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PRAMEYAKAMAL MARTAND
BY
SHRI PRABHA CHANDRA
(A Commentary on Shri Manik Nandis **
Pareeksha Mukh Sutra)
EDITED WITH INTRODUCTION, INDEXES ETC
BY
Pt. MAHENDRA KUMAR SHASTRI NYAYACHARYA, NYaya DIVAKAR, JAIN AND PRACHEEN NYAYA TIRTH, EDITOR OF Nyaya KUMUD CHANDRA AKALANK GRANTHATRAYA ETC. NYAYADHYAPAK, SHRI SYADVAD JAIN VIDYALAYA, BENARES.
Second Editipa
PUBLISHED BY
SATYABHAMABAI PANDURANG,
FOR THE NIRNAYA SAGAR PRESS,
BOMBAY.
1941
.
Price : Rupes. KOMA 3 (ban?
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(All rights reserved)
Publisher:-Satyabhamabai Pandurang, 1 for the Nirnaya-sagar Press, Printer:-Ramchandra Yesu Shedge, 26-28, Kolbhat Street, Bombay.
FIRST EDITION-(1912) SECOND EDITION-(1941)
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Ta
१८ समर्पणम्"न्यायेऽकुतोभयतयोनतकन्धरस्य, जीवन्धरस्य चरणार्चनतोऽर्जितेन । संशोध्य संप्रति मयाद्य नवीकृतेन, भक्त्या अमेयकमलेन तमर्चयामि ॥"
तदन्यतमशिष्योऽहं -महेन्द्रकुमारः।
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PARAMRAPAL
MPARAMPA
ग्रन्थसूची।
६७-७८
.१ सम्पादकीयम् २ भूमिका .
१ ग्रन्थकार
२ ग्रन्थ ३ परीक्षामुखसूत्राणां तुलना ४ मूलग्रन्थस्य विषयानुक्रमः ५ मूलग्रन्थः ६ परिशिष्टानि
१ परीक्षामुखसूत्रपाठः २ प्रमेयकमलमार्तण्डगतावतरणसूचिः ३ परीक्षामुखगतलाक्षणिकशब्दसूचिः ४ प्रमेयकमलमार्तण्डगतलाक्षणिकशब्दसूचिः ५ प्रमेयकमलमार्तण्डनिर्दिष्टाः ग्रन्थाः ग्रन्थकृतश्च ६ प्रमेयकमलमार्तण्डस्य केचिद्विशिष्टाः शब्दाः ७ आराप्रतेः पाठान्तराणि ८ मूलटिप्पण्युपयुक्तग्रन्थसूचिः ९ शुद्धिवृद्धिपत्रम्
१-७२ .१-६९४ ६९७-ए६९७-७०३ ७०४-७२०
७२१ ७२२-७२३
७२४ ७२५-७३३ ७३४-७४८
७४९-७५३ ८, ७५.४-७५५
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शुद्धिपत्रम्।
पृ०. पं० अशुद्धम् '२१ १५ तदनन्तर
तदन्तर६६ ६ विद्यास्व
अविद्याख७० १४ -पर्यायाचेत- -पर्यायचेत८७ ८ -ल्लिङ्गाङ्गिनि -ल्लिङ्गाल्लिशिनि ११५ १५ -तत्त्वा (तस्तत्त्वान्त- -तत्त्वान्त११७ ६ -तम्
-तन्यम् १६९ ४ वृद्धिच्छे
तृविच्छे १७१ ७८ -चेतना
-वेतना१९२ १२ -वैकलक्षि- -चैकलक्षणलक्षि२०१ १६ -त्वान्नार्थ
-त्वान्नानार्थ२१७ २ प्रति (ती) यतो प्रतियतो ३१७ १३ अज्ञानस्य
अज्ञातस्य ३४७ ११ -पख्यानं
-पसंख्यानं ३६६ २३ -तो दृष्टं
-तोऽदृष्टं ४५६ २२ -णामपि
-णापि ५१० २ सम्बन्धी सम्बन्धो ६९४ १० -ताहुरितै- -ताद्वारितै
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सम्पादकीय
जब न्यायकुमुदचन्द्रका सम्पादन चल रहा था तब श्रीयुत कुन्दनलालजी जैन तथा पं० सुखलालजी के आग्रह से मुझे प्रमेयकमलमार्तण्ड के. पुनःसम्पादन का भी भार लेना पड़ा। __ इसके प्रथमसंस्करण के संपादक पं० बंशीधरजी शास्त्री सोलापुर थे । मैंने उन्हींके द्वारा सम्पादित प्रति के आधार से ही इस संस्करण का सम्पादन किया है । मैंने मूलपाठ का शोधन, विषयवर्गीकरण, अवतरणनिर्देश तथा विरामचिह्न आदि का उपयोग कर इसे कुछ सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। प्रथम तो यही विचार था कि न्यायकुमुदचन्द्र की ही तरह इसे तुलनात्मक तथा अर्थबोधक टिप्पणों से पूर्ण समृद्ध बनाया जाय, और इसी संकल्प के अनुसार प्रथम अध्याय में कुछ टिप्पण भी दिए हैं । ये टिप्पण अंग्रेजी अंको के साथ चालू टिप्पण के नीचे पृथक् मुद्रित कराए हैं। परन्तु प्रकाशक की मर्यादा, प्रेस की दूरी आदि कारणों से उस संकल्प का दूसरा परिच्छेद प्रारम्भ नहीं हो सका और वह प्रथम परिच्छेद के साथ ही समाप्त हो गया। आगे तो यथासंभव पाठशुद्धि करके ही इसका संपादन किया है।
श्री पं० बंशीधरजीसा० ने, जब वे काशी आए थे, कहा था कि-"प्रमेयकमलमार्तण्ड में मुद्रित टिप्पण एक प्रति से ही लिया गया है" और यही बात उन्होंने पं० नाथूरामजी प्रेमी से भी कही थी। इसलिए मुद्रित टिप्पण जो कहीं कहीं अस्तव्यस्त या अशुद्ध था, जैसा का तैसा रहने दिया है। प्राचीन टिप्पण की मौलिकता के संरक्षण के ध्येयने ही उसे जैसे के तैसे रूप में छपाने को प्रेरित किया है । इस संस्करण के टाइप, साइज, कागज आदि की पसन्दगी प्रकाशकजीने अपनी सुविधाके ही अनुसार की है। यदि मेरी पसन्द के अनुसार इसकी प्रकाशनव्यवस्था हुई होती तो अवश्य ही यह अपने सहोदर न्यायकुमुदचन्द्र की ही तरह प्रकाशित होता।
संस्करणपरिचयइस संस्करण में प्रथमसंस्करण की अपेक्षा निम्नलिखित सुधार किए हैं
१ सूत्रयोजना-प्रमेयकमलमार्तण्ड परीक्षामुखसूत्र की विस्तृत व्याख्या है और इसका परीक्षामुखालङ्कार नाम भी है। अत: इसमें सूत्रों का यथास्थान विनिवेश किया है जिससे प्रत्येक सूत्रकी व्याख्या का पृथक्करण होजाय । इसलिए सूत्राङ्क भी पेजके ऊपरी कौने में दे दिए हैं।
२ पाठशुद्धि-प्रकरण तथा अर्थ की दृष्टि से जो अशुद्धियाँ प्रथम १ देखो रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना पृ० ६० की टिप्पणी ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
संस्करण में थी उनका यथानुभव सुधार किया है और खास खास स्थालों में ऐसी शुद्धियों को [ ] ऐसे या ( ) ऐसे ब्रेकिट में ही मुद्रित कराया है। प्रूफसम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ यदि प्रथम संस्करण की सुधारी गई हैं तो कुछ नई अशुद्धियाँ भी दृष्टिदोष और प्रेसकी दूरी के कारण हो गई हैं। जिनका स्थूल शुद्धिपत्र ग्रन्थके अन्त में लगा दिया है।
३ अवतरणनिर्देश-मूलग्रन्थ में जितने ग्रन्थान्तरीय अवतरण आए हैं, उन्हें डबलइन्वर्टेड कामा " " के साथ छपाया है और अवतरण के बाद ही [ ] इस ब्रेकिट में उनके मूलग्रन्थों के नाम दे दिए हैं। जिन अवतरणवाक्यों के मूलस्थल नहीं मिल सके हैं उनका [ ] ब्रेकिट खाली छोड़ दिया है। कुछ अवतरणों के स्थल ग्रन्थ के छप जाने पर खोजे जा सके हैं ऐसे अवतरणों के मूलस्थल परिशिष्ट (अवतरणसूची) में दे दिए हैं। - ४ विषयसूची-यह ग्रन्थ बहुतदिनों से गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज काशी, कलकत्ता, और बम्बई के जैन परीक्षालय के परीक्ष्य ग्रन्थक्रम में नियत है। अतः छात्रों की, तथा ग्रन्थगत प्रत्येक प्रकरण की मुख्य मुख्य दलीलों को संक्षेप में समझने के अभिलाषी इतर जिज्ञासु पाठकों की सुविधा के लिए प्रत्येक प्रकरण के पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष की युक्तियों की क्रमबद्ध विस्तृत विषयसूची बनाई है। छात्रों के लिए तो यह सूची नोट्स का काम देगी । इसके आधार से प्रत्येक प्रकरण सहज ही याद किया जा सकता है।
५ पाठान्तर-परिशिष्ट नं. ७ में जैनसिद्धान्तभवन आरा की प्रति के पाठान्तर दिए हैं। ये पाठान्तर ग्रन्थ छप जाने के बाद लिये गए हैं, अतः इन्हें ग्रन्थके अन्त में ही पृथक् मुद्रित कराया है। यद्यपि यह प्रति पूर्ण शुद्ध नहीं है। फिर भी इसके पाठभेद कहीं कहीं मेरे द्वारा सुधारे गए मूलपाठ के संवादक और कहीं कहीं स्वतन्त्ररूपसे शुद्धपाठ के निर्देशक हैं । यह प्रति अधिक पुरानी नहीं है। इसमें “१४४०३” साइज के २४९ पत्र हैं। पत्र के एक ओर १५ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में ४९-५० अक्षर हैं।
६ परिशष्ट-इस ग्रन्थ में निम्नलिखित ७ परिशिष्ट लगाए गए हैं-१ परीक्षामुख सूत्रपाठ। २ प्रमेयकमलमार्तण्डगत अवतरणों की सूची । ३ परीक्षा. मुख के लाक्षणिकशब्दों की सूची। ४ प्रमेयकमलमार्तण्ड के लाक्षणिकशब्दों की सूची । ५ प्रमेयकमलमार्तण्ड में निर्दिष्ट ग्रन्थ और ग्रन्थकारों की सूची । ६ प्रमेयकमलमार्तण्डगत विशिष्ट शब्दों की सूची । ७ आराकी प्रति के पाठान्तर ।
७ परीक्षामुखसूत्रतुलना-यह तुलना प्रस्तावना के अनन्तर मुद्रित है। इसमें परीक्षामुख के पूर्ववर्ती दिमाग, धर्मकीर्ति और अकलङ्क के ग्रन्थ तथा उत्तरवर्ती वादिदेवसूरि और हेमचन्द्रके सूत्र ग्रन्थों से परीक्षामुखसूत्रों की तुलना की गई है। इससे सूत्रों के बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का स्पष्ट बोध हो सकेगा।
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सम्पादकीय
८ तुलनात्मक टिप्पण-ग्रन्थके प्रथम अध्याय में अन्य जैन जैनेतर दर्शनग्रन्थों से प्रमेयकमलमार्तण्ड की तुलना करने में सहायक टिप्पण दिए हैं। ऐसे टिप्पण न केवल तुलना में ही उपयोगी होते हैं, किन्तु भावोद्घाटन में भी उनसे पर्याप्त सहायता मिलती है। प्रकाशक की मर्यादा के अनुसार मैंने इन टिप्पणों का प्रथम परिच्छेद लिखकर ही सन्तोष कर लिया है।
९प्रस्तावना-यद्यपि निर्णयसागर से प्रकाशित ग्रन्थों की प्रस्तावनाएँ संस्कृत में लिखी जाती है, परन्तु राष्ट्रभाषा की यत्किञ्चित् सेवा करने के विचार से मैं अपने सम्पादित ग्रन्थों की प्रस्तावनाएँ हिन्दी में ही लिखता आया हूँ। इसीविचारने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना को भी हिन्दी में लिखाया है। प्रस्तावना में प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थकारों के समय आदिका उपलब्ध सामग्री के अनुसार विवेचन किया है। प्रभाचन्द्राचार्य का द्वितीय न्यायग्रन्थ न्यायकुमुदचन्द्र है। उसके द्वितीयभाग की प्रस्तावना का "आचार्य प्रभाचन्द्र" अंश इसमें ज्यों का त्यों दे दिया गया है।
आभार-श्रीमान् पं० सुखलालजी तथा श्री कुन्दनलालजी जैन की प्रेरणा से मैं इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्रवृत्त हुआ।..... ... माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला मन्त्री, सुप्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ पं० नाथूरामजी प्रेमीने न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग की प्रस्तावना को इस ग्रन्थ में भी प्रकाशित करने की उदारतापूर्वक अनुमति दी है । जैन सिद्धान्त भवन आरा. के पुस्तकाध्यक्ष श्री पं० भुजवलीजी शास्त्री आराने प्रमेयकमलमार्तण्ड की लिखित प्रति भेजी। श्री पं० खुशालचन्द्रजी M. A. साहित्याचार्यने शिलालेख का मूल-पाठ पढ़कर सहायता की।
प्रियशिष्य श्री गुलाबचन्द्रजी न्याय-सांख्यतीर्थ और श्री केशरीमलजी न्यायतीर्थने पाठान्तर लेने में तथा परिशिष्ट बनाने में सहायता पहुँचाई।
निर्णयसागर प्रेसके मालिक ने अपनी मर्यादा के अनुसार ही सही, इसका द्वितीय संस्करण निकालने का उत्साह किया। मैं इन सब का हार्दिक आभार मानता हूँ।
माघकृष्ण पंचमी ] सम्पादकवीरनि० संवत् २४६७४ न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार १७।१।१९४१ ई० ) स्था० वि० काशी
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॥प्रस्तावना ॥
सूत्रकार माणिक्यनन्दि जैनन्यायशास्त्र में माणिक्यनन्दि आचार्य का परीक्षामुखसूत्र आद्य सूत्रग्रन्थ है। प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्याचार्य लिखते हैं कि
"अकलङ्कवचोम्भोधेः उद्दने येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥" अर्थात्-जिस धीमान् ने अकलङ्क के वचनसागर का मथन करके न्यायविद्यामृत निकाला उस माणिक्यनन्दि को नमस्कार हो । इस उल्लेख से स्पष्ट है कि माणिक्यनन्दि ने अकलङ्कन्याय का मन्थन कर अपना सूत्रग्रन्थ बनाया है। अकलङ्कदेवने जैनन्यायशास्त्र की रूपरेखा बाँधकर तदनुसार दार्शनिकपदार्थों का विवेचन किया है। उनके लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह आदि न्यायप्रकरणों के आधार से माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुखसूत्र की रचना की है । बौद्धदर्शन में हेतुमुख, न्यायमुख जैसे ग्रन्थ थे । माणिक्यनन्दि जैनन्याय के कोषागार में अपना एकमात्र परीक्षामुखरूपी माणिक्य को ही जमा करके अपना अमरस्थान बना गए हैं । इस सूत्रग्रन्थ की संक्षिप्त पर विशदसारवाली निर्दोष शैली अपना अनोखा स्थान रखती है। इसमें सूत्रका यह लक्षण
"अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतो मुखम् ।
अस्तोभमनवद्यञ्च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥" सर्वाशतः पाया जाता है। अकलङ्क के ग्रन्थों के साथही साथ दिग्नाग के न्यायप्रवेश और धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु का भी परीक्षामुख पर प्रभाव है । उत्तरकालीन वादिदेवसूरि के प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार और हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा पर परीक्षामुख सूत्र अपना अमिट प्रभाव रखता है। वादिदेवसूरि ने तो अपने सूत्र ग्रन्थके बहु भाग में परीक्षामुख को अपना आदर्श रखा है। उन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार में नय, सप्तभंगी और वाद का विवेचन बढ़ाकर उसके आठ परिच्छेद बनाए हैं जबकि परीक्षामुख में मात्र प्रमाण के परिकर का ही वर्णन होने से ६ परिच्छेद ही हैं । परीक्षामुख में प्रज्ञाकरगुप्त के भाविकारणवाद और अतीतकारणवाद की समालोचना की गई है। प्रज्ञाकर गुप्त के वार्तिकालङ्ककार का भिक्षुवर राहुलसांकृत्यायन के अटूट साहस परिश्रम के फलस्वरूप उद्धार हुआ है। उनकी प्रेसकापी में भाविकारणवाद और भूतकारणवाद का निम्नलिखित शब्दों में समर्थन किया गया है
"अविद्यमानस्य करणमिति कोऽर्थः ? तदनन्तरभाविनी तस्य सत्ता, तदेतदा
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प्रस्तावना
नन्तर्यमुभयापेक्षयापि समानम्-यथैव भूतापेक्षया तथा भाव्यपेक्षयापि । नचानन्तर्यमेव तत्त्वे निबन्धनम् , व्यवहितस्य कारणत्वात्
गाढमुप्तस्य विज्ञानं प्रवोधे पूर्ववेदनात् । जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितम् ॥ तस्मादन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं निबन्धनम् ।
कार्यकारणभावस्य तद् भाविन्यपि विद्यते ॥ भावेन च भावो भाविनापि लक्ष्यत एव । मत्युप्रयुक्तमरिष्टमिति लोके व्यवहारः, यदि मृत्युर्न भविष्यन्न भवेदेवम्भूतमरिष्टमिति।"-प्रमाणवार्तिकालङ्कार पृ० १७६ । परीक्षामुख के निम्नलिखित सूत्र में प्रज्ञाकरगुप्त के इन दोनों सिद्धान्तों का खंडन किया गया है
"भाव्यतीतयोः मरणजाग्रद्बोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुलम् । तद्व्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।”-परीक्षामु० ३।६२,६३ । ___ छठे अध्याय के ५७ वें सूत्र में प्रभाकर की प्रमाणसंख्या का खंडन किया है। प्रभाकर गुरु का समय ईसा की ८ वीं सदी का प्रारम्भिक भाग है।
माणिक्यनन्दि का समय-प्रमेयरत्नमालाकार के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दि आचार्य अकलंकदेव के अनन्तरवर्ती हैं। मैं अकलङ्कग्रन्थत्रय की प्रस्तावना में अकलंकदेव का समय ई० ७२० से ७८० तक सिद्ध कर आया हूँ। अकलङ्कदेव के लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चय आदि तर्कग्रन्थों का परीक्षामुख पर पर्याप्त प्रभाव है, अतः माणिक्यनन्दि के समयकी पूर्वावधि ई. ८०० निर्बाध मानी जा सकती है। प्रज्ञाकरगुप्त ( ई० ७२५ तक ) प्रभाकर ( ८ वीं सदी का पूर्वभाग) आदि के मतों का खंडन परीक्षामुख में है, इससे भी माणिक्यनन्दि की उक्त पूर्वावधि का समर्थन होता है। आ० प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख पर प्रमेयकमलमार्तण्डनामक व्याख्या लिखी है। प्रभाचन्द्र का समय ई. की ११ वीं शताब्दी है । अतः इनकी उत्तरावधि ईसा की १० वीं शताब्दी समझना चाहिए। इस लम्बी अवधि को सङ्कुचित करने का कोई निश्चित प्रमाण अभी दृष्टि में नहीं आया। अधिक संभव यही है कि ये विद्यानन्द के समकालीन हों और इसलिए इनका समय ई० ९ वीं शताब्दी होना चाहिए।
आ० प्रभाचन्द्र आ० प्रभाचन्द्रके समयविषयक इस निबन्धको वर्गीकरणके ध्यानसे तीन स्थूल भागों में बाँट दिया है-१ प्रभाचन्द्र की इतर आचार्यों से तुलना, २ समयविचार, ३ प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ । ६१. प्रभाचन्द्र की इतर आचार्यों से तुलना
इस तुलनात्मक भागको प्रत्येक परम्पराके अपने क्रमविकासको लक्ष्यमें रख.
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कर निम्नलिखित उपभागोंमें क्रमशः विभाजित कर दिया है। 1 वैदिक दर्शनवेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, महाभारत, वैयाकरण, सांख्य योग, वैशेषिक न्याय, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा । २ अवैदिक दर्शन-बौद्ध, जैन-दिगम्बर, श्वेताम्बर ।
(वैदिकदर्शन) वेद और प्रभाचन्द्र-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें पुरातनवेद ऋग्वेदसे “पुरुष एवेदं यद्भूतं" "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे" आदि अनेक वाक्य उद्धृत किये हैं । कुछ अन्य वेदवाक्य भी न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ७२६ ) में उद्धृत हैं-"प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजत् , ततस्त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त” "रुद्रं वेदकर्तारम्" आदि । न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ७७० ) में “आदौ ब्रह्मा मुखतो ब्राह्मणं ससर्ज, बाहुभ्यां क्षत्रियमुरूस्यां वैश्यं पद्भ्यां शूद्रम्" यह वाक्य उद्धृत है । यह ऋग्वेद के "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्” आदि सूक्तकी छाया रूप ही है।
उपनिषत् और प्रभाचन्द्र-आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों न्यायग्रन्थों में ब्रह्माद्वैतवाद तथा अन्य प्रकरणों में अनेकों उपनिषदों के वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किये हैं । इनमें बृहदारण्यकोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, कठोपनिषत् , श्वेताश्तरोपनिषत्, तैत्तिर्युपनिषत् , ब्रह्मविन्दूपनिषत , रामतापिन्युपनिषत् , जावालोपनिषत् आदि उपनिषत् मुख्य हैं । इनके अवतरण अवतरणसूची में देखना चाहिये।
स्मृतिकार और प्रभाचन्द्र-महर्षि मनुकी मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यकी याज्ञवल्क्यस्मृति प्रसिद्ध हैं । आ० प्रभाचन्द्रने कारकसाकल्यवादके पूर्वपक्ष ( प्रमेयक० पृ० ८ ) में याज्ञवल्क्यस्मृति ( २१२२ ) का “लिखितं साक्षिणो भुक्तिः" वाक्य कुछ शाब्दिक परिवर्तनके साथ उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ५७५) में मनुस्मृतिका "अकुर्वन् विहितं कर्म" श्लोक उद्धृत है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ६३४) में मनुस्मृतिके “यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः" श्लोकका “न हिंस्यात् सर्वा भूतानि" इस कूर्मपुराणके वाक्यसे विरोध दिखाया गया है।
पुराण और प्रभाचन्द्र-प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें मत्स्यपुराणका “प्रतिमन्वतरञ्चैव श्रुतिरन्या विधीयते।" यह श्लोकांश उद्धृत मिलता है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ६३४ ) में कूर्मपुराण ( अ० १६) का “न हिंस्यात् सर्वा भूतानि" वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। . व्यास और प्रभाचन्द्र-महाभारत तथा गीताके प्रणेता महर्षि व्यास माने जाते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ५८०) में महाभारत वनपर्व (अ० ३०।२८) से "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः..." श्लोक उद्धृत किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ३६८ तथा ३०९ ) में भगवद्गीताके निम्नलिखित श्लोक 'व्यासवचन' के नामसे उद्धृत है-“यथैधांसि -समिद्धोऽग्निः.." गीता ४।३५] "द्वाविमौ . पुरुषौ लोके, उत्तमपुरुषस्त्वन्यः..." [गीता
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१५।१६,१७ 7 इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३५८ ) में गीता ( २।१६) का "नाभावो विद्यते सतः" अंश प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है।
पतञ्जलि और प्रभाचन्द्र-पाणिनिसूत्रके ऊपर महाभाष्य लिखनेवाले ऋषि पतञ्जलिका समय इतिहासकारोंने ईसवी सन् से पहिले माना है। आ० प्रभाचन्द्रने जैनेन्द्रव्याकरणके साथ ही पाणिनिव्याकरण और उसके महाभाष्यका गभीर परिशीलन और अध्ययन किया था। वे शब्दाम्भोजभास्करके प्रारम्भमें स्वयं ही लिखते हैं कि
"शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताऽहर्निशम्" . . आ० प्रभाचन्द्रका पातञ्जलमहाभाष्यका तलस्पर्शी अध्ययन उनके शब्दाम्भो. जभास्करमें पद पद पर अनुभूत होता है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. २७५ ) में वैयाकरणोंके मतसे गुण शब्दका अर्थ वताते हुये पातञ्जलमहाभाष्य (५११।११९) से “यस्य हि गुणस्य भावात् शब्दे द्रव्यविनिवेशः" इत्यादि वाक्य उद्धृत किया गया है । शब्दोंके साधुलासाधुल-विचारमें व्याकरणकी उपयोगिता का समर्थन भी महाभाष्यकी ही शैलीमें किया है। .
भर्तृहरि और प्रभाचन्द्र-ईसाकी ७ वीं शताब्दी में महरि नामले प्रसिद्ध वैयाकरण हुए हैं। इनका वाक्यपदीय ग्रन्थ प्रसिद्ध है। ये शब्दाद्वैतदर्शनके प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षको वाक्यपदीय की अनेक कारिकाओंको उद्धृत करके ही परिपुष्ट किया है । शब्दोंके साधुल-असाधुत्व विचार में पूर्वपक्षका खुलासा करनेके लिए वाक्यपदीयकी सरणीका पर्याप्त सहारा लिया है । वाक्यपदीयके द्वितीयकाण्डमें आए हुए “आख्यातशब्दः" आदि दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका सविस्तर खण्डन किया है । इसी तरह प्रभाचन्द्रकी कृति जैनेन्द्रन्यासके अनेक प्रकरणोंमें वाक्यपदीयके अनेक श्लोक उद्धृत मिलते हैं । शब्दद्वैतवादके पूर्वपक्षमें वैखरी आदि चतुर्विधवाणीके खरूपका निरूपण करते समय प्रभाचन्द्रने जो "स्थानेषु विवृते वायौ" आदि तीन श्लोक उद्धृत किये हैं वे मुद्रित वाक्यपदीयमें नहीं हैं । टीकामें उद्धृत हैं।
व्यासभाष्यकार और प्रभाचन्द्र-योगसूत्र पर व्यासऋषि का व्यासभाष्य प्रसिद्ध है। इनका समय ईसाकी पञ्चम शताब्दी तक समझा जाता है। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० १०९ ) में योगदर्शन के आधारसे ईश्वरवादका पूर्वपक्ष करते समय योगसूत्रोंके अनेक उद्धरण दिए हैं। इसके विवेचनमें व्यासभाष्यकी पर्याप्त सहायता ली गई है । अणिमादि अष्टविध ऐश्वर्यका वर्णन योगभाष्यसे मिलता जुलता है । न्यायकुमुदचन्द्रमें योगभाष्यसे “चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" "चिच्छक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसङ्कमा" आदि वाक्य उद्धृत किये गये हैं। .
ईश्वरकृष्ण और प्रभाचन्द्र-ईश्वरकृष्णकी सांख्यसप्तति या सांख्यकारिका
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
प्रसिद्ध है। इनका समय ईसाकी दूसरी शताब्दी समझा जाता है। सांख्यदर्शनके मूलसिद्धान्तों का सांख्यकारिकामें संक्षिप्त और स्पष्ट विवेचन है। आ. प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शनके पूर्वपक्षमें सर्वत्र सांख्यकारिकाओंका ही विशेष उपयोग किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें सांख्योंके कुछ वाक्य ऐसे भी उद्धृत हैं जो उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में नहीं पाये जाते। यथा-"वुध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते” “आसर्गप्रलयादेका वुद्धिः” “प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्येत" "प्रकृतिपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म" आदि । इससे ज्ञात होता है कि ईश्वरकृष्णकी कारिकाओंके सिवाय कोई अन्य प्राचीन सांख्य ग्रन्थ प्रभाचन्द्र के सामने था जिससे ये वाक्य उद्धृत किये गए हैं।
माठराचार्य और प्रभाचन्द्र-सांख्यकारिकाकी पुरातन टीका माठरवृत्ति है। इसके रचयिता माठराचार्य ईसाकी चौथी शताब्दीके विद्वान् समझे जाते हैं। प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शनके पूर्वपक्षमें सांख्यकारिकाओंके साथ ही साथ माठरवृत्तिको भी उद्धृत किया है । जहाँ कहीं सांख्यकारिकाओं की व्याख्याका प्रसङ्ग आया है, माठरवृत्तिके ही आधारसे व्याख्या की गई है।
प्रशस्तपाद और प्रभाचन्द्र-कणादसूत्र पर प्रशस्तपाद आचार्यका प्रशस्तपादभाष्य उपलब्ध है। इनका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दी माना जाता है । आ० प्रभाचन्द्रने प्रशस्तपादभाष्यकी “एवं धर्मैर्विना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः" इस पङ्क्तिको प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ५३१ ) में 'पदार्थप्रवेशकग्रन्थ' के नामसे उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड दोनोंकी षट्पदार्थपरीक्षाका यावत् पूर्वपक्ष प्रशस्तपादभाष्य और उसकी पुरातनटीका व्योमवतीसे ही स्पष्ट किया गया है । प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० २७० ) के ईश्वरवादके पूर्वपक्षमें 'प्रशस्तमतिना च' लिखकर “सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो" इत्यादि अनुमान उद्धृत है। यह अनुमान प्रशस्तपादभाष्यमें नहीं है । तत्त्वसंग्रह की पजिका (पृ. ४३ ) में भी यह अनुमान प्रशस्तमतिके नामसे उद्धृत है। ये प्रशस्तमति, प्रशस्तपादभाष्यकारसे भिन्न मालूम होते हैं, पर इनका कोई ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है।
व्योमशिव और प्रभाचन्द्र-प्रशस्तपादभाष्यके पुरातन टीकाकार आ० व्योमशिवकी व्योमवती टीका उपलब्ध है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों ग्रन्थों में, न केवल वैशेषिकमतके पूर्वपक्षमें ही व्योमवतीको अपनाया है किन्तु अनेक मतोंके खंडनमें भी इसका पर्याप्त अनुसरण किया है । यह टीका उनके विशिष्ट अध्ययनकी वस्तु थी। इस टीकाके तुलनात्मक अंशोंको न्यायकुमुदचन्द्रकी टिप्पणीमें देखना चाहिए। आ० व्योमशिवके समयके विषयमें विद्वानोंका मतभेद चला आ रहा है । डॉ. कीथ इन्हें नवमशताब्दी का कहते हैं तो डॉ० दासगुप्ता इन्हें छठवीं शताब्दीका । मैं इनके समयका कुछ विस्तार से विचार करता हूँ
राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यकी 'कन्दली' टीकाकी 'पंजिका' में प्रशस्तपाद
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प्रस्तावना
भाष्यकी चार टीकाओंका इस क्रमसे निर्देश किया है-सर्वप्रथम 'व्योमवती' ( व्योमशिवाचार्य), तत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' (श्रीधर), तदनन्तर 'किरणावली' ( उदयन ) और उसके बाद 'लीलावती' (श्रीवत्साचार्य) । ऐतिह्यपर्यालोचनासे भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम संगत जान पड़ता है। यहाँ हम व्योमवतीके रचयिता व्योमशिवाचार्यके विषयमें कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं। ___ व्योमशिवाचार्य शैव थे। अपनी गुरु-परम्परा तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा । पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान नारोद ग्राम की एक वापी प्रशस्ति * से इनकी गुरुपरम्परा तथा व्यक्तिल-विषयक बहुतसी बातें मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है.. "कदम्बगुहाधिवासी मुनीन्द्र के शंखमठिकाधिपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बिपालके आमर्दकतीर्थनाथ और आमर्दकतीर्थनाथके पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली तार्किक शिष्य हुए। पुरन्दरगुरुने कोई ग्रन्थ अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेखमें अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि-"इनके वचनोंका खण्डन आज भी बड़े बड़े नैयायिक नहीं कर सकते।" स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थोंमें पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों । इन पुरन्दरगुरुको अवन्तिवर्मा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले गया। अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार सौंप कर शैवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना जन्म सफल किया । पुरन्दरगुरुने मत्तमयूर में एक बड़ा मठ स्थापित किया । दूसरा मठ रणिपद्रपुरमें भी इन्हींने स्थापित किया था। पुरन्दरगुरुका कवचशिव और कवचशिवका सदाशिव नामक शिष्य हुआ, जो कि रणिपद्रपुरके तापसाश्रम मे तपःसाधन करता था। सदाशिवका शिष्य हृदयेश
और हृदयेशका शिष्य व्योमशिव हुआ, जोकि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न और समर्थ विद्वान् था।" व्योमशिवाचार्यके प्रभावशाली होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हुए थे। ये सदनुष्ठानपरायण, मृदु-मितभाषी, विनय-नय-संयमके अद्भत स्थान तथा अप्रतिम प्रतापशाली थे। इन्होंने रणिपद्रपुरका तथा रणिपद्रमठका उद्धार एवं सुधार किया था और वहीं एक शिवमन्दिर तथा वापीका भी निर्माण कराया था । इसी वापीपर उक्त प्रशस्ति खुदी है। इनकी विद्वत्ताके विषयमें शिलालेखके ये श्लोक पर्याप्त हैं
"सिद्धान्तेषु महेश एष नियतो न्यायेऽक्षपादो मुनिः। गम्भीरे च कणाशिनस्तु कणभुक्शास्त्रे श्रुतौ जैमिनिः ॥
* प्राचीन लेखमाला द्वि० भाग शिलालेख नं १०८ + “यस्याधुनापि विबुधैरतिकृत्यशंसि व्याहन्यते न वचनं नयमार्गविद्भिः॥" + "अस्य व्योमपदादिमत्ररचनाख्याताभिधानस्य च ।" वापीप्रशस्तिः
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
सांख्येऽनल्पमतिः खयं स कपिलो लोकायते सद्गुरुः । बुद्धो बुद्धमते जिनोक्तिषु जिनः को वाथ नायं कृती ॥ यद्भूतं यदनागतं यदधुना किंचित्क्वचिद्वर्ध (त) ते। सम्यग्दर्शनसम्पदा तद खि पश्यन् प्रमेयं महत् ॥ . सर्वज्ञः स्फुटमेष कोपि भगवानन्यः क्षितौ सं(शं)करः।
धत्ते किन्तु न शान्तधीविषमग्रौद्रं वपुः केवलम् ॥" • इन श्लोकोंमें बतलाया है कि 'व्योमशिवाचार्य शैवसिद्धान्तमें स्वयं शिव, न्यायमें अक्षपाद, वैशेषिक शास्त्रमें कणाद, मीमांसामें जैमिनि, सांख्यमें कपिल, चार्वाकशास्त्रमें बृहस्पति, बुद्धमतमें बुद्ध तथा जिनमतमें खयं जिनदेवके समान थे। अधिक क्या; अतीतानागतवर्तमानवर्ती यावत् प्रमेयोंको अपनी सम्यग्दर्शनसम्पत्तिसे स्पष्ट देखने जानने वाले सर्वज्ञ थे । और ऐसा मालूम होता था कि मात्र विषमनेत्र ( तृतीयनेत्र ) तथा रौद्रशरीर को धारण किए बिना वे पृथ्वी पर दूसरे शंकर भगवान् ही अवतरे थे। इनके गगनेश, व्योमशम्भु, व्योमेश, गगनशशिमौलि आदि भी नाम थे। - शिलालेखके आधारसे समय-व्योमशिवके पूर्ववती चतुर्थगुरु पुरन्दरको अवन्तिवा राजा अपने नगरमें ले गया था। अवन्तिवर्मा के चाँदीके सिक्कों पर "विजितावनिरवनिपतिः श्री अवन्तिवर्मा दिवं जयति” लिखा रहता है तथा संवत् २५० पढ़ा गया है * । यह संवत् संभवतः गुप्त संवत् है । डॉ. फ्लीटके मतानुसार गुप्त संवत् ई । सन् ३२० की २६ फरवरी को प्रारम्भ होता है ।। अतः ५७० ई० में अवन्तिवर्माका अपनी मुद्राको प्रचलित करना इतिहाससिद्ध हैं। इस समय अवन्तिवर्मा राज्य कर रहे होंगे। तथा ५७० ई. के आसपास ही वे पुरन्दरगुरुको अपने राज्यमें लाए होंगे । ये अवन्तिवर्मा मोखरीवंशीय राजा थे। शैव होने के कारण शिवोपासक पुरन्दरगुरुको अपने यहाँ लाना भी इनका ठीकं ही था। इनके समयके सम्बन्ध में दूसरा प्रमाण यह है कि-वैसवंशीय राजा हर्षवर्द्धनकी छोटी बहिन राज्यश्री, अवन्तिवर्माके पुत्र ग्रहवर्माको विवाही गई थी। हर्षका जन्म ई० ५९० में हुआ था । राज्यश्री उससे १ या २ वर्ष छोटी थी । ग्रहवर्मा हर्षसे ५-६ वर्ष बड़ा जरूर होगा। अतः उसका जन्म ५८४ ई. के करीब मानना चाहिए । इसका राज्यकाल ई० ६०० से ६०६ तक रहा है । अवन्तिवर्माका यह इकलौता लड़का था। अतः मालूम होता है कि ई० ५८४ में अर्थात् अवन्तिवर्माकी ढलती अवस्थामें यह पैदा हुआ होगा। अस्तु; यहाँ तो इतना ही प्रयोजन हैं कि ५७० ई० के आसपास ही अवन्तिवर्मा पुरन्दरको अपने यहाँ ले गए थे। --
* देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वि० भाग पृ० ३७५ । 1 देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वितीय भाग पृ० २२९ ।
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यद्यपि संन्यासियोंकी शिष्य-परम्पराके लिए प्रत्येक पीढीका समय २५ वर्ष मानना आवश्यक नहीं है; क्योंकि कभी कभी २० वर्षमें ही शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा चल जाती है। फिर भी यदि प्रत्येक पीढीका समय २५ वर्ष ही मान लिया जाय तो पुरन्दरसे तीन पीढी के बाद हुए व्योमशिवका समय सन् ६७० के आसपास सिद्ध होता है।
दार्शनिकग्रन्थोंके आधारसे समय-व्योमशिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका (पृ० ३९२) में श्रीहर्षका एक महत्त्वपूर्ण ढंगसे उल्लेख करते है। यथा-.. __“अत एव मदीयं शरीरमित्यादिप्रत्ययेष्वात्मानुरागसद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेद. कलम् । हर्ष देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षस्येव उभयत्रापि बाधकसद्भावात् , यत्र ह्यनुरागसद्भावेऽपि विशेषणत्वे वाधकमस्ति तत्रावच्छेदकत्वमेव कल्प्यते इति । अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम् । आत्मनि कर्तृवकरणखयोरसम्भव इति बाधकम्.. "
यद्यपि इस सन्दर्भका पाठ कुछ छूटा हुआ मालूम होता है फिर भी 'अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वंम्' यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। इससे साफ मालूम होता है कि श्रीहर्ष ( 606-647 A. D. राज्य ) व्योमशिवके समयमें विद्यमान थे । यद्यपि यहां यह कहा जा सकता है कि व्योमशिव श्रीहर्षके बहुत वाद होकर भी ऐसा उल्लेख कर सकते हैं; परन्तु जब शिलालेखसे उनका समय ई० सन् ६७० के आसपास है तथा श्रीहर्षकी विद्यमानताका वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते हैं तब उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता।
व्योमवतीका अन्तःपरीक्षण-व्योमवती (पृ. ३०६,३०७,६८० ) में धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक ( २-११,१२ तथा १-६८,७२ ) से कारिकाएँ उद्धृत की गई है। इसी तरह व्योमवती (पृ. ६१७) में धर्मकीर्त्तिके हेतुबिन्दु प्रथमपरिच्छेदके "डिण्डिकरागं परित्यज्य अक्षिणी निमील्य" इस वाक्यका प्रयोग पाया जाता है । इसके अतिरिक्त प्रमाणवार्त्तिककी और भी बहुतसी कारिकाएँ उद्धृत देखी जाती हैं। .. व्योमवती ( पृ. ५९१,५९२ ) में कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवार्तिककी अनेक कारिकाएँ उद्धृत हैं । व्योमवती (पृ० १२९) में उद्योतकरका नाम लिया है, 'भर्तृहरिके शब्दाद्वैतदर्शनका (पृ० २० च ) खण्डन किया है और प्रभाकरके स्मृतिप्रमोषवादका भी (पृ० ५४० ) खंडन किया गया है।
इनमें भर्तृहरि, धर्मकीर्ति, कुमारिल तथा प्रभाकर ये सब प्रायः समसामयिक और ईसाकी सातवीं शताब्दीके विद्वान् हैं । उद्योतकर छठी शताब्दीके विद्वान् हैं । अतः व्योमशिवके द्वारा इन समसामयिक एवं किंचित्पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख तथा समालोचनका होना संगत.ही है। व्योमवती (पृ०.१५) में बाणकी
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१२ . प्रमेयकमलमार्तण्ड कादम्बरीका उल्लेख है। बाण हर्षकी सभाके विद्वान् थे, अतः इसका उल्लेख भी होना ठीक ही है।
व्योमवती टीकाका उल्लेख करनेवाले परवर्ती ग्रन्थकारोंमें शान्तरक्षित, विद्यानन्द, जयन्त, वाचस्पति, सिद्धर्षि, श्रीधर, उदयन, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा गुणरत्न, विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं।
शान्तरक्षितने वैशेषिक-सम्मत षट्पदार्थोकी परीक्षा की है। उसमें वे प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करते हैं। परंतु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्षमें प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नजर आते हैं। ( तुलना-तत्त्वसंग्रह पृ. २०६ तथा व्योमवती पृ० ३४३ । ) तत्त्वसंग्रहकी पंजिका ( पृ० २०६) में व्योमवती (पृ० १२९ ) के खकारणसमवाय तथा सत्तासमवायरूप उत्पत्तिके लक्षणका उल्लेख है । शान्तरक्षित तथा उनके शिष्य कमलशीलका समय ई० की आठवीं शताब्दिका पूर्वार्द्ध है । ( देखो, तत्त्वसंग्रहकी भूमिका पृ० xcvi)
विद्यानन्द आचार्यने अपनी आप्तपरीक्षा (पृ. २६) मे व्योमवती टीका (पृ० १०७ ) से समवायके लक्षणकी समस्त पदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यखोपलक्षित समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती (पृ० १४९ ) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी आप्तपरीक्षा (पृ. ६) में की गई है। विद्यानन्द ईसाकी नवमशताब्दीके पूर्वार्द्धवती हैं।
जयन्तकी न्यायमंजरी (पृ. २३) में व्योमवती (पृ० ६२१) के अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण माननेके सिद्धान्तका समर्थन किया है, साथही पृ० ६५ पर व्योमवती (पृ. ५५६ ) के फलविशेषणपक्षको स्वीकारकर कारकसामग्रीको प्रमाणमाननेके सिद्धान्तका अनुसरण किया है। जयन्तका समय हम आगे ईसाकी ९ वीं शताब्दीका पूर्वभाग सिद्ध करेंगे।
वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीकामें (पृ० १०८) प्रत्यक्षलक्षणसूत्र में 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा (पृ० १०२ ) लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादानवुद्धि कहते हैं । व्योमवतीटीकामें (पृ० ५५६ ) 'यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षणमें किया है तथा (पृ. ५६१) लिंगपरामर्शज्ञानको उपादानवुद्धि भी कहा है। वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ A.D. है।
प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्षनिरूपण (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ३०७ ) आत्मस्वरूपनिरूपण ( न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३४९, प्रमेयकमलमा० पृ० ११० ) समवायलक्षण (न्यायकुमु, पृ० २९५, प्रमेयकमलमा० पृ. ६०४ ) आदिमें व्योमवती (पृ. २०, ३९३, १०७) का पर्याप्त सहारा लिया है । म्वसंवेदनसिद्धिमें व्योमवतीके ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका खंडन भी किया है। . श्रीधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली (पृ० ४) तथा किरणावलीमें
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व्योमवती ( पृ० २० क) के "नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात.....यथा प्रदीपसन्तानः ।" इस अनुमानको 'तार्किका' तथा 'आचार्याः' शब्दके साथ उद्धृत किया है। कन्दली (पृ. २०) में व्योमवती (पृ. १४९) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योगः' इस मतकी आलोचना की गई है । इसी तरह कन्दली (पृ० १८) मे व्योमवती (पृ० १२९) के 'अनित्यवं तु प्रागभावप्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता ।' इस अनित्यवके लक्षणका खण्डन किया है । कन्दली (पृ० २००) में व्योमवती (पृ० ५९३ ) के 'अनुमान-लक्षणमें विद्याके सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना तथा स्मरणके व्यवच्छेदके लिये 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्तन करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है । कन्दलीकार श्रीधरका समय कन्दलीके अन्तमें दिए गए "व्यधिकदशोत्तरनवशतशकाब्दे" पदके अनुसार ९१३ शक अर्थात् ९९१ ई० है । और उदयनाचार्यका समय ९८४ ई० है।
वादिराज अपने न्यायविनिश्चय-विवरण (लिखित पृ० १११ B. तथा १११ A.) में व्योमवतीसे पूर्वपक्ष करते हैं । वादिदेवसूरि अपने स्याद्वादरत्नाकर (पृ० ३१८ तथा. ४१८ ) में पूर्वपक्षरूपसे व्योमवतीका उद्धरण देते हैं।
सिद्धर्षि न्यायावतारवृत्ति (पृ. ९) में, हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा (पृ० ७) में तथा गुणरत्न अपनी षड्दर्शनसमुच्चयकी वृत्ति (पृ० ११४ A.) में व्योमवतीके प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम रूप प्रमाणत्रिखकी वैशेषिकपरम्पराका पूर्वपक्ष करते हैं । इस तरह व्योमवतीकी संक्षिप्त तुलनासे ज्ञात हो सकता है कि व्योमवतीका जैनग्रन्थोंसे विशिष्ट सम्बन्ध है।
इस प्रकार हम व्योमशिवका समय शिलालेख तथा उनके ग्रन्थके उल्लेखोंके आधारसे ईस्वी सातवीं शताब्दीका उत्तर भाग अनुमान करते हैं। यदि ये आठवीं या नवमी शताब्दीके विद्वान् होते तो अपने समसामयिक शंकराचार्य और शान्तरक्षित जैसे विद्वानोंका उल्लेख अवश्य करते । हम देखते है कि-व्योमशिव शांकरवेदान्तका उल्लेख भी नहीं करते तथा विपर्यय ज्ञानके विषयमें अलोकिकार्थख्याति, स्मृतिप्रमोष आदिका खण्डन करने पर भी शंकरके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादका नाम भी नहीं लेते । व्योमशिव जैसे बहुश्रुत एवं सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करनेवाले आचार्यके द्वारा किसी भी अष्टमशताव्दी या नवम शताव्दीवर्ती आचार्यके मतका उल्लेख न किया जाना ही उनके सप्तमशताब्दीवर्ती होनेका प्रमाण है। . अतः डॉ० कीथका इन्हें नवमी शताब्दीका विद्वान् लिखना तथा डॉ० एस० एन. दासगुप्ताका इन्हें छठी शताब्दीका विद्वान् बतलाना ठीक नहीं जंचता।
श्रीधर और प्रभाचन्द्र-प्रशस्तपाद भाष्यकी टीकाओंमें न्यायकन्दली टीकाका भी अपना अच्छा स्थान है । इसकी रचना श्रीधरने शक ९१३
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
(ई० ९९१ ) में की थी। श्रीधराचार्य अपने पूर्व टीकाकार व्योमशिवका शब्दानुसरण करते हुए भी उनसे मतभेद प्रदर्शित करनेमें नहीं चूकते । व्योमशिव बुद्धयादि विशेष गुणोंकी सन्ततिके अत्यन्तोच्छेदको मोक्ष कहते हैं और उसकी सिद्धिके लिए 'सन्तानत्वात्' हेतुका प्रयोग करते हैं (प्रश० व्यो० पृ० २० क)। श्रीधर आत्यन्तिक अहितनिवृत्तिको मोक्ष मानकर भी उसकी सिद्धिके लिए प्रयुक्त होनेवाले 'सन्तानवात्' हेतुको पार्थिवपरमाणुकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताते हैं (कन्दली पृ० ४)। आ० प्रभाचन्द्रने भी वैशेषिकोंकी मुक्तिका खंडन करते समय न्यायकुमुद० (पृ० ८२६) और प्रमेयकमल. (पृ० ३१८) में 'सन्तानत्वात्' हेतुको पाकजपरमाणुओंकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताया है। इसी तरह और भी एकाधिकस्थलों में हम कन्दलीकी आभा प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों पर देखते हैं।
वात्सायन और प्रभाचन्द्र-न्यायसूत्रके ऊपर वात्सायनकृत न्यायभाष्य उपलब्ध है। इनका समय ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दी समझा जाता है। आ. प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें इनके न्यायभाष्यका कहीं न्यायभाष्य और कहीं भाष्य शब्दसे उल्लेख किया है। वात्सायनका नाम न लेकर सर्वत्र न्यायभाष्यकार और भाष्यकार शब्दोंसे ही इनका निर्देश किया गया है।
उद्योतकर और प्रभाचन्द्र-न्यायसूत्रके ऊपर न्यायवार्तिक ग्रन्थके रचयिता आ० उद्योतकर ई० ६ वीं सदी, अन्ततः सातवीं सदीके पूर्वपादके विद्वान् हैं। इन्होंने दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चयके खंडनके लिए न्यायवार्तिक वनाया था। इनके न्यायवार्तिकका खंडन धर्मकीर्ति (ई० ६३५ के वाद) ने अपने प्रमाणवार्तिकमें किया है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके सृष्टिकर्तृत्व प्रकरणके पूर्वपक्षमें (पृ. २६८) उद्योतकरके अनुमानोंको 'वार्तिककारेणापि' शब्दके साथ उद्धृत किया है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें एकाधिकस्थानोंमें 'उद्योतकर' का नामोल्लेख करके न्यायवार्तिकसे पूर्वपक्ष किए गए हैं । न्यायकुमुदचन्द्र के षोडशपदार्थवादका पूर्वपक्ष भी उद्योतकरके न्यायवार्तिकसे पर्याप्त पुष्टि पाया है। "पूर्ववच्छेषवत्" आदि अनुमानसूत्रकी वार्तिककारकृत विविध व्याख्याएँ भी प्रमेयकमलमार्तण्डमें खंडित हुई हैं । वार्तिककारकृत साधकतमलका "भावा. भावयोस्तद्वत्ता” यह लक्षण प्रमेयकमलमार्तण्डमें प्रमाणरूपसे उद्धृत है।
भट्ट जयन्त और प्रभाचन्द्र-भट्ट जयन्त जरन्नैयायिकके नामसे प्रसिद्ध थे। इन्होंने न्यायसूत्रोंके आधारसे न्यायकलिका, और न्यायमञ्जरी ग्रन्थ लिखे हैं । न्यायमञ्जरी तो कतिपय न्यायसूत्रोंकी विशद व्याख्या है। अब हम भट्ट जयन्तके समयका विचार करते हैं
जयन्तकी न्यायमञ्जरीका प्रथम संस्करण विजयनगरं सीरीजमें सन १८९५ में प्रकाशित हुआ है। इसके संपादक म० म० गंगाधर शास्त्री मानवल्ली हैं।
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प्रस्तावना
उन्होंने भूमिकामें लिखा है की-"जयन्तभट्टका गंगेशोपाध्यायने उपमान चिन्तामणि (पृ. ६१) में जरन्नैयायिक शब्दसे उल्लेख किया है, तथा जयन्तभट्टने न्यायमंजरी (पृ० ३१२) में वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्य-टीकासे "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः” यह वाक्य 'आचार्यैः' करके उद्धृत किया है। अतः जयन्तका समय वाचस्पति (841 A. D.) से उत्तर तथा गंगेश (1175 A. D.) से पूर्व होना चाहिये ।" इन्हींका अनुसरण करके न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी शुक्लने, तथा 'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकोंने भी जयन्तको वाचस्पतिका परवर्ती लिखा है। ख० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण भी उक्त वाक्यके आधार पर इनका समय ९ वीं से ११ वीं शताब्दी तक मानते थे* । अतः जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माननेकी परम्पराका आधार म. म. गंगाधर शास्त्री-द्वारा "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः" इस वाक्यको वाचस्पति मिश्रका लिख देना ही मालूम होता है । वाचस्पति मिश्रने अपना समय 'न्यायसूची निबन्ध' के अन्तमें स्वयं दिया है। यथा
"न्यायसूची निबन्धोऽयमकारि सुधियां मुदे। .
श्रीवाचस्पति मिश्रेण वखंकवसुवत्सरे ॥" इस श्लोकमें ८९८ वत्सर लिखा है। म० म० विन्ध्येश्वरीप्रसादजीने 'वत्सर' शब्दसे शकसंवत् लिया है।। डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण विक्रम संवत् लेते हैं।। म. म. गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि 'तात्पर्यटीकाकी परिशुद्धिटीका बनानेवाले आचार्य उदयनने अपनी 'लक्षणावली' शक सं० ९०६ (984 A.D.) में समाप्त की है। यदि वाचस्पतिका समय शक सं० ८९८ माना जाता है तो इतनी जल्दी उस पर परिशुद्धि जैसी टीकाका बन जाना संभव मालूम नहीं होता।
अतः वाचस्पतिमिश्रका समय विक्रम संवत् ८९८ (841 A. D.) प्रायः सर्वसम्मत है। वाचस्पतिमिश्रने वैशेषिकदर्शनको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनों पर टीकाएँ लिखीं हैं । सर्वप्रथम इन्होंने मंडनमिश्रके विधिविवेक पर 'न्यायकणिका' नामकी टीका लिखी है, क्योंकि इनके दूसरे ग्रन्थोंमें प्रायः इसका निर्देश हैं। उसके बाद मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिकी व्याख्या 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' तथा 'तत्त्वबिन्दु'; इन दोनों ग्रन्थोंका निर्देश तात्पर्य-टीकामें मिलता है, अतः उनके बाद 'तात्पर्य-टीका' लिखी गई । तात्पर्य टीकाके साथही 'न्यायसूची-निबन्ध' लिखा
* हिस्ट्री ऑफ दि इण्डियन लॉजिक, पृ० १४६ । | न्यायवार्तिक-भूमिका, पृ० १४५। + हिस्ट्री ऑफ दि इण्डियन लाजिक, पृ० १३३ । % हिस्ट्री एंड बिब्लोग्राफी ऑफ न्यायवैशेषिक लिटरेचर Vol. III, पृ० १०१॥
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
होगा; क्योंकि न्यायसूत्रोंका निर्णय तात्पर्य-टीकामें अत्यन्त अपेक्षित है । 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' में तात्पर्य-टीका उद्धृत है, अतः तात्पर्यटीकाके वाद 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' की रचना हुई। योगभाष्यकी तत्त्ववैशारदी टीकामें 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' का निर्देश है, अतः निर्दिष्ट कौमुदीके बाद 'तत्त्ववैशारदी' रची गई।
और इन सभी ग्रन्थोंका 'भामती' टीकामें निर्देश होनेसे 'भामती' टीका सबके अन्तमें लिखी गई है।
जयन्त वाचस्पति मिश्रके समकालीन वृद्ध हैं-वाचस्पतिमिश्र अपनी आद्यकृति 'न्यायकणिका' के मङ्गलाचरणमें न्यायमञ्जरीकारको बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दोंमें गुरुरूपसे स्मरण करते हैं । यथाः
"अज्ञानतिमिरशमनी परद्मनी न्यायमञ्जरी रुचिराम् ।
प्रसवित्रे प्रभवित्रे विद्यातरवे नमो गुरवे ॥" अर्थात्-जिनने अज्ञानतिमिरका नाश करनेवाली, प्रतिवादियोंका दमन करने वाली, रुचिर न्यायमंजरीको जन्म दिया उन समर्थ विद्यातरु गुरुको नमस्कार हो।
इस श्लोकमें स्मृत 'न्यायमञ्जरी' भट्ट जयन्तकृत न्यायमञ्जरी जैसी प्रसिद्ध 'न्यायमञ्जरी' ही होनी चाहिये । अभी तक कोई दूसरी न्यायमञ्जरी तो सुनने में भी नहीं आई। जब वाचस्पति जयन्तको गुरुरूपसे स्मरण करते हैं तब जयन्त वाचस्पति के उत्तरकालीन कैसे हो सकते हैं । यद्यपि वाचस्पतिने तात्पर्यटीकामें 'त्रिलोचनगुरून्नीत' इत्यादि पद देकर अपने गुरुरूपसे 'त्रिलोचन' का उल्लेख किया है, फिर भी जयन्तको उनके गुरु अथवा गुरुसम होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि एक व्यक्तिके अनेक गुरु भी हो सकते हैं। ___ अभी तक 'जातञ्च सम्वद्धं चेत्येकः कालः' इस वचनके आधार पर ही जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माना जाता है । पर, यह वचन वाचस्पतिकी तात्पर्य टीकाका नहीं है, किन्तु न्यायवार्तिककार श्री उद्योतकरका है ( न्यायवार्तिक पृ. २३६), जिस न्यायवार्तिक पर वाचस्पतिकी तात्पर्यटीका है। इनका समय धर्मकीर्तिसे पूर्व होना निर्विवाद है।
म०म० गोपीनाथ कविराज अपनी 'हिस्ट्री एण्ड बिब्लोग्राफ़ी आफ़ न्याय वैशेषिक लिटरेचर' में लिखते हैं* कि-"वाचस्पति और जयन्त समकालीन होने चाहिए, क्योंकि जयन्तके ग्रन्थों पर वाचस्पतिका कोई असर देखने में नहीं आता।" 'जातञ्च' इत्यादि चाक्यके विषय में भी उन्होंने सन्देह प्रकट करते हए लिखा है कि-"यह वाक्य किसी पूर्वाचार्य का होना चाहिये।" वाचस्पतिके पहले भी शंकरस्वामी आदि नैयायिक हुए हैं, जिनका उल्लेख तत्त्वसंग्रह आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। ___ म०म० गङ्गाधर शास्त्रीने जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन मानकर
* सरस्वती भवन सीरीज़ III पार्ट ।
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प्रस्तावना
न्यायमञ्जरी (पृ० १२०) में उद्धृत 'यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः' इस पद्यको टिप्पणीमें 'भामती' टीकाका लिख दिया है। पर वस्तुतः यह पद्य वाक्यपदीय (१-३४) का है और न्यायमञ्जरी की तरह भामती टीकामें भी उद्धृत ही है, मूलका नहीं है। ___ न्यायसूत्रके प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र (१-१-४) की व्याख्यामें वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि-'व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्षका ग्रहण करना चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञानका । संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निराकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य नहीं है। यह बात मैं 'गुरूनीत मार्ग' का अनुगमन करके कह रहा हूँ। इसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्वः' इत्यादि शब्दसंसृष्ट ज्ञानको उभयजज्ञान कहकर उसकी प्रत्यक्षताका निराकरण करनेके लिये अव्यपदेश्य पदकी सार्थकता बताते है । वाचस्पति 'अयमश्वः' इस ज्ञानको उभयजज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं । और वह भी अपने गुरुके द्वारा उपदिष्ट इस गाथाके आधार पर
शब्दजत्वेन शाब्दञ्चेत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः।
स्पष्टग्रहरूपत्वात् युक्तमैन्द्रियकं हि तत् ॥ इसलिये वे 'अव्यपदेश्य' पदका प्रयोजन निर्विकल्पका संग्रह करना ही बतलाते हैं।
न्यायमञ्जरी (पृ. ७८) में 'उभयजज्ञानका व्यवच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है' इस मतका 'आचार्याः' इस शब्दके साथ उल्लेख किया गया है। उसपर व्याख्याकारकी अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमञ्जरीकारने उभयजज्ञानका खंडन किया है।
म० म० गङ्गाधरशास्त्रीने इस 'आचार्याः' पदके नीचे 'तात्पर्यटीकायां वाचस्पति मिश्राः' यह टिप्पणी की हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि यह मत वाचस्पति मिश्र का है या अन्य किसी पूर्वाचार्यका ? तात्पर्य-टीका (पृ० १४८) में तो स्पष्ट ही उभयजज्ञान नहीं मानकर उसे ऐन्द्रियक कहा है । इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है । व्योमवती* टीका (पृ० ५५५) में ___ *"न, इन्द्रियसहकारिणा शब्देन यज्जन्यते तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात् , तथा यकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षुपा रूपमिति न जानीते रूपमितिशब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत इत्युभयनं शानम् ; ननु च शब्देन्द्रिययोरेकस्मिन् काले व्यापाराऽसम्भवादयुक्तमेतत् । तथाहि-मनसाऽधिष्ठितं न श्रोत्रं शब्दं गृह्णाति पुनः क्रियाक्रमेण चक्षुपा सम्बन्धे सति रूपग्रहणम् । न च शब्दशानस्यैतावत्कालमवस्थानं सम्भवतीति कथमुभयनं शानम् ? अत्रैका श्रोत्रसम्बद्धे मनसि क्रियोत्पन्ना विभागमारभते.."ततः स्वशानसहायशब्दसहकारिणा चक्षुपा रूपज्ञानमुत्पद्यते इत्युभयजं शानम् । यदि वा. भवत्येवोभयजं शानम्"प्रश० व्यो० पृ० ५५५ ।
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उभयजज्ञानका स्पष्ट समर्थन है, अतः यह मत व्योमशिवाचार्यका हो सकता है। व्योमवतीमें न केवल उभयजज्ञानका समर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपदेश्य पदसे किया है । हाँ, उसपर जो व्याख्याकार की अनुपपत्ति है वह कदाचित् वाचस्पतिकी तरफ लग सकती है; सो भी ठीक नहीं; क्योंकि वाचस्पतिने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनुसार उभयजज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम होता है कि वाचस्पतिके गुरुके सामने उभयजज्ञानको माननेवाले आचार्य (संभवतः व्योमशिवाचार्य) की परम्परा थी, जिसका खण्डन वाचस्पतिके गुरुने किया । और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान दिया है।
इसी तरह तात्पर्य-टीकामें (पृ० १०२) 'यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम्' इस भाष्यका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपादेयताज्ञानको 'उपादान' पदसे लिया है और उसका क्रम भी 'तोयालोचन, तोयविकल्प, दृष्टतज्जातीयसंस्कारोबोध, स्मरण, 'तजातीयं चेदम्' इत्याकारकपरामर्श' इत्यादि बताया है।
न्यायमंजरी (पृ० ६६) में इसी प्रकरणमें शङ्का की है कि-'प्रथम आलोचनज्ञानका फल उपादानादिवुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें कई क्षणोंका व्यवधान पड़ जाता हैं ? इसका उत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' शब्द लिखकर 'उपादेयताज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं' इस मतका उल्लेख किया है। इस 'आचार्याः' पद पर भी म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने 'न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीकायां वाचस्पति मिश्राः' ऐसा टिप्पण किया है । न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके संपादक पं० सूर्यनारायणजी न्यायाचार्यने भी उन्हींका अनुसरण करके उसे बड़े टाइपमें हेडिंग देकर छपाया है। मंजरीकारने इस मतके बाद भी एक व्याख्याताका मत दिया है । जो इस परामर्शात्मक उपादेयताज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह विचारणीय है कि-यह मत स्वयं वाचस्पतिका है या उनके पूर्ववती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ उन्होंने अपने गुरुका नाम नहीं लिया है, तथापि जब व्योमवती* जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (पृ. ५६१) मे इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी और 'आचार्याः' पदसे' वाचस्पति न लिए जाकर व्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। मालूम होता है म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने "जातञ्च सम्बद्धं चेत्येकः कालः' इस वचनको वाचस्पतिका माननेके कारण ही उक्त दो स्थलों में 'आचार्याः' पद पर 'वाचस्पति मिश्राः' ऐसी . * "द्रव्यादिजातीयस्य पूर्व सुखदुःखसाधनत्वोपलब्धेः तज्ज्ञानानन्तरं यद्यत् द्रव्यादिजातीयं तत्तत्सुखसाधनमित्यविनाभावस्मरणम् , तथा चेदं द्रव्यादिजातीयमिति परामर्शशानम् , तस्मात् सुखसाधनमिति विनिश्चयः तत उपादेयशानम् .."-प्रश० व्यो० पृ० ५६१।
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प्रस्तावना
टिप्पणी कर दी है, जिसकी परम्परा चलती रही। हाँ, म० म० गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह कोटिमें रखा है।
भट्ट जयन्तकी समयावधि-जयन्त मंजरीमें धर्मकीर्तिके मतकी समालोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरकी आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं । तथा प्रज्ञाकरगुप्तके 'एकमेवेदं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्' (भिक्षु राहुलजीकी वार्तिकालंकारकी प्रेसकॉपी पृ० ४२९) इस वचनका खंडन करते हैं, (न्यायमंजरी पृ० ७४)।
भिक्षु राहुलजीने टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार धर्मकीर्तिका समय ई० ६२५, प्रज्ञाकरगुप्तका ७००, धर्मोत्तर और रविगुप्तका ७२५ ईस्वी लिखा है । जयन्तने एक जगह रविगुप्तका भी नाम लिया है । अतः जयन्तकी पूर्वावधि ७६० A. D. तथा उत्तरावधि ८४० A. D. होनी चाहिए। क्योंकि वाचस्पतिका न्यायसूचीनिबन्ध ८४१ A. D. में बनाया गया है, इसके पहिले भी वे ब्रह्मसिद्धि, तत्त्वबिन्दु और तात्पर्यटीका लिख चुके हैं। संभव है कि वाचस्पतिने अपनी आद्यकृति न्यायकणिका ८१५ ई० के आसपास लिखी हो । इस न्यायकणिका में जयन्तकी न्यायमंजरीका उल्लेख होनेसे जयन्तकी उत्तरावधि ८४० A. D. ही मानना समुचित ज्ञात होता है। यह समय जयन्तके पुत्र अभिनन्द द्वारा दी गई जयन्तकी पूर्वजावलीसे भी संगत बैठता है । अभिनन्द अपने कादम्बरीकथासारमें लिखिते हैं कि
"भारद्वाज कुलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण था। उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी हुआ। यह शक्तिखामी कर्कोटवंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्यके मंत्री थे। शक्तिखामीके पुत्र कल्याणखामी, कल्याणस्वामीके पुत्र चन्द्र तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकारके नामसे मशहूर थे । जयन्तके अभिनन्द नामका पुत्र हुआ।" __काश्मीरके कर्कोट वंशीय राजा मुक्तापीड ललितादित्यका राज्य काल ७३३ से ७६८ A. D. तक रहा है* । शक्तिखामी के, जो अपनी प्रौढ़ अवस्थामें मन्त्री होंगे, अपने मन्त्रितत्वकालके पहिले ही ई० ७२० में कल्याणस्वामी उत्पन्न हो चुके होंगे। इसके अनन्तर यदि प्रत्येक पीढीका समय २० वर्ष भी मान लिया जाय तो कल्याण खामिके ईस्वी सन् ७४० में चन्द्र, चन्द्रके ई० ७६० में जयन्त उत्पन्न हुए और उन्होंने ईखी ८०० तकमें अपनी 'न्यायमंजरी' बनाई होगी । इसलिये वाचस्पतिके समयमें जयन्त वृद्ध होंगे और वाचस्पति इन्हें आदर की दृष्टि से देखते होंगे। यही कारण है कि उन्होंने अपनी आद्यकृतिमें न्यायमंजरीकारका स्मरण किया है।
* देखो, संस्कृतसाहित्यका इतिहास, परिशिष्ट (ख) पृ० १५ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण यह है कि-हरिभद्रसूरिने अपने षड्दर्शनसमुच्चय (श्लो० २०) में न्यायमंजरी (विजयानगरं सं० पृ० १२९) के
"गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिन्नगिरिगह्वराः। रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः॥
त्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः। - वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः॥"
इन दो श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है। प्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने 'जैन साहित्यसंशोधक' (भाग १ अंक १) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला कथामें हरिभद्रका गुरुरूपसे उल्लेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ई० ७०० से ७७० तक निर्धारित किया है । कुवलयमाला कथाकी समाप्ति शक ७०० (ई० ७७८ ) में हुई थी । मेरा इस विषयमें इतना संशोधन है कि उस समयकी आयुःस्थिति देखते हुए हरिभद्रकी निर्धारित आयु स्वल्प मालूम होती है। उनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक माननेसे वे न्यायमंजरीको देख सकेंगे। हरिभद्र जैसे सैकड़ो प्रकरणोंके रचयिता विद्वान्के लिए १०० वर्ष जीना अखाभाविक नहीं हो सकता । अतः ई० ७१० से ८१० तक समयवाले हरिभद्रसूरिके द्वारा न्यायमंजरीके श्लोकोंका अपने ग्रन्थमें शामिल किया जाना जयन्तके ७६० से ८४० ई. तकके समयका प्रबल साधकप्रमाण है।
आ० प्रभाचन्द्रने वात्सायनभाष्य एवं न्यायवार्तिककी अपेक्षा जयन्तकी न्यायमञ्जरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीलन एवं समुचित उपयोग किया है । षोडशपदार्थके निरूपणमें जयन्तकी न्यायमञ्जरीके ही शब्द अपनी आभा दिखाते हैं । प्रभाचन्द्रको न्यायमंजरी खभ्यस्त थी। वे कहीं कहीं मंजरीके ही शब्दोंको ‘तथा चाह भाष्यकारः' लिखकर उद्धृत करते हैं । भूतचैतन्यवादके पूर्वपक्षमें न्यायमञ्जरी में 'अपि च' करके उद्धृत की गईं १७ कारिकाएँ न्यायकुमुदचन्द्रमें भी ज्योंकी त्यों उद्धृत की गई हैं । जयन्तके कारकसाकल्यका सर्वप्रथम खण्डन प्रभाचन्द्रने ही किया है । न्यायमञ्जरीकी निम्नलिखित तीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत की गईं हैं। (न्यायकुमुद० पृ० ३३६ ) "ज्ञातं सम्यगसम्यग्वा यन्मोक्षाय भवाय वा । तत्प्रमेयमिहाभीष्टं न प्रमाणार्थमात्रकम् ॥” [न्यायमं० पृ० ४४७ ] (न्यायकुमुद० पृ० ४९१) "भूयोऽवयवसमान्ययोगो यद्यपि मन्यते । सादृश्यं तस्य तु ज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि ॥” [न्यायमं० पृ० १४६ ] (न्यायकुमुद० पृ० ५११) “नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः संगतिग्रहः । भावेनाभावसिद्धौ तु कथमेतद्भविष्यति ॥” [न्यायमं० पृ० ३८]
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' प्रस्तावना
२१ इस तरह न्यायकुमुदचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें न्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है।
वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दर्शनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ई० ८४१ में समाप्त किया था । इनने अपनी तात्पर्यटीका (पृ० १६५) में सांख्यों के अनुमान के मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं और उनका खंडन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४६२ ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैं । वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भामती टीकामें अविद्यासे अविद्याके उच्छेद करने के लिए “यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, विषं विषान्तरं शमयति खयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति ..." इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ६६ ) में इन्हीं दृष्टान्तों को पूर्वपक्ष में उपस्थित किया है। न्यायकुमुदचन्द्रके विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेकके साथही साथ उसकी वाचस्पतिकृत न्यायकणिका टीकाका भी पर्याप्त सादृश्य पाया जाता है । वाचस्पतिके उक्त ई० ८४१ समयका साधक एक प्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पर्यटीका (पृ० २१७) में शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रह (श्लो० २००) से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है-"नर्तकी धूलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिकः । अनेकाणुसमूहत्वात् एकलं तस्य कल्पितम् ॥” शान्तरक्षितका समय ई० ७६२ है।
शवर ऋषि और प्रभाचन्द्र-जैमिनिसूत्र पर शावरभाष्य लिखने वाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकर ने व्याख्याएँ लिखी हैं । आ० प्रभाचन्द्रने शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, आदिमें कुमारिलं के श्लोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्य की दलीलों को भी पूर्वपक्षमें रखा है । शावरभाष्य से ही "गोरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः" यह उपवर्ष ऋषि का मत प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ४६४ ) में उद्धृत किया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २७९) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकोंका. मत भी शाबरभाष्यसे ही उद्धृत हुआ है। इसके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्र में शाबरभाष्यके कई वाक्य प्रमाणरूपमें और पूर्वपक्ष में उद्धृत किए गए हैं।
कुमारिल और प्रभाचन्द्र-भट्ट कुमारिलने शाबरभाष्य पर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और टुप्टीका नामकी व्याख्या लिखी है कुमारिलने अपने तन्त्रवार्तिक (पृ० २५१-२५३ ) में वाक्यपदीयके निम्नलिखित श्लोककी समालोचना की है
"अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् ।
अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुर्गवादिषु ॥” [वाक्यप० २।१२१] इसी तरह तन्त्रवार्तिक (पृ० २०९-१० ) में वाक्यपदीय (१५) के
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
"तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणाहते" अंश उद्धृत होकर खंडित हुआ है। मीमांसाश्लोकवार्तिक ( वाक्याधिकरण श्लो० ५१) में वाक्यपदीय (२।१-२) में निर्दिष्ट दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका समालोचन किया गया है। भर्तृहरिके स्फोटवादकी आलोचना भी कुमारिलने मीमांसाश्लोकवार्तिकके स्फोटवादमें बड़ी प्रखरतासे की है । चीनी यात्री इत्सिंगने अपने यात्राविवरणमें भर्तृहरिका मृत्युसमय ई० ६५० वताया है अतः भर्तृहरिके समालोचक कुमारिलका समय ईखी ७ वीं शताब्दी का उत्तर भाग मानना समुचित है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें सर्वज्ञवाद, शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयलवाद, आगमादिप्रमाणोंका विचार,प्रामाण्यवाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलके श्लोकवार्तिकसे पचासों कारिकाएँ उद्धृत की हैं। शब्दनित्यत्ववाद आदि प्रकरणों में कुमारिलकी युक्तियोंका सिलसिलेवार सप्रमाण उत्तर दिया गया है । कुमारिलने आत्माको व्यावृत्त्यनुगमात्मक या नित्यानित्यात्मक माना है। प्रभाचन्द्रने आत्माकी नित्यानित्यात्मकताका समर्थन करते समय कुमारिलकी "तस्मादुभयहानेन व्यावृत्यनुगमात्मकः" आदि कारिकाएँ अपने पक्षके समर्थनमें भी उद्धृत की हैं । इसी तरह सृष्टिकर्तृत्वखंडन, ब्रह्मवादखंडन, आदिमें प्रभाचन्द्र कुमारिलके साथ साथ चलते हैं। सारांश यह है कि प्रभाचन्द्रके सामने कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्तिक एक विशिष्ट ग्रन्थके रूप में रहा है। इसीलिए इसकी आलोचना भी जमकर की गई है । श्लोकवार्तिक की भट्ट उम्बेककृत तात्पर्यटीका अभी ही प्रकाशित हुई है । इस टीकाका आलोडन भी प्रभाचन्द्रने खूब किया है । सर्वज्ञवादमें कुछ कारिकाएँ ऐसी भी उद्धृत हैं जो कुमारिलके मौजूदा श्लोकवार्तिकमें नहीं पाई जाती । संभव है ये कारिकाएँ कुमारिलकी बृहट्टीका या अन्य किसी ग्रन्थ की हों।
. मंडनमिश्र और प्रभाचन्द्र-आ० मंडनमिश्रके मीमांसानुक्रमणी, विधिविवेक, भावनाविवेक, नैष्कर्म्यसिद्धि, ब्रह्मसिद्धि, स्फोटसिद्धि आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनका समयं ईसाकी ८ वीं शताब्दीका पूर्वभाग है। आचार्य विद्यानन्दने (ई. ९ वीं शताब्दी का पूर्वभाग) अपनी अष्टसहस्रीमें मण्डनमिश्र का नाम लिया है। यतः मण्डनमिश्र अपने ग्रन्थोमें सप्तमशतकवी कुमारिलका नामोल्लेख करते हैं । अतः इनका समय ई० की सप्तमशताब्दीका अन्तिमभाग तथा ८ वीं सदी का पूर्वार्ध सुनिश्चित होता है। आ० प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० १४९) में मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिका "आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं" श्लोक उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ५७२) में विधिवादके पूर्वपक्षमें मंडनमिश्रके विधिविवेकमें वर्णित अनेक विधिवादियोंका निर्देश किया गया है । उनके मतनिरूपण तथा समालोचन में विधिविवेक ही आधारभूत मालूम होता है।
१ देखो बृहती द्वि० भागकी प्रस्तावना।
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. प्रस्तावना
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प्रभाकर और प्रभाचन्द्र-शाबरभाष्यकी बृहती टीकाके रचयिता प्रभाकर करीब करीब कुमारिलके समकालीन थे । भट्ट कुमारिलका शिष्य परिवार भाट्टके नामसे ख्यात हुआ तथा प्रभाकर के शिष्य प्राभाकर या गुरुमतानुयायी कहलाए। प्रभाकर विपर्ययज्ञानको स्मृतिप्रमोष या विवेकाख्याति रूप मानते हैं। ये अभावको स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते। वेदवाक्योंका अर्थ नियोगपरक करते हैं। प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थोंमें प्रभाकरके स्मृतिप्रमोष, नियोगवाद आदि सभी सिद्धान्तों का विस्तृत खंडन किया है।
शालिकनाथ और प्रभाचन्द्र-प्रभाकरके शिष्योंमें शालिकनाथका अपना विशिष्ट स्थान है। इनका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दी है । इन्होंने बृहतीके ऊपर ऋजुविमला नाम की पञ्जिका लिखी है । प्रभाकरगुरुके सिद्धान्तोंका विवेचन करनेके लिए इन्होंने प्रकरणपञ्चिका नामका स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है। ये अन्धकारको स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते किन्तु ज्ञानानुत्पत्तिको ही अन्धकार कहते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. २३८) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ६६६) में शालिकनाथके इस मतकी विस्तृत समीक्षा की है।
शङ्कराचार्य और प्रभाचन्द्र-आद्य शङ्कराचार्यके ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, गीताभाष्य, उपनिषद्भाष्य आदि अनेकों ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनका समय ई० ७८८ से ८२० तक माना जाता है। शाङ्करभाष्यमें धर्मकीर्तिके 'सहोपलम्भनियमातू' हेतुका खण्डन होनेसे यह समय समर्थित होता है। आ० प्रभाचन्द्रने शङ्करके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादकी समालोचना प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें की है। न्यायकुमुदचन्द्रके परमब्रह्मवादके पूर्वपक्षमें शाङ्करभाष्यके आधार से ही वैषम्य नैर्घण्य आदि दोषोंका परिहार किया गया है।
सुरेश्वर और प्रभाचन्द्र-शङ्कराचार्य के शिष्योंमें सुरेश्वराचार्यका नाम उल्लेखनीय है । इनका नाम विश्वरूप भी था । इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यवार्तिक, बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक, मानसोल्लास, पञ्चीकरणवार्तिक, काशीमृतिमोक्षविचार, नैष्कर्म्यसिद्धि आदि ग्रन्थ वनाए हैं। आ० विद्यानन्द (ईसाकी ९ वीं शताब्दी) ने अष्टसहस्री (पृ० १६२) में वृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिकसे "ब्रह्माविद्यावदिष्टं चेन्ननु” इत्यादि कारिकाएँ उद्धृत की हैं। अतः इनका समय भी ईसाकी ९ वीं शताब्दीका पूर्वभाग होना चाहिए। ये शङ्कराचार्य (इ० ७८८ से ८२० के साक्षात् शिष्य थे । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ४४-४५) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. १४१) में ब्रह्मवादके पूर्वपक्षमें इनके बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक (३।५।४३-४४) से “यथा विशुद्धमाकाशं" आदि दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं।
१ द्रष्टव्य-अच्युतपत्र वर्ष ३ अङ्क ४ में म० म० गोपीनाथ कविराज का
लेख।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
भामह और प्रभाचन्द्र-भामहका काव्यालङ्कार ग्रन्थ उपलब्ध है । शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रह (पृ० २९१) में भामहके काव्यालङ्कारकी अपोहखण्डन वाली “यदि गौरित्ययं शब्दः" आदि तीन कारिकाओंकी समालोचना की है। ये कारिकाएँ काव्यालङ्कारके ६ वें परिच्छेद (श्लो० १७-१९) में पाई जाती हैं। तत्त्वसंग्रहकारका समय ई० ७०५-७६२ तक सुनिर्णीत है । बौद्धसम्मत प्रत्यक्षके लक्षणका खण्डन करते समय भामहने (काव्यालङ्कार ५।६) दिङ्नागके मात्र 'कल्पनापोढ' पदवाले लक्षणका खंडन किया है, धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढ और अभ्रान्त' उभयविशेषणवाले लक्षणका नहीं। इससे ज्ञात होता है कि भामह दिङ्नागके उत्तरवर्ती तथा धर्मकीर्तिके पूर्ववती हैं । अन्ततः इनका समय ईसाकी ७ वीं शताब्दी का पूर्वभाग है । आ० प्रभाचन्द्रने अपोहवादका खण्डन करते समय भामहकी अपोहखण्डनविषयक “यदि गौरित्ययं" आदि तीनों कारिकाएँ प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ४३२ ) में उद्धृत की हैं। यह भी संभव है कि ये कारिकाएँ सीधे भामहके ग्रन्थसे उद्धृत न होकर तत्त्वसंग्रहके द्वारा उद्धृत हुई हों।
बाण और प्रभाचन्द्र-प्रसिद्ध गद्यकाव्य कादम्बरीके रचयिता बाणभट्ट, सम्राट हर्षवर्धन (राज्य ६०६ से ६४८ ई.) की सभाके कविरत्न थे । इन्होंने हर्षचरितकी भी रचना की थी। बाण, कादम्बरी और हर्षचरित दोनों ही ग्रन्थोंको पूर्ण नहीं कर सके । इनकी कादम्बरीका आद्यश्लोक “रजोजुषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये" प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० २९८) में उद्धृत है । आ० प्रभाचन्द्रने वेदापौरुषेयत्वप्रकरणमें (प्रमेयक पृ० ३९३) कादम्बरीके कर्तृलके विषयमें सन्देहात्मक उल्लेख किया है-"कादम्बर्यादीनां कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः"अर्थात् कादम्बरी आदिके कर्त्ताके विषयमें विवाद है। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रके समयमें कादम्बरी आदि ग्रन्थोंके कर्ता विवादग्रस्त थे । हम प्रभाचन्द्रका समय आगे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध करेंगे।
माघ और प्रभाचन्द्र-शिशुपालवध काव्यके रचयिता माघ कविका समय ई० ६६०-६७५ के लगभग है। माघकविके पितामह सुप्रभदेव राजा वर्मलातके मन्त्री थे । राजा वर्मलात का उल्लेख ई० ६२५ के एक शिलालेखमें विद्यमान है अतः इनके नाती माध कविका समय ई० ६७५ तक मानना समुचित है। प्रभाचन्द्रने माघकाव्य ( १।२३ ) का “युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो..." लोक प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ६८८) में उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने माघकाव्यको देखा था।
(अवैदिकदर्शन) अश्वघोष और प्राचन्द्र-अश्वबोषका समय ईसाका द्वितीय शतक माना जाता है। इनके बुद्धचरित और सौन्दरनन्द दो महाकाव्य प्रसिद्ध हैं ।
१ देखो संस्कृत साहित्यका इतिहास पृ० १४३ ।
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. प्रस्तावना
सौन्दरनन्दमें अश्वघोषने प्रसङ्गतः बौद्धदर्शनके कुछ पदार्थोंका भी सारगर्भ विवे. चन किया है। आ० प्रभाचन्द्रने शून्यनिर्वाणवादका खंडन करते समय पूर्वघक्षमें (प्रमेयक० पृ० ६८७) सौन्दरनन्दकाव्यसे निम्नलिखित दो श्लोक उद्धृत किए हैं. . "दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् ।
दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥"
[सौन्दरनन्द १६।२८,२९] . . नागार्जुन और प्रभाचन्द्र-नागार्जुन की माध्यमिककारिका और विग्रहव्यावर्तिनी दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । ये ईसाकी तीसरी शताब्दीके विद्वान् हैं । इन्हें शून्यवादके प्रस्थापक होनेका श्रेय प्राप्त है। माध्यमिककारिकामें इन्होंने विस्तृत परीक्षाएँ लिखकर शून्यवादको दार्शनिक रूप दिया है । विग्रहव्यावर्तिनी भी इसी तरह शून्यवादका समर्थन करनेवाला छोटा प्रकरण है। प्रभाचन्द्रने न्याय कुमुदचन्द्र (पृ. १३२). में माध्यमिकके शून्यवादका खंडन करते समय पूर्वपक्षमें प्रमाणवार्तिककी कारिकाओंके साथ ही साथ माध्यमिककारिकासे भी न स्वतो नापि परतः' और 'यथा मया यथा स्वप्नो ...' ये दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं। . .
वसुवन्धु और प्रभाचन्द्र-वसुबन्धुका अभिधर्मकोश ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इनका समय ई० ४०० के करीब माना जाता है । अभिधर्मकोश बहुत अंशोंमें बौद्धदर्शनके सूत्रग्रन्थका कार्य करता है । प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ३९० ) में वैभाषिक सम्मत द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पादका खंडन करते समय प्रतीत्यसमुत्पादका पूर्वपक्ष वसुबन्धुके अभिधर्मकोशके आधारसे ही लिखा है। उसमें यथावसर अभिधर्मकोशसे २।३ कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं। देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९५।
दिङनाग और प्रभाचन्द्र-आ० दिग्नागका स्थान बौद्धदर्शनके विशिष्ट संस्थापकोंमें है। इनके न्यायप्रवेश, और प्रमाणसमुच्चय प्रकरण मुद्रित हैं। इनका समय ई० ४२५ के आसपास माना जाता है। प्रमाणसमुच्चयमें प्रत्यक्षका कल्पनापोढ लक्षण किया है। इसमें अभ्रान्तपद धर्मकीर्तिने जोड़ा है .। इन्हीके प्रमाणसमुच्चय पर धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक रचा है। भिक्षु राहुलजीने दिमाग के आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, और हेतुचक्रडमरु आदि ग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ०.८०) में स्तुतश्च अद्वैतादिप्रकरणानामादौ दिग्नागादिभिः सद्भिः' लिखकर प्रमाणसमुच्चयका : १ वादन्याय परिशिष्ट पृ० VI..
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
"प्रमाणभूताय' इत्यादि मंगलश्लोकांश उद्धृत किया है। इसी तरह अपोहवादके पूर्वपक्ष (प्रमेयक० पृ० ४३६ ) में दिनागके नामसे निम्नलिखित गद्यांश भी उद्धृत किया है-"दिग्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम् 'नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहुः' इत्युक्तम् ।”
धर्मकीर्ति और प्रभाचन्द्र-बौद्धदर्शनके युगप्रधान आचार्य धर्मकीर्ति इसाकी ७ वीं शताब्दीमें नालन्दाके बौद्धविद्यापीठके आचार्य थे। इनकी लेख. नीने भारतीय दर्शनशास्त्रोंमें एक युगान्तर उपस्थित कर दिया था । धर्मकीर्तिने वैदिकसंस्कृति पर दृढ़ प्रहार किए हैं । यद्यपि इनका उद्धार करनेके लिए व्योमशिव, जयन्त, वाचस्पतिमिश्र, उदयन आदि आचार्योंने कुछ उठा नहीं रखा । पर बौद्धोंके खंडनमें जितनी कुशलता तथा सतर्कतासे जैनाचार्योंने लक्ष्य दिया है उतना अन्यने नहीं । यही कारण है कि अकलङ्क, हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि आदिके जैनन्यायशास्त्रके ग्रन्थोंका बहुभाग बौद्धोंके खंडनने ही रोक रखा है। धर्मकीर्तिके समयके विषयों में विशेष ऊहापोह “अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावना (पृ० १८) में कर आया हूँ। इनके प्रमाणवार्तिक, हेतुबिन्दु, न्यायबिन्दु, सन्तानान्तरसिद्धि, वादन्याय, सम्बन्धपरीक्षा आदि ग्रन्थोंका प्रभाचन्द्रको गहरा अभ्यास था। इन ग्रन्थों की अनेकों कारिकाएँ, खासकर प्रमाणवार्तिक की कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों में उद्धृत हैं। मालूम होता है कि सम्बन्धपरीक्षाकी अथ से इति तक २३ कारिकाएँ प्रमेयकमलमार्तण्डके सम्बन्धवादके पूर्वपक्ष में ज्यों की त्यों रखी गई हैं, और खण्डित हुई हैं । विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में इसकी कुछ कारिकाएँ ही उद्धृत हैं। वादन्यायका "हसति हसति स्वामिनि" आदि श्लोक प्रमेयकमलमार्तण्डमें उद्धृत है। संवेदनाद्वैतके पूर्वपक्षमें धर्मकीर्तिके 'सहोपलम्भनियमात्' आदि हेतुओंका निर्देश कर बहुविध विकल्पजालोंसे' खण्डन किया गया है। वादन्यायकी “असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः" कारिकाका और इसके विविध व्याख्यानोंका सयुक्तिक उत्तर प्रमेयकमलमार्तण्डमें दिया गया है। इन सब ग्रन्थोंके अवतरण और उनसे की गई तुलना न्यायकुमुदचन्द्रके टिप्पणोंमें देखनी चाहिए।
प्रज्ञाकरगुप्त और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके व्याख्याकारों में प्रज्ञाकरगुप्तका अपना खास स्थान है। उन्होंने प्रमाणवार्तिक पर प्रमाणचार्तिकालकार नामकी विस्तृत व्याख्या लिखी है इनका समय भी ईसाकी ७ वीं शताब्दीका अन्तिम भाग और आठवींका प्रारम्भिक भाग है। इनकी प्रमाणवार्तिकालङ्कार टीका वार्तिकालङ्कार और अलङ्कारके नामसे भी प्रख्यात रही है। इन्हींके वार्तिकालङ्कारसे भावना विधि नियोगकी विस्तृत चर्चा विद्यानन्दके ग्रन्थों द्वारा प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रमें अवतीर्ण हुई है। इतना विशेष है कि-विद्यानन्द और प्रभाचन्द्रने प्रज्ञाकरगुप्तकृत भावना विधि आदिके खंडनका मी स्थान स्थान पर विशेष समालोचन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ३८०) में प्रज्ञाकरके
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प्रस्तावना
भाविकारणवाद और भूतकारणवादका उल्लेख प्रज्ञाकरका नाम देकर किया गया है। प्रज्ञाकरगुप्तने अपने इस मतका प्रतिपादन प्रमाणवार्तिकालङ्कार में किया है। भिक्षु राहुलसांकृत्यायनके पास इसकी हस्तलिखित कापी है । प्रभाचन्द्रने धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिककी तरह उनके शिष्य प्रज्ञाकरके वार्तिकालङ्कारका भी आलोचन किया है।
प्रभाचन्द्रने जो ब्राह्मणवजातिका खण्डन लिखा है, उसमें शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहके साथ ही साथ प्रज्ञाकरगुप्त के वार्तिकालङ्कारका भी प्रभाव मालूम होता है। ये बौद्धाचार्य अपनी संस्कृति के अनुसार सदैव जातिवाद पर खड् गहस्त रहते थे। धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकके निम्नलिखित श्लोकमें जातिवादके मदको जडताका चिह्न बताया है
“वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तृवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः।
सन्तापारम्भः पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्च लिङ्गानि जाये ॥" उत्तराध्ययनसूत्र में 'कम्मुणा बम्हणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ' लिखकर कर्मणा जातिका स्पष्ट समर्थन किया गया है।
दि. जैनाचार्यों में वराङ्गचरित्रके कर्ता जटासिंहनन्दिने बराङ्गास्तिक २५ ३ अध्यायमें ब्राह्मणत्वजातिका निरास किया है। और भी रविषेण, अमितगति आदिने जातिवादके खिलाफ थोड़ा बहुत लिखा है पर तर्कग्रन्थोंमें सर्वप्रथम हम प्रभाचन्द्र के ही ग्रन्थोंमें जन्मना जातिका सयुक्तिक खण्डन यथेष्ट विस्तारके साथ पाते हैं।
कर्णकगोमि और प्रभाचन्द्र-प्रमाणवार्तिकके तृतीयपरिच्छेद पर धर्मकीर्तिकी खोपज्ञवृत्ति भी उपलब्ध है। इस वृत्तिपर कर्णकगोमिकी विस्तृत टीका है। इस टीकामें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कारका 'अलङ्कार' शब्दसे उल्लेख है। इसमें मण्डनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिका 'आहुर्विधातृ' श्लोक उद्धृत है। अतः इनका समय ई० ८ वीं सदीका पूर्वार्ध संभव है । न्यायकुमुदचन्द्रके शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, स्फोटवाद आदि प्रकरणों पर कर्णकगोमिकी खवृत्तिटीका अपना पूरा असर रखती है । इसके अवतरण इन प्रकरणोंके टिप्पणोंमें देखना चाहिये।
शान्तरक्षित, कमलशील और प्रभाचन्द्र-तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षित तथा तत्त्वसंग्रहपञ्जिकाके रचयिता कमलशील नालन्दाविश्वविद्यालयके आचार्य थे । शान्तरक्षितका समय ई० ७०५ से ७६२ तथा कमलशीलका समय ई० ७१३ से ७६३ है। शान्तरक्षितकी अपेक्षा कमलशीलकी प्रावाहिक प्रसाद
१ इसके अवतरण अकलंक ग्रन्थत्रयकी प्रस्तावना पृ. २७ में देखना चाहिए। . २ इन आचार्योंके ग्रन्थोंके अवतरणके लिए देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ०७७८ टि० ९ ॥ ३ देखो तत्त्वसंग्रहकी प्रस्तावना पृ० Xovi
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
गुणमयी भाषाने प्रभाचन्द्रको अत्यधिक आकृष्ट किया है। यों तो प्रभाचन्द्रके प्रायः प्रत्येक प्रकरणपर कमलशीलकी पञ्जिका अपना उन्मुक्त प्रभाव रखती है पर इसके लिए षट्पदार्थपरीक्षा, शब्दब्रह्मपरीक्षा, ईश्वरपरीक्षा, प्रकृतिपरीक्षा, शब्दनित्यत्वपरीक्षा आदि परीक्षाएँ खास तौरसे द्रष्टव्य हैं । तत्त्वसंग्रहकी सर्वज्ञपरीक्षामें कुमारिलकी पचासों कारिकाएँ उद्धृत कर पूर्वपक्ष किया गया है। इनमेंसे अनेकों कारिकाएँ ऐसी हैं जो कुमारिलके श्लोकवार्तिकमें नहीं पाइ जातीं । कुछ ऐसी ही कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें भी उद्धृत हैं । संभव है कि ये कारिकाएँ कुमारिलके ग्रन्थसे न लेकर तत्त्वसंग्रहसे ही ली गई हों। तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थों में तत्त्वसंग्रह और उसकी पञ्जिका अग्रस्थान पानेके योग्य है।
अर्चट और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दु पर अर्चटकृत टीका उपलब्ध है। इसका उल्लेख अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनेकों स्थलों में किया है । 'हेतुलक्षणसिद्धि' में तो धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दुके साथही साथ अर्चटकृत विवरणका भी खण्डन है । अर्चटका समय भी करीब ईसाकी ९ वीं शताब्दी होना चाहिये । अर्चटने अपने हेतुबिन्दुविवरणमें सहकारिल दो प्रकारका बताया है -१ एकार्थकारिख, २ परस्परातिशयाधायकत्व । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. १०) में कारकसाकल्यवादकी समीक्षा करते समय सहकारिखके यही दो विकल्प किये हैं। • धर्मोत्तर और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दु पर आ० धर्मोत्तरने टीका रची है। भिक्षु राहुलजी द्वारा लिखित टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार इनका समय ई० ७२५ के आसपास है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० २) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २०) में सम्बन्ध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनरूप अनुबन्धत्रयकी चर्चा में, जो उन्मत्तवाक्य, काकदन्तपरीक्षा, मातृविवाहोपदेश तथा सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशके उदाहरण दिए हैं वे धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीका (पृ० २) के प्रभावसे अछूते नहीं हैं । इनकी शब्दरचना करीब करीब एक जैसी है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २६) में प्रत्यक्ष शब्दकी व्याख्या करते समय अक्षाश्रितत्वको प्रत्यक्षशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त बताया है और अक्षाश्रितलोपलक्षित अर्थसाक्षात्कारित को प्रवृत्तिनिमित्त । ये प्रकार भी न्यायविन्दुटीका (पृ. ११) से अक्षरशः मिलते हैं।
.ज्ञानश्री और प्रभाचन्द्र-ज्ञानश्रीने क्षणभंगाध्याय आदि अनेक प्रकरण लिखे हैं । उदयनाचार्य ने अपने आत्मतत्त्वविवेकमें ज्ञानश्वीके क्षणभंगाध्यायका नामोल्लेखपूर्वक आनुपूर्वी से खंडन किया है। उदयनाचार्यने अपनी लक्षणावली तर्काम्बरांक (९०६) शक, ई. ९८४ में समाप्त की थी । अतः ज्ञानश्रीका
१ देखो वादन्यायका परिशिष्ट ।
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प्रस्तावना .
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समय ई० ९८४ से पहिले तो होना ही चाहिए। भिक्षु राहुल सांकृत्यायनजीके नोट्स देखनेसे ज्ञात हुआ है कि-ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्याय या अपोहसिद्धि(?)के प्रारम्भमें यह कारिका है
“अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते ।” विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें भी यह कारिका उद्धृत है । आ० प्रभाचन्द्रने भी अपोहवाद के पूर्वपक्षमें "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां" कारिका उद्धृत की है । वाचस्पतिमिश्र (ई० ८४१ ) के ग्रन्थों में ज्ञानश्रीकी समालोचना नहीं हैं पर उदयनाचार्य (ई० ९८४) के ग्रन्थोंमें है, इसलिए भी ज्ञानश्रीका समय ईसाकी १० वीं शताब्दीके बाद तो नहीं जा सकता ।
जयसिंहराशिभट्ट और प्रभाचन्द्र-भट्ट श्री जयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ गायकवाड सीरीजमें प्रकाशित हुआ है । इनका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दी है । तत्त्वोपप्लवग्रन्थ में प्रमाण प्रमेय आदि सभी तत्त्वोंका बहुविध विकल्पजालसे खंडन किया गया है । आ० विद्यानन्दके ग्रन्थों में सर्वप्रथम तत्त्वोपप्लववादीका पूर्वपक्ष देखा जाता है । प्रभाचन्द्रने संशयज्ञानका पूर्वपक्ष तथा बाधकज्ञानका पूर्वपक्ष तत्त्वोपप्लव ग्रन्थसे ही किया है और उसका उतने ही विकल्पों द्वारा खंडन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ६४८) में 'तत्त्वोपप्लववादि' का दृष्टान्त भी दिया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ३३९) में भी तत्त्वोपप्लववादिका दृष्टान्त पाया जाता है । तात्पर्य यह कि परमतके खंडनमें क्वचित् तत्त्वोपप्लववादिकृत विकल्पोंका उपयोग कर लेने पर भी प्रभाचन्द्रने स्थान स्थान पर तत्त्वोपप्लववादिके विकल्पोंकी भी समीक्षा की है। · कुन्दकुन्द और प्रभाचन्द्र-दिगम्बर आचार्यों में आ० कुन्दकुन्दका विशिष्ट स्थान है। इनके सारत्रय-प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसमयसार और समयसार-के सिवाय बारसअणुवेक्खा अष्टपाहुड आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्रो० ए. एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें इनका समय ईसाकी प्रथमशताब्दी सिद्ध किया है । कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुड (गा० ३७) में केवलीको आहार और निहारसे रहित बताकर कवलाहारका निषेध किया है । सूत्रप्रामृत (गा० २३३६) में स्त्रीको प्रव्रज्याका निषेध करके स्त्रीमुक्तिका निरास किया है । कुन्दकुन्दके इस मूलमार्गका दार्शनिकरूप हम प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों में केवलिकवलाहारवाद तथा स्त्रीमुक्तिवादके रूपमें पाते हैं । यद्यपि शाकटायनने अपने केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणों में दिगम्बरोंकी मान्यताका विस्तृत खंडन किया है। जिससे ज्ञात होता है कि शाकटायनके सामने दिगम्बराचार्योका उक्त सिद्धान्तद्वयका समर्थक विकसित साहित्य रहा है। पर आज हमारे सामने प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ ही इन दोनों मान्यताओं के समर्थकरूपमें समुपस्थित हैं । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रवचनसारकी 'ज़ियदु य मरदु य' गाथा, भावपाहुडकी 'एगो मे संस्सदो'
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
गाथा, तथा प्रा० सिद्धभक्तिकी 'पुंवेदं वेदन्ता' गाथा उद्धृत की है । प्राकृत दशभक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हैं।
समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र-आद्यस्तुतिकार खामि समन्तभद्राचार्य के बृहत्वयम्भूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना जाता है। किन्हीं विद्वानोंका विचार है कि इनका समय विक्रमकी पांचवीं या छठवीं शताब्दी होना चाहिए। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें बृहत्वयम्भूस्तोत्रसे "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः""मानुपी प्रकृतिमभ्यतीतवान्" "तदेव च स्यान्न तदेव" इत्यादि श्लोक उद्धृत किए हैं। आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए यह श्लोक लिखा है कि
"श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं खामिमीमांसितं तत्
विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै ॥ १२३ ॥" अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रसे दीप्तरत्नोके उद्भवके प्रोत्थानारम्भकाल-प्रारम्भिक समयमें, शास्त्रकारने, पापोंका नाश करनेके लिए, मोक्षके पथको बतानेवाला, तीर्थस्वरूप जो स्तवन किया था और जिस स्तवनकी खामीने मीमांसा की है, उसीका विद्यानन्दने अपनी खल्पशक्तिके अनुसार सत्यवाक्य और सत्यार्थकी सिद्धिके लिए विवेचन किया है । अथवा, जो दीप्तरत्नों के उद्भव-उत्पत्ति का स्थान है. उस अद्भुत सलिलनिधि के समान तत्त्वार्थशास्त्र के प्रोत्थानारम्भकाल-उत्पत्तिका निमित्त बताते समय या प्रोत्थान-उत्थानिका भूमिका बांधने के प्रारम्भिक समय में शास्त्रकारने जो मंगलस्तोत्र रचा और जिस स्तोत्र में वर्णित आप्तकी खामीने मीमांसा की उसीकी मैं ( विद्यानन्द) परीक्षा कर रहा हूं। . वे इस श्लोकमें स्पष्ट सूचित करते हैं कि खामी समन्तभद्रने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलश्लोकमें वर्णित जिस आप्तकी मीमांसा की है उसी आप्तकी मैंने परीक्षा की है। वह मंगलस्तोत्र तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रसे दीप्त रत्नोंके उद्भवके प्रारम्भिक समयमें या तत्त्वार्थशास्त्र की उत्पत्तिका निमित्त बताते समय शास्त्रकारने बनाया था। यह तत्त्वार्थशास्त्र यदि तत्त्वार्थसूत्र है तो उसका मथन करके रत्नोंके निकालनेवाले या उसकी उत्थानिका बांधनेवाले-उसकी उत्पत्ति का निमित्त बतानेवाले आचार्य पूज्यपाद हैं । यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोक खयं सूत्रकारका तो नहीं मालूम होता; क्योंकि पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव
और विद्यानन्दने सवर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकमें इसका व्याख्यान नहीं किया है। यदि विद्यानन्द इसे सूत्रकारकृत ही मानते होते तो वे अवश्य
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ही श्लोकवार्तिकमें उसका व्याख्यान करते । परन्तु यही विद्यानन्द आप्तपरीक्षा (पृ० ३) के प्रारम्भमें इसी श्लोकको सूत्रकारकृत भी लिखते हैं । यथा__"किं पुनस्तत्परमेष्टिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते-मोक्षमार्गस्य नेतारं...' इस पंक्तिमें यही श्लोक सूत्रकारकृत कहा गया है। किन्तु विद्यानन्दकी शैलीका ध्यानसे' समीक्षण करने पर यह स्पष्टरूपसे विदित हो जाता है कि वे अपने ग्रन्थों में किसी भी पूर्वाचार्यको सूत्रकार और किसी भी पूर्वग्रन्थको सूत्र लिखते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. १८४ ) में वे अकलङ्कदेवका सूत्रकार शब्दसे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख करते हैं-"तेन इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणम्' इत्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति । ततः, प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥ ४ ॥ सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलङ्कावबोधने" इस अवतरणमें 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' वाक्य राजवार्तिक (पृ० ३८ ) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' श्लोक न्यायविनिश्चय (श्लो० ३) का है। अतः मात्र सूत्रकारके नामसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारं" श्लोकको उद्धृत करने के कारण हम 'विद्यानन्दका झुकाव इसे मूल सूत्रकारकृत माननेकी ओर है' यह नहीं समझ सकते । अन्यथा वे इसका व्याख्यान श्लोकवार्तिकमें अवश्य करते । अतः इस पंक्तिमें । सूत्रकार शब्दसे भी इद्धरत्नोंके उद्भवकर्ता या तत्त्वार्थशास्त्र की भूमिका वाँधनेवाले आचार्यका ही ग्रहण करना चाहिए। आप्तपरीक्षा के
"इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा।
प्रणीताप्तपरीक्षेयं कुविवादनिवृत्तये ॥" इस अनुष्टुप् श्लोक में तत्त्वार्थशास्त्रादौ पद 'प्रोत्थानारम्भकाले' पद के अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है। ३२ अक्षरवाले इस संक्षिप्त श्लोक में इससे अधिक की गुंजाइश ही नहीं है । 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोक वस्तुतः सर्वार्थसिद्धिका ही मंगलश्लोक है। यदि पूज्यपाद स्वयं भी इसे सूत्रकारकृत मानते होते तो उनके द्वारा उसका व्याख्यान सर्वार्थसिद्धि में अवश्य किया जाता । और जब समन्तभद्रने इसी श्लोकके ऊपर अपनी आप्तमीमांसा वनाई है, जैसा कि विद्यानन्दका उल्लेख है, तो समन्तभद्र कमसे कम पूज्यपादके समकालीन तो सिद्ध होते ही हैं। पं० सुखलालजी का यह तर्क कि-"यदि समन्तभद्र पूज्यपादके प्राकालीन होते तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्य की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख १ आ० विद्यानन्द अष्टसहस्री के मंगलश्लोक में भी लिखते हैं कि
"शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलकियते मयाऽस्य ।" अर्थात्-शास्त्र तत्त्वार्थशास्त्रके अवतार-अवतरणिका-भूमिका के समय रची गई स्तुति में वर्णित आप्त की मीमांसा करनेवाले आप्तमीमांसा नामक ग्रंथका व्याख्यान किया जाता है। यहाँ 'शास्त्रावताररचितस्तुति' पद आप्तपरीक्षा के 'प्रोत्थानारंम्भकाल' पद का समानार्थक है।
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किए बिना नहीं रहते" हृदयको लगता है । यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाणों से किसी आचार्यके समयका खतन्त्र भावसे साधन बाधन नहीं होता फिर भी विचार की एक स्पष्ट कोटि तो उपस्थित हो ही जाती है। और जब विद्यानन्द के उल्लेखों के प्रकाश में इसका विचार करते हैं तब यह पर्याप्त पुष्ट मालूम होता है । समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके चौथे परिच्छेदमें वर्णित “विरूपकार्यारम्भाय” आदि कारिकाओंके पूर्वपक्षों की समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि समन्तभद्रके सामने संभवतः दिग्नागके ग्रन्थ भी रहे हैं । बौद्धदर्शन की इतनी स्पष्ट विचारधाराकी सम्भावना दिग्नागसे पहिले नहीं की जा सकती।
हेतुबिन्दुके अर्चटकृत विवरणमें समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः" कारिकाके खंडन करनेवाले ३०-३५ श्लोक उद्धृत किए गए हैं । ये श्लोक दुकमिश्र की हेतुबिन्दुटीकानुटीका के लेखानुसार स्वयं अर्चटने ही बनाए हैं। अर्चटका समय ९ वीं सदी है। कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकमें समन्तभद्रकी “घटमौलिसुवर्णार्थी' कारिकासे समानता रखनेवाले निम्न श्लोक पाये जाते हैं
"वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ॥ स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता "
[ मी० श्लो० पृ० ६१९] . कुमारिलका समय ईसाकी ७ वीं सदी है । अतः समन्तभद्रकी उत्तरावधि सातवीं सदी मानी जा सकती है। पूर्वावधिका नियामक प्रमाण दिग्नागका समय होना चाहिए। इस तरह समन्तभद्रका समय इसाकी ५ वीं और सातवीं शताब्दीका मध्यभाग अधिक संभव है। यदि विद्यानन्दके उल्लेखमें ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो समन्तभद्रकी स्थिति पूज्यपादके बाद या समसमय में होनी चाहिए। . पूज्यपाद के जैनेन्द्रव्याकरण के अभयनन्दिसम्मत प्राचीनसूत्रपाठ में “चतुप्टयं समन्तभद्रस्य” सूत्र पाया जाता है । इस सूत्र में यदि इन्हीं समन्तभद्र का निर्देश है तो इसका निर्वाह समन्तभद्रको पूज्यपाद का समकालीनवृद्ध मानकर भी किया जा सकता है। - पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र-आ. देवनन्दिका अपर नाम पूज्यपाद था । ये विक्रम की पांचवी और छठी सदीके ख्यात आचार्य थे। आ० प्रभाचन्द्रने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि पर. तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण नामकी लघुवृत्ति लिखी है। इसके सिवाय इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण पर शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास . १ देखो अनेकान्त वर्ष १ पृ० १९७१ प्रेमी जी सूचित करते हैं कि इसकी प्रति बंबईके ऐलक पन्नालालसरस्वती भवनमें मौजूद है।
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लिखा है। पूज्यपादकी संस्कृत सिद्धभक्तिसे 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः' पद भी न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें जहां कहीं भी व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण देनेकी आवश्यकता हुई है वहां प्रायः जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठसेही सूत्र उद्धृत किए गए हैं।
धनञ्जय और प्रभाचन्द्र-'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकद्वयने धनञ्जयका समय ई० १२ वें शतकका मध्य निर्धारित किया है (पृ० १७३ )। और अपने इस मतकी पुष्टिके लिए के. बी. पाठक महाशयका यह मत भी उद्धृत किया है कि-"धनञ्जयने द्विसन्धान महाकाव्यकी रचना ई० ११२३ और ११४० के मध्यमें की है।" डॉ० पाठक और उक्त इतिहास के लेखकद्वय अन्य कई जैन कवियोंके समय निर्धारणकी भांति धनञ्जयके समयमें भी भ्रान्ति कर बैठे हैं। क्योंकि विचार करनेसे धनञ्जयका समय ईसाकी ८ वीं सदीका अन्त और नवींका प्रारम्भिक भाग सिद्ध होता है
१ जल्हण (ई. द्वादशशतक) विरचित सूक्तिमुक्तावलीमें राजशेखरके नामसे धनञ्जयकी प्रशंसामें निम्न लिखित पद्य उद्धृत है- ....,
"द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः ।।
यया जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः ॥" इस पद्यमें राजशेखरने धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका मनोमुग्धकर सरणिसे निर्देश किया है। संस्कृत साहित्यके इतिहासके लेखकद्वय लिखते हैं कि-"यह राजशेखर प्रबन्धकोशका कर्ता जैन राजशेखर है । यह राजशेखर ई० १३४८ में विद्यमान था।" आश्चर्य है कि १२ वीं शताब्दीके विद्वान् जल्हणके द्वारा विरचित ग्रन्थमें उल्लिखित होने वाले राजशेखरको लेखकद्वय १४ वीं शताब्दीका, जैन राजशेखर बताते हैं ! यह तो मोटी बात है कि १२ वीं शताब्दीके जल्हणने १४ वीं शताब्दीके जैन राजशेखरका उल्लेख न करके १० वीं शताब्दीके प्रसिद्ध काव्यमीमांसाकार राजशेखरका ही उल्लेख किया है । इस उल्लेखसे धनायका समय ९ वीं शताब्दीके अन्तिम भागके बाद तो किसी भी तरह नहीं जाता । ई० ९६० में विरचित सोमदेवके यशस्तिलकचम्पूमें राजशेखरका उल्लेख होनेसे इनका समय करीब ई० ९१० ठहरता है। . • २ वादिराजसूरि अपने पार्श्वनाथचरित (पृ. ४) में घनायकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं- . . . . “अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः। ।
बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥" ...: ...इस श्लिष्ट श्लोकमें अनेकमेदसन्धानाः'. पदसे धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्य' का उल्लेख बड़ी कुशलतासे किया गया है। वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित ९४७. शक
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(ई. १०२५) में समाप्त किया था । अतः धनञ्जयका समय ई० १०वी शताब्दी के बाद तो किसी भी तरह नहीं जा सकता।
३ आ. वीरसेनने अपनी धवलाटीका ( अमरावतीकी प्रति पृ० ३८७ ) में धनञ्जयकी अनेकार्थनाममालाका निम्न लिखित श्लोक उद्धृत किया है
"हेतावेवं प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये ।
प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ॥" आ० वीरसेनने धवलाटीकाकी समाप्ति शक ७३८ (ई० ८१६) में की थी। श्रीमान् प्रेमीजीने बनारसीविलास की उत्थानिका में लिखा है कि "ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन, हरचरित्र के कर्ता रत्नाकर और जल्हण ने धनञ्जय की स्तुति की है ।" संस्कृत साहित्य के संक्षिप्त इतिहास में आनन्दवर्धन का समय ई० ८४०-७०, एवं रत्नाकर का समय ई० ८५० तक निर्धारित किया है। अतः धनञ्जयका समय ८ वीं शताब्दीका उत्तरभाग और नवीं शताब्दीका पूर्वभाग सुनिश्चित होता है। धनञ्जयने अपनी नाममालाके
"प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥" इस श्लोकमें अकलङ्कदेवका नाम लिया है । अकलङ्कदेव ईसाकी ८ वीं सदीके आचार्य हैं अतः धनञ्जयका समय ८ वीं सदीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सुसंगत है। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ४०२) में धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख किया है । न्यायकुमुदचन्द्रमें इसी स्थल पर द्विसन्धानकी जगह त्रिसन्धान नाम लिया गया है।
रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्याचार्यकी सिद्धिविनिश्चयटीका समुपलब्ध है। ये अकलङ्कके प्रकरणों के तलद्रष्टा, विवेचयिता, व्याख्याता और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्रने इनकी उक्तियोंसे ही दुरवगाह अकलङ्कवाङ्मयका सुष्ठ अभ्यास और विवेचन किया था। प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्यके प्रति अपनी कृतज्ञताका भाव न्यायकुमुदचन्द्रमें एकाधिक बार प्रदर्शित करते हैं। इनकी सिद्धिविनिश्चयटीका अकलंकवाङ्मयके टीकासाहित्यका शिरोरत्न है। उसमें सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करके उनका सविस्तर निरास किया गया है। इस टीकामें धर्मकीर्ति, अर्चट, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकरगुप्त, आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध धर्मकीर्तिसाहित्यके व्याख्याकारोंके मत उनके ग्रन्थोंके लम्बे लम्बे अवतरण देकर उद्धृत किए गए हैं । यह टीका प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों पर अपना विचित्र प्रभाव रखती है । शान्तिसूरिने अपनी जैनतर्कवार्तिकवृत्ति (पृ. ९८) में 'एके अनन्तवीर्यादयः' पदसे संभवतः इन्हीं अनन्तवीर्यके मतका उल्लेख किया है।
१ देखो धवलाटीका प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० ६२ ।
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विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र-आ० विद्यानन्दका जैनतार्किकोंमें अपना विशिष्ट स्थान है। इनकी श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि तार्किककृतियाँ इनके अतुल तलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमुख अध्ययन का पदे पदे अनुभव कराती हैं। इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपना समय आदि नहीं दिया है । आ० प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र दोनों ही प्रमुखग्रन्थों पर विद्यानन्दकी कृतियोंकी सुनिश्चित अमिट छाप है । प्रभाचन्द्रको विद्यानन्दके ग्रन्थोंका अनूठा अभ्यास था। उनकी शब्दरचना भी विद्यानन्दकी शब्दभंगीसे पूरी तरह प्रभावित है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथमपरिच्छेदके अन्तमें
___“विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम्" इस श्लोकांशमें श्लिष्टरूपसे विद्यानन्दका नाम लिया है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें पत्रपरीक्षासे पत्रका लक्षण तथा अन्य एक श्लोक भी उद्धृत किया गया है ! अतः विद्यानन्दके ग्रन्थ प्रभाचन्द्रके लिए उपजीव्य निर्विवादरूपसे सिद्ध हो जाते हैं। __ आ० विद्यानन्द अपने आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थोंमें 'सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै' 'सत्यवाक्याधिपाः' विशेषणसे तत्कालीन राजाका नाम भी प्रकारान्तरसे' सूचित करते हैं। बावू कामताप्रसादजी (जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३ किरण ३ पृ० ८७) लिखते हैं कि-"बहुत संभव है कि उन्होंने गंगवाड़ि प्रदेश में बहुवास किया हो, क्योंकि गंगवाड़ि प्रदेशके राजा राजमल्लने भी गंगवंशमें होनेवाले राजाओंमें सर्वप्रथम 'सत्यवाक्य' उपाधि या अपरनाम धारण किया था । उपर्युक्त श्लोकोंमें यह संभव है कि विद्यानन्दजीने अपने समयके इस राजाके 'सत्यवाक्याधिप' नामको ध्वनित किया हो । युक्त्यनुशासनालंकारमें उपर्युक्त श्लोक प्रशस्ति रूप है और उसमें रचयिता द्वारा अपना नाम और समय सूचित होना ही चाहिए । समयके लिए तत्कालीन राजाका नाम ध्वनित करना पर्याप्त है। राजमल सत्यवाक्य विजयादित्यका लड़का था और वह सन् ८१६ के लगभग राज्याधिकारी हुआ था। उनका समय भी विद्यानन्दके अनुकूल है। युक्त्यनुशासनालङ्कारके अन्तिम श्लोकके "प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः श्रीसत्यवाक्याधिपैः" इस अंशमें सत्यवाक्याधिप और विजय दोनों शब्द हैं, जिनसे गंगराज सत्यवाक्य और उसके पिता विजयादित्यका नाम ध्वनित होता है।" इस अवतरणसे यह सुनिश्चित हो जाता है कि विद्यानन्दने अपनी कृतियाँ राजमल सत्यवाक्य ( ८१६ ई.) के राज्यकालमें बनाई हैं । आ० विद्यानन्दने सर्वप्रथम अपना तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ बनाया है, तदुपरान्त अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदय, इसके अनन्तर अपने आप्तपरीक्षा आदि परीक्षान्तनामवाले लघु प्रकरण तथा युक्त्यनुशासनटीका; क्योंकि अष्टसहस्रीमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका, तथा आप्तपरीक्षा आदिमें अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदयका उल्लेख पाया जाता
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है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीमें, जो उनकी आद्य रचनाएँ हैं, 'सत्यवाक्य' नाम नहीं लिया है, पर आप्तपरीक्षा आदिमें 'सत्यवाक्य' नाम लिया है। अतः मालूम होता है कि विद्यानन्द श्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीको सत्यवाक्यके राज्यसिंहासनासीन होनेके पहिले ही बना चुके होंगे। विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें मंडनमिश्रके मतका खंडन है और अष्टसहस्रीमें सुरेश्वरके सम्बन्धवार्तिकसे ३।४ कारिकाएँ भी उद्धृत की गई हैं। मंडनमिश्र और सुरेश्वरका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दीका पूर्वभाग माना जाता है। अतः विद्यानन्दका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सयुक्तिक मालूम होता है। प्रभाचन्द्रके सामने इनकी समस्त रचनाएँ रही हैं । तत्त्वोपप्लववादका खंडन तो विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें ही विस्तारसे मिलता है, जिसे प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थोंमें स्थान दिया है। इसी तरह अष्टसहस्री और श्लोकवार्तिकमें पाई जानेवाली भावना विधि नियोगके विचारकी दुरवगाह चर्चा प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्र में प्रसन्नरूपसे अवतीर्ण हुई है। आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. २०६) में न्यायदर्शनके 'पूर्ववत्' आदि अनुमानसूत्रका निरास करते समय केवल भाष्यकार और वार्तिककारका ही मत पूर्वपक्ष रूपसे उपस्थित किया है। वे न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकाकारके अभिप्रायको अपने पूर्वपक्षमें शामिल नहीं करते । वाचस्पतिमिश्रने तात्पर्यटीका ई. ८४१ के लगभग बनाई थी। इससे भी विद्यानन्दके उक्त समयकी पुष्टि होती है। यदि विद्यानन्दका ग्रन्थरचनाकाल ई. ८४१ के बाद होता तो वे तात्पर्यटीका उल्लेख किये बिना न रहते। __ अनन्तकीर्ति और प्रभाचन्द्र-लघीयस्यादि संग्रहमें अनन्तकीर्तिकृत लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण मुद्रित हैं । लघीयस्त्रयादिसंग्रहकी प्रस्तावनामें पं० नाथूरामजी प्रेमीने इन अनन्तकीर्तिके समयकी उत्तरावधि विक्रम संवत् १०८२ के.पहिले निर्धारित की है, और इस समयके समर्थनमें वादिराजके पार्श्वनाथचरितका यह श्लोक उद्धृत किया है- .
.. "आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धिं निबध्नता। - अनन्तकीर्तिना मुक्तिरात्रिमार्गेव लक्ष्यते ॥" . वादिराजने पार्श्वनाथचरित की रचना विक्रम संवत् १०८२ में की थी । संभव तो यह है कि इन्हीं अनन्तकीर्तिने जीवसिद्धिकी तरह लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थ वनाये हों । सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनन्तवीर्यने भी एक अनन्तकीर्तिका उल्लेख किया है। यदि पार्श्वनाथ चरितमें स्मृत अनन्तकीर्ति और सिद्धिविनिश्चयटीकामें उल्लिखित अनन्तकीर्ति एक ही व्यक्ति हैं तो मानना होगा कि इनका समय प्रभाचन्द्रके समयसे पहिले है; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने अन्थोंमें सिद्धिविनिश्चयटीकाकार अनन्तवीर्यका सबहुमान स्मरण किया है । अस्तु । अनन्तकीर्तिके लघुसर्वज्ञसिद्धि तथा बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थोंका और प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रके सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणों का आभ्यन्तर
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परीक्षण यह स्पष्ट बताता है कि इन ग्रन्थोंमें एकका दूसरेके ऊपर पूरा पूरा प्रभाव है।
बृहत्सर्वज्ञसिद्धि-(पृ० १८१ से २०४ तक ) के अन्तिम पृष्ठ तो कुछ थोड़ेसे हेरफेरसे न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ८३८ से ८४७ ) के मुक्तिवाद प्रकरणके साथ अपूर्व सादृश्य रखते हैं। इन्हें पढ़कर कोई भी साधारण व्यक्ति कह सकता है कि इन दोनोंमेंसे किसी एकने दूसरेका पुस्तक सामने रखकर अनुसरण किया है। मेरा तो यह विश्वास है कि अनन्तकीर्तिकृत बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका ही न्यायकुमुदचन्द्र पर प्रभाव है। उदाहरणार्थ
"किन्तु अज्ञो जनः दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहितविवेकज्ञस्तु तादालिकसुखसाधनं ख्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहात् आत्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । यथा पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः तादालिकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु तत्परित्यज्य पेयादौ आरोग्यसाधने प्रवर्तते । उक्तञ्च-तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ॥”-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८४२ ।
“किन्वतज्ज्ञो जनो दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् संसारान्तःपतितेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहितविवेकज्ञस्तु तादाबिकसुखसाधनं ज्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहादात्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । यथा पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः तादालिकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु आतुरस्तादालिकसुखसाधनं दध्यादिकं परित्यज्य पेयादावारोग्यसाधने प्रवर्तते । तथा च कस्यचिद्विदुषः सुभाषितम्तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ॥"बृहत्सर्वज्ञसिद्धि पृ० १८१ ।
इस तरह यह समूचा ही प्रकरण इसी प्रकारके शब्दानुसरणसे ओतप्रोत है।
शाकटायन और प्रभाचन्द्र-राष्ट्रकूटवंशीय राजा अमोघवर्षके राज्यकाल (ईस्वी ८१४-८७७) में शाकटायन नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हो गए हैं । ये योपनीय संघके आचार्य थे । यापनीयसंघका बाह्य आचार बहुत कुछ दिगम्बरोंसे मिलता जुलता था। ये नग्न रहते थे। श्वेताम्बर आगमोंको आदरकी दृष्टिसे देखते थे। आ० शाकटायनने अमोघवर्षके नामसे अपने शाकटायनव्याकरण पर 'अमोघवृत्ति' नामकी टीका बनाई थी। अतः इनका समय भी लगभग ई०
. १ देखो-पं० नाथूरामप्रेमीका 'यापनीय साहित्यकी खोज' (अनेकान्त वर्ष ३ किरण १.) तथा प्रो० ए० एन० उपाध्यायका 'यापनीयसंघ' (जैनदर्शन वर्ष ४ अंक ७)
लेख।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड ८०० से ८७५ तकं समझना चाहिए । यापनीयसंघके अनुयायी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी कुछ कुछ बातोंको स्वीकार करते थे। एक तरहसे यह संघ दोनों सम्प्रदायोंके जोड़नेके लिए शृंखलाका कार्य करता था। आचार्य मलयगिरिने अपनी नन्दीसूत्रकी टीका (पृ० १५) में शाकटायनको ‘यापनीययतिग्रामाग्रणी' लिखा है-“शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ” । शाकटायन आचार्यने अपनी अमोघवृत्तिमें छेदसूत्र नियुक्ति कालिकसूत्र आदि श्वे० ग्रन्थोंका बड़े आदरसे उल्लेख किया है। आचार्य शाकटायनने केवलिकवलाहार तथा स्त्रीमुक्तिके समर्थनके लिए स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामके दो प्रकरण बनाए हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके परस्पर बिलगावमें ये दोनों सिद्धान्त ही मुख्य माने जाते हैं । यों तो दिगम्बर ग्रन्थों में कुन्दकुन्दाचार्य पूज्यपाद आदिके ग्रन्थोंमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका सूत्ररूपसे निरसन किया गया है, परन्तु इन्हीं विषयोंके पूर्वोत्तरपक्ष स्थापित करके शास्त्रार्थका रूप आ० प्रभाचन्द्रने ही अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिया है । श्वेताम्बरोंके तर्कसाहित्यमें हम सर्वप्रथम हरिभद्रसूरिकी ललितविस्तरामें स्त्रीमुक्तिका संक्षिप्त समर्थन देखते हैं, परन्तु इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप सन्मतिटीकाकार अभयदेव, उत्तराध्ययन पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरि, तथा स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरिने ही दिया है। पीछे तो यशोविजय उपाध्याय, तथा मेघवि. जयगणि आदिने पर्याप्त साम्प्रदायिक रूपसे' इनका विस्तार किया है । इन विवादग्रस्त विषयोंपर लिखे गए उभयपक्षीय साहित्यका ऐतिहासिक तथा तात्त्विकदृष्टिसे सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति विषयोंके समर्थनका प्रारम्भ श्वेताम्बर आचार्योंकी अपेक्षा यापनीयसंघ. वालोंने ही पहिले तथा दिलचस्पी के साथ किया है। इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप देनेवाले प्रभाचन्द्र, अभयदेव, तथा शान्तिसूरि करीब करीब समकालीन तथा समदेशीय थे। परन्तु इन आचार्योंने अपने पक्षके समर्थनमें एक दूसरेका उल्लेख या एक दूसरेकी दलीलोंका साक्षात् खंडन नहीं किया। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका जो विस्तृत पूर्वपक्ष लिखा गया है वह किसी श्वेताम्बर आचार्यके ग्रन्थका न होकर यापनीयाग्रणी शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंसे ही लिया गया है। इन ग्रन्थोंके उत्तरपक्षमें शाकटायनके उक्त दोनों प्रकरणोंकी एक एक दलीलका शब्दशः पूर्वपक्ष करके सयुक्तिक निरास किया गया है । इसी तरह अभयदेवकी सन्मतितर्कटीका,
और शान्तिसूरिकी उत्तराध्ययन पाइयटीका और जैनतर्कवार्तिकमें शाकटायनके इन्हीं प्रकरणोंके आधारसे ही उक्त बातोंका समर्थन किया गया है । हाँ, वादिदेवसूरिके रत्नाकरमें इन मतभेदोंमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सामने सामने आते हैं । रत्नाकरमें प्रभाचन्द्रकी दलीलें पूर्वपक्ष रूपमें पाई जाती हैं । तात्पर्य यह कि-प्रभाचन्द्रने स्त्रीमुक्तिवाद तथा केवलिकवलाहारवादमें श्वेताम्बर आचा
१ ये प्रकरण जैनसाहित्यसंशोधक खंड २ अंक ३-४ में मुद्रित हुए हैं ।
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प्रस्तावना
यॊकी वजाय शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंको ही अपने खंडनका प्रधान लक्ष्य . बनाया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ८६९) के पूर्वपक्षमें शाकटायनके स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी यह कारिका भी प्रमाण रूपसे' उद्धृत की गई है
"गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वा विख्याताः शीलवत्तया जगति । सीतादयः कथं तास्तपसि विशीला विसत्त्वाश्च ॥" [स्त्रीमु० श्लो० ३१] अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र-जैनेन्द्रव्याकरणपर आ० अभयनन्दिकृत महावृत्ति उपलब्ध है। इसी महावृत्तिके आधारसे प्रभाचन्द्रने 'शब्दाम्भोजभास्कर' नामका जैनेन्द्रव्याकरणका महान्यास बनाया है। पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' नामक लेखमें जैनेन्द्रव्याकरणके प्रचलित दो सूत्र पाठोंमेंसे अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन और पूज्यपादकृत सिद्ध किया है । इसी पुरातनसूत्रपाठ पर प्रभाचन्द्रने अपना न्यास बनाया है। प्रेमीजीने अपने उक्त गवेषणापूर्ण लेखमें महावृत्तिकार अभयनन्दिको चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका गुरु बताया है और उनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका पूर्वभाग निर्धारित किया है। आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीके गुरु भी यही अभयनन्दि थे। गोम्मटसार कर्मकाण्ड (गा० ४३६) की निम्नलिखित गाथासे भी यही बात पुष्ट होती है___. “जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो।
वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥" इस गाथासे तथा कर्मकाण्डकी गाथा नं० ७८४, ८९६ तथा लब्धिसार गा० ६४८ से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयनन्दि ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु थे । आ० नेमिचन्द्रने तो वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि तकका गुरुरूपसे स्मरण किया है। इन सब उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अभयनन्दि, उनके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, तथा इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि सभी प्रायः नेमिचन्द्रके समकालीन वृद्ध थे। ___ वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शकसंवत् ९४७, ई० १०२५ में पूर्ण हुआ था । अतः वीरनन्दिकी उत्तरावधि ई० १०२५ तो सुनिश्चित है । नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार ग्रन्थ चामुण्डरायके सम्बोधनार्थ बनाया था। चामुण्डराय गंगवंशीय महाराज मारसिंह द्वितीय ( ९७५ ई. ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे । चामुण्डरायने श्रवणवेल्गुलस्थ बाहुवलि गोम्मटेश्वरकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा ई. ९८१ में कराई थी, तथा अपना चामुण्डपुराण
१ इसका परिचय 'प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ' शीर्षक स्तम्भमें देखना चाहिए। २ जैन साहित्यसंशोधक भाग १ अंक २। ३ देखो त्रिलोकसार की प्रस्तावना।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
ई० ९७८ में समाप्त किया था। अतः आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीका समय ई० ९८० के आसपास सुनिश्चित किया जा सकता है । और लगभग यही समय आचार्य अभयनन्दि आदिका होना चाहिए । इन्होंने अपनी महावृत्ति (लिखित पृ० २२१ ) में भर्तृहरि (ई० ६५०) की वाक्यपदीयका उल्लेख किया है। पृ. ३९३ में माघ (ई० ७ वीं सदी ) काव्यसे' 'सटाच्छटाभिन्न' श्लोक उद्धृत किया है । तथा ३।२।५५ की वृत्तिमें 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते' प्रयोगसे अकलङ्कदेव (ई० ८ वी सदी ) के तत्त्वार्थराजवार्तिकका उल्लेख किया है। अतः इनका समय ९ वीं शताब्दीसे पहिले तो नहीं ही है। यदि यही अभयनन्दि जैनेन्द्र महावृत्तिके रचयिता हैं तो कहना होगा कि उन्होंने ई० ९६० के लगभग अपनी महावृत्ति बनाई होगी। इसी महावृत्ति पर ई. १०६० के लगभग आ० प्रभाचन्द्रने अपना शब्दाम्भोजभास्कर न्यास बनाया है। क्योंकि इसकी रचना न्यायकुमुदचन्द्रके बाद की गई है और न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव (राज्य १०५६ से ) के राज्य के प्रारम्भकाल में बनाया गया है।
मूलाचारकार और प्रभाचन्द्र-मूलाचार ग्रन्थके कर्ताके विषयमें विद्वान् मतभेद रखते हैं । कोई इसे कुन्दकुन्दकृत कहते हैं तो कोई वट्टकेरिकृत । जो हो, पर इतना निश्चित है कि मूलाचारकी सभी गाथाएँ स्वयं उसके कर्त्ताने नहीं रची हैं । उसमें अनेकों ऐसी प्राचीन गाथाएँ हैं, जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें, भगवती आराधनामें तथा आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और सम्मतितर्क आदि में भी पाई जाती हैं । संभव है कि गोम्मटसार की तरह यह भी एक संग्रह ग्रन्थ हो। ऐसे संग्रहग्रन्थों में प्राचीन गाथाओंके साथ कुछ संग्रहकाररचिंत गाथाएँ भी होती हैं । गोम्मटसारमें बहुभाग खरचित है जब कि मूलाचारमें खरचित गाथाओंका बहुभाग नहीं मालूम होता। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८४५ ) में “एगो मे सस्सदो" "संजोगमूलं जीवेन.' ये दो गाथाएँ उद्धृत की हैं। ये गाथाएँ मूलाचारमें ( २०४८,४९ ) दर्ज हैं । इनमें पहिली गाथा कुन्दकुन्दके भावपाहुड तथा नियमसारमें भी पाई जाती है। इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ३३१ ) में “आचेलकुद्देसिय" आदि गाथांश दशविध स्थितिकल्पका निर्देश करने के लिए उद्धृत है । यह गाथा मूलाचार ( गाथा नं. ९०९) में तथा भगवती आराधनामें (गाथा ४२१) विद्यमान है। यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रभाचन्द्रने इस गाथाको श्वेताम्बर आगममें आचेलक्यके समर्थनका प्रमाण बताने के लिए श्वेताम्बर आगमके रूपमें उद्धृत किया है। यह गाथा जीतकल्पभाष्य ( गा० १९७२ ) में पाई जाती है। गाथाओं की इस संक्रान्त स्थितिको देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि कुछ प्राचीन गाथाएँ परम्परासे चली आई हैं, जिन्हें दिग० और श्वेता. दोनों आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें स्थान दिया है।
नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती और प्रभाचन्द्र-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरसेनापति श्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डरांय गंगव
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. प्रस्तावना
शीय महाराज मारसिंह द्वितीय ( ९७५ ई.) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। इन्हींके राज्यकालमें चामुण्डरायने गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठा ( सन् ९८१) कराई थी । आ. नेमिचन्द्रने इन्हीं चामुण्डरायको सिद्धान्त परिज्ञान कराने के लिए गोम्मटसार ग्रन्थ बनाया था। यह ग्रन्थ प्राचीन सिद्धान न्तग्रन्थोंका संक्षिप्त संस्करण है । न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २५४ ) में 'लोयायासपएसे' गाथा उद्धृत है । यह गाथा जीवकांड तथा द्रव्यसंग्रह में पाई जाती है। अतः आपाततः यही निष्कर्ष निकल सकता है कि यह गाथा प्रभाचन्द्रने जीवकांड या द्रव्यसंग्रहसे उद्धृत की होगी; परन्तु अन्वेषण करने पर मालूम हुआ कि यह गाथा बहुत प्राचीन है और सर्वार्थसिद्धि ( ५।३९) तथा श्लोकवार्तिक ( पृ० ३९९ ) में भी यह उद्धृत की गई है । इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ३०० ) में 'विग्गहगइमावण्णा' गाथा उद्धृत की गई है। यह गाथा भी जीवकांड में है। परन्तु यह गाथा भी वस्तुतः प्राचीन है और धवलाटीका तथा उमाखातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें मौजूद है।
प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रके शिष्य अनन्तवीर्य आचार्य, अकलंकके प्रकरणोंके ख्यात टीकाकार विद्वान् थे। प्रमेयरत्नमालाके टीकाकार अनन्तवीर्य उनसे पृथक् व्यक्ति हैं; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रथम अनन्तवीर्यका स्मरण किया है,
और द्वितीय अनन्तवीर्य अपनी प्रमेयरत्नमालामें इन्हीं प्रभाचन्द्र का स्मरण करते हैं । वे लिखते हैं कि प्रभाचन्द्रके वचनोंको ही संक्षिप्त करके यह प्रमेयरत्नमाला बनाई जा रही है। प्रो० ए० एन्० उपाध्यायने प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यके समयका अनुमान ग्यारहवीं सदी किया है, जो उपयुक्त है । क्योंकि आ० हेमचन्द्र (१०८८-११७३ ई०) की प्रमाणमीमांसा पर शब्द और अर्थ दोनों दृष्टि से प्रमेयरत्नमालाका पूरा पूरा प्रभाव है। तथा प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड
और न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाव प्रमेयरत्नमाला पर है। आ० हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसाने प्रायः प्रमेयरत्नमालाके द्वारा ही प्रमेयकमलमार्तण्ड को पाया है।
देवसेन और प्रभाचन्द्र-“देवसेन श्रीविमलसेन गणीके शिष्य थे । इन्होंने धारानगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें माघ सुदी दशमी विक्रमसंवत् ९९०
१ प्रयेयकमलमार्तण्डके प्रथम संस्करणके संपादक पं० बंशीधरजीशास्त्री सोलापुरने प्रमेयक० की प्रस्तावनामें यही निष्कर्ष निकाला भी है। २ "प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति ।
मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः ॥ तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् ।
चेतोहरं भृतं यदन्नद्या नवघटे जलम् ॥" ३ देखो जैनदर्शन वर्ष ४ अंक ९ । . ४ नयचक्रकी प्रस्तावना पृ० ११-।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
(ई० ९३३) में अपना दर्शनसार ग्रन्थ बनाया था। दर्शनसारके बाद इन्होंने भावसंग्रह ग्रन्थकी रचना की थी, क्योंकि उसमें दर्शनसारकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं । इनके आराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्रसंग्रह तथा आलापपद्धति ग्रन्थ भी हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ३००) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ८५६) के कवलाहारवादमें देवसेनके भावसंग्रह (गा. ११०) की यह गाथा उद्धृत की है
"णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य. लेप्पमाहारो।
ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो ॥" यद्यपि देवसेनसूरिने दर्शनसार ग्रन्थके अन्तमें लिखा है कि
"पुवायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । • सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रइयो देसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए।
सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धं माहसुद्धदसमीए ॥" अर्थात् पूर्वाचार्यकृत गाथाओंका संचय करके यह दर्शनसार ग्रन्थ बनाया गया है। तथापि बहुत खोज करने पर भी यह गाथा किसी प्राचीन ग्रंथमें नहीं मिल सकी है। देवसेन धारानगरीमें ही रहते थे, अतः धारानिवासी प्रभाचन्द्रके द्वारा भावसंग्रहसे भी उक्त गाथाका उद्धृत किया जाना असंभव नहीं है। चूंकि दर्शनसारके बाद भावसंग्रह बनाया गया है, अतः इसका रचनाकाल संभवतः विक्रम संवत् ९९७ (ई० ९४०) के आसपास ही होगा।
श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र-जैनेन्द्रके प्राचीन सूत्रपाठपर आचार्य श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया उपलब्ध है । श्रुतकीर्तिने अपनी प्रक्रियाके अन्तमें श्रीमद्वृत्तिशब्दसे अभयनन्दिकृत महावृत्ति और न्यासशब्दसे संभवतः प्रभाचन्द्रकृत न्यास, दोनोंका ही उल्लेख किया है। यदि न्यासशब्द पूज्यपादके जैनेन्द्रन्यासका निर्देशक हो तो 'टीकामाल' शब्दसे तो प्रभाचन्द्रकी टीकाका उल्लेख किया ही गया है । यथा
“सूत्रस्तम्भसमुद्भुतं प्रविलसन्यासोरुरत्नक्षिति, श्रीमदृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्यौघशय्यातलम् । टीकामालमिहारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमम् ,
प्रासादं पृथुपञ्चवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥" कनडी भाषाके चन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बताया है
"इति परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्सरिन्नाथश्रुतकीर्तित्रैविद्यचक्रव
१ देखो प्रेमीजीका 'जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्यदेवनन्दी' लेख जैनसा० सं० भाग १ अंक २।
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। प्रस्तावना
तिपदपद्मनिधानदीपवर्तिश्रीमदग्गलदेवविरचिते चन्द्रप्रभचरिते"। यह चरित्र शक संवत् १०११, ई० १०८९ में बनकर समाप्त हुआ था । अतः श्रुतकीर्तिका समय लगभग १०८० ई० मानना युक्तिसंगत है । इन श्रुतकीर्तिने न्यासको जैनेन्द्र व्याकरण रूपी प्रासादकी रत्नभूमिकी उपमा दी है। इससे शब्दाम्भोजभास्करका रचनासमय लगभग ई० १०६० समर्थित होता है।
श्वे० आगमसाहित्य और प्रभाचन्द्र-भ० महावीरकी अर्धमागधी दिव्यध्वनिको गणधरों ने द्वादशांगी रूपमें गूंथा था। उस समय उन अर्धमागधी भाषामय द्वादशांग आगमोंकी परम्परा श्रुत और स्मृत रूपमें रही, लिपिबद्ध नहीं थी। इन आगमोंका आखरी संकलनं वीर सं० ९८० (वि० ५१०) में श्वेताम्बराचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणने किया था । अंगग्रन्थोंके सिवाय कुछ अंगबाह्य या अनंगात्मक श्रुत भी है। छेदसूत्र अनंगश्रुतमें शामिल है । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ८६८) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्षमें कल्पसूत्र (५।२०) से “नो कप्पइ णिग्गंथीए अचेलाए होत्तए" यह सूत्रवाक्य उद्धृत किया है।
तत्त्वार्थभाष्यकार और प्रभाचन्द्र-तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं । एक तो वह, जिस पर खयं वाचक उमाखातिका खोपज्ञभाष्य प्रसिद्ध है,
और दूसरा वह जिस पर पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि है । दिगम्बर परम्परामें पूज्यपादसम्मत सूत्रपाठ और श्वेताम्बरपरम्परामें भाष्यसम्मत सूत्रपाठ प्रचलित है। उमाखातिके खोपज्ञभाष्यके कर्तृलके विषयमें आज कल विवाद चल रहा है। मुख्तारसा० आदि कुछ विद्वान् भाष्यकी उमाखातिकर्तृकताके विषयमें सन्दिग्ध हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिगम्बरसूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए हैं । उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ८५९) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्षमें तत्त्वार्थभाष्यकी सम्बन्धकारिकाओंमेसे "श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रसंसिद्धाः" कारिकांश उद्धृत किया है । तत्त्वार्थराजवार्तिक (पृ. १०) में भी "अनंताः सामायिकमात्रसिद्धाः" वाक्य उद्धृत मिलता है। इसी तरह तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें पाई जाने वाली ३२ कारिकाएँ राजवार्तिकके अन्तमें 'उक्तञ्च' लिखकर उद्धृत हैं । पृ. ३६१ में भाष्यकी 'दग्धे बीजे' कारिका उद्धृत की गई है। इत्यादि प्रमाणोंके आधारसे यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्य अकलङ्कदेवके सामने भी था । उनने इसके कुछ मन्तव्योंकी समीक्षा भी की है।
सिद्धसेन और प्रभाचन्द्र-आ० सिद्धसेनके सन्मतितर्क, न्यायावतार, द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशतिका ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इनके सन्मतितर्क पर अभयदेवसूरिने विस्तृत व्याख्या लिखी है। डॉ. जैकोबी न्यायावतारके प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त
१ देखो गुजराती सन्मतितर्क ५० ४० ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
पद देखकर इनको धर्मकीर्तिका समकालीन, अर्थात् ईसाकी ७ वीं शताब्दीका विद्वान् मानते हैं। पं० सुखलाल जी इन्हें विक्रमकी पांचवीं सदीका विद्वान् सिद्ध करते थे। पर अब उनका विश्वास है कि “सिद्धसेन ईसाकी छठी या सातवीं सदीमें हुए हों और उन्होंने संभवतः धर्मकीर्तिके ग्रन्थों को देखा हो।" न्यायावतारकी रचनामें न्यायप्रवेशके साथ ही साथ न्यायविन्दु भी अपना यत्किञ्चित् स्थान रखता ही है। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४३७) में पक्षप्रयोगका समर्थन करते समय 'धानुष्क' का दृष्टान्त दिया है । इसकी तुलना न्यायावतारके श्लोक १४-१६ से भलीभांति की जा सकती है। न केवल मूलश्लोकसे ही, किन्तु इन श्लोकोंकी सिद्धर्षिकृत व्याख्या भी न्यायकुमुदचन्द्रकी शब्दरचनासे तुलनीय है।
धर्मदासगणि और प्रभाचन्द्र-श्वे० आचार्य धर्मदासगणिका उपदेशमाला ग्रन्थ प्राकृतगाथानिवद्ध है। प्रसिद्धि तो यह रही है कि ये महावीरखामीके दीक्षित शिष्य थे। पर यह इतिहासविरुद्ध है; क्योंकि इन्होंने अपनी उपदेशमालामें वज्रसूरि आदिके नाम लिए हैं। अस्तु । उपदेशमाला पर सिद्धर्षिसूरिकृत प्राचीन टीका उपलब्ध है। सिद्धर्षिने उपमितिभवप्रपञ्चाकथा वि० सं० ९६२ ज्येष्ठ शुद्ध पंचमीके दिन समाप्त की थी । अतः धर्मदासगणिकी उत्तरावधि विक्रम की ९ वीं शताब्दी माननेमें कोई बाधा नहीं है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ३३० ) में उपदेशमाला (गा० १५) की 'वरिससयदिक्खयाए अजाए अज दिक्खिओ साहू' इत्यादि गाथा प्रमाणरूपसे उद्धृत की है।
हरिभद्र और प्रभाचन्द्र-आ० हरिभद्र श्वे० सम्प्रदायके युगप्रधान आचार्यों से हैं। कहा जाता है कि इन्होंने १४०० के करीव ग्रन्थोंकी रचना की थी। मुनि श्री जिनविजयजीने अनेक प्रवल प्रमाणोंसे इनका समय ई. ७०० से ७७० तक निर्धारित किया है। मेरा इसमें इतना संशोधन है-कि इनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक होनी चाहिए; क्योंकि जयन्त भट्टकी न्यायमंजरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयमें शामिल हुआ है। मैं विस्तारसे लिख चुका हूँ कि जयन्तने अपनी मंजरी ई० ८०० के करीब बनाई है अतः हरिभद्रके समयकी उत्तरावधि कुछ और लम्बानी चाहिए । उस युगमें १०० वर्षकी आयु तो साधारणतया अनेक आचार्यों की देखी गई है। हरिभद्रसूरिके दार्शनिक ग्रन्थों में 'षड्दर्शनसमुच्चय' एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसका
"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शब्दश्चोपमया सह ।
अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः ॥ ७२ ॥" - यह श्लोक न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ५०५) में उद्धृत है । यद्यपि इसी भावका --१ इंग्लिश सन्मतितर्क की प्रस्तावना । २ जैनसाहित्यनो इतिहास पृ० १८६ ।
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प्रस्तावना
४५ एक श्लोक-"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शाब्दञ्चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च षडेते साध्यसाधकाः ॥” इस शब्दावलीके साथ कमलशीलकी तत्त्वसंग्रहपञ्जिका (पृ० ४५०) में मिलता है और उससे संभावना की जा सकती है कि जैमिनिकी षट्प्रमाणसंख्याका निदर्शक यह श्लोक किसी जैमिनिमतानुयायी आचार्यके ग्रन्थसे लिया गया होगा। यह संभावना हृदयको लगती भी है। परन्तु जबतक इसका प्रसाधक कोई समर्थ प्रमाण नहीं मिलता तबतक उसे हरिभद्रकृत मानने में ही लाघव है । और बहुत कुछ संभव है कि प्रभाचन्द्रने इसे षड्दर्शनसमुच्चयसे ही उद्धृत किया हो । हरिभद्रने अपने ग्रन्थों में पूर्वपक्षके पल्लवन और उत्तरपक्षके पोषणके लिए अन्यग्रन्थकारोंकी कारिकाएँ, पर्याप्त मात्रामें, कहीं उन आचार्योंके नामके साथ और कहीं विना नाम लिए ही शामिल की हैं। अतः कारिकाओंके विषयमें यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है कि ये कारिकाएँ हरिभद्रकी खरचित हैं या अन्यरचित होकर संगृहीत हैं ? इसका एक और उदाहरण यह है कि
"विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च । समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽखिलः ॥ आत्मात्मीयखभावाख्यः समुदायः स सम्मतः । क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्येवं वासना यका ॥ स मार्ग इति विज्ञेयो निरोधो मोक्ष उच्यते । पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् ॥
धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च..." ये चार श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयके बौद्धदर्शनमें मौजूद हैं । इसी आनुपूर्वीसे ये ही श्लोक किञ्चित् शब्दभेदके साथ जिनसेनके आदिपुराण (पर्व ५ श्लो० ४२४५) में भी विद्यमान हैं । रचनासे तो ज्ञात होता है कि ये श्लोक किसी बौद्धाचार्यने बनाए होंगे, और उसी बौद्धग्रन्थसे' षड्दर्शनसमुच्चय और आदिपुराणमें पहुँचे हों । हरिभद्र और जिनसेन प्रायः समकालीन हैं, अतः यदि ये श्लोक हरिभद्रके होकर आदिपुराणमें आए हैं तो इसे उससमयके असाम्प्रदायिक भावकी महत्त्वपूर्ण घटना समझनी चाहिए। हरिभद्रने तो शास्त्रवार्तासमुच्चयमें. समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके श्लोक उद्धृत कर अपनी षड्दर्शनसमुच्चायक बुद्धिके प्रेरणा बीजको ही मूर्तरूपमें अङ्कुरित किया है। यदि न्यायप्रवेशवृत्तिकार हरिभद्र ये ही हरिभद्र हैं तो उस वृत्ति (पृ. १३) में पाई जाने वाली पक्षशब्दकी 'पच्यते व्यक्तीक्रियते योऽर्थः सः पक्षः' इस व्युत्पत्तिकी अस्पष्ट छाया न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४३८) में की गई पक्षकी व्युत्पत्ति पर आभासित होती है। ..
सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र-श्रीसिद्धर्षिगणि श्वे. आचार्य दुर्गखामीके शिष्य थे। इन्होंने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, विक्रम संवत् ९६२ (१ मई ९०६ ई.) के दिन उपमितिभवप्रपञ्चा कथाकी समाप्ति की थी । सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावता
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
रपर भी इनकी एक टीका उपलब्ध है। न्यायावतार (श्लो० १६) में पक्षप्रयोगके समर्थनके प्रसंगमें लिखा है कि-"जिस तरह लक्ष्यनिर्देशके विना अपनी धनुर्विद्याका प्रदर्शन करने वाले धनुर्धारीके गुण-दोषोंका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता, गुण भी दोषरूपसे' तथा दोष भी गुणरूपसे प्रतिभासित हो सकते हैं, उसी तरह पक्षका प्रयोग किए विना साधनवादीके साधन सम्बन्धी गुण-दोष भी विपरीत रूपमें प्रतिभासित हो सकते हैं, प्रानिक तथा प्रतिवादी आदिको उनका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता ।" न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ४३७ ) के 'पक्षप्रयोगविचार' प्रकरणमें भी पक्षप्रयोगके समर्थनमें धनुर्धारी का दृष्टान्त दिया गया है। उसकी शब्दरचना तथा भावव्यञ्जनामें न्यायावतारके मूलश्लोकके साथ ही साथ सिद्धर्षिकृत व्याख्याका भी पर्याप्त शब्दसादृश्य पाया जाता है। अवतरगों के लिए देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ४३७ टि० १ ।
अभयदेव और प्रभाचन्द्र-चन्द्रगच्छमें प्रद्युम्नसूरि बड़े ख्यात आचार्य थे। अभयदेव सूरि इन्हीं प्रद्युम्नसूरिके शिष्ये थे । न्यायवनसिंह और तर्कपञ्चानन इनके विरुद थे। सन्मतितर्ककी गुजराती प्रस्तावना (पृ० ८३ ) में श्रीमान् पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने इनका समय विक्रमकी दशवीं सदीका उत्तराध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है। उत्तराध्ययनकी पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरिने उत्तराध्ययनटीकाकी प्रशस्तिमें एक अभयदेव को प्रमाणवियाका गुरु लिखा है। पं० सुखलालजीने शान्तिसूरिके गुरुरूपमें इन्हीं अभयदेवसूरिकी संभावना की है। प्रभावकचरित्रके उल्लेखानुसार शान्तिसूरिका स्वर्गवास वि० सं० १०९६ में हुआ था। इन्हीं शान्तिसूरिने धनपालकविकी तिलकमञ्जरी आख्यायिका का संशोधन किया था, और उस पर एक टिप्पण लिखा था । धनपाल कवि मुञ्ज तथा भोज दोनोंकी राजसभाओं में सम्मानित हुए थे। इन सब घटनाओंकों मद्दे नजर रखते हुए अभयदेव सूरिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग तक मान लेने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। अभयदेव सूरिकी प्रामाणिकप्रकाण्डताका जीवन्त रूप उनकी सन्मतिटीका में पद पद पर मिलता है। इस सुविस्तृत टीका की 'वादमहार्णव' के नामसे भी प्रसिद्धि रही है।
प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रकी अपेक्षा प्रमेयकमलमार्तण्डका अकल्पित सादृश्य इस टीका में पाया जाता है । अभयदेवसूरिने सन्मतिटीका में स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहारका समर्थन किया है। इसमें दी गई दलीलोंमें तथा प्रभाचन्द्रके द्वारा किए गए उक्त वादोंके खण्डन की युक्तियोंमें परस्पर कोई पूर्वोत्तरपक्षता नहीं देखी जाती। अभयदेव, शान्तिसूरि, और प्रभाचन्द्र करीब करीब समकालीन और समदेशीय थे। इसलिए यह अधिक संभव था कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति जैसे साम्प्रदायिक प्रकरणोंमें एक दूसरेका खंडन करते । पर हम इनके ग्रन्थों में परस्पर खंडन नहीं देखते । इसका कारण मेरी समझमें तो यही आता है कि उस समय दिगम्बर आचार्य यापनीयोंके साथ ही इस विषयकी
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प्रस्तावना
चरचा करते होंगे । यही कारण है कि जब प्रभाचन्द्रने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति प्रकरणोंका ही शब्दशः खंडन किया है तब श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और शान्तिसूरिने शाकटायनकी दलीलोंके आधारसे ही अपने ग्रन्थोंके उक्त प्रकरण पुष्ट किए हैं। वादिदेवसूरिने अवश्य ही प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंके उक्त प्रकरणोंको पूर्वपक्षमें प्रभाचन्द्रका नाम लेकर उपस्थित किया है।
सन्मतितर्कके सम्पादक श्रीमान् पं० सुखलालजी और बेचरदासजीने सन्मतितर्क प्रथम भाग (पृ० १३) की गुजराती प्रस्तावनामें लिखा है कि-"जो के आ टीकामां सैकड़ों दार्शनिकग्रन्थों नु दोहन जणाय छे, छतां सामान्यरीते मीमांसककुमारिलभट्टनुं श्लोकवार्तिक, नालन्दाविश्वविद्यालयना आचार्य शान्तरक्षितकृत तत्त्वसंग्रह ऊपरनी कमलशीलकृत पंजिका अने दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रना प्रमेयकमलमार्तण्ड अने न्यायकुमुदचन्द्रोदय विगेरे ग्रंथोंगें प्रतिबिम्ब मुख्यपणे आ टीकामां छ ।” अर्थात् सन्मतितर्कटीका पर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तत्त्वसंग्रहपंजिका प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब पड़ा है। सन्मतितर्कके विद्वद्रूप सम्पादकोंकी उक्त बातसे सहमति रखते हुए भी मैं उसमें इतना परिवर्धन और कर देना चाहता हूं कि-"प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका सन्मतितर्कसे शब्दसादृश्य मात्र साक्षात् बिम्बप्रतिबिम्बभाव होनेके कारण ही नहीं हैं, किन्तु तीनों ग्रन्थोंके बहुभागमें जो अकल्पित सादृश्य पाया जाता है वह तृतीयराशिमूलक भी है। ये तृतीय राशिके ग्रंथ हैं-भट्टजयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह, व्योमशिवकी व्योमवती, जयन्तकी न्यायमञ्जरी, शान्तरक्षित और कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह और उसकी पंजिका तथा विद्यानन्दके अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा आदि प्रकरण । इन्हीं तृतीयराशिके ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब सन्मतिटीका और प्रमेयकमलमार्तण्डमें आया है।" सन्मतितर्कटीका, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट मालूम होता है कि सन्मतितर्कका प्रमेयकमलमार्तण्डके साथ ही अधिक शब्दसादृश्य है। न्यायकुमुदचन्द्रमें जहाँ भी यत्किञ्चित् सादृश्य देखा जाता है वह प्रमेयकमलमार्तण्डप्रयुक्त ही है साक्षात् नहीं । अर्थात् प्रमेयकमलमार्तण्डके जिन प्रकरणों के जिस सन्दर्भसे सन्मतितर्कका सादृश्य है उन्हीं प्रकरणोंमें न्यायकुमुदचन्द्रसे भी शब्दसादृश्य पाया जाता है। इससे यह तर्कणा की जा सकती है कि-सन्मतितर्ककी रचनाके समय न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना नहीं हो सकी थी। न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेवके राज्यमें सन् १०५७ के आसपास रचा गया था जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्तिसे विदित है । सन्मतितर्कटीका, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रकी तुलनाके लिए देखो प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रथम अध्यायके टिप्पण तथा न्यायकुमुद चन्द्रके टिप्पणोंमें दिए गए सन्मतिटीका के अवतरण ।
१ गुजराती सन्मतितर्क पृ० ८४ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
वादि देवसूरि और प्रभाचन्द्र-देवसूरि श्रीमुनिचन्द्रसूरिके शिष्य थे। प्रभावक चरित्रके लेखानुसार मुनिचन्द्रने शान्तिसूरिसे प्रमाणविद्याका अध्ययन किया था। ये प्राग्वाटवंशके रत्न थे। इन्होंने वि० सं० ११४३ में गुर्जर देशको अपने जन्मसे पूत किया था। ये भडोच नगरमें ९ वर्षकी अल्पवयमें वि० सं० ११५२ में दीक्षित हुए थे तथा वि० सं० ११७४ में इन्होंने आचार्यपद पाया था। राजर्षि कुमारपालके राज्यकालमें वि० सं० १२२६ में इनका स्वर्गवास हुआ। प्रसिद्ध है कि-वि० सं० ११८१ वैशाख शुद्ध पूर्णिमाके दिन सिद्धराजकी सभामें इनका दिगम्बरवादी कुमुदचन्द्रसे वाद हुआ था और इसी वादमें विजय पानेके कारण देवसूरि वादि देवसूरि कहे जाने लगे थे। इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार नामक सूत्र ग्रन्थ तथा इसी सूत्रकी स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या लिखी है। इनका प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुखसूत्रका अपने ढंगसे किया गया दूसरा संस्करण ही है। इन्होंने परीक्षामुखके ६ परिच्छेदोंका विषय ठीक उसी क्रमसे अपने सूत्रके आद्य ६ परिच्छेदोंमें यत्किञ्चित् शब्दभेद तथा अर्थभेदके साथ ग्रथित किया है । परीक्षामुखसे अतिरिक्त इसमें नयपरिच्छेद और वादपरिच्छेद नामक दो परिच्छेद और जोड़े गए हैं। माणिक्यनन्दिके सूत्रोंके सिवाय अकलङ्कके स्वविवृतियुक्त लघीयत्रय, न्यायविनिश्चय तथा विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका भी पर्याप्त साहाय्य इस सूत्रग्रन्थमें लिया गया है। इस तरह भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें विशकलित जैनपदार्थोंका शब्द एवं अर्थदृष्टि से सुन्दर संकलन इस सूत्रग्रन्थमें हुआ है।
परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्रकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी विस्तृत व्याख्या है तथा अकलङ्कदेवके लघीयस्त्रयपर इन्हीं प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुदचन्द्र नामका वृहत्काय टीकाग्रन्थ है। प्रभाचन्द्रने इन मूल ग्रन्थोंकी व्याख्याके साथही साथ मूलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयोंपर विस्तृत लेख भी लिखे हैं । इन लेखोंमें विविध विकल्पजालोंसे परपक्षका खंडन किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के तीक्ष्ण एवं आह्वादक प्रकाशमें जब हम स्याद्वादरत्नाकरको तुलनात्मक दृष्टिसे देखते हैं तब वादिदेवसूरिकी गुणग्राहिणी संग्रहदृष्टिकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। इनकी संग्राहक बीजवुद्धि प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रसे अर्थ शब्द और भावोंको इतने चेतश्चमत्कारक ढंगसे चुन लेती है कि अकेले स्याद्वादरत्नाकरके पढ़ लेनेसे न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्डका यावद्विषय विशद रीतिसे अवगत हो जाता है। वस्तुतः यह रत्नाकर उक्त दोनों ग्रन्थोंके शब्द-अर्थरत्नोंका सुन्दर आकर ही है। यह रत्नाकर मार्तण्डकी अपेक्षा चन्द्र (न्यायकुमुदचन्द्र) से ही अधिक उद्वेलित हुआ है । प्रकरणोंके क्रम
और पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षके जमानेकी पद्धतिमें कहीं कहीं तो न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि दोनों ग्रन्थोंकी पाठशुद्धिमें एक दुसरेका मूलप्रतिकी तरह उपयोग किया जा सकता है। १ देखो जैन साहित्यनो इतिहास पृ. २४८ ।
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प्रस्तावना
४९ प्रतिबिम्बवाद नामक प्रकरणमें वादि देवसूरिने अपने रत्नाकर (पृ० ८६५) में न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४५५) में निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडन करनेका प्रयास किया है। प्रभाचन्द्रका मत है कि-प्रतिबिम्बकी उत्पत्तिमें जल आदि द्रव्य उपादान कारण हैं तथा चन्द्र आदि बिम्ब निमित्तकारण। चन्द्रादि बिम्बोंका निमित्त पाकर जल आदिके परमाणु प्रतिबिम्बाकारसे' परिणत हो जाते हैं।
वादि देवसूरि कहते हैं कि-मुखादिबिम्बोंसे' छायापुद्गल निकलते हैं और वे जाकर दर्पण आदिमें प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। यहाँ छायापुद्गलोंका मुखादि बिम्बोंसे निकलनेका सिद्धान्त देवसूरिने अपने पूर्वाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिके धर्मसारप्रकरणका अनुसरण करके लिखा है । वे इस समय यह भूल जाते हैं कि हम अपनेही ग्रन्थमें नैयायिकोंके चक्षुसे रश्मियोंके निकलनेके सिद्धान्तका खंडन कर चुके हैं । जब हम भासुररूपवाली आंखसे भी रश्मियोंका निकलना युक्ति एवं अनुभवसे विरुद्ध बताते हैं तब मुख आदि मलिन बिम्बोंसे' छायापुद्गलोंके निकलनेका समर्थन किस तरह किया जा सकता है ? मजेदार बात तो यह है कि इस प्रकरणमें भी वादि देवसूरि न्यायकुमुदचन्द्रके साथही साथ प्रमेयकमलमार्तण्डका भी शब्दशः अनुसरण करते हैं, और न्यायकुमुदचन्द्रमें निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडनकी धुनमें खयं ही प्रमेयकमलमार्तण्डके उसी आशयके शब्दोंको सिद्धान्त मान बैठते हैं । वे रत्नाकरमें (पृ० ६९८) ही प्रमेयकमलमार्तण्ड का शब्दानुसरण करते हुए लिख जाते हैं कि-"स्वच्छताविशेषाद्धि जलदर्पणादयो मुखादित्यादिप्रतिबिम्बाकारविकारधारिणः सम्पद्यन्ते ।"-अर्थात् विशेष स्वच्छताके कारण जल और दर्पण आदि ही मुख और सूर्य आदि बिम्बोंके आकारवाली पर्यायों को धारण करते हैं । कवलाहारके प्रकरणमें इन्होंने प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डमें दी गई दलीलोंका नामोल्लेख पूर्वक पूर्वपक्षमें निर्देश किया है और उनका अपनी दृष्टि से खंडन भी किया है। इस तरह वादि देवसूरिने जब रत्नाकर लिखना प्रारम्भ किया होगा तब उनकी आंखोंके सामने प्रभाचन्द्रके ये दोनों ग्रन्थ बराबर नाचते रहे हैं।
हेमचन्द्र और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १२ वीं शताब्दीमें आ० हेमचन्द्रसे जैनसाहित्यके हेमयुगका प्रारम्भ होता है । हेमचन्द्रने व्याकरण, काव्य, छन्द, योग, न्याय आदि साहित्यके सभी विभागोंपर अपनी प्रौढ़ संग्राहक लेखनी चलाकर भारतीय साहित्यके भंडारको खूब समृद्ध किया है। अपने बहुमुख पाण्डित्यके कारण ये 'कलिकालसर्वज्ञ' के नामसे भी ख्यात हैं। इनका जन्मसमय कार्तिकी पूर्णिमा विक्रमसंवत् ११४५ है । वि० सं० ११५४ (ई० सन् १०९७ ) में ८ वर्षकी लघुवयमें इन्होंने दीक्षा धारण की थी। विक्रमसंवत् ११६६ (ई० सन् १११०) में २१ वर्षकी अवस्थामें ये सूरिपद पर प्रतिष्ठित हुए। ये महाराज जयसिंह सिद्धराज तथा राजर्षि कुमारपालकी राजसभाओंमें सबहुमान लब्धप्रतिष्ठ थे। वि० सं० १२२९ (ई. ११७३.) में ८४ वर्षकी आयुमें ये दिवंगत हुए। इनकी न्यायविषयक रचना प्रमाणमीमांसा जैनन्यायके
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प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है । प्रमाणमीमांसाके निग्रहस्थानके निरूपण और खंडनके समूचे प्रकरणमें तथा अनेकान्तमें दिए गए आठ दोषोंके परिहारके प्रसंगमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका शब्दशः अनुसरण किया गया है। प्रमाणमीमांसाके अन्य स्थलोंमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डकी छाप साक्षात् न पड़कर प्रमेयरत्नमालाके द्वारा पड़ी है। प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यने प्रमेयकमलमार्तण्डको ही संक्षिप्त कर प्रमेयरत्नमालाकी रचना की है। अतः मध्यकदवाली प्रमाणमीमांसामें बृहत्काय प्रमेयकमलमार्तण्डका सीधा अनुसरण न होकर अपने समान परिमाणवाली प्रमेयरत्नमालाका अनुसरण होना ही अधिक संगत मालूम होता है। प्रमाणमीमांसाके प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयरत्नमालाकी शब्दरचनाने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। इस तरह आ० हेमचन्द्रने कहीं साक्षात् और कहीं परम्परया प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्डको अपनी प्रमाणमीमांसा बनाते समय मद्देनज़र रखा है। प्रमेयरत्नमाला और प्रमाणमीमांसाके स्थलोंकी तुलनाके लिए सिंघी सीरिजसे प्रकाशित प्रमाणमीमांसाके भाषा टिप्पण देखना चाहिए।
मलयगिरि और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा तेरहवीं शताब्दीका प्रारम्भ जैनसाहित्यका हेमयुग कहा जाता है । इस युगमें आ० हेमचन्द्रके सहविहारी, प्रख्यात टीकाकार आचार्य मलयगिरि हुए थे । मलयगिरिने आवश्यकनियुक्ति, ओघनियुक्ति, नन्दीसूत्र आदि अनेकों आगमिकग्रन्थों पर संस्कृत टीकाएँ लिखीं हैं । आवश्यकनियुक्तिकी टीका (पृ० ३७१ A.) में वे अकलङ्कदेवके 'नयवाक्यमें भी स्यात्पदका प्रयोग करना चाहिए' इस मतसे असहमति जाहिर करते हैं। इसी प्रसंगमें वे पूर्वपक्षरूपसे लघीयस्त्रयस्वविवृति (का० ६२) का 'नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्' यह वाक्य उद्धृत करते हैं । और इस वाक्यके साथ ही साथ प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ६९१) से उक्त वाक्यकी व्याख्या भी उद्धृत करते हैं। व्याख्याका उद्धरण इस प्रकारसे लिया गया है-“अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्, यथा स्यादस्त्येव जीव इति स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मिथ्यैकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति ।"-इस अवतरणसे यह निश्चित हो जाता है कि मलयगिरिके सामने लघीयस्त्रयकी न्यायकुमुदचन्द्र नामकी व्याख्या थी। ..
अकलङ्कदेवने प्रमाण, नय और दुर्नयकी निम्नलिखित परिभाषाएँ की हैं -अनन्तधर्मात्मक वस्तुको अखंडभावसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण है। एकधर्मको मुख्य तथा अन्यधर्मोको गौण करनेवाला, उनकी अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान नय है। एकधर्मको ही ग्रहण करके जो अन्य धर्मोंका निषेध करता है-उनकी अपेक्षा नहीं रखता वह दुर्नय कहलाता है। अकलंकने प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें भी नयान्तरसापेक्षता दिखानेके लिए 'स्यात्' पदके प्रयोगका विधान किया है।
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प्रस्तावना
आ० मलयगिरि कहते हैं कि-जब नयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब ‘स्यात्' शब्दसे सूचित होनेवाले अन्य अशेषधर्मोंको भी विषय करनेके कारण नयवाक्य नयरूप न होकर प्रमाणरूप ही हो जायगा। इनके मतसे जो नय एक धर्मको अवधारणपूर्वक विषय करके इतरनयसे निरपेक्ष रहता है वही नय कहा जा सकता है। इसीलिए इन्होंने सभी नयोंको मिथ्यावाद कहा है। मलयगिरिके कोषमें सुनय नामका कोई शब्द ही नहीं है। जब स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब वह प्रमाणकोटिमें पहुँचेगा तथा जब नयान्तरनिरपेक्ष रहेगा तब वह नयकोटिमें जाकर मिथ्यावाद हो जायगा । इन्होंने अकलंकदेवके इस तत्त्वको मद्देनजर नहीं रखा कि-नयवाक्यमें स्यात् शब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्मोंका मात्र सद्भाव ही जाना जाता है, सो भी इसलिए कि कोई वादी उनका ऐकान्तिक निषेध न समझ ले। प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें स्याच्छब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्म प्रधानभावसे विषय नहीं होते । यही तो प्रमाण और नयमें भेद है कि-जहाँ प्रमाणमें अशेष ही धर्म एकरूपसे-अखण्डभावसे विषय होते हैं वहाँ नयमें एकधर्म मुख्य होकर अन्य अशेषधर्म गौण हो जाते हैं, 'स्यात्' शब्दसे मात्र उनका सद्भाव सूचित होता रहता है। दुर्नयमें एकधर्म ही विषय होकर अन्य अशेषधर्मोंका तिरस्कार हो जाता है। अतः दुर्नयसे सुनयका पार्थक्य करनेके लिए सुनयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग आवश्यक है। मलयगिरिके द्वारा की गई अकलंककी यह समालोचना उन्हीं तक सीमित रही। हेमचन्द्र आदि सभी आचार्य अकलंकके उक्त प्रमाण, नय और दुर्नयके विभागको निर्विवादरूपसे मानते आए हैं। इतना ही नहीं, उपाध्याय यशोविजयने मलगिरिकी इस समालोचनाका सयुक्तिक उत्तर गुरुतत्त्वविनिश्चय (पृ० १७ B.) में दे ही दिया है। उपाध्यायजी लिखते हैं कि यदि नयान्तरसापेक्ष नयका प्रमाणमें अन्तर्भाव किया जायगा तो व्यवहारनय तथा शब्दनय भी प्रमाण ही हो जायँगे । नयवाक्यमें होनेवाला स्यात्पदका प्रयोग तो अनेक धर्मोका मात्र द्योतन करता है, वह उन्हें विवक्षितधर्मकी तरह नयवाक्यका विषय नहीं बनाता। इसलिए नयवाक्यमें मात्र स्यात्पदका प्रयोग होनेसे वह प्रमाण कोटि में नहीं पहुँच सकता।
देवभद्र और प्रभाचन्द्र-देवभद्रसूरि मलधारिंगच्छके श्रीचन्द्रसूरिके शिष्य थे। इन्होंने न्यायावतारटीका पर एक टिप्पण लिखा है। श्रीचन्द्रसूरिने वि० संवत् ११९३ (सन् ११३६ ) के दिवालीके दिन 'मुनिसुव्रतचरित्र' पूर्ण किया था। अतः इनके साक्षात् शिष्य देवभद्रका समय भी करीब सन् ११५० से १२०० तक सुनिश्चित होता है। देवभद्रने अपने न्यायावतार टिप्पणमें प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र के निम्नलिखितं दो अवतरण लिए हैं
१-“परिमण्डलाः परमाणवः तेषां भावः'' पारिमण्डल्यं वर्तुलवम् , न्यायकु-- मुदचन्द्रे प्रभाचन्द्रेणाप्येवं व्याख्यातलात् ।” (पृ० २५)
१ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पृ० २५३ ।
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२-"प्रभाचन्द्रस्तु न्यायकुमुदचन्द्रे विभाषा सद्धर्मप्रतिपादको ग्रन्थविशेषः तां विदन्ति अधीयते वा वैभाषिकाः इत्युवाच।” (पृ. ७९)
ये दोनों अवतरण न्यायकुमुदचन्द्रमें क्रमशः पृ० ४३८ पं० १३ तथा पृ० ३९० पं० १ में पाए जाते हैं। इसके सिवाय न्यायावतारटिप्पणमें अनेक स्थानोंपर न्यायकुमुदचन्द्रका प्रतिबिम्ब स्पष्टरूपसे झलकता है।
मल्लिषेण और प्रभाचन्द्र-आ० हेमचन्द्रकी अन्ययोगव्यवच्छेदिकाके ऊपर मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी नामकी सुन्दर टीका मुद्रित है । ये श्वेताम्बर सम्प्रदायके नागेन्द्रगच्छीय श्रीउदयप्रभसूरिके शिष्य थे। स्याद्वादमंजरीके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि-इन्होंने शक संवत् १२१४ (ई. १२९३) में दीपमालिका शनिवारके दिन जिनप्रभसूरिकी सहायतासे स्याद्वादमंजरी पूर्ण की थी। स्याद्वादमंजरीकी शब्दरचनापर न्यायकुमुदचन्द्रका एक विलक्षण प्रभाव है। मल्लिषेणने का० १४ की व्याख्या विधिवादकी चर्चा की है। इसमें उन्होंने विधिवादियोंके आठ मतोंका निर्देश किया है । साथही साथ अपनी ग्रन्थमर्यादाके विचारसे इन मतोंके पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षोंके विशेष परिज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ देखनेका अनुरोध निम्नलिखित शब्दों में किया है"एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपक्षं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयम् ।" इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है कि मल्लिषेण न केवल न्यायकुमुदचन्द्रके विशिष्ट अभ्यासी ही थे किन्तु वे स्याद्वादमंजरीमें अचर्चित या अल्पचर्चित विषयोंके ज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्रको प्रमाणभूत आकरग्रन्थ मानते थे । न्यायकुमुदचन्द्रमें विधिवादकी विस्तृत चरचा पृ० ५७३ से ५९८ तक है।
गुणरत्न और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें तपा. गच्छमें श्रीदेवसुन्दरसूरि एक प्रभावक आचार्य हुए थे। इनके पट्टशिष्य गुणरनसूरिने हरिभद्रकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' पर तर्करहस्यदीपिका नामकी बृहवृत्ति लिखी है । गुणरत्नसूरिने अपने क्रियारत्नसमुच्चय ग्रन्थकी प्रतियोंका लेखनकाल विक्रम संवत् १४६८ दिया है । अतः इनका समय भी विक्रमकी १५ वीं सदीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है । गुणरत्नसूरिने षड्दर्शनसमुच्चय टीकाके जैनमत निरूपणमें मोक्षतत्त्वका सविस्तर विशद विवेचन किया है। इस प्रकरणमें इन्होंने स्वाभिमत मोक्षस्वरूपके समर्थनके साथही साथ वैशेषिक, सांख्य, वेदान्ती तथा बौद्धोंके द्वारा माने गए मोक्षस्वरूपका बड़े विस्तारसे निराकरण भी किया है। इस परखंडनके भागमें न्यायकुमुदचन्द्रका मात्र अर्थ और भावकी दृष्टिसे ही नहीं, किन्तु शब्दरचना तथा युक्तियोंके कोटिक्रमकी दृष्टिसे भी पर्याप्त अनुसरण किया गया है । इस प्रकरणमें न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि इससे न्यायकुमुदचन्द्रके पाठकी शब्दशुद्धि करनेमें भी पर्याप्त सहायता मिली है। इसके
१ देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८१६ मे ८४७ तकके टिप्पण।
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सिवाय इस वृत्तिके अन्य स्थलोंपर खासकर परपक्षखंडन के भागोंपर न्यायकुमुदचन्द्रकी शुभ्रज्योत्स्ना जहाँ तहाँ छिटक रही है ।
यशोविजय और प्रभाचन्द्र - उपाध्याय यशोविजयजी विक्रमकी १८ वीं सीके युगप्रवर्तक विद्वान थे । इन्होंने विक्रम संवत् १६८८ ( ईखी १६३१ ) में पं० नयविजयजीके पास दीक्षा ग्रहण की थी । इन्होंने काशी में नव्यन्यायका अध्ययन कर वादमें किसी विद्वान् पर विजय पानेसे 'न्यायविशारद' पद प्राप्त किया था । श्रीविजयप्रभसूरिने वि० सं० १७१८ में इन्हें 'वाचक - उपाध्याय' का सम्मानित पद दिया था । उपाध्याय यशोविजय वि० सं० १७४३ ( सन् १६८६ ) में अनशन पूर्वक स्वर्गस्थ हुए थे । दशवीं शताब्दीसे ही नव्यन्यायके विकासने भारतीय दर्शनशास्त्रमें एक अपूर्व क्रान्ति उत्पन्न कर दी थी । यद्यपि दसवीं सदीके बाद अनेकों बुद्धिशाली जैनाचार्य हुए पर कोई भी उस नव्यन्यायके शब्दजालके जटिल अध्ययनमें नहीं पड़ा । उपाध्याय यशोविजय ही एकमात्र जैनाचार्य हैं जिन्होंने नव्यन्यायका समग्र अध्ययन कर उसी नव्यपद्धति से जैनपदार्थोंका निरूपण किया है । इन्होंने सैकड़ों ग्रन्थ बनाए हैं । इनका अध्ययन अत्यन्त तलस्पर्शी तथा बहुमुख था । सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्योंके ग्रन्थोंका इन्होंने विधिवत् पारायण किया था । इनकी तीक्ष्ण दृष्टिसे धर्म भूषणयतिकी छोटीसी पर सुविशद रचनावाली न्यायदीपिका भी नहीं छूटी। जैनतर्कभाषामें अनेक जगह न्यायदीपिका के शब्द आनुपूर्वीसे ले लिए गए हैं । इनके शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका आदि बृहद्ग्रन्थोंके परपक्ष खंडनवाले अंशोंमें प्रभाचन्द्रके विविध विकल्पजाल स्पष्टरूपसे प्रतिबिम्बित हैं । इन्होंने प्रभाचन्द्रका केवल अनुसरण ही नहीं किया है किन्तु साम्प्रदायिक स्त्रीमुक्ति और कवलाहार जैसे प्रकरमें प्रभाचन्द्र के मन्तव्योंकी समालोचना भी की है ।
उपरिलिखित वैदिक-अवैदिकदर्शनोंकी तुलनासे प्रभाचन्द्र के अगाध, तलस्पर्शी, सूक्ष्म दार्शनिक अध्ययनका यत्किञ्चित् आभास हो जाता है। बिना इस प्रकारके बहुश्रुत अवलोकनके प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे जैनदर्शनके प्रतिनिधि ग्रन्थोंके प्रणयनका उल्लास ही नहीं हो सकता था । जैनदर्शनके मध्ययुगीन ग्रन्थों में प्रभाचन्द्र के ये ग्रन्थ अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । ये पूर्वयुगीन ग्रन्थोंका प्रतिबिम्व लेकर भी पारदर्शी दर्पणकी तरह उत्तरकालीन ग्रन्थोंके लिए आधारभूत हुए हैं, और यही इनकी अपनी विशेषता है । बिना इस आदान-प्रदानके दार्शनिक साहित्यका विकास इस रूपमें तो हो ही नहीं
सकता था ।
प्रभाचन्द्रका आयुर्वेदज्ञान - प्रभाचन्द्र शुष्क तार्किक ही नहीं थे; किन्तु उन्हें जीवनोपयोगी आयुर्वेदका भी परिज्ञान था । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ४२४ ) में वे बधिरता तथा अन्य कर्णरोगोंके लिए बलातैलका उल्लेख करते हैं । न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६६९) में छाया आदिको पौगलिक सिद्ध करते समय
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प्रमेयकमलमार्तण्ड उनमें गुणोंका सद्भाव दिखानेके लिए उनने वैद्यकशास्त्रका निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है
"आतपः कटुको रक्षः छाया मधुरशीतला ।
कषायमधुरा ज्योत्स्ना सर्वव्याधिहरं(कर) तमः ॥ यह श्लोक राजनिघण्टु आदिमें कुछ पाठभेदके साथा पाया जाता है । इसी तरह वैशेषिकोंके गुणपदार्थका खंडन करते समय (न्यायकु० पृ० २७५) वैद्यकतन्त्रमें प्रसिद्ध विशद, स्थिर, खर, पिच्छलस आदि गुणोंके नाम लिए हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ८) में नड्वलोदक-तृणविशेषके जलसे पादरोगकी उत्पत्ति वताई है।
प्रभाचन्द्रकी कल्पनाशक्ति-सामान्यतः वस्तुकी अनन्तात्मकता या अनेकधर्माधारताकी सिद्धिके लिए अकलंक आदि आचार्योंने चित्रज्ञान, सामान्य. विशेष, मेचकज्ञान और नरसिंह आदिके दृष्टान्त दिए हैं । पर प्रभाचन्द्रने एक ही वस्तुकी अनेकरूपताके समर्थनके लिए न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३६९) में 'उमेश्वर' का दृष्टान्त भी दिया है। वे लिखते हैं कि जैसे एक ही शिव वामाझमें उमा-पार्वतीरूप होकर भी दक्षिणाङ्गमें विरोधी शिवरूपको धारण करते हैं
और अपने अर्धनारीश्वररूपको दिखाते हुए अखंड बने रहते हैं उसी तरह एक ही वस्तु विरोधी दो या अनेक आकारोंको धारण कर सकती है । इसमें कोई विरोध नहीं होना चाहिए। • उदारविचार-आ० प्रभाचन्द्र सच्चे तार्किक थे । उनकी तर्कणाशक्ति
और उदार विचारोंका स्पष्ट परिचय ब्राह्मणव जातिके खण्डनके प्रसङ्गमें मिलता है। इस प्रकरणमें उन्होंने ब्राह्मणत्व जातिके नित्यल और एकत्वका खण्डन करके उसे सदृशपरिणमन रूप ही सिद्ध किया है। वे जन्मना जातिका खण्डन बहुविध विकल्पोंसे करते हैं और स्पष्ट शब्दोंमें उसे गुणकर्मानुसारिणी मानते हैं। वे ब्राह्मणवजातिनिमित्तक वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदिके व्यवहारको भी क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिह्नसे उपलक्षित व्यक्तिविशेषमें ही करनेकी सलाह देते हैं
"ननु ब्राह्मणत्वादिसामान्यानभ्युपगमे कथं भवतां वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निवन्धनो वा तपोदानादिव्यवहारः स्यात् ? इत्यप्यचोद्यम् ; क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यवस्थायाः तद्व्यवहारस्य चोपपत्तेः । तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिखभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात् प्रसिद्ध्यतीति क्रियाविशेषनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारो युक्तः।"
[न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ७७८ । प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ४८६] "प्रश्न-यदि ब्राह्मणव आदि जातियाँ नहीं हैं तब जैनमतमें वर्णाश्रमव्यवस्था और ब्राह्मणव आदि जातियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला तप दान आदि व्यवहार कैसे होगा ? उत्तर-जो व्यक्ति यज्ञोपवीत आदि चिह्नोंको धारण करें तथा
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.५५ ब्राह्मणोंके योग्य विशिष्ट क्रियाओंका आचरण करें उनमें ब्राह्मणव जातिसे सम्बन्ध रखनेवाली वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदि व्यवहार भली भाँति किये जा सकते हैं । अतः आपके द्वारा माना गया नित्य आदि स्वभाववाला ब्राह्मणल किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, इसलिये ब्राह्मण आदि व्यवहारों को क्रियानुसार ही मानना युक्तिसंगत है।"
वे प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ४८७ ) में और भी स्पष्टतासे लिखते हैं कि"ततः सदृशक्रियापरिणामादिनिवन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था-इसलिये यह समस्त ब्राह्मण क्षत्रिय आदि व्यवस्था सदृश क्रिया रूप सदृश परिणमन आदिके निमित्तसे ही होती है।"
बौद्धोंके धम्मपद और श्वे० आगम उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट शब्दोंमें ब्राह्मणत्व जातिको गुण और कर्मके अनुसार बताकर उसको जन्मना माननेके सिद्धान्तका खण्डन किया है
“न जटाहिं न गोत्तेहिं न जच्चा होति ब्राह्मणो । जम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ॥ न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसंभवं ।” [ धम्मपद गा० ३९३ ] "कम्मुणा वंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वईसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मणा ॥" [उत्तरा० २५।३३ ] दिगम्बर आचार्यों में वराङ्गचरित्रके कर्ता श्री जटासिंहनन्दि कितने स्पष्ट शब्दोंमें जातिको क्रियानिमित्तक लिखते हैं
"क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥"
[वराङ्गचरित २५।११] - "शिष्टजन इन ब्राह्मण आदि चारों वर्गों को 'अहिंसा आदि व्रतोंका पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना, तथा शिल्पवृत्ति' इन चार प्रकारकी क्रियाओंसे ही मानते हैं । यह सव वर्णव्यवस्था व्यवहार मात्र है। क्रियाके सिवाय और कोई वर्णव्यवस्थाका हेतु नहीं हैं।" __ ऐसे ही विचार तथा उद्गार पद्मपुराणकार रविषेण, आदिपुराणकार जिनसेन, तथा धर्मपरीक्षाकार अमितगति आदि आचार्यों के पाए जाते हैं। आ. प्रभाचन्द्रने, इन्हीं वैदिक संस्कृति द्वारा अनभिभूत, परम्परागत जैनसंस्कृतिके विशुद्ध विचारोंका, अपनी प्रखर तर्कधारासे परिसिञ्चन कर पोषण किया है । यद्यपि ब्राह्मणत्वजातिके खण्डन करते समय प्रभाचन्द्रने प्रधानतया उसके नित्यत्व और ब्रह्मप्रभवत्व आदि अंशोंके खण्डनके लिए इस प्रकरणको लिखा है और इसके लिखनेमें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कार तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहने
१ देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ७७८ टि० ९ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
पर्याप्त प्रेरणा दी है परन्तु इससे प्रभाचन्द्रकी अपनी जातिविषयक स्वतन्त्र चिन्तनवृत्तिमें कोई कमी नहीं आती। उन्होंने उसके हर एक पहलू पर विचार करके ही अपने उक्त विचार स्थिर किए। ६२. प्रभाचन्द्रका समय
कार्यक्षेत्र और गुरुकुल-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदिकी प्रशस्तिमें 'पद्मनन्दि सैद्धान्त' को अपना गुरु लिखा है । श्रवणबेल्गोलाके शिलालेख (नं० ४०) में गोल्लाचार्यके शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिकका उल्लेख है। और इसी शिलालेखमें आगे चलकर प्रथिततर्कग्रन्थकार, शब्दाम्भोरुहभास्कर प्रभाचन्द्रका शिष्यरूपसे वर्णन किया गया है । प्रभाचन्द्रके प्रथिततर्कग्रन्थकार और शब्दाम्भोरुहभास्कर ये दोनों विशेषण यह स्पष्ट बतला रहे हैं कि ये प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे प्रथित तर्कग्रन्थोंके रचयिता थे तथा शब्दाम्भोजभास्करनामक जैनेन्द्रन्यासके कर्ता भी थे। इसी शिलालेखमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिकको अविद्धकर्णादिक और कौमारदेवव्रती लिखा है। इन विशेषणोंसे ज्ञात होता है कि-पद्मनन्दि सैद्धान्तिकने कर्णवेध होनेके पहिले ही दीक्षा धारण की होगी और इसीलिए ये कौमारदेवव्रती कहे जाते थे। ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिगणके प्रमेदरूप देशीगणके श्रीगोल्लाचार्य के शिष्य थे। प्रभाचन्द्रके सधर्मा श्रीकुलभूषणमुनि थे। कुलभूषण मुनि भी सिद्धान्त शास्त्रोंके पारगामी और चारित्रसागर थे। इस शिलालेखमें कुलभूषणमुनिकी शिष्यपरम्पराका वर्णन है, जो दक्षिणदेशमें हुई थी। तात्पर्य यह कि आ० प्रभाचन्द्र मूलसंघान्तर्गत नन्दिगणकी आचार्यपरम्परामें हुए थे। इनके गुरु पद्मनन्दिसैद्धान्त थे और सधर्मा थे कुलभूषणमुनि । मालूम होता है कि प्रभाचन्द्र पद्मनन्दिसे शिक्षा-दीक्षा लेकर धारानगरीमें चले आए, और यहीं उन्होने अपने ग्रन्थों की रचना की। ये धाराधीश भोजके मान्य विद्वान थे। प्रमेयकमलमार्तण्डकी “श्रीभोज-. देवराज्ये धारानिवासिना" आदि अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि-यह प्रन्थ धारानगरीमें भोजदेवके राज्यमें बनाया गया है । न्यायकुमुदचन्द्र, आराधनागद्यकथाकोश और महापुराणटिप्पणकी अन्तिम प्रशस्तियोंके “श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना" शब्दोंसे इन ग्रन्थोंकी रचना भोजके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवके राज्यमें हुई ज्ञात होती है। इसलिए प्रभाचन्द्रका कार्यक्षेत्र धारानगरी ही मालूम होता है । संभव है कि इनकी शिक्षा-दीक्षा दक्षिणमें हुई हो।
श्रवणवेल्गोलाके शिलालेख नं० ५५ में मूलसंघके देशीगणके देवेन्द्रसैद्धान्तदेवका उल्लेख है । इनके शिष्य चतुर्मुखदेव और चतुर्मुखदेवके शिष्य गोपनन्दि थे। इसी शिलालेखमें इन गोपनन्दिके सधर्मा एक प्रभाचन्द्रका वर्णन इस प्रकार किया गया है
१ जैनशिलालेखसंग्रह माणिकचन्द्रग्रन्थमाला ।
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प्रस्तावना
"अवर सधर्मरु
श्रीधाराधिपभोजराजमुकुटप्रोताश्मरश्मिच्छटाच्छायाकुङ्कुमपङ्कलिप्तचरणाम्भोजातलक्ष्मीधवः । न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दाब्जरोदोमणिः, स्थयात्पण्डितपुण्डरीकतरणिः श्रीमान् प्रभाचन्द्रमाः ॥ १७ ॥ श्रीचतुर्मुखदेवानां शिष्योऽधृष्यः प्रवादिभिः।
पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादिगजाङ्कुशः ॥ १८॥" . इन श्लोकोंमें वर्णित प्रभाचन्द्र भी धाराधीश भोजराजके द्वारा पूज्य थे, न्यायरूप कमलसमूह (प्रमेयकमल) के दिनमणि (मार्तण्ड) थे, शब्दरूप अब्ज (शब्दाम्भोज) के विकास करनेको रोदोमणि (भास्कर) के समान थे। पंडित रूपी कमलोंके प्रफुल्लित करने वाले सूर्य थे, रुद्रवादि गजोंको वश करनेके लिए अंकुशके समान थे तथा चतुर्मुखदेवके शिष्य थे। क्या इस शिलालेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र और पद्मनन्दि सैद्धान्तके शिष्य, प्रथिततर्कग्रन्थकार एवं शब्दाम्भोजभास्कर प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं ? इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' में दिया जा सकता है, पर इसमें एक ही बात नयी है। वह है-गुरुरूपसे चतुर्मुखदेवके उल्लेख होनेकी। मैं समझता हूँ कि-यदि प्रभाचन्द्र धारामें आनेके बाद अपने ही देशीयगणके श्री चतुर्मुखदेवको आदर और गुरुकी दृष्टिसे देखते हों तो कोई आश्चर्यकी वात नहीं है। पर यह सुनिश्चित है कि प्रभाचन्द्रके आद्य और परमादरणीय उपास्य गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्त ही थे। चतुर्मुखदेव द्वितीय गुरु या गुरुसम हो सकते हैं। यदि इस शिलालेखके प्रभाचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं तो यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजके समकालीन थे। इस शिलालेखमें प्रभाचन्द्रको गोपनन्दिका सधर्मा कहा गया है। हलेबेल्गोलके एक शिलालेख (नं. ४९२, जैनशिलालेखसंग्रह) में होय्सलनरेश एरेयङ्ग द्वारा गोपनन्दि पण्डितदेवको दिए गए दानका उल्लेख है। यह दान पौष शुद्ध १३, संवत् १०१५ में दिया गया था। इस तरह सन् १०९४ में प्रभाचन्द्रके सधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका समय सन् १०६५ तक माननेका पूर्ण समर्थन होता है।
समयविचार-आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके विषयमें डॉ. पाठक, प्रेमीजी* ___ * श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है । वे अपने "श्रीचन्द्र और प्रभा. चन्द्र" लेख (अनेकान्त वर्ष ४ अंक १) में महापुराणटिम्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेय. कमलमार्तण्ड और गद्यकथाकोश आदिके का प्रभाचन्द्रका एक ही व्यक्ति होना सूचित करते हैं। वे अपने एक पत्रमें मुझे लिखते हैं कि-"हम समझते हैं कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्र ही महापुराणटिप्पणके कर्ता हैं । और तत्त्वार्थवृत्तिपद (सर्वार्थसिद्धिके पदोंका प्रकटीकरण), समाधितत्रटीका, आत्मानुशासनतिलक, क्रियाकलापटीका, प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारकी टीका) आदिके कर्ता, और शायद रत्नकरण्डटीकाके कर्ता भी वही हैं।"
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प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा मुख्तार सा० आदिका प्रायः सर्वसम्मत मत यह रहा है कि आचार्य प्रभाचन्द्र इसाकी ८ वीं शताब्दीके उत्तरार्ध एवं नवीं शताब्दीके पूर्वार्धवर्ती विद्वान थे। और इसका मुख्य आधार है जिनसेनकृत आदिपुराण का यह श्लोक
"चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे ।
कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥" अर्थात्-‘जिनका यश चन्द्रमाकी किरणों के समान धवल है उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता हूँ। जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत् को आह्लादित किया था। इस श्लोकमें चन्द्रोदयसे न्यायकुमुदचन्द्रोदय (न्यायकुमुदचन्द्र) ग्रन्थका सूचन समझ गया है । आ० जिनसेनने अपने गुरु वीरसेनकी अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ (ईसवी ८३७) की फाल्गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण किया था। इस समय अमोघवर्षका राज्य था। जयधवलाकी समाप्तिके अनन्तर ही आ० जिनसेनने आदिपुराणकी रचना की थी । आदिपुराण जिनसेनकी अन्तिम कृति है। वे इसे अपने जीवनमें पूर्ण नहीं कर सके थे। उसे इनके शिष्य गुणभद्रने पूर्ण किया था। तात्पर्य यह कि जिनसेन आचार्यने ईसवी ८४० के लगभग आदिपुराणकी रचना प्रारम्भ की होगी। इसमें प्रभाचन्द्र तथा उनके न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिने निर्विवादरूपसे प्रभाचन्द्रका समयं ईसाकी ८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा नवीं का पूर्वार्ध निश्चित किया है।
सुहृदूर पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभाग की प्रस्तावना (पृ० १२३) में डॉ० पाठक आदिके मतका निरास करते हुए प्रभाचन्द्रका
+ पं० कैलाशचन्द्रजीने आदिपुराणके 'चन्द्रांशुशुभ्रयशसं' श्लोकमें चन्द्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचन्द्रकविका उल्लेख बताया है, जो ठीक है । पर उन्होंने आदिपुराणकार जिनसेनके द्वारा न्यायकुमुदचन्द्रकार प्रभाचन्द्र के स्मृत होनेमें वाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत् नहीं मालूम होते । यतः (१) आदि-पुराणकार इसके लिए बाध्य नहीं माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचन्द्रका स्मरण करते हैं तो उन्हें प्रभाचन्द्रके द्वारा स्मृत अनन्तवीर्य और विद्यानन्दका स्मरण करना ही चाहिए। विद्यानन्द और अनन्तवीर्यका समय ईसाकी नवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है, और इसलिए वे आदिपुराणकारके समकालीन होते हैं । यदि प्रभाचन्द्र भी ईसाकी नवीं शताब्दीके विद्वान् होते, तो भी वे अपने समकालीन विद्यानन्द आदि आचार्योंका स्मरण करके भी आदिपुराणकार द्वारा स्मृत होसकते थे। (२) 'जयन्त और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय मैं जयन्तका समय " ई० ७५० से ८४० तक सिद्ध कर आया हूँ। अतः समकालीनवृद्ध जयन्त से प्रभावित होकरभी प्रभाचन्द्र आदिपुराणमें उल्लेख्य हो सकते हैं। (३) गुणभद्रके आत्मानुशासन से 'अन्धादयं महानन्धः' श्लोक उद्धृत किया जाना अवश्य ऐसी बात है जो प्रभाचन्द्रका आदिपुराणमें उल्लेख होनेकी बाधक हो सकती है। क्योंकि आत्मानुशासनके "जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम्। गुणभद्भदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ॥"
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प्रस्तावना
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समय ई० ९५० से १०२० तक निर्धारित किया है । इस निर्धारित समयकी शताब्दियाँ तो ठीक हैं पर दशकों में अन्तर है । तथा जिन आधारोंसे यह समय निश्चित किया गया है वे भी अभ्रान्त नहीं हैं । पं० जीने प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंमें व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीकाका प्रभाव देखकर प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि ९५० ई० और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणको वि० सं० १०८० ( ई० १०२३ ) में समाप्त मानकर उत्तरावधि १०२० ई० निश्चित की है । मैं ' व्योमशिव और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय ( पृ० ८ ) व्योमशिवका समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित कर आया हूं । इसलिए मात्र व्योमशिव के प्रभावके कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० के बाद नहीं जा सकता । महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो यह है कि - पुष्पदन्तके महापुराण पर श्रीचन्द्र आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचन्द्र आचार्यका भी । बलात्कारगणके श्रीचन्द्रका टिप्पण भोजदेव के राज्यमें बनाया गया है । इसकी प्रशस्ति निम्न लिखित है
1
इस अन्तिमश्लोक ध्वनित होता है की यह ग्रन्थ जिनसेन स्वामीकी मृत्युके बाद बनाया गया है; क्योंकी वही समय जिनसेनके पादोंकें स्मरणके लिए ठीक जँचता है । अतः आत्मानुशासनका रचनाकाल सन् ८५० के करीब मालूम होता है । आत्मानुशासन पर प्रभाचन्द्रकी एक टीका उपलब्ध है । उसमें प्रथम लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार है"बृहद्धर्मातुलोकसेनस्य विषयव्या मुग्धबुद्धेः सम्बोधनव्याजेन सर्वसत्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवः " अर्थात् गुणभद्र स्वामीने विषयों की ओर चंचल चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (?) लोकसेनको समझाने के बहाने आत्मानुशासन ग्रन्थ बनाया है । ये लोकसेन गुणभद्रके प्रियशिष्य थे । उत्तरपुराणकी प्रशस्ति में इन्हीं लोकसेनको स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि अविकल - वृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनुमान तो सहज ही किया जा सकता है कि आत्मानुशासन उत्तर पुराणके बाद तो नहीं बनाया गया; क्योंकि उस समय लोकसेन मुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं अविकलवृत्त हो गए थे । अतः लोकसेनकी प्रारम्भिक अवस्थामें, उत्तर पुराणकी रचनाकै पहिले ही आत्मानुशासनका रचा जाना अधिक संभव है । पं० नाथूरामजी प्रेमीने विद्वद्रलमाला ( पृ० ७५ ) में यही संभावना की है । आत्मानुशासन गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है । और गुणभद्र इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेन की मृत्युके बाद बनाया होगा । परन्तु आत्मानुशासनकी आन्तरिक जाँच करने से हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि इसमें अन्य कवियोंके सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है । उदाहरणार्थआत्मानुशासनका ३२ वाँ पद्य 'नेता यस्य बृहस्पतिः ' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८ वां श्लोक है, आत्मानुशासनका ६७ वाँ पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्दं' वैराग्यशतकका ५० व श्लोक है । ऐसी स्थिति में 'अन्धादयं महानन्धः ' सुभाषित पद्य भी गुणभद्रका स्वरचित ही है यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते । तथापि किसी अन्य प्रबल प्रमाणके अभावमें अभी इस विषय में अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
"श्री विक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्र महापुराणविषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तान् परिज्ञाय मूलटिप्पणिकाचालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणम् अज्ञपातमीतेन श्रीमद्वला [त्कार ] गणश्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ॥ १०२ ॥ इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (2) विरचितं समाप्तम् ।”
प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यमें लिखा गया है। इसकी प्रशस्तिके श्लोक रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनासे न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना (पृ० १२०) में उद्धृत किये गये हैं। श्लोकोंके अनन्तर-"श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्टिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृताखिलमलकलङ्केन श्रीप्रभाचन्द्रपण्डितेन महापुराणटिप्पणके शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति" यह पुष्पिकालेख है। इस तरह महापुराण पर दोनों आचार्योंके पृथक् पृथक् टिप्पण हैं। इसका खुलासा प्रेमीजीके लेखसे स्पष्ट हो ही जाता है । पर टिप्पणलेखकने श्रीचन्द्रकृत टिप्पणके 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्तिलेखके अन्तमें भ्रमवश 'इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है। इसी लिए डॉ० पी० एल० वैये, प्रो. हीरालालजी तथा पं० कैलाशचन्द्रजीने भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका रचना काल संवत् १०८० समझ लिया है। अतः इस भ्रान्त आधारसे प्रभाचन्द्र के समयकी उत्तरावधि सन् १०२० नहीं ठहराई जा सकती। अब हम प्रभाचन्द्र के समयकी निश्चित अवधिके साधक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं- . • १-प्रभाचन्द्रने पहिले प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाकर ही न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है। मुद्रित प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें "श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतिपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति ।" यह पुष्पिकालेख पाया जाता है। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें उक्त पुष्पिकालेख 'श्रीभोजदेवराज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' पदके साथ जैसाका तैसा उपलब्धहै । अतः इस स्पष्ट लेख से प्रभाचन्द्रका समय जयसिंहदेवके राज्यके कुछ वर्षों तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है। और यदि प्रभाचन्द्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो उनकी पूर्वावधि सन् ९८० मानी जानी चाहिए।
श्रीमान् मुख्तारसा० तथा पं० कैलाशचन्द्रजी प्रमेयकमल० और न्यायकुमुदचन्द्रके अन्तमें पाए जानेवाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्ये और श्री जयसिंहदेवराज्ये आदि प्रस्तिलेशखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते। मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यको टीकाटिप्पणकार द्वितीय प्रभाचन्द्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचन्द्रजी
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१ देखो पं० नाथूरामजी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ । २ महापुराणकी प्रस्तावना पृ० XIV | ३ रनकरण्ड. प्रस्तावना पृ० ५९-६० । ४ न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० १२२ ।
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• प्रस्तावना
इसे पीछेके किसी व्यक्तिकी करतूत बताते हैं । पर प्रशस्तिवाक्य को प्रभाचन्द्रकृत नहीं माननेमें दोनोंके आधार जुदे जुदे हैं । मुख्तारसा. प्रभाचन्द्रको जिनसेन के पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए 'भोजदेवराज्ये' आदिवाक्य वे खयं उन्हीं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते । पं० कैलाशचन्द्रजी प्रभाचन्द्रको ईसाकी १० वीं और ११ वीं शताब्दीका विद्वान् मानकर भी महापुराणके टिप्पणकार श्रीचन्द्र के टिप्पणके अन्तिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका अन्तिमवाक्य समझ लेनेके कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानना चाहते । मुख्तारसा० ने एक हेतु यह भी दिया है कि-प्रमेयकमलमात्तण्डकी कुछ प्रतियों में यह अन्तिमवाक्य नहीं पाया जाता। और इसके लिए भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला दिया है । मैंने भी इस ग्रन्थका पुनः सम्पादन करते समय जैनसिद्धान्तभवन आराकी प्रतिके पाठान्तर लिए हैं। इसमें भी उक्त 'भोजदेवराज्ये' वाला वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्रके सम्पादनमें जिन आ०, ब०, श्र०, और भां० प्रतियोंका उपयोग किया है, उनमें आ० और ब० प्रतिमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये वाला प्रशस्ति लेख नहीं है। हाँ, भां और श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्र पर लिखी हैं, उनमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमें भां० प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिखी हुई है। इस तरह प्रैमेयकमलमार्तण्डकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हींमें 'श्रीपद्मनन्दि' श्लोक नहीं है तथा कुछ प्रतियोंमें सभी श्लोक और प्रशस्ति वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें 'जयसिंह
१ रत्नकरण्ड० प्रस्तावना पृ० ६० । २ देखो इनका परिचय न्यायकु० प्र० भाग के सम्पादकीयमें। .
३ पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके आधारसे सूचित करते हैं कि- 'भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटकी नं० ८३६ (सन् १८७५-७६) की प्रतिमें प्रशस्तिका 'श्रीपननन्दि' वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं। वहीं की नं० ६३८ (सन् १८७५-७६ ) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है। पहिली प्रति संवत् १४८९ तथा दूसरी संवत् १७९५ की लिखी हुई है ।" वीरवाणीविलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्वनाथशास्त्री अपने यहाँ की ताडपत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रितपुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना' आदि वाक्य हैं । प्रमेयकमलमार्तण्डकी प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोंमें शकसंवत् नहीं हैं।" सोलापुरकी प्रतिमें "श्रीभोजदेवराज्ये" प्रशस्ति नहीं है। दिल्लीकी आधुनिक प्रतिमें भी उक्तवाक्य नहीं है। अनेक प्रतियोंमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जानेवाले "सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है । इन्दौरकी तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी व्याख्या भी है। खुरईकी प्रतिमें 'भोजदेवराज्ये' प्रशस्ति नहीं है, पर चारों प्रशस्तिश्लोक हैं।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
देवराज्ये' प्रशस्तिवाक्य नहीं है । श्रीमान् मुख्तारसा० प्रायः इसीसे उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते।
इसके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थमें लगानेका प्रयत्न कम करते हैं । लेखक आखिर नकल करनेवाले लेखक ही तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना है कि वे 'श्री भोजदेवराज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्तिको खकपोलकल्पित करके उसमें जोड दें। जिन प्रतियोंमें उक्त प्रशस्ति नहीं है तो समझना चाहिए कि लेखकोंके प्रमादसे उनमें वह प्रशस्ति लिखी ही नहीं गई। जब अन्य अनेक प्रमाणोंसे प्रभाचन्द्रका समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्यकाल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंको टिप्पणकारकृत या किसी पीछे होनेवाले व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता। मेरा यह विश्वास है कि 'श्रीभोजदेवराज्ये' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' प्रशस्तियाँ सर्वप्रथम प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके रचयिता प्रभाचन्द्रने ही बनाई हैं। .
और जिन जिन ग्रन्थों में ये प्रशस्तियाँ पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्र के ही ग्रन्थ होने चाहिए।
२-यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यने शाकटायन व्याकरण और अमोघवृत्ति के सिवाय केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने अमोघवृत्ति, महारांज अमोघवर्षके राज्यकाल (ई० ८१४ से ८७७) में रची थी। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें शाकटायनके इन दोनों प्रकरणोंका खंडन आनुपूर्वांसे किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्तिप्रकरणसे एक कारिका भी उद्धृत की है । अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९०० से पहिले नहीं माना जा सकता।
३-सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षिगंणिकी एक वृत्ति उपलब्ध है। हम 'सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र' की तुलना में बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रने न्यायावतारके साथ ही साथ इस वृत्तिको भी देखा है। सिद्धर्षिने ई० ९०६ में अपनी उपमितिभवप्रपञ्चाकथा बनाई थी। अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभाचन्द्रका समय सन् ९१० के पहिले नहीं माना जा सकता।
४-भासर्वज्ञका न्यायसार ग्रन्थ उपलब्ध है। कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी खोपज्ञ न्यायभूषणा नामकी वृत्ति थी । इस वृत्तिके नामसे उत्तरकालमें इनकी भी भूषण' रूपमें प्रसिद्धि हो गई थी । न्यायलीलावतीकारके कथनसे' ज्ञात होता है कि भूषण क्रियाको संयोग रूप मानते थे। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञके इस मतका खंडन किया है । प्रमेयकमलमार्तण्डके छठवें अध्यायमें जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेलाभासोंका निरूपण है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए हैं । ख: डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण इनका समय
१ देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ० २८२ टि० ५। २ न्यायसार प्रस्तावना पृ० ५।
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प्रस्तावना
६३
ई० ९०० के लगभग मानते हैं। अतः प्रभाचन्द्रका समय भी ई. ९०० के बाद ही होना चाहिए।
५-आ० देवसेनने अपने दर्शनसार ग्रंथ (रचनासमय ९९० वि० ९३३ ई.) के बाद भावसंग्रह ग्रंथ बनाया है। इसकी रचना संभवतः सन् ९४० के आसपास हुई होगी। इसकी एक 'नोकम्मकम्महारो' गाथा प्रमेयकमलमार्तड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत है। यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो प्रभाचन्द्रका समय सन् ९४० के बाद होना चाहिए।
६-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमल और न्यायकुमुद० बनानेके बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका जैनेन्द्रन्यास रचा था। यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद इसीके आधारसे बनाया गया है। मैं 'अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र' की तुलना (पृ. ३९) करते हुए लिख आया हूँ कि नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतींके गुरु अभयनन्दिने ही यदि महावृत्ति बनाई है तो इसका रचनाकाल अनुमानतः ९६० ई० होना चाहिए । अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९६० से पहिले नहीं माना जा सकता।
"-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषाके महापुराण पर प्रभाचन्द्रने एक टिप्पण रचा है। इसकी प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना (पृ. ६१) में दी गई है। यह टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यकालमें लिखा गया है। पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन् ९६५ ई० में समाप्त किया था। टिप्पणकी प्रशस्तिसे तो यही मालूम होता है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र ही इस टिप्पणकर्ता हैं । यदि यही प्रभाचन्द्र इसके रचयिता हैं, तो कहना होगा कि प्रभाचन्द्रका समय ई० ९६५ के बाद ही होना चाहिए। यह टिप्पण इन्होंने न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना करके लिखा होगा। यदि यह टिप्पण प्रसिद्ध तर्कप्रन्थकार प्रभाचन्द्रका न माना जाय तब भी इसकी प्रशस्तिके श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें प्रमेयकमलमार्तण्ड
और न्यायकुमुदचन्द्रके प्रशस्तिश्लोकोंका एवं पुष्पिकालेखका पूरा पूरा अनुकरण किया गया है, प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्य कालतक निश्चित करनेमें साधक तो हो ही सकते हैं।
८-श्रीधर और प्रभाचन्द्रकी तुलना करते समय हम बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों पर श्रीधरकी कन्दली भी अपनी आभा दे रही है। श्रीधरने कन्दली टीका ई० सन् ९९१ में समाप्त की थी। अतः प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि ई० ९९० के करीब मानना और उनका कार्यकाल ई० १०२० के लगभग मानना संगत मालूम होता है। . .
९-श्रवणबेलगोलाके लेख नं० ४० (६४) में एक पद्मनन्दिसैद्धान्तिकका उल्लेख है और इन्हींके शिष्य. कुलभूषणके सधर्मा प्रभाचन्द्रको शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार लिखा है
१ देखो महापुराणकी प्रस्तावना।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
"अविद्धकर्णादिकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके। कौमारदेवव्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तु सो ज्ञाननिधिस्स धीरः ॥ १५ ॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधिः, सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभा
चन्द्राख्यो मुनिराजपण्डितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः ॥ १६ ॥" इस लेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र, शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार विशेषणोंके बलसे शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यास और प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंके कर्ता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही हैं । धवलाटीका पु० २ की प्रस्तावनामें ताडपत्रीय प्रतिका इतिहास बताते हुए प्रो० हीरालालजीने इस शिलालेखमें वर्णित प्रभाचन्द्रके समय पर सयुक्तिक ऐतिहासिक प्रकाश डाला है। उसका सारांश यह है-“उक्त शिलालेखमें कुलभूषणसे आगेकी शिष्यपरम्परा इस प्रकार है-कुलभूषणके सिद्धान्तवारांनिधि सद्वृत्त कुलचन्द्र नामके शिष्य हुए, कुलचन्द्रदेवके शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुरमें तीर्थ स्थापन किया । इनके श्रावक शिष्य थे-सामन्तकेदार नाकरस, सामन्त निम्बदेव और सामन्त कामदेव । माघनन्दिके शिष्य हुए-गण्डविमुक्तदेव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीर्ति, आदि। इस शिलालेखमें बताया है कि महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवने कोल्लापुरकी रूपनारायण वसदिके अधीन केलंगरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा जिननाथपुर में एक दानशाला स्थापित की थीं । उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनयके लिए महाप्रधान सर्वाधिकारि हिरिय भंडारी, अभिनवगङ्गदंडनायक श्री हुल्लराजने उनकी निषद्या निर्माण कराई, तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान व पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की । देवकीर्तिके समय पर प्रकाश डालने वाला शिलालेख नं. ३९ हैं । इसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतिरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर आषाढ शुक्ल ९ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है । और कहा गया है कि उनके शिष्य लक्खनन्दि माधवचन्द्र और त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा कराई। देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पाँच पीढी तथा कुलभूषण और प्रभाचन्द्रसे चार पीढी बाद हुए हैं। अतः इन आचार्योंको देवकीर्तिके समयसे १००-१२५ वर्ष अर्थात् शक ९५० (ई० १०२८) के लगभग हुए मानना अनुचित न होगा। उक्त आचार्योंके कालनिर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है-कुलचन्द्र मुनिके उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय कहे गए हैं। उनके गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्तका उल्लेख मिलता है जो शिलाहारनरेश गंडरादित्यदेवके.एक सामन्त थे । शिलाहार गंडरादित्यदेवके उल्लेख शक सं० १०३० से १०५८ तक के लेखों में पाए जाते हैं । इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है।"
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प्रस्तावना
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यह विवेचन शक सं० १०८५ में लिखे गए शिलालेखोंके आधारसे किया गया है। शिलालेखकी वस्तुओंका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह प्रश्न होता है कि जिस तरह प्रभाचन्द्रके सधर्मा कुलभूषणकी शिष्यपरम्परा दक्षिण प्रान्तमें चली उस तरह प्रभाचन्द्रकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख क्यों नहीं मिलता? मुझे तो इसका संभाव्य कारण यही मालूम होता है कि पद्मनन्दिके एक शिष्य कुलभूषण तो दक्षिणमें ही रहे और दूसरे प्रभाचन्द्र उत्तर प्रांतमें आकर धारा नगरीके आसपास रहे हैं। यही कारण है कि दक्षिणमें उनकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस शिलालेखीय अंकगणनासे निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि प्रभाचन्द्र भोजदेव और जयसिंह दोनोंके समयमें विद्यमान थे । अतः उनकी पूर्वावधि सन् ९९० के आसपास माननेमें कोई बाधक नहीं है। __ १०-वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें अनेकों पूर्वाचार्योंका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शक सं० ९४७ (ई० १०२५) में बनकर समाप्त हुआ था। इन्होंने अकलंकदेवके न्यायविनिश्चय प्रकरण पर न्यायविनिश्चयविवरण या न्यायविनिश्चयतात्पर्यावद्योतनी व्याख्यानरत्नमाला नामकी विस्तृत टीका लिखी है। इस टीकामें पचासों जैन-जैनेतर आचार्योंके ग्रन्थोंसे प्रमाण उद्धृत किए गए हैं। संभव है कि वादिराजके समयमें प्रभाचन्द्रकी प्रसिद्धि न हो पाई हो, अन्यथा तर्कशास्त्रके रसिक वादिराज अपने इस यशस्वी ग्रन्थकारका नामोल्लेख किए बिना न रहते । यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाण वतन्त्रभावसे किसी आचार्यके समयके साधक या बाधक नहीं होते फिर भी अन्य प्रबल प्रमाणोंके प्रकाशमें इन्हें प्रसङ्गसाधनके रूपमें तो उपस्थित किया ही जा सकता है। यही अधिक संभव है कि वादिराज और प्रभाचन्द्र समकालीन और सम-व्यक्तिखशाली रहे हैं अतः वादिराजने अन्य आचार्योंके साथ प्रभाचन्द्रका उल्लेख नहीं किया है।
अब हम प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधिके नियामक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं
१-ईसाकी चौदहवीं शताब्दीके विद्वान् अभिनवधर्मभूषणने न्यायदीपिका (पृ०.१६) में प्रमेयकमलमार्तण्डका उल्लेख किया है। इन्होंने अपनी न्यायदीपिका वि० सं० १४४२ (ई. १३८५) में बनाई थी। ईसाकी १३ वीं शता ब्दीके विद्वान् मल्लिषेणने अपनी स्याद्वादमञ्जरी (रचना समय ई० १२९३ ) में न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख किया है । ईसाकी १२ वीं शताब्दीके विद्वान् आ० मलयगिरिने आवश्यकनियुक्तिटीका (पृ. ३७१ A.) में लघीयस्त्रयकी एक कारिकाका व्याख्यान करते हुए 'टीकाकारके' नामसे न्यायकुमुदचन्द्रमें की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धृत की है। ईसाकी १२ वीं शताब्दीके विद्वान् देवभद्रने न्यायावतारटीकाटिप्पण (पृ. २१,७६) में तथा माणिक्यचन्द्र ने काव्यप्रकाश की टीका (पृ. १४) में प्रभाचन्द्र और उनके न्यायकुमुदचन्द्रका नामोल्लेख किया है । अतः इन १२ वीं शताब्दी तकके
* स्वामी समन्तभद्र पृ० २२७ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
विद्वानों के उल्लेखों के आधारसे यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है कि प्रभाचन्द्र ई० १२ वीं शताब्दीके बाद के विद्वान् नहीं है।
२-रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधितन्त्र पर प्रभाचन्द्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार *ने इन दोनों टीकाओंको एक ही प्रभाचन्द्रके द्वारा रची हुई सिद्ध किया है। आपके मतसे ये प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयितासे भिन्न हैं । रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० आशाधरजी द्वारा अनागारधर्मामृत टीका (अ० ८ श्लो. ९३) में किये जाने के कारण इस टीकाका रचना काल वि० सं० १३०० से पहिलेका अनुमान किया गया है; क्योंकि अनागारधर्मामृत टीका वि० सं० १३०० में बनकर समाप्त हुई थी । अन्ततः मुख्तारसा. इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते हैं । अस्तु, फिलहाल मुख्तारसा. के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल वि० १२५० (ई० ११९३) ही मान कर प्रस्तुत विचार करते हैं।
रत्नकरण्डश्रावकाचार (पृ. ६) में केवलिकवलाहारके खंडनमें न्यायकुमुदचन्द्रगत शब्दावलीका पूरा पूरा अनुसरण करके लिखा है कि-"तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपणात् ।" इसी तरह समाधितन्त्र टीका (पृ० १५) में लिखा है कि-"यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः।" इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ इन टीकाओंसे पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचन्द्र ईसा की १२ वीं शताब्दीके बादके विद्वान् नहीं हैं।
३-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३ तथा स्वर्गवास वि० सं० १२२२ में हुआ था। ये वि० सं० ११७४ में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे। संभव है इन्होंने वि० सं० ११७५ (ई० १११८) के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वादरत्नाकरमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब चर्चा में प्रभाचन्द्र और प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका नामोल्लेख करके खंडन भी किया गया है। अतः प्रभाचन्द्रकै समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११०० सुनिश्चित हो जाती है। __ ४-जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठ पर श्रुतकीर्तिने पंचवस्तुप्रक्रिया बनाई है। श्रुतकीर्ति कनड़ीचन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके गुरु थे। अग्गलकविने शक १०११ ई० १०८९ में चन्द्रप्रभचरित्र पूर्ण किया था । अतः श्रुतकीर्तिका समय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने अपनी प्रक्रियामें एक न्यास ग्रन्थका उल्लेख किया है। संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत
* रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका पृ० ६६ से । १ देखो-इसी प्रस्तावनाका 'श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र' अंश, पृ० ४२ ।
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प्रस्तावना
शब्दाम्भोजभास्कर नामका ही न्यास हो । यदि ऐसा है तो प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। शिमोगा जिलेके शिलालेख नं० ४६ से ज्ञात होता है कि पूज्यपादने भी जैनेन्द्रन्यासकी रचना की थी। यदि श्रुतकीर्तिने न्यास पदसे पूज्यपादकृत न्यासका निर्देश किया है तव 'टीकामाल' शब्दसे सूचित होनेवाली टीकाकी मालामें तो प्रभाचन्द्रकृत शब्दांम्भोजभास्करको पिरोया ही जा सकता है। इस तरह प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंके आधारसे हम प्रभाचन्द्रका समय सन् ९८० से १०६५ तक निश्चित कर सकते हैं। इन्हीं उल्लेखोंके प्रकाशमें जब हम प्रमेयकमलमार्तण्डके 'श्री भोजदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेख तथा न्यायकुमुदचन्द्रके 'श्री जयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखको देखते हैं तो वे अत्यन्त प्रामाणिक मालूम होते हैं। उन्हें किसी टीका टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता। __ उपर्युक्त विवेचनसे प्रभाचन्द्रके समयकी पूर्वावधि और उत्तरावधि करीब करीव भोजदेव और जयसिंह देवके समय तक ही आती है। अतः प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें पाए जाने वाले प्रशस्ति लेखोंकी प्रामाणिकता
और प्रभाचन्द्रकर्तृतामें सन्देहको कोई स्थान नहीं रहता। इसलिए प्रभाचन्द्रका समय ई० ९८० से १०६५ तक माननेमें कोई बाधा नहीं है* ।
६३. अमाचन्द्र के ग्रन्थ
आ० प्रभाचन्द्रके जितने ग्रन्थोंका अभी तक अन्वेषण किया गया है उनमें कुछ खतन्त्र ग्रन्थ हैं तथा कुछ व्याख्यात्मक । उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुखव्याख्या ), न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय व्याख्या), तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण ( सर्वार्थसिद्धि व्याख्या ), और शाकटायनन्यास (शाकटायनव्याकरणव्याख्या ) इन चार ग्रन्थोंका परिचय न्यायकुमुदचन्द्रके प्रथमभागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका
* प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथमसंस्करणके सम्पादक पं. बंशीधरजी शास्त्री सोलापुरने उक्त संस्करण के उपोद्घातमें श्रीभोजदेवराज्ये प्रशस्तिके अनुसार प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सूचित किया है। और आपने इसके समर्थन के लिए 'नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाओंका प्रमेयकमलमार्तण्डमें उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित किया है । पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नहीं है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें 'विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपऐसे' गाथाएँ उद्धृत हैं । पर ये गाथाएँ नेमिचन्द्रकृत नहीं हैं । पहिली गाथा धवलाटीका (रचनाकाल ई० ८१६) में उद्धृत है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रशप्तिमें भी पाई जाती है । दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० ६ वीं) कृत सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत है। अतः इन प्राचीन गाथाओंको नेमिचन्द्रकृत नहीं माना जा सकता। अवश्य ही इन्हें नेमिचन्द्रने जीवकाण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संगृहीत किया है। अतः इन गाथाओंका उद्धृत होना ही प्रभाचन्द्र के समयको ११ वीं सदी नहीं साध सकता।
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प्रसेयकमलमार्तण्ड -
है । यहाँ उनके शब्दाम्भोजभास्कर (जैनेन्द्रव्याकरण महान्यास ); प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारटीका ) और गद्यकथाकोश का परिचय दिया जाता है। महापुराणटिप्पण आदि भी इन्हींके ग्रन्थ हैं । इस परिचयके पहिले हम 'शाकटायनन्यास' के कर्तृव पर विचार करते है— भाई पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने शिलालेख तथा किंवदन्तियोंके आधारसे शाकटायनन्यासको प्रभाचन्द्रकृत लिखा है* । शिमोगा जिलेके नगरतालुकेके शिलालेख नं० ४६ ( एपि० कर्ना० पु. ८ . भा० २ पृ. २६६-२७३ ) में प्रभाचन्द्रकी प्रशंसापरक ये दो श्लोक हैं
"माणिक्यनन्दिजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमर्दी। चित्रं प्रभाचन्द्र इह क्षमायां मार्तण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपित ॥ सुखिन्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः ।
शाकटायनकृत्सूत्रन्यासकर्ने व्रतीन्दवे ॥" जैनसिद्धान्तभवन आरामें वर्धमानमुनिकृत दशभक्त्यादिमहाशास्त्र है। उसमें भी ये श्लोक हैं। उनमें 'सुखि...' की जगह 'सुखीशे' तथा 'व्रतीन्दवे' के स्थानमें 'प्रभेन्दवे' पाठ है । यह शिलालेख १६ वीं शताब्दीका है और वर्धमानमुनिका समय भी १६ वीं शताब्दी ही है। शाकटायनन्यासके प्रथम दो अध्यायोंकी प्रतिलिपि स्याद्वादविद्यालयके सरस्वतीभवनमें मौजूद है। उसको सरसरी तौर से पलटने पर मुझे इसके प्रभाचन्द्रकृत होनेमें निम्नलिखित कारणों से सन्देह उत्पन्न हुआ है- .
* न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० १२५ ।
इस शिलालेखके अनुवादमें राइस सा० ने आ० पूज्यपादको ही न्यायकुमुदचन्द्रोदय और शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। यह गलती आपसे इसलिये हुई कि इस श्लोकके बाद ही पूज्यपादकी प्रशंसा करनेवाला एक श्लोक है, उसका अन्वय आपने भूलसे "सुखि” इत्यादि श्लोकके साथ कर दिया है । वह श्लोक यह है
"न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपाद
खामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः ॥" थोड़ी सी सावधानीसे विचार करने पर यह स्पष्ट मालूम होता जाता है कि 'सुखि' इत्यादि श्लोकके चतुर्थ्यन्त पदोंका 'न्यास' वाले लोकसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है। ब्र० शीतलप्रसादजीने 'मद्रास और मैसूरप्रान्तके स्मारक' में तथा प्रो० हीरालालजीने 'जैनशिलालेख संग्रह' की भूमिका (पृ० १४१) में भी राइस सा० का अनुसरण करके इसी गलतीको दुहराया है।
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प्रस्तावना
६९ १-इस ग्रन्थमें मंगलश्लोक नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थमें मंगलाचरण नियमित रूपसे करते हैं।
२-सन्धियोंके अन्तमें तथा ग्रन्थमें कहीं भी प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थमें 'इति प्रभाचन्द्रविरचिते' आदि पुष्पिकालेख या 'प्रमेन्दुर्जिनः' आदि रूप से अपना नामोल्लेख करनेमें नहीं चूकते।
३-प्रभाचन्द्र अपनी टीकाओंके प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दाम्भोजभास्कर आदि नाम रखते हैं जब कि इस ग्रन्थके इन श्लोकोंमें इसका कोई खास नाम सूचित नहीं होता
"शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः। प्रसिद्धस्य महामोघवृत्तेरपि विशेषतः ॥ सूत्राणां च विवृतिर्लिख्यते च यथामति ।
प्रन्थस्यास्य च न्यासेति (?) क्रियते नामनामतः ॥" ४-शाकटायन यापनीयसंघके आचार्य थे और प्रभाचन्द्र थे कट्टर दिगम्बर । इन्होंने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरणोंका खंडन भी किया है । अतः शाकटायनके व्याकरणपर प्रभाचन्द्रके द्वारा न्यास लिखा जाना कुछ समझमें नहीं आता।
५-इस न्यासमें शाकटायनके लिए प्रयुक्त 'संघाधिपति, महाश्रमणसंघप' आदि विशेषणों का समर्थन है। यापनीय आचार्यके इन विशेषणोंके समर्थनकी आशा प्रभाचन्द्र द्वारा नहीं की जा सकती । यथा"एवंभूतमिदं शास्त्रं चतुरध्यायरूपतः, संघाधिपतिः श्रीमानाचार्यः शाकटायनः । महतारभते तत्र महाश्रमणसंघपः, श्रमेण शब्दतत्त्वं च विशदं च विशेषतः ॥ . महाश्रमणसंघाधिपतिरित्यनेन मनःसमाधानमाख्यायते । विषयेषु विक्षिप्तचेतसो न मनःसमाधि.."असमाहितचेतसश्च किं नाम शास्त्रकरणम् , आचार्य इति तु शब्दविद्याया गुरुत्वं शाकटायन इति अन्वयबुद्धिप्रकर्षः, विशुद्धान्वयो हि शिष्टरुपलीयते । महाश्रमणसंघाधिपतेः सन्मार्गानुशासनं युक्तमेव..."
६-प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें जैनेन्द्रव्याकरणसे ही सूत्रोंके उद्धरण दिए हैं जिसपर उनका शब्दाम्भोजभास्कर न्यास है। __* मैसूर यूनि० में न्यासग्रन्थकी दूसरे अध्यायके चौथे पादके १२४.सूत्र तक की कापी है (नं. A. 605)। उसमें निम्नलिखित मंगलश्लोक हैं
"प्रणम्य जयिनः प्राप्त विश्वव्याकरणश्रियः । शब्दानुशासनस्येयं वृत्तेर्विवरणोधमः ॥ अस्मिन् भाष्याणि भाष्यन्ते वृत्तयो वृत्तिमाश्रिताः। न्यासा न्यस्ताः कृताः टीकाः पारं पारायणान्ययुः॥ तत्र वृत्ता (त्या) दावयं मंगलश्लोकः श्रीवीरममृतमित्यादि।"
परन्तु इन श्लोकोंकी रचनाशैली प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदि के मंगलश्लोकोंसे अत्यन्त विलक्षण है।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
यदि शाकटायनपर भी उनका न्यास होता तो वे एकाध स्थानपर तो शाकटायनव्याकरणके सूत्र उद्धृत करते।
७-प्रभाचन्द्र अपने पूर्वग्रन्थोंका उत्तरग्रन्थोंमें प्रायः उल्लेख करते हैं। यथा न्यायकुमुदचन्द्रमें तत्पूर्वकालीन प्रमेयकमलमार्तण्डका तथा शब्दाम्भोजभास्कर में न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड दोनोंका उल्लेख पाया जाता है। यदि शाकटायनन्यास उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके पहिले वनाया होता तो प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिमें शाकटायनव्याकरणके सूत्रों के उद्धरण होते और इस न्यासका उल्लेख भी होता । यदि यह उत्तरकालीन रचना है तो इसमें प्रमेयकमल आदिका उल्लेख होना चाहिये था जैसा कि शब्दाम्भोजभास्करमें देखा जाता है।
८-शब्दाम्भोजभास्कर में प्रभाचन्द्रकी भाषाकी जो प्रसन्नता तथा प्रावाहिकता है वह इस दुरूह न्यासमें नहीं देखी जाती । इस शैलीवैचित्र्यसे भी इसके प्रभाचन्द्रकृत होनेमें सन्देह होता है । प्रभाचन्द्रने शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास बनाया था और इसलिए उनकी न्यासकारके रूपसे भी प्रसिद्धि रही है। मालूम होता कि वर्धमानमुनिने प्रभाचन्द्रकी इसी प्रसिद्धिके आधार से इन्हें शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह न्यास स्वयं शाकटायनने ही बनाया होगा । अनेक वैयाकरणोंने अपने ही व्याकरण पर न्यास लिखे हैं। .
शब्दाम्भोजभास्कर-श्रवणवेल्गोलके शिलालेख नं. ४० (६४ ) में प्रभाचन्द्रके लिये 'शब्दाम्भोजदिवाकरः' विशेषण भी दिया गया है। इस अर्थगर्भ विशेषणसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रमेयकलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे प्रथिततर्क ग्रन्थोंके कर्ता प्रथिततर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रव्याकरण महान्यासके रचयिता हैं । ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरखतीभवनकी अधूरी प्रतिके आधारसे इसका टुक परिचय यहाँ दिया जाता है। यह प्रति संवत् १९८० में देहलीकी प्रतिसे लिखाई गई है । इसमें जैनेन्द्रव्याकरणके मात्र तीन अध्यायका ही न्यास है सो भी बीचमें जगह जगह त्रुटित है। ३९ से ६७ नं० के पत्र इस प्रतिमें नहीं हैं। प्रारम्भके २८ पत्र किसी दूसरे लेखकने लिखे हैं। पत्रसंख्या २२८ है । एक पत्रमें १३ से १५ तक पंक्तियाँ और एक पंक्तिमें ३९ से' ४३ तक अक्षर हैं । पत्र बड़ी साइजके हैं। मंगलाचरण
"श्रीपूज्यपादमकलङ्कमनन्तबोधम् , शब्दार्थसंशयहरं निखिलेषु वोधम् । सच्छब्दलक्षणमशेषमतः प्रसिद्धं वक्ष्ये परिस्फुटमलं प्रणिपत्य सिद्धम् ॥ १॥ सविस्तरं यद् गुरुभिः प्रकाशितं महामतीनामभिधानलक्षणम् । मनोहरैः स्वल्पपदैः प्रकाश्यते. महद्भिरुपदिष्टि याति सर्वापिमार्गे (?)
"तदुक्त कृतशिक्ष (१ ) श्लाघ्यते तद्धि तस्य । किमुक्तमखिलज्ञैर्भाषमाणे गणेन्द्रो विविक्तमखिलार्थ श्लाघ्यतेऽतो मुनीन्द्रः ॥३॥
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प्रस्तावना
७१ शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताहर्निशम् , यो यः सारतरो विचारचतुरस्तल्लक्षणांशो गतः । तं स्वीकृत्य तिलोत्तमेव विदुषां चेतश्चमत्कारकः,
सुव्यक्तैरसमैः प्रसन्नवचनैासः समारभ्यते ॥ ४ ॥ श्रीपूज्यपादस्वामि (मी) विनेयानां शब्दसाधुलासाधुत्वविवेकप्रतिपत्त्यर्थं शब्दलक्षणप्रणयनं कुर्वाणो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमायादिकमभिलषन्निष्टदेवतास्तुतिविषयं नमस्कुर्वन्नाह-लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य..."
यह न्यास अभयनन्दिकृत जैनेन्द्रमहावृत्तिके वाद बनाया गया है। इसमें महावृत्तिके शब्द आनुपूर्वीसे ले लिए गए हैं और कहीं उनका व्याख्यान भी किया है। यथा___ "सिद्धिरनेकान्तात्-प्रकृत्यादिविभागेन व्यवहाररूपा श्रोत्रग्राह्यतया परमार्थतो. पेता प्रकृत्यादिविभागेन च शब्दानां सिद्धिरनेकान्ताद् भवतीत्यर्थाधिकार आशास्त्रपरिसमाप्तेर्वेदितव्यः । अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वसामान्यसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकः अन्तः स्वभावो यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः अनेकात्मा इत्यर्थः”–महावृत्ति पृ० २।
. "द्विविधा च शब्दानां सिद्धिः व्यवहाररूपा परमार्थरूपा चेति । तत्र प्रकृतीत्य () विकारागमादिविभागेन रूपा तत्सिद्धिः तद्भेदस्यात्र प्राधान्यात् । श्रोत्रग्राह्यौ(ह्याः) परमार्थतो ये प्रकृत्यादिविभागाः प्रमाणनयादिभिरभिगमोपायैः शब्दानां तत्त्वप्रतिपत्तिः परमार्थरूपा सिद्धिः तद्भेदस्यात्र प्राधान्यात्, सामयितेषां सिद्धिरनेकान्ताद्भवतीत्येषोऽधिकारः आशास्त्रपरिसमाप्तेर्वेदितव्यः । अथ कोऽयमनेकान्तो नामेत्याह-अस्तित्वनास्तिवनित्यत्वानित्यवसामान्यसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासावनेकान्तः अनेकान्तात्मक इत्यर्थः"शब्दाम्भोजभास्कर पृ० २ A। ।
इस तुलनासे तथा तृतीयाध्यायके अन्तमें लिखे गए इस श्लोकसे अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद बनाया गया है__
“नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने ।
प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥” इस श्लोकमें अभयनन्दिको नमस्कार किया गया है। प्रत्येक पादकी समाप्तिमें "इति प्रभाचन्द्रविरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्रव्याकरणमहान्यासे द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः" इसी प्रकारके पुष्पिकालेख हैं। तृतीय अध्यायके अन्तमें निम्नलिखित पुष्पिका तथा श्लोक है
"इति प्रभाचन्द्रविरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्रव्याकरणमहान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ श्रीवर्धमानाय नमः ॥
सन्मार्गप्रतिबोधको बुधजनैः संस्तूयमानो हठात् । अज्ञानान्धतमोपहः क्षितितले श्रीपूज्यपादो महान् ॥
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प्रमेयकमलमार्तण्ड सार्वः सन्ततसत्रिसन्धिनियतः पूर्वापरानुक्रमः। शब्दाम्भोजदिवाकरोऽस्तु सहसा नः श्रेयसे यं च वै ॥ नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने।
प्रभाचन्द्राय गुरुवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥ छ ॥ श्री वासुपूज्याय नमः । श्री नृपतिविक्रमादित्यराज्येन संवत् १९८० मासोत्तममासे चैत्र शुक्लपक्षे एकादश्यां ११ श्री महावीर संवत् २४४९ । हस्ताक्षर छाजूराम जैन विजेश्वरी लेखक पालम (सूबा देहली )"
जैनेन्द्रव्याकरणके दो सूत्र पाठ प्रचलित हैं-एक तो वह जिस पर अभयनन्दिने महावृत्ति, तथा श्रुतकीर्तिने पञ्चवस्तु नामकी प्रक्रिया वनाई है; और दूसरा वह जिस पर सोमदेवसूरिकृत शब्दार्णवचन्द्रिका है। पं० नाथूरामजी प्रेमीने' अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन तथा पूज्यपादकृत मूलसूत्रपाठ सिद्ध किया है। प्रभाचन्द्रने इसी अभयनन्दिसम्मत प्राचीन सूत्रपाठ पर ही अपना यह शब्दाम्भोजभास्कर नामका महान्यास बनाया है।
आ० प्रभाचन्द्रने इस ग्रन्थको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचनाके बाद बनाया है जैसा कि उनके निम्नलिखित वाक्यसे सूचित होता है
"तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिध्यति तथा प्रपञ्चतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।"
प्रभाचन्द्र अपने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३२९ ) में प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ देखनेका अनुरोध इसी तरहके शब्दोंमें करते हैं-"एतच्च प्रमेयकमलमार्तण्डे सप्रपञ्चं प्रपञ्चितमिह द्रष्टव्यम् ।”
व्याकरण जैसे शुष्क शब्दविषयक इस ग्रन्थमें प्रभाचन्द्रकी प्रसन्न • लेखनीसे प्रसूत दर्शनशास्त्रकी क्वचित् अर्थप्रधान चर्चा इस ग्रन्थके गौरवको असाधारणतया बढ़ा रही है। इसमें विधिविचार, कारकविचार, लिंगविचार जैसे अनूठे प्रकरण हैं जो इस ग्रन्थको किसी भी दर्शनग्रन्थकी कोटिमें रख सकते हैं। इसमें समन्तभद्रके युक्त्यनुशासन तथा अन्य अनेक आचार्योंके पद्योंको प्रमाण रूपसे
१ देखो-जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' लेख, जैनसाहित्य संशोधक भाग १ अंक २। ' २ पंडित नाथूलाल शास्त्री इन्दौर सूचित करते हैं कि तुकोगंज इन्दौरके ग्रन्थभण्डारमें भी शब्दाम्भोजभास्करके तीन ही अध्याय हैं । उसका मंगलाचरण तथा अन्तिम प्रशस्तिलेख बन्बईकी प्रतिके ही समान है । पं० भुजबलीजी शास्त्रीके पत्रसे शात हुआ है कि कारकलके मंठमें भी इसकी प्रति है । इस प्रति में भी तीन अध्यायका न्यास हैं। प्रेमीजी सूचित करते हैं कि बंबईके भवनमें इसकी एक प्राचीन प्रति है उसमें चतुर्थ अध्यायके तीसरे पादके २११ वें सूत्र तकका न्यास है, आगे नहीं । हो सकता है कि यह प्रभाचन्द्रकी अन्तिमकृति ही हो और इसलिए पूर्ण न हो सकी हो।
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- प्रस्तावना
उद्धृत किया है । पृ० ९१ में "विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता' प्रयोगका हृदयप्राही व्याख्यान किया है । इस तरह क्या भाषा, क्या विषय और क्या प्रसन्नशैली, हर एक दृष्टि से प्रभाचन्द्रका निर्मल और प्रौढ़ पाण्डित्य इस ग्रन्थमें उदात्तभावसे निहित है।
प्रवचनसारसरोजभास्कर-यदि प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलको विकसित करनेके लिए मार्तण्ड बनानेके पहिले प्रवचनसारसरोजके विकासार्थ भास्करका उदय किया हो तो कोई अनहोनी बात न होकर अधिक संभव और निश्चित बात मालूम होती है। (प्रमेय ) कमलमार्तण्ड, (न्याय) कुमुदचन्द्र, (शब्द) अम्भोजभास्कर जैसे सुन्दर नामोंकी कल्पिका प्रभाचन्द्रीय बुद्धिने ही ( प्रवचनसार) सरोजभास्करका उदय किया है । इस ग्रन्थकी संवत् १५५५ की लिखी हुई जीर्ण प्रति हमारे सामने है। यह प्रति ऐलक पन्नालाल सरखती भवन वम्बईकी है। इसका परिचय संक्षेपमें इस प्रकार है' पत्रसंख्या ५३, श्लोकसंख्या १७४६, साइज १३४६ । एक पत्रमें १२ पंक्तियां तथा एक पंक्तिमें ४२-४३ अक्षर हैं। लिखावट अच्छी और शुद्धप्राय है । प्रारम्भ
"ओं नमः सर्वज्ञाय शिष्याशयः । वीरं प्रवचनसारं निखिलार्थ निर्मलजनानन्दम् ।
वक्ष्ये सुखावबोधं निर्वाणपदं प्रणम्याप्तम् ॥ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः सकललोकोपकारकं मोक्षमार्गमध्ययनरुचिविनेयाशयक्शेनोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेष शास्त्रस्यादौ नमस्कुर्वन्नाह ॥ छ ॥ एस सुरासुर".।"
अन्त-"इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे शुभोपयोगाधिकारः समाप्तः ॥छ॥ संवत् १५५५ वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे पून्य(र्णि)मायां तिथौ गुरुवासरे गिरिपुरे व्या० पुरुषोत्तम लि० ग्रन्थसंख्या षट्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि ॥ १७४६ ॥" __ मध्यकी सन्धियोंका पुष्पिकालेख-"इति श्री प्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे..." है।
इस टीका में जगह जगह उद्धृत दार्शनिक अवतरण, दार्शनिक व्याख्यापद्धति एवं सरल प्रसन्नशैली इसे न्यायकुमुदचन्द्रादिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी कृति सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं। अवतरण-(गा० २।१० ) "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नामौ तुलान्तयोः” ( गा० २।२८) "खोपात्तकर्मवशाद् भवाद् भवान्तरावाप्तिः संसारः" इनमें दूसरा अवतरण राजवार्तिक का तथा प्रथम किसी बौद्ध
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
ग्रन्थका है। ये दोनों अवतरण प्रमेयकमल और न्यायकुमुद० में भी पाए जाते हैं । इस व्याख्याकी दार्शनिक शैलीके नमूने
(गा० २।१३ ) "यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमसदा. त्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति; यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुवं निश्चयेन न तं तत् भवति । कथं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् । हवदिपुणो अण्णं वा । अथ सत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा अतः पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ताकल्पन्ध व्यर्था । सत्तासम्बन्धात्सत्त्वे चान्योन्याश्रयः-सिद्धे हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याञ्च सम्बन्धसिद्धौ सत्यां तत्सत्त्वसिद्धिरिति । तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः । तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् ।” (गा० २।१६) ".."तथाहि-द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् गुणपर्यायान् गुणपर्यायैर्वा द्रोष्यते द्रुतं वा द्रव्यमिति । गम्यते उपलभ्यते द्रव्यमनेनेति गुणः । द्रव्यं वा द्रव्यान्तरात् येन विशिष्यते स गुणः । इत्येतस्मादर्थविशेषात् यद् द्रव्यस्य गुणरूपे गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेणाभवनं एसो एष हि अतद्भावः ।” इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रीय और जयसेनीय टीकाओंसे इस टीकाकी तुलना करने पर इसकी दार्शनिकप्रसूतता अपने आप झलक मारती है। इस टीकाका जयसेनीयटीका पर प्रभाव है और जयसेनीयटीकासे यह निश्चय ही पूर्वकालीन है।
अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी जिन ३६ गाथाओंकी व्याख्या नहीं की है प्रायः वे गाथाएँ प्रवचनसारसरोजभास्करमें यथास्थान व्याख्यात हैं। जयसेनीयटीकामें प्रभाचन्द्रका अनुसरण करते हुए इन गाथाओंकी व्याख्या की गई है। हाँ, जयसेनीयटीकामें दो तीन गाथाएँ अतिरिक्त भी हैं । इस टीकाका लक्ष्य है गाथाओंका संक्षेपसे खुलासा करना । परन्तु प्रभाचन्द्र प्रारम्भसे ही दर्शनशास्त्रके विशिष्ट अभ्यासी रहे हैं इसलिए जहाँ खास अवसर आया वहाँ उन्होंने संक्षेपसे दार्शनिक मुद्दोंका भी निर्देश किया है।
प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें भावत्रिभंगीकार श्रुतमुनिके 'सारत्रयनिपुण प्रभाचन्द्र' के उल्लेखसे प्रवचनसारसरोजभास्करके कर्ताका समय १४ वीं सदीका प्रारम्भिक भाग सूचित किया है । परन्तु यह संभावना किसी दृढ़ आधार से नहीं की गई है।
जयसेनीय टीकापर इसका प्रभाव होनेसे ये उनसे प्राकालीन तो हैं ही। आ० जयसेन अपनी टीका में (पृ. २९) केवलिकवलाहारके खंडनका उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि-"अन्येपि पिण्डशुद्धिकथिता बहवो दोषाः ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्या अत्र चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्ते ।" सम्भव है यहाँ तर्कशास्त्रसे प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिकी विवक्षा हो । अस्तु, मुझे तो यह संक्षिप्त पर विशद टीका प्रभाचन्द्राचार्यकी प्रारम्भिककृति मालूम होती है।
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' प्रस्तावना
गद्यकथाकोश-यह प्रन्थ भी इन्हीं प्रभाचन्द्रका मालूम होता है । इसकी प्रतिमें ८९ वीं कथाके बाद "श्रीजयसिंहदेवराज्ये" प्रशस्ति है । इसके प्रशस्ति श्लोकोंका प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके प्रशस्तिश्लोकोंसे पूरा पूरा सादृश्य - है। इसका मंगलश्लोक यह है
"प्रणम्य मोक्षप्रदमस्तदोषं प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेन्द्रम् ।
वक्ष्येऽत्र भव्यप्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धः ॥" ८९ वीं कथाके अनन्तर "जयसिंहदेवराज्ये" प्रशस्ति लिखकर ग्रन्थ समाप्त कर दिया गया है । इसके अनन्तरं भी कुछ कथाएँ लिखीं हैं । और अन्तमें "सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः" श्लोक तथा “इति भट्टारकप्रभाचन्द्रकृतः कथाकोशः समाप्तः” यह पुष्पिकालेख है । इस तरह इसमें दो स्थलों पर ग्रन्थसमाप्तिकी सूचना है जो खासतौरसे विचारणीय है। हो सकता है कि प्रभाचन्द्रने प्रारम्भकी ८९ कथाएँ ही बनाई हों और बादकी कथाएँ किसी दूसरे भट्टारकप्रभाचन्द्रने । अथवा लेखकने भूलसे ८९ वीं कथाके बाद ही ग्रन्थसमाप्तिसूचक पुष्पिकालेख लिख दिया हो। इसको खासतौरसे जाँचे बिना अभी विशेष कुछ कहना शक्य नहीं है।
मेरे विचारसे प्रभाचन्द्रने तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण और प्रवचनसारसरोजभास्कर भोजदेवके राज्यसे पहिले अपनी प्रारम्भिक अवस्थामें बनाए होंगे यही कारण है कि उनमें 'भोजदेवराज्ये' या 'जयसिंहदेवराज्ये कोई प्रशस्ति नहीं पाई जाती और न उन ग्रन्थोंमें प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिका उल्लेख ही पाया जाता है। इस तरह हम प्रभाचन्द्रकी ग्रन्थरचनाका क्रम इस प्रकार समझते हैं-तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, प्रवचनसारसरोजभास्कर, प्रेमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दा
१ न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० १२२
"यैराराध्य चतुर्विधामनुपमामाराधनां निर्मलाम् । प्राप्तं सर्वसुखास्पदं निरुपमं स्वर्गापवर्गप्रदा ( ? )। तेषां धर्मकथाप्रपञ्चरचनास्वाराधना संस्थिता । स्थेयात् कर्मविशुद्धिहेतुरमला चन्द्रार्कतारावधि ॥ १ ॥ सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः पदैः प्रभाचन्द्रकृतः प्रबन्धः ।
कल्याणकालेऽथ जिनेश्वराणां सुरेन्द्रदन्तीव विराजतेऽसौ ॥ २॥ श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः।"
२ योगसूत्रपर भोजदेवकी राजमार्तण्ड नामक टीका पाई जाती है । संभव है प्रमेयकमलमार्तण्ड और राजमार्तण्ड नाम.परस्पर प्रभावित हों।
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
म्भोजभास्कर, महापुराणटिप्पण और गद्यकथाकोश । श्रीमान् प्रेमीजीने रत्नकरण्ड.
१ पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारने रलकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावनामें रत्नकरण्डश्रावकाचारकी टीका और समाधितत्रटीकाको एकही प्रभाचन्द्र द्वारा रचित सिद्ध किया है; जो ठीक है । पर आपने इन प्रभाचन्द्रको प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रसे भिन्न सिद्ध करनेका जो प्रयत्न किया है वह वस्तुतः दृढ़ प्रमाणों पर अवलम्बित नहीं है । आपके मुख्यप्रमाण हैं कि-"प्रभाचन्द्रका आदिपुराणकारने सरण किया है इस लिए ये ईसाकी नवमशताब्दीके विद्वान् हैं, और इस टीकामें यशस्तिलकचम्पू (ई० ९५९) वसुनन्दिश्रावकाचार ( अनुमानतः वि. की १३ वीं शताब्दीका पूर्व भाग ) तथा पद्मनन्दि उपासकाचार (अनुमानतः वि० सं० १९८०) के श्लोक उद्धृत पाए जाते हैं, इसलिए यह टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी नहीं हो सकती ।" इनके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-जब प्रभा. चन्द्र का समय अन्य अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध होता है तब यदि ये टीकाएँ भी उन्हीं प्रभाचन्द्रकी ही हों तो भी इनमें यशस्तिलकचम्पू और नीतिवाक्यामृतके वाक्योंका उद्धृत होना अस्वाभाविक एवं अनैतिहासिक नहीं है। वसुनन्दि और पद्मनन्दिका समय भी विक्रमकी १२ वी और तेरहवीं सदी अनुमानमात्र है, कोई दृढ़ प्रमाण इसके साधक नहीं दिए गए हैं। पद्मनन्दि शुभचन्द्र के शिष्य थे यह बात पद्मनन्दिके ग्रन्थसे तो नहीं मालूम होती। वसुनन्दिकी 'पडिगहमुच्चट्ठाणं' गाथा स्वयं उन्हीं की बनाई है या अन्य किसी आचार्यकी यह भी अभी निश्चित नहीं है। पद्मनन्दिश्रावकाचारके 'अध्रुवाशरणे' आदि श्लोक भी रत्नकरण्डटीकामें पद्मनन्दिका नाम लेकर उद्धृत नहीं हैं और न इन लोकोंके पहिले 'उक्तं च, तथा चोक्तम्' आदि कोई पद ही दिया गया है जिससे इन्हें उद्धृत ही माना जाय । तात्पर्य यह कि मुख्तार सा० ने इन टीकाओंके प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न होने में जो प्रमाण दिए हैं वे दृढ़ नहीं हैं । रत्नकरण्डटीका तथा समाधितत्रटीकामें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्टशैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही होनी चाहिए। वे उल्लेख इस प्रकार हैं- .
"तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूप-- णात्"-रत्नक० टी० पृ० ६ । “यैः पुनर्योगसांख्यैर्मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः।"-समाधितन्त्रटी० पृ० १५ ।
इनः दोनो अवतरणोंकी प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित अवतरणसे तुलना करने पर स्पष्ट मालूम हो जाता है कि शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त. टीकाओंको बनाया है"तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिध्यति तथा प्रमेयकमल. मार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।"-शब्दाम्भोजभास्कर।
प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका अक्षरशः सादृश्य है । इति ।
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प्रस्तावना
टीका, समाधितन्त्रटीका क्रियाकलापटीकाण, आत्मानुशासनतिलको आदि ग्रन्थोंकी
. * क्रियाकलापटीकाकी एक लिखित प्रति बम्बईके सरस्वती भवनमें है। उसके. मंगल और प्रशस्ति श्लोक निम्नलिखित हैं
मंगल-"जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपम् । अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥" प्रशस्ति-"वन्दे मोहतमोविनाशनपटुस्त्रैलोक्यदीपप्रभुः संमृद्धर्तिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः । सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रकिरणः श्रीपद्मनन्दिप्रभुः तच्छिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः ॥ १॥ यो रात्रौ दिवसे पृथि प्रयता (?) दोपा यतीनां कुतो प्योपाताः (2) प्रलये तु. रमलस्तेषां.महादर्शितः । श्रीमद्गौतमनाभिभिर्गणधरैलोकत्रयोद्योतकैः, सव्यक् (?) सकलोऽप्यसौ यतिपतेर्जातः प्रभाचन्द्रतः ॥२॥ या (यत्) सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयम्, नो वान्छाकलितन्न दोषमलिनं न श्वासतुद्र (रुद्ध) क्रमम् । शान्तामर्थविषयैः (मर्षविषैः) समं परशु (पशु) गणैराकर्णितं कर्णतः, तद्वत् सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्वं वचः ॥ ३॥" इन प्रशस्तिश्लोकोंसे शात होता है कि जिन प्रभाचन्द्रने क्रियाकलापटीका रची है वे पद्मनन्दिसैद्धान्तिकके शिष्य थे । न्यायकुमुदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पद्मनन्दि सैद्धान्तिकके ही शिष्य थे, अतः क्रियाकलापटीका और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके कर्ता एक ही प्रभाचन्द्र है इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता । प्रशस्तिश्लोकोंकी रचनाशैली भी प्रमेयकमल० आदिकी प्रशस्तियोंसे मिलती जुलती है।
आत्मानशासनतिलककी प्रति श्री प्रेमीजीने भेजी है। उसका मंगल और प्रशस्ति इस प्रकार हैमंगल-"वीरं प्रणम्य भववारिनिधिप्रपोतमुद्द्योतिताखिलपदार्थमनल्पपुण्यम्। ।
निर्वाणमार्गमनवद्यगुणप्रबन्धमात्मानुशासनमहं प्रवरं प्रवक्ष्ये ॥" प्रशस्ति-"मोक्षोपायमनल्पपुण्यममलज्ञानोदयं निर्मलम् ।
भव्यार्थ परमं प्रभेन्दुकृतिना व्यक्तैः प्रसन्नैः पदैः । • व्याख्यानं वरमात्मशासनमिदं व्यामोहविच्छेदतः ।
सूक्तार्थेषु कृतादरैस्हरहश्चेतस्यलं चिन्त्यताम् ॥ १॥ इतिश्री आत्मानुशासन(नं) सतिलक(क) प्रभाचन्द्राचार्य
विरचित(तं) सम्पूर्णम् ।"
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प्रमेयकमलमार्तण्ड
भी प्रभाचन्द्रकृत होनेकी संभावना की है, वह खास तौरसे विचारणीय है। यथावसर इन ग्रन्थोंके विषयमें विशेष प्रकाश डाला जायगा। अन्तमें मैं उन सब ग्रन्थकार विद्वानोंके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिनके ग्रन्थोंसे इस प्रस्तावनामें सहायता मिली है।
फाल्गुनशुक्ल द्वादशी । न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार शास्त्री.
आष्टाह्निकपर्व वीर नि० सं० २४६७) स्यावाद विद्यालय काशी.
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परीक्षामुखसूत्राणां तुलना ।
न्यायप्र०-न्यायप्रवेशः [बड़ौदा सीरिज़]
न्यायवि०-न्यायबिन्दुः [चौखम्बा सीरिज़ ] न्यायविनि-न्यायविनिश्चयः [ अकलङ्कग्रन्थत्रयान्तर्गतः सिंघी सीरिज़ कलकत्ता ]
न्यायसा-न्यायसारः [ एशियाटिक सो० कलकत्ता] न्याया०-न्यायावतारः [श्वे० कान्फ्रेंस बम्बई ] प्रमाणनय-प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [यशो० काशी] प्रमाणप०-प्रमाणपरीक्षा [जैनसिद्धान्तप्र० कलकत्ता] प्रमाणमी०-प्रमाणमीमांसा [सिंघी जैन सीरिज़ कलकत्ता] प्रमाणसं-प्रमाणसंग्रहः [सिंघी जैन सीरिज़ ] लघी० स्ववृ०-लंघीयस्त्रयं स्ववृत्तियुतम् [ सिंघी जैन सीरिज़ कलकत्ता ]
परीक्षामु० ११.-प्रमाणनय० ११२. प्रमाणमी० ११११२. १२.-लघी० पृ० २१ पं० ६. प्रमाणनय० १३. १३.-प्रमाणनय० १६. ११६,७,८.-प्रमाणनय० १११६. ११११.-प्रमाणनय० १११७. १।१३.-प्रमाणनय० ११२०. प्रमाणमी० १११८. २।१,२.-लघी० का० ३. प्रमाणनय० २११. प्रमाणमी० ११११९,१०. २॥३.-न्याया० का० ४.लघी का० ३. प्रमाणनय० २।३. प्रमाणमी० १।१।१३. २१४.--लघी० का० ४. प्रमाणनय० २१३. प्रमाणमी० १११११४. २१५.-लघी० ख० का०.६१. प्रमाणमी० ११११२०. २॥६.-लघी० ख० का० ५५. प्रमाणमी० ११११२५. २७. लघी० का० ५५... २।११.-न्याया० का० २७. लघी० ख० का. ४. प्रमाणनय० २।२४.
प्रमाणमी० १११११५.. .. ३१.-न्याया० का० ३.१. लघी० का० ३. प्रमाणनय० ३।१. प्रमाणमी० १।२।१. ३३२.-लघी० का० १०. प्रमाणनयं०.३।१. प्रमाणमी० १।२।२. ३॥३,४.-प्रमाणप० पृ० ६९. प्रमाणनय० ३।१,२. प्रमाणमी० १।२।३. ३।५-१०.-प्रमाणप० पृ०६९. प्रमाणनय० ३४. प्रमाणमी० १॥२॥४. ३१११,१२,१३.-प्रमाणसं का० १२. प्रमाणप• पृ० ७०. प्रमाणनय० ३।५,६.
प्रमाणमी. १।२।५.
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परीक्षामुखसूत्राणां ३।१४.-न्याया० का० ५. लघी० का० १२. न्यायविनि० का० १७०.
प्रमाणप० पृ० ७०. प्रमाणमी० ११२।७. . ३।१५.-न्यायविनि० का० २६९. प्रमाणसं० का०.२१. प्रमाणप० पृ. ७०.
प्रमाणनय०.३।९. ३।१६.-प्रमाणमी० १।२।१०. • ३।१९.-न्यायविनि० का० ३२९. प्रमाणमी. १।२।११. ३।२०.-न्यायप्र० पृ० १६० ७. न्यायबि० पृ० ७९ पं० ३,१२. न्यायविनि०
का० १७२. प्रमाणसं० का० २०. प्रमाणनय० ३।१२. प्रमाणमी० १०२।१३. ३।२१.-प्रमाणनय० ३।१३. ३।२२.-प्रमाणनय० ३।१४,१५. . . ३।२५.-प्रमाणमी० १।२।१५. ३।२७.-न्यायप्र० पृ० १५० ६. प्रमाणनय० ३।१८. प्रमाणमी० ११२।१६. ३।२८-३०.-प्रमाणनय० ३।१९,२०. प्रमाणमी० १।२।१७. ३१३२.--प्रमाणनय० ३.१६. . ३१३४,३५. --प्रमाणनय० ३२२२. प्रमाणमी० २।११८. ३।३६.-प्रमाणनय० ३।२३. ३३३७.-न्यायबि• पृ० ११७पं० ११. प्रमाणनय० ३।२६. प्रमाणमी० १।२।१८. ३१३८.-प्रमाणनय० ३१३१. ३३३९.-प्रमाणनय० ३१३२. ३१४०.-प्रमाणनय० ३१३३. ३३४१.-प्रमाणनय० ३१३४. ३१४४.-प्रमाणनय० ३१३७. ३१४५.-प्रमाणनय० ३।३८. ३३४६.-प्रमाणनय० ३१३९. प्रमाणमी०२।१।१०. ३।४७.-न्यायप्र० पृ० १५० १५. प्रमाणनय० ३।४१. प्रमाणमी० १।२।२१. ३।४८.-न्यायप्र० पृ० १५० १६. न्याया० का० १८. प्रमाणनय० ३४२,४३.
प्रमाणमी० १।२।२२. . ३३४९. -न्यायप्र० पृ० २ पं० २. न्याया० का० १९. प्रमाणनय० ३१४४,४५.
प्रमाणमी० १।२।२३. ४।५०.-प्रमाणनय० ३१४६,४७. प्रमाणमी० २११११४. ३१५१.-प्रमाणनय० ३१४८,४९. प्रमाणमी० २।१।१५. ३१५२,५३.-न्यायबि० २।१,२. न्याया० का० १०. न्यायसा० पृ. ५५०१०.
प्रमाणनय० ३।७. प्रमाणमी० १।२।८. ३१५४.-न्यायबि० २।३. प्रमाणनय० ३१८. प्रमाणमी. १।२।९. ३३५५,५६.-न्यायबि० ३.१,२. न्याया० का० १०,१३. प्रमाणनय० ३।२१.
प्रमाणमी० २।११,२.
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तुलना
३१५७.--प्रमाणनय० ३१५१. ३१५८.-प्रमाणनय० ३१५२. ३१५९.-प्रमाणनय० ३।६४,६५. ३१६०.-प्रमाणनय० ३१६६. ३१६१.-प्रमाणनय० ३६७, ३१६२.-प्रमाणनय० ३६८. ३१६३.-प्रमाणनय० ३।६९,७०. ३१६४.-प्रमाणनय० ३।७२. ३३६५.-प्रमाणनय० ३।७३. ३१६७.-प्रमाणप० पृ० ७२. ३१६८.-लघी० का० १४. प्रमाणप० पृ० ७३. प्रमाणनय० ३।७६. ३१६९.-प्रमाणप० पृ० ७३. प्रमाणनय० ३१७७. ३१७०.~प्रमाणनयं० ३१७८. ३१७१.-प्रमाणनय० ३।८२.. ३।७२,७३.- न्यायबि० पृ० ४९,५०. प्रमाणप० पृ० ७३. ३।७५.-प्रमाणप० पृ० ७३. प्रमाणनय: ३३८६. ३१७६.-प्रमाणप० पृ० ७३. प्रमाणनय० ३.८७, ३१७८.-प्रमाणनय० ३।९०,९१. ३।७९. -प्रमाणनय० ३।९२. ३८०.-न्यायबि० पृ० ४९. प्रमाणप० पृ० ७४. प्रमाणनय० ३१९३. ३१८१.-न्यायबि० पृ० ४८. प्रमाणनय० ३३९४. ३८३.-न्यायबि० पृ. ५३. प्रमाणप० पृ. ७४. प्रमाणनय० ३९६. ३.८४.-प्रमाणप० पृ० ७४. प्रमाणनय० ३।९७. ३८७.-प्रमाणनय० ३३१०१. .३८८.--प्रमाणनय०. ३।१०२.
३३८९. --प्रमाणनय० ३।१०३. ३३९४,९५.-न्यायबि० पृ० ६२-६३. न्याया० का० १७. प्रमाणनय० ३।२७
३०. प्रमाणमी० २१११३-६. ३।९८.-न्याया० का० १४. प्रमाणमी० २।११७. ३१९९.-प्रमाणनय० ४.१. ३.१००.-प्रमाणनय० ४।११. ३।१०१.-प्रमाणनय० ४॥३. ४११.-न्याया० श्लो० २९. लघी० का० ७. प्रमाणप० पृ. ७९. प्रमाणनय०
५१. प्रमाणमी० ११११३०. ४।२.-प्रमाणनय० ५।२. प्रमाणमी० ११११३३.
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. परीक्षामुखसूत्राणां
४।३.~-प्रमाणनय० ५।३. ४१४.-प्रमाणनय० ५।४. ४॥५.-प्रमाणनय० ५।५. ४१८.~प्रमाणनय० ५।८. ४।९.-लघी. स्व. का० ६७. ५११.-आप्तमी० का० १०२. न्याया० का० २८: न्यायविनि० का० ४७६ः
प्रमाणप० पृ० ७९. प्रमाणनय०.६।३-५. प्रमाणमी० ११११३८,४०, ५।३.-प्रमाणनय० ६.१०. प्रमाणमी० १।११४१. ६।१.-प्रमाणनय० ६१२३. ६।२.-प्रमाणनय० ६।२४. ६३,४.-प्रमाणनय० ६२५,२६. ६६.-प्रमाणनय०६।२७,२९.. ६८.-प्रमाणनय०६१३१. ६।९.-प्रमाणनय० ६॥३३,३४. ६।१०.-प्रमाणनय०६।३५. ६।११.-प्रमाणनय०६।३७. : ६।१२.-न्यायप्र० पृ० २ पं० १३. प्रमाणनय० ६।३८. ६।१३.-प्रमाणनय० ६१४६. ६।१४.-न्यायप्र० पृ० ३ पं० ४. ६।१५. न्यायप्र० पृ० २ न्यायबि० पृ० ८४,८५, प्रमाणनय० ६।४०. प्रमा
__णमी० १।२।१४. ६।१६.-न्यायप्र० पृ० २ पं० १७. न्यायबि० पृ० ८४. प्रमाणनय० ६१४१. ६।१७.-न्यायप्र० पृ. २ पं.१८. न्यायबि० पृ० ८४. प्रमाणनय० ६।४२. ६।१८.-न्यायप्र० पृ० २ पं० १९. प्रमाणनय० ६१४३. ६।१९.-न्यायप्र० पृ. २ पं० २०. प्रमाणनय० ६।४४. .. ६।२९.-न्यायप्र० पृ० २ पं० २१. प्रमाणनय० ६१४५. ६।२१.-न्यायप्र० पृ० ३ पं० ८. न्याया० का० २२. न्यायविनि० का० ३६६.
__ प्रमाणनय० ६।४७. प्रमाणमी० २।१।१६. ६।२२.-न्याया० का० २३. प्रमाणनय० ६।४८. प्रमाणमी० २।१।१७. ६।२३.-न्यायप्र० पृ० ३ पं० १२. न्यायबि० पृ० ८९. न्यायविनि० का० ३६५.
प्रमाणनय० ६५०. ६।२५.-न्यायप्र० पृ. ३ पं० १४. न्यायबि० पृ. ९१. ६।२९.-न्यायप्र० पृ. ५ पं० ६. न्याया० का० २३. प्रमाणनय० ६५२.
प्रमाणमी० २।१।२०. ६।३०.-न्यायवि. पृ० १०५. न्याया० का० २३. प्रमाणनय० ६१५४.
प्रमाणंमी० २१११२१. ।
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तुलना
६१३१.-प्रमाणनय० ६५६. ६६३३.-प्रमाणनय० ६।५७. ६३५.-न्यायविनि० का० ३७०. ६१४०.-न्यायप्र० पृ० ५५ २०. न्यायबि० पृ० ११९. न्याया० का० २४.
न्यायविनि० का० ३८०. प्रमाणनय० ६।५८. प्रमाणमी० २।१।२२. ६।४१.-न्यायप्र० पृ. ६ पं० १. न्यायबि० पृ. १२२. प्रमाणनय०६।६०
६२. प्रमाणमी० २।१।२३. ६१४२.-न्यायप्र. पृ० ६. पं० १२. न्यायबि० पृ० १२४. प्रमाणनय० ६६८.
प्रमाणमी. २।१।२६. ६।४४.-न्यायप्र० पृ० ६ पं० १४. न्यायबि० पृ० १२५. न्याया० का० २५..
प्रमाणनय० ६१६९. प्रमाणमी० २।१।२४. ६१४५.-न्यायप्र० पृ० ७ पं० ७. न्यायबि० पृ० १३०. प्रमाणनय० ६१७९. .
प्रमाणमी० २।१।२६. ६५१.-प्रमाणनय० ६१८३. ६१५२.-प्रमाणनय० ६१८४. ६।५५.-प्रमाणनय० ६८५. ६।६१.-प्रमाणनय० ६.८६. ६१६६.-प्रमाणनय० ६१८७.
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य विषयानुक्रमः।
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مم له
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विषयाः मङ्गलाचरणम् ... ... ... ... ... ... ... परीक्षामुखस्य आदिश्लोकः ... ... सम्बन्धाभिधेयादिविचारः ... ... ... ... ... प्रमाणतदाभासयोलक्षणस्याभिधेयता ... ... ... ... ग्रन्थतदभिधेययोः प्रतिपाद्यप्रतिपादकलक्षणः सम्बन्धः साक्षात्प्रयोजनं लक्षणव्युत्पत्तिः हानोपादानादिकं तु परम्परया ... प्रमाणशब्दस्य कर्तृकरणभावसाधनता ... ... ... ... द्रव्यपर्याययोः भेदाभेदविवक्षायां प्रमाणशब्दस्य त्रिषु कर्तृकरण___ भावसाधनेषु व्युत्पत्तिः ... ... ... ... ... भेदाभेदात्मकले विरोधपरिहारः ... ... ... ... ... अर्थस्य हेयोपादेयभेदात् द्वैविध्यम् ... उपेक्षणीयस्य हेयेऽन्तर्भावः .... .... असत्प्रादुर्भावाऽभिलषितप्राप्तिभावज्ञप्तिभेदेन सिद्धेस्वैविध्यम् ज्ञापकप्रकरणादत्र भावज्ञप्तिरूपैव सिद्धिः विवक्षिता जातिप्रकृत्यादिभेदेन उपकारकार्थसिद्धिरपि गृह्यते ... तदाभासपदस्य व्युत्पत्तिः ... ... ... ... ... सिद्धाल्पपदयोः सार्थक्यम् ... ... ... ... ... 'लघीयसः' इत्यत्र काल-शरीरपरिणाम-मतिकृतत्रिविधलाघवेषु
मतिकृतस्यैव लाघवस्य ग्रहणम् ... ... ... ... नमस्कारस्त्रिविधः मनोवाकायकारणभेदात् ... आदिश्लोकस्य नमस्कारपरखम् ... ... ... ... ... प्रमाणसामान्यलक्षणसूत्रम्... ... ... ... ... जरन्नैयायिकभट्टजयन्ताभिमतकारकसाकल्यस्य नि
रासः ... .... ........ ... ... ... ... ७-१३ अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टमपि कारकसाकल्यं अज्ञानरूपलेन _ 'प्रमितौ साधकतमलाभावान प्रमाणम्... ... ... ... प्रदीपादीनामुपचारत एव परिच्छित्तौ साधकतमव्यपदेशः ... प्रमितिं प्रति बोधेन व्यवधानान कारकसाकल्यस्य प्रमाणता किं सकलान्येव कारकाणि साकल्यखरूपं तद्धर्मो वा तत्कार्यं वा • पदार्थान्तरं वा ? ............ ... ... .... ... प्रथमविकल्पे साकल्यस्य कर्तृकर्मरूपले करणखानुपपत्तिः .. ... . धर्मश्च संयोगरूपः अन्यो वा ? ..... .......... ... ........ .. .. ९
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
११ ११
१४-१८
१४
१५ १५
१५
१५
विषयाः धर्मः कारकेभ्यो भिन्नोऽभिन्नो वा? ... ... ... ... तत्कार्यपक्षे नित्यानां जनकले सर्वदा तदुत्पत्तिप्रसक्तिः ... ... सहकारिसव्यपेक्षया कार्य देशादिप्रतिनियमे किं विशेषाधायिलेन
सहकारित्वमेकार्थकारिखेन वा? ... ... ... ... विशेषाधायित्वपक्षे विशेषः भिन्नोऽभिन्नो वा ? ... ... ... साहित्येऽपि भावानां स्वरूपेणैव कार्यकारिता न तु पररूपेण ... किं सकलानि कारकाणि साकल्योत्पादने प्रवर्तन्तेऽसकलानि वा ? वैशेषिकाद्यभिमतसन्निकर्षस्य विचारः... ... सन्निकर्षो न प्रमाणं प्रमित्युत्पत्ती साधकतमत्वाभावात् ... योग्यता च शक्तिः, प्रतिपत्तुः प्रतिबन्धापायो वा ? ... शक्तिरपि अतीन्द्रिया सहकारिसन्निधिरूपा वा ? ... ... सहकारिकारणं च द्रव्यं गुणः कर्म वा ? ... ... ... द्रव्यमपि व्यापिद्रव्यमव्यापि द्रव्यं वा? ... ... ... अव्यापि द्रव्यमपि मनो नयनमालोको वा ? ... ... ... गुणोऽपि प्रमेयगतः प्रमातृगतः उभयगतो वा सहकारी स्यात् ? कर्माप्यर्थान्तरगतमिन्द्रियगतं वा सहकारि स्यात् ? ... ... भावेन्द्रियलक्षणा योग्यतापि प्रमाणम् ... ... ... ... प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरस्य प्रमाणस्य प्रतिविधानम् ... ... सन्निकर्षस्य प्रामाण्ये च सर्वज्ञाभावः ... ... ... ... इन्द्रियस्य योगजधर्मानुग्रहोऽपि किं खविषये प्रवर्तमानस्य अति
शयाधानरूपं सहकारिलमानं वा? ... ... अणुमनसोऽपि नाशेषाथैः साक्षात्परम्परया वा सम्बन्धः सांख्य-योगाभिमतेन्द्रियवृत्तिवादः ... इन्द्रियेभ्यो वृत्तिर्व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्ता वा? ... ... व्यतिरिक्त तेषां धर्मः अर्थान्तरं वा ? ... ... ... ... प्रभाकराभिमतज्ञातृव्यापारविचारः ... ज्ञातृव्यापारस्य अज्ञानरूपस्य उपचारत एव प्रामाण्यं युक्तम् ज्ञातृव्यापारखरूपग्राहकं प्रत्यक्षमनुमानमन्यद्वा ?... ... ... प्रत्यक्षमपि स्वसंवेदनं बाह्येन्द्रियजं मनःप्रभवं वा ? ... ... अनुमानप्रयोजकोऽविनाभावसम्बन्धः किमन्वयनिश्चयद्वारेण प्रती__ यते व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण वा? ... ... ... ... अन्वयनिश्चयोऽपि प्रत्यक्षेण अनुमानेन वा? ... ... ... अनुपलम्भान्निश्चये किं दृश्यानुपलम्भोऽभिप्रेतः अदृश्यानुपलम्भो . वा! .... ... ... ..... ... ... ... ...
०८
१७
२०-२५
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विषयानुक्रमः
विषयाः दृश्यानुपलम्भोऽपि स्वभावकारणव्यापकानुपलम्भविरुद्धोपलम्भमेदेन
चतुर्धा भिद्यते ... ... ... ... ... ... ... विरुद्धोपलम्भो द्विधा विरोधस्य द्वैविध्यात् ज्ञातृव्यापारः कारकैर्जन्योऽजन्यो वा? ... अजन्यले अभावरूपो भावरूपो वा ? ... भावरूपत्वे नित्यः अनित्यो वा ? ... ... अनित्यत्वे कालान्तरस्थायी क्षणिको वा? ... ... जन्यत्वे क्रियात्मकोऽक्रियात्मको वा? ... ... अक्रियात्मकत्वे वोधरूपोऽवोधरूपो वा ? ... असौ ज्ञातृव्यापारः धर्मिखभावः धर्मस्वभावो वा ? ... ... ज्ञातृव्यापारजनने प्रवर्तमानानि कारकाणि किमपरव्यापारसापेक्षाणि
न वा ?... ... ... ... ... ... ... ... ज्ञातृव्यापारोऽपि प्रकृतकार्ये व्यापारान्तरसापेक्षो निरपेक्षो वा ?... अर्थप्राकट्यं ज्ञातृव्यापारकल्पकमर्थाद् भिन्नमभिन्नं वा? अर्थप्राकट्यमन्यथानुपपन्नत्वेन निश्चितं न वा? ... ... ... ज्ञानस्वभावज्ञातृव्यापारमुररीकुर्वाणस्य भास्य निरासः ... प्रमाणस्य ज्ञानात्मकत्वसमर्थनम् ... अर्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् ... ... ... प्रवृत्तिमूला तूपादेयार्थप्राप्तिर्न प्रमाणाधीना ... अप्रवर्तकत्वेऽपि ज्ञानस्य चन्द्रार्कादिज्ञानवत् प्रामाण्यम् सुगतज्ञानं व्याप्तिज्ञानं सुखसंवेदनं वा न खविषयेऽर्थिनं प्रवर्तयन्ति प्रवृत्तर्विषयः भावी वर्तमानो वा ? ... ... ... ... बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षवादः ... ... ... सविकल्पकं ज्ञानं प्रमाणं समारोपविरुद्धत्वात् , प्रमाणलाद्वा ... निर्विकल्पकं नीलायंशे नीलमिदमिति विकल्पस्य क्षणक्षयादौ च
नीलं क्षणिकं सत्त्वादित्यनुमानस्यापेक्षणान्न प्रमाणम् ... ... अक्षव्यापारानन्तरं विशदविकल्पस्यैवानुभवः न तु निर्विकल्पस्य युगपद्वृत्तर्विकल्पाविकल्पयोरेकलाध्यवसायान्निर्विकल्पकवैशद्यस्य विकल्पे प्रतिभासाभ्युपगमे दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञान
पञ्चकस्य अभेदाध्यवसायः स्यात् ... ... ... ... लघुवृत्तेरभेदाध्यवसाये खररटितादौ अभेदाध्यवसायप्रसङ्गः ... सविकल्पाविकल्पयोः सादृश्याद् भेदेनानुपलम्भोऽभिभवाद्वा ? सादृश्यं विषयाभेदकृतं ज्ञानरूपताकृतं वा ? ... ... अभिभवो विकल्पेनाविकल्पस्य बलीयस्त्वात् ... ....
