह्याः, ते समुद्घातं न कुवन्तोत्यर्थः, अथवा-ऽयमर्थः - शेषाः समुद्घातं प्रति भाज्याः, कस्मात् ? यस्मात् षाण्मासिकाऽवशिष्टे आयुषि आविर्भूतिकेवलज्ञानपर्यायेभ्यः केवलिभ्यः सकाशात् षड्भ्यो मासेभ्यः ये उपरि समयोत्तरवृद्ध्याऽवशिष्टे आयुषि शेषे आविर्भूतकेवलिनः, ते शेषाः समुद्घातं प्रति भाज्याः । केचित्समुद्घातं कुर्वन्ति केचिन्नेति ।" तथैव गुणस्थानकक्रमारोहवृत्तावपि - समुद्घात करणे मतान्तराणि ] "तथैवाऽन्यत्रापि - 'छम्मासाउसेसे, उत्पन्नं जेसिं केवलं नाणं । ते नियमा समुद्घाया सेसा समुग्धाय भइयव्वा ॥ १ ॥ उक्त च मूलाराधनाकारं रवि - "जेसि श्राउसमाई' गामगोदाइ वेदरणीयं च । ते 'अकदसमुग्धादा जिरगा उवरणमंति सेलेसि ॥ १ ॥ जेसि हवंति विसमारिण सामगोदाउवेदरणीयाणि । ते तु कदसमुग्धादा जिरगा उवरणमति सेलेसि ॥२॥ ठिदिसंतकम्मसमकररणत्थं सव्वेसि तेसि कम्मारणं । तोमुत्तसेसे जंति समुग्धादाउम्मि ॥३॥” इति । * उक्तं च मूलाराधनाकारैरपि - " उक्कस्सएर छम्मासाउगसेसम्मि केवली जादा । वच्चति समुग्धादं सेसा भज्जा समुग्धादे ॥१॥" इति । धवलाकारास्तु "यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीरणकषायचरमसमये स्थितेः साम्याभावात् सर्वेऽपि कृतसमुद्घाताः सन्तो निवृत्तिमुपढोकन्ते । येषामाचार्यारगां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित् समुद्घातयन्ति केचिन्न समुद्घातयन्ति ।" इत्याहुः । [ ४५३ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] खवगसेढी [ गाथा-२३२-२३३ गुणस्थानकक्रमारोहग्रन्थे तु___ "यः षण्मासाधिकायुष्को लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा नवा ॥१॥” इत्युक्तम् । तत्त्वमत्र केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । केचिदाहः-जघन्यतो-ऽन्तमुहूर्तमात्र आयुषि शेष उत्कृष्टतः पुनः षण्मासप्रमाण आयुषि शेषे समुद्घातं करोतीति, तन्न समीचीनम्, यतोऽन्तमुहूर्तमात्र आयुषि शेष आयोजिकाकरणं कृत्वा समुद्घातमारभते, तेन समुद्घातप्रारम्भे तस्यायुः षण्मासमात्रं न संभवति । किञ्च भगवताऽऽर्यश्यामेन प्रज्ञापनायामायोजिकाकरणानन्तरं प्रातिहारिकपीठफलकादीनां प्रत्यपर्णमेवोक्तम् , न तु ग्रहणम् , तेना-ऽन्तमुहूर्तमात्रशेषायुष्कः समुद्घातमारभते, न तु पाण्मासिकायुकः । यदि षट्सु मासेसु शेषेसु समुद्घातमारभेत, तर्हि षट्सु मासेसु कदाचिदपान्तराले वर्षाकालसम्भवात् तनिमित्त पीठफलकादीनामादानमप्युपपद्यत, न च तत्सूत्रसम्मतमिति कृत्वोत्कृष्टतः पग्मासेषु शेषेसु समुद्घातं करोतीति मतं निरस्तम् । उक्त च भाष्यकारैः कम्मलहुआए समओ भिन्नमुहुत्तावसेसओ कालो। अन्ने जहन्नमेयं छम्मासुक्कोसमिच्छंति ॥१॥ ततोऽनंतरसेलेसीवयणओ जं च पाडिहारोणं । पच्चप्पणमेव सुए इहरा गहणं पि होजाहि ॥२॥” इति । इह कर्मलघुतानिमित्तं समुद्घातस्य समयः अवसरो भिन्नमुहूर्तावशेष कालः, शेष सुगमम् ॥ ननु प्रभूतस्थितिकस्य वेदनीयादेरायुषा सह समीकरणार्थं समुद्घातारम्भ इति भवता यत् प्रोक्तम् , तदयुक्तम् , कृतनाशादिदोषप्रसङ्गात् । तद्यथा-प्रभूतकालोपभोग्यस्य वेदनीयादेः स्तोकेन कालेना-ऽपगमसम्पादनात् कृतनाशः, तथोपगमे च वेदनीयादिवच्च कृतस्या-ऽपि कर्मक्षयस्य पुनर्विनाशसम्भवेन मोक्षे-ऽपि कर्मोत्पत्त्या ततः पुनश्च्युतिः प्रसज्येतेति चेत्, न, कृतनाशादिदोषा-ऽप्रसङ्गात्, तथाहि-यथा प्रतिदिवसं सेतिकापरिभोग्येन वर्षशतपरिभोग्यस्य कल्पिताहारस्य भस्मकव्याधिना तत्सामर्थ्यतः स्तोकदिवसैनिशेषतः परिभोगान कृतनाशोपगमः, तथा कर्मणोऽपि वेदनीयादेस्तथाविधशुभाध्यवसायानुबन्धादुपक्रमेण साकल्यतो-ऽनुभवान्न कृतनाशलक्षणदोषः प्रसज्यते । द्विविधो हि कर्मणो-ऽनुभवः, प्रदेशतो विपाकतश्च । तत्र प्रदेशतः सकलमपि कर्मा-ऽनुभूयते, न तदस्ति किञ्चित्कर्म, यत्प्रदेशतो-ऽप्यननुभूतं सत् क्षयमुपयाति, ततः कथं कृतनाशदोषापत्तिः ? अत्र क्षयो नाम बन्धपरिणामेन जीवप्रदेशैः सह परिणतानां कर्मपुद्गलानां बन्धप्रतिपक्षमोक्षपरिणामैः प्रक्षिप्यमाणानां तेषां जीवप्रदेशतो निमूलतो-ऽपगमनम्, सर्वथा नाशस्तु Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५५ कृत नाशादिदो प्रतिविधानम् ] सयोगिगुणस्थानाद्वाधिकारः ना-ऽभ्युपगम्यते स्याद्वादवादिभिः, जीवप्रदेशतः पृथग्भूतानामकर्मस्वरूपेण परिणतानामपि कर्मपुद्गलानां पुगलस्वरूपेण परिक्षया-ऽनुपलम्भात् “ना-ऽसतो विद्यते भावो, ना-भावो विद्यते सतः” इतिन्यायात् । तेन यथा मणेर्मलादेावृत्तिः क्षय इति व्यपदिश्यते, तथैवाऽऽत्मप्रदेशतः कर्मणामपगमनं क्षय इति परिभाष्यते। स च क्षयः प्रदेशतो विपाकतश्च भवति । विपाकतः कर्मणोऽनुभवस्तु भजनीयः, किश्चित्कर्म विपाकतो-ऽनुभृतं सत् क्षयमुपगच्छति, किश्चित्पुनः विपाकतो-ऽननुभूतमेव, अन्यथा मोक्षा-ऽभावः प्रसज्येत । तथाहि-यदि विपाकानुभवत एव सर्वकर्मदलं परिक्षपणीयमिति नियमः स्यात्, तयसंख्यातेषु भवेषु तथाविधविचित्रा-ऽध्यवसायविशेपर्यन्नरकगत्यादिकं कर्मोपार्जितम् , तस्य नकस्मिन् मनुष्यादावेव भवेऽनुभवः, स्वस्वभवनिबन्धनत्वात् तथाविधविपाकानुभवस्य । क्रमेण च स्वस्वभवा-ऽनुगमेना-ऽनुभवे नारकादिभवेषु चारित्राऽभावेन प्रभूततरकर्मसन्तानसञ्चयात्, तस्या-ऽपि च स्वस्वभवा-ऽनुगमेना-ऽनुभवोपगमात् कुतो मोक्षः ? तस्मात् सर्व कर्म त्रिपाकतो भजनयाऽनुभूयते, प्रदेशतः पुनरवश्यमेवा-ऽनुभवनीयमित्यभ्युपगन्तव्यम् , यदुक्त श्रीविवाहप्रज्ञप्तौ-"तत्थ णं जं तं पएसकम्म, तं णियमा वेयइ, तत्थ णं जं अणुभागकम्म, तं अत्थेगइअं वेएइ, अत्थेगइअंणो वेएइ।” इति । एवं च न कश्चिद् दोषः । न च तथापि दीर्घकालभोग्यतया यद् वेदनीयादिकं कर्मोपार्जितम् , अथ च परिणामविशेषादुपक्रमेणा-ऽवागेर तदनुभवति, ततः कथं न कृतनाशदोषप्रसङ्गः ? इति वाच्यम् , बन्धकाले तथाविधा-ऽध्यवसायवशत आदावुपक्रमयोग्यस्यैव बन्धात् , उक्तं च भाष्यकृद्भिः "उदयखयक्खयोवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वादिपंचगं पति जुत्तमुवकमणमत्तो-ऽवि ॥१॥” इति । किञ्च जिनवचनप्रामाण्यादपि वेदनीयादिकर्मणामुपक्रमो मन्तव्यः । न चैवं कर्मक्षयस्योपक्रमहेतुर्येन मोक्षतः पुनश्च्युतिप्रसङ्गः, मोक्षाद्धि प्रच्यावयितु रागादयः समर्थाः, ते च निमूलका कपिता इति भवता यतुक्तं 'तथोपगमे वेदनीयादिवच्च कृतस्याऽपि कर्मक्षयस्य' इत्यादि, न तत्सम्यगुपपन्नमिति स्थितम् ।। ननु यदा वेदनीयादिकमतिप्रभृतं सर्वस्तोकं चा-ऽऽयुष्कम् ,तदा समधिकवेदनीयादिघातार्थं समुद्वातमारभताम् , वेदनीपादिकस्य सोपक्रमत्वात् । यदा त्वधिकमायुष्कं स्तोकञ्च वेदनीयादिकम् , तदा का वार्ता ?, न खल्वायुष्क त्य घालाय समुद्घातः कल्पते, चरमशरीरिणामायुषो निरुपक्रमत्वात्, "चरमसरोरा य निरुवकम्मा ।” इति वचनात् , तदयुक्तम् , एवंविधभावस्य कदाचनाऽप्यभावात् । तथाहि—सर्वदैत्र वेदनीयायेवायुषः सकाशादधिकस्थितिकं भवति, न तु कदाचिदपि वेदनीयादित आयुष्कम् । न च कुतो-ऽयं नियमः, येन वेदनीयादित आयुष्कमधिकस्थितिकं न भवति ? इति वाच्यम् , तथारूपजीवपरिणामस्वाभाव्यात् । इदमुक्तं भवति-यथा-ऽऽयुर्व Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] खवगसेढी [ गाथा-२३२-२३३ र्जानां ज्ञानावरणादिकर्मणां सप्तानां ध्रुवबन्धः, आयुषस्त्वध्रुवबन्धः, सोऽपि नियत एव काले स्त्रभवत्रिभागादिशेषरूपे, उक्तं च "सिय तिभागे सिय तिभागतिभागे।” इति । तत्र बन्धवैचित्र्यनियमे न स्वभावात् परः कश्चिद् हेतुरस्ति, तथैवेहाऽप्यायुपो वेदनीयादितो-5धिकस्थितिकत्वा-ऽभावे स्वभावविशेष एव नियामकः प्रतिपत्तव्यः । इत्थंभूत एवात्मनः परिणामः, येन जीवस्या-ऽऽयुष्कं वेदनीयादिनिस्तुल्यं न्यूनं वा भवति, न कदाचना-ऽप्यधिकम् । ननु कृतकृत्योऽपि सयोगिकेवली भगवान् समुद्घातं करोतीति न युज्यते, कृतकृत्यत्वव्याघातप्रसङ्गादिति चेत् , न, समुद्घातेनैवा-ऽऽयुष्कतोऽधिकस्थितिकानां वेदनीयादीनां कर्मणां क्षपणीयत्वेनैकान्ततः कृतकृत्यत्वा-सिद्धेः । न चैतदनिष्टम् , धर्मदेशनादिनैवोदीर्णतीर्थकृनामकर्मणः क्षपणीयत्वेना-ऽप्येकान्ततो भगवतः कृतकृत्यत्वा-ऽसिद्धेरिष्टत्वात् , यदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये नेगंतेण कयत्थो जेणोदिन्न जिणिंदनाम से। तदवंज्झफलं तस्स य, खवणोवओयमेव जओ॥१॥” इति । रागद्वषराहित्यलक्षणं तु कृतकृत्यत्वं तत्र भगवति निराबाधमेव । ननु वेदनीयादीनां प्रभृतस्थितिकानामायुषा सह समीकरणार्थं समुद्घातारम्भः, तत्र भवतु नाम समुद्घातेन नाम-गोत्रयोः कर्मक्षपणा, तदुदीरणायाः प्रवृत्तत्वात् , वेदनीयस्य तूदीरणा-ऽभावात् कथं युज्येत तत्क्षपणा ? इति चेत्, मैवम् , यतो न केवलमुदीरणयैव कर्मक्षपणा भवति, अपि त्वपवर्तनादिभिरपि । वक्ष्यन्ते च समुद्घातावस्थायां स्थितिघातादयः, न हि वेदनीयस्य स्थितिघातादयो व्यवच्छिन्नाः, तेन भवन्त्येव समुद्घातावस्थायां वेदनीयस्य स्थितिघातादयोऽपवर्तनादिभिः, ततश्च न किञ्चिदनुपपन्नम् । न च यद्यपवर्तनादिमिर्जायमानस्थितिघातादीनाश्रित्य समुद्घातो भण्यते, तीपूर्वकरणादिवपि : समुद्घातव्यवहारः स्यादिति वाच्यम् , विशिष्ट प्रयत्नेन शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशानां यनिस्सारणम् , तत्प्रयोज्यस्य प्रावल्येन घातस्य समुद्घातत्वविवक्षणात् । यत्त प्रज्ञापनावृत्ती समुद्घातशब्दप्रतिपादना-ऽवसरे "प्राबल्यन कथं घात इति चेत्, उच्यते-इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो. बहून् वेदनोयादिकर्मप्रदेशान कालान्तरानुभवयोग्यानुदोरणाकरणेनाकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्या-ऽनुभूय च निर्जरयतीत्युक्तम् , तदपि तत्र वेदनादिसमुद्धातेषु यस्य यस्य कर्मणो घात उदीरणायाः प्रयोजकत्वं सम्भवति, तत्तत्कर्मघाते तद् योज्यम् । विशिष्टप्रयत्नेन शरीराद् बहिनिस्सारणस्य कर्मघातप्रयोजकत्वं तु वेदनादिसर्वसमुद्घातेष्वपि समस्ति, न तत्र कस्यचित् विप्रतिपत्तिः ॥२३२-२३३ ननु यः केवली भगवान् समुद्घातं करोति, स कथं करोति ? इति पृष्टै भणति Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिसमुद्घातनिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४५७ दंड-कवाड-पयर-लोगपूरणाणि कमसो चउखणेसु पढमसमये पएसा वित्थारइ बहुअसंखभागमिआ ॥२३४॥ (गीतिः) दण्ड-कपाट-प्रतर-लोकपूरणानि क्रमशश्चतुःक्षणेषु ।। प्रथमसमये प्रदेशान् विस्तारयति बह्वसंख्यभागमितान् ।।२३४।। इति पदसंस्कारः । 'दंड०' इत्यादि, पूर्वगाथातः' कुणए' इति क्रियापदमनुवर्तते । दण्ड-कपाट-प्रतर-लोकपूरणानि 'क्रमशः' क्रमेण 'चतुःक्षणेषु चतुषु समयेषु करोति समुद्घातगतो जीवः । तद्यथा-प्रथमसमये दण्डं करोति, द्वितीयसमये कपाटम् , तृतीयसमये प्रतरम् , चतुर्थे च समये लोकपूरणं करोति । इदमत्र हृदयम्-प्रथमसमय औदारिककाययोगस्थो बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां दण्डं करोति, अथ दण्ड इति को-ऽर्थः १ दण्ड इव दण्डः । क उपमार्थः ? यथा मूल-मध्या-ऽग्रयूयोधःसमप्रदेशः परिवृत्तपयोयो दण्डो भवति, तथैव समुद्घातकरणवशाध्येमधश्च लोकान्तं प्राप्तानां बाहल्यतः स्वशरीरावगाहनागतानामात्मप्रदेशानां दण्डाकारेणाऽवस्थानाद् दण्डत्वसिद्धिः । द्वितीयसमय औदारिकमिश्रकाययोगस्थः पूर्वपश्चिमदिशोर्दक्षिणोत्तरदिशयोर्वाऽऽत्मप्रदेशानां तिर्यप्रसारणेन लोकान्तगामिनं कपाटं करोति । अथ कपाट इति कोऽर्थः ? कपाट इव कपाटः । अयमुपमार्थः-यथा पूर्वपश्चिमदिशोस्तिर्यग् विस्तीर्णो दक्षिणोत्तरदिशोह्रस्व ऊर्ध्वा-ऽधोदिशयोरुच्छ्रितः, यद्वा-ऽपागुददिशोस्तिर्यविस्तीर्णः प्राग्नत्यग्दिशोह्रस्व ऊर्धा-ऽधोदिशयोरुच्छितः कपाटः शब्धते, तथैव समुद्घातकरणवशात् पूर्वपश्चिमदिशयोदक्षिणोतरदिशोर्वा बाहल्यतः स्वशरीरावगाहनाप्राप्तानामायामतश्चतुर्दशरज्जुषु विस्तृतानां विष्कम्भतश्च लोकान्तं यावद् निर्गतानामात्मप्रदेशानां कपाटाऽऽकारेण दर्शनात् कपाटत्वसिद्धिः । तृतीयसमये कार्मणकाययोगस्थः पूर्वपश्चिमयोदक्षिणोत्तायोदिशोर्वा-ऽऽत्मप्रदेशानां प्रसारणेन लोकान्तप्रापि प्रतरं करोति । अथ च प्रतरमिति को-ऽर्थः ? प्रतरमिव प्रतरम् । अयमुपमार्थः-यथा घननिचितनिरन्तरप्रचिताऽवयवसंस्थितं परिवृत्तं स्थालक स्फलकं वा लोके प्रतरं भण्यते, तथा समुद्घातकरणवशाद् निर्गतानामात्मप्रदेशानां प्रतरसंस्थानेनाऽवस्थानात् प्रतरत्वं सिध्यति । यदभिहितमावश्यकचूर्णी-“अथ तृतीयसमयेप्रतरं कुर्वन्ति, तत्सामायिकश्च कार्मणकाययोगो भवति । अथ प्रतरमिति कोऽर्थः ? प्रतरमिव प्रतरम् । क उपमानार्थः ? यथा-घननिचितावयवसंस्थितं परिवृत्तं स्थालकं स्फलकं वा लोके प्रतरमित्युच्यते, तथाऽऽकारमपरमपि तथा आकाशमपि] परस्परप्रदेशसंसर्ग()विच्छेदपरिवृत्तपर्यायेणा-ऽवस्थितं प्रतरमिति प्रसिद्धम् ।” इति । इदमेव प्रतरं कैश्चिदाचार्य रुचकशब्देन व्यवह्रियते, यदाहुः श्रोतत्त्वार्थवृत्तिकाराः श्रोसिडसेनगणिपादाः-“दण्ड-कपाटक-रुचकक्रिया-जगत्पूरणं चतुःसमयम् ।" इति । अन्यैश्च मन्थानशब्देन व्यपदिश्यते, यदाहुः श्रोहरिभद्रसूरिपादाः-"तृतीयसमये तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्यप्रसारणान्मन्थसदृशं मन्यानं करोति ।" इति । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी . ४५८ ] [ गाथा--२३५ चतुर्थसमये कार्मणकाययोगस्थो लोकपूरणं करोति, प्रतरावस्थायामपूरितान्यवकाशान्तराणि पूरयित्वा केवली सर्वविश्वव्यापी भवति । इह जीवसमासवृत्तौ श्रीमलधारिहेमचन्द्रसूरिपादैराक्षेप-परिहाराभ्यां तृतीयसमये-ऽन्तराणामुद्धरणमित्थं दर्शितम्-"ननु लोकमध्ये स्थितो यदा केवलो समुद्घातं करोति, तदा तृतीये-ऽपि समये लोकः पूर्यते एव, किं चतुर्थसमयेऽन्तरपूरणेनेति, नैतदेवं, लोकस्य मध्यं हि मरुमध्य एव सम्भवति, तत्र च प्रायः समुदघातकर्तुः केवलिनोऽसम्भव एव, अन्यत्र च समुद्घातं कुर्वतस्तस्य तृतीयसमयेऽन्तराण्युडरन्त्येवेति परिभावनोयम् ।” इति । अथ समुद्घातकरणे दण्डादीनि कुर्वतो महात्मनो विधिविशेष प्रदर्शयितुकाम आदौ तावत् प्रथमसमये प्रवर्तमान विधि भणति-'पढमसमये' इत्यादि, 'प्रथमसमये' समुद्घातकरणाऽद्धायाः प्रथमसमये 'बह्वसंख्यभागमितान् प्रदेशान्' असंख्येयभागप्रमाणान् जीवप्रदेशान् स्वशरीरे परित्यज्य शेषान् बह्वसंख्येयभागमितान् जीवप्रदेशान् बाहल्यतः स्वशरीरमान ऊर्ध्वमवश्व लोकान्तगामिनि चतुर्दशरज्ज्वायामे दण्डाकारे 'विस्तारयति' प्रसारयति । यदुक्त.मावश्यकचूर्णी"अथदंडककरणेको विधिरिति प्रश्न महे-इह व्यावहारिकनयवशात् ये असंख्यया जीवप्रदेशाः, ते सर्वेऽपि बुध्या असंख्येया भागाः कृताः, तत्र प्रथमसमये दण्डककाराणामसंख्यया भागा निर्गच्छन्ति, असंख्ययभागोऽवतिष्ठते, ततस्तैरेव असंख्ययैर्जीवप्रदेशभागैः स्वशरोरान्निर्गतहि दंडकमभिनिवर्तयंतः अष्टौ जीवमध्यप्रदेशान् सांततिकपरस्परावियोगिनोरुचकसंस्थितान् चक्रिवैडूर्यपटलयोरुभयो रत्नाद्यवस्थायिषु रुचकसंस्थितलोकमध्यप्रविष्टाष्टाकाशप्रदेशेषु संस्थाप्य चतुर्दशरज्ज्वायतं दंडकं कुर्वन्तीति ।" न च कुतो जीवप्रदेशदण्डस्य स्वशरीरविष्कम्भवाहल्योपेतत्वमेव, न तु तन्न्यूनाऽतिरिक्तविष्कम्भवाहल्ययुक्तत्वमिति वाच्यम् , जीवस्या-ऽनुश्रेणिगमनस्वभावत्वात् । इहा-ऽनुश्रेणिगमनं नाम यास्वाकाशश्रेणिषु जीवोऽवगाढः, ता अपरित्यज्याऽऽत्मनो गमनम् । बह्वसंख्येयभागमात्रजीवप्रदेशान् विस्तारयन्नपि दण्डावस्थायां लोका-ऽसंख्येयभागमात्र क्षेत्रं व्याप्नोति, न त्वधिकम् ॥२३४॥ अथ दण्डं कुर्वतः स्थित्यनुभागयोविनाशं दर्शयति ठिइसंतस्स असंखंसा ठिइखंडेण णासइ रसं तु। घायेइ बहुअणंतंसमितं अणुभागखंडेणं ॥२३५॥ स्थितिसत्त्वस्या-ऽसंख्यांशान स्थितिखण्डेन नाशयति रसं तु ।। घातयति बह्वनन्तांशमितमनुभागखण्डेन ॥२३५।। इति पदसंस्कारः । 'ठिइसंतस्स' इत्यादि, 'स्थितिसत्वस्य' वेदनीयादिकर्मणां स्थितिसत्तायाः 'असंख्यांशान' असंख्येयभागान स्थितिखण्डेन 'नाशयति' विधातयति. वेदनीयादिकर्मणां स्थितेरसंख्येयभागान् कृत्वैकमसंख्येयभागं तत्रैव विमुच्य बह्वसंख्येयभागान् स्थितिखण्डेन घातयतीत्यर्थः । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दावस्थायां रसवातः ] [ ४५९ 'रसं' इत्यादि, रसं त्वनुभागसचस्य बह्वनन्तांशमितमनुभागखण्डेन घातयति । इदमुक्त' भवति-अशुभकर्मणां सत्तागताऽनुभागस्याऽनन्तान् भागान् कृत्वैकानन्ततमभागप्रमितमनुभागं तत्रैव परित्यज्य वह्ननन्तभागमात्र मनुभागमनुभागखण्डेन विनाशयति । यदुक्तमावश्यकचूर्णौ" तस्येदानीं मनुष्याऽवस्थायां या पल्योपमा ऽसंख्येय भागमात्रा कर्मत्रयसत्ककर्मस्थितिरवतिष्ठते, सा बुद्धया असंख्येयभागाः क्रियन्ते, ततः प्रथमसमये दंडक - कारक ( : ) सत्कर्मस्थितेरसंख्येयान् भागान् हन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, यश्चामुष्यामवस्थायां कर्मत्रयानुभवः, स बुद्धया अनन्तभागाः क्रियन्ते, ततोसद्य न्यग्रोध- साति-कुञ्ज- वामन हुंडसंस्थान-वज्रनाराच नाराचाऽर्धनाराच - कोलिका-संप्राप्तपाटिकासंहनना-Sप्रशस्त वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्शोपघाता-S-प्रशस्त विहायोगत्य पर्याप्तकाऽस्थिराऽशुभ- दुभंग- दुःस्वराऽनादेयाऽयशः कोर्त्ति-नोचैर्गोत्रसंज्ञिकानां पञ्चविंशतेरप्रशस्तानां प्रकृतीनां प्रथमसमये दंडककार का ( को ) नुभवस्याऽनन्तान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते ।" इति तथैव कषायप्राभृतचूर्ण्यामप्यशुभप्रकृतीनामनुभाग वातो दर्शितः । अक्षराणि त्वेवम् - "पढमसमए दंडं करेदि । तम्हि ठिदोए असंखेजे भागे हणइ । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि ।" इति । सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकार: आवश्यकचूर्णिकारादयस्तु प्रशस्तानामध्ये कोनचत्वारिंशत्कर्मणामनुभागोऽप्रशस्त प्रकृत्यभागमध्ये प्रवेशेन घात्यत इति मन्यन्ते । तथा च तद्द्व्रन्थः- “ तत्सामयिकमेव सह द्य-मनुष्यदेवगति पञ्चेन्द्रियजातयौदारिक-वैक्रियाSSहारक-तैजस-कार्मणशरीर-समचतुरस्रसंस्थानौदारिक-वैक्रियका--SSहारकशरोराङ्गोपाङ्गवज्रर्षभनाराचसंहनन-प्रशस्तवर्णगन्ध-रस स्पर्श मनुष्यदेवगतिप्रायोग्या - SSनुपूर्व्यगुरुलघु-परावाता - SSतपोद्योतोच्छ्रवास - प्रशस्त विहायोगति त्रस बादर-पर्याप्त - प्रत्येकशरीर स्थिर - शुभ-सुभगसुस्वissदेय - यशः कीर्त्ति निर्माण - तोर्थकरोच्चैर्गोत्रसंज्ञिकानामेकोनचत्वारिंशतः प्रशस्तानामपि योऽनुभवः, तस्याऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभवधाता ऽनुप्रवेशेनैव घातनं ज्ञेयम्, समुद्घातमाहात्म्यमेतद् ।” इति । नन्वेकोनचत्वारिंशच्छुभप्रकृतिषु मध्य आतपोद्योतयो ग्रहणं व्यर्थम्, अनिवृत्तिकरणे तयोः क्षयस्यै कोनचत्वारिंशत्तमगाथया प्रतिपादितत्वादिति चेत्, उच्यते - कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण तत्र तयोः क्षीणत्वेऽप्यावश्यक नियुक्तिकाराद्यभिप्रायेण न तयोस्तत्र क्षयो जातः, तदभिप्रायकमिह तयोर्ग्रहणम्, न तु कार्मग्रन्थिका -ऽभिप्रायकम् । तेन तयोर्ग्रहणं न व्यर्थम् । पूर्वत्र तु पञ्चविंशत्यशुभप्रकृतिषु मध्येऽप्रशस्त विहायोगत्यपर्याप्तनामकर्मणोग्रहणं कार्मग्रन्थिकाऽभिप्रायकम् आवश्यकनियुक्तिकाराद्यभिप्रायेणाऽनिवृत्तिकरण एव तयोः - , Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] खवगढी [ गाथा- २३६ क्षयस्यैकोनचत्वारिंशत्तमगाथायाष्टीकायां दर्शितत्वात् । इत्थमेकत्रा -ऽऽतपोद्यतयोरन्यत्र चाऽप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तनामकर्मणोग्र हणेनावश्यकचूर्णिकृता मतदयं ज्ञापितमित्यस्माकं प्रतिभाति । तच्चं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । स्थितिघातो रसघातश्च प्रतिसमयं भवति, न तु प्रत्यन्तमुहूर्तम् । एवं स्थितिघातरसघातौ तावद्वक्तव्यौ, यावत् समुद्घातस्य पञ्चमसमयः कषायप्राभृतचूर्णिकारमतेन तु यावच्चतुर्थसमयः ।। २३५ ।। अथ समुद्घातकरणस्य द्वितीयसमये कार्यविशेषं जिज्ञापयिपुराहबीयसमये कवाडे वित्थारइ बहुअसंखभागमिआ । जीaurसा ठिघाओ रसघाओ य पुव्वव्व ॥ २३६॥ द्वितीयसमये कपाटे विस्तारयति बहसंख्यभागभितान् । जीवप्रदेशान् स्थितिघातो रसघातश्च पूर्ववत् ||२३६|| इति पदसंस्कारः | 'बोयसमये' इत्यादि, 'द्वितीयसमये' समुद्घातस्य द्वितीयस्मिन् समये प्राङ्मुक्ताऽसंख्येयभागस्य बहुसंख्य भागमितान् 'जीवप्रदेशान्' आत्मप्रदेशान् कपाटे विस्तारयति । इदमुक्तं भवतिदण्डं कुर्वता प्रथमसमये ये-ऽसंख्येयभागमात्राः प्रदेशा विमुक्ताः तेषामसंख्येयभागान् कृत्वैका-संख्येयतमभागं तत्रैव शरीरे परित्यज्य शेषान् ब्रह्वसंख्येयभागभावानात्मप्रदेशान् निष्क्रमयति । तेन प्रथमसमये निष्क्रमितप्रदेशतो द्वितीयसमये निष्क्रम्यमाणप्रदेशा असंख्येयगुणहीना भवन्ति । तानिष्क्रमितान् जी प्रदेशान् पूर्वपश्चिम दिशोदक्षिणोत्तरदिशयोर्वा प्रसारयन् पार्श्वतो लोकान्तगामिनं कपाटं करोति । उक्तञ्चाssवश्यकचूर्णी- “अथ कपाटकरणे को विधिरिति प्रश्न ब्रूमहे, अतः प्रथमसमयनिर्गतात्मप्रदेश सकाशात् यो ऽसंख्येय भागोऽवतिष्ठते इत्युक्त, स बुडा पुनरपि असंख्येयान् भागान् गतः, ततो द्वितीयसमये कपाटकारकाणां असंख्येया भागा निष्क्रामंति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, अनेकैर संख्येयैर्भागैर्निर्गतैरेतैः कपाटकं कुर्वन्ति । तत्र ये निर्गतास्ते प्रथमसमय निर्गतात्मप्रदेशसकाशात् असंख्येयगुणहीना असंख्येयभाग इत्यर्थः । " इति । कपाटस्थोऽपि लोकस्याऽसंख्येयभागमात्रं क्षेत्रं व्याप्नोति, किन्तु दण्डस्थजीवस्य क्षेत्रतः कपाटस्थस्य क्षेत्रमसंख्येयगुणं भवति, दण्डवाहन्यतः कपाट वाहन्यस्याऽसंख्येपगुणत्वात् । अत्र प्रेरको भणति ननु प्रथमसमयतो द्वितीयसमये ऽसंख्येयगुणं क्षेत्रमसंख्य गुणहीना जीवप्रदेशाः कथं व्याप्तुमर्हन्ति ? इति उच्यते द्वितीयसमये पूर्वपश्चिम दिशेोर्दक्षिणोत्तर दिशयोर्वा यथा शरीरावच्छिन्नदण्ड क्षेत्रतो जीवप्रदेशा विस्तृणन्ति तथा शरीराऽनवछिन्नदण्डक्षेत्रतोऽपि । तत्र तदानीं शरीरावच्छिन्नदण्डगता - ऽवगाहनातो निर्गत्य ये प्रदेशा पूर्वपश्चिम दिशोर्दक्षिणोत्तर Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाटावस्थायां स्थितिघातरसघातौ ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४६१ दिशयोर्वा विस्तृणन्ति, ते प्रथमसमये स्वशरीरतो निर्गत्य दण्डाकारेण संस्थितेभ्यः प्रदेशेभ्योऽसंख्यातगुणहीना भवन्ति, यतः प्रथमसमये शरीरगतजीवप्रदेशानां बह्रसंख्येय भागमात्रा दण्डात्मक क्षेत्रं व्याप्ताः, द्वितीयसमये तु प्रथमसमयमुक्तैका संख्येयभागस्य बह्वसंख्येवभागप्रमिता जी प्रदेशा शरीरतो विनिर्गताः । किन्त्वनु श्रेणिगमनादुपर्यधश्च शरीरा ऽनवच्छिन्नदण्ड गताऽवगाहना तो -ऽपि निर्गत्य प्रदेशाः प्रभूतं कपाटक्षेत्रं व्याप्नुवन्ति, ते च प्रभूताः । इत्थं प्रथमसमयतो द्वितीयसमये शरीरतो निष्क्रम्यमाणानामपूर्वाणां जीवप्रदेशानामसंख्येयगुणहीनत्वेऽपि न विरुध्यतेऽसंख्येयगुण क्षेत्रस्य व्यापनम् । एवमग्रे ऽपि । ra aur at महात्मनो स्थितिघातं रसघातं चाऽतिदिदिक्षुराह - 'ठिइघाओ' इत्यादि, स्थितिघातो रसघातश्च पूर्ववद् भवतः । अयं भावः - प्रथमसमये या संख्येयभाग प्रमाणा स्थिति: परित्यक्ता, तस्या असंख्येयभागान् कृत्वैकमसंख्येयभागं सत्कर्मणि विमुच्य बहसंख्येयभान् विनाशयति कपाटस्य कारकः । तथा प्रथमसमये योऽनन्ततमभागप्रमाणोऽनुभागः सत्कमणि परित्यक्तः, तस्याऽनन्तभागान् कृत्वैकमनन्ततमभागं सत्कर्मणि परित्यज्य बह्वनन्तभागान् विनाशयति । न्यगादि चाssवश्यकचूर्णी - "अथ द्वितीयसमये कपाटकारकस्य स्थित्यनुभावघाने को विधिरिति प्रश्नेऽभिदध्महे प्रथमसमयघातित सत्कर्मस्थितेः सकाशात् योऽसंख्येय भागोऽवतिष्ठते इत्युक्त असावपि बुडा पुनरसंख्येयभागाः क्रियन्ते, तस्य कपाटकारको ऽप्यसंख्येयान् भागान् हन्ति, असंख्येयभागोऽवतिष्ठते, ततो ऽनुभवस्यापि प्रथमसमयघातनानुभवसकाशात् योऽवशिष्टोऽनन्तोऽनुभवोऽवतिष्ठत इत्युक्तं, असावपि बुद्धया पुनरनन्तभागाः क्रियन्ते, तस्य कपाटकारोऽनन्तान् भागान् हन्ति, पुनरनन्तभागोऽवतिष्ठते ।” इति । तथैव कषायप्राभृतचूर्णावपि - " तदो विदियसमए कवाडं करेदि । तम्मि सेसिगाए ठिदीए असंखेज्जे भागे हणइ । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणइ ।” इति । आवश्यकचूर्णिकृदादयो महर्षयस्तु कपाटं कुर्वन् शुभप्रकृतीनामप्यनुभागमशुभप्रकृत्यनुभागघातनाऽनुप्रवेशनेन घातयतीति मन्यन्ते । अक्षराणि त्वेवम्“अयमपि चाऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातनानुप्रवेशनेनैव प्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातनं करोतीति ज्ञेयम् ।" इति ।। २३६ ॥ एतर्हि समुद्घातस्य तृतीयसमये प्रतरं कुर्वतः क्रियाविशेषं दर्शयति ――― तइयसमये बहुअसंखभागमेत्ता - ऽप्पणो पसा य । वित्थारह पयरे ठिइरसाण घाओ उ पुव्वव्व ॥ २३७॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] खवगसेढी [गाथा--२३७ तृतीयसमये बह्वसंख्यभागमात्रानात्मन: प्रदेशांश्च । विस्तारयति प्रतरे स्थितिरसयो_तस्तु पूर्ववत् ।।२३७।। इति पदसंस्कारः ।। 'तइयः' इत्यादि, तृतीयसमये समुद्घातस्य तृतीयसमये बह्वसंख्येयभागमात्रान् 'आत्मनः' जीवस्य प्रदेशान् दक्षिणोत्तरदिशयोः पूर्वापरदिशोर्वा विस्तारयति, चकारः पादपूरणे । इदमुक्त भवति-कपाटं कुर्वता द्वितीयसमये ये-ऽसंख्येयभागमात्राः स्वशरीरे प्रदेशाः परित्यक्ताः, तेषामसंख्येयभागान् कृत्वैका-ऽसंख्येयभागं'तत्रैव शरीरे विमुच्य शेषान् बह्वसंख्येयभागान् निष्क्रमयति, ते च निष्क्रमिताः प्रदेशा द्वितीयसमयनिष्क्रमितप्रदेशतो-ऽसंख्येयगुणहीना भवन्ति । तान् निष्क्रमितान् जीवप्रदेशान् दक्षिणोत्तरदिशयोः प्राक्प्रत्यदिशोर्वा प्रसारयन् द्वितीयसमयकृतकपाटं लोकान्तप्रापि प्रतरं करोति, अवकाशान्तराणि तूद्धरन्ति । उक्त चा-ऽऽवश्यकचूणौं-"अथ तृतीयसमये प्रतरपूरकाणां को विधिरिति प्रश्न प्रतिबमहे, ततो द्वितोयसमये निर्गतात्मप्रदेशसकाशात् यो-ऽसंख्येयभागोऽवतिष्ठते. इत्युक्त असावपि बुद्धया पुनरसंख्येयभागाः कृताः, ततस्तृतीयसमये प्रतरकारकाणामसंख्येयभागा निष्कामन्ति, असंख्येयभागो-ऽवतिष्ठते, तैरसंख्येयैर्भागैर्निगतरेतैः प्रतरं पूरयंति । तत्र ये निष्क्रान्तास्ते द्वितीयसमयनिष्क्रान्तात्मप्रदेशसकाशादसंख्येयगुणहीनाः ।” इति । तृतीयसमये प्रतराकारेण जीवप्रदेशान् विस्तारयन् भगवान् लोकस्य बह्वसंख्येयभागान् स्पृशति, यतोऽवकाशान्तराणामपूरितत्वादसंख्येयभागो न स्पृश्यते ।। उक्तञ्चाऽऽवश्यकवृत्तौ-"तृतीयसमये तदेव कपादं दक्षिणोत्तरं पूर्वापरं वा दिग्वयप्रसारणात् मथिसदृशं मन्थानं लोकान्तप्रापिणमारचयति, एवं च प्रायो लोकस्य बहु पूरितं भवति, मन्थान्तराण्यपूरितानि जीवप्रदेशानामनुश्रेणिगमनात् ।” इति । एवं प्रज्ञापनावृत्तावपि । न च प्रमाणतयोपन्यस्तग्रन्थे मन्थानकारकस्य लोकबहसङ्ख्यभागमानं क्षेत्रं प्रतिपादितम् , न तु प्रतरकारकस्येति वाच्यम् , शब्दभेदेन भेदेऽप्यर्थभेदेन भेदा-ऽभावात् । न चाऽस्तीहाऽर्थभेदेन भेदे किञ्चित् प्रमाणम् । न च स्वदेहप्रमाणबाहल्यादखण्डदण्डावच्छिन्नरूपात् कपाटमध्यभागादेव कपाटस्य मन्थानीकरणम् , न त्वखण्डस्य कपाटस्थ । एवञ्च लोकान्तगामी पूर्वापरविस्तीर्णो दक्षिणोत्तरविस्तीर्णो वैकः कपाटः, इतरस्तु दक्षिणोत्तरविस्तीर्णः पूर्वापरविस्तीणों वा । इत्थं कपाटद्वयात्मक एव मन्थानः । ततश्च तृतीयसमयेऽवकाशान्तराग्यप्युद्धरन्ति, चतुर्थसमये तु तत्पूरणं भवति । एवमष्टसामयिकत्ववचनमपि न विरुध्यत इत्यस्त्यर्थभेदेन भेदे प्रमाणमिति वाच्यम् , एतादृशमन्थानार्था-ऽभ्युपगमे मथिकरणावस्थायां स्नातकस्य लोका-ऽसंख्येयभागप्रमाणावगाहनाप्रसङ्गेन व्याख्याहप्रज्ञप्तिवृत्तिग्रन्थोक्तवचनेन सह विरोधोद्भवात् । तथाहि- भवदभिप्रायेण मन्थानकरणकाले स्नातकस्यावगाहना लोकाऽसंख्येयभागमात्री स्यात् , लोकाऽसंख्ये Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतरावस्थायां स्थितिघातरसघातौ ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४६३ यभागद्रयमात्राऽवगाहनाया अपि लोकाऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । ततश्च व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ती श्रीमदभयदेवसूरिपादैः "असंखेजेसु भागेसु होजत्ति मधिकरणकाले बहोर्लोकस्य व्याप्तत्वेन स्तोकस्य चाऽव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्याऽसंख्येयेषु भागेषु स्नातको वर्तते।” इति यदु तम् , तेन सह विरोवः स्यात् । तत उर्ध्वमधश्च लोकान्तगामिनस्तथा पूर्वापरदिशोर्दक्षिणोत्तरयोर्वा लोकान्तप्रापस्या-ऽखण्डस्य कपाटस्य तृतीयसमये मन्थानीकरणमभ्युपगन्तव्यम्। एवंच सुसिध्यत्येव स्नातकस्य मथिकरणकाले लोकाहसंख्येयभागमागावगाहना, जीवप्रदेशानामनुश्रेणिगमनेन बहोर्लोकस्य पूरितत्वादवकाशान्तराणां चा-ऽपूरितत्वात् । किश्च प्रतरमेव केचिद् मन्थानं प्राहुरन्ये तु रुचकमिति प्राग् दर्शितम् । तदेवं शब्दभेदेऽपि नास्तीहाऽर्थभेदः । ननु स्यादेवम् , किन्तु मन्थानमिव मन्थानं करोतीति तत्र तत्र प्रतिपाद्यते, तर्हि तत्र क उपमार्थी घटते, न ह्यखण्डकपाटाद् मन्थाने क्रियमाणे मन्थाना-ऽऽकृतिः सम्पद्यते ? इति चेत्, उच्यते-मथ्यतेऽनेनेति मन्थानः, “संस्तुस्पृशि०” (उणादि०२७६) इति सूत्रेण मन्थिधातोरानप्रत्ययः, यथा मन्थानेन दधिधनावस्था प्रच्याव्यते, तथा समुद्वाततृतीयसमयसत्कावस्थाविशेषेणा-ऽघातित्रयस्य स्थिति-रसौ ह्रास्यते । तदेवं घटत उपमार्थ इत्यस्माकं मतिः । तत्वं तु केवलिनो बहुश्रुता वा जानन्ति । अथ प्रतरं कुर्वतः स्थितिघातं रसघातं चा-ऽतिदिति-'ठिइ०' इत्यादि, स्थितिरसयोर्घातस्तु पूर्ववज्ज्ञातव्य इति शेषः, तुर्वाक्यभेदे । इदमुक्त भवति-समुद्घातकरणस्य द्वितीयसमये या स्थितिर्विमुक्ता, तस्या असंख्येयभागान् कृत्वैकाऽसंख्येयभागं सत्कर्मणि विहाय बह्वसंख्येयभागान् विनाशयति प्रतरं निर्वर्तयन् , तथा सत्कर्मणि द्वितीयसमये परित्यक्ताऽनुभागस्याऽनन्तान् भागान् कृत्वकमनन्ततमभागं सत्कर्मणि विमुच्य शेषाननन्तान् भागान् विघातयति । न्यगादि चा-चश्यकचूर्णी-“अथ तृतीयसमये प्रतरपूरकस्य स्थित्यनुभवघातने को विधिरिति प्रश्नेऽभिसंवादोयते, ततो द्वितीयसमयघातितसत्कर्मस्थितेः सकाशात् योऽसंख्येयभागोऽवशिष्टो-ऽवतिष्ठत इत्युक्त, असावपि बुद्धया पुनरसंख्ययभागाः क्रियन्ते, तस्य प्रतरपूरकोऽसंख्येयान् भागान् हन्ति, असंख्येयभागो-ऽवतिष्ठते, ततो-5नुभवस्या-ऽपि द्वितीयसमयघातितानुभवसकाशात् योऽवशिष्टो-ऽनन्तो-ऽनुभवो-ऽवतिष्ठते इत्युक्त, असावपि बुद्धया पुनरनन्तभागाः क्रियते, तस्य प्रतरपूरको-ऽनन्तभागान् हन्ति, अनन्तभागो-ऽवतिष्ठते । इति । तथैव कषायप्राभृतचूर्णावपि"तदो तदियसमए मंथं करेदि, ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि ।” इति । ___ आवश्यकचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण तदानीं प्रशस्तप्रकृत्यनुभागस्या-ऽप्यप्रशस्तप्रकृत्यनुभागवातना-ऽनुप्रवेशेन घातनं भवति, यदुक्तमावश्यकचूर्णी-"अयमपि चाडप्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातनानुप्रवेशनेनैव प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातनं करोतीति ज्ञेयम्” इति ॥२३७॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] खवगसेढी [गाथा-२३८ अथ समुद्घातं प्रतिपन्नस्य चतुर्थसमये कार्यविशेष व्याजिही राहवित्थारेइ चउत्थसमये बहुअसंखभागमिआ। जगपूरणे पअसा ठिइरसघाओ उ पुबब्व ॥२३८॥ (उपगीतिः) विस्तारयति चतुर्थसमये बहुसंख्येयभागमितान् । जगत्पूरणे प्रदेशान् स्थितिरसघातस्तु पूर्ववद् ॥२३८॥ इति पदसंस्कारः । 'वित्थारेई' इत्यादि, तत्र 'चतुर्थसमये' समुद्धातस्य चतुर्थसमये बह्वसंख्येयभागमितान् 'प्रदेशान्' जीवप्रदेशान् जगत्पूरणे विस्तारयति, तृतीयसमयोद्धरितावकाशान्तरेषु स्वात्मप्रदेशान् प्रसार्य निखिलं लोकं स्वात्मप्रदेशैः पूरयतीत्यर्थः, तदानीमेकैकजीवप्रदेश एकैका-ऽऽकाशप्रदेशमवगाह्य तिष्ठति । भावार्थः पुनरयम्-प्रतरं कुर्वता ये-ऽसंख्येयभागमात्रप्रदेशाः स्वशरीरे परित्यताः, तेषामसंख्येयभागान् कृत्वैका-ऽसंख्येयभागगतान् स्वशरीरावगाहनीया-ऽवकाशप्रमाणान् जीवप्रदेशान् तत्रैव शरीरे स्थाप्य शेषान् बह्वसंख्येयभागप्रमितान् जीप्रदेशान् निष्क्रम्य तृतीयसमयोद्धरितावकाशान्तराणि पूरयति । इत्थं समुद्घातकरणस्य चतुर्थसमये केवली भगवान् निखिललोकव्यापी भवाी। यदभिहितम् आवश्यकचूर्णी-"ततस्तृतीयसमयनिर्गतात्मप्रदेशसकाशात् यो-ऽसंख्येयभागोऽवतिष्टते इत्युत्तम् , असावपि वुडन्या पुनरप्यसंख्येया भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थसमये लोकपूरकाणामसंख्येयभागा निष्कामन्ति, अर्सख्येयभागोऽवतिष्ठते, ततस्तैरसंख्ययभागैनिष्क्रान्तरेते लोकनिष्कुटान् पूरयंति, तत्र ये निष्क्रान्तास्ते तृतीयसमयनिष्क्रान्तात्मप्रदेशसकाशादसंख्येयगुणहीनाः, यश्चाऽधुना-संख्ययभागोऽवतिष्ठते-ऽसौ स्वशरीरावगाह्यावकाशप्रमाण इति ।" 'ठिइरस०' इत्यादि, 'स्थितिरसघातस्तु' समुद्घातकरणस्य चतुर्थसमये स्थितिघातो रसघातश्च पूर्ववद् भवति, तुर्वाक्यभेदे । अयमत्राशयः-तृतीयसमये परित्यक्तका-ऽसंख्येयभागप्रमागस्थितेरसंख्येयभागान् कृत्वैकमसंख्येयभागं सत्कर्मणि प्रतिष्ठाप्य तदानीं शेषानसंख्येयभागान् घातयति, तथा तृतीपसमये सत्कर्मणि मुक्ता-ऽनुभागस्या-ऽनन्तभागान् कृत्वैकमनन्ततमभागं सत्कर्मणि विहाय चतुर्थसमये शेषाननन्तान् भागान् घातयति, यनिगदितम् आवश्यकचूर्णी-“अथ चतुर्थसमये लोकपूरकस्य स्थित्यनुभागघातने को विधिः ? इत्यभिलपामः-ततस्तृतोयसमयघातितसत्कर्मस्थितेः सकाशाद् योऽवशिष्टो-ऽसंख्ययभागो-ऽवतिष्ठते इत्युकम् , असावपि वुड्या पुनरसंख्येयभागाः क्रियन्ते, तस्य लोकपूरको-संख्येयान् भागान्हन्ति, असंख्येयभागो-ऽवतिष्ठते। ततोऽनुभवस्याऽपि तृतीयसमयघातितानुभवसकाशात् योऽवशिष्टोऽनन्तोऽनुभवोऽवतिष्ठते इत्युक्त असावपि बुद्धया पुनरनन्तभागाः क्रियन्ते, तस्य लोकपूरकोऽनन्तान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते ।” इति । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग पूरणादीनां संहरणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४६५ अत्रा-ऽपि प्रशस्तप्रकृतीनामनुभागमप्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातनाऽनुप्रवेशेन घातयतीति मन्यन्त आवश्यकचूर्णिकारादयः । तथा चात्र आवश्यकचूर्णि:-"अयमपि च अप्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातना-ऽनुप्रवेशनेन प्रशस्तप्रकृत्यनुभवघातनं करोतीति ज्ञेयम् ।” इति । कषायप्राभृतचूर्णी लोके पूर्णे योगस्यैकवर्गणा भवति, तेन सर्वात्मप्रदेशेषु योगस्तुल्यो भवतीत्युक्तम् । तथा चात्र कषायप्राभृतचूणि:-"लोगे पूण्णे एका वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति णायव्वो।” इति । अयं भावः-पमुद्घातस्य चतुर्थसमये लोकप्रमाणनिखिलात्मप्रदेशेषु योगाऽविभागास्तुल्या भवन्ति, न त्वेकोत्तरवृद्धया वर्गणारूपेण तिष्ठन्ति, तेन स्पर्धकान्यपि न भवन्ति । इत्थं सर्वात्मप्रदेशेषु योगाऽविभागानां तुल्यत्वाद् एकैव वर्गणा भवति, ततो योगः सर्वत्र समानो भवति । यदा पञ्चमसमये लोकपूरणमुपसंहृत्य प्रतरं करोति, तदा पुनरेकोत्तरवृद्ध्या योगाऽविभागा वर्गणारूपेण प्रादुर्भवन्ति, योगस्पर्धकानि लभ्यन्त इत्यर्थः । इत्थं पुनरात्मप्रदेशेषु योगो विषमो भवति ॥२३८॥ अथ लोकपूरणा-ऽवस्थायां स्थितिसत्त्वं जगत्पूरणादीनाञ्च संहरणं व्याजिहीर्षुराह तइयाईणं अंतोमुहुत्तत्ता ठिई उ आउत्तो। संखगुणा तत्तो संहरए जगपूरणाईणि॥२३९॥ तृतीयादोनामन्तर्मुहुर्तमात्रा स्थितिस्तु आयुष्टः । संख्यगुणा ततः संहरति जगत्पूरणादीनि ।।२३९।। इति पदसंस्कारः । 'तइयाईणं' इत्यादि, 'तृतीयादीनां' नाम-गोत्र-वेदनीयानां स्थितिरन्तमुहूर्तमात्रा भवतीति शेषः, तुः पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, 'आयुष्टः' आयुष्कस्थितितः पुनः संख्यगुणा भवति, अद्याप्याधुषा सह समाना न जातेत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“लोगे पुण्णे अंतोमुहुत्तं ठिदि ठवेति, संखेजगुणमाउआदो।" इति । तथैवा-ऽऽवश्यकचूर्णावपि-“एवं पूर्णलोकस्य कर्मत्रयसत्कर्म आयुषः सकाशात् संख्येयगुणं जातं अनुभवोsनन्तः ।” इति । अथ विस्तारितानात्मप्रदेशान् पञ्चमसमथात्प्रभृति प्रतिलोमं संकोचयतीत्येतदभिधित्सुराह'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' समुद्घातस्य चतुर्थसमयात् परं 'जगत्पूरणादीनि' जगत्पूरण-प्रतरकपाट-दण्डरूपाणि 'संहरति' यथोक्तक्रमात् प्रतिलोममुपसंहरति । एतदुक्तं भवति-समुद्घातगतो ॐ धवलाकारास्तु महावाचकाऽऽर्यनन्दीनामभिप्रायेणा-ऽऽयुष्कतः शेषकर्माणि संख्येयगुणानि भवन्ति समुद्धातचतुर्थसमये, प्रार्यमङ क्षरणामभिप्रायेण पुनरायुष्कतुल्यस्थितिकानि भवन्तीति बदन्ति । अक्षराणि त्वेवम्-"महावाचयाणमन्जमखुसमसारणमुवदेसेरण लोगे पूण्णे पाउसमं करेदि । महावाचयारणमजणंदोरणं उवदेसेण अंतोमुहुत्तं हवेदि संखेजगुरणमाउादो।" इति । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी [गाथा-२४०-२४१ जीवः समुद्घातस्य पश्चमसमयेऽन्तराणा प्रदेशान् संहृत्य प्रतरे तिष्ठति, षष्ठे समये प्रतरस्थः प्रदेशान् संहृत्य कपाटे वर्तते, सप्तमसमये कपाटं संकोच्य दण्डे तिष्ठति, अटमसमये तु दण्डं संहृत्य स्वशरीरस्थो भवति , यदुक्तं वाचकमुख्यः "दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः पष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥२॥” इति ॥२३९।। अथ समुद्घातस्य पञ्चमादिसमयेषु क्रियाविशेष प्रतिपिपादयिपुरादौ तावत् पश्चमसमयभाविनं क्रियाविशेष प्रतिपादयति पंचमसमये पयरे ठान्तो बहुसंखभागपमियठिइं। नासइ रसं तु रससंतस्स बहुअणंतभागमियं ॥२४॥ पञ्चमसमये प्रतरे तिष्ठन बहुसंख्यभागप्रमितस्थितिम् । नाशयति रसं तु रससत्त्वस्य बह्वनन्तभागभितम् ॥२४०।। इति पदसंरकारः । "पंचमः' इत्यादि, 'पञ्चमसमये' समुद्घातस्य पञ्चमसमये 'अतरे' जगत्पूरणं संहत्य प्रतरे तिष्ठन् केवलिभगवान् बहुसंख्यभागप्रमितस्थिति' स्थितिसत्ताया बहून् संख्येयभागान् 'नाशयति' विघातयति, 'रसम्' अनुभागं 'तु' तुः पुनरर्थे, रससचस्य बह्वनन्तभागमितं नाशयति, काकाक्षिगोलकन्यायेन 'नासई' इति पदस्या-त्राऽपि योजनात् । अयं भावः-चतुर्थसमये परित्यक्तस्य स्थितिसत्कर्मणः संख्येयभागान कृत्वा पञ्चमसमये प्रतरस्थ एक संख्यभागं सत्कमण्यवस्थाप्य शेषान् संख्येयान् भागान् विनाशयति, तथा प्राझुक्तस्या-ऽनुभागस्या-ऽनन्तान् भागान् कृत्वैकमनन्ततमभागं सत्कर्मण्यवस्थाप्य शेषान् बहननन्तभागान् विनाशयति, यदभिहितम् आवश्यकचूर्णी--"अतश्चतुर्थसमयघातितस्थितिसत्कर्मणः सकाशात् या असंख्ययभागप्रमाणाऽवशिष्टा स्थितिरवतिष्ठत इत्युक्त, सा बुद्धया संख्येया भागाः क्रियन्ते । पंचमसमये प्रतरस्थः संख्येयान् भागान् हन्ति, संख्ययभागोऽवतिष्ठते, चतुर्थसमयघातिताऽनुभवसकाशात् अनन्तोऽवशिष्टो-अनुभवो-ऽवतिष्ठते इत्युक्तं असावपि बुद्धचा अनन्ता भागाः क्रियन्ते, तस्य पंचमसमये प्रतरस्थोऽनन्तान् भागान् हन्ति, अनन्तभागोऽवतिष्ठते ।” इति ॥२४०॥ अधुना समुद्घाताद्धायाः षष्ठे समये कार्यविशेष प्रतिपादयति छट्टखणे ठान्तो उ कवाडम्मि ठिइं रसं य पुबब्व । नासइ ठिइरसघायद्धा खलु अंतोमुहुत्तमिआ ॥२४१॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्घाताबस्थायां योगनिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४६७ षष्ठक्षणे तिष्ठस्तु कपाटे स्थिति रसं च पूर्ववत् । नाशयति स्थितिरसघाताद्धा खल्वन्तमुहूर्तमिता ॥२४१।। इति पदसंस्कारः । 'छट्टखणे' इत्यादि, 'षष्ठक्षणे' समुद्घातकरणस्य षष्ठं समये 'कपाटे' प्रतरं संक्षिप्य कपाटे तिष्ठंस्तु स्थितिं रसं च पूर्ववत् नाशयति । प्रागेकसामयिकी स्थितिघाताद्धा रसघाताद्धा चाऽऽसीत्, अतः प्रभृति यो विशेषः, तं दर्शयति--'ठिइ०' इत्यादि, अद्धापदस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् स्थितिघाताद्धा रसघाताद्धा च 'खलु' निश्चयेन 'अन्तर्मुहूर्तमिता' अन्तमुहूर्तत्रमाणा भवति, न तु सामयिकी । अयमस्य भावः-पञ्चमे समये सत्कर्मणि स्थापितस्थितेः सख्येयान् भागान् कृत्वा षष्ठे समये कपाटस्थ एक संख्येयभागं तत्रैव विमुच्य शेषान् संख्येयान् भागान् धातयितुमुपक्रमते, तेभ्यः प्रतिसमयं कतिपयं दलमुत्किरति, अन्तमुहूर्ते पूर्णे तु संख्यातभागाः निःशेषतो घात्यन्ते, तेन सप्तमादिसमयेष्वभिनवस्थितिं घातयितुन गृहणाति, किन्तु प्राग् गृहीतामेव दलिकोत्करणेन घातयति । तथा पञ्चमसमये मुक्ता-ऽनुभागस्याऽनन्तान् भागान् कृत्वा षष्ठे समये कपाटस्थ एकमनन्ततमभागं सत्कर्मण्येव निधाय शेषाननन्तान् भागान् घातयितुमुपक्रमते, अन्तमुहूर्तकालेन निश्शेषतो विनाशयति, प्राक्तनेषु पञ्चसु समयेषु तु स्थितिघाताद्धा रसघाताद्धा चैकसामयिकी समासीत् । उक्त चाऽऽवश्यकचूर्णी-“एषु दण्डकादिषु पंचसु समयेषु सामायिकं कण्डकमुत्कीर्णमितिकृत्वा समये समये स्थित्यनुभवघातो ज्ञेयः । अथ किमिदं कण्डकमिति प्रश्ने महे-कण्डकमिव कण्डकं, कः उपमार्थः ? यथा लोके तरोः खण्डभागः अंशः कण्डकमित्यभिधोयते, तथा कमतरोरपि खण्डं कण्डकमिति सिहं, अतः परं षष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकण्डकंवा अन्तमुहूर्तकमुत्किरति । कण्डकं यतः किरति-क्षिपति-विनाशयतोत्यर्थः।” इति । कषायप्राभृतचूर्णिकाराणामभिप्रायेण दण्डादीनि कुर्वतः समयचतुष्टये स्थितिघातकालोऽनुभागघातकालश्चैकसामयिकः, पञ्चमसमयात्प्रभृति त्वान्तौहूर्तिकः । तथा च तद्ग्रन्थः"एदेसु चदुसु समएसु अप्पसत्थकम्मंसाणमणुभागस्स अणुसमयओवट्टणा, एगसमइओ हिदिखंडयस्स घादो । एत्तो सेसिगाए ठिदीए संखेजे भागे हणइ । सेसस्स अणुभागस्सअणंते भागे हणइ। एत्तो पाए हिदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतीमुहुत्तिया उक्कीरणडा।” इति । तचं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति ॥२४१॥ इदानीं सप्तमसमये-ऽष्टमसमये चाऽवस्थाविशेष समुद्घातसमयाष्टके च योगं चिन्तयति सत्तमसमये दंडे ठाअइ अट्रमखणे सरीरत्थो। पढमट्ठमसमयेसु जोगो ओरालिओ होइ ॥२४२॥ सत्तम-छट्ठ-विइयसमयेसु मिस्सो य कम्मणो जोगो। तइय-तुरिय-पंचमसमयेसु निरुम्भेइ तो जोगं ॥२४३॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी , . ४६८ ] [ गाथा-२४२-२४३ सप्तमसमये दण्डे तिष्ठत्यष्टमक्षणे शरीरस्थः । प्रथमाऽष्मसमययोर्योग औदारिको भवति ॥२४२॥ सप्तम-षष्ठ-द्वितीयसमयेषु मिश्रश्च कार्मणो योगः । तृतीय-तुरिय-पञ्चमसमयेषु निरुणद्धि ततो योगम् ।।२४३।। इति पदसंस्कारः । 'सत्तमः' इत्यादि, 'सप्तमसमये समुद्घातस्य सप्तमसमये दण्डे' कपाटं संहृत्य दण्डे तिष्ठति, दण्डस्थस्य महात्मनः स्थितिघातोऽनुभागघातश्च पूर्वारब्धा एव प्रवर्तेते, तयोरद्धाया आन्तौहूर्तिकत्वात् । 'अट्ठम०' इत्यादि, तत्र 'अष्टमक्षणे' समुद्घातस्या-ऽष्टमे समये 'शरीरस्थः' स्वशरीरप्रविष्टाऽऽत्मप्रदेशको भवतीति शेषः । अत्रा-ऽपि स्थितिघातोऽनुभागघातश्च पूर्वारब्धा एव प्रवतेते । अन्तमुहूर्ते पूर्णे स्थितिघातोऽनुभागघातश्च पूर्णौ भवतः । ततः पुनरन्यस्थितिखण्डमनुभागखण्डं च घातयितुमुपक्रमते । तच्चा-ऽन्तमुहूर्तकालेन निःशेषतो विनाशयति । एवमान्तौहूर्तिकः स्थितिघातकालोऽनुभागघातकालश्च तावदवगन्तव्यौ, यावत् सयोगिगुणस्थानकचरमसमयः । तावति कालेऽमृनि सर्वाणि स्थितिखण्डान्यनुभागवण्डानि च संख्येयानि व्यतिक्रामन्ति, यदभिहितम् आवश्यकचूर्णी-"तदनेन विधिना-ऽन्तर्मुहूर्तपूरणचरमसमयाऽनन्तरमेव कृत्स्नं कण्डकं उत्कीर्णमित्यवसेयं उत्कीर्ण नटमित्यर्थः । एवं प्रतिसमयमन्तमु हर्तिकः स्थित्यनुभवकण्डकघातको ज्ञेयः तावद्यावत् सयोगिनोऽन्त्यसमय इति । एवमेतानि सर्वाण्यपि संख्ययानि स्थित्यनुभवकण्डकानि ज्ञेयानि ।” इति । ___ तावत्काले सर्वाण्यमूनि स्थितिकण्डकान्यनुभागकण्डकानि चा-ऽसंख्येयानि व्यतिक्रा. मन्तीति ग्रन्थान्तरे दृश्यते, तथा चात्र श्रीमलयगिरीया-ऽऽवश्यकवृत्तिः-"अतः परं षष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकण्उकं चाऽन्तमुहर्तेन कालेन विनाशयति, षष्ठादिषु च समयषु कण्उकस्य प्रतिसमयमेकैकं शकलं तावदुत्किरति, यावदन्तमुहूर्तचरमसमये सकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्णं भवति । एवमन्तमुहूर्तिकानि स्थितिकण्डकान्यनुभागकण्डकानि च घातयन् तावद्वेदितव्यः, यावत्सयोग्यवस्थाचरमसमयः । सर्वाण्यपि चामूनि स्थित्यनुभागकण्डकान्यसंख्येयान्यवगन्तव्यानि।” इति । तत् त्वशुद्ध प्रतिभाति, स्थितिखण्डस्या-ऽऽवलिका-ऽसंख्येयभागमात्रत्वस्वीकारप्रसङ्गात् । कथम् ? इति चेद्, उच्यते-समुद्यातचतुर्थसमये वेदनीयादीनां कर्मणां स्थितिसच्चमायुष्कस्थितिसत्कर्मतः संख्येयगुणं जायते । तच्च दर्शितमेकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमगाथया। आयुष्कस्थितिसत्कर्म त्वन्तमुहूर्तप्रमाणं भवति,अन्तमुहूतमात्र आयुषि शेषे समुद्यातारम्भात् । तेन वेदनीयादीनां स्थितिसत्कर्म समुद्यातपञ्चमादिसमयेषु संख्येयावलिकातोऽधिकं न भवति । यदि समुद्घातभवनात् परमसंख्येयानि स्थितिखण्डानि व्यतिक्रमेयुः, तर्हि संख्येयावलि Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्घातावस्थायां योगः] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४६९ कानामसंख्येयैर्विभजनादेकस्थितिखण्डमावलिकाऽसंख्येयभागमात्रं स्यात् । तस्मात् संख्येयस्थितिखण्डानि व्यतिक्रामन्तीत्यावश्यकचूर्गिकारादीनां वचनं न्याय्यं प्रतीयते । एवमनुभागखण्डान्यपि संख्ययानि प्रकारान्तरेण साधयितव्यानि ।। ____ अथ समुद्घातावस्थायां योगश्चिन्त्यते-न तावद् मनोयोगो वाग्योगो वा संभवति, प्रयोजनाऽभावात् । उक्तं च धर्मसारप्रकरणे-"मनोवचसी तु तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाऽभावात् ।” इति । तथैव आवश्यकचूामपि-"तत्थ समुग्घातस्स मणवइजोगो णस्थि ।" इति । काययोगो-ऽप्योदारिकादिना-ऽवस्थितः सर्वेषु समयेषु, किं तर्हि ? इत्याह'पढमः' इत्यादि, 'प्रथमाष्टमसमययोः' समुद्घातस्य प्रथमसमये-ऽष्टमसमये च 'योग औदारिकः' औदारिककाययोगो भवति । ____'सत्तमः' इत्यादि, 'सप्तम-पष्ठ-द्वितीयसमयेषु' समुद्धातप्रतिपन्नस्य सप्तमसमये षष्ट समये द्वितीयसमये च 'मिश्रः' औदारिकमिश्रकाययोगो भवति । चकारः समुच्चये, स चोत्तरत्र योज्यः । 'कम्मणो' इत्यादि, तत्र 'तृतीय-तुरिय-पञ्चमसमयेषु' समुद्घातं गतस्य जीवस्य तृतीयसमये चतुर्थ समये पश्चमसमये च 'कार्मणो योगः' कार्मणकाययोगो भवति, बहिरेवौदारिकाद् बहुतरव्यापारसद्भावेन कार्मणकाययोगमात्रचेष्टनात् । कार्मणकाययोगी च नियमतोऽनाहारको भवति । तेन तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमसमयेषु समुद्घातगतो नियमतो-ऽनाहारको भवति। उक्तञ्चोमास्वातिपादैः "औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रीदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु ॥१॥ कार्मणशरोरयोगो चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२॥” इति । एवं भाष्यकृभिरपि"न किर समुग्धायगओ मणवइजोगप्पओयणं कुणइ । ओरालियजोगं पुण जुजइ पढमहमे समए ॥१॥ उभयव्वावाराओ तम्मीसं बीय-छट्ठ-सत्तमए । ति-चउत्थ-पंचमे कम्मयं तु तम्मत्तचेठाओ ॥२॥” इति 'निरुम्भइ' इत्यादि, तत्र 'तो' त्ति 'ततः' समुद्घातनिवत्तितः परं 'जोगं' ति मनोवाकाययोगलक्षणं योगं निरुणद्धि । अयं भावः-समाप्तसमुद्घातः केवली भगवान् कारणवशाद् योगत्रयं प्रयुक्ते । कथम् ? इति चेत्, उच्यते -अनुत्तरसुरादिपृष्टः सत्यमसत्यामृषं वा मनोयोगं प्रयुङ्क्ते, आमन्त्रणादौ सत्यमसत्यामृषं वा वाग्योगं प्रयुक्ते, काययोगश्च फलकप्रत्यर्पणादौ । न्यगादि च भाष्यकारैः Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४७० ] खवगसेढी [गाथा-२४२-२४३ विणिवत्तसमुग्धाओ तिनि वि जोए जिणो पउंजेज्ज । सच्चमसच्चामोसं च सो मणं तह वईजोगं ॥१॥ ओरालियकाओगं गमणाई पाउिहारियाणं वा। पच्चप्पणं करेजा जोगनिरोहं तओ कुरुए ॥२॥” इति । एवमावश्यकचूर्णिकारैरप्युक्तम्-"ततो पडियागतो तिविहं पि जोगं जुजति, वइजोगस्स सच्चाइजोगं जुजति, चउत्थं आमंतणादी, मणे वि एते चेव जोगे दोषिण, ते पुण किह होज ? मणसा पुच्छेज कोइ, तेसिं मणसा वागरेति, अणुत्तरो अण्गो वा देवमणुयो, कायजोगं गच्छेज वा चिट्ठणठ्ठाणणिसीयणतुयटणाणि गच्छणे उक्खेवणसंखेवणउल्लंघणपल्लंघणतिरियणिक्वेवणादोणि, पाडिहारियं वा पोठकादि पच्चपिणेजा।” इति । अयं सयोगी केवली भगवान् निवाण यियासुः समुद्घाततः प्रतिनिवत्तोऽन्तमुहर्तमास्ते, ततो योगं निरोद्ध प्रयतते । कुतः ? इति चेत् ? उच्यते-सति योगे द्विसामयिकस्थितिकस्य सातवेदनीयकर्मबन्धस्य प्रवृत्तत्वेन कर्मादानसन्ततिसद्भावादात्मनो मोक्षो न स्यात् । अतो योगनिमित्तकवन्धरोधार्थं लेश्यानिरोधार्थं च योगनिरोधमारभते, यदभ्यधाथि सिद्धसेनीयतत्त्वार्थवृत्तौ स ततो योगनिरोधं करोति लेश्यानिरोधमभिकाङ्क्षन् । समसमयस्थितिबन्धं योगनिमित्तं स हि रुरुत्सन् ॥१॥ समये समय कर्मादाने सति सन्ततेन मोक्षः स्यात् । यद्यपि हि न मुच्यन्ते, स्थितिक्षयात् पूर्वकर्माणि ॥२॥ नोकर्मणाणि वीर्य योगद्रव्यण भवति जीवस्य ।। तस्याऽवस्थाने ननु सिद्धः समयस्थितिबन्धः ॥३॥” इति । तत्र योगनिरोधव्याख्यानं द्विविधम् , संक्षेपविस्तरभेदात् । संक्षिप्तव्याख्यानं भूले न दर्शितम् , सुगमत्वात् । तथाहि-समुद्घाततो निवृत्तो-ऽन्तमुहूर्ते गते योगनिरोधं कुर्वन् प्रथममेव याऽसौ शरीरसम्बद्धा मनःपर्यातिः, यया च पूर्व मनोद्रव्यग्रहणं कृत्वा भावमनः प्रयुक्तवान्, कर्मसंयोगविघटनाय मन्त्रसामर्थेन विषमिव स भगवाननुत्तरेणा-ऽचिन्त्येन निरावरणेन करणवीर्येण तद्वयापार निरुणद्धि । तद्यथा-पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियजघन्ययोगिनो यो मनोयोगो भवति, ततो-5प्यसंख्येयगुणहीनं मनोयोगं प्रतिसमयं निरुत्वन्नन्तमुहूर्तेन कालेन सर्वथा निरुणद्धि । ततः पर्याप्तद्वीन्द्रियजघन्यवचनयोगतो-ऽसंख्येयगुणहीनं वचनयोगं प्रतिसमयं निरुधानोऽन्तमुहूर्तकालेन निःशेषतो निरुणद्धि । एवं प्रथमसमयोत्पन्नसूक्ष्मपनकस्य जघन्ययोगतोऽसंख्येयगुणहीनं काययोगं प्रतिसमयं निसन्धानोऽन्तमुहूर्तेन सर्वथा निरुणद्धि, यदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगनिरोवनिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४७१ "पजत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाइं जहन्नजोगिस्स। होति मणोदव्वाइं तव्वावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुंभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोहं कुणइ असंखेजसमएहिं ॥२॥ पजत्तमेत्तबिंदियजहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरुभंतो ॥३॥ सव्ववइजोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहमपणयस्स पढमसमयोववन्नस्स ॥४॥ जो किर जहन्नजोगो तदसंखेजगुणहोणमेकेके । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुचंतो ॥५॥ रुभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावयामेइ ॥६॥” इति । तथैवोक्तं प्रज्ञापनायामपि-"से णं भंते ! जहा सजोगो सिज्झति जाव अंतं करेति ? गो० ! नो इणट्ठ समठे, से गं पुव्वमेव सण्णिस्स पंचिंदियपजत्तयस्स जहपणजोगिस्स हेहा असंखेजगुणपरिहोणं पढमं मणजोगं निरंभति, ततो अणंतरं बेइंदियपजत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेहा असंखिजगुणपरिहोणं दोच्चं वतिजोगं निरु भति। ततो अणंतरं च णं सुहमस्स पणगजोवस्स अपजत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेहा असंखेजगुणपरिहोणं तचं कायजोगं निरु भति।" इति । योगनिरोधस्य विस्तृतव्याख्याने तु द्विविध उपदेश, एकस्तावदावश्यकचूर्णिकारादीनाम्, अपरः पुनः कषायप्राभूतचूर्णिकारादोनाम् । इहा-ऽऽवश्यकचूर्णिकारादीनामभिप्रायेग योगनिरोधं विस्तरतः प्रथमं व्याख्यास्यते, ततः कषायप्राभूतचूर्णिकारादीनां मतेन । ननु द्विविध उपदेशः प्रामाणिको भवितु ना-ऽहंति, तीर्थकदणधारादीनामेकतरस्यैवोपदेशस्य संभवेन तस्यैव प्रामाग्यसंभवादिति चेत्, उच्यते-सत्यमेतद्-तीर्थकृदादीनामेकतर एवोपदेश आसीदिति । किन्तु सम्प्रति केलिनः श्रतकेवलिनश्चाभावाद् न के-ऽप्याचार्या इदं वस्तु समर्थाः, अयमेवोपदेशः सत्यः, अन्यो-ऽसत्य इति । तेन यथासम्प्रदायमुपदेशः प्राप्तः, तथैव तं समर्थयन्ति । अत उभावप्युपदेशी शास्त्रे निवन्द्धव्यो, अन्यथैकतरस्य निवन्धनेनेतरस्योपदेशस्य लोपः प्रसज्येत, न चेष्टापत्तिः, केवलिश्रतकेवलिविरहेणैदंयुगीनानाश्चा-ऽऽचार्याणां तथाविधविशिष्टज्ञानाभावेना-ऽसत्येतरोपदेशलोपस्या-ऽनिवारणात् ॥२४२-२४३॥ अथ प्रथमत आवश्यकचूर्णिकारादीनां मतेन योगनिरोधं विभणिपुराह Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] खवगसेढी [ गाथा-२४४ बायरवय-मण-उस्सास-कायजोगा निरुम्भइ कमेण । तत्तो सुहुमवयण-मण-तनुजोगा त्ति इगउवएसो॥२४४॥ बादरवचो-मन-उच्छवास-काययोगान् निरुणद्धि क्रमेण। ततः सूक्ष्मवचन-मनस्तनुयोगानित्येकोपदेशः ।।२४४॥ इति पदसंस्कारः । 'बायर' इत्यादि, 'बादरवचो-मन-उच्छ्वास-काययोगान्' समुद्घातं गत्वाऽगत्वा वा बादरवचोयोगं बादरमनोयोगमुच्छ्वासं बादरकाययोगं च 'क्रमेण' परिपाटया निरुणद्धि । 'तत्तो' त्ति 'ततः' बादरयोगनिरोधतः परं 'सूक्ष्मवचन-मनस्तनुयोगान्' "इन्द्रादौ द्वन्द्वान्ते च श्रयमाणं पदं प्रत्येकं सम्बध्यते।” इति न्यायात् सूक्ष्मवचनयोगं सूक्ष्ममनोयोगं सूक्ष्मतनुयोगं च क्रमेण निरुणद्धि, 'इति' इतिशब्दः समाप्तियोतकः, समाप्तः एक उपदेशः' आवश्यकचूर्णिकारादीनामभिप्रायः । अयं भावः-समुद्घातं परिसमाप्य समुद्घातमप्रतिपन्नस्त्वायोजिकाकरणं विधाया-5 न्तमुहूर्तं गत्वा केवली भगवान् बादरकाययोगबलेन बादरवचनयोगं निरोद्धमुपक्रमते, अन्तमुर्तेन कालेन वचनयोगं सर्वथा निरुणद्धि । ततोऽन्तमुहर्तमास्ते, योगनिरोधं न करोतीत्यर्थः । ततो बादरकाययोगोपष्टम्भाद् बादरमनोयोगं निरोद्धमारभते, अन्तम हूतकालेन निःशेषतो बादरमनोयोगं निरुणद्धि । उक्तं च तत्वार्थवत्ती "बादरतन्वा पूर्व वाङ्मनसे बादरे स निरुणहि क्रमेणैव । आलम्बनाय करणं हि तदिष्टं तत्र वीर्यवतः॥१॥” इति । मनोयोगनिरोधानन्तरमन्तमुहूर्त स्थित्वा वादरकाययोगबलेनोच्छ्वासं निरोहुमुपक्रमते, अन्तमुहर्तकालेन चोच्छवासं सर्वात्मना निरुणद्धि । ततो-ऽन्तमुहूर्त विश्रम्य बादरकाययोगवलेन बादरकाययोगं निरोद्ध प्रवर्तते, अन्तमुहूर्तकालेन तं सर्वात्मना निझगद्धि, यदुक्तम् आवश्यकचूर्णी-"ततः स्वशरीरं प्रविष्टोऽन्तर्मुहूर्तमास्ते, तत उपर्यनन्तरसमय एव यादरवाग्योगान् रोदधुमारब्धः, ततोऽन्तमुहूर्तपूरणसमय एव बादरकाययोगबलाधानाद् बादरवाग्योगो निरुध्यमानो निरुडः, ततो बादरवाग्योगं निरुध्या-ऽन्तमुहूर्तमास्ते, न बादरयोगनिरोधः प्रवर्तत इत्यर्थः, तत उपर्यनन्तरं बादरमनोयोगं निरोडुमारब्धः, ततोऽन्तर्मुहूर्तस्या-ऽन्त्ये समये बादरकाययोगोपष्टंभात् बादरमनोयोगो निरुध्यमानो निरुडः । ततोऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वोपर्यनन्तरसमय एव उच्छ्वासनिःश्वासौ निरोडमारब्धः, ततोऽन्तमुहूर्तस्या-ऽन्त्ये समय बादरकाययोगोपष्टम्भात् उच्छ्वासनिःश्वासौ निरुध्यमानौ निरुहौ, ततोऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वोपर्यनन्तरसमय एव बादरकाययोर्ग निरोधुमारब्धः, ततोऽन्तमुहूर्तस्याऽन्त्ये समये बादरकाययोगो निरुध्यमानो निरुद्धः, तत्स्थः तमेव क्षपयतीत्ति Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकचूर्णिकारादीनां मतेन योगनिरोधः ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४७३ अयुक्तमिति चेत्, न, दृष्टत्वात्, तद्यथा-कारपत्रिका क्रकचेन स्तंभे छिदिक्रियां प्रारभमाणः तत्स्थस्तमेव छिनत्ति, तथा काययोगोपष्टंभात् काययोगनिरोधो-ऽप्यवसेयः ।” इति । अत्र श्रीशतकचूर्णिकारादयस्तु सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भेन बादरकाययोगं निरणद्धीत्यभिदधते । तथा चा-ऽत्र श्रीशतकचूर्णि: "यादरतणुमवि णिरुणडि तओ सुहुमेण कायजोगेण । ण णिरुज्झए उ सुहुमो जोगो सइ बायरे जोगे ॥१॥” इति । बादरकाययोगनिरोधप्रथमसमयतः प्रभृत्यन्तमुहर्त यावत् पूर्वस्पर्धकानामधस्ताद् योगस्याऽपूर्वस्पर्धकानि करोति । तत ऊर्च योगस्य किट्टीः कर्तु मारभते, अन्तर्मुहूर्तकालेन च सर्वेषां पूर्वा-ऽपूर्वस्पर्धकानां किट्टीः करोति,योगस्पर्धकानि च स्वरूपतो निश्शेषं नाशयति, यदुक्तं श्रीतत्त्वार्थवृत्तौ "नाशयति काययोगं स्थूलं सोऽपूर्वफड्डकोकृत्य।। शेषस्य काययोगस्य तथा किट्टीश्च स करोति ॥१॥” इति । किट्टिकरणचरमपमयादनन्तरमन्तर्मुहूर्तं यावत् किट्टिगतयोगो भवति, तदानीं च न किञ्चिदपि करोति, यदुक्त श्रीमन्मलयगिरिपादैः पञ्चसंग्रहवृत्तौ-"किट्टिकरणा-ऽवसानानन्तरं च पूर्वस्पर्धकान्यपूर्वस्पर्धकानि च नाशयति। तत्समयादारभ्य च अन्तर्मुहूर्त यावत् किष्टिगतयोगो भवति । न चात्र किञ्चिदपि करोति ।” इति । ततः सूक्ष्मकाययोगवलेन सूक्ष्मवचनयोग निरोद्धमारभते, अन्तमुहूर्तेन च कालेन सर्वथा निरुणद्धि । ततोऽन्तमुहूर्तमास्ते, नाऽन्यसूक्ष्मयोगनिरोधे प्रयतते, ततः सूक्ष्मकाययोगवलाधानात् सूक्ष्ममनोयोगं निरोद्धमारभते । अन्तमुहूर्तकालेन सूक्ष्ममनोयोगं सर्वात्मना निरुणद्धि, निरुद्ध सूक्ष्ममनोयोगो-ऽन्तमुहूर्तमास्ते, अन्ययोगनिरोधं न करोति । ततोऽन्तमुहूर्तप्रमाणकालस्योपर्यनन्तरसमये सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भात् सूक्ष्मकाययोग निरोधुमारभते, उक्त च आवश्यकचूर्णी-“अत्र काययोगं निरुधन पूर्वस्पर्धकानामधस्तादपूर्वस्पर्धकानि करोति । अथ किमिदं स्पर्धकमिति प्रश्ने व्याचक्ष्महे-स्पर्धकमिव स्पर्धक, क उपमार्थः ? यथा लोके शालिफलककाणशानां समुदायात् मुष्टिर्भवति, या स्पर्धकमिति शब्द्यते,कथमिति तद्विवृण्महे-'स्पर्द्ध-संहर्षे' इति शब्दाद् भवति स्पर्धकं संहर्षः समुदायः पिण्ड + मूला-ऽऽराधनकारा अपि सूक्ष्मकाययोगबलेन बादरकाययोग निरुणद्धीति मन्यन्ते, तथा च तद्ग्रन्थः 'बादरवचिजोगं बादरेण कायेण बादरमणं च । बादरकायं पि तधा रुभदि सुहुमेण काएरण ॥१॥" इति । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] खवगसेढी [गाथा-२४४ इत्यनर्थान्तरं, अथ केषां संघर्ष इति प्रश्ने व्याचक्ष्महे-इह यथा बहू समुदायः क्षणे (कंडक) संभवति । बहूनां च काण्उकस्थकाणशानां [शालिफलकणानां] समुदायात् मुष्टिरिति भवति, तथा शालिफलकणतुल्यानामसंख्येयानां लोकानां ये प्रदेशास्तत्प्रमाणप्रमितानामविभागपरिच्छेदानां भावपरमाणुसजितानां समुदायात् काणसतुल्या वर्गणा भवति । एवमसंख्येया वर्गणा श्रेण्या असंख्येयभागप्रमाणा एकजोवे भवन्ति । तासां च बहुकाण्डस्थकणकाणशसमुदायोत्पन्नमुहितुल्यानां असंख्येयानां वर्गणात श्रेण्याः असंख्येयभागमात्राणां समुदायादेकं स्पर्धकं भवति । एवमसंख्ययानि स्पर्धकानि श्रेण्या असंख्येयभागमात्राण्येकजीवे सन्ति। - अथ किमिदं पूर्वस्पर्धमानि अपूर्वस्पर्धकानीति च प्रश्ने व्याचक्ष्महेयानि पर्याप्तिपर्यायेण परिणमितात्मना पूर्वमेव योगनिर्वर्तनार्थमुपात्तानि, यानि चानादौ संसारे पुनः पुनर्योगनित्यर्थं पूर्वमुपात्तान्यात्मना, तानि पूर्वस्पर्धकानि इत्यभिधीयंते, तानि च स्थूलानि । यान्यधुना क्रियन्ते, तानि सूक्ष्माणि, न च तथालक्षणानि अनादौ संसारे परिभ्रमता आत्मना कदानिदप्युपात्तानि इत्यतोऽपूर्वस्पर्धकानि व्याख्यायन्ते। . अथा- पूर्वस्पर्धककरणे को विधिरिति प्रश्ने-ऽभिदध्महे-अधस्तात्पूर्वस्पद्र्धकानामादिवर्गणा यास्तासां अविभागपरिच्छेदा ये, तेषामयं योगजधर्मानुग्रहादसंख्येयान् भागानाकर्षति, असंख्येयभागं स्थापयति, जोवप्रदेशानामपि च असंख्ययभागमावर्षयति *, असंख्येयान् भागान् स्थापयति, एवं प्रथमसमये, द्वितीयसमये प्रथमसमयाकृष्टाविभागपरिच्छेदानां असंख्येयेभ्यो भागेभ्यः सकाशादसंख्येयगुणहोनं भागमाकर्षयति, असंख्येयभागमाकर्षयतीत्यर्थः, जीवप्रदेशानामपि च प्रथमसमयाकृष्टजीवप्रदेशासंख्येयभागसकाशादसंख्येयगुणभागमाकर्षयति,असंख्येयभागानाकर्षयतोत्यर्थः । एतेन विधिना-Sऽकृष्य योगजधर्मानुग्रहादपूर्वस्पर्धकानि करोति । एवं समय समये भागं करोति, यावत्पूर्णो-ऽन्त ___ * ननु किं नाम जीत्रप्रदेशानामाकर्षणम् ? न चा-ऽऽत्मप्रदेशानाम गाइनां द्वित्रिभागप्रमाणां कर्तुं जीवप्रदेशानां सङ्कोचनं तदिति वाच्यम् , सूक्ष्मक्रिया-ऽप्रतिपातिध्यानसामर्थ्येन निरुक्ताऽवगाहनानिवृत्तेवक्ष्यमाणत्वादिति चेत् , उच्यते प्रथमसमयेऽसंख्येयभागमात्रजीवप्रदेशान् पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातोऽसंख्येयगुणहीने योगे परिणमयति, ततोऽसंख्येयगुणाजीवप्रदेशान् पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो-ऽसंख्येय. गुणहीने योगे द्वितीयस्मिन् समये परिणमयति, ततोऽप्यसंख्येयगुणाजीवप्रदेशांस्तृतीयसमये । एवमग्रेऽपि । इत्थं हीने हीनतरे योगे जीवप्रदेशानां परिणमनं जीवप्रदेशानामाकर्षणमुच्यते, योगस्या-ऽल्पीकरणं तु योगाऽविभागानामाकर्षणं भण्यत इत्यल विस्तरेण । . Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकचूर्णी योगकिट्टिनिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४७५ मुहूर्त इति । कियन्ति पुनः स्पर्धकानि करोतीति प्रश्ने बमहे-श्रेण्या असंख्येयभागमात्राणि, श्रेणिवर्गमूलस्या-ऽप्यसंख्येयभागमात्राणि, पूर्वस्पर्धकानामप्यसंख्येयभागमात्राणि । एवमपूर्वस्पर्धककरणे समाप्ते अत ऊध्वमुपर्यनन्तरसमयमेव कृटोः कर्तु मारब्धोऽन्तर्मुहूर्तेन सर्वाः करोति । ___अथ किमिदं कृष्टिरिति प्रश्नेऽभिधोयते, कर्मणः कर्शनं कृष्टिः, अल्पीकरणमित्यर्थः, अथ कृष्टः करणे को विधिरिति प्रश्ने व्याचक्ष्महे-पूर्वस्पर्धकानामपूर्वस्पर्धकानांचाधस्तात् या आदिवर्गणाः, तारामविभागपरिच्छेदा ये, तेषामयं योगजधर्मानुग्रहात असंख्येयान् भागान् कर्षति, असंख्येयभागं स्थापयति। जीव. प्रदेशानामप्यसंख्येयान् भागान् कर्षति, असंख्येयं भागं स्थापयति । एवमाकृष्याकृष्य प्रथमसमये कृष्टोः करोति । अथ हितोयसमये प्रथमसमयाकृष्टानामविभागपरिच्छेदानामसंख्येयेभ्यो भागेभ्यः सकाशात असंख्येयगुणहीनं भागमाकषयति, असंख्येयभागमाकर्षयतीत्यर्थः, जीवप्रदेशानामपि प्रथमसमयाकृष्टजोवप्रदेशासंख्येयभागसकाशादसंख्येयगुणं भागमाव.