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________________ प्रस्तावना [67 मुद्रित कषायप्राभूतचूर्णिनी प्रस्तावनामां रजू थयेल मान्यतानी समीक्षा __अहीं मुद्रित कषायप्रामृतचूर्णिना प्ररतावनाकारे कषायप्राभूतचूर्णि, कर्मप्रकृतिचूर्णि, शतकचूर्गि अने सप्ततिकाचर्णिना कर्ता अंगे जे विकृत रजूआत करी छे, तेनी पण प्रासंगिक थोडी समीक्षा करी लईअ. प्रस्तावनाबार आ चारे चर्णिओ क ज कर्तानी कृति होवानी मान्यता रज करे छे अने तेना कारणो तरीके तेओ प्रथम कषायमाभाचणि अने कर्मप्रकृतिचर्णिना पाठो रजू करी, बन्न ना पाठोमां रहेली भाषानी तथा पदार्थोनी साम्यता बतावे छे, उपगतमा कर्मप्रकृतिचर्णि, शतकचूर्णि अने सप्ततिकाचूणि अ वर्णनां मंगलाचरण तथा ग्रन्थनी शरूआतनी उत्थानिका, वाक्योनी भाषा तेमज अर्थना साम्यपणाने बतावे छे. आ रीते त्रणे चणिना अंकककत्वने तथा कपायाभत अने कर्मप्रकृतिना अकब तकत्वना हिसाबे चारे चर्णिओनु अककत कत्व सिद्ध करवानो प्रयास करे छे, अटलुज नहि पण आगळ वधीने त्रि० प्र० ना अंते"चुण्णिल्सबढकरणसरूवामाण होइफिजत्तं । अट्ठसहस्सपसाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ॥" आ प्रमाणे गाथा छे अने एनो अर्थ "आठकरणस्वरूपवाळी कर्मप्रकृतिचणि जे प्रमाण छे तेटलुज आठहजार श्लोकप्रमाण तिलोयपणत्तनु छे" एवो थाय छे अम बतावी चारे चूर्णिना कता तरीके आचार्य यतिवषम छे, अम कल्पना करे छे. हवे आपणे प्रस्तावनाकारनी उक्त कल्पनामां रहेली सत्यासत्यता विषे थोडी विचारणा करी लईअ. ___ पहेली बात तो ओछे के समान अर्थना कारणे अकककत्व कहेवुअ युक्तिसिद्ध नथी. तीर्थकर भगवंतोना शासनमांजे कोई समानविषयक शास्त्रो छे तेमां अर्थथी समानागुतो होय ज छे, शब्दथी विभिन्नता होय पण अथथी तो असमानता (विसंवादीषणु, परस्पर विरुद्धपणु) पूर्वाचार्य भगवंतोना ग्रन्थोमां जोवामां आवती नथी. यद्यपि अवसर्पिणी कालना माहात्म्यथी तथाप्रकारनी सामग्रीना अभावे, विशिष्टज्ञानीनी गेरहाजरीना कारणे क्यांक क्यांक जुदा जुदा मतो जोवामां आवे पण ते सिवाय मोटा भागे तो अर्थोनी साम्यता ज श्रीजिनेश्वरदेवोनां शास्त्रोमां होय छे, तेथी समान अर्थवाळा सेंकडो पाठो विभिन्नकर्ताना समान विषयक ग्रन्थोमां पण मेळवी शकाय छे, तेटला मात्रथी ग्रन्थोने अक्कत क न कही शकाय. वळी कपायप्राभतचणि अने कर्मप्रकृतिचूणि वच्चे पदार्थोना मतभेदो पण केटलांक स्थले जणाय छे, जेमांना उदाहरण तरीके केटलाक अमे रजू करी छी (१) मोहनीय कर्मनी सत्तावीस प्रकृतिनी सत्तानास्वामी तरीके कपायप्राभृतमा मात्र मिथ्याष्टि कह्या छे, ज्यारे कर्मप्रकृतिचर्णिमां मिथ्याटि तेमा सम्यमिथ्यादृष्टि बन्ने कया छे, जे नीचेना बन्नेना पाठो उपरथी जणाय छे-- "सत्तावीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइटि।” (कपायप्राभृतचूर्णि पृ० ६१) . तिगं सम्मामिच्छादिहिस्स संतहागाणि । तं जहा-२८-२७-२४-... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001698
Book TitleKhavag Sedhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages786
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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