२७-३८
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________________
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
३
३
WWWW
विषयाः कुतो विकल्पस्य बलीयस्त्वं बहुविषयात निश्चयात्मकवाद्वा? ... निश्चयात्मकलं स्वरूपेऽर्थरूपे वा? ... ... ... ... एकखाध्यवसायः किमेकविषयत्वम् अन्यतरस्यान्यतरेण विषयी__ करणं परत्रेतरस्याध्यारोपो वा? ... ... ... ... दृश्ये विकल्प्यस्यारोपश्च किं गृहीतयोरगृहीतयोर्वा तयोः स्यात् ? निर्विकल्पे विकल्पस्यारोपो विकल्पे निर्विकल्पस्य वा ? ... ... विकल्पेन निर्विकल्पस्याभिभवः सहभावमात्रात् अभिन्न विषयत्वा
दभिन्नसामग्रीजन्यवाद्वा स्यात् ? ... ... ... ... अनयोरेकत्वं निर्विकल्पकमध्यवस्यति विकल्पो वा ज्ञानान्तरं वा ? संहृतसकलविकल्पावस्थायां रूपादिदर्शनस्य निर्विकल्पस्य न संभवः
किन्तु स्थिरस्थूलार्थग्राहिणः विकल्परूपस्यैव ... ... ... अनिश्चयात्मनो निर्विकल्पस्य न प्रामाण्यम् ... ... ... निश्चयहेतुत्वादपि न निर्विकल्पस्य प्रामाण्यम् ... ... ... निर्विकल्पस्य विकल्पोत्पादकत्वमपि दुर्घटम् ... ... विकल्पवासनापेक्षस्यापि निर्विकल्पस्य अर्थवन्न विकल्पोत्पादकत्वम् निर्विकल्पस्य अनुभवमात्रेण विकल्पजनकत्वे नीलादाविव क्षण
क्षयादावपि विकल्पजनकलप्रसङ्गः ... ... ... ... क्षणक्षयादी अभ्यासप्रकरणवुद्धिपाटवार्थित्वाभावान्न निर्विकल्पक
विकल्पवासनाप्रवोधकम् ... ... ... ... ... अभ्यासो हि भूयोदर्शनं बहुशो विकल्पोत्पत्तिा ? ... ... पाटवं तु विकल्पोत्पादकत्वं स्फुटतरानुभवो वा अविद्यावासना
विनाशादात्मलाभो वा? ... ... ... ... ... अर्थित्वमभिलषितत्वं जिज्ञासितत्वं वा? ... ... ... ... सविकल्पकप्रत्यक्षवादिना अवग्रहादिसद्भावेऽपि अभ्यासात्मकधार___णाभावात् न खोच्छ्वासादिसंख्यायाः सकलवर्णपदादेवी स्मृतिः तदन्यव्यावृत्त्या निर्विकल्पे अभ्यासानभ्यासकल्पनं न युक्तिसङ्गतम् विकल्पस्य शब्दार्थविकल्पवासनाप्रभवत्वे ततोऽध्यक्षस्य रूपादि
विषयखनियमो न स्यात् ... ... ... ... ... विकल्पः प्रमाणं संवादकत्वात् , अर्थपरिच्छित्तौ साधकतमसात्
अनिश्चितार्थनिश्चायकलात् प्रतिपत्रपेक्षणीयत्वाच्चानुमानवत् स्पष्टाकारविकल्पवाद्विकल्पस्याप्रामाण्ये दूरपादपादिदर्शनस्याप्रामा
ण्यप्रसङ्गः ... ... ... ... ... ... ... गृहीतग्राहित्वादप्रामाण्ये अनुमानस्याप्यप्रामाण्यम् ... ... ... असति प्रवर्तनादप्रामाण्ये प्रत्यक्षादीनामपि तत्प्रसङ्गः ... ...
WW WW
३४
२७
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________________
विषयानुक्रमः
.
३
.
YW
.
.
विषयाः हिताहितप्राप्तिपरिहारसामर्थ्य तु विकल्पस्यैव कदाचिद्विसंवादस्तु प्रत्यक्षादावपि समानः ... ... ... समारोपनिषेधकवं तु विकल्पेऽस्त्येव .. ... ... ... व्यवहारयोग्यश्च विकल्प एव ... ... ... खलक्षणागोचरखाद्विकल्पस्याप्रामाण्ये अनुमानस्याप्यप्रामाण्यं स्यात् शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासखमनुमानेऽपि तुल्यम् ग्राह्यार्थ विना शब्दमात्रप्रभवत्वं तु विकल्पेऽसिद्धमेव ... ... विकल्पाभिधानयोः कार्यकारणभावे किञ्चित्पश्यतः पूर्वानुभूत__ तत्सदृशस्मृत्यादि न स्यात् ... ... ... ... ... पदस्य वर्णानां वा नामान्तरस्मृतावसत्यामध्यवसायः सत्यां वा ? भर्तृहर्यभिमतशब्दाद्वैतवादः ... ... ... ... ३९-५७ शब्दानुविद्धत्वेनैव सकलज्ञानानां सविकल्पकता ... ... सकलं वाच्यवाचकतत्त्वं शब्दब्रह्मण एव विवर्तः ... ... शब्दानुविद्धलं ज्ञाने ऐन्द्रियेण प्रत्यक्षेण प्रतीयेत खसंवेदनेन वा ? किमिदं शब्दानुविद्धलमर्थस्य अभिन्नदेशे प्रतिभासः तादात्म्यं वा ? विभिन्नेन्द्रियजज्ञानग्राह्यलान शब्दार्थयोस्तादात्म्यम् ... ... रूपमिदमिति ज्ञानेन वाग्रूपताप्रतिपन्नाः पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते भिन्न
वाग्रूपताविशेषणविशिष्टा वा ? ... ... ... ... अर्थस्याभिधानानुषक्तता किमर्थज्ञाने तत्प्रतिभासः, अर्थदेशे तद्वेदनं
वा, तत्काले तत्प्रतिभासो वा? ... ... ... लोचनाध्यक्ष श्रोत्रग्राह्यां वैखरीम् अन्तर्जल्परूपा मध्यमां वा वाचं ___ न संस्पृशति ... ... ... ... ... ... ... पश्यन्ती अन्तर्योतीरूपा च वागेव न भवति अर्थात्मदर्शनलक्षणखात् चतुर्विधवाचो लक्षणम् ... ... ... ... ... ... नाप्यनुमानाच्छब्दब्रह्मसिद्धिः ... ... ... ... ... जगतः शब्दमयवस्य प्रत्यक्षबाधितखात् ... ... ... शब्दपरिणामरूपखाजगतः शब्दमयलं शब्दादुत्पत्तेर्वा ? ... शब्दब्रह्म नीलादिरूपं परिणमत् शब्दरूपतां परित्यजति न वा? शब्दात्मा परिणामं गच्छन् प्रतिपदार्थभेदं प्रतिपद्येत न वा ? ... कार्यसमूहः ब्रह्मणोऽर्थान्तरमनन्तरं वा उत्पद्येत ? ... योगिनोऽपि न ब्रह्म पश्यन्ति ... ... ... ... ... ४५ अविद्याऽपि ब्रह्मव्यतिरिका नास्ति... ... ... .... अनुमान कार्यलिङ्गं खभावादिलिङ्गं वा ब्रह्मसाधकं स्यात् ।। शब्दाकारानुस्यूतलं जगतोऽसिद्धम् ... ... .. ...
४१
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५
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
४७-४८
४७
४८
४८ ४८-४९
विषयाः अर्थानां शब्दात्मकत्वे सङ्केताग्राहिणोऽपि शब्दाद् अर्थबोधः स्यात् अग्निपाषाणादिशब्दश्रवणात् श्रोत्रस्य दाहाभिघातादिप्रसङ्गः ... आगमस्य शब्दब्रह्मणो भेदे द्वैतापत्तिः अभेदे प्रतिपाद्यप्रतिपादक
भावाभावः ... ... ... ... ... ... ... अपूर्वार्थविशेषणेन धारावाहिकविपर्यययोः निरासः अथवा व्यवसायात्मकविशेषणेन विपर्ययस्य निरास: संशयखरूपविचार:... ... ... ... ... ... (तत्त्वोपप्लववादिनः पूर्वपक्षः) संशयज्ञाने धर्मीऽधर्मो वा
प्रतिभासते? ... ... ... ... ... ... ... धर्मी तात्त्विकः अतात्त्विको वा? ... ... ... धर्मः स्थाणुखलक्षणः पुरुषवलक्षणः उभयं वा? ... ... सन्दिग्धोऽर्थः विद्यते न वा? ... ... ... ... (उत्तरपक्षः) संशयः चलितप्रतिपत्त्यात्मकत्वेन खात्मसंवेद्यः ... धर्मविषयो धर्मि विषयो वेत्यादिप्रश्ना अपि संशयस्वरूपा एव ... उत्पादककारणाभावात् संशयस्य निरासः, असाधारणस्वरूपाभावात्
विषयाभावाद्वा? ... ... ... ... ... ... अख्यातिवादः ... ... ... ... ... ... ... (चार्वाकादीनां पूर्वपक्षः) जलादिविपर्यये जलं जलाभावः मरीचयो ___ वा न प्रतिभासन्ते अतः निर्विषयमेव जलादिविपर्ययज्ञानम् तोयाकारेण मरीचिग्रहणमपि न संभाव्यते ... ... (उत्तरपक्षः ) निरालम्बनत्वे जलादिविपर्ययस्य विशेषतोव्यपदेशा__ भावप्रसङ्गः ... ... ... ... ... ... ... भ्रान्तिसुषुप्त्यवस्थयोरविशेषप्रसङ्गश्च ... वौद्धाद्यभिमताऽसत्ख्यातिवादः ... असतः खपुष्पादिवत् प्रतिभासाभावः ... ... ... ... भ्रान्तिवैचित्र्याभावप्रसङ्गश्च ... ... ... ... ... प्रसिद्धार्थख्यातिवादः ... ... ... ... ... (सांख्यस्य पूर्वपक्षः ) प्रतिभासमानस्य असत्त्वं नोपपद्यते यद्यप्युत्तरकालमर्थो नास्ति तथापि यदा प्रतिभाति तदाऽस्त्येव (उत्तरपक्षः) यथावस्थितार्थग्रहणे भ्रान्ताऽभ्रान्तव्यवहाराभावः प्रतिभासकालेऽर्थस्य सत्त्वे च तत्कालेऽर्थस्यानुपलब्धावपि तचिह्नस्य __ भूस्निग्धतादेः पश्चादुपलम्भः स्यात् ... ... ... ... प्रसिद्धार्थख्यातौ बाध्यबाधकभावश्च न स्यात् ... ... ... आत्मख्यातिवादः ... ... ... ... ... ... (योगाचारस्य पूर्वपक्षः) अनादिविचित्रवासनावशाज्ज्ञानस्यैवाय
माकारः बहिः स्थिरत्वेन भासते ... ... ... ...
४८
४९
४९-५०
४९
५०-५१
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________________
विषयानुक्रमः
५१-५२
"विषयाः (उत्तरपक्षः) सर्वज्ञानानां खाकारमात्रग्राहित्वे भ्रान्ताभ्रान्तविवेको
बाध्यबाधकभावश्च न स्यात् ... ... ... ... ... रजताकारस्य आत्मस्थितत्वेन बहिःस्थरूपेण प्रतीतिर्ने स्यात् ... प्रतिपत्ता च तदुपादानार्थ न प्रवर्तेत ... ... ... ... अविद्यावशात् बहिःस्थ-स्थिरत्वेन भाने विपरीतख्यातिरेव ... अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादः ... ... ... ००० (वेदान्तिनः पूर्वपक्षः) न ज्ञानस्य विषय उपदेशगम्यः अनुमान
साध्यो वा येन विपरीतार्थकल्पना ... ... ... प्रतिभासमानश्च जलाद्यर्थः सदसदुभयात्मको न भवति अतोऽ.
निर्वचनीयः ... ... ... ... ... ... ... (उत्तरपक्षः ) जलादिभ्रान्तौ नियतदेशकालस्वभावो जलाद्यर्थ एव __ सद्रूपेण प्रतिभासते ... ... ... ... ... ... विचार्यमाणस्यासत्त्वे विपरीतख्यातिः ... ... ... ... पुरुषविपरीते स्थाणौ पुरुषोऽयमिति ख्यातिः विपरीतख्यातिः स्मृतिप्रमोषवादः ... ... ... ... ... ... ५३-५८ (प्राभाकराणां पूर्वपक्षः) इदं रजतमिति नैकं ज्ञानं कारणाभावात् न हि दोषैः चक्षुरादीनां शतः प्रतिबन्धः प्रध्वंसो वा क्रियते तथा
सति कार्यानुत्पादकत्वमेव स्यान्न तु विपरीतकार्योत्पादकत्वम् अगृहीतरजतस्य नेदं ज्ञानम्, गृहीतस्य च तद्रजतमिति स्यात् ततो ज्ञानद्वयमेतत्-इदमिति हि पुरोव्यवस्थितार्थप्रतिभासनं रजत
मिति च स्मरणं प्रमुष्टतदंशलात् स्मृतिप्रमोषोऽभिधीयते ... प्रवृत्तिश्च भेदाग्रहणसचिवाद्रजतज्ञानात् संजायते ... ... ( उत्तरपक्षः ) दोषसमवधाने चक्षुरादिभिः विपरीतं ज्ञानमुत्पाद्यते नैवमसत्ख्यातिः; सादृश्यहेतुकत्वात् ... ... ... ... नापि ज्ञानख्यातिः संस्कारहेतुकलात् ... ... ... ... नापि भेदाग्रहणात् प्रवृत्तिः किन्तु घटोऽयमित्याद्यभेदज्ञानात् ... गुणदोषयोः एकज्ञानजनकत्वमेव ... ... ... ... ... खप्रकाशवादिप्रभाकरमते इदं रजतम् इति ज्ञानयोः भेदाग्रहणम__ संभाव्यम् ... ... ... ... ... ... ... विवेकख्यातेः प्रागभावरूपापि अख्यातिः अभावानभ्युपगन्तृणां
प्राभाकराणां न संभवति ... ... ... ... ... कश्चायं स्मृतिप्रमोषः किं स्मृतेरभावः अन्यावभासः विपरीताकार
वेदित्वम् अतीतकालस्य वर्तमानतया ग्रहणम् अनुभवेन सह क्षीरोदकवदविवेकेनोत्पादो वा? ... ... ... ...
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प्रमेयकमलमार्चण्डस्य
AU
६
विषयाः द्विचन्द्रादिविपर्ययस्य स्मृतिरूपत्वे इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधा- . .. यित्वं न स्यात् ... ... ... ... ... ... ... स्मृतिप्रमोषपक्षे बाधकप्रत्ययो न स्यात् ... ... ... ... स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमे खतःप्रामाण्यव्याघातः ... ... प्रमाणसद्भावश्च परिच्छित्तिविशेषसद्भाव एवाभ्युपगम्यते अनिश्चितस्य अपूर्वार्थत्वम् ... ... ... ... दृष्टोऽपि समारोपादपूर्वार्थः ... ... ... ... मीमांसकाभिमतस्य तत्रापूर्वार्थविज्ञानमित्यादिप्रमाण
लक्षणस्य विचारः... ... ... ... ... ... वस्तुन्यधिगतेऽनधिगते वाऽव्यभिचारिप्रमा जनयतो ज्ञानस्य प्रामा
ण्यमनिवार्यमेव ... ... ... ... ... ... एकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वे प्रमाणस्य प्रामाण्यमपि ज्ञातुं न • शक्यते ... ... ... ... ... ... ... प्रामाण्यं हि तदर्थोत्तरज्ञानवृत्तिसंवादादवसीयते ... ... ... सामान्यविशेषयोस्तादात्म्येऽनधिगतार्थाधिगन्तृखमसंभाव्यमेव ... प्रतिपत्तिविशेषसद्भावादेकविषयाणामपि आगमानुमानाध्यक्षाणां
प्रमाणता ... ... ... ... ... ... ... अनधिगतार्थग्राहित्वे प्रत्यभिज्ञानस्य प्रमाणत्वं न स्यात् ... ... व्याप्तिज्ञानगृहीतार्थग्राहिणोऽनुमानस्य च प्रामाण्यं न स्यात् ... कथञ्चिदपूर्वार्थत्वे तु स्मृतितर्कादीनामपि पृथक् प्रामाण्यं स्यात् अपूर्वार्थप्राहिणः प्रामाण्ये द्विचन्द्रवेदनस्य प्रामाण्यं स्यात् ... बाधाविरहस्तत्कालभावी उत्तरकालभावी वा प्रामाण्यहेतुः स्यात् ? उत्तरकालभावी च ज्ञातः अज्ञातो वा ? ... ... ... ... ज्ञातश्चेत् पूर्वज्ञानेन उत्तरज्ञानेन वा? ... ... ... ... बाधाविरहस्य ज्ञायमानत्वेऽपि कथं सत्यत्वम् ? ... ... ... कचित् कदाचित्कस्यचिद्वाधाविरहो विज्ञानप्रमाणताहेतुः सर्वत्र __सर्वदा सर्वस्य वा? ... ... ... ... ... ... अदुष्टकारणारब्धत्वमपि ज्ञातमज्ञातं वा तद्धेतुः? ... ... अदुष्टकारणारब्धः ज्ञानान्तरात् संवादप्रत्ययाद्वा? ... जैनमते च अदुष्टकारणारब्धवादि अभ्यासदशायां खतः प्रति___ भासते अनभ्यासदशायाञ्च परत इति ... ... ... ब्रह्माद्वैतवादः ... ... ... ... ... ... ... ६४-७७ (वेदान्तिनां पूर्वपक्षः) अविकल्पकप्रत्यक्षेण हि सर्वत्र एकलमेव ..अन्यानपेक्षतया प्रतिभासते ... ... ... ... ... . ६४
६१
६२
S
६२
२
WW
६४
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विषयानुक्रमः
विषयाः भेदो नार्थखरूपम् अन्यापेक्षतया अविद्यासंकेतस्मरणजनित विकल्प
प्रतीत्या भासमानखात्... ... ... ... ... ... प्रतिभासमानत्वात् सर्वेषां प्रतिभासान्तःप्रविष्टत्वसिद्धरपि ब्रह्मासिद्धिः सर्व वै खल्विदमित्याद्यागमादपि ब्रह्मसिद्धिः ... ... ... प्रत्यक्षं विधातृ न निषेद्ध अतः प्रत्यक्षं सद्ब्रह्मसाधकमेव ... अंशूनाम् ऊर्णनाभ इव ब्रह्म सर्वजन्मिनां हेतुः ... ... ... भेददर्शिनो निन्दा च श्रूयते मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव
पश्यति इति ... ... ... ... ... ... ... अर्थानां मेदो देशभेदात् कालमेदाद् आकारमेदाद्वा स्यात् ? ... ब्रह्मणो विद्याखभावत्वेऽपि शास्त्रादीनां न वैयर्थ्यम् अविद्याव्या
पारनिवर्तनफलवात्तेषाम् ... ... ... ... ... अनादित्वेऽपि प्रागभाववदविद्याया उच्छेदो घटते ... ... भिन्नाभिन्नादिविकल्पस्य अवस्तुभूताऽविद्यायामप्रवृत्तिरेव ... यथैव रजो रजोऽन्तराणि शमयति स्वयं च शाम्यति विषं वा विषान्तरं प्रशमयत् शाम्यति तथैव श्रवणमननादिभेदात्मि
काऽविद्या अविद्यां शमयन्ती स्वयं शाम्यति ... ... समारोपितभेदादद्वैते बन्धमोक्षसुखदुःखादिव्यवस्था सुघटा (उत्तरपक्षः) भेदस्य प्रमाणबाधितलादभेदः साध्यते अभेदे
साधकप्रमाणसद्भावाद्वा ? ... ... ... ... ... भेदमन्तरेण प्रमाणेतरव्यवस्थाप्यसंभाव्या ... ... ... निर्विकल्पकप्रत्यक्षेण एकव्यक्तिगतमेकलम् अनेकव्यक्तिगतं व्यक्ति
मात्रगतं वा प्रतीयेत? ... ... ... ... ... एकव्यक्तिगतं तु साधारणमसाधारणं वा? ... ... ... अनेकव्यक्तिगतं सत्तासामान्य व्यक्तयधिकरणतया प्रतिभात्सनधि
करणतया वा? ... ... ... ... ... ... तथा एकव्यक्तिग्रहणद्वारेण तत्प्रतीयते सकलव्यक्तिग्रहणद्वारेण वा ? एकवं व्यक्तिभ्यो भिन्नमभिन्नं वा? ... ... ... ... एकवं नानावमन्तरेण न सिध्यति ... ... ... ... मेदव्यवहारो हि अन्यापेक्षो न तु भेदस्य खरूपं तस्य प्रत्यक्षादेव
प्रतीतेः ... ... ... ... ... ... ... कल्पना च किं ज्ञानस्य स्मरणानन्तरभाविलं शब्दाकारानुविद्धवं
वा जात्याद्युल्लेखो वा असदर्थविषयवं वा अन्यापेक्षतयाऽर्थ. खरूपावधारणं वा उपचारमात्रं वा ?... ... ... ... किं शब्दजनितो भेदप्रतिभासः मेदप्रतिभासजनितो वा शब्दः?
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्या
विषयाः प्रथमपक्षे शब्दादेव भेदप्रतिभासः ततोऽसौ भवत्येव वा? ... शब्दादनेकलप्रतिभासे 'एकं ब्रह्मणो रूपम्' इति आगमस्यापि
भेदप्रतिभासजनकवं स्यात् ... ... ... ... ... अनुमानाद्ब्रह्माद्वैतसाधने किं स्वतः प्रतिभासमानलं हेतुः परतो वा ? आगमाद्ब्रह्मसाधने प्रतिपाद्यप्रतिपादकरूपेण द्वैतं स्यात् ... ... ब्रह्मणः सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुलमसंभाव्यं कार्यकारणभाव
तया द्वैतप्रसङ्गात् ... ... ... ... ... ... व्यसनितयाऽस्य जगद्वैचित्र्य विधाने अपेक्षापूर्वकारित्वम् ... तद्व्यतिरेकेण परस्यासत्त्वान्न कृपया परोपकारार्थमपि तद्विधानम् अनुकम्पावशाच्च सृष्टिविधाने सदा सुखितमेव जगत् कुर्यात् प्रलयश्च
न करणीयः ... ... ... ... ... ... ... खतन्त्रस्य प्राण्यदृष्टापेक्षणमनुपपन्नम् ... ... ... ... अदृष्टवशाच सृष्टिसंभावनायां किं ब्रह्मणा ... ... ऊर्णनाभश्च न स्वभावतया जालादिविधाने प्रवर्तते किन्तु प्राणि
भक्षणलाम्पट्यातू ... ... ... ... ... ... प्रत्यक्षस्य विधातृवं किं सत्तामात्रावबोधः असाधारणवस्तुखरूप
परिच्छेदो वा? ... ... ... ... ... ... आकारभेदस्यैव सर्वत्र अर्थभेदकलम् ... ... ... ... अभेदोऽप्यर्थानां देशामेदात् कालामेदादाकारामेदाद्वा ? ... यद्यविद्या अवस्तुसती कथं प्रयत्ननिवर्तनीया ... ... ... तत्त्वतः सद्भावेऽपि अविद्यायाः निवृत्तिः संभवत्येव घटादिवत् घटादीनामविद्यानिर्मितत्वेन असत्त्वे अन्योन्याश्रयः ... ... अभेदस्य विद्यानिर्मितत्वेऽपि परस्पराश्रयः ... ... ... अविद्यायाः तत्त्वज्ञानप्रागभावरूपत्वे मेदज्ञानलक्षणकार्योत्पाद
कलाभावः ... ... ... ... ... ... ... मेदज्ञानखभावात्मिकायामविद्यायां प्रागभावस्य भावात्मकखापत्तिः न ज्ञानस्य भेदाभेदग्रहणकृता विद्युतरव्यवस्था अपि तु संवादविसं__वादाधीना ... ... ... ... ... ... ... अविद्यायाः अवस्तुलाद्विचारागोचरत्वं विचारागोचरत्वाद्वाऽवस्तुलम् भिन्नाभिन्नादिविचारः प्रमाणमप्रमाणं वा? ... ... ... बाध्यबाधकभावाभावे कथं श्रवणमननादिलक्षणाऽविद्या अविद्या
प्रशमयेत् ... ... ... ... ... ... ... बाध्यबाधकभावश्च सतोरेव न बसतोः सदसतोर्वा ... ... न च मेदस्योच्छेदो भवति वस्तुधर्मवादस्य ... ...
७२
७३
७४.
७४
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७५
७५
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विषयानुक्रमः
...
विषयाः खप्नावस्थायां भेदस्य बाध्यमानत्वादसत्त्वेऽपि जाग्रद्दशायामबाध्य
मानवात्सत्त्वमस्तु ... ... ... ... ... ... बाधकेन ज्ञानमपह्रियते विषयो वा फलं वा, बाधकमपि ज्ञानमर्थो
वा? ज्ञानमपि समानविषयं भिन्नविषयं वा? अर्थोऽपि प्रतिभातोऽप्रतिभातो वा ? क्वचित्कदाचिद्वाधकादसत्यखं सर्वत्र सर्वदा वा इत्यादि दूषणमसत्; यतो हि रजतप्रत्ययस्य उत्तरकाल
भाविना शुक्तिप्रत्ययेन एकविषयतया बाध्यत्वोपलम्भात् ... ७५-७६ विपरीतार्थख्यापकं ज्ञानं वाधकम् ... ... ... ... मिथ्याज्ञानस्येदमेव वाध्यत्वं यदस्मिन् मिथ्यावापादनम् , क्वचि
त्प्रवृत्तिप्रतिषेधोऽपि फलम् ... ... ... ... ...। बाध्यबाधकभावाभावे कथं विद्या अविद्यां बाधेत? ... . निरंशे आत्मनि समारोपिता सुखदुःखादिव्यवस्थाप्यसम्भाव्या ... योगाचाराभिमतविज्ञानाद्वैतवादः ... ... ... ७७-९४ किमविभागज्ञानस्वरूपावेदकप्रमाणसद्भावतो विज्ञप्तिमात्रं तत्त्वम
भ्युपगम्यते बहिरर्थसद्भावबाधकप्रमाणावष्टम्मेन वा ? प्रत्यक्षञ्च न अर्थाभावनिश्चयमन्तरेण विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यधिगन्तुं
समर्थम् ... ... ... ... ... ... ... न च प्रत्यक्षेणाऽर्थाभावः प्रतीयते ... ... ... ... नाप्यनुमानेन अर्थाभावो वेद्यते ... ... ... ... ... अर्थाभावग्राहकं चानुमानं स्वभावलिङ्गजं कार्यहेतुसमुत्थमनुपलब्धि
प्रसूतं वा स्यात् ? ... ... ... ... ... ... अदृश्यानुपलब्धिर्थाभावसाधिका दृश्यानुपलब्धिर्वा ... ... अर्थसंविदोः सहोपलम्भनियमात् अभेदसाधनमप्यसत् ; पक्षस्य
प्रत्यक्षबाधितखात् ... ... ... ... ... ... बाह्यार्थमन्तरेण द्विचन्द्रदर्शनस्यासंभवात् द्विचन्द्रदृष्टान्तोऽपि
साध्यविकल: ... ... ... ... ... ... ... सहोपलम्भनियमश्वासिद्धः अर्थसंविदोः विवेकेन प्रतीवेः ... अनैकान्तिकश्च सहोपलम्भः रूपालोकयोः भिन्नयोरपि सहोप
लम्भात् ... ... ... ... ... ... ... सर्वज्ञज्ञानस्य तज्ज्ञेयस्य चेतरजनचित्तस्य सहोपलम्मेऽपि भेदाझ्य
भिचारः ... ... ... ... ... ... ... सहोपलम्भस्य युगपदुपलम्भार्थकत्वे विरुद्धत्वम् ... ... क्रमेणोपलम्भाभावश्च असिद्धः क्रमेणोपलम्भाभावाद् अभेदः साध्यते भेदाभावो वा ? ...
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
८४-८६
विषयाः एकोपलम्भरूपसहोपलम्भे किम् एकत्वेनोपलम्भः एकोपलम्भः
एकेनैव वोपलम्भः एकलोलीभावेन चोपलम्भः, एकस्यैवोप
लम्भो वा ? ... ... ... ... ... ... ... एकस्यैवोपलम्भे किं ज्ञानस्योपलम्भः अर्थस्य वा? ... ... नीलादिकमहं वेभि इति नीलादिभ्यो भिन्नेनाहम्प्रत्ययेन तत्प्रति
भासाभ्युपगमात् असिद्धः खतोऽवभासनखलक्षणो हेतुः ... अहम्प्रत्ययो गृहीतोऽगृहीतो वा निर्व्यापारः सव्यापारो वा निरा
कारः साकारो वा भिन्नकालः समकालो वा नीलादेहिकः ? गृहीतश्चेत् स्वतः परतो वा, व्यापारवत्त्वे व्यतिरिक्तो व्यापारः अव्यतिरिक्तो वा, अर्थमहं वेभि इत्यादि कर्तृकरणादिप्रतीतिः द्विचन्द्रादिवद्धान्ता इति पूर्वपक्षीय विकल्पाः ... ... ... अहम्प्रत्ययो गृहीत एव ग्राहकः तद्गृहश्च स्वत एव ... ... खपरप्रकाशस्वभावता एव च ज्ञानस्य व्यापारः ... ... ... नीलादेर्शानरूपत्वे सप्रतिघादिरूपतास्थूलरूपता च न स्यात् ... अन्तर्बहिः प्रतिभासभेदेन च ज्ञानार्थयोः भेदः ... ... निराकारमेव ज्ञानमर्थग्राहकम् योग्यताप्रतिनियमाच नाशेषार्थग्रह
प्रसङ्गः ... ... ... ... ... ... ... ... भिन्नकालस्य समकालस्य वा योग्यस्यैवार्थस्य ग्रहणम् ... ... अनुमानेऽप्ययं विकल्पजालः समानः-किं लिंगं भिन्न कालं सदनुमा
नस्य जनकं समकालं वेत्यादि ... ... ... ... एकसामय्यधीनरूपादीनां समसमयलेऽपि यथा स्वरूपप्रतिनियमा- दुपादानेतरव्यवस्था तथा ग्राह्यग्राहकव्यवस्थापि स्यात् ... खार्थग्रहणैकखभाववाद्विज्ञानस्य न 'ज्ञानं येन स्वभावेन खरूपं ' विषयीकरोति तेनैव अर्थ स्वभावान्तरेण वा' इत्यादि दोषाः रूपादीनां यथा सजातीयेतरकर्तृत्वं खभावप्रतिनियमात्तथा ज्ञानं
स्वपरग्राहकम् ... ... ... ... ... ... ... खरूपस्य स्वतोऽवगतावपि भिन्नकालसमकालादिविकल्पः समानः परतः प्रतिभासमानखञ्च वादिनोऽसिद्धम्... ... ... ... यदवभासते तज्ज्ञानमिति साध्यसाधनयोः व्याप्तिश्चासिद्धा ... जडस्य प्रतिभासायोगश्च प्रतिपन्नस्य अप्रतिपन्नस्य वा जडस्याभि
धीयते ... ... ... ... ... ... ... ... नैयायिकस्य सुखादी ज्ञानरूपत्वाऽसिद्धेः साध्यविकलो दृष्टान्तः ... सुखादेरज्ञानत्वे पीडानुग्रहाद्यभावे किं सुखाद्येव पीडानुग्रहौ ततो
भिन्नौ वा ... ... ... ... ... ... ...
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विषयानुक्रमः
९४
विषयाः जैनमते सुखादेर्शानरूपत्वेऽपि नीलादौ स्वप्रकाशलमसिद्धमेव ... कर्तृकर्मकरणादिप्रतीतेः अबाधितलान्न द्विचन्द्रादिप्रत्ययवद् भ्रान्त___ता युक्ता ... ... ... ... ... ... ... अद्वैतप्रसाधकप्रमाणसद्भावे च द्वैतापत्तिः, प्रमाणमन्तरेण च न
द्वैतप्रसिद्धिः ... ... ... ... ... ... ... अद्वैतमित्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः, पर्युदासो वा ? ... ... ... द्वैतादद्वैतस्य व्यतिरेकोऽव्यतिरेको वा ? ... ... ... ... प्रज्ञाकरगुप्ताभिमतचित्राद्वैतवादस्य निरासः... ...। अशक्यविवेचनत्वं साधनं किं वुद्धेरभिन्नत्वं सहोत्पन्नानां नीलादीनां बुद्ध्यन्तरपरिहारेण विवक्षितबुद्ध्यैवानुभवः भेदेन विवेच
नाभावमात्रं वा? ... ... ... ... ... ... बहिरन्तर्देशसम्बन्धित्वेन ज्ञानार्थयोः विवेचनं शक्यमेव ... चित्रज्ञानस्य युगपदनेकाकारव्यापित्ववत् क्रमेणाप्यनेकाकारव्यापिल
मात्मनः किन्नेष्यते ? ... ... ... ... ... ... माध्यमिकाभिमतशून्यवादस्य निरालः ... ... ९६-९७ एकस्य चित्रज्ञानस्य अनेकाकारव्यापिलाभावे नीलज्ञानमप्येकं न
स्यात् तत्रापि प्रतिपरमाणुज्ञानभेदकल्पनात् ... ... ग्रामारामादीनां प्रतिभासमानत्वात् कथं सकलशून्यताभ्युपगमः
श्रेयान् ... .... ... ... ... ... ... ... अखिलशून्यतायाः प्रमाणतः सिद्धिः प्रमाणमन्तरेण वा ? ... ज्ञानस्य खव्यवसायात्मकत्वसमर्थनम् ... ...
९७ सांख्याभिमतप्रकृतिपरिणामात्मक-अचेतनज्ञानवाद
स्य निरसनम् ... ... ... ... ... ... ९८-१०३ प्रधानविवर्तखादचेतनं ज्ञानं न खव्यवसायात्मकमिति; तन्न
आत्मविवर्तलाज्ज्ञानस्य ... ... ... ... .. ज्ञानविवर्तवानात्मा द्रष्टवात् ... ... ... ... ... चेतनोऽहमित्यनुभवाच्चैतन्यखभावतावत् ज्ञाताहमित्यनुभवाज्ज्ञान
स्वभावताप्यस्तु ... ... ... ... ... ... ज्ञानसंसर्गात् पुरुषस्य ज्ञत्वे चैतन्यादिसंसर्गादेव चेतनः शुद्धः
उदासीनश्च पुरुषः स्यात् न तु स्वतः ... ... ... आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽनित्यत्वापत्तिः प्रधानेऽपि समाना ... वुद्धः खसंवेदनप्रत्यक्षाभावे प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकलं न स्यात् बुद्धिः स्वव्यवसायात्मिका कारणान्तरनिरपेक्षतयाऽर्थव्यवस्थाप- कलात् .. ... ... ... ... ... ... ...
९९
१००
१००
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________________
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
पृ०
१०३
विषयाः अर्थव्यवस्थितौ वुद्धः पुरुषानुभवापेक्षखमयुक्तम् ; वुद्धिचैतन्ययोः
भेदानुपलब्धेः ... ... ... ... ... ... ... एकमेवेदं हर्षविषादाद्यनेकाकारं चैतन्यम् , तस्यैव वुझ्यध्यवसाया
दयः पर्यायाः ... ... ... ... ... ... ... तप्तायोगोलके यथा अयोगोलकान्योः संसर्गादभेदः तथा बुद्धिचैतन्ययोः भेदानवधारणमयुक्तम् ; अयोगोलकान्योरपि भेदा
भावात् ... ... ... ... ... ... ... १०१ वुद्धेरचेतनत्वे विषयव्यवस्थापकत्वं न स्यात् ... ... ... आदर्शादिवदचेतनस्य आकारवत्त्वेऽपि नार्थव्यवस्थापकत्वम् ... १०२ अन्तःकरणल-पुरुषोपभोगप्रत्यासन्नहेतुखरूपवुद्धिलक्षणयोः मनो
ऽशादिनाऽनै कान्तिकता ... ... ... ... ... अन्तःकरणमन्तरेण अर्थप्रत्यक्षाताऽभावे कथमन्तःकरणस्य
प्रत्यक्षता? ... ... ... ... ... ... ... १०२ विषयाकारधारिता च अमूर्तीया वुद्धेरनुपपन्ना ... ... ... वौद्धाभिमतसाकारज्ञानवादस्य निरासः ... ... १०३-११० प्रत्यक्षेण विषयाकाररहितं ज्ञानमनुभूयते ... ... ... विषयाकारधारित्वे ज्ञानस्यार्थे दूरनिकटादिव्यवहाराभावः ... ज्ञानं यथा नीलतामनुकरोति तथा जडतामपि तदा जडं स्यात् ... १०४ जडताननुकरणे कथं तस्या ग्रहणम् ? ... ... ... ... ज्ञानान्तरेण केवला जडता प्रतीयते तद्वन्नीलताऽपि वा? ... १०५ ज्ञानं प्रतिनियतसामर्थ्यवशात् प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकम् ... नीलाकारवजडाकारस्य अदृष्टेन्द्रियाद्याकारस्य वाऽनुकरणप्रसङ्गः ... पुत्रस्य पित्रोरन्यतराकारानुकरणवज्ज्ञानस्य नीलाकारस्यैवानुकरणे
निराकारत्वेऽपि प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकलं किन्न स्यात् ? सकलं वस्तु निखिलज्ञानस्य कारणं खाकारार्पकं च किन्न स्यात् ? प्रमाणखाज्ज्ञानस्य नार्थीकारानुकरणम् ... ... ... ... यतो घटयति विवक्षितं ज्ञानमर्थरूपता, अर्थसम्बद्धं वा ज्ञानं
निश्चाययति? ... ... ... ... ... ... ... विशिष्ट विषयोत्पाद एव च ज्ञानस्यार्थेन सम्बन्धः ... ... १०७ साकारं ज्ञानं किमिति सन्निहितं नीलाद्याकारमेवानुकरोति न विप्रकृष्टार्थाकारम् ?... ... ... ...
१०८ ज्ञाने साकारता साकारेण ज्ञानेन प्रतीयते निराकारेण वा ? ... साकारसंवेदनस्य अखिलसमानार्थसाधारणत्वेनानियतार्थैर्घटन
प्रसङ्गः ... ... . ... . ... . ... . ... ... ... १०८
१०३ १०३
१०४
r
१०६
१०८
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विषयानुक्रमः
पृ०
१०९
११०
११०
१११
विषयाः तदुत्पत्तरिन्द्रियादिना व्यभिचारः ... ... ... ... तद्वयस्य समानार्थसमनन्तरप्रत्ययेन व्यभिचारः ... ... ... पुत्रस्य पित्रानुकरणवत् अर्थेन्द्रिययोः अर्थाचारस्यैवानुकरणे
खोपादानमात्रानुकरणप्रसङ्गः ... ... ... ... ... १०९ उपादानभूतस्या पूर्वज्ञानस्याप्यजुकरणे तस्यापि विषयतापत्तिः ... तज्जन्मादित्रयस्य कामलिनः शुक्ले शंखे पीताकारज्ञानेन व्यभिचाराद १०९ ज्ञानगतान्नीलाद्याकारात् क्षणिकवाद्याकारो भिन्नोऽभिन्नो वा ? ... यस्मिन्नंशे संस्कारपाटवानिश्चयोत्पत्तिस्तत्रैव प्रामाण्येऽभ्युपगम्य
माने स निश्चयः साकारो निराकारो वा स्यात् ? ... ... चार्वाकाभिमतभूतचैतन्यवादस्य निरासः ... ... ११०-१२० भूतपरिणामत्वे हि ज्ञानस्य बाह्येन्द्रिय प्रत्यक्षवप्रसङ्गः ... ... सूक्ष्मो भूतविशेषः चैतन्यजातीयो विजातीयो वा चैतन्योपादानं
स्यात् ? ... ... ... ... ... ... ... ... ११० असाधारणलक्षणत्वाच्चैतन्यं पृथिव्यादिभ्यस्तत्त्वान्तरम् ... ... १११ सुख्यहमित्यादिरूपतया प्रतीयमानखात् प्रत्यक्षेणैव आत्मनः सिद्धिः नचाहम्प्रत्ययः शरीरालम्बनो बहिःकरणनिरपेक्षाऽन्तःकरणव्यापारेणोत्पत्तः ... ... ... ... ... ...
११२ अहमिति प्रत्ययस्यैव च जीवखस्वभावता... ... ... ... ११३ लक्षणभेदेन च एकस्यैवात्मनः कर्तृलं कर्मत्वं चाविरुद्धम् ... ११३ श्रोत्रादिकरणं कर्तृप्रयोज्यं करणवादित्यनुमानेनापि आत्मसिद्धिः ११३ रूपाद्युपलब्धिः करणकार्या क्रियात्वात् ... ... ... ... शब्दादिज्ञानं कचिदाश्रितं गुणवाद्रूपादिवत् इत्यनुमानादपि आत्म
सिद्धिः ... ... ... ... ... ... ... ज्ञानं न शरीरगुणं सति शरीरे निवर्तमानखात् ... ... ... ११४ शरीरं न चैतन्यगुणाश्रयो भूतविकारखात् ... ... ... ११४ न इन्द्रियं चैतन्यवत् करणवाद्भूतविकारलाद्वा वास्यादिवत् स्मरणादिचैतन्य मिन्द्रियगुणो न भवति तद्विनाशेऽप्युत्पद्यमानत्वात् ११४ न चैतन्यगुणवन्मनः करणत्वात् ... ... ... ... ... ११५ नापि विषयगुणः तदसान्निध्ये तद्विनाशे च अनुस्मृत्यादिदर्शनात् ११५ तेभ्यश्चैतन्यमित्यत्र 'अभिव्यज्यते' इति क्रियाध्याहारे सतोऽभिव्यक्तिश्चैतन्यस्य असतो वा सदसद्रूपस्य वा? ...
११६ सर्वथाऽसतोऽभिव्यक्तौ व्यञ्जककारकयोः भेदाभावः स्यात् ... ११६ पिष्टोदकादिष्वपि शक्तिरूपेण मादकत्वस्य अवस्थानम् ... ... ११७ चैतन्यमुत्पद्यते इत्यत्र भूतानां चैतन्यं प्रति उपादानकारणवं सहकारिकारणलं वा? ... ... ... ... ... ...
११३
११३
..
११४
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
११०
११९
१२०
विषयाः भूतोपादानत्वे धारणेरणादिभूतस्वभावानां चैतन्येऽनुवृत्तिः स्यात् ११७ प्राणिनामाद्यं चैतन्यं चैतन्यकारणकं चिद्विवर्तवात् मध्यचिद्विवर्त
वत् इत्यनुमानाचेतनतत्त्व सिद्धिः ... ... ... ... ११७ अन्त्यचैतन्यपरिणामश्चैतन्यकार्यः चिद्विवर्तवात् ... ... ११८ भूतानां सहकारिकारणत्वे उपादानमन्यद्वाच्यमनुपादानकार्यानुत्पत्तेः ११८ गोमायादेनं वृश्चिकचैतन्यमुत्पद्यते अपि तु वृश्चिकशरीरम् ... प्रथमपथिकाग्नेः अनम्युपादानत्वे जलादेरप्यजलाधुपादानवापत्तेः
तत्त्वचतुष्टयव्याघातः ... ... ... ... ... ... ११८ अनायेकानुभवितव्यतिरेकेण जन्मादौ बालस्य स्तन्यपानादौ स्मर
णाभिलाषादयो न स्युः ... ... ... ... ... 'अहं जानामि' इत्यत्र कर्तृत्वेन आत्मनः प्रतिभासो भवत्येव ... अनाद्यनन्त आत्मा द्रव्यलात् ... ... ... ... ... १२० व्यमसौ गुणपर्ययवत्त्वात् ... ... ... ... ... १२० शरीररहितस्य आत्मनः प्रतिभासः स्यादित्यत्र किं शरीरस्वभाववि__ कलस्य शरीरदेशपरिहारेण अन्यदेशावस्थितस्य वा ? ... शरीरप्रदेशादन्यत्रानुपलम्भादन्यत्र तदभावः शरीर एव वा ? ... १२० शरीरादात्मनोऽन्यवाभावः किं तत्स्वभावत्वात् तद्गुणत्वात् तत्कार्यवाद्वा स्यात् ? ... ... ... ... ... ... ...
१२० मीमांसकाभिमतपरोक्षज्ञानवादस्य निरासः... ... १२२-१२८ कर्मवस्य प्रत्यक्षता प्रत्यङ्गत्वे आत्मनोऽप्रत्यक्षलप्रसङ्गः ... आत्मनः प्रत्यक्षत्वे परोक्षज्ञानकल्पना किमर्थिका ? ... ... १२१ भावेन्द्रियमनसोः लब्धिरूपयोः न परोक्षता ... ... ...
१२२ उपयोगरूपस्य तु प्रत्यक्षतैव ... ... ... ... ... करणज्ञानस्य करणत्वेनानुभूयमानत्वात् फलज्ञान-आत्मवत् प्रत्यक्षताऽस्तु ... ... ... ... ... ... ... ...
१२२ आत्मफलज्ञानाभ्यां करणज्ञानस्य कथञ्चिद्भेदे प्रत्यक्षतैव स्यात् ... १२३ आत्मज्ञानयोः सर्वथा कर्मवाप्रसिद्धिः कथञ्चिद्वा? ... ... १२३ प्रत्यक्षता अर्थधर्मः ज्ञानधर्मों वा? ... ... ... ... १२४ अखसंवेदनज्ञानवादिनः न प्रत्यक्षाज्ज्ञानसद्भावसिद्धिः अतद्विष___ यखात् ... ... ... ... ... ... ... ... १२५ अनुमानाज्ज्ञानसद्भावसिद्धौ अर्थज्ञप्तिः लिङ्गं स्यात् इन्द्रियार्थो वा
तत्सहकारिप्रगुणं मनो वा ? ... ... ... ... ... अर्थज्ञप्तिः किं ज्ञानखभावा अर्थवभावा वा ? ... ... ... इन्द्रियार्थौ च न लिङ्गम् ज्ञानाविनाभावाभावात् ... ... ... १२६
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...विषयानुक्रमः .
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विषयाः मनोऽपि न लिङ्गं तत्सद्भावासिद्धेः ... ... ... ... १२६ युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेरपि न मनःसद्भावसिद्धिः ... ... ... ज्ञानस्याप्रत्यक्षतैकान्ते तेन लिङ्गस्याविनाभावो न ग्रहीतुं शक्यः फलत्वेन प्रतिभासनात् प्रमितेः प्रत्यक्षतावत् आत्मनोऽपि कर्तृत्वेन
प्रतिभासनात् प्रत्यक्षताऽस्तु ... ... ... ... ... १२८ शब्दानुच्चारणेऽपि खस्य प्रतिभासः अर्थवत् ... ... ... १२८ आत्मप्रत्यक्षत्वसिद्धिः ... ... ... ... ... १२०-१३२ सुखादेः संवेदनादर्थान्तरस्याऽप्रतिभासनात्, आह्लादनाकारपरिणत
ज्ञानविशेषस्यैव सुखवात् तस्य च प्रत्यक्षवात् ... ... १२९ सुखस्य परोक्षत्वे अन्यप्रत्यक्षज्ञानग्राह्यत्वे वा अनुग्रहोपघातका
रिखासंभवः ... ... ... ... ... ... ... न पुत्रसुखाद्युपलम्भमात्रादात्मनोऽनुग्रहः अपि तु सौमनस्यादिजनिताभिमानिकपरिणतेः ... ... ... ... ...
१२९ न खलु सुखादि अविदितस्वरूपं पूर्वमुत्पन्नं पश्चात् तस्य ग्रहणम्
अपि तु स्वप्रकाशरूपस्यैव सुखादेरुदयः ... ... ... १२९ विभिन्नप्रमाणग्राह्याणां सुखादीनामनुग्रहादिकारिखविरोधः ... १३० आत्मनः सुखादेरत्यन्तभेदे आत्मीयेतरविभागाभावः ... ... १३० आत्मीयत्वं हि सुखादीनां तद्गुणवात् , तत्कार्यवात् तत्र समवायात् , तदाधेयत्वात् , तददृष्टनिष्पाद्यवाद्वा ... ...
१३० तदाधेयत्वं च किं तत्र समवायः तादात्म्यं तत्रोत्कलितलमानं वा ? १३१ अदृष्टादेरपि भेदैकान्ते न आत्मीयत्वनियमः ... ... ... नैयायिकाभिमज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादस्य निरासः ... १३२-१४९ प्रमेयत्वात् ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वे सुखसंवेदनेन हेतोर्व्यभिचारो __ महेश्वरज्ञानेन च ... ... ... ... ... ... १३२ ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वे अनवस्था ... ... ... ... १३३ नच ज्ञानद्वयमीश्वरे; समानकालयावद्व्यभाविसजातीयगुणद्वयस्य एकत्राभावात् ... ... ... ...
१३३ द्वितीयज्ञानं च प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं वा? ... ... ... ... प्रत्यक्षं चेत् स्वतो ज्ञानान्तराद्वा ? ... ... ... ... १३३ अनयोर्ज्ञानयोर्महेश्वरा दे कथं तदीयत्वसिद्धिः? ... ज्ञानस्य ईश्वरे समवेतवं नेश्वरेण प्रतीयते, स्वसंवेदिवप्रसङ्गातू नापि ज्ञानेन ‘महेश्वरेऽहं समवेतम्' इति प्रतीतिः ... ... १३४ खज्ञानस्य अप्रत्यक्षत्वे च कथं महेश्वरस्य सर्वज्ञत्वम् ? ... ... १३४ अप्रत्यक्षेण ज्ञानेन अशेषज्ञतायामीश्वरानीश्वरविभागाभावः ... ज्ञानसामान्यस्य स्खपरप्रकाशकलं धर्मो न तु विशिष्टस्य ज्ञानस्य ... १३५
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
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विषयाः धर्मिणो ज्ञानस्यासिद्धेः आश्रयासिद्धः प्रमेयत्वादिति हेतुः ००० धर्मिज्ञानस्य सिद्धिः किं प्रत्यक्षादनुमानतो वा ?... ... ... न मानसप्रत्यक्षादपि धर्मिज्ञानसिद्धिः ... ... ... ... घटादिज्ञानज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानवादि
त्यनुमानादपि न मनःसिद्धिः ... ... ... ... ... खात्मनि क्रियाविरोधान्न खसंवेदनं ज्ञानस्येत्यत्र हि स्वात्मा किं
क्रियायाः वरूपं क्रियावदात्मा वा ? ... ... ... ... खात्मनि उत्पत्तिलक्षणा वा क्रिया विरुध्यते परिस्पन्दात्मिका
धात्वर्थरूपा ज्ञप्तिरूपा वा? ... ... ... ... ... १३७ ज्ञानक्रियायाः कर्मतयाऽपि न खात्मनि विरोधः ... ... ज्ञानान्तरापेक्षया तत्र कर्मलविरोधः स्वरूपापेक्षया वा? ... कर्मलवच्च ज्ञानक्रियातोऽर्थान्तरस्यैव करणखदर्शनात् करणवस्यापि
विरोधोऽस्तु ... ... ... ... ... ... ... १३८ युगपज्ज्ञानोत्पत्तिप्रतीतेः न तदनुत्पत्त्या मनःसिद्धिः ... ... १४० 'चक्षुरादिकं क्रमवत्कारणापेक्षं कारणान्तरसाकल्ये सत्यनुत्पाद्योत्पा
दकलात्' इत्यनुमानादपि न मनःसिद्धिः ... ... ... १४० अनुत्पाद्योत्पादकलं क्रमेण युगपद्वा? ... ... ... ... १४० मनसोऽपि प्रतिनियतात्मीयत्वं तत्कार्यत्वात् तदुपक्रियमाणत्वात्
तत्संयोगात् तददृष्टप्रेरितत्वात् तदात्मप्रेरितलाद्वा ? ... ईश्वरस्य स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे 'सदसद्वर्गः एकज्ञानालम्बन
मनेकखात्' इत्यस्य व्यभिचारिता ... ... ... ... १४२ आये ज्ञाने सति द्वितीयज्ञानमुत्पद्यतेऽसति वा ?... ... ... १४२ तज्ज्ञानान्तरमस्मदादीनां प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं वा? ... ... ... १४२ 'प्रयोजनाभावाच्चतुर्थादिज्ञानकल्पनाऽभावान्नानवस्था' इत्ययुक्तम् ; ज्ञानस्य जिज्ञासाप्रभवत्वानभ्युपगमात् ... ...
१४५ अर्थजिज्ञासायामहं समुत्पन्न मिति तज्ज्ञानादेव प्रतीतिः ज्ञानान्तराद्वा ?
१४५ 'अर्थज्ञानमर्थमात्मानं च प्रतिपद्य अज्ञातमेव मया ज्ञानमर्थपरिच्छे
दकम्' इति ज्ञानान्तरं प्रतीयादप्रतिपद्य वा? ... ... १४५ नापि शक्तिक्षयात् ईश्वरात् विषयान्तरसञ्चाराददृष्टाद्वा अनवस्थावारणम् . ... , ... ... ... ... ... ...
१४६ खपरप्रकाशश्च स्वपरोद्योतनरूपोऽभ्युपगम्यते ... ... ... १४७ खपरप्रकाशयोः कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकलाऽभ्युपगमान्न खभावतद्वत्पक्षभाविनो दोषाः ... ...
१४८ प्रामाण्यवादः ... ... ... ... ... ... ... १४९-१७६ खतःप्रामाण्यं किमुत्पत्ती ज्ञप्तौ स्वकार्ये वा? ... ... ... १५०
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विषयानुक्रमः
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१५४ १५४ १५४ १५४
विषया खत उत्पद्यते इति किं कारणमन्तरेण उत्पद्यते स्वसामग्रीतो
विज्ञानसामग्रीतो वा ? ... ... ... ... ... ... (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) गुणविशेषणविशिष्टेभ्यः चक्षुरादिभ्यो न
प्रामाण्यमुत्पद्यते प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा गुणानामप्रतीतेः ... गुणानुमानमपि स्वभावलिंगात् कार्यात् अनुपलब्धेर्वा भवेत् ? ... यथार्थोपलब्धित्तु स्वरूपमात्रानुमापिका न गुणानुमापिका ... नैर्मल्यं च स्वरूपमेव न गुणः ... ... ... ... ... अर्थतथावप्रकाशनलक्षणप्रामाण्यस्य चक्षुरादिभ्योऽनुत्पत्तौ ततः
प्राकू विज्ञानस्य खरूपं वक्तव्यम् ... ... ... ... अर्थतथालपरिच्छेदरूपा शक्तिः प्रामाण्यम्, शक्तयश्च खत एवो
त्पद्यन्ते ... ... ... ... ... ... ... ज्ञप्तिरपि प्रामाण्ये कारणगुणानपेक्षते संवादप्रत्ययं वा ? ... संवादज्ञानमपि समानजातीयं भिन्नजातीयं वा ? ... ... समानजातीयमपि एकसन्तानप्रभवं भिन्नसन्तानप्रभवं वा? एकसन्तानप्रभवमपि अभिन्न विषयं भिन्नविषयं वा ? ... ... भिन्नजातीयं च किमर्थक्रियाज्ञानमुतान्यत् ? ... ... अर्थक्रियाज्ञानस्य च अन्यार्थक्रियाज्ञानात् प्रामाण्यनिश्चयः प्रथम
प्रमाणाद्वा ? ... ... ... ... ... ... ... समानकालमर्थक्रियाज्ञानं प्रामाण्यव्यवस्थापकं भिन्नकालं वा ? ... यवेककालं पूर्वज्ञानविषयं तदविषयं वा ?... ... ... ... अप्रामाण्ये बाधकारणदोषज्ञानयोरवश्यंभावित्वात् परतोऽप्रामाण्य
निश्चयः ... ... ... ... ... ... चोदनावुद्धिस्तु अपौरुषेयखात् खतःप्रमाणम् ... ... ... खकार्ये च संवादप्रत्ययमपेक्षेत कारणगुणान् वा? ... ... कारणगुणाश्च गृहीताः अगृहीता वा सहकारिणः स्युः ? ... ... (उत्तरपक्षः ) शक्तिरूपे इन्द्रिये गुणानामभावः साध्यते व्यक्तिरूपे
वा? ... ... ... ... ... ... ... ... जातमात्रस्य नैर्मल्यप्रतीतेः तस्य गुणरूपलाभावे तिमिरादिदोषस्य
दोषरूपत्वमपि न स्यात् ... ... ... ... ... घटादीनां च रूपादिगुणस्वभावता न स्यात् ... ... ... नैर्मल्यादेर्मलाभावरूपत्वेपि न गुणरूपताक्षतिः ... ... ... दोषाभावस्यैव गुणत्वात् ... ... ... ... ... ... शक्तिरूपप्रामाण्यस्य खतो भावे अप्रामाण्यशक्तेरपि खतो भावोऽस्तु संवेदनखरूपस्य आत्मलामे कारणापेक्षितायां नान्या काचित् प्रवृत्तिर्या स्वयं स्यात् ... ... ... ... ... ...
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प्रमेयकमलमार्चण्डस्य
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विषयाः प्रमाणस्य किं कार्यं यत्र स्वयं प्रवृत्तिः किं यथार्थपरिच्छेदः प्रमाणा
मिदमित्यवसायो वा ? ... ... ... ... ००० ००० अनुमानोत्पादकहेतोस्तु साध्याविनाभावित्वमेव गुणः .. ... आगमस्यापि गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वेनैव प्रामाण्यम् ... ... अपौरुषेयत्वं नीलोत्पलादिषु दहनादीनां वितथप्रतीतिजनकलोपलं
भाद् व्यभिचारि ... ... ... ... ... ... ज्ञप्तिश्च निर्निमित्ता सनिमित्ता वा ? ... ... ... ... सनिमित्तत्वे खनिमित्ता अन्यनिमित्ता वा? ... ... ... अन्यनिमित्तत्वे तत्किं प्रत्यक्षमनुमानं वा? अनुमाने च अर्थप्राकट्यं लिङ्गं किं यथार्थत्वविशेषणविशिष्टं
निर्विशेषणं वा? ... ... ... ... ... ००० संवादश्च संवादरूपलादेव न संवादान्तरमपेक्षते ... ... अर्थक्रियाज्ञानमपि न अर्थक्रियान्तरात् प्रामाण्यमभिप्राप्नोति यतः __ अनवस्था अपि तु स्वत एव ... ... ... ... ... अर्थक्रियाहेतुर्ज्ञानमिति प्रमाणलक्षणं कथं फलभूतायामर्थक्रियाया
माशयते? ... ... ... ... ... ... ... भिन्नदेशवर्तिमणिप्रभायां मणिज्ञानस्य अप्रामाण्यमेव ... ... कतिपयार्थक्रियादर्शनान्न ज्ञानं प्रमाणम् ... ... ... अविनाभाव एव संवाद्यसंवादकभावनिमित्तं न समानजातीयत्वे
तरादि ... ... ... ... ... ... ... ... बाधकाभावात्प्रामाण्ये किं बाधकामावो बाधकाग्रहणे तदभाव
निश्चये वा ? ... ... ... ... ... ... ... बाधकाभावनिश्चयोऽपि सम्यग्ज्ञानप्रवृत्तेः प्राक् उत्तरकालं वा?... बाधकामावनिश्चयेऽनुपलब्धिः किं प्राकाला उत्तरकाला वा? ... अनुपलब्धिः खसम्बन्धिनी आत्मसम्बन्धिनी वा स्यात् ? ... त्रिचतुरज्ञानमात्रोत्पत्तेः स्वतस्त्वस्वीकारे कथं न पंचमज्ञाने षष्ठापेक्षा ? चोदनाप्रभवज्ञानेन गुणवद्वक्तृकलाभावात्कथं निःशंका प्रवृत्तिः ?
इति प्रथमः परिच्छेदः। प्रत्यक्षकप्रमाणवादः ... ... ... ... ... (चार्वाकस्य पूर्वपक्षः) प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणम् अगौणत्वात् ... अनुमानान्नार्थनिश्चयः ... ... ... ... ... ... सामान्ये सिद्धसाध्यता विशेषेऽनुगमाभावः ... ... ... व्याप्तिग्रहण-पक्षधर्मतावगमस्य असंभवान्नानुमानप्रवृत्तिः... ... (उत्तरपक्षः) अविसंवादकलादनुमानं प्रमाणम् ... ... अनुमानस्य कुतो गौणत्वं गौणार्थविषयलात् प्रत्यक्षपूर्वकबाद्वा?... व्याप्तिग्रहणं तु तर्कप्रमाणेन ... ... . ... ... ...
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विषयानुक्रमः
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विषयाः तर्कमन्तरेण प्रत्यक्षप्रामाण्यस्य अगौणत्वादिलिंगेनापि व्याप्तिग्रहण
मशक्यमेव ... ... ... ... ... ... १७८ अनुमानमात्रस्याप्रामाण्यम् अतीन्द्रियार्थीनुमानस्य वा ? ... ... अनुमानं विना न प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यनिश्चयः, नापि परलोकाद्यभावः
साधयितुं शक्यः ... ... ... ... ... ... वौद्धाभिमतस्य प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणद्वैविध्यास्य नि
१८०-८२ एक एव सामान्यविशेषात्माऽर्थः प्रमेय इति द्वैविध्यमसिद्धमेव ... १८० अनुमानस्य सामान्यमात्र विषयत्वे विशेषेवप्रवृत्तिरेव ... ... व्यापकं गम्यम् , व्यापकं च कारणं कार्यस्य स्वाभावो भावस्य अतः ___ स्खलक्षणमेव गम्यम् ... ... ... ... ... ... प्रमेयद्वित्वं प्रमाण द्वित्वस्य ज्ञातमज्ञातं वा ज्ञापकम् ? ... ... १८१ ज्ञात चेत् किं प्रत्यक्षादनुमानाद्वा? ... ... ... ... १८१ द्वाभ्यां प्रमेयद्वित्वस्य ज्ञाने प्रमेयद्वित्वस्य प्रमाणद्वित्वज्ञापकलन्न
स्यात् ... ... ... ... ... ... ... ... १८१ अन्यदपि ज्ञानम् एकमनेकं वा स्यात् ? ... ... ... ... प्रत्यक्षसिद्धं प्रभेयद्वित्वं तु न युज्यते प्रमेयस्य सामान्यविशेषा
त्मकत्वात् ... ... ... ... ... ... ... १८२ नैयायिकादिभिः आगमस्य पृथक् प्रामाण्यसमर्थनम् १८२-८५ यद्यपि शब्दः परोक्षार्थं सम्बद्धमपि गमयति तथापि प्रत्यक्षादिवत् __ भिन्नसामग्रीजन्यतया पृथगेव प्रमाणम् ... ... ... शाब्दं ज्ञानं न प्रत्यक्षं सविकल्पास्पष्टस्वभावत्वात् ... १८३ नाप्यनुमानं त्रिरूपलिंगाप्रभवत्वादननुमेयार्थविषयत्वाच्च ... ... १८३ न शब्दस्य पक्षधर्मवं धर्मिणोऽयोगात् ... ... ... ૧૮૨ नाप्यर्थो धर्मी ... ... ... ... ... ... ...
१८३ शब्दोऽर्थवान् शब्दवादित्यत्र प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धो हेतुः । न अर्थस्य शब्देनान्वयः ... ... ... ... ... ... न हि यत्र देशे काले वा शब्दः तत्र अवश्यमर्थो विद्यते ... १८४ मीमांसकादिभिरुपमानस्य पृथक् प्रामाण्यसमर्थनम् १८५-८६ दृश्यमानाद् यदन्यत्र सादृश्योपाधितो ज्ञानं तदुपमानम्...
१८५ तस्य विषयः सादृश्य विशिष्टो गौः गोविशिष्टं वा सादृश्यम्
१८५ अनधिगतार्थाधिगन्तृतया तस्य प्रामाण्यम् ... ... नेदं प्रत्यक्षम् ... ... ... ... ... ... ... नाप्यनुमानं हेखभावात् ... ... ... ... ... ... १८६
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१२
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
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विषयाः गोगतं गवयगतं वा सादृश्यमत्र हेतुः स्यात् ... ... ... भीमांसकैः अर्थापाले पृथक प्रामाण्यसमर्थनम् ००० १८७-१८८ प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धार्थेन यदविनाभूताऽदृष्टार्थकल्पना साऽर्थापत्तिः प्रत्यक्षपूर्विका-दाहाद्दहनशक्तिसम्बन्धः ... ... ... ... १८७ अनुमानपूर्विका-सूर्ये गमनागमनशक्तिसम्बन्धः ... ... ... श्रुतार्थापत्तिः पीनो दिवा न भुते इति श्रवणाद् रात्रिभोजन
प्रतिपत्तिः ... ... ... ... ... ... ... अर्थापत्त्यर्थापत्तिः शब्दे अर्थापत्तिप्रबोधितवाचकसामर्थ्यान्नित्यत्व
ज्ञानम् ... ... ... ... ... ... ... ... उपमानार्थापत्तिः-गवयोप मितायाः गोः तज्ज्ञानग्राह्यताशक्तिः १८८ अभावार्थापत्तिः-अभावप्रमितचैत्राभावविशिष्टगृहाचैत्रवहिर्भाव__ सिद्धिः ... ... ... ... ... ... ... ... १८८ मीमांसः अभावमाणसमर्थनम् ... ... ... १८९-१९२ अभावप्रमाणं निषेध्याधारादिसामग्रीतः उत्पन्नं क्वचित् घटादीना
मभावं विभावयति ... ... ... ... ... ... अध्यक्षेण नाभावज्ञानम् ... ... ... ... ... ... १८९ नानुमानेन हेतोरभावात् ... ... ... ... ... ... यद्यभावो न स्यात्तदा कारणादिविभागतः प्रतीतस्य लोकव्यवहारस्याभावः स्यात् ... ... ... ... ...
१९० प्रागभावादिभेदान्यथानुपपत्तेः वस्तुखमभावस्य ... ... अनुवृत्तिव्यावृत्तिवुद्धिग्राह्यत्वाच्च वस्त्वभावः ___... ... प्रागभावादिभेदेन चतुर्विधोऽभावः ... ... ... ... १९० वस्त्वसङ्करसिद्ध्यर्थमभावस्य प्रमाणता ... ...
१९० सदसदात्मके वस्तुनि असदंशग्रहणाय अभावस्य प्रामाण्यम्
१९१ वस्तुन्यभिन्नेऽपि सदसतोः धर्मयोः भेदः ... ... ... १९१ नचाभावस्य भावरूपेण प्रमाणेन परिच्छेदः ... ... जैनमतापेक्षया आगमादीनां परोक्षेऽन्तर्भावः...
१९२ आगमादयः परोक्षम् अविशदत्वात् ... ... ... ... १९२ उपमानस्य प्रत्यभिज्ञानेऽन्तर्भावः ... ... ...
१९३ अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावसमर्थनम् ... ... ... १९३-९५ अर्थापत्त्युत्थापकोऽर्थोऽन्यथानुपन्नत्वेनानवगतः अवगतो वा ? ... अस्य अन्यथानुपपन्नलावगमः अर्थापत्तरेव प्रमाणान्तराद्वा? ... १९३ प्रमाणान्तरादविनाभावावगमे तत्किं भूयोदर्शनम् विपक्षेऽनु
पलम्भो वा? ... ... ... ... ... ... ___ १९४
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विषयानुक्रमः
विषयाः दृष्टान्ते प्रवृत्तं भूयोदर्शनं दृष्टान्त एव अविनाभावं निश्चाययति
साध्यधर्मिणि वा? ... ... ... ... ... ... 'लिङ्गस्य दृष्टान्तेऽविनाभावग्रहणम् , अर्थापत्तौ तु पक्ष एव' ___ इत्यपि नानयोः भेदं साधयति ... ... ... ... १९४ लिंगस्य न सपक्षानुगमाद्गमकता अपि तु अन्तर्व्याप्तिबलेन ... १९४ सपक्षानुगमाननुगमरूपेण अनुमानाऽर्थापत्त्योभैदे पक्षधर्मलसाहि
तायाः अर्थापत्तेः तद्रहिताऽर्थापत्तिः पृथक प्रमाणं स्यात् ... १९५ विपक्षेऽनुपलम्भस्य सर्वात्मसम्बन्धिनोऽसिद्धानकान्ति कलात् ...
शक्तिस्वरूपविचार: ... ... ... ... ... ...१९९-२०२ (नैयायिकस्य पूर्वपक्षः ) निजा हि शक्तिः पृथिवीलादिकम् ... १९६ अन्त्या तु चरमसहकारिरूपा ... ... ... ... ... शक्तिर्नित्या अनित्या वा? ... ... ... ... ... १९६ अनित्या चेत् ; किं शक्तिमतः शक्ताज्जायते अशक्ताद्वा? ...
१९६ शक्तिः शक्तिमतो भिन्ना अभिन्ना वा? ... ... ... ... १९६ शक्तिः किमेका अनेका वा? ... ... ... ... ... १९७ (उत्तरपक्षः) ग्राहकप्रमाणासावाच्छन्तरभावः अतीन्द्रियत्वाद्वा ? १९७ प्रतिनियतसामग्र्याः प्रति नियतकार्यकारिखमतीन्द्रियशक्तिसद्भा
वमन्तरेणानुपपन्नम् ... ... ... ... ... ... १९७ शक्यभावे कथं प्रतिबन्धकमण्यादिसन्निधानेऽप्यग्निः ख कार्य न
कुर्यात् ? ... ... ... ... ... ... ... प्रतिबन्धकेन हि अग्नेः खरूपं प्रतिहन्यते सहकारिणो वा? ... १९७ प्रतिबन्धकेन खभावनिवृत्ती उत्तम्भकसन्निधाने कार्यानुत्पत्ति
प्रसङ्गात् ... ... ... ... ... ... ... १९८ प्रतिबन्धकोत्तम्भकमणिमन्त्रयोरभावेऽग्निः खकार्यं करोति न वा? १९८ आधे कस्याभावः सहकारी; तयोरन्यतरस्य उभयस्य वा? ... १९८ अन्यतरस्य चेत् ; किं प्रतिबन्धकस्य उत्तम्भकस्य वा? ... १९८ कश्चाभावः कार्योत्पत्ती सहकारी-किमितरेतराभावः प्रागभावः __ प्रध्वंसो वा अभावमात्रं वा ... ... ... ... ... यदि शकिर्नास्ति तदा मन्त्रादिना कंचित्प्रति प्रतिबद्धोऽप्यग्निः स
एवान्यस्य स्फोटादिकं कार्य कथं करोति ? ... ... ... खरूपसहकारिव्यतिरेकेण शक्तः प्रतीत्यभावे अदृष्टादेरपि अभावः
स्यात् ... ... ... ... ... ... ... ... १९९ पृथिवीवस्य शक्तिखरूपे मृत्पिडादपि पटोत्पत्तिः स्यात् ...
१९९ दव्यशक्तिस्तु नित्या पर्यायशक्तिस्वनित्या शकादेव शक्तिप्रादुर्भावः स्वीक्रियते ... ... ...
१९८
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प्रमेयकमलमार्तण्डया
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विषयाः शक्तिः शक्तिमता कथञ्चिद्भिन्नाऽभिन्ना च ... ... ... २०१ अर्थानां च अनेकैव शक्तिः कार्यभेदान्यथानुपपत्तेः ... ००० अभावार्थापत्ति निराकरणम् ... ... ... २०२ गृहे यत्तस्य जीवनं तदेव गृहे चैत्राभावस्य विशेषणमुत अन्यत्र २०२ पञ्चावयवसंभवादसावापत्तिरनुमानरूपैव ... ... ... अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः ... ... ... ... २०३-१६ निषेध्याधारो वस्त्वन्तरं प्रतियोगिसंसृष्टं प्रतीयते असंसृष्टं वा? ... प्रतियोगिनोऽपि वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य स्मरणमसंसृष्टस्य वा?
२०४ अभावांशो भावशिवत् प्रत्यक्षः ... ... ... ... ... २०४ क्वचित् प्रत्यभिज्ञानरूपोऽप्यभावः ... ... ...
२०४ अनुपलब्धिलिंगतः प्रबोधने अनुमानखरूपोऽभावः ...
२०५ प्रतियोगिनिवृत्तिः प्रतियोगिस्वरूपसम्बद्धा असम्बद्धा वा?
२०५ प्रमाणपञ्चकाभावो नीरूपत्वात्कथमभावपरिच्छेदकः स्यात् ?
२०५ न च यत्र प्रमाणपञ्चकाभावस्तत्रावश्यम् अभावज्ञानं भवति ... २०६ प्रमाणपञ्चकाभावश्च ज्ञातोऽज्ञातो वा तज्ज्ञानहेतुः? ... ... अन्यवस्तुनो भूतलस्य ज्ञानं तु प्रत्यक्षमेव ... ... आत्मा च किं सर्वथा ज्ञाननिर्मुक्तः कथञ्चिद्वा? ... ...
२०६ भावरूपेणापि प्रत्यक्षेणाभावो वेद्यते ... ... ... ... २०७ अभावादपि च भावस्य प्रतीतिः भावादपि चाभावस्यति ... २०७ इतरेतरामावविचारः ... ... ... ... ... २०६-२११ यदि चेतरेतराभाववशाद् घटः पटादिभ्यो व्यावर्तेत तर्हि इतरे
तराभावोऽपि भावादभावान्तराच्च खतो व्यावर्तेत अन्यतो वा? अन्यतश्चेत् किमितरेतराभावान्तरात् असाधारणधर्माद्वा? ... २०८ इतरेतराभावोऽपि असाधारणधर्मेणाव्यावृत्तस्य भेदको व्यावृत्तस्य वा? २०८ इतरेतराभावेन घटे पटः प्रतिषिध्यते पटवसामान्यं वा उभयं वा? किं पटविशिष्टे घटे पटः प्रतिषिध्यते पटविविक्ते वा? ... ... २०९ इतरेतराभावादन्या पटविविक्तता स एव वा विविक्तताशब्दाभिधेयः? 'घटे पटो नास्ति' इति पटरूपताप्रतिषेधः सा किं प्राप्ता प्रतिषि___ ध्यते अप्राप्ता वा? ... ... ... ... ... ... 'अन्यत्र प्राप्तं पटरूपमन्यत्र प्रतिषिध्यते' इत्यत्र किं समवायप्रति
षेधः संयोगप्रतिषेधो वा? ... ... ... ... ... इतरेतराभावप्रतिपत्तिपूर्विका घटप्रतिपत्तिः, घटग्रहणपूर्वकलं वेत
रेतराभावग्रहणस्य ? ... ... ... ... ... ... घटश्च गृह्यमाणः पटादिभ्यो व्यावृत्तो गृह्यतेऽव्यावृत्तो वा ? ...
२०८
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२०९
१०
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विषयानुक्रमः
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२१२
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२१३
विषयाः व्यावृत्तस्य ग्रहणे किं कतिपयपटादिव्यक्तिभ्योऽसौ व्यावर्तते सकल
पटादिव्यक्तिभ्यो वा ? ... ... ... ... ... ... घटश्च घटान्तरारिक घटरूपतया व्यावर्ततेऽन्यथा वा ?... ... २१० यद्यघटरूपतया; तत्किमघटरूपता पटादिवद् घटेप्यस्ति न वा ? २१० घटासम्भविभूतलगतासाधारणधर्मोपलक्षितं हि भूतलं घटाभावः प्रागभावविचार: ... ... ... ... ... ... २११-२१४ सत्प्रत्ययविलक्षणत्वस्य हेतोः 'प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसादिः' इति
प्रत्ययेनानकान्तिकत्वात् ... ... ... ... ... २११ न प्रागभावः प्रध्वंसादौ इत्यादेरभाव विशेषणस्याप्यभावस्य प्रसिद्धः । प्रागभावः सादिः सान्तः परिकल्प्यते सादिरनन्तः अनादिः सान्तो
वा अनायनन्तो वा? ... ... ... ... ... ... अनन्ताश्च प्रागभावाः किं खतन्त्राः भावतन्त्रा वा ? ... ... २१२ भावतन्त्राश्चेत् किमुत्पन्नभावतन्त्राः उत्पत्स्यमानभावतन्त्रा वा? ... विशेषणभेदात् प्रागभावस्य भेदे एक एवाभावः स्वीकार्यः तस्यैव
विशेषणभेदाचातुर्विध्यं स्यात् ... ... ... ... . सत्तैकत्वेऽपि यथा विशेपणवशाद्विभिन्न प्रत्ययास्तथा अभावस्य क
त्वेऽपि प्रागभावादि प्रत्ययभेदाः भविष्यन्ति ... ... २१३ प्रागभावोऽपि भावान्तररूप एव, प्रागनन्तरपरिणामविशिष्टं मृद्र___व्यमेव घटप्रागभावः ... ... ... ... ... ... २१४ तुच्छखभावत्वे हि सहोत्पत्तिवतां सव्येतरगोविषाणादीनामुपादान___ सांकयं स्यात् ... ... ... ... ... ... ... प्रध्वंसाभावविचारः ... ... ... ... ... ... २१४-१६ यदभावे नियमतः कार्यविपत्तिः स प्रध्वंसो यथा मृद्रव्यानन्तरोत्तरपरिणामः ... ...
२१५ प्रध्वंसस्य तुच्छरूपले मुद्गरादिव्यापारवैयर्थ्यं स्यात् ... ... २१५ प्रध्वंसो हि घटादिव्यापारेण घटादेर्भिन्नः विधीयते अभिन्नो वा ? २१५ विनाशसम्बन्धाद्विनष्टप्रत्यये विनाशतद्वतोः किं तादात्म्यं तदुत्पत्तिः
विशेषणविशेष्यभावो वा सम्बन्धः स्यात् ? ... ... ... प्रध्वंसस्य उत्तरपर्यायात्मकखे तद्विनाशे न पूर्वस्य पुनरुज्जीवनम् ;
कारणस्य कार्योपमर्दनात्मकखाभावात् ... ... ... ... विभिन्नसामग्रीप्रभवतयाऽपि न कपालेभ्योऽभावस्य अर्थान्तरत्वं किन्तु एकेनैव मुद्गरादिव्यापारेण घटविनाश-कपालोत्पादयो.
रुत्पत्तेः ' ... ... ... ... ... ... ... प्रत्यक्षस्य स्वरूपम् .... .... ...... ...... ... ... २१६
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प्रमेयकमलमार्तण्डत्य
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२२०
विषयाः अकस्मालूमदर्शनाद्वहिरोति ज्ञानं व्याप्तिज्ञानं वा न प्रत्यक्षम___ स्पष्टत्वात् ... ... ... ... ... ... ... अकस्माद्भूमदर्शनजनितवहिज्ञाने सामान्यं प्रतिभासेत विशेषो वा ? अस्पष्टत्वं किं ज्ञानधर्मः अर्थधर्मो वा ? ... ... ... ... संवेदनस्यैव हि अस्पष्टताधर्मः स्पष्टतावत् ... ... ... नचास्पष्टसंवेदनं निर्विषयं संवादकलात् ... ... ततः उत्पन्नाया अतदाकारबुद्धेः अस्पष्टत्वे द्विचन्द्रवुद्धावपि अस्प
ष्टव्यवहारः स्यात् ... ... ... ... ... ... स्पष्टज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमादेव क्वचिज्ज्ञाने स्पष्टता ... न हि अक्षात् स्पष्टता ... ... ... ... ... ... वैशद्यस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ... ईहादीनामपरापरेन्द्रियव्यापारादेवोत्पद्यमानखान्न तत्र प्रतीत्यन्तर
व्यवधानम् ... ... ... ... ... ... ... परोक्षज्ञानानां खसंवेदनस्य प्रत्यक्षखात् ... ... ... ... बहिरर्थग्रहणापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षेतरव्यपदेशः न खरूप
ग्रहणापेक्षया ... ... ... ... ... ... ... नैयायिकाद्यभिमतचक्षुःसन्निकर्षवाद निरासः ... बाह्येन्द्रियत्वेन प्राप्यकारित्वे किमिदं बाह्यन्द्रियत्वं किं बहिराभि
मुख्यं बहिर्देशावस्थायित्वं वा? ... ... ... न च वाह्यविशेषणेन मनो व्यवच्छेद्यं तस्यापि संयुक्तसमवाय
सन्निकर्षवलेनैव सुखादौ ज्ञानजनकत्वात् ... ... ... चक्षुश्च धर्मित्वेनोपात्तं गोलकखभावं रश्मिरूपं वा? ... ... न च रश्मिरूपचक्षुषः इन्द्रियेण सन्निकर्षोऽस्ति येन तस्य प्रत्यक्षता अनुमानाद्रश्मिसाधने किमत एव अनुमानान्तराद्वा तत्सिद्धिः? यदि च रश्मयः चक्षुःशब्दवाच्याः तदा गोलकस्योन्मीलनमञ्ज
नादिना संस्कारश्च वृथैव ... ... ... ... ... गोलकादिलग्नस्य च कामलादेः प्रकाशकत्वं स्यात् तत्र व्यक्तिरू
पस्य शक्तिरूपस्य च चक्षुषः सम्बन्धसद्भावात् ... ... शक्तिरूपं च चक्षुः व्यक्तिरूपचक्षुषो भिन्नदेशमभिन्नदेशं वा? ... अभिन्नदेशं चेत्, तत्तत्र सम्बद्धमसम्बद्धं वा ?... ... ... गोलकान्निःसरन्ति चेद्रश्मयस्तदा तेषां रूपस्पर्शवतां प्रत्यक्षेणैवो
पलब्धिः स्यात् ... ... ... ... ... .... अनुभूतरूपस्पर्शस्य तेजोद्रव्यस्याप्रतीतेः ... ... ... ... तैजसखाद्धेतोः किं चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते, . अन्यतः सिद्धानां
तेषां ग्राह्यार्थसम्बन्धो वा? .........
२२०-२९
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विषयानुक्रमः
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२२८
विषयाः मार्जारादिचक्षुषो भासुररूपदर्शनात् तैजसत्वे गवादिलोचनयोः
कृष्णवस्य नारीनयनयोः धावल्यस्य चोपलम्भात् पार्थिवलमा
प्यत्वं च स्यात् ... ... ... ... ... ... रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति हेतोरपि न चक्षुषस्तैज.
सत्त्रसिद्धिः माणिक्यादिना व्यभिचारात् ... ... ... न तैजसं चक्षुः तमःप्रकाशकलात् ... ... .०० ००० रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकलादिति हेतुः जलाञ्जनचन्द्रमाणि__ क्यादिभिरनैकान्तिकः... ... ... ... ... ... द्रव्यं रूपप्रकाशक भासुररूपमभासुररूपं वा? ... ... ... संयुक्तसमवायवशाच्चक्षुर्यथा रूपप्रकाशकं तथा रसादिप्रकाशक
मपि स्यात् ... ... ... ... ... ... ... कथं च चक्षुषा स्फटिकाद्यन्तरितार्थस्य ग्रहणम् ? ... यदि रश्मयः स्फटिकं भिन्दन्ति तदा तैः समलजलान्तरितार्थस्यो___ पलब्धिः स्यात् ... ... ... ... ... ... नीरेण नाशितवान्न समलजलान्तरितस्योपलब्धिश्चेत् कथं स्वच्छ___ जलान्तरितस्योपलब्धिः ००० ००० ... ००० ००० चक्षुरप्राप्तार्थप्रकाशकम् अत्यासन्नार्थाप्रकाशकवाद ... ... न च साध्यावशिष्टवम् प्रसङ्गसाधनलादस्य ... ... ... न च स्पर्शनेन आभ्यन्तरशरीरावयवस्पर्शाऽप्रकाशकेन व्यभि__ चारः; स्वकारणव्यतिरिकार्थप्रकाशकत्वस्य विवक्षितवात् ... चक्षुर्गवा नार्थेन सम्बध्यते इन्द्रियखात् स्पर्शनादीन्द्रियवदित्यनु
मानादप्राप्यकारिखसिद्धिः ... ... ... सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य लक्षणम् ... द्रव्येन्द्रियं पुद्गलात्मकम् ... ... ... ... ... ... भावेन्द्रियं लब्ध्युपयोगात्मकम् ... ... ... लब्ध्युपयोगयोः लक्षणम् ... ... ... ... ... ... यौगाभिमतस्य इन्द्रियाणां प्रतिनियतभूतकार्यत्वस्य
निरास: ... ... ... ... ... ... ... गन्धस्यैवाभिव्यञ्जकलात् पार्थिवं घ्राणमिति सूर्यरश्मिभिरुदकसेकेन
च व्यभिचारि ... ... ... ... ... ... ... रसस्यैवाभिव्यञ्जकलादसनमाप्य मिति च लवणेनानकान्तिकम् ... रूपस्यैवाभिव्यञ्जकलात् तैजसं चक्षुरिति माणिक्यादिना व्यभिचारि स्पर्शस्यैवाभिव्यजकलाद्वायव्यं स्पर्शनामिति कर्पूरादिनाऽनैकान्तिकम् अर्थालौको न कारणं परिच्छेद्यत्वात् ... ... ...
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२८ प्रमेयकमलमार्तण्डस्य विषयाः बौद्धनैयायिकाद्यमिमताया अर्थकारणताया निरासः २३२-३७ अर्थकार्यतया ज्ञानं प्रत्यक्षतः प्रतीयते प्रमाणान्तराद्वा ?... ००० प्रत्यक्षश्चेत् ; तत एव प्रत्यक्षान्तराद्वा ? ... ... ... ... २३२ प्रमाणान्तरं च किं ज्ञान विषयम्, अर्थविषयम् , उभयविषयं वा
स्यात् ? ... ... ... ... ... ... ... नानुमानादर्थकार्यतावसायः अन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात् केशो
ण्डुकादिज्ञानवत् ... ... ... ... ... ... केशोण्डुकज्ञाने हि केशोण्डुकस्य व्यापारः नयनपक्ष्मादेर्वा तत्के
शानां वा कामलादेवा ? ... ... ... ... ... संशयज्ञानेन च व्यभिचारः, नहि तदर्थे सति भवति ... ... संशयविपर्यययोः सामान्यं वा. हेतुः विशेषो वा द्वयं वा? ... २३४ कारणमेव परिच्छेद्यमित्यभ्युपगमे योगिनः अतीतज्ञलमेव स्यान्न __ वर्तमानानागतज्ञवम् ... ... ... ... ... ... २३५ भावस्योत्पद्यमानता किमुत्पद्यमानार्थसमसमयभाविना ज्ञानेन प्रती
येत पूर्वभाविना उत्तरकालभाविना वा? ... ... ... नित्येश्वरज्ञानपक्षे च सिद्धमकारणस्याप्यर्थस्य परिच्छेद्यत्वम् ... २३६ नन्वर्थाभावे ज्ञानसद्भावे अतीतानागतादावपि ज्ञानं स्यादित्यत्र किं
तत्रोत्पद्येत तद्राहकं वा भवेदिति ? ... ... ... ... २३७ वौद्धनैयायिकाभिमताया आलोककारणताया निरास:२३७-२३९ अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां नक्तञ्चराणां च आलोकाभावेऽपि ज्ञानोत्पत्तेः अन्धकारेऽपि अन्धकारस्य ज्ञानमस्त्येव ... ... ... न ज्ञानानुत्पत्तिमात्रमन्धकारः ... ... ... ... ... २३८ आलोकज्ञानस्य च अत एवालोकाद्वैशद्यम् आलोकान्तरादन्यतो वा
कुतश्चित् ? ... ... ... ... ... ... ... २३० प्रदीपादयश्च आवरणापनयनद्वारेण अर्थे ग्राह्यताम् इन्द्रियमनसोर्वा ___ ग्राहकतामुत्पादयन्ति ... ... ... ... ... ... २३० योग्यतालक्षणम् ... ... ... ... ... ...
२४० योग्यतावलादेव प्रतिनियतार्थव्यवस्था ... ... २४० कारणस्य परिच्छेद्यत्वनियमे इन्द्रियादिना व्यभिचारः २४० मुख्यप्रत्यक्षलक्षणम् ... ... ... ... ... ... २४१ आवरणविचारः ... ... ... ... ... ... २४१-४४ आवरणं हि शरीरं रागादयः देशकालादिकं वा ? न शरीरादिकमावरणं किन्तु पौद्गलिकं कर्म ...
२४२ कर्मणां सद्भावसिद्धिः . .... ... ... ...
२४२
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२४१
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विषयानुक्रमः
२४३
२४५
विषयाः नाविद्यैव आवरणम् ; मदिरादिना मूतनापि अमूर्तस्य ज्ञानादेरा
वरणदर्शनात् ... ... ... ... ... ... ... २४३ कर्मणामात्मगुणत्वे हि आत्मपारतव्यनिमित्तवं न स्यात् आत्मा परतन्त्रः हीनस्थानपरिग्रहवत्त्वात् ... ... ... २४३ कर्म पौद्गलिकमात्मनः पारतच्छ्य निमित्तत्वात् ... ...
२४३ नापि प्रधानविवर्तः कर्म; आत्मपारतन्त्र्यनिमित्तवाभावे
खायोगात् ... ... .... ... ... ... ... संवरनिर्जरयोः सिद्धिः ... ... ... ... ... २४४-४६ सम्यग्दर्शनादिभ्यः संवरो निर्जरा च भवतः ... ...
२४५ विपाकान्तवात् निर्जरा कर्मणाम् ... ... ... तारतम्यप्रकर्षदर्शनात् क्वचित् सम्यदर्शनादेः परमः प्रकर्षः __ संभवति ... ... ... ... ... ... ...
२४५ आवरणहानिः क्वचित्प्रकृष्यते आवरणहानिलात् ... ... २४६ नागमद्वारेण अशेषार्थगोचरं ज्ञानं विवक्षितम् ... .... ...
२४६ भावनाप्रकर्षपर्यन्तजखाद्योगिज्ञानस्य नावरणक्षयहेतुकलमिति चेत् ;
न; भावनाप्रतिवन्धकाभावे भावनावत् ज्ञानप्रतिबन्धकापाये सर्वज्ञता भवत्येव ... ... ... ... ... ... २४७ सर्वज्ञत्ववादः ... ... ... ... ... ... २४७-२५६ (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) नास्ति सर्वज्ञः सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकगोचरचारिखाभावात् .... ... ... ... ...
२४७ न प्रत्यक्षेण अतीन्द्रियसर्वज्ञसद्भावः प्रतीयते ... ... ... नाप्यनुमानेन; अविनाभावग्रहणासंभवात् .... ... ... सर्वज्ञसत्तासाधने भावाभावोभयधर्माणां हेतूनामसिद्धविरुद्धानका__न्तिकलम् ... ... ... ... ... ... ... अविशेषेण सर्वज्ञः साध्यते विशेषेण वा? ... ... ... २४८ 'कस्यचित्प्रत्यक्षाः' इत्यत्र हि एकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सूक्ष्माद्यर्थानामभि
प्रेतमनेकज्ञानप्रत्यक्षत्वं वा? ... ... ... ... ... २४८ प्रमेयत्वञ्च किमशेषज्ञेयव्यापिप्रमाण विषयत्वरूपम् , अस्मदादिप्रमाण
विषयत्वरूपं वा, उभयव्यक्तिसाधारणसामान्यखभावं वा ? ... ૨૪૬ आगमो हि नित्यः अनित्यो वा सर्वज्ञप्रतिपादकः ? ... ... नाप्युपमानात् सर्वज्ञतासिद्धिः ... ... ... ... ... २४९ नाप्योंपत्तितः सर्वज्ञसिद्धिः ... ... ... ... ... २५० देशान्तरे कालान्तरे वा नान्यदृशप्रमाणसंभावना, येन देशकाला.
न्तरे सर्वज्ञतासिद्धिः स्यात् ... ... ... ... ... इन्द्रियादीनां स्वार्थातिलङ्घनेन नातिशयो भवितुमर्हति ... ...
२४७
२४७
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प्रमेयानलमाण्ड
५
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विषयाः प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां च सर्वज्ञत्वं बाध्यते ... ... ००० ००० सर्वज्ञस्य ज्ञानं चक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम् , अभ्यासजनितं वा, __ शब्दप्रभवं वा, अनुमानाविर्भूतं वा? ... ... ... अखिलार्थग्रहणं सर्वज्ञवम् , प्रधानभूतकतिपयार्थग्रहणं वा ? ... आद्यपक्षे क्रमेण तद्रहणं युगपद्वा? ... ... ... ... एकक्षण एवाशेषार्थग्रहणात् द्वितीयक्षणे अकिञ्चिज्ज्ञः स्यात् ... परस्थरागादिसाक्षात्करणाच रागादिमत्त्वम् ... ... ... कथश्चातीतानागतग्रहणं तत्स्वरूपाभावात् ... ... ... तद्राह्याखिलाग्रिहणे तत्कालेपि सर्वज्ञः कथं ज्ञातुं शक्य इति ? (उत्तरपक्षः) सर्वज्ञसाधकमनुमानम् ... ... ... ... न चात्र सर्वज्ञो धर्मी किन्तु कश्चिदात्मा ... ... ... सत्तासाधने दोषत्रयं धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् ... ... सामान्यत एव सर्वज्ञः साध्यते, विशेषतः पुनदृष्टेष्टाविरुद्धवाक्वा
दहन्नेव सेत्स्यति ... ... ... ... ... ... प्रत्यक्षसामान्येन च सूक्ष्माद्यर्थानां कस्यचित्प्रत्यक्षवं साध्यते ... योगिप्रत्यक्षमिन्द्रियाद्यनपेक्षं सूक्ष्माद्यर्थविषयत्वात् ... ... एवं साध्यविकल्पे सर्वानुमानोच्छेदः-साध्यमिधर्मोऽग्निः साध्य
त्वेनाभिप्रेतः दृष्टान्तधर्मिधर्मो वा उभयधर्मों वा ? ... ... तथा धूमोऽपि साध्यधर्मिधर्मों हेतुः दृष्टान्तधर्मिधर्मो वा उभय___ गतसामान्यरूपो वा ? ... ... ... ... ... न च प्रत्यक्षलसत्सम्प्रयोगजलविद्यमानोपलम्भनवधर्माद्यनिमित्त
खानां व्याप्यव्यापकभावः सिद्धो येन प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां
सर्वज्ञवं बाध्येत ... ... ... ... ... ... धर्मादेरतीन्द्रियवाचक्षुरादिनाऽनुपलम्भः अविद्यमानलाद्वा अवि
शेषणवाद्वा ? ... ... ... ... ... ... ... सामान्यतः उत्पादादियुक्तं सदिति ज्ञानसम्भवात् अभ्यासो युक्त
एव ... ... ... ... ... ... ... ... आगमादिज्ञानेनाभ्यासप्रतिबन्धकापायादिसामग्रीसहायेन सर्वज्ञल
माविर्भाव्यते ... ... ... ... ... ... ... सकलावरणक्षये सहस्रकिरणवद् युगपदशेषार्थप्रकाशकखभावलं
सर्वज्ञज्ञानस्य ... ... ... ... ... ... ... परस्परविरुद्धशीतोष्णाद्यर्थानामभावादप्रतिभासः ज्ञानस्यासाम
थ्योद्वा ? ... ... ... ... ... ... ... द्वितीयक्षणे हि नार्थानां न च ज्ञानस्याभावो येन अज्ञता स्यात् ... रागिखकारणं हि रागरूपतया परिणमनं न तु रागस्य ज्ञानमात्रम्
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विषयानुक्रमः .
६
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विषयाः अतीतादेः खरूपासंभवः किमतीतादिकालसम्बन्धिलेन तज्ज्ञानका
लसम्बन्धिखेन वा? ... ... ... ... ... ... ज्ञानस्य किमिदं विश्रान्तवं नाम-किं किञ्चित्परिच्छेद्यापरस्यापरि
च्छेदः, विषयदेशकालगमनासामर्थ्यादवान्तरेऽवस्थानं वा, क्वचिद्विषये उत्पद्य विनाशो वा? ... ... ... ... असर्वज्ञोऽपि सर्वज्ञं ज्ञातुं समर्थः, कथमन्यथाऽवेदज्ञः जैमिनि
वेदार्थज्ञत्वेन जानीयात् ? ... ... ... .. सुनिश्चितासम्भवद्वाधकप्रमाणलाच सर्वज्ञस्य संसिद्धिः ... ... सर्वज्ञाभावः प्रत्यक्षेणाधिगम्यः प्रमाणान्तरेण वा? ... ... २६२ नापि निवर्तमान प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकम् ... ... ... वक्तृवं हि हेतुः संवादिवक्तवरूपं विपरीतं वा वक्तृवमानं वा ? वचनस्य असर्वज्ञवधमानुविधानाभावात् ... ... ... ... आगमोऽपि तत्प्रणीतः अन्यप्रणीतो वाऽपौरुषेयो वा सर्वज्ञस्य
बाधकः? ... ... ... ... ... ... .... २६४ नाप्युपमानात् सर्वज्ञाभावः साधयितुं शक्यः ... ... ... २६५ नाऽप्यभावप्रमाणं सर्वज्ञाभावसाधकं तत्सामग्रीस्वरूपयोरसंभवातू ईश्वरवादः ... ... ... ... ... ... ... २६६-२८४ (योगस्य पूर्वपक्षः ) ईश्वरोऽनादिमुक्तः आनादिक्षियादिपरम्परायाः ___ कर्तृवात् .... ... ... ... ... ... ...
२६६ क्षित्यादिकं बुद्धिमद्धेतुकं कार्यवात् ... ... ... ... २६६ क्षित्यादिगतकार्यखात् प्रासादादिगतकार्यवस्य वैलक्षण्यं व्युपन्नप्रति
पतॄन् प्रति उच्यते अव्युत्पन्नान् वा ? ... ... ... न च अकृष्टप्रभवस्थावरादिषु कर्बभावो निश्चितः किन्वग्रहणम् २६६ क्षित्यादिमात्रान्वयव्यतिरेकोपलम्भात् तन्मात्रस्यैव कारणत्वे अदृष्ट
स्यापि कारणत्वं न स्यात् ... ... ... ... ... न च स्थावरादिषु वुद्धिमतोऽभावादग्रहणं भावेऽप्यनुपलब्धिल
क्षणप्राप्तवाद्वेति सन्दिग्धो व्यतिरेकः; सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् २६७ न च शरीराभावे कर्तृवाभावः ... ... ... ... ...
२६७ ज्ञानेच्छाप्रयत्नत्रयस्य कारकप्रयोक्तृतम् ... ... ... ...
२६८ सर्वज्ञता च अशेषकार्यकरणात् ... ... ... ... ... वेदस्य कार्यवत् खरूपेऽपि प्रामाण्यमेव ... ... भगवान् करुणया सृष्टिं कुरुते, ... ... ... ... ... अदृष्टसहकारिणश्च कर्तृवान सुखिनामेव प्राणिनां विधानम् अदृष्टञ्च चेतनाधिष्ठितमेव प्रवर्ततेऽचेतनवात् ... ..
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
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विषयाः महाभूतादिव्यक्तं चेतनाधिष्ठितं रूपादिमत्त्वात् अनित्यवाद्वैति वार्ति. केकारोक्ते प्रमाणे .... .... ... .... ... ... अविद्धकर्णोक्तं च प्रमाणं रूपादिमत्त्वादिति ... ... ... सर्गादौ पुरुषव्यवहारः परोपदेशपूर्वक इत्यादि प्रशस्तमत्युक्तं
प्रमाणम् ... .... .... .... ... ... .. स्थित्वा प्रवृत्तेः इति उद्योतकरोक्तं प्रमाणम् ... ... ... (उत्तरपक्षः) किमिदं सावयवत्वं येन कार्यत्वं साध्यते; किम्
सहावयवैवर्तमानलम् , तैर्जन्यमानत्वं वा, सावयवमिति वुद्धिविषयत्वं वा ?... .... ... ... ... ... ... प्रागसतः स्वकारणसमवायात् सत्तासमवायाद्वा कार्यवसिद्धौ कुतः
प्राक् ? ... ... ... ... ... ... ... ... कारणसमवायाचेत् , तत्समवायसमये प्रागिवास्य खरूपसत्त्वस्या
भावो न वा? ... ... ... ... ... ... ... सत्ता सती असती वा? ... ... ... ... ... ... क्षित्यादेः कथञ्चित्कार्यत्वं सर्वथा वा ? ... ... ... बुद्धिमत्कारणमित्यत्र हि बुद्धिः बुद्धिमतो भिन्ना अभिन्ना वा ?... बुद्धिश्च ईश्वरे व्याह्या वर्तते अव्याया वा ? ... ... ... ईश्वरबुद्धिः क्षणिका अक्षणिका वा? ... ... ... ... कार्यवं च अक्रियादर्शिनोऽपि कृतवुद्ध्युत्पादकवलक्षणं क्षित्यादौ
नास्ति इत्यसिद्धो हेतुः ... ... ... ... ... न चैतत्कार्यसमं नाम जात्युत्तरम् ... ... ... ... स्थावरादौ कर्बभावानिश्चये गगनादौ रूपाद्यभावानिश्चयः स्यात् शरीराभावे ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नाधारवस्याप्यसंभवात् ... ... अचेतनं चेतनाधिष्ठितमित्यस्य निरासः ... ... ... ... न च कारकशक्तिपरिज्ञानाविनाभावि तत्प्रयोक्तृतम् तस्यानेकधोप
लम्भात् ... ... ... ... ... ... ... कार्यमात्राद्धि कारणमात्रानुमाने विशेषविरुद्धताऽसम्भवः न पुनर्बु.
द्धिमत्कारणानुमाने ... ... ... ... ... ... कारुण्यात् सर्गविधाने सुखोत्पादकस्यैव शरीरादिसर्गस्य उत्पादकत्वम् धर्माधर्मयोरपि ईश्वरायत्तवात् ... ... ... ... ... अपवर्गविधानार्थं च सृष्टिविधाने कथमपूर्वसञ्चयकर्तृवम्... ... न ह्ययं नियमो यन्निखिलकार्यमेकेनैव कर्तव्यं नाप्येकनियतैर्बहु
भिरिति अनेकधा कार्यकर्तृलोपलम्भात् ... ... ... समर्थखभावस्येश्वरस्य सहकार्यपेक्षाप्ययुक्ता ... ... ... सहकारिणोऽपि तदायत्तोत्पत्तयः अतदायत्तोत्पत्तयो वा? ...
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विषयानुक्रमः
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विषयाः वार्तिककारोक्तप्रमाणस्य रूपादिमत्त्वादेः निरासः 'सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारः' इत्यत्र उत्तरकालं प्रबुद्धानामिति विशे_षणमसिद्धम् ... ... ... ... ... ... ... स्थित्वाप्रवृत्तरिति तु ईश्वरेणैव व्यभिचारि ... ... ... २८४ क्षित्यादिकं नैकस्वभावभावपूर्वकं विभिन्नदेशकालाकारलात् इत्य
नेन ईश्वरनिरासः ... ... ... ... ०० ... प्रकृतिकर्तृत्ववादः ... ... ... ... ... ... २८५-२८७ (सांख्यस्य पूर्वपक्षः) निखिलजगत्कर्तृवात् प्रकृतेरेव अशेषज्ञता २८५ प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारः इत्यादि सृष्टिप्रक्रिया ... ... ... २८५ प्रकृत्यात्मका एवैते महदादिभेदाः ... ... ... ... २८६ त्रिगुणमित्यादि प्रधानस्य लक्षणम् ... .. ... .... व्यक्ताऽव्यक्तयोः लक्षणम् ... ... ... ... ... ... २८६ प्रधानात्मनि च महदादीनाम् असदकरणादुपादानग्रहणादिहेतुपञ्च
कात् सद्भाव: ... ... ... ... ... ... ... भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तरित्यादिहेतुपञ्चकात् - कारणभूतस्य प्रधानस्य सिद्धिः ... ... ... ... ( उत्तरपक्षः) प्रकृत्यात्मकले महदादीनां ततः कार्यतया प्रवृत्ति. विरोधः ... ... ... ... ... ... ... २८९ न च नित्यस्य कारणभावोऽस्ति ... ... ... ... ... परिणामश्च भवन् पूर्वरूपत्यागाद्वा भवेदत्यागाद्वा? ... .... सर्वथा पूर्वरूपत्यागः कथञ्चिद्वा. ? ... ... ... ... ... २९० प्रवर्तमानो निवर्तमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽनर्थान्तर__ भूतो वा ? ... ... ... ... ... ... ... २९१ यच्च सत्कार्यवादसमर्थनाय हेतुपञ्चकं तदसत्कार्यवादेऽपि समानम् २९१ सर्वथा सत्कार्यं कथञ्चिद्वा? ... ... ... ... ... शक्तिरूपेण सत् चेत् ; तच्छक्तिरूपं दध्यादेर्भिन्नमभिन्नं वा ? ... अभिव्यक्ती कारणानां व्यापारे अभिव्यक्तिः पूर्वं सती असती वा ? एतेषां हेतूनां संशयविनाशनं निश्चयोत्पादनं च सत्कार्यवादे दुर्घटम् निश्चयस्य अभिव्यक्तिः किं खभावाविशयोत्पत्तिः, तद्विषयज्ञानम् ,
तदुपलम्भावरणविगमो वा ? ... ... ... ... .... २९३ अतिशयश्च सन् असन्वा क्रियेत? ... ... ... ...
२९३ बन्धमोक्षाभावश्च सत्कार्यवादिनाम् .... ... ... ...
२९४ नहि यदसत् तस्क्रियते एवेति व्याप्तिः, किन्तु यत्क्रियते तत्प्रा
गुत्पत्तेः कथञ्चिदसदेव ... ... ... भेदानां परिमाणस्य अनेककारणपूर्वकत्वेऽप्यविरोधः ... ...
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प्रमेयकालमार्चण्डस्य
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विषयाः सुखादिसमन्वयश्च शब्दादिष्वसिद्ध एव ... ... ... ... २९५ प्रसादतापादिकार्योपलम्भात् प्रधानान्वितत्वम् अनैकान्तिकमेव चेतनलादिधर्मैः पुरुषाणां नित्यवादिधमैश्च प्रधानपुरुषाणां समन्व.
येऽपि नैककारणपूर्वकत्वम् ... ... ... ... ... २९६ प्रेक्षावत्कारणमेवेभ्यो हेतुभ्यः साध्यते कारणमात्रं वा? ... २९६ प्रधानात्मनि महदादीनामविभागश्चायुक्तः; प्रलयकालस्याभावात् महदादीनां लयश्च पूर्वखभावप्रच्युतौ भवेदप्रच्युतौ वा? ... २९७ सेश्वरसांख्यवादिमतनिरासः ... ... ... ... २९७-९९ (पूर्वपक्षः) प्रधानं हि ईश्वरापेक्षं कर्तृ ... ... ... ... प्रधानगतं सत्त्वरजस्तमोगुणानाश्रित्य ईश्वरः स्थित्युत्पत्तिप्रलयहेतुः २९० (उत्तरपक्षः) प्रकृतीश्वरयोः सर्गाइन्यतमकार्यकाले तदपरकार्यद्वय
सामर्थ्यमस्ति न वा? ... ... ... ... ... ... प्रधानवृत्तिसत्त्वादीनामुद्भूतवृत्तित्वं नित्यमनित्यं वा ? ... ... अनित्यं चेत् ; किं प्रकृतीश्वरादेव, अन्यतो, वा हेतोः, स्वतन्त्रो वा
प्रादुर्भावः स्यात् ? ... ... ... ... ... ... २९९ भाव आत्मानं जनयति निष्पन्नोऽनिष्पन्नो वा ? ... ... ... २९९ सितपटाभिमतस्य केवलिकवलाहारस्य निरासः ...२९९-३०७ कवलाहारकारिणः केवलिनः अनन्तचतुष्टयस्वभावाभावः अस्मदादिसुखादेः कादाचित्कतया भोजनादिभ्यः समुत्पादः न तु . भगवत्सुखस्य अनन्तस्य ... ... ... ... ... केवली न भुङ्क्ते रागद्वेषाभावाऽनन्तवीर्यसद्भावान्यथाऽनुपपत्तेः भोजनं कुर्वतां साधूनां परमार्थतो वीतरागवाभावः ... ... कवलाहारित्वे च सरागलप्रसङ्गः ... ... ... ... कवलाहाराभावेपि नोकर्मकर्मादानलक्षणाहारसद्भावात् देहस्थि
तिरविरुद्धा ... ... ... ... ... ... ... कवलाहारं विनापि त्रिदशाण्डजादीनामाहारिवं भवति ... ... केवलिनः औदारिकशरीरस्थितिर्हि परमौदारिकरूपा अतः आहा
राभावेऽपि तत्स्थितिः ... ... ... ... ... ... ३०१ केशादिवृद्ध्यभाववत् भुक्त्यभावोऽपि केवल्यवस्थायामभ्युपगन्तव्यः तपोमाहात्म्याच्चतुरास्यत्वादिवत् अभुक्तिपूर्वकत्वेऽपि देहस्थितौ को
विरोधः ... ... ... ... ... ... ... आयुःकर्मैव हि प्रधानं देहस्थिति निमित्तम् ... ... ... वेदनीयकर्मसद्भावाच तत्फलमात्रं सिद्ध्येन पुनर्भुक्तिः ... ... असातवेदनीयं च मोहकर्माभावात् सामर्थ्यविकलं न खकार्यकारि
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विषयानुक्रमः
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विषयाः मोहनीयाभावेऽपि यदि अन्यकर्मोदयः कार्यकारी तदा परघातोद__यात् परान् ताडयेत् परैस्ताज्येत वा ... ००० ... यदि मोहनीयनिरपेक्षः कर्मोदयः कार्यकारी तदा अप्रमत्तादिषु ___ वेदोदयात् मैथुनादिकं स्यात् ००० ... ... ... नामादीनां शुभप्रकृतीनां केवलिनि अप्रतिबद्धत्वात् खकार्यकारिता ३०३ बुभुक्षा च न मोहनीयानपेक्षस्य वेदनीयस्यैव कार्यम् ... ... ३०४ भोजनाकांक्षा च प्रतिपक्षभावनातो निवर्त्तते स्याद्याकासावत् ... बुभुक्षायां केवली किं समवशरणास्थित एव भुङ्क्ते, चर्यामार्गेण वा
गला? ... ... ... ... ... ... ... ... 'देवा आहारं सम्पादयन्ति' इति च निष्प्रमाणकम् ... ... चर्यामार्गेण चेत् ; किं गृहं गृहं गच्छति एकस्मिन्नेव वा गृहे
भिक्षालाभं ज्ञावा प्रवर्तते ? ... ... ... ... ... भोजनं च किमेकाकी करोति शिष्यैर्वा परिवृतः?... ... ... केवली भुक्ता प्रतिक्रमणादिकं करोति वा न वा? ... ... किमर्थं चासौ भुङ्क्ते-शरीरोपचयार्थ ज्ञानध्यानसंयमसिद्ध्यर्थं क्षुद्वेद
नाप्रतीकारार्थ प्राणत्राणार्थ वा ? ... ... ... ... 'एकादश जिने' इति आगमस्य च एकेन अधिका न दश इत्यर्थ
कत्वेन परीषहनिषेधपरत्वमेव ... ... ... ... ३०६ 'भोजनं कुर्वाणो भगवान् नावलोक्यते' इत्यत्रादर्शनेऽयुक्तसे विवादे
कान्तमाश्रित्य भुङ्क्ते इति कारणम् , बहलान्धकारस्थितभोजनं
वा, विद्याविशेषेण खस्य तिरोधानं वा? ... ... ... कथश्चादृश्याय दातृभिः भोजनं दीयते ... ... ... ... मोक्षस्वरूपविचारः ... ... ... ... ... ...३०७-३२८ (नैयायिकस्य पूर्वपक्षः) वुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदरूपो मोक्षः
वुद्ध्यादिसन्तानस्य अत्यन्तमुच्छिद्यमानखात् ... ... ... ३०७ आरब्धशरीरेन्द्रियविषयकार्ययोः धर्माधर्मयोः फलोपभोगात्
प्रक्षयः ... ... ... ... ... ... ... ... नाभुक्तं क्षीयते कर्म ... ... ...... ... ... ... 'यथैधांसि' इत्यागमोऽपि फलोपभोगद्वारैव कर्मक्षयं समर्थयति ... अन्ये तु मिथ्याज्ञानजनितसंस्काराख्यसहकारिणोऽभावाद्विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरे फलादानसमर्थानि इति मन्यन्ते;
तेषां कर्मणां नित्यखापत्तिः ... ... ... ... ... नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं च प्रत्यवायपरिहारार्थम् ... ... ... वेदान्त्यभिमता आनन्दरूपता तु मोक्षस्यायुक्ता; यतो हि सुखं मोक्षे नित्यमनित्यं वा ? . ... ... ... ... ...
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
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विषयाः नित्यञ्चत ; तत्संवेदनं नित्यमनित्यं वा ? ... ... ... ...। सांसारिकसुखेन सह नित्यसुखस्यावस्थानात् सुखद्वयोपलम्भः स्यात् अनित्यं हि सुखं न योगजधर्मानुगृहीतान्तःकरणसंयोगात् ; मुक्ती
योगजधर्माभावात् ... ... ... ... ... ... यदि मुक्त्यवस्थायां सुखं नित्यं तदा देहादिकमपि नित्यं कल्पनीयम् सुखस्वभावत्वं च किं सुखखजातिसम्बन्धिलं सुखाधिकरणलं वा ? अत्यन्तप्रियवुद्धिविषयत्वमनन्यपरतयोपादीयमानवं च साधनम
सिद्धम् ; दुःखितायामात्मन्यप्रियवुद्धरपि भावात् ... ... आनन्दं ब्रह्मणो रूपमित्यत्र आनन्दशब्दो हि दुःखाभावे प्रयुक्त
खागौणः ... ... ... ... ... ... ... आत्मस्वरूपात्तन्नित्यं सुखमव्यतिरिकं व्यतिरिक्तं वा? ... ... वौद्धाभिमतो विशुद्धज्ञानोत्पत्तिरूपोऽपि मोक्षो न युक्तः ... रागादिमतो ज्ञानात् तद्र हितस्य उत्पत्त्ययोगात् ... ... ... बोधाद्बोधरूपत्वे हि पूर्वकालभाविवं समानजातीयत्वमेकसन्तानलं
वा न हेतुः व्यभिचारात् ... ... ... ... ... सुपुप्तावस्थायां ज्ञानाभ्युपगमे जाग्रदवस्थातो न कश्चिद्विशेषः ... अभ्यासाद्रागादिविनाशो न युक्तः; सौगतमते विनाशस्य निर्हेतु
कत्वात् अभ्यासानुपपत्तेश्च ... ... ... ... ... जैनाभिमताऽनेकान्तभावनातोऽपि न मोक्षः ... ... ... अनेकान्तज्ञानं मिथ्यैव विरोधादिदोषात् ... ... ... ... खदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिषु असत्त्वमितरेतराभावादिष्यत एव मुक्तावपि अनेकान्तः स्यात्तथा च स एव मुक्तः संसारी चेति
प्राप्तम् ... ... ... ... ... ... ... ... आत्मैकत्वज्ञानात् परमात्मलयरूपो मोक्षोऽपि न युक्तः ... आत्मैकत्वज्ञानस्य मिथ्यारूपत्वात् ... ... ... ... ... शब्दाद्वैतज्ञानमपि मिथ्यारूपवान्न निःश्रेयससाधनम् ... ... सांख्याभिमतप्रकृतिपुरुषविवेकोपलम्भात्स्वरूपे चैतन्यमानेऽव
स्थानं मोक्षः इत्यपि असङ्गतमेव ... ... ... ... प्रधानं हि पुरुषस्थं निमित्तमपेक्ष्य पुरुषार्थसाधनाय प्रवर्तते अन
पेक्ष्य वा? ... ... ... ... ... ... ... यद्यपेक्ष्य प्रवर्तते तदा किमपेक्ष्यं विवेकानुपलम्भोऽदृष्टं वा ? ... चिद्रूपेऽवस्थानमिति न युक्तम् ; चिद्रूपताया अनित्यत्वात् चिद्रूपता आत्मनोऽभिन्ना भिन्ना- वा? ... .... ... ... (उत्तरपक्षः) वुद्ध्यादीनामात्मनः सर्वथा भिन्नानाम् आत्मगुणख
मेव असिद्धम्. ... ...... .... . ... ... ... ...
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विषयानुक्रमः
More
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विषयाः सन्तानत्वं हेतुः सामान्यरूपो विशेषरूपो वा ? ... ... ... विशेषरूपमपि उपादानोपादेयभूतबुद्ध्यादिलक्षणक्षणविशेषरूपम् ,
पूर्वापरसमानजातीयक्षणप्रवाहमात्ररूपं वा ?... ... ... शब्दप्रदीपादीनामत्यन्तोच्छेदाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्तः ... बुद्ध्यादिसन्तानो नात्यन्तोच्छेदवान् तथानुपलभ्यमानत्लादिति सत्प्र.
तिपक्षश्च ... ... ... ... ... ००० ००० तत्त्वज्ञानस्य विपर्ययादिव्यवच्छेदक्रमेण धर्माधर्मादिनाशहेतुत्वेऽपि
न वुद्ध्यादिविनाशहेतुता ... ... ... ... ... इन्द्रियजानां तु वुद्ध्यादीनां नाशोऽस्माभिरप्यभ्युपगम्यत एव ... उपभोगात्कर्मणां प्रक्षये तदुपभोगकाले समुत्पन्नाऽभिलाषादपूर्वक
मप्रादुर्भावोऽवश्यम्भावी ... ... ... ... ... आनन्दरूपता तु मोक्षे खीक्रियते एव किन्तु सा परिणामिनी
नैकान्तनित्या ... ... ... ... ... ... ... तत्संवेदनस्योत्पत्तिकारणञ्च ज्ञानावरणादिप्रतिबन्धकक्षय एव ... विशुद्धज्ञानोत्पत्तिरूपोऽपि मोक्षोऽभीष्ट एव, परन्तु चित्तसन्तानः
सान्वयोऽभ्युपगन्तव्यः ... ... ... ... ... सन्तानक्याद्बद्धस्यैव मोक्षे यदि सन्तानार्थः परमार्थः सन् तदा . आत्मैव नामान्तरेण उक्तः ... ... ... ... ... सान्वयचित्तसन्तत्यभावे च प्रत्यभिज्ञानादिप्रादुर्भावो न स्यात् ... सुषुप्तावस्थायां ज्ञानसद्भावेऽपि न जाग्दवस्थातोऽविशेषः; तदानीं
ज्ञानस्य मिद्धनाभिभूतत्वात् ... ... ... ... ... मिद्धेनाभिभवश्च स्वरूपसामर्थ्यप्रतिबन्धलक्षणोऽभ्युपगम्यते। ... खापलक्षणार्थनिरूपणमप्यस्ति 'एतावत्कालं निरन्तरं सुप्तः एताव
कालञ्च सान्तरम्' इत्यादिरूपम् ... ... ... ... गाढोऽहं तदा सुप्त इति स्मरणमेव च तादालिकानुभवे प्रमाणम् सुषुप्तावस्थायां विज्ञानाभावं स एवात्मा प्रतिपद्यते पार्श्वस्थो वा ? शानान्तरात्तदभावगतो; किं तत्कालभाविनः जाग्रत्प्रबोधकाल
भाविनो वा? .... ... ... ... ... ... ... 'चैतन्यप्रभवप्राणादिः जाग्दवस्थायां प्राणादिप्रभवप्राणादिश्च सुषुप्तावस्थायाम्' इत्यपि न युक्तम् ; सुषुप्तेतरावस्थयोः प्राणादेविशे
षाभावात् .... ... ... ... ... ... ... सुषुप्तादौ चाद्यः प्राणादिः कुतो जायताम् ? ... ... ... खापसुखसंवेदनं चात्र सुप्रतीतमेव ... ... ... ...
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দুলাভজ্ঞা
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विषया: अनेकान्तज्ञानमेवा. वस्तुतोऽवाधितं प्रतीयमाने विरोधाद्यनवकाशात इतरेतराभावात् खपरदेशादिषु सत्त्वासत्त्वे नाभ्युपगन्तुं युक्त
इतरेतराभावस्य प्रतिक्षेपात् ... ... ... ... ... ३२६ स हि घटाद्भिन्नोऽभिन्नो वा? ... ... ... ... ... 'द्विविधोऽनेकान्तः क्रमानेकान्तः अक्रमाऽनेकान्तश्च ... ... अनेकान्तेऽपि अनेकान्तः, प्रमाणपरिच्छिन्नानेकान्तस्य नयपरि: च्छेचैकान्ताऽविनाभावित्वात् ... ... ... ... ... ३२७ चैतन्यविशेषे अनन्तज्ञानादावस्थानस्यैव वस्तुतः मोक्षवम् ... ३२७ उत्पत्तिमत्त्वाज्ज्ञानस्य अचेतनले अनुभवेन व्यभिचारः... ... ३२७ ज्ञानादीनां चेतनसंसर्गाचेतनत्वे शरीरादीनामपि चैतन्यप्रसङ्गः ... ३२७ ततो नाऽचेतना ज्ञानादयः स्वसंवेद्यत्वात्... ... ... ... सुखात्मको मोक्षः चेतनात्मकत्वे सत्यखिलदुःखविवेकात्मकत्वात् ३२८ अनन्तं तत् आत्मस्वभावत्वे सति अपेतप्रतिबन्धकलात् ... श्वेतपटामिमतायाः स्त्रीमुक्तेः निरास: ... ... ... ३२८-३३४ मोक्षहेतुः ज्ञानादिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति परमकर्षवात् ... ३२८ अयं नियमः-यद्वेदस्य मोक्षहेतुपरमप्रकर्षः तद्वेदस्य सप्तमपृथिवी
गमनकारणपापप्रकर्षोप्यस्ति ... ... ... ... परमप्रकर्षवाद्वा हेतोः स्त्रीणां मोक्षहेतुपरमप्रकर्षाभावः ... स्त्रीणां मायाबाहुल्यमस्ति न तु तत्परमप्रकर्षः ... ... ... ३२९ स्त्रीणां संयमो न मोक्षहेतुः नियमेनर्द्धिविशेषाहेतुवात् ... सचेलसंयमत्वाच्च न स्त्रीणां संयमः मोक्षहेतुः ... ... स्त्रियो न मोक्षहेतुसंयमवत्यः साधूनामवन्द्यत्वात् ... ... बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवत्त्वाचन स्त्रियो मोक्षहेतुसंयमवत्यः ... गृहीतेऽपि वस्त्रे जन्तूपघातस्तदवस्थ एव... ... ... ... बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागरूपः संममः कथं याचनसीवनाद्युपाधि__मति वस्त्रे गृहीते स्यात् ... ... ... ... ... ३३१ जन्तुरक्षागण्डादिप्रतीकारार्थ पिच्छौषधादिग्रहणं न परिग्रहो ममे- दम्भावासूचकत्वात् ... ... ... ... ... ... बुद्धिपूर्वकं हि पतितं वस्त्रं हस्तेनादाय परिदधानोऽपि कथं मूर्छा
रहितः स्यात् .... ... ... ... ... ... पुंवेदं वेदन्ता इत्यागमः भाववेदापेक्षयैव ग्राह्यः ... .. स्त्रीखान्यथानुपपत्तश्च न तासां मोक्षप्राप्तिः ... ... नास्ति स्त्रीणां मोक्षः पुरुषादन्यखात् ... ... ... नास्ति स्त्रीणां मोक्ष उत्कृष्टध्यानफलखात् सप्तमनरकगमनवत् ...
इति द्वितीयः परिच्छेदः।
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विषयानुक्रमः अथ तृतीयः परिच्छेदः (उत्तरार्धम्)
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विषयाः । परोक्षस्य लक्षण ... ... ... ००० ००० ... ३३५ परोक्षस्य मेदाः ००० ०००
३३५ स्कृतिलक्षणम् ... ...
३३५ स्मृतिप्रामाण्यवाद: ... ... ... ... ... ... ३३६-३३८ स्मृतिः प्रमाणं संवादकत्वात् ... ... ... (बौद्धादीनां पूर्वपक्षः) किं ज्ञानमात्रं स्मृतिः अनुभूतार्थविषयं
वा विज्ञानम् ? ... ... ... ... ... ... ३३६. 'अनुभूते जायमानम्' इति केन प्रतीयते अनुभवेन स्मृत्या वा ? नचानुभूतता प्रत्यक्षगम्या यतस्तां अनुभवानुसारिस्मृतिर्जानीयात् (उत्तरपक्षः) न ज्ञानमात्रं स्मृतिः किन्तु तदित्याकारं प्रागनुभूत
वस्तुविषयं विज्ञानम् ... ... ... ... ... 'अनुभूते स्मृतिः' इति अनुभवस्मरणपर्यायव्यापिना आत्मना ' प्रतीयते ... ... ... ... ... ...
३३६ परिच्छित्तिविशेषसद्भावान गृहीतग्राहितया स्मृतिरप्रमाणम् ... विशदं भावनाज्ञानं तु न प्रमाणम् ... ... ... ... ३३७ अनुभूतविषयत्वात्स्मरणस्याप्रामाण्ये अनुमानाधिगते वह्नौ प्रवर्त
मानं प्रत्यक्षमप्यप्रमाणं स्यात् ... ... ... ... ... असत्यतीतेऽर्थे प्रवर्तनं तु प्रत्यक्षेऽप्यविशिष्टम् ... ... ... ३३७. सम्बन्धाभावात्तस्याः विसंवादकत्वं कल्पितसम्बन्धविषयवाद्वा
सतोऽप्यस्य अनया विषयीकर्तुमशक्यत्वाद्वा ? ... ... लिंगलिंगिसम्बन्धः किं सत्तामात्रेण अनुमानप्रवृत्तिहेतुः तद्दर्शनात्
तत्स्मरणाद्वा? ... ... ... ... ... ... ... ३३० व्याप्तिस्मरणस्य प्रामाण्यमनुमानप्रामाण्यवादिना तु खीकर्तव्यमेव समारोपव्यवच्छेदकखाच प्रमाणं स्मृतिः ... ... ... ... ३३८ प्रत्यभिज्ञानस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ३३८० न प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यक्षम् ; इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात् . ३३९ स्मृतिनिरपेक्षता. च प्रत्यक्षस्य सुप्रतीता .... ... ... ...
३३९ प्रत्यभिज्ञा हि पूर्वोत्तरविवर्त्तवर्सेकसविषया ... ... ... अयं स इति प्रत्यक्षस्मरणव्यतिरेकेणाप्यस्ति पूर्वोत्तरविवर्त्तवर्येक · · द्रव्यविषयं प्रत्यभिज्ञानम् . ...... .... ... ..... ..... ३४० प्रत्यभिज्ञानानभ्युपगमे यत्सत्तत्सर्व क्षणिकमित्यनुमानं व्यर्थम् ... . ३४१
३३७.
३३७.
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प्रदेयकमलमार्तण्डस्य
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विषयाः प्रत्यभिज्ञाऽभावे 'यदृष्टमनु सितं का तदेव प्राप्तम्' इत्येकवाध्यव.
सायाभावे प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यं न स्यात् ... ... प्रत्यभिज्ञाभावे नैरात्म्यभावनाभ्यासश्च निष्फलः... ... ... नीलाद्यनेकाकाराक्रान्तं चित्रज्ञानमभ्युपगच्छद्भिः स एवायम्' • इति आकारद्वयाक्रान्तं प्रत्यभिज्ञानमप्यभ्युपगन्तव्यम् स एवायमिति आकारद्वयं कथञ्चित्परस्परानुप्रवेशेन आत्माधिकर
णतया आत्मन्येव प्रतिभासते ... ... ... ... ... लुनपुनर्जातनखकेशादिवत् न निर्विषया प्रत्यभिज्ञा ... ... प्रत्यभिज्ञानविलोपे अनुमानस्याप्रवृत्तिरेव ... ... ... ... प्रत्यभिज्ञानस्याप्रामाण्यं हि गृहीतग्राहिलात् स्मरणानन्तरभावि___ खात्, शब्दाकारधारिखाद्वा बाध्यमानलाद्वा ? 'गोसदृशो गवयः' इति सादृश्यप्रत्यभिज्ञानं प्रमाणम् ... ... न सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमनुमानरूपम् ; अनवस्थाप्रसङ्गात् ... सदृशाकारे च कुतः सदृशव्यवहारः? ... ... ... ... सादृश्यप्रतीतेः सङ्कलनात्मकलात् प्रत्यभिज्ञानलमेव नोपमानत्वम् सादृश्यज्ञानस्य उपमानत्वे वैलक्षण्यज्ञानं किन्नामकं प्रमाणम् ? ... संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानरूपमुपमानं नैयायिककल्पितमपि न युक्तम् , - इदमस्साडूरं वृक्षोऽयमिति ज्ञानयोरपि पृथक् प्रमाणता स्यात् तर्कस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ... उपलम्भानुपलम्भशब्देन सकृत्पुनः पुनर्वा दृढतरं निश्चयानिश्चयौ
ग्राह्यौ न तु प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षे ... ... ... ... ... तर्कस्याप्रामाण्यं किं गृहीतग्राहितात, विसंवादित्वाद्वा, प्रमाणविषय
परिशोधकलाद्वा? ... ... ... ... ... ... न बौद्धाभिमतप्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पाद् व्यातिप्रतिपत्तिः ... नानुमानेनापि व्याप्तिग्रहणम् ... ... ... ... ... योगिप्रत्यक्षस्यापि अविचारकतया न व्याप्तिग्राहकता ... ... योगिज्ञानं किं विकल्पमात्राभ्यासातू अनुमानाभ्यासाद्वा जायते ? योगी परार्थानुमानेन गृहीतव्याप्तिकमगृहीतव्याप्तिकं वा पर प्रति__ पादयेत् ? ... ... ... ... ... ... ... नापि मानसप्रत्यक्षाव्याप्तिप्रतिपत्तिः ... ... साध्यं च किमग्निसामान्यम् , अग्निविशेषः, अग्निसामान्यविशेषो वा ? ऊहापोह विकल्पज्ञानस्य प्रत्यक्षफलत्वेऽपि अनुमानलक्षणफलहेतु• खात्प्रामाण्यम् ..... .... .......... ... ... ... समारोपव्यवच्छेदकलात् प्रमाणं तर्कः ... ... .... ...
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विषयानुक्रमः ..
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विषयाः प्रमाणं तर्कः प्रमाणविषयपरिशोधकवाद प्रमाणं तकः प्रमाणानामनुग्राहकत्वात् ००० ... ...
३५३ तर्कस्योत्पत्तौ न. सम्बन्धग्रहणापेक्षा येन अनवस्था अनुमानस्य लक्षणम् ... ...
३५४ हेतुलक्षणम् ... ... ... ... ...
३५४ वौद्धाभिमतत्रैरूप्यस्य निरासः ... ... ००० ३५४-५६ त्रैरूप्यमानं हेतोर्लक्षणं विशिष्टं वा त्रैरूप्यम् ... ... ... ३५४ उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयादित्यत्र त्रैरूप्याभावेऽपि गमकलम् न श्रावणवस्य हेतोरसाधारणानैकान्तिकता ... ... ... सपक्षविपक्षयोहि हेतुरसत्त्वेन निश्चितोऽसाधारणः संशयितो वा ? ३५५ नैयायिकाभिमतपाञ्चरूप्यस्यखण्डनम् ... ... ...३५७-३६२ साध्याविनाभाविखव्यतिरेकेण नापरमबाधितविषयखमसत्प्रतिपक्षवं __ वा समस्ति ... ... ... ... ... ... ...
३५७ बाधाविनाभावयोर्विरोधात् ... ... ... ००० ०००
३५७ अध्यक्षागमयोः कुतो हेतुविषयवाधकलम् ? ... ... ... एकशाखाप्रभवत्वानुमानं कुतो भ्रान्तम्-अध्यक्षबाध्यत्वात् त्रैरूप्य___ वैकल्याद्वा? ... ... ... ... ... ... ... ३५८ अबाधितविषयत्वं निश्चितमनिश्चितं वा हेतोर्लक्षणम् ? ... ... ३५८ बाधाभावनिश्चयनिबन्धनं हि अनुपलम्भः संवादो वा? ... ... ३५८ सत्प्रतिपक्षे हि प्रतिपक्षस्तुल्यबलोऽतुल्यबलो वा स्यात् ? अतुल्यबलत्वं हि पक्षधर्मवादिभावाभावकृतमनुमानबाधाजनितं वा ? अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकवं शब्दे तत्त्वतोऽप्रसिद्धं न वा ? ... साध्यधर्मान्विते धर्मिणि तत्प्रसिद्धं तदहिते वा?... ... .... नित्यधर्मानुपलब्धिः प्रसज्यप्रतिषेधरूपा पर्युदासरूपा वा? ... ३६१ एकस्य हेतोः यदि पक्षधर्मवाद्यनेकरूपतेष्यते तदा अनेकान्तसिद्धिः ३६१ परैः सामान्यरूपो हेतुरुपादीयते विशेषरूपो वा उभयमनुभयं वा ? सामान्यरूपश्चेत् ; तरि व्यक्तिभ्यो भिन्नसभिन्नं वा ? ... ... ३६१ अभिन्नश्चेत् ; कथञ्चित् सर्वथा वा? ... ... ... ... परैः किं साध्यते सामान्यं विशेषो वा उभयमनुभयं वा ? ... .... ३६२ नैयायिकाभिमतपूर्ववदादि-अनुमानत्रैविध्यस्य निरासः ३६२-६८ पूर्ववच्छेषवत् केवलान्वयि ... ... ...
३६२ पूर्ववत्सामान्यतोऽदृष्टं केवलव्यतिरेकि ... ... ... ...
३६२ पूर्ववच्छेषवत्सासान्यतोऽदृष्टमन्वयव्यतिरेकि ....... .... ... ३६२
३५९
३५९
س
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४२
प्रमेयकालमार्तण्डया
३६३
विषयाः अविनाभावस्य अन्वयेन व्याप्त्यभावात् नान्वयो गमकवाङ्गम् ००० 'सदसवर्गः' इत्यनुमानेऽनेकवादिति हेतुः किं व्यतिरेकाभावात् केवलान्वयी विपक्षाभावाद्वा? ... ... ... ...
३६३ विपक्षामावस्यैव विपक्षता ... ... ... .... ... ... त्रिधा व्याप्तिः वहिाप्तिः, साकल्यव्याप्तिरन्ताप्तिश्चेति ... सकलव्याप्तिश्चेदन्वयः, सा कुतः प्रतीयते प्रत्यक्षादनुमानाद्वा ? ३६५ साध्यत्वञ्चासतः करणम् , सतो ज्ञापनं वा? ... ... ३६६ सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादित्ययं हेतुः कुतः केवलव्यति__ रेकी ? ... ... ... ... ... ... ... ... ३६६ व्यतिरेकश्च क्वचित् कदाचित् सर्वत्र सर्वदा वा? ... ... ३६७ पूर्ववत् कारणात्कार्यानुमानं शेषवत् कार्यात् कारणानुमानम् सामान्यतो दृष्टम्-अकार्यकारणादकार्यकारणानुमान सामान्यतोऽवि.
नाभावादिति व्याख्यानमपि न युक्तम् ... ... ... पूर्ववत् पूर्वं व्याप्तिं गृहीला यदनुमानम् , शेषवत्परिशेषानुमान
सामान्यतो दृष्टं विशिष्टव्यक्तौ सम्बन्धाग्रहणात् सामान्येन दृष्ट
मिति च व्याख्यानम् असङ्गतम् ... ... ... ... ३६८ न चायं पूर्ववदादिभेदः युक्तः; परिशेषाद्यनुमानस्यापि पूर्ववत्त्वात् अविनाभावस्य लक्षणम् ... ... ... ... ...
३६९ सहभावस्य खरूपम् ... ... ... ... ... .... ३६९ क्रमभावस्य स्वरूपम् ... ... ... ... ... ... साध्यस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ... असिद्धष्टाबाधितानां साध्यविशेषणानां सार्थक्यम् ३६९-७० असिद्धविशेषणं प्रतिवाद्यपेक्षया इष्टञ्च वादिनः ...। ३७० क्वचिद् धर्मः साध्यः क्वचिच्च तद्विशिष्टो धर्मी
३७१ धर्मिणो लक्षणम् ... ... ... ... ... ... ३७१ विकल्पसिद्ध सत्तेतरयोः साध्यता ... ... व्याप्तिकाले धर्मः साध्यम् ... ... ... ... ... ३७२ प्रतिज्ञाप्रयोगस्य सार्थकता ... ...
४७३ प्रतिज्ञाया अवचनं किं साध्यसिद्धिप्रतिबन्धकलात् प्रयोजना
भावाद्वा ? '... .... ... ... ... ... ... ३७३ प्रतिज्ञाहेतू एव अनुमानाङ्गम् ... ... ... ... ...
३७४ उदाहरणस्य अनुमानावयवत्वनिरासः... ... ... ३७४-७६ तद्धि किं साध्यप्रतिपत्त्यर्थमुपादीयते साध्याविनाभावनिश्चयार्थ वा
व्याप्तिस्मरणार्थ वा ..... ........ .... ... ... ३७४
३७१
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विषयानुक्रमः
३८०
"विषयाः बालव्युत्पत्त्यर्थम् उदाहरणादयोपि शास्त्रे अभ्युपग
म्यन्ते न वादे ... ... ... ... ... ... दृष्टान्तोपनयनिगमनानां लक्षणानि ...
३७७ परार्थानुमानस्य लक्षणम् ... ... ...
३७८ वचनस्यापि तद्धेतुलादनुमानत्वम् ... ... ...
३७८ उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदाद द्विधा हेतुः
३७९ अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ पोढा ... ...
३७९ कारणहेतुसमर्थनम् ... ... ...
३७९ पूर्वोत्तरचरहेत्वोः समर्थनम् ... ... प्रज्ञाकराभिमतस्य भाव्यतीतयोः कारणत्वस्य निरासः ३८०-८२ कृत्तिकोदयस्य भाविरोहिण्युदयकार्यत्वे कथमभूद्भरण्युदयः इत्यनु___ मानम् ... ... ... ... ... ... ... ... ३८० अतीतानागतयोरेकत्र कार्ये व्यापारे च आखाद्यमानरसस्य अतीतो
रसो भावि च रूपं हेतुः स्यात् ... ... ... ... ३८० भाविनो मरणादेः खकाले पूर्व सत्त्वम् अरिष्टादेर्वा ? ...
३८१ मरणारिष्टयोः कार्यकारणभावाऽभावेऽपि अविनाभावाद्गम्यगमक__ भावः संभाव्यत एव ... ... ... ... ... ... ३८२ सहचरहेतुसमर्थनम् ... ... ... ... ३८३-८४ अविरुद्धव्याप्योपलब्ध्यादीनामुदाहरणानि
३७९ विरुद्धोपलब्धिः प्रतिषेधे षोढा ... ... ... ३८५ अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा ... ... अनुपलब्धिश्चात्र दृश्यानुपलब्धिः विवक्षिता
३८६ एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्मे योग्यतया संभावितो घटः निषिध्यते ... ... ... ... ...
३८७ विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा ... ... ... ૨૮૮ कार्यकार्यस्य अविरुद्धकार्योपलब्धावन्तर्भावः ...
३८९ कारणविरुद्धकार्यस्य विरुद्धकार्योपलब्धावन्तर्भावः
३८९ आगमस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... मीमांसकसम्मतस्य वेदापौरुषेयत्वस्य निरासः ... ३९१-४०३ अपौरुषेयलं हि पदस्य वाक्यस्य वर्णानां वा स्यात् ? ... ... वेदपदवाक्यानि पौरुषेयाणि पदवाक्यत्वात् भारतादिपदवाक्यवत् अपौरुषेयत्वसाधकं च प्रमाणं किं प्रत्यक्षम् , अनुमानम् , अर्थोप: . त्यादि वा... .... ...... ... ....... ... ... ... . ३९१
३८६
.
...
...
३९१
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प्रमेयकमलमाडस्या
३९३ ३९२
३९२ ३९२
९३
३९४
३९४
विषयाः अनादिसत्त्वरूपश्चापौरुषेयत्वं कथं प्रत्यक्षम् ? ... ... ... अनुमानञ्च कम्मरणहेतुप्रभवम्, वेदाध्ययनशब्दवाच्यखलिङ्ग
जनितं वा कालखसाधनसमुत्थं वा ? ... ... ... ... कर्तुरस्मरणञ्च किं कर्तृस्मरणाभावः अस्मर्यमाणकर्तृकलं वा ? ... नित्यं हि वस्तु अकर्तृकं भवति न स्मर्यमाणकर्तृकं नाप्यसर्यमाण
कर्तृकम् ... ... ... ... ... ... ... सम्प्रदायाविच्छेदे सति अस्मर्यमाणकर्तृकत्वमपि अनैकान्तिकम् स्मृतिपुराणादिवत् ऋषिनामाङ्किताः काण्वमाध्यन्दिनादिशाखाभेदाः
कथमस्मर्यमाणकर्तृकाः ? ... ... ... ... ... एतास्तत्कृतवात्तन्नामभिरङ्किताः तदृष्टवात् तत्प्रकाशितवाद्वा ? ... कर्तृस्मरणं हि अध्यक्षेणानुभवाभावात् छिन्नमूलं प्रमाणान्तरेण वा ? 'वेदार्थानुष्ठानसमये कर्तुः स्मरणयोग्यत्वे सत्यप्यस्मर्यमाणकर्तृक
खात्' इत्यपि अनैकान्तिकम् ... ... ... ... ... न च पौरुषेयत्वेन सह कर्तुः स्मरणयोग्यत्वस्य विरोधो येन तद्धतु
विशेषणं स्यात् ... ... ... ... ... ... ... न चायं नियमो यदनुष्टानसमये कर्ता अवश्यमेव स्मर्तव्य इति अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वादिनः प्रतिवादिनः सर्वस्य वा ? ... ... अतः स्वातन्त्र्येण अपौरुषेयत्वं साध्यते पौरुषेयत्वसाधनमनुमानं
वा बाध्येत ? ... ... ... ... ... ... ... अपौरुषेयत्वस्य खातन्त्र्येण साधनं प्रसङ्गो वा ? ... ... ... बाधापक्षे किमनेन पौरुषेयत्वसाधकानुमानस्य स्वरूपं बाध्यते
विषयो वा? ... ... ... ... ... ... ... वेदाध्ययनवाच्यत्वं किं निर्विशेषणं कर्चस्मरणविशेषणविशिष्टं वा
अपौरुषेयत्वं साधयेत् ? ... ... ... ... ... अपौरुषेयर्स किमन्यतः प्रमाणात् प्रतिपन्नमत एव वा? ... कञस्मरणं विशेषणं किमभावाख्यं प्रमाणम् अर्थापत्तिरनुमानं वा ? कालशब्दाभिधेयत्वाद्धेतोरपि न अपौरुषेयत्वसिद्धिः ... ... नापि आगमतोऽपौरुषेयत्वम् ... ... ... ... ... उपमानादपि नापौरुषेयत्वसिद्धिः ... ... ... ... ... अपौरुषेयत्वं विनानुपपद्यमानोऽर्थः किमप्रामाण्याभावलक्षणः, ___ अतीन्द्रियार्थप्रतिपादनखभावो वा, परार्थशब्दोच्चारणरूपो वा? अपौरुषेयत्वं प्रसज्यप्रतिषेधरूपं पर्युदासखभावं वा? ... ... पर्युदासपक्षे सत्त्वं किं निर्विशेषणम् अनादिविशेषणविशिष्टं वाऽपौ. रुषेयशब्दाभिधेयं स्यात् ? .... ...... .... ... ...
३९५
३९५
३९६
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३९९ ३९९
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विषयानुक्रमः: ...
४०४
विषयाः वेदः व्याख्यातः अव्याख्यातो वा खार्थप्रतीतिं कुर्यात् ? ..." व्याख्यानमपि खतः, पुरुषाद्वा ? ००० ... ... ... ... व्याख्याता चातीन्द्रियार्थद्रष्टा तद्विपरीतो वा ? ... ... ... मन्वादीनां प्रज्ञातिशयश्च स्वतः, वेदार्थाभ्यासातू, अदृष्टात्, . ब्रह्मणो वा स्यात् ? ... ... .... .... ... ... अश्रुतकाव्यादिवत् वेदार्थस्य संवादित्वे व्याचिख्यासितार्थनियमोन __ स्यात् अनेकार्थवाच्छब्दानाम् ... ... ... ... ००० नररचितरचनाविशिष्टलात् पौरुषेयो वेदः ... ... ... ४०२ शब्दनित्यत्ववादः ... ... ... ... ... ... ४०४-२७ (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) शब्दस्य नित्यत्वं स्वार्थप्रतिपादकलान्य.
थानुपपत्तेः ... ... ... ... ... ... ... सम्बन्धावगमश्च प्रमाणत्रयसम्पाद्यः ... ... ... ... ४०४ सादृश्यादाप्रतिपत्तेः ... ... ... ... ... ... सादृश्यादर्थप्रतीतो भ्रान्तः शाब्दः प्रत्ययः स्यात् । ... ... ४०५ गलादीनां वाचकत्वं गादिव्यक्तीनां वा ? ... ... ...।
४०५ व्यक्तीनां वाचकत्वो किं गादिव्यक्तिविशेषो वाचको व्यक्तिमात्रं वा ? ४०५ व्यक्तिमात्रञ्च सामान्यान्तःपाति व्यक्त्यन्तर्भूतं वा? ... ... न विभिन्न देशादितयोपलभ्यमानलाद् गकारादीनां नानालम् ; __ अनेकप्रतिपतृभिः भिन्नदेशादितयोपलभ्यमानादित्यैनानेकान्तात् ४०६ विभिन्नदेशादितयोपलम्भश्च व्यजकध्वन्यधीनः ... ... नाप्येकेन भिन्नदेशोपलम्भात् घटादिवन्नानासम्; आदित्येनैवाने
कान्तात् ... ... ... ... ... ... ... कुमारिलोक्ता प्रतिबिम्बनिराकरणपरा चर्चा . ... ....
४०८
.... ... प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेण च एक एव शब्दः प्रतीयते ... ... ... (उत्तरपक्षः). धूमादिवदनित्यस्यापि शब्दस्यावगतसम्बन्धस्य
सादृश्यतोऽर्थप्रतिपादकत्वसंभवात् .... ..... ... ... सादृश्यस्य स्वरूपं व्यक्तिभ्यो भिन्नमभिन्नञ्च प्रतीयते ... ... ४११ लक्षितलक्षणया विशेषप्रतिपत्तिश्च अयुक्ता ... ... ... ४११ सामान्याद्विशेषः प्रतिनियतेन रूपेण लक्ष्येत साधारणेन वा ?
४११ जातिव्यक्त्योश्च सम्बन्धस्तदा प्रतीयते. पूर्व वा ?.... ... ... ४१२ ज़ाविळक्तिनिष्ठेति प्रत्यक्षेण प्रतीयते अनुमानेन वा? ... ... ४१२ वर्णेष्वपि अनुगतप्रत्ययस्य भावात् वर्णवमस्ति ... ...
४१३ अनेको गोशब्दः. एकेनैकदा विभिन्नदेशादितयोपलभ्यमानखात्. . . घटादिवत् ... ... ... ... ... ... . ... . .४१३
४०५
r
४०६
४०७
४०९
.
४०९
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সঈসা vত্ত
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४१४
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४१६ ४१८. ४१८
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४२०
विषयाः न उदात्तादयो व्यञ्जकधर्मा अपि तु शब्दधर्मा एव ... ... बुद्धितीव्रत्वञ्च किं-महत्त्वरहितस्यार्थस्य महत्त्वेनोपलम्भः, यथाव. स्थितस्यात्यन्तस्पष्टतया वा ग्रहणम् ... ... ... ... ताल्वादीनां व्यञ्जकत्वे तद्धर्मोपेतस्य शब्दस्य नियमेनोपलब्धिर्न ' स्यात् ... .... ... .... ... ... ... ... ध्वनयः श्रोत्रप्राह्या न वा? ... ... ... ... ... किं कारणानुविधायित्वमल्पलमहत्त्वयोः स्वभावसिद्धत्वादसिद्धम् ,
स्वभावतस्तद्रहितखात् कारणकृते ते न स्तः ? ध्वनयश्च प्रत्यक्षेण अनुमानेन अर्थापत्त्या वा प्रतिपन्नाः? . ... विशिष्टसंस्कृत्यन्यथानुपत्तेः ध्वनयः सन्ति इत्यपि न युक्तम् ... शब्दसंस्कारपक्षे कोऽयं शब्दसंस्कारः-शब्दस्योपलब्धिः, तस्यास्मभूतः क्वचिदतिशयः, अनतिशयव्यावृत्तिः, खरूपपरिपोषः, व्यकिसमवायः, तद्हणापेक्षग्रहणता, व्यञ्जकसन्निधानमात्रम् ,
आवरणविगमो वा ? ... ... ... ... ... ... व्यञ्जकैः किं क्रियते येन ते तैनिर्यमेनापेक्षते-योग्यता; किमात्मनः,
शब्दस्य, इन्द्रियस्य वा ? ... ... ... ... ... न हि दिगाद्यपेक्षया ग्रहणमिष्यते अपि तु श्रवणान्तर्गतत्वेन ... आवरणविगमः संस्कारस्तु तदा स्यात् यदि आवरणं कुतश्चित्प्र. सिद्ध्येत् ... ... ... ... ... ... ... व्योमव्यापिनः बहवश्चैदावारकाः; ते किं सान्तरा निरन्तरा वा ? क्वचिदावरणविगमे सर्वत्र आवरणविगमात् सर्वशब्दश्रुतिः स्यात् अभिन्नदेशेऽभिन्नेन्द्रियग्राह्ये चावायें . आवरणभेदस्याभिव्यञ्जकमे
दस्य चाप्रतीतेः . .... ... ... ... ... ... जलसेकादयो न भूमिगन्धस्य व्यञ्जका अपि तूत्पादका एव ... इन्द्रियसंस्कारपक्षे सकृत्संस्कृतं श्रोत्रं युगपन्निखिलवर्णान् शृणुयात् उभयसंस्कारपक्षे उभयदोषः . .... .... ... ... ... जले च उपलभ्यमानानामादित्यप्रतिबिम्बानामनेकखात् ... जलादित्यादिलक्षणसामग्रीवशात् मुखादिप्रतिबम्बं समुत्पद्यते शब्दस्य गमनागमनपक्षभाविनो दोषाः व्यजकवाय्वागमनेऽपि
समानाः . ... ... ... ... ... ... ... सहजयोग्यतावशात् शब्दस्य अर्थप्रतिपादकत्वम् ... ... हस्तसंज्ञादिवच्छब्दार्थसम्बन्धस्य अनित्यत्वेऽपि अर्थप्रतिपत्ति___ हेतुता .... ... ... ... ... .... ... ... शब्दार्थसम्बन्धस्य नित्यत्वेऽपि तदभिव्यक्तौ अनवस्थादोषस्तुल्यः .
४२१
४२१
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४२३ ४२४ ४२५
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. विषयानुक्रमः
م
م
م
س
س
س
م
विषयाः संकेतश्च अतीन्द्रियज्ञान विकलपुरुषाश्रितः, स चान्यथापि संकेतं ___ कुर्यात् .... .... .... . .०० . ... ... ... ... वेदः नित्यसम्बन्धवशादेकार्थनियतः अनेकार्थनियतो वा ? ... एकार्थनियतश्च किमेकदेशेन सर्वात्मना वा ... ... ... एकदेशेन चेत्; सकिमेकदेशः अभिमतैकार्थनियतः अनभिमतै__ कार्थनियतो वा ? ... ... ... ... ... ... अभिमतार्थेकनियतश्चेत् किं पुरुषात्स्वभावाद्वा? ... ... ... सम्बन्धश्च ऐन्द्रियः अतीन्द्रियः अनुमानगम्यो वा ? ... ... ४३० अनुमानगम्यत्वे लिङ्गम्-ज्ञानम् , अर्थः, शब्दो वा स्यात् ? ... . ४३० बौद्धाभिमतस्य अपोहस्य निरासः . ... ... ... ४३१-४५१ अर्थवन्तः शब्दाः नार्थाभावे दृश्यन्ते अतो न अन्यापोहमात्राभि
धायकाः . , ... .... .... ... ... ... ... ४३१ यत्नतः परीक्षितः शब्दोऽर्थवत्त्वेतरतां न व्यभिचरति ... ... ४३१ अन्यापोहाभिधायित्वे प्रतीतिविरोधः गवादिशब्देभ्यो हि विधि
रूपेण प्रत्ययः समुत्पद्यते ... ... ... ... ... ४३१ एकेन गोशब्देन च विधिनिषेधद्वयं न स्यात् ... ... ... ४३१ प्रथमञ्च गोशब्दश्रवणादगौरिति प्रतीयेत ... ... ... ४३२ अपोहलक्षणं सामान्यं पर्युदासरूपं प्रसज्यरूपं वा वाच्यं स्यात् ? अश्वादिनिवृत्तिलक्षणश्च को भावोऽभिप्रेतः ? ... ... ... ४३३ अपोहवादिनां मते विभिन्नसामान्यवाचिनां शब्दानां शाबलेयादि
विशेषशब्दानाञ्च पर्यायवाचिवं स्यात् ... ... ... ४३३ अपोह्यभेदादपि न शब्दभेदः प्रमेयाभिधेयादिशब्दानामप्रवृत्ति
प्रसङ्गात् . .... .... ... ... .... ... ... कथञ्च सदृशपरिणामाभावे शावलेयादीनामेव अगोपोहाश्रयवं न .. तु कर्काद्यश्वव्यक्तीनामिति ... ...
૪૪ न चापोहे संकेतः संभवति ... ... ... ... ... अपोहप्रतिपत्तौ च इतरेतराश्रयः... ... ... ... ... ४३५ अपोहपक्षे च नीलोत्पलादौ विशेषणविशेष्यभावो न स्यात् ? ४३६ अपोहश्च न कस्यचिद्विशेषणं खाकारानुरक्तबुद्ध्यनुत्पादकखात् वस्तुभूतं सामान्य शब्द विषयः. ... ... ... ... . ... अपोहो वस्तु अपोह्यखात् ........ ... ... ... ... ४३९ अपोहानां परस्परतो वैलक्षण्यमवैलक्षण्यं वा स्यात् ? ... ... .: ४३९ विभिन्नसामान्यवाचिनां शब्दानां परस्परतोऽपोहभेदः वासनामेद. निमित्तः वाच्यापोहमेदनिमित्तो वा ?... ... ... ... . ४३९
४३५
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४८
प्रमेयकमलमार्तण्डस्या
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४४१
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४४२
विषयाः अतः अपोहयो न गम्यगमकभावः अवस्तुखात् ... ... अपोहः वाच्योऽनाच्यो वा? .... ... ... ... ... वाच्योऽपि विधिरूपेण अन्यव्यावृत्त्या वा? ... ... नान्यापोहः अनन्यापोह इत्यत्र विधिरूपमेव वाच्यमुपलभ्यते ... विजातीयव्यावृत्तार्थानुभवक्रमेण जायमानविकल्पप्रतिविम्बेऽन्यापो
हसंज्ञाकरणेऽपि स विकल्पः पारमार्थिकार्थग्राही अभ्युपगन्तव्यः शब्दादर्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीतेः स एव शब्दार्थो न तु
विकल्पप्रतिबिम्बमात्रम् ... ... ... ... ... ४४२ शब्दानां प्रतिनियतार्थे प्रवर्तकलात् वस्तुभूतार्थविषयता ... शब्दस्य अर्थवाचकत्वम् ... ... ... ... ... ४४२-४५१ (बौद्धस्य पूर्वपक्षः) अकृतसमया ध्वनयोऽर्थाभिधायकाः कृत
समया वा? ... ... ... ... ... ... ... द्वितीयपक्षे संकेतः-खलक्षणे, जातो, तद्योगे, जातिमत्यर्थे, वुद्ध्या___ कारे वा? ... ... ... ... ... ... ... समयः उत्पन्नेषु क्रियते अनुत्पन्नेषु वा?... ... ... ... (उत्तरपक्षः). सामान्य विशेषात्मन्यर्थे सङ्केतोऽभ्युपगम्यते न
जात्यादिमात्रे ... ... ... ... ... ... ... समानपरिणामापेक्षया व्यक्तिषु संकेतः संभवति ... ... ... सदृशपरिणामाभावे अन्यव्यावृत्तरेव नियमयितुमशक्यत्वात् ... ४४५ शब्देन चार्थस्य अस्पष्टाकारतया प्रतिभासः, अतः स्पष्टप्रति. . पत्त्यर्थ चक्षुरादीनामुपयोगः ... ... ... ... ... अतीतानागतादावपि स्वकाले सत्त्ववत्यर्थे संवादात् शब्दस्य
प्रामाण्यम् ... ... .... .... ... ... ... सामग्रीभेदादेव. विशदेतरप्रतिभासभेदो न तु विषयभेदात् ... अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमिति शब्देन कश्चिदर्थोऽभिधीयते न वा ? ... साक्षादिन्द्रियागोचरत्वे यदि पारम्पर्येण तद्विषयता तदा तज्जा
प्रतीतिः किमिन्द्रियजप्रतीतितुल्या, तद्विलक्षणा वा ? ... दाहशब्देन च किमग्निः उष्णस्पर्शः रूपविशेषः स्फोटः तदुखं . वाऽभिप्रेतम् ? ... ... ... ... ... ... ... यदि चाभावोऽभिधीयते भावो नाभिधीयते तदा कथम् अपूर्वे . स्वर्गादौ धर्मादौ वा. सुगतवाक्यात् प्रतिपत्तिः ... ... शब्दस्य अर्थावाचकत्वे सत्येतरव्यवस्थाऽभावः ... ... ...
४४९ परार्थानुमानवाक्यस्य अर्थागोचरत्वे कथं ततोऽमितार्थसिद्धिः?... सकलवचसां विवक्षामात्रविषयत्वे सर्व शब्दविज्ञानं प्रमाणं स्यात्
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विषयानुक्रमः
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विषयाः अर्थव्यभिचारवत् विवक्षाव्यभिचारस्यापि दर्शनात् कथं शब्दाः
विवक्षामपि प्रतिपादयेयुः ... ... ... ... ... बहिरर्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्त्यादिप्रतीतेः न विवक्षायास्तदधिरूढार्थस्य
वा वाचकः शब्दः ... ... ... ... ... ... ४४९ किं शब्दोच्चारणेच्छामानं विवक्षा, अनेन शब्देनामुमर्थं प्रतिपाद
यामि इत्यभिप्रायो वा विवक्षा? ... ... ... ... किं समयानपेक्षं वाक्यं विवक्षां गमयति समयसापेक्षं वा? ... ४५० स्खलक्षणस्य अनिर्देश्यत्वं हि तच्छब्देनाप्रतिपाद्य उच्येत प्रतिपाद्य वा? विकल्पप्रतिभास्यन्यापोहगता वाच्यता वस्तुनि प्रतिषिध्यते वस्तुगता __ वा वाच्यता ? ... ... ... ... ... ... ...
४५१ स्फोटवादः ... ... ... ... ... ... ... ४५१-५७ (वैयाकरणानां पूर्वपक्षः) वर्णा हि समस्ता व्यस्ता वा तद्वाचकाः? न अन्त्यवर्णस्य पूर्ववर्णानुगृहीतस्य अर्थप्रतिपादकत्वम् ... ... अन्त्यवर्णानुग्रहो हि अन्त्यवर्णं प्रति जनकत्वम् अर्थज्ञानोत्पत्तौ
सहकारित्वं वा? ... ... ... ... ... ... ४५२ संवेदनप्रभवसंस्काराश्च खोत्पादकविज्ञान विषयस्मृतिहेतवो नार्था
न्तरस्मृति विधातारः ... ... ... ... ... ... ४५२ न च पूर्ववर्णानपेक्षस्यैव अन्त्यवर्णस्य वाचकता ... ... ... ४५२ श्रोत्रविज्ञाने चासौ स्फोटः निरवयवोऽक्रमश्च प्रतिभासते ... ४५२ नित्यश्चासौ स्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः ... ... ... ...
४५३ (उत्तरपक्षः) पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टादन्यवर्णादर्थप्रतीतिः... ... ४५३ पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्टः तन्जनितसंस्कारसन्यपेक्षो वाऽन्त्यवर्णो
वाचकः ... ... ... ... ... ... ... पूर्ववर्णविज्ञानप्रभवसंस्काराणाम् अन्त्यवर्ण प्रति सहकारित्वस्य
प्रणाली ... ... ... ... ... ... ... ४५३ क्षयोपशमवशाच अविनष्टा एवं पूर्ववर्णसंविदः तत्संस्काराश्च
अन्त्यवर्णसंस्कारं कुर्वन्ति ... ... ... ... ..... पूर्वस्मृतिसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो वर्णों वाचकः ... ... ... ४५४ वर्णा हि किं समस्ताः स्फोटं व्यञ्जयन्ति व्यस्ता वा ? ... ... ४५४ पूर्ववर्णैः स्फोटस्य संस्कारः किं वेगरूपः, वासनारूपः, स्थितस्था
पकाख्यो वा विधीयते? ... ... ... संस्कारश्च स्फोटखरूपः तद्धर्मो वा ? ... ... ... ... ४५५ पूर्ववर्णैः स्फोटसंस्कारः एकदेशेन क्रियते सर्वात्मना वा? ... स्फोटसंस्कारश्च स्फोटविषयसंवेदनोत्पादनम् आवरणापनयनं वा? ४५५
४५३
४५४
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५५०
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
४५६
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विषयाः चिदात्मव्यतिरेकेण अन्यस्य स्फोटस्याप्रतीतिः, पदवाक्यावरण
क्षयोपशमविशिष्टश्चिदात्मैव पदवाक्यस्फोटः ... वायुभ्योऽपि न स्फोटाभिव्यक्तिः ... ... ... ... एवञ्च शब्दस्फोटवद् गन्धादिस्फोटोऽप्यभ्युपगन्तव्यः ... हस्तपादकरणमात्रिकाङ्गहारादिस्फोटोऽपि स्वीकार्यः शब्दस्फोटवत् पद-वाक्यलक्षणविचारः ... ... ४५८-६० परस्परापेक्षवर्णानां निरपेक्षः समुदायः पदम् ... ...
४५८ निराकासखं हि प्रतिपतृधर्मः वाक्येष्वध्यारोप्यते ...
४५८ परस्परापेक्षपदानां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् ... ...
४५८ प्रकरणादिगम्यपदान्तरसापेक्षस्यापि वाक्यलम् ... ... ... ४५८ 'आख्यातशब्दः संघातः' इत्यादि दशविधमपि वाक्यन्न घटते आख्यातशब्दः पदान्तरनिरपेक्षः सापेक्षो वा वाक्यम् ?
४५९ सापक्षेत्वे क्वचिन्निरपेक्षो न वा? ... ... ... ... ... ४५९ संघातोऽपि देशकृतः कालकृतो वा? ... ...
४५९ कालकृतपक्षेऽसौ वर्णेभ्यः अभिन्नः भिन्नो वा ? ... अभेदे सर्वथा कथञ्चिद्वा ?... ... ... ... वुद्धिरपि भाववाक्यं द्रव्यवाक्यं वा स्यात् ? ... ...
४६० अनुसंहृतेः अनुभवरूपतया भाववाक्यवमिष्टमेव ...
४६० प्राभाकराभिमत-अन्विताभिधानवादस्य निरासः ... ४६१-६३ यदि देवदत्तपदेनैव इतरार्थान्वितदेवदत्तस्य प्रतीतिः तदा द्विती
यादिपदोच्चारणं व्यर्थम् ... ... ... ... ... ... यावन्ति वा पदानि तावतां वाक्यत्वम् ००० ... ... ...
४६१ गम्यमानस्यापि अभिधीयमानवत् पदार्थत्वात् ... ... ... पदप्रयोगः पदार्थप्रतिपत्त्यर्थः वाक्यार्थप्रतिपत्त्यर्थो वा विधीयते ? ४६२ विशेष्यपदं विशेषणसामान्येनान्वितं विशेष्यमभिधत्ते, विशेषणविशेषेण तदुभयेन वाऽन्वितम् ? ... ... ...
४६३ आट्टाभिमत-अभिहितान्वयवादस्य निरासः ... ... ४६४ पदैरभिहिता अर्थाः शब्दान्तरादन्वीयन्ते बुद्ध्या वा ? ... ...
इति तृतीयः परिच्छेदः।
४५९
४६४
सामान्यविशेषात्माऽर्थः प्रमाणस्य विषयः ... ... अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणपरिणामेना
र्थक्रियोपपत्तेश्च... ... ... ... ... ... ...
४६६
४६६
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विषयानुक्रमः
४६७
४६७ ४६७
४६८
४६८
४६९
४६९
४६९
विषयाः तिर्यगूर्वताभेदात् द्विविधं सामान्यम् ... ... ... सदृशपरिणामस्य तियेसामान्यता ... ... ... बौद्धाभिमतसामान्यस्य निरास: ... ... ... एकेन्द्रियाध्यवसेयत्लाज्जातिव्यक्त्योरभेदे वातातपादावप्यभेदप्रसङ्गः दूरादूर्वतासामान्यमेव च प्रतिभासते न स्थाणुपुरुषविशेषौ ... अदूरेऽपि सामान्यस्य विशदप्रतिभासो भवति ... ... ... अनुगतप्रत्ययस्य प्रतिनियतस्य बहिःसाधारणनिमित्तव्यतिरेकेणा
नुपपत्तः ... ... ... ... ... ... ... अतत्कार्यकारणव्यावृत्तिरपि सदृशपरिणामाभावे न क्वचिदेव निय__ मयितुं शक्यते ... ... ... ... ... ... अनुगतप्रत्ययस्य सामान्यमन्तरणैव भावे व्यावृत्तप्रत्ययोऽपि विशे__षव्यतिरेकेणैव स्यात् ... ... ... ... ... ... नाप्येककार्यतासादृश्येन व्यक्तीनामेकखाध्यवसायः ... ... नाप्यनुभवानामेकपरामर्शप्रत्ययहेतुलमुखेनैकवं तद्धेतुलाच व्यक्ती
नामेकतेत्युपचरितोपचारः घटते ... ... ... ... सामान्यं हि अनित्यासर्व गतवरूपं न तु सबैगत
नित्यैकस्वभावम् ... ... ... ... ... ... नित्यसर्वगतत्वे अर्थक्रियाऽयोगात् ... ... ... ... खविषयज्ञानजनने केवलसामान्यस्य व्यापारः व्यक्तिसहितस्य वा ? व्यक्तिसहितस्य चेत् ; प्रतिपन्नाखिलव्यक्तिसहितस्य अप्रतिपन्नाखिल__ व्यक्तिसहितस्य वा ? ... ... ... ... ... ... प्रथमपक्षे तस्य ताभिरुपकारः क्रियते न वा ? ... ... ... सामान्येन सहैकज्ञानजनने व्यक्तीनां किमालम्बनभावेन व्यापारोऽ
धिपतित्वेन वा? ... ... ... ... ... ... सामान्यं सर्वसर्वगतं स्वव्यक्तिसर्वगतं वा? ... ... ... व्यक्त्यन्तरालेऽनुपलम्भः किमव्यक्तलात् व्यवहितत्वात् दूरस्थितखात्
अदृश्यत्वात् खाश्रयेन्द्रियसम्बन्धविरहात् आश्रयसमवेतरूपा
भावाद्वा? ... ... ... ... ... ... ... खव्यक्तिसर्वगतत्वे अनेकवप्रसङ्गः ... ... ... ... एकत्र वर्तमानस्यान्यत्र वृत्तिः तद्देशे गमनात् पिण्डेन सहोत्पादात्
तद्देशे सद्भावादंशवत्तया वा स्यात् ? ... ... ... ... पूर्वपिण्डपरित्यागेन तत्तत्र गच्छेत् अपरित्यागेन वा ? ... ... सामान्यविशेषयोस्तादात्म्यवादिनो भाट्टस्य निरास: व्यक्तिवत्सामान्यस्यापि असाधारणत्वमुत्पादादियोगिलश्च स्यात् ...
४७०
४७०
४७०
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४७१
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४७३ ४७३ ४७३ ४७३
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५२
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
४७४
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४७८
४७८
४७९
विषयाः
पृ० अनुगतप्रत्ययस्य सदृशपरिणामहेतुकतया व्यवस्थितत्वात् .... सामान्यस्य नित्यैकरूपस्य सर्वात्मना बहुषु परिसमाप्तत्वे सर्वव्यक्ती
नामेकलं सामान्यस्य वाऽनेकवं स्यात् ... ... ... उद्योतकरोक्तस्य विशेषकत्वादिति हेतोः निरासः ... ... ... ४७६ किं यत्रानुगतज्ञानं तत्र सामान्यं यत्र वा सामान्यं तत्रानुगत
ज्ञानमिति? ... ... ... ... ... ... ... न चाभावे सत्ताख्यं महासामान्यम् ... ... ... ... पाचकादिषु सामान्याभावेऽपि अनुगतज्ञानोपलम्भात् ... ... पाचके निमित्तान्तरञ्च किं कर्म कर्मसामान्यं शक्तिर्व्यक्तिर्वा स्यात् ? कर्मापि नित्यमनित्यं वा ? ... ... ... ... ... ... कर्मसामान्यं हि कर्माश्रितं कर्माश्रयाश्रितं वा ? ... ... ... शक्तिश्च पाचकादन्या अनन्या वा? ... ... ... ... पाचकलञ्च द्रव्योत्पत्तिकाले व्यक्तमव्यक्तं वा ? ... ... ... पाचकवस्य पाकक्रियातः प्राक् द्रव्यसमवायधर्मः अस्ति न वा? अभिव्यक्तिश्च द्रव्येण क्रियया उभाभ्यां वा? ... ... ... ४७९ कि गोष्वेव गोत्वं गोषु गोलमेव गोषु गोत्वं वर्तत एव ? ... ४७९ विभिन्न हि प्रतिव्यक्ति सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यम् ... ... द्विविधो हि वस्तुधर्मः परापेक्षः, परानपेक्षश्च ... ...
४८० सादृश्येऽपि सामान्ये शबलं दृष्ट्वा धवले स एवायं गौरिति प्रत्ययः __ एकत्वोपचारात् घटते ... ... ... ... ... ... विभिन्नसामान्यवादिनः तेन समानोऽयमिति प्रत्ययो न स्यात् ... ४८१ समानपरिणामे नान्यः समानपरिणामः येनाऽनवस्था ... ... ४८१ नित्यैकब्राह्मणत्वजातिनिरासः ... ... ... ... ४८२-८७ (नैयायिकादीनां पूर्वपक्षः ) ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्यक्षत
एवास्य प्रतिपत्तिः ... ... ... ... ... ... पित्रादिब्राह्मण्यज्ञानपूर्वकोपदेशसहाया व्यक्तिश्चास्य व्यक्षिका ... ४८२ पदत्वात् हेतोः व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धं ब्राह्मण
पदम् ... ... ... ... ... ... ... ... वर्णविशेषयज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनं ब्राह्मण इति ज्ञानं तन्निमित्तबुद्धिविलक्षणत्वात् ... ... ... ... ...
४८२ 'ब्राह्मणेन यष्टव्यम्' इत्याद्यागमाच्चासौ प्रतीयते ... ... ... ४८२ (उत्तरपक्षः) प्रत्यक्षाद्धि निर्विकल्पकात् , सविकल्पाद्वा तत्प्रतीतिः? ४८२ पित्रादिब्राह्मण्यज्ञानञ्च प्रमाणमप्रमाणं वा? ... ... ... ब्राह्मणशब्दस्यौपाधिकस्य किं पित्रोरविप्लुतत्वं निमित्तं ब्रह्मप्रभवत्वं
वा? ... ... ... ... ... ... ... ...
४८१
४८२
४८२
४८३
४८३
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विषयानुक्रमः
४८३
४८४
.४८४
विषयाः क्रियाविलोपात् शूद्रान्नादेश्च जातिलोपाभ्युपगमे तदविलोपादिनिब
न्धनैव ब्राह्मण्यजातिः खीकरणीया ... ०० ... ... ब्रह्मव्यासविश्वामित्रादीनां ब्राह्मणपित्रजन्यत्वात् कथं ब्राह्मण्यं स्यात् ? ब्रह्ममुखाज्जातो ब्राह्मणः इत्यपि न युक्तम् ... ... ब्रह्मणो ब्राह्मण्यमस्ति वा न वा ?... ... ... ... ... अस्ति चेत् किं सर्वत्र मुखप्रदेश एव वा? ... ... ... ४८४ ब्राह्मण एव तन्मुखाज्जायते तन्मुखादेवासौ जायेत? ... ... ४८४ ब्राह्मण्यजातिनिश्चये हि आकार विशेषो निमित्तमध्ययनादिकं वा ? ४८५ पदत्वादिति हेतुश्च कालात्ययापदिष्टः ... ... ... ... अप्रसिद्धविशेषणश्च पक्षः व्यक्तिव्यतिरिक्तनिमित्तस्य असिद्धेः ... पदलादिति हेतुः आकाशादिपदेनानैकान्तिकः ... ... ... नगरादौ च व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभावेऽपि अनुगतज्ञानोप___ लब्धेः ... ... ... ... ... ... ... ... ततः क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे एव .
तपोदानादिव्यवहारः, तन्निमित्तैव च वर्णाश्रमव्यवस्था ... ४८६ जातेः पवित्रताहेतुखे वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां निन्दा
न स्यात् ... ... ... ... ... ... ... ४८६ क्रियानंशात् जातिविलोपे क्रियात एव ब्राह्मण्यम् सिद्धम् ... ब्राह्मणवं जीवस्य शरीरस्य उभयस्य वा संस्कारस्य वा वेदाध्यय
नस्य वा? . ... ... ... ... ... ... ....' ४८७ संस्कारात् प्रारब्राह्मणबालस्य ब्राह्मणवमस्ति न वा? ... ... ४८७ ऊर्वतासामान्यस्य स्वरूपम् समाचलवरूपम् ... ...
૪૮૮
... क्षणभङ्गवाद: ... ... ... ... ... ... ... ४८८-५०४ प्रत्यक्षेणैव अर्थानामन्वयिरूपस्य प्रतीतिः ... ... ... ... बुद्धेः क्षणिकलेऽपि प्रतिपत्तुरक्षणिकत्वात् कालत्रयानुयायिरूपायाः
स्थितेः प्रतिपत्तिः ... ... ... ... ... ... न च द्रव्यग्रहणे अतीताद्यवस्थानां ततोऽभिन्नखाग्रहणप्रसंगः;
अभेदस्य ग्रहणं प्रत्यनगलात् ... ... ... ... आत्मनो नित्यवाभावे मध्यक्षणस्य पूर्वोत्तरक्षणयोरभावरूपस्य
क्षणिकलस्य प्रतीतिरपि न स्यात् ... ... ... ... स्थास्नुता हि पूर्वोत्तरयोः मध्ये मध्यस्य वा पूर्वोत्तरयोः सद्भावः,
अतः सा तत्तत्क्षणग्राहिज्ञानेनैव प्रतीयते ... ... ... न हि त्रिकालेन नित्यता क्रियते अपि तु वस्तुखभावैव सा ... अतीतादिसमयस्य च खत एव अतीतादिरूपता तत्सम्बन्धाच . . अर्थानामतीतादिखरूपत्वम् ... .... ... ... ..
४९१
४८६
४८८
४८८
४९०
४९०
४९०
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
४९१ ४९२ ४९२ ४९२
४९३
سم
१९२
४९३
४९४
४९५
विषयाः अनुवृत्ताकारे प्रतिपन्ने अप्रतिपन्ने वा विशेषप्रतिभासः तद्बाधकः ? न हि प्रत्यक्षेण क्षणक्षयावभासः ... ... ... ... ... नापि सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भादेकवमानम् ... ... क्षणक्षयावगमे स्वभावहेतोर्व्यापारः कार्यहेतोवा? ... ... विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षवादिति हेतुश्चासिद्धः; मुद्गरायपेक्षवात् घट
नाशस्य ... ... ... ... ... ... ... अन्यानपेक्षखमानं हेतुः तत्स्वभावले सति अन्यानपेक्षवं वा ? ... अहेतुकोपि विनाशः मुद्गरादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यमानः तदैवा
भ्युपगन्तव्यो नोदयानन्तरम् ... ... ... ... उदयानन्तरध्वंसिलं भावानामन्येन ध्वसंस्थासंभवादभिधीयते
प्रमाणान्तराद्वा ? ... ... ... ... ... ... भावहेतोरेव तत्प्रच्युतिहेतुले किमसौ भावजननात्प्राक् तत्प्रच्युति
जनयति उत्तरकालं वा समकालं वा ?... ... ... . ... न च मुद्गरादीनां कपालोत्पादे व्यापारः किन्तु विनाश एव ... घटादेः मुद्गरादिकमपेक्ष्य असमर्थ-तर-तमक्षणोत्पादने मुद्रादिना
घटस्य कश्चित् सामर्थ्य विघातो विधीयते न वा? ... ... विनाशकहेतुव्यापारानन्तरं शत्रुमित्रध्वंसे सुखदुःखानुभवनादति
रित्तो विनाशः सहेतुक एव खीकार्यः ... ... ... अभावस्यार्थान्तरखानभ्युपगमे किं घट एव प्रध्वंसः, कपालानि,
पदार्थान्तरं वा? ... ... ... ... ... ... कपालकाले 'सः न' इति शब्दयोः भिन्नार्थलमभिन्नार्थख वा ?... अन्यानपेक्षतया च स्थितिरपि खभावत एव किन्न स्यात् ? ... अहेतुकविनाशाभ्युपगमे उत्पादस्याप्यहेतुकलं किन्न स्यात् ? .... कार्यकारणयो उत्पादविनाशौ न सहेतुकाहेतुको कारणानन्तरं सह___ भावाद्रूपादिवत् ... ... ... ... ... ... 'सत्त्वात्' हेतोरपि न क्षणिकवसिद्धिः ... ... ... ... नापि विद्युदादेः निरन्वया सन्तानोच्छित्तिः ... ... विपक्षे नित्ये सत्त्वस्य बाधकं प्रत्यक्षमनुमानं वा? ... ... क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधादपि न नित्यात् सत्त्वव्यावृत्तिः सत्त्वनित्यखयोहि सहानवस्थानलक्षणो विरोधः स्यात् परस्परपरि
हारस्थितिरूपो वा? ... ... ... ... ... ... एकान्तनित्यवदनियेऽपि क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधात् सत्त्वा
भावः स्यात् ... ... ... ... ... ... ... क्षणिकं वस्तु विनष्टं सत्कार्यमुत्पादयति अविनष्टमुभयरूपमनुभय. रूपं वा! ... ... ... ... ... ... ...
४९५
४९२
४९५ ४९६
४९७ ४९७
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४९८
४९८
४९९
४९९
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विषयानुक्रमः
४९९
५०४
विषयाः निरन्वयविनाशे उपादान-सहकारिव्यवस्थापायः ... ... ... उपादानस्य हि खरूपं किं वसन्ततिनिवृत्ती कार्यजनकत्वम्
अनेकस्मादुत्पद्यमाने कार्ये स्वगतविशेषाधायकवं समनन्तर
प्रत्ययत्वं नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानं वा ? ... ... प्रथमपक्षे कथञ्चित्सन्ताननिवृत्तिः सर्वथा वा ? ... ...
५०० द्वितीये खगतकतिपयविशेषाधायकत्वं सकलविशेषाधायकत्वं वा ? कार्ये कारणस्य सर्वात्मना समत्वमेकदेशेन वा ? ... ... ... ५०१ अनन्तरत्वञ्च देशकृतं कालकृतं वा? ... ... ... ... ५०१ निरन्वयविनाशेऽन्वयव्यतिरेकानुविधानमपि न घटते ... ... ५०२ अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमित्यत्र लक्षणशब्दः कारणार्थः खरूपार्थः
ज्ञापकार्थो वा स्यात् ? ... ... ... ... ... ... ५०३ सत्त्वात् हि क्षणस्थायितारूपं क्षणिकत्वं साध्येत क्षणादूर्ध्वमभावो वा? ... ... ... ... ... ... ... ...
५०४ कृतकलादपि न क्षणिकवसिद्धिः ... ... ... ... ... सम्बन्धसद्भाववाद: ... ... ... ... ... ५०४-५२० (बौद्धानां पूर्वपक्षः) सम्बन्धोऽर्थानां पारतत्र्यलक्षणः रूपश्लेष__ खभावो वा स्यात् ... ... ... ... ... .. आये किमसौ निष्पन्नयोरनिष्पन्नयोर्वा ? ... ... ... ... नैरन्तर्यस्य अन्तरालाभावरूपतया सम्बन्धलविरोधात् ... ... रूपश्लेषः सर्वात्मना एकदेशेन वा स्यात् ? ... ... ५०५ एकदेशेन चेत् ; ते देशास्तस्य आत्मभूताः परभूता वा ?
५०५ परापेक्षैव सम्बन्धः, यश्चापेक्षते भावः स्वयं सन् असन्वा ? ... ५०५ सम्बन्धः सम्बन्धिभ्यां भिन्नोऽभिन्नो वा? ... ... ... ५०५ एकेन सम्बन्धेन सह तयोः सम्बन्धिनोः कः सम्बन्धः? ... कार्यकारणभावोऽपि कार्यकारणयोरसहभावतस्तनिष्ठो न संभवति नापि कार्ये कारणे वा क्रमेणासौ कार्यकारणभावः वर्तते... ... ५०६ नापि एकार्थाभिसम्बन्धात् कार्यकारणता ... ... ... ५०७ अन्वयव्यतिरेकावेव कार्यकारणता; ताभ्यां तत्प्रसाधनं तु संकेत
करणाय ... ... ... ... ... ... ... कार्यकारणभूतोऽर्थो भिन्नः अभिन्नो वा? ... ... ... ५०८ संयोग्यादीनामपि परस्परोपकार्यकारकभावाभावान्न संयोगादि
सम्बन्धाः घटन्ते ... ... ... ... ... .. कार्यकारणभावस्य प्रतिपन्नस्य अप्रतिपन्नस्य वा सत्त्वं सिद्ध्येत् ?... . ५११ आये प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्याम् अनुमानेन वा तत्प्रतिपत्तिः? ५११
५०४ ५०४
५०५
५०५
५०६
.५०९
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्या
पृ.
५११
५१२
५१३
५१३ ५१४
५१४
५१४
५१५
५१५
विषयाः प्रत्यक्षेण चेत् ; अमिस्वरूपग्राहिणा, धूमखरूपग्राहिणा, उभय
खरूपग्राहिणा वा ? ... ... ... .... ... ... नापि स्मरणापेक्षमिन्द्रिय कार्यकारणभावग्राहकम् ... ... अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणभावनिश्चये वक्तृत्वस्य असर्वज्ञत्वेन
व्याप्तिः स्यात् ... ... ... ... ... ... ... कार्यकारणभावः अखिलधूमाग्निनिष्ठतया ज्ञातुं न शक्यते ... कारणलं हि कार्योत्पादनशक्ति विशिष्टवं न च शक्तिः प्रत्यक्षावसेया (उत्तरपक्षः ) सम्बन्धस्य तन्तुपटादौ प्रत्यक्षत एव प्रतीतेः ... रज्जुवंशदण्डादीनामाकर्षणाद्यन्यथानुपपत्तेश्चास्ति सम्बन्धः ... विश्लिष्टरूपतापरित्यागेन संश्लिष्टरूपतया परिणतिः हि सम्बन्धः स च सम्बन्धः क्वचिदन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशतः, कचिच्च प्रदेश
संश्लिष्टतामात्रेण ... ... ... ... ... ... परमाणूनामंशवत्त्वे अंशशब्दः स्वभावार्थः अवयवार्थो वा स्यात् ? कथञ्चिन्निष्पन्नयोश्च सम्बन्धोऽभ्युपगम्यते ... ... ... पारतत्र्याभावे सम्बन्धस्याभावे पारतन्त्र्येण व्याप्तः सम्बन्धः क्वचित्
प्रसिद्धो न वा? ... ... ... ... ... ... अशक्यविवेचनखरूपः कथञ्चिदेकलापत्तिरूपो वा रूपश्लेषोऽभ्यु
पगम्यते ... ... ... ... ... ... ... कारणं हि किञ्चित्सहभावि किञ्चित्तु क्रमभावि ... ... कार्यकारणभावनिश्चयस्य क्षयोपशमविशेषरूप-तद्भावभाविवाभ्या
सात्मकबाह्यान्तःकारणप्रभवत्वात् ... ... अकार्यकारणभावेऽपि च सर्वे विकल्पा समानाः ... ... ... विशेषो द्विधा ... ... ... ... ... ... ... पर्यायस्य स्वरूपम् ... ... ... ... ... ... अन्वय्यात्मनः सिद्धिः ... ... ... ... ... चित्रसंवेदनवदनेकपर्यायव्यापिन आत्मनः स्वयमनुभवात् ... सुखादीनामत्यन्तभेदे प्रागहं सुख्यासं सम्प्रति दुःखी वर्ते इत्यनु
सन्धानप्रत्ययो न स्यात् ... ... ... ... ... न हि अनुसन्धानवासनातः प्रत्यभिज्ञानम् ... ... ... नापि सुखादीनामेकसन्ततिपतितत्वेन प्रत्यभिज्ञानहेतुता आत्मनोऽनभ्युपगमे कृतनाशाऽकृताभ्यागमप्रसङ्गः ... ... अहमेव ज्ञातवानहमेव वेद्मि इत्येकप्रमातृविषयकप्रत्यभिज्ञानादात्म
सिद्धिः ... ... ... ... ... ... ... ... अहमेव ज्ञातवान्' इति प्रत्यभिज्ञाने प्रमाता विषयो भवन् आत्मा वा भवेज्ज्ञानं वा? ... ... ... ... ... ...
५१६
५१७
५१९ ५२०
५२० ५२०-२४
५२०
५२१ ५२१ ५२१ ५२१
५२१
५२२
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विषयानुक्रमः
विषयाः ज्ञानञ्चेत् स ज्ञानक्षणः अतीतो वर्तमानः उभौ सन्तानो वा ... ५२२ आत्मा हि खयमेव सुखादिरूपतया परिणमते न तु पृथक् सिद्धः __सुखादिभिस्तस्य सम्बन्धः ... ... ... ... ... ५२३ नीलाद्यनेकाकारव्यापिचित्रज्ञानवत् खपरग्रहणशक्तिद्व्यात्मकैकविज्ञा
नवद्वा स्वयमात्मनः सुखादिपरिणामः... ... ... ... ५२३ व्यतिरेकस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ५२४ षटपदार्थवादः ... ... ... ... ... ... (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः ) अर्थस्य सामान्य विशेषात्मकलमयुक्तम् ; प्रतिभासभेदेन सामान्यविशेषयोरत्यन्तभेदात्
५२४ भिन्नप्रमाणग्राह्यलाच सामान्य विशेषावत्यन्तभिन्नौ
५२५ विरुद्धधर्माध्यासाच्च अवयव-अवयविनावपि अत्यन्तभिन्नौ ... ५२५ विभिन्नकर्तृकत्वाच्च अवयवावयविनोरत्यन्तभेदः ... ... ... ५२५ पूर्वोत्तरकालभाविखात् विभिन्नशक्तिकत्त्वाच्च तयोर्भेदः ... ... तन्तुपटयोस्तादात्म्ये पटस्तन्तव इति वचनभेदः, पटस्य भावः पटवमिति षष्टी तद्धितोत्पत्तिश्च न स्यात् ... ... ...
५२५ तादात्म्यमित्यत्र च विग्रहस्य अनुपपत्तिः ... ... ... ... ५२५ तन्तुपटादीनां भेदाभेदात्मकत्वे च संशयविरोधवैयधिकरण्योभय
दोषसङ्करव्यतिकरानवस्थाऽप्रतिपत्त्यभावाख्याः दोषाः प्रसज्यन्ते ५२६ अतः परस्परभिन्नाः द्रव्यगुणादयः षट् पदार्थाः नव द्रव्याणि ... ... ... ... ... ... ... ५२६ चतुर्विंशतिर्गुणाः ... ...
५२७ पंच कर्माणि ... ... ... ... ... ... ...
५२७ सामान्यं द्विविधं ... ... ... ... ... ... ... ५२७ (उत्तरपक्षः) वास्तवानेकधर्मात्मकोऽर्थः विभिन्नार्थक्रियाकारिलात् ५२८ प्रत्यक्षानुमानाभ्यां विभिन्नप्रमाणग्राह्यत्वेऽपि नात्मनो भेदः ... ५२८ अवयवावयव्यादीनां विभिन्नप्रमाणग्राह्यलञ्चासिद्धम् ... ... ५२९ दृष्टान्तश्च साध्यसाधनविकलो घटादीनामपि सद्रूपेणामेदात् ... विरुद्धधर्माध्यासोऽपि खसाध्येतरापेक्षया गमकवागमकलधर्मोपेतेन
· धूमादिना व्यभिचारी ... ... ... ... ... ... ५३० अप्राप्तपटावस्थेभ्यः तन्तुभ्यः पटस्य भेदः साध्येत पटावस्थाभा• विभ्यो वा? ... ... ... ... ... ... ...
५३० 'तन्तवः, पटः' इति संज्ञाभेदोऽवस्थाभेदनिबन्धनः ... ... ५३० 'षण्णां पदार्थानामस्तित्वम्' इत्यत्र भेदाभावेऽपि षष्ठी भवत्येव . . ५३.१ अस्तित्वादेः षट्पदाथैः सह संयोगः समवायो वा? ... ... ५३१
५२९
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५८
प्रमेयकमलमार्तण्डस्या
५३२
विषयाः 'अस्तित्वम्' इत्यत्राऽपरास्तिवाभावात्कथं षष्ठी भावप्रत्ययो वा ? 'खस्य भावः खखम्' इत्यत्राभेदेऽपि तद्धितोत्पत्तिः भवत्येव ... तस्य वस्तुनः आत्मानौ द्रव्यपर्यायौ सत्त्वासत्त्वादिधौं वा तदा
त्मानौ तयो वस्तादात्म्यम् ... ... ... ... ... ते तन्तव आत्मा यस्येति विग्रहे पटस्य किमनेकावयवात्मकत्वं __ स्यात् प्रतितन्तु पटलप्रसङ्गो वा स्यात् ? ... ... ... ५३२ मेदाभेदप्रतीतौ हि न संशयः ... ... ... ... ...
५३२ कथञ्चिदर्पितयोः सत्त्वासत्त्वयोः विरोधोऽपि नास्ति ... ... ५३२ न च खरूपेण भाव एव पररूपेणाभावः; तदपेक्षणीयनिमित्तभेदात ____ एकवद्विवादिसंख्यावत् ... ... ... ... ... ५३३ विरोधश्चात्र सहानवस्थालक्षणः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणः बध्य
घातकभावो वा? ... ... ... ... ... ... विरोधो हि धर्मयोः धर्मधर्मिणोर्वा स्यात् ? ... ... .०० ५३३ विरोधः सर्वथा कथञ्चिद्वा? ... ... ... ००० ०००
५३४ भावेभ्यो भिन्नोऽभिन्नो वा विरोधः? ... ...
५३४ विरोधस्य द्रव्यादौ सम्बन्धे सति विशेषणत्वम् असम्बन्धे वा ? ५३५ सम्बद्धश्चेत् ; संयोगेन समवायेन विशेषणभावेन वा ? ... ... नापि वैयधिकरण्यदोषः ... ... ... ... ... ... ५३५ नाप्युभयदोषः सङ्करव्यतिकरौ अनवस्थाऽभावौ वा ... ... ५३६ नित्यैकरूपे ह्यात्मनि कर्तृवभोक्तृखजीवन हिंसकखादिव्यपदेशा__भावः तेषामनेकान्ते एव संभवात् ... ... ... ... ५३६ सर्पस्य कुण्डलेतरावस्थापेक्षया व्यावृत्त्यनुगमात्मकववत् आत्म
नोऽपि उभयखभावता ... ... ... ... ... परमाणुरूपनित्यद्रव्यविचारः ... ... ... ... ५३७-४० एकान्तनित्ये परमाणौ क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् .... अणूनां नित्यत्वेन संयोगादीनामपेक्षाऽनुपपत्तेः ... ...
५३८ संयोग एवातिशयश्चेत् ; स किं नित्यः अनित्यो वा? ... ... ५३८ अनित्यश्चेत्तदुत्पत्तौ कोऽतिशयः संयोगः क्रिया वा ? ... ... ५३० संयोगो हि परमाण्वाद्याश्रितः तदन्याश्रितः अनाश्रितो वा ? ५३८ प्रथमपक्षे तदुत्पत्तौ आश्रयः उत्पद्यते न वा ? ... ... ... ५३८ संयोगः सर्वात्मना एकदेशेन वा? ... ... ... ... ५३९ परमाणूनां स्कन्धावयविविनाशकारणकत्वेन अकारणवत्त्वासिद्धेः ५३९ योगाभिमत-अवयविद्रव्यस्य निरासः ... ... ... ५४०-५४७ तन्वाद्यवयवेम्यो भिन्नस्यावयविनः अनुपलम्भादसत्त्वम्
५३५
५३७
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विषयानुक्रमः
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१५४०
५४०-४१
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५५४४
विषयाः अवयवावयविनोः शास्त्रीयदेशापेक्षया समानदेशत्वं लौकिकदेशा
पेक्षया वा? ... ... ... ... ... ... ... कतिपयावयवप्रतिभासे अवयविनः प्रतिभासो निखिलावयवप्रति
भासे वा? ... ... ... ... ... ... ... नापि भूयोऽवयवग्रहणेऽवयविनः प्रतिभासः ... ... ... अर्वाग्भागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षेण परभागस्य तेन वाऽग्भिा__गस्याग्रहणात् न पूर्वापरभागव्यापी अवयवी गृहीतुं शक्यते नापि स्मरणेन प्रत्यभिज्ञानेन वा पूर्वापरावयवभागव्याप्यवयवी
गृह्यते ... ... ... ... ... ... न च निरंशावयविनोऽनेकत्रावयवेषु वृत्तिः ... ... ... अवयविनोऽवयवेषु वृत्तिः सर्वात्मना एकदेशेन वा ? ... ... एकदेशेन चेत् किमेकावयक्रोडीकृतेन स्वभावेनैव अन्यत्र वृत्तिः
खभावान्तरेण वा ? ... ... ... ... ... ... यद्यवयवी निरंशस्तदा एकदेशावारणे रागे च सर्वत्रावारणं रागश्च
स्यात् ... ... ... ... ... ... ... ... संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वं किं सर्वव्याव्यापकत्वम् एकदेशवृत्तित्वं बा ? अवयविनिरासे च प्रसङ्गसाधनमेव अभ्युपगम्यते ... ... कथञ्चिदवयवरूपस्यावयविनः सिद्धिः ... ... ... ... एकस्य रूपादिमतोऽवयविनोऽसिद्धिः किं विरुद्धधर्माध्यासेनैकत्र
एकखानेकखयोः तादात्म्यविरोधात् तद्ब्रहणोपायासंभवाद्वा ? इदं स्तम्भादिव्यपदेश्य रूपम् किमेकं प्रत्येकम् , अनेकानंशपर
माणुसञ्चयमानं वा? ... ... ... ... ... ... जातिभेदेन पृथिव्यादीनान्योन्यं भेदस्त्वयुक्तः जलादीनां परस्पर
मुपादानोपादेयभावदर्शनात् ... ... आकाशद्रव्यविचारः ... ... ... ... ... ... (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः) शब्दलिंगादाकाशसिद्धिः ... ... शब्दाः क्वचिदाश्रिताः गुणत्वात् ... ... ... ... शब्दो गुणः प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावत्वे सति सत्तासम्बन्धिलात् शब्दो द्रव्यं न भवत्येकद्रव्यत्वात् ... ... ... ... कर्मापि न भवत्यसौ संयोगविभागाकारणलाद्रूपादिवदिति यश्चैषामाश्रयः तत्पारिशेष्यादाकाशम् ... ... ... ... शब्दलिंगाविशेषाद्विशेषलिंगाभावाच्चैकम् ... ... ... ... विभुच सर्वत्रोपलभ्यमानगुणवात् ... ... ... ... ( उत्तरपक्षः) शब्दानां सामान्येनाश्रितवं साध्यते नित्यैकामूर्तविभुद्रव्याश्रितवं वा? ... ... ... ... ... ...
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
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५५० ५५० ५५२
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५५२ ५५२ ५५३
५५३
५५३
विषयाः द्रव्यं शब्दः स्पर्शाल्पत्वमहत्त्वपरिमाणसंख्यासंयोगगुणाश्रयखात् खसम्बद्धार्थाभिघातहेतुखात् स्पर्शवान् शब्दः ... अल्पलमहत्त्वप्रतीतिविषयत्वात् अल्पवमहत्त्वपरिमाणाश्रयः शब्दः न मन्दतीव्रतानिबन्धनोऽयम् अल्पत्वमहत्त्वप्रत्ययः ... ... एकः शब्द इत्यादिप्रतीत्या संख्याश्रयः शब्दः ... ... ... उपचारेऽपि कारणगता विषयगता वा संख्या शब्दे उपचर्येत ... वाय्वादिनाऽभिहन्यमानत्वात् संयोगाश्रयः शब्दः ... ... क्रियावलाच द्रव्यं शब्दः ... ... ... ... ... ... निष्क्रियत्वे शब्दस्य श्रोत्रेण ग्रहणं न स्यात् ... ... ... सम्बन्धकल्पने श्रोत्रं वा शब्दोत्पत्तिदेशं गच्छेत् शब्दो वा श्रोत्र
प्रदेशमागच्छेत् ? ... ... ... ... ... ... वीचीतरङ्गन्यायेन हि अपरापरशब्दोत्पत्तिर्न युक्ता प्रत्यभिज्ञाना
च्छन्दस्यैकलनिश्चयात् ... ... ... ... अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वाद्धेतोर्न शब्दक्षणि
कवसिद्धिः ... ... ... ... ... ... ... वीचीतरङ्गन्यायेन प्रथमतो वक्तृव्यापारादेकः शब्दः प्रादुर्भवति __ अनेको वा ? ... ... ... ... ... ... ... आद्यःशब्दोऽनेकोऽस्तु, तथाप्यसौ खदेशे शब्दान्तराण्यारभते
देशान्तरे वा ?... ... ... ... ... ... ... देशान्तरेऽपि; तद्देशे गला खदेशस्थ एव वा ? ... ... ... आकाशगुणत्वे शब्दस्य अस्मदादिप्रत्यक्षता न स्यात् ... ... सत्तासम्बन्धिलञ्च खरूपभूतया सत्तया, अर्थान्तरभूतया वा ? ... अनेकद्रव्यः शब्दः अस्मादादिप्रत्यक्षत्वे सत्यपि स्पर्शवत्त्वात् ... नाऽकारणगुणपूर्वकः शब्दः अस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वे सति गुण
लात् पटरूपादिवत् ... ... ... ... ... ... अयावद्रव्यभाविवञ्च शब्दस्य विरुद्धम् ... ... ... ... आकाशस्य समवायिकारणत्वे शब्दे नित्यत्वं विभुत्वञ्च स्यात् ... कथं वा शब्दस्य विनाशः ? नाश्रयविनाशानापि विरोधिगुण
प्रादुर्भावात् ... ... ... ... ... ... ... पौगलिकत्वेऽपि शब्दस्य अनुभूतरूपादिमत्त्वान्न चक्षुरादिभि
रुपलम्भः ... ... ... ... ... ... ... पौद्गलिकः शब्दः अस्मदादिप्रत्यक्षत्वेऽचेतनत्वे च सति क्रियाव__त्त्वात् वाणादिवत् ... ... ... ... ... ... आकाशस्य तु युगपन्निखिलद्रव्यावगाहकार्यान्यथानुपपत्त्या सिद्धिः
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विषयानुक्रमः
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विषयाः कालद्रव्यवादः... ... ... ... ... ... ... ५६४-६८ (वैशेषिकस्य पूर्व पक्षः) परापरादिप्रत्ययलिंगात् कालद्रव्यस्य सिद्धिः ५६४ परापरव्यतिकरादपि कालानुमानम् ... ... ... ... न च परापरादिप्रत्ययस्य आदित्यक्रियादयो निमित्तम् ... ... ५६४ (उत्तरपक्षः) काल एकद्रव्यमनेकद्रव्यं वा ? ... ... ... ५६४ न च व्यवहारकालो मुख्यकालद्रव्यमन्तरेण घटते ... प्रत्याकाशदेशं विभिन्नो व्यवहारकालः कुरुक्षेत्रलङ्कादिषु दिवसादि
भेदान्यथानुपपत्तेः ... ... ... ... ... ... निरवयवैकद्रव्यत्वे कालस्य अतीतादिव्यवहारः किमतीताद्यर्थक्रिया
सम्बन्धात् स्वतो वा? ... ... ... ... ... कालैकत्वे च योगपद्यादिव्यवहाराभावः ... ... ... ... नाप्युपाधिभेदात् कालभेदः ... ... ... न हि परापरादिप्रत्ययाः निर्निमित्ताः ... नाप्यादित्यादिक्रिया परापरादिप्रत्ययनिमित्तम्
५६७ नापि कर्तृकर्मणी एव योगपद्यादिप्रत्ययनिमित्तम् ... ... ... ५६७ लोकव्यवहाराच्च कालद्रव्यस्य सिद्धिः ... ... दिग्द्र व्यवादः ... ... ... ... ... ... ... ५६८-७० (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः ) अत इदं पूर्वेणेत्यादिप्रत्ययेभ्यः दिग्द्रव्य.
सिद्धिः ... ... ... ... ... ... ... ... ५६८ दिग्द्रव्यस्यैकत्वेऽपि सवितुर्मेरुप्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य लोकपालगृही
तदिक्प्रदेशैः संयोगाद् प्राच्यादिव्यवहारो घटते ... ... ५६८ (उत्तरपक्षः ) उक्तप्रत्ययानामाकाशहेतुकत्वेन आकाशाद्दिशोऽर्थान्तरवासिद्धेः ... ... ... ... ... ...
... ... ....
५६९ सवितुर्मेरुं प्रदक्षिणमावर्तमानस्येत्यादिन्यायेन आकाशे एव प्राच्यादिव्यवहारः कर्तव्यः ... ... ... ... ... ...
५६९ दिग्द्रव्यवत् देशद्रव्यमपि पृथक् कल्पनीयं स्यात्
आत्मद्रव्यविचारः ... ... ... ... ... ... ५७०-५८६ प्रत्यक्षेण हि आत्मा स्वदेहे एवानुभूयते ... ... ...
५७० नात्मा परममहापरिमाणः द्रव्यान्तरासाधारणसामान्यवत्त्वे
अनेकत्वात् ... ... ... ... ... ... ... नात्मा व्यापकः दिकालाकाशान्यत्वे सति द्रव्यखात् घटवत् ... नात्मा व्यापकः क्रियावत्त्वात् ... ... ... ... ...
५७० आत्मा अणुपरममहापरिणामानधिकरणः चेतनखात् ... ... ५७१ अणुपरिमाणानधिकरणवमित्यत्र किं नअर्थः पर्युदासः प्रसज्यो वा?
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६२
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
५७२
५७२
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५७४
'विषयाः प्रसज्यपक्षे असौ तुच्छाभावः साध्यस्य स्वभावः कार्य वा ? ... नित्यद्रव्यश्चात्मा कथञ्चित् सर्वथा वा ? ... ... ... ... देवदत्ताङ्गनाङ्गादिकार्यस्य कारणलेनाभिमता देवदत्तात्मगुणाः __ ज्ञानदर्शनादयो धर्माधर्मी वा? ... ... ... ... धर्माधर्मयोरात्मगुणखमेव नास्ति .... ... ... ... न धर्माधर्मों आत्मगुणी अचेतनखात् ... ... ... ... ग्रासादिवदिति दृष्टान्ते च आत्मनः को गुणः धर्मादिः प्रयत्नो वा ? एकद्रव्यले सति क्रियाहेतुगुणलाद्धेतो दृष्टस्य खाश्रयसंयुक्त
आश्रयान्तरे क्रियाजनकत्वसिद्धिः ... ... ... ... अदृष्टस्य एकद्रव्यत्वं हि एकस्मिन् द्रव्ये संयुक्तलात् समवायेन
वर्तनात् अन्यतो वा स्यात् ? ... ... ... ... ... दीपान्तरवर्तिमण्यादिद्रव्यक्रियाहेत्वदृष्टं किं देवदत्तशरीरसंयुक्तात्म
प्रदेशे वर्तमानं सत् क्रियाकारणम् उत द्वीपान्तरवर्तिद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशे, किं वा सर्वत्र ? ... ... ... ... तथाऽदृष्टं खयमुपसर्पत् अन्येषां मण्यादीनां क्रियाहेतुः, उत द्वीपा
न्तरवर्तिद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशस्थमेव ? ... ... प्रथमे स्वयमेवादृष्टं तं प्रत्युपसर्पति अदृष्टान्तराद्वा? ... ... यथा प्रयत्नस्य वैचित्र्यं तथाऽदृष्टस्याप्यस्तु ... ... सर्वत्र चादृष्टस्य वृत्तौ सर्वद्रव्यक्रियाहेतुत्वं स्यात् ... 'पश्वादयः अञ्जनादिसधर्मणा समाकृष्टाः' इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः' इत्यत्र किं शरीरं देवदत्तशब्दवाच्यम्
आत्मा तत्संयोगो वा आत्मसंयोगविशिष्टं शरीरं शरीरसंयोगविशिष्ट आत्मा वा शरीरसंयुक्त आत्मप्रदेशो वा ? ... ... आत्मप्रदेशाश्च काल्पनिकाः पारमार्थिका वा? ... ... ... पारमार्थिकाश्चेदभिन्नाः भिन्ना वा? ... ... ... ... स्वशरीर एव सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वं विवक्षितम् उत स्वशरीरवत्
परशरीरे अन्यत्र च ... ... ... ... ... ... मनुष्यजन्मवत् जन्मान्तरेऽप्युपलभ्यमानगुणत्वं किं क्रमेण युगपद्वा? 'सक्रियत्वे आत्मनः मूर्तिमत्त्वं स्यात्' इत्यत्र कीदृङ् मूर्त्तत्वं विव
क्षितं किं रूपादिमत्त्वम् असर्वगतद्रव्यपरिमाणात्मकत्वं वा? आत्मनः अनित्यत्वं च सर्वथा कथञ्चिद्वा आपाद्यते ? ... ... आत्मनो निष्क्रियत्वे संसाराभावः? ... ... ... ... संसारो हि शरीरस्य मनसः आत्मनो वा स्यात् ? ...
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विषयानुक्रमः
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५८०.
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विषयाः अचेतनं च मनः कथमिष्टे वर्गादौ प्रवर्तेत-किं खभावतः ईश्वरात् . तदात्मनः अदृष्टाद्वा? ... ... ... ... ......... आत्मना प्रेरणे अज्ञातं मनस्तेन प्रेर्यंत ज्ञातं वा? ... ... आकाशस्य च को गुणः सर्वत्रोपलभ्यते शब्दो महत्त्वं वा? ... अमूर्तत्वं च मूर्तलाभावः, तत्र किं रूपादिमत्त्वं मूर्तलम् असर्व
गतद्रव्यपरिमाणात्मकं वा ? ... ... ... ... ... अमूर्तलादित्यत्र किं नअर्थः पर्युदासः प्रसज्यो वा ? ... ... प्रसज्यपक्षे तद्रहणोपायः प्रत्यक्षमनुमानं वा न युज्यते ... ... ५८२ मनोऽन्यत्वे सति अस्पर्शवद्रव्यत्वादिति हेतुः सन्दिग्धानकान्तिकः ५८४ सर्वगतत्वे सर्वपरमाणुभिः संयोगात् सर्वद्रव्यक्रियाहेतुत्वे न जाने कियत्परिमाणं शरीरं स्यात् ... ... ... ... ...
५८४ संयोगानामदृष्टापेक्षत्वे केयमदृष्टापेक्षा किमेकार्थसमवायः उपकारः
सहाद्यकर्मजननं वा? ... ... ... ... ... ... ५८४ सावयवत्वेन भिन्नावयवारब्धवस्य व्यायभावात् ... ... ५८५ आत्मनो भिन्नावयवारब्धलम् आदौ मध्यावस्थायां वा साध्येत ? सावयवशरीरव्यापिलेपि आत्मनः शरीरच्छेदे कथञ्चिच्छेदो भवत्येव गुणपदार्थवादः .... ... ... ... ... ... ५८७-६०० (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः) रूपरसगन्धादयश्चतुर्विंशतिर्गुणाः ... ५८७ संख्या एकद्रव्या अनेकद्रव्या च ... ... ... ... महदणुदीर्घह्रस्वभेदेन चतुओं परिमाणम्... . ... ... ...
५८७. संयोगादीनां लक्षणानि ... ... ... ... ... ... वेगो भावना स्थितस्थापकश्चेति त्रिविधः संस्कारः ... (उत्तरपक्षः) नहि रूपं पृथिव्यादित्रयवृत्त्येव वायोरपि रूपवत्त्वात् ५८९ जलानलयोरपि गन्धरसादिमत्ता ... ... ... ... ... ५८९ संख्यापि न संख्येयार्थभिन्नोपलभ्यते ... ... ... एको गुणः बहवो गुणाः इत्यत्र यथा संख्याभावेपि एकत्खादिवुद्धिः
खरूपमात्रनिवन्धनैव घटते तथैव घटादिष्वपि भविष्यति ५८९. नाप्युपचारात् गुणेषु संख्याप्रतीतिः, यतः आश्रयगता विषयगता __ वा संख्योपचर्येत ? ... ... ... ... ... ...
५८९ मेदवदस्याः संख्यायाः असमवायिकारणवासंभवात् ... ... ५९० अपेक्षाबुद्धिवत् घटपटादौ प्रतिनियतसंख्या प्रतीयते ... ... ५९१ संख्याव्यवहारस्य खरूपमात्रनिबन्धनत्वे षट्पंचविंशतिभिः सार्धं . शतमित्यादिव्यवहारोऽपि सुघटः स्यात् ... ... ..... परिमाणस्यापि घटाद्यर्थव्यतिरेकेण प्रतीत्यभावात् ... ... . ५९२
५९१.
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
ق
س
س
५९३
५९३ ५९३
س
५९३
५९३
...
ه
५९४ ५९५
५९५
५९५
विषयाः असत्यपि महत्त्वादौ प्रासादमालादिषु महती प्रासादमालेल्यादि
प्रत्ययप्रतीतः .... ... ... ... ... ... ... न हि माला द्रव्यखभावा जातिस्वभावा वा युज्यते ... ... आपेक्षिकत्वाच्च परिमाणस्य न गुणरूपता ... ... ... अतो न हखादि परिमाणं संस्थानविशेषाद्भिन्नम् ... ... प्रथकत्वमपि न भिन्नतयोत्पन्नपदार्थखरूपादपरम् ... ... रूपादिगुणेष्वपि च पृथगिति प्रत्ययः प्रतीयते ... ... पृथग्भूतेभ्योऽर्थेभ्यः पृथग्रूपता भिन्ना अभिन्ना वा क्रियेत ? ... संयोगोऽपि निरन्तरोत्पन्नपदार्थद्वयव्यतिरेकेण नापरः संयुक्तौ प्रासादौ इत्यत्र संयोगगुणाभावेऽपि संयुक्तबुद्धिः भवत्येव विभागस्य च संयोगाभावरूपत्वान्न गुणरूपता ... ... संयोगनिवृत्तिश्च क्रियात एव स्यात् ... ... ... ... विभागजविभागो विभागखरूपानापरः, स च क्रियात एव ... परत्वापरत्वेऽपि नार्थान्तरम् ... ... ... रूपादिषु तदभावेऽपि परापरप्रत्ययोत्पत्तेः अतः विप्रकृष्टसन्निकृष्टावेव परवापरत्वे नापरे ... एवं च मध्यत्वमपि गुणोऽभ्युपगन्तव्यः ... ... सुखदुःखादीनामबुद्धिरूपत्वे नात्मगुणता ... गुरुत्वादयस्तु पुद्गलद्रव्यस्य गुणाः ... ... नहि गुरुत्वमतीन्द्रियम् ... ... ... ... ... ... द्रवत्वं हि अप्सु एव पृथिव्यनलयोस्तु तत्संयुक्तसमवायवशा
त्प्रतीतिः ... ... ... ... ... ... ... स्नेहोऽम्भस्यवेत्ययुक्तम् ; घृतादावपि पार्थिवे स्नेहप्रतीतेः ... स्नेहस्य गुणत्वे काठिन्यमार्दवादेरपि गुणरूपता स्यात् ... न हि काठिन्यादयः संयोगविशेषा अपि तु स्पर्श विशेषाः । वेगस्य आत्मन्यपि संभवात् ; तस्य सक्रियत्वात् ... ... न च क्रियातोऽर्थान्तरं वेगः ... ... ... ... ... न च संस्कारोऽर्थात् विभिन्नः ... ... ... ... ... भावना तु धारणारूपत्वेन स्वीक्रियत एव ... ... ... स्थितस्थापकश्च किं स्वयमस्थिरस्वभावं भावं स्थापयति स्थिर___ स्वभावं वा ... ... ... ... ... धर्माधर्मादयस्तु नात्मगुणाः ... ... ... ... ... कर्मपदार्थवाद: ... ... ... ... ... ... (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः) उत्क्षेपणादीनि पंच कर्माणि
५९७ ५९७ ५९७
५९७
५९७
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५९८ ५९८ ५९८
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विषयानुक्रमः
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w .
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विषयाः उत्क्षेपणादीनि चत्वारि नियतदिग्देशसंयोगविभागकारणानि गमनं तु अनियतदिग्देशसंयोगविभागकारणम् ... ... (उत्तरपक्षः) देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुः अर्थस्य परिणाम एव भ्रमणरेचनस्यन्दनादीनामपि पृथक् कर्मवप्रसङ्गः न चैकरूपस्यार्थस्य क्रियासमावेशः ... नापि क्षणिकस्य क्रिया घटते ... ... ... नापि अर्थादर्थान्तरं कर्म ... ... ... ... ... ... विशेषपदार्थ विचारः ... ... ... ... ... ... ६०१-६०४ (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः) नित्यद्रव्यवृत्तयः अन्त्या विशेषाः
६०१ जगद्विनाशारम्भकोटिभूतेषु परमाणुषु मुक्तात्मसु मुक्तमनःसु
चान्तेषु भवा अन्त्याः ... ... ... ... ... ... व्यावृत्तिबुद्धिविषयत्वं विशेषाणां सद्भावसाधकं प्रमाणम् ... (उत्तरपक्षः) अण्वादीनां खस्वभावव्यवस्थितं स्वरूपं परस्परा.
सङ्कीर्णखरूपं स्यात् सङ्कीर्ण वा ... ... ... ... ६०२ यदि विशेषपदार्थमन्तरेण न व्यावृत्तबुद्धिः तदा विशेषपदार्थेषु
परस्परं कथं व्यावृत्तप्रत्ययः ?... ... ... ... ... ६०३ विशेषेषु उपचारेण प्रत्ययोपगमे कोऽयमुपचारः ? असतो विषय
त्वेनाक्षेपश्चेतू ; स किं संशयत्वेनाक्षिप्यते विपर्ययत्वेन वा ? अनुमानबाधितो हि विशेषसद्भावः ... ... ... ... ६०४ समवायपदार्थविचारः ... ... ... ... ... ६०४-२२ (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः) अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामित्यादि
समवायस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ... समवायलक्षणस्य पदसार्थक्यम् ... ... ... ... ... ६०४ प्रत्यक्षत एव समवायः प्रतीयते ... ... ... 'अवाध्यमानेहप्रत्ययत्वात्' इत्यनुमानेनापि समवायः प्रतीयते ... नहि इह तन्तुषु पट इत्यादीहेदं प्रत्ययः तन्तुपटहेतुकः, नापि
वासनाहेतुकः ... ... ... ... ... ... ... इदमिहेति ज्ञानं हि समवायविशिष्टतन्तुपटालम्बनम् ... ... ६०६ इहेतिप्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिङ्गाभावाच्चैकः समवायः ... ... समवायस्यैकत्वेऽपि आधारशक्तिवशात् द्रव्यमेव द्रव्यत्वस्याभिव्य
जकम् न गुणादयः ... ... ... ... ... ... समवायीनि द्रव्याणीति प्रत्ययः विशेषणपूर्वकः विशेष्यप्रत्ययलादि
त्यनुमानात् समवायसिद्धिः ... ... ... ... ...
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६०५
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
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६१०
६१०
विषयाः नानिष्पन्नयोः निष्पन्नयोर्वा समवायः; खकारणसत्तासम्बन्धस्यैव
निष्पत्तिरूपत्वात् ... ... (उत्तरपक्षः) अयुतसिद्धत्वं हि शास्त्रीयम् लौकिकं वा? ... पृथगाश्रयवृत्तित्वं युतसिद्धिलक्षणम् आकाशादावव्याप्तम् ... नित्यानां पृथग्गतिमत्त्वमपि आकाशादिषु न संघटते एकद्रव्याश्रितरूपादीनां पृथगाश्रयवृत्तेरभावात् अयुतसिद्धत्वं स्यात् युतसिद्धिलक्षणे इतरेतराश्रयश्च ... ... ... ... ... समवायस्यासाधारणं स्वरूपं किम् अयुतसिद्धसम्बन्धत्वं सम्वन्ध
मात्रं वा? ... ... ... ... ... ... ... सम्बन्धरूपतया चासौ सम्बन्धबुद्धौ प्रतिभासेत, इहेति प्रत्यये वा,
समवाय इत्यनुभवे वा? ... ... ... ... ... सम्बन्धश्च किं सम्बन्धलजातियुक्तः स्यात् अनेकोपादानजनितो
वा अनेकाश्रितो वा सम्बन्धबुद्धथुत्पादको वा सम्बन्धबुद्धिविषयो वा? ... ... ... ... ... ... ... सर्वसमवाय्यनुगतैकखभावः समवायः सम्बन्धवुद्धौ प्रतिभासेत
तद्व्यावृत्तखभावो वा ... ... ... ... ... ... अवाध्यमानेहप्रत्ययत्वं च हेतुराश्रयासिद्धः ... ... ... 'पटे तन्तवः वृक्षे शाखाः' इत्यादि प्रतीयते नतु तन्तुषु पटः __ इत्यादि ... ... ... ... ... ... ... ... 'इह प्रागभावेऽनादित्वम्' इत्यादी हेदम्प्रत्ययस्य सम्बन्धपूर्व__ कलाभावात् ... ... ... ... ... ... ... अनुमानात् सम्बन्धमानं साध्यते तद्विशेषो वा? ... ... सम्बन्धविशेषश्चेत् ; संयोगः समवायो वा? ... ... ... परिशेषात्समवायसिद्धौ परिशेषः किं प्रमाणमप्रमाणं वा? ... प्रमाणं चेत् किं प्रत्यक्षमनुमानं वा? ... ... ... ... इहेदमिति प्रत्ययो हि तादात्म्यहेतुकः ... ... ... ... संयोगवरूपखण्डनम् ... ... ... ... ... विशिष्टपरिणामापेक्षया बीजादीनाम् अङ्कुरोत्पादकत्वमतो न संयो
गस्यैवापेक्षा .... .... ... ... ... ... ... यदि च संयोगमात्रापेक्षा एव वीजादय अङ्कुरादिकमुत्पादयन्ति __ तदा प्रथमोपनिपात एव उत्पादयन्तु ... ... ... न द्रव्याभ्यामर्थान्तरभूतः संयोगो विशेषणतया प्रतिभासते ... चैत्रकुण्डलयोः विशिष्टावस्थाप्राप्तिः हि सर्वदा न भवति अतः कुण्डलीति बुद्धिरपि न सार्वदिकी ... ... ... ...
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विषयानुक्रमः
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विषयाः विशेषविरुद्धानुमानं च किमनुमानाभासोच्छेदकवान वक्तव्यम् __सम्यगनुमानोच्छेदकत्वाद्वा ? ... ... ... ... ... अनेकः समवायः विभिन्न देशकालाकारार्थेषु सम्बन्धबुद्धिहेतुत्वात् नाना समवायः अयुतसिद्धावयविद्रव्याश्रितत्वात् संख्यावत् ... अनाश्रितत्वेऽपि समवायस्य अनेकत्वमेव ... ... ... इहात्मनि ज्ञानमिह घटे रूपादय इति विशेषप्रत्ययस्य सद्भावाद
नेकः समवायः ... ... ... ... ... ... सत्तावदिति दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधन विकलः ... ... ... समवाय इति प्रत्ययेनानैकान्तिकोऽयं हेतुः ? स हि विशेष्यप्रत्ययो
न च विशेषणमपेक्षते ... ... ... ... ... ... किं येन सता विशेष्यज्ञानमुत्पद्यते तद्विशेषणम् , किं वा यस्यानु
रागः प्रतिभासते तदिति ? ... ... ... ... ... खकारणसत्तासम्बन्धस्य आत्मलाभरूपत्वे किं सतां सत्तासमवायः
असतां वा ? ... ... ... ... ... ... ... सत्तासमवायात् पदार्थानां सत्त्वे तयोः कुतः सत्त्वम् ? ... ... समवायस्य खरूपासिद्धौ स्वतःसम्बन्धलमपि न तत्र सिद्धम् ... परतश्चेत् किं संयोगात् , समवायान्तरात् , विशेषणभावाददृष्टाद्वा ? विशेषणभावोऽपि समवायसमवायिभ्योऽत्यन्तं भिन्नः कुतस्तत्रैव
नियाम्येत? ... ... ... ... ... ... ... विशेषणभावः षट्पदार्थेभ्यो भिन्नः अभिन्नो वा? ... भिन्नश्चेत् किं भावरूपः अभावरूपो वा ?... ... ... अदृष्टश्च न सम्बन्धरूपः द्विष्ठलाभावात् ... ... ... ... न चादृष्टोऽपि असम्बद्धः सम्बन्धिप्रतिनियमहेतुः ... अयं समवायः समवायिनोः परिकल्प्यते असमवायिनोर्वा ? समवायिनोश्चेत् ; तयोः समवायित्वं समवायात् स्वतो वा ? ... अभिन्नं तेनानयोः समवायित्वं विधीयते भिन्नं वा? ... ... निष्क्रियेषु हि आधेयत्वम् अल्पपरिमाणत्वात् तत्कार्यवात् तथा
प्रतिभासाद्वा?... ... ... ... ... ... ... नैयायिकाभिमतषोडशपदार्थानां निरासः ... ... विपर्ययानध्यवसाययोरपि षोडशपदार्थातिरिक्तवव्यवस्थितेः न
पदार्थानां षोडशसंख्यानियमः ... ... ... ... धर्माधर्मद्रव्ययोश्च पृथक्सिद्धेः न षोडशवप्रतिनियमः ... ... सकलजीवपुद्गलगतिस्थितयः साधारणबाह्यनिमित्तापेक्षाः युगपद्भाविगविस्थितिवादिति हेतोः धर्माधर्मद्रव्ययोः सिद्धिः... ...
६१९ ६१९ ६२० ६२०
६२१ ६२१
६२१
६२१
६२२ દ૨૨
६२२ ६२३-२४
६२३ ६२३
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
.
.
विषयाः न गतिस्थितिपरिणामिन एवार्थाः परस्परं तद्धेतवः; अन्योन्याश्रयप्रसंगात् ... ... ... . ... ... ... ...
६२३ नापि पृथिवी नभो वा गतिस्थितिहेतु: ... ... ... ... ६२४ नाप्यदृष्टनिमित्तता गतिस्थित्योः ... ... ... ... ... ६२४ फलस्वरूपविचारः ... ... ... ... ... ... ६२४-२७ अज्ञाननिवृत्त्यादयः प्रमाणस्य फलम् ... ... ... ६२४ अज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणादभिन्नं फलम् ... ... ... ... ६२४ अज्ञाननिवृत्ति-ज्ञानयोः सामर्थ्य सिद्धवमपि भेदे सयेवोपलब्धम् ६२५ अभेदेऽपि कार्यकारणभावस्याविरोधात् ... ... ... ६२५ हानोपादानोपेक्षाश्च भिन्नं फलम् अज्ञाननिवृत्तिलक्षणफलेन व्यव
धानात् ... ... ... ... ... ... ... ... आत्मनः प्रमाणफलरूपेण परिणामेऽपि लक्षणभेदात् प्रमाणफल__ भावाऽविरोधः ... ... ... ... ... ... ... ६२६ साधनभेदाच प्रमाणफलयोर्भेदः ... ... ... ... ... ६२६ सर्वथाऽभेदे हि प्रमाणफलव्यवस्थाया अभावः स्यात्
६२७ नापि व्यावृत्तिमेदादेकत्रापि प्रमाणफलभावकल्पना युक्ता ... ६२७
इति चतुर्थः परिच्छेदः।
६२९ ६२९ ६२९ ६३० ६३०
तदाभासस्य स्वरूपम् ... ... अखसंविदितादयः प्रमाणाभासाः ... ... ... ... प्रत्यक्षाभासस्य स्वरूपम् ... ... ... परोक्षाभासस्य स्वरूपम् ... ... स्मरण-प्रत्यभिज्ञानाभासयोः लक्षणम् ... अनिष्टादयः पक्षाभासाः ... ... ... सिद्धः पक्षाभासः ... ... ... ... ... ... प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनविकल्पात् पंचधा ___ बाधितः पक्षाभासः ... ... ... ... ... असिद्धविरुद्धानेकान्तिकाकिञ्चित्करमेदेन चतुर्धा
हेत्वाभासः. ... ... ... ... ... ... द्विविधोऽसिद्धहेत्वाभासः ... ... ... ... ... विशेष्यासिद्धादयोऽष्ट असिद्धहेलाभासाः अत्रैवान्तर्भवन्ति ... व्यधिकरणस्यापि कृत्तिकोदयादेः सद्धेतुखदर्शनान्न व्यधिकरणासिद्धो
हेखाभासः ... ... ... ... ... ... ... भागासिद्धोऽपि अविनाभावसद्भावाद् गमक एव ... ... ...
६३१
६३२
६३३
६३४
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. विषयानुक्रमः
६३८
विषयाः सन्दिग्धविशेषासिद्धादयः अत्रैवान्तर्भूताः ... ... ... एतेऽसिद्धहेखाभासाः केचिदन्यतरासिद्धाः केचिच्च उभयासिद्धाः अन्यतरासिद्धहेलाभासस्य समर्थनम् ... ... ... ... ६३५ विरुद्धहेत्वाभासस्य लक्षणम् ... ... ... ... सति सपक्षे चखारो विरुद्धाः असति सपक्षे च चत्वार इति अष्टौ _ विरुद्धभेदाः अत्रैवान्तभवन्ति ... ... ... ...
६३६ अनैकान्तिकहेत्वाभासस्य लक्षणम् ... ... ... ६३७ पक्षसपक्षान्यवृत्तित्वं व्यभिचारः ... ... ... ... ... निश्चितवृत्ति-सन्दिग्धवृत्तिभेदेन द्विधा अनैकान्तिकः ...
६३७. पक्षत्रयव्यापकादयोऽष्टौ अनैकान्तिकभेदाः अत्रैवान्तर्भावनीयाः अकिञ्चित्करहेत्वाभासस्य लक्षणम् ... ... अकिञ्चित्करो लक्षणकाल एव दोषो न तु प्रयोगकाले दृष्टान्ताभास निरूपणम् ... ... ... ... ... ६४०-४१ अन्वयदृष्टान्ताभासविवेचनम् ... ... व्यतिरेकदृष्टान्ताभास निरूपणम् ...
६४० बालप्रयोगाभास निरूपणम्
६४१ आगमाभासविचारः ... ...
६४२ संख्याभासनिरूपणम् ...
६४२-४३ विषयाभासविवेचनम् ... ... ... ... ... ६४३-४४ फलाभास निरूपणम् ... ...
६४४-४५ जयपराजयव्यवस्था ... ... ... ... ... ... ६४५-७४ वादो विजिगीषुविषयत्वेन चतुरङ्गः ... ... ... ... वादो नाविजिगीषुविषयः निग्रहस्थानवत्त्वाजल्पवितण्डावत् ... ६४६ वादस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थः प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भत्वे सिद्धा
ताविरुद्धत्वे पञ्चावयवोपपन्नत्वे च सति पक्ष प्रतिपक्षपरिग्रह
वत्त्वात् ... ... ... ... ... ... ... पक्षप्रतिपक्षौ च वस्तुधर्मों एकाधिकरणी विरुद्धावेककालावनवसितौ ६४७ वादश्चतुरङ्गः खाभिप्रेतव्यवस्थापनफलखात् वादखाद्वा लोकप्रसिद्ध
वादवत् ... ... ... ... ... ... ... ६४८ सभापतिप्राश्निकवादिप्रतिवादिभेदेन चलार्यङ्गानि ...
६४९ छलादीनामसदुत्तरत्वान्न तैः जय-पराजयव्यवस्था ... ६४९ छललक्षणम् ... ... ... ... नहि वाक्छलमात्रेण जयः
६४९ नापि सामान्यच्छलाद् जयः . ... ...
६५० नाप्युपचारच्छलात् जयः ... ...
६५१
६४५
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
६५१ ६५१
६५२ ६५२ ६५३ ६५३ ६५३
६५४ ६५४
६५६
विषयाः नापि जातिप्रयोगाजयः ... ... ... (नैयायिकस्य पूर्वपक्षः) जातेः सामान्यलक्षणम् । भाष्यकारमतेन साधर्म्यसमायाः खरूपम् वार्तिककारमतेन साधर्म्यसमायाः लक्षणम् वैधर्म्यसमायाः लक्षणम् ... ... उत्कर्षापकर्षसमयोः लक्षणम् वर्ष्यावर्ण्यसमयोः लक्षणम् विकल्पसमायाः लक्षणम् ... साध्यसमायाः लक्षणम् ... प्राप्त्यप्राप्तिसमयोः लक्षणम् प्रसङ्गसमायाः लक्षणम् ... प्रतिदृष्टान्तसमायाः लक्षणम् अनुत्पत्तिसमायाः लक्षणम् । संशयसमायाः लक्षणम् ... प्रकरणसमायाः लक्षणम् ... अहेतुसमायाः लक्षणम् ... अर्थापत्तिसमायाः लक्षणम्। अविशेषसमायाः लक्षणम् ... उपपत्तिसमायाः लक्षणम् ... उपलब्धिसमायाः लक्षणम् अनुपलब्धिसमायाः लक्षणम् अनित्यसमायाः लक्षणम् ... ... नित्यसमायाः लक्षणम् ... ... कार्यसमायाः लक्षणम् ... ... ... ... ... ... ( उत्तरपक्षः) असाधौ साधने प्रयुक्त जातीनां प्रयोगः साधनदोष
स्यानभिज्ञतया वा, तद्दोषप्रदर्शनार्थ प्रसङ्गव्याजेन वा? ... जातिवादी च साधनाभासमेतदिति प्रतिपद्यते वा न वा? कथम्भूतेन उत्तराप्रतिपत्त्युद्भावनेनासौ विजयते-किं खोपन्य स्त
जात्यपरिज्ञानोद्भावनरूपेण, परोद्भावितजात्यन्तरनिराकरणलक्षणेन, उत्तराप्रतिपत्तिमात्रोद्भावनाकारेण वा ? ... ... ... नापि निग्रहस्थानः जयपराजयव्यवस्था निग्रहस्थानस्य लक्षणम् ... ... .... ... ... ... प्रतिज्ञाहानेर्लक्षणम् ... ... ... ... ... ... वार्तिककारमतेन प्रतिज्ञाहानेलेक्षणम् ... ... ... ... प्रतिज्ञान्तरस्य लक्षणम् ... ... ...
६५६ ६५७ ६५७
६५७
६५९
६५९
६६३
६६४
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विषयानुक्रमः
S
ا
م
विषयाः प्रतिज्ञाविरोधस्य लक्षणम् ... प्रतिज्ञासन्न्यासस्य लक्षणम् ००० हेवन्तरस्य लक्षणम् ... अर्थान्तरस्य लक्षणम् ०००
६६५ निरर्थकस्य लक्षणम् अविज्ञातार्थस्य लक्षणम् ... अपार्थकस्य लक्षणम् ... अप्राप्तकालस्य लक्षणम् संस्कृतप्राकृतशब्द विचारः
६६७ पुनरुक्तस्य लक्षणम् अननुभाषणस्य लक्षणम् ... अज्ञानस्य लक्षणम् ... .... अप्रतिभायाः लक्षणम् ...
६६९ पर्यनुयोज्योपेक्षणस्य स्वरूपम्
६६९ निरनुयोज्यानुयोगस्य लक्षणम्
६६९ विक्षेपस्य लक्षणम् ...
६७० मतानुज्ञाया लक्षणम् ... न्यूनस्य लक्षणम् ...
६७० अधिकस्य लक्षणम्
६७० अपसिद्धान्तस्य लक्षणम् ... ...
६७१ हेत्वाभासखरूपम् ... ...
६७१ असाधनाङ्गवचनादेः चौद्धोक्त निग्रहस्थानस्य निरा
करणम् ... ... ... ... ... ... ... ६७१-७४ वपक्षं साधयन् वादिप्रतिवादिनोरन्यतरः असाधनाङ्गवचनाद
दोषोद्भावनाद्वा परं निगृह्णाति असाधयन् वा ? ... ... ६७१ प्रतिज्ञावचनस्य असाधनाङ्गत्वनिराकरणम् ... ... ... ६७२ 'साधर्म्यवचनेऽपि वैधर्म्यवचनमसाधनाङ्गत्वात् निग्रहस्थानम्' इति __ खपक्षं साधयतो वादिनः स्यात् असाधयतो वा ? ... ... अतः खपक्षसिध्यसिद्धिनिबन्धनावेव जय-पराजयौ ... ... न स्वपक्षज्ञानाज्ञाननिबन्धनौ जय-पराजयौ वक्तुं शक्यौ ... ६७३ ज्ञानाज्ञानमात्रनिवन्धनायां जयपराजयव्यवस्थायां पक्षप्रतिपक्षपरि___ ग्रहवैयर्थ्यं स्यात् ... ... ... ... ... ... अदोषोद्भावनस्य निराकरणम् ... ... ... ... ... ६७४
इति पञ्चमः परिच्छेदः।
ur2 Irrrrrrrrrrr rur
ک
६७२
६७३
६७४
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
६८०
विषयाः नयनयामासयोः लक्षणम् ... नैगमस्य लक्षणम् ...
६७६ नेगमाभासस्य लक्षणम्
६७७ संग्रहस्य लक्षणम् ... ...
६७७ संग्रहाभासस्य स्वरूपम् ...
६७७ व्यवहारस्य लक्षणम् ...
६७७ व्यवहारामासस्य लक्षणम् ...
६७८ ऋजुसूत्रनयस्य लक्षणम् ...
६७८ ऋजुसूत्राभासस्य स्वरूपम् ...।
६७८ शब्दनयस्य लक्षणम् ... ...
६७० शब्दनयाभासस्य स्वरूपम् ...
६७९ समभिरूढनयस्य लक्षणम् ...
६८० समभिरूढनयाभासस्य लक्षणम् ... एवम्भूतनयस्य स्वरूपम् ... ... ...
६८० एवम्भूताभासस्य लक्षणम्... ... ००० ... ००० ६८० चत्वारोऽर्थनयाः त्रयः शब्दनयाः ... ... ... ... नयेषु पूर्वः पूर्वो बहुविषयः कारणभूतश्च परः परोऽल्पविषयः कार्यभूतश्च ... ... ... ... ... ...
६८१ यत्रोत्तरोत्तरो नयः तत्र पूर्वः पूर्वो भवत्येव ... ... नयसप्तभङ्गीप्रवृत्तिप्रकारः ... ... ... ... ... ... प्रमाण नयसप्तभङ्गयोः सकलादेशविकलादेशकृतो विशेषः
६८२ सप्तैव भङ्गाः संभवन्ति प्रश्नादीनां सप्तविधत्वात् ... ... न च वक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरता ... ... ... ...
६८४ पत्रवाक्यविचारः ... ... ... ... ... ... ६८४-९४ पत्रस्य लक्षणम् ... ... ... ... ... ... ... ६८४ स्वान्तभासितादि जैनोक्तम् अवयवद्वयात्मकं पत्रम् ... चित्राद्यदन्तराणीयमित्यादि पञ्चावयवात्मकं जैनपत्रम् ... ...
६८६ सैन्यलड्भाग इत्यादि योगोक्तपत्रस्य विवरणम् ... ... ... ६८६-६८९ यदा पत्रे विवादः स्यात्-तदैवं प्रष्टव्यः यो भवन्मनसि वर्तते स
पत्रस्यार्थः, उत यो वाक्यात्प्रतीयते, अथवा यो भवन्मनसि
वर्तते वाक्याच्च प्रतीयते ? ... ... ... ... ... ६८९ तृतीयपक्षे केनेदमवगम्यताम् वादिना प्रतिवादिना प्राश्निकै ? ६९१ इदं पत्रं तद्दातुः स्वपक्षसाधनवचनम् परपक्षदूषणवचनमुभय
वचनमनुभयवचनं. वा. ... ... ... ... ... ग्रन्थकृतोऽन्तिमं वक्तव्यम् ... ... ... ... .... ग्रन्थकृत्प्रशस्तिः
इति षष्टः परिच्छेदः।।
६८१
६८५
६९२
६९३
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2000
MOS
श्रीमाणिक्यनन्द्याचार्यविरचित-परीक्षामुखसूत्रस्य व्याख्यारूपः
श्रीप्रमाचन्द्राचार्यविरचितः
प्रमेयकमलमार्तण्डः।
___ श्रीस्याद्वादविद्यायै नमः। सिद्धेर्धाम महारिमोहहननं कीर्तेः परं मन्दिरम्, .
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम् । सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धं प्रमालक्षणम् , _ सन्तश्चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्द्धमानं जिनमें ॥१॥५ शास्त्रं करोमि वरमल्पतराववोधो
माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्प्रसादाँत् । अर्थ न किं स्फुटयति प्रकृतं लघीयाँ. ल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्वाक्षः ॥२॥ ये नूनं प्रथयन्ति नोऽसमगुणा मोहादवां जनाः,
ते तिष्ठन्तु न तान्प्रति प्रयतितः प्रारभ्यते प्रक्रमः। सन्तः सन्ति गुणानुरागमनसो ये धीधनास्तान्प्रति, प्रायः शास्त्रकृतो यदत्र हृदये वृत्तं तदाख्यायते ॥ ३॥
१ भव्यसिद्धि प्रति कारणं भवति भगवानत आश्रयत्वेनाभिधीयते । २ वाण्याः । ३ आश्रयम् । ४ शास्त्रादौ देवशास्त्रगुरवो नमस्करणीया अत एव देवनमस्कृती श्रीवर्द्धमानं विशेष्यं कृत्वा हेतुहेतुमद्भावतयाऽन्वयानुसारेणान्यानि विशेषणानि योजयेत् , ततः शास्त्रनमस्कृतौ प्रमालक्षणं विशेष्यं कृत्वा, गुरुनमस्कृतौ जिनं विशेष्यं कृत्वा, चान्यानि विशेषणानि योजयेत् । ५ इष्टदेवतामभिष्टुत्य शास्त्रं करोमीति प्रतिशां कुर्वन्ति मूरयः। ६ अपि । ७ माहात्म्यात् । ८ दृष्टिगोचरं । ९ पश्यतः (इति शेषः)। १० यद्यप्ययं प्रक्रमो भवद्भिः क्रियते, तथापि भवत्कृते प्रकने केचन जना अवज्ञां विद. धानाः सन्तीत्याह । ११ वक्रगुणाः पुरुषाः। १२ औणादिकोऽयमिकारान्तस्ततस्तस् । प्रयत्नादित्यर्थः। १३ यद्यप्ययं प्रक्रमः प्रारभ्यते-तथापि स्वरुचिविरचितत्वात्सतामत्रादरणीयत्वं न स्यादित्याह प्राय इति बाहुल्येनेत्यर्थः। १४ माणिक्यनन्दिभट्टारकस्य । २५ परीक्षामुखालकारे । १६ प्रवृत्तं ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपारे० त्यजति न विदधानः कार्यमुद्धिज्य धीमान् ___ खलजनपरिवृत्तेः स्पर्धते किन्तु तेन । किमु न वितनुतेऽर्कः पद्मबोधं प्रबुद्ध. स्तद्पहृतिविधायी शीतरश्मिर्यदीह ॥ ४॥ अजडमदोषं दृष्ट्वा मित्रं सुश्रीकमुद्यतमतुष्यत् । विपरीतबन्धुसङ्गतिर्मुद्गिरति हि कुवलयं किं न ॥५॥ श्रीमदकलङ्कार्थोऽव्युत्पन्नप्रज्ञैरवगन्तुं न शक्यत इति तद्व्युत्पादनाय करतलामलंकवत् तदर्थमुद्धृत्य प्रतिपादयितुकामस्त
त्परिज्ञानानुग्रहेच्छाप्रेरितस्तदर्थप्रतिपादनप्रैवणं प्रैकरणमिदमा१०चार्यःप्राह । तत्र प्रकरणस्य सम्बन्धाभिधेयरहितत्वाशङ्कापनोदार्थ
तदभिधेयस्य चाऽप्रयोजनवत्त्वपरिहारानभिमतप्रयोजनवत्त्वव्युदासाशक्यानुष्ठानत्वनिराकरणदक्षमक्षुण्णसकलशास्त्रार्थसङ्ग्रहसमर्थ 'प्रमाण इत्यादिश्लोकमाह
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। १५ इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥१॥
सम्बन्धाभिधेयशक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनवन्ति हि शास्त्राणि प्रेक्षावद्भिराद्रियन्ते नेतराणि-सम्बन्धाभिधेयरहितस्योन्मत्तादिवाक्यवत्, तद्वतोऽप्यप्रयोजनवतः काकदन्तपरीक्षावत् ; अनभिमत
प्रयोजनवतो वा मातृविवाहोपदेशवत् ; अशक्यानुष्ठानस्य वा २० सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशवत् तैरनादरणीयत्वात् । तदुक्तम्- .
१ यद्यपि सतः प्रक्रमः प्रारभ्यते-तथापि दुष्टा दुष्टत्वं न मुञ्चयुस्तत्तस्यायं प्रक्रमो नारब्धव्य इत्युक्ते त्यजतीत्याह। २ उद्वेगं प्राप्य। ३ व्यापारात्। ४ मित्रं सूर्य, पक्षे प्रभाचन्द्रम् । ५ तुष्टिमगच्छत् । ६ चन्द्र-। ७ सूचयति। ८ कुमुदं, पक्षे भूमण्डलं (मिथ्यादृष्टिसमूहम्)। ९ मणिवत् । १० संगृह्य । ११ तयोरकलजार्थाव्युत्पन्नयों: यो परिज्ञानानुग्रही तयोर्या इच्छा तया प्रेरितः। १२ दक्षम्। १३ "शास्त्रै. कदेशसम्बन्धं शास्त्रकार्यान्तरस्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम शास्त्रभेद विपश्चितः" ॥ शास्त्रैकदेशेत्यादिविशेषणात् साकल्येन प्रतिपादकभाप्यादेः प्रकरणत्वं परास्तम् । शास्त्रकार्यान्तरं तु वैशा लघुत्वं च । तच्चोपोद्घातप्रतिपादनभेदाद्विविधम् । तत्र प्रतिपाद्यमर्थ बुद्धौ संगृह्य ( आलोच्य ) प्रागेव तदर्थमर्थान्तरवर्णनमुपोद्घातः । प्रतिपाद्यमर्थ बहिरेव परिशाय पश्चात्तत्सिद्धये तद्धेतुवर्णनं प्रतिपादनम् । सकलप्रतिपादकशास्त्रकार्याद् (प्रकृतशास्त्रकार्याद ) अन्यत्कार्य कार्यान्तरम् । १४ शास्त्रावतारे सति । १५ प्रस्तुतस्यार्थस्य अनुरोधेनोत्तरोत्तरस्य विधान सम्बन्धः । १६ पूर्वोक्तलक्षणः सम्बन्धः । १७ यस्मात् । २८ "काकस्य कति वा दन्ता मेषस्याण्ड कियत्पलम् । गर्दैमै कति रोमाणीत्येव मूर्व विचारणा"। १९ ज्ञाताभिधेयमेवेत्यवधारणं समर्थयमानः प्राई ।
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प्र० श्लो०] प्रतिज्ञाश्लोकः ।
"सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोता श्रोतुं प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥१॥
[मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० १७ ] सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित् । यावत्प्रयोजनं नोक्तं तावत्तत्केन गृह्यताम् ॥ २॥
[मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० १२] अॅनिर्दिष्टफलं सर्वं न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । शास्त्रमाद्रियते तेन वाच्यमग्रे प्रयोजनम् ॥ ३ ॥
शास्त्रस्य तु फले शाते तत्प्राप्त्याशावशीकृताः। प्रेक्षावन्तः प्रवर्त्तन्ते तेनं वाच्यं प्रयोजनम् ॥ ४॥
यावत् प्रयोजनेनास्यसम्बन्धो नाभिधीयते । असम्बद्धप्रलापित्वाद्भवेत्तावदसङ्गतिः॥५॥
[मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० २०] १५५ तस्माद् व्याख्याङ्गमिच्छद्भिः सहेतुः सप्रयोजनः। शास्त्रावतारसम्बन्धोवाच्यो नान्योऽस्ति निष्फलः ॥६॥” इति ।
[मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० २५] तत्रास्य प्रकरणस्य प्रमाणतदाभासयोर्लक्षणमभिधेयम् । अनेन च सहास्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षणः सम्बन्धः। शक्यानु-२० ठानेष्टप्रयोजनं तु साक्षात्तल्लक्षणव्युत्पत्तिरेव-इति वक्ष्ये तयोलक्ष्म' इत्यनेनाऽभिधीयते । 'प्रमाणादर्थसंसिद्धिः' इत्यादिकं तु परम्परयेति समुदायार्थः । अथेदानी व्युत्पत्तिद्वारेणाऽवयवार्थोऽभिधीयते । अत्र प्रमाणशब्दः कर्तृकरणभावसाधनः-द्रव्यपर्याययोर्भेदाऽभेदात्मकत्वात् स्वातन्यसाधकतमत्वादिविवक्षापेक्षया २५
१ यदाद्रियते । २ अर्थशब्देनाभिधेयं प्रयोजनं च । ३ शास्त्रम् ( इति शेषः) । ४ प्रयुज्यते प्रतिपाद्यते इति प्रयोजनमभिधेयं प्रयुक्तिः, प्रयोजनं फलं ताभ्यां सह वर्तते । ५ शातफलमेवेति समर्थयते । ६ आदौ ।. ७ फलम् । .८ निरूपितेपि फले प्रवर्तनं न भविष्यतीति शङ्कायामाह । ९ कारणेन । १० सिद्धसम्बन्धमेव.पदं समर्थयमानोऽग्रेतनश्लोके ब्रूते । ११ अभिधेयेन। १२ परस्परसम्बन्धरहितं ; शास्त्रम् । १३ सम्बन्धादित्रयम् । १४ साभिधेयः। १५ सफलः । १६ साभिधेयः सप्रयो. जनश्च सम्बन्धो वाच्यः ।.. १७ सम्बन्धादित्रयरहितः । १८ सम्बन्धादित्रये वक्तव्ये आदरणीयत्वे सति शास्त्रप्रारम्भकाले। १९ प्रमाणेतरलक्षणस्य व्युत्पत्तिमन्तरेणापवर्गादे: प्राप्तिन स्यादत. एव साक्षात्वम् । २० श्लोकस्य । २१ श्लोके । २२ आत्मदव्यम् । २३ शानपर्यायः। २४ साक्षाद् व्यापारे । २५ भाव।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० तद्भावाऽविरोधात् । तत्र क्षयोपशमविशेषवशात्-स्वपरप्रमेयस्वरूपंप्रमिमीते यथावजानाति' इति प्रमाणमात्मा, स्वपरग्रहणपरिणतस्यापरतन्त्रस्याऽऽत्मन एव हि कर्तृसाधनप्रमाणशब्देनाभिधानंस्वातन्त्र्येण विवक्षितत्वात्-खपरप्रकाशात्मकस्य प्रदीपादेः प्रका-- ५शोभिधानवत् । साधकतमत्वादिविवक्षायां तु-प्रमीयते येन तत्प्रमाणं प्रमितिमात्रं वा-प्रतिवन्धापाये प्रादुर्भूतविज्ञानपर्यायस्य प्राधान्येनाश्रयणात् प्रदीपोदेः प्रभाभारात्मकप्रकाशवत् ।
भेदाभेदयोः परस्परपरिहारेणावस्थानादन्यतरस्यैव वास्तवत्वादुभयात्मकत्वमयुक्तम् ; इत्यसमीक्षिताभिधानम् ; बाधकप्रमाणा१० भावात् । अनुपलम्भो हि वाधकं प्रमाणम् , न चात्र सोऽस्ति-सकलभावे भयात्मकत्वग्राहकत्वेनैवाखिलाऽस्खलत्प्रत्ययप्रतीतेः। विरोधोबाधकः; इत्यप्यसमीचीनम् : उपलम्भसम्भवात्। विरोधो ह्यनुपलम्भसाध्यो यथा-तुरङ्गमोत्तमाङ्गे शृङ्गस्य, अन्यथा स्वरूपेणापि
तद्वतो विरोधः स्यात् । न चानयोरेकत्र वस्तुन्यनुपलम्भोस्ति१५अभेदमात्रस्य भेदमात्रस्य वेतरनिरपेक्षस्य वस्तुन्यप्रतीतः । कल्पयताप्यभेदमात्रं भेदमात्रं वा प्रतीतिरवश्याऽभ्युपगमनीया-तन्निबन्धनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः । सा चेदुभयात्मन्यप्यस्ति किं तत्र खसिद्धान्तविषमग्रहनिबन्धनप्रद्वेषेण-अप्रामाणिकत्वप्रसङ्गादित्यलमतिप्रसङ्गेन, अनेकान्तसिद्धिप्रक्रमे विस्तरेणोपक्रमात् । २० वैक्ष्यमाणलक्षणलक्षितप्रमाणभेदमनभिप्रेत्यानन्तरसकलप्रमाणविशेषसाधारणप्रमाणलक्षणपुरःसरः 'प्रमाणाद्' इत्येकवचननिदेशः कृतः।कों हेतौ। अर्थ्यतेऽभिलष्यते प्रयोजनार्थिभिरित्यर्थो हेय उपादेयश्च । उपेक्षणीयस्यापि परित्यजनीयत्वाद्धेयत्वम् ; उपादानक्रियां प्रत्यकर्मभावानोपादेयत्वम् , हानक्रियांप्रति विपर्ययातत्त्व२५म्।तथा च लोको वदति 'अहमैंनेनोपेक्षणीयत्वेन परित्यक्तः' इति।
, १ कथनं । २ कर्तृसाधनोऽयम् । ३ भाव । ४ सम्बन्धिनः । ५ करणे भावे चात्र घञ्। ६ परः शङ्कते । ७.मेदस्याऽमेदस्य वा। ८ पदार्थेषु । ९ उपलम्भो यत्र भेदस्तत्राभेद इति । १० अभावः। ११ अभावोऽर्थधर्मोयम् । १२ शानधर्मोऽयम् । १३ विरोधः। १४ पदार्थस्य । १५ भावाभावयोः। १६ मेदस्याभेदस्य वा। १७ प्रतिवादिना। १८ अन्यथेति शेषः। १९ प्रारम्भात् । . २० विशद प्रत्यक्षमविशदं परोक्षमिति । २१ अविवक्षितत्वात् । २२ खापूर्वेत्यादि । २३ पञ्चमी । . २४ अर्थस्य । २५ हेयत्वेऽर्थेऽन्तर्भावादित्यर्थः। २६ ज्ञानविषयभूतं वस्तु कर्माभिधीयते मध्यस्थमावेन स्थितत्वात्कर्मभावं न प्राप्त इत्यर्थः। २७ कर्मभावात् । २८ हेयत्वम् । २९ पुरुषेण ।
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प्र० श्लो] . प्रतिज्ञाश्लोकः ।। सिद्धिरसतः प्रादुर्भावोऽभिलषितंप्राप्ति वज्ञप्तिश्चोच्यते । तत्र ज्ञापंकप्रकरणाद् असतःप्रादुर्भावलक्षणा सिद्धिर्नेह गृह्यते।समीचीना सिद्धिः संसिद्धिरर्थस्य संसिद्धिः 'अर्थसंसिद्धिः' इति । अनेन कारणान्तराहितविपर्यासादिशाननिवन्धनाऽर्थसिद्धिर्निरस्ता । जातिप्रकृयादिभेदेनोपकारकार्थसिद्धिस्तु संगृहीता; तथाहि-केवल-५ निम्बलवणरसादावस्मदादीनां द्वेषवुद्धिविषये निम्वकीटोष्ट्रादीनां जात्याऽभिलाषवुद्धिरुपजायते अस्मदाद्यमिलापविषये चन्दनादौ तु तेषां द्वेषः, तथा पित्तप्रकृतेरुष्णस्पर्श द्वेषो-वातप्रकृतेरभिलाष:शीतस्पर्शे तु वातप्रकृतेदे॒षो न पित्तप्रकृतेरिति । न चैतज्ज्ञानमसत्यमेव-हितोऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्थत्वात् प्रसिद्धसत्यज्ञानवत् । १० हिताऽहितव्यवस्था चोपकारकत्वापकारकत्वाभ्यां प्रसिद्धति । । तदिव स्वपरप्रमेयस्वरूपप्रतिभासिप्रमाणमिवाभासत इति तदाभासम्-सकलमतसम्मताऽववुद्ध्यक्षणिकायेकान्ततत्त्वज्ञानं सन्निकर्षाऽविकल्पक-ज्ञानाऽप्रत्यक्षज्ञानज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानाऽनाप्ताणीताऽऽगमाऽविनाभावविकललिङ्गनिबर्धनाऽभिनिबोधाँदिक सं-१५ शयविपर्यासानध्यवसायज्ञानं च, तस्माद् विपर्ययोऽभिलषि- . तार्थस्य स्वर्गापवर्गादेरनवद्यतत्साधनस्य वैहिकसुखदुःखादिसाधनस्य वा सम्प्रातिज्ञप्तिलक्षणसमीचीनसिद्ध्यभावः। प्रमाणस्य प्रथमतोऽभिधानं प्रधानत्वात् । न चैतदसिद्धम् ; सम्यग्ज्ञानस्य निश्श्रेयसाप्तेः सकलपुरुषार्थोपयोगित्वात्, निखिलप्रयासस्य प्रेक्षा-२० वतां तदर्थत्वात् , प्रमाणेतरविवेकस्यापि तत्प्रसाध्यत्वाञ्च । तदाभासस्य तूक्तप्रकाराऽसम्भवादप्राधान्यम् । 'इति हेत्वर्थे । पुरुषार्थसिद्ध्यसिद्धिनिबन्धनत्वादिति हेतोः 'तयो' प्रमाणतदाभासयो लक्ष्म' असाधारणस्वरूपं व्यक्तिभेदेने तज्ज्ञप्तिनिमित्तं लक्षणं
१ यथा कुलालाटसिद्धिः । २ पदार्थ । ३ त्रिष्वर्थेषु मध्ये। ४ प्रमाणादर्थसंसिद्धिरिति । ५ षष्ठी। ६ शापकपक्षस्य प्रकरणात् प्रस्तावात् । ७ चक्षुरादिकारणादन्यत्कारणं काचकामलादिमिथ्यात्वादि वा कारणान्तरम् । ८ अवस्थाक्षेत्रकालादि वा। ९ अन्यरससंयोगरहित। १० उष्टादिजात्या कृत्वा। ११ निम्बकीटकस्य निम्बः कटुकोऽपि हितत्वात् स एव रोचते। .१२ वैनयिकवादिशानम्। १३ सकलमतानि सम्मतानि यस्य स सकलमतसम्मतो विनयवादी तस्यावबुद्धिीनं तदाभासमित्यर्थः । १४ निर्विकल्पक । १५ अपौरुषेय । १६ अनुमान।। १७ लिङ्गाभिमुखनियतस्य लिङ्गिनो बोधनं वा। १८ उपमानार्थापत्यभावप्रमाणानि । १९ घटते। २०:मयोदायां (का: पञ्चमी)। २१. मेदस्य । २१ 'हेतावेवंप्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । अधिकारे समाप्तौ च इतिशब्दः प्रकीर्तितः'।. २३ तदाभासेभ्यः । २४ व्यक्तिमेदेनाऽसाधारणत्वं स्वन्यचयभेदेन साधारणत्वमिति सादादसिद्धिः। .
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० 'वक्ष्ये व्युत्पादनार्हत्वात्तल्लक्षणस्य यथावत्तत्स्वरूपं अस्पष्टं कथयिष्ये । अनेन ग्रन्थकारस्य तद्व्युत्पादने स्वातच्यव्यापारोऽवसीयते-निखिललक्ष्यलक्षणभावावबोधाऽन्योपकारनियतचेतोवृत्तिस्वात्तस्य। ५ नंनुचेदं वक्ष्यमाणं प्रमाणेतरलक्षणं पूर्वशास्त्राप्रसिद्धम् ,तद्विपरीतं वा? यदि पूर्वशास्त्राऽप्रसिद्धम्-तर्हि तव्युत्पादनप्रयासो नारम्भणीयः-स्वरुचिविरचितत्वेन सतामनादरणीयत्वात् , तत्प्रसिद्धं तु नितरामतन्न व्युत्पादनीयं-पिष्टपेषणप्रसङ्गादित्याह-'सिद्धमल्पम् ।
प्रथमविशेषणेन व्युत्पादनवत्तल्लक्षणप्रणयने स्वातन्यं परिहृतम् । १० नदेव आकलईमिदं पूर्वशास्त्रपरम्पराप्रमाणप्रसिद्धं लघुपायेन
प्रतिपाद्य प्रज्ञापरिपाकाथै व्युत्पाद्यते-न स्वरुचिविरचितं-नापिप्रमाणानुपपन्न-परोपकारनियतचेतसो ग्रन्थकृतो विनेयविसंवादने प्रयोजनाभावात्। तथाभूतं हि वदन विसंवादकैः स्यात् । 'अल्पम'
इति विशेषणेन यदन्यत्र अकलङ्कदेवैविस्तरेणोक्तं प्रमाणेतरलक्षणं१५तदेवायें संक्षेपेण विनेयव्युत्पादनार्थमभिधीयत इति पुनरुक्तन्वनिरासः। विस्तरेणान्यत्राभिहितस्यात्र संक्षेपाभिधाने विस्तररुचिविनेयविदुषां नितरामनादरणीयत्वम् । को हि नाम विशेषव्युत्पत्यर्थी प्रेक्षावांस्तत्साधनाऽन्यसद्भावे सत्यन्यत्राऽतत्साधने कृता
दरो #वेदित्याह-'लवीयसः । अतिशयेन लघवो हि लघीयांसः २० संक्षेपरुचय इत्यर्थः। कालशरीरपरिमाणकृतं तुलाघवं नेह गृह्यते
तस्य व्युत्पाद्यत्वव्यभिचारात्, कचित्तथाविधे व्युत्पादकस्याऽप्युपलम्भात् । तस्मादभिप्रायकृतमिह लाघवं गृह्यते । येषांसंक्षेपेण व्युत्पत्त्यभिप्रायो विनेयानां तान् प्रतीदमभिधीयते प्रतिपादकस्य
१ बल द्विकर्मकः । २ व्युत्पत्तिकरणाहत्वात् । ३ भा कृत्वा ( तृतीयान्तं तेन कृत्वेत्यर्थः )। ४ परः। ५ पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात् । ६ ईप् यथा-(व्युत्पादने यथा)। ७ कयने । ८ प्रमाणतदाभासलक्षणम् अकलङ्केन प्रोक्तमाकलकम् । कलङ्केन दोषेण -रहितं वा । ९ पूर्वशास्त्रपरम्परा च प्रमाणं चेति पूर्वशास्त्रपरम्पराप्रमाणे ताभ्यामित्यर्थः । १० परम्पराप्रमाणप्रसिद्धमिति वा पाठः । ११ संक्षिप्तशब्दरूपेण। १२ प्रतारणे । १३. प्रतारकः । १४. प्रमाणुसंग्रहादौ । . १५ परीक्षामुखे । १६.प्रमाणसंग्रहादौ । २.७ प्रमाणसंग्रहाहिसद्भावे ।।१८ परीक्षामुखे। १९ विशेषव्युत्पत्त्यसाधने । २० न कोपि । २१ तर्हि कान् 'प्रतीत्याशङ्कायामाह । २२ विमतो व्युस्पायः कालकृतलाघवादित्युक्ते गर्भाऽष्टमवर्षादिजातशानसम्पन्नेन व्यभिचारात् । वीतः प्रतिपाद्यः' कांयकृतलाघवादित्युक्ते अधीतशास्त्रेण कुन्जादिनाऽनेकान्तात् । तयोर्युत्पादकत्वादिति भावः । २३ बुद्धि। २४ गुरोः।
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सू. ११.] कारकसाकल्यवादः प्रतिपाद्याशयवशवर्तित्वात् । अकथितम् [पाणिनि सू०.१।४।५। इत्यनेन कर्मसंज्ञायां सत्यांकमणी । ----
ननु चेष्टदेवतानमस्कारकरणमन्तरेणैवोक्तप्रकाराऽऽदिश्लोकाभिधानमाचार्यस्याऽयुक्तम् । अविघ्नेन शास्त्रापरिसमात्यादिकं हि फलमुद्दिश्येष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणाः शास्त्रकृतः शास्त्रादौ प्रती-५ यन्ते; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; वाङ्नमस्काराऽकरणेपि कायमनोनमस्कारकरणात्। त्रिविधोहि नमस्कारो-मनोवाकायकारणभेदात् । दृश्यते चातिलघूपायेन विनेयव्युत्पादनमनसां धैर्मकीर्त्यादीनामप्येवंविधा प्रवृत्तिः-वाङ्गमस्कारकरणमन्तरेणैव “सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिः" [न्यायवि० १११] इत्यादि-१० वाक्योपंन्यासात् । यद्वा वाङ्गमस्कारोऽप्यनेनैवादिश्लोकेन कृतो ग्रन्थकृता; तथाहि-मा अन्तरङ्गबहिरङ्गानन्तज्ञानप्रातिहायादिश्रीः, अण्यते शब्द्यते येनार्थोऽसावाणःशब्दः,मा चाणश्च माणी, प्रकृष्टौ महेश्वराद्यसम्भविनौ माणौ यस्याऽसौ प्रमाणो भगवान् सर्वज्ञो दृष्टेष्टाऽविरुद्धवाक् च, तस्मादुक्तप्रकारार्थसंसिद्धिर्भवति ॥ १५ तदभासात्तु महेश्वरादेर्विपर्ययस्तत्संसिद्ध्यभावः। इति वक्ष्ये तयोलक्ष्म 'सामग्रीविशेषविश्लेषिताऽखिलावरणमतीन्द्रियम्' इत्याद्यसाधारणस्वरूपं प्रमाणस्य । किंविशिष्टम् ? 'सिद्धं वयंमाणप्रमाणप्रसिद्धम् , तद्विपरीतं तु तदाभासस्यः तच्चाऽल्पं संक्षिप्तं यथा भवति तथा, लघीयसः प्रति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्मेति । शास्त्रा-२० रम्भे चाऽपरिमितगुणोदधेर्भगवत गुणलवव्यावर्णनमेव वास्तु- . तिरित्यलमतिप्रसङ्गेन ॥ छ ॥ !
... : 1 प्रमाणविशेषलक्षणोपलक्षणाकाङ्क्षायास्तत्सामान्यलक्षणोपलक्षणपूर्वकत्वात् प्रमाणस्वरूपविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेणाऽवाधत सामान्यलक्षणोपलक्षणायेदमभिधीयते-
....२५ " वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥१॥.
प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेरित्ययमत्र हेतुदृष्टव्यः। विशेषणं हि व्यवच्छेदैफलं भवति । तत्र प्रमाणस्य ज्ञानमिति विशेषणेन 'अव्यभि चारोदिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनकं कारकसाकल्यं साधक
१.शिष्य । २ सूत्रण। ३ इप् द्वितीया । ४ परः । ५ उपायेन शब्देनेत्यर्थः।। ६ बौद्धाचार्याणाम् । ७ अथवा। ८'कश्चित्पुरुष' इत्यादि । ९ 'वचसा नमस्कार करणं तु तस्य संस्तवनम् । १.० पूर्वपक्षेण । ११ परिज्ञान। १२ साध्ये। १३ लक्षण व्यावृत्तिफलं, . तदाभासात्परिहारफलमित्यर्थः । “.१४ भविपर्ययः व्यभिचारो नाम अतिव्याप्तिः। १५ अन्याप्त्यतिन्यायसंभवादिरहितविशेषणसंभवसंशयादिव्यभिचारः । १६ प्रतीति । १७ जरनैयायिका आत्माकाशादीनां साकल्यं प्रमाणमित्याहुः ॥
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१६
१५
प्रदेयकालमार्तण्डे प्रथमपरि० नमत्वात् प्रमाणम्' इति प्रत्याख्यातम् ; तस्याऽज्ञानरूपस्य प्रमयार्थवत् स्वपरपरिच्छित्तो साधकतमत्वाभावतः प्रमाणत्वायोगात्-तत्परिच्छित्तौ साधकतमत्वस्याऽज्ञानविरोधिना ज्ञानेन व्याप्तत्वात् । छिदौ परश्वादिना साधकतमेन व्यभिचार इत्ययुक्तम् । ५ तत्परिच्छित्तावितिविशेषणात्, न खलु सर्वत्र साधकतमत्वं शानेन व्याप्तं-परश्वादेरपि ज्ञानरूपताप्रसङ्गात् । अज्ञानरूपस्यापि प्रदीपादेः स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमत्वोपलम्भात्तेन तस्याऽव्याप्तिरित्यययुक्तम् । तस्योपचारात्तत्र साधकतमत्वव्यवहारात् ।
साकल्यस्याप्युपचारेण साधकतमत्वोपंगमे न किंचिदनिष्टेम्१० मुख्यरूपतया हि स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमस्य ज्ञानस्योत्पादक
त्वात् तस्यापि साधकतमत्वम् ; तस्साच प्रमाण-कारणे कार्योंपचारात्-अन्नं वै प्राणा इत्यादिवत् । प्रदीपेन मया दृष्टं चक्षुषाऽबैंगतं धूमेन प्रतिपन्नमिति लोकव्यवहारोऽप्युपचारतः; यथा ममाऽयं पुरुषश्चक्षुरिति-तेषां प्रमितिं प्रति वोधेन व्यवधानात्, ५५ तस्य त्वपरेणीव्यवधानात्तन्मुख्यमें । न च व्यपदेशैमात्रात्पार
मार्थिकवस्तुव्यवस्था 'नेड्डलोदकं पादरोगः' इत्यादिवत् । ततो यद्बोधाऽबोधरूपस्य प्रमाणत्वाभिधानकम्
'लिखितं साक्षिणो भुक्तिःप्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् [ ] इति तत्प्रत्याख्यातम् ; शानस्यैवाऽनुपचरितप्रमाणव्यपदेशार्हत्वात् । २० तथाहि-यद्यत्राऽपरेण व्यवहितं न तत्तत्र मुख्यरूपतया साधक
१ जानन्तं प्रति निरस्तम् । २ घटवत् । ३ व्याप्यस्य । ४ परः। ५ अज्ञानरूपेण। ६ कारणत्वेनाभिप्रेते वस्तुनि। ७ अन्यथा । ८ परः। ९ यद्यदशानविरोधिशानेन व्याप्तं तत्तत्स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतममतोऽशानरूपस्य स्वपरपरिच्छित्ती साधकतमस्य तेन शानेनाव्याप्तिः। १० न परमार्थतः । ११ प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशकरूपेण साधकतमत्वं न तु स्वपरपरिच्छित्त्यात्मकत्वेनेति भावः । १२ परैः । १३ जनानाम् । १४ ज्ञानजनकत्वेन। १५ अशानरूपत्वादित्यस्य हेतोरनैकान्तिकत्वे । १६ प्रदीपादेः प्रामाण्यम् । १७ वस्तुरूपं वहि। १८ शानधर्मसाधकतमस्य । १९ अग्निस्वरूपम् । २० साधकतमशानहेतुत्वेन । २१ साधकतमत्वेन । २२ साधकतमशानस्य हेतुत्वेन। २३ प्रमितिक्रियां प्रति। २४ परिच्छित्तिं प्रति प्रदीपादेः साधकतमत्वं न मुख्यम् । २५.प्रदीपादेसाधकतमत्वमिति व्यपदेशमात्रात् । २६ प्रदीपादे; प्रामाण्यम् । २७ 'शाडलं हरितं प्रोक्तं । नडलं नडसंयुतम्' (क) तृणसंयुतन मुदकं नडलं कथ्यते। २८ पादरोगकारणतया व्यपदिश्यमानं नडलोदकं यथा पादरोगत्वेन न पारमार्थिक तथा प्रकृतमपि । २९ शानस्यैव साधकतमत्वं यतः। ३० नैयायिकस्य वैशेषिकस्य च। ३१ शासनादिलोके पत्रादि, तत्प्रमाणम् । ३२ पुरुषाः प्रमाणम् । ३३ अनुभवः प्रमाणम् ।
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सू० १११] कारकसाकल्यवादः तमव्यपदेशाहम् , यथा हि च्छिदिक्रियायां कुठारेण व्यवहितोऽ. यस्कारः, खपरपरिच्छित्तौ विज्ञानेन व्यवहितं च परपरिकल्पितं साकल्यादिकमिति । तस्मात् कारकसाकल्यादिकं साधकतमव्यपदेशाह न भवति।
किंच; स्वरूपेण प्रसिद्धस्य प्रमाणत्वादिव्यवस्था स्थानान्यथा-५ अतिसङ्गात्-न च साकल्यं स्वरूपेण प्रसिद्धम् । तत्स्वरूपं हि सकलान्येव कारकाणि, तद्धर्मों वा स्यात् , तत्कार्य वा, पदार्थान्तरं वा गत्यन्तराभावात् ? न तावत्सकलान्येव तानि साकल्यस्वरूपम् कर्तृकर्मभावे तेषां करणत्वानुपपत्तेः। तद्भावे वा-अन्येषां कर्तृकर्मरूपता, तेषामेव वा? नतावदन्येषाम् , सकलकारकव्यति-१० रेकेणान्येषामभावात् , भावे वा न कारकसाकल्यम् । नापि तेषामेव कर्त्तकर्मरूपता; कारणत्वाभ्युपगमात् । न चैतेषां कर्तृकर्मरूपाणामपि करणत्वं परस्परविरोधात् । कर्तृता हि ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नाधारता स्वातन्त्र्यं वा, निवर्त्यत्वादिधर्मयोगित्वं कर्मत्वम् , करणत्वं तु प्रधानक्रियाऽनीधारत्वमित्येतेषां कथमेकत्र सम्भवः १ १५ तन्न सकलकारकाणि साकल्यम् । ___नापि तद्धर्मः स हि संयोगः, अन्यो वा ? संयोगैश्चेन; आस्याऽनन्तरं-विस्तरतो निषेधात् । अन्यश्चेत् ; नास्य साकल्यरूपपता अतिप्रसङ्गात्-व्यस्तार्थानामपि तत्सम्भवात् । किं चाऽसौ कारकेभ्योऽव्यतिरिक्तः, व्यतिरिक्तो वा ? यद्यव्यतिरिक्तः, तदा धर्ममात्रं २० कारकमात्रं वा स्यात् । व्यतिरिक्तश्चेत्सम्बन्धाऽसिद्धिः। सम्बन्धेऽपि वा सकलकारकेषु युगपत्तस्य सम्बन्धेऽनेकदोषदुष्टसीमा
१ प्रदीपादि लिखितादि ॥ तथाहीत्यत्र कारकसाकल्यादिकं धर्मि, मुख्यरूपतया 'साधकतमव्यपदेशाह न भवतीति धर्मः, स्वपरपरिच्छित्तौ विज्ञानेन व्यवहितत्वात् प्रदीपादिवत् । २ ज्ञातस्य । ३ साधकतमत्व । ४ खरविषाणादेः । ५ अत्र यथासंख्यं खार्थे भावे कर्मणि ध्यण् । ६ प्रमाणरूपसाकल्यस्य करणस्वरूपत्वं यतः। ७ कारकाणाम् । ८ मीमांसकानां कादीनां लक्षणमिदम् । ९ च्याप्यं विषयभूतं च निर्वत्य विक्रियात्मकम् । कर्तुश्च क्रियया व्याप्तमीप्सितानीप्सितेतरत्"। १० छेदनम् । उत्क्षेपणापक्षेपणस्यैव आधारत्वं न तु च्छिदेरित्यर्थः। ११ कर्मकोरेव छिदि प्रमितिलक्षणप्रधानक्रियाधारत्वं न तु करणस्य । १२ विरुद्धधर्माणाम् । १३ साकल्ये। १४ प्रमेयत्वप्रमातृत्वसत्त्वादि । १५ सन्निकर्षः। १६ साधारमिदमये। १७ अन्यधर्म । १८ कारकाणां द्वित्र्यादीनाम् । १९ धर्मो वा कारकरूपधी वा स्यात् कारकेभ्योऽन्यधर्मस्याव्यतिरिक्तत्वात्। २० एकस्वभावेनानेकस्वभावेन च वृत्ती सामान्यानवस्थादयः स्युः। २१ सामान्यादौ ये दोषास्तेऽत्रापि स्युरित्यर्थः । एकस्वभावेन खभावभेदेन च वृत्तौ सामान्यत्वानवस्थादयः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० न्यादिरूपतापंत्तिः। क्रमेण सम्बन्धे सकलकारकधर्मता साकल्यस्य न स्यात्-यदैव हि तस्यैकेन हि सम्बन्धो न तदैवाऽन्येनेति ।
नापि तत्कार्य साकल्यम्-नित्यानां तजननखभावत्वे सर्वदा तदुत्पत्तिप्रसक्तिः, एकप्रमाणोत्पत्तिसमये संकलतदुत्पाद्यप्रमाणो.५ त्यत्तिश्च स्यात् । तथाहि-यदा यजनकमस्ति-तत्तदोत्पत्तिमत्प्रसिधम् , यथा तत्कालाभिमतंप्रमाणम्, अस्तिच पूर्वोत्तरकालभाविनां सर्वप्रमाणानां तदा नित्याभिमतं जनकमात्मादिकं कारणमिति । आत्मादिकारणे सत्यपि तेषामनुत्पत्तौ ततः कदाचनाप्युत्पत्तिर्न स्यादिति सकलं जगत् प्रमाणविकलमापद्यत । आत्मादौ तत्क१० रणसमर्थे सत्यपि स्वयमेव तेषां यथाकालं भावे तत्कार्यताविरोधः-तस्मिन् सत्यप्यभावात्-स्वयमेवान्यदा भावात् । न च स्वकालेपि तत्सद्भावे भावात्तत्कार्यता; गगनादिकार्यताप्रसक्तेः। न च तस्यापि, तत्प्रति कारणत्वस्येष्टेरदोषोयमिति वक्तव्यम् :
आत्माऽनात्मविभागाभावप्रसङ्गात् । यत्र प्रमितिः समवेता १५.सोत्रात्मा नान्य इत्यप्यनालोचितवचनम् ; समवायाँऽसिद्धौ समवेतत्वाऽसिद्धेः । यदा यत्र यथा यद्भवति तदा तत्र तथाऽऽत्मादेस्तत्करणसमर्थत्वान्नैकदा सकलप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिरित्यप्यसम्भाव्यम्, तत्स्वभावभूतसामर्थ्य भेदमन्तरेण कार्यस्य कालौदिभेदायोगात्, अन्यथा दृष्टस्य पृथिव्यादिकार्यनानात्वस्याऽदृष्ट२० यार्थिवादिपरमाण्वादिकारणचातुर्विध्यं किमर्थ समर्थ्यते ? नित्यस्वभावमेकमेवे हि किञ्चित्समर्थनीयम् । यथा च कारणजातिभेदमन्तरेण कार्यभेदोनोपपद्यते तथा तच्छक्तिभेदमन्तरेणापि । ने च
, १ अवयवी । २ रूपमिव रूपं यस्य तद्धर्मस्य सामान्ये ये दोषास्तेऽत्रापि स्युः। ३ कारकेण.। ४ नेत्रोद्घाटनयोग्यदेशगमनादिः। ५ आत्माकाशकालदिग्मनसाम् । ६ कार्यलक्षणसाकल्यप्रमाणस्य । ७ सकलपदार्थपरिच्छेदककार्यलक्षणसाकल्यप्रमाणानानुत्पत्तिः स्यात् । ८ कारणाऽधीनानि कार्याणि यतः । ९ उपनयः । १० विवक्षितकालाऽभिमतकार्योत्पत्तिसमये। ११ कार्यविकलम् । १२ युगपत् प्रमाणकार्यस्य । १३.अन्यथाः। १४ परः । १५ गगनादिः। १६ चतुर्थपरिच्छेदेऽयं निराकरिष्यते । .१७ परः। १८ आत्मादि । १९ नानाकार्याणि विभिन्नशक्तिहेतुका नि विभिन्नकार्यत्वात् पृथव्यादिभेदकार्यवत् । २० सर्वेषां कार्याणां युगपदुत्पत्तिर्यतः। २१ देश. खभावः। २२ तत्सामर्थ्यभेदं विनापि कार्यस्य कालादिभेदो भविष्यतीति चेत् । .२३. प्रत्यक्षस्य । २४ आप्यतैजसवायवीय । २५ द्यणुकादि । २६ ब्रह्मादि । .२७ कारणम् । २८ पार्थिवादिजाति । २९ अत्राभिप्रायस्तु योग्यतावच्छिन्नस्वरूपसहकारिसमवधानमेव शक्तिरिति गौतमीयन्यायैकदेशे द्रव्याच्छक्तिरुत्पद्यते चेति जैना वदन्तीति मत्वा दूषणं वदत्यपरःतदूषणपरिजिहीर्षया न चे त्याह ।
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सू० १११]' कारकसाकल्यवादः ययकयाशक्त्यैकमनेकाः शक्तीविभर्ति तंत्राप्यनेकशक्तिपरिकल्प नेऽनवस्थाप्रसङ्गात् , तयैव तेदनेकं कार्य करिष्यतीति वाच्यम् । यतो न भिन्नाः शक्तीः कयाचिच्छत्या कश्चिद्धारयतीति जैनो मन्यते-स्वकारणकलापात्तदात्मकस्यैवाऽस्योत्पादात्। ,
संहकारिसव्यपेक्षाणां जनकत्वाद्देशकालस्वभावभेदः कार्ये न ६ विरुध्यतइत्यपि वार्तम् ; नित्यस्यानुपकार्यतया सहकार्यऽपेक्षाया अयोगात् । सहकारिणो हि भावाः किं विशेष(धायित्वेन, एकार्थकारित्वेन वाभिधीयन्ते ? प्रथमपक्षे किमसौ विशेषस्तेभ्यो भिन्नः, अभिन्नो वा तैर्विधीयते ? भेदे सम्बन्धासिद्धेस्तवस्थमेवाकारक-, . त्वमेतेषां पूर्वावस्थायामिव पश्चादप्यनुषज्यते । तेदेसिद्धिश्च सम-20 वायादिसम्बन्धस्याने निराकरिष्यमाणत्वात् सुप्रसिद्धा । विभिनातिशयात् कार्योत्पत्तौ चात्र कौरकव्यपदेशोऽपि कल्पनाशिल्पिकल्पित एव-अतिशयस्यैव कारकत्वात् । द्वितीयपक्षे तु कथमेतेषां. नित्यता उत्पादविनाशात्मकातिशयादभिन्नत्वात्तस्वरूपवत् ? .... एकार्थकारित्वेन त्वेषां सहकारित्वं नास्माभिः प्रतिक्षिप्यते, किंत्व-१५ परिणामित्वे तेषां प्रॉक पश्चात् पृथग्भावावस्थायामपि कार्यकारित्वप्रसङ्गतः 'सहैवं कुर्वन्ति' इति नियमो न घटते। न खलु साहित्येऽपि भावाः पररूपेण कार्यकारिणः । वयमकारकाणामन्यसन्निधानेऽपि तत्कारित्वासम्भवात्, सम्भवे वा पर एव परमार्थतः... कार्यकारको भवेत् स्वात्मनि तु कारकव्यपदेशो विकल्पकल्पितो२० भवेत् । तथा चान्यस्यानुपौरिणो भीवमनपेक्ष्यैव कार्य तद्विकलेभ्य एव सहकारिभ्यः समुत्पद्येत । तेभ्योऽपि वा न भवेत् . समं तेषामप्यकारकत्वात् पररूपेणैव कारकत्वात् । अतः सर्वेषां __१ आत्मादिकारणं। २ अनेकशक्तिधारणे। ३ कारणस्य। ४ हे जैन तव: । हेतोः। ५ आत्मादि । ६ परेण । ७ आत्मा। ८ आत्मादि । ९ पुण्यपाप । १० नानाशत्त्यात्मकस्य । ११ आत्मादेः । १२ परः । १३ आत्मादीनां । १४ कारणानां । १५ कार्यस्य । १६ अतिशय उपकार । १७ कारकविशेषः क्रियते तैः । १८ कारकाणां विशेषाध्यारोपकत्वेन । १९ एककार्यकरणत्वेनोभयोरपि । २० कार केभ्यः । २१ सहकारिरहितावस्थायामिव । २२ जनकत्वेन ? [सम्बन्धासिद्धिश्च ] २३ आत्मादेः । २४ आत्मादीनां ।' २५ अतिशयस्वरूपवत् । २६ सहकारिणां । २७ जैनः। २८ सहकारिभ्यः । २९ भिन्नभावावस्थायां । ३० सहकारिभिः । ३१ सहकारिणां । ३२ आत्मादयः । ३३ सहकारिरूपेण । .. ३४ आत्मादीनां । ३५ सहकारि । ३६ आत्मादौ । ३७ एवं सति । ३८ आत्मनः। ३९. जनकल्वेमा । ४० सद्भावें । मुख्यकारकस्य स्वरूपं । ४१ आत्मादिकं । ४२ सहकारिकास्केभ्यः। ४३ स्वरूपेण । ४४ आत्मादिरूपेण ।'
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१२ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० खयमकारकत्वे पररूपेणाप्यकारकत्वात् तद्वातोंच्छेदतो न कुतश्चित् किञ्चिदुत्पद्येत । ततः स्वरूपेणैव भावाः कार्यस्य कार इति न कदाचित्तत्कियोपॅरतिः स्यात्।। __ ननु कार्याणां सामग्रीप्रभवस्वभावत्वात् तस्याश्चापरापरप्रत्यय५योगरूपत्वात्प्रत्येकं नित्यानां तकियाखभावत्वेऽप्यनुत्पत्तिस्तेषामिति, तदप्यसाम्प्रतम् ; यतोऽयमेकोऽपि भावः क्रमभाविकार्योंत्पादने समर्थोऽतःकथमेषां भिन्नकालापरापरप्रत्यययोगलक्षणाऽनेकसामग्रीप्रभवस्वभावता स्यात् ? एकेनापि हि तेन तजनन
सामर्थ्य विभ्राणेन तान्युत्पादयितव्यानि, कथमन्यथा केवलस्य १०तजननवभौवता सिद्धयेत् ? तस्याःकार्यप्रादुर्भावानुमीयमानव
रूपत्वात् प्रयोगः-यो यन्न जनयति नासौ तजननस्वभावः यथा गोधूमो यवाङ्कुरमजनयन्न तेजननस्वभावः, न जनयति चायं केवलः कदाचिदेप्युत्तरोत्तरकालभावी नि प्रत्ययान्तरापेक्षाणि कार्याणीति । नेनु प्रत्ययान्तरमपेक्ष्य कार्यजननस्वभावत्वान्नासौ १५ केवलस्तजनयति, न च सहकारिसहितासहितावस्थयोरस्य स्वभा
वभेदः प्रत्ययान्तरापेक्षखकार्यजननस्वभावतायाःसर्वदा भावात्, तदप्यपेशलम् ; यतः प्रेत्ययान्तरसन्निधानेऽपि स्वरूपेणैास्य कार्यकारिता, तच्च प्राँगप्यस्तीति प्रागेातः कार्योत्पत्तिः स्यात् ।
प्रत्ययान्तरेभ्यश्चास्यातिशयसम्भवे तदपेक्षा स्यादुपकारकेष्वे२० वास्याः सम्भवात् , अन्यथाऽतिसङ्गात् । तत्सन्निधानस्यासन्निधानतुल्यत्वाच केवल एवासौ कार्य कुर्यात् , अकुर्वश्च केवलः सहितावस्थायां च कुर्वन् कथमेकखभावो भवेद्विरुद्धधर्माध्यासतः स्वभावभेदानुषङ्गात् ?:
किञ्च सकलानि कारकाणि साकल्योत्पादने प्रवर्तन्ते, असक२५लामि वा ? न तावत्सकलानि साकल्यासिद्धौ तत्सकलत्वासिद्धः।
१ आत्मादिरूपेणापि । २ कारक । ३ कार्य। ४ स्वाधीनतया। ५ कार्य। ६ करण। .७ विश्रामः । ८ परः। ९ कारण। १० कदाचित् रूपभिन्नकालक्रमभाविकारणयोगरूपत्वात् । ११ केवलं । १२ करण। १३ नित्यः। १४ कारण । मा। १५ नित्यस्य । १६ केवलेन। १७ परिणामित्वं । १८ न तथा। *प्रत्येक मात्मादिर्धी (*केवल:) तदजनकत्वादिति हेतुः तज्जननस्वभावो न भवतीति साध्यम् । १९ हेतुः। २० धर्मः । २१ अयमेवोपनयः । २२ तस्मादात्मादिः प्रत्येकमुत्तरोत्तरं निगमनम्। २३ परः। २४ कारणान्तरं। २५ सहकारिलक्षणकारणान्तर। २६ नित्यस्य। २७ सहकारिसन्निधानात् । २८ आत्मादिकारकात् । २९ कारकस्य । ३० उपकार: काणामेवापेक्षा भवति नाऽन्येषामित्यर्थः। ३१ अनुपकारकेष्वेव सम्भवे । ३२ पटोत्पत्ती कुविन्दस्य मृत्पिण्डे अपेक्षा भवेत् । ३३ अनुपकारकप्रत्ययान्तर। ३४ प्रमाण । ३५ यतोऽद्यापि विचार्यमाणं (ततः)। ३६ दित्राणामपि प्रामोति ।
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सू० ११] कारकसाकल्यवाद: अन्योऽन्याश्रयश्च-सिद्धे हि साकल्ये तेषां सकलरूपतासिद्धिः, तत्सिद्धौ च साकल्यासिद्धिरिति । नाप्यसकलान्यतिप्रसक्तः । किञ्च यया प्रत्यासत्त्या तथाविधान्येतानि साकल्यमुत्पादयन्ति तयैव प्रमामप्युत्पादयिष्यन्तीति व्यथा साकल्यकल्पना । करणमन्तरेण प्रमोत्पत्त्यमावे साकल्येऽप्यन्यत् करणं कल्पनीयमित्यन-५ वस्था । न चाध्यक्षसिद्धत्वात्साकल्यस्यादोषोऽयम् ; आत्मान्त:करणसंयोगादेरतीन्द्रियस्याध्यक्षाऽविषयत्वात् । केवलं विशिटार्थोपलब्धिलक्षणकार्यस्याऽध्यक्षसिद्धस्य करणमन्तरेणानुपन्तेस्तत्परिकल्पना, तेच मनोलक्षणकरणसद्भावे साकल्यमेवेत्यकधारयितुं न शक्यम् । तन्न सकलकारककार्य साकल्यम्। १०
नापि पैदार्थान्तरं सर्वस्य पदार्थान्तरस्य साकल्यरूपताप्रसझात् । तथा च तत्सद्भावे सर्वत्र सर्वदा सर्वस्यार्थोपलब्धिरिति सर्वः सर्वदर्शी स्यात् । ततः कारकसाकल्यस्य खरूपेणाऽसिद्धः सिद्धौ वा ज्ञानेन व्यवधानान्न प्रामाण्यम् ॥ छ॥
१ स्वभावेन । प्रत्यासत्तिः स्वभावः । २ कारकाणि। ३ परः। ४ साकल्यस्य । ५ पुनः। ६ शान । ७ अर्थापत्तिप्रमाणम्। ८ श्रेयसी (मन्यते)। ९ अर्थापत्तिप्रमाणप्रसिद्धं करणं। १० भावमनो। ११ प्रमितिरूपः पदार्थः । १२ नुः । १३ सर्वपदार्थान्तरसाकल्यरूपप्रमाणत्वात् ।
1 कारकसाकल्यस्य स्वरूपं तावत् सामग्रीप्रमाणवादी जयन्तभट्टः इत्थं निरूपयति 'अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् । बोधाऽबोधस्वभावा हि तस्य स्वरूपम् अव्यभिचारादिविशेषणार्थोपलब्धिसाधनत्वं लक्षणम्' (न्यायमं० पृ० १२)
सामग्री च कारकसाकल्यस्यैव व्यपदेशान्तरम्, अतएवायं कारकसाकल्यवादः 'सामग्रीप्रमाणवादः' इति शब्देनापि व्यपदिश्यते । तस्य च साधिका मुख्या युक्तिः इत्थम्-'यत एव साधकतमं करणम् करणसाधनश्च प्रमाणशन्दः, तत एव सामग्र्याः प्रमाणत्वं युक्तम् , तद्व्यतिरेकेण कारकान्तरे क्वचिदपि तमबर्थसंस्पर्शानुपपत्तः । अनेककारकसन्निधाने कार्य घटमानम् अन्यतरव्यपगमे च विघटमानं कस्सै अतिशयं प्रयच्छेत् ? नचातिशयः कार्यजन्मनि कस्यचिदवधार्यते सर्वेषां तत्र व्याप्रियमाणत्वात्' (न्याय मं० पृ० १३)
सामग्रीप्रमाणवादस्य द्विधा उल्लेखो न्यायमंजर्या दृश्यते । एकस्तावत् पूर्वोक्त एव द्वितीयस्तु प्रकारः 'कर्तृकर्मविलक्षणासंशयविपर्ययरहिताऽर्थबोधविधायिनी बोधाऽबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम्' इत्यादिरूपः 'अपरे पुनराचक्षते' इति कृत्वा तत्रैव (पृ. १४) निर्दिष्टो दृश्यते ।
प्र. क. मा० २
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० मा भूत् कारकसाकल्यस्यासिद्धस्वरूपत्वात् प्रामाण्यं सन्निकर्षादेस्तु सिद्धस्वरूपत्वात्प्रमित्युत्पत्तौ साधकतमत्वाच तत्स्याता सुप्रसिद्धो हि चक्षुषो घटेन संयोगो रूंपादिना (संयुक्तसमवायः रूपत्वादिना) संयुक्तसमवेतसमवायो ज्ञानजनकः। साधकतमत्वं ५च प्रमाणत्वेन व्याप्तं न पुननित्वमज्ञानत्वं वा संशयादिवत्प्रमेयार्थवच्च, इत्यसमीक्षिताभिधानम् । तस्य प्रमित्युत्पत्तौ साधकतमत्वाभावात् । यद्भावे हि प्रमितेर्भाववत्ता यावे चाभाववत्ता तेत्तत्र साधकतमम्।
"भावाभावयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वम्" १० इत्यभिधानात्।
न चैतत्सन्निकर्षादौ सम्भवति । तद्भावेऽपि क्वचित्प्रमित्यनुत्पत्तेः; न हि चक्षुषो घटवदाकाशे संयोगो विद्यमानोऽपि प्रमित्युत्पादकः, संयुक्तसमवायो वा रूपादिवच्छब्दसादौ, संयुक्त
समवेतसमवायो वा रूपत्ववच्छब्दत्वादौ । तद्भावेऽपि च १५ विशेषणज्ञानाद्विशेष्यप्रमितेः सद्भावोपगमात् । योग्यताभ्युपगमे सैवास्तु किमनेनान्तर्गडुनी ?