र्षयति, असंख्येयान् भागानाकर्षयतीत्यर्थः । एवमनेन विधिना-Sऽकृष्या-5ऽकृष्य कृष्टीः करोति । एवं समये२ कृष्टयः क्रियमाणाः क्रियन्ते तावद्यावञ्चरमसमयकृष्टिरिति । तत्र प्रथमसमयाः(...ये) कृष्टयः कृता असंख्येयगुणास्ततो द्वितीयसमये असंख्ययगुणहोनाः । एवं समय समये असंख्ययगुणहीनया श्रेण्या कृतास्तावद्यावदन्तमुहूर्त इति, तत्र याः कृटयः प्रथमसमयकृतास्ता असंख्येयगुणाः कृताः द्वितीयसमयकृताभ्यः सकाशाद् । अथ याः द्वितीयसमयकृतास्ताः प्रथमसमयकृतकृष्टिप्रमाणाः कथं भवंतीति प्रश्नेऽभिधीयते-पल्योपमस्य(...स्या-)संख्येयभागेन गुणिताः प्रथमसमयकृताः कृष्टयः श्रेण्या असंख्ययभागप्रमाणाः, एवं द्वितीयादिष्वपि समयषु श्रेण्या असंख्ययभागप्रमाणाः तावद्यावत्कृष्टिकरणस्या-ऽन्तसमय इति एवं सर्वा अपि कृष्टयः श्रेण्या असंख्येयभागप्रमाणाः पूर्वस्पर्धकेभ्योऽपूर्वस्पर्धकेभ्यश्चासंख्ययभाग इति । सर्वासां कृष्टीनामसङख्येयभागप्रमाणतुल्यत्वात् सर्वस्याः कृष्टिगतायाः असंख्येयतायाः तुल्यत्वमिति चेत् , न, पूर्वाभ्यः पूर्वाभ्यः सकाशाद् उत्तराभ्य उत्तराभ्यो असङ्ख्येयगुणहीनयो:(...या) श्रेण्या कृतत्वमित्युक्तत्वात् । एवं कृष्टिकरणावसानानन्तरसमये पूर्वस्पर्धकान्यपूर्वस्पर्धकानि च नश्यन्ति, अतोऽनन्तरसमय एव सूक्ष्मवाग्योगं निरोधुमारब्धः, ततो-ऽन्तमुहर्ते पूर्णे सूक्ष्मकाययोग Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] खवगसेढी [गाथा-२४४ बलाभिधानात् सक्ष्मवाग्योगो निरुध्यमानो निरुद्धः, ततो निरुद्धवाग्योगोऽन्तमुहूर्तमास्ते, न सूक्ष्मयोगनिरोधं प्रति वर्त्तते इत्यर्थः। तत उपर्यनन्तरसमय एव सूक्ष्ममनोयोगं निरोद्धमारब्धः, ततोऽन्तमुहूर्ते पूर्णे सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भात् सूक्ष्ममनोयोगो निरुध्यमानो निरुहः। ततोऽन्तमुहर्त स्थित्वा उपर्यनन्तरसमय एव सूक्ष्मकाययोगं निरोधुमारब्धः।” इति । सूक्ष्मकाययोगं निरन्धानः प्रथमसमये किट्टीनामसंख्येयभागान् नाशयति, एकं चा-ऽ संख्ययभागं मुञ्चति । द्वितीयसमये प्राङमुक्तस्यैकभागस्या-ऽसंख्येयान् भागान् विनाशयति, एकं च परित्यजति, एवंक्रमेण किट्टीस्तावद् नाशयति, यावत् सयोगिगुणस्थानकचरमसमयः, यदुक्तं पञ्चसङ्ग्रहवृत्ती-"सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानः प्रथमसमये किट्टीनामसंख्येयान् भागान् नाशयति, एकस्तिष्ठति । द्वितीयसमये तस्यैवैकस्य भागस्योद्धरितस्य संबन्धिनोऽसंख्येयान् भागान् नाशयति, एक उद्धरति । एवं समये समये किट्टीस्तावन्नाशयति, यावत्सयोग्यवस्थाचरमसमयः।” इति। सूक्ष्मकाययोगं च निरुन्धानो वक्ष्यमाणस्वरूपं सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायति, यदभिहितम् आवश्यकचूर्णी-"ततोऽन्तमुहर्ते पूर्णे सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भात् सूक्ष्मकाययोगो निरुध्यमानो निरुद्धः । अस्यामवस्थायां सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति ।” इति । तृतीयशुक्लध्यानसामर्थ्याच्च बदनोदरादिविवरपूणेन संकुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति । गुणस्थानकक्रमारोहे तु योगनिरोध इत्थं प्रतिपादितः "बादरे काययोगेऽस्मिन् स्थितिं कृत्वा स्वभावतः। सक्षमीकरोति वाकचित्तयोगयुग्मं स बादरम् ॥१॥ त्यक्त्वा स्थूलं वपुर्योगं सक्ष्मवाकचित्तयोः स्थितिम् । कृत्वा नयति सक्ष्मत्वं, काययोगं तु बादरम् ॥२॥ सुसूक्ष्मकाययोगेऽथ स्थितिं कृत्वा पुनः क्षणम् । निग्रहं कुरुते सद्यः सक्ष्मवाकचित्तयोगयोः ॥३॥ ततः सूक्ष्मे वपुर्योगे स्थितिं कृत्वा क्षणं हि सः । सूक्ष्मक्रियं निजात्मानं चिद्रूपं विन्दति स्वयम् ॥४॥” इति । तत्वं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । नन्वयुक्तमिदं योगनिरोधव्याख्यानम्, सतो हि निरोधः संभवति । न चा-ऽत्र बादरकाययोगे सूक्ष्मकाययोगे वा वर्तमानस्य महात्मनो मनोयोगो वचनयोगो वा संभवति, एककालावच्छेदेनैकस्यैव योगस्य सिद्धान्ते प्रतिपादितत्वात्, अतो-ऽसतो मनोयोगस्य वाग्योगस्य वा निरोधो Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायप्राभृतचूणिकारादिमतेन योगनिरोधः ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४७७ न संभवतीति चेत् ? उच्यते - सत्यमेतद्, एककालावच्छेदेन एक एव योगः प्रवर्तमानो भवति, किन्तु मनोयोगस्य वचनयोगस्य काययोगस्य चोत्पादिका या शक्तिः, तस्या निरोधं करोत्यन्तमुहूर्तशेषायुष्कः सयोगिकेवली । तत्र पूर्वं बादरयोगोत्पादिकां शक्तिं रुद्धि, ततः सूक्ष्मयोगोत्पादिकां शक्ति निरुणद्धि । कारणे कार्योपचाराच वादरमनो-वचन-काययोगं सूक्ष्ममनो-वचन-काययोगं च निरुद्धीति व्यपदिश्यत इति न कश्चन दोषः ॥ २४४ ॥ सम्प्रति द्वितीयोपदेशेन योगनिरोधं विवर्णयितुकामः प्राहरुम्भइ बायरमण-वय-उस्सास- तणू कमेण वीयमया । वायरतणूअ भिन्नमुहुत्त्रेणऽन्तोमुहुत्तमच्चासं ॥ २४५ ॥ (गीतिः ) रुणद्धि बादरमनो-बच-उच्छ्वास- तनूः क्रमेण द्वितीयमतात् । बादरतन्वा भिन्नमुहूर्तेनाऽन्तर्मुहूर्तमत्यासम् ॥२४५ ।। 1 'रुम्भइ० ' इत्यादि, तत्र 'द्वितीयमतात्' कषायप्राभृतचूर्णिकारादीनां मतमपेक्ष्य 'बादर मनो-चच-उच्छ्वास- तनूः' बादरपदस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धाद् बादरमनोयोगं बादरवचनयोगं बादरोच्छ्वासं वादकाययोगं च क्रमेण 'वादरतन्वा' बादरकाययोगबलेनाऽन्तमुहूर्तमत्यासं 'भिन्नमुहूर्तेन' अन्तर्मुहूर्त कालेन निरुगद्धि । अयम्भावः क्रियाव्यवधायका - ऽर्थे वर्तमानाद् अतिपूर्वकाद् असिधातोः “कालेन तृष्यस्वः क्रियान्तरे” (सिद्धहेम ०५-४-८२ ) इत्यनेन णम् प्रत्ययः, यत आन्तमौहूर्तिक योगनिरोधक्रियाऽन्तमुहूर्तकाला त्यासेन व्यवधीयते । ततश्चायमर्थः - बादरमनोयोगं निरुध्य अन्तर्मुहूर्तं व्यतिक्रम्य वादरवचनयोगमन्तर्मुहूर्तेन निरुणद्धि । ततो बादरवचनयोगं निरुध्याऽन्तमुहूर्त व्यतिक्रम्य बादरोच्छ्वासमन्तमुहूर्त कालेन निरुणद्धि । एवमग्रे ऽपि । तथाहिसमुद्घाताद् निवृत्तोऽन्तर्मुहूर्त विश्रम्य योगनिरोधमारंभते । तत्र योजनं योगः, जीवस्य परिस्पन्द इति यावत् । स च त्रिविधः, मनो वचः - कायभेदात् । तत्रा - ऽप्येकै को द्विविधः, सूक्ष्म- बादरभेदात् । योगनिरोधात् प्राक् सर्वत्र बादरयोग एवा ऽऽसीत् । सम्प्रति केवली भगवान् बादरकाययोगोपटम्भाद् वादरमनोयोगं निरोद्धमुपक्रमते, अन्तर्मुहूर्त कालेन च निरुणद्धि । ततो बादरमनोयोगनिरोधानन्तरमन्तर्मुहूर्तं गत्वा बादरकाययोगमवष्टभ्याऽन्तमुहूर्त कालेन बादरवचनयोगं निरुणद्धि । ततोऽन्तर्मुहूर्त व्यतिक्रम्य बादरकाया योगेनान्तमुहूर्तेन सर्वथा बादरोच्छ्वासं निरुणद्धि । ततोऽन्तर्मुहूर्तमतीत्य बादरकाययोगेन बादरकाययोगमन्तर्मुहूर्त कालेन सर्वथा निरुणद्धि । अभ्यधायि च कषायप्राभृतचूण- "एतो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरकायजोगेण बादरमणजोगं णिरु भइ । तदो अंतोमुहुत्ते बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरु भइ । तदो अंतोमुहुतेण बादरकायजोगेण बादरउस्सासणिस्सासं णिरु भइ । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरु भइ ।" इति । तथैवोक्तं प्रशमरतिवृत्तिकारैः श्रीमद्हरिभद्रसूरीश्वरैरपि - " अन्तर्मुहूर्तचतुष्टय समन्वितेषु प्रथमं मनोयोगं बादरं 1 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-२४६-२४७ ४७८ ] खवगसेढी (१), एवं बादरवाग्योगं (२) तत उच्छ्वासं (३) ततः काययोगं (४) अपान्तराले एकस्य २ अन्तर्मुहूर्तस्य विश्रम्येत्यष्टावन्तर्मुहुर्ता इति ।" ॥२४५॥ ___ अभिहितो बादरयोगनिरोधः कषायप्राभूतचूर्णिकारादीनामभिप्रायेण, साम्प्रतं तन्मतेन सूक्ष्मयोगनिरोधं विवर्णयिषुराह सुहुमेण कायजोगेण कमा सुहुमाणि चउमणाईणि । रुम्भइ गंतूणं गंतूणं अंतोमुहुत्तं तु ॥२४६॥ सूक्ष्मेण काययोगेन क्रमात् सूक्ष्माणि चतुर्मनआदीनि । रुणद्धि गत्वा गत्या--ऽन्तमु हुतं तु ॥२४६।। इतिपदसंस्कारः । 'सुह मेण' इत्यादि, 'सूक्ष्मेण काययोगेन' मूक्ष्मकाययोगवलेन क्रमात् सूक्ष्माणि 'चतुर्मनआदोनि' चतुःसंख्याकानि मनोयोगवचनयोगोच्छ्वासकाययोगरूपाणि ‘अन्तर्मुहूर्त तु' अन्तमुहूर्तप्रमाणं तु कालं गत्वा गत्वा 'रुणद्धि' निरुणद्धि । भावार्थः पुनरयम्-बादरकाययोगनिरोधाऽनन्तरमन्तमुहर्त गत्वा सूक्ष्मकाययोगबलात् सूक्ष्ममनोयोगं निरुणद्धि । ततः सूक्ष्ममनोयोगनिरोधानन्तरमन्तमुहर्तकालेन सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भात् सूक्ष्मवचनयोगं निरुणद्धि, ततः सूक्ष्मवचनयोगनिरोधानन्तरमन्तमुहूर्तकालेन सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भात् सूक्ष्मोच्छवासं निरुणद्धि । ततो-ऽन्तमुहूर्तं गत्वा सूक्ष्मकाययोगबलेन सूक्ष्मकाययोगमपि निरुणद्धि । उक्तच कषायप्राभृतचूर्णी-“तदो अंतोमुहुत्तं गंतॄण मुहुमकायजोगेण सुहममणजोगं णिरु भइ । तदो अंत्तोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहमवचिजोगं निरु भइ । तदो अंतोमुहत्तण सुहमकायजोगेण सुहुमउस्सासं णिरु भइ । तदो अंतोमुहुत्त गंतूण सुहमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिभमाणो इमाणि करणाणि करेदि xxi" इति ॥२४६॥ अथ सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानो यत्करोति, तदाह सुहुमं सरीरजोगं णिरुम्भमाणो अपुव्वफड्डाणि। कुणइ पढमसमया पहुडि पुब्बफड्डाण हे?म्मि ॥२४७॥ सूक्ष्मं शरीरयोग निरुन्धानो- पूर्वस्पर्धकानि ।। करोति प्रथमसमयात् प्रभृति पूर्वस्पर्धकानामधस्ताद् ।।२४७।। इति पदसंस्कारः । 'सुहुमं' इत्यादि, सक्ष्मकाययोगाऽवलम्बनेनैव सक्ष्म 'शरीरयोग' काययोगं निसन्धानः 'प्रथमलमयात्' सूक्ष्मकाययोगनिरोधप्रथमसमयतः प्रभृति 'पूर्वस्पर्धकानां' योगस्य पूर्वस्पर्धकानामधस्ताद् अपूर्वस्पर्धकानि करोति' निर्वर्तयति । इदमुक्तं भवति-पर्याप्तिपर्यायेण परिणतात्मना पूर्वमेव योगनिवृत्यर्थं यानि योगस्पर्धकान्युपात्तानि, यानि चा-ऽनादौ संसारे पुनः पुनर्योगनिर्वर्तनार्थ पूर्वमुपात्तान्यात्मना, तानि सर्वाणि पूर्वस्पर्धकानि व्यपदिश्यन्ते । तेषां स्वरूपं तु बन्धनकरणादितो-ऽवसेयम् । तानि पूर्वस्पर्धकान्यधुना सूक्ष्मीकृत्या-ऽपूर्वस्पर्धकानि . Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगस्या-ऽपूर्वस्पर्धकनिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः क्रियन्ते । न चैवंभूतान्यनादौ संसारे भ्रमताऽऽत्मना कदाचिदपि कृतानि, तेनाऽपूर्वस्पर्धकानि व्यपदिश्यन्ते ॥२४७॥ नन्वपूर्वस्पर्धककरणे को विधिः ? इति पृष्ट आहपुव्वगफड्डाणं पढमवग्गणाअ विरियाविभागाणं । तह जीवपओसाण ओकड़ ढिज्जा असंखंसं ॥२४८॥ पूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणाया वीर्याऽविभागानाम् । तथा जीवप्रदेशानामपकर्पत्यसंख्यांशम् ।।२५८।। इति पदसंस्कारः ।। 'पुव्वगः' इत्यादि, पूर्वस्पर्धकानां प्रथमवर्गणायाः 'वीर्याऽविभागानां' योगाऽविभागानां तथा 'जीवप्रदेशानां' पूर्वस्पर्धकप्रतिबद्धानां जीवप्रदेशानाम् 'असंख्यांशम्' असंख्येयभागमपकर्षति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-“पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणं हेहदो । आदिवग्गणाए अविभागपउिच्छेदाणमसंखेजदिभागमोकडदि । जीवपदेसाणं च असंखेजदिभागमोकडदि ।” इति । इदमुक्त भवति-पूर्वस्पर्धकैषु लोकाकाशप्रदेशप्रमिता जीवप्रदेशास्तिष्ठन्ति । तत्र पूर्वस्पर्धकप्रथमादिवर्गणाभ्यो-ऽसंख्येयभागप्रमाणान् जीवप्रदेशानपकृष्य पूर्वस्पर्धकजघन्यवर्गणागतवीर्या-ऽविभागसत्काऽसंख्येयभागप्रमाणवीर्या-ऽविभागविशिष्टान्यपूर्वस्पर्धकानि निर्वतयति । ततः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणागतवीर्या ऽविभागतोऽसंख्येयगुणहीना वीर्या-ऽविभागा अपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणायां भवन्ति । ते-ऽपि पुनरसंख्येवलोकाकाशप्रदेशप्रमिताः । एवमपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा वीर्या-ऽविभागा भवन्ति । किन्त्वयं विशेषः-प्रथमा-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवगणायां वीर्याऽविभागाः स्तोका भवन्ति, ततो द्वितीयवर्गणायामेकेनाधिका वीयर्याविभागा भवन्ति, ततोऽप्ये फेनाऽधिकास्तृतीयवर्गणायां भवन्ति । एवमेकोत्तरवृद्धया-ऽग्रेऽपि वर्गणा वक्तव्याः । ___ अथ व्यवहारनयेनाऽपकृष्टजीवप्रदेशानां प्रक्षेपो निगद्यते-अपूर्वस्पर्धककरणप्रथमसमये पूर्वस्पर्धकेभ्योऽसंख्येयभागप्रमितान् जीवप्रदेशानादाया-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायां प्रभूतानात्मप्रदेशान् ददाति, अल्पयोगे परिणम्यमानजीवप्रदेशानां प्रभूतत्वसंभवात् । ततो विशेषहीनानपूर्वस्पर्धकस्य द्वितीयवर्गणायामात्मप्रदेशान् ददाति, ततो-ऽपि विशेषहीनाँस्तृतीयवर्गणायाम् । एवं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावदपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणा । अपूर्वस्पर्धकचरमवर्गणातः पूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्यातगुणहीनानात्मप्रदेशान् ददाति । तत ऊर्ध्वं विशेषहीनक्रमेण तावद् ददाति, यावत् पूर्वस्पर्धकचरमवर्गणा । अत्र जीवप्रदेशान् ददातीत्यनेन तावन्तो जीवप्रदेशाः प्रथमादिवर्गणागतयोगाऽविभागेषु परिणमन्तीति ग्राह्यम्, न ह्यमूर्तानां जीवप्रदेशानामादानप्रदानौ संभवतः परमार्थतः। प्रथमसमये क्रियमाणान्यपूर्वस्पर्धकानि सूचिश्रेणेरसंख्येयभागमात्राणि भवन्त्यपि पूर्वस्पर्धकानामसंख्येयभागप्रमाणानि भवन्ति ॥२४८॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] खवगसेढी [ गाथा-२४९-२५० नन्वपूर्वस्पर्धकानि कियन्तं कालं केन च क्रमेण करोति, एवं जीवप्रदेशांश्च केन क्रमेणाऽपकर्षति ? इत्यत आहकुणए अपुव्वफड्डाणि मुहुरांतो असंखगुणहाणीए। तह जीवपअसा उ असंखेज्जगुणकमेण ओकड्डिज्जा॥२४९॥(आर्यागीतिः) करोत्यपूर्वस्पर्धकानि मुहूर्तान्तरसंख्यगुणहान्या ।' तथा जीवप्रदेशांस्त्वसंख्येयगुणक्रमेणा-ऽपकर्षति ॥२४९॥ इति पदसंस्कारः । 'कुणए' इत्यादि, तत्र 'मुहूर्तान्तः' अन्तर्मुहूर्तम् 'असञ्जयगुणहान्या' असङ्ख्यातगुणहीनक्रमेणा-ऽपूर्वस्पर्धकानि 'करोति' निर्वर्तयति । भावार्थः पुनरयम्-प्रथमसमये यावन्त्यपूर्वस्पर्धकानि करोति, ततोऽसंख्येयगुणहीनानि प्रथमसमयकृता-ऽपूर्वस्पर्धकानामधस्तादपूर्वस्पर्धकानि द्वितीयसमये करोति । ततोऽप्यसंख्येयगुणहीनानि तृतीयसमये, एवमसंख्येयगुणहीनक्रमेणा-ऽपूर्वस्पर्धकानि तावत् करोति, यावदन्तर्मुहूर्तचरमसमयः । 'तह' इत्यादि, अपूर्वस्पर्धकानि कुर्वन् जीवप्रदेशांस्त्वसंख्येयगुणक्रमेणा-ऽपकर्षति, तुर्वाक्यभेदे । अयं भावः- अपूस्पर्धकानि कुर्वन् प्रथमसमये यावतो जीवनदेशानपकर्षति, ततो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणाजीवप्रदेशानपकर्षति, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणान् । एवमसंख्येयगुणक्रमेण ताबदपकर्षति, यावदन्तमुहूर्त चरमसमयः । उक्त च कषायप्राभृतचूणौँ-"एवमन्तोमुहुत्तमपुव्वफद्दयाणि करेदि असंखेजगुणहोणाए सेढोए, जोधपदेसाणं च असंखेजगुणाए सेढीए ।” इति । ।।२४९॥ अथ योगम्याऽपूर्वस्पर्धकानां प्रमाणमभिधित्सुराह इह सेढिवग्गमूलस्स असंखंसो अपुवफड्डाइं। हुन्ते असंखभागो पुविल्लाणं वि फड्डाणं ॥२५०॥ इह श्रेणिवर्गमूलस्या-ऽसंख्यांशोऽपूर्वस्पर्धकानि । भवन्त्यसंख्यभागः पूर्वेषामपि स्पर्धकानाम् ।।२५०।। इति पदसंस्कारः । 'इह' इत्यादि, 'इह' योगनिरोधप्रकरणेऽपूर्वस्पर्धकानि 'श्रेणिवर्गमूलस्य' सूचिश्रेणिप्रथमवर्गमूलस्य 'असंख्यांशः' असंख्ययभागमात्राणि भवन्ति । ननु योगस्य पूर्वस्पर्धकान्यपि सचिश्रेणिप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागमात्राणि सन्ति, त भयेषां को विशेषः ? इत्यत आह-'असंखभागो' इत्यादि, अपूर्वस्पर्धकानि पूर्वेषामपि स्पर्धकानाम् 'असंख्यभागः' असंख्ययभागप्रमाणानि भवन्ति, नाऽधिकानीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"अपुव्वफद्दयाणि सेढीए असंखेजदिभागो। सेदिवग्गमूलस्स वि असंखेजदिभागो । पुव्वफहयाणं पि असंखेजदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि ।” इति ॥२५०॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगकिट्टिनिरूपणम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४८१ अपूर्वस्पर्धककरणाद्धामन्तर्मुहूर्तप्रमाणां व्यतिक्रम्य सयोगिकेवली योगकिट्टीः करोतीत्येतदभिधित्सुराह तत्तो पुव्वाऽपुव्वेहिं फड्डेहिं कुणेइ किट्टीओ। हेट्ठम्मि अपुव्वाणं सेढिअसंखेज्जभागमिआ ॥२५१॥ ___ ततः पूर्वापूर्वेभ्यः स्पर्धकेभ्यः करोति किट्टीः । अधस्तादपूर्वेषां श्रेण्यसंख्येयभागभिताः ।।२५१॥ इति पदसंस्कारः । 'तत्तो' इत्यादि, 'ततः' अपूर्वस्पर्धककरणाद्धासमाप्तितः परं पूर्वापूर्वेभ्यः स्पर्धकेभ्यः 'अपूर्वपाम्' अपूर्वस्पर्धकनामधस्तात् 'श्रेग्यसंख्येयभागमिताः' सूचिश्रेणेरसंख्येयभागप्रमाणाः 'किट्टीः' योगस्य किट्टीः 'करोति' निर्वर्तयति । ननु का नाम किट्टिः ? इति चेत् , उच्यतेएकोतरवृद्धिं परित्यज्या-ऽसंख्येयगुणहीनैकैकवर्गणास्थापनेन योगस्य कर्शनं कृष्टिः अल्पीकरणमित्यर्थः । तथाहि-अपूर्व स्पर्धककरणाद्वायां पूर्वस्पर्धकतो-ऽसंख्येयगुणहीनं योगं कृत्वा योगा-ऽविभागानाकोत्तरवृद्धथा वर्गणाः स्थापयित्वा सूचिश्रेणेसंख्यभागप्रमाणाभिर्वर्गगाभिरेकैकाऽपूर्वस्पर्धकं रचयति स्म । तानि च सर्वाणि निर्वय॑मानान्यपूर्वस्पर्धकानि सूचिश्रेणेरसंख्येयभागप्रमाणानि जायन्ते स्म । किट्टिकरण काले ऽपूर्व स्पर्धकप्रथमवर्गणातो-ऽप्यसंख्येयगुणहीनं योगं कृत्वा योगाऽविभागानामेकोतरवृद्धि विहायोत्कृयकिट्टितोऽसंख्येयगुणहीनक्रमेण किट्टीस्तावत् स्थापयति, यावत् प्रथमकिष्टिः, यता जघन्यकिट्टितो.ऽसंख्येयगुणक्रमेण तावत् स्थापयति, यावदुत्कृष्टकिट्टिः । उत्कृष्टकिट्टायप्यपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातोऽसंख्येयगुणहीना वीर्याऽविभागा भवन्ति । अनेन क्रमेण योगस्याऽल्पीकरणं किद्धिरिति व्यपदिश्यते ॥२५१।। ननु किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये किट्टिकरणे को विधिः ? इत्यत आहओकड्ढए अपुबाइवग्गणाए असंखभागमिआ। अविभागे तह जीवपअसा वि असंखभागमिआ॥२५२॥ अपकर्पत्यपूर्वादिवर्गणाया असंख्यभागमितान । अधिभागांतथा जीवप्रदेशानप्यसंख्यभागमितान् ॥२५२॥ इति पदसंस्कारः । 'ओकड्ढए' इत्यादि, तत्र 'अपूर्वादिवर्गणायाः' किट्टिकरणप्रथमसमयेऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गगायाः 'असङ्ख्यभागमितान्' असंख्येयभागप्रमितान् ‘अविभागान् वीर्या-ऽविभागान् 'अपकर्षति' आकर्षति । 'तह' इत्यादि, 'तथा' तथाशब्दः समुच्चये, 'जीवप्रदेशानप्यसंख्यभागमितान्' पूर्वाऽपूर्वस्पर्धकप्रतिवद्धानां लोकाकाशप्रदेशप्रमितानामात्मप्रदेशानामप्यसंख्येयभागप्रमितान् जीवप्रदेशानाकर्पतीत्यर्थः । उक्तश्च कषायप्राभृतचूर्णी-"अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाएअविभागपडिच्छेदाणमसंखेजदिभागमोकडुदि। जीवपदेसाणमसंखेजदिभागमोकडुदि।" इति । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२] खवगसेढी [गाथा-२५३-२५४ पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्योऽसंख्येयभागमितान् जीवप्रदेशानादाया-ऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणाया असंख्येयभागप्रमाणवीर्या-ऽविभागकाः किट्टीः करोति, तेन चरमकिट्टावप्यपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणातो-5संख्येयगुणहीना वीर्याऽविभागा भवन्ति । अथ योगकिषुि जीवप्रदेशानां प्रक्षेपक्रमोऽभिधीयते-किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये पूर्वापूर्वस्पर्धकेभ्यो-ऽसंख्येयभागप्रमितान् जीव देशान् गृहीत्वा प्रथमकिट्ट प्रभूतान् जीवप्रदेशान् निक्षिपति । ततो विशेषहीनान द्वितीयकिट्टौ निक्षिपति, ततोऽपि तृतीयस्यां किट्टी विशेपहीनान् । एवमुत्तरोत्तरकिट्टी विशेमहीनक्रमेण तावन्निक्षिपति, यावच्चरमकिट्टिः । चरमझिट्टिान किट्टिषु सर्वप्रभूतवीर्याऽविभागका किट्टिः । प्रथमकिट्टि म किट्टिषु सर्वाऽल्पवीर्याऽविभाग का फिट्टिः । चरमकिट्टितोऽपूर्वस्पर्धकप्रथमवर्गणायामसंख्येयगुणहीनान् जीवप्रदेशान् प्रक्षिपति । ततो विशेषहीनान् द्वितीयवर्गणायां निक्षिपति । तत उपरि विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति ॥२५२॥ ननूत्तरोत्तरसमये कि.मधिका अधिकतराः किट्टीः करोति, उत हीना हीनतराः? एवं जीवप्रदेशान् किं वृद्धिक्रमेणाऽपकर्षति, आहोस्विद् हीनक्रमेण, कियतीश्च सर्वाः किट्टीः करोति ? इति पृष्टे गाथाद्वयन प्रतिवक्ति अंतोमुहुत्तकालमसंखगुणूणकमेण किट्टीओ। करए ओकड्ढइ जीवपअसे उण असंखगुणणाए ॥२५३॥ (गीतिः) किट्टीगुणगारो पल्लासंखंसो हवन्ति किट्टीओ। सेढीअसंखभागो अपुब्बफड्डाण उण असंखंसो ॥२५४॥ (गीतिः) अन्तमुहूर्तकालमसंख्यगुणोनक्रमेण किट्टीः । करोत्यपकर्षति जीवप्रदेशान् पुनरसंख्यगुणनया ॥२५३।। किट्टिगुणकारः पल्या-ऽसंख्यांशो भवन्ति किट्टयः ।। श्रेण्यसंख्यभागो-ऽपूर्वस्पर्धकानां पुनरसंख्यांशः ।।२५१।। इति पदसंस्कारः । 'अंतो' इत्यादि, 'अन्तमुहूर्तकालं' अन्तर्मुहूर्तं यावद् 'असङ्खथगुणानक्रमण' असंख्येयगुणहीनक्रमेण 'किट्टीः' अपूर्वकिट्टीः 'करोति' निर्वर्तयति । 'अपकर्षति' आकर्षति जीवप्रदेशान् पुनः 'असङ्ख्यगुणनया' प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"एत्थ अंतोमुहत्तं किट्टीओ करेदि, असंखेजगुणहीणाए सेढोए, जोवपदेसाणमसंखेजगुणाए सेढीए।" इति । इदमत्र तात्पर्यम्-किट्टिकरणप्रथमसमये सूचिश्रेणे संख्ये भागप्रमाणाः किट्टीः करोति, ताश्च प्रभूताः, ततो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणहीनाअपूर्वाः किट्टीः करोति, ततो-ऽपि तृतीयसमये-ऽसंख्येयगुणहीनाः। एवम संख्येयगुणहीनक्रमेण तावत् करोति, यावदन्तम हतप्रमाणायाः किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः। तथा योगा-ऽविभागानाश्रित्य प्राक्तनसमयकृतजघन्यकिट्टितो-ऽप्यसंख्येय Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगकिट्टिगुणकारः ] योगगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४८३ गुणहीना तात्कालिकोत्कृष्टा किट्टर्भवति । तथा किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमये ऽसंख्येयभागत्रमितान् यानू जीवप्रदेशानपकर्षति, ते स्तोकाः, ततो द्वितीयसमये ऽसंख्येयगुणान् जीवप्रदेशानपकर्षति, ततोऽप्यसंख्येयगुणांस्तृतीयसमये । एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावदपकर्षति यावत् किड्डिकरणा द्धायाश्वरमसमयः । प्रथमसमये fairy जीवप्रदेशानां निक्षेपविधिः प्रागभिहितः । सम्प्रति शेषसमयेषु भण्यतेप्रथमसमयतो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणान् जीवप्रदेशानाकृष्य द्वितीयसमये क्रियमाणायां प्रथमा - पूर्वकट्टी प्रभूतान् जीवप्रदेशान् निक्षिपति, ततो द्वितीया - पूर्वको विशेषहीनान् । एवं विशेषही तक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावच्चरमाऽपूर्व किट्टिः । चरमा - पूर्वकिट्टितः प्रथमसमयकृतायां प्रथमपूर्वकद्वावसंख्येयभागहीनान् जीवप्रदेशान् निक्षिपति, तत ऊर्ध्वं विशेपहीनक्रमेण तावत् प्रक्षिपति, यावच्चरमपूर्वकिट्टिः । स्पर्धकेषु निक्षेपः प्रथमसमयवद् वक्तव्यः । एवं शेषेषु सर्वेषु समयेषु निक्षेपोऽभिधातव्यः, नवरं पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमयेऽपूर्वाः किट्टीरसंख्येयगुणहीनक्रमेण निर्वर्त - यति, जीवप्रदेशान् पुनरसङ्ख्यातगुणक्रमेणा ऽपकर्षति । " 'कट्टी' इत्यादि, किट्टिगुणकार : 'पल्या - ऽसङ्ख्यांश:' पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रो ज्ञातव्य इति गम्यते, उक्त ं च कषायप्राभृतचूण- "किही गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।” इति इह किट्टिगुणकार इत्युक्त (१) तात्कालिककिट्टिराशौ येन गुणकारेण गुणिते प्राक्तन समयकृतकिविराशिः प्राप्यते स गुणकारः पल्योपमा - संख्येयभागप्रमाणः किट्टिगुणकारो बोद्धव्यः । (२) यदिवैकं जीवप्रदेशमाश्रित्य प्रथमकिहिगत योगाऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः सन्तो द्वितीयकट्टिगता योगा - ऽविभागा भवन्ति, स गुणकारः पल्योपमा - ऽसंख्येयभाग प्रमाणः fairyणकार इति व्यपदिश्यते । अयं गुणकारो द्वितीयादिविद्विष्वपि तावदभिधातव्यः, यावच्चरमकिट्टिः । चरमकिट्टिगतैकजीव प्रदेशस्थवीर्या - ऽविभागाः पल्योपमाऽसंख्येयभागेन गुणिता अपूर्वस्पर्श्वक प्रथमवर्गणागतैकजीव प्रदेशस्थवोर्याऽविभागा भवन्ति । ततो द्वितीयादिवर्गणास्वनन्तरानन्तरे - प्रदेशस्थवीर्या विभागा विशेषाधिका भवन्ति । (३) यद्वा प्रथमकिट्टिगत सकलजीव प्रदेशानां सकलवीर्याऽविभागा येन गुणकारेण गुणिताः सन्तो द्वितीय किट्टिगत सकलजीवप्रदेशानां सकलवीर्याविभागा जायन्ते, स गुणकारः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमितः किट्टिगुणकार इति व्यवह्रियते । एवं द्वितीय किट्टिगत सकलजीवप्रदेशप्रतिबद्धसर्ववीर्य -ऽविभागा येन गुणकारेण गुणितास्तृतीयकिट्टिगतसकलजीव प्रदेशप्रतिबद्ध सर्ववीर्याऽविभागा भवन्ति, स पल्योपमा -ऽसंख्येयभागमात्रः किट्टिगुणकारः । एवमग्रे ऽपि वक्तव्यः । इदन्त्ववधेयम् — चरम - प्रथमा-पूर्वस्पर्धक प्रथमवर्गणागतसमस्त जीवप्रदेशप्रतिबद्ध सकलवीर्याविभागा असंख्ययगुणहीना भवन्ति, आत्मप्रदेशानामसंख्येयगुणहीनत्वात् । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] [ गाथा-- २५५ अथ किट्टिकरणाद्धायां निर्वर्तितकिट्टीनां प्रमाणं व्याहरति- 'हवन्ति' इत्यादि, तत्र 'किge: ' योगकिय: ' श्रेण्यसङ्घयभागः ' सूचिश्रेणेरसंख्येयभाग प्रमाणा 'भवन्ति' जायन्ते । नन्वपूर्वस्पर्धकान्यपि सूचिश्रेणेरसंख्येयभागमात्राणि जायन्ते स्म तेभ्यः किं किट्टयो हीनाः, उता ऽधिकाः ? न तावदधिकाः, किं तर्हि ? इत्याह- 'अपुव्वफड्डाण' इत्यादि, अपूर्वस्पर्धकानां 'पुनः ' पुनश्शब्दो वाक्यभेदे 'असङ्ख्यांश:' असंख्येयभागमिताः किट्टयो भवन्ति, ना-ऽधिकाः । उक्तं च कषायप्राभृतचूण - “किट्टीओ सेढोए असंखेज्जदिभागो । अपुव्वफद्दयाणं प असंखेज्जदिभागो । ।" इति । तथा किट्टिकरणाद्धायां निर्वर्तिताः सर्वाः किट्टयः सूचिश्रेणिप्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयभाग प्रमिता एव भवन्तीति फलितार्थः, कथमेतदवसीयते ? इति चेत्, उच्यते- अपूर्वस्पर्धकानां सूचिश्रेणिप्रथमवर्गमूल सत्काऽसंख्येयभाग प्रमाणत्वं प्राक्प्रतिपादितम् निर्वतिकिट्टीनां चा-पूर्वस्पर्धक सत्का - संख्येयभागमात्रत्वेन सुतरां सूचिश्रेणिप्रथमवर्गमूला-ऽसंख्येयभागप्रमितत्वं सिध्यति । , aaree जीवप्रदेशानाश्रित्य प्रथमकिट्टितः प्रभृति चरमकिट्टि यावद् विशेषहीनक्रमेण कियस्तिन्ति, वीर्या विभागानाश्रित्य पुनरसङ्ख्यातगुणक्रमेण विद्यन्ते ॥२५३-२५४॥ अथ किरणाद्धा समाप्तायां यद्भवति तद्व्याजिहीर्षु राह किट्टीकरणे सम्मत्ते सेकाले विणासह सजोगी । सव्वाणि उभयफड्डाई जोगो तस्स किट्टिगओ ॥ २५५॥ किरणे समाप्ते - नन्तरकाले विनाशयति सयोगी । सर्वाण्युभयस्पर्धकानि योगस्तस्य किट्टिगतः || २५५ || इति पदसंस्कारः । 'किट्टी ० ' इत्यादि, 'किट्टिकरणे समाप्ते' अन्तर्मुहूर्तप्रमाणायां किट्टिकरणाद्धायां समाप्तायाम् 'अनन्तरकाले ' अनन्तरसमये 'सयोगी' निरुध्यमानसूक्ष्मकाययोगो महात्मा सयोगिकेवली भगवान् 'सर्वाण्युभयस्पर्धकान' समस्तानि पूर्वाऽपूर्वस्पर्धकानि विनाशयति, सर्वाणि पूर्वापूर्वस्पर्धकान किट्टितया परिणमयतीत्यर्थः । 'जोगो' इत्यादि, योगस्तु समाप्तकिट्टिकरणस्य 'तस्य' सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानस्य महात्मनः ‘किट्टिगतः' ततः प्रभृत्यन्तर्मुहूर्तं यावत् किट्टिगतो भवति । अभिहितञ्च कषायप्राभृतचूर्णी - "किट्टीकरणडे पिट्ठिदे से काले पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च णासेदि । अंतोमुत्तं किट्टीगदजोगो होदि ।” इति । लब्धकिट्टिगतयोगो महात्मा सयोगिगुणस्थानकविचरमसमयं यावत् सर्वकट्टीनामसंख्येयभागमिताः किट्टीर्विनाशयति, यतश्चरमसमये बह्वसंख्येयभागमिता विनाशयति । उक्तं चकषाप्राभृतचूर्णी - "किट्टीणं चरिमसमये असंखेजे भागे णासेदि ।” इति । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिगुणस्थानाद्धाधिकारः तृतीयशुक्लध्याननिरूपणम् ] [ ४८५ अत्र किड्डीर्नाशयति नाम तथाविधप्रभूतयोगाऽविभागकविद्विष्ववस्थितान् जीवप्रदेशानल्पतर योगा-ऽविभागकिट्टिषु परिणमयति । न च तावतीषु किट्टिषु स्थिताः प्रदेशा निर्योगकाः क्रियन्त इत्यर्थो गृह्यते, एकस्मिन्नात्मनि जीवप्रदेशानां सयोगत्वाऽयोगत्वाऽनुपपत्तेः ॥ २५५ ॥ ननु सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धानः किं ध्यानं ध्यायति ? इत्यत आहसुहुमत रुम्भन्तो झायइ सुहुमकिरियं अपडिवाइ | चरिमे समये सव्वाओ किट्टीओ विणासे || २५६॥ सूक्ष्मतनुं रुन्धानो ध्यायति सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति । चरमे समये सर्वाः किट्टीर्विनाशयति || २५६ || इति पदसंस्कारः । 'सुमतणु" इत्यादि, 'सूक्ष्मतनु' सूक्ष्मकाययोगं 'रुन्धानः' निरुन्धानः सयोगिकेवली महात्मा सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - "सुहुमकिरियSपडिवादिझाणं झायदि ।" इति । एवं तत्त्वार्थवृत्तावपि - “तमपि स योगं सूक्ष्मं निरुरुत्सन् सर्व पर्यायाऽनुगतम् । ध्यानं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपात्युपयाति वितमस्कम् ॥ १ ॥” इति । सप्तविंशत्यधिकद्विशततमाष्टीकायां प्राक्प्रतिज्ञातम् शेषं शुक्लध्यानद्वयमग्रे यथावसरं वक्ष्यत इति । अतस्तृतीयं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपातिशुक्लं विवर्णयामः, चतुर्थन्त्वग्रे ऽयोगिकेवलिगुणस्थानकाऽधिकारे वक्ष्यामः । 1 सूक्ष्मा क्रिया = काययोगलक्षणा यस्मिन् ध्याने, तत् सूक्ष्मक्रियम् प्रतिपततीत्येवंशीलं प्रतिपाति, न प्रतिपातीत्य प्रतिपाति, एतद्ध्यानानन्तरं व्युपरतक्रिया - ऽनिवृत्तिध्यानोपलम्भेना-ऽधःप्रतिपाताभावात् । सूक्ष्मक्रियं च तदप्रतिपाति चेति सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति । सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धान इदं तृतीयशुक्लध्यानमुपगच्छति, यदवादि ध्यानशतके "निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुडजोगस्स । सुम किरिया नियहिं तइयं तणुकायकिरियस्स ॥ १ ॥” इति । नन्वेकाग्रचिन्तानिरोध इति ध्यानशब्दार्थः तर्हि केवलिनो मनसोऽभावाद् ध्यानं कथमिध्यते ? इति चेत्, उच्यते - समीचीनमेतद् - केवलज्ञानदर्शनोपयोगेन प्रत्यक्षीकृतसकलपदार्थस्य केवलिन एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणं ध्यानं न घटत इति, किन्तु (१) ध्यानमिव ध्यानमिति व्युत्पत्तिसमाश्रयणाद् न कचिद् दोषः । क उपमार्थः ? उच्यते यथा पृथक्त्ववितर्कसविचारैकत्ववितकाऽविचाररूपशुक्लध्यानद्वयं धर्मध्यानं चोपगतो जीवादिपदार्थांश्चिन्तयन् कर्माणि क्षपयति, तथा सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपातिध्यानोपगतो मनसोऽभावेना-सत्यामपि चिन्तायां कर्माणि क्षपयति । अतः कर्म Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] aarसेढी [ गाथा - २५६ दहनसामान्याद् युक्तमेव भगवतो ध्यानम्, यदभिहितम् आवश्यकचूर्णी- "इह यथा पृथक्त्वेक व वितर्कपूर्वशुक्लध्यानद्रयपरिणत आत्माऽर्थान् चिन्तयन् साम्परायिकं दहति, यथा वा धर्मस्य ध्याने परिणतः कर्मपर्वतं क्षपयति, तथा सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवृत्तिध्यानद्वय परणितोऽप्यात्मा असत्यामपि चिन्तायां कर्म क्षपयतीत्यतः कर्मक्षपणसामान्यात् ध्यानमिव ध्यानमिति सिडम् ।" इति । न च ध्यानस्य कर्मक्षपण सामर्थ्यमसिद्धमिति वाच्यम्, पूर्वमहर्षिभिर्थ्याने कर्मविनाशसामर्थ्यस्य प्रतिपादित्वात् । तथा चात्र ध्यानशतकम् - "अंबर- लोह-महोणं कमसो जह मल-कलंक-पंकाणं । सोझाव यणसोसे साहेति जलाऽणलाइच्चा ॥ १॥ तह सोज्झाइस मत्था जीवंबर - लोह - मेइ णिगयाणं । झाण-जल-Sणलसूरा कम्म-मल-कलंक- पंकाणं ॥२॥ तापो सोसो भेओ जोगाणं झाणओ जहा निययं । तह ताव - सोस भैया कम्मस्स वि झाइणो नियमा ||३||" इति । (२) यद्वा यथा छद्मस्थस्य सुनिश्चलं मनो ध्यानं भण्यते, तथैवाऽस्य सयोगिकेवलिनो योगत्याsoयभिचारात् सुनिश्चलः कायो ध्यानमुच्यते, इत्थं युक्तमेव भगवतो ध्यानम्, निश्चलत्वसामान्यात्, तथा चोतं ध्यानशतके - 2 "जह छउमत्थस्स मणोझाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो । तह केवलिणो काओ सुनिच्चलो भन्नइ झाणं ॥ १ ॥” इति । (३) अथवा मनोविशेष एव ध्यानमित्यनैकान्तिकम् । इदमुक्तं भवति यथा ध्यै चिन्तायाम्, तथा ध्यैधातुः काययोगनिरोधेऽपि, नानार्थत्वाद् धातूनाम्, यदुक्त' - "निपाताश्चोपसर्गाश्च धातवश्चेति त्रयः । अनेकार्थाः स्मृताः लोके पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ १ ॥” इति । अतः सयोगिकेवलिनां कायनिरोधप्रयत्नस्वरूपं ध्यानमुपपद्यते । उक्तं च विशेषाऽऽवश्यकभाष्यकार महर्षिभिः- "झाणं मणोविसेसो तदभावे तस्स संभवो कत्तो । भण्णइ भणियं झाणं समए तिविहे वि करणंमि ॥ १ ॥ सुदढप्पयत्तवावारणं निरोहो व विजमाणाणं । झणं करणाणमयं न उ चित्तनिरोहमित्तागं ॥२॥ होज न मणोमयं वाइयं च झाणं जिणस्स तदभावे । कायनिरोधपत्तयस्स भावमिह को निवारेइ ॥ ३ ॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोगिकेवलिकालतुल्यस्थितिकरणादिकम् ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४८७ जइ छउमत्थस्स मणोनिरोहमेत्तप्पयत्तयं झाणं । कह कायजोगरोहप्पयत्तयं होइ न जिणस्स ? ॥४॥” इति । तथैव गुणस्थानकक्रमारोहेऽपि "छद्मस्थस्य यथा ध्यानं मनसः स्थैर्यमुच्यते । तथैव वपुषः स्थैर्य ध्यानं केवलिनो भवेत् ॥१॥" किञ्च जीवोयोग सद्भावाजिनागमवचनप्रामाण्याच सिध्यति सयोगिकेवलिनो ध्यानम् । तृतीयशुक्लध्यानोपगतः काययोगे परमशुक्ललेश्यायां च वर्तते, यदुक्तं ध्यानशतके "पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बितियमेकजोगम्मि । तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगंमि य चउत्थं ॥१॥ सुकाए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेसाए। थिरया जियसेलेसिं लेसाईयं परमसुकं ॥२॥” इति । तृतीयशुक्लध्यानं ध्यायन वेदनीयादीनां च स्थितिघातादीन् कुर्वन् योगकिट्टीव विनाशयन् सयोगिगुणस्थानकचरमसमयं प्राप्नोति, तदानीं योगं निमूलतो नाशयति, तद्वयाजिहीपुराह'चरिमें' इत्यादि, 'चरमे समये' सयोगिकेवलिगुणस्थान स्यान्त्यसमये 'सर्वाः'अशेषाः 'किट्टीः' योगकिट्टीः 'विनाशयति' निःशेषतो नाशयति, इत्थं निश्चयनयमाश्रित्य सयोगिकेवलिगुणस्थानकचरमसमये सर्वात्मना योगकिट्टिनाशो जायमानो जातः । तदेवं समर्थितो योगनिरोधः । ____ अथ सयोगिकेवलीचरमसमयेऽयोगिकेवलिकालतुल्यस्थितिकरण-जघन्यस्थितिसंक्रमादयो भण्यन्ते-सयोगिकेवलिगुणस्थानकचरमसमये चरमस्थितिघातेन नाम-गोत्र-वेदनीयानामयोगिगुणस्थानकोपरितनस्थितिं घातयित्वोदये स्तोकं दलं ददाति, ततो-ऽनन्तरे द्वितीयस्मिनिषेके-ऽसंख्येयगुणं दलं ददाति । ततो-ऽपि तृतीयनिषेके-ऽसंख्येयगुणं ददाति । एवमसंख्येयगुणक्रमेण तावद् ददाति, यावदयोगिकेवलिगुणस्थानकस्य चरमसमयः । इत्थं सयोगिगुणस्थानकचरमसमये सर्वाग्यपि कर्माण्ययोगिकेवलिगुणस्थानककालसमस्थितिकानि जातानि, येां च कर्मणामयोग्यवस्थायामुदयाऽभावः,तेषां स्थिति स्वरूपं प्रतीत्य समयोनां विदधाति । सामान्यतः सत्ताकालं तु प्रतीत्या-ऽयोग्यवस्थासमानामिति । कुतः ? इति चेत्, उच्यतेअनुदयवत्यः प्रकृतयश्चरमसमये स्तिबुकसंक्रमेणोदयवतीषु संक्रमिष्यन्ति, तेन चरमसमये स्वरूपेण न प्राप्स्यन्ते, किन्तूदयवत्प्रकृतिरूपेण प्राप्स्यन्ते । तेनोदयवतीनां प्रकृतीनां दलिकं कालमाश्रित्याऽयोगिचरमसमयं यावत् स्वस्वरूपेण स्थास्यति, उदयरहितानां प्रकृतीनां दलिकं तु द्विचरमसमयंयावत् स्वरूपेण, चरमसमये स्तिबुकसंक्रमणेन तासां संक्रमयिष्यमाणत्वेन परस्वरूपेणोपलम्भात् । यद्वा येषां कर्म गामयोगिकैवलिगुणस्थानकयुदयो भवति, तेषामयोगिकेवलिगुणस्थानकाल Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] खवगसेढी - [गाथा-२५६ प्रमाणा स्थितिर्भवति, येषां तूदयो न भवति, तेषां निवेकमाश्रित्य समयोना भवति, प्रथमनिषेकस्य स्तिबुकसंक्रमेण संक्रान्तत्वात् । कालमाश्रित्य त्वयोगिगुणस्थानककालप्रमाणा भवति, यथा बन्धेवाधास्थितौ दलाऽभावे-ऽपि स्थितिश्वरमनिषकमाश्रित्य भण्यते, तथैवात्राऽपि चामनिषेकमाश्रित्य स्थितिरयोगिगुणस्थानकालप्रमाणा भग्यते । प्रत्यपादि च सातिकाचूर्णी-"तस्स चरिमसयोगिकेवलिस्स कम्माणि उव्वहिजमाणाणि उव्वहिजमाणाणि सव्वोवट्टणाए उव्वहियाणि अजोगिकेवलिकालसमठितियाणि जायाणि । जेसिं कम्माणं अजोगिम्मि उदओ नत्थि, तेसिं ठित समऊणं ठवेइ दलिअं पडुच्च न कालं ।" इति। तथा सयोगिगुणस्थानकचरमसमये नरकद्विक-तिर्यद्रिक-पञ्चेन्द्रियजातिरहितशेषजातिचतु. ष्टय-स्थावर-सूक्ष्म-साधारणा-ऽऽतपोद्योतनामानि वर्जयित्वा शेषाणां नामकर्मनवतिप्रकृतीनां (९०) वेदनीयद्विकस्य गोत्रद्विकरय च जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति । अभ्यधायि च कर्मप्रकृतिचूर्णी"चरिमसजोगे जा अस्थि,तासिं सो चेव'जोगंतिया चउणउती पुव्ववणिया,तासिं सो चेव सजोगिकेवली चरिमोवटणे वद्यमाणो सामो।" इति । तदानीमेव मनुष्यगतिपञ्वेन्द्रियजात्यौदारिकसप्तक-तैजससप्तक-प्रथमसंहनन-संस्थानषटक-वर्णादिविंशतिक-प्रशस्ताऽप्रशस्तखगति-पराघातोपघाता-ऽगुरुलघु-तीर्थङ्कर-निर्माण-बस-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक-स्थिराऽस्थिर-शुभा-ऽशुभ-सुभगा-ऽऽदेय-यशःकीच्युच्चैर्गोत्ररूपाणां द्वापष्टिप्रकृतीनां (६२) जघन्यस्थित्युदीरणा गुणितकर्माशस्य च महात्मन एतासां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशोदीरणा जायते । इह कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादिभिः स्वरद्विकस्योच्छ्वासस्य च प्रकृत्युदीरणोत्कृष्टप्रदेशोदीरणे क्रमेण वाग्योगनिरोधकाल उच्छ्वासनिरोधकाले च दर्शिते, अक्षराणि त्वेवम्-"उस्सासणामस्स आणपाणुपन्जत्तीए पजत्ता सव्वे उदोरगा सुस्सरदुस्सराणं भासापजत्तोए पज्जत्तगा उदोरगा। 'सव्वणणस्सासो भासा वि य जा ण रुज्झंति' सव्वण्णणं केवलोणं उस्सासभासातो जाव ण निरुज्झंति, ताव उदीरेति, परत्थ उदयाभावातो स्थि उदीरणा । xxxxसरणिरोहकालम्मि सुस्सरदुस्सराणं सो चेवुक्कोसपदेसुदीरतो(...गो) आणपाणुणिरोहसमते सो चेव केवली आणपाणणं । इति । तेषां जघन्यस्थित्युदीरणा पुनः सयोगिकेवलिचरमसमये प्रोक्ता,अक्षराणि त्वेवम्- “मणुयगति-पंचिदियजाति-उरालियसत्तगं छसंठाण-पढमसंघयणं उवघायं परघायं उस्सासं पसत्थापसत्थविहायगति-तसं बायरं पजत्तगं पत्तेयसरीरं सुभगं सुसरं दुसरं आएज्जं जसं तित्थकरं उच्चागोयं, एत्ताओ बत्तीसं धुवोदीरणातेतीससहितातो पणसहि होति । एतासिं उदीरणते त्ति सयोगिकेवलिचरमसमये जहणिया हिदिउदीरणा होइ ।” इति । तदत्र प्रकृत्युदीरणाभावे कथं स्थित्युदीरणा भवति ? इति वयं न विद्मः तेषां कोऽभिप्राय इति । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्वर-दुःस्वरोच्छ्वासानामुदयविच्छेद आक्षेप-परिहारौ ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [४८९ *अतो वयमपि तथैव दर्शयामः । न चैकान्तेन युक्त्युपन्यास आग्रहः कार्यः, अतीन्द्रियपदार्थेषु तर्काणामकिञ्चित्करत्वाद् आगमोपपत्तिगम्यमानत्वाच्च तत्वस्य, यदुक्तं योगविन्दौ दुःषमान्धकारप्रदीपैर्जिनप्रवचनकुशलैः श्रीहरिभद्रसूरिपादैः “यत्नेनाऽनुमितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ॥१॥ ज्ञायरन हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात्तेषु निश्चयः ॥२॥ न चैतदेवं यत्तस्माच्छुष्कतर्कग्रहो महान् । मिथ्याभिमानहेतुत्वात्त्याज्य एव मुमुक्षुभिः ॥३॥” इति । उक्तश्चाऽन्यत्राऽपि-"आगमश्चोपपतिश्च सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । ___अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥” इति । एवं चरमसमये पञ्चपष्टिप्रकृतीनां जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । अथवा कर्मप्रकृतिचूर्णिकारादिभिर्यदुक्तं सयोगिकेवलिगुणस्थानकचरमसमय उच्छ्वासस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवतीति, तत् सामान्येना-ऽभिहितम् , “व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिनहि संदेहादलक्षणम् ।” इति न्यायेनोच्छ्वासं निरुन्धानस्य सयोगिकेवलिनश्चरमसमय उच्छवासस्य जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । एवं वाग्योगं निरुन्धतः सयोगिकेवलिनश्चरमसमये सुस्वर-दुःस्वरयोजघन्यस्थित्युदीरणा भवतीति व्याख्येयम् . । तत्वं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । . धवलाकारास्तु सुस्वरदुःस्वरयोरुच्छवासस्य च प्रकृत्युदयं क्रमेण वागयोगनिरोधकालमुच्छवासनिरोधकालं च यावत् प्रतिपादयन्ति । अक्षराणि त्वेवम् – “उस्सास्सारणापारणपज्जत्तीए पज्जत्तयदो जाव चरिमसमय उस्सासरिगरोहकारम्रो ति ताव वेदनो। xxx सुस्सरदुस्सराणं को वेदप्रो? भासापजत्तीए पज्जत्तदो जाव भासारिगरोहस्स अकारो त्ति' इति । एवमुत्कृष्टप्रदेशोदीरणामपि निरूपयन्ति । किन्तु प्रकृत्युदोराणां जघन्यस्थित्युदीरणां च सयोगिकेवलिचरमसमयं यावद् व्याहरन्ति । अक्षराणि त्वेवम् – “उस्सासणामाए मिच्छाइटिपहुडि जाव सजोगि चरिमसमयो ति [उदीरणा] xxx सुस्सरदुस्सराणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरमसमो त्ति उदीरणा। xxx अगुरुलघुप्र--उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगदि-तस-बावर-पज्जस-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-प्रादेज्ज-जसगित्ति-तित्थयर-रिणमिणणामारणं जहण्गट्टिदिउदीरो को होदि? चरिमसमयसजोगी ।" इति । इत्थं वाग्योगोच्छवासयोः प्राग निरुद्धत्वात् सुस्वर-दुःस्वरोच्छवासानां प्रकृत्युदयं धिना सयोगिकेत्रलिचरमसमये तेषां प्रकृत्युदीरणा जघन्यस्थित्युदीरणा च कथं भवेताम्? उदयाभावे उदीरणाऽयोगादिति ना-ऽवबुध्यते तदभिप्रायः । व्याख्यातश्चैतदर्थः सत्कर्मपञ्जिकायामपि--"एत्य जाव सयोगिकेवलिचरिमसमयो ता उस्सासमुदीरेदि त्ति उत्ते उस्सासगिरोहं करेंतकेवलिचरिमसमयो जाव तावेदस्सुस्सासुदीरणा जोव-पदेसारणं परिप्फंदमुस्सासरुवं च करेदि । तत्तो परं ते दोषिण वि कज्जारिग करेदुमसत्था होदूरण तत्थ फलं सगरूवेणं पदेसरिणज्जरं रण करेदि त्ति वत्तव्वं ॥” इति । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढी ४९० ] [ गाथा - २५७-२५९ तथा तैजससक-मृदु लघुवर्जशुभवर्णादिनवका ऽगुरुलघु-स्थिर-शुभ-सुभगा -ऽऽदेय-यशः- कीर्तिनिर्माणोच्चै गोत्र - तीर्थ करनाम्नां पञ्चविंशतिसंख्यकानामुत्कृष्टा ऽनुभागोदीरणा, कृष्ण-नील दुरभिगन्धतिक्त-कटु-शीत- रूक्षा-स्थिरा - शुभरूपाणां च नवानां प्रकृतीनां जघन्यानुभागोदीरणा भवति । उक्तञ्च कर्मप्रकृतिचूर्णी - " सजोगिकेवलिस्स अंते सव्वोवट्टणाए वहमाणस्स सुभपगतो, कयरासिं ? भन्नइ - वेज तिगस तगं सुभवन्नेक्कारसगं मउय-लहुहोणं अगुरुलहुगं थिर- सुभ-सुभगं आरजं जसं निर्मिणं उच्चागोयं तित्थकरनामार्ण एयासिं पणुवीसाणं पगतीणं उक्कोसाणुभागउदीरणा लम्भति । कक्खडगुरुगहोणं कुवण्णणवर्ग अधिरं असुभं एतेसिं णवण्हं कम्माणं सजोगिकेवलिचरिमसमए जहण्णाणुभागुदीरणा ।” इति । योगिकेवलिगुणस्थानकच हम समय औदारिकस तक तैज प्रसप्तक-प्रथमसंहनन- संस्थान पटकघर्णादिविंशतिक--प्रशस्ता-ऽप्रशस्तखगति--पराघातोपघाता-गुरुलघु-निर्माण-प्रत्येक-स्थिरा -ऽस्थिरशुभा-ऽशुभरूपाणां द्वापञ्चाशत्प्रकृतीनां (५२)जघन्य स्थित्युदयो गुणितकर्माशस्य च महात्मन उत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति, सुस्वरदुःस्वरयोरुच्छ्वासस्य च जघन्य स्थित्युदयो गुणितकर्मांशस्य चोकृष्ट प्रदेशदयः प्रागेव क्रमेण वाग्योगनिरोधचरमसमय उच्छ्वासनिरोधचरमसमये च भवति स्म । तथा तैजससप्तव - मृदुलघुवर्जशुभवर्णादिनव काऽगुरुलघु-स्थिर-शुभ-सुभगा ऽऽदेव-यशः कीर्त्ति-निर्माण- तीर्थकरोचेगोत्र लक्षणानां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागोदयो कृष्ण-नील-दुरभिगन्ध-तित-कटु-शीत- रूक्षास्थिरा - शुभरूपाणां च नवानां जयन्याऽनुभागदयो भवतः उदीरणातुल्यत्वात्तयोः ॥ २५६॥ अथ सयोगिकेवलिगुणस्था तत्र चरमसमय उदयविच्छेदं गाथात्रयेण प्रतिपादयतिचरिमसमये सजोगिस्स य अण्णयरस्स वेयणीयस्स । ओरालियदुग- तेजस-कम्मण-संठाणळका ॥ २५७॥ तह पढमसंघयण वण्णचउक्काण तह दोण्ह खगईणं । अगुरुल हुय उवधाय-परधाय निम्माणणामाणं ॥ २५८ ॥ पत्त य-थिरा थिर-णामाण तह सुहाऽमुहाण वोच्छिष्णो । उदओ पुव्वं चिय सुसर दुस्सरुस्सासणामाणं ॥२५९॥ चरमसमये सयोगिनश्चाऽन्यतरस्य वेदनीयस्य । औदारिकद्विक- तैजस-कार्मण-संस्थानषट्कानाम् ।।२५७।। तथा प्रथम संहनन-वर्णचतुष्कयोस्तथा द्वयोः खगत्योः । अगुरुलघूपघात- पराघात निर्माणनाम्नाम् ।।२५८|| Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयोगिकेवलि चरमसमयः ] सोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४९१ प्रत्येक-स्थिरा-ऽस्थिरनाम्नां तथा शुभा-ऽशुभयोर्व्यवच्छिन्नः । उदयः पूर्वमेव सुस्वर-दुस्स्वरोच्छ्वासनाम्नाम् ।।२५९।। इति पदसंस्कारः ।। 'चरिमसमये' इत्यादि, तत्र 'सयोगिनश्च सयोगिकेवलिनश्चरमसमये च 'अन्यतरस्य वेदनीयस्य' साता-ऽसातयोरन्यतरवेदनीयकर्मणः 'औदारिकटिक-तैजस-कार्मण-संस्थानषटकानाम्' औदारिकद्विकस्य औदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गरूपस्य तेजसस्य तैजसशरीरनामकर्मणः कार्मणस्य कार्मणशरीरनामकर्मणः संस्थानपटकस्य समचतुरस्र-न्यग्रोधपरिमण्डल-सादि-बामन-कुब्ज-हुण्ड लक्षणस्य च, तथा 'प्रथमसंहनन-वर्णचतुष्कयोः' प्रथमसंहननस्य वज्रर्षभनाराचस्य वर्णचतुष्कस्य-वर्ण-गन्धरस-स्पर्शाख्यस्य च, तथा 'द्वयोः खगत्योः' प्रशस्तविहायोगतेरप्रशस्तविहायोगतेश्च 'अगुरुलघूपघातपराघात-निर्माणनाम्नाम्' अगुरुलघुनामकर्मण उपघातनामकर्मणः पराघातनामकर्मणो निर्माणनामकर्मणश्च 'प्रत्येक-स्थिरा-ऽस्थिरनाम्नां' प्रत्येकनामकर्मणः स्थिरनामकर्मणो-ऽस्थिरनामकर्मणश्च 'शभा-ऽशभयोः' शुभनामकर्मणो-ऽशभनामकर्मणश्चोदयो व्यवच्छिन्नः । तत्रैकतरं वेदनीयं यदयोगिकेवलिना न वेदयितव्यम् , तत् सयोगिकेवलिचरमसमय उदयतो व्यवच्छिद्यते,अयोगिगुणस्थानके वेदनीयोदयस्य परावृत्तेरभावात् । तथा नामकर्मणोऽप्युक्तौदारिकद्विकादिप्रकृतयो व्यवच्छिनोदया भवन्ति, उतरत्रोदया-ऽभावात् । इह मूले सयोगिकेवलिगुणस्थानकवरमसमये नामकर्मणः सप्तपष्टिभेदानाश्रित्य पड्विंशतिनामकोत्तरप्रकृतीनामुदयविच्छेदो-ऽभिहितः, व्यधिकशतभेदाँस्त्ववलम्ब्य द्वापञ्चाशत्प्रकृतीनामुदयविच्छेदो वक्तव्यः, औदारिकद्विकमपनीयौदारिकशरीरौदारिकाऽङ्गोपाङ्गौदारिकौदारिकबन्धनौदारिकतैजसबन्धनौदारिककार्मणबन्धनौदारिकतैजसकार्मणबन्धनौदारिकसंघातनलक्षणौदारिकसप्तकस्य तैजस-कार्मणलक्षणशरीरद्वयममपनीय तैजसशरीर-तैजसतैजसबन्धन-तैजसकार्मणवन्धनतेजससंघातन-कार्मणशरीर-कार्मणकार्मणबन्धन-कार्मणसंघातनाख्यतैजससप्तकस्य वर्णचतुष्कश्चा-ऽपनीय कृष्ण-नील-लोहित-हारिद्र-शुक्ल-तिक्त-कटु-कषाया-ऽऽम्ल-मधुर-सुरभि-दुरभि-गुरु-लघु-मृदु-खरशीतोष्ण-स्निग्व-रूक्षरूपविंशतिप्रकृतीनां प्रक्षेपात् । . ननु सयोगिकेवलिचरमसमये सुस्वर-दुःस्वरोच्छ्वासनामकर्मणामप्युदयविच्छेदः कुतो नोक्तः ? इत्यत आह-'पुव्वं' इत्यादिः, पूर्वमेव 'सुस्वर-दुःस्वरोच्छ्वासनाम्नां' सुस्वरनामकर्मणो दुःस्वरनामकर्मण उच्छ्वासनामकर्मणश्चोदयो व्यवच्छिन्नः, वागयोगनिरोधकाले सुस्वर-दुःस्वरयोरुच्छ्वासनिरोधकाले चोच्छ्वासस्योदयो व्यवच्छिन्न इत्यर्थः । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णी-"तम्मि चेव समए ओरालिय-तेया-कम्मइगसरोरसंबडाणं बंधण-संघाय छन्हं संठाणाणं पढमसंघयण-ओरालियंगोवंगं वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरु० उवघाय-पराघाय-विहग०२पत्तेय-थिराथिर-सुभासुभ-निमेणणामाण एएसिं कम्माणं उदओदीरणाणं वोच्छेओ, ऊसास-सरा हेडओ निरुडा।” इति । अत्र चूर्णिकारैर्नामकर्मण एवोदयोदीरणाविच्छेदः प्रदर्शितः, तेना-ऽन्यतरवेदनीयस्योदयविच्छेदो नोल्लिखितः । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२] खवगसेढी [ गाथा-२६० सयोगिचरमसमये सर्वथोच्छ्वासनिरोधं मन्यन्त आवश्यकचूर्णिकारादय इत्यस्माकं मतिः । यदुक्तमावश्यकचूर्णी-"ताहे आणपाणुणिरोहं काउं अजोगो भवति ।" इति । सूक्ष्म क्रिया-ऽप्रतिपातिध्यानसामर्थेन संस्थानप्रमाणमुच्छायप्रमाणं च क्रमेण ह्रासयतः केवलिनश्चरमभवे यत् संस्थानप्रमाणमुच्छायप्रमाणं च भवति, तदुच्छायप्रमाणतस्त्रिभागहीनौ संस्थानोच्छायौ निरुद्धयोगस्य महात्मनः सयोगिकेवलिचरमसमये भवतः,यतो मुखश्रवणोदरादिविधराणि स्वात्मप्रदेशैः पूरितानि भवन्ति, यदुक्तमावश्यकचूर्णी-“जाइं च से सरोरे कम्मणिव्वत्तियाइं मुहसवणसिरोदरादिच्छिद्दाइं तानि वियोएमाणो२ तिभागूणं पदेसोगाहणं करेति।” इति । एवं वाचकमुख्यैरपि "चरिमभवे संस्थानं यादृग् यस्योच्छ्यप्रमाणं च। तस्मात् त्रिभागहीनावगाहसंस्थानपरिणाहः ॥१॥” इति ॥२५७-२५८-२५९।। अथ सयोगिकेवलिगुणस्थानचरमसमये ये सप्त पदार्था युगपद् व्यवच्छिद्यन्ते,तान् व्याजिहीर्घ राह किट्टी जोगो ठिइरसघाओ णामदुगुदीरणा लेसा। बंधो तइयज्झाणं य सत्त अन्तम्मि वोच्छिण्णा ॥२६०॥ किट्टयो योगः स्थितिरसघातो नामद्विकोदीरणा लेश्या।। बन्धस्तृतीयध्यानं च सप्ता-ऽन्ते व्यवच्छिन्नाः ॥२६०।। इति पदसंस्कारः । 'किट्टी' इत्यादि, 'किट्टयः प्रागनिरूपितशब्दार्थाः सर्वा योगकिट्टयः 'योगः' जीवप्रदेशपरिस्पन्दनलक्षणः करणवीर्यमित्यर्थः, स्थितिरसघातो 'नामदिकोदीरणा' नाम-गोत्रयोरुदीरणा 'लेश्या' शुक्ललेश्या 'वन्धः' सातवेदनीयस्येर्यापथिकवन्धः 'तृतीयध्यानं' सूक्ष्मक्रिया-ऽप्रतिपातिनामधेयं ध्यानं च सर्वसङ्ख्यया 'सप्त' सप्तमङ्खयकाः पदार्था 'अन्ते' सयोगिकेवलिगुणस्थानकस्य चरमसमये युगपद् 'व्यवच्छिन्नाः' अपुनर्भावेना-ऽपगता भवन्ति । न चैषा सप्तपदार्थव्यवच्छित्तिः स्वमनीषिकया-ऽभिहिता, पूर्वमहर्षिभिरुक्तत्वात् । तथा चा-ऽऽहुः श्रीमन्मलयगिरिपादाः-"तस्मिंश्च सयोग्यवस्थाचरमसमये सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपातिध्यानं सर्वाः किटयः स द्यबन्धो नामगोत्रयोरुदोरणा योगः शुक्ललेश्या स्थित्यनुभागघातश्चेति सप्तपदार्थाः युगपद्धयवच्छिद्यन्ते।” इति । भावार्थः पुनरयम्सयोगिगुणस्थानकचरमसमये सर्वा योगकिट्टयो व्यवच्छिद्यन्ते, सर्वथा तन्नाशस्य दर्शितत्वात् । योगकिट्टीनां व्यवच्छिन्नत्वाद् योगोऽपि व्यवच्छियते । न च फिट्टीनां नाशेन योगव्यवच्छेदोऽनुक्तः सिद्धः, कुतः पदार्थान्तरत्वेनोपदिश्यत इति वाच्यम् , मन्दबुद्धिजनानां सुखायोधाय प्रतिपादितत्वेन विरोधा-ऽभावात् । · करणवीर्यरूपस्य योगस्य व्यवच्छेदात् स्थितिघातरसघातलक्षणा-ऽपवर्तना, उदीरणा लेश्या बन्धश्च निवर्तन्ते, तेषां योगनिमित्तत्वात "निमि ता-5मावे नैमित्तिकस्याप्यभावः” इति न्यायोपलम्भाच्च । तृतीयध्यानस्य फलं योग Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयोगिगुणस्थानकाद्धाचरमसमयः ] सयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४९३ निरोधः, तेन योगनिरोधलक्षणफले समुत्पन्न तत्कारणं सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपातिध्यानं निवर्तते, प्रयोजनसिद्धेः । इत्थं सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानवलेन निरुद्धकाययोगो विगतलेश्यो देहे स्थितोsपि निर्वाणं यियासुः केवलज्ञानी भगवान् निष्क्रियो भवति । उक्तं च 1 "ध्याने दृढा -S-पिते परमात्मनि ननु निष्क्रियो भवति कायः । प्राणापातनिमेषोन्मेषवियुक्तो मृतस्येव ॥१॥ ध्याना - Sर्पितोपयोगस्या- ऽपि न वाङ्मनसक्रिये यस्मात् । अन्तर्वर्त्तित्वादुपरमतस्तेन तयोर्ध्यानेन निरोधनं नेष्टम् || २ || सततं तेन ध्यानेन निरुद्धे सूक्ष्मकाययोगेऽपि । निष्क्रियदेहो भवति स्थितोऽपि देहे विगतलेइयः ||३||” इति ॥ २६०॥ तदेवं समर्थितोऽष्टमोऽधिकारः । सयोगिकेवलिगुणस्थानकचरमसमये प्रवर्तमानपदार्थानां यन्त्रकम् । (१) उदयप्रतीनां प्रकृतीनान योगिगुणस्थानका द्वाप्रमाणां स्थितिं विदधाति । (२) अनुदयवतीनां प्रकृती नाम योगिगुणस्थानकाद्वापेक्षया समयोनां स्थिति निर्वर्तयति । (३) नरकद्विक-तिर्यद्विक- पञ्चेन्द्रियवर्ज जातिचतुष्टय-स्थावर - सूक्ष्म-साधारणा-ऽऽतपोद्योतवजीनां शेषाणां नामकर्मवतिप्रकृतीनां (९०) वेदनीयद्विक-गोवद्विकयोश्च जघन्यस्थितिसंक्रमो भवति । (४) मनुष्यगति-पञ्चेन्द्रिय जात्यौदारिकसतक- तै जससप्तक- प्रथम संहनन- संस्थानपट्क-वर्णादिविंशतिक-खगतिद्विक-पराघातोपघातोच्छ्वासा- गुरुरुवु तीर्थङ्कर-निर्माण त्रस बादर-पर्यात प्रत्येक स्थिरा-स्थिर-शुभा-Sशुभ-सुभग-सुस्वर- दुःस्बराऽऽदेय यशः की त्युरुचैर्गोत्ररूपाणां पञ्चषष्टिप्रकृतीनां (६५) जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । सुदुः स्त्ररोच्छ्वास वर्जानां निरुक्तमनुष्यगत्यादीनां जघन्यस्थित्युदीरणा भवति । (५) अनन्तरोक्तपञ्चषधि॒िप्रकृतीनाम् (६५) उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा गुणितकर्माशजीवस्य भवति । अथवा सुस्वर-दुःस्वरोच्छ्वासवर्णानां शेषाणां द्वाषष्टिप्रकृतीनाम् (६२) उत्कृष्टप्रदेशोदीरणा भवति । (६) तैजससप्तक- मृदुलघुत्रर्जशुभवर्णादिनत्रका ऽगुरुलघु-स्थिर-शुभ-सुभगा ऽऽदेय-यशः कीर्त्ति निर्माणोच्चैर्गोत्र तीर्थकरनाम्नां पञ्चत्रिंशतिकर्मणाम् (२५) उत्कृष्टानुभागोदोरणा भवति । (७) अनन्तरोक्तानां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागोइयो भवति । (८) कृष्ण - नील- दुरभिगन्ध-तिक्त-कटु-शीत- रूक्षा ऽस्थिरा ऽशुभरूपाणां नवप्रकृतीनां (९) जघन्या- ऽनुभागोदीरणा भवति । (९) अनन्तरोक्तनत्रप्रकृतीनां जयन्या- अनुभागोदयो भवति । (१०) औदारिकद्विक--तैजस- कार्मणशरीर-संस्थानपट्क-प्रथम संहनन-वर्णचतुष्क--खगतिद्विका ऽगुरुलघूपघातपघात-निर्माण-प्रत्येक स्थिरा --ऽस्थिर - शुभाशुभा - ऽन्यतरवेदनीयरूपाणां सप्तत्रिंशतिप्रकृतीनाम् (२७) उदयो व्यवच्छिद्यते । नामकर्मणस्त्र्यधिकशत भेदास्त्वाश्रित्य त्रिपञ्चाशत्प्रकृतीनामुद्यो व्यवच्छिद्यते । (११) चरमभवापेक्षया देहः संस्थानत उच्छायतश्च त्रिभागहीनो भवति । (१२) सप्तपदार्थानां व्यवच्छित्तिः । तद्यथा (१) योगकिट्टीनां सर्वथा विनाशः । (४) नामगोत्रयोरुदीरणाया व्यवच्छेदः । (६) सातवेदनीयबन्धस्योच्छेदः । (२) योगस्य विनाशः । (३) स्थितिघात - रसघातयोर्विच्छेदः । (५) शुक्ललेश्याया उच्छेदः । (७) सूक्ष्मक्रिया - ऽप्रतिपातिध्यानस्या-ऽपगमः । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ ] खबगसेढी गाथा-२६१ सम्प्रति नवममधिकारमयोगिगुणस्थानकाख्यं प्रतिपादयितुकाम आहसेकाले लहइ अजोगिगुणट्ठाणमुवयाइ झाणं च । वोच्छिण्णकिरियमंतोमहत्तपमिअंच सेलेसिं॥२६१॥ अनन्तरकाले लभते-ऽयोगिगुणस्थानकमुपयाति ध्यानं च।। व्यवच्छिन्नक्रियमन्तमुहूर्तप्रमितां च शैलेशीम् ॥२६१॥ इति पदसंस्कारः। 'सेकाले' इत्यादि, 'अनन्तरकाले' सयोगिकेवलिगुणस्थानचरमसमयादनन्तरसमय इत्यर्थः, 'अयोगिगुणस्थानक' योगः-मनोवाक्कायव्यापाररूपो विद्यते-ऽस्येति योगी "अतो-ऽनेकस्वरात्" (सिद्धहेम०७-२-६) इतिसूत्रेग इन्प्रत्ययः, न योगीत्ययोगी,तस्य गुणस्थानमित्ययोगिगुणस्थानम् , तत् 'लभते' प्राप्नोति । तदानीं चा-ऽन्यत्कि प्राप्नोति ? इत्यत आह-'उवयाइ झाणं च' इत्यादि, 'उपयाति प्राप्नोति ध्यानं च 'व्यवच्छिन्नक्रियम्' व्यवच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति चतुर्थशुक्लं 'अन्तमुहूर्तप्रमितां च हस्वाक्षरपञ्चकोल्चारणकालप्रमाणां च शैलेशीम् , चकारः समुच्चये । उक्तं च भाष्यकृद्भिः “रुभइ स कायजोगं संखाईएहि चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ ॥१॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरियाणियटिं सो। वुच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालम्मि ॥२॥” इति । एवमावश्यकचूर्णिकारैरपि निगदितम्-“पच्छा समुच्छिन्नकिरियं झाणं अणुप्पविट्ठो जावतिएणं कालेणं अतुरियं अविलंवितं ईसोपंचरहस्सक्खरा क ख ग घ ङ' एते उच्चारिजंति, एवतिकालं सेलेसिं पडिवज्जदि ।” इति । ननु किं नाम व्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति ध्यानम् ? इति चेत्, उच्यते-व्युच्छिन्ना व्युपरता क्रिया सूक्ष्मकाययोगलक्षणा यस्मिन्, तत्, न प्रतिपतनशीलमित्यप्रतिपाति । उक्तं च तत्त्वार्थवृत्तौ "कायिकी च यदेषाऽपि सूक्ष्मोपरमति क्रिया । अनिवर्ति तदप्युक्त ध्यानं व्युपरतक्रियम् ॥१॥ इति । ननु मनसो-ऽभावेन योगा-ऽभावेन च प्रयत्नविशेषाऽभावादयोगिनो ध्यानं कथं भवितुमर्हति ? इति चेत. उच्यते-पूर्वप्रयोगात सिध्यत्ययोगिनो ध्यानम् , यथा कुलालचक्र भ्रमणनिमित्तदण्डादेः क्रियानिवर्तने-ऽपि पूर्वा-ऽभ्यासाद् भ्राम्यति, तथा मनःप्रभृतिसर्वयोगोपरमे-ऽपि पूर्वविहितध्यानसंस्कारादयोगिनो ध्यानं भवतीत्यर्थः । (२) तथा जीवोपयोगरूपभावमन:सच्चादयोगिनो ध्यानं भवितुमर्हति (३) तथा ध्यानकायें--कर्मनिर्जरणे हेतुत्वादयोगिनोध्यानमुपप Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवच्छिन्नक्रिया-प्रतिपातिध्यानम् ] अयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ४९५ द्यते, यथा पुत्रकार्यादपुत्रोऽपि पुत्रो भण्यत इति । किञ्च (४) ध्यैधातोरनेकार्थत्वेन 'ध्यै अयोगित्वे' इत्यभ्युपगमाद् (५) जिनागमवचनप्रामाण्याच्चाऽयोगिनो ध्यानं सिध्यति । उक्तं च विशेषावश्यकभाष्ये " yaaruओगओ वि य कम्मविणिज्जरणहेउतो वा वि । सद्दत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य ॥ १ ॥ चित्ताभावे विसया सुहुमोवरय किरियाइ भण्णंति । जोवोवओगसम्भावओ भवत्थस्स झाणाई ||२||" इति । अत्र पूर्वप्रयोगादिति हेतु: कारणोपपत्तये, पूर्वसंस्काररूपहेत्वनपायात् । जीवोपयोगरूपभावमनः सद्भावादिति द्वितीयो हेतुर्लक्षणोपपत्तये, भावमनः स्थैर्यरूपलक्षणोपपत्तेः । ध्यानकार्य-कर्मनिरणे हेतुत्वादिति हेतुर्व्यवहारोपपत्तये । अनेकार्थत्वादिति शब्दाऽर्थोपपत्तये, जिनागमवचनप्रामाण्यादिति च प्रमाणोपपत्तय इति द्वातव्यम् । अत्र सूक्ष्मग्रहणात् सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्तिनो ग्रहणम्, उपरतग्रहणार व्युपरत क्रियाऽप्रतिपातिनो ग्रहणम् । परतक्रियाऽनिवर्तिष्याने वर्तमानस्य महात्मनो बन्ध-लेश्या - योगादयो न भवन्ति, सयोगिकेवलिचरमसमये व्यवच्छिन्नत्वात् उक्तं च शतकचूर्णी "जोगाभावाओ पुण दुसमयंठितो ण कम्मबन्धोति । झाणपसंहारा तिभागसंकुचियनियदेहो ॥ १ ॥ लेसाकरणणिरोहो जोगणिरोहो य तणुणिरोहेण । अह भणिओ विन्नेओ बन्धणिरोहो वि य तहेव ॥ २ ॥ एसो अजोगिभावो जोगणिरोहेण पत्तगुणणामो । अप्पडिवायज्झाणी सच्चण्णू सव्वदंसी य || ३ ||" इति । ननु यदि चित्ताभावेऽप्ययोगिनो ध्यानमिष्यते, तर्हि सिद्धस्य कथं नेष्यते ? इति चेत्, उच्यते--सिद्धानां प्रयत्नविशेषाभावात् कर्मनिर्जरादिप्रयोजनाभावाच्च न सिद्धानां ध्यानं भवितुमर्हति उक्त च विशेषावश्यकभाष्ये "जइ अमणस्स वि झाणं केवलिणो तं न सिद्धस्स ? 1 भण्णइ जं न पयत्तो तस्स जओ न य निरुर्व्वं ॥ १ ॥ " तथा चात्र तट्टीका - " यद्यमनस्कस्याऽपि केवलिनो ध्यानमिष्यते, तर्हि fest किमिति नाभ्युपगम्यते ! भण्यते ऽत्रोत्तरम्, यद्यस्मात् तस्य सिद्धस्य कारणा-भावेन प्रयत्नो नास्ति, न च योगलक्षणं निरोडव्यमस्ति, अतः प्रयत्नाभावात् प्रयोजनाभावाच्च न सिद्धस्य ध्यानमिति ।" इति । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ ] खवगसेढी [ गाथा-२६२-२६४ इत्थं शैलेशी प्राप्तः चतुर्थ व्यवच्छिन्नक्रिया-ऽप्रतिपातिशुक्लध्यानं ध्यायति ।उक्तं च तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स। वोछिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुकं ॥१॥” इति । ननु का नाम शैलेशी ? उच्यते-शिलाभिनिवृत्ताः शैलाः पर्वताः,शैलानामिशःशैलेशः मेरुपर्वतः, तस्येयं शैलेशी, मेरुवद् निष्कम्पत्वात् स्थिरतेत्यर्थः । अथवा 'शील समाधौ' इति धात्वर्थदर्शनात् शीलं समाधानम्, तच्च निश्चयतः सर्वसंवरः, तस्य ईशः स्वामी शीलेशः, सयोगिकेवलिनो योगनिमित्तककर्मादानोपलम्भात् निश्शेषतः संवरो नासीत्,अयोगिना भगवता तु योगस्या-पि निरुद्धत्वाद् भवति सकलसंवरस्तस्य महात्मनः । शैलेशस्येयमवस्था शैलेशी । उक्तं च श्रीमभाष्यकृद्भिः सेलेसो किल मेरू सेलेसी होइ जा तदचलया। होउं व असेलेसो सेलेसीहोइ थिरयाए ॥१॥ सोलं व समाहाणं निच्छयओ सव्वसंवरो सो य । तस्सेसो सोलेसो सोलेसी होइ तयवत्था ॥२॥” इति अथ शैलेश्याः कालो भण्यते-ना-ऽतिशीटुर्ना-ऽतिस्थिरैः, किन्तु मध्यमरीत्या यावता कालेन 'अ इ उ ऋ लू' इत्येतानि पञ्च ह्रस्वा-ऽक्षराण्युद्गीयन्ते, तावान् शैलेश्याः कालो बोद्धव्यः । उक्तं च विशेषावश्यकभाष्ये-- ___ "हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अत्थइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥१॥” इति ॥२६॥ ननु शैलेशीप्राप्तो-ऽयोगिकेवली भगवान् किं करोति ? इत्यत आह पुवरइयकम्मं खवइ असंखगुणक्कमेण गयलेसो । दुचरिमसमये संठाण-अथिर-संघयणछक्कं तु ॥२६२॥ अगुरुलहुचउक्कं पणतणुसंघाया खगइ-सुरदुगं च । वीसा वण्णाई तह बंधणपन्नरसगं निमिणं ॥२६३॥ अंगोवंगतिगं तह पत्तेयतिगसुसरमपजत्त । सायं व असायं वा नीअं छिज्जन्ति सन्तत्तो॥२६४॥ पूर्वरचितकर्म क्षपयत्यसंख्यगुणक्रमेण गतलेश्यः । द्विचरमसमये संस्थाना-ऽस्थिर-संहननषटकं तु ॥२६२॥ . अगुरुलघुचतुष्कं पञ्चतनुसंघातानि खगति-सुरद्विकं च । विंशतिर्वर्णादयस्तथा बन्धनपञ्चदशकं निर्माणम् ।।२६३।। .. