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________________ 18 } प्रस्तावना देवताओ प्रभुनी देशना भूमि तरीके र वेला त्रगगडना समवसरणमां विराजी प्रभुओ देशनानो प्रारम्भ कर्यो. नगरीमा इन्द्रभूति आदि अगियार मुख्य विद्वान ब्राह्मणो पोताना सेंकडो विद्यार्थीओ साथै यज्ञ करावा माटे आवेला हता. त्यां पधारेला प्रभुना सर्वज्ञपणानो यश सांभली तेमने ईर्ष्या थई. तेथी तेओ प्रभुनी साथै वाद करवा माटे आव्या. प्रभु तेमना जीवादितच्चो विना संशयाने दूर करीने तेमन प्रतिवोध्या अनं मालीससो विद्यार्थीओ साथे ते अगियारे ब्राह्मणोने चारित्र आपी गणधर पद उपर स्थापित कर्या. ते ज वखते चंदनबाला आदि अनेक राजकुमारीओ वगेरेओ पण प्रभुनी पासे चारित्र ग्रहण कयुं, तेमज अनेक नरनारीओओ श्रावकधर्मनो स्वीकार कर्यो, आम ते समये त्यां वर्तमान अवसर्पिणीना अंतिम तीर्थंकर भगवान श्री वर्धमानस्वामी द्वारा साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकारून चतुध संघ स्थापना थई. द्वादशांगी संघनी स्थापना थतां प्रभुओ इन्द्रभूति आदि गणधरोने " उपन्ने वा, विगमेइ वा धुवेइ वा" रूप त्रिपदी आपी. तेना आधारे अंतर्मुहूर्तकाळमां गणधर भगवंतोओ आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासक दशांग, अंतकृद्दइ.ांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग, प्रश्नव्याकर ग, विपाकसूत्र तथा दृष्टिवाद आ बार अंगोनी रचना करी. बारमा दृष्टिवाद अंगमां चौदपूर्व पण गूंध्या । आ वखते इन्द्र सुगंधी चूर्णनो थाल हाथमां ग्रहण करीने भगवाननी पासे उमा रह्या अने इन्द्रभूत्यादि गणवरदेवो कंकनमेला मस्तके प्रभु समक्ष उभा रह्या. प्रभुए " द्रव्य-गुण- पर्यायथी तीर्थनी अनुजा आपुं छु” ओम कही तेओनां मस्तक उपर सुगंधिचूर्णनो निक्षेप कर्ता, देवोओ पण पुत्र अने चूर्णनी वृष्टि करी. आ ते श्रधर्म अने चारित्रधर्मरूप भगवान महावीरदेवना वर्तमान तीर्थनी आजथी लगनग पचीससो वर्ष पूर्वे वैशाख सुद ११ ना दिवसे अपापापुरीमां मंगल स्थापना थई. द्वादशांगी स्वरूप भगवान श्रीमहावीर देव पाथी प्राप्त थयेल त्रिपदीना आधारे द्वादशांगीनी रचना श्री गौतमादि गणधर भगवंतो करी. द्वादशांगीना अर्थप्रणेता भगवान श्रीमहावीरदेव छे ज्यारे द्वादशांगीना सूत्रप्रणेता गणधर भगवंतो छे. अगियार गणधरोमांथी पांचमा सुधर्मा गणवर भगवान दीर्घ आयुयवाळा होवाथी तेमनी द्वादशांगीनी परिपाटी आगळ वधी अने बाकीना दशे गगधर भगवंतोनी सूत्ररूप द्वादशांगीनो तेमनी पाछळ विच्छेद थयो. द्वादशांगीमां जगतना त्रैकालिकस्वरूपनी यथावस्थित रजूआत होय छे, जगतमा रहेलां धर्मास्तिकायादि सर्वद्रव्यो अने तेना पर्यायोनु निरूपण हो न छे. जगतनी तमाम वस्तुओ अने विषयो द्वादशांगीमां सारी रीते रज् थयेला छे. ओटले द्वादशांगीना ज्ञानी आत्माने समग्र विश्वनी त्रैकालिक अवस्थानु भान थाय छे, पोताना आत्माना असल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001698
Book TitleKhavag Sedhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages786
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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