१ परः । २ लिङ्गशब्द। ३ द्रव्यत्वकर्मसामान्य । ४ गुणत्वकर्मत्व। ५ प्रमितौ। ६ सतोः। ७ यस्य तस्य तत्र । ८ आदिपदेन शब्दलिङ्ग । ९ नभसि । १० गगनमिति प्रमितेः। ११ कर्म । १२ रसत्वस्पर्शत्वादि। १३ सन्निकर्ष । १४ दण्ड । १५ दण्डोऽस्यास्तीति तस्मिन् दण्डिनि । १६ सन्निकर्षस्य शक्ति । १७ यद्यपि घटा. काशयोरविशिष्टश्चक्षुषः सन्निकर्षाऽस्ति तथापि योग्यतावशाद् घट एव प्रमिति जनयेन्नाकाशे इति सन्निकर्षशत्त्यभ्युपगमे। १८ सन्निकर्षण। १९ ग्रन्थिना (व्रणेन)।
___ अस्य च सामय्यपरनामकस्य कारकसाकल्यस्य विविधरीत्या खंडनं निम्नग्रन्थेषु द्रष्टव्यम्-न्यायकु० चं० लि. परि० १। सन्मति० टी० पृ० ४७३ । स्या० रत्नाकर पृ० ६५ ।
प्रस्तुतग्रंथगतखंडने (पृ० ११ पं० ८) आयातस्य 'सहकारिणो हि भावाः किं विशेषाधायित्वेन एकार्थकारित्वेन वाऽभिधीयन्ते' इत्याचंशस्य तुलना अर्चटकृत-हेतुबिन्दुटीकायाः-'नैयायिकास्तु मन्यन्ते भावानां सहकारिसन्निधानाऽसन्निधानापेक्षया कारकस्वभावव्यवस्था...' (पृ० १५० ) इत्यायंशेन विधेया।
1 यद्यपि सन्निकर्षस्य सामान्यतो निर्देशः कणाद-न्यायसूत्र तद्भाष्ययोरपि समस्ति तथापि तस्य प्रक्रियाबद्धं विवरणं षोढा तद्भेदनिरूपणं च न्यायवा० पृ० ३१ तथा पृ० ३७३ । न्यायवा० ता० टी० पृ० ११६ तथा पृ० ५२० । न्यायमं० पृ० ४७७ । प्रश० कन्द० पृ. २३ तथा १९५ । इत्यादिषु द्रष्टव्यम् ।
2 'कः खलुसाधकतमार्थः ? साधकतमं प्रमाणमिति केवलं वाक्यमभिधीयते नार्थः इति ? भावाऽभावयोस्तद्वत्ता' न्यायवा० पृ० ६ ।
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सू० १११] सन्निकर्षवादः
योग्यता च शक्तिः, प्रतिपत्तुः प्रतिवन्धापायो वा ? शक्तिश्चेत् ; किमतीन्द्रिया, सहकारिलानिध्यलक्षणा वा ? न तावदतीन्द्रिया, अनभ्युपंगमात् । नापि सहकारिलानिध्यलक्षणा; कारकसाकल्यपक्षोक्ताशेषदोषानुषङ्गात् । सहकारिकारणं चात्र द्रव्यम् , गुणः, कर्म वा स्यात् ? द्रव्यं चेत् ; किं व्यापि द्रव्यम् , अव्यापि द्रव्यं वा?५ न तावद् व्यापिद्रव्यम्; तत्सानिध्यस्याकाशादीन्द्रियसन्निकर्षेऽप्यविशेषात् । कथमन्यथा दिकालाकाशात्मनां व्यापिद्रव्यता? अथाऽव्यापि द्रव्यम् ; तत्किं मनः, नयनम् , आलोको वा? त्रितयस्याप्यस्य सान्निध्यं घटादीन्द्रियसन्निकर्षवदाकाशादीन्द्रियसन्निकर्येऽप्यस्त्येव । गुणोऽपि तत्सहकारी प्रमेयगतः, प्रमातृगतो वा १० स्यात् , उभयगतो वा । प्रमेयंगतश्चेत् ; कथं नाकाशस्य प्रत्यक्षता द्रव्यत्वतोऽस्यापि गुणसद्भावाविशेषात् ? अमूर्तत्वान्नास्य प्रत्यक्षतेऽत्यप्ययुक्तम् ; सामान्यादेरप्यप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । प्रमातृगतोऽप्यदृष्टोऽन्यो वा गुणो गगनेन्द्रियसन्निकर्षसमयेऽस्त्येव । न खलु तेनास्य विरोधो येनानुत्पत्तिः प्रध्वंसो वा तत्सद्भावेऽस्य १५ स्यात् । उभयगतपक्षेऽप्युभयपक्षोपक्षिप्तदोषानुषङ्गः। कर्माऽप्यर्थान्तरगतम् , इन्द्रियगतं वा तत्सहकारि स्यात् ? न तावदर्थान्तरगतम् ; विज्ञानोत्पत्तौ तस्यानङ्गत्वात् । इन्द्रियगतं तु तत्तत्रास्त्येव; आकाशेन्द्रियसन्निकर्षे नयनोन्मीलनांदिकर्मणः सद्भावात् । प्रतिबन्धीपायरूपयोग्यतोपगमे तु सर्व सुस्थम् , यस्य यंत्र यथाविधो २० हि प्रतिबन्धापायस्तस्य तत्र तथाविधार्थपरिच्छित्तिरुत्पद्यते । प्रतिवन्धापायश्च प्रतिपत्तुः सर्वज्ञसिद्धिप्रस्ताव प्रसाधयिष्यते।
न च योग्यताया एवार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वतः प्रमाणत्वानुषङ्गात् 'ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यस्य विरोधः, अस्याः स्वार्थग्रहणशक्तिलक्षणभावेन्द्रियस्वभावायाः यदसन्निधाने कौरकान्तरसन्नि-२५
१ सन्निकर्षस्य । २ ऐन्द्रिया चेद् घटवदृश्येत न च दृश्यते इयमतोऽतीन्द्रिया। ३ परैः । ४ धर्मकार्यपक्षयोः धर्मरूपे पक्षे । ५ सन्निकर्षे । ६ क्रिया । ७ रूपरूपत्व । ८ ज्ञेयपदार्थ। ९ परः। १० गन्धादेः । ११ पुण्यपापरूपः । १२ इच्छादिः। १३ नभोनयनसन्निकर्षेण । १४ सहकारिगुणस्य । १५ सन्निकर्ष । १६ गुणस्य । १७ प्रमेय । १८ सन्निकर्ष । १९ अन्यथा स्थिरार्थानामप्रतीतिप्रसङ्गात् । २० निमीलन। २१ आवरणापाय। २२ घटादौ प्रमोत्पद्यते नाकाशादाविति । २३ नुः । २४ अथें । २५ शान। २६ नरस्य । २७ लक्षणस्य । २८ न च विरोधो कुतः । सामग्रीत्वत इति पर्यन्तमस्य हेतुष्टव्यः। २९ भावेन्द्रिय । ३० अनुमानम् । यदभावसन्निकर्षादिसद्भावौ धर्मिणौ। स्वार्थसंवेदनजनको न भवत इति साध्यो धर्मः । तदनुपपद्यमानत्वात् । ३१ सन्निकर्ष ।
1 तु०-यदसन्निधाने कारकान्तरसन्निधाने इत्यादि प्रमाण पृ० ५१ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रथमपरिक
धानेऽपि यन्नोत्पद्यते तत्तत्करणकम् , यथा कुठारालन्निधाने कुठार(काष्ट)च्छेदनमनुत्पद्यमानी कुठारकरणकम् , नोत्पाद्यते च आवेन्द्रियासविधाने स्वार्थसंवेदनं सन्निकर्षादिसद्भावेऽपीति तद्भावेन्द्रियकरणकम्' इत्यनुमानतःप्रसिद्धस्वभावायाः स्वार्थावमासिज्ञा५नलक्षणप्रमाणसामग्रीत्वतः तदुत्पत्तावेव साधकतमत्वोपपत्तेः। ततोऽन्यनिरपेक्षतया स्वार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाज्ञानमेव प्रमाणम् । तद्धेर्तुत्वात्सन्निकर्षादेरपि प्रामाण्यम् , इत्यप्यसमीचीनम्; छिदिक्रियायां करणभूतकुठारस्य हेतुत्वादयस्कारादेरपि प्रामाण्यप्रसङ्गात् । उपचारमात्रेणाऽस्य प्रामाण्ये च आत्मादेरपि १० तत्प्रसङ्गस्तद्धेतुत्वाविशेषात् ।
ननु चात्मनः प्रेमातृत्वाद् घटादेश्च प्रमेयत्वान्न प्रमाणत्वं प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरस्य प्रमाणत्वाभ्युपंगमात् इत्यप्यसङ्गतम् ; न्यायप्राप्तस्याभ्युपगममात्रेण प्रतिषेधायोगात्, अन्यथा 'अचेतनादर्थान्तरं प्रमाणम्' इत्यभ्युपैगमात्सन्निकर्षादेरपि तेन्न १५स्यात् । किञ्च प्रमेयत्वेन सह प्रमाणत्वस्य विरोधेप्रमाणमप्रमेय
मेव स्यात् , तथा चौसत्त्वप्रसङ्गः संविनिष्ठत्वाद्भाव्यवस्थितेः, इत्ययुक्तमेतत्"प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति चतसृष्वेवंविधासु तत्त्वं
१ तस्मात् । २ ता! ३ योग्यता । ४ ज्ञाने साधकतमत्वसामर्थ्य । ५ भावेन्द्रियात् । ६ सन्निकर्ष । कारकान्तर । ७ परः। ८ तत्प्रसङ्गादिति पाठान्तरम् । ९ प्रमातुः। १० मुख्यज्ञान। ११ परः। १२ कर्तृत्वात् । १३ भिन्नस्य। १४ परेषाम्। १५ युत्तया प्राप्तस्य प्रमाणत्वस्य । १६ युक्त्या रहिताभ्युपगनेन। १७ चेतनं । १८ परैः जैनैः। १९ अचेतनत्वात् । २० प्रामाण्यं । २१ वस्तुनि । २२ प्रमितिविषयाः प्रमेया इति वचनाजशानविषयत्वाद्भावस्य व्यवस्थितेः प्रमितिविषयप्रमेयत्वे सत्येव सत्वव्यवस्थितिस्तत्तु प्रमाणो नास्त्येवाप्रमेयरूपत्वादिति भावः । २३ अप्रमेयत्वं स्यादसत्त्वं च न स्यादिति ( हेतोः ) सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह । २४ परिच्छित्ति शान । २५ प्रमाण सन्न भवति अप्रमेयत्वात्खर विषाणवत्। २६ सत्ता। २७ पदार्थ । २८ ततश्च । २९ परमार्थः।
1 'ननु प्रमातृप्रमेययोरपि उपलब्धिहेतुत्वात् प्रमाणत्वं प्रसज्येत विशेषो वा वक्तव्यः इति ? अयं विशेषः-प्रमातृप्रमेययोचरितार्थत्वात्-प्रमाणे प्रमाता प्रमेयं च चरितार्थम्' अचरितार्थ च प्रमाणम् अतस्तदेव उपलब्धिसाधनमिति' न्याय वा० पृ० ५।
2 'यस्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता, येनार्थ प्रमिणोति तत्प्रमाणम्, योऽर्थः प्रमीयते तत्प्रमेयम्, यत् अर्थविज्ञानं सा प्रमितिः, चतसृषु चैवंविधासु तत्त्वं परिसमाप्यते' न्यायभा० पृ० २।
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सू० १११] सन्निकर्पवादः पारिसमाप्यत इति" [ ] । कथं वा सर्वशज्ञानेनाप्यस्याप्रमेयत्वे तस्य सर्वज्ञत्वम् ? किञ्च प्रमाणवत् प्रमातुरपि प्रमेयत्वधर्माधारत्वं न स्यात्तस्य तद्विरोधाविशेषात् । तथा चावविषाणस्येवास्यासत्त्वानुपङ्गः । तद्धर्माधारत्वे का प्रमात्रा ततोऽर्थान्तरभूतेन भवितव्यं प्रमाणवत् । तस्यापि प्रमेयत्वे ततोऽप्यर्थान्तरभू-५ तेनेत्येकत्रात्मनिग्रमेयेऽनन्तप्रमात्मालाप्रसक्तिः । यदि धर्मभेदादेकत्रात्मनि प्रेमातृत्वं प्रमेयंत्वं चाविरुद्धं तर्हि प्रमाणत्वमप्यविरुद्धमैनुमन्यताम् । ततो निराकृतमेतत्-"प्रमाप्रमेयाभ्यामर्थान्तरं प्रमाणम्" इति ।
चक्षुषश्चाप्राप्यकारित्वेनाग्रे समर्थनात्कथं घटेन संयोगस्तदभा-१० वात्कथं रूंपादिना संयुक्तसमायादिः ? इत्यव्याप्तिः सन्निकर्षप्रमाणवादिनाम् । सर्वज्ञाभावश्चेन्द्रियाणां परमाण्वादिभिः साक्षात्सम्वन्धाभावात्; तथाहि-नेन्द्रियं साक्षात्परमाण्वादिभिः सम्बध्यते इन्द्रियत्वादमदादीन्द्रियवत्।
योगैजधर्मानुग्रहीत्तस्य तैः साक्षात्सम्बन्धश्चेत् ; कोऽयमिन्द्रि-१५ यस्य योगजधर्मानुग्रहो नाम-स्वविषये प्रवर्त्तमानस्यातिशयाधीनम् , सहकारित्वमानं वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, परमाण्वादौ स्वयमिन्द्रियस्य प्रवर्तनाभावाद् , भावे तदनुग्रहवैयर्थ्यम् । तत एवास्य तंत्र प्रवृत्तौ परस्पराश्रयः-सिद्धे हि योगजधर्मानुग्रहे तत्र तस्य प्रवृत्तिः, तस्यां च योगजधर्मानुग्रह इति । द्वितीयपक्षोप्यस-२०
१ परिपूर्णतां याति अत्रैवान्तं प्राप्नोतीत्यर्थः । २ इति यदुक्तं तच्चतुर्थसंख्यापूरकस्य प्रमाणस्याभावादयुक्तमेव प्रामाण्यस्य । ३ सति । ४ प्रमेयत्वेन प्रमातृत्वस्य । ५प्रमातुः। ६ प्रमात्रन्तरस्यापि । ७ स्वभाव। ८ प्रमित्याश्रयः प्रमाता। ९ प्रमाविषयः प्रमेयः । १० प्रमितिक्रियां प्रति करणत्वम् । ११ आत्मनः। १२ प्रमाणहेतुत्वात्। १३ प्रमात्रन्तर्गतत्वात्प्रमाणस्य । १४ आदिपदेन रूपत्वादिह्यः । १५ (संयुक्तसमवेतसमवायादिः)। १६ लक्ष्यैकदेशवृत्तिरव्याप्तिरिति वचनात्तस्य स्पर्शादिचतुविन्द्रियेषु प्राप्यकारित्वं चक्षुष्यप्राप्यकारित्वमित्यव्याप्तिः। १७ समाधिः। १८ ईश्वरस्य। १९ परः। २० अदृष्ट । २१ उपकारात् । २२ करणं । २३ धर्मात् । २४ परमाण्वादो।
1 'असद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक् कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चाऽवितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनः चतुष्टयसन्निकर्षाद् योगजधर्मानुग्रह. सामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते' प्रश० भा० पृ. १८७ । एतस्थलस्य व्योमवती कन्दली च टीकाऽनुसन्धेया।
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प्रलयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० म्भाव्यः; स्वविषयातिनमेणाल्य योगजधरीसहकारित्तोनाप्यनुग्रहायोगात्, अन्यथैकस्यैवन्द्रियस्याशेषरसादिविषयेषु प्रवृत्तौ तदनुग्रहप्रसङ्ग स्यात् । अथैकमेवान्तःकरणं (योगजधर्मानु)गृहीतं युगपत्सूक्ष्मावशेषार्थविषयज्ञानजनकमिष्यते तन्न; अणुमनसोऽशे५षार्थः संकृत्सम्वन्धाभावतस्तज्ज्ञानजनकत्वासम्भवात् , अन्यथा दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ सकृञ्चक्षुरादिस्तित्सम्बन्धप्रसक्ते रूपादिज्ञानपञ्चकस्य सकृदुत्पत्तिप्रसङ्गात्
"युगपज् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" न्यायसू० ॥११६] इति विरुध्येत । क्रमशोऽन्यत्र तदर्शनादत्रापि क्रमकल्पनायां योगिनः १० सर्वार्थेषु सम्बन्धस्य क्रमकल्पनास्तु तथादर्शनाविशेषात् । तदनु
ग्रहसामर्थ्याद् हेटातिकमेष्टौ च आत्मैव समाधिविशेपोत्थधर्ममाहात्म्यादन्तःकरण निरपेक्षोऽशेषार्थग्राहकोऽस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया ? तन्नाणुमनसोऽशेषार्थैः साक्षात्सकृत्सम्वन्धो घटते ।
अथ परम्परया, तथा हि-मनो महेश्वरेण सम्बद्धं तेन च १५ घटादयोऽर्थास्तेषु रूपादय इति, अत्राप्यशेषार्थज्ञानासम्भवः ।
सम्बन्धसम्बन्धोऽपि हि तस्याशेषार्थैर्वर्तमानैरेव नानुत्पन्न विनष्टैः। तत्काँले तैरपि सह सोऽस्तीति चेन्न; तदा वर्तमानार्थसम्वन्धसम्बन्धस्यासम्भवात्। ततोऽयमन्य एवेति चेत्, तर्हि तजनितज्ञानमपि अनुत्पन्नविनष्टार्थकालीनसम्बन्धसम्बन्धजनितज्ञानादन्य२० दिति एकज्ञानेनाशेषार्थज्ञत्वासम्भवः । बहुभिरेव ज्ञानस्तदिति
चेत्, तेषां किं क्रमेण भावः, अक्रमेण वा ? क्रमभावे; नानन्तेनापि कालेनानन्तता संसारस्य |तीयेत-य एव हि सम्बन्धसम्बन्धवशाज् ज्ञानजनकोऽर्थः स एव तजनितज्ञानेन गृह्यते नान्य
इति । अक्रममावस्तु नोपपद्यते विनष्टानुत्पन्नार्थज्ञानानां वर्तमा२५ नार्थज्ञानकालेऽसम्भवात् । न हि कारणाभावे कार्य नामातिप्र
सङ्गात् । न च बौद्धानामिव योगानां विनष्टानुत्पन्नस्य कारणत्वं सिद्धान्तविरोधात् । नित्यत्वादीश्वरज्ञानस्योक्तदोषानवकाश
१ इन्द्रियस्य । २ विषयान्तरेऽपि सहकारित्वरूपानुग्रहश्चेत् । ३ योगजधर्मस्य । ४ परः। ५ परैः। ६ युगपत् । ७ परमते । ८ तदर्थैः सकृतसम्बन्धश्चेन्मनसः । ९ मनसः । १० परग्रन्थः ॥ ११ परः। १२ घटादौ। १३ मनःसम्बन्धः। १४ सर्वशस्य । १५ मनसः। १६ क्रमेण मनःसम्बन्ध । १७ परः । १८ क्रमेण मनःसम्बन्धस्य । १९ युगपदशेषार्थग्रहणमितीष्टौ । २० परः। २१ अशेषार्थैरणुमनसो हि सम्बन्धः । २२ सर्वगतत्वात् (महेश्वरस्य) । २३ सम्बन्धसम्बन्धे । २४ मनसः । २५ तेषामसत्वात् । २६ परः। २७ अनुत्पन्नविनष्टार्थकाले। २८ अनुत्पन्नविनः धार्थसम्बन्धसम्बन्धात् परः। २९ नृणाम् । ३० ईश्वरेण । ३१ युगपत् । ३२ परः। ३३ असर्वशत्वज्ञानासम्भव ।
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सू० १११] इन्द्रियवृत्तिविचारः इत्यायवाच्यम् ; तन्नित्यत्वस्येश्वरनिराकरणग्रंघटके निराकरिष्यमाणत्वात् । तन्न सन्निकर्पोप्यनुपचरितप्रमाणव्यपदेशभाक् ॥ छ ।
एतेनेन्द्रियवृत्तिः प्रमाणमित्यभिदधानः साहयः प्रत्याख्यातः। ज्ञानस्वभावमुख्य प्रमाणकरणत्वात् तमाप्युपचारतः प्रमाणव्यवहाराभ्युपगमात् । न चेन्द्रियेभ्यो वृत्तियतिरिक्ता, अव्यतिरिक्ता५ वा घटते। तेश्यो हि यद्यव्यतिरिक्तालो; तदा श्रोमादिमात्रमेवासी, तच नुवाद्यवस्थायामप्यतीति तदापयर्थ परिच्छितिप्रसक्तेः ढुवारदिव्यवहारोच्छेदः । अथ व्यतिरिक्ता; तदाप्यसौ किं तेषां धर्मः, अर्थान्तरंवा? प्रथमपक्षे वृत्तेः श्रोत्रादिभिः सह सम्बन्धो वक्तव्यःस हि तादात्म्यम् , समवायादिर्वा स्यात् ? यदि तादात्म्यम् : १० तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासाविति पूर्वोक्त एव दोषोऽनुपज्यते । अथ सैमवायः; तदास्य व्यापिनः सम्भवे व्यापिश्रोत्रादिसद्भावे च। __"प्रतिनियतदेशावृत्तिरभिव्यज्येत्” [ ] इति प्लवते । अथ संयोगः, तदा द्रव्यान्तरत्वप्रसक्तेन तद्धर्मों वृत्तिर्भवेत् । अर्थान्तरमसौ; तदा नासौ वृत्तिरर्थान्तरत्वात् पदार्थान्तरवत् । १५ अर्थान्तरत्वेपि प्रतिनियतविशेषसद्भावात्तेपामसौ वृत्तिः; नन्वसौ विशेषो यदि तेषां विषयप्राप्तिरूपः, तदेन्द्रियादिसन्निकर्ष एव नामान्तरेणोक्तः स्यात् । स चानन्तरमेव प्रतिव्यूढः। अथाऽर्थाकारपरिणतिः; न; अस्या बुद्धावेवाभ्युपगमात् । न च श्रोत्रा
१ प्रस्तावे। २ सन्निकर्षप्रमाणनिराकरणेन। ३ नेत्रादीनामुद्धाटनादिः। ४ अभिन्ना। ५ मूर्छागतप्रमत्तादि। ६ हेतोः । ७ जाग्रद्दशायां यथा । ८ प्रबुद्ध । ९ भिन्ना । १० स्वरूपं । ११ परैः । १२ आदिपदेन संयोगः। १३ वृत्तेः श्रोत्रादिभिः । १४ नित्य एको व्यापी समवायः। १५ इन्द्रियाणां व्यक्तीक्रियते। १६ भवन्मतं नश्यति । १७ द्वयोर्द्रव्ययोः संयोगः इतिहेतोः संयोगित्वात् । १८ इन्द्रियवृत्तेः । १९ परः । २० अर्थ । २१ परः । २२ वृत्तिः । २३ परिणतेः। २४ अर्थाकार. परिणतिः किम् । २५ साङ्खयैः । २६ किंच।।
1 प्रस्तुतदिशा सन्निकर्षस्य खंडनंतत्त्वार्थचो. पृ० १६५ । प्रमाणप० पृ. ५२ । न्यायकु. चं० लि. परि० १। स्या. रत्नाकर पृ० ५४ । इत्यादिषु द्रष्टव्यं तुलनीयंच।
2 'इन्द्रियप्रणालिकया बाह्यवस्तूपरागात् सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधानावृत्तिः प्रत्यक्षम्' । योगद० व्यासमा० पृ० २७ ।
'अत्रेयं प्रक्रिया इन्द्रियप्रणालिकया अर्थसन्निकर्षेण लिंगशानादिना वा आदौ बुद्धेः मार्थाकारावृत्तिः जायते' । सांख्यप्र० भा० पृ० ४७ ।
विषयश्चित्तसंयोगाद् बुद्धीन्द्रियप्रणालिकात् । प्रत्यक्षं सांप्रत शानं विशेषस्यावधारकम् ॥ २३ ॥ योंगकारिका ।
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२०
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० दिखभावा तद्धर्मरूपा अर्थान्तरसभावा वा तत्परिणतिर्घटते; प्रतिपादितदोषानुषङ्गात् । न च परपक्षे परिणामः परिणामिनो भिन्नोऽसिन्नो वा घटते इत्यग्रे विचारयिष्यते ॥ छ।
एतेन प्रभाकरोपि 'अर्थतथात्वप्रकाशको ज्ञातृव्यापारोऽज्ञानरू५पोऽपि प्रमाणम्' इति प्रतिपादयन् प्रतिव्यूढः प्रतिपत्तव्यः; सर्वनाज्ञानस्योपचारादेव प्रसिद्धः । न च ज्ञातृव्यापारस्वरूपस्य किञ्चित्प्रमाणं ग्राहकम्-तद्धि प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, अन्यद्वा ? यदि प्रत्यक्षम् ; तत्कि वंसंवेदनम् , वाह्येन्द्रियजम् , मनःप्रभवं
वा? न तावत्स्वसंवेदनम् । तस्याज्ञीने विरोधादनभ्युपगमाच्च । १० नापि बाह्येन्द्रियजम् । इन्द्रियाणां स्वसम्वद्धेऽर्थे ज्ञानजनकत्वोप
गमात् । ल च ज्ञातव्यापारेण सह तेषां सम्बन्धः; प्रतिनियतरूपादिविषयत्वात् । नापि मनोजन्यम् । तथाप्रतीत्यभावादनभ्युपंगमादतिप्रसङ्गाच्च । नाप्यनुमानम् ।।
"तसम्वन्धस्यैकदेशदर्शनादसैनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिः" [शावर१५भा० ११५] इत्येवंलक्षणत्वात्तस्य । सम्बन्धश्च कार्यकारण
भावादिनिराकरणेन नियमलक्षणोऽभ्युपगम्यते । तदुक्तम्
१ साङ्य । २ इन्द्रियस्य । ३ इन्द्रियवृत्तिः प्रमाणमित्येतन्निराकरणेन। ४ चेतनासमवायाच्चेतन आत्मा न स्वरूपतोऽतस्तद्यापारोऽपि (अज्ञानरूपः)। ५ (निराकृतः)। ६ मते । ७ स्यात् । ८ अर्थापत्तिरूपम् । ९ अनुभूतिः प्रत्यक्षमिदमाश्रित्य । १० ज्ञातृव्यापारे अप्रवृत्तिः। ११ प्राभाकरैः। १२ शातृव्यापारस्याऽत्यन्तं परोक्षत्वाच्च। १३ अत्यन्तपरोक्षतया शातृव्यापारग्राहकत्वप्रकारेण मनोजन्यप्रत्यक्षस्य । १४ परैः । १५ धर्मादेरप्यतीन्द्रियस्य मनःप्रत्यक्षत्वं स्यात् परमाण्वादेरपि ग्राहकत्वं मनसः स्यात्। १६ नुः। १७ इन्द्रियैः। १८ तादात्म्यादि। १९ अविनाभाव । २० परेण । ___1 इन्द्रियवृत्ति-प्रमाणवादस्य खंडनं विविधरीत्या निम्नग्रंथेषु अवलोकनीयम् न्यायवा० ता० टी० पृ० २३३ । न्यायमं० पृ० २६ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १८७ । न्यायकु० चं० लि. परि० १। स्या० रत्नाकर पृ० ७२ । 2 'तेन जन्मैव विषये बुद्धेापार इष्यते ।
तदेव च प्रमारूपं तद्वती करणं च धीः ॥ ६१॥ व्यापारो न यदा तेषां तदा नोत्पद्यते फलम् ॥६१॥ मीमां० लो० पृ० १५२ । 'अथवा शानक्रियाद्वारको यः कर्तभूतस्य आत्मनः कर्मभूतस्य च अर्धस्य परस्परं सम्बन्धो व्याप्तव्याप्यत्वलक्षणः स मानसप्रत्यक्षावगतो विशानं कल्पयति' शास्त्रदी० पृ० २०२।
3 'शातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनात् एकदेशान्तरेऽसन्निकृष्टे बुद्धिः' शाबर भा० पृ० ८ ।
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सू० ११.]. ज्ञातृव्यापारविचारः
कार्यकारणभावादिसम्वन्धानां द्वयी गतिः। नियमानियमाभ्यां स्यादनियमादनङ्गता ॥१॥ सर्वेऽप्यनियमा ह्येते नानुमोत्पत्तिकारणम् । नियमात्केवलादेव न किञ्चिन्नानुमीयते ॥२॥ एवं परोक्तसम्बन्धप्रत्याख्याने कृते सति ।
नियमो नाम सम्बन्धः स्वमतेनोच्यतेऽधुनः ॥ ३॥[ ] इत्यादि।
सं च सम्बन्धः किमन्वयनिश्चयद्वारेण प्रतीयते, व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण वा ? प्रथमपक्षे किं प्रत्यक्षेण, अनुमानेन वा तन्निश्चयः ? न तावत्प्रत्यक्षेण; उभयरूपग्रहणे ह्यन्वयनिश्चयः, न च १० ज्ञातृव्यापारस्वरूपं प्रत्यक्षेण निश्चीयते इत्युक्तम् । तदभावे च-न तत्प्रतिवद्धत्वेनार्थप्रकाशनलक्षणहेतुरूपमिति । नाप्यनुमानेन अस्य निश्चितान्वयहेतुप्रभवत्वाभ्युपगमात् । न च तस्यान्वयनिश्चयः प्रत्यक्षसमधिगम्यः पूर्वोक्तदोषानुषङ्गात् । नाप्यनुमानगम्यः; तदनन्तरप्रथमानुमानाभ्यां तनिश्चयेऽनवस्थेतरेतराश्रया-१५ नुषङ्गात् । नापि व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण; व्यतिरेको हि साध्याभावे हेतोरभावः। न च प्रकृतसाध्याभावः प्रत्यक्षाधिगम्यः, तस्य ज्ञातव्यापाराविषयत्वेन तद्भाववत्तभावेऽपि प्रवृत्तिविरोधात् । समर्थितं चास्य तद्विषयत्वं प्रागिति । नाप्यनुमानाधिगम्यः, अत एव ।
२० अथानुपलम्भनिश्चयः अत्रापि किं दृश्यानुपलम्भोऽभिप्रेतः, अदृश्यानुपलम्भो वा ? यद्यदृश्यानुफैलम्भः; नासौ गमकोऽतिप्रेसङ्गात् । दृश्यानुपलम्भोऽपि चतुर्दा भिद्यते स्वभाव-कारण-व्यापकानुपलम्भविरुद्धोपलम्भमेदात् । तत्र न तावदाद्योयुक्तः स्वभा.
१ एवं सति च किम् । २ गोपालघटिकादौ व्यभिचारात् । ३ अनुमानं प्रति । ४ सौगतायुक्त। ५ प्रभाकरमतेन। ६ साध्यसाधनयोरविनामावलक्षणः । ७ शातृव्यापारे सति अर्धप्रकाशलक्षणो हेतुर्न घटते। ८ साध्यसाधनरूप। ९ पूर्वम् । १० ज्ञातृव्यापारस्य । ११ सम्बद्ध । १२ अर्थप्रकाशो ज्ञातृव्यापारहेतुकस्तस्मिन् सत्येवोपजायमानत्वादित्यनुमानेन। १३ हेतोः । १४ द्वितीयानुमान । १५ अर्थप्रकाशान्यथानुपपत्तिज्ञातुर्व्यापारयो(?)रन्वयः तस्मिन्ननुमानं । तत्स्वयमेव जानाति अनुमानान्तरेण वा। प्रथमस्येतरेतराश्रयः । द्वितीयेऽनवस्था । १६ शातृव्यापारलक्षण। १७ यद्धि यद्भावग्राहकं तदेव तद्भावग्राहकमिति । १८ तद्भाववत्तदभावेऽपि प्रवृत्तिविरोधात् । १९ व्यतिरेकः शातृव्यापार आत्मनि नास्ति अनुपलभ्यमानत्वात् खर. शृङ्गवदित्यनुपलम्भस्वरूपम्। २० पदार्थानां । २१ पिशाचपरमाण्वादेरपि गमकत्वं स्यात् । २२ शुद्धभूतलोपलम्भ एव स्वभावानुपलम्भः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डै [प्रथमपरि० वानुपलम्भस्यैवंविध विषये व्यापाराभावात् , एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपेलम्मरूपत्वात्तस्य । न च ज्ञातृव्यापारेण सह कस्यचिदेकज्ञानसंसर्गित्वं सम्भवतीति । नापि द्वितीयः, सिद्धेहि कार्यकारणभावे कारणानुपलम्भः कार्याभावनिश्चायकः । न चा ज्ञातृ५व्यापारस्य केनचित् सह कार्यत्वं निश्चितम् । तस्यादृश्यत्वात् ।
प्रत्यक्षानुपलम्भनिबन्धनश्च कार्यकारणभावः। तत एव केनचित्सह व्याप्यव्यापकभावस्यासिद्धर्न व्यापकानुपलम्भोऽपि तनिश्चायकः। विरुद्धोपलम्भोपि द्विधा भिद्यते विरोधस्य द्विविधत्वात् ; तथा
हि-को(एको) विरोधोऽविकलकारणस्य भैवतोऽन्यभावेऽभावा१०त्सहानवस्थालक्षणः शीतोष्णयोरिव, विशिष्टात्प्रत्यक्षान्निश्चीयते ।
न च प्रकृतं साध्यमविकलकारणं कस्यचिद्भावे निवर्तमानमुपलभ्यते तस्यादृश्यत्वात् । द्वितीयस्तु परस्परपरिहारस्थितिलक्षणः। सोप्युपलभ्यखभावभावनिष्ठत्वात्प्रकृतविषये न सम्भवति ।
किञ्चानुपलम्भोऽभावप्रमाणंप्रमाणपञ्चकविनिवृत्तिरूपम् । तच्च १५ज्ञातमेवाभावसाधकम् ; कृतयत्नस्यैव प्रमाणपञ्चकविनिवृत्तेरभावसाधकत्वोपगमात् । तदुक्तम्
गत्वा गत्वा तु तान्देशान् यद्यर्थो नोपलभ्यते। तेदान्यकारणाभीवादसनित्यवगम्यते ॥
[मीमांसाश्लो० वा० अर्था० श्लो० ३८] २० तज्ज्ञानं चान्यस्मादभावप्रमाणात् , प्रमेयाभावाद्वा? तत्राद्यपक्षेऽनवस्थाप्रसङ्गः-तस्याप्यन्यस्माद्भावप्रमाणात्परिज्ञानात्। प्रमेयाभावात्तज्ज्ञाने च-इतरेतराश्रयत्वम् ।
१ अत्यन्तपरोक्षे । २ घटेन सह प्रतिषेध्याधारभूतभूतलम् । ३ यदि भूतलाधारतयापि विद्येत तदा प्रत्यक्षेणैव लभ्येत । ४ आत्मनः। ५ ज्ञातृव्यापारलक्षण । ६ कारणेन । ७ अन्वयः व्यतिरेकः (प्रत्यक्षेणान्वयव्यतिरेकनिबन्धनः)। ८ शात. व्यापारस्यादृश्यत्वादेव। ९ आत्मादिन्यापारस्य । १० शातृव्यापाराभाव । ११ ता । १२ शीतकालादेः। १३ जायमानस्य । १४ वह्नि। १५ ज्ञातृव्यापाररूपं। १६ विरोधिनः। १७ शातुर्व्यापारस्य । १८ विरोधः । १९ जेय। २० अर्थानुपलम्भकाले। २१ इन्द्रियाभावस्यालोकाभावस्य च कारणस्य । २२ आद्यप्रमाणपञ्चकाभावस्य प्रथमप्रमाणपञ्चकविषयप्रमाणपञ्चकाभावात् परिशानं तस्यापि प्रमाणात् ............" ........... द्वितीयस्याद्वितीयप्रमाणपञ्चकविषयप्रमाणपञ्चकाभावात् परिशानं तस्याप्येवमित्यादि प्रकारेण । २३ सिद्धे हि प्रमेयाभावे अभावप्रमाणपरिशानं सिध्यति तत्सिद्धझै च प्रमेयाभावसिद्धिरिति ।
1 तु०-अविकलकारणस्य भवतः "इत्यादि-न्यायवि० पृ० ९६ ।
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सू० ११] ज्ञातृव्यापारविचारः
किचासौ ज्ञातृव्यापारः कारकैर्जन्यः, अजन्यो वा? यद्यजन्यः तदासावभावरूपः, भावरूपो वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, तस्याभावरूपत्वेऽर्थप्रकाशनलक्षणफलजनकत्वविरोधात् । विरोधे वा फलार्थिनः कारकान्वेषणं व्यर्थम् , तत ऍवाभिमतफलसिद्धेर्विश्वमदरिदं च स्यात् । अथ भावरूपोऽसौः तत्रापि किं नित्यः, अनित्यो वा?५ न तावन्नित्यः; अन्धादीनामप्यर्थदर्शनप्रसङ्गात् सुप्तादिव्यवहाराभावः सर्वसर्वज्ञताप्रसङ्गः कारकान्वेषणवैयर्थ्य च स्यात् । अथाहनित्यः; तद्युक्तम् ; अजन्यस्वभावभावस्यानित्यत्वेन केनचिदंप्यनभ्युपगमात् । भवतु वाऽनित्यः; तथाप्यसौ कालान्तरस्थायी, क्षणिको वा ? न तावत्कालान्तरस्थायी
"क्षणिका हि सा न कालान्तरमवतिष्ठते" [शावरभा०] इति वचसो विरोधप्रसङ्गात् । कारकान्वेषणं चापार्थकम्-तत्कालं यावत्तत्फलस्यापि निष्पत्तेः। क्षणिकत्वे, विश्वं निखिलार्थप्रतिभासरहितं स्यात् क्षणानन्तरं तस्यासत्त्वेनार्थप्रतिभासाभावात् । द्वितीयादिक्षणेषु खत एवात्मनो व्यापारान्तरोत्पत्तेर्नायं दोषः,१५ इत्यप्यसङ्गतम् ; कारकानायत्तस्य देशकालखरूपप्रतिनियमायोगात् । किञ्च; अनवरतव्यापाराभ्युपगमे तजन्यार्थप्रतिभासस्यापि तथा वात् तवस्थः सुप्ताद्यभावदोषानुषङ्गः। तन्नाऽजन्योऽसौ।
नापि जन्यः, यतोऽसौ क्रियात्मकः, अक्रियात्मको वा ? प्रथमपक्षे किं क्रिया परिस्पन्दात्मिका, तद्विपरीता वा ? तत्राद्यः पक्षो-२० ऽयुक्तः, निश्चलस्यात्मनःपरिस्पन्दात्मकक्रियाया अयोगात्। नापि द्वितीयः; तथाविधक्रियायाः परिस्पन्दाभावरूपतया फलजनकत्वायोगात्, अभावस्य फलजनकत्वविरोधात् । न चासौ परिस्पन्दस्वभावा तद्विपरीता वा-कारकफैलान्तरालवर्तिनी प्रमाणतः प्रतीयते । तन्न क्रियात्मको व्यापारः। नापि तद्विपरीतः; अक्रियात्मको २५ हि व्यापारो वोधरूपः, अवोधरूपो वा? बोधरूपत्वे प्रमातृवत्प्रमा
१ खरविषाणादौ। २ आकाशादौ । ३ किञ्च । ४ अभावरूपन्यापारादेव । ५ जगत् । ६ सहकारिकारणैनित्यस्यानुपकार्यत्वात् । ७ प्रागभावाद् व्यभिचारमाशय भावशब्दः प्रयुक्तः । ८ पदार्थस्य । ९ वादिना नरेण । १० ज्ञातृव्यापाररूपा क्रिया। ११ शातृव्यापार । १२ परः। १३ पुरुषस्य । १४ ज्ञातृव्यापारस्य । १५ परैः । १६ सर्वदाभावात् । १७ किञ्च । १८ प्रमाता । १९ अर्थप्रकाश । २० ज्ञात. व्यापारलक्षणा।
1 'क्षणिका हि सा न बुद्धयन्तरकालमवस्थास्यते' शाबरमा० पृ. ७।
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२४
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० णान्तरगम्यता न स्यात् । अवोधरूपता तु व्यापारस्यायुक्ता; चिद्रूपस्य ज्ञातुरचिद्रूपव्यापारायोगात् । 'जानाति' इति च क्रिया झातृव्यापारो भवताभिधीयते, स च बोधात्मक एव युक्तः।
किञ्चासौ धर्मिस्वभावः, धर्मस्वभावो वा ? प्रथमपक्षे-ज्ञातृवन्न ५प्रमाणान्तरगम्यता । द्वितीयेपि पक्षे-धर्मिणो ज्ञातुर्व्यतिरिक्तो व्यापारः, अव्यतिरिक्तो वा, उभयम् , अनुभयं वा ? व्यतिरिक्तत्वेसम्वन्धाभावः । अव्यतिरेके-ज्ञातैवं तत्स्वरूपवत् । उभयपक्षे तुविरोधः। अनुभयपक्षोऽप्ययुक्तः; अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणां सकृत्
प्रतिषेधायोगात् एकनिषेधेनापरविधानात्। १० किञ्च, व्यापारस्य कारकजन्यत्वोपर्गमे तजनने प्रवर्तमानानि
कारकाणि किमपरव्यापारसापेक्षाणि, न वा ? तत्राद्यपक्षे अनवस्था; व्यापारान्तरस्याप्यपरव्यापारान्तरसापेक्षैस्तैर्जननात् । व्यापारनिरपेक्षाणां तजनकत्वे-फलजनकत्वमेवास्तु किमदृष्टव्यापारकल्पनाप्रयासेन ? अस्तु वा व्यापारः; तथाप्यसौ प्रकृतकार्ये १५ व्यापारान्तरसापेक्षः, निरपेक्षो वा ? न तावत्सापेक्षः, अपरापरव्यापारान्तरापेक्षायामेवोपंक्षीणशक्तिकत्वेन प्रकृतकार्यजनकत्वाभावप्रसङ्गात् । व्यापारान्तरनिरपेक्षस्य तजनकत्वे कारकाणामपि तथा तदस्तु विशेषाभावात् । अथैवं पर्यनुयोगः सर्वभौवस्वभावव्यावर्तकः; तथाहि-वह्वेर्दाहकवभावत्वे गगनस्यापि तत्स्यात् इत२०रथा वढेरपि न स्यात्, तदसमीक्षिताभिधानम् ; प्रत्यक्षसिद्धत्वेमात्र पर्यनुयोगस्यानवकाशात् , व्यापारस्य तु प्रत्यक्षसिद्धत्वाभावान्न तथास्वभावावलम्बनं युक्तम्।
अर्थप्राकट्यं व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानं तं कल्पयतीत्यर्थापपत्तितस्तत्सिद्धिरित्यपि फल्गुप्रायम् ; अर्थप्राकट्यं हि ततो भिन्नम्, २५ अभिन्नं वा ? यद्यभिन्नम् । तदाऽर्थ एवेति यावदर्थ तत्सद्भावात्सुप्ताभावः। भेदे-सम्वन्धासिद्धिरनुपकारात् । उपकारेऽनवस्था। किञ्च, एतदन्यथानुपपद्यमानत्वेनानिश्चितं तं कल्पयति,
१ ज्ञातृव्यापारोस्ति अर्थप्राकट्यान्यथानुपपत्तरित्यर्थापत्तिरूप । २ अक्रियात्मकत्वात् । ३ अभिन्नत्वात् । ४ धर्मरूपत्वात् । ५ वस्तुधर्माणां । ६ परैः । ७ कारकाणां । ८ अर्थप्रकाश । ९ अर्थप्रकाशलक्षणे । १० नष्ट । ११ निरपेक्षत्वप्रकारेण । १२ प्रश्नः। १३ पदार्थ । १४ व्यापारान्तरनिरपेक्षत्वप्रकारेण कार्यजनकत्वलक्षण । १६ अन्यद्वा इत्यमुं तृतीयं विकल्पं शोधयति । १६ अर्थप्राकट्यस्य सर्वदा भावात् । १७ उपकार स्याप्युपकारकरणे सम्बन्धो न स्यादित्युपकारकल्पने। १८ शातृव्यापारमन्तरेण । १९ अर्थप्राकट्यं । २० व्यापारं।
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सू० ११२] ज्ञातृव्यापारविचारः
२५ निश्चितं वा? न तावदनिश्चितम् ; अतिप्रसङ्गात्-तथाभूतं हि तद्यथा तं कल्पयति तथा येन विनाप्युपपद्यते तदपि किं न कल्पयत्यविशेषात् ? निश्चितं चेत् ; क तस्यान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयःदृष्टान्ते, साध्यधर्मिणि वा ? दृष्टान्त चेत् लिङ्गस्यापि तत्र साध्यनियतत्वनिश्चयोऽस्तीत्यनुमानमेवार्थापत्तिरिति प्रमाणसंख्याव्या-५ घातः । साध्यधर्मिण्यपि कुतः प्रमाणात्तस्य तन्निश्चयः ? विपक्षेऽनुपलम्भाञ्चेत्, न; तस्य सर्वात्मसम्बन्धिनोऽसिद्धानकान्तिकत्वादित्युक्तम् । ततः प्रमाणतोऽचेतनस्वभावज्ञातृव्यापारस्थाप्रतीतेः कथमर्थतथात्वप्रकाशकोऽसौ यतः प्रमाणं स्यात् ॥ छ ।
ज्ञानस्वभावस्य ज्ञातृव्यापारस्यार्थतथात्वप्रकाशकतया प्रमाण-१० ताभ्युपगमान्न भट्टस्यानन्तरोक्ताशेपदोषानुषङ्गः, इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; सर्वथा परोक्षज्ञानखभावस्यास्यासत्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । सकलज्ञानानां स्वपरव्यवसायात्मकत्वेन व्यवस्थितेः इत्यलं प्रपञ्चेन । 'तन्नाज्ञानं प्रमाणमन्यत्रोपचारात्' इत्यभिप्रायवान् प्रमाणस्य ज्ञानविशेषणत्वं समर्थयमानः प्राह- १५ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।।२।।
हितं सुखं तत्साधनं च, तद्विपरीतमहितम् , तयोः प्राप्तिपरिहारौ । प्राप्तिः खलूपादेयभूतार्थक्रियाप्रसाधकीर्थप्रदर्शकत्वम् । अर्थक्रियार्थी हि पुरुषस्तन्निष्पादनसमर्थ प्राप्तुकामस्तत्प्रदर्शकमेव प्रमाणमन्वेषत इत्यस्य प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् । न हि तेन प्रद-२० र्शितेऽर्थे प्रात्यभावः। न च क्षणिकस्य ज्ञानस्यार्थप्राप्तिकालं यावदवस्थानाभावात्कथं प्रापकतेति वाच्यम् ? प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण तस्यास्तत्रासम्भवात् । न चान्यस्य ज्ञानान्तरस्यार्थप्राप्तौ सैनिकष्टत्वात्तदेव प्रापकमित्याशङ्कनीयम्; यतो यद्यप्यनेकस्माज्ज्ञानक्षणात्वृत्तावर्थप्राप्तिस्तथापि पर्यालोच्यमानमर्थप्रदर्शकत्वमेव २५
१ कथं तथाहि । २ स्तम्भाद्यभावेन। ३ ज्ञातृव्यापारेण सह । ४ अर्थप्राकट्यस्य । ५ अविनाभाव। ६ शातृव्यापाराभावे स्तम्भादौ प्राकट्यस्य । ७ परः । ८ ज्ञातृव्यापारस्य निराकरणेन । ९ स्लानपानादि । १० जलादि । ११ जलादिकं । १२ प्राप्तिनिबन्धनत्वं । १३ बौद्धो वदति । १४ स्थिति । १५ परेण । १६ अर्थशाने। १७ समीपत्वात् । १८ पुरुषस्य ।
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1 शाबराभिमतज्ञातृव्यापररूपप्रमाणस्य समीक्षा निम्नग्रंथेषु समवलोक्य तुलनीया न्यायमं० पृ० १६ । न्यायकु० चं० लि. परि० १ । सन्मति० टी० पृ० २० । 2 तु०-'प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव' न्यायबि० टी० पृ० ५ ।
प्र० क० मा० ३
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० ज्ञानस्य प्रापकत्वम्-लान्यत् । तच्च प्रथमत एव ज्ञानक्षणे संम्पन्नमिति नोत्तरोत्तरज्ञानानां तदुपयोगि( त्वम्), तद्विशेषांशंप्रदर्शकत्वेन तु तत् तेषामुपपन्नमेव । प्रवृत्तिमूला तूपादेयार्थप्राप्तिन प्रमाणाधीना-तस्याःपुरुषेच्छाधीनप्रवृत्तिप्रभवत्वात् । न च प्रव. ५त्यभावे प्रमाणस्यार्थप्रदर्शकत्वलक्षणव्यापारामावो वाच्यः, प्रेतीतिविरोधात् । न खलु चन्द्रार्कादिविषयं प्रत्यक्षमप्रवर्तकत्वान्न तत्पदर्शकमिति लोके प्रतीतिः । कथं चैवंवादिनः सुगतज्ञानं प्रमाणं स्यात् ? न हि हेयोपादेयतत्त्वज्ञानं कचित् तस्य प्रवर्तकं कृतार्थ
त्वात् , अन्यथा कृतार्थता न स्यादितरजनवत् । सुखादिस्वसंवेदनं २०वा; न हि कंचित्तत्पुरुपं प्रवर्तयति फलात्मकत्वात् , अन्यथा प्र. त्यनवस्था । व्याप्तिज्ञानं वा न खलु खेविषयेऽर्थिन तत्प्रवर्त्तयति अनुमानवैफल्यप्रसङ्गात् । ततः प्रवृत्त्यभावेपि प्रवृत्तिवियोपदशकत्वेन ज्ञानस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् ।
नेनु प्रवृत्तेविषयो भावी, वर्तमानो वैर्थिः ? भावी चेत् ; नासौ १५प्रत्यक्षेण प्रवर्तयितुं शक्यस्तत्र तस्याप्रवृत्तेः।वर्तमानश्चेत्न; अर्थिनोऽत्राऽप्रवृत्तेः, न हि कश्चिदनुभूयमान एव प्रवर्ततेऽनैवस्थापत्तेः; इत्यसाम्प्रतम् अर्थक्रियासमर्थार्थस्य अर्थक्रियायाश्च प्रवृत्तिविषयत्वात्। तत्रार्थक्रियासमर्थार्थोऽध्यक्षेण प्रदर्शयितुं शक्यः। न ह्यर्थक्रियावत्सोप्यनाँगतः। न चास्याध्यक्षत्वे |वृत्त्यभावप्रसङ्गः; अर्थ२० क्रियार्थत्वात्तस्याः। कार्यादृष्टौ कथम् एतत्तत्रं समर्थम्' इत्येवगमो यतःप्रवृत्तिः स्यादिति चेत् ; आस्तां तावदेतत्-कार्यकारणभाव
१ जातं । २ प्रदर्शकत्वम् । ३ फलवत् । ४ अर्थ । ५ भेद । ६ प्रदर्शकत्वं । ७ जलादि । ८ कारणका। ९ प्रवर्तकत्वाभावे । १० नुः। ११ मा। १२ यन्न प्रवर्तकं तन्न प्रमाणमित्येवंवादिनः। १३ विषये । १४ कृतार्थकमपि प्रवर्तयति चेत् । १५ सुगतो न सर्वशो ज्ञानेन प्रवर्त्यमानत्वाद्गोपवत् । विपक्षे गोपस्य सर्वशत्वं तत एव सुगतवत् । १६ कृतार्थकमपि प्रवर्तयतीति चेत् । १७ कथं प्रमाणम् ( अपि तु न स्यात् अस्ति च प्रमाणं प्रदर्शकत्वात् ) । १८ अर्थे । १९ प्रवृत्तः फलहेतुत्वात्तत्रापि फलेन भाव्यम् । २० अनुपरमा। २१ कथं प्रमाणम् । २२ अखिलसाध्यसाधनलक्षणे। २३ पुरुषं । २४ यतः प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वं शानस्य । २५ सद्भावे । २६ अर्थ। २७ प्रकाशकत्वेन । २८ परेण । २९ परः। ३० द्वयोर्मध्ये । ३१ विषये। ३२ अन्यथा। ३३ अर्थप्राप्त्यर्थं हि प्रवृत्तिः सा प्रत्यक्षा जातेति । ३४ प्रवृत्तेः फलहेतुत्वात्तत्रापि फलेन भाव्यम् । ३५ तयोर्द्वयोर्मध्ये। ३६ जलादिः। ३७ अप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गादर्थस्य । ३८ अर्थप्राप्त्यर्थ हि प्रवृत्तिः सा प्रत्यक्षं जायते इति । ३९ परः । लानादि । ४० जलं । ४१ अर्थक्रियायां। ४२ निश्चयः ।
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सू० ११३] प्रमाणस्य प्राप्तिपरिहारविचारः २७ विचारप्रस्तावे विस्तरेणाभिधानात् । प्रेतीयते च 'इदैमभिमतार्थक्रियाकारि न त्विदम्' इत्यर्थमात्रप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिः पशूनामपि । तस्मादर्थक्रियासमर्थार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रमाणस्य हितप्रापणम् । अहितपरिहारोपि 'अनभिप्रेतप्रयोजनप्रसाधनमेतत्' इत्युपदर्शनमेव । तयोः समर्थमव्यवधानेनार्थतथाभावप्रकाशकं हि यस्मा-५ त्प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । न चाज्ञानस्यैवंविधं तत्प्राप्तिपरिहारयोः सामर्थ्य ज्ञानकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात् ।
ननु साधूक्तं प्रमाणस्याज्ञानरूपतापनोदार्थ ज्ञानाविशेषणमलाकमपीष्टत्वात् , तद्धि समर्थयमानैः साहाय्यमनुष्ठितम् । तत्तु किञ्चिनिर्विकल्पकं किञ्चित्सविकल्पक मिति मैन्यमानंप्रति अशेष-१० स्यापि प्रमाणस्याविशेषेण विकल्पात्मकत्वविधानार्थ व्यवसायात्मकत्वविशेषणसमर्थनपर तन्निश्चयात्मकमित्याद्याह । यत्प्राक्प्रेबन्धेन समर्थितं ज्ञानरूपं प्रमाणम्
तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ संशयविपर्यासानध्यवसायात्मको हि समारोपः, तद्विरुद्धत्वं १५ वस्तुतथाभावग्राहकत्वं निश्चयात्मकत्वेनानुमाने व्याप्तं सुप्रसिद्धम् अन्यत्रापि ज्ञाने तद् दृश्यमानं निश्चयात्मकत्वं निश्चाययति, समारोपविरोधिग्रहणस्य निश्चयखरूपत्वात् । प्रमाणत्वाद्धा तत्तदात्मकमनुमानवदेव । परनिरपेक्षतया वस्तुतथाभावप्रकाशकं हि प्रमाणम् , न चाविकल्पकम् तथा-नीलादौ विकल्पस्य क्षणक्ष-२० येऽनुमा स्यापेक्षणात् । ततोऽप्रमाणं तत् वस्तुव्यवस्थायामपेक्षितपरव्यापारत्वात् सन्निकर्षादिवत् । नँचेदमर्नुभूयते-अक्षव्यापारानन्तरं स्वार्थव्यवसायात्मनो नीलादिविकल्पस्यैव वैशये. नानुभवात् ।
१ किंच । २ वस्तु । ३ पाषाणादिकम् । ४ अहिकण्टकादि । ५ हिताहितप्राप्तिपरिहारयोः। ६ अव्यवधानेनार्थतथात्वप्रदर्शकत्वलक्षणम्। ७ हिताहित । ८ अन्यथा। ९ बौद्धानां । १० जैनैः। ११ कृतम् । १२ शानं। १३ बौद्धं । १४ प्रधानं । १५ स्वापूर्वेत्यादि । १६ व्यापकेन। १७ प्रत्यक्षे। १८ शानस्य । १९ सम्यग्ज्ञानत्वादविसंवादित्वान्निश्चयहेतुत्वात् । २० शानविशेषणविशिष्टं प्रमाणं । २१ प्रमाणत्वं च स्यान्निश्चयात्मकत्वं च न स्यादिति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह । परं सविकल्पकं झानम्। २२ दर्शनं सौगताभिमतम् । २३ नीलमीदं पीतमीदम् । २४ सर्व क्षणिक सत्त्वात् इत्यस्य । २५ शानापेक्ष। २६ किञ्च । २७ निर्विकल्पकम् । २८ प्रत्यक्षसिद्धं न भवतीत्यर्थः। २९ नयनोन्मीलनानन्तरम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० नच विकल्पाविकल्पयोर्युगपट्टत्तेर्लधुवृत्तेर्वा एकत्वाध्यवसायाद्रिकल्पे वैशद्यप्रतीतिः; तद्यतिरेकेणापरस्याप्रतीतेः । भेदेन प्रतीतो ह्यन्यत्रान्यस्यारोपो युक्तो मित्रे चैत्रवत् । न चाऽस्पष्टाभो विकल्पो निर्विकल्पकं च स्पष्टाभं प्रत्यक्षतः प्रतीतम् । तथाप्यनु५भूयमानस्वरूपं वैशा परित्यज्याननुभूय॑मानस्वरूपं वै(पमवैशा) परिकल्पयन् कथं परीक्षको नाम ? अनवस्थाप्रसङ्गात्-ततोप्यपरखरूपं तदिति परिकल्पनप्रसङ्गात् । युगपट्टत्तेश्चाभेदाध्यवसाये दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपञ्चकस्यापि सहोत्पत्तेरभे
दाध्यवसायः किन्न स्यात् ? भिन्नविषयत्वात्तेपां तदभावे-अत १० एव स प्रकृतयोरपि न स्यात् क्षणसन्तीनविषयत्वेनानयोरप्यस्याविशेषात् । लघुवृत्तेश्चाऽभेदाध्यवसाये-खररटितमित्यादावप्यभेदाध्यवसायप्रसङ्गः । कथं चैवं कॉपिलानां बुद्धिचैतन्ययोमेंदोऽनुपलभ्यमानोपि न स्यात् ?
अथानेयोः सादृश्यानेदेनानुपलम्भः, अभिभवाद्वाभिधीयते? १५ ननु किंकृतमनयोः सादृश्यम्-विषयाभेदेकृतम्, ज्ञानरूपताकृतं
१८ १९
१ क्रमसत्त्वेऽपि । २ अविकल्पविकल्पयोः स्पष्टाऽस्पष्टत्वेन भेदेन प्रत्यक्षतः प्रतीत्यभावे। ३ विकल्पे । ४ अवैशद्यम् । ५ सौगतः। ६ अवैशद्यधर्मात् । ७ पीतम् । ८ सविकल्पकम् । ९ परः । १० अविकल्पकविकल्पयोः । ११ सामान्य । १२ अविकल्पविकल्पयोः। १३ भिन्नविषयत्वस्य । १४ किंच। १५ विकल्पाविकल्पयोरनुपलभ्यमानभेदसम्भवप्रकारेण । १६ साङ्ख्यानाम् । १७ अप्रतीयमानः। १८ अनुपलभ्यमानत्वान्न सिध्येत् । १९ अभ्युपगममात्रस्य तत्रापि सद्भावात्। २० परः। २१ विकल्पेतरयोः। २२ पृथक्त्वाध्यवसायस्य । २३ पराभवात् । २४ परेण । २५ भा (तृतीया)।
1 'मनसोर्युगपद्वृत्तेः सविकल्पाऽकल्पयोः।। विमूढः सम्प्रवृत्तेर्वा ( लघुवृत्तेर्वा ) तयोरैक्यं व्यवस्यति' ॥
प्रमाणवा० ३ । १३३ 2 'विकल्पज्ञानं हि संकेतकालदृष्टत्वेन वस्तुगृह्णत् शब्दसंसर्गयोग्यं गृह्णीयात् । संकेतकालदृष्टत्वं च संकेतकालोत्पन्नज्ञानविषयत्वम् । यथाच पूर्वोत्पन्नं विनष्टं शानं संप्रत्यसत् तद्वत् पूर्वविनष्टज्ञानविषयत्वमपि संप्रति नास्ति वस्तुनः । तदसद्रूपं वस्तुनो गृह्णदसन्निहितार्थनाहित्वादस्फुटाभम् अस्फुटाभत्वादेव च सविकल्पकम् । ततः स्फुटाभत्वात् निर्विकल्पका...'
न्यायवि० टी० पृ० २१ 3 तुलना-'अथ विकल्पाविकल्पयोः सादृश्यादभिभवाद्वा...'
स्था० रत्नाकर पृ० ७९
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सू० ११३] बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् २९ वा? न तावद्विषयाभेदकृतम्:सन्तानेतरविषयत्वेनानयोर्विषयामेदाऽसिद्धेः ज्ञानरूपतासादृश्येन त्वमेदाध्यवसाये-नीलपीतादिज्ञानानामपि भेदेनोपलम्भो न स्यात् । अथाभिभवात् ; केन कस्याभिभवः ? विकल्पेनाविकल्पस्य भानुना तारानिकरस्येवेति चेत् ; विकल्पस्याप्यविकल्पेनाभिभवः कुतो न भवति ? बलीयस्त्वा-५ दस्येति चेत्, कुतोस्य वलीयस्त्वम्-बहुविषयात्, निश्चयात्मकत्वाद्वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, निर्विकल्पविषय एव तत्प्रवृत्यभ्युपगमात् , अन्यथा अगृहीतार्थग्राहित्वेन प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गः। द्वितीयपक्षेपि वरूपे निश्चयात्मकत्वं तस्य, अर्थरूपे वा ? न तावत्स्वरूपे
"सर्वचित्तवेत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्" न्यायबि० पृ० १९] इत्यस्य विरोधात् । नाप्यर्थ-विकल्पस्यैकस्य निश्चैयानिश्चयस्वभावद्वयप्रसंगात् । तच्च परस्परं तद्वतश्चैकान्ततोभिन्नं चेत्; समवायाद्यनभ्युपंगमात् सम्वन्धासिद्धेः 'वलवान्विकल्पो निश्चयात्मकत्वात्' इत्यस्यासिद्धेः । अभेदैकान्तेपि-तद्वयं तद्वानेव वा भवेत् ।१५ कथंचित्तादात्म्ये-निश्चयानिश्चयस्वरूपसाधारणमात्मानं प्रतिपद्यते चेद्विकल्पः-स्वरूपेपि सविकल्पकः स्यात्, अन्यथा निश्चयस्वरूपतादात्म्यविरोधः। न च स्वरूपमनिश्चिन्वन्विकल्पोऽर्थनिश्चीयकः, अन्यथाऽगृहीतस्वरूपमपि ज्ञानमर्थग्राहकं भवेत् तथाच"अप्रत्यक्षोपलम्भस्य" [ ] इत्यादिविरोधः, तत्स्वरूप-२०
१ क्षण। २ पुनः । ३ क्षण। ४ तिरस्कारः । ५ परैः। ६ निर्विकल्पकबोध । ७ सविकल्पक्षण। ८ निर्विकल्पकक्षण। ९ नीलमिति स्वसंवेदनेन । १० स्वसंवेदनम्। ११ नीलाद्याकारतया सविकल्पाः क्षणाः। १२ सर्वज्ञानानां स्वरूपे निर्विकल्पकत्वाभ्युपगमस्य ग्रन्थस्य । १३ स्वरूपेऽनिश्चयात्मकत्वमथें निश्चयात्मकत्वम् । १४ ततः स्वरूपनिश्चयाभावात्। १५ विकल्पात् । १६ वरूपम् । १७ परेण । १८ त्रयाणां भेदात्। १९ सौगताभ्युपगतस्य हेतोः। २० स्वरूपम् । २१ विकल्पः। २२ सति । २३ स्वरूपम् । २४ तथा चापसिद्धान्तप्रसङ्गः। २५ भा। २६ विकल्पस्य । २७ किंच। २८ अशात । २९ नाशातं नाम शापकम् । ३० अत्यन्तपरोक्षशानस्य । ३१ नार्थसिद्धिः प्रसिद्धयति ।
1 तुलना-अथ विकल्पस्य बलीयस्त्वाद'...सन्मति० टी० पृ० ५००
स्या० रत्नाकर पृ० ५० 2 'अप्रसिद्धोपलम्भस्य नार्थवित्तिः प्रसिद्धयति । तन्न ग्रामस्य संवित्तिाहकानुभवादृते' ॥ २०७४ ॥ तत्त्वसं०
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प्रमेयकमलमार्तण्डै प्रथमपरि० स्वानुभूतस्याप्यनिश्चितस्य क्षणिकत्यादिवनान्यनिश्चायकत्वम् । विकल्पान्तरेण तनिश्चयेऽनवस्था ।
कश्चानयोरेकत्वाध्यवसायः-किमेकविषयत्वम्, अन्यतरेणान्यतरस्य विषयीकरणं वा, परत्रेतरस्याध्यारोपो वा ? न तावदेक५ विषयत्वम् ;सामान्यविशेषविषयत्वेनानयोभिन्नविषयत्वात्। दृश्यविकल्प(ल्प्य)योरेकत्वाध्यवसायादभिन्नविषयत्वम् इत्यप्ययुक्तम् ; एकत्वाध्यवसायो हि दृश्ये विकल्प्यस्याध्यारोपः। स च गृहीतयोः, अगृहीतयोर्वा तयोर्भवेत् ? न तावगृहीतयोः; भिन्नस्व
रूपतया प्रतिभासमानयोर्घटपटयोरिवैकत्वाध्यवसायायोगात् । १० न चानयोर्ग्रहणं दर्शनेन; अस्य विकल्प्यागोचरत्वात् । नायि विकल्पेन; अस्यापि दृश्यागोचरत्वात्। नापि ज्ञानान्तरेण; अस्यापि निर्विकल्पकत्वे विकल्पात्मकत्वे चोक्तदोषानतिक्रमात् । नाप्यगृहीतयोः स सम्भवति अतिप्रसङ्गात् । सादृश्यनिवन्धनश्वारोपो
दृष्टः, वस्त्ववस्तुनोश्च नीलखरविषाणयोरिव सादृश्याभावान्ना१५ध्यारोपो युक्तः। तन्नैकविषयत्वम् ।
अन्यतरस्यान्यतरेण विषयीकरणमपि-समानकालाविनोरपारतन्यादनुपपन्नम् । अविषयीकृतस्यान्यस्यान्यत्रांध्यारोपोप्यसम्भवी । किञ्च, विकल्पे निर्विकल्पकस्याध्यारोपः, निर्विकल्पके विकल्पस्य वा? प्रथमपक्षे-विकल्पव्यवहारोच्छेदः निखिलज्ञानानां २० निर्विकल्पकत्वप्रसङ्गात् । द्वितीयपक्षेपि-निर्विकल्पकवाभेच्छेदःसकलज्ञानानां सविकल्पकत्वानुषङ्गात् ।
किंच, विकल्पे निर्विकल्पकधर्मारोपाद्वैशद्यव्यवहारवत् निर्विकल्पके विकल्पधर्मारोपादवेशद्यव्यवहारः किन्न स्यात् ? निर्विकल्पकधर्मेणाभिभूतत्वाद्विकल्पधर्मस्य इत्यन्यत्रापि समानम् । भवतु
१ उपलम्भः स्वरूपं जानाति नवा ? न जानाति चेत्कथं सर्व जानातीत्यभिप्रायः। २ नीलंनीलमिति । ३ नीलोयमिति। ४ नैयायिक प्रति बौद्धेनोक्तम् । ५ विकल्पस्वरूपं यथा क्षणिकत्वादिनिश्चायकं न भवति अनिश्चितत्वात्तथाऽर्थस्यापि न निश्चायकं तत एव । ६ अर्थ । ७ निर्विकल्पकसविकल्पकयोः। ८ भा। ९ परमाणु। १० निर्वि. कल्पकसविकल्पकयोः। ११ परः, स्वलक्षण। १२ नीलादि। १३ दृश्यविकल्प्ययोः। १४ सति । १५ खरविषाणयोरप्येकत्वाध्यवसायप्रसङ्गः परमाण्वादावपि स्यादा। १६ लोके। १७ दृश्यविकल्प्ययोः । १८ विकल्पाविकल्पयोः। १९ अविकल्पस्य । २० विकल्पे। २१ इदं निर्विकल्पकमिति । २२ वैशध । २३ विकल्पधर्मस्यावैशयस्य निर्विकल्पके आरोपेन न ( इति चेत् )। २४ विकल्पधर्मेण निर्विकल्पधर्मस्यामिभूतत्वात् विकल्पे निर्विकल्पकधर्मारोपाद्वैशधव्यवहारो माभूत् ।
1 तुलना-किमेकविषयत्वमन्यतरस्य .."स्या० रत्नाकर पृ० ५०
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सू० १॥३] बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् ३१ वातेनैवाभिभवः तथाप्यसौ सहभावमात्रात्, अभिन्नविषयत्वात् , अभिन्नसामग्रीजन्यत्वाद्वा स्यात् ? प्रथमपक्षे गोदर्शनसमयेऽश्वविकल्पस्य स्पष्टप्रतिभासो भवेत्सहावाविशेषात् । अथानयोर्मिनविषयत्वात् न अस्पष्टप्रतिभासाममिभूयाश्वविकल्पे स्पष्टतया प्रतिभासः; तर्हि शब्दस्खलक्षणमध्यक्षेणानुभवता तत्र क्षणक्षयानु-५. मानं स्पष्टमनुभूयतामभिन्न विषयत्वान्नीलादिविकल्पवत् । भिन्नसामग्रीजन्यत्वादनुमानविकल्पस्याध्यक्षेण तद्धर्माभिभवाभावेसकलविकल्पानां विशदावभासिखसंवेदनप्रत्यक्षेणाभिन्नसामग्रीजन्येनाभिभवप्रसङ्गः। अथ तत्राभिन्नसामग्रीजन्यत्वं नेप्यते-तेषां विकल्पवासनाजन्यत्वात् , सवेदनमात्रप्रभवत्वाच्च वसंवेदैनस्य १० इत्यसत् ; नीलादिविकल्पस्याप्यध्यक्षेणाभिभवाभावप्रसङ्गात्तत्रापि : तविशेषात् ।
किंच, अनयोरेकत्वं निर्विकल्पकमध्यवस्यति, विकल्पो वा, ज्ञानान्तरं वा? न तावन्निर्विकल्पकम् ; अध्यवसायविकलत्वात्तस्य, अन्यथा भ्रान्तताप्रसङ्गः। नापि विकल्पः; तेनाविकल्पस्याविष-१५ यीकरणात् , अन्यथा स्खलक्षणगोचरताप्राप्तेः “विकल्पोऽवस्तुनि
सः"[ ] इत्यस्य विरोधः। न चाविषयीतस्यान्यत्रारोपः। न ह्यप्रतिपन्नरजैतः शुक्तिकायां रजतमारोपयति । ज्ञानान्तरं तु निर्विकल्पकम् , सविकल्पकं वा ? उभयत्राप्युभयदोषानुषङ्गतस्तदुभयविषयत्वायोगः । तदन्यतरविषयेणानयोरेकत्वा-२०
१ निर्विकल्पकधर्मेणाभिभूत्वात् । २ दर्शनं । ३ अवैशयं। ४ तिरस्कृत्य लोप्य वा। ५ वैशयेन । ६ श्रोत्रेन्द्रियदर्शनेन । ७ परेण । ८ सर्व क्षणिकमिति। ९ परेण । १० नीलादिप्रतिभासो यथानुभूयते। ११ प्रत्यक्षं श्रोत्रचक्षुरादिजनितमनुमानं च लिङ्गजनितम् । १२ दर्शनेन । १३ अनुमानं स्पष्टं नानुभूयते। १४ प्रधानादिविकल्पानां। १५ सर्वचित्तवृत्तानामभिन्नसामग्रीप्रभवत्वात्। १६ विशदतयाप्रतिभासो भवेत्सकलविकल्पानाम् । १७ परः। १८ सर्वविकल्पेषु स्वसंवेदनेषु च । १९ सौगतैरस्माभिः। २० संस्कार। २१ प्रत्यक्षस्य । २२ नीलादिविकल्पे । २३ विकल्पेतरयोः। २४ नीलादिविकल्पवत् । २५ अवस्तुनि निर्भासः प्रतिमासो यस्य विकल्पस्य सः। २६ ग्रन्थस्य । २७ निर्विकल्पकस्य । २८ विकल्पे । २९ घटते । ३० ना। ३१ सविकल्पकनिर्विकल्पकयोः । ३२ शानेन ।
___1 तुलना-'तदेकत्वं हि दर्शनमध्यवस्यति'...प्रमाणप० पृ० २३ । न्यायकुमु० प्र० परि० । सन्मति० टी० पृ० ५०० । स्था० रत्नाकर पृ० ५२। 2 तु०-‘विकल्पोऽवस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लवः ।'
प्रश० कन्दली पृ० १९०
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० ध्यवसाये-अतिप्रसङ्गः-अक्षज्ञानेन त्रिविकृष्टेतरयोरप्येकत्वाध्यवसायप्रसङ्गात् । तन्न तयोरेकत्वाध्यवसायाद्विकल्पे वैशद्यप्रतीतिः, अविकल्पकस्यानेनैवैकत्वाध्यवसायस्य चोक्तन्यायेनाप्रसिद्धत्वात्। ५ यच्चोच्यते-संहृतसकलविकल्पावस्थायां रूपादिदर्शनं निर्विकल्पकं प्रत्यक्षतोऽनुभूयते । तदुक्तम्
"संहृत्य सर्वतश्चिन्तांस्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोपि चक्षुषा रूपमीक्षते साऽक्षजा मतिः" ॥१॥
[प्रमाणवा० ३।१२४] "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्ध्यति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः" ॥२॥
[प्रमाणवा० ३।१२३] इति । न चात्रावस्थायां नामसंश्रयतयाऽननुभूयमानानामपि विकल्पानां सम्भवः-अतिप्रसङ्गादित्यप्युक्तिमात्रम् ; अश्वं विकल्पयतो १५ गोदर्शनलक्षणायां संहृतसकलविकल्पावस्थायां स्थिरस्थूलादि
खभावार्थसाक्षात्कारिणो विपरीतारोपविरुद्धस्याध्यक्षस्यानिश्चयात्मकत्वायोगात् । तत्त्वे वा अश्वविकल्पाद्युत्थितचित्तस्य गवि स्मृतिर्न स्यात् क्षणिकत्वादिवत् । नामसंश्रयात्मनो विकल्पस्यात्र निषेधे तु न किञ्चिदनिष्टेम् । न चाशेषविकल्पानां नामसंश्रयतैव २० स्वरूपम् ; समारोपविरोधिय॒हणलक्षणत्वात्तेषामित्यग्रे व्यासतो वक्ष्यामः । न चानिश्चयात्मनः प्रामाण्यम्; गच्छत्तुणस्पर्शसंवेदनस्यापि तत्प्रसङ्गात् । निश्चयहेतुत्वात्तस्यै प्रामाण्यमित्ययुक्तम् । संशयादिविकल्पजनकस्यापि प्रामाण्यप्रसङ्गात् । खेलक्षणानध्य
१3
१ देशकालस्वभावव्यवहिताव्यवहि तयोः घटादि परमाण्वाद्योः। २ विकल्पस्य । ३ परेण । ४ नष्ट । ५ नीलादि । ६ जातिद्रव्यगुणक्रियानिबन्धनाः । ७ सामस्त्येन। ८ विकल्परूपाम् । ९ स्थिरीभूतेन । १० गच्छन् वा। ११ रहितं । १२ मनसा। १३ प्रतिस्वरूपवेद्यः। १४ स्वसंवेदनेन वेद्यः। १५ शब्दः संश्रयः कारणं यस्य विकल्पस्य सः। १६ नष्टविकल्पायां । १७ सुप्तप्रमत्तादावपि स्यात् । १८ पुरुषस्य । १९ साधारणं सामान्यरूपं । २० क्षणिकादि । २१ ता ( षष्ठी)। २२ निर्विकल्प. कस्य । २३ व्यावृत्त । २४ नरस्य । २५ जनानां । २६ शान। २७ शब्दाद्वैतवादे । २८ विस्तरतः। २९ दर्शनस्य । ३० दर्शनस्य । ३१ अनुक्षणिक ।
1 'अविकल्पमपि शानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत् । निःशेषव्यवहाराङ्गं तद्वारेण भवत्यतः ॥ १३०६ ॥ तत्त्वसं०
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सू० ११३ ] बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् ३३ वसायित्वात्तद्विकल्पस्यादोषोऽयम् , इत्यन्यत्रापि समानम् । नहि नीलादिविकल्पोपि स्खलक्षणाध्यवसायी तद्नालम्वनस्य तद्ध्यवसायित्वविरोधात्। 'मनोराज्यादिविकल्पः कथंध्यवसायी' ? इत्यप्यस्यैव दूषणं यस्यासौ राज्यायग्राहकस्वभावो नास्माकम् , सत्यराज्यादिविषयस्य तद्राहकस्वभावत्वाभ्युपगमात् । ५
न चांस्य विकल्पोत्पादकत्वं घटते स्वयमविकल्पकत्वात् स्वलक्षणवत्, विकल्पोत्पादनसामर्थ्याविकल्पकत्वयोः परस्परं विरोधात् । विकल्पवासनापेक्षस्याविकल्पकस्यापि प्रत्यक्षस्य विकल्पोत्पादनसामर्थ्यानि(वि)रोधे-अर्थस्यैव तथाविधस्य सोस्तु किमन्तर्गडुना निर्विकल्पकेन ? अथाज्ञातोर्थः कथं तेजनकोऽतिप्रेस-१० ङ्गात् ? दर्शनं कथम निश्चयात्मकमित्यपि समानम् ? तस्यानुभूतिमात्रेण जनैकत्वे-क्षणक्षयादौ विकल्पोत्पत्तिप्रसङ्गः। यत्रार्थ दर्शनं विकल्पवासनायाः प्रवोधकं तत्रैव तेजनकमित्यप्यसाम्प्रतम् ; तस्यानुभवमात्रेण तत्प्रबोधकत्वे नीलादाविव क्षणक्षयादीवपि तत्प्रबोधंकत्वप्रैसङ्गात् ।
तत्राभ्यासप्रैकरणवुद्धिपाटवार्थित्वाभावान्न तत्तस्याः प्रवोधकमिति चेत्, अथ कोयमभ्यासो नाम-भूयोदर्शनम् , बहुशो विकल्पोत्पत्तिर्वा ? न तावद्भूयो दर्शनम् । तस्य नीलादाविव
१ संशयादि । २ नीलादिविकल्पे । ३ स्वलक्षण । ४ विकल्पः स्वलक्षणाध्यवसायी न भवति तदनालम्बनत्वात् मनोराज्यादिना ( मनोराज्याध्यवसायिनेत्यर्थः ) अनेकान्तोऽस्य । ५ मनोराज्यादिस्वरूपालम्बनोपि राज्याध्यवसायी। ६ बौद्धस्य । ७ मनोराज्यादिविकल्पस्य। ८ किंच। ९ निर्विकल्पकदर्शनस्य । १० स्वलक्षणे यथा। ११ अविकल्पत्वं च स्याद्विकल्पोत्पादनसामर्थ्य च स्यादिति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह। १२ अभिलापसंसर्गयोग्यताराहित्यमविकल्पकत्वं तसिन्सति कथं विकल्पोत्पादनसामर्थ्य स्यादविकल्पकस्य । १३ परः। १४ विकल्पवासनापेक्षस्य । १५ (परः) अगृहीतः । १६ विकल्प । १७ सर्वस्य सर्वत्र विकल्पं जनयेत् । १८ विकल्पजनकं । १९ उभयत्रापि । २० विकल्प। २१ यथा नीलमिदमिति विकल्पस्तथा क्षणिकमिद. मिति विकल्पः स्यात् । २२ न क्षणक्षयादौ। २३ विकल्प । २४ स्वसंवेदनेन । २५ स्वर्गप्रापणशक्ति । २६ दर्शनस्य । २७ अनुभूतिमात्राविशेषात् । २८ पश्यन्नयं क्षणिकमेव पश्यतीति वचनात् । २९ इदं क्षणिकमिदं क्षणिकमिति । ३० प्रस्ताव । ३१ दर्शन।
1 तुलना-'अथ मतम्-अभ्यासप्रकरणबुद्धिपाटवाथित्वेभ्यो...'
प्रमाण प० पृ० ५४ । स्था० रखाकर पृ० ५४।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० क्षणक्षयादवप्यविशेषात् । अथ बहुशो विकल्पोत्पत्तिरभ्यासः; तस्य क्षणाक्षयादिदर्शने कुतोऽआवः ? तस्य विकल्पवासनाप्रवोधकत्वाभावाञ्चेत् ; अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि क्षणक्षयादौ दर्शनस्य विकल्पवासनाप्रवोधकत्वाभावे तल्लक्षणाभ्यासाभावसिद्धिः, त५ सिद्धौ चास्य सिद्धिरिति । क्षणिकाक्षणिक विचारणायां क्षणिकप्रकरणमप्यस्त्येव । पाटवं तु नीलादौ दर्शनस्य विकल्पोत्पादकत्वम् , स्फुटतरानुभवो वा स्यात् , अविद्यावासनाविनाशादात्मलाभो वा? प्रथमपक्षे-अन्योन्याश्रयात् । द्वितीयपक्षे तु-क्षणक्षयादावपि तत्प्रसङ्गः स्फुटतरानुभवस्यात्राप्यविशेषात् । तृतीयप१० क्षोप्ययुक्तः, तुच्छस्वभावाभावानभ्युपगमात् । अन्योत्पादककारणवभावस्योपगमे क्षणक्षयादौ तत्प्रसङ्गः, अन्यथा देर्शनभेदः स्याविरुद्धधर्माध्यासात् । योगिन एव च तथाभूतं तत्सम्भाव्येत, ततोऽस्यापि विकल्पोत्पत्तिप्रसङ्गात् "विधूतकल्पनाजाल" [ ] इत्यादिविरोधैः । अर्थित्वं चाभिलषितत्वम् , जिज्ञा१५ सितत्वं वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, क्वचिदनभिलपितेपि वस्तुनि तस्याः
प्रवोधदर्शनात् । चक्रकप्रसङ्गश्च-अभिलषितत्वस्य वस्तुनिश्चयपूर्वकत्वात् । द्वितीयपक्षेतु-क्षणक्षयादौ तेंद्वासनाप्रवोधप्रसङ्गो नीलादाविवात्रापि जिज्ञासितत्वाविशेषात् ।
न चैवं सविकला(ल्प)कप्रत्यक्षवादिनामैपि प्रतिवाद्युपन्यस्तस२० कलवर्णपदीदीनां स्वोच्छासौदिसंख्यायाश्चाविशेषेण स्मृतिः प्रैस
१ पश्यन्नयं क्षणिकमेव पश्यतीति वचनात् । २ इदं क्षणिकमिदं क्षणिकमिति । ३ पश्यन्नयं क्षणिकमेव पश्यतीति वचनात् । ४ क्षणिकादौ दर्शनस्य विकल्पवासनाप्रबोधकत्वाभावे सिद्धे विकल्पोत्पादकत्वलक्षणपाटवाभावसिद्धिस्तत्सिद्धौ चास्य सिद्धिरिति । ५ विकल्पवासनाप्रबोधकत्व । ६ सिद्ध हि विकल्पोत्पादकत्वे (पाटवे) नीलादौ विकल्पवासनाप्रबोधकत्वसिद्धिस्ततस्तदुत्पादकत्वसिद्धिरिति । ७ सौगतः। ८ बुद्धः । ९ विकल्पवासनाप्रबोधविकल्पोत्पत्ति। १० अविद्यावासनातोऽन्यदिन्द्रियं वा शानान्तरं वा भात्मा वा । ११ वसः। अविद्यावासनाविनाशस्य । १२ विकल्पोत्पादकत्वम् । १३ निर्विकल्पक। १४ नीलादौ पाटवं क्षणक्षयादावपाटवमिति । १५ एकक्षणस्यैव पाटवभावाभाव । १६ किंच। १७ पाटवं। १८ निश्चीयेन। १९ योगिनः प्रत्यक्षादपि । २० विधूतकल्पनाजालं प्रत्यक्षं योगिनां मतम् । २१ ग्रन्थविरोधः । २२ ज्ञातुमिष्टत्वं । २३ अहिकण्टकादौ। २४ अभिलाषाद्विकल्पवासनाप्रबोधस्तस्साच्च विकल्पस्तस्माच्चाभिलषितत्वम् । २५ विकल्प । २६ विकल्प । २७ निर्विकल्पकप्रत्यक्षवादिमतप्रकारेणानिश्चयात्मकस्य विकल्पाजनकत्वे। २८ जैनानाम् । २९ सौगत । ३० वाक्य । ३१ जैन । ३२ निश्वास। ३३ बोधस्य निश्चयात्मकत्वात् ।
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सू० ११३ ] बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् ज्यते; सर्वथैकखभावस्यान्तर्वहिर्वा वस्तुनोऽनभ्युपगमात् । तन्यते हि अवग्रहावायज्ञानादनभ्यासात्मकाद् अन्यदेवाभ्यासात्मक धारणाज्ञानं प्रत्यक्षम् । तदभावे परोपन्यस्तसकलवर्णादिषु अवनहादित्रयसद्भावेपि स्मृत्यनुत्पत्तिः, तत्सद्भावे तु स्यादेव-सर्वत्र यथासंस्कारं स्मृत्युत्पत्त्यभ्युपगमात् । न च परेपामप्ययं युक्तः-५ दर्शनभेदाभावात् , एकस्यैव कॅचिभ्यासादीनामितरेषां वानभ्युपगमात् । न च तदन्यव्यावृत्त्या तंत्र तद्योगः; स्वयमतस्वभावम्य तदन्यव्यावृत्तिसम्भवे पावकस्याऽशीतत्वादिव्यावृत्तिप्रसाद । तत्स्वभावस्य तु तदन्यव्यावृत्तिकल्पने-फलाभावात्-प्रतिनियततत्वभावस्यैवान्यव्यावृत्तिरूपत्वात्।
स्यान्मतम् अभ्यासादिसापेक्षं निरपेक्ष वा दर्शनं विकल्पम्य नोत्पादकम् शब्दार्थविकल्पवासनाप्रभवत्वात्तस्य । तद्वासनाविकल्पस्यापि पूर्वतद्वासनाप्रभवत्वादित्यनादित्वाद्विकल्पसन्तानस्य प्रत्यक्षसन्तानादन्यत्वात् , विजातीयोद्विजातीयस्योदयानिटेनोक्तदोषानुषङ्गः, इत्यप्यसङ्गतम् । तस्य विकल्पाजनकत्वे "यत्रैव १५ जैनयेदेनां तत्रैवास्येप्रमाणता" [ ] इत्यम्य विरोधानुपङ्गात् । कथं वा वासनाविशेषप्रभवत्त(कात् ततोऽध्यक्षम्य रूपादिविषयत्वनियमः मनोराज्यादिविकल्पादपि तत्प्रसङ्गात् ? प्रत्यक्ष
१ निरंशस्य । २ जनानां। ३ अर्थे । ४ संस्कारानतिक्रमेण । ५ नः । ६ सौगतानाम् । ७ दर्शनं नीलादौ विकल्पोत्पादक क्षणक्षयादी न भोदिति न्यायः । ८ प्रत्यक्ष । ९ अवग्रहादिभेदात्प्रत्यक्षभेदो न दर्शनस्यैकरूपत्वात्। १० जनालादी । ११ क्षणक्षयादी अनन्यासादीनाम् । १२ परेण । १३ अनगासादः । १४ अभ्यासादिरनभ्यासादिः । १५ दर्शने । १६ किमगनगासस्य बानस्य ।। १७ अभ्यासानभ्यासादि। १८ स्वरूपेण । १५ अभ्यासापम्पमावस्य । २० अगासादि । २१ अनभ्यासादि। २२ अभ्यासादि । २३ स्वरूपस्य । २४ घनस्य । २५ अभ्यासादि । २६ अनभ्यासादि। २७ दर्शनस्वभाव। २८ प्रकरणादि । २९ अभ्यासादिस्वभावस्य दर्शनस्य । ३० अनभ्यासादि । ३१ विक पस्य । ३२ शब्दार्थो नाम सामान्यं । ३३ वासनारूप। ३४ भिन्नत्वात् । ३५ दशनाए । ३६ विकल्पस्य । ३७ अनङ्गीकारात्। ३८ न चास्य विकल्पोत्पादवात्य घटती स्वयमविकल्पकत्वात्स्वलक्षणवदित्यादि । ३९ दर्शनस्य । ४० अर्थ । ४१ साविकल्पात्मिका बुद्धि । ४२ दर्शनस्य । ४३ किंच। ४४ नयनाध्यक्षस्य । ४५ अन्यथा ।
1 तु०-'शब्दार्थ विकल्पवासनाप्रभवत्वान्मनोविकल्पस्य तरतहि कायमधुरः रूपादिविषयत्वनियमः...)
अष्टश० अष्टसइ० पृ० ११९ स्या० रलाकर पृ० ५६
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० सहकारिणो वासनाविशेषादुत्पन्नादूपादिविकल्पात्तस्य तन्नियसे स्खलक्षणविषयत्वेनियमोप्यत एवोच्यताम् , अन्यथा रूपादिविषयत्वनियमोप्यतो मा भूदविशेषात् । तथाच-खलक्षणगोचरोऽसौ प्रत्यक्षस्य तन्नियमहेतुत्वादूंपादिवत् । लैपाद्युल्लेखित्वा५द्विकल्पस्य तद्बलात्तन्नियमस्यैवाभ्युपगमे-प्रत्यक्षस्याभिलॉपसंस
गोपि तद्वदनुमीयेत-विकल्पस्याभिलपनाभिलँप्यमानजात्याद्युल्लेखिततयोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः । तथाविधदर्शनस्याप्रमाणसिद्धत्वाच्च आत्मैवाहम्प्रत्ययप्रसिद्धः प्रतिवन्धकापायेऽभ्यासाद्यपेक्षो विकल्पोत्पादकोऽस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया ? ततो विकल्पः प्रमा१० णम् संवादकत्वात् , अर्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वात् , अनिश्चितार्थनिश्चायकत्वात् , प्रतिपत्रपेक्षणीयत्वाच्च अनुमानवत्, नतु निर्विकल्पकं तद्विपरीतत्वात्सन्निकर्षादिवत् ।
तस्याप्रामाण्यं पुनः स्पष्टाकारविकलत्वात्, अंगृहीतग्राहित्वात्, अँसति प्रवर्तनात्, हिताहितप्राप्तिपरिहारासमर्थत्वात् , १५ कदाचिद्विसंवादात्, समारोपानिषेधकत्वात्, व्यवहारानुपयोगौत्, खलक्षणागोचरत्वात् , शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासत्वात् , शब्दप्रभव॑त्वात् , (ग्राह्यार्थ विना तन्मात्रप्रभवत्वाद्वा) गत्यन्तरा
१ क्षणिकादि । २ दर्शनस्य । ३ परेण भवता। ४ विकल्पात् । ५ दर्शनस्य । ६ विकल्पात्प्रत्यक्षवलक्षण विषयत्वनियमे च। ७ स्वलक्षणविषय। ८ यद्धि यद्विपयकं तदेवापरस्य तद्विषयत्वनियमहेतुर्यथा रूपादि विषयको विकल्पो रूपविपयत्वनियमहेतुः प्रत्यक्षस्य । ९ अध्यक्षस्य रूपादि विषये नियमहेतुत्वाद्यथा रूपादि विषयो विकल्पः तथाध्यक्षस्य स्वलक्षणनियमहेतुत्वात्स्वलक्षणविषयोपि विकल्पः स्यात्। १० सप्तमी। ११ परामर्शित्वात् । १२ प्रत्यक्षस्य(निश्चयस्य)। १३ रूपादिविषयत्व । १४ शब्दसम्बन्धोपि। १५ प्रत्यक्षं रूपादिनियतविषयं विकल्पस्य रूपाद्युल्लेखित्वेनोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तरित्यनुमानेन रूपादिविषयत्वनियमोऽनुमीयते यद्वत् । १६ शब्द। १७ वाच्य। १८ सामान्यविषय। १९ शब्दत्वेन तु दर्शनस्य तद्विपरीतत्वात् । २० किंच। २१ निर्विकल्पक। २२ स्वसंवेदनवेद्यः । २३ आवरण। २४ निर्विकल्पकदर्शन। २५ मनोराज्यादि विकल्पवत् । २६ प्रमात। २७ रहितत्वात् । २८ मनोराज्यादिविकल्पवत् । २९ धारावाहिकशानवत् । ३० केशोण्डुकशानवत् । ३१ द्विचन्द्रादिशानवत् । ३२ स्थाणौ विसंवादे पुरुषविकल्पवत् । ३३ संशयशानवत् । ३४ गच्छत्तणस्पर्शशानवत् । ३५ भ्रान्तशानवत् । ३६ अर्थ। ३७ अङ्गुल्यादिवाक्यजनितविकल्पवत् । ३८ अङ्गुल्यादिजनितवाक्यवत् ।
1 तु०-'अपि च सविकल्पकस्याऽप्रामाण्यम्... स्या. रत्नाकर पृ० ५७ 2-अग्रिमखंडनानुरोधेन अयमपि 'मूलविकल्प एव' इत्यनुसन्धीयते
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सू० ११३] बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खण्डनम्
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आवात् ? न तावत्स्पष्टाकार विकलत्वात्तस्याऽप्रामाण्यम् ; काचाभंकादिव्यवहितार्थदूरपादपोदिप्रत्यक्षस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । न चैतद्युक्तम् , अज्ञातवस्तुप्रकाशनसंवादलक्षणस्य प्रमाणलक्षणस्य सद्भावात् । प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गो वा अस्पष्टत्वालिङ्गजत्वाभ्यां प्रमाणद्वयानन्तसूतत्वात् । नापि गृहीतग्राहित्वात्। अनुमान-५ स्याप्यप्रामाण्यानुषङ्गात्, व्याप्तिज्ञानयोगिसंवेदनगृहीतार्थग्राहित्वात् । कथं वा क्षणक्षयानुमानस्य प्रामाण्यम्-शब्दरूपावभास्यध्यक्षावगतक्षणक्षयविषयत्वात् ? नच अध्यक्षेण धर्मिस्वारूपग्राहिणा शब्दग्रहणेपि न क्षणक्षयग्रहणम्; विरुद्धधर्माध्यासंतस्तद्भेदप्रसक्तेः। नाप्यसतिप्रवर्तनात् ; अतीतीनागतयोर्विकल्प-१० काँले असत्त्वेपि स्वकाले सत्त्वात् । तथाप्यस्याप्रामाण्ये-प्रत्यक्षस्याप्यप्रामाण्यानुषङ्गः तद्विषयस्यापि तत्कालेऽसत्त्वाविशेषात् । हिताऽहितप्राप्तिपरिहारासमर्थत्वादित्यसम्भाव्यम्; विकल्पादेवे. टार्थप्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिदर्शनात् अनिष्टार्थाच्च निवृत्तिप्रतीतेः । कदाचिदर्थप्रापकत्वाभावस्तु-प्रत्यक्षेपि समानोऽनर्थित्वादप्रवृत्त-१५ स्यायेप्रत्यक्षवत् । कदाचिद्विसंवादादित्यप्यसास्प्रतम् । प्रत्यक्षेप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात्, तिमि धुपहतचक्षुषोऽसावधि प्रत्यक्षप्रवृत्तिदर्शनात् । भ्रान्ताद्धान्तस्य भेदोऽन्यत्रापि समानः । समारोपानिषेधकत्वादित्यप्यसङ्गतम्। विकल्पविपये समारोपासम्भवात् । नापि व्यवहारायोग्यत्वात्; सकलव्यवहागणां विकल्प-२० मूलत्वात् । स्खलक्षणाऽगोचरत्वादित्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अनुमानेपि तत्प्रसक्तेः तद्वैत्तस्यापि सामान्यगोचरत्वात् । न च तबाह्यस्य सामान्यरूपत्वेप्यध्यवसेयस्य स्खलक्षणरूपत्वाद् दृश्यविकल्प्यावावेकीत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यम् : प्रकृतविकल्पेऽप्यस्य समानत्वात् । शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभामवादित्य-२५
१ स्फटिकजलादि । २ पर्वतादि । ३ पारमार्थिकं लक्षणमिदम् । ४ व्यावहारिकम् । ५ व्याप्तिशानं च तद्योगिसंवेदनं च। ६ सर्वश । ७ श्रावणाध्यक्षगृहीतार्थग्राहित्वात् । ८ श्रावणाध्यक्ष। ९ निर्विकल्पकेन। १० सर्व वस्तु क्षणिक सत्त्वात् । ११ तस्यैवग्रहणमग्रहणमिति । १२ शब्दधर्मिणः। १३ क्षणिकत्वधर्मस्य । १४ धर्मिरूपस्य वस्तुनः क्षणिक(कत्वं ) न भवतीत्यर्थः। १५ रावणशा चक्रवति । १६ अर्थयोः। १७ आगमशाने । १८ समकाले ग्रामग्राहकत्वाभावात्सव्येतरगोविषाणवत्। १९ प्रत्यक्ष । २० सादेः। २१ पुरुषस्य । २२ पदं जलमिति । २३ ईप् (सप्तमी, सप्तम्यर्थे मतुरित्यर्थः)। २४ रोग। २५ पुरुषस्य । २६ भ्रान्तविकल्पे। २७ अप्रामाण्य । २८ तस्य पूर्वानुभूततत्सदृशस्य । २९ सामान्यारोपोऽधिकरणं स्वलक्षणमध्यवसेयम् । ३० स्खलक्षण। ३१ स्थूल । ३२ पुरुषस्य । ३३ नील। ३४ न्यायस्य ।
प्र. क. मा० ४
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प्रसयकसलमार्तण्डे प्रथमपरि० प्यसमीचीनम् ; अनुसानेदि समानत्वात् । शब्दप्रभवत्वादित्यप्यसाम्प्रतम्, शंब्दाच्या क्षात्यामामाण्यप्रसङ्गात् । ग्राह्मार्थ विना तन्मात्रप्रभवलं चासिद्धम् ; नीलादिविकल्पानां सर्वदार्थ सत्येव भावात् । कैल्यचित्तु तमन्तरेणापि भावोऽध्यक्षेणि समानः ५द्विचन्द्रादिप्रत्यक्षस्यार्थाभावेपि भावात् । भ्रान्ताभ्रान्तस्यान्यत्वमत्राणि समानम् ।
किञ्च, विकल्पाभिधानयोः कार्यकारणत्वानियमकल्पनायाम्किञ्चित्पश्यतः पूर्वानुभूतंतत्सदृशंस्मृतिर्न स्यात् तन्नामविशेषा
स्मरणोत् , तदस्मरणे तदभिधानाप्रतिपत्तिः, तदप्रतिपत्तौ तेन १० तैदयोजनम्, तदयोजनात्तदनध्यवसाय इत्यविकल्पाभिधानं जगदापद्येत।
किञ्च, पदस्य वर्णानां च नमान्तरस्मृतावसत्यामध्यवसायः, सत्यां वा ? तत्राद्यपक्षे-नाम्नो नामान्तरेण विनापि स्मृतौ केवलार्थाध्यवसायः किन्न स्यात् ? 'स्वाभिधानविशेषापेक्षा एवार्थी १५ निश्चयैर्निश्चीयन्ते' इत्येकान्तत्यागात् । द्वितीयपक्षे तु-अनवस्थावर्णपदाध्यवसायेप्यपरनामान्तरस्यावश्यं स्मरणात् ॥ छ ।
१ शब्दजनितप्रत्यक्षस्य । २ घटः कास्ते तत्रास्ते इत्यादि । ३ शब्द । ४ विकल्पस्य । ५ विकल्पस्य । ६ वन्ध्यासुताद्यर्थ । ७ नीलं। ८ नुः। ९ तेन दृश्येन नीलेन सदृशं पूर्वानुभूतं च तच्च तत्सदृशं च तस्य स्मृतिः। १० स्मृतिर्विकल्पः । ११ पूर्वानुभूततत्सदृशार्थस्मरणात्पूर्व नामविशेषस्य पूर्वानुभूततत्सदृशार्थस्मरणोत्पादकस्याभावात्तस्य तत्कार्यतया पूर्वानुभूतत्सदृशार्थनामविशेषस्मृत्यनन्तरभावित्वात् । १२ नामविशेष। १३ नाम। १४ शब्देन । १५ नीलशब्देनेदं वाच्यमिति योजनाभावः। १६ दृश्यस्य नीलस्य। १७ दृश्यमाने नीले विकल्पानुत्पत्तिः । १८ विकल्पाभिधानशून्यं । १९ गौरित्यस्य । २० गकारऔकारविसर्जनीयानां । २१ अभिधान । २२ नामनिरपेक्ष । २३ विकल्पैः ।
1 तु०-"तस्मादयं किञ्चित्पश्यन् तत्सदृशं पूर्व दृष्टं न स्मर्तुमर्हति तन्नामविशेषास्मरणात् , तदस्मरन्नैव तदभिधानं प्रतिपद्यते, तदप्रतिपत्तौ तेन तन्न योजयति, तदयोजयन्नाध्यवस्यतीति न क्वचिद्विकल्पः शब्दो वेत्यविकल्पाभिधानं जगत्स्यात्"।
अष्टश० अष्टसह ० पृ० ११९ । स्या० रला० पृ० ७७॥ 2 तु०-"नाम्नो नामान्तरेण विनापि स्मृतौ केवलार्थव्यवसायः किन स्यात्" तन्नामान्तरपरिकल्पनायामनवस्था" । (अष्टश०) "तदुक्तं न्यायविनिश्चये (११६) अभिलापतदंशानाममिलापविवेकतः । अप्रमाणप्रमेयत्वमवश्यमनुषज्यते" ॥ अष्टसह० पृ० १२०।
3 बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खण्डनमनयैवानुपूर्व्या-अष्टश० अष्टसह० पृ० ११८, प्रमाणप० पृ० ५३, न्यायकु० च० प्र० परि०, सम्मति ०टी० पृ. ४९९। स्या० रत्ना० पृ० ७६ । इत्यादिषु द्रष्टव्यम् ।
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सू० ११३ शब्दाद्वैतविचारः
३९ येपि शब्दाद्वैतवादिनो निखिलप्रत्ययानां शब्दानुविद्धन्वेने साविकल्पकत्वं मन्यन्ते-तत्पशवैकल्ये हि तेषां प्रकाशरूपताया एवाभावप्रसङ्गः । वाश्रूयता हि शाश्वती प्रत्यर्वमर्शिनी च । तेदभावे प्रत्ययान जापरं रूणमवशिष्यते । सकलं चेदं वाच्यवाचकतत्व शब्दब्रहण एव विवत नान्यविवः नापि स्वतन्त्र-५ मिति । तदुक्तम्
न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगाईते । अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्टितम् ॥ ३
[वाक्यप० १॥२२४ ] वाग्रूपता चेदुकामेदवबोधस्य शाश्वती। नकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥२॥
[वाक्यप० ॥१२५] अनादिनिधनं शब्दद्ब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम् । विर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ ३॥
[वाक्यप० ११] १५ अनादिनिधनं हि शब्दब्रह्म उत्पादविनाशभावान, अक्षरं च अकाराद्यक्षरस्य निमित्तत्वात् , अनेन वाचकरूपता 'अर्थभावेन इत्यनेन तु वाँच्यरूपतास्य सूचिता । प्रक्रियेति भेदाः । शब्दब्रह्मति नामसङ्कीर्तनमितिः
तेप्यतत्त्वज्ञाः; शब्दानुविद्धत्वस्य ज्ञानेप्वप्रतिभासनात् । तद्धि २० प्रत्यक्षेण प्रतीयते, अनुमानेन वा ? प्रत्यक्षेण चेकिमन्द्रियेण,
१ परः। २ शानानां । ३ ईप्। ४ तादात्म्य । ५ शब्दरूपापन्नत्वेनैव । ६ शब्दानुविद्धत्व । ७ अव्यभिचारिणी। ८ प्रकाशहेतुभूता च । १ एवंविधवापताऽभावे। १० प्रकाशोपायभूतं । ११ प्रधान। १२ शानं। १३ शम्दान्वयरहितः। १४ कुतो नास्ति ? शन्दरूपापन्नमेव विश्वं शन्दे विश्रान्तं यतः । १५ अनुस्यूत । १६ एव । १७ अपगच्छेत् । १८ तदा। १९ शानं। २० शब्दरूपापन्नत्वेन । २१ यतः। २२ ता ( षष्ठी, षष्ठीसमास इत्यर्थः)। २३ कर्तृ । २४ परिणमति। २५ मेदाः भवेयुः। २६ शब्द । २७ अर्थ ।
1 भर्तृहरिप्रभृतयः। 2 "न तत्प्रत्यक्षतःसिद्धमविभागमभासनात् ।
नित्यादुत्पत्त्ययोगेन कार्यलिङ्गं च तत्र न" ॥ १४७ ॥ तत्वसं० । न्यायकु० च० प्र० परि०, सन्मति० टी० पृ० ३८४, स्या० रला० पृ० ९८ ।।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० खसंवेदनेन वा ? न तावदैन्द्रियेणा; इन्द्रियाणा रूपादिनियतत्वेन ज्ञानाविषयत्वात् । यानि स्वसंवेदनेन; अस्य शब्दागोचरत्वात् । अथार्थस्य तदनुविद्धत्वात् तदनुभवे ज्ञाने तेदप्यनुभूयते इत्युच्यतेननु किमिदंशब्दानुविद्धत्वं नाम-अर्थस्यामिन्नदेशे प्रति५भासः, तादात्म्यं वा ? तत्राद्यविकल्पोऽसमीचीनः; तंद्रहितस्यैवा
र्थस्याध्यक्षे प्रतिभासनात् । न हि तत्र यथा पुरोवस्थितो नीलादिः प्रतिभासते तथा तद्देशे शब्दोपि-श्रोतृश्रोत्रप्रदेशे तत्प्रतिभासात् । न चान्यदेशतयोपलभ्यमानोप्यन्यदेशोसौ युक्तः,
अतिप्रसङ्गात् । नापि तादात्म्यम्; विभिन्नेन्द्रियजनितज्ञान१० ग्राह्यत्वात् । ययोविभिन्नेन्द्रियजनितज्ञानग्राह्यत्वं न तयोरैक्यम्
यथा रूपरसयोः, तथात्वं च नीलादिरूपशब्दयोरिति । शब्दाकाररहितं हि नीलादिरूपं लोचनज्ञाने प्रतिभाति, तंद्रहितस्तु शब्दः श्रोत्रज्ञाने इति कथं तयोरक्यम् ? रूपमिदमित्यभिधानविशेपर्णरूपाप्रतीतेस्तयोरैक्यम् । इत्यसत् ; रूपमिदमिति ज्ञानेन १५ हि वायूपतीप्रतिपन्नाः पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते, भिन्नवाग्रूपताविशे
षणविशिष्टा वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, न हि लोचनविज्ञानं वागूपतायां प्रवर्तते तस्यास्तद्विषयत्वाद्रसादिवत्, अन्यथेन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैयर्थ्यम् तस्यैवाशेषार्थग्राहकत्वप्रसङ्गात् । द्वितीयपक्षेपि अभिधानेऽप्रवर्तमानं धुंद्धरूपमात्रविषयं लोचनविज्ञानं २० कथं तद्विशिष्टतया स्वविषयमुद्योतयेत् ? न ह्यगृहीतविशेश्रृणा विशेष्ये बुद्धिः दण्डाग्रहणे दण्डिवत् । न च नान्तरे तस्य प्रतिभासाद्विशेषणत्वम् । तथा सति अनयोर्भेदसिद्धिः स्यादित्युक्तम्। अभिधानानुयुक्तार्थस्मरणातैथाविधार्थदर्शनसिद्धिः; इत्यप्य
१ शम्दानुविद्धार्थ । २ ( शब्दब्रह्म )। ३ भवता परेण । ४ अर्थस्य. शन्देन तादात्म्यम् । ५ शब्द। ६-७ अर्थः । ८ अर्थ । ९ शब्दार्थो नैकरूपाविति धर्मी। १० साधनसमर्थनं। ११ अर्थ । १२ अर्थाकार। १३ दण्डिपुरुपेण व्यभिचारो नानुमानस्य । १४ शब्द। १५ अर्थकार । १६ शब्दार्थयोः । पदार्थाः स्ववाच. कादभिन्नास्तद्विशेषणविशिष्टत्वात् । १७ रूपविशेषणविशिष्टघटवत् । १८ तादात्म्येन । १९ अर्थात् । २० तत्तस्यां प्रवर्तते चेत् । २१ लोचनाच्छोत्रादि । २२ रसादि । २३ शब्दे। २४ केवल। २५ भिन्नवाग्रूपताविशेषण । २६ शब्द। २७ अथें । २८ श्रोत्रशने। २९ वायूपताविशेषणस्य । ३० रूपरूपशब्दयोः। ३१ विभिन्ने. न्द्रियजनितशानग्राह्येत्यादिना पूर्वमेव। ३२ परः। ३३ सम्बद्ध । ३४ पुरोवति । ३५ यद्रूपार्थस्य दर्शनं तद्रूपार्थस्य स्मरणमिति वचनात् ।। __1 "नास्ति शब्दार्थयोस्तादात्म्यं भिन्नदेशत्वात् भिन्नकालत्वात् मिन्नाकारत्वाद्वा स्तम्भकुम्भवत्" । स्या० रत्ना० पृ० ९४ ।
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सू० ११३] शब्दाद्वैतविचारः सारम् ; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात्-तथाविधार्थदर्शन सिद्धौ वचन्यारेकरितार्थस्मरणसिद्धिः, ततश्च तथाविधार्थदर्शनसिद्धिरिति ।
का चेयमर्थस्यानिधानानुषतता नाम-अर्थशाने तत्प्रतिभासः, अर्थदेशे तवेदन का, तत्काले तत्वातिमालो वा ? न तावदाद्यो विकल्पः; लोचानाध्यक्षे शब्दस्याप्रतिभासनात् । नापि द्वितीयः,५ शब्दस्य श्रोत्रप्रदेशे निरस्तशब्दसन्निधीनां चा गादीनां स्वप्रदेशे खविज्ञानेनानुभवात् । नापि तृतीयः; तुल्यकालव्यायाम आवश्य लोचनज्ञाने प्रतिभासाभावात् , भिन्नज्ञानवेद्यत्वे च लेदप्रसङ्ग इत्युकम् । कथं चैवंवादिनो वालकादेरर्थदर्शनसिद्धिः, तत्राभिधानाप्रतीतेः, अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनं वा ? न हि तदा गोशब्दोल्लेख-१० स्तज्ज्ञानस्यानुभूयते युगपट्टत्तिद्वयानुत्पत्तेरिति । कथं वा वायूपताऽवबोधस्य शाश्वती यतो 'वाग्रूपता चेदुत्क्रामेत्' इत्याद्यवतिष्ठेत लोचनाध्यक्षे तत्संस्पर्शाभावात् ? न खलु श्रोत्रग्राह्यां वैखरी वाचं तत् संस्पृशति तस्यास्तदविषयत्वात् । अन्तर्जल्परूपां मध्यमां वा; तामन्तरेणापि शुद्धसंविदोर्भावात् । संहृताशेपर्णा-१५ दिविभागानु(तु)पयन्ती, सूक्ष्मा चान्तातीरूपा वागेव न भवति; अनयोरर्थात्मदर्शनलक्षणत्वात् वाचस्तु वर्णपदानुक्रमलक्षणत्वात् । ततोऽयुक्तमेतत्तल्लक्षणप्रणयनम्
१ वापताविशेषणविशिष्टार्थ । २ सहित । ३ अर्थशान। ४ अर्थेन सह । ५ पूर्वमेव । ६ अभिधानानुषक्तार्थ एव प्रत्यक्षे प्रतिभातीत्येवंवादिनः। ७ मूक । ८ अर्थदर्शने । ९ प्रतिभासः। १० नित्या। ११ श्रोत्रं बहिष्कृत्य । १२ वापता । १३ वचनात्मिकां । १४ लोचनाध्यक्षं। १५ लोचनाध्यक्षं न संस्पृशति । १६ लोचनशानस्य । १७ नष्ट । १८ पदवाक्य । १९ अर्थदर्शनं । २० अर्थदर्शनलक्षणा। २१ आत्मदर्शनलक्षणा । २२ वाक्य ।
1 “वैखर्या मध्यमायाश्च पश्यन्त्याश्चैतदद्भुतम् ।
अनेकतीर्थमेदायास्त्रय्या वाचः परं पदम् ॥ १४४ ॥ यस्याः श्रोत्रविषयत्वेन प्रतिनियतं श्रुतिरूपं सा वैखरी, शिष्टवर्णसमुच्चारणप्रसिद्धसाधुभावा भ्रष्टसंस्कारा च दुन्दुभिवेणुवीणादिशब्दरूपा चेत्यपरमितभेदा । मध्यमा तु अन्तःसन्निवेशिनी परिगृहीतक्रमेव । बुद्धिमात्रोपादाना सूक्ष्मा प्राणवृत्त्यनुगता प्रतिसंहतकमा सत्यप्यभेदे समाविष्टक्रमशक्तिः । पश्यन्ती तु सा चलाचला प्रतिबद्धसमाधाना सन्निविष्टज्ञेयाकारा प्रतिलीनाकारा निराकारा च परिच्छिन्नार्थप्रत्यवभासा संसृष्टार्थप्रत्यकभासा च प्रशान्तसर्वार्थप्रत्यवभासा चेत्यपरमितभेदा । तत्र व्यावहारिकीषु सर्वासु वागवस्थासु व्यवस्थितसाध्वसाधुप्रविभागा पुरुषसंस्कारहेतुः परन्तु पश्यन्त्या रूपमनप.
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४
असेयकमालवार्तण्डे प्रथमपरि० "स्थान दिले कायौ कतवर्ण पारिश्रहा। স্ব স্ব খাতা বিলিবণ্ডল ? ? ? प्रापवृत्तिनातिनस्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते । अदितागाऽनु(गा तु)पश्यन्ती सर्वतः संहतमा॥२॥ कारू यज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मी बागनपायिनी। तथा व्यातं जगत्सर्वे ततः शब्दात्मकं जगत् ॥ ३॥"
इत्यादि ।
१ कण्ठादिषु। २ प्रसूते सति । ३ पुरुषेण। ४ हृदिस्थो वायुः प्राणः । ५ परित्यज्य । ६ वर्णादिरहिता। ७ नष्टवर्णादिक्रमो यतः । ८ शाश्वती । भ्रंशमसङ्कीर्ण लोकव्यवहारातीतम् । तस्या एव वाचो व्याकरणेन साधुत्वज्ञानलभ्येन शब्द पूर्वेण योगेनाऽधिगमः इत्येकेषामागमः..." वाक्यप० टी० १११४४ "उक्तंच-वैखरी शब्दनिष्पत्तिः मध्यमा श्रुतिगोचरा। धोतितार्था च पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥" ।
कुमारसं० टी० २।१७ । 1 "अस्यार्थः-स्थानेषु ताल्वादिस्थानेषु, वायौ प्राणसंज्ञे, विधृते अभिघातार्थ निरुद्धे सति, कृतवर्णपरिग्रहेति हेतुद्वारेण विशेषणम् ततः ककारादिवर्णरूपस्वीकारात् वैखरी संशा वक्तभिर्विशिष्टायां खरावस्थायां स्पष्टरूपायां भवा वैखरीति निरुतः । वाक्प्रयोक्तृणां सम्बन्धिनी । यद्वा तेषां स्थानेषु तस्याश्च प्राणवृत्तिरेव निबन्धनं तत्रैव 'निबद्धा सा तन्मयत्वादिति" स्या० रत्नाकर पृ० ८९ ।
2 "या पुनरन्तःसङ्कल्प्यमाना क्रमवती श्रोत्रग्राह्यवर्णरूपाऽभिव्यक्तिरहिता वाक् -सा मध्यमेत्युच्यते। तदुक्तम्-केवलं बुधुपादानात् क्रमरूपानुपातिनी ।
प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥ स्थूलां प्राणवृत्ति हेतुत्वेन वैखरीवदनपेक्ष्य केवलं बुद्धिरेव उपादानं हेतुर्यस्याः सा प्राणस्थत्वात् क्रमरूपमनुपतति । अस्याश्च मनोभूमाववस्थानम् वैखरीपश्यन्त्योमध्ये भवात् मध्यमा वागिति ।" स्या० रत्नाकर पृ० ८९ ।
3 "या तु ग्राह्यभेदक्रमादिरहिता स्वप्रकाशा संविद्रूपा वाक् सा पश्यन्तीत्युच्यते"। यस्यां वाच्यवाचकयोविभागेनावभासो नास्ति सर्वतश्च सजातीयविजातीयापेक्षया संहृतो वाच्यानां वाचकानां च क्रमो देशकालकृतो यत्र, क्रमविवशक्तिस्तु विद्यते" स्या. रत्नाकर पृ० ९० । ___4 "स्वरूपज्योतिः स्वप्रकाशा वेद्यते वेदकभेदातिकमात् । सूक्ष्मा दुर्लक्ष्या, अनपायिनी कालभेदाऽस्पर्शादिति ।" स्या० रत्नाकर पृ० ९० ।
5 चतुर्विधवाचां स्वरूपं तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकेऽपि (पृ० २४१ ) वणितमस्ति । एते त्रयः श्लोकाः वाक्यपदीयटीकायां (पृ० ५६) 'पुनश्चा' इति कृत्वा उद्धृताः वर्तन्वे ।
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सू० ११३] शब्दाद्वैतविचारः
अनुमानात्तेषां तदनुविद्धत्वप्रतीतिरित्यपि मनोरयामाचल ; तदविनाभाविलिङ्गाभावात् । तत्सम्भवे वाऽध्यक्षादिवाधितापक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्ट्यत्वाञ्च । अथ जगतः शब्दमयत्वात्तदुदरवर्तिनां प्रत्ययानां तन्मयत्वात्तदनुविद्धत्वं सिद्धमेवेत्यभिधीयते तदप्यनुपापन्नलेवा त चल्मायत्वस्याध्यक्षादि-५ बाधितत्वात् , पदवाक्यादितोऽन्यस्य गिरितरूपुरलतादेस्तदाकारपरामुखेङ्गा साविकल्पकाध्यक्षेणात्यन्त विशदतयोगलमात् । 'ये यदाकारपराङ्मुखास्ते परमार्थतोऽतन्मयाः सथा जलाकारविकलाः स्थासकोशकुशूलादयस्तत्त्वतो न तन्मयाः, परमार्थतस्तदाकारपराङ्मुखाश्च पदवाक्यादितो व्यतिरिक्ता गिरितरुपुरल-१० तादयः पदार्थाः' इत्यनुमानतोस्य तद्वैधुर्यसिद्धेश्च ।
किंच, शब्दपरिणामरूपत्वाजगतः शब्दमयत्वं साध्यते, शब्दादुत्पत्तेर्वा ? न तावदायः पक्षः; परिणामस्यैवात्रासम्भवात् । शब्दात्मकं हि ब्रह्म नीलादिरूपतां प्रतिपद्यमानं स्वाभाविकं शब्दरूपं परित्यज्य प्रतिपद्येत, अपरित्यज्य वा ? प्रथमपक्षे-१५ अस्याऽनादिनिधनत्वविरोधः पौरस्त्यस्वभावविनाशाद। द्वितीयपक्षे तु-नीलादिसंवेदनकाले बधिरस्थापि शब्दसंवेदनश्लको नीलादिवत्तव्यतिरेकोत् । यत्खलु यव्यतिरिक्तं तत्तस्मिन्संवेद्यमाने संवेद्यते यथा नीलादिसंवेदनावस्थायां तस्यैव नीलादेरात्मा, नीलाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्द इति । शब्दस्यासंवेदने वा २० नीलादेरप्यसंवेदनप्रसङ्गः तादात्म्याविशेषात् , अन्यथा विरुद्धेधर्माध्यासात्तस्य ततो भेदप्रसङ्गः । न होकस्यैकदा एकातिपत्रपेक्षया ग्रहणमग्रहणं च युक्तम् । विरुद्धधर्माध्यासेप्यंत्र भेदा
१ तेषां प्रत्ययानां । २ शब्द। ३ सर्वे प्रत्ययाः शब्दानु विद्धा इत्यत्र साध्ये साधनाभावः । ४ श्लोक। ५ भिन्नस्य । ६ शब्दानुविद्धत्वराहित्य । ७ शब्दब्राणि । ८ स्वीकुर्वत् । ९ वस्तु। १० तादात्म्यसद्भावात् । ११ का (पञ्चमी पञ्चमीसमास इत्यर्थः)। १२ शब्दस्य । १३ नीलादेरेव संवेदनं न शन्दस्येति चेत् । १४ वेचावेद्यत्वधर्मसाहित्यात् । १५ ब्रह्मणः । १६ नीलात् । १७ अभिन्नस्य शब्दलिजस्य । १८ अन्यथा। १९ नीलनीलशब्दयोः ।
1 "अत्र कदाचिच्छब्दपरिणामरूपत्वादा जगत: शब्दमयत्वं साध्यत्वेनेष्टम् , कदाचिच्छब्दादुत्पत्तेर्वा ... शब्दात्मकं ब्रह्मा नीलादिरूपता प्रतिपयमानं कदाचिनिज स्वाभाविकं शब्दरूपं परित्यज्य प्रतिपद्येत, अपरित्यज्य वा ?' तत्त्वसं० पं० पृ०६८। न्यायकु० च० प्र० परि० । सन्मति० टी० पृ० ३८० । स्या० रखाकर पृ० १०० ।
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४४
प्रलयकालमार्तण्डे [प्रथमपरि० संभवे हिमवाद्भिया दिदानामप्यादानुषङ्गः । किंच, असौ शब्दात्मा परिणाम प्रच्छन्प्रतिपदार्थमेदं प्रतिपद्येत, न बा ? तत्राद्यविकल् शब्दब्रह्मणोऽनेकत्वप्रसङ्गः, विभिन्नानेकार्थस्वभावात्मकत्यत्तत्वरूपैवत् । द्वितीयविकल्पे तु-सर्वेषां नीलादीनां ५ देशकालस्वभावव्यापारावस्थादिभेदाभावः प्रतिभाल भेदाभावश्चानुषज्येता-एकखभावाच्छब्दब्रह्मणोऽभिन्नत्वात्तत्स्वरूपंवत् । तन्न शब्दपरिणामरूपत्वाजगतः शब्दमयत्वम् ।
नापि शब्दादुत्पत्तेः, तस्य नित्यत्वेनाविकारित्वात् , कोण कार्योत्पादविरोधात् सकलकार्याणां युगपदेवोत्पत्तिः स्यात् । १० कारणवैकल्याद्धि कार्याणि विलम्बन्ते नान्यथा । तञ्चेदविकलं किम
परं तैरपेक्ष्यं येन युगपन्न भवेयुः ? किंच, अपरापरकार्यग्रामोऽतोऽर्थान्तरम् , अनर्थान्तरं वोत्पद्येत ? तत्रार्थान्तरस्योत्पत्तौ-कथं 'शब्दब्रह्मविवर्तमर्थरूपेण' इति घटते । न ह्यान्तरस्योत्पादे
अन्यस्य तत्वभावमनाश्रयतः ताद्रूप्येण विवौ युक्तः । तेंदना६५न्तरस्य तूंत्पत्तौ-तस्यानादिनिधनत्वविरोधः।।
ननु ‘परमार्थतोऽनादिनिधनेऽभिन्नस्वभावेपि शब्दब्रह्मणि अविद्याँतिमिरोपहतो जनः प्रादुर्भावविनाशैवत् कार्य मेदेन विचित्रमिव मन्यते । तदुक्तम्
"यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपैलुतो जनः । २० संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥
[बृहदा० भा० वा० ३।५।४३] .
१ ब्रह्मा। २ उत्पादविनाशं । ३ नीलत्वपीतत्वादि । ४ विभिन्नानेकार्थस्वरूपवत् । ५ पदाथैः सहैकत्वे। ६ शान । ७ प्रमेयमेदाद् शानभेद इति वचनात् । ८ पदार्थेभ्यः। ९ शब्दब्रह्मस्वरूपवत् । १० शब्दब्रह्मणः । ११ कार्यैः । १२ घटपटादि। १३ शब्दब्रह्मणः। १४ भिन्नमभिन्नं वा। १५ पूर्वमुक्तं विवर्ततेऽर्थभावेनेति । १६ अपरापरकार्यग्रामस्य । १७ शम्दब्रह्मणः। १८ अर्थान्तर । १९ अर्थान्तररूपेण । २० ब्रह्म । २१ सत्यां । २२ शब्दब्रह्मणः। २३ उत्पाद. विनाशात्मकादर्थादभिन्नत्वात् । २४ अमेदरूपे भेदरूपप्रतिभासः। २५ वतुः इवायें। २६ घटपटादि । २७ नानारूपं । २८ उपहतः । २९ संछिन्नम् । ३० रेखामिः । ३१ नानारूपामिः।
1 “स हि शब्दात्मा परिमाणं गच्छन् प्रतिपदार्थ भेदं वा प्रतिपद्यते न वा " तत्त्वसं० पृ० ७० । न्यायकु० प्र० परि० । सम्मति० टी० पृ० ३८२ । स्या० रत्नाकर पृ० १०१।
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सू० ११३] शब्दाद्वैतविचारः
तथेदमसलं ब्रह्मनिर्विकारम विद्यया। कलुषत्वमिवापन भेदरूपं प्रपश्यति" ॥
[हदा भा० बा० ३३५४४ ] इति । तदप्यसाम्प्रतम् । अत्रार्थे प्रमाणभावात् । न खलु यथोपवर्णितखरूपं शब्दब्रह्म प्रत्यक्षतः प्रतीयते, सर्वदा प्रतिनियतार्थवरूप-५ ग्राहकत्वेनैवास्य प्रतीतेः । यच्च-अभ्युदय निश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणा योगिन एव तत्पश्यन्तीत्युक्तम् । तदप्युजिमानम् : न हि तंव्यतिरेकेणान्ये योगिनो वस्तुभूताः सन्ति सेन के पश्यन्ति' इत्युच्येत । यदि च तज्ज्ञाने तस्य व्यापारः स्यात्तदा 'योगिनस्तस्य रूपं पश्यन्ति' इति स्यात् । यावतोक्तप्रकारेण कार्ये १० व्यापार एवास्य न संगच्छते । अविद्यायांश्च तद्व्यतिरेकेणासंभवाकथं भेदप्रतिभासहेतुत्वम् ? आकाशे च वितथप्रतिभासहेतुभूतं वास्तवमेवास्ति तिमिरम् इति न दृष्टान्तदान्तिकयोः (साम्यम्)।
नाप्यनुमानतस्तत्प्रेतिपत्तिः; अनुमानं हि कार्यलिङ्गं वा भवेत् , १५ खभावादिलिङ्गं वा ? अनुपलब्धेर्विधिसाधकोनान्दभ्युपगमात् । तत्र न तावत्कालिङ्ग, नित्यैकस्वभावात्ततः कायोत्पत्तिप्रतिपेधात्, क्रमयोगपद्याभ्यां तस्यार्थक्रियारोधात् । नापि स्वभा
१ उत्पादविनाशरहितं । २ भेदप्रक्रमे इवशब्दः। ३ इव । ४ इव । ५ पुरोवति। ६ स्वर्ग। ७ मोक्ष। ८ बसः। ९ परेण भवता। १० ब्रह्मणः । ११ परमार्थभूताः। १२ योगिज्ञाने। १३ ब्रह्मणः। १४ अहमिति जनकत्व. लक्षणन्यापारः। १५ साकल्येन। १६ ब्रह्मणः। १७ वटते। १८ किंच। १९ ब्रह्म। २० मिथ्या। २१ तिमिराविद्ययोः । २२ ब्रह्म। २३ कारणलिङ्गं । २४ (अनुपलब्धिरूपो हि हेतुर्न विधिसाधकः)। २५ शब्दब्रह्मणः । २६ घटादि । २७ ब्रह्मणः । २८ कार्य । २९ स्वरूप।
1 "विशुद्धज्ञानसन्ताना योगिनोऽपि ततो न तत् ।
विदन्ति ब्रह्मणो रूपं शाने व्यापृत्य सङ्गतेः ॥ १५१॥ यदि हि शाने योगजे तस्य व्यापारः स्यात्तदा योगिनः तस्य रूपं पश्यन्तीति स्यात् ..." तत्त्वसं० पं० पृ० ७४ ।
2 "नचापि भवतां तद्व्यतिरेकिण्यविद्याऽस्ति” तत्वसं० पं० पृ० ७४ । स्या० रत्ना० पृ० ९९ । शास्त्रवा० समु० टी० पृ०२३७ उ० । .3 आकाशे च वितथप्रतिभासहेतुभूतं वास्तवमेव तिमिरं प्रसिद्धम् , अविद्यायाश्च अवास्तवत्वेन विचित्रप्रतिभासहेतुत्वानुपपत्तितो दृष्टान्तदान्तिकयोःसाम्याऽसंभवात् ।" न्यायकु० प्र० परि० । स्या० रत्ना० पृ० ९९ ।
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प्रमयकालमार्तण्डे प्रथमपरि० बालिङ्गम् । शब्दब्रह्माख्यधार्स एवासिद्धेः । न हासिद्ध धार्मिणि तभावभूतो धीः स्वातन्येण सिद्ध्येत् ।
थचोच्यते-थे यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मया यथा घटशरावोदञ्चनादयो सृद्विकारा मृदाकारानुगता मृन्मयत्वेना प्रसिद्धाः, ५शब्दाकारानुस्यूताश्च सर्वे भावा इति'; तदप्युक्तिमात्रम् ; शब्दाकारान्वितत्वस्यासिद्धेः। प्रत्यक्षेण हि नीलादिकं प्रतिपद्यमानोऽ. नाविष्टाभिलापमेव प्रतिपत्ता प्रतिपद्यते । कल्पितत्वाचास्याऽसिद्धिः। शब्दान्वितरूपाधारार्थातत्त्वेपि हि ते तदन्वितत्वेन्द स्वथा कल्प्यन्ते । तथाभूताच हेतोः कथं पारमार्थिक शब्दब्रह्म १० सिद्ध्येत् ? साध्यसाधनविकलश्च दृष्टान्तो घटादीनामपि सर्वथैकमयत्वस्यैकान्वितत्वस्य चासिद्धेः । न खलु भावानां परमार्थनैकरूपानुगमोस्ति, सर्वार्थानां समानाऽसमानपरिणामात्मकत्वात् किंच, शब्दात्मकत्वेऽर्थानाम् शब्दप्रतीतो सङ्केताग्राहिणोप्यर्थे
सन्देहो न स्यात्तद्वत्तस्यापि प्रतीतत्वात्, अन्यथा तादात्म्य१५ विरोधः । अग्निपाषाणादिशब्दश्रवणाच श्रोत्रस्य दाहाभिघातादिप्रसङ्गः । तन्नानुमानतोपि तत्प्रतीतिः।
नाप्यागमात् , “सर्व खल्विदं ब्रह्म' [मैत्र्यु०] इत्याद्यागमस्य ब्रह्मणोऽर्थान्तरभावे-द्वैतप्रसङ्गात् , अनर्थान्तरभावे तु-तद्वदागमस्याप्यसिद्धिप्रसङ्गः । तदेवं शब्दब्रह्मणोऽसिद्धेर्न शब्दानुविद्धत्वं २० सविकल्पकलक्षणं किन्तु समारोपविरोधिग्रहणमिति प्रतिपत्तव्यम् ।
१ भवता परेण । २ शब्दमयाः । ३ हेतोः । ४ पदार्थ । ५ शब्देन रहितम्। ६ शाता । ७ शब्दान्वितत्वस्य । ८ अर्थाः । ९ शब्द । १० परेण । ११ कल्पित. शब्दान्वितत्वरूपात् । १२ विसदृश । १३ पुरुषस्य । १४ अयं घटः पटो वेत्यादि। १५ शब्दवन्नीलादेरपि । १६ सन्देहश्चेत् । १७ अन्यार्थाभिन्नशब्दस्य श्रोत्रसम्बन्धित्वात् । १८ न च तथास्ति । १९ ब्रह्म। २० आगमो भिन्नो ब्रह्मणः । २१ तस्मात्कारणात् उक्तप्रकारेण । २२ शानम् ।
1 "शब्दार्थयोश्च तादात्म्ये क्षुराग्निमोदकादिशब्दोच्चारणे आस्यपाटनदहनपूरणादिप्रसक्तिः । सन्मति० टी० पृ० ३८६ । शास्त्रवा० टी० पृ० २३७पू० ।
2 “ ब्रह्म खल्विदं वाव सर्वम्" मैन्यु० ४।६।।
3 शब्दब्रह्मवादस्य विविधरीत्या खण्डनं निम्नग्रन्थेषु द्रष्टव्यम्-मीमांसाश्लोक प्रत्यक्षसू० श्लो० १७६ । न्यायमं० पृ० ५३१ । तत्त्वसं० पृ० ६७ । तत्त्वार्थलो. पृ० २४० । न्यायकु० प्र० परि० । सन्मति० टी० पृ० ३८०,४९४ । स्या. रता० पृ० ८८।
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सू० ११३] संशयस्वरूपसिद्धिः
लेनु व्यवसायात्मकविज्ञानस्य प्रामाण्ये निखिलं तदात्मक ज्ञान प्रमाणं स्यात् , तथा च विपर्ययज्ञानस्य धारावाहिविज्ञानस्य व प्रमाणताप्रसङ्गात् प्रतीतिसिद्धरमाणेतरव्यवस्थाविलोपः स्यात्, इत्याशङ्कयाऽतिप्रसङ्गापनोदार्थम् अपूर्वार्थविशेषणमाह । अतोऽनयोरनर्थविषयत्वाविशेषग्राहित्वाभ्यां ज्यवच्छेदः सिद्धः। यद्धाने-५ नाऽपूर्वार्थविशेषणेन धारावाहिविज्ञानमेव निरत्यते । विपर्ययज्ञानस्य तु व्यवसायात्मकत्वविशेषणेनैव निरस्तत्वात् संहायादिखभावसमारोपविरोधिग्रहणत्वात्तस्य ।
ननु संशयादिज्ञानस्यासिद्धस्वरूपत्वात्कस्य व्यवसायात्मकत्वविशेषणत्वेन निरासः ? संशयज्ञाने हि धर्मी, धर्मों वा प्रति-१० भाति ? धर्मी चेत् । स तात्त्विकः, अतात्त्विको वा ? तात्त्विकश्चेत् ; कथं तद्बुद्धेः संशयरूपता तात्त्विकार्थगृहीतिरूपत्वात्करतलादिनिन(ण)यवत् ? अथातात्त्विकः; तथाप्यतात्त्विकार्थविषयत्वात् केशोण्डुकादिज्ञानवद् भ्रान्तिरेव संशयः । अथ धर्म-स स्थाणुत्वलक्षणः, पुरुषत्वलक्षणः, उभयं वा ? यदि स्थाणुत्वल-१५ क्षणः, तत्र तात्त्विकाऽतात्त्विकयोः पूर्ववद्दोषः । अथ पुरुषत्वलक्षणः; तत्राप्ययमेव दोषः । अथोश्यम् । तथाप्युभयर तात्त्विकत्वाऽतात्त्विकत्वयोः स एव दोषः । अथैकस्य तात्त्विकत्वमन्यस्यातात्त्विकत्वम्; तथापि तद्विषयं ज्ञानं तदेव भ्रान्तमभ्रान्तं चेति प्राप्तम् । अथ सन्दिग्धोर्थस्तंत्र प्रतिभासते; सोपि विद्युते २० न वेत्यादिविकल्पे तदेव दूषणम् । तन्न संशयो घटते । नापि विपर्ययस्तस्यापि स्मृतिप्रमोषाद्यभ्युपगमेनाव्यवस्थितेः।
इत्यप्यसमीचीनम् ; यतः संशयः सर्वप्राणिनां चलितप्रतिपत्त्यात्मकत्वेन स्वात्मसंवेद्यः । स धर्मिविषयो वास्तु धर्मविपयो
१ परः। २ घटोऽयं घटोऽयमिति । (निश्चयानन्तरं तेनैवाकारेण पुनः पुनर्यत्प्रवर्तते तजशानम् )। ३ निश्चयात्मकत्वाविशेषात् । ४ परिहारः । ५ जैनैः । ६ प्रभाकरो ब्रूते [ ? तत्त्वोपप्लववादी] । ७ पुरुषः । ८ पुरुषत्वं । ९ संशयो धर्मी संशयरूपतापन्नो न भवतीति साध्यो धर्मः तात्त्विकार्थगृहीतिरूपत्वात् । १० गृहीतिर्ग्रहणम् । ११ बसः। ( बेति शब्दैकदेशेन बहुव्रीहिग्रहणं सकारात्समासार्थबोधः)। १२ उभयप्रतिभासे । १३ स्थाणुत्वस्य । १४ स्थाणौ पुरुषत्वस्य । १५ उभय । १६ पूर्वोक्तं । १७ एकमेव शानं । १८ परः। १९ संशयशाने । २० तात्त्विकः । २१ अतात्त्विको वा। २२ उभयं ।
१६ १७
___1-"तस्मिन् सन्देहशाने किंचित्प्रतिभाति आहोस्विन्न ? यदि किञ्चित् प्रतिभाति स किं धमी, धर्मों वा? तत्त्वोप० लि. पृ० २६ । स्या. रत्ना० पृ० १४३ ॥
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प्रमेयनलमार्तण्डे प्रथमपार० ৰা নায়িকশ্রন্থিী অলিমিহি অস্তাमपि खण्डयितुं शक्यते ? प्रत्यक्षसिद्धस्थाप्यर्थस्वरूपस्यापह्नने सुखदुःखादेरप्यपह्नवः स्यात् । कथं च धर्मिविषयो धर्मविषयो वा' इत्यादि प्रश्नहेतुकसंशयादि(धि)रूढएवायं संशयं निराकुर्यात ५न चेदस्वस्थः ? किंच, उत्पादककारणाभावात्संशयस्य निराला, असाधारणखरूपाभावात्, विषयाभावाद्वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः, तदुत्पादककारणस्थ सद्भावात् , ल ह्याहितसंस्कारस्य प्रतिपत्तुः सैंमानाऽसमानधर्मोपलम्मानुपलस्मतो मिथ्यात्वको
ये सत्युत्पद्यते । असाधारणस्वरूपाभावोप्यासिद्धः; चलितप्रति१० पत्तिलक्षणस्यासाधारणस्वरूपस्य तत्र सत्त्वात् । विषयामावस्तु
दूरोत्सारित एव; स्थाणुत्वविशिष्टतया पुरुषत्वविशिष्टतया वाऽनंवधारितस्य ऊर्द्धतासामान्यस्य तद्विषयस्य सद्भावात् ।
एतेन विपर्यय निरासोपि निराकृतः। तत्राप्युत्पादककारणादेः सद्भावाविशेषात् । किंच, अयं विपर्ययोऽख्यातिम् , असत्ख्या१५तिम्, प्रसिद्धार्थख्यातिम् , आत्मख्यातिम्, सदसत्त्वाद्यनिर्व
नीयार्थख्यातिम् , विपरीतार्थख्यातिम्, स्मृतिप्रेमोषं वाभिप्रेत्य निराक्रियेत प्रकारान्तराऽसम्भवात् ?
अख्याति चेत् ; तथा हि-जलावभौसिनि ज्ञाने तावन्न जलसत्तालम्वनीभूतास्ति अभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । जलाभावस्त्वत्रै न २० प्रतिभात्येव; तद्विधिपरत्वेनास्य प्रवृत्तेः । अत एव मरीचयोऽपि
१ संशयज्ञानस्य । २ त्वया परेण (अपि तु न)। ३ सुखमवयविरूपं परमाणुरूपं वा । न तावदाद्यः पक्षोऽनभ्युपगमात् । द्वितीयपक्षे तु प्रतिभासाभावः स्यादिति । ४ संशयः। ५ प्राभाकरः [तत्त्वोपप्लववादी ] । ६ संशय। ७ ऊर्द्धता। ८ शिरःपाण्यादिमत्त्ववक्रकोटरादिमत्त्व । ९ अनिश्चितस्य । १० संशयनिरासनिराकरणपरेण ग्रन्थेन। ११ तत्तद्वादिनः प्रत्युच्यते। १२ चार्वाकः । १३ सौत्रान्तिकमाध्यमिको । १४ साडयः। वैदान्तिको भास्करीयः। १५ विज्ञानाद्वैतवादी योगाचारः। १६ शाङ्क-रीयः ब्रह्माद्वैतमायावादी च । १७ उभय । १८ नैयायिकवैशेषिकभाट्टवैभाषिकजनाः । १९ ईप् । (सप्तमी)। २० प्राभाकरः। २१ अप्रवेदनं । २२ अर्थस्य । २३ परः । २४ अस्य शानस्य विषयः कः जलं वा तदभावो वा मरीचयो वा अन्यद्वा । २५ मरी. चिकाजलज्ञाने । २६ अन्यथा । २७ मरीचिकायां । २८ जलास्तित्वप्रधानत्वेन ।
__1-अनयैव भङ्गया संशयस्वरूपविचारः ( पूर्वपक्षः ) तत्त्वोप० लि. पृ० २६ । (समग्रः) स्या० रत्ना० पृ० १४३ । इत्यादिषु द्रष्टव्यः।
2 "इदं रजतमिति प्रस्तुतशाने रजतसत्ता विषयभूता तावन्नास्ति अभ्रान्तत्वानुपगात्" न्यायकु० चं० प्र० परि० । स्या० रत्नाकर पृ० १२४ ।
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सू० ११३] विपर्ययज्ञाने अख्यात्यादिविचारः ४९ नालम्वनम् ; तत्त्वे वा तेंद्रहणस्याभ्रान्तत्वप्रसङ्गः । तोयाकारण मरीचिग्रहणमित्यंप्ययुक्तम् । तदन्यत्वात् । न खलु घटाकारेण तदन्यस्य पटादेर्ग्रहणं दृष्टम् । ततो निरालम्बनं जलादिविपर्ययज्ञानम् ; इत्यप्यविचारितरमणीयम्; विशेषतो व्यपदेशाभावप्रसङ्गात् । यात्र हि न किञ्चिदपि प्रतिभाति तत्केन विशेषेण जल-५ ज्ञानं रजतज्ञानमिति वा व्यपदिश्येत? भ्रान्तिसुषुप्तावस्थयोरविशेष प्रसङ्गश्च । न ात्र प्रतिभासमानार्थव्यतिरेकेणान्योऽस्ति विशेषः । प्रतिभासमानश्च तज्ज्ञानस्यालम्बनमित्युच्यते । तन्नाख्यातिरेव विपर्ययः।
सत्यमेतत् ; तथापि प्रतिभासमानोऽर्थः सद्रूपो विचार्यमाणो १० नास्तीत्यसत्ख्यातिरेवासी । शुक्तिकाशकले हि न शुक्तिकादिप्रतिभासः, किं तर्हि ? रजतप्रतिभासः । स च रजताकारस्तंत्र नास्तीतिः
तयुक्तम् ; इत्यपरः । कस्मात् ? असंतः खपुष्पादिवत्प्रतिभासासम्भवात् । भ्रान्तिवैचित्र्याभावप्रसङ्गश्च न हासत्ख्यातिवा-१५ दिनोऽर्थगेंतं ज्ञानगरं वा वैचित्यमास्ति ऐनानेकप्रकार मन्तिः स्यात् । तस्मात्प्रणमालिक एकायो विचित्रतत्र प्रतिभाति । म चौस्य विचार्यमाणस्यासत्त्वम् विचारस्य प्रतीतिव्यतिरेकेणाऽन्यस्थासम्भवात् । प्रतीत्यबाधितत्वाच्च, करतलादेरपि हि प्रतिभासबलेनैव सत्त्वम् , स च प्रतिभासोऽन्यत्राप्यस्ति । यद्यप्युत्तर-२० कालं तथा सोऽर्थो नास्ति, तथापि यदा प्रतिभाति तदा तावद
१ मरीचिविषयत्वे च । २ शानस्य । ३ शानस्य सत्यार्थग्राहकत्वात् । ४ तोयात् । ५ शाने। ६ निर्विषयं । ७ शाने। ८ शानं। ९ भ्रान्तज्ञाने। १० जल । ११ स्याद्वादिभिरुक्तम् । १२ माध्यमिकोऽब्रवीत् । १३ जलादिः। १४ तज्ज्ञानस्याभ्रान्तताप्रसंगात् । १५ विपर्ययः । १६ जल। १७ विपर्ययस्थले । १८ साङ्ख्यः । १९ शुक्तिकायां रजतज्ञानमेकचन्द्रे द्विचन्द्रशानमित्यादि। २० अर्थस्याऽसत्त्वात् । २१ शानत्वेनैकादृशत्वात् । २२ सत्यभूतः। २३ नानाप्रकारः। २४ भ्रान्तत्वेन उपगते शाने। २५ रजताद्यर्थस्य । २६ पूर्वकालवत् ।
1 विपर्ययशाने अख्यातिवादस्य अनयैवानुपूर्व्या विचारः न्यायकु. चं० प्र० परि० तथा स्या० रत्ना० पृ० १२४ इत्यादिषु द्रष्टव्यः ।
2 "असतः प्रख्योपाख्याविरहितस्य खपुष्पादिवत् प्रतिभासाऽसंभवात्.. भ्रान्तिवैचिच्याभावप्रसंगश्च । न्यायकु० चं० प्र० परि० । स्या. रत्नाकर पृ० १२५ ।
3 असत्ख्यातेः प्रतिविधानं न्यायवा० ता० टी० पृ० ८६, न्यायमं० पृ०१७७, न्यायकु० प्र० परि०, स्या० रत्ना० पृ० १२५ । इत्यादिषु द्रष्टव्यम् ।
प्र. क. मा०५
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प्रमेयकमलभाण्डे সত্মত্মঘাহি स्त्येव, अन्यथा विधुदाडेरपि स्वस्वसिद्धिन स्यात् । तस्मात्प्रसिद्धार्थख्यातिरेव युक्ताः
इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यथावस्थितार्थगृहीतित्वाविशेोहि भ्रान्ताऽ. भ्रान्तव्यवहाराभावः स्यात् । अपि चोत्तरकालसुदकाढेरैआवेऽपि ५ तचिह्नस्य भूस्निग्धतादेरुपलम्भः स्यात् । न खलु विद्युदादिवढकादेरप्याशुभावी निरन्वयो विनाशः कचिदुपलभ्यते । सर्वतद्देशद्रष्टणामविसंवादेनोपलम्भश्च विद्युदादिवदेव स्यात् । वाध्यवाधकभावश्च न प्राप्नोति; सर्वज्ञानानामवितथार्थविषयत्वाविशेषात् । ___ यदप्युच्यते-ज्ञानस्यैवार्यमाकारोऽनाद्यऽविद्योपप्लवसामर्थ्या १० हिरिव प्रतिभासते । अनादिविचित्रवासनाश्च क्रमविपकवत्यः पुंसां सन्ति तेनानेकाकारीणि ज्ञानानि वाकारमात्रसंवेद्यानि क्रमेण भवन्तीत्यात्मख्यातिरेवेति; तदप्युक्तिमात्रम्; यतः स्वात्ममात्रसंवित्तिनिष्ठत्वे अर्थाकारत्वे च ज्ञानस्यात्मख्यातिः सिद्ध्येत् । न च तत्सिद्धम् , उत्तरत्रोभयस्यापि प्रतिषेधात् । सर्व१५ ज्ञानानां स्वाकारग्राहित्वे च भ्रान्ताऽभ्रान्तविवेको वाध्यवाधक
भावश्च न प्राप्नोति, तेत्र व्यभिचाराभावाविशेषात् । स्वात्मस्थितत्वेन रजताद्याकारस्य संवेदनेन च सुखाद्याकारवद्वहिष्ठेतया
१ मरीचिकायां जललक्षणोऽर्थः सत्यभूतः प्रतिभासमानत्वात् घटवत् । २ सर्वज्ञानानामङ्गीक्रियमाणे। ३ सति। ४ तत्र प्रवृत्तस्य पुरुषस्य । ५ उत्तरकाले। ६ विचारिते सति । ७ सत्यभूतार्थ । ८ ज्ञानाद्वैतवादिना योगाचारेण । ९ शुक्तिकादौ रजताद्याकारः। १० अयथार्थवित्तिशक्ति । वित्तिर्धान्तिः। ११ शानात् । १२ उद्बोधवत्यः। १३ कारणेन। १४ अनाद्यविद्यासामर्थेन । १५ घटादि । १६ ग्राह्यग्राहक। १७ संवित्तिरूपाणि। १८ ज्ञान । १९ बसः। (बहुव्रीहिसमास इत्यर्थः)। २० मरीचिकायां जलाकारः ज्ञानात्मा प्रतिभासमानत्वात् शानस्वरूपवत् । २१ शानप्रतीतिः। २२ शानस्य । २३ सिद्धे । २४ द्वयं । २५ नीलकेशोण्डुकादिसर्वविकल्पानां। २६ आत्मस्वरूपमात्रे। २७ स्वस्य शानस्यात्मा स्वरूपं तत्र स्थितत्वेन । २८ बहिःस्थिततया।
1 अनयैव रीत्या प्रसिद्धार्थख्यातेर्विचारः न्यायकु० चं० प्र० परि० । स्या० रत्ना० पृ० १२६ । इत्यादिषु द्रष्टव्यम् । 2 आत्मख्यातेनिरूपणं न्यायमअर्यामित्थं दृश्यते (पृ० १७८)
"विज्ञानमेव खल्वेतद्गह्मात्यात्मानमात्मना। बहिर्निरूप्यमाणस्य ग्राह्यस्यानुपपत्तितः ॥ बुद्धिः प्रकाशमाना च तेन तेनात्मना बहिः । तद्वहत्यर्थशून्यापि लोकयात्रामिहेदूशीम् ॥"
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सू० ११३] अनिर्वचनीयार्थख्यातिविचारः ५१ प्रतीतिर्न स्यात् । प्रतिपत्ताचे तेंदुपादानार्थेन प्रवत्तेत, अवहिष्टाsस्थिरत्वेन प्रवृत्त्यविषयत्वात् । अथाविद्योपप्लववशाबहिष्ट-स्थिरत्वेनाध्यवसायः; कथले विपरीतख्यातिरेव नेष्टा, ज्ञानादभिन्नस्थास्थिरस्य चाकारल्याव्याथाध्यवसायायुपगमादिति ?
यचोच्यतो का ज्ञानल्या विषय उपदेशेषल्योऽनुमानसाध्यो वा ५ अन विशीतोऽथ कल्पयेता। किं तर्हि ? यो बलिद झान्ने प्रतिभाति स तस्य विषय इत्युच्यते । जलादिशाले च जलाई एक प्रतिभाति न तद्विपरीतः, जलादिज्ञानव्यपदेशामावलगातार च जलाद्यर्थः सन्न भवति तद्बुद्धेरभ्रान्तत्वप्रसङ्गीत् । नाप्यसन खपुष्पादिवत्प्रतिभासप्रवृत्त्योरविषयत्वानुषङ्गात् । नापि सद-१० सद्रूपः; उभयदोषानुषङ्गात् , सदसतोरैकात्म्यविरोधाच्च । तस्मादयं बुद्धिसन्दर्शितोऽर्थः सत्त्वेनासत्त्वेनान्येन वा धर्मान्तरेण निर्वक्तुं न शक्यत इत्यनिर्वचनीयार्थख्यातिः सिद्धा; इत्यपि मनो
१ प्रमाता। २ किंच। ३ रजतादि । ४ ज्ञानस्य क्षणिकत्वात् । ५ परः । ६ रजतादेः। ७ अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादिना शाङ्करीयेण। ८ विपरीतार्थख्याति दृषयन् अनिर्वचनीयार्थख्याति समर्थयते। ९ रजतादिः १० विपरीत इति । ११ रजतमिदमिति शाने किंरूपोऽर्थः प्रतिभासते इति प्रश्ने पर उपदेशं करोति । कर्थ शुक्तिकाशकलमिति रजतमिदमिति ज्ञानं पुरोवर्तिवस्तुविषयं तत्रैव प्रवर्तकत्वात्सम्प्रतिपन्नशानवदित्यनुमानं रजतमिदमित्येतस्मिन् ज्ञाने प्रतिभासमानार्थस्योपदेशगम्यत्वेऽनुमानसाध्यत्वे वा विपरीतार्थख्यातिः स्यात्प्रतिभासमानार्थव्यतिरेकेणार्थान्तरस्य सद्भावात शुक्तिशकलस्य । १२ मरीचिकाचके जललक्षणः । १३ प्रतिभासमानाद्विपरीतोऽर्थः शुक्तिशकललक्षणः। १४ अन्यथा। १५ अन्यथा। १६ उत्तरकाले बाधकानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । १७ उभयेन। १८ निरूपयितुं। १९ विवादापन्नो जललक्षणोऽर्थः सत्त्वाऽसत्त्वाद्यनिर्वचनीयः प्रतिभासमानत्वे सति बाध्यमानत्वान्यथानुपपत्तेः ।
1 आत्मख्यातेविविधरीत्या पर्यालोचनं निम्नग्रन्थेषु द्रष्टव्यम्-न्यायवा० ता० टी० पृ० ८५, भामती पृ० १४, न्यायमं० पृ० १७८, न्यायकुमु० प्र० परि०, स्या० रत्ना० पृ० १२८ ।
2 "तत्किं मरीचिषु तोयनिर्भासप्रत्ययः तत्त्वगोचरः, तथा च समीचीन इति न भ्रान्तो नापि बाध्येत । अद्धा न बाध्येत यदि मरीचीनतोयात्मतत्त्वा न तोयात्मना(?)गृह्णीयात् । तोयात्मना तु गृह्णन् कथमभ्रान्तः कथं वाऽबाध्यः ? इन्त तोयाभावात्मनां मरीचीनां तोयभावात्मत्वं तावन्न सत्; तेषां तोयाभावादमेदेन तोयभावात्मताऽनुपपत्तः । नाप्यसत्; वस्त्वन्तरमेव हि वस्त्वन्तरस्यासत्वमास्थीयते 'भावान्तरममावोऽन्यो न कश्चिदनिरूपणात्' इति वदद्भिः। ......तस्मान्न सत्, नापि सदसत्; परस्परविरोधात , इत्यनिर्वाच्यमेवारोपणीयं मरीचिषु तोयमास्थेयम् । तदनेन क्रमेण
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५२
प्रमेयकमलमार्तण्डे রূ সলফিও रथमात्रम् ; अद्वैतसिद्धी होतेत्तियेत्, चाद्वैतं निराकरिध्यामः । यच्छोक्तम्-न शानस्य विषय उपदेशगस्य इत्यादि तेद्भवतामेव मातम्, तथा हि-जलादिभ्रान्तौ नियतदेशकालस्वभावः सदात्मकत्वेनैव जलाद्यर्थः प्रतिभाति तब्रहणेप्लोस्लत्रैव ९प्रवृत्तिदर्शनात् तत्कथमसावनिर्वचनीयः स्यात् ? न होवंभूत्वे
प्रतिभासवृत्ती अनिर्वचनीयेऽर्थे सम्भवतः। अथ विचार्यमाण एवासौ सदसत्त्वादिभिरनिर्वचनीयः सम्पद्यते न तु भ्रान्तिकाले तथा प्रतिभातीति; नन्वेवमन्यथाप्रतिभासाद्विपरीतख्यातिरेव स्यात्। १० नन विपरीतख्यातिरपि प्रतिभासविरोधान्न युक्तेति । क एव
माह-विपरीतोऽयमर्थः' इति ख्यातिः ? किं तर्हि ? पुरुषविपरीत स्थाणौ 'पुरुषोऽयम्' इति ख्यातिर्विपरीतख्यातिः। ननुं पुरुषावभासिनि ज्ञाने स्थाणोरप्रतिभासमानस्य विषयत्वमयुक्तं सर्वत्रोंप्यव्यवस्थाप्रसङ्गात् : तयुक्तम् । यतः स्थाणुरेवात्र ज्ञाने तद्रूपस्या१५ नवधारणादधर्मादिवशाच्च पुरुषाद्याकारणाध्यवसीयते । वाधोत्तरकालं हि प्रतिसैन्धत्ते स्थाणुरयं मे 'पुरुषः' इत्येवं प्रतिभात
१ भेदेन निरूपयितुमशक्यत्वमद्वैताश्रितं पुरुषाद्वैताभावे तदसम्भवादित्यर्थः । २ भवदुक्तम् । ३ परेण। ४ अनुमानसाध्य । ५ अर्थोऽनिर्वचनीय इति उपदेशगम्येनेत्यादि । ६ रजतसपीदि । ७ इति नियतदेशादिस्वभावस्यार्थस्य सदात्मकप्रति. भासमानस्योपदेशादनिर्वचनीयत्वं कथं स्यात् । रजतादिभ्रान्तौ प्रतिभासमानोऽर्थः अनिर्वचनीयः सत्त्वादिना बाध्यमानत्वे सति प्रतिभासमानत्वान्यथानुपपत्तेरित्यर्थस्योपदेशागम्यत्वमनुमानबाध्यत्वं च भवतामेवायातम् । ८ सदात्मकविषयतद्हणेषु निबन्धने। ९ रजतलक्षणस्य। १० यदि । ११ उत्तरकाले। १२ अनिर्वचनीय एव तत्काले सत्त्वेन भातीति। १३ अनिर्वचनीयार्थस्य अनिर्वचनीयरूपतया प्रतिभासनात् । १४ परः। १५ विपरीतोयमर्थ इति प्रतिभासाभावात् । १६ चेत् । १७ परः। १८ अन्यथा। १९ घटपटादिप्रतिभासिनि ज्ञाने। २० अप्रतिभासमानस्य पुरुषस्य विपरीतत्वं स्यात् । २१ चेत् । २२ काचादिदोष । २३ प्रत्यभिज्ञानं ।।
अध्यस्तं तोयं परमार्थतोयमिव अत एव पूर्वदृष्टमिव, तत्त्वतस्तु न तोयं न च पूर्वदृष्टम् , किन्त्वनृतमनिर्वाच्यम्।
___ भामती पृ० १३ । "प्रत्येक सदसत्त्वाभ्यां विचारपदवीं न यत् । . . गाहते तदनिर्वाच्यमाहुर्वेदान्तवादिनः ॥" चित्सुखी पृ० ७९ । ___1 पृ० ५१ पं० ५। . . 2 अनिर्वचनीयार्थख्यातेर्विचारः भङ्गयन्तरेण न्यायवा० ता० . टी० पृ० ८७, न्यायकुमु० प्र०. परि०, स्या० रत्ना० पृ० १३३ इत्यादिषु द्रष्टव्यः । . . . .
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सू० ११३] स्मृतिप्रमोषविचारः इति, कथमेवं विपर्ययनिरासः तस्या एव तद्रूपत्वादिति ? स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमेन तु विपर्ययप्रत्याख्यानमयुक्तम् । तस्यालिद्धरूपत्वात्।
नेनु शुक्तिकायाम् इदं रजतम् इति प्रतिभालो विपर्ययः, न चासौ विचार्यमाणो घटते ! नाहि 'इदं रजतम् इत्येकमेवेदं ज्ञानं५ कारणासावात् । तथाहि-न दोषैश्चक्षुरादीनां शत्तेः प्रतिबन्धः नियते, कार्यानुत्पत्तिमलङ्गात् । न हि दुष्टर यवा विपरीत कार्यमाविर्भावयन्ति । अत एव प्रध्वंसोऽपि। किञ्च,"लस्बद्धं वर्तमान च गृह्यते चक्षुरादिना"। [मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० ८४] रजतस्य चासम्बद्धत्वादवर्तमानत्वाञ्च चक्षुषा कथं वर्तमानरजताकारा-१० वभासः स्यात् ? ज्ञाने च कस्यायमाकारः प्रथते ? न तावद्रजतस्य; अवर्तमानत्वात् । नापि ज्ञानस्यैव; खंसिद्धान्तविरोधात् । किञ्च, अंगृहीतरजतस्येदं विज्ञानं नोपजायते, अतिप्रैसङ्गात् । गृहीतरजतस्य च तद्रजतमिदम्' इति स्यात् , इन्द्रियसंस्कारसादृश्य
.१ विपरीतख्यात्यभ्युपगमप्रकारेण। २ विपरीतख्यातेः। ३ विवेकाख्यातिमभिप्रेत्य विपर्ययनिरासः क्रियते इति प्रभाकरेणोक्तं तं प्रत्याह । ४ परः। ५ एकत्वेन शानोत्पत्तौ। ६ काचकामलादिदोषैः। ७ इदं रजतमिदं जलं। ८ यवाङ्कुरादन्यत् शाल्यङ्करादि। ९ न हि बीजप्रध्वंसोऽङ्करं जनयति । १० कारणाभावः । ११ वस्तु। १२ शुक्तिकायों । १३ विषयाभावः । १४ चक्षुषा जनिते रजतज्ञाने । १५ वस्तुनः। १६ प्रकाशते। १७ जैनस्य । १८ स्वरूपाभावः। १९ अज्ञात । २० नुः। २१ इदं रजतमिति । २२ अन्यथा। २३ भूभवनड़ितोत्थितस्यापीदं रजतमिति विज्ञानं भवतु। २४ नुः। २५ इन्द्रियेणेदमंशोल्लेखि ज्ञानं संस्कारेण तद्रजमित्यंशोल्लेखिस्सरणं सादृश्यदोषलक्षणाभ्यां कारणाभ्यां तद्रजतमिदमिति सामानाधिकरण्यं भवति । नापि सादृश्यादेव केवलात् सामानाधिकरण्यं पूर्व गृहीतरजतस्य नुः दृश्यमाने सत्यरजते तद्रजतमिदमिति सामानाधिकरण्यप्रसङ्गात् सादृश्याविशेषात् । नापि दोषात्केवलात्सामानाधिकरण्यं स्तम्भेपि तत्प्रसङ्गात् दोषलक्षणस्य कारणस्य स्तम्भपि विद्यमानत्वात् । तसादुभयं कारणं सादृश्यदोषो। .. 1 "युक्तं च दुष्टतायाः कार्याऽक्षमत्वं ने पुनः कार्यान्तरसामर्थ्यम्"।
बृहती पृ० ५३ । "दोषा हि कारणानां सामथ्र्य नितन्ति न पुनः कार्यान्तरजननसामर्थ्यमादधति, न खलु भ्रष्टकुटजबीजं न्यग्रोधधानाय कल्पते, किन्तु न करोति कुटजधानम् ।' न्यायवा० ता० टी० पृ० ८८ । भामती पृ० १४ । न्यायमं० पृ० १७६ ।
2 "रजतप्रतिपत्तिश्च नेयमन्धस्य जायते। तेनेयमिन्द्रियाधीना संयुक्ते चेन्द्रियं धियम् ॥ १२ ॥"
प्रकरणयं० पृ० ३३ ।
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५४
प्रसेशकमलमा डे [प्रथमपारे० दोषैर्जन्यमानत्वात् । किश, शुक्तिकाया रजतललगः न तावादसन् प्रतिभासते, हे खपुष्पसंलगवत् असत्ख्यातित्वप्रलङ्गात् । नापि सन् ; रजतस्य तत्रासत्त्वात् । ततो शानइयमेतत् इदम्' इति हि दुरोव्यवस्थितार्थप्रतिभासनम् , 'रजतम्' इति च पूर्वाव५ यतरजतलरणं सायादेः कुतश्चिन्निमित्तात् । तच्च सरणमपि स्वरूपेण नावभासत इति स्मृतिग्रमोषोऽभिधीयते । यत्र हि 'स्मरामि' इति प्रत्ययस्तत्र स्मृतेरप्रमोषः, न धुनयंत्रस्मृतित्वेऽपि 'स्मरामि' इति रूपाप्रवेदनम् । प्रवृत्तिश्च अदाऽग्रहणादेवोपपन्ना !
ननु कोऽयं तदग्रहो नाम ? न तावदेकत्वग्रहः; तस्यैव विपर्यय१० रूपत्वात् । नापि तद्रहणप्रागभावः तस्याऽप्रवृत्ति हेतुत्वात्,
प्रवृत्तिनिवृत्त्योः प्रमाणफलत्वादिति चेत्, न; भेदाऽग्रहण चिवस्य रजतज्ञानस्य प्रवृत्तिहेतुत्वोपपत्तेरिति ।
१ अन्यथा (असतः प्रतिभासे)। २ शुक्तिकायां। ३ दोषात् । ४ मनोदोषः । ५ रजतज्ञानं। ६ प्राभाकरेण। ७ ज्ञाने। ८ प्रतीतिः। ९ प्रत्यक्षस्मरणयोर्मिनयोरेकत्वेन ग्रहणं विपर्ययः । १० सत्यासत्यज्ञानयोरित्यादि । ११ विपरीतख्यातित्वप्रसङ्गादित्यर्थः। १२ मेद। १३ शानस्य। १४ बाधकोत्पत्तेः पूर्व । १५ सहायस्य ।
1 "विशानद्वयं चैतत् इदमिति प्रत्यक्षं रजतमिति स्मरणम् ।” बृहती पृ० ५१ ॥
"रजतमिदमिति नैकं शानम् , किन्तु दे एते विशाने । तत्र रजतमिति सरणं तस्याननुभवरूपत्वान्न प्रामाण्यप्रसङ्गः । इदमित्यपि विज्ञानमनुभवरूपं प्रमाणमिष्यत एव ।"
प्रकरणपं० पृ० ४३ । 2 "शुक्तिकायां रजतज्ञानं सरामीति प्रमोषात् स्मृतिशानमुक्तं युक्तं रजतादिषु-"
बृहती पृ० ५३ । "सरामीति ज्ञानेशून्यानि स्मृतिशानान्येतानि" बृहती पृ० ५५ । तु०-“सा च रजतस्मृतिर्न तदा स्वेन रूपेण प्रकाशते स्मरामीतिप्रत्ययाभावात्। न्यायमं० पृ० १७८ । 3 "ग्रहणस्मरणे चेमे विवेकानवभासिनी ॥ ३३ ॥
सम्यग्रजतबोधात्तु मिन्ने यद्यपि तत्त्वतः । तथापि भिन्ने नाभातः मेदाग्रहसमत्वतः ॥ ३४ ॥ सम्यग्रजतबोधश्च समक्षकार्थगोचरः। ततो भिन्ने अबुद्धा तु स्मरणग्रहणे इमे ॥ ३५ ॥ समानेनैव रूपेण केवलं मन्यते जनः । व्यवहारोऽपि तत्तुल्यः तत एव प्रवर्तते ॥ ३६॥ समत्वेन च संवित्तेः भेदस्याग्रहणेन च।" प्रकरणपं० पृ० ३४ ।
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सू० ११३]
स्मृतिप्रमोषविचारः
अत्र प्रतिविधीयते-न दोषैः शक्तेः प्रतिबन्धः प्रध्वंलो वा विधीयते, किन्तु दोषसमवधाने चर्चारादिभिरिदं विज्ञान विधीयते । दोषाणां चोदमेव लामी रत्तत्सन्निधानेऽविधेमानेप्यर्थे ज्ञानमुत्पादयन्ति चक्षुरदनि । चैवमसत्ख्यातिः स्यात् ; लाश्यस्यापि तद्धतुत्वात् । असल्याटिनु न तं तुका,५ खंयुष्यज्ञानवत् रजताकारश्च प्रतिभालसानो वातयः संस्कारस्यापि तद्धेतुत्वात् । दोषाद्धि संस्कारसहायादवले रजतस्यायमाकारः पुरोवर्तिन्यर्थे प्रतिमासते। न चैवं तद्रजसको स्यात् ; दोषवशात्पुरोव्यवस्थितार्थ रजताकारस्य प्रतिमासनात् । कथमन्यथा भवतोऽपि तद्रजतमिति प्रतिभासो न स्यात् ? ततो १० यथा तव स्मृतिप्रमोषस्तथा दोषेभ्यः सामानाधिकरण्येन पुरोवर्तिन्यवर्तमानरजताकारावभासः किन्न स्यात् ? अनेन 'तत्संसर्गः सैन्नसन्वा प्रतिभासते' इत्यपि निरस्तम् । न च विवेकौंडख्यातिसहायाद्रजतज्ञानात् प्रवृत्तिर्घटते; 'घटोयम्' इत्याद्यभेदज्ञानात्प्रवृत्तिप्रतीतेः। विवेकाख्यातिश्च भेदे सिद्धे सियेत् । न १५ चौत्र ज्ञानभेदः कुंतश्चित् सिद्धः, तथापि तत्कल्पने 'घटोयम्' इत्यादादामि शानदः कल्पयतामविशेशात अन खत बटर ग्रहणानाला कल्प्यते; तर्हि अन्यत्राप्यस्तो प्रहयात्तत्कल्पना माभूत् । यथैव हि गुणान्वितैश्चक्षुरादिभिः सति वस्तुन्येकं ज्ञानं जन्यते, तथा दोषान्वितैः सादृश्यवशादसत्येकं ज्ञानं जन्यते । २०
१ परोक्ते प्रत्युत्तरं दीयते जैनैः। २ काचकामलादिभिः। ३ नेत्रादीनां । ४ रजतं । ५ रजते। ६ पूर्वदृष्टरजतेन शुक्तिकायाः सादृश्यं । ७ अन्यथाख्याति । ८ विपर्यवज्ञानस्य तादृश्य हेतुः। ९ सादृश्यहेतुका। १० सादृश्यहेतु। ११ खं तहिं आत्मख्यातिः स्यात् । १२ न ज्ञानस्य आकारः आत्मख्यातिप्रसङ्गात् । १३ रजतशान। १४ शुक्तिकादौ । १५ रजतमिदमिति शानस्य सादृश्यनिबन्धनत्वेन । १६ पूर्व रजतानुभवाऽविशेषात्। १७ परस्य । १८ अभावः। १९ तद्रजतमित्येतसिन्निदं रजतमिति शानं यथा ते प्रमोषवशाज्जायते । २० इदं रजतमिति इदंरजतयोरेकाधिकरणत्वेन। २१ शुक्तिकादौ। २२ सर्वथासन्निति वक्तुं न शक्यते सदृशरूप. स्यानुभूयमानत्वात्सर्वथाऽसन्निति वक्तुं न शक्यते अनुभूतरजतस्य पुरोदेशे असम्भवात् कथञ्चिदनुभव इति इति भावः। २३ भेदाऽग्रहणं । २४ इदं रजतमित्यत्र । २५ इदं प्रत्यक्षं रजतमिति सरणम् । २६ प्रमाणात् । २७ शानभेदसियभावश्च । २८ परः। २९ घटोयमित्यत्र । ३० इदं रजतमित्वत्र । ३१ नैर्मल्यादि ।
___ 1 तु०-"यतो न तैस्तस्याः प्रतिबन्धः प्रचंसो वा विधीयते, किन्तु स्वसन्निधाने रजतमिदमिति शानमेवोत्पावते"
न्यायकुमु० प्र० परि०।
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प्रसेयकालखाण्डे সজলঘৰিও गुणदोषाणां च सका शानजनकत्वं च स्वतःप्रामाण्य प्रतिषेधप्रस्ताले प्रतिपाइयियामः । न च प्रभाकरमते विवेकख्यातिः सस्सवति, तत्र हि इदम्' इति प्रत्यक्षं 'रजतम्' इति च स्मरणमिति संवित्तिद्वयं प्रसिद्धम् , तञ्चाऽऽत्मप्राकट्येनेवोत्पद्यते । ५आत्मप्राकट्यं चान्योन्यभेदग्रहणेनैव संवेद्यते घटपटादिसंवितिवत् । किञ्च, विवेकख्यातेः प्रागभावो विवेकाख्यातिः । न काभावः प्रभाकरमतेऽस्ति । ___ कश्चायं स्मृतेः प्रमोषः-किं स्मृतेरभावः, अन्यावभासो वा
स्यात्, विपरीताकारंवेदित्वं वा, अतीतकालस्य वर्तमानतया १० ग्रहणं वा, अनुभवेन सह क्षीरोदकवदविवेकेनोत्पादो या प्रकारान्तरासम्भवात् ? तत्र न तावदाद्यः पक्षः; स्मृतेरभावे हि कथं पूर्वदृष्टरजतप्रतीतिः स्यात् ? मूंाद्यवस्थायां च स्मृतिप्रमोषव्यपदेशः स्यात् तदभावाविशेषात् । अथात्र 'इदम्' इति भासाभाकानासौ नेनु इदम्' इत्यत्रापि किं प्रतिभातीति वक्तव्यम् ? १५पुरोव्यवस्थितं शुक्तिकाशकले मिति चेत्, ननु स्वधर्मविशिष्टत्वेन तत्तत्र प्रतिभाति, रजतसन्निहितत्वेन वा? प्रथमपक्षे-कुतः स्मृतिप्रमोषः? शुक्तिकाशकले हि स्वगतधैर्मविशिष्टे प्रतिभासमाने कुँतो रजतस्मरणसम्भवो यतोऽस्य प्रमोषः स्यात् ? न खलु
१ किं च। २ ता (षष्ठी)। ३ भेदाप्रतिभास इत्यर्थः। ४ शानद्वयं । ५ स्वरूप। ६ आविर्भाव । ७ भेदस्याप्रतिभासः। ८ अभावः। ९ मर्यमाणाद्रजतादन्यस्य शुक्तिकाशकलस्यावभासः। १० स्मर्यमाणाद्रजतादस्पष्टाकारात्स्पष्टाकारः। ११ अतीतः कालो यस्य रजतस्य तदिदमतीतकालं तस्यातीतकालस्य रजतस्य । । १२ प्रत्यक्षेण सह स्मृतेः। १३ स्मृतेरभेदेन। १४ अन्यथा। १५ स्मृतेः ? ( मूर्छाद्यवस्थायाम् )। १६ जैनमाशङ्कते प्राभाकरः। १७ प्रष्टव्यम् । १८ प्राभाकराभिप्रायः। १९ भो प्राभाकर। २० व्यस्रचतुरस्रादि। २१ सम्बद्धत्वेन ।' २२ न कुतोपि स्मृतिप्रमोषो भवेत् । २३ व्यस्रादि । २४ न कुतोपि ।
1 तु०-"कोऽयं विप्रमोषो नाम-किमनुभवाकारस्वीकरणम् ,' स्मरणाकारप्रध्वंसो वा, पूर्वार्थगृहीतित्वं वा, इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वं वा, इन्द्रियार्थसन्निकर्षाजत्वं वा? "
तत्त्वोपप्लव लि० पृ० २५ । "कोऽयं स्मृतेः, प्रमोषोनाम-विनाशः, प्रत्यक्षेण सहकत्वाध्यवसायाः, प्रत्यक्षरूपतापत्तिः, तदित्यंशस्याऽनुभवः, तिरोभावमानं वा ?” न्यायकुमु० प्र० परि० ।
स्या० रत्ना० पृ० १२० । "किं स्मृतेरभावः, उत अन्यावभासः, भाहोस्विदन्याकारवेदित्वम् इति' विकल्पाः"
सन्मति० टी० पृ० २८ ।
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सु० १२३
स्मृतिप्रमोषविचारः
घटे गृहीते पटस्मरणसम्भवः। अथ शुक्तिकारजतयोः सादृश्याच्छुक्तिकाप्रतिभासे रजतस्मरणम् ; न; अस्याऽकिञ्चित्करत्वात् । यंदा ह्यसाधारणधर्माध्यालितं शुक्तिनास्वरूपं प्रतिभाति तदा कथं संदृशवस्तुमरणम् ? अन्यथा लवन स्यात् । सामान्यमात्रग्रहणे हि तँत् कदाचिस्यादसि नाऽसाधारणखरूपप्रतिभासे ।५ द्विचन्द्रादिषु च जातितैलिरिकप्रतिभासविषये सशवस्तुप्रतिभालामावात् कथं स्कृतेरुत्पत्तिर्यतः प्रमोषः स्यात् ? नानि त्सनिहितत्वेन प्रतिभाला, रजतस्य त्रासत्वेन तत्सविधावाजोगात् । इन्द्रियसम्वद्धानां च तद्देशवर्तिनां परमाण्वादीनामपि प्रतिभासः स्यात् तदविशेषात् । नाप्यन्यावासोऽसौ; स हि किं १० तत्कालभावी, उत्तरकालभावी वा स्यात् ? तत्कालभावी चेत् ; तर्हि घटादिज्ञानं तत्कालभावि तस्याः प्रमोषः स्यात् । नाप्युत्तरकालभाव्यन्यावभासोऽस्याःप्रमोषः; अतिप्रसङ्गात्। यदि हि उत्तरकालभाव्यन्यावभासः समुत्पन्नस्तहि पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वेनासौ नाभ्युपैगमनीयः, अन्यथा सकलपूर्वज्ञानानां स्मृतिप्रमोषत्वेना-१५ भ्युपगमनीयः स्यात् । किञ्चा, अन्यावालल्य सद्धाने परिस्फुटवयुः स एका प्रतिसातोति कथं रजते स्कृतिमोपः ? निखिलान्यावभासानां स्मृतिप्रमोषतापत्तेः । अथ विपरीताकारवेदित्वं तस्याः प्रमोषः; तर्हि विपरीतख्यातिरेव । कश्चासौ विपरीत आकारः? परिस्फुटार्थावभासित्वं चेत्, कथं तस्य स्मृतिसम्ब-२० धित्वं प्रत्यक्षाकारत्वात् ? तत्सम्बन्धित्वे वा प्रत्यक्षरूपतैवास्याः स्यान्न स्मृतिरूपता । नाप्यतीतकालस्यं वर्तमानतया ग्रहणं तस्याः प्रमोषः; अन्यस्मृतिवत्तस्याः स्पष्टवेदनामावानुषङ्गात् , न चैवम् ।
१ सादृश्यस्य । २ अकिञ्चित्करत्वमेव भावयन्ति । '३ व्यत्रादि । ४ शुक्तिकाशकलस्य । ५ रजतादिसदृशवस्तु । ६ सन्निहितशुक्तिकाशकलप्रतीतौ बाधकोत्तरकालं शुक्तिकाशकलप्रतीतौ च घटादौ. वा। ७. संदृशवस्तुसरणम् । ८ विशेष । १९ स्मृतेः सादृश्यनिबन्धनत्वे इत्यत्र किं च । १० जन्मना । ११ रजत । १२ शुक्तिकायाम् । १३ किञ्च । १४ शुक्तिकादेशवर्तिनाम् । १५ रजतेन सन्निहितत्वस्य । १६ परमाणूनां । . १७ स्मृतिप्रमोषः ।. १८ रजतस्मरण । १९ रजतस्मरण । २० रजतस्सरण। २१ स्मृतेरभावः। .२२ स्मृतेः। २३ रजत । २४ परेण भवता । २५ शुक्तिकाशकल । २६ विशदस्वरूपः । २७ शुक्तिरूप। २८ स्वभाव । २९ अन्यथा । ३०. अभावरूपतापत्तेः। ३१ स्मृतिविपरीत । . ३२ पदार्थानां । ३३ स्मृतेः। ३४ परिस्फुटार्थावभासित्वाकारस्य.। ३५ स्मृतेः । ३६ रजतस्य । ३७ सरणं। ३८ स्मृतेः । ३९ देवदत्तादिस्मृतिवत् । ४० शुक्तिकायां रजतस्मृतेः।
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श्रमेयकमलमार्त्तण्डे
[ थमप
अतीतकालस्य स्थानवेनाधिकस्य संवेदनं स इति चेत्; न; तंत्र परमार्थतः स्पाट्यलद्भावे अतीन्द्रियार्थबेदिनो निषेधो न स्यात्, संस्कृतिवत् अन्यस्यापीन्द्रियमन्तरेण वैशद्यसम्भवात् । अर्थात्र पारस्पन्द्रियादेव वैशद्यम्; न; तदविशेषात्सर्वस्यात्तत्मस५ङ्गात् । अथानुभवेन सह क्षीरोदकवदविवेकेनोत्पादोऽस्याः प्रोषः ननु कोयमविवेको नाम-भिन्नयोः सतोरभेदेन ग्रहणम्, संश्लेषो वा, आनन्तर्येण उत्पादो वा ? प्रथमपक्षे विपरीतख्यातिरेव । संश्लेषस्तु ज्ञानयोर्न सम्भवत्येव, अस्य सूर्त्तद्रव्येष्वेव प्रतीतेः । आनन्तर्येणोत्पादस्य स्मृतिप्रभोषरूपत्वे अनुमेयशब्दार्थेषु देवद१० त्तादिज्ञानानां स्मरणानन्तरभाविनां स्मृतिप्रभोषताप्रसङ्गः स्यात् ।
२८
यदि च द्विचन्द्रादिवेदनं स्मरणम्, तहींन्द्रियान्वयव्यतिरेकाविधाय न स्यात्, अन्यत्र स्मरणे तदर्द्दष्टेः । तदनुविधायि चेदम्, अन्यथा न किञ्चिदनुविधायि स्यात् । तद्विकारविकारित्वं चात एव दुर्लभं स्यात् । किञ्च, स्मृतिप्रमोषपक्षे बाधकप्रत्ययो न १५ स्यात्, स हि पुरोवर्त्तिन्यर्थे तत्प्रॆतिभासस्यासद्विषयतामादर्शयन्
'नेदं रजतम्' इत्युल्लेखेन प्रवर्त्तते, न तु 'रजतप्रतिभासः स्मृतिः' इत्युलेखेन । स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमे च स्वतः प्रामाण्यव्याघातः, सम्यग्रजतप्रतिभासेऽपि ह्याशङ्कोत्पद्यते ' किमेष स्मृतावपि स्मृतिप्रमोषः, किं वा सत्यप्रतिभासे' इति, बाधकाभावापेक्षणात्२० पैंत्र हि स्मृतिप्रमोषस्तत्रोत्तरकालमवश्यं बाधकप्रत्ययो यत्र तु तभावस्तत्र स्मृतेः प्रमोषासम्भवः । वाधकाभावापेक्षायां चीनवस्था । तस्मात् 'इदं रजतम्' इत्यत्र ज्ञानद्वयकल्पनाऽसम्भवा
१ रजतस्मृतौ । २ सर्वशस्य । ३ रजत । ४ संवेदनस्य । ५ स्मृतिविषयं रजतमतीन्द्रियम् । ६ रजतस्मरणे । ७ इति चेत् । ८ प्रत्यक्षस्मरणयोः । ९ सम्बन्धः । १० अनुमेयार्थोऽग्न्यादिः । ११ असन्निहितार्थ ग्राहकज्ञानस्य स्मृतित्वमिति स्थितौ दूषणम् । १२ किञ्च । १३ घटादौ । १४ तदप्रतीतेः । १५ घटादिज्ञानं प्रत्यक्षं । १६ इन्द्रिय । १७ काचादि । १८ ता ( षष्ठी ) । १९ द्विचन्द्रादि । २० ज्ञानस्य । २१ तस्य काचकामलादिना द्विचन्द्रादिग्राहित्वेन परिणामित्वम् । २२ इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाभावादेव द्विचन्द्रज्ञानस्य स्मरणत्वादेव वा । २३ शुक्तिकाशकले । २४ रजत । २५ उत्तरकाले । २६ परेण । २७ ज्ञाने । २८ रजतस्य । २९ एतदेव भावयति । ३० ज्ञाने । ३१ किञ्च । ग्रन्थानवस्था ।
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सू० ११४,५] अपूर्वार्थत्वविचारः स्मृतिप्रमोषाभावः। ततः सूक्तम्-विपर्ययज्ञानस्य व्यवसायातमकत्वविशेषणेनैव निरास इति ।
तेनांपूर्वार्थविशेषणेन धारावाहि विज्ञानं निरस्यते । नन्वेवमपि प्रमाणसम्प्लववादिताव्या बॉलः प्राणप्रतियोऽथ प्रमाणान्तराप्रतिपत्तिः इत्यबोधम् । अर्थ परिच्छिन्तिविशेसद्धादे तत्प्रवृत्तेर-५ বো । মখসুসংহবিক্ষ কি কৰি মনিএল সালু অর্জুদ নূখী ভাতা মুভি एतदेवाह
___ अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥ ४॥ खरूपेणाकारविशेषरूपतया वानवगतोऽखिलोप्यपूर्वार्थः। १०
दृष्टोपि समारोपात्तादृक् ॥ ५॥ न केवलमप्रतिपन्न एवापूर्वार्थः, अपि तु दृष्टोऽपि प्रतिपन्नोपि समारोपात् संशयादिसद्भावात् तादृगपूर्वार्थोऽधीतानभ्यस्तशास्त्रवत्। एवंविधार्थस्य यन्निश्चयात्मकं विज्ञानं तत्सकलंप्रमाणम् । तन्न अनधिंगतार्थाधिगन्तृत्वमेचे प्रमाणस्य लक्षणम् : तद्धि १५
१ यतो विपर्ययशानादिकं समर्थितन् : २ कारणेन । ३ भाट्टः शङ्कवे । ४ बहूनां प्रमाणानामेकस्सिन्नर्थे प्रवृत्तिः प्रमाणसम्प्लवः । ५ जनानां विरोधः । ६ प्रत्यक्षादि । ७ स्वच्छादिलक्षण। ८ अपूर्वः अर्थों यस्य। ९ स्वच्छादिमत्वेन। १० अज्ञातः । ११ दृष्टोपि समारोपात्तादृगिति सूत्रम् । १२ अपूर्वस्य । १३ पूर्वाग्रहीतार्थग्राहि । १४ सर्वथा।
1 विवेकाख्याति-अख्यात्यपरपर्यायस्यास्य स्मृतिप्रमोषस्य विविधरीत्या मीमांसान्यायवा० ता० टी० पृ० ८८, भामती पृ० १४, प्रश० कन्दली पृ० १८०, न्यायमं० पृ० १७६, विवरणप्रमेय सं० पृ० २८, न्यायलीलाव० पृ० ४१, तत्त्वोपप्लव लि० पृ० २५, न्यायकुमु० प्र० परि०, सन्मति० टी० पृ० २८,३७२ । स्या० रत्ना० पृ० १०४ इत्यादिषु समवलोकनीया। 2 “प्रभातुः प्रमातव्येऽर्थे प्रमाणानां सङ्करोऽभिसम्प्लवः।"
न्यायभा० १११।३ पृ० १९ । 3 "उपयोगविशेषस्याभावे प्रमाणसम्प्लवस्याऽनभ्युपगमात् । सति हि प्रतिपत्तुरुपयोगविशेषे देशादि विशेषसमवधानाद् आगमात्प्रतिपन्नमपि हिरण्यरेतसं स पुनरनुमानाप्रतिपित्सते तत्प्रतिबद्धधूमादिविशेषसाक्षात्करणात्तत्प्रतिपत्तिविशेषघटनात् । पुनस्तमेव प्रत्यक्षतो बुभुत्सते तत्करणसम्बन्धात्तद्विशेषप्रतिभाससिद्धेः" । अष्टसह० पृ० ४ । 4 "औत्पत्तिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते । अबाधोऽव्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमाणता ॥ १०॥ सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा ।” मीमांसाश्लो० पृ० २१० ।
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असेहवालाण्डे प्रथमपरि० वस्तुन्यधिगते नबिगते उज्याचारादिविशिष्ट प्राली जनयनोपालेभविषायनागितेऽथे कि कुवत्तत्प्रमाणता प्रामोतीति वक्तव्यम् ? विशिष्टप्रमा जनयतस्तस्य प्रमाणताप्रतिपादनात् । यत्र तुला सास्ति तन्न प्रमाणम् । न च विशिष्टप्रमोत्यादकत्वेष्यधिगत५ विषयेऽस्याकिञ्चित्करत्वम् ; अतिप्रसङ्गात् । न चैकान्ततोऽनधिमताधिगन्तृत्वे प्रामाण्यं प्रमाणस्यावसातुं शक्यम् । तद्ध्यर्थतथाभावित्वलक्षणं संवादादवसीयते, स च तदर्थोत्तरीनवृत्तिः। न चानधिगतार्थाधिगन्तुरेव प्रामाण्ये संवादप्रत्ययस्य तद् घटते । न च तेनाप्रमाणभूतेन प्रथमस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं १० शक्यम् ; अतिप्रसङ्गात्। न च सामान्यविशेषयोस्तादात्ल्याभ्युपगमे
तस्यैकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं सम्भवति। इदानींतन्नानास्तित्व(इदानीन्तनास्तित्व)स्य पूर्वास्तित्वादभेदात् तस्य च पूर्वमप्यविगतत्वात् । कथञ्चिदनधिगतार्थाधिगन्तृत्वे त्वस्मन्मतप्रवेशः। निश्चिते विषये किनिश्चयान्तरेण अप्रेक्षावत्त्वप्रसङ्गात् ; इत्यप्यवा
१ अर्थपरिच्छित्तिं । २ दोष। ३ निश्चिते। ४ कार्य । ५ परेण। ६ प्रमाणान्तरस्य । ७ शाने। ८ विशिष्टप्रमाजनकता। ९ शानं । १० विशिष्टप्रमोत्पादकत्वे यद्यकिञ्चित्करत्वं तदा सर्वथाऽदृष्टेऽर्थे प्रमाजनकस्य ज्ञानस्याकिञ्चित्करत्वं स्याद्विशिष्टप्रमोत्पादकत्वस्याविशेषात् । ११ किञ्च । १२ सर्वथा। १३ निश्चेतुं। १४ संवादः । १५ पूर्वानार्थ । १६ ईप् (सप्तमी)। १७ तदर्थश्चासौ उत्तरशानवृत्तिश्च । १८ शानस्य । १९ संवादात्। २० द्वितीयशानेन । २१ गृहीतार्थग्राहित्वात् । २२ शानस्य । २३ न ह्यशातमस्तीति वक्तुं शक्यं तस्याज्ञातत्वविरोधान्नैयायिकः । २४ संशयादिना प्रथमशानस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् । २५ किञ्च । २६ वृक्षवटादि । २७ प्रमाणस्य । २८ वट । २९ अधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् । ३० वृक्ष । ३१ विशेषापेक्षया। ३२ जैन । ३३ प्रयोजनं। ३४ अन्यथा ।
"एतच्च विशेषणत्रयमुपादानेन सूत्रकारेण कारणदोषबाधकरहितमगृहीतग्राहि शानं प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं सूचितम् ।"
शास्त्रदीपिका पृ० १५२ । 5 तु०-"यतः प्रमाणं वस्तुन्यधिगतेऽनधिगते वाऽव्यभिचारादिविशिष्टां प्रमां जनयन्नोपालम्भविषयः । नचाधिगते वस्तुनि......” सन्मति० टी० पृ० ४६६ । 1 "नचैकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वे प्रामाण्यं तस्यावसातुं शक्यम्..."
सन्मति० टी० पृ. ४६६ । 2 "इदानीन्तनास्तित्वस्य पूर्वास्तित्वामेदात् तस्य च पूर्वमप्यधिगतत्वसंभवात्"
सन्मति० टी० पृ०,४६६ ।
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सू० ११५] अपूर्वार्थत्वविचारः च्यम् ; भूयो निश्चये सुखादिसाधकत्वविशेषप्रतीतेः। प्रथमतो हि वस्तुमात्रं निश्चीयते,पुनः सुखसाधनं दुःखसाधनं वा' इति निश्चित्योपादीयते त्यज्यते वा, अन्यथा विपर्यवेणाप्युपादानत्यागप्रसङ्गः स्यात् । केषाञ्चित्सद्दर्शनेपि तनिश्चयो भवति अभ्यासादिति एकविषयाणामप्यागसानुमानाध्यक्षाणां प्रामाण्यमुपपन्नम् प्रतिपत्ति-५ विशेषसद्भावात् । सामान्याकारेण हि वचनात्प्रतीयते वह्निः, अनुमानादेशादिविशेषविशिष्टः, अध्यक्षात्त्वाकारनियत इति। ततोऽयुक्तमुक्तम्
"तंत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं वाधवर्जितम् ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥"[ ] इति । १० प्रत्यभिज्ञानस्यानुभूतार्थग्राहिणोऽप्रामाण्यप्रसङ्गात्, तथा च कथमतः शब्दात्मादेर्नित्यत्वसिद्धिः? न चानुभूतार्थग्राहित्वमस्यासिद्धम्; स्मृतिप्रत्यक्षप्रतिपन्नेऽर्थे तत्प्रवृत्तेः। न ह्यप्रत्यक्षेऽस्मर्यमाणे चार्थे प्रत्यभिज्ञानं नाम; अतिप्रसङ्गात् । पूर्वोत्तरावस्थाव्याप्येकत्वे तस्य प्रवृत्तेरयमदोपः, इति चेत् : किं ताभ्यामेकत्वस्य भेदः,१५ अभेदो वा? भेदे तत्र तस्याप्रवृत्तिः। न हि पूर्वोत्तरावस्थास्यां भिन्ने सर्वथैको तत्परिच्छेदिज्ञानाभ्यां जन्यमानं प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्तते अर्थान्तरैकत्ववत्, मतान्तरप्रवेशश्च । ताभ्यामेकत्वस्य सर्वथाऽ
१ परेण । २ ज्ञानात्। ३ निश्चयान्तरानङ्गीकारे । ४ सुखसाधनत्वदुःखसाधनत्वनिश्चय उत्तरशानान्न भवति चेत् । ५ व्यत्यासेन। ६ पुरुषाणां । ७ एकदा । ८ धूमादेः। ९ भाट्टेन । १० परप्रमाणलक्षणनिराकरणे च सति । ११ सर्वथा । १२ गृहीतग्राहित्वेन प्रत्यभिज्ञानस्याप्रामाण्ये च । १३ प्रत्यभिज्ञानात् । १४ वसः । १५ प्रत्यभिशानस्य । १६ उत्तरप्रत्यक्ष । १७ तस्य । १८ मेदिौ प्रत्यभिज्ञानत्वप्रसङ्गः। १९ पूर्वोत्तराकारग्राहिस्मरणप्रत्यक्षाभ्यां। २० ईप्। २१ सर्वथामेदे। २२ नैयायिक।
. 1 "यतो भूयो भूय उपलम्यमाने दृढतरा प्रतिपत्तिर्भवतीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्योपादत्ते..."
सन्मति० टी० पृ० ४६७ । 2 "यदि चानुपलब्धार्थग्राहि मानमुपेयते।
तदयं प्रत्यभिज्ञायाः स्पष्ट एव जलाञ्जलिः ॥" न्यायमं० पृ० २२ । .3 "नहि पूर्वोत्तरावस्थाभ्यां भिन्ने च सर्वथैकत्वे तत्परिच्छेदिशानाभ्यां जन्यमानं प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्त्तते सरणवत् सन्तानान्तरैकत्ववद्वा"। तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४ । 4 "विवर्त्ताभ्यामभेदश्चेदेकत्वस्य कथञ्चन । ताहिण्याः कथन्न स्यात्पूर्वार्धत्वं स्मृतेरिव ॥ ७६ ॥"
तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४। प्र०क०मा०६
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७
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० भेदे अनुभूतग्राहित्वं प्रत्यभिज्ञानस्य स्यात् । ताभ्यां तस्य कथञ्चिदभेदे सिद्धं तस्य (कथञ्चिद् ) अनुभूतार्थग्राहित्वम् । न चैवंवादिनः प्रात्यभिज्ञानप्रतिपन्ने शब्दादि नित्यत्वे प्रवर्तमानस्य "दर्शनस्य ऐरार्थत्वात्" जैमिनिसू० १११८] इत्यादेः प्रमाणता घटते । सर्वेषा ५ चनुमानानां व्याप्तिज्ञानप्रतिपन्ने विषये प्रवृत्तेरप्रमाणता स्यात! प्रत्यभिज्ञानान्नित्यशब्दादिसिद्धावपि कुंतश्चित्तमारोपस्य प्रसूतेस्तव्यवच्छेदार्थत्वादस्य प्रामाण्ये चे एकान्तत्यागः स्मृत्यूहादेश्वामिमतप्रमाणसंख्याव्याघातकृत्प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गः स्यात् प्रत्यभि
ज्ञानवत्कथंचिदपूर्वार्थत्वसिद्धेः। किञ्च, अपूर्वार्थप्रत्ययस्य प्रामाण्ये १० द्विचन्द्रादिप्रत्ययोऽपि प्रमाणं स्यात् । निश्चितत्वं तु परोक्षज्ञानवादिनो न सम्भवतीत्यग्रे वक्ष्यामः।
ननु द्विचन्द्रादिप्रत्ययस्य सवाधत्वान्न प्रमाणता, यत्र हि वाधाविरहस्तत्प्रमाणम् ; इत्यप्यसङ्गतम् ; वाधाविरहो हि तत्काल
भावी, उत्तरकालभावी वा विज्ञानप्रमाणताहेतुः ? न तावत्तत्का१५ लभावी; क्वचिन्मिथ्याशानेऽपि तस्य भावात् । अथोत्तरकालभावी; स किं ज्ञातः, अज्ञातो वा? न तावदज्ञातः; अस्य सत्त्वेनाप्य
१ एकत्वस्य । २ प्रत्यभिज्ञानस्य । ३ सर्वथाऽपूर्वार्थविज्ञानं प्रमाणमित्येवंवादिनः। ४ उच्चारणस्य । ५ शिष्य। ६ अर्थापत्यादेः । शब्दो नित्य उच्चारणान्यथाऽनुपपत्तेरिति । ७ किञ्च। ८ स एवायं । ९ आत्मा। १० सर्व क्षणिकं सत्त्वादिति क्षणिकत्वप्रतिपादकानुमानात् । ११ उत्पत्तेः । १२ व्याप्तिज्ञानेन निखिलसाध्यसाधनानां सामान्येन ग्रहणेप्यनुमानेन नियतदेशकालाकारतया साध्यप्रतिपत्तेरनुमानप्रामाण्ये च। १३ सर्वथाऽपूर्वार्थविज्ञानमेव प्रमाणमित्येकान्तत्यागः। १४ इदमल्पमित्यादेः। १५ षडिति विज्ञाने । १६ स्मृत्यादीनाम् । १७ भाट्टस्य । १८ उत्तरकाले। १९ ज्ञाने। २० तज्ज्ञानकाल। २१ विचार्यमाणप्रामाण्यविज्ञानकाल । २२ रजतादिज्ञाने। २३ न हि शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानं यदा जायते तदैव वाध्यते प्रवृत्त्यादेरभावप्रसङ्गात् । 1 “यदि पुनः प्रत्यभिज्ञानान्नित्यशब्दादिसिद्धावपि कुतश्चित्समारोपस्य ......."
तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४। 2 प्रमाणलक्षणस्य अनधिगतार्थत्वविशेषणस्य पर्यालोचनम् अक्षरशः तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७३, सन्मति० टी० पृ० ४६६, भङ्गयन्तरेण च तत्त्वोप० लि. पृ० ३०, न्यायमं० पृ० २१, स्या० रत्ना० पृ० ३८ इत्यादिषु द्रष्टव्यम् ।
3 "किञ्च, अर्थसंवेदनानन्तरमेव बाधानुत्पत्तिः तत्प्रामाण्यं व्यवस्थापयेत् , सर्वदा वा ?” अष्टसह० पृ० ३९ ।
"यतो बाधाविरहः तत्कालभावी, उत्तरकालभावी वा” सन्मति० टी० पृ० १२॥
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सू० ११५] अपूर्वार्थत्वविचारः
६३ सिद्धेः । ज्ञातश्चेत्-कि पूर्वज्ञानेन, उत्तरज्ञानेन वा ? न तावत्यूर्वज्ञानेनोत्तरकालभावी बाधाविरहो ज्ञातुं शक्यः; तद्धि खसमानकालं नीलादिकं प्रतिपद्यमानं कथम् 'उत्तरकालमप्यत्र वाधकं नोदेष्यति' इति प्रतीयात् ? पूर्वमनुत्पन्नवाधकानामप्युत्तरकालं बाध्यमानत्वदर्शनात् । नाप्युत्तरज्ञानेनासौ ज्ञायते तदा प्रमाण-५ त्वाभिमतज्ञानस्य नाशात् । नष्टस्य च वाधाविरहचिन्ता गतसर्पस्य सृष्टिकुट्टनन्यायमनुकरोति । कथं च वाधाविरहस्य हायमास्त्वपि सत्यत्वम् ज्ञायमानस्यापि केशोण्डुकादेरसत्यत्वदर्शनाद ? लक्षानस्य सत्यत्वाच्चेत्, तस्यापि कुतः सत्यता? प्रमेयसत्यत्वाच्चेत्, अन्योन्याश्रयः। अपरवाधाभावज्ञानाच्चेत् : अनवस्था । अथ संवादा-१० दुत्तरकालभावी वाधाविरहः सत्यत्वेन ज्ञायते; तर्हि संवादस्याप्यपरसंवादात्सत्यत्वसिद्धिस्तस्याप्यपरसंवादादित्यनवस्था । किञ्च, कैचित्कदाचित्कस्यचिद् बाधाविरहो विज्ञानप्रमाणता हेतुः, सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य वा? प्रथमपक्षे कस्यचिन्मिथ्याज्ञानस्यापि प्रमाणताप्रसङ्गः,कचित्कदाचित्कस्यचिद्वाधाविरहसद्भावात् । सर्वत्र सर्वदा १५ सर्वस्य बाधाविरहस्तु नासर्वविदां विषयः।।
अंदुष्टकारणारब्धत्वमान्यज्ञातम्, झातं वा तद्धेतुः ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः; अज्ञातस्य सत्त्वसन्देहात् । नापि ज्ञातम् । करणकुशलादेरतीन्द्रियस्य शप्तेरसम्भवात् । अस्तु वा तज्ज्ञप्तिः, तथाप्यसौ अदुष्टकारणारब्धः ज्ञानान्तरात्, संवादप्रत्ययाद्वा? आद्यविकल्पे २० अनवस्था । द्वितीयविकल्पेपि संवादप्रत्ययस्यापि ह्यदुष्टकारणारब्धत्वं तथाविधादन्यतो ज्ञातव्यं तस्याप्यन्यत इति । न चानेकान्त
१ न ह्यज्ञातमस्तीतिवक्तुं शक्यं तस्याऽज्ञातत्वविरोधात् । २ शुक्तिकादौ । ३ प्रमाणं । ४ काल। ५ ज्ञानानां। ६ पूर्वस्येदं जलमिति ज्ञानस्य ! ७ किञ्च । ८ पूर्वकाले। ९ उत्तरकाले। १० पूर्वज्ञानापेक्षया। ११ विषये। १२ पूर्व । १३ पूर्वविज्ञानप्रमाणताहेतुः। १४ इन्द्रियदृष्टादि । १५ परिज्ञानस्य । १६ अदृष्टकारणारब्धत्व । १७ अनवस्था । १८ ज्ञानात् ।
1 "बाधाविरहः किं सर्वपुरुषापेक्षया, आहोस्वित्प्रतिपत्रपेक्षया ?" तत्त्वोपप्लवसिंह लि० पृ० ३। अष्टसह० पृ० ३९ । प्रमाणप० पृ० ६२। सन्मति० टी० पृ० १८।
2 "यद्यदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन; तदा सैव कारकाणामदुष्टता कुतोऽवसीयते ? न तावत्प्रत्यक्षात् ; नयनकुशलादेः संवेदनकारणस्य अतीन्द्रियस्याऽदुष्टतायाः प्रत्यक्षी५ कर्तुमशक्तेः । नानुमानात; तदविनाभाविलिङ्गाभावात्...” अष्टसह० पृ० ३८ ।
(तत्त्वोपप्लव०-) सन्मति० टी० पृ० १३ ।
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६४
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० वादिनामप्युपालभः समानोऽयम् यथावदनिश्चायकप्रत्ययस्याभ्यासदशायां वाधवैधुर्यस्यादुष्टकारणारब्धत्वस्य च वयां संवेदनात्; अनभ्यासदशायां तु परतोऽभ्यस्ता विषयात् । न चैवमनवस्था चित्कस्यचिदस्यासोपपत्तेरित्यलं विस्तरेण परतःप्रामाण्य९विचारे विचारणात् । लोकसम्मतत्वं च यथावद्वस्तुखरूपनिश्चयाचापरम्।
ननु चोक्तलक्षणाऽपूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणमित्ययुक्तमुक्तम् ; अर्थव्यवसायात्मकज्ञानस्य मिथ्यारूपतया प्रमाणत्वायोगात्, परमात्मस्वरूपग्राहकस्यैव ज्ञानस्य सत्यत्वप्रसिद्धः । १० अक्षसन्निपातानन्तरोत्थाऽविकल्पकप्रत्यक्षेण हि सर्वत्रैकत्वमेवा
ऽन्योनपेक्षतया गिति प्रतीयते इति तदेव वस्तुत्वस्वरूपम । मेदः पुनरविद्यासंकेतस्मरणजनितविकल्पप्रतीत्याऽन्याऽपेक्षतया प्रतीयते इत्यसौ नार्थखरूपम् । तथा, 'यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभा
सान्तःप्रविष्टमेव यथा प्रतिभासस्वरूपम् , प्रतिभासते चाशेषं १५ चेतनाचेतनरूपं वस्तु' इत्यनुमानादप्यात्माऽद्वैतप्रसिद्धिः । न चात्राऽसिद्धो हेतुः; साक्षादसौंक्षाच्चाशेषवस्तुनोऽप्रतिभासमानत्वे सकलशब्दविकल्पगोचरातिक्रान्तया वक्तुमशक्तेः। तथागमोऽ. प्यस्य प्रतिपादकोऽस्ति।
“सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन । २० आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ॥"[ ] इति । तथा “पुरुष एवैतत्सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं स एव हि सकललोकसँर्गस्थितिप्रलयहेतुः ।" [ऋक्सं० मण्ड० १० सू० ९० ऋ०२] उक्तञ्च
१ दोषः । २ झानस्य । ३ राहित्यस्य । ४ स्वरूपेण । ५ स्वयं संवेदनाच्चायमुपालम्भः। ६ अर्थे । ७ ज्ञानस्य । ८ अनवस्थापरिहारस्य विस्तरेण । ९ ज्ञानस्य । १० भास्करीयः प्राह। ११ अथें । १२ भेद। १३ झटिति । १४ अभेदे भेदप्रतिभासो ह्यविद्या। १५ घटः पटाद्भिन्न इति । १६ पटस्य। १७ ब्रह्म । १८ ब्रह्मग्राहकप्रत्यक्षप्रकारेणानुमानमपि दर्शयति । १९ प्रतिभासमानत्वादिति । २० अस्पष्टतया। २१ प्रत्यक्षानुमानप्रकारेण। २२ परमात्मनः। २३ विवर्त । विकारं। २४ ब्रह्मणः । २५ प्रत्यक्षानुमानागमप्रकारेण। २६ उत्पत्तिः ।
__ 1 "सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीताथ..." छान्दोग्योप० ३॥१४॥१॥ "ब्रह्म खल्विदं वाव सर्वम्" मैन्युप० ४।६ "मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किञ्चन ।” बृहदा० ४।४।१९ 'मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किञ्चन ।" कठोप० ४।११ "आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ।" बृहदा० ४।३।१४। .
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सू० ११५]. ब्रह्माद्वैतवादः
"ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥"[ ] भेददर्शिनो निन्दा च श्रूयते-"मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य ईंह नानेव पश्यति।" [ बृहदा० उ०४१४३१९] इति । न चाभेदप्रतिपादकानायस्याऽध्यक्षवाधा; तस्याप्यभेदग्राहकत्वेनैव प्रवृत्तेः । तदुक्तम्-५
"आहुविधात प्रत्यक्षं न निषेध विपश्चितः !
नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रवाध्यते । किञ्च, अर्थानां भेदो देशभेदात् , कालभेदात्, आकारमेदावा स्यात् ? न तावद्देशभेदात्; खेतोऽभिन्नस्याऽन्यभेदेऽपि भेदानुपपत्तेः । नान्यभेदोऽन्यत्र संक्रामति । कथं च देशस्य भेदः ११० अन्यदेशभेदाञ्चेदनवस्था । खंतश्चेत्; तर्हि भावभेदोऽपि खत एवास्तु किं देशभेदाभेदैकल्पनया? तन्न देशमेदाद्वस्तुभेदः । नापि कालभेदात्, तद्भेदस्यैवाध्यक्षतोऽप्रसिद्धः। तद्धि सन्निहितं वस्तुमात्रमेवाधिगच्छति नातीतादिकालभेदं तदूतार्थभेदं वा आकारभेदोऽप्यर्थानां भेदको व्यतिरिक्तप्रमाणात्प्रतिभाति, स्वतो १५ वा? न तावद् व्यतिरिक्तप्रमाणात; तस्य नीलसुखादिव्यतिरिक्तस्वरूपस्याप्रतिभासमानत्वाद् । अथाहंप्रत्ययो वोधात्मा तेंद्राहको
१ कोलिकः (कीटविशेषः)। २ लालारूपतन्तूनाम् । ३ वटः। ४ तथा । ५ यमात् । ६ पुरुषः। ७ ब्रह्मणि। ८ भेदमिव । ९ ब्रह्माणं। १० किञ्च । ११ आगमस्य । १२ विधायकं सन्मात्रग्राहकमित्यर्थः। १३ निषेधकं भेदग्राहकमित्यर्थः। १४ कारणेन। १५ स्वरूपेण। १६ स्वतोऽभिन्नस्य भास्करस्य यथा देशभेदानेदो न घटते तथा पदार्थानामिति भावः। १७ अन्यस्य देशस्य भेदोऽभिन्ने सूर्ये न संक्रामति । १८ अनवस्थापरिहारार्थ । १९ अथें । २० देशभेदादिति पदं नास्ति च कचिद्वन्थे। २१ बहिर्वस्तु। २२ अन्तर्वस्तु । २३ भिन्न । २४ आकारलक्षणमेद ।
__1 "यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामौषधयः संभवन्ति । यथा सतः 'पुरुषात् केशलोमानि तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ॥" मुण्डकोप० ११११७ "स न्यथोर्णनाभिः तन्तूनुच्चरेत् , यथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्त्येवमेव अस्मादात्मनः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि व्युच्चरन्ति..." बृहदा० २।१।२० “यस्तूर्णनाम इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः । देव एकः स्वयमावृणोति स नो दधातु ब्रह्माऽव्ययम् ॥” श्वेताश्व० ६।१० "ऊर्णनाभिर्यथा तन्तून..." ब्राह्म० ३ । ."ऊर्णनाभीव तन्तुना..." कशुर० ९ । “ऊर्णनामो मर्कटकः" तत्त्वसं ० पं० ।
2 "यतो मेदः प्रत्यक्षप्रवीतिविषयत्वेनाभ्युपगम्यमानः किं देशभेदादभ्युपगम्यते, आहोस्वित् कालभेदात्, उत आकारभेदात् ?" सन्मति० टी० पृ० २७३ । स्या. रिला० पृ० १९२।
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प्रमेयकमलमार्तण्डै प्रथमपरि० ऽवसीयते; न; तारि शुद्धबोधस्याप्रतिमासनात् । स खलु 'अहं सुखी दुःखी स्थूलः कृशो वा' इत्यादिरूपतया सुखादि शरीरं चावलस्वमानोऽनुसूयते न पुनस्तद्व्यतिरिक्तं वोधस्वरूपम् । स्वतश्चाकाराणां भेदसंवेदने स्वप्रकाश नियंतत्वप्रलङ्गः, तथा ५चान्योऽज्यासंवेदनात्कुतः स्वतोऽप्याकारभेदसंवित्तिः।
अथैकरूपब्रह्मणो विद्यास्वभावत्वे तदर्थानां शास्त्राणां प्रवृत्तीनां च वैयर्थं निवर्त्यप्राप्तव्यखभावाभावात् । विद्याखभावत्वे चासत्यत्वप्रसङ्गः, तथाच "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" [तैत० २०१] इत्यस्य विरोधः; तदप्यसङ्गतम् ; विद्यास्वभावत्वेऽप्यस्य शास्त्रा१० दीनां वैयर्थ्यासंभवात् अविद्याव्यापारनिवर्त्तनफलत्वात्तेषाम् ।
यत एव चाविद्या ब्रह्मणोऽर्थान्तरभूता तत्त्वतो नास्त्यत एवासौ निवर्त्यते, तत्त्वतस्तस्याः सद्भावे हि न कश्चिन्निवर्त्तयितुं शक्नुयाद ब्रह्मवत् । सर्वैरेव चातात्त्विकानाद्यविद्योच्छेदार्थो मुमुक्षूणां प्रय.
नोऽभ्युपगतः । न चानादित्वेनाविद्योच्छेदासम्भवः; प्रागभावे१५ नाऽनेकान्तात् । तत्त्वज्ञानप्रागभावरूपैव चाविद्या तत्त्वज्ञानलक्ष
णविद्योत्पत्तौ व्यावर्तत एव घटोत्पत्तौ तत्प्रागभाववत् । भिन्नाऽभिन्नादिविकल्पस्य च वस्तुविषयत्वात् अवस्तुभूताऽविद्यायामप्रवृत्तिरेव सैवेयमविद्या माया मिथ्याप्रतिभास इति ।
न चात्मश्रवणमननध्यानादीनां भेदरूपतयाऽविद्यास्वभावत्वा२० त्कथं विद्याप्राप्तिहेतुत्वमित्यभिधातव्यम् ? यथैव हि रजःसंपर्कक
लुषोदके द्रव्यविशेषचूर्ण रजःप्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि प्रशमयत्खयमपि प्रशस्यमानं स्वच्छां स्वरूपावस्थामुपनयति, यथा वा विषं विषान्तरं शमयति खयं च शाम्यति,एवमात्मश्रवणादिभिर्भेदाभिनिवेशोच्छेदात् ,स्वगतेऽपि भेदे समुच्छिन्ने खरूपे संसारी समव
१ प्रमाणं। २ पदार्थाः स्वप्रकाशनियताः। ३ भा (तृतीया)। ४ भनुष्ठानानां । ५ अविद्या । ६ विद्या। ७ ग्रन्थस्य । ८ मिन्ना। ९ परमार्थतः । १० वादिभिः । ११ मोक्षार्थिनां। १२ यथा गगनस्य। १३ अनादिना । १४ उभय । १५ किञ्च । १६ स्वरूप। १७ श्रद्धान । १८ दुराग्रह । १९ सति । २० एकले।
__1 "न च कर्माऽविद्यात्मकं कथमविद्यामुच्छिनत्ति, कर्मणो वा तदुच्छेदकस्य कुत उच्छेद इति वाच्यम् ; सजातीयस्वपरविरोधिनां भावानां बहुलमुपलम्धेः । यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराण्यपगमयद स्वयमप्यपगच्छतीति ।" ब्रह्मसू० शां० भा० भामती पृ० ३२।
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सू० ११५ ब्रह्माद्वैतवादः
६७ तिष्ठते । अवच्छेदक्यविद्याव्यावृत्तौ हि परमात्मैकखरूपतावस्थितेः घटाद्यवच्छेक भेदव्यावृत्तौ व्योम्नः शुद्धाकाशतावत् । ___न चाद्वैते सुखदुःख्वन्धमोक्षादिवेदव्यवस्थानुपपन्ना; समारोपितादपि भेदातद्देदव्यवस्थोपपत्ते, यथा द्वैतिनी 'शिरसि मे वेदना पादे ने वेदना' इत्यात्मनः समारोपितभेदनिमित्ता५ दुःखादिव्यवस्था पादादीनामेव तद्धेदनाधिकरणत्वात्तेषां च खेदात्तद् व्यवस्था युक्त्यप्ययुक्तम् । यतस्तेषामज्ञत्वेन मोक्तत्वायोगात् । मोक्तत्वे वा चार्वाकमतानुपङ्गः । तदेवकत्वत्य प्रत्यशानुमानागमप्रमितरूपत्वात्सिद्धं ब्रह्माऽद्वैतं तत्त्वमिति ॥ छ ।
अत्र प्रतिविधीयते । किं भेदस्य प्रमाणवाधितत्वादभेदः१० साध्यते, अभेदे साधकप्रमाणसद्भावाद्वा? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, प्रत्यक्षादेर्भेदानुकूलतयां तद्वाधकत्वायोगात् । न खलु भेदमन्तरेण प्रमाणेतरव्यवस्थापि सम्भाव्यते । द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः भेदमन्तरेण साध्यसाधकमावस्यैवासम्भवात् । न चाभेदसाधकं किञ्चित्प्रमाणमस्ति।
यच्चोक्तम्-"अविकल्पशाध्यक्षेणैकत्वमेवावसीयते" तत्र क्रिोकव्यक्तिगतम्, अनेकव्यक्तिगतम्, व्यक्तिमात्रगतं वा तत्त्वेन प्रतीयते ? एकव्यक्तिगतं चेत्, तत्किं साधारणम् , असाधारण वा? न तावत्साधारणम् : 'एकव्यक्तिगतं साधारणं च' इति विप्रतिषेधात् । असाधारणं चेत् कथं नातो भेदसिद्धिः असा-२० धारणस्वरूपलक्षणत्वाद्भेदस्य । अथानेकव्यक्तिगतं सत्तासामान्य
१ घटे पटस्य निषेधकः मेदोत्पादक इत्यर्थः। २ घटाकाशपटाकाश। ३ देवदत्तादेर्भावात् । कल्पितात् । ४ नैयायिकादीनां । ५ अन्यथा । ६ परेण भट्टेन । ७ अनुमानागमौ। ८ ग्राहक। ९ प्रवर्तमानत्वात् इति शेषः। १० तदाभास । ११ सामान्य । १२ विरोधात् । १३ विशेष । १४ इदं सदिदं सत् ।।
1-एकस्यापि जीवात्मन उपाधिमेदात् सुखदुःखानुभवो दृश्यते पादे मे वेदना, शिरसि मे सुखं वेदनेति-" न्यायमं० पृ० ५२८ । स्या० रत्ना० पृ० १९३ ।
2 "तथाहि मेदस्य प्रमाणबाधितत्वात् किमयमभेदाभ्युपगमो भवतामुतस्विदभेदस्यैव प्रमाणसिद्धत्वादिति" न्यायमं० पृ० ५२८ ।
"किं भेदस्य प्रमाणबाधितत्वादेकत्वमुच्यते, आहोस्विद् भेदे प्रमाणसद्भावात् ?" सन्मति० टी० पृ० २८५। 3 "एकव्यक्तिगतं किं वाऽनेकव्यक्तिसमाश्रितम् ।
व्यक्तिमात्रगतं यदा तदेकत्वं प्रतीयते ॥" स्या. रत्ना० पृ० १९९ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० रूपमेकत्वं प्रत्यक्षमाहामित्युच्यते; तत्किं व्यत्यधिकरणतया प्रति भाति, अनधिकरणतया वा? प्रथमपक्षे भेदप्रसङ्गः 'व्यक्तिरधिकरणं तदाधेयं च सत्तासामान्यम्' इति, अयमेव हि भेदः। द्वितीयपक्षे-व्यक्तिग्रहणमन्तरेणाप्यन्तराले तत्प्रतिमासप्रसङ्गः । ५ तथा झिमेकव्यक्तिग्रहणद्वारेण तत्प्रतीयते,सकलव्यक्तिग्रहणद्वारेण वा? प्रथमपक्षे विरोधः, एकाकारता ह्यनेकव्यक्तिगतमेकं रूपम् , तच्चैकस्मिन् व्यक्तिस्वरूपे प्रतिभातेऽप्यनेकव्यक्त्यनुयायितया कथं प्रतिभासेत ? अथ सकलव्यक्तिप्रतिपत्तिद्वारेण तत्प्रतीयते; तदा
तस्याऽप्रतिपत्तिरेवाखिलव्यक्तीनां ग्रहणासम्भवात् । भेदसिद्धि१०प्रसङ्गश्च-अखिलव्यक्तीनां विशेषणतया एकत्वस्य च विशेष्यत्वेन,
एकत्वस्य वा विशेपणतया तासां च विशेष्यत्वेन प्रतिभासनात् । तथा तव्यक्तिभ्यस्तद्भिन्नम् , अभिन्नं वा ? यद्यभिन्नम् ; तर्हि व्यक्तिरूपतानुपङ्गोऽस्य । न च व्यक्तिय॑त्यन्तरमन्वेतीति कथं
सकलव्यक्त्यनुयायित्वमेकत्वस्य । अथार्थान्तरम् ; कथं नानात्वा१५ऽप्रसद्धिः? यथा चानुगतप्रत्ययजनकत्वेनैकत्वं व्यक्तिषु कल्प्यते तथा व्यावृत्तप्रत्ययजनकत्वेनानेकत्वमप्यविशेषात् । तन्नैकत्वं नानात्वमन्तरेणावकाशं लभते । प्रयोगः विवादाध्यासितमेकत्वं परमार्थसन्नानात्वाविनाभावि एकान्तैकत्वरूपतयाऽनुपलभ्यमा
नत्वात् , घटादिभेदाविनाभूतमृगव्यैकत्ववत् । एतेन व्यक्तिमात्र२० गतमप्येकत्वं प्रत्युक्तम् , एकानेकव्यक्तिव्यतिरेकेण व्यक्तिमात्रस्थानुपपत्तेः।
यच्चोक्तम्-"भेदस्यान्यापेक्षतया कल्पनाविषयत्वम्" तदप्युक्तिमात्रम् ; एकत्वस्यैवान्यापेक्षतयाँ कैल्पनाविषयत्वसम्भवात् । तद्ध्य
नेकव्यक्याश्रितम्, भेदस्तु प्रतिनियतव्यक्तिखरूपोऽध्यक्षाव२५ सेयः। अथैकत्वं प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नम्, अन्यापेक्षया तु कल्पना
१ परेण भवता । २ वसः। ३ वसः । ४ तस्यां व्यक्तावाधीयते आरोप्यते इति तदाधेयं। ५ प्रतिपत्तव्यत्तयोर्मध्ये। ६ किञ्च । ७ किञ्च । ८ व्यक्तिस्वरूपवत् । ९ मिन्नं। १० इदं सदिदं सदिति। ११ समर्थ्यते। १२ पटाद् घटो व्यावृत्त इति । १३ कल्प्यताम् । १४ सर्वथा। १५ विकल्पद्वयनिराकरणपरेण ग्रन्थेन। १६ निराकृतम्। १७ परेण । १८ पटस्य । १९ भेद । २० प्रमीयमानत्वात् । २१ विकल्प। २२ एकत्वं । २३ घटः सन् पटः सन्नित्यादिशानेन ।।
1 "यदपि गदितं भेदः पुनः परापेक्षतया प्रतीयते इत्यादि, तदपि नोपपन्नम् । एकत्वमपि हि परापेक्षतया प्रतीयते, ततश्चैतत्प्रत्ययोऽपि कल्पनाप्रत्ययरूपत्वेनाप्रमाणत्वात् कथमिवैकत्वं साधयेत् ?"
स्था० रत्ना० पृ.० २०० ।
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सू० ११५
ब्रह्माद्वैतवादः
ज्ञानेनानुयायिरूपतया व्यवह्रियते, तर्हि भेदोऽप्यध्यक्षेण प्रतिपन्नोऽन्यापेक्षया विकल्पज्ञानेन्द व्यावृत्तिरूपतया व्यवहियते इत्यप्यस्तु।
का चेयं कल्पना नाम-ज्ञानस्य स्मरणानन्तरमावित्वम् , शब्दाकारानुविद्धत्वं वा स्यात् , जात्याद्युल्लेखो वा, असदर्थविषयत्वं५ वा, अन्यापेक्षतयाऽर्थस्वरूपावधारणं वा, उपचारमा वा प्रकारान्तराऽसम्भवात् ? न तावदाद्यविकल्पः; अभेदज्ञानत्यादि सारणानन्तरमुपलम्भेन कल्पनात्वप्रसङ्गात् । शब्दाकारानुविद्धत्वं च ज्ञाने प्रागेव प्रतिविहितम् । ननु सकलो भेदप्रतिभासोऽभिलापपूर्वकस्तभावे भेदप्रतिभासस्याप्यभावः स्यात् तन्न; विकल्पाभि-१० लापयोः कार्यकारणभावस्य कृतोत्तरत्वात् । अस्तु वासौ, तथापि किं शब्दजनितो भेदप्रतिभासः, तजनितो वा शब्दः? प्रथमपक्षे किं शब्दादेव भेदप्रतिभासः, ततोऽसौ भवत्येवेति वा ? शब्दादेव भेदप्रतिभासाभ्युपगमे प्रथमाक्षसन्निपातानन्तरं चित्रपट्यादिज्ञानस्य भेदविषयस्यानुत्पत्तिप्रसङ्गः, निर्विकल्पकानुभवानन्तरं १५ संकेतस्मरणविवायत्तताल्वादिपरिस्पन्दक्रमेणोपजायमानशब्दस्याविकल्पकप्रथमप्रत्ययावस्थायामभावात् । शब्दादनेकत्वप्रतिभासो भवत्येवेत्यप्ययुक्तमुक्तम् ; 'एकं ब्रह्मणो रूपम्' इत्यादिशब्दस्य भेदप्रत्ययजनकत्वे सति आगमात्तस्यैकत्वप्रतिपत्तेरभावानुषङ्गात् । भेदप्रतिभासाच्छब्दे (ब्दोऽ)स्तीत्यभ्युपगते च-अन्यो-२० न्याश्रयत्वम्-शब्दानेदप्रतिभासः, भेदप्रतिभासाच्छब्द इति । 'घटोयं पटोयम्' इत्यादिभेदप्रतिभासस्य जात्याधुल्लेखित्वात्कल्पनात्वे-अभेदज्ञानस्यापि कल्पनात्वानुषङ्गः तस्यापि सत्तादिसामान्योल्लेखित्वात् । असदर्थविषयत्वं च भेदप्रतिभासस्यासिद्धम्। अर्थक्रियाकारिणो वस्तुभूतार्थस्य तत्र प्रतिभासनात् । विसंवादित्वं २५
१ अनुस्यूतरूपतया। २ घटस्य । ३ पट। ४ विसदृश। ५ सर्व खल्विदं ब्रह्मेत्यादिरूपस्य सोहमित्यादेवी । ६ प्रतीत्या । ७ सविकल्पकसिद्धौ शब्दाद्वैते च। ८ परः। ९ इति चेत् । १० सविकल्पकसिद्धौ। ११ पूर्वावधारणम् । १२ उत्तरावधारणम् । १३ परेण। १४ चित्राणां पटानां समाहारः चित्रपटी। १५ मेदो विषयो यस्य । १६ नीलादि । १७ वक्तुमिच्छा। १८ उत्साह । १९ भेद। २० प्रतिभास। २१ इदं सदिदं सत्। २२ आत्मत्व । २३ परामर्शित्वात् । २४ खानपानादि ।
1 "किंचान्यापेक्षया भवनमेव भेदप्रत्ययस्य कल्पनात्वं स्यात्, किंवा सरणसमनन्तरभावित्वम् , यद्वा शब्दानुविद्धत्वम् , उत जात्याद्युल्लेखित्वम् , अथासदर्थविषयत्वम् , उपचाररूपत्वं वा?"
स्या० रत्ना० पु० २०१॥
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अमयक्रमलमार्तण्डे | সুস্বাক্সবিও बाध्यमानत्वं च कल्पनालक्ष्णतेने प्रत्युक्तम् । तस्यासद विषयत्वादर्थान्तरत्वाऽसत्सवात् । अन्यापेक्षतयार्थस्वरूपावधारणं चालन्तरमेव प्रत्याख्यातम् यतो व्यवहार एवान्यापेक्षतया प्रवर्तते न स्वरूपावधारणम् । नापि भेदप्रतिभालस्योपचाररूपं कल्पना५ त्वम् ; मुख्यासम्भवे तस्याप्यदर्शनान्माणवके सिंहाद्युपचारवत। न चामेदवादिनो मुख्यं भेदाभ्युपगमोस्त्यपसिद्धान्तप्रसङ्गात् ।
यच्चानुमानादप्यात्माद्वैतसिद्धिरित्युक्तम् । तत्र स्वतःप्रतिभासमानत्वं हेतुः, परतो वा। स्वतश्चेत् ; असिद्धिः । परतश्चेत्, विरुद्धो
द्वैते साध्ये द्वैतप्रसाधनात् । 'घटःप्रतिभासते' इत्यादिप्रति१० भासँसामानाधिकरण्यं तु विषये विषयिधर्मस्योपचारात्, न पुनः
प्रतिभासात्मकत्वात् । प्रतिभासनं हि विषयिणो ज्ञानस्य धर्मः स विषये घटादावध्यारोप्यते । तदध्यारोपनिमित्तं च प्रतिभासनक्रियाधिकरणत्वम् । तथा च 'अर्थमहं वेद्मि' इत्यन्तःप्रकाशमा
नानन्तपर्यायाऽचेतनद्रव्यवहिःप्रकाशमानान्दन्त पर्यायाऽचेतनद्र१५ व्यमपि प्रतिपत्तव्यम्। 'सर्व वैखल्विदं ब्रह्म' इत्याद्यागमोपि नाद्वैतप्रसाधकः, अभेदे प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावस्यैवासम्भवात् । न चागमप्रामाण्यवादिना अर्थवादस्य प्रामाण्यमभिप्रेतमतिप्रसङ्गात्। आत्मैव हि सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुरित्यप्यसम्भाव्यम्;
अद्वैतैकान्ते कार्यकारणभावविरोधात् , तस्य द्वैताविनाभावित्वात्। २० निराकृतं च नित्यस्य कार्यकारित्वं शब्दाद्वैतविचारप्रक्रमे ।..
किमर्थ चासौ जगद्वैचित्र्यं विदधाति ? न तावासनितयों
१ असदर्थविषयत्वनिराकरणेन । २ अपादाने का (पञ्चमी) । ३ एकत्वप्रतिभास । ४ घट। ५ पट। ६ कथं । ७ किन्तु स्वापेक्षतया एव प्रतिभासते। ८ वा । ९ मेदस्य । १० अग्नि। ११ अन्यथा। १२ परेण । १३ पदार्थानां । १४ परवाद्यसिद्धो हेतुः । नहि पदार्थाः खत एव प्रतिभासन्ते । १५ अन्यस्मात् । १६ ईप् । १७ वरूपस्य । १८ विषयस्य । परेण । १९ परेण । २० प्रशंसारूपस्य । २१ अलावूनि निमज्जन्ती(?) त्यादेरपि प्रमाणताप्रसङ्गः । सारमित्येतस्य प्रशंसावचनस्य अलाबुषु सद्भावात् (? ग्रावाणः प्लवन्ते अन्धो मणिमविन्दत्) । २२ किञ्च । २३ ब्रह्मा। २४ फलं विना प्रवृत्तिर्व्यसनम् ।
___ 1 "तत्र स्वतः प्रतिभासमानत्वं हेतुः, परतो वा ?" स्या. रत्ना० पृ० १९४ । प्रमेयरलमा० २१२। 2 "जगच्चाऽसृजतस्तस्य किन्नामेष्टं न सिध्यति ॥ ५४ ॥
प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।
एवमेव प्रवृत्तिश्चेच्चैतन्येनास्य किं भवेत् ॥ ५५ ॥" मी० श्लो० पृ० ६५३ । सन्मति० टी० पृ० ७१५ । स्था० रत्ना० पृ० १९८ । प्रमेयरत्न० २।१२।
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सू० ११५] ब्रह्माद्वैतवादः अप्रेक्षाकारित्वप्रसङ्गात् , प्रेक्षाकारिप्रवृत्तेः प्रयोजनवत्तया व्यासत्वात् । कृपया परोपकारार्थ तत् करोतीति चेत् न; तद्येतिरेकेण परस्याऽसत्त्वात् । सत्वे वा-नारकादिदुःखितप्राणिविधानं न स्यात्, एकान्तमुखितसेवाखिलं जगजनोत् । किञ्च,सृष्टेः प्रागनुकम्प्यप्राण्यभावात् किमालस्व्य तत्यानुकल्या प्रवर्त्तते येनानुक-५ म्पावशायं सटा कल्प्येत ? अनुकम्पावशाचाय प्रवृत्तौ देवमनुप्याणां सदाभ्युदययोगिनां प्रलयविधानविरोधः, दुःखितपाणिनामेव प्रलयविधानानुपङ्गात् । प्राण्यदृष्टापेक्षोऽसौ सुखदुःखस्तमन्वितं जगत् जनयतीत्यप्यसङ्गतम् ; स्वातन्यव्याघातानुपङ्गात् । समर्थवभावस्यासमर्थस्वभावस्य वा नित्यैकरूपस्य वस्तुनोऽन्या- १० पेक्षाऽयोगाच्च । अदृष्टवशाच्च जगद्वैचित्र्यसम्भवे-किमनेनान्तर्गडुना पीडाकारिणा ? अदृष्टापेक्षा चास्यानुपपन्ना, किं त्ववधीरणमेवोपपन्नम् , अन्यथा कृपालुत्वव्याघातप्रसङ्गः। न हि कृपालैवः परदुःखं तद्धेतुं वाऽन्विच्छन्ति, परदुःखतत्कारण वियोगवाछयैव प्रवृत्तेः।
१ मूर्खत्व । २ ब्रह्म । ३ जगतः । ४ कुत्सिततृटेः किं फलन् । ५ ब्रह्मणः । ६ किञ्च । ७ ब्रह्मणः । ८ पुण्यपाप । ९ ब्रह्मा । १० ब्रह्मणः। ११ अवज्ञा । १२ नराः।
1 "अभावाच्चानुकम्प्यानां नानुकम्पा प्रवर्त्तते ।
सृजेच्च शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः ।। ५२ ॥ मी० श्लो० पृ० ६५२ । “अथानुकम्पया कुर्यादेकान्तसुखितं जगत् ॥ १५६ ॥ आधिदारियशोकादिविविधायासपीडितम् । जने तु सृजतस्तस्य कानुकम्पा प्रतीयते ॥ १५७ ॥ सष्टेः प्रागनुकम्प्यानामसत्वे नोपपद्यते। अनुकम्पापि यद्योगाद्धाताऽयं परिकल्प्यते ॥ १५८ ॥
न चायं प्रलयं कुर्यात्सदाभ्युदययोगिनाम् ।” तत्त्वसं० पृ० ७६ । सन्मति० टी० पृ० ७१६ । स्था० रत्ना० पृ० १९८ । प्रमेयरत्न० २।१२ । 2 "अथाऽशुभाद्विना सृष्टिः स्थितिर्वा नोपपद्यते ।
आत्माधीनाभ्युपाये हि भवेत्किन्नाम दुष्करम् ॥ ५३ ॥ तथाचापेक्षमाणस्य स्वातन्त्र्यं प्रतिहन्यते।" मी० श्लो० पृ० ६५३ । "तददृष्टव्यपेक्षायां स्वातन्त्रयमवहीयते ॥ १५९ ॥ पीडाहेतुमदृष्टं च किमर्थ स व्यपेक्षते ।
उपेक्षैव पुनस्तत्र दयायोगेऽस्य युज्यते ॥ १६०॥ तत्त्वसं० पृ० ७७ ॥ सन्मति० टी० पृ० ७१६ । स्या० रत्ना० पृ० १९९ । प्रमेयरन० २०१२ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० नंनु यथोर्णनामो जालादिविधाने स्वभावतः प्रवर्तते, तथात्मा जगद्विधाने इत्यप्यसत् ऊर्णनामो हि म स्वभावतः प्रवर्तते । किं तर्हि ? प्राणिभक्षणलाम्पट्यात्प्रतिनियतहेतुसम्भूततया कादाचित्कात् । कृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' इति ५ निन्दावादोप्यनुपपन्नः; सकलप्राणिनां मेदग्राहकत्वेनैवाखिलगमाणानां प्रवृत्तिप्रतीतेः।
यञ्चोक्तम्-'आहुर्विधातृप्रत्यक्षम्' इत्यादिः तत्र किमिदं प्रत्यक्षस्य विधातृत्वं नाम-सत्तामात्राववोधः, असाधारणवस्तुस्वरूप
परिच्छेदो वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, नित्यनिरंशव्यापिनो विशेष१० निरपेक्षस्य सत्तामात्रस्य स्वप्नेप्यप्रतीतेः खरविषाणवत् । द्वितीय
पक्षे तु-कथं नाद्वैतप्रतिपादकागमस्याध्यक्षबाधा? भावभेदग्राहकत्वेनैवास्य प्रवृत्तेः, अन्यथाऽसाधारणवस्तुस्वरूपपरिच्छेदकत्वविरोधः।
यच्च भेदो देशभेदात्स्यादित्यायुक्तम् । तदप्यसङ्गतम् ; सर्वत्रा१५ कारभेदस्यैवार्थभेदकत्वोपपत्तेः । यत्रापि देशकालभेदस्तत्रापि तद्रूपतयाऽऽकारभेद एवोपलक्ष्यते । स चाकारभेदः स्वसामग्रीतो जातोऽहमहमिकया प्रतीयमानेनात्मना प्रतीयते । प्रसाधयिष्यते
१ ब्रह्माद्वैतवादी । २ क्षुधा । ३ परेण । ४ विसदृश । ५ पदार्थ । ६ प्रवृत्त्यभावे । ७ परेण । ८ बहिरन्तर्वा । ९ सालादिमत्त्वादि । १० गवादि । ११ वस्तुनि । १२ वस्तुनि।
1 “प्राणिनां मक्षणाच्चापि तस्य लाला प्रवर्त्तते ।" मी० श्लो० पृ० ६५२ ।
"प्रकृत्यैवांशुहेतुत्वमूर्णनामेऽपि नेष्यते ।
प्राणिभक्षणलाम्पट्याल्लालाजालं करोति यत् ॥ १६८॥" तत्त्वसं० पृ० ७९, न्यायकुमुदचं० प्रत्य० परि०, सन्मति० टी० पृ० ७१७ । स्या० रत्ना० पृ० १९९ । प्रमेयरत्नमा० २०१२ ।
2 "यदप्युक्तम्-आहुर्विधातृप्रत्यक्षमिति, तदप्यसाधु; विधातृ इति कोऽर्थः ? इदमपि वस्तुस्वरूपं गृह्णाति नान्यरूपं निषेधति प्रत्यक्षमिति चेन्मैवम् , अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसम्पत्तः । पीतादिव्यवच्छिन्नं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति नेतरथा।"
न्यायमं० पृ० ५२९ । ___“यतो विधातृत्वं किं प्रत्यक्षस्य भावस्वरूपग्राहित्वम् , आहोस्विदन्यत् ? सन्मति० दी० पृ० २८५ । ___ "तत्र किमिदं प्रत्यक्षस्य विधातृत्वं नाम सत्तामात्रावबोधः, असाधारणस्वरूपपरिच्छेदो वा?"
स्या० रत्ना० पृ० २०१। 3 "यदपि-देशकालाकारभेदैर्भेदो न प्रत्यक्षादिभिः प्रतीयते इत्याद्युक्तम् ; अभेदप्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात्।" सन्मति० टी० पृ० २८६ । स्या० रत्ना० पृ० २०३ ।
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सू० ११५] ब्रह्माद्वैतवादः खात्मा सुखशरीरादिव्यतिरिक्तो जीवसिद्धिप्रघट्टके । कथं चामेदसिद्धिस्तत्प्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-अभेदोऽथानां देशाभेदात्, कालाभेदात् , आकारामेदाद्वा स्यात् ? यदि देशामेदात् । तदा देशस्यापि कुतोऽभेदः ? अन्य देशाभेदाच्चेदनवस्था। खतश्चेदानामपि स्वत एवामेदोऽस्तु किं देशालेदाभेदकल्प-५ नया ? इत्यादिसर्वमत्रापि योजनीयम् । तस्मात्सामान्यस्य विशेपत्य वा स्वभावतोऽभेदो भेदो वाभ्युपगन्तव्यः ।
यच्चेदमुक्तम्-'यत एवाविद्या ब्रह्मणोऽर्थान्तरभूता तत्त्वतो नास्त्यत एवासौ निवर्त्यते' इत्यादिः तदप्यसारम् । यतो यद्यवस्तुसत्यविद्या कथमेषा प्रयत्ननिवर्तनीया स्यात् ? न द्यवस्तुसन्तः१० शशशृङ्गादयो यत्न निवर्त्तनीयत्वमनुभवन्तो दृष्टाः । न चास्यास्त- . स्वतः सद्भावे निवृत्त्यसम्भवः, घटादीनां सतामेव निवृत्तिप्रतीतेः। न चाविद्यानिर्मितत्वेन घटग्रामारामादीनामपि तत्त्वतो. ऽसत्त्वम् ; अन्योऽन्याश्रयानुषङ्गात्-अविद्यानिर्मितत्वे हि घटादीनां तत्त्वतोऽसत्त्वम् , तस्माच्चाविद्यानिर्मितत्वमिति । अभेदस्य १५ विद्यानिर्मितत्वेन परमार्थसत्त्वेपि अन्योन्याश्रयो द्रष्टव्यः । न चानाद्यऽविद्योच्छेदे प्रागभाको दृष्टान्तः, वस्तुव्यतिरिक्तस्थानादेस्तुच्छस्वभावस्यास्याऽसिद्धः।
यदपि-'तत्त्वज्ञानप्रागभावरूपैवाविद्या' इत्याद्यभिहितम् । तदप्यभिधानमात्रम् ; प्रागभावरूपत्वे तस्या भेदज्ञानलक्षणकार्योत्पाद-२० कत्वाभावानुषङ्गात् , प्रांगभावस्य कार्योत्पत्तौ सामर्थ्यासम्भवात् ।
१ विचारस्य । २ अभेदपक्षे । ३ स्वरूपेण । ४ परेण ! ५ आत्मश्रवणमननादि । ६ भेदस्याविद्याहेतुत्वे अभेदस्य विद्याहेतुत्वमायातं तत्रापि दूषणम् । ७ वचन । ८ अभावरूपत्वात्खरविषाणवत् । ९ प्रागभावः स्यात्कार्योत्पादकत्वं च स्यादिति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह ।
1 "अनादिना प्रबन्धेन प्रवृत्तावरणक्षमा । यत्रोच्छेद्याप्यविद्येयमसती कथ्यते कथम् ? अस्तित्वे क एनामुच्छिन्द्यादिति चेत् कातरसत्रासोऽयम् सतामेव हि वृक्षादीनामुच्छेदो दृश्यते नासतां शशविषाणादीनाम् । तदिदमुच्छेद्यत्वादविद्या नित्या माभूत् सती तु भवत्येव ।" न्यायमं० पृ० ५२९ । सन्मति० टी० पृ० २९५ । स्या० रत्ना० पृ० २०३।
2 "न च तत्त्वाग्रहणमात्रमविद्या, संशयविपर्ययावप्यविद्यैव, तौ च भावस्वभावत्वात्कथमसन्तौ भवेताम् ? ग्रहणप्रागभावोऽपि नाऽसन्निति शक्यते वक्तुम् ; अमावस्याप्यस्तित्वसमर्थनादिति सर्वथा नासत्यविधा।
असत्त्वे च निषिद्धेऽस्यास्सत्त्वमेव बलाद्भवेत् । सदसद्यतिरिक्तो हि राशिरत्यन्तदुर्लभः ॥" न्यायमं० पृ० ५३० । प्र. क. मा० ७
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० न हि घटप्रागभावः कार्यसुत्पादयन्दृष्टः । केवलं घटवत् प्रागभावविनाशमन्तरेण तत्वज्ञानलक्षणं कार्यमेव जोत्पद्यत । अथन अदशानं तस्याः कार्यम् , किं तर्हि ? भेदज्ञानस्वभाववालो, तन्नः ऐवं सति प्रागभावस्य भावान्तरस्वभावतानुषङ्गात् । न च ज्ञानस्य भेदासेदग्रहणकृता विद्येतरव्यवस्था, संवादविसंवादकृतत्वात्तस्य हत्येतरत्वव्यवस्थायाः । संवादश्च भेदाभेदज्ञानयोर्वस्तुभूतार्थग्राहकत्वात्तुल्य इत्युक्तम् ।।
यदप्युक्तम्-'भिन्नाभिन्नादिविचारस्य च वस्तुविषयत्वात् इत्यादिः तत्राविद्यायाः किमवस्तुत्वाद्विचारागोचरत्वम् , विचा१० रागोचरत्वाद्वाऽवस्तुत्वं स्यात् ? न तावद्यद्यवस्तु तन्तद्विधारयितुमशक्यम् । इतरेतराभावादेरवस्तुत्वेऽपि 'इदमित्थंम्' इत्यादिशाब्दप्रतिभासलक्षणविचारविषयत्वात् । नापि विचारागोचरत्वेनावस्तुत्वम् ; इक्षुक्षीरादिमाधुर्यतारतम्यस्य तजनितसुखादि
तारतम्यस्य वा 'इदमित्थम्' इति परस्मै निर्देष्टुमशक्यत्वेपि १५ वस्तुरूपत्वप्रसिद्धः। किञ्च, अयं भिन्नाभिन्नादिविचारः प्रमाणम्,
अप्रमाणं वा? यदि प्रमाणम् तेनाविषयीकृतायाः कथमविद्यायाः सत्त्वम् ? तदसत्त्वे च कथं मुमुक्षोस्तदुच्छित्तये प्रयासः फलवान् ? अथाप्रमाणम् ; कथं तर्हि तस्य वस्तुविषयत्वम् ? यतो 'भिन्नाभिन्नादिविचारस्य वस्तुविषयत्वात्' इत्यभिधानं शोभेत । २० यच्चोक्तम्-'यथा रजोरजोन्तराणि' इत्यादि; तदप्यसमीचीनम्। यतो वाध्यवाधकभावाभावे कथं श्रवणमननादिलक्षणाऽविद्याऽ
१ अविद्याविनाशमन्तरेण । केवलं यथा घटप्रागभावो घटप्रागभावविनाशरूपकार्यमन्तरा घटपटादिरूपं कार्य नोत्पादयितुमलं तथा विद्याप्रागभावरूपैवाविद्या विद्याप्रागभावविनाशमेव कार्य कर्तुं समर्थी न च विद्यारूपं भेदरूपं वा कार्यमुत्पादयितुं समर्थत्यर्थः। २ अविद्याया भेदज्ञानस्वभावत्वे । ३ भेदशान। ४ विकल्पस्य । ५ खरशृङ्गवत् । ६ इतरस्मिन्नितरस्याभावः इतरेतराभावः । यदभावे नियमेन कार्यस्योत्पत्तिः स प्रागभाव इतीदृशम् । ७ प्रतिपाद्याय। ८ यदि ।
__ 1 "यत्पुनरविद्यैव विद्योपाय इत्यत्र दृष्टान्तपरम्परोद्धाटनं कृतं तदपि क्लेशाय नार्थसिद्धये । सर्वत्र उपायस्य स्वरूपेण सत्त्वादसतः खपुष्पादेरुपायत्वाभावात् । रेखागकारादीनां तु वर्णरूपतया सत्त्वं यद्यपि नास्ति तथापि स्वरूपतो विद्यन्त एव ।" न्यायमं० पृ० ५३० । सन्मति० टी० पृ० २९५ ।
"यच्चोक्तं यथैव हि रजःसम्पर्ककलुषेऽम्भसि इत्यादिः तदपि फल्गु; यतो बाध्यबाधकभावाभावे कथं श्रवणमननादिलक्षणाविद्याऽविद्यान्तरं प्रशमयेत् ?" स्या. रत्ना० पृ० २०४।
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सू० १५ ब्रह्माद्वैतवादः विद्या प्रशमयेत् ? वाध्यवाधकभावश्च सतोरेव अहिनकुलवत् , न त्वसतोः शशाश्वविषाणवत् । दैवरक्ती हि किंशुकाः केनें रज्यन्ते नाम । विद्यमानमेव हि रजो रजोन्तरस्य स्वकार्य कुर्वतः साम
•पनयनद्वारेण बाधकं प्रसिद्धम् , विषद्रव्यं वा उपयुक्तविषद्रव्यसामर्थ्यापनयने चरितार्थत्वादन्नमलादिसहशतया न कार्या-५ न्तरकरणे तत्प्रभवतीति । न च भेदस्योच्छेदो घंटते; वस्तुस्वभावतयाऽभवत्तस्योच्छेत्तुमशक्तेः।
ननु स्वप्नावस्थायां भेदाभावेऽपि भेदप्रतिभासो दृष्टस्ततोन पारमार्थिको भेदस्तत्प्रतिभोसो वा; इत्यभेदेपि समानम् । न खलु तदा विशेषस्यैवाभावो न पुनस्तद्यापकसामान्यस्य; अन्यथा कूर्म-१० रोमादीनामसत्त्वेपि तद्व्यापकस्य सामान्यस्य सत्त्वप्रसङ्गः । कथं च स्वप्नावस्थायां भेदस्यासत्त्वम् ? वाध्यमानत्वाच्चेत् ; तर्हि जाग्रदवस्थायां तस्याबाध्यमानत्वात् सत्त्वमस्तु । एकत्रास्य वाध्यमानत्वोपलम्भात्सर्वत्रासत्त्वे च स्थाण्वादौ पुरुषप्रत्ययस्य बाध्यमानत्वेनासत्यतोपलम्भात् आत्मन्यप्यसत्यत्वप्रसङ्गः । ततो१५ जाग्रवस्थायां स्वप्नावस्थायां वा यत्र वाधकोदयस्तदसत्यम् , यत्र तु तदभावस्तत्सत्यमभ्युपगन्तव्यमा ।
नेनु बाधकेन ज्ञानमपह्रियते, विषयो वा, फलं वा? न तावद् ज्ञानस्यापहारो युक्तः, तस्य प्रतिभातत्वात् । नापि विषयस्य; अत एव । विषयापहारश्च राज्ञां धर्मो न झानानाम् । फलस्यापि स्नान-२० पानावगाहनादेः प्रतिभातत्वान्नापहारः । वार्धकमपि ज्ञानम्, अर्थो वा ? ज्ञानं चेत् तत्ति समानविषयम् , भिन्नविषयं वा ? तत्र
१ स्वपररूपश्रवणमननादिलक्षणाऽविद्ययोः । २ असत्योरविद्ययोर्बाध्यबाधकभावः स्यादित्युक्ते आह । ३ यथा दैवरक्ताः किंशुकाः केनापि न रज्यन्ते तथा असत्योरविधयोर्बाध्यबाधकभावः केनापि कर्तुं न शक्यत इत्यमिप्रायः । ४ न केनापि । ५ कालुष्यलक्षणं स्वकार्य । ६ कालुष्यजननसामर्थ्यः(W)। ७ निराकरण। ८ मरणमूर्छादि । ९ किञ्च । १० अथैकत्वं प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नम् । ११ घटपटादीनाम् । १२ भेदशानं । १३ भेदस्य । १४ विशेषाभावे सामान्यसत्त्वं यदि । १५ रोमत्वस्य । १६ मरीचिकाचक्रे जलमिति शाने। १७ महाहदादौ । १८ प्रमाणेन। १९ इदं जलमिति शानस्य । २० जलादिलक्षण। २१ उत्तरम् । २२ उत्तरम् ।
1 "किं पुनरत्र व्यभिचारि किमर्थः, आहो शानमिति ?” न्यायवा० पृ० ३७ । "अथ बाध्यमानत्वेन मिथ्यात्वमिति चेत् ; किं बाध्यते अर्थः, शानम् , उभयं वा ?... अथ शानं बाध्यते तस्यापि बाधा का ? स्वरूपव्यावृत्तिरूपा, स्वरूपापहवरूपा, विषयापहारलक्षणा वा?" तत्त्वोप० पृ० १९-२१ । स्या० रत्ना० पृ० १३९ ।
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प्रमेयकमलमार्चण्डे [प्रथमपरि० समानविपयल्य संवादकत्वमेव न वाधकत्वम् । न खलु माकन घटज्ञानमुत्तरेण तद्विषयज्ञानेन बाध्यते । भिन्न विषयस्य वाधको चातिप्रसङ्गः । अर्थोऽपि प्रतिभातः, अप्रतिभातो वा बाधकः स्यात् । तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, प्रतिभातो ह्यर्थः स्वज्ञानस्य सत्य५त्तामेवावस्थापयति, यथा पटः पटज्ञानस्य । द्वितीयविकल्पेऽस्मि 'अप्रतिभातो बाधकश्च' इत्यन्योन्यविरोधः। न हि खरविषाणमप्रतिभातं कस्यचिद्वाधकम् । किञ्च, कैचित्कदाचित्कस्यचिद्वाध्यबाधकभावाभावाभ्यां सत्येतैरत्वव्यवस्था, सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य .
वा? प्रथमपक्षे-सत्येतरत्वव्यवस्थासङ्करः, मरीचिकाचांदी १० जलांदिसंवेदनस्यापि क्वचित्कदाचित्कस्यचिद्वाधकस्यानुत्पत्तेः
सत्यसंवेदने तूत्पत्तेः प्रतीयमानत्वात् । द्वितीयपक्षे तु-सकलदेशकालपुरुषाणां बाधकानुत्पत्त्युत्पत्त्योः कथमसर्वविदा वेदनं तत्प्रतिपत्तुः सर्ववेदित्वप्रसङ्गात् ?
इत्ययनल्पतमोविलसित ; रजतप्रत्यायस्य शुक्तिकाप्रत्ययेनो१५त्तरकालभाविनकविषयतया वाध्यत्वोपलम्मात् । ज्ञानमेव हि विपरीतार्थख्यांपकं बाधकमभिधीयते, प्रतिपादितासदर्थख्यापन तु बाध्यम् । ननु चैतद्गतसर्पस्य घृष्टिं प्रति यष्ट्यभिहननमिवाभासते, यतो रजतज्ञानं चेदुत्पत्तिमात्रेण चरितार्थ किं तस्याऽतीतस्य मिथ्यात्वापादनलक्षणयापि बाधया? तदसत्; एतदेव हि २० मिथ्याज्ञानस्यातीतस्यापि वाध्यत्वम्-यदस्मिन् मिथ्यात्वापाँदनम् केचित्पुनःप्रवृत्तिप्रतिषेधोऽपि फलम् , अन्यथा रजतज्ञानस्य बाध्यत्वासम्भवे शुक्तिकादौ प्रवृत्तिरविरता प्राप्नोति । कथं
१ एक । २ अप्रतिभातत्वबाधकत्वयोः। ३ विषये । ४ असत्यत्व । ५ ज्ञानस्य । ६ शानस्य । ७ एकत्रानेकेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्करः। ८ आदिपदेन शुक्तिका । ९ रजतादि । १० अज्ञान । ११ प्रभाचन्द्रदेवः परं प्रति व्रते। १२ इदं रजतमिति ज्ञानस्य। १३ शुक्तिकैकविषयः। १४ रजतादि। १५ उत्तरम् । १६ शुक्तिशकले प्रतिभातरजताद्विपरीतोऽर्थः शुक्तिशकलम् । १७ शुक्तिकैकविषयख्यापकम् । १८ उत्तरशानेन । १९ बोधित । २० बोधितमसदर्थख्यापन (प्रतिपादन )मसदर्थग्रहणं यस्य पूर्वज्ञानस्य । २१ बाध्यबाधकमावलक्षणम् । २२ रजतप्रत्ययस्य शुक्तिविषयप्रत्ययः उत्तरकालभावी बाधकः इति प्रतिपादनम्। २३ मिथ्याशानं । २४ प्रयोजनम् । २५ प्रथमज्ञाने। २६ उत्तरज्ञानेन । २७ विषये। २८ मिथ्या-- स्वापादनाभावे। 1"बाधाविरहः किं सर्वपुरुषापेक्षया आहोस्वित्प्रतिपत्रपेक्षया ?"
तत्वोप० १०३।
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सू० ११५] विज्ञानाद्वैतवादः चैवं वौदिनोऽविद्याविद्ययोर्वाध्यवाधकभावः स्यात् तत्राप्युक्तविकल्पजालस्य समानत्वात् ?
यच्च समारोपितादशि मेदादित्यायुक्तम् । तदप्ययुक्तम् आत्मनः सांशत्वे सत्येव सेव्यवस्थोपपत्तनिरंशस्यान्तर्वहिर्वा वस्तुनः सर्वथाप्यप्रसिद्धरित्यात्माद्वैताभिनिवेशं परित्यज्यान्तर्वहिश्चानेकैप्रकारं ५ वस्तु वास्तवं प्रमाणप्रसिद्धमुररीकर्त्तव्यम् ।
ननु चाविभौगबुद्धिस्वरूपव्यतिरेकेणार्थस्याप्रतीतितोऽलवाद्विज्ञप्तिमात्रमेव तत्त्वमभ्युपगन्तव्यं तबाहकं च ज्ञानं प्रमाणमिति तन्न; यतोऽविभौगस्वरूपावेदकप्रमाणसद्भावतो विज्ञप्तिमानं तत्त्वमभ्युपगम्यते, बहिरर्थसद्भावबाधकप्रमाणावष्टंभेन वा? यद्यायः १० पक्षस्तत्रापि तथाभूतविज्ञप्तिमात्रं ग्राहकं (मात्रग्राहक) प्रत्यक्षम् , अनुमानं वा? प्रमाणान्तरस्य सौगतैरनभ्युपगमात् । तत्र न तावप्रत्यक्षं वहिरर्थसंस्पर्शरहितं विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यधिगन्तुं समर्थम्; अर्थाभावनिश्चयमन्तरेण विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यवधारणानुपपत्तेः।
"अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः। नैप वस्त्वन्तरामावसं वित्त्य गमाहते।
मी० श्लो० अभावपरि० श्लो० २० इत्यभिधानात् । न चार्थाभावः प्रत्यक्षाधिगम्यः; बाह्यार्थप्रकाशकत्वेनैवास्योत्पत्तेः । न च प्रत्यक्षे प्रतिभासमानस्याप्यर्थस्याभावो
१ बाधकेन शानमपहियते विषयो वेत्येवं वादिनः। २ उक्तविकल्पैरतीतस्योत्तरकालीनं न बाधकमिति । ३ अविद्यया किं ज्ञानमपहियते विषयः फलं वा । ४ सहशिः वर्त्तते इति सांशः। ५ सुखादिस्तम्भादि च। ६ पारमार्थिकम् । ७ भवता परेण। ८ विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार आह। ९ ग्राह्यग्राहकसंवित्तिरूपो विभागः । १० जनादिभिः। ११ इदं ज्ञानमयं विषय इति विभागः । १२ ज्ञापक। १३ परेण । १४ बलेन । १५ प्रकृते विशप्तिमात्रे । १६ घटते। १७ बहिरर्थ । १८ सद्भावाद्विना। १९ अस्तीति साध्यः।
__1 ब्रह्माद्वैतवादस्य विविधरीत्या पर्यालोचनं निम्नग्रन्थेषु द्रष्टव्यम्-मी० श्लोकवा० पृ० ६६२-, तत्त्वसं० पुरुषप० पृ० ७५-, न्यायमं० पृ० ५२६-, आप्तमीमांसा अष्टश० अष्टसह० पृ० १५६-द्वि० परि०, न्यायकु० चं० प्रथमपरि०, सन्मति० टी० पृ० २७७-२८५-, स्या. रत्ना० पृ० १९०-।
2 "ननु किमविभागबुद्धिस्वरूपावेदकप्रमाणसद्भावतो विज्ञप्तिमात्रमभ्युपगम्यते, आहोस्विदर्भसद्भावबाधकप्रमाणसद्भावसङ्गतेरिति वक्तव्यम् ? तत्र यद्यायः पक्षः स न युक्तः, यतस्तथाभूतविशप्तिमात्रोपग्राहकं प्रत्यक्षं वा तद्भवेदनुमानं वा...।" सन्मति. टी० पृ. ३४९।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [ সক্ষমৃহিণ্ড विज्ञप्तिमात्रस्याप्यभावानुषशात् । न तैमिरिकप्रतिभाले प्रति भासमानेन्दुद्वयवनिर्मलमनोऽक्षप्रभवप्रतिमासविषयस्याप्यसत्त्वमित्यभिधातव्यम् । यतस्तैमिरिकप्रतिभासविषयस्यार्थस्य बाध्यमानप्रत्ययविषयत्वादसत्त्वं युक्तम् , न पुनः सत्यप्रतिभासविषय५स्याऽवाध्यमानप्रत्ययविषयत्वेन सत्त्वसम्भवात् । बाध्यबाधकभावश्चानन्तरमेव ब्रह्माद्वैतप्रघट्टके प्रपञ्चितः । तन्नार्थाभावोऽध्ययक्षेणाधिगम्यः।
नाप्यनुमानेन; अध्यक्षविरोधेऽनुमानस्याप्रामाण्यात् । “प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्षः" [ ] इत्यभिधानात् । न च बाह्यार्था१०वेदकाध्यक्षस्य भ्रान्तत्वान्न तेनानुमानबाधेत्यभिधातव्यम् । अन्यो
ऽन्याश्रयात्-सिद्धे हार्थाभावे तद्रोहाध्यक्ष प्रान्त सिद्ध्येत् , तत्सिद्धौ चार्थाभावानुमानस्य तेनाऽवाधेति । किञ्च, तदनुमान कार्यलिङ्गप्रभवम् , स्वभावहेतुसमुत्थं वा, अनुपलब्धिप्रसूतं वा? न ताव
प्रथम द्वितीयविकल्प कार्यस्वभावहेत्वोर्विधिसाधकत्वाभ्युप१५गमात्। “अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ" [न्यायवि० पृ० ३९] इत्यभिधानात् । तृतीयविकल्पोप्ययुक्तः, अनुपलब्धेरसिद्धत्वाद्वाह्यार्थस्याध्यक्षादिनोपलम्भात् । किञ्च, अदृश्यानुपलब्धिस्तदभावसाधिका स्यात् , दृश्यानुपलब्धिर्वा ? प्रथमपक्षेऽतिप्रसङ्गः। द्वितीयपक्षे तु
सर्वत्र सर्वदा सर्वथार्थाभावाऽप्रसिद्धिः, प्रतिनियतदेशादाँवेवा२० स्यास्तझावसाधकत्वसम्भवात् ।
एतेन बहिरर्थसद्भावबाधकप्रमाणावष्टम्भेन विज्ञप्तिमात्रं तत्त्वमभ्युपगम्यत इत्येतन्निरस्तम्। तत्सद्भावबाधकप्रमाणस्योक्तप्रकारेणासम्भवात्।
१ यत्प्रतिभासते तदस्तीति अनैकान्तिको न । (?) २ प्रतिभासमानत्वाविशेषात् । . ३ शान। ४ बायार्थस्य । ५ परेण । ६ नेमौ द्रौ चन्द्रौ। ७ ज्ञानाद्वैतवादिनां बाध्यबाधकभावो नास्तीत्युक्ते आह। ८ पूर्व । ९ भा (तृतीया, तृतीयासमास इत्यर्थः)। १० परेण । ११ अनुमानात् । १२ अर्थ। १३ सिद्धा। १४ अस्तित्व । १५ त्रिषु हेतुषु मध्ये। १६ पिशाचादेरप्यभाबसाधिका। १७ कालप्रकार । १८ बहिराभावसाधकप्रमाणनिराकरणपरेण ग्रन्थेन ।
1 "नाप्यनुमानं बाह्याभावमावेदयति, प्रत्यक्षाभावे तस्यायोगात् । न च प्रत्यक्षविरोधे अनुमानप्रामाण्यं संभवति 'प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्षः' इति वचनात् ।"
सन्मति० टी० पृ० ३५१ । 2 "स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति । (पृ० ७९) अनिराकृत इति । एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितुमिष्टोऽप्यर्थः प्रत्यक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनैर्निराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम् ।" न्यायबि० पृ० ७९,८३ ।
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७९ .
सू० ११५] विज्ञानाद्वैतवादः
ननु नार्थाभावद्वारेण विज्ञप्तिमात्रं साध्यते, अपितु अर्थसंविदोः सहोपलम्भनियमाझेदो द्विचन्द्रदर्शनवदिति विधिद्वारेणैव साध्यते तदप्यसारम् : असेदपाक्षल्य प्रत्याक्षेण वाधनाच्छब्दे श्राव(ब्देऽश्राव)णत्ववत् । दृष्टान्तोपि साध्यविकलः, विज्ञानव्यतिरिक्तवाह्यार्थमन्तरेण विचन्द्रदर्शनस्याप्यसम्भवात् ! कारणदोषवशात्५ खलु दहिःस्थितलेकम्पीन्दुं द्विरूपतया प्रतिपद्यमानं ज्ञानमुत्पद्यते, कारणोपज्ञानाद्वाधकप्रत्ययाचास्य प्रान्तता । अश्चक्रियाकारिस्तम्भाधुपलब्धौ तु तद्भावात्सत्यता । सहोपलदनिया
१ द्वन्दः। २ आत्मख्यातिवादी। ३ ईप् । ४ इन्द्रिय । ५ काचकामलादि । ६ उत्तरकाले नेमौ द्वौ चन्द्रौ। ७ घटपटादि ।
1 "यत्संवेदनमित्यादिना नीलाद्याकारतद्धियोरभेदसाधनाय निराकारशानवादिनं प्रति प्रमाणयति
यत्संवेदनमेव स्याद्यस्य संवेदनं ध्रुवम् । तस्मादव्यतिरिक्तं तत्ततो वा न विभिद्यते ॥ २०३० ॥ यथा नीलधियः स्वात्मा द्वितीयो वा यथोडुपः।।
नीलधीवेदनं चेदं नीलाकारस्य वेदनात् ॥ २०३१॥ एतदुक्तं भवति-( यत्) यस्मादपृथक् संवेदनमेव तत्तस्मादभिन्नं यथा नीलधीः वस्वभावात् , यथा वा तैमिरिकशानप्रतिभासी द्वितीय उडुपः चन्द्रमाः, नीलधीवेदनञ्चेदमिति पक्षधर्मोपसंहारः । धयंत्र नीलाकारतद्धियौ, तयोरभिन्नत्वं साध्यधर्मः, यथोक्तः सहोपलम्भनियमो हेतुः। ईदृश एव आचायींये सहोपलम्भनियमादित्यादौ प्रयोगे हेत्वर्थोऽभिप्रेतः।" तत्त्वसं० पं० पृ० ५६७ ।
2 "-असदेतत्; अभेदस्य प्रत्यक्षेण बाधनात् ,....शब्देऽश्रावणत्ववत् पक्षस्य प्रत्यक्षेण निराकृतेः ।" सन्मति० टी० पृ० ३५२ ॥
3 "पुनः स एवाह-यदि सहशब्द एकार्थस्तदा हेतुरसिद्धः; तथाहि-नटचन्द्र. मलप्रेक्षासु नटेकेनैवोपलम्भो नीलादेः, ...यदा च सत्त्वं प्राणभृतां सर्वे चित्तक्षणाः सर्वज्ञेनावसीयन्ते तदा कथमेकेनैवोपलम्भः सिद्धः स्यात् ? नचान्योपलम्भप्रतिषेधसंभवः खभावविप्रकृष्टस्य विधिप्रतिषेधाऽयोगात् । अथ सहशब्द एककालविवक्षया तदा बुद्धविज्ञेयचित्तेन चित्तचैत्तैश्च सर्वथाऽनैकान्तिकता हेतोः । यथा किल वुद्धस्य भगवतो यद्विज्ञेयं सन्तानान्तरचित्तं तस्य बुद्धशानस्य च सहोपलम्भनियमेऽप्यस्त्येव च नानात्वम् , तथा चित्तचैत्तानां सत्यपि सहोपलम्मे नैकत्वमित्यतोऽनैकान्तिको हेतुः।" तत्त्वसं० पं० पृ० ५६७ । विधिवि० न्यायकणि० पृ० २६४ । सन्मति० टी० पृ० ३५३ । स्या० रत्ना० पृ० १५५ ।
"यदप्यवर्णि सहोपलम्भनियमादमेदो नीलतद्धियोः तदपि बालभाषितमिव नः प्रतिभाति; अभेदे सहानुपपत्तेः । अथैकोपलम्भनियमादिति हेत्वों विवक्षितः, तदयमसिद्धो हेतुः नीलादिग्राह्यग्रहणसमये तद्वाहकानुपलम्भात् ।" न्यायमं० पृ०५४४ ।
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८०
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० शालिद्धः, नीलार्थोपलम्भमन्तरेणाप्युपरतेन्द्रियव्यापारेण सुखादिसंवेदनोपलस्मात् । अनैकान्तिकश्चायम्; रूपालोकयोर्मिनयोरपि सहोपलस्भनियमसम्भवात् । तथा सर्वज्ञज्ञानस्य तज्ज्ञेयस्य
चेतरजनचित्तस्य सहोपलम्भनियमेऽपि भेदाभ्युपंगमादनेकान्तः। ५ ननु सर्वशः सन्तानान्तरं वा नेष्यते तत्कथमयं दोषः? इत्यसत्
सकललोकसाक्षिकस्य सन्तानान्तरस्थानभ्युपगममात्रेणाऽभावाsसिद्धेः । सुगतश्च सर्वज्ञो यदि परमार्थतो नेष्यते तर्हि किमर्थ "प्रमाणभूय" [प्रमाणसमु० श्लो० १] इत्यादिनासौ समर्थितः,
स्तुतश्चाद्वैतादिप्रकरणानामादौ दिग्नागादिभिः सद्भिः । स खलु १० तेषामसति सत्त्वकल्पने वुद्धिःप्रवर्त्तते । विचार्य पुनस्त्यागाददोर्षे
इत्यप्यसारम् ; त्यागाङ्गत्वे हि तस्य वरं पूर्वमेव नाङ्गीकरणमीश्वरादिवत् । अद्वैतमेव तथा स्तूयते इत्यसि वार्तम् । तत्र स्तोतव्यस्तोतृस्तुतितत्फलानामत्यन्तासम्भवात् ।
किञ्च, सहोपलम्भः किं युगपदुपलम्मः, क्रमेणोपलम्भीभावो १५वा स्यात्, एकोपलम्भो वा? प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः, 'सह शिष्येणागतः' इत्यादौ यौगपद्यार्थस्य सहशब्दस्य मेदे सत्येवो. पलम्भात् । न ह्येकस्मिन् यौगपद्यमुपपद्यते । द्वितीयपक्षेप्यसिद्धो हेतुः क्रमेणोपलम्भाभावमात्रस्य वादिप्रतिवादिनोरसिद्धत्वात् ।
१ प्रतीति। २ निवृत्तेन्द्रिय। ३ पुरुषेण। ४ न चैकत्वम् । ५ परेण । ६ शानान्तरं वा। ७ सौगतैः। ८ जगद्धितैषिणे प्रणम्य शास्त्रे सुगताय तापिने(तायिने)। ९ असति सत्त्वकल्पने बुद्धिप्रवृत्त्यभावलक्षणो दोषः। १० फल्गु । ११ दिङ्गागादि । १२ साधनं विचार्यते । १३ प्रसज्यः। १४ विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः । १५ उपाध्याये। १६ असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः। १७ योगाचारजैनाभ्यां तुच्छखभावप्रागभावप्रध्वंसाभावलक्षणाऽभावयोरनभ्युपगमात् । १८ तुच्छरूपाभावस्य ।
"अथ साहाय्यं यौगपy वा विवक्षितं सहोपलभ्यमानत्वं तथापि तयो देनैव व्याप्तत्वात विरुद्धत्वम् । तथा सर्वशः स्वचित्तेन सहोपलभते परचित्तं न च तस्य तसादमेद इति व्यभिचारः सर्वेषां सर्वशताप्रसङ्गात् ।” व्योमव० पृ० ५२७ ।
1“यच्च सहोपलम्भनियम उक्तः सोऽपि विकल्पं न सहते । यदि ज्ञानार्थयो: साहित्येन उपलम्भः ततो विरुद्धो हेतुर्नामेदं साधयितुमर्हति साहित्यस्य तद्विरुद्धमेद. व्याप्तत्वात् अभेदे सदनुपपत्तेः । अथैकोपलम्भनियमः, न, एकत्वस्यावाचकः सह शब्दः । अपि किमेकत्वेनोपलम्भः, आहो एक उपलम्भो शानार्थयोः । न तावदेकरवे. नोपलम्भ इत्याह-बहिरुपलब्धेश्च विषयस्य ।" ब्रह्मसू० शां० मा० भामती २२।२८ सन्मति० टी० पृ० ३५३ । "सहोपलम्भोऽपि किं युगपदुपलम्मः, क्रमेणोपलम्भाभावः, एकोपलम्भो वाऽभिप्रेतो यस्य नियमो हेतुः स्यात् " सा० रखा. पृ० १५५॥
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सू० ११५] विज्ञानाद्वैतवादः
किञ्च, अस्मादभेदैः-एकत्वं साध्येत, भेदाभावो वा? तत्रादिकल्पोऽसङ्गतः, भावाऽभावयोस्तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धाभावतो गम्यगमकभावायोगात् । प्रसिद्ध हि धूमपावकयोः कार्यकारणभावे-शिंशपात्ववृक्षत्वयोश्च तादात्म्ये प्रतिवन्धे गम्यगमकभावो दृष्टः । द्वितीयविकल्पषि-अमावस्वभावत्वात्साध्यसाध-५ नयोः सम्बन्धाऽभावः, तादात्मयतदुत्पत्त्योरर्थस्वभावप्रतिनियमात् । अनिष्टसिद्धिश्च; सिद्धपि मेदप्रतिवे विज्ञप्तिमात्रयस्यातोऽप्रसिद्धः, मेदप्रतिषेधमात्रेऽस्य चरितार्थत्वात् । ततस्तत्तिद्धौ व ग्राह्यग्राहकावादिप्रसङ्गो वहिरर्थसिद्धरपि प्रसाधैंकोऽनुषज्यते।
अथैकोपलम्भः सहोपलम्भः। ननु किमेकत्वेनोपलम्भ एको- १० पलम्भः स्यात् , एकेनैव वोपलम्भः, एकलोलीभावेन चोपलम्भः, एकस्यैवोपलम्भो वा? प्रथमपक्षे-साध्यसमो हेतुर्यथाऽनित्यः शब्दोऽनित्यत्वादिति । बहिरन्तर्मुखाकारतया चै नीलतद्धियो)दस्य सुप्रतीतत्वात् कथं तयोरेकत्वेनोपलम्भः सिद्धयेत् ? एके-
१ हेतोः । २ साध्यविचारः । ३ अर्थसंविदोः । ४ प्रसज्यः । ५ साध्य । ६ अआवो हेतुः। ७ एकत्व। ८ साध्यसाधन । ९ सम्बन्धे। १० शशविषा. पाश्चविषाणयोरिव । ११ तुच्छाभावसिद्धिः। १२ अस्माद्धेतोः। १३ अभावे । १४ क्रमेणोपलम्भाभावमात्रात् इत्यस्सात्साधनात् । १५ किञ्च । १६ व्याप्यव्यापक। १७ यथा ग्राह्यं ग्राहकमिति द्वैतं तथा बाह्योऽर्थः विज्ञानमिति द्वैतसिद्धिरपि स्यादित्यर्थः । १८ अर्थसंविदोस्तादात्म्यात् । १९ नीलतद्वतोः सर्वथा तादाम्यात् । २० शानेन । २१ कथञ्चित्तादात्म्य । २२ किञ्च । २३ स्वरूपासिद्धो हेतुः। २४ शानेन । 1 "किञ्च, क्रमेणोपलम्भाभावमात्रादभेद एकत्वं साध्यते, भेदाभावो वा?"