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचरमसमये व्यवच्छिद्यमानाः प्रकृतयः ] अयोगिगुणस्थानकाद्धाधिकारः [४९७ ____ अङ्गोपाङ्गत्रिकं तथा प्रत्येकत्रिकं सुस्वरमपर्याप्तम् । - सातं वा-सातं वा नीचं व्यवच्छिद्यन्ते सत्तातः ।।२६४।। इति पदसंस्कारः। 'पुव्वरइय०' इत्यादि, 'पूर्वरचितकर्म' पूर्वम्-आयोजिकाकरणादिकाले गुणश्रेणिं कुर्वता यदसंख्ये गुणक्रमेण रचितमायुर्वजवेदनीयादीनां कर्मदलम् , आयुषस्तु गुणश्रेण्यभावेनाऽसंख्येयगुणक्रमेण दलिकरचनाऽभावात् , तत् पूर्वरचितकर्म, यदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ श्रीमद्हरिभद्रसूरिपादैः-"पुव्वरइयं च णं कम्म' आउज्जी [जीवा न भेदोपचारे ] काले चेव गुणसेही करेति, गुणप्पहाणा सेढोर, आउकम्मसमयमित्तकालं गुणसेटिं रएति, पढमस. मए वेदणीयादिकम्मपदेसे थोवे रएति, बितियादिसु असंखिजगुणे२ रएति ।” इति । 'गतलेश्यः' गता अपगता लेश्या यस्य, स गतलेश्यः, अलेश्यो-ऽयोगिकेवली भगवानित्यर्थः, असङ्खयगुणक्रमेण क्षपति, अयोगिप्रथमसमये स्थितिक्षयेणोदयवतीनां विपाकतो-ऽनुदयवतीनां च स्तिबुकसंक्रमेण संक्रम्य प्रदेशतो वेदनीयादिप्रकतीनां पूर्वरचितकर्मदलं स्तोकं विनाशयति, ततो द्वितीयसमये-ऽसंख्येयगुणं क्षपयति, ततोऽपि तृतीयसमये-ऽसंख्येषगुणम् । एवमुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणक्रमेण दलं क्षपयतीत्यर्थः। यदवादिषुस्तत्रभवन्त आय-श्यामाः प्रज्ञापनायाम्-"xxx अजोगयं पाउणित्ता ईसिं हस्सपंचक्रवरुचारणडाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवजह, पुव्वरइयगुणसेढोयं च णं कम्म, तोसे सेलेसिमडाए असंखेजाहिं गुणसेढीहिं (असंखेजे) कम्मखंधे खवयति ।" इति । तथैव श्रीमन्तो भाष्यकृतो-ऽपि “तदसंखेजगुणाए गुणसेढोए रइयं पुरा कम्म । समए समए खवियं कमसो सेलेसिकालेणं ।।१।।" इति । एवं स्थितिघातादिरहितोऽयोगिकेवली भगवान् स्थितिक्षयेणोदयवतीनां प्रदेशाग्र विपाकतोऽनुदयवतीनां पुनः प्रकृतीनां वेद्यमानप्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमण संक्रम्य प्रतिसमयमसंख्येयगुणक्रमेण क्षपयनयोगिगुणस्थानकस्य द्विचरमसमयमुपगच्छति, तदानीं तस्य महात्मनः कतीनां प्रकृतीनां सत्ताविच्छेदो जायते ? इत्यत आह-'दुचरिम०' इत्यादि, 'द्विचरमसमये' द्वितीयश्चरमो यस्मात्-यत आरभ्या-ऽन्तिमसमयो द्वितीयो भवति, स द्विचरमसमयः, तस्मिन् , अयोगिगुणस्थानकस्य चरमसमयात् प्राक्तनसमय इत्यर्थः 'संस्थाना-ऽस्थिर-संहननषटकं तु षटकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् संस्थानषटकं-समचतुर-न्यग्रोधपरिमण्डल-सादि-वामन-कुब्ज-हुण्डसंस्थानाख्यम् ,अस्थिरषटकम् अस्थिरोपलक्षितं षटकम् अस्थिरा-ऽशुभ-दुर्भग-दुःस्वरा-ऽनादेया-ऽयशःकीर्तिरूपम्,संहननषटकंबज्रर्षभनाराच-ऋषभनाराच-नाराचा-ऽर्धनाराच-कीलिका-सेवार्तसंहननरूपम्,तुर्वाक्यभेदे, 'अगुरुलघुचतुष्कम्' अगुरुलघूपधातपराघातोच्छ्वासाख्यं 'पणतणुसंघाया' ति प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः, 'पञ्चतनुसंघातानि पञ्चशब्दस्य प्रत्येकमभियोजनात् पञ्चतनवः औदारिक Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४९८ ] खबगसेढी [ गाथा-२६२२६४ वैक्रिया-ऽऽहारक-तैजस-कार्मण-शरीररूपाः, पञ्चसंघातानि औदारिक क्रिया-ऽऽहारक तैजस-कार्मणसंघातलक्षणानि 'खगतिसुरद्विकं च' किशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् खगतितिक-प्रशस्तविहायोगत्यप्रशस्तविहायोगतिरूपं सुरद्विकं देवगति-देवानुपूर्वीलक्षणम् , चकारः समुच्चयार्थः, 'वीसा वण्णाई' ति 'विंशतिर्वर्णादयः' कृष्ण-नील-लोहित-हारिद्र-शुक्लवर्ण-सुरभि-दुरभिगन्धतिक्त-कटु-कवायाऽऽम्ल-मधुररस-गुरु-लघु-मृदु-खर-शीतोष्यस्निग्धरूक्षस्पर्शाख्याः प्रकृतयः 'तथा' तथाशब्दः समुच्चये 'बन्धनपञ्चदशकं' बन्धनानां पञ्चदशकमिति अन्धनपञ्चदशकम्, पञ्चदशानां बन्धनामौदारिकौदारिकौदारिकतैजसौदारिककार्मणौदारिकतैजसकार्मण-वैक्रियवैक्रिय-क्रियतैजस क्रियकार्मण-वैक्रियतैजसकार्मणा-ऽऽहारकाहारका - ऽऽहारकतैजसा-ऽऽ-हारककार्मणा-ऽऽहारकतैजसकार्मणतैजसतैजस-तैजसकार्मण-कार्मणकार्मणाख्यानां समुदाय इति यावत् , 'निर्माणं' निर्माणनामकर्म 'अंगोवंगतिगं' ति 'अङ्गोपाङ्गत्रिकम्' औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारका-ऽङ्गोपाङ्गरूपं पत्तेयतिगं' ति 'प्रत्येकत्रिक' प्रत्येकोपलक्षितत्रिकं अत्येकनामकर्म स्थिरनामकर्म शुभनामकर्म चेत्यर्थः, 'सुस्वरं' सुस्वरनामकर्म 'अपर्याप्तम्' अपर्याप्तनामकर्म च 'सायं' इत्यादि, 'सातं वा' सातवेदनीयं वा 'असातं वा' असातवेदनीयं वा, सातवेदनीयोदयेन शैलेशी प्रतिपन्नस्या-ऽसातवेदनीयमसातवेदनीयोदयेन पुनः शैलेशीमधिगतस्य सातवेदनीयमित्यर्थः, 'नीचं नीचेगोत्रं चेत्येताः सर्वसंख्यया द्वयशीतिप्रकृतयः 'सन्तत्तो' त्ति सत्तातः 'छिद्यन्ते' स्वरूप सत्तामधिकृत्य क्षप्यमाणाः क्षपिता इत्यर्थः, चरमसमये स्तिवुकसंक्रमेणोदयवतीयु मूलप्रकृत्यभिन्नासु परप्रकृतिषु तासां संक्रमणात् । प्रत्यपादि च कमस्तवे "देवदुगपणसरीरं पंचसरीरस्स बंधणं चेव । पंचेव संघाया संठाणा तह य छकं च ॥१॥ तिनि य अंगोवंगा संघयणं तह य होइ छक्कं च पंचेव य वण्णरसा दो गंधा अट्ठ फासा य ।।२।। अगुरुलहुयचउकं विहायगइदुगथिराथिरं चेव । सुहसुस्सरजुयला वि य पत्तेयं दूभगं अजसं ॥३॥" इति । श्रीकर्मस्तवकृद्भिरष्टचत्वारिंशदधिकशतप्रकृतीराश्रित्य सत्ताविच्छेदोऽभिहित इति तैर्वन्धनपश्चकस्यैव सत्ताविच्छे दो दर्शितः, अस्माभिस्त्वष्टापञ्चाशदुत्तरशतप्रकृतीरवलम्ब्य सत्ताविच्छेदः प्रतिपादित इति बन्धनपञ्चदशकस्य सत्ताविच्छेदः प्ररूपितः । इदमत्राऽवधेयम्-प्रागनुपार्जिता-ऽऽहारकसप्तकस्य जीवस्या-ऽऽहारकसप्तकस्य सत्ताविच्छेदो न द्रष्टव्यः, तस्य तत्सत्कर्माऽभावात् । तदनन्तरमयोगिगुणस्थानकचरमसमये त्रस-बादर-पर्याप्त-सुभगा-ऽऽदेय-यशःकीर्ति-मनुष्यगीमनुष्यायुः-पञ्चेन्द्रियजाति-जिननामकर्मोच्चैर्गोत्रा-ऽन्यतरवेदनीयरूपाणां द्वादशप्रकृतीनां जघन्य Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोगिकेवलिचरमसमयः ] अयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः स्थित्युदयो गुणिनकर्माशस्य च भगवतो मनुष्यायुर्वर्जशेषाणामेकादशानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशोदयो जायते ।। २६२-२६३-२६४॥ अथ चतुर्दशा ऽयोगिगुणस्थानकचरमसमय उदयसच्चविच्छेदमस्पृशद्गतिं च विभणिपुराहचरिमम्मि रतसतिगं पणिदियुच्चजससुभगआइज्जं । सायमसायं व जिणं वा गूणा य उदयत्तो ॥ २६५॥ अणुपुत्री सत्ताच्छेअं विंति इयरे दुरिमखणे । सिज्झइ खणेण समयप्प असअंतरमफुसमाणो ॥ २६६ ॥ चरमे नरत्रसत्रिकं पञ्चेन्द्रियोच्च यशः सुभगादेयम् | सातमसातं वाजिनं वैको नाश्च यतः || २६५ ॥ नरानुपूर्वी सत्ताच्छेदं त्रुवन्तीतरे द्विचरमक्षणे । सिध्यति क्षणेन समय प्रदेशान्तरमस्पृशन् || २६६ ।। इति पदसंस्कारः । 'चरिमम्मि' इत्यादि, 'डिज्जन्ति सन्तत्तो' इतिपदद्वयं पूर्वतो ऽनुवर्तते, 'चरमे' अयोगिकेवलिगुणस्थानकस्य चरमसमये 'नरत्रसत्रिक' त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् नरत्रिक= मनुष्यगति-मनुष्यानुपूर्वी - मनुष्याऽऽयुराख्यं त्रसत्रिकं त्रस बादर-पर्याप्तलक्षणं 'पञ्चेन्द्रियोव्चयशस्सुभगा-ऽऽदेवम्' पञ्चेन्द्रियादयः कृतसमाहारद्वन्द्वसमासाः प्रथमया निर्दिष्टाः, पञ्चेन्द्रियजातिरुञ्चैर्गोत्रं यशःकीर्त्तिन।मकर्म सुभगनामकर्मा - ऽऽदेव नामकर्म च 'सातमसातं वा' वाकरो विकल्पार्थकः, सातोदयेन शैलेश प्रतिपन्नस्य सातन्, असातोदयेनाऽधिगतस्य त्वसातम्, एकतरस्य द्विचरमसमये व्यवच्छेदात् 'जिणं वा' त्ति अत्रापि वाकारो विकल्पार्थकः, 'जिनं' जिननामकर्म तीर्थकृत आश्रित्य, सामान्यकेवलिनस्तु प्रतीत्य तन्न ति सर्वसङ्ख्यया तीर्थकृत आश्रित्यैतास्त्रयोदश प्रकृतयः सामान्यकेवलिनश्च प्रतीत्य द्वादश प्रकृतयः सत्तातः छियन्ते अपुनर्भावेन क्षीयन्ते । उक्तं च विशेषावश्यक भाष्यकृद्भि::– I “मणुयगइजाइत सबायरं च पज्जत्तसुभयमाएजं । अन्नयरवेयणिज्जं नराउमुचं जसो नाम ॥ १ ॥ संभवओ जिणनाम नराणुपुत्र्वी य चरिमसमयम्मि | सेसा जिणसंताओ दुचरिमसमयम्मि निहं ति || २ ||" इति । [ ४९९ तथैव श्रीमन्मलयगिरिपादैरपि - " चरमसमये च सातासाता ऽन्यतरवेदनीयमनुष्यगति-मनुष्यानुपूर्वी - मनुष्यायुः पञ्चेन्द्रियजाति-त्रस-सुभगा-देय-यशः कीर्त्ति पर्याप्त बादर - तीर्थकरोच्चैर्गौत्र रूपाणां त्रयोदशप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः । " इति । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] खबगसेढी [ गाथा २६५-२६६ __ नन्वौदारिकशरीरादिवद् मनुष्यानुपूर्वीनामकर्मा-ऽयोगिकेवलिद्विचरमसमय एव सर्वथा परिक्षपणीयम्,उदयाभावात्,चरमसमये तत्सत्ताविच्छेदः कथं घटां प्राश्चति ? इति चेत्,उच्यते-आनुपूर्वी. नामानि सर्वत्र स्वस्वगतिसहगतान्येव परिक्षीयन्ते, यथाऽनिवृत्तिबादरसम्पराये नरकानुपूर्वी-तिर्यगानुपूयौँ स्वस्वगतिसहचरिते क्षीणे, तथैवेहाऽपि मनुष्यानुपूर्वी मनुष्पगत्या सह क्षयं गच्छति । मनुष्यगतिश्च चरमसमये क्षीयते, उदयवत्वात् तस्याः, तेन मनुष्यानुपूर्व्यपि चरमसमये क्षीयते, यदुक्तं सप्ततिकाभाष्यवृत्तौ श्रीमेरुतुङ्गसूरिपादैः-'अन्ये त्वाचक्षते-आनुपूयॊ हि सर्वत्र स्वस्वगतिसहर रिता एव । अतो यथा नरकगति-तिर्यग्गती स्वस्वानुपूर्वीभ्यां सहा-ऽनिवृत्तिबादरसम्पराये क्षीयेते, अतोऽत्र त्रयोदशप्रकृतिक्षयो, द्विचरमसमये तु विसप्ततिक्षयः।” इति । ___ अथ चरमसमय उदयविच्छेदं भणति-'एगूणा' इत्यादि, 'एकोनाः' अनुपदं या मनुष्यगत्यादय उक्ताः, ता एकया मनुष्यानुपूर्वी रक्षगया प्रकृत्या ऊना:-हीना उदयतो व्यवच्छिद्यन्ते, द्वादशप्रकृतय उदयतो-उपगच्छन्तीत्यर्थः, आनुपूर्वीनाम्नः क्षेत्रविपाकित्वेन भवा-ऽऽयान्तरालगतावेव तदुदयो भवति,तेन भवस्थस्या-ऽयोगिकेवलिनो मनुष्यानुपूर्व्या उदयो न संभवतीति द्वादश प्रकृनयो मनुष्यगति-मनुष्यायुः-पञ्चेन्द्रियजाति-त्रस-बादर-पर्याप्त सुभगा-ऽऽदेय-यशःकीयुच्चैगोत्रा-ऽन्यतरवेदनीयतीर्थकृत्कर्मरूपा अयोगिगुणस्थानकचरमसमय उदयतो व्यवच्छिद्यन्ते, एतावतीनां प्रकतीनामुदयविच्छेदो जायत इत्यर्थः । उक्तंच श्रीकर्मस्तवे “अन्नयरवेयणीयं मणयाऊ मणुयगइ य बोहव्वा । पंचिंदियजाई वि य तस-सुभगा-5एज्ज-पज्जत्तं ॥१॥ बायर जसकित्तो वि य तित्थयरं उच्चगोययं चेव । एया बारस पयडी अजोगिचरिमंमि वोच्छिन्ना ॥२॥” इति । इदमत्रा-ऽवधेयम्-अतीर्थकृद्भिः सामान्यकेवलिभिस्तीर्थकृन्नामकर्मवर्जा अनन्तरोक्ता एकादश प्रकृतय उदयतो व्यवच्छिद्यन्ते । अथ सत्ताविच्छेदे मतान्तरं दर्शयति-'नरआणुः' इत्यादि, तत्र 'द्विचरमक्षणे' अयोगिकेवलिगुणस्थानकद्विचरमसमये 'मनुजानुपूर्वीसत्ताच्छेद' मनुष्पानुपूर्व्याः सत्ताविच्छेदम् 'इतरे' अन्ये आचार्या 'ब्रान्ति' वदन्ति, उदया-ऽभावात् । तेन तेषामाचार्याणां मतेना-ऽयोगिकेवलिगुणस्थानकविचरमसमये * त्रिसप्ततिप्रकृतीनां सताविच्छेदो जायते, चरमसमये तु द्वादशप्रकृतीनाम् । उक्तं च श्रीमलयगिरिपादैः पञ्चसंग्रहवृत्तौ-"अन्ये पुनराहुः-मनुष्यानुपूर्व्या विचरमसमये व्यवच्छेदः, उदयाभावात् । उदयवतीनां हि स्तिबुकसंक्रमाभावात् स्वस्वरूपेण * नामकर्मणस्यधिकशतभेदाँस्त्वाश्रित्य त्र्यशीतिः प्रकृतयः सत्तातो व्यवच्छेदं यान्ति । .. Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्पृशद्गत्यादिकम् ] अयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः [ ५०१ चरमसमये दलिकं दृश्यते एवेति युक्तस्तासां चरमसमये सत्ताव्यवच्छेदः । आनुपूर्वी नाम्नां तु चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकितया भवापान्तरालगतावेवोदय:, तेन न भवस्थस्य तदुदयसम्भवः, तदसम्भवाच्चाऽयोग्यवस्थाद्विचरमसमये एव मनुष्यानुपूर्व्याः सत्ताव्यवच्छेदः इति तन्मतेन द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः, चरमसमये द्वादशानामिति ।" इदन्त्ववयम् - सामान्यकेवलिनोऽधिकृत्य चरमसमय एकादशप्रकृतीनां सत्ताविच्छेदस्तेषां मतेन भवति । तत्त्वं त्वत्र केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । अथ क्षीणेवातिकर्म यद्भवति तद्वक्कुकाम आह- 'सिज्झइ' इत्यादि, तत्र 'क्षणेन' एकवचननिर्देशाद् एकसमयेन समय प्रदेशान्तरमस्पृशन् 'सिध्यति ' केवलज्ञानोपयागेनोपयुक्त ऋजुश्रेण्या सिद्धिं गच्छति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णिकारै:- "सेलेसि अडाए झोणाए सव्वकम्मविप्मुको एसमएण सिद्धिं गच्छइ ।" इति । तथैवाऽऽह भगवान् भाष्यकार:“रिउसेढोपडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो || १ ||" इति । ऋजुश्रेण्या समयान्तरं स्वा ऽवगाढप्रदेशान्तरञ्चा-ऽस्पृशन्नेव यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्ववगाढः, तावतः प्रदेशानवगाहमानः केवलज्ञानोपयुक्तो लोकान्तं गच्छतीत्यर्थः । यदुक्तमावश्यकचूर्णो- “जथा उज्जुसेढिपत्तो जत्तिए जोवो अवगाहे, तावतियाए अवगाहणाए उड्ढं उज्जुगं गच्छति, ण वंकं, अफुसमाणगतो, बितियं समयं ण फुसति, अहवा जेसु अवगाढो जे य फुसति, उड्ढमपि गच्छ्रमाणो ततिए चेव आगासपदेसे फुसे माणो गच्छति, सरोऽपि ततोऽधिके परिपेरंतेण बहिं, एगसमपणं असरीरेणं अकुडिलेण वा उड्ढ गंता, न तिर्यग अधो वा भ्रमति वा, सागारोवउत्ते सिज्झति ।" इति । क्षीणेष्वघातिकर्मसु जीव-चरमभवशरीरयोविंयोगः सिध्यमानस्य गतिलोंकान्तप्राप्तिश्चेत्येतत्त्रयमेकसमयेनाऽचिन्त्यसामर्थ्याद् युगपद् भवति । यदुक्तं श्रीतत्त्वार्थभाष्ये- "कर्मक्षये देहवियोग- सिध्यमानगति-लोकान्तप्राप्तयो ह्यस्य युगपदेकसमयेन भवन्ति ।" इति केचिदाहुः - कर्मक्षयकालो देहवियोगादिसमकाल एव भवतीति । उक्तञ्च सप्ततिकाचूर्णौ"ततो कम्मविमोक्खसमए चेव उड्ढं गच्छति लोकान्तम् ।" इति । मतद्वयमपि तत्त्वावृत्तौ सङ्गृहीतम् । अक्षराणि त्वेवम् - तदनन्तरमिति कृत्स्नकर्मक्षयानन्तरं अनु सन्ततमेव मुक्तः सन्नूर्ध्वमेव गच्छतिXXXXतस्य अचिन्त्यसामर्थ्याच्चैतत् सर्व युगपद् भवति देहवियोगादि । केचिदाहुः कर्मक्षयकालश्च देहवियोगादिसमकाल एव भवतीति ।" इति । अयमत्र विवेक:-व्यवहारनयेन क्रियाकाल-निष्ठाकालयोर्भेदः, reader भेदः । तेन प्रथममतेन कर्मक्षयानन्तरं देहवियोगादि भवति, द्वितीयमतेन तु सर्व युगपद् भवति । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] खवगसेढी [ गाथा-२६५-२६६ नन्वकर्मकस्य महात्मनः सिद्धिगमने को हेतुः ? सकर्मकस्यैव संसारे गमनादिक्रियादर्शनादिति चेत्, उच्यते-पूर्वप्रयोगादसङ्गत्याद् बन्धच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च सिध्यतो महात्मनो गतिर्न विरुध्यते, यदुक्त वाचकमुख्यः-"तदनन्तरमूवं गच्छन्त्यालोकान्तात् । पूर्वप्रयोगाद् असङ्गत्वात् बन्धच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च ।” इति । तथाहि-(१) यथा कुलालचक्र चक्रभ्रमणहेतुकुलालदण्डादिव्यापारोपरमे-ऽपि पूर्वप्रयोगाद् भ्राम्यति, तथा योगनिरोधाऽभिमुखस्य क्रियया योगेन यः प्रयोगो जनितः, स क्षीणे-ऽपि योगे गतिहेतुर्भवति, तेन पूर्वप्रयोगेणा-ऽकर्मणोऽपि सिध्यमानस्य गतिर्भवति । यथा च धनुषा पुरुषप्रयत्नेन प्रेरितस्येषोर्गतिकारणविरमे-ऽपि पूर्वप्रयोगाद् गतिर्जायते, तथैव कर्मविमुक्तस्य सिध्यमानस्य जीवस्य गतिर्जायते । उक्त च श्रीमद्भाष्यकृद्भिः "जह धगु पुरिसपयत्तेरिएसुणो भिण्णदेसगमणं तु । गइकारणविगमम्मि वि सिद्धं पुव्वप्पओगाओ॥१॥ जहवा कुलालचक्कं किरियाहेउविरमे वि सकिरियं । पुव्वप्पओगओ च्चिय तह किरिया मुच्चमाणस्स ॥२॥” इति । . (२) अथ युक्त्यन्तरमुपवर्ण्यते-असङ्गत्वाद् गुरुमृतिकालेपलिप्ता-ऽ-धोनिमग्नक्रमाऽपनीतमृत्तिकालेपजलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधा-ऽलाबुवत् सिध्यमानस्य गतिर्भवति । इदमुक्त भवति-यथा गुरुमृतिकालेपैरालिप्तमलावु घनमृतिकालेपवेष्टनोत्पादितगौरवेन जले निमज्जति, तरया-ऽद्भिर्लेपा-ऽपगमे च लेपसङ्गविनिमुक्त जलस्योर्ध्वतलं यावत् स्वभावतो गच्छति । एवं जीवो-ऽप्यष्टविधकर्ममृतिकावेष्टितः, तत्सङ्गाच्च संसारसागरस्य भवजले निमज्जति, कर्मसङ्गाचा-ऽधरितर्यगूधं च गच्छति, अष्टविधकर्ममतिकालेपविगमे च सिध्यमानो महात्मा स्वभावत ऊर्च गछति, ऊर्चगौरवधर्मत्यात् जीवानाम् । उक्तच आवश्यकनियुक्तिकारैः “जह ते सलाभकाले चेव तहा गइसभावयामिति । परिणमइ तग्गइं वा लेवा-ऽवगमे जहाला ॥१॥” इति । * (३) अथ तृतीया युक्तिः प्रदश्यते-छिन्नबन्धनत्वात् सिध्यमानस्य जीवस्य गतिर्जायते, एरण्डफलबत् । इयमत्र भावना-बध्यतेऽनेनेति बन्धनम्-यथैरण्डफलस्या-ऽऽतपशष्ककोशरूपबन्धनापगमे गतिर्भवति, तथैव सिध्यतो जीवस्य कर्मवन्धनोच्छेदे गतिः संजायते । उक्त चावश्यकनियुक्तीकारैः * एवं मूलराधनाकारैरप्युक्त म् संगजहरणेण वलहदयाए उड्ढं पयादि सो जीवो। जध लाउगो अलेग्रो उप्पददि जले निबुड्डो वि ॥१॥” इति । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिमानस्य गते रुपपत्तिः ] अयोगिगुणस्थानाद्धाधिकारः "एरण्डाइ फलं जह बन्धच्छेएरियं दुयं जाइ । तह कम्मबंधणच्छ्रेयणेरिओ जाइ सिद्धो वि ॥ १ ॥” इति । (४) अथ चतुर्थी युक्तिर्विविच्यते कर्मविमुक्तो जीवः सकृदूर्ध्वं गच्छति, तथास्वाभाविकपरिणामाद्, अग्निधूमवत् । अयमस्य भावार्थ:- यथा अग्निधूमव स्वभावत ऊर्ध्वं गच्छति, तथैव जीवो-पे स्वभावत ऊर्ध्वं गच्छति, ऊर्ध्वगौरव धर्मत्वात् । न च जीवानामूर्ध्वगौरवधर्मत्वे संसारिणामधस्तिर्यग् च गतिः कुतो जायते ? इति वाच्यम्, तस्याः कर्मोपाधिजन्यत्वात् । तद्यथा - कर्मरहितानां जीवानामूर्ध्वं गतिर्भवति । कर्मसङ्गात्तु तिर्यगूर्ध्वमधश्च गतिरनियमेन भवति । यदुक्तं तत्त्वार्थभाष्यकारैः [ ५०३ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात् स गच्छति । पूर्वप्रयोगाऽसङ्गत्वबन्धच्छेदोर्ध्व गौरवैः : 11211 कुलालचक्र दोलाया-मिषौ वाऽपि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात् कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ||२|| मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्, यथा दृष्टाऽप्स्वलावुनः । कर्मसङ्गविनिक्षात् तथा सिङगतिः स्मृता ॥३॥ एरण्डयन्त्रपेडासु बन्धच्छेदाद् यथा गतिः । कर्मबन्धविच्छेदात् सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥ ४ ॥ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माण: पुला इति चोदितम् ||५|| trisaस्तिर्यगूर्ध्व च लोष्टवाय्वग्निवीतयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते, तथोर्ध्वं गतिरात्मनाम् ॥ ६ ॥ अतस्तु गतिवैकृत्यमेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच्च तदिष्यते ॥७॥ अधस्तिर्यगथोर्ध्व च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव तु तद्धर्मा भवति क्षीणकर्मणाम् ||८||" इति । ननु कर्मरहितानां जीवानां स्वभावत एव ऊर्ध्वं गतिर्भवति, तर्हि लोकान्तादूर्ध्वमलोके कुतो न गच्छन्ति कर्मविमुक्ता जीवाः ? इति चेत्, उच्यते - धर्मास्तिकायो हि गत्युपग्राहकः । लोकस्योर्ध्वं धर्मास्तिकाया-ऽभावेन गत्युपग्राहकाभावात् परतः सिध्यमानानां जीवानां गतिर्न भवति, अलाबुवत् । इदमुक्तं भवति यथाऽलावु मृत्तिकालेपाऽपगमादूर्ध्वं गच्छत् स्वयमेत्र जलमस्तकप्रविष्टं भवति, न परतो गच्छति, उपग्राहकजलद्रव्या- ऽभावात् । एवं सिध्यमानो जीवो - ऽपि लोकान्तादूर्ध्वं गत्युपग्राहकधर्मास्तिकायाऽभावाद् न याति यदुक्तं तत्त्वार्थ भाष्ये Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४] खवगसेढी --- - - ... [ गाथा-२६७ "ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः। धर्मास्तिकायस्याभावात् , स हि हेतुर्गः न परः ॥१॥” इति ॥२६५-२६६॥ अयोगिगुणस्थानके प्रतिपादितपदार्थानां यन्त्रकम् । (१) अयोगिगुणस्थानकप्रथमसमय एव व्यवच्छिन्नक्रिया-ऽनिवृत्तिशुक्लध्यानं प्रतिपद्यते । (२) अयोगिगुणस्थानकप्रथमसमय एव शैलेशीमुपगच्छति । (३) शैलेश्याः कालोऽन्तमुहूर्तमात्रः, स च अइउऋल इत्येतदक्षरपञ्चकोच्चारणकालप्रमितो ज्ञेयः । (४) प्रतिसमयमसंख्येयगुणक्रमेण दलिकं निर्जरयति । (५) द्विचरमसमये संस्थानषट्का-ऽस्थिरषट्क-संहननषट्का-गुरुलघुचनुष्क-पञ्चशरीर-पञ्चसंघातन-खगतिद्विक-देवद्विक-बणोदिविंशतिक-पञ्चदशबन्धन-निमोणाङ्गोपाङ्गत्रिक-प्रत्येक-स्थिर-सुस्वर-शुभा-ऽपर्याप्त नीचे र्गोत्रा-ऽन्यतरवेदनीयरूपाणां द्वयशीतिप्रकृतीनां (८२) सत्ताव्यवच्छेदः । (६) चरमसमये मनुष्यत्रिक-त्रसत्रिक-पञ्चेन्द्रियजाति-सुभगा-ऽऽदेय-यशःकीर्ति-तीर्थङ्करनामोच्चैर्गोत्रा-ऽन्य___ तरवेदनीयाख्यानां त्रयोदशप्रकृतीनां (१३) सत्ताविच्छेदः । (७) अन्येषा मतेन द्विचरमसमये मनुष्यानुपूर्वी सत्त्वतो व्यवच्छिद्यते, उदयाभावात । (८) तदनन्तरं समय-प्रदेशान्तरमस्पृशन्नेक समयेन लोकान्तं गच्छति । (९) एकस्मिन्नेव समये देहवियोग-सिध्यमानगति-लोकान्तप्राप्तयः । निश्चयनयापेक्षया तु कर्मक्षय-देहवियो गादि सर्व युगपद् भवति । १०) सिध्यमानस्य गतिः-पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च। अथ सिद्धानामवस्थितिं निरूपयतिकम्मट्ठगक्खयत्तो लद्धा जीवे हि जेहि अट्ठगुणा। ईसीपब्भाराए उड्ढं ते-ऽवट्ठिआ हुन्ति ॥२६७॥ कर्मा-ऽ-ष्टकक्षयाल्लब्धाः जीवै रष्टगुणाः। ईषत्प्रारभाराया ऊर्च ते-ऽवस्थिता भवन्ति ॥२६७।। इति पदसंस्कारः । 'कम्मट्ट०'इत्यादि, 'कर्माष्टकक्षयाद्' ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽऽयुर्नाम-गोत्रा-ऽन्तरायकर्मनाशाद् यैर्जीवः 'लब्धाः' प्राप्ता 'अष्टगुणाः' अनन्तज्ञान-दर्शन-क्षायिकसम्यक्त्व-क्षायिकचारित्राव्याबाधसुखा-ऽक्षयस्थित्यमूर्तानन्तावगाहना-ऽनन्तवीर्याख्याः 'ते' लब्धाऽष्टगुणाः सिद्धा ईपत्प्राग्भाराया ऊर्ध्वमवस्थिताः सन्ति' वर्तन्ते, नेह संसारे प्रच्यवन्ते, कर्मवीजस्य दग्धत्वात् । अथ विस्तरेण व्याख्यायते-मूलकर्मा-ऽपेक्षया मोहनीयकर्म सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमये निःशेषतो क्षयमुपगतम् । क्षीणकषायगुणस्थानकचरमसमये ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-ऽन्तरायकर्माणि क्षीणानि, अयोगिचरमसमये च नामागोत्र-वेदनीयरूपाणि चत्वारि कर्माणि युगपद् विनष्टानि । उत्तरकर्माऽपेक्षया त्वनन्तानुबन्धिनश्चत्वारो मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वमोहनीयानि चेति . Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धानानौ गुणाः ] उत्तर कर्मापेक्षया क्षपणोपसंहारः [ ५०५ मोहनीय कर्मणः सप्त प्रकृतयो ऽविरतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्ता ऽप्रमत्त गुणस्थानकानामन्यतमे गुणस्थाने क्षपिताः । ततोऽनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकस्य बहुषु संख्येयभागेषु गतेष्वप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयश्चत्वारः प्रत्याख्यानावरणाश्च क्रोधादयश्चत्वारो नाशमापादिताः, ततो नरकगतिनरकानुपूर्वी तिर्यग्गति-तिर्यगानुपूर्व्यं एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रियरूपा चतुर्जातय आतपमुद्योतं स्थावरं सूक्ष्मं साधारणं निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धयश्च विलयं प्रापिताः, ततो नपुंसक वेद उन्मूलितः, ततः क्रमेण स्त्रीवेदो हास्यषट्कं पुरुषवेद: संज्वलनः क्रोधो मानो माया चेति सर्वसंख्ययाऽनिवृत्तिवाद र सम्पराय गुणस्थानके षट्त्रिंशत्प्रकृतयो समूलकाषं कषिताः । ततः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमये संज्वलन लोभः परिक्षपितः । ततः क्षीणकषायगुणस्थानकस्य द्विचरमसमये निद्राप्रचलाख्यं निद्राद्विकं प्रलयं प्रापितम्, चरमसमये तु ज्ञानावरणपञ्चक-दर्शनावरणचतुष्का-ऽन्तरायपञ्चकरूपाश्चतुर्दश प्रकृतयो समूलका कषिताः । अयोगिकेवलिनो द्विचरमसमये देवगतिरौदारिकादिशरीरपञ्चकमङ्गोपाङ्गत्रमोदारिकौदारिकादिबन्धनपञ्चदशकमौदारिकादि संघातपञ्चकं संहननषट्कं संस्थानषट्कं वर्णादिविंशतिकं देवानुपूर्वी प्रशस्तखगतिरप्रशस्तखगतिरगुरुलधूपघातं पराघातमुच्छ्वासं निर्माणं प्रत्येकं स्थिरं शुभं सुस्वरमपर्याप्तम स्थिरा ऽशुभ- दुर्भग- दुःस्वरा-ऽनादेयाऽयशः कीर्त्तिरूपं प्रकृतिपद्कमन्यतरं वेदनीयं नीचैर्गोत्रं चेति द्वयशीतिः प्रकृतय उन्मूलिताः, तीर्थकरा ऽयोगिकेवलिचरमसमये च नामकर्मणो मनुष्यगति-पञ्चेन्द्रियजाति- मनुष्यानुपूर्वी त्रस बादर-पर्याप्त सुभगा ऽऽदेय-यशः कीर्त्ति - तीर्थकर नामकर्माण्यन्यतरवेदनीयमुच्चैर्गोत्रं मनुष्यायुश्चेति सर्वसंख्यया त्रयोदशप्रकृतयो नाशमापादिताः, अतीर्थकरा-योगिकेवलिचरमसमये त्वेता एव द्वादश तीर्थकरनामकर्मवजः । एवमष्कर्मक्षयाद् अष्टौ गुणाः प्रादुर्भवन्ति । तत्र (१) ज्ञानावरणकर्मक्षयात् सिद्धानामनन्तं केवलज्ञानं भवति (२) दर्शनावरण कर्मक्षया सिद्धानामनन्तं केवलदर्शनं भवति । (३) दर्शन मोहनीवक्षयात् क्षार्थिकं सम्यक्त्वम् (४) चारित्रमोहनीयाच्च क्षायिकं चारित्रं जायते । यदवाचि गुणस्थानकक्रमारोहेअनन्तं केवलज्ञानं ज्ञानावरणसंक्षयात् । अनन्तं दर्शनं चैव दर्शनावरणक्षयात् ॥ १ ॥ गुड सम्यक्त्व चारित्रे क्षायिके मोहनिग्रहात् । xxxxxxxxx ||२||" इति । अत्र बहु वक्तव्यमस्ति तत्त्वध्यात्मतपरिक्षादिग्रन्थान्तरतो ऽवसेयम् । (५) वेदनीयक्षयादनन्तमनुपममन्यावाधं शाश्वतं च सिद्धानां सुखं भवति, तथा चोक्तमागमे " न वि अत्थि माणुसाणं तं सोक्खं न विय सत्र्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ १ ॥ सुरगणसुहं समत्तं सव्वडापिंडियं अनंतगुणं । न य पावइ मुत्तिसुहं णंताहि वि वग्गवग्गूहिं ||२|| Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढी ! गाथा-२६७ सिद्धस्स सुहो रासी सव्वापिंडितो जइ हवेज्जा । सोऽवग्भइतो सव्वागासे न माइज्जा ॥३॥ जह नाम कोई मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणतो । न चएइ परिकहेउं उवमाइ तहिं असंतोए ||४|| जह सव्वकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोअण कोइ । तन्हा हा विमुको अच्लिज्ज जहाअमिअतत्तो ||५|| इअ सव्वकालतित्ता अडलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुहो सुहं पत्ता || ६ ||" इति । (६) आयुःक्षयादक्षयस्थिति: (७) विघ्नक्षयादनन्तं वीर्यम् (८) नामगोत्र योश्च क्षयाद् अमूर्ता-ऽनन्ताऽवगाहना । यदुक्तं गुणस्थानकक्रमारोहे “ xxxअनन्ते सुखवीर्ये च वेद्यविघ्नक्षयात् क्रमात् ॥ १ ॥ आयुषः क्षोणभावत्वात् सिद्धानामक्षया स्थितिः । नामगोत्रक्षया देवा-मूर्ताऽनन्ताऽवगाहना ||२||" इति । अन्यत्राऽप्युक्तम्" तस्स वरनाण - दंसणवर - सुह-सम्मत्त-चरण-निच्चठिई । अवगाहना अनंतामुत्ताणं खइयविरिअं च ॥ १ ॥ नाणावरणाई कम्माणं अट्ठ जे ठिआ दोसा । तेसु गएसु पणासं एए अट्ठ वि गुणा जाया ॥२॥” इति । मोहनीयकर्मक्षयजन्यं गुणद्वयं क्षायिकसम्यक्त्वचारित्राख्यम्, नाम - गोत्रक्षयजन्यस्त्वेक एवाऽमूर्ताऽनन्ता ऽवगाहनाख्य इत्यत्र परिभाषैव शरणम् । नन्ववगाहना कथमात्मनो गुणः ? तस्य व्योमगुणत्वेन व्यवस्थितत्वात् । यदवादि वाचकमुख्यैः श्रीतस्वार्थ सूत्रे' आकाशस्याऽवगाहः ।” इति । न च व्योम्नः सामान्यतो ऽवगाहनागुणवत्त्वेऽप्यनन्तानामेकत्रा- ऽवगाहनाऽऽत्मनोऽसाविति वाच्यम् अनन्तानामप्यमूर्तत्वेन प्रतिघाताऽभावेन व्योम्नैवैकत्राऽवगाहनादानादिति चेत्, ५०६ ] प्रतिघातस्य नामकपनीतशरीरजनितत्वेन शरीराऽभावप्रयुक्तप्रतिघाता ऽभावेन निरुका वगाहनायाः सम्भवात्, तस्याश्चाऽऽत्मगुणत्वात् । न च तथापि तदवगाहनाया नामकर्मक्षयजन्यत्वमस्तु, न गोत्रक्षयजन्यत्वमिति वाच्यम्, नामगोत्रयोर्मिलितयोरेव तत्र तत्रोपन्यासवलेनैकस्मिन् गुणे नाम- गोत्ररूपकर्न प्रयक्ष यजन्यत्वयोजनात्, गोत्रकर्मक्षयजन्यस्य विशेषव्यवहाराऽभावभाजी गुणस्य सवे-पि प्राधान्येन नामकर्मक्षयजन्यस्या - ऽवगाहनागुणस्यैव वा गोत्रजन्यत्वस्वी कारात् । अष्टविधकर्मक्षयाद्यैः सिद्धैरेते केवलज्ञानादयोऽष्टौ गुणाः प्राप्ताः, ते ईपत्प्राग्भाराया ऊर्ध्वं स्थिताः सन्ति, न पुनरिह संसारे समागच्छन्ति, कर्मत्रीजस्या- ऽत्यन्तं दग्धत्वात् यदवादि तत्त्वार्थ भाष्यकारैः Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धशिलानिरूपणम् ] सिद्धानामवस्थितिः [५०७ "दग्धे बोजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति ना-कुरः । कर्मयोजे तथा दग्धे नारोहति भवाङकुरः ॥१॥” इति । नन्वीपत्प्रागभारा किस्वरूपा ? इति चेत्, उच्यते-सवार्थसिद्धवरविमानावं लोकस्य मूर्धन्यायामविष्कम्भाभ्यां पश्चचत्वारिंशयोजनलक्षप्रमाणा (४५,००,०००), उत्तानच्छत्राकृतिः परिधिगणितेनैकोनपश्चाशदधिकद्विशतोत्तरत्रिंशत्सहस्राधिक वाचत्वारिंशच्छतसहस्राधिकैककोटीयोजनप्रमिता (१,४२,३०, २४९), मध्यभागे योजनाऽष्टकवाहल्या-ऽऽयामविष्कम्भाभ्यां चा-ऽष्टयोजनप्रमाणा, ततो मध्यभागात् परतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च क्रमशः प्रतियोजनमगुलपृथक्त्वेन हीना हीनतरा प्रान्ते चा-ऽङ्गुलसंख्येयभागप्रमाणा सती मक्षिकापत्रादपि तनुतरा भवति, औपपातिकसूत्रे तु "अंगुलस्स असंखेज्जभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता" इत्युक्तम् , एवं प्रज्ञापनादिसूत्रेष्वपि । इयश्च पृथिवीकायिकैर्निर्वर्तिता मनोहरा सुरभिश्च । तथा चोक्तमावश्यकनियुक्ती "ईसोपभाराए सीआए जोअणम्मि लोगंतो। बारसहिं जोयणेहि सिद्धी सव्वत्थसिद्धाओ ॥१॥ निम्मलदगरयवन्ना तुसारगोखोरहारसरिवन्ना । उत्ताणयछत्तयसंठिआ अ भणिआ जिणवरेहिं ॥२॥ एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई। तीसं चेव सहस्सा दो चव सया अउणवन्ना ॥३॥ बहुमज्झदेसभाए अहव च जोयणाइ बाहल्लं। चरिमंतेसु अ तणुई अंगुलसंखिज्जई भागं ॥४॥ गंतूण जोयणं जोयणं तु परिहाइ अंगुलपुहुत्तं । तीसे वि अ पेरंते मच्छिअपत्ताउ तणुअयरा ॥५॥" इति । एवंभूताया ईरत्यागभारायाः पृथिव्या ऊर्ध्व सिद्धाः स्थिताः, इदं तु सामान्येन सिद्धानामवस्थानं भणितम् , विशेषतः पुनरेवंभूताया ईपत्मागभारायाः पृथिव्या उपरि यद्योजनम्, तस्य योजनस्य यः क्रोशः, तस्योपरितने षड्भागे स्वचरमभवसंस्थानस्य त्रिभागहीना-ऽवगाहनया सिद्धा अतिष्ठन्ते । यदुक्तमागमे इंसीपभाराए उवरिंखलु जोअणस्स जो कोसो। कोसस्स य छन्भाए सिडाणोगाहणा भणिआ।" इति । ननु प्रस्तुतगाथया कर्माष्टकप्रक्षयादनन्तज्ञानाद्यष्टगुणसंप्राप्तिलक्षणो मोक्षः प्रतिपाद्यते, स च विचार्यमाणो निरुक्तलक्षणो नोपपद्यते, किन्तु बुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदरूप इत्याद्याहुर्नैयायिकादयः। तथाहि-तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः (गो० १-१-२२) इति गोतमसूत्रे तत्सर्वनाम्ना सर्वेषामात्मविशेषगुणानां बोधनाद् नवानामात्मविशेषगुणानां बुद्धयादीनामत्यन्तोच्छेदो मोक्ष Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ] खवगसेढी [ गाथा-२६७ इति सिध्यति,यदुक्तं श्रीजयन्तभट्टैायमञ्जर्याम्-"तदिति प्रक्रान्तस्य दुःखस्यावमर्शः न च मुख्यमेव दुःखं बाधनास्वभावमवमृश्यते, किन्तु तत्साधनं तदनुषक्तं च सर्वमेव, तेन दुःखेन वियोगोऽपवर्गः, अस्ति च प्रलयवेलायामात्मनो दुःखवियोगः, स स्वपवर्गों न भवति, सर्गसमये पुनरक्षोणकर्माशयाऽनुरूपशरोरादिसम्बन्धे सति दुःखसम्भवादतस्तव्यावृत्त्यर्थमत्यन्तग्रहणम् , आत्यन्तिको दुःखव्यावृत्तिरपवर्गो न सावधिका । द्विविधदुःखावमर्शिना सर्वनाम्ना सर्वेषामात्मगुणानां दुःखवदवमर्शादत्यन्तग्रहणेन च सर्वात्मना तद्वियोगाऽभिधानानवानामात्मगुणानां बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष प्रयत्न-धर्मा-धर्म-संस्काराणां निर्मू लोच्छेदोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः । तावदात्यन्तिको दुःखव्यावृत्तिर्नाऽवकल्पते ॥१॥ धर्माऽधर्मनिमित्तो हि सम्भवः सुखदुःखयोः । मूलभूतौ च तावेव स्तम्भौ संसारसद्मनः ॥२॥ तदुच्छेदे तु तत्कार्यशरोराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुख-दुःखे स्त इत्यसो मुक्त उच्यते ॥३॥ इच्छा-द्वेष-प्रयत्नादि भोगायतनबन्धनम् । उच्छिन्नभोगायतनो नात्मा तैरपि युज्यते ॥४॥ प्राणस्य क्षत्पिपासे द्वे लोभमोहौ च चेतसः। शीता-Sऽतपो शरीरस्य षडूमिरहितः शिवः ॥५॥ तदेवं नवानामात्मगुणानां निमू लोच्छेदोऽपवर्ग इति यदुच्यते, तदेवेदमुक्तं भवति-तदत्यन्तवियोगोऽपवर्ग इति ।” एवं व्योमशिवाचार्यैरपि प्रशस्तपादभाष्यस्य व्योमवत्याख्यवृत्तौ प्रतिपादितम्-"नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्ष इति ।” प्रमाणयन्ति च नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वादिति, नाऽयं हेतुरसिद्धः, व्याप्यत्वेनाऽभिमतस्य सन्तानत्वस्य बुद्धयादिलक्षणे पक्षे प्रवर्तमानत्वात् । नाऽपि विरुद्धः, सपक्षे प्रदीपादावुपलम्भात् । नाऽप्यनैकान्तिकः, विपक्षे परमावादाववृतेः, नाऽपि कालात्ययापदिष्टः, विपरीतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षा-ऽऽगमयोरनुपलम्भात् । नाऽपि सत्प्रतिपक्षः, साध्याभावसाधकाऽनुमाना-ऽसम्भवात् । ___ आगमो-ऽप्यत्र "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वावसन्तं प्रियाप्रिये न स्पशतः ।" इति सुखादेरभावबोधकः । . Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिकानां पूर्वपक्ष: ] [ ५०९ तच्च न च सन्तानोच्छेदे कश्चिद् हेतुर्वाव्यः, निर्हेतुकविनाशस्य प्रतिषेधादिति वाच्यम्, ज्ञानस्य मिथ्याज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण निःश्रेयसहेतुत्वेन प्रतिपादनात् । उपलब्धञ्च मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ सम्यग्ज्ञानस्य सामर्थ्यं शुक्तिकादौ । न चोत्तरकालभाविना मिथ्याज्ञानेनाऽपि सम्यग्ज्ञानस्य निवृत्तिः सम्भवति, तत्सन्तानोच्छेदस्य विवक्षितत्वात् । यथा हि सम्यग्ज्ञानाद् मिथ्याज्ञानसन्तानोच्छेदः क्रियते, नैवं मिथ्याज्ञानात् सम्यग्ज्ञान सन्तानोच्छेदः, सम्यग्ज्ञानस्य यथार्थ - विषयत्वेन बलीयस्त्वाद् । निवृत्रे च मिथ्याज्ञाने तन्मूलका रागादयोऽपयन्ति, कारणाभावे कार्यस्याऽनुत्पादात्, रागाद्यपाये च तत्कार्यरूपा मनोवाक्कायप्रवृत्तिर्व्यावर्तते, तद्व्यावृत्तौ च धर्माधर्म योरनुत्पत्तिः । आरब्धशरीरेन्द्रियविषय कार्ययोर्धर्माऽधर्मयोः सुखादिफलोपभोगात् प्रक्षयः, अनारब्ध-तत्कार्ययोश्च सञ्चितयोरपि तयोरुपभोगादेव प्रक्षय इति तच्चज्ञानस्य मिथ्याज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण मोक्षहेतुत्वमस्ति । यदाहुन्यायभाष्यकाराः - "यदा तु तत्त्वज्ञानान्मिथ्याज्ञान'मपैति, तदा मिथ्याज्ञानापाये दोषा' अपयन्ति, दोषाऽपाये प्रवृत्ति रपैति, प्रवृत्यपाये जन्माऽपैति, जन्माऽपाये दुःख मपैति, दुःखापाये च आत्यन्तिको ऽपवर्गः निःश्रेयसमिति । ” : मोक्षस्वरूपविचारः एवमेव वैशेषिकदर्शनप्रशस्तपादभाष्येऽपि प्रतिपादितम् - "ज्ञानपूर्वकान्तु कृतादसङ्कल्पित फलाद्विगुडे कुले जातस्य दुःखविगमोपाय जिज्ञासोराचार्यमुपसङ्गस्योत्पन्नषट्पदार्थतत्त्वज्ञानास्याऽज्ञाननिवृत्तौ विरक्तस्य रागद्वेषायभावात् तज्जयोधर्माधर्मोत्पत्तौ पूर्वसञ्चितयोश्चोपभोगान्निरोधे सन्तोषसुखं शरोरपरिच्छेदं चोत्पाद्य रागादिनिवृत्तौ निवृत्तिलक्षणः केवलो धर्मः परमार्थदर्शनजं सुखं कृत्वा निवर्तते । तदा निरोधात् निर्बीजस्याSSत्मनः शरीरादिनिवृत्तिः, पुनः शरीराद्यनुस्पत्तौ ' दग्धेन्धनवदुपशमो मोक्ष इति । " इहाऽऽरब्धशरीरादिधर्माधर्मवत् सचितयोरपि धर्मा-धर्मवोरुपभोगादेव प्रक्षयो भणितः, आगमश्चात्र “नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि "" इत्येवंरूप एतदर्थसंवादकः । अनुमानमप्यस्ति — पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात्, यद् यत् कर्म तत् तद् उपभोगादेव क्षीयते, यथा- Sऽरब्धशरीरं कर्म, तथा चैतत् कर्म । तस्मादुपभोगादेव क्षीयते कर्म । न चोपभोगात् (१) देहादिष्वात्मबुद्धयादिकं मिध्याज्ञानम् (२) मिथ्याज्ञानादनुकूलेषु रागः, प्रतिकूलेषु च द्वेषः, रागद्वेषाधिकाराच्चाऽसूयेर्ष्या - माया लोभादयो दोषाः (३) इह प्रवृत्तिसाधनौ धर्माऽधर्मौ प्रवृत्तिशब्देनाऽभिहितौ यथाऽन्नसाधनाः प्राणाः “अन्नं वै प्राणिनः प्राणाः" इति । (४) शरीरेन्द्रियबुद्धीनां निकायविशिष्टः प्रादुर्भावो जन्म ।" (५) बाधनालक्षणं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् । (६) यथा दग्धेन्धनस्याऽनलस्योपशमः = लादिमीरहितस्याऽवस्थानम्, तद्वदत्यन्तं विशेषगुणैर्वियुक्तस्या - SS - त्मनो ऽवस्थानं मोक्ष इति । (७) उद्धृतोऽयं श्लोकः प्रशस्तपादभाष्यव्योमवत्यादावपि । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. ] खवगसेढी [गाथा-२६७ प्रक्षये कर्मान्तरस्योत्पत्तेरवश्यंभावात् संसारानुच्छेदः । अयं भावः-"मा हिंस्यात् सर्वभूतानि" इति श्रुतिसद्भावात् प्राणिमात्रस्य वधो-ऽनिष्टः । उपभोगस्तु प्राण्युपमर्दनादिकं विना न संभवतीत्युपार्जितप्राणिवधादिनिमित्तककर्मफलोपभोगाय जन्मान्तरमावश्यकम् । तत्राऽप्युपभोगेन पुनः प्राणिवधादिनिमित्तककर्मोपार्जनं स्यात् , तत्फलोपभोगाय पुनर्जन्मान्तरमावश्यकमिति कथं संसारस्योच्छेदः स्यादिति वाच्यम् , 'समाधिवलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्याऽवगतकर्मसामोत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वाराऽवाप्ताऽशेषभोगस्य कर्मान्तरोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञानजनिताऽनुसन्धानविकलस्य कर्मान्तराऽनुत्पत्त्या संसारच्छेदोपपत्तेः ।। एतदुक्तं भवति-समाधिबलाल्लब्धतच्चज्ञानो योगी निखिलनिजकर्मसामाऱ्या ज्ञात्वा तदुपभोगयोग्यानि तेषु तेषूपपत्तिस्थानेषु तानि तानि सेन्द्रियाणि शरीरादीनि निर्माय सकलकर्मफलमनुभवति । न च तत्प्रवृत्तिः पुनर्जन्मने कल्पते, क्षीणक्लेशत्वात् , यदुक्तं श्रीगोतमेन “न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय क्षीणक्लेशस्य ।” (गो०४-१-६४) इति । न च मिथ्याज्ञानाभावे तत्वज्ञानिन उपभोगा-ऽभिलाषस्यैवाऽसम्भवात् कायव्यूहद्वारा सञ्चितयोर्धर्माधर्मयोरुपभोगो नोपपद्यत इति वाच्यम् , यत उपभोगं विना कर्मणां प्रक्षयाऽनुपपत्तितस्तत्वज्ञानिनस्तदुपभोगा-ऽभिलापाभावेऽपि कर्मक्षयार्थित्वेन तस्य तत्र' प्रवृत्तिर्घटते, वैद्योपदेशेना-ऽऽतुरस्येवोषधाचरणे, यथैव ह्यातुरस्याऽनभिलपितकटुकक्काथाद्याचरणे व्याधिप्रक्षयार्थ प्रवृत्तिदृश्यते, तद्वयतिरेकेण व्याधिप्रक्षयोऽनुपपन्नः, तथैवा-त्राऽपि । ननु तत्वज्ञानादेव सश्चितकर्मक्षयोऽस्तु, यदुक्तं व्यासमुनिना भगवद्गीतायाम् “यथैधांसि समिडोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥१॥" इति चेत् , न, तत्वज्ञानस्य साक्षात् कर्मविनाशे व्यापारा-ऽभावात् । तत्वज्ञानं हि निखिलशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगात् कर्मणां विनाशे व्याप्रियत इत्यग्निरिवोपचर्यत इति व्याख्येयं भगवद्गीतावचनम् , न तु साक्षात् । ततश्च 'नाऽभुक्तं कर्म' इत्यादिना सह “यथैधांसि” इत्याद्यस्य न कश्चिद् विरोधः । न च तचज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्वज्ञानाद्भवतु, इतरेषान्तूपभोगादिति वाव्यम् , ज्ञानेन कर्मविनाशे प्रसिद्धोदाहरणा-ऽभावात् । केचित्त विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरशरीराण्यारभन्ते, मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य सहकारिणो विरहादित्याहुः, तदुक्तं न्यायमञ्जर्या श्रीजयन्तभट्टै:-"तदन्ये न मन्यन्ते, न सर्वात्मनाकर्मणां दाहः, किन्तु स्वरूपेण सतामपि सहकारिवैकल्यात् स्वकार्य १ उक्तं च प्रशस्तपादभाष्यव्योमवत्या-समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानो हि कर्मणाश्च साध्यमर्य विदित्वा युगपच्छरीराणि निर्मायोपभोग.........।" इति । (२) कर्मफलोपभोगे Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिकानां पूर्वपक्ष: ] मोक्षस्वरूपविचार: करणोदासीनता तेषां भवति, भृष्टानामिव बोजानामङ्कुरकरणकौशलहानि:, यतः सामग्री कार्यस्य जनिका, न केवलं कारणमतो न कर्माण्येव केवलानि फलोपभोग योग्यशरोरेन्द्रियादिजन्मनिमित्ततामुपयान्ति, किन्तु मिथ्याज्ञानेन दोषैश्च सहितानि तदुकम् – 'अविधातृष्णे धर्माधर्मौ च जन्मकारण " मिति तत्वविदश्च तत्त्ववित्वादेव नाऽविद्या मिथ्याज्ञानात्मिका भवति, दोषाणां तु प्रशमे दर्शित एव क्रमः, तदभावे भवन्तावपि धर्माधर्मौ न बन्धाय कल्पेते, न हि स्वकार्यमङ्कुरादि कुसूलवर्तीनि बोजानि जनयितुमुत्सहन्ते, भृष्टबीजानामपि स्वरूपशक्तिरपि तानवं गता, तद्वत्कर्मणां स्वरूपशक्ति शैथिल्यं मा भूत्, तथापि कुसूलवर्तिबीजवत् सहकारिवैधुर्यात् कार्याऽनारम्भः ।" इति । तन्न, अनुत्पादितकार्यस्य कर्मलक्षणस्य जन्यभावस्या- प्रक्षयाद् नित्यत्वप्रसक्तेः, प्रतियोगितासम्बन्धेन ध्वंसत्वावच्छिन्न प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन जन्यभावत्वेन हेतुत्वमिति कार्यकारणभावलोपपत्तेश्च । नन्वनागतयोर्धर्माऽर्धमयोरुत्पत्तिप्रतिषेधे सति तचज्ञानिनां नित्य नैमित्तिकाऽनुष्ठानं किमर्थम् ? इति चेत्, प्रत्यवायपरिहारार्थमिति ब्रूमः । न च मिथ्याज्ञाना-ऽभावे दुष्कर्मणोऽभावात् कस्य परिहारार्थं नित्यनैमित्तिकाऽनुष्ठानमिति वाच्यम्, यतो मिथ्याज्ञानाऽभावे 'काम्यनिषिद्धाचरणनिमित्तस्यैव प्रत्यवायस्याऽभावः, न पुनर्नित्यनैमित्तिकादिविहिताऽननुष्ठान निमित्तस्य, अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यत इत्यागमात् । तदुक्तञ्च—नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । तथा च ज्ञानं च विमलीकुवंन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ १ ॥ अभ्यासात् पक्क विज्ञानः कैवल्यं लभते नरः । केवलं काम्ये निषिद्धे च प्रवृत्तिप्रतिषेघतः ॥२॥ नित्य नैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया । मोक्षार्थी न प्रवर्त्तेत तत्र काम्य - निषिद्धयोः ॥ १ ॥ [ ५११ न चेत्थं मिथ्याज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे तादृशमुक्तेस्तवज्ञान कार्यत्वादनित्यत्वमिति वाच्यम्, यतः किं विशेषगुणोच्छेदस्याऽनित्यत्वमापाद्यते, तद्विशिष्टात्मनो वा ? न तावत् प्रथमो विकल्पः यतो विशेषगुणोच्छेदः प्रध्वंसरूपः । जन्यस्य भावस्यैव विनाशित्वं प्रसिद्धम्, न तु ध्वंसस्य । नाऽपि द्वितीयविकल्पः, यतस्तद्विशिष्टात्मनो (१) काम्यं = यागः, निषिद्धं विप्रवधादि । (२) कैवल्यं = सकलात्मविशेषगुणोच्छेद विशिष्टात्मस्वरूपं निःश्रेयसम् । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] खवगसेढी [ नाथ ६७ भावत्वेऽपि नित्यत्वेन कार्यत्वाभावानाऽनित्यत्वम् । न च तथापि बुद्धयादिविनाशे तद्वत आत्मनोऽपि नाशः स्यादेवेति वाच्यम् , गुणगुणिनोस्तादात्म्याऽभावात् । अत्र प्रतिविधीयते-'यत्तावदुक्तम् 'नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वादित्यत्रा-ऽऽत्मनः किं सर्वथा भिन्नानां बुद्धयादिविशेषगुणानां सन्तानस्योच्छेदः साध्यते, उता-ऽभिन्नानाम् , आहोस्वित् कश्चिद् भिन्नानाम् ? तत्र प्रथमपक्षे तावदाश्रयाऽसिद्धो हेतुः, आत्मतोऽत्यन्तभिन्नानां बुद्धयादिविशेषगुणानामसत्कल्पत्वात् सन्तानस्य धर्मिणोऽसिद्धः । तथा तेषां भवन्मते स्वसंवेदितत्वाऽनभ्युपगमात् ज्ञानान्तरग्राह्यात्वे चा-ऽनवस्थादिदोषप्रसङ्गात् , अज्ञातानाञ्च सचासिद्धः पुनरप्याश्रयासिद्धः 'सन्तानत्वाद् ' इति हेतुः। ___ ना-ऽपि द्वैतीयिकः पक्षः कक्षीकरणाहः, आत्मनः सर्वथा- भिन्नानां बुयादिविशेषगुणानामुच्छेदसाधने तद्वत आत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात् । ततश्च कस्याऽसो मोक्षः ? नाऽपि तार्तीयिकः पक्षः, कथञ्चिद्भदस्य तु नैयायिक-वैशेषिकादिभिरनभ्युपगमात् , तदभ्युपगमेऽपि सर्वथा तदु छेदाऽसिद्धिः, कथञ्चिदनुच्छेदस्याऽप्येवं प्रसिद्धः । तथा-ऽभ्युपगमे चा-ऽस्मन्मतमेवा-ऽङ्गीकृतं प्रेक्षावता । अभ्युपगम्यत एव हि स्याद्वादवादिभिगुणगुणिनोः कथिश्चद्भेदः, तेन "नहम्मि य छ उमथिए नाणे” इत्यागमात् क्षायोपशमिकमन्यादिज्ञानानां विनाशेऽपि मोक्षावस्थायां क्षायिककेवलज्ञानस्या-ऽनुच्छेदः ।। किञ्च सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपादीयमानं किं सामान्यरूपमभिप्रेतम् , उन विशेषरूपम् ? तत्र प्रथमपक्षे स्वरूपासिद्धो हेतुः, बुद्धयादिविशेषगुणेषु तेजोद्रव्यविशेषे च सत्तासामान्य व्यतिरेकेणाऽपरसामान्यस्याऽसम्भवात् । न च सन्तानत्वस्य सत्तारूपपरसामान्यरूपत्वे न तस्य स्वरूपासिद्धत्वमिति वाच्यम् , यतः सत्तासामान्यरूपत्वे सन्तानत्वस्य 'सत् सत्' इति प्रत्ययहेतुत्वमेव स्यात्, न पुनः 'सन्तानः सन्तानः' इति प्रत्ययहेतुत्वम् , अन्यथा द्रव्यगुणकर्मस्वरूपादेव 'सत् सत्' इति प्रत्ययोपपत्तेः सत्ताकल्पनाया वैयर्थ्यम् । किश्च सत्तासामान्यरूपत्वे गगनादिना व्यभिचारः, अत्यन्नोच्छेदा-ऽभावेऽपि गगनादौ सत्तासामान्यरूपस्य सन्तानत्वस्य हेतोः सद्भावात् ।। अपि च सन्तानत्वसामान्यस्य बुद्धयादिषु वृत्तिमत्ता समवायेन भवतेष्यते, समवायस्य च सम्मतितर्कादिवृत्तिग्रन्थेषु न्यक्षेण निषिद्धत्वात् पुनरपि सन्तानत्वहेतोः स्वरूपासिद्धता । नाऽप्यपरसामान्यरूपं सन्तानत्वं सम्भवति, यतो विशेषगुणाश्रिता जातिः खलु सन्तानत्वं न साधर्म्यदृष्टान्ते तेजोद्रव्ये प्रदीपादावस्ति, गुणवृत्तित्वात् , तेन साधनविकलो दृष्टान्तः । (१) पृ० ५०८ पं० २५। (२) साध्याभावे-ऽपि । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिकमतखण्डनम् । मोक्षस्वरूपविचारः [ ५१३ अथ विशेषरूपं सन्तानत्वं हेतुः । तत्र विकल्पचतुष्कमवतरति-(१) किमुपादानोपादेयभूतघुद्धयादिक्षणलक्षणप्रवाहरूपम् ?(२) उत कार्यकारणभावलक्षणप्रवाहरूपम् ? (३) आहोस्वित् स्वतन्त्रम् अपरापरक्षणोत्पत्तिमात्रम् ? (४) अथवा एकाश्रया-ऽपरापरक्षणोत्पत्तिमात्रम् ? इति । तत्र न तावदाद्यो विकल्पः, तादृशसन्तानत्वस्याऽन्यत्रा'-ऽप्रवृत्त्या-ऽसाधारणाऽनैकान्तिकत्वाद् अभ्युपगमविरोधप्रसङ्गाच्च । अभ्युपगमविरोधश्चेत्थम्-न खलु नैयायिक-वैशेषिकादिभिक्षुद्धयादिक्षणानामुपादानोपादेयभावः स्वीक्रियते, तस्य सौगतानां सम्मतत्वात् , नैयायिकादिभिस्तु समवायिकारणाऽऽत्मतो-ऽसमवायिकारणा-ऽऽत्म-मनःसंयोगतो-ऽदृष्टादेश्च निमित्तकारणादात्मगुणोत्पत्तिस्वीकारात् । एतेनैव द्वितीयपक्षोऽपि प्रतिविहितः, बुद्धयादिक्षणानां कार्यकारणभावस्य तैरनङ्गीकारात् । प्रलयप्रलीन-बुद्धयादेरप्यात्मन एव पुनर्बुद्धयाधुत्पादाङ्गीकारात् ।। तृतीयपक्षेऽपि व्यभिचारः, अपरा-ऽपरेषामुत्पादुकानां घट-पट-कटादीनां सन्तानत्वेऽप्यत्यन्तमनुच्छेदात् । चतुर्थपक्षोऽपि न रमणीयः, यतस्तादृशं सन्तानत्वं नास्ति प्रदीप इति साधनविकलो दृष्टान्तः । परमाणुपाकजरूपादिभिश्च व्यभिचारी हेतुः, तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात् । ____ अपि च सन्तानत्वमपि भविष्यति, अत्यन्तानुच्छेदश्चाऽपीति, विपर्यये हेतोर्वाधकप्रमाणाऽभावेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकः । विरुद्धश्चाऽयं सन्तानत्वहेतुः, शब्द-बुद्धि-प्रदीपादिष्वप्यत्यन्तानुच्छेदवत्येव सन्तानत्वस्य व्यवस्थानात् । न ह्येकान्तनित्येष्विवैकान्ता-ऽनित्येष्वप्यर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सचं संभवति,तत्र तत्र स्थाद्वादग्रन्थेषु प्रतिषिद्धत्वात् । साध्यवैकल्यं च दृष्टान्तस्य, प्रदीपादेरत्यन्तोच्छेदा-ऽभावात् , तैजसपरमाणूनां खलु भास्वररूपपरित्यागेनाऽन्धकाररूपतया-ऽवस्थानात् । न च प्रदीपादीनामुत्तरपरिणामस्या-ऽप्रत्यक्षत्वेन तेषामुच्छेदो विनिश्चेतु शक्यः, अन्यथा परमाणूनां पारिमाण्डल्यगुणाधारतया प्रत्यक्षतो-ऽगृहीतानामसचं प्रसज्येत । अथ तेषां तद्रूपतया-ऽनुमानात् प्रतिपत्ते ऽयं दोष इति चेत् , प्रकृतेऽप्यनुमानात् सा प्रतिपत्तिः किं नेष्यते । यथाहि स्थूलकार्यप्रतिपत्तिस्तदपरसूक्ष्मकारणमन्तरेणाऽसम्भविनी परमाणुसत्तामवबोधयति, तथा मध्यस्थितिदर्शनं पूर्वापरकोटिस्थितिमन्तरेणाऽसम्भवि तां साधयतीति । न च धस्तस्या-ऽपि प्रदीपस्य विकारान्तरेणा-ऽवस्थाना-ऽभ्युपगमे प्रत्यक्षबाधेति वाच्यम् , वारिस्थिते तेजसि भास्वररूपा-ऽभ्युपगमेऽपि तदाधोपपत्तेः । अथोष्णस्पर्शस्य भास्वररूपाधिकरणतेजोद्रव्याऽभावेऽलम्भवादनुमानतस्तत्रानुद्भूतभास्वररूपस्य परिकल्पनम् ,तर्हि प्रदीपादेरनुपादनोत्प (१) दृष्टान्ते प्रदीपे (२) उष्णवारिस्थिते । (३) वह्नौ । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] खत्रगसेढी [ गाथ-२६७ तिवदन्त्यावस्थातोऽपरा पर परिणामा -ऽऽधारत्वमन्तरेण सच्चकृतकत्यादेरनुपपत्तेरत्यन्ता-S -ऽनुच्छेदोऽपि परिकल्प्यताम्, अविशेषात् । प्रयोगश्चाऽयम् - पूर्वापरस्वभावपरिहारा ऽङ्गीकारस्थितिलक्षणपरिणामवान् प्रदीपः, सच्चात् कृतकत्वाच्च घटादिवद् । इत्थमनुमानतोऽपि प्रदीपादि सन्तानाऽनुच्छेदः किं न कल्प्यते, अन्यथा सन्तानचरमक्षणस्य क्षणान्तराऽजनकत्वेना-ऽर्थक्रियाकारित्वविरहादस सिद्धे पूर्व पूर्व क्षणानामपि तथाभूतत्वप्रसङ्गाद् विवक्षितक्षणस्याऽप्यसच्चं स्यात् । ततश्च दृष्टान्तस्य प्रदीपस्य बुद्धयादिपक्षस्य चाऽसच्चप्रसङ्गात् कथमनुमानं प्रवर्तेत ? इत्थं शब्द-बुद्धि-प्रदीपादीनां समाने नात्यन्तिक उच्छेदोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा विवक्षितक्षणेऽपि सच्चाभावः स्यात् । तदेवं सर्वत्राऽत्यन्ताऽनुच्छेदवत्स्वेव बुद्धिप्रदीपादिषु सन्तानत्वस्य वृत्तेः कथं न तस्य विरुद्धत्वम् ? सत्प्रतिपक्षश्चाऽयं सन्तानत्व हेतुः, तथाहि बुद्ध्यादि सन्तानो नाऽत्यन्तोच्छेदवान्, , सर्वप्रमाणाऽनुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वात् । यो हि सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतधोच्छेदः, न स तवेनाभ्युपगम्यः, यथा पार्थिवपरमाणुपाकजरूपादिसन्तानः, तथा चाऽयम्, तस्मान्नाऽत्यन्तोच्छेदवानिति । न च नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वादित्यनुमानप्रमाणादेव सन्तानोच्छेदोपलब्धेः सर्वप्रमाणाऽनुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वमसिद्धमिति वाच्यम्, कदोषदुष्टत्वेनाऽननुमानत्वप्रतिपादनात् । कालात्ययापदिष्टश्वायं सन्तानत्वहेतुः, विपरीतार्थोपस्थापकोत्ताऽनुमानेन बाधितपक्षनिदेशानन्तरं प्रयुक्तत्वात् । किश्च नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानो ऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वादित्यनुमानात् किमिन्द्रियजानां बुद्ध्यादीनामुच्छेदः साध्यमानोऽस्ति ? उताऽतीन्द्रियाणाम् ? अस्था तत्राद्यपक्षे सिद्धसाधनम्, अस्माभिरपि तत्र बुद्धयादिगुणानामिन्द्रियजा नामुच्छेदस्वीकारात् । द्वितीयपक्षोऽपि न निरवद्यः, अतीन्द्रियाणां तेषामत्यन्तोच्छेदे मुक्तौ कस्यचिदपि प्रवृच्यनुपपत्तेः । सर्वो हि मोक्षार्थी निरतिशय सुखज्ञानादिप्राप्त्यभिलाषेणैव प्रवर्तते, न पुनः सकलबुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदाभिलाषेण तादृशोच्छेदस्य केनचिदप्यनभिलपणीयत्वात् । न कोऽपि स्वात्मानं शिलाशकलकल्पमपगतसकलसंवेदनं जडं सम्पादयितुं प्रयतते । यदि मोक्षावस्थायां स्वात्मा पात्राणदेशीयो जडो भवेत् तर्हि कृतं मोक्षेण, संसार एव वरमस्तु । अत एव भवदुपहासोऽपि श्रूयते 1 वरं वृन्दावने रम्ये शृगालैश्च सहोषितम् । न तु वैशेषिकों मुक्तिं गोतमो गन्तुमिच्छति ॥ १ ॥” इति अपि च उपहासं विदधता महाकविश्रीहर्षेणा-ऽपि नैषधमहाकाव्ये भणितम् Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेयायिकमतखण्डनम् ] मोक्षस्वरूपविचारः मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः॥१॥" इति 'भवत्पठिता-ऽऽगमस्त्वन्यथा-ऽपि व्याख्यातुं शक्यते । तथाहि-सशरीरस्य-गतिचतुष्टयवर्तिन आत्मनः प्रिया-ऽप्रिययोः परस्परा-ऽनुषक्तयोः सुख-दुःखयोः, अपहतिः अभावो नास्ति, संसारिणां कदाचिदपि केवलं सुखं केवलं वा दुःखं नास्तीत्यर्थः, अशरीरंगतिचतुष्टया-ऽन्यतमा-ऽवर्तिनं तु वावसन्तं यलुक , अतिशयेन वसन्तं प्रियाप्रियेपरस्परानुषक्तं सुखदुःखे न स्पृशतः, आत्मस्वरूपत्वेन सदैव केवलसुखस्यैव सद्भावादिति ।। ननु परस्पराऽनुपक्तत्वं कुतो बुध्यते, न च द्वन्द्वसमासकरणात् तद् गम्यत इति वाच्यम् , यतो यथा धवखदिरौ छिन्द्रीत्यादौ छिदायाः प्रत्येकमन्वयो भवति, तथाऽत्रापि परस्परा-ऽननुपक्तयोः सुखदुःखयोहणं स्यादिति चेत् , उच्यते-एकसत्वेऽप्युभयं नास्तीति प्रतीतिबलात् घटवत्यपि भूतले घटपटौ न स्त इति वाक्याद् यथा घटपटोभयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाऽभावो बुध्यते, तथैव मुक्तौ सुखादिसत्त्वेऽपि तात्पर्यवशादुक्तश्रत्या प्रियाऽप्रियोभयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः प्रतिपाद्यते । तेन ___ "सुखमात्यन्तिकं यत्र बुडिग्राह्यमतोन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयात् दुष्पापमकृतात्मभिः ॥१॥ इति स्मृतिरप्युक्तार्थानुपातिनी सङ्गच्छते । ___ यद्वा-ऽप्रियशब्दसान्निध्याद् भवदुदितागमस्थौ प्रियाऽप्रियशब्दो वैषयिकसुख-दुःखप्रतिपादनपरौ व्याख्यायेते, ततोऽपि न काचिद् विप्रतिपत्तिः । किञ्च मुक्तौ बुद्धयादिविशेषगुणानामभावः किं कारणाऽभावादिष्यते ? उत विरुद्धत्वादिष्यते ? न तावत् प्रथमविकल्पः, न हि ज्ञानादिविशेषगुणत्वावच्छिन्न प्रति शरीरादेनिमित्तकारणत्वम् , ईश्वरज्ञानादिके व्यभिचारात् ,किन्त्विन्द्रियजबुद्धयादिविशेषगुणत्वावच्छिन्न प्रत्येव शरीरादेनिमित्तकारणत्वमभ्युपगन्तव्यम् , न तु मोक्षावस्थाज्ञानसुखादिकत्वावच्छिन्न प्रत्यपि । न च संसारावस्थाज्ञानसुखादिकस्य शरीरादिनिरूपितकार्यत्वम्, मोक्षावस्थाज्ञानसुखादिकस्य त्वन्यनिरूपितकार्यत्वमिति मोक्षावस्थाज्ञानसुखादिकं प्रति कारणान्तरकल्पने गौरवमिति वाच्यम् , “मोक्षे सुखमनुत्तमम्" इत्याद्यागमवलेन मुक्तौ ज्ञानसुखादीनां सिद्धौ तदुत्पत्तेरन्यथानुपपल्या कल्पिते कारणे कल्पनागौरवस्य प्रामाणिकत्वेन दूषणत्वविरहात् । ननु तथापि मुक्तावपि बुद्धयादिगुणानां जन्यभावत्वात् तेषां ध्वंसः स्यात् , ततश्च न (१) पृ० ५०८ पं०३० । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] खवगसेढी ! गाथा-२६७ तेषामनन्तत्वम् , यतः प्रतियोगितासम्बन्धेन ध्वंसत्वावच्छिन्न प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन जन्यभावत्वेन कारणमिति कार्यकारणभाव इति चेत् ,न, अभाववत् कस्यचिद् भावस्या-ऽप्यविनाशसम्भवाद् जन्यभावत्वेन नाशहेतुत्वे मानाभावाच्च । एतदुक्तं भवति-यथा जन्यस्य ध्वंसस्य विनाशा-ऽभावेन विनाश-जन्याभावयोः कार्यकारणभावो न सम्भवति, तथैवा-ऽऽगमसिद्धस्य मुक्ताऽवस्थाज्ञानसुखादिकस्य विनाशाभावेन विनाश-जन्यभावयोरपि न कार्यकारणभावः । ननु यद्येवं नाशजन्यभावगेः कार्यकारणभावविरहः, तर्हि पथा जन्यस्य कस्यचिद् घटाद्यात्मक गावस्य नाशो भवति, कस्यचिच्च मुक्तावस्थाज्ञानसुखादिकस्य न भवति, तथा-ऽजन्यस्याऽपि कस्यचिद् नाशः, कस्यचिच्च नेति चेत् , मैवम् , नाशकारणानां नाश्यनिष्टतयैव हेतुत्वेन दोषा-ऽभावात् । अयं भावः-मुद्गरसंयोगादेः कारणतानियामकेन सम्बन्धविशेषेण स्वसमवापिसंयोगादिना नाश्ये घटादौ वृत्या घटादिनाशं प्रति मुद्गरसंयोगादे शकारणता,तेन ना-जन्यस्य नाशा-ऽऽपत्तिः,नाशकारणविरहात् ,एवमेव मुक्तावस्थायां न ज्ञानसुखादिनाशा-ऽऽपत्तिः । न च शरीरायभावस्य तादृशज्ञानसुखादिविनाशं प्रति हेतुता समस्तीति वाच्यम् , अभावस्य तुच्छत्वेन नाशकारण या-ऽयोगात् । ___ अपि च प्रतियोगितासम्बन्धेन नाशं प्रति जन्यभावत्वेन हेतुत्वे स्वीकृते कारणता-वच्छेदको जन्यत्वं न प्रागभावप्रतियोगित्वं ग्रहीतुं शक्यते, गुरुभूतत्वात् , किन्तु कालिकसम्बन्धेन घटत्वादिमच्चस्य कारणतावच्छेदकत्वकल्पनमुचितम् , लघुभृतत्वात् । एतदुक्तं भवति-कालिकसम्बन्धेन घटत्वादिमत्त्वस्य जन्यमात्रवृत्तिता नैयायिकैः स्वीक्रियते, कालाऽतिरिक्तनित्यपदार्थे तु घृत्तिः कालिकसम्बन्धेन ना-ऽभ्युपगम्यते "नित्येषु कालिका-ऽयोगात्" इति वचनात् । ततश्च प्रतियोगितासम्बन्धेन नाशं प्रति जन्यभावत्वं हेतुरित्यत्र प्रागभावप्रतियोगित्वा-ऽपेक्षया लघुत्वेन कालिकसम्बन्धेन घटत्वादिमत्त्वस्यैव कारणतावच्छेदकत्वकल्पनमुचितम् , तत्रा-ऽपि घटत्वादिमवस्यैवाऽवच्छेदकत्वं न पटत्यादिमचस्येति विनिगविरहात् , घटत्व-पटत्वादिमचादीनामवच्छेदकत्वं वाच्यम् । तथा च सत्यवच्छेदकानां नानात्वं स्यात् । किञ्च जन्यभावत्वेन नाशहेतुत्वेऽपि मुक्तौनसुखादिध्वंसः,यतो योग्पविभुविशेषगुणान् स्वोत्तरवर्तियोग्यविभुविशेषगुणा नाशयन्तीति नैयायिकसिद्धान्तसद्भावात् प्रतियोगितासम्बन्धेन योग्यात्मविशेषगुणनाशं प्रत्येकाधिकरण्यावच्छिन्नम्वपूर्ववृत्तितासम्बन्धेन योग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वमित्यपि नैयायिकमते कार्यकारणभावोऽस्ति, मुक्तौ तु योग्यविशेषगुणोत्पत्त्यभावाद् न पूर्वविशेषगुणानां नाशः स्यात् । ततश्च मुक्त्यवस्थायामप्यनन्तज्ञानादिकं निराधाधम् । अनन्तातीन्द्रियज्ञानसद्भावश्च यथा भवति, तथा सयोगिकेवलि-गुणस्थानाधिकार आगमरीत्या दर्शितः । अनन्तातीन्द्रियसकलपदार्थविषयकज्ञानसाधकमनुमानप्रमाणमप्यस्ति । तद्यथा-ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तम्, तारतम्यशब्दवाच्यत्वात् , परिमाणवदिति । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिकमतखण्डनम ] मोक्षस्वरूपविचारः [ ५१७ ____ अथ विरुद्धत्वाद् मुको ज्ञानावनाष इष्यत इति चेत् , न, स्वरूपेण कस्यचित् विरोधा-s भावात् । प्रतिबन्धककर्मापायोपेतस्वात्मनः स्वरूपमेवाऽनन्तज्ञानादिविशिष्टत्वम् , न च स्वरूपेण सह विरोधो न्याय्यः । अभ्युपगते च विरोधे महेश्वरज्ञानादीनामप्यभावः प्रसज्येत, अविशेषात् । अन्यच्च प्रदीपनिर्वाणवादिनः सौगताद् भवतः को विशेषः, सौगतेन हि स्वरूपेणा-ऽऽत्मनोऽसचमभ्युपगतम् , यद्युक्तं सौन्दरनन्दमहाकाव्ये श्रीभदन्ताश्वघोषण "यस्मिन्न जातिनं जरा न मृत्युन व्याधयो ना-ऽप्रियसम्प्रयोगः । नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत् ॥१॥ दीपो यथा नित्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥२॥ एवं कृती नित्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशंन काञ्चिद्विदिशं न काश्चित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥३॥" इति । भवता तु सतोऽप्यस्यात्मनो बुद्धयादिगुणविकलत्वमभ्युपगम्यते, बुद्धयादिगुणविकलतायाश्च प्रमाणाभावादसत्त्वम् । बुद्धयादिगुणविकलत्वं हि सरूपं केन प्रमाणेन प्रतीयते-किं प्रत्यक्षेणाऽनुमानेन वा ? अथ प्रत्यक्षेण, तर्हि किमिन्द्रियप्रत्यक्षेण, उत योगिग्रत्यक्षेण । न तापदायेन, मोक्षे तस्या-ऽसम्भवात् । नाऽपि द्वितीयेन, योगिभिरात्मनोऽनन्तज्ञानादिमत्त्वेन प्रतीतेः । नाऽप्यनुमानतः प्रतीयते, यत इन्द्रियप्रत्यक्षाभावे भवन्मते-ऽनुमानस्या-ऽनुदयः “तत्पूर्षकं त्रिविधमनुमानम्” (गौ-१-१-५) इति गौतमवचनात् । ___ 'यदुक्तम् 'तत्त्वज्ञानस्य मिथ्याज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण निःश्रेयसहेतुत्वेन प्रतिपादनात्" इत्यादि, तदुपपन्नम् , सकलबुद्धयादिगुणोच्छेदस्तु नोपपद्यते, तत्त्वज्ञानाद् विपर्ययज्ञानव्यावृत्तिक्रमेण धर्मा-ऽधर्मयोस्तत्कार्यस्य शरीरादेरभावेप्यनन्तातीन्द्रियजसकलपदार्थविषयकसम्यरज्ञानप्रशमसुखादिसन्तानस्य व्यावृत्तेरभावात् । यच्चोक्तम्-"आरब्धशरीरेन्द्रियविषयकार्ययोर्धर्माधर्मयोः सुखादिफलोपभोगात् प्रक्षयः" इत्यादि , तदप्यपेशलम् , तदुपभोगसमयेऽपरकर्मनिमित्तस्या-ऽभिलापपूर्वकस्य मनोवाक्कायव्यापारस्वरूपस्य सम्भवादविकलकारणस्य प्रचुरतरकर्मणः सद्भावात् कथमात्यन्तिकप्रक्षयः स्यात् । यच्चोपभोगात् सकलकर्मप्रक्षयेऽनुमानमुपन्यस्तम् , तदप्यसुन्दरम् , यतः कर्मत्वहेतुः सन्तानत्ववदसिद्धयायनेकदोषदुष्टः, तेन न प्रकृतसाध्यसाधकः । (१) पृ० ५०९ पं० २ । (२) पृ० ५०९ पं० ९ (३) पृ० ५०९ पं० २४ । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] [ गाथा - २६७ 'यच्च "समाधिबलादुत्पन्नत्तत्त्वज्ञानस्या ०" इत्यादि प्रोक्तम्, तदप्यसङ्गतम्, अभिलारूप रागाद्यभावे भवदभिप्रायेण ऋद्धिविशेषवता योगिना तच्चज्ञानादवगतकर्मसामर्थ्येन नानाशरीराणि विधाया - ऽङ्गनाद्य पभोगा ऽसम्भवात्, तत्सम्भवे वाऽवश्यंभावी नृपत्यादेरिवाऽतिभागिनो योगिनोऽपि प्रचुरतरकर्मोत्पादः । asगसेढी श्यच्च "यत उपभोगं विना कर्मणां प्रक्षयाऽनुपपत्तितस्तच्वज्ञानिनस्तदुपभोगाऽभिलाषाभावेऽपि तत्र कर्मक्षयार्थित्वेन तस्य प्रवृत्तिर्घटते वैद्योपदेशेनाSSतुरस्येवौषधाचरणे" इत्याद्युक्तम् तदप्यभिधानमात्रम्, आतुरोऽपि नीरुग्भावाभिलाषेणैत्र प्रवर्तत औषधाद्याचरणे । न च मुमुक्षोर्मुक्ति सुखाऽभिलाषेण प्रवर्तमानस्य सरागत्वं स्यादिति - वाच्यम्, सूक्ष्मसम्पराये रागविगमस्य प्राक प्रसाधितत्वात् । अतः कथं प्रोक्तदृष्टान्तादभिलापरहितस्य तच्चज्ञानिनस्तत्त्वज्ञानमात्रात् कर्मक्षयार्थितया स्त्र्याद्युपभोगः साधयितुं शक्यः, - दाष्टन्तिकयोर्वैषम्यात् । 