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प्रस्तावना
होवानी मान्यताना हिसावे कुन्दकुन्दचार्यने उक्त सिद्धान्तनी प्राप्ति थई शके नहीं, केम के कुन्दकुन्दाचार्य वीर संवत १००० पछीना होवानी दिगंवर विद्वानोनी पण मान्यता नथी.
(३) श्रुतावतारना अनुसारे कुदकुदाचार्यथी केटलोक काल वीत्या बाद शामकुडाचार्य ने कषायप्राभृत अने षटखण्डागमनी प्राप्ति थई छे अने तेना उपर तेमणे पग बार हजार श्लोकप्रमाण संस्कृत , प्राकृत अने कर्णाट( कन्नड )भाषामिश्रित ग्रन्थनी रचना करी छे, त्यार पछी केटलोय काळ बीत्या बाद तुम्वुलर नामना आचार्य तुम्बुलर गाममां थया तेमणे पण पट्खण्डना आद्य पांच खण्ड तथा कपायप्राभृत उपर कर्णाटभाषामां ८४ हजार . श्लोक प्रमाण वामणि नामनी टीका रची छे, पखंड उपर ७००० श्लोक प्रमाण पंजिकारचीछे, त्यार पछी समंतभद्रस्वामी थया, तेमणे पग षटखण्डागमना प्रथम पांच खंडो उपर अतिसुदर अने सरल संस्कृतभाषामां ८४ हजारश्लोक प्रमाण टीका रची छे, जुओ श्रुतावतारकाले ततः कियत्यपि गते पुनः, शामकुण्डसंज्ञेन । आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागमः कासात् ॥१६२।। द्वादशगुणितसहस्र ग्रन्यं सिद्धान्तयोरुभयोः । षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबन्धसंज्ञेन ॥१६३।। प्राकृतसस्कृतकर्णाटभाषया पद्धतिः परा रचिता। तस्मादारात्पुनरपि काले गतवति किययपि च ॥१६४॥ अथ तुम्बुलूरनामाचार्योऽभूत्तम्बुलूरसद्ग्रामे । षष्ठेन विना खण्डेन सोऽपि सिद्धान्तयोरुभयोः ॥१६५।। चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनया युक्ताम् । कर्णाटभाषयाऽकृत महतीं चूडामणिं व्याख्याम् ॥१६६।। सप्तसहस्रग्रन्थां षष्ठस्य च पंचिकां पुनरकार्षीत् । कालान्तरे ततः पुनरासंध्यां पलारि तार्किकार्कोऽभूत् ॥१६७।। श्रीमान समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्यतं द्विविधम् । सिद्धान्तमतः षट्खण्डागमगतखण्डपञ्चकस्य पुनः ॥१६८।। अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसद्ग्रन्थरचनया युक्ताम् । विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ॥१६९॥ ___आ आचार्योनो काल वीर संवत १००० पूर्वनो छे अने क० प्रा० चूर्णिनी रचना तो आ वधी टीकाओनीरचना पूर्वेनी छे तेथीआवधी टीकाओनी रचनाना आधारे कषायप्राभूतचूर्णि रचनानो काल वीर संवत १००० पछी मानी शकाय तेम卐नथी, तेमज आ अनेकानेक टीकाओनो अपलाप पण थई शके तेम नथी.
वर्णी अभिनंदन ग्रंथमां "स्वामिसमन्तभद्रका समय और इतिहास' नामना लेखमां स्वामिसमन्तभद्रना काल विषे तिहासिक रीते घणी विचारणा बतावी छे अने जुदा जुदा विद्वानोना मत जगाव्या छे. अने ते वधां मतोना अनुसार वीर संवत १००० वर्ष पूर्वनो ज काल नक्की थाय छे वळी तेज ग्रंथमां 'स्वामिसमन्तभद्र तथा पाटलीपुत्र' लेखमां स्वामिका बहुमान्य समय शक सं० ६० या १३८ ई० है" पृ० ३२० श्रेम सष्ट उल्लेख छे. श्वेताम्बरपट्टावलीओमां पण आचार्य
ॐ इन्द्रनंदिने अपने श्रुतावतार में कषायप्राभृत चूर्णिसूत्रों और उच्चारणावृत्तिकी रचना हो जाने के बाद कुण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दिमुनिको उसकी प्राप्ति हुई ऐसा लिखा है और उसके बाद शामकुण्डाचार्य, तुम्बुलूराचार्य और समन्तभद्राचार्य को उसकी प्राप्ति होनेका उल्लेख किया है। यदि यतिवृषभका समय विक्रमकी छट्ठी शताब्दी माना जाता है तो ये सब आचार्य उसके बाइके विद्वान ठहरते हैं । जो कि मान्य नहि हो सकता" (जयधवला भा० १ लो प्रस्तावना पृ० ५७)
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