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प्रस्तावना
द्वारा प्रकाशन थई रह्यछे, तथा क० प्रा० मळग्रन्थ चूर्णिनी साथे पं० हीरालाल शास्त्री द्वारा संपादित थई वीरशासन संघ कलकत्ता द्वारा वि० सं० २०१२ मा प्रकाशित थयेल छे, परंतु आटला मात्रथी क० प्रा० मूळ तथा चूणि दिगम्बरपरंपरानां छे अबो निर्णय थई शकतो नथी, केम के दिगम्बरज्ञानभंडारोमां काव्यानुशासन, अभिधानचिंतामणिकोशादि श्वेताम्बराचार्योना ग्रन्थो तेमज श्वेताम्बरज्ञानभंडारोमां दिगम्बराचार्यरचित सिद्धिविनिश्चयटीकादिहस्तलिखितग्रन्थो वर्तमानमां पण उपलब्ध छे. कळी क० प्रा० उपर दिगम्बराचार्योनी टीकाओछे तेथी पण ते दिगम्बराचार्य कृत छे अवो निश्चय थई शकतो नथी, - केम के श्वेताम्बराचार्यकृत ग्रंथो उपर दिगम्बराचार्योनी अने दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थो उपर श्वेताम्बराचार्योनी टीकायो छे. जैनेतरग्रन्थो उपर पण जैनाचार्योनी टीकाओ आजे उपलब्ध थाय छे. पातञ्जलयोगदर्शन नामना जैनेतरग्रन्थ उपर तथा अष्टसहस्री नामना दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ उपर उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराजे टीका रची छे जे वर्तमानमा उपलब्ध थाय छे, तेथी काई पातञ्जलयोगदर्शन अने अष्ट. सहस्री ग्रन्थो श्वेताम्बराचार्यनी कृति तरीके नथी कहेवाता. भगवतीआराधनाना टीकाकारे पोते दशवैकालिक उपर टीका रच्यानो उल्लेख कयों छे, छतां दशकालिकान्य तेमना सम्प्रदायनी कृति नथी कहेवाती, तेवी रीते क० प्रा० मूल तथा चर्णिसूत्रो उपर जयधवला नामनी दिगम्बराचार्यनी टीका होवा मात्रथी ते ग्रन्थ दिगम्बराचार्यनी कृति तरीके निश्चित थई शकतो नथी. अटलु ज नहीं पण (१) कपायाभूत चूर्णि अंतर्गत दिगम्बर परंपराने अमान्य पदार्थो (२) श्वेताम्बराचार्योनी कृतिओमां कषायप्राभृतना आधारो, साक्षी तथा अतिदेशो (३) क० प्रा० मूलग्रन्थ तथा चूर्णिसूत्रना रचयिता (४) रचनानो काल, वगेरे प्रमाणो उपरथी कषायप्राभतमूल तथा तेनी चूर्णि बन्ने श्वेताम्बराचार्यनी कृति अथवा दिगम्बरमतोत्पत्तिपूर्वेनी कृति होवानु विशेषेकरीने जणाय छे. (१) दिगम्बर परंपराने अमान्य तेवा कषायपाभूतचूर्णि अंतर्गत पदार्थों . (i) क्षपकश्रेणिना अधिकारमा क्षपकने सत्तामा कयां कर्मों नियमा अने कयां कर्मो विकल्प होय, ते बतावता चूर्णिकार जणावे छे, "सव्वलिंगेसु च भज्जाणि'' (पृ० ८२७). चूर्णिसूत्रनो अर्थ छे के सर्वलिंगमां बंधायेल कर्मो क्षपकने विकल्पे सत्तामा होय छे, अहीं सर्वलिंगमां निर्ग्रन्थलिंग(द्रव्यचारित्र) पण आवी जाय छे, अटले निग्रेन्थलिंगमां बंधायेल कर्म क्षपकने सत्तामा विकल्प होय छे, अर्थात् होय पण खरं अने न पण होय, आ परथी ओ नक्की थाय छे के क्षपक चारित्रवेवमां होय पण खरो अने न पण होप , चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य-तापसादिना वेशमा रहेल जीव पण क्षपक थई शके छ, अटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बर मान्यताथी विरुद्ध छे, दिगम्बरमान्यताना हिसावे निर्ग्रन्थलिंगमां बंधायेल कर्म तो अवश्य
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