'यच्चोक्तम् 'तत्त्वज्ञानस्य साक्षात् कर्मविनाशेव्यापाराभावात् । तत्त्वज्ञानं हि निखिलशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगात् कर्मणां विनाशे व्याप्रियत" इत्यादि, तदप्यविचारिताऽभिधानम्, दृष्टविपरीतकल्पनाप्रसङ्गात्, मनुष्यादिशरीरादिसच्चे च शूकरादिशरीरा ऽनुत्पत्तेः । इदमुक्तं भवति वामदेव सौभरिप्रभृतीनां कायव्यूह श्रवणात् तच्चज्ञानेन तत्तत्फलोपभोगोचितकार्यं निर्माय भोगेन कर्मक्षय भवतीति परमतम्, एतच्चा ऽयुक्तम् ; नह्येकदैकस्य जीवस्यानेकान्यौदारिकादिशरीराणि दृष्टानि, कायव्यूहाभ्युपगमे तु दृष्टविपरीतानामेकदैव शूकर- खर- मृग-तुरगमनुजादिनानाशरीराणां कल्पनं प्रसज्यते । किञ्च तत्वज्ञानिनां तत्तच्छरीरफलोपभोगाय शूकर-तुरङ्ग-विहङ्ग - शृगाल-बिडाल-कुक्कुरादिशरीरपरिग्रहोपगम एकस्मिन् भवे भवसहस्रसाङ्कर्यं स्यात् । तथा केषाञ्चित् तत्वज्ञानिनां नरकादिदुःखजनक ब्रह्महत्यादिप्रयोजकादृष्टस्य सद्भावे नारक - ब्रह्मघात कादिशरीरोपग्रहः स्यात् । न चाऽस्त्वेतद् का विप्रतिपत्तिः ? इति वाच्यम्, ब्रह्मघातिनां तच्चज्ञानानुपपत्तेः । न च नरकादिदुःखजनक - ब्रह्महत्यादिप्रयोजकादृष्टस्याऽभावे सत्येव तत्त्वज्ञानोत्पत्तिरस्ति ततश्च न तत्त्वज्ञानिनां नारक - ब्रह्मघातकादिशरीरपरिग्रह इति वाच्यम्, तुल्यन्यायेन शूकर तुरङ्गकुरङ्गशरीरोत्पादका-ऽदृष्टविरह एव तचज्ञानोत्पत्तिरिति वक्तु ं शक्यत्वात् । न च " नाभुक्तं क्षीयते कर्म" इति स्मृत्या सह विरोधः स्यादिति वाच्यम्, "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इति न्यायेन प्रारब्धकर्मपरत्वेन व्याख्यानात् । तदेवं सकलकर्म न केवलं सुखदुःखादिफलोपभोगात् क्षीयते, न वा तच्चज्ञानात् । किन्तु प्रारब्धं कर्म सुखदुःखादिफलोपभोगाद् नश्यति, सञ्चितं तु मिथ्याज्ञाननिवृत्त्यादिक्रमेण पापक्रियानिवृत्तिलक्षण चारित्रोपहितात् तच्चज्ञानात् प्रणश्यति, यतस्तादृशस्तच्चज्ञान , (१) पृ० ५१० पं० ६ । (२) पृ० ५१० पं० १४ (३) पृ० ५१० पं० २१ । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिकमतखण्डनम् ] मोक्षस्वरूपविचारः [ ५१९ स्येवान् प्रभावः, यत्तस्मिन्नुदिते चिरकालसश्चितान्यपि कर्माण्यपि सहसैव विलयं गच्छन्ति । तेन 'यथैधांसि” इत्यादि, शैलेशीकरणसर्वसंवररूपचारित्रोपवाहिततत्त्वज्ञानाने साक्षात् सश्चितकर्मक्षये कारणतेति व्याख्येयम् , न तु परम्परया कायव्यूहद्वारा । एवञ्च ___ “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे पारावरे ॥१॥” इति श्रुतिवचनमपि सङ्गच्छेत । किश्च तादृशतच्चज्ञानस्य सश्चितकर्मक्षये सामर्थ्यमुष्णस्पर्शदृष्टान्तेन बोध्यम् । तथाहि-ताहशतचज्ञानस्या-ऽऽगामिकर्माऽनुत्पादसामर्थ्यवत सञ्चितकर्मप्रक्षयेऽपि सामर्थ्य समस्त्येव, यथा भाविशीतस्पर्शाऽनुत्पत्तौ समर्थस्योष्णस्पर्शस्थ पूर्वप्रवृत्तशीतस्पर्शनाशेऽपि सामर्थ्य दृष्टम् । इदन्त्ववधेयम्-परिणामिजीवादिपदार्थसार्थविषयमेव ज्ञानं तचज्ञानम् , न त्वेकान्तनित्यानित्यात्मादिविषयकम् , तस्य विपरीतार्थग्राहकत्वेन मिथ्यात्वव्यपदेशात् । मिथ्याज्ञानस्य तु मुक्तिहेतुत्वं परैरपि नेष्यते । यच्योक्तं-"तत्त्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानाद्भवतु" इति,तदुपपन्नम् , सम्यग्दर्शनचारित्रोवहितसम्यग्ज्ञानस्य भूत-भाविकर्म सम्बन्धप्रतिघातकत्वेन मुक्ति प्रत्यवन्ध्यकारण त्वात् । यत्तु 'इतरेषान्तूपभोगाद्" इत्यभिहितम् , तदनुपपन्नम् , उपभोगेन कर्मक्षयानुपपत्तेदर्शितत्वात् । यत्तु तचज्ञानिनां नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं प्रतिपादितम् , तदिष्टमेव स्याद्वादवादिनाम् , केवलज्ञानोत्पत्तेः प्राक् काम्यनिषिद्धानुठानपरिहारेण नित्यनैमित्तिकयोञ्जनावरणादिदुरितक्षयनिमित्तत्वाद् मोक्षप्राप्तिहेतुत्वाच्च । किन्तु केवलज्ञानलाभोत्तरकालं शैलेशीकरणावस्थायां सकलभवोपग्राहिकर्मनिर्जरस्वरूपायां सर्वक्रियाप्रतिषेध एव स्याद्वावादवादिभिरभ्युपगम्यते; ततश्च ना. ऽदृष्टस्योत्पत्तिः, आत्यन्तिक्यास्तन्निमित्तप्रवृत्तिनिवृत्तः। यच्चोक्तम् “न चेत्थं मिथ्याज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे तादृशमुक्तेस्तत्त्वज्ञानकार्यत्वादनित्यत्वमिति वाच्य"मित्यादि,तद् न युत्तम् , विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्तः प्रतिविहितत्वात् , बुद्धयादीनामात्यन्तिकोच्छेदस्य प्रमाणवाचितत्वात् , आत्मनश्चेकान्तनित्यत्वविरहात् , बुद्धयादीनां च कश्चिदात्मना सह तादात्म्यात् । नन्वेवं यदि स्याद्वादवादिभिर्बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्माऽधर्म-संस्काराणां विशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षो नेष्यते, तर्हि धर्मा-ऽधर्मादीनां तत्रा-ऽनुवृत्तिप्रसक्त्या संसार-मोक्षयो(१) पृ० ५१० पं० २४ । (२) पृ० ५१७ पं० २५ । (३) पृ० ५११ पं० १५ । (४) पृ० ५११ पं० २५ । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] खवगढी [ गाथा-२६७ रविशेषः स्यादिति चेत्, मैवम्, यद्यप्युक्तवच्या सर्वात्मना बुद्धयादिविशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षः प्रतिषिध्यते, तथापि कथञ्चित् तेषामुच्छेद इष्यत एव । , तथाहि - बुद्धिशब्देन ज्ञानमुच्यते तच्च पञ्चविधम् मति श्रुताऽवधि मनः पर्याय- केवलमेदात् । तत्राद्यं ज्ञानचतुष्कं केवलज्ञानलाभकाले व्यवच्छिद्यते, क्षायोपशमिकत्वात् । यदुक्तमावश्यकनियुक्त - "उष्पन्नंमि अणंते नट्ठम्मि अ छाउमन्थिए नाणे ।" इति । केवलज्ञानं तु निखिलद्रव्य पर्यायसाक्षात्कारिस्वरूपं क्षायिकत्वेन निष्कलङ्कात्मस्वरूपत्वात् समस्त्येव । सुखं तु वैषयिकं तु तत्र नास्ति, तन्निमित्तस्य वेदनीयस्य समूलकाक्षं कपितत्वात् । यत्तु निरतिशयमक्षयमनपेक्षमनन्तं सुखम् तत् तत्र प्रभूतं विद्यते । > " दुःखं तु न विद्यते, तस्या-ऽधर्ममूलत्वात् तदुच्छेदाच्च तदुच्छेदोपपत्तेः । नन्देवं सुखमपि न सम्भवति, तन्मूलस्य धर्मस्योच्छेदात् । न च धर्मस्योच्छेदोऽसिद्ध इति वाच्यम् "पुण्यपापक्षयो मोक्षः" इत्यागमवचनेन तत्सिद्धेरिति चेत्, मैवम्, वैषयिकस्य सुखस्य धर्ममूलत्वादस्तु तदुच्छेद:, न पुनरनपेक्षस्याऽपि सुखस्योच्छेदः । इच्छाद्वेषयोस्तु समस्त्येवाऽभावः तयोर्मोहभेदत्वात्, मोहस्य च समूलकाषं कपितत्वात् । प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्ति, कृतकृत्यत्वात् । वीर्यान्तरायक्षयोपनतस्तु भवत्येव, दानादिलब्धिवद् | धर्मा-र्धमयोस्तु पुण्यपापा - ऽपरपर्याय बोरुच्छेदो भवत्येव तदभावे मोक्षस्याऽसम्भवात् । संस्कारस्तु मतिज्ञानविशेषोऽस्ति; मतिज्ञानस्य च क्षीणक पायगुणस्थानके "नम्मि अ छाउमथिए नाणे" इति वचनाद् व्यवच्छित्तेः संस्कारोऽप्युच्छिद्यते । केचिद् नैयायिक-वैशेषिकादयः पुनः प्राहुः - समानकालीन समानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानेदेशो दुःखध्वंसो मोक्ष इति । तत्र च यद् यत् स्वसमानकालीनस्वसमानाधिकरणदुःखप्रागभावसमानदेशमिदानीन्तनदुःखध्वंसादि तत्तद्भिन्नो दुःखध्वंसो मोक्ष इति वक्तव्यम्, अन्यथा चरमदुःखध्वंससमानकालीन समानाधिकरणदुःखप्रागभावस्था ऽप्रसिद्धिप्रसङ्गः । वस्तुतस्तु समानकालीनविशेषणस्याऽनावश्यकतया समानाधिकरणदुःखप्रागभावाऽसहवृत्तिदुःखध्वंसो मोक्ष इति निदुष्टं लक्षणम् । इह दुःखध्वंस इत्युक्तौ संसारिणामपि यत्किञ्चिद् दुःखादीनानात्मविशेषगुणानां ध्वंससद्भावात् संसारिणामपि मुक्तत्वव्यपदेशः स्यादित्यतिव्याप्तिवारणाय वृत्यन्तम् । तत्राऽप्यसहवृतीत्येतावन्मात्रेऽभिहिते ऽसम्भवः स्यात्, दुःखध्वंसस्य केनचिदत्यन्ताभावादिना सहवृत्तित्वात् । अभावाऽसहवृत्तीतिकथनेऽप्यसम्भवदोषस्तदवस्थ एव । प्रागभावा- सहवृत्तीतिभणनेऽपि संयोगादिप्रतियोगिक प्रागभावादिकमादाया- ऽसम्भवः, दुःखध्वंसकाले ऽपि संयोगादय उत्पत्स्यन्त इति प्रतीतेः सर्वजनप्रसिद्धत्वेन संयोगादिप्राग मात्र सहवृत्तित्वाद् दुःखध्वंसस्येति प्रतियोगितया दुःखपदोपादानम् । Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्धमानोपाध्यायमतेन मोक्षानुमानम् ] मोक्षस्त्ररूपविचार: [ ५२१ तथा महाप्रलयमभ्युपगच्छतां नैयायिकानां मतेन चरममुक्त जीवगतदुःखध्वंसस्य दुःखप्रागभावा-ऽसहवृत्तितायाः सत्त्वे- ऽपि द्विचरमादिमुक्तगतदुःखध्वंसे दुःखप्रागभाववृत्तितायाः सच्चादव्या। तेन समानाधिकरणेति दुःखप्रागभावस्य विशेषणम् । सामानाधिकरण्यञ्च विशेष्यीभूतदुःखध्वंसनिरूपितं बोध्यम् । प्रमाणयन्ति च प्राञ्चः - दुःखसन्ततिरत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्ततित्वात्, प्रदीप सन्ततिवदिति । तदसत् सन्तानत्वहेतोरनेकदोषदुष्टतया प्राक्प्रदर्शितत्वात् । " आत्मकालाऽन्यवृत्तिध्वं पप्रतियोग्यवृत्तिदुःखत्वं दुःखप्रागभावाऽनधिकरणवृत्तिध्वंस प्रतियोगिवृत्ति, सत्कार्य मात्रवृत्तित्वात्, प्रदीपत्यवदिति श्रीवर्धमानप्रभृतयः प्राहुः | अथादपक्ष विचार्यते-आत्म कालतोऽन्यो य आकाशादिः, तद्वृत्तिर्यः शब्दादिध्वंसः, तत्प्रतियोगिनो ये शब्दादयः, तत्रा-वृत्ति दुःखत्वमिति पक्ष: । 9 अथ पदकृत्यम्-दुःखत्वमित्युक्तौ शब्दादिवृत्तित्वेनाऽर्थान्तरम्, तद्वारणाय पक्षविशेषणम्, बावस्था-ऽस्फूर्तिदशायां तत्सामर्थ्यात् । बाधज्ञाने जाते तु व्यर्थं स्यात् उक्तंच श्रीपद्मनाभमिश्रेणाऽपि प्रशस्तपादभाष्यस्य सेतुव्याख्यायाम् - " ननु बाधादेव शब्दवृत्यर्थान्तरवारणे आत्मकालान्यवृत्तिध्वंसप्रतियोग्यवृत्तीति पक्षविशेषणं वर्डमानोपाध्यायैः किमुपात्तमिति चेन्न, बालान् प्रति बाधस्फुरणार्थं तदुपादानात्, बाधबोधवतां तस्य वैयर्थ्यात्, अन्यथा महानसादिवह्निरहितपर्वतो वह्निमान् धूमादित्यनुमानापत्तेः ।" इति । तत्राऽप्यवृत्तिदुःखत्वमित्येतावन्मात्रे भणित आश्रयासिद्धिः, दुःखत्वस्य दुःखवृत्तित्वात् 1 ध्वंसप्रतियोग्यवृत्तिदुःखत्वेत्युक्तावप्याश्रयासिद्धिस्तदवस्था, दुःखत्वस्य दुःखध्वंसप्रतियोगिवृत्तित्वात् । काला- ऽन्यवृत्तिध्वंस प्रतियोश्यवृत्तिदुःखत्वेत्युक्तावप्याश्रयासिद्धिर्न निवर्तते । तथाहि - कालाऽन्यो य आत्मा, तद्वृत्तियों दुःखध्वंसः, तत्प्रतियोगिवृत्तित्वाद् दुःखत्वस्याश्रयासिद्धिस्तदवस्था | आत्माऽन्यवृत्तीत्याद्यभिधाने ऽपि सैवाश्रयाऽसिद्धिः, तद्यथा- आत्माsन्यो यः खण्डकालः, तद्द्वृत्तियों दुःखध्वंसः, इदानीं दुःखं ध्वस्तमिति खण्डकाले दुःखध्वंसप्रतीतेः, तत्प्रतियोगिवृत्तित्वाद् दुःखत्वस्याऽऽश्रयासिद्धिर्न निवर्तते । न चात्मकालपदोपादाने ऽप्यात्मकालतो ऽन्या दिक् तदुपाधिः कालोपाधिरात्मोपाधिर्वा, तद्वृत्तिर्यो दुःखध्वंसः, तत्प्रतियोगिदुःखवृत्तित्वाद् दुःखत्वस्याऽऽश्रयासिद्धिस्तदवस्थैवेति वाच्यम्, उपलक्षणेन तद्ग्रहणात् । अयम्भात्रः - कालेत्युपलक्षणम् तेन दिक् तदुपाधिः कालोपाधिश्च गृह्यन्ते । आत्मेत्युपलक्षणम्, तेन तदुपाधेः शरीरादेर्यहणम् तेन नाऽऽश्रयासिद्धिः । , अथ साध्यं विचार्यते - दुःखप्रागभावाऽनधिकरणं महाप्रलयः, तद्वृत्तियों दुःखध्वंसः, तत्प्रतियोगदुःखनिरूपितवृत्तिताऽस्ति दुःखत्वे, दुःखत्वस्य दुःखे वर्तमानत्वात् । Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] खबगसेढी [गाथा-२६७ दुःखत्रागभावा-ऽनधिकरणत्वञ्चेह दुःखप्रागभावा-ऽधिकरणभिन्नत्वम् , तेनात्मा दुःखप्रागभावाऽनधिकरणं न भवत्येव, अन्यो-ऽन्याभाववृत्तेः सामयिश्या अनङ्गीकारेण दुःखप्रागभावा-ऽधिकरणस्याऽऽत्मनो दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणत्वा-ऽसम्भवात् । एवञ्चात्मनो दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणत्वविरहाद् न प्रत्येकमुक्त्या -ऽर्थान्तरम् । यद्यप्येवं व्याख्याते व्योमादिदःखप्रागभावानधिकरणं भवत्येव, तथा-ऽपि तद्वतिध्वंसप्रतियोगिवृत्तित्वं बाधितमेवेति पक्षधर्मतामाहात्म्येन कालविशेष एवं गृह्यते, न त्वाकाशादिः स एव च सर्वमुक्तिकालः, स एव च महाप्रलयकालः । ननु दिगेव तथा कुतो न भवति, कालवद् दिशो-ऽपि सर्वा-ऽऽधारत्वेन चरमदुःखध्वंसाऽऽधारत्वसम्भवात् ? इति चेत्, न, दिग्द्रव्यस्यैकत्वेन दुःखप्रागभावाधिकरणस्य तद्भिन्नत्वाऽसम्भवात्। अथ दिगुपाधिः कोऽपि दुःखप्रागभावानधिकरण-दुःखध्वंसाधिकरणं भविष्यतीति चेत् , न, तादृशो दिगुपाधिः कोऽपि सृष्टिदशायां नास्ति । प्राध्यादय एव दिगुपाधयः, ते च दुःखप्रागभावा-ऽधिकरणमेव, महाप्रलयदशायां तु प्रमाणाभाव एव दिगुपाधौ, प्राच्यादिव्यवहाराभावात् । प्रस्तुतप्राच्यादेस्तत्राऽङ्गीकरणे-ऽपि तस्य दुःखप्रागभावा-ऽधिकरणत्वमेव । अन्यप्राच्यादेस्तद्विलक्षणस्य दिगुपाधे_--ऽङ्गीकारे प्रमाणाभावः । तस्मात् काल एवं गृह्यते । न च कालस्या-ऽप्येकत्वेन दुःखप्रागभावा-ऽधिकरणत्वात् कथं तद्भिन्नत्वम् ? इति वाच्यम् , कालोपाधिविशेषस्य तथात्वात् । स च 'तदानीं महाप्रलयो भविष्यतीति प्रतीतिबलात् चरमध्वंसरूपः स्वीकार्यः । अथ पदकृत्यम्-वृत्तिमदित्युक्तौ सिद्धसाधनम् , दुःखत्वस्य दुःखे विद्यमानत्वात् । प्रतियोगिवृत्तीत्युक्तावपि सिद्धसाधनम् , दुःखा-ऽत्यन्ता-ऽभावप्रतियोगिनि दुःखे विद्यमानत्वाद् दुःखत्वस्य । दुःखध्वंसप्रतियोगिवृत्तीत्यभिधाने-ऽपि सिद्धसाधनं तदवस्थम्, यत्किञ्चिदुःखध्वंसस्य स्वीकृतत्वेन दुःखध्वंसप्रतियोगिदःखनिरूपितवृत्तिताया दःखत्वे सचात् । प्रागभावानधिकरणवृत्तिध्वंसेत्याधुक्तौ दृष्टान्तासिद्धिः, प्रदीपा-ऽवयवानां प्रदीपप्रागभावा-ऽनधिकरणत्वविरहात् । दःखप्रागभावानधिकरणेत्याद्यभिधाने तु भवत्येव सङ्गतिः। यतः प्रदीपावयवा दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणभृताः,तद्वत्तियः प्रदीपध्वंसः, तत्प्रतियोगिप्रदीपनिरूपितवृत्तितायाः प्रदीपरत्वे सच्चात् । दःखानधिकरणेत्यायुक्तों खण्डप्रलयकालेऽपि सर्वमुक्तिसिद्धिः स्यात् , अदृष्टाद्यतिरिक्तानां दुःखादीनां तत्र विरहात् । तेन दुःखग्रागभावानधिकरणेत्यायुक्तम् , लभ्यते च खण्डप्रलये दःखप्रागभावः, दुःखाद्युत्पादकाऽदृष्टस्य सच्चात् । दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणवृत्त्यभावप्रतियोगिवृत्तीत्युक्तौ दुःखा-ऽन्योन्याभावमादाय प्रकृता-ऽन्यसिद्धः, तथाहि-दःखप्रागभावा-ऽनधिकरणं व्योम, तद्वत्तिों दःखान्योन्याभावः, तत्प्रतियोगि दुःखम् , तन्निरूपितवृत्तिता दुःखत्वे संसारावस्थायामपि समस्ति । तस्माद् दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तीति सूपपन्नम् । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्धमानोपाध्यायमोक्षानुमानस्य प्रतिविधानम् ] मोक्षस्वरूपविचारः __ [ ५२३ - अथ हेतोः पदकृत्यम्-वृत्तित्वेत्युक्ता आत्मत्वे व्यभिचारि,आत्मत्वस्याऽऽत्मनि वृत्तित्वात् । तद्यथा-हेतुः समस्त्यात्मत्वे,साध्यं तु नास्ति,आत्मत्वस्य तादृशध्वंसाप्रतियोगिवृत्तित्वात् । तेन कार्यपदोपादानम् । कार्यवृत्तित्वेत्यभिधाने-ऽनन्तत्वे व्यभिचारि, ध्वंसा-ऽप्रतियोगित्वरूपस्या-ऽनन्तत्वस्याऽकार्य आत्मादाविव कार्याध्वंसे-ऽपि सत्त्वात् । अयम्भावः-ध्वंसस्या-ऽविनाशशालित्वादनन्तत्वं कार्यभूतध्वंसे वर्तत एव । तेना-ऽनन्तत्वे कार्यावृत्तित्वं हेतुः समस्ति, साध्यं तु तादृशध्वंसप्रतियोगिवृत्तित्वं नास्ति, अनन्तत्वस्य तादृशध्वंसा-प्रतियोगिवृत्तित्वात् । मात्रपदोपादाने तु न व्यभिचारः । अनन्तत्वस्याऽऽत्मादौ नित्ये-ऽपि विद्यमानत्वेन कार्यामात्रवृत्तित्वविरहात् । न च दुःखत्वादीनां कालाख्यनित्यपदार्थवृत्तित्वात् कार्यमात्रवृत्तिताऽसिद्धति वाच्यम् , असाधारणवृत्तेविवक्षितत्वात् । न च सुखत्व-धर्मत्वाऽधर्मत्व-द्वेषत्वादिषु व्यभिचार इति वाच्यम् , पक्षसमत्वात् । कार्यमात्रवृत्तित्वेत्युक्तो ध्वंसत्वे व्यभिचारः, ध्वंसस्य कार्यत्वेन ध्वसत्वे कार्यमात्रवृत्तिताऽस्ति, किन्तु तत्र साध्यं नास्ति, ध्वस्तस्य ध्वंसाभावेन ध्वंसत्वस्य तादृशध्वंसाप्रतियोगिवृत्तित्वात् । तव्यभिचारवारणाय सदिति कार्यस्य विशेषणम् । ___ तदेवं सर्वमुक्तिसिद्धौ चैत्रदःखत्वादिकं पक्षीकृत्य तत्तन्मुक्तिः साध्या, प्रयोगश्चेत्थम्चैत्रदुःखत्वं चैत्रदुःखप्रागभावानधिकरणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्ति, सत्कार्यमात्रवृत्तित्वात् । अथोक्तानुमानमित्थं प्रतिविधातव्यम्-निरुक्तानुमानमसत्-(१) बाधात् (२) अप्रयोजकत्वात् (३) अनभिमतसिद्धिप्रसङ्गाच । (१) तथाहि-दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणवत्तियों दुःखध्वंसः, तस्य दःखप्रागभावा-ऽनधिकरणे वृत्तिरभावीयविशेषणतासम्बन्धेनाऽभ्युपगम्यते यदि, तदा बाधः, दुःखध्वंसस्य तत्समवायिकारणे एव तेन सम्बन्धेन वृत्तेः, न तु महाप्रलययिति नैयायिकैरभ्युपगतत्वात् । यत्किञ्चित्सम्बन्धमात्रेण त्वभ्युपगमे तदभावववृत्तितादिरूपव्यभिचारितादिसम्बन्धेन दःखध्वंसस्या-ऽऽकाशादावपि वृत्तेन प्रकृतसिद्धिः। ____ कालिक-दैशिकविशेषणतान्यतरसम्बन्धेन वृत्तित्वोक्तावपि कालोपाधिजन्यपदार्थवृत्तित्वेन न प्रकृतसिद्धिः । तथाहि-यथा कालिकसम्बन्धेनाऽष्टद्रव्यातिरिक्तस्य कालस्या-ऽधिकरणत्वं भवति, तथैव कालिकसम्बन्धेन स्वसमानकालीनजन्यपदार्थमावस्याऽप्यधिकरणत्वं नैयायिकैः स्वीक्रियते, यत इदानीं तदानीमित्यादिप्रतीतिविषयता-ऽष्टद्रव्यातिरिक्तकालस्य न जन्यभाववैशिष्टयमन्तरेणेति जन्यभावः कालावच्छेदकः । ततश्च जन्यभावस्याऽपि कालत्वमिति कालकृतविशेषणात्मकेन कालिकसम्बन्धेन स्वकालीनजन्य पदार्थमावस्या-ऽधिकरणत्वम् । तेन प्रस्तुताऽनुमाने कालिकसम्बन्धेन दुःखध्वंसस्य दुःखप्रागभावा-ऽनधिकरणे जन्यपदार्थे वृत्तेर्न प्रकृतसिद्धिः, सृष्टावपि तत्सत्वात्। (२) न केवलं हेतुसाध्ययोः सहचारभूयोदर्शनमेव साध्यसिद्धयर्थमुपयुज्यते, किन्तु व्यभिचारशङ्कायामुपस्थितायां सत्यां तन्निवर्तकतर्कोऽपि । स तु इह नास्ति, कार्यकारणादिभावविरहात् । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] गढी [ गाथा - २६७ तद्यथा-व्यभिचारशङ्का पुनरित्थम्, अस्तु सत्कार्यमात्रवृत्तित्वम्, माऽस्तु दुःखप्रागभावाऽनधिकरणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तित्वमिति, तस्यामुपस्थितायां न तद्बाधकः कोऽपि कार्यकारणभावादिमूलकतर्कों लभ्यते, वह्निधूमादिवत् हेतुसाध्ययोः कार्यकारणभावादिविरहात् । (३) अप्रयोजकत्वेऽपि सत्साध्यसाधकभावा - ऽभ्युपगमे स्वनभिमतसिद्धिप्रसङ्गः । अनभिमतसाध्यं प्रत्यपि निरुक्तहेतोरविशेषात् । तद्यथा, - आत्मकाला -ऽन्यवृत्तिप्रागभावप्रतियोग्यवृत्तिदुःखत्वं दुःखध्वंसाऽनधिकरणवृत्तिप्रागभावप्रतियोगिवृत्ति, सत्कार्यमात्रवृत्तित्वात् प्रदीपत्ववदित्यनुमानेन यस्मात् पूर्वं न कस्यचिद् दुःखस्योत्पत्तिः, तादृशः कालः सिध्यति, एवं दुःखस्थाने सुखादिकं प्रक्षिप्याऽऽत्मकालान्यवृत्ति प्रागभावप्रतियोगिवृत्ति, सत्कार्यमात्रवृत्तित्वात्, प्रदीपत्ववदित्यनुमानेन यत्पूर्वं न कस्यचित् सुखादेरुत्पत्तिः तादृशकालः सिध्यति, ततश्च संसारस्य सादित्वं सिध्यति, तच्चाभिमतम् । प्राभाकरास्तु प्राहुः - आत्यन्तिकदुःखप्रागभावो मोक्ष इति । न च यद्यात्यन्तिकदुःखप्रागभावो मोक्ष इत्यभ्युपगम्यते, तर्हि दुःखप्रागभावस्यानादिकालतः प्रवृत्तत्वात् कृत्यसाध्यत्वे - नाsपुरुषार्थत्वं प्रसज्यत इति वाच्यम्, यतो दुःखप्रागभावस्या -ऽनादित्वेऽपि प्रतियोगिजनका -ऽधर्मविनाशद्वारा तत्संरक्षणीयत्वरूपं कृतिसाध्यत्वं समस्ति । तथाहि — कृत्यधीनतच्चज्ञानेनाऽधर्मनाशे सम्पन्ने तदुत्तरक्षणे दुःखसामग्रीविरहेण दुःखानुत्पत्त दुःखप्रागभावपरिपालनं संपद्यते । तदेवं क्षेमस्वरूपजन्यता प्रागभावेऽपि समस्ति, तेन समस्त्येव प्रागभावस्य कृतिसाध्यत्वम्, लोकेऽपि यथा सुर्वणप्राप्तौ कृतिर्दृश्यते, तथा सुवर्णादि संरक्षणेऽपि । ततश्च ना- पुरुषार्थत्वापत्तिः । एतत्सर्वमप्यसारम्, यतो ऽनादिः सान्तोऽभावः प्रागभावः, स च नियमेन स्वप्रतियोगिनमुत्पादयति, स्वप्रतियोग्युत्पादे च पुनः संसारित्वापत्तिः । न च सहकारिणो विरहेण प्रागभावेन स्वप्रतियोगिदुःखं नोत्पाद्यत इति वाच्यम्, तथासति तादृक्प्रागभावस्य भाविकालेऽप्यन्तविरहेण तस्याऽत्यन्ताभावत्वप्रसङ्गः । अत्यन्ताभावस्य च नित्यत्वेन कृतिसाध्यत्वविरहाद् न पुरुषार्थत्वम् । किञ्चा - ssत्यन्तिकदुःखप्रागभावो मोक्ष इति कथने कः प्रतियोगी ? न तावत् समानाधिकरणं भाविदुःखम्, मुक्तौ तस्याऽसच्चात् । भाविदुःखसद्भावे तु पुनरावृत्तिप्रसङ्गः । नाऽपि समाना - धिकरणमतीतं वर्तमानं वा दुःखं प्रतियोगितया वक्तुं शक्यते, तत्प्रतियोगिकप्रागभावस्य विनष्टत्वात् । नाऽपि व्यधिकरणं दुःखं प्रतियोगि, अन्यवृत्ति दुःखस्यान्यवृत्त्यत्यन्ताभावनिरूपितैव प्रतियोगिता, न त्वन्यवृत्ति प्रागभावनिरूपिता, प्रागभावस्य स्वप्रतियोगिसमवायिदेश एव वृत्तेरभ्युपगमात् । नाऽपि सामानाधिकरण्यवैयधिकरणविवक्षाशून्यं दुःखमात्रं प्रतियोगीति वक्तुं शक्यते, स्वपरावृत्ते दु:खस्याप्रामाणिकत्वात् । अपरच मोक्षस्य तादृशात्यन्तिकदुःखप्रागभावरूपत्वकल्पने कदाप्यजन्यस्य दुःखस्यासच्चेन तत्प्रागभावस्याप्यलीकप्रतियोगिकत्वादसत्रम्, तथा च तद्रूपमोक्षस्याप्यसच्चापत्तिः । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षे कानिचिद् मतानि तत्खण्डनानि च ]. मोक्षस्वरूपविचारः [ ५२५ ननु यद्येवमात्यन्तिकदुःखप्रागभावो न कृतिसाध्यः, तर्हि दुःखानुत्पादमुद्दिश्य प्रायश्चित्तादौ कथं प्रवृत्तिः, दुःखानुत्पादस्य दुःखप्रागभावस्वरूपत्वात् तस्य चाऽसाध्यत्वात् ? इति चेत् , कामम् , प्रायश्चित्तेन पापध्वंसद्वारा कियन्तं कालं दुःखप्रागभावाऽनुपालनमस्त्येव, किन्तु नैतावता तस्यालीकप्रतियोगिकत्वम् , पापान्तरमासाद्य प्रागभावेन दुःखजननाद् । न हि भाविनि मरणे ज्ञातेऽपि प्रकृतरोगिने भेपजदानस्य वैफल्यम् । मोक्षे तु कदापि दुःखजननं न संभवति, ततश्चाऽत्यन्ताभावत्वव्यपदेशप्रसङ्गः । दुःखोत्पत्तिसम्भवे च पुनः संसारावाप्तिः ।। केचित् तु नैयायिका आहुः-दुःखाऽत्यन्ताभावो मोक्ष इति । दुःखेनाऽत्यन्तं विमुक्तश्चरतीति श्रुतेः । तदप्यतिमन्दम् ,अत्यन्ताभावस्य नित्यत्वेन कृतिसाध्यत्वविरहात् । न चा-ऽत्यन्ताभावसम्बन्धः साध्यत इति वाच्यम् , उत्पत्तिमतो भावस्य नाशनियमेन तादृगुत्पत्तिमत्सम्बन्धनिवृत्तौ मुक्तानामपि संसारित्वप्रसङ्गात् । न च दुःखसाधनध्वंस एव स्ववृत्तिदुःखा-ऽत्यन्ताभावसम्बन्धः, तन्निवृत्तिश्च न भवति, ध्वंसस्या-ऽविनाशित्वात् , ततश्च न पुनः संसारित्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् , दुःखसाधनध्वंसात्मकसम्बन्धसम्बद्धदुःखात्यन्ताभावस्य मोक्षत्वकल्पना-ऽपेक्षया लाघवाद् विशिष्टदुःखसाधनध्वंसस्यैव मोक्षत्वकल्पनाया न्याय्यत्वात् । ___ अथास्तु विशिष्टदुःखसाधनध्वंसो मोक्ष इत्यपि न युक्तिसङ्गतम् , यतो दत्तफलानां दुःखसाधनानामदृष्टानां निवृत्तिरयत्नसिद्धा । अदत्तफलानां तु निवृत्तिरनागतदुःखा-ऽनुत्पत्तिमभिसन्धाय समीहिता , तेन दुःखानुत्पाद एव प्रयोजनम् , स च दुःखप्रागभावस्वरूपः, तस्य च मोक्षत्वानुपपत्तिः प्राग्दर्शितैव । अथ भवति दुःखध्वंसस्तोमो मोक्ष इत्याहुः केचित् । यत्किञ्चिदुःखध्वंसो-ऽस्मदादिसंसारिणामप्यस्ति, तेन कथितः स्तोम इति । तन्न, यतः स्तोमः कथमपि मोक्षोपायत्वेनाभिमततत्त्वज्ञानादिना न साध्यः, समग्रसंसारकाले भिन्नभिन्नकालोत्पन्नतत्तद्दुःखध्वंसानां स्तोमान्तर्गतत्वेन तत्तत्कालीनदुःखोपभोगादिभिरेव निष्पन्नत्वात् । तत्त्वज्ञानोत्तरमपि तस्य( तत्वज्ञानस्य)दुःखप्रयोजकदुरितविध्वंसकत्वेन दुःखानुत्पादसम्पादकत्वमेवेति कथं दुःखध्वंसस्तोमस्य साध्यत्वम् ? ____ अपि च ताकस्तोमस्य यावत्वसंख्यारूपत्वे तस्याऽपेक्षाबुद्धिजन्यत्वेन न मोक्षोपायत्वेनाभिमततत्वज्ञानादिसाध्यत्वम् । तत्तदुःखध्वंसस्वरूपत्वे तु दुःखस्य योग्यविभुविशेषगुणत्वेन तद्ध्वंसस्य स्वतस्तृतीयक्षणनिष्पन्नत्वाद् न मोक्षोपायभूततच्चज्ञानसाध्यतेति कथमपि न मोक्षो दुःखध्वंसस्तोमरूपो घटां प्राश्चति । (इति नैयायिकाद्यभिमतमोक्षस्वरूपप्रतिविधानम् ।) Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] खवगसेढी [ गाथा-२६७ तौतातितास्त्वाहुः-नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्पोक्ष इति । यदुक्तं विज्ञानमानन्दं ब्रह्मा" इति । अयम्भावः-संसारावस्थायामविद्यासंसर्गस्य प्रतिबन्धकत्वात् परमानन्दस्वभावतायाः प्रतिपत्तिर्न भवति । यदाऽविद्याया विनिवृत्तिः,तदा परमानन्दस्वभावतायाः स्वरूपेणाऽभिव्यक्तिर्भवति,यथा रज्ज्वादिद्रव्यस्याविद्यातस्तत्त्वाग्रहणा-ऽन्यथाग्रहणाभ्यां स्वरूपं न प्रकाशते, किन्तु सादिस्वरूपं प्रकाशते । अविद्याया निवृत्तौ तु तस्य स्वरूपं प्रकाशत एव । एवं ब्रह्मणोऽप्यनाद्यविद्यासंसर्गात् तत्त्वाग्रहणाऽन्यथाग्रहणाभ्याम् आनन्दस्वभावता न प्रकाशते, मुमुक्षुप्रयत्नेन तु यदाऽनाद्यविद्या विनिवर्तते, तदाऽऽनन्दस्वरूपप्रतिपत्तिर्भवति, सैव मोक्षः। दृश्यते च श्रतिः-'आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते।" इति। न चेह श्रुतौ 'ब्रह्मणः' इत्यस्य पष्ठयन्तत्वेन पष्टया ज्ञाप्यते ब्रह्मणा सह भेदः, न त्वभेद इति वाच्यम् , 'राहोः शिरः' इत्यादिवदभेदेऽपि पष्टीदर्शनात् । ननु नित्यसुखस्यात्माऽभिन्नत्वेनात्मनश्वाऽनुभूयमानत्वेन नित्यसुखस्य सदैवानुभवः प्रसज्येत, सुखमात्रस्य स्वगोचरसाक्षात्कारजनकत्वनियमादिति चेत् ,सत्यम् ,सुखमनुभूयत एव । न च तो हं जानामीत्यनुव्यवसायवद् अहं सुखमित्यपि प्रत्ययः कुतो न भवति ? इति वाव्यम् , यतोऽविद्यादोषात् भ्रमादेवा-ऽनुभूयमानस्याऽपि सुखस्य सुखत्वेना-ऽननुभवनात् सुखवत्वेन वा दुःखवत्वेन वा प्रतीतेः , यथा भ्रमदशायां विशेष्यत्वेनाऽनुभूयमानाया अपि रज्ज्या रज्जुत्वेनाऽननुभवनात् सपत्वेन प्रतीतेः, योगाभ्यासेनाऽविद्यानिवृत्तितो-ऽपगते भ्रमे स्वरूपलाभात् सुखत्वेनाऽनुभवो भवत्येव । प्रमाणश्चात्रा-ऽऽत्मा सुखस्वभावः, अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वात् , अनन्यपरतयोपादीयमानत्वाच्च, वैषयिकसुखवत् । यद् यद् एवंविधम् , तत् तत् सुखस्वभावम् , यथा वैषयिकं सुखम् , तथा चा-ऽऽत्मा, तस्मात सुखस्वभाव आत्मा। न चा-ऽत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वमसिद्धम् , सर्वजनैः स्त्री-धन-पुत्रादिसर्वपदार्थत आत्मनोऽत्यन्तप्रियत्वस्या-ऽनुभवात् । उक्तञ्च "बहदारण्यके"तदेतत्प्रेयः पुत्रात्प्रेयः, अन्यस्मात् सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा आत्मानमेव प्रियमुपासीत ।” इति । एवं सर्ववेदान्तसिद्धान्तसंग्रहेऽप्युक्तम् "आत्मनः सुखरूपत्वादानन्दत्वं स्वलक्षणम् । परप्रेमास्पदत्वेन सुखरूपत्वमात्मनः ॥१॥ सुखहेतुषु सर्वेषां प्रीतिः सावधिरीक्ष्यते । कदापि नाऽवधिः प्रीतेः स्वात्मनि प्राणिनां क्वचित् ॥२॥ आत्मा-ऽतः परमप्रेमास्पदः सर्वशरीरिणाम् । यस्य शेषतया सर्वमुपादेयत्वमृच्छति ॥ ३ ॥ एष एव प्रियतमः पुत्रादपि धनादपि ।। अन्यस्मादपि सर्वस्मादात्मायं परमान्तरः॥ ४ ॥" इति (१) बृहदारण्यके ३-९-२८ । (२. १-४-८ । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोता तितानां मोक्षमतम्, तत्खण्डनं च ] मोक्षवरूप विचार: अनन्यपरतयोपादीयमानत्वहेतुरपि नाऽसिद्धः, तथाहि - लोके स्त्रीपुत्रधनादिकमप्यात्मार्थमुपादीपते, आत्मा तु नान्यार्थमुपादीयते । उक्तं च सर्ववेदान्तसिद्धान्तसंग्रहेऽपि - " प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च यच्च यावच्च चेष्टितम् । आत्मार्थमेव नाऽन्यार्थं नातः प्रियतमं (मः ) परः || १ ||" इति । तथाऽऽत्मा सुखस्त्रभात्रः, मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वाद् निरुपचरितप्रेयशब्दवाच्यत्वाद्वा, वैषयिकसुखवत् । रागिणां | तथा सुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टार्थप्राप्त्यर्था प्रेक्षापूर्व कारिप्रवृत्तित्वात् कृपीवलादिप्रेक्षापूर्व कारिप्रवृत्तिवत् । एवञ्च शास्त्रीय उपदेश इष्टार्थप्रात्यर्थः, उपदेशत्वात्, अन्योपदेशवत् । प्रतिपादितं चैतत् वात्स्यायन भाष्येऽपि " नोभयमनर्थकम् " । ( अ० १ ० १ सू० २२ ) इति मोक्षसुखाऽनभ्युपगमे तु तत्प्रवृच्युपदेशयोर्वैफल्यप्रसङ्गः । [ ५२७ , निरतिशयत्वञ्च सुखस्यानुमानतोऽपि सिद्धम् । तद्यथा - सुखतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तम्, तारतम्यशब्दवाच्यत्वात् परिमाणतारतम्यवदिति । एवंविधैरनुमानैः सुखस्वभावताप्रतीतिः । अत्र प्रतिविधीयते यत् तावत् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्मे" त्याद्यागमवचनेनोक्तानुमानैश्वात्मनः सुखस्वभावत्वं प्रतिपाद्यते, तत्सुखं किमनित्यं समस्ति ? उत नित्यम् ? न तावत् प्रथमपक्षः, आत्मनस्तत्स्वभावत्वेन तस्याऽप्यनित्यत्वप्रसङ्गात् । अथ नित्यमिति चेत्, तत्र विकल्पद्वयमवतरति---नित्यसुखमात्मस्वरूपं किं स्वप्रकाशकम् ? उत_ तद्भिन्नप्रमाणान्तरप्रमेयम् ? न तावत् प्रथमविकल्पः, आत्मस्वरूपवत् स्वप्रकाशसुखानुभवस्यैव सदैव सच्चेन मुक्तसंसारिणोरविशेषप्रसङ्गात् । न चाऽनाद्यविद्ययाऽऽच्छादितत्वात् स्वप्रकाशाऽऽनन्दसंवेदनं संसारिणां न भवति, योगाभ्यासेन त्वनाद्यविद्यानिवृत्ती आच्छादकाभावात् स्वप्रकाशा-ऽऽनन्दसंवित्तिर्जायत एव । उक्तं च- सिद्धान्तविन्दावपि - " यद्यपि संसारदशायामविद्यावृतस्वभावत्वादात्मा परमानन्दरूपतया न प्रथते (प्रकाशते), तथापि तत्त्वविद्ययाऽविद्यानिवृत्तौ स्वप्रकाशतया स्वयमेव परमानन्दस्वरूपतया प्रकाशते । "इति वाच्यम्, यत आच्छाद्यतेऽप्रकाशस्वभावं वस्तु, स्वप्रकाशं तु केनाच्छाद्यते । ननु सविता तत्प्रकाशश्च स्वप्रकाशः, आच्छाद्यते च मेघादिना, ततः कुत उच्यते - स्वप्रकाशं तु कैना -ऽऽच्छाद्यते ? इति चेत्, उच्यते न हि मेघादिना स्वप्रकाशः सविता तत्प्रकाशो वाऽऽत्रियते, आवृतत्वे हि दिवसरजन्योर - विशेषः स्यात्, दृश्यते च विशेषः, तस्माद् न स्वप्रकाशो केनाचिदात्रियते । अस्तु वा मेघादिना स्वप्रकाशस्य सवितुस्तत्प्रकाशस्य चा-ऽऽवरणम्, तयोर्व्यतिरिक्तत्वाद् मेघादे:, अविद्यायास्तु तुच्छरूपत्वात् न तस्या आवृत्तिलक्षणाऽर्थक्रियाकारित्वम्, यत् तुच्छ " Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] खत्रगढी [ गाथा-२६७ रूपम्, न तद् अर्थक्रियाकारि, यथा मृगतृष्णिका जलम् तुच्छरूपा चा-विद्या भवद्भिरिष्टा । तस्माद् न तथाऽऽत्रियते सुखम् । उक्तञ्चा - ऽन्यत्रा - ऽपि - "मेघा अपि रवेरन्ये स्वरूपेण च वास्तवाः । तत्त्वान्यत्वाद्यचिन्तया तु ना-ऽविद्याऽऽवरणक्षमा || १ ||" इति । नाऽपि द्वितीयविकल्पः, प्रत्यक्षादिप्रमाणवाधितत्वात् । तथाहि - न तावत् प्रत्यक्षप्रमाणेन मोक्षे नित्यसुखं व्यवस्थाप्यते, अस्मदादीन्द्रियजन्यप्रत्यक्षस्य तत्र व्यापाराभावात्, योगिप्रत्यक्षं त्वेवं प्रवर्तते, उता - ऽन्यथेत्यद्यापि विवादास्पदम् । " नापि नित्यसुखं व्यवस्थापयितुमुपन्यस्तानुमानप्रमाणानि समर्थानि तेषां प्रतिविधास्यमानत्वात् । “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म” इत्याद्यागमो ऽपि न नित्यसुखं सावयितुमलम्, तस्यैव प्रामाण्याऽसम्भवात् । गुणवद्भवतृणामेव वचनस्य हि प्रामाण्यम् भवता तु स्वागमोऽपौरुषेयोऽभ्युपगम्यते । न चा-ऽपौरुषेयत्वेनैव प्रामाण्यमिति वाच्यम्, अपौरुषेयत्वस्य नियुक्तिकत्वात् । तथाहिवचनं खलु वक्त्रोच्चार्यमाणमेव । अथ वचनञ्च, अवक्तृकं चेति माता मे वन्ध्येतिवत् कथं न व्याहतम् ? अस्तु वाऽऽगमस्य प्रामाण्यम्, किन्त्वसा आगमोऽन्यथाऽपि व्याख्यातुं शक्यते, अत्यन्तदुःखाभावे गौणार्थे सुखशब्दवृत्तित्वाऽभ्युपगमात् । तथाहि - लोके न केवलं मुख्य एव शब्दानां प्रयोगः, किन्तु गौsपि । यथा ज्वरभारादिसंतप्ता जना ज्वराद्यपगमे सुखिनो वयं जाताः, तथा काष्ठादिपरिहारे सुखिनो वयं सम्पन्नाः । अभिहितश्च न्यायवात्स्यायन भाष्ये ऽपि - "आत्यन्तिके च संसारदुःखाभावे सुखवचनाद् आगमेऽपि सत्यविरोधः । यद्यपि कश्चिदागमः स्याद् मुक्तस्यात्यन्तिकं सुखमिति । सुखशब्द आत्यन्तिके दुःखाभावे प्रयुक्त इत्येवमुपपद्यते । दृष्टो हि दुःखादेरभावे सुखशब्दप्रयोगो बहुलं लोके ।” इति । एवं श्रीव्योमाचार्यैरप्युक्तम्- - " मुख्ये हि बाघकोपपत्तेः गौण इति । तथाहि - दुःखाभावेऽयमानन्दशब्दः प्रयुक्तो दृष्टः, सुग्वशब्दो दुःखाभावे, यथा भाराक्रान्तस्य वाहिकस्य तदपाय इति ।" एवमन्यत्रा - ऽप्युक्तम् “चिरज्वर शिरोयदिव्याधिदुःखेन खेदिताः । सुखिनो वयमद्येति तदपाये प्रयुञ्जने ॥ १२ ॥” इति । " तृषाशुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि, क्षुधार्तः सन् शालीन कवलयति शाकादिवलितान् । प्रदीप्ते रागाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधू, प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥ १ ॥” इति । तदेवं मुक्तात्मनि सुखं नैकान्तेनानित्यम्, नाप्येकान्तेन नित्यम्, किन्तु नित्यानित्यमेव । द्रव्यतो तथैव Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमतेन नित्यानित्यसुखम ] मोक्षस्वरूपविचारः [५२९ नित्यं पर्यायतश्चाऽनित्यं सुखमात्मनि स्वीक्रियते स्याद्वादिभिः । ननु सुखस्य नित्यानित्यत्वे आत्मनस्तत्स्वभावत्वेन तस्याऽपि तथात्वप्रसङ्ग इति चेत्, सत्यमेतत्, किन्त्विष्टापत्तिरेषा, आत्मनस्तथात्वात् । आत्मन एकान्तनित्यत्वाभ्युपगमे तु वैषयिकभोगादेरप्यनुपपत्ति दर्शयिष्यते । न च द्रव्यतः सुखस्य नित्यत्वे कथितयोर्द्वयोर्नित्यत्वपक्ष संभविनो विकल्पयोरन्यतरस्याभ्युपगमे कथं न दोषप्रसक्तिः ? इति वाच्यम्, यतः प्रथम विकल्पस्याऽभ्युपगमे कर्मणामावारकन्वेनाऽभिमतत्वाद् दोषाभावः । द्वितीय विकल्पस्त्वनभ्युपगममात्रादेव निरस्तः । अयम्भाव:प्रथमविकल्पे नैयायिकादिभिर्भहसर्वज्ञादीन् प्रत्येवा-ऽऽवारका-ऽविद्यायास्तुच्छत्वं वक्तुं शक्यते, स्याद्वादिभिस्तु ज्ञानावरणादिकर्मणामावारकत्वेनाऽभ्युपगमः, तानि च कर्माणि सुखत आत्मतश्चाऽर्थान्तराणि, ततश्च युज्यते तेषामावारकत्वं मेघादिवत् । द्वितीय विकल्पस्त्वनभ्युपगममात्रादेव निरस्तः । अथ नैयायिकादयः शङ्कन्ते - ननु मोक्षावस्थायां नित्यानित्यसुखाभ्युपगमे तद्रागेण प्रवृत्तौ मोक्षाभावः प्रसज्यते, रागस्य बन्धहेतुत्वाद् । निरानन्ददुःख निवृत्तेरभ्युपगमे तु रागाभावात् स्यादेव मोक्षः । न च निरानन्दनिर्विज्ञान मोक्षाऽभ्युपगमे प्रेक्षात्रतां तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात्, तथाहिते सोपाधिक-सावधिक परिमिता -ऽऽनन्दनिष्यन्दात् निर्विण्णाः स्वर्गादप्यधिकमनवधिक निरतिशयनैसर्गिकानन्दतज्ज्ञानरूपप्रधानप्रयोजनपूर्त्यर्थमेव प्रवर्तन्ते । यदि च मोक्षावस्थायां न सुखं न च ज्ञानम्, तदाऽऽत्मा जड: पाषाणनिर्विशेष एव भवेत् एवञ्च ते निर्णयेयुः -- कृतमपवर्गेण, संसार एव वरमस्तु । यत्र तावदन्तराऽन्तरा दुःखकलुषितमपि कियदपि सुखमनुभुज्यते । चिन्तनीयं तावदिदम् - किमल्पसुखानुभवो भव्यः ? उत सर्वसुखोच्छेदः ? इति सुखरूपप्रयोजनविरहात् प्रेक्षावतां मोक्षे प्रवृत्तिरनुपपन्नेति वाच्यम् - यतो न प्रयोजनानुवर्ति प्रमाणं भवितुमर्हति यदि केभ्यश्चिद् निरानन्दो मोक्षो न रोचते, कामं मा रोचताम्, न त्वप्रमाणक आनन्दस्तत्र कल्पयितु ं योग्यः । अपि च प्रेक्षावन्तो लाभातिरेककाङ्क्षिणः । ते खलु एवं विचारयन्ति-दुःखसंस्पर्शशून्यशाश्वतिक सुखसंभोगाऽसंभवाद् दुःखस्य चाऽवश्य हातव्यत्वादनयोः सुखदुःखयोरेकभाजनपतितविषमधुनोर्मधूत्पन्न सुखकणिकापेक्षविपप्रयोज्यतीव्रतर मरणादिदुःखजनकयोरिव विवेकहानस्य दःशक्यत्वाद् उभेऽपि सुखदुःखे त्यज्येतामिति संसाराद् मोक्षः श्रेयान् यतस्तत्र दुःखं सर्वथा न स्यात् । वरमियती कादाचित्की सुखकणिका परित्यक्ता, न तत्कृते दुःखभार इयान् व्यूढः । ततश्च स्थितमेतद्- निरानन्दमोक्षेऽपि न प्रेक्षावतां प्रवृत्तिर्विरुध्यत इति, सुखात्मकमोक्षाभ्युपगमे तु तद्रागेण तत्र प्रवृत्तौ कुतो मोक्ष : १ इति । अत्रोच्यते-यो हि सांसारिक सुखविषयरागः, स एव रागो बन्धनात्मकः, तस्य विषयाऽर्जनरक्षणादिप्रवृत्तिद्वारेण संसारहेतुत्वात् । अनन्ते च सुखे यद्यपि रागः, I तथापि नासौ बन्धना (१) पृ० ५३५ पं० २७ (२) पृ० ५२७ पं० १७ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ] खवगसेढी [ गाथा - २६७ त्मकः, इन्द्रियविषयार्जनादिनिवृत्तिहेतुत्वात् । स्पृहामात्रोऽप्यसावसङ्गानुष्ठाने सति परां कोटिमारूढस्य निवर्तते, यदुक्तम् — “मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः ।” इति । अपि च न्यायमतेन दुःखनिवृच्यात्मकमोक्षे ऽङ्गीकृते ऽपि दुःखविषयकद्वेषेण मोक्षे प्रयतमानस्य मुमुक्षोर्मोक्षाभावः प्रसज्यते, रागवद् द्वेषस्यापि बन्धहेतुत्वात् । ननु रागद्वेषौ हि संसारकारणमित्यवबोधति मुमुक्षुः, ततश्च स कथं दुःखद्वेषं कुर्यात् ? द्वेषं विनैवतस्य मोक्षार्थप्रवृत्तिर्भवतीत्यर्थः । भवतु वा मोक्षस्य दुःखनिवृत्तिरूपत्वाद् दुःखनिवृत्तेश्व दुःखद्वेषमूलकत्वेन द्वेष आवश्यकः, तथापि न स बन्धहेतुः । द्वेषो हि स बन्धहेतुः, य उत्पन्नः सन् स्वविषये मनोवाक्कायैः शास्त्रविरुद्धां प्रवृत्तिं कारयति, शास्त्रविरुद्धार्थाचरणे चाऽधर्माद्युत्पत्तिद्वारेण शरीरादिग्रहणम्, तन्निबन्धनसुखदुःखे जायेते । अयं तु मुमुक्षोर्विषयेषु द्वेषः सकलप्रवृत्तिविरोधित्वाद् धर्माधर्मानुत्पत्तौ शरीराद्यभावप्रयोजकत्वाद् न केवलं बन्धनिरोधाय, किन्तु स्वात्मघाताय प्रवर्तत इति चेत्, न, यतो मोक्षसुखार्थकरागेऽपि समानमेव । 'यच्चोक्तं "दुःखसंस्पर्शशून्यशाश्वतिक सुखसम्भोगाऽसम्भवादित्यत्र शावतिकं नाम किमनाद्यनिधनम् ? यद्वा ऽऽदिमदपि प्रध्वंसवदपर्यवसानं सुखं विवक्षितम् ? तत्र प्रथम विकल्पे तादृशसुखं तावत् प्रेक्षावतामुपादित्सागोचरो न भवति, नित्यसिद्धत्वेन विषयसिद्धस्तदिच्छाप्रतिबन्धकत्वात् । द्वितीयविकल्पे दुःखसंस्पर्शशून्यं तादृशं सुखं संभवत्येव, आत्मनो मूलभूतस्वाभाविक सुखाऽभावे संसारावस्थायां सुखाभासस्यानुपपत्तेः । अपर्यवसानं च तत् विनाशकारणाभावात् । तस्य विनाशकारणं हि वेदनीयादिकर्म, विनाशश्चात्र तिरोभावो बोध्यः, वेदनीयादिकर्म च समूलका कषितम्, मिथ्यात्वा ऽविरति कषाय-योगलक्षणानां च कर्मोत्पत्तिकारणानामभावाद् न पुनरपि कर्मनिर्मितिः। न च सादित्वाऽभ्युपगमे तदुत्पादककारणमावश्यकम्, इह तु कारणाभावः, तेन तादृशसुखोत्पत्तिरनुपपन्न ेति वाच्यम्, सादित्वस्यात्र/ विर्भावरूपत्वात्, स्वाभाविक सुखस्य च तस्य सकलकर्मोपरमप्रयोज्यत्वात् । यदपि "सुखदुःखयोश्चैक भाजनपतितविषमधुनोर्मधूत्पन्न सुखकणिकापेक्षविषप्रयोज्यतीव्रतर मरणादिदुः खजनकयोरिव विवेकहानस्य दुःशक्यत्वाद् उभेऽपि सुखदुःखे त्यज्येता" मित्युक्तम्, तदप्यसारम्, वैषयिकसुखस्य तादृशत्वात् । वैषयिकं सुखं हि मधुदिग्धधाराकरालमण्डलाग्रग्रासवद् दुःखरूपं भवति, अतो युक्ता मुमुक्षूणां तज्जिहासा, किन्तु सा - ssत्यन्तिक सुख लिप्सूनामेव मुमुक्षूणां सम्भवति, न तु दुःखाभावकाङ्क्षिणाम् । येऽपि विषमधुनी एकत्र पात्रे संपृक्ते परित्यज्येते, तेऽपि जीवनादिसुखलिप्सयैव । I किञ्च प्राणिनां संसारावस्थायां दु:खनिवृत्तेरिष्टत्वे ऽपि सुखनिवृत्तिरनिष्टा, तथैव मोक्षा (१) पृ० ५२९ पं० २१ । (२) प्र० ५२९ पं० २२ । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिलाषनिबर्हणं सुखमिति मतं तल्खण्डनञ्च ] मोक्षस्वरूपविचारः [५३१ वस्थायामपि दुःखनिवृत्तेरिष्टत्वे-ऽपि सुखनिवृत्तिरनिष्टा । ततो यदि त्वदभिमतो मोक्षः केवलदुःखाभावरूपः स्यात् , तदा न प्रेक्षावतामिह प्रवृत्तिः स्यात् , सुखहानेरनिष्टत्वादनिष्टे चा-ऽप्रवृत्तेः । न च यथा रागान्धतया पारदार्ये भाविनरकादिदुःखा-ऽनुवन्धित्वं न वेद्यते, तथा सुखहानेरनिष्टत्वं विरागिभिने वेद्यते, ततश्च प्रवृत्तेरव्याघात इति वाच्यम् ,वैषयिकसुखेऽनिष्टत्वप्रतिसन्धानेऽपि मुमुक्षूणां प्रशमप्रभवसुखेऽनिष्टत्वा-ऽप्रतिसन्धानात् । न च मोक्षावस्थायां दुःखाभाव एव परमसुखम् , न तद्वयतिरित्तम् , दुःखाभावेऽपि सुखशब्दप्रयोगादिति वाच्यम् , यतोऽदुःखितस्य भवदभिप्रायेण दुःखाभावात्मकसुखवतो-ऽपि जीवस्य विशिष्टमधुरशब्दादिविषयोपभोगेन सुखातिशयस्यानुभविकत्वेन दुःखाभावे सुखत्वापादनं नियुक्तिकम् । तथाहि-यत्राऽपि क्षुत्पिपासापीडितस्य जनस्या-ऽन्नपानादिप्राप्ती तृप्तौ सत्यां क्षुत्पिपातादिदुःखं निवर्तते, तत्रापि शकुल्याधनविशेषाऽऽम्लमधुरादिपानविशेषैः सुखविशेषो जायत एव, दृश्यते च लौकिकानां जनानां सुखार्थमन्नपानादिविशेषोपादानम् । न चोचिता दृष्टविपरीतकल्पना । तथा सुखस्य भावरूपत्वाद् युज्यते तत्राऽन्नपानादिविशेषसामग्रयाऽतिशया-ऽऽधानम् , दुःखाभावस्य तु तुच्छत्वेन न युज्यते तत्रा-ऽतिशयाधानम् । येऽपि प्राहुः-यदापि पूर्व दुःखं नास्ति, तदा-ऽप्यभिलाषस्य दुःखस्वभावत्वात् तन्निबहणस्वभावं सुखमिति, तेऽपि न सम्यक प्रतिपन्नाः । तथाहि-अभिलापाख्यदुःखनिवृत्तिरेव सुखमिति तेषां मतमेवंरूपम्-यस्यैव यत्रा-भिलाषः, स एव तद्विषयोपभागेन सुखी, नान्य इति विषया अभिलाषं निव] तमेव सुखयन्ति । अन्यथा यदेकस्य सुख साधनम् , तत् सर्वेषामप्यविशेषेण स्यात् । न च तथा भवति । यदुक्तम् "एकस्य विषयो यः स्यात् स्वाभिप्रायेण पुष्टिकृत् । अन्यस्य द्वेष्यतामेति स एव मतिभेदतः ॥१॥" इति । एवमेकपुरुषे-ऽपि यदा कामनिवृत्त्या सुखित्वम् , तदापि यस्यैव विषयस्याभिलाषो निवृत्तः, स एव तस्य सुखसाधनम् , नान्यो विषयः । तस्मादभिलाषनिवृत्तिरेव सुखमिति । तदसङ्गतम् , निरभिलापस्यापि जनस्य विषयविशेपोपभोगे सति विशेषाह्लादोत्पत्तेर्दर्शनात् । न च तत्राऽकामस्या-ऽपि जीवस्य विशिष्टविषयसम्पर्केण कामा-अभिव्यक्तौ जातायां विषयोपभोगद्वारेण तनिवृत्तिरेव सुखमिति वाच्यम् , यतो नाऽवश्यं विषयोपभोगोऽभिलापनिबर्हणः । उक्तश्च महाभारते न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्मव भूय एवा-ऽभिवर्धते ॥ श्रीपतञ्जलिनाप्युक्तम्- “भोगाभ्यासमनुवर्धन्ते रागाः कौशलानि चेन्द्रियाणाम् ।" इति। पाराशर्यो- प्याह Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२] खवगसेढी [गाथा-२६७ तृष्णाखनिरगाधेयं दुष्पूरा केन पूर्यते । या महद्भिरपि क्षिप्तः पूरण रेव खन्यते ॥१॥ इति किश्चा-ऽभिलाषनिवृत्तिरन्यथाऽपि-विषयेषु दोषदर्शनादितोऽपि सम्भवति । विषयेषु दोषाश्चेत्थं द्रष्टव्याः असौ तरलताराक्षी पीनोत्तुङ्गघनस्तनी। विलुप्यमाना कान्तारे विहगैरद्य दृश्यते ॥१॥ विभाति बहिरेवास्याः पद्मगन्धनिभं वपुः । अन्तर्मज्जास्थिविणमूत्रमेदः कृमिकुलाकुलम् ॥२॥ अस्थीनि पित्तमुच्चाराः क्लिन्नान्यन्त्राणि शोणितम् । इति चर्मपिनई सत्कामिनीति विधीयते ॥३॥ मेदोग्रन्थो स्तनौ नाम तो स्वर्णकलशौ कथम् । विष्ठाहतो नितम्बे च कोऽयं हेमशिलाभ्रमः ॥४॥ मूत्रामृग्द्वारमशुचि च्छिद्रं क्लेदि जुगुप्सितम् । तदेव हि रतिस्थानमहोः पुंसां विडम्बना ॥५॥ प्रीतिर्यथा निजास्योत्थं लिहतः शोणितं शुनः । शुष्क स्थनि तथा पुसः स्वधातुस्पन्दिनः स्त्रियाम् ॥६॥ व्यात्तानना विवृत्ताक्षी विवर्णा श्वासघुघुरा। कथमद्य न रागाय म्रियमाणा तपस्विनी ॥७॥ अहो व्रणे वराकोऽयमकाले तृषितः फणी । प्रसारितमुखोऽप्यास्ते शोणितं पातुमागतः ।।८।। किमनेनापराडं नः स्वभावो वस्तुनः स्वयम् । स्पश्यमानो दहत्यग्निरिति कोऽस्मै प्रकुप्यति ॥९॥ नानुकूलः प्रिये हेतुः प्रतिकूलो न विप्रिये । स्वकर्मफलमश्नामि कः सुहृत्कश्च मे रिपुः ॥१०॥” इति। विषयदोपदर्शनप्रयुक्ताभिलाषनिवृत्तिसुखं तु विषयोपभोगाधीनाभिलापनिवृत्तिसुखापेक्षया-ऽतिविशिष्टतरम् । किन्तु भवन्मते तत्कथं संघटेत् ? यतो भवन्मतमनुसृत्य विषयेषु दोषदर्शनेन जायमानं सुखं विषयोपभोगोत्पन्नसुखेन तुल्यं स्यात् , सुखत्वेनभिमताभिलापनिवृत्तरभावरूपाया अविशेषात् । न चैकत्रा-ऽभिलाषातिरेकात् तन्निवृत्तौ सुखातिरेकाभिमानः, अन्यत्रा-ऽन्यथेति वाच्यम् , यतोऽभिलापातिरेकेण प्रयस्यन्तं प्राप्तोऽर्थो न तथा प्रीणयति, यथाऽप्रार्थितः प्रयासा- द्विनोपनतः । लोकव्यवहारोऽप्येवमेव, यत्नसहस्रण प्राप्तः क्लेशप्राप्तोऽयमिति, न तेन तथा - Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३३ नित्यसुखस्य संवेदनस्य नित्यत्वेऽनित्यत्वे चापत्तिः ] मोक्षस्वरूपविचारः मुखिनः, यथाऽप्रार्थितप्राप्तेन । तन्न दुःखाभावमात्रं सुखं वक्तं युज्यते नाप्यभिलापनिवृत्तिमात्रम् , किन्तु तद्वयतिरेकेण स्वरूपतः सुखमस्तीति, तदेवं सिद्धो मोक्ष आनन्दस्वरूपः, तद्रागेण च तत्र प्रवृत्तिर्न बन्धाय कल्पते, वैषयिकसुखरागविरहात् । ____ननु नैयायिकमते दुःखेन निर्विष्णस्य मुमुक्षोरिच्छाविच्छेदाद् वैराग्यमपि जायते, ततश्च मोक्षः । परमानन्दलिप्सूनां स्याद्वादिनां मतेन तु मुमुक्षोरिच्छावत्त्वाद् वैराग्यव्याहतिः स्यात् , ततः कुतस्तेषां मोक्षः ? इति चेत् ,न ,दुःखद्वेषे सति प्रशान्तत्वव्याघातप्रसङ्गेन मोक्षाभावप्रसक्तः। अयं भावः-न केवलं विरक्तानामेव मोक्षेऽधिकारः, किन्तु प्रशान्तानामपि । यथा सुखेच्छावच्चाद् मुमुक्षोवैराग्यव्याघातप्रसङ्ग उपपाद्यते, तथैव दुःखद्वेषमन्तरेण न मुमुक्षोदुःखनाशानुकूलः प्रयत्न इति द्वेषराहित्यलक्षणप्रशान्तत्वस्य व्याघातः प्रसज्यते । ततश्च प्रशान्तत्वव्याहत्या कुतो मोक्षः ? एतेन यत्तु योगर्डिसाध्यनिरतिशयानन्दमयीं जीवन्मुक्तिमुद्दिश्य प्रवृत्तः कारणवशात् परममुक्तिमासादयतीति न युक्तम् , विरक्तानां मोक्षेऽधिकारादिति तदपि निरस्तम् । किञ्च नेच्छाविच्छेदसामान्यं वैराग्यपदार्थः, येन निरतिशयानन्दलिप्सूनां वैराग्यहान्या मोक्षो न स्यात् , किन्तु वैषयिकसुखेच्छाविच्छेदस्य वैराग्यपदार्थत्वम् । यदि इच्छाविच्छेदसामान्यस्य वैराग्यपदार्थत्वम् , तदा नैयायिकानां मतेन चरमदुःखनसरूपमुक्त्यामिच्छया प्रवृनिन स्यात् । किन्तु दुःखद्वेषादेव दुःखधंसानु कू उप्रयत्नः स्यात् । न च दुःखद्वेषाद् दुःखनाशानुकूरप्रयत्नो भवत्येवेति वाच्यम् , मूर्छा-मरणादी प्रवृत्तिासङ्गात् । न च जायत एव बहुतरदुःखजर्जरकलेवराणां मरणादौ प्रवृत्तिरिति वाच्यम् , तस्या अविवेकप्रवृत्तित्वात् । ननु पुरुषार्थत्वे विवेकाऽनुपयोग इति चेत् , सत्यमेव, पशुकल्पानां जनानां न विवेकोपयोगः, न तु प्रेक्षावताम् , प्रेक्षावन्तो हि यथावत् प्रयोजनं प्रमायैव प्रवर्तन्ते । तदुक्तम् ___"दुःखाभावोऽपि ना-वेद्यः पुरुषार्थतयेष्यते । न हि मूर्खाद्यवस्थार्थ प्रवृत्तो दृश्यते सुधीः ॥१॥” इति । अथ पुनर्नैयायिकादयः शङ्कन्ते-अस्तु कुतश्चिद् मोक्षे नित्यसुखम् तस्य संवेदनं किं नित्यमस्ति, ? उता-ऽनित्यम् ? नित्यमिति चेत् , मुक्त-संसारिणोरविशे प्रसङ्गः,सुख-तत्संवेदनयोरुभयोरपि नित्यत्वेन संसारावस्थापामपि तत्सवात् । अपि चेन्द्रियजन्यसुखेन नित्यसुखस्य साहचर्या-ऽनुभवप्रसङ्गाद् नित्या-ऽनित्यसुखद्वयोपलम्भः स्यात् ,इन्द्रियजन्यदुःखेन च साहचर्याऽनुभवप्रसङ्गाद् सुख-दुःखयोयुगपद् ग्रहणं स्यात् , नित्यसुखस्य सदैव सचात् । यदुक्तंन्यायवात्स्यायनभाष्ये-"सुखवन्नित्यमिति चेत्, संसारस्थस्य मुक्तेनाऽविशेषः, यथा मुक्तः सुखेन तत्संवेदनेन च सनित्येनोपपन्नस्तथासंसारस्थो-ऽपि प्रसज्यत इति, उभयस्य नित्यत्वात् । अभ्यनुज्ञाने च धर्माधर्मफलेन साहचर्य योगपद्यंग त। यदिदमुत्पत्तिस्थानेषु धर्माधर्मफलं सुखं दुःखं वा संवेद्यते पर्यायेण, तस्य च नित्यसंवेदनस्य च सह Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४] खवगसेढी [गाथा-२६७ भावो योगपचं गृह्यत, न सुखाभावो ना-ऽनभिव्यक्तिरस्ति, उभयस्य नित्यत्वात् ।” इति। अथ वदेत संसारावस्थायां नित्यसुखसंवेदनस्य प्रतिबद्धत्वाद् न मुक्तसंसारिणोरविशेषप्रसङ्गः, नवा सुखद्वयोपलम्भः, नाऽपि सुखदुःखयोयुगपद्ग्रहणमिति चेत् , न, नित्यसुखनित्यसंवेदनं केन प्रतिबध्यते ? (१)किं शरीरादिना १(२) अथवा वैषयिकसुखानुभवेन ?(३) उताऽविद्यया ? उतस्विद् बाह्यव्यासङ्गेन ? (१) न तावत् प्रथमविकल्पः, शरीरादे गार्थत्वाद् भोगस्य च सुखदुःखसंवेदनादिरूपत्वाद् न तेन प्रतिबध्यते, न हि यद् यदर्थम् , तत् तस्यैव प्रतिबन्धकः । यदाहुायवात्स्यायनभाष्यकाराः "शरीरादिसम्बन्धः प्रतिबन्धहेतुरिति चेत् , न,शरीरादीनामुपभोगार्थत्वात् विपर्ययस्य चाऽननुमानात् । स्यान्मतम् , संसारावस्थस्य शरीरादिसम्बन्धो नित्यसुखसंवेदनहेतोः प्रतिबन्धकः, तेनाविशेषो नास्तीति, एतच्चाऽयुक्तम् , शरीरादय उपभोगार्थाः, ते भोगप्रतिबन्धं करिष्यन्तीत्यनुपपन्नम् ।" इति । शरीरादेः सुखप्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमे तु शरीरादिघातकस्य हिंसाफलं न स्यात् , लोके प्रतिबन्धकविघातकस्योपकारित्वेन प्रसिद्धः।। - (२) अथ वैषयिकसुखा-ऽनुभवेनेत्यपि न युक्तम् , यतः सुखसंवेदनस्याऽनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा प्रतिबन्धो भवितुमर्हति, किन्तु न प्रकृतेऽन्यतरलक्षणः प्रतिबन्धः संभवति, सुख-तत्संवेदनयोरुभयोरपि नित्यत्वस्वीकारात् ।। (३) ना-ऽपि तृतीयविकल्पः,अविद्यायास्तुच्छत्वेन सुखज्ञानप्रतिवन्धलक्षणार्थक्रियाकारित्वविरहात् । (४) नाऽपि तुर्यो विकल्पः, यतो व्यासङ्गो नाम आत्मनो रूपादिविषयज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञाना-ऽनुत्पत्तिः, अथवेन्द्रियस्यैकस्मिन् विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरे ज्ञानाऽजनकत्वम् । न चा-ऽनयोरन्यतरो व्यासङ्गोयुज्यते, सुखस्य तत्संवेदनस्य चोभयोर्नित्यत्वाऽभ्युपगमात् । तदेवं नित्यसुखसंवेदनस्य नित्यत्वे दुष्परिहार्या दोषाः । अथाऽस्तु नित्यसुखसंवेदनमनित्यमिति चेत् , तर्हि मोक्षावस्थायां तदुत्पत्तिकारणं वक्तव्यम् , अनित्यस्याऽनुत्पत्तिधर्मकत्वाऽनुपपत्तेः। न च योगजधर्मापेक्ष आत्ममनःसंयोगोऽसमवायिकारणमिति वाच्यम् , मुक्तौ योगजधर्मस्या-ऽसम्भवात् । अथाचं संवेदनं योगजधर्मादुत्पद्यते, तत उत्तरोत्तरं विज्ञानं पूर्वपूर्वत उत्पद्यत इत्यप्यसारम् , प्रमाणा-ऽभावात् । तथाहि-न हि शरीरसम्बन्धानपेक्षं किञ्चिदपि विज्ञानं ज्ञानोत्पत्ती सहकारिकारणम् , शरीरसम्बन्धाऽपेक्षस्यैव ज्ञानस्य ज्ञानान्तरोत्पत्तिं प्रति सहकारित्वदर्शनात् । न च मुक्तौ नित्यशरीरादीनां कल्पनया-ऽनित्यसंवेदनोपपत्तिः स्यादिति वाच्यम् , यतः शरीरादीनां कार्यत्वेन न नित्यत्वम् , प्रमाणबाधितत्वात् । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहनयेन ऋजुसूत्रादिनयेन च मोक्षविचारः मोक्षस्वरूप विचारः [ ५३५ 3 असदेतत् सर्वम्, अस्मदभिप्राया-परिज्ञानेन प्रलपितत्वात् न हि स्याद्वादिभिरेकान्तेन नित्यं सुखसंवेदनं स्वीक्रियते, नाऽप्येकान्ततोऽनित्यम्, किन्तु सुखवद् नित्यानित्यमभ्युपगम्यते, अतो न कश्चन दोषः । द्रव्यतो नित्यं पर्यायतश्चाऽनित्यं सुखज्ञानादिकमात्मनि स्वीकुर्वतां स्याद्रादिनामयं विवेकः – सङ्ग्रहनयानुसारेण आत्मनः सुखज्ञानादिस्वभावः सेन्द्रियशरीराद्यपेक्षाकारणरूपावरणेन प्रच्छाद्यते गृहा-ऽवस्थितप्रकाश्यपदार्थ प्रकाशकत्वस्वभावः प्रदीप इव तदावारकशरावादिना, सेन्द्रियशरीराद्यपेक्षाकारणरूपाऽऽवरणापगमे तु जीवस्य विशिष्ट प्रकाश्यपदार्थप्रकाशकत्वस्वभावो ऽयत्नसिद्ध:, शरावाद्यपगमे प्रदीपस्येवेति । अत एव कथञ्चिद् नित्यत्वपक्षे न दोषः । यत न च शरीराद्यपेक्षाकारणविरहाद् मुक्तौ सुखज्ञानादिकं न सम्भवतीति वाच्यम्, आवृतसुखज्ञानादिकं प्रत्येव शरीरादीनां कारणता, न त्वनावृतसुखज्ञानादिकं प्रति । ततश्च मुक्तौ न सुखज्ञानादिकं विरुध्यते । यदि सेन्द्रियशरीरादिरूपाणामावारकाणामभावात् सुखज्ञानादीनामभावः प्रेर्यते, तर्हि तुल्ययुक्त्या प्रदीपावारकाणां शरावादीनामभावे प्रदीपोच्छेदप्रसङ्गः । ननु शरावादीनां प्रदीपं प्रति न जनकत्वमिति न शरावाद्यभावे प्रदीपस्याऽभावः, सुखज्ञानादिकं प्रति तु शरीरादीनां जनकत्वमिति स्यादेव शरीराद्यभावे सुखज्ञानाद्यभाव इति चेत्, उच्यते -पद्यपि शरावादीनां प्रदीपं प्रति न जनकता, तथाप्यावृतप्रदीपपरिणतिं प्रति न केनचित् निवारयितुं शक्या, यदि चाऽऽवृतप्रदीपपरिणतिं प्रति शरावादीनां जनकत्वं न स्यात्, तदा शरावादीनामावारकत्वमपि न भवेत् । तस्मात् प्रदीपं प्रति शरावादीनां जनकत्वविर हेऽप्यावृतप्रदीपपरिणतिं प्रति जनकताऽस्ति, एवं प्रकृतेऽध्यावृतसुखज्ञानादिकं प्रति शरीरादीनां कारणत्वमस्त्येव, न त्वनावृत सुखज्ञानादिकं प्रति । ततश्चन काचिदनुपपत्तिरिति । अपि चोपलभ्यते संसारावस्थायामपि वासीचन्दनकल्पानां समवृत्तीनां तस्यैव भावनाविशिष्टध्याना-ऽवस्थितानां सेन्द्रियशरीरादिव्यापाराऽजन्यः परमाह्लादरूपोऽनुभवः, वशादुत्तरोत्तरावस्थामासादयतः परमकाष्टागतिः संभाव्यत एव । ऋजुसूत्रादिनयानुसारेण त्वात्मनः स्वरूपभूतानन्दज्ञानादिस्वरूपता मोक्षावस्थायामुत्पद्यत एव, शुद्धनयैरुत्तरोत्तर विशुद्धपर्याय मात्राभ्युपगमाद्, सुखज्ञानादीनां क्षणस्वरूपतायाः क्षणसत्तयाऽपि सिद्धेः, तस्याः क्षणतादात्म्यनियतत्वात्, क्षणस्वरूपे तथादर्शनात् । यद्येकान्तनित्यस्या ऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावता आत्मनोऽभ्युपगम्यते, तर्हि तस्य वैषयिकसुखदुःखोपभोगोऽपि नोपपद्यते, आत्मनि तादृशोपभोगस्वरूपस्य प्राक्तना भोगस्वरूपतो भिन्नत्वात् । स च स्वरूपभेदोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावात्मनि कथं सङ्गच्छेत १ एकस्वभावस्याऽन्यस्वभावस्वीकारेण स्वस्वभाव परित्यागप्रसक्तेः सुखज्ञानादिकं चोत्तरसुखज्ञानाद्युत्पादनस्वभावम् यच्च यदा यत्स्वभावम् " 9 तत् तदा तदुत्पादने ना-ऽन्यापेक्षम्, यथाऽन्त्या बीजादिकारणसामग्रयङ्करोत्पादने । तदुपाद Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६] खबगसेढी [गाथा-२६७ नस्वभावश्च पूर्वसुखज्ञानादिक्षणः । अत एव कथञ्चिदनित्यत्वपक्षे न कश्चिद् दोषः । न च संसारावस्थायां चरमज्ञानादिक्षणस्योत्तरसुखज्ञानाद्युत्पादनस्वभावता-ऽसिद्धति वाच्यम् , यतोऽजनकत्वेन तस्याऽर्थक्रियाकारित्वविरहादवस्तुत्वापत्तेस्तजनकस्य द्विचरमसुखज्ञानादिक्षणस्या-ऽवस्तुत्वम् , ततश्च तजनकस्य त्रिचरमसुखज्ञानादिक्षणस्येत्येवं निखिलसन्तानस्या-ऽवस्तुत्वप्रसङ्गः । "कृतश्चायं विवेको मुक्तिद्वात्रिंशिकायामपि ऋजुसूत्रादिभिर्ज्ञानसुखादिकपरम्परा । व्यङ्ग चमावरणोच्छित्त्या सङ्ग्रहेणेष्यते सुखम् ॥ १॥” इति। व्यवहारनयानुसारेण तु प्रयत्नसाध्यः कर्मक्षयो मोक्षः। कर्मक्षयश्चाऽस्मिन् ग्रन्थे विस्तरेण दर्शित एव । ___ यच्चा-ऽनन्यत्वेन श्रुतौ श्रवणम् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म” इति । तदपि नास्मदभ्युपगमवाधकम् , समस्तज्ञेयव्यापिनो ज्ञानस्या-ज्वैषयिकस्य चा-ऽऽनन्दस्य स्वसंवेदितस्य मोक्षावस्थायां सकलकर्मरहितात्मस्वरूपब्रह्मा-ऽभेदेन कथञ्चिदभीष्टत्वात् ।। __ यच्चोकम् “मुमुक्षुप्रयत्नेन तु यदाऽनाद्यविद्या विनिवर्तते,तदा-ऽऽनन्दस्वरूपप्रतिपत्तिर्भवति,सैव मोक्षः" इत्यभिहितम् ,तत्तु युक्तमेव,अष्टविधपारमार्थिककर्मप्रवाहरूपाऽनाद्यविद्याविलयेना-ऽनन्तसुखज्ञानादिस्वरूपप्रतिपत्तिलक्षणमोक्षप्राप्तेरिष्टत्वात् । नवरं कर्मप्रवाहरूपा-ऽनाद्यविद्या परिणामिनी पौद्गलिकी आत्मतो व्यतिरिक्ता वस्तुस्वरूपा प्रतिपत्तव्या, न तु तुच्छरूपा । या च"आनन्दं ब्रह्मणो रूपंतच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते ।" इति श्रतिदर्शिता ,साऽपि नाऽस्मत्पक्षबाधिका, अभिव्यक्तेः स्वसंविदिता-ऽऽनन्दस्वरूपतया तदवस्थायामात्मन उत्पत्तेरभ्युपगमात् । ये पुनरेकान्तनित्यसुखसिद्धयर्थमनुमानप्रयोगाः प्रदर्शिताः, ते तु न युक्ताः, तोरनैकान्तिकत्वादिदोषा-ऽऽक्रान्तत्वात् । तथाहि-आत्मा सुखस्वभावः,अन्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वात् ,अनन्यपरतयोपादीयमानत्वाच्चेत्यत्र अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वमनन्यपरतयोपादीयमानत्वञ्च यत्साधनमुप. न्यस्तम् , तदनैकान्तिकम् , दुःखाभावेऽपि तस्य सद्भावात् । अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वञ्चा-ऽसिद्धम् , दुःखितायामप्रियबुद्धपि मद्भावात् । अनन्यपरतयोपादीयमानत्वमप्यसिद्धम् , सुखाद्यर्थमुपादानात् । एतेन यदपि "आत्मा सुखस्वभावः, वस्तुत्वे सति मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वाद् निरुपचरितप्रेयोबुद्धिविषयत्वादा" इत्युक्तम् , तदपि प्रत्युक्तम् , प्रागुक्ताशेषदोषानुषङ्गात् । मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वं निरुपचरितप्रेयः शब्दवाच्यत्वञ्चाऽसिद्धम् , दुःखितायां तदभावात् ।। विरुद्धश्च हेतुद्वयम् , सुखस्वभावत्वविपरीताया दुःखाभावस्वभावताया एवा-ऽस्मात् सिद्धः, तथाहि--अयमात्मा दुःखाभावस्वभावः, वस्तुत्वे सति मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वाद् निरुपचरितप्रेयःशब्दवाच्यत्वाद्वा रागिणां वैषयिकदुःखाभाववदिति । (१) पृ० ५२६ पं०७ (२) पृ० ५२६ पं० ८ । (३) पृ० ५२६-५२७ (४, पृ० ५२६ पं० १८ । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदान्तिनामभिप्रायेण मोक्षनिरूपणम् ] मोक्षस्वरूपविचारः [ ५३० ___ 'यदभिहितम्-"मुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टार्थप्राप्त्यर्था, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तित्वात्" इत्यादि, तदप्यपेशलम् , प्रवृत्त्युपदेशयोरन्यथासिद्धत्वात् । भवेत् साध्यसिद्धिः,यदि प्रेक्षावतां प्रवन्युपदेशयोरिष्टार्थप्राप्त्यर्थत्वं भवेत् , तयोस्त्वन्यथाऽपि दर्शनाद् न प्रकृतसाध्यसाधकत्वम् । तथाहिन हि प्रेक्षावतां केवलं प्रवृत्युपदेशयोरिष्टप्राप्त्यर्थत्वम् , अपि त्वातुराणां चिकित्साशास्त्रार्था-ऽनुष्ठायिनामनिष्टप्रतिषेधाया-ऽपि प्रवृत्युपदेशौ दृश्येते, अतः कथमिष्टप्राप्त्यर्थता प्रवृत्युपदेशलक्षणहेतुद्वयेन सिद्धयति ? किश्चा-ऽब्रेष्टशब्देन किमभिप्रेतप्रयोजनमभिधीयते ? उत सुखम् ? यदि प्रथमपक्षः, तर्हि कथमात्मनः सुखस्वभावत्वं सिध्येत ? साङ्खयादिमान्या-ऽपवर्गसिद्धिप्रसङ्गश्च, अन्यमताऽनुयायिनां साङ्ख यादीनामपि मुमुक्षूणां प्रवृत्युपदेशयोस्तदिष्टाऽपवर्गलक्षणप्रयोजनसाधकत्वात् । न च प्रवृत्तेः प्रेक्षावचविशेषणोपादानाद् न साङ्खयादिमान्या-ऽपवर्गसिद्धिप्रसङ्ग इति वाच्यम् , प्रेक्षावदप्रेक्षावतोविवेकस्याऽशक्यत्वात् । तद्यथा-न हि भवन्मतानुयायिनः प्रेक्षावन्तो न सांख्यमतानुसारिण इति विवेकः कर्तुं शक्यः,प्रमाणबाधितैकान्तनित्यत्वादिस्वभावाङ्गीकारेण सर्वेषामप्यप्रेक्षावत्वसिद्धेः । अथेष्टशब्देन सुखमभिधीयते, तर्हि साध्यविकलं दृष्टान्तम् , न हि कृषीवलादीनां कृष्यादिप्रवृत्तिः सुखार्था भवति, धान्यादिफलनिष्पत्त्यर्थत्वात्तस्याः । ___ यच्च "सुखतारतम्यं कचिद्विश्रान्तम् , तारतम्यशब्दवाच्यत्वा"दित्युक्तम् , तदप्युक्तिमात्रम् , परत्वादिना व्यभिचारात् , परापरादिबुद्धिप्रकर्षसमधिगतो हि परत्वादिप्रकर्षस्तारतम्यवाच्यो न कचिद् विश्राम्यति । किश्च दुःखेऽप्येवं परमप्रकर्षः प्रसज्यते । तथाहि-दुःखतारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तम् , तारतम्यशब्दवाच्यत्वात् , परिमाणतारतम्यवत् । न च दुःखपरमप्रकर्षो भवद्भिरपीष्ट इति दुःखपरमप्रकर्षेणापि व्यभिचारः। साध्यतां वोक्तानुमानैर्मोक्षावस्थायां सुखम् , तत्र नित्यानित्यसुखस्य सत्त्वात् । न त्वेकान्तनित्यसुखम् , तस्य प्रमाणबाधितत्वात् ।। (इति तौतातिताभिमतमोक्षस्वरूपस्य प्रतिविधानम् ।) ये पुनर्वेदान्तिन आहुः-अविद्यायां निवृत्तायां विज्ञानसुखात्मकः केवल आत्मा मोक्ष इति,ते-ऽपि निरस्ताः,ज्ञानसुखात्मकब्रह्मणो नित्यत्वे मुक्तसंसारिणोरविशेषापातात् ,तादृशा-ऽऽत्मनश्च कृतिसाध्यत्वविरहात् । न च ज्ञानसुखात्मकब्रह्मणो नित्यत्वेन साध्यत्वविरहे-ऽप्यविद्यानिवृत्तिः कृतिसाध्येति वाच्यम् , अविद्याया असत्वेन नित्यनिवृत्तत्वात् , अनिर्वचनीयतायाश्चा-ऽनिर्वचनीयत्वात् । एतदुक्तं (१) पृ० ५२७ पं० ८। (२) पृ० ५२७ पं० १२ । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ] खवगसेढी [ गाथा-२६७ भवति-अविद्या किं सद्रपा स्वीक्रियते ? उता-ऽसद्रूपा ? न तावत् प्रथमपक्षः, ब्रह्मण इव तस्या अपि निवृत्तेरसम्भवात् ,तन्निवृत्यभ्युपगमे चा-ऽविशेषेण ब्रह्मणोऽपि निवृत्तिप्रसङ्गात् । यदि चाऽसत्त्वरूपा, तदा सा नित्यनिवृत्ता, न तन्निवृत्तिः कृतिसाध्या । नन्वविद्या न सद्रूपा, नाऽसद्र पा, किन्त्वनिर्वचनीयेति चेत् , मैवम् , यया-ऽनिर्वचनीयतया-ऽविद्या तत्कार्याणि चा-ऽनिर्वचनीयानि भण्यन्ते, सा निर्वचनीया न वा ? प्रथमपक्षे सत्त्वेन निर्वचनीया चेत् , तीद्वैतभङ्गः, ब्रह्मभिन्नायास्तस्या अपि सच्चोपगमात् । असत्वेन चेत् , तर्हि कथं तया खरविषाणकल्पया-ऽविद्यया उपरञ्जनम् ? अथाऽनिर्वचनीयता-ऽप्यनिर्वचनीयेति द्वितीयपक्षः समाश्रियते, तदाऽनिर्वचनीयताया निर्वक्तुमशक्यत्वेन स्वरूपतो-ऽपहारः। (इति वेदान्तिस्वीकृतमोक्षस्वरूपस्य प्रतिविधानम् ।) त्रिदण्डिनस्त्वाहुः-आनन्दमयपरमात्मनि जीवात्मलयो मोक्ष इति । तत्र यदि परमात्मनि जीवात्मलयो नाम घ्राण-रसन-चक्षुः-श्रोत्र-स्पर्शाख्य-पञ्चज्ञानेन्द्रिय-वाक्पाणि-पाद-पायूपस्थलक्षणपञ्चकर्मेन्द्रिय-मन:-शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धतन्मात्रावस्थित--पृथिव्यप-तेजो--वाय्वाकाशरूपपञ्चभूतात्मकलिङ्गशरीरा-ऽपगमेन जीवात्मनः परमात्मत्वावाप्तिः, तर्हि सिद्धान्त एव, नामकर्मक्षयेण स्याद्वादिभिरपि तत्स्वीकारात् । अथ यदि लयो नामोपाधिशरीरनाश औपाधिकजीवस्य नाश इति चेत् , न, जीवनाशस्थ सर्वैः प्रेक्षावद्भिरकाम्यत्वेन तादृशमोक्षस्य पुरुषार्थत्वं न स्यात् । केपाश्चिद् दुःखजरितानां जीवनाशः काम्यत्वेन दृश्यत इति तु प्रेक्षावतां पर्षदि वक्त न युज्यते, अविवेकिनां तथाप्रवृत्तः । किश्च परमात्मनि परमब्रह्मस्फुल्लिङ्गकल्पजीवात्मलयो मोक्ष इत्यभ्युपगमे परमात्मन उपचयप्रसङ्गः स्यात् , घृतादौ घृतान्तरप्रवेशवत् , अपि चोपचये सैव ब्रह्मसत्तंति वक्तुं न शक्यते, सत्तान्तरस्वीकारे च भवत्सिद्धान्तपरित्यागापत्तेः। (इति त्रिदण्डिमतानुयायिमोक्षस्वरूपखण्डनम् ।) सौगतास्तु प्राहुः- निरुपप्लवा चित्सन्ततिर्मोक्ष इति । उक्तश्च चित्तमेव संसारो रागादिक्लेशवासितम् ।। तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥१॥” इति । अयं भावः-ज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरिक्तस्या-ऽऽत्मनोऽसम्भवात् कस्या-ऽनन्तज्ञानसुखादिस्वभावत्वं संभवति ? मुक्तिस्वात्मदर्शिनो न भवत्येव, यतो य आत्मानं स्थिरत्वादिस्वरूपं पश्यति, तस्यात्मनि स्थिरत्वादिगुणदर्शनेन स्नेहो भवति, स्नेहाच्च सुखादिषु तृष्णाशीलः सन् सुखादिषु Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धाभिप्रायेण मोक्षस्वरूपम् ] मोक्षस्वरूपविचारः : [५३९ तत्साधनेषु च दोषानुपेक्ष्य शुचित्वादिगुणानारोपयति । गुणांश्च पश्यन् ममेद'मित्याद्यध्यवस्मन् सुखसाधनान्युपादत्ते,ततो यावदात्मदर्शनम् ,तावत् संसार एव । यदुक्तंप्रमाणवार्तिके श्रीधर्मकीर्तिना यः पश्यत्यात्मानं तत्राऽस्याहमिति शाश्वतः स्नेहः ॥ (१-२१९) स्नेहात सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते । गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति सुखसाधनान्युपादत्ते ॥ (१-२२०) तेना-ऽऽत्माभिनिवेशो यावत् तावत् स संसारे। आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ ।। (१-२२१) अनयोः सम्प्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते।” इति । तथा च तदीया श्रीमनोरथनन्दिकृता वृत्तिः-"यः पश्यत्यात्मानं तत्राऽऽत्मनोऽस्य द्रष्टुरहमिति शाश्वतो-ऽनपायी स्नेहो भवति। स्नेहाद-आत्मस्नेहात्सुखेषु तृष्यतितृष्णावान् भवतीति, तृष्णा च सुखसाधनत्वेनाऽध्यवसितानां वस्तूनां दोषानशुचित्वादीन् तिरस्कुरुते प्रच्छादयति दोषतिरस्करणात् । गुणदर्शी-शुचित्वेनेष्टगुणान् पश्यन् परितृष्यन् ममेति ममेदं सुखमिति गर्ड मानस्तस्य-मुखस्य साधनानि गर्भगमनादीन्युपादत्ते । तेना-ऽऽत्मदर्शनमूलत्वेन जन्मादेरात्माभिनिवेश यावत्तावत् स आत्मदर्शी संसार एव । न केवलं जन्मप्रबन्धस्तस्य दोषा अपि समस्ताः सन्तीत्याह-आत्मनि सति ततोऽन्यस्मिन् परसंज्ञा-परबुडिर्भवति । स्वपरविभागाच्च कारणात् स्वपरयोर्यथाक्रमं परिग्रहो-ऽभिष्वङ्गो द्वेषः परित्यागस्तौ भवतः । अनयोरनुनयप्रतिषेधयोः सम्प्रतिबद्धाः सर्वे दोषारागमात्सर्येादयः प्रजायन्ते ।” इति। नैरात्म्यभावनातस्तु निरुपप्लवचित्सन्ततिलक्षणो मोक्षो जायत एव । नन्ववच्छेदकतादिसम्बन्धेन ज्ञानं प्रति तादात्म्यादिना शरीरादेः कारणत्वाद् मुक्त्यवस्थायां शरीरादिनिमित्तकारणविरहे ज्ञानस्य सम्भव एव नास्तीति तश्चित्सन्ततेः सम्भवः ? इति चेत् मैवम् , यतो न ज्ञानं प्रति नैयायिकादिवत् शरीरादीनां कारणत्वमभ्युपगम्यते, किन्तु पूर्वपूर्वविज्ञानक्षणानामेवोत्तरोत्तरविज्ञानक्षणं प्रति कारणत्वम् । न च सुषुप्तौ ज्ञाना-ऽभावेन तदुत्तरं कारणविरहाद् ज्ञानसन्ततिर्व्यवच्छिद्यतेति वाच्यम् , तत्रापि ज्ञानस्य सत्वात् । न च सुषुप्तावस्थायां ज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो विशेषो न स्यात् , उभयत्राऽपि स्वसंवेद्यज्ञानस्य सद्भावा-ऽविशेषादिति वाच्यम् ,यतः सुषुप्तौ 'मिद्धेना-ऽभिभूतत्वं ज्ञानस्या-ऽस्ति, अतो विशेषोऽस्त्युभयोरवस्थयोः। न च तथा-ऽप्यभिभूतज्ञानक्षणतो रागद्वेषकलुषितज्ञानक्षणतश्च क्रमेण कथमनभिभूतज्ञानक्षणस्य रागद्वेषविनिमुक्तज्ञानक्षणस्य चोत्पत्तिः स्याद् ? इति वाच्यम् , पूर्वपूर्वज्ञानक्षणानां तत्तदतिशयवत्वेना (१) अतिजाड्येनातिनिद्रया वा। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] खबगसेढी .. [गाथा-२६७ ऽविशिष्टादपि विशिष्टोत्पत्तेः स्वीकारात् । ततश्चा-ऽविशिष्टात् सुषुप्तज्ञानक्षणतः सोपप्लवज्ञानक्षणतश्च क्रमेण विशिष्टं जाग्रज्ज्ञानं निरुपप्लवज्ञानं चोत्पद्यते । ___ न च नैरात्म्यदर्शनभावनामुपगच्छतां सौगतानां निरन्वयविनश्वरचित्सन्ततौ 'बद्धोऽहं मोक्ष्यामी'त्यादिकमुद्दिश्य यत्नो न स्यादिति वाच्यम् , अध्यवसायानुसारेणाऽपि यत्नात् ।। एतदुक्तं भवति-न केवलं यथावस्त्वेव यत्नः, अपि तु यथाऽध्यवसायमपि । यथा रज्जुमपि सर्पत्वेनाऽध्यवस्यतस्तत्परित्यागः, तथैव बद्धोऽहं मोक्ष्यामीत्यादिव्यापारः स्यादेव । तथाहिनिरन्वयचित्सन्तत्यामुत्तरोत्तरक्षणानामत्यन्तनानात्वे-ऽपि दृढतरैकत्वाध्यारोपेणा-ऽऽत्माभिसन्धानात् तस्य मिथ्याऽध्यारोपस्य व्यवच्छेदार्थमसत्यपि निरंशादिस्वभावे मोक्तर्यात्मनि नैरात्म्याभ्यासस्वरूपो यत्नः कर्तव्यः । यदुक्तं प्रमाणवार्तिके मिथ्याध्यारोपहानार्थं यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि ॥(१।१९४) नैरात्म्यभावनालक्षणयत्नविरहे त्वात्माभिसन्धाना-ऽनिवृत्तेरिन्द्रियादिषूपभोगकारणत्वेन गृही. तेष्विन्द्रियादिष्वात्मीयबुद्धेर्निवारयितुमशक्यत्वात् स्नेहसद्भावेन वैराग्यस्याऽसम्भवात् कुतो मोक्षः ? यदुक्तं प्रमाणवार्तिके उपभोगाश्रयत्वेन गृहोतेष्विन्द्रियादिषु ।। स्वत्वधीः केन वार्येत वैराग्यं तत्र तत्कुतः ॥१॥ (१।२२९।) नन्विन्द्रियादिपु नोपभोगाश्रयत्वबुद्धिनिबन्धनस्वत्वबुद्धित आत्मीयस्नेहो जायते . येनाऽयं दोषो भवेत् , किन्तु तत्र गुणदर्शनत आत्मीयस्नेहः प्रभवति,अतस्तद्विरुद्ध दोषदर्शने स्नेहनिवृत्तितो वैराग्यमुपपद्यते । इन्द्रियादिषु च दोषदर्शनं स्वयमेव भाव्यम् । एवं वैराग्योपपत्तैमुक्तिरप्युपपन्नेति चेत् , न, यत उपभोगाश्रयत्वबुद्धिनिवन्धनस्वत्वबुद्धित एव स्नेहस्याऽऽविर्भावोऽभ्युपगन्तव्यः । यथा-ऽऽत्मीयचक्षुरादिषु काणत्वादिदोषदर्शने-ऽपि स्नेहस्याविर्भावः, परकीयेषु चक्षुरादिषु गुणदर्शनेऽपि स्नेहाभावः । आत्मीयेष्वप्यतीतेषु स्वदेहच्युतेषु चाऽङ्गावयवेषु गुणदर्शनेऽप्यात्मीयबुद्धिपरित्यागाद् न स्नेहो भवति । तस्मादुपभोगाश्रयत्वबुद्धिनिबन्धनस्वत्वबुद्धितः स्नेहो भवति । ततश्च वैराग्यव्याहतिः, तद्वयाहतेश्च कुतो मोक्षः ? न च तद्भावनाऽभावेऽपि कायक्लेशलक्षणतपसः सकलकर्मप्रक्षयाद् मोक्षो भविष्यति, किं नैरात्म्यभावनया ? इति वाच्यम् , यतः कायक्लेशस्य कर्मफलत्वेन नारकादिकायसन्तापवत् तपस्त्वमनुपपन्नम् । किञ्च विचित्रशक्तिकं कर्मभवति,अन्यथा विचित्रसुखदुःखप्रदानाद्यनुपपत्तिः स्यात् । तच्च कथमेकस्मात् कायक्लेशमात्रात् क्षयं गच्छेत् , अतिप्रसङ्गात् ? यदुक्तं प्रमाणवार्तिके फलवैचित्र्यदृष्टश्च शक्तिभेदो-ऽनुमीयते । कर्मणां तापसंक्लेशात् नैकरूपात् ततः क्षयः ॥"(२-२७५) इति । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धाभिप्रेतमोक्षस्वरूपखण्डनम् ] मोक्षस्वरूपविचारः [५४१ न च तपः कर्मशक्तीनां संकरेण क्षयकरणशीलमिति कृत्वैकरूपादपि तपसो विचित्रशक्तिकानां कर्मणां क्षय इति वाच्यम् , एवमभ्युपगमे स्वल्पक्लेशेनैवैकोपवासादिना-ऽप्यशेषस्य कर्मणः क्षयापत्तिः, अन्यथा शक्तिसाङ्कर्या-ऽनुपपत्तिः, अन्यत्रा-ऽप्युक्तम् कर्मक्षयादिमोक्षः स च तपसस्तच कायसन्तापः। कर्मफलत्वान्नारकदुःखमिव कथं तपस्तत् स्यात् ॥१॥ अन्यदपि चैकरूपं तचित्रक्षयनिमित्तमिह न स्यात् । तच्छक्तिसंकरक्षयकारीत्यपि वचनमात्रं तु ॥२।। अक्लेशात् स्तोकेऽपि क्षोणे सर्वक्षयप्रसङ्गो यत् ।" इति । तस्माद् नैरात्म्यभावनाप्रकर्षविशेषतो निरुपप्लवा चित्सन्ततिर्मोक्ष इति स्थितम् । अथ प्रतिविधीयते- 'यत् तावदुक्तम्-'ज्ञानक्षणप्रवाह.' इत्यादि, तदविचारिताऽभिधानम् , ज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरिक्तं मौक्तिककणनिकरानुस्यूतैकसूत्रकल्पमन्वयिद्रव्यमात्मानमन्तरेण कृतनाशा-ऽकृता-ऽऽगमादिदोषप्रसङ्गात् स्मरणाद्यनुपपत्तेश्च ।। एतदुक्तं भवति–बौद्धास्तावज्ज्ञानक्षणपरम्परामात्रमेवात्मानं मन्यन्ते, न तु मुक्ताफलजाता-ऽनुस्यूतैकसूत्रकल्पमेकमन्वयि द्रव्यम् । अतस्तन्मते पूर्वज्ञानक्षणेन यत् सदनुष्ठानम् , असदनुष्ठानं वा कृतम् , तत्फलं न भुङ्क्ते पूर्वज्ञानक्षणः, तस्य निरन्वयविनष्टत्वात् । उत्तरक्षणेन च फलोपभोगस्वीकारे-ऽकृताऽऽगमः, तेन स्वयं तादृशानुष्ठानाकरणे-ऽपि तत्फलस्योपभोगात् । अथ संसारभङ्गदोषः-पूर्वकर्मानुसारेणैव जन्मान्तरं भवति । पूर्वज्ञानक्षणानां तु निरन्वयविनाशाद् न तेषां कश्चिदप्यभिसम्बन्ध उत्तरज्ञानक्षणैः सह । अतः केनोपभुज्यते पूर्वकर्माणि जन्मान्तरे ? तदुपभोगाऽभावे च किं जन्मान्तरम् ? तदभावे च संसारविलोपापत्तिः । मोक्षभङ्गदोषः-अपुनर्भावेन कर्मबन्धनाद् विमुक्तिर्मोक्षपदार्थः , स च बौद्धमते न घटते, आत्मन एवा-ऽभावात् । तथाहि-बौद्धमते-ऽन्वयिद्रव्यमात्मैव नास्ति, ततश्च कः प्रेत्य सुखीभवनाय यतिष्यते । संसारी ज्ञानक्षणः कथमपरज्ञानक्षणसुखाय घटिष्यते, ? न हि दुःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः, क्षणस्य तु दुःखं स्वरसविनाशित्वात् तेनैव साधं ध्वस्तम् । न च सन्तानेन पूर्वोत्तरक्षणेषु सुख-दुःखाद्युपपत्तिरिति वाच्यम् , सन्तानस्या-ऽवास्तवत्वात् , वास्तवत्वे तु संज्ञान्तरेणा-ऽऽत्मन एवा-ऽभ्युपगमप्रसङ्गात् । ___ अथ स्मृत्यनुपपत्तिः,-पूर्वबुद्ध्यनुभूते-ऽर्थे नोत्तरबुद्धीनां स्मृतिः सम्भवति, ततो-ऽन्यत्वात्, सन्तानान्तरबुद्धिवत् । न ह्यन्यदृष्टो-ऽर्थो-ऽन्येन स्मर्यते,अन्यथैकेन दृष्टो-ऽर्थः सर्वैः स्मर्येत । स्मरणा-ऽभावे च कौतस्कुती प्रत्यभिज्ञाप्रसूतिः, तस्याः स्मरणाऽनुभवयोरुभयोः सतोरेव सम्भवात् । (१) पृ० ५३८ पं० २७ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खत्रगढी [ गाथा-२६७ पदार्थदर्शनप्रबोधितप्राक्तन संस्कारस्य हीन्द्रियव्यापारवतः प्रमातुः स एवायमि' त्याकारेण प्रत्यभिज्ञा समुत्पद्यते । ननु स्यादयं दोषः, यद्यविशेषेणाऽन्यदृष्टं परः स्मरतीत्युच्येता-ऽस्माभिः । अस्मत्कथनं त्वेवम्-स्मरणक्षणस्याऽनुभवकारिक्षणेन सह कार्यकारणभावस्वीकारात् स्मृतिरुपपद्यते । तत्रैकसन्तानपतितानां क्षणानां तदुत्पत्तिसम्बन्धेन सम्बद्धानां पूर्वोत्तरक्षणयोर्हेतुहेतुमद्भावो निर्विवादः । तथा चानुभूतविज्ञानक्षणस्य स्वसन्तानेऽनुभवात्मकरमृतिबीजाधापकत्वम् । अतो नानुपपत्तिः स्मरणस्य, कालान्तरे स्मृत्यात्मककार्योत्पत्तेः । तदुक्तं बोधिचर्यावतारपञ्जिकायाम् - "कार्यकारणभावप्रतिनियमादेव स्मृत्य भावो ऽपि निरस्तः । एकस्यानुगमात्मनो ऽभावात् न स्मर्ता कश्चिदिह विद्यते, किं तर्हि ? स्मरणमेव केवलमारोपवशात् स्मर्यमाणवस्तुविषयम् । न च अत्र स्मर्तुरभावेऽपि कश्चिद् व्याघातः । अनुभूते हि वस्तूनि विज्ञानसंताने स्मृतिबीजाssधानात् कालान्तरेण संततिपरिपाकहेतोः कार्यमुत्पद्यते ।' इति चेत्, न, यतस्तादृशान्यत्वस्याऽपरान्यत्वाऽविशेषात् भवन्मते कारणस्य निरन्वयनाशाच्च कार्यस्येतरस्य च कारणेन सह समानरूपेणात्यन्तासम्बद्धत्वम् । फलतः कार्यवदितरस्यापि स्मरणत्वापत्तिः, इतरवद् वा कार्यस्याऽपि स्मरणत्वानुपपत्तिस्तदवस्थैव | नाम ५४२ ] अपि चानुभवक्षणस्य निरन्वयनाशात् तत्सन्ताने स्मृतिबीजाधानानुपपत्तिरेव, अन्यथा तत्सन्तान - तदितरसन्तानयोरनुभवक्षणासम्बद्धत्वाविशेषेणेतर सन्ताने कथं स्मृतिबीजाधानस्य नापत्तिः ? अपि च कार्यकारणभावात् स्मृतिरित्यत्र न कश्चिद् वादिप्रतिवादिप्रसिद्धो दृष्टान्तो ऽस्ति । ननु यथा रक्तकर्पासचीजे उप्ते फलं रक्तवर्णं लभ्यते, तथैव यस्मिन् सन्ताने वासनाऽधि - वसति, तत्रैव कर्मवासनायाः फलं भवति । यदुक्तम् "यस्मिन्नेव हि संताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संघते कर्पासे रक्तता यथा || १ ||" इति । तदेवं सन्तानेऽनुभव-स्मरणयोरैकाधिकरण्यमिति चेत्, न यत एतत् सर्वमप्यसुन्दरम् साधनदूषणयोरसम्भवात् । तद्यथा - अन्वयाद्यसम्भवाद् न साधनम्, नहि 'यत्र यत्र कार्यकारणभाव:, तत्र तत्र स्मृतिः, कर्पासे रक्ततावदि' त्यन्वयः सम्भवति, ना-ऽपि यत्र यत्र स्मृत्यभावः, तत्र तत्र न कार्यकारणभावः' इति व्यतिरेकः । 'यत्र यत्रा -ऽन्यत्वम्, तत्र तत्र न स्मृतिरित्यत्र चासिद्ध्याद्यनुद्भावनाद् न दूपणम् । न हि 'ततोऽन्यत्वात्' इति हेतोः कर्पासे रक्ततावदित्यनेन कश्चिद् दोषः प्रतिपाद्यते भवन्मते कर्पास - स्याऽपि क्षणिकत्वेन कालभेदेन तस्या -ऽन्यत्वात् । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४३ बौद्धाभिमतमोक्षस्वरूपखण्डनम् ] मोक्षस्वरूपविचारः किञ्च यद्यन्यत्वे-ऽपि कार्यकारणभावात् स्मृतेरुत्पत्तिरिष्यते, तदा शिष्या-ऽऽचार्यादिबुद्धीनामपि कार्यकारणभावसद्भावेन स्मत्यादिप्रसङ्गः, न चैकसन्तानत्वे सतीति विशेषणाद् नोक्तप्रसङ्ग इति वाच्यम् , भेदा-ऽभेदपक्षाभ्यां तस्योपेक्षणात् । तथाहि-क्षणपरम्परातस्तस्या-ऽभेदे हि क्षणपरम्परैव सः । तथा च सन्तान इति न किञ्चिदतिरिक्तमुक्तं स्यात् । भेदे तु किं पारमार्थिको-ऽपारमार्थिको वा-ऽसौ भेदः ? अपारमार्थिकत्वेऽस्य तदेव दूषणम् , अकिश्चित्करत्वात् । पारमार्थिकत्वे किं स्थिरो वा क्षणिको वा ? क्षणिकत्वे सन्तानिनिर्विशेषो-ऽयम् । स्थिरश्चेत् , .. आत्मैव संज्ञान्तरेण प्रतिपन्न इति । एवं स्मृतिर्न घटतेऽन्वयिद्रव्या-ऽऽत्माभावे । अपि च स्मृत्यभावे निहितप्रत्युन्मार्गणप्रत्यर्पणादिव्यवहाराणां लोपः स्यात् । 'यच्चोक्तं “मुक्तिस्त्वात्मदर्शिनो न भवत्येव, यतो य आत्मानं स्थिरत्वादिरूपं पश्यति" इत्यादि, तत् सत्यम् , किन्त्वज्ञो जनो यः स्वं स्थिरं मन्यमानो दुःखानुषक्तं च साधनं स्थिरसुखसाधनत्वेन पश्यन् स्नेहात् सांसारिकेषु सुखसाधनेषु प्रवर्तते, अपथ्यादौ मूर्खाऽऽतुरवत् , तस्यैव मुक्तिन भवति, यस्तु हिताहितविवेकज्ञोऽताचिक-तादात्विकसुखसाधनं स्व्यादिकं परित्यज्यात्मस्नेहात् ताचिका-ऽऽत्यन्तिकसुखसाधने मोक्षमार्गे प्रवर्तते, पथ्यादिषु चतुरातुरवत् , तस्य मुक्तिर्निष्प्रत्यूहैव । उक्तञ्च __ "तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते। हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरोक्ष्य परीक्षकाः॥१॥ इति । यच्च "पूर्वपूर्वविज्ञानक्षणानामेवोत्तरोत्तरविज्ञानक्षणं प्रति कारणत्व"मित्युक्तम् , तदप्यन्वयिद्रव्यस्वीकृत्यैवोपपन्नम् , अन्वयिद्रव्याऽस्वीकारे तु बन्धमोक्षादिव्यवस्थाऽपि नोपपद्यते । निरन्वये हि चित्सन्ताने-ऽन्यो बद्धः, अन्यश्च मुच्यत इत्यापद्यते। अथ सन्तानैक्याद् बद्धस्यैव मुक्तिः ? इति चेत् , न, यतो यदि सन्तानोऽक्षणिकपरमार्थसन् , तदा-ऽऽत्मैव सन्तानशब्देन प्रोक्तः, अथ संवृत्तिसन् , तदा सन्तानस्य परमार्थासचाद् अन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यते' इति तदवस्थम् । ततश्च बद्धस्य मुक्त्यर्थः प्रयासो न स्यात् । यच्च "पूर्वपूर्वज्ञानक्षणानां तत्तदतिशयवत्त्वेन"इत्यायुक्तम् ,तदपि कथमुपपद्येत, यद्यतिशया-ऽऽधायकत्वेना-ऽवस्थितमन्वपिद्रव्यं न स्वीक्रियेत ? न च सन्ताना-ऽपेक्षया-ऽतिशयो युक्त इति वाच्यम् , तस्यैवा-ऽवास्तवत्वात् । "यच्च “निरन्वयचित्सन्तत्यामुत्तरोत्तरक्षणानामत्यन्तनानात्वेऽपि दृढतरै(१) पृ० ५३८ पं० २८ (२) पृ० ५३९ पं० २४ (३) पृ० ५३९ पं० ३० (४) पृ० ५४० पं० ८ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४] खबगसेढी [ गाथा-२६७ कत्वाध्यारोपेणात्माभिसन्धानात्" इत्याधुक्तम् , तदपि वचनमात्रम् । एवमभ्युपगते कुतो नैरात्म्यदर्शनम् ? अथा-ऽस्ति शास्त्रसंस्कारजमिति चेत् , तर्हि नैकत्वाध्यवसायो-ऽस्खलद्रपः, ततः कुतो मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिः ? किञ्चा-ऽसति पूवोत्तरज्ञानक्षणव्यापकेऽन्वयिनि द्रव्य आत्मनि स्वसंविदितैकत्व प्रत्ययस्य प्रत्यक्षस्या-ऽनुपपत्तिः स्यात् । अथाऽसत्यप्यात्मन्यारोपितैकत्वविषयः प्रत्ययः प्रादुर्भविष्यतीति चेत् , न, यतः स्वात्मनि 'यत् सत् , तत् क्षणिक मित्यनुमानात् क्षणिकत्वं निश्चिन्वतः समारोपितैकत्वविषयकविकल्पस्वरूपप्रत्ययस्य निवृत्तिप्रसङ्गः, निश्चया-ऽऽरोपमनसोविरोधात् । निवर्तत एवा-ऽऽरोपितैकत्वमिति चेत् , तर्हि 'सहजस्या-ऽऽभिसंस्कारिकस्य चात्मदर्शनस्या-ऽभावात् तदैव तन्मूलरागादिनिवृत्तितो मोक्षः स्यात् । न चायमेकत्वविषयः प्रत्ययः प्रतिसंख्यानेन निवर्तयितुमशक्यत्वान्मानसो विकल्पः । तथाहि अनुमानबलात् क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽपि नैकत्वप्रत्ययो निवर्तते, प्रत्यक्षबुद्धित्वात् । शक्यन्ते तु प्रतिसंख्यानेन निवारयितुं कल्पनाः, न पुनः प्रत्यक्षबुद्धयः। ततो यथा-ऽश्वं विकल्पयतो-ऽपि गोदर्शनाद् न गोप्रत्ययात्मको विकल्पः, तथा क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽप्येकत्वदर्शनाद् नैकत्वप्रत्ययात्मकविकल्पः । न चा-ऽयं प्रत्ययो भ्रान्तः,भ्रान्तत्वे तु सकलस्या-ऽपि प्रत्ययक्षस्य भ्रान्तत्वप्रसङ्गः,बाह्या-ऽभ्यन्तरेषु भावेष्वेकत्वग्राहकत्वेनैवाऽशेषप्रत्यक्षाणां प्रवृत्तिप्रतीतेः। ततश्च प्रत्यक्षस्याऽभ्रान्तत्वविशेषणं यदुक्तम् ,तदसंभाव्येव स्यात् । तदेवमेकत्वग्राहिणः स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्या-ऽभ्रान्तस्य कश्चिदेकत्वमन्तरेण नोपपत्तिः तेन नैकत्वाभावः । किश्चाऽनुभूयमानस्या-ऽप्येकत्वस्या-ऽनेकत्वेन सह विरोधाभ्युपगमे ग्राह्यग्राहकसंवित्तिलक्षणविरुद्धरूपत्रयाध्यासितज्ञानस्यैकत्वविरोधः स्यात् , एकनीलाद्यर्थक्षणस्या-ऽपि चैकदा स्वपरकार्यजनकत्वाजनकत्वलक्षणविरुद्धधर्मद्वया-ऽध्यासितस्यैकत्वविरोधः प्रसज्येत । __ यच्च "नैरात्म्याभ्यासादिरूपो यत्नः कर्त्तव्यः” इत्युक्तम् , तदपि न सङ्गतम् , नहि नैरात्म्या-ऽभ्यासोऽपि कालान्तरा-ऽवस्थाय्यनुसन्धातारं विनोपपद्यते । तथा यो हि निगडादिभिर्बद्धः, तस्यैव मोक्षकारणपरिज्ञाना-ऽनुष्ठानाऽभिसन्धिव्यापारे सति मोक्ष इत्यैकाधिकरण्ये सत्येव बन्धमोक्षव्यवस्था लोके प्रसिद्धा । इह त्वन्यः क्षणो बद्धः, अन्यस्य च मुक्तिकारणपरिज्ञानम् , इतरस्य चा-ऽनुष्ठाना-ऽभिसन्धिर्व्यापारश्चेति वैयधिकरण्यात् सवेमयुक्तम् । किश्च सर्वो-ऽपि प्रेक्षापूर्वकारी 'किञ्चिदिदमतो मम स्यात्' इत्यनुसन्धानेनैव प्रवर्तते । इह च कस्तथाविधो मार्गा-ऽभ्यासे प्रवर्त्तमानो 'मोक्षो मम स्यादि' त्यनुसन्दध्यात्- किं क्षणः ? सन्तानो वा ? न तावत् प्रथमपक्षः, तस्यैकक्षणस्थायित्वेन निर्विकल्पतया चैतावतो व्यापारान् (१) प्राम्यजनसम्बन्धिनः । (२) पण्डितजनसम्बन्धिनः । (३) पृ० ५४० पं० ९ । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धामिमतमोक्षस्वरूपखण्डनम् ] मोक्षस्वरूपविचारः कर्तुमसमर्थत्वात् । नाऽपि द्वतीयिकः पक्षः, तस्य सन्तानिव्यतिरिक्तस्य सौगतैरनभ्युपगमात् । किञ्चैकान्ता-ऽनित्यत्वे वस्तुनोऽर्थक्रियाकारित्वविरहाद् नैरात्म्यभावना मिथ्यारूपैव । मिथ्याज्ञानस्य च न सौगतैरप्यभ्युपगम्यते निःश्रेयसहेतुत्वम् ।। ___किश्च निरन्वयविनश्वरत्वाभ्युपगमे मोक्षार्थः प्रयासो व्यर्थ एव स्यात् , तथाहि- रागाद्युपरमो हि भवन्मते मोक्षः, तत्र यद्यपरमो नाम रागादिक्षणविनाशः, तदा स निर्हेतुकतया-ऽयत्नसिद्धः, तेन तदर्थो-ऽनुष्ठानादिप्रयासो व्यर्थ एव स्यात् । . अथ रागाद्युपरमो नाम भाविरागादिक्षणस्या-ऽनुत्पादः, स च साध्यो-ऽनुष्ठानादिनेति न वैवर्थ्यमनुष्ठानादीनामिति चेत् , न, उत्पादाभावो ह्यनुत्पादः, तस्याप्यभावरूपत्वात् कथमनुष्ठानादिनोत्पत्तिः ? एतेन सन्तानोच्छेदस्तदनुत्पादो वा मोक्ष इत्यपि प्रत्युक्तम् , क्षणोच्छेदाऽनुत्पादवत् सन्तानोच्छेदाऽनुत्पादयोरप्यभावरूपत्वेन कुतश्चिदुत्पत्तेरनुपपत्तेः । 'यच्च "उपभोगाश्रयत्वेन गृहीतेषु” इत्याद्युक्तम् , तदप्यविचारिताभिधानम् , हेयोपादेयतत्वज्ञा ह्यात्यन्तिकसुखसाधनमुपभोगाश्रयमात्मीयं चा-ऽभिमन्यन्ते, न तादात्विकसुखसाधनम् , ते हि विवेकिन एवं भावयन्ति- इदं राज्यादिकं न सुखाय भवति, यतो-ऽनेके लुण्टाकाः शत्रवो राज्यमानामन्ति, तद्वारणचिन्ता चाहर्निशं भवति । तदेवं राज्यं नैहिकसुखाय भवति । नाऽपि राज्येन पारलौकिकं सुखं भवति, राज्योपभोगनिमित्तका-ऽशुभकर्मोपार्जनेन नरकगत्यादौ गमनात् । ना-ऽपि तरलताराक्षी कामिनी सुखाय भवति, यतः कामिन्याः प्रीतिः स्वपतिं प्रत्यपि मरुद्भूतध्वजाऽश्चलवद् चपला । चपलत्वाच्च प्रीतेर्यस्मिस्तस्या अनुरागः,स्वार्थव्याघाते तस्यैवोपघाताय यतते सा । अपि च दन्तच्छदच्छद्मना पिशितं वितन्य मत्स्यान् इव मनुष्यादीन् नरकादिदुर्गेतिजाले पातयति । तेन स्त्रीरपि नैहिकपारलोकिकसुखाय भवति । मुक्तिरमणी तु रत्नत्रयसाध्या नित्यानन्दमयी, यत्र कदाचिदपि दुःखकणिका न भवतीति । ___ एवं भावयतां तेषां राज्ययोषित्प्रमुखेषु दुःखहेतुषु सुखलेशसाधनत्वसद्भावे-ऽप्यन्यदात्यन्तिकसुखसाधनं रत्नत्रयं पश्यतां कुतस्तेष्वात्मीयबुद्धिः, यतस्ततो निवृत्तिनै स्यात् । ननु तथापि लेशतः सुखहेतुत्वस्याऽपि तत्र सम्भवेन दुःखहेतुत्वे यावता-ऽशेन सुखहेतुता, तावता-ऽशेनेन्द्रियादीन् स्वोपकारकान् मन्यमानस्तेष्वात्मीयबुद्धिं न परित्यजतीति चेत् , न, तेषां सुखलेशसाधनत्वज्ञानेना-ऽन्यस्य चात्यन्तिकसुखसाधनस्य निर्विषाऽन्नस्येव दर्शनेन सुखलेशसाधनस्य विषयुक्तक्षीरादिवत् परित्यागात् । यच्चोक्तम्-"काणत्वादिदोषदर्शनेऽपि" इत्यादि , तदप्यस्मदभिप्रायाऽनभि (१) पृ० ५४० ५० १५ (२) पृ० ५४० पं० २१ । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] खबगसेटी 1 गाय- २६७ 1 ज्ञानात् प्रलपितम् यतो न सुरूपत्वादिगुणदर्शनेन स्नेहो भवतीत्यस्माभिरिष्यते, किन्तूपभोगाश्रयेषु तादात्विकसुखाख्यगुणदर्शनात् स्नेहो भवति । विवेकिनां चोपभोगाश्रयेषु दुःखहेतुत्वाख्यमात्यन्तिकं दोषं पश्यतां नोपभोगाश्रयेषु तादात्विकसुखाख्यस्य गुणस्य दर्शनमस्ति । तेन तनबन्धनस्नेहस्य व्यावृत्तेः कथं दोषदर्शनं स्नेहस्य बाधकं न स्यात् ? ननु तद्दोषं पश्यतां यद्यपि तत्कालेऽनुरागिणी मतिश्चलिता, तथापि तत्रासौ नैव सर्वथा विरक्तः, पुनस्तद्गुणलेशदर्शनेनाऽनुरागसम्भवात् । यदुक्तं प्रमाणवार्तिके यद्यप्येकत्र दोषेण तत्क्षणं चलिता मतिः ।। (१।२४१) faredो नैव तत्राऽपि कामोव वनितान्तरे । " इति चेत्, न, अज्ञ एव ह्युपभोगाश्रयेषु तादात्विक दुःखहेतुत्वाख्यस्य दोषस्य दर्शनेन विरक्तः सन् तादात्विकसुखहेतुत्वाख्यस्य गुणस्य दर्शनात् पुनरनुरज्यते । हेयोपादेयतच्चज्ञस्तु दु:खहेतुत्वाख्यस्याssत्यन्तिकदोषस्य दर्शनेन विरक्तो न तादात्विक सुखहेतुत्वाख्यस्य तादात्विकगुणस्य दर्शनात् पुनस्तत्रानुरज्यते, आत्यन्तिकसुखसाधनेषु तस्यात्यन्तिकसुख हेतुत्वाख्यगुणदर्शनसद्भावेन तादात्विकगुणदर्शन विरहात् । ननूपभोगाश्रयेष्विन्द्रियादिषु दुःखहेतुत्वं पश्यन् विरज्यतेऽसौ, तर्ह्यात्मन्यपि विरज्यताम्, दुःखहेतुत्वस्य तत्राऽप्यविशेषात् । तत्राऽविरागे त्वन्यत्रा - ऽपि न विरज्येत, विशेषाऽभावादिति चेत्, उच्यते - किमेतदज्ञमात्मानं प्रतीत्य भण्यते ? उत प्रज्ञम् ? यदि प्रथमपक्षः, तर्हि विरज्यत एव, हेयोपादेयतच्चज्ञानविकलानां दुःखहेतौ स्वात्मनि वैराग्यात् स्वात्मघातादौ प्रवृत्तेः । अथ द्वितीयः पक्षश्चेत्, तर्हि हेयोपादेयतत्त्वज्ञा न विरज्यन्ते, यतस्तैस्तत्र न दुःखहेतुत्वं प्रतिसन्धीयते, किन्त्वान्यन्तिकसुखहेतुत्वमभिसन्धीयते । 'यच्चोक्तं "कायक्लेशस्य कर्मफलत्वेन" इत्यादि, तदप्यचर्विताऽभिधानम्, हिंसादिविरतिरूपव्रतोपवृहस्य कायक्लेशस्य कर्मफलत्वे ऽपि तपस्त्वा ऽविरोधात् । व्रता-विरोधी हि कायक्लेशः कर्मनिजराहेतुत्वात् तपोऽभिधीयते । न चैवं नारकादिकायक्लेशस्य तपस्त्वप्रसङ्ग इति वाच्यम्, तस्य हिंसाद्यवेिशप्रधानतया तपस्त्वविरोधात् । अतः प्रेक्षावतां नारकक्लेशेन समानता मुमुक्षुका क्लेशस्याऽऽपादयितुं न शक्या । यच्च शक्तिसङ्करपक्षे “स्वल्पक्लेशेनैवै० " इत्यादि प्रोक्तम्, तत् सत्यमेव, विचित्रकर्मफलदानसमर्थानां कर्मणां शक्तिसङ्करे सति सूक्ष्ममम्परायचरमसमये क्षीणमोहान्त्यसमये ऽयोगिकेवलिचरमसमये चा-क्लेशतः स्वल्पेनैव ध्यानरूपेण तपसा प्रक्षयाऽभ्युपगमात् । किन्तु निरुक्तशक्तिसङ्करो बहुतरकायक्लेशसाध्य इति युक्तस्तदर्थोऽनेकविधोपवासादिकायक्लेशाद्यनुष्ठानप्रयासः, तमन्तरेण तत्सङ्करानुपपत्तेः । (१) पृ० ५४० पं० २६ । (२) पृ० ५४१ पं० ३ । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदीपनिर्वाणवादिबौद्धाभिमतमोक्षस्वरूपखण्डनम ] मोक्षस्वरूपविचारः [५४७ अपरे पुनराहुः-प्रदीपनिर्वाणवत् सर्वथा ज्ञानसन्तानोच्छेदो मोक्ष इति । प्रमाणञ्चा-ऽत्र खडिगनो निराश्रवं चित्तं नोपादेयक्षणमारभते; महकारिरहितत्वात् ,तादृशदीपशिखावदिति । इह खडिगशब्देन प्रत्येकबुद्धो ग्राह्यः ।। अथ प्रतिविधीयते-चौद्रमते विनाशस्य निर्हेतुकन्वस्वीकाराद् उक्तस्वरूपमोक्षा-ऽभ्युपगमे मोक्षोपापस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गः। यच "खगिनो निराश्रवम्" इत्यायनुमानप्रमाणमुपन्यस्तम् , तदसङ्गतम् , बुद्धचित्तेन हेतोरनेकान्तात् । हितैषित्वा-ऽभावे सतीति विशेषणोपादानाद् न व्यभिचार इति चेत् , न,हितैषित्वा-ऽभावस्या-ऽसिद्धत्वात् । समानं हि हितैपिन्वं खड्गि-सुगतयोरात्म-जगद्विषयम् । ननु जगद्विषयहितैषित्वाऽभावे सतीति विशेषणमुपादेयम् , खडिगनि तु जगद्विषयहितैषित्वाभावोऽस्त्येव, तस्या-ऽऽत्ममात्रविषयहितैषित्वात् , ततश्च न व्यभिचार इति चेत् , मैवम् , यतः सुगतस्य कृतकृत्येषु हितैषित्वानावेन तस्या-ऽपि सकलजगद्विषयहितैषित्वविरहाद् न व्यभिचारस्य परिहारः । कृतकृत्येष्वपि हितैषित्वाऽभ्युपगमे तु कृतकृत्यत्वव्याघातप्रसङ्गः। न च देशतः कृतकृत्येषु सुगतस्य हितैषित्वमस्ति,खडिगनस्तु नेति वाच्यम्,खडिगनोऽप्युत्तरेषु स्वचित्तेषु हितैषित्वस्योपलम्भात् । इत्थं खड्गिनो न हितैषित्वाभावः सिद्धः । नापि चरमत्वविशेषणं देयमिति वाच्यम् , तस्या-ऽप्यसिद्धत्वात् प्रमाणाऽभावाच्च । ननु निराश्रवं खड्गिचित्तं चरमम् , स्वोपादेया-ऽनारम्भकत्वात् , वर्तिस्नेहादिशून्यप्रदीपादिक्षणवदिति चेत् ,न,अन्योन्याश्रया-ऽऽपत्तेः । तथाहि-सिद्धे सति हि तस्य स्वोपादेया-ऽनारम्भकत्वे चरमत्वस्य सिद्धिः, चरमत्वसिद्धौ च स्वोपादेयानारम्भकत्वसिद्धिः ।। किञ्चाऽन्त्यचित्क्षणस्यार्थक्रियाकारित्वविरहेऽवस्तुत्वप्रसङ्गः, 'यत् सत् , तत् करोती'ति म्वीकारात् । अन्त्यचित्क्षणस्या-ऽवस्तुत्वे च तजनकस्योपान्त्यचित्क्षणस्याऽप्यवस्तुत्वप्रसङ्गः, अवस्तुजनकत्वात् , ततस्तज्जनकस्येत्येवं निःशेषचित्सन्तानस्या-ऽवस्तुत्वप्रसक्तिः। न च स्वसन्तानवर्तिचित्क्षणस्या-ऽजनकत्वे-ऽपि सन्तानान्तरवर्तियोगिज्ञानस्य जननाद ना-ऽशेषस्य चित्सन्तानस्या-ऽवस्तुत्वप्रसक्तिरिति वाच्यम् ,रसादेरेककालस्य रूपादेरव्यभिचार्यनुमानाभावप्रसङ्गाद् । एतदुक्तं भवति-यथा-ऽन्त्यचित्क्षणस्य सजातीयकार्या-जनकत्वे-ऽपि विजातीययोगिज्ञानजनकत्वमभ्युपगम्यते, तथैव रूपादेः सजातीयरूपायाख्यकार्या-जनकत्वेऽपि विजातीयरसादिलक्षणकार्यस्य जनकत्वमभ्युपगन्तव्यम् । ततश्च तमस्विन्यामाम्रफलरसा-ऽऽस्वादनाद् रूपानुमानमव्यभिचारि न स्यात् । तथा-ऽनभ्युपगमे तु न विरुध्यते-ऽव्यभिचार्यनुमानम् , एकसामग्रयधीनत्वेन रूपरसयोनियमेन रूपरसलक्षणकार्यद्वयजननात् । स्वीक्रियते च भवता रसा-ऽऽस्वादनादव्यभिचारि रूपानुमानम् । ततश्चैकसामग्रयधीनत्वेन रूपरसयोर्नियमेन कार्यद्वया-ऽऽरम्भ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५४८] खवगसेढी [गाथा-२६७ कत्वमुररीकर्तव्यम् ,तथा-ऽभ्युपगते च समानकारणसामग्रीजन्यत्वेना-ऽन्त्यचित्क्षण-योगिज्ञानक्षणयोरपि कार्यद्वया-ऽऽरम्भकत्वं कुतो न स्यात् ? स्यादेवेत्यर्थः । अपि च कथं सजातीयकार्ये ऽनुपयोगिनश्चरमज्ञानक्षणस्य विजातीयकार्ये भवत्युपयोगः ? तस्माद् न ज्ञानसन्तानोच्छेदो मोक्षः,किन्त्वनन्तज्ञानादिस्वरूपः। (इति सौगता-ऽभिमतमोक्षस्वरूपप्रतिविधानम् ।) अन्ये पुनराहु:-स्वातन्त्र्यं मोक्ष इति । तत्र यदि स्वातन्त्र्यं प्रभुता, तदा मदः । अथ चेत् कर्मनिवृत्तिः,तदा-ऽस्माकमेव सिद्धान्तः,व्यवहारनयेन कर्मक्षयस्य मोक्षत्वेन प्रतिपादितत्वात् । चार्वाकास्तु-आत्महानं मोक्ष इत्याहुः, तन्न, यतो वीतरागजन्मा-ऽदर्शनन्यायेना-ऽऽ स्मनो नित्यत्वं सिद्धम् , नित्यत्वेन च सिद्धस्या-ऽऽत्मनः सर्वथा हातुमशक्यत्वम् । पर्यायार्थतया त्वात्महानेऽप्यात्महानस्थाऽनुद्देश्यत्वम् । साङ्घयास्तु-प्रकृतिपुरुषविवेकख्यातिबलेनोपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणा-ऽवस्थानं मोक्ष इति अवते । एतदुक्तं भवति-साङ्खयमते पञ्चविंशतिस्तच्चानि । यदुक्तं साङ्घयकारिकायामीश्वरकृष्णैः मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोउशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥१"॥ इति । तत्र प्रीत्यत्रीतिविपादात्मकानां लाययोषष्टम्भगौरवधर्माणां परम्परोपकारिणां त्रयाणां गुणानां सच-रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः । यदुक्तं श्रीकपिलेन सूत्रम्-"सवरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः...” इत्यादि (१-६१) । सच्चादिकं त्वोश्वरकृष्णः कारिकायामित्थं व्याख्यातम् सावं लघु प्रकाशकमिष्ठमुपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरु वरणकमेव तमः प्रदोपवञ्चा-ऽर्थतो वृत्तिः ॥१॥” इति । प्रकृतिश्व प्रधानमव्यक्तञ्चेत्यनन्तरम् । सा चा-ऽनादिमध्यान्ता-ऽनक्य वा साधारणा-ऽशब्दा-ऽस्पर्शा-ऽरूपा-ऽव्यया । एवंविधा च प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तमस्ति । यदुक्तं श्रीवाचस्पतिमिश्रेण सातत्त्वकौमुद्याम्-"विश्वस्य कार्यसंघातस्य सा मूलम्, न त्वस्या मूलान्तरमस्ति,अनवस्थाप्रसङ्गात् । नचा-ऽनवस्थायां प्रमाणमस्तीति भावः।'' इति । प्रकृतेवुद्धिरु पयते, सा च महदित्यपरपर्याया । यो-ऽयमध्यवसायो गवादिपु प्रतिपत्तिःएवमेतद् , नाऽन्यथा, गोरेवाऽयम् , नाश्वः, स्थाणुरेवा-ऽयम् , न पुरुष इत्येषा बुद्धिः,तस्यास्त्वष्टी रूपाणि । तत्र धर्म-ज्ञान-वैराग्वैश्वर्याख्यानि चत्वारि साचिकानि, तत्प्रतिपक्षभूतानि त्वधर्मादीनि चत्वारि तामसानि । (१) पृ० ५३६ पं० ९। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साञ्जयमलेन पञ्चविंशतितत्त्वानि] मोक्षस्वरूपविचारः [५४९ बुद्धेः कार्यो-ऽहङ्कारः । स चा-ऽभिमानात्मकः, अहं शब्दे, अहं स्पर्शे, अहं गन्धे, अहं रसे, अहमीश्वरः, असौ मया हतः, ससच्चो-ऽहं हनिष्यामीत्यादिप्रत्ययरूपः । अहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयं चेन्द्रियमिति कार्यद्वयमुत्पद्यते । तत्र पञ्चतन्मात्राणि शब्दतन्मात्रादीन्यविशेषरूपाणि सक्ष्मपर्यायवाच्यानि । शब्दतन्मात्राच्छब्द उपलभ्यते, एवं स्पर्श-रूप-रस-गन्ध-तन्मात्रेभ्यः स्पदिय उपलभ्यन्ते । __अथोभयेन्द्रियं बाह्या-ऽभ्यन्तरभेदेनैकादशविधम् । तत्र चक्षुः श्रोत्रं नाणं रसनं त्वगिति पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि बावपाणिपादपायूपस्थाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि । एकादशं च मनः । पञ्चतन्मात्रेभ्यः पञ्च महाभूतानि समुत्पद्यन्ते । तथाहि-शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दगुणम् , शब्दतन्मात्रसहितात् स्पर्शतन्मात्राद् वायुः शब्दस्पर्शगुणः, शब्दस्पर्शतन्मात्र सहिताद् रूपतन्मात्रात् तेजः शब्दस्पर्शरूपगुणम् ,शब्द-स्पर्श-रूपतन्मात्रसहिताद् रसतन्मात्रादापः शब्द-स्पर्श-रूप-रसगुणाः, शब्द-स्पर्श-रूप-रसतन्मात्रसहिताद् गन्धतन्मात्रात् शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धगुणा पृथिवी जायते । पुरुपस्त्वमूर्तश्चेतनः साक्षादकर्ता-ऽभोक्ता निष्क्रियो निगुणो नित्यः, यदुक्तं श्रीविज्ञानभिक्षुणा साङ्क्षयप्रवचनभाष्ये-"प्रकृतेः कार्यो महान् महत्तत्त्वम् ,महदादीनां स्वरूपं विशेषश्च वक्ष्यते, महतश्च कार्यो-ऽहङ्कारः । अहङ्कारस्य कार्यद्वयम् , तन्माब्राण्युभयमिन्द्रियश्च। तत्रोभयमिन्द्रियं बाह्या-ऽभ्यन्तरभेदेनैकादशविधम् । तन्मात्राणां कार्याणि पञ्चस्थूलभूतानि । स्थूलशब्दात् तन्मात्राणां सूक्ष्मभूतत्वमभ्युपगतम् । पुरुषस्तु कार्यकारणविलक्षणः ।" इति । प्रकृति-पुरुषयोः संयोगस्त्वन्धपगुवत् । यदुक्तम् ईश्वरकृष्णैः साङ्घयकारिकायाम्"पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः।” इति । पुरुषस्य च चैतन्यशक्तिविषयपरिच्छेदशन्या, अर्था-ऽध्यवसायस्य बुद्धिव्यापारत्वात् । बुद्धिस्तभयमुखदर्पणाकारा, ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिबिम्बते, इन्द्रियद्वारेण च बुद्धौ सुख-दुःखादयो विषया प्रतिसङ्क्रामन्ति । ततः सुख्यहं दुःख्यहमित्युपचारः । आत्मा हि स्वं बुद्धितोऽव्यतिरिक्तं मन्यते । मुख्यतस्तु बुद्धरेव विषयपरिच्छेदः । तथा चाहुः सांख्यतत्त्वकौमुद्यां श्रीवाचस्पतिमिश्रा:-"सर्वो व्यवहर्ता-ऽऽलोच्य मत्वा 'अहमत्रा-ऽधिकृतः' इत्यभिमत्य 'कर्तव्यमेतन्मया' इत्यध्यवस्यति,ततश्च प्रवर्तते इति लोकसिद्धम् । तत्र यो-ऽयं कर्तव्यमिति विनिश्वयश्चितिसन्निधाना-Sऽपन्नचैतन्याया बुद्धः सोऽध्यवसाय:-त्रुडेरसाधारणो व्यापारः।" इति । ___अचेतना-ऽपि बुद्धिश्चिच्छक्तिन्निधानाच्चैतन्दवतीव प्रतिभासते । यदुक्तं साङ्खयकारिकायामीश्वरकृष्णः-"तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनाव दिव लिङ्गम् ।” इति । अनुमानप्रमाणमप्यस्ति-अचेतना ज्ञानादयः, उत्पत्तिमच्चादिति । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] खवगसेढी [गाथा-२६७ यदा तु “दुःखहेतुरियं प्रकृतिः, ना-ऽनया सह संसर्गो युक्तः" इति विवेकख्यातिर्भवति, तदा प्रकृतिर्निवर्तते,कृतकार्यत्वात् । यथा पारिषद्यान् नृत्यं दर्शयित्वा नृत्याद् नर्तकी निवर्तते । यदुक्तं साङ्घयकारिकायाम्-"रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथा-त्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥१॥" इति । निवृत्तायां च प्रकृतौ च पुरुषस्य स्वरूपेणा-ऽवस्थानं मोक्ष इति । स्वरूपं च चेतनाशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा प्रतिदर्शितविषयाऽनन्ता च, अतस्तदात्मक एव मुक्तात्मा. न पुनरानन्दादिस्वभावः, तस्य प्रकृतिकार्यत्वात , तस्याश्च निवृत्तत्वात् । ननु पुरुषो निगुणोऽपरिणामी,कथं तस्य मोक्षः, मुचेबन्धनविश्लेषार्थत्वात् , सवासनक्लेशकर्माशयानां च बन्धनसमाम्नातानां पुरुषेऽपरिणामिन्यसम्भवात् ? अत एव न तस्य प्रेत्यभावा-ऽपरनामा संसारोऽप्यस्ति, निष्क्रियत्वादिति चेत् , न, यतः प्रकृतिरेव नानाश्रया सनी वध्यते संसरति मुच्यते चेति, पुरुषे तु बन्ध-मोक्ष संभारा उपचर्यन्ते । यथा जयपराजयौ भृत्यगतावपि स्वामिन्युपचयेते, जयपराजया-ऽऽश्रयेण भृत्यानां तद्भागित्वात् जय-पराजयफलस्य च शोकलाभादेः म्वामिनि सम्बन्धात् , तथा भोगापधर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात् पुरुषे सम्बन्ध इति । ___ अत्र प्रतिविधीयते-या खलु प्रकृत्यादिप्रक्रिया दर्शिता,सा-ऽनुपपन्नैव । अनुपपात्तस्त्वग्रे दर्शविप्यते । 'यञ्चोक्तम्- “प्रकृति-पुरुषयोः संयोगस्त्वन्धपगुवत् ।" इति, तदयुक्तम् , यतस्तयोः संयोगः केन कृतः, किं प्रकृत्या ? आहोस्विद् आत्मना ? न तावत् प्रकृत्या, तस्याः सर्वगतत्वेन मुक्तात्मनो-ऽपि तत्संयोगप्रसङ्गात् । अथा-ऽऽत्मना, तर्हि स शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा किमर्थं प्रकृतिमादत्ते ? अथा-ऽस्तु वा केनचित् कृतः संयोगः, किन्त्वसौ संयोगः किं सहेतुको निर्हेतुको वा ? यदि निर्हेतुकः, तदा मुक्तात्मनोऽपि तथाविधसंयोगो बलादापद्यते । अथ सहेतुकश्चेत् ,तर्हि तादृशसंयोगहेतुः किं प्रकृतिरस्ति ? उता-ऽऽत्मा? सांख्येरन्यस्य कस्यचिदप्यनभ्युपगमात् । आद्यपक्षे, सा प्रकृतिर्यथा संसात्मनः प्रकृतिसंयोगे हेतुः, तथा मुक्तात्मनो-ऽपि स्यात् , कूटस्थनित्यशुद्धचैतन्यस्वरूपत्वेनोभयोरप्यविशेषात् , नियामका-ऽभावाच्च । ___ अथ द्वितीयपक्षश्चेत् , तर्हि स आत्मा प्रकृत्यात्मनोः संयोगे हेतुत्वं प्रतिपद्यमानः किं स्वयं प्रकृतिसंयुक्तः सन् हेतुर्भवति ? उत तद्वियुक्तः ? आये तस्या-ऽपि प्रकृतिसंयोगः कथम् ? इत्यनवस्था । द्वितीये पुनः स प्रकृतिरहित आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरूपः सन् किमर्थं प्रकृत्यात्मनोः संयोगे हेतुत्वं प्रतिपद्यत इति वक्तव्यम् , यदि निष्प्रयोजनम् , तर्हि मुक्तात्मनोऽपि प्रकृतिसंयोगप्रसङ्गः । यदि सप्रयोजनम् , ताल्लेखनीयं 'किं तत् प्रयोजनम्' इति । ननु पुरुषस्य दिदृक्षासद्भावात् प्रयोजनरूपेण दर्शनमिति चेत् , न, मुक्तानामपि दिदृक्षास्वीकारप्रसङ्गेन दर्शनापत्या तेषामपि प्रकृतिसंयोगप्रसक्तः। (१) पृ० ५४९ पं० १९ । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्षायाः खण्डनम् ] मोक्षस्वरूप विचारः [ ५५१ . न चानायबद्धस्यैव पुरुषस्य दिदृक्षा भवति,बद्धमुक्तस्य तु बद्धावस्थायादर्शनसंपादनेन दिदृक्षायास्तृप्तत्वात् सा न मुक्तावस्थायां भवतीति न मुक्ता दिदृक्षास्वीकारप्रसङ्गः, अंतो नोक्तापत्तिरिति वाव्यम् , यतोऽनायबद्धस्या-ऽपि पुरुषस्येन्द्रियादिरहितत्वेन न तस्य दिदृक्षा संभवति । अपि च नाऽदृष्टे वस्तुनि दिदृक्षा संभवति, इह तु भवता-ऽदृष्टायां प्रकृतौ दिदृक्षाऽभ्युपगम्यते, तच्चायुक्तम् । ननु 'द्रष्टुमिच्छा' दिदृक्षेति कृत्वा सहजैवेह दिदृक्षा, सा चेन्द्रियादिविरहे प्राग्दर्शनविरहे चाऽपि न विरुध्यत इति चेत् , मैवम् , यतो दिदृक्षायाः सहजत्वा-ऽभ्युपगमे आत्मनस्तन्निवृत्तिर्न स्यात् ,आत्मनः स्वाभाविकगुणत्वेन तस्य स्वीकार्यत्वात् । नहि आत्मनः कश्चित् स्वाभाविकगुणो विनिवर्तते । अस्तु वा तन्निवृत्तिः, किन्तु तन्निवृत्त्यभ्युपगमे आत्मनो-ऽपि निवृत्तिप्रसङ्गः, अभिन्नत्वात् । ननु दिदृक्षानिवृत्तौ सत्यामप्यात्मनो न निवृत्तिः, भव्यत्ववदिति चेत् , मैवम् , दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यात् । तथाहि-भव्यत्वं न केवलजीवरूपम् , किन्तु कर्मवद्धजीवरूपम् । दिदृक्षा तु केवलजीपरूपा, अनादिकालतः पुरुषस्य महदादीनां सम्बन्धाभावे-ऽपि दिदृक्षास्वीकारात् । इत्थं दृष्टान्तदाान्तिकयोवैषम्याद् न युज्यते वक्तुम् भव्यत्ववदि' ति । अपि च महदायभावे-ऽबद्धस्य यथा दिदृक्षा स्वीक्रियते, तथा बद्धमुक्तस्याऽपि स्वीकर्तव्या, उभयत्रापि महदायभावस्याविशेषात् । - नन्वेस्वभावैव दिदृक्षा, या महदादिविकारदर्शनावं कैवल्यावस्थायां निवर्तत इति चेत्, न, यतः कैवल्यावस्थातः पूर्व दिदृक्षायाः सद्भावः, पश्चाबाऽभावः इत्यत्र किं प्रमाणम् ? किश्च महादादिनिवृत्तौ सत्यां कैवल्यावस्थायां दिदृक्षाया निवृत्तेरभ्युपगमात् सा प्रकृतिस्वरूपा प्रकृतितुल्या वा स्यात् , पुरुषस्वरूपाऽभ्युपगमे दिदृक्षानिवृत्या पुरुषस्य कूटस्थनित्यत्वव्यापातप्रसङ्गात । एवञ्च प्रकृतिवद् दिदृक्षा पुरुषतो व्यतिरिक्ता सिध्येत् , ततश्च पुरुषस्य दिदृक्षेति वस्तुं न युज्येत । किश्च दिदृक्षा प्रकृतिस्वरूपाऽपि न सम्भवति, अबद्धस्य प्रकृतिविरहदशायाममि तदभ्युपगमात् । ना-ऽपि प्रकृतितुल्या काचिदतिरिक्ता, प्रकृति-पुरुषाभ्यामन्यस्य सायरनभ्युपगमात् । तस्मादसत्कल्पा दिदृक्षेति पर्यवस्यति । अथा-ऽस्तु कल्पिता दिदृक्षति चेत् ,न, यतः कल्पितायां कथं प्रमाणप्रवृत्तिः १ तदेवं दिहक्षाया अनुपपन्नत्वेन तत्प्रयोज्यस्य दर्शनस्याऽप्यनुपपचेर्न युज्यते पुरुषस्य प्रकृतिसंयोगे हेतुता । किश्चायमात्मा प्रकृतिमुपाददानः पूर्वावस्थां किं जह्यानवा ? आद्यपक्षे आत्मनोऽनित्यत्वापत्तिः। द्वितीये तु तदुपादानमेव दुर्घटम् , नहि बाल्यावस्थामपरित्यजन् देवदत्तस्तरुणत्वं प्रतिपद्यते । तन्न साङ्खयमते प्रकृतिसंयोगो घटते ।। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१]. स्ववगसेढी [ गाथा-२६७ अपि च-धपङ्गुवदिति यो दृष्टान्तः प्रोक्तः सोऽपि प्रकृतेऽसङ्गत एव दृष्टान्तदार्शन्तिकयोर्वैषम्यात् । तथाहि - अन्धपवोश्चेतनत्वाद् 'इदमित्थमेवा ऽस्मदिष्टं कार्यं सेत्स्यतीत्यवधार्या-ऽन्योऽन्यापेक्षयोः तयोः प्रवृत्तिर्युक्ता, न तु प्रकृति-पुरुषयोः, प्रकृतेरचेतनत्वात् । एतेन प्रकृत्युपधानविलये स्वरूपेणा - ऽऽत्मनो ऽवस्थानं मोक्ष इत्यपि निरस्तम्, यतः संयोगस्यानुपपन्नत्वाद् वियोगो दुर्घटः, संयोगपूर्वकत्वाद्वियोगस्य । 'यच्चोक्तं "पुरुषस्य च चैतन्यशक्तिर्विषय परिच्छेदशून्या इति, तदप्य विचारिताभिधानम्, यतश्चिच्छक्तिर्विषयपरिच्छेदशून्या चेति परस्परविरुद्धं वचः । 'चितै संज्ञाने' चेतनम् चित्यते वाऽनयेति भावे करणे वा क्विप्प्रत्ययः । यदि सा स्वपरपरिच्छेदात्मिका नाऽभ्युपगम्यते, तदा सा चिच्छक्तिरेव न स्यात्, घटवत् । न चा-मूर्तायाश्चिच्छक्ते बुद्धौ प्रतिबिम्बोदयद्वारा विषयपरिच्छेदारोपो भवतीति वाच्यम्, प्रतिबिम्बस्य मूर्तधर्मत्वेनाऽमूर्तचिच्छक्तेराकाशवत् प्रतिबिम्वानुपपत्तेः । अपि च कर्तृत्व-भोक्तृत्वादिधर्मविरहेण पुरुषस्य सुखदुःखभोगाश्रयत्वव्यवहारो नोपपद्येत । न वाऽऽरोपिततद्द्भोगसम्बन्धेन तथाव्यवहारोपपत्तिः स्यादिति वाच्यम्, आरोपितसम्बन्धार्थमपि तथाभोगानारोपापेक्षया तथाभोगारोपस्य वैलक्षण्यप्रयोजकत्वेन पुरुषस्य नूतनस्वरूपापन्नत्वस्यावश्यकत्वात्, अप्रच्युतप्राचीनरूपस्य च सतः पुरुषस्याऽऽरोपितस्यापि सुखदुःखादिभोगस्य व्यपदेशा नईत्वात् । तत्प्रच्यवने तु प्रावतनरूपत्यागेनोत्तररूपाध्यासितत्वेन परिणामान्तरापच्या कूटस्थनित्यत्वहानिः । न च यथा स्फटिकादीनां तथापरिणाममन्तरेणाऽपि जपाकुसुमादीनामुपधानेन स्फटिकाकादौ रक्तिमाद्यारोपो भवत्येव, तथैव पुरुषस्य परिणाममन्तरेणाऽपि सुखादिभोगशालिप्रकृत्युपधानेन भोगारोपो भविष्यतीति वाच्यम्, स्फटिकादावपि तथापरिणामेनैव रक्तिमारोपसमर्थनात्, अन्यथा कथमन्धोपलादौ नारोपः ? तथापरिणामा ऽभ्युपगमे च बलादायातं चिच्छक्ते रारोपितकर्तृत्वादिधर्मविशिष्टपरिणामिनित्यत्वम् । 'यच्च “अचेतना-ऽपि” इत्यादि प्रोक्तम्, तदप्ययुक्तम्, न हि चैतन्यवति पुरुषे प्रतिसङ्क्रान्ते दर्पणस्य चैतन्या-ऽवाप्तिः, चैतन्या ऽचैतन्ययोरपरावर्तिस्वभावत्वेन शक्रेणाऽप्यन्यथा कर्तु - मशक्यत्वात् । किञ्च शरीरादेरप्येवं चेतनत्वप्रतीतिप्रसङ्गः, चेतनत्वसंसर्गस्याऽविशेषात् । न च शरीराद्यसम्भवी बुद्ध्यादेरात्मना संसर्गविशेषो ऽस्तीति वाच्यम्, यतः कथञ्चित्तादात्म्यं विना को ऽन्यः संसर्गविशेषः ? आत्माऽह ष्टकृतकत्वादिविशेषस्य च शरीरादावपि भावात् । अपि च " अचेतना ऽपि चैतन्यवतीव प्रतिभासते" इत्यत्रेव शब्देनाऽऽरोपो ध्वन्यते । न चाऽऽरोप उपपद्यते, तस्य बाधज्ञान (१) प्र० ५४९ पं० २० । (२) पृ० ५४९ पं० २९ । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साङ्खचाभिमतमोक्षस्वरूपखण्डनम् ] मोक्षस्वरूपविचारः [ ५५३ निवर्त्यत्वात् । तथाहि -साङ्ख्यमते विवेकख्यातिदशायां बाधज्ञानस्य सच्चेनारोपनिवृत्तिः स्यात्, तथा च सति तत्र प्रारब्धकर्माधीनसुखदुःखभोगे चैतन्यसंवदेनानुपपत्तिः स्यात् । 'यच्च "अचेतना ज्ञानादय उत्पत्तिमत्त्वादित्यनुमानप्रमाणमुपन्यस्तम्, तदप्यसुन्दरम्, यतो हेतोरनुभवेन सह व्यभिचारः, तस्य चेतनत्वेऽप्युत्पत्तिमत्त्वात् । न चाऽनुभवः कथमुत्पत्तिमान् ? इति वाच्यम्, परापेक्षत्वाद् युद्धादिवत् । न च परापेक्षत्वमसिद्धमिति वाच्यम् "बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते। " इति वचनोपलम्भात् । बुद्धयध्यवसितार्थानपेक्षत्वे त्वनुभवस्य सर्वत्र सर्वदा पुसो-नुभवप्रसङ्गेन सर्वस्य सर्वदर्शित्वापत्तेस्तदुपाया - ऽनुष्ठानवैयर्थ्यप्रसङ्गः । यदि पुनरनुभवसामान्यं नित्यमनुत्पत्तिमदेवेति मतम्, तदा ज्ञानादिसामान्यमपि नित्यत्वादनुत्पत्तिमद् भवेत् ततश्चाऽसिद्ध उत्पत्तिमन्वादिति हेतुः । , अथ ज्ञानादिविशेषाणामुत्पत्तिमच्चात् प्रोक्तहेतुर्ना -ऽसिद्ध इति चेत्, न, यतस्तुल्यन्यायेनाऽनुभवविशेषाणामप्युत्पत्तिमत्त्वं सिद्धयति, ततश्चोत्पत्तिमत्वहेतुरनैकान्तिकः कथं न स्यात् ? स्यादेवे - त्यर्थः । न चाऽनुभवस्य विशेषा न सन्तीति वाच्यम्, वस्तुत्वविरोधात् । तद्यथा-नाऽनुभवो वस्तु, विशेषकूटर हितत्वात् खरविषाणवत् । न चोक्तहेतुरात्मना व्यभिचारी, तस्याऽपि सामान्यविशेषात्मकत्वात् । 9 अपि चोत्पत्तिमचहेतुः कालात्ययापदिष्टः, ज्ञानादीनां स्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वेन चेतनत्वप्रसिद्धेः प्रत्यक्षवाधितपक्षा-ऽनन्तरं प्रयुक्तत्वात् । तदेवं नाऽचेतना ज्ञानादयः, स्वसंविदितत्वाद्, अनुभववत् । ततश्च चिच्छक्तेरेव विषयाध्यवसायो घटते, न तु तद्व्यतिरिक्ताया जडरूपाया अन्यस्याः कस्याश्चित् । अत एव धर्माद्यष्टरूपताऽपि बुद्धेरित्यप्यभिधानमात्रमेव, धर्मादीनामात्मधर्मत्वात् । यच “ एवंविधा च प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमतां निमित्त" मित्यादि प्रोक्तम्, तदुक्तवता भवता संज्ञान्तरेण कर्मैव प्रतिपन्नम्, तस्यैवैवंविधत्वादचेतनत्वाच्च । 'यच्च "बुद्ध: कार्योऽहङ्कारः" इत्यादि प्रोक्तम्, तदप्यसङ्गतम्, अहङ्कारस्याऽभिमानात्मकत्वेनाऽऽत्मधर्मस्या-ऽचेतनत उत्पादाऽयोगात् । यच्च "वाक्-पाणि-पाद- पायूपस्थाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि' इत्यभिहितम्, तदप्यपेशलम्, इतरा-ऽसाध्य कार्यकारित्वविरहात् । तद्यथा - परप्रतिपादना - ऽऽदान- विहरण - मलोत्सर्गादयोऽन्यैरपिशरीरावयवैरङ्गुल्यादिभिः साधयितुं शक्यन्ते, ततश्च न केवलं वागादिभिः साध्यन्ते । तेन वागादीनामिन्द्रियत्वव्यपदेशो नोचितः । यदीतरा - ऽसाध्य कार्यकारित्वविरहेऽपि वागादीनामिन्द्रियत्वं परि 1 (१) पृ० ५४९ पं० ३१ (२) पृ० ५४८ पं० २४ । (३) पृ० ५४९ पं० २ । (४) पृ० ५४९ पं० ८ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] खवासेढी [गाथा-२६० कल्प्यते, तीन्या-ऽङ्गोपाङ्गादीनामिन्द्रियत्वव्यपदेशः केन वार्यते ? अन्याऽङ्गोपाङ्गादीनामिन्द्रियत्वस्वीकारे त्विन्द्रियसंख्या प्रतिनियता न स्यात् । 'यच्च व्योमादीनां शब्दादितन्मात्रजत्वं प्रतिपादितम् , तदपि न सङ्गतम् ,प्रतीतिविरोधात । किश्च भवता शब्दादितन्मात्रं व्योमादिकार्यस्य परिणामिकारणं स्वीक्रियते, आकाशस्य च गुणोऽपि शब्द एवोररी क्रियते । तच्चाऽयुक्तम् , नहि परिणामिकारणं स्वकार्यस्य गुणो भवितुमर्हति, ततः “शब्दगुणमाकाश"मिति वाङ्मात्रमेव । यत्तु“यदा तु दुःखहेतुरियं प्रकृतिः,नाऽनया सह संसर्गो युक्तः इति विवेकख्यातिर्भवति,तदाप्रकृतिनिवर्तते" इत्याद्यक्तम् ,तदप्ययुक्तिकाऽभिधनाम् , तत्र हि केयं विवेकख्याति म ? प्रकृति-पुरुषयोः स्वेन स्वेन रूपेणाऽवस्थितयो देन प्रतिभासनमिति चेत् , सा कस्य, प्रकृतेः पुरुषस्य वा ? ततोऽन्यस्य सांख्यैरनभ्युपगमात् । न तावत् प्रकृतेः, विवेकख्यातेः 'प्रकृतेरहं पृथक्' इत्याकारकत्वेनैतादृशविवेकख्यातेः प्रकृतेरसंभवात् । नाप्यात्मनः, तस्य संवेदनधर्मरहितत्वात् । न च प्रकृतौ जायमानाऽपि सा पुरुष समारोप्यत इति वाच्यम् , प्रकृतस्तदसंभवस्योक्तत्वात् । अस्तु वा यस्य कस्यचिद् विवेकख्यातिः, किन्तु प्रकृतिर्यथा विवेकख्यातिजन्मतः प्राक कृतेऽपि शब्दाधुपलम्भे पुनस्तदर्थ प्रवर्तते,तथा विवेकख्यातौ जातायामपि पुनस्तदर्थं प्रवर्त्यति, प्रवृत्तिलक्षणस्य स्वभावस्याऽनपेतत्वात् । ___'यस्तु “यथा पारिषद्यान् नृत्यं दर्शयित्वा नृत्याद् नर्तकी निवर्तते"इति दृष्टान्त उपन्यतः,सोऽपि भवदिष्टविघातकारी, नर्तकी खलु यथा नृत्यं पारिषयेभ्यो दर्शयित्वा निवृत्ताऽपि तत्कुतूहलात् पुनः प्रवर्तते,तथा प्रकृतिरपि पुरुषायात्मानं दर्शयित्वा निवृत्ताऽपि पुनः कुतो न प्रवर्तेत ? अथ वदेत्-प्रकृतिः कुलवधूवद् लजाशीलाऽस्ति । तथाहि-असूर्यम्पश्या हि कुलवधूस्त्रपा-ऽऽक्रान्ता प्रमादाद् विगलितशिरोश्चला चेदालोक्यते परपुरुषेण, तदाऽसो तथा प्रयतते, यथा प्रमत्तामेनां पुरुषान्तराणि न पुनः पश्यन्ति । एवं प्रकृतिरपि कुलवधूतोऽप्यधिका विवेकेन न पुनद्रक्ष्यत इति, तदयुक्तम् , स्वभावत्यागस्याऽसम्भवात् । एतदुक्तं भवति-दृष्टाऽपि प्रकृतिः संसारदशावद् मोक्षेऽप्यात्मनो भोगाय स्वभावतो वायुवत् प्रवर्तत , प्रवृत्चात्मकस्वभावस्य नित्यत्वेन तदा-ऽपि सत्त्वात् । न खलु प्रवृत्तिस्वभावो वायुरन्येन दृष्टः सँस्तं प्रति निजस्वभावादुपरमति । ततश्च कुतो मोक्षः स्यात् १ तदा तत्स्वभावस्याऽसचे तु प्रकृतेर्नित्यकरूपताहानिः, पूर्वस्वभावत्यागेनोत्तरस्वभावोपादानस्य नित्यैकरूपतायां विरोधात् । ननु प्रकृतेः परिणामिनित्यत्वा-ऽभ्युपगमे न विरोध इति चेत् , उच्यते-प्रकृतेः परिणामिनित्यत्वं यथाऽभ्युपगम्यते, तथा-ऽऽत्मनो-ऽपि परिणामिनित्यत्वं स्वीक्रियताम् , तस्याऽपि प्राक्तनसुखाद्युपभोक्तृत्वस्वभावपरित्यागेन मोक्षे तदभोक्तृत्व(१) पृ० ५४९ पं० ९ (२) पृ० ५५० पं० २ । (३) पृ० ५५० ५० ३ । Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिप्रतिपत्तौ मतद्वयम् ] खवगसेढी [५५५ स्वभावा-ऽभ्युपगमात् , अमुक्तत्वादिस्वभावपरिहारेण मुक्तत्वादिस्वभावोपादानाच । सिद्धे चात्मनः परिणामिनित्यत्वे सुखज्ञानादिपरिणामः परिणामित्वं तस्याऽभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा मोक्षाभावः । ततश्च साङ्ख्यपरिकल्पितो मोक्षो न घटां श्चति । किन्तु यथोक्तोऽनन्तसुखज्ञानादिस्वरूपः । यच्च 'प्रकृतिरेव नानाश्रय सती बध्यते संसरति मुच्यते चे" त्यादि प्रोक्तम् , तदप्यपेशलम् , यतो-ऽनादिभवपरम्परानुबद्धया प्रकृत्या सह पुरुषस्य यो विवेकाग्रहलक्षणोऽविष्वग्भावः, स एव बन्धपदार्थः, न तदन्यः कश्चित् । तस्मात् पुरुषस्य बन्धः । अथ च यस्य बन्धः, तस्यैव मोक्षः, बन्ध-मोक्षयोरैकाधिकरण्टाद । तस्मात् पुरुषस्यैव मोक्षः ।।२६७।। (इति साढयस्वीकृतमोक्षस्वरूपप्रतिविधानम् ) तदेवं प्रतिपादिताः सिद्धानामष्टौ गुणा अनन्तज्ञानादयः। सम्प्रति श्रेणिप्रतिपत्ती मतद्वयं दिदर्शयिपुराह एगभवे दो सेढी खलु कम्मग्गंथियाहिपायेणं । आगमअहिपायेणं पुण सेढी हवइ अण्णयरा ॥२६८॥ एकावे द्वे श्रेणी खलु कार्म:न्थिकाभिप्रायेण । .. आगमाभिप्रायेण पुनः श्रेणिर्भवत्यन्यतरा ।।२६८॥ इति पदसंस्कारः। 'एगभवे' इत्यादि, 'एकभवे' एकस्मिन् भवे कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण खलु द्वे श्रेणी' उपशमश्रणिः क्षपकश्रेणिश्च भवतः। आगमाभिप्रायेण पुनरेकस्मिन् भवे 'अन्यतरा' उपशमश्रेणिक्षपकश्रेण्योरेकतरा श्रेणिभवति । अयं भावः-एकस्मिन् भव उत्कृष्टतो द्विरुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते जीव इति तूमयसम्मतम् । किन्तु काम पन्धिका आहुः-यस्मिन् भवे द्वौ वारा उपशमश्रेणिं यो जीवः प्रतिपद्यते, स एव तस्मिन् भवे हतीयवारमुपशमश्रेणि क्षपकश्रेणिं वा न प्रतिपद्यते । यस्त्वेकवारमुपशमश्रेणिं समारोहति, तस्य भवेद से क्षपकणिस्तस्मिन् भव इति । यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णी-“उक्कोसेणं एगभवे दो वागओ उवसमसेटिं पतिवज्जति, जो दुवे वारे उवसमसेहिं पउिवज्जइ, तस्स णियमा तम्मि भवे खवगसेढी नत्थि । जो एकस्सि उवसमसेटिं पतिवज्जइ, तस्स स्व.गसेढो होजा वा ।" इति । सैद्धान्तिकास्त्वाहुःयस्मिन् भवे सकृदप्युपशमश्रेणिं यो जीवः प्रतिपद्यतेतस्मिन् भवे स क्षपकश्रेणिं न प्रतिपद्यत इति । यदुक्तं बृहत्कल्पभाष्ये "एवं अप्परिवटि सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं भवेणं च सव्वाइं ॥१॥” इति । तथैवाऽन्यत्राऽप्युक्तम् "मोहोपशम एकस्मिन् भवे दिः स्यादसन्ततम् । यस्मिन् भवे तपशमः क्षयो मोहस्य तत्र न ॥१॥” इति ॥२६८॥ (१) पृ०५५० पृ०११ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] खवगसेढी [ गाथा २६९ ___ सम्प्रति शिष्यप्रशिष्यादिवंशे शास्त्रार्थस्याऽव्यवच्छेदायाऽन्तिममङ्गलं कुर्वन् स्वस्य चोपकारिणो गुरून् स्तुवन्नाह कम्ममलविमुको सिरिवीरो जयइ सिरिपेमसूरीसो। जयए तह तस्सिस्सो पण्णासो भाणुविजयक्खो ॥२६९॥ कर्ममलविमुक्तः श्रीवीरो जयति श्रीप्रेमसूरीशः। जयति तथा तच्छिष्यः पन्न्यासो भानुविजयाख्यः ॥२६९॥ इति पदसंस्कारः । 'कम्म'० इत्यादि कर्ममलविमुक्तः' कर्म-ज्ञानावरणादिकम् , तदेव मलं कर्ममलम् , तेन विमुक्तः विरहितः, क्षपकणिसरति शुक्लध्यानसलिलेन प्रक्षालित फर्ममल इत्यर्थः, 'श्रीवीरः' तत्र "राज दीप्तौ" विराजते शोभते धनघातिकर्मसंघातविदारणाऽनन्तरप्राप्तातुलकेवल श्रिया प्रकाशते वाऽनन्यमहातपस्तेजसेति वीरः, विपूर्वकराजधातोरोणादिकडप्रत्ययो दीर्घत्वं च बाहुलकात् । यद्वा "ईरिक गति-कम्पनयोः” वि=विशेषेण अपुनर्भावेन ईर्ते याति शिवं कम्पयत्यास्फोटयत्यपनयति कर्म वेति वीरः "लिहादिभ्यः” (सिद्धहेम० ५-१-५०) इत्यनेन सूत्रेण कर्तर्यचप्रत्ययः। यद्वा "ईरण क्षेपे" वि-कियत्क्षपितकर्मसाध्वपेक्षया विशेषत ईरयति क्षिपति तिरस्करोत्यशेषाणि कर्माणीति वीरः, कर्तर्यचप्रत्ययः । यद्वा विदारयति कर्मारिसंघातमिति वीरः, पृषोदरादित्वाद् इष्टरूपनिष्पत्तिः, अथवाऽन्तरङ्गमोहमहीपतिमहाबलनिर्दलनार्थमनन्तं तपोवीर्य व्यापारयतीति वीरः । यदुक्तम् विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्ययुतस्तस्मादोर इति स्मृतः ॥१॥ इति । यद्वा "शूरचारभटो वीरो विक्रान्तश्चाथ ।"(श्लोकाङ्कः ३६५) इत्यभिधानचिन्तामणिकोशवचनात् वीरयति स्म कषायोपसर्गपरिपहादिशत्रुवर्गमभिभवति स्मेति वीरः,पूर्ववत् कर्तर्यचप्रत्ययः,यद्वा वीरयति स्म रागादिशत्रन् प्रति पराक्रमयति स्मेति वीरः,अच्प्रत्ययः पूर्ववत् । अथवा ईरणम् ईरः, "भावाऽकोंः ” (सिद्धहेम० ५-३-१८) इत्यनेन भावे घञ्प्रत्ययः, ज्ञानमित्यर्थः, “सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः" इति वचनात् । ततो वि-विशिष्ट ईरो ज्ञानं यस्य, स वीरः, आभिरुक्ताभिव्युत्पत्तिभिर्भगवतश्वरमजिनेश्वरस्य स्वार्थसम्पदं बोधितवान् । यद्वा ण्यन्तईरधातुः,वि-विशेषेण ईरयति-मोक्षं प्रति भव्यप्राणिनो गमयतीति वीरः, कर्तर्यचप्रत्ययः पूर्ववद् । यदिवा वि= विशिष्टा निखिलभुवनजनमनश्चमत्कारिणी ई: लक्ष्मीः तां राति भव्येभ्यः प्रयच्छतीति वीरः, "रांक दाने"इति धातोः"आतो डोऽहावामः” (सिद्धहेम० ५.१-७६) इत्यनेन सूत्रण कतरि डप्रत्ययः। आभ्यां द्वाभ्यां व्युत्पत्तिभ्यां भगवतः परार्थसम्पत्तिं ज्ञापितवान् । श्रिया समस्तजगजन्तुजातचेतश्चमत्कारिपरमार्हन्त्यमहामाहात्म्यविस्तार्यशोकवृक्षायष्टमहाप्रातिहार्यशोभया चतुस्त्रिंश Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थस्य पदार्थसंग्रहकाराः ] खवगसेढी [ ५५७ दतिशयशोभया वा लोकालोकाकल्पितभावकलापकलनैककुशलविमलकेवलज्ञानलक्ष्म्या वा युक्तो वीरः श्रीवीरः,जयति इन्द्रिय-विषय-कषाय-परिषहोपसर्ग-घातिकर्मादिशत्रुगणपरिजयात् सर्वानप्यतिशेते । __अथ स्वस्योपकारिणो गुरुवर्यान् स्तौति-'सिरि०' इत्यादि, 'श्रीप्रेमसूरीशः' श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरो 'जयति' इन्द्रियविषयादिरिपुपरिजयाद् अतिशेते । अयं भावः-चरमतीर्थपतेः श्रीवर्धमानस्वामिनः पट्टधरो गणभृत् श्रीसधर्मस्वामी जातः, तदनु पट्टधराः श्रीमज्जम्बूस्वामिप्रभवस्वामिप्रभृतयो जाताः । ततः क्रमेण श्रीवीरान त्रयःसप्ततितमः (७३ ) पट्टधरो न्यायाम्भोनिधिः प्रतिक्षिप्तलुम्पाकमतो विशुद्धचारित्रो विजयानन्दसूरीश्वरोऽभूत् । तत्पट्टधरो निःस्पृहशिरोमणि-सच्चारित्रचूडामणि-श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर आसीत् , तत्पट्टधरः पाठकवर्यश्रीमद्वीरविजयविनेयरत्न-परमगीतार्थऽशेषशेमुवीशालिकुलविद्वस्थमान-सकलागमरहस्यवेदि-भीमकान्तादिगुणगरिष्ठश्रीमद्विजयदानसूरीश्वरोऽभूत् । तत्पट्टवरः सिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्रनिष्णात-कर्मसिडि-संक्रमकरण--मार्गणाद्वारादिग्रन्थरचयितृ-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरो विषयकपायेन्द्रियादिशत्रुगणपरिजयाद् अतिशेते । युक्ता हि तेषां स्तवना, प्रव्रज्याप्रदानसम्यग्ज्ञानदानादितस्तेषानासन्नोपकारित्वात् । ___अथ स्वप्रगुरुं स्तोति 'तह'इत्यादि-'तथा'तथाशब्दः समुच्चये, 'तच्छिष्यः तस्य अनन्तरोक्तश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरस्य 'शिष्यः' अन्तेवासी पन्न्यासो "भानुविजयाख्यः" तपस्तेजसा निर्जितभानुधामा भानुविजयनामा स्यावादनयप्रमाणविशारद-प्रवचनप्रभावक-तपोरत्न-पञ्चसूत्र-ललितविस्तराधनेकग्रन्थविवेचको 'जपति' आचाम्लवर्धमानतपआदिविप्रकृष्टतपश्चरणेन तर्कशास्त्राध्ययनाध्यापनादिना च नक्तंदिवं विषयेन्द्रियादिरिपुनिकरपरिजयाद् अतिशेते ॥२६९।। सम्प्रति क्षपकश्रेणिग्रन्थपदार्थसंग्रहकारान् प्राहइह खवणपयत्था संगहिया तस्सिस्ससुप्पसिस्सेहि । जयघोस-सुधम्माणंद-हेमचंद-गुणरयणेहि ॥२७०॥ इह क्षपणपदार्थाः सङ्गृहीतास्तच्छिष्य-सुप्रशिष्यैः ।। जयघोष सुधर्मानन्द-हेमचन्द्र-गुणरत्नैः ॥२७०।। इति पदसंस्कारः । 'इह' इत्यादि,इह 'क्षपणपदार्थाः' प्रस्तुतत्वात् कर्मक्षपणापदार्थाः 'संगृहीताः' कर्मप्रकृतिसप्ततिका-कषायप्राभृतादि-तच्चूर्णि-तवृत्ति-तटिप्पनकादिभ्यः समाहृताः, कैः ? इत्याह'तस्सिस्स.' इत्यादि, 'तच्छिष्य-सुप्रशिष्यैः' तस्य पन्यासश्रीमद्भानुविजयस्य, शिष्यश्च सुप्रशिष्याश्च शिष्यसुप्रशिष्याः, तैः, 'जयघोष-सुधर्मानन्द हेमचन्द्र-गुणरत्नैः' तत्पुरुषगर्भद्वन्द्वसमा. सत्वात् पदैकदेशेन च पदसमुदायस्य गम्यमानत्वाद् मुनिश्रीजयघोषविजयेन शोभनेन मुनिश्रीधर्मानन्दविजयेन मुनिश्रीहेमचन्द्रविजयेन मुनिगुणरत्नविजयेन च मल्लक्षणेन । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] खवगसेढी [ गाथा. २७१ अयम्भावः- स्याद्वादनयप्रमाणविशारदधर्म देशना दक्ष - पन्न्यास श्रीमद्भानु विजयगणिवराणां शिष्यः प्रशान्तमूर्त्तिः स्वाध्यायरसिको मुनिश्रीधर्मघोषविजयः, तस्य शिष्यो दाक्षियनिधिरजुस्वभाव आगमकर्मप्रकृत्यादिग्रन्थपटुवैयावृत्त्यादिना लब्धगच्छाधिपतिप्रसादो मुनिश्रीजयघोषविजयः । तथोक्तपन्न्यासवर्याणां शिष्यः कर्मप्रकृतिप्रभृतिद्रव्यानुयोगे गणितानुयोगे चाऽप्रतिमशेमुषीशाली शङ्कोत्थानतत्समाधानकुशलो मुनिश्रीधर्मानन्दविजयः । तथोक्तपन्न्यासवर्याणां प्रथम शिष्यः पन्न्यासपदालङ्कृतः सम्पादितगच्छप्रीतिः स्वाध्यायचरण करणेष्वनन्य प्रेरकः श्रीमत्पद्मविजयगण्यासीत्, तच्छिष्यो देशनादक्षो गणितानुयोगेऽपि प्रत्युत्पन्नमतिः शान्तस्वभावो मुनिश्री हेमचन्द्र विजयः । तथा स्याद्वादनयप्रमाणविशारदादि विशेषणविशिष्टोक्तपन्न्यासर्याणां शिष्य मदीयगुरुवर्यो भीमभवोदध्युद्धारको ज्येष्टसहोदरचरोऽष्टमतप आदि विप्रकृष्टतपश्चारी मुनिमतल्लजो जितेन्द्र विजयः, तच्छिष्यो गुणरत्न विजयो मल्लक्षणः । एतैश्चतुर्भिर्मुनिभिः सुविहितगच्छनायक श्रीमद्विजयप्रेमसुरोश्वरप्राध्यापितैः कर्मप्रकृति - सप्तनिका- कषायप्राभृतादिग्रन्थेभ्यः कर्मक्षपणापदार्थाः संगृहीताः, न तु कपोलकल्पिताः । एतेन ग्रन्थस्य सर्वज्ञमूलकत्वं दर्शितम् || २७० ॥ अथ पदार्थसंग्रहानन्तरं किम् ? इत्याह तत्तो य खवगसेढी जिएन्दसिस्सगुणरयणविजयेणं । रइया एत्थ बहुसुया किवाअ खलियं विसोहन्तु ॥ २७२ ॥ ततश्च क्षपकश्रेणिर्जितेन्द्र शिष्यगुणरत्न विजयेन । रचिता ऽत्र बहुश्रुताः कृपायाः स्खलितं विशोधयन्तु || २७१ || इति पदसंस्कारः । ' तत्तो' इत्यादि, 'ततः' कर्मक्षपणापदार्थसंग्रहणानन्तरं 'जितेन्द्र शिष्यगुणरत्नविजयेन' जितेन्द्रस्य = अनन्तरोक्तविशेषणविशिष्टस्य मुनिराजश्री जितेन्द्र विजयनाम्नः पूज्यगुगेः शिष्येण= अन्तेवासिना गच्छाधिपचरणयुगलमुपासमानेन गुणरत्नविजयेन मल्लक्षणेन ' क्षपकश्रेणिः ' प्रस्तुत ग्रन्थस्वरूपा रचिता । सम्प्रत्यात्मन औद्धत्यं परिहरन् बहुश्रुतेषु बहुमानं प्रकटयन् संशोधनविषये च प्रार्थनां विदधानः प्राह-'एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' क्षपकश्रेण्याख्यग्रन्थे 'बहुश्रुताः ' आगमविदः 'कृपाया:' अत्र 'गम्ययपः कर्माधारे' (सिद्धहेम ० २-१-४५ ) इत्यनेन सूत्रेण कर्मणि पञ्चमी विभक्तिः, ममोपरि कृपां विधायेत्यर्थः, 'स्खलितं' कृतप्रयत्नस्याऽपि छद्मस्थस्याऽऽवरणादिसामर्थ्यादनाभोगकृतं स्खलनं ‘परिशोधयन्तु' अपनयन्तु यत्र स्खलनं स्यात्, तत्रेदं पदं न सम्यक् इदं तु सम्यगित्यश्रुतानुसारिपदमपनीय श्रुतानुसारिपदं प्रक्षिपन्तु, न पुनस्तैरुपेक्षारूपोऽप्रसादः कर्तव्य इति भावः । ।। २७१ ।। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तिकृतः श्रीवीरजिनादीनां प्रशस्तिः ] खवगसेढी अथ प्रशस्तिः नौमि श्रीवीरनाथं गणधरसुनुतं पादयुग्मं यदीयं शक्रन्द्रादिधुनाथैः स्तुत इह भरते तीर्थनाथोऽन्तिमो यः । प्राप्ता भव्याश्च यस्यामृतसमवचसा बोधिरत्नं त्वनेके , प्रव्रज्यां यस्य पार्श्वे शिवसदनफलां चोररीकृत्य सिद्धाः॥१॥ (स्रग्धरा) आसीच्छी वीरविभोः पट्टे गणभृत् सुधर्मनामा सः । तचादर्शि विशालं यदृब्धं द्वादशाङ्गमद्भतम् ॥२॥ (गीतिः) . तत्पट्टधरा जैनप्रवचनलक्ष्म्या विलासिनो ददताम् । श्रीजम्बूस्वामि-प्रभवप्रभु-शय्यम्भवाद्याः शम् ॥३॥ (विपुलायर्या) यद्विद्याच्छवितो भगः किमुत खं भीत्याऽधिगम्याऽटति, । शुभ्रो यद्यशउच्चयः किमुत खे पर्येति चन्द्रच्छलात् । कारेहेतये व्यधुः किमुत ये कर्मप्रकृत्यायुधं दास्ते शिवशर्मसूरिगुरवः कर्मप्रणा बलम् ॥४॥ (शार्दूलविक्रीडितम् ) दृब्धः सप्तनिक.ग्रन्थो यैर्भङ्गातिपादकः । नित्यं मयि प्रसीदन्तु ते तद्ग्रन्थविधायिनः ॥२॥ (अनुष्टुप् ) संदर्भो निर्मितो यैर्गुणगणनिकरैः प्राभृतान्तः * कषायो यत्कीर्तिज्योतिषेदं त्रिभुवनभवनं शुभ्ररूपं चकास्ति । बह्वज्ञानेन मूढान् भुवनभविजनान् ये प्रकाशं च निन्युः, सत्सरीन्द्रान् स्तुवे तान् गुणधरविबुधान् कर्ममर्मापहत्यै ॥६।। (स्रग्धरा) संक्षिप्य शतकादीन् * यैर्निर्मितः पञ्चसंग्रहः । सर्वदा विजयन्तां ते, श्रीचन्द्रर्षिमहत्तराः ॥७॥ (अनुष्टुप्) श्रापारगतः प्रज्ञाशाली मगुप्रभुर्जयतु धीरः । श्रीनागहस्तिदेवो जयताच्छीकर्ममर्मविज्ञश्च ॥ ८॥ (गीतिः) दृब्धा चूर्णिर्जिनमतबुधैर्यैर्जनानां हिताय , श्रेणिश्रन्थे जडमतिरहं चूर्णिमाश्रित्य येषाम् । जातः शक्तो बलविरहितो यष्टियोगात् यथा स्यात् , कर्मज्ञांस्तान् शमदमयुतांश्चूर्णिकारान् स्तुवेऽहं ।। ९॥ (मन्दाक्रान्ता) * कषायप्राभृतप्रन्थः । ६ शतक-सप्ततिका-कषायप्राभृत-सत्कर्म-कर्मप्रकृतिप्रन्यान् । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] aarसेढी [ श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरीश्वरादीनां प्रशस्तिः कुशाग्रधीभिर्निरमाथि यैज्ञैः सुभव्यसन्दोहसरोजसूर्यैः । टिप्पनं श्रीशतकादिचूर्णेर्जयन्तु ते श्रीमुनिचन्द्रपादाः ॥ १० ॥ यैश्वारित्रेण तुल्यो न भवति ★कमनस्तस्य वै हंसगत्वाद् येषां क्षान्त्या तु साम्यं व्रजति च न विधुस्तस्य संग्रामकृच्चात् । यैः सच्छीलेन तुल्यो न भवति गिरिशो रागवच्चाद् भवान्यां सूरीन्द्रा भवेयुः सुमलयगिरयः सुप्रसन्नाः सदैव ॥ ११ ॥ विद्वन्मन्याः कुपक्षाः स्ववचनपटुतां दर्शयन्तो जगत्यां यै रेवन्त प्रतापैः कलितिमिरहरैश्चक्रिरे कौशिकौघाः । यैः प्राप्तं प्राज्ञवयैः खलु विजयपदं कोविदानां सभायां जीयासुस्ते यशोभाग्विजयपदयुताः पाठका वन्दनीयाः ॥ १२ ॥ वीराद्वह्नितुरङ्गमसम्मितपट्टे (७३) श्रुतोदधिधरः । न्यायाम्भोधिर्जीयाच्छ्रीविजयानन्दसूरीशः ।। १३ ।। तत्पट्टधरो जयतात् स श्रीमद्विजयकमलसूरोशः । मेरुरिव विबुधसेव्यो यो गम्भीरश्च जलधिरिव ॥ १४ ॥ तत्साम्राज्ये श्रीवीरविजयसंज्ञाः स्वशिष्यदानयुताः । पाठकवर्याः कामं रेजुः कुमते महर्यक्षाः || १५ ॥ ( उपेन्द्रवज्रा ) " सज्ज्ञानं दर्शनं सत् सुविमलचरणं चेति रत्नत्रयीयं प्राप्ता भन्यैर्यतोऽब्धेरिव किल भपतिः श्रीः सुधा चा-ऽऽदितेयैः । शुद्धं मार्ग क्रियाख्यं प्रकटयति तु गौर्यस्य हेलेरिव स्म, जीयात् सद्दानसूरिः स विजयकमलाचार्यसत्पट्टधारी ॥ १६ ॥ चारित्रांश्वन्विते यच्छशधर उदिते तस्य पट्टाद्रिशृङ्ग भव्य वाताब्धिवेला विपुलशमयुता प्राज्यमुल्लासमाप्ता । यः पूज्यः प्रीतिपात्रं रविरिव समभूत् साधुकोकव्रजानां विश्वे सिद्धान्तविज्ञो जयतु स सुगुरुः प्रेमसूरीशवर्यः ॥ १७ ॥ श्री कर्मसिडिगुम्फः सुमार्गणाद्वारविवरणग्रन्थः । संक्रमकरणश्रन्थच विरचितास्तेन बुद्धिमता ॥ १८ ॥ ★ ब्रह्मा * विष्णुः सुरैः । (स्रग्धरा) (स्रग्धरा) ( पयार्या) (पया) (विपुलार्या) (स्रग्धरा) (स्रग्धरा) ( पयार्या) Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूणां संशोधकानां च स्तुतिः ] खवगढी यस्योपास्तिमवाप्य वै चरणयोर्लब्ध्वा यदीयां कृपां भव्यानामुपकारिका क्षपकसच्छ्रे णिर्मया गुम्फिता । एषा येन विशोधिता सुगुरुणा स्वोपज्ञटीकायुता, जीयात् कर्मकृतान्तवित् स विजयश्रीप्रेमसूरीश्वरः ॥ २०॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) गुल्याssकाशो मेयः प्रसृतादिभिश्च पाथोधिः । स्यां च यदि सहस्रमुखस्तदा समर्थस्तदुपकृतीक्तुम् ||२१|| ( गीतिः ) बुद्धिः कर्कश नर्क तर्कणकलाढ्या विद्यते यस्य हि, मुक्तिस्त्रीं तपसा सदा जिगमिषोः कायः कृशो यस्य च । सन्ति प्रजिता अनेक तरुणाः श्रुत्वा च यद्देशनां ॥२३॥ I नः पायात् प्रगुरुः स भानुविजयः पन्न्यासवर्यो गणी ॥ २२ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) तच्छिष्यो मम पूज्यो गुरुः सहोदरचरो तपश्चारी | भवजलधितारणतरीतुल्य जितेन्द्र विजयो जयतु श्री मत्सिद्धान्तमहोदधि विजयप्रेमसूरियर्याणाम् पूज्यानामादेशात् तदीयसत्प्रेरणातच रचिता जितेन्द्र विजयान्तिषदा साधुगुणरत्नविजयेन । स्वोपज्ञवृत्तियुक्ता क्षपकश्रेणिर्भविहिताय संशोधितेयं विजयोदयसुरोशैर्विशारदैन्यये । आगम-कर्म प्रकृतिग्रन्थेषु तथा विपश्विद्भिः ||२६|| ( > मुनिवरजयघोष विजय-धर्मानन्द-मुनिहेमचन्द्रैश्च । 112811 ||२५|| ( पयार्या युग्मम ) " अन्यैश्च साधुवृषभैः परोपकारव्यसनभाग्भिः ॥२७॥ ( युग्मम् ) छाद्मस्थ्याद् मति मान्द्याद् वा यत्किञ्चिद् विरुद्धमागमतः । स्यादुक्तं तच्छोध्यं बहुश्रुतैर्मयि कृपां कृत्वा ॥२८॥ ( पयार्या) मारुधरपिण्डवाडानगरस्थायिजनपङ्क्तिरत्नाभ्याम् । ॥२९॥ ( गीतिः ) श्री हीराचन्द - श्राद्धवरअचलदासतातकाभ्यां तु चारुदिवाली - नन्दीजननीकाभ्यां क्रमेण पुत्राभ्याम् । श्रेष्ठि श्रेष्ठ रतनचन्दाख्य-श्रेष्ठिखुब चन्दनाम स्याम् ||३०|| (गीतिः) नमिमन्दिर निर्मापयितुभ्यामुद्यापनादिकारिभ्याम् । श्रीवृत्तियुतक्षपकश्रेणिमुद्रापिता स्ववित्तेन ॥३१॥ (गीतिः) तथाहि पयार्या ) [ ५६१ (,,) Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] arraढी कर्मेन्धनं ज्वलितमाशु जिनेन येन, ध्यानानलेन समवापि शिवं च यज्जापसिंहनदनेन पलायते च येन । , कर्मद्विपोऽनवरतं स नमिर्न इष्टाम् ॥ १ ॥ ( वसन्ततिलका) तद्विम्बदर्शनात् सर्वो लोकः सम्यक्त्वमश्नुताम् । क्षपकश्रेणिमारुह्य सम्प्राप्नोतु शिवश्रियम् ॥ २ ॥ [ मुद्रणे द्रव्यसहायाः (अनुष्टुब् ) समस्ति श्रीमदबुदाचल- राणकपुरादिमहातीर्थ परिमण्डितश्री मरुधराऽपरनामराजस्थानदेशे श्रीविश्वानन्ददायकचरमशासनपतिश्रीवर्धमानप्रभुप्रासादपरिभूषितं प्रकृष्टपुण्यभाक्प्राणिपरिवृतं पिण्डवाडा (पिण्डरवाटक )नामनगरम् । तत्राऽवात्सीत् श्रेष्ठिश्रेष्ठसमनाजीनामाऽऽर्हतो धर्मकर्मरतः । तस्य धर्मोत्साही व्यवहारिहीरकः हीराचन्दनामा पुत्रः समजायत । तस्य होराचन्दाख्यश्रेष्ठिनः सुपात्रदानादिना स्वकर्मतिमिरहरणदीपावलीव दिवालिनाम्नीभार्या शीलालङ्कारधारिणी विंशतिस्थानकतपो वार्षिकतप-उपधानतपःप्रभृति विकृष्टतपश्चारिणी सज्जन श्रेणिरत्नं रतनचन्दनामानं भरतजनतारागणचन्द्रं भरतचन्द्रनामानममृतसुखाकाङ्क्षी अमृतलालाभिधं च त्रीणि पुत्ररत्नानि धरमोनाम्नीं च पुत्रीं प्रासूत । तत्राद्यस्य जिनधर्मपरायणा शीलादिविशिष्टगुणालङ्कारालङ्कृता गुरुजनोपासिका धरमीनाम्नी सधर्मिणी, यस्याः पञ्चमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धोपचाररूपोपधानतपःसमाप्तितः परमुपधानतपः कारितपस्विजनेषु बहुधनव्ययेन प्रथमतो मालारोपणं व्यधापि जिनधर्मानुरागरञ्जितेन तेन व्यवहारिणा । तस्य रतनचन्दाख्यस्य श्रेष्ठिनः पुत्री हेमकान्तिहेमलता सम्प्रत्यपि नन्दति । इह च पिण्डवाडा नगरे मनरूपजीनामा ★ मुत्तावंशीयोऽन्यो महेभ्यः समासीत् । तेन चतु:षष्ट्यधिक कोनविंशतितमवैक्रमाब्दे (१९६४) ध्वजारोपणप्रसङ्ग एकपञ्चाशदधिकसप्तशत रूप्यकाणि (७५१) श्रीसङ्घाय समर्प्य कुलपरम्परागतं जिनप्रासादस्योपरि ध्वजारोपणं व्यधत्त । तस्य च पुत्रः स्थैर्येऽचल व अचलदासनामाऽजायत । अचलदासनाम्नश्च श्रेष्ठिनो धर्मकार्यनन्दिनी नन्दीनाम्नी जाया भूरिसुभाग्याऽभवत् । यया पञ्चशताचाम्ल-वार्षिकतप उपधानतपो - विंशतिस्थानकतपःसिद्धचक्रसमाराधन - नवनवतिश्रीशत्रुञ्जय महातीर्थयात्राद्यनेकधर्मकृत्यानि व्यदधत स्वजीवने । किञ्च षोडशाधिकद्विसहस्रतमवर्षे (२०१६) श्रीवर्धमानस्वामिप्रतिष्ठाप्रसङ्ग ध्वजारोपणोत्सर्पणाऽवसरे 'ध्वजारोपणलाभविरह आजीवनं सहकारफलं नास्वादेये' ति स्वदृढसंकल्पः प्रकटितो यया प्रशान्तस्त्रभावाय सज्जनभगणचन्द्राय स्वपुत्राय खुबचन्दाभिधाय धरमी - फुली- छोगोत्येताभ्यश्च स्वपुत्रीभ्यः । तस्या नन्दीश्रमणोपासिकायाः पुत्रस्य श्रेष्ठखुबचन्दनाम्नो दान- शील- तपःप्रभृतिविशिष्टगुणमद्देतावंशीयः 'उच्छामणी बखते' इति भाषायाम् । Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रणे द्रव्यसहायाः ] खवासेढी [५६३ विभूषिता धर्मपरायणा बदामीनाम्नी गृहिणी कुलाचारचरणवर्या समस्त्यद्यापि । तथा दीनताग्रीष्महेमन्त इव हेमन्तः पुण्यपृथ्वीन्द्र इव नरेन्द्रश्च सुखयन्ती दमयन्ती धर्मवसुमती हसुमती च पुत्रपुत्र्यो विनयान्विता नन्दन्ति । एकदा पुण्यप्राप्तसमृद्धिशालिभ्यां श्रेष्ठिखुवचन्द-रतनचन्दनामभ्यां क्रमेण हारभगिनीपतिभ्यामग्निरथविश्रामस्थाने ( स्टेशन ) सिरोहोरोउनामकेऽनेकयात्रिकाणामहदर्श विरहं संलक्ष्य सम्यग्दर्शनादिविशुद्धये भव्यं नव्यं जिनमन्दिर निर्मापयितु सङ्कल्पः कृतः । ततश्चतुर्दशाधिकविंशतिशततमवैक्रमाब्दे (२०१४)श्रीसिरोहीरोडाभिधेऽग्निरथविश्रामस्थाने रम्ये भूमिभागे जिनप्रासादनिर्मापणार्थ शिलारोपणं व्यधत्त ताभ्याम् । ततः क्रमेण सपादलक्ष. रूप्यकवनव्ययेन महामण्डपमण्डितं चारुपञ्चालिकापरिवृतं तुङ्गतोरणराजिष्णु साक्षात्सिद्धालयोपमं श्रीजिनगेहं निर्माप्य तत्र वैराग्यवारांनिधिश्रीमद्विजययशोदेवसूरिवर-श्रीमद्मानविजयाद्यकादशपन्न्यापरा-ऽनेकस्थविर-बाल-युव-वृद्ध-शतातीतशिष्यप्रशिध्यमुनिव्रातपरिवृतैः प्रतिक्षिप्तलुम्पाकमत-न्यायाम्भोविश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टधरनिःस्पृहशिरोमणि-सच्चारित्रचूडामणि-श्रीमद्विजयकमल सूरीश्वरपदृधारि-पाठकवरश्रीमदीरविजयविनेयरत्न-सकलागमरहस्यज्ञ-परमगीतार्थाऽशेपशेमुषीशालिकुलविद्वस्यमान-श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरपट्टधरैः स्वगुरुप्रदत्तसिद्धान्तमहोदधिपदधारिभिर्गच्छाधिपतिभिः श्रीमद्विजयप्रेमसरीश्वरैः प्रतिष्ठापितम् अर्बुदाचलतीर्थात्समानीतं प्रशमरसकन्दकल्पं श्रीनाथनमिनाथमूलनायकविम्बं पोडशोत्तरविंशतिशततमविक्रमीयवर्षे (२०१६)माधवमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्या तिथौ शुभे च मुहूर्ते महता महेन । तदानीमन्यान्यपि प्रतिष्ठापितानि दर्शनमात्राद् दुरितध्वंसीनिश्रेष्ठिरतनचन्द-खुबचन्दद्रव्यनिर्मापितानि चत्वारि श्रीचन्द्रप्रभस्वाम्यादिविम्बानि । अपि च तद्दिने हर्षातिरेकेण चतुर्विधः सङ्घोऽनेकविधसामग्रीभिर्मिष्टान्नादिभिः सत्कारितः सन्मानितश्च विनयवचनप्रतिपच्या पुण्यभाग्भ्यां ताभ्याम् । तदनु तद्वष तन्मासतत्पक्षस्य षष्ठयां तिथ्यां श्रीपिण्डवाडानगरस्थद्विपञ्चाशद्देवकुलिकाकलितविश्वानन्ददायकजिनमन्दिरे श्रीवीरविभुमूलनायकबिम्बस्य प्रतिष्ठावसर एकाधिकपञ्चसप्ततिसहस्ररूप्यकोत्सर्पगेन स्वमातृमनोरथपूरणायोत्तुङ्गप्रासादशिखरे ध्वजारोपणं कृतवान् सोत्साहस्तज्जिनगेहे निर्मापितैकदेवकुलिको वदान्यः खुबचन्दनामा श्रेष्ठी। ततः सप्तदशाधिकविंशतिशततमे (२०१७)वैक्रमाब्दे श्रीपिण्डवाडानगरे वर्षावासं कृतवति गच्छाधिपतौ श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरप्रभौ वन्दनादिकार्थमागतवन्तौ श्रेष्ठीरतनचन्द्रखुषचन्दनामानौ । श्रतश्च पूज्यगच्छाधिपतिश्रीमुखात् प्राचीनकर्मशास्त्राधारेण सरलसुबोधपद्धत्या बहुविस्तराभिनवकर्मशास्त्राणां निर्माणोदन्तः । ततः श्रुतभक्तिनिभृतचेतसो तिमिकोशतङ्गतरलकमलाव्ययेन सुवर्णगिरिवत् स्थिरां मोक्षश्रियं प्राप्तुकामौ तौ दशसहस्राणि रूप्यकाणि क्षपक Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४] खवगसेढी [अन्यापादि श्रेणिग्रन्थरत्नमुद्रणाद्यर्थ कर्मशास्त्रप्रकाशनप्रवणायै प्रकाशकसंस्थायै दातुं निश्चितवन्तौ । ततः कालान्तरे हृद्गदेन कालं गतेऽपि वदान्ये रतनचन्दाख्ये तदीयेन स्वीयेन च द्रव्येण पञ्चशताचाम्लसिद्धचक्रतपआराधनादिनिमित्तकसाधर्मिकवात्सल्यशान्तिस्नात्रमहोत्सवपूर्वकोद्यापनादिकानि पुण्यकार्याणि व्यदधत खुबचन्दाभिधेन श्रेष्ठिना विंशत्यधिकविंशतिशततमवैक्रमाब्दे (२०२०) पिण्डवाडानगरे वर्षावासं कृतवति गच्छाधिपतौ । एप चैकसप्तत्यधिकद्विशतमूलगाथाकः (२७१)अनुमानतः सपादसप्तदशसहस्रश्लोकप्रमाणया सयन्त्रचित्रकस्वोपज्ञवृत्त्या विभूषितः क्षपकश्रेणिग्रन्थस्तयो रतनचन्द-खुबचन्दश्रेष्ठिपुङ्गवयोर्द्रव्यसाहाय्येन प्रकाश्यत इति कृतसुकृतौ तावन्ये च भव्यात्मानोऽस्याः पठनपाठनस्वाध्यायादिना क्रमेण शुक्लध्यानेन क्षपकश्रेणिमारुह्य निःश्रेयसमश्नुवतामिति । स्वोपज्ञवृत्तियुक्ता क्षपकश्रेणिरनुमानतः प्रमिता । श्लोकैः सपादसप्तदशसहस्र रस्त्यनुष्टुभिः ॥३२॥ (विपुलार्या) शिशुचेष्टाप्येषा मम न भवति हास्यास्पदं कृतिनां यस्माद्धि यथाशक्ति शुभे यतनीयमिति ते प्राहुः ॥३३॥ (उपगीतिः) यावद् घण्टायेतेऽर्केन्दू सुरगिरिगजे जयतु तावत् । इभगजयुगनयनमिते २४८८ वीराब्दे निर्मिता वृत्तिः ॥३४॥ (पथ्यार्या) स्वोपज्ञतपकरावृत्तिरचनेन त गुरारत्नेन । कुशलं यदापि तेन नपक श्रेणि जगत समारुह्यात् ॥३५॥ (गीतिः) इति समाप्ता प्रशस्तिः । तत्समाप्तौ च समाप्ता * श्रीमत्तपोगच्छगगनाङ्गणदिनमणि-सुविहितगच्छाधिपति-सिद्धान्तमहोदधि-सच्चारित्रचूडामणि कर्मशास्त्रनिष्णात--प्रातःस्मरणीयाचार्यशिरोमणि-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरान्तेवासि. स्याद्वादनयप्रमाणविशारद-पन्यासप्रवरश्रीमद्भानुविजयगणिवयंशिष्यप्रशिष्यश्रीमद्गच्छनायकप्राध्यापित-वाचंयममतल्लिका-जयघोषविजय-धर्मानन्दविजय-हेमचन्द्रविजय -गुणरत्नविजयसंगृहीतकर्मक्षपणापदार्थकाया मुनिपुङ्गवजितेन्द्रविजयचरणारविन्दचञ्चरीकायमाणा-ऽन्तिषदा मुनि-गुणरत्नविजयेन विरचितायाः क्षपकश्रेणेःस्वोपज्ञवृत्तिः। ܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www www wwwww w w wm wwwww ußßeifa [INDEXES ] www wwwwwwwwwwwwww wwwww www. ww.jainelibrary.org Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पशटम - क्षपकश्रेणिमूलगाथाः :: पणमिअ सिरिपासजिणं सुरअसुरणरिंदवंदिअंणाहं।। खंडइ अणंतभागा रसस्स णत्थि य सुहाण रसघाओ। वुच्छामि खवगसेढिं सपरहिअटु गुरुपसाया।। । । एक्केक्कम्मि ठिइविधाये रसघाया सहस्साई ॥१६॥ तत्थ य णव अहिगारा अहापवत्तकरणं तह हवेइ। बंधो अंतोकोडाकोडी सत्ताउ संखगुणहीणो । करणमपुव्वं हवए सवेअअणियट्टिकरणं च ॥२॥ पुण्णे ठिइबंधे अण्णो होज्जइ पल्लसंखभागोणो ॥१७॥ हयकपण-किट्टिकरण-तयणुहव-अवगयकसायअद्धा य । (गीतिः) तह अस्थि सजोगिगुणट्ठाणमजोगिगुणठाणं च ।।३।। गुणसेढीए आयामो हवए करणदुगऽहिओ गलिओ। अणचउगं दिट्ठितिगं च खविय उज्जमइ सेसखवणाए खिवइ दलं कम सो घेत्तूण-ऽणुसमयं असंखगुणणाए आढवइ अप्पमत्तो अहापवत्तकरणं समणो ||४|| ॥१८।। (गीतिः) परिणामटाणाई अणुसमयमसंखलोगमेत्ताणि । उबट्टणाअ खु असंखगुणा ओवट्टणा तओ सत्ता । उड्ढमुहाऽणंतगुणा सोही तिरिया उ छट्ठाणा ॥५॥ जं उक्किण्णस्त असंखंसो उठ्वट्टणाअ होएइ ॥१९॥ करणस्स पढमसमये सव्वत्थोवा जहणिया सोही। (गीतिः) तो पढमसंखभागं जाव जहपणा अणंतगुणा ॥६॥ पढमसेऽपुव्वस्स उ बे णिद्दा सुरगइप्पभिइतीसा। तत्तो पढमे समये उक्कोसा होअए अणंतगुणा।। छट्ठसे हासरइभयदुगुच्छाऽन्ते य बंधत्तो।। २० ॥ तो उत्ररि पढमसमये होइ जहण्णा अणंतगुणा ।।७।। वोच्छिज्जति छ हासाई उदयत्तो य ठिइबंधो। एवं हे? उवरि य जाव जहण्णाऽत्थि चरिमसमयम्मि पढमसमयओ चरिमसमयम्मि संखेज्जगुणहीणो तत्तो सेमुक्कोसा कमेण हुन्ते अणंतगणा ॥८॥ ॥२१।। उपगीतिः) मणधयणोरालाणं जोगे वट्टेइ अण्णयरे । जं ठिइसंतं अंतोकोडाकोडी अपुव्वआइखणे। सुअउवजोगे मइसुअचखुअचक्खूसु वा इगकसाये तं संखेज्जगुणूणं अंते संखठिइघायेहिं ॥ २२ ।। ॥९॥ (उद्गीतिः) पुरिसाईणं वे अण्णयरम्मि य विसुज्झयरसुस्काए। सेकाले अणियट्टि णासेउ आढवेइ ठिइखंडं । पयइठिइरसपअसा पडुच्च णेयाणि बन्धुदयसंताई तं हस्सत्तो संखेज्जभागअहियं तु उक्कोसं ॥ २३ ।। ॥१०।। (आर्यागीतिः) पढमखणे देसोवसमणानिकायणनिहत्तिकरणाई । सेकाले कुणइ अपुवकरणमे अम्मि होअइ विसोही । वोच्छिन्नाइं अंतोलक्खं पढमो उ ठिइबधो ॥२४॥ गोमुत्तिकमेण जहण्णा उक्कोसा अणन्तगुणा ।।१।। जं ठिइसंतं अंतोकोडाकोडी अपुव्वपढमखणे । बीयकरणपढमसमयओ ठिइघाओ सुहासुहाण तहा । होज्जा तं अंतोकोडी अनियट्टिपढमखणम्मि ॥२५।। गुणसंकमो असुहपयडीणं अणुभागघाओ य ॥१२॥ पढमे ठिइखंडे पुण्णे तुल्लं हवइ संतकम्मं तु । अण्णो य द्विइबंधो गुणसेढि त्ति अहिगारपंचतयं । सव्वेसिं जीवाणं ठिइखंडं च वि हवइ तुल्लं ।।२६।। जुगवं पयट्टइ तओ णाम अनुवकरणं अस्थि ॥१३॥ उकोसं ठिडखण्डं पि पल्लसंखेजभागमाण ख। संखठिइबंधगमणे असण्णितुल्लो पहवइ ठिइबंधो। खंडइ अवरत्तो संखेजगुणं जाय तक्करणं ॥१४॥ चउतिदुएगिदियतुल्लो बंधो अंतरे य बहुबंधा ।।२७।। भसुहपयडीण दलिअंतु असंखगुणं पखिवइ अन्नासु। (गीतिः) बझंतीसु सपयडीसु अणुखणं स गुणसंकमोणेयो।१५। | ठिइबंधबहुसहस्सेसु गयेसु होइ जं तु एक्केकं । (गीतिः) । तं भणिहामो णस्थि विसेसे णियमो कहिमु बंधं ।२८। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] प्रथमं परिशिष्टम् [ मूलगाथाः एग-दिवड्ढ-दु-पल्लाणि वीसगाणं च तीसगाणं च। मोहस्स संखवरिसा बंधो इगठाणिआ य बधुदया। मोहम्स य परिवाडीअ दुगस्त उ संखगुणहीणो॥२१॥ तस्सेव आणुपुत्रीसंकमणमसंकमो य लोहस्स॥४४|| संखं लेगतिभागुत्तरपल्लाइ खलु वीसगाईणं ।। (गीतिः) ताउ परं तीसाणं तहेव संखेज्जगुणहीणो ॥३०॥ तह आवलिगासु छसु उदीरणा संढवेअखवणा य। मोहस्स पल्लमेत्तो सेसाणं पल्लसंखभागमिओ।। कयअंतराण सत्तऽहिगारा जुगवं पयट्टते ॥४५॥ ताउ पर सव्वेसिं कम्माणं संखगुणहीणो॥ ३१ ॥ । कयअंतराण मोहस्स बंधुदयसंकमा रसे होन्ति । पुणे बंधेडणुकमं तु वीसगाईण संखगुणो। । कमसो अणंतगुणसेढीए अह ते दले भणिमो ॥४६।। तो बीसगाण जायइ पलियअसंखेज्जभागमिओ॥३२॥ होन्ति पअसे कमसो बंधउदयसंकमा असंखगुणा । (उपगीतिः) सेकाले सेकाले रसबंधुदया अणंतगुणहीणा ॥४७॥ तो तीसगाण पल्लस्स असंखंसो तओ य मोहस्स । (गीतिः) पल्लअसंखंसोऽन्तोलक्खं संतं च सत्तण्हं ।। ३३ । । रससंकमो उ खण्डे पुण्णे होजइ अणंतगुणहीणो। ताउ असंवगुणो एकाहारेणेइ तीसगाण अहो। सेकाले सेकाले पसबंधो चउविहो य ॥४८|| मोहट्ठिइबंधो तो वीसाहेट्ठा कमा असंखगुणो ||३४|| | सेकाले सेकाले पसउदयो असंखगणो । (गीति: सेकाले सेकाले दलसंकमणं असंखगुणं ॥४९।। तो वेअणिज्जबंधो सेसाणं तीसगाण उवरिं तु । (उपगीतिः) तो सेसतीसगाणं ठिइबंधो वीसगाण अहो ।।३५।। संवइ बहुगो उदयो तत्तो बंधो-ऽत्थि ताउ अणुभागे। ताहे वीसगबंधा तइयस्स विसेसअहिगो खु । सेकाले उदयो तत्तो बंधो-ऽणंतगुणहीणो ॥५०॥ एवंकमेण गच्छह बंधो अह भणिम ठिउसंतं ॥३६॥ ठिइखंडेसु गयेसु संढं सव्वं खवेइ तत्तो थिं । (उपगीतिः) खवणद्धासंखंसे बंधो संखबरिसा तिघाईणं ॥५१।। तत्तो असण्णितुल्लं ठिइसंतं ताउ बंधच । (गीतिः) ता णेयं जावंतप्पबहुत्तं खलु ण पाविज्ज ॥३७॥ तत्तो ठिइखंडपुहुत्तेणं इतिथं खवेइ णिस्सेसं । (उपगोतिः) ताहे संतं मोहस्स संखवासपमिश्र होइ ।।५२।। चरिमप्पबहुत्ताउ असंखखणपबद्भुदीरणा होइ । तोऽटुकसाया खत्रए जहण्णठिइसंकमो चरिमे ॥३८॥ सेकाले खवए सत्तणोकसायेऽपबहुरं च । तो थावरतिरिनिरयायवदुगसाहारणेगविगलाई । मोहस्स टिइबंधो थोवो घाईण संखगुणो ॥५३॥ थीद्धिति च खवइ तो बंधइ देसघाईणि ॥३॥ (उपगीतिः) दाणंतरायमणपज्जवाण तो लाभओहिदुगकम्माणं । तो वीसाण असंखगुणो तो तइयस्स खलु विसेसहिओ। तो सुअअचक्खुभोगाण तओ चक्खुस्स अवभोगमईणं ठिइसंतं मोहस्सऽप्पं घाईणं असंखगुणं ॥५४|| ॥४०॥ (आर्यागीतिः) तो वीसाणअसंखगुणं तो तइयस्स खलु विसेसऽहिअं तो वीरियस रसबंधो हवए देसघाई उ। खवणद्धासंखसेऽघाईणं संखवासिगो बंधो ।।५।। तो तेरसपयडीण-ऽन्तर कुणेइ ठिबंधकालेण ।।४।। (गीतिः) (उद्गीतिः) खवणाद्धासंखंसेसु संतं संखवासिअं घाईणं । भिन्नमुहुत्तं उदियाणं आवलिया पराण पढमठिई।। आगालो पडिआगालो सेसे आलिगादुगे वोच्छिन्ना संढत्थीण समाऽप्या पुरिसाईण कमसो विसेसऽहिया ॥५६।। (आर्यागीतिः) ॥४२।। (गीतिः समयाहिअआवलिसेसाअ जहण्णा उदीरणा होइ । सुदयाणं पयडीणं पढमठिईए खिवेइ उक्किण्णं । । चरिमे समयूणदुआवलिबद्धं तहुदयट्टिई सेसा ॥५॥ दलिअं बझंतीण अबाहुवरिमबीयगठिईए ॥४३॥ (गीतिः) Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथाः ] प्रथम परिशिष्टम् पुरिसस्स अट्ठवरिसा सोलसवरिसाणि संजलणगाणं। अणुसमयमसंखगुणं दलिअं घेत्तण पकुणेइ । बंधो संतं पाइअघाईणं संख-ऽसंखवासाई ।।५।। पडिसमयमपुव्वाणि खलु असंखेज्जगुणहीणाई (गीतिः) ॥१॥ (उपगीतिः) हयकण्णादोलोव्बट्टणउव्वट्टणकरणअद्धा। तकालिएसु देइ अपुब्वेसु दलं विसेसूर्ण । हयकण्णकरणकालस्स तिन्नि णामाणि णेयाणि ।५९। तो पुबिल्लभपुव्वाईभ असंखगणहीणदलं ॥७२।। (उपगीति:) (उपगीतिः) ठिइसंतं संखसहस्सवासमेत्तं तयाणि मोहस्स । तत्तो घिसेसहीण कमेणं जा पुवअन्तिमगा । अंतोमुहुत्तऊणो सोलसवासपमिओ बंधो॥ ६०॥ दीसइ दलिभं पुवापुवेसु विसेसहीणकमं ॥७३।। रससंतं माणस्सप्पमह विसेसाहिअक्कमेण खलु । (उपगीतिः ) इगखंडे पुण्णेऽपाबहुगं होजाइ कोहमायालोहाणं तव्व बंधो वि ॥ ६१ ॥ अटारसपयाणं । कोहाईण भपुव्वाइं फड्डाई विसेसअहियाई ।।७४।। रसखंड कोहाईण कमेण विसेसभहिअमह । (उद्गीतिः) घाइअ-ऽवसेसफडाइं लोहाईण ऽणंतगुणणाए ॥६२।। तत्तो एगदुगुणहाणिफड्डगाई असंखगुणिमाणि । (उद्गीतिः) संजलणजहण्णगपुवफडगत्तो अणंतगुणहीणं । तत्तो अणंतगुणिआ इगफडगवग्गणा होन्ति ।।७।। तत्तो य वग्गणा कोहअपुधगफगाणऽणंतगुणा । करए उक्कोसमपुवफडगं तं कयं न पुव्वं ति ।।६३।। माणाईण अपुव्वगफड्डाणं वग्गणा विसेसऽहिआ।।७६।। (गीतिः) (गीतिः) ताणि अपुघ्वाणिगदुगुणहाणिफड्डाणऽसंखइमभागो। लोहस्स पुव्वफडाणि अणंतगुणाणि वग्गणा सिं च । एत्थ पुण भागहारो ओकड्ढणओ असंखगुणो ॥६४॥ एवं जाव अणंतगुणा कोहस्स खलु वग्गणा होति ।।७।। सो पुण असंखभागो पल्लपढमवग्गमूलस्स । (गीतिः) कमसो अपुव्वगाणाइवग्गणाऽस्थि य विसेसऽहिआ चरिमे समये मोहस्स अट्ठवासपमिओ हवइ बंधो। ॥६५॥ (उपगीतिः) इयराण संखवाससहस्साई भणिमु ठिइसंतं ।। ७८ ॥ कोहाईण अपुव्वाणि फडगाइं अणुकमेण । घाईण संखवाससहस्साणि पराण उण असंखसमा। कुरगए विसेसअहियाई पदमखणे य अस्सकण्णस्स एवं हयकण्णकरणअद्धं खलु परिसमावेइ ॥७९|| ॥६६।। ( उद्गीतिः ) पुण्णे हयकपणे आढवेइ किट्टिकरणं तम्मि । भणुभागे चरिमभपुव्वाण हवइ पढमवग्गणा तुल्ला। निव्वत्तइ पुवापुठ्वफडगत्तो य किट्टीओ ।। ८०॥ लोहाईण अणूए भविभागा खलु विसेसअहियकमा। (उपगीतिः) ॥६७।। (गीतिः) जेट्ठा किट्टी उ अणंतगुणूणा पढमवग्गणाहिंतो। देइ अपुव्वेसु विसेसूणकमेणं दलं तो देह । किट्टीओ फडुस्स अणंतिमभागामिआ होति ।।८।। पुवाईअ असंखगुणूणं सेसासु उण विसेसूणं ॥६८।। एगेगस्स कसायरस तिण्णि तिषिण अहवाऽणंता । (गीतिः) संगहकिट्टी तिन्नि अवंतरकिट्टी अणंताओ ॥ ८२ ॥ दीसइ दलिअं पुव्वापुव्वेसु फड़गेसु गोपुच्छेणं । (उपगीतिः) पुवाईअ अपुयाइत्तो दीसइ असंखभागविहीणं कोहाईणं उदयेणं पडिवनस्स कमसो हि । ॥६९॥ (मार्यागीतिः) पारस णव च्छ तिण्णि य संगहकिट्टीउ जायन्ते । पढमसमये अपुव्वाणि फडगाइ भणंतभागमिआई। ॥८३॥ (उपगीतिः) हेहाणि पराण उदिग्णाई बंधो तहेवऽणंतगुणूणो एगेगाए संगहकिट्टी अवंतराभ उ भणंता । mo (भायोगीतिः) । तिहिरीयोपटममयसमवगणहीणाओ। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] प्रथमं परिशिष्टम् [ मूलगाथाः दलिअंतु पडिखणं उक्किाइ असंखगुणिनं च किट्टीणं ।। लोहस्स जहण्णगकिट्टित्तो कोहस्स जेट्ठकिट्टीए । अह किट्टीणं अणुभागप्पाबहुअं भणिज्जेइ ॥ ८५॥ । दलिअं परंपराअ वि दिज्जेइ विसेसहीणं हि।।९९॥ लोहस्स पढमसंगहकिट्टीअ जहण्णगाअ खलु ।। दलिअंतुदिस्समाणंलोहजहण्णाउ पहुडि कोहस्स । थोवा रसाविभागा तत्तो बिइयाअऽणंतगुणिआऽस्थि । उक्कोसं किट्टि जाव विसेसूणक्कमेणऽस्थि ।।१००।। ॥८६॥ (उद्रीतिः) किट्टी कुणमाणो ओवट्टइ मोहस्स ठिइरसा णियमा। एवं जाव चरमकिट्टीए बीयपढमाअऽणंतगुणा । सो य न उबट्टइ ओवट्टइ उबट्टइ परो उ ॥१०१।। पुत्रव्व जाव अंतिमकिट्टीए ताउ तइयाए ॥८॥ । बीयाइखणेसु असंखगुणकमेणं दलं तु घेत्तूणं । पढमाअऽणतगुणिआ जाचं चरिमाम एवं च । कुणइ अहो संगहकिट्टीण अपुव्वा असंखगुणहीणा मायाए तिण्हं किट्टीसुणेया अणंतगुणणाए ।1८८ | ॥१०२।। (गीतिः) (उद्गोति.) देइ अपुव्वंतत्तो पुवाईए असंखभागूणं । तत्तो माणगकोहाणं तिण्ह रसाविभागा य । पुबंताउ अपुवाईअ असंखंसउत्तरं दलिअं॥१०३।। (गीतिः) कमसो उ जाव कोहुक्कोसाए होजऽणंतगुणा ।।८६|| सेसासु विसेसूणं तेणं तेवीसउट्टकूडाणि । (उपगीतिः) अह संगहकिट्टीअंतराण तहऽवंतरंतराण खलु । होन्ते दीसइ दलिअंसव्वत्थ अणंतभागूणं ॥१०४।। भणिहामो अप्पाबहुअं जं अस्थि सुअअणुरूवं ॥९॥ नरतिरियइगपणिदितसदुओरालियसरीरजोगेसु । तत्थ य लोहपढमऽवंतरकिट्टीअंतराउ आढविऊणं । मणवयजोगचउके नपुचउकसायमग्गणासु च कोहचरिमऽवंतरकिट्टिअंतरं जावऽणतगुणिअं णेयं ॥१०५।। (गीतिः) णाणाणाणदुगाविरइसामइअचक्खुदुगछलेसासु । ॥९शा (आर्यागीतिः) भवमिच्छवसमवेयगखाइमसम्मेसु सण्णिइयरासु तो लोहस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरं अणतगुणं । ॥१०६।। (गीतिः) तो बीयअंतरमह तइयकिट्टीअंतर अणंतगुणं ॥९२।। आहारम्मि य बद्धपत्रेसा होगन्ति णियमत्तो । (गीतिः) किट्टीकाराणं किट्टिवेअगाणं च संतम्मि ॥१०॥ अह लोहगमायाणंतरं अणंतगुणिनं तहेवियराणं । (उपगीतिः) कोहचरिमाउ लोहअपुवाइमवग्गणान्तरं विण्णेयं । निरयसुरविगलपुढवीजलानलपत्रणवणस्सईसु तह। ॥९३।। (आर्यागीतिः) अह संगहकिट्टीणं पसअप्पाबहुत्तं तु । वेउव्वाहारगदुगकम्मणजोगिस्थिपुरिसवेसु।।१०८॥ (गीतिः) माणस्स पढमसंगहकिट्टीअ पसगा थोवा ।। ९४ ।। ओहिविहंगमणेसु तह देसविरइपरिहारछेसु। (उपगीतिः) ओहिगदंसणमिस्सासायणणाहारगेसु तत्तो बीयाए उ विसेसऽहिया होन्ति माणस्स । भयणाए ॥१०९।। (गीतिः) तो तइआए अहिआ तो कोहस्स बिइयाअ भन्भहिआ केवलदुगअभवियसुहुमअहक्खायेसु णियमत्तो । ॥९५।। (उद्गीतिः) बद्धपोसा णत्थि य संते संभवभभावत्तो ॥११०।। तो तइआए अहिआ तो मायाएऽहिआ कमा तीसु । (उपगीतिः) तो लोहस्स कमेणं तीसु विसेसाहिआ तत्तो ॥९६।। सायासायेसु पज्जत्तापज्जत्तगेसु च । कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए होति संखगुणा । एगिदियाण य असंखिज्जेसु भवेसु णियमत्तो॥१११।। एवमवंतरकिट्टीणऽप्पाबहुअं मुणेयव्यं ॥९७|| (उपगीतिः) (उपगीतिः) एगुत्तरवुड्ढीए संखतसभवेसु बद्धदलमस्थि । लोहजहण्णगकिट्टिपहुडिकोहुक्कोसकिट्टिअंतासु । संतम्मि सबलिंगेसु कम्मसिप्पगुठिइरसेसुवा सवासुदेइ दलं विसेसहीणक्कमेण खलु ॥९८॥ । ॥११२।। (गीतिः ) Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथा: प्रथमं परिशिष्टम् [५६९ खवगाणं संते णियमत्तो कहियदलिअं तु पट्टेइ । । जं संगहकिट्टि अणुहबए तयणंतराम इयरत्तो । सव्वठिईसुतह सव्वासु किट्टीसुणियमेणं॥११३।। । संकामइ दलिअंसंखगुणं अपबहुअंभणिमो॥१२७॥ किट्टीकरणे पुव्वापुबाई फङ्गाणि अणुहवइ । कोहबिइयतइयत्तो माणगपढमाअ माणगतिगत्तो । पढमा?ईअ आवलिंगासेसाए समत्तद्धा ॥११४|| मायापढमाए मायाअतिगत्तो य लोहपढमाए।।१२८॥ किट्टिकरणस्स चरिमे बंधो मोहस्स चउमासा । (नीतिः) अंतोमुहुत्तअहिया पराण संखियसहस्सवासाइं लोहपढमाउ तब्बिइयाए ताउ चिम तइयाए । ॥११५।। (उद्गीतिः) संकामेइ पभेसा विसेसअहिअक्कमेण तत्तो वि ठिइसंतं मोहस्सऽडवासा अंतोमुहुत्तअब्भहिआ । ॥१२९|| (उद्गीतिः) घाईण संखबरिससहस्साणि असंखवच्छराऽन्नाणं कोहपढमाउ माणपढमाअ संखेज्जगुणिआ तो । ॥११६।। (गीतिः) तइयाअ विसेसहिआ तो संखगुणा य कोहबिइयाए तत्तो य कोहपढमं ओकड्डित्तुं करेइ पढमठिइं । ॥१३०।। (उद्गीतिः) वेयइ बंधो मोहस्स उ चउमासा पराण पुवुत्तो बंधपोसा णिव्वत्तए अपुत्रा अवन्तरा किट्टी । ॥११७।। (गीतिः) पढमाण चउण्ह अवन्तरकिट्टीअंतरेसु तु ॥१३१॥ वेइज्जमाणकिट्टी दलमसंखगुणणाअ पढमठिईए। गंतूण असंखगुणिअपल्लपढमवग्गमूलठाणाणि । चरिमणिसेगा बीयपढमे असंखगुणमुवरि उ विसे- एगिगबंधअपुध्वं किट्टि खलु किट्टिअंतरे कुणइ सूणं ॥११८।। (आर्या गीतिः) ॥१३२।। (गीतिः) वेइज्जमाणकिट्टीए सव्वठिईसु होन्ति सव्या किट्टी । बंधाइपुवकिट्टी पसगं बहु देइ । नवरं उदये खलु मज्झिमाथि सव्वापराणबिइयठिईए । तत्तो विसेसहीणकमेण जा हेहिमा अपुवाए ॥११९।। (आर्यानीतिः) ॥१३३॥ (उद्गीतिः) ठिइसंतं मोहस्स वरिसट्ठ देसघाइ रससंतं । तत्तो अयुवकिट्टीअ अणंतगुणं सओ दलिभं देइ । णरं सम पूणालि गए कोहस्स सव्वघाइ भवे पुवा अणंतगुणूणं एवं जाव बंधचरिमकिट्टी ॥१२०।। (गीतिः) ॥१३४।। (रिपुच्छन्दः) कोहाइपढमसंगहकिट्टीए बहुअसंखभागमिआ । कुणर वज्जिय कोहपढमं तु एगारसाण हेटुम्मि । मज्झिमकिट्टी बझंते वेइज्जति कोहपढमाए ॥१२१।। तहऽवंतरकिट्टीअंतरेसु संकमदला अपुवाओ॥१३५।। . (नीतिः) (गीतिः) कोहपढमाअ हेट्ठिमणुभया थोवा तो हविज्जंति । संकमओ णिव्यत्तिज्जमाणकिट्टीसु सगहंतरजत्तो । अहिमा हेट्ठिमुदिण्णा तो उबरिल्लअणुभया अहिआ होति अवंतरकिट्टी अंतरजाओ असंखगुणिआऽपुव्वा ॥१२२॥ (गोतिः) ___॥१३६।। (आर्यागीतिः) तत्तो उवरिमुदिण्णा विसेसअहिया हवन्ति तत्तो वि। संगहअंतरजासु णिखेवो किट्टिकरणव्य बंधव । होति असखेज्जगुणा उभयाउ अवन्तरा किट्टी।।१२३।। परजासु पल्लमूलासंखंसो अंतरं णवरं ॥१३७।। मोहस्सऽणुभागाण अणुसमयोवट्टणा गुरू किट्टी । गोमुत्तिया उदये बधेऽणुखणं अणं गुणहीणा ।१२४॥ कोहगबद्धदलं पंचमावलिया सव्वकिट्टीसु । (गीतिः) माणाईण वि बद्धदलिअं जहासंभवं णेयं ॥१३८॥ गोमुत्ती पडिखणं बंधे उदये अणंतगुणहीणा । । उदयठिईए छण्हं आवलियाणं हवन्ति अच्छूटा। हस्सा णासइ संगहकिट्टीणुवरिमअसंखंसं ॥१२५॥ | समयपबद्धा छूढा सेसा तह सव्व भवबद्धा ।।१३९।। संगहकिट्टीग दलं हेटे संकामए ण उण उधि । एगठिईभ इगाहियकमेण खलु समयभवपबद्धाणं । संकामइ तास दलं तावंजाव साहेहिमापढमा॥१२६।। होज्जन्ति सेसगाई जेद्वाउ पलियअसंखभागस्स (गीतिः) ॥१४०।। (गोतिः) Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [Xoo] इङ्गसमयपबद्धस्स उ सेसेण ठिई जुआऽपगाऽगाणं । हन्ति असंखगुणा पल्लभसंखं सपआिण य असंखसा ||१४|| (आर्यागीतिः) खणभवपबद्धसेसाणि इगठिईए इगाहि कमेणं । समयाभउदयावलियं वज्जिय सवगठिई सु ।।१५२।। जाणं समयपवद्धाण सेसाणि इगट्टिईभ ते थोत्रा । दोसु महिमा भावलिअसंखंसे उ दुगुणा य जब मज्झं ॥१४३॥ (ललिता) सांणि जट्टिईए सा सामण्णा परा भसामण्णा । एगा इगाहिकमा निरन्तराऽऽवलिअसंखभागमिआ || १४४ || ( गीतिः) एक rhi थोवा ताअ कमेणं विशेसअहिभाओ । raria भागे दुगुणा तह होइ जवमज्झ । १४५।। संपइ अभव्वपाउगे भावलियाअसंखभागट्ठाणे । पल्लासंखंसो त्तिविसेसो णेयो इआणि भणिमो अण्णं ॥१४३॥ ( आर्यागीतिः) पिल्लेवणठाणाइ पल्लस्स असंखभागमेत्ताणि । rod भणति कम्मभवद्वाणम्स उ असंखंसा || १४७॥ जीवस्स जइण्णगणिल्लेवणठाणे भई अकालम्मि | पिल्लेत्रियाण समयबद्धाणाऽप्पो गओ कालो ॥१४८॥ ततो बीये अहि तत्तो तइये विसेसहिओ | पलिओ मस्स य असंखेज्जंसे होभए दुगुणो ॥१४९॥ (उपगीतिः ) ठाणअसंखंसे जवमयं पल्लस्स छेदणअसंखंसो । गुणहाणी तो असंखगुणमंतरं दुगुणहाणीणं । || १५० || ( आर्यागीतिः ) एवं भवबद्धा परं लहु पिल्लेवणट्ठाणं । गंतु असंखठाणापि एत्थ दोण्ह जत्रमज्यं ॥ १५१ ॥ ( उद्गीतिः) एग सेण अईएप्पा णिल्लेत्रिया उ समयपबद्धा । कम सो अहिया ठाणअसंखंसे य दुगुणा तहा जवमज्झं || १५२ || (आर्यागीतिः) णाणतराणि पल्लस्स छेअणअसंखभागमेत्ताणि । तो एगभंत रमणंतगुणं भणियं सुअम्मि खलु || १५३ || एगसमइयोऽणुसमयणिल्लेवणकालगो पहूओऽईओ दुगुण प्रथम परिशिष्टम् [ मूळगाथाः । आवलिमसंखभागे जेट्ठो आवलिअसंखंसो || १५४ || ( गाथा ) एग समयंतरेणं अप्पा पिल्लेवियक्खणपत्रद्धा कमसो अहिआ दुगुणा पल्लासंखेज भागम्मि ।। १५५ ।। जवमज्झं ठाणभसंखेज्जइभागे तद्देव भववद्धा । गुरु पिल्लेवण अंतरमसंखभागो उ पल्लस्स || १५६ ।। समम्मि पहुडिओ पल्लासंखंसखणभवपत्रद्धा । पिल्ले विज्जन्ति इगेगेणं णिल्ले विया थोत्रा ॥१५७॥ कमसो अहिभा पल्ल असंखंसम्मि दुगुणा तथा जवमज्झं । गाणंतरेहि एगंतरछे यणयाइ खलु असंखगुणाई । । १५८ ।। ( आर्यागीतिः) कालोऽपो तभो इगे समये । णिल्लो त्रिया उ भवबद्धा तत्तो य समयपबद्धा ॥ १५९ ॥ तो खणपत्रद्धसेस यरहियठिई ताउ वग्गमूलं च । पल्लरस तो पभेसगुणहाणिठाणंतरं तत्तो ॥ १६० ॥ भवद्वाणं णिल्लवणठाणाई कमा असंखगुणाई । समयपत्रद्धाणं णिल्लवणठाणाणि उण विसेसहिआइ ||१६|| ( भार्यागीतिः) अणुमयभवेयणकालोऽसंखगुणो उखणपबद्धस्स । तोकम्मठिईए तोऽणुसमयवेयणअनेहो || १६२|| ता अवेयणकालो सन्वो तो सवगो उ वेयणकालो । कमसो य असंखगुणो तो कम्मठिई विसेसअहिया होज्जा ॥ १६३ ॥ (आर्यागीतिः) जादुचरिमसमग्रमसंखगुणूणक्रमेण कोइपढमाए । खणा बंधअसंखभागपमिया ता ।। १६४॥ (गीतिः) ताइटिई दुआ लिसेसयाभ आगालो । छिष्णो खणुत्तरावलि से साथ जहष्णुदीरणाऽन्तुओ ॥१६५॥ (गीतिः) तत्तणा बंधो मोहस्स सयदिणा घाईणं । अंतोमुहुत्तीणा दसवासा संखवासपनि भोऽन्नाणं ॥१६६॥ ( आर्यागीतिः ) संतं मोहस्संतो मुहुत्त होणअडमासहिगछद्दा | घाईघाईण कमा संखासंखवरिसा णेयं ॥ १६७ सेकाले ओढत्तु विइकिट्टि कुणेइ पढमठिहं । ता चैव स वेयइ बी कोइस्स किट्टि तु ॥ १६८ ।। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगायाः ] प्रथने परिशिष्टम् वेइज्जमाणकिट्टीअ पढमसमयम्मि पुवकिट्टीए । | सेकाले पढमठिई मायातइयाउ कुणइ अणुवए । सेस दुखणूणदुआवलिबद्धं उदयआरलिगयं च | पण्णरसदिणा बंधोसंजलणदुगस्स चरिमुदयो।१८४|| ॥१६९॥ [गीतिः] | घाईणं मासपुहुत्तं इयराणं च संखबरिसाणि । बंधो उदओ णासो संकमणमपुवकिट्टिणिञ्चत्ती । | ठिइसंतं दुण्हं संजलणाणं होइ इगवासो॥१८५।। किट्टीअप्पाबहुअंपग्रेसथोव बहुरं चपढमव्व ।।१७०।।। घाइअघाईण कमा संखासंखियसमासहस्साई । (गीतिः ) सेकाले पढमठिइकुणेइ लोहपढमाउ वेयइ य।।१८६।। वेइज्जमाणगस्स कसायस्स अणुइवए उ जं किट्टि । (गीतिः) तं चेत्र बंधइ पराणं पढमं बंधए न परं ॥१७१।। चरिमे बंधो लोहस्स मुहुत्तन्तो तहेव संतं पि । चरिमे बंधो मोहस्स देसऊणा दिणा असीई उ । बंधो घाईण दिणपुहुत्तमघाईण बच्छरपुहुप्तं ॥१८७।। घाईणपुडुत्तं पर। ण संखियसहस्सवरिसाई ।।१७२।। (गीतिः) (गीतिः) घाईणं संतं संखसहस्साणि वरिसाण होज्जेइ । मोहस्स देसऊणा चउमासऽहिअपणहायणा घाईणं। तिण्ड अघाईण असंखेज्जाइ बच्छराणि खलु सखसहस्सवरिसगाई इयराणं असंखवरिसा संत ॥१८८॥ ॥१७३।। (आर्यागीतिः) सेकाले लोइबिइयमोकड ढित्तु पढमट्ठिइं तु करिज्जा। सेकाले तइयं किट्टि ओकड्ढित्तु आइमठिई तु । वेयइ ताहे लोहगबिइयातइयाउ कुणइ य सुहुम किट्टी कुणए वेयइ बीयव्व य सेसपरूवणा णेया ॥१७४।। ॥१८९।। (आर्यागीतिः) चरिमुदये संजलणाणं ठिइबंधो दुमासिओ होइ । सुहमा किट्टीको तइयाए हेट्ठम्मि कुणइ खलु खवगो । ठिइसंतं पुण चत्तारि होइ वरिसाणि मोहस्स ॥१७५॥ | ता सुहुमा कोहपढमसंगहकिट्टिव्व पण्णत्ता ॥१९०।। सेकाले माणपढमकिट्टि ओकढिऊण पढमठिइं । लोहस्स बिइयकिट्टित्तो तइयाअ तह सुहुमकिट्टीसु। कुणए वेयइ सम्बो य विही कोहपढमन्त्र णायव्यो तइयत्तो सुहुमासु संकमइ दलं न अण्णस्थ ॥१९१।। ॥१७६।। (गीतिः ) सुहुमासुतइयत्तोऽप्पं बीयाउ तइयाअ संखगुणं । चरिमुदये संजलणतिगस्स उ पण्णासवासरा बंधो। तो बीयत्तो सुहुमासु दलं संकमइ संखगुणं ।।१९२।। अंतोमुहुत्तऊणा चत्ता मासा हवइ संतं ॥१७७|| थोवा आसि अवन्तरकिट्टी कोहरढमाअ कोहखये। सेकाले माणविइयकिट्टि ओकड्ढिऊण पढमठिइं। माणपढमाअ माणे खीणे मायापढमगाए ॥१६॥ करए वेयइ अण्णो सम्बो वि विही य पुत्र्यव्य ।१७८| माथाणासे लोहपढमाअ पढमखणकयसुहुमकिट्टी। अंतम्मि मोहबंधो चत्तालीसा दिणा उ देसूणा।। कमसो अब्भहिआओ सासंखेज्जइमभागेणं ॥१९४।। संतं देसूणा बत्तीसा मासा कसायाणं ॥१७९|| करइ सुहुमकिट्टीउ असंखगुणूणक्कमेण अणुसमयं । सेकाले माणतइयांकर्टि उक्किरिय करइ पढमठिइं। पडिसमयमसंखगुणकमेण दलं देइ सुहुमासु।।१९५।। वेयइ मोहस्स उ बंधो मासोऽन्तम्मि दुवरिसा संतं पढमसुहुमाअ देइ दलं बहु उपि विसेसहीणकमेणं । ॥१८०।। (गीतिः) बायरपढमाअ असंखगुणूणं उवरिमासु य विसेसूर्ण सेकाले मायाऽऽइमकिट्टि उक्विरिय करइ पढमठिई। ॥१९६।। (आर्षानीतिः) वेयइ अण्णो सम्यो यविही पुत्रवणायव्वो ॥१८॥ बीयाइवणेसु अपुवा पुयाणऽन्तरेसु हेतु य । संजलणा गस्स उ बंधो देसूणपणवीसदिवसाई। . कुणए हे?'ऽप्पा ताउ अंतरेसु असंखगुणा ॥१९७।। चरिमे संतं देसूणवीसमासा मुणयन्वं ॥१८२॥ | देइ दलिअं अपुवसुहुमकिट्टित्तो अणंतराए उ । सेकाले पढमठिइ मायाबीयाउ करइ अणुहवएऽन्ते। | पुवसुहुमकिट्टीर हीणमसंखेज्ज नागेणं ॥१९८।। देसूणा वीसदिणा बंधोमोहस्स सोलमासा संतं । पुवाउ असंखंसाहियं अणतरअपुवकिट्टीए । ॥१८३॥ (आर्यागीतिः) - सेसासु पुवापुवासु कमेणं विसेसूणं ॥१६६।। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] प्रथमं परिशिष्टम् [ मूलगायाः पडमसुहुमाउ चरिमं जावं दीसइ दलं विसेसूर्ण।। चरिमे खंडे ण? उ णस्थि मोहस्स ठिइघाओ। तो य असंखगुणं बायरपढमाअ उवरिं विसेसूणं । ठिइसंतं पुण सुहुमद्धापमिश्र होइ मोहस्स ॥२१४।। ॥२००॥ (गीतिः) (उपगीतिः) जा आवलितिगसेसा पढमठिई ताव संकमेइ दलं। समयाहियआवलिसेसम्मि ठिइउदीरणा जहण्णंते। बीयत्तो तइयार तओ परं संकमेइ सुहुमासु ॥२०१।। तिण्डं घाईणं बंधो तह संतं मुहुत्तंतो ॥२१५।।।। (गीतिः) णामदुगस्स अडमुहुत्ता तह तइयरस बारसमुहुत्ता । खणअहिश्रावलिसेसाए बिइयातइयगाण सव्वदलं । बधो संतं तु अघाईण असंखेज्जवासाणि ॥२१६।। संकामइ सुहुमासु वज्जिय णवबद्धमावलिगयं च खविआ एगारस किट्टी अणुहवणेण संकमेणं च । ॥२०२।। (गीतिः) दुखणूणदुआवलिया य संकमेणऽणुहवेण सुहुमाओ लोहस्स मुहुत्तंतो बंधो घाईण दिवसंतो । ॥२१७।। (गीतिः) इवह अघाईणं वासंतो अह भणिमु ठिइसतं ।।२०३।। सुहुमगकिट्टीवेयणकालत्तो जाव कोहपढमाए । (उपगीतिः) वेयणकालं कालो अहिओ पच्छाणुपुवीए ॥२१८।। लोहस्स मुहुत्तंतो संखसहस्सबरिसा य घाईणं । माणाईहिं चडिआणं पढमठिई उ माणपहुडीणं । होज्जेइ अघाईण उण असंखेजबरिसा चरिमे ॥२०४॥ कोहाइएगदुतिखवणद्धाजुअकोहपढमठिइमाणा सेकाले सुहमगुणहाणं पडिवजए तयाणि च । ॥२१९।। (गीतिः) गुणसेटिं करइ सुहुमकिट्टी उकिरिय वेयइ य ॥२८५।। इगदुतिखवणं किच्चा कमेण हयकपणकिट्टिकरणाई। सुहुमगुणत्तो गुणसेदीणिक्खेवो विसेसअन्भहिओ। माणाईहिं चडिओ करइ विणासइ तओ सेसं ॥२२०।। तत्थ असंखगुणकमेणं णिखिविज्जा पसग्गं ।२०६। इत्थी खलु पुरिसुदयेणं पडिवन्नस्स इथिखवणांतं । चरिमाउ भसंखगणं अंतरआइम्मि ताउ य विसेसण। पढमठिइ ठावेइ अवेआ सत्त जुावं विणासेइ ज्वरि तभी बीयाइम्मि ताउ सखगुणहीणयं तो हीण ॥२२१।। (गीतिः) ॥२०७॥ (आर्यागीतिः) संढो ठावइ पढमठिई इत्थीपढमठिइमिभं खवइ । पीसह मंतरपदम जाव दलमसंखगुणकमेणं तत्तो। वेअदुगं जुगवं अवगयवेओ सत्त परिखवइ ।।२२२।। हीणकमेणं बीयाइम्मि असंखगुणमुवरि उ विसेसूणं इत्थीसंढाणं पुरिसस्स जहण्णो न होइ ठिइबंधो। ॥२०८॥ (आर्यागीतिः) सेसं तु पुरिसवेअव्व भासि वेअणाणत्तं ।।२२३।। बीयाइट्ठिाघायेसु गुणसे ढि उबरिल्लपढमणिसेगं । सेकालेऽवगयकसायगुणं लहए स पत्तइक्खायो। जावं दिजतं दीसंतं च भसंखगुणकमा तोहीणं ।२०९। । ठिइरसरहियं तइयं बंधइ पयइप्पअसेहि ॥२२४॥ (आर्यागीतिः) होज्जा पव्वव्व छकम्माणं ठिइरसविधायगुणसेढी। मुहुमद्धा थोवा तत्तो गुणसेढी विसेसअब्भहिआ। दलिअं पडुच्च गुणरोढिनिज्जरा उण असंखगुणा ।।२२५।। तत्तोऽन्तरं पढमखंडं तह संतं कमेण संखगुणं सम्मि संखभागे खीणकसायस्स हणइ झाणेण । ॥२१०। (गीतिः ) अन्तिमखंडेणं तस्स उवरिमठिइं तिघाईण ।।२२६।। हुमाण हेट्ठिमा उवरिल्लाअ असंखभागमेत्तीओ। कम्मखयकारणं झाणं दुविहं धम्मसुक्कभेअत्तो । न अणुहविज्जन्ते सेसा वेइज्जति किट्टीओ ॥२११।। एक्केक्कं होइ चउविहं णायव्वं पवयणत्तो ।।२२।। हेढिल्ला अणुदिण्णा थोवा तत्तो विसेसअहिआओ। चरिमे खंडे उक्किण्णम्मितिघाईणणत्थि ठिइघाओ। स्वरिल्ला तत्तो य असंखेज्जगुणा उदिण्णाओ समयहिआवलिरोसे हस्सठिइउदीरणा तिघाईणं ॥२१२।। ॥२२८॥ (गीतिः) मुहुमद्धार संखेज्जइभागे सगे विणारोइ । वोच्छिन्ना संतुदया निददुःगस्स उ दुचरिमसमयेऽन्ते । गुणसेदिसंखभागं अन्तिमखण्डं विघायंतो ॥२१॥ णाणंतरायचउदसणाण फिटति सन्नुदया ।।२२६।। . Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथाः ] प्रथम परिशिष्टम सेकाले पावेइ सजोगिगुणं लहइ केवलं णाणं । ( सुहुमेण कायजोगेण कमा सुहुमाणि चउमणाईणि । तह केवलं दरिसणं णिरन्तरायं च वीरियमणंतं रुम्भइ गंतूणं गंतूणं अंतोमुहुत्तं तु ॥२४६।। ॥२३०।। (गीतिः) | सुहुमं सरीरजोगं णिरुम्भमाणो अपव्वफड्डाणि । हस्सो भिन्नमुहुत्तं जेट्टो देसूणपुवकोडी से । कुणइ पढमसमया पहुडि पुवफड्डाण हेट्ठम्मि ।।२४७।। कालो अवट्ठिया गुणसेढी आयोजिकाअ परि ।।२३१॥ पञ्चगफड्डाणं पढनवग्गणाअ विरियाविभागाणं । आयोजिगाकरणमाउगम्मि अंतोमहत्तसेसम्मि । तह जीवपअसाणं ओकढिज्जा असंखंसं ॥२४८।। करए अहवा आवस्सयकरणमवस्सकरणं वा ।२३२।। कुणए अपव्वफड्डाणि मुहुर्ततो असंखगुणहाणीए । आवज्जियकरणं वा.ऽऽवज्जीकरणं तओ समुग्घायं । तह जीवपअसा उ असंखेज्जगुणक्कमेण ओकड्ढिजा कुणए जस्साउत्तो तइआईइं पहूआई ॥२३३।। ॥२४६॥ (आर्यागीतिः) दंड-कवाड-पयर-लोगपूरणाणि कमसो चउखणेसु। इह सेढिवग्गमूलस्स असंखंसो अपुवफड्डाणं । पएसा वित्थारइ बहुअसंखभागमिआ हुन्ते असंखभागो पुव्विल्लाणं पि फड्डाणं ॥२.५०।। ॥२३४॥ (गीतिः) तत्तो पुव्वाऽपुव्वेहिं फड्डेहिं कुणेइ किट्टीओ । ठिइसंतस्स असंखंसा ठिइखंडेण णासइ रसं तु । हेट्ठम्मि अपुत्राणं सेढिअसंखेज्जभागमिआ ॥२५१।। घायेइ बहुअणंतंसमिश्र अणुभागखंडेणं ॥२३५।। ओकड्ढए अपुव्वाइवग्गणाए असंखभागमिआ । बीयसमये कवाडे वित्थारइ बहुअसंखभागमिआ। अविभागे तह जीवपसाव असंखभागमिआ॥२५२॥ जीवपअसा ठिइघाओ रसघाओ य पुचव्व ।।२३६।। अंतोमुहुत्तकालमसंखगुणूणक्कमेण किट्टीओ । तइयसमये बहुअसंखभागमेत्ताऽपणो पोसा य । करए ओकड्ढइ जीवपअसे उण असंखगुणणाए वित्थारइ पयरे ठिइरसाण घाओ उ पुव्वव्व ॥२३७।। ॥२५३।। (गीतिः) वित्थारेइ चउत्थसमये बहुअसंखभागमिआ । किट्टीगुणगारो पल्लासंखंसो हवन्ति किट्टीओ । जापूरणे पएसा ठिइरसघाओ उ पुग्वव्व ॥२३८।। सेढीअसंखभागो अपव्व फडाण उण असंखंसो।।२५४।। (गीतिः) (उपगीतिः) किट्टीकरणे सम्मत्ते सेकाले विणासइ सजोगी । तइयाईणं अंतोमुहुत्तमेत्ता ठिई उ आउत्तो । स वाणि उभयफड्डाइं जोगो तस्स किट्टिगओ ॥२५५।। संखगुणा तत्तो संहरए जगपूरणाईणि ॥२३९।। पंचमसमये पयरे ठान्तो बहुसंखभागपमिठिइं । सुहुमर गुरुम्भन्तो झायइ सुहमकिरिय अपडिवाई। चरिमे समये सबाओ किट्टीओ विणासेइ ॥२५६।। नासइ रसं तु रससंतस्स बहुअणंतभागमियं ॥२४०।। चरिमसमये सजोगिस्स य अण्णयरस्स वेयणीयस्स । छट्ठखणे ठान्तो उ कवाडम्मि ठिइरसं च पुत्वव्व । ओरालियदुग तेय कम्मण-संठाणछक्काण।।२५७।। नासह ठिइरसघायद्धाखलु अंतोमुहुत्तमिआ ॥२४१॥ तह पढमसंघयणवण्णच उक्काण तह दोण्ह खगईणं। सत्तमसमये दंडे ठाअइ अट्टमखणे सरीरत्थो । अगुरुलहुयउवघायपरघानिम्माणणामाणं ॥२५८।। पढमट्ठमसमयेसु जोगो ओरालिओ होइ ॥२४२।। । पत्तेथिराथिरणामाण तहसुहासुहाण वोच्छिण्णो। सत्तमछट्टबिइयसमयेसु मिस्सो य कम्मणो जोगो। उदओ पुव्वं चिअ सुसरदुस्सरुस्सासणामाण ।।२५९।। तइय-तुरिय-पंचमसमयेसु निरुम्भेइ तो जोगं ॥२४३॥ | किट्टी जोगो ठिइरसघाओ णामदुगुदीरणा लेसा । बायरवयमणउस्सासकायजोगा निरुम्भइ कमेण । | बंधो तइयज्झाणं च सत्त अंतम्मि वोच्छिण्णा॥२६०॥ तत्तो सुहुमवयणमणतणु जोगा त्ति इगउवएसो।२४४। । तणतात्ति इगउवएसो।२४४।। सेकाले लहइ अजोगिगुणट्ठाणमुवयाइ झाणं च । रुम्भइ बायरमण-बय-उस्सास-तणू कमेण बीयमया। | | वोच्छिन्नकिरियमंतोमुहुत्तपमिशं च सेलेसिं॥२६१।। बायरतणूअ भिन्नमुहत्तेणऽन्तोमुहत्तमच्चासं । पुव्वरइयकम्मं खवइ असंखगुणक्कमेण गयलेसो। ॥२४५।। (गीतिः) | दुचरिमसमये संठाणअथिरसंघयणछक्कं तु ॥२६२।। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] द्वितीयं परिशिष्टम् [ मूलगाथानामाद्यांशः भगुरुलहुचउक्कं पणतणुसंघाया खगइसुरदुगं च । एगभवे दो सेढी खलु कम्मगंथियाहिपायेणं । बीसा वण्णाई तह बंधणपन्नरसगं निमिण।२६३॥ | आगमअहिपायेणं पुण सेढी हवइ अण्णयरा अंगोवंगतिगं तह पत्तयतिगं सुसरमपज्जतं । ॥२६८|| सायं व असायं वा नीअं छिजन्ति सन्तत्तो।।२६४।। कम्ममलविमुक्को सिरिवीरो जयइ सिरिपेमसूरीसो। चरिमम्मि णरतसतिगं पणिदियुच्चजससुभगआइज्ज। जयए तह तस्सिसो पण्णासो भाणुविजयक्खो सायमसायं व जिणं वा एगूणा य उदयत्तो ।।२६।। ॥२६९।। णरअगुपुञ्वीसत्ताच्छे बिति इयरे दुचरिमखणे। इह खवणपयत्था संगहिया तस्सिस्ससुष्पसिस्सेहि। सिज्झइखणेण समयप्पसअंतरमफुसमाणो॥२६॥ । जयघोस सुधम्मारणद-हेमचंद-गुरगरयणेहिं ॥२७०।। कम्मट्ठगक्खयत्तो लद्धा जीवेहि जेहि अट्ठगुणा । सत्तो य खवगसेढी जिएन्दसिस्सगुणरयरगविजयेरणं। ईसीपब्भाराए उड्ढे तेऽत्रहिआ हुन्ति ॥२६॥ । रइया एत्थ बहुसुया किवाअखलियं विसोहन्तु।२७१।। द्वितीयं शिश अकारादिक्रमेण क्षपकणिमूलगाथानामाद्यांशाः ड ११२ २६३ प्राधांशः गाथाङ्कः । प्राद्यांशः गाथाङ्क: प्राद्यांशः गाथाङ्कः एगसमयंतरेणं १५५ अंगोवंगतिगं २६४ इगखंडे पुण्णेऽप्पा. ७४ अंतम्मि मोहबंधो इत्थी खलु पुरिसुदयेणं २२१ एगुत्तरवुड्ढीए एगेगस्स कसायस्स अंतोमुहुत्तकाल २५३ इत्थीसंढाणं पुरिसस्स २२३ एवं जाव चरिमकिट्टीए अंतोमुहुत्तहीणा १६६ इगदुतिखवणं किच्चा २२० एगेगाए संगहकिट्टी मगुरुलहुचउक्कं इग समयपबद्धस्स १४१ एवं भवबद्धाण परं १५१ भणचउगं दिट्ठितिगं इह खवणपयत्था २७० अणुभागे चरिम० एवं हेतु उवरि य ८ इह सेढिवग्गमूलस्स २५० भणुसमयअवेयण. १६२ ओ अणुसमयमसंखगुणं ओकड्ढए अपुवाइ० २५२ उक्कोसं ठिइखण्ड भण्णो य टिइबंधो १४ ओहिविहंगमणेसु १०९ भसुहपयडीण उदयठिईए छण्हं १३९ मह लोहगमायाणंतरं ९३ उबट्टणाअ खु असंखगुणा १९ कम्मखयकारणं २२७ भह संगहकिट्टीअंतराण ९० कमसो अहिआ पल्लअसंख० १५८ भह संगहकिट्टीणं एक्केक्केणं थोवा १४५ कम्मटुगक्खयत्तो २६७ एगठिईअ इगाहिय० १४० कम्ममलविमुक्को २६९ आ एगदिवढदुपल्लाणि २९ कयअंतराण मोहस्स भायोजिगाकरण २३२ एगपश्रेसेण अईएऽप्पा १५२ करइ सुहुमकिट्टीउ भावज्जियकरणं एगभवे दो सेढी खलु २६८ करणस्स पढमसमये भाहारम्मि य बद्धपोसा १०७ | एगसमश्योऽणुसमय० १५४ । किट्टीकरणस्स चरिमे ११५ ९४ २३३ . Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगायानामाद्यांशाः ] श्राद्यांश: गाथाङ्कः २५५ १०१ २५४ किट्टीकरणे पुत्रपुत्रा ११४ किट्टीकरणे सम्मत्ते किट्टी कुणमाणो किट्टीगुणगारो पल्ला. किट्टी जोगो ठिइरसघाओ २६० कुणए अपुञ्चफड्डाणि कुणए वज्जिय कोहपढमं १३५ केवल दुगअभविय० २४९ ११० कोहगबद्धदलं कोपमा १३८ भिया १२२ १३० १२८ कोहपढमाउ माणगढमा कोवियत इयत्त कोहस्स पढमसंग कोण अत्र्वाणि कोहणं उदयेणं को हाइपढमसंग किट्टीए ख खंड अनंतभागा खणअहिआवलिसेसाअ खणभवपबद्ध से साणि खवगाणं संते नियमत्तो खवणाद्वासं खंसेसु खविआ एगारस किट्टी ग गंतून असंखगुणिअ० गुढी आम गोमुत्ती पडिखणं घ घाघाई कमा चरमपबहुत्ताउ चरिमम्मि णरतसतिगं ९७ ६६ ८३ १२१ १६ २०२ ९४२ ११३ ५६ २१७ १८६ घाईणं तं १८८ १८५ घाईणं मासपुहुत्तं घाई संखवाससहस्सा णि ७९ च १३२ १८ १२५ ३८ २६५ द्वितीयं परिशिष्टम् प्राद्यांशः गाथाङ्कः चरिसमये सजोगिस्स २५७ चरमा असंखगुणं २०७ चरमुदये संजल तिगस्स ० १७७ चरमुदये संजणाणं १७५ चरिमे खंडे उक्किणम्मि २२८ चरिमेखंडे २१४ १७२ १८७ ७८ चरिमे बंधो मोहस्स चरि बंधो लोहस्स चरिमे समये मोहस्स छ छट्ठखणे ठान्तो उ ज १२७ संकट्टि अणुए जं ठिसतं तो कोडाकोडी २२ जं ठिइसंतं अतोकोडाकोडी २५ १५६ २०१ १४३ १६४ जवमज्झं ठाणअस० जा आवलितिगसेसा जाणं समयपद्धाण जादुचरिमसमयम० जीवस्स जहण्णग० १४८ जेट्ठो किट्टी उ अनंतगुणूणा ८१ जेोऽणुसमय० १५९ 어 ठाणअसंखंसे जवमज्झं ठिखंडे गये सु २४१ ठिइसतं संखसहस्स० ठिइसंतस्स असंखंसा २८ ठिबंध बहुसदस्से सु ठिइसतं मोहस्सssवासा ११६ ठिइसतं मोइस्स वरिसट्टगं १२० ण अणुपुव्वीस ताच्छे अं पिल्लेवाटाणाई णाणाणाणदुगाविरइ० णाणंतरागि पल्ल स १५० ५१ ६० २३५ २६६ १४७ १०६ १५३ प्राद्यांश: णामदुगस्स अडमुहुत्ता त २३७ तइयसमये बहुअसंख • तइयाई तो मुहुत्तमेत्ता २३९ काल देइ तत्तो अपुत्र किट्टी ७२ तत्तो असण्णितुल्लं तत्तो उरिमुदिणा तत्तो एगद्गुणहाणि तत्तो ठिखंडपुहुत्तेणं तत्तो पढमे समये तत्तो वाहिं तत्तो बीयाए उ विसेस० ततो बीये अहिओ तत्तो मागको हाणं तत्तोय को पढमं तत्तोय खवगढी [ ५७५ गाथाङ्कः २१६ तत्तो य वग्गणा तत्तो विसेसहीणकमेण तत्थ य णत्र अहिगारा तत्थ य लोहपढम० तह आवलिंगासु तह पढमसंघयण० ता अवेयणकालो ता असंखगुणो ताणि अपुत्र्वाणि० ता वीसबंधा तो खणबद्ध से सय० तो आए अहिआ तो तीसगाण तो थावर तिरिनिरया० तो लोहस्स पढमसंग६० तो वीरियस रसबंधो तो बीसाण असंखगुणं तोवीसाण असंखगुणो तो अणिज्जबंध १३४ ३७ १२३ ७५ ५२ ७ २५१ ९५ १४९ ८९ ११७ २७१ ७६ ७३ २ ९१ ४५ २५८ १६३ ३४ ६४ ३६ १६० ९६ ३३ ३९ ९२ ४१ ५५ ५४ ३५ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] प्राद्यांश: थ थोत्रा आसि अन्तरकिट्टी १९३ द दंडकवाड पर लोग पूरणाणि २३४ दलितु दिस्समाणं दलितु पडणं १०० ८५ दाणतरायण ४० २०८ ६९ ६८ दीसइ अंतरपदमं दीसइ दलि देइ अवे गाथाङ्कः देव अतत्तो देइ दलिअं अव्य० न नरतिरियइग जिंदि० निरयसुरविगलपुत्री० प पंचमसमये परे पढमं से पुरस पढमखणे देसोव समणा पढमसमये अनुवाणि पढमसुहुमाअ देइ दलं पढमसुहुमाउ चरिमं पढमाणंतगुणिआ पढमे ठिइखंडे पुण्णे पत्तेयथिरथिरणामाणं पणमिय सिरिपासजिणं परिणामट्ठाणाई पुणे बंधेऽणुकमं पुण्णे हयकपणे आढवेइ पुरिसस्स अट्ठवरिसा पुरिसाईणं वे पुचगफड्डाणं पुव्वरइयक्रम्मं खबर पुत्राउ असंखंसाहिअं पंचमसमये परे १०३ १९८ १०५ १०८ २४० २० २४ ७० १९६ २०० ८८ २६ २५९ १ ५ ३२ ८० ५८ १० २४८ २६२ १९९ २४० द्वितीयं परिशिष्टम् श्राद्यांश: ब बंधपसा वित्तए aroga कट्टीअ बंध तोकोडाफोडी बंधी उदओ णासो गाथाङ्कः बायरवयमण उसास० बीयकरण दमसमयओ बीसमये कवाडे • बीया रखणे बाइखणे असंख अनुवा Margar भ भवद्वाणं णिल्लो त्रण० भिन्नमुहुत्तं उदियाणं म १३१ १३३ १७ १७० २४४ १२ २३६ १९७ १०२ २०९ र रखंड को हाई रसको उखण्डे रससंतं माणस्सऽप्पमद्द रुम्भइ बायरमणवय० ल १६१ ४२ मणत्रयणोरालाणं ९ २१३ १२४ मायाणासे लोहप माअ० १९४ मोहभाग मोहस्स देऊण मोहस्स पल्लमेत्तो मोहस्स संखवरिसा १७३ ३१ ४४ ६२ ४८ ६१ २४५ ९८ लोहजहणगकिट्टिo लोहपमा तब्बियाए १९९ लोहस्स जहण्णगकिट्टित्तो लोहरुल पढमसंग किट्टी लोहस्स पुव्वड्डाणि ९९ ५६ ७७ [ मूलगाथानामाद्यांशाः श्राद्यांशः गाथाङ्कः १९१ लोस्स विट्टत्तो लोहरस मुहतो बंधो २०३ लोहरस मुहुत्तो संख० २०४ व चित्रेइ उत्थसमये २३८ बेइज्जता इठिईअ १६५ बेइज्ज माणकिट्टी दल० ११८ वेइज्जमानकिट्टीय पदम० १६९ वेइज्ज्रमाणकिट्टी र ११९ १७१ वेइज्ज माणगरस वोच्छिज्जन्ति छ हासाई बोच्छिन्ना सन्तुदया २१ २२९ स संकमओ व्वित्ति० संखंसेगतिभागुत्तर० संबंधणे संगहअंतरजासु गट्टी द संजलणजहण्णग० रांजणगस्स उ संत मोहस्संतो ढोठा पढमहिं संप अभव्वपाउग्गे ५० २४२ बहुगो उपयो सत्तमछबिइयसमयेसु २४३ सत्तमसमये दंडे समयम्मि पहुड इगओ १५७ समयाहि आवलिसेसाअ ५७ समयाहियआवलिसेसम्म २१५ सायासायेसु पज्जत्ता १११ सुयाणं पयडी ४३ २४७ सुमं सरीरजोगं सुहुमकिट्टी वेयण कालत्तो २१८ सुमगुणत्तो गुणसेढी २०६ सुहुमद्धाए संखेज्ज० २१३ १३६ ३० २७ १३७ १२६ ६३ १८२ १६ २२२ १४६ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दसां सूची ] प्राद्यांश: गाथाङ्कः सुहुमद्धा थोवा तत्तो हुमत रुम्भन्तो सुहुमा किट्टीओ तइयार हुमाण डिमा मासु तत्तोपं २१० २५६ १९० २११ १९२ २४६ सुमेण कायजोगेण सेकाले अनियि २३ सेकाले ओकढत्तु १६८ सेकाले कुण ११ सेकाले खवए सत्त० ५३ १७४ सेकाले तइयं किट्टि सेकाले पढमठि मायात० १८४ तृतीयं परिशिष्टम् गाथाङ्कः प्राद्यांशः सेकाले पढमठि मायावी० १८३ सेकाले पावे सजोगिगुणं २३० सेकाले मातइकिट्टिं १८० सेकाले माण महिं १७६ कामाकट्टि १७८ सेकाले मायामकि १८१ सेकाले लहइ अजोगि० २६१ १८९ सेकाले लोहबिइयo सेकालेऽवगायकसायगुणं २२४ २०५ ४९ २२६ सेकाले सुमगुणा सेकाले सेकाले सेसम्म संभागे (१) प्रार्यागीतिच्छन्दः ( स्कन्धच्छन्दः ) - यस्य प्रथमेऽर्धे द्वात्रिंशद् (३२) मात्रा, एवं चरमार्वेऽपि तद् आर्यागीतिच्छन्दः । तस्मिंश्च गाथा: - १०, ४०, ५६, ६९, ७०, ९१, ९३, ११८, ११९, १३६, १४१, १४६, १५०, १५२, १५८, १६१, १६३, १६६, १७३, १८३, १८६, १९६, २०७, २०८, २०९, २४९ । (२) उद्द्रीतिच्छन्दः - वृवीयं परिशिष्टम् क्षपकश्रेणिमूलग्रन्थस्य च्छन्दसां सूची [ you गाथाङ्कः प्राद्यांश: साणि जट्ठिए सा सेसासु विसेसूणं सो असंभागो ह कण्ण किट्टिकरण० कण्णादो लोago इस्सो भिन्नमुत्तं ला होजा पुत्रवत्र कम्मा होन्ति पसे कम सो १४४ १०४ यस्य प्रथमेऽर्धे सप्तविंशतिः (२७) मात्राः, चरमे तु त्रिंशत् (३०), तद् उद्गीतिच्छन्द । तस्मिंश्च गाथाः-९, ४१, ६२.६६, ७४, ८६, ८८, ९५, ११५, १२९, १३०, १३३, १५१ । (३) उपगीतिच्छन्दः यस्य प्रथमेऽर्धे सप्तविंशतिमात्राः (२७), एवं * विशेषार्थिना कलिकालसर्वज्ञश्रीमदाचार्य हेमचन्द्रसूरीश्वररचित छन्दोनुशासन मत्रलोकनीयम् । ६५ चरमेऽर्धेऽपि तद् उपगीतिच्छन्दः । तस्मिश्च गाथाः२१, ३२, ३६, ३७, ४९, ५३, ५६, ६५, ७१, ७२, ७३, ८०, ८२, ८३, ८९, ९४, ९७, १०७, ११०, १११, १४६, २०३, २१४, २३८ । (४) गाथच्छन्दः -- ३ ५९ २३१ २१२ २२५ ४७ प्रथमेऽत्रंशद् (३८) मात्रा:, , चरमेSर्धे तु सप्तविंशतिः (२७), तद् गाथच्छन्दः । तस्मिंश्च गाथा - १५४ (५) गीतिच्छन्दः यस्य प्रथमेऽर्धे त्रिंशद् (३०) मात्राः, एवं चरमेऽर्धे ऽपि तद् गीतिच्छन्दः । तस्मिंश्च गाथाः१५, १७, १८, १९, २७, ३४, ४२, ४४, ४७, ५१, ५५, ५७, ५८, ६३, ६७, ६८, ७६, ७, ९२, १०२, १०३, १०५, १०६, १०८, १०९, ११२, ११६, Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ ] चतुर्थ परिशिष्म् [ टीकान्तर्गतग्रन्थानां सूचिः ११७, १२०, १२१, १२२, १२४, १२६, १२८, १३२, । २३६, २१२, २५२, २६०, २६३, २६४, २६५, २६६, १३५, १४०, १४४, १६४, १६५, १६६, १७, २६७. २६८, २६९, २७१ । १७२,१७६, १८०,१८६, १८७,२००,२०१,२०२, (७) रिपुच्छन्द:२१०, २१७, २१६, २२१, २२८, २३०, २३४, २४५, यस्य प्रथमेऽर्थ एकत्रिंशद् (३१) मात्राः, एवं २५३, २५४। चरमा ऽगि, तद् रिमुच्छन्दः । तस्त्रिच गाथा-१३४ (६) पथ्यार्याच्छन्द: (८) ललित च्छन्दःयस्य प्रथर्मेऽर्धे त्रिंशद् (३०) मात्राः, चरमेऽर्धे यस्य प्रथमेऽर्धे एकत्रिंशद् (३१) मात्राः, तु सप्तविंशतिः(२७), उभयोधाऽर्धयोरायद्वादशमात्रा- एवं चरमेश, तद् ललिताच्छन्दः । तम्मिश्व थासमनन्तरं यतिर्भवति, तत् पथ्याच्छिन्दः, तमिव १४३ । इदम बाजाधेयम्-रिपुच्छन्दसि सपमाण: गाथाः-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, १३, १४, पञ्च रात्रः, ललितोन्छन्दसि तु तृतीयाणः । २२,३०,३१,३५,३८, ३९,४३, ४५,४८,८४,९६, (९) विभुलार्याच्छन्दः-- १०१,१०४, १२३, १२५, १२७, १३७, १३९, १४५, __इदं छन्दः पथ्याच्छिन्दोवद् भवति, नत्र १४८, १५५, १५६, १६०, १७८, १८१, १८४, १८८, | रमम्मिन्नाया दशमात्राः संलङ्घन यनिर्भवति । वि. १९३, २०५, २१२, २१८, २२०, २३१, २३३, २३७, । लार्याच्छन्दसि च शेग अाशीति था भवन्ति । चातुर्थ परिशिष्ट अकारादिक्रमेण क्षरमश्रेणिकाऽन्तः प्रमाणतया सनुवृतानां ग्रन्थानां नाम्नां सूचिः १ अध्यात्मोपनिषद् २५२ १३ अदेशाहस्यवृत्तिः ४३२ २ अन्यत्राऽपि ४३७, ४५२, ४८९, ५२८, ५४१, १४ औपपातिकसूत्रम-५०७ ३ अभिधानचिन्तामणिकोशः २३१, ३१९, ५५६ १५ कर्मप्रकृतिः (मूलग्रन्थः) ८५,८९, २०० ४ अमरकोशः २३, १६२, १८४,१८९ १६ कर्मप्रकृतिचूर्णिः १२, ५८, ५९, ७२, ७९, ५ भागमः (जैन:) ४४५, ५०५, ५०७, ५१२ ८०, ८३, ८४, ८६-८९, ९२, १३४, ३३९, ६ आगमः (जैनेतरः) ५०८ ५०९ ३४३,४०३, ४०५, ४१४, ४३५, ४५०, ४८८, ७ आचाराङ्गटीका ४२०, ४२१ ४६० ८ आवश्यकचूर्णिः १०, ६२, ४०९,४३७, ४३९, ४४८/ १७ कर्मप्रकृतिटिप्पनम ४१५, ४१७, ४२०, ४२१ ४४९, ४५२, ४५३,४५७ *-४६९, ४७२,४७३, १८ कर्मप्रकृतिटीका (श्रीमन्मलयगिरीया) ९०, ८५, ४७६, ४७७, ४८६, ४९२, ५०१ ४०४,४१४, ४३८, १९ कर्मप्रकृतिटीका (श्रीमदुपाध्यायकृता) ७९,४०४, ९ आवश्यकनियुक्तिः ६२, ४४५, ५०७, ५२० ४०५, ४५० १० भावश्यकवृत्तिः (हारिभद्री) ४४९ २० कर्मस्तवः ४९८, ५०० ११ आवश्यकवृत्तिः (मलयगिरीया) ४६२, ४६८।। २१ कषायप्राभृतम् (मूलम् ) ३२, ७०, ७२-७७, १२ उक्तं च ७, ४२७, ४३३, ४४६, ४५६, ४९३, १५१, २००, २२२,-२२४, २२७, २३०, २३३, २४०,२८५, ४०७ फ़ दक्षिणपार्वे पृष्ठाको दर्शितः । * यत्र '-' एतविदर्यते, तत्र वामपार्श्वस्थ पृष्ठाङ्कतः प्रभृति दक्षिणपार्श्वस्थ पृष्ठाडू यावत् पृष्ठाका बोध्याः । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकान्तर्गतग्रन्थानां सूची ] २२ कषायप्राभृतचूर्णिः १६, १७, १९, २२, २६, २८-३३, ३५-३७, ३९-५५, ५८.६०, ६३, ६४, ६६, ६८. ७०-७५, ७६-८८, ६०, ९०, ९३, ९५, ९६, १२४, १२५, १२७-१३०, १३३१३८, १४०, १४४, १४५, १४७, १४९ - १५३. १५६, १५८, १६१, १६२, १६४-१६६, १८२, १८३, १८४, १८६, १६१, २००-२०५. २२१२२७, २३०, २३१, २३३-२३५, २३९-२४३, २४६-२४८, २५३, २५६, २६१-२६३ २६६. २८५-२८९, २९१-२९६, ३०२, ३०५-३१३ ३१५-३१०, ३२०, ३२४-३२६, ३२८, ३३०, ३३१, ३३३-३३५, ३३७, ३३९-३४४, ३४०३५१, ३५३, ३५४, ३५६, ३५७, ३५६, ३६०, ३६२-३६४, ३६७, ३६८, ३८०-३८२, ३८६-३८८, ३६१, ३६६ -४००, ४०२-४०५, ४००-४१८, ४२०, ४३६, ४४९, ४५६ ४६३, ४६५, ४६०, ४७७, ४७९-४८५ २३ गुणस्थानकमारोहः ( मूलग्रन्थ. ) ४३२, ४३३, ४४६, ४५४, ४५६, ४८७, ५०५, ५०६ २४ गुणस्थानककमारोह वृत्तिः ४५३ २५ गौतमसूत्रम् ५०७, ५१७ २६ जीवसनासः ( मूलग्रन्थः ) ३२१, ४२७ २७ जीवनासत्तिः २२१, २२९, ४५८ २८ तत्रार्थसूत्रम् ४२२, ५०६ २९ तत्वार्थ सूत्रभाष्यम् ४१९, ५०१, ५०३ ३० तत्त्वार्थ सूत्रवृत्तिः २३, ४२३, ४३३, ४३४, ४४४, ४४५, ४७०, ४७२, ४७३, ४८५, ४९४, ५०१ ३१ तथा चोक्तम् ८ ३२ तदुक्तञ्च ५११, ५३३ ३३ धर्मसार प्रकरणम् ४६९ ३४ ध्यानशतकम् १२, ४२३- ४२५, ४२७-४३१, ४३४, ४८५-४८७ ३५ ध्यानशतकटीका ४२५, ४३१, ४३२ ३६ नव्यशतकम् ३० ३७ निशीथ भाष्यम् १९७ ३८ नैषधमहाकाव्यम् ५१४ ३९ न्यायमञ्जरी ५०८, ५१० चतुर्थ परिशिम् ४० न्यायवात्स्यायनभाष्यम् ५२८, ५३३ ४१ पञ्चसंग्रहः (मूलग्रन्थः) ३४३, ४२ पञ्चसंग्रहमूलटीका १० ४३ पञ्चसंग्रहटीका (मलबारीया) २२३, ३१९, ४७३, ४७६, ५०० ४४ प्रज्ञाननासूत्रम् २२४, २२९, ४५१, ४५२, ४५१, ४९७ ४५ प्रज्ञानवृत्तिः (हारिभद्री) ४५१, ४९० ४३ प्रज्ञापनावृत्ति (मल गिरीया] ४५६ ४७ प्रमाणवार्त्तिकः ५३९, ५४०, ५४६ ४८ प्रमाणवार्तिकवृत्ति: ५३९ ४९ प्रशमरतिः ४४५ ५० प्रशस्तनादभाष्यस्य व्योमवृत्तिः ५०८ ५१ प्राचीनकर्मस्तवः २१ ५२ बृहत्कल्पभाम् ५५५ ५३ बृहदारण्यकम ५२६ ५४ बोधिचर्यावतार पञ्जिका ५४२ ५५ भगवद्गीता ५१० ५६ महाभारतम् ५३१ ५७ मुक्तिद्वात्रिंशिका ५३६ ५८ मेदिनीकोशः १६४ ५९ यत् प्रत्यपादि ७ [ ५७९ ६० यत्तु ५३३ ६१ यदुक्तम ४, ६-८, ४८६, ५२१, ५३०, ५३१. ५४२, ५५५ ६२ योगबिन्दुः ४८९ ६३ योगशास्त्रम् २३१ ६४ लिङ्गानुशासनम् ३२७ ६५ (न्याय) वात्स्यायनभाष्यम् ५२७ ६६ विशेषावश्यकभाष्यम् ४४०, ४५६, ४७०, ४९५, ४९६ ६७ विशेषावश्यकभाष्यटीका ४९५ ६८ वैशेषिक दर्शन प्रशस्तपादभाध्यम्, ५०९ ६९ व्याख्याप्रज्ञप्तिः ३४१, ४४२, ४४५ ७० व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्तिः ३४१, ४६३ ७१ शतक चूर्णिः १२४, १४९, ३९०, ४७३, ४९५ ७२ शकभाष्यम् १२ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] पषम परिशिष्टम् [ टीकान्तर्गतप्रन्थकाराणां सूची ७३ शास्त्रवार्तासमुच्चयः ४२८, ८१ सायप्रवचनभाष्यम् ५४९ ७४ श्रुतिः ५१०, ५१९, ५२६ ८२ सिद्धहेमशब्दानुशासनम् ५, ६, ७, ९, २५ २८ ७५ सप्ततिकाचूर्णिः ६०,६६,५९, ८१, ८५, ९०, १५१, ३१ ३४, ३६, ३९,४३, ६८, ७२, ८३, ९३, २३७,३३०, ३३१, ३३९, ३४१, ३४२, ३४७, ९४, १५०, १५२, १५४, १७८, २१९, २२०, ३४९, ३५१, ३५४, ३५६-३५९, ३६२, ३८९, २३१, २३४, २६३, ४०३, ४२४. ४३९, ४४४, ३९०,४०२, ४०३, ४१५, ४१७, ४२३, ४३९, ४४७, ४४८, ४५०, ४५३, ४६३, ४७७, ४६४, ४८८, ४९१, ५०१, ५५५ ७६ सप्ततिकाभाष्यवृत्तिः ४३६, ५०० ८३ सिद्धान्तबिन्दुः ५२७ ७७ समतिकावृत्तिः ६१, ९१, ४१७ ७८ सर्ववेदान्तसिद्धान्तसंग्रहः ५२६, ५२७ ८४ सूत्रकृताङ्गवृत्तिः ४२० ७९साङ्ख्यकारिका ५४८, ५४९ ८५ सेतुव्याख्या ५२१ ८० साङ्ख्यतत्त्वकौमुदी ५४८ ८६ सौदरनन्दमहाकाव्यम् ५१७ पञ्चमं परिशिष्टम अकारादिक्रमेण क्षपकश्रेणिटीकाऽन्तर्गतानां ग्रन्थकृन्नाम्नां सूचो १ अभयदेवसूरिपादाः ४६३ २ अस्मद्गुरुचरणाः २१९ ३ आर्यश्यामाः ४९७ ४ आवश्यकचूर्णिकाराः ४५३, ४७०, ४७१, ४९२ ४९४ ५ आवश्यकनियुक्तिकाराः ४५९, ५०२ ६ ईश्वरकृष्णाः५४८, ५४९, ७ उपाध्यायपुङ्गवाः ६१, ७९, ८१, ८६, ९०, ४०४, ४२१ ८ उमास्वातिपादाः ४६९ ९ श्रीकपिलः ५४८ १० कर्मप्रकृतिचूर्णिकाराः ४८८, ४८९ ११ कर्मस्तवकृतः ४९८ १२ कषायप्राभृतचर्णिकाराः ४७१.४७७.५८१ १३ कार्मप्रन्थिकाः ४५९, ५५५ १४ गोतमः ५१० १५ (सप्ततिका) चूर्णिकाराः ४९१ १६ जयन्तभट्टाः ५०८, ५१० १७ तत्त्वार्थभाष्यकाराः ५०३, ५०६ १८ तत्त्वार्थवृत्तिकाराः ४५७ १९ तौतातिताः ५२६ २० श्रीधर्मकीर्ति. ५३९ २१ ध्यानशतककृतः १२ २२ न्यायभाष्यकाराः ५०९, ५३४ २३ पञ्चसग्रहकाराः ११ २४ पतञ्जलिः ५३१, २५ पद्मनाभमिश्र: ५२१ २६ प्राभाकराः ५२४ २७ पाराशयः ५३१, २८ भट्टसर्वज्ञादयः ५२९ २९ श्रीभदन्ताश्वघोषः ५१७ ३० भद्रबाहुस्वामिनः ४५२ ३१ भाष्यकाराः ४४९, ४४५, ४५४, ४५५, ४६९, ४९४, ४९६, ४९७, ५०१, ५०२ ३२ भास्करः १८२, १८७, २१०, २६०, २६४, २६५ ३३ मनोरथमन्दिन: ५३९ ३४ श्रीमन्मलयगिरिसूरिपादाः ३४०, ४०४, ४३८, ४४८,४७३,४९२, ४९९ ५०० . Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकान्त तिच्याकरणसूत्राणि ] ३५ श्रीमन्मलयगिरि पादादयः ३३१, ४१४, ३६ मुनिचन्द्रसूरिपादाः ४१५, ४१७, ४२१, ३७ मेरुतुङ्गसूरयः २१, ४३६, ५०० ३८ श्रीमानप्रभृतयः ५२१ ३९ वाचस्पतिमिश्राः ५४८. ५४९ ४० वाचकमुख्याः ४४५, ४५३, ४६६, ४९२, ५०२, ५०६ ४१ विज्ञानभिक्षुः ५४९ ४२ विशेषावश्यकभाष्यकृतः ४४९, ४८६, ४९९ ४३ व्यासमुनिः ५१० ४४ व्योम शिवाचार्याः ५०८, ५२८ १ अच् (५-१-४९) ५, ९३ २ अतोने स्वरात (७-२-६) ४४४, ४९४ ३ अवयवात् तयट् (७-१-१५१) २५ ४ आतो डोsह्वावामः (५-१-७६) ५५६ ५णुवी० (उणादि १८२) ९४ ६ कर्मजा तृचा च (३.१ ८३) २२० कर्मणोऽण् (५-१-७२) २१९ ७ ८ कालेन तृष्यस्त्रः क्रियान्तरे (५-४-८२) ४७७ : कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्त्वे चित्रः (७-२-१२६) ४५० १० क्रियाविशेषणात् (२-२-४१) ७ भ्रष्ठं परिशिष्टम् क्षपकश्रेणिटीकाऽन्तर्गतानि व्याकरणसूत्राणि ११ कचित (५-१-१७१ ) ५ १२ चतुर्थ्याः पष्ठी (८३-१३१) १५२ १३ चोरादेः (७ १-७३) ४४८ षष्ठं परिशिष्टम् १४ जीणशीदीबुध्वत्रिमीभ्यः कित् (उणादि-२६१ ) ६ १५ णकतृचौ (५-१-४८) २१९ १६ तादृर्थ्ये (२-२-९४) १५२ १७ ते लुग्वा ( ३-२-१०८) ५ १८ द्विवचनस्य बहुवचनम् (८-३-१३०) ४३९ १९ नाम्युपान्त्यमी० (५-१-५४) ५ ४५ शतक (लघु) चूर्णिका एय: ४७३ ४६ शतक इच्चूर्णिकाराः ४७ शतकभाष्यकाराः १२ ४८ शीलाङ्गाचार्याः ४२० ४९ सिद्धसेन गणयः ४३३, ४३४, ४४४, ४५७ ५० सैद्वान्तिकाः ५५५ [ ५८ १ ५१ प्रशमरतिवृत्तिकारा हरिभद्रसूरीश्वराः ४७७ ५२ हरिभद्रसूरीश्वराः ४२५, ४२८, ४३१, ४४९, ४५१, ४५७, ४८९, ४९७ ५३ श्रीहर्षः ५१४ ५४ मलधार गच्छीया हेमचन्द्रपादाः २२९, ४५८ २० पम्पाशिनादयः ( उणादि ३०० ) २३१ २१ पर्यमाभ्यां वर्ज्ये (२-२-७१) ४४७ २२ पश्चादाद्यन्तामादिम: ( ६-२-७५) १५४ २३ पारेमध्ये ऽग्रे ऽन्तः षष्ठया वा (३-१-३०) ३४, ३६ २४ पृषोदरादित्वात् ( ३-२-१५५) तीयलोपः ४३६ २५ छुप चादावेकस्य स्यादेः ( ७-४-८१ ) २८ २६ भावाकर्त्रीः (५-३-१८ ) ८३, ९४, ५५६ २७ भावे ( ५-३-१२२ ) ४४८ २८ भीवृधि० (उणादि ३८७) ५ २९ भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने (५-३-१२८ ) ४५३ ३० याजकादिभिः ( ३-१-७८) २२० ३१ योग्यतात्री सा० (३.१-४०) ४३, १५२ ३२ लिहादिभ्यः ( ५.१-५० ) ५५६ ३३ लुक् ( ८-२-११ ) ४०३ ३४ वायसि० (उगादि ४२३) ५ ३५ विशेषणं विशेष्येणैकार्थ० ( ३-१-९६) २३४ ३६ वीप्सायाम् (७-४-८० ) २८, १५० ३० शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् ( ८-४-४४८) २६३ ३८ शेषे (२२-८१) २२० ३९ षष्ठयनाच्छेषे ( ३-१-७६ ) २२० Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ सप्तमममं च परिशिष्म् [ न्याया गणितसूत्राणि च ४० संस्तुस्मृशि० (उणादि २७६) ४६३ ४४ स्वार्थे कश्च वा ( ८-२-१६४ ) १७८ ४१ सङ्ख्या समाहारे च द्विगुश्चा० (३-१-९९) २३४ ४५ हु खु निश्चयविर्तकसम्भावनविस्मये ४२ सत्सामीप्ये सद्वद्वा (५-४-१) ७२ (८-२-१९८ ) ३१ ४३ सहस्तेन (३-१-२४) ९.