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प्रस्तावना
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आ ग्रन्थमा ज्यां ज्यां शस्य बन्यु त्या त्यां ते विषयने जगता जे कोई मतान्तरो होय ते बधांनो संग्रह करवामां आव्यो छे, तेम ज पूर्वाचार्यभगोना ग्रन्थोनी साक्षीओ पण लगभग बधे रजू करवामां आवी छे. ग्रन्थकार पोते मूल गाथामां पदार्थ ने संक्षेपमा रजू करी, टीकामां तेने विस्तृत करी दे छे अने पछी तुरत ज पोते अ पदार्थ बतायता पूर्वाचा भावंतोना ग्रन्थोना साक्षी पाठो रजू करी दे छे, अटले वांवनारने ते शोधवा माटे नवो परिश्रम करवानो रहेतो नथी. आटलाथी पण ग्रन्थकारने संतोप थतो नथी अटले ज्यां ज्यां अमुक विपयन निरूपण पूरु थाय छे, त्यां त्यां ते ते पदार्थोनो टूकमां संग्रह करतां मुद्दासरनां यंत्रोनी स्थापना पण तेमणे करी दीधी छे अने अथी य आगळ वधी ने अमुक अमुक अधिकारोमा पदाथों बराबर स्पष्ट थई जाय ते माटे तेने लगता चित्रोनु पण आलेखन करवामां आव्यु छे. जुदा जुदा विपयोने लगता कुल ४० चित्रो अने २७ यंत्रो प्रस्तुत ग्रन्थमा टीकाकारे रजू करू छे. टीकाकारनो आ परिश्रम, विशद ज्ञान, पदार्थ ने रजू करवानी कला वगैरे आपणने तेमना प्रत्ये खूब ज बहुमान उपजावे छे. अने साथे आवा श्रष्ठ ताचिक ग्रन्थोना सर्जननी स्वपरकल्याणकारक सुन्दर शक्तिनु तेओमां दर्शन करावे छे.
__कर्मसाहित्यविषयक प्राचीन ग्रन्थो हवे आपणे प्रस्तुत ग्रन्थना सर्जनमा आधारभूत ग्रन्योमांना केटलाक मुख्य ग्रन्थो विपे थोडी विचारणा करी लई, प्रस्तुत ग्रन्थमां लगभग ८५ ग्रन्थोनी साक्षी छे, साक्षीग्रन्थोनां कर्मप्रकृतिमूल तथा तेनी चूर्णि, शतक, शतकचूर्गि, सप्ततिका, सप्ततिकावूर्णि, कपायाभृतमूल तथा तेनी चूर्णि वगेरे मुख्य आधारभूत ग्रन्यो छे. आ वधा ग्रन्थो प्राचीन छे.
कर्मप्रकृति मूलः-आ अतिप्राचीन कर्मविषयक ग्रन्थ छे. ग्रन्थ पद्यमय छे. ग्रन्थमा आठ करण तथा उदय अने सत्तानुवर्णन है. आना कर्ता आचार्यदेव शिवशर्मसूरिमहाराजा छे. तेओओ अग्रायणीच नामना वीजा पूर्वनी, पांचमी वस्तुना, कर्म प्रकृति नामना चोया प्राभृत उपरथी प्रस्तुत ग्रन्थनो उद्धार कयों छे. जुओ--- ___"इय कम्मपगडीओ जहा सुयं नी यमपमइणा वि" (कर्मप्रकृति-सत्ता अधिकार गाथा. ५६)
टीका:-'अल्पमतिनापि' अल्पबुद्धिनाऽपि सता इति एवमुक्तेन प्रकारेण गुरुचरणकमलपर्युपासनां कुर्वता गुरुपादमूले यथा मया श्रुतं तथा 'कर्मप्रकृतेः' कर्मप्रकृतिनामका प्राभृतात् । इणिवादे हि चतुर्दशपूर्वाणि तत्र च द्वितीयोऽग्राय गी वाभिवानेऽनेकवस्तुसमन्विते पूर्व पञ्चमं वस्तु विशतिप्राभृतपरिमाणम् , तत्र कर्मप्रकृत्वाख्यं चतुर्थप्राभृतं चतुर्विंशत्य तुयोगद्वारमयं तस्मादिदं प्रकरणं नीतम्-आकृमित्यर्थः । पृ० १६१
____ आ कर्मप्रकृतिमूल, कर्मप्रकृतिसंग्रहणी तरीके पण ओळखाय छे. चूर्णिकारे पण कर्मप्रकृतिमलनो 'कर्मप्रकृतिसंग्रहणी' तरीके उल्लेख कयों छे. जे चूर्णिना नीचेना पाठ उपरथी जणाय छे. "इममि जिणसासणे दुस्समाबलेण खीयमाणमेहाउसद्धासंवेगउज मारभं अजकालियं साहु
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