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________________ प्रस्तावना विभागो पडी शके छे, अमांना अक विभागनु नाम कार्मणवर्गणा छे. आ कार्मणवर्गणाना पुद्गलो अतिसूक्ष्म छे, गमे तेटला अकठा थाय तो पण चर्मचक्षुथी देखी शकाय तेवा नथी. कार्मणवर्गणाना आ पुद्गलो समस्त लोकमां व्यापीने रहेला छे, आवा कार्मणवर्गणाना पुद्गलोन संसारी जीव मिथ्यात्वादिना कारणे प्रतिसमय ग्रहण करीने आत्मसात् करे छे. जीव साथे क्षीरनीरनी जेम अकमेक थयेला आ कार्मणवर्गणाना पुद्गलोने कर्म कहेवाय छे. जगतनी विचित्रतानुकारण जो कोई होय तो आ कर्म छे. जगतना जीवोमां सुख दुःख, संपत्तिविपत्ति, यश-अपयश, श्रीमंताई गरीबी, आ वधु कर्मने आधीन छे. कर्मना अस्तित्वना अपलापथी जगतनी अनेकप्रकारनी विषमता घटी शकती नथी. अक सरखां साधनो, संयोगो अने निमित्तो मळवा छता ओक श्रीमंत बने छे, बीजो दरिद्र रहे छे,अक पंडित बने छे, बीजो मूर्ख रहे छे, अरे अकज माताना अक साथे जन्मेला बे पुत्रोमांथी अक राजा बने छे, बीजो रंक रहे छे, अक महान अश्वर्यने भोगवे छे, बीजाने पेट भरवानां फांफां होय छे, आ बधु कर्मना अस्तित्व विना कोई रीते घटी शकतुनथी,माटे ज सर्व आस्तिक दर्शनकारो कर्मना अस्तित्वने अक या बीजा रूपे स्वीकार्य छे. बौद्धोए वासनारूपे, वेदान्तिओओ माया-अविद्यारूपे, सांख्यो प्रकृतिरूपे, वैशेषिकोओ अदृष्टरूपे, अने मीमांसको धर्माधर्मरूपे कर्मने ज मान्यु छे. लोकमां पण दैव, भाग्य, भाविभाव वगेरे शब्दथी कर्मना अस्तित्वने स्वीकारायेल छे, जैनेतरशास्त्रोम कर्मना अस्तित्वन जणावतांप्रमाणो मले छे. जुओ "ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । रुद्रो येन कपालपाणिपुटके मिक्षाटनं सेवते, सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे" || (भर्तृहरि नीतिशतक.) इत एकनवतितमे कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥ जगतो यच्च वैचित्र्यं सुखदुःखादिभेदतः । कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अकस्मानिधिलाभश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । कचित्फलमयत्नेऽपि यत्नेप्यफलता कचित् ॥ तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् व्यमिचारिणः । तेनादृष्टमुपेतव्यमस्य किश्चन कारणम् ॥ . न्यायमञ्जरी उत्तरार्ध पृ०४२ यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । भगवद्गीता अध्याय ४श्लोक ३७ जैनतरदर्शनकारो कर्मनो वासनादिरूपे स्वीकार मात्र कर्यो छे, पण त्यार पछी कर्मना बन्धादिनी विशेष कोई प्रकिया बतावी नथी, ज्यारे जैनदर्शननी ओ विशेषता छ, के कर्मने सूक्ष्म, मृत पुद्गलरूप मानी तेने लगती बंध, उदय, उदीरणा, संक्रमादि अनेक प्रकारनी विशिष्ट प्रक्रिया बतावी छे. अनी सूक्ष्मता अने विश्व संचालन साथेनो सुमेळ जोतां जैनदर्शननो कर्मवाद ज तेना प्रणेता तीर्थकरभगवंतोनी सर्वज्ञताने साबित करे छे. जे समये जीव मन वचन कायानी जेवी शुभाशुभ प्रवृत्तिवाळो बने छे, ते समये कार्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001698
Book TitleKhavag Sedhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages786
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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