६८ ४६ हृद्यपद्य० (७१-११) ४२४ सप्तमं टिभ क्षपकोणिटीकान्तर्गता न्यायाः १ अन्त्यदीपकन्यायः ४४४ २ काकाक्षिगोलकन्यायः ४४९, ४६६, ३ घण्टालालान्यायः २४, ९५, ३४४, ४ डमरुकमणिन्यायः ७६ ५ देहलीदीपकन्यायः ४३४ ६ द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते ५, ९, | २१९, २८८, ४७२ ७ निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ४९२ ८ पदार्थः पदार्थेना-ऽन्वेति, न तु तदेकदेशेन २५ ९ भामा सत्यभामा १४१ १० भीमो भीमसेनः १०, ३४, १४६, १५४,२२७, २२८ ११ भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः । ३९१ १२ यत्राऽन्यत् क्रियापदं न श्रूयते, तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते २९४ १३ यथोदशं निर्देशः १०, २३, २३७ १४ विचित्रा सूत्राणां शैली ३०० १५ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः २९०, २९१, ४८९, ५१८ १६ सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः ५५६ १७ सापेक्षमसमर्थम् २५ एटम पाटि क्षपकोणिटोकाऽन्तर्गतानि गणितकरणसूत्राणि १ अंतिमधणमादिजुयं गच्छद्धगुणं तु सव्वधनं। १९७ ॥ (२) प्रमाणमिच्छा च समानजाती, आद्यन्तयोस्तत्फलमन्यजातिः। मध्ये तदिच्छाहतमाद्यहत् , स्यादिच्छाफलं व्यस्तविधिर्विलोमे ॥ १॥ पृ० ३९, १८२, २६०, २६४, २६५ (३) व्येकपदघ्नचयो मुखयुक् , स्यादन्त्यधनं मुखदलिकं तत् । मध्यधनं पदसंगुणितं, तत् सर्वधनं गणितं च तदुक्तम् ।। १ ।। पृ० २७० २७३, २७५, ३७३, ३७४, ३७६ ४ शून्यं शून्येन पातयेत् ३९ ५ सैकपदघ्नपदार्धमथैकाद्यङ्कयुतिः किल सङ्कलिता. ख्या । १८६, १८७, २०१, २५७, २७०, २७२, २७८ , ३७२, ३७४, ३७६, ३८२, ३८३ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकपूर्णिटिप्पनम् । नबर्म परिशिष्टम् नवमं परिशिष्टम अशीतितमगाथैकाशीतितमगाथापूर्वार्ध-द्वयशीतितमगाथा-व्यशीतितमगाथा-चतुरशीतितमगाथापूर्वार्ध-पडशीतितमगाथाप्रभृतित्रिनवतितमगाथापर्यवसानाभिर्गाथाभिः प्रतिपादितस्य पदार्थस्य संवादक श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिपादविरचितशतकचूर्णिटिप्पनम् ततोऽसावन्तमुहूर्तमनुसमयविहिता(त)पूर्वापूर्व | भवति, स प्रथमः । अयं च सर्वासामपि संग्रहकिट्टीनां सर्धकसमूहः प्रतिसंज्वलनकषायं संग्रहन याभिप्रायतः । स्थानकिट्टीगुगकारेभ्योऽनन्तगुगः। एवमस्या एवं तिस्रस्तिस्रइति द्वादशकिट्टीयुगपत् करोति, तुल्यान्त- - संग्रहकिट्टया यदनन्तराशिगुणिता चरमकिट्टी एतत्तृ. राणामनन्तानपि एकतया गणनाद् व्यतितः पुनरेकै- ती यकिट्टयादिकिट्टी भवति, स द्वितीयः, एष च प्राग काऽनन्तशः इति । किट्टयो नाम एकैकरसाविभागोत्त- गुग कारादनन्तगुगः, एवं तृतीयादयोऽी यथोतरमरपरमाणुप्रचयलावणासमूहस्वभावानां कषायरस- नन्तगुणास्तावन्नेयाः, या कादश्याः संग्रह कियाः सर्धकानां दलिकस्याऽपवर्तनया त्याजितस्पर्धकरूप. | क्रोयद्वितीयायाः चरमकिट्टीगुणकार एकादश इति । स्य परस्परमनन्तगुणरसान्तरतयाऽविभागास्तथाहि. ये तु सर्वास्वपि संग्रहकिट्टीषु स्वस्थानेऽवान्तरकिलोभस्य पूर्वस्पर्धकानां प्रागविहितापूर्वस्पर्धकानां च | ट्टीनां यथोत्तरमनन्तगुणा अपि गुणकारास्ते सर्वेऽपि दलिकमादाय सर्वजघन्यापूर्वसर्द्धकादिवर्गणातोऽन- प्रथमद्वितीयकिट्टयन्तरगुणकारादपि अनन्तगुणहीनाः। न्तगुणहीनां तुल्यरसदलिकसंचयात्मिकां प्रथमकिर्टि अत एव सामान्यतः प्रथमात् संग्रहकिट्ट यन्तरगुणकाकरोति । एवमतोऽपि अनन्तगुणरसान्तरां द्वितीयां, रादनन्तगुणहीनेन एकेन गुणकारेण गुणिततया ततोऽपि तृतीयामेवं यावत् प्रथमत्रिभागान्त्यकिट्टी- वृद्धिभावात् सदृशान्तरतायां अनन्तानामपि संग्रहामिति । एताश्च कथंचित् तुल्यान्तरगुणकारतया अन भिप्रायतो अवान्तरकिट्टीनामेकत्वम् । यश्च संग्रहकिन्ता अपि एकैवेति । यथा लोभस्य तिस्रोऽऽ....... । ट्टीनां परस्परं विशेष्यः (प), सो अन्यस्मादन्तरगुणकाराएवं प्रथम विभागान्त्यकिट्टीतोऽनन्तगुणवृद्धर देकादशभेदादिति । पुनरपि स्फुटतरावबोधाय अससाविभागां यथोत्तरमनन्तगुणाभ्यधिकानन्तान्तराल- द्भावकल्पनया किञ्चिदुच्यते । किल द्वादशस्वपि किट्टीसमू स्वभावां द्वितीयामेवं तृतीयां च करोति । संग्रहकिट्टीषु अनन्ता अपि अवान्तरकिट्टयस्तिस्रयथा लोभस्य तिस्रोऽनन्ता वा, तथा प्रत्येकं पश्चानु । स्तिस्र इति षट्त्रिंशत् , अत्र च प्रथमकिट्टी अनन्तपूर्व्या मायादीनामपि । परं द्वादशाऽपि संग्रह किट्टयः रसाऽपि किल दशरसाविभागा एतद्विगुणाविभागा स्वस्थानसदृशावान्तरकिट्टीगुणकारा उत्तरोत्तरं च स्व- द्वितीया, तच्चतुर्गुणाविभागा तृतीया, एवं यथोतरमनस्थानादनन्तगुणवृद्धान्तरालाः। तथाहि द्वादशानां संग्र. न्तगुणा अपि अवान्तरकिट्टयः पूर्वपूर्वद्विगुणगुणकारहकिट्टीना कादशान्तराणि । एकादश चान्तरगुणका गुणिततया द्वितीयादीनां संग्रहकिट्टीनां प्रथमकिट्टीरास्तत्र लोभस्य प्रथमसंग्रहकिट्टयाश्वरमकिट्टी यदन रेका दशापि परिहृत्य तावत्तेपा(था?)वच्चरमाऽत्रान्तर. न्तराशिगुणिता तस्यैव द्वितीयसंग्र किया. प्रथमकिट्टी । किट्टीत्ति । एताः पुनरेकादशापि संग्रह किट्टयन्तरगुण Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ : नवमं परिशिष्टम् .. [शतकचूर्णिटिप्पनम् कारैरनन्तानन्तरूपैरपि कोटिदशकादिकैर्यथोत्तरमन- 1 ( १, ६७, ७७, २१६) इत्यन्तिमः पञ्चत्रिंशत्तमो न्तगुणैरपि दशगुणैः कोटीकोटिसहस्रदशकपर्यन्तैरे- द्विचरमावान्तरकिट्टीगुणकारस्तावत् स्वयमभ्यूह्य कादशभिरादितोऽपि चरमाऽवान्तरकिट्टीगुणकाराद- गुणितफलानुगता सुधिया वाच्येति (?) । एताश्च नन्तगुणैरपि साधिकपञ्चगुण :(५६१६४४)प्राच्यच- | द्वादश कोसंज्वलनोदयेन क्षपकश्रेणिमारोहतो रमकिट्टीनां गुणनेन भवन्ति । अत्र च गुणकारस दृष्टिः भवन्ति । मानसंज्वलनोदयेन क्षपितसंज्वलनकोपस्य १० २० । ८० कोटि ८०० | कोटि ६४०० । शेषमानादित्रयस्य नव । मायोदयेन तु क्षीणाद्यद्वय- कोटयः१० ८ । १६ _ स्य षट् । लोभोदयेन चाद्यत्रयक्षये केवललोभस्य एवं द्विगुणद्विगुणगुणकारगुणिततयाऽन्तरान्तरा च लिस्रः । तदुक्तं - संग्रहकिट्टयन्तरानुगता यावत्। सोलस दोत्ति (दोन्नि ) सयाइ सत्तेतरि हुति तह- बारस नव छ त्तिनि य किट्टीपो होति अहवणंतामो सहस्साई । सत्तट्ठीलक्खेहिं समग्गला एगकोडी य॥ एक्के कम्मि कसाये तिगतिगमहवा अणंतानो ॥१॥★ । परिशिष्टानि समाप्तानि । * कायप्राभृतगाथा-१६३ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धिसंमार्जनपत्रकम् पृष्ठम् पङक्तिः अशुद्धिः शुद्धिः पृष्ठम पङ्क्ति अशुद्धिः शुद्धिः २ १४ चागमे ह्यागमे ३१ ११ उवट्टणाअ उवट्टणाअ २ २५ श्रीपाश्च० স্বীধাঘ ३१ १६ भावने विम्मये ०भावनविस्मये ३ ४ दीक्षव्याजा० दीक्षान्याजा० ३२ १५ बन्धोदयो बन्धोदययो० ३ १७ पन्यासपादो पन्यासों ३२ १७ छट्टसे यथा कार: छटुंसे खवगसेढी ३३ ४ ९ १५ “कायव्व सेकाले" "सेकाले कुणइ" गुणसक्रमेण गुणसंकमण ३३ २३ ठिइघायसंखेहिं संखठिइघायेहि १० ६ अयोगिकेत्रलिगुणस्थानकञ्च अयोगि ३३ २५ स्थितिघातसंख्यः संख्यस्थितिघातः गुणस्थानकञ्च १९ ११ सत्तागत्त० ३३ २६ यस्थितित्वम् यस्थितिसत्त्वम् सत्तागत. ३४ २ षष्टया व" षष्ठया वा" १९ २० सप्त ०पञ्चक २० ५ पराधादेयो पराघातमुच्छवास ३४ ३ स्थितिघातसंख्यैः संख्यस्थितिघातैः ३४ ५ उपलक्ष "लक्ष्यते ४ मुपघात त्रसचतुष्क ३४ ८ ०द्वय द्रयं सुभगमादेयं २० ६ त्रिंश० नामकर्मणस्त्रिंश. ३४ १० ट्टि विणासेउ दि णासेउ २२ ६ व्यवछिन्नाः व्यवच्छिन्नाः ३४ १२ विनाशयितु नायितु ३४ २६ ०तश्चऽनन्त० २२ १६ आउणाणि भाउगाणि ०तश्चाऽनन्त. २२ २७ उपरितना० णासे ३४ २८ विणा० उपरितनी० २४ १० नाश ३४ २९ विनाशनन्तरससमय० नन्तरसमय० २५ २२ वि ३५ १ अनिवृत्ति० सवेदानिवृत्ति.* २५ २६ स्थितिं घातयति स्थितेविनाशः ३५ २ किमपूव० किमपूर्व० २७ २० ० णऽसं०........ ०ण दलिभं तु ३६ ६ सागरोपम० सागरोवम० ............. खिवा असंखगुणं पखिवाइ ३६ १२ पदसस्कारः पदसंस्कारः २७ २१ बंधंतासु बझंतीसु ३६ २२ पूष्णे पुणे ३६ २३ २० २१ ॥१५शा (उद्गीतिः) ॥१५।। (गीतिः) च य A २८ ३ ०पकृतीनां ०प्रकृतीनां ३७ १६ ठिइबंधसंख० संखठिइबंध० २८ ७ च य卐 ३७ १८,२० स्थितिबन्धसंख्य० संख्यस्थितिबन्धः २८ २१ द्विक्त० द्विरुक्त. ३७ २० संख्यातेषु संख्यातसहस्रेषु २९ २ पूण्णे ३७ २६ ०प्रातभृ० प्राभृत० ३० ९ श्रेदशतो ०प्रदेशतो ३८ १६ त्रिसभाग० त्रिसप्तभाग. ३० ११ कथंपुन० कथं पुनः ३८ १८ मोहनीयस्यसा० मोहनीयस्य सा० ३० २७ यन्त्रकम यन्त्रकारिण ३८ २५ सप्तमात्रः सप्तभागमात्रः सर्वत्र प्रष्ठशिरस्यपन्यस्तसक्ष्माक्षरपङकितः पढक्त्यको बोध्यः । # इयं शुद्धिः १११, १३०, १४१, १५२ गाथास्वपि बोध्या। A इयं शुद्धिः २६,२९, ३३, ३९, ५३, ७७, ८५, ८८, १०५, १०७, १६०, १६९, १७०, १८५, २०२, २०५, २०९, २१७, २४१, २६० गाथास्वपि बोध्या । ★ इयं शुद्धिः ३७, ३९, ४१, ४३, ४५, ४७, ४९, ५१, ५३, ५५, ५७, ५९, ६१, ६३.६५, ६७,६९७१, ७३, ७५, ७०,७९, ८१, ८३, ८५, ८७, ८९, ९१, पृष्ठध्वपि बोध्या । -_ पि पुण्णे Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] अशुद्धिसंमार्जनपत्रकम पुणे शाHिARAOK ३६ ८ ४० ६५ २३ देशघातो देशवाती ३९ ११ ४० ६६ २८ भिन्नमुहुर्त० भिन्नमुहूर्त ३१ २० ०सहस्रसु सहस्रषु ६८ ८, १४ बंधंतीण बझंतीण ३९ २१ नियमो नियमः ६८ १२ सहार्थस्तेन सहस्तेन ४० ३ पृण्णे वक्तव्यम ६८ २६ नुकीर्य नुकीर्य वक्तव्यम् । पलिदोवय० पलिदोवम० ६६ २,१४ ०प्रकृतिप्रथम- प्रकृतेरेव प्रथम४० २९ ४० सा० को० ४० सा० को० को स्थिती एव स्थिती ४१ २७ मोहणीयस्य मोहणीयम्स | ६९ चित्रम् ०१88888888888887 ४२ ७ नामद्विक-ज्ञाना- नामादिद्विकज्ञाना वरणचतुष्क० वरणादिचतुष्क० ७० १४ ०यनीयै० ०नीयल्यैः ४२ ८ त्रिभागुत्तर० त्रिभोगोत्तर० ७१ १६ मेपमंतरादो मेवमंतरादो ४२ १२ गदाणि, तदो गदाणि, णामागोवाणं ७१ १९ पष्ठोऽधिकार पाहोऽधिकारः पलिदोबमस्स संखे- ७२ ८ सख्यातवाषिकः संख्यातवार्षिक: ज्जदिभागो बंधो,तदो ७२ १३ व्युदासायच्याहरति व्युदासाय व्याहरति ४३ २३ पल्योपमा० पल्या० ७४ २७ विर्धश्च विधश्च ४४ २४ पल्योपमाऽसं० पल्योपमसं० ७५ १ रससक्रमा० रससंक्रमा० ४५ २४ बन्धेषु सहस्रषु बन्धसहस्रषु ७५ ११ नुभासंक्रमोनुभागसंक्रमो ४६ १६ मोहनीयस्य मोहनीयस्य बन्धः ७७ २१ रसबन्धोऽल्पः । रसबन्धः प्रभूतः ४६ २९ वदिक्कितेसु वदिक्कतेसु ७७ २१ रसोइयोऽल्पः । रसोदयः प्रभूतः ४७ ५ कमेणऽसंखगुणो कमा असंखगुणो ७८ १९ रसोदय स्तोकः । रसोदयः प्रभूतः ४७ ६ संख्येगुण संख्यगुण ७९ ३ नपुसकवेद नपुंसमवेदं ४७ ७ क्रमे..."गुण: क्रमादसंख्यगुणः ७९ ४ सर्वसंक्रमण सर्वसंक्रमण ४७ २९ 'कमेण' 'कमा' ७६ १९ खिवेइ खवेइ ४८ १२ उ ८० ७ मोहस्य मोहस्स ४८ २६ वेदनीयास्या० वेदनीयस्या० ८० १५ प्रदेसंक्रमो प्रदेशसंक्रनो ८१ ५ ॥५शा ५० १८ सागरोमशत सागरोपमशत० ॥५५।। (गीतिः) ८१ ६ तु ५५ १६ ०सत्त्वतोज्ञाना० ०सत्त्वतो ज्ञाना० १५ बन्धतः सत्त्वतः ५६ १४ संख्येयगुणः विशेषाधिकः ८२ २५ संख्येयर्ष संख्येयवप० ५६ २१ पल्यासं० पल्यसं० ८३ ५ आलिदुगे य सेसगे सेसे आलिगादुगे ५८ २१ चूःणि चूर्णि ८३ ६ वाषिकं वार्षिक ५८ २३ चूर्षि००चूर्णि ८३ . आवलिकाद्विके चशेषे शेष आवलिकादिके ५८ २४ ट्ठितिबंधंति द्विति बन्धन्ति ८३ १४ जना। जादं। ५९ २३ ०णवणोक्कसाया ०णवणोकसाया ८४ २ पुस्सिवेदस्स पुरिस वेदस्स ५९ २४ जहण्णट्ठिगति० ०जहण्णगट्ठिति० ८४ ७ बद्धः ॥५४॥ बद्धं तहुदयट्टिई सेसा ॥५७। (गीतिः) ६१ २३ स्थावराऽऽपोद्यो० ०स्थावराऽऽतपोद्यो० ८४ ९ बद्धमुदयस्थितिः बद्धं तथोदयस्थितिः ६२ ७ सूक्ष्म० सूक्ष्म ८५ ३ जहण्णं जहण्णो ६२ २३ थीणंखवेति थीणं खवेति ८५ ११ तता ततो ६३ ७ थीणागिद्धीय थीणगिद्धी य ८५ २५ पच० पंच० ६५ ११ •संख्यातसहस्रषु गतेषु पृथक्त्वे गते । ८५ ३१ ०लंभाडा लंभादो। Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ २० ० वलिकायां शे० ८६ २८ संक्रानसि ८७ ६७ ०सक्र ८७ ११ ० प्रकृतिकारा० ८७ २५ गुणिना कर्माशस्य ८८ ४ हास्यपट्क ८९ १७ बन्धं स्थिति १२ २२ तूदीरणा विद्म ० सहस्रस्थितिन्धेषु चक्ष "तिः ९२ ३ सत्रौ० ९२ १४ जघन्ययोगिता ९० ९० ९१ ८ ९१ ३४ ९३ १२ चतु० ९३ १२ ० पर्यसानः ९३ १२ धिकाश्च० ९३ १४ ०कर दयो ९३ १९, २७ व्त्रणउ० ९३ २८ हिनोनि ६३ २९ हात ९४ ३ सप्तवति ९४ ४ कण्यते ९४ ९ ०नुभागे खण्डे ९४ ११ भावकर्योः १४ रज्ज्वोः ६४ ९४ २१ यन्त्र काणि ९५ १ ० सत्पयो० ९५ ८ सज्वलन ९६ ९,१० ०दी० ९७ ९८ १५ ९९ ५ ९९ १० गृहीतव्यम् १०२ १२०द्वायामेव १०२ २३ ०स्तृतीय १७ गृहीतव्यम् "9 • खण्ड १०३ ३ ०गक्रमण १०३ ४ ०कोत्तरसा० १०३ १४ भनुभागोο ० वलिकाशे० संक्रामति संकo ० प्रकृति चूर्णिकारा० गुणित कर्माशय हास्यपट्क ०बन्धं संचलनानां बन्ध षट्कर्मस्थिति० ० त्तदीरणया विद्मः सहस्रस्थितिबन्धेषु चश "त्तिः सहैवो० जघन्ययोगिना च तृतीयाधिकारश्च ० o पर्यवसानः धिकारश्च ० ०करणे पृथक्पृथगधिकारत्वेन सहानिवृत्तिकरणादयो ०वट्टण उ० हिनोति हिधातो: सप्तिती कर्ण्यते •नुभागखण्डे भावा कर्त्रीः रज्ज्वाः यन्त्र के सत्त्वयो० संज्वलन० शुद्धिमानपत्रकम् • ई० प्रहीतव्यम् • खण्डे प्रहीतव्यम् ०द्धायामेव वस्तृतीया ०गक्रमेण ०कोत्तररसा० अनुभागा० १०३ २४ परम्परोनिधा " २७ ० स्यप्रथम० १०५ २ ●लब्धिस्तद्० १०५ १३.१५ ०ज्यते १०५ १३,१५ लब्धश्च० १४ द्वितीयगुण० دو "" १०५ २५ पुन पुनः १०६ ३० ०र्धकचतुस्पर्थ● ● स्पर्धकचतुर्थ● १०६ ३० १०८ ६ १०९ १ पटत्रिंश० द्वितीय ११३ ९ जघन्यपरिता ११५ ९,१२ भवन्ति । ११६ २० न यावन्तः ११० ४ १०९ २३ ३९२४(२) पुनरसखेय० पुनर संख्येय० ११२ ५० वर्गणातस्ततृ० ० वर्गणातस्तु० ११२ १२ प्रथमवगणायां प्रथमवर्गणाय ११२ १४ न्यास न्यासः भवन्ति । भवन्ति । १७ रसा ११३ १ पूर्व० पूर्व ११३ ५ ० विभागान् उत्कृष्ट० ०विभागेषु विशो धितेषु शेषा रसाविभागा जघन्यपरित्तासंख्येयतम पर्वकप्रथमवर्गणायामुत्कृष्ट० जघन्यपरित्ता० ११६ २१ वर्गणातः ११६ २९ वर्गणाणतो १९६ १,३४ ०स्पर्धके १२१ १२४ १६ १२५ २१ १२५ २६ १२० १० र सम्पर्धक १२० २३ इदुमुक्त रसविभागा कपाया० 6 ू पत्रिंश० द्वितीया अनिवृत्तिकरणा० अश्वकर्ण करणा० ४-१ ३९०× (२४–१ परम्परोपनिधा ०स्य प्रथम० ० स्तदू० ०ज्यन्ते पुन रसख ० उत्कर्षणाय० लब्धाश्च० द्वितीयद्विगुण० ओट्टिदेसु स्त्रिगुणा उक्त इति । (गीतिः) [ ५८० वक्तव्याः । तेन यावन्तः वायां वर्गणात स्पर्धकादिमवर्गणायां रसस्पर्धक० इदमुक्त रसाविभागा कषाय० पुनर संख्य० उत्कर्षणाप० १२६ २१ पूर्वस्पर्धकानां पूर्वस्पर्धकानाम् १२६ २७ भोकड्डुकडण० ओकडकडण• १२६ २९ १२७ ६ १२८ ११ १२९ ६ ओट्टिदे गास्त्रिगुणा X (उद्गीतिः) Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ ] मशुद्धिसंमार्जनपत्रकम् लोभ. 10. 0 3 . Asaras. १३१ स्पधक० स्पर्धक० १३१ १२ विभागा विभागाः १३१ २९ ०पञ्चदशा० ०चतुर्दशा० १३१ ३० ०विंशतितमा० ०षोडशा० १३२ ४ एकविंशतितम् एकविंशतितमम् १३२ १७ चतुविंशतितम् चतुर्विशतितमम् १३२ १३ त्रिंशत्तम त्रिंशत्तमम् १३२ १८ पञ्चत्रिंशत्तम् पञ्चत्रिंशत्तमम १३४ ५ कपाप० कपाय० " १८ सप्ततिम० सप्ततितम० १३४ २० चणिः चूणिः १३५ २४ दलम दलम् १६५ २६ एकाचय. एकचय० १३६ ३ विशेषश्चो० विशेषश्चा० १३६ ८,६,१२ दिस्सइ दीसह १३७ २७ स्पधेकभ्यः स्पर्धकेभ्यः १३९ १० पुव्वचरिमाआ पुवअन्तिमगा, १३६ ११ दिस्सइ दीसइ १३९ १४,२१ यावत्पूर्वचरमा यावत्पूर्वान्तिमा १४० ४ ०क्षप"गणा क्षेपणा १४० १४ 'दिस्सई' १४० २२ सेसामु १४१ ५,९,२३०दीण ०ईण १४१ २४ ०रूपाणां रूपाणाम १४२ १०-११ गाणं' ति(१) गाण त्ति.... स्वार्थे कश्च वा (सिद्ध हेम०८-२-१६०) १४२, १७ माणादीण माणाईण १४२ २५ स्पर्धगत० स्पर्धकगत० १४४ २५,२६ वस्स० ०वास० १४५ १३ पराई पराण उण असंखसमा । १४५ १५ परे.."णि परेषां पुनरसंख्यसमाः। १४५ २२ असं० 'पुनरसंख्यसमाः' असं० १४६ १५ मोहोशमना० मोहोपशमना० १४७ १७ षण्णोक. षड्नोक० १४७ २५ ०प्रभूत्व. ०प्रभूतत्व० १५१ २ मुदयेण मुदयेन १५१ १७ ०चूर्णो १५१ २० सग्रह. संग्रह १५२ ३ कोहादीण कोहाईण १५२ २१ र 'दीसई' सेसासु १५३ १८ किट्टीसु मुणेया किट्टीसुणेया १५३ २८ गुणा गुणाः १५४ २ रसविभागेभ्यो रसाविभागेभ्यो १५४ १७ किट्टयन्तस्य किट्टयन्तरस्य १५८ ९ चूणि चूर्णिः -- १५८ ११ अंतराइणाम अंतराइ णाम १६० २८ गणं गुणं १६२ २७,२८ उपरि"पदस्य उपरि भण्य मानस्य लोभमाययोरन्तरमनन्तगुणमित्यस्य लोभतृतीयसंग्रहकिट्टन्यतरपदेन सिद्धत्वादुपरितनपदस्य १६३ १८ ०न्तरगुणं ०न्तरमनन्तगुणं १६६ ९ ०णंगुणं ०णंतगुणं १६७११,१७,१९०किट्टि किट्रिः १६७ ३० लाभ १६७ ३५ अ"स अस १६८ ८,२६,३१ तद्ररसा० तद्रसा० १७४ १३ किट्ट: किट्टिः १७६ २२ किट्रियन्तरम किद्रयन्तरम वान्त ०वान्तर० १७८ ३ उ १७८ २० ०बहुत्वं भणना००बहुत्वभणना० १८१ १४ परिमणयति परिणमयति १८१ १६ ततोऽपि तदपि १८५ २५,२७ ०कलक्ष० ०कादशलक्ष १८६ ६ २२२००३५ २ २२२००३५ , १९ हीनानि हीनानि लोभप्रथम संग्रहकिट्टिद्वितीयावान्तरकिट्टी १८७ १८ विभज्यन्ते गुण्यन्ते १९१ ९ ०क्रमणैव ०क्रमेणैव १९१ २२ परिणनाय परिणमनाय १९१ २२ भवन्ति । भवन्ति । इहाऽसत्क ल्पनया दर्शितसंख्याकानि मायाकिट्टितया परिणतानि दलिकानि संज्वलनचतुष्ककिट्टितया परिणमनाय गृहीतसकलदलिकानां किश्चिदधिकाष्टभागप्रमाणानि भवन्ति, किन्तु तानि परमार्थतः किञ्चिन्यूनाष्टभागप्रमाणानि । . Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धिसंमार्जनपत्रकम् [ ५८९ १९४ १६ १४१९९८१४०० १४१६९८१४४० २६० २६ ( उद्गीतिः) (रिपुच्छन्दः ) १९९ ३० संज्वलच० संज्वलनच० , २८ नाऽपूर्वस्याः न्यपूर्वस्याः २०० ६ ॥१०१॥(उपगीतिः) ॥१०१।। ततो ददाति ततो दलिकं ददाति , १२ किट्टिकारे० ननु किट्टिकारे० २६१ २ 'बंधादि'० 'बंधाई २०१ १४ क्रोध.............. २६१ ४ स्वरुपेण स्वरूपेण प्र० क्रोधप्र० २६१ ५ रुपो""स्वरुपश्च रूपोऽपूर्वावान्तर२०२ ४,५ ०दी० किट्टिस्वरूपश्च २०२ २५ तदानींतनास्व० तदानींतनीष्व० २६१ ८ अधस्तना' 'अधस्तनी' २०४ २८ ०मापूर्वा ०मपूर्वा २६१ ११ प्रथमा...." २०५ ८ ०सं प्रथमबन्धपूर्वा२०८ १२ पूर्वापूर्वसू० पूर्वापूर्वासू० वान्तरकिट्टितोऽसं० , १६ प्रतिपादित्वात् प्रतिपादितत्वात् २६१ १२ बन्धाऽवा० बन्धापूर्वाऽवा० २१३ २५ ०मेकोन ०मेकाधस्तना २६६ १२ बोद्धव्य । बोद्धव्यः । पान्तरकिट्टिदलमेकोन. २६९ १२ प्राग"क्षया अनन्तवृद्धि२१४ २१ ०चयान् ०चयान् हान्यपेक्षया २१९ १८ मग्गणासुय' मग्गाणासुच २७१ २,३ अन्त्य"चयाः २२३ २५ सम्मते सम्मत्ते २७१ २८ निर्वत्य निर्वय २२७ २ मणस्सु मणेसु २७१ ३० किय किट्टयो २३० २९ सव्वलिंगेसु २७२ २३ ०भयदलं सव्वलिंगेसु च भयचयदलं अन्त्य .........."पात् ४ २३३ १८ जीव जीव: २७४ २ (४). २३४ ८ (उद्गगीतिः) । (उद्गीतिः) २७८ २ बन्धपूर्वावान्त० बन्धपूर्वापूर्वावान्त २३५ १० चेव ताहे चेव २८४ १९ पंचम...."तु कोहगबद्धदल २३७ ७. मासा मासाः पंचमावलिया २३७ २२ ०तमया ०तम्या २८४ २० माणादीण २३८ २३ ॥११८।। (गीतिः) ॥११८।।(आर्यागीतिः) २८४ २१ पश्च...""कं तु क्रोधबद्धदलं २३९ २५ ०वेद्यसंग्रह वेद्यमानसंग्रह पञ्चमावलिकायां २४७ ५ गोः गौः २८४ २३ 'पंचमलं तु 'कोहग०' इत्यादि, २४७ ५ गोमूत्रधारा मूत्रधारा 'क्रोधबद्धदलं' २४७ १२ कया गोमूत्रिकया २८७ १ निरुपणम् निरूपणम् २४९ १०,१४ ०तना तनी २८७ १० संचितयत्स० सञ्चितस्य यत्स. २५४ १६ गोपुच्छकारो गोपुच्छाकारो २८९ ७ विशिष्टा विशिष्टाः २५४ २६ ०तना असंख्येय० ०तन्योऽसंख्येय० २८९ १३ पदसंसकरः पदसंस्कारः २५५ ३,८ ०तनास्वः तनीष्व० २९० ३० ०पर्षणेना० ०पकर्षणेना. २५५ ६,२००तनानां तनीनां २६१ २ .परितना परितनी २५५ २२ ०तना असंख्येय००तन्योऽसंख्येय० २९१ ५ ०क्षयेनो० ०क्षयेणो० २५६ ३० पूर्वार्वान्तर० पूर्वावान्तर० २९१ ८,१६,०प्रबद्ध ०पबद्ध० २५९ ११ चोपरितनानां चोपरितनीनां २९१ २२ ०णं सेसाणिगठि० ०ण सेसाणि इगट्ठि. २६० १६ व्हानिर्विभाग० ०हानित्रिभाग. २६१ २३ (गीतिः) (ललिता) २६. २३ बंधादि० बंधाइ० २९२ ४ दोसु दोसु , २३ देई २९२ २३ प्रबद्धा गच्छन्ति प्रबद्धा हीयमाना ६. २५ तो दलिभं देश गच्छन्ति देइ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशोना ओफड् तत्र ५९.] मशुद्धिसमार्जनपत्रकम् २९७ १६ द्वैतीयीकं द्वैतीयिक ३३७ २८ चण चूर्णी ३०१ २२ स्तिसृभिः सा० स्तिसृभिर ता० ३४० ६ एवं जघन्या० एवं संज्वलनक्रोधस्य ३०७ १० ०तमभागेऽसं० तमभागप्रमाणेष्वसं० __ जघन्यस्थित्युदयो जघन्या० ३०८ ७ ॥१५॥ ॥१५१।। (उद्गीतिः) ३४० १६ उण पुण ३०९ २६ वय क्षय ३४१ २४ ०ध्य क्रोधतृतीच० ० क्रोधतीय. ३०९ ३० त्वकत्र त्वेकत्र ३४७ ४ सयो विही सयो वि विही ३१० १ छेदण छेअण ३४७ ६,१६ सर्वो सर्वोऽपि ३१० २६ जन्तरान्तरेण । नन्तरानन्तरेण ३४३ ४ मा मोन्ते मासोम्मि ३११ १४ ०ङ्घय ०ङ्घय ३११ २९ पल्लव ३४९ ४ ॥१८॥ । १८ । (गीति:) पल्लस्स ३१२ १५ ईओ ईओ दुगुणूणो ३४९ २३ •मानस्य जघन्या० ०मानस्य जघन्य३१२ १६ आलि.''गीतिः) आवलिअसंख स्थित्युदो जवन्याभागे जेट्ठो आवलि. ३५० १० ०विंशतिः विंशति० संखंसो ॥१५४ (गाथः) ३५१ १२ पढ पढम३१२ १७ ०तीतः) तीतो द्विगुणोनः ३५१ २४ प्रथमस० प्रथमसं० ३१२ १८ आव"ज्येष्ठः लोभतृतीयसं० आपलिकाऽसंख्य ३५३ १८ लोभतृतीसं० __भागे ज्येष्ठ आवलिफाऽसंख्यांशः ३५४ २५ देशाना० ३१३ ४ 'आलिअसंखंसे त्ति ‘दुगुणूणो' इत्यादि, ३५६ ७ ओफ ३५६ १५ ०मायाया जघन्या००मा पाया जव३१३ २२ 'आव.' .."तत्र 'जेहो' इत्यादि, न्यस्थित्युदयो जघन्या० ३१५ २० ताभ्यो० न ताभ्यो ३५८ २० ०नुभागदयश्च नुभागोदयश्च ३१६ ४ भवप्रद्धाश्व भवप्रबद्धाश्च ३५६ २४ वि ३१८ ३० मस्थितिक रमस्थिति ३६१ १ लोभथम लोभप्रथम ३२१ १९ द्विगुणहान्यर० द्विगुणहान्योर० ३६१ ३२ मोक्कढित्त मोकड्डित्तु ३२३ २ (गाथा-१५७) (गाथा-१५७-२५८) ३६४ ९ सुहुसांपराइय० सुहुमसांपराइय० ३२३ १९ असख्ये 10 असंख्येय० ३६५ ९ प्राग प्राग ३२५ १३ वेइज्ज) वेइज्जं० ३६५ २२ विंशति. विंशति. ३२८ २४ प्रतिबहुदलं प्रतिबद्धबहुदलं । ३६६ ८ किट्टिमश्चतु० किट्टिभ्यश्चतु० ३२९ १३ पञ्च""श्रित्य । अगालविच्छेदादिकं ३६६ १२ सख्येयमाग० संख्ययभाग० समाश्रित्य ३६७ २१ बादर० बायर ३२९ १७ (गाथा-१६६) (गाथा-१६५) ३७२ ११,२६,०पदधनक ०पदध्न० ३२९ ३० ताहे च एव ताहे चेव स ३७५ ८ मध्यखण्डदलं मध्यमखण्डदलं ३२६ ३२ चैत्र चैव स ३७७ ६ प्रक्षिप्यत प्राक्षिप्यत ३३० ११ तु 'वेदयति' तु स 'वेदयति' ३८० ३० किट्टीनि० किट्ट नि. ३३० २२ ०णत्वात् ०णतत्वात् २८० ३० ल्या अल्पा ३३२ २० ०श्चऽसंख्येय० । ०श्वाऽसंख्येय० ३८२ १० संपराइयो सांपराइयो ३३४ २० गहकिट्टीए संगहकिट्टीए ३८२ १९ सर्वाः प्रदेशापेक्षया ३३५ १५ वेइज्ज० वेइज्जं० साः ३३६ १९ चरिमे चरमे ३८४ १३ तदेव तदेवं ३३७ १६ चतुभिर्मासै० । चतुर्भिर्मासै० । ३८५ १३ नेकोत्तरवृद्धया नेकोत्तरवृद्धया. पि Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९१ अशुद्धिसमार्जनपत्रकम् ३८५ १६ पूर्वापूर्वायूक्ष्म पूर्वापूर्वसूक्ष्मा ४३६ ५ उक्कसिया उकोसिया ३८९ २३ अन्तवर्षम् अन्तर्वम् ४४२ २६ श्रीविवाहप्रज्ञप्ती श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ती ३९० १० तयार्णिय तयाणिं च ४४३ ६ जिनमतं जिनमतं ३९० २४ तोताउ चरिमओ बीयाइम्मि उ ४४४ १७ केवलिनः केवलिनो ३९० २८ ततो" स्मात चरिमतो द्वितीयादौ ४४६ १८ दानान्तरायाणां दानान्तरायादीनां ३९१ २४ अन्तकरण अन्तरकरण. ४४३ २२ प्रतिहायक प्रातिहार्य ३९२ २९ संखेजदिभागमेत्तमेववं संखेज्जदि- ४४७ ८ सयोगीगुण० सयोगिगुण भागमेत्तमेव तईआईई तइआईई ३९३ २१० दलतस्तु० दलतस्त्वेकसंख्येयभागमा ४४८ ९ यस्यायुस्तस्तृ० यस्यायुष्टातृ० विमान ४५१ ५ विवायतो नेत वाच्यम, ४०० ९ नेति चेत्, न, ४५१ २० गुणम् गुणः ४०२ ४ ठिइसंतं उग ठिइसंतं पुण ४५१ २२ ०शामश्रित्य शनाश्रित्य ४८४ ५ oभानोदयोगु० ०भागोदयो गु० ४५३ ३१ धवलाफरास्तु धवला. रास्तु ४०५ ५ मुहूर्ता मुहूर्ता ४५३ ३१ सर्ववाति कर्मणां । सर्वावातिकर्मणां ४०५ १० च्चैगोत्रयोः .च्चोत्रयोः ४५५ ५३ श्रीविवाहप्रज्ञप्ती श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ती ४०६ ३३ दुआली......"णेण दुआवलिया ४५८ २६ नितं मिश्र व्याख्याप्रज्ञप्ति ४६२ ३० व्याख्याहप्रज्ञप्ति० यसंक्रमेणऽगुहवेण ४०६ ३५ के"नेन ४७२ ३ तनुजोगा ०तणुजोगा के च संक्रमेणानुभवेन ४७७ २५ कायायोगे. काययोगे० ४०७ १२ अनुभवनेन अनुभवेन ४७८ ३ मुहुर्ता मुंहर्ता ४०९ २६ मा गादीहिं मा गाई हिं ४८० ५ ओकडढिज्जा ओकड् दिज्जा ४०९ २७ कोहादिग० कोहाइएस० ४८० २० वि दिइपमाणा ठिइमाणा ४८२ १४ गाथाद्वयन गाथाद्वयेन ०प्रमागा ०माना ४८४ ५ 'अव्वफडाण' ___'अपुवफड्डाण' ४२० ३ ४१२ २४ माय खवेदि मायं खवेदि ४८४ २४ समातकिट्टिकरणस्य तस्य' 'तस्य' समा४१४ ३१ अन्ये तु अन्ये तु प्राहुः तकिट्टिकरणस्य ४१५ २ भवति भवतीति ४९० २५ चिय ४१६ २ उद्यञ्च उक्तञ्च ४८५ ६ आडिवाइ अपडिवाई ४१७ २० वेदस्य" भागो००वेदस्य जघन्य- ४८५ २९ द्वय द्वयं स्थितिसत्त्वं जघन्यानुभाग- ४९७ २७ समचतुत्र समचतुरस्रसत्त्वं जघन्यानुभागो० ४९९ २ स्थित्युदयोगुणित० स्थित्युदयो गुणित. ४१८ १३ वेदणाणत्तं वेअणाणत्तं ५०० २४ नरआगु० णरअणु० ४२१ २८ oमेवेत्यवं मेवेत्येवं ५०४ २४ वेदनीया. वेदनीयमोहनीया० ४२२ ३० स्थि स्थिति ५०४ ३० नाम......"रूपाणि वेदनीयाss४२३ १ किट्टिवेदनाद्धा० अपगतकषाया० - युष्क-नाम-गोत्ररूपाणि ४२३ २५ घातिकर्मणा घातिकर्मणां ५०५ २५ तत्त्वध्यात्मत० तत्त्वध्यात्ममत० ४२३ २६ ०शतमगाथायाम शततमगाथाया । ५०६ १० (६) आयुःक्षयादक्षयस्थितिः, (६) वि४३२ १५ विशष० विशेष. नक्षयाइनन्तं वीर्यम्, ४३४ २५ समयहिअआलि० समयहिआवलि० | (७) विघ्नायादनन्तं वीर्यम् (७)आयुःक्षया दक्ष यस्थितिः ४३५ २८ वट्ठमाणस्स वट्टमाणस्स ५०८ ६५ सन्तानत्वादिति सन्तानत्वात् , ४३५ ३१ दंस-णावर० दंसणावर० प्रदीपसन्तानवदिति E EEEEEEEEEEEEEEEE वि चि Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ ] मशुद्धिसमाजनपत्रकम जान ५१२१ १५ ०द्भेदः, तेन द्भदः, तथा ५४६ ३ भवती भवतीति सुणानां कथञ्चिदुच्छेद- ५४७ १७ दिति दिति सिद्धमिति चेत. वदनुच्छदोऽपि, तेन ५४८ १२ प्रकृतिपुरुषविल वि० ५१५ २१ प्रथम...... यतः नहि प्रथमविकल्पः ५५० ५ तथा प्रकाश्य तथात्मानं प्रकाश्य कस्य कारणस्याऽभावः ? ५५० १५ अनुपपात्त० अनुपपत्ति० शरीरादेरिति चेत् , मैवम् , न हि | ५५१ २ बद्धावस्थाया बद्धावस्थायां ५१७ ६ यद्युक्तं यदुक्तं ५५२ २९ इत्यत्रेव शब्देन इत्यत्रेवशब्देन ५२० २१ ०ऽसमाने देशे ऽसमानदेशे प्रदीपसन्तानवदिति ५२४ २६ अन्यवृत्ति यतोऽन्यवृत्ति० ५५३ ३ संवदेना० सबदना ५२५ ३ कामम् सत्यम् ५५४ ९ भिवनाम् भिधान ५२५ ६ वैफल्यम् । वैफल्यम् । ५५८ १९ चिता० रचिता० म ५२५ १५ इत्यपि इति, तदपि ५५९ ८ व्मभृतम् पाचर्यम् ५२७ ६ प्रेयशब्द० प्रेयःशब्द० ५९० २७५ ०योगात् योगाद् ५२८ ३१ द्रव्यतो तत्र द्रव्यतो ५६२ ५ इष्ठाम ५२९ ११ नित्यानित्यसुख० सुख० ५६३ ३० तिभिकोशतङ्ग. तिमि को शतरङ्ग. ५२९ २५ व्यूढः ।। व्यूढो वोढव्यः। ५६५ को०२ पं० ५ २४ ठिइयधो ठिबंधो ५३० २३ ०श्चैकभाजन० ०रेकभाजन० ५६७ १ ११०दो ठोबट्टण० ०दो ठोबट्टण० ५३२ २८ सुखत्वेनभिमता० सुखत्वेनाभिमता० ५६७ २ ३८०मसख० ०मसंख० ५३३ ३० योगपद्यं योगपy १९ १३२ भागाण भागाणं ५७३ २ २१ अपव्वफड्डाण अपुव्वफडाण ५३६ २७ प्रेयः शब्द० ०प्रेयःशब्द० ५७४ २९ •धम्माणद०। धम्माणंद ५३९ १६ ०भिनिवेश भिनिवेशो ५७५ २ २३ जेठो जेट्ठा ५४० १२ ०त्तेरित्वेन तेरुपभोगाश्रयत्वेन ५७८ २ ६ तस्मिश्च तस्मिंश्च ५४० २१ परकीयेषु परकीयेषु ५८० २२० पञ्चसग्रहकाराः पञ्चसंग्रहकाराः ५४१ ३ एवं यत एवं ५८१ १ ५ श्रीवधमान० श्रीवर्धमान० ५४२ १२ हेतो"नाम हेतोः स्मरणं नाम | ५८१ २ ३ ०चूर्णिकाराः चूर्णिकाराः १२ ५४४ १४ प्रत्ययक्षस्य प्रत्यक्षस्य ५८२ १ १७ १४१ १५, १४१ ५४५ १२ गृहतेषु गृहीतेष्वि० १६ १२ महीना महिना ईटाम् Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ववगसेढो( क्षपकश्रेणि )ग्रन्थनी मूलगाथाओंनो गुजरातीमां भावानुवाद Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખવગસેઢી-ભાવાનુવાદ (૧) સુરેન્દ્રો, અસુરેન્દ્રો અને નરેન્દ્રોથી વંદન કરાયેલ શ્રીપાર્શ્વનાથ ભગવતને મન-વચન-કાયાથી નમસ્કાર કરી સ્વપરના હિત માટે ગુરુમહારાજની કૃપાથી ક્ષપકશ્રેણિ ગ્રંથને કહીશ. (૨-૩) - ક્ષપકશ્રેણિગ્રંથમાં નવઅધિકાર છે. તે આ પ્રમાણે ૫ કિટ્ટિકાદ્દા. ૬ કિક્રિવેદનાહ્વા. અપગતકષાયાદી. ૧ યથાપ્રવૃત્તકર્યું. ૨ અપૂર્વકરણ, ૩ ૧સવેદાનિવૃત્તિકરણ, ૪ અશ્વકણું કર્ણાષ્ઠા. ઊં ૮ સયાગિકેવલિગુણુસ્થાનક ૯. અાગિગુણુસ્થાનક (૪) અનંતાનુબંધિ ક્રાધ-માન-માયા-લાભ તથા મિથ્યાત્વમૈાહનીય–મિશ્રમેાહનીય– સમ્યકત્વમેાહનીય આ દનસસકને ક્ષય કરીને, જન્યથી (એછામાં ઓછા ) અન્તર્મુહૂત કાળ પછી અને ઉત્કૃષ્ટથી (વધારેમાં વધારે) સાધિક (કઈક અધિક) ૩૩ સાગરોપમ કાળ પછી શેષકમના ક્ષય માટે જીવ-આત્મા પ્રયત્ન કરે છે. શેષકર્માંના ક્ષય માટે પ્રયત્ન કરતા તે આત્મા ૬ ઠ્ઠા અને ૭ મા ગુણુસ્થાનકને અનેકવાર સ્પશે છે. પછી ૭ મા ગુણસ્થાનકે તે શ્રમણાત્મા યથાપ્રવૃત્તકરણ કરે છે. (૫) અધ્યવસાયા — અંતર્મુહૂત પ્રમાણુ યથાપ્રવૃત્તકરણના દરેક સમયમાં અસંખ્ય લેાકાકાશના પ્રદેશપ્રમાણુ અધ્યવસાયા હૈાય છે અને તે યથાપ્રવૃત્તકરણના પ્રથમ સમયથી માંડીને ઉત્તરાત્તરસમયે વિશેષાધિક હેાય છે. પૂર્વ પૂર્વ સમયની અપેક્ષાએ ઉત્તરાત્તર સમયે વિચારાતી અધ્યવસાયેાની વિશુદ્ધિ ઉર્ધ્વમુખી વિશુદ્ધિ કહેવાય છે, પ્રસ્તુત યથાપ્રવૃત્તકરણમાં તે દરેક સમયે અનંતગુણી હાય છે. આ અનંતગુણી ઉર્ધ્વમુખી વિશુદ્ધિ એક જીવની અપેક્ષાએ સમજવી. અનેક જીવાની અપેક્ષાએ તે રષસ્થાનપતિત જાણવી. વિક્ષિત એક સમયમાં અસ ંખ્યેય– લેાકાકાશપ્રદેશપ્રમાણુ અધ્યવસાયેાની પરસ્પર વિચારાતી વિશુદ્ધિતિય કમુખી વિશુદ્ધિ કહેવાય છે. તે અનેક જીવાની અપેક્ષાએ જ સમજવી. આ તિયસ્મુખી વિશુદ્ધિ ષટૂસ્થાનપતિત હોય છે. ૧. વેદના ઉદયવાળું અનિવૃત્તિકરણ, અનિવૃત્તિકરણગુણસ્થાનકના બહુસંખ્યાતભાગા સુધી વેદના ઉદય હાય છે. ૨. ૧ અનંતભાગ, ૨ અસંખ્યાતભાગ, ૩ સખ્યાતભાગ, ૪ સંખ્યાતગુણુ, ૫ અસંખ્યાતગુણ, હું અને તગુણુ, Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખબગસેઢી [ ગાથા ૬-૧૩ (૬-૭-૮) યથાપ્રવૃત્તકરણના પ્રથમસમયે જઘન્ય વિશુદ્ધિ સૌથી થેડી હોય છે. તેના કરતાં બીજા સમયે જઘન્ય વિશુદ્ધિ અનંતગુણ હોય છે. તેના કરતાં ત્રીજા સમયે અનંતગુણું, એ રીતે યથાપ્રવૃત્તકરણના પ્રથમ સંખ્યામાં ભાગ સુધી જઘન્યવિશુદ્ધિ અનંતગુણી અનંતગુણી કહેવી. યથાપ્રવૃત્તકરણના પ્રથમ સંખ્યામાં ભાગના ચરમસમયની વિશુદ્ધિ કરતાં નીચે યથાપ્રવૃત્તકરણના પ્રથમસમયે ઉત્કૃષ્ટ વિશુદ્ધિ અનંતગુણ હોય છે. તેના કરતાં યથાપ્રવૃત્તકરણના પ્રથમ સંખ્યામા ભાગના ઉપરના પ્રથમસમયે જઘન્યવિશુદ્ધિ અનંતગુણી હોય છે. એ રીતે નીચે ઉપર ક્રમશઃ ઉત્કૃષ્ટ અને જઘન્યવિશુદ્ધિ યથાપ્રવૃત્તકરણના ચરમસમય સુધી કહેવી. યથાપ્રવૃત્તકરણના ચરમસમયની જઘન્યવિશુદ્ધિથી યથાપ્રવૃત્તકરણના ચરમસંખ્યાતમાં ભાગના પ્રથમસમયે ઉત્કૃષ્ટવિશુદ્ધિ અનંતગુણી હોય છે. તેના કરતાં બીજા સમયે ઉત્કૃષ્ટવિશુદ્ધિ અનંતગુણ હોય છે. આ રીતે યથાપ્રવૃત્તકરણના ચરમસંખ્યાતમા ભાગના ચરમસમય સુધી ઉત્કૃષ્ટ વિશુદ્ધિ અનંતગુણી અનંતગુણી કહેવી. (૯–૧૦) યથાપ્રવૃત્તકરણ કરતે જીવ, મનોયોગ-વચનયોગ-દારિકકાયેગ, આ ત્રણ ગેમાંથી ગમે તે એક પેગમાં, સંજ્વલનોધ-માન-માયા-લેભ, આ ચાર કષાયમાંથી ગમે તે એક કષાયમાં, તેમજ શ્રુતપગમાં વર્તતે હોય છે. મતાંતરે મતિ–મૃત-ચક્ષુદર્શન–અચક્ષુદર્શન આ ચાર ઉપગમાંથી કોઈ એક ઉપયોગમાં વર્તે છે. પુરુષવેદ-વેદ-નપુંસકવેદ, આ ત્રણ વેદમાંથી કેઈ એક વેદમાં અને પૂર્વ પૂર્વસમયથી ઉત્તરોત્તરસમયે વિશુદ્ધતર થફલલેશ્યામાં વતે છે. પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, રસ અને પ્રદેશને આશીરીને બંધ, ઉદય, સત્તા સુગમ હેવાથી સ્વયં જાણી લેવી. (૧૧) યથાપ્રવૃત્તકરણના અનંતરસમયે સપક આત્મા અપૂર્વકરણ કરે છે. અપૂર્વ કરણમાં અયવસાયની વિશુદ્ધિ ગોમૂત્રિકાના આકારપ્રમાણે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અનંતગુણી હોય છે. જેમ ગોમૂત્રની ધારા પ્રથમ ડાબી બાજુ પડે, પછી વક્રાકૃતિથી જમણી બાજુ પડે, પછી ફરી ડાબી બાજુ પડે. તે જ રીતે અપૂર્વકરણમાં પ્રથમસમયની જઘન્ય વિશુદ્ધિ કરતાં ઉત્કૃષ્ટવિશુદ્ધિ અનંતગુણી હોય છે. તેના કરતાં બીજા સમયે જઘન્યવિશુદ્ધિ અનંતગુણી હોય છે. તેના કરતાં તે જ બીજા સમયે ઉત્કૃષ્ટ વિશુદ્ધિ અનંતગુણ હોય છે. તેના કરતાં ત્રીજા સમયે જઘન્યવિશુદ્ધિ અનંતગુણી હોય છે. આ કમથી અપૂર્વકરણના ચરમસમય સુધી જઘન્ય-ઉત્કૃષ્ટ વિશુદ્ધિ હોય છે. તેથી મૂત્રિકાની ઉપમાથી વિશુદ્ધિક્રમ બતાવ્યો છે. પાંચ અપૂર્વ અધિકાર : (૧૨–૧૩) અપૂર્વકરણના પ્રથમ સમયથી જ (૧) શુભ તેમજ અશુભકર્મોની પપમના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ સ્થિતિનો ઘાત. (૨) અબધ્યમાન અશુભકર્મના પ્રદેશોનો ગુણસંક્રમ. (૩) અશુભકમના રસને ઘાત, (૪) અપૂર્વ સ્થિતિબંધ અને ૧. જુઓ – ક્ષપકશ્રેણિ ટીકા પૃ. ૧૬ ઉપરનું ચિત્ર. ૨. ગોમૂત્રિકાકૃતિ માટે જુઓ ક્ષપકશ્રેણિ ટીકા પૃ. ૨૪૭. Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૧૪-૧૯] ભાવાનુવાદ (૫) ગુણશ્રેણિ. આ પાંચ પહેલાં કદી પ્રાપ્ત નહિ થયેલા અપૂર્વ અધિકાર અહીં એકી સાથે પ્રવર્તે છે. તેથી આ કરણ અપૂર્વકરણ કહેવાય છે. (૧૪) ૧ સ્થિતિઘાતઃ સ્થિતિવાત એટલે સ્થિતિસત્તાના અશ્ચિમ ભાગમાંથી સ્થિતિને ઘટાડવી. તે આ પ્રમાણે – જઘન્ય સ્થિતિખંડ ૫૫મના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ હોય છે. તેમજ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિખંડ પણ પપમના સંખ્યામાં ભાગપ્રમાણ હોય છે. તેમાં જઘન્ય કરતાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિખંડ સંખ્યાતગુણે હોય છે. ઉક્ત સ્થિતિખંડમાંથી દરેક સમયે થોડા થોડા કર્મ પ્રદેશ પ્રહણ કરી નીચેની સ્થિતિમાં નાંખી અંતર્મુહૂતકાળમાં વિવક્ષિત સ્થિતિખંડની સર્વસ્થિતિમાંથી સર્વ પ્રદેશને ખાલી કરી નાખે છે. તેથી એટલી સ્થિતિ સત્તામાંથી ઓછી થાય છે. આ રીતે જીવ અપૂર્વકરણમાં સંખ્યાતા-સ્થિતિઘાતો કરે છે. (૧૫) ૨ ગુણસંક્રમ : સત્તામાં રહેલી અબધ્યમાન અશુભપ્રકૃતિના દલિકને બધ્ધમાન સ્વજાતીય પ્રકૃતિમાં દરેક સમયે અસંખ્ય ગુણ અસંખ્યગુણ દલિકને નાંખે– સંજમાવે છે. દા. ત. સત્તામાં રહેલ અપ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાયના દલિકને વર્તમાનમાં બંધાતી મેહનીયની પ્રકૃતિઓમાં સંક્રમાવે. (૧૬) ૩ રસઘાત ? રસઘાત એટલે રસને ઘટાડે. દરેક અંતર્મુહૂર્તે સત્તામાં રહેલ અશુભપ્રકૃતિના બહુઅનંતભાગપ્રમાણ રસનો સપક નાશ કરે છે. એક સ્થિતિઘાત દરમ્યાન આવા હજારે રસઘાત થાય છે. શુભપ્રકૃતિના રસને ઘાત થતો નથી. (૧૭) ૪ અપૂર્વ સ્થિતિબંધ : અપૂર્વકરણના પ્રથમસમયે સ્થિતિબંધ અંતઃકટાકેટીસાગરેપમપ્રમાણ થાય છે. સ્થિતિસત્તા પણ અંતઃકોટાકોટીસાગરેપમપ્રમાણ હોય છે. પણ સ્થિતિસત્તા કરતાં સ્થિતિબંધ સંખ્યાતગુણહીન હોય છે. અપૂર્વકરણના પ્રથમસમયે શરૂ થયેલ સ્થિતિબંધ અંતર્મુહૂર્ત સુધી ચાલે છે. અંતમુહૂર્ત પૂર્ણ થયા પછી, પૂર્વકરતાં પલ્યોપમના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ એ છે એ બીજે નવો સ્થિતિબંધ શરૂ થાય છે. તે પણ અંતમુહૂર્ત સુધી ચાલે છે. અપૂર્વકરણમાં આવા અપૂર્વ સ્થિતિબંધ સંખ્યાતા થાય છે. (૧૮) ૫ ગુણશ્રેણિઃ ગુણશ્રેણિ એટલે અસંખ્યગુણકમે દલિની રચના. અપૂર્વ કરણમાં સત્તાગતકમંદલિડેમાંથી પ્રતિસમય અસંખ્યગુણ કર્મપ્રદેશને ગ્રહણ કરીને અંતમુહૂર્ત પ્રમાણ નિષેકેના ઉદયનિષેકથી માંડી છેલ્લા નિષેક સુધી અસંખ્યગુણ ક્રમે દલિકની રચના છવ કરે છે, પણ અનુદયવતી પ્રકૃતિના પ્રદેશને ઉદયાવલિકાના ઉપરના નિષેકથી માંડીને ગુણશ્રેણિના ચરમનિષેક સુધી ગુણશ્રેણિના આયામમાં અસંખ્યયગુણના ક્રમે નાંખે છે. ગુણશ્રેણિને આયામ (નિક્ષેપ) અપૂર્વકરણ અને અનિવૃત્તિકરણ આ બે કરણના કાળથી કંઈક અધિક હોય છે. આ ગુણશ્રેણિ આયામ ગલિતાવશેષ હોય છે એટલે કે જેમ જેમ એક એક નિષેક અનુભવાતો જાય, તેમ તેમ આયામ ઓછો થતું જાય. ' (૧૯) સત્તામાં રહેલા મેહનીયકર્મના પ્રદેશમાંથી અસંખ્યાતમા ભાગ જેટલા પ્રદેશને ઉખેડીને (લઈને) તેમાંના અસંખ્યાતમાભાગપ્રમાણ પ્રદેશની છવ ઉદ્વર્તન કરે Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવગસેઢી [ગાથા ૨૦-૨૭ છે. બાકીના બહુઅસંખ્યાતભાગોની અપવર્તન કરે છે. તેથી ઉદૂવર્તાનામાં જેટલા પ્રદેશ હોય છે. તેના કરતાં અપવર્તનમાં અસંખ્યગુણ હોય છે. તેના કરતાં સત્તાગત (નહિ ઉખેડેલા) પ્રદેશ અસંખ્યાતગુણ હોય છે. (૨૦-૨૧) અહીં અપૂર્વકરણના સરખા સાત ભાગ કલ્પીએ તો તેમાંનાં પહેલા ભાગને અંતે નિદ્રા અને પ્રચલાને બંધ વિચ્છેદ થાય છે, દેવદ્વિક, પંચેન્દ્રિય જાતિ, વૈક્રિયદ્રિક, આહારદ્ધિક, તેજસકામણુશરીર, સમચતુરસસંસ્થાન, વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ, શુભખગતિ, નિર્માણ, અગુરુલઘુ, ઉપઘાત, પરાઘાત, શ્વાસોશ્વાસ, જિનનામ, ત્રસદશકની નવ–(યશકીતિ સિવાય) આ ત્રીસ પ્રકૃતિનો છઠ્ઠા ભાગના અંતે બંધ વિછેર થાય છે. અપૂર્વકરણના ચરમસમયે હાસ્ય, રતિ, ભય, જુગુપ્સા-આ ચાર પ્રકૃતિએને બંધ વિચછેદ થાય છે. અને હાસ્ય, રતિ, શેક, અરતિ, ભય, જુગુપ્સા આ છ પ્રકૃતિને ઉદય વિચછેદ થાય છે. (૨૨) અપૂર્વકરણના પ્રથમસમયે થતા સ્થિતિબંધ કરતાં તેના ચરમસમયે સંખ્યાતગુણહીન સ્થિતિબંધ થાય છે. અપૂર્વકરણના પ્રથમ સમયે જે અંતઃકડાકડી સાગરોપમપ્રમાણુ સ્થિતિસત્તા હતી તે સંખ્યાતસ્થિતિઘાતોથી ઓછી કરાતી કરાતી ચરમસમયે સંખ્યાતગુણહીન થાય છે. (૨૩) અપૂર્વકરણની સમાપ્તિના અનંતરસમયે જીવ અનિવૃત્તિકરણ કરે છે. તેમાં અપૂર્વકરણની જેમ નવા સ્થિતિખંડને અને રસખંડને નાશ કરવાને પ્રારંભ કરે છે. અહીં જઘન્યસ્થિતિખંડ કરતાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિખંડ સંખ્યાતભાગમાત્ર જ અધિક હોય છે. જે અપૂર્વકરણમાં સંખ્યાતગુણ અધિક હતે. (૨૪) અનિવૃત્તિકરણના પ્રથમસમયે સર્વ કર્મોના સર્વદલિકની દેશે પશમના, નિધત્તિ અને નિકાચના વિચછેદ પામે છે. અર્થાત્ અનિવૃત્તિકરણના પ્રથમસમયથી દેશથી ઉપશમિત નિદ્ધત અને નિકાચિત પ્રદેશે સત્તામાં રહેતા નથી. તેમજ નવા બંધાતા કર્મ પ્રદેશની દેશપશમના નિધત્તિ કે નિકાચના થતી નથી. અનિવૃત્તિકરણમાં પ્રથમસ્થિતિબંધ અંતર્લક્ષ સાગરોપમ-લાખ સાગરોપમથી પણ ઓછા હોય છે. (૨૫) અપૂર્વકરણના પ્રથમસમયે જે સ્થિતિસત્તા અંતઃકેડીકેડીસાગરોપમપ્રમાણ હતી. તેના કરતાં અનિવૃત્તિકરણના પ્રથમસમયે સ્થિતિ સત્તા સંખ્યાતગુણહીન રહે છે. ૨૬) અનિવૃત્તિકરણનો પ્રથમસ્થિતિખંડ નષ્ટ થયે છતે એકી સાથે પ્રવેશેલા સર્વ જીવોના પરસ્પર સ્થિતિસત્તા અને સ્થિતિખંડ તુલ્ય હોય છે. (૨૭) અનિવૃત્તિકરણમાં સંખ્યાતા સ્થિતિબંધે ગયા (થયા) પછી જ્યારે અનિવૃત્તિકરણના કાળને સંખ્યાત ભાગ બાકી રહે ત્યારે આયુષ્ય સિવાયના સાતકર્મને સ્થિતિબંધ અસંક્ષિપંચેન્દ્રિયના સ્થિતિબંધની તુલ્ય થાય છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતસ્થિતિબંધ ગાયા (થયા) પછી ચતુરિન્દ્રિયના સ્થિતિબંધ તુલ્ય, ત્યારબાદ સંખ્યાતસ્થિતિબંધ ગયા (થયા) પછી ત્રીન્દ્રિયના સ્થિતિબંધ તુલ્ય ત્યારબાદ સંખ્યાત સ્થિતિબંધે ગયા Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૨૮-૩૪] ભાવાનુવાદ (થયા) પછી દ્વીન્દ્રિયના સ્થિતિબંધ તુલ્ય અને ત્યારબાદ સ`ખ્યાત સ્થિતિમા ગયા ( થયા ) પછી એકેન્દ્રિયના સ્થિતિબ ંધની તુલ્ય સ્થિતિમધ થાય છે. (૨૮–૨૯-૩૦-૩૧) હવે અનિવૃત્તિકરણમાં સંખ્યાતહજાર સ્થિતિબ ંધેા ગયા બાદ જે સ્થિતિમ ધાદ્ધિ એક એક વસ્તુ અને છે તે કહીશું. પણ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિબધાના ગમનને નિયમ કેાઈ કેાઈ વિશેષ સ્થળે લાગુ ન પાડવે. સ્થિતિબધ : એકેન્દ્રિયજીવના સ્થિતિબંધ સમાન સ્થિતિબ`ધ થયા બાદ સંખ્યાતા હજાર સ્થિતિમા ગયા ( થયા ) પછી નામ-ગાત્રકમના એક પક્ષ્ચાપમ, જ્ઞાનાવરણુ દનાવરણુ, વેઢનીય અને અન્તરાયના દાઢ પલ્યાપમ અને મેાહુનીયના એ પત્યેાપમ સ્થિતિબંધ થાય છે. ત્યારપછી દરેક અંતર્મુહૂતે નામગાત્રના ઉત્તરાત્તર સ્થિતિબ`ધ સંખ્યાતગુણહીન થાય છે. બાકીના પાંચકર્માના પહેલાંની જેમ પત્યેાપમના સંખ્યાતમા ભાગ હીન થાય છે. આ ક્રમે સંખ્યાતહજાર સ્થિતિબધા ગયા ( થયા ) પછી નામગેાત્રને સ્થિતિબંધ પડ્યેાપમના સખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ થાય છે. જ્ઞાનાવરણાદિ ચાર કર્મોના એક પલ્યાપમ અને મેાહનીયને એકતૃતીયાંશઅધિક એક પલ્સેપમ (૧) થાય છે. ત્યારપછી દરેક અંતર્મુહૂતે જ્ઞાનાવરણાદિ ચારને પણ ઉત્તરાત્તર સ્થિતિબ`ધ સંખ્યાતગુણહીન થાય છે. મેાહુનીયના પહેલાંની જેમ પત્ચાપમના સંખ્યાતભાગહીન થાય છે. આ ક્રમે પણ સંખ્યાતાહજાર સ્થિતિબંધેા ગયા પછી મેાહનીયને સ્થિતિબંધ એક પત્યેાપમપ્રમાણે થાય છે. બાકીના છ કર્માના પક્ષે પમના સંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણે થાય છે. ત્યારબાદ દરેક અ ંતર્મુહૂતે સાતે કર્માના ઉત્તરાત્તર સ્થિતિબંધ સખ્યાતગુણુહીન થાય છે. (૩૨–૩૩) માહનીયના એક પચેપમપ્રમાણુ સ્થિતિબ`ધ પૂર્ણ થયા પછી થતા સ્થિતિબંધનું અપમહુત્વ આ પ્રમાણે હોય છે — નામગાત્રને સ્થિતિબધ થાડા. તેના કરતાં જ્ઞાનાવરણાદિ ચારકર્માના સંખ્યાતગુણેા. તેથી મેાહનીયને સંખ્યાતગુણા. આ ક્રમે સંખ્યાતહજાર સ્થિતિબ`ધ ગયા પછી નામગેત્રના સ્થિતિબ`ધ પડ્યે પમના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ થાય છે અને ત્યારપછી એ બન્ને કર્માના ઉત્તરાત્તર સ્થિતિબંધ અસંખ્યાતગુણહીન થાય છે. અને શેષકર્માને પૂર્વવત્ સંખ્યાતગુહીન થાય છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિબંધેા ગયા (થયા) પછી જ્ઞાનાવરણાદિ ચારકર્માના સ્થિતિબધ પત્યેાપમના અસ ંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ થાય છે અને તે પછી આ ચારને સ્થિતિબંધ ઉત્તરાત્તર અસંખ્યેયગુણહીન થાય છે. એ જ રીતે સખ્યાતહજાર સ્થિતિબંધેા થયા પછી મેહનીયના સ્થિતિબંધ પણ પચેાપમના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ થાય છે, અને ત્યારે સાતકર્મીની સ્થિતિસત્તા અતક્ષસાગરોપમ એટલે કે લાખ સાગરાપમથી પણ ઓછી રહે છે. હવેથી સાતેકમને ઉત્તરોત્તર સ્થિતિબંધ અસંખ્યયગુણઠ્ઠીન થાય છે. (૩૪) ત્યારખાનૢ સંખ્યાતહુન્નર સ્થિતિબંધે ગયા પછી માડુનીયને સ્થિતિબધ એકીસાથે ઘટીને જ્ઞાનાવરણાદિ ચારના સ્થિતિબ ંધ કરતાં અસંખ્યેયગુણહીન થાય છે. ત્યારબાદ સ ંખ્યાતતુજાર સ્થિતિબધા ગયા પછી મેહનીયને સ્થિતિબંધ એકીસાથે ઘટીને Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખવગસેઢી [ગાથા ૩૫-૪૧ નામગાત્રના સ્થિતિમ ધ કરતાં અસ ંખ્યેયગુણહીન થાય છે. તેથી સ્થિતિમ ધનું અલ્પમહત્વ આ પ્રમાણે અને-મેાહનીયના સ્થિતિબ`ધ થાડા. તેના કરતાં નામગેાત્રના અસંખ્યગુણા તેના કરતાં જ્ઞાનાવરણાદિ ચારના અસંખ્યગુણે. (૩૫–૩૬) ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિ ધા ગયા પછી જ્ઞાનાવરણ, દનાવરણ અને અંતરાય આ ત્રણને સ્થિતિબંધ એકીસાથે ઘણા એછે થવાથી તેના કરતાં વેદનીયના સ્થિતિબંધ અસ ધ્યેયગુણ થાય છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહુજાર સ્થિતિમા ગયા ( થયા ) પછી નામગેાત્રના સ્થિતિબંધ કરતાં જ્ઞાનાવરણાદિ ત્રણના સ્થિતિબંધ એકીસાથે ઘટીને અસંખ્યગુણહીન થાય છે અને તે વખતે વેદનીયના સ્થિતિમધ નામગેાત્રના સ્થિતિબંધ કરતાં વિશેષાધિક હોય છે. અહીં સ્થિતિમ ધનું અલ્પબહુત્વ આ પ્રમાણે છે મેાહનીયને સ્થિતિબંધ થાડે. તેના કરતાં જ્ઞાનાવરણાદિ ત્રણના અસંખ્યેયગુણુ. તેના કરતાં નામગાત્રના અસંખ્યગુણુ. તેના કરતાં વેદનીયને વિશેષાધિક. આમ અનિવૃત્તિકરણમાં ઉત્તરાત્તર સ્થિતિ ધેા થયા કરે છે. યતબક્ (૩૭) સ્થિતિસત્તા : ઉપર્યુ°ક્ત અલ્પબહુત્વના ક્રમથી સખ્યાતહુપર સ્થિતિધાત થયા પછી સાતકની સ્થિતિસત્તા અસન્નીના સ્થિતિમ ધતુલ્ય થાય છે. ત્યારપછી છેલ્લા અલ્પબહુત્વસુધી જે રીતે સ્થિતિબધા કહી ગયા છીએ તે જ રીતે સ્થિતિસત્તા પણ સમજવી. (૩૮) સ્થિતિસત્તાના છેલ્લા અલ્પબહુત્વ બાદ સંખ્યાતહાર સ્થિતિઘાત થયા પછી અસંખ્યાતસમયપ્રબદ્ધ કદિલકાની ઉદીરા થાય છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થયા પછી ચાર અપ્રત્યાખ્યાનાવરણકષાય, ચાર પ્રત્યાખ્યાનાવરણુકષાય આ આઠ પ્રકૃતિઓને સત્તામાંથી ક્ષય થાય છે અને તે જ સમયે આ કષાય અષ્ટકને જઘન્યસ્થિતિસ ક્રમ થાય છે. ૧૬ પ્રકૃતિના ક્ષય અને મૈાહકનું અંતરકરણ : (૩૯-૪૦-૪૧) ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થઈ ગયા પછી સ્થાવર, સૂક્ષ્મ, તિય ચગતિ, તિય ચાનુપૂર્વી, નરકગતિ, નરકાનુપૂર્વી, આતપ, ઉદ્યોત, સાધારણ, એકેન્દ્રિય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય જાતિ, અને થીણદ્વિત્રિક આ સેાળ પ્રકૃતિના ક્ષેપક આત્મા સત્તામાંથી ક્ષય કરે છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થયા પછી દાનાન્તરાયાદિ પ્રકૃતિએને દેશઘાતી રસ ખાંધે છે. તે આ રીતે - ૧૬ પ્રકૃતિઓના ક્ષય થયા બાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થયા પછી દાનાંતરાય અને મનઃપવજ્ઞાનાવરણના દેશઘાતી રસ ખાંધે છે. ત્યારમાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થઈ ગયા પછી લાલાંતરાય, અવધિજ્ઞાનાવરણ તથા અવધિદર્શનાવરણને દેશઘાતી રસ ખાંધે છે. ત્યારબાદ સંખ્યાત હજાર સ્થિતિઘાત થઈ ગયા પછી શ્રુતજ્ઞાનાવરણ અને અચક્ષુદનાવરણના દેશઘાતી રસ ખાંધે છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થઈ ગયા પછી ચક્ષુદ નાવરણને દેશઘાતી રસ ખાંધે છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહાર સ્થિતિઘાત થઈ ગયા પછી ઉપભેાગાંતરાય અને મતિજ્ઞાનાવરણુના દેશધાતી રસ ખાંધે છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થઈ ૧. સ્થિતિબ`ધ સાથે સ્થિતિષ્ઠાત પણ થાય છે અને તે બન્નેને કાળ પણ સરખા છે. Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૪૨–૫૦] ભાવાનુવાદ ગયા પછી વીતરાયન દેશઘાતી રસ બાંધે છે. ત્યારબાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિઘાત થઈ ગયા પછી સંજવલનચતુષ્ક અને નવ નેકપાય આ મેહનીયની ૧૩ પ્રકૃતિનું અંતરકરણ કરે છે. અર્થાત ઉપર નીચેની સ્થિતિ છેડી વચ્ચેની અંતર્મુહૂર્ત પ્રમાણ સ્થિતિગત દલિકોને સમયે સમયે ખાલી કરે છે. આ અંતરકરણની ક્રિયા એક સ્થિતિબંધના અંતમુહૂર્ત પ્રમાણ કાળમાં સમાપ્ત થાય છે. (૪૨) અંતરકરણક્રિયા વખતે ઉદયવાળી પ્રકૃતિની પ્રથમ સ્થિતિ અંતમુહૂર્ત પ્રમાણ અને અનુદયવતી પ્રકૃતિની પ્રથમ સ્થિતિ આવલિકા પ્રમાણ હોય છે. નપુંસકવેદ અને સ્ત્રીવેદની પ્રથમસ્થિતિ સૌથી થોડી તથા બની પરસ્પરતુલ્ય. તેના કરતાં પુરુષવેદની પ્રથમસ્થિતિ વિશેષાધિક. તેના કરતાં ક્રોધ, માન, માયા અને લેભની પ્રથમ સ્થિતિ ક્રમશઃ વિશેષાધિક હોય છે. (૪૩) અંતરકરણ કરતી વખતે ઉપર નીચેની સ્થિતિની વચ્ચેની અંતર્મુહૂર્ત પ્રમાણુ સ્થિતિમાંથી પ્રદેશને ઉપાડી ઉપાડીને ઉદયવાળી પ્રકૃતિની પ્રથમસ્થિતિમાં નાંખે અને બધ્યમાનપ્રકૃતિઓની અબાધારહિત દ્વિતીય સ્થિતિમાં નાંખે છે. (૪૪-૪૫) અંતરકરણની ક્રિયા પૂર્ણ થયા પછી મોહનીયને (૧) સંખ્યાતવર્ષ પ્રમાણ સ્થિતિબંધ (૨) એકઠાણીયે રસબંધ (૩) એકઠાણીએ રદય (૪) આનુપૂર્વી સંક્રમ (૫) લેભને અસકમ (૬) નવા બંધાતાં સર્વકર્મોની બંધાયા બાદ છ આવલિકા ગયા પછી ઉદીરણું અને (૭) નપુંસકવેદની ક્ષપણું આ સાત અધિકારવસ્તુઓ એકી સાથે પ્રવર્તે છે–થાય છે. (૪૬) અંતરકરણની ક્રિયા પૂર્ણ કરનાર જીવને વિવક્ષિત કઈ એક સમયે, મેહનીયકમને રસબંધ, રસદય અને રસસંક્રમ અનુક્રમે અનંતગુણ હોય છે. હવે દલિજેને આશરીને બંધ-ઉદય અને સંક્રમ કહીશું. (૪૭-૪૮-૪૯) પ્રદેશબંધ, પ્રદેશદય અને પ્રદેશસંક્રમ અનુક્રમે અસંખ્યાતગુણ હોય છે. પૂર્વ પૂર્વ સમયની અપેક્ષાએ ઉત્તરોત્તર સમયે મોહનીયને રસબંધ અને રોદય અનંતગુણહીન હોય છે. રસખંડને ઘાત થયા બાદ રસસંક્રમ અનંતગુણહીન થાય છે. અને ઉત્તરોત્તર સમયે પ્રદેશબંધ વેગના અનુસારે ચાર પ્રકારે થાય છે. તે આ પ્રમાણે-અસંખ્યાતભાગવૃદ્ધ, સંખ્યાતભાગવૃદ્ધ, સંખ્યાતગુણવૃદ્ધ અને અસંખ્યાતગુણવૃદ્ધ અથવા અસંખ્યાતભાગહીન, સંખ્યાતભાગહીન, સંખ્યાતગુણહીન અને અસંખ્યાતગુણહીન પ્રદેશબંધ થાય છે. તેમજ યંગ જે અવસ્થિત હોય તે અવસ્થિત પ્રદેશબંધ પણ થાય છે. ઉત્તરોત્તરસમયે પ્રદેશોદય અને પ્રદેશસંક્રમણ અસંખ્યાતગુણ અસંખ્યાતગુણ હોય છે. (૫૦) વિવક્ષિત કઈ એક સમયમાં મોહનીયને રોદય વધારે હોય છે. તેના કરતાં તે જ સમયે રસબંધ અનંતગુણહીન હોય છે. તેના કરતાં અનંતર સમયે રદય ૧. અંતરકરણની નીચેની સ્થિતિ એ પ્રથમસ્થિતિ અને ઉપરની સ્થિતિ એ દ્વિતીયસ્થિતિ. જુઓ– ક્ષપકશ્રેણિ ટીકામાં ચિત્ર નં. ૭ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવસેઢી [ગાથા ૫૧-૫૯ અનંતગુણહીન હોય છે. તેના કરતાં તે જ સમયે રસબંધ અનંતગુણહીન હોય છે. (૫૧–પર) અંતરકરણ ક્રિયા પૂર્ણ થયા બાદ સંખ્યાતહજાર સ્થિતિખંડે ગયા પછી ક્ષપક નપુંસકદને સર્વથા અપાવે છે. ત્યારબાદ સ્ત્રીવેદને ખપાવવાનો પ્રારંભ કરે છે સ્ત્રીવેદની ક્ષપણાના કાળને સંખ્યાતમે ભાગ વીત્યા પછી જ્ઞાનાવરણ–દર્શનાવરણ–અંતરાય આ ત્રણ ઘાતિકર્મનો સ્થિતિબંધ સંખ્યાતવર્ષ પ્રમાણ થાય છે. ત્યારબાદ સ્થિતિખંડ– પૃથકત્વ ગયા પછી સ્ત્રીવેદને સર્વથા ખપાવી દે છે અને ત્યારે મેહનીયકર્મની સ્થિતિસત્તા સંખ્યાતવર્ષની રહે છે. (૫૩-૫૪–૫૫) સ્ત્રીવેદને સર્વથા ક્ષય કર્યાબાદ જીવ સાત નેકષાયના ક્ષયને પ્રારંભ કરે છે. તે વખતે સ્થિતિબંધ અને સ્થિતિસત્તાનું અ૯૫બહત્વ આ પ્રમાણે હાય છે – મેહનીયને સ્થિતિબંધ ડે. તેના કરતાં બાકીના ત્રણ ઘાતિકર્મોને સંખ્યાતગુણ. તેના કરતાં નામશેત્રને અસંખ્યાતગુણ અને તેના કરતાં વેદનીયને વિશેષાધિક હોય છે. મેહનીયની સ્થિતિસત્તા થડી. તેના કરતાં બાકીના ત્રણ ઘાતિકર્મોની અસંખ્યગુણ. તેના કરતાં નામશેત્રની અસંખ્યગુણી અને તેના કરતાં વેદનીયની વિશેષાધિક હોય છે. સાત નેકષાયની ક્ષપણુના કાળને સંખ્યાતમે ભાગી ગયા પછી ત્રણ અઘાતિકને સ્થિતિબંધ સંખ્યાતવર્ષપ્રમાણ થાય છે. (૫૬) સાત નોકષાયના ક્ષપણા દ્ધા(ક્ષપણા કાળ)ના સંખ્યાતભાગી ગયા પછી ત્રણ ઘાતિકર્મની સ્થિતિસત્તા સંખ્યાના વર્ષોની રહે છે. પુરુષવેદની પ્રથમસ્થિતિ એ આવલિકા પ્રમાણે બાકી રહે ત્યારે પુરુષવેદને આગાલ– પ્રત્યાગાલ વિચ્છેદ પામે છે. બીજી સ્થિતિમાંથી ઉદીરણાકરણદ્વારા પ્રદેશોનું ઉદયમાં આવવું તે આગાલ. પ્રથમસ્થિતિમાંથી ઉદ્વર્તનાકરણદ્વારા બીજી સ્થિતિમાં પ્રદેશનું જવું તે પ્રત્યાગાલ. (૫૭-૫૮) પુરુષવેદની સમયાધિક એક આવલિકા પ્રમાણે પ્રથમ સ્થિતિ બાકી રહે ત્યારે પુરુષવેદની જઘન્યસ્થિત્યુદીરણું અને જઘન્યાનુભાગે દીરણા થાય છે. એક સમયજૂન બે આવલિકા પ્રમાણ કાળમાં બંધાયેલું પુરુષવેદનું દલિક અને પુરુષવેદની ઉદયસ્થિતિ, પુરુષવેદની પ્રથમસ્થિતિના ચરમસમયે બાકી રહે. તે સિવાયના સાતે નેકષાયના સર્વ પ્રદેશને ક્ષય થાય છે. તે વખતે પુરુષવેદને સ્થિતિબંધ આઠ વર્ષ પ્રમાણ, સંજ્વલન ચતુષ્કને સેળવર્ષપ્રમાણ થાય છે. ઘાતિકની સ્થિતિ સત્તા સંખ્યાતવર્ષ અને અવાતિ– કર્મની અસંખ્યાતવર્ષ હોય છે. (૫૯) પુરુષવેદના ઉદયવિચ્છેદના અનંતરસમયે જીવ અધકણુકરણ કરે છે. પુરુષવેદેાદયના વિચ્છેદ પછી સંજ્વલનાધના ઉદયના બાકી રહેલા “કંઈક અધિક ત્રીજા ભાગપ્રમાણુકાળ”ને અધકણું કરણદ્ધા કહેવાય. તેનાં ત્રણ નામો છે. (૧) અશ્વકર્ણ. કરણુદ્દા (૨) આદેલકરણોદ્ધા (૩) અપવર્તનદ્વર્તનકરણદા. ૧ જુઓ - ક્ષપકશ્રેણિ ટીકામાં ચિત્ર નં. ૧૦. ૨ જુઓ – ચિત્ર નં. ૧૧. Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૬૦-૬૭]. ભાવાનુવાદ આ નામ સાર્થક છે. જેમ ઘડાને કાન મધ્યભાગમાં પહોળું હોય છે, પછી સાંકડો થતું જાય છે, એ જ રીતે પુરુષવેદને ઉદયવિચ્છેદ થયા બાદ એક રસઘાત સમાપ્ત થયે છતે કેધ, માન, માયા અને લેભને રસ અનુક્રમે અનંતગુણહીન(એ) બને છે. અથવા પુરુષવેદેદયના વિચછેદ થયા પછી પૂર્વ સ્પર્ધકે કરતાં અનંતગુણહીન રસવાળાં અપૂર્વપર્ધકે કરે છે. તેથી પણ આ પ્રક્રિયાના કાળને અશ્વકકરણુદ્ધા કહેવાય છે. આદોલકરણદ્ધાને અર્થ પણ આ રીતે સમજવો. આદોલ એટલે હીંચકે. વૃક્ષની શાખાને હીંચકે બંધાય ત્યારે બન્ને બાજુની દેરીની વચ્ચેને ભાગ વધુ પહોળો હોય છે. ત્યાર બાદ નીચે સુધી સંકેચા ઓછા થતા જાય છે. અપવર્તન એટલે ઓછું થવું. ઉદ્વર્તન એટલે વધવું. પુરુષવેદેદયના વિચ્છેદ પછી એક રસઘાત થયે છતે સંજવલન કેધ-માન-માયા-લોભને કમશઃ રસ અનંતગુણહીન બને છે તથા લેભ-માયા-માન–ક્રોધને અનુક્રમે અનન્તગુણવૃદ્ધ (અધિક) બને છે અથવા પૂર્વસ્પર્ધકે કરતાં અપૂર્વ સ્પર્ધકનો રસ અનંતગુણહીન હોય છે અને અપૂર્વ સ્પર્ધકે કરતાં પૂર્વસ્પર્ધ કેને રસ અનંતગુણઅધિક હોય છે તેથી અપવર્તદ્વર્તનકરણુકાળ કહેવાય છે. (૬૦) અશ્વકર્ણકરણના પ્રથમસમયે મેહનીયની સ્થિતિસત્તા સંખ્યાતહજાર હેય છે અને ચારે પ્રકારના સંજવલન કષાયને બંધ અંતમુહૂર્તપૂન ૧૬ વર્ષ પ્રમાણ થાય છે. (૬૧) રસસત્તાનું અ૫બહત્વ–માનની રસસત્તા ડી. તેના કરતાં ક્રોધ, માયા અને લેભની અનુક્રમે વિશેષાધિક હોય છે. એ રીતે સબંધનું પણ અ૫મહત્વ જાણવું. - (૬૨) ધ, માન, માયા અને લેભને રસખંડ અનુક્રમે વિશેષાધિક હોય છે. પ્રથમ રસખંડને ઘાત થયા પછી લેભ-માયા-માન-ક્રોધના બાકી રહેલા સ્પર્ધકે અનુક્રમે અનંતગુણ હોય છે. (૬૩) સંજવલન કષાયના જઘન્ય પૂર્વ સ્પર્ધક કરતાં ઉત્કૃષ્ટ અપૂર્વસ્પર્ધકને પણ અનંતગુણહીન રસવાળું કરે છે. આવાં સ્પર્ધક શ્રેણિ સિવાયની કઈ પણ અવસ્થામાં પહેલાં ન કરેલાં હોવાથી અપૂર્વ સ્પર્ધક કહેવાય છે. (૬૪-૬૫) અપૂર્વસ્પર્ધકે એક દ્વિગુણહાનિસ્પર્ધકેના અસંખ્યાતભાગ પ્રમાણ હોય છે. અહીં ભાગહાર (ભાજક) ઉત્કર્ષણપકર્ષણભાગહારથી અસંખ્યાતગુણ અને પલ્યોપમના પ્રથમવર્ગમૂળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ હોય છે. ઉત્તરોત્તર અપૂર્વસ્પર્ધકની પ્રથમવર્ગણાઓ વિશેષાધિક હોય છે. (૬૬) અશ્વકર્ણકરણના પ્રથમસમયે અનુક્રમે ક્રોધ-માન-માયા-લેભના અપૂર્વ સ્પર્ધક વિશેષાધિક હોય છે. (૨૭) ચારે સંજવલનકષાયના ચરમઅપૂર્વસ્પર્ધકની પ્રથમવાણાએ રસની અપેક્ષાએ તુલ્ય હોય છે. લેભાદિની જઘન્યવર્ગણામાં રસના અવિભાગે અનુક્રમે વિશેષાધિક હોય છે. અર્થાત લેભના પ્રથમઅપૂર્વસ્પર્ધકની જઘન્યવર્ગણામાં રસાવિભાગે ચેડા. તેના કરતાં Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦. ખગસેઢી [ગાથા ૬૮-૭૭ માયાના પ્રથમઅપૂર્વસ્પર્ધકની જઘન્યવર્ગણામાં વિશેષાધિક. તેના કરતાં માનની જઘન્યવર્ગણામાં વિશેષાધિક. તેના કરતાં ક્રોધની જઘન્યવર્ગણામાં રસાવિભાગ વિશેષાધિક હોય છે. (૬૮) ક્ષપકશ્રેણિ ઉપર આરોહણ કરતો આત્મા અપૂર્વ સ્પર્ધકોમાં વિશેષહીનક્રમે દલિક આપે છે તેનાંખે છે). અપૂર્વ સ્પર્ધકની ચરમવગણા કરતાં પૂર્વ સ્પર્ધકની પ્રથમવગણામાં અસંખ્યાતગુણહીન દલિક આપે છે. ત્યાર બાદ પૂર્વસ્પર્ધકની બધી વર્ગણાઓમાં વિશેષહીનકમે દલિક આપે છે. (૬૯) અપૂર્વસ્પર્ધકની જઘન્યવર્ગણાથી માંડી પૂર્વ સ્પર્ધકની ચરમવગણા સુધી દશ્યમાન દલિક ગોપુચ્છાકારે (ગાયના પુછડાના આકારે) ક્રમશઃ વિશેષહીન હોય છે. અપૂર્વ સ્પર્ધકમાં વર્તમાનમાં અપાતું જ દલિક દશ્યમાન દલિક. પૂર્વ સ્પર્ધકોમાં દશ્યમાન દલિક એટલે વર્તમાનમાં અપાતાં દલિકની સાથે સત્તામાં રહેલું જુનું દલિક. પ્રથમઅપૂર્વ સ્પર્ધકની પ્રથમ વર્ગણાનાં દલિકે કરતાં પ્રથમપૂર્વ સ્પર્ધકની પ્રથમ વર્ગમાં દશ્યમાન દલિકે અસંખ્યાતભાગહીન હોય છે. (૭૦) અધકકરણને પ્રથમ સમયે અપૂર્વ સ્પર્ધકે અને અનંતભાગપ્રમાણ નીચેના મંદરસવાળા પૂર્વ સ્પર્ધકે ઉદયમાં હોય છે. એ રીતે બંધ પણ સમજ. માત્ર વિશેષતા એ કે ઉદય કસ્તાં બંધમાં અનંતગુણહીનરસ હોય છે. (૭૧-૭૨-૭૩) પ્રતિસમય અસંખ્યાતગુણક્રમે દલિકે લઈને ક્ષેપક આત્મા અસંખ્યાતગુણહીન નવાં અપૂર્વ સ્પર્ધકે કરે છે. વિવક્ષિત કઈ એક સમયે બનાવાતાં અપૂર્વસ્પર્ધકોમાં અનુક્રમે વિશેષહીન દલિકે આપે છે. અને ચરમઅપૂર્વસ્પર્ધકની ચરમવર્ગણુ કરતાં પૂર્વ સમયે બનાવેલ પ્રથમઅપૂર્વસ્પર્ધકની પ્રથમવર્ગણામાં અસંખ્યગુણહીન દલિકે આપે છે. ત્યાર બાદ પૂર્વ સ્પર્ધકની ચરમવર્ગણા સુધી ક્રમશઃ વિશેષહીન વિશેષહીન દલિકે આપે છે. પૂર્વ-અપૂર્વ બધાં સ્પર્ધામાં દશ્યમાનદલિક અનુક્રમે વિશેષહીન વિશેષહીન હોય છે. (૭૪-૭૫–૭૬-૭૭) અશ્વકર્ણકરણદ્ધામાં એક રસખંડને ઘાત થયા બાદ અઢાર પદનું અ૫બહત્વ આ રીતે હોય છે – (૧) ક્રોધના અપૂર્વ સ્પર્ધકે ડાં. (૨) તેના કરતાં માનના વિશેષાધિક (૩) તેના કરતાં માયાના વિશેષાધિક. (૪) તેના કરતાં લોભના વિશેષાધિક. (૫) તેના કરતાં એકદ્વિગુણહાનિના સ્પર્ધકે અસંખ્યાતગુણાં, કારણ કે અપૂર્વસ્પર્ધકે એકદ્વિગુણહાનિના સ્પર્ધકેના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ જ કરાય છે. (૬) તેના કરતાં એકસ્પર્ધકની વર્ગણાએ અનંતગુણ. (૭) તેના કરતાં ક્રોધના સર્વ અપૂર્વસ્પર્ધકેલી વણાઓ અનતગુણી. (૮) તેના કરતાં માનના અપૂર્વકની વર્ગણાઓ વિશેષાધિક. (૯) તેના કરતાં માયાના અપૂર્વ સ્પર્ધકની વણાઓ વિશેષાધિકા (૧૦) તેના કરતાં લોભના અપૂર્વપકની વણઓ વિશેષાધિક. (૧૧) તેના કરતાં ૧. જુઓ – “ક્ષપકશ્રેણિ' ટીકા ચિત્ર નં ૧૩. Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૭૮-૮૯]. ભાવાનુવાદ પૂર્વ સ્પર્ધકે અનંતગુણાં. (૧૨) તેના કરતાં તેની વર્ગણુએ અનંતગુણ. (૧૩) તેના કરતાં માયાના પૂર્વ સ્પર્ધકે અનંતગુણાં. (૧૪) તેના કરતાં તેની વર્ગણુઓ અનંતગુણી. (૧૫) તેના કરતાં માનના પૂર્વ સ્પર્ધકે અનંતગુણાં. (૧૬) તેના કરતાં તેની વગણુઓ અનંતગણું. (૧૭) તેના કરતાં કોધના પૂર્વ સ્પર્ધકે અનંતગુણ. (૧૮) તેના કરતાં તેની વણુઓ અનંતગુણી. (૭૮) અશ્વકકરણના ચરમસમયે મોહનીયને-સંજ્વલનઝેધાદિ ચાર કષાયને સ્થિતિબંધ આઠ વર્ષ પ્રમાણ થાય છે. અને બાકીના કર્મોને સંખ્યાતહજાર વર્ષ હોય છે. (૭૯) સ્થિતિસત્તા-ચાર ઘાતિકર્મની સ્થિતિસત્તા સંખ્યાતહજાર વર્ષ અને ત્રણ અઘાતિકર્મોની અસંખ્યાતા હજાર વર્ષ થાય છે. આ રીતે ક્ષેપક આત્મા અશ્વકર્ણકરણને કાળ પૂર્ણ કરે છે. (૮૦) અશ્વકકરણ પૂર્ણ કરીને આત્મા કિષ્ટિકરણદ્ધામાં પ્રવેશ કરે છે. કિટ્રિકરણકાળમાં આત્મા પૂર્વ-અપૂર્વ સ્પર્ધા માંથી કિદિઓ કરે છે. કિટિ એટલે જે વર્ગણું એકેત્તર રસાવિભાગના કમવાળી હતી. તેને રસ ઘટાડવાથી પૂર્વ પૂર્વકરતાં અનંતગુણ આંતરાવાળા સરખા રસાવિભાગેને ધરનાર કમપ્રદેશને સમૂહ. (૮૧) લાભના પ્રથમઅપૂર્વસ્પર્ધકની પ્રથમવગણા કરતાં ઉત્કૃષ્ટ રસવાળી પણ કિષ્ટિ રસની અપેક્ષાએ અનંતગુણહીન હોય છે. ચારે કષાયની કિક્રિઓ એકસ્પર્ધકની વગણના અનંતમા ભાગ પ્રમાણ હોય છે. (૮૨) એક એક કષાયની ત્રણ અથવા અનંત કિદિએ થાય છે. ત્રણ કિક્રિઓ થાય છે તે સંગ્રહકિઠ્ઠિઓ અને અનંત કિઠ્ઠિઓ થાય છે તે અવાંતરકિદિઓ કહેવાય છે. (૮૩) ક્રોધના ઉદયે ક્ષપકશ્રેણિ માંડનારને ૧૨ સંગ્રહકિક્રિઓ થાય. માનના ઉદયે શ્રેણિ માંડનારને ૯ સંગ્રહકિઠ્ઠિઓ થાય. માયાના ઉદયે શ્રેણિમાંડનારને ૬ સંગ્રહ કિઠ્ઠિઓ અને લેભના ઉદયે શ્રેણિપર ચઢનારને ૩ સંગ્રહકિદિએ થાય છે. (૮૪) એક એક સંગ્રહકિટ્રિમાં અનંત અવાંતરકિઠ્ઠિઓ હોય છે. દરેક સમયમાં અપૂર્વઅવાન્તરકિઠ્ઠિઓ અસંખ્યાતગુણહીન થાય છે. અર્થાત્ પ્રથમસમયે જેટલી કિક્રિઓ કરે છે, તેના કરતાં બીજા સમયે અસંખ્યાતગુણહીન, તેના કરતાં ત્રીજા સમયે અસંખ્યાતગુણહીન, એમ ઉત્તરોત્તર સમયે અસંખ્યાતગુણહીન અપૂર્વકિઠ્ઠિઓ કરે છે. (૮૫) પૂર્વ પૂર્વ સમય કરતાં ઉત્તરોત્તર સમયે કિક્રિઓ માટે દલિક અસંખ્યાતગુણ ગ્રહણ કરે છે. હવે કિદિએના રસનું અલ્પબદુત્વ કહેવાય છે. (૮૬-૮૭-૮૮-૮૯) લેભની પ્રથમસંગ્રહકિષ્ટિની પ્રથમ અવાંતરકિટિમાં રસાવિભાગે ચેડા, તેના કરતાં બીજી અવાંતરકિટ્રિમાં અનંતગુણા. તેના કરતાં ત્રીજી અવાંતર કિદિમાં અનંતગુણા. એ રીતે લેભની પ્રથમસંગ્રહકિદિની એલી અવાંતરકિષ્ટિ સુધી સમજવું. તેના કરતાં લેભની બીજી સંગ્રહકિષ્ટિની પ્રથમઅવાંતરકિષ્ટિમાં રસાવિભાગો અનંતગુણા. તેના કરતાં બીજી અવાંતરકિટ્રિમાં અનંતગુણ. આ રીતે લેભની બીજી સંગ્રહ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ ખવગસેઢી [ગાથા ૯૦-૯૭ કિટ્વિની ચરમઅવાંતરકિટ્ટ સુધી સમજવું. તેના કરતાં લેાભની ત્રીજી સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમ અવાંતરકિટ્ટિમાં રસાવિભાગે અનંતગુણુા. આ રીતે લેાભની ત્રીજી સંગ્રકિટ્ટની ચરમઅવાંતરિદ્ધિ સુધી સમજવું. એ જ રીતે માયાની ત્રણ કિટ્ટિ, માનની ત્રણ કિટ્ટિ અને ધની ત્રણ કિટ્ટિની અવાંતરકિદૃિએમાં રસાવિભાગાનું અલ્પમર્હુત્વ કહેવું. (૯૦) હવે સ'પ્રકિ≠િઅ ંતર અને અવાંતરકિÊઅંતરનું અલ્પમહુત્વ કહીશું. સંગ્રહકિટ્ટિઅંતર – વિવક્ષિત સ`ગ્રહકિટ્ટિની છેલ્લી અવાંતરકિટ્ટિના રસાવિભાગે જે ગુણુક દ્વારા ગુણવાથી અનતર ઉપરની સ’બહુકિટ્ટિની પ્રથમઅવાંતરકિટ્ટિના રસાવિભાગે પ્રાપ્ત થાય તે ગુણુક સ'ગ્રહકિટ્ટિ અંતર કહેવાય. અવાંતરકટ્ટિ તર તે તે સંગ્રહકિટ્ટિની વિવક્ષિત અવાંતરકિટ્ટિના રસાવિભાગા જે ગુણુક દ્વારા ગુણવાથી તે વિક્ષિત અવાંતરકિટ્ટની અનંતરઉપરની અવાંતરકકટ્ટના રસાવિભાગા પ્રાપ્ત થાય તે ગુણુક અવાંતરટ્ટિઅંતર કહેવાય. (૯૧-૯૨-૯૩) કિટ્ટિઅંતરાનું અલ્પબહુત્વ—àાભની પ્રથમસંગ્રહકિટ્ટિનું પહેલું અવાંતરકટ્રિઅંતર અલ્પ-નાનું. તેના કરતાં બીજી અવાંતરકટ્રિઅંતર અનંતગુણું. તેના કરતાં ત્રીજું અનંતગુણું. આ રીતે લેભની પ્રથમસત્રહકિટ્ટિના છેલ્લા અવાંતરઢ઼િઅંતર સુધી સમજવું. તેના કરતાં લેાભની બીજી સંપ્રકિટ્ટનું પહેલું અવાંતરકઢ઼િઅંતર અનંતગુણું છે. તેના કરતાં બીજી અવાંતરકિટ્ટઅતર અન ંતગુણું, આ રીતે લેાભની બીજી સંગ્રહકિટ્ટિના છેલ્લા અવાંતરકટ્રિઅંતર સુધી અલ્પમહુત્વ સમજવું. લાભની ત્રીજી સ ંગ્રહકિષ્ટિ, માયાની ૧ લી, ૨૭, ૩૭, માનની ૧લી, ર૭, ૩૭, ક્રાધની ૧લી, ૨૭, ૩જી સ'પ્રતિકિટ્ટનાં અવાંતરકટ્ટિતા ક્રમશઃ અનંતગુણાં કહેવાં-સમજવાં. ક્રાધની ત્રીજી સંગ્રહકિટ્ટના છેલ્લા અવાંતરિટ્ટિંતર કરતાં લેભનું પહેલું સ ંગ્રહકિઢ઼િતર અન તનુ જાણવું. તેના કરતાં લાભનું બીજું સંપ્રકિટ્ટિંતર અનંતગુણું છે. આ રીતે લાલની ત્રીજી, માયાની ૧લી, ૨૭,૩જી માનની ૧લી, ૨૭, ૩૭, ધની ૧લી, ર૭, ૩જી સંગ્રહકિટ્ટિએનાં અંતરા ક્રમશઃ અનંતગુણાં કહેવાં. ખાસ યાદ રાખા— લેભની પહેલી સંગ્રહિટ્ટનું પહેલું અવાંતરિટ્ટિઅંતર એટલે—લેાભની પહેલી સંગ્રહિટ્ટની પહેલી અવાંતરષ્ટિ અને બીજી અવાંતરકિÊવચ્ચેના ગુણક. લેાલની પહેલી સકિટ્ટનું છેલ્લુ અવાંતરકિટ્રિઅંતર એટલે લેાલની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિની ઉપાંત્ય અવાંતરટ્ટિ અને અન્ય અવાંતરિકિટ્ટ વચ્ચેના ગુણક. લેાલનું પહેલું સંગ્રહકિટ્ટિંતર એટલે—લેાલની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિની છેલ્લી અવાંતરિકિટ્ટ અને લેાભની બીજી સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમઅવાન્તરકિટ્ટિ વચ્ચેના ગુણુક. આ રીતે બાકીના કિગ્નિઅંતરો પણ સમજવાં, (૯૪-૯૫-૯૬-૯૭) સંગ્રહકિટ્ટિઓના પ્રદેશાનું અલ્પબહુ – માનની પહેલી સંહિકિટ્ટના સમગ્રપ્રદેશેા ઘેાડા. તેના કરતાં માનની બીજી સકિટ્ટિના પ્રદેશે! વિશેષાધિક. તેના કરતાં માનની ત્રીજી સંગ્રહેકિટ્ટિના પ્રદેશા વિશેષાધિક, તેના કરતાં ક્રોધની બીજી સંગ્રહકિટ્રિના પ્રદેશે વિશેષાધિક. તેના કરતાં ક્રોધની ત્રીજી સંગ્રકિના Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ ગાથા ૯૮-૧૦૪] ભાવાનુવાદ પ્રદેશ વિશેષાધિકા તેના કરતાં માયાની પહેલી સંગ્રહકિદિના પ્રદેશે વિશેષાધિક. તેના કરતાં માયાની બીજી સંગ્રહકિષ્ક્રિના પ્રદેશ વિશેષાધિક. તેના કરતાં માયાની ત્રીજી સંગ્રહકિદિના પ્રદેશ વિશેષાધિક. તેના કરતાં લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિના પ્રદેશો વિશેષાધિક. તેના કરતાં લોભની બીજી સંગ્રહકિષ્ટિના પ્રદેશ વિશેષાધિક. તેના કરતાં લેભની ત્રીજી સંગ્રહકિદિના પ્રદેશો વિશેષાધિક. તેના કરતાં કોની પહેલી સંગ્રહ કિદિના પ્રદેશ સંખ્યાતગુણ હોય છે. ઉપર્યુક્ત અલ્પાબહત્વ કિટ્ટિદકની અપેક્ષાએ જાણવું. કિટ્ટિકારકની અપેક્ષાએ અહીં વિશેષ એ સમજવું કે જ્યાં ચારે કષાયની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિ કહેવામાં આવી છે, ત્યાં ત્રીજી અને જ્યાં ત્રીજી કહેવામાં આવી છે ત્યાં પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિ કહેવી. આ રીતે તે તે સંબહકિદિઓની અવાંતરકિદિઓનું પણ કિદિવેદક અને કિટ્ટિકારકની અપેક્ષાએ અલ્પબદુત્વ કહેવું (૯૮-૯-૧૦૦) એક એક અવાંતરકિદિમાં અપાતું દલિક– લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિની પહેલી અવાંતરકિદિથી માંડી કેધની ત્રીજી સંગ્રહકિષ્ટિની છેલ્લી અવાંતરકિષ્ટિ સુધી દરેક અવાંતરકિદિમાં અનુક્રમે વિશેષહીન દલિક અપાય છે. પરંપરે પનિધાથી પણ લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિની પહેલી અવાંતરકિષ્ટિ કરતાં ક્રોધની છેલ્લી અવાંતરકિદિમાં પણ કર્મલિકે વિશેષહીન જ અપાય છે. એ જ રીતે દશ્યમાનદલિક પણ સર્વ કિદિએમાં વિશેષહીનક્રમે હોય છે. (૧૦૧) કિટિઓ કરતો જીવ મોહનીયની સ્થિતિ અને રસની નિયમા અપવતને કરે પણ ઉદ્વર્તના ન કરે. કિષ્ટિકરણની પૂર્વ અવસ્થામાં રહેલા છ ઉદ્વર્તના અપવર્તના બને કરે છે. (૧૨) કિષ્ટિકરણના દ્વિતીયાદિ સમયમાં દરેક સમયે અસંખ્યગુણ દલિક લઈને તે તે સરહકિદિની નીચે અસંખ્યાતગુણહીન અપૂર્વઅવાંતરકિઠ્ઠિઓ કરે છે. (૧૦૩–૧૦૪) દ્વિતીયાદિ સમયમાં દીયમાન દલિક- છેલ્લી અપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં જેટલું દલિક આપે છે તેના કરતાં પહેલી પૂર્વઅવાંતરકિટિમાં અસંખ્યાતભાગહીન આપે છે અને છેલ્લી પૂર્વઅવાંતરકિટ્રિમાં જેટલું દલિક આપે છે તેના કરતાં ઉપરની અનંતર પહેલી અપૂર્વ અવાંતરકિટ્ટિમાં અસંખ્યાતભાગઅધિક આપે છે. બાકીની બધી પૂર્વાપૂર્વ અવાંતરકિઠ્ઠિઓમાં અનુક્રમે વિશેષહીન દલિક આપે છે. તાત્પર્ય એ છે કે લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિની નીચે કરાતી અપૂર્વ કિદિઓમાં જે પ્રથમ અપૂર્વ અવાંતરકિર્દિ હોય છે. તેમાં સૌથી વધારે દલિકે આપે છે. તેના કરતાં બીજી અપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં અનંતભાગહીન, તેના કરતાં ત્રીજી અપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં અનંતભાગહીન દલિકે આપે છે. આમ કમશઃ છેલ્લી અપૂર્વ અવાંતરકિષ્ટિ સુધી અનંતભાગહીન દલિકે આપે છે. લેભની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિની છેલ્લી અપૂર્વઅવતરકિષ્ટિ કરતાં લેભની બીજી સંગ્રહ કિદિની પહેલી પૂર્વ અવાંતરકિદિમાં અસંખ્યાતભાગહીન દલિકે (પ્રદેશે) આપે છે. ત્યાર બાદ વિશેષહીનકમે ઉત્તરોત્તર પૂર્વ અવાંતરકિદિમાં લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિની છેલ્લી પૂર્વ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અવગણેઢી [ગાથા ૧૦૫-૦૯ અવાંતરકિદિ સુધી દલિકે આપે છે. લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિની છેલી પૂર્વઅવાંતરકિષ્ટિ કરતાં લેભની બીજી સંગ્રહકિદિની પહેલી અપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં અસંખ્યાતભાગઅધિક દલિક નાંખે છે. ત્યાર બાદ ઉત્તરોત્તર અપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં વિશેષહીનક્રમે નાંખે છે. આ રીતે શેષ સંગ્રહકિટ્ટિની અવાંતરકિક્રિઓમાં પણ દલિકપ્રક્ષેપને કેમ સમજવું. આ રીતે દલિકપ્રક્ષેપ કરવાથી કિટ્રિકરણના દ્વિતીયાદિ સમયે ૧૨ સ્થાનમાં અસંખ્યાતભાગહીન અને ૧૧ સ્થાનમાં અસંખ્યાતભાગઅધિક દીયમાન દલિક હોય છે. શેષ સ્થાનમાં વિશેષહીન ક્રમે હોય છે. તેથી દીયમાનદલિકના ૨૩ ઉષ્ટ્રકૂટ– ઊંટના શિખરે (ઢેકા) થાય છે. ગેબીના રણના ઊંટની પીઠને ભાગ ઊંચો હોય છે. પછી ક્રમશઃ નીચો થતો જાય છે. સ્થાનવિશેષમાં શરૂઆત કરતાં વધારે નીચે થયા પછી થોડે થડ નીચે થઈ ઊંચે થાય (જે કે ઊંચાઈ ધેડી થેડી વધે છે પરંતુ તેની અહીં અપેક્ષા-વિવેક્ષા નથી) ત્યાર બાદ પુનઃ ક્રમશઃ નીચે થાય છે. તેમ અહીં લેભની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિની પહેલી અપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં દીયમાન દલિત સૌથી વધારે હોય છે. ત્યાર પછી ક્રમશઃ વિશેષહીન થતું જાય છે. અપૂર્વ અવાંતરકિષ્ટિ અને પૂર્વ અવાંતરકિટ્રિની સંધિ થયે છતે લોભની પહેલી સંગ્રહકિદિની પહેલી પૂર્વઅવાંતરકિટ્રિમાં દીયમાન દલિક અસંખ્યાતભાગહીન હોય છે. ત્યાર બાદ વિશેષહીન વિશેષહીન થતું જાય છે. પૂર્વ–અપૂર્વાવતરકિદિની સંધિ થયે છતે લેભની બીજી સંગ્રહકિલ્ફિની પહેલી અપૂર્વ અવાંતરકિટ્રિમાં અસંખ્યાતભાગઅધિક દીયમાનદલિક હોય છે. ત્યાર બાદ ઉત્તરોત્તર અપૂર્વ અવાંતરકિટ્રિમાં દિયમાનદલિક વિશેષહીન વિશેષહીન હોય છે. આ રીતે દીયમાનદલિક ઉષ્ટ્રકૂટના આકારતુલ્ય થાય. અહીં ઊંટની પીઠનાં ઊંચાણ અને નીચાણવાળાં સ્થાને ઉષ્ટ્રકૂટ તરીકે ગણવા. માત્ર ઊંચાણવાળાં સ્થાને ગણીએ તે અગિઆર જ ઉષ્ટ્રકૂટ થાય. બારે સંગ્રહકિષ્ટિની પૂર્વ–અપૂર્વ અવાંતરકિટિઓમાં અનુક્રમે અનંતભાગહીન દશ્યમાન દલિક હોય છે. (૧૦૫–૧૦૬-૧૦૭) હવે ગત્યાદિ માર્ગણાઓમાંથી કઈ માર્ગણાઓમાં બંધાએલ દલિક નિયમ કે વિકલ્પ હોય તે બતાવાય છે. મનુષ્યગતિ-તિર્યંચગતિ–એકેન્દ્રિય-પંચેન્દ્રિયત્રસકાય–ઔદારિક કાયયોગ– બૌદારિકમિશ્રકાગ, સત્ય-અસત્ય-સત્યાસત્ય અને અસત્યામૃષા એમ ચાર મનેગ, એ જ પ્રમાણે ચાર વચનગ-નપુંસકવેદ-ધ-માન-માયા-લભમતિજ્ઞાન-શ્રુતજ્ઞાન-મત્યજ્ઞાન-શ્રુતજ્ઞાન-અવિરતિ – સામાયિકસંયમ–અચક્ષુદર્શન-છ લેશ્યાભવ્ય-મિથ્યાત્વ–પશમિકસમ્યક્ત્વ ક્ષાપથમિકસમ્યક્ત્વ, ક્ષાયિકસમ્યક્ત્વ-સંજ્ઞી-અસંજ્ઞી અને આહારક આ ૪૨ માગણએમાં બંધાયેલું મોહનીયકમનું દલિક કિટ્ટિકરનાર અને કિટિવેદનારને સત્તામાં નિયમ હેય છે. (૧૦૮–૧૯) નરકગતિ–દેવગતિ-ન્દ્રિય-ત્રીન્દ્રિય-ચતુરિન્દ્રિય-પૃથ્વીકાય-અષ્કાયતેઉકાય-વાયુકાય-વનસ્પતિકાય-વૈક્રિયકાગ –વૈક્રિયમિશ્રકાયયોગ– આહારકકાયયોગઆહારકમિશ્નકાયોગકામણુકાયોગ-સ્ત્રીવેદ-પુરુષવેદ-અવધિજ્ઞાન-વિર્ભાગજ્ઞાન-મન ૧. જુઓ - ક્ષપયશ્રેણિ ટીકામાં ચિત્ર નં. ૧૬. Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૧૧૦–૧૧૭] પ†વજ્ઞાન – દેશિવરતિ – પરિહારવિશુદ્ધિસંયમ-છેદેપસ્થાપનીયસ'યમ–અવધિદર્શન–મિશ્ર– સાસ્વાદનસમ્યક્ત્વ અને અનાહારક આ ૨૭ માગણુાઓમાં બંધાયેલું મેાહનીયનું દલિક કિટ્ટિકારક અને કિ≠િવેઢકને સત્તામાં ભજનાએ (વિકલ્પે) હાય છે. ભાવાનુવાદ (૧૧૦) કેવલજ્ઞાન-કેવલદન-અભવ્ય-સૂક્ષ્મસ'પરાય અને યથાખ્યાતસંયમ આ પાંચમાણુાઓમાં બંધાયેલું માહનીયનું દલિક કિટ્ટિકારક અને કિદ્ભિવેદકને સત્તામાં નિયમા હાતું નથી, કારણ કે કેવલજ્ઞાન-કેવલદન માગ`ણામાં જીવ હજી ગયા જ નથી સૂક્ષ્મસર્પરાય-યથાખ્યાતમાગણામાં જીવનું ગમન વિકલ્પે સંભવિત છે પણ ત્યાં મેહુ નીયના બંધવિચ્છેદ હેાય છે. અને અભવ્ય જીવને તેા ક્ષપકશ્રેણિની જ પ્રાપ્તિ થતી નથી. ૧૫ (૧૧૧) શાતા અને અશાતાવેદનીયના ઉદયમાં, પર્યાપ્ત-અપર્યાપ્ત જીવભેદમાં, એકેન્દ્રિયના અસંખ્યાતાલવામાં બંધાયેલું મેાહનીયનું દલિક કિટ્ટિકારક અને કિટ્ટિવેકને સત્તામાં નિયમા હૈાય છે. (૧૧૨) એકથી માંડીને ત્રસકાયના સંખ્યાતા ભવામાં મોંધાયેલું માહનીયનું લિક કિટ્ટિકારક અને કિટ્ટિવેકને સત્તામાં હેાય છે. તાપસ-નિગ્રન્થાદિ સલિ ગેામાં, અંગારાદિ કમ અને શિલ્પમાં તથા ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિબંધકાળે, ઉત્કૃષ્ટરસબ ધકાળે બંધાયેલું મેહનીયનું દલિક કિટ્ટિકારક અને કિટ્વિવેદકને સત્તામાં ભજનાએ (વિકલ્પે) હાય છે. (૧૧૩) ક્ષેપકની સત્તામાં નિયમા કહેલું દલિક ક્ષેપકની સસ્થિતિએ અને સ કિદૃિએમાં નિયમા હોય છે. (૧૧૪) કિટ્ટિકરણાદ્ધામાં પૂર્વ અપૂર્વ રસસ્પ સ્પર્ધકના ઉદય હાય છે. ક્રાધની પ્રથમસ્થિતિ એક કિક્રિકરણાદ્દા સમાસ થાય છે. કેાને અનુભવે છે અર્થાત્ તે ઉભય આવલિકાપ્રમાણુ બાકી હોય ત્યારે (૧૧૫) કિટ્ટિકરણના ચરમસમયે માહનીયને સ્થિતિબંધ અંતર્મુહૂત અધિક ચાર મહીના અને શેષ કર્મોના સંખ્યાતહજાર વર્ષ થાય છે. (૧૧૬) કિટ્ટિકરણના ચરમસમયે માહનીયની સત્તા ૮ વર્ષે, શેષ ત્રણ ધાતિકની સંખ્યાત હજારવ અને અધાતિકમની અસંખ્યાતવષ હાય છે. (૧૧૭) કિટ્ટિકરણના અનંતર સમયે ક્રાધની પહેલી સંગ્રહિટ્ટની સ` અવાંતરકિદૃિએમાંથી પ્રદેશે ખેંચી અંતર્મુહૂત સ્થિતિના ઉત્તરોત્તર નિષેકમાં અસંખ્યેયગુણુક્રમે નાંખીને ક્રેધની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમસ્થિતિ રચે છે અને તે જ સમયથી તેને ૧. ક્રિટ્ટિકરણના ચરમસમય પછીને ક્રેાધને જે વેદનકાલ બાકી રહે છે તેના ત્રણ ભાગ કરવા. તેમાંના પહેલા ભાગ કરતાં ખીજો વિશેષહીન. બીજા કરતાં ત્રીજો વિશેષહીન. તેમાંના એક આવલિકા અધિક પહેલા તૃતીય ભાગપ્રમાણ તદૂત જાણવું. એ રીતે માન-માયા-લાભની તે તે સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમસ્થિતિનું અંતર્મુ દૂત સમજવું. ૨. જુઓ — ચિત્ર ક્ષપકશ્રેણિ ટીકા રૃ. ૨૪૪, Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવગસેઢી (ગાથા ૧૧૮-૧૨૪ અનુભવે છે. ત્યારે મેહનીયને સ્થિતિબંધ ચાર મહીના અને શેષ કર્મોને પૂર્વે કહી ગયા છીએ તે પ્રમાણે જાણ. (૧૧૮) વેદ્યમાનસંગ્રહકિદિનું દલિક પ્રથમસ્થિતિમાં અસંખ્યગુણુક્રમે હોય છે. પ્રથમસ્થિતિના ચરમનિષેક કરતાં દ્વિતીય સ્થિતિના પ્રથમનિષેકમાં અસંખ્યગુણ દલિક (પ્રદેશે) હોય છે. તેના ઉપરના દ્વિતીયાદિનિકમાં વિશેષહીનક્રમે હોય છે. (૧૧૯) વેદ્યમાનસંગ્રહકિષ્ટિની પ્રથમ અને દ્વિતીય અને સ્થિતિના બધા નિષેકમાં બધી ય અવાંતરકિઠ્ઠિઓ હોય છે. માત્ર ઉદયસમયે અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ તીવ્રરસવાળી અને મંદરસવાળી અવાંતરકિઠ્ઠિઓ મધ્યમરસવાળી થઈ જતી હોવાથી મધ્યમઅવાંતર– કિટિઓ હોય છે. (૧૨) કિદિવેદનના પ્રથમ સમયે મેહકર્મની સ્થિતિસત્તા આઠવર્ષ હોય છે અને રસસરા દેશઘાતી હોય છે. માત્ર એક સમય ન્યૂન ઉદયાવલિકામાં સર્વઘાતી રસસત્તા હોય છે. (૧૨૧) ક્રોધ-માન-માયા-લેભની પહેલી સંગ્રહકિદિની અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ તીવરસવાળી અને મંદરસવાળી અવાંતરકિઠ્ઠિઓ છેડીને બહુઅસંખ્યાતભાગપ્રમાણે મધ્યમ રસવાળી કિક્રિઓ બંધાય છે. ક્રોધની પહેલી સંગ્રહકિદિની બહુઅસંખ્યાતભાગપ્રમાણ મધ્યમ અવાંતરકિદિએ અનુભવાય છે. બંધ કરતાં ઉદયમાં કિટિઓ વિશેષાધિક હોય છે. (૧૨૨-૧૨૩) જે અસંખ્યાતભાગમાણ મંદરસવાળી અવાંતરકિદિએ બંધાતી નથી તેમજ અનુભવાતી પણ નથી. તે નીચેની અનુભય અવાંતરકિર્દિ કહેવાય છે અને તેવી તીવરસવાળી ઉપરની અનુભય અવાંતરકિષ્ટિ કહેવાય છે. જે તીરસવાળી અવાંતરકિદિએ માત્ર અનુભવાય છે તે ઉપરની ઉદીર્ણ અવાંતરકિઠ્ઠિઓ કહેવાય. જે અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ મંદરસવાળી અવાંતરકિક્રિએ માત્ર અનુભવાય છે તે નીચેની ઉદીર્ણ અવાંતરકિઠ્ઠિઓ કહેવાય અને જે અવાંતરકિદિએ બંધાય છે અને અનુભવાય પણ છે તે ઉભયઅવાંતરકિઠ્ઠિઓ કહેવાય છે. અ૫બહત્વ–કોધની પ્રથમ સંગ્રહકિટ્ટિની નીચેની અનુભય અવાંતરકિઓિ સૌથી ડી. તેના કરતાં નીચેની ઉદીર્ણ અવાંતરકિદિએ વિશેષાધિક. તેના કરતાં ઉપરની અનુભય અવાંતરકિષ્ટિએ વિશેષાધિક. તેના કરતાં ઉપરની ઉદીર્ણ અવાંતરકિષ્ટિએ વિશેષાધિકા તેના કરતાં ઉભય અવાંતરકિદિ અસંખ્યાતગુણ હોય છે. (૧૨૪) કિદિવેદનના પ્રથમસમયથી મેહનીયકર્મના અનુભાગની અનુસમય અપવર્તન થાય છે. એટલે કે મેહનીયને રસ સમયે સમયે અનંતગુણહીન કરાય છે. પહેલાં અંતમુહૂર્ત અંતર્મુહૂર્તે અનંતગુણહીન કરાતો હતે. કિત્રિવેદકાલના દરેક સમયમાં ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરકિષ્ટિ ઉદયમાં અને બંધમાં ગેમૂત્રિકાના જેવા કમથી અનંતગુણહીન રસવાળી હોય છે. એટલે કે કિટિંવેદનાદ્ધાના પ્રથમ સમયે ઉદયમાં રહેલી ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરકિદિ સૌથી વધારે રસવાળી. તેના કરતાં તે જ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૧૨૫ ૧૩૦ ] ભાવાનુવાદ ૧૭ સમયે બધમાં રહેલી ઉત્કૃષ્ટ અાંતરિક≠ અન ંતગુણુહીનરસવાળી. તેના કરતાં બીજા સમયે ઉદયમાં રહેલી ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરકિટ્ટિ અનંતગુણુહીનરસવાળી હાય છે. તેના કરતાં તે જ સમયે બંધમાં વર્તતી ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરિક≠ અન'તગુણુહીનરસવાળી હેાય છે. તેના કરતાં ત્રીજા સમયે ઉદ્દયમાં રહેલી ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરિટ્ટિ અનંતગુણુહીનરસવાળી હોય છે. તેના કરતાં તે જ સમયે બધમાં વર્તતી ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરિદ્ધિ અનંતગુણુહીનરસવાળી હાય છે. આ ક્રમથી દરેક સમયે ઉદય અને બંધમાં ઉત્કૃષ્ટ અાંતરિક≠ અનંતગુણુહીન– રસવાળી હેાય છે, તેથી ગેામૂત્રિકાની ઉપમાથી ક્રમ દર્શાખ્યા છે. (૧૨૫) કિક્રૃિવેદનકાળમાં દરેક સમયે અંધ અને ઉદયમાં જઘન્ય અવાંતરકિટ્ટિ ગામૂત્રિકાના જેવા ક્રમે અનંતગુણહીનરસવાળી હેાય છે. એટલે કે કિÇિવેદનકાળના પહેલા સમયે મધમાં જઘન્ય અવાંતરકિઢ઼િ સૌથી વધારે રસવાળી. તેના કરતાં તે જ સમયે ઉદયમાં જઘન્ય અવાંતરિ≠ અનંતગુણુહીનરસવાળી. આ ક્રમથી ઉત્તરોત્તર સમયે બધ અને ઉદયમાં જઘન્ય અવાંતરટ્ટિ અનંતગુણહીનરસવાળી હાય છે. તેથી ઉક્તક્રમ ગેામૂત્રિકાની ઉપમાથી બતાવવામાં આવ્યેા છે. કિÉિવેદનના દરેક સમયે મારે સંગ્રહકિ≠િએની ઉપરની તીવ્રરસવાળી અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ અવાંતરકિટ્ટિના નાશ કરે છે અર્થાત્ વધારે રસવાળી કિટ્ટિએને ઓછા રસવાળી બનાવે છે. (૧૨૬) કિદ્ભિવેદનાદ્ધામાં સમકિએિના પ્રદેશેાને નીચે સંક્રમાવે પણ ઉપર નહિ. એટલે કે આછા રસવાળી સંગકિટ્ટએમાં સંક્રમાવે. નીચેની પણ બધી કિટ્ટિએમાં નહિ પરંતુ પેાતાની નીચેની એક પહેલી સંમટ્ટિ સુધી સંક્રમાવે. દા. ત. ધની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટના પ્રદેશે ધની ખીજી, ત્રીજી અને માનની પહેલી સંગ્રહિટ્ટમાં સંક્રમાવે. ક્રોધની બીજી સંગ્રકિટ્રિના પ્રદેશે ક્રાધની ત્રીજી અને માનની પહેલી સંગ્રકિટ્ટિમાં સંક્રમાવે. (૧૨૭) આત્મા જે સંગ્રહિટ્ટને અનુભવતા હાય, તે સંગ્રહકિટ્ટની અન તરસંગ્રહ– કિટ્ટિમાં અન્યસંગ્રહકિટ્ટિ કરતાં સ`ખ્યાતગુણા પ્રદેશે! સંક્રમાવે છે. હવે સ’ક્રમાવાતા પ્રદેશાનું અપબહુત્વ કહીશું. (૧૨૮–૧૨–૧૩૦) અલ્પમહત્વ – (૧) ક્રોધની બીજી સંગ્રિિકટ્ટમાંથી માનની પહેલી સંગકિટ્ટિમાં સૌથી ઘેાડા પ્રદેશે। સંક્રમાવે. (૨) તેના કરતાં કૈાધની ત્રીજી સંગ્રહકિટ્ટિમાંથી માનની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૩) તેના કરતાં માનની પહેલી સંપ્રકિટ્ટમાંથી માયાની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૪) તેના કરતાં માનની બીજી સંગ્રહકિટ્ટમાંથી માચાની પહેલી સંગ્રહિટ્ટમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૫) તેના કરતાં માનની ત્રીજી સગ્રહકિટ્ટિમાંથી માયાની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે છે. (૬) તેના કરતાં માયાની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટમાંથી લેાલની પહેલી સંગ્રહકિટ્રિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૭) તેના કરતાં માયાની મીજી સંગ્રહકિટ્ટમાંથી લેાભની પહેલી સ'ગ્રહકિટ્ટિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૮) તેના કરતાં માયાની ત્રીજી સંગ્રહકિટ્ટિમાંથી લેાભની પહેલી સંગ્રહકિટ્ટિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૯) તેના કરતાં લાભની પહેલી ૩ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ ખબગસેઢી [ગાથા ૧૩૧-૧૩૭. સંગ્રહકિટ્રિમાંથી લેભની બીજી સંગ્રહકિટ્રિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે. (૧૦) તેના કરતાં લેભની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિમાંથી લેભની ત્રીજી સંગ્રહકિટ્રિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે છે. (૧૧) તેના કરતાં ક્રોધની પહેલી સંગ્રહકિટ્રિમાંથી માનની પહેલી સંગ્રહકિટ્રિમાં સંખ્યાતગુણ સંક્રમાવે છે. (૧૨) તેના કરતાં ક્રોધની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિમાંથી ક્રોધની ત્રીજી સંગ્રહકિષ્ટિમાં વિશેષાધિક સંક્રમાવે છે. (૧૩) તેના કરતાં ક્રોધની પહેલી સંગ્રહકિટ્રિમાંથી ક્રોધની બીજી સંગ્રહકિષ્ટિમાં સંખ્યાતગુણું પ્રદેશે સંક્રમાવે છે. (૧૩૧) બંધ(બંધાતા પ્રદેશમાંથી ચારે પ્રથમ સંગ્રહકિદિઓની અવાંતરકિહિએનાં આંતરાઓમાં અપૂર્વ અવાંતરકિઠ્ઠિઓ બનાવે છે. તેને બંધ અપૂર્વઅવાંતરકિદિઓ કહેવાય. (૧૩૨) એક એક બંધ અપૂર્વ અવાંતરકિહિ પલ્યોપમના અસંખ્યાતા પ્રથમ વર્ગમૂળ પ્રમાણુ અવાંતરકિટ્રિઅંતરી ગયા પછી બનાવે છે. (૧૩૩-૧૩૪) બંધઅવાંતરકિર્દિઓમાં દલનિક્ષેપ–બંધની પહેલી પૂર્વ અવાંતરકિષ્ટિમાં જીવ કર્મ પ્રદેશ (દલિકે) વધારે આપે (નાખે) છે. ત્યાર બાદ બંધઅપૂર્વઅવાંતરકિટિની નીચેની પલ્યોપમના અસંખ્યાતા પ્રથમવર્ગમૂળપ્રમાણુ બંધપૂર્વ અવાંતરકિક્રિઓ સુધી વિશેષહીનક્રમે પ્રદેશને પ્રક્ષેપ કરે છે. ત્યાર પછી બંધપ્રથમઅપૂર્વ અવાંતરકિદિમાં અનંતગુણા પ્રદેશ (કર્મલિકે) આપે છે. ત્યાર બાદ બંધપૂર્વઅવાંતર કિદિમાં અનંતગુણહીન પ્રદેશ આપે છે. ત્યાર બાદ બંધપૂર્વ અવાંતરકિષિમાં વિશેષહીન પ્રદેશો આપે છે. આ રીતે બંધ ઉત્કૃષ્ટ અવાંતરકિ િસુધી દલિકે આપે છે. (૧૩૫) સંક્રમપ્રદેશમાંથી અપૂર્વ અવાંતરકિર્દિઓ–કૈધની પહેલી સંગ્રહ કિદિને છોડીને બાકીની ૧૧ સંગ્રહકિટિઓની નીચે અને તેની અવાંતરકિર્દિઓનાં આંતરાએમાં સંક્રમપ્રદેશોમાંથી અપૂર્વ અવાંતરકિટિઓ બનાવે છે. (૧૩૬) અલ્પબદુત્વ-સંગ્રહકિદિની નીચે સંક્રમપ્રદેશમાંથી બનાવાતી અપૂર્વ અવાંતરકિક્રિઓ કરતાં અવાંતરકિદિઓનાં આંતરાઓમાં બનાવાતી અપૂર્વ અવાંતરકિઠ્ઠિઓ અસંખ્યગુણી હોય છે. ' (૧૩૭) દલિકપ્રક્ષેપ–સંગ્રહકિટિઓની નીચે બનાવાતી અપૂર્વ અવાંતરકિટિઓમાં પ્રદેશ(કર્મલિક)ને નિક્ષેપ કિષ્ટિકરણની જેમ સમજ. અવાંતરકિહિએનાં આંતરાઓમાં બનાવાતી અપૂર્વ અવાંતરકિઠ્ઠિઓમાં પ્રદેશોને નિક્ષેપ બંધઅપૂર્વ અવાંતરકિદિઓની જેમ સમજવો. માત્ર અંતર પલ્યોપમના વર્ગમૂળના અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણુ કહેવું, જે બંધઅપૂર્વ અવાંતરકિથિઓમાં નિક્ષેપ કહેતી વખતે ૫૫મના અસંખ્યાતા પ્રથમવર્ગમૂળપ્રમાણુ કહેવામાં આવ્યું હતું. ૧. ફોધની પ્રથમ સંગ્રહકિદિની સર્વ અવાંતરકિદિઓના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ તીવ્ર અને મંદ રસવાળી અવાંતરકિદિઓ છોડીને જે અવાંતરકિઓિ બંધાય છે, તે બંધઅવાંતરકિર્દિ કહેવાય છે. તેમાં પહેલાં બનાવેલી કે સંક્રમપ્રદેશથી બનાવાતી અવાંતરકિદિ બધી બંધપૂર્વઅવાંતરકિટિ કહેવાય અને જે બંધપ્રદેશમાંથી નવી જ બનાવાય, તેને બંધઅપૂર્વઅવાંતરકિદિ કહેવાય. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૧૩૮-૧૪૩] ભાવાનુવાદ (૧૩૮) કોઈ વિવક્ષિત સમયે બંધાયેલું ક્રોધનું દલિક પાંચમી આવલિકામાં સંક્રમ દ્વારા બારે સંગ્રહકિદિએમાં હોય છે. તે આ રીતે–વિવક્ષિત સમયે બંધાયેલું ક્રોધની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિનું દલિક એક આવલિકા સુધી એમને એમ જ રહે છે, (બીજે ક્યાંય તેનો સંક્રમ થતું નથી.) કારણ કે બંધાવલિકાગત સકળકરણને અયોગ્ય છે. બીજી આવલિકાના પ્રથમ સમયથી માનની પહેલી સંગ્રહકિદિ સુધી એને સંક્રમ થાય. માનની પહેલી સંગ્રહકિદિમાં આવેલું ક્રોધનું દલિક એક આવલિકા સુધી ત્યાં જ રહે છે, કારણ કે સેંકમાવલિકાગત સકલકરણને અયોગ્ય છે. માનમાં આવેલું ક્રોધનું દલિક ત્રીજી આવલિકાના પ્રથમ સમયે માયાની પહેલી સંગ્રહકિદિ સુધી સંક્રમાવે છે. તે દલિકને ચોથી આવલિકાના પ્રથમસમયે લોભની પહેલી સંગ્રહકિદિ સુધી સંક્રમાવે છે. પાંચમી આવલિકાના પ્રથમસમયે લેભની બીજી અને ત્રીજી સંગ્રહકિક્રિમાં સંક્રમાવે છે. આમ કોધનું બદ્ધદલિક પાંચમી આવલિકાના પ્રથમસમયે બારે સંગ્રહકિદિઓમાં હોય છે. માનનું ચોથી આવલિકામાં નવ સંગ્રહકિદિઓમાં, માયાનું ત્રીજી આવલિકામાં છ સંગ્રહકિદિઓમાં, અને લોભનું બીજી આવલિકામાં ત્રણ કિટ્રિમાં હોય છે. (૧૩૯) વિવક્ષિત સમયે બંધાયેલાં દલિકોને સમૂહ તે સમયમબદ્ધ કહેવાય અને વિવક્ષિત ભવમાં બંધાયેલાં દલિકેને સમૂડ ભવબદ્ધ કહેવાય છે. ઉદયનિષેકમાં છ આવલિકાના સમયપ્રબદ્ધો ઉદીરણુથી અપ્રક્ષિત હોય છે, કારણ કે ઉદીરણું છે આવલિકા પછી થાય છે. શેષ સર્વ સમયમબદ્ધો તથા ભવબદ્ધો પ્રક્ષિપ્ત–ઉદયનિષેકમાં નાંખેલા હોય છે. (૧૪૦-૧૪૧–૧૪૨–૧૪૩) વિવક્ષિત કઈ એક સ્થિતિમાં (નિષેકમાં) જઘન્યથી એક સમયમબદ્ધ હોય છે. બે સમયપ્રબદ્ધો, ત્રણ સમયપ્રબદ્ધો, ચાર સમયપ્રબદ્ધો, એમ એક એક વૃદ્ધિવાળા સમયમબદ્ધો ઉત્કૃષ્ટથી પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ હોય છે. વિવક્ષિત સમયે બંધાયેલા પ્રદેશે ઉદયદ્વારા સાંતરનિરંતર ભેગવાતા ભોગવાતા બાકી રહેલા અને અનંતર સમયે જે સર્વથા ભગવાઈ જવાના હોય, તે પ્રદેશ ભાગકાળના પૂર્વ સમયે સમયમબદ્ધશેષક કહેવાય. એ જ રીતે વિવક્ષિત ભવમાં બંધાયેલા પ્રદેશ ભાગકાળના અનંતર પૂર્વ સમયે ભવબદ્ધશેષક કહેવાય, અ૮૫બહુવ–એકસમયપ્રબદ્ધશેષકવાળી સ્થિતિઓ ડી. તેના કરતાં અસંખ્યસમયપ્રબદ્ધશેષકવાળી સ્થિતિઓ અસંખ્યાતગુણી. તેના કરતાં પપમના અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણસમયપ્રબદ્ધશેષકવાળી સ્થિતિએ અસંખ્યાતગુણી હોય છે, કારણ કે તેવી સ્થિતિએ સત્તાગતસ્થિતિઓના બહુઅસંખ્યાતભાગપ્રમાણ હોય છે. એક સમયમબદ્ધશેષક જઘન્યથી માત્ર એક સ્થિતિમાં હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી એક સમય અધિક ઉદયાવલિકા છેડીને સર્વ સ્થિતિમાં હોય છે. જે સમયમબદ્ધોનાં શેષકે એક સ્થિતિમાં હોય તે સમયપ્રબદ્ધો અ૫. તેના કરતાં જે સમયમબદ્ધોનાં શેષકે બે સ્થિતિમાં રહેલાં હોય તે સમયમબદ્ધો વિશેષાધિક. આ રીતે અનંતરે નિધાએ વિશેષાધિક વિશેષાધિક સમયમબદ્ધો કહેવા. આમ પ્રથમસ્થાનથી આવલિકાના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ સ્થાને જઈએ ત્યારે સમયમબદ્ધો દ્વિગુણ થાય છે. ત્યાંથી ફરી આવલિકાના અસં. Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અવગસેઢી [ગાથા ૧૪૪-૧૫ર ખ્યાતભાગપ્રમાણ સ્થાને જઈએ ત્યારે ફરી સમયપ્રબદ્ધ દ્વિગુણ થાય છે. આ રીતે આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ દ્વિગુણવૃદ્ધિનાં સ્થાને જઈએ ત્યારે યવમધ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. યવમધ્યની ઉપર અનંત રોપનિધાએ સમયપ્રબદ્ધો વિશેષહીન વિશેષહીન હોય છે. પરંપરે પનિધાએ આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગે દ્વિગુણહીન દ્વિગુણહીન હોય છે. (૧૪૪) જે સ્થિતિમાં સમયપ્રબદ્ધશેષક હોય તે સામાન્ય સ્થિતિ કહેવાય. જે સ્થિતિમાં સમયમબદ્ધશેષક ન હોય, તે અસામાન્ય સ્થિતિ કહેવાય. જઘન્યથી એક અસામાન્ય સ્થિતિ હોય એટલે કે આજુબાજુમાં સામાન્ય સ્થિતિ અને વચ્ચે એક અસામાન્ય સ્થિતિ. એ રીતે આજુબાજુ સામાન્ય સ્થિતિ અને વચ્ચે નિરંતર બે અસામાન્ય સ્થિતિઓ, નિરંતર ત્રણ અસામાન્ય સ્થિતિમાં હોય છે, એ પ્રમાણે એકત્તરવૃદ્ધિના ક્રમે ઉત્કૃષ્ટથી આવલિકાના અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ નિરંતર અસામાન્ય સ્થિતિઓ હોય છે. (૧૪૫) એક એક અસામાન્ય સ્થિતિમાં સૌથી થેડી. તેના કરતાં નિરંતર બબ્બે અસામાન્ય સ્થિતિઓ વિશેષાધિક. તેના કરતાં નિરંતર ત્રણ ત્રણ અસામાન્ય સ્થિતિઓ વિશેષાધિક. આ રીતે વિશેષાધિક વિશેષાધિક હોય છે. આવલિકાના અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ સ્થાને જઈએ ત્યારે દ્વિગુણ થાય છે. આવાં દ્વિગુણવૃદ્ધિનાં આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ સ્થાને જઈએ ત્યારે યવમધ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૪૬) હવે અભવ્યપ્રાગ્ય વિષયક પ્રરૂપણું કરીએ છીએ-અભવ્ય પ્રાગ્ય પ્રરૂપણા એટલે ભવ્ય અને અભિવ્યને આશિરીને જે પ્રરૂપણા તુલ્ય હોય તેવી અક્ષક જીને આશરીને પ્રરૂપણ. ક્ષપકને આશરીને સમયપ્રબદ્ધો વગેરે જે જે બાબતમાં આવલિકાને અસંખ્યાતમો ભાગ કહ્યો છે તે તે બાબતમાં પોપમનો અસંખ્યાતમો ભાગ કહે. હવે અભવ્યપ્રાયોગ્ય નિલેપનસ્થાનાદિ બીજી વસ્તુઓ કહીશું કે જે ક્ષેપકને આશીરીને કહી નથી. (૧૪૭) પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ નિલેપનસ્થાને છે. કેટલાકના મતે નિલે પનસ્થાને કર્મ અવસ્થાનકાળના બહુ અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે વિવક્ષિત સમયે બાંધેલું કર્મ ઘેડું થોડું સાંતર-નિરંતર ભોગવાતું શ્રેણિ સિવાયની અવસ્થામાં વહેલામાં વહેલું પાપમના અસંખ્યાતભાગહીન કર્મ અવસ્થાનકાળ પછી સર્વથા નિલેખિત-ખાલી થાય છે. ઉત્કૃષ્ટથી કર્મઅવસ્થાનકાળના ચરમસમયે નિલેપિત થાય છે. એટલે પલ્યોપમના અસંખ્યાતમાભાગ જેટલા નિલેપનસ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે, કેટલાકના મતે વિવક્ષિત સમયે જે કર્મ બંધાય તે વહેલામાં વહેલું પાપમના અસંખ્યાતમાં ભાગ સુધી થોડું થોડું સાંતર નિરંતર ભેગવાયા પછી સર્વથા નિલેંપિત થાય છે. તેથી તેમના મતે કર્મઅવસ્થાનકાળના ઘણું અસંખ્યાતભાગપ્રમાણુ નિલે પનસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૪૮-૧૪૯-૧૫૦) એક જીવની અપેક્ષાએ ભૂતકાળમાં જઘન્ય-નિલેપનસ્થાનમાં નિપિત સમયમબદ્ધોને પસાર થયેલે કાળ સૌથી ઓછો. તેના કરતાં બીજા નિર્લેપન ૧. તે તે કર્મની સ્થિતિ. ૨. સત્તામાંથી ખાલી થયેલા. Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૧૫૧–૧૫૪] ભાવાનુવાદ ૧ સ્થાને વિશેષાધિક. તેના કરતાં ત્રીજા નિલે પનસ્થાને વિશેષાધિક. આ ક્રમથી પલ્યેાપમના અસંખ્યાતમા ભાગના નિર્લેપનસ્થાને નિલે પિતસમયપ્રબદ્ધો પ્રથમસ્થાન કરતાં દ્વિગુણુ (બમણા) થાય છે. ત્યાર બાદ પુનઃ લ્યેાપમના અસંખ્યાતભાગ જઈએ ત્યારે ફરી દ્વિગુણુ થાય. આ રીતે દ્વિગુણવૃદ્ધિનાં અસંખ્યાતાં સ્થાને છે. એ જ રીતે યવમધ્યની ઉપર જઈ એ ત્યારે દ્વિગુણહાનિનાં સ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે, પહેલેથી સનિલે પન સ્થાનાનાં અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ નિલે`પન સ્થાનેા જઈએ, ત્યારે ચવમધ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. નાનાદ્વિગુણવૃદ્ધિ હાનિનાં સ્થાના પત્યેાપમના અછેદનકના અસ`ખ્યાતમા ભાગપ્રમાણુ હાય છે. તેના કરતાં એ દ્વિગુણવૃદ્ધિ કે હાનિની વચ્ચેના આંતરામાં રહેલાં સ્થાને અસંખ્યાતગુણાં હૈાય છે. (૧૫૧) એવી રીતે નિલેપિત ભવબદ્દોના પણ વ્યતિક્રાંત કાળ જાણવા. પરંતુ ભવબદ્ધોનું જઘન્યનિલે પનસ્થાન, સમયપ્રમદ્દોનાં અંતર્મુહૂતના સમય પ્રમાણુ અસંખ્યાતાં નિલે પનસ્થાનાની ઉપર હેાય છે. બન્નેનું યવમધ્ય એક જ સ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૫૨–૧૫૩) વિવક્ષિત સમયે બંધાયેલા સમયપ્રબદ્ધો પેાતાનામાંથી ફક્ત એક જ ક`પ્રદેશ ખાકી રહેવા દ્વારા નિàપિત થયા હૈાય તેવા સમયપ્રબદ્ધો થેાડા. તેના કરતાં એ કમ પ્રદેશ શેષ રહેવા દ્વારા નિલે`પિત થયેલા સમયપ્રમદ્ધો વિશેષાધિક. આ રીતે વિશેષાધિક સ્થાના અનંતાં કહેવાં, પ્રથમસ્થાનથી સસ્થાનાના અસ ંખ્યાતમા ભાગ જઈ એ ત્યારે સમયપ્રબદ્ધો દ્વિગુણુ થાય, ફરી એટલાં સ્થાના જઈએ ત્યારે પુનઃ દ્વિગુણુ થાય, આ રીતે અસંખ્યાતાં દ્વિગુણવૃદ્ધિનાં સ્થાને જઈ એ ત્યારે સર્વ સ્થાનેાના અસંખ્યાતમા ભાગના સ્થાને યવમધ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. અલ્પમહુત્વ-નાનાદ્વિગુણુહાનિનાં સ્થાને થાડાં, કારણ કે તે અસંખ્યાતાં છે. તેના કરતાં એક દ્વિગુણવૃદ્ધિ કે હાનિના આંતરામાં રહેલાં સ્થાને અનંતગુણાં છે, કારણ કે તે અભવ્યથી અનંતગુણાં છે. (૧૫૪) આગળ પાછળના સમયેામાં અનિલે પન સ્થિતિને ઉદય હેાય અને વચમાં જે એક, બે, વગેરે સમયેા સુધી નિલે પન-સ્થિતિને નિરંતર ઉદય હેાય તે અનુસમય નિલે પનકાળ કહેવાય. ભૂતકાળમાં એક સામયિક અનુસમય નિલે પન કાળ સૌથી વધારે વ્યતિક્રાંત થયા છે. નિરંતર એ, નિરંતર ત્રણ આદિ સમયવાળા અનુસમય નિલે પનકાળ વિશેષહીન વિશેષહીન વ્યતિક્રાંત થયા છે. પ્રથમ સ્થાનથી આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ સ્થાને જઈ એ ત્યારે અનુસમયનિલે પનકાળ દ્વિગુણુહીન થાય છે. ફરી તેટલાં સ્થાનેા જઈએ ત્યારે પુનઃ દ્વિગુણહીન થાય. આ ક્રમે ઉત્કૃષ્ટ અનુસમયનિલેČપન કાળ સુધી કહેવું. ઉત્કૃષ્ટ અનુસમયનિલે પન કાળ પણ આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ છે. ૧. કાઈ એક વિવક્ષિત સંખ્યાને એક સંખ્યા સુધી અધીં અર્ધી કરતાં જેટલા અધ ભાગા થાય, તેને અછેદનક કહેવાય. દા. ત. ૧૬ સંખ્યાના ૪ અધ ભાગે!-૮-૪-૨૦૧ આ પ્રમાણે થાય. ૧૬ ના અ છેદનક ૪ કહેવાય. ૨. સ્થિતિ ભોગવવા દ્વારા સમયપ્રબદ્દોમાંથી સ`થા ક પ્રદેશેા ખાલી ન થતા હાય, થેાડા પણ સત્તામાં બાકી રહી જતા હાય તેવી સ્થિતિને ઉય. Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અવગસેઢી [ગાથા ૧૫૫-૧૬૪ (૧૫૫–૧૫૬) અતીતકાળમાં એક સમયના આંતરે નિલે`પિત–કરાયેલા સમયપ્રબદ્ધો ઘેાડા, એ સમયના આંતરે નિલે`પિત સમયપ્રબદ્ધો વિશેષાધિક. 'આ ક્રમે પડ્યેાપમના અસ ખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ સ્થાનેા જઈએ, ત્યારે પ્રથમસ્થાનથી દ્વિગુણુ સમયપ્રબદ્ધો થાય. ફરી એટલાં સ્થાનેા જઈએ ત્યારે એના કરતાં દ્વિગુણ થાય. આવાં દ્વિગુણવૃદ્ધિસ્થાના સર્વ સ્થાનાના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ જઈ એ ત્યારે યવમધ્ય આવે. આ જ રીતે ભવબદ્દો પણ જાણવા. નિલેપનમાં એકાદિસમયનું જે આંતરું પડે છે, તે ઉત્કૃષ્ટથી પત્યેાપમના અસ ંખ્યાતભાગપ્રમાણ જાણવું. ૨૨ (૧૫૭-૧૫૮) એક સમયમાં એકથી માંડી પડ્યેાપમના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ સમયપ્રમદ્દો અને ભવદ્દો નિલે`પિત કરાય છે. અતીતકાળમાં એક સમયમાં નિલે પિત કરાયેલા ૧–૧ સમયપ્રમત્નો કે ભવબદ્ધી થાડા, તેના કરતાં એક સમયમાં નિલેÖપિત કરાયેલા ૨-૨ સમયપ્રબદ્ધો કે ભવબદ્ધો વિશેષાધિક. આ ક્રમે પલ્લે પમના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ સમયપ્રબદ્ધો કે ભવબદ્ધો પ્રથમસ્થાન કરતાં દ્વિગુણુ થાય. ફરી તેટલાં સ્થાને જઈ એ ત્યારે દ્વિગુણુ થાય. આવાં દ્વિગુણવૃદ્ધિસ્થાના પલ્યાપમના અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ જઈ એ ત્યારે યવમધ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. અલ્પમહુત્વ-નાનાદ્વિગુણવૃદ્ધિ-હાનિનાં સ્થાને થાડાં. તેના કરતાં એક દ્વિગુણવૃદ્ધિ કે હાનિના આંતરામાં રહેલાં સ્થાનાનાં અછેદના પણ અસંખ્યાતગુણાં હૈાય છે. (૧પ-૧૬૩) અપબહુત્વ-(૧) ઉત્કૃષ્ટ અનુસમય નિલે પન કાળ ઘેાડા. (૨) તેના કરતાં એક સમય નિલે પિત ભવબદ્ધો અસંખ્યાતગુણા. (૩) તેન કરતાં એક સમયમાં નિલે પિત સમયપ્રમદ્ધો અસંખ્યાતગુણા, (૪) તેના કરતાં સમયપ્રમદ્ધશેષકથી રહિત સ્થિતિએ ( અસામાન્યસ્થિતિએ ) અસંખ્યાતગુણી. (૫) તેના કરતાં પલ્યાપમનું પ્રથમવગ મૂળ અસંખ્યાતગુણું. (૬) તેના કરતાં સ્થિતિનિષેકેાના પ્રદેશેાની દ્વિગુણુ-હાનિનાં સ્થાને અસ ખ્યાતગુણાં. (૭) તેના કરતાં ભવબદ્ધોનાં નિલે`પનસ્થાના અસંખ્યાતગુણાં. (૮) તેના કરતાં સમયપ્રબદ્ધના નિલે પનસ્થાના વિશેષાધિક. (૯) તેના કરતાં ક અવસ્થાનકાળમાં એક સમયપ્રબદ્ધના અનુસમયવેદનકાળ (નિર ંતરવેદનકાળ) અસંખ્યાતગુણેા. (૧૦) તેના કરતાં ક અવસ્થાનકાળમાં એક સમયપ્રબદ્ધને નિરંતરઅવેદનકાળ અસંખ્યાતગુા. (૧૧) તેના કરતાં ક અવસ્થાન કાળમાં સાંતર નિરંતર સમુદ્રિત (ભેગેા મળીને) એક સમયપ્રમદ્ધને અવેદનકાળ અસંખ્યાતગુણા. (૧૨) તેના કરતાં કમ અવસ્થાનકાળમાં સાંતરનિરંતર સમુદ્ઘિન-એક સમયપ્રબદ્ધના વેદનકાળ અસંખ્યાતગુણેા. (૧૩) અને તેના કરતાં કમઅવસ્થાનકાળ વિશેષાધિક છે. (૧૬૪) : કવેિદનકાળના પ્રથમસમયે ક્રોધની ૧લી સપ્રકિÇની અસંખ્યાતભાગપ્રમાણ (ગા. ૧૨૫ જે અવાંતરિદ્ધિઓના નાશ કરાય છે. તે સૌથી વધારે. તેના કરતાં બીજા સમયે નાશ કરાતી કિટ્ટિએ અસંખ્યાતગુણહીન. તેના કરતાં ત્રીજા સમયે નાશ કરાતી કિટ્ટિએ અસંખ્યાતગુણુહીન. આ રીતે ઉત્તરોત્તર સમયે અસંખ્યાતગુણુહીનક્રમે અવાંતરિકિટ્ટના નાશ કરાય છે. ક્રોધની પહેલી સંપ્રકિÊિવેદનકાળના દ્વિચરમસમય સુધી Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ ગાથા ૮-૧૦૪] ભાવાનુવાદ નાશ કરાયેલી ક્રોધની પહેલી સંગ્રહકિષ્ટિની અવાંતરકિઠ્ઠિઓ, કિદિવેદનના પ્રથમસમયે નહીં બંધાતી અવાંતરકિઓિના અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ હોય છે. આ રીતે શેષ સંગ્રહકિલ્ફિની નાશ કરાયેલી અવાંતરકિદિએ તે તે સંગ્રહકિલ્ટિવેદનકાળના દ્વિચરમસમય સુધી જાણવી. (૧૬૫) વેદ્યમાન (અનુભવાતી) સંગ્રહકિષ્ટિની પ્રથમસ્થિતિ બે અવલિકા પ્રમાણ બાકી રહે ત્યારે વેદ્યમાન સંપ્રહકિદિને આગાલ વિચ્છેદ પામે છે. એક સમય અધિક આવલિકા પ્રમાણુ શેષ હોય ત્યારે જઘન્યસ્થિતિની ઉદીરણું થાય છે અને ઉદયને એ છેલ્લો સમય હોય છે. (૧૬૬-૧૬૭) સ્થિતિબંધ તથા સ્થિતિસરા-ક્રોધની ૧લી સંગ્રહકિદિના ઉદયના છેલ્લા સમયે મોહનીય સ્થિતિબંધ અંતર્મુહૂર્તન્યૂન ૧૦૦ દિવસપ્રમાણે, જ્ઞાનાવરણ, દશનાવરણ અને અંતરાયને અંતર્મુહર્તન્યૂન ૧૦ વર્ષ પ્રમાણ શેષ ત્રણ અઘાતકર્મનો સંગાતવર્ષપ્રમાણ થાય છે. મેહનીયની સ્થિતિસત્તા ૬ વર્ષ અને અંતર્મુહૂર્તપૂન ૮ મહિના. બાકી રહેલાં ત્રણ ઘાતિકર્મોની સંખ્યાતવર્ષ અને અઘાતિકર્મોની અસંખ્યાતવર્ષ જાણવી. (૧૬૮) ક્રોધની ૨જી સંગ્રહકિદિનું વેદન–અનંતર સમયે ક્રોધની ૨જી સંગ્રહ કિદિની સર્વ અવાંતરકિઓિમાંથી પ્રદેશો ખેંચીને અંતર્મુહર્તસ્થિતિના ઉત્તરોત્તર નિષેકમાં અસંખ્યાતગુણક્રમથી નાંખી ૨ જી સંગ્રહકિદિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે. અને તે જ સમયથી ક્રોધની ૨ છ સંગ્રહકિદિને અનુભવવા માંડે છે. (૧૬૯) વેદ્યમાન સંગ્રહકિષ્ટિના પ્રથમસમયે, વેદ્યમાન સંગ્રહકિષ્ટિની પહેલાંની સંગ્રહકિદિનું બે સમયપૂન બે આવલિકામાં નવું બંધાયેલું અને ઉદયાવલિકામાં રહેલું દલિક શેષ રહે, કારણ કે બાકીનું સર્વ દલિક સ્વવેદનના ચરમસમયે એની પછીની સંગ્રહકિદિરૂપે પરિણામ પામી જાય છે. (૧૭૦) કિદિને બંધ, ઉદય, નાશ, સંક્રમ, અપૂર્વઅવાંતરકિદિઓનું બનાવવું, અવાંતરકિદિઓનું અ૫બહત્વ અને સંગ્રહકિદિઓના પ્રદેશોનું અલ્પબદ્ધત્વ ક્રોધની ૧ લી સંગ્રહકિદિના વેદનકાળમાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે તે પ્રમાણે ક્રોધની ૨ જી સંગ્રહકિદિના વેદકાળમાં પણ સમજવું. (૧૭૧) વેદ્યમાન કષાયની જે સંગ્રહકિષ્ટિ અનુભવાતી હોય, તે જ સંગ્રહકિદિ બંધાય. અવેદ્યમાનકવાયની ૧ લી જ સંગ્રહકિદિ બંધાય, પણ અન્ય સંગ્રહકિદિ બંધાતી નથી. (૧૭૨–૧૭૩) ક્રોધની ૨જી સંગ્રહકિદિવેદનના ચરમસમયે મેહનીયને સ્થિતિબંધ અંતર્મુહૂતપૂન ૮૦ દિવસ, શેષ ત્રણ ઘાતિકને વર્ષપૃથકૃત્વ, ત્રણ અઘાતિને સંખ્યાત હજાર વર્ષ થાય છે. મેહનીયની સ્થિતિસત્તા ૫ વર્ષ અને અંતર્મુહુર્તજૂન ૧. એક આવલિકા અધિક બીજા તૃતીય ભાગપ્રમાણુ. જુઓ-ટિપ્પણુ પૃ. ૧૫ ઉપર. Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખવગસેઢી २४ [ગાથા ૧૭૪–૧૮૮ ૪ મહિના. શેષ ત્રણ ઘાતિકમેાઁની સખ્યાત હજાર વર્ષોં અને ત્રણ અઘાતિકાની અસ ખ્યાત–હજારવ હાય છે. (૧૭૪) અનંતર સમયે ક્રોધની ૩જી સગ્રહકિટ્ટની સર્વાં અવાંતરટ્ટિએમાંથી પ્રદેશેા ખેચીને અંતર્મુહૂત સ્થિતિના ઉત્તરાત્તર નિષેકમાં અસંખ્યેયગુણુક્રમે નાંખી પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી અનુભવે છે. (૧૭૫) ક્રોધની ૩ જી સમકિÇિવેદનના ચરમસમયે ચારે સંજવલનને સ્થિતિબધ ૨ મહિના અને સ્થિતિસત્તા ૪ વર્ષ હાય છે. (૧૭૬–૧૭૭) અનંતર સમયે ક્રોધની ૧ લી સંગકિટ્ટની જેમ માનની પ્રથમસ્થિતિ કરે અને તે જ સમયથી અનુભવે છે. કિવેિદનના ચરમસમયે ૩ સંજવલનના સ્થિતિબધ અંતર્મુહૂત ન્યૂન ૫૦ દિવસ અને સ્થિતિસત્તા અંતર્મુહૂર્તન્યૂન ૪૦ મહિના હાય છે. (૧૭૮–૧૭૯) અનેતર સમયે ક્રોધની ૨ જી સમકિટ્ટની જેમ માનની ૨ જી સંગ્રહકિગ્નિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી અનુભવે છે. માનની ૨ જી સંગ્રહકિÊિવેદનના ચરમસમયે સ જવલનકષાયને સ્થિતિમધ અંતર્મુહૂર્તન્યૂન ૪૦ દિવસ અને તેની સ્થિતિસત્તા અંતર્મુહૂતન્યૂન ૩૨ મહિના થાય છે. (૧૮૦) અનંતર સમયે ક્રોધની ૩ જી સંગ્રહિટ્ટની જેમ માનની ૩જી સંગ્રહ કિટ્રિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી વેદે છે. માનની ૩ જી સંગ્રહિÊવેદનના ચરમસમયે મેહનીયનો સ્થિતિબધ ૧ મહિના અને સ્થિતિસત્તા ૨ વર્ષ રહે છે. (૧૮૧–૧૮૨) અન ́તર સમયે ક્રોધની ૧ લી સંગ્રહિટ્ટની જેમ માયાની ૧ લી સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી વેદે છે. માયાની ૧ લી સંગ્રહકિદ્ભિવેદનના ચરમસમયે સંજવલન માયા અને લાભના સ્થિતિમધ અંતર્મુહૂત ન્યૂન ૨૫ દિવસ અને સ્થિતિસત્તા આંતર્મુહૂર્તન્યૂન ૨૦ મહિના હાય છે. (૧૮૩) અન’તરસમયે ક્રોધની ૨ જી સંગ્રહકિટ્ટિની જેમ માયાની ૨ જી સંગ્રહકિગ્નિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી વેદે છે. તેના ચરમસમયે મેાહુનીયને સ્થિતિબંધ અંતર્મુહૂત ન્યૂન ૨૦ દિવસ અને સ્થિતિસત્તા અંતર્મુહૂતન્યૂન ૧૬ મહિના થાય છે. (૧૮૪–૧૮૫–૧૮૬) અનંતરસમયે ક્રોધની ૩ જી સ'ગ્રકિટ્ટિની જેમ માયાની ૩ જી સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી વેદે છે. માયાની ૩ જી સંગ્રહકિટ્ટિ વેશ્વનના ચરમ સમયે ર્ સંજવલનને સ્થિતિબંધ ૧૫ દિવસ, બાકીનાં ત્રણ ઘાતિકર્માને માસપૃથક્ક્ત્વ, ૩ અઘાતિકર્માના સખ્યાતવષ તથા ૨ સ ંજવલનની સ્થિતિસત્તા ૧ વર્ષ, શેષ ત્રણ ધાતિકર્માંની સખ્યાત વષૅ અને ત્રણ અાતિકર્માંની અસંખ્યાતવ હોય છે. (૧૮૭–૧૮૮) અન’તરસમયે ક્રોધની ૧ લી સંગ્રહિટ્ટની જેમ લાભની ૧લી સંગ્રહકિટ્ટિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે અને તે જ સમયથી વેઢે છે. લેલની ૧લી સ ંગ્રહકિÇિવેદનના ચરમસમયે લાશને સ્થિતિમધ તથા સ્થિતિમત્તા અતર્મુહૂર્ત પ્રમાણ. શેષ ત્રણ ઘાતિ૧. એક આવલિકા અધિક ત્રીજા તૃતીયભાગ પ્રમાણુ. જીએ-ટિપ્પણુ પૃ. ૧૫ ઉપર. @ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫ ગાથા ૧૮૯-૧૯૯] ભાવાનુવાદ કર્મનો સ્થિતિબંધ દિવસ પૃથકૃત્વ. ત્રણ અઘાતિકને વર્ષ પૃથકૃત્વ. શેષ ત્રણ ઘાતકર્મોની સ્થિતિ સત્તા સંખ્યાતવર્ષ અને અઘાતિકર્મોની અસંખ્યાતવર્ષ હોય છે. (૧૮૯) અનંતરસમયે ક્રોધની ૨જી સંગ્રહકિષ્ક્રિની જેમ લોભની ૨ જી સંગ્રહકિદિની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે, અને તે જ સમયથી વેદવા માંડે છે તથા લેભની ૨ જી અને ૩ જી સંગ્રહકિદિમાંથી પ્રદેશો લઈને સૂક્ષ્મકિક્રિઓ કરે છે. (૧૯૯૦) ક્ષેપક આત્મા લેભની ત્રીજી સંગ્રહકિદિની નીચે જે સૂક્ષ્મકિક્રિઓ કરે છે, તે સૂમકિક્રિઓને ક્રોધની ૧ લી સંપ્રકિટ્ટિ જેવી શાસ્ત્રમાં કહી છે. ' (૧૯૧) લોભની રજી સંગ્રહાદિમાંથી દલિક ૩જી સંગ્રહકિટ્રિમાં અને સૂક્ષ્મકિક્રિઓમાં સંક્રમે છે. ૩જી સંગ્રહકિદિમાંથી સૂક્ષ્મકિદિઓમાં જ સંક્રમે છે, અન્યત્ર સંક્રમિતું નથી. (૧૯૯૨) લેભની ૩જી સંગ્રહકિટ્રિમાંથી સૂક્ષ્મકિક્રિઓમાં સંક્રમ, દલિક અ૯પ. તેના કરતાં ૨જી સંપ્રકિદિમાંથી ૩જીમાં સંક્રમ, દલિક સંખ્યાતગુણું. તેના કરતાં ૨જી સંગ્રહકિદિમાંથી સૂફમકિઠ્ઠિઓમાં સંક્રમ, દલિક સંખ્યાતગુણું હોય છે. ' (૧૯૩–૧૯૪) સૂમકિદિએનું પ્રમાણુ–કોધની ૧લી સંગ્રહકિદિની અવાંતર કિક્રિઓ થોડી. તેના કરતાં ક્રોધનો ક્ષય થયા પછી માનની ૧ લી સંકિટ્ટિની અવાંતર કિદિઓ વિશેષાધિક. તેના કરતાં માનને ક્ષય થયા પછી માયાની ૧લી સંગ્રહકિટ્ટિની અવાંતર વિદિઓ વિશેષાધિક. તેના કરતાં માયાનો નાશ થયા પછી તેભની ૧લી સંગ્રહકિદિની અવતરકિઠ્ઠિઓ વિશેષાધિક. તેના કરતાં સૂક્ષ્મકિષ્ટિકરણના પ્રથમ સમયે સૂફમકિઠ્ઠિઓ વિશેષા ધિક હોય છે. અહીં સર્વત્ર વિશેષાધિક એટલે સંખ્યાતભાગઅધિક એમ સમજવું. (૧૫) ઉત્તરોત્તર સમયે અસંખ્ય ગુણહીનાક્રમથી સૂક્ષ્મકિદિ કરે છે તથા ઉત્તરત્તર સમયે અસંખ્યાતગુણક્રમથી પ્રદેશને સૂક્ષ્મકિદિઓમાં આપે છે. ( ૧૯) સૂક્ષ્મ અને બાદરવિદિઓમાં દલિકપ્રક્ષેપ–૧લી સૂકમકિદિમાં વધારે પ્રદેશો આપે છે. તેના કરતાં ૨જી સૂમકિટ્રિમાં વિશેષહીન પ્રદેશ આપે છે. તેના કરતાં ૩જીમાં વિશેષહીન. આ રીતે છેલ્લી સૂફમકિદિ સુધી વિશેષહીનકમથી પ્રદેશો આપે છે, છેલ્લી સૂફમકિષ્ટિ કરતાં બાદર પ્રથમકિટ્રિમાં એટલે કે લોભની ૩જી સંગ્રહકિદિની ૧લી અવાંતરકિદિમાં અસંખ્યાતગુણહીન પ્રદેશો આપે છે. ત્યાર બાદ દ્વિતીયાદિ અવાંતરકિર્દિઓમાં વિશેષહીન વિશેષહીન આપે છે. (૧૭) સૂફમકિષ્ટિકરણના દ્વિતીયાદિ સમયમાં પૂર્વ સૂમકિક્રિઓની નીચે અને પૂર્વ સૂમકિક્રિઓનાં આંતરાઓમાં અપૂર્વસૂમકિઠ્ઠિઓ કરે છે. પૂર્વસૂક્ષ્મકિદિઓની નીચે જે અપૂર્વ સૂક્ષ્મકિક્રિઓ કરાય છે, તેના કરતાં પૂર્વ સૂક્ષ્મકિઠ્ઠિઓનાં આંતરાઓમાં કરાતી અપૂર્વ સૂમકિદિઓ અસંખ્યગુણી હોય છે. ' (૧૯૮–૧૯) પૂર્વ–અપૂર્વસૂમકિષ્ટિએમાં દલિક પ્રક્ષેપ-અપૂર્વસૂમકિદિની અપેક્ષાએ તેની અનંતર પૂર્વસૂમકિદિમાં પ્રદેશ અસંખ્યાતભાગહીન આપે છે. પૂર્વ સૂક્ષ્મ કિદિની અપેક્ષાએ અનંતર અપૂર્વસૂમકિદિમાં પ્રદેશ અસંખ્યાતભાગઅધિક આપે છે. બાકીની સર્વ પૂર્વ–અપૂર્વકિદિઓમાં અનુક્રમે વિશેષહીન વિશેષહીન પ્રદેશ આપે છે. Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ નવગસેઢી [ગાથા ૨૦૦-૨૦૮ (૨૦૦) દશ્યમાનદલિક-સૂમકિકિરણકાળમાં ૧લી સૂકમકિટ્રિથી માંડી છેલ્લી સૂક્ષ્મકિર્દિ સુધી અનુક્રમે દશ્યમાન દલિક વિશેષહીન વિશેષહીન હોય છે. છેલી સૂક્ષ્મકિદિની અપેક્ષાએ બાદ પ્રથમકિદિમાં દશ્યમાન દલિક અસંખ્યગુણું હોય છે. ત્યાર પછી ઉત્તરોત્તર બાદરકિટ્રિમાં વિશેષહીન વિશેષહીન હોય છે. (૨૧) લેભની ૨જી સંગ્રહકિતિની પ્રથમસ્થિતિ ત્રણ આવલિકા પ્રમાણ બાકી રહે ત્યાંસુધી ૨જી સંગ્રહકિષ્ટિમાંથી દલિક ૩જી સંગ્રહકિષ્ટિમાં પણ સંક્રમે છે. ત્યાર બાદ સૂક્ષ્મકિદિઓમાં જ સંક્રમે છે. ' (૨૨-૨૦૩) લેભની રછ સંગ્રહકિદિની પ્રથમ સ્થિતિ સમયાધિક આવલિકા પ્રમાણ બાકી રહે ત્યારે ઉદયાવલિકામાં રહેલાં અને એક સમયનૂન બે આવલિકામાં બંધાયેલાં દલિકો છેડીને લેભની ૨જી સંગ્રહકિદિ અને ૩જી સંગ્રહકિદિના શેષ સર્વ પ્રદેશને સૂક્ષ્મકિક્રિઓમાં સંક્રમાવી દે છે. લેભની ૨જી સંગ્રહકિષ્ટિની સમયાધિક આવલિકા પ્રમાણ પ્રથમ સ્થિતિ બાકી રહે એટલે કે ૨જી સંગ્રહકિદિના ઉદયને ચરમસમય હોય ત્યારે તેને (મહનીયન) સ્થિતિબંધ અંતર્મુહૂર્ત, બાકીનાં ત્રણ ઘાતિકર્મોને અંતર્દિવસ (દિવસની અંદર) અને ત્રણ અઘાતિકને અંતર્વષ (વર્ષની અંદર) થાય છે. હવે સ્થિતિસત્તા કહીશું. (૨૦૪) લેભની ૨જી સંગ્રહકિદિવેદનના ચરમસમયે લેભની સ્થિતિસત્તા અંતહત, બાકીનાં ત્રણ ઘાતકર્મોની સંખ્યાતવર્ષ અને શેષ ત્રણ અવાતિકર્મોની અસંખ્યાતવર્ષ રહે છે. (૨૦૫) અનંતરસમયે ક્ષપક આત્મા સૂક્ષ્મસમ્પરાયગુણસ્થાનક પ્રાપ્ત કરે છે. તે જ વખતે સૂક્ષ્મકિઠ્ઠિઓમાંથી પ્રદેશો ખેંચીને ગુણશ્રેણિ કરે છે અને તે જ સમયથી સૂમકિટ્રિએને અનુભવે છે. (૨૦૬-૨૦૭) સૂક્ષ્મસંપરાયગુણસ્થાનકના કાળ કરતાં ગુણશ્રેણિનિક્ષેપ(આયામ) વિશેષાધિક છે. તેના ઉત્તરોત્તર નિષેકમાં અસંખ્યાતગુણુક્રમથી પ્રદેશને નિક્ષેપ કરે છે. ગુણશ્રેણિના ચરમનિષેક કરતાં અસંખ્ય ગુણપ્રદેશે અંતરકરણના પ્રથમનિષેકમાં નાંખે છે. ત્યાર બાદ તેના ઉત્તરોત્તર નિષેકમાં વિશેષહીન વિશેષહીન પ્રદેશ નાંખે છે. અંતરકરણના ચરમનિષેક કરતાં દ્વિતીય સ્થિતિના ૧લા નિષેકમાં સંખ્યાતગુણહીન પ્રદેશ આપે છે. ત્યાર બાદ ઉત્તરોત્તર નિષેકમાં વિશેષહીન વિશેષહીન પ્રદેશ આપે છે (૨૮) સૂમસં૫રાયના ૧લા સમયથી માંડીને અંતરકરણને પ્રથમનિષેક સુધી દશ્યમાન દલિક અસંખ્યાતગુણુક્રમે હોય છે, ત્યાર બાદ અંતરકરણના ચરમનિષેક સુધી ઉત્તરત્તર નિષેકમાં વિશેષહીન હોય છે. અંતરકરણના ચરમનિષેક કરતાં ૨જી સ્થિતિના પ્રથમ નિકમાં દશ્યમાનદલિક અસંખ્યગુણું હોય છે. ત્યાર બાદ ઉત્તરોત્તર નિષેકમાં વિશેષહીન વિશેષહીન હોય છે. ૧. જો કે સૂક્ષ્મપરાયગુણસ્થાનકના ૧ લા સમયે અંતરકરણના બધા નિષેકમાં દલનિક્ષેપ થતો હેવાથી અંતરકરણ રહેતું નથી, છતાં અનિવૃત્તિકરણમાં જે અંતરકરણ કરાયું હતું, તેમાંથી ગુણશ્રેણિના નિકે છેડી બાકીના નિષેકે “ભૂતપૂર્વદત્તસુત્રા” એ ન્યાયે અંતરકરણના નિષકે કહેવાય છે. Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૨૦૯–૨૨૦] ભાવાનુવાદ ૨૭ (૨૦૯) દ્વિતીયાદિ સ્થિતિઘાત વખતે ઉદયસમયથી માંડી ગુણશ્રેણિના ઉપરના પ્રથમનિષેક સુધી દીયમાન અને દૃશ્યમાન દલિક અસંખ્યાતગુણુક્રમે હેાય છે. ત્યાર બાદ ઉત્તરાત્તર નિષેકમાં વિશેષહીન વિશેષહીન હેાય છે. (૨૧૦) સૂક્ષ્મસ'પરાયગુણુસ્થાનકના કાળ અલ્પ. તેના કરતાં ગુણશ્રેણિના આયામ (નિક્ષેપ) વિશેષાધિક. તેના કરતાં આંતરકરણના નિષેકે સંખ્યાતગુણુા. તેના કરતાં સૂક્ષ્મસપરાયગુણુસ્થાનકમાં ઘાત કરાતા પ્રથમસ્થિતિખંડ સખ્યાતગુણેા. તેના કરતાં મહુનીયની સ્થિતિસત્તા સંખ્યાતગુણી. (૨૧૧) સૂક્ષ્મકિટ્ટિના અસંખ્યાતભાગપ્રમાણુ નીચેની મ`દરસવાળી અને ઉપરની તીવ્રરસવાળી કિદૃિએ અનુભવાતી નથી. બાકીની મધ્યમરસવાળી કિટ્ટિએ અનુભવાય છે. (૨૧૨) અલ્પમહત્વ-નીચેની અનુદીણુ સમાકિટ્ટએ થાડી. તેના કરતાં ઉપરની અનુદીણુ સુમકિટ્ટિએ વિશેષાધિક. તેના કરતાં ઉત્તીણું સૂક્મકિટ્ટએ અસંખ્યાતગુણી. (૨૧૩) સૂક્ષ્મસ પરાયગુણસ્થાનકના સંખ્યાતમે। ભાગ બાકી રહે ત્યારે ક્ષપક આત્મા માહનીયના અંતિમ સ્થિતિખ’ડના ઘાત કરતા માડુનીયની ગુણશ્રેણિના સંખ્યાતમા ભાગને પણ નાશ કરે છે. (૨૧૪) મેાહનીયના ચરમસ્થિતિખડના નાશ કર્યાં બાદ તેના સ્થિતિઘાત થતા નથી. બાકીનાં કાંને પૂર્વની જેમ થયા કરે છે. માડુનીયના ચરમસ્થિતિઘાત થયા બાદ તેની સ્થિતિસત્તા સૂમસ’પરાયગુણુસ્થાનકના શેષકાળપ્રમાણુ હાય છે. (૨૧૫–૨૧૬) સૂક્ષ્મસ પરાયના સમયાધિક આવલિકાપ્રમાણ કાળ બાકી રહે ત્યારે મેાહનીયકમ (લાભ)ની જઘન્યસ્થિતિની ઉદીરણા થાય છે. સૂક્ષ્મસ પરાયના ચરમસમયે ત્રણ ઘાતિકના બધ અ ંતર્મુહૂત. નામગાત્રના ૮ મુહૂત અને વેદનીયના ૧૨ મુહૂત થાય છે. ત્રણ ઘાતિકર્માંની સ્થિતિસત્તા સંખ્યાતાવ અને અઘાતિકર્માની અસંખ્યાતવ હોય છે. (૨૧૭) ૧૧ સંપ્રેકિટ્ટએને (લાભની ૩૭ સિવાય) ક્ષય(વિનાશ) અનુભવ અને સંક્રમથી થાય છે, એ સમયન્યૂન બે આવલિકામાં બોંધાયેલાં ૧૧ સ`ગ્રકિટ્ટિએનાં દૃલિકાના અને લેાભની ૩જી સંગ્રહકિટ્ટિના ક્ષય ફક્ત સ ંક્રમથી થાય છે. સૂક્ષ્મકિટ્ટએના અનુભવથી (ઉદય દ્વારા) ક્ષય થાય છે. (૨૧૮) મિટ્ટિવેદનના કાળથી માંડીને ક્રાધની ૧લી સ ંગ્રહિિટ્ટના વેદનકાળ સુધી પદ્માનુપૂર્વીથી વેદનકાળ વિશેષાધિક હેાય છે. (૨૧૯) માનના ઉદયે ક્ષપકશ્રેણિ માંડનારને માનની પ્રથમસ્થિતિ ક્રોધના ક્ષપણાહાસહિત ક્રેાધની પ્રથમસ્થિતિપ્રમાણ, માયાના ઉદયે ક્ષપકશ્રેણિ માંડનારને માયાની પ્રથમસ્થિતિ ક્રોધ અને માનના ક્ષપણાહાસહિત ક્રાધની પ્રથમસ્થિતિપ્રમાણ, લાભના ઉદયે ક્ષપકશ્રેણ માંડનારને લાભની પ્રથમસ્થિતિ ક્રોધ-માન-માયાના ક્ષપણાકાળસહિત ક્રાધની પ્રથમસ્થિતિપ્રમાણુ હાય છે. (૨૨૦)માનના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણિ માંડનાર ક્રેાધના ક્ષય કરી, માયાના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણિ પર ચડનાર ક્રાધ અને માનના નાશ કરી અને લેાભના ઉદયથી આરહણ કરનાર Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખવગસેઢી [ ગાથા ૨૨૩–૨૩૨ ક્રાધ-માન-માયાને વિનાશ કરી ક્રમશઃ અશ્વકકરણ અને કિક્રિકરણ કરે છે. ત્યાર માદ માહનીયકને કિટ્ટિસ્વરૂપે ખપાવે છે. (૨૨૧) પુરુષવેદના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણ માંડનાર આત્મા જે સ્થાને સ્ત્રીવેદને સથા ખપાવે છે, તે સ્થાન સુધી સ્રીવેદથી શ્રેણિ માંડનાર આત્મા સ્ત્રીવેદની પ્રથમસ્થિતિ કરે છે. સ્ત્રીવેદોદયના વિચ્છેદ પછી અંતર્મુહૂત બાદ સાત નાકષાયને એકીસાથે ખપાવે છે. (૨૨૨) સ્ત્રીવેદના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણિ માંડનાર સ્ત્રીવેદની જેટલી પ્રથમસ્થિતિ રાખે છે, તેટલી નપુંસકવેદના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણિ માંડનાર નપુંસકવેદની પ્રથમસ્થિતિ રાખે છે અને નપુંસકવે તેમજ સ્ત્રીવેદને એકીસાથે ખપાવે છે. વેદેદયના વિચ્છેદ પછી અંતર્મુહૂત માદ સાત નેકષાયને એકીસાથે નાશ કરે છે. ૨૮ (૨૨૩) સ્રીવેદ અને નપુંસકવેદના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણિ માંડનારને પુરુષવેદના જઘન્ય સ્થિતિબંધ થતા નથી. બાકીની પ્રક્રિયા પુરુષવેદાયથી ક્ષપકશ્રેણ માંડનારની જેમ જાણવી. આ રીતે ભિન્ન ભિન્ન વેઢના ઉદયથી ક્ષપકશ્રેણિ માંડનારના પ્રક્રિયાભેદ કહ્યો. (૨૨૪) સૂક્ષ્મસ પરાયના અનંતરસમયે યથાખ્યાતસયમને પામતે ક્ષેપક આત્મા ક્ષીણકષાયગુણસ્થાનકને પ્રાપ્ત કરે છે અને તે જ સમયથી સ્થિતિ-સવિનાનું અને પ્રકૃતિપ્રદેશવાળુ કમ (શાતા વેદનીય) બાંધે છે. આ કમબંધને ઇાઁપથિક બંધ કહેવાય છે. (૨૨૫) ત્રણ ઘાતિક અને ત્રણ અઘાતિકનાં સ્થિતિાત, રસઘાત અને ગુણશ્રેણિ પૂર્વીની જેમ કરે છે. લિકની અપેક્ષાએ સૂક્ષ્મસ`પરાય કરતાં ગુણશ્રેણિનિરા અસંખ્યગુણી છે. (૨૨૬) ક્ષીણકષાયગુણસ્થાનકના સ ંખ્યાતમા ભાગ ખાકી રહે, ત્યારે અંતિમસ્થિતિખંડ દ્વારા ક્ષીણુકષાયગુણસ્થાનકની ઉપરની ત્રણ ઘાતિકમેīની સ્થિતિના ધ્યાનદ્વારા ઘાત કરે છે. (૨૨૭) ક ક્ષયનું કારણભૂત ધ્યાન એ પ્રકારે છે–(૧) ધમ ધ્યાન (ર) શુલધ્યાન. આ બન્ને ધ્યાનના ૪-૪ પ્રકાર આગમશાસ્રોથી જાણી લેવા. (૨૨૮) ત્રણ ઘાતિકના ચરમસ્થિતિખંડનો નાશ થયા બાદ તેને સ્થિતિઘાત થતા નથી. ક્ષીણકષાયગુણસ્થાનકને કાળ એક સમય અધિક એક આવલિકા બાકી રહે ત્યારે ઘાતિકની જઘન્યસ્થિત્યુદીરણા થાય છે. (૨૨૯) ક્ષીણકષાયગુણસ્થાનકના દ્વિચરમસમયે નિદ્રાદ્વિકનાં ઉદય અને સત્તા વિચ્છેદ પામે છે. ચરમસમયે ૫ જ્ઞાનાવરણુ ૪ દર્શનાવરણ ૫ અંતરાય આ ૧૪ પ્રકૃતિએનાં ઉદય અને સત્તા વચ્છેદ પામે છે. (૨૩૦) અન તરસમયે ક્ષપક સયેાગકેવલિગુણસ્થાનક પ્રાપ્ત કરે છે અને તે જ સમયે અનંત કેવલજ્ઞાન, અનંત કેવલદન અને અન ંતવીર્યને પ્રાપ્ત કરે છે. (૨૩૧) આ ગુણુસ્થાનકના જધન્યકાળ અંતર્મુહૂત અને ઉત્કૃષ્ટકાળ દેશેાનપૂવ કેટિ વર્ષાં હોય છે. આર્યેાજિકાકરણ ન કરે ત્યાંસુધી આ ગુગુત્થાનકે ગુણશ્રેણિ અવસ્થિત હોય છે. (૨૩૨) અંતર્મુહૂત જેટલું આયુષ્ય બાકી રહે ત્યારે ક્ષેપક આયેાજિકાકરણ કરે છે. Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૨૩૩-૨૪૪] ભાવાનુવાદ કેટલાક આચાર્યો આ કરણને આવશ્યકકરણ, કેટલાક અવશ્યકરણ કેટલાક આવજિતકરણ અને કેટલાક આવાજીકરણ કહે છે. (૨૩૩) ત્યાર બાદ, જેમને વેદનીયાદિ કર્મોની સ્થિતિ આયુષ્ય કરતાં અધિક હોય તે આત્માઓ કેવલિસમુદ્દઘાત કરે છે. (૨૩૪-૨૩૫) કેવલિસ મુદ્દઘાત-૪ સમયમાં અનુક્રમે દંડ, કપાટ, પ્રતર અને લોકપૂરણ કરે છે. પ્રથમસમયે દંડ કરતી વખતે એક અસંખ્યાતભાગપ્રમાણુ જીવપ્રદેશને સ્વશરીરમાં રહેવા દઈ બાકીના બહુઅસંખ્યાતભાગપ્રમાણ જીવપ્રદેશને વિસ્તારે છે. અને ત્યારે સ્થિતિખંડ દ્વારા સ્થિતિસત્તાના ઘણા અસંખ્યાતભાને અને રસખંડ દ્વારા સસરાના ઘણા અનંત ભાગોને નાશ કરે છે. (૨૩૬) બીજા સમયે કપાટ કરતી વખતે, પહેલા સમયે બાકી રહેલા એક અસંખ્યાતમાભાગ પ્રમાણ પ્રદેશના અસંખ્યાતા ભાગે કરી, એક અસંખ્યાતમો ભાગ પિતાના શરીરમાં રાખી બાકીના બહુઅસંખ્યાતભાગપ્રમાણ આત્મપ્રદેશને વિસ્તારે છે. સ્થિતિઘાત અને રસઘાત પૂર્વની જેમ કરે છે. (૨૩૭) ત્રીજ સમયે પ્રતર કરતી વખતે, બીજા સમયે બાકી રહેલા પ્રદેશના અસંખ્યાતભાગે કરી એક અસંખ્યાતમા ભાગને સ્વશરીરમાં રાખી બાકી રહેલા બહુ અસંખ્યાતભાને વિસ્તરે છે. અહીં પણ સ્થિતિઘાત અને રસઘાત પૂર્વવત્ થાય છે. (૨૩૮) ચેથા સમયે લોકપૂરણ કરતો જીવ ત્રીજા સમયે બાકી રહેલા એક અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણુ સ્વપ્રદેશને વિસ્તારે છે, ત્યારે આત્માનો એક એક પ્રદેશ એક એક આકાશપ્રદેશ ઉપર હોય છે. અહીં સ્થિતિઘાત અને રસઘાત પૂર્વની જેમ થાય છે. (૨૩૯) લેકપુરણ વખતે વેદનીયાદિ કર્મોની સ્થિતિસત્તા અંતર્મુહૂર્ત પ્રમાણ હોય છે અને તે આયુષ્યની સ્થિતિસત્તા કરતાં સંખ્યાતગુણ હોય છે. ત્યાર બાદ પૂર્વોક્તકમથી ઊલટા કમે લેકપૂરણ વગેરેને સંહરી લે છે. (૨૪૦) પાંચમા સમયે પ્રતરમાં વર્તાતો આત્મા ઘણા સંખ્યાતભાગપ્રમાણ સ્થિતિને અને ઘણા અનંતભાગમમાણ રસને ઘાત કરે છે. | (૨૪૧) છઠ્ઠા સમયે કપાટમાં વતતે પૂર્વવત્ સ્થિતિ અને રસનો નાશ કરે છે. માત્ર અહીંથી સ્થિતિઘાતઅદ્ધા અને રસધાતઅદ્ધા અંતમુહૂર્ત પ્રમાણુ હોય છે. પહેલા પાંચ સમયમાં તે એક સામયિક હતો. (૨૪૨) સાતમા સમયે કપાટનું સંહરણ કરી દંડમાં વર્તે છે. આઠમા સમયે દંડનું સંહરણ કરી શરીરસ્થ જીવપ્રદેશોવાળ બને છે. (૨૪૩) સમુદ્રઘાત અવસ્થામાં ૧લા અને ૮મા સમયે દારિકાયયોગ, ૨જા, દટા અને ૭મા સમયે ઔદારિકમિશ્રકાર અને ૩જા, કથા તેમજ પમ સમયે કાર્મસુકાયયોગ હોય છે. સમુદ્દઘાત પછી ક્ષેપક ગનિષેધ કરે છે. (૨૪૪) વિવિધ યોગનો નિષેધ-સમુદ્દઘાત કરનાર સમુદ્દઘાતની સમાપ્તિ કરીને અને બીજા જે આજિકારણ કરીને અંતમુહૂર્ત પછી બાદરકાયયુગના બળથી અંત. Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૦. ખગસેઢી [ગાથા ૨૫-૨૫૨ મુહૂર્તકાળમાં બાદરવચનગને, ત્યાર પછી અંતર્મુહૂત સુધી વિશ્રામ કર્યા બાદ બાદરકાય ગના બલથી અંતર્મુહૂર્વકાળમાં બાદરમનેગને, ત્યાર પછી અંતર્મુહૂર્ત સુધી વિશ્રામ કર્યા બાદ બાદરકાયયેગના બળથી અંતમુહૂર્તમાં ઉચ્છવાસને અને ત્યાર પછી અંતર્મુહૂર્ત સુધી વિશ્રામ કર્યા બાદ 'બાદરકાયેગના બળથી અંતમુહૂર્તમાં બાદરકાય ગને નિરોધ કરે છે. બાદરકાયયોગ નિરોધના પ્રથમ સમયથી અંતમુહૂર્ત સુધી યોગનાં અપૂર્વસ્પર્ધકે કરે છે. ત્યાર બાદ અંતર્મુહૂર્ત સુધી ચગની કિક્રિઓ કરે છે. કિષ્ટિકરણના અન તરસમયે સૂક્ષ્મકાયયેગના બળથી સૂમવાગ્યેગને નિરોધ કરે છે. ત્યાર બાદ અંતહસુધી વિશ્રામ કરી અંતમુહૂર્તકાળમાં સૂક્ષ્મ મનોયોગનો વિરોધ કરે છે. ત્યાર બાદ અંતર્મુહૂર્ત સુધી વિશ્રામ કરી સૂકાયોગના નિરોધને પ્રારંભ કરે છે. સૂમકાયોગનિરોધના ૧લા સમયે યોગકિદિઓના ઘણા અસંખ્યાતભાગેનો નાશ કરે છે, એક અસંખ્યાત ભાગ બાકી રાખે છે. ૨ જા સમયે તે ભાગના ઘણે અસંખ્યાતભાગોને નાશ કરી એક અસંખ્યભાગ બાકી રાખે છેઆ રીતે ઉત્તરોત્તર સમયે કિક્રિઓને નાશ સગિકેવલિના ચરમસમય સુધી કરે છે. આવશ્યકચૂર્ણિકાર વગેરે મહર્ષિઓનો આ અભિપ્રાય છે. (૨૪૫-૨૪૬-૨૪૭) કષાયમાતચૂર્ણ કારના અભિપ્રાય : બાદરકાયોગન. આલંબનથી પહેલાં બાદરમનોવેગને નિરોધ કરે. ત્યાર બાદ અંતમુહર્ત સુધી વિશ્રામ કરી અંતમુહૂર્ત કાળમાં બાદરવચનગનો વિરોધ કરે, ત્યાર બાદ અંતમુહૂર્ત સુધી વિશ્રામ કરી બાદરકાયયોગના આલંબનથી અંતમુહૂર્વકાળમાં બાદરશ્વાસોશ્વાસને નિરોધ કરે. ત્યાર બાદ અંતમુહૂર્ત કાળ સુધી વિશ્રામ કરી બાદરકાયોગથી બાદરકાયોગને નિરોધ કરે. ત્યાર બાદ અંતમુહૂત પછી સૂક્ષ્મકાયેગથી અંતર્મુહૂર્તકાળમાં સૂમમનગને, ત્યાર બાદ એ જ રીતે સૂમવચનગને, ત્યાર બાદ એ જ પ્રમાણે સૂક્ષ્મ શ્વાસે શ્વાસનો નિરોધ કરે. ત્યાર બાદ અંતમુહૂર્ત પછી સૂર્મકાયાગને નિરોધ કરતે જીવ પ્રથમપૂર્વ સ્પર્ધકની નીચે વેગનાં અપૂર્વ સ્પર્ધકે કરે છે. (૨૪૮-૨૪૯) પૂર્વપર્ધકેની પ્રથમવર્ગણાના અસંખ્યાતમાભાગપ્રમાણુ વીર્યાવિભાગે અને જીવપ્રદેશ ખેંચે છે અને તેનાં અપૂર્વ સ્પર્ધકો કરે છે. દ્વિતીયાદિ સમયથી અસંખ્ય ગુણહીનકમથી અપૂર્વ સ્પર્ધા કે બનાવે છે અને આત્મપ્રદેશ અસંખ્ય ગુણકમથી ખેંચે છે. (૨૫) ગનાં અપૂર્વપર્ધકનું પ્રમાણુ-યોગનાં અપૂર્વપર્ધકો સૂચિશ્રેણિના વર્ગમૂળના અસંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ અને પૂર્વપર્ધકે ના પણ અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ હોય છે. (૨૫૧) અંતર્મુહૂર્ત સુધી ગનાં અપૂર્વ સ્પર્ધકે કર્યા પછી પૂર્વ-અપૂર્વ સ્પર્ધકેમાંથી અપૂર્વ સ્પર્ધકોની નાચે સૂચિશ્રેણિના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ કિટિઓ કરે છે. (૨૨) ગકિફ્રિકરણના પ્રથમસમયે અપૂર્વ સ્પર્ધકની પ્રથમ વર્ગણાના અસં. ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ વીર્યાવિભાગે અને પૂર્વાપૂર્વસ્પર્ધકેમાં રહેલા સર્વાત્મપ્રદેશમાંથી અસંખ્યાતમા ભાગપ્રમાણ પ્રદેશને ખેંચે છે. ૧. સમકાયેગના બળથી બાદરકાયયોગને નિરોધ કરે છે આ પ્રમાણે આવશ્યકટીકાકાર વગેરે મહાપુરુષો માને છે. Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથા ૨૫૩-૨૬૪ | ભાવાનુવાદ (૨૫૩) અંતમુહુર્ત કાળ સુધી અસંખ્યગુણહીનક્રમે કિટિઓ કરે છે. અને જીવપ્રદેશને અસંખ્યનુક્રમે બેચે છે. કિદિગુણકાર પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ છે. કિદિગુણકાર એટલે (૧) ઉત્તરોત્તર સમયે કરાતી કિહિએને જે ગુણક દ્વારા ગુણવાથી પૂર્વપૂર્વ સમયે કરેલી કિટિઓની સંખ્યા પ્રાપ્ત થાય તે ગુણક. (૨) અથવા જીવના એક પ્રદેશને આશીરીને વિવક્ષિત કિટ્ટિના વીર્યાવિભાગોને જે ગુણક દ્વારા ગુણવાથી તેની અનંતર ઉપરની કિટિના રસાવિભાગે પ્રાપ્ત થાય તે ગુણક. (૩) અથવા વિવક્ષિત કિદિમાં રહેલા સર્વ જીવપ્રદેશના વીર્યાવિભાગને જે ગુણક દ્વારા ગુણવાથી તેની અનંતર ઉપરની કિટ્રિમાં રહેલા સર્વ પ્રદેશના વીર્યાવિભાગે પ્રાપ્ત થાય તે ગુણક. (૨૫૫) કિટ્રિકરણની સમાપ્તિના અનંતરસમયે પૂર્વ-અપૂર્વસ્પર્ધકોને નાશ કરે છે અને ત્યારથી માંડી અંતમુહૂર્ત સુધી કિટિંગત વેગ પ્રવર્તે છે. (૨૫૬) સૂક્ષ્મકાયેગને નિરોધ કરનાર જીવને સૂક્ષ્મક્રિયાપ્રતિપાતી નામનું ત્રીજું ધ્યાન હોય છે. સોગિકેવલિગુણસ્થાનકના ચરમસમયે બાકી રહેલી સર્વ ગકિઠ્ઠિઓને નાશ કરે છે. (૨૫૭-૧૫૮-૫૯) ઉદયવિચ્છેદ-વેદનીયની બે પ્રકૃતિમાંથી એક (શાતા કે અશાતા), ઔદ્યારિક શરીર, દારિક અંગે પાંગ, તેજસકામણ શરીર, ૬ સંસ્થાન, ૧લું સંઘયણ, વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ, શુભાશુભખગતિ, અગુરુલઘુ, ઉપઘાત, પરાઘાત, નિર્માણ, પ્રત્યેક, સ્થિર, અસ્થિર, શુભ, અશુભ આ ૨૭ પ્રકૃતિના ઉદયને વિદ થાય છે. સુસ્વર, દુઃસ્વર અને ઉચ્છવાસનામકર્મને ઉદયવિચછેદ પહેલાં થયેલો છે. (૨૬૦) સગિકેવલિગુણસ્થાનકના ચરમસમયે (1) કિદિ (૨) રોગ (૩) સ્થિતિઘાત અને રસઘાત (૪) નામ અને ગેત્રની ઉદીરણ (૫) લેશ્યા (૬) બંધ (૭) સૂફમક્રિયાપ્રતિપાતી ધ્યાન આ ૭ પદાર્થોને વિછેદ થાય છે. (૨૬૧) અનંતરસમયે અગિકેવલિગુણસ્થાનકને સ્પર્શ વ્યવચ્છિન્નક્રિયાપ્રતિપાતી નામનું ચોથું શુક્લધ્યાન અને અંતર્મુહૂર્તકાલપ્રમાણ શૈલેશી પ્રાપ્ત કરે છે. | (૨૬૨-૩૬૩-૨૬૪) અલેશી અને અગી કેવલિભગવાન આયોજિકાકરણ વખતે નવા રચાયેલા કર્મ પ્રદેશને અસંખ્યગુણકમથી ખપાવે છે. અયોગિકેવલિગુણસ્થાનકના દ્વિચરમસમયે (કપાત્ય સમયે) ૬ સંસ્થાન, અસ્થિર, અશુભ, દુર્ભગ, દુઃસ્વર, અનાદેય, અપયશ ૬ સંઘયણ અગુરુલઘુ, ઉપઘાત, પરાઘાત, ઉછુવાસ ઔદારિકાદિ ૫ શરીર, પ સંઘાતન, શુભાશુભવિહાગતિ, દેવગતિ, દેવાનુપૂર્વી, ૫ વર્ણ, ૨ ગંધ, ૫ રસ, ૮ સ્પર્શ, ૧૫ બંધન, નિર્માણ, ૩ અંગે પાંગ, પ્રત્યેક, સ્થિર, શુભ, સુસ્વર, અપર્યાપ્ત, શાતા અથવા અશાતા, અને નીચત્ર આ ૮૨ પ્રકૃતિઓને સત્તામાંથી વિચ્છેદ થાય છે. ૧ વચનગના નિરોધ વખતે સુસ્વરદુઃસ્વર અને ઉસનિરોધ વખતે ઉસતામકર્મને ઉદય વિચછેદ થાય છે. Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ર. નવગામેઠી [ગાથા ૨૬૫-૨૭૧ (૨૬૫) અગિકેવલિગુણસ્થાનકના ચરમસમયે મનુષ્યગતિ, મનુષ્યાનુપૂર્વી, મનુષ્યાયુષ્ય, ત્રસ, બાર, પર્યાપ્ત, પચંદ્રિયજાતિ, યશકીર્તિ, સુભગ, આદેય અને શાતા કે અશાતા આ ૧૨ અને જિનના બાંધેલું હોય તે ૧૩ પ્રકૃતિને સત્તામાંથી વિચ્છેદ થાય છે. (૧૩ પ્રકૃતિઓને વિચ્છેદ તીર્થકર ભગવાનને આશીરીને થાય) તથા મનુષ્યાનુપૂર્વી સિવાય ઉપયુત પ્રકૃતિઓને ઉદય વિચછેદ થાય છે. (૨૬૬) કેટલાક આચાર્ય ભગવંતે કહે છે કે મનુષ્યાનુપૂર્વીની સત્તાને પણ વિચ્છેદ અગિકેવલિગુણસ્થાનકના ચરમસમયે થાય છે. આ કર્મ ક્ષયની પ્રક્રિયાની અંતે સમયાંતર અને પ્રદેશાંતરને નહિ પíતે આત્મા એ જ સમયે સિદ્ધ થાય છે. (૨૬૭) જ્ઞાનાવરણાદિ આઠ કર્મના ક્ષયથી સિદ્ધ થયેલા આત્માઓ કેવલજ્ઞાનાદિ આઠ ગુણ પ્રાપ્ત કરે છે અને તેઓ ઈત્યાગભારા નામની પૃથ્વી ઉપર લેકારને સ્પર્શને રહેલા છે. જ્ઞાનાવરણના ક્ષયથી અનંતકેવલજ્ઞાન, દર્શનાવરણના ક્ષયથી અનંતકેવલદર્શન, વેદનીયના ક્ષયથી અનંત સુખ, મોહનીયના ક્ષયથી ક્ષયિકસમ્યકત્વ–ક્ષાધિકચારિત્ર, આયુષ્યના ક્ષયથી અક્ષયસ્થિતિ, નામ-શેત્રના ક્ષયથી અમૂન–અનંત અવગાહના અને અંતરાયના ક્ષયથી અનંતવીર્ય આ આડ ગુણે તેમને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨૬૮) કાગ્રથિક તે એક ભવમાં બન્ને શ્રેણિ (ક્ષપકશ્રેણિ અને ઉપશમશ્રેણિ) હોઈ શકે છે. સૈદ્ધાંતિક મતે એક ભવમાં બેમાંથી કોઈ પણ એક જ શ્રેણિ હોય છે. (૨૬૯) ક્ષપકશ્રેણિરૂપ સરેવરમાં કર્મમલને ધોઈ નાંખનાર શ્રી વીરભગવંત જય પામે. પરમગુરુ પૂ૦ આચાર્ય ભગવાન શ્રીમદ્ વિજયપ્રેમસૂરીજી મહારાજ તથા તેમના અંતેવાસી શિષ્યરત્ન પૂ. પં. ભાનુવિજયજી ગણિવર્ય પણ જય પામે. (૨૭૦) આ ગ્રંથમાં (૧) પૂ. પં. ભાનુવિજયજી ગણિવર્યના શિષ્યરત્ન પૂછે મુનિરાજશ્રી ધર્મઘોષવિજયજી મ.ના શિષ્યરત્ન પૂ૦ મુનિરાજશ્રી જયઘોષવિજયજી મ૦, (૨) પૂપ૦ ભાનવિજયજી ગણિવર્યાના શિષ્યરત્ન પૂ. મુનિરાજશ્રી ધર્માનન્દવિજયજી મ., (૩) પૂ. પં. ભાનવિજયજી ગણિવર્યના શિષ્યરત્ન સ્વર્ગગત પૂપં શ્રી પદ્મવિજયજી ગણિવર્યના શિષ્યરત્ન પૂ. મુનિરાજશ્રી હેમચંદ્રવિજયજી મ., (૪) તથા પૂ. પં. શ્રી ભાનુવિજયજી ગણિવર્યના શિષ્યરત્ન મુનિરાજશ્રી જિતેન્દ્રવિજયજી. મહારાજના શિષ્ય મુનિ ગુણરત્નવિજયે કર્મ પ્રકૃતિ, સપ્તતિકા, કષાયપ્રાભૂત વગેરે પ્રાચીન ગ્રંથોમાંથી કર્મક્ષપણાના પદાર્થોનો સંગ્રેડ કર્યો છે. (ર૭૧) પદાર્થ સંગ્રહ કર્યા પછી પૂ૦ મુનિરાજશ્રી જિતેન્દ્રવિજયજી મ.ના શિષ્ય ગુણરત્નવિજયે આ ખવરસેઢી(ક્ષપકશ્રેણિ)ગ્રંથની રચના કરી છે. આ ગ્રંથમાં છસ્થતાદિના કારણે થએલી અલનાએ બહુશ્રુત-ગીતાર્થો કૃપા કરી સુધારે એ જ એક પ્રાર્થના. નવસેઢી (ક્ષપકશ્રેણિ) મૂળ ગાથાઓને ગુજરાતીમાં ભાવાનુવાદ સમાપ્ત. - Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यदेव-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वर-कर्मसाहित्य-जैन-ग्रन्थमालाया मुद्रितमन्थाः रू० 1 खवगसेढी (क्षपक-श्रेणिः) स्वोपज्ञवृत्तिसंवलिता 21-00 (पुस्तकोकारा) 2 खवगसेढी (क्षपक-श्रेणिः) स्वोपज्ञवृत्तिसंवलिता 25-00 (प्रमाकारा) 3 बंधविहाणे मूलपयडि-ठिड्बंधो (स्थितिबन्धः) प्रेमप्रभाटीकासमलकृतः 21-00 (पुस्तकाकारः) / 4 बंधविहाणे मूलपयडि-ठिबंधो (स्थितिबन्धः) प्रेमप्रभाटीकासमलङ्कृतः 25-00 (प्रसाकार:) 5 खवगसेढी विस्तृतप्रस्तावना-मूलगाथासंस्कृतच्छाया-गुर्जरभावानुवादयुक्ता 2-25 6 खवगसेठी (मूलगाथाः) मुद्रयमाणान्यौ 1 बंधविहाणे मूलपयडि-रसबंधो (रसबन्ध :) प्रेमप्रभाटीकासमलङ्कृत : पएसबंधो (प्रदेशबन्धः) -: प्रकाशिका : भारतीय-प्राच्यतत्त्व-प्रकाशन-समितिः, पिण्डवाडा (राजस्थान)। Jain Education Internet जॅकेट . दीपक प्रिन्टरी . अमदावाद