स्था० रत्ना० पु. १५८ । 2 "अथैकोपलम्भः सहोपलम्भः, ननु किमेकत्वेनैवोपलम्भः एकोपलम्भः, एकेनैक वा, एकस्यैव वा, एकलोलीमावेनैव वा?"
स्या. रत्ना० पृ० १५८ । 3 "तदेकोपलम्भनियमोऽप्यसिद्धः साध्यसाधनयोरविशेषात् ।" अष्टश०, अष्टसह० पृ० २४३ । "नचैकस्यैवोपलम्भनियमो हेतुः; अशब्दार्थत्वात् , साध्याविशिष्टत्वाच्च । तथाऽनेकरूपाधवयवस्य हि तस्यार्थस्योपलम्भे स्वरूपाऽसिद्धोऽसीति ।" व्योमवती पू० ५२७ । स्या० रत्ना० पृ० १५८ ।
4 "नापि नीलतदुपलम्भयोरेकेनैवोपलम्भः; तथाहि-नीलोपलम्भेऽपि तदुपलम्भानामन्यसन्तानगतानामुपलम्भाव।" तत्वसं० पं० पृ० ५६७ । “अकेनैवोपल. भ्यमानत्वं साधनम् : न; अन्यवेदनाऽभावस्याप्रसिद्धेः । अर्थस्तु तत्समानक्षणैरन्यैरप्युपलभ्यते इत्येकेनैवोपलभ्यमानत्वमसिद्धम् ।" व्योमव० पु. ५२७ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० वोपलम्भोप्यन्यवेदनाऽभावो सिद्ध सिद्ध्येत् । न चासो सिद्धः, नीलाद्यर्थस्य तत्समानक्षणैरन्यवेदनैरुपलम्भाप्रतीरित्येकेनैवोपलम्भोऽसिद्धः एतेनैकलोलीभावेनोपलम्भः सहोपलम्भचिंत्रज्ञानाकारवदशक्यविवेचनत्वं साधनमसिद्ध प्रतिपत्तव्यम् ; नीलताद्धि५ योरशक्यविवेचनत्वासिद्धेः अन्तर्बहिर्देशतया विवेकेनानयोः प्रतीतेः।
अथैकस्यैवोपलम्भः; किं ज्ञानस्य, अर्थस्य वा ? ज्ञानस्यैव चेत्; असिद्धो हेतुः । न खलु परं प्रति ज्ञानस्यैवोपलब्धिः सिद्धा;
अर्थस्याप्युपलब्धेः। न चार्थस्याभावादनुपलब्धिः, इतरेतराश्रया१० नुषङ्गात्-सिद्धे ह्यर्थाभावे ज्ञानस्यैवोपलस्माः सिद्धयेत् , तदुपलम्भसिद्धौ चार्थाभावसिद्धिरिति । अथार्थस्यैवैकस्योपलस्मः, नन्वेवं कथमर्थाभावसिद्धिः? ज्ञानस्यैवाभावसिद्धिप्रसङ्गात् । उपलम्भनिवन्धनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः । स्वरुपकारणसेदाच्चानयोर्भेदः,
ग्राहकस्वरूपं हि विज्ञानं नीलादिकं तु ग्राह्यस्वरूपम् । अभेदे च १५ तयोाहकता ग्राह्यता वाऽविशेषेण स्यात् । कारणमेदस्तु
१ अर्थस्य । २ उपलम्भः । ३ सन्तानान्तरवेदनैः। ४ पुरुष । ५ एकत्वेनोपलम्भनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । ६ चित्रज्ञानाद्यथा तदाकाराणां श्वेतादीनामशक्यविवेचनत्वं यथा न तथात्र । ७ अयमर्थ इदं शानमिति विवेकाभावः। ८ परेण । ९ नीलनीलशानयोः । १० पृथक्त्वेन। ११ अर्थसंविदोरभेदः एकस्यैवोपलम्भात् । १२ जैनं प्रति । १३ अर्थशानयोर्घटपटयोरिव । __ 1 "एतेनैकलोलीभावेनैवोपलम्भः सहोपलम्भनियमः चित्रशानाकारवदशक्यविवेचनत्वं साधनमसिद्ध प्रतिपत्तव्यम् , अन्तर्बहिर्देशस्थतया विवेकेन शानार्थयोः प्रतीतेः।"
स्या० रत्ना० पृ० १५९। 2 "अपि च सहोपलम्भः किं शानयोः, उत अर्थयोः, शानार्थयोर्वा ?" तत्त्वोप० पृ० १२५ । "किञ्च, एकस्यैवोपलम्भो ज्ञानस्य, अर्थस्य वा?"
सन्मति० टी० पृ० ३५३ । 3 "अथ वाह्यार्थाभावादेकोपलम्भनियमः; तन्न; इतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गात् । तथा चैकोपलम्भनियमाद् बाह्यार्थाभावसिद्धिः तत्सिद्धेश्च एकोपलम्भनियमसिद्धिरित्येकाभावादितराभावः।"
व्योमवती पृ० ५२७ । 4 "तथा शानं ग्राहकवरूपं नीलादि ग्रामस्वरूपमित्यनयोः शुक्लपीतयोरिव स्वभावभेदात् भेदः । अभेदे हि बोधोऽपि नीलस्य ग्राह्यं स्यात् नीलञ्च बोधस्य ग्राहकमिति स्यात् , न चैतदस्ति । कारणभेदाच्च नीलाद्बोधोऽर्थान्तरम् ; तथा हि-बोधाद् बोधरूपता, इन्द्रियाद्विषयप्रतिनियमः, विषयादाकारग्रहणमिति भेदादेषां भेद एव ।"
___ व्योमवती० पृ० ५२७ ।
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सू० ११५ विज्ञानाद्वैतवादः सुप्रसिद्धः, ज्ञानस्य चक्षुरादिकारणप्रभवत्वात्तद्विपरीतत्वाच नीलाद्यर्थस्येति।
यञ्चोच्यते-'यद्भा(यदवसा)लते तज्ञानं यथा सुखादि, अवभासते च नीलादिकम्' इति तत्र किं खतोऽवमासमानत्वं हेतुः, परतो वा, अभा(अवमा समानत्वमानं का? तत्राद्यपक्षे हेतु-५ रसिद्धः। न खलु 'परनिरपेक्षा नीलादयोऽवभालन्ते' इति परस्य प्रसिद्धम् । नीलादिकमहं वेद्मि' इत्यहमहमिकया प्रतीयमानेन प्रत्ययेन नीलादिभ्यो भिन्नेन तत्प्रतिभासाभ्युपगमात् । यदि च परनिरपेक्षावभासा नीलादयः परस्य प्रसिद्धाः स्युस्तर्हि किमतो हेतोस्तं प्रति साध्यम् ? ज्ञानतेति चेत् सा यदि प्रकाशता-तर्हि १० हेतुसिद्धौ सिद्धैव न साध्या । असिद्धौ वा तस्याः कथं नासिद्धो हेतुः ? को हि नाम स्वप्रतिभासं तत्रेच्छन् ज्ञानतां नेच्छेत् ।
ननु चौहम्प्रत्ययो गृहीतः, अगृहीतो वा, निर्व्यापारः, सव्यापारो वा, निराकारः, साकारो वा, (भिन्नकालः, समकालो वा) नीलादेाहकः स्यात् ? गृहीतश्चेत्-किं खतः, परतो वा? खत-१५
१ प्रकाश । २ प्राकृतनीलकारणप्रभवत्वात् । ३ परेण भवता । ४ तस्माद् शानमिति निगमनम् । ५ प्रतिवाद्यसिद्धः । ६ शान। ७ जैनस्य । ८ परनिरपेक्षोऽवभासो येषां ते । ९ जैनस्य । १० इष्टमवाधितमसिद्ध साध्यम् । ११ शानत्वम् । १२ नीलादीनाम् । १३ नीलादौ ।
"प्रकाशमानस्तादात्म्यात्स्वरूपस्य प्रकाशकः । यथा प्रकाशोऽभिमतस्तथा धीरात्मवेदिनी ॥" प्रमाण वा० ३१३२७ । "सकृत्संवेद्यमानस्य नियमेन धिया सह ।
विषयस्य ततोऽन्यत्वं केनाकारेण सिध्यति ॥" प्रमाणवा० अलं० पृ०९१ । 2 "यत्तु संवेदनाद्वैतं पुरुषाद्वैतवन्न तत् ।
सिध्येत् स्वतोऽन्यतो वाऽपि प्रमाणात् स्वेष्टहानितः ॥" आप्तपरी० कारि० ५६ । न्यायकु० चं० प्रथमपरि० । स्या० रत्ना० पृ० १६१ ।
3 "तथा हि-परः प्रकाशयन् सम्बद्धोऽसम्बद्धो वा, गृहीतोऽगृहीतो वा, निर्व्यापारः सव्यापारो वा, निराकारः साकारो वा, मिन्नकालः समकालो वा पदार्थस्य प्रकाशकः स्यात् ?" स्या. रत्ना० पृ० १६१ । “प्रत्यक्षमर्थ तुल्यकालं वा प्रकाशयति, भिन्नकालं वा?" सन्मति० टी० पृ० ३५४ ।
"अनिर्भासं सनिर्मासमन्यनिर्भासमेव च । विजानाति न च ज्ञानं बाह्यमर्थ कथञ्चन ॥ १९९९ ॥"
तत्त्वसं० १०५५९ ।
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प्रमेयकमलसार्तण्डे प्रथमपरि० श्चेत्, स्वरूपमात्रप्रकाश निमनत्वादहिरर्थप्रकाशकत्वासाच एव स्यात् । परतश्चेदनवस्था तस्यापि ज्ञानान्तरेण ग्रहणात् । न च पूर्वज्ञानाग्रहणेप्यर्थस्यैव ज्ञानान्तरेण ग्रहणमित्यभिधातैव्यम्। तस्यासन्नत्वेन जनकत्वेन च ग्राह्यलक्षणप्राप्तत्वात् । तदाह५ "तां ग्राह्यलक्षणप्राप्तामासन्नां जनिकां धियम् ।
अगृहीत्वोत्तरं ज्ञानं गृह्णीयापरं कथम्॥"[प्रमाणवा० ३३५१३]
अगृहीतश्चेद्राहकोऽतिप्रसङ्गः। न च निर्व्यापारो बोधोऽर्थयाहकः, अर्थस्यापि बोधं प्रति ग्राहकत्वानुषङ्गात् । व्यापारवत्त्वे
चौतोऽव्यतिरिक्तो व्यापारः, व्यतिरिक्तो वा ? आधविकल्पे-बोध. १० खरूपमात्रमेव नापरो व्यापारः कश्चित् । न चानयोरभेदो युक्तः,
धर्मर्मितया भेदप्रतीतेः । द्वितीयविकल्प तु सम्बन्धासिद्धिः ततस्तस्योपकाराभावात् । उपकारे वानवस्था तन्निर्वर्तने व्यापार. स्यापरव्यापारपरिकल्पनात् । निराकारत्वे वा बोधस्य; अतः
प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात् । साकारत्वे वा-वाह्यार्थपरिकल्पना. १५ नर्थक्यं नीलाद्याकारेण बोधेनैव पर्याप्तत्वात् । तदुक्तम्
"धियो(योऽ)लादिरूपत्वे बाह्योऽर्थः किनिबन्धनः । धियोऽ(यो)नीलादिरूपत्वे बाह्योऽर्थः किन्निवन्धनः॥१॥"
[प्रमाणवा० ३।४३१] तथा न भिन्नकालोऽसौ तेंद्राहकः; बोधेन स्वकालेऽविद्यमानार्थस्य २० ग्रहणे निखिलस्य प्राणिमात्रस्याशेषज्ञत्वप्रसङ्गात् । नापि सम
१ अहम्प्रत्ययस्य । २ द्वितीयेन । ३ जैनैः । ४ पूर्वशानस्य । ५ उत्तरशानस्य । ६ प्राक्तनीं । ७ कर्तृ । ८ नीलादिकम् । ९ नाशातं शापकं नाम । १० देवदत्तशानं जिनदत्तेमाशातं सत् जिनदत्तस्यार्थग्राहकं भवेत् । ११ अन्यथा। १२ निर्व्यापारत्वा विशेषात् । १३ वोधात् । १४ बोधव्यापारयोः । १५ स्वरूप । १६ बोध । १७ बोधस्यायं व्यापार इति । १८ व्यापारात् । १९ बोधस्य । २० घटशानस्य घटः पटशानस्य पटो विषयः, इति प्रतिनियतविषय। २१ शानस्य । २२ निराकारले। २३ ग्राहकव्यवस्थापकाभावात्। २४ किम्प्रयोजनः। किं निबन्धनं निमित्तं व्यवस्थापकं यस्य बाह्यार्थस्य सः । २५ नीलादि । २६ अन्यथा।
1"न च पूर्वशानाग्रहणेऽपि अर्थस्यैव ग्रहणमिति वाच्यम् , तेषामासन्नत्वे सति ग्राह्यलक्षणप्राप्तत्वात् । तदाह-तां ग्राह्यलक्षण....व्योमवती पृ० ५२४ ।
"धियोऽसितादिरूपत्वे सा तस्यानुभवः कथम् । धियः सितादिरूपत्वे बायोऽर्थः किं प्रमाणकः ॥ २०५१॥"
सखसं० पृ० ५७४ ।
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सू० ११५] विज्ञानाद्वैतवादः कालः; समसमयभाविनोनिज्ञेययोः प्रतिवन्धाभावतो ग्राह्यप्राहकावासम्भवात् । अन्यथाऽर्थोपि ज्ञानस्य ग्राहकः । अथार्थे ग्राह्यताप्रतीतेः स च प्रासः न ज्ञानम्, न; तव्यतिरेकेणास्याः प्रतीत्यभावात् । स्वरूपस्य च माहात्वे-शानेपि तदस्तीति तत्रापि ग्राह्यता भवेत् । अथ जडत्वार्थो ज्ञानग्राहकः; ननु कुतोऽस्य५ जडत्वालिद्धिः? तनाहकत्वादन्योन्याश्रयः-सिद्ध हि जडत्वे तदाहकत्वासिद्धिः, ततश्च जडत्वसिद्धिरिति । अथ हीतिकरगादर्थस्य ज्ञानं प्राहकम् , ननु साऽर्थादर्थान्तरम् , अनन्तरं का तेन क्रियते ? अर्थान्तरत्वे अर्थस्य न किञ्चित्वंतमिति कयं तेनाल्य ग्रहणम् ? तस्येयमिति सम्बन्धासिद्धिश्च । तयाँप्यस्य गृहीत्यन्त-१० रकरणेऽनवस्था । अनर्थान्तरत्वे तु तत्करणेऽर्थ एव तेन क्रियते इत्यस्य ज्ञानता ज्ञानकार्यत्वादुत्तरज्ञानवत् । जैडार्थोपादानोत्पतर्न दोषश्चेत्, ननु पूर्वोऽर्थोऽप्रतिपंन्नः कथमुपादानमतिप्रसझाँत् ? प्रतिपन्नश्चेत् ; किं समानकालाद्भिन्नकालाद्वेत्यादिदोषानुषङ्गः। किञ्च, गृहीतिरंगृहीता कथमस्तीति निश्चीयते ? अन्यज्ञानेन १५ चास्या ग्रहणे स एव दोषोऽनवस्था च, ततोऽर्थो ज्ञानं गृहीतिरिति त्रितयं स्वतन्त्रमामातीति न परतः कस्यचिदमासनामिति लासिद्धो हेतुः। ननु च 'अर्थमहं वेद्मि चक्षुषा' इति कर्मकर्तृक्रियाकरणप्रतीति
१ अयं प्रत्ययोनीलादेहिकः। २ तदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्ध । ३ सव्येतरगोविषाणवत्। ४ इति न ( इत्यर्थः)। ५ अर्थस्य । ६ भो जैन । ७ परिच्छित्ति। ८ घटादेः। ९ वटस्य करणे पटस्य किमायातं यथा तथा । १० प्रथमया । ११ सम्बन्धसिद्ध्यर्थम् । १२ अभिन्नत्वे । १३ मृत्पिण्डादि । १४ अर्थस्य । १५ अज्ञातः। १६ अप्रतिपन्नत्वाविशेषात् । १७ खरविषाणादेरप्युपादानत्वप्रसङ्गात् । १८ वोधात् । १९ अज्ञाता। २० भिन्नकालेन समकालेन वेत्यादि । २१ अन्यज्ञानेन गृहीतो गृहीत्यन्तरमाद्यगृहीतेरथेन सम्वन्धसिद्ध्यर्थ क्रियते । एवं चेदन्यज्ञानेन क्रियमाणा गृहीतिः सा अर्थाद्भिन्ना अभिन्ना वेति उभयपक्षे उक्तदोषानुषङ्गः । पुनरपि भेदपक्षे
1 “अथार्थे ग्राह्यताप्रतीतेः स एव ग्राह्यो न ज्ञानमित्युच्यते; तन्न, तब्यतिरेकेगास्याः प्रतीत्यभावात् ।" स्या० रत्ना० पृ० १६२ ।
2 "ननु तहिं नीलमहं वेभि चक्षुषेति प्रतिभासः कथम् ? तथा हि-नीलमिति कर्म, अहमिति कर्ता, वेनीति क्रिया, चक्षुषेति करणमेतेषां परस्परव्यावृत्तवपुषां प्रतिभासनादभेदप्रतिपादनमुन्मत्तभाषितम् ; नैतदेवम् ; तैमिरिकस्य द्विचन्द्रदर्शनवदस्याप्युपपत्तेः। यथा हि-तैमिरिकस्य अर्थाभावेऽपि तदाकारं विज्ञानमुदेति, एवं कर्मादिष्वविद्यमानेष्वपि अनादिवासनावशात्तदाकारं विज्ञानमिति ।" व्योमवती पृ० ५२५ ।
प्र० क. मा०८
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प्रमेचक्रमलमार्तण्डे प्रथमपरि० জুলাঙ্গার হৃঙ্খ ?
হুইস্থা; ঐলিহি ভিল दर्शनवदस्या अप्युपपत्तेः । यथा हि तस्यार्थामावपि तदाकारं ज्ञानमुदेत्येवं कर्मादिष्वविद्यमानेष्वपि अनाद्यविद्यावासनावशात्त. दाकारं ज्ञानमिति। ५ अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'अहंप्रत्ययो गृहीतोऽगृहीतो
वा' इत्यादिः तत्र गृहीत एवार्थग्राहकोऽसौ, तनहँश्च खत एव । न च स्वतोऽस्य ग्रहणे स्वरूपमात्रप्रकाश निमग्नत्वाद्वहिरर्थप्रकाशकत्वाभावः, विज्ञानस्य प्रदीपवत्स्वपरप्रकाशस्वभावत्वात् ।
यच्चोक्तम्-'निर्व्यापारः सव्यापारो वेत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम्। १० स्वपरप्रकाशस्वभावताव्यतिरेकेण ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशलेऽपरव्या
पाराभावात्प्रदीपवत् । न खलु प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशस्वभावताव्यतिरेकेणान्यत्तत्प्रकाशनव्यापारोऽस्ति ! न च ज्ञानरूपत्वे नीलादेः सतिघांदिरूपता घटते । न च तद्रूपतयाऽध्यवसीयमानस्य नीलादेः 'झानम्' इति नामकरणे काचिन्नः क्षतिः। नामकरण१५ मात्रेण सप्रतिघत्वावाह्यरूपत्वादेरर्थधर्मस्याव्यावृत्तेन च तद्रूपता
ज्ञानस्यैव स्वभावः; तद्विषयत्वेनानन्यवेद्यतया चास्यान्तःप्रतिभासनात्, सप्रतिघान्यवेद्यस्वभावतया चार्थस्य बहिःप्रतिभासनात् । न च प्रतिभासमन्तरेणार्थव्यवस्थायामन्यन्निबन्धनं पश्यामः।
यदप्यभिहितम्-निराकारः साकारो वेत्यादिः तदप्यभिधान२० मात्रम् ; साकारवादप्रतिक्षेपेण निराकारादेव प्रत्ययात् प्रतिकर्मव्यवस्थोपपत्तेः प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्।
यच्चान्यदुक्तम्-न भिन्नकालोऽसौं तंद्राहक इत्यादि, तदप्यसारम् ; क्षणिकत्वानभ्युपैगमात् । यो हि क्षणिकत्वं मन्यते गृहीतेरर्थेन सम्बन्धसियर्थमन्धज्ञानेनापरं गृहीत्यन्तरं क्रियते । अपरगृहीतिरपि अर्थाद्भिन्ना अभिन्ना वेत्यादिप्रकारेणानवस्था।
१ परेण। २ इदमपि शानं समकालं भिन्नकालं वेत्यादि । अन्यशानमपि गृहीतमगृहीतमित्यादिप्रकारेण । ३ ग्रहणम् । ४ परेण । ५ शान । ६ अर्थ । ७ अर्थस्य । ८ काठिन्य। ९ छेदनाग्रहणादि । १० आस्माकं जैनानां। ११ बहिरर्थ । १२ ज्ञान। १३ वयं जैनाः। १४ परेण । १५ अहम्प्रत्ययः। १६ शानात् । १७ विषय । १८ जनैः । १९ अहम्प्रत्ययः। २० अर्थ । २१ शानार्थयोः। २२ जैनानाम् । ___1 "निराकारपक्षेऽपि भवदभिमतसाकारवादप्रतिक्षेपेण निराकारादेव प्रत्ययाद्यथा प्रतिकर्मव्यवस्था तथा प्रतिपादयिष्यते ।" स्या० रत्ना० पृ० १६३ ।
2 "यच्चेदं ग्राह्यग्राहकयोरेककालानुभवाभावेन दूषणम् ; तदप्यपास्तम् ; क्षणिक त्वानभ्युपगमात् । यो हि क्षणिकत्वं मन्यते तस्यायं दोषो शानकालेऽर्थस्यासद्भावः अर्थकाले ज्ञानस्येति तयो ह्यग्राहकभावानुपपत्तिरिति ।" व्योमवती पृ० ५२९ ।
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सू० १२५ विज्ञानाद्वैतवादः
८७ तस्यायं दोपः 'वोधकालेऽर्थस्याभावार्थकाले च वोधस्यासने तयोर्ग्राह्यग्राह्यकभावानुपपत्तिः' इति ।
यच्चाविद्यमानार्थस्य ग्रहणे प्राणिमात्रस्याशेषज्ञत्वप्रसक्तिरित्युक्तम् ; तदप्ययुक्तम् : लिन्नकालय लमकालर का योग्यस्यैवार्थस्य ग्रहणात् । दृश्यते हि पूर्वोत्तरचरादिलिङ्गप्रभावप्रत्ययाद्भिन्नकाल-५ स्थापि प्रतिलिस्तस्यैव शकटोदयाद्यर्थस्य ब्रहणम् ।
कथञ्चैवंवादिनोऽनुमानोच्छेदो न स्यात्, तथा हि-निरूपाल्लिङ्गाङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रसिद्धम् । लिङ्गं चावभासमानत्वमान्यता यदि भिन्नकालं तस्य जनकम् ; तबैकस्यानुमानस्याशेपमतीतमनागतं तेजनकमियत एवाशेषानुमेयप्रतीतेरनुमानभेदकल्पनान-१० र्थक्यम् । अथ भिन्नकालत्वाविशेषेपि किञ्चिदेव लिङ्गं कस्यचिजनकमित्यदोषोयम् । नन्वेवं तदविशेषेपि किञ्चिदेव ज्ञानं कस्यचिदेवार्थस्य ग्राहक किं नेष्यते ? अथातीतानुत्पन्नेऽथै प्रवृत्तं ज्ञानं निर्विषयं स्यात् , तर्हि नष्टानुत्पन्नाल्लिङ्गादुपजायमानमनुमानं निहे. तुकं किं न स्यात् ? यथा च खंकाले विद्यमानं खरूपेण जैनकम् १५ तथा ग्राह्यमपि । तन्न भिन्नकालं लिङ्गलनुमानस्य जनकम् । नापि समकालं तस्य जनकत्वविरोधात् , अविरोधे वानुमानमप्यस्य
१ ज्ञानकाले । २ सर्वशत्व। ३ परेण भवता । ४ ग्रहीतुं शक्यस्य । ५ एतदेव दर्शयति । ६ लोके। ७ अनुमानात् । ८ कियत एव । ९ भिन्नकालः समकालो वा अहम्प्रत्ययः इत्यादि । १० योगाचारस्य । ११ साध्ये अग्न्यादौ । १२ सहो. पलम्भादि । १३ लिङ्गं । १४ एतस्मादनुमानादेव। १५ सकलसाध्यपदार्थानां परिज्ञानात् । १६ लिङ्गानामतीतानागतादीनाम्। १७ अनुमानस्य । १८ लिङ्गप्रकारे । १९ परेण । २० अतीतकारणवादिपक्षे क्षणिकत्वेन नष्टादित्युच्यते भाविकारणवादिपले लिङ्गवत्तासमानत्वमनुत्पन्नं लिङ्गं चानुमानस्य कारणं तदभावे अनुमानलक्षणकार्यानुदयात् । २१ सौगतेनोच्यते चेत् । २२ अतीतकारणवादिपक्षे क्षणिकत्वेन । २३ भाविकारणवादिपक्षे लिङ्गमवभासमानत्वमनुमानस्य कारणं तदभावे कार्यानुदयात्। २४ अतीते भविष्यति काले। २५ लिङ्गम्। २६ अनुमानस्य । २७ वस्तु । २८ ज्ञानस्य भवति । २९ सव्येतरगोविषाणवत्।
1 "भिन्नकालस्यापि योग्यस्यैवार्थस्य ज्ञानेन ग्रहणात् । दृश्यते हि-पूर्वचरादिलिङ्गप्रभवप्रत्ययाद्भिन्नकालस्यापि प्रतिनियतस्यैव शकटोदयाद्यर्थस्य ग्रहणम् ।"
__ स्या. रत्ना० पृ० १६३ । 2 "किञ्चैवंवादिनस्ते कथं मिन्नकालं किञ्चिदपि लिङ्गं साध्यस्यानुमापकं स्यात् ? अनुमापकत्वे वा किञ्चिदेकमेव भस्मादिलिगमतीतस्य पावकादेरिव समस्त्रस्याप्यतीतानागतानुमेयस्य प्रतिपत्तिहेतुः स्याद् भिन्नकालत्वाविशेषात् ।" स्या. रत्ना० पृ० १६३ ।
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८८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० जनकं भवेत् , तथा चान्योन्याश्रयाकस्यापि सिद्धिः । अथानुमानमेव जन्यम् , तत्रैव जन्यताप्रतीते; ना; अनुमानव्यतिरेकेणार्थे ग्राह्यतावजन्यतायाः प्रतीत्यभावात् । न च स्वरूपसेव जन्यता; लिङ्गेऽपि तत्सद्भावेन जन्यताप्रसक्तेः। तथा चान्योन्यजन्यताल५क्षणो दोपः स एवानुषज्यते । अर्थानयोः स्वरूपाविशेषेऽप्यनुमान एव जन्यता लिङ्गापेक्षया, नतु लिङ्गे तदपेक्षया सेत्युच्यते; तर्हि ज्ञानार्थयोस्तविशेषेपि अर्थस्यैव ज्ञानापेक्षया ग्राह्यता न तु ज्ञानस्यार्थापेक्षया सेत्युच्यताम् । न चोत्पत्तिकरणाल्लिङ्गमनुमानस्यो
त्पादकम् , तस्यास्ततोऽर्थान्तरानान्तरपक्षयोरसम्भवात् । सा १० हि यद्यनुमानादर्थान्तरम्; तदानुमानस्य न किञ्चित्तमित्यस्या
भावः । अनुमानस्योत्पत्तिरिति सम्वन्धासिद्धिश्चानुषकारात् । उपकारे वाऽनवस्था । अथानान्तरभूता क्रियते; तदानुमानमेव तेनं कृतं स्यात् । तथा चानुमान लिङ्गं लिङ्गजन्यत्वादुत्तरलिङ्गक्ष.
णवत् । न च प्राक्तनानुमानोपादानजन्यत्वान्नानुमानं लिङ्गम्। १५यतस्तदप्यनुमानमन्यतो लिङ्गाचेत्तर्हि तदप्यनुमानं लिङ्गं तजन्यत्वादुत्तरलिङ्गक्षणवदिति तवस्थं चोद्यम् । उत्तरमपि तदेवेति चेत्, अनवस्था स्यात् । अथ तथाप्रतीतेर्लिङ्गजन्यत्वाविशेषे किञ्चिल्लिङ्गमपरमनुमानम् ; तर्हि ज्ञानजन्यत्वाविशेषेपि किञ्चिज्ज्ञानमप
रोऽर्थ इति किन्न स्यात् ? तथा च 'अर्थों ज्ञानं ज्ञानकार्यत्वादुत्तर२० ज्ञानवत्' इत्ययुक्तम् । न च गृहीतिविधानादर्थस्य ग्राह्यतेप्यते;
खरूपप्रतिनियमातभ्युपगमात् । यथैव किसामग्र्यधीनानां रूपोदीनां चक्षुरादीनां समसमयेऽपि स्वरूपप्रतिनियमादुपादानेतैरत्वव्यवस्था, तथार्थज्ञानयोlोतेरत्वव्यवस्था च भविष्यति। नैनु यया प्रत्यासत्या ज्ञानमात्मानं विषयीकरोति तयैव चेदर्थ १ लिङ्गेन । २ ता (षष्ठी षष्ठयन्तान्मतुरित्यर्थः) (१) । ३ अनुमानस्य । ४ लिङ्गानुमानयोः। ५ परेण भवता। ६ परेण। ७ लिङ्गेन । ८ उत्पत्त्यन्तरान्वेषणात् । ९ अभिन्ना। १० लिङ्गेन। ११ ननु प्राक्तनमनुमानं लिङ्गादुत्पद्यते। १२ प्राक्तनम्। १३ लिङ्गतया अनुमानतया। १४ अनुमानस्य । १५ उत्तरक्षणं । १६ किञ्च । १७ परिच्छित्ति । १८ कारणात्। १९ जनैः। २० अर्थग्राह्यतास्वरूपस्य प्रतिनियतत्वात् । २१ पूर्वक्षण। २२ उत्तर । २३ उत्तररूपरसयोः उत्तरचक्षुर्शानयोः। २४ सहकारिकारण । २५ ग्राहक। २६ यदवभासते तज्ज्ञानमित्यनुमानस्य विपक्ष वाधकं प्रमाणम् । २७ शत्या।
3x
1 "ननु यया प्रत्यासत्त्या शानमात्मानं विषयीकरोति तयैव चेदर्थ तर्हि तयोरैक्यम् ...अथान्यया तर्हि स्वभावद्वयापत्तिर्ज्ञानस्य भवेत् , तदपि स्वभावद्वयं यद्यपरेण
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सू० ११५] विज्ञानाद्वैतवादः ८९ तयोरक्यम् । न होकस्वभाववेदमने युक्तमन्यथैकमेव न किस्यात् । अथान्यया स्वभावापत्तिानस्य भवेत् । तदपि स्वभावद्वयं यद्यपरेण स्वभावदोनाधिशच्छति तदाऽनवस्था तद्वेनेप्यपरस्वभावद्वयापेक्षणा लतः स्वरूपलाना व ज्ञानं नार्थग्राहि; इत्यप्यसमीचीनम् । खोब्रहस्वभावत्वाहिशानस्य । खंभाव-५ तद्वत्पक्षोपक्षितदोपरिहारश्च वसंवेदनसिधौ भविष्यतीत्यलमतिलङ्गेन ।
कथञ्चैवंवादिनी रूपादेः सजातीयेतरकर्तृत्वम् तत्रादे समानत्वात् ? तथा हि-रूपादिकं लिङ्ग वा यया प्रत्यासत्त्या संजातीयःणं जनयति तयैव चे सादिकमनुमानं वा; तर्हि तैयो-१० रैक्यमित्यन्यतरदेव स्यात् । अथान्यया; तर्हि रूपादेरेकस्य स्वभावद्वयमायातं तत्र चानवस्था परापरस्वभावद्वयकल्पनात् । न खलु येन स्वभावेन रूपादिकमेकां शक्तिं विभर्ति तेनैवापरां तैयोरैक्यप्रसङ्गात् । अथ रूपादिकमेकखभावमपि भिन्नखभावं कार्यद्वयं कुर्यात्तत्करणैकस्वभावत्वात् । तर्हि ज्ञानमप्येकखभावं स्वार्थयोः१५ सङ्करव्यतिकरव्यतिरेकेण ग्राहकमस्तु तद्रहणैकस्वभावत्वात् । ननु व्यवहारेण कार्यकारणभावोल परमार्थतस्तेनायमदोपः, तर्हि तेनैवाहमहमिकया प्रतीयमानेन ज्ञानेन नीलादेग्रहणसिद्धेः कथमसिद्धः स्वतोऽवभासमानत्वलक्षणो हेतुर्न स्यात् ?
१ द्वन्द्वः । २ स्वार्थग्रहण। ३ ज्ञान। ४ एकत्वमनवस्था च । ५ शानान्तरप्रत्यक्षपक्षविक्षेपणान्ते। ६ शान । ७ ज्ञानाद्वैतपक्षे दोषपरिहारविस्तरेण । ८ स्वभावानवस्थां ब्रुवाणस्य । ९ रसादिलिङ्गं च (?)। १० स्वजातीयं जनयन्विजातीयं जनयेत् (?)। ११ उत्तररूपमुत्तरलिङ्गं च । १२ अनवस्थादिदोपस्य। १३ न्यायस्य । १४ पूर्व । १५ धूमादि । १६ पूर्व । १७ स्वभावेन । १८ शक्षया । १९ उत्तरं । २० रूपलिङ्गं च। २१ विजातीयम् । २२ विजातीयं। २३ रूपरसयोलिङ्गानुमानयो । २४ रूपं वा रसो वा लिङ्गं वा अनुमानं वा स्यात् । २५ लिङ्गस्य । २६ कर्तृ । २७ अन्यथा। २८ लिङ्गं च। २९ रूपादेः। ३० शानस्य । ३१ रूपादेः। ३२ उपलक्षणात् । ३३ साध्यसाधनभावादि । ३४ कारणेन। ३५ पदार्थस्य । ३६ शप्ति । ३७ शानात् ( शानेन ) प्रकाशमानत्वात् । स्वभावद्वयेनाधिगच्छति तदानवस्था...; तदरमणीयम् ; स्वार्थग्रहणोभयखभावत्वाद्विझानस्य ।"
स्था० रत्ना० पृ० १६५ । 1 "कथञ्चैवंवादिनो रूपादेर्लिङ्गस्य वा सजातीयेतरकर्तृत्वं तवाप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात् । तथाहि-रूपादिकं लिङ्गं वा यया प्रत्यासत्त्या सजातीयक्षणं जनयति तयैव चेद्रसादिकमनुमानं वा तर्हि तयोरैक्यमित्यन्यतरदेव स्यात् । अथान्यया तर्हि रूपादेरेकस्य स्वभावद्वयमायातं तत्र चानवस्था।" स्या० रत्ना० पृ० १६५ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रथमपरि०
न चैववादिनः स्वरूपस्या खंतोऽर्वगतिर्घटते समकालख्यास्य प्रतिपत्तावर्थवत् प्रसङ्गात् । न च खरूपस्य ज्ञानतादात्स्यानीय दोषः तादात्स्येषि समानेतरकालविकल्पानतिवृत्तः। ननु शानमेव स्वरूपम् , तत्कथं तंत्र भेदभावी विकल्पोऽवतरतीति चेत् ? कुत ५एतत् ? तथा प्रतीतेश्चेत् ; इयं यद्यप्रमाणं कथमतस्तत्सिद्धिरतिप्रसझात् ? प्रमाणं चेत् । तर्हि स्वपरग्रहणस्वरूपताप्यस्य तथैवास्त्वलं तत्रापि तद्विकल्पकल्पनया प्रत्यक्षविरोधात् । तन्न स्वतोऽवभासमानत्वं हेतुरसिद्धत्वात्।
नापि परतो वाद्यसिद्धत्वात् । न खलु सौगतः कस्यचित्परतोऽ१० वभासमानत्वमिच्छति। "नान्योऽनुभाव्यो वुझ्यास्ति तस्या नानु
भैवोपरः”[प्रमाणवा० ३३३२७ / इत्यभिधानात् । कथं साध्यसा
१ समकालो भिन्नकालो वार्थों न ग्राह्य इत्येवं वादिनो योगाचारस्य । २ ज्ञानस्य । ३ शानात् । ४ परिच्छित्तिः। ५ देशान्तरस्थमपि स्वरूपं गृह्णीयात्समकालत्वे तदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धाभावात्। ६ देशान्तरस्थमपि स्वरूपं गृह्णीयात्समकालत्वात् । ७ दूषणम् । ८ अर्धवत्प्रसङ्गलक्षणः। ९ भिन्न । १० अनतिक्रमणात् । ११ अपि न कुतोऽपि । १२ ज्ञानस्वरूपे । १३ प्रमाणात् । १४ शानमेव स्वरूपं । १५ शानस्य स्वरूपतया। १६ ज्ञानमेव स्वरूपसिद्धिः। १७ संशयादेरपि तत्सिद्धिः । १८ शानस्य । १९ अर्थग्रहणे। २० समानेतरकाल इत्यादि । २१ अन्यथा। २२ जैनस्य । २३ ज्ञानात्। २४ योगाचार। २५ अर्थः। २६ ग्राह्यः। २७ ग्राहकः। २८ ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते । ( इति उत्तरार्द्ध श्लोकस्य )। २९ सौगतैः परतः प्रतिभासानभ्युपगमे । ३० किञ्च ।
1 "नान्योनुभाव्यस्तेनास्ति तस्या नानुभवोऽपरः ।
तस्यापि तुल्यचोद्यत्वात् स्वयं सेव प्रकाशते ॥ प्रमाणवा० ३३३२७ । "बुद्ध्या योऽनुभूयते स नास्ति परः, यथा अन्योऽनुभाव्यो नास्ति तथा निवेदितम् । तस्यास्तर्हि परोऽनुभवो बुद्धरस्तु, न; तत्रापि ग्राह्यग्राहकलक्षणभावः । परं हि संवेदनस्वरूपेऽवस्थितं कथं परस्यानुभवः साक्षात्करणादिकं प्रत्याख्यातम् । तत्संवेदनानुप्रवेशे च तयोरेकत्वमेव स्यात् , तथा च स्वयं सैव प्रकाशते न ततः पर इति स्थितम् ।"
प्रमाणवार्तिकालंकार । 2 "नच प्रकाशनलक्षणस्य हेतोः शानत्वेन व्याप्तिसिद्धिर्यतः स्वरूपमात्रपर्यवसितं शानं सर्वमवभासनं शान (नत्व ) व्याप्तमिति नाधिगन्तुं समर्धम् । नच सकलसम्ब. ध्यप्रतिपत्तौ सम्बन्धप्रतिपत्तिः । उक्तं च
द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिर्नैकरूपप्रवेदनात् । द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम् ॥"
सन्मति० टी० पृ० ४८३ ।
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सू० ११५] विज्ञानाद्वैतवादः धनयोाप्तिः सिद्धा? यतो यदवभासते तज्ज्ञानम्' इत्यादि सूक्तं स्यात् । न खलु स्वरूपमार्चपर्यवासितं ज्ञानं 'निखिलमवभासमानत्वं ज्ञानत्वव्याप्तम्' इत्यधिगन्तुं लमर्थम् । न चाखिलसम्बध्यप्रतिपत्तौ सम्वन्धप्रतिपत्तिः : "
विसम्वन्धसवित्तिः"[ ] इत्याद्यभिधानात् । न च विवक्षितं झालं ज्ञानत्वमवभासमानत्वं५ चामन्येव प्रतिपदा योतिमधिगच्छतीत्यभिधातव्यम् । तत्रैवानुमानप्रवृत्तिप्रसङ्गात् । तत्र च तत्प्रवृत्तेपथ्र्य साध्ययाध्यक्षेण सिद्धत्वात् । अथ लकलं ज्ञानमात्म्यन्यनयोयदि प्रतीत्यु च्यते; ननु सकलज्ञानाशाने कथमेवं वादिना प्रत्येतुं शक्यम् ? न चासिद्धव्याप्तिकलिङ्गप्रभवादनुमानात्तथागतस्य खेमतसिद्धिः:१० परस्यापि तथाभूतात्कार्याद्यनुमानादीश्वराद्यभिमतसाध्यसिद्धिप्रसङ्गात् । न चानयोः कुतश्चित् प्रमाणाद्व्याप्तिः प्रसिद्धाः; ज्ञानवजडस्यापि परतो ग्रहणसिद्ध्या हेतोरनैकान्तिकत्वानुपङ्गात् ।
यदप्युक्तम्-जडस्य प्रतिभासायोगादिति, तत्राप्यप्रतिपन्नस्यास्य प्रतिभासायोगः, प्रतिपन्नस्य वा ? न तावप्रतिपन्नस्यासौ १५
१ निश्चितन् । २ ज्ञातुं ! ३ सम्बन्धिनोरवनासनानत्वज्ञानत्वयोः । ४ नैकरूपप्रवेदनात् । द्वयोः स्वरूपग्रहणे सति सन्वन्धवेदनम् । ५ प्रत्यक्षमनुमानं वा । ६ स्वस्मिन्नेव । ७ अवभासमानत्वज्ञानत्वयोः । ८ परेण । ९ अन्यथा। १० झानस्य । ११ जानाति । १२ परेण । १३ अपरिश्शाने ( सति)। १४ सकलं ज्ञानमित्यादिवादिना। १५ नीलादीनां ज्ञानरूपतासिद्धिः। १६ यौगादेरपि। १७ असिद्धव्याप्तिकलिङ्ग । १८ कार्यादेहतोरुत्पन्नादनुमानात् । १९ ता हेतोः सम्बन्धि । २० किञ्च । २१ अन्यथा। २२ साध्यसाधनशानयोाप्तिशानेन ग्रहणन् । २३ नीलादेरर्थस्य । २४ ज्ञानात् । २५ प्रतिभासमानत्वादित्यस्य । २६ परेण । २७ परेण त्वया अज्ञात ।
1 "तदुक्तमन्यैः-द्वयसम्बन्धसंवित्तिनैकरूपप्रवेदनात् ।..."
तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४२१ । 2 "नच ज्ञानत्वस्वप्रकाशनयोः साध्यसाधनयोः कुतश्चित्प्रमाणाद व्याप्तिसिद्धिः पारमार्थिकी; शानवज्जडस्यापि परतो ग्रहणसिद्धेरनैकान्तिकत्वप्रसक्तेः।"
संमति० टी० पृ० ४८४ । 3 "जडस्य प्रतिभासायोगोऽप्यप्रतिपन्नस्य प्रतिपत्तुमशक्यः, शक्यत्वे वा सन्तानान्तरस्यापि वप्रकाशायोगः प्रतिपत्तव्यः इति तस्याप्यभावः प्रसक्तः । तथा च परप्रतिपादनार्थ प्रकृतहेतूंपन्यासो व्यर्थः । अथ प्रतिपन्नस्य जडस्य प्रकाशायोगः; तथापि विरोधः-जडः प्रतीयते प्रकाशायोगश्च इति ।" संमति० टी० पृ० ४८४ “यदप्युच्यते-जडस्य प्रतिभासायोगादिति; तत्राप्यप्रति पन्नस्य प्रतिभासायोगः प्रतिपन्नस्य वा।"
स्या० रत्ना० पृ० १६५।
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९२
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० प्रत्येतुं शक्यः, अन्यथा सन्तानान्तरस्याप्रतिपन्नत्य स्वैप्रतिमासायोगस्यापि प्रसिद्धेस्तस्याप्यभावः । तथा च तत्प्रतिपानार्थ प्रकृतहेतूंपन्यासो व्यर्थः। अथ सन्तानान्तरं स्वस्थ खाप्रतिमासयोग स्वयमेव प्रतिपद्यते, जडस्यापि प्रतिभासयोगं तदेव प्रत्येतीति ५ मिनेष्यते ? प्रतीतेरुभयत्रापि समानत्वात् । अथाऽप्रतिपन्नेपि जडे विचारात्तद्योगः, ननु तेनाप्यस्याविषयीकरणे स एव दोषो विचारस्तत्र न प्रवर्तते । तत एव वात्र तदद्योगप्रतिपत्तिः' इति विषयीकरणे वा विचारवत्प्रत्यक्षादिनौप्यस्य विषयीकरणात्प्रति
भासायोगोऽसिद्धः । न च प्रतिपन्नस्य जडस्य प्रतिभासायोग१० प्रतिपत्तिरित्यभिधातव्यम्; "जडप्रतीतिः, प्रतिभासायोगश्चास्य' इत्यन्योन्यविरोधात्।
साध्यविकलश्चायं दृष्टान्तः, नैयायिकादीनां सुखादौ ज्ञानरूपत्वासिद्धेः । अस्मादेव हेतोस्तत्रापि ज्ञानरूपतासिद्धौ दृष्टान्तान्तरं
मृग्यम् । तत्राप्येतच्चोये तदन्तरान्वेषणमित्यनवस्था । नीलादेई. १५ष्टान्तत्वे चान्योऽन्याश्रयः-सुखादौ ज्ञानरूपतासिद्धौ नीलादेस्तन्नि
दर्शनात्तद्रूपतासिद्धिः, तस्यां च तनिदर्शनात्सुखादेस्तद्रूपतासिद्धि रिति । न च सुखादौ दृष्टान्तमन्तरेणापि तत्सिद्धिः; नीलादावपि तथैव तदापत्तेस्तैत्र दृष्टान्तवचनमनर्थकमिति निग्रहाय जायेत।
अर्थ सुखादेरज्ञानत्वे-ततः पीडानुग्रहाँभावो भवेत् । ननु २० सुखाद्येव पीडानुग्रहो, ततो भिन्नौ वा? प्रथमपक्षे-के ज्ञानत्वेन व्याप्तौ तौ प्रतिपन्नौ; यतस्तद्भावे न स्याताम् । व्यापकाभावे हि
१ शिष्यादिकम् । २ सौगतैः। ३ स्वरूपेण। ४ बोधनार्थ । ५ प्रतिभासमानत्वात् । ६ ता। ७ संबन्धं । ८ जानाति । ९ परेण । १० सौगतस्य तव । ११ सन्तानान्तरप्रतिभासयोगे जडप्रतिभासयोगे च। १२ प्रतिभासायोगः। १३ विचारात् । १४ जडस्य विचारेण । १५ अनुमान । १६ जडस्य । १७ द्वितीयविकल्पस्य । १८ असम्भव । १९ परेण । २० शान । २१ सुखादिः । २२ प्रतिभासमानत्वादित्यसात् । २३ सुखादिधर्मी शानं भवतीति साध्यं प्रतिभासमानत्वात् । दृष्टान्तेन भाव्यं पत्र। २४ यदवभासते तज्शानमित्यत्रानुमाने। २५ दुःख । २६ सुखाइःखात् । २७ उपकार । २८ अन्वयदृष्टान्ते । २९ परेण । 1 "नच नैयायिकादीन् प्रति सुखादेर्शानता सिद्धति साध्यविकलता दृष्टान्तस्य...."
संमति० टी० पृ० ४८४ ।
स्था० रत्ना० पृ० १६७ । 2 "अथ सुखादेरज्ञानत्वे ततोऽनुग्रहावभावो भवेत् , ननु किं सुखमेवाऽनुग्रहः, उत ततो भिन्नम् ?..."
संमति० टी० पृ० ४८५।
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सू० ११५]
विज्ञानाद्वैतवादः
नियमेन व्याप्याभावो भवति । अन्यथा प्राणादेः सात्मकत्वेन क्वैचियात्यसिद्धावप्यात्माऽभावेसन भवेत् ततः केवलव्यतिरेकिहेत्वर्गमकत्वप्रदर्शनमयुक्तन् । तन्नाद्यपंक्षः । नापि द्वितीयो यतो यदि नाम सुखदुःखयोनित्वाभायः, अर्थान्तरभूतानुग्रहाद्यभावे किमायातम् ?' न खलु यज्ञदत्तल्या उौरवानावे देवदत्ताभावो ५. दृष्टः । ननु सुखाद जैनस्य प्रकाशमानत्वं ज्ञानरूपतया व्याप्तं प्रसिद्धनेदेसप्यसारम् । यतः स्वतः प्रकासनादत्वं ज्ञानरूपतया व्यातं यत्तस्यात्र प्रसिद्धं तन्नीलौचर्य(2) नास्तीत्यसिद्धो हेतुः यन्तु परतः प्रकाशमानत्वं तत्र प्रसिद्ध तन्न ज्ञानरूपतया व्याप्तम् । प्रकाशमानत्वमानं च नीलादावुपलभ्यमानं जडत्वेनाविरुद्धत्वं १०. नैकान्ततो ज्ञानरूपतां प्रसाधयेत् ।
यदप्युक्तम्-तैमिरिकस्य द्विचन्द्रादिवत्कादिकमविद्यमानमपि प्रतिभातीति, तदपि स्वमनोरथमात्रम् ; अंत्र वोधकप्रमाणाभावात् । द्विचन्द्रादौ हि विपरीतार्थख्यापकस्य वाधकप्रमाणस्य
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१ ज्ञानत्वेन पीडानुग्रहयोप्प्त्यत्तिद्धावपि ज्ञानाभावे पीडानुग्रहयोरभावो यादे । २ उच्छासादेः । ३ अन्वयदृष्टान्ते : ४ वटाद। ५ गतस्य । ६ श्रेयान् । ७ तर्हि । ८ पीडा । ९ दूषणम् । १० दृष्टान्ते । ११ दार्शन्तिके। १२ तृतीयो विकल्पः। १३ ज्ञायमानं। १४ सर्वथा। १५ परेण । १६ पुरुषस्य । १७ सौगत । १८ घटमहमात्मना वेमीति कर्नादौ । १९ नेदं कादिकमिति । २० एकचन्द्र। ___ 1 "सम्प्रति द्वयोरेव सन्देहे अनैकान्तिकत्वं वक्तुमाह अनयोरेव अन्वय-व्यतिरेकरूपयोः सन्देहात् संशयहेतुः । उदाहरणम्
'सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति ।' .... (पृ० १०५) कस्मादनकान्तिकः ?
'साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात्' साध्यस्य इतरस्य च विरुद्धस्य सन्दिग्धान्वयव्यतिरेकान्निश्चयाभावात् । सपक्षविपक्षयोहि सपदत्त्व (सदसत्व ) सन्देहेन साध्यस्य न विरुद्धस्य सिद्धिः । नच सात्मकानात्मकाभ्यां च परः प्रकारः संभवति । ततः प्राणादिमत्वात् धर्मिणि जीवच्छरीरे संशयः आत्मभावाभावयोरित्यनैकान्तिकः प्राणादिरिति ।"
न्यायबिन्दु पृ० ११० । 2 "यच्चेदम् 'नीलमहं वेद्मि' इति शानं तैमिरिकस्य द्विचन्द्रदर्शनवद्भान्तमिति; असदेतत् ; अबाध्यमानत्वात् । तथाहि-तैमिरिकस्य तिमिरविनाशादूर्ध्वमेकत्वज्ञाने सति द्विचन्द्रदर्शनं भ्रान्तमिति प्रतिभाति अनुत्पन्नतिमिरस्यान्यस्य, नैवं नीलमित्यादिशाने विपरीतार्थग्राहकप्रमाणानुपपत्तेमिथ्यात्वमिति ।"
प्रश० व्योमवती पृ० ५३० ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० सद्भावाद्युक्तमसत्प्रतिभासनम्, न पुनः कादौ; तत्र तद्विपरीताद्वैतप्रसाधकप्रमाणस्य कस्यचिदसम्भवेनाऽवाधाकत्वात् । प्रतिपादितश्च वाध्यबाधकभावो ब्रह्माद्वैतविचारे तदलमतिप्रसङ्गेर्ने ।
अद्वैतप्रसाधकमाणसद्भावे , द्वैतापत्तितोनाद्वैतं भवेत् । प्रमाणा५भावे चाद्वैताप्रसिद्धिः प्रमेयप्रसिद्धेः प्रमाणसिद्धिनिवन्धनत्वात् ।
किचाद्वैतमित्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः, पर्युदासो वा ? प्रसज्यपक्षे नाद्वैतसिद्धिः। प्रतिषेधमात्रपर्यवसितत्वात्तस्य । प्रधानोपसर्जनभावेनाङ्गाङ्गिभावकल्पनायामपि द्वैतसङ्गः । पर्युदासपक्षेपि द्वैत
प्रसक्तिरेव प्रमाणप्रतिपन्नस्य द्वैतलक्षणवस्तुनः प्रतिषेधेनाऽद्वैत१० प्रसिद्धरभ्युपगमात् । द्वैतादद्वैतस्य व्यतिरेके , द्वैतानुषङ्ग
एव । अव्यतिरेकेपि द्वैतप्रसक्तिरेव भिन्नादभिन्नस्याभेदे(द)विरोधात् ॥ छ ।
१ एकत्व। २ क देः। ३ जैनेन मया। ४ बाध्यबाधकभावसमर्थनेन। ५ किंच। ६ प्रमाणमेकमद्वैतमेकं चेति द्वैतापत्तिः। ७ प्रसक्तस्य प्रतिषेधः प्रसज्यः। ८ सदृशग्राही पर्युदासः। ९ द्वैतनिषेधस्य प्रधानभावेन अद्वैतविधेरप्रधानत्वेन । १० गौण । ११ कृत्वा। १२ विशेषण। १३ विशेष्य । १४ इदं विशेष्यमिदं च विशेषणमित्यनेन प्रकारेण द्वैतप्रसङ्गः। १५ भिन्नत्वे । १६ किञ्च । १७ द्वैतात्। १८ अद्वैतस्य । अव्यतिरिक्तस्य । १९ एकत्वे। 1
हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मावतो न किम् ॥"
___ आप्तमीमांसा का० २६ । अष्टसह० पृ० १६०। "अद्वैतप्रतिपादकस्य प्रमाणस्य सद्भावे द्वैतापत्तितो नाद्वैतम्। प्रमाणाभावे अद्वैता. सिद्धिः।"
संमति० टी० पृ० ४२८ । "अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संशिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ॥"
आप्तमीमांसा का० २७ । अष्टसह ० पृ० १६१ । "किञ्च, अद्वैतमित्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः, पर्युदासो वा ?...द्वैतादद्वैतस्य व्यतिरेके च द्वैतप्रसक्तिरेव, परस्परव्यावृत्तस्वरूपाव्यावृत्तात्मकत्वे तस्य द्विरूपताप्रसक्तेः। अव्यतिरेके पुनतप्रसक्तिः ।
___संमति० टी० पृ० ४२८ । 3 अस्य च विज्ञानाद्वैतवादस्य विविधरीत्या खण्डनं निम्नग्रन्थेषु द्रष्टव्यम्शाबरभा० बृहती, पञ्जिका, शास्त्रदीपिका ॥११५। मीमांसाठो. निरालम्बनवाद । योगसू०, व्यासभा०, तत्त्ववै० ४।१४। ब्रह्मसू० शां. भा० भामती २।२।२५। विधिवि० पृ० २५४ । न्यायमं० पृ. ५२६ । आप्तमी०, अष्टश०, अष्टसह० पृ० २४२ । न्यायकुमु० पृ० ११९ । यत्त्यनु० पृ० ४५ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ३६ । संमतिटी० पृ० ३४९ । स्या० रत्ना० पृ० १४९ । स्या० मं० का० २६ ।
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सू० ११५] चित्राद्वैतवादः
एतेन "चित्रप्रतिभासाप्येकैव वुद्धिर्वाह्यचित्रविलक्षणत्वात् , शक्यविवेचनं हि वाह्य चित्रमशस्यविवेचनास्तु वुद्धेर्नीलादय आकाराः” इत्यादिना चित्राद्वैतमप्युपवर्णयनपाकृतः, अशक्यविवेचनत्वस्यासिद्धः । तद्धि बुद्धरसिंन्चत्वं वा, सहोत्पन्नानां नीलादीनां बुद्ध्यन्तरपरिहारेण विवक्षितवुच्चवानुभवो वा, भेदेन ५ विवेचनामावामात्र वा प्रकारान्तरासम्भवात् ? तापक्षे साध्यसभरे हेतु, तथाहि-यदुक्तं भवति-'बुद्धेमिन्ना नीलायत्ततोऽभिन्नत्वात् तदेवोक्तं भवति अशक्यविवेचनत्वात्' इति । द्विती:यपक्षेप्यनैकान्तिको हेतुः; सचराचरस्य जगतः सुगतज्ञानेन सहोत्पन्नस्य वुध्यन्तरपरिहारेण तज्ज्ञानस्यैव ग्राह्यस्य तेन सहै- १० कत्वाभावात् । एकत्वे वा संसारी सुगतः संसारिणो वा सर्वे सुगता भवेयुः, संसारेतररूपता चैकस्य ब्रह्मवादं समर्थयते । अथ सुगतसत्ताकालेऽन्यस्योत्पत्तिरेव नेष्यते तत्कथमयं दोषः? नन्वेवं "प्रमाणभूताय" [प्रमाणसमु० ११] इत्यादिना केनौसौ स्तूयते ? कथं चापराधीनोऽसौ येनोच्यते
"तिष्ठन्त्येव पैराधीना येषां च महती कृपा प्रमाणवा० २।१९९] इत्यादि । न खलु बन्ध्यासुताधीनः कश्चिद्भवितुमर्हति :
१ ज्ञानाद्वैतनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । २ नानाप्रकार। ३ पूर्ववादे ज्ञानगतानां नीलाद्याकाराणां भ्रान्तत्वम् । अत्र (चित्राद्वैतवादे) ज्ञानगताकाराणां सत्यत्वम् । ४ विसदृश। ५ असिद्धो हेतुरित्युक्ते सत्याह । ६ घटपटस्तम्भादि । ७ इयं बुद्धिरमी नीलादय आकारा इति विभागः कर्तुं न शक्यते। ८ योगाचारः। ९ नीलादीनाम् । १० बुद्ध्या सह प्रादुर्भूतानाम् । ११ स्वरूपम्। १२ साध्येन समं हेतुं दर्शयति । १३ ताध्यमेवोक्तं भवति । १४ साध्यमेवोक्तं भवति । १५ नान्यज्ञानस्य । १६ जगदभिन्नत्वात् । १७ सुगताभिन्नत्वात्सुगतस्वरूपवत् । १८ असंसार । १९ सुगतस्य । २० परेण मया। २१ पुरुषेण । २२ भवता । २३ सुगताः। २४ (निर्वाणोपि(णेऽपि ) परप्राप्तेः (परे प्राप्ते) कृपाद्रीकृतचेतस इत्यस्योत्तरमर्द्ध ज्ञेयम् ) । २५ ना ।
1 "किमिदमशक्यविवेचनत्वं नाम-ज्ञानाभिन्नत्वम् , सहोत्पन्नानां नीलादीनां शानान्तरपरिहारेण तज्ज्ञानेनैवानुभवः, भेदेन विवेचनाभावमात्रं वा?"
न्यायकुमु० पृ० १२७ । "अकल्पकल्पासङ्ख्येयभावनापरिवद्धिताः। तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा ॥"
अभिसमयालंकारालोक पृ० १३४ । "तदुक्तम्-निर्वाणेऽपि परे प्राप्ते कृपार्टीकृतचेतसाम् ।
तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा ॥"न्यायकुमु० पृ० ५।
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प्रमेयकसलमार्तण्डे प्रथमपरि० मार्गोपदेशोणि व्यों विनेयाऽसत्त्वात् । नापि ततः कश्चित्लौगती गतिं गन्तुमर्हति । युगतसत्ताकालेऽन्यस्यानुत्पत्तेस्तत्कालश्चात्यन्तिक इति । बुध्छन्तरपरिहारेण विवक्षितवुदैवानुभवश्वालिद्धः नीलादीनां बुधन्तरेणाप्यनुभवात् । ज्ञानरूपत्वात्तत्सिद्धौ चान्यो५न्याश्रयः-सिद्धे हि ज्ञानरूपत्वे नीलादीनां वुच्छन्तरपारिहारेण विवक्षितवुद्ध्यैवानुभवः सिद्ध्येत्, तत्सिद्धौ च ज्ञानरूपत्वमिति। मेदेन विवेचनाभावमात्रमप्यसिद्धम् ; वहिरन्तर्देशसम्वन्धित्वेन नीलतज्ज्ञानयोर्विवेचनप्रतिद्धेः । एकस्याक्रमेणं नीलाद्यनेका
कारव्यापित्ववत् क्रमेणाप्यनेकसुखाद्याकारव्यायित्वसिद्धः सिद्धः १० कथञ्चिदक्षणिको नीलाद्यनेकार्थव्यवस्थापक प्रमातेत्यद्वैताय दत्तो जलाञ्जलिः॥ छ॥ नर्नु चाक्रमेणाप्येकस्यानेकाकारव्यापित्वं नेष्यते। "किं स्यात्सा चित्रतैकस्यां न स्याचस्या मतावपि । यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ॥"
[प्रमाणवा० ३।२१०]
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१ अन्योत्पत्तिरहिता (१) । २ संसारिणामेवोत्पत्तिरहितः (१) । ३ किञ्च । ४ एकस्य बोधस्य । ५ चित्राद्वैतवादिनः। ६ युगपत् । ७ ग्राहकः। ८ पुरुषः। ९ जैन प्रति माध्यमिको ब्रूते। १० भावस्य । ११ परेण मया माध्यमिकेन । १२ मम दूषणं किं स्यात्। १३ चित्रत्वेनाभिप्रेतायां मतौ एकस्यां सा चित्रता न स्यात्तदा किं स्यान्मम दूषणम् । १४ प्रसिद्धा। १५ चित्रत्वेनाभिप्रेतायां । १६ बुद्धौ। १७ चित्रत्वम् । १८ ज्ञानेभ्यः ।
1“अशक्यविवेचनत्वं साधनमसिद्धमुक्तम्-नीलतवेदनयोः अशक्यविवेचनत्वासिद्धेः, अन्तर्बहिर्देशतया विवेकेन प्रतीतेः।" अष्टसह० पृ० २५४ ।
2 "अत्र देवेन्द्रव्याख्या यदि नामैकस्यां मतौ न सा चित्रता भावतः स्यात् । किं स्यात् को दोषः स्यात् । तथा च भावतश्चित्रया मत्या भावा अपि चित्रा सिद्ध्यन्ति" तद्वदेव च सत्या भविष्यन्तीति प्रष्टुरभिप्रायः । शास्त्रकार आह-न स्यात्तस्यां मतावपि इति । व्याहतनेतत्-एका चित्रा च इति । एकत्वे हि सत्यनानारूपापि वस्तुतो नानाकारतया प्रत्यवभासते न पुनर्भावतस्ते तस्य आकाराः सन्तीति बलादेष्टव्यम् । एकत्वहानिप्रसंगात् । नहि नानात्वैकत्वयोः स्थितेरन्यः कश्चिदाश्रयोऽन्यत्र भाविकाम्यामाकारमेदाभेदाभ्याम् । तत्र यदि वुद्धिर्भावतो नानाकारैका चेष्यते तदा सकलं विश्वमप्येकं द्रव्यं स्यात् , तथाच सहोत्पत्त्यादिदोषः । तस्मान्नैकाऽनेकाकारा । किन्तु यदीदं स्वयमर्थानां रोचते अतद्रूपाणामपि सतां यदेतत्ताद्रूप्येण प्रख्यानं तदेतद्वस्तुत एव स्थितं तत्त्वमिति । तत्र के वयं निषेद्धारः ? एवमस्तु इत्यनुमन्यत इति ।"
स्था० रत्ना० पृ० १८०।
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सू० ११५ ]
शून्याद्वैतवादः
इत्यभिधानात् । तत्कथं तद्दृष्टान्तावष्टम्भेन क्रमेणाप्येकस्यानेकाकारव्यापित्वं साध्येते ? तदप्यसमीचीनम् ; एवैमतिसूक्ष्मेकिया विचारयतो साध्यमिकस्य सकलशून्यतानुषङ्गात् । तथा हि-नीले प्रवृतं ज्ञानं पीतादौ न प्रवर्त्तते इति पीतादेः सन्तानान्तरवद्भावः । पीतादौ च प्रवृत्तं तन्नीले न प्रवर्त्तते ५ इत्यस्याप्यभावस्तद्वत् । नीलकुवलयसूक्ष्मांशे च प्रवृत्तिमज् ज्ञानं नेत्रांशनिरीक्षणे क्षममिति तदंशानामप्यभावः । संविदितांशस्य चावैशिष्टस्य स्वयमनंशस्याप्रतिभासनात्सर्वाभावः । नीलकुबलयादिसंवेदनस्य स्वयमनुभवात्संत्त्वे च अन्यैरनुर्भवात्सन्तानान्तराणामपि तदस्तु । अथान्यैरनुभूयमानसंवेदनस्य सद्भावासिद्धेस्तेषा १० मभावः, तर्हि तन्निषेधासिद्धेस्तेषां सद्भावः किन्न स्यात् ? अथ तत्संवेदनस्य सद्भावासिद्धिरेवाभवसिद्धिः नन्वेवं तन्निषेधासिद्धिरेव तत्सद्भावसिद्धिरस्तु । भवाभावाभ्यां परसंवेदन सन्देहे चैकान्ततः सन्तानान्तरप्रतिषेधासिद्धेः । कथं च ग्रामारामादिप्रतिभासे प्रतीतिभूधरशिखरारूढे सकलशून्यताभ्युपगमः प्रेक्षा- १५ वतां युक्तः प्रतीतिवाधनात् ? दृष्टहाने रष्टकल्पनायाश्चानुपङ्गात् । किञ्च, अखिलेशून्यतायाः प्रमाणतः प्रसिद्धिः, प्रमाणमन्तरेण
१७.
९७
१ बोधस्य । २ भवता जैनेन । ३ चित्रकज्ञानस्य नानात्वसमर्थनप्रकारेण । ४ ज्ञानेन । ५ उद्धृतस्य । ६ नीलकुवलयस्य । ७ चित्र । ८ स्वेनैव । ९ नीलकुवलयस्य । १० सन्तानान्तरैः । ११ स्वयम् । १२ भो माध्यमिक । १३ सन्तानान्तरैः । १४ स्वयम् । १५ नीलकुवलयसंवेदनवादिनं प्रति । १६ साधकप्रमाणाभावात् । १७ बाधकप्रमाणाभावात् । १८ भो माध्यमिक । १९ अन्यैरनुभूयमानसंवेदनस्य । २० माध्यमिको ब्रूते - अन्यसंवेदनसद्भावे साधकं प्रमाण नोपन्यस्तं भवद्भिः । अस्माभिश्च बाधकं प्रमाणं नोपन्यस्तमिति परसंवेदनसन्देहः ( इत्युक्ते जैन: प्राह ) । २१ ग्रामादि । २२ सकलशून्यत्वस्य ।
1 “नन्वेवं नीलवेदनस्यापि प्रतिपरमाणुभेदात् नीलाणुसंवेदनैः परस्परं भिन्नैर्भवितव्यं तत्र एकनीलपरमाणुसंवेदनस्याप्येवं वेद्यवेदक संविदाकार भेदात् त्रितयेन भवि. तव्यम् । वेद्याकारादिसंवेदनत्रयस्यापि प्रत्येकम परस्व वेद्यादि संवेदनत्रयेण इति परापरवेदनत्रयकल्पनादनवस्थानान्न क्वचिदेकवेदनसिद्धिः संविदद्वैतविद्विषाम् । ”
अष्टसह ० पृ० ७७ । न्यायकुमु० पृ० १३४ ।
2 “प्रमाणानुपपत्त्युपपत्तिभ्याम् । न्यायसू० ४ | २|३०| " एवं च सति सर्वं नास्तीति नोपपद्यते । कस्मात् ? प्रमाणानुपपत्त्युपपत्तिभ्याम्, यदि सर्व नास्तीति प्रमाणमुपपद्यते; ‘सर्वं नास्ति' इत्येतद्वयाहन्यते । अथ प्रमाणं नोपपद्यते; सर्वं नास्तीत्यस्य कथं सिद्धि: ? अथ प्रमाणमन्तरेण सिद्धिः; सर्वमस्ति इत्यस्य कथन्न सिद्धि: ?” प्र० क० मा० ९
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० वा? प्रथमपक्षे कथं सकलशून्यता वास्तवस्य तत्सद्भावावेदकप्रमाणस्य सद्भावात् ? द्वितीयपक्षे तु कथं तस्याः सिद्धिः प्रमेयसिद्धेः प्रमाणसिद्धिनिवन्धनत्वात् ? तदेवं सुनिश्चितासम्भवद्वाधकप्रमाणत्वात् प्रतीतिसिद्धमर्थव्यवसायात्मकत्वं ज्ञानस्याभ्युप५ गन्तव्यम् , अन्यथाऽप्रामाणिकत्वप्रसङ्गः स्यात् ॥ छ ॥
अथेदानीं प्राक् प्रतिज्ञातं स्वव्यवसायात्मकत्वं ज्ञानविशेषणं व्याचिंख्यासुः स्वोन्मुखतयेत्याद्याहखोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥
स्वस्य विज्ञानस्वरूपस्योन्मुखतोल्लेखिता तया इतीत्थंभावे भी। १० प्रतिभासनं संवेदनमनुभवनं स्वस्य प्रमाणत्वेनाभिप्रेतविज्ञानस्वरूपस्य सम्बन्धी व्यवसायः।
स्वव्यवसायसमर्थनार्थमर्थव्यवसायं स्वपरप्रसिद्धम् 'अर्थस्य इत्यादिना दृष्टान्तीकरोति ।
अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ १५ इवशब्दो यथार्थे । यथाऽर्थस्य घटादेस्तदुन्मुखतया स्वोल्लेखि
तया प्रतिभासन व्यवसायः तथा ज्ञानस्यापीति । __ स्यान्मतम्-न ज्ञानं स्वव्यवसायात्मकमचेतनत्वाद् घटादिवत्। तंदचेतनं प्रधानविवर्त्तत्वात्तद्वत् । यत्तु चेतनं तन्न प्रधानविवर्तः, यथात्मा; इत्यप्यसङ्गतम् । तस्यात्मविवर्त्तत्वेन प्रधानविवर्त्तत्वा२० सिद्धेः; तथाहि-ज्ञानविवर्त्तवानात्मा इष्टत्वात् । यस्तु न तथा स
१ पूर्वोक्तप्रकारेण ज्ञानस्यार्थव्यवसायात्मकत्वे समर्थिते सति । २ व्याख्यातुमिच्छुः । ३ ग्राहकता। ४ तृतीया । ५ वादिप्रतिवादिप्रसिद्धम् । ६ अर्थ । ७ तव साङ्ख्यस्य । ८ ज्ञानम् । ९ ज्ञानस्य । १० पर्यायत्वेन । ११ जैनानुमानम् । १२ चेतयितृत्वात् ।
च्यायभा० ४।२।३०। प्रश० व्योमवती पृ० ५३२ । अष्टसह० पृ० ११५ । सन्मति० टी० ४५५ । स्या० म० का० १७ । रत्नाकरावता० पृ० ३२ । 1 "प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारः...।" सांख्यका० २२ ।
"तस्याः प्रकृतेर्महान् उत्पद्यते प्रथमः कश्चित् । महान् बुद्धिः मतिः प्रज्ञा संवित्तिः ख्यातिः चितिः स्मृतिरासुरी हरिः हरः हिरण्यगर्भ इति पर्यायाः।"
माठरवृत्ति, गौडपादभा० २२ । सांख्यसं० पृ० ६ । 2 "तथापरिणामवानात्मा दृष्ट (ष्ट) त्वात् । यस्तु शानपरिणामवान्न भवति नासो द्रष्टा यथा लोष्टादिः, द्रष्टा चात्मा तस्माज्ज्ञानपरिणामवानिति।" स्या. रत्ना० पृ०२३४।
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सू० ११७] अचेतनज्ञानवादः
९९ न द्रष्टा यथा घटादिः, द्रष्टा चात्मा तस्मातद्विवर्त्तवानिति । प्रधानस्य ज्ञानवत्त्वे तु तस्यैव द्रष्टत्वानुषङ्गादात्मकल्पनानर्थक्यम् । 'चेतनोऽहम्' इत्यनुभवाच्चैतन्यस्वभावतावच्चात्मनो 'ज्ञाताऽहम्' इत्यनुभवाद् ज्ञानस्वभावताप्यस्तु विशेषाभावात् । ज्ञानसंसर्गात 'ज्ञाताऽहम्' इत्यात्मनि प्रतिभासो न पुननिस्वभावत्वादित्यप्य-५ समीक्षिताभिधानम् ; चैतन्यादिखभावस्याप्यभावप्रसङ्गात् । चैतज्यसंसर्गाद्धि चेतनो भोकृत्वसंसर्गाद्भोक्तौदासीन्यलंल दुदासीनः शुद्धिसंसर्गाच्छुद्धो न तु स्वभावतः । प्रत्यक्षाभिनाजवाधोभयत्र । न खलु ज्ञानस्वभावताविकलोऽयं कदाचनाप्यर्नुभूयते, तद्विकलस्यानुभवविरोधात् ।
आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽनित्यत्वापत्तिः प्रधानेपि समाना । तत्परिणामस्य व्यक्तस्यानित्यत्वोपगमात् अदोषे तु, आत्मपरिणामस्थापि ज्ञानविशेषादेरनित्यत्वे को दोषः ? तस्यात्मनः कथञ्चिदव्यतिरेके भङ्गुरत्वप्रसङ्गः प्रधानेपि समानः। व्यक्ताव्यक्तयोरव्यतिरेकेपि व्यक्तमेवानित्यं परिणामत्वान्न पुनरव्यक्तं परिणामित्वा-१५ दित्यभ्युपगमे, अत एव ज्ञानात्मनोरव्यतिरेकेपि ज्ञानमेवानित्यमस्तु विशेषाभावात् । आत्मनोऽपरिणामित्वे तु प्रधानेपि तदस्तु
१ ज्ञान । २ आशङ्कायाम् । ३ चैतन्यस्वभावतया अनुभवः, ज्ञानस्वभावताया अनुभव इत्यविशेषः । ४ कथं तथा हि। ५ नैर्मल्य । ६ आत्मनश्चैतन्यादिस्वभावाभावे शानस्वभावाभावे च। ७ आत्मा। ८ आत्मा आत्मना। ९ ज्ञानमनित्यमिति वचनात् ज्ञानस्वरूपवत् । १० महदादेः। ११ ज्ञानादेः। १२ प्रधानस्यानित्यत्वापत्तिलक्षणोऽदोषः। १३ का । १४ अभेदे। १५ आत्मनः। १६ विनश्वरत्व। १७ महदादेः। १८ प्रधानस्य ।
1"ननु ज्ञानसंसर्गाज्ज्ञाताऽहमित्यात्मनि प्रतिभासो न पुननिस्वभावत्वादिति चेत्, तदपि न्यायबाह्यम् ; चैतन्यादिस्वभावस्याप्येवमभावप्रसक्तेः । चैतन्यसंसर्गाद्धि चेतनो भोक्तृत्वसंसर्गाद् भोक्ता औदासीन्यसंसर्गादुदासीनः शुद्धिसंसर्गात् शुद्धो न तु स्वभावादित्यपि वक्तुं शक्यत एव।"
स्या० रत्ना० पृ. २३५ । 2 "हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् ।
सावयवं परतत्रं व्यक्तं विपरीतमत्यक्तम् ॥" सांख्यका० १०॥ "प्रधानस्य चाऽनित्याद् व्यक्तादनान्तरभूतस्य नित्यतां प्रतीयन् पुरुषस्यापि ज्ञानादशाश्वतादनान्तरभूतस्य नित्यत्वमुपैतु सर्वथा विशेषाभावात् ।" आप्तप० पृ० ४१ ।
"नचात्मनः अनित्यज्ञानपरिणामात्मके अनित्यत्वापत्तिः प्रधानेऽपि तत्प्रसङ्गात् । व्यक्ताऽव्यक्तयोरमदेऽपि व्यक्तमेवाऽनित्यं परिणामत्वात् नत्वव्यक्तं परिणामित्वादित्यन्यत्रापि समानम् ।" न्यायकुमु० पृ० १९१ । स्या० रत्ना० पृ० २३५१
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० व्यक्तापेक्षया परिणाम प्रधानं न शेत्यपेक्षया सर्वदा स्थास्नुत्वादित्यभिधातु आत्मापि तथास्तु सर्वथा विशेषाभावात् , अपरिणामिनोऽर्थक्रियाकारित्वासम्भवेनाग्रेऽसत्त्वप्रतिपादनाञ्च ।
खसंवेदनप्रत्यक्षाविषयत्वे चास्याँः प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं ५न स्यात् । तद्यवस्थापकत्वं हि तदनुभवनम् , तत्कथं वुद्धरप्रत्यक्षत्वे घटेत? आत्मान्तरवुद्धितोपि तत्प्रसङ्गात्, न चैवम् । ततो बुद्धिः खव्यवसायात्मिका कारणान्तरनिरपेक्षतयाऽर्थव्यवस्थापकत्वात् , यत्पुनः स्वव्यवसायात्मकं न भवति न तत्त
थाऽर्थव्यवस्थापकं यथाऽऽदर्शादीति । अर्थव्यवस्थितौ तस्याः १० पुरुषभोगांपेक्षत्वात् “बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते" [ ]
इत्यभिधानात् । ततोऽसिद्धो हेतुरित्यपि श्रंद्धामात्रम् ; भेदेनानयो. रनुपलम्भात् । एकमेव ह्यनुभवसिद्धं संविद्रूपं हर्पविषादाद्यनेकाकारं विपयव्यवस्थापकमनुभूयते, तस्यैवैते 'चैतन्यं बुद्धिरध्यव
सायो ज्ञानम्' इति पर्यायाः। न च शब्दभेदमात्राद्वास्तवोऽर्थभे१५दोऽतिप्रैसङ्गोत्।
संसर्गविशेषवशाद्विप्रैलब्धो वुद्धिचैतन्ययोः सन्तमपि भेदं
१ महदादि, द्वितीयपक्षे सुखादि। २ सूक्ष्मस्वभावा द्वितीयपक्षे साम्यावस्था शक्तिः । ३ परेण । ४ व्यक्त्यपेक्षया परिणाम्यस्तु । ५ व्यक्त्यपेक्षया परिणाम्यस्तु। ६ किञ्च । ७ बुद्धेः । ८ अन्यथा । ९ पुरुषान्तर । १० स्वस्य । ११ व्यक्तिलक्षणाया बुद्धेः बुद्धिलक्षणात्कारणादपरं कारणान्तरमिन्द्रियम् । १२ कारणनिरपेक्षतया। १३ अनुभवः स एव कारणम् । १४ बुद्धिप्रतिबिम्बितम् । १५ अनुभवति । १६ कारणान्तरसापेक्षतया। १७ वुद्धः । १८ भो साङ्ख्य। १९ बुद्धिपुरुषयोः । २० बुध्यनुभवयोः। २१ अन्यथा। २२ इन्द्रः शक इत्यादौ स स्यात् । २३ सम्बन्ध । २४ वन्चितो नरः। २५ चैतन्यं पुरुषस्य रूपम् । २६ विद्यमानम् । 1 "एकमेवेदं संविद्रूपं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त्त पश्यामः।"
__ न्यायमं० पृ० ७४ । न्यायकुमु० पृ० १९३ । "बुद्धिरुपलब्धिनिमित्यनन्तरम् ।न्यायसू० ११११५ प्रश० भा० पृ०१७१।
"बुद्धिरध्यवसायो हि संवित्संवेदनं तथा । संवित्तिश्चेतना चेति सर्व चैतन्यवाचकम् ॥” तत्त्वसं० का० ३०३॥
सन्मति० टी० पृ० ३०० । स्या० रत्ना० पृ० २३८ । 2 "तसात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् ।
गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः ॥ २० ॥ यसाच्चेतनस्वभावः पुरुषः तस्मात् तत्संयोगादचेतनं महदादि लिङ्गम् अध्यवसायाभिमानसङ्कल्पालोचनादिषु वृत्तिषु चेतनावत् प्रवर्तते । को दृष्टान्तः ? तद्यथा
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सू० १1७ ]
अचेतनज्ञानवादः
१०१
नावधारयत्ययो गोलकादिवाग्नेः । न चात्रापि भेदो नास्तीत्यभिधीतव्यम्; उभयत्र रूपस्पर्शयोर्भेदप्रतीतेः । अयोगोलकस्य हि वृत्तसन्निवेशः कठिनस्पर्शश्चान्योऽग्नि (ग्ने)र्भासुररूपोष्णस्पर्शाभ्यां प्रमाणतः प्रतीयते । ततो यथात्राऽन्योऽन्यानुप्रवेशलक्षणसंसर्गाद्विभागप्रतिपत्त्यभावस्तथा प्रकृते पीत्यप्यसाम्प्रतम् ; वह्नययोगोल - ५ कयोरप्यभेदात् । अयोगोलकद्रव्यं हि पूर्वाकारपरित्यागेनाग्निसनिधानाद्विशिष्टरूपस्पर्शपर्यायाधारमेकमेवोत्पन्नमनुभूयते आमाकारपरित्यागेन पाकाकाराधारघटद्रव्यवत् । कथं तर्हि तैस्योत्तरकालं तत्पर्यायाधारताया विनाशप्रतीतिः ? इत्यप्यचोद्यम् उत्पत्त्यनन्तरमेव तद्विनाशाप्रतीतेः । किञ्चिद्ध्योपाधिकं वस्तुरूप- १० मुपध्यपायनन्तरमेवापैति, यथा जपापुष्पसन्निधानोपनीत स्फटिकरक्तिमा । किञ्चित्तु कौन्तरे, मनोज्ञाङ्गनादिविषयोपनीतात्मसुखादिवत् । सकलभावानां स्वतोऽन्यतश्च निवर्त्तनप्रतीतेः । तन्नाम्ययोगोलकयोर्भेदः ।
१४
3
daiस्मिन् स्वपरप्रकाशात्मपर्यायेऽनुभूयमाने नौन्य- १५ सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा न केचिदेकत्वव्यवस्था स्यात् । सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गञ्च; अनिष्टार्थ परिहारेणेष्ठे वस्तुन्येकस्मिन्ननुभूयमानेष्यन्य सद्भावाशङ्कया क्वचित्प्रवृत्त्याद्यभावात् । ततोऽबाधितैकत्वप्रतिभासादपरपरिहारेणावभासमाने
वस्तुन्ये
39
१ निश्चिनोति । २ अयोगोलकाइयोः । ३ जैनेन भवता । ४ अयोगोलकारयोः । ५ वर्तुलाकारः । ६ प्रत्यक्षात् । ७ अयोगोलकाइयोः । ८ मेद ! ९ बुद्धिचैतन्ये (तन्ययोः) । १० कृष्णत्वादिलक्षण । ११ अयोगोलस्य । १२ करण । १३ विनाश | १४ अपगच्छति । १५ उपाध्यपाये सति । १६ अपैति । १७ स्त्रक्चन्दनादि । १८ पदार्थ । १९ परिणमन । २० चूतफलादिवत् । २१ अयोगोलकवत् । २२ बुद्धिचैतन्ये (तन्ययोः) । २३ स्वयम् । २४ चैतन्य । २५ परेण । २६ विषये । २७ कथम् । २८ अहिकण्टकादि । २९ वनितादौ । ३० अहिकण्टकादि । ३१ विषये । ३२ निवृत्ति ।
अनुष्णाशीतो घटः शीताभिरद्भिः संसृष्टः शीतो भवति, अग्निना संयुक्त उष्णो भवति, एवं महदादिलिङ्गमचेतनमपि भूत्वा चेतनावद् भवति । "
माठरवृत्ति, गौडपादभा० ।
1 " वह योगोलकयोरपि अन्योन्यं भेदाभावात् । अयोगोलकद्रव्यं हि पूर्वाकार'परित्यागेन अग्निसन्निधानादू विशिष्टरूपस्पर्शपर्यायाधारमेकमेवोत्पन्नमनुभूयते आमाकारपरित्यागेन पाकाकाराधारघटद्रव्यवत् ।”
न्यायकुमु० पृ० १९३ । स्या० रत्ना० पृ० २३७॥
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१०२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० कत्वव्यवस्थामिच्छता अनुभवसिद्धकर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यनेकधर्माधारचिद्विवर्त्तस्याप्येकत्वमभ्युपगन्तव्यं तदविशेषात् । न चात्रैकत्वप्रतिभासे किञ्चिद्वाधकम् , यतो द्विचन्द्रादिप्रतिभालवन्मिथ्यात्वं स्यात् । स्वसंवेदनप्रसिद्धखपरप्रकाशरूपचिद्विवर्त्तव्यतिरेकेणान्य५चैतन्यस्य कदाचनाप्यप्रतीतेः।न चोपदेशमात्रात्प्रेक्षावतां निर्वाधबोधाधिरूढोऽर्थोऽन्यथा प्रतिभासमानोऽन्यथापि कल्पयितुं युक्तोऽतिप्रसङ्गात् । चैतन्यस्य च स्वपरप्रकाशात्मकत्वे किं वुद्धिसाध्यं येनासौ कल्प्यते ?
वुद्धश्चाचेतनत्वे विषयव्यवस्थापकत्वं न स्यात् । ओंकारवत्त्वा१० त्तत्त्वमित्यप्ययुक्तम् ; अचेतनस्याकारत्वे (रवत्त्वे)प्यर्थव्यवस्थापकत्वासम्भवात् , अन्यथाऽऽदर्शादेरपि तत्प्रसङ्गाबुद्धिरूपतानुषङ्गः। अन्तःकरणत्व-पुरुषोपभोगप्रत्यासन्नहेतुत्वलक्षणविशेषोपि मनोऽ. शादिनानैकान्तिकत्वान्न वुद्धलक्षणम् । यदि च अयमेकान्तः'अन्तःकरणमन्तरेणार्थमात्मा न प्रत्येति' इति, कथं तर्हि अन्तः१५करणप्रत्यक्षता ? अन्यान्तःकरणविम्वादेवेति चेत्, अनवस्था।
अन्यान्तःकरणबिम्वमन्तरेणान्तःकरणप्रत्यक्षतायां च अर्थप्रत्यक्षतापि तथैवास्त्वलं तत्परिकल्पनया । अन्तःकरणप्रत्यक्षताभावे च कथं तद्गतार्थविम्वग्रहणम् ? न ह्यादर्शाग्रहणे तद्गतार्थप्रतिविम्बग्रहणं दृष्टम्। २० विषयाकारधारित्वं च बुद्धरनुपपन्नम् , मूर्तस्यामूर्त प्रति
१ परेण । २ आत्मनः। ३ बोधस्य । ४ प्रमाण। ५ आगमात्। ६ बुद्धिलक्षण। ७ एकत्वेन। ८ स्वसंवेदनप्रत्यक्ष । ९ बुद्धिलक्षणः । १० एकत्वेन प्रतिभासमानः। ११ बुद्धिचैतन्यमिति द्वयरूपतया । १२ अन्यथा। १३ केन कारणेन । १४ किञ्च । १५ अर्थाकारवत्वात् । १६ जलादेः। १७ मध्ये (?)। १८ अनुभव । १९ कारणं बुद्धिरूपम् । २० व्यस्तलक्षण । २१ अदृष्ट । २२ अतिव्याप्तेः। २३ अन्तःकरणत्वं बुद्धेर्लक्षणमित्युक्ते मनसा व्यभिचारः । कथं मनोह्यन्तःकरणं भवति न च तस्य बुद्धिरूपता पुरुषोपभोगप्रत्यासन्नहेतुत्वं बुद्धेर्लक्षणमित्युक्ते चाक्षादिना व्यभिचारस्तथाहि-पुरुषो. पभोगप्रत्यासन्नहेतुरिन्द्रियं भवति न च तस्य बुद्धिरूपता । २४ किञ्च । २५ बुद्धिम् । २६ बुद्धि । २७ आकार । २८ बुद्धि । २९ बुद्धि। ३० अन्तःकरणगतार्थ । 1 "न चास्या वास्तवचैतन्याभावे विषयव्यवस्थापनशक्तिर्युक्ता।" ।
न्यायकुमु० पृ० १९३ । स्या० रत्ना० पृ० २३८ । 2 "न विषयाकारधारि शानममूर्त्तत्वात् , यदमूर्त तद् विषयाकारधारि न भवति यथा आकाशम् , अमूर्तञ्च शानमिति । तद्धारित्वे वा अमूर्त्तत्वमस्य विरुध्यते ।"
न्यायकुमु० पृ० १९३ । स्था० रत्ना० पृ० २३८ ।
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सू० ११७] साकारज्ञानवादः
१०३ विम्बासम्भवात् । तथा हि-न विषयाकारधारिणी वुद्धिरमूर्तत्वादाकाशवत्, यत्तु विषयाकारधारि तन्मूः यथा दर्पणादि । न चासिद्धो हेतुः; तस्याः सकलवादिभिरमूर्त्तत्वाभ्युपगमात् । अन्यथा वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गो दर्पणादिवदेव । अतिसूक्ष्मत्वात्तदप्रत्यक्षत्वे तद्भतार्थप्रतिविम्वप्रत्यक्षतापि न स्यात् । मूर्तस्य५ चेन्द्रियादिद्वारेणैव संवेदनसम्भवात् । तदभावेऽसंविदितत्वप्रसङ्गश्च । सर्वथा परोक्षत्वाभ्युपगमे चॉस्या मीमांसकमतानुषङ्गः ॥छ॥
एतेन वाद्धोप्याकारवत्त्वेन ज्ञाने प्रामाण्यं प्रतिपादयन्प्रत्याख्यातः । प्रत्यक्षविरोधाच; प्रत्यक्षेण विषयाँकाररहितमेव ज्ञानं २० प्रतिपुरुषमहमहमिकया घटादिग्राहकमनुभूयते न पुनर्दर्पणादिवत्प्रतिविम्वाक्रान्तम् । विषयाकारधारित्वे , ज्ञानस्यार्थे दूरनिकटादिव्यवहाराभावप्रसङ्गः। न खलु स्वरूपे खतोऽभिन्नेऽनुभूयमाने सोस्ति, न चैवम् ; 'दूरे पर्वतो निकटे मदीयो वाहुः' इति व्यवहारस्याऽस्खेलद्रूपस्य प्रतीतः। ततस्तदन्यथानुपपत्तेनि-१५ राकारं तत् । न चाकाराधायकस्य दूरादितया तथा व्यवहारो
१ हेतोः। २ पदार्थस्य। ३ किञ्च । ४ आलोकादि । ५ किञ्च । ६ बुद्धेविषयाकारधारित्वनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । ७ योगाचारः। ८ सौत्रान्तिकः (१) । ९ पदार्थस्य । १० किञ्च । ११ सौत्रान्तिकः (१)। १२ स्वसंवेदनेन । १३ अर्थ । १४ पदार्थ। १५ वयं शानेन। १६ किञ्च । १७ दूरनिकटादिव्यवहारः। १८ अस्त्वेवमिति चेत् । १९ अव्यभिचरत् । २० प्रतिभासनात् । २१ साकारत्वे दूरनिकटादिव्यवहारो न घटते यतः। २२ समर्पकस्य पदार्थस्य ।
"स्वसंवित्तिः फलञ्चास्य ताद्रूप्यादर्थनिश्चयः ।
विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥" प्रमाणसमु० १।१०। "अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् ।" न्यायबि० १११९ । 2 "दूरासन्नादिभेदेन व्यक्ताव्यक्तं न युज्यते ।
तत्स्यादालोकभेदाच्चेत् तत्पिधानापिधानयोः । तुल्या दृष्टिरदृष्टिवा सूक्ष्मोंशस्तस्य कश्चन । आलोकेन न मन्देन दृश्यतेऽतो भिदा यदि ॥"
प्रमाणवा० ३१४०८-९ । "स्वतोऽभिन्नस्य चाकारस्य ज्ञानग्राह्यत्वे अर्थे दूरातीतादिव्यवहारो न स्यात् ।"
न्यायकुमु० पृ० १६९ ।
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१०४
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरिक युक्तः, दर्पणादौ तथानुपलम्भात् । दीर्घस्वावतश्चै प्रवोधचेतसो जनकस्य जामशाचेतसो दूरत्वेनातीतत्वेन चानापि दूरातीता. दिव्यवहारानुपङ्गः स्यात् ।
किञ्च, अर्थादुपजायमानं ज्ञानं यथा तस्य नीलतामनुकरोति ५ तथा यदि जडतामपि तर्हि जडमेव तत् स्यादुत्तरार्थक्षणवत् । अथ जडतां नानुकरोति; कथं तस्या ग्रहणम् ? तद्ग्रहणे नीला. कारस्याप्यग्रहणम् अन्यथा तयोर्मेंदोऽनेकान्तो वा । नीलाकारग्रहणेपि च, अंगृहीता जडता कथं तस्येत्युच्येत? अन्यथा गृहीतस्य स्तम्भस्यागृहीतं त्रैलोक्य(क्यं )रूपं भवेत् । तथा चैकोपलम्भी १० नैकत्वसाधनम् । अथ नीलाकारवजडतापि प्रतीयते किन्त्वतदा
कारण ज्ञानेन, न; तर्हि नीलताप्यतदाँकारेणैवानेन प्रतीयताम्। तथाहि-यद्येन वात्मनोऽर्थान्तरभूतं प्रतीयते तत्तेनातदाकारेण यथा स्तम्भादेर्जाड्यम्, प्रतीयते च स्वात्मनोऽर्थान्तरभूतं नीला दिकमिति। किञ्च, नीलाकारमेव ज्ञानं जडतांप्रतिपद्यते, ज्ञानान्तर १५वा ? आद्यविकल्पे नीलाकारतां खात्मभूततया, जडतां त्वेन्यों
तज्जानातीत्यर्द्धरतीयन्यायानुसरणं ज्ञानस्य । अथ ज्ञानान्तरेण सा
१ पुरुषस्य । २ किञ्च । ३ शानस्य । ४ पुरुषस्य । ५ परिच्छित्तिः । ६ जडस्याग्रहणेपि नीलस्य ग्रहणं चेत् । ७ नीलजडयोः। ८ गृह्यमाणाऽगृह्यमाणधर्मा वेकस्यार्थस्यति च। ९ किञ्च । १० अगृहीतापि नीलस्य धर्मश्चेत्। ११ यतः। १२ ज्ञानम् । १३ किन्त्वनेकत्वसाधनम् । १४ विशेषे। १५ अजडाकारण। १६ निराकारेण। १७ अनीलाकारेण । १८ नीलादिकं धर्मी अतदाकारेण ज्ञानेन प्रतीयते इति साध्यो धर्मः। तेन स्वात्मनोऽर्थान्तरभूततया प्रतीयमानत्वात् । १९ शान रूपात् । २० कर्तृ । २१ नीलाकारतया। २२ अजडाकारतया। २३ अस्यात्म(अस्वात्म )भूततया चेत् ।
___ 1 "न चाकाराधायकस्य दूरातीतत्वात्तथा व्यवहारः इत्यभिधातव्यम् ; जाय. चेतसो दूरातीतत्वेन प्रबोधचेतसि तथा व्यवहारप्रसङ्गात् ।" न्यायकुमु० पृ० १६९ ।
2 “अथ नीलतां तत्तदाकारतया प्रतिपद्यते जडतां त्वतदाकारतया तदिदम जरतीयन्यायानुसरणम् ।"
न्यायकुमु० पृ० १६८ । "अर्ध जरत्याः कामयन्ते अर्ध नेति ।" पात० महाभाष्य ४।११७८ । "अर्थ मुखमात्रं वृद्धायाः कामयते नाङ्गानि सोऽयमर्धजरतीयन्यायः।"
ब्रह्मसू० शा० मा० रत्नप्रभा १।२।८ । 3 "अर्थेन सर्वात्मना तत्र स्वाकाराधाने शानस्य जडताप्रसक्तेः उत्तरार्थक्षणवत् ।”
शास्त्रवा० टी० पृ० १५९ पू० ।
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सू० ११७]] साकारज्ञानवादः
१०५ प्रतीयते; तदप्यतदाकारं यथा जडतां प्रतिपद्यते तथाद्य (घ)नीलतामिति व्यर्थं तदाकारकल्पनम् ।
किञ्च, ज्ञानान्तरेण जडतैव केवला प्रतीयते, तद्वन्नीलतापि वा? न तावदुत्तरपक्षः, अर्द्धजरतीयन्यायानुसरणप्रसङ्गात् । प्रथमपक्षे तु नीलताया जडतेयमिति कुतःप्रतीतिः? नाद्यज्ञानात् ५ तेन नीलाकारमात्रस्यैव प्रतीतेः । नापि द्वितीयात्तस्य जडतामात्रविषयत्वात् । अथोभयविषयं ज्ञानान्तरं परिकल्प्यते, तश्चेदुशयेत्र साकारम् ; स्वयं जडती । निराकारं चेत्, परमतप्रसङ्गः । क्वचित्साकारतायामुक्तदोषोऽनवस्था।
ननु निराकारत्वे ज्ञानस्याखिलं निखिलार्थवेदकं तत्स्यात् १० कंचित्प्रत्यासत्तिविकर्षाभावादित्यप्यपेशलम् । प्रतिनियतसाम
\न तेत्तथाभूतमपि प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकमित्यने वक्ष्यते । 'नीलाकारवजडाकारस्यादृष्टेन्द्रियायौंकारस्य चानुकरणप्रसङ्गः कारणत्वाविशेषात्त्यासत्तिविक भावाच्च' इति चोधे भवतोपि योग्यतैव शरणम्।
यच्चोच्यते-'यथैवाहारकालादेः समानेऽपत्यं जननीपित्रोत्तदेकमाकारं धत्ते नान्यस्य कस्यचित्, तथा चक्षुरादेः कारणत्वाविशेषेपि नीलस्यैवाकारमनुकरोति ज्ञानं नान्यस्य' इति; तन्निरीकारज्ञानेपि समानम् । तत्कार्यत्वाविशेषेपि हि यया प्रत्यासत्त्या निं नीलमेवानुकरोति तयैव संर्वत्रानाकारत्वाविशेषेपि २०
१ आद्यज्ञानम् । २ नीलतारहिता । ३ जडतया युक्ता नीलता । ४ प्रथमशानात् । ५ न जडतायाः। ६ ज्ञानान्तरात् । ७ न नीलतायाः। ८ जडता नीलता (च) विषयो यस्य । ९ तृतीयम् । १० परेण। ११ नीलतायां जडतायां च। १२ स्यात् । १३ स्वस्य। १४ शानस्य। १५ जैन । १६ नीलतायाम् । १७ उक्तदोषपरिहारार्थ ज्ञानान्तरेण जडता प्रतीयते इति चेद(द)न्यानवस्था। १८ अर्थे । १९ ताद्रप्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्ध । २० तदभाव । २१ ज्ञानम् । २२ निराकारम् । २३ पापादि । २४ मनः । २५ किञ्च । २६ ज्ञानस्य । २७ नीलाकारेण प्रत्यासत्ति। २८ इन्द्रियादिना विप्रकर्षस्य । २९ जैनैः। ३० बौद्धस्य । ३१ सौत्रान्तिकेन। ३२ पित्रादेः । ३३ कारणे । ३४ अपत्यम् । ३५ यदुक्तं त्वया समाधानम् । ३६ ज्ञानस्य । ३७ स्वभावेन । ३८ कर्तृ। ३९ अर्थ । ४० पदार्थे ।
"यथैवाहारकालादेः समानेऽपत्यजन्मनि । पित्रोस्तदेकमाकारं धत्ते नान्यस्य कस्यचित् ॥"
प्रमाणवा० ३३६९ ।
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१०६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० किंञ्चिदेव प्रतिपद्यते न सर्वमिति विभागः किं नेष्यते? अन्योन्याश्रयदोपैश्चोभयत्र समानः। किञ्च, प्रतिनियतघटादिवत्सकलं वस्तु निखिलज्ञानस्य कारणं खाकारार्पकं वा किन्न स्यात् ? वस्तुसामर्थ्यात् किञ्चिदेव कस्यचित् कारणं न सर्व सर्वस्येति चेतः ५ तर्हि तत एव किञ्चित्कस्यचिद्राह्य ग्राहकं वा न सर्व सर्वस्येत्यलं प्रतीत्यपलापेन।
प्रमाणत्वाचास्य तदभावः। अर्थाकारानुकारित्वे हि तस्य प्रमेयरूपतापत्तः प्रमाणरूपताव्याघातः, न चैवम् , प्रमाणप्रमेययोर्वहि. रन्तर्मुखाकारतया भेदेन प्रतिभासनात् । न चाध्यक्षेण ज्ञान१० मेवाऽर्थाकारमनुभूयते न पुनर्वाह्योऽर्थ इत्यभिधातव्यम् ; ज्ञानरू
पतया वोधस्यैवाध्यक्षे प्रतिभासनानार्थस्य । न हानहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासेऽहङ्कारास्पदवोधरूपवत् ज्ञानरूपता युक्ता, अहङ्कारास्पदत्वेनार्थ स्यापि प्रतिभासोपंगमे तु 'अहं घटः' इति प्रतीतिप्रसङ्गः । न चान्यथाभूता प्रतीतिरन्यथाभूतमर्थ व्यवस्था१५ पयति; नीलप्रतीतेः पीतादिव्यवस्थाप्रसङ्गात् ।
बोधस्यार्थीकारतां मुक्त्वार्थेन घटयितुमशक्तेः 'नीलस्यायं वोधः' इति, निराकारवोधस्य केनचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षासिद्धः सर्वार्थघटनप्रसङ्गात्सर्वेकवेदनापत्तेः प्रतिकर्मव्यवस्था ततो न स्यादित्यर्थाकारो वोधोऽभ्युपंगेन्तव्यः । तदुक्तम्
१ बस्तु ! २ परेण ३ नियतार्थप्रतिपत्तौ नियतस्वभावसिद्धिस्तत्सिद्धौ च नियतार्थप्रतिपत्तिसिद्धिरिति, नियतनीलाकारानुकरणे च सिद्धे नियतानुकरणयोग्यतासिद्धिीनस्य तत्सिद्धौ च नियतनीलाकारानुकरणसिद्धिरिति । ४ नियतार्थग्रहणानुकरणयोः । ५ कस्यचित्पदार्थस्य । ६ किञ्च । ७ अर्थाकारानुकारित्वाभावः। ८ अस्तूभयं का नो हानिरिति चेत्। ९ इन्द्रिय। १० परेण । ११ अर्थस्य बोधरूपतया। १२ परेण। १३ अन्यथा । १४ पदार्थेन। १५ ताद्रूप्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्ध । १६ तदभाव। १७ ईप् ( सप्तमी)। १८ निराकारबोधस्य सम्बन्धात् । १९ सम्बन्ध । २० सर्वानाम् । २१ पटशानस्य पटो विषयो घटशानस्य घट इत्यादि। २२ जैनेन भवता।
1 "प्रमाणरूपताविरोधानुषङ्गश्च ।"
न्यायकुमु० पृ० १६८। 2 "तदाकारं हि संवेदनमर्थ व्यवस्थापयति नीलमिति पीतञ्चेति ।" .
प्रमाणवा० अलं पृ० २। "किमर्थ तर्हि सारूप्यमिष्यते प्रमाणम् ? क्रियाकर्मव्यवस्थायास्तल्लोके स्यान्निबन्धनम् । "सारूप्यतोऽन्यथा न भवति नीलस्य कर्मणः संवित्तिः पीतस्य वेति क्रियाकर्मप्रतिनियमार्थमिष्यते।"
प्रमाणवा० अलं पृ० ११९ ।
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सू० ११७]
साकारज्ञानवादः
१०७
७
"अर्थन घटयेत्येनां न हि मुक्ता(क्त्वा)र्थरुपताम् । तस्मात्प्रमेयाँधिगते प्रमाण मेयरूपता॥"[प्रमाणवा० ३।३०५] इत्यनल्पतमोविलसितम् ; यतो घंटयति सम्बन्धयतीति विवक्षितं ज्ञानम् , अर्थसम्वद्धमर्थरूपता निश्चाययतीति वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, न बर्थसम्वन्धो ज्ञानस्यार्थरूपतया क्रियते, किन्तु ५ खैकारणैस्तज्ज्ञानमर्थसम्वद्धमेवोत्पाद्यते । न खलु ज्ञानमुत्पद्य पश्चादर्थेन सम्वध्यात् । न चार्थरूपता ज्ञानस्याथै सत्वन्धकारणं तादात्म्याभावानुषङ्गात् । द्वितीयपक्षोप्यलम्भाव्यः; सम्बन्धासिद्धेः। न खलु ज्ञानगतार्थरूपता अर्थसम्बद्धन ज्ञानेन सहचरिता क्वचिदुपलब्धा येनार्थसम्वद्धं ज्ञानं सा निश्चाययेत् । विशिष्टविष-१० योत्पाद एव च ज्ञानस्यार्थेन सम्वन्धः, न तु संश्लेषात्मकोऽस्य ज्ञानेऽसम्भवात् । स चेन्द्रियैरेव विधीयते इत्यर्थरूपतासाधनप्रयासो वृथैव । न चैव सर्वत्रासौ प्रसज्यते; यतो निराकारत्वेन्यववोधस्य इन्द्रियवृत्त्या पुरोवर्तिन्येवार्थे नियमितत्वान्न सर्वार्थघटनप्रसङ्गः। 'कस्मात्तैस्तत्र तेनियम्यते' ? इत्यैत्र वस्तुस्वभावैरुत्तरं १५ वाच्यम् । न हि कारणानि कार्योत्पत्तिप्रतिनियमे पर्यनुयोगमर्हन्ति तत्र तस्य वैफल्यात् । सरकारदेपि चायं पर्यनुयोगः समानः
१ अन्यत्सन्निकर्षादिकं कर्तृ। २ निर्विकल्पका बुद्धिम् । ३ यस्मात् । ४ प्रमाणं न घटयतीति सम्बन्धः। ५ बुद्धः। ६ फलज्ञानस्य । ७ सम्बन्धित्वेन। ८ नैयायिकादिकल्पितम् । ९ ज्ञानस्यार्थरूपता । १० अर्थरूपता। ११ मा (?) । १२ कीं। १३ भा। १४ इन्द्रियादिभिः। १५ अर्थसम्बन्धज्ञानार्थरूपतयोः। १६ किञ्च । १७ अन्यथा । १८ अर्थरूपताज्ञानयोः। १९ भा। २० पूर्वस्मिन्विकल्पे इत्यादि द्रष्टव्यम् । २१ बसः। २२ ईप् । २३ किञ्च । २४ ज्ञाने। २५ शाने । २६ अर्थरूपताभावे । २७ असन्निहितेऽप्यर्थे । २८ ज्ञानोत्पादलक्षणः सम्बन्धः । २९ व्यापारेण। ३० कारणात् । ३१ शानम् । ३२ पूर्वपक्षे। ३३ अस्मामिअनैः। ३४ आक्षेपम् । ३५ किञ्च ।
"अर्थेन घटयत्यनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । अन्यत्स्वभेदो ज्ञानस्य भेदकोऽपि कथञ्चन ॥ ३०५ ॥
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता।" प्रमाणवा० । 2 “किञ्च, घटयतीति सम्वन्धयति इत्यभिप्रतम् , अर्थसम्बद्धं निश्चाययति इति वा ?"
न्यायकुमु० पृ० १७१ । ! 3 साकारत्वेऽपि चायं पर्यनुयोगः समानः । तथाहि-साकारमपि ज्ञानं किमिति नीलादिकमेव पुरोवति तत्सन्निहितमेव च व्यवस्थापयति ? तेनैव तथा तस्य जननादिति चेत् समानमेतन्निराकारेऽपि ।"
सन्मति० टी० पृ० ४६० ।
न्यायकुमु० पृ० १७१।
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१०८ प्रसैयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० साकारमपि हि ज्ञानं किमिति सन्निहितं नीलादिकमेव पुरोवर्ति व्यवस्थापयादिना पुनः सर्वम् ? 'तेनैव च तथा जननात्' इत्युत्तरं निराकारत्वेषि समानम् । किञ्च, इन्द्रियादिजन्य विज्ञान् “किमि
तीन्द्रियाद्याकारं नानुकुर्यात्' इति प्रश्ने भवताप्यत्र वस्तुस्वभाव ५एवोत्तरं वाच्यम् । साकारता च ज्ञाने साकारज्ञानेन प्रतीयते, निराकारेण वा ? साकारेण चेत् । तत्रापि तत्प्रतिपत्तावाकारान्तरपरिकल्पनमित्यनवस्था। निराकारेण चेद्बाह्यार्थस्य तथाभूतज्ञानेन प्रतिपत्तौ को विद्वेषः?
किञ्च, अस्य वादिनोऽर्थन संवित्तंर्घटनाऽन्यथानुपपत्तेः सन्नि१० कर्पः प्रमाणम् , अधिगतिः फलं स्यात् , तस्यास्तमन्तरेण प्रतिनि
यतार्थसम्बन्धित्वासम्भवात् । साकारसंवेदनस्य अखिलसमानार्थसाधारणत्वेन अनियताथैर्घटनप्रसङ्गात् निखिलसमानार्थानामेकवेदनापत्तिः, केनचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षासिद्धेः ।
तदुत्पत्तेरिन्द्रियादिना व्यभिचारानियामाकत्वायोगः। तदुत्पत्ते१५स्तादूप्याच्चार्थस्य वोधो नियामको नेन्द्रियादेविपर्ययादित्यप्यसाम्प्रतम् तद्वयलक्षणस्यापि सँमानार्थसमनन्तरप्रेत्ययेनानैकान्तिक
१७
' व्यवस्थापकत्वप्रकारेण । २ ज्ञानस्य । ३ भवदीयम् । ४ जैनः कृते। ५ परेण । ६ पूर्वपक्षे। ७ अर्थरूपता। ८ किञ्च। ९ निराकारेण । १० सौत्रान्तिकस्य । ११ ज्ञानस्य । १२ अर्थप्रमितिः। १३ किंच । ताद्रूप्यनिषेधं कुर्वन्ति । १४ अर्थाकारमधंदुत्पन्नमर्थाध्यवसायि ज्ञानं प्रमाणमिमानि विशेषणानि प्रत्येकं दूषयन्ति । १५ ईप । १६ अर्थ । १७ ताद्रूप्याभावात् । १८ प्रा(क)कृतशानस्य य एव नीलाद्यर्थों विषयः स एवोत्तरशानस्यति एकसन्तानवतित्वेन समानोऽर्थ एको नीलः । १९ ई । २० प्रथमक्षणे नीलमिदमिति शानमुत्पन्नं तच्च द्वितीयस्य जनकं तत्र ताद्रूप्यमस्ति तदुत्पत्तिज्ञानत्वेन समानमव्यवहितत्वेनानन्तरमिति। २१ सदृश । २२ प्राक्तनशानेन । २३ तदुत्पत्तेस्ताद्रूप्याच्च यद्यर्थस्य बोधो नियामकः तदा प्राक्तनज्ञानेनानेकान्तात् कथम् ? द्वितीयवोधस्य प्राक्तनबोधात्तदुत्पत्तिताद्रूप्यसद्भावेपि द्वितीयबोधेन पूर्वान्तरबोधस्य नियामकत्वायोगात् । शानं ज्ञानस्य न नियामकं ज्ञानस्य स्वप्रकाशकत्वात्।
1"साकारता विज्ञानस्य किं साकारेण प्रतीयते, आहोखिन्निराकारेण ?"
सन्मति० टी० पृ० ४६०। "तत्सारूप्यतदुत्पत्ती यदि संवेद्यलक्षणम् । तथा च स्यात्समानार्थविज्ञानं समनन्तरम् ॥"
प्रमाणवा० ३३३२३ ।
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सू० १।७] साकारज्ञानवादः त्वात् । कथं चार्थवदिन्द्रियाकारं नानुकुर्यादसौ तदुत्पत्तेरविशेपात् ? तदविशेषेप्यस्य कारणान्तरपरिहारेणार्थाकारानुकारित्वं पुत्रस्येव पित्राकारानुकरणमित्यदलङ्गतम् ; स्वोपादानमात्रानुकरणप्रसङ्गात् । विषयस्यालस्वनप्रत्ययतया खोपादानस्य च समनन्तरप्रत्ययतया प्रत्यासत्तिविशेषसट्टावात् उसयाकारानुकरणे-५ ऽर्थवदुपादानस्यापि विषयतापंत्तिरविशेषात् । तजन्मरूपाविशेषेप्रध्यवसायनियमात् प्रतिनियतार्थ नियामकत्वेऽर्थवडुपादानेप्यध्यवसायप्रलङ्गः, अन्यथोभयंत्राप्यसौ मा भूद्विशेषाभावातील तजन्मादित्रयसद्भावेप्यर्थप्रतिनियमः; कामलादुपहतचक्षुषः शुक्ले शङ्ख पीताकारज्ञानादुत्पन्नस्य तद्रूपस्य तदाकाराध्यवसायिनो १० विज्ञानस्य समनन्तरप्रत्यये प्रामाण्यप्रसङ्गात् । न चैववादिनो विज्ञानस्य स्वरूपे प्रमाणता घटते तत्र सारूप्याभावात् ।
किञ्च, ज्ञानगतान्नीलाद्याकारात् क्षणिकत्वाचौंकारः किं भिन्नः, अभिन्नो वा? भिन्नश्चेत् ; नीलाद्याकारस्याक्षणिकत्वप्रसङ्गस्तद्ध्यावृत्तिलक्षणत्वाचस्य । अथाभिन्नः; तर्हि ततोऽर्थस्य नीलत्वादि-१५
१ किञ्च ! तद्रूप्यनिषधं कुर्वन्ति । २ शानस्य । ३ अर्थलक्षणात्कारणादपरमिन्द्रियलक्षणम् । ४ बोधस्य । ५ कारण। ६ अव्यवहितकारण। ७ तदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्ध । ८ अर्थपूर्वज्ञाने। ९ तज्जन्मतद्रूपविशेषाभावात् । १० अर्थोपादानाभ्यामुत्पत्तरविशेषात् । ११ अर्थोपादानाभ्यां । १२ निश्चय । १३ बोधस्य । १४ अर्थोपादानयोः। १५ तज्जन्मरूप। १६ किञ्च इदानीं सह दूषयति । १७ अर्थात्तदुत्पत्त्यादि । १८ बोधस्य । १९ दोष । २० पुरुषस्य । २१ किञ्च । साकारत्वेन शानस्य प्रामाण्यवादिनः । २२ निरंशत्वादि । २३ अत्रानुमाने घटादिवद् दृष्टान्तः । २४ नीलाकाराज ज्ञानात् ।
1 "न केवलं विषयबलाद् दृष्टेरुत्पत्तिरपि तु चक्षुरादिशक्तेश्च । विषयाकारानुकरणाद्दर्शनस्य तत्र विषयः प्रतिभासते, न पुनः करणम् तदाकाराननुकरणादिति चेत्तर्हि; तदर्थवत्करणमनुकर्तुमर्हति, न चार्थ विशेषाभावात् । दर्शनस्य कारणान्तरसद्भावेऽपि विषयाकारानुकारित्वमेव सुतस्येव पित्राकारानुकरणमित्यपि वार्तम् ; स्वोपादानमात्रानुकरणप्रसङ्गात् । विषयस्यालम्बनप्रत्ययतया खोपादानस्य च समनन्तरप्रत्ययतया प्रत्यासत्तिविशेषाद् दर्शनस्य उभयाकारानुकरणेप्यनुज्ञायमाने रूपादिवदुपादानस्थापि विषयतापत्तिः, अतिशयाभावात् । वर्णादेर्वा तद्वदविषयत्वप्रसङ्गात् ।"
___ अष्टश०, अष्टसह ० पृ० ११८ । 2 "दर्शनस्य तज्जन्मरूपाविशेषेऽपि तदध्यवसायनियमाद् बहिरर्थविषयत्वमित्यसारम् ; वर्णादाविव उपादानेऽपि अध्यवसायप्रसङ्गात् ।"
अष्टश०, अष्टसह० पृ० ११८ । प्र० क० मा० १०
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११० प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० वत् क्षणिकत्वादेरपि प्रसिद्धस्तदर्थ मनुमानमनर्थकम् । तदसिद्धौ वा नीलत्वादेरप्यतः सिद्धिर्न स्यादविशेषात् । ननु चानेकस्वभावार्थाकारत्नेपि ज्ञानस्य यस्मिन्नेवांशे संस्कारपाटवान्निश्चयोत्पादकत्वं तत्रैव प्रामाण्यं नान्यत्रेति । नन्वसौ निश्चयः साकारः, ५निराकारो वा? साकारत्वे-तंत्रापि नीलाद्याँकारस्य क्षणिकत्वाद्याकारानेदाभेदपक्षयोः पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः । तत्रापि निश्चन्तिरकल्पनेऽनवस्था । अथ निराकारः; तर्हि निश्चयात्मना सर्वार्थेष्वविशिष्टस्य ज्ञानस्य 'अयमस्यार्थस्य निश्चयः' इति प्रतिकर्मनियमः
कुतः सिद्ध्येत् ? निराकारस्यापि कुतश्चिनिमित्तात् प्रतिकर्म२० सिद्धावन्यत्राप्यत एव तत्सिद्धेः किमाकॉरकल्पनयेति ?
नन्वस्तु निराकारत्वं विज्ञानस्य; न तु स्वसंविदितत्वं भूतपरिणामत्वादर्पणादिवदित्यययुक्तम् ; हेतोरसिद्धः । भूतपरिणामत्वे हि विज्ञानस्य वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गो दर्पणादिवत् । सूक्ष्म
भूतविशेषणपरिणामत्वान्न तत्प्रसङ्गः, इत्यप्यसङ्गतम् । स हि चैत१५ न्येने सजातीयः, विजातीयो वा तदुत्पादन(तदुणादान)हेतुः स्यात् ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता; सूक्ष्मो हि भूतविशेषोऽचेतनद्रव्यव्यावृत्तखभावो रुपादिरहितः सर्वदा वाह्येन्द्रियाविषयः
१ अर्थस्य । २ क्षणिकत्वादि । ३ सर्व क्षणिकं सत्त्वात् । ४ नीलाकारज्ञानात् । ५ अभिन्नत्वस्य । ६ यस्य शानस्य । ७ नीले । ८ विकल्प । ९ क्षणिकांशे । १० भो बौद्ध । ११ ज्ञानेनोत्पाद्यः। १२ साकारनिश्चयविषयेथे । १३ निश्चयगतस्य । १४ अक्षणिकत्वादि । १५ अभिन्नपक्षे । निश्चयगतनीलाद्याकारे । १६ नीलगतक्षणिकत्वनिश्चयपरिहारार्थम् । १७ ग्रन्थानवस्था । १८ निश्चयः। १९ स्वस्वरूपेण । २० साधारणस्य । २१ नीलस्य । २२ योग्यतातः। २३ निराकारज्ञानपक्षेपि । २४ किं प्रयोजनं न किमपि । २५ जैनं प्रति चार्वाको ब्रूते। २६ हेतोरसिद्धत्वमेव दर्शयन्ति । २७ ज्ञानस्य । २८ सूक्ष्मभूतविशेषः। २९ ज्ञानेन। ३० असाकं जैनानाम् । ३१ प्राणी । ३२ रसगन्धवर्णशब्दैश्च ।
"सूक्ष्मो भूतविशेषश्चेदुपादानं चितो मतम् । स एवात्मास्तु चिज्जातिसमन्वितवपुर्यदि ॥ ११०॥ तद्विजातिः कथन्नाम चिदुपादानकारणम् । भवतस्तेजसोऽम्भोवत् तथैवादृष्टकल्पना ॥ १११॥ .. . सत्त्वादिना समानत्वाच्चिदुपादानकल्पने ।
क्ष्मादीनामपि तत्केन निवार्येत परस्परम् ॥ ११२॥ सूक्ष्मभूतविशेषः चैतन्येन विजातीयः सजातीयो वा ?" .
तत्त्वार्थश्लो० पृ० २९ । न्यायकुमु० पृ० ३३८ ।
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सू० ११७] भूतचैतन्यवादः खसंवेदनप्रत्यक्षाधिगम्यः परलोकादिसम्बन्धित्वेनानुमेयश्च आत्मापरनामा विज्ञानोपादानहेतुरिति परैरभ्युपगमात् ।
तस्यातो विजातीयत्वे नोपादानभावः सर्वथा विजातीयस्योपादानत्वे वह्नर्जलाधुपादानभावप्रसङ्गात् तत्वचतुष्टयव्याघातः। सत्त्वादिना सजातीयत्वात्तस्योपादानभावपि अयमेव दोषः ।५ प्रमाणप्रसिद्धत्वाचात्मनस्तदुपादानत्वमेव विज्ञानत्योपपन्नम् । तथा हि-यद्यतोऽसाधारणलक्षणविशेषविशिष्टं तत्त्वतस्तत्वान्तरम्; यथा तेजसो वाय्वादिकम्, पृथिव्यावसाधारणलक्षयविशेषविशिष्टं च चैतन्य मिति । न चायमसिद्धो हेतुः; चैतन्यस्य जना(ज्ञान)दर्शनोपयोगलक्षणत्वात् , भूपयःपावकपवनानां धार-१०
रणद्रवोष्णतास्वभावानां तल्लक्षणाभावात् । न हि भूतानि ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणानि अस्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षत्वात् । यत्पुनस्तल्लक्षणं तन्नास्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षम् यथा चैतन्यम् , तथा च भूतानि, तस्मात्तथैवेति।
ननु ज्ञानाधुपयोगविशेषव्यतिरेकेणापरस्य तद्वतः प्रमाणतो-१५ ऽप्रतीतेः असिद्धमेवासाधारलक्षणविशेषविशिष्टत्वम् । तथाहि-न तावत्प्रत्यक्षेणासौ प्रतीयते । रूपादिवत्तत्स्वभावानवधारणात् । नाप्यनुमानेन; अस्य प्रामाण्याप्रसिद्धः। न च तद्भावावेदकं किञ्चिदनुमानमस्ति; इत्यसङ्गतम् ; प्रत्यक्षेणैवात्मनः प्रतीतेः 'सुख्यह
१ आदिपदेन पुण्यपाप । २ चिद्विवर्त्तत्वादित्यतः । ३ जैनः। ४ चैतन्यस्य । ५ अन्यथा । ६ प्रमेयत्ववस्तुत्वादि । ७ किञ्च। ८ स उपादानं यस्य तत् । ९ चैतन्यं धर्मी पृथिव्यादिभ्योऽर्थान्तरं भवतीति साध्यो धर्मः । ततोऽसाधारणलक्षणविशेषविशिष्टत्वात् । १० पृथिव्यादिभ्यः। ११ विसदृश । १२ पृथिव्यादिभ्यः । १३ भिन्नं । १४ का । १५ शानदर्शरूप एव उपयोगः। १६ अनेकसर्वशप्रत्यक्षेणास्मचैतन्येन व्यभिचारः। १७ अनेकप्रतिपत्तप्रत्यक्षत्वादित्युक्ते । १८ प्रत्यक्षत्वादित्युक्ते प्रत्यक्षेण। १९ असञ्चैतन्येन व्यभिचारः। २० दर्शन । २१ आत्मनः । २२ साधनम् । २३ इन्द्रियप्रत्यक्षेण । २४ किञ्च । २५ हेतुः।
1 "न हि भूतानि स्वसंवेदनलक्षणानि अस्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षत्वात् ।" ..
___अष्टसह० पृ० ६.४ । 2 "आत्मसद्भावे प्रमाणाभावात् ; तथाहि न प्रत्यक्षेणोपलभ्यते रूपादिवत्तत्व. भावानवधारणात् । नाप्यनुमानमस्त्यात्मप्रतिबद्धम् ।” प्रश० व्यो० पू० ३९१ ।
3 "अहमिति प्रत्यये तस्य प्रतिभासनात् , तथाच सुख्यहं दुःख्यहमिच्छावानहमिति प्रत्ययो दृष्टः ।"
प्रशं० व्यो० पृ० ३९१।
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११२
प्रमेयकमलमाण्डे
[ মাহি
दुःख्यहमिच्छावानहम्' इत्याद्यनुपचारिताहम्प्रत्ययस्यात्मग्राहिणः प्रतिप्राणि संवेदनादन चायं मिथ्याऽबाध्यमानत्वात् । नापि शरीरालस्वनः; वहिःकरण निरपेक्षान्तःकरणव्यापारणोत्पत्तेः । न हि शरीरं तथाभूतप्रत्ययवेद्यं बहिःकरणविषयत्वात् , तस्यानुप५ चरिताहस्प्रत्ययविषयत्वाभावाच्च । न हि स्थूलोऽहं कृशोहम्' इत्यायभिन्नाधिकरणतया प्रत्ययोऽनुपचरितः, अत्यन्तोपकारके मृत्ये 'अहमेवायम्' इति प्रत्ययस्याप्यनुपचरितत्वप्रसङ्गात् । प्रतिभासभेदो वाधकः अन्यत्रापि समान न हि वहलतमःपटलपटाव
गुण्ठितविग्रहस्य अहम्' इति प्रत्ययप्रतिभासे स्थूलत्वादिधर्मोपेतो १० विग्रहोपि प्रतिभासते । उपचारश्च निमित्तं विना न प्रवर्तते
इत्यात्मोपकारकत्वं निमित्तं कल्प्यते भृत्यवदेव । 'मदीयो भृत्यः' इतिप्रत्ययभेदद्वत् 'मदीयं शरीरम्' इति प्रत्ययभेदस्तु मुख्यः। यच्चोक्तम्-रूपादिवत्तत्स्वभावानवधारणात् तदयुक्तम् अहम्'
१ वहिःकरणनिरपेक्षान्तःकरणव्यापारादुत्पद्यमानप्रत्ययवेद्यम् । २ अभावोऽसिद्ध इत्युक्ते सत्याह। ३ इच्छावानहम् । ४ ईप् । ५ अनुकरणे। ६ देहः। ७ अन्यथा। ८ उपचारेण। ९ स्थूलोहमित्यादिप्रत्यये। १० आवृत । ११ पुरुषस्य । १२ स्थूलत्वादो। १३ स्थूलत्वादेः। १४ प्रयोजनम् । १५ शरीरस्य । १६ शाने। १७ शरीरस्य । १८ शान । १९ परेण। २० आत्म । २१ आत्मा। "स्वसंवेद्यः स भवति नासावन्येन शक्यते द्रष्टुम् , नासावन्येन शक्यते द्रष्टुं कथमसौ निर्दिश्येत...असौ पुरुषः स्वयमात्मानमुपलभते । न चान्यस्मै शनोत्युपदर्शयितुम् ।"
शावरभा० १।१५। "अहम्प्रत्ययविज्ञेयः स्वयमात्मोपपद्यते।" मीमांसाश्लो. आत्मवादश्लो० १०७ ।
"स्वसंवेदनतः सिद्धः सदात्मा बाधवर्जितात् ।।
तस्य क्ष्मादिविवर्त्तात्मन्यात्मन्यनुपपत्तितः ॥ ९६ ॥” तत्त्वार्थश्लो० पृ० २६ । शास्त्रवा० समु० श्लो० ७९ । न्यायकुमु० पृ० ३४३ ।
1"न शरीरालम्बनमन्तःकरणव्यापारेण उत्पत्तेः । तथाहि न शरीरमन्तःकरण. परिच्छेद्यं बहिर्विषयत्वात् ।"
प्रश० व्यो० पृ० ३९१ । 2 "नन्वेवं कृशोऽहं स्थूलोऽहमिति प्रत्ययस्तहि कथम् ? मुख्य बाधकोपपत्तेरुपचारेण । तथाहि-मदीयो भृत्य इति शानवन्मदीयं शरीरमिति भेदप्रत्ययदर्शनात भृत्यवदेव शरीरेऽप्यहमिति ज्ञानस्य औपचारिकत्वमेव युक्तम् । उपचारस्तु निमित्तं विना न प्रवर्तते इत्यात्मोपकारकत्वं निमित्तं कल्प्यते ।" प्रश० व्यो० पृ० ३९१ । न्यायकुमु० पृ० ३४९ । सन्मति० टी० पृ० ८६ ।
3 "अहमिति स्वभावस्य प्रतिभासनात् । नचार्थान्तरस्य अर्थान्तरस्वभावेनाप्रत्यक्षत्वं दोषः, सर्वपदार्थानामप्रत्यक्षताप्रसङ्गात् ।" प्रश० व्यो. पृ० ३९१ ।
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सू० ११७] भूतचैतन्यवादः इति तत्स्वभावस्य प्रतिभासनात् । न चार्थान्तरस्यार्थान्तरखमावेनाप्रत्यक्षत्वं दोषः, सर्वपदार्थानामप्रत्यक्षताप्रसंङ्गात्। अथात्मनः कर्तृत्वादेकस्मिन् काले कर्मत्वालम्सनायत्यक्षत्वम् ; तन्न: लक्षणभेदेन तदुपपत्तेः, सातव्यं हि कर्तृत्वलक्षणं तदैव च ज्ञानक्रियया व्याप्यत्वोपलब्धः कर्मत्वं चाविरुद्धम्, लक्ष्णाधीनत्वाद्वस्तु.५ व्यवस्थायाः
तथानुमानेनात्मा प्रतीयते । श्रोत्रादिकरणानि कर्तृप्रयोज्यानि करणत्वाद्वात्यादिवत् । न चौत्र श्रोत्रादिकरणानामसिद्धत्वम् । 'रूपरसगन्धस्पर्शशब्दोपलब्धिः करणकार्या क्रियात्वाच्छिदिक्रियावत्' इत्यनुमानात्तत्सिद्धेः । तथा शब्दादिज्ञानं क्वचिदा-१० थितं गुणत्वाद्रूपादिवत्' इत्यनुमानतोप्यसौ प्रतीयते । प्रामाण्यं चानुमानस्याने समर्थयिष्यते । शरीरेन्द्रियमनोविषयगुणत्वाद्विज्ञानस्य न तद्यतिरिक्ताश्रयाश्रितत्वम् , येनात्मसिद्धिः स्यादित्यपि मनोरथमात्रम्, विज्ञानस्य तहुणत्वासिद्धेः । तथाहि-न
१ आत्म । २ चैतन्यस्य । ३ रूपादिलक्षणादर्थादर्थान्तरमात्मा तस्य ! ४ आत्मलक्षणादर्थादर्थान्तरं घटादित्तस्य स्वभावो रूपादि स्तेन । ५ अन्यथा । ६ घटादीनां । ७ रूपरसादिरूपेण धर्मेण प्रत्यक्षवासम्भवात् । (१) ८ कर्तृकाले । ९ स्वतत्रः कतैति वचनात् । १० क्रियाव्याप्तं कमेति वचनात् । ११ असाधारणस्वरूपम् । १२ प्रत्यक्षप्रकारेण । १३ अर्थपरिच्छित्तौ। १४ छिदौ। १५ अनुमाने। १६ प्रत्यक्षानुमानप्रकारेण । १७ आत्मनि । १८ घटाद्यर्थे यथा । १९ आत्मा । २० अस्माभिजैनैः । २१ घटादि लगादि च । २२ केन ।
__1 "अथात्मनः कर्तत्वादेकस्मिन् काले कर्मत्वासंभवेनाप्रत्यक्षत्वम् ; तन्नः लक्षणभेदेन तदुपपत्तेः । तथाहि-ज्ञानचिकीर्षाधारत्वस्य कर्तृलक्षणस्योपपत्तेः कर्तृत्वम् , तदैव च क्रियया व्याप्यत्वोपलब्धेः कर्मत्वश्चेति न दोषः । लक्षणतन्त्रत्वादस्तुन्यवस्थायाः।"
प्रश० व्यो० पृ० ३९२ । 2"करणैः शब्दाग्रुपलब्ध्यनुमितैः श्रोत्रादिभिः समधिगमः क्रियते वास्यादीनां करणानां कर्तृप्रयोज्यत्वदर्शनात् । शब्दादिषु प्रसिध्या च प्रसाधकोऽनुमीयते ।"
प्रश० मा० पृ०६९। "श्रोत्रादीनि करणानि कर्तृप्रयोज्यानि करणत्वात् वास्यादिवत् ।"
__ प्रश० व्यो० पृ० ३९३ । न्यायकुमु० पृ० ३४९ । 3 "शब्दोपलब्धिः करणकार्या क्रियात्वात् छिदिक्रियावत् ।"
प्रश० व्यो० पृ० ३९३ । स्या० मं० का० १७। 4 "शब्दादिशानं कचिदाश्रितं गुणत्वात् ।"
प्रश० व्यो० पृ. ३९३ । न्यायकुमु० पृ० ३४९ ।
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११४
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० शरीरं चैतन्य गुणाश्रयो भूतविकारत्वाद् घटादिवत् । चैतन्यं वा शरीरविशेषगुप्यो भवति सति शरीरे निवर्तमानत्वात् । ये तु शरीरविशेषगुणा न ते तस्मिन्सति निवर्तन्ते यथा रूपादयः, सत्यपि तैसिन्निवर्त्तते च चैतन्यम् , तस्मान्न तद्विशेषगुणः । ५ तथा, नेन्द्रियाणि चैतन्यगुणवन्ति करणत्वाद्भूतविकारत्वाद्वा वास्यादिवत् । तहुणत्वे च चैतन्यस्येन्द्रियविनाशे प्रतीतिर्न स्याहुणिविनाशे गुणस्याप्रतीतेः। न चैवम् , तस्मान्न तहुणः । तथा च प्रयोगः-स्मरणादि चैतन्यमिन्द्रियगुणो न भवति तद्विनाशेप्युत्प
द्यमानत्वात् , यो यद्विनाशेप्युत्पद्यते स न तहणो यथा पटविना१० शेपि घटरूपादि, भवति चेन्द्रियविनाशेषि स्मरणादिकम् ,
तस्मान्न तहुणः। यदि चेन्द्रियगुणश्चैतन्यं स्यात्तर्हि करणं विना क्रियायाः प्रतीत्यभावात् करणान्तर्भवितव्यम् । तेषां च प्रत्येक
१ शरीरस्य । २ चैतन्यस्य। ३ शरीरे । ४ किञ्च । ५ सुखम् । ६ किञ्च । ७ गुणी। ८ गुणः। ९ जानातीति । १० चैतन्यलक्षणायाः ।
___1"न शरीरेन्द्रियमनसामशत्वात् । न शरीरस्य चैतन्यं घटादिवत् भूतकार्यत्वात् मृते चासंभवात् ।"
प्रश० भा० पृ० ६९ । ___ "शरीरं चैतन्यशून्यं भूतत्वात् कार्यत्वाच्च ।...चैतन्यं शरीरविशेषगुणो न भवति सति शरीरे निवर्तमानत्वात् ।” प्रश० व्यो० पृ० ३९४ । न्यायकुमु० पृ० ३४६ ।
"न शरीरगुणश्चेतना, कस्मात् ? 'यावच्छरीरभावित्वात् रूपादीनाम् ।' 'शरीर. व्यापत्वात्' 'शरीरगुणवैधात्' ।
न्यायसू० ३।२।४९,५२,५५। "न शरीरस्य ज्ञानादियोगः परिणामित्वात् , रूपादिमत्त्वात् , अनेकसमूहस्वभावत्वात् , सन्निवेशविशिष्टत्वात् ।"
न्यायमं० पृ० ४३९ । "देहधर्मवैलक्षण्यात्..."
ब्रह्मसू० शा० भा० ३॥३॥५४॥ 2 "नेन्द्रियाणां करणत्वात् उपहवेषु विषयासान्निध्ये चाऽनुस्मृतिदर्शनात् ।" ::
प्रश० भा० पृ० ६९।। "नेन्द्रियार्थयोः तद्विनाशेऽपि शानावस्थानात् ।" . . न्यायसू० ३।२।१८ ।
"नेन्द्रियाणां चैतन्यं करणत्वात् वास्यादिवत्, भूतत्वात् , कार्यत्वादित्यपि द्रष्टव्यम् । तदुपधातेऽपि स्मृतिदर्शनात् ।"
प्रश० व्यो० पृ० ३९४ । न्यायकुमु० पृ० ३४६ । ..3 "स्मरणामिन्द्रियगुणो न भवति यथा घटविनाशेऽपि पटरूपादिरिति । तथा च स्मरणमिन्द्रियविनाशेऽपि भवति तस्मान्न तद्गुण इति ।” प्रश० व्यो० पृ० ३९५ । , 4 "यदि चेन्द्रियाणां चैतन्यं स्यात् करणं विना क्रियायाश्चानुपलब्धेरिति करणान्तरैर्भवितव्यम् । तानि करणानि इन्द्रियाणि विवादास्पदानि चाहमान इत्ये. कस्मिन् शरीरे पुरुषबहुत्वमभ्युपगतं स्यात् ।": ,... प्रश० व्यो० पृ० ३९५ ।
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सू० ११७] भूतचैतन्यवादः
११५ चैतन्य गुणत्वे एकस्मिन्नेव शरीरे पुरुषवहुत्वप्रसङ्ग स्यात् । तथाच देवदत्तोपलव्धेऽर्थे यज्ञदत्तस्येवेन्द्रियान्तरोपलब्धे तस्मिन् न स्यादिन्द्रियान्तरेण प्रतिसन्धानम् । दृश्यते चैतत्ततो नेन्द्रियगुणश्चैतन्यम् । अथैकसेबेन्द्रियनशेषकरणाष्टिायकमिष्यतेऽतोयमदोषः; तर्हि संवादानमेव स्यादानन्द तथा नामान्तरकरणात्। ५
लादि चैतन्यगुणवन्मनः करणत्वाद्वास्यादिवत् । कर्तृत्वोपर्गमे तत्य चेतनत्य सँतो रूपाद्युपलव्धौ करणान्तरांपेक्षित्वे च प्रकारान्तरेणात्मैवोक्तः स्यात् । . नापि विषयगुणः; तदसान्निध्ये तद्विनाशे चानुस्मृत्यादिदर्श नात् । न च गुणिनोऽसान्निध्ये विनाशे वा गुणानां प्रतीतिर्युक्ता, १० गुणत्वविरोधानुषङ्गात् । ततः परिशेषाच्छरी दिव्यतिरिक्ताश्रयाश्रितं चैतन्य मियतो भवत्येवात्मसिद्धिः।
ततो निराकृतमेतत्-'शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञेभ्यः पृथिव्यादिभूतेभ्यश्चैतन्याभिव्यक्तिः, पिष्टोदकगुडधातक्यादिभ्यो मदशक्तिवत्। : ततोऽसाधारणलक्षणविशेषविशिष्टत्वेप्यतत्वा(तस्तत्त्वा)न्तरत्व. १५
१ चैतन्यं गुणो येषां तानि तत्वे । २ चक्षुषा दृष्टेऽर्थे श्रोत्रेण प्रतिसन्धानं न स्यात् । ३ प्रत्यभिज्ञानम् । ४ मनः। ५ प्रेरकम् । ६ परेण । ७ विद्यमानस्य । ८ मनः। ९ चक्षुरादि। १० चैतन्यं । ११ सुखादि । १२ अन्यथा । १३ गुणिनोऽमी गुणा इति । १४ इन्द्रियमनोविषय । १५ आत्म । १६ गुणत्वादिसाधनात् । १७ जायते। १८ तेभ्यश्चैतन्यस्याभिव्यक्तिर्यतः । १९ ज्ञानदर्शनोपयोगरूप। २० चैतन्यस्य । .
- 1 “यदि चैकमिन्द्रियमशेषकरणाधिष्ठायकं चेतनमिष्येत; संशाभेदमात्रमेव स्यात् ।"
प्रश० व्यो० पृ० ३९५। 1 2 "नापि मनसः कारणान्तरानपेक्षित्वे युगपदालोचनस्मृतिप्रसङ्गात् , खयं करणभावाच्च ।"
प्रश० मा० पृ० ६९ । "नापि मनोगुणः करणत्वात् वास्यादिवत् ।" ।
प्रश० व्यो० पृ० ३९५ । न्यायकुमु० पृ०.३४७ । "युगपज्ज्ञेयानुपलब्धेश्च न मनसः।" . न्यायसू०.३।२।१९ ।
3 "अत- एव विषयस्यापि न चैतन्यम् ।" प्रश० कन्दली पृ० ७२ ॥ .. "विषयासान्निध्ये तद्विनाशे चानुस्मृतिर्दृष्टा । न तत् गुणतद्विनाशे भवतीति ।" ;
..', प्रश० व्यो० पृ० ३९५ । न्यायकुमु० पृ० ३४७ । . .4 "इत्याह-मदशक्तिवद्विशानम् । यथैव हि मद्याङ्गानां किण्वादीनां देशकालावस्थाविशेषे मदशक्तिलक्षणावस्थाविशेषः प्रादुर्भवति एवं पृथिव्यादीनां तद्विशेषे. प्रतिनियतघटादिग्राहकं ज्ञानमिति ।" . . न्यायकुमु० पृ. ३४२॥
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११६ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० मेव । “पृथिव्य(व्या)पत्तेजोवायुरिति तत्वानि, तत्समुदये शरीरेन्द्रियाविषयसंशाः देयश्चैतन्यम्" [ ] इत्यत्र 'अभिव्यक्तिनुपाति' इति क्रियाध्याहौरादतःसन्दिग्धाविपक्षव्यावृत्तिको हेतुरिति; शब्दसामान्याभिव्यक्तिनिषेधेनास्य चैतन्याभिव्यक्तिवादस्य विरोधाच्च । - 'किंच, सतोऽभिव्यक्तिश्चैतन्यस्य, असतो वा स्यात् , सदसद्पस्य वा? प्रथमकल्पनायाम् तस्यानाद्यनन्तत्वसिद्धिः, सर्वदा सतोऽभिव्यक्तेस्तामन्तरेणानुपपत्तेः । पृथिव्यादिसामान्यवत् ।
तथा च "परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावः" [ ] १० इत्यपरीक्षिताभिधानम् । प्रागसतश्चैतन्यस्याभिव्यक्ती प्रतीतिविरोधः, सर्वथाप्यसतः कस्यचिदभिव्यत्यप्रतीतेः। न चैववादिनो व्यञ्जककारकयोभैदैः; 'प्राक्सतः स्वरूपसंस्कारकं हि व्यञ्जकम्, असतः स्वरूपनिर्वर्तकं कारकम्' इत्येवं तयोर्भेदप्रसिद्धिः । कथञ्चित्सतोऽसतश्चाभिव्यक्तौ परमतप्रवेशः-कथञ्चिद्रव्यतः सतश्चै१५ तन्यस्य पर्यायतोऽसतश्च कायाकारपरिणतः पृथिव्यादिपुद्गलैः
१ सूत्रे। २ चैतन्यस्याभिव्यक्तिः । ३ बसः। ४ असाधारणलक्षणविशेषविशिष्टत्वादिति। ५ आकाशात्तद्विलक्षणशब्दोत्पत्ति योगाभितां निराकुर्वतश्चार्वाकस्य भूतेभ्यस्तद्विलक्षणचैतन्योत्पत्तिकथनमयुक्तं स्ववचनविरोधादित्यभिप्रायः। ६ अग्रे । ७ यथा घटानां प्रदीपाघभिव्यञ्जकव्यापारात्पूर्व सद्भावग्राहकं प्रमाणमस्ति तथा ताल्लादिव्यापारात्पूर्व शब्दादिसद्भावग्राहकप्रमाणाभावात्कथमभिव्यञ्जकव्यापाराच्छन्दादीनामभिव्यक्तिरिति चार्वाकेण शब्दाद्यभिव्यक्तिपक्षे मीमांसकं प्रत्युद्भाव्यमानेन दूषणेन चैतन्याभिव्यक्तिपक्षस्यापि निराकृतत्वात् । कथम् ? अभिव्यक्ताच्चैतन्यात्पूर्वमनभिव्यक्तनित्यचैतन्यसद्भावग्राहकप्रमाणभावादिति । ८ किञ्च । ९ पृथिवीत्वादि । १० अनाद्यनन्तात्मसिद्धौ । ११ सत्याम् । १२ खरविषाणादिवत् । १३ किञ्च । १४ मा भूत् । १५ व्यङ्ग्यस्य । १६ जैन । १७ नरनारकादि ।
1 इदं वाक्यं तत्त्वोपप्लव पृ० १, भामती ३।३।५४, तत्त्वसं पं० पृ० ५२०, तत्त्वार्थ श्लो० पृ० २८, न्यायकुमु० पृ० ३४१ इत्यादिषु उद्धृतं वर्त्तते ।
2 "तथाहि-पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति चत्वारि तत्त्वानि । तेभ्यश्चैतन्यमिति । अत्र केचिद्वत्तिकारा व्याचक्षते-'उत्पद्यते तेभ्यश्चैतन्यम्' इति । अन्ये 'अभिव्यज्यते' इत्याहुः।"
तत्त्वसं० पं० पृ० ५२० । 3 "चैतन्यशक्ति सतीमेव, प्रागसतीमेव, सदसती वा अभिव्यञ्जयेयुः।" ।
युक्त्यनुशा० टी० पृ० ७५ । न्यायकुमु० पृ० ३४५ । 4 इदं वाक्यं तत्त्वोपप्लव० पृ० ५८, तत्त्वसं० पं० पृ० ५२३, न्यायकुमु० पृ० ३४३, सन्मति० टी० पू० ७१ इत्यादिघु उद्धृतं वर्तते ।
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सू० ११७] भूतचैतन्यवादः परैरप्यभिव्यक्तेरभीष्टत्वात् पृथिव्यादिभूतचतुष्टयवत् । नन्वेवं पिष्टोदकादिभ्यो मदशत्यभिव्यक्तिरपि न स्यात् तत्राप्युक्तविकल्पानां समानत्वादित्यप्यसाम्प्रतम् । तत्रापि द्रव्यरूपतया प्राक्सत्त्वाभ्युपगमात्, सकलभावानां तद्रूपेणानाद्यनन्तत्वात् ।
शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञेभ्यश्चैतन्यस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् 'तेभ्यश्चै-५ तम्' इत्यत्र 'उत्पद्यते' इति क्रियाध्याहारान्नाभिव्यक्तिपक्षभावी दोपोऽवकाशं लभते इत्यन्यः । सोपि चैतन्यं प्रत्युपादानकारणत्वम् , सहकारिकारणत्वं वा भूतानाम् इति पृष्टः स्पटमाचष्टाम् ? न तावदुपादानकारणत्वं तेपाम् ; चैतन्ये भूतान्वयप्रसङ्गात् , सुवर्णोपादाने किरीटादौ सुर्वर्णान्वयवत् , पृथिव्याधुपादाने १० काये पृथिव्याद्यन्वयवद्वा । न चात्रैवम् ; न हि भूतसमुदयः पूर्वमचेतनाकारं परित्यज्य चेतनाकारमाददा(धा)नो धारणेरणद्रवोष्णतालक्षणेन रूपादिमत्त्वस्वभावेन वा भूतस्वभावेनान्वितः प्रेमाणप्रतिपन्नः, चैतन्यस्य धारणादिखभावरहितस्यान्तःसंवेदनेनानुभवात् । न च प्रदीपाँधुपादानेन कजलादिना प्रदीपाद्यनन्वितेन १५ व्यभिचारः; रूपादिमत्त्वमात्रेणात्राप्यन्वयदर्शनात् । पुद्गलविकाराणां रूपादिमत्वमात्राव्यभिचारात् । भूतचैतन्ययोरप्येवं सत्वादिक्रियाकारित्वादिधर्फ़रन्दयसद्भावात् उपादानोपादेयभावः स्यादित्यप्यसमीचीनम् ; जलानलादीनामप्यन्योन्यमुपादानोपादेयभावप्रसङ्गात् , तद्धमैस्तत्राप्यन्वयसद्भावाविशेषात् । .. किञ्च, 'प्राणिनामाद्यं चैतन्यं चैतन्योपादानकीरणकं चिद्विवर्त्त
१ जैनैः । २ यथा पृथिव्यादिभूतचतुष्टयस्य पुद्गलरूपेण सतः घटादिपर्यायरूपेणासतश्चक्रादिकारणादाविर्भावस्तथा प्रकृतस्यापि । ३ चैतन्याभिव्यक्तिनिषेधप्रकारेण । ४ मदशक्तौ । ५ सूत्रे। ६ अविद्धकर्णश्चार्वाकविशेषः। ७ जैनैः । ८ अन्यथा । ९ चैतन्यं भूतान्वयि तदुपादानत्वात् । यद्यदुपादानं तत्तदन्वयि यथा मृद्रूपोपादानको घटः। १० पीतत्वभासुरत्व । ११ धारणादि । १२ उपसंहारः। १३ प्रत्यक्ष । १४ प्रदीपादि उपादानं यस्य । १५ कज्जले प्रदीपरूपादिमत्त्वमात्रान्वयप्रकारेण । १६ जलानलादयः परस्परमुपादानोपादेयभाववन्तः सत्त्वादिधर्फरन्वितत्वात्तद्वतचैतन्यवत् । १७ चैतन्यं धमि भूतोऽन्वयि भवतीति साध्यो धर्मः । तदुपादानत्वाद् यथा मृदुपादानको घटो मृदन्वयी। १८ तज्जन्मापेक्षया । १९ पूर्वजन्मचैतन्य । २० बसः । २१ पूर्वचित् । २२ प्रमेय । (पर्याय ) 1 "भूतानि किमुपादानकारणं चैतन्यस्य सहकारिकारणं वा ?" तत्त्वसं० पं० पृ० ५२६ । युक्त्यानु० टी० पृ० ७८ । न्यायकुमु० पृ० ३४४ । 2 "प्राणिनामायं चैतन्यं चैतन्योपादानकारणकं चिद्विवर्त्तत्वात् मध्यचैतन्यविवर्त्तवत् । तथा अन्त्यचैतन्यपरिणामः चैतन्यकार्यः तत एव तद्वत् ।" अष्टसह० पृ० ६३॥
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० स्वान्मध्यचिद्विवर्तवत् । तथान्त्यचैतन्यपरिणामश्चैतन्यकार्यस्तत एव तद्वत्' इत्यनुमानात्तस्य चैतन्यान्तरोपादानपूर्वकत्वासिद्धेर्न भूतानां चैतन्यं प्रत्युपादानकारणत्वकल्पना घटते । सहकारिकारणत्वेकल्पनायां तु उपादानमन्यद्वाच्यम् , अनुपादानस्य कस्यचि५त्कार्यस्यानुपलब्धेःशब्दविद्युदादेरनुपादानस्याप्युपलब्धेरदोषोयमित्यप्यपरीक्षिताभिधानम् ; 'शब्दादिः सोपादानकारणका कार्यत्वात् पटादिवत्' इत्यनुमानात्तत्सादृश्योपादानस्यापि सोपादानत्वसिद्धेः।
गोमयादेरचेतनाञ्चेतनस्य वृश्चिकादेरुत्पत्तिप्रतीतिः तेनाने१० कान्तः इत्ययुक्तम् ; तस्य पक्षान्तर्भूतत्वात् । वृश्चिकादिशरीरं
ह्यचेतनं गोमयादेः प्रादुर्भवति न पुनवृश्चिकादिचैतन्यवि. वर्त्तस्तस्य पूर्वचैतन्य विवर्तीदेवोत्पत्तिप्रतिज्ञानात् । अथ यथायः पथिकाग्निः अरणिनिमन्थोत्थोऽनग्निपूर्वकः अन्यस्त्वग्निपूर्वकः
तथा चैतन्यं कायाकारपरिणतभूतेभ्यो भविष्यत्यन्यत्तु चैतन्य१५पूर्वकं विरोधाभावादित्यपि मनोरथमात्रम् प्रथमपथिकानेरनन्युपादानत्वे जलादीनामप्यजलाद्युपादानत्वापत्तेः पृथिव्यादिभूतचतुटयस्य तत्त्वान्तरभावविरोधः । येषां हि परस्परमुपादानोपादेय. भावस्तेषां न तत्त्वान्तरत्वम् यथा क्षितिविवर्तानाम् , परस्परमुपादानोपादेयभावश्च पृथिव्यादीनामित्येकमेव पुद्गलतत्त्वं मित्या
१ जन्मप्रभृतिमरणपर्यन्त । २ यसः ( कर्मधारयसमासः )। ३ पर्यायः । '४ बसः । ५ भूतानाम् । ६ कारणम् । ७ परेण । ८ वृश्चिकचैतन्येन । ९ वृश्चिकचैतन्यस्य । १० यसः। ११ सन्दिग्धानकान्तिकत्वम् । १२ चुल्लीस्थः। १३ मध्यचैतन्यम् । १४ कार्यत्वादिहेतोः । १५ काष्ठ । १६ पृथिव्यादयो धर्मिणस्तत्त्वान्तरत्वं न प्राप्नुवन्तीति साध्यं परस्परमुपादानोपादेयभाववत्त्वात् । १७ सलिलदहनपवन ।
"नापि ते कारका वित्तः भवन्ति सहकारिणः । खोपादानविहीनायास्तस्यास्तेभ्योऽप्रसूतितः ॥ २०७॥ नोपादानाद्विना शब्दविद्युदादिः प्रवर्तते । कार्यत्वात् कुम्भवत्... ॥ २०८॥ तत्त्वार्थश्लो० पृ० २८ ।
न्यायकुमु० पृ० ३४४ । 2 "गोमयादेरचेतनामचेतनस्य वृश्चिकादेरुत्पत्तिदर्शनात्तेन व्यभिचारी हेतुरिति चेन्न; तस्यापि पक्षीकरणात् । वृश्चिकादिशरीरस्याचेतनस्यैव तेन सम्मूर्च्छनं न पुनः वृश्चिकादिचैतन्यविवर्तस्य, तस्य पूर्वचैतन्यविवर्त्तादेव उत्पत्तिप्रतिशानात् ।"
' अष्टसह पृ० ६३ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २९ । .. 3 "प्रथमपथिकाभेरनम्न्युपादानत्वे जलादीनामप्यजलाधुपादानत्वोपपत्तेः पृथिव्यादिभूतचतुष्टयस्य तत्त्वान्तरभावविरोधः।" . . ' अष्टसह ० पृ० ६३ ।
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सू० ११७] भूतचैतन्यवादः दिविवर्तमवतिष्ठेत सहकारिभावोपैगमे तु तेषों चैतन्यपि सोऽस्तु । यथैव हि प्रथमाविर्भूतपावकादेस्तिरोहितपावान्तरादिपूर्वकत्वं तथा गर्भचैतन्यत्मानिर्भूतस्वभावस्य तिरोहितचैतन्यपूर्वकत्वमिति।
न चानाद्येकानुभवितव्यतिरेकेगेष्टानिष्टविषये प्रत्यभिज्ञानाभि-५ लापादयो जन्मादौ युज्यन्ते; तेषामभ्यासपूर्वकत्वात् । न च मात्रुदरस्थितस्य चहिर्विषयादर्शनेऽभ्यासो युक्तः, अतिप्रसङ्गात् । न चावलग्नावस्थायामभ्यासपूर्वकत्वेन प्रतिपन्नानामप्यनुसन्धानादीनां जन्मादीवतत्पूर्वकत्वं युक्तम् । अन्यथा धूमोऽग्निपूर्वको दृष्टोप्यनग्निपूर्वकः स्यात् । मातापित्रभ्यासपूर्वकत्वात्तेषामदोषो-१० यमित्यप्यसम्भाव्यम् ; सन्तानान्तराभ्यासादन्यत्र प्रत्यभिज्ञानेऽतिप्रसङ्गात् । तदुपलब्धे 'सर्व मैयैवोपलब्धमेतत्' इत्यनुसन्धानं चौखिलापत्यानां स्यात् । परस्परं वा तेषां प्रत्यभिज्ञानप्रसङ्गः स्यात् , एकसैंन्तानोद्भूतदर्शनस्पर्शनप्रत्ययवत् । ___ 'ज्ञानेनाहं घटादिकं जानामि' इत्यहम्प्रत्ययप्रसिद्धत्वाचात्मनो १५ नापलापो युक्तः। अत्र हि यथा कर्मतया विषयस्यावभासस्तथा कर्तृतयात्मनोनिन चौत्र देहेन्द्रियादीनां कर्तृता; घटादिवत्तेषामाथि कर्मतयाऽवभासनात्, तदप्रतिभासनेप्यहम्प्रत्ययस्यानुभवात् । न हि बहलतमःपटलपटावगुण्ठितविग्रॅहस्योपरतेन्द्रिय
१ बसः। २ परेण । ३ अग्नि प्रत्यरणिरूपपृथ्व्यादीनाम् । ४ दधि । ५ शक्तिरूपस्थित । ६ उपादान। ७ शक्तिरूपस्थित । ८ उपादान । ९ किञ्च। १० आत्म । ११ संस्कार । १२ वालकस्य । १३ त्रिविप्रकृष्टेप्यर्थेऽभ्यासो भवत्वदर्शनाविशेषात् । १४ मध्यमावस्थायां । १५ प्रत्यभिज्ञानादीनाम् । १६ अनभ्यास। १७ अपत्यस्य । १८ मातापितृलक्षण । १९ अपत्ये । २० वस्तुनि । २१ अपत्येन । २२ किञ्च । २३ एकापत्येन दृष्टेऽथे द्वितीयापत्यस्य प्रत्यभिज्ञानप्रसङ्गः स्यात् । २४ आत्मलक्षण । २५. किञ्च । २६ निवः। २७ ज्ञानेनाहं घटादिकं जानामीति प्रत्यये । २८ ज्ञानेनाहं घटादिकं जानामीति प्रत्यये। २९ देहेन्द्रियादिकं जानामि । ३० नरस्य ।
1 "पूर्वानुभूतस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्य हर्षभयशोकसम्प्रतिपत्तेः ।" .
न्यायसू० ३।१।१९ । न्यायमं० पृ० ४७० । "जातिस्मराणां संवादादपि संस्कारसंस्थितः।। . अन्यथा कल्पयंलोकमतिकामति केवलम् ।।
नाऽस्मृतेऽभिलाषोऽस्ति न विना सापि दर्शनात् । ...... . तद्धि जन्मान्तरान्नायं जातमात्रेऽपि लक्ष्यते ॥"
. न्यायविनि० २१७९,८० । न्यायकुमु० पृ० ३४७ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० व्यापारस्य गौरस्थौल्यादिधर्मायेतं शरीरं प्रतिभासते। अहम्प्रत्ययः स्वसंविदितः पुनस्तस्यानुभूयमानो देहेन्द्रियाविषयादिव्यतिरितार्थालस्बनः सिद्धतीति प्रमाणप्रसिद्धोऽनादिनिधनो द्रव्यान्तरमात्मा प्रयोगः-अनाद्यनन्त आत्मा द्रव्यत्वात्पृथिव्यादिवत् । ५न तावदाश्रयासिद्धोयं हेतुः; आत्मनोऽहम्प्रत्ययप्रसिद्धत्वात् । नायि स्वरूपासिद्धः; द्रव्यलक्षणोपलक्षितत्वात् । तथाहि-द्रव्य. मात्मा गुणपर्ययवत्त्वात्पृथिव्यादिवत् । न चायमप्यासिद्धो हेतुः; ज्ञानदर्शनादिगुणानां सुखदुःखहर्षविपादादिपर्यायाणां च तंत्र
सद्भावात् । न च घटादिनानेकान्तस्तस्य मृदादिपर्ययत्वात् । १० ननु शरीररहितस्यात्मनः प्रतिभाले ततोऽज्योऽनादिनिधनो.
ऽसाविति स्यात् जलरहितत्यानलस्येव, न चैवम् , आसंसारं तत्सहितस्यैवास्यावभासनात् । तंत्र शरीररहितस्य' इति कोऽर्थः ? किं तत्स्वभावविकलस्य, आहोस्वित्तद्देशपरिहारेण देशान्तरावस्थितस्येति ? तत्राद्यपक्षेऽस्त्येव तद्रहितस्यास्य प्रतिभासः१५ रूपादिमदचेतनस्वभावशरीरविलक्षणतया अमूर्तचैतन्यस्वभावतया चात्मनोऽध्यक्षगोचरत्वेनोक्तत्वात् । द्वितीयपक्षे तु-शरीरदेशादन्यत्रीनुपलम्भात्तत्र तदभावः, शरीरप्रदेश एव वा ? प्रथमविकल्पे-सिद्धसाधनम् । तत्र तदभावाभ्युपगमात् । न खलु नैयायिकवज्जैनेनापि खदेहादन्यत्रात्मेष्यते । द्वितीयविकल्पे तु२० न केवलमात्मनोऽभावोऽपि तु घटादेरपि । न हि सोपि स्वदेशादन्यत्रोपलभ्यते।
किञ्च, स्वशरीरादात्मनोऽन्यत्वाभावः तत्स्वभौवत्वात् , तहुणत्वात् वा स्यात् , तत्कार्यत्वाद्वा प्रकारान्तरासम्भवात् । पक्षत्रयेपि प्रागेव दत्तमुत्तरम् । ततश्चैतन्यस्वभावस्यात्मनः प्रमाणतः प्रसिद्ध
१ पश्चात् । २ मनः। ३ आत्मा । ४ अनादिनिधनस्य। ५ आत्मनि । ६ द्रव्यत्वादिति हेतोः। ७ सति । ८ परिहारमाह । ९ उक्त ग्रन्थे । १० प्रतिभासाभावः। ११ प्रतिभासाभावः। १२ देशे। १३ जीवस्य । १४ ता। १५ जैनैः। १६ तत्स्वभावस्य यद्यतोऽसाधारणलक्षणविशेषविशिष्टं तत्ततस्तत्वान्तरमित्यादिना निरस्तत्वात् । १७ जैनैः ।
"द्रव्यतोऽनादिपर्यन्तः सत्त्वात् क्षित्यादितत्त्ववत् । स स्यान्न व्यभिचारोऽत्र हेतो शिन्यसंभवात् ॥ १४० ॥"
तत्त्वार्थ श्लो० पृ० ३२। 2 "शरीररहितस्येति कोऽर्थः-किं तत्स्वभावविकलस्य आहो तद्देशपरिहारेण देशा• न्तरावस्थितस्येति ।"
स्या० रत्ना० पृ० १०८० ।
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सू० ११८,९] वसंवेदनज्ञानवादः स्तत्वभावमेव ज्ञानं युक्तम् । तथा च खव्यवसायात्मकं तत् चेतनात्मपरिणामत्वात् , यत्तु न खव्यवसायात्मकं न तत्तथा यथा घटादि, तथा च ज्ञान्तमात्सदवसायामकमित्यभ्युपगन्तव्यम्।
ननु विज्ञानस्य प्रत्यक्षतरेऽर्थवत्कसतावते करणात्मनो ज्ञानान्तरस्य परिकल्पना स्यात् । तस्यापि प्रत्यक्षदे चूर्ववर्कर्मतापत्तेः५ कर गात्मकं शालान्तरं परिकल्पनीयमित्यनवस्था स्यात् । तस्याप्रत्यक्षोणि करणत्वे प्रथमे कोऽपरितोषो येनास्य लथा करणत्वं नेष्यते । न चैकस्यैव ज्ञानस्य परस्परविरुद्धकर्मकरणाकालाम्पुरगमो युक्तोऽन्यत्र तथाऽदर्शनादित्याशङ्ग्य प्रमेयवत्प्रमादृप्रमाण. प्रमितीनां प्रतीतिसिद्धं प्रत्यक्षत्वं प्रदर्शयन्नाह
घटमहमात्मना वेझीति ॥ ८॥ कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥ ९ ॥ ने हि कर्मत्वं प्रत्यक्षतां प्रत्यङ्गमात्मनोऽप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् तद्वत्तस्यापि कर्मत्वेनाप्रतीतेः। तदप्रतीतावपि कर्तृत्वेनास्य प्रतीतेः प्रत्यक्षत्वे ज्ञानस्यामि करणत्वेन्द्र प्रतीतेः प्रत्यक्षतास्तु विशेषा-१५ आवात् ! अथ करणत्वेन प्रतीयमानं झानं करणमेव न प्रत्यक्षम् ; तदन्यत्रापि समानम् । किञ्च, आत्मनः प्रत्यक्षत्वे परोक्षज्ञानकल्पनया कि सोध्यम् ? तस्यैव स्वरूपवद्वाह्यार्थग्राहकत्वप्रसिद्धः? कतः करणमन्तरेण क्रियायां व्यापारासम्भवात्करणभूतपरोक्ष
१ वसः। २ चार्वाकेण भवता । ३ मीमांसकः । ४ विज्ञानं कर्म-प्रत्यक्षत्वात् , घटवत् । ५ करणस्वरूपस्य । ६ पूर्वज्ञानस्य यथा । ७ प्रथमशानस्य । ८ अप्रत्यक्षत्वे। ९ जैनैः । १० यत्कर्म तदेव करणम् । ११ घटे। १२ अर्थस्य यथा। १३ करणभूतेन । १४ अन्यथा। १५ आत्मा न प्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात्करणशानवत् । १६ यत् कर्म न भवति तत्प्रत्यक्षमपि न भवतीत्युक्ते। १७ करणशानवत् । २८ उभयत्र कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वस्य । १९ समाधानपरिहारम् । २० कर्तृत्वेनात्मा प्रतीयमानः कतैव स्थान प्रत्यक्ष इति समानम् । २१ प्रयोजनम् । २२ प्रमितिलक्षणायां।
1 "कर्मत्वेनाप्रतिभासमानत्वात् करणशनमप्रत्यक्षमिति चेन; करणत्वेन प्रतिभास. मानस्य प्रत्यक्षत्वोपपत्तेः । कथञ्चित् प्रतिभासते, कर्म च न भवति इति व्याघातस्य प्रतिपादितत्वात् ।" तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४६ । न्यायकुमु० पृ० १७६ । प्रमाणप० पृ०६१।
2 "अथ करणत्वेनानुभूयमानं शानं करणमेव स्यान्न प्रत्यक्षं तहिं कर्तृप्रमाणफलरूपतया अनुभूयमानयोः आत्मप्रमाणफलयोः कर्वप्रमाणकलरूपतैव स्यात् न प्रत्यक्षत्वमित्यप्यस्तु ।"
स्था० रखा० पृ० २१३ । प्र. क. मा० ११
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__ प्रमेयकमलनाण्डे प्रथमपरि० ज्ञानकल्पना वावर्थिकल्याच्या सालीयःसनसश्चक्षुरादेश्चान्तर्वहित करणस्य लक्षावात् ततोऽस्य विशेषाभोवाच्छ। अनयोरचेतनत्वाप्रधान मोटर्न करणमित्यप्यसमीचीनम् ; आवेन्द्रियमनासोश्चेतनत्वात् । तत्परोक्षत्वसाधने च सिद्धसाधनम् ; स्वार्थग्रहण५शक्तिलक्षणायाँ लब्धेर्मनसश्च भावकरणस्य छद्मस्थाप्रत्यक्षत्वात् ।
उज्योगलक्षणं तु भावकरणं नाप्रत्यक्षम् ; स्वार्थग्रहणव्यापारलक्षणस्यास्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात् 'घंटादिद्वारेण घटादिग्रहणे उपयुक्तोऽप्यहं घटं न पश्यामि पदार्थान्तरं तु पश्यामि'
इत्युपयोगस्वरूपसंवेदनस्याखिलजनानां सुप्रसिद्धत्वात्। क्रियायाः १० करणाविनाभावित्वे चात्मनः स्वसंवित्तौ किङ्करणं स्यात् ? खात्मै
वेति चेत्, अर्थवि स एवास्तु किमदृष्टान्यकल्पनया? ततश्चक्षु. रादिभ्यो विशेषमिच्छता ज्ञानस्य कर्मत्वेनाप्रतीतावप्यध्यक्षत्वसभ्युपगन्तव्यम् । फलज्ञानात्मनोः फलत्वेन कर्तृत्वेन चानुभूय
मानयोः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे करणज्ञाने करणत्वेनानुभूयमानेपि १५ सोस्तु विशेषाभावात् । न चाभ्यां सर्वथा करणज्ञानस्य भेदो
१ परोक्षशानस्य । २ परोक्षत्वेन । ३ उभयत्र । ४ मुख्यम् । ५ कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वाद्धेतोः। ६ वाह्येन्द्रियाश्रितायाः। ७ अर्थग्रहणशक्तेः । ८ अस्मदादि। ९ अर्धग्रहणव्यापारः। १० तदेव दर्शयति। ११ व्याप्रियमाणः। १२ किञ्च । १३ स्वस्वरूपम्। १४ करण। १५ भेदम्। १६ परेण। १७ करणरूपस्य। १८ अर्थ. परिच्छित्ति। १९ ताद्विः (तासंज्ञा षष्ठयाः। द्विःपदेन द्विवचनं ग्राह्यम् ) । २० परेण। २१ करणज्ञानं प्रत्यक्षमेव स्वस्वरूपेण प्रतिभासमानत्वात्फलशानात्मवत् । २२ स्वरूपेण प्रतिभासाविशेषात् । २३ किञ्च । २४ का (पञ्चमी विभक्तिः)। २५ अन्यथा । ___ 1 "इन्द्रियमनसोरेव करणत्वात् , तयोरचेतनत्वादुपकरणमात्रत्वात् प्रधान चेतनं करणमिति चेन्न; भावेन्द्रियमनसोः परेषां चेतनतयाऽवस्थितत्वात् ।” तत्त्वार्थसो० पृ० ४६ । “मनसश्चक्षुरादेश्चान्तर्बहिःकरणस्य सद्भावात् , ताभ्यां शानस्य परोक्षत्वेन विशेषाभावाच्च । अथ मनश्चक्षुरादिकायादेरचेतनत्वात् शानाख्यं करणं चेतनत्वेन ताभ्यां विशिष्यत इत्युच्यते; तदप्यनुपपन्नम् ; भावरूपयोरिन्द्रियमनसोरपि चेतनत्वात्"""
स्था० रत्ना० पृ० २१४ । 2 "अर्थग्रहणशक्तिः लब्धिः, उपयोगः पुनरर्थग्रहणव्यापारः।"
___ लघी० स्ववि०, न्यायकुमु० पृ० ११५ । 3 “चक्षुरादिद्वारेणोपयुक्तोऽहं घटं पश्यामीत्युपयोगस्वरूपसंवेदनस्य सर्वेषामपि प्रसिद्धत्वात् ।"
स्या० रता० पृ० २१४ । 4 "तदेव तस्य फलमिति चेत् ; प्रमाणादभिन्न भिन्नं वा ?.. कथञ्चिदभिन्नमिति चेन्न सर्वथा करणशानस्याप्रत्यक्षत्वं विरोधात् ।" तत्त्वार्थश्लो. पृ० ४६ । । "किंच, आत्मप्रमाणफलाम्यां सकाशात् करणशानस्य सर्वथा भेदः, कथञ्चिद्वा ?
स्था० रत्ना० पृ०२१४ ।
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सू० ११९] खसंवेदनज्ञानवादः
१२३ मतान्तरानुषङ्गात् । कथञ्चिद्भेदे तु नास्याऽप्रत्यक्षतैकान्तः श्रेयान प्रत्यक्षखभावाभ्यां कर्तृफलशानाभ्यामभिन्नस्यैकान्ततोऽप्रत्यक्षत्वविरोधात्। | কি, আন্মেস্থালী অং আশ্বাস'লিভিং, খবি? ল। तावत्सर्वथा दुरुपान्तरापेक्षया प्रमाणावरयाच कर्मत्वाप्रसि-५ द्धिालझात कश्चित् , येनात्मनों कर्मत्वं लिधं लेन प्रत्यक्षत्वमषि, अल्सँदा दिनमात्रपेक्षया घटादीनामप्यर्शत हव करवायाक्षयोः प्रसिद्धेः । विरुद्धा च प्रतीयमानयोः कर्मवासिद्धि, प्रतीयमानत्वं हि ग्राह्यत्वं तदेव कर्मत्वम् । खतः प्रतीयमानत्वापेक्षया कर्मत्वाप्रसिद्धौ परतः कथं तत्सिध्येत् ? विरोधाभावाच्चे-१० त्वंतस्तत्सिद्धौ को विरोधः? कर्तृकरणत्वयोः कर्मत्वेन सहानवस्थानम् : परतस्तत्सिद्धौ सेंमानम् । 'घंटग्राहिज्ञानविशिष्टमात्मानं स्वतोऽहमनुभवामि' इत्यनुभवसिद्धं स्वतः प्रतीयमानत्वापेक्षयापि कर्मत्वम् । तन्नार्थवज्ज्ञानस्य प्रतीतिसिद्धप्रत्यक्षताऽपलापो
१ नैयायिक । २ करणरूपेण नतु ज्ञानरूपेण । ३ का। ४ करणशानं सर्वथ न परोक्षं प्रत्यक्षस्वआवाभ्यां कर्तृफलशानाभ्यानभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् । ५ करणस्य । ६ करण । ७ अन्यथा । ८ अस्य करणज्ञानमस्ति उपदेशकृतार्थनिश्चयान्यथानुपपत्तेः । ९ करण। १० मम करणज्ञानमस्ति अर्थप्राकट्यान्यथानुपपत्तेः। ११ स्वभावेन । १२ साकल्येन किमिति न स्यात्प्रत्यक्षत्वमित्युक्ते सत्याह। १३ स्थूलत्वादौ । १४ किञ्च । १५ कर्मत्वेन करणत्वेन च। १६ आत्मज्ञानयोः। १७ स्वयं स्वं जानातीति अपेक्षया। १८ परापेक्षया स्वयं कर्मत्वं च कथम् । १९ (वयं)। २० कर्तृकरणयोः परतः कर्मत्वेन प्रतीतिरस्ति कथं समानं सहानवस्थानं स्यादित्युक्ते सत्याह । २१ विशेषण। २२ खयं । २३ अन्यथा ।
1 “सर्वथा प्रतीयमानत्वमसिद्धं कथञ्चिद्रा ? न तावत्सर्वथा; परेणापि प्रतीयमानत्वाभावप्रङ्गात् । कथञ्चित्पक्षे तु नासिद्धं साधनम् , तथैवोपन्यासात् । स्वतःप्रतीयमानत्वमसिद्धमिति चेत्, परतः कथं तत्सिद्धम् ? विरोधाभावादिति चेत् ; स्वतस्तसिद्धौ को विरोधः ? कर्तृत्वकर्मत्वयोः सहानवस्थानमिति चेत् ; परतस्तत्सिद्धौ समानम् ।"
तत्त्वार्थश्वो० पृ. ४५ । "सुप्रसिद्धो हि घटग्राहिशानविशिष्टमात्मानं स्वतोऽहमनुभवामीत्यनुभवः”
न्यायकुमु० पृ० १७७ । 2 "सकलजगत्प्रतीतौ हि स्तम्भग्राहिशानं ततोऽ( स्वतोऽ )हमनुभवामि इत्यनुभवः, तस्माच प्रसिद्धं शाने स्वरूपापेक्षया कर्मत्वं कथं नामापहोतुं शक्यते ?"
सा० रत्ना० पृ० २१५
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মঈনুদাউ
प्रथमपरि०
ऽर्थप्रत्यक्षवल्याप्यपलापप्रसङ्गात् । प्रतीति सिद्धस्वभावस्यैकत्रापलायेऽन्यनामावालाच चित्प्रतिनियतस्वभावव्यवस्था स्थात् ।
व्हि, इरं प्रत्यक्षता अर्थधर्मः, ज्ञानधर्मो वा ? न तावदर्थधर्मः, नीलतादिवत्तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषय९ तया च प्रसिद्धिप्रसङ्गात् । न चैवम् , आत्मन्येवास्या ज्ञानकाले एव स्वासाधारणविषयतया च प्रसिद्धः । तथा च न प्रत्यक्षता अर्थधर्मः तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविपयतया चाऽप्रसिद्धत्वात् । यस्तु तद्धर्मः स तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषयतया च प्रसिद्धो दृष्टः, यथा रूपादिः, १० तद्देशे ज्ञानकालादन्यदाप्यनेकप्रमातृसाधारणविषयतया चामसिद्धा चेयम् तस्मान्न तद्धर्मः। यस्यात्मनो ज्ञानेनार्थः प्रकटीक्रियते तंदज्ञानकाले तस्यैव सोऽर्थः प्रत्यक्षो भवतीत्यपि श्रद्धामात्रम् अर्थप्रकाशकविज्ञानस्य प्राकट्याभावे तेनार्थप्रेकटीकरणासम्भवा
दीपवत्, अन्यथा सन्तानान्तरवर्तिनोपि ज्ञानादर्थप्राकट्य१५प्रसङ्गः। चक्षुरादिवत्तस्य प्राकट्याभावेप्यर्थे प्राकट्यं घटेतेत्यप्यसमीचीनम् ; चक्षुरादेरर्थप्रकाशकत्वासम्भवात् । तत्प्रकाशकज्ञानहेतुत्वात् खलूपचारेणार्थप्रकाशकत्वम् । कारणस्य चाशातस्यापि कार्ये व्यापाराविरोधो ज्ञापकस्यैवाज्ञातस्य ज्ञापकत्वविरोधात्
"नाज्ञातं ज्ञापकं नाम" [ ] इत्यखिलैः परीक्षादक्षैरभ्युप२० गमात् । प्रमातुरात्मनो ज्ञापकस्य स्वयं प्रकाशमानस्योपगमादर्थे प्राकट्यसमवे करणशानकल्पनावैफल्यमित्युक्तम् । नापि शानधर्मः अस्य सर्वथा परोक्षतयोपगमात् । यत्खलु सर्वथा परोक्षं तन्न प्रत्यक्षताधर्माधारो यथाऽदृष्टादि, सर्वथा परोक्षं च परैरभ्युपगतं ज्ञानमिति ।
१ करणशानं प्रत्यक्षमर्थप्रत्यक्षत्वान्यथानुपपत्तेः । २ प्रत्यक्षत्वरूपस्य । ३ करणशाने। ४ स्थूलत्वाद्यर्थे। ५ अविश्वासात् । ६ वस्तुनि । ७ घटपटादि । ८ अन्यथा। ९ सन्दिग्धानकान्तिकत्वमनेन वाक्येनार्थधर्मत्वादित्येतस्य हेतोः। १० करणज्ञानेन। ११ करण। १२ शानं नार्थ प्रकटयति खयमप्रत्यक्षत्वात्परमाण्वादिवत् । १३ करणशानं प्रत्यक्षमर्थप्रकाशकत्वात्प्रदीपवत् । १४ अ(प्रत्यक्षादपि शानादर्थप्राकट्ये । १५ पुरुषान्तर । १६ स्वस्य । १७ उभयत्रापि परोक्षत्वाविशेषात् । १८ कारकस्य । १९ किञ्च । २० करणशानं न प्राकट्यधर्माधिकरणं सर्वथा परोक्षतयोपगमात् । २१ करणम् ।
1“अथ प्रकाशतामात्रं तदपि शानधर्मः, अर्थधर्मः उभयधर्मः, स्वतत्रं वा स्यात."
न्यायकुमु० पृ० १७९।
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सू० ११९] खसंवेदनज्ञानवादः
१२५ कुतश्चैववादिनी ज्ञानेसद्भावसिद्धिः-प्रत्यक्षात् , अनुमानादे? न तावत्प्रत्यक्षात्तस्यातद्विपयतरोएगमात् । यद्यद्विपयं न भवति न तत्तद्व्यवस्थापकम् , यथालाहप्रत्यक्षं परमाण्वाद्यविषयं न तद्यवस्थापकम् । सानाविषयं च प्रलक्षं परैरभ्युपगतमिति ।
नाप्यनुमानात् । तदविनाभाविलिङ्गाभावात् । तद्धिं अर्थज्ञप्तिः,५ इन्द्रियायी वर, तत्सहकारिगुणं मनो का? अर्थज्ञप्तिश्चेत्सा किं जाँचलावा, अर्थस्वभावा या? यदि ज्ञानवमादा तदाऽसिद्धत्वात्तस्याः कथमनुमापकत्वम् ? न खलु शानभावाविशेष 'ज्ञप्तिः प्रत्यक्षा न करणज्ञानम्' इत्यंत्र व्यवस्थानिवन्धनं पश्यामोऽन्यत्र महामोहात् । शब्दमात्रभेदाच्च सिद्धासिद्धत्वभेदः १० खेच्छापरिकल्पितोऽर्थस्याभिन्नत्वात् । ज्ञानत्वेन हि प्रत्यक्षताविरोधे ज्ञप्तावपीयं न स्यादविशेषात् । अथार्थवभावा झप्तिः तदार्थप्राकट्यं सा, न चैतदर्थग्राहकविज्ञानस्यात्माधिकरणत्वेनापि प्राकट्याभावे घटते, पुरुषान्तरज्ञानादप्यर्थप्राकट्यप्रसङ्गात् । आत्माधिकरणत्वपरिज्ञानाभावे चें ज्ञानस्य ज्ञानेन ज्ञातोप्यर्थः नात्मानु-१५ भवितैकत्वेन ज्ञातो भवेत् 'मैया ज्ञातोऽयमर्थः' इति । अर्थगतप्राकट्यस्य सर्वसाधारणत्वाचालान्तरवुद्धेरैप्यनुनानं स्यात् । यद्रुङ्या यस्यार्थः प्रकटीभवति तद्बुद्धिमेवालौ ततोऽनुमि
१ सर्वथा परोक्षकरणशानमित्येवंवादिनः। २ करण । ३ वीतं प्रत्यक्षं करणशानाव्यवस्थापकं तदविषयत्वादिति। ४ मीमांसकैः। ५ बसः। ६ एकाग्रम् । ७ करणशान। ८ अशातासिद्धत्वम् । ९ पक्षे। १० महदशानं वर्जयित्वा । ११ अर्थशप्तिः करणज्ञानमिति । १२ प्रत्यक्षाप्रत्यक्षभेदः। १३ शानलक्षणस्य । १४ करणस्य। १५ शानत्वेन प्रत्यक्षतायाः। १६ करणशानस्य । १७ जीव अहमधिकरणमस्य झानस्येति परिशानाभावे। १८ अत्यन्तपरोक्षत्वात्। १९ स्व । २० किञ्च । २१ शानस्य । २२ जीवेन। २३ किञ्च । २४ सर्वेषां करणशानमस्ति अर्धप्राकट्यान्यथानुपपत्तेः । २५ ता। २६ अर्थप्राकट्यात् । २७ जानाति । 1 "किंच, बुद्धेः स्वसंवेदनप्रत्यक्षागोचरत्वे कुतस्तत्सत्त्वं सिद्ध्येत् ? प्रमाणान्तराञ्चेत् किं प्रत्यक्षरूपात् , अनुमानरूपाद्वा ?" ।
न्यायकुमु० पृ० १७७ । स्था० रत्ना० पृ० २१६ । 2 "तद्धि इन्द्रियम् , अर्थः, तदतिशयः, तत्सम्बन्धः, तत्र प्रवृत्तिा भवेत् ?"
न्यायकुमु० पृ० १७८ । स्या० रत्ना० पृ० २१६ । 3 “यदि पुनरर्थधर्मत्वादर्थपरिच्छित्तेः प्रत्यक्षतेष्यते, तदा साऽर्थप्राकट्यमुच्यते, न चैतदर्थग्रहणविज्ञानस्य प्राकट्याभावे घटामटति अतिप्रसंगात् । न घप्रकटे अर्थशाने सन्तानान्तरवर्तिनिकरस्य चिदर्थस्य प्राकट्यं घटते।" प्रमाणप० पृ० ६१ ।
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গজস্বচএডউ | সদ্য বি০ মীন নালা
; হাঙ্গেলীহপ্রবন্ধান 'येगुड्या वयार्थ प्रकटीभवति' इत्यस्यैवान्धपरस्परया व्यवस्थापयितुलशले प्रत्यक्षत्वे चात्मनः सिद्धं विज्ञानमा स्वार्थव्यवसायात्मकत्वम् ! आत्मैव हि स्वार्थग्रहणपरिणतो जानातीति ज्ञान५ मिति साधनज्ञानशब्देनाभिधीयते ।
इन्द्रियार्थो लिङ्गमित्यप्यनालोचिताभिधानम्। तयोर्विज्ञानसद्भावाविनाभावासिद्धेः। योग्यदेशे स्थितस्य प्रतिपत्तुरिन्द्रियार्थसद्भावेप्यन्यत्र गतमनसो विज्ञानाभावात् । तत्सिद्धौ चेन्द्रिय
स्यातीन्द्रियत्वेनार्थत्यापि ज्ञानाऽप्रत्यक्षत्वेनासिद्धेः कथं तथापि १० हेतुत्वं तयोः ? सिद्धौ वा न साध्यज्ञानकाले ज्ञानान्तरात्तत्सिद्धि
युगपद् ज्ञानानुत्पत्त्यभ्युपगमात् । उत्तरकालीनज्ञानात्तत्सिद्धौतदा साध्यज्ञानस्याभावात्कस्यानुमानम् ? उभयविषयस्यैकज्ञानस्यानभ्युपगमानवस्थाप्रसङ्गाच्चानयोरसिद्धिः।
इन्द्रियार्थसहकारिगुणं मनो लिङ्गमित्यप्यपरीक्षिताभिधा१५ नम्, तत्सद्भावासिद्धेः । युगपद् ज्ञानानुत्पत्तेस्तत्सिद्धिः, तथा हि-आत्मनो मनसा तस्येन्द्रियैः सम्बन्धे ज्ञानमुत्पद्यते । यदा चास्य चक्षुषा सम्वन्धो न तदा शेषेन्द्रियैरतिसूक्ष्मत्वात् ; इत्यप्यसङ्गतम् । दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ युगपद्रूपादिज्ञानपञ्चकोत्पत्तिप्रतीतेः अश्वविकल्पकाले गोनिश्चयाच्च तदसिद्धेः । न चात्र क्रमैका२० न्तकल्पना प्रत्यक्षविरोधात् । किञ्चैवंवादिना (किं) युगपत्तीतं
येनावयवावयव्यादिव्यवहारः स्यात् ? घटपटादिकमिति चेत् न; अत्रापि तथा कल्पनाप्रसङ्गात् । किञ्चातिसूक्ष्मस्यापि मनसो नयना
१ करणशान । २ ता। ३ ज्ञान । ४ द्वितीयविकल्पस्य । ५ करणशानस्य । ६ मा (तृतीया)। ७ कस्मिंश्चिद्विषये। ८ करणज्ञानस्य सर्वथा परोक्षत्वात् । ९ इन्द्रियार्थयोः। १० अतिद्धत्वेपि । ११ करणशानं प्रति । १२ करणाने। १३ इन्द्रियार्थ । १४ इन्द्रियाल्लिङ्गात्करणज्ञानसिद्धिरिन्द्रियार्थयोरपि सिद्धिः कस्माद. परकरणशानात्तस्यापि अपरेन्द्रियार्थादित्यनवस्था। १५ एकाग्रम् । १६ मनसः । १७ च शब्दः आधिक्ये । १८ दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ युगपद् शानं नोत्पद्यते इत्येवं. वादिना। १९ अत्राक्षेपार्थे किमिति पूर्वेण सम्बन्धः । २० क्रमैकान्त ।
1 "अश्वविकल्पकाले गोदर्शनानुभवात् युगपज्ञानानुत्पत्तिश्चासिद्धा कथं मनोऽनुमापिका ? नचाश्वविकल्पगोदर्शनयोर्युगपदनुभवेऽपि क्रमोत्पत्तिकल्पना प्रत्यक्षविरो. धात् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७७ । 2 "किंच, चक्षुराधन्यतमेन्द्रियसम्बन्धात् रूपादिशानोत्पत्तिकाले मनसः सम्बन्धात् मानसज्ञानं किन्न भवेत् ? तथाविधादृष्टा भावादित्युत्तरम् अदृष्टनिमित्तयुगपज्ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तितो मनसोऽनिमित्तता..." सन्मति० टी० पृ० ४७७ ।
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सू० ११९] स्वसंवेदनज्ञानवादः १२७ हीनामन्यतमेन सन्निकर्पसमये रूपादिज्ञानवन्मानसं सुखादिज्ञान किन्न स्यात् सम्बन्धलम्बन्धसनावात् ? तथाविधादृष्टस्याभावाञ्चत् ; अदृष्टकृता तर्हि युगपशानानुत्पत्तिस्तदेवानुमापयेन्न मनः।
किञ्च, 'युगपद् ज्ञानाहुत्पत्तेनालिद्धिततश्चास्याः प्रसिद्धिः' इत्यन्दोलनमः चकरसङ्गश्च-विज्ञलासिद्धिपूर्विक्षा हि युगपद् ५ इस तिलिद्धिः, तसिद्धिर्मनापूर्विका' इति । बलातत्सहचार प्रगुणे मनो लिङ्गमित्यप्यासिद्धम् ।
अस्तु वा किञ्चिल्लिङ्गम् , तथापि-ज्ञानस्याप्रत्यक्षतैकान्ते तत्सम्वन्धासिद्धिः । न चासिद्धसम्बन्ध(न्धं) लिङ्गं कस्यचिद्गमकमतिप्रसङ्गात् । ततः परोक्षतैकान्ताग्रहग्रहाभिनिवेशपरित्यागेन 'ज्ञानं १० स्वव्यवसायात्मकमर्थज्ञप्तिनि मित्तत्वात् आत्मवत्' इत्यभ्युपगन्तव्यम् । नेत्रालोकादिनानेकान्त इत्यप्ययुक्तम्। तस्योपचारतोऽर्थज्ञप्तिनिमित्तत्वसमर्थनात्, परमार्थतः प्रमातृप्रमाणयोरेव तन्निमित्तत्वोपपत्तेरित्यलमतिप्रसङ्गेन । एतेने 'आत्माऽप्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात्करणज्ञानवत् १५
१ मनसा सम्बद्ध आत्मनि सुखादेः समवायसम्बन्धः सम्बन्धसम्बन्धः । २ युगपज्ज्ञानोत्पादकस्य । ३ करणशानं कर्म । ४ करणशान । ५ शप्ति । ६ विज्ञानसिद्धिः। ७ इन्द्रियार्थ । ८ अविनाभाव । ९ भा । १० लिङ्गस्य । ११ अज्ञात । १२ साध्यस्य । १३ अन्यथा। १४ दुराग्रह । १५ करणशानं। १६ साध्यसम स्यात् स्वशप्तिनिमित्तत्वाशङ्कातः। १७ कुठारेण व्यभिचारः । १८ मीमांसकमाट्टकरगज्ञानदूषणकथनेन । १९ करणशानस्य परोक्षत्वनिराकरणपरेण ग्रन्थेन।
1 "तथाहि-सिद्धे तद्विभ्रमे मनःसिद्धिः, तत्सिद्धौ च युगपज्ज्ञानोत्पत्तिविभ्र. मसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वान्न मनःसिद्धिः।" सन्मति० टी० पृ० ४७८ ।
2 "अस्तु वा किञ्चिल्लिङ्गम् , तथापि अगृहीतप्रतिबन्धं तत् न परोक्षां बुद्धिमनुमापयितुं समर्थम् ...प्रतिबन्धश्च लिंगलिंगिनोः अविनाभूतत्वेन प्रमाणप्रतिपन्नयोरेव भवति । न च ज्ञानं तेन चाविनाभूतं किञ्चिल्लिंगं प्रमाणेन प्रतिपन्नं यतः सम्ब. न्धग्रहणपुरस्सरमनुमान प्रवर्तेत ।"
न्यायकुमु. पृ० १८१ । 3 "शानं स्वपरिच्छेदकमर्थशानत्वात् ।” युक्त्यनुशा० टी० पृ० ९ "स्वव्यवसायायात्मकं नमर्थपरिच्छित्तिनिमित्तत्वादात्मवत्"
प्रमाणप० पृ० ६१ । 4 "किञ्च अप्रकाशस्वभावानि मेयानि माता च प्रकाशमपेक्षन्ताम्, प्रकाशस्तु प्रकाशात्मकत्वान्नान्यमपेक्षते । जाग्रतो हि मेयानि माता च प्रकाशन्ते, सुषप्तस्य च न
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সকাব " সঙ্গং इत्याचक्षणः प्रभाको प्रत्याख्यातः। प्रमित कर्मत्वनाप्रतीयमानत्वेषिक्षमास्युपगमात् । तस्याः क्रियात्वन प्रतिभालनाप्रत्यक्षेत्के करमज्ञान-आत्मनोः करणत्वेन कर्तृत्वेन वा प्रतिभासनात्प्रत्यक्षात्वमस्तु । न चाभ्यों तस्याः सर्वथा भेदोऽसेदो वामतान्तरानुषङ्गात् । कथञ्चिभेदे-सिद्धं तयोः कथञ्चित्प्रत्यक्षत्वम् ; प्रत्यक्षादभिन्नयोः सर्वथा परोक्षत्वविरोधात् । ननु शाब्दी प्रतिपत्तिरेषाँ 'घटमहमात्मना वेद्मि' इति नानुभवसावा तस्यास्तदविनाभावाभावात् , अन्यथा 'अमुल्यग्रे हस्तियूथशत
मास्ते' इत्यादिप्रतिपत्तेरप्यनुभवत्वप्रलगस्तत्कथमतः प्रमात्रादीनां १० प्रत्यक्षताप्रसिद्धिरित्याह
शब्दानुशारणेपि स्वस्थानुलवनअर्थवत् ॥ १०॥ यथैव हि घटस्वरूपप्रतिभालो घंटशब्दोचारणमन्तरेणापि प्रतिभासते। तथा प्रतिभासमानत्वाचन शाब्दस्तथा प्रमात्रा
दीनां स्वरूपस्य प्रतिमासोषि तच्छब्दोच्चारणं विनापि प्रतिभा१५सते । तस्माच्च न शाब्दः। तच्छब्दोच्चारणं पुनः प्रतिभातप्रमा
१ ब्रुवन् । २ वृद्ध । ३ अर्थपरिच्छित्तेः । ४ प्रामाकरेण । ५ सति । ६ कर्मत्वेनाप्रतीयमानयोरपि। ७ किञ्च । ८ नैयायिकः। ९ बौद्धः । १० अन्यथा। योगसौगतयोः परिग्रहः। ११ कर्मत्वेन परोक्षत्वं कर्तृत्वेन करणत्वेन प्रत्यक्षत्वं कर्तृज्ञानयोः । १२ प्रमितिरूपात् । १३ करणशानात्मनोः । १४ भा। १५ अह. मात्मना। १६ स्वसंवेदनप्रत्यक्ष। १७ अनुभवेन सह । १८ प्रतीतित्वात्स. म्प्रतिपन्नप्रतीतिवत् । १९ कारणात् । २० शाब्द्याः प्रतिपत्तेः श(स )काशात् । २१ ता । २२ अयं घटः। २३ अनुमानसद्भावाच्च । २४ सुखादिवत् । द्वयमपि प्रकाशते । न च तदानीं तन्नास्त्येव प्रबोधे सति प्रत्यभिज्ञानात् , तत्र प्रकाशात्मकत्वे सुषुप्तिदशायामपि द्वयं प्रकाशेत, तस्मादप्रकाशात्मकमेतद् द्वयमंगीक्रियते ।... मेयानां मातुश्च स्वतःप्रकाशो नोपपद्यत इति युक्ता तयोः परापेक्षा, मितौ च कान्चिदनुपपत्तिर्नास्ति इति स्वयम्प्रकाशैव मितिः।" प्रक० पं० पृ० ५७ ।
1 तेषां फलशानहेतोय॑भिचारः, कर्मत्वेनाप्रतीयमानस्य फलज्ञानस्य प्रामाकरैः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् । तस्य क्रियात्वेन प्रतिभासनात् प्रत्यक्षत्वे प्रमातुरप्यात्मनः कर्तृत्वेन प्रतिमासनात् प्रत्यक्षत्वमस्तु ।" प्रमाणप० पृ. ६१।
2 "तच्च फलज्ञानमात्मनोऽर्थान्तरभूतमनर्थान्तरभूतमुभयं वा? न सावत् सर्वथाऽर्थान्तरभूतमनर्थान्तरभूतं वा; मतान्तरप्रवेशानुषङ्गात् । नाप्युभयम् ; पक्षद्वयनिगदितदूषणानुषतेः। कथञ्चिदर्थान्तरत्वे तु फलज्ञानादात्मनः कथञ्चित्प्रत्यक्षत्वमनिवार्यम् , प्रत्यक्षादमिन्नस्य कथञ्चिदप्रत्यक्षतैकान्तविरोधात् ।” प्रमाणप० पृ० ६१। '
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सू० १३१०] आत्मप्रत्यक्षत्ववादः
१२९ वादिस्वरूपप्रदर्शनपरं नाऽनालम्बनमैर्थवत् , अन्यथा 'मुख्यहम् इत्यादिप्रतिभासस्याप्यनालम्बनत्वप्रसङ्गः।
नेनु यथा सुखाँदिप्रतिमाल तुवादिसंवेदनस्याप्रत्यक्षत्वेप्युपपनस्तथार्थसंवेदनस्यानलक्षत्वोयर्थप्रतिक्षासो भविष्यति इत्यप्यविचारितरमणीयम् । सुखादेः संवेदनादान्तरस्वमावस्याप्रतिभा-५ सनादालादनाकारपरिणतज्ञानविशेषस्यैव सुखत्वात् तस्य चाध्यक्षत्वात् तस्यानध्यक्षत्वेऽत्यन्ताप्रत्यक्षज्ञानग्राह्यत्वे च-अनुग्रहोपंघातकारित्वासम्भवः, अन्यथा परकीयसुखादीनारयात्मनोऽ. त्यन्ताप्रत्यक्षज्ञानग्राह्याणां तत्कारित्वप्रसङ्गः। ननु पुत्रादिसुखाद्यप्रत्यक्षत्वेपि तत्सद्भावोपलम्भमांत्रादात्मनोऽनुग्रहाद्युपलभ्यते १० तत्कथमयमेकान्तः ? इत्यप्यशिक्षितलक्षितम् ; नहि तत्सुखाद्युपलम्भमात्रात् सौमनस्यादिजनिताभिमानिकसुखैपरिणतिमन्तरेगोत्मनोऽनुग्रहादिसम्भँवः, शैत्रुसुखाद्युपलम्भादुश्चेष्टितादिनों परित्यक्तपुत्रसुखाद्युपलम्भाच्च तत्प्रसङ्गात् । विग्रेहादिकमतिसनिहितमपि आभिमानिकसुखमन्तरेणानुग्रहादिकं न विद्धाति-१५ किमङ्गै पुनरतिव्यवहिताः पुत्रसुखादयः।
अस्तु वाया सुखादेः प्रत्यक्षता, लातु प्रमाणान्तरेण न स्वतः स्वात्मनि क्रियाविरोधात्' इत्यन्यैः, तस्यापि प्रत्यक्षविरोधः । न खलु घटादिवत् सुखाद्यविदितस्वरूपं पूर्वमुत्पन्नं पुनरिन्द्रियेण सम्बद्ध्यते ततो ज्ञानं "ग्रहणं चेति लोके प्रतीतिः। प्रथममेवेष्टी २०
१ निर्विषय । २ ईप् (सप्तमी)। ३ शब्दद्वारस्य ! ४ शब्दोच्चारणपूर्वकत्वात् । ५ आट्ट। ६ करणशानं प्रत्यक्षमर्थप्रकाशनिमित्तत्वात्प्रदीपवदात्मवद्वा। ७ अर्थशप्तिनिमित्तत्वादित्यस्य साधनस्यानैकान्तिकत्वम् । ८ करणशानस्य । ९ परिच्छित्तिः । १० दुःखादि । ११ करणज्ञानस्य । १२ करणशानस्य । १३ भिन्न । १४ करण। १५ दुःखात्स्वस्य । १६ स्वस्य । १७ अनैकान्तिकत्वं । १८ प्रमाणमात्रात् । १९ स्वस्य । २० पितुः । २१ कथं । २२ वैमनस्य । २३ आत्मनः आत्मनि । २४ स्वस्य । २५ तातस्य । २६ अन्यथा। २७ अनैकान्तिकत्वपरिहारः कृतः । २८ सुचेष्टित । २९ शरीर । ३० उदासीनपुरुषस्य । ३१ पु(कु)त्र । ३२ विशेषे । ३३ नैयायिको वैशेषिको वा। ३४ अज्ञात । ३५ पश्चात् । ३६ इन्द्रियसम्बन्धात् । ३७ करणरूपमुत्पद्यते। ३८ ज्ञानेन। ३९ परिच्छित्तिरूपं । ४० स्रक्चन्दनादि ।
-
1 "न हि सुखाद्यविदितस्वरूपं पूर्व घटादिवदुत्पन्नं पुनरिन्द्रियसम्बन्धोपजातशानान्तराद् वेद्यते इति. लोकप्रतीतिः, अपि तु प्रथममेव स्वप्रकाशरूप. तदुदयमासादयदुपलभ्यते।" . .
सन्मति० ० पृ. ४.७६ ।
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प्रमेशकमालवाण्डे
प्रथमगारे।
निष्टविषयानुलवानन्तर प्रकाशात्मनोऽस्योदयप्रतीतेः स्वात्मनि क्रियाविरोधं चालन्तरले विचारयिष्यामः यदि चार्थान्तरभूतप्रमाणप्रत्यक्षाः सुखादयस्तर्हि तदपि प्रमाणं प्रमाणान्तर प्रत्यक्ष मित्यनवस्य । विभिन्नप्रमाणग्राह्याणां चानुग्रहादिकारित्ववि. रोथः । न हि स्त्रीसङ्गमादिभ्यः प्रतीयमानाः सुखादयोऽन्यस्यापनत्तत्कारिणो दृष्टाः । ननु परकीयसुखादीनामनुमानगम्यत्वानात्मनोऽनुग्रहादिकारित्वम् आत्मीयानां प्रत्यक्षाधिगम्यत्वात्तकारित्वमित्यप्यसारम् ; योगिनोपि तत्कारित्वप्रसङ्गात् प्रत्यक्षाधिगम्यत्वाविशेपात् । आत्मीयसुखादीनामेव तत्कारित्वं नान्येषा१० मित्यपि फल्गुप्रायम्, अत्यन्तभेदेऽर्थान्तरभूतप्रमाणग्राह्यत्वे चात्मीयेतरभेदत्यैवासम्भवात् ।
आत्मीयत्वं हि तेषां तहुणत्वात्, तत्कार्यत्वाद्वा स्यात्, तंत्र समवायाद्वा, तेदाधेयत्वाखा, तदद्दष्टे निष्पाद्यत्वाद्वान तावत्तहुणत्वात् ; तेयामात्मनो व्यतिरेकैकान्ते तस्यैव ते गुणा नाकाशादेर१५न्यात्मनो वा' इति व्यवस्थापयितुमशक्तेः।
तत्कार्यत्वाच्चेत्कुतस्तत्कार्यत्वम् ? तस्मिन् सति भावात्; आकाशादौ तत्प्रसङ्गः। तस्य निमित्तकारणत्वेन व्यापाराददोषश्चेत्, आत्मनोपि तथा तदस्तु । समवायिकारणमन्तरेण कार्या
नुत्पत्तरात्मनस्तत्कल्प्यते, गगनादेस्तु निमित्तकारणत्वमित्य२० प्ययुक्तम् । विपैयरेणापि तत्कल्पनाप्रसङ्गात् । प्रत्यासत्तेरात्मैव समवायिकारणं चेन्न; देशकालप्रत्यासत्तेर्नित्यव्यापित्वेनात्मवदन्यत्रापि समानत्वात् । योग्यतापि कार्ये सामर्थ्यम् , तच्चाका
१ अह्यादि । २ सुखादेः । ३ परिच्छित्तिलक्षणा । ४ अग्रे। ५ किञ्च । ६ सुखादेभिन्नप्रमाणात्। ७ सुखादीनां । ८ किञ्च । ९ उपघात । १० स्वस्य । ११ परकीयसुखादिवद्दष्टान्तः। १२ देवदत्तस्य पुरुषस्य । १३ यशदत्तस्य स्वस्य । १४ जीवन्मुक्तस्य । १५ आत्मनः सकाशात्सुखादीनाम् । १६ परकीय । १७ देवदत्तात्म। १८ देवदत्तात्म। १९ देवदत्तात्मनि । २० देवदत्तात्म। २१ देवदत्तात्म। २२ भा। २३ भेदैकान्ते । २४ देवदत्तात्मनः। २५ सुखादयः। २६ यशदत्तात्मनः। २७ देवदत्तात्म। २८ देवदत्त सति । २९ सुखादयः आकाशकार्यत्वादाकाशादीयाः स्युराकाशादौ सति भावात् । ३० उपादानकारणं । ३१ आत्मा निमित्तकारणं गगनादि समवायिकारणं । ३२ सुखादौ। ३३ शक्तिः कार्योत्पादिका। ३४ किञ्च।
1 "न चात्मनो शानाच्च अर्थान्तरभूता एव सुखादयोऽनुग्रहादिविधायिनो भवेयुः, इतरथा योगिनोऽपि ते तथा स्युः।" सन्मति० टी० पृ० ४७६ ।
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११ १२ १३ १४.
सू० १३१०] आत्मप्रत्यक्षत्ववादः
१३१ शादेरप्यस्तीति । अथात्मन्यात्मनस्तजननसामर्थ्य नान्यस्येत्यप्ययुक्तम् । अत्यन्तभेदे तथा तजननविरोधात् । तत्सामर्थ्यस्या प्यात्मनोऽत्यन्तभेदे 'तस्यैवेद कायस्य' इति किङ्कतोयं विभागः ? समवायादेश्च लिये ( यमानत्यान्निशामकत्वायोगः। तन्नान्वयमात्रेण सुखाडीबालात्मकार्यत्वम् । तदभाऽऽआत्तञ्चेन्न; नित्य-५ व्यानिवान्यां तलामावालम्भवात् । तत्र समवायादित्यप्यसत्; वाला निराकरिष्यमाणत्वात् , लैवेत्राविशेषीया ने देश तत्रैव लैंमवायासम्भवात्।
तदाधेयत्वाच्चेत्किमिदं तदाधेयत्वं नाम तेत्र समवायः, तादात्म्यं १० वा, तेत्रोत्कलितत्वमानं वा ? न तावत्समवायः, दत्तोत्तरत्वात् । नापि तादात्म्यम् ; मतान्तराँनुपङ्गात् । तेषामात्मनोऽत्यन्तभेदे सकलात्मनां गगनादीनां च व्यापित्वे 'तत्रैवोत्कलितत्वम्' इत्यपि श्रद्धामात्रगम्यम् । अथाऽष्टानियमः 'यध्यात्मीयाऽदृष्टनिष्पाद्यं सुखं तदात्मीयमन्यत्तु परकीयम्' इत्यप्यसारम् । अदृष्टस्याप्या-१५ त्मीयत्वासिद्धेः । समवायादेस्तन्नियामकत्वेप्युक्तदोपानुषङ्गः। यत्र यदृष्टं सुखं दुःखं चोत्पादयति तत्तस्यत्यपि मनोरथनात्रम् , परस्पराश्रयानुषङ्गात्-अदृष्टनियमे सुखादेर्नियमः, तनियमाञ्चादृष्टस्येति । 'यस्य श्रंद्धयोपगृहीतानि द्रव्यगुणकर्माणि यदद्दष्टं जनयन्ति तत्तस्य' इत्यपि श्रद्धामात्रम् , तस्या अप्यात्मनोऽत्यन्तभेदे प्रतिनियमासिद्धेः। 'यस्यादृष्टेनासौ जन्यते सा तस्य' इत्यप्यन्योन्याश्रयादयुक्तम् । 'द्रव्यादौ यस्य देर्शनस्मरणादीनि श्रद्धामाविर्भा
१ सुखादि। २ उत्पाद। ३ आत्मनः सकाशात्सुखादिकं सर्वथा भिन्नं । ४ सुखादि। ५ देवदत्तस्य । ६ केन कृतः। ७ देवदत्तात्मनि सामर्थ्यस्य । ८ अग्रे। ९ तस्मिन् सति भावात् । १० देवदत्तात्म। ११ सुखादीनां । १२ व्यतिरेक । १३ सुखादि। १४ देवदत्तसुखादीनाम् । १५ देवदत्तात्मनः । १६ आत्मनः। १७ देवदत्तात्मनि । १८ ग्रन्थे । १९ खादावर्थे । २० समवायस्य। २१ कारणेन। २२ सुखादीनां । २३ देवदत्तात्मन्येव। २४ (सम्बन्ध ) । २५ देवदत्तात्म। २६ खादौ । २७ बसः। २८ देवदत्तात्म । २९ देवदत्तात्मनि । ३० सुखादीनां । ३१ देवदत्तात्मना सह । ३२ देवदत्तात्मनि । ३३ आविर्भूतत्वं । ३४ जनैः। ३५ अन्यथा । ३६ जैनमत । ३७ दिक्कालादि । ३८ देवदत्तात्मनि । ३९ पुण्यादि। ४० सुखादय आत्मीया आत्मीयादृष्टनिष्पाद्यत्वात् । ४१ पुनः। ४२ आत्मनि । ४३ आत्मनः । ४४ अस्येदमदृष्टमिति । ४५ आत्मनः । ४६ विश्वासेन। ४७ स्वीकृतानि। ४८ श्रद्धा अस्येति ।. . .४९ अद्धाया नियमे अदृष्टनियमस्तस्मिंस्तन्नियमः । ५० आत्मनः । ५१ प्रत्यक्ष । ५२ प्रत्यभिज्ञान ।
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कलमान्डै [प्रथमपरि० वयन्ति तस्य सा' इस मित्रम्, दर्शवादीनामपि प्रतिनियमासिद्धः। समकामाले श्रद्धायाश्च प्रतिनियमः इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्, तन्य पट्पदार्थपरीक्षायां निराकरिज्यामाणत्वात् ।
ऐलेलेतदपि प्रत्याख्यातम् 'ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्य प्रमेयात्वात्पटा. ९ दिवत् सुखसंवेदनेन हेतोर्व्यभिचारान्महेश्वरज्ञानेन च, तस्य शानान्तरावेद्यत्वेपि प्रमेयत्वात् । तस्यापि ज्ञानान्तरप्रत्यक्षत्वेऽन
१ दर्शनादीनाम् । २ सुखदुःखादेः स्वसंविदितत्वसमर्थनपरेण ग्रन्थेन। ३ यौगमतमपि ( तदेव योगमतं दर्शयति ज्ञानमित्यादिना)। ४ सुखसंवेदनं शानं भवति न तु ज्ञानान्तरवेछ । ५ भा।
1 "नासाधना प्रमाणसिद्धिर्नापि प्रत्यक्षादिव्यतिरिक्तप्रमाणाभ्युपगमो... नापि च तयैव व्यक्त्या तस्या एव ग्रहणमुपेयते येनात्मनि वृत्तिविरोधो भवेत् , अपि त प्रत्यक्षादिजातीयेन प्रत्यक्षादिजातीयस्य ग्रहणमातिष्ठामहे । न चानवस्था, अस्ति किंचित् प्रमाणं यः स्वज्ञानेन अन्यधीहेतुः यथा धूमादि, किंचित्पुनरज्ञातमेव बुद्धिसाधनं यथा चक्षुरादि, तत्र पूर्व स्वज्ञाने चक्षुराद्यपेक्षम् , चक्षुरादि तु ज्ञानानपेक्षमेव ज्ञानसाधनमिति वानवस्था ? बुभुत्सया च तदपि शक्यज्ञानं सा कदाचिदेव कचिदिति नानवस्था ।"
न्यायवा० ता० टी० पृ० ३७०। "विवादाध्यासिताः प्रत्ययान्तरेणैव वेद्याः प्रत्ययत्वात् , ये ये प्रत्ययास्ते सर्वे प्रत्ययान्तरवेद्याः यथा न प्रत्ययान्तरेणैव वेद्याः (१) अविद्यमानस्यावभासेऽतिप्रसंगात ज्ञायमानस्यैवावभासोऽभ्युपेयः । तथा च विज्ञानस्य स्वसंवेदने तदेव तस्य कर्म क्रिया चेति विरुद्धमापयेत । यथोक्तम्---
अङ्गुल्यग्रं यथात्मानं नात्मना स्पष्टमर्हति । स्वांशेन शानमप्येवं नात्मानं ज्ञातुमर्हति ॥ इति । यत् प्रत्ययत्वं वस्तुभूतमविरोधेन व्याप्तम् , तद्विरुद्धविरोधदर्शनात् स्वसंवेदनान्निवर्तमानं प्रत्ययान्तरवेद्यत्वेन व्याप्यते इति प्रतिबन्धसिद्धिः । एवं प्रमेयत्व-गुणत्वसत्वादयोऽपि प्रत्ययान्तरवेद्यत्वहेतवः प्रयोक्तव्याः। तथा च न स्वसंवेदनं विज्ञानमिति सिद्धम् ।"
विधिवि० न्यायकणि० पृ. २६७ । "तस्मात् ज्ञानान्तरसंवेद्यं संवेदनं वेद्यत्वात् घटादिवत् ।"
प्रश० व्यो० पृ० ५२९ । "अनवस्थाप्रसङ्गस्तु अवश्यवेद्यत्वानभ्युपगमेन निरसनीयः...विवादाध्यासितवेदनं वेदनान्तरगोचरः वेदनत्वात् पुरुषान्तरवेदनवत..." प्रश० किरणावली पृ० २८३ ।
2 "महेश्वरार्धशानेन हेतोर्व्यभिचाराद , तस्य ज्ञानान्तरावेद्यत्वेऽपि प्रमेयत्वात् ।" प्रमाणप० पृ० ६० । मुक्त्यनुशा० टी० पृ० १० । न्यायकुमु० पृ० १८३ । स्था० रत्ना० पृ० २२२ ।
"सुखादिसंवेदनेन व्यभिचारी च" सन्मति० टी० पृ० ४७६ ।
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सू० १११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः वस्था-तस्यापि ज्ञानान्तरेण प्रत्यक्षत्वात् । ननु नानवस्था नित्यशानद्वयस्येश्वरे सदा सम्भवात् , तत्रैकेनार्थजातस्य द्वितीयेन पुनस्तज्ज्ञानस्य प्रतीते परज्ञानकल्पनया किञ्चित्प्रयोजनं तावतैवार्थ सिद्धरित्यप्यसमीचीनम् ; समानकालयाँवद्रव्यभाविसजाती. यगुणद्वयस्यान्यंत्रानुपलब्धेरैत्रापि तत्कल्पनाऽसम्भवात् । ५
सम्भवे वा तद्वितीयज्ञानं प्रत्यक्षम् , अप्रत्यक्षं वा? अप्रत्यक्षं चेत्, कथं तेनाद्यज्ञानप्रत्यक्षतासम्भवः? अप्रत्यक्षादप्यतस्तत्सस्भवे प्रथमज्ञानस्याऽप्रत्यक्षत्वेऽप्यर्थप्रत्यक्षतास्तु । प्रत्यक्षं चेत् । खतः, ज्ञानान्तराद्वा? स्वतश्चेदाद्यस्यापि स्वतः प्रत्यक्षत्वमस्तु । ज्ञानान्तराञ्चेत्सवानवस्था। आद्यज्ञानाच्चेदन्योन्याश्रयः-सिद्धे ह्याद्य-१० ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वे ततो द्वितीयस्य प्रत्यक्षतासिद्धिः, तत्सिद्धौ चाद्यस्येति ।
किञ्च, अनयोनियोर्महेश्वरानेदे कथं तदीयत्वसिद्धिः समवायादेरग्रे दत्तोत्तरत्वात् ? तैदाधेयत्वात्तत्त्वेप्युक्तम् । तदाधेयत्वं चें तत्र समवेतत्वम् , तच्च केन प्रतीयते ? न तावदीश्वरेण,१५
१ द्वयोनियोर्मध्ये । २ आयेन। ३ समूहस्य । ४ प्रयोजनम् । ५ कथमनवस्था। ६ गुणद्वयानुपलब्धेरित्युक्ते मातुलिङ्गे रूपरसाभ्यां व्यभिचारस्तत्र तदुपलब्धेरतः सजातीयेत्युक्तं तथापि क्रमेणात्मनि सुखा[सुखा ख्यगुणद्वयस्योपलब्धेरतः समानकालेत्युक्तं तथापि नानापुरुषैरुच्चार्यमाणशब्दानां समानकालसजातीयगुणत्वेन आकाशे उपलब्वेरतो यावद्र्व्यभावीत्युक्तं न चाकाशस्थितिपर्यन्तं शब्दानामनवस्थानं तेषामनित्यत्वेनोपगमात् त्रिक्षणस्थायित्वाच्च । ७ यावद्व्यं तावद्भावीति । ८ आत्मघटादौ। ९ ईश्वरो वीतगुणद्वयाधारो न भवति द्रव्यत्वात्पटवत् । १० तन्मतप्रक्रियापेक्षया। ११ ईश्वरस्य । १२ प्रथममेव । १३ ईप् । १४ तदाधेयत्वं समवायः तादात्म्यं तत्रोत्कलितत्वमित्यादौ दूषणम् । १५ किञ्च । १६ ईश्वरे। १७ ईश्वरे समवेतं (समवायेन सम्बद्धं ) शानद्वयं।
1"समानकालयावद्रव्यभाविसजातीयगुणद्वयस्यान्यत्रानुपलब्धेख्यम्बकेऽपि तत्कल्पनाया असंभवः । तथाच प्रयोगः-ईश्वरः समानकालयावद्व्यभाविसजातीय. गुणद्वयस्याधारो न भवति द्रव्यत्वात्...घटवत् ।” स्या० रत्ना० पृ० २२८ ।
2 "तदप्यर्थज्ञानमीश्वरस्य प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं वा? यदि प्रत्यक्षम् ; तदा स्वतो शानान्तराद्वा ? स्वतश्चेत् ; प्रथममप्यर्थज्ञानं स्वतः प्रत्यक्षमस्तु किं विज्ञानान्तरेण ? यदि तु ज्ञानान्तरात्प्रत्यक्षं तदपीष्यते, तदा तदपि ज्ञानान्तरं किमीश्वरस्य प्रत्यक्षमप्रत्यक्ष वेति स एव पर्यनुयोगोऽनवस्थानं च दुःशक्यं परिहर्तुम् ।" प्रमाणप० पृ० ६० 3 "किंचानयोनियोः पिनाकपाणेः सर्वथा भेदे कथं तदीयत्वसिद्धिः ?"
स्था० रत्ना० पृ० २२८ । प्र. क. मा० १२
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० तेनात्मनो ज्ञानद्वयस्थ चाग्रहणे “अनेदं समवेतम्' इति प्रतीत्ययोगात् । तस्य तत्र समवेतत्वमेव तद्हणमित्यपि नोत्तरमः अन्योन्याश्रयात्-सिद्ध हि 'इमत्र' इति ग्रहणे तत्र समवेतत्व. सिद्धिः, तस्याश्च तंद्रहणसिद्धिः। यश्चात्मीयज्ञानमात्मन्यपि स्थित ५ न जानाति सोर्थजातं जानातीति कश्चेतनः श्रद्दधीत? नापि शानेन 'स्थाणावह समवेतम्' इति प्रतीयते; तेनाप्याधीरस्यात्मनश्चाग्रहणात् । न च तद्ग्रहणे 'ममेदं रूपमत्र स्थितम्' इति सम्भवः ।
अस्तु वा सेमवेतत्वप्रतीतिः, तथापि-स्वज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वा. सर्वज्ञत्वविरोधः । तदप्रत्यक्षत्वे चानेनाशेषार्थस्याप्यध्यक्षता१० विरोधः । कथमन्यथात्मान्तरज्ञानेनाप्यर्थसाक्षात्करणं न स्यात् ? तथा चेश्वरानीश्वरविभागाभावः-स्वयमैप्रत्यक्षेणापीश्वरज्ञानेनाशेषविषयेणाशेषस्य प्राणिनोऽशेषार्थसाक्षात्करणप्रसङ्गात् । ततस्तद्विभागमिच्छता महेश्वरज्ञानं स्वतः प्रत्यक्षमभ्युपेगन्तव्यमित्य
नेनानेकान्तः सिद्धः। १५ अथामदादिज्ञानापेक्षया ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वं प्रमेयत्वहे
तुना साध्यतेऽतो नेश्वरज्ञानेनानेकान्तोऽस्यामदादिज्ञानाद्विशि
१ शानविकलो गृह्णाति शानसहितो वा । ज्ञानविकलश्चेत् ज्ञानद्वयकल्पनानर्थक्यमात्मैवार्थशनस्य ग्राहकोस्तु । ज्ञानसहितश्चेत् । तदपि ज्ञानमात्मनि समवेतमिति कुतो जानाति आत्मैव ज्ञानं वेत्यादिविचारः। २ अत्रेदं। ३ किञ्च । ४ शानवान् । ५ शानद्वयेन प्रतीयते। ६ ईशे । ७ ज्ञानाद्भेदे सत्यास्थाणुसदृश इत्यर्थः। ८ ईश्वरस्य। ९ ज्ञानरूपस्य। १० वसिन्। ११ ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वात् । १२ खप्रक्रियामात्रेण । १३ आत्मान्तरज्ञानेनाप्यर्थसाक्षात्करणं भवत्विति चेत् । १४ ईश्वरज्ञानस्य। १५ महेश्वरस्य । १६ किञ्च । १७ स्वस्य संसारिशानेनापीति अध्या( हा)रः। १८ ईश्वर। १९ बसः। २० परेण। २१ योगेन। २२ हेतोरीश्वरज्ञाने व्यभिचारः। २३ परेण मया।
1 "यदि पुनरप्रत्यक्षमेवेश्वरार्थज्ञानज्ञानं तदेश्वरस्य सर्वशत्वविरोधः स्वशानस्याप्रत्यक्षत्वात् । तदप्रत्यक्षत्वे च प्रथमार्थशानमपि न तेन प्रत्यक्षम् , स्वयमप्रत्यक्षेण ज्ञानान्तरेण तस्यार्थशानस्य साक्षात्करणविरोधात् । कथमन्यथा आत्मान्तरज्ञानेनापि कस्यचित् साक्षात्करणं न स्यात् । तथा चानीश्वरस्यापि सकलस्य प्राणिनः स्वयमप्रत्यक्षेणापि ईश्वरज्ञानेन सर्वविषयेण सर्वार्थसाक्षात्करणं संगच्छेत् ततः सर्वस्य सर्वार्थवेदित्वसिद्धेः ईश्वरानीश्वरविभागाभावो भूयते ।" प्रमाणप० पृ० ६०।
2 "स्यान्मतिरेषा ते युष्माकमस्मदादिज्ञानापेक्षया अर्थशानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वं प्रमेयत्वहेतुना साध्यते ततो नेश्वरज्ञानेन व्यभिचारः, तस्यास्सदादिज्ञानाद्विशिष्टत्वात् ।
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सू० ११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः १३५ धृत्वात् , न खलु विशिष्टे दृष्टं धर्ममविशिष्टेपि योजयन् प्रेक्षावचा लभते निखिलार्थवेदित्वस्याप्यखिलज्ञानानां तद्वत्प्रसङ्गात् । इत्यप्यसमीचीनम् ; स्वभावावलम्वनात् । स्वपरप्रकाशात्मकत्वं हि शानसामान्यस्वभावो न पुनर्विशिष्टविज्ञानस्यैव धर्मः। तंत्र तस्योपलम्भमात्रात्तद्धर्मत्वे भानौ स्वपरप्रकाशात्मकत्वोपलम्भात् प्रदीपे५ तत्प्रतिषेधप्रसङ्गः । तत्स्वभावत्वे तंद्वत्तेषां निखिलार्थवेदित्वानुपङ्गश्चेत् । तर्हि प्रदीपस्य खपरप्रकाशात्मकत्वे भानुवन्निखिलार्थोद्योतकत्वानुषङ्गः किन्न स्यात् ? योग्यतावशात्तदात्मकत्वाविशेषेपि प्रदीपादेनियतार्थोद्योतकत्वं ज्ञानेपि समानम् । ततो ज्ञानं खपरप्रकाशात्मकं ज्ञानत्वान्महेश्वरज्ञानवत्, अव्यवधानेनार्थप्र-१० काँशकत्वाद्वी, अर्थग्रहणात्मकत्वाद्वा तद्वदेव, यत्पुनः स्वपरप्रकाशात्मकं न भवति न तद् ज्ञानम् अव्यवधानेनार्थप्रकाशकम् अर्थग्रहणात्मकं वा, यथा चक्षुरादि।
आश्रयासिद्धश्च 'प्रमेयत्वात्' इत्ययं हेतुः, धर्मिणो ज्ञानस्यासिद्धेः । तत्सिद्धिः खलु प्रत्यक्षतः, अनुमानतो वा प्रमाणान्तरस्या-१५ त्रानधिकारात् ? तत्र न तावत्प्रत्यक्षतः; तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाभ्युपगमाद , तज्ज्ञानेन चक्षुरादीन्द्रियस्य सन्निकर्षाभावात् । अन्यदिन्द्रियं तेन चास्य सन्निकर्षों वाच्यः। मनोन्तःकरणम् , तेन चास्य संयुक्तसमवायः सम्वन्धः, तत्प्रभवं चाध्यक्षं धर्मिस्वरूपग्राहकम्-मनो हि संयुक्तमात्मना तत्रैव समवायस्तज्ज्ञानस्येति २० तदयुक्तम् ; मनसोऽसिद्धः । अथ 'घटादिज्ञानज्ञानम् इन्द्रियार्थ
१ स्वपरप्रकाशात्मकत्वं स्वसंविदितत्वं । २ असदादिज्ञाने। ३ अन्यथा । ४ निखिलं ज्ञानमखिलार्थवेदि शानत्वादीश्वरज्ञानवत् । ५ ता। ६ महेश्वरशाने शम्भौ च । ७ स्वप्रक्रियामात्रात् । ८ रवौ। ९ ईश्वरशानवत् । १० अस्सदादिशानानां । ११ शक्तिः। १२ कतिपय। १३ चक्षुरादिना व्यभिचारः। १४ भिन्नविशेषणं । १५ परिच्छित्ति । १६ अभिन्नविशेषणं। १७ बसः। १८ किञ्च । १९ घटादिज्ञानस्य । २० परेण। २१ चक्षुरादिपञ्चभ्यः। २२ परेण। २३ इन्द्रियं । २४ मनः। २५ घटादिशान।।
न हि विशिष्टे दृष्टं धर्ममविशिष्टऽपि घटयन् प्रेक्षावत्तां लभते इति; सापि न परीक्षासहा, ज्ञानान्तरस्यापि प्रज्ञानेन वेद्यत्वे अनवस्थानुषंगात् ।" प्रमाणप० पृ० ६०॥
न्यायकुमु० पृ० १८३ । स्या. रत्ना० पृ० २२२ । 1 "अत्र प्रयोगे हेतुराश्रयासिद्धः स्वरूपासिद्धश्च धर्मिणो ज्ञानस्याप्रतिपत्तौ तदाश्रितज्ञेयत्वधर्माप्रत्तिपत्तेः । तत्प्रसिद्धिः अध्यक्षतोऽनुमानतो वा प्रमाणान्तरस्यात्रानधिकारात् ।" सन्मति० टी० पु. ४७५ ।
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१३६ प्रमेयकमलमार्तण्डे
[प्रथमपरि० सन्निकर्षजं प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानत्वात् चक्षुरादिप्रभवरूपादिशानवत्' इत्यनुमानात्तत्सिद्धिरित्यभिधीयते, तदप्यभिधानमात्रमः हेतोरप्रसिद्धविशेषणत्वात् । न हि घटादिज्ञानज्ञानस्याध्यक्षत्वं सिंद्धम्, इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-मनःसिद्धौ हि तस्याध्यक्षव. ५ सिद्धिः, तत्सिद्धौ च सविशेषणहेतुसिद्धेर्मनःसिद्धिरिति। विशेष्यासिद्धत्वं च न खलु घटज्ञानाद्भिन्नमन्यज्ज्ञानं तद्राहकमनुभूयते। सुखादिसंवेदनेने व्यभिचारश्च; तद्धि प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानं न तजन्यमिति । अस्यापि पक्षीकरणान्न दोष इत्ययुक्तम् ; व्यभि.
चारविषयस्य पक्षीकरणे न कश्चिद्धतुर्व्यभिचारी स्यात् । 'अनित्यः १० शब्दःप्रमेयत्वाद् घटवत्' इत्यादेरप्यात्मादिना न व्यभिचारस्तस्य
पक्षीकृतत्वात् । प्रत्यक्षादिबाधो यत्र समाना । न हि 'घटादिवत्सुखाद्यविदितखरूपं पूर्वमुत्पन्नं पुनरिन्द्रियेण सम्वध्यते ततो ज्ञानं ग्रहणं च' इति लोके प्रतीतिः, प्रथममेवेष्टानिष्टविषयानुभवानन्तरं स्वप्रकाशात्मनोऽस्योदयप्रतीतिः । १५ वात्मनि क्रियाविरोधान्मिथ्येयं प्रतीतिः, न हि सुतीक्ष्णोपि.
खड्ग आत्मानं छिनत्ति, सुशिक्षितोपि वा नटबटुः खं स्कन्धमारोहतीत्यप्यसमीचीनम् ; स्वात्मन्येव क्रियायाः प्रतीतेः । खात्मा हि क्रियायाः स्वरूपम् , क्रियावदात्मा वा ? यदि स्वरूपम् , कथं तस्यास्तत्र विरोधः स्वरूपस्याविरोधकत्वात् ? अन्यथा सर्वभावानां
१ अनुमानज्ञानेन व्यभिचारस्तत्परिहारार्थ प्रत्यक्षत्वे सति ग्रहणम् । २ अन्यथा । ३ हेतोः। ४ घटञ्चान। ५ इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं न भवति । ६ प्रमेयेन । ७ आत्मनोऽनित्यत्वे सुखादिसंवेदनस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वे च। ८ पश्चात् । ९ मानसं करणरूपम् । १० सुखादिसंवेदनस्य । ११ प्रकाशलक्षणायाः। १२ ता । १३ आत्मार्थवाचकखशब्दपक्षे। १४ आत्मीयार्थवाचकस्वशब्दपक्षे। १५ विरोधकत्वे । १६ घटादि। __1"न; अस्य हेतोरप्रसिद्धविशेषणत्वात् , नहि घटादिज्ञानज्ञानस्य अध्यक्षत्वं सिद्धम् इतरेतराश्रयत्वात् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७६ 2 "सुखसंवेदनेन व्यभिचारी च; तथाहि-तत्संवेदनमध्यक्षत्वे सति ज्ञानं न च तज्जन्यमिति व्यभिचारः । अथास्यापि पक्षीकरणाददोषः, तथाहि-सुखादिसंवेदनमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजम् अध्यक्षज्ञानत्वात् चक्षुरादिप्रभवरूपादिवेदनवत्, सुखादि भिन्नशानवेद्यः ज्ञेयत्वात् घटवत् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७६ 3 "स्वात्मनि वृत्तिविरोधात् , नहि तदेव अंगुल्यग्रं तेनैव अंगुल्यग्रेण स्पृश्यते, सैवासिधारा तयैवासिधारया छिद्यते।" स्फुटार्थ-अमिध० पृ० ७८
4 "स्वात्मा हि क्रियायाःस्वरूपं क्रियावदात्मा वा ?" आप्तप० पृ० ४७ । न्यायककुमु० पृ० १८८ । स्था० रत्ना० पृ० २२९ ।
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सू० १११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः स्वरूपे विरोधानिस्वरूपत्वानुषङ्गः । विरोधस्य द्विष्ठत्वाच्च न क्रियायाः स्वात्मनि विरोधः। क्रियावदात्मा तस्याः खात्मा इत्यप्यसङ्गतम् , क्रियावत्येव तस्याः प्रतीतेस्तत्र तद्विरोधासिद्धेः' अन्यथा सर्वक्रियाणां निराश्रयत्वं सकलद्रव्याणां चाऽक्रियत्वं स्यात् । न चैवम् ; कर्मस्थायास्तस्याः कर्मणि कर्तृस्थायाश्च कर्तरि ५ प्रतीयमानत्वात् । किञ्च, तंत्रोत्पत्तिलक्षणा क्रिया विरुध्यते, परिस्पन्दात्मिका, धात्वर्थरूपा, ज्ञप्तिरूपा वा? यवुत्पत्तिलक्षणा, सा विरुध्यताम् ! नखलु 'ज्ञानमात्मानमुत्पादयति' इत्यभ्यनुजानीमः खसामग्रीविशेषवशात्तदुत्पत्त्यभ्युपगमात् । नापि परिस्पन्दात्मिकासौ तत्र विरुध्यते, तस्याः द्रव्यवृत्तित्वेन ज्ञाने सत्त्वस्यैवास- १० म्भवात् । अथ धात्वर्थरूपा; सा न विरुद्धौ ‘भवति तिष्ठति' इत्यादिक्रियाणां क्रियावत्येव सर्वदोपलब्धेः। जैप्तिरूपक्रियायास्तु विरोधो दूरोत्सारित एव; स्वरूपेण कस्यचिद्विरोधासिद्धेः, अन्यथा प्रदीपस्यापि वप्रकाशनविरोधस्तद्धि खकारणकलापात्स्वपरप्रकाशात्मकमेवोपजायते प्रदीपवत्।
ज्ञानक्रियायाः कर्मतया स्वात्मनि विरोधस्ततोऽन्यत्रैव कर्मत्वदर्शनादित्यप्यसमीक्षिताभिधानम् । प्रदीपस्यापि स्वप्रकाशनविरोधानुषङ्गात् । यदि चैकत्रं दृष्टो धर्मः सर्वत्राभ्युपगम्यते, तर्हि घटे प्रभाखरोष्ण्यादिधर्मानुपलब्धेः प्रदीपेप्यस्याभावप्रसङ्गः, रथ्यापुरुषे वाऽसर्वज्ञत्वदर्शनान्महेश्वरेप्यसर्वज्ञत्वानुषङ्गः। अत्र २० वस्तुवैचित्र्यसम्भवे ज्ञानेन किमपराद्धं येत्रिीसौ नेष्यते ? किञ्च ज्ञानान्तरापेक्षया तंत्र कर्मत्वविरोधः, स्वरूपापेक्षया वा?
१ अभाव । २ अर्थ । ३ स्वरूप १ ४ ओदनं पचति देवदत्तः। ५ न विरोधः। ६ ग्रामं गच्छति देवदत्तः। ७ ज्ञाने। ८ भवता परेण । ९ परेण । १० वयं जनाः। ११ खात्मनि । १२ देवदत्तादौ। १३ जानाति । १४ खात्मनि । १५ अर्थस्य । १६ असदादिज्ञान । १७ कुतः। १८ घटादौ। १९ किञ्च । २० स्वच्छिदिक्रियां प्रति कर्मत्वविरोधलक्षणः। २१ खनादौ। २२ शाने। २३ भाखरोष्ण्यसर्वशत्वलक्षण । २४ केन । २५ स्वपरप्रकाशरूपो वैचित्र्यसम्भवः। २६ परेण । २७ ज्ञानक्रियायां।
1 "का पुनः स्वात्मनि क्रिया विरुद्धा परिस्पन्दरूपा धात्वर्थरूपा वा? तत्त्वार्थशो० पृ० ४२ । स्या० रत्ना० पृ० २२८ । “का पुनः स्वात्मनि क्रिया विरुध्यते ज्ञप्तिरुत्पत्तिा ?" आप्तप० पृ० ४७ । स्याद्वादमं० पृ० ९३ । “उत्पत्तिरूपा, परिस्पन्दा. त्मिका, धात्वर्थस्वभावा, ज्ञप्तिलक्षणा वा ?" न्यायकुमु० पृ० १८७ ।
2 "किंच, ज्ञानान्तरापेक्षया तत्र कर्मत्वविरोधः स्वरूपापेक्षया वा?" न्यायकुमु० पृ० १८८॥
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प्रमेयकालमार्तण्डे [प्रथमपरि० प्रथमपक्षे-महेश्वरस्यासार्वज्ञत्वप्रसङ्गस्तज्ज्ञानेन्न तस्याऽवेद्यत्वात। आत्मसमवेतानन्तरझॉनवेद्यत्वाभावे च ___ "स्वसमवेतानन्तरज्ञानवेद्यमर्थज्ञानम्" [ ] इति ग्रन्थविरोधो मीमांसकमतँप्रवेशश्च स्यात् । ज्ञानान्तरापेक्षया तस्य ५ कर्मत्वाविरोधे च-स्वरूपापेक्षयाप्यविरोधोऽस्तु सहस्रकिरणवत्वपरोद्योतनस्वभावत्वात्तस्य । कर्मत्ववंच ज्ञानक्रियातोऽर्थान्तरस्यैव करणत्वदर्शनात्तस्यापि तत्र विरोधोऽस्तु विशेषाभावात । तथा च 'ज्ञानेनाहमर्थ जानामि' इत्यत्र ज्ञानस्य करणतया प्रती तिर्न स्यात् । १० विशेषणज्ञानस्य करणत्वाद्विशेष्यज्ञानस्य तत्फलत्वेन कियात्वात्तयोर्भेद एवेत्यपि श्रद्धामात्रम् ; "विशेषणज्ञानेन विशेष्यमहं जानामि' इति प्रतीत्यभावात् । 'विशेषणज्ञानेन हि 'विशेषणं विशेष्यज्ञानेन च विशेष्यं जानामि' इत्यखिलजनोऽनुमन्यते ।
किञ्च,नयोर्विषयो भिन्नः, अभिन्नो वा प्रथमपक्षे-विशेषणवि१५शेष्यज्ञानद्वयपरिकल्पना व्यर्थाऽर्थभेदाभावाद्धारावाहिविज्ञानवत्। द्वितीयपक्षे चानयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविरोधोऽर्थान्तरविषयत्वाद् घटपटज्ञानवत् । न खलु घटज्ञानस्य पटज्ञानं फलम् । न चौन्यत्र व्याप्ते विशेषणशाने ततोऽर्थान्तरे विशेष्ये परिच्छित्ति
र्युक्ता । नैं हि खदिरादावुत्पतननिय(प)तनव्यापारवति परशौ २० ततोऽन्यत्र धवादौ छिदिक्रियोत्पद्यते इत्येतत्प्रातीतिकम् । लिङ्ग
१ अस्मदादिशानस्य । २ प्रथमशान । ३ द्वितीयज्ञानेन । ४ किञ्च । ५ योगस्य । ६ करणज्ञानं न प्रत्यक्षं कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात् । ७ ज्ञानान्तरेणाप्यप्रत्यक्षत्वात् । ८ स्वरूपापेक्षया कर्मत्वविरोधं ब्रमः । ज्ञानान्तरापेक्षया किं कर्मत्वविरोधोस्ति । ९ परेणाङ्गीकृते। १० किञ्च । ११ कुठारादेः। १२ ज्ञानाद्भिन्नस्य करणत्वस्याविशेषात्कर्मत्ववत् । १३ शानकरणत्वविरोधे सति । १४ करणशानेन । १५ पक्षे । १६ लोके। १७ करणशानक्रियाशानयोः। १८ नीलादिज्ञानेन दण्डादिशानेन वा। १९ जानामि । २० उत्पलादिकं दण्डीत्यादिकं । २१ ता। २२ विशेषणशानविशेष्यज्ञानयोः। २३ विशेषणशानविशेष्यशानयोः। २४ भिन्नविषयत्वात् । २५ किञ्च । २६ नीलादौ विशेषणे। २७ सति । २८ उत्पलादौ । २९ ज्ञानं । ३० कथं । ३१ सति । ३२ धूमादिशानस्य ।
"प्रमाणफलते बुझ्योविशेषणविशेष्योः ।
यदा तदापि पूर्वोक्ताऽभिन्नार्थत्वनिराक्रिया ॥" मीमांसाशो० पृ० १५६ । 1 "विशेषणशानं करणं विशेष्यज्ञानं तत्फलत्वात् ज्ञानक्रियेति चेत्, स्यादेवं यदि विशेषणज्ञानेन विशेष्यं जानामीति प्रतीतिरुत्पद्यते ।" स्या० रखा० पृ० २२८ ।
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सू० १११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
१३९ ज्ञानस्यानुमानज्ञाने व्यापारदर्शनादत्राप्यविरोध इत्यप्यसम्भाव्यं तद्वत्क्रममावेनात्र ज्ञानद्वयानुपलब्धेः,एकमेव हि तयोहिकं ज्ञानमनुभूयते । ने चात्र विषयसेदाज्ज्ञानभेदकल्पना; समानेन्द्रियग्राह्ये योग्यदेशावस्थितेथे घटपटादिवदेकस्यापि ज्ञानस्य व्यापाराविरोधात् । न च घटादावपि ज्ञानभेदः समानगुणानां युगपद्भा-५ वानभ्युपगमात् । क्रममावे च प्रतीतिविरोधः सर्वज्ञाभावश्च । युगपद्धावाभ्युपगमे चानयोः सव्येतरगोविषाणवत्कार्यकारणभावाभावः । विशेषणविशेष्यज्ञानयोः क्रममावेप्याशुवृत्त्या योगद्याभिमानो यथोत्पलपत्रशतच्छेद इत्यायसङ्गतम् ; निखिलभावानां क्षणिकत्वप्रसङ्गात्सर्वत्रैकत्वाध्यवसायस्याशुवृत्तिप्रवृत्त-१० त्वात् । प्रत्यक्षप्रतिपन्नस्यास्य दृष्टान्तमात्रेण निषेधविरोधाँच्च, अन्यथा शुक्ले शङ्ख पीतविभ्रमदर्शनात्सुवर्णेपि तद्विभ्रमः स्यात् । सूर्तस्य सूच्यग्रस्यौत्तराधर्यस्थितमुत्पलपत्रशतं युगपत्प्राप्तुमशक्तेः क्रमच्छेदेप्याशुवृत्त्या योगपद्याभिमानो युक्तः, पुंसस्तु वावरणक्षयोपशमापेक्षस्य युगपत्स्वपरप्रकाशनवभावस्य समग्रेन्द्रियस्या-१५ प्राप्तार्थग्राहिणः स्वयममूर्तस्य युगपत्स्वविषयग्रहणे विरोधाभावात् किन्न युंगपज्ज्ञानोत्पत्तिः ?
न च मैंनोणि सूच्यग्रवन्मू-मिन्द्रियाणि तूत्पलपत्रवत्परस्परपरिहारस्थितानि युगपत्प्राप्तुं न समर्थमिति वाच्यम् तथाभूतस्यास्याऽसिद्धेः । युगपज्ज्ञानोत्पत्तिविभ्रमात्तत्सिद्धौ परस्पराश्रयः-२०
१ अग्न्यादिवाने । २ विशेष्यपरिच्छित्तौ। ३ विशेषणज्ञानव्यापारस्य । ४ लिङ्गलिङ्गिशानस्य । ५ नीलोत्पलयोर्विशेषणविशेष्ययोः । ६ एक। ७ अग्न्यादि । ८ शानानां । ९ नैयायिकानामनभ्युपगमात् । १० परैः। ११ कृत्वा। १२ कल्पना। १३ कथं । १४ घटपटादिपदार्थे । १५ एकोयमित्यध्यवसायः। १६ विशेषणविशेष्यशानयोगपद्यस्य । १७ किञ्च। १८ अविरोधे। १९ विशेषणविशेष्यरूप । २० कर्तृ । २१ कर्मरूपाणि । २२ परेण । __1 "न चात्र विषयभेदाज्शानभेदकल्पनोपपत्तिमती; समानेन्द्रियग्राह्ये योग्यदेशावस्थितेऽर्थे घटपटादिवदेकस्यापि ज्ञानस्य व्यापाराविरोधात् ।" स्या. रत्ना० पृ० २३०।
2 "मूर्तस्य सूच्यग्रस्यौत्तराधर्यव्यवस्थितमुत्पलपत्रशतं युगपद् ब्याप्तुमशक्केः क्रम• मेदेऽप्याशुवृत्तेः योगपद्याभिमान इति युक्तम् , आत्मनस्तु क्षयोपशमसव्यपेक्षस्य युगपत् स्वपरप्रकाशनस्वभावस्य स्वयममूर्तस्याप्राप्तार्थग्राहिणो युगपत् स्वविषयग्रहणे न कश्चिद्विरोध इति किन्न युगपज्ज्ञानोत्पत्तिः।" सन्मति० टी० पृ० ४७८ ।
3 "नच मनोऽपि सूच्यप्रवन्मूतमिन्द्रियाणि तूत्पलपत्रवत् परस्परपरिहारस्थितस्वरूपाणि न युगपद्माप्तुं समर्थमिति न युगपज्शानोत्पत्तिः, तथाभूतस्य तस्यैवासिद्धः।"
सन्मति० टी० पृ० ४७८ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० तद्विभ्रमसिद्धौ हि मनःसिद्धिः, ततस्तद्विभ्रमसिद्धिरिति । 'चक्षुरादिकं क्रमवत्कारणापेक्षं कारणान्तरसाकल्ये सत्यप्यनुत्पाद्योत्पादकत्वाद्वासीकतर्यादिवत्' इत्यनुमानत्तित्सिद्धिरित्यापि मनोरथमात्रम् भवदभ्युपगतेन मनसैवानेकान्तात् । न हि तत्साकल्ये तत् तथाभूतमपि क्रमवत्कारणान्तरापेक्षमनवस्थाप्रसङ्गात् । किञ्च, अनुत्पाद्योत्पादकत्वं युगपत् , क्रमेण वा ? युगपञ्चेद्विरुद्धो हेतुः तथोत्पादकत्वस्याक्रमिकारणाधीनत्वात् प्रसिद्धसहभाव्यनेकका यकारिसॉमग्रीवत् । क्रमेण चेदसिद्धः, कर्कटीभक्षणादौ युगपद्रूपादिज्ञानोत्पादकत्वप्रतीतेः । आशुवृत्त्या विभ्रमकल्पनायां तूंक्तम् । १० तन्न मनसः सिद्धिः।
सिद्धौ वा न संयोगः, निरंशेयोरेकदेशेन संयोगे सांशत्वम् । सर्वात्मनैकत्वम् उभयव्याघातकारि स्यात् । 'यत्र संयुक्तं मैंनस्तत्र
१ मनः। २ यद्यदुत्पादकं तत्तत्क्रमवत्कारणापेक्षम् । ३ आलोकरूपादि । ४ ज्ञान । ५ ता । ६ उत्पादकत्वादित्युच्यमाने नानाङ्कुरोत्पादकै नाबीजैरनेकान्तस्तद्यवच्छेदार्थमनुत्पाद्योत्पादकत्वादित्युक्तं तथापि वीजैरेवानेकान्तस्तव्यवच्छेदार्थ कारणान्तसाकल्ये सतीत्युक्तम् । एकस्माच्चक्षुरादिलक्षणात्कारणादपरमालोकरूपलक्षणं कारणान्तरं कारणान्तरसाकल्ये सत्यनुत्पाद्योत्पादकं न भवति किन्तूत्पादकमेव बीजम् । ७ हस्तः क्रमवत्कारणमत्र । ८ मनः । ९ पर। १० साधनस्य । ११ मनः। १२ अन्यथा। १३ क्रमसाध्ये अक्रममेव साधयेत् । १४ नित्यः शब्दः कृतकत्वात् । १५ अङ्क रादि । १६ बीजानि। १७ क्षित्युदकादिलक्षणा। १८ यथा बीजलक्षणा सामग्री क्षित्युदकादिलक्षणाऽक्रमकारणाधीना। १९ चक्षुरादीनां । २० तद्विभ्रमसिद्धौ हि मनःसिद्धिस्ततस्तविभ्रमसिद्धिरिति दूषणं। २१ स्वप्रक्रियामात्रेण । २२ आत्मना। २३ आत्ममनसोः । २४ घटते । २५ संयोगे। २६ मनोभ्युपगम्य तत्र किञ्च । २७ आत्मनि । २८ समवायिनि ।
1 आत्मेन्द्रियार्थाः करणान्तरापेक्षाः सद्भावेऽपि अनुत्पाद्योत्पादकत्वात् । ये हि सद्भावेऽपि कार्यमनुत्पाद्य पश्चादुत्पादयन्ति ते सापेक्षाः यथा तन्त्वादयः अन्त्यसंयो. गापेक्षा इति ।" प्रश० व्यो० पृ. ४२४ । प्रश० कन्द० पृ० ९० । 2 "किंच, अनुत्पाद्योत्पादकत्वमस्य क्रमेण, युगपदा विवक्षितम् ।"
न्यायकुमु० पृ० २७१।। .3 "सिद्धौ वा न संयोगः, निरंशयोरात्ममनसोरेकदेशेन संयोगे सांशत्वम् ।"
न्यायकुमु० पृ० २७२ । "नच निरंशयोरात्ममनसोः संयोगः संभवी, एकदेशेन तत्संयोगे सांशत्वप्रसक्तेः, सर्वात्मना संयोगे उभयोरेकत्वप्राप्तेः।" सन्मति० टी० पृ० ४७६ ।
4 "यदिच यत्र मनः संयुक्तं तत्र समवेतं शानं समुत्पादयति तदा सर्वत्मना
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सू० १११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः १४१ समवेते ज्ञानमुत्पादयति' इत्यभ्युपगमे चाखिलात्मसमवेतसुखादी ज्ञानं जनयेत् तेषां नित्यव्यापित्वेन मनसा संयोगोऽविशेषात् । तथा च प्रतिपाणि भिन्न मनोन्तरं व्यर्थम् । यस्य य॑न्मनस्तत्तत्समवायिनि ज्ञानहेतुरित्यप्यसारम् , प्रतिनियतात्मसम्बन्धित्वस्यैवात्रासिद्धेः । तद्धि तत्कार्यत्वात् , तदुपक्रियमाण-५ त्वात्, तत्संयोगात्, तदृष्टप्रेरितत्वात् , तदात्मप्रेरितत्वाद्वा स्यात् ? ने तावत्कार्यत्वेन तत्सम्वन्धिता; नित्ये तदयोगात्। नाप्युपक्रियमाणत्वेन; अनधेियाप्रहेयोतिसँये तस्याप्यसम्भवात् । नापि संयोगात्; सर्वत्रौस्याविशेषात् । नापि 'यदृष्टप्रेरितं प्रवर्तते निवर्तते वा तत्तस्य' इति वाच्यम्; अचेतनस्यादृष्टा १० स्यानिष्टदेशादिपरिहारेणेष्टदेशादौ तत्प्रेरणासम्भवात् , अन्यथेश्वरकल्पनावैफल्यम् । न चेश्वरस्यादृष्टप्रेरणे व्यापारात्साफल्यम् , मनस एवासौ प्रेरकः कल्प्यताम् किं परम्परैया ? तस्य
१ सुखादौ । परेण । ३ मनः कर्तृ । ४ निखिलात्मनाम् । ५ एकस्यैव मनसः सम्भवे सति। ६ मानसान्तरं । ७ व्यथं भवतीत्युक्ते परः प्राह । ८ आत्मनः । ९ कर्तृ । १० सुखादौ । ११ भवति । १२ जीव। १३ अस्यात्मन इदं मन इति । १४ मनसि। १५ मनो धर्मि प्रतिनियतात्मसम्बन्धि भवतीति साध्यम् । १६ प्रतिनियतात्म। १७ मनसः। १८ मनसः। १९ मनसः । २० ता। २१ भा। २२ मनसः। २३ मनसः। २४ मनसः। २५ मनसः। २६ नित्यपरमाणुपरिमाणं मन इति वचनात् । २७ आत्मना। २८ आरोपयितुमशक्य। २९ स्फोटयितुमशक्य। ३० अतिशये मनसि । ३१ आत्मसु। ३२ ता। ३३ अनिष्टात् । ३४ परेण। ३५ काल । ३६ मनः। ३७ विषये । ३८ परेण । ३९ महेश्वरेणादृष्टं प्रेर्यते अदृष्टेन मन इति परम्परा तया। ४० अदृष्टस्य ।।
व्यापितया समानदेशत्वेन मनसस्तैः संयुक्तत्वात् सर्वात्मसमवेतसुखादिषु तदेवैक ज्ञानमुत्पादयतीति प्रतिप्राणि भिन्नमनःपरिकल्पनमनर्थकमासज्येत।"
सन्मति० टी० पृ० ४७६ । न्यायकुमु० पृ० २७१ । 1 "न हि तत्कार्यत्वेन तत्सम्बन्धिता, तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् , तत्र चानाधेयाप्रहेयातिशये तत्कार्यताऽयोगात् ।" सन्मति० टी० पृ० ४७६ । 2 "नापि संयोगात् , तस्यापि तत्रैकदेशेन सर्वात्मना वाऽयोगात् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७६ । न्यायकुमु० पृ० २७२ । 3 "नच यददृष्टप्रेरितं तत्प्रवर्त्तते तत्सम्बन्धीति वक्तव्यम्; अदृष्टस्य अचेतनत्वेन प्रतिनियतविषय (ये) तत्प्रेरकत्वायोगात्, प्रेरकत्थे वा ईश्वरपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः"
सन्मति० टी० पु. ४७६ । न्यायकुमु० पृ०२७२ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० सर्वसाधारणत्वाचातो न तन्नियमः । चादृष्टस्यापि प्रतिनियमः सिद्धः; तस्यात्मनोऽत्यन्तभेदात् समवायस्यापि सर्वत्राविशेषात्। "येनात्मना यन्मनः प्रेर्यते तत्तस्य' इत्ययुक्तम्, अनुपलब्धस्य प्रेरणासस्वात्। ५ किञ्च, ईश्वरस्यापि स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे सदसवर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्वनोऽनेकत्वात्पञ्चाङ्गुलवत्' इत्यत्र पक्षीकृतै कदेशेनं व्यभिचारः-तज्ज्ञानान्यसदसद्वर्गयोरनेकत्वाविशेषेप्येकज्ञानालम्बनत्वाभीवादेकशाखाप्रभवत्वानुमानवेत् । खसंविदित
त्वाभ्युपगमे चास्य अनेनैवै प्रमेयत्वहेतोर्व्यभिचार इत्युक्तम् । १० 'अस्मदादिज्ञानापेक्षया ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वं साध्यते' इत्यत्राप्युक्तम् ।
किञ्चाये जाने सति, असति वा द्वितीयज्ञानमुत्पद्यते ? सति चेत्-युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिविरोधः । असति चेत्, कैस्य तद्धाहकम् ? असतो ग्रहणे द्विचन्द्रादिज्ञानवदस्य भ्रान्तत्वप्रसँङ्गः। १५ किञ्च, अस्मदादीनां तज्ज्ञानान्तरं प्रत्यक्षम् , अप्रत्यक्षं वा। यदि
प्रत्यक्षम्-स्वतः, ज्ञानान्तराद्वा? स्वतश्चेत्, प्रथममप्यर्थज्ञानं स्वतः प्रत्यक्षमस्तु। ज्ञानान्तरात्प्रत्यक्षत्वे तदपि ज्ञानान्तरं ज्ञानान्तरात्तत्यक्षमित्यनवस्था । अप्रत्यक्षं चेत् कथं तेनाद्यज्ञानग्रहणम् ? स्वयः
१ किञ्च । २ अस्येदमदृष्टमिति । ३ आत्मसु गगनादौ । ४ परैः । ५ द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायरूपः सर्गः। ६ प्राक्प्रध्वंसेतरेतरात्यन्ताभावरूपोऽसद्वर्गः। ७ पारिशेष्यादीश्वरस्य । ८ गुणरूपेन विज्ञानेन । ९ सद्वर्गेण । १० ईश्वर । ११ इन्दः । १२ ईश्वरज्ञानान्यपदार्थयोरेकशानालम्बनत्वे वसंविदितत्वप्रसङ्गः। १३ पक्कानि एतानि फलानि। १४ एवं । १५ हेतुः। १६ व्यभिचारपरिहारार्थ । १७ परैः। १८ ईश्वरस्य । १९ गुणरूपेण महेश्वरज्ञानेन। २० स्वभावालम्ब. नादिति । २१ स्वभावालम्बनादित्यादि । २२ अस्मदादेः। २३ शानान्तरम् । २४ मवन्मते । २५ शानस्य । २६ अर्थशानं भ्रान्तमसद्ब्रहणात् । २७ द्वितीयम् ।
__1 "नच येनात्मना यन्मनः प्रेर्यते तत्तत्सम्बन्धि इति प्रतिनियमः अदृष्टवदात्मनोऽपि अचेतनत्वेन तत्प्रत्यप्रेरकत्वात् । चेतनत्वेऽपि नानुपलब्धस्य प्रेरणम् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७७, न्यायकुमु० पृ० २७२। 2 "किंच, स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनः अनेकत्वात्पञ्चाङ्गुलवत्' इत्यत्र पक्षीकृतैकदेशेन व्यभिचारः, तज्ज्ञानान्यसदसद्वर्गयोरनेकत्वाविशेषेऽपि एकशानालम्बनत्वाभावात् एकशाखाप्रभवत्वानुमानवत् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७७ ।
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सू० १११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः अप्रत्यक्षेण ज्ञानान्तरेणात्मान्तरज्ञानेनेवास्यै ग्रहणविरोधात् । ननु ज्ञानस्य स्वविषये गृहीतिजनकत्वं ग्राहकत्वम् , तच्च ज्ञानान्तरेणागृहीतस्थापीन्द्रियादिवद्युक्तमित्यपि मनोरथमात्रम्, अर्थज्ञानस्यापि ज्ञानान्तरेणागृहीतस्यैवार्थग्राहकत्वानुषङ्गात् । तथा च शीनज्ञानपरिकल्पनावैयर्थं मीसांसकमतानुषङ्गश्च ।
लिङ्गशब्दसादृश्यानां चोंगृहीतानां स्वविषये विज्ञानजनकत्वप्रसगात्तद्विषयविज्ञानान्वेपणानर्थक्यम् । 'अयथोपलम्भाददोषः' इत्यभ्युपगमेपि किञ्चिल्लिंङ्गादिकमज्ञातमेव चक्षुरादिकं तु ज्ञातमेव स्वविषये प्रमितिमुत्पादयेत्तत एव । अथ चक्षुरादिकमेवाज्ञातं खविषये प्रमितिनिमित्तम् , न लिङ्गादिकं तत्तु ज्ञातमेवे १० नान्यथाऽतो नोभयत्रोमैयथाप्रसङ्गःप्रतीतिविरोधात्, नन्वेवं यथा अर्थज्ञानं ज्ञातमर्थ ज्ञप्ति निमित्तम् , तथा ज्ञानज्ञानमपि ज्ञानेऽस्तु, तंत्राप्युभयथापरिकल्पने प्रतीतिविरोधाविशेषात् । यथैव हि'विवादापन्नं चक्षुरौद्यज्ञातमेवार्थ ज्ञप्तिनिमित्तं तत्त्वादसञ्चक्षुरादिवत् । लिङ्गादिकं तु ज्ञातमेव क्वचिज्ज्ञप्तिनिमित्तं तत्त्वादुभयवादि-१५
१द्वितीयेन । २ सन्तानान्तर । ३ ज्ञानस्य । ४ द्वितीयं । ५ अर्थशाने । ६ परिच्छित्ति। ७ कथ्यते । ८ तृतीयज्ञानेन। ९ द्वितीयशानस्य । १० अदृष्टादि । ११ ईप्। १२ मीमांसकमते अगृहीतस्यैव (परोक्षस्य ) ज्ञानस्यार्थग्राहकत्वात् । १३ गामभ्याजेत्यादि । १४ संज्ञासंशिसम्बन्धप्रतिपत्तेः कारणं सादृश्यं । १५ किञ्च । १६ अनुमेये। १७ गामभ्याजेत्यादिवाक्याथें । १८ लिङ्गादिश्चासौ विषयश्च । १९ इन्द्रियस्याज्ञातस्य लिङ्गादेर्शातस्य । २० न त्वज्ञातं शापकं नाम । २१ गृहीतस्यागृहीतस्य च गृहीतिजनकत्वेन । २२ अर्थशानतद्राहकशानवच्च । २३ परेण । २४ परकीयं । २५ असदादिकं लिङ्गन्तु ज्ञातमेव । २६ परकीयं । २७ परस्य । २८ चक्षुरादौ लिङ्गादौ च । २९ यथाक्रमं ज्ञातत्वाशातत्वप्रकारेण । ३० इति चेत् । ३१ उभयथोभयत्र विकल्पे प्रतीतिविरोधप्रकारेण । ३२ ज्ञातं। ३३ शप्तिनिमित्तं । ३४ शाने। ३५ एकं ज्ञातमपरं चाज्ञातं स्वविषये प्रमितिजनकम् । ३६ परस्य । ३७ परकीयम् । ३८ अप्रत्यक्षत्वाविशेषाभावात् । ३९ परस्य । ४० स्वविषये।
1 "स्यान्मतम्-चक्षुरादिकमेवाज्ञातं स्वविषयज्ञप्तिनिमित्तं दृष्टं न तु लिंगादिकम् , तदपि शातमेव नान्यथा ततो नोभयत्रोभयथाप्रसङ्गः प्रतीतिविरोधादिति; तहि यथा अर्थशानं व्यवसितमर्थशप्तिनिमित्तं तथा ज्ञानज्ञानमपि ज्ञानेऽस्तु, तत्रापि उभयथा परि. कल्पनायां प्रतीतिविरोधस्याविशेषात् । कया पुनःप्रतीत्या अत्र विरोध इति चेत् । चक्षुरादिषु कयेति समः पर्यनुयोगः । विवादापन्नं चक्षुरादिकमज्ञातमेव अर्थशप्तिनिमित्रं चक्षुरादित्वात्. तथा विवादाध्यासितं लिंगादिकं ज्ञातमेव कचिद्विशप्तिनिमित्तम् लिङ्गादित्वात् , यदित्थं तदित्थं यथोभयवादिप्रसिद्धं धूमादि, तथा च विवादाध्यासितं
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० प्रसिद्धधूमादिवत्' इत्यनुमानप्रतीत्यात्रोभयथा कल्पने विरोधः। तथा 'ज्ञानज्ञानं ज्ञातमेव स्वविषये ज्ञप्तिनिमित्तं ज्ञानत्वादर्थज्ञानवत्' इत्यत्रापि सर्वथा विशेषाभावात् । यदि चौप्रत्यक्षेणार्यनेनार्थज्ञानप्रत्यक्षता; तीश्वरज्ञानेनात्मनोऽप्रत्यक्षेणाशेषविपयेण ५ प्राणिमात्रस्याशेषार्थसाक्षात्करणं भवेत् , तथा चेश्वरेतरविभा
गाभावः । स्वज्ञानगृहीतमात्मनोऽध्यक्षमित्यप्यसङ्गतम्, खेसं. विदितत्वोभावे स्वज्ञानत्वासिद्धेः । स्वस्मिन्समवेतं स्वज्ञानम् इत्यपि वार्तम् ; समवायनिषेधात्तविशेषाँच्च । 'स्वकार्यम्' इत्य
प्यसम्यक् ; समवायनिषेधे तदाधेयतयोत्पादस्याप्यसिद्धेः। जन१० कत्वमात्रेण तत्त्वे दिक्कालादौ तत्प्रसङ्गः। नित्यज्ञानं चेश्वरस्यापि न स्यात् ततः स्वतो ज्ञानं प्रत्यक्षम् अन्यथोक्तदोषांनुषङ्गः।
ननु ज्ञानान्तरप्रत्यक्षत्वेपि नानवस्था, अर्थज्ञानस्य द्वितीयेनास्यापि तृतीयेन ग्रहणादर्थसिद्धेरैपरज्ञानकल्पनया प्रयोजनाभा
१ ज्ञान। २ प्रतीतिविरोधः। ३ किञ्च । ४ द्वितीयज्ञानेन । ५ स्यात् । ६ असदादेः। ७ असदादि। ८ अर्थशानं। ९ अस्सदादेः। १० कथ्यते । ११ असदादिना। १२ द्वितीयशानस्य । १३ आत्मनि। १४ सर्वेष्वात्मसु । १५ आत्मनः । १६ स्वज्ञानम् । १७ आत्मनि । १८ सति । १९ विवक्षितात्मनि । २० स्वज्ञानस्य । २१ जन्मनः । २२ निमित्तकारण । २३ स्वकीयत्वे । २४ शानस्य स्वकीयत्व । २५ तज्जनकत्वाविशेषात् । २६ किञ्च । २७ ज्ञातत्वात् । २८ कार्यस्यानित्यत्वात् । २९ ज्ञानत्वात् । ३० अनवस्था । ३१ चतुर्थ । लिंगादि, तस्मात्तथेत्यनुमानप्रतीत्या तत्रोभयथाकल्पने विरोध इति चेत् ; तर्हि विवा. दापन्नं ज्ञानं ज्ञातमेव स्वविषये शप्तिनिमित्तं ज्ञानत्वात् , यदेवं तदेवं यथा अर्थशानम्, तथा च विवादाध्यासितं ज्ञानज्ञानम् , तस्मात्तथेत्यनुमानप्रतीत्यैव तत्रोभयथा कल्पनायां विरोधोऽस्तु सर्वथा विशेषाभावात् , तथा चानवस्थानं दुर्निवारमेव नैयायिकम्मन्यानाम् ।"
युक्त्यनु० टी० पृ० ८। 1 "स्वयमसिद्धेन ज्ञानेन गृहीतस्याप्यगृहीतरूपत्वात् , अन्यथा सर्वज्ञज्ञानगृहीतस्य रथ्यापुरुषज्ञानगृहीतत्वं भवेदिति तस्यापि सर्वज्ञताप्रसक्तिः।" सन्मति० टी० पृ० ४७८ ।
2 "न च स्वज्ञानगृहीतं तद्गृहीतमिति नायं दोषः; स्वसंविदितज्ञानाभावे स्वज्ञानमित्यस्यैवासिद्धेः।"
सन्मति० टी० पृ० ४७८ । 3 "स्वस्मिन् समवेतं स्वज्ञानमभिधीयत इति नायं दोषः इति चेत् ; न; तस्याभावात् , भावेप्यविशिष्टत्वात् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७८ 4.... तेन घटादिज्ञानस्य धर्मिणः द्वितीयेन, तस्यापि तृतीयेन ग्रहणादर्थसिद्धर्नापरज्ञानकल्पन मिति नानवस्था इति यदुक्तम् । तदप्यसङ्गतम् ; तृतीयादेर्शानस्याग्रहणे प्रथमस्याप्य सिद्धेरुक्तन्यायात्" सन्मति० टी० पृ० ४७९ । युक्त्यनु० टी० पृ०९।
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सू० १११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
१४५ वात् । अर्थजिज्ञासायां ह्यर्थे ज्ञानम् , ज्ञानजिज्ञासायां तु ज्ञाने, प्रतीतेरेवंविधैत्वात् । इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् तृतीयज्ञानस्याग्रहणे तेन प्राक्तनज्ञानग्रहणविरोधात्, इतरथा सर्वत्रं द्वितीयादिज्ञानकल्पनानर्थक्यं तत्र चोक्तो दोषः।
किञ्च, 'अर्थजिज्ञासायां सत्यामहमुत्पन्नम्' इति तज्ञानादेव५ प्रतीतिः, ज्ञानान्तराद्वा? प्रथमपक्षे जैनमतसिद्धिस्तथाप्रतिपद्यमानं हि ज्ञानं स्वपरपरिच्छेदकं स्यात् । द्वितीयपक्षेपि 'अर्थज्ञानमज्ञातमेव मयार्थस्य परिच्छेदकम्' इति ज्ञानान्तरं प्रतिपद्यते चेत् । तदेव स्वार्थपरिच्छेदकं सिद्धं तथाद्यमपि स्यात् । न प्रतिपद्यते चेत्कथं तथाप्रतिपत्तिः?
किञ्च, अर्थशॉनमर्थमात्मानं च प्रतिपद्य 'अज्ञातमेव मया ज्ञानमर्थ जानाति' इति ज्ञानान्तरं प्रतीयात्, अप्रतिपद्य वा। प्रथमपक्षे त्रिविषयं ज्ञानान्तरं प्रेसज्येत । द्वितीयपक्षे तु अतिप्रसङ्गः 'मयाऽज्ञातमेवादृष्टं सुखादीनि करोति' इत्यपि तेजानीयादविशेषात् ।
१ जातं । २ शानं जातं । ३ जिशासापूर्वकत्वात् । ४ चतुर्थेन । ५ द्वितीय । ६ अर्थशाने । ७ आत्मनि । ८ प्रथमज्ञानेनालम् । ९ अशेषस्य प्राणिमात्र स्याशेषज्ञत्व. लक्षणः । १० अर्थशानं । ११ मित्यादि । १२ प्रथम । १३ कर्तृ । १४ जानाति । १५ ज्ञानान्तरम् । १६ अर्थशानं। १७ ज्ञानत्वाद्वितीयशानवत् । १८ कर्तृ । १९ ज्ञानस्वरूपं । २० त्रिवयमपि द्वितीयशानस्स कर्मभूतम् । २१ ज्ञात्वा । २२ कर्तृ । २३ कर्तृ । २४ बसः । २५ अपसिद्धान्तप्रसङ्गः। २६ कर्त । २७ त्रितयाविषयीकरणस्य ।
1 "स्वयमर्थज्ञानं ममेदमित्यप्रतिपत्तौ तथाप्रतीतेरसंभवात् , प्रतिपत्तौ तु स्वत एव तत्प्रतिपत्तिः, ज्ञानान्तरादा ? स्वतश्चेत् ; स्वार्थपरिच्छेदकत्वसिद्धिवेदनस्य वस्तुबलप्राप्ता, 'क्वचिदर्थे जिज्ञासायां सत्यामहमुत्पन्नमिति स्वयं प्रतिपद्यमानं हि ज्ञानं स्वार्थपरिच्छेदकमभ्यनुज्ञायते नान्यथेति जैनमतसिद्धिः । यदि पुनर्शानान्तरात्तथाप्रतिपत्तिस्तदापि तदर्थज्ञानम् अज्ञातमेवमयाऽर्थस्य परिच्छेदकमिति स्वयं ज्ञानान्तरं प्रतिपद्यते चेत्तदेव स्वार्थपरिच्छेदकं सिद्धम् । न प्रतिपद्यते चेत्कथं तथा प्रतिपत्तिः ।" युक्त्यनु० टी० पृ० ९ । न्यायकुमु० पृ० १८६ ।
2 "किंचेदं विचार्यते-ज्ञानान्तरम् अर्थज्ञानमर्थमात्मानञ्च प्रतिपद्य अशातमेव मया ज्ञातमर्थ जानातीति प्रतिपाद्य, अप्रतिपाद्य वा ? प्रथमे पक्षे अर्थस्य तज्ज्ञानस्य स्वात्मनः स्वपरिच्छेदकत्वविषयं शानान्तरं प्रसज्येत । द्वितीयपक्षे पुनरतिप्रसङ्गः, मुखादिकमज्ञातमेवादृष्टं मया करोतीत्यपि जानीयादविशेषात् ।" युचयनु० टी० पृ० ९।
न्यायकुमु० पृ० १८६ ।। प्र० क० मा० १३
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१४६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० नापि शेक्तिक्षयात् , ईश्वरात्, विषयान्तरसञ्चाराद् , अदृष्टाद्वाऽनवस्थाभावः। न हि शक्तिक्षयाच्चतुर्थादिज्ञानस्यानुत्पत्तेरनवः स्थानाभावः । तदनुत्पत्तौ प्राक्तनज्ञानासिद्धिदोषल्य तेवस्थ. त्वात् । तत्क्षये च कुतो रूपादिज्ञानं साधनादिज्ञानं वा यतो ५ व्यवहारः प्रवर्त्तत ? न च चतुर्थादिज्ञानजननशक्तेरेव क्षयो नेतरस्याः; युगपद्नेकशक्त्यभावात् । भावे वा तथैव ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गः । नित्यस्योपरांपेक्षाप्यसम्भाव्या। क्रमेण शक्तिसद्भावे कुतोऽसौ ? न तावदात्मनोऽशक्तात्, तदसम्भवात् । शक्त्यन्तर
कल्पने चानवस्था। १. ईश्वरस्तां निवारयतीत्यपि बालविलसितम्। कृतकृत्यस्य तन्नि
वारणे प्रयोजनाभावात् । परोपकारः प्रयोजनमित्यसत्; धर्मिग्रहणाभावस्य तेंवस्थत्वप्रसङ्गात् , अप्रतीतेनिषिद्धत्वाच्चास्य ।
न चै विषयान्तरसञ्चारात्तन्निवृत्तिः, विषयान्तरसञ्चारो हि धर्मिज्ञानविषयादन्यत्र साधनादिविषये ज्ञानोत्पत्तिः। न च तज्ज्ञा.
