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________________ प्रस्तावना [ 1 वर्गणाना पुद्गलो तेवा तेवा प्रकारना परिणामवाळा थई आत्मा उपर लागे छे-चोंटे छे. आने कर्मनो बंध कहे छे, जीव प्रतिसमय आ रीते कर्मनो बंध करे छे. जे समये कर्मनो आत्मानी साथे आ रीते सम्बन्ध थाय छे, ते ज समये जीवना परिणामानुसार तेमां सुखदुःखादि आपवानो के आन्माना ते ते ज्ञानादिगुणोने आवरी लेवानो स्वभाव, आत्मानी साथे संबद्ध रहेवानो काल अने फल आपवानी शक्ति पण नक्की थाय छे. कर्मना आ स्वभावने प्रकृति, कालने स्थिति अन शक्तिने रस कहे छे. ज्यारे संबद्ध थयेला कर्माणुना प्रमाणने प्रदेश कहेवाय छे. आ रीते प्रतिसमय कर्मना बंध वखते प्रकृत्यादि चारे वस्तु पण नक्की थई जाय छे अने स्थिति परिपक्व थये ते कर्मो उदयमां आधी शुभाशुभ फल आपी आत्माथी छूटां पड़े छे. आम प्रतिसमय जीवन देशो उपर कर्मोनो आय-व्यय चालु छे अने तेना कारणे सुख-दुःख, जन्ममरण, संसार परिभ्रमण वगेरे चालु छे. कर्मनी ज आ शक्ति छे, के जे जीवोने अनंतकालथी जगतमां परिभ्रमण करावे छे, कार्मणवर्गगामा पहेलथी ज आपी शक्ति होती नथी पण ग्रहण कराता कार्मणपुद्गलोमां जीवे ज रागद्वेषादिपरिणामो बड़े तेवी शक्ति ऊभी करी होय छे, माटे संसार-परिभ्रमणने अटकाववा आत्मा पोते ज पुरुषार्थथी कर्मनी ते शक्तिने तोडवी पड़े, अथवा ओछी करवी पड़े अने ते माटे जीवे पोताना राग द्वेषना परिणामो दूर करवा जरूरी छे. पूर्वगत कर्मविज्ञान तथा वर्तमानकाले उपलब्ध कर्मविज्ञान . कर्म जीवना ज्ञानादिगुणोने ढांके छे, विविध प्रकारनां कर्मोनी विविधप्रकारनी शक्तिओ होय छे, प्रतिसमय कर्म केवी रीते बंधाय छे, तेंना केवां केवां फल छे, केवी रीते छूटे छे, जुदा जुदा प्रकारनी गतिमां रहेंला जीवो केवा केवा प्रकारनां कर्मो बांधे छे, केवी स्थितिवाळां बांधे, छे, केवा रसवाळां बांधे, केटला प्रमाणमां बांधे,केवा परिणामथी केवां कर्मो बंधाय, बंधायेलां कर्मो केटला काले केवी रीते केटला प्रमाणमां भोगवाय, अक कर्म बीजा कर्मरूपे थाय या न थाय, थाय तो केवी रीते थाय, वगेरे कर्मने लगतु घणुज ऊंडु तत्त्वज्ञान अतिशय विस्तारथी पूर्वोमां हतु. अने ओ जे हत्तेनी अपेक्षाओवर्तमान काळमां घणु थोडु छतां जीवनभर अवगाहीतो पण संपूर्ण पार पामी न शकाय तेटलु विस्तृत कर्मविज्ञान उपलब्ध कर्मप्रकृत्यादि ग्रन्थोमां मले छे. प्रस्तुत 'खवगसेढी' ग्रन्थनु सर्जन कर्मविज्ञानविषयक उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थोमांथी सप्ततिका, सप्ततिकाचूर्णि, कषायप्राभृत, कपायप्राभृतचूर्णि, शतक, शतकचूर्णि, कर्मप्रकृतिटीका, पंचसंग्रहटीका आदिमां क्षपकश्रेणिना अधिकारनु सुंदर विवेचन छे परन्तु ते शब्दसंक्षिप्त अने अर्थगंभीर छे. अल्प शब्दोमां धणा भाव तेनी अन्दर भरेला छे. पूर्वाचार्यभगवंतोनी लगभग शैली हती के अल्पशब्दोमां घणा पदार्थोनो संग्रह करव ते मुजब कर्मप्रकृति-कषायप्राभृत वगेरेमां अल्पशब्दोमां घणा पदार्थोनो संग्रह छे. ते ते सूत्रोमांथी ते ते पदार्थोंने खोलवामां आवे अने तेमनु विशदीकरण करवामां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001698
Book TitleKhavag Sedhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages786
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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