१ किञ्च । २ प्रतिपत्तुः। ३ पञ्चषष्ठादि । ४ प्रथमद्वितीयतृतीय। ५ पूर्व. निरूपित । ६ शक्ति । ७ दृष्टान्तादि। ८ कुतः। ९ रूपादिज्ञानजनितायाः शक्तेः । १० अपसिद्धान्तः। ११ आत्मनः। १२ ज्ञानोत्पत्तौ । १३ शक्ति । १४ शक्तिभवेत् । १५ असमर्थात् । १६ ता । १७ शक्तादात्मनश्चेन्न । १८ आत्मगताः शक्तयः शक्तिमत एवात्मनः उत्पद्यन्ते इत्यनेन प्रकारेण। १९ आद्यशानशानाभावस्य । २० पूर्वनिरूपित । २१ घटादिज्ञानशानमित्यादौ । २२ धर्मिशानज्ञानस्य। २३ तृतीयशानात् । २४ ता। २५ बसः। २६ आयज्ञानस्य । १७ तृतीयशानात् । २८ तृतीयज्ञानस्य । २९ द्वितीय।
1 "न च शक्तिप्रक्षयाच्चतुर्थज्ञानादेरनुत्पत्तेरनवस्थानिवृत्तिः, धर्मिग्रहणस्यैवमभावापत्तेः ।... किंच, यदि शक्तिप्रक्षयादनवस्थानिवृत्तिः, बाह्यविषयमपि ज्ञानं न भवेत् शक्तिप्रक्षयादेव ।" सन्मति० ब० पृ० ४७९ ॥
2 "नच चतुर्थादिज्ञानजननशरेव प्रक्षयः न बाह्यविषयज्ञानशक्तः, युगपदनेकशक्त्यभावात् , भावे वा युगपदनेकज्ञानोत्पत्तिप्रसक्तिः।" सन्मति० टी० पृ० ४७९ ।
3 "एतेन ईश्वरादनवस्थानिवृत्तिरिति प्रतिविहितम् ; तस्यादृष्टकल्पनत्वात् , प्रतिषिद्धत्वाच ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७९ । 4 "न च विषयान्तरसञ्चारादनवस्थानिवृत्तिः, यतो धर्मिज्ञानविषयात् साधनादिविषयान्तरम् , तत्र ज्ञानस्योत्पत्तेः विषयान्तरसञ्चारः । न चापरापरज्ञानग्राहिज्ञानसन्तत्युत्पत्तौ अवश्यम्भाविबाह्यसाधनादिविषयसन्निधानम् , येन तत्र ज्ञानस्य सञ्चारो भवेत् । सन्निधानेऽपि अन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्गस्यैव बलीयस्त्वात् नान्तरङ्गविषयपरिहारेण बाह्यविषये शावोत्पत्तिभवेदिति कुतोऽनवस्थानिवृत्तिः ?” सन्मति० टी० ५० ४७९ ।
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सू० ११०] ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः १४७ नसन्निधानेऽवश्यं सौधनादिना सन्निहितेन भवितव्यमसिद्धोदेरभावापत्तेः । सन्निहितेपि वा जिघृक्षिते धर्मिण्यहीते कथं विषयान्तरे ग्रहणाकांक्षा? कथं वा तज्ज्ञानमेकॉर्थसमवेतत्वेन
सन्निहितं विहाय तद्विपरीते दृष्टान्तादौ शानं ज्ञायेत् ? ___ अदृष्टात्तनिवृत्तौ स्वसंविदितज्ञानोत्पत्तिरेवातोऽस्तु किं मिथ्या-५ भिनिवेशेन ? तन्न प्रत्यक्षाद्धर्मिसिद्धिः।
लाप्यनुमानात्; तत्सद्भावावेदकस्य तस्यैवासिद्धेः । सिद्धौ वा तत्राप्याश्रयासियादिदोषोपनिपातः स्यात् । पुनरत्राप्यनुमानान्तरात्तत्सिद्धावनवस्था । इत्युक्तदोषपरिजिहीर्षया प्रदीपवत्स्वपरप्रकाशनशक्तिद्वयात्मकं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । तदपह्नवे १० वस्तुव्यवस्थाभावप्रसङ्गात्।
ननु स्वैपरप्रकाशो नाम यदि वोधरूपत्वं तदा साध्यविकलो दृष्टान्तः प्रदीपे वोधरूपत्वस्यासम्भवात् । अथ भासुररूपसम्वन्धित्वं तस्य ज्ञानेऽत्यन्तासम्भवात्कथं साध्यता ? अन्यथा प्रत्यक्षबाधस्तदप्यसमीचीनम् ; तत्प्रकाशो हि स्वपररूपोद्योतनरूपोऽ-१५ भ्युपगम्यते । स च कंचिद्वोधरूपतया कचित्तु भासुररूपतया वा न विरोधमध्यास्ते।
१ तृतीयज्ञानस्यैकात्मसमवेतत्वेन। २ दृष्टान्तादि । ३ अन्यथां । ४ आश्रय । ५ दृष्टान्त । ६ साधनादौ। ७ अर्थज्ञाने। ८ तृतीयेन द्वितीयस्याग्रहणे द्वितीयेन प्रथमस्याग्रहणे । ९ प्रतिपत्तुः। १० किञ्च । ११ धर्मिज्ञानतृतीयज्ञानं । १२ एकात्मनि। १३ तृतीयं चतुर्थ। १४ ज्ञानान्तरेणैव वेद्यं ज्ञानमिति । १५ द्वितीयविकल्पः । १६ ग्राहकस्य । १७ धर्मिशान। १८ ता। १९ हेतोरसिद्धिः। २० द्वितीयेऽनुमाने। २१ ईश्वरज्ञानेन सुखसंवेदनेन चानेकान्तः धर्म्यसिद्धिः। २२ परेण । २३ घटादिशान। २४ ज्ञानं स्वपरप्रकाशकमर्थप्रकाशकत्वाप्रदीपवत्। २५ प्रदीपे बोधरूपत्वे शाने भासुररूपसम्बन्धित्वे सति । २६ शाने भासुररूपसम्बन्धित्वं विद्यते चेत् । २७ प्रकटन । २८ जैनैः । २९ शाने ।
1 "नचादृष्टवशादनवस्थानिवृत्तिः, स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगमेनापि अनवस्थानिवृत्तः संभवात् , अन्यथा कार्येऽनुपपद्यमाने अदृष्टपरिकल्पनाया उपपत्तेः । स्वसंवेदनेऽपि अदृष्टस्य शक्तिप्रक्षयाभावात् ।"
सन्मति० टी० पृ० ४७९ । 2 "यदि प्रकाशकत्वं बोधरूपत्वं विवक्षितं तदा साधनविकलमुदाहरणम् , प्रदीपे बोधरूपत्वस्यासंभवात् । अथ प्रकाशकत्वं भास्वररूपसम्बन्धित्वं तद् विज्ञाने नास्ति ।"
प्रश० व्यो० पृ० ५२९ । 3 "यतः अर्थप्रकाशकत्वमोद्योतकत्वमुच्यते, तच्च कचिद्बोधरूपतया क्वचिद्भासुररूपतया वा न विरोधमध्यास्ते।" न्यायकुमु० पृ० १८९ । स्या. रत्ना० पृ० २३१॥
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१४८ प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि०
ननु 'येनात्मना ज्ञानमात्मानं प्रकाशयति ऐन चार्थ तौ चेत्ततोऽभिन्नौ ताहि तोवेव न ज्ञानं तस्य तत्रानुप्रवेशात्तत्स्वरूपवत्, ज्ञानमेव वा तयोस्तत्रानुप्रवेशात्, तथा च कथं तस्य स्वपरप्रकाशनशक्तिद्वयात्मकत्वम् ? भिन्नौ चेत्स्वसंविदितौ, स्वाश्रय ५ज्ञानविदितौ वा । प्रथमपक्षे खसंविदितज्ञानेंत्रयप्रसङ्गस्तत्रापि प्रत्येकं स्वपरप्रकाशस्वभावद्वयात्मकत्वे स एव पर्यनुयोगोऽनवस्था च । द्वितीयपक्षेऽपि वपरप्रकाशहेतुभूतयोस्तयोर्यदि ज्ञानं तथाविधेन स्वभावद्वयेन प्रकाशकं तनिवस्था । तदप्रकाशकत्वे प्रमाणत्वायोगैस्तयोर्वा तत्स्वभावत्वविरोध इति' एकान्तादिना१० मुपलम्मो नास्माकम् , जात्यन्तरत्वात्स्वभावतद्वतोर्मेंदामेदं प्रत्य
नेकान्तात् । ज्ञानात्मना हि स्वभावतद्वतोरभेदः, स्वपरप्रकाशै. स्वभावात्मना च भेदै इति ज्ञानमेवाभेदोऽतो भिन्नस्य ज्ञानात्मनोऽ. प्रतीतेः । स्वपरप्रकाशस्वभावे च भेदस्तयतिरिक्तयोस्तरप्रतीयमानत्वादित्युक्तदोषानवकाशः । कल्पितयोस्तु भेदाभेदैकान्त५योस्तषणप्रवृत्तौ सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसङ्गात् न कस्यचिदिष्टतत्त्वव्यवस्था स्यात् । स्वपरप्रकाशस्वभावौ च प्रमाणस्य तत्प्रकाशनसामर्थ्यमेव, तद्रूपतया चांस्य परोक्षता तत्प्रकाशनलक्षण
१ स्वभावेन । २ भवतः। ३ तौ। ४ शानात् । ५ द्वौ स्वभावौ ज्ञानं च। ६ प्रत्येकं स्वपरप्रकाशनस्वभावौ भिन्नावभिन्नौ वा । अभिन्नपक्षे प्रागुक्तमेव दूषणं भिन्नपक्षे स्वसंविदितौ स्वाप्रयज्ञानविदितो वेत्यादि । ७ भावयोः। ८ भिन्नेन । ९ स्वभावद्वयप्रकाशनात् । १० शानस्य । ११ ज्ञानस्य । १२ शान । १३ भा। १४ परेषां भवताम् । १५ जनानाम् । १६ प्रकारान्तरत्वात्। १७ कथञ्चिद् मेदामेदरूपत्वात्। १८ असत्प्रत्यक्षस्य । १९ अनियमात् । २० स्वरूपेण । २१ ईयेकः। २२ वा द्विः। २३ ज्ञानस्य । २४ ता। २५ ता। २६ इति । २७ ज्ञानरूपखभावरूपामेदायां । २८ स्वभावतद्वतोः। २९ स्वपरप्रकाशनस्वभावभेदाभेदपक्षयोः । ३० भवत्पक्षे मया योगेन । ३१ सुखात्मनोरभेदो ब्रह्माद्वैतवादिना कल्पितस्तत्राभेदे त्वया दूषणमुद्भाव्यते भेदप्रतिभासो न स्यादेकात्मनि सौगतेन भेदः कल्पितस्तत्र भेदे त्वया दूषणमुद्भाव्यते अनुसन्धानं न स्यादिति । तथापि भेदाभेदपक्षदूषणं स्यात् । कथं त्वया द्रव्यगुणयोर्भेदोऽभ्युपगतः आत्मन्यभेदस्त्वत्पक्षेपि परेणो. द्भाव्यमानं दूषणं प्रसज्येत। ३२ वस्तुनि । ३३ कारको न शापको झाप्यस्य । ३४ शानस्य।
1 "यच्चान्यदुक्तं येनैवात्मना ज्ञानमात्मानं प्रकाशयति वेनैवार्थम् इत्यादि। तदसमीक्षिताभिधानम् ; स्वभावतद्वतोः भेदाभेदं प्रत्यनेकान्तात् ।" न्यायकुमु० पृ० १८९ । स्या० रत्ना० पृ० २३२ । (तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२५)
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सू० ११११-१३] प्रामाण्यवादः
१४९ कार्यानुमेयत्वात्तयोः । सकलभावानां सामर्थ्यस्य कार्यानुमेयतया निखिलवादिभिरभ्युपगमात् । अग्दिशां चान्तर्बहिर्वार्थो नैकान्ततः प्रत्यक्ष इत्यत्राखिलवादिनाम विप्रतिपत्तिरेवेत्युक्तदोषानवकाशतया प्रमाणस्य प्रत्यक्षताप्रसिद्धरलं विवादेन । अ#मेवार्थ समर्थयमानः कोवेत्यादिना करणार्थमुपसंहरति ।।
को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥ ११ ॥
प्रदीपवत् ॥ १२ ॥ को वा लो(लौ )किकः परीक्षको वा तत्प्रतिभासिनमर्थमंध्यक्षमिच्छंस्तदेव प्रमाणमेव तथा प्रत्यक्षप्रकारेण नेच्छेत् ! १० अपि तु प्रतीतिं प्रमाणयनिच्छेदेव । अत्रैवार्थे परीक्षकेतरजनप्रसिद्धत्वात् प्रदीपं दृष्टान्तीकरोति ? यथैव हि प्रदीपस्य स्वप्रकाशतां प्रत्यक्षतां वा विना तत्प्रतिभासिनोर्थस्य प्रकाशकता प्रत्यक्षता वा नोपपद्यते । तथा प्रमाणस्यापि प्रत्यक्षतामन्तरेण तत्प्रतिभासिनोर्थस्य प्रत्यक्षता न स्यादित्युक्तं प्रा प्रवन्धेनेत्युपरम्यते । १५ तदेवं सकलप्रमाणव्यक्तिव्यापि साकल्येनाप्रमाणव्यक्तिभ्यो व्यावृत्तं प्रमाणप्रसिद्धं वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणलक्षणम् ।
नक्तलक्षणप्रमाणस्य प्रामाण्यं खतः परतो वा स्यादित्याशङ्ख्य प्रतिविधत्ते। तत्प्रामाण्यं खतः परतश्च ॥ १३॥
२० तस्य स्वापूर्वार्थत्यादिलक्षणलक्षितप्रमाणस्य प्रामाण्यमुत्पत्तौ परत एव।ज्ञप्ती स्वकार्ये च खंतःपरतश्च अभ्यासानभ्यासापेक्षया।
१ स्वपरप्रकाशरूपयोः । २ किञ्चिज्ज्ञानाम् । ३ व्यक्तयपेक्षया प्रत्यक्षः शक्तयपेक्षया परोक्षः। ४ शानं स्वप्रकाशकमर्थप्रकाशकत्वात्। ५ स्वपरप्रकाशकसमर्थप्रकाशकत्वात्। ६ मीमांसकेन ज्ञानपरोक्षतारूपो योगेन खात्मनिक्रियाऽभावरूपश्च । ७ स्वसंविदित । ८ शान । ९ अध्यक्षविषयं । १० प्रदीपवत् । ११ प्रदीपप्रकारेण। १२ दूषणम् । १३ अस्मामिजैनैः। १४ प्रत्यक्षपरोक्ष । १५ अव्याप्त्या. दिपरिहारः। १६ सन्निकर्षादि । १७ अतिव्याप्तिपरिहारः। १८ असम्भवपरिहारः। १९ स्वापूर्वेत्यादि । २० अविसंवादित्वं । २१ जैनः। २२ अर्थाव्यभिचारित्वम् । २३ प्रवृत्त्यर्थपरिच्छित्तिलक्षणे ।
1
"तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चितं स्वत एव नः । मनभ्यासे तु परतः इत्याहुः केचिदासा ॥
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१५०
प्रमेयकमलमार्तण्डै
प्रथमपरि०
ये तु सकलप्रमाणानां स्वतः प्रामाण्यं मन्यन्ते तेऽत्र प्रष्टव्याःकिमुत्पत्तो, ज्ञप्तौ, स्वकार्ये वा खतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यं प्रायते प्रकारान्तरासम्भवात् ? यद्युत्पत्ती, तत्रापि स्वतः
प्रामाण्यनुत्पद्यते' इति कोर्थः ? किं कारणमन्तरेणोत्पद्यते, वसा५मग्रीतो वा, विज्ञानमात्रसामग्रीतो वा गत्यन्तराभावात् । प्रथमपक्षे-देशकालनियमेन प्रतिनियतप्रमाणाधारतया प्रामाण्यप्रवृत्तिविरोधः खतो जायमानस्यैवंरूपत्वात् , अन्य तंद्योगात् । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता, स्वसामग्रीतः सकलमावानामुत्पत्त्य
भ्युपगमात् । तृतीयपक्षोप्यविचारितरमणीयः, विशिष्टंकार्यस्या१० विशिष्टकारणप्रभवत्वायोगात् । तथा हि-प्रामाण्यं विशिष्टकारण
प्रभवं विशिष्टकार्यत्वादप्रामाण्यवत् । यथैव ह्यप्रामाण्यलक्षणं विशिष्टं कार्य काचकामलादिदोषलक्षणविशिष्टेभ्यश्चक्षुरादिभ्यो जायते तथा प्रामाण्यमपि गुणविशेषणविशिष्टेभ्यो विशेषाभावात्।
१ भाडाः । २ समयेंत। ३ आत्मवाचक आत्मीयवाचकश्च । ४ आत्मवाचकपक्षे। ५ आत्मीयवाचकपक्षे। ६ आत्मीयपक्षे। ७ घटादि। ८ तदविरोधे । ९ कारणमन्तरेण प्रवृत्तेरयोगात् । १० प्रामाण्यस्य । ११ शानेन व्यभिचारः। १२ प्रामाण्यं न विशानसामग्रीजन्यं विज्ञानान्यत्वे सति कार्यत्वात् । प्रामाण्यविज्ञाने भिन्नसामग्रीजन्ये भिन्नकार्यत्वाद् घटपटादिवत् । १३ विशिष्टकार्यत्वस्य ।
तच्च स्याद्वादिनामेव स्वार्थनिश्चयनात स्थितम् ।
नतु स्वनिश्चयोन्मुक्तनिःशेषज्ञानवादिनाम् ॥” तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७७ । "इति स्थितमेतत्-प्रमाणादिष्टसंसिद्धिः अन्यथाऽतिप्रसङ्गतः । प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोऽन्यथा ॥" प्रमाणप० पृ० ६३ ।
"आभ्यासिकं यथा ज्ञानं प्रमाणं गम्यते स्वतः । मिथ्याज्ञान तथा किञ्चिदप्रमाणं खतः स्थितम् ॥"
तत्वसं० कारि० ३१००। "नहि बौद्धैः एषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽमीष्टः, अनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि-उभयमप्येतत् किञ्चित् स्वतः किंचित् परत इति......"
तत्त्वसं० पं० पृ० ८११ । 1 "तल्कि स्वतो ज्ञायते, स्वतो वा जायते, स्वतो वा व्याप्रियते ?"
प्रश० कन्दली पृ० २१८ । 2 "तत्रापि स्वतः कारणमन्तरेण आत्मनैव प्रामाण्यमुत्पद्यते इत्यर्थः स्यात् । आत्मनो वा सकाशात् , आत्मीयायाः सामग्रीतो वा ?" न्यायकुमु० पृ० १९९ । 3 "प्रमा ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीना कार्यत्वे सति तद्विशेषत्वात् अप्रमावत् ।"
प्रश० किरणा० पृ. ३१८ ।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः
१५१ ज्ञप्तावप्यनभ्यासदशायां न प्रामाण्यं स्वतोऽवतिष्ठते; सन्देहविपर्ययाक्रान्तत्वात्तद्वदेव । अभ्यासदशायां तूभयमपि स्वतः। नापि प्रवृत्तिलक्षणे स्वकार्य तत्वतोऽवतिष्ठते, स्वग्रहणसापेक्षत्वादप्रामाण्यवदेव ! तद्धि हातं सनिवृत्तिलक्षणखकार्यकारि नान्यथा।
नेलु गुणविशेषणविशिष्टेभ्यः इत्यु(त्ययु)क्तम् तेषां प्रमाणतोऽनुपललेनासत्त्वात् । न खलु प्रत्यक्ष तान्प्रत्येतुं समर्थम् ; अतीन्द्रियेन्द्रियाप्रतिपत्तौ तहुणानां प्रतीतिविरोधात् । नाप्यनुमानम् । तस्य प्रतिवन्धवलेनोत्पत्त्यभ्युपगमात् । प्रतिवन्धश्चेन्द्रियगुणैः सह लिङ्गस्य प्रत्यक्षेण गृह्येत, अनुमानेन वा । न तावत्प्रत्यक्षेण, १० गुणाग्रहणे तत्सम्वन्धग्रहणविरोधात् । नाप्यनुमानेन, अस्यापि गृहीतसम्वन्धलिङ्गप्रभवत्वात् । तत्राप्यनुमानान्तरेण सम्बन्धग्रहणेऽनवस्था प्रथमानुमानेनान्योन्याश्रयः । अप्रतिपन्नसम्वन्धप्रभवं चानुमानं न प्रेमाणमतिप्रसङ्गात् ।
किञ्च, स्वभावहेतोः, कार्यात्, अनुपलब्धेर्वा तत्प्रभवेत् ? न१५ तावत्वांवात् , तस्य प्रत्यक्षगृहीतेथे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलत्वादृक्षादौ शिंशपात्यादिवत् । न चात्यक्षाऽक्षाश्रितगुणलिङ्गसम्वन्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नः । कार्यहेतोश्च सिद्ध कार्यकारणभावे कारणप्रतिपत्तिहेतुत्वम् , तत्सिद्धिश्चाध्यक्षानुपलम्भप्रमाणसम्पाद्या। नचेन्द्रियगुणाश्रितसम्बन्धग्राहकत्वेनाध्यक्षप्रवृत्तिः, येन तत्का-२०
१ सत्यमसत्यमिति। २ प्रामाण्यमप्रामाण्यम् । ३ अभ्यासदशायां विषयं प्रति गमनम् । ४ सत्यत्व । ५ स्वस्य ज्ञानेन । ६ प्रामाण्यस्य । ७ अर्थव्यभिचारित्व । ८ असत्यमिदमिति । ९ विषयं प्रत्यगमनम् । १० अशातम् । ११ अभ्यासदशायां खतः। १२ मीमांसकः। १३ चक्षुरादिभ्यः। १४ अपरिझाने। १५ प्रामाण्यं विज्ञानकारणातिरिक्तकारणप्रभवं विज्ञानान्यत्वे सति कार्यत्वादप्रामाण्यवत् । १६ अविनाभाव । १७ प्रामाण्यस्य । १८ लिङ्गस्य । १९ प्रामाण्यं गुणनियतं तदन्वयव्यति. रेकानुविधायित्वात् । २० द्वितीयानुमाने। २१ तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं गुणसद्भावाविनाभावि तस्मि(गुणे )न्सत्येवोत्पद्यमानत्वात् । २२ अगृहीत । २३ अनुमानाभासम् । २४ तत्पुत्रत्वादेरुत्पन्नस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् । २५ वृक्षोयं शिंशपात्वात्। २६ हेतोः । २७ वृक्षोयं शिंशपात्वात्। २८ ता। २९ प्रामाण्यं (कार्य) साध्येन (गुणेन) सम्बन्धि अनुमानकार्यत्वाद्धूमवत् । ३० हेतुः कार्यम् । ३१ सम्बन्धः कारणम् । ३२ अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् । ३३ असत्यसद्भाव । ३४ कार्यकारणभाव । ३५ ता। 1 "नहि चक्षुरादिषु गुणा नाम केचिदुपलभ्यन्ते ।"
मी० लो० न्यायरसा. ५० ५९ ।
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१५२
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० योन कस्यचिल्लिङ्गस्याप्यध्यक्षता प्रतिपत्तिः स्यात् । अनुपलब्धेस्त्वेवंविधे विषये प्रवृत्तिरेव न सम्भवत्यभावमात्रसाधकत्वेनास्याः व्यापारोपगमात् ।
न चौत्र लिङ्गमस्ति । यथार्थोपलब्धिरस्तीत्यप्यसङ्गतम् ; यतो ५यथार्थत्वायथार्थत्वे विहाय यदि कार्यस्योलंब्ध्याख्यस्य स्वरूपं निश्चितं भवेत्तदा यथार्थत्वलक्षणः कार्यविशेषः पूर्वस्मात्कारणकलापादनिष्पद्यमानो गुणाख्यं स्वोत्पत्तौ कारणान्तरं परिकल्पयेत् । यदा तु यथार्थैवोपलब्धिः खयो(स्वो)त्पादकैकारणकलापा
नुमापिका तदा कथं तद्व्यतिरिक्तगुणसद्भावः? अयथार्थत्वं तूपल१०ब्धेर्विशेषः पूर्वस्मात्कारणसमूहादनुत्पद्यमानः स्वोत्पत्तौ सामग्र्य
न्तरं परिकल्पयतीति परतोऽप्रामाण्यं तस्योत्पत्तौ दोपापेक्षत्वात् । __ न चेन्द्रिये नैर्मल्यादिरेव गुणः, नैर्मल्यं हि तत्स्वरूपम् , न तु स्वरूपाधिको गुणः तथा व्यपदेशस्तु दोषाभावनिवन्धनः ।
तथाहि-कामलादिदोषासत्त्वान्निर्मलमिन्द्रियं तत्सत्त्वे सदोषम् । १५ मनसोपि निद्राद्यभावः स्वरूपं तत्सद्भावस्तु दोषः । विषयस्यापि निश्चलत्वादिखरूपं चलत्वादिस्तु दोषः। प्रमातुरपि क्षुधाद्यभावः खरूपं तत्सद्भावस्तु दोषः।
न चैतेद्वक्तव्यम्-'विज्ञानजनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समधिगतम् यथार्थत्वं तु पूर्वमात्कारणकलापादनुत्पद्यमानं २० गुणाख्यं सामयन्तरं परिकल्पयति' इति; यतोऽत्र लोकः प्रमा
णम् । न चात्र मिथ्याज्ञानात्कारणस्वरूपमात्रमेवानुमिनोति किन्तु सैम्यग्ज्ञानात्। किञ्च, अर्थतथाभावप्रकाशनरूपं प्रामाण्यम्, तस्य चक्षु.
१ प्रामाण्यस्य । २ सम्बन्ध । ३ ता। ४ किञ्च । ५ नयनगुणे साध्ये। ६ नयने गुणाः सन्ति यथार्थोपलब्धेः। ७ विशेषरूपे। ८ कार्यमात्रस्य । ९ उपलम्भसामान्यस्य । १० सत्य । ११ कर्ता । १२ शुद्धं चक्षुः । १३ अन्यत् । १४ इन्द्रिय। १५ इन्द्रिय । १६ इन्द्रिय । १७ का। १८ निर्मलं चक्षुरिति । १९ इन्द्रियस्वरूपम् । २० पटादिपदार्थस्य । २१ आसन्नत्वादि । २२ वक्ष्यमाणम् । २३ जैनैः। २४ चक्षुरादीनां । २५ लिङ्गेन। २६ अयथार्थोपलब्धिजनकादि. न्द्रियात् । २७ विज्ञानसामग्यनुमाने। २८ चक्षुरादि। २९ प्रामाण्यं विशानकारण (चक्षुरादि ) प्रभवं विज्ञानस्वभावत्वात् विशानस्वरूपवत् । ३० प्रमाणस्य कार्याधतथाभावप्रकाशनरूपं प्रामाण्यम् ।
1 "वैमल्यं गुण इति चेत् ; नन्वेवं दोषाभावो गुणः।"
मी. वो० न्यायरत्ना० पृ० ५९ ।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः रादिसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पत्युपगमे विज्ञानस्य खरूपं वक्तव्यम् । न च तद्रूपव्यतिरेकेण तस्य खरूपं पश्यामो येन तेंदुत्पत्तावप्यनुत्पन्नमुत्तरकालं तत्रैवोत्पत्तिमभ्युपगम्यते प्रामाण्य भित्ताविव चित्रम् । विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पत्तौ व्यतिरिक्तसामग्रीतश्चोत्पत्त्याभ्युपगमे विरुद्धधर्माध्यासात्कारणभेदाच्च५ तयोमदः स्यात् ।
किच, अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा शक्तिः प्रामाण्यम् , शक्तयश्च भावानां सत(स्वत) एवोत्पद्यन्ते नोत्पादककारणाधीनाः । तदुक्तम्
"स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । १० न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमैन्येन पार्यते ॥"
. [मी० श्लो० सू०२ श्लो० ४७] न चैतत्सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणाद्भिधीयते; किन्तु यः कार्यगतो धर्मः कारणे समस्ति स कार्यवेत्तत एवोदयमासादयति यथा मृत्पिण्डे विद्यमाना रूपादयो घटेपि मृत्पिण्डादुपजायमाने १५ मृत्पिण्डरूपादिद्वारेणोपजायन्ते । ये तु कार्यधर्माः कारणेवविद्यमाना न ते ततः कार्यवत् जायन्ते किन्तु स्वत एव, यथा तेस्यैवोदकाहरणशक्तिः । एवं विज्ञानेप्यर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिश्चक्षुरादिष्वविद्यमाना तेभ्यो नोदयमासादयति किन्तु स्वत एवाविर्भवति । उक्तं च
"आत्मलाभे हि भीवानां कारणापेक्षिता भवेत् । लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः खयमेव तु ॥"
मी० श्लो० सू० २ श्लो०४८] यथा-मृत्पिण्डदण्डचक्रादि घटो जन्मन्यपेक्षते । ___ उदकाहरणे त्वस्य तदपेक्षा न विद्यते" ॥[ ] २५
२०
१ प्रामाण्यस्य । २ जैनैः। ३ वयं मीमांसकाः। ४ विज्ञानस्य । ५ विज्ञाने । ६ भित्तिसद्भावे चित्रं नोत्पद्यते विनष्टे तु भवतीति । ७ प्रामाण्यस्य । ८ प्रामाण्यस्य । ९ विज्ञानस्य कारणमिन्द्रियं प्रामाण्यस्य गुण इति । १० उत्पत्त्यनुत्पत्तिलक्षण । ११ इन्द्रियगुणो। १२ प्रमाणप्रामाण्ययोः। १३ प्रमाणप्रामाण्ये भिन्ने । १४ इति परस्यानिष्टापत्तिः परेणामेदाभ्युपगमात् । १५ प्रमाणस्य भावशक्तिः। १६ विज्ञानकारणातिरिक्तकारणाधीनो गुणः। १७ भवति। १८ निश्चीयताम् । १९ कारणे । २० स्वरूपेण। २१ विज्ञानकारणातिरिक्तकारणाधीनेन गुणेन । २२ अपरार्द्धस्थम् । २३ साङ्ख्यमत। २४ कारणधर्मादेव। २५ घटलक्षणकार्यस्य । २६ कार्याणां ।
1 "सर्वे हि भावाः स्वात्मलाभायैव करणमपेक्षन्ते । घटो हि मृत्पिण्डादिकं स्वजन्मन्येव अपेक्षते, नोदकाहरणेऽपि । तथा ज्ञानमपि स्वोत्पत्तौ गुणवदितरदा करणम
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प्रमेयकालमार्तण्डे [प्रथमपरि० चक्षुरादिविज्ञानकारणादुपजायमानत्वात्तस्य परतोऽभिधाने त सिद्धसाध्यता। अनुमानादिवुद्धिस्तु गृहीताविनाभावादिलिङ्गादे रुपजायमाना प्रमाणभूतैवोपजायतेऽतोऽत्रापि तेषां न व्यापारः। तन्नोत्पत्तौ तदन्यापेक्षम्। ५ नापि शप्तौ, तँद्धि तत्र किं कारणगुणानपेक्षते, संवादप्रत्ययं वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, गुणानां प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वेन प्रागेवासत्त्वप्रतिपादनात् । संवादज्ञानापेक्षाप्ययुक्ता; तत्खलु समानजातीयम् , भिन्नजातीयं वा ? प्रथमपक्षे किमेकसन्तानप्रेभवम् । भिन्नसन्तानप्रभवं वा? न तावद्भिन्नसन्तानप्रभवम् ; देवदत्तघ१० टज्ञाने यज्ञदत्तघटज्ञानस्यापि संवादकत्वसङ्गात् । एकसन्तानप्रभवमप्यभिन्न विषयम्', भिन्न विषयं वा? प्रथमविकल्पे संवा. घसंवादकभावाभावोऽविशेषात् । अभिन्नविपयत्वे हि यथोत्तरं पूर्वस्य संवादकं तथेमप्यस्य किन्न स्यात् ? कथं चार प्रमाणत्वनिश्चयः? तदुत्तरकालभाविनोऽन्यस्मात् तथाविधादेवेति १५ चेत्, तर्हि तस्याप्यन्यस्मात्तथाविधादेवेत्यनवस्था । प्रथमप्र
माणात्तस्य प्रामाण्य निश्चयेऽन्योन्याश्रयः । भिन्नविषयमित्यपि वार्त्तम् । शुक्तिशकले रजतज्ञानं प्रति उत्तरकालभाविशुक्तिका शकलज्ञानस्य प्रामाण्यव्यवस्थापकत्वप्रसङ्गात् ।
नापि भिन्नजातीयम्; तद्धि किमर्थक्रियाज्ञानम् , उतान्यत् ? न २० तावदन्यत् ; धैटज्ञानात्पटज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयप्रसङ्गात् । नाप्यर्थक्रियाज्ञानम् ; प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्याभावेनार्थक्रियाज्ञाना
१ प्रामाण्यस्य । २ आगम। ३ सङ्केतादि । ४ शब्द। ५ गुणानां । ६ प्रामाण्यं । ७ गुण। ८ प्रामाण्यं । ९ प्रामाण्यस्य । १० अर्थज्ञानेन समाना सदृशा जातिवि(वि)षयो यस्य तत्समानजातीयम् । ११ पुरुष। १२ अन्यथा । १३ भिन्नसन्तानप्रभवत्वाविशेषात् । १४ एकस्य जलज्ञानं जलशानमिति । १५ अभिनविषयस्य । १६ संवादकं । १७ किञ्च । १८ उत्तरशानस्य । १९ द्वितीयज्ञानात् । २० शानात्। २१ अभिन्नविषयात्। २२ प्रथमप्रमाणादुत्तरस्य निश्चयः उत्तरशानात्प्रथमनिश्चय इति । २३ ज्ञानात् । २४ पूर्वशातं । २५ सदृशविषयत्वेन समानजातीयत्वे सति भिन्नविषयत्वस्याविशेषात् । २६ संवादशानं। २७ द्वितीयविकल्पं प्रत्याह परः। २८ लानावगाहनादि । २९ ता। ३० मरीचिकाचक्रे जलज्ञानात्पश्चान्मरीचिकाशनम् । ३१ अन्यथा । ३२ आवशानस्य ।
पेक्षतां नाम स्वकार्ये तु विषयनिश्चये अनपेक्षमेव ।"
मी० श्लो० न्यायरत्ना० पृ०६०। कारिकेयं तत्त्वसंग्रहे (पृ० ७५७) पूर्वपक्षरूपेण वर्तते ।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः
१५५ घटनात् । चक्रकप्रसङ्गश्च । कथं चार्थक्रियाज्ञानस्य तैनिश्चयः ? अन्यार्थक्रियाज्ञानाच्चेदनवस्था । प्रथमप्रमाणाच्चेदन्योन्याश्रयः । अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वतःप्रामाण्य निश्चयोपैगमे चौद्यस्य तथाभावे किकृतः प्रद्वेषः? तदुक्तम्
"यथैव प्रथमज्ञानं तत्संवादमपेक्षते। संवादेनापि संवादः परो मृग्यस्तथैव हि ॥ १॥[ ] कस्यचित् यदीप्येत स्वत एव प्रमाणता। ग्रंथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः केन हेतुना ॥२॥
[मी० श्लो० सू० २ श्लो० ७६] संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात्प्रमाणता। अन्योन्याश्रयमावेन प्रामाण्यं न प्रकल्पते ॥३॥[ ] इति। अर्थक्रियाज्ञानस्यार्थाभावेऽदृष्टत्वान्न स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षा साधनज्ञानस्य त्वर्थाभावेपि दृष्टत्वात्तत्र तदपेक्षा युक्ता; इत्यप्यसङ्गतम् तस्याप्यर्थमन्तरेण स्वप्नदशायां दर्शनात् । फलावाप्तिरूपत्वात्तस्य तंत्र नान्यापेक्षा सौधननिर्भासिज्ञानस्य तु फलावाप्ति-१५ रूपत्वाभावात्तैदपेक्षा; इत्यप्यनुत्तरम् फलावाप्तिरूपत्वस्याप्रयोज. कत्वात् । यथैव हि सौधननिर्भासिनो ज्ञानस्यान्यत्र व्यभिचारदर्शनात्सत्यासत्यविचारणायां प्रेक्षावतां प्रवृत्तिस्तथा तस्यापि विशेपा(वात्।
किञ्च, समानकालमर्थक्रियाज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थाप-२० कम् , भिन्नकालं वा ? यद्येककालम् ; पूर्वज्ञानविपयम् , तद्विपयं
१०
१ अर्थक्रियाशानोत्पत्तौ पूर्वशानस्य प्रामाण्यं पूर्वज्ञानप्रामाण्ये च प्रवृत्तिः प्रवृत्ती चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्तिरिति । २ किञ्च । ३ प्रामाण्य । ४ जैनैः। ५ ज्ञानस्य । ६ स्वविषये। ७ स्वविषये। ८ द्वितीयशानस्य । ९ शानस्य । १० आयशानेन । ११ न घटते । १२ जैनः। १३ अप्रतीतेः। १४ जलशानस्य । १५ जललक्षण । १६ मरीचिकाचके। १७ साधनशानप्रामाण्ये । १८ स्लानपानादिलक्षण । १९ स्वप्रामाण्यनिश्चये । २० प्रथमतृतीयज्ञान । २१ स्नानादिक्रियायाः साधनं जलादि तस्मिन् । २२ युक्ता । २३ अन्यानपेक्षत्वं प्रति। २४ अर्थक्रियायाः। २५ जल । २६ मरीचिकायां । २७ जाग्रद्दशायां सुप्तावस्थायां च सत्यासत्यत्वस्य । २८ स्वप्नद. शायां व्यभिचारदर्शनस्य । २९ संवादकं । ३० बसः। ३१ बसः । ३२ बसः ।
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1 "कारिकेयं तत्त्वसंग्रहे (पृ० ७५७) पूर्वपक्षरूपतया धृताऽस्ति ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० वा? । न तावत्तदविषयम् ; चक्षुरादिज्ञाने ज्ञानान्तरल्याप्रति भासनात्, प्रतिनियतरूपादिविषयत्वात्तस्य । तदविषयत्वे च कथं तज्ज्ञानप्रामाण्य निश्चायकत्वं तद्ग्रहे तद्धर्माणां ग्रहणविरो. धात् । मिन्चकालमित्यप्ययुक्तम् पूर्वज्ञानस्य क्षणिकत्वेन नाशे ५ तदाहकत्वेनोत्तरज्ञानस्य तत्प्रामाण्यनिश्चायकत्वायोगात् ।
सर्वप्राणभृतां प्रामाण्ये संन्देहविपर्ययाक्रान्तत्वासिद्धेश्च । सम. त्पन्ने खलु विज्ञाने 'अयमित्थमेवार्थः' इति निश्चयो न सन्देहों विपर्ययो वा । तदुक्तम्
"प्रेमाणं ग्रहणात्पूर्व स्वरूपेणैव संस्थितम् ।। १० निरपेक्षं स्वकार्ये च गृह्यते प्रत्ययान्तरैः, ॥१॥"
[मी० श्लो० सू०२ श्लो० ८३] इति प्रमाणाप्रमाणयोरुत्पत्तौ तुल्यरूपत्वान्न संवादविसंवादावन्तरेण तयोः प्रामाण्याप्रामाण्यनिश्चय इति च मनोरथमात्रम् ; अप्रमाणे वाधककारणदोषज्ञानयोरवश्यंभावित्वादप्रामाण्यनिश्चयः, १५प्रमाणे तु तयोरभावात्प्रामाण्यावसायः।
१ स्पर्शनरसनवाणश्रोत्र । २ द्वितीये ज्ञाने। ३ आवस्य जलशानस्य । ४ रसगन्धस्पर्शशब्द। ५ बसः। ६ बाह्येन्द्रियजनितज्ञानस्य । ७ प्रामाण्यसत्त्वा. दीनाम् । ८ यदा ज्ञानमुत्पद्यते तदा संशयादिरहितमेवोत्पद्यतेऽतः कथमपरापेक्षा। ९ किञ्च । १० भवति । ११ प्रामाण्यं । १२ प्रामाण्यलक्षणस्य धर्मस्पात्रान्तर्भावाद्धर्मिप्रधानोऽयं निर्देशः। १३ परिच्छित्तः। १४ अर्थपरिच्छित्तिप्रवृत्तिलक्षणे। १५ पुरुषैः। १६ संवादरूपैः। १७ सन्निकर्षरूपैः। १८ परतः। १९ निश्चयः। २० भवति ।
1"अर्थान्यथात्वहेतूत्थदोषज्ञानादपोद्यते ॥ ५३॥
"दोषनिमित्तं हि ज्ञानस्यायथार्थत्वम् , दोषान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । अतो दुष्टकारणजन्येन ज्ञानेन आत्मनः प्रामाण्यं विषयस्यार्थस्यातथाभूतस्यापि तथात्वमवगतमपि अर्थान्यथात्वज्ञानेन दोषज्ञानेन वाऽपोद्यते ।" मी० लो० न्यायरत्ना० पृ० ६२।
"एवमेव स्वतः सर्वज्ञानानां प्रामाण्यम् ; अप्रामाण्यं तु परत एवेत्याश्रित्य प्रत्यवर स्थयम्; तथाहि-विज्ञानं जायमानं यथाभूतमर्थमवभासयति तथाभूत एवार्थ इति निश्चाययत्येव न तु निश्चये ज्ञानान्तरमपेक्षणीयम् , तेन स्वत एव प्रामाण्यम्। अप्रामाण्यं तु अर्थस्यातथाभावनिश्चयनिरपेक्षं सन्नावगमयितुमलमिति परतोऽप्रामा. ग्यम् । अपि च प्रमाणाप्रमाणसाधारणत्वे निश्चयस्य निश्चयानुसारेण पश्चादाशंकोपजायते; सा परत एवेति परत एवाप्रामाण्यम् । न चापि सर्वत्राशंका, किन्तु यादृशे व्यभिचारदर्शनं तादृश एव शंकेति । नच सर्वावस्थे ज्ञाने व्यभिचारदर्शन मिति सर्वत्राशंका; सर्वत्रैवाशंकायां परतोऽपि प्रामाण्यं न स्यात् , तस्यापि शंकास्पदत्वादिति ।"
मीमांसाभाष्यपरि० पृ० ८।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः
यापि-तत्तुल्यरूपेऽन्यत्र तयोर्दर्शनात्तदोशङ्का; सापि त्रिचतुरज्ञानापेक्षामात्रान्निवर्त्तते । न च तदपेक्षायां स्वतःप्रामाण्यव्याघातोऽनवस्था वा; संवादकज्ञानस्याप्रामाण्यव्यवच्छेदे एव व्यापारादन्यज्ञानानपेक्षणाच्च । तदुक्तम्
"एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मंतिः।। प्रार्थ्यते तावतैवेयं स्वतःप्रामाण्यमश्नुते ॥ १॥"
मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६१7 योऽप्यनुत्पद्यमानः संशयोबलादुत्पाद्यते सोप्यर्थक्रियार्थिना सर्वत्र प्रवृत्त्यादिव्यवहारोच्छेदकारित्वान्न युक्तः । उक्तञ्च
"आशङ्केत हि यो मोहादजातमपि वाधकम् । स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा क्षयं व्रजेत् ॥ १॥"[ ]
१ अप्रमाणे। २ अप्रामाण्य । ३ प्रमाणे । ४ परिज्ञाने। ५ पञ्चमस्य ज्ञानस्य । ६ स्वग्रन्थोक्तप्रकारेण कथमाद्यशानस्य द्वितीयादिसंवादशानापेक्षित्वप्रकारेण । ७ उत्पत्तेः। ८ का। ९ ज्ञानम् । १० वाञ्छते पुरुषेण । ११ प्राप्नोति । १२ यथाऽऽशाद्यज्ञानं द्वितीयं द्वितीयं च तृतीयं तृतीयं च चतुर्थमपेक्षते । तथा चतुर्थेनापि पञ्चममपेक्षणीयमित्यादिप्रकारेणानवस्था किमिति न स्यादित्युक्ते सत्याह । १३ विषये। १४ अज्ञानात् । १५ प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपेषु। १६ यतः।
1 "ननु यथा आद्यस्य द्वितीयेन दोषोऽवगतः तस्यापि तृतीयेन तथा तृतीयस्यापि दोषाशङ्का भवत्येव, तथा सर्वत्रैवेति न कचिदाश्वासः स्यादत आह-दोषाने त्वनु. त्पन्ने न शङ्कया निष्प्रमाणता' इति । दिक्कालावस्थेन्द्रियविषयदोषा हि मिथ्यात्वहेतवो लोकप्रसिद्धा यत्र नैव संभवन्ति यथा जागर्यायामालोके स्वस्थेन्द्रियमनस्कस्य सन्निहितवटज्ञाने । तत्र नैव दोषाशङ्का, तदभावाचाप्रामाण्याशङ्कापि नैव भवति । यथाविषेषु हि अप्रामाण्यसंभवः तथाविधेष्वेव तदाशङ्का भवति, संभावितदोषेषु च तत्संभव इति कथमन्यत्र शक्यते ? नहि ज्ञानत्वमात्रेण संशयो युक्तः; संशयस्य साधारणधर्मादि. निश्चयाधीनत्वात् । तदवश्यं कानिचिज्ज्ञानानि असन्दिग्धप्रामाण्यान्येवोत्पद्यन्ते । तस्मान्न सर्वत्राशङ्का । यत्रापि दूरत्वादिदोषसंभवादप्रामाण्याशङ्का, तत्रापि प्रत्यासत्तिगमनादिनाऽन्यतरपदार्थनिर्णयान्नातिदूरगमनमिति । एवं च तृतीयज्ञाने दोषो यदि न संभावितः ततस्तदवधिरेव निर्णयः। अथ तु संभावितः ततस्तन्निराकरणप्रयत्नेन चतुर्थशानावसानो निर्णय इति नाधिकज्ञानापेक्षा । तावतैव तृतीयेन चतुर्थेन वा द्वितीयस तृतीयस्य वाधे सति यस्यैवाद्यस्य द्वितीयस्य वा प्रामाण्यं समर्थ्यते तस्य स्वाभाविकं . प्रामाण्यमनपोदितं भवति । इतरच्चापवादादप्रमाणमिति नानवस्था।"
मी० श्लो० न्यायरत्ना० पृ० ६४ । 2 "उत्प्रेक्षेत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् ।
स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा क्षयं व्रजेत् ॥ २८७२ ॥ तत्त्वसं० (पूर्वपक्षे) प्र. क. मा० १४
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० चोदनाजनिता तु बुद्धिरपौरुषेयत्वेन दोषरहिताचोदनावाक्यादुपजायमाना लिङ्गास्तोत्यक्षवुद्धिंवत्स्वतः प्रमाणम् । तदुक्तम्
"चोदनाजानिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवर्जितैः ।।
कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गाप्तोत्यक्षवुद्धिवत् ॥१॥" ५
[मी० श्लो० सू० २ श्लो० १८४] तन्न ज्ञप्तौ परापेक्षा।
नापि वकार्ये; तत्रापि हि किं तत्संवादप्रत्ययमपेक्षते, कारणगुणान् वा? प्रथमपक्ष चक्रकप्रसङ्गः-प्रमाणस्य हि स्वकार्ये प्रवृत्तौ सत्यामर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः, तस्यां चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्ति १० लक्षणः संवादः तत्सद्भावे च संवादमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्येऽर्थपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तत । भाविनं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य तत्तत्र प्रवर्तते; इत्यप्यनुपपन्नम् । तस्यासत्त्वेन स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं विज्ञानं प्रति सहकारित्वायोगात्।।
द्वितीयपक्षेऽपि गृहीताः स्वकारणगुणाः तस्य स्वकार्य प्रवर्त. १५मानस्य सहकारित्वं प्रतिपद्यन्ते, अगृहीता वा ? न तावदुत्तरः
पक्षः; अतिप्रंसगात् । प्रथमपक्षेऽनवस्था-स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं हि प्रमाणं खकार्ये प्रवर्तेत तदपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं प्रमाणकारणगुणग्रहणलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तेत तदपि च स्वकारणगुणज्ञानापेक्षमिति । तस्य स्वकारणगुणज्ञानानपेक्षस्यैव प्रमाणकारण२० गुणपरिच्छेदलक्षणे खकार्य प्रवृत्तौ प्रथमस्यापि कारणगुणज्ञाना
नपेक्षस्यार्थपरिच्छेदलक्षणे खकार्ये प्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात्। तदुक्तम्
"जातेपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते । यावत्कारणशुद्धत्वं न प्रमाणान्तराद्गतम् ॥१॥
• १ वेद । २ इति गुणव्यापाराभावः। ३ प्रत्येकं सम्बध्यते। ४ स्वतः । ५ अनाप्तोक्तत्वलक्षण। ६ वेदवाक्यः। ७ संवादानुमान। ८ प्रामाण्यस्य । ९ परापेक्षं प्रामाण्यं न। १० प्रामाण्यं कर्तृ । ११ प्रामाण्यलक्षणस्य धर्मस्यात्रान्तर्भावाद्धर्मिप्रधानोयं निर्देशः। १२ अर्थपरिच्छित्तिरूपे । १३ नृणाम् । १४ अविद्यमानत्वेन । १५ अर्थपरिच्छित्तिलक्षणे । १६ प्रमाणस्य । १७ सन्तानान्तरलोचनगुणा अपि सहकारिणो भक्न्तु अगृहीतत्वाविशेषात् । १८ इन्द्रियनैमल्यादि । १९ भवचक्षुर्निर्मलमिति शब्दः परोक्ष इति । २० प्रमाणकारणगुणज्ञान । २१ शब्द। २२ आप्तोक्तत्व. लक्षण। २३ प्रमाणकारणगुणज्ञानस्य । २४ अनपेक्षत्वस्य । २५ प्रथमज्ञानस्य । २६ चक्षुः । २७ नैर्मल्यं । २८ शब्दज्ञानात् । २९ शातम् ।
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सू० १।१३] प्रामाण्यवादः
तंत्रज्ञानान्तरोत्पादः प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा ॥२॥ तस्यापि कारणे शुद्ध तज्ज्ञानस्य प्रमाणता। तस्याप्येवमितीत्थं च न कचिचवतिष्ठते ॥३॥"
मी० श्लो० सू०२ श्लो०४९-५१] इति ।५ अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम्-'प्रत्यक्षं न तोन्प्रत्येतुं समर्थम्' इति; तंत्रेन्द्रिये शक्तिरूपे, व्यक्तिरूपे वा तेपामनुपलम्मेनाभावः साध्यते? प्रथमपक्षे-गुणवद्दोपाणामप्यभावः । ना. धाराप्रत्यक्षत्वे अधेियप्रत्यक्षता नामातिप्रसङ्गात् । अथ व्यक्तिरूपे; तत्रापि किमात्मप्रत्यक्षेण गुणानामनुपलम्भः, परप्रत्यक्षेण १० वा? प्रथमविकल्पे दोषाणामप्यसिद्धिः । न ह्यात्मीयं प्रत्यक्षं खचक्षुरादिगुणदोषविवेचने प्रवर्त्तते इत्येतत्प्रातीतिकम् । स्पार्शनादिप्रत्यक्षेण तु चक्षुरादिसद्भावमात्रमेव प्रतीयते इत्यतोपि गुणदोषसद्भावासिद्धिः। अथ परप्रत्यक्षेण ते नोपलभ्यन्ते; तदसिद्धम्; यथैव हि काचकामलादयो दोषाः परचक्षुषि प्रत्य-१५ क्षतः परेण प्रतीयन्ते तथा नैर्मल्यायो गुणा अपि । - जातमात्रस्यापि नैर्मल्याधुपेतेन्द्रियप्रतीतेः तेषां गुणरूपत्वाभावे जातितमिरिकस्याप्युपलम्भादिन्द्रियस्वरूपव्यतिरिक्ततिमिरादिदोषाणामप्यभावः । कथं वाँ रूपादीनां घटादिगुणस्वभावता
१ तदा। २ शाब्दलक्षणस्य । ३ अन्वेक्ष्यः। ४ शब्दलक्षणात् । ५ प्रथमझानकारण(नेत्र)स्य । ६ द्वितीयस्य तृतीयशानस्यापि । ७ दोषरहिते। ८ द्वितीयस्य तृतीयस्यापि। ९ ज्ञाने। १० जैनः। ११ जैनैः। १२ स्वकारणाश्रितान्गुणान् । १३ ग्रन्थे । १४ गोलके। १५ गुणानाम् । १६ शक्तिरूपे इन्द्रिये । १७ शक्तिरूपेन्द्रियस्य । १८ गुणदोष । १९ अन्यथा आत्मान्तरप्रत्यक्षत्वाभावेपि तज्ज्ञानप्रत्यक्षताप्रसङ्गात् । २० गुणानाम् । २१ गुणाः। २२ प्राणिनः। २३ किन्तु नयनखरूपतैव । २४ प्राणिनः । २५ कामलादिकं नयनस्वरूपानतिरेकि जातमात्रस्य नयनविशिष्टत्वेनोपलभ्यमानत्वाद्गुणवत् । २६ न नैर्मल्यादयो गुणा इति । २७ किन्न स्यात् । २८ घटादिरूपादयो धर्मिणो गुणा न भवन्तीति साध्यम् ।।
1 "तत्र किमिन्द्रिये परोक्षशक्तिरूपे गुणानां प्रत्यक्षेणानुपलम्भादभावः साध्यते, आहोस्वित् प्रत्यक्षे चक्षुर्गोलकादौ बाह्यरूपे " स्या० रत्ना० पृ० २४४ ।
2 "जातमात्रस्यापि नैर्मल्यादिनेन्द्रियप्रतीते मल्यादीनां गुणरूपत्वाभाव इत्युच्यते तर्हि जाततैमिरिकस्य जातमात्रस्यापि तिमिरादिपरिकरितेन्द्रियप्रतीतेरिन्द्रियस्वरूपातिरिक्ततिमिरादिदोषाणामप्यभावः कथन्न स्यात् ? कथञ्चैवं रूपादीनामपि कुम्भादिगुणखमावता उत्पत्तेरारभ्य कुम्मे तेषां प्रतीयमानत्वाविशेषात् ।' स्या. रत्ना० पृ०२४५ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० उत्पत्तिप्रभृतितःप्रतीयमानत्वाविशेषात् ? यच्चक्षुरादिव्यतिरिक्त भावाभावानुविधायि तत्तत्कारणकम् , यथाऽप्रामाण्यम्, तथा च प्रामाण्यम् । यच्च तद्व्यतिरिक्तं कारणं ते गुणाः' इत्यनुमानतोपि तेषां सिद्धिः। ५ बच्चेन्द्रियगुणैः सह लिङ्गस्य प्रतिवन्धः प्रत्यक्षेण गृह्येत,
अनुमानेन वेत्याधुक्तम् । तदप्ययुक्तम् । ऊहाख्यप्रमाणान्तरात्तत्प्रतिवन्धप्रतीतेः । कथं चाप्रामाण्यप्रतिपादकदोषप्रतीतिः? तंत्राप्यस्य समानत्वात् । नैर्मल्यादेर्मलाभावरूपत्वात्कथं गुण
रूपतेत्यप्यसाम्प्रतम् ; दोषाभावस्य प्रतियोगिपैदार्थवभाव१०त्वात् । निःस्वभावत्वे कार्यत्वधर्माधारत्वविरोधात् खरविषाणवत् । तथाविधस्याप्रतीतेरनभ्युपगमाञ्चे, अन्यथा
"भावान्तरविनिमुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् ।
अभावः समस्त (सम्मतस्त)स्य हेतोः किन्न समुद्भवः॥"[] १ प्रामाण्यं धर्मि चक्षुरादिव्यतिरिक्तपदार्थकारणकं भवति चक्षुरादिव्यतिरिक्तपदार्थभावाभावानुविधायित्वात् । २ कारणस्य । ३ यथार्थोपलब्धिलक्षणविशिष्टकार्यत्वादि. त्यस्य । ४ अविनाभावः । ५ गुणसद्भावे प्रामाण्यस्य सद्भावस्तदभावे प्रामाण्यस्याभाव इति । ६ परेण । ७ इन्द्रियगुणलिङ्गस्य । ८ दोषपक्षेपि दोषैस्सह लिङ्गस्य सम्बन्धः प्रत्यक्षेण गृह्यतेऽनुमानेन वेत्यादिदोषस्य । ९ भावान्तरस्वभावत्वादभावस्य । १० यद् (गुण) निरूपणाधीनं निरूपणं यस्य (दोषस्य) तत्तत्प्रतियोगि। ११ गुण । १२ अभावस्य । १३ अञ्जनादिना क्रियमाणत्वलक्षणकार्यत्व (नैर्मल्यादि)। .१४ निस्वभावाभावस्य । १५ त्वया परेण । १६ अभ्युपगमे । १७ गुणाद्दोषलक्षणं कपालक्षणादन्यो घटो वा। १८ गुणः कपालं वा। १९ मीमांसकमते। २० एकस्माद्भूतलोपलम्भलक्षणाद्भावादपरो घटोपलम्भलक्षणो भावो भावान्तरं तेन विनिर्मुक्तो भावो भूतलोपलम्भलक्षणः स एव घटस्यानुपलम्भो यथा । २१ लिङ्गस्य ।
1 "तथाहि-अतीन्द्रियलोचनाद्याश्रिता दोषाः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते, उत अनु. मानेन ? न तावत् प्रत्यक्षेण; इन्द्रियादीनामतीन्द्रियत्वेन तद्गतदोषाणामप्यतीन्द्रियत्वेन तेषु प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः । नाप्यनुमानेन; अनुमानस्य गृहीतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वाभ्युमगमात् । लिङ्गप्रतिबन्धग्राहकस्य च प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चात्र विषयेऽसम्भवाद। प्रमाणान्तरस्य चात्रानन्तर्भूतस्यासवेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् इत्यादि सर्वमप्रामाण्यो. 'त्पत्तिकारणभूतेषु लोचनाद्याश्रितेषु दोषेष्वपि समानमिति ।” सन्मति० टी० पृ० १ ।
2 "पदार्थान्तरेण विनिर्मुक्तः त्यक्तः भिन्न इति यावत् , इत्थम्भूतो भाव एवाभावः न पुनर्भावादतिरिच्यते इत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तोऽनुपलम्भः, यथा घटानुपलम्भो घटातिरिक्तस्य पटादेरुपलम्मे पर्यवस्यति, तथा दोषा[ऽभावो]भावान्तरे पर्यवसायी वाच्य इत्याशय इति" गु० टि.।
सन्मति० टी० टि० पृ० १०।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः
१६१ इत्यस्य विरोधः।
तथा च गुणदोषाणां परस्परपरिहारेणावस्थानाद्दोषोभावे गुणसद्भावोऽवश्याभ्युपगन्तव्योऽत्यावे शीतसद्भाववत्, अभावाभावे भासद्भावबद्धा ! अन्यथा कथं हेतौ नियमाभावो दोषः स्यात् अभावस्य गुणरूपतावदोषरूपत्वस्याप्ययोगात् ? तथाच-५ नर्सल्यादिव्यतिरिक्तगुणरहिताचक्षुरादेरुपजायमानप्रामाण्यवन्नियमविरहव्यतिरिक्तदोपरहिताद्धेतोरप्रामाण्यमप्युपजायमानं स्वतो विशेषाभावात् । तथा च
"अप्रामाण्यं त्रिधा भिन्नं मिथ्यात्वाज्ञानसंशयैः। वस्तुत्वादिविधेस्यात्र सम्भवो दुटकारणात् ॥" १०
[मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५४] इत्यस्य विरोधः। ततो हेतोनियमविरहस्य दोषरूपत्वे चेन्द्रिये मलापगमस्य गुणरूपतास्तु । तथाच सूक्तमिदम्
"तस्माद्गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावतः। अंग्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनेपोदितः॥"
[मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६५] इति । 'गुणेभ्यो हि दोषाणामभावः' इत्यभिधता 'गुणेभ्यो गुंणा' एवाभिहितास्तथा प्रामाण्यमेवाप्रामाण्यद्वयासत्त्वम्, तस्य गुणेभ्यो भावे कथं न परतः प्रामाण्यम् ? कथं वा तस्यौ
१ निस्स्वभावत्वाभावे । २ घटस्य । ३ कपालस्य । ४ घटस्य । ५ नैव । ६ साधने। ७ अविनाभावाभावः। ८ स्वतः । ९ भावान्तररहितकारणमात्रजन्यत्वस्य । १० विपर्यय । ११ ज्ञानाभावः स्वप्नावस्थायाम् । १२ अज्ञानस्य शानभावरूपतया स्वतःसिद्धत्वान्न तत्र काचिदपेक्षा । १३ भावरूपत्वात् । १४ संशयविपर्ययरूपस्य । १५ त्रिषु मध्ये । १६ काचकामलादिदोषदूषिताच्चक्षुषः। १७ ग्रन्थस्य । १८ अनुमानस्य प्रामाण्ये गुणानां व्यापारो न दृष्टो यतः। १९ संशयविपर्यय । २० कारणेन । २१ प्रामाण्यम् । २२ अबाधित आस्ते । २३ परेण । २४ गुणाभावरूपत्वाद्दोषाणां दोषाभाव एव च गुणः। २५ यथा गुणेभ्यो दोषाणामभावः । २६ किञ्च।
1"दोषाभावो हि पर्युदासवृत्त्या गुणात्मक एव भवेत् , ततश्च तत्परिज्ञानमपि गुणज्ञानात्मकं प्राप्नोति ।" तत्त्वसं० पं० पृ० ७९९ । न्यायकुमु० पृ० १९८ । सन्मति. टी० पृ० १०। स्या० रत्ना० पृ० २४८ ।
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१६२ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० त्सर्गिकत्वम् दुष्टकारणप्रभवासत्यप्रत्ययेष्वभावात् ? अप्रामाण्यस्य. चौत्सर्गिकत्वमास्तु दोषाणां गुणापगेमे व्यापारात् । अवतु वा भावा. द्भिन्नोऽभवः, तथाप्यस्य प्रामाण्योत्पत्तौ व्याप्रियमाणत्वात्कथं
तत्स्वतः? न चाभावस्याऽर्जनकत्वम् , कुड्याद्यभावस्य परभागा५वस्थितघटादिप्रत्ययोत्पत्तौ जनकत्वप्रतीतेः, प्रमाणपञ्चकामावस्य चाभावप्रमाणोत्पत्तौ।
योपि-यथार्थत्वायथार्थत्वे विहायोपलम्भसामान्यस्यानुपलम्भ:-सोपि विशेषनिष्ठत्वात्तत्सामान्यस्य युक्तः। न हि निर्विशेषं गोत्वादिसामान्यमुपलभ्यते गुणदोषरहितमिन्द्रियसामान्यं वा,
१ नैसर्गिकत्वम् । २ औत्सर्गिकत्वस्य । ३ किञ्च। ४ कुतः । ५ निराकरणे नाशे । ६ गुणरूपात् । ७ गुणेभ्यो भिन्नो दोषाणामभाव इत्यर्थः। ८ प्रामाण्यं प्रति। ९ प्रमिति । १० न हि सर्वथा यथार्थत्वायथार्थत्वविशेषाद्भिन्नमुपलम्भसामान्यम् ।
1 "तस्माद्गुणेभ्यो दोषाणामभावात्तदभावतः।
अप्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः ॥ ३०५७ ॥ सर्वत्रैवं प्रमाणत्वं निश्चितं चेदिहाप्यसौ। पूर्वोदितो दोषगणः प्रसक्ता चानवस्थितिः । ३०५८ ॥ तस्मादेव च ते न्यायादप्रामाण्यमपि स्वतः। प्रसक्तं शक्यते वक्तुं यस्मात्तत्राप्यदः स्फुटम् ॥ ३०६६ ॥ तस्माद्दोषेभ्यो गुणानामभावस्तदभावतः ।
प्रमाणरूपनास्तित्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः ॥ ३०६७ ॥" तत्त्वसं० पृ० ८०० । न्यायकुमु० पृ० १९८ । सन्मति० टी० पृ० ९ ।
2 "(पूर्वपक्षः) यदि हि यथार्थत्वायथार्थत्वरूपद्वयरहितमेव किञ्चिदुपलब्ध्याख्य कार्य भवेत् तदा कार्यत्रैविध्यमध्यवसीयेत यदुत यथार्थोपलब्धेर्गुणवन्ति कारकाणि अयथार्थोपलब्धेर्दोषकलुषितानि उभयरूपरहितायाः पुनरुपलब्धेः स्वरूपावस्थितान्ये. वेति, नत्वेवमस्ति, द्वेधा हीयमुपलब्धिरतुभूयते यथार्था चायथार्था च । तत्र अयथार्थोपलब्धिस्तावत् दृष्टकारणजन्यैव संवेद्यते । यथाहि-दुष्टकारणकलापाद्दःशिक्षितकुलालादेः कुटिलकलशादिकार्यमवलोक्यते तथा तिमिरादिदोषदुष्टान्नयनादिकारणकदम्बकात कुमुदबान्धवद्वितयप्रत्ययादिका अयथार्थोपलब्धिरपि, अत एव उत्पत्ती दोषापेक्षत्वादप्रामाण्यं परत एवेति कथ्यते । तदित्थमयथार्थोपलब्धौ दुष्टकारणजन्यत्वेन प्रसिद्धाया. मिदानीं तृतीयकार्याभावात् यथार्थोपलब्धिः स्वरूपावस्थितेभ्य एव कारणेभ्योऽवकल्प्यते इति न गुणकल्पनायै सा प्रभवति...(पृ० २४३) (उत्तरपक्ष:-) यत्पुनरुक्तम्द्वेधा हीयमुपलब्धिरनुभूयते यथार्था च अयथार्था चेति; तत्र न विप्रतिपद्यामहे । न हि यथार्थत्वायथार्थत्वे विहाय निर्विशेषमुपलब्धिसामान्यमुपपद्यते विशेषनिष्ठत्वाद सामान्यस्य, न खलु शाबलेयबाहुलेयादि विशेषविकलं गोत्वादिसामान्यं प्रतीयते येनेदमुपलब्धिसामान्यं यथार्थत्वायथार्थत्वविशेषरहितं प्रतीयेत..." स्या० रत्ना० पृ० २४६ ।
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सू० ११३] प्रामाण्यवादः येनोपलम्भसामान्येऽप्ययं पैर्य योगः स्यात् । लोकं च प्रमाणयतोभयं परतः प्रतिपत्तव्यम् । सुप्रसिद्धो हि लोकेऽप्रामाण्ये दोषावष्टब्धचक्षुषो व्यापारः, प्रामाण्ये नैर्मल्यादियुक्तस्य, 'यत्पूर्व दोषावष्टब्धमिन्द्रियं मिथ्याप्रतिपत्तिहेतुस्तदेवेदानीं नैर्मल्यादियुक्तं सम्यक्प्रतिपत्तिहेतुः, इति प्रतीतेः।
यहोच्यते-कचिन्निर्मलमपीन्द्रियं मिथ्याप्रतीतिहेतुरन्यत्रारक्तादिस्वभावं सत्यप्रतीतिहेतुः, तत्रापि प्रतिपत्तुर्दोषः स्वच्छनील्यादिमले निर्मलाभिप्रायात् । अनेकप्रकारो हि दोषः प्रकृत्यादिभेदात् , तेदभावोपि भावान्तरस्वभावस्तथाविधस्तत एव । न चोत्पन्न सद्विज्ञानं प्रामाण्ये नैर्मल्यादिकमपेक्षते येनानयोभदः स्यात् । १० गुणवच्चक्षुरादिभ्यो जायमानं हि तदुपात्तप्रामाण्यमेवोपजायते।
अर्थतथाभावपरिच्छेदसामर्थ्यलक्षणप्रामाण्यस्य स्वतो भावाभ्युपंगमे च अर्थान्यथात्वपरिच्छेदसामर्थ्यलक्षणाप्रामाण्यस्याप्यविमानस्य केनचित्कर्तुमशक्तेः खतो भावोऽस्तु ।
कथं चैव वौदिनो ज्ञानरूपतात्मन्यविद्यमानेन्द्रियैर्जन्यते? तस्या-१५
१ विशेषरहितगोत्वादिसामान्योपलम्भप्रकारेण । गुणदोषरहितेन्द्रियसामान्योपलम्भप्रकारेण च। २ अपि शब्दोत्र एवकाराथें। ३ यतो यथार्थत्वायथार्थत्वे विहायेत्यादिः। ४ उपलम्भसामान्यस्यानुपलम्भलक्षणः । ५ अपि तु विशेषेप्ययं पर्यनुयोगो ज्ञातव्यः । ६ प्रामाण्यामप्रामाण्यं । ७ चक्षुषः। ८ नरे । ९ पुरुषान्तरे। १० पुरुषस्य । ११.निर्मल इति। १२ वातपित्तादि। १३ नेमल्यादिगुण। १४ अनेकप्रकारः । १५ गुणम् । १६ कालभेदः । १७ ज्ञानं कर्तु। १८ न हि स्वतोऽसती शक्तिरित्यस्य दोषमाह । १९ परेण । २० खाश्रयकारणे। २१ कारणेन । २२ यत्कारणेऽविधमानं तत्स्वत एव जायते इत्येवंवादिनः। २३ घटाद्याकारविशेषितज्ञानरूपता।
1 “यतो यदि लोकव्यवहारसमाश्रयणेन प्रामाण्याप्रामाण्ये व्यवस्थाप्येते तदा अप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमपि परतो व्यवस्थापनीयम्...” सन्मति० टी० पृ० ९ ॥ 2"किच्चाप्रामाण्यमप्येवं स्वत एव प्रसज्यते ।
नहि स्वतोऽसतस्तस्य कुतश्चिदपि संभवः ॥ २८४३ ॥ ...तथाह्यप्रामाण्यमपि विपरीतार्थपरिच्छेदोत्पादिका शक्तिः, शक्तेश्च विज्ञानाश्रितायाः कालत्रयेऽप्यकरणात् प्रामाण्यवदप्रामाण्यात्मिका शक्तिः स्वत एव प्रसज्येत ।"
__ तत्त्वसं० पं० पृ० ७५५ । __ "एवमभिधानेऽयथावस्थितार्थपरिच्छेदशरप्यप्रामाण्यरूपाया असत्याः केनचिकर्तुमशक्तेस्तदपि स्वतः स्यात् ।"
सन्मति० टी० पृ० १॥ 3 "किंच, यद्यात्मन्यविद्यमानं रूपं कारणैर्नाधीयते कार्ये तदा कथमिन्द्रियादयो ज्ञाने (ज्ञान) रूपतामात्मन्यसतीमादधति विज्ञाने ? यथाऽविद्यमानापि सा तैराधीयते अर्थपरिच्छेदशक्तिं किन्नादधीरन् ?" तत्त्वसं० पं० पृ० ७५३ । सन्मति० टी० पृ०९।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० स्तत्राविद्यमानत्वेप्युत्पत्त्युपगमेऽर्थग्रहणशक्या कोपराधः कृतो येनास्यास्ततः समुत्पादो नेष्यते ? न चेमाः शक्तयः स्वाधारेभ्यः समासादितव्यतिरेकाः येन वाधाराभिमतविज्ञानवत कारणेभ्यो नोदयमासादयेयुः। पाश्चात्यसंवादप्रत्ययेन प्रामाण्य५स्याजन्यत्वात्वतो भावेऽप्रामाण्यस्यापि सोस्तु । न खलुत्पन्ने विज्ञाने तदप्युत्तरकालभाविविसंवादप्रत्ययाद्भवति ।
यच्चोक्तम्- लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु तदप्युक्तिमात्रम्; यथावस्थितार्थव्यवसायरूपं हि संवेदनं प्रमाणम्,
तस्यात्मलामे कारणापेक्षायां कोऽन्यों वकार्ये प्रवृत्तिर्या स्वयमेव १० स्यात् ? घटस्य तु जलोद्वहनव्यापारात्पूर्व रुपान्तरेणापि खहे. तोरुत्पत्तेर्युक्ता मृदादिकारण निरपेक्षस्य तंत्र प्रवृत्तिः प्रतीतिनिवन्धनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः । विज्ञानस्य तूत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशोपगमात्कुतो लब्धात्मनो वृत्तिः स्वयमेव स्यात् । तदुक्तम्
"न हि तत्क्षणमप्यास्ते जीयते वाऽप्रमात्मकम् । येनार्थग्रहणे पश्चौद्याप्रियतेन्द्रियादिवत् ॥१॥ तेने जन्मैव बुद्धर्विषये व्यापार उच्यते । १ परेण । २ कर्तृभूतया। ३ सापि ज्ञानेऽविद्यमाना इन्द्रियैर्जन्यताम् । ४ परेण। ५ ज्ञानेभ्यः। ६ प्राप्तभेदाः। ७ आक्षेपे। ८ यथा शक्तया आधारीभूतविशनं कारणेभ्यो न तथेमा इत्यर्थः । ९ परेणाङ्गीकृते । १० परेण । ११ प्रामाण्यं कथ्यते। १२ आक्षेपोक्तिः । १३ प्रामाण्य । १४ अर्थपरिच्छित्तिरूपे प्रवृत्तिरूपे च। १५ न कापि । १६ रिक्ततारूपेण । १७ जलाहरणलक्षणे स्वकार्ये । १८ परमते । १९ न हि। २० अप्रमिति । २१ आक्षेपे। २२ शानस्य लक्षणान्तरे अवस्थानप्रकारेण अप्रमात्मकभवनप्रकारेण। २३ उत्पत्त्यनन्तरम् । २४ आत्मनः ! २५ क्षणमपि नास्ते अप्रमात्मकं वा न जायते येन प्रकारेण । २६ व्यापृतिः ।
1"अप्रामाण्यमपि चैवं स्वतः स्यात्, नहि तदपि उत्पन्ने ज्ञाने विसंवादप्रत्ययादुत्तरकालभाविनः तत्रोत्पद्यते इति कस्यचिदभ्युपगमः ।"
सन्मति० टी० पृ० १०। 2 "ततश्च स्वार्थावबोधशक्तिरूपप्रामाण्यात्मलामे चेत् कारणापेक्षा कान्या स्वकार्ये प्रवृत्तिर्या स्वयमेव स्यात् घटस्य जलोद्वहनव्यापारात्पूर्व रूपान्तरेण स्वहेतोरुत्पत्तेयुक्तं मृदादिकारणनिरपेक्षस्य स्वकार्ये प्रवृत्तिरिति विसदृशमुदाहरणम् ।"
सन्मति० टी० पृ० १०॥ 3 "यत्तु शानं त्वयापीष्टं जन्मानन्तरमस्थिरम् । लब्धात्मनोऽसतः पश्चाद्व्यापारस्तस्य कीदृशः ॥ २९२२ ॥
तत्त्वसं० पृ० ७७०।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः तदेवं च प्रेमारूपं तद्वती करणं च धीः॥२॥"
[मी० श्लो० सू०२ श्लो० ५५-५६] इति । . किञ्च, प्रेमाणस्य किं कार्य यत्रास्य प्रवृत्तिः स्वयमेवोच्यतेयथार्थपरिच्छेदः, प्रमाणमिदमित्यवसायो वा? तंत्राद्यविकल्पे 'आत्मानमेव करोति' इत्यायातम् , तच्चायुक्तम्; स्वात्मनि ५ क्रियाविरोधात् । नापि प्रमाणमिदमित्यवसायः भ्रान्तिकारंणसवान केचित्तझावात् , क्वचिद्विपर्ययदर्शनाच !
अनुमानोत्पादकहेतोल्तु साध्याविनामावित्वमेव गुणो यथा तद्वैकल्यं दोपः। साध्याविनाभावस्य हेतुखरूपत्वाहणरूपत्वाभावे तद्वैकल्यस्यापि हेतोः खरूपविकलत्वाद्दोपता मा भूत्। १०
आगमस्य तु गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वेन प्रामाण्यं सुप्रसिद्धम् , अपौरुषेयत्वस्यासिद्धः, नीलोत्पलादिषु दहनादीनां वितर्थप्रतीतिजनकत्वोपलम्भेनानेकान्तात् , परस्परविरुद्धभावनानियोगाद्यर्थेषु
१ एवं चेद्विज्ञानस्य करणरूपता क्रियारूपता न स्यादित्युक्ते आह । २ जन्मैव । ३ परिच्छित्ति । ४ वशप्ति। ५ तयोर्मध्ये । ६ स्वस्वरूपम् । ७ तत्र प्रवर्तनात्तस्य । ८ उत्पत्तिलक्षणाया। ९ सदोषनयन। १० सत्यजलझाने प्रमाणस्वभावे । ११ भ्रान्तशाने प्रमाणमित्यध्यवसायदर्शनात् । १२ शब्दख । १३ पुनः । १४ "पूर्वाचार्यो हि धात्वर्थ वेदे भट्टस्तु भावनाम् । प्राभाकरो नियोगं तु शङ्करो विधिमब्रवीत्"। १५ आगमो धर्मी प्रामाण्यं भवतीति साध्यम् । १६ वर्ण । १७ यदपौरुषेयं तत्प्रमाणमित्युक्तऽनेकान्तात् । १८ विधि। १९ बोधे। __ 1 "नच ज्ञानस्य किंञ्चित्कार्यमस्ति यत्र व्याप्रियेत। स्वार्थपरिच्छेदात्मकमस्तीति चेन्न; ज्ञानपर्यायवादस्य आत्मानमेव करोतीति सुव्याहृतमेतत् ! प्रमाणमेवत् इति निश्चयजननं खकार्यमिति चेन्नः कचिदनिश्चयाद्विपर्ययदर्शनाच ।" तत्वसं० पं. पृ० ७७० । सन्मति० टी० पृ० ११
2 "अविनाभावनिश्चयस्यैव गुणत्वात् तदनिश्चयस्य विपरीतनिश्चयस्य च दोषत्वात् ।
सन्मति० टी० पृ० ११। 3 "पुनरप्यपौरुषेयस्यानैकान्तिकतां प्रतिपादयन्नाह
न नराकृतमित्येव यथार्थज्ञानकारि तु ।
दृष्टा हि दाववढ्यादेमिथ्याशानेऽपि हेतुता ॥ २४०३ ॥ नहि पुरुषदोषोपधानादेवार्थेषु ज्ञानविभ्रमः, तद्रहितानामपि दाववढ्यादीनां नीलोत्पलादिषु वितथशानजननात् । दावो वनगतो वह्निः, स पुनर्यः स्वयमेव वेण्यादीनां सङ्घर्षसमुद्भूतः स इह व्यभिचारविषयत्वेन द्रष्टव्यः । यस्त्वरणिनिर्मथनादिपुरुषैनिवृत्तं तत्रापौरुषेयत्वासंभवात् ततो न हेतोर्व्यभिचार इति भावः । आदिशब्देन मरीच्यादिपरिग्रहः । तामेव मिथ्याज्ञानहेतुतां दर्शयन्नाह
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रथमपरि०
प्रामाण्यप्रसङ्गाचा निखिलवचनानां लोके गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वेन प्रामाण्यप्रसिद्धः, अंबान्यथापि तत्परिकल्पनेने प्रतीतिविरोधाच । . अपि च अपौरुषेयत्वेप्यागमस्य न स्वतोऽथै प्रतीतिजनकत्वम
सर्वदा तत्प्रसङ्गात् । नापि पुरुषप्रयत्नाभिव्यक्तस्य; तेषां रागा. ५दिदोषदुष्टत्वेनोपगमात् तत्कृताभिव्यक्तेर्यथार्थतानुपपत्तेः । तथाच
अप्रामाण्यप्रसङ्गभयादपौरुषेयत्वाभ्युपगमो गजनानमनुकरोति। तदुक्तम्
“अंसंस्कार्यतया पुभिः सर्वथा स्यानिरर्थता। संस्कारोपगमे व्यक्तं गजनानमिदं भवेत् ॥१॥"
[प्रमाणवा० १२३२] तन्न प्रामाण्यस्योत्पत्ती परीनपेक्षा। नौपि ज्ञप्तौ । साहि निर्निमित्ता, सन्नि(सनि)मित्ता वा ? न ताव. निर्निमित्त प्रतिनियतदेशकालवभावाभावप्रसङ्गात् । सनिमि
तत्वे किं खनिमित्ता, अन्यनिमित्ता वा? न तावत्स्वनिमित्ता, १५वसंविदितत्वानभ्युपगमात् । अन्यनिमित्तत्वे तत्किं प्रत्यक्षम्,
उतानुमानम् ? न तावत्प्रत्यक्षम्। तस्य तंत्र व्यापाराभावात् । तद्धीन्द्रियसंयुक्त विषये तयापारादुर्दयमासादयत्प्रत्यक्षव्यपदेशं लभते । न च प्रामाण्येनेन्द्रियाणां सैंम्प्रयोगो येन तद्व्यापारजनितप्रत्यक्षेण तत्प्रतीयेत । नापि मनोव्यापारजेप्रत्यक्षेण; एवं २० विधानुभवाभावात्।
१ वेदे । २ अपौरुषेयत्वेन। ३ अन्यथा। ४ ज्ञातस्य । ५ अपौरुपेयत्वस्य । ६ अपौरुषेयस्य वेदस्य । ७ वेदस्य पुरुषकृताभिव्यक्तितोऽथे प्रतीतिजनकत्वे च। ८ तव परस्य । ९ वेदस्य । १० निश्चिता। ११ पुंभिः। १२ गुण । १३ मीमांसकमतप्रक्षेपं करोति। १४ अन्यथा। १५ प्रामाण्यमात्मानं वेनैव जानाति। १६ अत्यन्तपरोक्षत्वाद्विशानस्य । १७ मीमांसकैः। १८ प्रामाण्यशप्तौ। १९ जायमानम् । २० सन्निकर्षः। २१ अपि तु न। २२ तत्प्रतीयेत । २३ प्रामाण्यज्ञप्तिरूप । २४ प्रामाण्यशप्तेः। .
रक्कं नीलसरोजं हि वयालोके स हीष्यते। वह्वयादिः कृतकत्त्वाच्चैन्न हेतुरुपपद्यते ॥ २४०४ ॥
तत्त्वसं० पं० पृ० ६५६। 1 "यतो निश्चयस्तत्र भवन् किं निनिमित्तः उत सनिमित्तः इति कल्पनाद्वयम् । तत्र न तावन्निनिमित्तः, प्रतिनियतदेशकालस्वभावाभावप्रसङ्गात् । सनिमित्तत्त्वेऽपि किं खनिमित्त उत स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः ॥
सन्मति० टी० पृ० १३॥
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सू० १२१३] प्रामाण्यवादः
१६७ नाप्यनुमानतः, लिङ्गाभावात् । अथार्थप्राकट्य लिङ्गम् ; तकि यथार्थत्वविशेषणविशिष्टम् , निर्विशेषणं वा? प्रथमपक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणं प्रथमप्रमाणात्, अन्यस्माद्वा? आद्यपक्षे परस्पराश्रयः दोषः। द्वितीयेऽनवस्था निर्विशेषणात्तत्प्रतिपत्तौ चातिप्रसंङ्गः । प्रत्यक्षानुमानास्यां तत्प्रामाण्यनिश्चये खतः प्रामा-५ ण्यव्याधातच!
या संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्ये चक्रकद्दूषणम् । तदप्यसङ्गतम् ;न खलु संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्त्तते, किन्तु वह्निरूपदर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्याथ तद्देशमुपैसपन् कृपालुना वा केनचित्तद्देशं वढेरानयने तत्स्पर्शविशेषमनुभूय तद्रूपस्पर्शयोः सम्ब-१० न्धमवगम्यानभ्यासदशायां 'ममायं रुपप्रतिभासोऽभिमैतार्थक्रियासाधनः एवंविधप्रतिभासत्वात्पूर्वोत्पनैवंविधप्रतिभासवत्' इत्यनुमानोंत्साधननिर्भासिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तते । कृषीवलादयोपि ह्यनभ्यस्तवीजादिविषये प्रथमतरं तावच्छरावा
१ प्राकट्यं प्रामाण्याविनाभावि भवति तच्च यत्र ज्ञानेस्ति तत्र प्रामाण्यमिति । २ प्रमाणप्रामाण्यमस्ति यथार्थप्राकट्यात् । ३ प्राकट्यमात्रम्। ४ लिङ्गस्य । ५ प्रथमजलशानात् । ६ प्रमाणात् । ७ प्रमाणभूतप्रथमज्ञानात्साधनस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणं गृहीतविशेषणविशिष्टात्साधनात्प्रथमज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चय इति । ८ लिङ्गात् । ९ प्रामाण्यज्ञप्तौ । १० मिथ्याज्ञानेऽपि प्रामाण्यं स्यादित्यर्थः । ११ पूर्वशानग्राहि द्वितीय प्रत्यक्षम् । १२ पूर्वशानस्य । १३ किञ्च । १४ अर्थक्रियारूपात्। १५ परोक्तम् । १६ जलादिज्ञानस्य । १७ नरः। १८ नरः। १९ पुष्पार्थ । २० गच्छन् । २१ उष्णस्पर्शम्। २२ अविनाभावम् । २३ भास्वर । २४ शीतापहरणलक्षण । २५ पिङ्गाङ्गमासुररूप । २६ शीतापनोदस्य साधनमग्निः। २७ जल ।
1"तद्धि फलं निर्विशेषणं वा स्वकारणस्य ज्ञातृव्यापारस्य प्रामाण्यमनुमापयेद् , यथार्थत्वविशिष्टं वा ?' न्यायमं० पृ० १६८ । न्यायकुमु० पृ० २०१ । सन्मति. टी० पृ० १४ । स्या० रत्ना० पृ० २५६ ।
2 "यच्च संवादशानात् साधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चये चक्रकदूषणमभ्यधायि; तदसङ्गतम् ; यदि हि प्रथममेव संवादज्ञानात् साधनज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवतेत तदा स्यात्तदूषणम् , यदा तु वह्निरूपदर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थ तद्देशमुपसर्प. स्तत्स्पर्शमनुभवति कृपालुना वा केनचित्तद्देशं वढेरानयने; तदाऽसौ वह्निरूपदर्शनशानयोः सम्बन्धमवगच्छति एवं स्वरूपो भावः एवंभूतप्रयोजननिवर्तकः इति ..."
सन्मति० टी० पृ० १६ । स्या० रत्ना० पृ० २५५ । 3 "कृषीवलादयोऽपि हि अनभ्यस्ते बीजादिगोचरे प्रथमम् विहितमधुरनीरावसिकसुकुमारमृदि शरावादौ कतिपयशाल्यादिवीजकणगणावपनादिना बीजाबीजे
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० दावल्पतरबीजवपनादिना बीजाबीज निर्धारणाय प्रवर्तन्ते, पश्चादृष्टसाधात्परिशिष्टस्य वीजावीजतया निश्चितस्योपयोगाय परि. हाराय च अभ्यस्तवीजादिविषये तु निःसंशयं प्रवर्त्तन्ते ।
यञ्चाभ्यधायि-संवादप्रत्ययात्पूर्वस्य प्रामाण्यावगमेऽनवस्था ५तस्याप्यपरसंवादापेक्षाऽविशेषात् । तदप्यभिधानमात्रम्। तस्य संवादरूपत्वेनापरसंवादापेक्षाभावात् । प्रथमस्यापि संवादापेक्षा मा भूदित्यप्यसमीचीनम् ; तस्यासंवादरूपत्वात्, अंतः संवादक द्वारेणैवास्य प्रामाण्यं निश्चीयते।
अर्थक्रियोज्ञानं तु साक्षादविसंवाद्यर्थक्रियालम्बनत्वान्न तथा १०प्रामाण्यनिश्चयभाई । तेन 'कस्यचित्तु यदीष्येत' इत्यादि प्रलाप
मात्रम् । न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यवस्तुवृत्तिशङ्कायामन्यप्रमाणापेक्षयानवस्थावतारः, । अस्यार्थाभावेऽदृष्टत्वेन निरारेकत्वात् । यथैव हि-किं 'गुंणव्यतिरिक्तेन गुणिनाऽर्थक्रिया सम्पादिता
१ परेण । २ ज्ञानस्य । ३ जैनैः । ४ संवादप्रत्ययो धर्मी अपरसंवादापेक्षो भवतीति साध्यं प्रत्ययत्वात् । ५ प्रत्ययत्वेन । ६ जलादिज्ञानस्य । ७ पूर्वज्ञानविषये उत्तरज्ञानस्य वृत्तिः संवादः। ८ असंवादरूपत्वं यतः। ९ प्रेक्षावद्भिः। १० संवाद। ११ लानपानावगाहनादि । १२ पुनः । १३ यसः (कर्मधारयसमासः)। १४ बसः। १५ अविसंवादापेक्षाप्रकारेण । १६ भवति। १७ कारणेन । १८ स्वत एवं प्रमाणता । प्रथमस्य तथाभावे प्रदेषः केन हेतुना। १९ अपिशब्दात्साधनज्ञानस्य ग्रहणम् । २० विद्यमानेपि स्नानादिके अविद्यमानलानादिलक्षणाऽवस्तुवृत्तिशङ्कायाम् । २१ निःसंशयत्वात् । २२ रूपस्पर्शादि । २३ यौगः । निर्धार्य पश्चादृष्टसाधयेणानुमानात् परिशिष्टस्य बीजाबीजतया निश्चितस्योपादानाय हानाय च यतन्ते । तदनन्तरं पुनरभ्यस्ते बीजादिगोचरे परिदृष्टसाधादिलिङ्गनिरपेक्षा एव निःशवं कीनाशा: केदारेषु बीजवपनाय प्रवर्तन्ते ।" स्या. रत्ला० पृ० २५५ । 1 "उच्यते वस्तुसंवादः प्रामाण्यमभिधीयते । वस्य चार्थक्रियाभ्यासशानादन्यन्न लक्षणम् ॥ २९५९ ॥ अर्थक्रियावभासं च ज्ञानं संवेद्यते स्फुटम् । निश्चीयते च तन्मात्रमाव्यामर्शनचेतसा ॥ २९६० ॥ अतस्तस्य स्वतः सम्यक् प्रामाण्यस्य विनिश्चयात् । नोत्तरार्थक्रियाप्राप्तिप्रत्ययः समपेक्ष्यते ॥ २९६१ ॥ शानप्रमाणभावे च तस्मिन् कार्यावभासिनि । प्रत्यये प्रथमेप्यस्माद्धेतोः प्रामाण्यनिश्चयः॥ २९६२ ॥
तत्त्वसं० पृ० ७७८ । सन्मति० ते० पृ० १४ । 2 “यथा अर्थक्रिया किमवयवव्यतिरिक्तन अवयविनाऽर्थेन निष्पादिता, उताव्यतिरिक्तेन, आहोखिदुभयरूपेण, अथानुभयरूपेण, किंवा त्रिगुणात्मकेन, परमाणुसमू
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः उताऽव्यतिरिक्तेनोभयरूपेणानुभयरूपेण, त्रिगुणात्मना वाथैन, परमाणुसमूहलक्षणेन वा इत्याद्यर्थक्रियार्थिनांचिन्ताऽनुपयोगिनी निष्पन्नत्वाद्वाञ्छितफलस्य, तथेयमपि 'किं वस्तुभूतायामवस्तुभूतायां वार्थक्रियायां दत्संवेदनम्' इति ! वृद्धिच्छेदादिकं हि फलमभिलषितम्, तञ्चेन्निष्पन्नं ट्वि(ड्वि)योगिज्ञानानुभवे किं५ নশ্লিাহসু ?
नं च स्वप्नार्थक्रियाज्ञानस्यार्थाभावेपि दृष्टत्वाजाप्रदर्थक्रियाज्ञानेपि तथा शङ्का; तस्यैतद्विपरीतत्वात् । स्वप्नार्थक्रियाज्ञानं हि सवाधम् । तद्रष्टुरेवोत्तरकालमन्यथाप्रतीतेःन जाग्रर्दशाभावीति ।
१ साङ्ख्यचार्वाको। २ व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त । ३ जैनमीमांसको। ४ बौद्धविशेषः । ५ सत्त्वरजस्तमोलक्षगा गुणाः । ६ साङ्ख्यः। ७ प्रधानेन। ८ बौद्धः। ९ अवयवी । १० योगः। ११ नृणाम् । १२ लानपानावगाहनादेः। १३ अर्थक्रियाशानचिन्ता । १४ अङ्गमलापहार । १५ पुरुषस्य । १६ पुरुषेण। १७ का । १८ अर्धक्रियाज्ञानम् । १९ न सबाधम् । हात्मकेन वा, अथ ज्ञानरूपेण, आहोस्वित् संवृतिरूपेण इत्यादिचिन्ता अर्थक्रियामात्रार्थिनां निष्प्रयोजना निष्पन्नत्वाद्वान्छितफलस्य, तथेयमपि किं वस्तुसत्यानर्थक्रियायां तत्संवेदनज्ञानमुपजायते आहोस्विदवस्तुसत्याम् इति । तृड्दाहविच्छेदादिकं हि फलमभिवान्छितम् , तच्चाभिनिष्पन्नम् , तद्वियोगिज्ञानस्य स्वसंविदितस्योदये इति तच्चिन्ताया निष्फलत्वम् ।"
सन्मति० टी० पृ० १४ । 1 "तथाहि लोके सद्धि ( वृद्धि) च्छेदादिकं फलममिवान्छितम् तच्चालादपरितापादिरूपज्ञानाविर्भावादेव निवृत्तमित्येतावतैवाहितसन्तोषा निवर्तन्ते जना इति खत एव सिद्धिरुच्यते।"
तत्त्वसं० पं० पृ० ७७८ । 2 "ननु चार्थक्रियामासि ज्ञानं स्वप्नेऽपि विद्यते । न च तस्य प्रमाणत्वं तद्धेतोः प्रथमस्य च ॥ २९८० ॥ नैवं भ्रान्ता हि सावस्था सर्वा बाह्यानिबन्धना । न बाह्यवस्तुसंवादस्तास्ववस्थासु विद्यते ॥ २९८१ ।। एवमर्थक्रियाज्ञानात् प्रमाणत्वविनिश्चये ।
नानवस्था पराकाहाविनिवृत्तेरिति स्थितम् ॥ २९८६ ॥ किञ्च, प्रमाणमविसंवादिशानमित्यनेन अर्धक्रियाधिगमलक्षणफलप्रापकहेतोर्शनस्यद लक्षणमुच्यते, ततश्च फलशाने लक्षणानवतारात् कथं तस्यापि प्रामाण्यमवसीयते इत्यस्य चोद्यस्यावकाशः कथं भवेत् ? तथाहि-अङ्करस्य हेतुर्वीजम् इति लक्षणे सति अडरस्यापि कथं बीजत्वमिति किं विदुषां प्रश्नो जायते ? यथा च वीजस्य तद्भावोऽङ्कुरदर्शनादवगम्यते तथा प्रमाणस्यापि तद्भावोऽर्थक्रियालक्षणफलदर्शनात् ।" तत्त्वसं० पं० पृ० ७८४ । न्यायकुमु० पृ० २०२ । सन्मति० टी० पृ० १५१
प्र० क० मा० १५
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१७० प्रमेयकमलमार्तण्डे [प्रथमपरि० यदि चात्रार्थक्रियाज्ञानमर्थमन्तरेण स्यात् किमन्यज्ज्ञानमर्थाव्यभिचारि यदलेनार्थव्यवस्था ?
अपि च, 'अर्थक्रियाहेतुर्मानं प्रमाणम्' इति प्रमाणलक्षणं तत्कथं फलेप्याशयते ? यथा “अडरहेतुर्वीजम्' इति बीजलक्षणस्या५करेऽभावात् नैवं प्रश्नः 'कथमकुरे बीजरूपता निश्चीयते' इति, एवमंत्रापि । यच्चेदँमुक्तम् "श्रोत्रधीश्चाप्रमाणं स्यादितराभिरसङ्गतिः(तेः)।"
[ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ७७ ] इति; तदप्ययुक्तम्। वीणादिरूपविशेषोपलम्भतस्तच्छन्दविशेष १० शङ्काव्यावृत्तिप्रतीतेः कथमितराभिरसङ्गतिः? श्रोत्रवुद्धस्थति यानुभवरूपत्वेन स्वतः प्रामाण्यसिद्धेश्च गन्धादिबुद्धिवत् । संशयाद्यभावान्नान्येन सङ्गत्यपेक्षा। यत्रैव हि संशयादिस्तत्रैव साऽपे. क्षते नान्यत्र अंतिप्रसङ्गात्।
अथोच्यते अर्थक्रियाऽविसंवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चये मणि१५प्रभायां मणिवुद्धेरपि प्रामाण्यनिश्चयः स्यात् ; तव्यपर्यालोचिताभिधानम् ; एवंभूतार्थक्रियाज्ञानान्मणिवुद्धेरप्रामाण्यस्यैव निश्च
१ किञ्च । २ जाग्रद्दशाभाव्यर्थक्रियायाम् । ३ स्थितिः। ४ किन्तु नैव शङ्कनीयम् । ५ परेण । ६ अर्थक्रियाज्ञाने प्रमाणलक्षणाशङ्का कथं स्यात् । अर्थक्रियाज्ञानरूपे फले अर्धक्रियाहेतुतया प्रमाणता निश्चीयते कथमिति प्रश्नः स्यात् । ७ स्वग्रन्थे। ८ चक्षुरादिजनितधीभिः। ९ रूपादिशानः। १० अर्थस्य शब्दस्य क्रिया, उत्पद्यमानत्वं तस्यानुभवरूपत्वेन । ११ किञ्च । १२ स्पर्शरस । १३ अपरेण सजातीयेनार्थक्रियाशानेन । १४ संवाद । १५ ज्ञाने। १६ स्यात् । १७ अन्यथा । १८ प्रतीयमानेपि स्वकीये सुखे अन्यापेक्षा स्यात् । १९ ज्ञानस्य । २० अङ्गीक्रियमाणे। २१ ता। २२ भिन्नदेशार्थसम्बद्धा ।
1 ".."तस्माच्छोत्रधीः प्रमाणं भवत्येव तदन्याभिश्चक्षुरादिमतिभिर्यथोक्तसम्बन्धसद्भावात् , तथाहि-दूराद् वीणादिशब्दश्रवणात् तदर्थिनो वेण्वादिशब्दसाधादुपजातसंशयस्य पुंसः प्रवृत्ती वीणारूपदर्शनाद्यः प्रागुपजातः संशयः किमयं वीणाध्वनिः उत वेणुगीतादिशब्द इति स व्यावर्तते । यत्र च देशे मृदङ्गादिप्रतिशब्दश्रवणात् प्रवृत्तस्य तदर्थाधिगतिनं भवति तत्र विसंवादादप्रामाण्यं प्रत्येति ।" तत्त्वसं० पं० पृ० ८०३ ।
2 “यच्च शङ्ख पीतशानं मणिप्रभायां मणिज्ञानं तदप्यप्रमाणमेव, तत्र यथार्थप्रतिभासावसाययोरभावात् । प्रतिभासवशाद्धि प्रत्यक्षस्य ग्रहणाग्रहणे नत्वर्था विसंवादमात्रात् । नचात्र यथा स्वभावदेशकालावस्थितवस्तुप्रतिभासोऽस्ति नरा (वा?) देशकालः स एव भवति । देशकालयोरपि वस्तुस्वभावभेदकत्वात् ।" तत्त्वसं० पं० पृ० ७८२ । न्यायकुमु० पृ० २०२॥
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सू० १११३] . प्रामाण्यवादः यात्तेनं संवादाभावात् । कुञ्चिकाविवरस्थायां हि मणिप्रभायां मणिज्ञानम् अपर(अपवर)कान्तर्देशसम्बद्धे तु मणावर्थक्रियाज्ञानमिति भिन्नदेशार्थग्राहकत्वेन भिन्नविषययोः पूर्वोत्तरज्ञानयोः कथमविसंवादस्तिमिराद्याहितविभ्रमशानवत् ?
यच्चान्यदुंक्तम्-कचिकूटेवि जयतुङ्गे ज्ञानं प्रमाणं स्यात्कति-५ पथार्थक्रियादर्शनात् , तत्र कूटे कूटज्ञानं प्रमाणसेवाऽकूटज्ञानं तु न प्रमाणं तत्संवादाभावात् । सम्पूर्णचेतनालामो हि तस्यार्थक्रिया न कतिपयचेतनालाभ इति ।
यच्चैकविषयं भिन्नविषयं वा संवादकमित्युक्तम् । तत्रैकाधारवर्तिरूपादीनां तादात्म्यप्रतिवन्धेनान्योन्यं व्यभिचाराभावात् । १० जाग्रहशारसादिज्ञानं रूपाद्यविनाभावि रसादिविषयत्वात् । भिन्नविषयत्वेप्याँशङ्कितविषयाभावस्य पज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयात्मकम् । दृश्यते हि विभिन्नदेशाकारस्यापि वीणादे रूपविशेषदर्शने शब्दविशेषे शङ्काव्यावृत्तिः किं पुनर्नाचें ? अविनाभावो हि संवाद्यसंवादकभावनिमित्तं नोन्यत् ।
१ पूर्वशानस्य । २ अभूत्। ३ जनित । ४ विभ्रमशानस्य यथा भिन्नदेशसम्बन्धार्थक्रियाज्ञानरूपसंवादान्न प्रामाण्यम् । ५ शुक्तिकादौ रजतादिशानं विभ्रमः । ६ परेण । ७ द्रङ्गे। ८ दूषणमुच्यते । ९ अकूटजयतुङ्गस्य । १० अर्थ। ११ पूर्वज्ञानस्य । १२ परेण । १३ मातु(लि)ङ्गादि । १४ सम्बन्धेन। १५ द्वितीयम् । १६ रूपरसज्ञानयोः। १७ जाग्रद्दशाभावि। १८ आद्यस्य जाग्रद्दशाभाविनः । १९ आद्यस्य । २० रूपादौ । २१ विमिन्नविषययोः रूपरसज्ञानयोः शङ्काव्यावृत्तिः कुत इत्युक्ते आह । २२ एकविषयत्वं भिन्नविषयत्वं वा।
1 "एकसन्तानवर्तिनो विषयद्वयस्याविनाभावादन्यालम्बनमपि ज्ञानमन्यविषयस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यं साधयिष्यति, नहि तौ रुपस्पशौँ विनिर्भागेन वर्तेते एकसामग्र्यधीनत्वात् ।"
तत्त्वसं. पं० पृ० ८०२। 2 "क्वचित्खलु समानजातीयं संवादकशानं भवति, यथा देवदत्तस्य प्रथमं घटशाने प्रवृत्ते यशदत्तस्यापि तस्मिन्नेव घटे घटशानम् । "क्कचित्तु भिन्नजातीयमपि, संवादकज्ञानं भवति । यथा प्रथमस्य प्रवर्तकजलज्ञानस्य उत्तरकालभाविनानपानावगाहनाधक्रियाशानम् ।...भवति हि एकसन्तानप्रभवम् अन्धकारकलुषितालोकप्रभवस्य कुम्भज्ञानस्य उक्तरकालभाविनिस्तिमिरालोकप्रभवं तस्मिन्नेव कुम्मे कुम्भशानम् । भिन्नविषयं तु एकसन्तानप्रभवं संवादकं यथा रथाङ्गमिथुनादेकतरदर्शनस्य अन्यतरदर्शनम् ।"न खलु निखिलं भिन्नविषयं संवेदनं संवादकमिति ब्रूमः । किंतर्हि ? यत्र पूर्वोत्तरशानगोचरयोः अविनामावस्तत्रैव भिन्नविषयत्वेऽपि शानयोः संवाद्यसंवादकभाव इति ।... अविनाभावो हि संवाद्यसंवादकभावनिमित्तं नान्यत् ।" स्या. रत्ना० पृ० २५३ ।
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प्रमेयकमलमार्कण्डे प्रथमपरि० . संवादज्ञानं किं पूर्वज्ञानाविषयं तदविषयं वा; इत्याद्यप्यसमीक्षिदाभिधानम् ले खलु संवादहानं तदाहित्वेनास्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति ! किं तर्हि ? तत्कार्यविशेषत्वेनाश्यादिकमिव धूमादिकम् ।
सर्वप्राणभृतां प्रामाण्ये सन्देहविपर्ययासिद्धेश्च; इत्यप्ययुक्तम् ः ५प्रेक्षापूर्वकारिणो हि प्रमाणाप्रमाणचिन्तायामधिक्रियन्ते नेतरे। ते
च कासाञ्चिदशा(श्चिज्ज्ञा)नव्यक्तीनां विसंवाददर्शनाजाताशङ्काः कथं ज्ञानमात्रात् 'अयमित्थमेवार्थः' इति निश्चिन्वन्ति प्रामाण्यं वास्य ? अन्यथैषां प्रेक्षावत्तैव हीयेत।
प्रमाणे वाधककारणदोषज्ञानाभावात्प्रामाण्यावसायः; इत्यप्य१० भिधानमात्रम् । तदभावो हि वाधकाग्रहणे, तदभावनिश्चये वा स्यात् ? प्रथमपक्षे भ्रान्तज्ञाने तद्भावेपि तद्ग्रहणं कञ्चित्कालं दृष्टम् , एवमत्रोपि स्यात् । 'भ्रान्तज्ञाने कश्चित्कालमहेपि कालान्तरे वाधकग्रहणं, सम्यग्ज्ञाने तु कालान्तरेपि तदग्रहणम्'
इत्ययं विभौगः सर्वविदां नास्मादृशाम् । वाधकाभावनिश्चयोपि १५सम्यग्ज्ञाने प्रवृत्तेः प्राक, उत्तरकालं वा? आद्यविकल्पे भ्रान्त
ज्ञानेपि प्रमाणत्वप्रसङ्गः । द्वितीयविकल्पे तन्निश्चयस्याकिञ्चित्करत्वं तमन्तरेणैव प्रवृत्तेरुत्पन्नत्वात् । न च बाधकामावनिश्चये किञ्चिनिमित्तमस्ति । अनुपलब्धिरस्तीति चेकिं प्राकाला,
उत्तरकाला वा? न तावत्प्राकाला; तस्याः प्रवृत्त्युत्तरकाल २० भाविबाधकामावनिश्चयनिमित्तत्वासम्भवात् । न ह्यन्यकालानु. - १ पूर्वज्ञानं विषयो यस्य। २ अर्थक्रियाज्ञानं। ३ कर्तृ । ४ अश्यादिकं कर्मतामापन्नं यथा व्यवस्थापयति धूमादिकं कर्तृ, कुतस्तत्कार्यत्वान्न तु तद्वाहकत्वादित्यर्थः । ५ कर्तृ । ६ बाधक । ७ अप्रेक्षाकारिणो नराः। ८ मरीचिकादौ । ९ किन्तु नैव । १० बाधकाभावः। ११ उभयोः। १२ सत्यजलज्ञाने। १३ उभयोः (कोट्योः)। १४.देशकालापेक्षया । १५ खानपानादिलक्षणायाः। १६ किञ्च । १७ कारणम् । १८ विवादापन्ने प्रमाणे बाधकं नास्ति अनुपलब्धेरिति । १९ नेदं जलमिति ।
___1 "नहि संवादज्ञानं तबाहकत्वेन तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति, किन्तु तत्कार्यविशेषत्वेन यथा धूमोऽग्निम् इति पराभ्युपगमः।" सन्मति० टी० पृ० १६। 2 "तदभावो हि बाधकाग्रहणे, तदभावनिश्चये वा ?” तत्त्वोप० लि. पृ० ३।
- सन्मति० टी० पृ० १५ । 3 "बाधकानुपलब्धिः किं प्रवृत्तेः प्राग्भाविनी बाधकामावनिश्चयस्य प्रवृत्युत्तरकालभाविनो निमित्तम्, अथ प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनी इति विकल्पद्वयम् ?"
सन्मति० टी० पृ० १७।
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सू० १११३] प्रामाण्यवादः पलब्धिरन्यकालमभावनिश्चयं च विद्धात्यतिप्रसङ्गात् । नाप्यु. त्तरकाला, प्राक् प्रवृत्तेः 'उत्तरकालं बाधकोपॅलब्धिर्न भविष्यति' इत्यसर्वविदा निश्चेतुमशक्यत्वेनासिद्धत्वात् । प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनिश्चयमात्रनिमित्तत्वे न किञ्चित्फलम् तस्याँकिञ्चित्करत्वात्।
किच, अलौ लवलम्वन्धिनी, आलसम्बन्धिनी वा? प्रथम-५ पक्षे आलिद्धाः न खलु 'सर्वे प्रमातारो बाधकं नोपलभन्ते' इत्याग्दर्शिन्दा निश्चेतुं शक्यम् । नाप्यात्मलम्वन्धिनीः तस्याः परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात् । तन्नानुपलब्धिनिमित्तम् । नापि संवादोनवस्थाप्रसङ्गात् । कारणदोषाभावेण्ययमेव न्यायः। एवं त्रिचतुरज्ञान' इत्याद्यपि स्वगृहमान्यम् : कस्यचिद्विज्ञानस्य १० प्रामाण्यं पुनरप्रामाण्यं पुनः प्रमाणता' इत्यवस्थात्रयदर्शनाद्वाधके तद्वाधकादौ वावस्थात्रयमाशङ्कमानस्य परीक्षकस्य कथं नापरापेक्षा येनानवस्था न स्यात् ?
'आशङ्केत हि यो मोहात्' इत्याद्यपि विभीपिकामात्रम् , यतो - नाभिशापमात्रात्प्रेक्षावतां प्रमाणमन्तरेण वाधकोशङ्का व्यावर्त्तते । १५ न चास्या व्यावर्तकं प्रमाणं भवन्मतेऽस्तीत्युक्तम् । कारणदोषज्ञानेपि पूर्वण जाताशङ्कस्य तत्कारणदोषान्तरापेक्षायां कथमनवस्था न स्यात् ? तस्य तत्कारणदोषग्राहकानाभावमात्रतः प्रमाणत्वान्नानवस्था, यदाह
"यदा स्वतः प्रमाणत्वं तदान्यन्नैव मुंग्यते।
३२२२
२०
१ पूर्वेण जाताशङ्कस्य । २ बाधकस्य ! ३ सन्प्रत्यत्र घटानुपलब्धिः कालान्तरेप्यत्र घटाभावं कुर्यादित्यतिप्रसङ्गात् । ४ जलादिशाने । ५ बाधकामाव। ६ अनुपलम्भस्य । ७ प्रवृत्त्यर्थो हि निश्चयोऽवलोक्यते प्रवृत्तेश्च जातत्वान्निश्चयस्याकिञ्चित्करत्वम् । ८ अनुपलब्धिः। ९ किञ्चिज्वेन । १० अनुपलब्धेः। ११ लब्धुमशक्यैः । १२ बाधकामावनिश्चयं निमित्तम्। १३ अन्यथा। १४ पूर्वेण जाताशङ्कस्य संवादे संवादान्तरापेक्षणात् । १५ इदं जलं पुनरिदं जलं पुनरिदं जलम् । १६ विवक्षितस्य । १७ बाधकात् । १८ पञ्चमशानलक्षणसंवादप्रमाणम् । १९ चतुर्थशानस्य । २०.प्रत्यक्षादिना प्रामाण्यग्रहणाभावे प्रामाण्ये बाधकाशङ्काव्यावर्जनस्य कर्तुमशक्यत्वात् । २१ द्वितीयविकल्पः। २२ विज्ञानकारणनेत्रादिकम् । २३ काचकामलादि । २४ ज्ञानेन। २५ इन्द्रियाणामतीन्द्रियत्वादभावः। २६ संवादकज्ञानम्। २७ कुतः।
- 1 "किञ्च, बाधकानुपलब्धिः सर्वसम्बन्धिनी किं तनिश्चयहेतुः उत आत्मसम्बधिनी इति पुनरपि पक्षद्वयम् ।"
सन्मति० टी० पृ० १७ ॥
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथमपरि० निवर्तते हि मिथ्यात्वं दोपशानादयत्नतः ॥
[मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५२] प्रागेव विहितोत्तरम् । न च दोषाज्ञानात्तर्भावः, सत्स्वपि तेषु तदज्ञानसम्भवात् । सम्यग्ज्ञानोत्पादनशक्तिवैपरीत्येन मिथ्याप्रत्य५योत्पादनयोग्यं हि रूपं तिमिरादिनिमित्तमिन्द्रियदोषः, स चातीन्द्रियत्वात्सन्नपि नोपलक्ष्यते । न च दोषाः ज्ञानेन व्याप्ता येन तन्निवृत्त्या निवत्तैरन् । ततोऽयुक्तमिदम्
"तस्मात्स्वतः प्रमाणत्वं सर्वत्रौत्सर्गिकं स्थितम् । वधिकरणदुष्टत्वज्ञानाभ्यां तदपोद्यते ॥ परोधीनेपि वै तस्मिन्नानवस्था प्रसज्यते। प्रमाणाधीनमेतद्धि स्वतस्तच्च प्रतिष्ठितम् ॥ प्रमाणं हि प्रमाणेन यथा नान्येन साध्यते । न सिध्यत्यप्रमाणत्वमप्रमाणात्तथैव हि ॥ वाँधकप्रत्ययस्तावदर्थान्यत्वाऽवधारणम् । सोऽनपेक्षः प्रमाणत्वात्पूर्वज्ञानमैपोहते ॥ यत्रापि त्वपादस्य स्यादपेक्षा क्वचित्पुनः। जाताशङ्कस्य पूर्वेण साप्यन्येन निवर्त्तते ॥
१ शङ्कया यदापादितमप्रामाण्यम् । २ स्वच्छनील्यादि। ३ संवादमन्तरेण । ४ कारणदोषाभावेप्ययमेव न्याय इति। ५ किञ्च । ६ दोषाभावः। ७ किञ्च । ८ अनवस्था समर्थिता यतः। ९ अग्रे वक्ष्यमाणलक्षणम् । १० मीमांसकग्रन्थे । प्रमथशानप्रामाण्ये संवादज्ञानापेक्षाया अनवस्थाचक्रकेतरेतराश्रया यतः। ११ एवं चेत्सर्वस्य शानस्य भ्रान्तादेः प्रमाणता स्यादित्युक्ते सत्याह । १२ यथाऽप्रामाण्यं बाधककारणदोषशानापेक्षं तथा बाधकादिनाऽपरमपेक्षणीयमपरेणाप्यपरमपेक्षणीयमित्यनवस्था कुतो न स्यादित्युक्त आह । १३ भ्रान्तादेरप्रामाण्ये। १४ अप्रामाण्यं । १५ प्रमाणाधीनं स्याद्यदि अप्रामाण्यं तदाऽनवस्था न स्यादेव किं तर्हि अप्रामाण्यस्य प्रमाणमन्तरेणैव सिद्धिः स्यात्ततश्चाप्रामाण्यं स्वतः स्यादित्युक्ते आह। १६ प्रमाणमन्तरेण । १७ बाधप्रत्ययः पुनः क इत्युक्ते आह । १८ शानं। १९ परानपेक्षः । २० स्वतः। २१ मरीचिकायां जलज्ञानम् । २२ बाधते। २३ विषये । २४ यदा बाधकप्रत्ययोऽपरमपेक्षेत तदा किम् । २५ बाधकशानस्य । २६ अपवादान्तरस्य । २७ अर्थे । २८ नरस्य। २९ पूर्वेण शानेन। ३० अपरेण बाधकप्रत्ययेन पूर्व सजातीयेन संवादकेन।
1 "न च दोषा ज्ञानेन ये व्याप्ता येन तन्निवृत्त्या निवर्तेरन्" सन्मति० टी० पृ०१८
2 तस्मात्स्वतः इत्यादयो नवश्लोकाः तत्त्वसंग्रहे किञ्चित् पाठभेदेन पूर्वपक्षरूपेण उपलभ्यन्ते (पृ० ७५८-६०)। सन्मति० टी० पृ० १८-१९ ।
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सू० १११३ ]
प्रामाण्यवादः
वोधकान्तरमुत्पन्नं यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम् । ततो मैध्यमवाधेन पूर्वस्येव प्रमाणता ॥ अथान्यदप्रयत्नेन सम्यगन्येपणे हते । मूलाभावान्न विज्ञानं भवेद्वाधकबाधनम् ॥ ते त्वनैवोयं वलीयसा । mera fate प्रमाणत्वमपद्य एवं परीक्षकज्ञानं तृतीयं नातिवर्त्तते । ततश्चाजातबाधेन नाशयं वाधकं पुनः ॥"
१५
૭.
कथं वीं चोदनाप्रभवचेतसो निःशङ्कं प्रामाण्यं गुणवतो वक्रभावेनाऽपवादकदोषाभावासिद्धेः ? ननु वक्तृगुणैरेवापवादकदो- १० पाभावप्यते तदभावेप्यनाश्रयाणां तेषामनुपपत्तेः । तदुक्तम्
"शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वत्रधीन इति स्थितम् । तदभावः क्वचित्तावद्गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ तणैरपकृष्टानां शब्दे सङ्क्रान्त्यसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन व दीपा निरौश्रयाः ॥" [ मी० लो० सू० २ श्लो० ६२-६३ ] इत्यपि प्रलापमात्रमपौरुपेयत्वस्यासिद्धेः । ततश्चेदमयुक्तम्
"तंत्रापवाद निर्मुक्तिर्वक्रभावलिघीयसी । वेदे तेन प्रमाणत्वं नाशङ्कामपि गच्छति ॥ १ ॥” [मी० लो० सू० २ श्लो० ६८ ]
स्थितं चैतच्चोदनाजनिता वुद्धिर्न प्रमाणम निराकृतदोपकारणप्रभवत्वात् द्विचन्द्रादिवुद्धिवैत् । न चैतदसिद्धम्, गुणवतो वक्तुरभावे तंत्र दोपाभावासिद्धेः । नाप्यनैकान्तिकं विरुद्धं वा दुष्ट
१५
२६ शब्दे । २७ पुरुष । २८ वेदे । २९ अप्रामाण्य । ३० अनाथा ससाध्या । ३१ स्यात् । ३२ कारणेन । ३३ ज्ञान । ३४ वेदे ।
२०
१ बाधकप्रत्ययस्य सजातीयसंवादरूपापरबाधकोत्पत्त्यभावेन विजातीयं बाधकान्तरमुत्पद्यते यदा तदा किम् । २ ता । ३ तृतीयज्ञानस्य बाधकं चतुधैशानं । ४ इच्छामन्तरेण । ५ उत्पद्यते । ६ प्रामाण्य । ७ तृतीयस्य । ८ तृतीय स्थानवर्त्ति ज्ञानम् । ९ बाधकस्य द्वितीयज्ञानस्य । १० बाघकशानं न भवेद्यतः । ११ द्वितीयशानेन । १२ ज्ञानं । १३ कारणेन । १४ निराक्रियते । १५ द्वितीयज्ञानेन । १६ एवं चेदनवस्था कुतो न स्यादित्युक्ते सत्याह । १७ तृतीयं ज्ञानं नातिवर्तते यतः । १८ नरेण । १९ स्वतः प्रामाण्ये दूषणान्तरम् । २० किञ्च । २१ ज्ञानस्य । २२ परेण मया । २३ दोषाणां । २४ वाक्ये | २५ निराकृतानां दोषाणाम् ।
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१७६
प्रमेयकमलमार्तण्डै [प्रथमपरि० कारणप्रभवत्वाप्रामाण्ययोरविनाभावस्य मिथ्याज्ञाने सुप्रसिद्धि (द्ध)त्वादिति ॥
सिद्ध सर्वजनप्रबोधजननं सद्योऽकलकाँश्रयम्, विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम् । निर्दोष परमागमार्थविषयं प्रोक्तं प्रेमालक्षणम् ।
युक्त्या चेतसि चिन्तयन्तु सुधियःश्रीवर्द्धमानं जिनम्॥१॥ परिच्छेदावसाने आशिषमाह । चिन्तयन्तु । कम् ? श्रीवर्द्धमान तीर्थकरपरमदेवम् । भूयः कथम्भूतम् ? जिनम् । के ? सुधियः।
क? चेतसि । कया? युक्त्या ज्ञानप्रधानतया । भूयोपि कथम्भू१० तम् ? सिद्धं जीवन्मुक्तम् । भूयोपि कीदृशम् ? सर्वजनप्रबोधजननम् सर्वे च ते जनाश्च तेषां प्रबोधस्तं जनयतीति सर्वजनप्रबोधजननस्तम् । कथम् ? सद्यः झटिति । भूयोपि कीदृशम् ? अकलङ्काश्रयम्-कलङ्कानां द्रव्यकर्मणामभावः अकलङ्कस्तस्याश्रयस्तम् ।
भूयोपि कथम्भूतम् ? मनोनन्दनम् । कथम् ? नित्यं सर्वदा। १५कुतः? विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतः-विद्या केवलज्ञानमानन्दःसुखं
समन्ततो भद्राणि कल्याणानि समन्तभद्राणि विद्या चानन्दश्च समन्तभद्राणि च तान्येव गुणास्तेभ्यः ततः। भूयोपि कीदृशम् ? निर्दोषं रागादिभावकर्मरहितम् । भूयोपि कथम्भूतम् ? परमाग
मार्थविषयम्-परमागमार्थो विषयो यस्य स तथोक्तस्तम् । भूयोपि २० कीदृशम् ? प्रोक्तं प्रकृष्टमुक्तं वचनं यस्यासौ प्रोक्तस्तम् । भूयोपि कथम्भूतम् ? प्रमालक्षणम् ॥ श्रीः॥
इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामु___ खालङ्कारे प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः ॥ श्रीः॥
१न सम्यग्शाने। २ कृतकृत्यम् । ३ झटिति । ४ उत्पन्नानन्तरम् । ५ अस्मिपदे सिद्धप्रमाणलक्षणवर्द्धमानस्वामिसम्बन्धित्वेनार्थत्रयं बोद्धव्यम्। ६ द्रव्यभावकर्मणामभावस्तस्याश्रयम् । ७ प्रमाणलक्षणस्य सम्यग्ज्ञानरूपत्वात् । ८ सर्वदा । ९ रागादिभावकर्मरहितम्। १० बसः (बहुव्रीहिसमाससंज्ञेयमुपनिबद्धा जैनेन्द्रव्याकरणे)। ११ प्रमाणलक्षणस्य सम्यग्ज्ञानरूपत्वात् । १२ नाज्ञानप्रधानतया ।
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। श्री। २ अथ प्रत्यक्षोद्देशः
अथ प्रमाणसामान्यलक्षणं व्युत्पाद्येदानीं तद्विशेषलक्षणं व्युत्पादयितुमुपगते । प्रमाणलक्षणविशेषव्युत्पादनस्य च प्रतिनियतप्रमाणंव्यक्तिनिष्ठत्वात्तदभिप्रायवांस्तव्यक्तिसंख्याप्रतिपादनपूर्वकं तल्लक्षणविशेषमाह
तद्द्वधेति ॥१॥ तत्वापूर्वेत्यादिलक्षणलक्षितं प्रमाण द्वेधा द्विप्रकारम् , सकलप्रमाणभेदप्रभेदानामत्रान्तर्भावविभावनात् । 'पैरपरिकल्पितकद्वित्र्यादिप्रमाणसंख्यानियमे तद्घटनात्' इत्याचार्यः खयमेवाग्रे प्रतिपादयिष्यति । ये हि प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमित्याचक्षते न तेषामनुमानादिप्रमाणान्तरस्यात्रान्तर्भावः सम्भवति तद्विलक्षण-१० त्वाद्विभिन्नसामग्रीप्रभवत्वाच ।
ननु चास्याऽप्रामाण्यानान्तर्भावविभावनया किञ्चित्प्रयोजनम् । प्रत्यक्षमेकमेव हि प्रमाणम् , अगौणत्वात्प्रमाणस्य । अर्थनिश्चायक च ज्ञानं प्रमाणम्, न चानुमानादर्थनिश्चयो घटते-सामान्ये सिद्धसाधनाद्विशेषेऽनुगमाभावात् । तदुक्तम्विशेषेऽनुगमाभावः सामान्य सिद्धसाधनम् [ ] इति । किञ्च, व्याप्तिग्रहणे पक्षधर्मतावगमे च सत्यनुमानं प्रवर्त्तते । न च व्यातिग्रहणमध्यक्षतः; अस्य सन्निहितमात्रार्थनाहित्वेनाखिलपदार्थाक्षेपेणें व्याप्तिग्रहणेऽसामर्थ्यात्।नाप्यनुमानतः अस्य व्याप्ति
१ अनन्तरम् । २ कथयित्वा। ३ विशदीकत्तुं । ४ प्रारभते । ५ परिच्छेदावतारः। ६ मेद । ७ आय त्रिविधमन्त्यं पञ्चविधमित्यादिलक्षण । ८ व्यक्तिभेदेपि लक्षणैकत्वमन्तर्भावः। ९ निश्चयनात् । १० कुत एतत् । ११ तदघटनं कथमाचार्यः प्रतिपादयिष्यतीयुक्ते आह । १२ चार्वाकाः। १३ वैशद्यावैशद्य । १४ इन्द्रियलिङ्गे। १५ अनुमानादेः। १६ किञ्च । १७ साध्ये। १८ न हि अग्निमात्रे कस्यचिदि. प्रतिपत्तिरस्ति सामान्याच्च प्रवर्त्तमानः कथं नियतमभिमुखमेवावश्यं प्रवत्त । १९ यो यो धूमवान् स स ताणेनाग्निमानित्यन्वयाभावः। २० नानुमानं प्रमाण स्यान्निश्चयाभावतस्ततः। २१ हेतोः। २२ उत्पद्यते। २३ अग्याधारधूमाधारमहानसादि । २४ स्वीकरणेन । २५ प्रत्यक्षस्य । २६ सर्वत्र धूमोऽग्निना व्याप्तः तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् । २७ व्याप्तिग्रहणम् ।
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१७८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० ग्रहणपुरस्सरत्वात् । तत्राप्यनुमानतो व्याधिग्रहणेऽनवस्थेतरेतरा. श्रयदोषप्रसङ्गः। न चान्यत्प्रमाणं तदाहकमस्ति । तत्कुतोनुमान प्रामाण्यम् ? इत्यसमीक्षिताभिधानम् ; अनुमानादेरप्यध्यक्षवत्प्र. तिनियतस्वविषयव्यवस्थायामविसंवादकत्वेन प्रामाण्यप्रसिद्धः । ५प्रत्यक्षेपि हि प्रामाण्यमविसंवादकत्वादेव प्रसिद्धम् , तच्चान्यत्रापि
समानम् अनुमानादिनाप्यध्यवसितेथे विसंवादाभावात्। __ यच्च-अगौणत्वात्प्रमाणस्येत्युक्तम् , तत्रानुमानस्य कुतो [गौणत्वम्,] गौणार्थविषयत्वात्, प्रत्यक्षपूर्वकत्वाद्वा ? न तावदाद्यो विकल्पः; अनुमानस्याप्यध्यक्षवद्वांस्तवसामान्यविशेषात्मकार्थवि. १० षयत्वाभ्युपगमात् । न खलु कल्पितसामान्यार्थविषयमनुमानं
सौगतवज्जैनैरिष्टम् , तद्विषयत्वस्यानुमाने निराकरिष्यमाणत्वात् । प्रत्यक्षपूर्वकत्वाचानुमानस्य गौणत्वे प्रत्यक्षस्यापि कस्यचिदनुमानपूर्वकत्वाद्गौणत्वप्रसङ्गः, अनुमानात्साध्यार्थ निश्चित्य प्रवर्तः
मानस्याध्यक्षप्रवृत्तिप्रतीतेः । ऊहाख्याप्रमाणपूर्वकत्वाचास्याध्यक्षः १५ पूर्वकत्वमसिद्धम् ।
यच्चोक्तम् 'न च व्याप्तिग्रहणमध्यक्षतः' इत्यादिः तद्प्युक्तिमा त्रम् ; व्याप्तेः प्रत्यक्षानुपलम्भवलोद्भूतोहाख्यप्रमाणात्प्रसिद्धः। न च व्यक्तीनामानन्त्य देशादिव्यभिचारो वा तत्प्रसिद्धर्वाधकः,
सामान्यद्वारेण-प्रतिवन्धावधारणात्तस्य चानुगताऽवाधितप्रत्यय २० विषयत्वादस्तित्वम् । प्रसाधयिष्यते च "सामान्यविशेषात्मा तदर्थः” [परीक्षामुख ४-१] इत्यत्र वस्तुभूतसामान्यसद्भावः।
न चोहप्रमाणमन्तरेण 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमगौणत्वात्' इत्याद्यभिधातुं शक्यम् । तथोहि-अगौणत्वमविसंवादित्वं वा लिङ्गं नाप्र
१ आद्यानुमानेऽपरानुमानेन व्याप्तिप्रतिपत्तौ अनवस्था । आद्यानुमानेन द्वितीयानुमाने व्याप्तिप्रतिपत्तौ इतरेतराश्रयः। २ पक्षधर्मतावगमे च सत्यनुमानं प्रवर्तत इत्युक्तं तत्र पक्षप्रतिपत्तिश्च प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा । न तावत्प्रत्यक्षतः पक्षप्रतिपत्तिरनुमानानर्धक्यप्रसङ्गात् । नाप्यनुमानतः पक्षप्रतिपत्तिरनुमानेपि पक्षप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा । न तावत्प्रत्यक्षतः उक्तदोषानुषङ्गात् । नाप्यनुमानतोऽनवस्थाप्रसङ्गात् । कथमनुमानेप्यनुमानात्पक्षप्रतिपत्तिरिति। ३ व्याप्तिग्रहणाभावे सति। ४ ग्रन्थे। ५ उपचरित। ६ परमार्थरूप। ७ अन्यापोहरूप। ८ व्याप्तिशानं प्रत्यक्षम् । ९ नुः। १० ता। ११ किञ्च। १२ साधनम् । १३ अग्निधूमव्यक्तयोऽनन्ता अतः सम्बन्धोवधारयितुं न शक्यः, यो धूमवान् सोऽग्निमान् पर्वत इति देशादिव्यभिचारो वा तज्ज्ञप्तेर्वाधकः। १४ काल । १५ शप्तेः। १६ धूमत्वेनाग्नित्वेन । १७ साध्य साधनयोरविनाभाव । १८ गौगौरित्याद्यनुस्यूत। १९ प्रमाणार्थः। २० किञ्च । २१ सर्वमनुमानमप्रमाणं गौणत्वादित्यादि च । २२ उक्तमेव समर्थयन्ते आचार्याः।
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सू० २।१] प्रत्यक्षकप्रमाणवादः
१७९ सिद्धप्रतिवन्धं सत् प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यमनुमापयेदतिप्रसङ्गात् । प्रतिवन्धप्रसिद्धिश्चानवयनाभ्युपगन्तव्या, अन्यथा यस्यामेव प्रत्साव्यत्तौ प्रामाण्येनांगौणत्वादेरलौ सिद्धस्तस्यामेवागौणत्वादेस्तत्लिध्येत्, न व्यत्तयन्तरे तत्र तस्यासिद्धत्वात्। न चासौ साकल्येनाध्यक्षाक्तिध्येतस्य ललिहितमानविषयकत्वात् । अथैकत्र ५ व्यक्तौ प्रत्यक्षेपानयोः संम्वन्ध प्रतिपद्यान्यंत्राप्येवंविधं प्रत्यक्षं प्रमानित्यशोगवादिप्रामाण्ययोः लोपसंहारेण प्रतिवन्धप्रैलिद्धिरित्यभिधीयते; ने अविषये सर्वोपसंहरिण प्रतिपत्रयोमात् । सर्वोपसंहारेण प्रतिपत्तिश्च नामान्तरेणोह एवोक्तः स्यात् । अग्निधूमादीनां चैवमविनाभावप्रतिपत्तिः किन्न स्यात् ? येन १० 'अनुमानमप्रमाणमविनामावस्याखिलपदार्थाक्षेपेणे प्रतिपत्तुमश. क्यत्वात्' इत्युक्तं शोभेत।
किचाजुमानमात्रस्यामामाण्यं प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् , अती. न्द्रियार्थानुमानस्य वा ? प्रथमपक्षे प्रतीतिसिद्धसकलव्यवहारोच्छेदः । प्रतीयन्ते हि कुतश्चिदविनाभाविनोऽर्थादर्थान्तरं प्रति-१५ नियतं प्रतियन्तो लौकिकाः, न तु सर्वस्मात्सर्वम् । द्वितीयपक्षे तु कथमतीन्दिय प्रत्यक्षतरप्रमाणानामगौणत्वादिना प्रामाण्येतरव्यवस्था? कथं वा परचेतसोऽतीन्द्रियस्य व्यापारव्याहारादिकायविशेषात् प्रतिपत्तिः?, स्वर्गापूर्वदेवतादेस्तथाविधंस्य प्रतिषेधो
१ साध्येनाशाताविनाभावम् । २ ज्ञापयेत् । ३ भूभवनवद्धितोत्थितस्यापि धूमलिङ्गात्साध्यप्रतिपत्तिः स्यादशातसम्बन्धत्वाविशेषात् । ४ साकल्येन। ५ परेण ! ६ साकल्येन प्रतिवन्धसिद्धरनभ्युपगने । ७ अग्निप्रत्यक्षविशेष नहानसान्निशाने । ८ तह । ९ अविसंवादित्व । १० अविनाभावः। ११ प्रत्यक्षप्रामाण्यन्। १२ प्रकृतव्यक्तेरन्यव्यक्तौ । १३ घटप्रत्यक्षविशेषे । १४ अविनाभावस्य । १५ अग्निप्रत्यक्षविशेषे । १६ अगौणत्वादिप्रामाण्ययोः साध्यसाधनयोः। १७ अविनामावन् । १८ घटादिसकलप्रत्यक्षे व्यक्त्यन्तरे। १९ अगौणमविसंवादकम् । २० यावत्प्रत्यक्षं तावत्सर्वमगौणमविसंवादकमिति। २१ अविनाभावशप्तिः। २२ परेण । २३ इति चेन्न। २४ स्वीकारेण । २५ अविनाभावस्य । २६ किञ्च । २७ प्रत्यक्षप्रमाणप्रकारेण । २८ स्वीकारेण । २९ भवता। ३० तवेष्टन् । ३१ नाशः। ३२ शायन्ते । ३३ धूमलक्षणात् । ३४ अग्निलक्षणम् । ३५ जानन्तः । ३६ प्रत्यक्षाणि चेतराणि चानुमानादीनि प्रत्यक्षेतराणि अतीन्द्रियाणि च तानि प्रत्यक्षतराणि चातीन्द्रियप्रत्यक्षेतराणि । तानि च तानि प्रमाणानि च । सन्तानान्तरवत्तित्त्वेन प्रत्यक्षानुमानयोरतीन्द्रियत्वम् । ३७ अविसंवादित्वविसंवादित्वेन । ३८ किञ्च । ३९ शिष्यादि शानस्य । ४० कथं वा । ४१ अदृष्ट । ४२ सर्वश। ४३ अतीन्द्रियस्य ।
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१८०
प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० ऽनुपलब्धेः स्यात् ? सोय चार्वाक प्रमाणस्यागौणत्वादनमा दर्थ निश्चयो दुर्लस इत्याचक्षाणः कथमत एवाध्यक्षादेः प्रामाण्यादिक प्रलाधयेत् ? प्रसाधयन्वा कथमतीन्द्रियेतरार्थविष. यमनुमानं न प्रमाणयेत् ? उक्तं च५ "प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः ।
प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥" [ ] इति । तन्नानुमानस्याप्रामाण्यम् ।
अस्तु नाम प्रत्यक्षानुमानभेदात्प्रमाणद्वैविध्यमित्यारेकापनोदार्थम्
प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ इत्याह । न खलु प्रत्यक्षानुमानयोर्व्याख्येयागमादिप्रमाणभेदानामन्तर्भावः सम्भवति यतः सौगतोपकल्पितः प्रमाणसंख्यानियमो व्यवतिष्ठेत।
प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणस्य द्वैविध्यमेवेत्यप्यसम्भाव्यम् , तद्वैः १५ विध्यासिद्धेः, एक एव हि सामान्यविशेषात्मार्थःप्रमेयःप्रमाणस्य
इत्यग्रे वक्ष्यते । किञ्चानुमानस्य सामान्यमात्रगोचरत्वे ततो विशेषेष्वप्रवृत्तिप्रसङ्गः । न खल्वन्यविषयं ज्ञानमन्यत्र प्रवर्तकम् अतिप्रसङ्गात् । अथ लिङ्गानुमितात्सामांन्याद्विशेषप्रतिपत्तेस्तत्र प्रवृत्तिः, नन्वेवं लिङ्गादेव तत्प्रतिपत्तिरस्तु किं पैरम्परया? २० ननु विशेषेषु लिङ्गस्य प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरभावात्कथमतस्तेषां प्रतिपत्तिः? तदेतत्सामान्येपि समानम् । अथाप्रतिपन्नप्रतिवन्धमपि सामान्यं तेषां गमकम् ; लिङ्गमप्येवंविधं तद्गमकं किन्न स्यात् ?
१ प्रत्यक्षं प्रमाणमगौणत्वात् , अनुमानमप्रमाणं गौणत्वादित्याचक्षाणः । २ आदिपदेनानुमानस्याप्रामाण्यम् । ३ इन्द्रियाण्यतिक्रान्ताः स्वर्गादयः । ते च इतरे च प्रत्यक्षग्राह्या अन्यादयः । अतीन्द्रियेतरे ते च ते अर्थाश्च ते विषया यस्यानुमानस्य तत्। ४ अप्रमाण । ५ त्व। ६ का । ७ परिशानात् । ८ परोक्ष। ९ स्वर्गादेः। १० आइ सौगतः। ११ परोक्ष । १२ अपि तु न कुतोपि स्थितिं कुर्यात् । १३ चतुर्थाध्याये । १४ (ततोऽनुमानादित्यर्थः) अग्निपरमाणुलक्षणस्वलक्षणेषु। १५ घटविषयं शानं पटे प्रवर्तकं स्यात् । १६ धूम। १७ अग्निमत्त्वात्। १८ विशेषेषु पुरुषत्वस्य । १९ यथा लिङ्गात्सामान्यस्य प्रतिपत्तिरेवं तेषां विशेषाणाम् । २० प्रयोजनम् । २१ लिङ्गा
सामान्यप्रतिपत्तिः सामान्याविशेषप्रतिपत्तिरिति । २२ विशेषेषु सामान्यस्य प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरभावात्कथं ततस्तेषां प्रतिपत्तिरिति । २३ अप्रतिपन्न प्रतिबन्धत्वाविशेषात् ।
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सू० २।२] प्रमेयद्वित्वात् प्रमाणद्वित्वविचारः १८१ सामान्यस्यापि सामान्येनैव विशेषेपु प्रतिवन्धप्रतिपत्तावनवस्थासामान्याद्धि सामान्यप्रतिपत्तौ विशेपेवप्रवृत्तौ पुनस्ततोऽप्यपरसामान्यप्रतिपत्तौ से एक दोषः । अतः सामान्यतदनुमानानामनवस्थानाद्प्रवृत्तिर्विशेषेषु स्यात् ।।
किञ्च व्यापकमेव सस्यम् अव्यभिचारस्य तत्रैव भावात् ।५ व्यापकं च कार कार्यस्य, स्वभावो आवस्य । तच स्वलक्षणदेव, अतस्तदेव गन्यं स्यात् न सामान्यमव्यापकत्वात् । अथ तदपि व्यापकम् , स्वलक्षणवद्वस्तुत्वम् , अन्यथा तलिन्नधिगतेनि प्रयोजनाभावात्तत्रानुमानमप्रमाणमेव स्यात् ।
किञ्च, तत्प्रमेयद्वित्वं प्रमाणद्वित्वस्य ज्ञातम् , अज्ञातं वा ज्ञापकं १० भवेत् ? यद्यज्ञातमेव तत्तस्य ज्ञापकम् । तर्हि तस्य सर्वत्राविशेषात्सवामविशेपेण तत्प्रतिपत्तिप्रसङ्गतो विवादो न स्यात् । ज्ञातं चेत्कुतस्तज्ज्ञप्तिः ? प्रत्यक्षात्, अनुमानाद्वाँ ? न तावत्प्रत्यक्षात्; तेन सामान्याग्रहणात् । ग्रहणे वा तस्य सविकल्पकत्वप्रसङ्गो विषयसङ्करश्च प्रमाणद्वित्वविरोधी भवतोऽनुपज्येत । नाप्यनुमानतः, १५ अत एव । खलक्षणपराङ्मुखतया हि भवतानुमानमभ्युपगतम् - "अतद्भेदपरावृत्तवस्तुमात्रप्रवेदनात् ।
सामान्यविषयं प्रोक्तं लिङ्ग भेदाप्रतिष्ठितेः॥"[ ] इत्यभिधानात् । द्वाभ्यां तु प्रमेयद्वित्वस्य ज्ञाने(s)स्य प्रमाणद्वित्वज्ञापकत्वायोगः, अन्यथा देवदत्तयज्ञदत्ताभ्यां प्रतिपन्नाद्धमद्वि-२० त्वात् तदन्यतरस्याग्निद्वित्वप्रतिपत्तिः स्यात् । द्वैविध्यमिति हि द्विष्ठो धर्मः । स च द्रुयोर्शीने ज्ञायते नान्यथा । न ह्यज्ञातसह्य
१ विशेषेष्वप्रवृत्तिरूपः। २ अविनाभावस्य । ३ व्यापके । ४ वह्निः। ५ धूमस्य। ६ वृक्षत्वम् । ७ शिंशपात्वस्य । ८ साध्यम् । ९ लिङ्गस्य । १० सामान्यस्य । ११ अवस्तुत्वे । १२ विशेषेषु प्रवृत्तिलक्षण। १३ सामान्यविशेषमेदेन। १४ अशातप्रमेयद्वित्वस्य । १५ देशे। १६ नृणाम् । १७ द्वाभ्यां वा । १८ अनुमानस्याभाव इत्यर्थः। १९ सौगतस्य । २० अत एवेत्यस्य हेतोरसिद्धत्वं परिहरति । २१ स्वलक्षणागोचरत्वेन । २२ सौगतेन। २३ अनग्निरूप। २४ अग्निमात्र । २५ अन्यापोह । २६ अन्यापोह । २७ स्वलक्षणस्य । २८ अव्यवस्थितेः । कुतोऽव्यवस्थितिः ? भेदानामानन्त्येन ग्रहणासम्भवात् । २९ प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् । असौ तृतीयो विकल्पः । ३० परिशाने सति अस्य प्रमेयद्वित्वस्य । ३१ प्रमेयद्वित्वस्य प्रमाणद्वित्वज्ञापकत्वं चेत् । ३२ भिन्नदेशे। ३३ देवदत्तस्य यज्ञदत्तस्य वा । ३४ प्रमेयद्वित्वस्य प्रमाणद्वित्वज्ञापकत्वायोगं दर्शयति । ३५ खलक्षणसामान्ययोः प्रमेययोः । ३६ सति । ३७ पुरुषेण ।
प्र०क० मा० १६
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१८२
अमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० विन्ध्यस्य तद्गतद्वित्वप्रतिपत्तिरस्ति । परस्पराश्रयानुषङ्गश्च-सिद्धे हि प्रमाणद्वित्वेऽतःप्रमेयद्वित्वसिद्धिः, तस्याश्च प्रमाणद्वित्वासिद्धिरिति । अथान्यतः प्रमाणद्वित्वस्य सिद्धिः, व्यर्थ स्तर्हि प्रमेयद्वित्वोपन्यालः तदप्यन्यदेकं वा स्यात्, अनेकं वा ? एकं चेद्विपयसङ्करः। ५प्रत्यक्षं हि स्खलक्षणाकारमनुमानं तु सामान्याकारम् , तद्वयस्यैकज्ञानवेद्यत्वे सुप्रसिद्धो विषयसङ्करः । अथानेकज्ञानवेद्यमः तंदप्यपरेणानेकज्ञानेन वेद्यं तदप्यपरेणेत्यनवस्था ।
नेनु स्खलक्षणाकारता प्रत्यक्षेणात्मभूतैव वेद्यते सामान्याकारता त्वनुमानेन, तयोश्च स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् प्रत्यक्षसिद्धमेव १० प्रमाणद्वित्वं प्रमेयद्वित्वं च, केवलम् यस्तथा प्रतिपद्यमानोपिन
व्यवहरति स प्रसिद्धेन प्रमेयद्वैविध्येन प्रमाणद्वैविध्यव्यवहारे प्रैवर्त्यते तदप्यसारम् ; ज्ञानादर्थान्तरेस्यानर्थान्तरस्य वा केवलस्य सामान्यस्य विशेषस्य वा क्वचिज्ज्ञाने प्रतिभासाभावात् , उभया. त्मन एवान्तर्वहिर्वा वस्तुनोऽध्यक्षादिप्रत्यये प्रतिमालमानत्वात् । १५#योगः-असति बाधके यद्यथा प्रतिभासते तत्तथैवाभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलतया, प्रतिभासते चाध्यक्षादि प्रमाण सामान्यविशेषात्मार्थविषयतयेति ।
ननु मा भूत्प्रमेयभेदः, तथाप्यागमादीनां नानुमानादर्थान्तरत्वम् । शब्दादिक हि परोक्षार्थ सम्बद्धम् , असम्बद्धं वा गैम२० येत् ? न तावदसम्वद्धम् ; गवादेरप्यश्वादिप्रतिभासप्रसङ्गात् । सम्बद्धं चेत्, तल्लिङ्गमेव, तजनितं च ज्ञानमनुमानमेव । इत्यप्यसाम्प्रतम् ; प्रत्यक्षस्याप्येवमनुमानत्वप्रसङ्गात्-तदपि हि स्वविषये
१ नरस्य । २ सह्यविन्ध्यपर्वतगत। ३ इतरेतराश्रयपरिहारार्थ परः प्राह । ४ शानात् । ५ किञ्च । ६ तयोः। ७ ज्ञानम् । ८ युगपद्वयोः प्रतिपत्तिर्विषयसङ्करः । ९ विषयसङ्करः कथमित्युक्ते सत्याह । १० तहीति शेषः । ११ अनवस्था परिहरति परः । १२ प्रत्यक्षस्य । १३ स्वरूपगतैव। १४ अनुमानस्य । १५ वेद्यते। १६ सामान्यं विशेष वा। १७ इति । १८ नरः (शिष्यः)। १९ स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण 'प्रमेयद्वित्वं प्रमाणद्वित्वं च। २० प्रमाणं द्विविधं प्रमेयद्वैविध्यादित्यनुमानं प्रदश्य । २१ आचार्येण । २२ अर्थगतस्य । २३ शानगतस्य । २४ सामान्य विशेषात्मनः। २५ प्रत्यक्षादि प्रमाणं धर्मि सामान्यविशेषार्थविषयत्वेनाभ्युपगन्तव्यं भवतीति साध्यो धर्मः । असति बाधके तथा प्रतिभासमानत्वादिति हेतुः । २६ सम्बद्धार्थविषयत्वात् । २७ आदिशब्देन सादृश्यार्थापत्युत्थापकार्थादि । २८ कर्त। २९ परोक्षार्थे । ३० परोक्षार्थम् । ३१ गवादिशब्दात् । ३२ असम्बद्धत्वाविशेषात् । ३३ आगमादीनामनुमानत्वप्रकारेण ।
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सू० २।२ आगमविचारः
१८३ सम्बद्धं सत्तस्य गमकम् नान्यथा, सर्वस्य प्रमातुः सर्वार्थप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । अथ विषयसम्बद्धत्वाविशेषेपि प्रत्यक्षानुमानयोः सामग्रीभेदात्प्रमाणान्तरत्वम् शाब्दादीनामप्येवं प्रमाणान्तरत्वं किन्न स्यात् ? तथाहि-शॉब्दं तावच्छब्दसामग्रीतः प्रभवति
"शब्दादुदेति यज्ज्ञानभप्रत्यक्षेषि वस्तुनि।
शाब्दं तदिति मन्यन्ते प्रमाणान्तरवादिनः । इत्यभिधानात् । न चास्य प्रत्यक्षता; सविकल्पकास्पष्टस्वभावत्वात् । नाप्यनुमानता; निरूपलिङ्गामभवत्वादनुमानगोचरार्थविषयत्वाच्च । तदुक्तम्
"तस्मादनमानत्वं शाब्दे प्रत्यक्षवद्भवेत् । त्रैरूप्यरहितत्वेन तादग्विषयवर्जनात् ॥ १॥"
[मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० १८] यादृशो हि धूमादिलिङ्गजस्यानुमानस्य विषयो धर्मविशिष्टो धर्मी तादृशा विषयेण रहितं शाब्दं सुप्रसिद्धं त्रैरूप्यरहितं च । तथा हि-न शब्दस्य पक्षधर्मत्वम् ; धर्मिणोऽयोगात् । न चार्थस्य १५ धार्मत्वम् । तेन तस्य सम्बन्धीसिद्धेः । न चाप्रतीतेथें तद्धर्मतयाँ शब्दस्य प्रतीतिः सम्भविनी । प्रतीते चार्थे न तद्धर्मतया प्रतिपत्तिः शब्दस्योपयोगिनी, तामन्तरेणाप्यर्थस्य प्रागेव प्रतीतेः । अथ शब्दो धर्मी, अर्थवानिति साध्यो धर्मः, शब्द एव च हेतुः न प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वप्राप्तेः। अथ शब्दत्वं हेतुरिति न प्रति-२० ज्ञार्थंकदेर्शत्वम्, नैशब्दत्वस्यागमकत्वात्, गोशब्दत्वस्य च निषेत्स्यमानत्वेनासिद्धत्वात् । उक्तं च
"सामान्यविषयत्वं हि पैदस्य स्थायिष्यते । १ अन्यथा चेत् । २ शब्दादीनि प्रमाणान्तराणि-सामग्रीभेदात् प्रत्यक्षादिवत् । ३ सामग्रीभेदप्रकारेण । ४ मेरुरस्तीति ज्ञानम् । आगमज्ञानमित्यर्थः (हेत्वन्तरमिदम्)। ५ जैनादयः। ६ पक्षधर्मत्वादि । ७ शब्दादुत्पन्नत्वात्। ८ ईप् । ९ अनुमेय । १० च। ११ अग्निमत्त्व। १२ पर्वतः । १३ मा । १४ गोलक्षणस्य । १५ अविनामाव । १६ अर्थधर्मत्वेन । १७ फलवती। १८ इति चेन्न । १९ पक्षवचनं प्रतिज्ञा तस्या अधेः पक्षस्तस्यैकदेशो धर्मी धर्मश्च । २० गोशब्दो जगति नित्यो व्यापकत्वेनैक एवेति गोशब्दत्वसामान्याभावः हेतोः। २१ इति चेन्नेत्यर्थः । २२ गोशब्दवदश्वशब्देपि शब्दत्वस्य भावादगमकत्त्वम् । २३ तस्मिन्निषेधोपि गोशन्द. स्यातीतादेरेकत्वात् , नैकव्यक्तौ सामान्यमिति व्यापकत्वेनैकत्वाच्च गोशब्दत्वसामान्याभावः। २४ अर्धस्य । २५ अर्थस्य साध्यस्य शापकत्वम् । २६ गोत्त्व । २७ गवादेरागमस्य । २८ खग्रन्थापेक्षयाग्रे।
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१८४
प्रग्नेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० धर्मा धर्मविशिष्टश्च लिङ्गीत्येतच साधितम् ।। नै ताबदनुमान हि यावत्तद्विषयं न तत्"
मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ५५-५६] "अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन पक्षः कस्मान्न कल्प्यो । प्रतिज्ञार्थंकदेशो हि हेतुस्तत्र |सज्यते।"
[मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ६२-६३] "शब्दत्वं गमकं नात्र गोशब्दत्वं निषेयते ॥ व्यक्तिरेव विशेष्यातो हेतुश्चैका प्रसज्यते।"
मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो०६४] १० न चार्थान्वयोस्यास्ति व्यापारेण हि सद्भावेन सत्तयेति यावत्। विद्यमानस्य ह्यन्वेतृत्वं, नाविद्यमानस्य ! 'यत्र हि धूमस्तत्रावश्यं वह्निरस्ति' इत्यस्तित्वेन प्रसिद्धोऽन्वेता भवति धूमस्य । न त्वेवं शब्दस्यार्थेनान्वयोस्ति, न हि तत्र शब्दाक्रान्ते देशेऽर्थस्य सद्भावः । न खलु यत्र पिण्डखजूरादिशब्दः श्रूयते तत्र पिण्ड१५खर्जूराद्यर्थोप्यस्ति । नापि शब्दकालेऽर्थोऽवश्यं सम्भवति; रावणशङ्खचक्रवर्त्यादिशब्दा हि वर्तमानास्तदर्थस्तु भूतो भविष्यश्च, इति कुतोऽथैः शब्दस्यान्वेतृत्वम् ? नित्यविभुत्वाभ्याम् तत्त्वे चौतिसङ्गः । तदुक्तम्
"अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषामन्वेतृत्वं प्रतीयते ॥ १॥ यत्र धूमोस्ति तत्राग्निरस्तित्वेनान्वयः स्फुटः। न त्वेवं यत्र शब्दोस्ति तत्रार्थोस्तीति निश्चयः॥२॥
१ अनुमानविषयः । २ स्वग्रन्थापेक्षया । ३ उभयस्य (शाब्दानुमानयोः) उभय(सामान्यविशेष )विषयत्वं यद्यपि तथापि शब्दस्यानुमानरूपता भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ४ धर्मविशिष्टधर्मिविषयम् । ५ शाब्दन् । ६ बौद्धेन न समर्थ्यते। ७ गोशब्दस्य नित्यविभुत्वाविशेषाभावात् । ८ स्वग्रन्थापेक्षया । ९ शब्दस्खलक्षणा । १० धर्मिणी। ११ शब्दत्वं न गमकं गोशब्दत्वत्य प्रतिषेधो वा यतः। १२ ततश्च प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धो हेतुरित्यभिप्रायः। १३ अर्थेन सहाविनाभावः। १४ शब्दस्य । १५ शब्दस्य । १६ व्यापारेणेति पदस्य सद्भावेनेति सत्तयेति वा पर्यायशब्दौ। १७ व्यापकत्वमन्वयश्च । १८ व्यापकः । १९ धूमाग्निप्रकारेण । २० इति देशान्वयाभावः। २१ कालान्वयाभावः। २२ अन्वयो व्यापकत्वं वा। २३ गोशब्दादश्वार्थप्रतीतिः स्यात्। २४ शब्दस्य सर्वेष्वर्थेष्वनुगमो यतः । २५ सम्बन्धः। २६ विद्वद्भिः। २७ कुतस्तथाहि । २८ सद्भावेन सत्तया वा । २९ अर्थानाम् । ३०. धूमामिप्रकारेण ।
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सू० २।२]
उपमानविचारः न तावद्यत्र देशेऽसौ न तत्काले च गम्यते । भवेन्नित्यविभुत्वाञ्चेत्सर्वार्थष्वपि तत्समम् ॥ ३॥ तेने सर्वत्र दृष्टत्वाद्ध्यतिरेकस्य चागतेः। सर्वशब्देरशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते॥ ४॥"
मो० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ८५-८८] ५ अन्त्रयामध्ये चा व्यतिरेकस्याप्यभावः
"अन्वयेन विना तस्माद्ध्यतिरेकः कथं भवेत् ।" ! इत्यभिधानात् । तंतः शाब्दं प्रमाणान्तरमेव ।
उपमानं च । अस्य हि लक्षणम्"दृश्यमानाद्यदन्यत्र विज्ञानमुपजायते । सादृश्योपोधितस्तज्जैरुपमानमिति स्मृतम् ॥१॥"[ ] येन हि प्रतिपत्रा गौरुपलब्धो न गवयो, न चातिदेशवाक्यं गौरिव गवयः' इति श्रुतं तस्यारण्ये पर्यटतो गवयदर्शने प्रथमे उपजाते परोक्षे गवि सौदृश्यज्ञानं यदुत्पद्यते 'अनेन सदृशो गौः' इति, तस्य विषयः सादृश्यविशिष्टः परोक्षो गौस्तद्विशिष्टं वा१५ सादृश्यम् , तच्च वस्तुभूतमेव । यदाह
"सादृश्यस्य च वस्तुत्वं न शक्यमपवाधितुम् । भूयोवयवसामान्ययोगो जात्यन्तरस्य तत् ॥"
- [मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० १८] इति । अस्य चानधिगतार्थाधिगन्तृतया प्रामाण्यम् । गवयविषयेण२० हि प्रत्यक्षेण गवयो विषयीकृतो, न त्वसन्निहितोपि सादृश्यविशिष्टो गौस्तद्विशिष्टं वा सादृश्यम् । यच्च पूर्व 'गौः' इति प्रत्यक्षमभूत्तस्यापि गवयोत्यन्तमप्रत्यक्ष एव । इति कथं गवि तेदपेक्षं तत्सादृश्यज्ञानम् ? उक्तं च
१ तत्र प्रदेशेऽर्थोऽस्तीति निश्चयो नास्तीत्यर्थः। २ अर्थः । ३ अन्वेतृत्वम् । ४ कारणेन। ५ अर्थेषु । ६ शब्दस्य । ७ अप्रतिपत्तः। ८ अन्वयाविनाभावित्वं व्यतिरेकस्य यतः। ९ शब्दार्थयोरन्वयव्यतिरेको न स्त्रो यतः। १० अनुमानात् । ११ भाट्टो ब्रवीति । १२ गवयात्। १३ गवि । १४ उपाधिविशेषणम् । १५ कारिकां भावयति । १६ ग्रामादौ। १७ अन्यत्र प्रसिद्धस्यान्यत्रारोपणमतिदेशः। १८ गोगबययोः। १९ तदुपमानम् । २० गवयस्य । २१ मर्यमाणो। २२ मर्यमाणगोविशिष्टम् । २३ यस्मात्कारणात् । २४ निराकर्तुम् । २५ भूयसां बहूनामवयवानां समानता सामान्यं तेन योगः। २६ एकस्या गवयजातेरन्या गोजातिर्जात्यन्तरम् । एकस्या गोजातेरन्या गवयजातिर्जात्यन्तरम् , तस्य । २७ उपमानस्य । २८ गवयस्व । २९ गोप्रत्यक्षापेक्षम् । ३० ता । ३१ प्रत्यक्षात् ।
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१८६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० "तस्माद्यत्मयते तत्स्यात्साहश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपनानस्थ लादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ १॥ प्रत्यक्षेणावयुद्धपि सादृश्ये गवि च स्मृते । विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमानप्रमाणता ॥२॥ अंत्यक्षेपि यथा देशे मर्यमाणे च पावके । विशिष्टविषयत्वेन नानुमानाप्रमाणता ॥३॥"
[मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० ३७-३९] इति । न चेदं प्रत्यक्षम् ; परोक्षविषयत्वात्सविकल्पकत्वाच्च । नाप्यनुमानम् ; हेत्वभावात् । तथा हि-गोगतम् , गवयगतं वा सादृश्य१० मत्र हेतुः स्यात् ? तत्र न गोगतम्। तस्य पक्षधर्मत्वेनाग्रहणात् ।
यदा हि सादृश्यमानं धर्मि, 'स्मर्यमाणेन गवा विशिष्टम्' इति साँध्यम् , यदा च तादृशो गौतदा ने तैद्धर्मतया ग्रहणमस्ति। अते एव न गवयगतम् । गोगतसादृश्यस्य गोर्वा हेतुत्वे प्रतिज्ञार्थंक
देशत्वप्रसङ्गश्च । न च सौदृश्यम प्रोक्प्रमेयेणे प्रतिवद्धं प्रति१५ नम्। न चान्वयप्रतिपत्तिमन्तरेण हेतोः साध्यप्रतिपादकत्वमुपल
ब्धम् । ततो गवार्थदर्शने गवयं पश्यतः सादृश्येन विशिष्टे गवि पक्षधर्मत्वग्रहणं सैम्वन्धानुस्मरणं चान्तरेण प्रतिपत्तिरुत्पद्यमाना नानुमानेऽन्तर्भवतीति प्रमाणान्तरमुपमानम् । उक्तं च
१ गवयात् । २ गोलक्षणं वस्तु। ३ सर्यमाणगवान्वितम् । ४ उपमानं गृहीत. ग्राहित्वादप्रमाणं स्यादित्युक्ते आह । ५ गवयगते । ६ सादृश्यविशिष्टस्य । ७ सादृश्यविशिष्टो गौस्तद्विशिष्टं वा सादृश्यमितिविशिष्टविषयः। ८ सादृश्यविशिष्टस्य गोस्तद्विशिष्टस्य वा सादृश्यस्य । ९ सरणप्रत्यक्षाभ्याम् । १० अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तमाह । ११ पर्वतादौ। १२ देशादिनियतत्वेन। १३ उपमानम्। १४ उपमानस्यानुमानत्वे साध्ये । १५ कः पक्षस्तद्धर्मत्वेनाग्रहणं वा कथं सादृश्यस्येत्येतदाह । १६ सामान्यम् । १७ गोगतसदृशत्वादिति हेतुः। १८ गवयसदृशो गौरिति वा पक्षः । १९ गवयगतसदृशत्वादिति हेतुः। २० गोगतसादृश्यस्य । २१ पक्ष। २२ हेतूपन्यासात्पूर्व सादृश्यस्याप्रसिद्धत्वात् । २३ पक्षधर्मत्वेनाग्रहणादेव । २४ हेतुः । २५ सादृश्यम् । २६ यद्यपि पक्षधर्मत्वेनाग्रहणं गोगतसादृश्यस्य तथापि हेतुत्वेनोपन्यासः क्रियते इत्युक्ते आह । २७ गौर्गवयेन सदृशः गोगतसादृश्यात् । गौर्गवयेन सदृशः गौर्यतः । २८ उक्तयुक्त्या पक्षधर्मत्वं नास्ति चेन्मा भूदन्वयो भविष्यतीत्युक्त आह । २९ हेतुः। ३० उपमानस्यानुमानत्वे साध्ये । ३१ हेतूपन्यासात्पूर्वम् । ३२ सादृश्यविशिष्टो गौस्तद्विशिष्टं वा सादृश्यमिति विशिष्टविषयेण। ३३ अविनाभूतम् । ३४ तथा प्रतीतेरभावात्। ३५ सपक्षे सत्त्व । ३६ सादृश्यस्य पक्षधर्मत्वेनाग्रहणमन्वयप्रतिपत्त्यभावो वा यतः। ३७ बसः। ३८ सति । ३९ अन्वय ।
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सू० २।२] अर्थापत्तिविचारः
"न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसम्भवात् । प्राक्प्रमेयस्य सादृश्यं धर्मित्वेन न गृह्यते ॥१॥ गवये गृह्यमाणं च न गवार्थालुमाएकम् । प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वाद्धोगतस्य दलिङ्गता ॥२॥ गवयश्चाप्यसस्वस्वान गोर्लिङ्गत्वमृच्छति। सायं न च लवण पूर्व दृष्टं तदन्वयि ।। ३!!
करिसन्नपि दृष्टथ द्वितीयं पश्यतो बने । सादृश्येन सहैवामिस्तदैवोत्पद्यते मतिः॥४॥
[ मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० ४३-४६] इति । तथार्थापतिरपि प्रमाणान्तरम् । तल्लक्षणं हि-"अर्थापत्तिरपि १० दृष्टःQतो वार्थोन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टार्थकल्पना"।[शावरभा० २११५] कुमारिलोप्येतदेव भाष्यकारवचो व्याचष्टे ।
"प्रमाणषट्कविज्ञातो कुत्रार्थोऽनन्यथा भवन् । अदृष्टं कल्पयेदेन्यं सार्थापत्तिरुदाहृता॥"
[मी० श्लो० अर्था० परि० श्लो० १] १५ |त्यक्षादिभिः पद्भिः प्रमाणैः प्रसिद्धो योर्थः स येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य कल्पनमर्थापत्तिः । तत्र प्रत्यक्षपूर्विकार्थापत्तिर्यथाग्नेः प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नादौहाद्दहनशक्तियोगोऽर्थापत्या प्रकल्प्यते। न हि शक्तिःप्रत्यक्षेण परिच्छेद्या; अतीन्द्रियत्वात् । नौप्यनुमानेन; अस्य प्रत्यक्षावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वेनाभ्युपगमात्, अर्थाप-२० त्तिगोचरस्य चार्थस्य कदाचिदप्यध्यक्षागोचरत्वात् । अनुमानपूर्विका त्वर्थापत्तिर्यथा सूर्ये गमनाचच्छक्तियोगिता । अत्र हि
१ आदिशब्देन तपक्षे सत्त्वम्। २ अनुमानकालात्पूर्वम् । ३ हेतुः। ४ पक्षधर्मत्वेन सादृश्यम् । ५ तर्हि गवयो हेतुभविष्यतीत्युक्त आह । ६ गवार्थेन । ७ पक्षधसत्वं नास्ति चेन्मा भूदन्वयो भविष्यतीत्युक्त आह। ८ पुंसा । ९ हेतूपन्यासात्पूर्वम् । १० प्रमेयेण । ११ उतार्थोपसंहारमाह । १२ गोलक्षणे । १३ गवयम् । १४ पक्षधर्मत्वग्रहणं विना साध्यसाधनसम्बन्धस्सरणं च विना कोर्थों गवयदर्शनकाल एव । १५ शान्दोपमाने यथा प्रमाणान्तरे भवतः । १६ सामर्थ्यात्प्राप्ता । १७ उच्यते । १८ पुनः। १९ प्रत्यक्षादिप्रमाणमात्रगम्यः । २० आगमे । २१ अदृष्टार्थ विना। २२ उपरि वृष्टिलक्षण। २३ आपादनम् । २४ बुद्धौ । २५ नदीपूरादिः। २६ अदृष्टार्थे सत्येव भवन्नित्यर्थः। २७ उपरि वृष्टिलक्षणम् । २८ पूरादन्यमू। २९ कारिकां भावयति । ३० वृष्टेः। ३१ अर्थापत्तिषु मध्ये । ३२ स्फोटात् । ३३ अग्निदहनशक्तियुक्तः दाहान्यथानुपपत्तरिति । ३४ आत्मादिबत् । ३५ भा । ३६ शक्तिलक्षणस्य ।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे [ २. प्रत्यक्षपरि०
देशादेशान्तरप्राप्त्या सूर्ये गमनमेनुमीयते ततस्तच्छक्तिसम्वन्ध इति । श्रुतार्थापत्तिर्यथा - 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्गे' इति वाक्यश्रवणाद्रात्रिभोजनप्रतिपत्तिः । उपमानार्थापत्तिर्यथा--- गवयोपमि तया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यताशक्तिः। अर्थापत्तिपूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथा४ शब्देऽर्थापत्तिप्रबोधिताद्वाचक सामर्थ्यादभिधानसिध्यर्थं तन्नित्यत्वज्ञानम् | शब्दाच्यर्थः प्रतीयते, ततो वाचक सामर्थ्य, ततोपि तन्नित्यत्वमिति । अभावपूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथा - प्रमाणाभावप्रमितचैत्राभावविशेषिताने हाञ्चैत्र वहिर्भावसिद्धिः, 'जीवंश्चैत्रोऽन्यत्रास्ति गृहे अभावात्' इति । तदुक्तम्
१०
१५
२०
१८८
"तंत्र प्रत्यक्षतो ज्ञातादाहाद्दहनशक्तता | वह्नेरनुमितात्सूर्ये यानात्तच्छतियोगिता ॥ १ ॥ " [ मी० लो० अर्था० लो० ३]
"पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्येवमादिवचः श्रुतौ । रात्रिभोजन विज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ॥ २ ॥” [मी० श्लो० अर्था० लो० ५१] " गवयोपमिताया गोस्तैज्ज्ञानग्राह्यशकता । अभिधानप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्याववोधितात् ॥ १ ॥ शब्दे वाचक सामर्थ्यात्तन्नित्यत्वप्रमेयता | अभिधानान्यथाऽसिद्धेरिति वाचकशक्तता ॥ २ ॥ अर्थापत्त्यावगम्यैव तदन्यत्वगतेः पुनः । अर्थापत्त्यन्तरेणैव शब्दनित्यत्वनिश्चयः ॥ ३ ॥
१ आदित्यो गमनशक्तियुक्तो गतिमत्वान्यथानुपपत्तेः । गतिमानादित्यो देशाद्देशान्तरप्राप्तेः, वाणादिवत् । २ सूर्यो गमनशक्तियुक्तो गतिमत्वान्यथानुपपत्तेः । ३ आगम । ४ देवदत्तो रात्रौ भुङ्क्ते पीनत्वे सति दिवाभोजनाभावश्रवणान्यथानुपपत्तेः । ५ गौरुपमानज्ञानग्राह्यता शक्तियुक्ता उपमेयत्वान्यथानुपपत्तेः। ६ उच्चारण। ७ शब्दो नित्यो वाचकसामर्थ्यान्यथा ( नित्यत्वं विना ) ऽनुपपत्तेः । अस्यार्थापत्तिपूर्वकत्वं निरूप्यते । शब्दो वाचकशक्तियुक्तः ततोऽर्थप्रतीत्यन्यथा ( वाचकशक्तिं विना ) - ऽनुपपत्तेः। ८ शब्द । ९ अभावप्रमाण । १० ता । ११ भा । १२ विशेषण । १३ अर्थापत्तिषु मध्ये । १४ सत्याम् । १५ उपमान । १६ यसः । १७ अभिधानसिद्ध्यर्थं तन्नित्यत्वप्रमेयता स्यात् । १८ नियत्वं विना । १९ वाचकशक्तता । अर्थापत्त्यवगम्या न भविष्यति अतश्चार्थापत्तिपूर्विकार्यापत्तिः कथं स्यादित्युक्त आह । २० अतीन्द्रियत्वात् । २१ शक्ततायाः सकाशादन्यत्वं भिन्नत्वं नित्यत्त्वस्य । २२ परि शानात् । २३ ययैवार्थापत्त्या वाचकशक्ततावगम्यते तथैव शब्दनित्यत्त्वं प्रतीयते इति कृतार्थापत्तिपूर्वि कार्यापत्तेर्वैयर्थ्यमित्युक्ते आह ।
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सू० २१२ अभावविचारः
१८९ दर्शनस्य परार्थत्वादित्यस्मिन्नभिधास्यते । प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्राभाव विशेपितात् ॥४॥ गेहाच्चैत्रवहिर्भावसिद्धिर्यात्विह दर्शिता। तामभावोत्थितामन्यमापत्तिमुदाहरेत् ॥ ५॥"
मी० श्लो० अर्था० श्लो० ४-९] इत्यादि । ५ तथाऽभावप्रमाणमणि प्रमाणान्तरम् । तद्धि नियाधारवस्तुग्रहणादिसामग्रीतस्विंप्रकारमुत्पन्नं सत् कचित्प्रदेशादौडादीनामभावं विभावयति । उक्तं च
"गृहीत्वा वस्तुसद्धावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥
[मी० श्लो० अभाव० श्लो० २७] "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि ॥"
[मी० श्लो० अभाव० श्लो० ११] "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते। वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता॥"
[मी० श्लो० अभाव० श्लो० १] इति । न चाध्यक्षेणाभावोऽवसीयते; तस्याभावविषयत्वविरोधात्, भावांशेनैवेन्द्रियाणां सम्बन्धात् । तदुक्तम्
“न तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः। भावांशेनैव सम्वन्धो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ॥"
मी० श्लो० अभाव० १८] इति । नाप्यनुमानेनौसौ साध्यते; हेतोरभावात् । न च विषयभूतस्या
१ अभिधानान्यथासिद्धेरिति यदुक्तं तत्समर्थनीयमित्युक्ते आह । २ उच्चारणस्य । ३ 'शिष्यार्थत्वात् । ४ स्वग्रन्थापेक्षयाग्रे वक्ष्यमाणग्रन्थे। ५ अर्थापत्तिनिरूपणप्रस्तावे। ६ प्रमाणपञ्चकाद्भिन्नाम् । ७ भाष्यकारः। ८ घटादि । ९ शुद्धभूतल । १० निषेध्यस्मरणमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य घटादेरनुपलम्भश्च । ११ अभावप्रमाणसामग्रीतः। १२ त्रिप्रकारमित्येतत्पदं प्रत्यक्षेत्यादिनाऽऽह। १३ भूतले। १४ आदिपदेन काले। १५ बाह्येन्द्रियानपेक्षया। १६ स्वरूपम् । १७ प्रमाणपञ्चकरूपलेनाभावप्रमाणस्य । १८ प्रसज्यप्रतिषेधोत्र। १९ जीवस्य प्रमाणपञ्चकरूपतया। २० स्वरूपम्। २१ पर्युदासोत्र। २२ भुवि । घटांशलक्षणे । २३ पटांशास्तित्वावबोधार्थम् । २४ अनुमानापेक्षया। २५ कारणादेः प्रागभावादिना विभागः कृतः। अभाव इति वा। २६ पदार्थस्य ।
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१९०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[२. प्रत्यक्षपरि०
भावस्याभावादावानाणवैयार्थ्यम्, कारणादिविभागतो व्यवहारस्य लोकप्रतीतस्याभावप्रसङ्गात् । उक्तंच--
"न च स्याद्व्यवहारोयं कारणादिविभागतः । प्रागभावादिभेदेन नाभावो यदि भिद्यते ॥ १॥"
[मी० श्लो० अमाव० श्लो०७] प्रागभावादिभेदान्यथानुपपत्तेश्चास्यार्थापत्या वस्तुरूपतावसीयते । उक्तंच
"न चावस्तुन ऍते स्युभदास्तेनास्य वस्तुतः । कार्यादीनाममायः को श्रावो यः कारणादिनः(ना) ॥१॥"
मी० श्लो० अभाव० श्लो०८] अनुमानावसेया चास्य वस्तुता । यदाह"यद्वानुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यो यतस्त्वयम् । तस्माद्वादिवद्वस्तु प्रमेयत्वाच्च गृह्यताम् ॥ १॥”
[मी० श्लो० अभाव० श्लो०९] १५ चतुःप्रकारश्चाभावो व्यवस्थितः-प्राक्प्रध्वंसेतरेतराऽत्यन्ता भावमेदात् । उक्तं च
"वस्त्वऽसङ्करसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यं समाश्रिता। क्षीरे ध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते ॥१॥ नास्तिता पयसो दनि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोन्योन्याभाव उच्यते ॥२॥ शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धिकाठिन्यवर्जिताः। शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते ॥३॥"
[मी० श्लो० अभाव० श्लो० २-४] यदि चैतेषां व्यवस्थापकमभावाख्यं प्रमाणं न स्यात्तदा प्रति२५ नियतवस्तुव्यवस्थाविलोपः स्यात् । तदुक्तम्
"क्षीरे दधि भवेदेवं दनि क्षीरं घटे पटः। शशे शृङ्गं पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तितात्मनि ॥
१ अन्यथा। २ क्षीर। ३ कार्य दधि। ४ प्रागभावादिकृतः कारणांदिविभागः। ५ लोकप्रतीतः। ६ [अभावप्रमाणमन्तरेण । ७ प्रागभावादयः । ८ कारगेन । ९ स्वरूपादीनां च। १० अथवाऽर्थापत्त्यपेक्षया। ११ अभावो वस्तुरूपो भवति अनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यत्वाद्गवादिवत्प्रमेयत्वाच्च तद्वत् । १२ शशस्यः । १३ कालत्रये।
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सू० २।२] अभावविचारः
अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायौ रूपेण तौ सह । व्योम्नि संस्पर्शता ते च न चेदस्य प्रमाणता ॥"
मी० श्लो० अभाव० श्लो० ५-६] इति । न च निरंशत्वाद्वस्तुनस्तत्वरूपग्राहिणाध्यक्षणास्य सर्वात्मना ग्रहणादगृहीतस्य चापरस्यादंशस्य तत्राभावात् कथं तद्व्यवस्थाप-५ नाय प्रवर्तमानामभावाख्यं प्रमाणं प्रामाण्यमथुते? इत्यभिधातव्यम् । यतः सद्सदात्मके वस्तुन्नि प्रत्यक्षादिना त सदशग्रहणेप्यगृहीतस्यासदंशस्य व्यवस्थापनाय प्रमाणाभावस्य प्रवत्तमानस्य न प्रामाण्यव्याहतिः। उक्तं च"स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके ।
१० वस्तुनि ज्ञायते किञ्चिद्रूपं कैश्चित्कदाचन ॥१॥ यस्य यंत्र यंदो तिर्जिघृक्षा चोपजायते । वेद्यतेनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ॥२॥ तस्योपकारकत्वेन वर्त्ततेऽशस्तैदेतरः। उभयोरपि संवित्या उभयानुगमोस्ति तु ॥३॥"
मी० श्लो० अभाव० श्लो० १२-१४] |त्यक्षाद्यवतारश्च भावांशो गृह्यते यदा। व्यापारस्तदनुत्पत्तरभावांशे जिक्षिते ॥ ४॥"
. [मी० श्लो० अभाव० श्लो० १७ ] न च धर्मिणोऽभिन्नत्वाद्भावांशवभावांशस्याप्यध्यक्षेणैव ग्रहः । सदसदंशयोधर्म(W)भेदेप्यन्योन्यं भेदानायनरश्मिरूपादिवदभावस्यानुद्भूतत्वात् । न चामावस्य आवरूपेण प्रमाणेन परिच्छित्ति
१ गन्धादयः । २ सद्रूपस्य वस्तुनः । ३ समर्थनाय । ४ व्याप्नोति । ५ सौगतेन । ६ सर्वदा। ७ प्रमाणैः। ८ किचिद्रूपमित्येतत्पदं यस्येत्यादिना विवृणोति । सदंशस्यासदंशस्य वा । ९ उभयात्मके वस्तुनि । १० सदंशग्रहणकाले । ११ अभिव्यक्तिः । १२ पुरुषाणाम् । १३ नरैः। १४ परिच्छित्तिः। १५ सदंशस्थासदंशस्य वा। १६ अभिव्यक्तेन सदंशेन असदंशेन वा । १७ पुंभिर्वस्तु । १८ य एवांशो गृह्यते स एवांशोस्ति न तद्वितीय इत्युक्ते आह। १९ गृह्यमाणसदंशस्य । २० सदंशग्रहणकाले । २१ असदंशः । २२ सदसदंशयोः । २३ संवेदनात् । २४ उभयात्मके वस्तुनि। २५ कैश्चिदित्येतत्पदं प्रत्यक्षाद्यवतार इत्यादिना आह । २६ तदा भवेत् । २७ स्यात् । २८ अभावस्य । २९ ग्रहीतुमिष्टे वस्तुनि । ३० तदनुत्पत्तरित्यतदपरार्द्धार्थ विघटयति । ३१ वस्तुनः। ३२ एकत्वात् । ३३ मेदेप्युभयधर्मयोः प्रत्यक्षेण महणं कुतो न स्यादित्युक्त आह । अन्योन्यमिति । ३४ सदंशस्योद्भूतत्वात् ॥
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प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरिक युक्ता । प्रयोगः-यो यथाविधो विषयः ल तथाविशेनैव प्रमाणेन परिच्छि(च्छे)द्यते, यथा रूपादिभावो भावरूपेण चक्षुरादिना. विवादास्पदीभूताश्चाभावस्तस्मादभावः (भायेन) पारिच्छेद्यत इति।
उक्तं च५ "न तु (ननु) भावादभिन्नत्वात्सम्योगोस्ति तेन च ।
न हत्यन्तमभेदोस्ति रूपादिवदिहापि नः ॥ १॥ धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्म्यभेदेपि नः स्थिते । उद्भवाभिभवात्मत्वाद्रहणं चावतिष्ठते ॥२॥"
[मी० श्लो० अभाव० श्लो० १९-२०]. "मेयो यद्वभावो हि मानमप्येवमिष्यताम् ।
भावात्मके यथा मेये नाभावस्य प्रमाणता ॥ तथैवाभावमेयेपि न भावस्य प्रमाणता।"
मी० श्लो० अभाव० ४५-४६] इति । ततःशाब्दादीनां प्रमाणान्तरत्वप्रसिद्धः कथं प्रत्यक्षानुमानभेदा१५त्प्रमाणद्वैविध्यं परेषां व्यवतिष्ठेत ?
नन्वेवं प्रत्यक्षेतरभेदात्कथं भवतोपि प्रमाणद्वैविध्यव्यवस्थातेषां प्रमाणान्तरत्वप्रसिद्धरविशेषादिति चेत् ? तेषां 'परोक्षेऽन्तभवात्' इति ब्रूमः । तथाहि-यदेकलक्षणलक्षितं तद्व्यक्तिभेदेप्येकमेव यथा वैशबैकलक्षणलक्षितं चक्षुरादिप्रत्यक्षम्, अवैशबै२० कलक्षणलक्षितं च शाब्दादीति । चक्षुरादिसामग्रीभेदेपि हि
तज्ज्ञानानां वैशबैकलक्षणलक्षितत्वेनैवाभेदः प्रसिद्धः प्रत्यक्षरूपतानतिक्रमात्, तद्वत् शब्दादिसामग्रीमेदेप्यवैशबैकलक्षितत्वेनैवाभेदः शाब्दादीनाम् परोक्षरूपत्वाविशेषात् । ननु परोक्षस्य स्मृत्यादिभेदेन परिगणितत्वात् उपमानादीनां प्रमाणान्तरत्वमेवे
१ अभावो अभावप्रमाणपरिच्छेद्यः-तथाविधविषयात् । २ भावेन परिच्छेद्योऽभावेन' वेति । ३ तथाविधविषयत्वात् । ४ पदार्थात् । ५ अमावस्य। ६ इन्द्रियाणाम् । ७ असदंशेन । ८ रश्मि । ९ यथा रूपादेरत्यन्तमभेदोस्ति, एवं भावाभावधर्मयोरत्यन्तमभेदो नास्ति । १० धर्मस्यात्यन्तमभेदो नास्तीति कुतः ? । ११ खकीयप्रमाणाभ्यामुभयधर्मयोरपि ग्रहणं कस्मान्न स्यादित्युक्ते आह। १२ सदसदंशयोः । १३ प्रत्यक्षादिप्रमाणैः। १४ अग्रहणं च । १५ अभावरूपम् । १६ सौगतेन । १७ दृष्टान्तमाह। १८ बौद्धानाम् । १९ सौगतमतप्रसिद्धप्रमाणद्वैविध्याव्यवस्थितिप्रकारेण। २०. जैनस्य । २१ वयं जैनाः । २२ शब्दादि धर्म व्यक्तिमेदेष्येकं भवत्येकलक्षणलक्षितत्वात् । २३ स्पर्शनादि ।
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सू० २।२] अर्थापत्तेः अनुमानेऽन्तर्भावः १९३ सप्यसमीक्षिताभिधानम् ; तेपामत्रैवान्तर्भावात् । उपमानस्य हि प्रत्यभिज्ञानेन्तर्भावो वक्ष्यते ।
अर्थापत्तेस्त्वनुमानेऽन्तावः, तथा हि-अर्थापत्त्युत्थापकोऽर्थोन्यथानुपपद्यमानत्वेनानवगतः, अवगतो वाऽष्टार्थपरिकल्पनानिमित्तं स्यात् ? न तावदनवगतः; अतिप्रसङ्गात् । येन हि विनो-५ पपद्यमानत्वेनावगतस्तमयि परिकल्पयेत् , येन विना नोपपद्यते तमपि वा न कल्पयेत् , अन्यथानुपपद्यमानत्वेनानवतस्यार्थापत्युत्थापकार्थस्यान्यथानुपपद्यमानत्वे सत्यप्यदृष्टार्थपरिकल्पकत्वासम्भवात् । सम्भवे वा लिङ्गस्याप्यनिश्चिताविनाभावस्य परोक्षा
नुमापकत्वं स्यात् । ततश्चेदं नार्थापत्युत्थापकार्थाद् भिधेत ।१० नाप्यवगतः; अर्थापत्त्यनुमानयोर्भेदाभावप्रसङ्गादेव, अविनाभावित्वेन प्रतिपन्नादेकस्मात्सम्वन्धिनो द्वितीयप्रतीतेरुभयत्राविशेषात्।
किञ्च, अस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगमोऽर्थापत्तेरेव, प्रमाणान्तराद्वा ? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयः; तथाहि-अन्यथानुपपद्यमानत्वेन प्रतिपन्नादर्थादर्थापत्तिप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तेश्चास्यान्यथानुपपद्यमान-१५ त्वप्रतिपत्तिरिति । ततो निराकृतमेतत्
"अविनाभाविता चात्र तदैव परिगृह्यते । न प्रोगवगतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम् ॥ १॥"
[मी० श्लो० अर्था० श्लो० ३०] "तेर्ने सम्वन्धवेलायां संम्वन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् । अर्थापत्त्यैव गन्तव्यः पश्चादस्त्वनुमानता ॥""
मी० श्लो० अर्था० श्लो० ३३] इति । १ अधःपूरादिः। २ उपरि वृष्टिं विना । ३ उपरि वृष्टयादिलक्षण । ४ कारणम् । ५ रासभागमनादिना। ६ धूमादेः। ७ नालिकेरद्वीपायातं नरं प्रति । ८ लिङ्गम् । ९ अन्यथा। १० धूमादिहेतोरधःपूरादिकल्पकाद्वा । ११ अग्न्यादिसाध्यस्योपरि वृष्टयादिकल्प्यस्य वा। १२ अधःपूरादेः। १३ उपरि वृष्टयादिकं विना। १४ अध:पूरात् । १५ अर्थापत्त्युत्थापकार्थावगमः। १६ अर्थस्य । १७ अन्योन्याश्रयो यतः। १८ वक्ष्यमाणम् । १९ अर्थापत्त्यनुमानयोरभेदः-निश्चिताविनाभाविलिङ्गप्रभवत्वाविशेषादित्युक्ते आह परः। २० अर्थापत्तिकल्पितेऽधःपूरादौ । २१ अर्थापत्त्युत्पत्ते:पूर्वमबिनाभाविता नावसिता। २२ सती । २३ अर्थापत्तिं प्रति । २४ अतोऽनुमानादर्थापत्तेर्भेदः। २५ सम्बन्धे गृहीतेपत्तेरनुमानरूपता भविष्यतीत्युक्ते आह । २६ येन कारणेनाविनाभाविताs पत्तिसमये एव गृह्यते तेन कारणेन सम्बन्धे। २७ ग्रहणस्य । २८ अनुमानस्य । २९ सम्बन्धिनोवृष्टिपूरयोर्मध्ये अन्यतरो दृष्टिः । ३० पूर्वमर्थापत्तिरेवेत्यर्थः । ३१ उत्तरकालं चेत् तदा।
प्र. क. मा० १७
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० अथ प्रमाणान्तराद्वगमः; तत्किं भूयोदर्शनम् , विपक्षेत्र पलम्भो वा? आद्यविकल्पे कास्य भूयोदर्शनम्-लाध्यधार्मिणि, दृष्टान्तधर्मिणि वा? न तावदाद्यः पक्षः शक्रतीन्द्रियतया साध्य
धर्मिण्यस्य तदविनाभावित्वेन भूयोदर्शनासम्भवात् । द्वितीयपक्षो५प्यंत एवायुक्तः । किञ्च, दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तं भूयोदर्शनं साध्यधर्मिण्यप्यस्यान्यथानुपपन्नत्वं निश्चाययति, दृष्टान्तधर्मिण्येव वा? तत्रोत्तरः पक्षोऽयुक्तः, न खलु दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितान्यथानुप. पद्यमानत्वोर्थोऽन्यत्र साध्यधर्मिणि तथात्वेनानिश्चितः स्वसाध्यं
प्रसाधयति अतिप्रसङ्गीत् । प्रथमपक्षे तु लिङ्गार्थापत्त्युत्थापकार्थ१० योर्भेदाभावः स्यात् ।
ननु लिङ्गस्य दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तप्रमाणवशात्सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चयः, अर्थापत्त्युत्थापकार्थस्य तु साध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तप्रमाणात्सर्वोपसंहारेणादृष्टार्थान्यथानुपपद्यमानत्वनि
श्चय इत्यनयोर्भेदः, नैतद्युक्तम् । न हि लिङ्गं सैपक्षानुगममात्रेण १५गमकम् वज्रस्य लोहलेख्यत्वे पार्थिवत्ववत्, श्यामत्वे तत्पुत्रत्व
वद्वा। किं तर्हि ? अन्तर्व्याप्तिवलेन' इति प्रतिपादयिष्यते, तंत्रच किं सपक्षानुगमेनेति च ? तदभावे गमकत्वमेवास्य कथमिति चेत् ? यथार्थापत्त्युत्थापकार्थस्य । तथा चार्थापत्तिरेवाखिलमनुमानमिति षट्नमाणसंख्याव्याघातः । भवतु वा सँपक्षानुगमान२० नुगमभेदः, तथापि नैतावता तयोर्भेदः, अन्यथा पक्षधर्मत्वसहि
१ अर्थापत्युत्थापकार्थाविनाभावावगमः। २ यत्र वृष्टिर्नास्ति स विपक्षस्तस्मिन् । ३ अर्थापत्त्युत्थापकार्थस्य कल्प्याविनाभूतकल्पकस्य । ४ साध्यधर्मों दहनशक्तिलक्षणो. स्यामेरस्तीति साध्यधर्मी तस्मिन् । ५ दृष्टान्त एव धर्मी। ६ अग्नौ । ७ दाहस्य साधनस्य । ८ शत्तया। ९ दृष्टान्ते धर्मिणि शक्तयाविनाभूतस्फोटलक्षणकल्पकाs. दर्शनादेव । १० दाहस्य। ११ शक्ति विना। १२ शक्तिं विना। १३ दाहः । १४ दाहस्य शक्तिम् । १५ मैत्रपुत्रत्वादेरपि स्वसाध्यं प्रति गमकत्वप्रसङ्गात् । १६ महानसादौ । १७ प्रत्यक्ष । १८ यो यो धूमवान्स सोऽग्निमानिति । १९ अवि. नाभाव । २० पसे। २१ अर्थापात्तिरूपात्। २२ यो यः स्फोटः स सर्वोपि शक्तियुक्ताग्निकार्यः । २३ स्फोटस्य । २४ पाषाणकाष्ठादि । २५ अन्वय । २६ वज्रं लोहलेख्यं पार्थिवत्वात्पाषाणवद्यल्लोहलेख्यं न तत्पार्थिवं न, यथाकाशम् । २७ अन्त.
ाप्तिबलेनेति कोथः पक्षे एव साध्यसाधनयोर्व्याप्तिरन्ताप्तिः । २८ एतद्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणमित्यादिविचारावसरे। २९ अन्तर्व्याप्तिबलेनैव गमकत्वे च । ३० प्रतिपादयिष्यते । ३१ यथार्थापत्त्युत्थापकस्यान्ताप्तिवलेन गमकत्वं तथा लिङ्गस्यापि । ३२ दाहस्य । ३३ दृष्टान्ताभावे हेतोर्गमकत्वं च। ३४ दृष्टान्ते । ३५ अर्थापत्तेः । ३६ अर्थापत्त्यनुमानयोः । ३७ एतावता भेदश्चेत् ।
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सू० २।२] अर्थापत्तेः अनुमानेऽन्तर्भावः १९५ ताया अर्थापत्तेस्तद्रहितार्थापत्तिः प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणसंख्याव्याघातः। अस्ति चार्थापत्तिः पक्षधर्मत्वरहिता
"नेदीपूरोप्यधोदेशे दृष्टः सन्नुपरि स्थिताम् । नियम्यो गमयत्येव वृत्तां वृष्टिं नियमिकाम् ॥१॥ पित्रोच ब्राह्मणत्वेन पुत्रव्राह्मणतानुमा । सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥ २॥ एवं यत्पक्षधर्मत्वं ज्येष्ठं हेत्वङ्गमिष्यते ।
तत्पूर्वोक्तान्यं धर्मस्य दर्शनाद्व्यभिचार्यते ॥३॥" इत्यभिधानात् ।
नियमवतोऽर्थान्तरप्रतिपत्तेरविशेषात्तयोरभेदे स्वसाध्याविना-१०. भाविनोर्थादर्थान्तरप्रतिपत्तेरत्राप्यविशेषात्कथमनुमानादर्थापत्तेभेंदः स्यात् ? अथ विपक्षेऽर्नुपलम्भात्तस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगमः, न; पार्थिवत्वादेरप्येवं वसाध्याविनाभावित्वावगमप्रसङ्गात् विपक्षेनुपलम्भस्याविशेषात् , सर्वात्मसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्यासिद्धानकान्तिकत्वाञ्च । नन्वेवं सकलानुमानोच्छेदः, अस्तु नाम १५ तस्यायम् यो भूयोदर्शनाद्विपक्षेऽनुपलम्भाद्व्याप्तिं प्रसाधयति नास्माकम् , प्रमाणान्तराँत्तत्प्रसिधभ्युपगमाद् । भैवतोपि ततस्तदभ्युपगमे प्रमाणसंख्याव्याघातः।
नैनु वह्निस्वरुपस्याध्यक्षत एव प्रसिद्धस्तदतिरिक्तातीन्द्रियशतिसद्भावे प्रमाणाभावात्कथं तत्रार्थापत्तेः प्रामाण्यम् ? निजा हि २०.
१ हेतोाप्यवृत्तित्वं पक्षधर्मत्वम् । २ उपरि वृष्टो देवो नदीपूरदर्शनान्यथानुपपत्तरित्येतस्य अपक्षधर्मत्वं भिन्नदेशत्वात् । यत्र देशे वृष्टिस्तत्र नदीपूरो न । यत्र नदीपूरस्तत्र वृष्टिर्न । अत्र पक्षः उपरिदेशः। ३ पुनः । ४ व्याप्यः। ५ व्यापिकाम् । ६ पुत्रो ब्राह्मणः-पित्रोर्ब्राह्मण्यान्यथानुपपत्तेः । ७ अनुमा अर्थापत्तिः । अप्रत्यक्षा नो बुद्धिरित्याद्यभिधानात् । ८ उक्तप्रकारेण । ९ अन्यस्य पक्षाव्यतिरिक्तस्य धमों नदीपूरः पितृब्राह्मण्यं च । पूर्वोक्तो नदीपूरादिः स चासावन्यधर्मश्च तस्य । १० यो यो हेतुः स स पक्षधर्मत्वसहित इत्यस्य व्यभिचारः । पक्षधर्मरहितोपि हेतुर्विद्यते यतः । ११ स्फोटात्पूराच्च । १२ पक्षधर्मसहितासहितार्थापत्योः । १३ लिङ्गात्पूराच्च । १४ अग्निवृष्टयोः । १५ अनुमानेऽर्थापत्तौ च । १६ आकाशे लोहलेखित्वस्याभावात् । १७ दाहस्य । १८ इति चेन्न। १९ साधनस्य । २० अलोहलेख्ये आकाशलक्षणे विपक्षे पार्थिवत्वस्यानुपलम्भप्रकारेण । २१ वज्रस्य लोहलेखित्व। २२ गगने । २३ विपक्षेनुपलम्भः सर्वसम्बन्धीत्यादिप्रकारेण । २४ परः । २५ दृष्टान्ते । २६ जनानाम्। २७ ऊहात् । २८ मीमांसकस्य । २९ नैयायिकः । ३० वहित्वस्य। ३१ स्वरूपातिरिक्त ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० शक्तिः पृथिव्यादीनां पृथिवीत्यादिकमेव तदभिलम्बन्धादेव तेषां कार्यकारित्वात् । अन्त्या तु चरमसहकारिरूपा, तत्सद्भावे कार्यकरणादाने चाकरणात् । तथाहि-सन्तोपि तन्तवोन कार्यमारभन्ते अन्त्यतन्तुसंयोगं विनेति सैव शक्तिस्तेषाम् । ननु कथमर्था५न्तरमर्थान्तरस्य शक्तिः? अनर्थान्तरत्वेपि लमानतत्-स एव तस्यैव न शक्तिः' इति । अथ यदि पूर्वेषां सहकार्येव शक्तिस्तर्हि तस्याप्यशक्तस्याकारणत्वादन्या शक्तिवाच्येत्यनवस्था; तदयुक्तम् । चरमस्य हि सहकारिणः पूर्वसहकारिण एव शक्तिः इतरेतरा भिसम्बन्धेन कार्यकरणात् । स एव समग्राणां भाकः सामग्रीति १० भावप्रत्ययेनोच्यते, तेन सेता समग्रव्यपदेशात् ।
किञ्च, असौ शक्तिर्नित्या, अनित्या वा स्यात् ? नित्या चेत्स. वेदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गः। तथा च सहकारिकारणापेक्षा व्यर्थार्थाः नाम् तल्लाभात्प्रागेव कार्यस्योत्पन्नत्वात् । अथानित्यासौः कुतो
जायते ? शक्तिमतश्चेत्, किं शतात्, अशक्ताद्वा? शक्ताच्चेच्छत्त्या १५न्तरपरिकल्पनातोऽनवस्था स्यात् । अशक्तात्तदुत्पत्तो कार्यमेवं तथाविधात्ततः किन्नोत्पद्येत? अलमतीन्द्रियशक्तिकल्पनया।
तथा, शक्तिः शक्तिमतो भिन्ना, अभिन्ना वा स्यात् ? अभिन्ना चेत् ; शक्तिमात्रं शक्तिमन्मात्रं वा स्यात् ? भिन्ना चेत्, 'तस्येयम्' इति व्यपदेशाभावः अनुपकारात् । उपकारे वा तया तस्योपकार, २० तेन वाऽस्याः? प्रथमपक्षे शक्तिमतः शत्योपकारोऽर्थान्तरभूतः, अनर्थान्तरभूतो वा विधीयते ? अर्थान्तरभूतश्चेदनवंस्था, तस्यापि
१ पृथिवीत्वादिस्वरूप। २ शक्तिः । ३ अन्त्य । ४ जैनादिः। ५ बीजस्य । ६. नैयायिकः । ७ वह्निः । ८ वहेः । ९ अपरसहकारिशक्त्यभावादशक्तः । १. अतीन्द्रियया शत्तया शक्तिमत: उपकारः क्रियते इत्यस्मिन्पक्षे शक्तया क्रियमाण उपकारः शक्तिमतो भिन्नश्चेत्तदानवस्था। कथम् ? उपकारोपि शक्तिमतो भिन्नो यदि तदा शक्तिमतोऽयमुपकार इति सम्बन्धो न स्यात् भिन्नत्वात्। उपकारेणापि स्वसम्बन्धसिध्यर्थमुपकारान्तरं क्रियते चेत्तदा शक्तेनाऽशक्तेन वोपकारेणोपकारान्तरं क्रियते ? न सावदशक्तेन-अशक्तस्योपकारकरणे अक्षमत्वात् । शक्तेन चेदुपकारेण स्वसम्बन्धसिध्द्यर्कमुपकारान्तरं विधीयते तर्हि यया शतया स्वयं शक्तः उपकारः सापि भिन्नाऽभिन्ना वा ? भिन्ना चेत्तदोपकारस्येयं शक्तिरिति न-तस्माद्भिन्नत्वात् । शक्त्यापि स्वसम्बन्धसिध्द्यर्थमुपकारान्तरं क्रियते इत्यादिप्रकारेणानवस्था । ११ कारणानाम् । १२ विद्यमानेन । १३ तन्तूनाम् । १४ इत्यनवस्था परिहृता। १५ यया शक्त्या शक्तिमान् शक्तः साति नित्याऽनित्या वा ? न तावन्नित्या-सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । अथानित्या, सापि कुतो जायेत ? शक्तिमतश्चेच्छक्तादशक्ताद्वेत्यादिप्रकारेण। १६ स्फोटादि । १७ शक्तिः । १८ शक्तिमतः सकाशात् । १९ पूर्ववत् । २० न केवलं शक्तेः ।
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सू० २।२] शक्तिस्वरूपविचारः
१९७ व्यपदेशार्थमुपकारान्तरपरिकल्पनया शक्यन्तरपरिकल्पनात् । अनर्थान्तरभूतोपकारकरणे तु स एव कृतः स्यात् । तथा च न शक्तिमानसौ तत्कार्यत्वाप्रसिद्धतत्कार्यत्वात् । शक्तिमतापि-शक्यन्तरान्वितेन, तद्रहिदेव या शक्तरुपकारः क्रियते? आद्यपक्षे शक्त्यन्तराणां ततो मेदः, अनेदोवा? उभयत्रानन्तरोक्तोभयदोषानुषङ्गोऽनवस्था च तद्रहितेलानेन शक्तेल्पकारे तु प्राच्यशक्ति-५ कल्पनाप्यपार्थिका तद्व्यतिरेकेणैव कार्यस्याप्युत्पत्तेरुपकारंवत् । शक्तिशक्तिमतोर्भेदाभेदपरिकल्पनायां विरोधादिदोषानुपङ्गः ।
तथा, असौ किमेका, अनेका वा ? तत्रैकत्वे शक्तेर्युगपदनककायोत्पत्तिर्न स्यात् । अनेकत्वेपि अनेकशक्तिमात्मन्यर्थोनेकशक्तिभिर्विभृयादित्यनवस्थाप्रसङ्ग इति । __ अत्र प्रतिविधीयते । किं ग्राहकप्रमाणाभावाच्छेक्तेरभावः, अतीन्द्रियत्वाद्वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः, कार्योत्पत्त्यन्यथानुपपत्तिजनितानुमानस्यैव तदाहकत्वात् । ननु सामग्र्यधीनोत्पत्तिकत्वात्का- . र्याणां कथं तद्न्यथानुपपत्तिर्यतोऽनुमानात्तत्सिद्धिः स्यात् ; इत्यप्यसमीचीनम् । यतो नामाभिः सामग्र्याः कार्यकारित्वं प्रतिपिध्यते,१५ किन्तु प्रतिनियतायास्तस्याः प्रतिनियतकार्यकारित्वम् अतीन्द्रियशक्तिसद्भावमन्तरेणासम्भाव्यमित्यसावप्यभ्युपगन्तव्या । कथमन्यथा प्रतिवन्धकमणिमन्त्रादिसन्निधानेप्यग्निः स्फोटादिकार्य न कुर्यात् सामग्र्यास्तत्रापि सद्भावात् ? तेन ह्यग्नेः स्वरूपं प्रतिहन्यते, सहकारिणो वा? न तावदाद्यः पक्षः क्षेमङ्करः, २० अग्निस्वरूपस्य तद्वस्थतयाध्यक्षेणैवाध्यवसायात् । नापि द्वितीयः, सहकारिस्वरूपस्याप्यङ्गुल्याग्निसंयोगलक्षणस्याविकलतयोपलक्षणात् । अतः शक्तरेवाने प्रतिवन्धोभ्युपगन्तव्यः ।
१ शक्तिमतोऽयमुपकार इति सम्बन्धव्यपदेशार्थम् । २ उपकारस्य । ३ शक्तिमान्। ४ वह्निः। ५ उपकारवत् । ६ द्वितीयपक्षे । ७ निष्फला। ८ स्फोटादेः । ९ शक्तिरहितेन शक्तिमताऽग्निना उपकारस्योत्पत्तिर्यथा। १० अन्धकारनाश, अर्थप्रकाश, वर्तिकादाह, तैलशोषादि । ११ अर्थोऽनेकशक्तीरेकशक्त्या विभत्ति चेत्तदानेकशक्तीनामेकत्वप्रसङ्गः-एकशक्त्या याप्यमानत्वात्तदन्यतमशक्तिवत् । १२ अतीन्द्रियायाः। १३ वहिलक्षणोथों दहनशक्तियुक्तस्ततः स्फोटादिकार्योत्पत्त्यन्यथानुपपत्तरिति । १४ समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां परस्परसम्बन्धलक्षणा सामग्री। १५ जैनैः। १६ अतीन्द्रियशक्त्यभावेपि सामग्र्याः कार्यकारित्वे । १७ सामय्या: प्रतिबन्धकसन्निधाने सद्भावो नास्तीत्युक्ते आह । १८ प्रतिबन्धकेन । १९ प्रतिबन्धकमणिमत्रादिना । २० परेण भवता ।
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अमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० ननु चानेन नावे सहकारिणो वा स्वरूपं प्रतिहन्यते, किन्त स्वभाव एव निवर्त्यते, अतः स्फोटादिकार्यस्यानुत्पत्तिः प्रतिब. न्धकमणिसत्राधावस्यापि तदुत्पत्तौ सहकारित्वात् तैदभावे तदनुत्पत्ते, इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्, उत्तम्भकमणिसन्निधाने ५कार्यस्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न खलु तदा प्रतिवन्धकमण्याद्यमावोस्ति प्रत्यक्षविरोधात् । ननु यथाग्निःप्रतिवन्धकमण्याद्यभावसहकारी स्फोटादिकार्य करोति, एवं प्रतिवन्धकमण्यादिः उत्तम्भकमण्याद्यभावसहकारी तत्प्रतिबन्धं करोति, अतो न तत्सन्नि
धाने कार्यस्यानुत्पत्तिरिति । अस्तु नामैतत् । तथापि-प्रतिवन्ध१० कोत्तम्भकमणिमन्त्रयोरभावेऽग्निःखकार्य करोति, न वा ? न ताव
दुत्तरः पक्षः प्रत्यक्षविरोधात्। प्रथमपक्षे तु कस्याभावः अग्नेः सहकारी-तयोरन्यतरस्य, उभयस्य वा? न तावदुभयस्य; अन्यतराभावे कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । अन्यतरस्य चर्तिकं प्रतिवन्धकस्य,
उत्तम्भकस्य वा ? प्रतिवन्धकस्य चेत् । स एवोत्तम्भकमण्यादिस१५निधाने कार्यानुत्पादप्रसङ्गः तदा तस्याभावाप्रसिद्धः । उत्तम्भ
कस्य चेत् । अत्राप्ययमेव दोषः । न चाभावस्य कार्यकारित्वं घटते भावरूपतानुषङ्गात्, अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वात्परमार्थसतो लक्षणान्तराभावात् ।
कश्चास्याभावः कार्योत्पत्ती सहकारी स्यात्-किमितरेतराभावः, २० प्रागभावो वा स्यात्,प्रध्वंसो वा,अभावमात्रं वा? न तावदितरेत
राभावः प्रतिवन्धकमणिमन्त्रादिसन्निधानेप्यस्य सम्भवात्। नापि प्रागभावः, तत्प्रध्वंसोत्तरकालं कार्योत्पत्त्यभावप्रसङ्गात् । नापि प्रध्वंसःप्रतिबन्धकमण्यादिप्रागभावावस्थायां कार्यस्यानुत्पत्तिप्र
सङ्गात् । न च भावादर्थान्तरस्याभावस्य सद्भावोस्ति, तस्यानन्तर२५ मेव निराकरिष्यमाणत्वात् । अतो निराकृतमेतत्-'यस्यान्वयव्य
तिरेको कार्येणानुक्रियेते सोऽभावस्तत्र सहकारी सहकारिणामनियमात्' इति ।
१ प्रतिबन्धकेन । २ स्वस्थ प्रतिबन्धकस्य भावः। ३ अभावरूपकारणाभावे । ४ कार्योत्थापक । ५ प्रतिबन्धकमण्याद्यभावस्य सहकारिणोऽभावात् । ६ उत्तम्भकमणिसन्निधानकाले । ७ प्रतिबन्धकाभावे उत्तम्भकसद्भावे चोभयसद्भावे च। ८ उत्तम्भकस्याभावः सहकारी चेदित्यर्थः। ९ उत्तम्भकसद्भावे कार्यानुत्पादप्रसङ्गलक्षणः । १० अभावः कार्यकारी चेत्तहीति शेषः। ११ तदोत्तम्भकस्याभावाविशेषाभावादुत्तम्भकसद्भावे कार्य न स्याच्च । १२ सत्तासम्बन्धः प्रमाणसम्बन्धो वेत्यादि । १३ प्रतिबन्धकस्य । १४ प्रतिबन्धक उत्तम्भको नेति । १५ तुच्छाभावस्य । १६ सहकारिणी भावा अभावा एव वा भवन्तीति नियमो नास्ति ।
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सू० २१२] . शक्तिस्वरूपविचारः
कथं चैवंवादिनो मन्त्रादिना कञ्चित्प्रति प्रतिवद्धोप्यग्निः स एवान्यस्य स्फोटादिकार्यं कुर्यात् ? प्रतिवन्धकाभावस्य सहकारिणः कस्यचिदप्यभावात् । न चास्सैत्पक्षेप्येतच्चोद्यं समानम् , वस्तुनोऽनेकशक्त्यात्मकत्वात्कस्याश्चित्केनचित्कञ्चित् [प्रति] प्रतिवन्धेप्यन्यस्याः प्रतिबन्धाभावात् । नाप्यभावमात्रं सहकारि ५ वस्तुनोर्थान्तरस्याभावस्याभावे तद्गतसामान्यस्याप्यसम्भवात् । न चाभावस्य सामान्यं सम्भवति, द्रव्यगुणकर्मान्यतमरूपतानु षङ्गात् । ततः प्रतिवन्धकमण्यादिप्रतिहतशक्तिचह्निः स्फोटादिकार्यस्यानुत्पादकस्तद्विपरीतस्तूत्पादक इत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
ततो निराकृतमेतत् 'कार्य स्वोत्पत्तौ प्रतिबन्धकाभावोपकृतो-१० भयवाद्यविवादास्पदीरकव्यतिरिक्तानपेक्षम् , तन्मात्रादुत्पत्तावनुपपद्यमानवाधकत्वात् , यत्तु येतो व्यतिरिक्तमपेक्षते न तत्तन्मात्रजत्वेऽनुपपद्यमानवाधकम् यथा तन्तुमात्रापेक्षया पटः, न च तथेदम् , तस्माद्यथोक्तसाध्यम्' इति; हेतोरसिद्धेः तन्मात्रादुत्पत्तो कार्यस्य प्रागुक्तन्यायेनानेकवाधकोपपत्तेः। १५
खरूपसहकारिव्यतिरेकेण शक्तेः प्रतीत्यभावादसत्त्वे वा स्त्रग्वनितादिदृष्टकारणकलापव्यतिरेकेणादृष्टस्याप्यप्रतीतितोऽसत्त्वं स्यात्, तथा चासाधारणनिमित्तकारणाय दत्तो जलाञ्जलिः । कथं चैवंवादिनो जगतो महेश्वरनिमित्तत्वं सिध्येत् ? विचित्रक्षित्यादिदृष्टकारणकलापादेवाङ्करादिविचित्रकार्योत्पत्तिप्रतीतेः ।२० अनुमानात्तस्य तनिमित्तत्वसाधने शक्तेरप्यत एव सिद्धिरस्तु । तथाहि-यत्कार्यम् तदसाधारणधैर्माध्यासितादेव कारणादाविभवति सहकारीतरकारणमात्राद्वा न भवति यथा सुखाङ्कुरादि, कार्य चेदं निखिलमाविर्भाववद्वस्त्विति । एतेनैवातीन्द्रियत्वात्तभावोऽपास्तः।
यदप्युक्तम्-'पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादिकमेव निजा शक्तिः' इत्यादिः तदप्यपेशलम् ; मृत्पिण्डादिभ्योपि पटोत्पत्तिप्रसङ्गात्
१ कार्योत्पत्ति प्रत्यभावः सहकारीत्येवं वादिनः । २ प्रागभावादिरूपस्य । ३ जैन । ४ मत्रादिना। ५ नरं प्रति । ६ अभावः सहकारी विचार्यमाणो न घटते यतः। ७ स्फोटादिकार्य धर्मि । ८ वहि। ९ अतीन्द्रियशक्तेः। १० कारकमात्रात्। ११ पटादिकार्यम् । १२ तन्तुभ्यः । १३ वेमादिकम् । १४ तन्तुमात्र । १५ पुण्यस्य । १६ पुण्यस्याऽसत्त्वे सति । १७ विशेष । १८ परेण भवता। १९ स्वरूपसहकारिव्यतिरेकेण शक्तेः प्रतीत्यभावः इत्येवंवादिनः। २० शक्ति । २१ पुण्यमहेश्वरादेः। २२ स्वपक्षसिद्धौ साध्यन् । २३ उपादान। २४ परपक्षप्रतिक्षेपे साध्यमिदम्। २५ मुखेऽदृष्टमसाधारणकारणम् । २६ अङ्कुरेऽसाधारणमीश्वरः । २७ द्वितीयविकल्पोयम् । २८ शक्यभावः । २९ सामान्यम् ।
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२००
प्रमेयकमलमार्तण्डै २. प्रत्यक्षपरि० सहकारीतरशतस्तत्राप्याविशेषात् । अथ न पृथिवीत्यादिमात्रोपलक्षितानामर्थानां पटाधुत्पत्ती व्यापारो येनातिप्रसङ्गः स्यात, तन्तुत्वाद्यसाधारणनिजशक्त्युपलक्षितानामेव तंत्र तोषां व्यापारात् इत्ययसाम्प्रतम्; तन्तुत्वाद्युपलक्षितानां दग्धकुथिताद्यपानामपि तजनकत्वप्रसङ्गात् । अवस्थाविशेषसमन्वितानां तन्तूनां कार्यारम्भकत्वादयमदोषः, इत्यपि-मनोरथमात्रम् ; शक्तिविशेषमन्तरेणावस्थाविशेषस्यैवासम्भवात् , अन्यथा दग्धादिखभावानामपि तेषां स स्यात् ।
यच्चोच्यते-शक्तिनित्यानित्या वेत्यादि तत्र किमयं द्रव्यशक्ती, १० पर्यायशकौवा प्रश्नः स्यात् , भावानां द्रव्यपर्यायशक्त्यात्मकत्वात्? तत्र द्रव्यशक्तिर्नित्यैव अनादिनिधनस्वभावत्वाद्रव्यस्य । पर्यायशक्तिस्त्वनित्यैव सादिपर्यवसानत्वात्पर्यायाणाम् । न च शक्तेनित्यत्वे सहकारिकारणानपेक्षयैवार्थस्य कार्यकारित्वानुषङ्गः,
द्रव्यशक्तेः केवलायोः कार्यकारित्वानभ्युपगैमात् । पर्यायशक्तिस१५मन्विता हि द्रव्यशक्तिः कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैव
द्रव्यस्य कार्यकारित्वप्रतीतेः। तत्परिणतिश्चास्य सहकारिकॉरणापेक्षया इति पर्यायशक्तेस्तदैव भावान्न सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गः सहकारिकारणापेक्षावैयर्थे वा । कथमन्यथा अदृष्टेश्वरादेः केव
लस्यैव सुखादिकार्योत्पादनसामर्थ्य सर्वदा कार्योत्पादकत्वं सह२० कारिकारणापेक्षावैयर्थ्य वा न स्यात् ?
यदप्यभिहितम् शक्तादशक्ताद्वा तस्याः प्रादुर्भाव इत्यादि तत्र शक्तीदेवास्याः प्रादुर्भावः । न चानवस्था दोषाय; बीजाकरादिवदनादित्वात्तत्प्रवाहस्य । वर्तमाना हि शक्तिःप्राक्तनशक्ति
युक्तेनार्थेनाविर्भाव्यते, सापि प्राक्तनशक्तियुक्तेनेति पूर्वपूर्वाव. २५ स्थायुक्तार्थानामुत्तरोत्तरावस्थाप्रादुर्भाववत् । कथं चैववादिनोऽदृष्टस्याप्याविर्भावो घटते? तध्यात्मना अदृष्टान्तरयुक्तेना
१ चक्रचीवरादि । २ पृथिवीत्वादि । ३ अप्त्वादि । ४ पटादौ । ५ तन्त्वाचानाम् । ६ तन्तुत्वाचविशेषात् । ७ शक्तिविशेष विनावस्थाविशेषो भविष्यति चेत् । ८ शक्तिरहित। ९ तथा च सति पटादिजनकत्वप्रसङ्गः स्यात् । १० द्रव्यशक्तिः पर्यायशक्तिरसिद्धत्युक्ते सत्याह । ११ द्रवति द्रोष्यति अदुद्रुवदिति द्रव्यम् । १२ परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु । १३ पर्यायशक्तिरहितायाः। १४ जैनैः। १५ कथमिति चेदाह । १६ नग्वनितादि। १७ सहकारिकारणात नन्तरम् । १८ परेणाङ्गीकृते सति । १९ शक्तेः। २० शक्तिमतः । २१ शक्ति । २२ अर्थेन । २३ शक्कादशक्तावेत्येवंवादिनः ।
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सू० २।२] शक्तिस्वरूपविचारः २०१ विर्भाव्यते, तद्गहितेन वा? प्रथमपक्षेऽनवस्था । द्वितीयपक्षे तु मुक्तात्मवत्तस्य तजनकत्वासम्भवः ।
किञ्च, कथं वा महेश्वरस्याखिलकार्यकारित्वम् ? सहकारिरहितस्य तत्कारित्वे सकलकार्याणामेकदैवोत्पत्तिप्रसङ्गात् । तत्सहितस्य तत्कारित्वे तु तेपि सहकारिणोऽन्यसहकारिसहितेन कर्त्तव्या ५ इत्यनवस्था । पूर्वपूर्वादृष्टसहकारिसमन्वितयोरात्मेश्वरयोः उत्तरोत्तरादृष्टाखिलकार्यकारित्ने निखिलभावानां पूर्वपूर्वशक्तिसमन्वितानामुत्तरोत्तरशत्त्युत्पादकत्वमस्तु, अलं मिथ्याभिनिवेशेन्द ।
यच्चान्यदुक्तम्-शक्तिः शक्तिमतो भिन्नाऽभिन्ना वेत्यादि तद्प्ययुक्तम् । तस्यास्तद्वतः कथञ्चिद्भेदाभ्युपगमात् । शक्तिमतो हि १० शक्तिभिन्ना तत्प्रत्यक्षत्वेप्यस्याः प्रत्यक्षत्वाभावात्, कार्यान्यथानुपपत्त्या तु प्रतीयमानासौ । तंद्वतो विवेकेन प्रत्येतुमशक्यत्वादभिनेति । न चात्र विरोधाद्यवतारः, तेदात्मकवस्तुनो जोत्यन्तरत्वात् मेचकज्ञानवत्सामान्यविशेषवच्चे। ___ यत्पुनरुक्तमेकानेका वेत्यादि, तत्रार्थानामनेकैव शक्तिः ।१५ तथाहि-अनेकशक्तियुक्तानि कारणानि विचित्रकार्यत्वान्नार्थवत् । विचित्रकार्याणि वा कारणशक्तिभेदनिमित्तकानि तत्त्वाद्विभिन्नार्थकार्यवत् । न हि कारणशक्तिभेदमन्तरेण कार्यनानात्वं युक्त रूपादिज्ञानवत्, यथैव हि कर्कटिकादौ रूपादिज्ञानानि रूपादिस्वभावभेदनिबन्धनानि तथा क्षणस्थितेरेकस्मादपि प्रदीपादेर्भा-२० वाद् वर्तिकादाहतैलशोषादिविचित्रकार्याणि तच्छक्तिमेदनिमित्तकानि व्यवतिष्ठन्ते, अन्यथा रूपादेर्नानात्वं न स्यात् । चक्षुरादिसामग्रीभेदादेव हि तज्ज्ञानप्रतिभासभेदः स्यात्, कर्कटिकादिद्रव्यं तु रूपादिस्वभावरहितमेकमनंशमेव स्यात् । चक्षुरादिबुद्धौ
१ अदृष्टान्तरपरिकल्पनया आत्मन इति पक्षे। २ संसार्यात्मनः । ३ भदृष्टरहितत्वात् । ४ अदृष्टविशेष । ५ महेश्वरेण । ६ अनवस्थाद्यापादनेन। ७ जैनैः। ८ अग्निं विना धूमवत् । ९ पदार्थात् । १० भेदेन। ११ शक्तः कथञ्चिद्भेदाभेदपक्षे। १२ भेदाभेद। १३ मेदादभेदाद्वा जात्यन्तरत्वात् । १४ दहनो दाहशक्तियुक्तो दाहान्यथानुपपत्तः[?] । १५ स्वव्यक्तिष्वनुस्यूतत्वात्सामान्यरूपता गोत्वस्य । अश्वत्वादिभ्यो व्यावर्तमानत्वाद्विशेषरूपता यथा तथा सर्वत्र प्रतिपत्तव्यन् । सामान्यमेव विशेषस्तस्येव तद्वत्। १६ विचित्राणि कार्याणि येषां तानि विचित्रकार्याणि तेषां भावस्तत्त्वं तस्माद्धेतोः। १७ विचित्रकार्यत्वात् । १८ सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह। १९ तैलशोषादिशक्तिभेदं विनापि-तैलशोषादिकार्याणि स्युरिति चेत् । २० तैलशोषादि । २१ तैलशोषादिशक्ति विनापि शक्तिभेदनिमित्तकानि यदि तैलशोषादिकार्याणि स्युः। २२ किन्तु । २३ रूपादिखभावसमर्थनार्थ परः प्राह ।
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प्रमैयक्रमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० प्रतिभासमानत्वाद्रूपादेः कथं कर्कटिकादिद्रव्यस्य तद्रहितत्वमिति चेत् ? तर्हि तैलशोषादिविचित्रकार्यानुमानवुद्धौ शक्तिनानात्वस्याप्यर्थानां प्रतीतेः कथं तद्रहितत्वं स्यात् ? प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभास.
माना रूपादय एव परमार्थसन्तो न त्वनुमानवुद्धौ प्रतिभासमानाः ५शक्तयः; इत्यपसु(प्यसुन्दरम् । अदृष्टेश्वरादेरपरमार्थसत्त्वप्रस.
झात् । प्रदीपादिद्रव्यस्यैकस्य वर्तिकादिसहकारिसामग्रीभेदात्तदाहादिकार्यनानात्वं न पुनस्तच्छक्तिखभावभेदात् । इत्यप्यविचारितरमणीयम् । रूपादेरप्यभावप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुं कर्कटिकादिद्रव्ये चक्षुरादिसामग्रीभेदादूपादिप्रत्ययप्रतिभासभेदो, न पुना १० रूपाद्यनेकस्वभावभेदादिति । तन्न प्रमाणप्रतिपन्नत्वाद्रूपादिवच्छ. तीनामपलापो युक्त इति ।
यत्पुनरर्थापत्त्यर्थापत्तेरुदाहरणं वाचकसामर्थ्यात्तन्नित्यत्वज्ञानमुक्तम् । तदप्ययुक्तम् ; वाचकसामर्थ्यस्य तत्प्रत्यनन्याभवनासिद्धेः । निराकरिष्यते चाग्रे नित्यत्वं शब्दस्येत्यलमतिप्रसङ्गेन । १५ याप्यभावार्थापत्तिः-जीवंश्चैत्रोऽन्यत्रास्ति गृहेऽभावादिति;
तत्रापि किं गृहे यत्तस्य जीवनं तदेव गृहे चैत्राभावस्य विशेषणम् , उतान्यत्र ? प्रथमपक्षे तत्राभावस्य विशेष्यस्यासिद्धिः, यदा हि चैत्रो गृहे जीवति कथं तदा तत्र तदभावो येनौसौ तेन विशेष्येत ? यदा च तत्र तदभावो, न तदा तत्र तजीवनमिति । द्वितीयपक्षे २० तु विशेषणस्यासिद्धिः, न खलु चैत्रस्यान्यत्र यजीवनं तदर्थापत्त्युदयकाले तथाविधप्रदेशविशेषणत्वेन कुंतश्चित्प्रतीयते अर्थापत्तेवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । येनैवे हि प्रमाणेन तज्जीवनं प्रतीयते तेनैव तत्सद्भावोपि । न प्रतिपन्ने देवदत्ते तद्धर्मो जीवनं प्रत्येतुं शक्यम् अतिप्रसङ्गोत् । न चाप्रतीतस्य विशेषणत्वमत एव । अर्थापत्त्यैव
१ प्रदीपो नानाशक्तियुक्तः तेलशोधादिनानाकार्यान्यथानुपपत्तेरिति । २ दूषणभीत्यैवं वचः। ३ ज्ञाने। ४ निरंशत्वप्रतिपादनाय । ५ शब्द। ६ शब्दनित्यत्वं प्रति । ७ अन्यथा नित्यत्वं विना न भवनं तस्य । ८ अविनामावस्यासिद्धेः। ९ जीवतः। १० बहिर्जीवनम् । ११ विशेष्यस्यासिद्धिमुद्भावयन्ति । १२ चैत्राभावः। १३ गृहजीवनेन। १४ चैत्रस्य बहिजीवनं चैत्राभावविशेषणमित्यस्मिन्पक्षे। १५ जीवनस्य । १६ असिद्धिमेव प्रदर्शयन्ति । १७ बहिः। १८ अन्यप्रदेश। १९ प्रमाणात् । २० विद्वद्भिः। २१ अन्यथा । . २२ अर्थापत्तेर्वैयर्थ्यप्रसङ्गमेव सूचयन्ति । २३ अतोर्थापत्या चैत्रसद्भावपरिकल्पनं व्यर्थम् । २४ जीवनमेव प्रतीयते न तत्सद्भाव इति परेणोक्ते जैनः प्राह । २५ मेरुप्रतीत्यभावेपि तद्रूपादिप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । २६ जीवनस्य । २७ दण्डाऽशाने दण्डिशानप्रसङ्गात् ।
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सू० २।२] अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः २०३ तैत्सिद्धावितरेतराश्रयः-सिद्धे हि तया तस्यान्यत्र जीवने तद्विशेपितात्तत्प्रदेशाभावादर्थापत्त्युदयः, ततश्च तत्सिद्धिरिति ।
अथ न निश्चितं सजीवनं तनहाभावविशेषणं येनायं दोषः, किन्तु यदि गृहेऽसन् जीवति तदान्यत्रास्ति' इत्यभिधीयते; तर्हि संशयरूपत्वात्तस्याः कथं प्रामाण्यम् ? या तु प्रमाणं सानु-५ मानमेव । पञ्चावयवत्वमप्यत्र सम्भवत्येव । तथाहि-जीवतो देवदत्तस्य गृहेऽभावो वहिस्तत्सद्भावपूर्वकः जीवतो गृहेऽमावत्वात् प्राङ्गणे स्थितस्य गृहे जीवभाववत् । यद्वा, देवदत्तो बहिरस्ति गृहासंसृष्टजीवनाधारत्वात्स्वात्मवत् । कथं पुनर्देवदत्तस्यानुपलभ्यमानस्य जीवनं सिद्धं येन तद्धतुविशेषणमित्यसत् १० घेसङ्गसाधनोपन्यासात्।
यच्च निषेध्याधारवस्तुग्रहणादिसामग्रीत इत्याधुक्तम् । तत्र निषेध्याधारो वस्त्वन्तरं प्रयोगिसंसृष्टं प्रतीयते, असंसृष्टं वा ? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः, प्रतियोगिसंसृष्टवस्त्वन्तरस्याध्यक्षेण प्रतीतौ तत्र तैद्भावग्राहकत्वेनाभावप्रमाणप्रवृत्तिविरोधात् । प्रवृत्तौ वा १५ न प्रामाण्यम् । प्रतियोगिनः सत्त्वेपि तत्प्रवृत्तेः । द्वितीयपक्षे तु अभावप्रमाणवेयर्थ्यम् , प्रत्यक्षेणैव प्रतियोगिनोऽभावप्रतिपत्तेः। अथ प्रतियोग्यसंसृष्टतावगमो वस्त्वन्तरस्याभावप्रमाणसम्पाद्यः; तर्हि तैदप्यभावप्रमाणं प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणे सति प्रैवलेत, तदसंसृष्टतावगमश्च पुनरप्यभावप्रमाणसम्पाद्य इत्यन-२० वस्था । प्रथमाभावप्रमाणात्तदसंसृष्टतावगमे चान्योन्याश्रयः।
१ बहिर्जीवन । २ बहिजीवन । ३ गृह । ४ इतरेतराश्रयः । ५ यदि जीवति तदा बहिरस्ति यदि न जीवति तदा नास्तीत्यर्थः। ६ जीवनस्य संशयितत्वात् । ७ अन्यत्र जीवनानिश्चयात् । ८ एषार्थापत्तिर्यथाऽप्रमाणं तथा सर्वाप्यप्रमाणं स्यादित्यारेकायामाह। ९ पञ्चावयववस्वाभावे कथमर्थापत्तेरनुमानत्वमिति परेणोक्ते सत्याह । २० प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः। ११ मृतेन व्यभिचारपरिहारार्थमेतत् । १२ प्रमातृस्वरूपवत् । १३ अभावरूपहेतोः। १४ साध्यसाधनयोप्प्यव्यापकभावसिद्धौ व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र (अर्थे) प्रदश्यते तत्प्रसङ्गसाधनम् । १५ घट। १६ भूतल। १७ आदिपदेन प्रतिषेध्यस्मरणमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य घटादेरनुपलम्भश्च । १८ भूतलम् । १९ घटेन । २० रहितम् । २१ घटाभाव। २२ अभावप्रमाणस्य । २३ अभावावगमः। २४ भूवलस्य । २५ आद्यम् । २६ उत्पद्येत । २७ प्रथमाभावप्रमाणात्प्रतियोग्यसंसृष्टतावगमः तदकरामश्च प्रथमाभावप्रमाणोदये इति ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० प्रतियोगिनोपि मरणं वस्त्वन्तरसंस्कृष्टस्या, असंस्कृष्टस्य वा ? यदि संसृष्टस्य तदाऽभावप्रमाणाप्रवृत्तिः । अथासंसृष्टस्य ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरासंसृष्टस्य प्रतियोगिनो ग्रहणे तथास्तस्या स्मरणं त्यान्नान्यथा । तथाभ्युपगमे च तदेवाभावप्रमाणवैयेय ५'वस्त्वसङ्करसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यं समाश्रिता' इत्यादिग्रन्थविरो. धश्च । वस्तुमात्रस्याध्यक्षेण ग्रहणाभ्युपंगमे प्रतियोगीतैरव्यवहारोभावः।
यदि चानुभूतेपि भावे प्रतियोगिस्मरणमन्तरेणाभावप्रतिपत्तिर्न स्यात्, तर्हि प्रतियोग्यप्यनुभूत एव स्मर्तव्यो नान्यथा अति१० प्रसङ्गात् । तदनुभवश्चान्यासंसृष्टतयाऽभ्युपगन्तव्यः, तस्याप्यन्यासंसृष्टताप्रतिपत्तिस्ततोऽन्यत्र प्रतियोगिस्मरणात् तत्राप्ययमेव न्याय इत्यनवस्था । अथ प्रतियोगिनो भूतलस्य स्मरणाद् घटस्यान्यासंसृष्टता प्रतीयते, तत्स्मरणाच्च भूतलस्य तदेतरेतराश्रयः, तथाहि-न यावद्धटासंसृष्टभूभागप्रतियोगिस्सरणाद् घटस्य भूतलासं१५ सृष्टताप्रतिपत्तिर्न तावत्तत्स्मरणोद्भूतलस्य घटासंसृष्टताप्रतिपत्तिः,
यावञ्च भूतलस्य घटासंसृष्टता न प्रतीयते न तावत्तत्सरणेन घटस्येति । ततोऽन्यप्रतियोगिस्मरणमन्तरेणैवाभावांशो भावांशवत्प्रत्यक्षोऽभ्युपगन्तव्यः । भूतलासंसृष्टघटदर्शनाहितसंस्कारस्य च
पुनर्घटासंसृष्टभूभागदर्शनानन्तरंतथाविधघटस्मरणे सति 'अया. २० त्राँभावः' इति प्रतिपत्तिःप्रत्यभिज्ञानमेव । यदा तु स्वदुरौंगमाहि
१ स्मृत्वा च प्रतियोगिनमित्येतद्विचारयति । २ भूतल । ३ भूतलसम्बद्धप्रतियोगिसद्भावग्राहकत्वेनैव प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तेः । ४ पूर्वोक्तमेव । ५ आयातम् । ६ प्रत्यक्षेणैवाः भावस्य प्रतीतत्त्वात् । ७ अनवस्थादिदूषणपरिहारं करोति । ८ भूतलमात्रस्थ । ९ अनवस्थादिदोषभयात्परेण। १० घट । ११ भूतल । १२ भूतलस्य । १३ प्रत्यक्षप्रतिपन्ने । १४ भूतललक्षणे । १५ घटस्य । १६ परेण। १७ अन्येन पटेन । १८ परेण । १९ घटस्य । २० पटेन । २१ घटात् । २२ पटे। २३ ग्रन्थान वस्था स्यात् । २४ अनवस्थापरिहारार्थ परः प्राह । २५ भूभागेन । २६ अन्यासंसृष्टता प्रतीयते। २७ घटासंसृष्टभूभागप्रतियोगिस्मरणात् घटस्य भूतलासंसृष्टताप्रतिपत्तिस्तस्यां सत्त्यां भूभागासंसृष्टघट प्रतियोगिस्मरणाद्भूतलस्य घटसंसृष्टताप्रतिपत्तिस्तस्यां सत्यां घटासंसृष्टभूभागसरणाद् धदस्य भूतलासंसृष्टताप्रतिपत्तिरित्यान्वयमुखेनेतरेतराश्रयः । २८ भूभागासंसृष्टघटप्रतियोगि। २९ दृष्टश्रुतानुभूतेथे स्मरणं चोपजायते। ३० घटासंसृष्टभूभाग। ३१ असंसृष्टताप्रतीतिः । ३२ इतरेतराश्रयो यतः । ३३ स्मर्यमाणघटस्य । ३४ प्रतियोगिसरणं विना जायमानं ज्ञानं प्रत्यक्षं प्रतियोगिस्मरणानन्तरमुपजायमानमभावप्रमाणं भविष्यतीत्युक्ते आह । ३५ नरस्य । ३६ सर्यमाणघटस्य । ३७ भूभागे । ३८ दर्शनस्मरणकारणकत्वाविशेषात् । ३९ आविर्भावतिरोभावात्सर्व सर्वत्र विद्यते इति ।
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सू० २।२] अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः २०५ तसंस्कारः साङ्ख्यस्तथाऽप्रतिपद्यमानः तत्प्रसिद्धसत्त्वरजस्तमोलक्षणविपयनिदर्शनोपदर्शनेन अनुपलब्धिविशेषतः प्रतिवोध्यते तदाप्यनुमानमेवेति काभावप्रमाणस्यावकाशः ? ततोऽयुक्तमु. तम्-'न चाध्यक्षेणाभावोऽवसीयते तस्याभावविषयत्वविरोधात्, नाप्यनुमानेन हेतोरभावात्' इति ।
किञ्च, अभावप्रमाणेनामावग्रहणे तस्यैव प्रतिपत्तिः स्यान्न प्रतियोगिनिवृत्तेः । अभावप्रतिपत्तेस्तन्निवृत्तिप्रतिपत्तिश्चेत् ; सो किं प्रतियोगिस्वरूपसम्बद्धा, असम्बद्धा वा? न तावत्सम्बद्धा; भावाभावयोस्तादात्म्यादिसम्बन्धासंभवस्य वक्ष्यमाणत्वात् । अथासम्वद्धा; तर्हि .. तत्प्रतिपत्तावपि कथं प्रतियोगिनिवृत्ति-१० सिद्धिः अतिप्रसङ्गात्? तैन्निवृत्तेरप्यपरतनिवृत्तिप्रतिपत्त्यभ्युपगमे चानवस्था।
यच्च 'प्रमाणपञ्चकाभावः, तदन्यज्ञानम् , आत्मा वा ज्ञाननिर्मुक्तोऽभावप्रमाणम्' इति त्रिप्रकारतास्येत्युक्तम् । तदप्ययुक्तम् । यतः प्रमाणपञ्चकाभावो निरुपाख्यत्वात्कथं प्रमेयाभावं परिच्छि-१५ न्धात् परिच्छित्तेनिधर्मत्वात् ? अथ प्रमाणपञ्चकाभावः प्रमेया.. भावविषयं ज्ञानं जनयन्नुपैचारादभावप्रमाणमुच्यते; न अभावस्यावस्तुतया तज्ज्ञानजनकत्वायोगात् । वस्त्वेव हि कार्यमुत्पादयति नावस्तु, तस्य संकलसामर्थ्य विकलत्वात्खरविषाणवत् । सामर्थ्य वा तस्य भावरूपताप्रसक्तिः, तल्लक्षणत्वात्परमार्थसतो२० लक्षणान्तराभावात् , सत्तासम्बन्धादेस्तल्लक्षणस्य निषेत्स्यमान
१ अभावं प्रत्यक्षतः । २ दृष्टान्त । ३ अभावन् । ४ इह भूतले घटो नास्ति दृश्यत्वे सत्यनुपलब्धेः । यत्र यस्य दृश्यत्वे सत्यनुपलब्धिस्तत्र तस्याभावो यथा तमसि सत्त्वस्य। ५ विषये। ६ प्रत्यक्षप्रत्यभिज्ञानानुमानैरभावः प्रतीयते यतः। ७ सति । ८ घटाभावस्य । ९ प्रतिपतिः स्यात् । १० निवृत्तिः। ११ अनन्तरमेव प्रध्वंसा. भावनिराकरणे। १२ निवृत्याऽसम्बद्धस्य प्रतियोगिनो घटस्य यथाऽभावः स्यात्तथा पटस्यापि निवृत्याऽसम्बद्ध स्याभावप्रसङ्गः-उभयत्रासम्बद्धत्वाविशेषात् । १३ सा चासो निवृत्तिश्च तन्निवृत्तिस्तस्याः सकाशात् । १४ परेण। १५ प्रतिपत्तिर्घटेन सम्बद्धाऽसम्बद्धेत्यादिप्रकारेण। १६ निषेध्याद्धटादन्यस्य भूतलस्य परिज्ञानम् । १७ परेण । १८ निःस्वभावत्वात् । १९ गगनाम्भोजवत् । २० निरुपाख्यः स्यात्प्रमेयाभावपरिच्छेदकश्च स्यादित्युक्ते सत्याह । २१ निमित्तेऽयमुपचारः प्रमाणभूतज्ञानजनकत्वेन प्रमाणं प्रमाणपञ्चकाभावो न साक्षात्प्रमाणमिति । २२ तन्न। २३ शशशृङ्गवत् । २४ सद्रूपत्वाद् मृत्पिण्डवत् । २५ देशकालस्वभावतया। २६ आदिशम्देन प्रमाणविषयत्वम् । २७ समवायनिराकरणप्रघट्टके।
प्र. क. मा० १८
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० त्वात् । न च यत्र प्रमाणपञ्चकामावस्तत्रावश्यं प्रमेयाभावज्ञानमुत्पद्यते; परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात्।
किञ्च, प्रमाणपञ्चकाभावो ज्ञातः, अज्ञातो वा तज्ज्ञानहेतः स्यात् ? ज्ञातश्चेत्कुतो ज्ञप्तिः? तद्विषयप्रमाणपञ्चकामावाञ्चेतः ५ अनवस्था । प्रमेयाभावाच्चदन्योन्याश्रयः-सिद्ध हि प्रमेयाभावे प्रमाणपञ्चकाभावसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च प्रमेयाभावसिद्धिरिति । अज्ञातस्य च ज्ञापकत्वायोगः "नाज्ञातं ज्ञापकं नाम"[ ] इति प्रेक्षावद्भिरभ्युपगमात्, अन्यथातिप्रसंङ्गः । अक्षौदेस्तु
कारकत्वादज्ञातस्यापि ज्ञानहेतुत्वाविरोधः । न चास्यापि कार १० कत्वात्तद्धेतुत्वाविरोधः, निखिलसामर्थ्यशून्यत्वेनास्य कारकत्वासम्भवादित्युक्तत्वात् । ततोऽयुक्तमुक्तम्
"प्रत्यक्षाद्यवतारश्च भावांशो गृह्यते यदा। व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिक्षिते ॥"
[मी० श्लो० अभाव० श्लो० ९७] इति । १५ द्वितीयपक्षे तु यत्तदन्यज्ञानं तत्प्रत्यक्षमेव, पर्युदासवृत्त्या हि निषेध्याद् घटादेरन्यस्य भूतलादेर्शानमभावप्रमाणाख्यां प्रतिपद्यमानं तदन्या(न्य)भावलक्षणाभावपरिच्छेदकमिष्टमेव । तृतीयपंक्षे तु किमसौ सर्वथा ज्ञाननिर्मुक्तः, कथञ्चिद्वा? तत्राद्यविकल्पे 'माता मे वन्ध्या' इत्यादिवत्स्ववचनविरोधः। सर्वथा हि यद्यात्मा २० ज्ञाननिर्मुक्तः कथमभावपरिच्छेदकः? परिच्छेदस्य ज्ञानधर्मत्वात्। परिच्छेदकत्वे वा कथमसौ सर्वथा ज्ञाननिर्मुक्तः स्यात् ? अथ कथञ्चित् । तथाहि-'अभावविषयं ज्ञानमस्यास्ति निषेध्यविषयं तु नास्ति' इति; तर्हि तज्ज्ञानमेवाभावप्रमाणं स्यान्नात्मा। तच्च भावा
१ अन्यथा । २ प्रमाणपञ्चकाभावेऽपि प्रमेयाभावशानं न परचेतोवृत्तिविशेषेष्वस्ति अतीन्द्रियत्वात् । ३ पुरुषेण। ४ प्रमेयाभाव। ५ बसः। ६ प्रमाणपञ्चकाभावलक्षणाभावप्रमाणादित्यर्थः। ७ ग्रन्थानवस्था। ८ अमावस्य । ९ अन्धेनाशातस्य धूमस्या. निशापकत्वप्रसङ्गात् । १० अक्षादेरशातस्य कथं ज्ञापकत्वमित्युक्ते आह । ११ आदिपदेन अदृष्टम् । १२ ज्ञानं प्रति कारणत्वं कारकत्वम् । १३ प्रमेयाभावशान । १४ प्रमाणपञ्चकभावोऽभावशानहेतुर्न भवति यतः । १५ तदा भवति। १६ निषेध्यघटाद। १७ भूतलस्य । १८ घटाभावः भूतलसद्भाव इति । १९ (तस्माद् घटादन्यद्भूतलम् । तचासौ भावश्च (अर्थः) स तदन्यभावो लक्षणं यस्याभावस्य )। २० उभयोरपि सम्मः तोयं (भावान्तरस्वभावलक्षणः) विकल्पः। २१ आत्मा। २२ प्रमेयाभावस्य । २३ अभाव । २४ घटादन्यद्भूतलं तदेव स्वभावो यस्याभावस्य ।
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सू० २।२] अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः २०७ न्तरस्वभावाभावग्राहकतयेन्द्रियैर्जनितत्वात्प्रत्यक्षमेव । ततो निराकृतमेतत्-"न तावदिन्द्रियेणैषा" इत्यादि, “वस्त्वसङ्करसि. द्धिश्च तत्प्रामाण्यं समाश्रिता” इत्यादि च; तस्याः प्रत्यक्षादिप्रमाणत एव प्रसिद्धः । कथं ततोऽभावपरिच्छित्तिरिति चेत्, कथं भावस्यें ? प्रतिभासाच्चेदितरत्र समानम् । न खलु प्रत्यक्षे-५ णान्यसंसृष्टः प्रथमतोऽर्थोऽनुभूयते, पश्चादभावप्रमाणादन्यांसं. सृष्ट इति क्रमप्रतीतिरस्ति, प्रथममेवान्यासंसृष्टस्यार्थस्याध्यक्षे प्रतिभासनात् । न चान्यासंसृष्टार्थवेदनादन्यत्तभाव वेदनं नाम ।
एतेनैतदपि प्रत्युक्तम् "स्वरूपपररूपाभ्याम्" इत्यादिः सर्वैः सर्वदोभयकैपस्यैवान्तवहिर्वाऽर्थस्य प्रतिसंवेदनात् , अन्यथा तद-१० भावप्रसङ्गात् ।
यदप्युक्तम्-"यस्य यत्र यदोद्भूतिः" इत्यादि; तदप्ययुक्तम् । न हनुभूतमनुद्भूतं नाम । नापि जिघृक्षाप्रभवं सर्वज्ञानम् । इन्द्रियमनोमात्रभावे भावात्तदभावे चाभावात्तस्य ।
यच्चान्यदुक्तम्-"मेयो यद्वदभावो हि" इत्यादिः तत्र 'भावरू-१५ पेण प्रत्यक्षेण नाभावो वेद्यते' इति प्रतिज्ञा अन्यासंसृष्टभूतलग्राहिणा प्रत्यक्षेण निराक्रियते अनुष्णाग्निप्रतिज्ञावत् । 'भावात्मके यथा मेये' इत्याद्यप्ययुक्तम्; अभावादपि भावप्रतीतेः, यथा गगनतले पत्रादीनामधःपाताभावाद्वायोरिति । भावाचायादेः शीताभावस्य प्रतीतिः सकलजनप्रसिद्धा । 'यो यथाविधः स २० तथाविधेनैव गृह्यते' इत्यभ्युपगमे चाभावस्य मुद्गरीदिहेतुत्वा
१ अभावस्य प्रत्यक्षतो ग्रहणं सिद्धं यतः । २ नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव सम्बन्धो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि । ३ अभावग्राहकतायाः। ४ प्रत्यक्षादिप्रमाणात्तव मते परिच्छित्तिः। ५ घटेन। ६ भूतललक्षणः। ७ अन्यसंसृष्टशानानन्तरम् । ८ घटेन । ९ एकदैवोभयरूपार्थविषयतयानुभूयमानं ज्ञानं कथमितरांशेऽनुद्भतमिति भावः। १० भूतललक्षणस्य । ११ भूतललक्षण। १२ नियं सदसदात्मके। वस्तुनि शायते किञ्चिद्रूपं कैश्चित्कदाचनेत्यन्तम् । १३ प्रमाणैः। १४ सदसदात्मकस्य । १५ ज्ञानस्य । १६ घटादेः। १७ उभयरूपार्थवेदनं न चेत् । १८ उभयरूपत्वादर्थस्य । १९ सदंशस्यासदंशस्य वा। २० वस्तुनि । २१ जिघृक्षा चोपजायते । वेद्यतेनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते इत्यन्तम् । २२ प्रत्यक्षप्रतिपन्नम् । २३ अभाव. रूपम् । २४ मानम (अभावरूप) प्येवमिष्यताम् । भावात्मके यथा मेये नाऽभावस्थ प्रमाणता । तथैवाभावमेयेपि न भावस्थ प्रमागतेति च। २५ अभावोऽभावपरिच्छेद्यः तथाविषयत्वादिति वा प्रतिज्ञा। २६ गगनतले वायुरस्ति पत्रादीनामधःपाताभावान्यथान्यथानुपपत्तेः । २७ प्रतीतिः । २८ भावरूप ।
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— प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० भावः स्यात् । शक्यं हि वक्तुम्-यो यथाविधः स तथाविधेनैव क्रियते यथा भावो भावेन, अभावश्चाभावः, तस्मादमावेनैव क्रियते । प्रत्यक्षवाधा चान्यत्रापि समाना।
यदप्यभिहितम्-'प्रागभावादिभेदाच्चतुर्विधश्चाभावः' इत्यादिः ५ तदप्यभिधानमात्रम् ; यतः खकारणकलापात्स्वस्वभावव्यवस्थितयो भावाः समुत्पन्ना नात्मानं परेण मिश्रयन्ति तस्योपरत्वप्रस. सङ्गात् । न चान्यतोऽव्या (तो व्या)वृत्तस्वरूपाणां तेषां भिन्नोऽ, भाऽवांशः सम्भवति । भावे वा तस्यापि पररूपत्वाद्भावन
ततोपि व्यावर्तितव्यमित्यपरापराभावपरिकल्पनयानवस्था । अतो १० न कुर्तंश्चिद्भावेन व्यावर्तितव्यमित्येकखंभावं विश्वं भवेत्, पर भावाभावाञ्च व्यावर्त्तमानस्यार्थस्य परसैंपताप्रसङ्गः।
यदि चेतरेतराभाववशाद् घटः पटादिभ्यो व्यावर्तेत, तहीत. रेतराभावोपि भावादभावान्तराच प्रागभावादेः किं खतो व्यावः
तत, अन्यतो वा ? स्वतश्चेत् । तथैव घटोप्यन्येभ्यः किन्न व्याव१५त्तेत? अन्यतश्चेत् । किमसाधारणधर्मात्, इतरेतराभावान्तराद्वा?
असाधारणधर्माभ्युपगमे स एव पटादिध्वपि युक्तः । इतरेतराभावान्तराच्चेत् ; बहुत्वमितरेतराभावस्यानवस्थाकॉरि स्यात् ।
किञ्च, इतरेतराभावोप्यसाधारणधर्मेणाव्यावृत्तस्य, व्यावृत्तस्यै . वा भेदकः? यद्यव्यावृत्तस्य; किं नैकव्यक्तभैदकः ? अथ व्यावृ: २० त्तस्य तर्हि घटादिष्वपि स एवास्तु भेदकः किमितरेतराभाव कल्पनया?
१ मृत्पिण्डादिना । २ घटप्रध्वंसाभावः । ३ घटाभावं प्रति मुद्रादीनां व्यापारोपलम्भात् । ४ अभावप्रमाणेनाभावो गृह्यते इत्यत्रापि । कथम् ? प्रत्यक्षेणैबाभावप्रतीतेरिति। ५ चक्रचीवरकुलालादि । ६ घटादयः। ७ पटादिभावेन । ८ अन्यथा। ९ तस्य परस्य पटादेः। १० घटत्वप्रसङ्गात् । ११ पटादिभ्यः । १२ घटादिभावानाम् । १३ यतोऽभावात् तेषां (घटादीनां) व्यावृत्तिः (पटादिभ्यः । युक्ता। १४ सम्भवति चेत् कस्य ? घटस्य । पटादयः पटरूपा घटादिभ्यः सकाशद्यथां तथा अभावांशोपि । १५ अभावांशस्य । १६ घटादिभ्यः । १७ घटादिः पदार्थेन । १८ भावादभावाद्वा। १९ अनवस्थादोषभयात्। २० इति हेतोः। २१ घटादिस्वभावम् । २२ व्यावर्तकस्येतरेतराभावस्याभावात् । २३ ततश्च कि भवेत् । २४ घटस्य । २५ भिन्नत्वात् । २६ पटादिभ्यः । २७ पृथुबुध्नोदरादेः । २८ व्यावतकः। २९ इतरेतराभावान्तरं किं स्वतो व्यावर्त्तते अन्यतो वेत्यादिप्रकारेण । ३० पटादेः सकाशाद्वयावृत्तस्य घटादेः। ३१ घटस्य ।
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सू० २।२] .. अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः
..किञ्च, अनेन घटे पटः प्रतिषिध्यते, पटत्वसामान्यं वा, उभयं ar? प्रथमपक्षे किं पटविशिष्टे घटे पटः प्रतिषिध्यते, पटविविक्ते वा ? न तावदाद्यः पक्षो युक्तः, प्रत्यक्षविरोधात् । नापि द्वितीय तथाहि-किमितरेतराभावादन्या घटस्य पटविविक्तता, स एव वा विविक्तताशब्दाभिधेयः ? भेदे; तयैव घटे पटाभावव्यवहारसिद्धः५ किमितरेतराभावेन ? अथ स एव तच्छब्दाभिधेयः; तर्हि यस्सादभावात्पटविविक्ते घटे पटाभावव्यवहारः सोन्योऽभावः, विविक्तताशब्दाभिधेयश्चान्य इत्येकस्मिन्वस्तुनीतरेतराभावद्वयमायातम् । .. किञ्च, 'घटे पटो नास्ति' इति पटरूंपताप्रतिषेधः, सा कि प्राप्ता प्रतिपिध्यते, अप्राप्ता वा? प्राप्तायाः प्रतिषेधे पटेपि पटरू-१० पताप्रतिषेधः स्यात् प्राप्तेरविशेषात् । अप्राप्तायास्तु प्रतिषेधानुपपत्तिः, प्राप्तिपूर्वकत्वात्तस्य । न ह्यनुपलब्धोदकस्य 'अनुदका कमण्डलुः' इति प्रतिषेधो घटते । अथान्यत्र प्राप्तमेव पटरूपमन्यत्र प्रतिषिध्यते; तत्रापि समवायप्रतिषेधः, संयोगप्रतिषेधो वा? न तावत्समवायप्रतिषेधः; रूपादेरेकंत्र समवायेन सम्बद्ध-१५ स्यान्यत्र वस्त्वन्तरेऽन्योन्याभावतोऽभावव्यवहारानुपलम्भात् । संयोगप्रतिषेधोप्यनुपपन्नः; घटपटयोः कदाचित्संयोगस्यापि सम्भवात् । अथ पटेन संयोगरहिते घटे पटप्रतिषेधो न तत्सं. योगवति । नन्वेवं पटसंयोगरहितत्वमेवाभावोस्तु, न त्वन्यस्मादभावात्पटसंयोगरहिते घटे पटाभाव इति युक्तम् । तन्न घटे २० पटप्रतिषेधो युक्तः।
नापि पटत्वप्रतिषेधः; तस्याप्येकत्र सम्वद्धस्यान्यत्र सम्वन्धाभावादेव प्रतिषेधानुपपत्तेः । नॉप्युभयप्रतिषेधः, प्रागुक्ताशेषदोषानुषङ्गात् । . किञ्च, इतरेतराभावप्रतिपत्तिपूर्विका घटप्रतिपत्तिः, घटग्रहण-२५ पूर्वकत्वं वेतरेतराभावग्रहणस्य? आद्यपक्षेऽन्योन्याश्रयत्वम्। तथाहि-'इतरेतराभावो घटसंबन्धित्वेनोपलभ्यमानो घटस्य विशेषणं न पदार्थान्तरसम्वन्धित्वेन, अन्यथा सर्व सर्वस्य विशेषणं
. १ उभयं, पटः पटत्वं चेत्यर्थः । तृतीयपक्षोयम् । २ असाधारणस्वरूपता । ३ इतरेतराभावविविक्ततयोः। ४ इतरेतराभावः। ५ पटस्वरूपस्य । ६ एवं परस्या, निष्टापादनं भवति । ७ उभयत्र । ८ पुरुषस्य। ९ आतानवितानीभूतरूपादेः। १०.पटादौ । ११ घटादौ। १२ इतरेतराभावात् । १३ द्वितीयपक्षः। १४ घटे। १५ तृतीयपक्षः। १६ पटपटत्वयोः। १७ घटस्थेतरेतराभावोयमिति ।
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... प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि०. स्यात् । घटसम्वन्धित्वप्रतिपत्तिश्च घटग्रहणे सत्युपपद्यते । सोधि व्यावृत्त एव पटादिभ्यः प्रतिपत्तव्यः । ततो यावत्पूर्व घटसम्बन्धित्वेन व्याहत्तेरुपलम्भो न स्यान्न तावद्ध्यावृत्तिविशिष्टतया घटः प्रत्येतुं शक्यः, यावच्च पटादिव्यावृत्तत्वेन न प्रतिपन्नो घटो ५न तावत्स्वसम्वन्धित्वेन व्यावृत्ति विशेषयति इति ।
अथ घटग्रहणपूर्वकत्वमितरेतराभावग्रहणस्य; अत्राप्यभावो विशेष्यो घटो विशेषणम् । तद्रहणं च पूर्वमन्वेषणीयम् “नागृहीतविशेषणा विशेष्ये वुद्धिः" [ ] इत्यभिधानात् । तत्रापि घटो
गृह्यमाणः पटादिभ्यो व्यावृत्तो गृह्यते, अव्यावृत्तो वा? तंत्र न १० तावत्पटादिभ्योऽव्यावृत्तस्य घटस्य घटरूपता घटते, अन्यथा पटादेरपि तथैव पटादिरूपताप्रसङ्गादभावकल्पनावैयर्थ्यम् । अथ तेभ्यो व्यावृत्तस्य घटस्य घटरूपताप्रतिपत्तिः प्रायते; तत्रापि किं कतिपयपटादिव्यक्तिभ्योऽसौ व्यावर्त्तते, सकल.
पटादिव्यक्तिभ्यो वा? प्रथमपक्षे कुतश्चिदेवासौ व्यावत, न १५सकलपटादिव्यक्तिभ्यः। द्वितीयपक्षेपि न निखिलपटादिभ्योऽस्य व्यावृत्तिर्घटते, तासामानन्त्येन ग्रहणासम्भवात् । इतरेतराश्रयत्वं च, तथाहि-यावत्पटादिभ्यो व्यावृत्तस्य घटस्य घटरूपता न स्यान्न तावद् घटात्पटायो व्यावर्त्तन्ते, यावच्च घटाद्व्यावृत्तानां पटादीनां पटादिरूपता न स्यान्न तावत्पटादिभ्यो घटो व्याव२०र्तते इति।
अस्तु वा यथाकथञ्चित्पटादिभ्यो घटस्य व्यावृत्तिः, घटान्तरात्तु कथमसौ व्यावर्त्तते इति सम्प्रार्यम्-किं घटरूपतया, अन्यथा वा? यदि घटरूपतया; तर्हि सकलघटव्यक्तिभ्यो व्याव
र्तमानो घटो घटरूपतामादाय व्यावर्त्तत इत्यायातम् अघटत्वम२५ न्यासां घटव्यक्तीनाम् । अथाघटरूपतया; तत्किमघटरूपता पटादिवद् घटेप्यस्ति ? तथा चेत् ; तर्हि यो व्यावर्त्तते घटान्तरा. घटत्वेन घटस्तस्याघटत्वं स्यात् । तच्च विप्रतिषिद्धम्-यद्यघटो घटः, कथं घटः? तस्मानार्थादर्थान्तरमभावः।
• १ इतरेतराभावस्य । २ इतरेतराभावप्रतिपत्तेटप्रतिपत्तिपूर्वकत्वं यतः। ३ इतरेतराभावस्य । ४ घटसम्बन्धिनमितरेतराभावम् । ५ द्वितीयपक्षः। ६ प्रवत्तते । ७ घटस्य पूर्व ग्रहणेपि । ८ पक्षद्वये । ९ जैनमते स्वगतासाधारणधर्मेण घटः पटादिभ्यो व्यावृत्तो भवति, न तु इतरेतराभावादिति । १० पटादिभ्योऽव्यावृत्तस्य घटस्य घटरूपता यदि। ११ समर्थ्यते परेण। १२ ग्रहणे वा सर्वशत्वादिप्रसङ्गः। १३ इतरेतरा. भावः । १४ विचार्यम् । १५ अघटरूपतया। १६ तहिं । १७ विरुद्धम् ।
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सू० २।२] अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः २११
ननु चाभावस्यार्थान्तरत्वानभ्युपगमे कथं तन्निमित्तको व्यवहारः ? तथाहि-किं घटावष्टब्धं भूतलं घटाभावो व्यपदिश्यते, तद्रहितं वा ? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षविरोधः। द्वितीयपक्षे तु नाममात्रं भिद्येत-घटेरहितत्वम् , घटामावविशिष्टत्वमिति; तदप्यसाम्प्र. तम् । यतः किं घटाकार भूतलं येन 'घटो न भवति' इत्युच्यमाने ५ प्रत्यक्षविरोधः स्यात्, यद्भूतलं तद्धटाकाररहितत्वाद्धटो न भव. त्येव । ननु सद्यपि भूतलानार्थान्तरं घटाभावः, तर्हि घटसम्बद्धपि भूतले 'घटो नास्ति' इति प्रत्ययः स्यात्, न चैवम् , ततो यथा भूतलादर्थान्तरं घटस्तथा तद्भावोपीति; तद्प्यसारम् । घटासम्भविभूतलगतासाधारंणधर्मोपलक्षितं हि भूतलं घटाभावो १० व्यपदिश्यते । घटावष्टब्धं तु घटभूतलगतसंयोगलक्षणसाधारणधर्मविशिष्टत्वेन तथोत्पन्न मिति न 'अघटं भूतलम्' इति व्यपदेशं लभते । तन्नेतरेतराभावो विचारक्षमः।
नापि प्रागभावः तस्याप्यर्थान्तरस्य प्रमाणतोऽप्रतिपत्तेः। ननु 'खोत्पत्तेः प्राग्नासीद् घटः' इति प्रत्ययोऽसद्विषयः, सत्प्रत्य-१५ यविलक्षणत्वात् , यस्तु सद्विषयः स न सत्प्रत्ययविलक्षणो यथा 'सद्रव्यम्' इत्यादिप्रत्ययः, सत्प्रत्ययविलक्षणश्चायं तस्मादसद्विषयः' इत्यनुमानात्ततोऽर्थान्तरस्य प्रागभावस्य प्रतीतिरित्यपि मिथ्या; 'प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसादिः' इति प्रत्ययेनानेका: न्तात् । तस्याप्यसद्विषयत्वेऽभावानवस्था । अथ 'भावे भूभा-२० गादौ नास्ति घटादिः' इति प्रत्ययो मुख्याभावविषयः, 'प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसादिः' इति प्रत्ययस्तूपचॅरिताभावविषयः, ततो नानवस्थेति; तदप्ययुक्तम् ; परमार्थतः प्रागभावादीनां साङ्कर्यप्र. सङ्गात् । न खलूपचरितेनाभावेनान्योन्यमभावानां व्यतिरेकः 'सिद्ध्येत् , सर्वत्र मुख्याभावकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात्। २५
१ नास्तीति विकल्पो नास्तीत्यभिधानं च। २ अर्थादर्थान्तरमभावं समर्थयन्ति परे। ३ जैनैर्भवद्भिः । ४ नार्थभेदः। ५ भूतलस्य । ६ जैनमते । ७ परमते । ८ घटभूतलयोः किं तादात्म्यं प्रतिषिध्यते आधाराधेयभावो वा ? तत्राद्य पक्षं विवेचयति । ९ भूतलगतं विविक्तत्वं भिन्नं घटगतं विविक्तत्वं भिन्नम् । १० उभयगतत्वात् । ११ घटावष्टब्धत्वेन । १२ घटस्य प्रागभावो मृत्पिण्डलक्षणोर्थस्तस्मात् । १३ प्रागभावः। १४ अर्थात् । १५ अयं सत्प्रत्ययविलक्षणश्च भवति, न त्वसद्विषयः । १६ अभावे अभावोऽस्ति यतः। १७ प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसादिरिति व्यवहारः प्रयोजनमभावानामसङ्करो निमित्तमित्युपचारप्रवृत्तिः-निमित्तप्रयोजनवशादुपचारप्रवृत्तेः। १८ भेदः। १९ अन्यथा ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ..[२. प्रत्यक्षपरि० यदप्युक्तम्-'न भावखभावः प्रागभावादिः सर्वदा आवविशेष. णत्वात्' इति; तदप्युक्तिमात्रम्; हेतोः पक्षाव्यापकत्वात् , 'न प्रागभावः प्रध्वंसादौ इत्यादेरभावविशेषणस्याप्यभावस्य प्रसिद्ध गुणादिनानेकान्ताच्च; अस्य सर्वदा आवविशेषणत्वेपि भावख. ५भावात् । 'रूपं पश्यामि' इत्यादिव्यवहारे गुणस्य स्वतन्त्रस्यापि प्रतीतेः सर्वदा भावविशेषणत्वाभावे 'अभावस्तत्त्वम्' इत्यमावस्यापि स्वतन्त्रस्य प्रतीतेः शश्वद्भावविशेषणत्वं न स्यात् । सामर्थ्यात्तद्विशेष्यस्य द्रव्यादेः सम्प्रत्ययात्सदास्य भावविशेषणत्वे गुणादेरपि सर्वदा भावविशेषणत्वमस्तु, तद्विशेष्यस्य द्रव्यस्य १० सामर्थ्यतो गम्यमानत्वात् ।
किञ्च, प्रागभावः सादिः सान्तः परिकल्प्यते, सादिरनन्तः, अनादिरनन्तः अनादिः सान्तो वा? प्रथमपक्षे प्रागभावात्पूर्व घटस्योपलब्धिप्रसङ्गः, तद्विरोधिनः प्रागभावस्याभावात् । द्वितीयेपि
तदुत्पत्तेः पूर्वमुपलब्धिप्रसङ्गस्तत एव । उत्पन्ने तु प्रागभावे १५ सर्वदानुपलब्धिः स्यात्तस्यानन्तत्वात् । तृतीये तु सदानुप
लब्धिः । चतुर्थे पुनः घटोत्पत्तौ प्रागभावस्थाभावे घटोपलब्धिवदशेषकार्योपलब्धिः स्यात् , सकलकार्याणामुत्पत्स्यमानानां प्रागभावस्यैकत्वात् ।
ननु यावन्ति कार्याणि तावन्तस्तत्प्रागभावाः, तत्रैकस्य प्राग२० भावस्य विनाशेपि शेषोत्पत्स्यमानकार्यप्रागभावानामविनाशान घटोत्पत्तौ सकलकार्योपलब्धिरिति; तर्झनन्ताः प्रागभावास्ते किं स्वतन्त्राः, भावतन्त्रा वा? स्वतन्त्राश्चेत्कथं न भावखभावाः कालादिवत् ? भावतन्त्राश्चेत्किमुत्पन्नभावतन्त्राः, उत्पत्स्यमानभावतन्त्रा वा? न तावदादिविकल्पः समुत्पन्नभावकाले २५ तत्प्रागभावविनाशात् । द्वितीयविकल्पोपि न श्रेयान् ; प्रागभावकाले स्वयमसतामुत्पत्स्यमानभावानां तदाश्रयत्वायोगात्, अन्यथा
१ दण्डेन रूपेण च व्यभिचारः स्यात्तत्परिहारार्थ सर्वदेति विशेषणं दण्डस्य कदाचिद्विशेष्यरूपतयापि भावात्। कथम् ? दण्डं पश्यामीति । २ यतोऽभावोप्यभावस्य विशेषणं भवेत् भावोऽभावस्यापि । ३ प्रागभावो विशेषणमत्र । ४ अतोऽभावोऽभावस्य विशेषणमपि भवेद्भावोऽभावस्यापि। ५ घटस्य । ६ विशेष्यत्वेन । ७ अभावस्तत्त्वम् । कस्य ? घटस्येति। ८ यथा अभावः कस्येत्युच्यमाने पटस्येति, तथा गुणाः कस्य । द्रव्यस्येति । ९ विनाशोपेतः। १० घटस्य । ११ घटस्य । १२ तद्विरोधिनः प्रागभावस्य सर्वदा भावादेव। १३ घटादिकार्यस्य । १४ घटोत्पत्तौ घटोपलब्धि क्दशेषकार्योपलब्धि परिहरति परः। १५ तेषां प्रागभावानाम् ।
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सू० २।२] अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः
२१३ प्रध्वंसाभावस्यापि प्रध्वस्तपदार्थाश्रयत्वप्रसङ्गः । न चानुत्पन्नः प्रध्वस्तो वार्थः कस्यचिदाश्रयो नाम अतिप्रसङ्गात् ।।
अथैक एव प्रागभावो विशेषणभेदाद्भिन्न उपचर्यते 'घटस्य प्रागभावः पटादेवी' इति, तथोत्पन्नार्थविशेषणतया तस्य विनाशेप्युत्पत्स्यमानार्थविशेषणत्वेनाविनाशान्नित्यत्वमपीति । नन्वेवं५ प्रागभावादिचतुष्टयकल्पनानर्थक्यम् सर्वत्रैकस्यैवाभावस्य विशेपणभेदात्तथा भेदव्यवहारोपपत्तेः । कार्यस्य हि पूर्वेण कालेन विशिटोर्थः प्रागभावः, परेण विशिष्टः प्रध्वंसाभावः, नानार्थविशिष्टः सं एवेतरेतराभावः, कालत्रयेप्यत्यन्तनानास्वभावभावविशेषणोऽत्यन्ताभावः स्यात्, प्रत्ययभेदस्यापि तथोपपत्तेः, . सत्तै-१० कत्वेपि द्रव्यादिविशेषणभेदात्प्रत्ययभेदवत् । यथैव हि सत्प्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिङ्गाभावाच्चैकत्वं सत्तायाः तथैवासत्प्रत्ययाविशेषलिङ्गाभावाच्चाभावस्यापि । अथ 'प्राग्नासीत्' इत्यादिप्रत्ययविशेषाच्चतुर्विधोऽभावः, तर्हि प्रागासीत्पश्चाद्भविष्यति सम्प्रत्यस्तीति कालभेदेन, पाटलिपुत्रेस्ति चित्रकूटेस्तीति देशभेदेन, द्रव्यं १५ गुणः कर्म चास्तीति द्रव्यादिभेदेन च प्रत्ययभेदसद्भावात्प्राक्स. तादयः सत्तामेदाः किन्नेष्यन्ते ? प्रत्ययविशेपात्तद्विशेषणान्येव भिद्यन्ते तस्यै तन्निमित्तकत्वान्न तु सत्तौं, ततः सैकैवेत्यभ्युपगमे अभावभेदोपि मा भूत्सर्वथा विशेषाभावात् । . . __ अथाभिधीयते-'अभावस्य सर्वथैकत्वे विवक्षितकार्योत्पत्तौ २० प्रागभावस्याभावे सर्वत्राभावस्याभावानुषङ्गात्सर्व कार्यमाद्यनन्तं सर्वात्मकं च स्यात् । तदप्यभिधानमात्रम् ; सत्तैकत्वेपि समानत्वात् । विवक्षितकार्यप्रध्वंसे हि सत्ताया अभावे सर्वत्राभावप्रसङ्गः तस्या एकत्वात् , तथा च सकलशून्यता। अथ तत्प्रध्वंसेपि नास्याः
१ प्रागभावस्य प्रध्वंसाभावस्य वा । २ अनुत्पन्नः प्रध्वस्तो वा स्तम्भः प्रासादस्याश्रयो भवेत् । ३ घटाद्यर्थ । ४ प्रागभावस्य । ५ घटादि । ६ प्रागभावादिप्रकारेण । ७ पटलक्षणस्योत्पत्तेः सकाशात् । ८ अर्थः। ९ घटपटशकटादि। १० अभावलक्षणोर्थः । ११ अत्यन्तं सर्वथा नाना (भिन्नाः) स्वभावा येषां तेऽत्यनानास्वभावा गगनाम्भोजखरविषाणादयस्ते च ते भावाश्च ते विशेषणं यस्यामावस्य। १२ प्रत्ययो ज्ञानम् । १३ विशेषणभेदादेव । प्रागभावस्यैकत्वकल्पनाप्रकारेण। १४ द्रव्यं सद्गुणः सन्कर्म सत् । १५ परमते। १६ जैनमते एकत्वम् । १७ घटः। १८ कारण । १९ आदिपदेन पश्चात्सत्ता सम्प्रतिसत्ता च ग्राह्या। २० परेण भवता । २१ घटाद्यर्थाः। २२ प्रत्ययविशेषस्य । २३ (सत्तायाः विशेषणनिमित्तकत्वाभावादित्यर्थः)। २४ प्रागभावाभावादनादि प्रध्वंसाभावाभावादनन्तम् । २५ इतरेतराभावाभावाद ।
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२१४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० प्रध्वंसो नित्यत्वात् , अन्यथार्थान्तरेषु सत्प्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात. तदन्यत्रापि समानम् , समुत्पन्नैककार्यविशेषणतया हमावस्यामा वेपि न सर्वथाऽभावः भावान्तरेप्यभावप्रतीत्यभावप्रसङ्गात । यथा चामावस्य नित्यैकरूपत्वे कार्यस्योत्पत्तिर्न स्यात् तस्य तत्म. ५तिवन्धकत्वात् , तथा सत्ताया नित्यत्वे कार्यप्रध्वंसो न स्यात् तस्यास्तत्प्रतिबन्धकत्वात् । प्रसिद्धं हि प्रध्वंसात्प्राक्प्रध्वंसप्रतिव. ग्धकत्वं सत्तायाः, अन्यथा सर्वदा प्रध्वंसप्रसङ्गात् कार्यस्य स्थितिरेव न स्यात् । यदि पुनर्वलवत्प्रध्वंसकारणोपनिपाते कार्यस्य
सत्ता न ध्वंसं प्रतिवध्नाति, ततः पूर्व तु बलवद्विनाशकारणोप१० निपाताभावात्तं प्रतिवनात्येवातो न प्रागपि प्रध्वंसप्रसङ्गः इत्ये
तदन्यत्रापि न काकैर्भक्षितम् , अभावोपि हि वलवदुत्पादककारंणोपनिपाते कार्यस्योत्पादं सन्नपि न प्रतिरुणद्धि, कार्योत्पादात्पूर्व तूत्पादककारणाभावात्तं प्रतिरुणद्धयेव, अतो न प्रागपि
कार्योत्पत्तिप्रसङ्गो येन कार्यस्यानादित्वं स्यात् । १५ तन्न प्रागभावोपि तुच्छखभावो घटते किन्तु भावान्तरख
भावः । यदभावे हि नियमतः कोर्योत्पत्तिः स प्रागभावः, प्रांग नन्तरपरिणामविशिष्टं मृद्रव्यम् । तुच्छखभावत्ने चास्य सव्येतरगोविषाणादीनां सहोत्पत्तिनियमवतामुपादानसङ्करप्रसँङ्गः प्रागभावाविशेषात् । यत्रं यदा यस्य प्रागभावाभावस्तत्र तदा २० तस्योत्पत्तिरित्यप्ययुक्तम् । तस्यैवानियमात् । स्वोपादानेतरनियमात्तैनियमेप्यन्योन्याश्रयः। • प्रध्वंसाभावोपि भाँवस्वभाव एव, यद्भावे हि नियता कार्यस्य
१ अभावे । २ प्रागभावस्य । ३ प्रध्वंसात्पूर्व सत्तायाः प्रध्वंसप्रतिबन्धकत्वं न साथदि । ४ सर्वदा प्रध्वंसप्रसङ्गात्कार्यस्य स्थितिरेव न स्यादेतत्परिहरति परः। ५ कार्यकालादुत्तरेण कालेन । ६ मुद्गरादि। ७ विनाशकारणसन्निधानात्पूर्वम् । ८ अभावे । ९ मृत्पिण्डादि । १० प्रागभावः कः भावान्तरं च किमित्युक्ते आह । ११ यस्य मृत्पिण्डस्य । १२ स्वस्य विनाशेन घटरूपेण परिणमते मृत्पिण्डः । १३ मृत्पिण्डलक्षणः। १४ घटोत्पत्तः। १५ स्थासादि । १६ अस्योपादानभेतदस्यैतदिति विवेचयितुमशक्यत्वात्। १७ तुच्छाभावस्य प्रागभावस्यैकत्वात् । १८ उपादानकारणे। १९ कार्यस्य । २० सव्यगोविषाणस्यायं प्रागभावः असव्यस्यायं प्रागभाव इति प्रागमावस्यैव नियमाभावात् । २१ सव्यविषाणकार्य। २२ स्वानुपादान । २३ प्रागभावनियमे । २४ सव्यविषाणस्योपादाननियमे सिद्धे सव्यस्य प्रागभावनियमः सिध्येत् । प्रागभावनियमसिद्धौ च सव्यस्योपादाननियमसिद्धिरिति । २५ उत्तरक्षणवर्तिकपाललक्षणः। २६ यस्य कपालस्य । २७ घटस्य ।
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सू० २।२] अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः २१५ विपत्तिः स प्रध्वंसः, मृद्रव्यानन्तरोत्तरपरिणामः । तस्य हि तुच्छस्वभावत्वे मुद्रादिव्यापारवैयर्थं स्यात् । स हि तद्व्यापारेणे घटादेर्भिन्नः, अभिन्नो वा विधीयते ? प्रथमपक्षे घटादेस्तद्वस्थत्वप्रसङ्गात् 'विनष्टः' इति प्रत्ययो न स्यात् । विनाशसम्बन्धाद् "विनष्टः' इति प्रत्ययोत्पत्तौ विनाशतद्वतोः कश्चित्स-५ स्वन्धो वक्तव्यः स हि तादात्म्यलक्षणः, तदुत्पत्तिखरूपो वा स्यात्, तद्विशेषणविशेप्यभावलक्षणो वा? तत्र न तावत्तादात्म्यलक्षणोसौ घटते; तयोर्मेदाभ्युपगमात् । नापि तदुत्पत्तिलक्षणः; घटादेस्तदकारणत्वात्, तस्य मुद्गरादिनिमित्तकत्वात् । तदुभयनिमित्तत्वाददोषः, इत्यप्यसुन्दरम् ; मुद्रादिवद्विनाशो-१० त्तरकालमपि घटादेरुपलम्भप्रसङ्गात् । तस्य स्खविनाशं प्रत्युपादानकारणत्वान्न तत्काले उपलम्भः; इत्यप्यसमीचीनम् : अभावस्य भावान्तरखभावताप्रसङ्गात् तं प्रत्येवास्योपादानकारणत्वप्रसिद्धः । तयोर्विशेषणविशेष्यभावः सम्बन्धः, इत्यप्यसत्, परस्परमसम्वद्धयोस्तदसम्भवात् । सम्वन्धान्तरेण १५ सम्वद्धयोरेव हि विशेषणविशेष्यभावो दृष्टो दण्डपुरुषादिवत् । न च विनाशततो सम्बन्धान्तरेण सम्वद्धत्वमस्तीत्युक्तन् । तन्न तद्व्यापारेण भिन्नो विनाशो विधीयते । अभिन्न विनाश विधाने तु 'घटादिरेव तेन विधीयते' इत्यायातम्। तच्चायुक्तम् । तस्य प्रांगेवोत्पन्नत्वात् ।
ननु प्रध्वंसस्योत्तरपरिणामरूपत्वे कपालोत्तरक्षणेषु घटप्रध्वंसस्याभावात्तस्य पुनरुज्जीवनप्रसङ्गः, तदप्यनुपपन्नम् ; कारणस्य कार्योपमर्दनात्मकत्वाभावात् । कार्यमेव हि कारणोपमर्दनात्मकत्वधर्माधारतया प्रसिद्धम् ।
यच्च कपालेभ्योऽभावस्यार्थान्तरत्वं विभिन्न कारणप्रभवतयो-२५ च्यते; तथाहि-'उपादानघटविनाशो वलवत्पुरुपप्रेरितमुद्राद्यभिघातादवयवक्रियोत्पत्तेरवयव विभागतः संयोगविनाशादेवोत्प
१ मृद्रव्यं कुशूलरूपं तस्यानन्तर परिणामो घटः । तस्योत्तरपरिणामस्तु कपाललक्षणः । २ कर्म । ३ प्रध्वंसाभाव विशिष्टो घट इति । ४ परेण । ५ घटादुत्पत्तिः अध्वंसस्यति । ६ तं विनाशं प्रति । ७ यथा घटस्य कपालादि भावान्तरम् । ८ कपाललक्षणं भावान्तरस्वभावम् । ९ तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणेन। १० मुद्गरादिव्यापारेण की। ११ घटात् । १२ द्वितीयपक्षे। १३ मुद्गरादिव्यापारात् । १४ कपाल । १५ घटस्य । १६ कपाल । १७ हेतोविभिन्न कारणत्वं समर्धयति परः। १८ चलन
लक्षणायाः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० द्यते,उपादेयकपालोत्पादस्तु स्वारम्भकावयवकर्मसंयोगविशेषादेवाविर्भवति' इति तदप्यसमीक्षिताभिधानम्, अस्य विनाशोत्पादकारणप्रक्रियोद्धोषणस्याप्रातीतिकत्वात् । केवलमन्यप्रतारितेन भवंता परः प्रतार्यते । तस्मादन्धपरम्परापरित्यागेन वल५वत्पुरुषप्रेरितमुद्रादिव्यापाराद् घटाकारविकलकपालाकारमृतव्योत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या अलं प्रतीत्यपलापेन । __ "क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति' इत्याद्यप्यभावस्य भावस्वभावत्वे सत्येव घटते, दध्यादिविविक्तस्य क्षीरादेरेव प्रागभावादितयाध्यक्षादिप्रमाणतोध्यवसायात् । ततोऽभावस्योत्पत्तिसामयाः १० विषयस्य चोक्तप्रकारेणासम्भवान्न पृथकप्रमाणता । इति स्थितमेतत्प्रत्यक्षेतरभेदादेव द्वेधैव च प्रमाणमिति। "तत्राद्यप्रकारं विशदमित्यादिना व्याचष्टे
विशदं प्रत्यक्षम् ॥ ३॥ विशदं स्पष्टं यद्विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् । तथा च प्रयोगः-विश१५दज्ञानात्मकं प्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वात्, यत्तु न विशदज्ञानात्मकं
तन्न प्रत्यक्षम् यथाऽनुमानादि, प्रत्यक्षं च विवादाध्यासितम्, तस्माद्विशदज्ञानात्मक मिति ।
अनेनाऽस्माद्धमदर्शनात् 'वह्निरत्र' इति ज्ञानम् , 'यावान् कश्चिद् भावः कृतको वा स सर्वः क्षणिकः, यावान् कश्चिद्धम२० वान्प्रदेशः सोनिमान्' इत्यादि व्याप्तिज्ञानं चास्पष्टमपि प्रत्यक्ष माचक्षाणः प्रत्याख्यातः; अनुमानस्यापि प्रत्यक्षताप्रसङ्गीत् प्रत्यक्ष. मेवैकं प्रमाणं स्यात् ।
किञ्च, अकस्माद्भूमदर्शनाद्वह्निरत्रेत्यादिज्ञाने सामान्यं वा प्रति. भासेत, विशेषो वा? यदि सामान्यम् ; न तत्तर्हि प्रत्यक्षम्, २५ तस्य तद्विषयत्वानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा 'प्रेमाणद्वैविध्यं
प्रमेयद्वविध्यात्' इत्यस्य व्याघातः, सैविकल्पकत्वप्रसंगश्च । विशेषविषयत्वे ततः प्रवर्त्तमानस्यात्र सन्देहो न स्यात् 'ताणों - १ -परमाणु । २ ततः संयोगविशेषः। ३ ताद्विः। ४ योगेन। ५ प्रध्वंसाभावरूपा। ६ भिन्नस्य । ७ अभावप्रमाणस्य । ८ दृष्टान्तस्मरणमन्तरेण। ९ बौद्धः । १० उभयत्रास्पष्टत्वाविशेषात् । ११ प्रत्यक्षं सामान्यविषयं यदि । स्कन्धाकारपरिणतम् । १२ सौगतेन। १३ प्रत्यक्षं विशेभं गृह्णाति अनुमानं सामान्यं गृह्णाति इति बौद्धमतं न घटेत-प्रत्यक्षेणैव सामान्यग्रहणादिति । १४ ग्रन्थस्य । १५ प्रत्यक्षस्य । १६ सामान्यविषयत्वात् । १७ तुः ।
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५० ॥ विशदत्वविचारः
२१७ बानाग्निः पार्थो वा' इति सन्निहितवत् । न खलु सन्निहितं पावकं पश्यतस्तत्र सन्देहोस्ति । सन्देहे वा शब्दाल्लिङ्गाद्वा प्रति(ती)येतो. ज्यसौस्यात् । तथा चेमसङ्गतम्-"शब्दाल्लिङ्गाद्वा विशेषप्रतिपत्तौ न तत्र सन्देहः" [ ] इति । तन्नेदं प्रत्यक्षम् । किं तर्हि ? लिङ्गदर्शनप्रभवत्वादनुमानम् । 'दृष्टान्तमन्तरेणाप्यनुमानं भवति'५ इत्येतञ्चाग्रे वक्ष्यते।
व्याप्तिज्ञानं चास्पष्टत्वेनाप्रत्यक्ष व्यवहारिणां सुप्रसिद्धम् । व्यवहारानुकूल्येन च प्रमाणचिन्ता प्रतन्यते "प्रामाण्यं व्यवहारेण" [प्रमाणवा० ३१५] इत्यादिवचनात् । न च तेषां सर्वे क्षणिका भावाः कृतका वाऽग्न्यादयो धूमादयो वा स्पष्टज्ञानविषया इत्य-१० भ्युपगमोऽस्ति, अनुमानानर्थक्यप्रसङ्गात् । सर्वं हि व्याप्यं व्यापकं च स्पष्टतया युगपन्निश्चिन्वतो न किञ्चिदनुमानसाध्यम् , अन्यथा योगिनोप्यनुमानप्रसङ्गः । निश्चित समारोपस्याप्यसम्भवो विरोधात् । कालान्तरभाविसमारोपनिषेधकत्वेनानुमानस्य प्रामाण्ये क्वचिदुपलब्धदेवदत्तस्य पुनः कालान्तरेऽनुपलम्भसमा-१५ रोपे सति यदनन्तरं तत्स्मरणादिकं तदपि प्रमाणं भवेत् । तन्न व्याप्तिज्ञानमप्यस्पष्टत्वात् प्रत्यक्षं युक्तम् ।
ननु चास्पष्टत्वं ज्ञानधर्मः, अर्थधर्मों वा? यदि ज्ञानधर्मः, कथमर्थस्यास्पष्टत्वम् ? अन्यस्यास्पष्टत्वादन्यस्यास्पष्टत्वेऽतिप्रसडाँत् । अर्थधर्मत्वे कथमतो व्याप्तिज्ञानस्याप्रत्यक्षताप्रसिद्धिः१२० व्यधिकरणाद्धेतोः साध्यसिद्धौ 'काकस्य कार्याखवलः प्रासादः' इत्यादेरपि गमकत्वप्रसङ्गः, इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्। स्पष्टत्वेपि समानत्वात् । तदपि हि यदि ज्ञानधर्मस्तर्हि कथमर्थ स्पष्टता अतिप्रसङ्गात् ? विषये विषयिधर्मस्योपचाराददोषेऽत एव सोन्यत्रापि मो भूत् । संवेदनस्यैव ह्यस्पष्टता धर्मः स्पष्ट-२५
१ जानतः । २ सन्देहे सति । ३ नं प्रति यदुक्तम् । ४ परीक्षा। ५ पुंसः। ६ समारोपव्यवच्छेदार्थमनुमानमिति चेन्नेत्याह । ७ अर्थे । ८ निश्चयश्चेत्समारोपः कथमिति । ९ सर्व क्षणिकं सत्त्वात्कृतकत्वादेति । १० नाहमद्राक्षमिति । ११ यसः। १२ यस्योपलम्भस्य । १३ तस्य पूर्वोपलब्धस्य देवदत्तस्य । १४ आदिपदेन प्रत्य'मिशनम् । १५ साधनं विचारयति । १६ दूरपादपास्पष्टत्वे पुरोवत्रिपदार्थस्यास्पष्टत्वं स्यात्। १७ भिन्नाधिकरणात् । १८ अस्पष्टत्वं हेतुरथें, अप्रत्यक्षत्वं साध्यं ज्ञाने इति । १९ सन्निहिते पादपादौ स्पष्टत्वमनुमेयेपि स्यात्। २० अतिप्रसंगलक्षणो दोषः। २१ शानास्पष्टत्वस्यार्थधर्मत्वे । २२ शानस्यैवास्पष्टलक्षणो धमोंऽथे उपचर्यतेऽतश्चातिप्रसङ्गाभावात्कथं व्यधिकरणासिद्धो हेतुः ।
प्र. क० मा० १९
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२१८ प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० तावत् । तस्याः विषयधर्मत्वे सर्वदा तथा प्रतिभालप्रसा त्कुतः प्रतिभासपरावृत्तिः? न चास्पष्टसंवेदनं निर्विषयमेव. संवादकत्वात्स्पष्टसंवेदनवत् । क्वचिद्विसंवादात्सर्वत्रास्य विसं. वादे स्पष्टसंवेदनेपि तत्प्रसङ्गः। ततो नैतत्साधु५ "वुद्धिरेवातर्दाकारा तँत उत्पद्यते यदा। तदाऽस्पष्टप्रतीभासव्यवहारो जगन्मतः॥"
[प्रमाणवार्त्तिकालं० प्रथमपरि०] द्विचन्द्रादिप्रतिभीसेपि तद्व्यवहारानुषङ्गाच्च । स्पष्टप्रतिभासेन. बांध्यमानत्वादस्य निर्विषयत्वमन्यत्रापि समानम् । यथैव हि १० दूरादस्पष्टप्रतिभासविषयत्वमर्थस्यारीत्स्पष्टप्रतिभासेन बाध्यते तथा सन्निहितार्थस्य स्पष्टप्रतिभासविषयत्वं दूरादस्पष्टप्रतिआसेन, अविशेषात्।
ननु विषयिधर्मस्य विषयेषूपचारात्तत्र स्पष्टास्पष्टत्वव्यवहारे विषयिणोपि ज्ञानस्य तद्धर्मतासिद्धिः कुतः? स्वज्ञानस्पष्टत्वास्प२५ ष्टत्वाभ्याम् , स्वतो वा? प्रथमपक्षेऽनवस्था। द्वितीयपक्षे त्वविशेषेणाखिलज्ञानानां तद्धर्मताप्रसङ्गः, इत्यप्यसमीचीनम्। तत्रान्यथैव तद्धर्मताप्रसिद्धः । स्पष्टज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषाद्धि क्वचिद्विज्ञाने स्पष्टता प्रसिद्धा, अस्पष्टज्ञानावरणादिक्षयोपशमविशेषात्त्वस्पष्टतेति । प्रसिद्धश्च प्रतिवन्धकापायो ज्ञाने २० स्पष्टताहेतू रजोनीहाराद्यावृत्ता(ता)र्थप्रकाशस्येव तद्वियोगः।
अक्षात्स्पष्टता इत्यन्ये, तेषां दविष्टंपादपादिज्ञानस्य दिवोलुकादिवेदनस्य च तत्प्रसङ्गः । तदुत्पादकाक्षस्यातिदूरदेशदिनकर करनिकरोपहतत्वाद्दोषोयमिति; अत्रोप्यक्षस्योपघातः,शक्तेर्वा ?
१ अस्पष्टतया । २ गृहीतार्थाव्यभिचारित्वात् । ३ अस्पष्टसंवेदनं सालम्बनं सिद्धं यतः। ४ शानम्। ५ एवकारोत्र भिन्नप्रक्रमे । तेनातदाकारेत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः। बुद्धिर्विषयादुत्पद्यते चेत् तदा अतदाकारा कथमिति चेदुच्यते । एकत्वेन व्यवस्थिताचन्द्रलक्षणादर्थादुत्पद्यमाना वुद्धिर्यदा द्वित्वमवभासयति एकत्वं नावभासयति तदा अतदाकारा सती अस्पष्टव्यपदेशमर्हति । ६ अविषयाकारा । ७ विषयात् । ८ एतस्य तु स्पष्टत्वमभ्युपगतं वौद्धेन। ९ अतदाकारत्वं यतो बुद्धेः। १० स्पष्टसंवेदनेपि । ११ समीपे । १२ बाधाऽबाधत्वस्योभयत्रापि । १३ स्वयोः स्पष्टास्पष्टशानयोहके च ते शाने च तयोः स्पष्टत्वास्पष्टत्वाभ्याम् । १४ प्रत्यक्षातुमानानाम् । १५ उक्तविपर्ययेणैव । स्वशानस्य स्पष्टत्वास्पष्टत्वेनैव । १६ वीर्य शक्तिः । शानस्य वीर्यस्य चावरणमवरोधकं कर्म । १७ अंशतः क्षयोपशमो भवति न सर्वतः। १८ प्रतिबन्धकोत्रावरणम् । १९ संवेदनस्य विशदत्वम् । २० मीमांसकाः। २१ अतिदूर । २२ परिहारे।
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सू० २।४] विशदत्वविचारः
२१९ प्रथमपक्षोऽयुक्तः, तत्स्वरूपस्याविकलस्यानुभवात् । द्वितीयपक्षे तु योग्यतासिद्धिः; भावेन्द्रियाख्यक्षयोपशमलक्षणयोग्यताव्यतिरेकेणाक्षशक्तेरव्यवस्थितेः । तल्लक्षणाचाक्षात्स्पष्टत्वाभ्युपगमेऽस्मैन्मतप्रसिद्धिः।
आलोकोप्येतेन तद्धेतुः प्रत्याख्यातः । ततः स्थितमेतद्विश-५ दज्ञानस्वभावं प्रत्यक्षमिति । ननु किमिदं ज्ञानस्य वैशधं नामेत्याह अव्यवधानेनेत्यादि । प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा
प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥ ४॥ तुल्यजातीयापेक्षया च व्यवधानमव्यवधानं वा प्रतिपत्तव्यं न १० पुनर्देशकालाद्यपेक्षया । यथा 'उपर्युपरि स्वर्गपटलानि' इयंत्रान्योन्यं तेषां देशादिव्यवधानेपि तुल्यजातीयानामपेक्षाकृता प्रत्या सत्तिः सामीप्यमित्युक्तम् , एवमत्राप्यव्यवधानेन प्रमाणान्तर्रनिरपेक्षतया प्रतिभासनं वस्तुनोऽनुभवो वैशा विज्ञानस्येति ।
नन्वेवमीहादिज्ञानस्यावग्रहाद्यपेक्षत्वाव्यवधानेन प्रतिभासन-१५ लक्षणवैशद्याभावात्प्रत्यक्षता न स्यात् तदसारम् ; अपरापरेन्द्रियव्यापारादेवावग्रहादीनामुत्पत्तेस्तत्र तदपेक्षत्वासिद्धेः । एकमेव चेदं विज्ञानमवग्रहाद्यतिशयवदपरापरचक्षुरादिव्यापारादुत्पन्नं सत्स्वतन्त्रतया स्वविषये प्रवर्तते इति प्रमाणान्तरांव्यवधानमत्रीपि प्रसिद्धमेव । अनुमानादिप्रतीतिस्तु लिङ्गादिप्रतीत्यै जनिता सती २० खविषये प्रवर्त्तते इत्यव्यवधानेन प्रतिभासनाभावान्न प्रत्यक्षेति । ततो निरवद्यमेवंविधं वैशा प्रत्यक्षलक्षणम्, साकल्येनाखिलाध्यक्षव्यक्तिषु सम्भवेनाव्याप्त्यसम्भवदोषाभावात् । अतिव्याप्तिस्तु दूरोत्सारितैव अध्यक्षत्वानभिमते क्वचिदप्येतल्लक्षणस्यासम्भवात् ।
१ ( लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियमिति सूत्रकारवचनन् । लब्धिर्हि इन्द्रियस्थानप्राप्तात्मप्रदेशानां तदावरणकर्मक्षयोपशमरूपा)। २ ज्ञानस्य । ३ जैनमतसिद्धिः । ४ अक्षस्य स्पष्टताहेतुनिराकरणपरेण ग्रन्थेन। ५ समर्थितम् । ६ उदाहरणे । ७ ज्ञाने। ८ अनुमानं प्रमाणान्तरेण लिङ्गज्ञानेन जायते इति तद्वयुदासायैतत्पदम् । ९ मतिज्ञानम् । १० अवग्रहादिरूपस्य । ११ ईहादिमतिञ्चाने। १२ न प्रत्यक्षप्रतीत्या। १३ लिङ्गादिप्रतीत्या व्यवधानात् । १४ अव्यवधानेन प्रतिभासनलक्षणन् । १५ अनुमानादौ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० समन्धकारादौ ध्यामलितवृक्षादिवेदनमप्यध्यक्षप्रमाणस्वरूप मेव, संस्थानमात्रे वैशद्याविसंवादित्वसम्भवात् । विशेषांशाध्यवसायस्त्वनुमानरूपः, लिङ्गप्रतीत्या व्यवहितत्वानाध्यक्षरूपतां प्रतिपद्यते । अतिदूरदेशे हि पूर्व संस्थानमात्रं प्रतिपद्य 'अयमेवंवि५धसंस्थानविशिष्टोर्थो वृक्षो हस्ती पलालकूटादिषु एवंविधसंस्थानविशिष्टत्वान्यथानुपपत्तेः' इत्युत्तरकालं विशेषं विवेचयति । तरतमभावेन तत्प्रदेशसन्निधाने तु संस्थानविशेषविशिष्टमेवार्थ वैशद्यतरतमभावेनाध्यक्षत एव प्रतिपद्यते, विशदज्ञानावरणस्य तरतमभावेनैवापगमात्। १० ननु च परोक्षेपि स्मृतिप्रत्यभिज्ञादिस्वरूपसंवेदनेऽस्याध्यक्षलक्षणस्य सम्भवादतिव्याप्तिरेव; इत्यप्यपरीक्षिताभिधानम् । तस्य परोक्षत्वासम्भवात् , क्षायोपशमिकसंवेदनानां वरूपसंवेदनस्यानिन्द्रियप्रधानतयोत्पत्तेरनिन्द्रियाध्यक्षव्यपदेशसिद्धेः सुखादि
खरूपसंवेदनवत् । बहिरर्थग्रहणापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षतर१५व्यपदेशः, तंत्र प्रमाणान्तरव्यवधानाव्यवधानसद्भावेन वैशघेतरसम्भवात् , न तु स्वरूपहणापेक्षया, तत्र तभीवात् ।
ततो निर्दोषत्वाद्वैशा प्रत्यक्षलक्षणं परीक्षादक्षैरभ्युपगन्तव्यं न 'इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नम्' [न्यायसू०१४] इत्यादिकं तस्याव्याप
कत्वादतीन्द्रियप्रत्यक्षे सर्वज्ञविज्ञानेऽस्यासत्त्वात् । न च 'तन्नास्ति' २० इत्यभिधातव्यम् प्रमाणतोऽनन्तरमेवास्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात्। तथा सुखादिसंवेदनेप्यस्यासत्त्वम् । न हीन्द्रियसुखादिसन्निकर्षातज्ज्ञानमुत्पद्यते; सुखादेरेव स्वग्रहणात्मकत्वेनोदयादित्युक्तम् । चाक्षुषसंवेदने चास्यौसत्त्वम् ; चक्षुषोथैन सन्निकर्षाभावात् ।
अथोच्यते-स्पर्शनेन्द्रियादिवञ्चक्षुषोपि प्राप्यकारित्वंप्रमाणा२५त्प्रसाध्यते । तथा हि-प्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः बाँटेन्द्रियत्वात्स्पर्श
१ अस्पष्ट । २ आकारमात्रे। ३ द्वन्दः । ४ उक्तमेव समर्थयन्ति । ५ कर्मणः। ६ अव्यवधानेन प्रतिभासनत्वलक्षणस्य । ७ स्मृत्यादीनाम् । ८ अनिन्द्रियं । (ईषदिन्द्रियं ) मनः। ९ मानसप्रत्यक्षत्वादित्यर्थः। १० एवं चेत्स्मृत्यादीनां परोक्षव्यपदेशो न स्यादित्युक्ते आह। ११ बहिरर्थग्रहणे। १२ अनुमानलक्षणप्रमाणालिङ्गप्रत्यक्षं प्रमाणान्तरम् । १३ स्वसंवेदन। १४ प्रमाणान्तरव्यवधानाभावात् । २५ अव्याहयादिदोषत्रयासम्भवो यतः। १६ परोक्तं प्रत्यक्षलक्षणम् । १७ परेप भवता। १८ इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमित्यादिकस्य । १९ मनः। २० जनैः प्रथमपरिच्छेदे। २१ प्रत्यक्षलक्षणस्य। २२ प्राप्यकारि प्राप्य अर्थ जानातीत्यर्थः। २३ नैयायिकेन। २४ इन्द्रियवादित्युक्ते मनसा व्यभिचारस्वत्परिहारार्थ बाह्य. ग्रहणम् । २५ बहिरथंग्रहणाभिमुखत्वात् ।
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सू० २।४] चक्षुःसन्निकर्षवादः
२२१ नेन्द्रियादिवत् । ननु किमिदं वाह्येन्द्रियत्वं नाम-वहिरीभिमुख्यम्, वहिर्देशावस्थायित्वं वा? प्रथमपक्षे मनसानेकान्तः, तस्याप्राप्यकारित्वेपि वहिरर्थग्रहणाभिमुख्येन वाह्येन्द्रियत्वसिद्धेः । द्वितीयपक्षे त्वसिद्धो हेतुः; रश्मिरूपस्य चक्षुपो वहिर्देशावस्थायित्वस्य भवतानभ्युपगमात् । गोलकान्तर्गततेजोगव्याश्रया हि५ रश्मयस्त्वन्मते प्रसिद्धाः । गोलकरूपस्य तु चक्षुषो वहिशावस्थायिनो हेतुत्ने पक्षस्य प्रत्यक्षवाधनाकालात्ययापदिष्टत्वम् ।
न च वाह्यविशेषणेन मनो व्यवच्छेद्यम्, न हि तत् सुखादौ संयुक्तसमवायादिसम्बन्धं व्याप्तौ च संम्वन्धसम्वन्धमन्तरेण ज्ञानं जनयति रूपादौ नेत्रादिवत् । अथासौ सम्वन्ध एव न १० भवति; तर्हि नेत्रादीनां रूपादिभिरप्यसौ न स्यात् , तस्यापि सम्बन्धसम्वन्धत्वात् । तथा चेन्द्रियत्वाविशेषेपि मनोऽप्राप्तार्थप्रकाशकं तथा वाह्येन्द्रियत्वाविशेषेपि चक्षुः किं नेष्यते ? अथात्र हेतुभावात्तन्नेष्यते; अन्यत्रापि 'इन्द्रियत्वात्' इति हेतुः केन वार्यत? ततो मनसि तत्साधने प्रमाणवाधनमन्यत्रॉपि समानम् ।१५ . चक्षुश्चात्र धर्मित्वेनोपात्तं गोलकस्वभावम् , रश्मिरूपं वा? तत्राद्यविकल्पे प्रत्यक्षवाधा; अर्थदेशपरिहारेण शरीरप्रदेशे एवास्योपलम्भात्, अन्यथा तेंद्रहितत्वेन नयनपक्ष्मप्रदेशस्योपलम्भः स्यात् । अथ रश्मिरूपं चक्षुः; तर्हि धर्मिणोऽसिद्धिः। न खलु रश्मयः प्रत्यक्षतः प्रतीयन्ते, अर्थवेत्तत्र तत्वरूपाप्रतिभासनात्, २० अन्यथा विप्रतिपत्त्यभावः स्यात् । न खलु नीले नीलतयानुभूयमाने कश्चिद्विप्रतिपद्यते। किञ्च, इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं प्रत्यक्षं 8वन्मते । न चार्थ देशे
१ नैयायिकेन । २ चक्षुःप्राप्तार्थप्रकाशकं बहिर्देशावस्थायित्वादित्यस्य । ३ प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधिते पक्षे प्रवर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्टः। ४ कर्तृ। ५ मनसा संयुक्ते आत्मनि सुखादेस्समवाय इति । ६ मन आत्मनात्मा चाशेषपदार्थैः साध्यसाधनरूपैस्सम्बध्यते इति। ७ इति सिद्धं प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधनम्। ८ नेत्रादिना संयुक्त घटादौ रूपादेस्सम्बन्धसम्बन्धो यथा। ९ रूपादिषु नेत्रादीनां सम्बन्धसम्बन्धस्य । १० भवन्मतानीकारेण। ११ मनसि । १२ मनः प्राप्तार्थप्रकाशकमिन्द्रियत्वात्त्वगादिवदिति । १३ प्राप्तार्थप्रकाशकत्वस्य । १४ आगमप्रमाणबाधा। १५ चक्षुषि । १६ प्रत्यक्षप्रमाणबाधनम्। १७ अनुमाने। १८ चक्षुः प्राप्तार्थप्रकाशकं बालेन्द्रियत्वात् । १९ गोलक। २० अर्थस्य यथा प्रतिभासनम् । २१ रश्मिस्वरूपं प्रतिभासते चेत् । २२ रश्मिरूपं चक्षुलकरूपं वेति । २३ रश्मिरूपं चक्षुरित्यसिन्पक्षे दूषणान्तरमाह । २४ नैयायिक ।
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२२२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० विद्यमानेस्तैरपरेन्द्रियस्य सन्निकर्षोस्ति यतस्तत्र प्रत्यक्षमुत्पद्यता, अनवस्थाप्रसङ्गात् ।
अथानुमानात्तेषां सिद्धिः किमंत एव, अनुमानान्तराद्वा? प्रथ. मपक्षेऽन्योन्याश्रयः-अनुमानोत्थाने ह्येतस्तत्सिद्धिः, अस्याश्चा५नुमानोत्थानमिति । अथानुमानान्तरात्तत्सिद्धिस्तदानवस्था, तत्रा. ज्यनुनानान्तरात्तत्सिद्धिप्रसङ्गात्।
यदि च गोलकान्तर्भूतात्तेजोद्रव्यादहिभूता रश्मयश्चक्षुःशब्द. वायाः ‘पदार्थप्रकाशकाः; तर्हि गोलकस्योन्मीलनमञ्जनादिना
संस्कारश्च व्यर्थः स्यात् । अथ गोलकांद्याश्रयपिधाने तेषां विषयं २० प्रति गमनासम्भवात्तदर्थ तदुन्मीलनम् , घृतादिना च पादयोः
संस्कारे तत्संस्कारो भवति स्वाश्रयगोलकसंस्कारे तु नितरां स्यात् इत्यस्यापि न वैयर्थ्यम् । तदापि गोलकादिलग्नस्य कामलादेः प्रकाशकत्वं तेषां स्यात् । न खलु प्रदीपकलिकाश्रयास्तद्र
श्मयस्तत्कलिकावलग्नं शलाकादिकं न प्रकाशयन्तीति युक्तम् । १५ न चात्र चक्षुषः सम्बन्धो नास्तीत्यभिधातव्यम् । यतो व्यक्ति
रूपं चक्षुस्तत्रासम्बद्धम् , शक्तिस्वभावं वा, रश्मिरूपं वा? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षविरोधः, व्यक्तिरूपचक्षुषः काचकामलादौ सम्बन्धप्रतीतेः । द्वितीयपक्षेपि तच्छक्तिरूपं चक्षुर्व्यक्तिरूपचक्षुषो भिन्नदेशम्, अभिन्नदेशं वा? न तावद्भिनदेशम्। तच्छक्तिरू२० पताव्याघातानुषङ्गानिराधारत्वप्रसङ्गाच्च । न ह्यन्यशक्तिरन्याधारा युक्ता । तद्देशद्वारेणैवार्थोपलब्धिप्रसङ्गश्च । ततोऽभिन्नदेशं चेत् । तत्तत्र सम्वद्धम् , असम्बद्धं वा? सम्बद्धं चेत् ; वहिरर्थवखाश्रयं तत्सम्बद्धं चाजनादिकमपि प्रकाशयेत् । असम्बद्ध
चेत्कथमाधेय नाम अतिप्रेसङ्गात् ? २५ अथ रश्मिरूपं चक्षुः, तस्यापि काचकामलादिना सम्बन्धो. स्त्येव । न खलु स्फटिकौदिकूपिकामध्यगतप्रदीपोंदिरश्मयस्ततो
१ अपरलोकानां लोचनस्य । २ अन्यथा उत्पद्यते चेत्तहिं । ३ ग्रन्थानवस्था । ४ प्रथमानुमानात् । ५ अनुमानात् । ६ रश्मिरूपं चक्षुस्तैजसत्वात्प्रदीपवदित्यस्मात् । ७ अन्थानवस्था । ८ भवत्प्रक्रियामात्रेण। ९ बसः। १० गोलकान्तर्भूततेजोद्रव्यस्य । ११ खस्य रश्मिरूपचक्षुषः। १२ रश्मिरूपचक्षुषः संस्कारः। १३ गोलकस्याअनादिना संस्कारस्य । १४ गोलकरूपम् । १५ शक्तेः। १६ व्यक्तिरूपचक्षुषः । १७ शक्तिस्वभावम् । १८ व्यक्तिरूपे चक्षुषि । १९ शक्तिरूपेन्द्रियस्याश्रयं गोलकम् । २० उभयत्र सम्बन्धाविशेषात् । २१ शक्तिरूपम् । २२ सह्यस्य विन्ध्याधेयता स्यादसम्बन्धत्वाविशेषात् । २३ तृतीयपक्षे । २४ काचादि । २५ अदिपदेन रत्नादि । २६ स्फटिकादिकूपिकायाः सकाशात् ।
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सू० २१४] : चक्षुःसन्निकर्षवादः
२२३ निर्गच्छन्तस्तत्संयोगिना न सम्बद्धास्तत्प्रकाशका वा न भवन्तीति प्रतीतम् । तथा चाञ्जनादेः प्रत्यक्षत एव प्रसिद्धः परोपदेशस्य दर्पणादेश्च तदर्थस्योपादानमदर्शकमेव स्यात् ।
किञ्च, यदि गोलकान्नित्यार्थलाभितस्वयार्थ ते प्रकाशयन्ति तई प्रति गच्छतां तैजलानां रूपस्पर्शविशेपवतां तेषामु-५ पलभः स्यात्, न चैवम्, अतो दृश्यानामनुपलस्मात्तेषामभावः । अथादृश्यास्तेऽनुद्भूतरूपस्पर्शवत्वात् ; न; अनुभूतरूपस्पर्शस्य तेजोद्रव्यस्याप्रतीतेः जलहेनोर्भासुररूपोपणस्पर्शयोरनुद्भूतिप्रतीतिरस्तीत्यसम्यक उभयानुभूतेस्तत्रौप्यप्रतिपत्तेः। दृष्टानुसारेण चादृष्टार्थकल्पना, अन्यथातिप्रसङ्गात् । तथाहि-रात्रौ १० दिनकरकराः सन्तोपि नोपलभ्यन्तेऽनुद्भूतरूपस्पर्शत्वाचथूरश्मिवत् । प्रयोगश्च-मार्जारादीनां चक्षुषा रूपदर्शनं वाह्यालोकपूर्वकम् तत्त्वादिवाऽसदादीनां तद्दर्शनवत् । ननु मार्जारादीनां चाक्षुषं तेजोस्ति, तत एव तत्सिद्धेः किं वाह्यालोककल्पनयेत्यन्यत्रापि समानम् । ननु यथा यदृश्यते तथा तत्कल्प्यते, दिवास्मदादीनां १५ चाक्षुपं सौर्य च तेजो विज्ञानकारणं दृश्यते तत्तथैवं कल्प्यते, रात्रौ तु चौक्षुषमेव, अतस्तदेव तत्कारणं कल्प्यते । ननु किं मनुष्येषु नायनरश्मीनां दर्शनमस्ति ? अथानुमेयास्ते; तर्हि रात्रौ सौर्यरश्मयोप्यनुमेयाः सन्तु । न च रात्रौ तत्सद्भावे नक्कञ्चराणामिव मनुष्याणामपि रूपदर्शनसङ्गः, विचित्रशक्तित्त्वाद्भावा-२० नाम् । कथमन्यथोलूकादयो दिवा न पश्यन्ति ? यी चात्रीलोकैः
१ बहिः । २ श्रीखण्डेन। ३ सम्वन्धे सति। ४ अञ्जनादिपरिज्ञानार्थम् । ५ रश्मयः। ६ भासुर। ७ उष्ण। ८ रश्मीनाम् । ९ इति चेन्नेत्यर्थः । १० अप्रतीति परिहरति परः । ११ एकस्मिन्नुष्णोदकलक्षणे हेमलक्षणे वा तैजसद्रव्ये । १२ यदैकसिंस्तजोद्रव्ये उभयानुभूतिर्न दृष्टा तथापि चक्षूरश्मिभयानुभूतिः करप्यते इत्युक्ते आह । १३ अदृष्टानुसारेणादृष्टार्थकल्पना यदि स्यात् । १४ रात्रौ । १५ नरनेत्रे। १६ मनुष्याणां चाक्षुषं तेजोस्ति तत एव तत्सिद्धेः किं बाह्यालोककल्पनया । १७ कारणत्वेन । १८ तेजः। १९ कारणत्वेन। २० मार्जारादीनाम् । २१ रूपदर्शनकारणम् । २२ प्रतीतिः । २३ येनैवं परिहारः परेणोच्यते । न सन्तीत्यर्थः । २४ परः। २५ सौर्यरश्मिसद्भावात् । २६ कथं विचित्रशक्तित्वम् ? रात्री विद्यमानाः सौर्यरश्मयो नक्तञ्चराणां रूपज्ञानहेतवो न मनुष्याणामिति । २७ सौर्यरश्मीनाम्। २८ भावानां विचित्रशक्तित्वं न स्याद्यदि। २९ परमते । ३० दिवसे । ३१ धूकानाम् ।
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२२४
प्रमेयकमलमार्तण्डै २. प्रत्यक्षपरि० प्रतिवन्धकः, तथान्यंत्र तमः । ततो यथानुपलभान्न सन्ति रात्रौ भास्करकरास्तथान्यदा नायनकरा इति।
एतेन 'दूरस्थितकुड्यादिप्रतिफलितानां प्रदीपरश्मीनामन्तराले सतामप्यनुपलम्भसम्भवात् तैरनुपलस्भो व्यभिचारी; इत्यपि ५ निरस्तम् ; आदित्यरश्मीनामपि रात्रावभावासिद्धिप्रसङ्गात् ।
अथोच्यते-चक्षुः स्वरश्मिसम्बद्धार्थप्रकाशकम् तैजसत्वाप्रदीपवत् । ननु किमनेन चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते, अन्यतः सिद्धानां तेषां ग्राह्यार्थसम्वन्धो वा? प्रथमपक्षे पक्षस्य प्रत्यक्ष
वाधा, नरनारीनयनानां प्रभासुररश्मिरहितानां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः। १० हेतोश्च कालात्ययापदिष्टत्वम् । अथादृश्यत्वात्तेषां न प्रत्यक्षबाधा पक्षस्य । नन्वेवं पृथिव्यादेरपि तत्सत्त्वप्रसङ्गः, तथा हि-पृथिव्यादयो रश्मिवन्तः सत्त्वादिभ्यः प्रदीपवत् । यथैव हि तैजसत्वं रश्मिवत्तया व्याप्तं प्रदीपे प्रतिपन्नं तथा सत्त्वादिकमपि । अथ तेषां तत्साधने प्रत्यक्षविरोधः; सोन्यत्रापि समान इत्युक्तम् । १५ ननु मार्जारादिचक्षुषोः प्रत्यक्षतः प्रतीयन्ते रश्मयः तत्कथं
तद्विरोधः ? यदि नाम तत्र प्रतीयन्तेऽन्यत्र किमायातम् ? अन्यथा हेग्नि पीतत्वप्रतीतौ पटादौ सुवर्णत्वसिद्धिप्रसङ्गः । प्रत्यक्षवाधनमुर्भयत्रापि।
किञ्च, मार्जारादिचक्षुषोर्भासुररूपदर्शनादन्यत्रापि चक्षुषि २० तैजसत्वंप्रसाधने गवादिलोचनयोः कृष्णत्वस्य नरनारीनिरीक्षणयोर्धावल्यस्य च प्रतीतेरविशेषेण पार्थिवत्वमाप्यत्वं वा साध्यताम् । कथं च प्रभासुरप्रभारहितनयनानां तैजसत्वं सिद्धं यतः सिद्धो हेतुः? किमत एवानुमानात्, तदन्तराद्वा? आद्यविक
ल्पेऽन्योन्याश्रयः-सिद्ध हि तेषां रश्मिवत्त्वे तैजसत्वसिद्धिः, ततश्च २५ तत्सिद्धिरिति।
१ जैनमते । २ रात्रौ। ३ नराणां प्रतिबन्धकम् । ४ दिवा। ५ अपि न सन्ति । ६ रात्रौ दिनकरकराणामभावसाधनपरेण ग्रन्थेन। ७ प्रतिबिम्बितानाम् । ८ प्रदीपकुड्यायोः । ९ जैनैः । १० अन्यथा। ११ न सन्त्यनुपलभ्यमानत्वादिति । १२ अनुमानेन। १३ प्रमाणात् । १४ मार्जारादिनयनेषु । १५ नरनारीनयनेषु । १६ अन्यत्र प्रतीतस्यान्यत्र विधिर्यदि । १७ हेम्नि पीतत्वात्पटे सुवर्णत्वसाधने प्रत्यक्षबाधनं यथा तथा तैजसत्त्वाच्चक्षुषि रश्मिवत्त्वसाधने च प्रत्यक्षबाधनम् । १८ नरनयनं रश्मिवत् तेजसत्वान्मार्जारादिचक्षुर्वदिति । १९ भशेषनेत्राणाम् । २० तैजसत्वादित्यस्मात् ।
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सू० २।४] चक्षुःसन्निकर्षवादः
२२५ अथ 'चक्षुस्तैजसं रूपादीनां मध्ये रूपस्य प्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्' इत्यनुमानान्तरात्तत्सिद्धिः, न; अत्रापि गोलकस्य भासुररूपोष्णस्पर्शरहितस्य तैजसत्वसाधने पक्षस्य प्रत्यक्षवाधा, 'न तैजसं चक्षुः तम प्रकाशकत्वात् , यत्पुनस्तैजसं तन्न तमःप्रकाशकं यथालोकः' इत्यनुमानवाधा च । प्रसाधयिष्यते च ५ 'तमोक्त' इत्यत्र तमसः सत्त्वम् । प्रदीपवत्तैजसत्वे चास्यालोकापेक्षा न स्यादुष्णस्पर्शादितयोपलम्भश्च स्यात्, न चैवम् , तदपेक्षतया मनुष्यपारावतवलीवर्दादीनां धवललोहितकॉलरूपतयानुष्णस्पर्शस्वभावतया चास्योपलम्भात् । तन्न गोलकं चक्षुः।
नाप्ययंत्तनांहकप्रमाणाभावेनाश्रयासिद्धत्वप्रसङ्गाद्धेतोः ।१० 'रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्' इति हेतुश्च जलांजनचन्द्रमाणिक्यादिभिरनैकोन्तिकः। तेषामपि पक्षीकरणे पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा, सर्वो हेतुरव्यभिचारी च स्यात्। न च जलाधन्तर्गतं तेजोद्रव्यमेव रूपप्रकाशकमित्यभिधातव्यम् ; सर्वत्र दृष्टहेतुवैफल्या. पत्तेः। तथा च दृष्टान्तासिद्धिः, प्रदीपादावप्यन्यस्यैव तत्प्रकाश १५ कस्य कल्पनाप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षवाधनमुभंयत्र । निराकरिष्यते च "नार्थालोको कारणम्" [परी० २०६] इत्यत्रालोकस्य रूपप्रकाशकत्वम् ।
किञ्च, रूपप्रकाशकत्वं तत्र ज्ञानजनकत्वम् । तच्च कारणविषयवादिनो घटादिरूपस्याप्यस्तीत्यनेन हेतोर्व्यभिचारः । 'करणत्वे २०
१ रूपस्येत्युच्यमाने आत्ममनोभ्यां व्यभिचारस्तत्परिहारार्थ रूपयैवेत्युक्तन् । रूपयन प्रकाशकत्वादित्युच्यमाने असिद्धत्वन् । कुतः ? द्रव्यद्रव्यत्वयोरपे चक्षुत्रः प्रकाशनात् । तत्परिहारार्थ रूपादीनां मध्ये इत्युक्तम् । अनेन द्रव्यद्रव्यत्वयोः परिहारः-रूपादीनां गुणानामेव निर्धारितत्वात । २ इति यदुक्तं तन्नेत्यर्धः। ३ नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवदित्यस्य सूत्रस्य व्याख्यावसरे । ४ चक्षुषः । ५ आदिपदेन स्फोटादि । ६ कृष्ण । ७ धर्मि। ८ रश्मिरूपम् । ९ रश्मिरूपचक्षुषः। १० रूपस्याप्येते प्रकाशकाः। ११ आदिपदेन काचादिभिरपि । १२ यद्रूपादीनां मध्ये रूपस्येव प्रकाशकं तत्तैजसमित्युक्ते जलाअनादिभिहेंतुर्व्यभिचारी स्यादित्यर्थः। १३ कार्ये। १४ कारण। १५ पिशाचादेः। १६ रूप। १७ जलादेरेव रूपप्रकाशकत्वोपलम्भादन्यस्य । रूपप्रकाशकत्वकल्पनेपि। १८ साधनविकलो दृष्टान्त इति निरूपितमनेन। १९ यत्कारणं ज्ञानं जनयति तदेव शानस्य विषयो भवतीति । २० ज्ञानस्य । २१ नैयायिकस्य । २२ घटादिरूपं रूपज्ञानजनकं न तु तैजसम् । २३ प्रकाशकत्वादित्यस्य । तैजसत्वसाध्यस्याभावो(वे)पि साधनमस्ति यतः । २४ चक्षुस्तैजसं करणत्वे सति रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिस्युक्तपीत्यर्थः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० सति' इति विशेषणेप्यालोकार्थलन्निकण चक्षुरूपयोः संयुक्तसमवायसम्वन्धेन चानेकान्तः।'द्रव्यत्वे करणत्वे च साति तत्य. काशकत्वात् इति विशेषणेपि चन्द्रादिनानेकान्तः।
किञ्च, ट्रॅव्यं रूपप्रकाशकं भासुररूपम् , अभासुररूपं वा? ५प्रथमपक्षे उष्णोदकसंसृष्टमपि तत् तत्प्रकाशकं स्यात् । अनदत रूपत्वान्नेति चेत्, नायनरश्मीनामप्यत एव तेन्माभूत् । तथा दृष्टत्वादित्यप्यनुत्तरम्; संशयात्, न हि तंत्र निश्चयोस्ति ते तत्प्रकाशका न गोलक मिति । अनुद्भूतरूपस्य तेजोद्रव्यस्य दृष्टा
न्तेपि रूपप्रकाशकत्वाप्रतीतेः। तथाच, न चक्षू रूपप्रकाशकम१० नुद्भूतरूपवाजलसंयुक्तानलवत् । द्वितीयपक्षेपि उष्णोदकतेजो
रूपं तत्प्रकाशकं स्यात् । न हि तत्तत्र नष्टम् , 'अनुभूतम्' इत्य भ्युपगमात् । उद्भूतं तत्तत्प्रकाशकमित्यभ्युपगमे रूपप्रकाशस्तंद. न्वयव्यतिरेकानुविधायी तस्यैव कार्यो न द्रव्यय । न खलु देव
दत्तं प्रति पश्वादीनामागमनं तहुणान्वयव्यतिरेकानुविधायि देव. १५ दत्तस्य कार्यम् । ततो 'द्रव्यत्वे सति' इति विशेषणासिद्धिः।
किञ्च, सम्बन्धादेरिवाऽतैजसस्यापि द्रव्यरूपकरणस्य कस्यचि. द्रूपज्ञानजनकत्वं किन्न स्यात् , विक्षव्यावृत्तः सन्दिग्धत्वादतैजसत्वे रूपज्ञानजनकत्वस्याविरोधात् ? तदेवं तैजलत्वासिद्धनीतश्चक्षुषोरश्मिवत्त्वसिद्धिः। २० अथान्यतः सिद्धानां रश्मीनां ग्राह्यार्थसम्बन्धोनेन साध्यते; न; अन्यतः कुतैश्चित्तेषामसिद्धेः, प्रत्यक्षादेस्तत्साधकत्वेन प्राक्प्र
१ सन्निकर्षाः संयुक्तसमवायादयः करणं भवन्ति न तु तैजसम् । २ चक्षुषा संयुक्ते घटे रूपस्य समवायसम्बन्ध इत्यतः सन्निकषोंपि संयुक्तसमवाय एवात्र । ३ तेजोद्रव्ये सन्निकर्षादयो गुणास्तद्वयवच्छेदार्थ द्रव्यत्वे सतीति विशेषणम् । ४ चक्षुस्तैजसं द्रव्यत्वे करणत्वे च सति रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् । ५ रूप । ६ चन्द्रे तैजसत्वाभावात् । ७ तेजोद्रव्यम् । ८ भासुररूपस्य । ९ रूपप्रकाशकत्वम् । १० अनुद्भूतरूपस्यापि तेजोद्रव्यस्य रूपप्रकाशकत्वेन । ११ तेजोद्रव्ये । १२ रूप । १३ भासुर । १४ उष्णोदकगततेजोरूपम् । १५ रूप । १६ परेण । १७ रूप । १८ उद्भूततेजोरूपस्य । १९ गोलकगतोद्भूततेजोरूपस्य । २० तेजोद्रव्यस्य । २१ मत्रतत्रादि । २२ किन्तु देवदत्तगुणस्यैव कार्यम्। २३ सन्निकर्षादि । २४ आदिपदेन संयोगस्य चन्द्रादेश्च । २५ गोलकरूपस्य । २६ विपक्षादतैजसाजलादेः। २७ रूपञ्चानजनकत्वहेतोः । २८ यत्तैजसं न भवति तन्न रूपप्रकाशकमिति । २९ जलादीनाम् । ३० तैजसत्वादिति हेतोः । ३१ द्वितीयपक्षः । ३२ इति चेन्न । ३३ प्रमाणात् ।
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सू० २।४] चक्षुःसन्निकर्पवादः
२२७ तिषिद्धत्वात् । तथा चेदमयुक्तम्-"वत्तूरकपुप्पवदादौ सूक्ष्माणामप्यन्ते महत्त्वं तद्रश्मीनां महापर्वतादिप्रकाशकत्वान्यथानुपपत्तेः।”[ ] इति; स्वरूपतोऽसिद्धानां तेषां महत्त्वादिधर्मस्य श्रद्धामात्रगम्यत्वात् । ततो रश्मिरूपचक्षुपोऽप्रसिद्धोलकस्य च प्राप्यकारित्वे प्रत्यक्षबाधितत्वात्कस्य प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं साध्येत?५ यदि च स्पर्शनादौ प्राप्यकारित्वोपलम्भाच्चक्षुपि तत्साध्येत; तर्हि हस्तादीनां प्राप्तानामेवान्याकर्षकत्वोपलम्भादयस्कान्तादीनां तथा लोहाकर्षकत्वं किन्न साध्येत ? प्रमाणवाधान्यत्रापि ।
अथार्थेन चक्षुषोऽसम्वन्धे कथं तत्र ज्ञानोदयः? क एवमाह'तत्र ज्ञानोदयः' इति ? आत्मनि ज्ञानोदयाभ्युपगमात् । न चापा-१० प्यकारित्वे चक्षुपः सकृत्सर्वार्थप्रकाशकत्वप्रसङ्गः, प्रतिनियतशक्तित्वाद्भावानाम् । 'य एव यत्रं योग्यः स एव तत्करोति' इत्यनन्तरमेव वक्ष्यते । कार्यकारणयोरत्यन्तभेदेऽर्थान्तरत्वाविशेषात् 'सर्वमेरमात्कुतो न जायेत' इति, 'रश्मयो वा लोकान्तं कुतो न गच्छन्ति' इति चोये 8वतोपि योग्यतैव शरणम्। १५
किञ्च, चक्षू रूपं प्रकाशयति संयुक्तसमवायसम्बन्धात् , स चास्य गन्धादावपि समान इति तमपि प्रकाशयेत् । तथा चेन्द्रियान्तरवैयर्थ्यम् । योग्यताऽभावात्तदप्रकाशने सर्वत्र सैवास्तु, किमन्तर्गडुना सम्बन्धेन ? यदि चायमेकॉन्तश्चक्षुषा सम्बद्धस्यैव ग्रहणमितिः कथं तर्हि स्फटिकाद्यन्तरितार्थग्रहणम् ? तेंद्रश्मीनां २० तं प्रति गच्छतां स्फटिकाद्यवयविना प्रतिवन्धात् । तैस्तस्य नाशितत्वाद्दोषे तद्व्यवहितार्थोपलम्ससमये स्फटिकादेरुपलम्भो ने स्यात् । तस्योपरि स्थितद्व्यत्य च पातप्रसक्तिः आधारभूतस्यावयविनो नाशात् । न हि परसाणवो दृश्याः कस्यचिदाधारा वा; अवयविकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात् । अवयव्यन्तरस्योत्पत्तेरदोषे २५ तदा तद्व्यवहितार्थानुपलम्भप्रसङ्गः । न चैवम् , युगपत्योर्निरन्तरमुपलम्भात् । अथाशु व्यूँहान्तरोत्पत्तेर्निरन्तरस्फटिकादिवि
१ अप्राप्ताकर्षकाणाम् । २ प्राप्तत्वप्रकारेण। ३ प्रत्यक्षवाधा। ४ चक्षुष्यपि । ५ जैनैः। ६ चक्षुरादीनाम् । ७ कुत एतदित्याह । ८ कायें। ९ कार्यकारणभावनियमे न योग्यता कारणं किन्त्वन्यदेव कारणमित्युक्ते आह । १० कार्यम् । ११ कारणात् । १२ भिन्नत्वाविशेषात् । १३ जैनैः । १४ नैयायिकस्य । १५ कार्यनियमे । १६ सन्निकर्षण। १७ नियमः। १८ तस्य चक्षुषः। १९ नष्टत्वात् । २० कलशादेः। २१ अन्यथा । २२ एकस्य नाशेऽपरस्योत्पत्तेः। २३ स्फटिकस्फटिकान्तरितार्धयोः । २४ स्कन्धान्तरस्य ।
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२२८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० भ्रमः, तदभावस्याप्याशु प्रवृत्तेरावविभ्रमः किन्न स्यात् ? भाव. पक्षस्य बलीयस्त्वमित्ययुक्तम् ; भावाभावयोः परस्परं खकार्यकरणं प्रत्यविशेषात् ।
कथं च लमलजलान्तरितार्थस्योपलम्भो न स्यात् ? ये हि तन५ श्मयः कठिनमतितीक्ष्णलोहाऽभेद्यं स्फटिकादिकं मिन्दन्ति तेषां जलेऽतिद्रवखभावे काऽक्षमा? अथ नीरेण नाशितत्वान्न ते तद्भिन्दन्ति, तर्हि स्वच्छजलव्यवस्थितस्याप्यनुपलम्भप्रसङ्गः । योग्यताङ्गीकरणे सर्व सुस्थम् । ततः प्रोक्तदोषपरिहारमिच्छता
प्रतीतिसिद्धमप्राप्यकारित्वं चक्षुषोऽभ्युपगन्तव्यम् । १. तथाहि-'चक्षुरप्रातार्थप्रकाशकमत्यासनाप्रकाशकत्वात ,य.
पुनः प्राप्तार्थप्रकाशकं तदत्यासन्नार्थप्रकाशकं दृष्टं यथा श्रोत्रादि, अत्यासन्नार्थाप्रकाशकं च चक्षुस्तस्मादप्राप्तार्थप्रकाशकम्' इति । न चायमसिद्धो हेतुः; काचकामलार्वत्यासन्नार्था
प्रकाशकत्वस्य चक्षुषि प्रागेव प्रसाधितत्वात् । ननु साध्याविशि१५ टोयं हेतुः, 'पर्युदासप्रतिषेधे हि यदेवस्याप्राप्यकारित्वं तदेवात्या
सन्नार्थाप्रकाशकत्वम्' इति । प्रसज्यप्रतिषेधस्तु जैनै भ्युपगम्यते अपसिद्धान्तप्रसङ्गात् ; इत्यप्यनुपपन्नम् ; प्रसङ्गसाधनत्वादेतस्य। श्रोत्रादौ हि प्राप्यकारित्वात्यासन्नार्थप्रकाशकत्वयोर्व्याप्यव्यापक
भावसिद्धौ सत्यां परस्य व्यापकाभावेष्ट्याऽत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्व२० लक्षणयाऽनिष्टस्य प्राप्यकारित्वलक्षणव्याप्याभावस्यापादानमात्रमेवानेन विधीयते, इत्युक्तदोषाप्रसङ्गः। नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा; विपक्षस्यैकदेशे तत्रैव वाऽस्याऽप्रवृत्तः।
न च स्पर्शनेन प्राप्यकारिणाप्यत्यासन्नस्याभ्यन्तरशरीरावयवस्पर्शस्याप्रकाशनादनेकान्तः; अस्य तत्कारणत्वेन तदविषय२५ त्वात् । स्वकारणव्यतिरिक्तो हि स्पर्शादिः स्पर्शनादीन्द्रियाणां
१ बलीयस्त्वादित्यर्थः । २ दलीयस्त्वस्य । ३ समलजले शक्तिर्नास्ति स्वच्छजलेस्ति तर्हि योग्यतैव कारणम् । ४ अप्राप्तार्थप्रकाशकत्वेपि न सकलार्थग्राहकं चक्षुः । यत्र योग्यता तं प्रकाशयति यत्र योग्यता नास्ति तं न प्रकाशयतीति । ५ नैयायिकेन । ६ कामलादि । ७ शब्दादिकं प्रकाशयत् । ८ आदिपदेनाजनादि। ९ साध्यसम इत्यर्थः। १० हेतुस्थितनको विचारः। ११ अत्यासन्नाथ न प्रकाशयतीति । १२ सर्वथा तुच्छाभावः। १३ अन्यथा। १४ ( जैनो वक्ति) परेष्टयाऽनिष्टापादनं प्रसङ्गसाधनम् । १५ अनुमानस्य । १६ नैयायिकस्य । १७ चक्षुषीत्यध्याहियते । १८ चक्षुषा। १९ अनुमानेन । २० प्राप्यकारित्वस्य । २१ हेतोः। २२ तस्य. उपादानकारणत्वेन, न तु निमित्तकारणत्वेन ।
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सू० २।५] चक्षुःसन्निकर्पवादः विषयः, तत्रैवाभिमुख्यसम्भवेनामीषां प्रकाशनयोग्यतोपपत्तेः । कथमन्यथैकशरीरप्रदेशान्तरगतस्पर्शनेन तत्पदेशान्तरगतः स्पर्शःप्रकाश्येत? न च कामलादयोऽञ्जनायो वा चक्षुपः कारणं येन तेषामप्यनेन न्यायेन प्रकाशनं न स्यात् , स्वसामग्रीतस्तत्सन्निधानात्प्रागेवास्योत्पन्नत्वात् । नापि कालात्ययापदिष्टोयम् ; प्रत्य-५ क्षस्य पक्षावाधकत्वेन प्रागेव समर्थनात् , आगमस्य च तद्वाधकस्यासम्भवात् । नापि सत्प्रतिपक्षः, विपरीतार्थोपस्थापकानुमानानां प्रागेव प्रतिध्वस्तत्वादिति । तथा, 'चक्षुर्गन्वा नाऽर्थेनाभिसम्वद्यते इन्द्रियत्वात्स्पर्शनादीन्द्रियवत्' इत्यनुमानाचास्याप्राप्यकारित्वसिद्धिः । अर्थस्य च तद्देशागमने प्रत्यक्षविरोध इति। १०
तञ्चोक्तप्रकारं प्रत्यक्षं मुख्यसांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारेण द्विप्रकारम् । तत्र सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारस्योत्पत्तिकारणखरूपे प्रकाशयति
इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः
सांव्यवहारिकम् ॥ ५॥ १५ 'विशदं प्रत्यक्षमित्यनुवर्तते । तत्र समीचीनोऽवाधितः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो व्यवहारः संव्यवहारः, स प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् । नन्वेवंभूतमनुमानमप्यत्र सम्भवतीति तदपि सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षं प्राप्नोतीत्याशङ्कापनोदार्थम्-'इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः' इत्याह । देशतो विशदं यत्तत्प्रयोजनं ज्ञानं २० तत्सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षमित्युच्यते नान्यदित्यनेन तत्स्वरूपम् , इन्द्रियानिन्द्रियनि सित्तमित्यनेन पुनस्तदुत्पत्तिकारणं प्रकाशयति। '. तंत्रेन्द्रियं द्रव्यभावेन्द्रियभेदाढ़ेधा । तत्र द्रव्येन्द्रियं गोलकादिपरिणामविशेषपरिणतरूपरसगन्धस्पर्शवत्पुद्गलात्मकम् , पृथि.२५ व्यादीनामत्यन्तभिन्नजातीयत्वेन द्रव्यान्तरत्वासिद्धितस्तस्य प्रत्येकं तदारब्धत्वासिद्धः। द्रव्यान्तरत्वासिद्धिश्च तेषां विषयपरिच्छेदे प्रसाधयिष्यते । भावेन्द्रियं तु लब्ध्युपयोगात्मकम् । तत्राऽऽवरणक्षयोपशमप्राप्तिरूपार्थग्रहणशक्तिलब्धिः, तद्भावे सतोप्यर्थ
१ स्वकारणव्यतिरिक्ते स्पर्शादावाभिमुख्यं नास्ति यदि । २ पूर्वानुमानप्रकारेण । ३ स्वेष्टानिष्टयोरर्थयोः। ४ लोके। ५ अनुमानादि । ६ आचार्यः। ७ इन्द्रियानिन्द्रिययोर्मध्ये । ८ सर्वाङ्गगतत्वम् , जिला, नासा, गोलकपक्ष्मपुट, कर्णशष्कुलीति पञ्चसंख्यात्मकम् । ९ सर्वथा। १० चतुर्थे ।
प्र. क० मा० २.
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२३०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० स्याप्रकाशनात्, अन्यथातिप्रसङ्गः । उपयोगस्तु रूपादिविषय. ग्रहणव्यापारः, विषयान्तरासक्ते चेतसि सन्निहितस्यापि विषय स्याग्रहणात्तत्सिद्धिः । एवं मनोपि द्वेधा द्रष्टव्यम् ।
ततः पृथिव्यप्तेजोवायुभ्यो ब्राणरसनचक्षुःस्पर्शनेन्द्रिय ५भावः" [ ] ईति प्रत्याख्यातम् । पृथिव्यादीनामन्योन्यमेका. न्तेन द्रव्यान्तरत्वासिद्धेः, अन्यथा जलादेमुक्ताफलादिपरिणामा. भावप्रसक्तिरात्मादिवत् । न चैवम् , प्रत्यक्षादिविरोधात् ।
अथ मतम्-पार्थिवं घ्राणं रूपादिषु सन्निहितेषु गन्धस्यैवाभिव्यअकत्वान्नागकर्णिकाविमर्दककरतलवत् । तदप्यसङ्गतम्; हेतोः १० सूर्यरश्मिभिरुदकसेकेन चानेकान्तात् । दृश्यते हि तैलाभ्यक्तस्या.
दित्यमरीचिकाभिर्गन्धाभिव्यक्ति मेस्तूदकसेकेनेति । आप्यं रसने रूपादिषु सन्निहितेषु रसस्यैवाभिव्यञ्जकत्वाल्लालावत्' इत्यत्रापि हेतोलवणेन व्यभिचारः, तस्यानाप्यत्वेपि रसाभिव्यञ्जकत्वप्र. सिद्धेः । 'चक्षुस्तैजसं रूपादिषु सन्निहितेषु रूपस्यैवाभिव्यञ्जक१५त्वात्प्रदीपवत्' इत्यत्रापि हेतोर्माणिक्याधुयोतितेनानेकान्तः। 'वायव्यं स्पर्शनं रूपादिषु सन्निहितेषु स्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्तो. यशीतस्पर्शव्यजकवावयविवत्' इत्यत्रापि कर्पूरादिनी सलिल. शीतस्पर्शव्यञ्जकेनानेकान्तः।
पृथिव्यप्तेजःस्पर्शाभिव्यञ्जकत्वाचास्य पृथिव्यादिकार्यत्वानु२० पङ्गो वायुस्पर्शाभिव्यञ्जकत्वाद्वायुकार्यत्ववत् । चक्षुषश्च तेजोलपाभिव्यञ्जकत्वात्तेजःकार्यत्ववत् पृथिव्यप्समवायिरूपव्यञ्जकत्वात्पृथिव्यप्कार्यत्वप्रसङ्गः । रसनस्य चाप्यरसाभिव्यञ्जकत्वाद. कार्यत्ववत् पृथिवीरसाभिव्यञ्जकत्वात्पृथिवीकार्यत्वप्रसङ्गः।
'नामसं श्रोत्रं रूपादिषु सन्निहितेषु शब्दस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्' २५ इति चाऽसाम्प्रतम् ; शब्दे नभोगुणत्वस्याग्रे प्रतिषेधात् । तत. श्वेदमप्ययुक्तम्-"शब्दः स्वसमानजातीयविशेषगुणवतेन्द्रियेण
१ तदभावेप्यर्थप्रकाशनं चेत्। २ पिशाचपरमाण्वादेरपि ग्रहणप्रसङ्गः । ३ विषय प्रत्यभिमुखता। ४ नैयायिकमतम् । ५ सर्वथा। ६ आदिपदेन चन्द्रकान्तादेश्च । ७ पार्थिवत्वाभावात् । ८ नुः । ९ तेजसत्वाभावात् । १० तोयगत । ११ यसः । १२ पार्थिवेन । १३ सलिलगत। १४ वायव्याभावात् । १५ स्पर्शनेन्द्रियस्य । १६ शब्दो विशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यते इत्युच्यमाने सिद्धसाध्यता भविष्यति । न हि जैनेनापि रूपलक्षणगुणवता श्रोत्रेण शब्दो न गृह्यते इत्यभ्युपगम्यते । तद्वयवच्छेदार्थ समानजातीयविशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यते इत्युक्तम् । तथापि स्तम्भगतरूपेण समानजातीयरूपलक्षणविशेषगुणवतेन्द्रियेण शब्दो गृह्यत इत्यभ्युपगमात्सिद्धसाध्यता ।
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सू० २१६] . अर्थकारणतावादः
२३१ गृह्यते सामान्यविशेषवत्त्वे सति वा केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, वाह्येकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वे सत्यनात्मविशेपगुणत्वाद्वा रूपादिवत्" [ ] इति । ततो नेन्द्रियाणां प्रतिनियतभूतकार्यत्वं व्यवतिष्ठते प्रमाणाभावात् । प्रेति नियतेन्द्रिययोग्यपुद्गलारब्धत्वं तु द्रव्येन्द्रियाणां प्रतिनियतभावेन्द्रियोपैकरणभूतत्वान्यथानुपपत्तेर्घटते इति ५. प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम् ।
ननु चेन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तदित्यसाम्प्रतम् , आत्मार्थालोकादेरपि तत्कारणतयात्राभिधानाहत्वात् तन्न; आत्मनः समनन्तरप्रत्ययस्य वा प्रत्ययान्तरेप्यविशेषात् अत्रानभिधानम् असाधारणकारणस्यैव निरूपयितुमभिप्रेतत्वात् । सन्निकर्पस्य चाऽ-१० व्यापकत्वादसाधकतमत्वाच्चानभिधानम्।अर्थालोकयोस्तदसाधारणकारणत्वादत्राभिधानं तर्हि कर्त्तव्यम् । इत्यप्यसत्। तयोर्ज्ञानकारणत्वस्यैवासिद्धेः। तदाहनार्थाऽऽलोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ॥६॥
प्रसिद्धं हि तमसो विज्ञानप्रतिबन्धकत्वेनातत्कारणस्यापि परि-१५ च्छेद्यत्वम् । ननु ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरेकेणान्यस्य तमसोऽभावा
तदयुदासार्थ स्वेन शम्दलक्षणेन समानजातीयविशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यत इत्युक्तन् । साध्यविशेषणसाफल्यानन्तरं हेतुविशेषणसाफल्यमुच्यते । इन्द्रियग्राह्यत्वादित्युच्यमाने घटेनानेकान्तः । घटो हि इन्द्रियग्रामो भवति न च स्वसमानजातीय विशेषगुणवते. न्द्रियेण गृह्यते-घटस्य द्रन्यत्वेन तत्समानजातीयस्य गुणस्याभावात् । तेनाने कान्तव्युदासार्थ मेकेन्द्रियग्राह्यत्वादित्युक्तम् । न हि घटस्यैकेन्द्रियग्रामत्वं स्पर्शनादीन्द्रियेणापि ग्रहणात् । एकेन्द्रियग्राह्यत्वादित्युच्यमाने आत्मनानेकान्तः । आत्मा हि मनोलक्षणकेन्द्रियग्राह्यो भवति, न च समानजातीयविशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यते-आत्मनो द्रव्यत्वेन तत्समानजातीयस्य गुणस्य मनस्यभावात् । तत्परिहारार्थ बाह्मैकेन्द्रियग्राह्यत्वादियुक्तम् । तथा च रूपत्वादिनानेकान्तः। रूपत्वादिकं बाझेकेन्द्रियग्राह्यं भवति, न च स्वसमानजातीय विशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यते-रूपत्वस्य सामान्यभावेन तत्सजातीयगुणस्यैवासम्भवात् । तत्परिहारार्थ सामान्यविशेषवत्वे सति बाबैकेन्द्रियग्राह्यत्वादित्युक्तम् । न च रूपत्वसामान्यं सामान्यवद्भवति-निस्सामान्यानि सामान्यानीति वचनात् ।
१ न चैकपुद्गलजन्यत्वेनैकादृशत्वं योग्य पुद्गलारब्धत्वात् । २ सहाय । ३ सांव्यवहारिकम् । ४ आदिपदेन सन्निकर्षादेः। ५ प्रत्यक्ष । ६ सूत्र । ७ कारणरूपस्य । ८ पूर्वम् । ९ उपादानत्वेनात्मनासदृश । १० परोक्षशाने। ११ सूत्रे। १२ विशेष । १३ चक्षुषः प्राप्यकारित्वनिराकरणात् । १४ सांव्यवहारिकस्य । १५ सूत्रे । १६ जैनैः। १७ शानस्य । १८ ज्ञेयत्वम् ।
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२३२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[२. प्रत्यक्षपरि०
कस्य दृष्टान्ता? इत्यस्यलङ्गतम् । तस्यार्थान्तरभूतस्यालोकस्येवा वानन्तरं समर्थयिष्यमाणत्वात् । ननु परिच्छेद्यत्वं च स्यात्त. योस्तत्कारणत्वं च अविरोधात्; इत्यप्यपेशलम् । तत्कारणले तयोश्चक्षुरादिवत्परिच्छेद्यत्वविरोधात् । ५ किञ्च, अर्थकार्यतया ज्ञानं प्रत्यक्षतः प्रतीयते, प्रमाणान्तराद्वा? प्रत्यक्षतश्चेत्कि तैत एव, प्रत्यक्षान्तराद्वा? न तावत्तत एव, अनेनार्थमात्रस्यैवानुभवात् । तद्धेतुत्वविशिष्टार्थानुभवे वा विवादो · न स्यान्नीलत्वादिवत् । न खलु प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुरूपेऽसौ दृष्टो
विरोधात् । न हि कुम्भकारादेर्घटादिहेतुत्वेनानुभवे सोस्ति । तन्न १० तदेवात्मनोऽर्थकार्यतां प्रतिपद्यते । नापि प्रत्यक्षान्तरम् ; तेनाप्य
र्थमात्रस्यैवानुभवात् , अन्यथोक्तदोषानुषङ्गः, ज्ञानान्तरस्यानेनाग्रहणाच्च । एकार्थसमवेतानन्तरज्ञानग्राह्यमर्थज्ञानमित्यभ्युपगमेपि अनेनार्थाग्रहणम् । न चोभयविषयं ज्ञानमस्ति यतस्तत्प्रतिपत्तिः।
अथ प्रमाणान्तरात्तस्यार्थकार्यता प्रतीयते; तत्किं ज्ञानविषयम, १५ अर्थविषयम् , उभयविषयं वा स्यात् ? तत्राद्यविकल्पद्वये तयोः
कार्यकारणभावाप्रतीतिः एकैकविषयज्ञानग्राह्यत्वात् , कुम्भकारघटयोरन्यतरविषयज्ञानग्राह्यत्वे तद्भावाप्रतीतिवत् । नाप्युभयविषयज्ञानात्तत्प्रतीतिः, तद्विषयज्ञानस्यास्मादृशां भवताऽनभ्युपगमात् । न खलु 'ज्ञाने प्रवृत्तं ज्ञानमर्थेपि प्रवर्ततेऽर्थे वा प्रवृत्तं २० ज्ञाने' इत्यभ्युपगमो भवतः । अभ्युपगमे वा प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिरिति व्याप्तिज्ञानविचारे विचारयिष्यते।
अथानुमानात्तत्कार्यतावसायः; तथाहि-अर्थालोककार्य विज्ञानं तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्, यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावविधत्ते
तत्तस्य कार्यम् यथाग्नेधूमः, अन्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते चार्था२५ लोकयोझनम् इति । न चात्रासिद्धो हेतुस्तत्सद्भावे सत्येवास्य
भावाद्भावे चाभावात् । इत्याशङ्ख्याह- १ ग्रन्थे। २ तत्र शाने। ३ घटं विषयीकरोति यत्प्रत्यक्षम् । ४ शान । ५ आद्यप्रत्यक्षम् । ६ स्वस्य । ७ जानाति । ८ विचारलक्षणम् । ९ अर्थशानयोरनुभवश्चेत्प्रत्यक्षान्तरेण। १० प्रथमप्रत्यक्षज्ञानस्य । ११ द्वितीयशानापेक्षया। १२ द्वितीयशानेन । १३ आत्मलक्षण । १४ द्वितीय । १५ परेण । १६ अर्थकार्यतया ज्ञानस्य । १७ अपि तु न कुतोपि। १८ ज्ञानस्य । १९ बसः। २० अर्थज्ञानयोः। २१ प्रमाणान्तरात् । २२ ज्ञानस्यार्थकार्यतायाः। २३ किञ्चिज्शानाम् । २४ नैयायिकेन। २५ उभयविषयज्ञानस्य । २६ उभयविषयज्ञानस्य पञ्चमस्य । २७ निश्चयः । २८ अनुकरोति।
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सू० २७] अर्थकारणतावादः
२३३ तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोण्डुक
ज्ञानवनक्तञ्चरज्ञानवच्च ॥ ७॥ तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाञ्च, न केवलं परिच्छेद्यत्वात्तयोस्तदकारणताऽपि तु ज्ञानस्य तंदन्वयव्यतिरेकानुविधानाआवाच । नियमेन हि यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावनुकरोति तत्तस्य ५ कार्यम् यथानेधूमः । न चानयोरन्वयव्यतिरेको ज्ञानेनानुकियेते।
अत्रोभयप्रसिद्धदृष्टान्तमाह-केशोण्डुकज्ञानवन्नक्तञ्चरज्ञानवञ्च । कामलाद्युपहतचक्षुषो हि न केशोण्डुकज्ञानेर्थः कारणत्वेन व्याप्रियते । तत्र हि केशोण्डुकस्य व्यापारः, नयनपक्ष्मादेर्वा, तत्के-१० शानां वा, कामलादेवा गत्यन्तराभावात् ? न तावदाद्यविकल्पः; न खलु तज्ज्ञानं केशोण्डुकलक्षणेर्थे सत्येव भवति भ्रमाभावप्रसङ्गात् । नयनपक्षमादेस्तत्कारणत्वे तस्यैव प्रतिभासप्रसङ्गात्, गगनतलावलम्वितया पुरःस्थतया केशोण्डुकाकारतया च प्रतिभासो न स्यात् । न ह्यन्यदन्यत्रान्यथा प्रत्येतुं शक्यम् । अथ नय-१५ नकेशा एव तत्र तथाऽसन्तोपि प्रतिभासन्ते; तर्हि तद्रहितस्य कामलिनोपि तत्प्रतिभासाभावः स्यात् ।
किञ्च, असौ तद्देशे एव प्रतिमासो भवेन्न पुनर्देशान्तरे । न खलु स्थाणुनिवन्धना पुरुषभ्रान्तिस्तद्देशादन्यत्र दृष्टा । कथं च तेदेशता तदाकारता चाऽसती तज्ज्ञानं जनयेद्यतो ग्राह्या स्यात् । २० अथ भ्रान्तिवशातत्केशाएव तत्र तथा तज्ज्ञानं जनयन्ति; अस्मा. कमपि तर्हि 'चक्षुर्मनसी रूपज्ञानमुत्पादयेते' इति समानम् । यथैव यैन्यविषयजनितं ज्ञानमन्यविषयस्य ग्राहक तथान्यकारणजनितमपि स्यात्। * अथ कामलादय एव तज्ज्ञानस्य हेतवः, तेभ्यश्चोत्पन्नं तदसदेव २५ केशादिकं प्रतिपद्यते; तर्हि निर्मललोचनमनोमात्रकारणादुत्पद्य
१ अर्थालोक । २ अर्थालोकयोनिं प्रत्यकारणत्वे साध्ये। ३ अर्थाभावे ( कोषेषूडुकशब्द एव श्रूयते )। ४ आलोकाभावे । ५ भवति चेत्तहिं । ६ केशोण्डुकशानस्य । ७ नरस्य । ८ केशोण्डुक । ९ नयनदेशे। १० नयनकेशानाम् । ११ गगनतले । १२ गगनतल । १३ नयनकेशेषु। १४ केशोण्डुक । १५ केशोण्डुक। १६ नयन । १७ गगनतले । १८ केशोण्डुकतया । १९ केशोण्डुक। २० नयनकेशेभ्यस्सकाशादन्यस्केशोण्डुकस्य ग्राहकं चेत् । २१ केशोण्डुकादन्ये नयनकेशाः । २२ नयनकेशेभ्यस्सकाशादन्यत्केशोण्डुकं तस्य । २३ अर्थादन्ये इन्द्रियमनसी । २४ केशोण्डुक ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० मानं ज्ञानं सदेव वस्तु विषयीकरोतीति किन्नेष्यते? तत्कथमर्थ. कार्यता ज्ञानस्य अनेन व्यभिचारात् संशयज्ञानेन च ?
न हि तदर्थ सत्येव भवति; अभ्रान्तत्वानुषङ्गा, तद्विषयभूतस्य स्थाणुपुरुषलक्षणार्थद्वयस्यैकत्र सद्भावासम्भवाच । सद्भावे वारेको न स्यात् । अथोच्यते-"सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषा. प्रत्यक्षादुभयविशेषस्मृतेश्च संशयः" [वैशे० सू० २।२।१७] विपर्ययः पुनस्तद्विपरीतविशेषस्मृतेः इत्यर्थादेवानयोर्भावः; तद प्युक्तिमात्रम् । तयोः खलु सामान्यं वा हेतुः स्यात्, विशेषों
वा, द्वयं वा? न तावत्सामान्यम्, तत्र संशयाधभावात् १० सामान्यप्रत्यक्षात्' इत्यभिधानात्, प्रत्यक्षे च संशयादि. विरोधात् । विशेषविषयं च संशयादिज्ञानम् । न चास्य सामान्य जनकं युज्यते । न ह्यन्यविषयं ज्ञानमन्येन जन्यते, रूपज्ञानस्य रसादुत्पत्तिप्रसङ्गात् । यथा च सामान्यादुपजायमानं तेदसतो विशेषस्य वेदकं तथेन्द्रियमनोभ्यां जायमानं सतः १५ सामान्यादेरपीति व्यर्थार्थस्य तद्धेतुत्वकल्पना । सामान्यार्थजत्वे
चास्य अर्थानर्थजत्वप्रतिज्ञाविरोधः, कामलिनश्च केशोण्डुकादिज्ञानानुत्पत्तिः, न खलु तत्र केशोण्डुकादिसमानधर्मा धर्मा विद्यते यद्दर्शनात्तत्स्यात् । तन्नास्य॑ सामान्यं हेतुः ।
नापि विशेषस्त तदभावात् । न खलु पुरोदेशे स्थाणुपुरुष२० लक्षणो विशेषोस्ति तज्ज्ञानस्याभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । स्थाणुरस्तीति
चेत्, कथं ततः किं पुरुषः पुरुष एवेति पुरुषांशावसायः? अन्यथान्यत्रापि ज्ञानेर्थस्य कारणत्वकल्पना व्यर्था । तन्न विशे. षोपि तद्धेतुः । नाप्युभयम्; उभयपक्षोक्तदोषानुषङ्गात् । ततः
संशयादिज्ञानस्यार्थाभावेप्युपलम्भात्कथं तद्भावे ज्ञानाभावसि. २५द्धिर्यतोर्थकार्यतास्य स्यात् ?
१ भवता नैयायिकेन । २ केशोण्डुकशानेन । ३ भन्यथा । ४ संशयशानस्य । ५ संशयः। ६ परेण । ७ अर्द्धतासामान्यस्य ग्राहकं प्रत्यक्षमुपलम्भस्तस्मात् । ८ स्थाणुत्वपुरुषत्वलक्षणो विशेषस्तस्याऽप्रत्यक्षमनुपलम्भस्तस्मात् । ९ विधमानविशे'धात् । १० तस्माद्विधमानविशेषात्सामान्यादिलक्षणात् । ११ शानम् । १२ सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादिति सामग्रीतः संशयोत्पत्ती दूषणान्तरमाह । १३ संशयस्य । १४ स्थाणुपुरुषलक्षणयोरंशयोरन्यतर एकस्तु विधमानोर्थोऽपरोऽविधमानोऽनर्थः । १५ स्थाणुस्थानीयः। १६ आकाशे। १७ शुक्तिकास्थानीयः । १८ संशयादेः। १९ पुरोदेशे । २० अन्यथा । २१ स्थाणावविद्यमानस्य पुरुषांशस्य व्यवसायो यदि । २२ इन्द्रियमनोभ्यामुत्पन्ने सत्यज्ञानेपि । २३ संशयादिहेतुः ।
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सू० २।७] अर्थकारणतावादः
२३५ ननु भ्रान्तं तत्तेनापलभ्यते, न चान्यस्य व्यभिचारेन्यस्य व्यमिचारोऽतिप्रसङ्गात्; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्, खपरग्रहणलक्षणं हि ज्ञानम्, तत्र व यथा सत्याभिमतज्ञानं स्वपरग्राहकं तथा केशोण्डुकादिज्ञानमपि । एतावास्तु विशेषः-किञ्चित्सत्परं गृहाति संवादसद्भावात्किञ्चिदसद्विसंवादात्, न चैदावता जात्यन्तर-५ त्वेनानयोरन्यत्वं ताभ्यां व्यभिचाराभावो वा! अन्यथा 'प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दः कृतकत्वाद् घटादिवत्' इत्यादेप्यप्रयत्नानन्तरीयकैर्वियुद्धनकुसुमादिभिर्न व्यभिचारः, ताल्वादिदण्डादिजनिताच्छब्दघटादेस्तद्विपरीतस्य विद्युदारेन्यत्वात् । न चान्यस्य व्यभिचारेऽन्यस्यापि व्यभिचारोऽतिप्रसङ्गात् । तथाप्यत्र व्यभि-१० चारे प्रकृतेपि सोऽस्तु विशेषभावात् ।
किञ्च, 'कारणमेव परिच्छेद्यम्' इत्यभ्युपगमे योगिज्ञानात्प्रा. कालभाविन एवार्थस्यानेन परिच्छित्तिः स्यात् तस्यैव तत्कारणत्वात्। न पुनस्तत्कालभाविनोऽभौविनो वा, तस्यातत्कारणत्वात् । लब्धात्मलाभ हि किंचित्कस्यचित्कारणं नान्यथातिप्रंस-१५ ङ्गात् । तथाप्यनेन तत्परिच्छेदेऽन्यज्ञानेनाप्यतत्कारणस्याप्यर्थस्य परिच्छेदः स्यात् । तथा चेदमयुक्तम्-"अर्थसहकारितयार्थवत्प्रमाणम्"[ ] इति । तदपरिच्छेदे चास्यासर्वज्ञतानुषङ्गः । ज्ञानान्तरेण परिच्छेदे तस्यापि ज्ञानान्तरस्य समसमयभाविनोर्थस्यापरिच्छेदकत्वात्कथं सर्वज्ञतेति चिन्त्यम्।
क्षणिकत्वे चार्थस्य ज्ञानकालेऽसत्त्वात्कथं तेन ग्रहणम् ? तदाकारता चास्य प्रोक्प्रत्युक्ता । सत्यां वा तस्या एव ग्रहणात्परमार्थतोर्थस्याग्रहणात्तदेवाऽसर्वज्ञत्वम् । न खलु चैत्रसदृशे मैत्रे दृष्टे परमार्थतश्चैत्रो दृष्टो भवत्यन्यत्रोपचारात् । साध्वी चोपचारेण सर्वज्ञत्वकल्पना सुगतस्य सर्वस्य तथाप्राप्तेः,२५ एकस्य कस्यचित्सतो वेदने तत्सदृशस्य सत्त्वेन सर्वस्य वेद
१ कारणेन । २ गोपालघटिकाधूमस्य पावकव्यभिचारे भूधरादिधूमस्यापि तद्वयभिचारः स्यात् । ३ भ्रान्ताभ्रान्तशानयोः। ४ संशयविपर्ययाभ्याम् । ५ शानस्यार्थाभावे भावो व्यभिचारस्तस्याभावो न च । ६ एतावतान्यत्वं व्यभिचाराभावो वा स्यायदि तहिं । ७ अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः कृतक उच्यते। ८ ताल्वाधजनितस्य, मेघादिकारणकस्य । ९ भिन्नजातीयत्वात् । १० प्रयत्नानन्तरीयकत्वं विना भावे । ११ अन्यत्वेपि। १२ कृतकत्वादित्यस्य हेतोः। १३ शाने । १४ अन्यत्वस्य । १५ ईश्वरशानाद्वा । १६ भविष्यतोर्धस्य । १७ खरविषाणमपि कस्यचित्कारणं स्यादिसतिप्रसङ्गः। १८ वर्तमानस्य भाविनो वार्थस्य शानाकारणत्वेपि। १९ योगिनः । २० भाविनोर्थस्य । २१ प्रथमपरिच्छेदे । २२ प्राणिमात्रस्य । २३ सन्निहितस्य ।
२०
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२३६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरिक नसम्भवात् । सत्त्वेन लर्वस्य सर्वेण वेदनमैन्यैस्तु धर्मेरवेदन. मिति चेत् तर्हि [2] कस्यार्थखभावस्य" [प्रमाणवा० ११४४] इत्यादिग्रन्थविरोधः । सत्त्वेनापि तद्ग्रहणे न सादृश्यं ग्रहणकारणमिति कथं सुगतस्योपचारेणापि बहिः प्रमेयग्रहणम् ? ५ कथं चैववादिनोभावस्योत्पद्यमानता प्रतीयेत-सा ह्युत्पद्यमाना. र्थसमसमयभाविना ज्ञानेन प्रतीयते, पूर्वकालभाविना, उत्तरका लभाविना वा? न तावत्समसमयभाविना; तस्याऽतत्कार्यत्वात । नापि पूर्वकालभाविना तत्काले तस्याः सत्त्वाभावात् । न चासती
प्रत्येतुं शक्या; अकारणत्वात् । तदा खलूत्पत्स्यमानतार्थस्य न १० तूत्पद्यमानता । नाप्युत्तरकालभाविना; तदा विनष्टत्वात्तस्याः । न हि तदोत्पद्यमानतार्थस्य किं तूत्पन्नता ।
नित्येश्वरज्ञानपक्षे सिद्धमकारणस्याप्यर्थस्यानेन परिच्छेद्यत्वम्। तद्वदन्येनापि स्यात् । अथार्थाकार्यत्वे तद्वन्नित्यत्वान्निखिलार्थ
ग्राहित्वानुषङ्गः, न; चक्षुरादिकार्यत्वेनानित्यत्वात् । प्रतिनियत१५शक्तित्वाच्च प्रतिनियतार्थग्राहित्वम् । न खलु यैकंस्य शक्तिः
सान्यस्यापि, अन्यथा सर्वस्य सर्वकर्तृत्वानुषङ्गो महेश्वरवत् । यथैव हीश्वरः कार्यग्रामेणानुपक्रियमाणोप्यविशेषेण तं करोति तथा कुम्भकारादिरपि कुर्यात् । न हि सोपि तेनोपक्रियते येम 'उपकारकमेव कुर्यान्नान्यम्' इति नियमः स्यात् । शक्तिप्रतिनि२० यमातंदविशेषेपि कश्चित्कस्यचित्कर्त्तत्यभ्युपगमो ग्राहकत्वपक्षेपि समानः।
ननु यद्यर्थाभावेपि ज्ञानोत्पत्तिः कुतो न नीलाद्यर्थरहिते प्रदेशे तद्भवति? भवत्येव नयनमनसोःप्रणिधाने । कथं न नीलाद्यर्थनहणम् ? तत्र तद्भावात् । कथं 'तदुत्पन्नम्' इत्यवगमः ? न हि
१ पुरुषेण। २ नीलपीतादिलक्षणैः। ३ नीललक्षणस्यार्थस्य प्रत्यक्षतः प्रतीतेः कोन्यो भावो यः प्रमाणान्तरैवेद्यते इति ग्रन्थस्य विरोधः । ४ प्रतिबिम्बितस्य सादृश्यस्य ग्रहणं स्यान्न त्वर्धस्य । ५ कारणमेव परिच्छेद्यमिति वादिनः। ६ असदादिशनेन । ७ असदादिशानस्य । न इति चेन्नेत्यर्थः। ८ अस्मदादिशानस्य । ९ ईश्वरशानस्य । १० असदादिज्ञानस्य । ११ एकस्य या शक्तिः सान्यस्य यदि । १२ नरस्य । १३ सर्वकार्याणाम् । १४ ग्रामः समूहः । १५ अनुपकारककार्यकारणत्वस्याविशेषेपि । १६ घटपटादिषु मध्ये। १७ अर्थकार्यताऽभावेपि शानं कस्यचियोग्यस्य ग्राहक स्यादिति समानता। १८ पुरोदेशे ।
1 'एकस्यार्थ स्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः स्वयम् । कोऽन्यो न भागो दृष्टः स्याद्यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ॥" [प्रमाणवा० २४४]
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सु० २१७] आलोककारणतावादः
२३७ विषयमपरिच्छिन्दत् ज्ञानम् 'अस्ति' इति युक्तम् , अन्यथा सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य तदनिवार्य भवेदित्यप्यसारम् ; तेत्रोपनीतस्य नीलादेस्तेनैव ग्रहणोपलम्भात् । तदैव तदन्यज्ज्ञात(न)मिति चेकिमिदानी प्रतिविषयं प्रकाशकस्य भेदः? तथाभ्युपगमे प्रदीपादेरपि प्रतिविषयमन्यत्वप्रसङ्गः । प्रत्यभिज्ञानमुर्भयत्र समानम् । ५
नन्वर्थाभावेपि ज्ञानसद्भावेऽतीतानागते व्यवहिते व तत्स्यात्सन्निहितवत् । नतु (ननु) तत्र तत्स्यादिति कोथः ? किं तत्रोपयेत, तद्भाहकं वा भवेदिति ? न तावत्तत्रोत्पद्येत; आत्मनि तदुत्पत्यभ्युपगमात् । नापि तद्राहकं भवेत् ; अयोग्यत्वात् । न खलु तदुत्पन्नमपि सर्वे वेत्ति; योग्यस्यैव वेदनात् । कारणेपि चैतच्चोा १० समानम् । तत्रापि हि कारणं कार्यणानुपक्रियमाणं यावत्प्रतिनियतं कार्यमुत्पादयति तावत्सर्वं कस्मान्नोत्पादयतीति चोये योग्यतैव शरणम् । ततो ज्ञानस्यार्थान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात्कथं तत्कार्यता यतः “अर्थवत्प्रमाणम्" [न्यायमा० पृ० १] इत्यत्र भाष्ये "प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरमव्यपदेश्याऽव्यभिचारिव्यव-१५ सायात्मके ज्ञाने कर्त्तव्येऽर्थसहकारितयार्थवन्प्रमाणम्" ] इति व्याख्या शोभेत ? तन्नार्थकार्यता विज्ञानस्य ।।
नाप्यालोककार्यताः अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां नक्तञ्चराणां चालोकाभावेपि ज्ञानोत्पत्तिप्रतीतेः । अथालोकस्याकारणत्वेऽन्धकारावस्थायामप्यस्मदादीनां ज्ञानोत्पत्तिः स्यात् । न चैवम् ; तत-२० स्तद्भावे भावात्तभावे चाभावात्तत्कार्यताऽस्य । अन्यथा धूमो
१ अर्थे । २ पुरोदेशे। ३ पूर्वज्ञानेनैव । ४ अन्यजानामोत्यस्लिन्नवसरे । ५ ज्ञानस्य । ६ य एवायं प्रदीपो घटस्य प्रकाशकः स एवायं पटस्य प्रकाशको यथा तथा य एव नीलशानपरिणत आत्मा स एवान्यज्ञानपरिणतः। ७ कारणचोद्यपक्षेपि । ८ कुलालादिलक्षणम् । ९ घटादि लक्षणेन। १० प्रमागं भवति । कीदृशम् ? अर्थवदथों विद्यते यस्य तत् । अर्थवत्प्रमाणमित्युक्ते शानमपि प्रमाणं स्यात्तत्परिहारार्थमर्थसहकारितयेति । न च शानमर्धसहकारितयाऽर्थवत् किन्तु अर्थविषयतयाऽऽत्मवत् अर्थसहकारितयाऽर्थवत्प्रमाणमित्युच्यमाने मनोपि प्रमाणं स्यात् । कथम् ? सुखोत्पत्ती स्रग्वनितादिसहकारितयाऽर्थवद्भवति मनः । इति तद्वयवच्छेदार्थमव्यपदेश्यादिविशेषणविशिष्टे शाने कर्तव्ये इत्युक्तम् । एवं चेत्प्रमाता प्रमेयं च प्रमाणं स्यात् । कथम् ? प्रागुक्तविशेषणे शाने कर्तव्ये स्तम्भाद्यर्थसहकारितया अर्थवान्प्रमाता भवति । इति प्रागुक्तविशेषणे ज्ञाने कर्तव्ये खण्डमुण्डादिव्यक्तिलक्षणार्थसहकारितया अर्थवदिति प्रमेयं गोत्वादि सामान्यरूपम् । इति तत्परिहारार्थ प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरमित्युक्तम् । ११ अन्वयव्यतिरेकसद्भावेपि आलोकज्ञानयोः कार्यकारणभावो नास्ति यदि ।
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२३८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० प्यग्निजन्य न स्यात्, तद्व्यतिरेकेणान्यस्य तव्यवस्थापकस्याभा. वादिति चेत्, किं पुनरन्धकारावस्थायां ज्ञानं नास्ति? तथा चेत कथमन्धकारप्रतीतिः ? तदन्तरेणापि प्रतीतावन्यत्रापि ज्ञानकला. नानर्थक्यम् । 'प्रतीयते, ज्ञानं नास्ति' इति च खवचनविरोधः ५प्रतीतेरेव ज्ञानत्वात्।
अथान्धकाराख्यो विषय एव नास्ति यो ज्ञानेन परिच्छिद्येत. अन्धकारव्यवहारस्तु लोके ज्ञानानुत्पत्तिमात्र इत्युच्यते; यद्येवं. मालोकस्याप्यभावः स्याद्विशदज्ञानव्यतिरेकेणान्यस्यास्याप्यप्र.
तीतेः । तद्व्यवहारस्तु लोके विशदज्ञानोत्पत्तिमात्रः। ननु ज्ञानस्य १० वैशद्यमेव तदभावे कथम् ? इत्यप्यज्ञचोद्यम्; नक्तञ्चरादीनां रूपेऽस्मदादीनां रसादौ च तदभावेपि तस्य वैशद्योपलब्धेः।
आलोकविषयस्य च ज्ञानस्यात एवालोकाद्वैशद्यम् , तदन्तराद्वा, अन्यतो वा कुतश्चित् ? यद्यन्यतः, न तालोककृतं वैशद्यम् । न हि
यद्यदभावेपि भवति तत्तत्कृतमतिप्रसङ्गोत् । अथालोकान्तरात १५ तद्विषयस्यापि तस्यालोकान्तरात्तंदित्यनवस्था । न चालोकान्तर
मस्ति । अथामादेवालोकात्; खविषयादेव तर्हि वैशद्यम् , तथा घटादिरूपादप्यस्तु । तस्याभासुरत्वान्नातस्तत् । इत्यप्ययुक्तम् । व. हलाम्धकारनिशीथिन्यां नक्तञ्चरादीनां तत्र वैशद्याभावप्रसङ्गात् । 'विशदं प्रत्यक्षम्' इत्यत्र चोक्तं वैशद्यकारणम् । यद्येवं प्रदीपायु२० पादानमनर्थकं तदन्तरेणापि ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाऽनर्थकम्,
आवरणापनयनद्वारेण विषये ग्राह्यतालक्षणस्य विशेषस्य इन्द्रियमनसोर्वा तज्ज्ञानजनकलक्षणस्यातोऽअनादेरिवोत्पत्तेः । न चैतावता तस्य तत्कारणता; काण्डपटाद्यावरणापनेतुर्हस्तादेरपि
तत्त्वप्रसङ्गात् । ततो यथा ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरेकेण नान्यत्तमः २५ तथा विशदज्ञानोत्पत्तिव्यतिरेकेणालोकोप्यन्यो न स्यात् ।
ननु 'अत्र प्रदेश बहल आलोकोऽत्र च मन्दः' इति लोकव्यवहारादन्यः सोस्तीति चेत्, तर्हि 'गुहागहरादो बहलं तमोन्यत्र
१ अन्वयव्यतिरेकव्यतिरेकेण । २ कार्यकारणभावव्यवस्थापकस्य । ३ अन्धकारस्य । ४ घटादिविषये । ५ अर्थः । ६ परेण भवता । ७ ज्ञानानुत्पत्तिमात्रान्धकारप्रकारेण । ८ प्रकृतशानविषयात् । ९ खराभावेपि जायमानो धूमः खरहेतुकोन्यथा स्यात् । १० वैशधम् । ११ प्रथमालोकादेव । १२ विज्ञानस्य । १३ घटादिज्ञानवैशद्यम् , ततश्च किमालोकपरिकल्पनेन । १४ आवरणप्रक्षयः। १५ तमः । १६ सप्तमीद्विः । १७ प्रदीपादिना मनोलोचनस्यार्थस्य च स्वविशेषजननेपि। १८ वैशधकारणत्व। १९ नैनमते । २० विशंदञ्चानोत्पत्तः सकाशात् ।
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सू० २।८-९] आलोककारणतावादः
२३९ मन्दम्' इति लोकव्यवहारः किं काकैर्भक्षितः ? अत्रास्याऽप्रमाणत्वेऽन्यत्र कः समाश्वासः ? ननु वहिर्देशादागत्य गृहान्त प्रविष्टस्य सत्यप्यालोके तमःप्रतीतेन पारमार्थिकं तत्, न चालोकतमसो. विरुद्धयोरेकत्रावस्थानम् , ततो ज्ञानानुत्पत्तिमात्रमेव तदिति चेत्, तर्हि नक्तञ्चरादीनामेव (वं) विवरादी प्रदीपाद्यालोकाभावेपि ५ तत्प्रतीतेः लोपि परमार्थिको न स्यात् । न चैकत्र तमोऽभावेपि तत्प्रतीते सर्वत्र तदभावो युक्तः, अन्यथाऽर्थानापि कचित्तत्प्र. तीतेः सर्वत्र तदभावः स्यात् । तस्मादालोकवत्तमोपि प्रतीतिसिद्धम् । तत्र चालोकामावेपि ज्ञानोत्पत्तिप्रतीतेः । न च तत्प्रति तस्यै कारणता । तन्नार्थालोकयोनि प्रति कारणत्वम् ।
एँवं तर्हि तत्तयोः प्रकाशकमपि न स्यादित्याह___अतजन्यमपि तत्प्रकाशकम् ॥ ८॥ ताभ्यामर्थालोकाभ्यामजन्यमपि तयोः प्रकाशकम् । अत्रैवार्थे प्रदीपवदित्युभयप्रसिद्धं दृष्टान्तमाह
प्रदीपवत् ॥ ९॥ न खलु प्रकाश्यो घटादिः स्वप्रकाशकं प्रदीपं जनयति, खका. रणकलापादेवास्योत्पत्तेः। 'प्रकाश्याभावे प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वायोगात्स तस्य जनक एव' इत्यभ्युपगमे प्रकाशकस्याभावे प्रकाश्यस्यापि प्रकाश्यत्वाघटनात् सोपि तस्य जनकोऽस्तु । तथा चेतरेतराश्रयः-प्रकाश्यानुत्पत्तौ प्रकाशकानुत्पत्तेः, तदनु-२० त्पत्तौ च प्रकाश्यानुत्पत्तेरिति । स्वकारणकलापादुत्पन्नयोः प्रदी. पघटयोरन्योन्यापेक्षया प्रकाश्यप्रकाशकत्वधर्मव्यवस्थाया एव प्रसिद्धेर्नेतरेतराश्रयावकाश इत्यभ्युपगमे ज्ञानार्थयोरपि स्वसामग्रीविशेषवशादुत्पन्नयोः परस्परापेक्षया ग्राह्यग्राहकत्वधर्मव्यव. स्थाऽऽस्थीयताम् । ३तं प्रतीत्यपलापेन।
२५ ननु चाजनकस्याप्यर्थस्य ज्ञानेनावगतौ निखिलार्थावगतिप्रसझात्प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात् । 'यद्धि येतो ज्ञानमुत्पद्यते तत्तस्यैव ग्राहकं नान्यस्य' इत्यस्यार्थजन्यत्वे सत्येव सा स्यादिति वदन्तं प्रत्याह
१ तमसि । २ नरस्य । ३ तमसोऽभावेपि तमःप्रतीतिप्रकारेण । ४ एकत्राभावे सर्वत्राभावो यदि । ५ तमसि। ६ तमसः। ७ अर्थालोकयोनिं प्रत्यकारणत्व. प्रकारेण । ८ स्वरूप । ९ अभ्युपगम्यताम् । १० अलमित्यर्थः। ११ प्रतिनियतविषयव्यवस्था । १२ अर्थात् ।
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प्रमेशकमलमार्तण्डे [ २. प्रत्यक्षपरि० खावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रति
नियतमर्थ व्यवस्थापयति ॥ १० ॥ तथा हि-यदर्थप्रकाशकं तत्स्वात्मन्यपेतप्रतिवन्धम् यथा प्रदीपादि, अर्थप्रकाशकं च ज्ञानमिति । प्रतिनियतवावरणक्षयो. ५पशमश्च ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थोपलब्धेरेव प्रसिद्धः। न चान्यो. न्याश्रयः; अस्याः प्रतीतिसिद्धत्वात् । तल्लक्षणयोग्यता च शक्ति रेव । सैव ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थव्यवस्थायामङ्गं नार्थोत्पत्त्यादिः, तस्य निषिद्धत्वादन्यत्रादर्शनाच्च । न खलु प्रदीपः प्रकाश्यार्थैर्जन्य· स्तेषां प्रकाशको दृष्टः। १० किञ्च, प्रदीपोपि प्रकाश्यार्थाऽजन्यो यावत्काण्डपटाद्यनावृत
मेवार्थ प्रकाशयति तावत्तदावृतमपि किन्न प्रकाशयेदिति चोये भवतोप्यतो योग्यतातो न किञ्चिदुत्तरम् ।। कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभि
चारः ॥ ११॥ १५ नहीन्द्रियमदृष्टादिकं वा विज्ञानकारणमप्यनेने परिच्छेद्यते । न
ब्रूमः-कारणं परिच्छेद्यमेव किन्तु 'कारणमेव परिच्छेद्यम्' इत्यवधारयामः, तन्न; योगिविज्ञानस्य व्याप्तिज्ञानस्य चाशेषार्थग्राहिणो. ऽभावप्रसङ्गात् । न हि विनष्टानुत्पन्नाः समसमयभाविनो वार्थास्तस्य कारणमित्युक्तम् । केशोण्डुकादिज्ञानस्य चाजनकार्थग्राहि२० त्वाभावप्रसङ्गः । कथं च कारणत्वाविशेषेपीन्द्रियादेरग्रहणम् ?
अयोग्यत्वाच्चेत् ; योग्यतैव तर्हि प्रतिकर्मव्यवस्थाकारिणी, अलमन्यैकल्पनया । स्वाकारार्पकत्वाभावाचेन्न; ज्ञाने स्वाकारार्पकत्वस्याप्यपास्तत्वात् । कथं च कारणत्वाविशेषेपि किञ्चित्स्वाकारार्पर्क किञ्चिन्नेति प्रतिनियमो योग्यतां विना सिध्येत् ? कथं च सकलं २५ विज्ञानं सकलार्थकार्य न स्यात् ? 'प्रतिनियतशक्तित्वाद्भावानाम् इत्युत्तरं ग्राह्यग्राहकावेपि समानम्।।
१.शानं कर्तृ । २ ज्ञानस्यापेतप्रतिवन्धत्वं कारणमर्थप्रकाशे चेत्तर्हि सकलार्थप्रकाशकं किमिति न स्यादित्युक्ते आह । ३ आदिपदेन ताद्रूप्यादिः । ४ प्रकाशके प्रदीपादौ । ५ तदुत्पत्त्यादेः। ६ धी हेतुश्च । ७ साध्यम् । ८ घटादिवदिति दृष्टान्तः । ९ इन्द्रियादिना । १० ज्ञानेन । ११ वयं सुगताः। १२ यत्सत्तत्सर्व क्षणिकमिति । १३ उत्पत्त्यादि । १४ इन्द्रियादेः । १५ स्वस्य घटादिवस्तुनः। १६ स्तम्भलक्ष णादर्थादनुत्पद्यमानं शानं स्तम्भस्य ग्राहकं यथा तथा निश्शेषार्थग्राहकं कुतो नं स्यादित्युत्तरं प्रतिनियतशक्तित्वाद्भावानामित्यत्रापि समानम् । १७ सामस्त्येन ।
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२४१
सू० २।१२] आवरणविचारः
अथेदानीं मुख्यप्रत्यक्षप्ररूपणस्यावसरप्राप्तत्वात् तदुत्पत्तिका. रणखरूपप्ररूपणायाह
सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमातीन्द्रि• यमशेषतो मुख्यम् ।। १२ ।
विशदं प्रत्यक्षम्' इत्यनुवर्तते । तत्राशेषतो विशदमतीन्द्रियं५ यद्विज्ञानं तन्मुख्य प्रत्यक्षम् । किंविशिष्टं तत् ? सामग्रीविशेषदिश्लेषिताखिलावरणम् । ज्ञानावरणादिप्रतिपक्षभूता हीह सम्यन्द र्शनादिलक्षणान्तरङ्गा बहिरङ्गानुभवादिलक्षणा सामग्री गृह्यते, तस्या विशेषोऽविकलत्वम् , तेन विश्लेषितं क्षयोपशमक्षयरूपतया विघटितमखिलमवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानसम्बन्ध्यावरणम् १० अखिलं निश्शेष वाऽऽवरणं यस्यावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानत्रयस्य तत्तथोक्तम् ! ___ अत्र च प्रयोगः-यद्यत्र स्पष्टत्वे सत्यवितर्थ ज्ञानं तत्तत्रापगताखिलावरणम् यथा रजोनीहाराद्यन्तरितवृक्षादौ तदपगमप्रभवं ज्ञानम्, स्पष्टत्वे सत्यवितथं च कचिदुक्त प्रेकारं ज्ञानमिति । तथा-१५ ऽतीन्द्रियं तत् मनोऽक्षानपेक्षत्वात् । तदन पेक्षं तत् सकलकलऋविकलत्वात् । तद्विकलत्वं चास्यात्रैव प्रसाधयिष्यते । अत एव चाशेषतो विशदं तत् । यत्तु नातीन्द्रियादिस्वभावं न तत्तदनपेक्षत्वादिविशेषणविशिष्टम् यथास्मदादिप्रत्यक्षम् , तद्विशेषणविशिष्टश्चेदम् , तस्मात्तथेति । तथा मुख्यं तत्प्रत्यक्षम् अतीन्द्रिय-२० त्वात् स्वविषयेऽशेषतो विशदत्वाद्वा, यत्तु नेत्थं तन्नैवम् , यथासदादिप्रत्यक्षम् , तथा चेदम् , तस्मान्मुख्यमिति ।
ननु चावरणप्रसिद्धौ तद्पगमाज्ज्ञानस्योत्पत्तियुक्ता, न च तत्प्रसिद्धम् । तद्धि शरीरम् , रागादयः, देशकालादिकं वा भवेत् ? न तावच्छरीरं रागादयो वा; तद्भावेप्यर्थोपलम्भसम्भ-२५ वात् । तदुपलम्भप्रतिवन्धकमेव हि काण्डपटादिकं लोके प्रसि
१ सूत्रे । २ आदिपदेन देशकालादिग्रहणम् । ३ समग्रत्वम् । ४ आवरणापाये । ५ अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानं स्वविषयेऽपगताखिलावरणं तत्र स्पष्टत्वे सत्यवितथज्ञानस्वात् । ६ ज्ञानम् । ७ अर्थे। ८ अनुमानादिना व्यभिचारपरिहारार्धम् । ९ संशयादिना व्यभिचारपरिहारार्धम् । १० रूपिषु, परमनोगतार्थेषु, मूर्तामूर्तसकलवस्तु च। ११ क्रमेणावधिमनःपर्ययकेवलाख्यम् । १२ अस्मिन्परिच्छेदे । १३ सकल. कलङ्कविकलत्वादेव। १४ अवध्यादित्रयम् । १५ मुख्यम्। १६ बौद्धः प्राह । २७ आदिपदेन स्वभावो वा।
प्र. क. मा० २१
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२.४२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[२. प्रत्यक्षपरि०
द्धमावरणम् । ननु. मेवा देदूरदेशता रावणादेस्तत्कालता परमा. ण्वादेः सूक्ष्म स्वभावता मूलकीलोदकादेश्च सूस्यादिः आवरणं. प्रसिद्धमेवेति चेत्तदसारम् । तद्भावस्य कर्तुमशक्यत्वात् ।। खलु सातिशयर्द्धिमतापि योगिना देशाधभावो विधातुं शक्यः। ५ न चान्यत् किञ्चिदावरणं प्रतीयते । ततः सामग्रीविशेष विश्लेषिताखिलावरणमित्ययुक्तम् .
अत्रोच्यते-न शरीराद्यावरणम् । किं तर्हि ? तयतिरिक्तं कर्म। तच्चानुमानतः प्रसिद्धम् ; तथाहि-स्वपरप्रमेयबोधैकस्वभावस्यात्मनो हीनगर्भस्थानशरीरविषयेषु विशिष्टाऽभिरतिः आत्मता१० तिरिक्तकारणपूर्विका तत्त्वात् कुत्सितपरपुरुषे कमनीयकुलका. मिन्यास्तत्राद्युपयोगजनितविशिष्टाभिरतिवत् । तथा, भवभृतां मोहोदयः शरीरादिव्यतिरिक्तसम्वन्ध्यन्तरपूर्वको मोहोदयत्वात मंदिराघुपयोगमत्तस्यात्मगृहादौ मोहोदयवत्।
ननु चातः कर्ममात्रमेव प्रसिद्धं नावरणम्। ततस्तत्सिद्धावेव १५प्रमाणमुच्यतां तत्रैव विवादादिति चेदुच्यते येज्ज्ञानं स्वविषयेऽ.
प्रवृत्तिमत् तत्सावरणम् यथा कामलिनो लोचनविज्ञानमेकचन्द्रमसि, स्वविषये अशेषार्थलक्षणेऽप्रवृत्तिमञ्च ज्ञानमिति। . ... ननु विज्ञानस्याशेषविषयत्वं कुतः सिद्धम् ? आवरणापाये तत्प्र
काशकत्वाञ्चेदन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि सकलविषयत्वे तस्य आव२० रणापाये तत्प्रकाशनं सिध्यति, अतश्च सकलविषयत्वमिति तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; यतोनुमानमिच्छता भवताप्यवश्यं सकलावरणवैकल्यात्प्रागेव सकलस्य प्राणिमात्रस्याशेषविषयं व्याप्त्या. दिज्ञानमभ्युपगतमेव । तथा, यत्स्वविषयेऽस्पष्टं ज्ञानं तत्सावर
णम् यथा रजोनीहाराद्यन्तरिततरुनिकरादिज्ञानम्, अस्पष्टं च २५ 'सर्व सदनेकान्तात्मकम्' इत्यादि व्याप्तिज्ञानम् । मिथ्यादृशां
सर्वत्रानेकान्तात्मके भावे विपरीतज्ञानं सावरणं मिथ्याज्ञानत्वात् धत्तूरकाद्युपयोगिनो मृच्छकले काञ्चनज्ञानवदिति । अतः सिद्धमांवरणं पौद्गलिकं कर्मेति । . }:१ ज्ञानस्य । २ मीमांसकीयपूर्वपक्षे सति जैनैः। ३ हीनशब्दो गर्भादिशब्दैः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः। ४ विषयसम्वनिताचन्दनादिषु । .५. विशिष्टाभिरतित्वात् । ६आदिपदेनौषधमत्रादि । ७ अनुभव । ८. उत्तानुमानद्वयात् । . .९. संसारिज्ञानमशेषार्थलक्षणे स्वविषये सावरणं भवति तत्राप्रवृत्तिमत्त्वादिति प्रतिज्ञाहेतू उपरिष्टान्नेयौ । १० सावरणम् । ११. अभावात् ।। १२ आदिपदेनागमजम् । १३ अस्पष्टशानत्वा दित्युच्यमाने स्वसिन्नस्पष्टत्वं स्यात्चद्यवच्छेदार्थ स्वविषये इत्युक्तम् । १४ एकान्तरूपं विपरीतम् । १५ अनुमानत्रयात् ।
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सू० २११२] कर्मणां पौगलिकत्वम् .. ननु चाविद्यैवावरणं न पौगलिकं कर्म, मूर्त्तनानेनामूर्तस्य ज्ञानादेरावरणायोगात्, अन्यथा शरीरादेरप्याव(वा)रकत्वानुयङ्गात् ; इत्यप्यसमीचीनम् : मदिरादिना मूर्तेनाप्यमूर्तस्य ज्ञानादेरावरणदर्शनात् । अमूर्तय बाब(बा)रकत्वे गगनादेर्शानान्तरस्य च तत्प्रसङ्गः । तदविरुद्धत्वात्तस्य तन्नति चेन् : तर्हि शरी-५ रादेरयत एव तन्मा भूत्तद्विरुद्धस्यैवावरकत्वप्रसिद्धेः । प्रवाहेण प्रवर्तमानस्य ज्ञानादेरविद्योदये निरोधात्तस्वास्ता रोधगतौ नदिरादिवत्पौद्गलिककर्मणोपि सास्तु विशेपाभावात् । दाहि-भालनो मिथ्याज्ञानादिः पुगलविशेसम्बन्धनिवन्धनः तत्स्वरूपीन्यथामावस्वभावत्वात् उन्मत्तकादिजनितोन्मादादिवत् । न च मिथ्या-१० ज्ञानजनितापरमिथ्याज्ञानेनानेकान्तः; तस्यापरापरपौगलिककर्मादये सत्येव भावात् अपरापरोन्मत्तकादिरससद्भावे तत्कृतोन्मादादिसन्तानवत् ।
ननु चात्मगुणत्वात्कर्मणां कथं पौद्गलिकत्वमित्यन्ये; तेप्यपरीक्षकाः; तेषामात्मगुणत्वे तत्पारतन्यानिमित्तत्वविरोधात् सर्व-१५ दात्मनो वन्धानुपपत्तेः सदैव मुक्तिप्रसङ्गात् । न खलु यो यस्य गुणः स तस्य पारतव्यानिमित्तम् यथा पृथिव्यादे रूपादिः, आत्मगुणश्च धर्माधर्मसंज्ञकं कर्म परैरभ्युपगम्यते इति न तदा त्मनः पारतन्यनिमित्तं स्यात् । न चैवम् , आत्मनः परतन्त्रतया प्रमाणतः प्रतीतेः। तथाहि-परतोऽसौ हीनस्थानपरिग्रहवत्त्वात् २० मद्योद्रेकपरतन्त्राशुचिस्थानपरिग्रहवद्विशिष्टपुरुषवत् । हीनस्थानं हि शरीरम् , आत्मनो दुःखहेतुत्वात्कारागारवत् । तत्परिग्रहवाँश्च संसारी प्रसिद्ध एव ! न च देवशरीरे तदभावात्पक्षाव्याप्तिः; तस्यापि मरणे दुःखहेतुत्वप्रसिद्धः । यत्परतन्त्रश्चासौ तत्कर्म इति सिद्धं तस्य पौद्गलिकत्वम् । तथा हि-पौगलिकं कर्म आत्मनः पार-२० तन्य निमित्तत्वान्निगलादिवत् । न च क्रोधादिभिर्व्यभिचारः,
. . १ पुरुषशानाद्वैतवादिनौ वदतः । २ आत्मनः । ३.आदिपदेनात्मनः। ४ अविद्यास्वरूपस्य । ५ गगनादिकं शानान्तरं च ज्ञानादेरावरकं भवति अमूर्त्तत्वादविद्यावत् । ६ तेन ज्ञानेन। ७ मिथ्याज्ञानमविद्या। ८ प्रवाहेण प्रवर्तमानस्य शानादेः पौद्गलिककोदये निरोधस्याविशेषात् । ९ कर्मतापन्न । १० सम्यग्ज्ञानादि । ११ मिथ्याशानादि । १२ यौगाः । १३ धर्माधर्मसंचक फर्म आत्मनः पारतब्यनिमित्तं न भवति आत्मगुणत्वादित्यध्याहारः। १४ कर्मणा । १५ शरीरादिलक्षण । १६ भागासिद्धत्वं दुःखहेतुत्वलक्षणस्य हेतोः। १७ सुखदुःखरागद्वेषादिकृतं पारतत्रयम् । १८ निपलं गलबन्धनम् ( शृङ्खलादि ) . . .
. . . . .. ..
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२४४
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[२. प्रत्यक्षपरि०
तेषां जीवपरिणामान पारतन्यस्वभावत्वात् , क्रोधादिपरिणामो हि जीवस्य पारतव्यं न पुनः पारतच्यानिमित्तम् ।
सत्यम् : नात्मगुणोऽदृष्टं प्रधानपरिणामत्वात्तस्या "प्रधानपरिणामः शुक्लं कृष्णं च कर्म" [ ] इत्यभिधानात् । इत्यपि मनोस्थामात्रम्, प्रधानस्यासत्त्वेन तत्परिणामत्वस्य चिदप्यसम्म वात् । तदसत्त्वं चात्रैवानन्तरं वक्ष्यामः। तत्परिणामत्वेपि वा तस्यात्मपारतव्यनिमित्तत्वाभावे कर्मत्वायोगात्, अन्यथातिप्रसङ्गः । प्रधानपारतन्त्र्यनिमित्तत्वात्तस्य कर्मत्वमिति चेन्नः
प्रधानस्य तेन वन्धोपगमे मोक्षोपगमे चात्मकल्पनावैयर्थ्यप्रस १० ङ्गात् । वन्धमोक्षफलानुभवनस्यात्मनि प्रतिष्ठानान्न तत्कल्पनावेयर्थ्यमित्यसत्; प्रधानस्य तत्कत्तत्ववत् तत्फलानुभोक्तत्वस्यापि प्रमाणसामर्थ्यप्राप्तत्वात् , अन्यथा कुंतनाशाकृताभ्यागमदोषानुषङ्गः । अथात्मनश्चेतनत्वात्तत्फलानुभवनं न तु प्रधानस्याऽचेतनत्वात् । तदप्ययुक्तम् ; मुक्तात्मनोपि तत्फलानुभवनानुषङ्गात् । १५ तस्य प्रधानसंसर्गाभावान्न तत्फलानुभवनमिति चेत्, तर्हि
संसारिणः प्रधानसंसर्गाद्वन्धफलानुभवनम् । तथा चात्मन एव बन्धः सिद्धः, तत्संसर्गस्य बन्धफलानुभवननिमित्तस्य बन्धरूप. त्वात् , वन्धस्यैव 'संसर्गः' इति पुद्गलस्य च 'प्रधानम्' इति नामान्तरकरणात् । २० ननु प्रसिद्धस्यापि यथोक्तंप्रकारस्य कर्मणः कार्यकारणप्रवाहेण प्रवर्त्तमानस्यानादित्वाद्विनाशहेतुभूतसामग्रीविशेषस्य चाभावाकथं तेन विश्लेषिताखिलावरणत्वं ज्ञानस्य; इत्यप्यपेशलम्; सम्यग्दर्शनादित्रयलक्षणस्य तद्विनाशहेतुभूतसामग्रीविशेषस्य
सुप्रतीतत्वात् । सञ्चितं हि कर्म निर्जरातश्चारित्रविशेषरूपायाः २५प्रलीयते । सा च निर्जरा द्विविधा-उपक्रमेतरभेदात् । तत्रौपक्रमिकी तपसा द्वादशविधेन साध्या । अनुपक्रमा तु यथाकालं संसारिणः स्यात् ।
कुतः पुनः साकल्येन पूर्वोपात्तकर्मणां निर्जरा निश्चीयते इति चेदनुमानात्; तथाहि-साकल्येन क्वचिदात्मनि कर्माणि निर्जी
१ सालयः । २ पुण्यम् । ३ पापम् । ४ बुद्ध्यादौ विकारे। ५ वयं जैनाः । ६ घटादेरपि कर्मत्वं स्यात् । ७ प्रधानं बन्धफलानुभोक्तृ भवति बन्धाधिकरणत्वान्निगलबद्धदेवदत्तवत् । ८ तत्कृतत्वेपि तत्फलानुभोक्तत्वं न स्याथदि तहिं । ९ कृतस्य कर्मणः प्रधानसम्बन्धित्वेन नाशः । १० अकृतस्य फलस्यात्मनि आगमः । ११ तस्य कर्मणः फलं बन्धमोक्षो। १२ तस्य कर्मणः। १३ पौरालिकस्य ।
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सू० २।१२] संवरनिर्जरयोः सिद्धिः
२४५ यन्ते विपाकान्तत्वात् , यानि तु न निर्जीर्यन्ते न तानि विधाकान्तानि यथा कोलादीनि, विपाकान्तानि च कर्माणि, तस्मात्साकल्येन कचिनिर्जीर्यन्ते । न चेदमसिद्धं साधनम् ; तथाहि-विपाकान्तानि कर्माणि फलावलानत्वाहीह्मादिवत् । न चेदमप्यसिद्धम्। तेषां नित्यत्वानुपङ्गात् । न च नित्यानि कर्माणि नित्यं तत्फलानु-५ अवनप्रलगा।
भावि धुनः कर्म संवरान्निरुध्येत-"अपूर्वक मानानवनिरोधः संवरः” [ तत्त्वार्थस्सू० ९११] इत्यभिधानात् । आलोहि सिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगविकल्पात्पञ्चविधः, ताललाते कर्मणामास्रवणात् । स च संवरो गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा-१० परीषहजयचारित्रैर्विधीयते इत्यागमे विस्तरतः प्ररूपितं द्रष्टव्यम् । निर्जरासंवरयोश्च सम्यग्दर्शनाद्यात्मकत्वात्तत्प्रेकर्षे कर्मणां सन्तानरूपतयाऽनादित्वेपि प्रक्षयः प्रसिध्यत्येव । न ह्यनादिसन्ततिरपि शीतस्पर्शी विपक्षस्योष्णस्पर्शस्य प्रकर्षे निर्मूलतलं प्रलयमुपव्रजन्नोपलब्धः, कार्यकारणरूपतया बीजाङ्करसन्तानो १५ वाऽनादिः प्रतिपक्षभूतदहनेन निर्दग्धवीजो निर्दग्धाङ्कुरो वा न प्रतीयते इति वक्तुं शक्यम् ।
ननु तत्प्रकर्षमात्रात्कर्मप्रक्षयमात्रमेव सिध्येन पुनः साकल्येन तत्प्रक्षयः, सम्यग्दर्शनादेः परमप्रकर्षसम्लवाभावात् ; इत्यप्यसङ्गतम्। तत्प्रकर्षस्य क्वचिदात्मनि प्रसिद्धः । तथाहि-यस्य २० तारतम्यप्रकर्षस्तस्य कचित्परमप्रकर्षः यथोष्णस्पर्शस्य, तारतम्यप्रकर्षश्चासंयतसम्यग्दृष्ट्यादौ सम्यग्दर्शनादेरिति । न च दुःखप्रकर्षण व्यभिचारः; सप्तमनरकभूमौ नारकाणां तत्परमप्रकर्षप्र. सिद्धेः सर्वार्थ सिद्धौ देवानां सांसारिकसुखपरमप्रकर्षवत् , मिथ्यादृष्टिष्वनन्तानुवन्धिक्रोधादिपरमप्रकर्षवद्वा । नापि ज्ञानहा-२५ "निप्रकर्षणानेकान्तः, तस्यापि क्षायोपशमिकस्य हीयमानतया प्रकृष्यमाणस्य केवलिनि परमापकर्षप्रसिद्धः । क्षायिकस्य तु हानेवासम्भवात्कुतस्तत्कर्षो यतोऽनेकान्तः। ' इत्थं वा साकल्येन कर्मप्रक्षये प्रयोगः कर्तव्यः-'यस्यातिशये
१ फलदानपरिणतिर्विपाकः । २ परमतापेक्षया । ३ सम्यग्दर्शनादेः कर्मविनाशहेतुत्वमुक्तमिदानीमन्यदेवोक्तमिति कथं न पूर्वापरविरोधः ? इत्युक्ते आह । ४ सति । ५. सम्यग्दर्शनादि क्वचिदात्मनि परमप्रकर्ष प्राप्नोति तारतम्यप्रकर्षवत्त्वादित्युपरिध. दध्याहियते । ६ केवलज्ञानस्य । ७ तारतम्यप्रकर्षः । ८ विपाकान्तवादित्यनुमाना. पेक्षया वाशब्दोऽत्र । ९ कचिकर्मणामत्यन्तहान्यतिशयो धर्मी सम्यग्दर्शनादेरत्यन्ता. विशये भवति तस्यातिशये तद्धान्यतिशयदर्शनादित्युपरिष्टादध्याहियते । ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२, प्रत्यक्षपरि० यद्धान्यतिशयस्तस्यात्यतातिशयेऽन्यख्यात्यन्तहानिः यथालेरत्यन्तातिशये शीतल्या, अस्ति च सम्यग्दर्शनादेरत्यन्तातिशयः क्वचि. दात्मनि' इति । यद्वा, आवरणहानिः क्वचित्पुरुषविशेष परमप्रक
प्राप्ता प्रकृप्यमाणत्वात् परिमाणवत् । न चात्रासिद्धं साधनमः ५तथाहि-प्रकृष्यमाणावरणहानिः आवरणहानित्वात् माणिक्याद्या. वरगहानिवत्। तद्धानिपरमप्रकर्षे च ज्ञानस्य परमः प्रकर्षः सिद्धः। यद्धि प्रकाशात्मकं तत्वावरणहानिप्रकर्षे प्रकृष्यमाणं दृष्टम यथा नयनप्रदीपादि, प्रकाशात्मकं च ज्ञानमिति । तदेवमावरण
प्रसिद्धिवत्तदभावोप्यनवयवेन प्रमाणतः प्रसिद्धः । तत्प्रभवमेव १० चाशेषार्थगोचरं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् , लेशतोप्यावरणसद्भावे तस्याशेपार्थगोचरत्वासम्भवात्, यत्रैवावरणसद्भावस्तत्रैवास्य प्रतिवन्धसम्भवात् ।
आगमद्वारेणाशेषार्थगोचरं ज्ञानम् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; विशदज्ञानस्य प्रस्तुतत्वात् । न चागमज्ञानं विशम् । न चागमोप्यशेषार्थ१५ गोचरः; अर्थपर्यायेषु तस्याप्रवृत्तेः । ते चार्थस्य प्रतिक्षणम् ‘अर्थक्रियाकारित्वात्सत्वाद्वा सन्ति' इत्यवसीयन्ते । अन्यथास्याऽवस्तुत्वप्रसङ्गः। करणजन्यत्वे चाशेषज्ञानस्यातीन्द्रियार्थेषु प्रति बन्धः प्रसिद्ध एव, इन्द्रियाणां रूपादिमत्यव्यवहितेऽनेकावयव
प्रचयात्मकेऽर्थे प्रवृत्तिप्रतीतेः। २० ननु योगजधर्मानुगृहीतानामिन्द्रियाणां गगनावशेषातीन्द्रिया
र्थसाक्षात्कारिज्ञानजनकत्वसम्भवात् कथं तत्राशेषज्ञानस्येन्द्रियजत्वेपि प्रतिवन्धसम्भवः, इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्; योगजधर्मानुग्रहस्पेन्द्रियाणां प्रथमपरिच्छेदे प्रतिविहितत्वात् । .. .. भावनाप्रकर्षपर्यन्तजत्वाद्योगिविज्ञानस्य नोक्तदोषानुषङ्गः । २५ भावना हि द्विविधा-श्रुतमयी, चिन्तामयी च । तत्र श्रुतमयी
श्रृंयमाणेभ्यः परार्थानुमानवाक्येभ्यः समुत्पद्यमानज्ञानेन श्रुतश:: ब्दवाच्यतामास्कन्दता निवृत्ता परमप्रकर्ष प्रतिपद्यमाना स्वार्थाः नुमानज्ञानलक्षणया चिन्तया निर्वृत्तां चिन्तामयीं भावनामारभते। सा च प्रकृप्यमाणा परं प्रकर्षपर्यन्तं सम्प्राप्ता योगिप्रत्यक्षं जन११ कर्मण ! २ साकल्येन । .. ३ आवरणाभावप्रभवम् । ४ परेण । ५ अर्थे । ६प्रकृतत्वात् । ७ अर्थपर्यायाः। .. ८ अर्थोऽवस्तु, असत्त्वात् । असन्नर्थोऽर्थक्रियासूत्यत्वात् । अर्थक्रियाशून्योर्थः-अर्धपर्यायरहितत्वात्, खपुष्पवत । सौगतो,वक्ति । १. आचार्यात् । १५. सर्व क्षणिक सत्त्वादिति । १२. प्रामुवता ३श्रुतमयी भावना की।
.............. .. tri
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सू० २।१२] - सर्वज्ञत्ववादः
२९.७
यतीति तत्कथमस्यावरणापायप्रभवत्वम् ? इत्यप्यसारम् क्षणि कनैरात्म्यादिभावनायाश्चिन्तामय्याः श्रतमय्याश्च मिथ्यारूपत्वात् । नच मिथ्याज्ञानस्य परमार्थविषययोगिज्ञानजनकत्वमतिर्प्रसङ्गात् । यथा च न क्षणिकत्वं नैरात्म्यं शून्यत्वं वा वस्तुनस्तथा वक्ष्यते ।
किन, अखिलप्राणिनां भावनावतां तथाविधज्ञानोत्पत्तिः किन स्यात् सुगतवत् । तेषां तथाभूतभावनाऽभावाचेत् नः प्रतिपन्नतत्त्वानां भावनाप्रवृत्तमनसां सर्वेषां समाना भावनैव कुतो व स्यात् ? प्रतिबन्धककर्म सद्भावाश्चेत् तर्हि भावनाप्रतिबन्धककर्मापाये भावनावत् योगज्ञानप्रतिबन्धककर्मापाये तज्ज्ञानोत्पत्तिर- १० भ्युपगन्तव्या । इति सिद्धं साकल्येनावरणापाये एवातीन्द्रियमशेषार्थविषयं विशदं प्रत्यक्षम् ।
" ननु चाशेषार्थज्ञातुस्त (ज्ञानस्यत ) ज्ज्ञानवतः कस्यचित्पुरुषविशेपस्यैवासम्भवात्कथं तज्ज्ञानसम्भवः ? तथाहि न कश्चित्पुरुषविशेषः सर्वशोस्ति सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकागोचरचारित्वा- १५ द्वन्ध्यास्तनन्धयवत् । न चायमसिद्धो हेतुः तथाहि सकलपदार्थवेदी पुरुषविशेषः प्रत्यक्षेण प्रतीयते, अनुमानादिप्रमाणेन वा ? न तावत्प्रत्यक्षेण; प्रतिनियतासन्नरूपादिविषयत्वेन अन्यंसनसानस्थ संवेदनमात्रेण्यस्य सामर्थ्य नास्ति, किमंत पुनरनाद्यनन्तातीतानागतवर्त्तमानसूक्ष्मादिस्वभावस कलपदार्थ साक्षात्कारि- २० संवेदनविशेषे तदध्यासिते पुरुषविशेषे वा तत्स्यात् ? न चातीवादिखभावनिखिल पदार्थ ग्रहणमन्तरेण प्रत्यक्षेण तत्साक्षात्करणप्रवृत्तज्ञानग्रहणम्, त्राह्माग्रहणे तन्निष्टग्राहकत्वस्याप्यग्रहणात् ।
नाप्यनुमानेन सौ प्रतीयते; तद्धि निश्चितस्वसाध्यप्रतिबन्धाद्धेतोरुदयमासादयत्प्रमाणतां प्रतिपद्यते । प्रतिबन्धश्चाखिलपदार्थ- २५ नसत्त्वेन स्वसाध्येन हेतोः किं प्रत्यक्षेण गृह्येत, अनुमानेन वा ? न. तावत्प्रत्यक्षेणः अस्याऽत्यक्षज्ञानवत्सत्त्वसाक्षात्करणाक्षमत्वेन तत्प्रतिपत्तिनिमित्तहेतुप्रतिवन्धग्रहणेप्यक्षमत्वात् । न ह्यप्रतिपन्नसम्बन्धिनस्तद्गतसम्बन्धावगमो युक्तोऽतिप्रसङ्गात् । नाप्य
क्
१ मुख्यप्रत्यक्षस्य । २ द्विचन्द्रादिशानस्यापि योगिज्ञानजनकत्वप्रसङ्गात् । ३ अशेघविषय । २४ सर्वश । ५ परेण त्वया । ६ मुख्यम् । ७ मीमांसकः । ८ अन्यस्य, पुरुषान्तरस्यः । ९ अंहो । १० तत्सहिते । १.१ कश्चित्पुरुषः सकलपदार्थं साक्षात्कारी राहेण स्वभावत्वे सति प्रक्षीण प्रतिबन्ध प्रत्ययत्वादित्यनेन । : १२ परमाणोर प्रतिपत्तावपि घटस्य परमाणुना सम्बन्ध प्रतिपत्तिप्रसङ्गात् ।। 09 1994
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प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि०, नुमानेन, अनवस्थेतरेतराश्रयदोषानुषङ्गात् । न चात्र धर्मा प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नः, अनमज्ञानवत्यत्यक्षेऽध्यक्षस्थाप्रवृत्तः । प्रवृत्ती वाध्यक्षेणैवाल्या प्रतिपन्नत्वान्न किञ्चिद्गुमानेन । नाप्यनुमानेन: हेतोः पक्षधर्मतावगममन्तरेणानुमानस्यैवाप्रवृत्त । न चाप्रतिपन्ने ९धर्मिणि हेतोस्तत्सम्वन्धावगमः । नाप्यप्रतिपन्नपक्षधर्मत्यो हेत: प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्यङ्गम् । किञ्च, सत्तासाधने सर्वो हेतुरसिद्धविरुद्धानकान्तिकत्वलक्षणां यीं दोषजाति नातिवर्तते । तथाहि-सर्वज्ञसत्त्वे साध्ये भावधर्मों हेतुः, अभावधर्मो वा स्यात्, उत उभयधर्मो वा? प्रथमपक्षेऽसिद्धः, १० भावेऽसिद्धे तद्धर्मस्य सिद्धिविरोधात् । द्वितीयपक्षे तु विरुद्धः;
भावे साध्येऽभावधर्मस्याभावाव्यभिचारित्वेन विरुद्धत्वात् । उभयधर्मोप्यनैकान्तिकः सत्तासाधने; तदुभयव्यभिचारित्वात् ।
अपि चाविशेषेण सर्वज्ञः कश्चित्साध्यते, विशेषेण वा? तत्राद्यपक्षे विशेषतोऽहत्प्रणीतागमाश्रयणमनुपपन्नम् । द्वितीय१५ पक्षे तु हेतोरपरसर्वज्ञस्याभावेन दृष्टान्तानुवृत्त्यसम्भवादसाधारणानकान्तिकत्वम् ।
किञ्च, यतो हेतोः प्रतिनियतोऽर्हन् सर्वज्ञः साध्यते ततो वुद्धोपि साध्यतां विशेषाभावात्, न चात्र सर्वज्ञत्वसाधने हेतुरस्ति। २० यदप्युच्यते-सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात्पावकादिवत् तदप्युक्तिमात्रम् ; यतोऽत्रैकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सूक्ष्माद्यर्थानां साध्यत्वेनाभिप्रेतम्, प्रतिनियतविषयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वं वा? तत्राद्यकल्पनायां विरुद्धो हेतुः, प्रतिनियतरूपादिविषयग्राहकानेकप्रत्ययप्रत्यक्षत्वेन व्याप्तस्याग्यादिदृष्टान्तधर्मिणि प्रमेय. २५ त्वस्योपलम्भात् साध्यविकलता च दृष्टान्तस्य । द्वितीयकल्पनायां सिद्धसाध्यता अनेकप्रत्यक्षैरनुमानादिभिश्च तत्परिज्ञानाभ्युपग
मात्।
१ निश्चिताविनाभावपूर्वकत्वादनुमानस्य । २ साध्यसाधकानुमाने। ३ परोक्षे । ४ धी प्रतिपन्नः। ५ सर्वशलक्षणे। ६ सर्वशस्य । ७ त्रयोऽवयवा यस्याः । ८ भाषस्वरूपः। ९ सर्वशसत्त्वे । १० सर्वशस्य । ११ भावाभावोमय। १२ जैनः । १३ दृष्टान्तप्रवर्तनाभावात् । १४ विपक्षसपक्षाभ्यां व्यावतमानो हेतुरसाधारणानेका• न्तिकः । भस्सोदाहरणंमनित्यः शब्दः श्रावणस्वादिति । १५ हेतोः । १६ जगति । १७ भनुमाने। १८ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थ ।
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सू० २।१२] सर्वज्ञत्ववादः
"यदि षनिःप्रमाणैः स्यात्सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ॥ नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन्प्रतिपद्यते।" [ मी० श्लो० चोद. नासू० श्लो० १११-१२] इत्यभिधानात् ।
किञ्च, प्रमेयत्वं किमशेषज्ञेयव्यापिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षण-५ मभ्युपगम्यते, असदादिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिक रूपं वा स्यात् , उभयव्यक्तिसाधारणसामान्यस्वभावं वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, विवादाध्यासितपैदार्थेषु तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्यासिद्धत्वात् , अन्यथा साध्यस्यापि सिद्धेहेतूपादानमपार्थकम् । सन्दिग्धान्वयश्चायं हेतुः स्यात्; तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य दृष्टान्तेऽसिद्धत्वात् । १० द्वितीयपक्षेऽसिद्धो हेतुः, अस्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वस्य विवादगोचंरार्थेष्वसम्भवात् । सम्भवे वा ततस्तथाभूतप्रत्यक्षत्वसिद्धिरेव स्यात् । तत्र चाविवादान्न हेतूपन्यासः फलवान् । नाप्युभयप्रमेयत्वव्यक्तिसाधारणं प्रमेयत्वसामान्यं हेतुः, अत्यन्त विलक्षणांतीन्द्रियेन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिद्वयसाधारणसामान्य-१५ स्यैवासम्भवात् । तन्नानुमानातत्तिद्धिः ।
नाप्योगमात् : सोपि हि नित्यः, अनित्यो वा तत्प्रतिपादकः स्यात् ? न तावनित्यः; तत्प्रतिपादकस्य तस्याभावात् , भावेपि प्रामाण्यासम्भवात् कार्येऽथै तत्प्रामाण्यप्रसिद्धः। अनित्योऽपि किं तत्प्रेणीतः, पुरुषान्तरप्रणीतो वा? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयः-२० सर्वज्ञप्रणीतत्वे तस्य प्रामाण्यम्, ततस्तत्प्रतिपादकत्वमिति । नापि पुरुषान्तरप्रणीतः। तस्योन्मत्तवाक्यवप्रामाण्यात् । तन्नागमादप्यस्य सिद्धिः।
नाप्युपमानात् । तत्खलूपमानोपमेययोरेनवयवेनाध्यक्षत्वे सति सादृश्यावलम्वनमुदयमासादयति; नान्यथातिप्रसङ्गात्। न चोप-२५ मानभूतः कश्चित्सर्वज्ञत्वेनाध्यक्षतः सिद्धो येन तत्सादृश्यादन्यस्य सर्वज्ञत्वमुपमानात्साध्येत ।
१ जैनादिभिः । २ प्रत्यक्षरवाप्रत्यक्षवेन कारणेन विवादाध्यासितत्वम् । ३ सूक्ष्मादिषु । ४ विवादाध्यासितपदार्थेषु अशेषज्ञेयव्यापिप्रमाणप्रमेयत्वं सिद्धं चेत् । ५ असाधारणानकान्तिकः। ६ अशेषज्ञेयप्रमाणप्रमेयस्वादित्ययम् । ७ पावकादौ । ८ अस्सदादिप्रमाणप्रमेयत्वादिति हेतुः । ९ सूक्ष्मादिषु । १० अस्सदादिप्रमाणभूत । ११ अतीन्द्रियश्चेन्द्रियविषयश्च तेषां ग्राहकप्रमाणम् । १२ सर्वश। १३ हिरण्यगर्भ प्रकृत्य सर्वश इति । १४ अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इति क्रियमाणेऽथे। १५ सर्वश। १६ साकस्येन । १७ भूभवनवद्धिंतोस्थितस्योपमानशनप्रसङ्गात् । १८ तस्योपमानभूतसर्वशस्य । १९ नुः ।
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२५०
प्रमेयकमलमार्तण्डे २..प्रत्यक्षपारिक नाप्यर्थापत्तितस्तत्सिद्धिः, सर्वशसद्भावमन्तरेणानुपपद्यमा. नस्य प्रमाणपट्कविज्ञातार्यस्य कस्यचिदभावात् । धर्माद्युपदेशस्य बहुजनपरिगृहीतस्यान्यथापि भावात् । तथा चोक्तम्- ' , "सर्वशो दृश्यते तावन्नेदानीममदादिभिः ।
[मी० श्लो० चोदनासू० लो० ११७ दृष्टो न चैकदेशोस्ति लिङ्गं वा यो मापयेत् ॥ १॥[...] न चागमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञवोथकः। न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते ॥ २॥ न चान्यार्थप्रधानैस्तैस्तदस्तित्वं विधीयते । न चानुवादितुं शक्यः पूर्वमन्यैरवोधितः॥३॥ अनादेरागमस्याओं न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ॥ ४॥ अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽन्यः प्रतीयते। प्रकल्पेत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः? ॥ ५॥ सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता। कथं तदुभयं सियेत् सिद्धमूलान्तरादते ॥६॥[ 1 असर्वशप्रणीतात्तु वचनान्मूलँवर्जितात् । सर्वशमवगच्छन्तः खवाक्यात्किन्न जानते ? ॥७॥[ ] सर्वज्ञसदृशं कञ्चिद्यदि पश्येम सम्प्रति। . उपमानेन सर्वशं जानीयाम ततो वयम् ॥ ८॥ [...] उपदेशो हि वुद्धादेर्धर्माऽधर्मादिगोचरः।। अन्यथा नोपपद्येत सार्वज्ञं यदि नाऽभवत् ॥९॥[...] वुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसम्भवः।
उपदेशः कृतोऽतस्तैर्व्यामोहादेव केवलात् ॥ १०॥[ . ] . १ सर्वशाभावेपि । २ सम्बन्ध्यन्तरं हेतुः । ३ लिङ्गं भूत्वेति शेषः । ४ सर्वशम् । ५ प्रशंसामनभावनादिः। ६ घटते। ७ यागार्थ । ८ आगमैः। ९ आगमात् । १० अनुभाषणात् । ११ प्रमाणान्तरैः। १२ सर्वशः। १३ असदादिभिः । १४ सर्वशागमसत्यार्धयोः। १५ कथमन्योन्याश्रय इत्युक्ते सत्याह। १६ बसः। १७ आगमप्रामाण्यलक्षणात् मूलादन्यत् सर्वशंप्रामाण्यलक्षणं मूलान्तरं वा द्रष्टव्यम् । १८ मूलं प्रामाण्यम् । १९ सर्वशसदृशदर्शनात् । २० भूत्वा । २१ न विद्यते संभव उत्पत्तिर्यस्योपदेशस्य । २२ अशानात्। ' : 1 'नच मंत्रार्थवादानां... न. चानुवदितुं शक्यः' इति श्लोकद्वयं विना सर्वेऽपि लोकाः तत्त्वसंग्रहे. (१० ८३०,८३१,८३२,८३८,८३९,८४०) पूर्वपक्षे कुमारिलकत्त॒कस्वेनोपलभ्यन्ते।
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सू० २।१२.].: .सर्वज्ञत्ववादः :
ये तु मन्वादयः सिद्धाः प्राधान्येन त्रयीविदाम् । ... त्रयीविदाधितग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तयः ॥ ११॥"[ . ] इति । . न च प्रमाणान्तरं लदुपलमकं लवंशस्य साधकमस्ति । 'मा भूत्येदानीन्तनासदादिजनाना (नां) सर्वज्ञस्य साधकं५ प्रत्यक्षायन्यतमं देशान्तरकालान्तरवर्तिनां कैपाश्चिद्भविष्यतीति चाऽयुक्तम् । “यजातीयः प्रमाणैस्तु यजातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेप्यभूत् ॥"
. [मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० ११३] १० इत्यभिधानात् । तथा हि-विवादाध्यासिते देशे काले च प्रत्यक्षादिप्रमाणम् अत्रत्येदानीन्तनप्रत्यक्षादिग्राह्यसजातीयार्थग्राहक तद्विजातीयसर्वज्ञाद्यर्थग्राहकं वा न भवति प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वात् अत्रत्येदानीन्तनप्रत्यक्षादिप्रमाणवत् । · ननु च यथाभूतमिन्द्रियादिजनितं प्रत्यक्षादि सर्वज्ञाद्यर्थासा-१५ धकं दृष्टं तथाभूतमेव देशान्तरे कालान्तरे च तथा साध्यते, अन्यथाभूतं वा? तथाभूतं चेसिद्धसाधनम् । अन्यथाभूतं चेदप्रयोजको हेतुः; जगतो वुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये संनिवेशविशिष्टत्वादिवत् तदसाम्प्रतम् ; तथाभूतस्यैव तथा साधनात् । न च सिद्धसाधनमन्यादृर्शप्रत्यक्षाद्यभावात् । तथा हि-विवादा-२० पन्नं प्रत्यक्षादिप्रमाणमिन्द्रियादिसामग्रीविशेषानपेक्षं न भवति प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वात्प्रसिद्धप्रत्यक्षादिप्रमाणवत् । न गृह्नवराहपिपीलिकादिप्रत्यक्षेण सन्निहितदेशविशेषानपेक्षिणा नक्तञ्चरप्रत्यक्षेण वालोकानपेक्षिणानेकान्तः, कात्यायनाद्यनुमानातिशयेन, जैमिन्याद्यागमातिरान ; तखातीन्द्रिवादिप्रणिधानसामग्री २५ विशेषमन्तरेणासम्भवात्, अतीन्द्रियाननुमेयाधाविषयत्वेन खातिलङ्घनाभावात् । तथा चोक्तम्
१ सिद्धाः प्रसिद्धाः। २ मध्ये। ३ त्रयीविद्भिराश्रितो ग्रन्थो येषां ते । ४ वेदात्प्रभव उत्पत्तिासामुक्तीनां ता वेदप्रभवाः, वेदप्रभवा उक्तयो येषां मन्वादौनां ते । ५ रूपादिमदत्यासन्नादि । ६ अस्सदादिप्रमाणसदृशप्रमाणप्रकारेण । ७ सर्वशवादी व्रते । ८.अतीन्द्रियप्रत्यक्षम् । ९ सपक्षव्यापकपक्षव्यावृनः प्रतिनियतार्थअाहित्वे सतीति विशेषणजनितोपाध्याहितसम्बन्धो हेतुरप्रयोजकः । १० अक्रियादशिनोपि कृतवुद्धुत्पादकत्वे सति । ११ अतीन्द्रियं । .१२. देशान्तरकालान्तरवत्ति । १३ अत्रत्येदानीन्तनं प्रसिद्धम् । १४ वररुचि । १५ अश्रुतवेदार्धलक्षण । १६ एका: अता । १७ स्वस्थ प्रत्येक्षादेः । -':... . . . . . " .
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० "यत्राप्यतिशयो दृष्टः ल खार्थानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः (ता)॥१॥
[मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० ११४] येपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ २॥ प्रायोपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान्दृष्टुं क्षमोपि सन् । सजातीरनतिक्रामन्नतिशेते परानरान् ॥३॥ ऍकशास्त्रविचारेषु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥४॥॥ ज्ञात्वा व्याकरणं दूरं बुद्धिः शब्दापशब्दयो। प्रकृष्यते न नक्षत्रतिथिग्रहणनिर्णये ॥५॥ ज्योतिर्विच्चे प्रकृष्टोपि चन्द्रार्कग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥६॥ तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्गदेवताऽपूर्वप्रत्यक्षीकरणे क्षमः॥ ७॥ [ देशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ ८॥"[ ] इति।
प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां चास्याशेषार्थविषयत्वं बाध्यते; तथाहि२० सर्वज्ञस्य ज्ञान प्रत्यक्षं यद्यभ्युपगम्यते तदा तद्धर्मादिग्राहकं न
स्याद्विद्यमानोपलम्भनत्वात् । विद्यमानोपलम्भनं तत् सत्सम्प्रयोगजत्वात् । सत्सम्प्रयोगजं तत्, प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वादस्मदादिप्रत्यक्षवत् । तद्धर्मादिग्राहकं चेत् न विद्यमानोपलम्भनं धर्मादे
रविद्यमानत्वात् । तत्त्वे चासत्सम्प्रयोगजत्वे चाऽप्रत्यक्षशब्देवा२५च्यत्वम् ।
१ गृद्धादीन्द्रिये। २ क्रियमाणायाम् । ३ इन्द्रियाणामतिशयो नास्ति चेन्मा भूत्पुरुषणां भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ४ अर्थग्रहणशक्तिः प्रशा। ५ मेधा पाठग्रहण. शक्तिः। ६ पूर्वोक्तं भावयति । ७ तत्र दृष्टान्तमाह । ८ दृष्टान्तं भावयति । ९ न्यासपर्यन्तम् । १० प्रकृष्टा भवति । ११ पुनरपि दृष्टान्तं भावयति । १२ चकारो दृष्टान्त. समुच्चये। १३ अदृष्ट। १४ लोकप्रसिद्धं दृष्टान्तमाह । १५ प्रसङ्गविपर्यययोर्लक्षणमुक्तरपक्षे वदिष्यति । १६ सर्वशशानस्य । १७ जनादिभिः सर्वशवादिभिः । १८ पुण्यपापादि । १९ इति प्रसङ्गेन तस्याशेषार्थविषत्वं बाध्यते । २० तस्य परोक्षत्वमित्यर्थः । २१ इति विपर्ययेण तस्याशेषार्थविषयत्वं बाध्यते । २२ अविद्यमानोपलम्भनत्वे । .
1 इमा अशेषाः कारिकाः तत्त्वसंग्रहे (पृ० ८२५-२६) पूर्वपक्षतया उपलभ्यन्ते ।
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सू० २११२] सर्वज्ञत्ववादः
धर्मज्ञत्वनिषेधे चान्याशेपार्थप्रत्यक्षत्वेपि न प्रेरणाप्रामाण्यप्रतिबन्धो धर्मे तस्या एव प्रामाण्यात् । तदुक्तम्
"सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यत्वं लप्स्यते पुण्यायोः ॥ १॥" [ ] धर्मशत्वनिषेधस्तु केवलोत्रोपयुज्यते।
५ सर्वनन्यद्विजानस्तु पुरुषः केर्ने वार्यते ॥ २॥" [ ] किच, अस्य ज्ञानं चक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम् , अभ्यासजनितं वा स्यात्, शब्दप्रभवं वा, अनुमानाविभूतं वा ? प्रथमपाक्षे धर्मादिग्राहकत्वायोगश्चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभवज्ञानस्याप्यत्रैव प्रवृत्तेः। अथाभ्यासजनितम् , ज्ञानाभ्या १० सादिप्रकर्पतरतमादिक्रमेण तत्प्रकर्षसम्भवे सकलखमावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यते; इत्यपि मनोरथमात्रम् ; अभ्यासो हि कस्यचित्प्रतिनियतशिल्पकलादौ तदुपदेशाद् ज्ञानाञ्च दृष्टः । न चाशेपार्थोपदेशो ज्ञानं वा सम्भवति । तत्सम्भवे किमभ्यासप्रयासेनाशेपार्थज्ञानस्य सिद्धत्वात् । अन्योन्याश्रयश्च-अभ्यासात्तज्ज्ञा-१५ नम् , ततोऽभ्यास इति । शब्दप्रभवं तदित्यप्ययुक्तम् ; परस्पराश्रयणानुपङ्गात्-सर्वज्ञप्रणीतत्वेन हि तत्प्रामाण्येऽशेषार्थ विषयज्ञानसम्भवः, तत्सम्भवे चाशेषज्ञस्य तथाभूतशब्दप्रणेतृत्वमिति। अभ्युपगम्यते च प्रेरणाप्रभवज्ञानवतो धर्मशत्वम् , - "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रेकृष्टमि-२० त्येवंजातीयकमर्थमवगमयितुमलं नान्यत् किंचनेन्द्रियादिकम्" [शावरभा० ११११२ ] इत्यभिधानात् ।
अनुमानाविभूतमित्यप्रसङ्गतम् ; धर्मादेरतीन्द्रियत्वेन तज्ज्ञापकलिङ्गस्य तेन सह सम्वन्धासिद्धरसिद्धसम्वन्धस्य चाज्ञापकत्वात्।
किञ्च, अनुमानेनाशेषज्ञत्वेऽस्मदादीनामपि तत्प्रसङ्गः, 'भावाभावोभयरूपं जगत्प्रमेयत्वात्' इत्याद्यनुमानस्यास्सदादीनामपि भावात् । अनुमानागमज्ञानस्य चास्पष्टत्वात्तजनितस्याप्यवैशद्यसम्भवान्न तज्ज्ञानवान्सर्वज्ञो युक्तः। . १ वैदिकी। २ प्रेरणाप्रामाण्ये। ३ धर्माधर्माभ्यामन्यत् । ४ न केनापि । ५ सर्वशस्य । ६ सकलार्थग्रहणलक्षणातिशय । ७ आगम । ८ धर्मादिग्राहकं सर्वशज्ञानम् । ९ अशेषार्थविषय । १० मन्वादेः। ११ कालेन । १२ देशेन । १३ अनुमानादिशानजनितास्पष्टज्ञानवान् । 1 इमे कारिके तत्त्वसंग्रहे (पृ० ८१६,८२०) पूर्वपक्षतया विद्यते।
प्र. क० मा० २२
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प्रमेयकमलमार्तण्डे २५४
[२. प्रत्यक्षपरि० न च वक्तव्यम्-'पुनःपुनओव्यमानं भावनाप्रकर्षपर्यन्ते योगिज्ञानरूपतामासादयत्तद्वैशद्यभार भविष्यति। दृश्यते चाभ्यास. बलात्कामशोकाधुपप्लुतज्ञानस्य वैशद्यम्' इति तद्वदस्याप्युपाटात. त्वप्रसङ्गात् । ५ किञ्च, अस्याखिलार्थग्रहणं सकलज्ञत्वम्, प्रधानभूतकतिप. यार्थग्रहणं वा? तत्राद्यपक्षे क्रमेण तद्ब्रहणम् , युगपद्वा? न ताव. क्रमेण; अतीतानागतवर्तमानार्थानां परिसमात्यभावात्तज्ज्ञानस्यायपरिसमाप्तेः सर्वज्ञत्वायोगात् । नापि युगपत् ; परस्परविरु
द्धशीतोष्णाद्यर्थानामेकत्र ज्ञाने प्रतिभासासम्भवात् । सम्भवे वा १० प्रतिनियतार्थस्वरूपप्रतीतिविरोधः।।
किञ्च, एकक्षण एवाशेषार्थग्रहणाद् द्वितीयक्षणेऽकिञ्चिज्ज्ञः स्यात् । तथा परस्थरागादिसाक्षात्करणाद्रागादिमान् , अन्यथा सकलार्थसाक्षात्करणविरोधः।
नापि प्रधानभूतकतिपयार्थग्रहणम् ; इतरार्थव्यवच्छेदेन एते१५पामेव प्रयोजननिष्पादकत्वात्प्राधान्यम्' इति निश्चयो हि सक
लार्थज्ञाने सत्येव घटते, नान्यथा । तच्च प्रागेव कृतोत्तरम् ।। __ कथं चातीतानागतग्रहणं तत्स्वरूपासम्भवाद् ? असतो ग्रहणे
मिरिकशानवत्प्रामाण्याभावः। सत्त्वेन ग्रहणेऽतीतादेर्वर्तमानत्वम् । तथा चान्यकालस्यान्यकालतया वस्तुनो ग्रहणात्तज्ज्ञान२० स्याऽग्रामाण्यम्।
कथं चासौ तद्भाह्याखिलार्थाज्ञाने तत्कालेप्यसर्वातुं श. क्यते ? तदुक्तम्
"सर्वज्ञोय मिति ह्येतत्तत्कालेपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानशेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥१॥ कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्वहवस्तव । य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वशं न बुद्धंयते ॥२॥ सर्वशो नावबुद्धश्च येनैव स्यान्न तं प्रति । तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् ॥ ३॥"
[मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० १३४-३६ ] इति ।
१ आगमानुमानजनितास्पष्टं शानम् । २ व्याहत । ३ सर्वशज्ञानस्य । ४ मोक्षलक्षण । ५ सर्वशः। ६ तेन सर्वज्ञशानेन । ७ तर्हि सर्वज्ञेनैव सर्वशो शायते इत्युक्ते सत्याह । ८ यतः। ९ मूलस्य वाक्यकारणस्य सर्वशलक्षणस्य । १० अन्यस्य रथ्यापुरुषस्य।
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सू० २११२]
सर्वज्ञत्ववादः
२५५
अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम्-सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकाविषयत्वं साधनम्; तदसिद्धम् । तत्सद्भावावेदकस्यानुमानादेः सद्भावात् । तथाहि-कश्चिदात्मा सकल पदार्थसाक्षात्कारी तन्द्रहणखभावत्वे सति प्रेक्षीणप्रतिवन्धप्रत्ययत्वात् , यद्यद्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिवन्धप्रत्ययं तत्तत्साक्षात्कारि यथापगततिमि-५ रादिप्रतिवन्ध लोचनविज्ञानं रूपसाक्षात्कारि, तद्हणखभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिवन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मेति । न तावत्सकलार्थग्रहणस्वभावत्वमात्मनोऽसिद्धम् ; चोदनावलान्निखिलार्थज्ञानोत्पत्यन्यथानुपपत्तेस्तस्य तत्सिद्धेः, 'संकलमनेकान्तात्मकं सत्यात्' इत्यादिव्याप्तिज्ञानोत्पत्तेर्वा । यद्धि यद्विषयं तत्तद्रहणस्वभावम् १० यथा रूपादिपरिहारेण रसविषयं रासनविज्ञानं रसग्रहणस्वभा. वम् , सकलार्थविषयश्चात्मा व्याप्त्यागमज्ञानाभ्यामिति । सोयं ___ "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थमवगमयितुमलं पुरुषान्" [शावरभा० १२११२] इति स्वयं ब्रुवाणो विधिप्रतिषेधविचारणानिवन्धनं साकल्येन व्याप्तिज्ञानं १५ च प्रतिपद्यमानः सकलार्थग्रहणस्वभावतामात्मनो निराकरोतीति कथं स्वस्थः ? प्रक्षीणप्रतिवन्धप्रत्ययत्वं च प्रागेव प्रलाधित. त्वान्नासिद्धम् ।
साध्यसाधनयोश्च प्रतिबन्धो न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रतिज्ञायते येनोक्तदोर्षांनुषङ्गः स्यात्, तर्काख्यप्रमाणान्तरात्तसिद्धः। २० . याप्रतिपन्नपक्षधर्मत्वो हेतुर्न प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्त्यङ्गमित्युक्तम् । तदप्यपेशलम् ; न हि सर्वज्ञोत्र धर्मित्वेनोपात्तो येनास्यासिद्धेरयं दोषः । किं तर्हि ? कश्चिदात्मा। तत्र चाविप्रतिपत्तेः। न चापक्षधर्मस्य हेतोरगमकत्वम् ।
"पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्राह्मणतानुमा। सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥” [ इति स्वयमभिधानात् । यदप्युक्तम्-सत्तासाधने सर्वो हेतुस्त्रयीं दोषजाति नातिवर्त्तत इति; तत्सर्वानुमानोच्छेदकारित्वादयुक्तम् । शक्यं हि वक्तुं धूम
१ जैनैः । २ प्रक्षीणः प्रतिबन्धलक्षणः प्रत्ययः करणं यस्य । ३ वस्तु। ४ आत्मा सकलार्थग्रहणस्वभावो भवति सकलार्थविषयत्वादित्युपरिष्टाद्योज्यम् । ५ मीमांसकः। ६ बुद्धिमान् । ७ विशेष्यम् । ८ अनवस्थेतरेतरानुषङ्गः। ९ अर्थसाक्षात्कारित्वे सत्येव प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वं लोचने सिद्धं स्तम्भादौ न दृष्टम् । अतः साध्यधर्मिणि साध्यसाधनयोः सम्बन्धसिद्धिर्भवत्येव । १० परेण । ११ अनुमाने। १२ धर्मिणः।
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२५६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० वादियद्यग्निमत्पर्वतधर्मस्तदाऽसिद्धः; कोहि नामानिमत्पर्वत. धर्म हेतुमिच्छन्नग्निमत्वमेव नेच्छेत् । तद्विपरीतधर्मश्चविरुद्ध साध्यविरुद्धसाधनाद । उभयधर्मश्चेद्व्यभिचारी सपक्षेतरयोवैत नात् । विमत्यधिकरणभावापन्नधर्मिधर्मत्वे धूमवत्वादेः सर्व ५सुस्थम् । यथा चाचलस्याचलत्वादिना प्रसिद्धसत्ताकस्य सन्दिग्धाग्निमत्त्वादिसाध्यधर्मस्य धर्मों हेतुर्न विरुध्यते, तथा प्रसिद्धा त्मत्वादिविशेषणसत्ताकस्याप्रसिद्धसर्वज्ञत्वोपाधिसत्ताकस्य च धर्मिणो धर्मः प्रकृतो हेतुः कथं विरुध्येत ?
यदपि अविशेषेण सर्वज्ञः कश्चित्साध्यते विशेषेण वेत्याद्यऽभि१० हितम् । तदप्यभिधानमात्रम् ; सामान्यतस्तत्साधानात्तत्रैव विवा
दात् । विशेषविप्रतिपत्तौ पुनर्दष्टेष्टाविरुद्धवाक्त्वादहत एवाशेषार्थज्ञत्वं सेत्स्यति । कथं वा तत्प्रतिषेधः अत्राप्यस्य दोषस्य समा. नत्वात् ? अर्हतो हि तत्प्रतिषेधसाधनेऽप्रसिद्धविशेषणः पक्षो व्याप्तिश्च न सिध्येत् , दृष्टान्तस्य साध्यशून्यतानुषङ्गात् । अनहत१५श्चेत् ; स एव दोषो वुद्धादेः परस्यासिद्धः, अनिष्टानुषङ्गश्चाहतस्तदप्रतिषेधात् । सामान्यतस्तत्प्रतिषेधे सर्व संस्थम् ।
यञ्चोक्तम्-एकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सूक्ष्माद्यर्थानां साध्यत्वेनाभिप्रेतं प्रतिनियतविषयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वं वेत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ;
प्रत्यक्षसामान्येन कस्यचित्सूक्ष्माद्यर्थानां प्रत्यक्षत्वसाधनात् । २० प्रसिद्ध च तेषां सामान्यतः कस्यचित्प्रत्यक्षत्वे तत्प्रत्यक्षस्यैकत्वमिन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षत्वात्सिध्येत् , तदपेक्षस्यैवास्यानेकत्वप्रसिद्धेः। तदनपेक्षत्वं च प्रमाणान्तरात्सिद्धयेत् ; तथाहि-योगिप्रत्यक्षमिन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षं सूक्ष्माद्यर्थविषयत्वात्, यत्पुनरिन्द्रियानिन्द्रियापेक्षं तन्न सूक्ष्माद्यर्थविषयम् यथास्सदादिप्रत्यक्षम्, २५तथा च योगिनः प्रत्यक्षम् , तस्मात्तथेति ।
किञ्च, एवं साध्यविकल्पनेनानुमानोच्छेदः । शक्यते हि वक्तुम्-साध्यधर्मिधर्मोऽग्निःसाध्यत्वेनाभिप्रेतः,दृष्टान्तधर्मिधर्मः, उभयधर्मो वा ? प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः; तद्विरुद्धेन दृष्टान्तध
१ ज्ञानवान् । २ अतश्च हेतूपन्यासो व्यर्थः । ३ अनग्निमत्पर्वतधर्मः । ४ आदिपदेन स्थूलत्वादिना। ५ आदिपदेन अमूर्त्तत्वम् । ६ सर्वशसाधने। ७ वीतो न सर्वशः पुरुषत्वाद्रथ्यापुरुषवदिति। ८ यो यः पुरुषः स सोऽर्हन् सन् सर्वशो न भवतीति । ९ अन्यथा। १० रथ्यापुरुषस्य । ११ सर्वज्ञभाव। १२ सुगतादेः । १३ मीमासकस्य । १४ तस्य सर्वज्ञत्वस्य । .१५ अस्मत्पक्षेपि समान इत्यर्थः । कथम् ? सामान्यतः सर्वशसाधने अप्रसिद्ध विशेषणः पक्ष इत्यादिदूषणानि विशेषपक्षों क्तानि नोपदौकन्ते इति । १६ प्रत्यक्षस्य । ।
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सू० २११२] सर्वज्ञत्ववादः .
२५७ मिणि तद्धर्मेणाग्निना धूमस्य व्याप्तिप्रतीतेः । साध्यविकलश्च दृष्टान्तः स्यात् । द्वितीयपक्षे तु प्रत्यक्षादिविरोधः । अथोभयगताग्निसामान्यं साध्यते तर्हि लिद्धसाध्यता।
यच्चान्यदुक्तम्-अमेयत्वं क्रिमशेषज्ञेयव्यापिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षणमस्सदादिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिखरूपं वेत्यादि तद्भूमादि-५ सकलसाधनोन्मूलनहेतुत्वान्न वक्तव्यम् । तथाहि-साध्यधर्मिधर्मो धूमो हेतुत्वेनोपात्तः, दृष्टान्तधर्मिधर्मा वा यात्, उमरगतसामान्यरूपोवा? साध्यधर्मिधर्मत्वे दृष्टान्ते तस्याभवादनन्दयो हेतु दोषः। दृष्टान्तधर्मिधर्मत्वे साध्यधर्मिण्यभावादसिद्धता । उभयगतसामान्यरूपत्वेप्यसिद्धतैव, प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वेनात्यन्तविल १० क्षणमहानसाचलप्रदेशव्यक्तिद्वयाश्रितसामान्यस्यैवासम्भवात् । अथ कण्ठाक्षिविक्षेपादिलक्षणधर्मकलापसाधान्न महानसाचलप्रदेशाश्रितधूमव्यक्योरत्यन्तवैलक्षण्यं येनोभयगतसामान्यासिद्धेरसिद्धता स्यात् । तर्हि वापूर्वार्थव्यवसायात्मकत्वादिधर्मकलापसाधर्म्यस्यातीन्द्रियेन्द्रियविषयप्रमाणव्यक्तिद्वयेऽत्यन्तवैलक्षण्य-१५ निवर्त्तकस्य सम्भवादुभयसाधारणसामान्यसिद्धेः कथं प्रमेयत्वसामान्यस्यासिद्धिः?
यञ्चेदभुक्तम्-प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां चास्याशेषार्थविषयत्वं वाध्यत इत्यादिः तन्मनोरथमात्रम्, साध्यसाधनयोाप्यव्यापकभावसिद्धौ हि व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र २० प्रदर्श्यते तत्प्रसङ्गसाधनम् । व्यापक निवृत्तौ चावश्यं भाविनी व्याप्य निवृत्तिः स विपर्ययः। न च प्रत्यक्षेत्वसत्सम्प्रयोगजत्वविधमानोपलम्भनत्वधर्माद्यनिमित्तत्वानां व्याप्यव्यापकभावः कचित् प्रतिपन्नः । स्वात्मन्येवासौ प्रतिपन्न इत्यप्यसङ्गतम् ; चक्षुरादिकरणग्रामप्रभवप्रत्यक्षस्याव्यवहितदेशकालस्वभावाविप्रैकृष्ट २५ प्रतिनियतरूपादिविषयत्वाभ्युपगमात्, नियमस्य चाभावाद्विप्र
१ महानसे पर्वतानेरभावात् । २ लौकिक । ३ सिद्धं नः ( जैनानां ) समीहितमिति पाठान्तरम् । ४ पर्वतधूमवत्त्वादित्युक्ते। ५ महानसे। ६ यो यः पर्वतधूमवान् स सोग्निमानित्यन्वयो न। ७ महानसधूमवत्त्वादित्युक्त। ८ अवीन्द्रियविषयश्चेन्द्रियविषयश्च तयोहिकं प्रमाणम् । ९ सदृशत्वप्रवर्तकस्येत्यर्थः। १० सर्वशस्य । ११ अनुमाने। १२ व्याप्य। . १३ व्यापक । १४ व्याप्य। १५ व्यापक। १६ दृष्टान्ते । १७ समीपवति । १८ यसः। १९ यथाविधे प्रत्यक्षे व्याप्यव्यापक. भावः साध्यसाधनानां प्रतिपन्नस्तथाविधेऽसौ स्यान्न सर्वज्ञत्वप्रत्यक्षे तत्र व्याप्यव्यापकमावस्याप्रतिपन्नत्वादित्यर्थः । २० यत्प्रत्यक्षशब्दावाच्यं तदव्यवहितदेशकालार्थग्राहकमिति नियमस्य ।
१७ १८
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अमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० कृष्टार्थग्राहकेपि प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वदर्शनात् । तथाहि-अनेकयोजनशतव्यवहितार्थनाहि वैनतेयप्रत्यक्षा रामायणादौ प्रसिद्धम. लोके चातिदूराग्राहि गृध्रवराहादिप्रत्यक्षम् , स्मरणसव्यपेक्षे. न्द्रियादिजन्यप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षं च कालविप्रकृष्टस्यातीतकाल५सम्बन्धित्वस्यातीतदर्शनसम्वन्धित्वस्य च पाहि पुरोवस्थितार्थ भवतैवाभ्युपगम्यते । अन्यथा--
"देशकालादिभेदेन तंत्रास्त्यवसरो मितेः। इदानीन्तनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गैतम् ॥"
[ मी० श्लो० प्रत्यक्षसू० श्लो० २३३-३४] १० इत्यादिना तस्याग्रहीतार्थाधिगन्तृत्वं पूर्वापरकालसम्बन्धित्वलक्ष.
णनित्यत्वग्राहकत्वं च प्रतिपाद्यमानं विरुध्येत । प्रातिभं च ज्ञानं शब्दलिङ्गाक्षव्यापारानपेक्षं 'श्वो से भ्राता आगन्ता' इत्याद्याकार. मनागतातीन्द्रियकालविशेषणार्थप्रतिभासं जाग्रहशायां स्फुटतरमनुभूयते। १५ किञ्च, धर्मादेरतीन्द्रियत्वाच्चक्षुरादिनानुपलम्भः, अविद्यमानत्वाद्वा स्यात् , अविशेषणत्वाद्वा? न तावदाद्यः पक्षः, अतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेरुपलम्भाभ्युपगमात् । नाप्यविद्यमानत्वात्। भाविधर्मादेरतीतकालादेरिवाविद्यमानत्वेप्युपलम्भसम्भवात् ।
अविशेषणत्वं तु तस्यासिद्धं सकललोकोपभोग्यार्थजनकत्वेन २० द्रव्यगुणकर्मजन्यत्वेन चास्याखिलार्थविशेषणत्वसम्भवात् । अतीतार्थतीन्द्रियकालादेरिवास्यापि विशेषणग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणोपपत्तेः कथं धर्म प्रत्यस्यानिमित्तत्वसाधने प्रसङ्गविपर्ययसम्भवः? प्रश्नादिमन्त्रादिना चसंस्कृतं चक्षुर्यथा कालविप्रकृष्टा
र्थस्य द्रव्यविशेषसंस्कृतं च निर्जीवकादिचक्षुर्जलाधन्तरितार्थस्य २५ ग्राहकं दृष्टम् , तथा पुण्यविशेषसंस्कृतं सूक्ष्माद्यशेषार्थग्राहि भविष्यतीति न कश्चिदृष्टस्वभावातिक्रमः। 'स्वात्मनि च यावद्भिः कारणैर्जनितं यथाभूतार्थग्राहि प्रत्यक्ष प्रतिपन्नं तथा सर्वत्र सर्वदा प्राण्यन्तरेपि' इति नियमे नक्तञ्चराणामनालोकान्ध
१ शाने। २ वराहः पिपीलिका। ३ अनिन्द्रियमादिपदेन। ४ धर्मस्य । ५ देवदत्तलक्षणे । ६ मीमांसकेन । ७ स्वभावादिरादिपदेन । ८ पूर्वप्रमाणगृहीतेथे देवदत्तलक्षणे। ९ प्रत्यभिशायाः। १० परिशातम् । ११ प्रत्यभिज्ञानस्य। १२ भवता। १३ योगजधर्मकारणधर्मोपलम्भे। १४ अनागतमादिपदेन । १५ सर्वशशनस्य । १६ अग्राहकत्वसाधने। १७ आदिपदेन संशा। १८ सत्रमादिपदेन । १९ कर्णथार। २. योगिचक्षुः।
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सू० २.१२] सर्वज्ञत्ववादः
२५९ कारव्यवहितरूपाधुपलम्भो न स्यात्स्वात्मनि तथाऽनुपलम्मात् । प्राण्यन्तरे स्वात्मन्यनुपलब्धस्यानालोकान्धकारव्यवहितरूपाधुपलम्भलक्षणातिशयस्य सन्मने सूक्ष्मायुपलम्भलक्षणातिशयोपि स्यात् । जात्यन्तरत्वं चोभयत्र समानन् । अभ्युपगस्य चाक्षजत्वं सर्वशज्ञानल्यातीन्द्रियार्थसाक्षात्कारित्वं लमर्थितं नार्थतः,५ तज्ज्ञानस्य धातिकर्नचतुष्टयक्षयोद्भूतत्वात् ।
यश्चात्य ज्ञानं चक्षुरादिजनितं वेत्याद्यभिहितम् । तदप्यचारु; चक्षुरादिजन्यत्वेऽप्यनन्तरं धर्मादिग्राहकत्वाविरोधस्योत्तत्वात् ।
यच्चाभ्यासजनितत्वेऽभ्यासो हीत्यायुक्तम् । तदव्ययुक्तम् । "उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" [तत्त्वार्थसू० ५।३०] इत्यखिलार्थ-१० विषयोपदेशस्याविसंवादिनो ज्ञानस्य च सामान्यतः सम्भवात् । न च तज्ज्ञानवंत एवाशेषज्ञत्वाद्याभ्यासः तस्य सामान्यतोऽस्पष्टरूपस्यैवाविर्भावात्, अभ्यासस्य तत्प्रतिवन्धकापायसहायस्याशेषविशेपविषयस्पष्टज्ञानोत्पत्तौ व्यापारात् । नाप्यन्योन्याश्रयः, अभ्यासादेवाखिलार्थविषयस्पष्टज्ञानोत्पत्तेरनभ्युपंगमात् । १५
शब्दप्रभवपक्षेप्यन्योन्याश्रयानुपङ्गोऽसङ्गतः; कारकपक्षे तद्सम्भवात् । पूर्वसर्वज्ञप्रणीतागमप्रभवं तस्याशेषार्थज्ञानम्, तस्याप्यन्यसर्वज्ञागमप्रभवम् । न चैवमनवस्थादोषानुङ्गः, बीजाडरवदनादित्वेनाभ्युपगमादागमसर्वज्ञपरम्परायाः।
यच्चानुमानाविर्भावितत्वपक्षे सम्बन्धासिद्धरित्युक्तम्; तदस-२० मीचनम् ; प्रमाणान्तरात्सम्वन्धसिद्धेरभ्युपगमात् । न खलु कश्चित्तस्यागोचरोस्ति सर्वत्रेन्द्रियातीन्द्रिय विषये प्रवृत्तेरन्यथा तत्रा. नुमानाप्रवृत्तिप्रसङ्गात् , तत्य तन्निवन्धनत्वात् ।
यच्चानुमानागमज्ञानस्य चास्पष्टत्वादित्यभिहितम् । तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; न हि सर्वथा कारणसदृशमेव कार्य विलक्षण-२५ स्थाप्यकुरादेवीजादेरुत्पत्तिदर्शनात् । सर्वत्र हि सामग्रीभेदात्कार्यभेदः । अत्राप्यागमादिज्ञानेनाभ्यासप्रतिबन्धकापायादिसामग्रीसहायेनासादिताशेषविशेषवैशा विज्ञानमाविर्भाव्यते । __ भावनावलादैशये कामाद्युपप्लुतज्ञानवत्तस्याप्युपप्लुतत्वप्रसङ्गः
१ नक्तञ्चरादौ सर्वशलक्षणे प्राण्यन्तरे च । २ परमार्थतः। ३ सर्वशस्य । ४ पुरुषस्य । ५ अशेषविशेषविषयस्पष्टशान। ६ केवलात् । ७ जनैः । ८ उत्तरसर्वज्ञस्य । ९ तर्कलक्षणात् । १० इन्द्रियतीन्द्रियाविषये प्रवृत्तिर्न स्यापदि । ११ सर्वथे। १२ मादिपदेनानुमानम् । १३ आदिपदेन देशकालादि । १४ मशेषशज्ञानस्य ।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे [ २. प्रत्यक्षपरि०
इत्यप्यसाम्प्रतम् यतो 'भवनाला ज्ञानं वैशद्यमनुभवेति' इत्येतावन्मात्रेण तज्ज्ञानस्य दृष्टान्तोपपत्तेः । न चाशेषदृष्टान्तधर्माणां साध्यधर्मिण्यापादनं युक्तं सकलानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् । न चाशेषशज्ञानं क्रमेणाशेषार्थ ग्राहीष्यते येन तत्पक्ष निक्षिप्तदोषोप१ निपातः सकलावरणपरिक्षये सहस्रकिरणवद्युगपनिखिलार्थीद्द्योतनस्वभावत्वात्तस्य कारणक्रमव्यवधानातिवर्त्तित्वाच्च ।
२६०
यच्चोक्तम्- युगपत्परस्परविरुद्धशीतोष्णाद्यर्थानामेकत्र ज्ञाने प्रतिभासासम्भवः, तदप्यसारम् ; तत्र हि तेषामभावादप्रतिभासः, ज्ञानस्यासामर्थ्याद्वा ? न तावद्भावात्; शीतोष्णाद्यर्थानां सकृ१० त्सम्भवात् । ज्ञानस्यासामर्थ्यादित्यसत्; परस्परविरुद्धानामन्धकारोयतादीनामेकत्र ज्ञाने युगपत्प्रतिभाससंवेदनात् । सकृदेकत्र विरुद्धार्थानां प्रतिभासासम्भवे 'यत्कृतकं तदनित्यम' इत्यादिव्याप्तिश्च न स्यात्, साध्यसाधनरूपतया तयोर्विरुद्धत्व - सम्भवात् । नाप्येकत्र तेषां प्रतिभासे तज्ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थ१५ ग्राहकत्व विरोधः; अन्धकारोयोतादिविरुद्धार्थग्राहिणोऽपि
प्रतिनियतार्थ ग्राहकत्वप्रतीतेः ।
यच्चान्यदुक्तम्-एकक्षण एवाशेषार्थग्रहणाद्वितीयक्षणेऽज्ञः स्यात् ; तदप्यसम्बद्धम् ; यदि हि द्वितीयक्षणेऽर्थानां तज्ज्ञानस्य चाभावस्तदाऽयं दोषः । न चैवम्, अनन्तत्वात्तद्वयस्य । पूर्व हि २० भाविनोऽर्था भावित्वेनोत्पत्स्यमानतया प्रतिपन्ना न वर्त्तमानत्वेनोत्पन्नतया वा । साप्युत्पन्नता तेषां भवितव्यतया प्रतिपन्ना न भूततया । उत्तरकालं तु तद्विपरीतत्वेन ते प्रतिपन्नाः । यदा हि यद्धर्मविशिष्टं वस्तु तदा तंज्ज्ञाने तथैव प्रतिभासते नान्यथा विभ्रमप्रसङ्गात् इति कथं गृहीतग्राहित्वेनाप्यस्याप्रामाण्यम् ? २५ यच्चेदं परस्थरागादिसाक्षात्करणाद्रागादिमानित्युक्तम् ; तदप्ययुक्तम् तथापरिणामो हि तत्त्वकारणं न संवेदनमात्रम्, अन्यथा 'मद्यादिकमेवंविधरसम्' इत्यादिवाक्यात्तच्छ्रोत्रियो यदा प्रतिपद्यते तदाऽस्यापि तद्रसास्वादनदोषः स्यात् । अरस: नेन्द्रियजत्वातैस्यादोषोयम् इत्यन्यत्रपि समानम् । न हि सर्व
१ प्राप्नोति । २ सर्वशशाने । ३ जैनैः । ४ धूपदद्दनाद्यवयविनि । ५ आदि, पदेना हिनकुलादीनां च । ६ कृतकत्वानित्यत्वयोः । ७ अशत्वलक्षणः । ८ भावि - नोऽर्थाः। ९ सर्वशज्ञाने । १० उत्पत्स्यमानतादिनिरूपणप्रकारेण । ज्ञानस्य । १२ रागादिरूपतया । १३ तत्त्वस्य रागादिमत्त्वस्य । १५ मद्यादिज्ञानस्य । १६ सर्वज्ञशानेपि ।
११ सर्वश१४ जानाति ।
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सू० २।१२] . सर्वज्ञत्ववादः
२६१ शज्ञानमिन्द्रियप्रभवं प्रतिज्ञायते । किञ्चाङ्गनालिङ्गनसेवनाद्यनिलाषस्येन्द्रियोद्रेकहेतोराविर्भावाद्रागादिमत्त्वं प्रसिद्धम् । न चासो प्रक्षीणमोहे भगवत्यस्तीति कथं रागादिमत्त्वस्याशङ्कापि ।
यदप्यभिहितम्-कथं चातीतादेव्रहणं तत्स्वरूपासम्भवादित्यादि तदप्यसारम् ; यतोऽतीतादेरतीतादिकालसम्बन्धित्वेना-५ सत्वन् , तज्ज्ञानकालसम्बन्धित्वेन वा ? नाद्यः पक्षो युक्तः: वर्त्तमानकाल सम्वन्धित्वेन वर्तमानस्येव वकालसम्वन्धित्वेनातीदादेरपि सत्वसम्भवात् । वर्तमानकालसम्बन्धित्वेन त्वतीतादेरसत्त्वमभिमैतमेव, तत्कालसम्बन्धित्वतत्सत्त्वयोः परस्परं भेदात् । न चैतत्कालसम्वन्धित्वेनासत्त्वे वकालसम्वन्धित्वेनाप्यतीतादेर १० सत्त्वम् । वर्तमानकालसम्बन्धिनोप्यतीतादिकालसम्वन्धित्वेनासत्त्वात् तस्याप्यसत्त्वप्रसङ्गात् सकलशून्यतानुषङ्गः। न चातीतादेः सत्त्वेन ग्रहणे वर्त्तमानत्वानुषङ्गः; स्वकालनियतसत्त्वरूपतयैव तस्य ग्रहणात् । ननु चातीतादेस्तज्ज्ञानकाले असन्निधानाकथं प्रतिभासः, सन्निधाने वा वर्तमानत्वप्रसङ्गः प्रसिद्धवर्त-१५ मानवत् ; इत्यपि मन्त्रादिसंस्कृतलोचनादिज्ञानेन व्याप्तिज्ञानेन च प्रागेव कृतोत्तरम् ।
अथोच्यते-'पूर्व पश्चाद्वा यदि कंचित्कदाचिन्निखिलदर्शिनो विज्ञानं विश्रान्तं तर्हि तावन्मात्रत्वात्संसारस्य कुतोऽनाद्यनन्तता ? अथ न विश्रान्तं तर्हि नानेकयुगसहस्रेणापि सकलसंसा-२० रसाक्षात्करणम्' इति; तदप्युक्तिमात्रम्। यतः किमिदं विश्रान्तत्वं नाम? किं किञ्चित्परिच्छेद्याऽपरस्यापरिच्छेदः, सकलविषयदेशकालगमनासामर्थ्यावान्तरेऽवस्थानं वा, क्वचिद्विपये उत्पद्य विनाशो वा? न तावदाद्यविकल्पो युक्तः, अनभ्युपगमात् । न खलु सर्वज्ञज्ञानं क्रमेणार्थपरिच्छेदकम् , युगपदशेषार्थोद्योत-२५ कत्त्वात्तस्येत्युक्तम् । द्वितीयविकल्पोप्यनभ्युपगमादेवायुक्तः । न हि विषयस्य देशं कालं वा गत्त्वा ज्ञानं तत्परिच्छेदकमिति केनाप्यभ्युपगतम् , अप्राप्यकारिणस्तस्य क्वचिद्गमनाभावात् । केवलं यथाऽनाद्यनन्तरूपतया स्थितोर्थस्तथैव तत्प्रतिपद्यते । तृतीयविकल्पोप्ययुक्तः, क्वचिद्विषये तस्योत्पन्नस्यात्मस्वभावतया विना-३० शासम्भवात् । न हि स्वभावो भाँवस्य विनश्यति स्फटिकस्य
१ बसः। २ अर्धस्य । ३ जनानाम् । ४ तस्यातीतार्थस्य । ५ अन्यथा । ६ अतीतकाल। ७ वर्तमानज्ञानकाले। ८ उत्तरत्र। ९ अर्थे । १० समाप्तम् । ११ ता। १२ कमिश्चिद्वस्तुनि । १३ जनानाम् । १४ जनानाम् । १५ ज्ञानस्य । १६ पदार्थस्य ।
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२६२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
२. प्रत्यक्षपरि०
स्वच्छतादिवत् , अन्यथा तस्याप्यभावः स्यात् । औपाधिकमेव हि रूपं नश्यति यथा तस्यैव रक्तिमादि । कथं चैववादिनो वेदस्या नाद्यनन्तताप्रतिपत्तिस्तत्राप्युक्तविकल्पानामवतारात् ? कथं साध्यसाधनयोः साकल्येन व्याप्तिप्रतिपत्तिः, सामान्येन व्याप्ति१ प्रतिपत्तावप्यनाद्यनन्तसामान्यप्रतिपत्तावुक्तदोषानुषङ्ग एव ।
यञ्चोक्तम्-'कथं चासौ तत्कालेप्यऽसर्वातुं शक्यते? तदापि फल्गुप्रायम् ; विषयापरिज्ञाने विषयिणोप्यपरिज्ञानाभ्युपगमे को जैमिन्यादेः सकलवेदार्थपरिज्ञान निश्चयोऽसकलवेदार्थविदीम ? तदनिश्चये च कथं तद्व्याख्यातार्थाश्रयणादग्निहोत्रादावनुष्ठाने १० प्रवृत्तिः ? कथं वा व्याकरणादिसकलशास्त्रार्थापरिज्ञाने तदर्थज्ञतानिश्चयो व्यवहारिणाम् ? यतो व्यवहारप्रवृत्तिः स्यात् ।
सुनिश्चितासम्भवद्बाधकप्रमाणत्वाच्चाशेषार्थवेदिनो भगवतः सत्त्वसिद्धिः। न चेद्मसिद्धम् ; तथाहि-सर्वविदोऽभावः प्रत्यक्षेणाधिगम्यः, प्रमाणान्तरेण वा ? न तावत्प्रत्यक्षेण; तद्धि सर्वत्र १५ सर्वदा सर्वः सर्वज्ञो न भवतीत्येवं प्रवर्त्तते, क्वचित्कदाचित्कश्चिद्वा? प्रथमपक्षे न सर्वज्ञाभावस्तज्ज्ञानवत एवाशेषज्ञत्वात् । न हि सकलदेशकालाश्रितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणमन्तरेण प्रत्यक्षतस्तदाधारमसर्वशत्वं प्रत्येतुं शक्यम् । द्वितीयपक्षे तु न सर्वथा
सर्वज्ञाभावसिद्धिः। २० अथ न प्रवर्त्तमान प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकं किन्तु निवर्तमानम् । ननु कारणस्य व्यापकस्य वा निवृत्तौ कार्यस्य व्याप्यस्य वा निवृत्तिः प्रसिद्धा नान्यनिवृत्तावन्य निवृत्तिरतिप्रसङ्गीत् । न चाशेषज्ञस्य प्रत्यक्षं कारणं व्यापकं वा येन तन्निवृत्तौ सर्वस्यापि निवृत्तिः । न चैवं घटाद्यभावासिद्धिः एकज्ञानसंसर्गिपदार्था
१ जपाकुसुमादिजनितम् । २ सर्वज्ञज्ञानस्य क्वचिद्विश्रान्तत्वान्न सर्वज्ञत्वमित्येवं वादिनः। ३ वेदस्यानाधनन्तताग्राहकं जैमिन्यादिज्ञानं क्वचिद्विश्रान्तमित्यादि। ४ किञ्च। ५ व्याप्तिर्विशेषतः प्रत्येतुं नायाति व्यक्तीनामानन्त्यात् । अतः सामान्येनेत्युक्तम् । ६ सामान्यमनाद्यनन्तमीदृशसामान्यस्य ग्राहकं व्याप्तिशानं कचिद्विश्रान्तं न वेत्यादि । ७ सर्वशः । ८ सर्वश । ९ अर्थ । १० ज्ञानस्य । ११ भवादृशाम् । १२ स्वात्मनि सुखादिवत् । १३ अस्मदादेः। १४ अग्न्यादेः। १५ वृक्षत्वस्य । १६ धूमादेः । १७ शिंशपात्वस्य । १८ अकारणस्याऽव्यापकस्य वा। १९ अकार्यस्याऽव्याप्यस्य वा। २० घटनिवृत्तौ पटनिवृत्तिप्रसङ्गात् । २१ अस्मदादेः । २२ सर्वशाभावासिद्धिप्रकारेण । कथम् ? न प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं घटाभावसाधकं किन्तु निवर्तमानमित्युक्ते ननु कारणस्येत्यादिग्रन्थो निवृत्तिपर्यन्तः । किन्तु सर्वशपदस्थाने घटपदं पठनीयम् ।
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सू० २।१२ ]
सर्वज्ञत्ववादः
२६३
न्तरोपलम्भात् क्वचित्तत्सिद्धेः । न चात्राप्ययं न्याय: समानस्तत्संसर्गिण एव कैस्यचिदभावत्, अन्यथा सर्वत्र तदभावविरोधो घटादिवत् । तन्न प्रत्यक्षेणाधिगम्यस्तदभावः ।
;
नाप्यनुमानेन विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति वक्तृत्वाद्रथ्यापुरुषवदित्यनुमाने हि प्रमाणान्तरसंवादिनोऽर्थस्य ५ वक्तृत्वं हेतुः तद्विपरीतस्य वा स्यात्, वक्तृत्वमात्रं वा ? प्रथमपक्षे विरुद्ध हेतुः प्रमाणान्तरसंवा दिसूक्ष्माद्यर्थवक्तृत्वस्याशेयज्ञे एव भावात् । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाधनम् तथाभूतस्य वक्तुरसर्वज्ञत्वेनास्माभिरभ्युपगमात् । वक्तृत्वमात्रस्य तु हेतोः साध्यंविपर्ययेण सर्वज्ञत्वेनानुपलब्धेन सह सहानवस्थानपरस्प- १० रपरिहारस्थितिलक्षणविरोधीसिद्धेस्ततो व्यावृत्यभावान्न खसाध्यनियैतत्वं यतो गमकत्वं स्यात् । सर्वज्ञे वक्तृत्वस्यानुपलब्धेस्ततो व्यावृत्तिरित्यभ्यसम्यकू, सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्यासिद्धेः तेनैव सर्वज्ञान्तरेण वा तत्र तस्योपलम्भसम्भवात् । सर्वज्ञस्य कस्यचिद्भावात्सर्वसम्वन्धिनोऽनुपलम्भस्य सिद्धिरित्यस - १५ ङ्गतम्, प्रमाणान्तरात्तत्सिद्भाव वैयर्थ्यात् । अतः सिद्धौ चक्रकानुषङ्गः । नापि स्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भात्तद्व्यतिरे के निश्चयः। अस्य परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात् ।
,
न चाखिलसाधनेषु दोषस्यास्य समानत्वान्निखिलानुमानोच्छेदः, तत्र विपक्षव्यावृत्तिनिमित्तस्यानुपलम्भव्यतिरेकेण प्रेमा- २० णान्तरस्य भावात् । न चात्र कार्यकारणभावः प्रसिद्धः; असर्वज्ञत्वधैर्मानुविधानाभावाद्वचनस्य । द्धि यत्कार्य तत्तद्धर्मानुविधायि प्रसिद्धं न्ह्यादिसामग्रीगत सुरभिगन्धाद्यैनुविधायिधूम
१ भूतल ! २ घटाद्यभाव । १३ सर्वज्ञेपि । ४ एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भात् क्वचिद् घटाभावप्रतिपत्तिलक्षणः । ५ प्रदेशस्य । ६ एकज्ञानसंसर्गिको पि कश्चित्प्रदेशो भवेद्यदि । ७ आदिपदेनान्तरितं दूरम् । ८ जैनै: नैः । ९ सर्वशाभाव । १० अतश्च सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिको हेतुः । १९ वक्तृत्वमात्रस्य । १२ अविनाभूतत्वम् । १३ वक्तृत्वस्य । १४ प्रकृतसर्वज्ञेन । १५ प्रकृतानुमानस्य । १६ वक्तृत्वानुमानस्य । १७ वक्तृत्वानुमानात्सर्वशाभावसिद्धिस्तत्सिद्धौ च सर्वशात्साधनस्य व्यावृत्तिसिद्धिरतश्चानुमानमिति । १८ वक्तृत्वस्य । १९ सर्वशलक्षणाद्विपक्षाद् व्यावृत्तिनिश्चयः । २० अभावसाध्यसाधकानां निखिलसाधनानां पक्षेनुपलम्भः सर्वसम्बन्धी आत्मसंबन्धीवेत्याद्युक्ते असिद्धानैकान्तिकत्वलक्षणस्य । २१ यत्राग्निर्नास्ति तत्र धूमोपि नास्ति । २२ ऊहस्य । २३ वक्तृत्वासर्वज्ञत्वयोः । २४ यसः । २५ वचनम• सर्वज्ञकार्थं न भवति तद्धर्मानुविधानाभावात् । २६ सन्दिग्धानैकान्तिकत्वे सतीदमाह । २७ यसः । २८ आदिपदेन श्रीगन्ध ।
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२६४
प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० वत् । तथाहि असर्वज्ञत्वं सर्वज्ञत्वादन्यत्पर्युदासवृत्त्या किजि. ज्ञत्वमभिधीयते । न च तत्तरतमभावाद्वचनस्य तथाभावो दृश्यते तद्विप्रकृष्टमत्यल्पज्ञानेषु कृम्यादिषु, न च तत्र वचनप्रवृत्तःप्रकर्षा दृश्यते । अथ प्रसज्यप्रतिषेधवृत्त्या सर्वशत्वाभावोऽसर्वज्ञत्वं ५ तत्कार्य वचनम् ; तर्हि ज्ञानरहिते मृतशरीरादौ तस्योपलम्भप्रसङ्गो ज्ञानातिशयवत्सु चाखिलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनातिशयो. पलम्भो न स्यात् । न चैवम् , ततो ज्ञानप्रकर्षतरतमाद्यनुविधानदर्शनात्तस्य तत्कार्यता सातिशयतक्षादिकारणधर्मानुविधायि. प्रासादादिकार्यविशेषवत् । तन्नानुमानात्तदभाव सिद्धिः । १० नाप्यागमात् , स हि तत्प्रणीतः, अन्यप्रणीतः, अपौरुषेयो वा
तदभावसाधकः स्यात् ? तत्र यद्यागमप्रणेता सकलं सकलज्ञवि. कलं साक्षात्प्रतिपद्यते युक्तोसौ तंत्र प्रमाणम्, किन्तु विद्यमा. नोपि न प्रकृतार्थोपयोगी, तथा प्रतिपद्यमानस्य तस्यैवाशेषज्ञत्वात् । न प्रतिपद्यते चेत्, तर्हि रथ्यापुरुषप्रणीतागमवन्नासौ १९तत्र प्रमाणम् । न ह्यविदितार्थस्वरूपस्य प्रणेतुः प्रमाणभूतागमप्रणयनं नामातिप्रसङ्गात् । द्वितीयविकल्पेप्येतदेव वक्तव्यम् ।
अपौरुषेयोप्यागमो जैमिन्यादिभ्यो यदि सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावं प्रतिपादयेत्तर्हि सर्वस्मै प्रतिपादयेत् केनचित् सह
प्रत्यासत्तिविप्रकर्पविरहात् । तथा च२० "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो वाहुरुत विश्वतः पात् ।” [श्वेताश्वत० ३।३]
सं वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहुरग्यं पुरुषं महान्तम् ।” [ श्वेताश्वत० ३।१९] "हिरण्यगर्भ" [ऋग्वेद अष्ट०८ मं० १० सू० १२१ ] प्रकृत्य "सर्वज्ञः" इत्यादौ न न कस्यचिद्वि२५प्रतिपत्तिः स्यात्-'किमनेन सर्वज्ञः प्रतिपाद्यते कर्मविशेषो
वा स्तूयते' इति । न खलु प्रदीपप्रकाशिते घटादौ कस्यचिद्विप्रतिपत्तिः-'किमयं घटः पटो वा' इति । न च स्वरू
१ यदि । २ सर्वथा ज्ञानाभावः । ३ ज्ञानातिशय । ४ यसः। ५ सातिशयत्व । ६ सर्वसकलज्ञविकलत्वे। ७ सर्वज्ञाभावलक्षणेऽर्थे । ८ सर्वज्ञाभावे । ९ रथ्यापुरुषस्य प्रमाणभूतागमप्रणेतृत्वं स्यात् । १० मीमांसकेन नैयायिकादिना च। ११ प्रस्तुत्य । १२ वेदवाक्येन। १३ यागलक्षणः ।
1 'सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैः द्यावाभूमी जनयन् देव एकः' इत्युत्तरार्द्धम् । 2 'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः' इति पूर्वार्द्धम् ।
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सू० २११२] सर्वज्ञत्ववादः पेऽस्याप्रामाण्यम् । अविसंवादो हि प्रमाणलक्षणं कार्ये स्वरूपे वार्थे, नोन्यत् । यत्र सोस्ति तत्प्रमाणम् । न चाशेषज्ञाभावावेदकं किञ्चिद्वेवाक्यमस्ति, तत्सद्भावावेदकस्यैव श्रुतेः । तन्नागमादप्यस्याभावसिद्धिः
नाप्युपमानात् : तत्खलूपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सति साह-५ झ्यावलस्वनमुदयमासादयति नान्यथा! न चात्रत्येदानीन्तनोपमानभूताशेषपुरुषप्रत्यक्षत्वम् उपमेयभूताशेपान्य देशकालपुरुषप्रत्यक्षत्वं चाभ्युपगम्यते; सर्वज्ञसिद्धिप्रसङ्गात् , निखिलार्थप्रत्यक्षत्वमन्तरेणाशेषपुरुषपरिषत्साक्षात्कारित्वासम्भवात् ।
नाप्यर्थापत्तेस्तदभावावगमः; सर्वज्ञाभावमन्तरेणानुपजायमा-१० नस्य प्रमाणषकविज्ञातस्य कस्यचिदर्थस्यासम्भवात् । वेदप्रामाग्यस्य गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वे सत्येव भावात् । अपौरुषेयत्वस्याग्रे विस्तरतो निषेधात् । न चार्थापत्तिरनुमानात्प्रमाणान्तरमित्यग्रे वक्ष्यते । तद्वत्रापि व्यास्यादिचिन्तायां दोषान्तरं चापादनीयम् ।
नाप्यभावप्रमाणात्तभावसिद्धिः, तस्यासिद्धेः, तदसिद्धिश्चा-१५ भावप्रमाणलक्षणस्य
"प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि ॥"
[मी० श्लो० अभावप० श्लो० ११] इत्यादेः प्रागेव विस्तरतो निराकरणात्सिद्धा। इत्यलमतिप्रसङ्गेन । २० न चानुमाने तत्सद्भावावेदके सत्येतत्प्रवर्त्तते
"प्रमाणपश्चकं यंत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥"
[मी० श्लो० अभावप० श्लो०१] इत्यभिधानात् । किञ्च, अभावप्रमाणं
"गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥"
[मी० श्लो० अभावप० श्लो० २७ ] इति सामग्रीतः प्रादुर्भवति । न चाशेषज्ञनास्तिताधिकरणाखिलदेशकालप्रत्यक्षता कस्यचिदस्त्यतीन्द्रियार्थदर्शित्वप्रसङ्गात् ।३०
१ श्रुतिवाक्यस्य । २ प्रवर्तकम् । ३ प्रमाणत्वेनाङ्गीकृतवचनादौ। ४ अभ्युप. गम्यते चेत्तर्हि सर्वशो वेदप्रामाण्यान्यथानुपपत्तेः । ५ सपक्षेऽन्वयादि । ६ विचारणायाम् । ७ आश्रयासिद्धिलक्षणाद्दोषादन्यत्सम्बन्धाप्रतिपत्त्यनवस्थेतरेतराश्रयलक्षणं दोषान्तरम् । ८ अभावप्रमाणदूषणविस्तरेण । ९ घटासदंशलक्षणे।
प्र० क० मा० २३
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० नाप्यशेपज्ञः क्वचित्कदाचित्केनचित्प्रतिपन्नो येनासौ स्मृत्वा लिन ध्येत, सर्वत्र सर्वदा तनिषेधविरोधात्। न च निषेध्यनिषेध्याधार योरप्रतिपत्तौ निषेधो नामातिप्रसङ्गात् । न ह्यप्रतिपन्ने भूतले घटे च घटनिषेधो घटते। यथा चाभावप्रमाणस्योत्पत्तिः स्वरूपं विषये ५वा न सम्भवति तथा प्राक्प्रपञ्चेनोक्तमिति कृतमतिप्रसङ्गेन।
तन्नाभावप्रमाणाप्यशेषज्ञाभावसिद्धिः । तदेवं सिद्धं सुनिश्चित तासम्भवद्वाधकप्रमाणत्वमप्यशेषज्ञस्य प्रसाधकम् इत्यलमति सङ्गेन।
ननु चावरणविश्लेषादशेषवेदिनो विज्ञानं प्रभवतीत्यसाम्प्रतम: १० तस्यानादिमुक्तत्वेनावरणस्यैवासम्भवादिति चेत्, तदयक्तम
अनादिमुक्तत्वस्यासिद्धेः । तथाहि-नेश्वरोऽनादिमुक्तो मुक्तत्वा त्तदन्यमुक्तवत् । वन्धापेक्षया च मुक्तव्यपदेशः, तदहिते चास्याप्यभावः स्यादाकाशवत्।
ननु चानादिमुक्तत्वं तस्यानादेः क्षित्यादिकार्यपरम्परायाः कर्तृ१५त्वात्सिद्धम् । न चास्य तत्कर्तृत्वमसिद्धम् ; तथाहि-क्षित्यादिकं बुद्धिमद्धेतुकं कार्यत्वात्, यत्कार्य तद्बुद्धिमद्धेतुकं दृष्टम् यथा घटादि, कार्य चेदं क्षित्यादिकम् , तस्माद्बुद्धिमद्धेतुकम् । न चात्र कार्यत्वमसिद्धम् । तथाहि-कार्य क्षित्यादिकं सावयवत्वात् ।
यत्सावयवं तत्कार्य प्रतिपन्नम् यथा प्रासादादि, सावयवं चेदम्, २० तस्मात्कार्यम्।
ननु क्षित्यादिगतात्कार्यत्वात्सावयवत्वाच्चान्यदेव प्रासादादौ कार्यत्वं सावयवत्वं च यदक्रियादर्शिनोपि कृतवुयुत्पादकम् , ततो दृष्टान्तदृष्टस्य हेतोधर्मिण्यभावादसिद्धत्वम् ; इत्यसमीक्षिता. भिधानम् । यतोऽध्युत्पन्नान्प्रतिपत्तॄनधिकृत्यैवमुच्यते, व्युत्प२५ न्नान्वा ? प्रथमपक्षे धूमादावप्यसिद्धत्वप्रसङ्गात्सकलानुमानो.
च्छेदः । द्वितीयपक्षे तु नासिद्धत्वम् ; कार्यत्वादेवुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन प्रतिपन्नाविनाभावस्य क्षित्यादौ प्रसिद्धः पर्वतादौ
१ सर्वशसद्भावे प्रमाणोपन्यासविस्तरेण । २ अशेषवेदी सावरणो न भवति अनादिमुक्तत्वाद् । यः सावरणः सोनादिमुक्तो न भवति यथा स्तम्भादिः। ३ मुक्तो भवति अनादिमुक्तो भवतीति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सतीदं वक्यमाह । ४ ईश्वरो मुक्तव्यपदेशभाग न भवति बन्धरहितत्वादाकाशवत्। ५ पुरुषस्य । ६ कार्यत्वस्य सावयवत्वस्य च। ७ प्रासादादौ यदक्रियादर्शिनः कृतबुद्ध्युत्पादकं दृष्टं कार्यत्वं सावयत्वं वा साधनं तत् क्षित्यादौ नास्तीत्यसिद्धत्वमिति । ८ साध्यासाधनप्रतिपत्तिरहितान् । ९ यथाविधो धूमो दृष्टान्ते प्रतिपन्नस्तथाविधस्य दार्शन्तिकेऽभावात् । १० नुः ।
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सू० २।१२]
ईश्वरवादः
२६७
धूमादिवत्। दृष्टान्तोपलब्धकार्यत्वादेस्ततो भेदे पर्वतादिधमान्महानसधूमस्यापि भेदः स्यात् ।
ननु कार्यत्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेनाविनाभावोऽसिद्धः, अष्टप्रभवैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारात्: तन्न; साध्याभावेपि प्रवर्त्तमानो हेतुर्व्यभिचारीत्युच्यते, न च तत्र कत्रभावो निश्चितः ५ किन्त्वग्रहणम् । उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे हि ततः कर्तुरभावनिश्चयः, न च तत्तस्येष्यते ।
अथ क्षित्याद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानोपलम्भात्तेपां नातिरितस्य कारणत्वकल्पना अतिपँसङ्गात् ; तर्हि धर्माधर्मयोरपि तत्र कारणता न भवेत् । न च तयोरकारणतैव; तस्तृणादीनां सुख-१० दुःखसाधनत्वाभावप्रसङ्गात् , धर्माधर्मनिरपेक्षोत्पत्तीनां तद्साधनत्वात् । न चैवम् , न हि किञ्चिजगत्यस्ति वस्तु यत्साक्षात्परम्परया वा कस्यचित्सुखदुःखसाधनं न स्यात् ।
ननु क्षित्यादिसामग्रीप्रभवेषु स्थावरादिपु 'बुद्धिमतोऽभावादग्रहणं भावेप्यनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाद्वा' इति सन्दिग्धो व्यति-१५ रेकः कार्यत्वस्य; इत्यप्यपेशलम् : सकलानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् । यत्र हि वढेरदर्शने धूमो दृश्यते तत्र-'किं वह्वेरदर्शनमभावादनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाद्वा' इत्यस्यापि सन्दिग्धव्यतिरेकत्वान्न गमकत्वम् । यया सामय्या धूमो जन्यमानो दृष्टस्तां नातिवर्त्तते इत्यन्यत्रापि समानम्-कार्य कर्तृकरणादिपूर्वकं कथं तदतिक्रम्य २० वर्तेतातिप्रसङ्गीत् ?
अनुपलम्भस्तु शरीराद्यभावान्न त्वसत्त्वात् , यत्र हि सशरीरस्य कुलालादेः कर्तृता तत्र प्रत्यक्षेणोपलम्भो युक्तोऽत्रं तु चैतन्यमात्रेणोपोंदानाद्यधिष्ठानान्न प्रत्यक्षप्रवृत्तिः । न च शरीराद्यभावे कर्तृत्वाभावस्तस्य शरीरेणाविनाभावाभावात् । शरीरान्तररहि-२५ तोपि हि सर्वश्चेतनः वशरीरप्रवृत्तिनिवृत्ती करोतीति, प्रयत्नेच्छावशात्तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणकार्याविरोधे प्रकृतेपि सोस्तु। शानचिकीर्षाप्रयत्नाधारता हि कर्तृत्वम् न सशरीरेतरता, घटादि
१ ता। २ क्षित्यादिगतकार्यत्वादेः(पञ्चमी)। ३ असिद्धत्वे उद्भाविते सकलानुमानोच्छेदः प्रत्युत्तरमित्यर्थः । ४ भूरुहादिभिः। ५ ईश्वरस्य । ६ ईश्वरस्य । ७ कुम्भकारान्वयव्यतिरेकानुविधायिनि घटे तन्तुवायस्य हेतुत्वं स्यात् । ८ कर्तुः । ९ विपक्षव्यावृत्तिः। १० पर्वते। ११ साधनस्य। १२ महानसप्रदेशे। १३ कार्यत्वे । १४ दृष्टम् । १५ घटोपि कुम्भकारहेतुको न स्यात् । १६ ईश्वरस्य । १७ स्थावरादिकायें । १८ शानमात्रेण । १९ कर्तुः । २० प्रेरणात् । २१ स्थावरादौ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डै [२. प्रत्यक्षपरि० कार्य कर्तुमजानतः सशरीरस्यापि तत्कर्तृत्वादर्शनात् , जानतो. पीच्छापाये तदनुपलम्भात्, इच्छतोपि प्रयत्नाभावे तदसम्भ वात् , तत्रयमेव कारकप्रयुक्ति प्रत्यङ्गं न शरीरेतरता।
न च दृष्टान्तेऽनीश्वरासर्वज्ञकृत्रिमज्ञानवता कार्यत्वं व्याप्त ५प्रतिपन्नमित्यत्रापि तथाविधमेवाधिष्ठातारं साधयतीति विशेष विरुद्धता हेतोः इत्यभिधातव्यम् ; बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमात्रस्य साध्यत्वात्। धूमाद्यनुमानेपि चैतत्समानम्-धूमो हि महानसादिदे. शसम्बन्धितार्णपार्णादिविशेषाधारेणाग्निना व्याप्तः पर्वतेपि तथा विधमेवाग्निं साधयेदिति विशेषविरुद्धः । देशादिविशेषत्यागेना. १० ग्निमात्रेणास्य व्याप्तेन दोपः इत्यन्यत्रापि समानम् ।
सर्वज्ञता चास्याशेषकार्यकरणात्सिद्धा । यो हि यत्करोति स तस्योपादानादिकारणकलापं प्रयोजनं चावश्यं जानाति, अन्यथा तक्रियाऽयोगात्कुम्भकारादिवत् । तथा "विश्वतश्चक्षुः" श्वेता.
श्वतरोप० ३॥३] इत्यागमादप्यसौ सिद्धः १५ "द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य विभयव्यय ईश्वरः ॥२॥"
[भगवद्गी० १५।१६-१७ ] २० इति व्यासवचनसद्भावाच ।
न च स्वरूपप्रतिपादकानामप्राण्यम् ; प्रेमाजनकत्वस्य सद्भा. वात् । प्रमाजनकत्वेन हि प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृत्तिजनकत्वेन, तञ्चहास्त्येव । प्रवृत्तिनिवृत्ती तु पुरुषस्य सुखदुःखसाधनत्वा. ध्यवसाये समर्थस्यार्थित्वाद्भवतः । विधेरैङ्गत्वादमीषां प्रामाण्यं २५न खरूपार्थत्वात् ; इत्यसत्; स्वार्थप्रतिपादकत्वेन विध्यङ्गत्वात् ।
तथाहि-स्तुतेः स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वं निन्दायास्तु निवर्तकत्वम्, अन्यथा हि तदर्थापरिज्ञाने विहितप्रतिषेधेश्व
१ अनित्य । २ क्षित्यादौ। ३ नित्यज्ञानेच्छाप्रयत्नवान्विशेषस्तेन। ४ धूमः । ५ ईश्वरे। ६ ईश्वरः। ७ अनित्यः संसारी जीवसमूहः। ८ नित्य ईश्वरः। ९ देहसम्बन्धीनि पृथिव्यादीनि। १० नित्यः। ११ प्रविश्य । १२ विदधाति । १३ वेदवाक्यानाम् । १४ यथार्थानुभवः प्रमा। १५ वेदवाक्ये । १६ सति । १७ प्रवृत्तेः। १८ वेदवाक्यानाम् । १९ वेदवाक्यानाम् । २० वेदवाक्यानां खार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वं निवर्तकत्वं वा नास्ति यदि । २१ वेदवाक्य । २२ उपादेय । २३ निषिद्ध ।
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सू० २।१२] . ईश्वरवादः
२६९ विशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात् । तथा विधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपादनद्वारेणैव पुरुषप्रेरकत्वं दृष्टमेवं स्वरूपपरेप्वपि वाक्येषु स्यात्, वाक्यरूपताया अविशेषाद्विशेषहेतोश्चाभावात् । तथा र्खरूपानामप्रामाण्ये "मेध्या आपो दर्भः पवित्रममेध्यमशुचि" इत्येवंस्वरूपापरिज्ञाने विध्यङ्गतायामविशेपेण प्रवृत्तिनिवृत्ति-५ प्रसङ्गः । न चैतदस्ति, मेध्येष्वेव प्रवर्तते अमेध्येषु च निवतते इत्युपलम्भात्।
एवं प्रमाणप्रसिद्धो भगवान् कारुण्याच्छरीरादिलगे प्राणिनां प्रवर्त्तते । न चैवं सुखंसाधन एव प्राणिसंर्गोऽनुषज्यते; अदृष्टसहकारिणः कर्तृत्वात् । यस्य यथाविधोऽदृष्टः पुण्यरूपोऽपुण्यरूपो १० वा तस्य तथाविधफैलोपभोगाय तत्सापेक्षस्तथाविधशरीरादीन्सजतीति । अदृष्टप्रक्षयो हि फलोपभोगं विना न शक्यो विधातुम् ।
न चादृष्टादेवौखिलोत्पत्तिरस्तु किं कर्तृकल्पनयेति वाच्यम् । तस्याप्यचेतनतयाधिष्ठात्रपेक्षोपपत्तेः । तथाहि-अदृष्टं चेतनाधिष्ठितं कार्ये प्रवर्ततेऽचेतनत्वात्तन्त्वादिवत् । न चास्मदाद्यान्मैवा-१५ धिष्ठायकः; तस्यादृष्टपरमाण्वादिविपयविज्ञानाभावात् । न च (चा) चेतनस्याकस्मात्प्रवृत्तिरुपलब्धा, प्रवृत्तौ वा निप्पन्नेपि कार्ये प्रवर्तेत विवेकशून्यत्वात् ।
तथा वार्तिककारेणापि प्रमाणद्वयं तैत्सिद्धयेऽभ्यधायि"महाभूतादि व्यक्तं चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुखदुःखनिमित्तं २० रूपादिमत्त्वात्तुर्यादिवत् । तथा पृथिव्यादीनि महाभूतानि वुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि स्वासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्त्तन्तेऽनित्यत्वाद्वात्यादिवत् ।" न्यायवा० १० ४६७ ]
तथाऽविद्धकर्णेन च-"तनुकरणभुवनोपादानानि चेतनाधिष्ठितानि स्वकार्यमारभन्ते रूपादिमत्त्वात्तन्त्वादिवत् ।" तथा,२५ "द्वीन्द्रियग्राह्याग्राह्यं विमतिभावापन्नं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं स्वार
१ किञ्च । २ प्रवृत्तिप्रतिपादकस्य । ३ विधिवाक्यप्रकारेण । ४ शब्दार्थ । ५ स्वार्थप्रतिपादकद्वारेण विध्यङ्गता। ६ वेदवाक्यानाम् । ७ कारुण्यात्प्रवर्तनेन । ८ सुखजनकः । ९ प्राणिसम्बन्धी शरीरादिसर्गः । १० प्राणिनः । ११ सुखदुःखादिजनक। १२ भगवान् । १३ सुखदुःखादिजनकान् । १४ अपि तु न भगवतः । १५ जैनादिभिः। १६ प्रेरितम् । १७ प्रेरकः । १८ कारणं विना। १९ ईश। २० परमाणुव्यवच्छेदार्थ महदिति पदम् । २१ पृथिव्यादि। २२ कार्यम् । २३ यथा वार्तिककारेणाभ्यधायीति पूर्वेण सम्बन्धः। २४ परमाण्वादिकारणानि । २५ क्षित्यादिकम् ।
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प्रमेयकमलमातण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० म्भकावयवसन्निवेशेविशिष्टत्वाद् घटादिवत्। वैधयेण परमाणवो यथा"[ ]द्वाभ्यां दर्शनस्पर्शनेन्द्रियाभ्यां ग्राहां प्रथिव्यते जोलक्षणं त्रिविधं द्रव्यमग्राह्यं वाय्वादिकम् । वायौ हि रूप.
संस्काराभावादनुपलब्धिः रूपसंस्कारो रूपसमवायः। न्यणका ५दीनां त्वऽमहत्वात् । उक्तं च-"महत्यनेकद्रव्यत्वाद्रूपविशेषा रूपोपलब्धिः " [ वैशे० सू० ४॥१६] .
प्रशस्तमतिना च; "सँर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारोऽन्योपदेशपूर्वकः उत्तरकालं प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वादप्रसिद्धवाग्व्यवहाराणां कुमाराणां गवादिषु प्रत्यर्थनियतो वाग्व्यवहारो यथा १० मात्राथुपदेशपूर्वकः" [ ] इति ।
उद्द्योतकरेण च; "भुवनहेतवः प्रधानपरमाण्वदृष्टाः स्वकार्योत्पत्तावतिशयवबुद्धिमन्तमधिष्ठितारमपेक्षन्ते स्थित्वा प्रवृत्तेस्तन्तुतुर्यादिवत् । तथा, बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं महाभूतादि व्यक्तं
सुखदुःखनिमित्तं भवत्यचेतनत्वात्कार्यत्वाद्विनाशित्वाद्र्पादिम१५ त्वाद्वा वास्यादिवत्।" [न्यायवा० पृ० ४५७ ] इत्यनवा भगवतः प्रलयकालेऽप्यलुप्तज्ञानाद्यतिशयस्य साधनम् ।
अत्र प्रतिविधीयते-सावयवत्वात्कार्यत्वं क्षित्यादेः प्रसाध्यते । तत्र किमिदं सावयवत्वं नाम? सहावयवैवर्तमानत्वम् , तैर्जन्य
मानत्वं वा, सावयवमिति वुद्धिविषयत्वं वा? प्रथमपक्षे सामा२० न्यादिनानेकान्तः; गोत्वादि सामान्यं हि सहावयवैर्वर्त्तते, न च
कार्यम् । द्वितीयपक्षेप्यसिद्धो हेतुः; परमावाद्यवयवानां प्रत्यक्षतो. ऽसिद्धौ क्षित्यादेस्तजन्यमानत्वस्याप्यसिद्धेः । प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनश्च कार्यकारणभावः । व्यणुकादिकं स्वपरिमाणादल्पपरिमाणो
पेतकारणारब्धं कार्यत्वात्पटादिवदित्यनुमानात्तेषां प्रसिद्धिा, ३० इत्यप्यसमीचीनम् ; चक्रकप्रसङ्गात्-परमाणुप्रसिद्धौ हि क्षित्यादे
१ परमाणु । २ रचनाविशेष। ३ व्यतिरेकेण । ४ आदिपदेन द्वयणुकादिकम् । ५ अनेकद्रव्यत्वाद्रूपविशेषाचेत्युच्यमाने व्यणुकादौ रूपोपलब्धिः स्यात्तद्वयवच्छेदार्थ महतीति पदम् । ६ महत्यनेकद्रव्यत्वादित्युच्यमाने वायावपि रूपोपलब्धिः स्यात्तद्वयवच्छेदार्थ रूपविशेषादित्युक्तम् । ७ सृष्टिप्रारम्भे । ८ आदिपदेन पित्रादि । ९ साङ्ख्यो. देशेनास्य प्रयोगः। १० मीमांसकायुद्देशेनास्य पदस्य प्रयोगः। ११ खण्डमुण्ड. शावलेयत्वादिस्वव्यक्तिभिः सह वर्तते। १२ नित्यत्वात्तस्य । १३ व्यणुकादि । ४ घटमृत्पिण्डादौ कार्यकारणभावः प्रत्यक्षतः सिद्धो द्वयणुकपरमाण्वादौ तु कार्यकारणभावोऽनुमानादिति भावः । १५ बुद्ध्या (व्यापकत्वान्महत्परिमाणोपेतात्मनः कार्यत्वाद्रुध्यादेः) व्यभिचारपरिहारार्थ द्रव्यत्वे सतीति विशेषणं द्रष्टव्यम् । १६ परमावादीनाम् । १७ त्रिभिरावर्तनं चक्रकदूषणम् ।
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सू० २।१२] . . ईश्वरवादः . स्तैर्जन्यमानत्वलक्षणसावयवत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च कार्यत्वसिद्धिः, ततश्च परमाणुप्रसिद्धिरिति । महापरिमाणोपेतप्रशिथिलावयवकासपिण्डोपादानेन अति निविडावयवाल्पपरिमाणोपेतकासपिण्डेन अनेकान्तश्च । वलवत्पुरुषप्रयत्नप्रेरितद्दस्ताद्यमि. घातादवयवक्रियोत्पत्तेः अवयवविभागात् संयोगविनाशात् महा-५ कर्पासपिण्डविनाशः, अल्पकासपिण्डोत्पादस्तु स्वारम्भकावयवकर्मसंयोगविशेषवशादेव भवति; इत्यपि विनाशोत्पादप्रक्रियोद्घोषणमात्रम्, प्रमाणतोऽप्रतीते । कासद्व्यं हि महापरिमाणपिण्डाकारपरित्यागेनाल्पपरिमाणपिण्डाकाकारतयोत्पद्यमानं प्रमाणतः प्रतीयते । आशूत्पत्तेर्भेदानवधारणात्तथा प्रतीतिरित्य. १० प्यसङ्गतम्, सकलभावानां क्षणिकत्वानुपङ्गात् । अंभेदाध्यवसा. यस्तु सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रेलम्भादित्यनिष्टसिद्धिप्रसङ्गात् । नाप्यागमात्परमाण्वादिप्रसिद्धिस्तत्प्रामाण्याप्रसिद्धः।।
सावयवमिति बुद्धिविषयत्वमपि, आत्मादिनानैकान्तिकं तस्याकार्यत्वेपि तत्प्रसिद्धः । सार्वयवार्थसंयोगाग्निरवयवत्वेप्यम्य तदु-१५ द्धिविषयत्वमित्यौपचारिकम् । तदप्यसङ्गतम् । तस्य निरवयवत्वे व्यापित्वविरोधात् परमाणुवत् । तदपि ह्यौपचारिकमेव स्यात् । तदेवं सावयवत्वासिद्धेः कथं ततः क्षित्यादेः कार्यन्वसिद्धिः?
प्रागसतः स्वकारणसमवायात्, सत्तासमवायाद्वा सिद्धिश्वेत् । कुतः प्राक? कारणसमवायाच्चेत् तत्समवायसमये प्रागि-२० वास्य स्वरूपसत्त्वस्याभावः, न वा? अभावे 'प्राक्' इति विश. षणमनर्थकम् । कार्यस्य हि कारणसमवायसमये स्वरूपेण सत्त्वसम्भवे तद्वत्प्रागपि सत्वे कार्यता न स्यात् । ततः प्रागित्यर्थवत्स्यात् । प्रागिव तत्समवायसमयेप्यस्य स्वरूपसत्त्वाभावे तु 'असतः' इत्येवाभिधातव्यम् । न चासतः कारणसमवायः: ग्बर-२५ विषणादेरपि तत्प्रसङ्गात् । न चास्य कारणाभावान्न तन्प्रसङ्गः; इत्यभिधातव्यम्; क्षित्यादेरपि तद्भावप्रसादसत्त्वाविशेषात् । क्षित्यादेः कारणोपलम्मान दोपः; इत्यप्यसारम् ; कार्यकारणयोरुपलम्मे हीदमस्य कारणं कार्य चेदमिति प्रति(वि)भागः म्यात् । न च प्रत्यक्षतः क्षित्यादेरुपलम्भोऽसतस्तस्य तज्जनकत्वविरोधात् ३०
१ क्रिया । २ कथनमात्रम् । ३ पूर्वपिण्डविनाश एवो पिy tifule याया। ४ आशुवृत्तः । ५ विसंवादात् । ६ क्षित्यादिकं कार्य सावरायत्यायन । ७ आदिपदेनाकाशादिना। ८ शरीरादिमूर्तिमद्भिः। ९ परमाणु। १० वाणु पटस. मवायो यथा। ११ क्षित्यादिकार्यत्वस्य । १२ क्षित्यादिकार्यत्तस्य । १३ नासतः इति विशेषणम् । १४ कारण। १५ न प्रागिति । १६ परेण त्यया ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० खरविषाणवत् । न चाजनक विषयः, उपलम्भकारण पलम्भविषय इत्यभ्युपगमात् ।
प्रागसतः सत्तासम्बन्धेप्येतत्सर्व समानम् । न समानम् : खरः शृङ्गादेः क्षित्यादिकार्यस्य, विशेषसम्भवात् । तद्ध्यत्यन्ताऽसत, ५क्षित्यादिकं न सँन्नाऽप्यसत्सत्तासम्वन्धात्तु सत्; इत्यपि मनोर
थमात्रम्; सत्त्वासत्त्वयोरेकत्रैकदा प्रतिषेधविरोधात् । 'न सत्' इत्यभिधानात्तस्य सत्तासम्बन्धात्प्रागभावः स्यात्सत्प्रतिषेधलक्षणत्वादस्य, 'नाप्यसत्' इत्यभिधानात्तु भावः, असत्त्वप्रतिषेधरूपत्वात्तस्य रूपान्तराभावात् । ततोऽसदेव तद्भ्युपमन्तव्यम् । १० तन्नास्य खरशृङ्गादेविशेषः।
किञ्च, सत्ता सती, असती वा? यद्यऽसती; कथं तया वन्ध्यासुतयेव सम्बन्धादन्येषां सत्त्वम् ? सती चेत्स्वतः, अन्यसत्तातो वा? यधन्यसत्तातोऽनवस्था । स्वतश्चेत् पदार्थानामपि स्वत एव
सत्त्वं स्यादिति व्यर्थ तत्परिकल्पनम् । १५ एतेन द्वितीयविकल्पोप्यपास्तः। कार्यस्य हि स्वतः सत्वोपममे
किं तत्कल्पनया साध्यम् ? अनवस्थाप्रसङ्गात् । तदेवं कार्यत्वासिद्धरसिद्धो हेतुः। .. .
किञ्च, कथञ्चित्कार्यत्वं क्षित्वादेः, सर्वथा वा ? सर्वथा चेत्पु. नरप्य सिद्धत्वं द्रव्यतोऽशेषार्थानामकार्यत्वात् । कथञ्चित् चेद्वि. २० रुद्धस्वम् ; सर्वथा बुद्धिमन्निमित्तत्वात्साध्याद्विपरीतस्य कथञ्चि
बुद्धिमनिमित्तत्वस्य साधनात् । ___ अनैकान्तिकं च आत्मादिभिः तेषां वुद्धिमन्निमित्तत्वाभावपि तत्सम्भवात् । कथञ्चिदप्यकार्यत्वे चैतेषां कार्यकारित्वस्याभावस्तस्याऽकर्तृरूपत्यागेन कर्तृरूपोपादानाविनामावित्वात् । तत्त्या २५ गोपादानयोश्चैकरुपे वस्तुन्यसम्भवात्सिद्धं कथञ्चित् कार्यत्वं तेषाम् । कर्तृत्वाकर्तृत्वरूपयोरात्मादिभ्योऽर्थान्तरत्वान्न तद्विना शोत्पादाभ्यां तेषामपि तथाभावो यतः कार्यत्वं स्यात्; इत्यपि
१ प्रत्यक्षस्याजनकक्षित्यादिकम् । २ असत्त्वादेवाजनकम् ।। ३ प्रत्यक्षस्य । ४ प्रत्यक्षकारणं प्रत्यक्षजनकमित्यर्थः । ५ प्रत्यक्षविषयः । ६ प्रागित्यादि । ७ सत्तासम्बन्धवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । ८ खरविषाणादेरपि सत्तासम्बन्धप्रसङ्गात् । ५ न सदित्यस्य । १० सद्भावः । ११ परेण । १२ क्षित्यादीनाम्। १३ न वेत्ययम् । १४ कारणसमवायसत्तासमवायकल्पनया। १५ द्रव्यपर्यायाभ्याम् । १६ कार्यत्व । १७ कूटस• नित्यस्येव । १८ नित्ये । १९ विनाशोत्पादः ।
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सू० २।१२] ईश्वरवादः
२७३ श्रद्धामात्रम्; तयोस्ततोऽर्थान्तरत्वे सम्वन्धासिद्धिप्रसङ्गात् । समवायादेश्च कृतोत्तरत्वादित्यलमतिप्रसङ्गने ।
बुद्धिमत्कारणमित्यत्र चं मत्वर्थस्य साध्यविशेषणस्यानुपपत्तिः। वुद्धिमतो हि बुद्धिर्व्यतिरिक्ता वा, अव्यतिरिक्ता वा ? तत्र तस्यास्ततो व्यतिरेकैकान्ते तस्येति सम्बन्धस्याभावः । सा हि ५ तस्य तहणत्वात् , तत्समवायाद्वा, तत्कार्यत्वाद्वा तदाधेयत्वाद्वा स्यात् ? न तावत्तगुणत्वात्ला तस्येत्यभिधातव्यम् : ततो व्यतिरेकैकान्ते सा तस्यैव गुणो नाकाशादेरिति व्यवस्थापयितुमशक्तः । नापि तत्समवायात् । तस्यैवासम्भवात् । सम्भवे वा तस्य ताभ्यां मेदैकान्ते व्यवस्थापकत्वायोगात्सर्वत्राविशेषाच। तत्कार्यत्वात्सा १० तस्येति चेत्, कुतस्तत्कार्यत्वम् ? तस्मिन्सति भावात् ; आकाशादौ प्रसङ्गः । तदभावेऽभावाच्चेन्न; नित्यव्यापित्वाभ्यां तस्य तदयो. गात् । तदाधेयत्वात्सा तस्येति चेत् : किमिदं तदाधेयत्वं नाम ? समवायेन तत्र वर्त्तनं चेत्तत्कृतोत्तरम् । तादात्म्येन वर्त्तनं चेन्न अनभ्युपगमात् । सम्वन्धमात्रेण वर्त्तनं चेत् : तर्हि घटादेर्भूत-१५ लादिगुणत्वप्रसङ्गः, सम्वन्धमात्रेण वर्त्तमानस्य तस्य तदाधेयत्वसम्भवात् ।
किश्च, व्याप्त्या तेनास्यास्तत्र वर्त्तनम् , अव्याहया वा? न तावद्व्याप्त्या; आत्मविशेषगुणत्वादमदादिवुयादिवत् । परममहापरिमाणेन व्यभिचारः; इत्ययुक्तम् । तत्र विशेषगुणत्वाभावात् । २० नन्वेवमस्मदादिबुद्ध्यादौ सकलार्थनाहित्वाभावो दृष्टः सोपि तंत्र स्यादिति चेत्, अस्तु नाम, दृष्टान्ते व्याप्तिदर्शनमात्रात्सर्वत्र साध्यसिद्धर्भवताभ्युपगमात् । कथमन्यथा प्रकृतसिद्धिः? यथा चास्मदादिबुद्धिवैलक्षण्यं तद्बुद्धेरदृष्टं परिकल्प्यते तथा घटादौ कर्मकर्तृकरणनिर्वहँकार्यत्वं दृष्टं वने वनस्पत्यादिषु चेतनकर्तर-२५ हितमपि स्यादित्येतैर्व्यभिचारो हेतोः । अथाऽव्याप्त्यातर्हि देशान्तरोत्पत्तिमत्कार्येषु कथं तस्या व्यापारः असन्निधानात् ?
१ समवायादिसम्बन्धनिराकरणविस्तरेण । २ किञ्च । ३ साध्यं कारणं तस्य विशेषणं बुद्धिमत् । ४ परेण योगेन । ५ बुद्धिबुद्धिमद्भ्याम् । ६ वुद्धिमत इयं बुद्धिरिति । ७ गगनादौ समवायस्य व्यापकत्वात् । ८ चेत्तहिं । ९ खमपि सर्वदाऽस्ति यतः । १० सामस्त्येन । ११ आरमविशेषगुणेन । १२ आकाशगुणत्वात्परममहापरिमाणस्य जैनानाम् । आत्मा तु तेषां देहपरिमाण इति । १३ ग्याल्या वर्तमानत्वप्रतिषेधे । १४ ईश्वरलक्षणे बुद्धिमति । १५ नैयायिकेन । १६ बुद्धिमत्कारणत्वस्य । १७ का। १८ परेण । १९ घट । २० कुम्भकार । २१ चक्रादि ।
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२७४
प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० तथापि व्यापारेऽदृष्टस्याप्यस्यादिदेशेऽसन्निहितस्योर्वज्वलनानि हेतुता स्यादिति-"अग्नरूज्वलनम्" [प्रश० व्यो० ० ४२११ इत्याद्यात्मसर्वगतत्वसाधनमयुक्तम् । अव्य तिरेकैकान्ते चात्ममा
बुद्धिमानं वा स्यात्, तत्कथं मत्वर्थः ? न हि तदेव तेनैव ५तद्वद्भवति।
किञ्च, असौ तद्बुद्धिः क्षणिका, अक्षणिका वा? यदि क्षणिका. तदा तस्याः कथं द्वितीयक्षणे प्रादुर्भावः कारणत्रयाधीनत्वात्तस्य? न चेश्वरेऽसमवायिकारणमात्ममनःसंयोगस्तच्छरीरादिक
च निमित्तं कारणमस्ति । कारणत्रयाभावेप्यस्मदादिवुद्धिवैला १० ण्यात्तस्याः प्रादुर्भावे क्षित्यादिकार्यस्य घटादिकार्यवैलक्षण्यावद्धि
मत्कारणमन्तरेणाप्युत्पत्तिः किन्न स्यात् ? महेश्वरवुद्धिवच्च मुक्तात्मनामप्यानन्दादिकं शरीरादि निमित्तकारणमन्तरेणाप्युत्पत्स्यत इति कथं वुझ्यादि विकलं जडात्मस्वरूपं मुक्तिः स्यात् ?
अथाऽक्षणिका तद्बुद्धिः । नन्वत्रापि 'क्षणिकश्शब्दोमदादि१५ प्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् सुखादिवत्' इत्यत्रानुमानेऽनयैव हेतोरनेकान्तोऽस्या इव विभुद्रव्यविशेषगुणत्वेऽन्यस्थामदादिप्रत्यक्षत्वेपि नित्यत्वसम्भवात् । तथा 'क्षणिका महेश्वरवुद्धिर्बुद्धित्वादमदादिबुद्धिवत्' इत्यनुमानविरोधश्च ।
अथ बुद्धित्वाविशेषेपि ईशामदादिवुद्ध्योरक्षणिकत्वेतरलक्षणो २० विशेषः परिकल्प्यते तथा घटादिक्षित्यादिकार्ययोरप्यकर्तृकर्तपूर्वकत्वलक्षणो विशेषः किन्नेष्यते ? तथा च कार्यत्वादिहेतोर नेकान्तः । तदेवं बुद्धिमत्त्वासिद्धेः कथं तत्कारणत्वेन कार्यत्वं व्याप्येत?
अस्तु वाऽविचारितरमणीयं बुद्धिमत्कारणत्वव्याप्त कार्यत्वम् २५ तथाप्यत्र यादग्भूतं बुद्धिमत्कारणत्वेनाऽभिनवकूपप्रासादादौ व्याप्तं कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्धं यक्रियादर्शिनोपि जीर्णकूपप्रा. सादादौ लौकिकेतरयोः कृतबुद्धिजनकं तादग्भूतस्य क्षित्यादावसिद्धरसिद्धो हेतुः । सिद्धौ वा जीर्णकूपप्रासादादाविवाs
१ मुक्तस्य । २ अग्नेरूर्वस्थितमन्नादि, तस्य शुभपचनं भोक्तदेवदत्तादृष्टेनेति । ३ नैयायिकमते आत्मनः सर्वगतत्वात्तद्गुणोऽदृष्टमपि सर्वगतमेवातो देशान्तरे कालान्तरे चान्नपाकपटमुक्ताफलादीन् तद्भोक्तदेवदत्तादृष्टं तत्र गत्वा सहकारिभूयोत्पादयति । ४ समवाय्यसमवायिनिमित्तति । ५ समवायिकारणं त्वात्मास्ति । ६ नैयायिकमते । ७ अक्षणिकबुद्धिपक्षेपि । ८ परममहापरिमाणेन व्यभिचारपरिहारार्धमेतत् । ९ परः। १. इतरः परीक्षकः।
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सू० २।१२] ईश्वरवादः
२७५ क्रियादर्शिनोपि कृतवुद्धिप्रसङ्गः । न च प्रकृत्याऽत्यन्तभिन्नोपि धर्मः शब्दमात्रेणाभेदी हेतुत्वेनोपादीयमानोऽभिमतसाध्यसिद्धये समर्थो भवत्यन्यत्राप्यस्याविरोधेनाशकाऽनिवृत्तेः। यथा वल्मीके धर्मिणि कुम्भकारकृतत्वसिद्धये मृद्विकारत्वमात्रं हेतुत्वेनोपादीयमानम् ।
नन्वतकार्यसमं नाम जात्युत्तरम् । तदुक्तम्-"कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत्साध्यासिद्धिदर्शनं तत्कार्यलमम्"
इति । अस्य चासदुत्तरत्वान्नातः प्रकृतसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धोऽन्यथा सकलानुमानोच्छेदः । शब्दानित्यत्वे हि साध्ये किं घटादिगतं कृतकत्वं हेतुत्वेनोपादीयते, किं वा शब्दगतम् , उभयगतं वा११० प्रथमपक्षे हेतोरसिद्धिः; न ह्यन्यगतो धर्मोऽन्यत्र वर्त्तते । द्वितीये तु साधनविकलो दृष्टान्तः । तृतीयेप्युभयदोषानुपङ्गः, इत्यप्यसारम् ; कारणमात्रजन्यतालक्षणस्य कृतकत्वस्य विपक्षे बाँधकप्रमाणवलाद नित्यत्वमात्रव्याप्तत्वेनाऽवधारितस्य शब्देप्युपलम्भात् तत्रोक्तदूपणस्यासदुत्तरत्त्वाजात्युत्तरत्वम् । न चैवं कार्यसामान्यं १५ बुद्धिमत्कारणत्वमात्र व्याप्तं क्षित्यादावुपलभ्यते, विपक्षे वाधकप्रमाणामावन सन्दिग्धानकान्तिकत्वात्तस्य, अन्यथाऽक्रियादर्शिनोपि कृतवुद्धिप्रसङ्गः । यदि च घटादिलक्षणं विशिष्टकार्य तन्मात्रैव्याप्तं प्रतिपद्याऽविशिष्टकार्यस्यापि क्षित्यादेस्तत्पूर्वकत्वं साँध्यते; तर्हि पृथ्वीलक्षणभूतस्य रूपरसगन्धस्पर्शवत्वं प्रतिपद्य २० भूतत्वादेव वायोरपि तत्साध्यताम् । अथाऽत्र प्रत्यक्षादिप्रमाणवाधः, सोन्यत्रापि समानः।
१ क्षित्यादौ । २ स्वभावेन । ३ कार्यत्वशब्देन । ४ बुद्धिनद्धेतुकल्क । ५ विएक्षेऽबुद्धिमद्धेतुकत्वादौ । ६ कृतबुद्धयुत्पादकरूपत्य कार्यस्य । ७ क्षित्यादिकं घटादिवद् बुद्धिमद्धेतुकं तादिवदबुद्धिमद्धेतुकं वेत्याशङ्का । ८ वल्मीकः कुम्भकार कृतो भवति मृद्विकारत्वाद् घटादिवत् । ९ पूर्वोक्तम् । १० भेदलेशः स कीदृशः कृतबुद्धयनुत्पादकः । ११ बुद्धिमद्धेतुकत्व । १२ कार्यसमजात्युत्तरात् । १३ घटादिगतकृतकत्वस्य शब्देऽभावात् । १४ शब्दगतकृतकत्वस्य घटादावभावात् । १५ नित्ये । १६ यन्नित्यं तन्न कृतकं यथाकाशमिति शानवलात् । १७ बुद्धिमत्कारणरहिते तर्वादौ । १८ वुद्धिमत्कारणरहिते तर्वादौ कार्यसामान्यं वर्तते बुद्धिमत्कारणसहिते घटादौ च कार्यसामान्यं वर्त्तते । तत्कि बुद्धिमद्धेतुकमबुद्धिमद्धतुकं वेति सन्दिग्धानकान्तिकत्वम् । १९ कार्य. त्वस्य । २० विपक्षे बाधकं प्रमाणं यदि स्यात् । २१ क्षित्यादौ । २२ दृष्टान्ते इव । २३ अक्रियादर्शिनोपि कृतवुद्धयुत्पादकत्वमात्रव्यातम् । २४ अक्रियादर्शिनः कृतबुद्ध्यनुत्पादकस्य । २५ परेण। २६ क्षित्यादौ बुद्धिमद्धेतुपूर्वकत्वेपि ।
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२७६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० यदप्युक्तम्-व्युत्पन्न प्रतिपत्तृणां नासिद्धत्वं कार्यत्वादेः, तदप्ययुक्तम् । यतः प्रतिवन्धप्रतिपत्तिलक्षणाव्युत्पत्तिस्तेषाम् , तव्यति रिक्ता वा स्यात् ? प्रथमपक्षे क्षित्यादिगतकार्यत्वादी प्रकृतसाध्य
साधनाभिप्रेते व्युत्पत्त्यसम्भवः, यथोक्तसाध्यव्याप्तस्य तत्र तथा ५भावात् । भावे वा सशरीरस्यासदादीन्द्रियग्राह्यस्यानित्यबुद्ध्यादि.
धर्मकलापोपेतस्य घटादौ तद्व्यापकत्वेन प्रतिपन्नस्यात्रं ततः सिद्धिः । न खलु हेतुव्यापकं विहायाव्यापकस्याय॑न्तविलक्षणसाध्यधर्मस्य धर्मिणि प्रतिपत्तौ हेतोः सामर्थ्यम् । कारणमात्र
प्रतिपत्तौ तु सिद्धसाध्यता। १० ननु बुद्धिमत्कारणमात्रं ततस्तत्र सिध्यत्पक्षधर्मतावलाद्विशिष्ट विशेषाधारमेव सेत्स्यति, निर्विशेषस्य सामान्यस्यासम्भवात. घटादौ प्रतिपन्नस्य चासदादेस्तन्निर्माणासामर्थ्यात् । नन्वेवं क्षित्यादौ बुद्धिमत्कारणत्वासिद्धिरेव स्यादस्मदादेस्तन्निर्माणा
सामर्थ्यादन्यस्य च हेतुव्यापकत्वेन कदाचनाप्यप्रतिपत्तेः खरवि१५ पाणवत्, निराधारस्य च सामान्यस्यासम्भवात् । न हि गोत्वा
धारस्य खण्डादिव्यक्तिविशेषस्यासम्भवे तद्विलक्षणमहिण्याद्याश्रितं गोत्वं कुतश्चित्प्रसिद्ध्यति ।
अस्मादृशान्यादृशविशेषपरित्यागेन कर्तृत्वमात्रानुमाने च चेतनेतरविशेषत्यागेन कारणमात्रानुमानं किन्नानुमन्यते ? धूम२० मात्रात्पावकमात्रानुमानवत् । यादृशमेव हि पावकमात्रं पैङ्गल्यादिधर्मोपेतं कण्ठाक्षविक्षेपकादित्वापाण्डुरत्वादिधर्मोपेतधूममात्रस्य प्रत्यक्षानुपलम्भप्रमाणजनितोहाख्यप्रमाणात्सर्वोपसंहारेण व्यापकत्वेन महानसादौ प्रतिपन्नं तादृशस्यैवान्यत्राप्यतोनुमान नात्यन्तविलक्षणस्य, व्यक्तिसम्बन्धित्वमात्रस्यैव भेदात् । न च २५ व्यक्तीनामप्यात्यन्तिको भेदो महानसादिवदन्यासामपि दृश्यतेयोपगमात् । न च कार्यविशेषस्य कर्तृविशेषमन्तरेणानुपलम्भात् तन्मात्रमपि कर्तृविशेषानुमापकं युक्तम् । तस्य कारणत्वमात्रेणैवाविनाभावनिश्चयात्, धूममात्रस्याग्निमात्रेणाविनाभावनिश्चयवत् ।
१ प्रतिबन्धोऽविनाभावः । २ अक्रियादर्शिनोपि कृतबुद्धथुत्पादकत्वलक्षणे । ३ क्षित्यादौ । ४ कार्यत्व। ५ क्षित्यादौ । ६ शरीरसर्वशनित्यज्ञानत्वादिलक्षण । ७ प्रोक्कक्षित्यादिके। ८ बसः। ९ क्षित्यादि। १० सर्वशत्वादिधर्मकलापोपेतस्येश्वरस्य। ११ कार्यत्वेति । १२ नेत्रादि। १३ परोक्ष। १४ स्वीकारेण । १५ पर्वतादो। १६ जलस्य । १७ महानसाख्य। १८ पर्वतादिरूपव्यक्तीनाम् । १९ उभयत्र । २० भक्रियादर्शिनः कृतबुद्ध्युत्पादकलक्षणस्य । २१ बुद्धिमदर्थलक्षण। २२ कार्यमात्रम् । २३ कार्यमात्रस्य ।
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सू० २०१२ ईश्वरवादः
२७७ घटादिलक्षणकार्यविशेषस्य तु कारणविशेषेणाविनाभावावगमः चान्दनादिधूमविशेषस्याग्निविशेषेणाविनाभावावगमवत् । तथापि कार्यमात्रस्य कारणविशेषानुमापकने धूमादिकार्यविशेषस्य महानसादौ तत्कालवन्यविनाभावोक्लम्माद् धूमघटिकादौ तन्मात्रं तत्कालवन्नुमाएकं स्यात् । अथ तत्र तत्कालबहानुमाने प्रत्य-५ क्षविरोधः, लोऽकटजाते भूरूहादो कर्मऽदुसानेपि समानः । तत्क रतौन्द्रियत्वात्तदविरोधै धूमपंडिकादी बढेरन्यतन्द्रियत्वात्सोस्तु । आस्वररूपसम्वन्ध्यवयविन्द्रव्यत्वान्नातीन्द्रियत्वं तस्येति चेत् एतदेव कुतोऽवसितम् ? महानसाद तथाभूतस्यास्योपलम्भाच्चेत्, तर्हि क्षित्यादिकर्तुः शरीरसम्वन्धिनोऽतीन्द्रि-१० यत्वं मा भूत्कुम्भकारादौ तस्यानुपलम्भात् ।
ननु वृक्षशाखाभङ्गादौ पिशाचादिः, स्वशरीरावयवप्रेरणे चात्माऽशरीरोऽपि कापलब्धः, इत्यप्यसुन्दरम् । पिशाचादेः शरीरसम्वन्धरहितस्य कार्यकारित्वानुपपत्तर्मुक्तात्मवत् । तत्सम्बन्धेनैव हि कुम्भकारादौ कार्यकारित्वं दृष्टं नान्यथा । तत्सम्ब-१५ न्धोपैगमे चास्य दृश्यत्वप्रसङ्गः कुम्भकारादिवत् ३ तच्छरीरस्य दृश्यत्वादृश्योलौ न पिशाचादिविपर्ययादिति चेत् । ननु शरीरत्वाविशेपेपि यथासदादिशरीरविलक्षणं तच्छरीरमभ्युपगम्यते तथा घटादिकार्यविलक्षणं भूरुहादिकार्य कार्यत्वाविशेषेप्यभ्युपगम्यताम् । तथा चानेन प्रकृतो हेतुळभिचारी । तथास्मदादेः२० शरीरसम्बन्धमात्रेणैव तवयवानां प्रेरकत्वोपपत्ते परशरीरसम्बन्धस्तंत्रोपयोगी 'तत्सम्बन्धमन्तरेण हि चेतनस्य स्वशरीरावयवेष्वन्यत्र वा कार्यकारित्वं नास्त्यनुपलम्भात्' इत्येतावन्मात्रमेव नियस्यत इति महेश्वरस्थापि शरीरसम्बन्धेनैव कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यम् ।
तच्छरीरं च तत्कृतं यद्यभ्युपगम्यते; तर्हि शरीरान्तरं तस्याभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्थातः प्रकृतकार्ये तस्याऽव्यापारोऽपरापर. शरीरनिर्वर्त्तने एवोपक्षीणशक्तिकत्वात् । तदनिष्पाद्यं चेत् । तत्किं कार्यम् , नित्यं वा? प्रथमपक्षे तेनैव हेतोर्व्यभिचारस्तस्य कार्यत्वेप्यबुद्धिमत्पूर्वकत्वात् । बुद्धिमत्कारणान्तरपूर्वकत्वे चानवस्था,३० तच्छरीरस्याप्यपरवुद्धिमत्कारणान्तरपूर्वकत्वात् । नित्यं चेत्,
१ कार्यविशेषस्यैव कारणविशेषेण व्याप्तिसिद्धावपि । २ गोपालघटिकादौ । ३ गोपालघटिकादौ । ४ असदाचाल्मा । ५ परेण । ६ ईश्वरस्य । ७ भूरहादिना । ८ अवयवप्रेरणे। ९ अवयवप्रेरणे। १० तहिं । ११ परेण । १२ हि । १३ परेण। १४ क्षित्यादिकायें।
प्र. क. मा० २४
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२७८
प्रमेयकमलमार्तण्डे
२. प्रत्यक्षपरि०
तर्हि तच्छरीरस्य शरीरत्वाविशेषेपि नित्यत्वलक्षणः स्वभावातिक्रमो यथाभ्युपगम्यते, तथा भूरुहादेः कार्यत्वे सत्यप्यकर्तपूर्वकस्वलक्षणोप्यभ्युपगम्यताम् इति से एव तैर्व्यभिचारः कार्यत्वादेः। तन्न प्रतिवन्धप्रतिपत्तिलक्षणा व्युत्पत्तिस्तेपाम् । २ अथ तद्व्यतिरिक्ता व्युत्पत्तिः; सा स्वदुरागमाहितवासनावतां भक्त, न पूनस्तावन्मात्रेण कार्यत्वादेः साध्यं प्रति गमकत्वम । अन्यथा वेदे भीमांसकत्य वेदाध्ययनवाच्यत्वादेरपौरुषेयत्वं प्रति गमकत्वं स्यात्।
यञ्चोक्तम-साध्यामाअपि प्रवर्त्तमानो हेतुळभिचारीत्युच्यते। १० न च तत्र कभाको निश्चितः किन्त्वंग्रहणम्' इति तदुक्तिमात्रमः प्रमाणाविषयत्वेपि स्थावरादौ कत्रऽभावानिश्चये गगनादौ रूपाद्यभावानिश्चयः स्यात् । तत्र रूपादीनां वाधकप्रमाणसद्भावेनाभावनिश्चये अत्रापि तथा कर्बभावनिश्चयोस्तु । न चास्यानुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वादभावानिश्चयः; शरीरसम्बन्धेन हि कर्तृत्वं नान्यथा १५मुक्तात्मवत् , तत्सम्वन्धे चोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वप्रसङ्गः कुम्भकारादिवत् । तस्य हि शरीरसम्वन्ध एव दृश्यत्वं नान्यत, खरूपेणात्मनोऽदृश्यत्वात् पिशाचादिशरीरवत् । तच्छरीरस्यादृश्यत्वोपगमे च किञ्चित्कार्यमप्यवुद्धिपूर्वकं स्यादित्युक्तम् ।
यत्तूक्तम्-क्षित्याद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तेषामेव कारणत्वे २० धर्माधर्मयोरणि तन्न स्थात् तन्न सूक्तम् ; जगद्वैचित्र्यान्यथानुपपत्त्या तयोस्तत्कारणत्वप्रसिद्धः । भूम्यादेः खलु सकलकार्य प्रति साधारणत्वात् अदृष्टाख्यविचित्रकारणमन्तरेण तद्वैचिच्यानुपपत्तिः सिद्धा।
यदप्युक्तम्-तत्र बुद्धिमतोऽभावादग्रहणं भावेप्यनुपलब्धिल२५क्षणप्राप्तत्वाद्वेति सन्दिग्धव्यतिरेकित्वे सकलानुमानोच्छेदः । यया सामग्र्या धूमादिर्जन्यमानो दृष्टस्तां नातिवर्त्तत इत्यन्यत्रापि समानम् ; तदप्ययुक्तम् ; यादग्भूतं हि घटादिकार्य यादृग्भूतसा. मैंग्रीप्रभवं दृष्टं तादृग्भूतस्यैव तदतिक्रमाभावो नान्यादृग्विधस्य धूमादिवदेवेत्युक्तं प्राक् ।
१ अनित्यत्वरूपस्वभावस्य । २ पूर्वोक्त एव । ३ स्थावरादिभिः। ४ भूरुहादीनाम्। ५ व्युत्पन्नानाम् । ६ योग। ७ परेण। ८ कर्तुः। ९ कर्तुः। १० ईश्वरस्य । ११ अशरीरत्वात्तस्य । १२ ईश्वर। १३ अक्रियादर्शिनः कृतबुझ्युत्पादकम् । १४ चक्रादिरूप। १५ कार्यस्य ।
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सू० २।१२] ईश्वरवादः
२७९ यच्चेदमुक्तम्-ज्ञानचिकीप्रयत्नाधारता हि कर्तृता न सशरीरेतरता; इत्यप्यसङ्गतम्: शरीराभावे तदाधारत्वस्याप्यसम्भवान्मुक्तात्मवत् । तेषां खलूत्यत आत्मा समवाधिकारणम् , आत्ममनःसंयोगोऽसनवाधिकारणम्, शरीरादिकं निमित्तकारणम् । न च कारणत्रयामा कार्यान्पिरिन भ्युपगमात् । अन्यथा मुक्ता-५ मनोचि शालादिगुणोत्पत्तिप्रसङ्गात् “दा गुणनामत्यन्तोच्छेदो मुक्तिः"
इत्यख व्यायातः । निमित्तकारणमन्तरेणाप्पानुत्पत्तौ च बुद्धिमत्कारपरल्लरेणाप्यशारादेः किं नोत्पत्तिः स्यात् ? नित्यत्वाभ्युपगमात्तेपामदोरोयामिलयुक्तम् ; प्रमाणविरोधात् । तथाहि-नेश्वरज्ञानादयो नित्यास्तत्वा-१ दसदादिज्ञानादिवत् । तज्ज्ञानादीनां दृष्टस्वभावातिक्रमे भूरुहादीनामपि स स्यात् ।
न चाऽचेतनस्य चेतनानधिष्ठितस्य वास्यादिवत्प्रवृत्त्यसम्भवात्, सम्भवे वा निरभिप्रायाणां देशादिनियमाभावप्रसङ्गात् तदधिष्ठातेश्वरः सकलजगदुपादानादिशाताभ्युपगन्तव्यः इत्य-१६ मिधातव्यम् : तज्ज्ञत्वेनास्याचाप्यसिद्धेः। न चाल नावादेव तज्ज्ञत्वम् । इतरेतराश्रयातुरङ्गात्-सिद्ध हि लालजगदुपादानाद्यभिज्ञत्वे तत्कर्तृत्वसिद्धिः, तत्सिद्धः तदनिक बलिद्धिः! अचेतनवचेतनस्यापि चेतनान्तराधिष्ठिरस्य विष्टिंकार करादिवत् प्रवृत्त्युपलम्भात् , महेश्वरेप्यधिष्ठात चेतनान्तरं परिकल्पनीयम् । २० खामिनोऽनधिष्ठितस्यापि प्रवृत्त्युपलम्भोऽकृष्टोत्पन्नाश्राद्युपादाने समानः। घटाधुपादानस्यानधिष्ठितस्थामवृत्युलन्मान तथाङ्कुराधुपादाक्यापि कल्पने विष्टिककर साविधिसत्रत्तर्महेश्वारेमि तथा स्वात् , तथा चालवस्था । इतनसायपरचेतनाधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यभ्युपगमे च 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितम् २५ इत्यत्र प्रयोगेऽचेतनमिति धर्मिविशेषणस्याचेतनत्वादिति हेतो. श्वापार्थकत्वम् , व्यवच्छेद्याभावात् । स्वहेतुप्रतिनियमाच्च अचेतनस्यापि देशादिनियमो ज्यायान् , तस्य भवताप्यवश्याभ्युपगमनीयत्वात् , अन्यथा सर्वत्र सर्वदा सर्वकार्याणानुत्पत्तिः स्यात्, चेतनस्याधिष्ठातुर्नित्यव्यापित्वाभ्यां सर्वत्र सर्वदा सन्निधानात् । ३०
१ ग्रन्थस्य । २ अप्रेरितस्य । ३ ज्ञानशून्यानाम् (कारणानां)। ४ परेण । ५ पालकि डोली इति वा लोके ख्याता संस्कृते च शिविकेति । ६ तर्हि । ७ चेतनस्य । ८ फलाभावात् । ९ स्वस्य कार्यस्य । १० उपादानकारण। ११ अदृष्टादेः। १२ युक्त इत्यर्थः। १३ योगेन ।
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२८०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
२. प्रत्यक्षपरि०
न च कारकशक्तिपरिज्ञानाविनाभावि तत्प्रयोक्तत्वम, तस्यानेकधोपलम्मात् । किश्चित्खलूपादानाद्यपरिज्ञानपि प्रयोक्तत्वं दृष्टम् , यथा स्वापमदमूर्छाद्यवस्थायां शरीरावयवानाम् । किक्षित त्पुनः कतिपयकारकपरिज्ञाने; यथा कुस्मकारादेः करादिव्या. ५पारेण दण्डादिप्रयोक्तृत्वम् । न खलु तस्याखिल कारकोपलम्भोस्ति; धर्माधर्मयोस्तद्धेतुभूतयोरनुपलम्भात् । उपलम्मे वा तयोर्देशादिनियतेषु कार्येष्विच्छाव्याघातो न स्यात्, सर्वश्चातीन्द्रियार्थदर्शी स्यात् । न हि कश्चित्तादृशो बुद्धिमानस्ति योन किञ्चित्करोति कार्य वा तादृशं विद्यते यत्राऽदृष्टं नोपयुज्यते। १० कारणशक्तेश्चातीन्द्रियत्वात्तदपरिज्ञानं सर्वप्राणिनां सुप्रसिद्धम। यथास्थानं चास्याः सद्भावो निवेदितः। अन्यत्तु शरीराऽनायासतो वाग्व्यापारमात्रेण; यथा स्वामिनः कर्मकरादिप्रयोक्तृत्वम् । अस्त वा कारकप्रयोक्तत्वस्य परिज्ञानेनाविनाभावः, तथाप्यशरीरेश्वरे
तस्यासम्भवः, सर्वत्र शरीरसम्बन्धे सत्येवास्योपलम्भात् । १५ यदप्यभ्यधायि-बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमात्रस्य साध्यत्वान्न विशेषविरुद्धता कार्यत्वस्य, अन्यथा धूमाद्यनुमानोच्छेदः, तदप्यभिधानमात्रम्; कार्यमात्राद्धि कारणमात्रानुमाने विशेषविरुद्ध. ताऽसम्भवस्तस्य तेन व्याप्तिप्रसिद्धः, न पुनर्बुद्धिमत्कारणानुमाने तस्य तेनाव्याप्तेः प्रतिपादितत्वात् । व्याप्ती वा अनीश्वरासर्वज्ञत्वा२० दिधर्मकलापोपेत एव कर्त्तात्र सिद्येत्, तथाभूतेनैव घटादौ
व्याप्तिप्रसिद्धेः, न पुनरीश्वरत्वादिविरुद्धधर्मोपेतः, तस्य तद्यापकत्वेन स्वप्नेप्यप्रतिपत्तेः। तथाप्यस्य तं प्रति गमकत्वे महानसप्रदेशे वन्हिव्याप्तो धूमः प्रतिपन्नो गिरिशिखरादौ प्रतीयमानो
वन्हिविरुद्धधर्मोपेतोदकं प्रति गमकः स्यात् । धूमाद्यनुमानोच्छे. २५ दासम्भवश्व प्राक्प्रबन्धेन प्रतिपादितः।।
यच्चान्यदुक्तम्-'सर्वज्ञताचाशेषकार्यकारणात्' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् । कार्यकारित्वस्य कारणपरिज्ञानाविनाभावासम्भवस्योक्तत्वात् । एकस्याशेषकार्यकारिणो व्यवस्थापकप्रमाणाभावात्, कार्यत्वादेश्च कृतोत्तरत्वात्कयमतः सर्वज्ञतासिद्धिः?
१ प्रेरकत्वम् । २ प्रेरकत्वम् । ३ प्रेरकत्वम् । ४ तस्य घटादिकार्यस्य । ५ अस्यादृष्टेनेदं कार्य भवत्येवेदं न भवत्येवेतीच्छा। ६ न च तथा। ७ नेति संबन्धः । ८ प्रयोक्तृत्वम् । ९ विशेषविरुद्धताया असम्भवो न च। १० कार्यत्वस्य । ११ बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन । १२ क्षित्यादौ । १३ कत्त। १४ ईश्वरसर्वशत्वादिधर्म कलापोपेतसाध्यस्य । १५ कार्यत्व । १६ कार्यत्वस्य । १७ ईश्वरसर्वशत्वादिधर्मकलपोपेतसाध्यं प्रति। १८ विस्तरेण ।
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सू० २११२] ईश्वरवादः
२८१ यञ्चोक्तम्-तथा विश्वतश्चक्षुः' इत्यागमादयसौ सिद्धः; तद्प्युक्तिमात्रम् ; अन्योन्याश्रयानुपङ्गात्-प्रसिद्धप्रामाण्यो ह्यागमस्तप्रसाधको नान्यथातिप्रसङ्गात् ततस्तत्प्रामाण्यप्रसिद्धौ महेश्वरसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तत्प्रणीतत्वेनागमप्रामाण्यप्रसिद्धिः । अन्येश्वरप्रणीतागमात्तत्सिद्धौ तस्यायन्येश्वरप्रणीतागमात्सिद्धावी-५ श्वरागमानवस्था । पूर्वेश्वरप्रगीतागमात्तत्सिद्धौ परस्पराश्रयः। स्वप्रणीतागसात्तत्सिद्धौ चान्योन्य संश्रयः । नित्यस्थ वागमस्य परैः प्रामाण्यं नेष्यते महेश्वरकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात्, प्रामाण्यस्योत्पत्तौ शप्तौ चेश्वरसद्भावस्याकिञ्चित्करत्वात् ।
यदप्युक्तम्-कारुण्याच्छरीरादिसर्गे प्राणिनां प्रवर्त्तते; तद्-१० प्ययुक्तम्: सुखोत्पादकस्यैव शरीरादिसर्गस्योत्पादकस्य प्रस. ङ्गात् । न हि करुणावतां यातनाशरीरोत्पादकत्वेन प्राणिनां दुःखोत्पादकत्वं युक्तम् । धर्माधर्मसहकारिणः कर्तृवात्सुखवदुःखस्याप्युत्पादकोऽसौ, फलोपभोगेन हि तयोः प्रक्षयादपवर्गः प्राणिनां स्यात् इति करुणयापि तद्विधाने प्रवृत्यविरोधः; इत्य-१५ प्यसङ्गतम् ; तयोरीश्वरानायत्तत्वे कार्यत्वे च आभ्यामेव कार्यत्वा देरनैकान्तिकत्वप्रसङ्गात्, तदुत्पत्तौ तस्याव्यापारे च विनाशेष्यव्यापारोस्तु, कारणान्तरोत्पन्नसुखदुःखलक्षणफलोपभोगेनानयोः प्रक्षयसम्भवात् । न हीश्वरस्यापि तत्फलोत्पादनादन्यत्तयोःक्षयकर्तृत्वम् ।
२० किञ्च, धर्माधर्मों निष्पाद्य पुनस्तयोः क्षयकरणे किमुत्पत्तिकरणप्रयासेन ? न हि प्रेक्षाकारी खात्वा पुनः समीकरणन्यायेनात्मानमायासयति "प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्" [ ] इति प्रसिद्धेश्च । अन्यथा प्रक्षालिताशुचिमोदकपरित्यागन्यायानुसरणप्रसङ्गः।
अपवर्गविधानार्थ चास्य प्रवृत्तौ कथमपूर्वकर्मसञ्चयकर्तृत्वम् ? तत्सहकारिणश्चास्य सुखदुःखोत्पादकशरीरोत्पादकत्वे वरं तत्फलोपभोक्तृप्राणिगणस्यैव तत्सव्यपेक्षस्य तदुत्पादकत्वमस्तु किमदृष्टेश्वरपरिकल्पनया? सर्वत्र कार्येऽदृष्टस्य व्यापारात् । तथाहि
१ ईशः । २ ईश्वर । ३ अप्रसिद्धप्रामाण्याद'गमादन्येषामीश्वराभावः स्याद्यदि । ४ यतः प्रसिद्धप्रामाण्यागमः ईश्वरप्रतिपादकः। ५ नैयायिकैः । ६ अन्यथा । ७ तीनवेदनाजनक। ८ सुखदुःख। ९ महेश्वरस्य । १० ईशकारणरहितत्वे । ११ भूमि खनित्वा । १२ तयोर्धर्माधर्मयोः। १३ अप्रसिद्धस्य । १४ निखिलं कार्य थमि प्राण्यदृष्टपूर्वकं भवतीति साध्यो धर्मः तदुपभोग्यत्वात् ।
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२८२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० यद्यदुपभोग्यं तत्तदृष्टपूर्वकम् यथा सुखादि, उपभोग्यं च प्राणिनां निखिलं कार्यमिति।
ननु यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधात्फलप्रदो नाप्रभुस्तथेश्वरोपि कर्मापेक्षः फलप्रदो नान्यः; इत्यपि मनोरथमात्रम्; राज्ञो हि ५सेवायत्तफलप्रदस्य यथा रागादियोगो नैघण्यं सेवायत्तता च प्रतीता तथेशस्याप्येतत्सर्वे स्यात्, अन्यथाभूतस्य अन्यपरिहारेण क्वचिदेव सेवके सुखादिप्रदत्वानुपपत्तेः।
अथ यथा स्थपत्यादीनामेकसूत्रधारनिय मितानां महामासादादिकार्यकरणे प्रवृत्तिः, तथात्राप्येकेश्वरनियमितानां सुखा१० धनेककार्यकरणे प्राणिनां प्रवृत्तिः, इत्यप्यसाम्प्रतम् ; नियमाभावात् । न ह्ययं नियमः-निखिलं कार्यमेकेनैव कर्त्तव्यम, नाप्येक नियतैर्वहुभिरिति; अनेकधा कार्यकर्तृत्वोपलम्भात् । तथाहि-कचिदेक एवैककार्यस्य कोंपलभ्यते यथा कुविन्दः
पटस्य । क्वचिदेकोप्यनेककार्याणाम् यथा घटघटीशरावोदञ्चना. १५दीनां कुलालः । कचिदनेकोप्यनेककार्याणाम् यथा घटपटम
कुटशकटादीनां कुलालादिः । क्वचिदनेकोप्येककार्यस्य यथा शिविकोद्वहनादिकार्यस्यानेकपुरुषसंघातः । न चानेकस्थपत्यादिनिष्पाचे प्रासादादिकार्येऽवश्यतयैकसूत्रधारनियमितानां तेषां
तत्र व्यापारः, प्रतिनियताभिप्रायाणामप्येकसूत्रधाराऽनियमि२० तानां तत्करणाविरोधात्।
किञ्च, अदृष्टापेक्षस्यास्य कार्यकर्तृत्वे तत्कृतोपकारोऽवश्यंभावी अनुपकारकस्यापेक्षायोगात् । तस्य चातो भेदे सम्बन्धासम्भवः। सम्वन्धकल्पनायां चानवस्था । अभेदे तत्करणे महेश्वर एव कृत इत्यदृष्ट कार्यतास्य । नाऽस्यादृष्टेन किञ्चित्क्रियते सम्भूय २५ कार्यमेव विधीयते सहकारित्वस्यैककार्यकारित्वलक्षणत्वात्। इत्यप्यसाम्प्रतम् ; सहकारिसव्यपेक्षो हि कार्यजननवभावः तस्यादृष्टादिसहकारिसन्निधानाद्यदि प्रागप्यस्ति तदोत्तरकालभावि सकलकार्योत्पत्तिस्तदैव स्यात् । तथाहि-यधंदा यजननसमर्थ तत्तदा तजनयत्येव यथान्त्यावस्थाप्राप्तं वीजमङ्कुरम् , प्रागप्युत्तर
१ वस्तु। २ यस्य पुरुषस्य । ३ स्वामी। ४ विशेष । ५ अनुसरणात् । ६ निष्कृपत्वम् । ७ तक्षकादीनाम् । ८ ईश्वरस्य । ९ ईश्वरात्। १० ततश्चेश्वरस्य नित्यत्वं विलीयते। ११ ईश्वरादृष्टाभ्यामेकीभूय । १२ एकस्वभावतयाभ्युपगतो महेश्वरो धर्मी उत्तरकालभावि सकलं कार्यमदृष्टादिसन्निधानात्प्रागपि जनयतीति साध्या धर्मः तदा तस्य तज्जननसामर्थ्यादिति शेषः। १३ नश्यदवस्थाप्राप्तम् ।
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सू० २।१२] ईश्वरवादः
२८३ कालभाविसकलकार्यजननसमर्थश्चैकस्वभावतयाभ्युपगतो महे. श्वर इति । तदा तदजनने वा तजननसामर्थ्याभावः, यद्धि यदा यन्न जनयति न तत्तदा तजननसमर्थस्वभावम् यथा कुसूलस्थ वीजमङ्करमजनयन्न तजननसमर्थवभावम् , न जनयति चोत्तरकालभावि सकलं कार्य पूर्वकात्पित्तिसमये महेश्वर इति। ५
तजननसमर्थवभावोप्यसौ सहकार्यऽभावात्तथा तन्न जनयति; इत्याणि वार्तम्, समर्थस्वभावत्यापरापेक्षाऽयोगात् । 'समर्थवभावश्चापरापेक्षश्च' इति विरुद्धमेतत् , अनधेियाऽप्रहेयोतिशयत्वात्तस्य ।
किञ्च, एते सहकारिणः किं तदायत्तोत्पत्तयः, अतदायत्तोत्प.१० चयो वा ? प्रथमपक्षे किं नैकदैवोत्पद्यन्ते ? तदुत्पादकान्यसहकारिवैकल्याचेदनवस्था । तथा चास्यापरापरसहकारिजनने एवोपक्षीणशक्तिकत्वान्न प्रकृतकार्ये व्यापारः। बीजाङ्कुरादिवदनादित्वात्तत्प्रवाहस्य नानवस्था दोपायेत्यभ्युपगमे महेश्वरकल्पनावैयर्थ्यम् , खसामग्र्यधीनोत्पत्तितया पूर्वपूर्वसामग्रीविशेपवशा-१५ दुपरापराखिलकार्योत्पत्तिप्रसिद्धः। अथातदायत्तोत्पत्तयःः तर्हि तैरेव कार्यत्वादिहेतवोऽनैकान्तिकाः इति ।
एतेन 'महाभूतादि व्यक्तं चेतनाधिष्टितं प्राणिनां सुखदुःखनिमित्तं रूपादिमत्त्वात्तुर्यादिवत्' इत्यादीनि वार्तिककारादिभिरुपन्यस्तप्रमाणानि निरस्तानि; यादृशं हि रूपादिमत्त्वमनित्यत्वं २० च चेतनाधिष्ठितं वास्यादौ प्रसिद्धं तादृशस्य क्षित्यादावसिद्धेः। रूपादिमत्त्वमात्रस्य च चेतनाधिष्ठितत्वेन प्रतिवन्धासिद्धेः आशवितविपक्षवृत्तितयाऽनैकान्तिकत्वम् । प्रतिवन्धाभ्युपगमे चेष्टविपरीतसाधनाविरुद्धलित्यादि पूर्वोत्तं सर्वमत्रापि योजनीयम्।
किञ्च, ईश्वरवुद्धरनित्यत्वप्रसाधनात्तभिन्नत्येश्वरस्यानित्य-२५ त्वप्रसिद्धेस्तस्याप्यपरवुद्धिमदधिष्ठितत्वप्रसङ्गः स्यादित्यनवस्था । तदनधिष्ठितत्वे वा तेनैवानेकान्तो हेतोः।
यञ्चोक्तम्-'सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारः' इत्यादि तत्रोत्तरकालं प्रवुद्धानामित्येतद्विशेषणमसिद्धम् । न खलु प्रलयकाले प्रलुप्त
१ आरोपयितुमशक्योऽतिशयोऽनाधेयः । २ अन्यैः स्फोटयितुमशक्योऽतिशयोsप्रहेयः । ३ ईश्वरानपेक्षोत्पत्तयः ४ सहकारिभिः । ५ सावयवकार्यत्वहेतुनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । ६ अविनाभावासिद्धेः । ७ भूरुहादिवचेतनानधिष्ठिते महाभूतादिव्यक्त रूपादिमत्त्वं वर्तते वास्यादिवच्चेतनाधिष्ठिते वा इति । ८ सर्वशत्वादिधर्मोपेवाद्विपरीतस्यासर्वशत्वादिधमोंपेतस्य ।
सत
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२.८४
प्रमेयकमल मार्त्तण्डे [ २० श्रत्यक्षपरि०
ज्ञानस्मृतयो वितनुकरणाः पुरुषाः सन्ति, तस्यैव सवैथाऽप्रसिद्धः । सिद्धौ वा स्वकृतकर्मवशाद्विशिष्टशानान्तरेषु (नरो) त्प तेस्तेषां कथं वितनुकरणत्वं प्रलुप्तज्ञानस्मृतित्वं वा ? सन्दिग्धविपक्षेव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकश्च हेतुः ।
५ किञ्च, अन्योपदेशपूर्वकत्वमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता; अनादेर्व्यवहारस्याशेषपुरुषाणामन्योपदेशपूर्वकत्वेनेष्टत्वात् । ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वे तु साध्येऽनैकान्तिकता, अन्यर्थेपि तत्सम्भवात् । साध्यविकलता च दृष्टान्तस्य । न चास्योपदेष्टृत्वसम्भवो विमुँखत्वान्मुक्तात्मवत् । तच्च वितनुकरणतयोपगमात्प्रसिद्धम् । १० 'स्थित्वा प्रवृत्तेः' इति चेश्वरेणैवानैकान्तिकम्, स हि क्रमवकार्येषु स्थित्वा प्रवर्त्तते न च चेतनान्तराधिष्ठितोऽनवस्था प्रसङ्गात् इति ।
अनयैव दिशा 'सप्तभुवनान्येकबुद्धिमन्निर्मितानि एकवस्त्वंन्तर्गतत्वादेकावसथान्तर्गतापवरकवत्' इत्यादिपर की यप्रयोगोऽ१५ भ्यूह्यः । न कावसथान्तर्गतानामपवर कादीनामेकसूत्रधारनिर्मितत्वनियमः येनेश्वरः सकलभुवनैकसूत्रधारः सिद्ध्येत्, अनेकसूत्रधारनिर्मितत्वस्याप्युपलम्भात् ।
"
एकाधिष्ठाना ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः परस्परातिशयवृत्तित्वात् इह येषां परस्परातिशयवृत्तित्वं तेषामेकायत्तता दृष्टा २० यथेह लोके गृहग्रामनगर देशाधिपतीनामेकस्मिन् सार्वभौमनरपतौ, तथा भुजगरक्षोयक्षप्रभृतीनां परस्परातिशयवृत्तित्वं च तेन मन्यामहे तेषामेकस्मिन्नीश्वरे पारतव्यम्; इत्यसम्यक् अत्र हि 'ईश्वराख्येनाधिष्ठाय के नैकाधिष्ठानाः' इति साध्येऽनैकान्तिकता हेतोर्विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् प्रतिबन्धसिद्धेः । दृष्टान्तस्य च २५ साध्यै विकलता । 'अधिष्ठायकमात्रेण साधिष्ठानाः' इति साध्ये सिद्धसाध्यता, स्वर्निकायस्वामिनः शक्रादेर्भवान्तरोपात्ताऽदृष्टस्य चाधिष्ठायकतयाभ्युपगमात् ।
13
१ प्रलयकालसमये एव न तु पश्चात् । २ परोपदेशरहिते मैथुनादिव्यवहारवति पुंसि । ३ ( हेतो: ) । ४ ईश्वरोपदेशं विनापि । ५ व्यवहारे प्रत्यर्थनियतत्वस्य :६ पुत्रादीनां मात्राद्युपदेशपूर्व कश्वेनेश्वरोपदेशपूर्वकत्वाभावात् । ७विगतमुखखात् । ८ साधनम् । ९ आकाश । १० मन्दिर । ११ ईश्वराश्रिताः कार्यकरणे । १२ सन्दिग्धानैकान्तिकता । १३ विपक्षे = कदाचित्स्वतन्त्रेषु गृहग्रामनगरदेशाधिपतिषु । १४ ईश्वराख्येनंकाधिष्ठायकेन परस्परातिशयवृत्तित्वस्याविनाभावासिद्धेः । १५ सार्वमौमनरपतौ ईश्वरप्रेरणत्वासिद्धेः ।
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सू० २११२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः
२८५ ततो महेश्वरस्याशेपजगत्कर्तृत्वप्रसाधकस्यानवद्यप्रमाणस्यासम्भवात् कुतोऽनादिमुक्तत्वसिद्धिर्यतोऽनाद्यशेपज्ञत्वमस्य स्यात् प्रयोगः-क्षित्यादिकं नैकैकस्वभावभवपूर्वकं विभिन्नदेशकालाकारत्वात् , यदित्थं तदित्थम् यथा घटपटमकुटशकटादि, विभिन्नदेशकालाकारं चेदम् , तस्मान्नकै कस्वभावभावपूर्वक-५ मिति ! न चेदसलिद्धं साधनम् ; उर्वीपर्वततर्वादो धर्मिणि विभिबदेशकालाकारत्वस्य सुप्रसिद्धत्वात् । नाप्यनैकान्तिकं विरुद्धं वा विपक्षस्यैकदेशे तत्रैव वा वृत्तेरभावात् ।
नन्वेकस्याप्यनेककार्यकरणकुशलस्य कर्तुर्विचित्रसहकारिसानिध्ये विचित्रकार्यकारित्वं दृश्यते, अतोऽनेकान्तः; इत्यप्यनुपप-१० नम् । तत्राप्येकखभावत्वस्यासिद्धेः, स्वरूपममेदयंतां सहकारित्वस्थासम्भवप्रतिपादनात् । नापि कालात्ययापदिष्टम् । प्रत्यक्षागमाभ्यां पक्षस्यावाध्यमानत्वात् । न हि क्षित्यादौ विचित्रकार्ये प्रत्यक्षेणैकैकस्वभावः कर्त्तापलभ्यते, तस्यातीन्द्रियतया प्रत्यक्षागोचरत्वस्य प्रागेव प्रतिपादनात् , आगमस्यापि तत्प्रतिपादकस्य १५ प्रागेव प्रतिषेधात् ! नापि सत्प्रतिपक्षम् ; विपरीतार्थोपस्थापकस्थानुमानान्तरस्याभावात् , कार्यत्वादिहेतूनां चावानेकदोषदुष्टत्वप्रतिपादनादिति।
ननु साधूक्तमावरणापाये सर्वज्ञत्वमिति । तत्तु प्रकृतेरेव अत्रै. वावरणसम्भवात् , नात्मनस्तस्यावरणाभावात् “प्रधानपरिणाम:२० शुक्लं कृष्णं च कर्म" [ ] इत्यभिधानात् । निखिलजगकर्तृत्वाच्चास्या एवाशेषज्ञत्वमस्तु; तदेतदप्यसमीक्षिताभिधानम्, कर्मणः प्रधानपरिणामताप्रतिषेधात् सकलजगत्कर्तृत्वस्य चासिद्धः । ननु प्रकृतिप्रअवैक्यं जगतः सृष्टिप्रक्रिया, तत्कथं तस्यास्तत्कर्तृत्वासिद्धिः? तथा हि"प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥"
[सांख्यका० २१] प्रथमं हि प्रकृतेर्महान्-विषयाध्यवसायलक्षणा वुद्धिरुत्पद्यते । बुद्धश्चाहङ्कारोऽहं सुभगोऽहं दर्शनीय इत्याद्यभिमानलक्षणः ।३० अहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकानि, इन्द्रियाणि चैकादश पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणलक्षणानि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थसंशानि, १ कञ्चनातिशयमकुर्वताम् । २ प्रकृतेः । ३ क्रमः !
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२८६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० मनश्च सङ्कल्पलक्षणम्-"भोजनार्थ हि तत्र गृहे यास्यामि कि कति भविप्याति गुडो का भविष्यति' इत्येवं सङ्कल्पवृत्तिर्मनः पश्य तन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि-शव्दादाकाशं, स्पशवायू , रूपाजः रसादायः, गन्धात्पृथ्वीति । पुरुषश्चेति । पञ्चविंशतितत्त्वानि। ५ प्रकृत्यात्मकाश्चैते महदादयो भेदा; न त्वतोऽत्यन्तभेटिनो लक्षणभेदाभावात् । तथाहि
"त्रिगुणमविवेकि विषयः लामान्यमचेतलं प्रसवधर्मि । व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुनान् ।”
[सांख्यका० ११] १० लोक हि यदात्मकं कारणं तदात्मकमेव कार्यमुपलभ्यते यथा
कृष्णैस्तन्तुभिरारब्धः पटः कृष्णः । एवं प्रधानमपि त्रिगुणात्मकम्, तथा बुद्ध्यहङ्कारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मकं व्यक्तमपि । तथाऽविवेकि-'इसे लत्त्वादय इदं च महदादि व्यक्तम्' इति पृथक्कत
न शक्यते । किन्तु 'ये गुणास्तव्यक्तं ययक्तं ते गुणाः' इति । तथा १५व्यक्ताव्यक्तद्वयमपि विषयो भोग्यखभावत्वात् । सामान्यं च सर्व
पुरुषाणां भोग्यत्वात्पण्यस्त्रीवत् । अचेतनात्मकं च सुखदुःखमो. हावेदकत्वात् प्रसवधर्मिवत् । तथाहि-प्रधान् बुद्धिं जनयति, वुद्धिरप्यहङ्कारम् , अहङ्कारोपि तन्मात्राणीन्द्रियाण्डि चैकादश, तन्मात्राणि च महाभूतानीति । २० प्रकृतिविकृतिभावेन परिणामविशेषाल्लक्षणभेदोप्यविरुद्धः ! यथोक्तम्
"हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं य॑क्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥"
[सांख्यका० १०] २५ व्यक्तमेव हि कारणवत्; तथाहि-प्रधानेन हेतुमती बुद्धिः, बुद्ध्या चाहङ्कारः, अहङ्कारेण पञ्च तन्मात्राण्येकादश चेन्द्रियाणि, भूतानि तन्मात्रैः। न त्वेवमव्यक्तम्-तस्य कुतश्चिदनुत्पत्तेः । तथा व्यक्तमनित्यम् उत्पत्तिधर्मकत्वात्, नाव्यक्तम् तस्यानु
१ महादादिकार्य त्रिगुणादिरूपेण व्यक्तम् । २ व्यक्ताऽव्यक्ताभ्याम् । ३ प्रधानमेव त्रिगुणात्मकम् । महदादिकार्य कथं त्रिगुणात्मकं स्यादित्युक्ते सत्याह । ४ आदि पदेन रजस्तमसी। ५ पुरुषेण। ६ स्वरूपावस्थानम् । ७ लक्षणभेदाभावात्कथं कार्यकारणभावः स्यादित्युक्ते आह । ८ महदादि । ९ प्रधानम् । १० हेतुमान् । ११ महदादि कार्यम् । १२ कारणात् ।
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सू० २।१२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः २८७ त्पत्तिमत्त्वात् । यथा च प्रधानपुरुयौ दिवि चान्तरिक्षेऽत्र सर्वत्र व्यापितया वर्तते न तथा व्यक्तम् । यथा च संसारकाले त्रयोदशविधेन बुधऽहकारेन्द्रियलझमेन संयुक्तं सूक्ष्मशरीरादिकं व्यक्तं संसरति, लैवनव्यक्तं तक विभुत्वेन सक्रियत्वायोगात् । वुयहङ्कारादिभेदेन छानेकविध वतन्, नायतम् तस्यैकस्यैव ५ सतो लोकत्रयकारणत्वात् । आश्रितं च व्यकम् , यद्यलादुत्पद्यते तस्य तदानितत्वात् । ल लेवलव्यक्तम् तस्याकार्यत्वात् । लिङ्गं च 'लयं गच्छति' इति हत्या, प्रलयकाले हि भूतानि तन्मात्रेयु लीयन्ते, तन्मात्राणीन्द्रियाणि चाहङ्कारे, अहङ्कारो वुद्धो, बुद्धिश्च प्रधाने । न चाव्यक्तं क्वचिददि लयं गच्छतीति तस्याविद्यमान-१० कारणत्वात् । सावयवं च व्यक्तम् शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकैरवयवैर्युक्तत्वात् । न त्वेवमव्यक्तम् प्रधानात्मनि शब्दादीनामनुपलब्धः। यथा च पितरि जीवति पुत्रो न स्वतन्त्रो भवति तथा व्यक्तं सर्वदा कारणायत्तत्वात्परतन्त्रम् । न त्वेवमव्यकं तस्य नित्यमकारणाधीनत्वत्।
ननु प्रधानात्मनि कुतो महदादीनां सद्भावसिद्धिर्यतः प्रागुत्पत्तेः लदेव कार्यमिति चेत् ।
"असदकरणादुपादानग्रहमालसम्मवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥”
[सांख्यका०९] २० इति हेतुपञ्चकात् । यदि हि कारणात्मनि प्रागुत्पत्तेः कार्य नाभविष्यत्तदा तन्न केनचिदकरिष्यत ! यदसतन्न केनचिन्त्रिपते यथा जगनमोहम्, अल प्रभुत्पन्तः परमते कार्यमिति । क्रियते च तिलादिमित्तैलादिकार्यम् , तलातच्छत्तितः प्रागपि सत्, व्यक्तिरूपेण तु कापिलैरपि प्राज्ञ सत्त्वस्यानिष्ट-२५ त्वात्।
यदि चासद्भवेत्कार्य तर्हि पुरुषाणां प्रतिनियतोपादानग्रहणं न स्यात् । यथाहि-शालिबीजादिषु शाल्यादीनामसत्त्वं तथा कोद्रववीजादिष्वपि । तथा च कोद्रववीजादयोपि शालिफलार्थिभिरुपादीयेरन् । न चैवम् , तस्मात्तत्र तत्कार्यमस्तीति गम्यते। ३०
१ प्रवर्तते। २ गच्छति। ३ व्यापकत्वेन । ४ तिरोभावम्। ५ परमते प्रागुत्पत्तः कार्य धमि, न केनचित्क्रियते इति साध्यो धर्म:-असत्त्वात् । ६ जैनादिमते। ७ मृत्पिण्डे घटो नास्ति पटोपि नास्ति तदा मृत्पिण्डो घटस्योपादानं पटस्य न, तस्य तु तन्तव एवेति नियतोपादानम् । ८ शाल्यादि ।
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प्रमेयकमलसार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० यदि चासदेव कार्य सर्वस्मात्तृणपांशुलोष्ठादिकात्सर्या सुवर्णरजतादि कार्य स्यात् , तादात्स्यविगेमस्य सर्वस्मिन्नविशिष्यत्वात न च सर्व सर्वतो भवति तस्मात्तत्रैव तस्य सद्भावासिद्धिः।
ननु कारणानां प्रतिनियंतेष्वेव कार्येषु प्रति नियताः शक्तयः। ५ तेन कार्यस्यासत्वाविशेषेपि किञ्चिदेव कार्य कुर्वन्ति इत्यय त्तरम्, शक्ता अपि हि हेतवः शक्यक्रियमेव कार्य कर नाशक्यक्रियम् । यच्चासत्तन्न शक्यक्रिय यथा गगनास्भोरुहम असच्च परमते कार्यमिति।
वीजादेः कारणभावाञ्च सत्कार्य कार्यासत्त्वे तदयोगात । १० तथाहि-न कारणभावो वीजादेः अविद्यमानकार्यत्वात्खरविषा णवत् । तत्सिद्धमुत्पत्तेः प्राकारणे कार्यम् । तच्च कारणं प्रधानमेवेत्यावेदयति हेतुपञ्चकात्"भेदानां परिमाणात्समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद्वैश्वरूप्यस्य ॥"
[सांख्यका० १५] लोके हि यस्य कर्ता भवति तस्य परिमाणं दृष्टम् यथा कुलालः परिमितान्मृत्पिण्डात्परिमितं प्रस्थग्राहिणमाढकग्राहिणं च घटं करोति । इदं च महदादि व्यक्तं परिमितं दृष्टम्-एका वुद्धिः, एकोऽहङ्कारः, पञ्च तन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि, पञ्चभूता२० नीति । अतो यत्परिमितं व्यक्तमुत्पादयति तत्प्रधानमित्यवगमः। __ इतश्चास्ति प्रधानं मेदानां समन्वयदर्शनात् । यजातिसमन्वितं हि यदुपलभ्यते तत्तन्मयकारणसम्भूतम् यथा घटशरावादयो भेदा मृजातिसमन्विता मृदात्मककारणसम्भूताः,
सत्त्वरजस्तमोजातिसमन्वितं चेदं व्यक्तमुपलभ्यते। सत्वस्य हि २५प्रसादलाघवोद्धर्षप्रीत्यादयः कार्यम् । रजसस्तु तापशोषोद्वेगा
दयः । तमसश्च दैन्यबीभत्सगौरवादयः । अतो महदादीनां प्रसाददैन्यतापादिकार्योपलम्भात्प्रधानान्वितत्वसिद्धिः।
१ तर्हि । २ अमावस्य । ३ उपादानेऽनुपादाने च । ४ कारणे । ५ तदुपादाने। ६ शक्यक्रियेषु। ७ परमते कार्य धर्मि शक्यक्रियं न भवति असत्त्वादिति शेषः। ८ महदादि। ९ महदादीनाम् । १० कार्यस्य । ११ महदादिव्यक्तमेककारणपूर्वक परिमितत्वाद् घटादिवत् । १२ महदादिव्यक्तमेककारणसम्भूतमेकस्वरूपान्वितत्वाद्वा घटपटीशरावोदञ्चनादिवत् । १३ उत्सव । १४ महदादिव्यक्तस्य ।
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सू० २।१२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः
२८९ इतश्चास्ति प्रधान शक्तितः प्रवृत्तेः। लोके हि यो यस्मिन्नर्थ प्रवर्तते स तत्र शक्तः यथा तन्दुवायः पटकरणे, प्रधानस्य चास्ति शक्तिर्थया व्यक्तमुत्पादयति, सा च निराधारा न सम्मवतीति प्रधानास्तित्वसिद्धिः
कार्यकारणविभागाचा दृष्टो हि कार्यकारयोविभागः, यथा ५ वृतिका कारण घटः कार्यम् । स च त्पिण्डाविभक्तस्वभावो घटो मधोकादिधारणाहरणलमाथी न तु कृतिएण्डः। एवं नहदादि कार्य दृष्या साध्याल:-'अस्ति प्रधानं यतो महदादिकार्यमुत्पन्नम्' इति । __ इंतश्चास्ति प्रधानं वैश्वरूप्यस्याविभागात् । वैश्वरूप्यं हि लोक-१० त्रयमभिधीयते । तच प्रलयकाले क्वचिदविभाग गच्छति । उक्तं च प्राङ्-'पञ्चजूतानि पञ्चतु तन्मानेप्यविभागं गच्छन्ति' इत्यादि । अविभागो हि नमाविदेशः। यथा क्षीरावस्थायाम् 'अन्यत्क्षीरमन्यदधि' इति विबेको न शक्यते कत्तु तद्वत्प्रलयकाले व्यक्तमिदमव्यकं चेदमिति । अतो मन्यानहेऽस्ति प्रधान यात्र १५ महदाद्यऽविमा गच्छत्तीति ।
अत्र प्रतिविधीयते-प्रकृत्यात्मने नहदादिभेदानां कार्यतया ततः प्रवृत्तिविरोधः। न खलु यद्यस्मात्सर्वथाऽव्यतिरिक्तं तत्तस्य कार्य कारणं वा युक्तं भिन्नलक्षणत्वात्तयोः । अन्यथा तद्यवस्था सङ्कीर्वत । तथा च यद्भवद्भिर्मूलप्रकृतेः कारणत्वमेव, भूतेन्द्रिय-२० लक्षणपोडशकपणस्य कार्यत्वमेव, वुद्ध्यहङ्कारतन्मात्राणां पूर्वोत्तरापेक्षया कार्यत्वं कारणत्वं वेति प्रतिशत वन्न स्यात् । तथा चेदललइतम्
"मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । पोडशकश्च विकारो न प्रकृतिन विकृतिः पुरुषः ॥” २५
[सांख्यका० ३] इति: सर्वेषामेव हि परस्परमव्यतिरेके कार्यत्वं कारणत्वं वा प्रस
१ महदादिभेदानाम् । २ कार्यप्रवृत्तिः शक्तिपूर्विका प्रवृत्तित्वात्तन्तुवायप्रवृत्तिवत् । ३ महदादिव्यक्तमेककारणपूर्वकं कार्यरूपत्वाद् घटादिवत् । ४ महदायविभागः क्वचिदाश्रितः अविभागत्वात्क्षीरे दध्याद्यविभागवत् । ५ एकत्वम् । ६ जनैः । ७ प्रकृतेः । ८ प्रधानं महदादेः कारणं न भवति तस्मात्सर्वथाऽव्यतिरिक्तत्वात् । महदादि प्रधानकार्य न भवति तस्मात्सर्वथाऽव्यतिरिक्तत्वात् । ९ मिन्नलक्षणाभावे । १० प्रकृत्यादि कार्यरूपं कार्यरूपान्महदादेरव्यतिरेकात् ।
प्र. क. मा० २५
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प्रमेयकमलमार्तण्डै
[२. प्रत्यक्षपरि०
२९०
ज्येत । आपेक्षिकत्वाद्वा तद्भावस्य, रूपान्तरस्य चापेक्षणीयस्याभावात्सर्वेषां पुरुषवत्प्रकृतिविकृतित्वाभावः । अन्यथा पुरुषस्यापि प्रकृतिविकृतिव्यपदेशः स्यात् ।
यच्चेदम्-हेतुमत्त्वादिधर्मयोगि व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् तदपि ५वालप्रलापमात्रम् ; न हि यद्यस्मादभिन्नस्वभावं तत्तद्विपरीतं यक्तं भिन्नखभावलक्षणत्वाद्विपरीतत्वस्य । अन्यथा भेदव्यवहारोच्छे द्यः(दः) स्यात् । सत्त्वरजस्तमसां चान्योन्यं भिन्नस्वभावनिवन्धनो मेदो न स्यादिति विश्वमेकरूपमेव स्यात् । ततो व्यक्तरू.
पाव्यतिरेकादव्यक्तमपि हेतुमत्त्वादिधर्मयोगि स्यात् व्यक्तखरूप. १० वत् । व्यक्तं वाऽहेतुमत्त्वादिधर्मयोगि स्याव्यक्तस्वरूपाव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवदित्येकान्तः।
किञ्च, अन्वयव्यतिरेकनिश्चयसमधिगम्यो लोके कार्यकारणभावः प्रसिद्धः। न च प्रधानादिभ्यो महदायुत्पत्तिनिश्चयेऽन्वयो
व्यतिरेको वा प्रतीतोस्ति येन प्रधानान्महान्महतोऽहङ्कार इत्यादि १५ सिद्धयेत् ।
न च नित्यस्य कारणभावोस्ति, क्रमाऽक्रमाभ्यां तस्यार्थ क्रियाविरोधात् । ननु नित्यमपि प्रधानं कुण्डलादौ सर्पवन्महदादिरूपेण परिणामं गच्छत्तेषां कारणमित्युच्यते, ते च तत्परिणामरूपत्वात्तत्कार्यतया व्यपदिश्यन्ते । परिणामश्चैकवस्त्वऽधिष्ठान२० त्वादुमेदेपि न विरुध्यते; इत्यप्यनेकान्तावलम्बने प्रमाणोपपन्नं नित्यैकान्ते परिणामस्यैवासिद्धेः। स हि तत्र भवन् पूर्वरूपत्यागाद्वा भवेत् , अत्यागाद्वा ? यद्यत्यागात् । तदाऽवस्थासाङ्कये वृद्धाद्यवस्थायामपि युवाद्यवस्थोपलब्धिप्रसङ्गात् । अथ त्यागात्। तदा स्वभावहानिप्रसङ्गः। २५ किञ्च, सर्वथा तत्त्यागः, कथञ्चिद्वा? सर्वथा चेत्, कस्य
परिणामः ? पूर्वरूपस्य सर्वथा त्यागादपूर्वस्य चोत्पादात् । कथ. ञ्चित् चेत्, न किञ्चिद्विरुद्धम् , तस्यैवार्थस्य प्राच्यरूपत्यागेना.
१ अपेक्षणीयाभावेपि प्रकृतिविकृतिभावो भविष्यतीत्युक्ते आह । २ भिन्नलक्षणत्वाकार्यकारणभावयोरित्यस्यापेक्षया वाशब्दः। ३ कार्यकारणभावस्य । ४ अपेक्षणीयस्याभावेपि कस्यचित्प्रकृतित्वं वा घटते चेत् । ५ अव्यक्तं धर्मि व्यक्ताद्विपरीतं न भवति तस्मादभिन्नस्वभावत्वात्। ६ विपरीतत्वं भिन्नस्वभावनिबन्धनं न भवतीति चेत् । ७ सर्व व्यक्तरूपमेवाऽव्यक्तरूपमेव वा स्यादिति । ८ ऋजुः सर्पो यथा कुण्डलाकारेण जायते स एव ऋज्वाकारेण जायते । कुण्डलादौ स्वर्णवदिति पाठान्तरम् । ९ द्रव्यतया पर्यायतया च । १० प्रधानस्यैव । मनुष्यलक्षणस्य वा। ११ बालावस्थायाः ।
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सू० २।१२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः २९१ न्यथाभावलक्षणपरिणामोपपत्तेः । नित्यैकान्तता तु तस्य व्याहन्येत । अत्र हि नैकदेशेन तत्यागो निरंशस्यैकदेशाभावात् । नापि सर्वात्मना; नित्यत्वव्याघातात् ।। किंच, प्रवर्त्तमा॑नो निवर्तमानश्च धो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतो वा स्थात्, अनर्थान्तरभूतो वा? यद्यर्थान्तरभूतः: तर्हि धर्मी तद्-५ वस्थ एवेति कथनसौ परिणतो नाम ? न ह्यान्तरभूतयोरर्थयोरुत्पाद विना सत्य विचलितात्मनो वस्तुनः परिणामो भवति, अन्यथाऽऽत्मापि परिणामी स्यात् । तत्सम्बद्धयोर्धमेयोरुत्पादविनाशात्तस्य परिणामः, इत्यप्यसुन्दरम् ; धर्मिणा सदसतोः सम्बन्धाभावात् । सम्बन्धो हि धर्मस्य सतो भवेत् , असतो वा ? १० न तावत्सतः; स्वातन्त्र्येण प्रसिद्धाशेपखभावसम्पत्तेरनपेक्षतया क्वचित्पारतन्त्र्यासम्भवात् । नाप्यसतः; तस्य सर्वोपाख्यांविरहलक्षणतया क्वचिदप्याश्रितत्वानुपपत्तेः । न खलु खरविपणादिः क्वचिदाधितो युक्तः।नच प्रवर्त्तमानाप्रवर्त्तमानधर्मद्वयव्यतिरिक्तो धर्मी उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दर्शनपथप्रस्थायी कस्यचिदिति । अतः१५ स तादृशोऽसद्व्यवहारविषय एव विदुपाम् । अथानान्तरभूतः; तथाप्येकस्माद्धर्मिस्वरूपाव्यतिरिक्तत्वात्तयोरेकत्वमेवेति कथं परिणामो धर्मिणः, धर्मयोर्वा विनाशप्रादुर्भावौ धर्मिस्वरूपवत् ? धर्माभ्यां च धर्मिणोऽनन्यत्वाद्धर्मखरूपवदपूर्वस्योत्पादः पूर्वस्य विनाश इति नैव कस्यचित्परिणामः सिध्यति । तस्मान्न परिणाम २० वशादपि भवतां कार्यकारणव्यवहारो युक्तः।
यच्चेदमुत्पत्तेः प्राकार्यस्य सत्त्वसमर्थनार्थमसद्करणादिहेतुपवकमुक्तम् । तद् असत्कार्यवादपक्षेपि तुल्यम् । शक्यते वेवमप्यभिधातुम्-'न सद्करणादुपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।' न सत्कार्यमिति २५ सम्बन्धः।
किञ्च, सर्वथा सत्कार्यम्, कथञ्चिद्वा? प्रथमपक्षोऽसम्भाव्यः; यदि हि क्षीरोदौ दध्यादिकार्याणि सर्वथा विशिष्टरसवीर्यविपाका
१ युवावस्थायाः। २ प्रधानस्य । ३ पूर्वरूपत्यागः। ४ उत्तरपरिणामलक्षणः । ५ पूर्वपरिणामलक्षणः। ६ पुरुषादेः। ७ सा अवस्था यस्य । पूर्वावस्थास्थः । ८ नित्यस्य । ९ प्रधानस्य । १० अभिन्नत्वात् । ११ पारतन्यं हि सम्बन्ध इति वचनात् । १२ उपाख्या स्वभावः । १३ धर्मिधर्मयोः । १४ धर्मयोर्विनाशप्रादुर्भावा धर्मिणो न भवत इति साध्यो धर्मिणोऽनन्तरत्वात् । १५ धभी उत्पादविनाशवान् उत्पादविनाशरूपधर्माभ्यामभिन्नत्वाद्धर्मस्वरूपवत् । १६ सकाशात् । १७ सर्वेभ्यः कारणेभ्यः। १८ कारणे। १९ आदिना नवनीततक्रादि।
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२९२
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
[ २. प्रत्यक्षपरि०
दिना विभक्तरूपेण मध्यावस्थावत्सन्ति, तर्हि तेषां किमुत्पाद्यमस्ति येन तानि कारणैः क्षीरादिभिर्जन्यानि स्युः । तथा च प्रयोगःयेत्सर्वाकारेण सत्तन केनचिजन्यम् यथा प्रधानमात्मा वा, सच्च सर्वात्मना परमते दध्यादीति न महदादेः कार्यता । नापि प्रधानस्य ५ कारणता; अविद्यमान कार्यत्वात् । यदविद्यमान कार्य तन्न कारणम् यथात्मा, अविद्यमान कार्य च प्रधानमिति । क्षीराद्यवस्थायामपि दध्यादीनां पश्चादिवोपलम्भप्रसङ्गश्च । अथ कथञ्चिच्छक्तिरूपेण सत्कार्यम् ; ननु शक्तिर्द्रव्यमेव तद्रूपतया सतः पर्यायरूपतया चासतो घटादेरुत्पत्त्यभ्युपगमे जिनपतिमतानुसरणप्रसङ्गः । १० किञ्च तच्छक्तिरूपं दध्यादेर्भिन्नम्, अभिन्नं वा ? भिन्नं चेत्; कथं कारणे कार्यसद्भावसिद्धि: ? कार्यव्यतिरिक्तस्य शक्याख्यपदार्थान्तरस्यैव सद्भावाम्युपगमात् । आविर्भूत विशिष्टर सादिगुणोपेतं हि वस्तु दध्यादि कार्यमुच्यते । तच्च क्षीराद्यवस्थायामुपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेर्नास्ति । यच्चास्ति शक्तिरूपं तत्कार्यमेव न भवति । १५ न चान्यस्य भावेऽन्यदस्त्यतिप्रसङ्गात् । अथाभिन्नम् ; तर्हि दध्यादेर्नित्यत्वात्कारणव्यापारवैयर्थ्यम् ।
,
अभिव्यक्तौ कारणानां व्यापारान्न वैयर्थ्यम्; इत्यप्यसत् यतोऽभिव्यक्तिः पूर्व सती, असती वा ? सती चेत्; कथं क्रियेत ? अन्यथा कारकव्यापारानुपरमैः स्यात् । अथासती; तथाप्याकाश२० कुशेशयवत्कथं क्रियेत ? असदकरणादित्यभ्युपेंगेमाच्च ।
सर्वस्य सर्वथा सत्त्वेन च कार्यत्वासम्भवादुपादानपरिग्रहोप न प्राप्नोति । सर्वसम्भवाभावोपि प्रतिनियतादेव क्षीरादेर्दध्यादीनां जन्मोच्यते । तच्च सत्कार्यवादपक्षे दूरोत्सारितम् । शक्तस्य शक्यकरणादिति चात्रासम्भाव्यम्; यदि हि केनचित् किञ्चि२५ निष्पाद्येत तदा निष्पोदकस्य शक्तिर्व्यवस्थाप्येत निष्पद्यस्य च करणं नान्यथा । कारणभावोप्यर्थानां न घटते कार्यत्वाभावादेव ।
१ दध्यवस्थावत् । २ दध्यादि धर्म केनचिज्जन्यं न भवति पूर्वमेव सर्वकारेण सत्त्वादित्युपरिष्टाद्योज्यम् । ३ इति = अनुमानात् । ४ प्रधानं कस्यचित्कारणं न भवति । ५ दध्यादिकार्य धर्म शक्तिरूपे कारणे नास्ति ततो भिन्नत्वात् । ६ ततो भिन्नत्वं स्यात्कारणे विद्यमानत्वं च स्यादिति सन्दिग्धानैकान्तिकत्वे सत्याह । ७ शक्तिरूपस्य । ८ व्यक्तिरूपं दध्यादिकार्यम् । ९ घटस्य भावे पटस्य भावप्रसङ्गात् । १० विद्यमानापि क्रियमाणा चेत्। ११ अविश्रान्तिः । १२ परेणैव । १३ पदार्थस्य । १४ जैनैः । १५ कारणस्य । १६ कार्यस्य । १७ निष्पाद्यनिष्पादकभावाभावे शक्तिः करणं वा न व्यवस्थाप्यते । १८ कार्यस्य सर्वथा सत्त्वात् । १९ कारणापेक्षया ।
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सू० २११२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः
२९३ किञ्च, एते हेतवो भवत्पक्षे प्रवृत्ताः किं कुर्वन्ति? खविषये हि प्रवृत्तं साधनं द्वयं करोति-प्रमेयार्थविपये प्रवृत्तौ संशयत्रिएयासौ निवर्तयति, निश्चयं चोत्पादयति। तच्च सत्कार्यवादे न सम्भवति । संशयविपर्याली हिलवतांजते चैतन्यात्मको, बुद्धिमनःस्वभावी का? पक्षोधिन्द तपोनिवृत्तिः लम्भवति; चैतन्य-५ बुदिलगत नियननयोरपि जिलयात् । नापि निश्चयस्योत्पन्तिः तस्यापि सदा सरवाद, इति साधनोपल्यासपर्यम् । तस्मात्सायनोयन्यालस्थार्थवत्त्वमिच्छता निश्चयोऽसन्नेव साधनेनोत्पाद्यत इत्यङ्गीकर्त्तव्यम् । तथा चासदकरणादेहेतुगणल्यानेनैवानकान्तिकता । यथा चासतोपि निश्चयस्य करणम् , तन्निप्प-१० त्तये च यथा विशिष्टसाधनपरिग्रहः, यथा चास्य न समात्साधनाभासादेः सम्भवः, यथा चासाबसन्नपि शक्तैर्हेतुभिः क्रियते, तन च हेतूनां कारणभावोस्ति तथान्यत्रापि भविष्यति ।
अथ यद्यपि साधनप्रयोगात्माक्सन्नेव निश्चयः, तथापि न तत्प्रयोगवैयर्थ्य तदभिव्यक्तौ तस्य व्यापारात् । तत्र केयमभि-१५ व्यक्तिः-किं स्वभावातिशयोत्पत्तिः, तद्विपयज्ञानं वा, तदुपलम्भावरणापगमो वा ? न तावत्वभावातिशयः; स हि निश्चयन्दरूपादभिन्नः, भिन्नो वा? यद्यभिन्नः; तर्हि निश्चयखरूपवत् सर्वदा सत्त्वानोत्पत्तियुका। अथ भिन्नः तस्यासाविति सम्बन्धाभावः । स ह्याधाराधेयभावलक्षणो वा, जन्यजनकभावलक्षणो २० वा? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः परस्परमनुपकार्योपकारकयोस्तदसम्भवात् । उपकारे वा तस्याप्यन्तरत्वे सम्बन्धासिद्धिरनवस्था च। अनर्थान्तरत्वे साधनप्रयोगवैयथ्य निश्चयादेवोपकाराऽनर्थान्तर स्यातिशयस्योत्पत्तेः । अमूर्तत्वाचातिशयस्याधोगमनाभावान्न तस्य कश्चिदाधारो युक्तः, अधोगतिप्रतिवन्धकत्वेनाधारस्याव-२५ स्थितेः । नापि जन्यजनकभावलक्षणः; सर्वदैव निश्चयाख्यकारणस्य सन्निहितत्वेन नित्यमतिशयोत्पत्तिप्रसङ्गात् । न च साधनप्रयोगापेक्षया निश्चयस्यातिशयोत्पादकत्वं युक्तम् । अनुपकारिण्यपेक्षाऽयोगात् । उपकारित्वे वा पूर्ववद्दोपोऽनवस्था च ।
अपि चायमतिशयः सन् , असन्वा क्रियेत ? असत्त्वे पूर्व-३० वत्साधनानामनैकान्तिकतापत्तिः। सत्त्वे च साधनवैयर्थ्यम् ।
१ महदादावपि । २ निश्चयस्वभावातिशययोः । ३ निश्चयेनातिशयस्य । ४ अतिशयात् । ५ ग्रन्थस्य । ६ निश्चयेनातिशयस्य क्रियमाण उपकारः अतिशयादनान्तरमित्यस्मिन् दूषणमाह । ७ उपकाराय। ८ न तूपकारकस्योत्पत्तिः ।
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२९४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० तंत्राप्यभिव्यक्तावनवस्था । तन्न स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिः।
नापि तद्विषयज्ञानम् ; सत्कार्यवादिनो मते तस्यापि नित्यत्वात् , द्वितीयज्ञानस्यासम्भवाच । एकमेव हि भवतां मते विज्ञानम्-"आसर्गप्रलयादेका वुद्धिः" [ ] इति सिद्धान्त२ स्वीकारात्।
तदुपलम्भावरणापगमोप्यभिव्यक्तिर्न युक्ता; तदावरणस्य नित्यत्वेनापगमासम्भवात् । तिरोभावलक्षणोप्यपगमो न युक्तः, अत्यक्तपूर्वरूपस्य तिरोभावासम्भवात् । द्वितीयोपलम्भस्य चासम्भवात्कथं तदावरणसम्भवो येनास्यापगमोभिव्यक्तिः स्यात् ? न १० ह्यावरणमसतो युक्तं सद्वस्तुविषयत्वात्तस्य ।
वन्धमोक्षाभावश्च सत्कार्यवादिनोऽनुषज्यते। वन्धो हि मिथ्या· ज्ञानात् , तस्य च सर्वदावस्थितत्वेन सर्वदा संवेषां वद्धत्वात्कुतो मोक्षः ? प्रकृतिपुरुषयोः कैवल्योपलम्भलक्षणतत्त्वज्ञानाच्च मोक्षः,
तस्य च सदावस्थितत्वेन सर्वदा सर्वेषां मुक्तत्वात्कुतो वन्धः? १५सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गश्च; लोकः स्खलु हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थ प्रवर्तते । सत्कार्यवादपक्षे तु न किञ्चिदप्राप्यमहेयं चास्तीति निरीहमेव जगत्स्यात् ।।
यदसत्तन्न केनचित्क्रियते इति चासङ्गतम् ; हेतोर्विपक्षे वाधकप्रमाणाभावेनानेकान्तात् । कारणशक्तिप्रतिनियमाद्धि किञ्चि२० देवासत्क्रियते यस्योत्पादकं कारणमस्ति । यस्य तु गगनाम्भोरुहादेर्नास्ति कारणं तन्न क्रियते । न हि सर्व सर्वस्य कारणमिष्टम् । नापि 'यद्यदसत्तत्तत्क्रियते एवं' इति व्याप्तिरिष्टा । किं तर्हि ? 'यत्क्रियते तत्प्रागुत्पत्तेः कथञ्चिदसदेव' इति । ननु तुल्येप्यस.
त्कारित्वे कारणानां किमिति सर्व सर्वस्यासतः कारणं न स्यादि२५ त्यन्यत्रापि समानम् । समाने हि सत्कारित्वे किमिति सर्व सर्वस्य
संतः कारणं न स्यात् ? कारणशक्तिप्रतिनियमात् 'सदप्यात्मादि न क्रियते' इत्यन्यत्रापि समानम् । प्रतिपादितप्रकारेण सर्वथा
१ स्वभावातिशयेपि । २ साधनेन । ३ प्रागुक्तप्रकारेण ग्रन्थानवस्था । ४ तन्निश्चयम् । ५ निश्चयलक्षणशानापेक्षया निश्चयव्यवस्थापकशानस्य (तद्विषयशानस्य) द्वितीयत्वम् । ६ सांख्यानाम् । ७निश्चयस्य । ८ निश्चयज्ञानस्य । ९ आवरणस्य अव्यक्तरूपं न संभवति-नित्यत्वात् । १० प्राणिनाम् । ११ विवेकख्यातिलक्षणादेः । १२ बन्धमोक्षलक्षणस्य । १३ परमते दध्यादिकार्य धर्मि न केनचित्क्रियते । १४ असन्नपि क्रियत इत्यसिन् । १५ खरविषाणादेः । १६ आत्मादेः । १७ असत्कार्यवादपक्षेपि ।
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सू० २।१२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः
२९५ सतः कार्यत्वासम्भवात्कथञ्चिदसत्कार्यवादे एव चोपादानग्रहणादित्यादेहेतुचतुष्टयस्य विरुद्धता साध्यविपर्ययसाधनात् । तन्नोत्पत्तः प्राकारण(णे)कार्यसद्भावसिद्धिः।
यच्चोक्तम्-भेदानां परिमाणादित्यादिहेतोः कारणं च प्रधानमेवैकं सिध्यति तदप्युक्तिमानम् : "नेदानां परिमाणात्' इत्यस्यै-५ ककारणपूर्वकत्वेनाविनामावासिद्धेः, अदेशकारणवशत्वेप्यस्याविरोधात् । कारणमात्रपूर्वकवेलेव हि तत्लाविनालाबः, दत्साधने च सिद्धसाधनम् ।
'भेदानां समन्वयदर्शनात्' इति चासिद्धम् ; न खलु सुखदुःखमोहसमन्वितं प्रमाणतः प्रसिद्धम् , शब्दादिव्यक्तसाचेतन. १० तया चेतनसुखादिसमन्वयविरोधात् । प्रयोगः-ये चैतन्यरहिता न ते सुखादिसमन्वयाः यथा गगनाम्भोजाद्यः, चैतन्यरहिताश्च शब्दादय इति ।
ननु चैतन्येन सुखादिसमन्वयस्य यदि व्याप्तिः प्रसिद्धा, तदा तनिवर्तमानं शब्दादिपु सुखादिसमन्वयन्वं निवर्तयेत् । न २५ चासौ सिद्धा, पुरुषस्य चेतनत्वेपि लुखादिसमन्वयासिद्धेः इत्यप्यपेशलम् ; स्वसंवेदनलिद्धिप्रस्तावे सुखादिस्वभावतयात्मनः प्रसाधनात् ।
यच्चान्यदुक्तम्-प्रसादतापदैन्यादिकार्योंपलम्भात्प्रधानान्वितत्वसिद्धिः; तदप्ययुक्तम् ; अनेकान्तात् , कापिलयोगिनां हि पुरुषं २० प्रकृतिविभक्तं भावयतां पुरुषमालम्ब्य स्वभ्यस्तयोगानां प्रसादो भवति प्रीतिश्च, अनभ्यस्तयोगानां क्षिप्रतरमात्मानमपश्यतामुद्धेगः, प्रकृत्या जडमतीनां मोहो जायते, न चासौ पुरुषः प्रयानान्वितः परैरिष्टः सङ्कल्पात्प्रीत्याधुत्पत्तिन पुत्पादिति शब्दादिष्वपि समानम् । सङ्कल्पमात्रभावित्वे च प्रीत्यादीनामात्मरूप-२५ ताप्रसिद्धिः, सङ्कल्पस्य ज्ञानरूपत्वात् , ज्ञानस्य चात्मधर्मतया खसंवेदनसिद्धिप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् इत्यलमंतिप्रसङ्गेन ।
अस्तु वा प्रीत्यादिसमन्वयो व्यक्ते, तथापि न प्रधानप्रसिद्धिः, साधनस्यान्वयासिद्धेः। न खलु यथाभूतं त्रिगुणात्मकमेकं नित्यं व्यापि चास्य कारणं साधयितुमिष्टं तथाभूतेन क्वचिद्धेतोः प्रति-३०
१ पर्यायरूपतया । २ परमते सर्वथा सत्कार्य साध्यम् । ३ कथञ्चिदसत्कार्यस्य । ४ शब्दादिश्यतम् । ५ तथा इति मूलपुस्तके पाठः। ६ भिन्नम् । ७ मनसः । ८ सङ्कल्पात्प्रीत्यादिहेतुः शब्दादिरिति । ९ शानस्यात्मधर्मत्वसमर्थनविस्तरेण । १० समन्वयदर्शनादित्यस्य । ११ व्याप्त्यसिद्धः। १२ दृष्टान्ते ।
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२९६ प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० वन्धः सिद्धः। नापि यदात्मकं कार्यमुपलभ्यते कारणेनाप्यवश्यं तदात्मना भाव्यम् , अन्यथा महदादौ हेतुमत्वानित्यत्वाव्यापित्वादिधर्मोपलम्भात् प्रधानेपि ताद्रूप्यप्रसिद्धिप्रसङ्गा तोविरुद्ध. तानुपङ्गः। ५ यच्चेदं निदर्शनमुक्तम्-'यथा घटशरावादयो मृजातिसमन्विताः' इति तदप्यसङ्गतम् ; साध्यसाधनविकलत्वादस्य । न हि मृत्त्वसुवर्णत्वादिजातिनित्यनिरंशव्याप्येकरूपा प्रमाणतः प्रसिद्धा येन तदात्मककारणसम्भूतत्वं तत्समन्वितत्वं च प्रसि
द्ध्येत्, प्रतिव्यक्ति तस्याः प्रतिभासदाझेदसिद्धेः । विस्तरेण १० चास्याः सियभावं सामान्यविचारप्रस्तावे प्रतिपादयिष्याम इत्यलमतिविस्तरेण ।
तथा 'समन्वयात्' इत्यस्यानेकान्तः; चेतनत्वभोक्तृत्वादिधमैः पुरुपाणाम् , प्रधानपुरुपाणां च नित्यत्वादिधर्मैः समन्वितत्वेपि
तथाविधैककारणपूर्वकत्वानभ्युपगमात् ।। १५ एतेन शक्तितः प्रवृत्तेरित्याद्युप्यनैकान्तिकत्वादिदोषदुष्टत्वादेककारणपूर्वकत्वासाधनमित्यवसातव्यम् । तथा हि-प्रेक्षावत्कारणमेतेभ्यः प्रसाध्यते, कारणमात्रं वा ? प्रथमविकल्पे अनेकान्तः, विनापि हि प्रेक्षावता का स्वहेतुसामर्थ्यप्रतिनियमात्प्रतिनियत
कार्यस्योत्पत्त्यविरोधात् । न च प्रधान प्रेक्षावद्युक्तं तस्याचेतन२० त्वात् प्रेक्षायाश्च चेतनापर्यायत्वात् । अथ कारणमात्रं साध्यते, तर्हि सिद्धसाध्यता। न ह्यस्माकं कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पादोऽभीष्टः। कारणमात्रस्य च 'प्रधानम्' इति संज्ञाकरणे न किञ्चिद्विरुध्यतेऽर्थभेदाभावात्।
किञ्च, शक्तितः प्रवृत्तेरित्यनेन यदि कथंश्चिद्व्यतिरिक्तशक्ति३० योगिकारणमात्रं साध्यते; तदा सिद्धसाध्यता । अथ व्यतिरिक्त
१ सत्त्वादि । २ समन्वयादिति हेतुर्नित्यत्वादिधर्मोपेते प्रधाने साध्ये प्रयुक्तोऽनित्यत्वादिधर्मोपेतप्रधानप्रसाधनाविरुद्धः । ३ सा नित्यनिरंशव्याप्येकरूपजातिः । ४ तया नित्यनिरंशव्याप्येकरूपजात्या। ५ नित्यनिरंशव्याप्येकरूपजातिनिराकरणविस्तरेण। ६ नित्यनिरंशव्याप्येकरूपजात्या। ७ हेतोः। ८ निरंशत्वादिमिश्च । ९ परेण । १० हेतुद्वय निराकरणपरेण ग्रन्थेन । ११ हेतुत्रयमपि । १२ नित्यत्वमेषां यतः। १३ हेतुभ्यः। १४ अकृष्यभूरुहादिकं प्रेक्षावत्कारणमन्तरेणापि दृश्यतेऽतः सर्व प्रेक्षावत्कारणपूर्वकं वा नेति सन्दिग्धानेकान्तः। १५ कारणसामान्यम् । १६ जनानाम् । १७ असाभिः कारणमात्रं भवद्भिः प्रधानं प्रतिपाद्यते इत्यत्र । १८ द्रव्यस्वभावेन। १९ कार्यनिष्पादने ।
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सू० २।१२] प्रकृतिकर्तृत्ववादः २९७ विचित्रशक्तियुक्तमेकं नित्यं कारणम्, तदानकोन्तिकता हेतोः । तथाभूतेन क्वचिदन्वयासिद्धरसिद्धता च, न खलु व्यतिरिक्तशक्तिवशात् कस्यचित्कारणस्य क्वचित्काय प्रवृत्तिः प्रसिद्धा, शक्तीनां खात्मभूतत्वात्।
यञ्चेदमुक्तम्-अविभागाद्वैवरूप्यत्या तदयसाम्प्रतम्, प्रल-५ यकालस्यैवाप्रसिद्धेः । सिद्धौ वा तदासी महादीनां लयो भवन् पूर्वस्वभावच्युतः भवेत्, अच्युतो का? यदि प्रच्युतौ; तहि तेषां तदा विनाशसिद्धिः खसावप्रच्युतेविनाशरूपत्वात् । अथानच्युतो; तर्हि लयानुपपत्तिः, नहि अविकलमात्मनस्तत्वमनुभवतः कस्यचिल्लयो युत्तोऽतिप्रसङ्गात् । परस्परविरुद्ध १० चेर्दम् 'अविभागो वैश्वरूप्यम्' इति च । वैश्वरूप्यं च प्रधानपूर्वत्वे नोपपद्यत एव, तन्मयत्वेन सर्वस्य जगतस्तत्स्वरूपवदेकत्वप्रसङ्गात्, इति कस्याऽविभागः स्वादिति ? तन्न प्रधानस्य सकलजगत्कर्तृत्वं सिद्धम् , यतस्तत्सिद्धी प्रधानस्य सर्वज्ञता, कर्तृत्वस्य कारणशक्तिपरिज्ञानाविनाभावासिद्धरित्युक्तं प्रागीश्वर-१५ निराकरणे, तद्लमतिप्रसङ्गने ।
एतेन सेश्वरसाङ्ख्यैर्यदुक्तम्-'न प्रधानादेव केवलादमी कार्यभेदाः प्रवर्तन्ते तस्यानत्वात् । न ह्यचेतनोऽविष्ठायकमन्तरेण कार्यमारभमाणो दृष्टः । न चान्यात्माऽधिष्ठायको युक्तः, सृष्टिकाले तस्याशत्वात् । तथा हि-बुध्यध्यवसितमेवार्थ पुरुष-२० श्वेतयते । वुद्धिसंसर्गाच पूर्वमसावज्ञ एव, न जातु कश्चिदर्थ विजानाति । न चाज्ञातमर्थ कश्चित्कर्तुं शक्तः। अतो नासौ कर्ता। तस्मादीश्वर एव प्रधानापेक्षः कार्यभेदानां कर्ता, न केवलः। न खलु देवदत्तादिः केवलः पुत्रन , कुम्भकारो वा घट जनयति' इति तदपि प्रतिव्यूडम् । प्रत्येकं तयोः कर्तृत्वत्यालन्भवे सहि-२१ तयोरप्यसम्भवात् , अन्यथा प्रत्येकपक्षनिक्षिप्तदोपानुपङ्गः।
अथोच्यते-यदि नाम प्रत्येकं तयोः कर्तृत्वासम्भवत्तथापि सहितयोः कथं तद्भावः? न हि केवलानां चक्षुरादीनां रूपादि
१ धर्मस्वभावे भेदः। २ साध्यते इति शेषः। ३ सन्दिग्धरूपा। ४ स्वस्य । ५ स्वरूपम् । ६ वस्तुनः। ७ प्रधानात्मनोरपि लयप्रसङ्गात्। ८ अविभागाद्वैश्वरूप्यमिति । ९ एकत्वम् । १० अनेकत्वम् । ११ लोके आदौ विभागोस्ति यदि तदा पश्चाद्विभागानामविभागः स्यात् । १२ कर्तृत्वं कारणशक्तिशानाबिनाभावि न भवतीति समर्थनेन। १३ प्रकृतीश्वरनिराकरणपरेण ग्रन्थेन। १४ महदादयः। १५ ईश्वरं प्रेरकम् । १६ संसार्यात्मा। १७ कार्यम् । १८ सहितयोस्तयोः कर्तृत्वसम्भवश्चेत् । १९ आलोकादीनां च ।
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२९८ प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० ज्ञानोत्पत्तिसामर्थ्याभावे सहितानामप्यसौ युक्तः, तर मात्रम् ; यतः साहित्यं नामानयोरन्योन्यं सहकारित्वम् । तचान्योन्यातिशयाधानाद्वा स्यात् , एकार्थकारित्वाद्वा? व तावदादा कल्पना युक्ता; नित्यत्वेनानयोर्विकाराभावात् । नापि द्वितीय ५कल्पना युक्ता कार्याणां योगपद्यप्रसङ्गात् । अप्रतिहत सामय श्वरप्रधानाख्यकारणस्य सदा सन्निहितत्वेनाविकलकारणत्वाने पाम् । तथाहि-यद्यदाऽविकलकारणं तत्तदा भवत्येव यथाऽन्यक्षणप्राप्तायाः सामग्रीतोऽङ्कुरः, अविकलकारणं चाशेष कार्यमिति ।
ननु यद्यपि कारणद्वयमेतन्नित्यं सन्निहितं तथापि क्रमेणैवासी १० कार्यभेदाः प्रवर्तिप्यन्ते । महेश्वरस्य हि प्रधानगताः सत्त्वाद स्त्रयो गुणाः सहकारिणः, तेषां च क्रमवृत्तित्वात्कार्याणामपि क्रमः । तथाहि-यदोद्भूतवृत्तिना रजसा युक्तो भवत्यसौ तदा सर्गहेतुः प्रजानां भवति प्रसवकार्यत्वाद्रजसः, यदा त सत्त्व मुद्भूतवृत्ति संश्रयते तदा लोकानां स्थितिकारणं भवति सत्त्वस्य १५स्थितिहेतुत्वात् , यदा तमसोद्भूतशक्तिना समायुक्तो भवति तदा प्रलयं सर्वजगतः करोति तमसः प्रलयहेतुत्वात् । तदुक्तम्"रजोजषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे।
अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे यीमयाय त्रिगुणात्मने नमः ॥१॥" [कादम्बरी पृ० १] २० इत्ययसाम्प्रतम्; यतः प्रकृतीश्वरयोः सर्गस्थितिप्रलयानां मध्येऽन्यतमस्य क्रियाकाले तदपरकार्यद्वयोत्पादने सामर्थ्यमस्ति, न वा? यद्यस्ति; तर्हि सृष्टिकालेपि स्थितिप्रलयप्रसङ्गोऽविकलकारणत्वादुत्पाद्वत् । एवं स्थितिकालेप्युत्पादविनाशयोः, विनाश
काले च स्थित्युत्पादयोः प्रसङ्गः, न चैतद्युक्तम् । न खलु पर२५ स्परपरिहारेणावस्थितानामुत्पादादिधर्माणामेकत्र धर्मिण्येकदा
सद्भावो युक्तः । अथ नास्ति सामर्थ्यम् ; तदैकमेव स्थित्यादिनां मध्ये कार्य सदा स्यात् यदुत्पादने तयोः सामर्थ्यमस्ति, नापरं कदाचनापि तदुत्पादने तयोः सदा सामर्थ्याभावात्। अविकारि
णोश्च प्रकृतीश्वरयोः पुनः सामोत्पत्तिविरोधात्, अन्यथा ३० नित्यैकस्वभावताव्याघातः।
अथ तत्स्वभावेपि प्रधाने सत्त्वादीनां मध्ये यदेवोद्भूतवृत्ति तदेव कारणतां प्रतिपद्यते नान्यत् , तत्कथं स्थित्यादीनां योगपद्य
१ प्रसव उत्पत्तिः। २ ईश्वरः कर्ता । ३ न जायते इत्यजो रुद्रस्तस्मै । ४ त्रयी वेदास्त्रयी। ५ सत्त्वरजस्तमोरूंपाय । ६ स्थितिप्रलयौ धर्मिणौ सृष्टिकाले भवतः तदा अविकलकारणत्वात् । ७ प्रजालक्षणे। ८ सामर्थ्यमुत्पद्यते चेत् ।
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सू० २११२] कवलाहारविचारः
२९९ प्रसङ्ग इति ? अत्रोच्यते-तेपामुद्धृतवृत्तित्वं नित्यम् , अनित्यं वा? न तावन्नित्यम् ; कादाचित्कत्वात, स्थित्यादीनां योगपद्यप्रसङ्गाच्च । अथानित्यम्; कुतोऽस्य प्रादुर्भावः ? प्रकृतीश्वरादेव, अन्यतो वा हेतोः, स्वतन्त्रो वा? प्रथमपक्षे सदास्य सद्भावप्रसङ्गः, प्रकृतीश्वराख्यस्य हेतोर्नित्यरूपतया सदा सन्निहितत्वात् । न चान्यतस्त-५ त्प्रादुर्भावो युक्तः; प्रकृतीश्वरव्यतिरेकेणापरकारणस्यानभ्युपगनात् । तृतीयपक्षे तु कादाचित्कत्वविरोधोऽस्य स्वातब्येण भवतो देशकालनियमायोगात् । स्वभावान्तरायत्तवृत्तयो हि भावाः कादाचित्काः स्युः तद्भावाभावप्रतिवद्धत्वात्तत्सत्त्वालत्त्वयोः, नान्ये तेषामपेक्षणीयस्य कस्यचिदभावात् ।
१० किञ्च, आत्मानं जनयत्ति भावो निष्पन्नः, अनिप्पन्नो वा? न तावन्निप्पन्नः; तस्यामवस्थायामात्मनोपि निप्पन्नरूपाव्यतिरेकितया निष्पन्नत्वान्निष्पन्नस्वरूपवत् । नाप्यनिष्पन्नः, अनिप्पन्नखरूपत्वादेव गगनाम्भोजवत् । तस्मात्प्रकारान्तरेणाशेषज्ञत्वासिद्धेरावरणापाये एवाशेपविषयं विज्ञानम् । तच्चात्मन एवेति परीक्षा-१५ दक्षैः प्रतिपत्तव्यम् । तच्च विज्ञानमनन्तदर्शनसुखवीर्याविनाभावित्वादनन्तचतुष्टयस्वभावत्वमात्मनः प्रसाधयतीति सिद्धो मोक्षो जीवस्यानन्तचतुष्टयस्वरूपलानलक्षणः, तसापेतप्रतिवन्धकस्यामखरूपतया जीवन्मुक्तिवत्परममुक्तावप्यभावासिद्धेः ॥
ये त्वात्मनो जीवन्मुक्तौ कवलाहारमिच्छन्ति तेषां तत्रास्यान-२० न्तचतुष्टयस्वभावाभावोऽनन्तसुखविरहात् । तद्विरहश्च बुभुक्षाप्रभवपीडाक्रान्तत्वात् । तत्पीडाप्रतीकारार्थी हि निखिलजनानां कवलाहारग्रहणप्रयासःप्रालिद्धः । ननु भोजनादेः सुखायलत्वात्कथं भगवतोऽतोऽनन्तसुखाद्यभावः ? दृश्यते हासदाद क्षुत्पीडिते निश्शक्तिके च भोजनसद्भावे सुखं वीर्य चोत्प-२५ द्यमानम् ; इत्यप्ययुक्तम् । अस्मदादिसुखादेः कादाचित्कतया विषयेभ्य एवोत्पत्तिसम्भवात् । भगवत्सुखादेश्च तत्सम्भवेऽनन्तताव्याघातः । तथाहि-क्षुत्क्षामकुक्षिनिश्शक्तिकश्चासौ यदा कवलाहारग्रहणे प्रवृत्तस्तदैव तदीयसुखवीर्ययोनष्टत्वात्कुतोऽनन्तता? वीतरागद्वेषत्वाच्चास्य तद्रहणप्रयासायोगः । प्रयोगः-केवली न ३०
१ कारणस्य । २ जायमानस्य। ३ कार्यलक्षणाद्भावादपरः कारणलक्षणो भावः स्वभावान्तरम् । ४ कारणाधीनवृत्तय इत्यर्थः। ५ तस्य कार्यस्य । ६ स्वरूपम् । ७ कार्यलक्षणः। ८ निष्पन्नायाम् । ९ जगत्कर्तृत्वादिलक्षणेन । १० जीवमयत्वेन । ११ श्वेतपटाः । १२ भगवदीय ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० भुड़े रागद्वेषाभावानन्तवीर्यसद्भावान्यथानुपपत्तेः । ननु सममिक शत्रूणां साधूनां भोजनादिकं कुर्वतामपि वीतरागद्वेषत्वसम्म वादनैकान्तिको हेतुः; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; मोहनीयकर्मणः सदाले भोजनादिकं कुर्वतां प्रमत्तगुणस्थानप्रवृत्तीनां साधूनां परमार्थतो वीतरागत्वासम्भवात् । तन्नानकान्तिकोयं हेतुः । नापि विकतो विपक्षे वृत्तेरभावात्। __ कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसङ्गः। प्रयोगः-यो यः कव भुङ्क्ते स स न वीतरागः यथा रथ्यापुरुषः, भुङ्क्ते च कवळ
भवन्मतः केवलीति । कवलाहारो हि स्मरणाभिलाषाभ्यां भुज्यते. १० भुक्तवता च कण्ठोष्ठप्रमाणतस्तृप्तेनाऽरुचितस्त्यज्यते । तथा
चामिलापाऽरुचिभ्यामाहारे प्रवृत्तिनिवृत्तिमत्त्वात्कथं वीतरागत्वम् ? तभावान्नाप्तता । अथाभिलाषाद्यभावेप्याहारं गृह्णात्यसो तथाभूतातिशयत्वात् , ननु चाहारामावलक्षणोप्यतिशयोऽस्या
भ्युपगन्तव्योऽनन्तगुणत्वाद्गगनगमनाद्यतिशयवत्।। १५ अथाहाराभावे देहस्थितिरेवास्य न स्यात्। तथाहि-भगवतो
देहस्थितिः आहारपूर्विका देहस्थितित्वादमदादिदेहस्थितिवत। नन्वनेनानुमानेनास्याहारमात्रम्, कवलाहारो वा साध्येत? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, 'आसयोगकेवलिनो जीवा आहारिणः' इत्यभ्युपगमात् , तत्र च कवलाहाराभावेप्यन्यस्य कर्मनोकर्मा२० दानलक्षणस्याविरोधात् । षडियो हाहारः
"गोम्म कस्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहो यो॥"[ . ] इत्यभिधानात् । न खलु कवलाहारेणैवाहारित्वं जीवानाम् एकेन्द्रियाण्डजत्रिदशानामभुञ्जानतिर्यग्मनुष्याणां चानाहारित्व२५ प्रसङ्गात् । न चैवम्
"विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा ॥"
[जीवकाण्ड गा० ६६५, श्रावकप्रज्ञ० गा० ६८] १ कवलाहाराभावमन्तरेणानुपपत्तेस्तयोः । २ हेतोरेकांशं गृहीत्वा दूपयति । ३ कवलाहारिणि । ४ अभिलाषाद्यभावेप्याहारग्रहणलक्षण। ५ जैनैः। ६ नोकर्म (१), कर्माहारः (२), कवलाहारः (३), लेप्यः आहारः (४) ओजः (५), मानसिकः (६) अपि च क्रमशः आहारः षड़िधो ज्ञेयः। ७ विग्रहगतिमापन्नाः केवलिनः समुद्घात ( दण्डकपाटेति समुद्घातद्वय ) गताः अयोगिनश्च । सिद्धाश्च अनाहाराः शेषा आहारिणो जीवाः । ८ दण्डकवाटावस्थायाम् । ९ अर्हदवस्थातः अन्ते सिद्धावस्थात आदौ या अवस्था सा अयोगावस्था ।
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३०१
सू० २६१२] कवलाहारविचारः
इत्यभिधानात् । द्वितीयपक्षे तु त्रिदशादिभिर्व्यभिचारः, तेषां कवलाहाराभावेपि देहस्थितिसम्भवात् । अथ 'औदारिकशरीरस्थितित्वात्' इति विशेष्योच्यते । तथाहि-या या औदारिकशरीरस्थितिः सा सा कवलाहारपूर्विका यथास्मदादीनाम् , औदारिकशरीरस्थितिश्च भगवतः, इति न त्रिदशशरीरस्थित्या ५ व्यभिचारः, इत्यप्यसारम् ; तदीयौदारिकशरीरस्थितेः परमौदारिकशरीरस्थितिरूपतयाऽस्मदाद्यौदारिकशरीरस्थितिविलक्षणत्वात् । तस्याश्च केवलावस्थायां केशादिवृद्ध्यभाववद्भुक्त्यभावोप्या. विरुद्ध एव।
कथं चैवं वादिनो भगवत्प्रत्यक्षमतीन्द्रियं स्यात् ? शक्यं हि १० वक्तुम्-तत्प्रत्यक्षमिन्द्रियजं प्रत्यक्षत्वादस्मदादिप्रत्यक्षवत् । तथा सरागोऽसौ वक्तृत्वात्तद्वदेव । न ह्यस्मदादौ दृष्टो धर्मः कश्चित्तत्र साध्यः कश्चिन्नेति वक्तुं युक्तम् , खेच्छाकारित्वानुषङ्गात् । तथा च न कश्चित्केवली वीतरागो वा, इति कस्य भुक्तिः प्रसाध्यते ? यदि चैकत्रं तच्छरीरस्थितेः कवलाहारपूर्वकत्वोपलम्भात्सर्वत्र १५ तथाभावः साध्यते; तर्हि घटादौ सन्निवेशादेवुद्धिमत्पूर्वकत्वोपलम्भात्तन्वादीनामप्यतो वुद्धिमत्पूर्वकत्वसिद्धिः स्यात् । द्विचन्द्रादिप्रत्ययस्य निरालम्वनत्वोपलम्भाच्चाखिलप्रत्ययानां निरालम्वनत्वप्रसङ्गः स्यात् । अथ यादृशं बुद्धिमत्कारणव्याप्तं सन्निवेशादि घटादौ दृष्टं तादृशस्य तन्वादिष्वभावान्नातस्तेषां तत्पूर्वकत्व-२० सिद्धिः, तर्हि यादृशमौदारिकशरीरस्थितित्वमस्मदादौ तद्भुक्तिपूर्वकं दृष्टं तादृशस्य भगवत्परमौदारिकशरीरस्थितावभावान्नातस्तस्यास्तद्धक्तिपूर्वकत्वसिद्धिः । यथा च प्रत्ययत्वाविशेषेपि कस्यचिनिरालम्वनत्वमन्यस्यान्यत्वम् , तथा च तच्छरीरस्थितेस्तत्त्वाविशेषेपि निराहारत्वमितरच्चेष्यतामविशेषात् ।
अथ 'अन्यादृशमौदारिकशरीरस्थितित्वमन्याशाश्च पुरुषा न सन्ति' इत्युच्यते तर्हि मीमांसकमतानुप्रवेशः । अतो यथान्या
१ औदारिकशरीरस्थितित्वात्कवलाहारित्वमेवेति । २ कवलाहारलक्षणः । ३ सरागत्वसेन्द्रियत्वलक्षणः । ४ भगवतः सरागत्वे तत्प्रत्यक्षस्येन्द्रियजत्वे च। ५ अस्सदादौ। ६ अक्रियादर्शिनः कृतवुयुत्पादकत्वम् । ७ सप्तधातुमलोपेतम् । ८ तस्य कवलस्य । ९ औदारिकशरीरस्थितित्वादिति हेतोः । १० कवलस्य । ११ द्विचन्द्रादिप्रत्ययस्य । १२ घटादिप्रत्ययस्य । १३ सालम्बनत्वम् । १४ आहारपूर्वकत्वम् । २५ परमौदारिकम् । १६ अनाहारिणः। १७ मीमांसकमतेपि सर्वशलक्षणोऽन्यादृशः पुरुषो नास्ति ।
प्र. क. मा० २६
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० दृशाः सन्ति पुरुषास्तथा तत्स्थितित्वमपि । कथमन्यथा सप्तधात मलापेतत्वं तच्छरीरस्य स्यात् ? तत्सम्भवे तत्स्थितेरतद्धति कत्वमपि स्यात् ।
तपोमाहात्म्याच्चतुरास्यत्वादिवच्चाभुक्तिपूर्वकत्वे तस्याः को ५विरोधः? दृश्यते च पञ्चकृत्वो भुजानस्य यादृशी तच्छरीर. स्थितिस्तादृश्येव प्रतिपक्षभावनोपेतस्य चतुस्त्रिोकभोजनस्यापि। तथा प्रतिदिनं भुजानस्य यादृशी सा तादृश्येवैकद्व्यादिदिनान्तरितभोजिनोपि । श्रूयते च वाहुबलिप्रभृतीनां संवत्सरप्रमिताहार
वैकल्येपि विशिष्टा शरीरस्थितिः। आयुःकमैव हि प्रधानं तत्स्थिते. १० निमित्तम् , भुक्त्यादिस्तु सहायमात्रम् । तच्छरीरोपचयोपि लाभान्तरायविनाशात्प्रतिसमयं तदुपचयनिमित्तभूतानां दिव्यपरमाणूनां लाभाद् घटते । एवं छद्मस्थावस्थावच्च केवल्यवस्थायामप्यस्य भुक्त्यऽभ्युपगमे अक्षिपक्ष्मनिमेषो नखकेशवृयादिश्चाभ्युपगम्यताम् । तदभावातिशयाभ्युपगमे वा भुक्त्यभावातिशयो१५ प्यभ्युपगन्तव्यो विशेाभावात् ।
ननु मासं वर्षे वा तदभावे तत्स्थितावपि नाऽऽकालं तस्थितिः पुनस्तदोहारे प्रवृत्त्युपलम्भादिति चेत्, कुत एतत् ? आकालं तत्स्थितेरनुपलम्भाच्चेत्, सर्वज्ञवीतरागस्याप्यत एवासिद्धेलाममिच्छतो मूलोच्छेदः स्यात् । दोषावरणयोर्हान्यतिशयोपलम्भेने २० केचिदात्यन्तिकप्रक्षयसिद्धस्तत्सिद्धौ कचिच्छरीरिण्यात्यन्तिको
भुक्तिप्रक्षयोपि प्रसिध्येत् तदुपलम्भस्यात्राप्यविशेषात् । तन्न शरीरस्थितेर्भगवतो भुक्तिसिद्धिः।
अथोच्यते-वेदनीयकर्मणः सद्भावात्तत्सिद्धिः, तथाहि-भगवति वेदनीयं स्वफलदायि कर्मत्वादायुःकर्मवत्, तदप्युक्ति२५मात्रम्; यतोऽतोप्यनुमानात्तत्फलमात्रं सियेन पुनर्भुक्तिलक्षणम् । अथ क्षुदादिनिमित्तवेदनीयसद्भावाद्भुक्तिसिद्धिः, ननु तन्निमित्तं तत्तत्रास्तीति कुतः ? क्षुदादिफलाञ्चदन्योन्याश्रय:सिद्धे हि भगवति तन्निमित्तकर्मसद्भावे तत्फलसिद्धिः, तस्याश्च तनिमित्तकर्मसद्भावसिद्धिरिति ।
१ अन्यादृशौदारिकशरीरस्थितेः। २ अकवल । ३ भोजने विरक्तभावनोपेतस्य । ४ पुष्टिः। ५ वीतरागस्य । ६ अतिशये । ७ कालमभिव्याप्य । मरणपर्यन्तमित्यर्थः । ८ कवलाहारमन्तरेण । ९ तस्य कवलस्य। १० सर्वशसद्भावम् । ( कवलाहारत्वम् ) ११ सर्वशसद्भावोच्छेदः। १२ दोषा रागादिभावकर्म । १३ आवरणं द्रव्यकर्म । १४ दृष्टान्ते । १५ आत्मनि। १६ स्वफलं क्षुदादिदुःखम् । .
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सू० २।१२] कवलाहारविचारः
३०३ अथाऽसातवेदनीयोदयात्तत्र तत्सिद्धिः, न; सामर्थ्यवैकल्यात् तस्य । अविकलसामर्थ्य हसातादिवेदनीयं खकार्यकारि,सामर्थ्यवैकल्यं च मोहनीयकर्मणो विनाशात्सुप्रसिद्धम् । यथैव हि पतिते सैन्यनायकेऽसामर्थ्य सैन्यस्य तथा मोहनीयकर्मणि नष्टे भगवत्यसामर्थ्यमघातिकर्मणाम् । यथा च मन्त्रेण निर्विषीकरणे कृते मन्त्रि-५ णोपभुज्यमानमपि विषं न दाहमूच्र्छादिकं कर्तुं समर्थम् , तथा असातादिवेदनीयं विद्यमानोदयमप्यसति मोहनीये निःसामर्थ्यत्वान्न क्षुहुःखकरणे प्रभु सामग्रीतः कार्योत्पत्तिप्रसिद्धः।
मोहनीयाभावश्च प्रसिद्धो भगवतः, तीव्रतरशुक्लध्यानानलनिर्दग्धघनघातिकर्मेन्धनत्वात् । यदि च तद्भावेपि तदुदयः स्वकार्य-१० कारी स्यात् ; तर्हि परघातकर्मोद्यात्परान् यष्ट्यादिभिस्ताडयेत् स एव वा परैस्ताड्येत । परघातोयोपि हि संयतानामर्हदवसौनानामस्ति । अथ परमकारुणिकत्वात्तदुदयेपि न परांस्ताडयति उपसर्गाभावाच न च तैस्ताड्यते; तानन्तसुखवीर्यत्वाद्वाधाविरहाच्चासातादिवेदनीयोदये सत्यपि भोजनादिकं न कुर्यात् । मोह-१५ कार्यत्वाच्च करुणायाः कथं तत्क्षये परमकारुणिकत्वं तस्य स्यात् ?
किञ्च, कर्मणां यद्युदयो निरपेक्षः कार्यमुत्पादयति; तर्हि त्रिवेदानां कषायाणां वा प्रमत्तादिषूदयोस्तीति मैथुनं भ्रकुट्यादिकं च स्यात् । ततश्च मनसः संक्षोभात्कथं शुक्लध्यानाप्तिः क्षपकश्रेण्यारोहणं वा ? तद्भाघाच्च कथं कर्मक्षपणादि घटेत ? २०
नन्वेवं नामायुदयोपि तत्र खकार्यकारी न स्यात् । इत्यप्यसङ्गतम् ; शुभप्रकृतीनां तत्राप्रतिबद्धत्वेन स्वकार्यकारित्वसम्भवात् । यथा हि वलवता राशा स्वमार्गानुसारिणा लब्धे देशे दुष्टा जीवन्तोपि न स्वदुष्टाचरणस्य विधातारःसुजनास्त्वप्रतिहततया खकायस्य विधातारस्तथा प्रकृतमपि । कथं पुनरशुभप्रकृतीनामेवाहति २५ प्रतिबद्धं सामर्थ्यम् न पुनः शुभप्रकृतीनामिति चेत्; उच्यतेअशुभप्रकृतीनामर्हन्नऽनुभागं घातयति न तु शुभानाम् , यतो गुणघातिनां दण्डो नाऽदोषाणाम् । यदि च प्रतिबद्धसामर्थ्यमप्यसातादिवेदनीयं खकार्यकारि स्यात्; तर्हि दण्डकवाटप्रतरादिविधानं भगवतो व्यर्थम् । तद्धि यदा न्यूनमायुर्वेदनीयादिकमधिक-३० स्थितिकं भवति तदाऽनेन कर्मणां समस्थित्यर्थ विधीयते । न चाधिकस्थितिकत्वेन फलदानसमर्थ कर्म उपायशतेनाप्यन्यथा
१ इति चेन्न । २ केवलिगुणस्थानान्तानाम् । ३ उदितस्य कर्मणः स्वकार्यकारि. स्वाभावप्रकारेण । ४ दुष्टनिग्रहशिष्टपालनकारिणा। ५ शुभाशुभकर्म । ६ शक्तिम् ।
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३०४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० कत शक्यमिति न कश्चिन्मुक्तः स्यात् । अथ तपोमाहात्म्यानिर्जीर्णमधिकस्थितिकत्वेन फलदानासमर्थम् आयुःकर्मसमानं क्रियते; तथा वेद्यमपि क्रियतामविशेषात् ।
एतेनेदमप्यपास्तम्-यदि वेदनीयमफलम् तत्र तन्नास्त्येव ५ ज्ञानावरणादिवत्, तथा च कर्मपञ्चकस्याभावस्तत्र प्राप्नोतीति। कथम् ? यद्यायुरधिकानि वेद्यादीनि स्वफलदानसमर्थानि; तर्हि मुक्त्यभावः। नो चेन्न तेषां कर्मत्वमिति तदपनयनाय योगिनों लोकपूरणादिप्रयासो व्यर्थः । अनुष्ठानविशेषेणापहृतसामर्थ्याना
मवस्थानं वेद्यपि समानम् । न च कारणमस्तीत्येतावतैव कार्यो१० त्पत्तिः, अन्यथेन्द्रियादिकार्यस्याप्यनुषङ्गाद्भगवतो मतिज्ञानस्य
रागादीनां च प्रसङ्गः । अथावरणक्षयोपशमस्य मोहनीयकर्मणश्च सहकारिणो विरहान्नेन्द्रियादि स्वकार्ये व्याप्रियते; अत एव वेदनीयमपि न व्याप्रियेत । न ह्यत्यन्तमात्मनि परत्र वा विरतव्यामो
हस्तदर्थ किञ्चिदादातुं हातुं वा प्रवर्त्तते । प्रयोगः-यो यत्रात्यन्तं १५ व्यावृत्तव्यामोहः स तदर्थ किञ्चिदादातुं हातुं वा न प्रवर्तते यथा व्यावृत्तव्यामोहा माता पुत्रे, व्यावृत्तात्यन्तव्यामोहश्च भगवान्, ततः सोपि भोजनमादातुं क्षुदादिकं वा हातुं न प्रवर्त्तते । प्रवृत्ती वा मोहवत्वप्रसङ्गः, तथाहि-यस्तदादातुं हातुं वा प्रवर्त्तते स मोहवान् यथाऽस्मदादिः, तथा चायं श्वेतपटाभिमतो जिन इति । २० तथा च कुतोऽस्याप्तता रथ्यापुरुषवत् ?
न चेयं वुभुक्षा मोहनीयानपेक्षस्य वेदनीयस्यैव कार्यम् , येनात्यन्तव्यावृत्तव्यामोहेप्यस्याः सम्भवः। भोक्तुमिच्छा हि बुभुक्षा, सा कथं वेदनीयस्यैव कार्यम् ? इतरथा योन्यादिषु रन्तुमिच्छा रिरंसा तत्कार्य स्यात् । तथा च कवलाहारवत् स्यादावपि तत्प्र२५वृत्तिप्रसङ्गानेश्वरादस्य विशेषः । यथा च रिरंसा प्रतिपक्षभाव
नातो निवर्त्तते तथा बुभुक्षापि । प्रयोगः-भोजनाकाङ्क्षा प्रतिपक्षभावनातो निवर्तते आकाङ्क्षात्वात् स्याद्याकाङ्क्षावत् । नन्वस्तु तद्भावनाकाले तन्निवृत्तिः, पुनस्तद्भावे प्रवृत्तिरित्येतत् ख्याद्याकाङ्खायामपि समानम् । यथा चास्याश्चेतसः प्रतिपक्षभावनाम३० यत्वादत्यन्तनिवृत्तिस्तथा प्रकृताकाङ्क्षाया अपि।।
१ शुक्कुध्यानतपोमाहात्म्येन भगवता। २ फलदानासमर्थम् । ३ अघातिकर्मत्वस्य । ४ फलदानासमर्थम् । ५ कथमपास्तमित्युच्यते । ६ फलदानसमर्थानि न भवन्तीति चेत् । ७ तहत्यिध्याहियते । ८ इति सप्तानामभावेन परस्यानिष्टापादनम् । ९ नामगोत्रविशेषाणाम् । १० कर्मत्वेन। ११ आदिना त्रिवेदम् । १२ मतिशानस्य रागादेश्च । १३ इच्छा हि लोभभेदत्वेन मोहनीयस्य कार्यम् । १४ नरस्य ।
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सू० २।१२] कवलाहारविचारः
अथाकाहारूपा क्षुन्न भवति, तेन वीतमोहेप्यस्याः सम्भवः, तदप्ययुक्तम्: अनाकाङ्क्षारूपत्वेप्यस्या दुःखरूपतयाऽनन्तसुखे भगवत्यसम्भवात् । तथाहि-यत्र यद्विरोधि वलवदस्ति न तत्राभ्युदितकारणमपि तद्भवति यथाऽत्युष्णप्रदेशे शीतम् , अस्ति च क्षुदुःखविरोधि वलवत् केवलिन्यनन्तसुखम् । तथा यत्कार्य-५ विरोध्यनिवत्यं यत्रास्ति तत्र तदविकलमपि स्वकार्य न करोति यथा श्लेष्मादिविरुद्धानिवर्त्य पित्तविकाराकान्तो न दध्यादि श्लेष्मादि करोति, वेद्यफलविरुद्धाऽनिवर्त्य सुखं च भगवतीति ।
अस्तु वा वेद्यं तत्र वुभुक्षाफलप्रदायि, तथापि-वुभुक्षातः समवसरणस्थित एवासौ भुङ्क्ते, चर्यामार्गेण वा गत्वा? प्रथमपक्षे १० मार्गस्तेन नाशितः स्यात् । कथं च बुभुक्षोदयानन्तरमाहारासस्पत्तौ ग्लानस्य यथावद्वोधहीनस्य मार्गोपदेशो घटेत ? अथ तदुदयानन्तरं देवास्तत्राहारं सम्पादयन्ति; न; अत्र प्रमाणाभावात् । 'आगमः' इति चेन्न; उभयप्रसिद्धस्यास्याप्यभावात् । खप्रसिद्धस्य भावेपि नातस्तत्सिद्धिः, 'भुक्त्युपसर्गाभावः' इत्यादेरपि प्रमाणभू-१५ तागमस्य भावात् । अथ चर्यामार्गेण गत्वासौ भुते, तत्रापि किं गृहं गृहं गच्छति, एकस्मिन्नेव वा गृहे भिक्षालाभं ज्ञात्वा प्रवतते ? तत्राद्यपक्षे भिक्षार्थ गृहं गृहं पर्यटतो जिनस्याज्ञानित्वप्रसङ्गः। द्वितीयपक्षे तु भिक्षाशुद्धिस्तस्य न स्यात् । कथं चासौ मत्स्यादीन् व्याधलुब्धकप्रभृतिभिः सर्वत्र सर्वदा व्याहन्यमाना-२० प्राणिनस्तेषां पिशितानि च तथाऽशुच्यादींश्चार्थान् साक्षात्कुर्वनाहारं गृह्णीयात् ? अन्यथा निष्करुणः स्यात् । जीवानां हि वधं विष्टादिकं च साक्षात्कुर्वन्तो व्रतशीलविहीना अपि न भुञ्जते, भगवांस्तु व्रतादिसम्पन्नस्तत्साक्षात्कुर्वन् कथं भुञ्जीत ? अन्यथा तेभ्योप्यसौ हीनसत्त्वः स्यात् ।
२५ यदप्युच्यते-यत्किञ्चिदृष्टं शुद्धमशुद्धं तत्स्मरन्तो यथास्सदायो भोजनं कुर्वन्ति तथा केवली साक्षात्कुर्वनिति; तदप्युक्तिमात्रम्; न ह्यस्मदादीनां परमचारित्रपदप्राप्तेनाशेषज्ञेन भगवता साम्यमस्ति। अस्मदायोपि हि यथा(यदा)कथञ्चित्किञ्चिदशुद्धं वस्तु दृष्टं
१ क्षुदादिदुःखं धर्मि । २ यस्य वेदनीयस्य । ३ कार्य क्षुत् । ४ अनन्तसुखम् । ५ न केनापि निराकर्तुं शक्यम् । ६ वेदनीयम्। ७ (नरे)। ८ श्लेष्मादिलक्षणस्य कार्यस्य करणे अविकलमपि । ९ अनन्तसुखम् । १० वेदनीयम् । ११ श्वेतपटस्य । १२ भगवतः। १३ अर्थे । १४ श्वेतपटमते प्रसिद्धस्यागमस्य । १५ जैनागमस्य । १६ केनचित्प्रकारेण मार्गादिगमनलक्षणेन ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
२. प्रत्यक्षपरि०
स्मरन्तो भोजनपरित्यागेऽसमर्थास्तद्भुञ्जते तदा तदोषविशुद्ध गुरुवचनादात्मानं निन्दन्तः प्रायश्चित्तं कुर्वन्ति । यो तु तत्त्यागे समर्थाः पिण्डविशुद्धावुद्यतमनसो निर्वेदस्य पर काष्ठामापन्ना स्त्यक्तशरीरापेक्षा जितजिव्हा अन्तरायविषयो निपुणमतयस्ते ५स्मरन्तोपि न भुञ्जते।
किञ्च, असौ भोजनं कुर्वाणः किमेकाकी करोति, शिष्यैर्वा परिवतः? यदि एकाकी पेश्वाल्लग्नान् शिष्यान्विनिवार्य श्रावकानां गृहे गत्वा भुङ्क्ते तर्हि दीनः स्यात् । अथ तैः परिवृतः, तर्हि सावद्यप्रसङ्गः। १० किञ्च, असौ भुक्त्वा प्रतिक्रमणादिकं करोति वा, न वा ?
करोति चेत्, अवश्यं दोषवान् सम्भाव्यते, तत्करणान्यथानु. पपत्तेः । न करोति चेत् ; तर्हि भुजिक्रियातः समुत्पन्नं दोषं कथं निराकुर्यात् ? आहारकथामात्रेणापि ह्यप्रमत्तोपि सन् साधुः
प्रमत्तो अवति, नाहन्भुखानोपीति श्रद्धामात्रम् । प्रमत्तत्वे चास्य १५ श्रेणितः पतितत्वान्न केवलभाक्त्वम् ।
किम चासौ भुङ्क्ते-शरीरोपचयार्थम् , ज्ञानध्यानसंयमसंसियर्थ वा, क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थ वा, प्राणत्राणार्थ वा ? न तावच्छरीरोपचयार्थम् ; लाभान्तरायप्रक्षयात्प्रतिसमयं विशिष्टपरमाणु
लाभतस्तत्सिद्धेः। तदर्थं तद्हणे चासौ कथं निर्ग्रन्थः स्यात् २०प्राकृतपुरुषवत् ? नापि ज्ञानादिसिद्ध्यर्थम् ; यतो ज्ञानं तस्याखि
लार्थविषयमक्षयस्वरूपम् , संयमश्च यथाख्यातः सर्वदा विद्यते । ध्यानं तु परमार्थतो नास्ति निर्मनस्कत्वात्, योगनिरोधत्वेनोपचारतस्तत्रास्य सम्भवात् । नापि प्राणत्राणार्थम्, अपमृत्युरहि. तत्वात् । नापि क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थम्, अनन्तसुखवीर्ये भगव२५ त्यस्याः सम्भवाभावस्योक्तत्वात् ।
ननु भगवतो भोजनाभावे कथम् 'एकादश जिने परीषहाः' इत्यागमविरोधो न स्यात् ? तदसत्; तेषां तत्रोपचारेणैव प्रतिपादनात्, उपचारनिमित्तं च वेदनीयर्सद्भावमात्रम् । परमार्थ: तस्तु तत्र तेषां सद्भावे क्षुदादिपरीषहसद्भावाबुभुक्षावद् रोगबध३० तृणस्पर्शपरीषहसद्भावान्महदुःखं स्यात् , तथा च दुःखितत्वानासौ जिनोऽस्मदादिवत् । तथा भोजनं रसनेन शीतादिकं च
१ यतयः । २ पृष्ठे। ३ भगवतो मुक्तिक्रियातो दोष एव न सम्पद्यते इत्युक्ते आह । ४ प्रमत्तो न भवतीति यावत् । ५ प्राकृतो नीचः। ६ आयुषोऽपवर्तरहितत्वात् । ७ जिने। ८ द्रव्यरूपेण । ९ भोजनं रसनेनानुभवेता केवलज्ञानेन वेति विकल्प्य क्रमेण दूषयबाह।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः
३०७ स्पर्शनादिनेन्द्रियेण यद्यसावनुभवेत् ; तर्हि भगवतो मतिज्ञानानुपङ्गः। अथ केवलज्ञानेन; तंत्रापि सर्व भोजनादिकं परशरीरस्थमप्यस्यानुषज्यते । न चात्मशरीरस्थ मेवास्य तन्नान्यदित्यभिधातव्यम् ; भगवतो वीतमोहस्य स्वपरशरीरमति विभागाभावात् ।
यच्चोपचारतोयस्यैकादश परीषहा न सम्भाव्यन्ते तत्र तन्नि-५ पेधपरत्वात् सूत्रस्य, 'एकेनाधिका न दश परीषहा जिने एकादश जिने' इति व्युत्पत्तेः। प्रयोगः-भगवान् क्षुदादिपरीषहरहितोऽनन्तसुखत्वात्सिद्धवत् ।
किञ्च, भोजनं कुर्वाणो भगवान् किल लोकैर्नावलोक्यते चक्षु. षेत्यभिधीयते भवता । तंत्रादर्शनेऽयुक्तसेवित्वादेकान्तमाश्रित्य १० भुत इति कारणम् , वहलान्धकारस्थितभोजनं वा, विद्याविशेषण स्वस्य तिरोधानं वा ? तत्राद्यपक्षे पारदारिकवद्दीनंघद्वा दोषसम्भावनाप्रसङ्गः । अन्धकारस्तु न सम्भाव्यते, तदेहदीत्या तस्य निहतत्वात् । विद्याविशेषोपयोगे चास्य निर्ग्रन्थत्वाभावः। कथं चादृश्याय तस्मै दानं दातृभिर्दीयते ? अथातिशयविशेषः कश्चि-१५ त्तस्य, येन भुञ्जानो नावलोक्यते; तर्हि भोजनामावलक्षण एवास्यातिशयोस्तु किं मिथ्याभिनिवेशेन ? ततो जीवन्मुक्तस्यात्मनोऽनन्तचतुष्टयस्वभावत्वमिच्छता कवलाहाररहितत्वमेवैष्टव्यमित्यलमतिप्रसङ्गेन ।
ननु च 'अनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभो मोक्षः' इत्ययुक्तम् बुद्ध्या-२० दिविशेषगुणोच्छेदपत्वात्तस्य । तदुच्छेदे च प्रमाणम्-नबानामात्मविशेषगुणांनां संन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तामत्वात् प्रदीपसन्तानवत् । न चायमसिद्धो हेतुः, पक्षे प्रवर्त्तमानत्वात् । नापि विरुद्धः; सपक्षे प्रदीपादौ सत्त्वात् । नाप्यनैकान्तिकः, पक्षसपक्षवद्विपक्षे परमाण्वादावप्रवृत्तेः। नापि कालात्ययापदिष्टः,२५ विपरीतार्थोपस्थापकयोःप्रत्यक्षागमयोरसम्भवात् । नापि सत्प्रतिपक्षः प्रतिपक्षसाधनाभावात् ।
१ तहिं । २ केवलज्ञानेन तत्राप्यनुभवोस्तीति भावः । ३ ( एकादश जिने इति सूत्रस्य जिननिष्ठैकादशपरीषहाणां निषेधपरत्वात् )। ४ ग्रन्थे। ५ मां दृष्ट्वा कश्चिभोजनं याचिष्यत इति दीनचित्तत्वं दोषो दीनचित्तस्य । ६ व्यापारे । ७ प्रपञ्चेन । ८ बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारलक्षणानाम् । ९ धर्माधर्माभ्यां बुद्धिरुत्पद्यते बुद्धेः संस्कारः संस्कारादिच्छाद्वेषी इच्छाद्वेषाभ्यां प्रयत्नस्तस्मात्सुखदुःखे भवत इति नवानां गुणानां सन्तानः। १० सर्वथा। ११ निये। १२ प्रतिपक्षसाधको हेतुः सत्प्रतिपक्षः।
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३०८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० नन सन्तानोच्छेदरूपेपि मोक्षे हेतुर्वाच्यो निर्हेतुकविनाशात. भ्युपगमात्; इत्यप्यचोद्यम्, तत्त्वज्ञानस्य विपर्ययज्ञानव्यवच्छेते. क्रमेण निःश्रेयसहेतुत्वोपपत्तेः । दृष्टं च सम्यग्ज्ञानस्य मिथ्या ज्ञानोच्छेदे शुक्तिकादौ सामर्थ्यम् । ननु चौतत्त्वज्ञानस्यापि ५ तत्त्वज्ञानोच्छेदे सामर्थ्य दृश्यते, ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविरोधित्वेन मिथ्याज्ञानोत्पत्तौ सम्यग्ज्ञानोच्छेदप्रतीते; इत्यप्ययुक्तम् । यतो नानयोरुच्छेदमात्रमभिप्रेतम् । किं तर्हि ? सन्तानोच्छेदः । यथा च सम्यग्ज्ञानान्मिथ्याज्ञानसन्तानोच्छेदो नैवं मियाज्ञानात्सम्यरज्ञानसन्तानस्य, अस्य सत्यार्थत्वेन वलीयस्त्वात् । निवृत्ते च १० मिथ्याज्ञाने तन्मूला रागादयो न सम्भवन्ति कारणाभावे कार्या
नुत्पादात् । रागाद्यभावे तत्कार्या मनोवाकायप्रवृत्तियावर्तते। तदभावे च धर्माधर्मयोरनुत्पत्तिः । आरब्धशरीरेन्द्रियविषयकार्ययोस्तु सुखदुःखफलोपभोगात्प्रक्षयः। अनारब्धतत्कार्ययोरज्यवस्थितयोस्तत्फलोपभोगादेव प्रक्षयः । तथा चागमः१५ "माभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि” [ ] इति ।
अनुमानं च, पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते कर्मत्वात् प्रारब्ध. शरीरकर्मवत् । न चोपभोगात्प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यं भावात्संसारानुच्छेदः, समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगतकर्मसा
मोत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वारावाप्ताशेषभोगस्योपत्तिकर्मप्रक्ष२० यात्, भाविकर्मोत्पत्तिनिमित्त मिथ्याज्ञानजनितानुसन्धानविकलत्वाञ्च संसारोच्छेदोपपत्तेः । अनुसन्धानं हि रागद्वेषौ 'अनुसन्धीयते गतं चित्तमाभ्याम्' इति व्युत्पत्तेः । न च मिथ्याज्ञानाभावेऽभिलाषस्यैवासम्भवाद्भोगानुपपत्तिः, तदुपभोगं विना हि कर्मणां प्रक्षयानुपपत्तेः तत्त्वज्ञानिनोपि कर्मक्षयार्थितया प्रवृत्ते२५वैद्योपदेशेनातुरवदौषधाचरणे । यथैव ह्यातुरस्यानभिलषितेप्योषधाचरणे व्याधिप्रक्षयार्थ प्रवृत्तिः, तद्व्यतिरेकेण तत्प्रक्षयानुपपत्तेस्तथात्रोंपि।
१ मिथ्या। २ सम्यग्ज्ञानान्मिथ्याशानामावस्तदभावाद्रागाद्यभावस्तदभावाच्च मनोवाकायप्रवृत्तिरूपप्रयत्नाभावस्तदभावाद्धर्माधर्मयोरभाव इति। ३ द्विचन्द्रादिशानस्य । ४ एकचन्द्रशानस्य । ५ आमूलतः सन्ततिच्छेदे एवाभिप्रायः। ६ स्रग्वनितादिकं सुखहेतुरिति अहिकण्टकादिकं दुःखहेतुरिति च सम्यग्शानात् । ७ सम्वनितादिकं दुःखहेतुरिति शानात् । ८ धर्माधर्मयोः। (बसः)। ९ प्रारब्धं शरीरं येन तच्च तत्कर्म च। १० ध्यान। ११ नुः। १२ पूर्वोपात्त। १३. सम्बध्यते । १४ अनेन पूर्व ममेदृग्विधं दुःखादिकं दत्तमिति । १५ बुद्धिः। १६ तत्त्वशानिनः पुरुषस्य । १७ कर्मफलस्य । १८ कर्मफलोपभोगे।१९ उक्तमेव समर्थयति । २० कर्मफलोपभोगे तत्त्वशानिनः।
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सू० २११२] मोक्षस्वरूपविचारः
ननु तत्त्वज्ञानिनां तत्त्वज्ञानादेव सञ्चितकर्मप्रक्षय इत्यप्यागमोस्ति
“यथैधांसि संमिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा"
[भगवद्गी० ४।३७ ] इति। ५ तथा च विरुद्धार्थत्वादुभयोरेकत्रार्थे कथं प्रामाण्यम् ? इत्ययुक्तम् । तत्त्वज्ञानस्य साक्षात्तद्विनाशे व्यापाराभावात् । तद्धि कर्मसामर्थ्यावगमतोऽशेषशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगात्कर्मणां विन्दाशे व्याप्रियते इत्यग्निरिवोपचर्यते ज्ञानमित्यागमव्याख्यानादविरोधः। न चैतद्वाच्यम्-'तत्त्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानादितरेपा १० तूपभोगात्' इति; ज्ञानेन कर्मविनाशे प्रसिद्धोदाहरणाभावात् , फलोपभोगातु तत्प्रक्षये तत्सद्भावात् ।
अन्ये तु मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य सहकारिणोऽभावाद्विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरे शरीराद्यौरम्भकाणीति मैन्यन्ते; तेषामनुत्पादितकार्यस्यादृष्टस्याप्रक्षयानित्यत्वसङ्गः । १५ अनागतयोर्धर्माधर्मयोरुत्पत्तिप्रतिषेधे तत्त्वज्ञानिनो नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं किमर्थमिति चेत् ? प्रत्यायपरिहारार्थम् । न च मिथ्याज्ञानाभावे दुष्कर्मणोऽभावात् कस्य परिहारार्थ तदित्यभिधातव्यम्; यतो मिथ्याज्ञानाभावे निषिद्धाचरण निमित्तस्यैव प्रत्यवायस्याभावो न विहिताननुष्ठाननिमित्तस्य,
"अकुर्वन्विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते" [ ] इत्यागमात् । ततस्तदनुष्ठानं तत्परिहारार्थ युक्तम् । तदुक्तम्
"नित्यनैमित्तिके कुर्यात्प्रत्यवायजिहासया। मोक्षार्थी न प्रवर्त्तत तत्र काम्यनिषिद्धयोः ॥ १॥
[मी० श्लो० सम्वन्धा० श्लो० ११०] २५
२४
१ दीप्तः । २ तथाप्यागमसद्भावे च। ३ आगमयोः। ४ मोक्षोपायलक्षणे। ५ अग्रे वक्ष्यमाणम् । ६ अतत्त्वज्ञानिनाम् । ७ कुतः ?। ८ प्रारब्धशरीरकर्मवदिति । ९ तत्त्वज्ञाने समुत्पन्ने सतीति शेषः । १० भावनारूपस्य । ११ इन्द्रियविषयादेश्च । १२ नैयायिकविशेषाः । १३ धर्माधर्मस्य । १४ ततोऽनुभवनप्रकारेणैव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः। १५ सति । प्रागुक्तन्यायेन। १६ नरस्य । १७ दुष्कर्म । १८ जनादिना । १९ विप्रवधादि। २० नित्यनैमित्तिकादेः। २१ कर्मणी। २२ काम्यं यागः । २३ निषिद्धं विप्रवधादि । २४ कर्मणोः ।
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३१०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ २॥ अभ्यासात्पैक्वविज्ञानः कैवेल्यं लभते नरः ।
काम्ये निषिद्धे च परं प्रवृत्तिप्रतिषेधतः ॥ ३॥" ५ 'स्वर्गकामः' इत्याद्यागमजनितकामेन यागाभिलाषेण निवर्स हि काम्यमग्निष्टोमादि । कैवल्यं तु सकलविशेषगुणोच्छेदवि शिष्टात्मस्वरूपं निर्वाणम् । न च विपर्ययज्ञानप्रध्वंसादिक्रमेण तद्विशिष्टात्मस्वरूपनिर्वाणस्य तत्त्वज्ञानकार्यत्वाद नित्यत्वं वाच्यम
यतो विशेषगुणोच्छेदस्यानित्यत्वमापाद्यते, तद्विशिष्टात्मनो वा? १० न तावद्विशेषगुणोच्छेदस्य; अस्य प्रध्वंसोभावरूपत्वात् । कार्य
वस्तुनो ह्यनित्यत्वं प्रसिद्धम् । तद्विशिष्टात्मनश्च वस्तुत्वेपि कार्यत्वाभावान्नानित्यत्वम् । न च वुद्ध्यादिविनाशे गुणिनस्तथाभावो युक्तः तयोरत्यन्तभेदात् । तत्तादात्म्ये त्वयं दोषः स्यादेव ।
अथ मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतवुईयस्तत्र प्रव१५ र्तन्ते इत्यानन्द्पो मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः
"आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते" [ ] इत्यागमात् । 'आत्मा सुखस्वभावोऽत्यन्तप्रियवुद्धिविषयत्वात्, अनन्यैपरतयोपाँदीयमानत्वाच । यद्यदेवंविधं तत्तत्सुखस्वभावम् यथा वैषयिकं सुखम् , ताँ चात्मा एवंविधः, तस्मात्सुखस्व२० भावः' इत्यनुमानाच्चास्यानन्दस्वभावताप्रतीतिः; इत्यप्यसाम्प्रतम् यतस्तत्सुखं नित्यम् , अनित्यं वा ? न तावदनित्यम्, तत्स्वभावतयात्मनोप्यनित्यत्वप्रसङ्गात् । नित्यं चेत् ; तत्संवेदनमपि नित्यम्,
१ अनुष्ठानः। २ मनुष्यः । ३ विस्तारयेत्। ४ उत्कृष्टविज्ञानः। ५ मोक्षम् । ६ ( मूलपाठस्त्वत्र 'केवलं' इति । अनेन त्रिमात्रिकाक्षरेण छन्दोभङ्गः स्यादिति परं' शब्दो नियोजितः । केवलशब्दस्य परशब्दोर्थः टिप्पण्यां लिखितश्च )। ७ निष्पाद्यमनुष्ठानम् । ८ मिथ्याशान। ९ निस्स्वरूपत्वात् । १० गुणगुणिनोः। ११ गुणगुणिनोः। १२ गुणविनाशे गुणिविनाशलक्षणः। १३ वेदान्ती भास्करीयः । १४ बुद्धेः। १५ विनाशात् । १६ प्रेक्षावन्तः। १७ वैशेषिकेण। १८ आत्मनः। १९ व्यक्तीक्रियते । २० संसारिमुक्तात्मनोः साधारणमनुमानम् । २१ पुत्रादिशरीरेण व्यभिचारपरिहारार्धमत्यन्तपदोपादानम् । २२ आत्मनः । २३ वनिताशरीरेण व्यभिचारपरिहारार्थमनन्यपरतयेत्युक्तम् । २४ स्वप्रधानत्वेनेत्यर्थः । २५ अनन्यपरतयोपादीयमानत्वादिति कोर्थः ? आत्मन आत्मनि लीनतया स्वस्वरूपस्योपादीयमानत्वं ग्राह्यमाणत्वं यस्यात्मन इति । २६ वैषयिकसुखप्रकारेण । २७ संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां च ।
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सू० २११२] मोक्षस्वरूपविचारः अनित्यं वा? यदि नित्यम् ; मुक्तेतरावस्थयोरविशेपप्रसङ्गः तत्सु. खसंवेदनयोर्नित्यत्वेनोभंयत्र सत्त्वाविशेषात् । स्मरणानुपपत्तिश्च: अनुभवस्यैवावस्थानात् । संस्कारानुपंपत्तिश्च; अनुभवस्य निरतिशयत्वात् । करणजन्यसुखेन चास्य संसारावस्थायां साहचर्यग्रहणप्रसङ्गात् सुखर्द्वयोपलम्भः संदा स्यात् ।
अथ धर्माधर्मफलेन सुखादिना शरीरादिना वा नित्यसुखसंवेदनस्य प्रतिवद्धत्वेनानुभवाभावान्न मुक्तेतरावस्थयोरविशेषः सदा सुखद्वयोपलम्भो वा; तदयुक्तम् ; शरीरादेः सुखार्थत्वेन तत्प्रतिवन्धकत्वायोगात् । न हि यद्यदर्थ तत्तस्यैव प्रतिवन्धक युक्तम् । नापि वैषयिकसुखाद्यनुभवेन तत्प्रतिवन्धः । तेन हि १० नित्यसुखस्य तदनुभवस्य वा प्रतिवन्धोऽनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा न युक्तः, द्वयोरपि नित्यत्वाभ्युपगमात् । न च संसारावस्थायां वाह्यविषयव्यासङ्गाद्विद्यमानस्याप्यनुभवस्यासंवेदनम्, तद्भावात्तु मोक्षावस्थायां संवेदनमित्य भिधातव्यम्; तदनुभवस्य नित्यत्वेन व्यासङ्गानुपपत्तेः । आत्मनो हि व्यासङ्गो १५ रूपादौ विषये ज्ञानोत्पत्तौ विक्यान्तरे ज्ञानानुत्पत्तिः, इन्द्रियस्याप्येकसिन्विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयन्तरे ज्ञानाजन कत्वम् । स चात्रानुपपन्नः; सुखवत्तज्ज्ञानस्यापि सदा सत्त्वात् । शरीरादेस्तु प्रतिवन्धकत्वे तदपहन्तुहिंसाफलं न स्यात्, प्रतिवन्धकविघातकारकस्योपकारकत्वेन लोके प्रतीतेः। २० __ अथानित्यं तत्संवेदनम् ; तदोत्पत्तिकारणं वाच्यम् । अथ योगजधर्मापेक्षः पुरुषान्तःकरणसंयोगोऽसमायिकारणम् । ननु योगजधर्मस्य मुक्तावसम्भवात् कथमतौ तत्संयोगेनापेक्ष्येत
१संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां च । २ अस्ति च संसारावस्थायां सुखस्मरणन् । ३ प्रत्यक्षस्य । ४ प्रत्यक्षविशेषो धारणाज्ञानं संस्कारः । ५ अस्ति च संस्कारस्योत्पत्तिः संसारावस्थायाम् । ६ भावरूपस्य । ७ नित्यसुखस्य । ८ नित्यानित्यसुखदयस्य । ९ यदा यदा वैषयिकं सुखमुत्पद्यते तदा तदा द्वयोरुपलम्म इत्यर्थः। १० कार्येण । ११ दुःखादिना च । १२ इन्द्रियादिना च। १३ प्रतिहतत्वेन। १४ अत्रार्थः प्रयोजनम् । १५ भोगायतनं शरीरमिति वचनात् । १६ प्रतिपक्षम् । १७ वनिता. दिवत् । १८ नित्यसुखसंवेदनयोः। १९ वेदान्तिना। २० नित्यमुखानुभवस्य । २१ वेदान्तिना। २२ आत्मन इन्द्रियस्य वा । २३ तत्समये । २४ ज्यासङ्गः। २५ रूपे । २६ रसे। २७ नित्यसुखे । २८ सुखतत्संवेदनयोः। २९ नरस्य । ३० वेदान्तिना। ३१ मनः। ३२ आत्मा तु समवायिकारणम् । ३३ नित्यसुखसंवेदनस्य । ३४ वैशेषिकः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० यतस्तत्र ततस्तदुत्पत्तिः स्यात् ? अर्थाचं योगजधर्मापेक्षान्ता करणसंयोगो विज्ञानं जनयति तच्चापेक्ष्योत्तरोत्तरं ज्ञानम् । तदप्ययुक्तम्, न हि शरीरसम्वन्धानपेक्षं विज्ञानमेवान्तःकरणसंयोगस्य ज्ञानोत्पत्तौ सहकारिकारणं दृष्टम् । न च दृष्टविपक्षी ५शक्यं कल्पयितुमतिप्रसङ्गात् । आकस्मिकं तु कार्य न भवत्येव. अहेतोः सर्वत्र सर्वदा भावप्रसङ्गात् ।
किञ्च, यथा मुक्तावस्थायामनित्यसुखमतिकस्य नित्यं परि. कल्प्यंते, तथा नित्यत्वधर्माधिकरणं शरीरादिकमपि परिकल्पनीयम् । कार्यत्वात् तस्य कथं नित्यत्वधर्माधिकरणत्वम् दृष्टविरो. १० धादप्रमाणकत्वाच्च ? इत्यन्यत्रापि समानम् । न खलु नित्यसुख
साधकत्वेन प्रत्यक्षानुमानागमानां मध्ये किञ्चित्प्रवर्तते, अस्मदा. दीन्द्रियजप्रत्यक्षस्यात्र व्यापारानुपलम्भात् । “योगिप्रत्यक्षं त्वेवं प्रवर्त्ततेऽन्यथा वा' इत्यद्यापि विवादपदापन्नम् ।
यच्चात्मा सुखखभाव इत्यनुमानं तदपि न नित्यसुखस्वभावता१५साधकम् ; सुखखभावतामात्रस्यैवातः प्रसिद्धः।
किञ्च, सुखस्वभावत्वं सुखत्वातिसम्बन्धित्वम् ; तन्नात्मनि सम्भाव्यते गुणे एवास्योपलम्भात् । न ह्येका काचिजातिव्यगुणयोः साधारणोपलभ्यते । अथ सुखाधिकरणत्वम् ; तन्न; अस्य नित्यानित्यविकल्पानुपपत्तेः। तथा सुखत्वस्य सुखस्य वाधिकरण२० तायां तज्ज्ञानस्यापि नित्यानित्यविकल्पः समानः।
साधनं च अत्यन्तप्रियवुद्धिविषयत्वमनन्यपरतयोपादीयमानत्वं चानकान्तिकत्वादसाधनम् ; दुःखाभोंवेपि भावात् । अनन्यपरतयोपादीयमानत्वं चासिद्धम्। न ह्यात्माऽन्यार्थ नोपादीयते; सुखार्थ
१ नित्यसुख । २ नित्यसुखसंवेदनम् । ३ आत्मान्तःकरणसंयोगो जनयति । ४ किन्तु शरीरसम्बन्धापेक्षं सद्विज्ञानं सहकारिकारणं दृष्टम् । ५ सौगतादेरपि संवेदनस्य क्षणिकत्वादिसिद्धिप्रसङ्गात् । ६ वेदान्तिना भवता। ७ इन्द्रियं च । ८ नित्यसुखे । ९ नित्यसुखग्राहकत्वेन । १० नित्यासुखाग्राहकत्वेन । ११ जाति:सामान्यम् । १२ निश्चीयते । १३ सुखलक्षणे । १४ सुखाधिकरणत्वस्य सुखस्वभावत्वस्य । १५ अन्यलीनतया । १६ वैशेषिकः। १७ नित्यं चेन्मुक्तेतरावस्थाया अविशेषप्रसङ्ग इत्यादि दूषणम् । अनित्यं चेदुत्पत्तिकारणं वाच्यमित्यादि दूषणम् । १८ तथा दूषणान्तरसमुच्चये। १९ आत्मनः। २० दुःखाभावो हि त्यक्तभरस्या. त्यन्तप्रियबुद्धिविषयः अनन्यपरतयोपादीयमानश्च । न त्वसौ सुखस्वभावस्तस्य तुच्छ. रूपत्वात् । २१ अमावस्य निःस्वरूपत्वानैयायिकादिमते । २२ सुखलीनतयाऽई सुखीत्युल्लेखेन ।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः ३१३ सस्योपादानात् । अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वमप्यसिद्धम् ; दुःखितायासप्रियवुद्धेरपि भावात् ।
'आनन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्याद्यागमो नित्यसुखसद्भावावेदकः, इत्यप्यसमीचीनम् । तस्यैतदर्थत्वासिद्धेः । आनन्दशब्दो ह्यात्यन्तिकदुःखाभावे प्रयुक्तत्यागौणः । दृष्टश्च दुःखाभावे सुखशब्द-५ प्रयोगः, यथा माराकान्तस्य ज्वरादिसन्तप्तस्य वा तदपाये।
किञ्च, आत्मस्वरूपात्तन्नित्यसुखमव्यतिरिक्तम् , तद्व्यतिरिक्तं वा? प्रथमपो आत्मस्वरूपवत् सर्वदा सुखसंवित्तिप्रसङ्गाद्वद्धमुक्तयोरविशेषग्रसङ्गः।
अनाद्यविद्याच्छादितत्वान्न स्वप्रकाशानन्दसंवित्तिः संसारिणः; १० इत्यप्यपेशलम् ; आच्छाद्यते प्रकाशस्वरूपं वस्तु, यत्तु प्रकाशखरूपं तत्कथमन्येनाच्छाद्येत? मेघादिना त्वादित्यादेराच्छादनं युक्तम् तस्यातोऽर्थान्तरत्वात्, मूर्तस्य मूर्त्तनाच्छादनापत्तेः (दनोपपत्तेः)। अविद्यायास्तु सत्त्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीयतया तुच्छस्वभावत्वात् न स्वप्रकाशानन्दाच्छादकत्वम् । तन्नायः १५ पक्षो युक्तः।
द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः नित्यसुखस्यात्मनोऽर्थान्तरस्य प्रत्यक्षादेः प्रतिपादकस्य प्रतिपिद्धत्वाद्वाधकस्य च प्रदर्शितत्वात् । तन्न परमानन्दाभिव्यक्तिमोक्षः।
नापि विशुद्धज्ञानोत्पत्तिः, रागादिमतो विज्ञानात्तद्रहितस्या-२० स्योत्पत्तेरयोगात् । यथैव हि वोधाद्वोधरूपता ज्ञानान्तरे तथा रागादेरपि स्यात्तादात्म्यात् , अन्यथा तादात्स्याभावः स्यात् । न च 'वोधादेव बोधरूपता' इति प्रमाणमस्ति; विलक्षणादपि कार- . गाद्विलक्षणकार्यस्योत्पत्तिदर्शनात् । बोधस्य च बोधान्तरहेतुत्वे पूर्वकालभावित्वं समानजातीयत्वमेकसन्तानत्वं वा न हेतुः, २५ व्यभिचारात् ; तथाहि-पूर्वकालभावित्वं तत्समानक्षेणैः, समानजातीयत्वं च सन्तानान्तरज्ञानैर्व्यभिचारि, तेषां हि पूर्वकालभावित्वे तत्समानजातीयत्वे च सत्यपि न विवक्षितज्ञानहेतुत्वम् ।
१ अवस्थायाम् । २ आगमे। ३ बद्धः संसारी । ४ ब्रह्मणः सकाशात् । ५ विद्यमानत्वाविद्यमानत्वाभ्याम् । ६ सौगतमाशङ्कय । ७ मोक्षः। ८ पूर्वशानात् । ९ उत्तरशाने । १० बोधस्य रागादिना। ११ रागादिर्यदि न स्यात् । १२ वीजादेः। १३ अङ्कुरादेः। १४ प्रथमस्य । १५ एकात्मत्वम् । १६ उत्तरशानजनकप्राक्तनबोधस्य । १७ पुरुषान्तरबोधैः पूर्वकालभाविमिः। १८ ज्ञानत्वेन समानजावीयत्वम् । १९ पुरुषान्तरबोधैः पूर्वकालभाविभिः । २० पूर्वशानस्य । २१ विवक्षितमुत्तरम् ।
प्र.क० मा० २७
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प्रमेयकमलमार्तण्डे २. प्रत्यक्षपरि० एकसन्तानत्वं च अन्त्यज्ञानेने व्यभिचारि । अथ नेष्यत ए. न्त्यज्ञानं सर्वदाऽऽरम्भात् । तथाहि-मरणशरीरज्ञानमपि हानान्तरहेतर्जायदवस्थाज्ञानं च सुषुप्तावस्थाज्ञानस्येति । नन्वेवं मरणश. रीरज्ञानस्यान्तराभवशरीरज्ञानहेतुत्वे गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे ५सन्तानान्तरेपि ज्ञानजनकत्वं किन्न स्थानियतहेतोरभावात ? अथेष्यते एव उपाध्यायज्ञानं शिष्यज्ञानस्य हेतुः। अन्यस्य का भवति ? कर्मवासना नियामिका चेन्न; तस्या ज्ञानव्यतिरेकेणास म्भवात् । तत्तादात्म्ये हि विज्ञानं वोधरूपतया अविशिष्टं बोधान
वोधरूपतेत्यविशेषेण ज्ञानं विद्ध्यात्।। १० सुषुप्तावस्थाज्ञानस्य जाअवस्थाज्ञानं कारणम् ; इत्यप्यसम्माव्यम् ; सुपुप्तावस्थायां च ज्ञानाभ्युपैगमे जाग्रवस्थातो विशेषो न स्यादुर्भयत्रापि खसंविदितज्ञानसद्भावाविशेषात् । मिद्धनाभि तत्वं विशेषः, इत्यप्यसत्; तस्यापि तद्धर्मतया तादात्म्येनाभिः भावकत्वायोगात् । तद्वयतिरेके तु, रूपवेदनौदिपदार्थस्वरूपव्यति १५रिक्तं तत्वरूपं निरूप्यताम् । अभिभवश्व यदि विनाशः; कथं
तत्र ज्ञानस्य सत्त्वं विनाशस्य वा निर्हेतुकत्वम् ? अथ तिरोभावः, न; विज्ञानसत्तैव संवेदनमित्यभ्युपगमे तैस्यानुपपत्तेः। अतः सुषुप्तावस्थायां विज्ञानासत्त्वेनान्त्यज्ञानसद्भावादेकसन्ता.
नत्वं व्यभिचारीति। २० यच्चोच्यते-विशिष्टभावनाभ्यासवशागागादिविनाशः; तदप्यसङ्गतम् ; निर्हेतुकत्वाद्विनाशस्य अभ्यासानुपपत्तेश्च । अभ्यासो
१ बौद्धानां मते योगिनां मरणे चस्मचित्तमुत्तरचित्तं नोत्पादयतीति भावः । २ योगिचरमचित्तन। ३ मया । ४ पूर्व विज्ञानेन विज्ञानान्तरस्य । ५ जननात् । ६ गर्मशरीरशानस्य । ७ ( जाग्रदवस्थाज्ञानवदिति सुष्ठुतरम् ) (?)। ८ जैनमतमङ्गीकृत्य योगं प्रति सौगतेनोक्तम् । ९ मध्यमवशरीरस्य कार्मणस्य । १० बौद्धेन। ११ वैशे. षिकः । १२ शिष्यात् । १३ बौद्धः। १४ वासना ज्ञानरूपैव । १५ अदृष्टं क्रिया च। १६ कथं नियामिका ? मरणशरीरशानादन्तराभवशरीरशानं गर्भशरीरझानं चोत्पद्यते उपाध्यायशानाच्छिष्यज्ञानं चेति । १७ वैशेषिकः। १८ विज्ञामस्य । १९ साधारणम् । २० विशेषरहितम् । २१ हेतोः । २२ सन्तानान्तरेपि । २३ उत्तरम्। २४ पूर्वशानं कर्त। २५ बौद्धेन त्वया। २६ सुषुप्तावस्थाजायदवस्थयोः। २७ सुषुप्तावस्थाजाग्रदवस्थयोः। २८ अतिजाड्येनातिनिद्रया वा। २९ पराभवः । ३० बौद्धानां मते यथा नैर्मल्यादिगुणो ज्ञानस्य तथा मिद्धादिदोषोपि झानस्य धर्म इति। ३१ ज्ञानात् । ३२ मिद्धस्य । ३३ आदिशब्देन विशनसंज्ञासंस्कारा गृह्यन्ते । ३४ सुषुप्तावस्थायाम् । ३५ विज्ञानस्य ( तिरोभावस्य )। ३६ बौद्धेन । ३७ किच'
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः ३१५ ह्यवस्थिते ध्यातर्यतिशयाधायकत्वेन स्यान्न क्षणिकज्ञानमात्रे न च सन्तानापेक्षयाऽतिशयो युक्तः, तस्यैवासत्त्वात्, अविशिष्टाद्विशिष्टोत्पत्तेरयोगाच्च । अविशिष्टाद्धि पूर्वज्ञानादुत्तरोत्तरं सातिशयं कथमुत्पद्येत? तत्कथं योगिनां सकलकल्पनाविकलज्ञानसम्भव इति?
यञ्च 'सन्तानोच्छित्तिनिःश्रेयसम्' इति मतम् । तत्र निर्हेतुकतया विनाशस्योपायवैयर्थ्यमयत्नसिद्धत्वादिति।
अन्ये त्वनेकान्तभावनातो विशिष्टप्रदेशेऽक्षयशरीरादिलामो निःश्रेयसमिति मन्यन्ते। तथाहि-नित्यत्वभावनायां ग्रहोऽनित्यत्वे च द्वेष इत्युभयपरिहारार्थमनेकान्तभावना; इत्यप्यपरीक्षिताभि-१० धानम् ; मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वायोगात् । अनेकान्तज्ञानं मिथ्यैव विरोधवैयधिकरण्याद्यनेकवाधकोपनिपातात् । खदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिषु चासत्त्वम् इतरेतराभावादिष्यते एव । स्वकार्येषु कर्तृत्वं कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वं न प्रतिपिध्यते, यद्यस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यामुत्पत्ती व्याप्रियमाणनुपलब्धं तत्तस्य १५ कारणं नान्यस्येत्यभ्युपगमात् । तथा मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावरीत इति स एव मुक्तः संसारी च' इति प्रसक्तम् । तथाऽनेकान्तेप्यनेकान्तप्रसङ्गात् सद्सन्नित्यानित्यादिरूपव्यतिरिक्तं रूंपा. न्तरमपि प्रसज्येतेति।
अन्ये त्वात्मैकत्वज्ञानात्परमात्मनि लयः सम्पद्यते इति ब्रुवते । २० तथाहि-आत्मैव परमार्थसंस्ततोऽन्यत्र भेदे प्रमाणाभावात् । प्रैत्यक्ष हि पैदार्थानां सद्भावस्यैव ग्राहक न भेदस्यत्यविद्याँसमारो पितो मेदः, तेप्यतत्त्वज्ञाः; आत्मैकत्वज्ञानस्य मिथ्यारूपतया निःश्रेयसाऽसाधकत्वात् । तन्मिथ्यात्वं चार्थानां प्रैमाणतो वास्तवमेदप्रसिद्धः।
२५
१ रागादिसहितत्वेन। २ विशुद्धज्ञानोत्पत्तेः। ३ किञ्च । ४ निर्विशेषस । ५ योगाचारस्य । ६ ध्यानादेः। ७ विनाशस्य । ८ जनाः। ९ मोक्षशिलोपरि । १० स्वरूपदेहो वा। ११ आदिशब्देन झानादि । १२ स्नेहः। १३ युक्ता । १४ वैशेषिकेणापि मया। १५ कारणम्। १६ कार्यस्य । १७ दूषणान्तरम् । १८ सत्त्वे सत्त्वमसत्वं चेत्यनेन प्रकारेण । १९ ब्रह्माद्वैतवादिनः। २० प्रवेशः। २१ मोक्षम् । २२ निर्विकल्पकम् । २३ घटापटादीनाम् । २४ हेतोः । २५ मिथ्याशानेन। २६ कल्पितः। २७ घटपटादीनाम् । २८ प्रत्यक्षादेः । २९ परमार्थ ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
२. प्रत्यक्षपरिक
एवं शब्दाद्वैतज्ञानमपि मिथ्यारूपतया निःश्रेयसाप्रसाध द्रष्टव्यम् । निरस्तं चात्माद्वैतं शब्दाद्वैतं च प्राक्प्रबन्धेनेत्यलमति. प्रेसङ्गेन।
कतिपुरुषविवेकोलम्भः स्वरूपे चैतन्यमानेऽवस्थानलक्षण५निःश्रेयसस्य साधनमित्यन्ये । तथाहि-पुरुषार्थसम्पादनाय प्रधान प्रवर्त्तते । पुरुषार्थश्च द्वेधा-शव्दादिविषयोपलब्धिः , प्रकृतिप. रुषविवेकोपलम्भश्च । सम्पन्ने हि पुरुषार्थे चरितार्थत्वात्प्रधान न शरीरादिभावेन परिणमते, विज्ञानं (तं) वा दुष्टतया कुष्टिनीस्त्री
वद्भोगसम्पादनाय पुरुष नोपसर्पति; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; प्रधाना१० सत्त्वस्य प्रागेवोक्तत्वात् । सति हि प्रधाने पुरुषस्य तद्विवेको
पलम्भः स्यात् । अस्तु वा तत्; तथापि पुरुषस्थं निमित्तमनपेक्ष्य तत्प्रवर्तत, अपेक्ष्य वा ? न तावदनपेक्ष्य; मुक्तात्मन्यपि शरीरादिसम्पादनाय तत्प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । अथापेक्ष्य प्रवर्त्तते; किं तद
पेक्ष्यम् ? विवेकानुपलम्भः, अदृष्टं वा? न तावद्विवेकानुप१५लम्भः; तस्य विवेकोपलम्भविनष्टत्वेन मुक्तात्मन्यपि सम्भवात् ।
न चीनुत्पत्तिविनाशयोरसत्त्वेन विशेषं पश्यामः । द्वितीयविकल्पोप्ययुक्तः, अदृष्टस्यापि प्रधाने शक्तिरूपतया व्यवस्थितस्योभयत्रांविशेषात् ।
दुष्टतया च विज्ञातं प्रधानं पुरुषं नोपसर्पतीति चायुक्तम् । २० तस्याचेतनतया 'अहमनेने दुष्टतया विज्ञातम्' इति ज्ञानासम्भवात् । ततः पूर्ववत्प्रवृत्तिरविशेषेणैव स्यात् इत्यलमतिप्रेसङ्गेन ।
'तैदी ट्रेष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं मोक्षः' इति चाभ्युपगतमेव, विशेषगुणरहितात्मखरूपे तस्यावस्थानाभ्युपगमात् । 'चिद्रू
पेऽवस्थानम्' इत्येतत्तु न घटते; अनित्यत्वेन चिद्रूपताया २५ विनाशात् । न चाक्षाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यास्तस्या नित्यत्वे
१ वास्तवभेदसिद्धिप्रकारेण । २ अद्वैतनिराकरणस्य। ३ का । ४ भेदभावनाज्ञानम्। ५ प्रति प्रधानं। ६ भेदभावनाभावः। ७ भेदभावनाया योग्यवस्थायां सम्भवात् । मुक्त्यवस्थायां तु तस्या विनाशात्प्रयोजनाभावात् । ८ किञ्च । ९ विवेकानुपलम्भो नाम विवेकोपलम्भाभावः । कथम् ? विवेकोपलम्भस्यानुत्पत्तिः संसार्यामनि विवेकोपलम्भस्य विनाशो मुक्तात्मनि । १० संसारिमुक्तात्मनोः। ११ पुरुषेण । १२ साङ्ख्यपरिकल्पितमुक्त्युपायनिराकरणेन। १३ उक्तरीत्या मोक्षोपायस्वरूप विचार्यमाणं नास्ति चेन्मा भून्मोक्षस्वरूपं तु स्यादित्युक्ते आह । १४ मुक्त्यवस्थायाम् । १५ आत्मनः। १६ (आत्मनः)। १७ योगेन। १८ स्वरूपे निर्दिष्टमेतत् । १९ योगमते चिद्रूपं बुद्धिः।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः प्रमाणमस्ति । आत्मखरूपतास्तीति चेत् । ननु चिद्रूपतात्मनोऽभिन्ना, भिन्ना वा स्यात् ? अभेदे पर्यायमात्रम् 'आत्मा, चिद्रूपता च' इति, तस्य च नित्यत्वाभ्युपगमात् सिद्धसाध्यता। भेदे तु संयोगादिमिरदेशान्तिकत्वम् : तेपामात्मधर्मत्वेपि नित्यत्वाभावात् । गुणगुणिनोश्च तादात्म्याविरोधादियुपरम्यते । ततो५ बुझ्यादिविशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूप एव मोक्षस्तत्त्वज्ञानादिति स्थितम् ।
अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम्-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोत्यन्तमुच्छिद्यते; तत्रात्मनो भिन्नानां वुद्ध्यादिविशेषगुणानामात्मन्येव समवायादिना वृत्त्यसिद्धेः प्रागेवोक्तत्वात् कथ-१० मात्मविशेषगुंणानां सन्तानः सिद्धो यतः हेतोराश्रयासिद्धिर्न स्यात् ? तथा तेषां परेणावसंविदितत्वेनाभ्युपगमात् । ज्ञानान्तरग्राह्यत्वे चानवस्थादिदोपप्रसक्तेः, अज्ञानस्य च सत्त्वाप्रसिद्धेः पुनरप्याश्रयासिद्धत्वम् । आत्मनोऽभिन्नानां तत्साधने तु तस्याप्यत्यन्तोच्छेदप्रसङ्गात् कस्यासौ मोक्षः? कथञ्चिदभेदस्तु नाभ्युपग-१५ म्यते । अभ्युपगमे वा नात्यन्तोच्छेदसिद्धिः इत्यनन्तरं वक्ष्यामः ।
सन्तानत्वं च हेतुः सामान्यरूपम् , विशेषरूपं वा? सामान्यरूपं चेत् ; परसामान्यरूपम् , अपरसामान्यरूपं वा? प्रथमपक्षे गगनादिनानेकान्तः; अत्यन्तोच्छेदाभावेप्यत्र हेतोर्वर्तनात् । सत्तासामान्यरूपत्वे च सन्तानत्वस्य 'सत् सत्' इति प्रत्ययहेतुत्वमेव २० स्थात् न पुनः सन्तानप्रत्ययहेतुत्वम् । अथ विशेषगुणाश्रिता जाँतिः सन्तानत्वम् ; तर्हि द्रव्यविशेष प्रदीपदृष्टान्ते तस्याऽसस्भवात्साधनविकलो दृष्टान्तः । न च सन्तानत्वं परमपरं वा सामान्यं सर्वथा भिन्नं वुद्ध्यादिषु वृत्तिमत्प्रसिद्धम् । तदृत्तेः समवायस्य प्रतिषिद्धत्वात् इति स्वरूपासिद्धत्वम्।
२५ अथ विशेपैरूपम् । तत्राप्युपादानोपादेयभूतवुद्ध्यादिलक्षणक्षपविशेषरूपम्, पूर्वापरसैमानजातीयक्षणप्रवाहमात्ररूपं वा? प्रथमपक्षे सन्तानत्वस्यासाधारणानकान्तिकत्वं तथाभूतस्यास्या
१ नाममात्रम् । २ पराभ्युपगतमोक्षनिराकरणे। ३ मया। ४ तदाधेयत्वं तद्गुणत्वादि । ५ बुद्धयादीनाम् । ६ उच्छेद इत्यन्वयः। ७ वैभाषिकेण । ८ बुद्ध्यन्तर । ९ आदिनेतरेतराश्रयः। १० सन्तानस्य । ११ परेण। १२ असिन्नेव वादे । १३ सत्ताख्यम् । १४ साध्याभावे । १५ किञ्च । १६ द्वितीयविकल्पः । १७ सामान्यम् । १८ किञ्च । १९ सन्तानत्वम् । २० सह। २१ रूपत्वेन सजातीयत्वम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
२. प्रत्यक्षपरि०
न्यत्राननुवृत्तः । अभ्युपगमविरोधश्च; न खलु परेण वुयादिक्षणोपादानोऽपरोऽखिलो वुझ्यादिक्षणोऽभ्युपगस्यते । अन्यथा मुत्यऽवस्थायामपि पूर्वपूर्ववुद्ध्याधुपादानक्षणादुत्तरोत्तरोपादेयवुयादिक्षणोत्पत्तिप्रसङ्गान्न वुझ्यादिसन्तानस्यात्यन्तोच्छेदः ५ स्यात् । द्वितीयपक्षे तु पाकजपरमाणुरूपादिनानेकान्तः; तथाविधसन्तानत्वस्यात्र सद्भावेप्यत्यन्तोच्छेदाभावात् ।
विरुद्धश्चायं हेतुः; कार्यकारणभूतक्षणप्रवाहलक्षणसन्तानत्वस्य एकान्तनित्यवद नित्येप्यसम्भवात्, अर्थक्रियाकारित्वस्यानेकान्ते
एव प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । १० शब्दविद्युत्प्रदीपादीनामप्यत्यन्तोच्छेदासम्भवात् साध्यवि
कलो दृष्टान्तः। न च ध्वस्तस्यापि प्रदीपादेः परिणामान्तरेण स्थित्यभ्युपगमे प्रत्यक्षवाधा; वारि स्थिते तेजसि आसुररूपाभ्युपगमेपि तत्प्रसङ्गात् । अथोष्णस्पर्शस्य भासुररूपाधिकरणतेजोद्रव्याभावे. ऽसम्भवात् तत्रानुभूतस्यास्य परिकल्पनमनुमानतः तर्हि 'प्रदीपादे१५रप्यनुपादानोत्पत्तेरिव अन्त्यावस्थांतोऽपरापरपरिणामाधारत्वमन्तरेण सत्त्वकृतकत्वादिकं न सम्भवति' इत्यनुमानतस्तत्सन्तत्यनुच्छेदः किन्न कल्प्यते? तथाहि-पूर्वापरस्वभावपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामवान् प्रदीपादिः सत्त्वात् कृतकत्वाद्वाघटादिवत्।
सत्प्रतिपक्षश्च; तथाहि-वुध्यादिसन्तानो नात्यन्तोच्छेद्वान्, २० अखिलप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वात्, य एवं स न तत्त्वेनोपेयो यथा पाकजपरमाणुरूपादिसन्तानः, तथा चायम् , तस्मान्नात्यन्तोच्छेद्वानिति । न च प्रस्तुतानुमानत एव सन्तानोच्छेदप्रतीतेः सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वमसिद्धम् ।
सन्तानत्वसाधनस्यासत्प्रतिपक्षत्वासिद्धः, तत्सिद्धौ हि हेतोर्गम२५कत्वम् । कालात्ययापदिष्टत्वं च; अनेनैवानुमानेन बाधितपक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वात् ।
यञ्च तत्त्वज्ञानस्य विपर्ययज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण निःश्रेयसहेतु त्वमित्युक्तम् तदप्युक्तिमात्रम् ततो विपर्ययज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण
धर्माधर्मयोस्तत्कार्यस्य च शरीरादेरभावेपि अनन्तातीन्द्रियाखि३०लपदार्थविषयसम्यग्ज्ञानसुखादिसन्तानस्याभावासिद्धेः । इन्द्रियजज्ञानादिसन्तानोच्छेदसाधने च सिद्धसाधनम् । इन्द्रियाद्य
१ दृष्टान्ते प्रदीपे। २ उपादेयः। ३ आदिना गन्धरसादि । ४ कथञ्चिन्नित्यानित्ये । ५ समोरूपेण। ६ उष्णे। ७ अनौ। ८ ई। ९ सन्तानवं हेतुः । १० अभ्युपगम्यः। ११ सन्तानत्वादित्यतः।
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सू० २११२] मोक्षस्वरूपविचारः पाये ज्ञानादिसन्तानसद्भावश्चाशेषज्ञसिद्धिप्रस्तावे प्रतिपादितः। कथं चातीन्द्रियज्ञानाद्यनभ्युपगमे महेश्वरे तत्सद्भावः स्यात् ? नित्यत्वं चेश्वरज्ञानस्येश्वरनिराकरणे प्रतिषिद्धम् । शरीराद्यपायेप्यस्य ज्ञानाद्यभ्युपगलेऽन्यात्मनोपि सोस्तु तत्वभावत्वात् । न च स्वभावापाये तद्वतोऽवस्थानमतिप्रसङ्गात् ।
यत्तूतम्-आरब्धकार्ययोश्चोपभोगात्मक्षयः; तदपि न सूक्तम् । उपभोगात्कर्सणः प्रक्षये तदुपभोगसमये अपरकर्मनिमित्तस्याभिलापर्दशमनोवाकायव्यापारादेः सम्भवात् अविकलकारणस्य प्रचुरतरकर्मणो भवतः कथमात्यन्तिकः प्रक्षयः? सम्यग्ज्ञानस्य तु मिथ्याज्ञानोच्छेदक्रमेण वाह्याभ्यन्तरक्रियानिवृत्तिलक्षणचा-१० रित्रोपहितस्यागामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यवत् सञ्चितकर्मक्षयेपि सामर्थ्य सम्भाव्यत एव । यथोष्णस्पर्शस्य भाविशीतस्पर्शानुत्पत्तौ सामर्थ्यवत् प्रवृत्ततस्पर्शादिध्वंसेपि सामर्थ्य प्रतीयते। किन्तु परिणामिजीवाजीवादिवस्तुविषयमेव सम्यग्ज्ञानम् , न पुनरेकान्त नित्यानित्यात्मादिविषयम्: तस्य विपरीतार्थग्राहक-१५ त्वेन मिथ्यात्वोपपत्तरित्यग्रे निवेदयिष्यते । अतो यदुक्तम्-'यथैधांसि' इत्यादिः तत्सर्व संवररूपचारित्रोपवृंहितसम्यग्ज्ञानानेरशेषकर्मक्षये सामर्थ्याभ्युपगमात्सिद्धसाधनम् ।
यच्चाभ्यधायि-समाधिवलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्येत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; अभिलाषरूपरागाद्यभावेऽङ्गनाधुपभोगासम्भवात् ।२० तत्सम्भवे वावश्यंभावी गृद्धिमतो भवद्भिप्रायेण योगिनोपि प्रचुरतरधर्माधर्मसम्भवो तृपत्यादेरिवातिभोगिनः । वैद्योपदेशादातुरोप्यौपधाद्याचरणे नीरुग्भावाभिलापेणैव प्रवर्तते, न पुनर्ज्ञानमात्रात् । तन्नाशेपशरीरद्वारावाप्ताशेपभोगस्य कर्मान्तरानुत्पत्तिः। किं तर्हि ? परिपूर्णसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्य, इत्यलं विवादेन, २५ जीवन्मुक्तैरपि त्रितयात्मकादेव हेतोः सिद्धः । संसारकारणं हि
१ किञ्च । २ तद्-ज्ञानम् । ३ पृथुवुघ्नोदराधाकाराभावे घटावस्थानप्रसङ्गात् । ४ तस्य कर्मफलस्य । ५ उत्पधमानस्य । ६ सभ्यग्शानान्मिथ्याशानाभावः, मिथ्याशानाभावादागाघभावः, रागाधभावाद्वाह्या (वचनादि) भ्यन्तर (चिन्तन) क्रियानिवृत्तिरिति । ७ सहितस्य । ८ अङ्गकम्पउद्धर्षणादेः। ९ अस्मदीयमपि तत्त्वज्ञानं सञ्चितकर्मक्षयनिबन्धनमागामिकर्मानुत्पत्तिकारण स्यादित्युक्त आह । नित्यादिवस्तुविषयशानस्य सम्यग्ज्ञानता न प्रतीयते किन्तु इत्यादि। १० नित्यात्मादिविषयज्ञानस्य । ११ अनेकान्तसिद्धौ। १२ आकाङ्क्षावतः । १३ न केवलं योगी। १४ सम्यग्दर्शनादित्रयमोक्षकारणविषयविवादेन । १५ न केवलं परममुक्तः । १६ कारणात् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० मिथ्यादर्शनादित्रयात्मकं न पुनर्मिथ्याज्ञानमात्रात्मकम् , तच्चैकस्मात्सम्यग्ज्ञानमात्रात्कथं व्यावतेत इत्युक्तं सर्वशसिद्धिप्रस्तावे।
यञ्चान्यदुक्तम्-नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं केवलज्ञानोत्पत्तेः प्राक काम्यनिपिद्धानुष्ठानपरिहारेण ज्ञानावरणादिदुरितक्षयानिमित्त ५ त्वेन केवलज्ञानप्राप्तिहेतुः; तदिष्टमेवास्माकम् ।
आनन्दरूपता तु मोक्षस्याभीष्यैव । एकान्तनित्यता तु तस्याः प्रतिषिध्यते । चिद्रूपतावदानन्दरूपताप्येकान्त नित्या; इत्यप्ययुक्तम् ; चिद्रूपताया अप्येकान्त नित्यत्वासिद्धः, सकलवस्तुस्वभा
वानां परिणामिनित्यत्वेनाग्रे समर्थयिष्यमाणत्वात् । १० अथानित्यत्वे तस्याः तत्संवेदनस्य चोत्पत्तिकारणं वक्तव्यम:
ननूक्तमेव प्रतिवन्धापायलक्षणं तत्कारणं सर्वशसिद्धिप्रस्तावे। आत्मैव हि प्रतिवन्धकापायोपेतो मोक्षावस्थायां तथाभूतज्ञानसुखादिकारणम्, घटाद्यावरणापायोपेतप्रदीपक्षणवेत् खपर
प्रकाशकापरप्रदीपक्षणोत्पत्तो, तदुत्पादन[स्वभावस्यान्यापेक्षा१५योगात् । यद्धि यदुत्पादनस्वभावं न तत्तदुत्पादनेऽन्यापेक्षम्
यथान्त्या कारणसामग्री खंकार्योत्पादने, तेंदुत्पादनस्वभावश्चातीन्द्रियज्ञानसुखाद्युत्पत्तौ प्रतिवन्धकापायोपेत आत्मेति । संसारावस्थायामप्युपलभ्यते-चौसीचन्दनकल्पानां सर्वत्र समवृत्तीनां विशिष्टध्यानादिव्यवस्थितानां सेन्द्रियशरीरव्यापाराऽजन्यः पर२० माल्हादरूपोऽनुभवः । अस्यैव भावनावशादुत्तरोत्तरावस्थामासादयतः परमकाष्ठा गतिः सम्भाव्यत एव।
आनन्दरूपताभिव्यक्तिश्चानाद्यऽविद्याविलयात्; इत्यभीष्टमेव अष्टप्रकारपारमार्थिककर्मप्रवाहरूपाऽनाद्यविद्याविलयाद् अनन्त
सुखसंज्ञानादिखरूपप्रतिपत्तिलक्षणमोक्षावाप्तेरभीष्टत्वात् । २५ विशुद्धज्ञानसन्तानोत्पत्तिलक्षणोऽप्यसौ मोक्षोऽभ्युपगम्यते । स तु चित्तसन्तानः सौन्वयो युक्तः। बद्धो हि मुच्यते नाबद्धः।
१ चतुर्धपरिच्छेदे । २ अतीन्द्रिय। ३ एव । ४ घटस्थप्रदीपवत् । ५ उत्तर । ६ आत्मनः। ७ इन्द्रियवनितादेः । ८ प्रतिबन्धकापायोपेत आत्मा धर्मी अतीन्द्रियज्ञानसुखाद्युत्पत्तौ अन्यं नापेक्षते इति साध्यं, तदुत्पादनस्वभावत्वादिति शेषः । ९ अन्त्यतन्तुसंयोगः। १० पटलक्षणस्य। ११ स प्रसिद्ध उत्पादनस्वभावो यस्यात्मनः । १२ असिद्धत्वे हेतोरुद्भाविते परिहारमाह । १३ कुठार। १४ तुल्यानाम् । १५ शत्रुमित्रयोः। १६ आदिना दानम् । १७ मेदः । १८ निश्चीयते । १९ प्राप्ति । २० बौद्धविशेषैरभ्युपगतः। २१ शानस्य । २२ सद्रव्यः ।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः न च निरन्वये चित्तसन्ताने बद्धस्य मुक्तिः। तत्र हन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यते। __ सन्तानैक्यावद्धस्यैव मुतिरपीति चेत् : ननु यदि सँन्तानार्थः परमार्थसन् : तदात्मैव सन्तानशब्देनोक्तः स्यात् । अथ संवृतिसन्; तदैकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वात् 'अन्यो बद्धोऽन्यश्च ५ मुच्यते इति मुक्क्यथ प्रवृत्तिन स्यात् । अथात्यन्दनानात्वेपि दृढतरैकत्वाध्यवसायाद् 'वद्धमात्मानं सोचयिष्यानि' इत्यभिसन्धानवतः प्रवृत्ते यं दोषः; न तर्हि नैरात्म्यदर्शनम् , इति कुतस्तन्निवन्धना मुक्तिः ? अथास्ति तदर्शनं शास्त्रसंस्कारजम् ; न त - कत्वाध्यवसायोऽस्खलद्रूप इति कुतो वद्धस्य मुत्यर्थं प्रवृत्तिः १८ स्यात् ? तथा च___ "मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" [प्रमाणवा० २११९२] इति प्लॅवते । तस्मात्सान्वया चित्तसन्ततिरभ्युपगन्तव्या, सकलविज्ञानक्षणत्वेपि जीवाभावे वन्धमोक्षयोत्तदर्थ वा प्रवृत्तेरनुपपत्तेः । न चान्योन्यविलक्षणाऽपरापरचित्तक्ष-१५ णानामनुयायिजीवाभावो विरोधात् : इत्यभिधांतव्यम् : स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण तत्रानुयायिरूपतया तस्य प्रतीतेः । प्रतीयमानस्य च कथं विरोधो नाम अनुपलम्भसाध्यत्वात्तस्य ?
तद्व्यापारे चासति आत्मनि प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययस्य प्रादुर्भावो न स्यात् । अथात्मन्यप्यारोपितैकत्वविषयत्वादस्य प्रादुर्भावः, न;२० अस्यारोपितैकत्वविषयत्वे स्वात्मन्यनुमानाक्षणिकत्वं निश्चिन्वतो निवृत्तिप्रसङ्गात् , निश्चयाँरोपैमनसोविरोधात् । निवर्तत एवेति
१ पूर्वक्षणः । २ उत्तरक्षनः! ३ अपिशव्दाद्वन्धोपि । ४ बौद्धानां नते पूर्वतरक्षणानामेक आधारभूतः सन्तानः स अपरमार्थः सन्केवलः पूर्वक्षमः उत्तरक्षणः सन्तानी स तु परमार्थसन् । ५ कल्पनासन् । ६ आत्मनः। ७ क्षणानान् । ८ अभिप्रायवतः। ९ निर्विकल्पकस्य । १० भावना। ११ बद्धस्य मुत्त्यर्थ प्रवृत्त्यभावे च । १२ नैरात्म्यभावनालक्षणः । १३ विनश्यति। १४ अन्वयाभावे बन्धो मोक्षो वा न घटते यतः। १५ सद्व्या । १६ अन्यथा । १७ परेण । १८ पूर्वक्षणे अहमेव दुःखी उत्तरक्षणेऽहमेव सुखीति । १९ स्वसिन् । २० न केवलं बहिः। २१ संवृत्या। २२ चेदिति शेषः। २३ स्वरूपे। २४ यत्सत्तत्क्षणिकमित्यादि । २५ आरोपितैकत्वविषयस्य प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययस्य । २६ अनुमानेन । २७ सोहं प्रत्यभिज्ञानरूपो विकल्पः। २८ मनः शानम् । २९ एकत्र। ३० अनुमानमनित्यत्वसाधने एकसिन्वस्तुनि प्रवृत्तं प्रत्यभिज्ञानं त्वेकत्वसाधने इति विरोधः। ३१ क्षणिकत्वनिश्चयसमये एकत्वविषयं प्रत्यभिज्ञानम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० चेत् : तहि सहजस्याभिसंस्कारिकस्य च सत्त्वदर्शनस्याभावात्तदैव तन्मूलरागादिनिवृत्तमुक्तिः स्यात् । भ्रान्तत्वे चास्य प्रत्यक्षस्याशेषस्यापि प्रान्तत्वप्रसङ्गः, वाह्याध्यात्मिकभावेष्वेकत्वग्राहकत्वेनैवाशेषप्रत्यक्षाणां प्रवृत्तिप्रतीतः । तथा च प्रत्यक्षस्याभ्रान्तत्वविशे. ५पणमसम्भाव्यमेव स्यात् । समर्थयिष्यते च प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययस्यानारोपितार्थग्राहकत्वमभ्रान्तत्वं च । तन्नैकत्वाभावः । अन. भूयमानस्यापि चैकत्वस्यानेकत्वेन विरोधे ग्राह्यग्राहकसंवित्ति लक्षणविरुद्धरूपत्रयाध्यासितज्ञानस्य, अर्थखंलक्षणस्य चैकदा
खपरकार्यकर्तृत्वाकर्तृत्वलक्षणविरुद्धधर्मद्वयाध्यासितस्य एकत्व. १० विरोधः स्यात् ।
यच्चान्यत्-रागादिमतो विज्ञानान्न तद्रहितस्यास्योत्पत्तिरित्याय. कम् । तदप्यसाम्प्रतम् ; रागादिरहितस्याखिलपदार्थविषयविज्ञानस्याशेषज्ञसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् । न च बोधाद्वोध
रूपतेति प्रमाणमस्ति; इत्यप्ययुक्तम् ; विलक्षणकारणाद्विलक्षण१५ कार्यस्योत्पत्यभ्युपगमे अचेतनाच्छरीरादेश्चैतन्योत्पत्तिप्रसङ्गाचाकिमतानुषङ्गः। प्रसाधितश्च परलोकी प्रागित्यलमतिप्रसङ्गेन ।
यच्चाभ्यधायि-सुषुप्तावस्थायां विज्ञानसद्भावे जामवस्थातो न विशेषः स्यात् ; तप्यभिधानमात्रम् । यतस्तदा विज्ञानसँद्धावेमि
अतिनिद्रयाभिभूतत्वान्न जाग्रवस्थातोऽविशेषः, मत्तमूच्छिता२० द्यवस्थायां मदिराद्युत्पादितमंदैवेदनाद्यभिभूतविज्ञानवत् ।
ननु कोयं मिद्धेनाभिभवः? ज्ञानस्य नाशश्चेत् ; कथं तस्य सत्त्वम् ? तिरोभावश्चेत्, न; खपरप्रकाशरूपज्ञानाभ्युपगमे तस्याप्यसम्भवात् इत्यप्यचर्चिताभिधानम्, मणिमन्त्रादिनात्यादिप्रतिबन्धे
शरावादिना प्रदीपादिप्रतिबन्धे च समानत्वात्। न हि तंत्राप्यन्या२५ देनाशः प्रतिवन्धः; प्रत्यक्षविरोधात् । नापि तिरोभावः; स्वपरप्र
काशस्वभावस्य स्फोटादिकार्यजननसमर्थस्य तिरोभावस्याप्यस
१ ग्राम्यजनसम्बन्धिनः। २ पण्डितजनसम्बन्धिनः। ३ जीव । ४ प्रत्यभिशानस्य । ५ क्षणिकत्वनिश्चयसमये एव । ६ सौगतस्य । ७ प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तमित्यत्र सूत्रे। ८ किञ्च । ९ सुखदुःखनानालक्षणोपलम्भेन । १० नील. स्खलक्षणस्य । ११ उत्तरनीलादिक्षणस्य । १२ अर्थान्तरपीतादेः । १३ अचेतनादा. स्मनः। १४ शानलक्षणस्य । १५ दूरस्थितेन चार्वाकेणोक्तमस्मदीयमतमेवास्तु । सत्राह । १६ सुप्तावस्था शानवती आत्मनः अवस्थात्वान्मत्तमूञ्छिताद्यवस्थावत् । १७ मत्तता। १८ पीडा। १९ विषयपीडा । २० सुषुप्तावस्थायाम् । २१ मणि-. मत्रशरावादिना अग्निप्रदीपप्रतिबन्धे ।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः म्भवात् । प्रतीत्यनतिक्रमेणात्र स्वरूपसामर्थ्यप्रतिवन्धाभ्युपगमोऽन्यत्रापि समानः । मिद्धादिसामग्रीविशेषवशाद्धि वाह्याध्यात्मिकार्थविचारविधुरं गच्छत्तृणल्पर्शज्ञानसमानं सुपुप्तावस्थायां ज्ञानमास्ते।
न हि स्वपरप्रकाशस्वभावत्वमात्रेणेवास्य तन्निरूपणसाम-५ र्थ्यम् ; सर्वत्रानभिभूतस्यैवार्थस्य स्वकार्यकारित्वप्रतीतेः, अन्यथा दहनादिस्वभावत्याः सदा दाहकत्वप्रकाशकत्वप्रसङ्गः, गच्छतृणस्पर्शसंवेदनत्य वा तदर्थनिरूपकत्वानुपङ्गः । अधात्र मनोव्यासङ्गोऽस्मरणकारणम् ; अन्यत्र मिद्धादिकमित्यविशेपः १ अस्ति चात्र स्वापलक्षणार्थनिरूपणम्-'एतावत्कालं निरन्तरसुतोहमेता-१० वत्कालं सान्तरम्' इत्यनुस्मरणप्रतीतेः। न च वापलक्षणार्थाननुभवेपि सुप्तोत्थानानन्तरं 'गाढोहं तदा सुप्तः' इत्यनुसरणं घटते: तस्यानुभूतवस्तुविषयत्वेनानुभवाविनाभावित्वात् , अन्यथा घटाद्यर्थाननुभवेपि तत्रानुसरणसम्भवात्कुतस्तदनुभवोपि सिद्ध्येत् ? न च मत्तमूर्चिछताद्यवस्थायामपि विज्ञानाभावाद् दृष्टा-१५ न्तस्य साध्यविकलता; इत्याशङ्कनीयम् तदवस्थातःप्रच्युतस्योत्तरकालं 'मश न किञ्चिदप्यनुभूतम्' इत्यनुभवाभावप्रसङ्गात् , स्मृतेरसवपूर्वकत्वात् । अतो येनानुभवेन सतात्मा निखिलानुभवविकलोऽनुभूयते तस्यामवस्थायां सोऽवश्याभ्युपगन्तव्यः।
किञ्च, सुप्ताद्यवस्थायां विज्ञानाभावं स एवात्मा प्रतिपद्यते,२० पार्श्वस्थो वा ? स एव चेत् तत एव ज्ञानात् , तद्भावाद्वा, ज्ञानान्तराद्वा? न तावत्तत एव; अस्यासत्त्वात् , 'तदेव नास्ति तत्र, तत एव चामावगतिः' इत्यन्योन्यं विरोधात् । ज्ञानाभावात्तत्र तदभावपरिच्छित्तिःः इत्ययुक्तम्, परिच्छेदस्य ज्ञानर्सतयाऽभावेऽसन्मवात्, अन्यथा ज्ञानस्यैव असावः' इति नामकृतं स्यात्। २५
अथ ज्ञानान्तरात्तत्र तदभावगतिः, किं तत्कालभाविनः, जाग्रप्रवोधकालभाचिनो का? प्रथमपक्षे कथं सुपुप्ताद्यवस्थायां सर्वथा ज्ञानाभावः? अथ जानत्प्रवोधकालभाविज्ञानाभ्यामन्तराले ज्ञाना
१ ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशरूपं तिरोहितमतिरोहितं चैतन्यन् । २ चैतन्यस्य । ३ देशे। ४ अभिभूतस्य स्खकार्यकारित्वं यदि स्यात् । ५ प्रतिबन्धसमयेपि । ६ कायोन्तरे प्रवृत्तिः। ७ असावधानत्वं वा । ८ किञ्च । ९ तुप्तोहनिति शेषः । १० प्रत्यक्षेण। ११ अनुभवाविनाभावित्वं सरणस्य यदि न स्यात् । १२ स्मृति । १३ अन्यः । १४ सुषुप्तावस्थायां यस्य ज्ञानस्याभावस्तस्मादेव ज्ञानात् । १५ शानस्य । १६ शानाभावे परिच्छेदो यदि स्यात् । १७ शानमन्तरेण परिच्छेदानुपपचिर्यतः । १८ सन्ध्याकालप्रातःकालः, तत्र भावि ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[२. प्रत्यक्षपरि०
भावोऽवसीयते; ननु तद्दशाभाविज्ञानयोः सुषुप्ताद्यवस्थामाविज्ञान नोपलब्धिलक्षणप्राप्तम्, तत्कथं ताभ्यां तद्भावोऽवसीयेते? अन्यथाऽदृष्टस्यापि परलोकादेरभावोऽध्यक्षत एव स्यात् । ती च "प्रमागेतरसामान्यस्थितेः"[ ] इत्याऽसङ्गतम् । ५ नापि पार्श्वस्थोन्यस्तत्र तद्भावं प्रतिपद्यते; कारणस्वभावव्यापकानुपलब्धेविरुद्धविधेर्वा तद्भावाविनामाविनो लिङ्गस्यात्रानपलब्धेः । न तत्र विज्ञानसद्भावेपि लिङ्गाभावः समान इत्यभिधातव्यम् ; स्वात्मनि स्वसंविदितज्ञानाविनामावित्वेनाऽवधारितस्य प्राणापानशरीरोष्णताकारविशेषादेस्तत्सद्भावावेदिनो लिङ्गस्या२० त्रोपलब्धेः, जाग्रद्दशायामप्यन्यचेतोवृत्तेस्तद्ध्यतिरेकेणान्यतोऽप्रतीतेः।
ननु द्विविधोत्रं प्राणादिः चैतन्यप्रभवो जाग्रद्दशायाम् , प्राणादिप्रभवश्च सुषुप्ताद्यवस्थायामिति । तत्र चैतन्यप्रभवप्राणादेर्जा
ग्रहशायां चैतन्यानुमानं युक्तम् , न पुनः प्राणादिप्राणादेः। न १५ खलु गोपालघटादौ धूमप्रभवधूमादग्यनुमानं दृष्टम् , अग्निप्रभवधूमादेव तद्दर्शनात्; इत्यप्यसङ्गतम्; सुषुप्तेतरावस्थयोः प्राणादेविशेषाऽप्रतीतेः । यथैव हि सुषुप्तः प्राणिति तथेतरोपि, अन्यथा 'किमयं सुषुप्तः किं वा जागर्ति' इति सन्देहो न स्यात् । यदि चैते सुषुप्तस्य चैतन्यप्रभवा न स्युः किन्तु प्राणा२० दिप्रभवाः; तर्हि जाग्रतः परवञ्चनाभिप्रायेण सुषुप्तव्याजेनावस्थितस्य तादृशामेव तेषां भावो न स्यात् । न ह्यग्नेर्जायमानो धूमः प्रयत्नशतैरपि धूमादन्यतो वा जायते धूमप्रभवो वग्नेिरिति । दृश्यन्ते च ते यादृशा एव सुषुप्तस्य तादृशा एवास्यापि । तन्नते भिन्नकारणप्रभवाः । चैतन्येतैरप्रभवांश्च प्राणादीन् विवेचयन्वीत३० रागेतरप्रभवव्यापारादीनपि विवेचयतु । तथा च
"सरागा अपि वीतरागवच्चेष्टन्ते वीतरागाश्च सरागवदिति वीतरागेतरविभागो निश्चेतुमशक्यः।"[ ] इति प्लवते ।
१ ताद्विः। २ यथा घट उपलब्धिलक्षणप्राप्तो भवति तदा पश्चादन्यत्र घटाभावोऽवसीयते। ३ अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य प्रत्यक्षाघभावः स्याद्यदि । ४ प्रतिषेधाच्च कस्यचिदितिपर्यन्तम् । ५ अन्यपुरुषैः। ६ आत्मावस्थायाम् । ७ उभयोमध्ये । ८ प्रभव । ९ पुरुषः। १० श्वासोच्छासं गृह्णाति । ११ जीवति । १२ जाग्रत् । १३ उभयोः श्वासे विशेषश्चेत् । १४ यतः सादृश्य एव सन्देहः । अस्ति च सन्देहः । १५ किञ्च । १६ सुषुप्तस्य यादृशः प्राणः। १७ घटादेः । १८ धूमः । १९ न जायते । २० प्राण ।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः
३२५ धूमश्चाग्ने—माञ्चोत्पद्यमानो यथा प्रतिपन्नस्तथा प्राणादिश्चैतन्यात्तभावाञ्चोत्पद्यमानः स्वात्मनि परत्र चानेने प्रत्येतुं न शक्यते क्वचित्तभावस्य निश्चेतुमशक्यत्वादित्युक्तम् । धृमे च 'किमयं धूमोऽग्नेः, धूमान्तराद्वा' इति सन्देहः प्रवृत्तस्याग्निदशनेतराभ्यों लिवर्त्तते । प्राणादौ तु 'किमयमनन्तरचैतन्य-५ प्रभवः, किं वा भूतभाविजन्मान्तरचैतन्यप्रभवः' इति सन्देहः कुतो निवत्त परचैतन्यस्य द्रष्टमशक्यत्वात् ? ततोस्य न निश्शकं परप्रतिपादनार्थ शास्त्रप्रणयनं युक्तम् । सन्देहात्तु तत्प्रणयनं चार्वाकस्याप्यविरुद्धम् , इत्ययुक्तमुक्तम्-"अन्यधियो गतेः" [ ] इति ।
सुषुप्तादौ चाद्यः प्राणादिः कुतो जायताम् ? जाग्रद्विज्ञानसहकारिणोजाग्रत्प्राणादेरिति चेत् : नः एकस्माजाग्रद्विज्ञानादनन्तरभावीप्राणादिः कालान्तरभावि च प्रबोधज्ञानमिर्त्यस्यासम्भाव्यमानत्वात् । न ह्येकस्मात्सामग्रीविशेषात् क्रमभाविकार्यद्वयसम्भवो नाम, अन्यथा नित्यादप्यक्रमाक्रमवत्कार्योत्पत्तिप्रसङ्गः । १५ तथाच "नाऽक्रमाक्रमिणो भावाः" [प्रमाणवा० श४५] इत्यस्य विरोधः। तस्मात्तत्कालभाविन एव ज्ञानात् प्राणादिप्रभवोऽभ्युपगन्तव्यः । तत्कथं तंत्र ज्ञानाभावसिद्धिः?
स्वापसुखसंवेदनं चात्र सुप्रतीतम्-'सुखमहमस्वापम्' इत्युत्तरकालं तत्प्रतीत्यन्यथानुपपत्तेः। न ह्यननुभूते वस्तुनि स्मरणं प्रत्यभि.२० ज्ञानं चोपपद्यते । न च तदा स्वापसुखनिरूपणाभावात्तत्संवेदनाभावः; तदहर्जातवालकस्य मुखप्रक्षिप्तस्तेन्यजनितमुखसंवेदनेन व्यभिचारात् । न खलु तत्तेन 'इदमित्थम्' इति निरूप्यते । ___ न च दुःखाभावात्सुखशब्दप्रयोगोऽत्र गौणः, अभावस्य प्रति-२, योगिभावान्तरस्वभावतया व्यवस्थितेः इत्यलमतिप्रसङ्गेनें।
यञ्चोक्तम्-अनेकान्तज्ञानस्य वाधकसद्भावेन मिथ्यात्वोपप. त्तेन निःश्रेयससाधकत्वम् । तदप्युक्तिमात्रम्: तज्ज्ञानस्यैवावाधित
१ सौगतेन । २ इतरदश्यदर्शनम् । ३ जाग्रहशायाम् । ४ तथागतस्य । ५ किञ्च । ६ मतस्य । ७ एकस्मात्कार्यद्वयसम्भवश्चेत् । ८ एकरूपात् । ९ वापदशा। १० सुपुप्तावस्थायाम् । ११ किञ्च । १२ सुघुप्तावस्थायान् । १३ सुखसंवेदनं विना। १४ सुषुप्तावस्थायाम् । १५ दुग्ध। १६ दुःखाभावे सुखशब्दो न पारमार्थिकसुखस्य वाचक इति हेतोः। १७ सुखमहमस्खापमित्यस्मिन्वाक्ये । १८ औपचारिकः। १९ दुःखस्य । २० दुःखलक्षणाद्भावादपरं सुखलक्षणं भावान्तरम् । २१ स्वापावस्थायां शानसद्भावसाधनविस्तरेण ।
प्र०क० मा० २८
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० तया सम्यक्त्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । नित्यानित्यत्वयोर्विधिप्रतिषेधरूपत्वादभिन्ने धर्मिण्यभावः इत्याद्यप्ययुक्तम् प्रतीयमाने वस्तनि विरोधासिद्धेः । न च येन रूपेण नित्यत्वविधिस्तेनैवानियत्वविधिः, येनैकत्र विरोधः स्यात्; अनुवृत्त-व्यावृत्ताकारतया नित्या५ नित्यत्व विधेरभ्युपगमात् । विभिन्नधर्मनिमित्तयोश्च विधिप्रतिपेधयोनैकत्र प्रतिषेधः अतिप्रसङ्गात् । न चानुवृत्तव्यावृत्ताकारयोः सामान्यविशेपरूपतयाऽऽत्यन्तिको भेदः, पूर्वोत्तरकालमा. विखपर्यायतादात्म्येनावस्थितस्यानुगताकारस्य बाह्याध्यामिका
र्थेषु प्रत्यक्षप्रतीतौ प्रतिभासनादित्यग्रे प्रपञ्चयिष्यते । १० स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वं च वस्तुनोऽभ्युपगम्यते
एवेतरेतराआवात् ; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; इतरेतराभावस्य घटादभेदे तद्विनाशे पटोत्पत्तिप्रसङ्गात् पटाभावस्य विनष्टत्वात । अथ घटाद्भिन्नोऽसौ; तर्हि घटादीनामन्योन्यं भेदो न स्यात। यथैव हि घटस्य घटाभावाद्भिन्नत्वाद् घटरूपता तथा पटादेरपि १५ स्यात् । नाप्येषां परस्पराभिन्नानामभावेन भेदः कर्तुं शक्यःः भिन्नाभिन्नभेदकरणे तस्याकिञ्चित्करत्वप्रसङ्गात् । नापि भेदव्यवहारः; खहेतुभ्योऽसाधारणतयोत्पन्नानां सकलभावानां प्रत्यक्षे प्रतिभासनादेव भेदव्यवहारस्यापि प्रसिद्धः। प्रतिक्षिप्तश्चेतरेतराभावः प्रागेवेति कृतं प्रयासेन । २० कार्यान्तरेषु चाऽकर्तृत्वं न प्रतिषिध्यते; इत्याद्यप्यसारम्; एकान्तपक्षे कार्यकारित्वस्यैवासम्भवात् ।
यच्च मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्त्तते; तदिष्यते एव । अनेकान्तो हि द्वेधा-क्रमानेकान्तः, अक्रमानेकान्तश्च । तत्र क्रमानेकान्तापेक्षया य एव प्रागमुक्तः स एवेदानीं मुक्तः संसारी २५चेत्यविरोधः। अनेकान्तेऽनेकान्ताभ्युपगमोप्यदूषणमेव; प्रमाण
१ अनेकान्तसिद्धौ। २ एकस्मिन् । ३ नित्यानित्यात्मकतया। ४ वसः । ५ अन्यथा । ६ कर्तृत्वाकर्तृत्वधर्मयोरेकत्र धर्मिणि प्रतिषेधप्रसङ्गात् । ७ अनेकान्तसिद्धौ। ८ घटे पटाभावः पटे घटाभाव इतीनरेतराभावः। ९ कपालेषु। १० घटे। ११ घटाभावाद्भिन्नरूपत्वाद् घटरूपता। १२ बसः। १३ अभिन्नभेदकरणे पदार्थ एव कृतो भवेद् । भिन्नभेदकरणे पदार्थसार्थम् । १४ अभावकृतः। १५ इतरेतराभावनिराकरणप्रयासेनालम्। १६ अनेकान्त एवेति योसावेकान्तः ( सर्वथा ) सोऽनेकान्ते प्रतिषिध्यते । केन ? द्वितीयानेकान्तपदेन । कथम् ? न विद्यते अनेकान्त एवेति एकान्तो यस्यानेकान्तस्य तस्याभ्युपगमः। १७ अनवस्थादिकम् ।
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सू० २।१२] मोक्षस्वरूपविचारः ३२७ परिच्छेद्यस्यानेकधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपानेकान्तस्य नयपरिच्छे. कान्ताविनाभावित्वात्।
'आत्मैकत्वज्ञानात्' इत्यादिग्रन्थस्तु सिद्धसाध्यतया न समाधानमर्हति।
न च गुणपुरुषान्तर विवेकदर्शनं निःश्रेयससाधनं घटते प्रकर्ष-५ पर्यन्दावस्थायामप्यात्मनि शरीरेण सहावल्यानान्मिथ्याज्ञानवत् ।
अथ फलोपोगकृतोपात्तकर्मक्षयापेक्षं तत्त्वज्ञानं परनिःश्रेयसस्य साधनम् , तद्नपेक्षं चाऽपरनिश्रेयसस्येत्युच्यते तदप्युक्तिमात्रम् : फलोपभोगस्यौपमिकानोपक्रमिकविकल्पानतिक्रमात् । तस्यौपक्रमिकत्वे कुतस्तदुपक्रमोऽन्यत्र तपोतिशयात्, इति १० तत्त्वज्ञानं तपोतिशयसहायमन्तर्भूततत्त्वार्थश्रद्धानं परनिःश्रेयसकारणमित्यनिच्छतोप्यायातम् । तस्यानोपक्रमिकत्वे तु सदा सद्भावानुपङ्गः। __ यच्च स्वरूपे चैतन्यमात्रेऽवस्थानं मोक्ष इत्युक्तम् : तयुक्तम् । चैतन्यविशेषेऽनन्तज्ञानादिवरूपेऽवस्थानस्य मोक्षत्वसाधनात् ।१५ न हनन्तज्ञानादिकमात्मनोऽस्वरूपं सर्वज्ञत्वादिविरोधात् । प्रधानस्य सर्वज्ञत्वादिस्वरूपं नात्मन इत्यसत्; तस्याचेतनत्वेनरकाशादिवत्तद्विरोधात् । ज्ञानादेरप्यचेतनत्वात् प्रधानस्वभ(भा)वत्वाविरोधश्चेत् ; कुतस्तदचेतनत्वसिद्धिः? 'अचेतना ज्ञानादय उत्पत्तिमत्त्वाद् घटादिवत्' इत्यनुमानाचेत्, न; हेतोरनुभवेनानेका-२० न्तात् , तस्य चेतनत्वेप्युत्पत्तिमत्त्वात्। न चोत्पत्तिमत्त्वमसिद्धम्; परापेक्षत्वाद्बुद्ध्यादिवत् । परापेक्षोसौ बुधध्यवसायापेक्षत्वात् "बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुपश्चेतयते" इत्यभिधानात् ।
कालात्ययापदिष्टश्चायं हेतुः; ज्ञानादीनां स्वसंवेदनप्रत्यक्षाच्चेतनत्वप्रसिद्धरध्यक्षवाधितपक्षानन्तरं प्रयुक्तत्वात् । चेतनसंसर्गात्तषां२५ चेतनत्वप्रसिद्धिः, इत्यप्यचर्चिताभिधानम्। शरीरादेरपि तत्प्रसिद्धिप्रसङ्गात् चेतनप्र(त्व)संसर्गाविशेषात् । शरीराद्यसम्भवी तेपां
१ यसः । कथम् ? स चासावने गन्तश्च तस्य । २ प्रकृतिसत्त्वादिगुगयोरभेदाद्गुण इत्युक्ते प्रकृतेाद्या । ३ पुरुषविशेष। ४ भेदभावनाज्ञानम् । ५ विवेकदर्शनस्य । ६ असन्मते तु सम्यग्दर्शनादिकं परमप्रकर्षप्राप्तं शरीरेण सहावस्थ यि न भवति अयोगिचरमसमये एव शरीराभावलक्षणे तत्सद्भावात् । ७ जीवन्मुक्तिः। ८ सकामनिर्जरा अकामनिर्जरा चेति । ९ भेद । १० वर्जने। ११ योगस्य । १२ फलोपभोगश्चेति कृत्वा। १३ सदा मुक्तिप्रसङ्गः। १४ दर्शनेन। १५ अनुभवस्य । १६ अर्थप्रतिबिम्बन । १७ निश्चितम् । १८ आत्मा। १९ अनुभवति ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० संसर्गविशेषोस्तीति चेत् स कोन्योऽन्यत्र कथञ्चित्तादात्म्यात? तंददृष्कृतकत्वादेः शरीरादावपि भावात् । ततो नाचेतना ज्ञाना. दयः स्वसंवेद्यत्वादनुभववत् । स्वसंवेद्यास्ते परसंवेदनान्यथान. पत्तरिति स्वसंवेदनसिद्धिप्रस्तावे प्रतिपादितम् । तथा चात्म. ५स्वभावास्ते चेतनत्वादनुभववत् । सुखमप्यात्मस्वभाव एव मोक्षेऽ. भिव्यज्यमानत्वाद् ज्ञानवत् । अनात्मस्वभावत्वे तत्र तदभिव्यक्ति स्याहुःखवत् ।
तथा सुखात्मको मोक्षश्चेतनात्मकत्वे सत्यखिलदुःखविवेकात्मकत्वात् संहृतसकलविकल्पध्यानावस्थावत् । तथानन्तं तत १० आत्मस्वभावत्वे सत्यपेतप्रतिवन्धत्वात् ज्ञानवदेव । अपेतप्रति
वन्धत्वं तु मोहनीयादेः प्रतिवन्धकस्य कर्मणोऽपायात्प्रसिद्धमेव । इति सिंद्धमनन्तज्ञानादिचैतन्यविशेषेऽवस्थानं पुंसो मोक्ष इति।
ननु पुंस एवानन्तज्ञानादिस्वरूपलाभलक्षणो मोक्ष इत्ययुक्तम्; स्त्रीणामप्यस्योपपत्तेः। तथाहि-अस्ति स्त्रीणां मोक्षोऽविकलकारण. १५त्वात् पुरुषवत् तदसत्; हेतोरसिद्धः, तथाहि-मोक्षहेतु नादि
परमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति परमप्रकर्षत्वात् सप्तमपृथ्वीगमनकारणापुण्यपरमप्रकर्षवत् । यदि नाम तत्र तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षाभावो मोक्षहेतोः परमप्रकर्षाभावे किमायातम् ? कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावाभावे हि तयोः कथमन्यस्याभावेऽन्यस्याभावोऽतिम. २० सँङ्गात् इति चेत् ; सत्यम् ; अयं हि तावनियमोस्ति-यद्वेदस्य मोक्षहेतुपरमप्रकर्षस्तद्वेदस्य तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षाप्यस्त्येव, यथा पुंवेदस्य । न च चरमशरीरेण व्यभिचारः; पुंवेदसामान्यापेक्षयोक्तेः।
१ विना। २ पुरुषादृष्टकृतः अन्यः संसर्गविशेषो ज्ञानादिभिरात्मनोऽस्तीत्युक्ते आह । ३ संसर्गस्य । ४ पटादिः परः। ५ शानस्य स्वसंविदितत्वाभावे । ६ चेतनत्वसिद्धितया। ७ सुखस्य । ८ अखिलदुःखविवेकात्मकत्वादित्युक्ते घटेन व्यभिचारस्तत्परिहारार्थ चेतनात्मकत्वे सतीत्युक्तम्। ९ चेतनात्मकत्वादित्युच्यमाने खण्ड्यमाननरेण व्यभिचारस्तत्परिहारार्थमखिलदुःस्वविवेकात्मकत्वादित्युक्तम् । १० आत्मस्वभावत्वादित्युच्यमाने दुःखेन व्यभिचारस्तत्परिहारार्थमपेतप्रतिबन्धत्वादित्युक्तम् । ११ अपेतप्रतिबन्धत्वादित्युच्यमाने प्रदीपेन व्यभिचारस्तत्परिहारार्थमात्मस्वभावत्वे सतीत्युक्तम् । १२ लक्षणम् । १३ श्वेतपटः। १४ मोक्षहेतुशानादिपरमप्रकर्षतत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षयोः। १५ अकारणस्याव्यापकस्य वा। १६ अकार्यस्याव्यापकस्य वा। १७ घटाभावे त्रैलोक्याभावो भवेत् । १८ अविनाभावः। १९ पुंसि सप्तमपृथ्वीगमनकारणापुण्यप्रकर्षास्ति मोक्षहेतुज्ञानादिपरमप्रकर्षत्वात् । २० व्याप्यो हेतुः। २१ साध्यो व्यापकः। २२ इति पुंसि अनयोाप्यव्यापकभावः सिद्धः सन् स्त्रीषु व्यापकामावे व्याप्याभावं साधयत्येवेति भावः । २३ आत्मना ।
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सू० २।१२] स्त्रीमुक्तिविचारः विपरीतस्तु नियमो न सम्भवत्येव: नपुंसकवेदे तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षे सत्यप्यन्यस्यानभ्युपगमात् पुंस्यभ्युपगमाञ्च, अनित्यन्यस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वेतरत्ववत् । ततश्च स्त्रीवेदस्यापि यदि मोक्षहेतुः परमप्रकर्षः स्यात् , तदा तदभ्युपगमादेवापरोप्यनियोऽवश्यमापद्यते, अन्यथा पुंस्यपि न स्यात् । सिद्ध च प्रतिवन्ध-५ यामावधि कतिकोदयादिवदुक्तंप्रकर्पयोरविनामाचे स्त्रीणां तन्कारफापुण्यपरमप्रकर्षप्रतिषेधेन मोक्षहेतुपरमप्रका निषिध्यते ।
न च 'नपुंसकस्य मोक्षहेतुपरमप्रकपास्ति तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्पसद्भावात् पुंवत् । पुंसो वा नास्त्यत एव नपुंसकवत् । तत्कारणाऽपुण्यपरमप्रकाँ वा नपुंसके · नास्ति परमप्रकप-१० त्वात् स्त्रीवदित्यप्यनिष्टापत्तिः उभयप्रसिद्धाद्धेतोरुभयप्रसिद्धस्य निषेधेनोभयोस्तुल्यत्वात्' इत्यभिधातव्यम् : उभयाभिप्रेतागमेन याधनोत् । स्त्रीणां तु तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्ष पराभ्युपगतेनैव मोक्षहेतुपरमप्रकर्षणापाद्य तत्प्रतिषेधेन तद्धतुरेव प्रतिपिध्यत इत्यस्ति विशेषः।
यहाँ नोक्तानुमाने तत्कारणापुण्यपरमप्रकाभावाद्धेतोमाईहेतुपरमप्रकर्षः स्त्रीपु निविध्यते, अपि तु परमप्रकर्षत्वाद् दृष्टान्ते दृष्टसाध्यव्याप्तिकात् । न चात्र केनचिद्व्यभिचारः; स्त्रीसम्बन्धिनः कस्यचित्परमप्रकर्षस्यासम्भवात् ।मायापरमप्रकर्षास्तीति चेत्न; स्त्रीणां मायावाहुल्यमात्रस्यैवागमे प्रसिद्धः । अन्यथा पुंवत्सप्तम २० पृथिवीगमनानुषङ्गः। 'मायापरमप्रकर्षादन्यत्वे सति' इति विशेपणोद्वा न दोषः । तन्न ज्ञानादिपरमप्रकपो मोक्षहेतुत्तत्रास्तीत्य
१ मोक्षहेतुपरमप्रकर्षों व्यापकः साध्यं तत्कारणापुण्यपरमप्रको व्याप्यो हेतुरिति । २ अविनाभावः। ३ शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकः अनित्यत्वादित्यत्रानित्यत्वस्य व्याप्यरूपस्य हेतोर्यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वन् । ४ नियमः सिद्धो यतः। ५ मोक्षहेतुपरमप्रकर्षसद्भावेपि अपरोऽनिष्टो नोपपद्यते चेत्। ६ तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणे द्वै। ७ मोक्षहेतुपरमप्रकर्षसप्तमपृथ्वीगमनकारणापुण्यपरमप्रकर्षलक्षणयोः । ८ मोक्षहेतुपरमप्रकर्षः। ९ साध्यस्य । १० वादिप्रतिवादिनोः। ११ सितपटप्रसिद्धस्य स्त्रीनिर्वाणस्यास्माभिः प्रतिषेधादसत्प्रसिद्धस्य सितपटेन प्रतिषेधात् इति तुल्यत्वम् । १२ सितपटपक्षस्य । १३ परः सितपटः । १४ इति कथं तुल्यत्वनुभयोः १ । १५ प्रागुक्तस्य परिहारान्तरे यदाशब्दः। १६ व्यापकाभावाद् व्याप्याभावं न कुर्म इत्यर्थः । १७ यो यः परमप्रकर्षः स स स्त्रीषु नास्तीति । १८ स्त्रीषु मोक्षप्रतिषेधे । १९ प्राचुर्यमानं न तु परमप्रकर्षः। २० मायापरमप्रकर्षः स्त्रीष्वस्ति यदि । २१ परमप्रकर्षत्वे । २२ व्यभिचारलक्षणः। २३ परमप्रकर्षवादित्यत्रानुमाने ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[२. प्रत्यक्षपरि०
सिद्धो हेतुः। न खलु ज्ञानादयो यथा पुरुषे प्रकृष्यमाणाप्रमाणत: प्रतीयन्ते तथा स्त्रीप्वपि, अन्यथा नपुंसके ते तथा स्युः, तथा चास्याप्यपवर्गप्रसङ्गः।
संयमस्तु तद्धेतुस्तत्रासम्भाव्य एव; तथाहि-स्त्रीणां संयमो ५न मोक्षहेतुः नियमेनर्द्धि विशेषाहेतुत्वान्यथानुपपत्तेः । यत्र हि
संयमः सांसारिकलब्धीनामप्यहेतुः तत्रासौ कथं निःशेषकर्मविप्रमोक्षलक्षणमोक्षहेतुः स्यात् ? नियमेन च स्त्रीणामेव ऋद्धिविशेपहेतुः संयमो नेष्यते, न तु पुरुषाणाम् । यदि हि नियमेन लब्धि. विशेषस्याजनकः संयमः क्वचिदन्यत्राविवादास्पदीभूते मोक्षहेतः १० प्रसिधेत् तदा तदृष्टान्तावष्टम्भेनात्राप्यसौ तथा प्रत्येतुं शक्येत,
नान्यथातिप्रसङ्गात् । संयममात्रं तु सदप्यासां न तद्धेतुः तिर्यग्गृ. हस्थादिसंयमवत् ।
सचेलसंयमत्वाच्च नासौ तद्धेतुर्गृहस्थसंयमवत् । न चायमसिद्धो हेतुः; न हि स्त्रीणां निर्वस्त्रः संयमो दृष्टः प्रवचनप्रति१५पादितो वा । न च प्रवचनामावेपि मोक्षसुखाकाङ्क्षया तासां
वस्त्रत्यागो युक्तः, अर्हत्प्रणीतागमोल्लङ्घनेन मिथ्यात्वाराधनाप्राप्तेः । यदि पुनर्नृणामचेलोसौ तद्धेतुः स्त्रीणां तु सचेलः; तर्हि कारणभेदान्मुक्तेरप्यनुषज्येत भेदः स्वर्गादिवत् । देशसंयमिनश्चैवं
मुक्तिः प्रसज्यते । तथा च लिङ्गग्रहणमनर्थकम् । सचेलसंयमश्च २० मुक्तिहेतुरिति कुतोऽवगतम् ? खागमाञ्चेत्, न; अस्यास्मान् प्रत्यागमाभासत्वाद् भवतो यज्ञानुष्ठानागमवत् ।
स्त्रियो न मोक्षहेतुसंयमवत्यः साधूनामवन्द्यत्वाद् गृहस्थवत् । न चात्रीसिद्धो हेतुः,
"वरिसंसयदिक्खियाए अजाए अज दिक्खिओ साहू। २५ अभिगमणवंदगणमंसणविणएण सो पुजो ॥" [ ]
इत्यभिधानात्। वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवत्त्वाञ्च न तास्तद्वत्यस्तद्वत् । न चायमसिद्धो हेतुः; प्रत्यक्षेणावगतो हि वस्त्रग्रहणादिबाह्यपरिग्रहोऽभ्य
१ अविकलकारणत्वादिति । २ स्त्रीषु ज्ञानादयः प्रकृष्यमाणाश्चेत्तर्हि । ३ स्त्रीणां मोक्षहेतुसंयमो विद्यते चेत् । ४ तु पुनः । ५ स्त्रीणां मोक्षहेतुसंयमो विद्यते चेत्तहि । ६ ऋद्धीनाम् । ७ दृष्टान्तत्वमन्तरेण । ८ गृहस्थस्यापि मोक्षः स्यात् स्वसंयमात् । ९ निर्वस्त्रसंयमः। १० अदृष्टलक्षणकारणमेदाद्यथा स्वर्गादेः प्रथमद्वितीयादिप्रकारेण मेदः। ११ सचेलसंयमवत्स्त्रीमुक्तिप्रकारेण । १२ निर्ग्रन्थतालक्षणम् । १३ सितपटस्य । १४ महेश्वराय । १५ अनुमाने । १६ वर्षशतदीक्षितायाः आर्यिकायाः अब दीक्षितः साधुः । अभिगमनवन्दनानमस्कारेण विनयेन स पूज्यः । १७ सम्मुखगमन । २८ गुरुभक्तिपूर्वक । १९ नमस्कार ।
.१८
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मू० २।१२] स्त्रीमुक्तिविचारः
३३१ न्तरं स्वशरीरानुरागादिपरिग्रहमनुमापयति । न च शरीरोप्मणा वातकायिकादिजन्तूपघातनिवारणार्थ स्वशरीरानुरागाद्यभावेन्यसावुपादीयते इत्यभिधेयम् : पुंसामाचेलक्यव्रतस्य हिंसात्वानुपङ्गात् । तथा चाहदादयो मुक्तिमाजस्तदुपदेवारो वान स्युः, किन्तु सवस्त्रा एव गृहस्था मुक्तिभाजो भवेयुः । न चारेलक्यं नेप्यते ५
"माचेलकुदेखिय सेजाहररायपिंडक्रिविकन्न" जीतकल्पभा० गा० १९७२] इत्यादेः पुरुष प्रति देशविन्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात् ।
किञ्च, गृहीतेपि वस्त्रे जन्तूपघातस्तदवस्थः, तेनानावृतपाणिपादादिप्रदेशोष्मणा तदुपघातस्य परिहर्जुमशक्तेः । वस्त्रस्य १० यूकालिक्षाद्यनेकजन्तुसम्मूर्छनाधिकरणत्वाच्च । तथाविधस्यापि खीकरणे मूर्द्धजानां लुञ्चनादिक्रिया न स्यात् । वस्त्राकुञ्चनादेर्जातवातेनाकाशप्रदेशावस्थितजन्तूपपीडनाच व्यजनादिवातवत् ।
किञ्च, एवमनेकप्राण्युपघातनिवारणार्थमविहारोप्यनुष्ठेयो वस्त्रग्रहणवद्विशेषात् । प्रयत्नेन गच्छतो जन्तृपघातेप्याहिंसा निश्चे-१५ लेपि समा। यथा च यज्ञानुष्ठानं पशुहिंलाङ्गत्वेनाऽश्रेयस्करल्वात् त्याज्यं तथा वस्त्रग्रहणमप्यविशेषात् ।
एतेन संयमोपकरणाथै तदित्यपि निरस्तम् । किञ्च, बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागः संयमः । स च याचनसीवनप्रक्षालनशोषणनिक्षेपादानचौरहरणादिमनःसंक्षोभकारिणि २० वस्त्रे गृहीते कथं स्यात् ? प्रत्युत संयमोपघातकमेव तत् स्याद्वाह्याभ्यन्तरनैर्ग्रन्थ्यप्रतिपन्थित्वात् ।
हीशीतार्तिनिवृत्त्यर्थं वस्त्रादि यदि गृह्यते । कामिन्यादिस्तथा किन्न कामपीडादिशान्तये ?॥१॥ येन येन विना पीडा पुंसां समुपजायते । तत्तत्सर्वमुपादेयं लावादिपलाँदिकम् ॥२॥ १ परेण । २ आचेलक्यौदेशिकशय्याधरराजकीयपिण्डोक्षाकृतिकर्मव्रतरोपणयोग्यत्वं ज्येष्ठता प्रतिक्रमणं मासिकवासिता स्थितिकल्पो योगश्च वार्षिको दशमः। ३ अनुप्रेक्षासंयमस्य । ४ यूकाधनेकजन्तुसम्मूर्छनाधिकरणत्वाविशेषात् एषां निवारणार्थम् । ५ प्रसारणाच्च। ६ व्यञ्जक। ७ जन्तूपघातपरिहारार्थ वस्त्रस्योपादानप्रकारेण । ८ अगमनम् । ९ वस्त्रस्य जन्तृपघातसमर्थनपरेण अन्थेन। १० विशेषतः । ११ विरोधित्वात् । १२ ताम्बूलादिश्च । १३ वस्त्रग्रहणप्रकारेण । १४ गृह्यते। १५ यदि तहीति शेषः । १६ लावकः पक्षिविशेषः । पलं मांसम् । १७ उपादेयम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० वस्त्रखण्डे गृहीतेपि विरक्तो यदि तत्त्वतः। स्त्रीमात्रेपि तथा किन्न तुल्याक्षेपसमाधितः॥३॥ नापि तन्वीमनाक्षोभनिवृत्त्यर्थं तदादतम् । तद्वाञ्छाऽहेतुकत्वेन तनिषेधस्य सम्भवात् ॥ ४॥ चक्षुरुत्पाटनं पट्टवन्धनं च प्रसज्यते । लोचनादेस्तदुत्पत्ती निमित्तत्वाविशेषतः ॥५॥ चलचित्ताङ्गना काचित्संयतं च तपस्विनम् । यदीच्छति भ्रातृवत्किं दोषस्तस्य मतो नृणाम् ॥ ६॥ वीभत्सं मलिनं साधुं दृष्ट्वा शवशरीरवत् । अङ्गना नैव रज्यन्ते विरज्यन्ते तु तत्त्वतः ॥ ७॥ स्त्रीपरीषहभग्नैश्च वद्धरागैश्च विग्रहे।
वस्त्रमादीयते यस्मात्सिद्धं ग्रँन्थद्वयं ततः॥ ८॥ न चैवं जन्तुरक्षागण्डादिप्रतीकारार्थ पिच्छौषधादौ गृह्यमाणेप्ययं दोषः समानः; त्रिचतुरपिच्छग्रहणस्य जन्तुरक्षार्थत्वात् , १५ शरीरे ममेदम्भावाऽसूचकत्वाच्च, औषधस्यापि प्रतिपन्नसाम
र्थ्यस्य गण्डादेावृत्तिहेतुत्वात् नाग्याविरोधित्वाच्च, वस्त्रे तु विपर्ययात्, परमनैपॅन्थ्यसिद्ध्यर्थ पिच्छस्याप्यग्रहणाचौषधवत् । पिण्डौषध्यादयो हि सिद्धान्तानुसारेणोद्गमादिदोषरहिता रत्न
त्रयाराधनहेतवो गृह्यमाणा न कस्यापि मोक्षहेतोः हन्तारः। न हि २० तद्रहणे रागादयोऽन्तरङ्गा बहिरङ्गा वा बभूवेषादयो ग्रन्था जायन्ते, अतस्ते मोक्षहेतोरुपकर्त्तार एव । पिण्डग्रहणमन्तरेण ह्यपूर्णकालेपि विपत्तेरापत्तेरात्मघातित्वं स्यात्, न तु वस्त्रे । षष्ठाष्टमादिक्रमेण च मुमुक्षुभिः पिण्डोपि त्यज्यते, न तु स्त्रीभिः कदाचिद्वस्त्रम्।
१ रागादिसद्भावे सत्येव स्त्रीपरिग्रह इत्याक्षेपो वस्त्रेपि समान इति समाधानम् । एवं यदि वस्त्रमाने गृहीते न रागस्तहिं स्त्रीमात्रपरिग्रहेपि न रागः । २ स्वस्य । ३ श्रोत्रादेश्च । ४ यथा भ्रातृसमानत्वं वनितायाम् । कुत एतत्तस्य ? इच्छारहितत्वात्तस्य तपस्विनः । ५ शरीरे। ६ कारणात् । ७ वस्त्ररागलक्षणबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहः। ८ तत इत्ययं शब्दः श्लोकादौ द्रष्टव्यस्तेनायमर्थः वस्त्रस्वीकरणे अपरं प्रयोजनं नास्ति यतस्ततः । ९ वस्त्रप्रकारेण । १० गण्डो रोगविशेषः। ११ मूर्छा१२ नैर्यन्थ्य- १३ जन्तुरक्षार्थाभावान्ममेदम्भावसूचकत्वाद् गण्डाद्यव्यावृत्तिहेतुत्वाद् नारन्यविरोधित्वाच्च । । १४ किञ्च । १५ औषधादेर्यथाऽग्रहणम्। १६ सम्यग्दर्शबादेः। १७ अलङ्कार-1 १८ मण्डन-1 १९ देशनैयत्येन वस्त्रपरिधानादिलक्षणों वेषः। २० अगृह्यमाणे आत्मघातित्वं स्यादिति शेषः ।
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सू० २।१२] स्त्रीमुक्तिविचारः
३३३ अथ वस्त्रादन्यस्याखिलस्य त्यागात्साकल्येनासां बाह्यं नैन्थ्यम् ; तर्हि लोभादन्यकवायत्यागादेवावाह्यमपि स्यात् । न च गृहीतेपि वस्त्रे ममेदम्भावस्याभावात्तवतिष्ठते; विरोधात्'वुद्धिपूर्वकं हि हत्तेन पतितवस्त्रमादाय परिधानोपि तन्मूच्छीरहितः' इति कश्चेतनः श्रद्दधीत? तन्वीमाश्लिष्यतोपि तंद्रहित-५ त्वप्रसङ्गात् । ततो वस्त्रग्रहणे वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहप्राप्त ग्रन्थ्यद्वयासम्भवान्न स्त्रीणां मोक्षः । स हि वाह्याभ्यन्तर कारणजन्यः कार्यत्वान्मापपाकादिवत् । तच्च वाह्यमभ्यन्तरं च कारणमाक्रिवन्यम् , तदभाव कथं स स्यात् ? इति परहेतोरसिद्धनानुमानात् स्त्रीमुक्तिसिद्धिः। नाप्यागमात् तन्मुक्तिप्रतिपादकस्यास्याभावात् । "पुंवेदं वेदंती जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा। सेसोदयेणं वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिझंति ॥"
इत्यादेरप्यागमस्य स्त्रीमुक्तिप्रतिपादकत्वाभावः । स हि पुत्रे-१५ दोदयवत् शेषवेदोदयेनापि पुंसामेवापवर्गावेदक उभयत्रापि 'पुरुषाः' इत्यभिसम्बन्धात् । उदयश्च भावस्यैव न द्रव्यस्य ।
स्त्रीत्वान्यथानुपपत्तेश्चासां न मुक्तिः । आगमे हि जघन्येन सप्ताष्टभिर्भवैः उत्कर्षेण द्वित्रैर्जीवस्य रत्नत्रयाराधकस्य मुक्तिरुक्ता। यदा चास्य सम्यग्दर्शनाराधकत्वम् तत्प्रभृति संर्वासु स्त्रीपूत्पत्ति-२८ रेव न सम्भवतीति कथं स्त्रीमुक्तिसिद्धिः।
ननु चानादि मिथ्यादृटिरपि जीवः पूर्वभवनिर्जीणांशुभकर्मा प्रथमतरमेव रत्नत्रयमाराध्य भरतपुत्रादिवन्मुक्तिमासादयत्यतः स्त्रीत्वेनोत्पन्नस्यापि मुक्तिरविरुद्धति; तदप्ययुक्तम् ; पूर्व निर्जीर्णाशुभकर्मणः स्त्रीवेदेनोत्पत्तरसम्भवात्, तस्याप्यशुभकर्मत्वेन २५ निर्जीर्णत्वात् । कथं पुनः स्त्रीवेदस्याशुभकर्मत्वमिति चेत् । सम्यग्दर्शनोपेतस्य तत्त्वेनोत्पत्तेरयोगात् ।
ततो नास्ति स्त्रीणां मोक्षः पुरुषादन्यत्वात् नपुंसकवत् । अन्यथाऽस्याप्यसौ स्यात् । न चैतद्वाच्यम्-नास्ति पुंसो मोक्षः स्त्रीतो.
१ तत् रागादि । २ बाह्यमग्न्यादिकमन्तरा शक्तिरेव यथा न हेतुः। ३ सितपट. प्रयुक्तस्य अविकलकारणत्वादित्यस्य । ४ अनुभवन्तः। ५ नपुंसकस्त्रीवेदोदयेनापि । ६ ध्यानोपयुक्ताः। ७ पुरुषाः। ८ मुक्तिसद्भावे सति । ९ दिव्यरूयादिषु । १० अन्यथानुपपत्तिः सिद्धा यतः। ११ स्त्रीणां मोक्षश्चेत् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [२. प्रत्यक्षपरि० न्यत्वात् नपुंसकवत्; उसयवादिसस्मतागमेन बाधितत्वात. भवदागमस्य चास्मान्प्रति अप्रमाणत्वात् ।
तथा स्त्रीणां मोक्षो नास्ति उत्कृष्टध्यानफलत्वात् सप्तमपृथ्वीगमनवत् । अतोपि न तासां मुक्तिसिद्धिः । ततोऽनन्तचतुष्टय. ५ स्वरूपलाभलक्षणो मोक्षः पुरुषस्यैवेति प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम् । मुंख्यं सांव्यवहारिकं च गदितं भानुप्रदीपोपमम् ,
प्रत्यक्षं विशदखरूपनियतं साकल्यवैकल्यतः। निर्वाधं नियंतखहेतुजनितं मिथ्येतरैः कल्पितम् ,
तल्लक्ष्मेति विचारचारुधिषणैश्वेतस्यलं चिन्त्यताम् ॥१॥ १० इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे .
द्वितीयः परिच्छेदः समाप्तः ॥ २॥
१ पुरुषादन्यत्वादित्यनुपानं न वक्तव्यमस्मदागमेन बाधितत्वादिति सितपटेनोक्तं तं प्रत्याह सूरिः। २ अनेन पद्येन परिच्छेदार्थमुपसंहरन्नाह । ३ सामग्रीविशेषेत्यादिकमिन्द्रियानिन्द्रियं च । ४ नैयायिकादिभिः। ५ कृतम् ।
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श्री।
॥ अथ तृतीयः परोक्षपरिच्छेदः ॥
श
अथेदानीं परोक्षप्रमाणस्वरूप निरूपणार
परोक्षमितरत् ॥ १ ॥ इत्याह ! प्रतिपादित विशदस्वरूपविज्ञानाद्यदन्यदविशदम्बाई विज्ञानं तत्परोक्षम् । तथा च प्रयोगः-अविशदज्ञानात्मक रंगो परोक्षत्वात् । यन्नाऽविशदज्ञानात्मकं तन्न परोक्षम् यथा मुख्येतरप्रत्यक्षम् , परोक्षं चेदं वक्ष्यमाणं विज्ञानम् , तस्मादविशदनानात्मकमिति । तन्निमित्तंप्रकारप्रकाशनाय प्रत्यक्षेत्याद्याहप्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञान
तर्कानुमानागमभेदम् ॥ २॥ प्रत्यक्षादिनिमित्तं यस्य, स्मृत्यादयो भेदा यस्य तथोक्तम् ! नत्र स्मृतेस्तावन्संस्कारेत्यादिना कारणत्वरूपे निरूपयतिसंस्कारोबोधनिवन्धना तदित्याकारास्मृतिः॥३॥
संस्कारः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमेदो धारणा । तस्योद्बोधः प्रबोधः। स निवन्धनं यस्याः तदित्याकारो यस्याः सा तथोका ३, स्मृतिः। विनेयानां सुखावबोधार्थ दृष्टान्तद्वारेण तत्स्वरूपं निरूपयति
यथा व देवदत्त इति ॥४॥ यथेत्युदाहरणप्रदर्शने । स देवदत्त इति । एवंप्रकारं तच्छन्दपरामृष्टं यद्विज्ञानं तत्सर्वं स्मृतिरित्यवगन्तव्यम् । न चासावप्रमाणं २०
१ स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमविशेषाः स्वभाविनो धर्मिणः प्रसिद्धाः । तत्र परोक्षत्वं सामान्यरूपं वादिप्रतिवादिनोः प्रसिद्धस्वभावः-तेन वस्तुनोऽनेकधर्मात्मकत्वात् । तत्र स्थितो द्वितीयोऽविशदज्ञानात्मकोऽप्रसिद्धः साध्यते इति विशेषं स्वभाविनं (खभावस्वभाविनोर्मेदात् ) सामान्यस्वभावं ब्रुवतां दोषाभावात् । २ कारण । ३ मेद । ४ स्मृतिः प्रत्यक्षपूर्विका । प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यक्षस्मरणपूर्वकम् । तर्कः प्रत्यक्षस्मरणप्रत्यभिज्ञानपूर्वकः । अनुमानं प्रत्यक्षस्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कपूर्वकम् । आगमस्तु श्रावणाध्यक्षसङ्केतस्मृतिपूर्वकः । ५ संस्कारस्य कारणमायं देवदत्तदर्शनम् । उद्बोधस्य कारणं पाश्चात्यं तत्सदृशतत्कार्यादिदर्शनम्। ६ प्राकट्यम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[३. परोक्षपरि०
संवादकत्वात् । यत्संवादकं तत्प्रमाणं यथा प्रत्यक्षादि, संवादिका च स्मृतिः, तस्मात्प्रमाणम् ।
नंनु कोयं स्मृतिशब्दवाच्योर्थः-ज्ञानमात्रम् , अनुभूतार्थविषय वा विज्ञानम् ? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षादेरपि स्मृतिशब्दवाच्यत्वानु५ पङ्गः। तथा च कस्य दृष्टान्तता? न खलु तदेव तस्यैव दृशान भवति। द्वितीयपक्षेपि देवदत्तानुभूतार्थे यज्ञदत्तादिज्ञानस्य स्मर रूपताप्रसङ्गः। अथ 'येनैव यदेव पूर्वमनुभूत वस्तु पुनः काला. न्तरे तस्यैव तत्रैवोपजायमानं ज्ञानं स्मृतिः' इत्युच्यते न 'अनुभूते जायमानम्' इत्येतत् केन प्रतीयताम् ? न तावदनुभवेन १० तत्काले स्मृतेरेवासत्त्वात् । न चासती विषयीकर्तुं शक्या ।न
चाविषयीकृता 'तंत्रोपजायते' इत्यधिगतिः । न चानुभवकालेऽर्थस्यानुभूततास्ति, तदा तस्यानुभूयमानत्वात् , तथा च 'अनुभूयमाने स्मृतिः' इति स्यात् । अथ 'अनुभूते स्मृतिः' इत्येतत्स्मृतिरेव प्रति
पद्यते; न; अनयाऽतीतानुभवार्थयोरविषयीकरणे तथा प्रतीत्ययो३५ गात् । तद्विषयीकरणे वा निखिलातीतविषयीकरणप्रसङ्गोऽवि
शेषात् । यदि चानुभूतता प्रत्यक्षगम्या स्यात् तदा स्मृतिरपि जानीयात् 'अहमनुभूते समुत्पन्ना' इति अनुभवानुसारित्वात्तस्याः। न चासौ प्रत्यक्षगम्येत्युक्तम् ; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; स्मृति
शब्दवाच्यार्थस्य प्रागेव प्ररूपितत्वात् । 'तदित्याकारानुभूतार्थ२० विषया हि प्रतीतिः स्मृतिः' इत्युच्यते ।
ननु चोक्तमनुभूते स्मृतिरित्येतन्न स्मृतिप्रत्यक्षाभ्यां प्रतीयते; तदप्यपेशलम् ; मतिज्ञानापेक्षेणात्मना अनुभूयमानाऽनुभूतार्थविपयतायाः स्मृतिप्रत्यक्षाकारयोश्चानुभवसम्भवात् चित्राकारप्रतीतिवत् चित्रज्ञानेन । यथा चाशक्यविवेचनत्वाद् युगपच्चित्राका२९ रतैकस्याविरुद्धा, तथा क्रमेणापि अवग्रहेहावायधारणास्मृत्योंदिचित्रस्वभावता । न च प्रत्यक्षेणानुभूयमानतानुभवे तदैवार्थेऽनुभूतताया अप्यनुभवोऽनुषज्यते; स्मृतिविशेषगापेक्षत्वात्तत्र तत्प्रतीतेः, नीलाद्याकारविशेषणापेक्षया ज्ञाने चित्रप्रतिपत्तिवत् ।
न चानुभूतार्थविषयत्वे स्मृतेर्गृहीतग्राहित्वेनाऽप्रामाण्यम्; ३० [प]रिच्छित्तिविशेषसम्भवात् । न खलु यथा प्रत्यक्षे विशदाकार
१ सौगतो वक्ति । २ अनुत्पन्नत्वेन । ३ अनुभूतेऽर्थे । ४ अनुभवकालेऽर्थस्यानुभूयमानत्वे च। ५ अनुभवश्चार्थश्च अनुभवाएँ । अतीतौ च तावनुभवार्थों च । ६ अतीतत्वस्य । ७ कर्ता। ८ प्रत्यक्षस्मरणयोः। ९ विज्ञानस्य । १० आदिना. प्रत्यभिज्ञानादि । ११ एकस्यात्मनोऽविरुद्धा। १२ उत्तरकालमात्मनः। १३ तमेव दर्शयति ।
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सू० ३।४-५] स्मृतिप्रामाण्यविचारः तया वस्तुप्रतिभासः तथैव स्मृतौ तत्र तस्या (तस्य ) वैशद्याऽप्रतीतेः। पुनः पुनर्भावयतो वैशद्यप्रतीतिस्तु भावनाज्ञानम्, तच्च तद्रूपतया भ्रान्तमेव स्वप्नादिज्ञादयत् । तथाप्यनुभूतार्थविषयत्वमात्रेणास्याः प्रामाण्यानभ्युपगने अनुमानेनाधिगतेऽग्नौ यत्प्रत्यक्ष तदप्यप्रमाणं स्यात् । असत्यतीतेथ प्रवतमानत्वात्तदप्रामाण्ये ५ प्रत्यक्षस्यापि तत्पलङ्गः, तदर्थस्यापि तत्कालेऽसत्त्वात् । तज्जन्मादेस्तत्रात्य प्रामाण्ये स्मरणेपि तदस्तु । निराकृतं चार्थजन्मादि ज्ञानस्य प्रागेवेति कृतं प्रयासेन ।
न चाविसंवादकत्वं स्मृतेरसिद्धम् ; स्वयं स्थापितनिक्षेपाद तगृहीतार्थे प्राप्तिप्रमाणान्तरप्रवृत्तिलक्षणाविसंवादप्रतीतेः । यत्र १० तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा प्रत्यक्षाभासवत् । विसंवादकत्वे चास्याः कथमनुमानप्रवृत्तिः सम्वन्धस्यातोऽप्रसिद्धेः ? न च सम्बन्धस्मृतिमन्तरेणानुमानमुदेत्यतिप्रसङ्गात् ।
किञ्च, सम्बन्धाभावात्तस्याः विसंवादकत्वम् , कल्पितसम्वन्धविपयत्वाद्वा, सतोप्यस्याऽनया विषयीकर्तुमशक्यत्वाद्वा ? १५ प्रथमपक्षे कुतोऽनुमानप्रवृत्तिः? अन्यथा यतः कुतश्चित्सम्बन्धरहितोद्यत्र क्वचिदनुमानं स्यात् । कल्पितसम्बन्धविषयत्वेनास्याः विसंवादित्वे दृश्यप्राप्यैकत्वे प्राप्यविकल्प्यकत्वे च प्रत्यक्षानुमानयोरविसंवादो न स्यात् । तत्लम्बन्धस्य कल्पितत्वे च अनुमानमप्येवंविधमेव स्यात् । तथा च कथमतोऽभीष्टतत्त्वसिद्धिः? अथ २० सन्नपि सम्बन्धोऽनया विषयीकर्तुं न शक्यते, यत्तु विषयीक्रियते सामान्यं तस्याऽसत्त्वात् स्मृतेर्विसंवादित्वम् । तदेतदनुमानेपि समानम् ! अध्यसितखलाणाव्यभिचारित्वं स्मृतावपि ।
१ वैशद्यमेव नास्ति कुतः परिच्छित्तिविशेषः इत्यभिप्रायं वक्ति वाद्धः। २ अवग्राहादिभेदेनानुभवतो नरस्य । ३ क्षणिकत्वात् । ४ आदिना ताद्रूप्यन् । ५ अर्थजन्मादिनिराकरणप्रयासेन। ६ प्रत्यक्ष। ७ विस्मृतसम्बन्धस्यापि अनुमानोत्पत्तिप्रसङ्गात् । ८ दृष्टान्तसाध्यसाधनयोः। ९ सम्बन्धाभाबे अनुमानप्रवृत्तिर्यदि स्यात् । १० अर्थालिङ्गस्थानीयात् । ११ यदेव दृष्टं जलस्वलक्षणं तदेव प्राप्तमिति । १२ अनुमानलक्षणो विकल्पः । विकल्पस्य विषयो विकल्प्यो यो जलादिः । पूर्व विकल्प्यः पश्चात्प्राप्य इति । कथम् ? विवादापन्नो देशः प्रवृत्तस्य स्नानादिमान् जलत्वात्सम्प्रतिपन्नदेशवत् । इति यदेकानुमितं स्नानादिकं तदेव प्राप्तमिति। १३ स्मृतिगृह्यमाण। १४ सर्व क्षणिकं सत्त्वादिति क्षणिकत्वसिद्धिः। १५ तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणः। १६ अन्यापोहः। १७ न्यायरूपमनुमानेन स्खलक्षणं विद्यमानं न विषयीक्रियते (यद्विषयीकियते) सामान्यं तद्विद्यमानं न भवतीति । १८ प्रत्यक्षेण । १९ यसः। २० खलक्षणं न व्यभिचरतीति न स्मृतेश्चेति । २१ समानम् ।
प्र. क० मा० २९
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० कलिङ्कलिङ्गिताम्वन्धः सत्तामात्रेणानुमानप्रवृत्तिहेतः, तदर्शनात, तत्स्मरणाद्वा? तत्राद्यविकल्ये नालिकरहीणायात प्रतिपन्नाग्निधूमलम्वन्धस्यापि धूमदर्शनादग्निप्रतिपत्तिः स्यात, न चाविज्ञातः सम्वन्धोस्ति उपलम्भनिवन्धनत्वात्सव्यवहार ५अन्यथातिप्रसङ्गात् । तदर्शनमात्रेण तत्प्रवृत्तौ वालावस्थायां प्रति पन्नाग्निधूमसम्वन्धस्य पुनर्वृद्धदशायां धूमदर्शनादग्निप्रतिपत्ति प्रसङ्गः,न चैवम् । तत्स्मृतावस्त्येवेति चेत् कथं नासौ प्रमाणम? को हि स्मृतिपूर्वकमनुमानमभ्युपगम्य पुनस्तां निराकुर्यात् ? अनमानस्यापि निराकरणानुषङ्गात् । न खलु कारणाभावे कार्योत्पत्ति१० माऽतिप्रसङ्गात् ।
समारोपव्यवच्छेदकत्वाचास्याः प्रामाण्यमनुमानवत् । न च स्मृतिविषयभूते सम्वन्धादौ समारोपस्यैवासम्भवात् कस्य व्यवच्छेद इत्यभिधातव्यम्। साधर्म्यदृष्टीन्ताभिधानानर्थक्यप्रसङ्गात । तत्र स्मृतिहेतुभूतं हि तत्, अन्यथा हेतुरेव केवलोभिधीयेत । १५ततस्तदभिधानान्यथानुपपत्तेस्तद्विषयभूते सम्वन्धादौ विस्मरणसंशयविपर्यासलक्षणः समारोपोस्तीत्यवगम्यते । तन्निराकरणाचास्याः प्रामाण्यमिति ।
अथेदानीं प्रत्यभिज्ञानस्य कारणस्वरूपप्ररूपणार्थ दर्शनेत्याद्याह२० दर्शन-स्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम्। तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि॥५
दर्शनस्मरणे कारणं यस्य तत्तथोक्तम् । सङ्कलनं विवक्षितधर्मयुक्तत्वेन प्रत्यवमर्शनं प्रत्यभिज्ञानम् । ननु प्रत्यभिज्ञायाः प्रत्य
क्षप्रमाणस्वरूपत्वात् परोक्षरूपतयात्राभिधानमयुक्तम् ; तथाहि२५ प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा अक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानात् तदन्यप्रत्यक्ष
वत्। न च स्मरणपूर्वकत्वात्तस्याःप्रत्यक्षत्वाभावः; सत्सम्प्रयोगजत्वेन स्मरणपश्चाद्भावित्वेप्यस्याः प्रत्यक्षत्वाविरोधात् । उक्तं च
१ परपक्षप्रतिक्षेपं करोति सूरिः। २ ग्रहण। ३ अज्ञातस्यापि सत्त्वसिद्धिश्चेत् । ४ ईश्वरादेरपि सत्त्वसिद्धिप्रसङ्गात् । ५ विस्मृतसम्बन्धस्य । ६ अनुमानप्रवृत्तिः। ७ मृत्पिण्डाभावे घटोत्पत्तिप्रसङ्गात् । ८ साध्यसाधन विषये । ९ समारोपाभावे इति शेषः । १० यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकं यथा जलधरः। ११ सम्बन्धस्मृतिहेतुभूतो दृष्टान्तो यदि न स्यात् । १२ एकत्वसादृश्यादिलक्षण! १३ पुनर्ग्रहणम् । १४ मीमांसकः। १५ परोक्षप्रमाणे। १६ सतो विद्यमानस्यार्थस्येन्द्रियेण सह संयोगः सन्निकर्षस्तमाजातः सत्सम्प्रयोगजस्तस्य भावस्तत्त्वं तेन ।
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सू० ३१५८१०] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
"न हि स्मरणतो यत्प्राक् तत् प्रत्यक्षमितीदृशम् । वचनं राजकीयं वा लौकिकं वापि विद्यते ॥१॥ न चौपि स्मरणात्पश्चादिन्द्रियत्य प्रवर्तनम् । वार्यते केनचिन्नानि नत्तदानीं दुष्यति ॥ २॥ तेनेन्द्रियार्थलम्वन्धान्प्रागृवं चापि यस्मृतेः । विज्ञानं जायते सर्व प्रत्यक्षमिति गल्यानाम् ।। ३" ।
मो० श्लो० सू० ४ श्लो० २३१-२३ अनेकदेशकालावस्थासमन्वितं सामान्यं द्रव्यादिकं च वस्त्वत्याः प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः। तदुक्तम्
"गृहीतमपि गोत्वादि स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि । तथापि व्यंतिरेकेण पूर्ववोधात्प्रतीयते ॥१॥ देशकालादिभेदेन तत्रास्त्यवसरो मितेः। यः पूर्वमवगतोशः स न नाम प्रतीयते ॥ २॥ इंदानीन्तनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम्।"
मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २३२-२३४] १५ तदप्यसमीचीनम् ; प्रत्यभिज्ञानेऽक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानस्यासिद्धेः, अन्यथा प्रथमव्यक्तिदर्शनकालेप्यस्योत्पत्तिः स्यात् । पुनदर्शने पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रवोधोत्पन्नस्मृतिसहायैमिन्द्रियं तज्जनयति; इत्यप्यसाम्प्रतम् । प्रत्यक्षस्य स्मृति निरपेक्षत्वात् । तत्सापेक्षत्वेऽपूर्वार्थसाक्षात्कारित्वाभावः स्यात् ।
२० देशकालेत्याद्यप्ययुक्तमुक्तम् : यतो देशादिभेदेनाग्यध्यक्ष चक्षुःसम्बद्धमेवार्थ प्रकाशयत्प्रतीयते । न च प्रत्यभिज्ञा तं प्रकाशयति पूर्वोत्तरविवर्त्तवत्यैकत्वविपयत्वात्तस्याः । वर्तमानश्चायं चक्षु:सम्बद्धः प्रसिद्धः।
१ ज्ञानम् । २ स्मरणानन्तरमिन्द्रियमर्थग्रहणाय न प्रवर्तते इत्युक्ते आह । ३ मरणोत्तरकालम् । ४ दुष्टं भवति । ५ राजकीयं लौकिकं वचनं न विद्यते येन । स्मरणादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनं वा केनचिद्वा न विचार्यते येन । इन्द्रियं वा दुष्टं न भवति येन कारणेन। ६ प्रत्यक्षस्मरणगृहीतग्राहित्वात्प्रत्यभिशानं प्रत्यक्षमप्रमाणं स्यादित्यारेकायामाह। ७ तिर्यक्सामान्यम् । ८ आदिना गुणः। ९ भेदेन । १० सरणप्रत्यक्षरूपात् । ११ कथं पूर्वबोधाद्भेदेन प्रतीयते इत्युक्ते आह । १२ अवस्थाभेदेन । १३ प्रत्यभिशानलक्षणप्रत्यक्षप्रमाणस्य । १४ प्रत्यभिज्ञानलक्षणप्रत्यक्षस्य । १५ पूर्वादिपर्यायः। १६ आद्य । १७ यसः । १८ भासः। १९ यसः। २० तासः। २१ कासः। २२ यसः। २३ बसः । २४ सन्दिग्धानकान्तिकत्वे उद्भाविते इदं वाक्यं परिहारः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० यदप्युच्यते-मरतः पूर्वदृष्टार्थानुसन्धानादुत्पद्यमाला मतिशत सम्वद्धदे प्रत्यक्षमिति; तदप्यसारम् ; न हीन्द्रियमतिः स्मृतिविषयपूर्वरूपग्राहिणी, तत्कथं सा तत्सन्धानमात्मसात्कुर्यात् ? पूर्वदृष्टसन्धानं हि तत्प्रतिभासनम्, तत्सम्भवे चेन्द्रियम ५परोक्षार्थग्राहित्वात् परिस्फुटप्रतिभासता न स्यात् । यदि च स्मृतिविषयस्वभावतया दृश्यमानोर्थः प्रत्यक्षप्रत्ययैरवगम्येत तर्हि स्मृतिविषयः पूर्वखभावो वर्तमानतया प्रतिभातीति विरीतख्यातिः सर्वे प्रत्यक्षं स्यात् । अव्यवधानेन प्रतिभासनलक्षण
वैशद्याभावाच्च न प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यक्षम् इत्यलमतिर्मसङ्गेन । १० तंच तवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादिप्रकार
प्रतिपत्तव्यम् । तदेवोक्तप्रकार प्रत्यभिज्ञानमुदाहरणद्वारेणाखिलजनाववोधार्थ स्पष्टयति
यथा स एवायं देवदत्तः ॥६॥
गोसदृशो गवयः ॥७॥ गोविलक्षणो महिषः ॥ ८॥
इदमस्माद्दूरम् ॥ ९॥
वृक्षोयमित्यादि ॥ १०॥ नेनु स एवायमित्यादि प्रत्यभिज्ञानं नैकं विज्ञानम्-'सः' इत्युल्लेखस्य स्मरणत्वात् 'अयम्' इत्युल्लेखस्य चाध्यक्षत्वात् । न चाभ्यां २० व्यतिरिक्तं ज्ञानमस्ति यत्प्रत्यभिज्ञानशब्दाभिधेयं स्यात् । नाप्यन
योरैक्यं प्रत्यक्षानुमानयोरपि तत्प्रसङ्गात् । स्पष्टेतररूपतया तयोभैदेऽत्रापि सोऽस्तु तदसाम्प्रतम् । स्मरणप्रत्यक्षजन्यस्य पूर्वोत्तरविवर्तवत्यैकद्रव्यविषयस्य सङ्कलनज्ञानस्यैकस्य प्रत्यभिज्ञानत्वेन
सुप्रतीतत्वात् । न खलु स्मरणमेवातीतवर्तमानविवर्त्तवर्तिद्रव्यं २५ सङ्कलयितुमलं तस्यातीतविवर्त्तमात्रगोचरत्वात् । नापि दर्शनम्
१ पुरुषस्य । २ प्रतिभासात्। ३ तर्कस्य प्रत्यक्षतापरिहारार्थमाह । ४ इन्द्रियमतिः स्मृतिविषयरूपग्राहिणी न भवति इन्द्रियमतित्वादित्यस्मिन्ननुमाने सन्दिग्धानकान्तिकत्वे परिहारे इदं वाक्यम् । ५ दृश्यमानार्थाद्विपरीतस्मृतिविषयो विपरीतख्यातिः। ६ इत्यापद्यते। ७ पूर्वस्मरणमुत्तरदर्शनं च व्यवधायकं प्रत्यभिज्ञानस्य । ८ प्रत्यभिशानभेदलक्षणप्रत्यक्षप्रमाणस्य निराकरणविस्तरेण । ९ प्रत्यभिज्ञानभेदं दर्शयति । १. प्रागुक्तलक्षणलक्षितमेव। ११ तेन सदृश इत्यादि च। १२ अत्राह सौगतः ।
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सू० ३.१०] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः ३४१ तस्य वर्तमानमात्रपर्यायविषयत्वात् । तदुभयसंस्कारजनितंकल्पनानानं तत्सङ्कलयतीति कल्पने तदेव प्रत्यभिज्ञानं सिद्धम् ।
प्रत्यभिज्ञानानभ्युपगमे च यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकम्' इत्याद्यनुमानवैयर्थ्यम् ! तयेकलाप्रतीति निरालार्थम् न पुनःक्षणक्षयप्रसिध्यर्थ तस्याध्यक्षसिद्धत्वेनाभ्युपगमात् । समारोपनिषेधार्थ तत्:५ इत्ययाऐशलम् : सोयमित्येकत्यप्रतीतिमन्तरेण समारोपस्याप्यससवात् । तदभ्युपगमे च 'अयं सः इत्यध्यक्षमरणव्यतिरेकेण नापरमेकत्वज्ञानम्' इत्यस्य विरोधः। न चाध्यक्षसरणे एव समारोपः, तेनानयोर्व्यवच्छेदेऽनुमानस्यानुत्पत्तिरेव स्यात् तत्पूर्वकत्वात्तस्य । कथं चास्याः प्रतिक्षेपेऽभ्यासेतरावस्थायां प्रत्यक्षानुमा-१० नयोः प्रामाण्यप्रसिद्धिः? प्रत्यभिज्ञाया अभावे हि 'यदृष्टं यच्चानुमितं तदेव प्राप्तम्' इत्येकत्वाध्यवसायाभावेनानयोरविसंवादासम्भवात् । तथा च "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्" [प्रमाणवा० २।१] इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमयुक्तम् । अन्यद् दृष्टमनुमितं वा प्राप्त चान्यदित्येकत्वाध्यवसायाभावेप्यविसंबादे प्रामाण्ये चानयोरभ्यु-१५ पगम्यमाने मरीचिकाचके जलज्ञानस्यापि तत्प्रसङ्गः।
न चैवंवादिनो नैरात्म्यभावनाभ्यासो युक्तः फलाभावात् । न चात्मदृष्टिनिवृत्तिः फलम् : तस्या एवासम्भवात् । 'लोहम्' इत्यस्तीति चेत् : न; स्मरणप्रत्यक्षोल्लेखव्यतिरेकेण तदनभ्युपगमात् । तथा च कुतस्तन्निमित्ता रागादयो यतः संसारः स्यात् ? २०
ननु पूर्वापरपर्याययोरेकत्वग्राहिणी प्रत्यभिज्ञा, तस्य चासम्भवात् कथमियमविसंवादिनी यतः प्रमाणं स्यात् ? प्रत्यक्षेण हि तृधद्रूपयोः प्रतीतिः स्वकालनियतार्थविषयत्वात्तस्यः इत्यपि मनोरथमात्रम् ; सर्वथा क्षणिकत्वत्याने निराकरिष्यमाणत्वात् । प्रत्यक्षेणाऽतृकुंद्रूपतयार्थप्रतीतेश्चानुभवात् कथं विसंवादकत्वं तस्याः? २९ ततः प्रमाणं प्रत्यभिज्ञा स्वगृहीतार्थाविसंवादित्वात् प्रत्यक्षादिवत् । नीलाद्यनेकाकाराकान्तं चैकज्ञानमभ्युपगच्छतः स एवायम्' इत्याकारद्वयाक्रान्तैकज्ञाने को विद्वेषः?
१ तदुभयस्य कार्यः संस्कारः सौगताभिप्रायेण वा सता तेन जनितम् । २ प्रथममेव विशरारवः (क्षणक्षयिनः) परमाणवः प्रत्यक्षेण निश्चीयन्ते इति वचनात् । ३ ग्रन्थस्य । ४ किञ्च । ५ अर्थाव्यमिचारित्वमविसंवादः। ६ प्रमाणे अविसंवादि. त्वादिति प्रसिद्धहेतुभूतधर्मेण प्रामाण्यमप्रसिद्धधर्मः साध्यते इति प्रामाण्याविसंवादयोमेंदः। ७ जलम् । ८ अन्यज्जलमित्यर्थः । ९ प्रत्यभिज्ञानाभावादित्येवंवादिनः । १० पश्चादात्मदर्शनाभावः। ११ कुतः। १२ नश्यद्रूपयोः। १३ चतुर्थपरिच्छेदे । १४ अन्वयरूपतया। १५ परस्परतादात्म्येन ।
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३४२
. प्रमेयकालमार्तण्डे [३. परोक्षपरिक ननु स एवायमित्याकारद्वयं किं परस्परानुप्रवेशेन प्रतिभासते. अननुप्रवेशेन वा? प्रथमपक्षेऽन्यतरीकारस्यैव प्रतिभासः स्यात। द्वितीयपक्षे तु परस्परविविक्तप्रतिभासद्वयप्रसङ्गः । अथ प्रतिभा
सद्वयमेकाधिकरणमित्युच्यते; न; एकाधिकरणत्वासिद्धेः। न खल ५परोक्षापरोक्षरूपी प्रतिभासावेकमधिकरणं विभ्राते संबसंविदामेकाधिकरणत्वप्रसङ्गात् । इत्यप्यसारम् ; तदाकारयोः कथञ्चित्परस्परानुप्रवेशेनात्माधिकरणतयात्मन्येवानुभवात् । कथं चैववादिनश्चित्रज्ञानसिद्धिः? नीलादिप्रतिभासानां परस्परानुप्रवेशे सर्व
षामेकरूपतानुषङ्गात् कुतश्चित्रतैकनीलाकारज्ञानवत् ? तेषां तदान१० नुप्रवेशे भिन्नसन्ताननीलादिप्रतिभासानामिवात्यन्तभेदसिद्धेनितरां चित्रताऽसम्भवः । एकज्ञानाधिकरणतया तेषां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः प्रतिपादितदोषाभावे प्रकृतेप्यसौ मा भूत्तत एव ।
अथोच्यते-'पूर्वमुत्तरं वा दर्शनमेकत्वेऽप्रवृत्तं कथं स्मरणसहायमपि प्रत्यभिज्ञानमेकत्वे जनयेत् ? न खलु परिमलस्मरण१५ सहायमपि चक्षुर्गन्धे ज्ञानमुत्पादयति' इति; तदप्युक्तिमात्रम् तथा च तजनकत्वस्यात्र प्रमाणप्रतिपन्नत्वात् । न च प्रमाणप्रतिपन्नं वस्तुखरूपं व्यलीकविचारसहस्रेणाप्यन्यथाकर्तुं शक्यं सहकारिणां चाचिन्त्यशक्तित्वात् । कथमन्यथाऽसर्वज्ञज्ञानमभ्यासविशेषसहायं सर्वज्ञज्ञानं जनयेत् ? एकत्वविषयत्वं च दर्शन२० स्यापि, अन्यथा निर्विषयकत्वमेवास्य स्यादेकान्ताऽनित्यत्वस्य कदाचनाप्यप्रतीतेः। केवलं तेनैकत्वं प्रतिनियतवर्तमानपर्यायाधारतयार्थस्य प्रतीयते, स्मरणसहायप्रत्यक्षजनितप्रत्यभिज्ञानेन तु स्मयमाणानुभूयमानपर्यायाधारतयेति विशेषः।
न च लूनपुनर्जातनखकेशादिवत्सर्वत्र निर्विषया प्रत्यभिज्ञा; २५क्षणक्षयैकान्तस्यानुपलम्भात् । तदुपलम्भे हि सा निर्विषया स्यात् एकचन्द्रोपलम्भे द्विचन्द्रप्रतीतिवत् । लूनपुनर्जातनखकेशादौ च स एवायं नखकेशादिः' इत्येकत्वपरामर्शिप्रत्यमिशानं 'लूननखकेशादिसदृशोयं पुनर्जातनखकेशादिः' इति साह
श्यनिवन्धनप्रत्यभिज्ञानान्तरेण बाध्यमानत्वादप्रमाणं प्रसिद्धम् , ३०न पुनः सादृश्यप्रत्यवमर्शि तत्रास्याऽवाध्यमानतया प्रमाणत्व
१ उभयोर्मध्ये । २ एकशानस्य । ३ भिन्न । ४ एकत्वहानिः स्यादिति दूषणम् । ५ एकशान । ६ जनैः। ७ देवदत्तयज्ञदत्तादि । ८ द्रव्यापेक्षया। ९ एकाधिकरणप्रतीतेः। १० प्रत्यक्षम् । ११ पूर्वोत्तरविवर्तवत्येकत्वे । १२ दर्शनस्य । १३ प्रत्यक्ष । १४ अभावरूपत्वेन । १५ सहकारिणामचिन्त्यशक्तित्वं यदि न स्यात् । १६ न केवलं प्रत्यभिज्ञानस्य । १७ दर्शनमेकत्वविषयं यदि न स्यात् ।
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सू० ३.१०] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः ३४३ प्रसिद्धेः । न चैकत्रैकत्वपरामर्शिप्रत्यभिज्ञानस्य मिथ्यात्वदर्शनरसर्वत्रास्य मिथ्यात्वम् : प्रत्यक्षस्यापि सर्वत्र भ्रान्तत्यानुपङ्गान्न किञ्चित्कुतैश्चित्कस्यचिन्प्रसिद्धेत् । ततो यथा शुक्ले शो पीताभासं प्रत्यक्षं तत्रैव शुल्लामालप्रत्यक्षान्तरेण वाध्यमानत्वादप्रमाणम् , न पुनः पीते कनकादा तथा प्रजननपीति ।
५ कथं च प्रत्यभिज्ञानविलोपेऽनुमानप्रवृतिः? नेत्र हि पूर्वधूमोऽन्नेर्दष्टत्तस्यैव पुनः पूर्वधूमलद्दशधूनदर्शनादन्निप्रतित्तिर्युका नान्यस्यान्यदर्शनात् । न च प्रत्यभिज्ञानमन्तरेण लेनेदं सदृशम्' इति प्रतिपत्तिरस्तिः पूर्वप्रत्यक्षेणोत्तरस्य तत्प्रत्यक्षेण च पूर्वस्याग्रहणात्, द्वयप्रतिपत्तिनिवन्धनत्वादुभयसादृश्यप्रतिपत्तेः १० सम्वन्धप्रतिपत्तिवत् । ततः प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमभ्युपगन्तव्या ।
तदप्रामाण्यं हि गृहीतग्राहित्वात्, स्मरणानन्तरभावित्वात् , शब्दाकारधारित्वाद्वा, वाध्यमानत्वाद्वा स्यात् ? न तावदाद्यविकल्पो युक्तः न हि तद्विपयभूतमेकं द्रव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्यमित्युक्तम् । तदृहीतातीतवर्तमानविवर्त्ततादात्म्येनावस्थितद्रव्यस्य १५ कथञ्चित्पूर्वार्थत्वेपि तद्विपयप्रत्यभिज्ञानस्य नामामाण्यम् . लैङ्गिकादेरप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् तस्यापि सर्वथैवापूर्वार्थत्वासिद्धः, स. म्बन्धग्राहिविज्ञानविषयसाध्यादिसामान्यात् कथञ्चिदभिन्नस्यानुमेयस्य देशकालविशिष्टस्य तद्विषयत्वात् कथञ्चित्पूर्वार्थत्वसिद्धेः । तन्न गृहीतग्राहित्वात्तत्राप्रामाण्यम् ।
२० नापि स्मरणानन्तरभावित्वात् : रूपसरणानन्तरं रससन्निपाते समुत्पन्नरसज्ञानस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । तत्र हि रूपस्मृतेः पूर्वकालभावित्वात् लमनन्तर कारणत्वं "दोधादोधरूपता ] इत्यभ्युपगमात् । न चात्र वोधरूपतया समनन्तरकारपत्वमन्यत्र स्मृतिरूपतयेत्यभिधातव्यम्: स्मृतिरूप-बोधरूपयोस्तादात्म्ये २५ क्वचिद्बोधरूपतया तत्तस्य क्वचित्तु स्मृतिरूपतयेति व्यवस्थापयितुमशक्तेः । कथं चैवंवौदिनोऽनुमानं प्रमाणम् ? तद्धि लिङ्गलिङ्गि
१ देवदत्तादावपि । २ किञ्चिद्वस्तु । ३ प्रमाणात् । ४ प्रतिपत्तः। ५ अप्रसियेद्यतः। ६ एकत्वनिबन्धस्य सादृश्यनिबन्धनस्य च । ७ देवदत्तन। ८ यशदत्तस्य । ९ विपक्षलक्षणप्रस्तरदर्शनात् । १० वृद्धत्वादिपर्यायस्य । ११ युवादिपर्यायस्य । १२ संयोगादि। १३ द्रव्यापेक्षया । १४ आदिना शब्दस्य । १५ तर्क । १६ आदिना साधनम्। १७ अग्न्यादेः। १८ सान्निध्ये। १९ स्मृतिरूपता बोधरूपता चास्ति स्मरणशानस्य । २० स्मृतौ। २१ स्मरणानन्तरभावित्वान प्रमाणं प्रत्यभिशा इत्येवम् ।
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३४४
अमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० सम्वन्धस्मरणानन्तरमेवोपजायते, अन्यथा साधर्म्यदृष्टान्तोपन्यासो व्यर्थः स्यात्।
शब्दाकारधारित्वं च प्रांगेव प्रतिषिद्धम्।।
वाध्यमानत्वं चासिद्धम्। न खलु प्रत्यक्षं तद्वाधकम: तस्य ५ तद्विषयप्रवृत्त्यऽसम्भवात् । यद्धि यद्विषये न प्रवर्त्तते न तत्र तस्य साधकं वाधकं वा यथा रूपज्ञानस्य रसज्ञानम्, न प्रवर्तते च प्रत्यभिज्ञानस्य विषये प्रत्यक्षमिति । नाप्यनुमानं तद्वाधकम: प्रत्यभिज्ञान विषये तस्याप्यप्रवृत्तः, क्वचिदनुमेयमाने प्रवृत्ति
प्रसिद्धः । तस्य तद्विषये प्रवृत्तौ वा सर्वथा वाधकत्वविरोधः । १० ततः प्रमाणं प्रत्यभिज्ञा सकलबाधकरहितत्वात्प्रत्यक्षादिवत् ।
ऍतेनैव 'गोसहशो गवयः' इत्यादि सादृश्य निबन्धनं प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणमावेदितं प्रतिपत्तव्यम् , तस्यापि स्वविषये बाधविधुरत्वस्य संवादकत्वस्य च प्रसिद्धः।
ननु सादृश्यस्यार्थभ्यो भिन्नाभिन्नादिविकल्पैर्विचार्यमाणस्यायो१५ गात्तद्विपयप्रत्यभिज्ञानस्य वाधविधुरत्वमविसंवादकत्वं चासि
द्धम् ; इत्यप्यास्तां तावत्, प्रत्यक्षादिप्रमाणविषयभूतत्वेनावाधिततत्स्वरूपस्य सामान्यसिद्धिप्रक्रमे प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च तस्मिन्नेव स्वपुत्रादौ 'तादृशोयम्' इति प्रत्यभिज्ञानं सादृश्यनिबन्धनं 'स एवायम्' इत्येकत्वनिवन्धनप्रत्यभिज्ञानेन वाध्य२० मानमप्रमाणं प्रतिपाद्य स्वपुत्रादिना सदृशे पुरुषे 'तादृशोयम्' इत्यपि प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं प्रतिपादयितुं युक्तम्; तस्याबाध्यमानत्वेन प्रमाणत्वात्।
स्यान्मतम्-प्रत्यभिज्ञानमनुमानत्वेन प्रमाणमिष्यत ऐव; तथाहि-पूर्वोत्तरार्थक्षणयोरनर्थान्तरभूतं सादृश्यं तत्प्रत्यक्षाभ्यां २५ प्रतीयत एव । यस्तु तथा प्रतिपद्यमानोपि सादृश्यव्यवहारं न करोति घटविविक्तभूतलप्रतिपत्तावपि घटाभावव्यवहारवेत्, स 'प्रागुपलब्धार्थसमानीयं तत्सदृशाकारोपलम्भौत्' इत्युभय
१ शाने । २ शब्दाद्वैतनिराकरणे। ३ अन्यादौ । ४ एकत्वनिबन्धनप्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यसमर्थनग्रन्थेन। ५ देवदत्तेन सदृशो यशदत्त इत्यादि च। ६ आदिना उभयग्रहणम् । ७ पुनः। ८ आदिनानुमानादि । ९ एकस्मिन् । १० बौद्धसिद्धान्तोयम् । ११ गोगवयलक्षणौ पूर्वोत्तरकालभाविप्रत्यक्षसम्बन्धित्वेन पूर्वोत्तरार्थक्षणौ। १२ यथा घटभावे व्यवहारं न करोति साङ्ख्यः इत्यर्थः । १३ पूर्वदृष्टेन यशदत्वादिना। १४ दृश्यमानो देवदत्तादिः। १५ अयं दृश्यमानो गवयो गोसदृशः गोसदृशाकारत्वाद्ोगवयप्रत्यक्षत्वे सति सादृश्यव्यवहारात् । १६ व्यक्तिद्वयगत ।
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सू० ३.१०] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
३४५ गतसदृशाकारदर्शनेन तथा व्यवहारं कार्यते, दृश्यानुपलम्भोपदर्शनेन घटाभावव्यवहारंवत् । तदप्यसङ्गतम् : 'प्राक्प्रतिपन्नधूमसदृशोयं धूमः' इत्यादिलिङ्गप्रत्यभिशाज्ञानस्य लैङ्गिकत्वे तल्लिङ्गप्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यापि लैङ्गित्वलित्यवस्थाप्रसङ्गात् ।
किञ्च, अथे सादृश्यव्यवहारस्य लदृशाकारनिवन्धनत्वे सह-५ আন্টি বলাবলি?ি জামহীনাचेत्; अनवस्था । धर्मिसादृश्यव्यवहारे चान्योन्याश्रयः । तनयं सादृश्यप्रत्यभिज्ञा लिङ्गजाभ्युपगन्तव्या।
ननु गोदर्शनाहितसंस्कारस्य पुनर्गवयदर्शनाद्गवि स्मरणे सति 'अनेन समानः सः' इत्येवमाकारस्य ज्ञानस्योपमानरूपत्वान्न प्रत्य-१० भिज्ञानता । सादृश्यविशिष्टो हि विशेषो विशेषविशिष्टं वा सौदृश्यमुपमानस्यैव प्रमेयम् । उक्तं च
"तस्माद्यत्मयते तत्स्यात्सादृश्येन विशेषितम् ! प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ १ ॥ प्रत्यक्षेणावबुद्धपि सादृश्ये गवि च स्मृते! विशिष्टस्योन्यतः सिद्धरुपमानप्रमाणता ॥ २॥"
[ मी० श्लो० उपमान० श्लो० ३७-३८] इति । तदप्यसमीक्षिताभिधानम्; एकत्वसादृश्यप्रतीत्योः सङ्कलना(न)ज्ञानरूपतया प्रत्यभिज्ञानतानतिक्रमात् । स एवायम्' इति हि यथोत्तरपर्यायस्य पूर्वपर्यायेणकताप्रतीतिः प्रत्यभिज्ञा, २० तथा सादृश्यप्रतीतिरपि अनेन सदृशः' इत्यविशेषात् । पूर्वोत्तर
१ अत्र घटो नास्ति दृश्यत्वे सत्यनुपलब्धेरिति । २ इयं शिशपा पूर्वदृष्टशिंशपासमाना इति च । ३ लिङ्गरूपस्य । ४ अनुमानरूपत्वे अङ्गीक्रियमाणे । ५ तद्गतधर्मस्य । ६ पर्वतधूमः पूर्वदृष्टधूमसदृशस्तत्सदृशाकारत्वात्सम्प्रतिपन्नधूमवत् । तत्सदृशाकारत्वेन समानं सदृशाकारत्वात् सम्प्रतिपन्नसदृशाकारवत्। ७ गोगवयलक्षणे। ८ गोगवयाँ सदृशौ सदृशाकारत्वाद्देवदत्तयज्ञदत्तवत्। गोगवयाकारौ सदृशौ सादृशाकारत्वात् तद्वत् । द्वितीयौ आकारौ सादृशौ सदृशाकारत्वादित्यादि । ९ त्वादि । १० मीमांसकः । ११ पश्चात् । १२ गोलक्षणो धर्मा। १३ धर्मः। १४ दृश्यमानात् । १५ गवयात् । १६ स्मर्यमाणम् । १७ वस्तु। १८ सर्यमाणगवान्वितम् । १९ उपमानस्यैवेत्यत्र यः एवकारस्तस्य संवादं दर्शयति । २० गवयगते । २१ सादृश्यविशिष्टस्य गोस्वद्विशिष्टस्य वा सास्त्रादेः। २२ सरणप्रत्यक्षाभ्याम् । २३ सरणप्रत्यक्षाभ्यां सकाशादन्यदुपमानं ततः। २४ प्रत्यभिशा । २५ सङ्कलनरूपतायाः।
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३४६ प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० प्रत्ययवेद्यैकत्वगोचरत्वात्तस्याः प्रत्यभिज्ञानत्वे सादृश्यप्रतीतावपि तत्स्यात् । न हि तत्ताभ्यां न परिच्छिद्यते
"वस्तुत्वे सति चास्यैवं सम्बद्धस्य च चक्षुषा । द्वयोरेकत्र वा दृष्टौ प्रत्यक्षत्वं न वार्यते ॥१॥ सामान्यवञ्च सादृश्यमेकैकत्र समाप्यते । प्रतियोगिन्यदृष्टेपि तत्तस्मादुपलभ्यते ॥२॥"
[मी० श्लो० उपमान० श्लो० ३४-३५ ] इत्यस्य विरोधानुषङ्गात् । यथा च पूर्वोत्तरप्रत्ययाभ्यां गवयगवादिविशिष्टमप्रतिपन्नं सादृश्यमनेन प्रतीयते तथा पूर्वोत्तरपर्या१० यविशिष्टमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानेन्न । ___ यदि च "एकत्वज्ञानमेव प्रत्यभिज्ञा सादृश्यज्ञानं तूपमानम् इत्यभ्युपगमः; तर्हि वैलक्षण्यज्ञानं किन्नाम प्रमाणं स्यात् ? यथैव हि गोदर्शनाहितसंस्कारस्य गवयदर्शिनः 'अनेन समानः सः'
इति प्रतिपत्तिस्तथा महिष्यादिदर्शिनः अनेन विलक्षणः सः' १५ इति वैलक्षण्यप्रतीतिरप्यस्ति । सा च न प्रत्यभिज्ञोपमानयोरन्य
तरा तेदेकत्वसादृश्याविषयत्वात् , अतः प्रमाणान्तरं प्रमाणसंख्या नियमविघातकृद्भवेत्परस्य ।
ननु सादृश्याभावो वैलक्षण्यम् , तस्याभावप्रमाणविषयत्वान्न प्रमाणसंख्यानियमविघातः; तर्हि वैलक्षण्याभावः सादृश्यमिति २० स एव दोपः। नन्वनेकस्य समानधर्मयोगः सादृश्यम्, तत्कथं
वैलक्षण्याभावमात्रं स्यादिति चेत्, तर्हि वैलक्षण्यमपि विसदृशधर्मयोगः, तत्कथं सादृश्याभावमात्रं स्यादिति समानम् ?
एतेन 'गौरिव गवयः' इत्युपमानवाक्याहितसंस्कारस्य पुनर्वने गवयदर्शनात् 'अयं गवयशब्दवाच्यः' इति संज्ञासंशिसम्बन्धप्रति
१ पूर्वोत्तरप्रत्ययवेद्यत्वाविशेषात् । २ अन्यथा। ३ उक्तप्रकारेण मीमांसकग्रन्थापेक्षया सादृशस्य वस्तुत्वं कथमिति प्रश्ने अवयवसामान्ययोगप्रकारेण वस्तुत्वम् । ४ गोगवयलक्षणयोर्विशेषयोः। ५ गवये वा। ६ प्रत्यक्षे सति । ७ एकत्र प्रत्यक्षत्वं कथं न वार्यते इत्युक्ते आह । ८ ग्रन्थस्य । ९ एतावता अन्येन एकत्वप्रतीतिवत्सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्यापि पूर्वोत्तरप्रत्ययवेद्यसादृश्यगोचरत्वमस्तीति समर्थितम् । १० अप्रतिपन्नं प्रतीयते । ११ प्रत्यभिज्ञानस्य उपमानस्य च । १२ वैलक्षण्यशानं । १३ मीमांसकस्य । १४ वैलक्षण्यामावलक्षणसादृश्यस्याभावप्रमाणवेद्यत्वात् उपमानप्रमाणभावे सति । १५ गोगवयलक्षणार्थस्य । १६ गवय । १७ तुच्छाभावरूपम् । १८ अवयव । · १९ मीमांसकं प्रत्युपमानस्य प्रत्यभिज्ञानत्वसमर्थनपरेण ग्रन्थेन । २० उपमानस्य । २१ गवयशब्दस्य । २२ गवयपिण्डस्य ।
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सू० ३।१०।११] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः ३४७ पत्तिरुपमानमिति नैयायिकमतमपि प्रत्युक्तम् । यथैव ह्येकदा घटमुपलब्धवतः पुनस्तस्यैव दर्शने 'म एवायं घटः' इति प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञा, तथा 'गोसदृशो गवयः' इति सङ्केतकाले गोसदृशगवयाभिधानयोर्वाच्यवाचवमन्वन्ध प्रतिपद्य पुनर्गवयदर्शनात्तत्प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञा किन्नेयते! न खलु पूर्वनप्रतिपन्नेऽपूर्व-५ दर्शनावृतियुक्तर, यतस्तथा प्रतिपत्तिः स्यात् ! - गोविलक्षणमहिप्यादिदर्शनाच 'अयं गवयो न भवति' इति तत्संज्ञासंक्षिसम्वन्धप्रतिपेधप्रतिपत्तिश्च यापमानम्-"प्रसिद्धसाधासाध्यसाधनमुपमानम्" न्यायसू० ११३१६ इति व्याहन्येत । अथ प्रसिद्धार्थवैधादपीप्यते; तर्हि 'प्रसिद्धार्थवैधयाच १० साध्यसाधनमुपमानम्' इत्युपख्यानं सूत्रे कर्त्तव्यम् ।
किञ्च, प्रसिद्धार्थकत्वात्साध्यसाधनमुपैमानमित्यप्यभ्युपगम्यताम् । तथा च प्रत्यभिज्ञानस्य प्रत्यक्षेन्तर्भावोऽयुक्तः।
तथा स्वसमीपवर्तिप्रासादादिदर्शनोपजनितसंस्कारस्य तनतियोगिभूधराद्युपलम्भात् 'इममादरम्' इति प्रतिपत्तिः, १५ आमलकदर्शनाहितसंस्कारस्य विल्वादिदर्शनात् 'अतस्तसूक्ष्मम्' इति, हैवदर्शनाविभूतसंस्कारस्य तद्विपरीतार्थोयलम्मात् 'अतोयं प्रांशुः' इति च प्रतिपत्तिः किं नाम मौनं स्यात् ? __ तथा वृक्षाद्यनभिज्ञो यदा कश्चित्कञ्चित्पृच्छति कीदृशो वृक्षादिरिति ? स तं प्रत्याह-शाखादिमान्वृक्ष एकशृङ्गो गण्ड-२० कोऽष्टपादः शरभः चारुसटान्वितः सिंहः' इत्यादि । तद्वाक्याहितसंस्कारः प्रष्टा यदा शाखादिमतोर्थान् प्रतिपद्य 'अयं स वृक्षशव्वाच्यः' इत्यादिरूपतया तत्संज्ञासंशिसम्बन्ध प्रतिपद्यते तदा किं नाम तत्प्रमाणं स्यात् ? उपमानम् ; इत्यसम्भाव्यम् ; सर्वत्रोतप्रकारप्रतिपत्तौ प्रसिद्धार्थसाधासम्भवात् । ततः प्रति-२५
१ शानवतः। २ आटविकाद् ज्ञात्वा। ३ वाच्यवाचकसम्बन्धे। ४ गवय । ५ गोः। ६ ज्ञातासम्बन्धसाधात् । ७ गवयस्य । ८ साध्यस्य अयं गवयशब्दवाच्य इति संज्ञासंशिसम्बन्धस्य । ९ गवा। १० महिषस। ११ साध्यसाधनमुपमानम् । १२ गोगवयलक्षणेन । १३ महिषस्य । १४ साध्यस्य अयं गव्यशब्दवाच्य इति संज्ञासंशिसम्वन्धस्य । १५ गणना। १६ तन्नास्त्येव भवदीये सूत्रे। १७ पूर्वपर्यायेण। १८ उत्तरपर्यायस्य । १९ स एवायमित्यादि । २० दूषणान्तरसमुच्चये। २१ कुब्ज। २२ प्रमाणम् । २३ पृच्छयमानपुरुषस्य । २४ ते च ते संज्ञासंशिनश्च, वृक्ष इति संशा, शाखादिमान् पदार्थः संशी। २५ अयं वृक्षशब्दवाच्य इत्यादिकम् । २६ इदमसाइरमित्यादौ च।
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३४८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० नियतप्रमाणव्यवस्थामभ्युपगच्छंता प्रतिपादितप्रकारा प्रतीतिः प्रत्यभिवेत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
अथेदानीलूहस्योपलम्भेत्यादिना कारणस्वरूपे निरूपयतिउपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥११॥ ५ उपलम्भानुपलम्भौ साध्यसाधनयोर्यथाक्षयोपशमं सकृत पन:पुनर्वा दृढतरं निश्चयानिश्चयो न भूयोदर्शनादर्शने । तेनातीन्द्रियसाध्यसाधनयोरागमानुमान निश्चयानिश्चयहेतुकसम्वन्धवोधः स्यापि सङ्ग्रहान्नाव्याप्तिः । यथा 'अस्त्यस्य प्राणिनो धर्मविशेषो विशिष्टसुखादिसद्भावान्यथानुपपत्तेः' इत्यादौ, 'आदित्यस्य गम१० नशक्तिसम्बन्धोऽस्ति गतिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः' इत्यादौ च । न
खलु धर्मविशेषः प्रवचनादन्यतःप्रतिपत्तुं शक्यः, नाप्यतोनुमानादन्यतः कुतश्चित्प्रमाणादादित्यस्य गमनशक्तिसम्बन्धः साध्यत्वाभिमतः, साधनं वा गतिमत्त्वं देशादेशान्तरप्राप्तिमत्त्वानुमा
नादन्यत इति । तौ निमित्तं यस्य व्याप्तिज्ञानस्य तत्तथोक्तम् । १५ व्याप्तिः साध्यसाधनयोरविनाभावः, तस्य ज्ञानमूहः।
न च बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपन्नसाध्यसाधनस्वरूपस्य पुनर्वृद्धावस्थायां तद्विस्मृतौ तत्स्वरूपोपलम्भेप्यविनाभावप्रतिपत्तेरभावात्तयोस्तदहेतुत्वम् ; स्मरणादेरपि तद्धेतुत्वात् ।
भूयो निश्चयानिश्चयौ हि मर्यमाणप्रत्यभिज्ञायमानौ तत्कारण२० मिति स्मरणादेरपि तनिमित्तत्वप्रसिद्धिः । मूलकारणत्वेन
तूपलम्भादेरत्रोपदेशः, स्मरणादेस्तु प्रतत्वादेव तत्कारणत्वप्रसिद्धरनुपदेश इत्यभिप्रायो गुरूणाम् ।
तञ्च व्याप्तिज्ञानं तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां प्रवर्त्तत इत्युपदर्शयति-इदमस्मिन्नित्यादि ।
१ प्रसिद्धार्थेन पूर्वप्रतिपन्नेन प्रासादादिना शाखादिमान्वृक्ष इत्यादिवाक्येन । २ तत्सदृशं तद्विलक्षणमित्यादिरूपा। ३ एकवारम् । ४ अग्नेरनुपलम्भो भावान्तरोपलम्भोऽनिश्चयः। ५ प्रत्यक्षेण साध्यसाधनयोः। ६ उपलम्भानुपलम्भौ निश्चयानिश्चयौ येन कारणेन । ७ तो हेतू यस्य सम्बन्धबोधस्य । ८ प्रत्यक्षपूर्वकनिश्चयानिश्चययोः सङ्ग्रहः अपिशब्दात् । ९ निश्चयानिश्चयहेतुकसम्बन्धबोधस्य सङ्ग्रहः के इत्युक्ते आह। १० अस्य प्राणिनोऽधर्मविशेषोस्ति दुःखादिसद्भावादित्यादौ च। ११ चन्द्रो गमनशक्तियुक्तो गतिमत्त्वादित्यादौ च । १२ केवलमुपलम्भानुपलम्भयोः । १३ साध्यसाधनयोः। १४ आदिना प्रत्यभिशानम् । १५ अनुपलम्भस्य च। १६ सूत्रे । १७ प्रस्तुतत्वात् ।
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सू० ३।१२-२३] तर्कस्वरूपविचारः
३४९ इदमस्मिन् सत्येव भवति असति तु
न भवत्येवेति ॥ १२ ॥ इदं साधनत्वेनाभिप्रेतं वस्तु, अलिन्साध्य वेनाभिप्रेते वस्तुनि सत्येव सम्भवतीति तथोपपत्तिः । अन्यथा साध्यमन्तरेण न भवत्येवेपन्यथानुपपत्तिः । वाशब्द उभयप्रकारचकः। ५
तोवेवोभवप्रकारे सुप्रतिव्यक्तिनिष्ठतया उसावबोधार्थ प्रदर्शयतियथाग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥१३॥
ननु चास्याऽप्रमाणत्वात्किं कारणखरूपनिरूपणप्रयासेन; इत्यव्यसास्प्रतम्: यतोस्याग्रामाण्य गृहीतग्राहित्वात् , विसंवादि-१० त्वाद्वा स्यात्, प्रमाणविषयपरिशोधकत्वाद्वा? प्रथमपक्ष साध्यसाधनयोः साकल्येन व्याप्तिः प्रत्यक्षात् प्रतीयते, अनुमानाद्वा? न तावत्प्रत्यक्षात; तस्य सन्निहितमात्रगोचरतया देशादिविप्रकृष्टाशेपार्थालम्बनत्वानुपपत्तेः, तत्रात्य वंशयासम्भवाच ! न खलु सत्त्वानियत्वादयोऽनिधूमादको वा सर्व भावाः सविधान-१५ वत् प्रत्यक्षे विशदतया प्रतिभान्ति, प्राणिमात्रस्य सर्वज्ञतापत्तेरनुमानानर्थक्यप्रसङ्गाच्च । अविचारकतया चाध्यक्ष 'यावान् कश्चिद्धमः स सर्वापि देशान्तरे कालान्तरे वाग्निजन्माऽन्यजन्मा वा न भवति' इत्येतावतो व्यापारान् कर्तुमसमर्थम् । पुरोव्यव. स्थितार्थेषु प्रत्यक्षतो व्याप्ति प्रतिपद्यमानः सर्वापसंहारेण प्रति-२० पद्यते; इत्यप्यन्तुन्दरम् ; अविषये सोपसंहारयोगात्।।
प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्यापि तद्विषयमात्राध्यवसायत्वात् सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभावः, तथा चानिश्चितप्रतिवन्धकत्वाद्देशान्तरादौ सौधनं साध्यं न गमयेत्।
ननु कार्य धूमो हुँतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितो विशिष्टप्रत्यक्षा-२५ नुपलम्माभ्यां निश्चितः, स देशान्तरादौ तदभावेपि भवंस्तत्कार्य
१ उल्लेखोयम् । २ तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिरूपौ। ३ अनुमान। ४ अनिर्णयरूपत्वात्तकस्याप्रामाण्यमित्यभिप्राये सत्याह । ५ क्षणिकत्व । ६ अन्यथेति शेषः । ७ निर्विकल्पकस्य परामर्शशून्यत्वात्। ८ न विद्यते विचारः यावान्कश्चिद्धमः स सर्वोप्योरेव कार्य नार्थान्तरस्येति । ९ जनः । १० प्रत्यक्षस्य । ११ प्रत्यक्षतः सर्वोपसंहारे व्याप्तिग्रहणाभावे च। १२ कर्तृ । १३ अग्नेः । १४ कार्यस्य धर्मः कारणे सति भवनलक्षणस्तदभावे अभवनलक्षणः ।
प्र० क० मा० ३०
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३५०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० तामेवातिवर्त्तत, इत्याकस्मिकोऽग्निनिवृत्तौ न केचिदपि निवतेत, नाप्यवश्यतया तत्सद्भावे एव स्यादिति, अहेतोः खरविपाणवत्तस्यासत्त्वात् क्वचिदप्युपलम्भो न स्यात्, सर्वत्र सर्वदा सर्वाकारेण वोपलम्भः स्यात् । स्वभावश्च तद्वतीर्थस्याभावेपि ५यदि स्यात्तदार्थस्य निःस्वभावत्वं स्वभावस्य वाऽसत्त्वं स्यात. तत्स्वभावतया चास्य कदाचिदप्युपलम्भो न स्यात् । उक्तञ्च
"कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः। सम्भवंस्तदभावेपि हेतुमत्तां विलङ्घयेत् ॥"
[प्रमाणवा० २३५]] "खभाषेप्यविनाभावो भावमात्रानुवन्धिनि । तंदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः॥"
[प्रमाणवा० १४० ] इति । व्याप्तिप्रतिपत्तावपि तन्निश्चयकालोपलब्धेनैव व्यापकेन व्याप्यस्य व्याप्तिः स्यात् तस्यैव तथा निश्चयात्, न तादृशस्य । १५ तादृशस्यापि साध्यव्याप्तत्वग्रहणे ताहिणो विकल्पस्याहीत.
ग्राहित्वं कथं न स्यात् ? यत्तु प्रत्यक्षेण क्वचित्प्रदेशे साध्यव्याप्तत्वेन प्रतिनं ततस्तस्यानुमाने विशेषतो दृष्टानुमानं स्यात्, अन्य देशादिस्थसाध्येनास्याव्याप्तेः ।
पारिशेष्यात्तादृशेन व्यापकेनान्यत्र तादृशस्य व्याप्तिसिद्धिश्चेत्, २० ननु किमिदं पारिशेष्यम्-प्रत्यक्षम्, अनुमानं वा? न तावत्प्रत्य
क्षम्, देशान्तरस्थस्यानुमेयस्य प्रत्यक्षेणाप्रतिपत्तः, अन्यथानुमानानर्थक्यानुषङ्गः। नाप्यनुमानम् । तत्राप्यनुमानान्तरेण व्याप्तिप्रतिपत्तावनवस्थाप्रसङ्गात् , तेनैव तत्प्रतिपत्तावन्योन्याश्रयः।
१ अतिक्रमेत् । २ अकारणकः। ३ भूधरप्रदेशे। ४ सत्त्वलक्षणहेतुप्प्यः । ५ खलक्षणो हेतुाप्यः। ६ अनित्यत्वलक्षणस्य साध्यस्य व्यापकस्य । ७ अनुयायिनि । ८ इति स्थितिः। ९ स्वभावस्य भावस्य वा। १० स्वभावस्य अर्थस्य वा । ११ साध्यसाधनयोः । १२ स्वातत्रयेणानवस्थानाभावात्स्वभावस्य । १३ अविशेषादित्यर्थः । १४ व्याप्तिनिश्चयकालोपलब्धस्य व्याप्यस्य साधनस्य । १५ साध्येन व्याप्तत्वप्रकारेण । १६ पूर्वदृष्टधूमसदृशस्य धूमस्य न तथा निश्चयः । १७ पूर्वदृष्टसदृशस्यापि 'धूमस्य । १८ सादृश्यमगृहीतम् । १९ महानसे । २० साधनम् । २१ साध्यस्य । २२ विशेषतः खदिरादिरूपतया दृष्टस्य महानसादौ यादृशाग्निः प्रतिपन्नस्तस्य भूधरादा अनुमानस्य । २३ महानसस्थाग्निसदृशेन । २४ भूधरनितम्बादौ २५ अयं धूमोमिना च्याप्तो धूमत्वान्महानसधूमवदिति ।
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सु० ३११३] तर्कस्वरूपविचारः
३५१ एतेन साध्यसाधनयोः साकल्येनानुमानाद्याप्तिप्रतिपत्तेतर्क स्याप्रामाण्यमिति प्रत्युक्तम् । तन्न प्रत्यक्षानुमानयोः साकल्पन्न व्याप्तिप्रतिपत्तौ सामर्थ्यम् ।
अथास्मदादिप्रत्यक्षस्य व्यातिप्रतिपत्तासामर्थ्यपि योगिप्रत्यक्षस्य तत् स्यात् : इत्यप्यलत् : तस्याप्यविचारकतया तावतो५ व्यापारान् कमलमथेत्वाविशेषात् । कुतश्चास्योत्पत्तिः-विकल्पमात्राभ्यासात् , अनुमानाभ्यासाद्वा? प्रथमपक्षे कालशोकादिज्ञानवत्तस्याप्रामाण्यप्रेसङ्गः । द्वितीयपक्षेप्यन्योन्याश्रयः-व्यातिविपये हि योगिप्रत्यक्षे सत्यनुमानम् , तस्मिंश्च सति तस्यालाधोरिदप्रत्यक्षमिति । अस्तु वा योगिप्रत्यक्षम् ; तथापि-तत्प्रतिपन्नाव-१० नुमानवैयर्थ्यम् । साध्यसाधनविशेषेषु स्पष्टं प्रतिभातेप्वपि अनुमाने सर्वत्रानुमानानुपङ्गात् स्वरूपस्याप्यध्यक्षतोऽप्रसिद्धिः।
परार्थ तस्यानुमान मिति चेत्, तर्हि योगी परार्थानुमानेन गृहीतव्याप्तिकम् , अगृहीतव्याप्तिकं वा परं प्रतिपादयेत् ? गृहीतव्याप्तिकं चेत् ; कुतस्तेन गृहीता व्याप्तिः? न तावत्वसंवेदनेन्द्रिय-२५५ मनोविज्ञानैः; तेषां तदविषयत्वात् । योगिप्रत्यक्षेण व्याप्तिप्रतिपत्तावनुमानवैयर्थ्यमित्युक्तम् । अगृहीतव्याप्तिकस्य च प्रतिवादनानुपपत्तिरतिप्रसङ्गात् ।
मानसप्रत्यक्षाध्याप्तिप्रतिपत्तिरित्यन्ये; तेप्यतत्त्वज्ञाः; प्रत्यक्षस्येन्द्रियार्थसनिकर्षप्रभवत्वाभ्युपगमात् । अणुखभावमनसो युग-२० पदशेषार्थस्तत्सम्बन्धस्य च प्रागेव प्रतिविहितत्वात् कथं तत्प्रत्ययेनापि व्याप्तिप्रतिपत्तिः?
ननु साध्यसाधनधर्मयोः क्वचिद्यक्तिविशेषे प्रत्यक्षता एव सम्वन्धप्रतिपत्तिः; इत्यप्ययुक्तम् : साकल्येन तत्प्रतिपत्त्यभावानुषङ्गात् । साध्यं च किमग्निसामान्यम् , अग्निविशेषः, अग्निसामान्य-२५ विशेषो वा? न तावदग्निसामान्यम्; तदनुमाने सिद्धसाध्यतापत्तेः, विशेषतोऽसिद्धेश्च ? नाप्यग्निविशेषः, तस्यानन्वयात् ।
१ अनुमानेन व्याप्तिग्रहणेऽनवस्थेतरेतराश्रयत्वनिरूपणपरेण ग्रन्थेन । २ तद्वाहित्वादस्याप्रामाण्यमित्यत्रासौ यो विकल्पः। ३ निर्विकल्पकत्वेन। ४ विकल्पस्याप्रमाणत्वेनाऽङ्गीकरणात् । ५ उत्पन्ने । ६ स्वस्वरूपादौ । ७ भूभवनवाड़तोत्थितमपि नरं प्रतिपादयेत् । ८ यौगाः । ९ तैरेव । १० अणुपरिमाणं मनः। ११ ते एव धौं। १२ अग्नित्वसामान्यम् । १३ यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र खदिराग्निरिति । १४ अग्नित्वस्य । १५ साधनवैयर्थ्य मिति भावः। १६ तत्राविवादाद्वयाप्तिग्रहणकाले एवास्य प्रसिद्धः। कथमन्यथा साध्यसाधनयोव्याप्तिनिर्णीतिः स्यात् ।। १७ देशादिना। १८ अग्नित्वस्य ।
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३५२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[३. परोक्षपरि०
अग्निसामान्यविशेषस्य साध्यत्वे तेन धूमस्य सम्वन्धः कथं सकल देशकालव्यात्याध्यक्षतः सिचेत् ? तथा तत्सम्बन्धासिद्धौ च यत्र यत्र यदा यदा धूमोपलस्मस्तत्र तत्र तदा तदाग्निसामान विशेषविषयमनुमानं नोदयमासादयेत् । न ह्येन्यथा सम्बन्ध ५ ग्रहणमन्यथानुमानोत्थानं नाम, अतिप्रसङ्गात् । ततः सर्वाक्षेपण व्याप्तिग्राही तर्कः प्रमाणयितव्यः ।
ननु 'यावान्कश्चिद्धमः स सर्वोप्यग्निजन्माऽनग्निजन्मा वा न भवति' इत्यूहापोहविकल्पज्ञानस्य सम्वन्धमाहिप्रत्यक्षफलत्वान्न प्रामाण्यम् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; प्रत्यक्षस्य सँम्वन्धग्राहित्वप्रतिषे. १० धात् । तत्फलत्वेन चास्याऽप्रामाण्ये विशेषणज्ञानफलत्वादिशेय
ज्ञानस्याप्यप्रामाण्यानुपङ्गः । हानोपादानोपेक्षाबुद्धिफलत्वात्तस्य प्रामाण्ये च ऊहापोहज्ञानस्यापि प्रमाणत्वमस्तु सर्वथा विशेषीभावात् । तन्नास्य गृहीतग्राहित्वादप्रामाण्यम् ।
नापि विसंवादित्वात्; स्वविषयेस्य संवादप्रसिद्धेः । साध्य१५साधनयोरविनाभावो हि तर्कस्य विषयः, तत्र चाविसंवादकत्वं
सुप्रसिद्धमेव । कथमन्यथानुमानस्याविसंवादकत्वम् ? न खलु तर्कस्यानुमाननिवन्धनसम्बन्धे संवादाभावेऽनुमानस्यासौ घटते।
ननु चास्य निश्चितः संवादो नास्ति विप्रकृष्टार्थ विषयत्वात्। तदसत्; तर्कस्य संवादसन्देहे हि कथं निस्सन्देहानुमानोत्था२० नम्? तदभावे च कथं सामस्त्येन प्रत्यक्षस्याप्रामाण्यव्यवच्छेदेन
प्रामाण्यप्रसिद्धिः १ ततो निस्सन्देहमनुमान मिच्छता साध्यसाधनसम्वन्धग्राहि प्रमाणमसन्दिग्धमेवाभ्युपगन्तव्यम् ।
समारोपव्यवच्छेदकत्वाञ्चास्य प्रामाण्यमनुमानवत् ।
प्रमाणविषयपरिशोधकत्वान्नोहः प्रमाणम् ; इत्यपि वार्तम् ; २५प्रमाणविषयस्याप्रमाणेन परिशोधनविरोधात् मिथ्याज्ञानवत्प्र.
मेयार्थवञ्च । प्रयोगः-प्रमाणं तर्कः प्रमाणविषयपरिशोधकत्वा. दनुमानादिवत् । यस्तु न प्रमाणं स न प्रमाणविषयपरिशोधकः
१ अग्निसामान्यविशेषेण । २ देशान्तरकालान्तरसम्बन्धित्वेन। ३ अग्यविनाभूतधूमाजलानुमानोत्पत्तिप्रसङ्घात् । ४ स्वीकारेण। ५ अन्वय। ६ व्यतिरेक । ७ साकल्येन। ८ दण्डशान। ९ दण्डि। १० अनुमानलक्षणफलसद्भावात् । ११ तर्कस्य । १२ साकल्येन । १३ तर्कस्य अविसंवादकत्वं सुप्रसिद्धं यदि न स्यात् । १४ विषये। १५ प्रत्यक्षं प्रमाणमविसंवादकत्वादिति । १६ तर्कस्य संवादसन्देहे निस्सन्देहानुमानोत्थानं न स्याद्यतः। १७ तर्कः। ८ अनुमान। ९ तर्कः । २० दूरस्थितस्यार्थस्य प्रत्यक्षविषयस्य यथानुमानं परिशोधकम् ।
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सू० ३११३] .. तर्कस्वरूपविचारः यथा मिथ्याज्ञानं प्रमेयो वार्थः, प्रमाणविषयपरिशोधकश्चायम् , तस्मात्प्रमाणम्।
तथा, प्रमाणं तर्कः प्रमाणानामनुप्राहकत्वात् , यत्प्रमाणानामनुग्राहकं तत्प्रमाणम् यथा प्रवचनानुग्राहकं प्रत्यक्षमनुमानं वा, प्रमाणानामनुप्राहकश्चायमिति : न चायमसिद्धो हेतुः:५ प्रमाणानुग्रहो हि प्रथमप्रमाणप्रतिपन्नार्थस्य प्रमाणान्तरेण तथैवावसायः, प्रतिपत्तिदायविधानात् । स चामलि प्रत्यक्षादिप्रमाणेनावगतस्य देर्शतः साध्यसाधनलम्बन्धस्य दृढतरमनेनावगमात् । ततः साध्यसाधनयोरविनाभावावबोधनिबन्धनमूहज्ञान परीक्षादक्षः प्रमाणमभ्युपगन्तव्यम् ।
न चोहः सम्बन्धज्ञानजन्मा यतोऽपरापरोहानुसरणादनवस्था स्यात् ; प्रत्यक्षानुपलम्भजन्मत्वात्तस्य । वयोग्यताविशेपवशाच प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं प्रत्यक्षवत् । प्रत्यक्षे हि प्रतिनियतार्थपरिच्छेदो योग्यतात एव न पुनस्तदुत्पत्त्यादेः, ततस्तत्परिच्छेदकत्वस्य प्राक्प्रतिषिद्धत्वात् । योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येवास्य २५ स्वाविषयज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषः प्रतिपत्तव्यः।
ननु यथा तर्कस्य स्वविषये लम्बन्धग्रहणनिरपेक्षा प्रवृत्तिस्तथानुमानस्याप्यस्तु सर्वत्र ज्ञाने स्वावरणक्षयोपशमस्य स्वार्थप्रकाशनहेतोरविशेषात्, तथा चानर्थक सम्वन्धग्रहणार्थ तर्कपरिकल्पनम् । तदप्यसमीचीनम् । यतोऽनुमानस्याभ्युपगम्यत एव २० खयोग्यताग्रहणनिरपेक्षमनुमेयार्थप्रकाशनम् , उत्पत्तिस्तु लिङ्गलिङ्गिसम्वन्धग्रहणनिरपेक्षा नास्ति, अगृहीततत्सम्बन्धस्य प्रतिपत्तुः क्वचित्कदाचित्तदुत्पत्त्यप्रतीतेः । न च प्रत्यक्षस्याप्युत्पत्तिः करणाधीलस्वन्धग्रहणापेक्षा प्रतिपन्ना; स्वयमगृहीततत्सम्बन्धस्यापि प्रतिपत्तुस्तदुत्पत्तिप्रतीतेः । तद्वदूहस्यापि स्वार्थसम्वन्ध-२५ ग्रहणानपेक्षस्योत्पत्तिप्रतिपत्तेर्नोत्पत्तौ सम्वन्धग्रहणापेक्षा युक्तिमतीत्यनवद्यम् । · अथेदानीमनुमानलक्षणं व्याख्यातुकामः साधनादित्याद्याह
१ प्रत्यक्ष। २ दूरस्थजललक्षणस्य । ३ द्वितीयप्रत्यक्षेण । ४ एकदेशतः । ५ निश्चयात् । ६ यथानुमानं साध्यसाधनसम्बन्धमाहितर्कपूर्वकमूहोपि तथा स्यात्, तथा चानवस्था इत्युक्ते आह । ७ धूमधूमध्वजविषय एक एवोहः सकलानुमानव्यव. स्थापकः कुतो न स्यादित्युक्ते आह। ८ तस्य अर्थस्य । ९ स्वस्थानुमानस्य कारणभूता योग्यता । १० अपिशब्देनानुमानस्य सङ्ग्रहः। ११ इन्द्रिय । १२ घटादि । १३ खमात्मीयं तत्किमुपलम्भानुपलम्भौ अर्घ इति सम्बन्धः, अथवा उपलम्मानुप. लन्मयोश्च सम्बन्धः । १४ व्याप्तिानस्य कारणस्वरूपनिरूपणम् । १५ स्वरूपम् ।
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३५४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० साधनासाच्याविज्ञानमनुमानम् ॥ १४ ॥ साध्याऽभावाऽसम्भवनियमनिश्चयलक्षणात् साधनादेव हि शंक्याऽभिप्रेताप्रसिद्धत्वलक्षणस्य साध्यस्यैव यद्विज्ञानं तदनमानम् । प्रोक्तविशेषणयोरन्यतरस्याप्यपाये ज्ञानस्यानुमानत्वा५ सम्भवात्।
ननु चास्तु साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् । तत्तु साधनं निश्चितपक्षधर्मत्वादिरूपत्रययुक्तम् । पक्षधर्मत्वं हि तस्यासिद्धत्वव्यवच्छेदार्थ लक्षणं निश्चीयते । सपक्ष एव सत्त्वं तु विरुद्धत्व
व्यवच्छेदार्थम् । विपक्षे चासत्त्वमेव अनैकान्तिकत्वव्यवच्छि१०त्तये । तदनिश्चये साधनस्यासिद्धत्वादिदोषत्रयपरिहारासम्भवात् । उक्तश्च
"हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेनं वर्णितः।
असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥” [प्रमाणवा० २१६] इत्याशङ्कयाह१५ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ॥ १५ ॥
असाधारणो हि स्वभावो भावस्य लक्षणमव्यभिचारादग्नेरौपुण्यवत् । न च त्रैरूप्यस्यासाधारणता; हेतौ तदाभासे च तत्सम्भवात्पश्चरूपत्वादिवत् । असिद्धत्वादिदोषपरिहारश्चास्य
अन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयलक्षणत्वादेव प्रसिद्धः, स्वयमसिद्ध२० स्यान्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयासम्भवाद् विरुद्धानकान्तिकवेत्।
किञ्च, त्रैरूप्यमानं हेतोर्लक्षणम् , विशिष्टं वा त्रैरूप्यम् ? तत्राद्यविकल्पे धूमवत्त्वादिवद्वक्तृत्वादावप्यस्य सम्भवात्कथं तल्लक्षणत्वम् ? न खलु 'वुद्धोऽसर्वज्ञो वक्तृत्वादे रथ्यापुरुषवत्' इत्यत्र
हेतोः पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयसद्भावे परैर्गमकत्वमिष्यतेऽन्यथानुप२५पन्नत्वविरहात् । द्वितीयविकल्पे तु कुतो वैशिष्ट्यं त्रैरूप्यस्यान्यत्रान्यथानुपपन्नत्वनियमनिश्चयात्, इति स एवास्य लक्षणमधूणं परीक्षादक्षैरुपलक्ष्यते । तद्भावे पक्षधर्मत्वाद्यभावेपि 'उदे
१ शक्यं प्रत्यक्षाद्यबाधितम् । २ अभिप्रेतम् इष्टम् । ३ अप्रसिद्धत्वम् असिद्धम् । ४ बसः । ५ साध्यसाधनयोः। ६ साध्यस्य साधनस्य वा। ७ सपक्षे एव सत्त्व. मित्युच्यमाने विपक्षे एकदेशेन सत्त्वनिवृत्तिः स्यात् । तब्यवच्छेदार्थ साध्येन विपक्षे हेतोरसत्त्वं यथा स्यादिति विपक्षे चासत्त्वं चेत्युक्तम् । ८ दिग्नागेन। ९ एते एवं विपक्षास्तेभ्यस्ततः। १० स्वरूपेण । ११ यसः। १२ ताद्विः। १३ अनुमाने । १४ बौद्धैः। १५ वर्जने। १६ परिपूर्णम् ।
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सू० ११५] हेतोस्त्रैरूप्यनिरासः ३५५ प्यति शकटं कृत्तिकोदयात्' इत्यादेर्गमकत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् , सपक्षे सत्त्वरहितस्य च श्रावणत्वादेः शब्दानित्यत्वे साध्ये गमकत्वप्रतीतेः। ___ ननु नित्यादाकाशादेविपक्षादिर लपादप्यनित्याद् घटादेः सतो व्यावृत्तत्वेन श्रावणत्वादेरलाधारमत्वादलेकान्तिकता; तद्-५ सत्यम् : असाधारणत्यत्यानकान्तिकत्वेन व्याश्या सिद्धः सपक्षविरक्षयोहि हेतुरलत्वेन निश्चितोऽसाकारणा, संशचितो का? निश्चितश्चेत् कथमनैकान्तिकः? पंक्षे लाव्याभानेनुपपद्यमानतयः निश्चितत्वेन संशयहेतुत्वाभावात् ।
श्रावणत्वं हि श्रवणज्ञानग्राह्यत्वम्, तज्ज्ञानं च शब्दादात्मानं १० लभमानं तस्य ग्राहकम् नान्यथा, "नाकारणं विपयः" [ ] इत्यभ्युपगमात् । शब्दश्च नित्यस्तजननैकस्वभावो यदिः तर्हि श्रवणप्रणिधानात्पूर्व पश्चाच्च तज्ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गः । न ह्यविकले कारणे कार्यस्यानुत्पत्तिर्युक्ता अतत्कार्यत्वप्रसङ्गात् । प्रयोगःयस्मिन्नविकले सत्यपि यन्न भवति न तत्तत्कार्यम् यथा सत्यप्य-१५ विकले कुलाले अभवन्पटो न तत्कार्यः, सत्यपि शब्दे पूर्व पश्चाचाविकले न भवति च नम्ञानमिति । ननु च श्रोत्रप्रणिधानात्पूर्व पश्वाञ्च तज्ज्ञानजननकस्वभावोयि शब्दस्तन्न जनयत्यादृतत्वात् तदप्यसङ्गतम् ; आवरणं हि इष्टदृश्ययोरेन्तराले वर्तमानं वस्तु लोके प्रसिद्धम् , यथा काण्डपटादिकम् । श्रोत्र २० शब्दयोश्च व्यापकत्वे सर्वत्र सर्वदा तत्करणैकस्वभावयोरत्यन्तसंश्लिष्टयोः किं नामान्तराले वर्तत? वृत्तौ वा तयोापकत्वव्याघातः, तदवरधदेशपरिहारेपानयोर्वर्तनादिति 'आप्तवचनादिनिवन्धनमर्थज्ञानमायमः' (परीक्षामु. ३३१००) इत्यत्र विस्तरेण विचारयिष्यामः । तन्नास्याऽऽवृतत्वात्तज्ज्ञानाजनकत्वं२५ किन्त्वसत्त्वादेव, इति श्रावणत्वादेः सपक्षविपक्षाभ्यां व्यावृत्तत्वेपि पक्षे साध्याविनाभावित्वेन निश्चितत्वाद्गमकत्वमेव । न च सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन निश्चितः पक्षे साध्याविनामावित्वेन निश्चेतुमशक्यः; सर्वानित्यत्वे साध्ये सत्त्वादेरहेतुत्वप्रसङ्गात् ।
१ शब्दत्वादेश्च। २ विद्यमानात् । ३ यद्यदसाधारणं तत्तदनैकान्तिकमिति । ४ शब्दे । ५ अनित्यत्वस्य । ६ श्रावणत्वहेतोः । ७ साध्याभावे अनुपपद्यमानतया निश्चितत्वं हेतोः कथमित्युक्ते आह। ८ एकाग्रतायाः। ९ शब्दक्षणे। १० श्रवणशानस्य । ११ श्रवणशानं शब्दकार्य न भवति शब्देऽविकले सति पूर्व पश्चाच्चानुत्पद्यमानत्वात् । १२ आवारकवायुभिः। १३ द्रष्ट्रर्थयोः । १४ मध्ये। १५ वस्त्रविशेषः। १६ भावरणाभावं। १७ शब्दस्य । १८ हेतुः। १९ सर्वमनित्यं सत्त्वादिति ।
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. ३५६
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
[ ३. परोक्षपरि०
न खलु सत्त्वादिर्विपेक्ष एवासत्वेन निश्चितः, सपक्षेपि तदसत्त्वनिश्वयात् ।
५
सपक्षस्याभावात्तत्र सत्त्वादेरसत्त्वनिश्चयान्निश्चय हेतुत्वम्, न पुनः श्रावर्णत्वादेः सद्भावेपीति चेत्; ननु श्रावणत्वादिरपि यदि ५ सपक्षे स्यात्तदा तं व्याप्नुयादेवेति समानान्तर्व्याप्तिः । सति विपक्षे धूमादिश्वासत्त्वेन निश्चितो निश्चयहेतुर्मा भूत् । विपक्षे सत्यसति चासत्त्वेन निश्चितः साध्याविनाभावित्वाद्धेतुरेवेति चेत्; तर्हि सपक्षे सत्यति चासवेन निश्चितो हेतुरस्तु तत एव । नन्वेवं सपक्षे तदेकदेशे वा सन्कथं हेतुः ? 'सपक्षेऽसन्नेव हेतुः' इत्यनव१० धारणात् । विपक्षेपि तदसत्त्वानवधारणमस्तु; इत्ययुक्तम् ; साध्याविनाभावित्वव्याघातानुषङ्गात् ।
१३
१४
यदि पुनः सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन संशयितोऽसाधारण इत्युच्यते तदा पक्षत्रयवृत्तितया निश्चितया संशयितया वाsनेकान्तिकत्वं हेतोरित्यायातम् । न च श्रावणत्वादी सास्तीति १५ गमकत्वमेव । विरुद्धताप्येतेने प्रत्युक्ता । यो हि विपक्षैकदेशेपि न वर्त्तते स कथं तत्रैव वर्त्तत ? असिद्धता तु दूरोत्सारितैव, श्रावणत्वस्य शब्दे सत्त्वनिश्चयात् । तन्न पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं व हेतोर्लक्षणम् ।
"
विपक्षे पुनरसत्त्वमेव निश्चितं साध्याविनाभाव नियम निश्चय२० स्वरूपमेव । इति तदेव हेतोः प्रधानं लक्षणमस्तु किमत्र लक्षणान्तरेण ? न च सपक्षे सत्त्वाभावे हेतोरनन्वयत्वानुषङ्गः; अन्तर्व्याप्तिलक्षणस्य तथोपपत्तिरूपस्यान्वयस्य सद्भावादन्यथानुपपत्तिरूपव्यतिरेकवत् । न खलु दृष्टान्तधर्मिण्येव साधर्म्य वैधर्म्य वा हेतोः प्रतिपत्तव्यमिति नियमो युक्तः सर्वस्य क्षणिकत्वादि२५ साधने सत्त्वादेरहेतुत्वप्रसङ्गात् ।
१ नित्ये । २ निश्चय हेतुत्वन् । ३ सपक्षस्य । ४ सपक्षेऽसत्त्वनिश्चयादिति शेषः । ५ साक्षे (पक्षे )। ६ श्रावणः वादेः सति विपक्षे तत्रासत्वेन निश्चितस्य स्वसाध्यसाधकत्वे अङ्गीक्रियमाणे । ७ पक्षे । ८ स्वसाध्यस्य । ९ सति विपक्षे असत्त्वाविशेषात् । १० हेतुः । ११ सपक्षे असत्त्वेन निश्चितस्य हेतुत्वप्रकारेण । १२ चेतनास्तरवः स्वापादिमत्त्वात् सत्त्वादिति हेतुः सिद्धेषु न प्रवर्त्तते अन्यत्र प्रवर्तते । १३ नित्ये । १४ न केवलं सपक्षे । १५ अनैकान्तिकत्वनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । धर्मत्वस पक्षेसत्त्वलक्षणेन । १७ पक्षे एव । १८ अन्वयः । १९ व्यतिरेकः । २० दृष्टान्तस्यासत्वात् ।
१६ पक्ष
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सू० ३।१५ हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम्
ननु त्रैरूप्यं हेतोर्लक्षणं मा भूत् 'पक्वान्येतानि फलान्येकशास्त्राप्रभवत्वादुपयुक्तफलवत्' इत्यादी मूल्यं देवदत्तस्तत्पुत्रत्वादि. तरतत्पुत्रवत्' इत्यादौ च ददामालेपि तत्सम्भवात् । पञ्चरूयत्वं तु तल्लक्षणं युक्तमेवानवद्यावान् . कशास्त्राप्रभवत्वस्यावाधितविषयत्वासम्भवाद आत्मतामाहिप्रत्यक्षेत्र नद्विषयस्य बाधित-५ त्वाव, तत्पुत्रत्वादेश्चासत्प्रतिपक्षवावा तलतिपक्षस्य शास्त्रव्याख्यानादिलिङ्गस्य सम्भवात् ।
प्रकरणसमस्याप्यसत्प्रतिपक्षवाभावादहेतुत्वम् । तस्य हे लक्षणम् “यस्मात् प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः"। [न्यायसू० १२७ ] इति । प्रक्रियेते साध्यत्वेनाधिक्रियेते अनिश्चितो पक्ष-१० प्रतिपक्षी यौ तौ प्रकरणम् । तस्य चिन्ता संशयात्प्रभृत्याऽऽनिश्चयात्पर्यालोचना यतो भवति लें एव, तन्निश्चयार्थ प्रयुक्तः प्रकरणसमः । पक्षद्वयेप्यस्य समानत्वावुभयत्राप्यन्वयादिसद्भावात् । तद्यथा-'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेर्घटादिवत्, यत्पुननित्यं तन्नानुपलभ्यमाननित्यधर्मकम् यथात्मादि' एवमैकेनान्य-१९ तेरानुपलब्धेरनित्यत्वसिद्धौ साधकत्वेनोपन्याले सति द्वितीयः प्राह-यद्यनेन प्रकारेणानित्यत्वं प्रसाध्यते तर्हि नित्यतासिद्धिरप्यस्त्वऽन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि सद्भावात् । तथा हि-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरात्मादिवत्, यत्पुनर्न नित्यं तन्नानुपलभ्यमानाऽनित्यधर्मकम् यथा घटादिः
२० इत्यप्यविचारितरमणीयम्; साध्याविनामावित्वव्यतिरेकेणापरस्यावाधितविपर्यत्वादेरलम्भवात् तदेव प्रधान हेतोर्लक्षणमस्तु किं पञ्चरूपप्रकल्पनया? न च प्रमाणप्रसिद्धत्रैरुप्यस्य हेतोर्विषये बाधा सम्भवति; अनयोर्विरोधात् । साँध्यसद्भावे एव हि हेतो.
१ योगः। २ भक्षित। ३ स श्यामस्तत्पुत्रत्वादित्यादौ च। ४ अनुष्योनिद्रव्यत्वाज्जलवत् इति च । ५ साध्यस्य । ६ तत्पुत्रो विद्वान् शास्त्रव्याख्यानसद्भावात् । ७ तत्पुत्रत्वादिति हेतोः। ८ हेतोः। ९ स्वीक्रियेते। १० वादिना यः पक्षो निश्चितः स प्रतिवादिना अनिश्चितः । यः प्रतिवादिना निश्चितः स वादिना न निश्चितः । ११ वादिप्रतिवादिभ्याम् । १२ बाधकादिमध्ये । १३ आ मर्यादायाम् । १४ हेतोः। १५ हेतुः। १६ हेतोः। १७ पक्षधर्मत्वादि । १८ सपक्षधर्मवादि । १९ तथा हि । २० नित्यत्व । २१ योगेन । २२ अनित्यधर्मस्य । २३ मीमांसकः । २४ असत्प्रतिपक्षत्वस्य च। २५ यौगमतमालम्ब्य सूरिभिरुच्यते। २६ बसः। २७ किं त्रैरूप्यं का च बाधा कथं च तयोविरोध इत्युक्ते आह ।
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३५८
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
[ ३. परोक्षपरि०
धर्मिणि सद्भाव स्त्ररूप्यम्, तद्भावे एव च तत्र तत्सम्भवो वाधा, भावाभावयोश्चैकत्रैकस्य विरोधः ।
fear, अध्यक्षागमयोः कुतो हेतुविर्षेयवाधकत्वम् ? स्वार्थ(थ) व्यभिचारित्वाच्चेत्; हेतावपि सति त्रैरूप्ये तत्समानमित्यसा५ वप्यनयोर्विषये वाधकः स्यात् । दृश्यते हि चन्द्रार्कादि स्थैर्यग्राह्य • ध्यक्षं देशान्तरप्राप्तिलिङ्गप्रभवानुमानेन वाध्यमानम् । अथैकशाखाप्रभवत्वाद्यनुमानस्य भ्रान्तत्वाद्वाध्यत्वम् । कुतस्तद्भान्तत्वम् - अध्यक्ष वाध्यत्वात्, त्रैरूप्यवैकल्याद्वा ? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयः - भ्रान्तत्वेऽध्यक्ष वाध्यत्वम्, ततश्च भ्रान्तत्वमिति । द्वितीय१० पक्षस्त्वयुक्तः; त्रैरूप्यसद्भावस्यात्र परेणाभ्युपगमात् । अनभ्युपमेवात एवास्यागमकत्वोपपत्तेः किमध्यक्ष वाधासाध्यम् ?
"
किञ्च, अवाधितविषयत्वं निश्चितम् अनिश्चितं वा हेतोर्लक्षणं स्यात् ? न तावदनिश्चितम् अतिप्रसङ्गात् । नापि निश्चितम् ; तनिश्चयासम्भवात् । स हि स्वसम्बन्धी, सर्वसम्वन्धी वा ? १५ स्वसम्बन्धी चेत् तत्कालीनः सर्वकालीनो वा ? न तावत्तत्का लीनः तस्यासम्यगनुमानेपि सम्भवात् । नापि सर्वकालीनः तस्यासिद्धत्वात्, 'कालान्तरेण्यत्रं वाधकं न भविष्यति' इत्यसर्वविदा निश्चेतुमशक्यत्वात् ।
;
,
सर्वसम्बन्धिनोपि तत्कालस्योत्तरकालस्य वा तन्निश्चयस्या२० सिद्धत्वम्; अर्वाग्रहशा 'सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामत्रं वाधकस्याभावः ' इति निश्चेतुमशक्तेस्तन्निश्चयनिबन्धनस्याभावात् । तन्निबन्धनं नुपलम्भः, संवादो वा स्यात् ? न तावदनुपलम्भः सर्वात्मसम्बन्धिनोऽस्याsसिद्धानैकान्तिकत्वात् । नापि संवादः, प्रागनुमानप्रवृत्तेस्तस्यासिद्धेः । अनुमानोत्तरकालं तत्सिद्व्यभ्युपगमे पर२५ स्पराश्रयः - अनुमानात्प्रवृत्तौ संवादनिश्चयः, ततञ्चावाधितविषयत्वावगमेऽनुमानप्रवृत्तिरिति । न चाविनाभावनिश्चयादेवाबाधितविषयत्वनिश्चयः; हेतौ पञ्चरूपयोगिन्यऽविनाभावपरिसमाप्ति
१ पर्वते । २ यदा हेतोर्धर्मिणि सद्भावस्तदा पक्षधर्मत्वम् । यदा च साध्यसद्भावे हेतोर्धर्मिणि सद्भावस्तदान्वयः । यदा च साध्यसद्भावे एव हेतोर्धर्मिणि सद्भावस्तदा विपक्षेऽसत्त्वम् । कथं साध्यसद्भाव एव इत्येवकारेण विपक्षेऽसत्त्वं गम्यम् । ३ साध्यस्य । ४ साध्य । ५ एकशाखाप्रभवत्वलक्षणे । ६ योगेन । ७ पक्षधर्मत्वादेरप्यनिश्चितस्य हेत्वङ्गत्वप्रसङ्गात् । ८ अनुमानकालीनः । ९ एकशाखाप्रभवत्वलक्षणे । १० सम्यगनुमाने । ११ अनुमान । १२ नृणाम् । १३ अनुमानविषये । १४ भावुकस्य । १५ आत्मनः स्वस्य ।
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सू० ३११५ ] हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम्
वादिनामवाधितविपयत्वाऽनिश्र्श्वये अविनाभावनिश्चयस्यैवालम्भ
३५९
वात् । तन्नैकशाखाप्रभवत्वादेवधितविपयत्वाद्धेत्वाभासत्वम् ।
नापि तत्पुत्रत्वादेः सत्प्रतिपक्षत्वात् । यतः प्रतिपक्षस्तुल्यवलः, अतुल्यबलो वा सन् स्यात् ? न तावदाद्यः पक्षः हैयोस्तुल्यबलत्वे 'एकस्य बाधकत्वनपरस च वाध्यत्वम्' इति ५ विशेषानुपपत्तेः । न च पक्षनेत्वाद्यभाव विशेषः तस्यानभ्युपगमात् | अभ्युपगमे वा अत पि किञ्चिदनुमानवाध्या ? द्वितीयपक्षेप्यतुल्यबलत्वं तयोः पशुत्वादिभावाभावकृतम्, अनुमानवाधाजनितं वा स्यात् ? प्रथमपक्षोनभ्युपगमादेवायुक्तः, पक्षधर्मत्वादेरुभयोरप्यभ्युपगमात् १० द्वितीयोप्यसम्भाव्यः तस्याद्यापि विवादपदापन्नत्वात् । न खलु द्वयोस्त्रैरूप्याविशेषतस्तुल्यत्वे सति 'एकस्य वाध्यत्वमपरस्य च बाधकत्वम्' इति व्यवस्थापयितुं शक्यमविशेषेणैव तत्प्रसङ्गात् । इतरेतराश्रयश्च-अतुल्यबलत्वे सत्यनुमानवाधा, तस्यां चातुल्यचलत्वमिति ।
यच्च प्रकरणसमस्यानित्यः शब्दोनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वादित्युदाहरणम्ः तत्रानुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वं शब्दे तत्त्वतोऽप्रसिद्धम्, न वा ? प्रथमपक्षे पक्षवृत्तितयाऽस्याऽसिद्धेरसिद्धत्वम् । द्वितीयपक्षे तु साध्यधर्मान्विते धार्मणि तत्प्रसिद्धम्, तद्रहिते वा ? आद्यविकल्पे साध्यवत्येव धर्मिण्यस्य सद्भावसिद्धिः, कथमगम-२० कत्वम् ? न हि साध्यधर्ममन्तरेण धर्मिण्यऽभवनं विहायापरं हेतोरविनाभावित्वम् । तच्चेत्समस्ति कथं न गमकत्वम् अविनाभावनिवन्धनत्वात्तस्य । द्वितीयपक्षे तु विरुद्धत्वम्: साध्यधर्मरहिते धर्मिणि प्रवर्त्तमानस्य विपक्षवृत्तितया विरुद्धत्वोपपत्तेः । अथ सन्दिग्धसाध्यधर्मवति तत्तत्र प्रवर्त्तते तर्हि सन्दिग्ध २५ विपक्षव्यावृत्तिकत्वादस्याऽनैकान्तिकत्त्वम् ।
5
;
नन्वेवं सर्वो हेतुरनैकान्तिकः स्यात्, साध्यसिद्धेः प्राक्साध्यधर्मिणैः साध्यधर्मसदसत्त्वाश्रयत्वेन सन्दिग्धत्वात्, ततोऽनुमेयव्यतिरिक्ते साध्यधर्मवति धर्म्यन्तरे साध्याभावे च प्रवर्त्तमानो
१५
१ योगादीनाम् । २ उक्तन्यायेन । ३ तत्पुत्रत्वव्याख्यानवत्त्वहेत्वोः । ४ तत्पुत्रत्वादित्येतस्य । ५ यौगेन । ६ तत्पुत्रत्वादित्येतस्य । ७ तत्पुत्रत्वव्याख्यानवत्त्वहेत्वोः । ८ तत्पुत्रत्वस्य पक्षधर्माद्यभावः व्याख्यानवत्त्वस्य च पक्षधर्मादिसद्भावः । ९ तत्पुत्रत्वव्याख्यानवत्वहेत्वोः । १० सन्दिग्धसाध्यधर्मवति प्रवर्तमानस्यानैकान्तिकत्व प्रकारेण । ११ पर्वतस्य शब्दस्य वा । १२ अनित्यतयाऽनुमेयाच्छब्दात् । १३ घटे । १४ आकाशादौ । १५ सपक्षविपक्षयोरिति यावत् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० हेतुरनैकान्तिकः, साध्याभाववत्येव तु पक्षधर्मले सति विरुद्धः, यस्तु विपक्षाद्यावृत्तः सपक्षे चानुगतः पक्षधमा निश्चित वसाध्यं गमयत्येवेत्य भ्युपगन्तव्यम् ; इत्यप्यसुन्दरम्; यतो यदि साध्यधर्मिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे हेतोः स्वसाध्येन्द्र प्रतिवन्धोऽ. ५भ्युपगम्यते; तर्हि साध्यधर्मिण्युपादीयमानो हेतुः कथं साध्य साधयेत्, तत्र साध्यमन्तरेणाप्यस्य सद्भावाभ्युपगमात् ? ता. तिरिक्ते एव धर्म्यन्तरे साध्येनास्य प्रतिवन्धग्रहणात् । न चान्यत्र साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुरन्यत्र साध्यं गमयत्यतिप्रस ङ्गात् । ततः साध्यधर्मिण्येव हेतोयाप्तिः प्रतिपत्तव्या। १० ननु यदि साध्यधर्मान्वितत्वेन साध्यधर्मिण्यसौ पूर्वमेव प्रति
पन्नः, तर्हि साध्यधर्मस्यापि पूर्वमेव प्रतिपन्नत्वाद्धेतो पक्षधर्मताग्रहणस्य वैयर्थ्यम् । तदप्यसङ्गतम् ; यतः प्रतिवन्धसाधकप्रमाणेन सर्वोपसंहारेण 'साधनधर्मः साध्यधर्माभावे क्वचिदपि न भवति' इति सामान्येन प्रतिवन्धः प्रतिपन्नः । पक्षधर्मताग्रहणकाले १५.तु 'यत्रैव धर्मिण्युपलभ्यते हेतुस्तत्रैव साध्यं साधयति' इति पक्षधर्मताग्रहणस्य विशेष विषयप्रतिपत्तिनिवन्धनत्वान्नानुमानस्य वैयर्थ्यम् । न खेलु विशिष्टधर्मिण्युपलभ्यमानो हेतुस्तद्गतसाध्यमन्तरेणोपपत्तिमान् , तस्य तेन व्याप्तत्वाभावप्रसङ्गात् । अत एव प्रतिपन्नप्रतिवन्धैकहेतुसद्भावे धर्मिणि न विपरीतसाध्योप२० स्थापकहेत्वन्तरस्य सद्भावः, अन्यथा द्वयोरेंप्यनयोः स्वसाध्याविनामावित्वात् , नित्यत्वानित्यत्वयोश्चैकैकदैकान्तवादिमते विरोधतोऽसम्भवात् , तयवस्थापकहेत्वोरप्यसम्भवः । सम्भवे वा तयोः खसाध्याविनाभूतत्वान्नित्यत्वानित्यत्वधर्मसिद्धिर्मिणः स्यादिति कुतः प्रकरणसमस्यागमकता एकोन्तत्वसिद्धिर्वा ?
१ शब्दो नित्यः कृतकत्वाद्धटवत् । साध्याभाववत्येव घटे कृतकत्वस्य शब्दलक्षणपक्षधर्मत्वे सति प्रवर्त्तमानस्य विरुद्धत्वम् । २ शब्दात् पर्वतात् वा। ३ घटे महानसादौ वा । ४ शब्दे पर्वते वा। ५ घटे महानसे वा। ६ घटे महानसे वा। ७ शन्दे पर्वते वा। ८ काठे लोहलेख्यत्वोपलम्भावलेपि तथाप्रसङ्गात् । ९ शब्दे । १० पक्षधर्मताग्रहणात्। ११ ऊहेन। १२ हेतुः। १३ ननु यथास्माकं साध्यधर्मव्यतिरिक्त एव धर्म्यन्तरे स्वसाध्येन हेतोः प्रतिवन्धग्रहणाभ्युपगमे साध्यधर्मिणि साध्यधर्ममन्तरेणाप्यस्य सद्भावादगमकत्वम् । तथा भवतामपि प्रतिबन्धप्रसाधकप्रमाणेन सामान्येनैवाविनाभावप्रतिपत्तेविशिष्टधर्मिणि उपलभ्यमानस्य हेतोस्तद्गतसाध्यमन्तरेणाप्युपपत्तिसम्भवादित्युक्ते बक्ति न खल्विति । १४ अन्यथा । १५ सर्वत्र। १६ अनुपलभ्यमाननित्यधर्मत्वलक्षणस्य । १७ शब्दे । १८ नित्यत्व लक्षण। १९ अनुपलभ्यमानानित्यधर्मकस्वलक्षणस्य । २० हेत्वोः । २१ शब्दे, धर्मिणि। २२ अनित्यत्वमेव शब्दस्येति ।
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सू० ३.१५] हेतोः पाञ्चरूप्यनिरासः ३६१ अथान्यतरस्यात्र स्वसाध्याविनाभाववैकल्यम् । तथाप्यत एवास्यागमकतेति किं तत्प्रतिपादनप्रयासेन ?
किञ्च, नित्यधर्मानुपलब्धिः प्रसज्यप्रतिषेधरूपा, पर्युदासरूपा वा शब्दानित्यत्वे हेतुः स्याद ? तत्रायः पक्षोऽयुक्तः, तुच्छाभावस्य साध्यासापकत्वान्निपिद्धत्वाच्च । द्वितीयपक्षे तु अनित्यधर्मोप-५ लब्धिरेव हेतुः, सा च शब्दे यदि सिद्धा कथं नानित्यतासिद्धिः? अथ तेञ्चिन्तासम्बन्धिपुरुपेगासौ प्रयुज्यत इति त्रासिद्धाः तर्हि कथं न सन्दिग्धो हेतुर्वा दिन प्रति प्रतिवादिनस्त्वसौ स्वरूपासिद्ध एव; नित्यधर्मोपलब्धेस्तत्रास्य सिद्धेः । तन्न पञ्चरुषत्वम्प्यस्य लक्षगं घटते अवाधितविषयत्वादेर्विचार्यमाणस्यायोगात्पक्ष- १० धर्मत्वादिवत्।
यदि चैकस्य हेतोः पक्षधर्मत्वाद्यनेकधर्मान्मकत्वमिष्यते, तदाऽनेकान्तः समाश्रितः स्यात् । न च यदेव पक्षधर्मस्य सपने एव सत्त्वम् तदेव विपक्षात्सर्वतोऽसत्त्वमित्यभिधातव्यम् । अन्वयंव्यतिरेकयोर्भावाभावरूपयोः सर्वथा तादात्म्यायोगात्, तत्त्वे वा १५ केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी वा सर्वो हेतुः स्यात् , न त्रिरूपवान् ।
व्यतिरेकस्य चाभावरूपत्वाद्धतोत्तद्रूपन्देऽभावकयो हेतुः स्यात्। न चौमावस्य तुच्छरूपत्वात्स्वसाध्येन धर्मिणा सँम्वन्धः । यदि च सपक्ष एव सत्त्वं विपक्षासत्त्वम् न ततो भिन्नम् ; तर्हि तदेवास्यासाधारणं कथं स्यात् ? वस्तुभूतान्याँभावमन्तरेण प्रतिनियतस्या-२० स्याप्यत्रासम्भवात् । अथ ततस्तदन्यधर्मान्तरम् । ताकस्यानेकधर्मात्मकस्य हेतोस्तथाभूतसाध्याविनामावित्वेन निश्चितस्य अनेकान्तात्मकार्थप्रसाधकत्वात् कथं न परोपन्यस्तहेतूनां विरुद्धता ? एकान्तविरुद्धनानेकान्तेन व्याप्तत्वात् ।
किञ्च, परैः सामान्यरूपो हेतुरुपादीयते, विशेषरूपो वा, उभ-२५ यम् , अनुभयं वा ? सामान्यरूपश्चेत् । तत्किं व्यक्तिभ्यो भिन्नम् , अभिन्नं वा? भिन्नं चेतन: व्यक्तिभ्यो भिन्नस्य सामान्यस्याऽप्रति
१ द्वयोर्मध्ये एकस्याद्यस्य । २ प्रकरण। ३ नित्यधर्मानुपलब्धेरनित्यत्वं प्रतिपाद. यामः । अनित्यधर्मानुपलब्धेनित्यत्वं साधयामः इति । ४ शब्दे धर्मिणि । ५ शब्दे । ६ असत्प्रतिपक्षत्वस्य च। ७ हेतोः। ८ सपक्षे सत्त्वम् । ९ विपक्षेऽसत्त्वम् । १. अस्मिन्पक्षे व्यतिरेकस्यान्वयरूपत्वे तादात्म्यम् । ११ अत्र पक्षे अन्वयस्य व्यतिरेकरूपित्वे तादात्म्यम् । १२ केवलव्यतिरेकीत्यस्मिन्पक्षे। १३ हेतुरूपस्य । १४ अभावपक्षे हेतोः। १५ यसः। १६ भिन्न । १७ यसः। १८ विपक्षासत्त्वलक्षणम् । १९ वैशेषिक।
प्र. क० मा० ३१
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० भासमानतयाऽसिद्धत्वात् । तथासूतस्यास्य सामान्यविचारे निराकरिष्यमाणत्वाच्च । अथाभिन्नम् ; कथञ्चित् , सर्वथा वा? सर्वथा चेत्न; सर्वथा व्यत्त्यव्यतिरिक्तस्यास्य व्यक्तिस्वरूपवद्ध्यत्यन्तरा. ननुगमतः सामान्यरूपतानुपपत्तेः । कथञ्चित्पक्षस्त्वनभ्युपंगमा५ देवायुक्तः । नापि व्यक्तिरूपो हेतुः, तस्यासाधारणत्वेन गमकत्वायोगात् । नाप्युभयं परस्परानेनु विद्धम् ; उभयदोषप्रसङ्गात् । नाप्यनुभयम् ; अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयवि(ना. दनुभयस्यासत्त्वेन हेतुत्वायोगात् । ततः पदार्थान्तरानुवत्तव्यात. त्तरूपमात्मानं विभ्रदेकमेवार्थस्वरूपं प्रतिपत्तुर्भेदाभेदप्रत्ययप्रस १० तिनिवन्धनं हेतुत्वेनोपादीयमानं तथाभूतसाध्यसिद्धिनिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम्।
किञ्च, एकान्तवाद्युपन्यस्तहेतोः किं सामान्यं साध्यम् , विशेषो वा, उभयं वा, अनुभयं वा ? न तावत्सामान्यम्; केवलस्यास्या
सम्भवादर्थक्रियाकारित्वविकलत्वाच्च । नापि विशेषः, तस्या१५ ननुयायितया हेत्वऽव्यापकस्य साधयितुमशक्तेः । नाप्युभयम्; उभयदोषानतिवृत्तेः । नाप्यनुभयम्; तस्यासतो हेत्वव्यापकत्वेन साध्यत्वायोगात्।
यच्चान्यदुक्तम्-"प्रत्यक्षपूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च।" [ न्यायसू० ११११५] इति । तत्र पूर्ववच्छेषव२० केवलान्वयि, यथा सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनमनेकत्वात्
पञ्चाङ्गुलवत् । पञ्चाङ्गुलव्यतिरिक्तस्य सदसद्वर्गस्य पक्षीकरणादन्यस्याभावाद्विपक्षाभावः, अत एव व्यतिरेकाभावः । पूर्ववत्सामान्यतोऽदृष्टम् केवलव्यतिरेकि, यथा सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति । पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोऽष्टमन्वयव्यतिरेकि,
१ पराभ्युपगतसामान्यं धर्मि सामान्यरूपतां न भजति व्यक्तयन्तराननुगमात् व्यक्तिस्वरूपवत् । सामान्य व्यक्त्यन्तरं नानुगच्छति व्यक्तिभ्योऽभिन्नत्वात् व्यक्तिस्वरूपवत् । २ परेण । ३ दृष्टान्तेऽसत्त्वेन। ४ परस्परानुविद्धं तु परै भ्युपगम्यते । ५ निरपेक्षम् । ६ व्यत्यन्तरेषु । ७ सदृशपरिणामेन । ८ व्यक्तिभेदेषु । ९ देशकालादिभेदेन भेदप्रत्ययः। १० धूमो धूम इत्यभेदप्रत्ययः । ११ व्यक्तिरहितस्य । १२ पाकादि । १३ अन्यत्र व्यक्तिनिषेधेषु। १४ लिङ्गप्रत्यक्षं यतः। १५ समासरहितानि पदान्यत्र । १६ सर्वावयवापेक्षाऽऽदौ प्रयुज्यमानत्वात्पक्षः पूर्वः पूर्वमस्य हेतोरस्तीति पूर्ववत्पक्षधर्म इत्यर्थः। १७ शेषो दृष्टान्तः सोस्य हेतोरस्तीति शेषवत्सपक्षे सन्नित्यर्थः । १८ सपक्षे सत्साध्यम् । १९ द्रव्यगुणादि । २० प्रागभावादि । २१ पक्षीभूताद् दृष्टान्तभूतादन्यस्य व्यतिरिक्तस्य विपक्षस्य । २२ साधनसामान्यस्य साध्यसामान्येन व्याप्तिः सामान्यं ततोऽदृष्टं व्यतिरेकिदृष्टान्ते ।
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सू० ३।१५ ] पूर्ववदाद्यनुमानत्रैविध्यनिरासः
३६३
यथा विवादास्पदं तनुकरणभुवनादि बुद्धिमत्कारणं कार्यत्वादिभ्यो घटादिवत् । यत्पुनर्बुद्धिमत्कारणं न भवति न तत्कार्यत्वादिधर्माधारो यथात्मादिः' इति ।
तदप्येतेन प्रत्याख्यातम्ः सर्वत्रान्यथानुपपन्नत्वस्यैव हेतुलक्षणतोपपत्तेः तस्मिन्सत्येव हेतोर्गमकत्वप्रतीतेः ।
;
केवलान्वयिनो हि यद्यन्यथानुपपन्नत्वं प्रमाणनिश्चितमस्ति, किमन्वयाभिधानेन ? अथान्वयाभावे तद्भावतदविश्रयो वेति तदभिधानम्ः स्यादेतत् यद्यविनाभावस्तेन व्याप्तः स्यात्, अव्यापक निवृत्तेरव्याप्य निवृत्तावतिप्रसङ्गात् । व्याप्तश्चेत् तर्हि प्राणादौ तन्निवृत्तावविनाभाव निवृत्तेरगमकत्वं स्यात् । न खलु वैद्य १० व्यापकं तत्तदभावे भवति वृक्षत्वाभावे शिंशपात्ववत् । गमकत्वे वास्य नान्वयेनासौ व्याप्तः स्यात् । यदभावे हि यद्भवति न तत्तेन व्याप्तम् यथा रासभाभावे भवन्धूमादिर्न तेन व्याप्तः भवति चान्वयाभावेपि तदविनाभाव इति ।
'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्वनमनेकत्वात्' इत्ययं च हेतुः १५. कुतः केवलान्वयी ? व्यतिरेकाभावाच्चद् अयमपि कुतः ? तद्विपयस्य विपक्षस्याभावाचेद: अथ कोर्य विपक्षाभावः- पक्षलपक्षावेव, निवृत्तिमात्रं वा ? प्रथमपक्षे परमतप्रसङ्गः अभावस्य भावान्तरस्वभावतास्वीकारात् । द्वितीयपक्षे तु स तथाविधः प्रतिपन्नः, न वा ? न प्रतिपन्नश्चेत्; तर्हि विपक्षाभावसन्देहाद्व्यतिरेकाभावोपि २० सन्दिग्ध इति केवलान्वयोपि तादृगेव । अथ प्रतिपन्नः स यदि साध्यनिवृत्त्या साधननिवृत्त्याधारः प्रतिपन्नः तर्हि स एव विपेक्षः, कथं विपक्षाभावो यतो व्यतिरेकाभावः ? साध्यसाधनाभावाधारतया निश्चितस्य विपक्षत्वात् । चभाववदभावस्यापि न विरुध्यते, कथमन्यथा 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्वनम्' २५ इत्यत्रासन् पक्षः स्यात् ? असन् पक्षो भवति न विपक्षै इति किङ्कतो
"
૨૨
१ व्यतिरेकिदृष्टान्तः । २ गगनं च । ३ अन्यथानुपपन्नत्वमेव हेतुलक्षणमिति समर्थनपरेण ग्रन्थेन । ४ अनुमाने । ५ तर्कलक्षण । ६ दृष्टान्ते हेतोः सत्त्वमन्वयः ॥ ७ अन्त्रयस्य । ८ अविनाभावस्य । ९ सत्यान् । १० घटनिवृत्तौ पटनिवृत्तिप्रसङ्गात् । ११ अविनाभावोऽन्वयेन । १२ अविनाभावस्य । १३ अन्वयः । १४ अविनाभावः । १५ प्रसज्यः । १६ जैनमत । १७ जैनेन । १८ विपक्षाभावो विपक्षो भवति साध्यनिवृत्त्या साधननिवृत्याधारः स्यात्सम्प्रतिपन्नविपक्षवत् । १९ भाव एव महान् इदलक्षण: आकाशलक्षणो वा विपक्षः स्यात् न त्वभाव इत्युक्ते आह । २० अभावस्य विपक्षत्वे विरोधश्चेत् । २१ असन् । २२ केन |
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३६४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० विभागः? अथाऽसद्धगंशब्देन सामान्यसमवायान्त्यविशेषा एवो. च्यन्ते, नाभावः, तर्हि तद्विषयं ज्ञानं न कस्यचिदनेन प्रसाधितमिति सुव्यवस्थितम् ईश्वरस्याखिलकार्यकारणग्रामपरिज्ञानम् ! प्रागभावाद्यज्ञाने कार्यत्वादेरप्यज्ञानात् ।। ५ किञ्च, यद्यभावोऽत्र पक्षसपक्षाभ्यां बहिर्भूतः, तर्हानेनानेकत्वादित्यनैकान्तिको हेतुः, तदनेकत्वेपि कस्यचिदेकज्ञानावलम्वनत्वानभ्युपगात् । अभ्युपगमे वा कथमभावो न पक्षः १ तथा विपक्षोप्यस्तु । नन्वेवं विपक्षाभावोपि तदालम्बनमिति पक्ष एव
स्यात् , तथा च पुनरपि विपक्षाभावे एव इति चेत्, तर्हि पुनरपि १० तदेव चोद्यम्- 'कोयं विपक्षाभाव इति ? यदि पक्षसँपक्षावेवः भावाद्भिन्नस्याभावस्याभावः।
अथ तुच्छा विपक्षनिवृत्तिस्तद्भावः; सोपि यद्यप्रतिपन्नस्तर्हि सन्दिग्धः । तत्सन्देहे च व्यतिरेकाभावोपि ताहगेवेति न निश्चितः केवलान्वयः' इत्यादि तैदवस्थं पुनः पुनरावर्त्तते इति चक्रक१५ प्रसङ्गः । ततः केवलान्वयित्वेनाभ्युपगतस्य विपक्षाभाव एव
तुच्छो विपक्षः। ततः साध्यनिवृत्त्या साधननिवृत्तिश्चेति कथं न व्यतिरेकः? अंत एवाविनाभावस्य तत्परिज्ञानस्य च प्राणादिमत्त्ववद्भावात्किमन्वयेन ?
अथ विपक्षाभावस्यौपादानत्वायोगान्न ततः साध्यसाधनयो२० र्व्यावृत्तिः, तन्न; 'भावः प्रागभावादिभ्यो भिन्नस्ते वा परस्परतो भिन्नाः' इत्यादावप्यभावस्यापादानत्वाभावप्रसङ्गात् सर्वेषां साङ्कय स्यात्।
किञ्च, अन्वयो व्याप्तिरभिधीयते । सा च त्रिधा-बहियाप्तिः, साकल्यव्याप्तिः, अन्तर्व्याप्तिश्चेति । तत्र प्रथमव्याप्तौ भग्नघटव्यति२५ रिक्तं सर्व क्षणिकं सत्त्वात्कृतकत्त्वाद्वा तद्वत् , विवादापन्नाःप्रत्यया
१ ये सत्तासम्बन्धात्सन्तस्ते सद्वर्गवाच्याः । ये तु स्वतः सन्तस्ते असद्वर्गशब्दवाच्या इत्यर्थः। २ अनेकत्वादित्यनेन अनुमानेन । ३ उपहासः। ४ प्रागसत्कार्य यस्मिन् कपाले उत्पन्ने यस्य वस्तुनो घटलक्षणस्य नियमेन प्रध्वंसस्तत्कारणम् । ५ कारणत्वस्य । ६ प्रागभावादिरूपः। ७ अनुमाने । ८ अमावस्यैकमावावलम्वनत्वम् । ९ तुच्छरूपोऽभावः। १० अभावस्य विपक्षतासद्भावप्रकारेण । ११ विपक्षश्वासावभावश्चेति। १२ एकज्ञानरूपः । १३ पूर्वोक्तमेव । १४ विपक्षाभावस्तहि । १५ सा प्राक्तनी अवस्था यस्य । १६ ग्रन्थचक्रक। १७ हेतोः। १८ व्यतिरेकसद्भावादेव । १९ ईबथें वत्। २० अनेकत्वादिगतेन। २१ तुच्छरूपत्वादपादानत्वायोगः। २२ भावाभावानां प्रागभावादीनां भावाभावादीनाम् ।
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सू० ३।१५] पूर्ववदाद्यनुमानत्रैविध्यनिरासः ३६५ निरालम्वनाः प्रत्ययत्वात्स्वप्नप्रत्ययवत् , ईश्वरः किञ्चिन्झो रागादिमान्वा वक्तृत्वादिभ्यो रथ्यापुरुपवत्' इत्यादेर्गमकत्वं स्यात् केवलान्वयस्यात्र मुलमत्वात् । ननु लव न सत्त्वादिकं क्षणिकत्वादिना व्याप्तम् आत्मादी क्षणिकत्त्वाइसत्त्वात् तन्नतदसत्त्वे तत्रार्थक्रियाऽसत्वात् सत्त्वं न स्यात् ।
किन्न, घटादिष्टान्ते सत्त्वादिकं क्षणक्षया सति दृष्टमपि यदि कचित्तभावेपि स्वान्न तार्हे बहितिरन्वया, लक्षणयुक्त वाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूपितं स्यात् ।
अथ सकलव्याप्तिरन्वयः; ननु केयं सकलव्याप्तिः ? 'दृष्टान्तधर्मिणीव साध्यधर्मिण्यन्यत्र च साध्येन साधनस्य व्याप्तिः सा १० इति चेत् ; सा कुतः प्रतीयताम् ? प्रत्यक्षतः, अनुमानाद्वा? प्रत्यक्षतश्चेत् : किमिन्द्रियात् , मानसाद्वा? न तावदिन्द्रियात्; चक्षु. रादेरिन्द्रियस्य सकलसाध्यसाधनार्थसन्निकर्षवैधुर्य तदनुपपत्तेः। न हि तद्वैधुर्य तद्युक्तम् “इन्द्रियार्थसन्निकोत्पन्नमव्यपदेश्यमऽव्यभिचारि व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षम्" [ न्यायसू० शश४] १५ इत्यभिधानात् । तस्य तत्सन्निक वा प्राणिमात्रस्याशेषज्ञत्वप्रसझान्न कश्चिदीश्वराद्विशेष्येत ।
ननु साध्यसाधनयोः साकल्येन ग्रहणं लकलव्याप्तिग्रहणम् । साध्यं चाग्निसामान्यं साधनं च धूमसामान्यम् , तयोश्चानवयंव. योरेकंत्रापि साकल्येन ग्रहणमस्ति, विशेषप्रतिपत्तिस्तु सर्वत्र २० पक्षधर्मताबलादेवेति चेत् । तहि क्षणिकत्वादि साध्यम् , सत्त्वादि साधनम् , तयोश्चानवयवयोः प्रदीपादौ संहदर्शनादेव सकलव्याप्तिग्रहः किन्न स्यात् ? मानसप्रत्यक्षादपि व्याप्तिप्रतिपत्तावयमेव दोपः। तन्न प्रत्यक्षतः लकलव्याप्तिग्रहः। नाप्यनुमानतोऽनवस्थाप्रसङ्गात् ।
सामान्यस्य च साध्यत्वे साधनवैफल्यम् तत्राविवादात् , व्याप्तिग्रहणकाल एवास्य प्रसिद्धः । कथमन्यथा सामान्यधर्मयोः साकल्येन व्याप्तिर्निर्णीता स्यात् ?
१ यौगं प्रति । २ लक्षणन् । ३ लक्ष्यम् । ४ सत्त्वादिलक्षणे हेतौ। ५ बहिाप्तिरूपस्यान्वयस्य कथं बाधासम्भवः ? आत्मादौ क्षणिकत्वाभावेपि सत्त्वमस्ति यतः। ६ सकलेपु साध्यसाधनेषु । ७ व्यत्यन्तरेषु । ८ अशब्दजम् । ९ सकलयोः। १० अनुमाने। ११ अनुमाने। १२ हेतोः । १३ निरंशयोः। १४ युगपत् । १५ पर्वतोग्निमान्धूमवत्त्वादिति सत्यानुमाने धूमोग्निकार्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादित्यनेनानुमानेन व्याप्तिः प्रतीयते इत्यादिप्रकारेण । १६ साध्यसामान्यस्य । १७ व्याप्तिग्रहणकाले साध्यसामान्यस्य सिद्धिर्नास्ति चेत् । १८ साध्यसाधनयोः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० साध्यत्वं चास्यासतः करणम्, सतो ज्ञापनं वा ? प्रथमपले सामान्यस्यानित्यत्वाऽसर्वगतत्वप्रसङ्गः । द्वितीयपक्षेप्यस्य दृश्यत्वे धर्मिवत्प्रत्यक्षत्वमिति किं केन ज्ञाप्यते ? अन्यथा धूमसामान्यमप्यनिसामान्येन ज्ञाप्येत । अथ व्यक्तिसहायत्वाद्धूमसामान्यमेव प्रत्यक्षं ९ नान्यत् ततोऽयमदोषः, न; अस्य सामान्यविचारे सहायापेक्षाप्रतिक्षेपात्।
यञ्चोक्तम्-विशेषप्रतिपत्तिस्तु पक्षधर्मतावलादेवेति; तंत्र पक्षधर्मता धूमस्य, तत्सामान्यस्य वा? तत्राद्यः पक्षोऽसङ्गतः, विशेषेण व्याप्तेरप्रतिपत्तितस्तद्गमकत्वायोगात्। १० द्वितीयपक्षेप्यग्निसामान्यस्यैव धूमसामान्यासिद्धिः स्यात् तेनैव
तस्य व्याप्तेः, नाग्निविशेषस्य अनेनाव्याप्तेः । अथ साधनसामान्यात् साध्यसामान्यप्रतिपत्तेरेवेष्टविशेषप्रतिपत्तिः सामान्यस्य विशेषनिष्ठत्वात् । ननु तत्सामान्यमपि विशेषमात्रेण व्याप्तं
सत्तदेव गमयेन्नान्यत् । अथ विशिष्टविशेषांधारं लिङ्गसामान्यं १५प्रतीयमानं विशिष्टविशेषाधिकरणं साध्यसामान्यं गमयतीत्युच्यते; तदप्युक्तिमात्रम्; तथा व्याप्तेरभावात् । अथ विपक्षे सद्भाव वाधकैप्रमाणवशात्तत्सिद्धिरिष्यते; तर्हि तावतैव पर्याप्तत्वात् किमन्वयेन परस्य ?
एतेनान्ततिरपि चिन्तिता । न खलु प्रत्यक्षादितः सापि २० प्रसिद्ध्यति । तन्न पूर्ववच्छेषवदिति सूक्तम् ।
यच्चान्यदुक्तम्-'पूर्ववत्सामान्यतोदृष्टं चेति चशब्दो भिन्नप्रक्रमः 'सामान्यतः' इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः । ततोयमर्थः-पूर्वव.
त्पक्षवत्सामान्यतोपि न केवलं विशेषतो दृष्टं विपक्षे । अनेन केव. लव्यतिरेकी हेतुर्दर्शितः-'सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात्' २५ इत्यादिः; तदप्ययुक्तम् । यतः प्राणादेरन्वयाभावे कुतोऽविनाभावावगतिः? व्यतिरेकाचेत् ; तथाहि-यस्माद् घटादेः सात्मकत्व
१ निष्पादनम् । २ हेतुना। ३ साध्यसामान्यस्य । ४ हेतुना। ५ प्रत्यक्षमापि शाप्यते चेत् । ६ धूमविशेष । ७ अग्निसामान्यम् । ८ साध्यसाधनसामान्यस्य । ९ ग्रन्थे। १० साध्यसाधनयोः। ११ यत्र यत्र पुरो भवति पर्वतस्थधूमस्तत्राग्नि रिति । १२ सिद्धिः। १३ धूमसामान्यस्य । १४ यसः। १५ अग्निविशेष । १६ प्रेष्टविशेषम् । १७ पर्वतस्थधूम । १८ पर्वतस्थाग्नि। १९ बसः। २० यो यः पुरोवत्तिपर्वतस्थधूमः स पुरोवत्तिपर्वतस्थाग्निमानिति । २१ हेतोः । २२ अनुपलम्भ। २३ व्याप्ति । २४ व्याप्तेः । २५ योगस्य । २६ साकल्यव्याप्तिशोधनपरेण ग्रन्थेन । २७ निराकृता । २८ अन्वयदृष्टान्तस्य । २९ कारणात् ।
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सू० ३ १५ ] पूर्ववदाद्यनुमानत्रैविध्यनिरासः
निवृत्तौ प्राणादयो नियमेन निवर्त्तन्ते तस्मात्सात्मकत्वाभावः प्राणाद्यभावेन व्याप्तो धूमाभावेनैव पावकाभावः । जीवच्छरीरे च प्राणाद्यभावविरुद्धः प्राणादिसङ्गावः प्रतीयमानस्तदभावं निचर्त्तयति । स च निवर्त्तमानः स्वव्याप्यं सात्मकत्वाभावमादाय निवर्त्तते इति सात्मकत्वसिद्धिस्तत्रः इत्यप्यसारम् ः यतोनुमा ५ नान्तरेन्येवनविनाभावप्रसिद्धेः केवलव्यतिरेक्येव सर्वमनुमानं त्यात्, अन्ययमात्रेण तसिद्धावतिप्रसङ्गस्योत्तम्बात् ।
३६७
किञ्च, साध्यनिवृत्त्या साधननिवृत्तिर्व्यतिरेकः, स च क्वचित् कदाचित्, सर्वत्र सर्वदा वा स्यात् ? न तावदाद्यः पक्षःः तथा व्यतिरेकस्य साधनाभासेपि सम्भवात् । द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः; १० साकल्येन व्यतिरेकप्रतिपत्तेः प्रत्यक्षादिप्रमाणतः परेषामन्वयप्रतिपत्तेरिवासम्भवात् ।
एतेन पूर्ववच्छेपवत्सामान्यतोदृष्टमन्वयव्यतिरेक्यनुमानं प्रत्याख्यातम् ; पक्षद्वयोपक्षिप्तदोषानुषङ्गात् ।
यच्च तदुदाहरणम्-विवादापनं तनुकरणभुवनादिकं बुद्धिमद्धे - १५ तुकं कार्यत्वादिभ्यो घटादिवदित्युक्तम्, तदपीश्वरनिराकरणप्रकरणे विशेषतो दूषितमिति पुनर्न दृप्यते ।
अथ " पूर्ववत् कारणात्कार्यानुमानम्, शेषवत् - कार्यात्कारणानुमानम्, सामान्यतो दृष्टम् अकार्यकारणाद कार्यकारणानुमानम् सामान्यतोऽविनाभावमात्रात्" [ न्यायभा०, वार्त्ति ० १ ११५ ] इति २० व्याख्यायते; तदप्यविनाभावनियमनिश्चायकप्रमाणाभावादेवायुक्तं परेपम् । स्याद्वादिनां तु तद्युक्तं तत्सङ्गावात् इत्याचार्यः स्वयमेव कार्यकारणेत्यादिना हेतुप्रपञ्चे प्रपञ्चचिष्यति ।
१ कारणात् । २ व्यापकेन । धूमाभावः पावकाभावे सत्यसति च भवति धूमाभावस्य व्यापकत्वेन तदतन्निष्ठत्वात् । ४ देशे । ५ स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवदित्यादौ । ६ केवलान्वयिकेवलव्यतिरेकिलक्षणपक्षद्वयनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । ७ पूर्वं कारणं तल्लिङ्गमस्यानुमानस्यास्तीति पूर्ववत् । कारणलिङ्गजनितमनुमानमित्यर्थः। ८ असौ पुमान् रूपादिशानवान् चक्षुरादिमत्त्वान्नद्वदित्युदाहरणम् । शेषवदिति शेषः कार्यं तल्लिङ्गमस्यानुमानस्यास्तीति शेषवत् । कार्यलिङ्गजनितमनुमानमित्यर्थः । सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादित्युदाहरणम् । ९ दृष्टान्ते । १० कार्य यो हेतुर्न भवति कारणं वा यो हेतुर्न भवति तस्माद्धेतोः कार्य यन्न भवति साध्यं कारणं वा यन्न भवति साध्यं तस्यानुमानम् । मातुलिङ्गं रूपवद्रसवत्त्वात्सम्प्रतिपन्न मातुलिङ्गवदित्युदाहरणम् । ११ सूत्रम् । १२ व्याख्यानम् । १३ ऊह । १४ जटाधराणाम् । १५ अनुमानत्रितयम् ।
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३६८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० यदपि-पूर्ववत्पूर्व लिङ्गलिङ्गिलम्वन्धस्य केचिनिश्चयादन्यत्र प्रवर्त्तमानमनुमानम् । शेषवत्परिशेषानुमानम्, प्रसक्तप्रतिषेत्र परिशिष्टस्य प्रतिपत्तेः । सामान्यतो दृष्टं विशिष्टव्यक्तौ सम्वन्धा
ग्रहणात्सामांन्येन दृष्टम् , यथा गतिमानादित्यो देशादेशान्तर५प्राप्तेर्देवदत्तवदिति । तदप्येतेन प्रत्याख्यातम्, उक्तंप्रकाराणां प्रमाणतः प्रसिद्धाविनाभावानां प्रतिपादयिष्यमाणहेतुप्रपञ्चत्वेन स्याद्वादिनामेव सम्भवात् । . न चायं भेदो घटते । सर्व हि लिङ्गं पूर्ववदेव, परिशेषानुमान
स्थापि पूर्ववत्त्वप्रसिद्धः प्रसक्तप्रतिषेधस्य परिशिष्टप्रतिपत्त्यविना१० भूतस्य पूर्व क्वचिनिश्चितस्य विवादाध्यासितपरिशिष्टप्रतिपत्तौ
सोधनस्य प्रयोगात् । सामान्यतो दृष्टस्याऽपि पूर्ववत्त्वप्रतीते; क्वचिद्देशान्तरप्राप्तेर्गतिमत्त्वाविनाभाविन्या एव देवदत्तादौ प्रतिपत्तेः, अन्यथा तेदनुमानाप्रवृत्तेः। परिशेषानुमानमेव वा सर्वम्;
पूर्ववतोपि धूमात्पावकानुमानस्य प्रसक्ताऽपावकप्रतिषेधात्प्रवृ. १५त्तिघटनात्, तदप्रसक्तौ विवादानुपपत्तेरनुमानवैययं स्यात् ।
सामान्यतो दृष्टस्यापि देशान्तरप्राप्तेरादित्यगत्यनुमानस्य तदगतिमत्त्वस्य प्रसक्तस्य प्रतिषेधादेवोपपत्तेः । संकलं सामान्यतो दृष्टमेव वा; सर्वत्र सामान्येनैव लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धस्य प्रतिपत्तेः, विशेषतस्तत्सम्बन्धस्य प्रतिपत्तुमशक्तेः । ततोनुमानं तत्प्रभेदं २० चेच्छताऽविनाभाव एवैकं हेतोः प्रधानं लक्षणं प्रतिपत्तव्यम् ।
ननु चास्तु प्रधानं लक्षणमविनाभावो हेतोः । तत्स्वरूपं तु निरूप्यतामप्रसिद्धस्वरूपस्य लक्षणत्वायोगादित्याशङ्ख्य सहक्रमेत्यादिना तत्स्वरूपं निरूपयति
१ लिङ्गलिङ्गिसम्वन्धः पूर्व निश्चीयमानत्वात् पूर्वः सोस्यानुमानस्यास्तीति पूर्ववत् । अग्निमान्पर्वतो धूमवत्त्वान्महानसवदित्युदाहरणम् । २ महानसे । ३ पर्वते । ४ शेषः परिशिष्यमाणोर्थः सोस्यास्तीति शेषवत् । अत्रोदाहरणं शब्दः क्वचिदाश्रितो गुणत्वाद्रूपवदिति । ५ उद्धरितार्थस्याकाशादेः। ६ अनुमानम् । ७ साध्यसाधनं नास्तीति चेत् । ८ हेतूनाम् । ९ देवदत्ते गतिमत्त्वदेशाद्देशान्तरप्राप्त्योः साध्यसाधनयोधर्मयोः सामान्येन प्रतिपत्तिः। १० पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टलक्षणानाम् । ११ ऊहलक्षणात् । १२ क्वचिदनाश्रितत्वस्य । १३ घटस्य । १४ क्वचिदाश्रितत्वस्य । १५ आकाशस्य । १६ कचिदाश्रितत्वस्य । १७ रूपादो। १८ शब्दे क्वचिदाश्रितत्वस्य । १९ गुणवत्त्वस्य । २० देशाद्देशान्तरप्राप्तेर्गतिमत्त्वाविनाभाविन्या देवदत्ते प्रतिपत्तिर्नास्तीति चेत् । २१ आदित्यगतिमत्त्वस्य । २२ पूर्ववच्छेषवदित्यनुमानद्वयम् । २३ अनुमाने। २४ योगेन भवता ।
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सू० ३।१६-२१] अविनाभावादीनां लक्षणानि
३६९
सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः॥ १६ ॥ सहभावनियमः क्रमभारनियमश्चाविनाभावः प्रतिपत्तव्यः। कयोः पुनः सहभावः कयोश्च क्रमभावो यन्नियमोऽविनाभायः स्थादित्याहसहचारिणोः व्याप्यव्यापकयोश्च सहभावः ॥१७॥ पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रममावः ॥१८॥
सहचारिणो रूपरसादिलक्षणयोप्प्यव्यापकयोश्च शिंशपरत्ववृक्षत्वादिखभावयोः सहभावः प्रतिपत्तव्यः। पूर्वोत्तरचारिणोः कृतिकाशकटोदयादिस्वरूपयोः कार्यकारणयोश्चाग्निधूमादिखरूपयोः क्रमभाव इति । कुतोसौ ग्रोक्तप्रकारोऽविनाभावो निर्णीयते इत्याह
तत्तिन्निर्णयः॥ १९ ॥ न पुनः प्रत्यक्षादेरित्युक्तं तर्कमानाण्यप्रसाधनप्रस्तावे। ननु साधनात्लाध्यविज्ञानमनुमानसिन्युक्तम् । तत्र किं साध्य मित्याह
इष्टमवाधितमसिद्धं साध्यम् ॥ २०॥ संशयादिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थखरूपं सिद्धमुच्यते, तद्विपरीतमसिद्धम् । तच्चसन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा
स्यादित्यसिद्धपदम् ॥ २१ ॥ किमयं स्थाणुः पुरुषो वेति चलितप्रतिपत्तिविषयभूतो ह्यर्थः सन्दिग्धोभिधीयते । शुक्तिकाशकले रजताध्यवसायलक्षणविपर्यासगोचरस्तु विपर्यस्तः। गृहीतोऽगृहीतोपि वार्थो यथावद्निश्चितखरूपोऽव्युत्पन्नः । तथाभूतस्यैवार्थस्य साधने साधनसामर्थ्यात्, न पुनस्तद्विपरीतस्य तत्र तद्वैफल्यात् । २५ इष्टाऽवाधितविशेषणद्वयस्यानिष्टेत्यादिनी फलं दर्शयति
१ ताद्विः (षष्ठीद्विवचनमित्यर्थः ) । ययोः । २ तस्य अविनाभावस्य । ३ साध्यत्वेनाभिप्रेतम् । ४ अर्थानाम् । ५ पूर्वम् । ६ सिद्धौ । ७ सूत्रेण ।
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३७०
प्रमेयकमलमार्कण्डे [३. परोक्षपरि० अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं माभूदितीष्टावाधितवचनम् ॥ २२ ॥ अनिष्टं हि सर्वथा नित्यत्वं शब्दे जैनस्य । अश्रावणवंत प्रत्यक्षवाधितम् । आदिशब्देनानुमानादिवाधितपक्षपरिग्रहः। ५ तत्रानुमानवाधितः यथा-नित्यः शेब्द इति । आगमवाधितः यथा-प्रेत्याऽसुखप्रदो धर्म इति । स्ववचनवाधितः यथा-माता मे बन्ध्येति । लोकवाधितः यथा-शुचि नरशिरःकपाल मिति । तयोरनिष्टाध्यक्षादिवाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टावाधितवचनम्। १० ननु यथा शब्दे कथञ्चिदनित्यत्वं जैनस्येष्टं तथा सर्वथाऽनि. त्यत्वमाकाशगुणत्वं चान्यस्येति तदपि साध्यमनुषज्यते । न च वादिनो यदिष्टं तदेव साध्यमित्यभिधातव्यम् । सामान्याभिधायित्वेनेष्टस्यान्यत्रींप्यविशेषात् । इत्याशङ्कापनोदार्थमाह
न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः॥ २३ ॥ १५ विशेषणम् । न हि सर्व सर्वापेक्षया विशेषणं प्रतिनियतत्वाद्विशेषणविशेष्यभावस्य । तंत्रासिद्धमिति साध्यविशेषणं प्रतिवाद्यपेक्षया न पुनर्वाद्यपेक्षया, तस्यार्थखरूपप्रतिपादकत्वात् । न चाविज्ञातार्थस्वरूपः प्रतिपादको नामातिप्रसङ्गात् । प्रतिवादिनस्तु प्रतिपाद्यत्वात्तस्य चाविज्ञातार्थखरूपत्वाविरोधात् तदपेक्षयैवेदं २० विशेषणम् । इष्टमिति तु साध्यविशेषणं वाद्यपेक्षया, वादिनो हि
यदिष्टं तदेव साध्यं न सर्वस्य । तदिष्टमप्यध्यक्षाद्यबाधितं साध्य भवतीति प्रतिपत्तव्यं तत्रैव साधनसामर्थ्यात् । तदेव समर्थयमानः प्रत्यायनाय हीत्याद्याह
प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव ॥ २४ ॥ २५ इच्छया खलु विषयीकृतमिष्टमुच्यते । वाभिप्रेतार्थप्रतिपादनाय चेच्छा वक्तुरेव ।
तस्य चोक्तप्रकारस्य साध्यस्य हेतोयातिप्रयोगकालापेक्षया साध्यमित्यादिना भेदं दर्शयति
१ शब्दः अश्रावण इत्युक्ते । २ प्रत्यभिशायमानत्वादिति हेतुः । ३ कृतकत्वादिति हेतुना बाध्यः पक्षोऽत्र। ४ पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् । ५ पुरुषसंयोगेपि अगत्वात प्रसिद्धवन्ध्यावत् । ६ प्राण्यङ्गत्वाच्छमशुक्तिवत् । ७ साध्ययोः। ८ वैशेषिकस्य । ९ जैनस्य । १० प्रतिवादिन्यपि । ११ इष्टाऽसिद्धयोर्मध्ये। १२ सम्बन्धिनः।
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M
सू० ३।२५-२९] धर्मिस्वरूपविचारः
३७२ साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥ २५ !! क्वचिद्व्याप्तिकाले साध्यं धर्मो नित्यत्वादिस्तेनैव हेतोप्तिसम्भवात् । प्रयोगकाले तु तेन साध्यधर्मण विशिष्टो धर्मी साध्यमभिधीयते, प्रतिनियतसाध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुनिष्टत्वात् साध्यव्यपदेशाविरोधः ! अस्यैव पर्यायमाह
पक्ष इति यावत् ॥ २६ ॥ ननु च कथं धर्मी पक्षो धर्मधर्मिसमुदायस्य तत्वात् : तन्न; साध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुमिष्टस्य पैक्षाभिधाने दोपाभावात् । स च पक्षत्वेनाभिप्रेतः
प्रसिद्धो धर्मी ॥ २७॥ तत्प्रसिद्धिश्च क्वचिद्धिकल्पतः कचित्प्रत्यक्षादितः क्वचिचोभयत इति प्रदर्शनार्थम्-'प्रलक्षतिद्धत्यैव धर्मित्वन्' इत्येकान्तानिराकरणार्थ च विकल्पलिद्ध इत्याद्याहविकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये ॥ २८॥ अस्ति सर्वज्ञः नास्ति खरविषाणमिति ॥ २९ ॥ विकल्पेन सिद्ध तल्लिन्धमिदि सत्तेतरे साध्ये हेतुसामर्थ्यतः। यथा अस्ति लर्वज्ञः सुनिश्चितासम्भवद्वाधकप्रमाणत्वात्, नास्ति खरविषाणं तद्विपर्ययादिति । न खलु सर्वशखरविषाणयोः सद-२० सत्तायां साध्यायां विकल्पादन्यतः सिद्धिरस्ति; तत्रेन्द्रियव्यापाराभावात्।
ननु चेन्द्रियप्रतिपन्न एवार्थे मनोविकल्पस्य प्रवृत्तिप्रतीतेः कथं तत्रेन्द्रियव्यापाराभावे विकल्पस्यापि प्रवृत्तिः, इत्यप्यपेशलम्; धर्माधर्मादौ तत्प्रवृत्त्यभावानुषङ्गात् । आगमसामर्थ्यप्रभवत्वेना-२५ स्यात्र प्रवृत्तौ प्रकृतेप्यतस्तत्प्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् ।
१ शब्दस्य । २ इति । ३ पक्ष इति । ४ अनुमाने । ५ निश्चितसंवादः संवादः ( अनिश्चितसंवादासंवादः) शब्दप्रत्ययो विकल्पस्तेन। ६ असता। ७ इन्द्रियव्यापाराभावात् । ८ शम्दगम्यत्वाविशेषात् ।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
[ ३. परोक्षपरि०
प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥ ३० ॥ अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा ३१
३७२
प्रमाणं प्रत्यक्षादिकम् उभयं प्रमाणविकल्पौ, ताभ्यां सिद्धे पुनर्धर्मिणि साध्यधर्मेण विशिष्टता साध्या । यथाग्निमानयं देशः, ५. परिणामी शब्द इति । देशो हि धर्मित्वेनोपात्तोऽध्यक्षप्रमाणत एव प्रसिद्धः, शब्दस्तूभीभ्याम् । न खलु देशकालान्तरिते ध्वनौ प्रत्यक्षं प्रवर्त्तते, श्रूयमाणमात्र एवास्य प्रवृत्तिप्रतीतेः । विकल्पस्य त्वऽनियतविषयतया तत्र प्रवृत्तिरविरुद्धैव ।
२०
ननु चैवं देशस्याप्यग्निमत्त्वे साध्ये कथं प्रत्यक्षसिद्धता ? तत्र १० हि दृश्यमानभागस्याग्निमत्त्वसाधने प्रत्यक्षवाधनं साधनवैफल्यं वाँ, तत्र साध्योपलब्धेः । अदृश्यमानभागस्य तु तत्साधने कुतस्तत्प्रत्यक्षतेति ? तदप्यसमीचीनम्; अवयविद्रव्यापेक्षया पर्वतादेः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रसिद्धताभिधानात् । अतिसूक्ष्मेक्षकापर्यालोचने न किञ्चित्प्रत्यक्षं स्यात्, वहिरन्तर्वाऽस्मदादिप्रत्यक्षस्या१५ शेषविशेषतोऽर्थ साक्षात्करणेऽसमर्थत्वात्, योगिप्रत्यक्षस्यैव तत्र सामर्थ्यात् ।
3
ननु प्रयोगकालवद्व्याप्तिकालेपि तद्विशिष्टस्य धर्मिण एव साध्यव्यपदेशः कुतो न स्यादित्याशङ्कयाह
व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥ ३२ ॥
न पुनस्तद्वान् ।
अन्यथा तदुघटनात् ॥ ३३ ॥
अनेन हेतोरन्वयासिद्धेः । न खलु यत्र यत्र कृतकत्वादिकं प्रतीयते तत्र तत्रानित्यत्वादिविशिष्टशब्दाद्यन्वयोस्ति ।
'ननु प्रसिद्ध धर्मीत्यादि पक्षलक्षणप्रणयनमयुक्तम्; अस्ति सर्वज्ञ २५ इत्याद्यनुमानप्रयोगे पक्षप्रयोगस्यैवासम्भवात् अर्थादापन्नत्वात्तस्य । अर्थादापन्नस्याप्यभिधाने पुनरुक्तत्वप्रसङ्गः- “अर्थादापन्नस्य स्वशब्देनाभिधानं पुनरुक्तम्" [ न्यायसू० ५/२/१५ ] इत्यभिधानात् । तत्प्रयोगेपि च हेत्वादिवचनमन्तरेण साध्याप्रसिद्धे
१ प्रसिद्ध: । २ शब्दस्य केवलप्रत्यक्षतः सिद्ध्यभावप्रकारेण । ३ स्यात् । ४ नावयव ( प्रदेश ) द्रव्यापेक्षया । ५ असर्वज्ञप्रत्यक्ष | ६ विचार । ७ साध्यधर्म । ८ बौद्धः । ९ अर्थादापन्नस्य ।
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सू० ३१३०-३६] प्रतिज्ञाप्रयोगसमर्थनम् स्तद्वचनादेव च तत्प्रसिद्धर्व्यर्थः पक्षप्रयोगः' इत्याशङ्ख्य साध्यधर्माधारेत्यादिना प्रतिविधत्तेसाध्यधर्माधारसन्देहायनोदाय गम्यमानस्यापि
पक्षस्य वचनम् ॥ ३४॥ साध्यधमाऽस्तित्वादिः, नख्याधार आश्रयः यत्राला साध्यधर्मो ५ वर्तते, तत्र सन्देहः-किमसौ साध्यधोऽस्तित्वादिः सर्व वर्तते सुखादी वेति, तस्यापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ।
साध्यर्मिणि साधनधर्माववोधनाय
पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥ ३५॥ तस्याऽवचनं साध्यसिद्धिप्रतिवन्धकत्वात् , प्रयोजनाभावाद्वा?:० तत्र प्रथमपक्षोऽयुक्तः; वादिना साध्याविनाभावनियमकलक्षणेन हेतुना स्वपक्षसिद्धौ साधयितुं प्रस्तुतायां प्रतिज्ञाप्रयोगस्य तत्प्रतिवन्धकत्वाभावात् ततः प्रतिपक्षासिद्धेः । द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः, तत्प्रयोगे प्रतिपाद्यप्रतिपत्तिविशेषस्य प्रयोजनस्य सद्भावात्, पक्षाऽप्रयोगे तु केपाञ्चिन्मन्दमतीनां प्रकृतार्थाप्रतिपत्तेः ११५ ये तु तत्प्रयोगमन्तरेणापि प्रकृतार्थ प्रतिपद्यन्ते तान्प्रति तदप्रयोगोऽभीष्ट एव । “प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः”[ ] इत्यभिधानात् । ततो युक्तो गम्यमानस्याप्यस्य प्रयोगः, कथमन्यथा शास्त्रादावपि प्रतिज्ञाप्रयोगः स्यात् ? न हि शास्त्रे नियतकथायां प्रतिज्ञा नाभिधीयते-'अग्निरत्र धूमात् , वृक्षोयं शिंशपा-२० न्वात्' इत्याद्यभिधानानां तत्रोपलम्भात् । परानुग्रहप्रवृत्तानां शास्त्रकाराणां प्रतिपाद्याववोधनाधीनधियां शास्त्रादौ प्रतिज्ञाप्रयोगो युक्तिमानेवोपयोगित्वात्तस्येत्यभिधाने वादेपि सोऽस्तु तत्रापि तेषां तादृशत्वात् । __ अमुमेवार्थ को वेत्यादिना परोपहसनव्याजेन समर्थयते- २५ को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न
पक्षयति ? ॥ ३६॥ को वा प्रामाणिकः कार्यखभावानुपलम्भभेदेन पक्षधर्मत्वादि
१ व्याप्तिप्रदर्शनद्वारेण । २ सुनिश्चिताऽसम्भवद्वाधकप्रमाणश्चायमिति साधनस्य पक्षधर्मत्वेन प्रदर्शनमुपसंहारस्तद्वत् । ३ अस्ति सर्वच इति । ४ गम्यमानस्य पक्षस्य प्रयोगो न स्याद्यदि । ५ सुगोष्ठ्याम् । ६ धर्मकीादीनाम् । ७ सौगतेन । ८ मिषेण।
प्र. क. मा० ३२
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३७४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० रूपत्रयभेदेन वा त्रिधा हेतुमुक्त्वाऽसिद्धत्वादिदोषपरिहारद्वारेण समर्थयमानो न पक्षयति? अपि तु पक्षं करोत्येव । न चास. मर्थितो हेतुः साध्यसिद्ध्यङ्गमतिप्रसङ्गात् । ततः पक्षप्रयोगम. निच्छता हेतुमनुक्त्वैव तत्समर्थनं कर्त्तव्यम् । हेतोरवचने कस्य ५समर्थनमिति चेत् ? पक्षस्याप्यनभिधाने व हेत्वादिः प्रवर्त्तताम? गम्यमाने प्रतिज्ञाविषये एवेति चेत्, गम्यमानस्य हेत्वादेरपि समर्थनमस्तु । गम्यमानस्यापि हेत्वादेर्मन्दमतिप्रतिपत्त्यर्थ वचने तदर्थमेव प्रतिज्ञावचनमप्यस्तु विशेषाभावात् । ततः
साध्यप्रतिपत्तिमिच्छता हेतुप्रयोगवत्पक्षप्रयोगोप्यभ्युपगन्तव्यः। १० तवयस्यैवानुमानाङ्गत्वात् , इत्याह
एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गम् , नोदाहरणम् ॥ ३७॥ ननु “पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनान्यवयवाः" [न्यायसू० श॥३२ (१)] इत्यभिधानाद् दृष्टान्तादेरप्यनुमानाङ्गत्वसम्भवादेतद्वयमेवाङ्गमित्ययुक्तमुक्तम् । प्रतिज्ञा ह्यागमः। हेतुरनुमानम् , १५प्रतिज्ञातार्थस्य तेनानुमीयमानत्वात् । उदाहरणं प्रत्यक्षम् , "वादि
प्रतिवादिनोर्यत्र वुद्धिसाम्यं तदुदाहरणम्" [ __ ] इति वचनात् । उपनय उपमानम् , दृष्टान्तधर्मिसाध्यधर्मिणोः सादृश्यात्, "प्रसिद्धसाधासाध्यसाधनमुपमानम्" [न्यायसू० ॥१६]
इत्यभिधानात् । सर्वेषामेकविषयत्वप्रदर्शनफलं निगमनमित्या२० शङ्ख्योदाहरणस्य तावत्तदङ्गत्वं निराकुर्वन्नाह-नोदाहरणम् । अनुमानाङ्गमिति सम्बन्धः।
तद्धि किं साक्षात्साध्यप्रतिपत्त्यर्थमुपादीयते, हेतोः साध्याविनाभावनिश्चयार्थ वा, व्याप्तिस्मरणार्थ वा प्रकारान्तरासम्भवात् ?
तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः२५ न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्तहेतोरेव
व्यापारात् ॥ ३८॥
१ हेत्वाभासस्यापि साध्यसिध्यङ्गताप्रसङ्गात् । २ न केवलं हेतोः। ३ साध्यं च । ४ साध्यसाधनस्यैव परिहारेण दृष्टान्तस्य समर्थनमादिशग्देन ग्राह्यम् । ५ एतत् । ६ करणे युट् । ७ महानसादि। ८ धूमवत्वेन। ९ प्रसिद्धं महानसं तेन साधर्म्य पर्वतस्य धूमवत्त्वेन । १० धूमवांश्वायम् । ११ धूमवत्त्वशब्दवाच्यत्वं पर्वतस्य साध्य तस्य साधनं ज्ञानम् । १२ प्रमाणानाम् । १३ अग्नित्व । १४ अक्रमपरम्परया साध्यप्रतिपत्तिः कथमेवंविधाद्धेतोः साध्यसिद्धिरिति ।
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सू० ३१३७-४१] उदाहरणस्य अवयत्वनिरासः ३७५
न हि तत् साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्तहेतोरेव साध्याविनाभावनियमैकलक्षणस्य व्यापारात् । द्वितीयविकल्पोप्यसम्भाव्यःतदविनाभावनिश्चयार्थ वा विपक्षे वाधकादेव
तसिद्धेः ।। ३९ ॥ न हे हेतोस्तेन साध्येनाविनामावस्य निश्चयाचे या तदुपादानं ५ युक्तम् : विपक्षे बांधकादेव तसिद्धः । न हि सपक्ष सत्वमात्राद्धेतोयाप्तिः सिध्यति, ‘स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत् इत्यत्र तदाभासेपि तत्सम्भवात् । ननु साकल्येन साध्य निवृत्ती साधन निवृत्तरत्रासम्भवात्परत्र गोरेपि तत्पुत्रे तत्पुत्रत्वस्य भावान्न व्याप्तिः; तर्हि साकल्येन साध्यनिवृत्ती साधननिवृत्तिनिश्चयरूपा-१० द्वाधकादेव व्याप्तिप्रसिद्धरलं दृष्टान्तकल्पनया। व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिः
तत्रापि तद्विप्रतिपत्तावनवस्थानं स्यात् __दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् ॥ ४० ॥ किञ्च, वादिप्रतिवादिनोर्यत्र बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तो भवति १५ प्रतिनियतव्यक्तिरूपः, यथाऽग्नौ साध्ये महानसादिः। व्यक्तिरूपं च निदर्शनं कथं तदविनाभावनिश्चयार्थं स्यात् ? प्रतिनियतव्यक्ती तनिश्चयस्य कर्तुमशक्तेः । अनियतदेशकालाकाराधारतया सामान्येन तु व्याप्तिः । कथमन्यथान्यत्र साधनं साध्यं साधयेत् ? तत्रापि दृष्टान्तेपि तस्यां व्याप्ती विप्रतिपत्तो सत्यां दृष्टान्तान्तरा-२० न्वेषणेऽनवस्थानं स्यात् । नापि व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयो
गादेव तत्स्मृतेः ॥ ४१॥ नापि व्याप्तिस्मरणार्थ दृष्टान्तोपादानं तथाविधस्य प्रतिपन्नाविनाभावस्य हेतोः प्रयोगादेव तत्स्मृतेः । एवं चाप्रयोजनं२५ तदुदाहरणम्।
१ ऊहात् । २ अविनाभावः। ३ ऊहात्। ४ पर्वते। ५ साध्यसाधनयोः । ६ प्रतिनियतव्यक्तौ तन्निश्चयस्य कर्तुमशक्तरित्येतद्भावयति । ७ सामान्येन व्याप्तिन स्यायदि। ८ दृष्टान्तादन्यत्र ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्य
साधने सन्देहयति ॥ ४२ ॥ कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ? ॥ ४३ ॥ परं केवलमभिधीयमानं साध्यसाधने साध्यधर्मिणि सन्देख५यति सन्देहवती करोति । कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ?
मा भूदृष्टान्तस्यानुमानं प्रत्यङ्गत्वमुपनय निगमनयोस्तु स्यादित्याशङ्कापनोदार्थमाह. न च ते तदङ्गे साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययो
वचनादेवाऽसंशयात् ॥ ४४॥ १० न च ते तदङ्गे साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेव हेत.
साध्यप्रतिपत्तौ संशयाभावात् । तथापि दृष्टान्तोदेरनुमानावयवत्वे हेतुरूपत्वे वा
समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो
वास्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥ ४५ ॥ १५ समर्थनमेव वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तस्यो
पयोगात् । समर्थनं हि नाम हेतोरसिद्धत्वादिदोषं निराकृत्य स्वसाध्येनाऽविनाभावसाधनम् । साध्यं प्रति हेतोर्गमकत्वे च तस्यैवोपयोगो नान्यस्येति ।
ननु व्युत्पन्नप्रज्ञानां साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवा२०संशयादर्थप्रतिपत्तेदृष्टान्तादिवचनमनर्थकमस्तु । बालानां त्वव्यु. त्पन्नप्रज्ञानां व्युत्पत्त्यर्थ तन्नानर्थकमित्याहबालव्युत्पत्त्यर्थं तत्रयोपगमे शास्त्र एवासौ
__न वादेऽनुपयोगात् ॥ ४६॥ वालव्युत्पत्त्यर्थ तन्त्रयोपगमे दृष्टान्तोपनय निगमनत्रयाभ्युप
१ यदि सन्देहवती न करोति । २ उपनयनिगमनादेश्च । ३ सपक्षे दृष्टान्ते सत्त्वमुपनयश्च हेतुस्वरूपम् । कुतः ? त्रिरूपो हेतुर्यत इति सौगतः। ४ हेतुलक्षणं कीदृशम् ? दृष्टान्तोपनयनिगमनलक्षगविरूपत्वप्रदर्शनस्वरूपम्। ५ हे तुरूपोस्तु । कथम् ? हेतोः समर्थनं हेतुरेवेत्यनेन प्रकारेण। ६ विपक्षे साकल्येन बाधकप्रमाण• प्रदर्शनं हेतुसमर्थनम् । ७ एतदेव ।
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मू० ३।४२-५१ ] दृष्टान्तादिस्वरूपनिरूपणम् ३७७ गमे, शास्त्र एवासौ तदभ्युपगमः कर्तव्यः न वादेऽनुपयोगात । न खलु वादकाले शिप्या व्युत्पाद्यन्ने व्युत्पन्नप्रज्ञानामेव वादऽधिकारात् । शास्त्रे चोदाहरणादी व्युत्पन्नप्रज्ञा वादिनो वादकाले ये प्रतिवादिनो यथा प्रतिपयले तान् तथैव प्रतिपादयितुं समर्था भवन्ति, प्रयोगपरिपाट्याः प्रति माद्यानुरोधतो जिनपतिमतानु' मारिभिरभ्युपगमान् । दे तात्पादनार्थ दृष्टान्तस्य स्वरूरं प्रकार कोषदर्शयतिदृष्टान्तो वेधाऽन्वयव्यतिरेकभेदात् ।।१७ दृष्टो हि विधिनिषेधरूपतया वादिप्रतिवादिभ्यामविप्रतिपत्त्या प्रतिपन्नोऽन्तः साध्यसाधनधर्मों यत्रासौ दृष्टान्त इति व्युत्पत्तेः १० अथ कोऽन्वयदृष्टान्तः कश्च व्यतिरेकदृष्टान्त इति चेत्साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदश्यते सोन्वय
दृष्टान्तः ॥ १८॥ यथाग्नौ साध्ये महानसादिः । साध्याभावे साधनव्यतिरेको यत्र कथ्यते स १५
व्यतिरकदृष्टान्तः ॥ ४९ ॥ यथा तस्मिन्नेव साध्ये महाहदादिः । अथ को नाम उपनयो निगमनं वा किमित्याह
हेतोरुपसंहार उपनयः ॥ ५० ॥
प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ॥ ५१॥ २० प्रतिज्ञायास्तूपसंहारो निगमनम् । उपनयो हि साध्याविनाभावित्वेन विशिष्ट साध्यधर्मिण्युपनीयते येनोपदय॑ते हेतुः सोभिधीयते । निगमनं तु प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाः साध्य. लक्षणैकार्थतया निगम्यन्ते सम्बद्ध्यन्ते येन तदिति ।
तच्चानुमानं यंवयवं त्र्यवयवं पञ्चावयवं वा द्विप्रकारं भवतीति २५ दर्शयन्
१ शास्त्रे यदुदाहरणादि तस्मिन् । २ वा। ३ एवं च सति। ४ सामान्यतः स्वरूपं दृष्टान्तेनोक्तं शेषतस्तत्स्वरूपं तु साध्यव्याप्तमित्यादिना दर्शयति । ५ बसः । ६ जैनस्य । ७ मीसांसकस्य । ८ योगस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि०
तदनुमान द्वेधा ॥ ९२ ३३ इत्याह। कुतस्तद् द्वेधेति चेत् ?
___स्वार्थपरार्थभेदात् ॥ ५३ ॥ ५ तत्र
खार्थमुक्तलक्षणम् ॥ ५४ ॥ वार्थमनुमानं साधनात्साध्यविज्ञानमित्युक्तलक्षणम् । किं पुनः परार्थानुमानमित्याह परार्थमित्यादि
परार्थं तु तदर्थपरामर्शिवचनाजातम् ॥ ५५॥ १० तस्य स्वार्थानुमानस्यार्थः साध्यसाधने तत्परामर्शिवचनाजातं यत्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् ।
ननु वचनात्मकं परार्थानुमानं प्रसिद्धम् , तच्चोक्तप्रकारं साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमिति वर्णयता कथं सगृहीतमित्याह
तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥ ५६ ॥ १५ तद्वचनमपि तदर्थपरामार्शवचनमपि तद्धेतुत्वात् ज्ञानलक्षणमुख्यानुमानहेतुत्वादुपचारेण परार्थानुमानमुच्यते । उपचारनिमित्तं चास्य प्रतिपादकप्रतिपाद्यापेक्षयानुमानकार्यकारणत्वम् । तत्प्रतिपादकज्ञानलक्षणानुमान(न)हेतुः कारणं यस्य तद्वचनस्य,
तस्य वा प्रतिपाद्यज्ञानलक्षणानुमानस्य हेतुः कारणम् , तद्भाव२० स्तद्धेतुत्वम् , तस्मादिति । मुख्यरूपतया तु ज्ञानमेव प्रमाण
परनिरपेक्षतयाऽर्थप्रकाशकत्वादिति प्राक्प्रतिपादितम् । __ यथा चानुमानं द्विप्रकारं तथा हेतुरपि द्विप्रकारो भवतीति दर्शनार्थं स हेतुइँधेत्याह
स हेतुर्द्वधा उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् इति ॥५७॥ २५ योऽविनाभावलक्षणलक्षितो हेतुः प्राक्प्रतिपादितः स द्वेधा भवति उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ।
तत्रोपलब्धिर्विधिसाधिकैवानुपलब्धिश्च प्रतिषेधसाधिकैवेत्यनयोर्विषयनियममुपलब्धिरित्यादिना विघटयति. १ अनेन प्रकारेण। २ तद्योति । ३ परार्थानुमानमुच्यते इति सम्बन्धः । ४ हेतोः। ५ अनेन प्रकारेण ।
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सू० ३५२-६० ] कारणादिहेतुसमर्थनम् ३७९ उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥ ५८ !!
अविनाभावनिमित्तो हि साध्यसाधन योर्गम्यगमकभावः। यथा चोपलब्धेर्विधौ साध्येऽबिनाभावाशनकत्वं तथा प्रतिपेधेपि । अनुपलब्धेश्च यथा प्रतिरे थे नदो गमकन्यं तथा विधावपीत्यग्रे स्वयमेवाचार्यो कश्यति ।
ला चोपलब्धिप्रिकार? भक्त्यविरुद्ध लगिद्धिोपलब्धिश्चेतिअविरुद्धोपलब्धिर्विधौ पोढा व्याप्यकार्यकारण
पूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥ ५९॥ तत्र साध्येनाविरुद्धस्य व्यायादेरुपलब्धिर्विधौ साध्ये पोढा, भवति व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ।
नेनु कार्यकारणभावस्य कुतश्चित्प्रमाणादप्रसिद्धः कथं कार्य कारणस्य तद्वा कार्यस्य गमकं स्यादित्यप्यास्तां तावद्विपयपरिच्छेदे सम्बन्धपरीक्षायां कार्यकारणतादिसम्बन्धम्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात् ।
ननु प्रसिद्धपि कार्यकारणभावे कार्यमेव कारणस्य गमकं तस्यैव तेनाविनाभावात्, न पुनः कारणं कार्यस्य तदभावात् ; इत्यसङ्गतम् ; कार्याविनाभावितयाऽवधारितस्यानुमानकालप्राप्तस्य छत्रादेविशिष्टकारणस्य छायाँदिकार्यानुमापकत्वेन सुप्रसिद्धत्वात् । न हनुकूलमात्रमन्त्यक्षणप्राप्तं वा कारणं लिङ्गमुच्यते, येन प्रतिवन्ध-२० वैकल्यैसम्भवाद्व्यभिचारि स्यात् , द्वितीयक्षणे कार्यस्य प्रत्यक्षीकरणादनुमानानर्थक्यं वा । तदेव समर्थयमानो रसादेकसामयनुमानेनेत्याद्याहरसादेकसामय्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरि
ष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्या- २५ प्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ॥ ६०॥
१ साध्ये । अविनाभावाद्गमकत्वमुपलन्धेः। २ साध्ये। ३ साध्ये । ततो गमकत्वमनुपलब्धेः। ४ स्वभावहेतुग्यम् । ५ शानाद्वैतवादी शून्यवादी वा बौद्धविशेषः प्राह । ६ न केवलमये प्राक्तनं वक्ष्यतीत्यपि । ७ आदिना संयोगादिग्रहणम् । ८ चन्द्रवृद्धेर्वा । ९ आदिना समुद्रवृद्धिः। १० तन्तुसंयोगरूप। ११ मत्रौषधादिना प्रतिबन्धः। १२ द्वन्द्वः । १३ सहकारिणां क्षित्यादीनां वैकल्यम् ।
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३८०
प्रमेयकालमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० आस्वाद्यमानाधिरलातजानिका सामन्यनुमीयते ! पश्चात्तदनुमादेन रूपानुमानाम् । सजातीयं हि रूपक्षणान्तरं जनयन्नेय प्राक्तनो सपक्षणो विजातीयरसादिक्षणान्तरोत्पत्तौ प्रभुर्भवेन्नान्यथा तथा चैकसामय्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव ५ किश्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिवन्धकारणान्तरावैकल्ये
अथ पूर्वोत्तरचारिणोः प्रतिपादितहेतुभ्योर्थान्तरत्वसमर्थनार्थमाह
न च पूर्वोत्तरकालँवर्तिनोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा १० कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥ ६१ ॥
प्रयोगः-यद्यत्काले अनन्तरं वा नास्ति न तस्य तेन तादात्म्य तदुत्पत्तिर्वा यथा भविष्यच्छवचक्रवर्तिकाले असतो रावणादेः, नास्ति च शकटोदयादिकाले अनन्तरं वा कृत्तिकोदयादिकमिति ।
तादात्म्यं हि समसमयस्यैव कृतकत्वानित्यत्वादेः प्रतिपन्नम् । १५ अग्निधूमादेश्चान्योन्यमव्यवहितस्यैव तदुत्पत्तिः, न पुनव्यवहितकालस्य अतिप्रसङ्गात् ।
ननु प्रैज्ञाकराभिप्रायेण भाविरोहिण्युदयकार्यतया कृत्तिकोदयस्य गमकत्वात्कथं कार्यहेतौ नास्यान्तर्भाव इति चेत् ? कथमेवमभूद्धरण्युदयः कृत्तिकोदयादित्यनुमानम् ? अथ भरण्यु२० दयोपि कृत्तिकोदयस्य कारणं तेनायमदोषः, ननु येन स्वभावेन भरण्युदयात्कृत्तिकोयस्तेनैव यदि शकटोदयात्। तदा भरण्यु. दयादिवाऽतोपि पश्चादसौ स्यात् । यथा च शर्केटोद्यात्प्रोक्तथैव भरण्युदयादपि । यदि चातीतानागतयोरेकत्र कार्ये व्यापारः; तास्वाधमानरसस्यातीतो रसो भावि च रूपं हेतुः स्यात् । ततो
१ तस्य सहकारि कारणस्य । २ समर्थः। ३ विशिष्टं नानुकूलादिरूपं कारणम् । ४ मणिमत्रादिना। ५ क्षित्युदका दिकस्य । ६ हेत्वोः। ७ साध्यसाधनयोः । ८ तादात्म्यतदुत्पत्ती धर्मिणौ कृत्तिकोदयशकटोदययोर्न भवतः शकटोदयकालेऽनन्तरं वा कृत्तिकोदयस्यानुपलब्धेः। ९ तादात्म्यं तदुत्पत्ति । १० सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सतीदं वाक्यम् । ११ रावणशङ्खचक्रवर्तिनोरती तानागतयोस्तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रसङ्गात् । १२ बौद्धानां मध्ये प्रशाकरबौद्धो नाम भाविकारणवादी कश्चिद्वन्थकारः। १३ पूर्वचरस्य । १४ पूर्वचरस्य कार्यहेतावन्तर्भावप्रकारेण। १५ भूतकारणवादिमतमाश्रित्योच्यते । १६ अनुमानामावलक्षणः । १७ कृत्तिकोदयः। १८ रोहिणी । १९ कृत्तिकोदयः। २० प्राक् कृत्तिकोदयः स्यात् ।
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सू० ३१६१-६३ ] भाव्यतीतयोः कारणत्वनिरासः ३८१ न वर्तमानस्य रूपस्य वातीतस्य वा प्रतीतिः। इत्ययुक्तमुक्तम्-"अ. तीतैककालौनां गतिर्नाऽनागतानाम्" [प्रमाणवा० खवृ० १११३] इति । अथान्यतरकार्यमला; ताऽन्यतरस्सवातः प्रतीतिर्भवेत् !
ननु स्वसत्तासमवायात्पूर्वमसन्तोदि मरणादयोऽरिष्टादिकार्यकारिणो दृष्टास्ततोऽनकान्तो हेतोरित्याशय भाव्यतीतयोरित्या-५ दिना प्रतिविधत्ते
भाव्यतीतयोमरणजाप्रदोषयोरशि
नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् ॥ ६२ ३३ तंद्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ॥ ६३॥ न च पूर्वमेवोत्पन्नमरिष्टं करतलरेखादिकं वा भाबिनो मरणस्य १० राज्यादेापारमपेक्षते, स्वयमुत्पन्नस्यापरापेक्षायोगात् । अथास्योत्पत्तिमरणादिनैव क्रियते; न; असंतः खरविषाणवत्कर्तृत्वायोगात् । कार्यकालेऽसत्त्वेपि स्वकाले सत्त्वाददोषश्चेत्: ननु किं भाविनो मरणादेः खकाले पूर्व सत्त्वम् , अरिष्टादेर्वा ! भाविनः पूर्व सत्त्वे ततः पश्चादरिष्टादिकमुपजायमानं पाश्चात्यं न पूर्वन् । १५ इत्ययुक्तमुक्तम्-'पूर्वमसन्तोपि मरणादयोऽरिष्टादिकार्यकारिणः इति । अथान्यभाविमरणाद्यपेक्षयारिष्टादिकं पूर्वमुच्यते; ननु तदपि सत् स्वकाले यदि ततः प्रागेव स्यात् । तर्हि पाश्चात्यमरिष्यादिकं कथं ततः पूर्वमुच्यते ? अन्यभाविमरणाद्यपेक्षया चेदनवस्था । __ अथ पूर्वमरिष्टादिकं स्वकाले पश्चाद्भाविमरणादिकं स्वकाल-२० नियतं भवेत्। तर्हि निष्पन्नस्य निराकाङ्क्षस्यास्य पश्चादुपजायमानेन मरणादिना कथं करणं कृतस्य करणायोगात् ? अन्यथा न क्वचित्कार्ये कस्यचित्कारणस्य कदाचिदुपरमः स्यात् , पुनःपुनस्तस्यैव करणात् । अथ निष्पन्नस्याप्यनिष्पन्नं किश्चिद्रूपमस्ति तत्करणात्तत्तत्कारणं कल्प्यते, तत्ततो यद्यभिन्नम्। तदेव तत्तस्य च २५ न करणमित्युक्तम् । भिन्नं चेत् । तदेव तेन क्रियते नारिष्टादिकमित्यायातम् । तत्सम्बन्धिनस्तस्य करणात्तदपि कृतमिति चेत्:
. १ अतीतश्चैकश्च अतीतैको कालौ येषां रूपादीनाम् । २ साध्यार्थानाम् । ३ शकटोदयभरण्युदययोर्मध्ये। ४ कारणस्य । ५ आदिना राज्यादयश्च । ६ उत्पातहस्तरेखादि । ७ अरिष्टादिना। ८ कारणस्य । ९ कारणस्य। १० इति चेत् । ११ अरिष्टादिकाले । १२ मरणादेः सकाशात्पूर्व सत्वम् । १३ सकाशात् । १४ द्वितीयविकल्पोयम् । १५ अरिष्टादेः । १६ परेण ।
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. .
३८२
प्रमेशकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० भिन्नयोः कार्यकारणभावामान्यः सम्बन्धः, स्वयं लौगतैस्तथीऽभ्युपर माम् । तत्र चारिष्टादिना तकियेता, तेन वारिष्टादिकम् ? प्रथमपक्षेऽरिष्टादेरेव तन्निप्पत्तेमरणादिकमकिञ्चित्करमेव कचिदप्यनुपयोगात् । तेनारिष्टादिकरणे पूर्व निष्पन्नस्य पश्चादुपजाय५मानेन तेन किं क्रियत इत्युक्तम् । अथाऽनिष्पन्न किञ्चिदस्ति; तत्रापि पूर्ववचर्चानवस्था च ।
ननु यद्यत्र कार्यकारणभावो न स्यात्कथं तर्हि एकदर्शनादन्या. नुमानमिति चेत् ; 'अविनाभावात्' इति ब्रूमः । तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिवन्धेप्याविनामावादेव गमकत्वम् । तदभावे १० वक्तृत्वतत्पुत्रत्वादेस्तादात्म्यत दुत्पत्तिप्रतिबन्धे सत्यपि असर्वज्ञत्वे
श्यामत्वे च साध्ये गमकत्वाप्रतीतेः । तदभावेपि चाविनाभावप्रसादात् कृत्तिकोदय चन्द्रोदय-उद्गृहीताण्डकपिपीलिकोत्सर्पणएकाम्रफलोपलभ्यमानमधुररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रमं शक
टोदय-समानसमयसमुद्रवृद्धि-भाविवृष्टि-समसमयासिन्दूरारुणं१५ रूपखभावेषु साध्येषु गमकत्वप्रतीतेश्च । तदुक्तम्
"कार्यकारणभावादिसम्बन्धानां द्वयी गतिः। नियमानियमाभ्यां स्यादनियमादनङ्गता ॥१॥ सर्वेप्यनियमा ह्येते नानुमोत्पत्तिकारणम् ।
नियत्केिवलादेव न किञ्चिन्नानुमीयते ॥ २॥"[ ] २० ततः शरीरनिर्वतकाऽदृष्टादिकारणकलापादरिष्टकरतलरेखादयो निष्पन्नाः भाविनो मरणराज्यादेरनुमापका इति प्रति. पत्तव्यम्।
जाग्रद्वोधस्तु प्रबोधबोधस्य हेतुरित्येतत्प्रांगेव प्रतिविहितम् , स्वापाद्यवस्थायामपि ज्ञानस्य प्रसाधितत्वात् । ततो भाव्यतीत
--- --- .... . . . ----------------------------------- . १ निष्पन्नानिष्पन्नयोः । २ संयोगादिः । ३ अन्यसम्बन्धाभावप्रकारेण । ४ अनिपन्नम् । ५ अनिष्पन्नरूपेण । ६ कायें। ७ अरिष्टादि । ८ चटन। ९ अन्धकारावस्थायामास्वाद्यमानमाम्रफलं सिन्दूरारुणरूपयुक्तं भवति मधुररसोपेतत्वादुपभुक्ताभ्रफलवत् । १० आदिना तादात्म्यसंयोगादि । ११ प्रकारः। १२ अविनाभावाभावात् । १३ अनुमानं प्रति । १४ अनियमाद नगतेत्येतदेवाचष्टे सर्वे इत्यादिना। १५ कार्यकारणतादात्म्यादयः। १६ वक्तृत्वनत्पुत्रत्वादीनां हेत्वाभासानां येऽविनाभावरहिताः कार्यकारणादिसम्बन्धास्ते सर्वे अनुमानोत्पत्तिकारणं न भवन्ति । १७ तहनुमानोत्पत्तिं प्रति किं कारणमित्युक्ते सत्याह । १८ अविनाभावात् । १९ साध्यम् । २० आदिनात्मादि । २१ योगेन । २२ मोक्षविचारावसरे ।
"कायकारण
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सू० ३१६४-६५] सहचरहेतुसमर्थनम् योमरणजाग्रबोधयोरपि नारिष्टोद्वोधौ प्रति हेतुत्वम् , येनाभ्यामनैकान्तिको हेतुः स्यादिति स्थितम् । यथा च पूर्वोत्तरचारिणोन तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा तथासहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानालहोत्पादोच ।। ६४
५ ययोः परस्परपरिहारेणावस्थानं न तयोस्तादात्म्यम् स्था घटपटयोः, परस्परपरिहारेणावस्थानं च सहचारिणोरिति ! एककालत्वाच्चानयोन तदुत्पत्तिः। ययोरेककालत्वं न तयोस्तदुत्पत्तिः यथा सव्येतरगोविषाणयोः, एककालत्वं च सहचारिणोरिति ।
न चाखाद्यमानाद्रसात्सामन्यनुमानं ततो रूपानुमानेमनुमिता-१० नुमानादित्यभिधातव्यम् । तथा व्यवहाराभावात् । न हि आस्वाद्यमानाद्रसाद् व्यवहारी सामग्रीमनुमिनोति, रससमसमयस्य रूपस्थानेनानुमानात् । व्यवहारेण च प्रमाणचिन्ता भवता प्रतन्यते । "प्रामाण्यं व्यवहारेण" [प्रमाणवा० २२५] इत्यभिधानात् । सामग्रीतो रूपानुमाने च कारणात्कार्यानुमानप्रसङ्गाल्लिङ्गसंख्या १५ व्याघातः स्यात् ।
तोनेव व्याप्यादिहेतून वालव्युत्पत्त्यर्थमुदाहरणद्वारेण स्फुटयति । तत्र व्याप्यो हेतुर्यथापरिणामी शब्दः, कृतकत्वात्, य एवं स एवं दृष्टः यथा घटः, कृतकश्वायम् , तस्मापरिणामीति । २० यस्तु न परिणामी स न कृतकः यथा बन्ध्यास्तनन्धयः, कृतकश्चायम् , तस्मात् परिणामीति॥६५॥
'दृष्टान्तो द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात्' इत्युक्तम् । तत्रान्वयदृष्टान्तं प्रतिपाद्य व्यतिरेकदृष्टान्तं प्रतिपाद्यन्नाह-यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टः यथा वन्ध्यास्तनन्धयः, कृतकश्चा-२५ यम्, तस्मात्परिणामीति । कृतकत्वं हि परिणामित्वेन व्याप्तम् ।
१ साध्यसाधनयोः। २ तादात्म्यतदुत्पत्त्योरभावः। ३ तादात्म्यं सहचारिणोनास्ति परस्परपरिहारेणावस्थानात् । ४ कृनम् । ५ अनुमितायाः सामग्याः सकाशादनुमानं रूपस्य । ६ परेण भवता । ७ सौगतेन। ८ त्रि। ९ उद्दिष्टानेव । १० अपेक्षितपरव्यापारः कृतक उच्यते ।
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३८४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० पूर्वोत्तराकारपरिहारवातिस्थितिलक्षणपरिणामशून्यस्य सर्वथा नित्यत्वे क्षणिकरो या शब्दस्य कृतकत्वाउपपत्तेर्वक्ष्यमाणत्वाद। किं दुनः कार्यलिङ्गस्योदाहरणमित्याह
अस्त्यत्र शरीरे बुद्धिाहारादेः ॥ ६६ ॥ ३ व्याहारो वचनम् । आदिशब्दाद्व्यापाराकारविशेषपरिग्रहः। लनु ताल्वाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायितया शब्दस्योपलम्भात्कथमात्मकार्यत्वं येनातस्तदस्तित्वसिद्धिः स्यात् ? न खल्वात्मनि विद्यमानेपि विवक्षाबंद्धपरिकरे कफादिदोषकण्ठादिव्यापाराभावे
वचनं प्रवर्तते; तदप्यसारम् ; शब्दोत्पत्तौ ताल्वादिसहायस्यै१० वात्मनो व्यापाराभ्युपगमात् । घटाद्युत्पत्तौ चक्रादिसहायस्य कुम्भकारादेापारवत्, कथमन्यथा घटादेरप्यात्मकार्यता? कार्यकार्यादेश्च कार्यहेतावेवान्तर्भावः। कारणलिङ्गं यथा
अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६७ ।। १५ कारणकारणादेरचैवानुप्रवेशानार्थान्तरत्वम् ।
पूर्वचरलिङ्गं यथा
उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥ ६८ ॥ पूर्वपूर्वचराद्यनेनैव सङ्ग्रहीतम् । उत्तरचरं लिङ्गं यथा
उदगाद्भरणिस्तत एव ॥ ६९ ॥ कृत्तिकोदयादेव । उत्तरोत्तरचरमेतेनैव सङ्ग्रह्यते । सहचरं लिङ्गं यथा
अस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसात् ॥ ७० ॥
संयोगिने एकार्थसमवायिनैश्च साध्यसमकालस्यात्रैवान्तर्भावो २५ द्रष्टव्यः।
१ आत्मा । २ सुच्छायतादि। ३ सहित । ४ सहाय । ५ कण्ठादिव्यवहारभाव एव कारणम् । ६ जैनः। ७ तावाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वेन ताल्वादेरेव कार्य शब्द इत्येवं यदि। ८ अभूदत्र शिवकः स्थासात् । ९ महोऽत्रत्यानां कण्ठाक्षेपविक्षेपकारी धूमवदग्निमत्त्वात् । कण्ठादिविक्षे रस्य कारणं धूमस्तस्य च कारणं वह्निरिति । १० उदाहियते । ११ आत्मनोत्राऽस्तित्वं विशिष्टशरीरात् । अत्रापि नैयायिकमतानुसरणे कार्यहेतोरेव धूमादेरियं संशा। १२ नैयायिकमतानुसरणे सहचरहेतोरियं संज्ञा । १३ हेतोः।
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सू० ३।६६-७७] हेतुप्रकाराः
३८५ अथाविरुद्धोपलब्धिमुदाहृत्येदानी विरुद्धोपलब्धिमुदाहर्नु विरुद्धत्याद्याहविरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथेति ॥ ७१ ॥ प्रतिषेध्येन यद्विरुद्धं तत्सम्बन्धिनां देपां व्याप्यादीनामुपलब्धिः प्रतिषेधे साध्ये तथाऽविरुद्धोपलब्धिवत् षट्प्रकारा। ५
तानेव पटू प्रकारान् यथेत्यादिना प्रदर्शयति(यथा) नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ॥ ७२ ॥
यथेत्युदाहरणप्रदर्शने । औषण्यं हि व्याप्यमग्नेः। स च विरुद्धः शीतस्पर्शेन प्रतिषेध्येनेति । विरुद्धकार्य लिङ्गं यथा
नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ॥७३॥ विरुद्धकारणं लिङ्गं यथानास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥७॥
सुखेन हि प्रतिषेध्येन विरुद्धं दुःखम् । तस्य कारणं हृदयशल्यम् । तत्कुतश्चित्तदुपदेशादेः सिध्यत्सुखं प्रतिषेधतीति । १५ विरुद्धपूर्वचरं यथा
नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं
रेवत्युदयात् ॥ ७५॥ शकटोदयविरुद्धो ह्यश्चिन्युदयस्तत्पूर्वचरो रेवत्युदय इति । विरुद्धोत्तरचरं यथानोदगाद्भरणिर्मुहर्त्तात्पूर्वं पुष्योदयात् ॥ ७६ ॥ भरण्युदयविरुद्धो हि पुनर्वसूदयस्तदुत्तरचरः पुष्योदय इति । विरुद्धसहचरं यथानास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागात् ॥७७॥
परभागाभावेन हि विरुद्धस्तत्सद्भावस्तत्सहचरोऽर्वाग्भाग२५ इति।
१ साध्येन। २ प्रतिषेध्येन ।
प्र०क० मा० ३३
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३८६
प्रमेयक्रमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० अथोपलब्धि व्याख्यावेदानीमनुपलब्धि व्याचष्टे । सा चानपलन्धिरुपलब्धिरदिप्रकारा भवति । अविरुद्धानुपलब्धिविरुद्धानुपलब्धिश्चेति । तत्राद्यप्रकारं व्याख्यातुकामोऽविरुद्धत्याद्याहअविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभाव
व्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसह
चरानुपलम्भभेदादिति ॥७॥ प्रतिषेध्येनाविरुद्धस्यानुपलब्धिः प्रतिषेधे साध्ये सप्तधा भवति । स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलब्धि
भेदात् । १० तत्र स्वभावानुपलब्धिर्यथा
नास्त्यत्र भूतले घट उपलब्धिलक्षण
प्राप्तस्यानुपलब्धेः॥ ७९ ॥ पिशाचादिभिर्व्यभिचारो मा भूदित्युपलब्धिलक्षणप्रातस्पेति विशेषणम् । कथं पुनर्यो नास्ति स उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्तत्प्राप्तत्वे १५ वा कथमसत्त्वमिति चेदुच्यते-आरोप्यैतद्रूपं निषिध्यते संवत्री
रोपितरूपविषयत्वान्निषेधस्य । यथा 'नाय गौरः' इति । न ह्यत्रैतच्छक्यं वक्तुम्-सति गौरत्वे न निषेधो निषेधे वा न गौरत्वमिति । जन्म दृश्यमपि पिशाचादिकं दृश्यरूपतयाऽऽरोप्य प्रतिषेध्यतामिति चेन्न; आरोपयोग्यत्वं हि यस्यास्ति तस्यैवा.
रोपः । यश्चार्थो विद्यमानो नियमेनोपलभ्येत स एवारोपयोग्यः, २० न तु पिशाचादिः । उपलम्भकारणसाकल्ये हि विद्यमानो घटो नियमेनोपलम्भयोग्यो गम्यते, न पुनः पिशाचादिः । घंटस्योपलम्भकारणसाकल्यं चैकज्ञानसंसर्गिणि प्रदेशादावुपलभ्यमाने निश्चीयते । धेटप्रदेशयोः खलूपलम्भकारणान्य विशिष्टानीति ।
१ व्याप्य। २ प्रतिषेध्येन घटेनाविरुद्धः कः तत्स्वभावो घटस्वभाव इत्यर्थः । ३ कृतम् । ४ प्रकल्प्य घटसम्बन्धित्वेन भूतलम् । ५ क्वचिदपि न निषेध्यस्यारोपितरूपविषयत्वमित्युक्ते आह । ६ वस्तुनि। ७ आरोपितस्य प्रतिषेध्यत्वे । ८ विद्यभानत्वे पिशाचादिरप्युपलभ्येतेत्युक्ते आह। ९ पिशाचादिरप्यारोपयोग्यः कुतो न स्यादित्युक्ते आह । १० प्रत्यक्ष । ११ इन्द्रियालोकादिना। १२ निषेध्यस्य घटस्य कथमुपलम्भकारणसाकल्यं निश्चीयत इत्युक्ते आह। १३ इन्द्रिय । १४ घटेन । १५ घटस्योपलम्भकारणसाकल्यं च न स्यात् एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भश्च भवि.. व्यतीत्युक्ते आह । १६ समानानि ।
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सू० ३।७८-७९] हेतोः प्रकाराः यश्च यद्देशाधेयतया कल्पितो घटः स एव तेनैकज्ञानसंसी, न देशान्तरस्थः । ततश्चैकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भे योग्यतया सम्भावितस्य घटस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलम्भः सिद्धः।
ननु चैकज्ञानसंसर्गिण्युपलम्यमाने सत्य पीतरविषयज्ञानोत्पादनशक्तिः सामग्र्याः समस्तीत्यवसातुं न शक्यते, प्रभाववतो५ योगिनः पिशाचादेर्वा प्रतिवन्धात्सतोपि घटस्यैकज्ञानसंसर्गिणि प्रदेशादावुपलभ्यमानेप्यनुपलस्मसम्भवात् ; तयुक्तम् । यतः प्रदेशादिनैकज्ञानसंसर्गिण एव घटस्याभावो नान्यस्य । यस्तु पिशाचादिनाऽन्यत्वमापादितः स नैव निषेध्यते । इह चकज्ञानसंसर्गिभासमानोर्थस्तज्ज्ञानं च पर्युदासवृत्त्या घटस्याऽसत्तानुप-१० लब्धिश्चोच्यते।
ननु चैवं केवलभूतलस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तद्रूपो घटाभावोपि सिद्ध एवेति किमनुपलम्भसाध्यम् ? सत्यमेवैतत् ,तथापि प्रत्यक्ष प्रतिपन्नेप्यभावे यो व्यामुह्यति साह्वयादिः सोनुपलम्भ निमित्तीकृत्य प्रतिपाद्यते । अनुपलम्भनिमित्तो हि सत्वरजस्तमःप्रभृति-१५ वसद्व्यवहारः । स चात्राप्यस्तीति निमित्तप्रदर्शनेन व्यवहारः प्रसाध्यते । दृश्यतेहि विशाले गवि लालादिमत्वात्प्रवर्तितमोव्यवहारो मूढमतिर्विशङ्कटे सादृश्यमुत्प्रेक्षमाणोपि न गोव्यवहार प्रवर्त्तयतीति विशङ्कटे वा प्रवर्तितो गोव्यवहारो न विशाले, स निमित्त प्रदर्शनेन गोव्यवहारे प्रवर्त्यते । सोनादिमन्मात्रनिमि-२० त्तको हि गोव्यवहारस्त्वया प्रवर्तितपूर्वो न विशालत्वविशङ्कटत्वनिमित्तक इति । तथा महत्यां शिंशपायांप्रवर्तितवृक्षव्यवहारो मूढमतिः स्वल्पायां तस्यां तन्यवहारमप्रवर्त्तयन्निमित्तोपदर्शनेन प्रवर्त्यते वृक्षोयं शिंशपात्वादिति । व्यापकानुपलब्धिर्यथा
१ घटप्रदेशयोभिन्नज्ञानग्राह्यत्वादेकशानसंसर्गित्वाभावो भूतस्येत्युक्ते आह । २ कल्पितस्य घटस्यैकज्ञानसंसर्गित्वं सिद्धं यतः। ३ भूतल। ४ दृश्यत्वेन । ५ प्रदेशे । ६ घट । ७ अतिशयवतो मायाविनः कुतश्चित् । ८ भिन्न शानसंसर्गिणः । ९ अदृश्यत्वम् । १० कुतो न प्रतिषेध्येतेत्युक्ते आह । ११ भूतललक्षणः । १२ जैनैः। १३ भूतलसद्भाव एव घटाभाव इत्येवम् । १४ अनेन हेतुना। १५ प्रतिबोध्यते । १६ प्रत्यक्षसिद्धेऽभावे व्यवहारः स्वयमेव स्यान्नान्यसाद, ततोऽनुपलम्भो व्यर्थ इत्युक्ते आह । १७ सत्वे रजो नास्त्यनुपलब्धेरिति । १८ कथं निमित्तप्रदर्शनमित्याह स चात्राप्यस्तीति । १९ अस्मिन् । २० हस्ते । २१ सानादिमत्त्वादि निमित्तम् । २२ कथम् । २३ काष्ठादिसहकारिवैकल्याभावतः ।
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३८८
प्रमेयकमलमार्तण्डे .. ३. परोक्षपारिक नास्त्यत्र शिंशया वृक्षाऽनुपलब्धेः ॥ ८ ॥ कार्यनुपलब्धिय॑थानास्त्यत्रा प्रतिबद्धसामोऽग्निधूमानुपलब्धेः ८१
नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः ॥ ८२ ॥ ५ इति कारणानुपलब्धिः । न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोदया
नुपलब्धेः ॥ ८३॥ इति पूर्वचरानुपलब्धिः ।
नोदगाद्भरणिर्मुहूर्त्तात्प्राक् तत एव ॥ ८४ ॥ १० कृत्तिकोयानुपलब्धेरेव । इत्युत्तरचरानुपलब्धिः । नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नौमानुपलब्धेः ८५ इति सहचरानुपलब्धिः ।
अथानुपलब्धिः प्रतिषेधसाधिकैवेति नियमप्रतिषेधार्थ विरुद्धत्याद्याह१५ विरुद्धानुपलब्धिः विधौ त्रेधा विरुद्धकार्य
कारणखभावानुपलब्धिभेदात् ॥ ८६ ॥ विधेयेने विरुद्धस्य कार्यादेरनुपलब्धिर्विधौ साध्ये सम्भवन्ती त्रिधा भवति-विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ।
तत्र विरुद्धकार्यानुपलब्धियथा२० अस्मिन्प्राणिनि व्याधिविशेषोस्ति निरामय
चेष्टानुपलब्धेः॥ ८७॥ आमयो हि व्याधिः, तेन विरुद्धस्तद्भावः, तत्कार्या विशिष्टचेष्टा तस्या अनुपलब्धियाधिविशेषास्तित्वानुमानम् ।
विरुद्धकारणानुपलब्धिर्यथा२५अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ।।८८॥
१ नमन । २ साध्येन। ३ एतेषागनुपलब्धयः ।
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A
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सू० ३।८०-९३] हेतोः प्रकाराः
३८९ . दुःखेन हि विरुद्धं सुखम् , तस्य कारणमभीष्टार्थेन संयोगः, तद्भावस्तदनुपलब्धिदुःखास्तित्वं गमयतीति।
विरुद्धस्वभावानुपलब्धियथाअनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तानुएलब्धेः ॥ ८९ ॥
अनेकान्तेन हि विरुद्धो नित्यैकान्तः क्षणिकैकान्तो वा । तस्य५ चानुपलब्धिः प्रत्यक्षादिप्रमाणेनाऽस्य ग्रहणाभावात्सुप्रसिद्धा । यथा च प्रत्यक्षादेस्तद्राहकत्वाभावस्तथा विषयविचारप्रस्तावे विचारयिष्यते।
ननु चैतत्साक्षाद्विधौ निषेधे वा परिसङ्ख्यातं साधनमस्तु । यत्तु परम्परया विधेर्निषेधस्य वा साधकं तदुक्तसाधनप्रकारे-१० भ्योऽन्यत्वादुक्तसाधनसङ्ख्याव्याघातकारि छलसाधनान्तरमनुषज्येत ! इत्याशङ्ख्य परम्परयेत्यादिना प्रतिविधत्तेपरम्परया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम्॥९०
यतः परम्परया सम्भवत्कार्यकार्यादि साधनमत्रैव अन्तर्भावनीयं ततो नोक्तसाधनसङ्ख्याव्याघातः।
तत्र विधौ कार्यकार्य कार्याविरुद्धोपलब्धौ अन्तर्भावनीयम् यथा
अभूत्र चक्रे शिवकः स्थासात् । कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥ ९१-९२ ॥ शिवकस्य हि साक्षाच्छत्रका कार्य स्थासस्तु परम्परयेति। २० निषेधे तु कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योंपलब्धौ यथाऽन्तर्भात व्यते तद्यथानास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिशब्दनात् कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ
यथेति ॥ ९३ ॥ मृगक्रीडनस्य हि कारणं मृगः। तेन च विरुद्धो मृगारिः । तत्कार्य च तच्छब्दन मिति।
१ एकान्तस्वरूपानुपलब्धेरिति पाठान्तरम् । २ विद्यमानम् । ३ कार्यादिष्वेव । ४ साध्ये। ५ ता । ६ तथा कार्यकार्य कार्याऽविरुद्धोपलब्धावन्तर्भावनीयमिति सम्बन्धः।
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३९०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० ननु ययव्युत्पन्नानां व्युत्पत्त्यर्थ दृष्टान्तादियुक्तो हेतुप्रयोगस्तहि व्युत्पन्नादां कथं तत्स्योग इत्याहव्युत्पन्नभयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथाऽ
नुपपत्त्यैव वा ॥ ९४ ॥ ५ एतदेवोदाहरणद्वारेण दर्शयतिअग्निमानयं देशस्तथा धूमवत्त्वोपपत्तेधूम
वत्वान्यथानुपपत्तेर्वा ॥ ९५ ॥ कुतो व्युत्पन्नानां तथोपपत्त्यन्यथाऽनुपपत्तिभ्यां प्रयोगनियम इत्याशक्य हेतुप्रयोगो हीत्याद्याह१० हेतुप्रयोगो हि यथाव्याप्तिग्रहणं विधीयते,
सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्न
रखधार्यते इति ॥ ९६ ॥ यतो हेतोः प्रयोगो व्याप्तिग्रहणानतिक्रमेण विधीयते । सा च व्याप्तिस्तावन्मात्रेण तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिप्रयोगमात्रेण व्युत्प१५ न्नैर्निश्चीयते इति न दृष्टान्तादिप्रयोगण व्याप्त्यवधारणार्थन किञ्चिप्रयोजनम् । नापि साध्यसिद्ध्यर्थं तत्प्रयोगः फलवान्
तावतैव च साध्यसिद्धिः॥ ९७ ॥ यतस्तावतैव चकार एवकारार्थे निश्चितविपक्षासम्भवहेतु२० प्रयोगमात्रेणैव साध्यसिद्धिः।
तेन पक्षः तदाधारसूचनाय उक्तः ॥ ९८ ॥ तेन पक्षो गम्यमानोपि व्युत्पन्नप्रयोगे तदाधारसूचनाय साध्याधारसूचनायोक्तः । यथा च गम्यमानस्यापि पक्षस्य प्रयोगो नियमेन कर्त्तव्यस्तथा प्रागेव प्रतिपादितम् । २५ अथेदानीमवसरप्राप्तस्यागमप्रमाणस्य कारणस्वरूपे प्ररूपयन्ना
त्याद्याह
१ अग्निमत्वे सति । २ अनुमानप्रमाणप्रतिपादनानन्तरम् ।
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सू० ३।९४-९९] वेदापौरुषेयत्ववादः ३९१ आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः॥ ९९ ॥
आतेन प्रणीतं वचनमातवचनम् । आदिशब्देन हस्तसंज्ञादिपरिग्रहः। तन्निवन्धनं यस्य तत्तथोक्तम् । अनेनाक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं च सहीतं भवति । अर्थज्ञानमित्यनेन चान्यापोहज्ञानस्य शब्दसन्दर्भस्य चागमप्रमाणव्यपदेशाभावः। शब्दो हि प्रमाण-५ कारणकार्यत्वादुपचारत एक प्रमाणव्यपदेशमर्हति ।
ननु चातीन्द्रियार्थस्य द्रष्टुः कस्यचिदाप्तस्याभावात् तत्राऽपौरुपेयस्यागमस्यैव प्रामाण्यात् कथमाप्तवचननिवन्धनं तद् ? इत्यपि मनोरथमात्रम् ; अतीन्द्रियार्थद्रष्टुर्भगवतः प्राक्प्रसाधितत्वात्, अगमस्य चाऽपौरुषेयत्वासिद्धः। तद्धि पदस्य, वाक्यस्य, वर्णानां १० वाऽभ्युपगम्येत प्रकारान्तराऽसम्भवात् ? तत्र न तावत्प्रथमद्वितीयविकल्पौ घटेते; तथाहि-वेदपदवाक्यानि पौरुपेयाणि पद्वाक्यत्वाद्भारतादिपवाक्यवत् ।।
अपौरुषेयत्वप्रसाधकप्रमाणाभावाच्च कथमपौरुपेयत्वं वेदस्योपपन्नम् ? न च तत्प्रसाधकमामाणाभावोऽसिद्धः; तथाहि-तत्प्र-१५ साधकं प्रमाणं प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, अर्थापत्त्यादि वा स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षम्। तस्य शब्दस्वरूपमात्रग्रहणे चरितार्थत्वेन पौरुषेयत्वापौरुषेयत्वधर्मग्राहकत्वाभावात् । अनादिसत्त्वखरूपं चापौरुषेयत्वं कथमक्षप्रभवप्रत्यक्षपरिच्छेद्यम् ? अक्षाणां प्रतिनियतरूपादिविषयतया अनादिकालसम्वन्धाऽभावतस्तत्सम्बन्ध-२०
१ मुखेन संशा। २ अर्थज्ञानमित्येतावत्युच्यमाने प्रत्यक्षादावतिव्याप्तिरत उतं वाक्यनिबन्धनमिति । वाक्यनिबन्धनमर्थशानमित्युच्यमानेपि यादृच्छिकसंवादिषु विप्रलम्भवाक्यजन्येषु सुप्तोन्मत्तादिवाक्यजन्येषु वा नदीतीरफलसंसगादिशानेष्वतिव्याप्तिः अत उक्तमाप्तेति । आप्तवाक्यनिबन्धनशानमित्युच्यमानेप्याप्तवाक्यकर्मके (कारणे) श्रावणप्रत्यक्षेऽतिव्याप्तिरत उक्तमथेति । अर्थस्तात्पर्यरूढः प्रयोजनारूढ इति यावत् । तात्पर्यमेव वचसीत्यभियुक्तवचनात् वचसा प्रयोजनस्य प्रतिपादकत्वात् । ३ आप्तवचनादि । ४ अर्थज्ञानस्य । ५ आदिपदेन । ६ आप्तशब्दोपादानादपौरुषेयव्यवच्छेदः । ७ अन्यस्मात्पदार्थादन्यस्य पदार्थस्यापोहो निराकरणं तस्य व्यावृत्तिरूपापोहविषय एव शब्दो न त्वर्थविषय इति बौद्धः। ८ अगोः व्यावृत्तिः । व्यावृत्तिस्तुच्छा अर्थरूपा न भवति । ९ शब्द एवार्थो न बाह्यार्थः। १० शान । ११ ता। १२ गणधरादिप्रतिपाद्यञ्चानापेक्षया कारणत्वं शब्दस्य (दिव्यध्वनेः)। १३ प्रतिपादकशानस्य (सर्वशशानस्य ) हि कार्य शब्दः। १४ अर्थशानम् । १५ परेण मीमांसकेन। १६ श्रावणप्रत्यक्षम् । १७ बसः। १८ ता।
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३९२
प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० सत्त्वेनाप्यसम्बन्धात् ! सम्बन्धे वा तद्वदऽनागतकालसम्बद्धधर्मादिस्वरूपेणागि लम्वन्धसम्भवान्न धर्मशप्रतिषेधः स्यात् ।
नाप्यनुमान तत्प्रसाधकम्; तद्धि कऽस्मरणहेतुप्रभवम् , वेदाध्ययनशब्दवाच्यत्वलिङ्गजनितं वा स्यात्, कालत्वसाधनस२मुत्थं वा? तत्राद्यपक्षे किमिदं कर्तुरस्मरणं नाम-कर्टस्मरणाभावः, अमर्यमाणकर्तृकत्वं वा ? प्रथमपक्षे व्यंधिकरणाऽसिद्धो हेतुः, कर्तृस्मरणाभावो ह्यात्मन्यपौरुषेयत्वं वेदे वर्तते इति ।
द्वितीयपक्षे तु दृष्टान्ताभावः; नित्यं हि वस्तु न मर्यमाणकर्तृकं नाप्यस्मर्यमाणकर्तृकं प्रतिपन्नम्, किन्त्वकर्तृकमेव । हेतुश्च व्यर्थ१० विशेषणः; सैति हि कर्तरि स्मरणमस्मरणं वा स्यान्नासति खरविषाणवेत् । अथाऽकर्तृकत्वमेवात्र विवक्षितम् ; तर्हि स्मर्यमाणग्रहणं व्यर्थम् , जीर्णकूपप्रासादादिभिर्व्यभिचारश्च । अथ सम्प्रदायाँऽविच्छेदे सत्यऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुः, तथाप्यनेकान्तः ।
सन्ति हि प्रयोजनाभावादस्मर्यमाणकर्तृकाणि 'वटे वटे वैश्रवणः' १५[ ] इत्याद्यनेकपदवाक्यान्यविच्छिन्नसम्प्रदायानि ।
न च तेषामपौरुषेयत्वं भवतापीष्यते । असिद्धश्चायं हेतुः; पौराणिका हि ब्रह्मकर्तृकत्वं स्मरन्ति "वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः"[ ] इति । "प्रेतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते"[ ] इति चाभिधानात् । “यो वेदांश्च २० प्रहिणोति" इत्यादिवेदवाक्येभ्यश्च तत्कर्ता मर्यते ।
स्मृतिपुराणादिवच्च ऋषिनामाङ्किताः काण्वमाध्यन्दिनतैत्तिरीयादयः शाखाभेदाः कथमसर्यमाणकर्तृकाः? तथाहि-एतास्तत्कृत
१ न केवलमनादिकालेन । २ अनुष्ठेयत्वेन । ३ पुण्य । ४ आदिना पापम् । ५ इति । ६ कर्तृविषयं यत्स्मरणं ज्ञानं तस्याभावः। ७ मर्यमाणकर्तृप्रतिषेधः । ८ आकाशवदिति दृष्टान्तः। ९ भिन्नाधिकरणः सन्। १० दृष्टान्ते । ११ व्यर्थविशेषणः कथमित्युक्ते आह। १२ खरविषाणे यथा स्मरणमस्मरणं वा नास्ति कर्बsभावात् । १३ अनुमाने। १४ वेदे वर्णक्रमः पाठक्रमः उदात्तादिक्रमश्च सम्प्रदायः। १५ चत्वरे चत्वरे ईश्वरः पर्वते पर्वते रामः सर्वत्र मधुसूदनः । सा ते भवतु सुप्रीता देवी गिरिनिवासिनी । विद्यारम्मं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा । १६ कथम् । १७ चतुर्थ्यः। १८ ब्रह्मणः। १९ अमर्यमाणकर्तृकस्य हेतोरनैकान्तिकत्वासिद्धत्वे ते उद्भाव्य पुनरप्यसिद्धत्वमुद्भावयन्ति । २० एकरसान्मनोः सकाशादपरो मनुः मन्वन्तरम् । तत्तत्प्रति प्रतिमन्वन्तरम् । २१ वेदः। २२ स्मृतिः । २३ भिन्ना। २४ करोति । २५ प्रसन्नो भवतु इत्यादिभ्यश्च । २६ सन्तानः । २७ गोत्रभेदाः।
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सू० ३९९] . वेदापौरुपेयत्ववादः कत्वात्तन्नामभिरङ्किताः, तंदृष्टत्वात् , तत्प्रकाशितत्वाद्वा ? प्रथम पक्षे कथमासामपौरुषेयत्वमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वा? उत्तरपक्षद्वयेपि यदि तावदुत्सन्ना शाखा कण्वादिना दृष्टा प्रकाशिता वा तदा कथं सम्प्रदायाऽविच्छेदोऽतीन्द्रियार्थदर्शिनः प्रतिक्षेपश्च स्यात् ? अथानवच्छिन्नैव सा सम्प्रदायेन दृष्टा प्रकाशिता वा; ५ तर्हि यावद्भिपाध्यायैः सा दृष्टा प्रकाशिता वा तावतां नामभिस्तस्याः किन्नसाङ्कितत्वं स्याद्विशेपाभावात् ?
एतेन 'छिन्नमूलं वेदे कर्तृस्मरणं तस्य ह्यनुभवो मूलम् । न चासौ तत्र तद्विषयत्वेन विद्यते' इत्यपि प्रत्युक्तम् । यतोऽध्यक्षेण तदनुभवाभावात् तत्र तच्छिन्नमूलम् , प्रमाणान्तरेण वा? अध्य-१० क्षेण चेत् ; किं भवत्सम्बन्धिना, सर्वसम्वन्धिना वा? यदि भवसम्वन्धिना; तागमान्तरेपि कर्तृग्राहकत्वेन भवत्प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेस्तत्कर्तृस्मरणस्य छिन्नमूलत्वेनासर्यमाणकर्तृकत्वस्य भावाद् व्यभिचारी हेतुः । अथागमान्तरे कर्तृग्राहकत्वेनास्मत्प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तावपि परैः कर्तृसद्भावाभ्युपगमात् ततो व्यावृत्तमसर्यमाण-१५ कर्तृकत्वमपौरुषेयत्वेनैव व्याप्यते इति अव्यभिचारः; न; परकीयाभ्युपगमस्याप्रमाणत्वात् , अन्यथा वेदेपि परैः कर्तृसद्भावाभ्युपगमतोऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वादित्यसिद्धो हेतुः स्यात्।
अथ वेदे सविगानकर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः कर्तृस्मरणमऽतोऽप्रमाणम्-तत्र हि केचिद्धिरण्यगर्भम् , अपरे अष्टकादीन् कर्तृन् २० स्मरन्तीति । नन्वेवं कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेस्तद्विशेषस्मरणमेवाप्रमाणं स्यात् न कर्तृमात्रस्मरणम् , अन्यथा कादम्बर्यादीनामपि कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः कर्तृमात्रस्मरणत्वेनास्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य भावात्पुनरप्यनेकान्तः । अथ वेदे कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तिवत्कर्तृमात्रेपि विप्रतिपत्तेस्तत्स्मरणमप्यप्रमाणम् , कादम्वर्यादीनां तु २५ कर्तृविशेषे एव विप्रतिपत्तेस्तत्प्रमाणमित्यनैकान्तिकत्वाभावोऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य विपक्षे प्रवृत्त्यभावात् । ननु वेदे सौगतादयः कर्तारं स्मरन्ति न मीमांसका इत्येवं कर्तृमात्रे विप्रतिपत्तेर्यदि तदप्रमाणम्। तर्हि तद्वदस्मरणमप्यऽप्रमाणं किन्न स्याद्विप्रतिपत्तेरविशेषात् ? तथा चासिद्धो हेतुः।
१ कण्वादि । २ कण्वादि । ३ नष्टा । ४ कर्तृस्मरणमूलस्य वेदपदवाक्यानीत्याद्यनुमानेऽस्य पुराणस्मृतिवेदवाक्यस्य च प्रवर्तनपरेण ग्रन्थेन । ५ कारणम् । ६ कथम् । ७ शानादिपिटकत्रये। ८ सौगतैः। ९ व्याधुटितम् । १० सविप्रतिपत्तिक । ११ यदि कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तिः कर्तृमात्रस्मरणस्याऽप्रामाण्यम् । १२ बाणः शङ्करो वेति । १३ कादम्बर्यादौ ।
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३९४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० अथ यद्यनुपलेम्भपूर्वकममर्थलाणकर्तृकत्वं हेतुत्वेनोच्यत: तदोक्तप्रकारेणाऽसिद्धानैकान्तिकत्व्वे स्याताम् , तेदभावपूर्वके तु तस्मिंस्तयोरनवकाशः; न; अत्र कत्रऽभावग्राहकस्य प्रमाणान्तरस्यैवाऽसम्भवात् । असादेवानुमानात्तद्भावसिद्धावन्योन्या५श्रयः-अंतो ह्यऽनुमानात्तभावसिद्धौ तत्पूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं सिद्ध्यति, तत्सिद्धौ चातोऽनुमानात्तदभावसिद्धिरिति ।
ननु वेदे कर्तृसद्भावाभ्युपगमे तत्कर्तुः पुरुषस्यावश्यं तदनुष्ठानसमये अनुष्टातॄणामनिश्चितप्रामाण्यानां तत्प्रामाण्यप्रसिद्धये सरणं स्यात् । ते ह्यदृष्टंफलेषु कर्मखेवं निःसंशयाः प्रवर्तन्ते । यदि १० तेषां तद्विषयः सत्यत्वनिश्चयः, सोपि तदुपदेष्टुः स्मरणात्स्यात् ।
यथा पित्रादिप्रामाण्यवशात्स्वयमदृष्टफलेष्वपि कर्मसु तदुपदेशात्प्रवर्तन्ते 'पित्रादिभिरेतदुपदिष्टं तेनानुष्ठीयते', एवं वैदिकेष्वपि कर्मखनुष्ठीयमानेषु कर्तुः स्मरणं स्यात् । न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातॄणां त्रैवर्णिकानां तत्सरणमस्ति । तथा चैवं प्रयोगः१५ कर्तुः स्मरणयोग्यत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वादपौरुषेयो वेदः।
तदप्यसम्बद्धम् । आगमान्तरेऽप्यस्य हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणाऽसम्भवेन सद्भावसम्भवतः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनानैकान्तिकत्वात्।
किञ्च, विपक्षविरुद्ध विशेषणं विपक्षाट्यावर्त्तमानं स्वविशेष्य२० मादाय निवत्त । न च पौरुषेयत्वेन सह कर्तुःस्मरणयोग्यत्वस्य
सहानवस्थानलक्षणः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो वा विरोधः सिद्धः। सिद्धौ वा तत एव साध्यप्रसिद्धेः 'अमर्यमाणकर्तृकत्वात्' इति विशेष्योपादानं व्यर्थम् ।
१ उक्तप्रकारेण हेतोरसिद्धत्वे प्रतिपादितेऽनुमानवलेन हेतुसिद्धिं करोति परः । २ अनुपलम्भेन हेतुना साधितं यदस्सर्यमाणकर्तृकत्वं साधनं तत्। ३ अनुपलम्भः स्वसम्बन्धी सर्वसम्बन्धी वा स्यात् ? पौरस्त्यपक्षेऽसिद्धत्वम् । पाश्चात्यपक्षेऽनैकान्तिकत्वम्। ४ वेदः अमर्यमाणकर्तृकः अनुपलभ्यमानकर्तृकत्वात् आकाशवत् इत्यनेनानुमानेन हेतुसिद्धिं विदधाति । ५ अनुपलम्भलक्षणस्य हेतोरुभयदोषदुष्टत्वाद्धत्वन्तरेण प्रकृतहेतुं साधयति । ६ वेदः अस्मयमाणकर्तृकः कत्रभावाव्योमवत् इत्यनेनानुमानेन साधिते । ७ अमर्यमाणकर्तृकत्वादेव। ८ असर्यमाणकर्तृकत्वात् । ९ अमर्यमाणकर्तृकत्वात् । १० कुत एतदित्याह । ११ अनिरीक्षितफलेषु । १२ यागेषु। १३ वक्ष्यमाणप्रकारेण । १४ कथं निःसंशयाः प्रवर्तन्ते। १५ कर्म। १६ कारणेन। १७ व्यापूतानाम् । १८ उक्तप्रकारेण । १९ वक्ष्यमाणरीत्या। २० पिटके। २१ पौरुषेयपिटके । २२ पौरुषेयत्वं विपक्षः। २३ विरोधस्य । २४ अपौरुषेयत्वमिति ।
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सू० ३।९९] वेदापौरुषेयत्ववादः
यञ्चोक्तम्-तदनुष्ठानसमय इत्यादि तदागमान्तरेपि समानम् । 'न च' इति चिन्त्यताम्-न चायं नियमः-'अनुष्ठातारोऽभिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कर्तारमनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्ते । न खलु पाणिन्यादिप्रणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्व्यवहारानुष्ठानसमये तदानुष्ठातारोऽवश्यन्तया व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्यादिकमनुस्मृत्यैव प्रव-५ र्तन्त इति प्रतीतम् । निश्चिततत्समयानां कर्तृस्मरणव्यतिरेकेणाज्याशुतरं भवत्यादिसाधुशब्दोपलम्भात् । तन्न भवत्सम्बन्धिप्रत्यक्षेणानुभवाभावात् तत्र तच्छिन्नमूलम् ।
नापि सर्वसम्बन्धिप्रत्यक्षेण; तेन ह्यनुभवाभावोऽसिद्धः । न ह्याग्दशां 'सर्वेषां तंत्र कर्तृग्राहकत्वेन प्रत्यक्षं न प्रवर्तते' इत्यव-१० सातुं शक्यमिति तंत्र तत्स्मरणस्य छिन्नमूलत्वासिद्धरस्मर्यमाणकर्तृकत्वादित्यसिद्धो हेतुः।
अथ प्रमाणान्तरेणानुभवाभावः; तन्न; अनुमानस्य आगमस्य च प्रमाणान्तरस्य तत्र कर्तृसद्भावावेदकस्य प्राक्प्रतिपादितत्वात् ।
किञ्च, अस्सर्यमाणकर्तृकत्वं वादिनः, प्रतिवादिनः, सर्वस्य वा १५ स्यात् ? वादिनश्चेत्; तदनैकान्तिकं “सा ते भवतु सुप्रीता" [ ] इत्यादौ विद्यमानकर्तृकेप्यस्य सम्भवात् । प्रतिवादिनश्चेत् ; तदसिद्धम् ; तंत्र हि प्रतिवादी स्मरत्येक कर्तारम् । एतेन सर्वस्यास्मरणं प्रत्याख्यातम् । सर्वात्मज्ञानविज्ञानरहितो वा कथं सर्वस्य तंत्र कर्बऽस्मरणमवैति?
२० किञ्च, अतः स्वातन्येणापौरुषेयत्वं साध्येत, पौरुषेयत्वसाधनमनुमानं वा वाध्येत? प्राच्यविकल्पे खातव्येणापौरुषेयत्वस्यादः साधनम् , प्रसङ्गो वो? स्वातन्त्र्यपक्षे नाऽतोऽपौरुषेयत्वसिद्धिः पदवाक्यत्वतः पौरुषेयत्वप्रसिद्धः । अतो न ज्ञायते किमस्मर्यमाणकर्तृत्वादपौरुषेयो वेदः पवाक्यात्मकत्वात्पौरुषेयो वा? न २५ च सन्देहहेतोः प्रामाण्यम् ।
ननु न प्रकृतोद्धेतोः सन्देहोत्पत्तिर्येनास्याऽप्रामाण्यम् किन्तु प्रतिहेतुतः, तस्य चैतस्मिन्सत्यऽप्रवृत्तेः कथं संशयोत्पत्तिः?
१ अभिप्रेतार्थप्रतिपादकवाक्य । २ भवतीत्यादि । ३ उच्चारण ! ४ अस्य शब्दस्थायमर्थ इति । ५ सङ्केतानाम् । ६ तस्मात् । ७ असर्वशानाम् । ८ वेदे। ९ वेदे। १० प्रसन्ना । ११ वेदे। १२ वेदे। १३ अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् । १४ अमर्यमाणकतैकत्वादिति । १५ साधनम् । १६ अमर्यमाणकर्तृकत्वात् । १७ कारणस्य । १८ अस्मर्यमाणकर्तृत्वस्य । १९ अपौरुषेयत्वलक्षणस्वसाध्यसाधकस्य । २० अमर्यमाणकर्तृत्वादिति । २१ विप्रतिकूलहेतुतः। .
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प्रमेयकसलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० तदयुक्तम् ; यथैव हि प्रकृतहेतोः सद्भावे पौरुषेयत्वसाधकहेतोरप्रवृत्तिरभिधीयते तथा पदवाक्यत्वलक्षणहेतुसद्भावे सत्यमर्यमाणकर्तृत्वस्याप्यप्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् । तन्न स्वतन्त्रसाधनमिदम् । ५ नापि प्रसङ्गसाधनम् । तत्खलु 'पौरुषेयत्वाभ्युपगमे वेदस्य तत्कषुः पुरुषस्य स्मरणप्रसङ्गः स्यात्' । इत्यनिष्टापादनखभावम् । न च कर्तृस्मरणं परस्यानिष्टम्; स हि पद्वाक्यत्वेन हेतुना तत्कर्तुः स्मरणं प्रतीयन् कथं तत्स्मरणस्याऽनिष्टतां ब्रूयात् ?
पौरुपेयत्वसाधनानुमानवाधापक्षेपि किमनेनास्य स्वरूपं वाध्यते, २० विषयो वा? न तावत्स्वरूपम्, अपौरुषेयत्वानुमानस्याप्यनेन
खरूपवाधनानुषङ्गात् ,तयोस्तुल्यवलत्वेनान्योन्यं विशेषाभावात। अदुल्य वलत्वे वा किमनुमानवाया? येनैव दोषेणास्याऽतुल्यवलत्वं तत एवाप्रामाण्यप्रसिद्धः। विषयवाधाप्यनुपपन्ना; तुल्यबलत्वेन हेत्वोः परस्परविषयप्रतिवन्धे वेदस्योभयधर्मशून्यत्वा१५ नुषङ्गात्। एकस्य वा स्वविषयसाधकत्वेऽन्यस्यापि तत्प्रसङ्गाद्
धर्मद्वयात्मकत्वं स्यात् । अतुल्यबलत्वे तु यत एवातुल्यबलत्वं तत एवाऽप्रामाण्यप्रसिद्धेः किमनुमानबाधयेत्युक्तम् ।
"वेदस्याध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् । २० वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा" [ मी० श्लो० अ०७
श्लो०३५५] इत्यनेनानुमानेन पौरुषेयत्वप्रसाधकानुमानस्य वाधा, इत्यपि प्रत्याख्यातम् ; प्रकृतदोषाणामत्राप्यविशेषात् ।
किञ्च, अत्र निर्विशेषणमध्ययनशब्दवाच्यत्वमपौरुषेयत्वं प्रतिपादयेत् , कञऽस्मरणविशिष्टं वा? निर्विशेषणस्य हेतुत्वे निश्चित२५ कर्तृकेषु भारतादिष्वपि भावादनैकान्तिकत्वम् ।
१ प्रकृतहेती सति पदवाक्यत्वं हेत्वन्तरं न प्रवर्तते । पदवाक्यत्वे तु सत्यपि प्रकृतो हेतुः वर्तते इति योऽसौ विशेषस्तस्याभावात् । २ वेदः सर्यमाणकर्तृकः पौरुषेयत्वाद्भारतवत् । हेतुरूपव्याप्याभ्युपगमेनानिष्टस्य साध्यरूपव्यापकाभ्युपगमस्यापादनं प्रसङ्गः। ३ जैनस्य । ४ जानन् । ५ पदवाक्यत्वलक्षण ! ६ पौरुषेयत्वाऽ-. पौरुषेयत्वानुमानयोः। ७ पौरुषेयत्वलक्षणस्य विषयस्य । ८ पदवाक्यत्वाऽमर्यमाणकर्तृकत्वलक्षणयोः। ९ अपौरुषेयत्वपौरुषेयत्वलक्षण। १० पौरुषेयत्वाऽपौरुषेयत्वलक्षण । . ११ वेदस्य । १२ अमर्यमाणकर्तृकत्वानुमानस्यापौरुषेयत्वप्रसाधनानुमानं प्रति बाधकत्वानिराकरणपरेण ग्रन्थेन । १३ विशेषणमेतत् ।। ... .... ..
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सू० ३१९९] वेदापौरुषेयत्वविचारः
किञ्च, यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेवाध्ययनशब्दवाच्यत्वमध्ययनपूर्वकत्वं साधयति, अन्यथाभूतानां वा? यदि तथाभूतानां तदा सिद्धसाधनम् । अथान्यथाभूतानां तर्हि सन्निवेशादिवदऽप्रयोजको हेतुः । अथ तथाभूतानामेव तत्तथा ततः साध्यते, न च सिद्धसाधनं सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थ-५ दर्शनशक्तिवैकल्येनातीन्द्रियार्थप्रतिपादकप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्यनेशत्वात् । तदप्यसाम्प्रतम् । यतो यदि प्रेरणायास्तथाभूतार्थप्रतिपादने अप्रामाण्याभावः सिद्धः स्यात् स्यादेतत्-यौवता गुणवद्वकऽभावे तहुणैरनिराकृतैदोषैरपोहितत्वात् तत्र सापवाद प्रामाण्यम् , तथाभूतां प्रेरणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिविरहिणोषि १० कर्तुं समर्था इति कुतस्तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थेनाऽशेषपुरुषाणामीदृशत्वसिद्धिर्यतः सिद्धसाधनं न स्यात् ?
अथ न गुणवद्वक्तृकत्वेनैव शब्देऽप्रामाण्यनिवृत्तिरपौरुषेयत्वेनाप्यस्याः सम्भवात् तेनायमदोषः। तदुक्तम्
"शब्दे दोपोद्भवस्तावद्वधीन इति स्थितम् । तभावः कचित्तावहुणवद्वक्तृकत्वतः ॥१॥ तगुणैरपकृष्टीनां शब्दे सङ्क्रान्त्यऽसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युदोषा निरीश्रयाः॥२॥"
[ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६२-६३] इति । तदप्यसमीचीनम् ; यतोऽपौरुषेयत्वमस्याः किमन्यतः२० प्रमाणात्प्रतिपन्नम् , अत एव वा? यद्यन्यतः; तदाऽस्य वैयर्थ्यम् । अत एव चेत्, नन्वतोऽनुमानादपौरुषेयत्वसिद्धौ प्रेरणायामप्रा
१ अधुनातनसदृशानाम् । २ असाभिरपि तथाभूतानां गुर्वऽध्ययनपूर्वकत्वं प्रतिपाद्यते । ३ अतीन्द्रियार्थदर्शिनाम् । ४ आदिना कार्यत्वादिवत् । ५ अकिञ्चित्करो हेतुस्तेषां गुर्वध्ययनपूर्वकत्वं नास्ति यतः। ६ सपक्षव्यापकपक्षव्यावृत्तो ह्युपाध्याहितसम्बन्धो हेतुरप्रयोजकः। ७ जैनानां तु मते सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थदर्शने शक्तिवैकल्यं नास्ति केषाश्चिदतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिरस्तीति भावः । ८ अग्निष्टोमेन यजेतेति लिङादिश्रवणानन्तरं शब्दो मां प्रेरयतीति दर्शनात् प्रेरणान्विततया कृतिः ( यागः) प्रतीयते । सा च प्रेरणा वेद इत्यर्थः। ९ तर्हि। १० न कुतोपि । ११ येन कारणेन । १२ प्रामाण्यनिराकृतत्वात् । १३ सदोषम् । १४ अप्रामाण्यभूताम् । १५ समः । १६ न तु स्वभावतः । १७ अपौरुषेयवेदवाक्यानन्तरोत्पन्नेषु स्मृतिवाक्येषु। १८ एतदेव समर्थयत्यग्रे। १९ अपौरुषेयवेदे । २० निराकृतानाम् । २१ असंबन्धादयः । २२ आश्रयः पुरुषः । २३ वेदाध्ययनवाच्यत्वादिति । २४ वेदाध्ययनवाच्यत्वस्य । २५ वेदाध्ययनवाच्यत्वात् । २६ वेदाध्ययनवाच्यत्वात् ।
प्र० क० मा० ३४
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० माण्यानाय त्यान, तदभावाच तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्येन सर्वपुरुषाणामोशत्वसिद्धिरित(रितीत)रेतराश्रयः । तन्न निर्मिशेषणोयं हेतुः प्रकृतसाध्यसाधनः। ___ अथ सविशेषणः; तदा विशेषणस्यैव केवलस्य गमकत्वाद्विशे. ५ष्योपादानमनर्थकम् । भवतु विशेषणस्यैव गमकत्वम् का नो हानिः, सर्वथाऽपौरुषेयत्वसिद्ध्या प्रयोजनात्; तद्प्ययुक्तम्, यतः कऽस्मरणं विशेषणं किमभावाख्यं प्रमाणम् , अर्थापत्तिः, अनुमानं वा? तत्राद्यः पक्षो न युक्तः, अभावप्रमाणस्य स्वरूप
सामग्रीविषयाऽनुपपत्तितः प्रामाण्यस्यैव प्रतिषिद्धत्वात्। १० किञ्च, सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चक निवृत्तिनिवन्धनास्य प्रवृत्तिः
"प्रमाणपञ्चकं यत्र" [मी० श्लो० अभाव० श्लो०१] इत्याद्यभिधानात् । न च प्रमाणपञ्चकस्य वेदे पुरुषसद्भावावेदकस्य निवृत्तिः, पदवाक्यत्वलक्षणस्य पौरुषेयत्वप्रसाधकत्वेनानुमानस्य
प्रतिपादनात् । न चास्याऽप्रामाण्यमभिधातुं शक्यम्, यतोऽ१५ स्याऽप्रामाण्यम्-किमनेन वोधितत्वात्, साध्याविनासावित्वाभावाद्वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षे चक्रकप्रसङ्गः, तथाहि-न यावदभावप्रमाणप्रवृत्तिन तावत्प्रस्तुतानुमानबाधा, यावच्च न तस्य वाधा न तावत्सदुपलम्भकप्रमाणनिवृत्तिः, यावच्च न तस्य निवृत्तिन तावत्तनिवन्धनाऽभावाख्यप्रमाणप्रवृत्तिः, तदप्रवृत्तौ च नानु२० मानवाधेति । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः, स्वस्वाध्याविनामावित्वस्यात्र सम्भवात् । न खलु पदवाक्यात्मकत्वं पौरुषेयत्वमन्तरेण क्वचिदृष्टं येनास्य खसाध्याविनाभावाभावः स्यात् ।
एतेन कर्तुरस्मरणमन्यानुपपद्यमानं कऽभावनिश्चायकमर्थापत्तिगस्यमपौरुषेयत्वं वेदानामित्यपास्तम्; अन्यथानुपपद्यमान२५ त्वासम्भवस्या प्रांगेव प्रतिपादितत्वात् । कत्रऽस्मरणमनुमानरूपमऽपौरुषेयत्वं प्रसाधयतीत्यप्यनुपपन्नम्। प्रागेव कृतोत्तरत्वात् । एतेन"अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ । कालत्वात्तद्यथा कालो वर्तमानः समीक्ष्यते ॥१॥" ]
१ अप्रामाण्याभावात् । २ अनुमानबावेति । ३ कथम् ? । ४ एव । ५ अभावप्रमाणप्रवृत्तौ प्रस्तुतानुमानबाधा तस्यां सदुपलम्भकप्रमाणनिवृत्तिस्तस्यां च पदवाक्यत्वस्य स्वसाध्याविनामावित्वमिति समर्थनपरेण ग्रन्थेन। ६ अपौरुषेयत्वं विना। ७ वेदोऽपौरुषेयः कर्बऽस्मरणान्यथानुपपत्तेः । ८ कर्तृसरणादित्यत्र । ९ पिटकादौ । १० वटे वटे वैश्रवण इत्यादिनाऽनैकान्तिकसमर्थनेन ।
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सू० ३१९९] वेदापौरुषेयत्वविचारः
३९९ इत्यपि प्रत्युक्तम् ; प्राक्तनानुमानद्वयोक्ताशेषदोषाणामत्राप्यविशेषात् । आगमान्तरेप्यस्य तुल्यत्वाच्च ।
किञ्च, इदानीं यथाभूतो वेदाकरणसमर्थपुरुषयुक्तस्तत्केर्तृ. पुरुषरहितो वा कालः प्रतीतोऽतीतोऽनागतो वा तथाभूतः कालत्वात्साध्येत, अन्यथाभूतो वा? यदि तथाभूतः तदा सिद्ध-५ साध्यता । अथान्यथाभूतः तदा सन्निवेशादिवदऽप्रयोजको हेतुः। अथ तथाभूतस्यैवातीतस्यानागतस्य वा कालस्य तंद्रहितत्वं साध्यते, न च सिद्धसाध्यताऽन्यथाभूतस्य कालस्यासम्भवात् । नन्वन्यथाभूतः कालो नास्तीत्येतत्कुतः प्रमाणात्प्रतिपन्नम् ? यद्यन्यतः; तर्हि तत एवापौरुषेयत्वसिद्धेः किमनेन ? अत एवेति १० चेत्, ननु 'अन्यथाभूतकालाभावसिद्धावतोऽनुमानात्तद्रहितत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चान्यथाभूतकालाभावसिद्धिः' इत्यन्योन्याश्रयः ।
नाप्यागमतोऽपौरुषेयत्वसिद्धिः; इतरेतराश्रयानुषङ्गात् । तथाहि-आगमस्याऽपौरुषेयत्वसिद्धावप्रामाण्याभावसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चातोऽपौरुषेयत्वसिद्धिरिति । न चाऽपौरुषेयत्वसिद्धिरिति । न १५ चाऽपौरुषेयत्वप्रतिपादकं वेदवाक्यमस्ति । नापि विधिवाक्यादऽपरस्य परैः प्रामाण्य मिष्यते, अन्यथा पौरुषेयत्वमेव स्यात्तत्पतिपादकानां "हिरण्यगर्भः समवर्ततीने" [ऋग्वेद अष्ट० ८ मं० १० सू० १२१ ] इत्यादिप्रचुरतरवेदवाक्यानां श्रवणात् ।
अपौरुषेयत्वधर्माधारतया प्रमाणप्रसिद्धस्य कस्यचित्पदवाक्या-२० देरसम्भवान्न तत्सादृश्येनोपमानादप्यपौरुषेयत्वसिद्धिः ।
नाप्यर्थापत्तेः, अपौरुषेयत्वव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्यार्थस्य कस्यचिदप्यभावात् । ल हाप्रामाण्यामावलक्षणो वा स्यात् , अतीन्द्रियार्थप्रतिपादनस्वभावो वा, परार्थशब्दोच्चारणरूपो वा? न तावदाद्यः पक्षः, अप्रामाण्याभावस्यागमान्तरेपि तुल्यत्वात् । न२५ चासौ तत्र मिथ्या; वेदेपि तन्मिथ्यात्वप्रसङ्गात् । अथागमान्तरे पुरुषस्य कर्तुरभ्युपगमात्, पुरुषाणां तु रागादिदोषदुष्टत्वेन तजनितस्याऽप्रामाण्यस्यात्र सम्भवात्तत्रासौ मिथ्या, न वेदे तत्राप्रामाण्योत्पादकदोषाश्रयस्य कर्तृरभावात् । नन्वत्र कुतः कर्तुरभावो निश्चितः? अन्यतः, अत एव वा? यद्यन्यतः तदेवोच्यताम् , ३०
१ कालत्वादित्यनेनानुमानेन पौरुषेयत्वसाधकानुमानस्य स्वरूपं बाध्येत विषयो बेत्यादिप्रकारेण । २ वेद । ३ साधनात् । ४ तेन वेदका। ५ वेदका। ६ अस्तु वा वेदवाक्यमपौरुषेयत्वप्रतिपादकं तथापि । ७ प्रतिषेधवाक्यादेः। ८ मीमांसकैः । ९ अपरस्य प्रामाण्यं यदीष्यते। १० जातः । ११ आदौ। १२ प्रमाणाद।
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४००
प्रनेत्रकमलमार्तण्डे
[३. परोक्षपरि०
किमर्थापत्त्या? अपनेश्चत: द इतरेन्दराश्रयानुपङ्गरत्-अर्थापत्तितो हि दुरुपामावसिद्धावप्रामाण्यासावसिद्धिः, तत्सिद्धौ चार्थीपत्तितः पुरुषाभावसिद्धिरिति ।
द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः, अतीन्द्रियार्थप्रतिपादनलक्षणार्थस्यागमा५न्तरेपि सम्भवात् । __ परार्थशब्दोच्चारणान्यथानुपपत्तनित्यो वेदः, इत्यप्यसमीचीनम् ; धूमादिवत्सादृश्याप्यर्थप्रतिपत्तेः प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् ।
किञ्च, अपौरुषेयत्वं प्रसज्यप्रतिपेषरूपं वेदस्याभ्युपगम्यते. पर्युदासस्वभावं वा? प्रथमपझे तकि सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम् , १० उताऽभावप्रमाणपरिच्छेद्यम् ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; सदुपलम्मक
प्रमाणपञ्चकस्यापौरुषेयग्राहकत्वप्रतिषेधात् । तद्राह्यस्य तुच्छस्वभावाभावरूपत्वानुपपत्तेश्च । प्रतिक्षिप्तश्च तुच्छस्वभावाभावः प्राक्प्रवन्धेन । द्वितीयपक्षस्तु श्रद्धामात्रगम्यः, अभावप्रमाण
स्याऽसम्भवतस्तेन तद्रहणानुपपत्तेः । तदसम्भवश्च तत्सामग्री१५ स्वरूपयोः प्राक्प्रवन्धेन प्रतिषिद्धत्वात्सिद्धः।
अथ पर्युदासरूपं तदभ्युपगम्यते । नन्वत्रापि किं पौरुषेयत्वादन्यत्पर्युदासवृत्याऽपौरुषेयत्वशब्दाभिधेयं स्यात् ? तत्सत्वमिति चेत् तत्किं निर्विशेषणम् , अनादिविशेषणविशिष्टं वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता; ततोऽन्यस्य वेदसत्त्वमात्रसाध्यक्षादिप्रमाणप्रसि२०द्धस्यालासिरल्युपमानात् । पौरुषेयत्वं हि कृतकत्वम् , ततश्चान्य. त्सत्त्वमित्यत्र को वै विप्रतिपद्यते ? द्वितीयपक्षः पुनरविचारितरमणीयः; वेदानादिसत्त्वे प्रत्यक्षादिप्रमाणतः प्रसिद्ध्यसम्भवस्याऽनन्तरमेव प्रतिपादितत्वात् ।
अस्तु वाऽपौरुषेयो वेदः, तथाप्यसौ व्याख्यातः, अव्याख्यातो २५ वा स्वार्थे प्रतीतिं कुर्यात् ? न तावद्व्याख्यातः; अतिप्रसङ्गात् । व्याख्यातश्चेत्, कुतस्तयाख्यानम्-स्वतः, पुरुषाद्वा? न तावत्वतः; 'अयमेव मदीयपद्वाक्यालामा नायम्' इति स्वयं वेदेनाऽप्रतिपादनात्, अन्यथा व्याख्याभेदो न स्यात् । पुरुषाचेत्,
कथं तद्व्याख्यानात्पौरुषेयादर्थप्रतिपत्तौ दोपाशङ्का न स्यात् ? ३० पुरुषा हि विपरीतमप्यर्थ व्याचक्षाणा दृश्यन्ते । संवादेन प्रॉमा
१ इति । २ नित्यत्वादपौरुवेयत्वम् । ३ वेदे। ४ जैनैः । ५ द्विजवत्सौगतानाप्यर्थप्रतीर्ति कुर्यात् । ६ वेदस्य जडत्वेन वक्तुमशक्यत्वात् । ७ यदि वेदः प्रतिपादयति । ८ भवनाविधिनियोगादिः। ९ व्याख्यानानाम् । १० व्याख्यानानाम् ।
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सू० ३१९९] वेदापौरुषेयत्वविचारः
४०१. ग्याभ्युपगमे च अपौरुषेयत्वकल्पनाऽनार्थिका तद्ववेदस्यापि प्रमाणान्तरसंवादादेव प्रामाण्योपपत्तेः । न च व्याख्यानानां संवादोऽस्ति; परस्परविरुद्धमादनानियोगादिव्याख्यानानामन्योन्यं विसंवादोपलम्भात् ।
किञ्च, अलौ तन्न्याख्याताऽन्द्रिार्थना, तद्विपरीतो वा १५ प्रथमपो अतीन्द्रियादीदर्शिनः प्रतियाविरोधो धर्मादो चास्य प्रामाण्योपपत्तेः "धर्म बोदलेर प्रमाण
] इत्यवधारणानुपपत्तिश्च ।
अथ तैद्विपरीतः कथं तर्हि तेंद्याख्यानाद्यथार्थप्रत्तिपत्तिः अयथार्थाभिधानाशङ्कया तदनुपपत्तेः ? न च मन्वादीनां सातिशय-१० प्रज्ञत्वात्तद्व्याख्यानाद्यथार्थप्रतिपत्तिः, तेषां सातिशयप्रज्ञत्वासिद्धेः । तेषां हि प्रज्ञातिशयः स्वतः, वेदार्थाभ्यासात् , अदृष्टात्, ब्रह्मणो वा स्यात् ? स्वतश्चेत् ; सर्वस्य स्याद्विशेषाभावात् । वेदार्थाभ्यासाच्चेत् किं ज्ञातस्य, अज्ञातस्य वा तदर्थस्याभ्यासः स्यात् ? न तावदज्ञातस्याऽतिप्रसङ्गात् । ज्ञातस्य चेत्, कुतस्तज्ज्ञप्तिः-स्वतः,५१ अन्यतो वा? स्वतश्चेत्; अन्योन्याश्रयः-सति हि वेदार्थाभ्यासे स्वतस्तत्परिज्ञानम् , तसिंश्च तदर्थास्यास इति । अन्यतश्चेत् । तस्यापि तत्परिज्ञानमन्यत इत्यतीन्द्रियार्थदर्शिनोऽनभ्युपगमेऽन्धपरम्परातो यथार्थनिर्णयानुपंपत्तिः।
अदृष्टोपि प्रज्ञातिशयाऽसाधकः, तस्यात्मान्तरेपि सम्भवात् ।२० न तथाविधोऽदृष्टोऽन्यत्र मन्वादावेवास्य सम्भवादिति चेत् । कुतोऽत्रैवास्य सम्भवः? वेदानुष्ठानविशेषाचेत्; स तर्हि वेदार्थस्य ज्ञातत्य, अज्ञातस्य वाऽदुष्टाता स्यात् ? अज्ञातस्य चेत् । अतिप्रसङ्गः । ज्ञातस्य चेत्, परस्पराश्रयः-सिद्धे हि वेदार्थज्ञानातिशये तदानुष्ठानविशेषसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तज्ज्ञानाति-२५ शयसिद्धिरिति ।
ब्रह्मणोपि वेदार्थज्ञाने सिद्धे सत्यऽतो मन्वादेस्तदर्थपरिज्ञानातिशयः स्यात् । तच्चास्य कुतः सिद्धम् ? धर्मविशेषाञ्चेत्, स
१ प्रत्यक्षग्राह्येथे प्रत्यक्षं संवादकमनुमेयेथे अनुमानमेव संवादकं परोक्षेऽर्थे पूर्वापराविरोधः संवादः। २ मीमांसकमते। ३ तस्मादतीन्द्रियार्थद्रष्टुः । ४ अतीन्द्रियार्थद्रष्टुर्विपरीतस्य किञ्चिज्ज्ञस्य । ५ गोपालादीनामपि वेदार्थस्याभ्यासप्रसङ्गात् । ६ पुरुषात् । ७ परस्य तव । ८ भवेत् । ९ प्रज्ञातिशयसाधकः। १० प्रशातिशयसाधकादृष्टस्य । ११ प्रशातिशयसाधकादृष्टस्य । १२ गोपालादीनामपि वेदार्थानुष्ठानप्रसङ्गः।
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४०२
प्रमेयकमलमार्तण्डे३. परोक्षपरिक एवेतरेतराश्रयः-वेदार्थ परिशालामाले हि तत्पूर्वकानुष्ठानजनितधर्मविशेषानुत्पत्तिः, तदनुत्पत्तौ च वेदार्थपरिज्ञानाभाव इति । तन्नातीन्द्रियाचदर्शिनोऽनभ्युपगमे वेदार्थप्रतिपत्तिर्घटते ।
ननु व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तौ तदवि५शिष्टवैदिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तिरपि प्रसिद्धरश्रुतकाव्यादिवत्, तेन वेदार्थप्रतिपत्तावऽतीन्द्रियार्थदर्शिना किञ्चित्प्रयोजनम्, इत्यप्यसारम् । लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेप्यनेकार्थत्वव्यवस्थित अन्यपरिहारेण व्याचिख्यासितार्थस्य नियमयितुशक्तेः । न च प्रकरणादिभ्यस्तन्नियमः, तेषामप्यनेकप्रवृत्तेसिन्धानादिवत् । १० यदि च लौकिकेनाट्यादिशब्देनाविशिष्टत्वाद्वैदिकस्याग्न्यादिशब्दस्यार्थप्रतिपत्तिः, तर्हि पौरुषेयेणाविशिष्टत्वात्पौरुषेयोसौ कथं न स्यात् ? लौकिकस्य ह्यन्यादिशब्दस्यार्थवत्त्वं पौरुषेयत्वेन व्याप्तम् । तीयं वैदिकोऽग्यादिशब्दः कथं पौरुषेयत्वं परित्यज्य तदर्थमेव
ग्रहीतुं शक्नोति ? उभयमपि हि गृह्णीयाजह्यादा। १५ नं च लौकिकवैदिकशब्दयोः शब्दखरूपौविशेषे सङ्केतग्रहणसव्यपेक्षत्वेनाऽर्थप्रतिपादकत्वे अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषेणाऽश्रवणे समाने अन्यो विशेषो विद्यते यतो वैदिका अपौरुषेयाः शब्दा लौकिकास्तु पौरुषेया स्युः । सङ्केते(ता)नतिक्रमेणार्थप्रत्यायनं चोभयोरपि। २० न चापौरुषेयत्वे धुरुक्षेच्छादशादर्थप्रतिपादकत्वं युक्तम् , उपलभ्यन्ते च यंत्र पुरुषैः सङ्केतिताः शब्दास्तं तमर्थमविगानेन प्रतिपादयन्तः, अन्यथा तत्सङ्केतभेदपरिकल्पनानर्थक्यं स्यात् । ततो ये नररचितवचनरचनाऽविशिष्टास्ते पौरुषेयाः यथाऽभिनव
कूपप्रासादादिरचनाऽविशिष्टा जीर्णकूपप्रासादादयः, नररचित२५ वचनाऽविशिष्टं च वैदिकं वचनमिति ।
न चाँत्राश्रयासिद्धो हेतुः, वैदिकीनां वचनरचनानां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः । नाप्यसिद्धविशेषणः पक्षः, अभिनवकूपप्रासौदादौ
१ आदिना निघण्टुः । २ तस्मात्कारणात् । ३ सदृशत्वे । ४ अन्यार्थस्य । ५ द्विसन्धानकाव्यवत् । ६ सदृशत्वात् । ७ शब्देन। ८ अग्मयादिशब्दस्यार्थवत्वे मौरुषेयत्वेन व्याप्ते सति । ९ अपौरुषेयत्वपौरुषेयत्वदयम् । १० वैदिकानां शब्दाना कश्चन विशेषोस्ति ततोऽमीषामपौरुषेयत्वमित्याशङ्कयाह । ११ समानत्वे । १२ अस्य शब्दस्यायमर्थ इति। १३ समाने। १४ समानम्। १५ वेदे। १६ भर्थे । १७ वैदिकं वचनं धर्मि पौरुषेयं भवति नररचित्रवचनरचना विशिष्टत्वात् । १८ अनुमाने। १९ श्रवणेन । २० स्वमतापेक्षया । २१ साध्यं पौरुषेयत्वम् । २१ सपक्षे ।
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सू० ३१९९]
वेदापौरुषेयत्वविचारः
पुरुषपूर्वकत्वेनास्य साध्यविशेषणस्य सुप्रसिद्धत्वात् । न च हेतोः स्वरूपासिद्धत्वम्, तद्वचनरचनातु विशेपंग्राहकप्रमाणाभावेनास्याऽभावात् ।
न चाप्रामाण्यामावलक्षणो विशेषस्तत्रेत्यभिधातव्यम् । तस्य विद्यमानस्यापि तनिराकारकत्वाभावात् । यादृशो हि विशेषः५ प्रतीयमानः पौरुषेयत्वं निराकरोति ताशयास्याऽभावादऽविशिष्टत्वम् न पुनः सर्वथा विशेषाभावात् , एकान्तेनाऽविशिटस्य कस्यचिद्वस्तुनोऽभावात् । अप्रामाण्यामावलक्षणश्च विशेपो दोषवन्तमप्रामाण्यकारणं पुरुपं निराकरोति न गुणवन्तमप्रामाण्यनिवर्त्तकम् । न च गुणवतः पुरुषस्याभावादन्यस्य चानेन १० विशेषेण निराकृतत्वात्सिद्धमेवापौरुषेयत्वं तत्रेत्यभ्युपगन्तव्यम्; तत्सद्भावस्य प्रोकप्रतिपादितत्वात् । तद्भावेऽप्रामाण्याभावलक्षणविशेषाभावप्रसङ्गाच्च। · पौरुषेये प्रासादादौ हेतोदर्शनादपौरुषेये चाकाशादावऽदर्शनानानकान्तिकत्वम् । अत एव न विरुद्धत्वम् ; पक्षधर्मत्वे हि सति १५ 'विपक्षे वृत्तिर्यस्य स विरुद्धः, न चास्य विपक्षे वृत्तिः। नापि कालात्ययापदिष्टत्वम् ; तद्धि हेतोः प्रत्यक्षागमवाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तं भवतेष्यते । न च यत्र खसाध्याविनाभूतो हेतुर्मिणि प्रवर्त्तमानः खसाध्यं प्रसाधयति तत्रैव प्रेमाणान्तरं प्रवृत्तिमासादयत्तमेव धर्म व्यावर्त्तयति; एकस्यैकदैकत्र विधिप्रतिषेधयो-२० विरोधात् । प्रकरणसमत्वमपि प्रतिहेतोर्विपरीतधर्मप्रसाधकस्य प्रकरणचिन्ताप्रवर्तकस्य तत्रैव धर्मिणि सद्भावोऽभिधीयते । न च स्वसाध्याविनाभूतहेतुप्रलाधितधर्मिणः विपरीतधर्मोपेतत्वं सम्भवतीति न विपरीतधर्माधायिनो हेत्वन्तरस्य तत्र प्रवृत्तिरिति । तन्न वेदपवाक्योर्नित्यत्वं घटते ।
२५
१ पौरुषेयत्वस्य । २ लौकिकं नररचितरचनाऽविशिष्टं वैदिकं नेति भेदः। ३ पौरुषेयत्व । ४ वैदिकलौकिकशब्दयोरभिन्नत्वम् । ५ अविभिन्नत्वम् । ६ सर्वथा वैदिकलौकिकशब्दयोरविशेषादमेदो भविष्यतीत्युक्त आह । ७ सर्वप्रकारेण । ८ अभेदरूपस्य। ९ वैदिकलौकिकशब्दयोरतीन्द्रियार्थेन्द्रियार्थप्रतिपादकत्वाद्भेदो यतः । १० वेदे । ११ सर्वशसिद्धिप्रस्तावे। १२ यथा शब्दो नित्यः कृतकत्वादिति कृतकत्वस्य शम्दधर्मत्वेपि नित्यात्साध्याद्विपरीतेऽनित्ये विपक्षे वृत्तिमत्त्वाविरुद्धः । १३ हेतोः । १४ पक्ष । १५ ज्ञप्तिक्रियाविषयत्वात्कर्मेत्यभिधानम् । १६ प्रत्यक्षागमलक्षणम् । १७ धर्मस्य । १८ प्रतिपक्षसाधकस्य । १९ संशयात्प्रभृत्यानिश्चयात्पर्यालोचना। २० सस्प्रतिपक्षो हेतुः प्रकरणसम इति वचनात् । २१ प्रसाधकस। २२ विधिप्रतिषेधरूपयोः ।
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४०४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० नापि वर्णानां कृतज्ञत्या शब्दसानत्यानित्यत्वासिद्धौ तेषामप्यनित्यत्व सिद्धौ तेवामप्यानित्यत्वोपपत्तेः। तथाहि-अनित्यः शब्दः कृतकवाद घश्वत् । न च कृतकत्वमसिद्धम् । तथाहि-कृतका
शब्दः कारणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्तद्वदेव । न चेदमप्य५ सिद्धम् । ताल्वादिकारणव्यापारे सत्येव शब्दस्यात्मलामप्रतीतेस्तदावे वाऽप्रतीतेः, चक्रादिव्यापारसद्भावासद्भावयोर्घटस्यामलाभालाभप्रतीतिवत् ।
ननु शब्दस्याऽदित्यत्वोपगमे ततोर्थप्रतीतिर्न स्यात् , अस्ति चासौ। ततो नित्यः शब्दः स्वार्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपत्तेः' इत्य१० भ्युपगन्तव्यम् । स्वार्थनावगतसम्बन्धो हि शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति, अन्यथाऽगृहीतसङ्केतस्यापि प्रतिपत्तुस्ततोऽर्थप्रतीतिप्रसङ्गः ।
सम्बन्धावगमश्च प्रमाणयसम्पाद्यः; तथाहि-यदैको वृद्धोऽन्यस्मै प्रतिपन्नसङ्केताय प्रतिपादयति-'देवदत्त गामभ्याज शुक्लां
दण्डेन' इति, तदा पार्श्वस्थान्योऽव्युत्पन्नसङ्केतः शब्दार्थों प्रत्य१५क्षेतः प्रतिपद्यते, श्रोतुश्च तद्विषयक्षेपणोदिचेष्टोपलमानुमानतो
गवादिविषयां प्रतिपत्तिं प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या च तच्छब्दस्यैव तत्र वाचिकां शक्ति परिकल्पयति पुनः पुनस्तच्छब्दोच्चारणादेव तदर्थस्य प्रतिपत्तेः। सोयं प्रमाणत्रयसम्पाद्यः
सम्बन्धावगमो न सकृद्वाक्यप्रयोगात्सम्भवति । न चाऽस्थिरस्य २० पुनः पुनरुच्चारणं घटते, तदभावे नान्वयव्यतिरेकाभ्यां वाचक
शत्त्यवगमः, तंदलवान प्रेक्षावद्भिः पराववोधाय वाक्यमुच्चायेत । न चैवम् । ततः परार्थवास्योच्चारणान्यथानुपपत्त्या निश्चीयते नित्योसौ।
तदुक्तम्-"देर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः" [जैमिनिसू०१।१८] २५ अथ मतम्-पुनः पुनरुच्चार्यमाणः शब्दः सादृश्यादेकत्वेन निश्चीयमानोऽर्थप्रतिपत्तिं विदधाति न पुनर्नित्यत्वात् । तदसमी
१ नित्यत्वमन्तरेण । २ जैनेन त्वया। ३ गृहीत । ४ प्रत्यक्षानुमानार्थापत्तीति । ५ पूर्व गुरोः सकाशात् । ६ ना। ७ बालकाय । ८ तृतीयः। ९ गुरुसन्निधौ गवानयनसमये । १० गोशब्दं श्रावणप्रत्यक्षेण, गोलक्षणमर्थ नायनप्रत्यक्षेण । ११ यं देवदत्तं प्रति वाक्यं प्रोक्तं तस्य । १२ आदिना ताडनप्रेरणादि । १३ तृतीयः । १४ शिष्यो गोलक्षणार्थे शानवान् तद्विषयचेष्टावत्त्वान्मद्वत् । १५ गोशब्दो गोलक्षणार्थवाचकशक्तियुक्तो गोप्रतीत्यन्यथानुपपत्तेरिति । १६ गो इति । १७ अनित्यस्य शब्दस्य । १८ गोशब्दे उच्चारिते गोलक्षणार्थप्रतिपत्तिर्भवति, अनुच्चारिते गोलक्षणार्थप्रतिप्रत्तिर्न भवतीति । १९ वाचकशक्त्यवगमस्य । २० शब्दः। २१ उच्चारणस्य । २२ घटोयं पुनर्देशकालान्तरे घटोयमिति ।
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सू० ३।९९] शब्दनित्यत्ववादः
. ४०५ चीनम् : सादृश्येन ततोऽप्रतिपत्तेः । न हि सदृशतया शब्दः प्रतीयमानो वाचकत्वेनाध्यवसीयते किन्त्वेकत्वेन । य एव हि सम्बन्धग्रहणसमये मया प्रतिपन्नः शब्दः स एवायमिति प्रतीतेः।
किञ्च, सादृश्यादर्थप्रतीतो प्रान्तः शाब्दः प्रत्ययः स्यात् । न ह्यन्यस्मिन्नगृहीतसङ्केतेऽन्यस्मादर्थप्रत्ययोऽभ्रान्तः, गोशब्दे ५ गृहीतसङ्केतेऽश्वशवदाइवार्थप्रत्ययेऽभ्रान्तत्यप्रसङ्गात् । न च भूयोऽवयवत्तास्ययोगस्वरूपं साहश्यं शब्दे सम्भवति विशिष्टवर्णात्मकत्वाच्छब्दानां वर्णानां च निरवयवत्वात् ! द चत्वादिविशिष्टानां गादीनां वाचकत्वं युक्तम् ; गत्वादिसामान्यस्याऽभावात् , तदभावश्च गादीनां नानात्वायोगात्, सोपि प्रत्यभिशया १० तेषामेकत्वनिश्चयात् । न चात्र प्रत्यभिज्ञा सामान्यनिवन्धना: भेर्दै निष्ठस्य सामान्यस्यैव गौदिष्वसम्भवात् ।
किञ्च, गत्वादीनां वाचकत्वम् , गादिव्यक्तीनां वा? न तावद्गत्वादीनाम् ; नित्यस्य वाचकत्वेऽस्मन्मताश्रयणप्रसङ्गात् । नापि गादिव्यक्तीनाम् ; तथा हि-गादिव्यक्तिविशेपो वाचकः, व्यक्तिमा वा ? १५ न तावदादिव्यक्तिविशेषः तस्यानन्वयात् । नापि व्यक्तिमात्रम् : तद्धि सामान्यान्तःपाति, व्यत्यन्तर्भूतं वा ? सामान्यान्तःपातित्वे स एवास्मन्मत4वेशः । व्यत्यन्तर्भूतत्वे तदवस्थोऽनन्वयदोष इति। ततोऽर्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपत्तेर्नित्यः शब्दः। तदुक्तम्___"अर्थापत्तिरियं चोक्ता पक्षधर्मादिवर्जितौ।
१ उत्तरः। २ एकत्वान्नित्यत्वम् । ३ ज्ञानम् । ४ शब्दे। ५ शब्दात् । ६ अन्यत्वाऽविशेषात् । ७ अन्यथा। ८ नष्टे सति । ९ गृहीतसङ्केतशब्दस्य नष्टत्वात् । १० बहु। ११ सम्बन्ध । १२ सामान्यम् । १३ सादृश्यधर्मरहितैकत्वधर्मः, स एव विशेषस्तनोपलक्षितो वर्णः, स आत्मा स्वरूपं यस्य शब्दस्य । १४ वर्णानां पुद्गलात्मकत्वात् शब्दस्य च वर्णात्मकत्वाच्छब्दे तथाविधं सादृश्यं भविष्यतीत्यारेकायामाह । १५ निरंशत्वात् । अंशाभावे किं केन सादृश्यं स्यात् ।। १६ अत्वादिना च । १७ अकारादीनां च। १८ अनेकसमवेतत्वात्सामान्यस्य । १९ स एवायं गकार इति । २० गत्वादि । २१ विशेष । २२ अभेदरूपेषु। २३ गकार एक एवेति गभेदाभावात् । २४ सामान्यरूपाणाम् । २५ अन्यथानुपपत्तिरसिद्धत्युक्ते आह । २६ गोपिण्डस्य । २७ मीमांसक । २८ सङ्केतकाले गृहीतस्य शब्दस्य व्यवहारकाले आगमनाभावात् सङ्केतव्यवहारशब्दयो दो यतः। २९ सामान्यस्य नित्यत्वात् । ३० विपक्षेऽनित्यत्वे शब्दस्यार्थप्रतिपादकत्वं न घटते यतः । ३१ वाचकसामर्थ्यमित्यर्थः ३२ आदिना सपक्षे सत्त्वम् । ३३ अर्थापत्तौ पक्षधर्मादीनां प्रयोजनं नास्ति यतः ।
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कमलमार्त्तण्डे [ ३. परोक्षपरि०
यदि नाशिनिनित्ये वा विनाशिन्येव वा भवेत् ॥ १ ॥ शब्दे वाचला तो दूषणमुच्यताम् । फलवद्व्यवहाराङ्गभूतार्थप्रत्ययाङ्गता ॥ २ ॥ विफलत्वेन शब्दस्य योग्यत्वादवगम्यते । परीक्षमाणस्तेनस्य युक्त्या नित्यविनाशयोः ॥ ३ ॥ सें धर्मोऽभ्युपगन्तव्यो यः प्रधानं न बाधते । नुरोधेन प्रधानलबाधनम् ॥ ४ ॥ युज्यते नाशिपक्षे च तदेकान्तात्प्रसज्यते । नार्थसम्बन्धः शब्दो भवति वाचकः ॥ ५ ॥ १० तथा च स्यादपूर्वोपि सर्वः सर्व प्रकाशयेत् । सम्बन्धदर्शनं चस्य नाऽनित्यस्योपपद्यते ॥ ६ ॥ सम्बन्धज्ञानैसिद्धिश्वेवं कालान्तरस्थितिः । अन्यस्मिन् ज्ञातसम्वन्धे न चान्यो वाचको भवेत् ॥ ७ ॥ गोशन्दे ज्ञातसम्वन्धे नाऽश्वशब्दो हि वाचकः ।" मी० श्लो० शब्दनि० लो० २३७-२४४] इति । अथ विभिन्नदेशादिर्तयोपलभ्यमानत्वाद्गकारादीनां नानात्वाऽनित्यत्वे साध्येते; तन्नः अनेकप्रतिपत्तृभिर्विभिन्नदेशादित्योपलभ्यमानेनादित्येनानेकान्तात् । विभिन्नदेशादितयोपलम्भश्चैषां व्यञ्जकध्वन्यधीनो, न स्वरूपभेदनिवन्धनः । तदुक्तम्
"नित्यत्वं व्यापकत्वं च सर्ववर्णेषु संस्थितम् । प्रत्यभिज्ञानतो मीनाद्वाधसेङ्गमवर्जितात् ॥ १ ॥" [
BED
१५
२०
४०६
]
१ अर्थापत्तिरेवास्तां तथाप्यन्यथासिद्धत्वमन्यथव सिद्धत्वं वा स्यादित्युक्ते आह । २ उभयात्मके । ३ केवलेऽनित्ये । ४ नित्यानित्यात्मके केवलेऽनित्ये शब्दे वाचकसामर्थ्यस्य वर्त्तमानात् । ५ न चैवमिति भावः । ६ फलवान्श्चासौ प्रवृत्तिनिवृत्ति - लक्षणव्यवहारश्च तस्याङ्गभूतं कारणभूतं च तदर्थप्रत्ययश्च तस्याङ्गता कारणता शब्दस्य । ७ अन्यथा । ८ हेतुना । ९ अर्धप्रतीतिलक्षणफलराहित्ये । १० अर्धप्रतिपत्तिः । ११ उक्तप्रकारेण सफलत्वमायातं शब्दस्येति फलं भवतु को दोष इत्युक्ते आह परीक्षेत्यादि । १२ फलवत्वं सिद्धं शब्दस्य येन कारणेन । १३ द्वयो
योर्मध्ये | १४ नित्यफललक्षणः । १५ नित्यधर्मस्य फलम् । १६ नित्यत्वं बाधकं भविष्यति प्रधानफलस्येत्युक्ते आह न हीत्यादि । १७ कारण । १८ भावेन । १९ लक्षणतः । २० अर्थप्रतीतिलक्षणमुख्यफलस्य । २१ नित्यपक्षवनाशिपक्षेपि प्रधानफलबाधनं नास्तीत्युक्ते आह । २२ नियमेन । २३ अज्ञातार्थं । २४ शब्दस्य । २५ गृहीतसम्बन्ध एव प्रशक्तस्त्वित्याह । २६ अवश्यम् । २७ शब्दस्य काला-. न्तरस्थितिपक्षे । २८ आदिना कालः । २९ गादयो धर्मिणो नना अनित्याश्च भवन्ति विभिन्नदेशकालत्वादित्यनुमानेन । ३० प्रमाणात् । ३१ संगमः=संबन्धः ।
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सू० ३।९९] शब्दनित्यत्ववादः
४०७ "यो यो गृहीतः सर्वस्सिन्देशे शब्दो हि विद्यते । न चास्याऽवयवाः सन्ति येन वर्तेत भागशः॥२॥ शब्दो वर्त्तत इत्येव तत्र सर्वात्मकश्च सः। व्यञ्जकध्वन्यऽधीनत्वात्तद्देशे न च गृह्यते ॥ ३॥ नं च ध्वनीनां सामर्थ्य व्यातुं व्योम निरन्तरम् । तेनाऽविच्छिन्नरूपेण नासौ सर्वत्र गृह्यते ॥४॥ ध्वनीना मिनदेशत्वं श्रुतिस्तत्रानुरुद्धाते। अपूरितान्तरालत्वाद्विच्छेदश्वावसीयते ॥ ५॥ तेषां चाल्पकदेशत्वाच्छब्देप्यऽविभुतामतिः। गतिमद्वेगवत्त्वाभ्यों ते चायान्ति यतो यतः॥६॥ १० श्रोता ततस्ततः शब्दमायान्तमिव मन्यते ।"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७२-१७५] अथैकेन भिन्न देशोपलम्भाद् घटादिवन्नानात्वम् ; न; आदित्येनानेकान्तात् । दृश्यते ह्येकेनादित्यो भिन्नदेशः, न चैतावतासौ नाना । अथ 'युगपदेकेन भिन्नदेशोपलब्धेः' इति विशेष्योच्यते; १५ तथाप्यनेनैवानेकान्तः। जलपात्रेषु हि भिन्नदेशेषु सवितैकोप्येकेन युगपद्भिनदेशो गृहाते । उक्तं च
"सूर्यस्य देशभिन्नत्वं न त्वेकेन न गृह्यते । न नाम सर्वथा तावदृष्टस्यानेकदेशता ॥१॥ सविशेषेण हेतुश्चेत्तथापि व्यभिचारिता। दृश्यते भिन्नदेशोयमित्येकोपि हि वुध्यते ॥२॥ जलपात्रेषु चैकेन नानैकः सवितेक्ष्यते। युगपन्न च भेदेस्य प्रमाणं तुल्यवेदनात् ॥ ३॥"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७६-१७८]
१ प्रत्यभिज्ञानाच्छब्दस्य व्यापकत्वं कथमित्युक्ते आह । २ अवयवसद्भावात् खण्डशो वर्तते इत्युक्ते आह। ३ भागशो न वर्तते तर्हि कथं वर्तते इत्युक्ते आह । ४ सर्वत्र विद्यते चेत्तर्हि सर्वत्रैवोपलम्भः स्यादित्युक्ते आह । ५ ध्यनयोपि सकलदेशं कथं न व्याप्नुवन्तीत्युक्ते आह । ६ नानादेशेषूपलभ्यमानत्वम् । ७ शब्दश्रवणम् । ८ शब्दव्यञ्जकवायूनाम् । ९ अत एव श्रवणव्यभिचारो दृश्यते। १० गति:क्रियारूपा । वेगः=संस्कारविशेषः। ११ भिन्नदेशश्चेदुपलभ्यते तदा भिन्नदेशो भविष्यतीत्युक्ते आह नेति। १२ सूर्यस्य । १३ युगपदिति । १४ कथं व्यभिचारो दृश्यते इत्यारेकायामाह । १५ एकः सूर्यो भिन्नदेशतया कथं वुध्यते इत्युक्ते आह । १६ एवं चेत्तर्हि सूर्यो नानारूपो भविष्यतीत्युक्ते आह । १७ आदित्य आदित्य इति समानरूपतावेदनाद्धेतोरेक एवायमित्युनुमीयते । न चास्य भेदे प्रमाणं किंचिदित्यर्थः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे (३. परोक्षपरि० कश्चिदाह-ल त सवितेक्ष्यते तस्य नास्ति व्यवस्थानात, तन्निमित्तानि तु तेयुप्रतिविम्दानि प्रतीयन्ते, ततो नानेकान्तः ।
आहेलेन निसित्तेन प्रतिपात्रं पृथक् पृथक् । भिन्नानि प्रतिविम्वानि गृह्यन्ते युगपन्मया ॥१॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७९ ] एतत्कुमारिलः परिहरन्नाह
"अत्र ब्रूमो यदा यावजले सौर्येण तेजसा। स्फुरता चाक्षुपं तेजः प्रतिस्नोतः प्रवर्तितम् ॥१॥
खदेशमेव गृह्णाति सवितारमनेकधा। १० भिन्नमूर्ति यथापात्रं तैदास्यानेकता कुतः॥२॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८०-१८१] यथा च प्रदीपः।
"ईषत्सम्मिलितेऽङ्गुल्या यथा चक्षुषि दृश्यते । पृथगेकोपि भिन्नत्वाञ्चक्षुवृत्तेस्तथैव नः ॥ १॥ अन्ये तु चोदयन्त्यत्र प्रतिबिम्बोदयैषिणः । स एव चेत्प्रतीयेत कस्मान्नोपरि दृश्यते ॥२॥ कूपादिषु कुतोऽधस्तात्प्रतिबिम्बाद्विनेक्षणम् । प्राङ्मुखो दर्पणं पश्यन् स्याच्च प्रत्यङ्मुखः कथम् ॥ ३॥
तत्रैव वोधयेदर्थ वहिर्यातं यदीन्द्रियम् । २० तत एतद्भवेदेवं शरीरे तत्तु बोधकम् ॥ ४॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८२-१८५] अत्राह"अप्सूर्यदर्शिनां नित्यं द्वेधा चक्षुः प्रवर्त्तते ।
एकमूर्द्धमधस्ताच्च तत्रोशिप्रकाशितम् ॥ १॥ २५ अधिष्ठानानृजुत्वाच्च नात्मा सूर्य प्रपद्यते।
पारम्पयर्पितं स तमाग्वृत्या तु वुध्यते ॥२॥
१ जैनादिः। २ स सूर्यो निमित्तं येषां तानि। ३ सूर्येण। ४ नानात्वेन । ५ क्रियाविशेषणमेतत् । ६ पात्राण्यनतिक्रम्य । ७ यदा दृश्यते। ८ अग्रेतनश्लोकान्तर्वथाशब्दः केन सह सबन्धनीय इत्यन्वयाथों 'यथा च प्रदीपः' शब्द उक्तः। ९ एक एव सविता नाना कथं दृश्यते इत्याह ईषदिति । १० नानारूपेण । ११ चक्षुःप्रवृत्तिर्नानारूपास्ति यत इत्यर्थः। १२ नः अस्माकमपि, तथैव प्रदीपप्रकारेणैव । एकोप्यादित्यो नानात्वेन दृश्यते चक्षुषः प्रवृत्तभिन्नत्वात् । १३ कूपादिषु कुत इत्यस्य समाधानमिदमवेतनम् ।
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शब्दनित्यत्ववादः
ऊर्द्धवृत्ति तदेकत्वादवागिव च मन्यते । अधस्तादेव तेनार्कः सान्तरालः प्रतीयते ॥ ३ ॥ एवं प्राग्गर्तया वृत्त्या प्रत्यग्वृत्तिसमर्पितम् । बुध्यमानो मुखं भ्रान्तेः प्रेत्यगित्यवगच्छति ॥ ४ ॥ अनेक देशवृत्तौ च सत्यपि प्रतिविम्बके । समानबुद्धिगम्यत्वान्नानात्वं नैव विद्यते ॥ ९ ॥ * [ मी० लो० शब्दनि० लो० १८६-१९०
सू० ३।९९ ]
४०९
किञ्च,
“देशभेदेन भिन्नत्वं मतं तच्चानुमानिकम् । प्रत्यक्षस्तु स एवेति प्रत्ययस्तेन बाधकः ॥ ६॥ पर्यायेण यथा चैको भिन्नदेशान् व्रजन्नपि । देवदत्तो न भिद्येत तथा शब्दो न भिद्यते ॥ ७ ॥ ज्ञातैकत्वो यथा चासौ दृश्यमानः पुनः पुनः । न भिन्नः कालभेदेन तथा शब्दो न देशतः ॥ ८ ॥ पर्यायादविरोधंश्चेद्यापित्वादपि दृश्यतीम् । इष्टसिद्धो हि यो धर्मः सर्वथा सोऽभ्युपेयताम् ॥ ९ ॥" [ मी० श्लो० शब्द नि० श्लो० १९७-२०० ] इति ।
१०
१ गच्छत्या । २ संमुखम् । ३ सूर्यस्योपलम्भद्वारेण । ४ इत्यस्यापि प्रतिबिम्बके सूर्यस्योपलम्भद्वारेणानेकदेशवृत्तिकं ततश्चानैकान्तिकत्वं प्रकृतसाधनस्यानेनेति चेन्न तस्यापि नानात्वसंभवात् इति वदन्तं प्रति । ५ एवमनेकान्तदूषणमुद्भाव्य कालात्ययापदिष्टत्वमुद्भावयति । भिन्नदेशस्यैकत्वं नास्तीति प्रत्यक्षं कथमनुमानबाधकमित्युक्ते चाह । ६ गकारादीनाम् । ७ कारणेन । ८ कालक्रमेण । ९ व्यवहारकाले । १० समानत्वमित्यर्थः 1 ११ अग्निधूमयोः शब्दार्थयोश्च । १२ शब्दप्रकारेण = शब्दव्यक्तिर्भवति पक्षे शब्दत्वादिति वक्तव्यम् । १३ असर्वज्ञेन ।
प्र० क० मा० ३५
१५
अत्र प्रतिविधीयते । नित्यः शब्दोऽर्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपतेरित्ययुक्तम् धूमादिवदनित्यस्यापि शब्दस्यावगतसम्बन्धस्य सादृश्यतोऽर्थप्रतिपादकत्वसम्भवात् । न खलु य एव सङ्केतकाले २० दृष्टस्तेनैवार्थप्रतीतिः कर्त्तव्येति नियमोस्ति, महान सदृष्टधूमसशादपि पर्वतधूमादग्निप्रतिपत्त्युपलम्भात् । न हि महानसप्रदे शोपलब्धैव धूमव्यक्तिरन्यत्राप्यग्निं गमयतिः सद्दशपरिणामाक्रान्तव्यत्तयन्तरस्य तद्गमकत्वप्रतीतेः, अन्यथा सर्वस्य सर्वगतत्वानुषङ्गः । सदृशपरिणामप्रधानतया च साध्यसाधनयोः २५ सम्बन्धावधारणम् । न ह्यनाश्रित समानपरिणतीनां निखिलधूमादिव्यक्तीनां स्वसाध्येनाऽवदेशा सम्बन्धः शक्यो ग्रहीतुम्
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४१०
प्रमेशकालमार्तण्डे
[३. परोक्षपरि०
असाधारणरूपेण र तादामप्रतिमासनात्, अथ धूमसामान्यमेवाशिमलिपतिकारणम्, न व्यक्तिलादृश्यव्यतिरेकेण तदसम्भवात् । न च धूमत्वान्मया प्रतिपन्नोग्निः' इति प्रतिपत्तिः, किन्तु धूमात् । सा च सामान्यविशिष्टव्यक्तिमात्रयोः सम्बन्ध५ग्रहले घटते । न तु धूमाग्निसामान्ययोरवश्यं चानुमेयानुमापकयोः सामान्यविशिष्टविशेषरूपतोपगन्तव्या, अन्यथा सामान्यमात्रस्य दाहाद्यर्थक्रियासाधकत्वाऽभावात् ज्ञानाद्यर्थक्रियायाश्च तत्साध्यायास्तदेवोत्पत्तेः, दाहाद्यार्थिनामनुमेयार्थप्रतिभासात प्रवृत्त्यभावतोऽस्याप्रामाण्यप्रसङ्गः । सामान्यविशिष्टविशेषरूपता १० चात्र वाच्यवाचकयोरपि समादा न्यायस्य समानत्वात् ।
यदप्युक्तम्"सदृर्शत्वात्प्रतीतिश्चेत्तद्वारेणाप्यवाचकः। कस्य चैकस्य सादृश्यात्कल्प्यतां वाचकोऽपरः॥१॥ अदृष्टसङ्गतत्वेन सर्वेषां तुल्यता यदा। अर्थवान्पूर्वदृष्टश्चेत्तस्य तावान्क्षणः कुतः ॥ ३॥ द्विस्तावानुपलब्धो हि अर्थवान्सम्प्रतीयते।"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४८-२५०] - इत्यादि; तदप्यसारम् ; अनुमानवातॊच्छेदप्रसङ्गात् । धूमादि
लिङ्गात्पूर्वोपलब्धधूमादिसादृश्यतोग्न्यादिसाध्यप्रतिपत्तावप्यस्य २० सर्वस्य समानत्वात्।
एतेनैवमपि प्रत्युक्तम्__ "शब्द तावदनुच्चार्य सम्बन्धकरणं कुतः। न चोच्चारितनष्टस्य सम्बन्धेन प्रयोजनम् ॥”
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २५६] इत्यादि । २५ यतोऽदृष्टे धूमे सम्बन्धो न शक्यते कर्तुम् । नापि दृष्टनष्टस्यास्य
सम्बन्धेन प्रयोजनं किञ्चित् ।
१ शब्दपक्षे शब्दसामान्यमेवार्थप्रतिपत्तिकारणमिति वाच्यम् । २ धूमसामान्यात् । ३ सादृश्यपरिणामविशिष्ट व्यक्तिरेव मात्रा स्वरूपं ययोः साध्यसाधनयोस्तयोः । ४ साध्यसाधनयोः । ५ शब्दस्योच्चारणसमये, अश्याद्यनुमानसमये च। ६ विशेषे पर्वतादौ । ७ सामान्यस्य । ८ नहीत्यादिपूर्वोक्तस्य । ९ संकेतकालोपलब्धशब्देन व्यवहारकालोपलब्धशब्दस्य । १० तदेति शेषः । कथमवाचक इत्युक्ते कस्येत्याह । कस्य संकेतकालोपलब्धस्य । ११ व्यवहारकालोपलब्धः शब्दः। १२ अदृष्टसंबन्धेन। १३ शब्दानाम् । १४ वाच्यवाचकसंबन्धवान् शब्दः । १५ द्विवारम् । १६ वाच्येन सह। १७ साध्येनामिना सह ।
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सू० ३९९ शब्दनित्यत्ववादः यच्च सादृश्ये दूषणमुक्तम्"तथा भिन्नमभिन्नं वा सादृश्यं व्यक्तितो भवेत्। एवमेकमनेकं वा नित्यं वानित्यमेव वा ॥१॥ भिन्ने चैकत्वनित्यत्वे जातिरेव प्रकल्पिता। व्यत्यऽनन्यदथैकं च सादृश्यं नित्यमिष्यते ॥२॥ ५ व्यक्तिनित्यत्वमापन्नं तथा सत्यलंदीहितम् ।।
[भी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २७१-२७३] इत्यादिः तदप्ययुक्तम् । खहेतोरेकस्य हि यादृशः परिणामस्तादृश एवापरस्य सादृश्यम् , न तु स एव । स च व्यक्तिभ्यो भिन्नोऽभिनश्च, तथाप्रतीतेः । न च जातिस्तथाभूताः नित्यव्यापित्वेनाभ्यु-१० पगमात् । तथाभूताश्चास्याः सामान्यनिराकरणे निराकरिष्यमाणत्वात् । ततः प्रवृत्तिमिच्छता लिङ्गाच्छव्दाद्वा न सामान्यमात्रस्य प्रतिपत्तिरभ्युपगन्तव्या।
ननु सामान्यस्य विशेषमन्तरेणानुपपत्तितो लक्षितलक्षणया विशेषप्रतिपत्तेन प्रवृत्त्याद्यभावानुषङ्गः, इत्यप्रातीतिकम्; क्रमप्र-१५ तीतेरभावात् । न हि वाचकोद्भूतवाच्यप्रतिभासे प्राक् सामान्यावभासः पश्चाद्विशेषप्रतिभास इत्यनुभवोस्ति ।
किञ्च, सामान्याद्विशेषः प्रतिनियतेन रूपेण लक्ष्येत, साधारणेन वा? न तावदाद्यः पक्षः प्रतिनियतरूपतयाऽस्याऽप्रतीतेः। न हि शब्दोच्चारणवेलायां जातिपरिमितो विशेषोऽसाधारण-२० रूपतयाऽनुभूयते प्रत्यक्षप्रतिभासाऽविशेषप्रसङ्गात् । प्रतिनियतरूपेण जातेरविनाभावाभावाच्च कुतस्तया तस्य लक्षणम् ? नापि द्वितीयः, साधारणरूपतया प्रतिपन्नस्यापि विशेषस्यार्थक्रियाकारित्वाऽसामर्थ्येन प्रवृत्त्यहेतुत्वात्, प्रतिनियतस्यैव रूपस्य तत्र सामोपलब्धेः । पुनरपि साधारणरूपतातो विशेष-२५ प्रतिपत्तावनवस्था स्यात् । साधारणरूपतया चातो विशेष
१ तथाशब्दः स्वग्रन्थापेक्षया दूषणान्तरसमुच्चये। २ अनेकं सादृश्यं चेत्तरिक नित्यमनित्यं वा? अनित्यं चेन संबन्धप्रतिपत्तिः । नित्यं चेत्तदैकेनैव सादृश्येनार्थप्रतिप्रतिपत्तेरनेकनिष्ठसादृश्यपरिकल्पनं व्यर्थम् । ३ परोक्तौ परिहारमाह । ४ अस्माभिजनैः । ५ धूमादेः । ६ धूमादेः । ७ सादृश्यपरिणामः । ८ मिन्नाभिन्नत्वप्रकारेण। ९ भिन्नाभिन्नरूपा। १० परेण त्वया। ११ सामान्यस्थानुमेयरूपत्वे प्रवृत्तिर्न घटते यतः । १२ सामान्यस्य विशेषनिष्ठत्वात् । १३ सामान्यजनितप्रतिपत्त्या। १४ सामान्यस्य नित्यसर्वगतत्वात् । १५ पूर्वोकस्य समर्थनमेतत् । १६ अन्यथेति शेषः । १७ शानम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० प्रतिपत्ती सामान्यात्सामान्यप्रतिपत्तौ लामान्यप्रतिपत्तिरेव स्यान्न विशेषप्रतिपत्तिः, साधारणरूपतायाः सामान्यखभावत्वात् ।
किच, यदि नाम शब्दाजातिः प्रतिपन्ना व्यक्तेः किमायातम. येनासौ तांगमयति? तयोः सम्वन्धाच्चेत् ; सम्वन्धस्तयोस्तदा ५प्रतीयते, पूर्व वा? न तावत्तदा व्यक्तेरनधिगतेः "जातिरेव हि केवला तदा प्रतिभासते' इत्यभ्युपगमात्, अन्यथा कि लक्षितलक्षणया? न च व्यक्त्यनधिगमे तत्सम्वन्धाधिगमः, द्विष्ठत्वात्तस्य । अथ पूर्वमसौ प्रतीतः; तथापि तदेवासौ भवतु ।
न ह्येकदा तत्सम्वन्धेऽन्यदाप्यसौ भवत्यतिप्रसङ्गात् । न च जाते. १०विशेषनिष्ठतैव स्वरूपम् ; व्यत्यन्तराले तत्स्वरूपाऽसत्त्वप्रसङ्गात्। तत्कथं व्यत्यऽविनाभावोऽस्याः?
किञ्च, सर्व जाति=क्तिनिष्ठेति प्रत्यक्षेण प्रतीयते, अनुमानेन वा? प्रत्यक्षेण चेत्किं युगपत्, क्रमेण वा? तत्राद्यपक्षोऽ.
युक्तः, सर्वव्यक्तीनां युगपदप्रतिभासनात् । न च तासामप्रति१५भासे तथा सम्वन्धावसायोऽतिप्रसङ्गात् । नापि द्वितीयः, क्रमेण निरवधेः सकलव्यक्तिपरम्परायाः परिच्छेत्तुमशक्तेः । कादाचित्के तु जातेर्व्यक्तिनिष्ठताधिगमे सर्वत्र सर्वदा न तनिष्ठताधिगमः स्यात् । तन्न प्रत्यक्षेण जातेस्तनिष्ठताधिगमः।
नाप्यनुमानेन; अस्याऽध्यक्षपूर्वकत्वेनाभ्युपगमात् । तस्य चात्राऽ. २० प्रवृत्तावनुमानस्याप्यप्रवृत्तिः । तन्न लक्षितलक्षणया विशेषप्रतिपत्तिः सम्भवति, इति वाच्यवाचकयोः सामान्यविशिष्टविशेषरूपतोपगन्तव्या धूमादिवत् ।
ननु धूमादेः सामान्यसद्भावात्तद्विशिष्टस्योक्तन्यायेन गमकत्व. मस्तु, शब्दे तु तस्याभावात्कथं तद्विशिष्टस्य गमकत्वम् ? तद. २५भावश्च वर्णान्तरग्रहणे वर्णान्तरानुसन्धानाभावात् । यत्र हि सामान्यमस्ति तत्रैकग्रहणेऽपरस्यानुसन्धानं दृष्टं यथा शावलेयग्रहणे बाहुलेयस्य । वर्णान्तरे च गादौ गृह्यमाणे न कादीनामनुसन्धानम् । तदसाम्प्रतम् ; गादौ हि वर्णान्तरे गृह्यमाणे यदि 'अयमपि वर्णः' इत्यनुसन्धानाभावः सोऽसिद्धः, तथानुभू(तथाभू).
१ व्यक्तिम् । २ शब्दाज्जातिप्रतिपत्तिकाले। ३ शब्दोच्चारणसमये व्यक्तिरपि प्रतिभासते चेत्तहिं । ४ लक्षितेन शातेन सामान्येन लक्षणा=विशेषप्रतिपत्तिस्तया । ५ संबन्धस्य । ६ घटपटयोरेकदा संवन्धे सर्वदा संबन्धप्रसङ्गात् । ७ संवन्धी नास्ति यतः। ८ कदाचिद्वेत्यप्यत्र द्रष्टव्यम् । ९ पिशाचाप्रतिभासे पिशाचेन कूटस्य संबन्धपत्यक्षप्रसङ्गात् । १० विशेषस्य । ११ अर्थज्ञापकत्वम् । १२ अनुसंधान प्रत्यमिशनम् । १३ व्यक्तिषु । १४ गत्वाभावात् कादिषु। १५ अनुसंधानामावः ।
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सू० ३।९९] शब्दनित्यत्ववादः तानुसन्धानस्यानुभूयमानत्वेनाऽभावासिद्धेः । अथ गादौ वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि कादिः' इत्यनुसन्धानाभावान सामान्यसद्भावः, तर्हि शावलेयादावपि व्यक्त्यन्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि वाहुलेयः' इत्यनुसन्धानाभावाद्गोत्वस्याप्यभावः। अथ 'गौ!ः' इत्यनुगताकारप्रत्ययसद्भावान्न गोत्वाऽसत्त्वम् : तदन्यत्रापि समानम्-५ तत्रापि हि 'वर्णो वर्णः' इत्यनुगताकारप्रत्ययोस्तु, तत्कथं वर्णेषु वर्णत्वस्य गादिषु गत्वादेः शब्दे शब्दत्वस्याभावः निमित्ताऽ. विशेषात् ? तथाहि-समानासमानरूपासु व्यक्तिषु क्वचिन् 'समानाः' इति प्रत्ययोऽन्वेत्यन्यत्र व्यावर्त्तते । यत्र च प्रत्ययानुवृत्तिस्तत्र सामान्यव्यवस्था, नान्यत्र । सा च प्रत्ययानुवृत्तिर्गादि-१० स्वपि समानेति कथं न तत्र सामान्यव्यवस्था ? तथाप्यत्र सामान्यानभ्युपगमे शावलेयादावपि सोस्तु । न हि तत्रापि तथाभूतप्रत्ययानुवृत्तिमन्तरेण सामान्याभ्युपगमेऽन्यनिमित्तमुत्पश्यामः । यदि चात्राऽनुगताऽवाधिताऽक्षजप्रत्ययविषयत्वे सत्यपि गत्वादेरभावः; तर्हि गादेरपि व्यावृत्तप्रत्ययविषयस्या-१५ भावः स्यात् । तथा च कैस्य दर्शनस्य पॅरार्थत्वान्नित्यत्वं साध्येत ?
यच्चोक्तम्-'सादृश्येन ततोऽर्थाप्रतिपत्तेः' इति; तत्सदृशपरिणामलक्षणसामान्यविशिष्टव्यक्तेरर्थप्रतिपादकत्वसमर्थनात्प्रत्युक्तम् ।
यदप्यभिहितम्-सादृश्यादर्थप्रतीतो भ्रान्तः शाब्दः प्रत्ययः२० स्यात् । तद्भूमादेरग्यादिप्रतिपत्तौ समानम् ।
यदप्युक्तम्-'गत्वादीनां वाचकत्वं गादिव्यक्तीनां वा' इत्यादिः तत्सामान्यविशिष्टव्यक्तेर्वाचकत्वसमर्थनादेव प्रत्युक्तम् ।
यञ्चोक्तम्-'यो यो गृहीतः' इत्यादिः तदप्युक्तिमात्रम् ; पक्षस्यानुमानवाधितत्वात् । तथाहि-अनेको गोशब्द एकेनैकदा २५ भिन्नदेशस्वभावतयोपलभ्यमानत्वाद् घटादिवत् । न चानेकप्रतिपतृभिर्भिन्नदेशतयोपलभ्यमानेनादित्यादिना, कालभेदेन भिन्नदेशादितयोपलभ्यमानेन देवदत्तेन वा व्यभिचारः; 'एकेनैकदा' इति विशेषणद्वयोपादानात् । एकेनैकदा दर्शनस्पर्शनाभ्यां भिन्नस्वभावतयोपलभ्यमानेन घटादिना वा; 'भिन्नदेशतया' इति ३० विशेषणात् । जलपात्रसङ्क्रान्तादित्यादिप्रतिविम्वैस्तद्यभिचार,
१ गत्वलक्षणं सामान्यं नास्ति तथापि वर्णत्वलक्षणं सदृशसामान्य कादिष्वस्त्येवेति जैनाभिप्रायः। २ अभावे सति। ३ गादेः। ४ उच्चारणस्य। ५ हेतोः। ६ न चेति पूर्वेण संबन्धोत्र ज्ञेयः ।
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प्रदेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० तेषामग्रेऽनेकत्यप्रसाधनात् । तथाप्यत्र लगतत्वादिधर्मसम्भवे घटादावधि लोऽस्तु
द चास्याऽवयवाः सन्ति येन वर्त्तत भागशः।
घटो वर्तत इत्येव तत्र सर्वात्मकश्च सः॥' ५ इत्यादेरत्राप्यभिधातुं शक्यत्वात् । यथा च
कचिद्रक्तः क्वचित्पीतः क्वचित्कृष्णश्च गृह्यते । प्रतिदेशं घटस्तेन विभिन्नो मम युक्तिमान् ॥ तथा
उदात्तः कुत्रचिच्छब्दोऽनुदात्तश्च तथा क्वचित् । १० अकारो मि(कारमि)श्रितोऽन्यत्र विभिन्नः स्याद् घटादिवत् ॥
ननु 'व्यञ्जकध्वनिधर्मा एवोदात्तादयो नाऽकारादिधर्माः, ते तु तबारोपात्तद्धर्मा इवावभासन्ते जपाकुसुमरक्ततेव स्फटिकादाविति। उक्तञ्च
"वुद्धितीव्रत्वमन्दत्वे महत्त्वाल्पत्वकल्पना । १५ सा च पट्वी भवत्येव महातेजःप्रकाशिते ॥१॥
मन्दप्रकाशिते मन्दा घटादावपि सर्वदा। एवं दीर्घादयः सर्वे ध्वनिधर्मा इति स्थितम् ॥२॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१९-२२०] तदप्यसारम्; यतो यधुदात्तादिधर्मरहितोऽकारादिस्तत्स२० हितश्च ध्वनिः रक्तेतरस्वभावजपाकुसुमस्फटिकवत् कचिदुप
लब्धः स्यात् तदा स्यादेतत् “अन्यधर्मस्तदारोपात्तद्धर्मतयेवावभाति' इति । न चासौ स्वप्नेपि तथोपलभ्यते । शब्दधर्मतया चैते प्रतीयमाना यद्यन्यस्येष्यन्तेऽन्यत्र कः समाश्वासहेतुः? वाधकाभावश्चेत्सोत्रापि समानः। विपरीतदर्शनं हि वाधकम् , २५ यथा द्विचन्द्रदर्शनस्यैकचन्द्रदर्शनम् । न चात्र तदस्ति-उदात्तादिधर्मात्मकस्यैवाकारादेः सर्वदा प्रतीतेः । तथापि तत्कल्पने रक्तादिधर्मरहितस्य घटादेर्दर्शनं तथैव कल्प्यताम् । तथाविधस्थानुपलम्भादसत्त्वम् ; शब्देपि समानम् ।
किञ्चेदं युद्धस्तीव्रत्वं नाम ? किं महत्वरहितस्यार्थस्य महत्त्वेनो३० पलम्भः, यथाऽवस्थितस्याऽत्यन्तस्पष्टतया वा? प्रथमे विकल्पे
भ्रान्तताऽस्याः स्यात् । 'सा च पट्टी भवत्येव महातेजःप्रकाशिते घटादौ सर्वदा' इति च निदर्शनमयुक्तम् ; न हि महातेजःसाम
•दल्पोपि घटो 'महान्' इत्यवभासते, किन्त्वत्यन्तस्पष्टतया । द्वितीयविकल्पे तु महत्त्वादिधर्मरहितस्यास्याऽत्यन्तस्पष्टतया ३५ग्रहणं स्यात् । तथा च न व्यञ्जकध्वनिधर्मानुविधायित्वं स्यात् ।
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सू० ३१९९] शब्दनित्यत्ववादः
एतेन वुद्धिमन्दत्वेऽल्पता निरस्ता । न खलु मन्दतेजसः प्रकाशिते घटादौ महति वुद्धिमन्दत्वेनाल्पत्वप्रतीतिरस्ति । ततो 'महाताल्वादिव्यापारे महत्त्वादिधर्मायेतोऽल्पे चाल्पत्वादिधर्मापेतः शब्द एवोत्पद्यते' इत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
यदि च ताल्वादयो ध्वनयो वास्य व्यञ्जका तर्हि तद्यापारे ५ तद्धमापेतस्यास्य नियमेनोपलब्धिर्न स्यात् । कारकव्यापारो ह्येपःस्वसन्निधाले नियमेन्द्र कार्यसन्निधापनं नाम, न व्यञ्जकव्यापारः न खलु यत्र यत्र व्यञ्जका प्रदीपादिस्तत्र तत्र व्यङ्ग्यवटादिलनिधापनमुपलब्धिर्वा नियमतोस्ति, अन्यथा तयोरविशेषप्रसङ्गात्, चक्रादिव्यापारवैयर्थ्यानुषगाच्च। अथ घटादेरसर्वगतत्वान्न १० तयञ्जनसन्निधाने सर्वत्रोपलम्भः, शब्दस्य तु सम्भवति विपर्ययात्; इत्यप्यनिरूपिताभिधानम्; तस्य सर्वगतत्वाऽसिद्धेः । तथाहि-न सर्वगतः शब्दः सामान्यविशेषवत्त्वे सति वाहोंकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद् घटादिवत् । ततो घटादिभ्यः शब्दस्य विशेषाभावादुभयोः कार्यत्वं व्यङ्ग्यत्वं चाभ्युपगन्तव्यम्।
किञ्च, एते ध्वनयः श्रोत्रग्राह्याः, न वा ? श्रोत्रग्राह्यत्वे अत एव शब्दाः तल्लक्षणत्वात्तेषाम् । तत्र च तात्त्विका एवोदात्तायो धर्माः । तथा चापरशब्दकल्पनानर्थक्यम् । अथ न श्रोत्रग्राह्याः; कथं तर्हि तद्धर्मा उदात्तादयस्तद्राह्याः? न हि रूपा. दीनां धर्मा भासुरत्वादयो रूपादेरग्रहणे श्रोत्रेण गृह्यन्ते ।२० अथ न भावतस्तेन ते गृह्यन्ते, किन्त्वारोपात् । ननु चाऽगृहीतस्यारोपोपि कथम् ? अन्यथा भासुरत्वादेरपि तत्रारोपः स्यात् । अथ व्यञ्जकत्वाद् ध्वनीनां तद्धर्मा एव तत्रारोप्यन्ते, न रूपादीनां विपर्ययात्। ननु ज्ञानजनकत्वान्नापरं व्यञ्जकत्वम् । तथा सत्यल्पेन चक्षुपा व्यज्यमानः पर्वतो महानपि २५ तद्धर्मारोपात्तत्परिमाणतया प्रतीयेत सर्षपश्च वृहत्परिमाणतया, न चैवम् । तनैते ध्वनिधर्मा उदात्तादयोऽपि तु शब्दधर्माः। तथाप्यस्यैकव्यक्तिकत्वे घटादेरपि तदस्तु विशेषाभावात् ।
ननु चास्यैकत्वे नभोवत्कारणानायत्तत्वान्न तदुत्कर्षापकर्षाभ्यामुत्कर्षापकर्षों स्याताम्; तच्छन्दपि समानम्-तस्यापि हि ३० प्रत्येकमेकव्यक्तिकत्वे ताल्वोत्कर्षाऽपकर्षाभ्यामुत्कर्षापकर्षयोगो न स्यात्, किन्तु सर्वत्र तुल्यप्रतीतिविषयता स्यात् । ननु चासिद्धं ताल्वादेर्महत्त्वादेः शब्दस्य महत्त्वादिकम् । तथाहि
"कारणानुविधायित्वं यच्चाल्पत्वमहत्त्वयोः। तदसिद्धं न वर्णो हि वर्द्धते न पदं क्वचित् ॥
३५
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४१६
२५
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
वर्णान्तरजनी तावत्पदत्वं विहन्यते । अयदं हि भवेदेतद्यदि वा स्यात्पदान्तरम् ॥ वर्णोऽवयवत्वात् वृद्धिहासौ न गच्छति । व्योमादिवदतो ऽसिद्धा वृद्धिरस्य स्वभावतः ॥”
[ मी० लो० शब्दनि० लो० २१०-२१३] अत्रोच्यते - किं कारणानुविधायित्वमल्पत्वमहत्त्वयोः स्वभावसिद्धत्वादसिद्धम्, आहोस्विकारणाल्पत्वमहत्त्वाभ्यां शब्दस्याल्पत्वमहत्त्वे एव न विद्येते स्वभावतस्तद्रहितत्वात् इति ? तत्राद्यपक्षे स्वभावे एव वास्याऽल्पत्वमहत्त्व विद्येते, न तु ते १० तस्य कारणाल्पत्वमहत्त्वाभ्यां कृते इत्यायातम्, तथा च घटादेरपि तथा तत्सत्त्वप्रसङ्गः । निर्हेतुकत्वेन सर्वदा भावानुषङ्गश्वोभयत्र समानः । द्वितीयस्तु पक्षोऽसङ्गतः; तयोस्तत्र प्रतीयमानत्वेन स्वभावतस्तद्रहितत्वासिद्धेः । न खलु महति ताल्वादो महानऽल्पे चाल्पः शब्दो न प्रतीयते, सर्वत्र तयोरनाश्वास१५ प्रसङ्गात् ।
यदयुक्तम्- ' न हि वर्णों वर्द्धते' इत्यादिः तत्र यदि तावत् 'अल्पताल्वादिजनितो वर्णादिरल्पो महतस्तात्वादिव्यापारान्न वर्द्धते' इत्युच्यते तदा सिद्धसाधनम् । न हि घटोऽल्पान्मृपिण्डात्तथाविधो जातोऽन्यतः स एव वर्द्धते अघटत्वप्रसङ्गात्, २० घटान्तरमेव वा स्यात् । अथान्यपि वृद्धिमान्न जायते; तन्न; तथाविधस्य दृष्टत्वात् । दृष्टस्य चाऽपह्नवाऽयोगात् ।
[ ३. परोक्षपरि०
३५
एतेनैतन्निरस्तम्
"अथ ताद्रूष्यविज्ञानं हेतुरित्यभिधीयते । तथापि व्यभिचारित्वं शब्दत्वेपि हि तन्मतिः ॥ १ ॥ व्यक्तत्यल्पत्वमहत्त्वे हि तद्यथानुविधीयते । तथैवानुविधातायं ध्वन्यल्पत्वमहत्त्वयोः ॥ २ ॥'
[मी० श्लो० शब्द नि० श्लो० २१३-२१४] इति । सदृशपरिणामो हि सामान्यम् । तस्य च वर्णवद्ऽल्पत्वमहत्त्वसम्भवात् कथं तेनानेकान्तः ? भवत्कल्पितं तु सामान्यमग्रे ३० निषिद्धत्वात्वरविषाणप्रख्यमिति कथं तेन व्यभिचारोद्भावनम् ? यदप्युच्यते
व्यङ्ग्यानां चैतदस्तीति लोकेप्यैकान्तिकं न तत् । दर्पणाल्पमहत्त्वे हि दृश्यतेऽनुपतन्मुखम् ॥ १॥ न स्याद्व्यङ्ग्यता तस्मिंस्तत्क्रियाजन्यतापि वा । न चास्योच्चारणादन्या विद्यते जनिका क्रिया ॥ २ ॥” [मी० लो० शब्दनि० लो० २१५-२१७]
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सू० ३।९९] शब्दनित्यत्ववादः
तदप्यचारु भ्रान्तेनाऽभ्रान्तस्य व्यभिचाराऽयोगात् । शन्दे हि महत्त्वादिप्रत्ययोऽभ्रान्तो वाधवर्जितत्वादित्युक्तम् । मुखे तु भ्रान्तो विपर्ययात् । न चान्यस्य भ्रान्तत्वेऽन्यस्यापि तत्, अन्यथा सकलशून्यतानुषङ्गः-स्वप्नादिग्रत्ययवत्सकलप्रत्ययानां भ्रान्ततापत्तेः । न च खड्ने प्रतिविम्वितदीर्घतया मुखमेवाssभाति दर्पगे तु वर्तुलतया गौरनीले काचे नीलतयाः किन्तु तदाकारस्तत्र प्रतिविम्वितस्तद्धर्मानुकारी प्रतिभाति । न च शब्दस्याप्याकारो ध्वनौ, ध्वनेर्वा शब्दे प्रतिविम्वितस्तद्धर्मानुकारी भवतीत्यभिधातव्यम् ; शब्दस्याऽमूर्त्तत्वेन मूर्ते ध्वनौ तत्प्रतिविम्बनाऽसम्भवात् । मूर्तानामेव हि मुखादीनां मूर्ते दर्पणादौ तत्प्रति १० बिम्बनं दृष्टं नाऽमूर्तानामात्मादीनाम् । न चाऽश्रोत्रग्राह्यत्वे ध्वनेः प्रतिबिम्वितोप्याकारः श्रोत्रेण ग्रहीतुं शक्योऽतिप्रसङ्गात् । तद्राह्यत्वे वा अपरशब्दकल्पना व्यर्थेत्युक्तम् । यच्चाप्युक्तम्"यथा महत्यां खातायां मृदि व्योग्नि महत्त्वधीः। अल्पायामल्पधीरेवमत्यन्ताऽकृतके मतिः ॥ तेनात्रैवं परोपाधिः शब्दवृद्धौ मतिभ्रंमः (मतिभ्रमः)! न च स्थूलत्वसूक्ष्मत्वे लक्ष्येते शब्दवर्तिनी ॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१७-२१९] तदप्यसमीचीनम्। व्योन्नोऽतीन्द्रियत्वेन महत्त्वादिप्रत्ययवि-२० षयत्वायोगात् । तद्योगे चाल्पया खातयाऽवष्टब्धो व्योमप्रदेशोऽल्पो महत्या च महानिति नाऽनेनाऽनेकान्तः । निरवयवत्वे हि तस्याणुवद्व्यापित्वासम्भवः, अत्यन्ताकृतकत्वेन च क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोध इति वक्ष्यते । तथा शब्दस्यापि सावयवत्वाभ्युपगमे
"पृथर न चोपलभ्यन्ते वर्णस्यावयवाः कचित् । न च वर्णेष्वनुस्यूता दृश्यन्ते तन्तुवत्पटे ॥ १॥ तेषामनुपलब्धेश्च न जाता लिङ्गतो गतिः। नागमस्तत्परश्चास्मिन्नाऽदृश्ये चोपमा क्वचित् ॥२॥ न चास्यानुपपत्तिः स्याद्वर्णस्यावयवैर्विना। यथान्यावयवानां हि विनाप्यवयवान्तरैः॥ ३॥ प्रत्यक्षेणावबुद्धश्च वर्णोऽवयववर्जितः। किन्न स्यायोमवञ्चात्र लिङ्गं तद्रहिता मतिः॥४॥"
[मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० ११-१४] इति वचो विरुद्ध्येत ।
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४१८
प्रमेयकसलमार्तण्डै
३. परोक्षपरिक
यत्पुनरुक्तम्-व्य ध्वन्यधीनत्वात्तदेशे स च गृह्यते। इत्यादिः तत्र कुतो ध्वन्यः प्रतिपन्ना येन तद्धीना शब्दश्रुतिः स्थात् ? प्रत्यक्षेण, अनुमानेन, अर्थापत्त्या वा? प्रत्यक्षेण
चत्किं श्रोनेण, स्पर्शनेन वा? न तावच्छोत्रेण तथा प्रतीत्यभा५वाद न खलु शब्दवत्तत्र ध्वनयः प्रतिभासन्ते विप्रतिपत्त्यभावप्रसङ्गात् । तत्र ध्वनिप्रतिभासे चापरशब्दकल्पनावैयर्थ्यमित्युक्तम् । अथ स्पार्शनप्रत्यक्षेण ते प्रतीयन्ते-स्वकरपिहितवदनो हि वदन् स्वकरसंस्पर्शनेन तान्प्रतिपद्यते, वदतो मुखाग्रे स्थित
तूलादेः प्रेरणोपलम्सादनुमानेनेति तद्प्यसाम्प्रतम् ; वायुवत्ता१० ल्वादिव्यापारानन्तरं कफांशानामप्युपलम्मेन शब्दाभिव्यञ्जकत्व
प्रसङ्गात् । वक्तवक्त्रप्रदेश एवैषां प्रक्षयेण श्रोतृश्रोत्रप्रदेशे गमनाभावान्न तत्; इत्यन्यत्रापि समानम् । न हि वायवोपि तत्र गच्छन्तः समुपलभ्यन्ते । शब्दप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या प्रतिपत्तिस्तूभयत्रसमाना । यथा च स्तिमितभाषिणो न कफांशोपलम्भ१५स्तथा वायूपलम्भोपि नास्ति । स्तिमितस्य कल्पनमुअयत्र समानम् । तन्न प्रत्यक्षेणानुमानेन वा तत्प्रतिपत्तिः।
अथार्थापत्त्या तेषां प्रतिपत्तिः, तथाहि-शब्दस्तावन्नित्यत्वानोत्पद्यते संस्कृतिरेव तु क्रियते । सा च विशिष्टा नोपपद्येत
यदि ध्वनयो न स्युः। तदुक्तम्२० "शब्दोत्पत्तेनिषिद्धत्वादन्यथान्द्रपपत्तितः।
विशिष्टसंस्कृतेर्जन्म ध्वनिभ्यो व्यवसीयते ॥ १॥ तद्भावभाविता चात्र शत्यस्तित्वाववोधिनी । श्रोत्रशक्तिवदेवेष्टा वुद्धिस्तत्र हि संहता ॥२॥
कुंड्यादिप्रतिबन्धोपि युज्यते मातरिश्वनः। २५ श्रोत्रादेरभिघातोपि युज्यते तीव्रवर्तिना ॥ ३॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १२६-१२९] इति; तत्र केयं विशिष्टा संस्कृति म-शब्दसंस्कारः, श्रोत्रसंस्कारः, उभयसंस्करो, वा? परेणं हि त्रेधा संस्कारोऽभ्युपगम्यते । सच
१ शब्दस्य अभिव्यक्तिः । २ निश्चीयते । ध्वनयः सन्ति शब्दसंस्कारान्यथानुपपत्तेरिति। ३ तद्भावमावित्वमसिद्धमित्युक्ते आह बुद्धिरिति । बुद्धिः प्रत्यक्षबुद्धिः। ४ नियता । ५ शब्दस्यामूर्तत्वे कुड्यादिप्रतिबन्धो न स्याच्छोत्राभिघातो वा न स्यादित्युक्ते आह । ६ शब्दव्यशकवायोः। ७ शब्दव्यजकवायुना। ८ ध्वनेः सकाशात् । ९ मीमांसकेन ।
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सू० ३।९९] शब्दनित्यत्ववादः
४१९ "स्याच्छब्दस्य हि संस्कारादिन्द्रियस्योभयस्य वा।"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ५२] "स्थिरवाय्यपनीत्या च संस्कारोस्य भवन्भवेत्।"
मी० श्लो० शब्दनि श्लो०६२] इत्यभिधानात् ।
तत्राद्ये पक्षे कोयं शब्दसंस्कारः-शब्दस्योपलब्धिः, तस्यात्मभूतः क्वचिदतिशयः, अनतिशयव्यावृत्तिवी, स्वरूपपरिपोषो वा, व्यक्तिसमवायो वा, तद्हणापेक्षग्रहणता वा, व्यञ्जकसन्निधानमात्रं वा, आवरणविगमो वा स्यात् ? यदि शब्दोपलब्धिः, कथमसौ ध्वनीनां गमिका शब्दे श्रोत्रमात्रभावित्वात्तस्याः? तथाप्य-१० न्यानिमित्तकल्पने हेतूनामनवस्थितिः स्यात् ।।
तस्यात्मभूतः कश्चिदतिशयोऽनतिशयव्यावृत्तिर्वा इत्यत्रापि अतिशयो दृश्यखभाव एव,अनतिशयव्यावृत्तिस्त्वदृश्यखभावखण्डनमेव । ते चेत्ततोऽन्ये; तत्करणेपि शब्दस्य न किञ्चित्कृतमिति तदवस्थाऽस्याऽश्रुतिः । अथाऽनन्ये; तदा शब्दस्यापि कार्यतया १५ अनित्यत्वानुषङ्गः । यो हि यस्मादसमर्थवभावपरित्यागेन समर्थस्वभावं लभते स चेन्न तस्य जन्यः; केंदानीं जन्यताव्यवहारः? न च समर्थस्वभाव एव जन्यो न शब्दः इत्यभिधातव्यम्: तस्याऽतो विरुद्धधर्माध्यासतो भेदानुषङ्गात् । तत्र चोक्को दोषः।
श्रोत्रप्रदेशे एव चास्य संस्कारे तावन्मात्रक एव शब्दः,२० न सर्वगतः स्यात् । तस्यैवान्यत्र तद्विपर्ययेणावस्थाने दृश्याssदृश्यत्वप्रसङ्गात् निरंशत्वव्याघातो विप्रतिपत्त्यभावश्चास्य परिणामित्वप्रसिद्धः । यदस्माभिः 'श्रावणखभावविनाशोत्पत्तिमपुद्गलँद्रव्यम्' इत्यभिधीयते तद्युष्माभिः 'वर्णः' इत्याख्यायते । यौ च श्रावणस्वभावोत्पादविनाशौ शब्दोत्पादविनाशा-२५ वस्माभिरिष्टौ तौ युष्माभिः शब्दाभिव्यक्तितिरोभावाविति नान्नैव
१ शब्दस्य । २ नियमाभावः। ३ शब्दस्य । ४ तस्य अतिशयस्य अनतिशयव्यावृत्तेर्वा । ५ शब्दस्य। ६ शब्दात् । ७ ध्वनेः। ८ असमर्थस्वभावःपूर्वावस्था ( शब्दाप्राकट्यम् ) । ९ अपि तु न कापीत्यर्थः। १० शब्दस्य । ११ श्रोत्रप्रदेशादन्यत्र । १२ स्वभावस्य जन्यता शब्दस्य त्वजन्यतेति भेदे । १३ सर्वगतत्वे च शब्दस्य । १४ शब्दस्य । १५ जनैः। १६ पुद्गले एव श्रावणखभावतोत्पद्यते नश्यति च। १७ तदेव शब्दः। १८ मीमांसकैः। १९ शब्द. रूपः। २० जैनैः। २१ मीमांसकैः ।
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४२०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. पदोक्षपरि० विवादो नार्थ इश्येतररूपता चैकस्य ब्रह्मवाद लमर्थयते तद्वञ्चेतनेतररूपतयाप्येकस्याऽवस्थित्यविरोधात् । घटादेरपि चैक सर्वगतत्वानुषङ्गः-'सोपि हि दृष्टप्रदेशे दृश्योऽन्यत्र चाहश्य, इति वदतो न वक्त्रं वक्रीभवेत् । सर्वत्र चास्य संस्कारे सर्व५ दोपलब्धिः स्यात्, न वा कचित्कदाचित् विशेाभावात् ।
स्वरूपंपरिपोषः संस्कारोस्य; इत्यप्यऽचर्चिताभिधानम् : नित्यस्य खभावान्यथाकरणाऽसम्भवात् । करणे वा स्वभावातिशयपक्षभावी दोषोनुषज्यते।
नापि व्यक्तिसमवायः; वर्णस्य व्यक्त्यऽसम्भवात्, अन्यथा १० सामान्यात्कोस्य विशेषः ? अत एव न तब्रहणापेक्षग्रहणेता।
नापि व्यञ्जकसन्निधानमात्रम्; सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रतिपत्तृभिः सर्ववर्णानां ग्रहणप्रसङ्गात् । ननु प्रति नियतेन ध्वनिना प्रतिनियतो वर्णः संस्कृतः प्रतिनियतेनैव प्रतिपत्रा प्रतीयते तथैव सामर्थ्यात् । उक्तं च
“विषयस्यापि संस्कारे तेनैकस्यैव संस्कृतिः। नरैः सामर्थ्य भेदाच न सर्वैरवगम्यते ॥१॥ यथैवोत्पद्यमानोयं न सर्वैरवगम्यते । दिग्देशाद्यविभागेन सर्वान्प्रति भवन्नपि ॥२॥ तथैव यत्समीपस्थैर्नादैः स्याद्यस्य संस्कृतिः। तैरेव श्रूयते शब्दो न दूरस्थैः कथञ्चन ॥ ३॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८३-८६] इति । तदप्यपेशलम् ; तेषां तदुपलम्भाऽसामर्थ्य सर्वदाऽनुपलम्भप्रसङ्गादधिरवत् । यदा तत्समीपस्थैर्व्यञ्जकैय॑ज्यतेऽसौ तदा
तैरेवोपलभ्यते इत्यप्यसुन्दरम्; यतस्तेषां व्यञ्जकैः किं क्रियते २५ येन ते तैर्नियमेनापेक्षन्तेऽकिञ्चित्करेऽपेक्षाऽसम्भवात् ? तहणे योग्यतेति चेत् । किमात्मनः, शब्दस्य, इन्द्रियस्य वा? आद्यविकल्पद्वये सर्वदोपलम्भोऽनुपलम्भो वा स्यात् । इन्द्रियसंस्कारस्तु निराकरिष्यते।
१ ( एकस्यैव शब्दस्य दृश्यत्वादृश्यत्वरूपतास्वीकारादद्वैतं सिद्धतीत्यर्थः) । २ ब्रह्मवादसमर्थने हेतुमाह । ३ द्वितीयपक्षोयम् । ४ संस्कृतत्वेन । ५ ध्वनिभिः । ६ स स्वभावस्ततो भिन्नोऽभिन्नो वा ? भिन्नश्चेन्न तैर्ध्वनिभिः शब्दस्य करणम् इत्यादिः । ७ अन्यथा शब्दस्य व्यक्तिसत्त्वे सामान्यतादिरूपताप्रसङ्गोपि स्यादित्यर्थः । ८ तस्य शब्दसंस्कारस्य । ९ शब्दस्य ।
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सू० ३१९९] शब्दनित्यत्ववादः
४२१ यदप्युक्तम्-यथैवोत्पद्यमानोऽयमित्यादिः तदप्यसङ्गतम् । न हि दिगोधपेक्षयाऽस्माभिस्तन्द्रहणमिप्यतेऽपि तु श्रवणान्त
तत्वेन । अतो यस्यैव श्रवणान्तर्गतो यः शब्दः स तेनैव गृह्यते । सर्वगतवर्णपक्षे तु नायं परिहारो निखिलवर्णानां सकलप्रतिपत्तृश्रवणान्तर्गतत्वेन तथैवोपलम्भप्रसङ्गात् । ५ __ आवरणविगमः शब्दसंस्कारः; इत्मप्यतत्यम्: यतः प्रमाणान्तरेण शब्दसद्भावे सिद्धे तस्यावरणं सिद्धयेत् स्वाशन प्रत्यक्षप्रतिपन्ने घटेऽन्धकारादिवत् । न चासौ सिद्धः । तत्कथमस्यावरणम् ? नित्यस्याऽस्याऽनाधेयाऽप्रहेयाऽतिशयान्मतयाऽत्याकिञ्चित्करत्वाच्च । न चाऽकिश्चित्करः कस्यचिदावरणमतिप्रस-१० ङ्गात् । उपलब्धिप्रतिवन्धकारणात्तञ्चेत् ; न तज्जननैकस्वभावस्य तदयोगात् । न हि कारणाऽक्षये कार्यक्षयो युक्तस्तस्याऽतत्कार्यत्वप्रसङ्गात् । कथमेवं कुड्यादयो घटादीनामावारका इति चेत्, तजनकखभावखण्डनात् । कथमन्यस्योपलब्धि जनयन्तीति चेत् ? तं प्रति तत्स्वभावत्वात् । कथमेकस्योभयरूपता? इत्यप्य-१५ चोद्यम् ; तथा दृष्टत्वात् । शब्दस्यापि स्वभावखण्डनेऽनित्यतेत्युक्तम्।
सर्वगतत्वे चास्यात्रियमाणत्वायोगः । आवार्या हि येनावियते तदावारकम् , यथा पटो घटस्य । शब्दस्त्वावारकमध्ये तद्देशे तत्पाचे च सर्वत्र विद्यमानत्वात्कथं केनचिदा-२० वियेत ? प्रत्युत स एवावारकः स्यात् । तद्वत्तदावारकमपि सर्वगतमिति चेत्, न तावारकम् । न ह्याकाशमात्मादीनामावारकम् । मूर्त्तत्वात्तदिति चेत्, न तर्हि सर्वगतं घटादिवत् ।
अथ यावयोमव्यापिनो वहव एवास्यावारकाःते; किं सान्तराः, निरन्तरा वा ? यदि सान्तराः; न तर्हि तस्यावरणम् , तन्मध्ये २५ तद्देशे तत्पावें च विद्यमानत्वात् । अथ स्वमाहात्म्यात्तथापि स्वदेशे तदावारकाः; तॉन्तराले तदुपलम्भप्रसङ्गः । तथा च सान्तरा प्रतिपत्तिः प्रतिवर्ण खण्डशःप्रतिपत्तिश्च स्यात् । सर्वत्र सर्वदा सर्वात्मना विद्यमानत्वान्न दोषश्चेत् ; नैवम् प्रतिप्रदेशमकारादिबहुत्वस्य ध्वन्यादिवैफल्यस्य चानुषङ्गात्, तद्भावेप्यन्तराले ३० उपलम्भसम्भवात् । अथान्तरालेऽसन्तोप्यावारकाः; तडॅकमेवावारकं प्रदेशनियतं कल्पनीयं किं तद्बहुत्वेन ? अन्यत्राविद्यमानं
. १ आदिना देशकालादिर्ग्राह्यः। २ जनैः। ३ अन्धकारादिर्यथाऽऽवरणं घटस्य । ४ आवारकेण । ५ मूलपुस्तके 'अन्यत्वा-' इति ।
प्र. क० मा० ३६
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४२२
प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० कथमावारकमिति चेत् ? अन्तरालवादिति ब्रूमः । तन्मते सान्तरा। निरन्तरत्ने चैषाम् तद्वच्छब्दस्यापि निरन्तरत्वादावार्यावरकमावः लमान एवोभयत्र । अथ वस्तुस्वाभाव्यात लिमिता वायव एव तदावारकाः; ननु दृष्टे वस्तुन्येतद्वक्तं ५ शक्यम्, यथा दृष्टेऽग्नौ दाहकत्वेन 'वस्तुस्वाभाव्यादग्निर्दहति न जलम्' इत्युच्यते । न च तथाविधा वायवो दृष्टाः । नापि सन् शब्दस्तैरात्रियमाणो येनैवं स्यात् । अदृष्टकल्पनमुभयत्र समानम् । तन्न किञ्चित्तस्यावारकम् ।
अस्तु वा तत् , तथाप्यस्य कुतो विगमः ? ध्वनिभ्यश्चेत : नः १० तत्सद्भावावेदकप्रमाणप्रतिषेधतस्तेषामसत्त्वात् । सत्त्वे वा कुतस्तेषामुत्पत्तिः? ताल्बादिव्यापाराचेत्, न तद्वच्छब्दस्यापि तद्यापारे सत्युपलस्मतस्तत्कार्यतानुषङ्गात् । ननु खननाद्यनन्तरं व्योमोपलभ्यते, न च तत्कार्यमतोऽनैकान्तिकत्वम् । तदुक्तम्
"अनैकान्तिकता तावद्धेतूनामिह कथ्यते । प्रयत्नानन्तरं दृष्टिर्नित्येपि न विरुद्ध्यते ॥१॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १९] “आकाशमपि नित्यं सद्यदा भूमिजलावृतम् । व्यज्यते तदपोहेन खननोत्सेचनादिभिः ॥ २॥ प्रयत्नानन्तरं ज्ञानं तदा तत्रापि दृश्यते । तेनानैकान्तिको हेतुर्यदुक्तं तत्र दर्शनम् ॥ ३॥ अथ स्थगितमप्येतदस्त्येवेत्यनुमीयते। शब्दोपि प्रत्यभिज्ञानात्प्रागस्तीत्यवगम्यताम् ॥ ४॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ३०-३३] तदप्यसङ्गतम् ; ध्वनीनामप्येवं ताल्वादिव्यापारकार्यत्वाभाव२५प्रसङ्गात् । एकरूपता चाकाशस्याप्यसिद्धा; स्वविज्ञानजननैक
खभावत्वे हि तस्य न खननाद्यनन्तरमेवोपलब्धिः किन्तु पूर्वमपि स्यात् । तदस्वभावत्वे वा न कदाचनाप्युपलब्धिः स्याद्विशेषाभावात् । विशेषे वा एकरूपताव्याघातः । प्रत्यभिज्ञानाच्छब्दे प्राक् सत्त्वसिद्धिश्च ध्वनावपि समाना 'य एव पूर्वमकारस्य ३० व्यञ्जको ध्वनिः स एव पश्चादपि' इति प्रतीतेः। तथा च व्यञ्जन
स्यापि सर्वत्र सर्वदा सद्भावे ताल्वादिव्यापारवैफल्यं सर्वत्र सर्वदा व्यङ्ग्यप्रतीतिश्च स्यात् । तन्न ताल्वादिव्यापारकार्यता ध्वनीना. मेव । अतः कथं तेषां सत्त्वमुत्पादकाभावात् ?
१ जैनाः। २ शब्दो वायोरावारकः कुतो न स्यादिति जैनेनोके परः प्राहअदृष्टकल्पना स्यादिति । तस्योपरि जैनेनोच्यते ।
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सू० ३१९९] शब्दनित्यत्ववादः
४२३ सन्तु वा ते, तथाप्यतः क्वचिदावरणविगमे विवक्षितवर्णवन्निखिलवर्णोपलब्धिप्रसङ्गः, व्यापकत्वेन सर्वेषां तत्र सद्भावात्, तथा च ध्वन्यन्तरस्य वैफल्यम् । ननु चावार्याणामिवावारकाणां तद्वच्च तद्पनेतृणां भेदस्तेनायमदोषः । उक्तञ्च
"व्यञ्जकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता! जातिभेदश्च तेनैवं संस्कारो व्यवतिष्ठते ॥ १ ॥ अन्यार्थ प्रेरितो वायुर्यथान्यं न करोति । तथान्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति ।। २8 अन्यैस्ताल्वादिसंयोगैर्वर्णों नान्यो यथैव हि । तथा ध्वन्यन्तराक्षेपो न ध्वन्यन्तरसारिभिः ॥ ३॥ तस्मादुत्पत्त्यभिव्यक्योः कार्यार्थापत्तितः समः। सामर्थ्य भेदः सर्वत्र स्यात्प्रयत्नविवक्षयोः॥४॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ७९-८२] तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अभिन्नदेशेऽभिन्नेन्द्रियग्राह्ये चावार्ये आवरणभेदस्याभिव्यञ्जकभेदस्य चाऽग्रतीतेः । न खलु १५ घटशरावोदश्चनादीनां तथाविधानामावरणव्यञ्जकमेदो दृष्टः, काण्डपटादेरेकस्यैवावरणत्वस्य प्रदीपादेश्चैकस्यैवाभिव्यञ्जकत्वस्य प्रसिद्धः । तथा च प्रयोगः-शब्दाः प्रतिनियतावरणावार्याः प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्या वा न भवन्ति, समानदेशैकेन्द्रियग्राह्यत्वाद, घटादिवत् । न चाऽऽवार्यवर्णानां देशभेदो युक्तः; व्यापक-२० त्वाभावप्रसङ्गात् । देशभेदो हि परस्परदेशपरिहारेणावस्थानाप्रसिद्धो गोकुञ्जरवत् । तथा चावरणभेदस्याऽसतः कथं जातिभेदप्रकल्पनं तदपनेतृजातिभेदप्रकल्पनं च श्रेयो यतो 'जातिभेदश्च' इत्यादि शोभेत।
नन्वेकेन्द्रियग्राह्यस्यापि व्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकभेदो दृष्टः, यथा २५ भूमिगन्धस्य जलसेकः न शरीरगन्धस्य । अस्यापि मरीचिचक्रसहायस्तैलाभ्यङ्गो न भूमिगन्धस्येति । सत्यं दृष्टः; स तु विषयसंस्कारकस्य व्यञ्जकस्य, न त्वावरणविगमहेतोः। नैव वा गन्धस्याभिव्यञ्जका जलसेकादयोऽपि तु कारकाः, तत्सहकारिणः पृथिव्यादेर्विशिष्टस्य गन्धस्योत्पत्तेः पूर्व तत्र तत्सद्भावावेदक-३० प्रमाणाभावात् । कारकाणां चैकेन्द्रियग्राह्ये समानदेशे च कायें नियमो दृष्टः । यथैकत्र स्थिता अपि यववीजादयो न सर्वे शाल्यङ्कुरं यवाडुरं चोत्पादयन्ति, किन्तु शालिवीजमेव शाल्यङ्कुरं यवबीजं च यवाङ्कुरम् इति ।
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४२४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० एतेन 'अन्यत्तात्वादिलंयोगः' इत्यादि निरस्तम्, कथम् ? ध्वन्यन्तरसारिभिस्तालयादिभिर्यद्यपि ध्वन्यन्तराक्षेपो नास्ति तथानिय एक तैराक्षिप्यते तत एव सर्ववर्णश्रुतेर्वन्यन्तराक्षे. पपक्षदोपस्तवस्थः। तन्न शब्दसंस्कारोभिव्यक्तिर्घटते। ५ अथेन्द्रियसंस्कारोसौ । तदुक्तम्
"अथापीन्द्रियसंस्कारः सोप्यधिष्ठानदेशतः । शब्दं न श्रोष्यति श्रोत्रं तेनाऽसंस्कृतशकुलि ॥१॥ अप्राप्तकर्णदेशत्वावनेनं थोत्रसंस्क्रिया। अतोऽधिष्टानभेदेन संस्कारनियमस्थितिः॥२॥"
मी० श्लो० शब्दनि श्लो० ६९-७०] "यद्यपि व्यापि चैकं च तथापि ध्वनिसंस्कृतिः। अधिष्ठानेषु सा यस्य तच्छब्दं प्रतिपत्स्यते ॥ १॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ६८] इति । अत्रापि सकृत्संस्कृतं श्रोत्रं युगपत्सर्ववर्णान् शृणुयात् । १५न ह्यानादिना संस्कृतं चक्षुः सन्निहितं नीलधवलादिकं कश्चित्पश्यति कञ्चिन्नेति । वलातैलादिना संस्कृतं श्रोत्रं वा कांश्चिदेव गकारादीन् शृणोति कांश्चिन्नेतीति नियमो दृष्टो येनानापि तथा कल्पना स्यात् । ततो निराकृतमेतत्
"तथा(यथा)घटादेर्दीपादिरभिव्यञ्जक इप्यते । चक्षुषोऽनुग्रहादेवं ध्वनिः स्याच्छोत्रसंस्कृतेः ॥१॥ न चा(च)पर्यनुयोगोत्र केनाकारेण संस्कृतिः। उत्पत्तावपि तुल्यत्वाच्छक्तिस्तत्राप्यतीन्द्रिया ॥२॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ४२-४३] इति । २५ प्रदीपादिनानुगृहीतचक्षुषा पटाद्यनेकार्थग्रहणवत् ध्वन्यनु
गृहीतश्रोत्रेणाप्येकदानेकशब्दश्रवणप्रसङ्गात् । प्रयोगः-श्रोत्र. मेकेन्द्रियग्राह्याभिन्नदेशावस्थितार्थग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्य न भवति इन्द्रियत्वाञ्चक्षुर्वत्। तन्न श्रोत्रसंस्कारोप्यभिव्यक्तिर्घटते। ३० अस्तु त भयसंस्कारः। न चात्रोक्तदोषानुषङ्गः। तदुक्तम्
"द्वयसंस्कारपक्षे तु वृथा दोषद्वये वचः। येनान्यतरवैकल्यात्सर्वैः सर्वो न गृह्यते ॥१॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८६] १ सर्वशब्दश्रवणोत्पादितैलविशेषोयम् ।
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सू० ३।९९] शब्दनित्यत्ववादः - तदप्ययुक्तम्। उक्तदोषादेव, तथाहि-यदैकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं संस्कृतं वर्ण प्रतिपद्यते तदा तत्रत्यसर्ववर्णान्प्रतिपद्येत संस्कृतं च वर्ण सर्वत्र सर्वदाऽवस्थितत्वेन, अन्यथा तत्प्र. तीतिरेव न भवेत्तदात्मकत्वात्तस्य । अतो व्यङ्ग्यव्यञ्जकभावस्य विचार्यमाणस्याऽयोगान्न व्यञ्जकध्वन्यधीनो विभिन्नदेशकालख-५ भावतथा शब्दयोपलम्भोऽपि तु तत्स्वभावभेदनिवन्धनः ।
यच्चोक्तम्-'जलपात्रेषु च' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् । तत्रोपलभ्यमानस्यादित्यप्रतिविम्बस्यानेकत्वात् । 'गगनतलावलम्बी हि सविता तत्रोपलभ्यते' इत्यत्र न प्रत्यक्षं प्रमाणं तत्स्वरूपाप्रतिभासनात् । तस्य हि खरूपं गगनतलावलम्बि चैकं च, तन्नाव-१० भासते । यच्चावभासि जलपात्रावलम्बि चानेकं च, तदृक्षच्छायादिवद्वस्त्वन्तरमेव । न चान्यप्रतिभासेऽन्यप्रतिभासो नामाऽतिप्रसङ्गात् । न च जलभानोर्गगनभानुना सादृश्यादेकत्वम् । कमनीयकामिनीनयनयोरपि तत्प्रसङ्गात् । नापि तद्विकारे जल. भानुविकारादेकत्वम् ; वृक्षच्छाययोरपि तत्प्रसङ्गात् । १५
ननुतत्र तत्प्रतिविम्वानां वस्त्वन्तरत्वे कुतःप्रादुर्भावः स्यादिति चेत् ? जलादित्यादिलक्षणस्वसामग्रीविशेषात् । तर्हि स्वच्छताविशेषसद्भावाजलादर्शादयो मुखादित्यादिप्रतिविम्वाकारविकारधारिणः कस्मान्न सर्वदोपलभ्यन्ते इति चेत् ? खेसामग्र्यऽभावतोऽभावाच्छब्दसुखादिवत् । कश्चिद्धि विकारः सहकोरिनि-२० वृत्तावप्यनिवर्तमानो दृष्टो यथा घटादिः, कश्चित्तु निवर्तमानो . यथा शब्दादिः, अचिन्त्यशक्तित्वाद्भावानाम् । ताल्वादिव्यापारसहकारिनिवृत्तौ हि पुगलँस्य श्रावणस्वभावव्यावृत्तिः । स्त्रग्वनितानिवृत्तौ चाल्हादनाकारल्यावृत्तिरात्मनः सकलजनप्रसिद्धा, एवमादित्यादिसहकारिनिवृत्तौ जलादेस्तत्प्रतिविम्वाकारनिवृ-२५ त्तिरविरुद्धा।
ततो निराकृतमेतत्-'अत्र ब्रूमो यदा तावजले सौर्येण' इत्यादि। खप्रदेशस्थतया सवितुर्ग्रहणासिद्धेः। 'चाक्षुषं तेजः प्रतिस्रोतः प्रवर्तितम्' इति चातीवाऽसङ्गतम् ; प्रमाणाभावात् । न हि चक्षु. स्तेजांसि जलेनाभिसम्बन्ध्य पुनः सवितारं प्रति प्रवर्त्तितानि ३० प्रत्यक्षादिप्रमाणतः प्रतीयन्ते । यथा च चतूरश्मीनां विषयं प्रति
१ सुखादिप्रतिबिम्बाकारस्य। २ चक्रचीवरादि । ३ उत्पत्तेरुत्तरकाले । ४ आदिना सुखम् । ५ कथम् । ६ शब्दरूपस्य । ७ व्याघुट्टनम् । ८ यस्सादस्त्वन्तरत्वं सिद्धं प्रतिबिम्बानाम् । ९ पुनः। १० सौर्येण तेजसा। ११ घटादिपदार्थम् ।
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४२६
प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० प्रवृत्तिर्नास्ति तथा चक्षुरप्राप्यकारित्वप्रघट्टके प्रतिपादितम् । इत्यलमतिविस्तरेण ?
यञ्चान्यदुक्तम्-'देशभेदेन भिन्नत्वम् इत्यादितदप्यसारम् । यतो यदि प्रत्यक्षमेवानुमानस्य बाधकं नानुमानं प्रत्यक्षस्य; तर्हि ५चन्द्रार्कादौ स्थैर्याध्यक्षं देशाद्देशान्तरप्राप्तिलिङ्गजनितगत्यनुमानेन बाध्यं न स्यात् । अथास्य प्रत्यक्षरूपतैव नास्ति वाधित विषयत्वात्। तत्प्रकृतेपि समानम् , लूनपुनर्जातनखकेशादिवत्सादृश्यप्रतीत्या तन्नानात्वप्रसाधकानुमानेन चाऽत्राप्येकत्वप्रतीतेर्वाधितविषयत्वाऽविशेषात् । अतोऽयुक्तमेतत्१० "स एवेति मतिनापि सादृश्यं न च तत्कंचित् । विनावयवसामान्यैर्वर्णववयवा न च ॥"
[मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० १८] इति । अवयवसामान्यस्याप्यत्रात एव प्रसिद्धः । तेनायुक्तमुक्तम्'पर्यायेण' इत्यादिः देवदत्ते हि ‘स एवायम्' इति प्रत्ययः, अन्न १५तु 'तेनेन चायं सदृशः' इति । न च सदृशप्रत्ययादेकत्वम् । गोगवययोरपि तत्प्रसङ्गात् । यद्यप्युच्यते
"जैनकोपिलनिर्दिष्टं शब्दश्रोत्रादिसर्पणम्। साँधीयोऽस्मात्तदप्यत्र युत्या नैवावतिष्ठते ॥ १॥"
मी० श्लो० शब्दनि श्लो० १०६] २० जैनेन हि निर्दिष्टं श्रोतारं प्रति शब्दस्य सर्पणं कापिलेन तु
वक्तारम् । श्रोत्रौदेर्यत्तदेव साधीयोऽस्मान्नैयायिकोपकल्पितात् । वीचीतरङ्गन्यायेन शब्दस्यामूर्तस्यागमनात् । तदप्यत्र युक्त्या नैवावतिष्ठते । यस्मात्
"शब्दस्यागमनं तावदृष्टं परिकल्पितम् । २५ मूर्तिस्पादिमत्त्वं च तेषामभिभवः सताम् ॥१॥
१ चक्षुरश्मीनां विषयं प्रति गमननिराकरणेन । २ बाधकम् । ३ प्राहि । ४ स्थैर्यलक्षणस्य । ५ गकारे । ६ कथम् । ७ गकार। ८ गकारे । ९ सादृश्यप्रतीत्यैकत्वप्रतीवेर्वाधितविषयत्वं यतः। १० स एवायं गकारादिः। ११ गकारादौ । १२ वर्णानां निरंशत्वात् । १३ अंशाः । १४ तेन सदृशोयं गकारः। १५ वर्णेन । १६ वर्णः। १७ अन्यथा। १८ मीमांसकेन। १९ साङ्ख्य । २०. श्रेयः । २१ अग्रे वक्ष्यमाणात्। २२ जगति वर्णेषु वा । २३ मीमांसकस । २४ गमनम् । २५ लहरी। २६ कुतः । २७ प्रत्यक्षादिप्रमाणेनाप्रातीतिकम् । २८ कुड्यादिना तिरोभावः।
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-सू० ३११००] शब्दनित्यत्ववादः
त्वगग्राह्यत्वमन्ये च भागाः सूक्ष्माः प्रकल्पिता। तेषामदृश्यमानानां कथं च रचनाक्रमः ॥२॥ कीदृशाद्रचनामेदादर्णभेदश्च जायताम् । द्रवित्वेन विना चैपां संक्लेपः(संश्लेषः)कल्प्यते कथम् ॥३॥ आगच्छतां च विलेपो न भवेद्वायुना कथम् । लघवोऽवयवा हते निबद्धा न च केनचित् ॥ ४ ॥ वृक्षामिहतानां च विश्लेपो लोटवद्भवेत् । एकश्रोत्रप्रवेशे च नान्यया स्यात्पुनः श्रुतिः ॥ ५ ॥ न चावान्तरवर्णानां नानात्वस्यास्ति कारणम् । न चैकस्यैव सर्वासु गमनं दिक्षु युज्यते ॥६॥" १०
[मी० श्लो० शब्दनि श्लो० १०७-११२] इत्यादि । तद्व्यञ्जकवाय्वागमनेपि समानम् । शक्यते हि शब्दस्थाने वायुं पठित्वा 'वायोरागमनं तावद्दष्टं परिकल्पितम्' इत्याद्यभिधातुम् ।
किञ्च, अदृष्टकल्पनागौरवदोषो भवत्पक्ष एवानुषज्यते: १५ तथाहि-शब्दस्य पूर्वापरकोट्योः सर्वत्र च देशेऽनुपलभ्यमानस्य सत्त्वम्, तत्य चावारकाः स्तिमिता वायवः प्रमाणतोऽनुपलभ्यमानाः कल्पनीयाः, तदपनोदकाश्चान्ये, तेषां शक्तिनानात्वं कल्पनीयम् , नामैत्पक्षे । पौद्गलिकत्वं च यथावसरं गुणनिषेधप्रक्रमे प्रसाधयिष्यामः । तत्सिद्धं घटस्य चक्रादिव्यापारकार्यत्ववच्छब्दस्य २० ताल्वादिव्यापारकार्यत्वमिति साधूक्तम्-'आप्तवचनम्' इत्यादि।
नैनु शब्दार्थयोः सम्वन्धासिद्धेः कथमाप्तप्रणीतोपि शब्दोऽर्थे ज्ञानं कुर्याद्यत आप्तवचनानिवन्धनमित्यादि वचः शोभेतेत्याशङ्कापनोदार्थम् 'सहजयोग्यता इत्याद्याहसहजयोग्यतासङ्केतवशाद्धि शब्दादयः वस्तु- २५
प्रतिपत्तिहेतवः ॥ १००॥
१ अवयवाः। २ अदृष्टाः। ३ रचना वन्धः। ४ अदृष्टः । ५ भेदः। ६ वर्णोत्पत्तौ । ७ शब्दानां पुद्गलरूपाणाम् । ८ जनानाम् । ९ शब्दानां वायूनां च। १० जैनोत्ताः। ११ सम्वद्धाः। १२ कारणेन। १३ वर्णवायूत्पत्तौ । १४ पुद्गलरूपाणां वर्णानाम् । १५ एकस्य नरस्य । १६ नृणाम् । १७ अन्यापकः शब्दो जैनमते यतः। १८ मध्योत्पन्नानाम् । १९ नैयायिकस्य । २० गख । २१ जैनस्य । २२ ताल्लादिजनितशब्दाभिव्यञ्जकध्वनेः। २३ मीमांसकपक्षे । २४ व्यजकाः । २५ जैन। २६ सौगतः। २७ निराकरणार्थम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि०. सहजा स्वाभाविकी योग्यता शब्दार्थयोः प्रतिपाद्यप्रतिपादकशक्तिः ज्ञानशेययोझोयशापकशक्तिवत् । न हि तत्राप्यतो योग्यतातोऽन्यः कार्यकारणभावादिः सम्बन्धोस्तीत्युक्तम् । तस्यां सत्यां सङ्केतः। तद्धशाद्धि स्फुटं शब्दा,यो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः।
यथा मेादयः सन्ति ॥ १०१ ॥
इति।
ननु चासौ सहजयोग्यताऽनित्या, नित्या वा? न तावदनित्या; अनवस्थाप्रसङ्गात्-येन हि प्रसिद्धसम्बन्धेन 'अयम्' इत्यादिना
शब्देनाप्रसिद्धसम्बन्धस्य घटादेः शब्दस्य सम्बन्धः क्रियते १० तस्याप्यन्येन प्रसिद्धसम्बन्धेन लम्बन्धस्तस्याप्यन्येनेति । नित्यत्वे
चास्याः सिद्धं नित्यसम्बन्धाच्छन्दानां वस्तुप्रतिपत्तिहेतुत्वमिति मीमांसकाः; तेप्यतत्त्वज्ञाः; हस्तसंज्ञादिसम्बन्धवच्छब्दार्थसम्वन्धस्यानित्यत्वेप्यर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वसम्भवात् । न खलु हस्तसंज्ञा
दीनां खार्थेन सम्वन्धो नित्यः, तेषामनित्यत्वे तदाश्रितसम्वन्धस्य १५ नित्यत्वविरोधात् । न हि भित्तिव्यपाये तदाश्रितं चित्रं न व्यपैतीत्यभिधातुं शक्यम्।
न चानित्यत्वेऽस्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं न दृष्टम् । प्रत्यक्षविरो. धात् । एवं शब्दार्थसम्बन्धेप्येतद्वाच्यम्-स हि न तावदनाश्रितः, नभोवर्दनाश्रितस्य सम्वन्धत्वाऽसम्भवात् । आश्रितश्चेत्कि २० तदाश्रयो नित्यः, अनित्यो वा? नित्यश्चेत्, कोयं नित्यत्वेनाभिप्रेतस्तदाश्रयो नाम ? जोतिः, व्यक्तिर्वा ? न तावजातिः, तस्याः शब्दार्थत्वे प्रवृत्यायभावप्रतिपादनात्, निराकरिष्य
१ न त्वौपाधिकी । २ वाच्यवाचकसामर्थम् । ३ अपरः। ४ पूर्व प्रथमपरिच्छेदे । ५ अस्य शब्दस्यायमर्थः, अस्य गोशब्दस्य सालादिमानर्थ इति च । ६ प्रागुक्ताः। ७ आदिना हस्ताङ्गुलीसंज्ञाः। ८ उदाहरणे । ९ अन्थया । १० कथम् ? तथा हि । ११ अर्थेन सह । १२ इदमित्यादिना च। १३ यथा प्रसिद्धसम्बन्धेन घटशब्देन घट एव वाच्यस्तथाऽप्रसिद्धसम्बन्धेनापि घटशब्देन घट एव वाच्य इति । १४ शब्देन। १५ वदन्ति । १६ आदिना नयनाङ्गुल्यादिसंशाः । १७ विनाशे। १८ विनश्यति । १९ वक्तुम् । २० अन्यथा । २१ प्रत्यक्षेण सिद्धा हस्तसंज्ञादयोऽनित्या यतः। २२ अनित्यहस्तसंशादिसम्बन्धस्यार्थप्रतिपत्तिप्रतिपादकत्वप्रकारेण। २३ ताद्विः। २४ वक्ष्यमाणम् । २५ अन्यथा । २६ अमूर्तनभोवत् । २७ गगनस्य त्वर्थेन सम्बन्ध उपचारत एव, न तु साक्षान्तस्याऽमूर्त्तत्वात् । २८ दृष्टः। २९ सामान्यम्। ३० विशेषः। ३१ यदा सामान्यरूपौ शब्दार्थों सम्बन्धस्य वाच्यवाचकरूपस्याधारभूतौ तदा तावेव विषयीकुर्याच्छब्द इति भावः । ३२ आदिना निवृत्तिः। ३३ पूर्वम् ।
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सू० ३।१०१] शब्दसम्बन्धविचारः
४२९ मौणत्वाच्च । व्यक्तेस्तु तदाश्रयत्वे कथं नित्यत्वमभ्युपगमातथाप्रतीत्यभावाच्च । अनित्यत्वे च तदाश्रयत्वस्य सिद्धं तयपाये सम्वन्धस्यानित्यत्वं भित्तिव्यपाये चित्रवत् । ततोऽयुक्तमुक्तम्
"नित्या शब्दाथी सम्बन्धात्तत्रामाती महर्षिभिः। . ५ सूत्राणां सानुतन्त्राणी भाप्याय च प्रतिः "
वाक्यपदी० ११२३ ? इति: सदृशपरिणाम विशिष्टस्यार्थस्य शब्दस्य तदाधितलम्वन्धस्य चैकान्ततो नित्यत्वासम्भवात् । सर्वथा नित्यस्य वस्तुनः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियासम्भवतोऽसत्त्वं चाऽश्वविषाणवत् । अन-१० वस्थादूषणं चायुक्तमेव; 'अयम्' इत्यादेः शब्दस्यानादिपरम्परीतोऽर्थमात्र प्रसिद्धसम्बन्धत्वात्, तेनावगैतसम्बन्धस्य घटादिशब्दस्य सङ्केतकरणात्।
नित्यसम्बन्धवादिनोपि चानवस्थादोषस्तुल्य एवं-अनभिव्य. क्तसम्बन्धस्य हि शब्दस्याभिव्यक्तलम्बन्धेन शब्देन सम्वन्धा-१५ भिव्यक्तिः कर्तव्या, तस्याप्यन्येनाभिव्यक्तसम्बन्धेनेति । यदि पुनः कस्यचित्स्वत एवं सम्वन्धाभिव्यक्तिः, अपरस्यापि सा तथैवास्तीति सङ्केतक्रिया व्यर्थी । शब्दविभागाभ्युपगमे चालं सम्बन्धस्य नित्यत्वकल्पनया । कल्पने चाऽगृहीतसङ्केतस्याप्यतोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात् । सङ्केतस्तस्य व्यञ्जकः; इत्यप्य-२० युक्तम् ; नित्यस्य व्यङ्ग्यत्वायोगात् । नित्यं हि वस्तु यदि व्यक्तं व्यक्तमेव, अथाव्यक्तमप्यव्यक्तमेव, अभिनवभावत्वात्तस्य । शब्दाभिव्यक्तिपक्षनिक्षितदोषानुबङ्गश्चात्रापि तुल्य एव ।
१ चतुर्थपरिच्छेदे । २ नित्यजातेः। ३ सम्बन्धस्य । ४ परेण । ५ व्यक्तनित्यत्वस्य । ६ व्यक्तिरूपस्य । ७ अनित्यः सम्बन्धो यतः । ८ सामान्य । ९ वाच्यवाचकलक्षणः । १० मीमांसायां ग्रन्थे । ११ अभ्युपगताः । १२ विषमपदव्याख्यानमनुतनं तेन सह वर्तन्ते इति । तेषां सूत्राणाम् । १३ सर्वथा । १४ प्रवाहतः। १५ पुरोवर्तिन्यनिर्धारितार्थे । १६ अर्थेन सह । १७ मीमांसकस्य । १८ कथम् । १९ अर्थेन सह। २० अनवस्थापरिहारार्थम् । २१ नापरेण । २२ हेतोः । २३ पुरुषेण क्रियमाणा। २४ अयमित्यादिशब्दस्य स्वत एव सम्बन्धः । घटादिशब्दस्य तु अयमित्यादिना शब्देनापरेण सम्बन्ध इति । २५ नित्यत्वस्य । २६ नुः । २७ सम्बन्धस्य नित्यत्वात् । २८ नित्यशब्दस्य । २९ सङ्केतेन। ३० एकखभावत्वात् । ३१ नित्यसम्बन्धामिव्यक्तौ अष्टविकल्पप्रकारेण ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[३. परोक्षपरि०
किञ्च, सङ्केतः पुरुषाश्रयः, ल चातीन्द्रियार्थज्ञानविकलतयान्यथापि वेदे लङ्केतं कुर्यादिति कथं न मिथ्यात्वलक्षणमस्याप्रामाण्यम् ?
किञ्च, असौ नित्यलम्वन्धवशादेकार्थनियतः, अनेकार्थ५ नियतो वा स्यात् ? एकार्थ नियतश्चेत्किमेकदेशेना, सर्वात्मना वा? सर्वात्मनैकार्थनियमे अर्थान्तरे वेदात्प्रतिपत्तिर्न स्यात्, ततश्चास्याज्ञानलक्षणमप्रामाण्यम् । एकदेशेन चेत् । स किमकदेशोऽभिमतैकार्थनियतः, अन्नलिमतैकार्थ नियतो वा? अनभिमतैकार्थनियतश्चेत्, कान मिथ्यात्वलक्षणमप्रामाण्यम् ? अभि१० मतैकार्थनियतश्चेत्किं पुरुषात् , स्वभावाद्वा ? प्रथमपक्षे अपौरुषे
यत्वसमर्थनप्रयासो व्यर्थः । पुरुषो हि रागाद्यन्धत्वात्प्रतिक्षिप्यते, तस्माच्चेद्वेदैकदेशोऽर्थ नियमं प्रतिपद्यते, किमपौरुषेय
बेन ? अँनेकार्थनियमे च विरुद्धोप्यर्थः सम्भवेत् , तथा चार्य मिथ्यात्वम्। १५ किञ्च, असौ सम्बन्ध ऐन्द्रियः, अतीन्द्रियः, अनुमानगस्यो वा
स्यात् ? न तावदैन्द्रियः; स्वेन्द्रिये खेन रूपेणाप्रतिभासमानत्वात्। अतीन्द्रियश्चेत् कथं प्रतिपत्त्यङ्गं ज्ञापकस्य निश्चयापेक्षणात् ? सैन्निधिमात्रेण ज्ञापनेऽतिप्रसङ्गात्।
अनुमानगम्यश्चेत् । न लिङ्गाभावात् । तस्य हि लिङ्गं ज्ञानम् , २० अर्थः, शब्दो वा? न तावज्ज्ञानम् । सम्बन्धासिंधौ तत्कार्यत्वेनास्याऽनिश्चयात् । नाप्यर्थः। तस्य तेन सम्बन्धासिद्धः । न हि सम्वन्धार्थयोस्तादात्म्यम् ; सँम्वन्धस्यानित्यत्वानुषङ्गात् । नापि तदुत्पत्तिः, अनभ्युपगमात् । असम्वद्धश्चार्थः कथं सम्बन्धं ज्ञाप
यत्यतिप्रसङ्गात् ? ज्ञापने वा शब्दा एवं सम्बन्धविकलाः किमर्थ २५न ज्ञापयन्त्यलं सिद्धोपस्थायिना नित्यसम्बन्धेन ? तन्नार्थोपि
१ सर्वस्वरूपेण । २ पुरुषाणाम् । ३ वेदेनार्थान्तरप्रतिपत्त्यभावात् । ४ मीमांसकस्य । ५ मीमांसकैः । ६ वेदस्य । ७ द्वितीयपक्षे । ८ वेदस्य । ९ इन्द्रियविषयः । १० श्रोत्रलोचनलक्षणे। ११ असाधारणरूपेण । १२ वाच्यवाचकसामर्थ्यस्यातीन्द्रियत्वात् । १३ सम्बन्धस्य । १४ नाशातं शापकं नाम । १५ शब्दार्थयोः सारूप्येण सम्बन्धस्यार्थशापने। १६ सम्बन्धमात्रेण । १७ मीमांसकवत्सौगतानपि बोधयेदिति । १८ सम्बन्धेन सहाविनाभाविलिङ्गस्य । १९ सम्बन्धोस्ति शानात् । २० सम्बन्धासिद्धेरिति खपुस्तकीयः पाठः। २१ सम्बन्धोस्ति अर्थात् । २२ कथम् । २३ अन्यथा । २४ अर्थवत् । २५ सम्बन्धाद्गुणरूपादोत्पत्तिः। २६ सम्बन्धेन सह । २७ तथा. च खरविषाणं सम्बन्ध शापयतु । २८ असम्बद्धार्थेन । २९ सम्बन्धस्य ।
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सू० ३११०१] अपोहवादः लिङ्गम् । नापि शब्दः, अर्थपक्षोक्तदोषानुषङ्गात् । ततो नित्यसम्वन्धस्य प्रमाणतोऽप्रसिद्धेर्न तद्वशावेदोऽर्थप्रतिपादकः।
अथ स्वभावादेवासौ तत्प्रतिपादकः; तन्न; 'अयमेवास्माकमों नायम्' इति वेदेलानुक्तेः । तदुक्तम्
"अयमों नायमर्थ इति शब्दा वदन्ति न। कल्पयोयमर्थः पुरुषैत्ते च रागादिविलुताः ॥ १॥"
प्रमाणवा० ३६३१२] इति । ततो लौकिको वैदिको वा शब्दः सहजयोग्यतासङ्केतवशादेवार्थप्रतिपादकोऽभ्युपगन्तव्यः प्रकारान्तरासम्भवात् ।
ननु चार्थप्रतिपादकत्वमेषामसम्भाव्यम् , य एव हि शब्दाः१० संत्यर्थे दृष्टास्ते एवातीतानागतादौ तदभावेपि दृश्यन्ते । यदभावे च यदृश्यते न तत्तत्प्रतिवद्धम् यथाऽश्वाऽभावेपि दृश्यमानो गौर्न तत्प्रतिवद्धः, अर्थाभावेपि दृश्यन्ते च शब्दाः, तन्नैतेऽर्थप्रतिपादकाः, किन्त्वन्यापोहमात्राभिधायकाः। तदप्यविचारितरमणीयम् ; अर्थवतः शब्दात्तद्रहितस्यास्यान्यत्वात् । न चान्यस्य व्यभि-१५ चारेऽन्यस्याप्यसौ युक्तः, अन्यथा गोपालघटिकादिधूमस्याग्निव्यभिचारोपलम्भात्पर्वतादिप्रदेशवर्तिनोपि स स्यात्, तथा च कार्यहेतवे दत्तो जलांजलिः। सकलशून्यता च, स्वप्नादिप्रत्ययानां क्वचिद्विभ्रमोपलम्भतो निखिलप्रत्ययानां तत्प्रसङ्गात् । 'यत्नतः परीक्षितं कार्य कारणं नातिवर्त्तते' इत्यन्यत्रापि समानम्-'यनतो२० हि शब्दोर्थवत्वेतरस्वभावतया परीक्षितोर्थ न व्यभिचरति' इति । तथा चान्यापोहमात्राभिधायित्वं शब्दानां श्रद्धामात्रगम्यम् ।
किञ्च, अन्यापोहमात्राभिधायित्वे प्रतीतिविरोधः-गवादिशब्देभ्यो विधिरूपावसायेन प्रत्ययप्रतीते। अन्यनिषेधौत्राभिधायित्वे च तत्रैव चरितार्थत्वात्सास्नादिमतीर्थस्यातोऽप्रतीतेः२५ तद्विषयाया गवादिवुद्धर्जनकोन्यो ध्वनिरन्वेषणीयः । अथैकेनैव गोशब्देन बुद्धिद्वयस्योत्पादान्न परो ध्वनिम॒ग्यः, न; ऐकस्य विधिकारिणो निषेधकॉरिणो वा ध्वनेर्युगपद्विज्ञानद्वयलक्षणफला
१ सौगतः । २ विद्यमाने । ३ काले । ४ भा। ५ अपोह्यते व्यावय॑तेनेनाभावेनेति । ६ एव। ७ भिन्नत्वात् । ८ धूमात् । ९ परेण। १० कथम् । ११ अर्थे । १२ धूमादि। १३ अग्न्यादि । १४ शब्दे । १५ कथम् ? तथा हि । १६ व्यभिचाराभावे च। १७ कुतः। १८ अस्तित्वरूपनिश्चयेन । १९ श्वानादिमदर्थस्य । २० अगवादिन्यावृत्ति। २१ एव। २२ द्वितीयः। २३ शब्दः। २४ ध्वनेः। २५ गवाद्यस्तित्व। २६ अगवादिव्यावृत्ति।
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अमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० नुपलमा विधिनियवहानयोग्ान्योन्यं विरोधात् कथमेकस्सात्सम्यः ?
यदि च गोशब्देनागौशब्दनिवृत्तिर्मुख्यतः प्रतिपद्यते; तर्हि मोशन्दश्रणानन्तरं प्रथमतरम् 'अगौः' इत्येषा श्रोतुः प्रतिपत्तिभवेत् । न चैवम् , अतो गोवुद्धयनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । तदुक्तम्
"नन्वन्यापोहँकृच्छब्दो युष्मत्पक्षेऽनुवर्णितः। निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासेऽवगम्यते ॥१॥ किन्तु गौर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः। विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्त्तते ॥२॥"
तत्त्वसं० का० ९१०-११ पूर्वपक्षे] "यदि गौरित्ययं शब्दः समर्थान्य निवर्त्तने। जनको गवि गोबुद्धि (द्धे)मुंग्यतामपरो ध्वनिः॥३॥ ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम् ।। अपवादविधिज्ञानं फलमेकस्य वैः कथम् ॥ ४॥ प्रांगेंगौरिति विज्ञानं गोशब्दश्रीविणो भवेत् । येाऽगोः प्रतिषेधाय प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः॥५॥"
[भामहालं० ६।१७-१९] किञ्च, अपोहलक्षणं सामान्य वाच्यत्वेनाभिधीयमानं पर्युदासलक्षणं चाभिधीयेत, प्रसज्यलक्षणं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता२० यदेव हगोनिवृत्तिलक्षणं सामान्यं गोशब्देनोच्यते भैवता
तदेवास्माभिर्गोत्वाख्यं भाँवलक्षणं सामान्यं गोशब्दवाच्यमित्यभिधीयेत, अभावस्य भावान्तरात्मकत्वेन व्यवस्थितत्वात् ।
कश्चायं भवतामश्वादिनिवृत्तिस्वभावो भावोऽभिप्रेतः? न तावदसाधारणो गवादिस्खलक्षणात्मा; तस्य सकलविकल्पगोचराति
१ परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादनविरोधात् । २ यत्र विधिविज्ञानं तत्र निषेधविज्ञानं नास्ति । यत्र निषेधशानं न तत्र विधिज्ञानमिति । ३ बुद्धिद्वयस्य । ४ परेण भवता । ५ अगोः निवृत्तेः पूर्वम्। ६ एव। ७ अश्वादिः। ८ अन्यथा । ९ गौरिति बुद्धिस्तस्या अनुत्पत्तिः । १० तं करोतीति । ११ बौद्ध । १२ प्रतिपादितः । १३ गौरयमित्यस्मिन् । १४ तर्हि कथं प्रतिमासः । १५ अर्थस्य । १६ अश्वादि । १७ तर्हि । १८ भवन्तु। १९ विधिनिषेधज्ञान । २० शब्दस्य । २१ विधिनिषेधलक्षणम् । २२ निषेध । २३ शब्दस्य । २४ बौद्धानाम् । २५ अगोनिवृत्तेः पूर्वम् । २६ अश्वः। २७ जनस्य । २८ कुतः। २९ गोशब्दस्यार्थत्वेन । ३० बौद्धमते । ३१ कथम् । ३२ सौगतेन । ३३ जैनैः। ३४ सत्ता । ३५ अगोनिवृत्तिलक्षणोऽभावो भावान्तरेण गोत्वेन व्यवतिष्ठते । ३६ क्षणिकनिरंशनिरन्वयरूपः ।
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सू० ३।१०१] अपोहवादः क्रान्तत्वात् । नापि शावलेयादिव्यक्तिविशेषः; असामान्यप्रसङ्गतः। यदि गोशब्दः शावलेयादिवाचकः स्यात्तर्हि तस्यानन्वयान स सामान्यविषयः स्यात् । तस्मात्सर्वेषु सजातीयेषु शावलेयादिपिण्डेषु यत्प्रत्येकं परिसमाप्तं तन्निवन्धना गोवुद्धिः, तच्च गोत्वाख्यमेव सामान्यम् । तस्याऽगोऽपोहँशब्देनाभिधानानाममात्रं ५ भिद्येत । उक्तञ्च
अगोनिवृत्तिः सामान्य वाच्यं यः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ॥ १॥ भावान्तरात्मकोऽभावो येन सर्वो व्यवस्थितः। तंत्राश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावः क इति कथ्यताम् ॥ २॥ १० नेष्टोऽसाधारणस्तावद्विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शावलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः ॥३॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो० १-३] "तस्मात्सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्टितम् ।। गोवुद्धिस्तन्निमित्ता स्यागोत्यादन्यच्च नास्ति तत् ॥" १५
[मी० श्लो० अपोह० श्लो० १०] द्वितीयपक्षे तु न किञ्चिद्वस्तु वाच्यं शब्दानामिति अतोऽप्रवृत्तिनिवृत्तिप्रसङ्गः। तुच्छरूपाभावस्य चानभ्युपगमान्न प्रसज्यप्रतिषेधाभ्युपगमो युक्तः, परमतप्रवेशानुषङ्गात् ।
अपि च ये विभिन्न सामान्यशब्दा गवादयो ये च विशेषशब्दाः२० शावलेयादयस्ते अवदभिप्रायेण पर्यायाः प्राप्नुवन्त्यर्थभेदाभावादृक्षपादपादिशब्दवत् । न खलु तुच्छरूपाभावस्य भेदो युक्तः,
१ अन्यथा । २ सामान्यस्यापोहस्याभावोऽसामान्यं तस्य प्रसङ्गात् । ३ विशेष । ४ शावलेयादिना । ५ यो यः शब्दः स स शावलेयाधर्धवाचक इति । ६ सालादि. मत्त्वम् । ७ अगोव्यावृत्ति । ८ नार्थतः । ९ गोशब्दस्य । १० सौगतैः । ११ गोत्वं वस्त्वेवाऽगोपोहगिरा उक्तम् । कुतस्तथा हि। १२ कारणेन। १३ पर्युदासपक्षे । १४ नेष्ट इति शेषः। १५ अन्यथा । १६ असाधारणशावलेयद्वयं न घटते यस्मात् । १७ सकलगोव्यक्तिषु । १८ वर्तते । १९ सामान्यम् । २० प्रसज्यपक्षे । २१ प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च प्रवृत्तिनिवृत्ती तयोरभावोऽप्रवृत्तिनिवृत्ती तयोः प्रसङ्गः । २२ सौगतैः। २३ अन्यथा युक्तश्चेत् । २४ नैयायिकादि । २५ सौगतस्य । २६ यसः। २७ अश्वशब्दगोशब्दादि । २८ सामान्यस्याभिधायकाः। २९ बौद्ध । ३० भवन्ति । ३१ सर्वेषां पदार्थानां तुच्छस्वरूपत्वं यतः। ३२ निःस्वभावस्य । ३३ अपोहस्य ।
प्र. क. मा० ३७
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४३४
प्रनेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० वस्तुन्येव संस्पृ(सं)टत्वैकत्वनानात्वादिविकल्पानां प्रतीतेः । भेदाभ्युपगमे वा अमावस्य वस्तुरूंपतापत्तिः; तथाहि-ये परस्पर भिद्यन्ते ते वस्तुरूपा यथा स्वलक्षणानि, परस्परं भिद्यन्ते चाऽपोहा इति । ५ न चापोह्यलक्षणसम्वन्धिभेदादपोहीनां भेदः, प्रमेयाभिधेयादिशब्दानामप्रवृत्तिप्रसङ्गात्, तदभिधेयापोहानामपोहाँलक्षणस. म्वन्धिभेदाभांवतो भेदासम्भवात् । अंत्र हि यत्किञ्चिद्व्यवच्छेत्वेन कल्प्यते तत्सर्व व्यवच्छेद्योंकारेणालम्ब्यमानं प्रमेयादिखभा
वमेवावतिष्टते । न ह्यविषयीशेतं व्यवच्छेत्तुं शक्यमतिप्रसङ्गीत् । १० न च सम्वन्धिभेदो भेदकः, अन्यथा वहुषु शावलेयादिव्यक्तिष्वेकस्याऽगोपोहस्याऽभावप्रसङ्गः यस्य चाँन्तरङ्गाः शावलेयादिव्यक्तिविशेषा न भेदकाः 'तस्याऽश्वादयो मेदकाः' इत्यतिसाहसम् ! सम्बन्धिभेदाच्च वस्तुन्यपि भेदो नोपलभ्यते किमुताऽवस्तुनि; तथाहि-देवदत्तादिकमेकमेव वस्तु युगपत्क्रमेण वाने१५ कैराभरणादिभिरभिसम्वद्ध्यमानमनासादितभेदमेवोपलभ्यते।
भवतु वा सम्बन्धिभेदानेदः, तथापि-वस्तुभूतसौमान्यानभ्युपगमे भवतां सँ एवापोहाश्रयः सम्बन्धी न सिद्धिमासादयति यस्य भेदात्त दः स्यात् । तथाहि-गादीनां यदि वस्तुभूतं सारूप्य प्रसिद्धं भवेत्तदाश्चाद्यपोहाश्रयत्वमविशेषेणैषां प्रसिद्ध्येन्नान्यथा। २० अंतोऽपोहविषयत्वमेषामिच्छताऽवश्यं सारूप्यमङ्गीकर्त्तव्यम् । तदेव च सामान्यं वस्तुभूतं भविष्यतीत्यपोहकल्पना वृथैव ।
१न तुच्छरूपाभावे । २ अन्ये सम्बद्धत्व । ३ आदिना प्रमेयत्वादि । ४ मेदानाम् । ५ सौगतैः। ६ अपोहस्य । ७ तलक्षणत्वावस्तुत्वस्य । ८ कथम् । ९ अश्वादिनिवृत्तयः। १० अपोह्या व्यावा अश्वादयः। ११ अभावानाम् । १२ अन्यथा। १३ अप्रमेयादि । १४ स्वरूप। १५ स्वरूपेण नास्ति यतः। १६ प्रमेयादिशब्देषु । १७ अप्रमेयादि । १८ व्यावय॑त्वेन । १९ व्यावाकारेण । २० विषयीक्रियमाणम् । २१ वर्त्तते। २२ व्यवच्छेद्यमप्रमेयादि । २३ परिच्छेत्तुम् । २४ गगनकुसुममपि परिच्छेत्तुं शक्यं स्यात् । २५ अपोहानाम् । २६ किन्तु प्रतिव्यक्ति भिन्न एव स्यात् । २७ अव्यभिचारि प्रतिनियतमन्तरङ्गम् । २८ अपोहे । २९ कटककुण्डलादिभिः । ३० सम्बन्धिमिः । ३१ अपोहस्य । ३२ परमार्थसत्य । ३३ गोत्वादि । ३४ विवक्षितः। ३५ सन्। ३६ सम्बन्धिनः। ३७ अपोहस्य । ३८ अर्थानाम् । ३९ सदृशरूपम् । ४० शावलेयादिषु। ४१ सामान्यम् । ४२ गोत्वादि। ४३ साधारणेन । ४४ सारूप्याभावे। ४५ सामान्यानभ्युपगमे विवक्षितोऽपोहाश्रयः सम्बन्धी न सिम्यति यतः । ४६ सौगतेन । ४७ नियमेन ।
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सू० ३३१०१] अपोहवादः
४३५ यदि वाऽसत्यपि सारूप्ये शावलेयादिष्वगोपोहेकल्पना तदा गवाश्चयोरपि कस्मान्न कल्प्येताऽसौ विशेषाभावात् ? तदुक्तम्
"अथाऽसत्यपि सारूप्ये स्यादपोहँस्य कल्पना। गवाश्वयोरयं कस्मादगोपोहो न कल्प्यते ॥१॥ शालेयाच भिन्नत्वं वाहुलेयाश्वयोः समम् । सामान्य नान्यदिष्टं चेत्क्वागोपोहः प्रवर्त्तताम् ॥ २॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो०७६-७७] यथा च खलक्षणादिषु सैमयासम्भवान्न शब्दार्थत्वं तथाऽपोहेपि । निश्चितार्थो हि समयकृत्समयं करोति । न चापोहः केन: चिदिन्द्रियैर्व्यवसीयते; तस्यावस्तुत्वादिन्द्रियाणां च वस्तुविषय-१० त्वात् । नाप्यनुमानेन; वस्तुभूतसामान्यमन्तरेणानुमानस्यैवाऽ. प्रवृत्तेः।
अस्तु वा सेमयः, तथापि-कथमश्वादीनां गोशब्दानभिधेयत्वम् ? 'सैम्बन्धानुभवणेऽश्चादेस्तद्विषयत्वेनादृष्टेः' इत्यनुत्तरम् ; यतो यदि यद्गोशब्दसङ्केतकाले दृष्टं ततोऽन्यत्र गोशब्द-१५ प्रवृत्तिनेष्यते, तदैकस्मात्सङ्केतेन विषयीताच्छावलेयादिगोपिण्डात् अन्याहुलेयाँदि गोशब्देनापोह न भवेत् । __ इतरेतराश्रयश्च-अगोव्यवच्छेदेन हि गोः प्रतिपत्तिः, स चाऽगौ\निषेधात्मा, ततश्च अगौः इत्यत्रोत्तरपदार्थों वक्तव्यो यो 'न गौः' इत्यत्र नञा प्रतिषेध्येत । न ह्यनितिखरूपस्य निषेधो २०
१ अश्वाद्यभाव । २ एक । ३ सारूप्यासत्त्वाविशेषात् । ४ यदि । ५ शावलेयादौ : ६ एकगोः। ७ कारणात् । ८ गवाश्चयोभिन्नत्वादेकागोपोहाश्रयत्वं नेत्युक्ते आह । ९ समानम् । १० परमार्थभूतम् । ११ भिन्नम् । १२ विशेपेषु क्षणिकनिरंशादिषु । १३ शावलेयादिषु । १४ सङ्केत । १५ घटते इति शेषः । १६ अस्य शब्दस्यायमर्थ इति। १७ ना। १८ नरेण । १९ निश्चीयते । २० स्वलक्षण । २१ अपोहे । २२ अपोहे समयसद्भावेपि । २३ स्यात् । २४ अनुमानमप्यन्यापोहं नावबोधयति । २५ गोशब्देन सास्लादिमदर्थस्य अनुमानस्य कार्यस्वभावसम्पाद्यत्वात् । अन्यापोहस्य निरुपाख्यत्वेनानर्थक्रियाकारित्वेन च स्वभावकार्ययोरसम्भवात्। २६ काले । २७ ता। २८ दर्शनाभावात् । २९ दृष्टं वर्जयित्वा । ३० अश्वे। ३१ परेण । ३२ खण्डमुण्डादिनाम्ना। ३३ गोशब्दस्यायं वाच्य इति । ३४ सौगतेन । ३५ गोपिण्डम् । ३६ अश्वादि व्यावलंम् । ३७ सङ्केतकाले सङ्केतेनाविषयीकृतत्वादाहुलेयादेः । ३८ दूषणान्तरमाह । ३९ कथम् । ४० गोशब्दार्थः। ४१ परेण त्वया। ४२ समासारम्भे वाक्ये । ४३ पदार्थस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे३. परोक्षपरि० विधातुं शक्यः । अथाऽगोनिवृत्यात्मा गौरव, नन्वेवमणोनिवृत्तिस्वभावत्वागारगोप्रतिपत्तिद्वारेणैव प्रतीतिः, अंगोश्च गोप्रतिपेधात्मकत्वादोप्रतिपत्तिद्वारेणेति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम् ।
अथाऽगोशब्देन यो गौर्निषिध्यते स विधिलंप एवागोव्य५बच्छेदलक्षणापोहसिध्यर्थम् तेनेतरेतराश्रयत्वं न भविष्यति
यद्येवम्-'सर्वस्य शब्दस्यापोहोऽर्थः' इत्येवमपोहकल्पना वृथा विधिरूपस्यापि शब्दार्थस्य भावात्, अन्यथेतरेतराश्रयो दुर्निवारः। तदुक्तम्
"सिद्धश्चागौरपोह्येत गोनिषेधात्मकश्च सः। तंत्र गौरव वक्तव्यो नत्रा यः प्रतिविध्यते ॥१॥ स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः। सिद्धश्चेद्गौरपोहाथै वृथापोहप्रकल्पनम् ॥ २॥ गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावेप्य(पि)गौः कुतः। नोधाराधेयवृत्त्यादिसम्बन्धश्चाप्यभावयोः॥३॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो० ८३-८५] दिग्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम् “नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहुः"[ ] इत्युक्तम् । तदयुक्तम् । यस्य हि येनं कश्चिद्वास्तवः सम्वन्धः सिद्धस्तत्तेन विशिष्टमिति वक्तुं युक्तम्, न च नीलोत्पलयोरनीलानुत्पल२० व्यवच्छेद्रूपत्वेनाभावरूपयोराधाराधेयत्वादिः सम्वन्धः सम्भ
वति; नीरूपत्वात् । आदिग्रहणेन संयोगसमवायैकार्थसमवायादिसम्बन्धग्रहणम् । न चासति वास्तवे सम्वन्धे तद्विशिष्टस्य प्रतिपचिर्युक्ताऽतिप्रसङ्गात् ।
१ पुरुषेण । २ अश्वाद्यभावात्मा। ३ उत्तरपदार्थः । ४ भो सौगत । ५ ता। ६ उत्तरपदार्थस्य । ७ अश्वादेः। ८ ता। ९ एव । १० प्रतीतिः। ११ पूर्वोक्तप्रकारेण । १२ सालादिमात्रभावरूप इति भावः। १३ नागोनिवृत्त्यात्मा । १४ स्वरूप। १५ तहिं । १६ शातः। १७ गोशब्देन। १८ एवं सति । १९ उच्यते एव गौरित्युक्ते आह। २० विधिरूपेण । २१ अज्ञाते। २२ जैनेनोच्यते । २३ विशेष्यपदाभिधेयोऽभावो विशेष्य आधारश्च विशेषणपदाभिधेयोऽभावो विशेषणमाधेयश्चेत्यभिप्रायः परस्य (सौगतस्य ) नीलो घट इत्यादिवत् । २४ न केवलं सङ्केतः। २५ कारिकोत्तरार्ध व्याचष्टे। २६ अनील अनुत्पललक्षण। २७ अभावसहितान् । २८ कथम् । २९ विशेष्यस्य । ३० विशेषणेन। ३१ अर्थरूपयोः। ३२ एकार्थसमवायः मातुलिङ्गक्षणं रूपवद्रसादेः। ३३ आदिना तादात्म्यम् । ३४ नील । ३५ उत्पलस्य । ३६ विशेषणविशेष्यतया सह्यविन्ध्ययोरपि प्रतिपत्तिः स्यादिति ।
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सू० ३।१०१] अपोहवादः
४३७ नामाकमनीलादिव्यावृत्त्या विशिष्टोऽनुत्पलादिव्यवच्छेदोऽभिमतो यतोयं दोषः स्यात् । किं तर्हि ? अनीलानुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेव तथा व्यवस्थितम् । तच्चार्थान्तरव्यावृत्त्या विशिष्टं शब्देनोच्यते; इत्यप्यपेशलम् : स्वलक्षणस्याऽवाच्यत्वात् । न च स्वलक्षणस्य व्यावृत्त्या विशिष्टत्वं सिवति यतो न वस्त्व-५ पोहोऽसाधारणं तु वस्तु, न च वस्त्वऽवस्तुनोः सम्वन्धो युक्तः, वस्तुद्वयाधारत्वात्तस्य।
अस्तु वा सम्वन्धः, तथापि विशेषणत्वमपोहस्याऽयुक्तम्, न हि सत्तामात्रेण किञ्चिद्विशेषणम् । किं तर्हि ? ज्ञातं सद्यत्वाकारानुरक्तया बुद्ध्या विशेष्यं रञ्जयति तद्विशेणम् । न चापो-१० हेऽयं प्रकारः सम्भवैति । न श्वादिबुद्ध्यापोहोऽध्यवसीयते । किं तर्हि ? वस्त्वेव । अपोहज्ञानासम्भवश्चोक्तः प्राक।न चाज्ञातोप्यपोहो विशेषणं भवति । "नागृहीतविशेषणा विशेष्ये वुद्धिः" [ ] इत्यभिधानात् ।। __ अस्तु वाऽपोहज्ञापनम् , (ज्ञानम् ;) तथापि-अथ तैदाकारवु-१५ ध्यभावात्तस्याऽविशेषणत्वम् । सर्वे हि विशेषणं स्वाकारानुरूपां विशेष्ये वुद्धिं जनयदृष्टम् , न त्वन्यादृशं विशेषणमन्यादृशीं वुद्धिं विशेष्ये जनयति । न खलु नीलमुत्पले 'रक्तम्' इति प्रत्ययमुत्पादयति, दैण्डो वा 'कुण्डली' इति । न चाश्वादिष्वभावानुरक्ता शाब्दी वुद्धिरुपजायते । किन्तर्हि ? भौवाकाराध्यवसा-२० यिनी । तथापि विशेषणत्वे सर्व सर्वस्य विशेषणं स्यात् । अनु.
१ भवतामयं प्रसङ्ग इत्युक्ते सत्याह । २ जैनानान् । ३ रक्तादि । ४ विशेषणेन । ५ अपद्मादि । ६ विशेष्यः। ७ न कुतोपि । ८ नीलोत्पलरूपेण । ९ इति जैनः । १० अर्थः स्वलक्षणरूपः। ११ अनीलाऽनुत्पलरूप । १२ इति सौगतः। १३ कुतः । १४ यद्वस्तु तत्वलक्षणमेवेति शन्देन। १५ सौगतमते । १६ अन्यव्यावृत्तिरूपं तु सामान्यमेव । १७ अपोहोस्तीत्यस्तित्वमात्रेण। १८ लोके। १९ उत्पलम् । २० स्यात् । २१ अशातत्वादपोहस्य । २२ न तावत्प्रत्यक्षेणापोहग्रहणमित्यादिः । २३ स्वलक्षणरूपे । २४ स्थिरस्थूलाकारः स्वलक्षणोस्तीति ज्ञायते न त्वभावरूपापोहाकारः। २५ सती सदृशीम् । २६ अभावरूपम् । २७ भावरूपाम् । २८ कथम् । २९ पुरुषस्थः। ३० स्वलक्षणरूपेषु । ३१ अपोहासका। ३२ शम्दजनिता सविकल्पेत्यर्थः । बौद्धानां मते निर्विकल्पकज्ञानानन्तरोत्पन्नसविकल्पकशानेन खलक्षणस्य निश्चयो यतः । ३३ स्थिरस्थूलाकार पदार्थाकार । ३४ स्वाकारानुरूपबुधजनकत्वेपि । ३५ अपोहस्य । ३६ स्वाकारानुरूपबुद्ध्यजनकत्वाविशेषात् ।
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४३८
प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरिक रागे वा अभावरूपेणे: वस्तुनः प्रतीतर्वस्तुत्वमेव न स्यात् , भावाभावयोर्विरोधात् । शब्देनाऽगम्यमानत्वाच्चाऽसाधारणवस्तुनोना व्यावृत्या विशिष्टत्वं प्रत्येतुं शक्यम् । उक्तञ्च
" चासाधारणं वस्तु गम्यतेपोहवत्तया। कथं वा परिकल्प्येत सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः ॥१॥ वरूपसत्त्वमात्रेण न स्यात्किञ्चिद्विशेषणम् । खवुद्ध्या रज्यते येन विशेष्यं तद्विशेषणम् ॥२॥ न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेपोहभासनम् । विशेष्ये वुद्धिरिष्टेह न चाज्ञातविशेषणा ॥३॥ न चान्यरूपमन्याह कुर्याज्ज्ञानं विशेषणम् । कथं वाऽन्यादृशे ज्ञाने तदुच्येत विशेषणम् ॥४॥ अथान्यथा विशेष्येपि स्याद्विशेषणकल्पना । तथा सति हि यत्किञ्चित्प्रसज्येत विशेषणम् ॥५॥ अभावगम्यरूपे च न विशेष्यस्ति वस्तुता। विशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः॥ ६॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो०८६-९१] "शब्देनागम्यमानं च विशेष्यमिति साहसम् । तेन सामान्यमेष्टव्यं विषयो वुद्धिशब्दयोः॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो० ९४] २० इतश्च सामान्यं वस्तुभूतं शब्दविषयः, यतो व्यक्तीनामसाधारणवस्तुरूपाणामशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्येत, अनुक्तस्य
१ अश्वादिषु शब्दजबुद्धेरभावेन सहानुरागे सति। २ यदा भावाकारो धृतस्तदाऽभावरूपमेव स्खलक्षणं निश्चिनुयादिति भावः। ३ वलक्षणस्य । ४ कुतः । ५ स्वलक्षणस्य । ६ अपोहेन । ७ अर्थान्तरव्यावृत्या विशिष्टं स्खलक्षणरूपं वस्तु शब्देनोच्यत इति वदन्तं वादिनं प्रति समर्थनमुक्तमिति ज्ञेयम् । ८ अपोहस्य । ९ कथं तर्हि विशेषणं स्यादित्युक्ते आह । १० स्वस्य विशेषणस्य । ११ प्रतीतिः। १२ जगति । १३ अभावरूपम् । १४ भावरूपम् । १५ विशेष्ये । १६ जैनानामिदं दूषणं न जायते तेषां सर्व वस्तु भावाभावात्मकं यतः । १७ भावरूपे । १८ अभावरूपे। १९ परेण । २० यदि । २१ भावरूपे । २२ अपोइस्य । २३ अनिर्वच. नीयम् । २४ स्खलक्षणरूपे । २५ विशेषणेन । २६ स्वलक्षणरूपम् । २७ शब्देन । २८ सौगतस्य । २९ अपोहस्य विशेषणस्य । ३० स्खलक्षणम् । ३१ येन कारणेनापोहशब्दयोर्वाच्यवाचकमावो नास्ति तेन। ३२ शब्दजनितबुया गम्यः शब्देन बाच्यश्च । ३३ गोत्वादि। ३४ स्वलक्षणस्यावाच्यत्वं कुतः सङ्केताभावात् । ३५ शब्देनावाच्यस्य ।
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सू० ३.१०१] अपोहवादः
४३९ निराकर्तुमशक्यत्वात्, अपोह्येत सामान्यं तस्य वाच्यत्वात् । अपोहानां त्वभावरूपतयाऽपोखैत्वासम्भवात् , अभावानामभावाभावात् , वस्तुविषयत्वात्प्रतिषेधस्य । अपोह्यत्वेऽपोहानां वस्तुत्वमेव स्यात् । तस्मादश्वादी गवादेरपोहो भवन् सामान्यभूतस्यैव भवेदित्यपोहत्वाद्वस्तुत्वं सामान्यस्य । तदुक्तम्
"यदा चाऽशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनीमपोहता। तदापोह्येत सामान्यं तस्यापोहाच वस्तुता ॥ १ ॥ नाऽपोह्यत्वमभावानामभावाऽभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात्सामान्यवस्तुनः ॥२॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो० ९५-९६] १० किञ्च, अपोहानां परस्परतो वैलक्षण्यं वा स्यात्, अवैलक्षण्यं वा? तत्राद्यपक्षे [अ]भावस्थागोर्शब्दाभिधेयस्याभावो गोशब्दाभिधेयः, सं चेत्पूर्वोक्तादौवाद्विलक्षणः; तदा भाव एव भवेदभावनिवृत्तिरूपत्वाद्भावस्य । न चेद्विलक्षणः; तदा गौप्यगौः प्रसेंज्येत तेदवैलेक्ष्येण (तवलक्षण्येन) तादात्म्यप्रतिपत्तेः । तन्न १५ वाच्यामिमतापोहानां भेदसिद्धिः।
नापि वाँचकाभिम॑तानाम् ; तथाहि-शब्दानां भिन्नसामान्यवाचिनां विशेषवाचिनां च परस्परतोऽपोहभेदो वासनोंभेदनिमित्तो वा स्यात्, वाच्यापोहभेदनिमित्तो वा? प्रथमपक्षोऽयुक्तः; अवस्तुनि वासनाया एवासम्भवात् । तदसम्भवश्च २०
१ अपोहितुम् । २ शब्देन । ३ भन्यव्यावृत्तीनाम् ( सर्वेषां पदार्थानामपोहरूपत्वात्सर्वे भावा अपोहाः)। ४ व्यावय॑त्व । ५ अत्र खरविषाणवदृष्टान्तः । ६ अपोहानाम् व्याव-नाम् । ७ व्यावर्त्यत्वे। ८ अङ्गीक्रियमाणे परेण। ९ अभावाभावानाम् । १० वर्तमानः । ११ हेतोः। १२ स्खलक्षणानाम् । १३ वस्तुविषयो निषेधो यतः। १४ निषेधस्य निषेधासम्भवात्। १५ अपोह्या(हा)न्तरेऽश्वादौ । १६ गोः। १७ व्यक्तीनामपोहानां चापोहता नास्ति यस्मात् । १८ एव । १९ ता। २० गोशब्दाश्वशब्दवाच्यानामन्यव्यावृत्तीनाम् । २१ विसदृशता। २२ अश्व । २३ वाच्यस्य । २४ गोशब्दाभिधेयोऽभावो यतः। २५ अगोशब्दाभिषयात् । २६ द्वितीयपक्षे दूषणमुद्भावयन्ति । २७ एकस्वरूपः। २८ भवेत् । २९ भिन्नपदार्थ । ३० तसादगोशब्दवाच्यादपोहादवैलक्षण्यं गोशब्दवाच्यस्यापोहस्य । ३१ एकत्वात् । ३२ गोशब्दाऽगोशब्दवाच्यापोहयोः । ३३ अर्ध । ३४ शब्द । ३५ अपोहानाम् । ३६ गोलक्षणाश्वलक्षण। ३७ खण्डमुण्डादि । ३८ शब्दापोहभेदः । ३९ पूर्वविकस्पशानं शब्दविषयं वासना । ४० एव । ४१ बसः। ४२ अर्थ । ४३ वाचकापोहे।
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४४०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[३. परोक्षपरि०
तद्धेतोनिविश्यमायत्यायोगात् । नापि वाच्यापोहोदनिमित्तः, तद्भेदस्य प्रागेव कृतोत्तरत्वात् ।
ननु प्रत्यक्षेणैव शब्दानां कारणभेदाद्विरुद्धधर्मायालाच भेदः प्रसिद्ध एव; इत्यप्यसाम्प्रतम् । यतो वाचकं शव्दमङ्गीकृत्यै५ वमुच्यते । न च श्रोत्रज्ञानप्रतिभासिस्खलक्षणात्मा शब्दो वा. चकः; सङ्केतकालानुभूतस्य व्यवहारकालेऽचिरनिरुद्धत्वात् इति न स्वलक्षणस्य वाचकत्वं भवदभिप्रायेण । तदुक्तम्
"नार्थशब्दविशेषेण वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वासामान्यं तूपदिश्यते ॥१॥"[ ] "तंत्र शब्दान्तरापोहे सामान्य परिकल्पिते । तथैवावस्तुरूपत्वाच्छब्दभेदो न कल्प्यते ॥२॥"
[मी० श्लो० अपोह० श्लो० १०४] ततो ये अवस्तुनी न तयोर्गस्यगमकभावो यथा खपुष्प-खर. विषाणयोः। अवस्तुनी च वाच्यवाचकापोहौ अवतामिति । ननु १५ मेघाभावादृष्ट्यभावप्रतिपत्तेरनैकान्तिकता हेतोः इत्यप्ययुक्तम् ।
तद्विविक्ताकाशालोकात्मकं हि वस्तु मत्पॅक्षेऽत्रापि प्रयोगेस्त्येव, अभावस्य भावान्तरखभावत्वप्रतिपादनात् । भवत्पक्षे तु न केवलमपोहयोर्विवादास्पदीभूतयोर्गम्यगमकत्वाभावोऽपि तु वृष्टि
मेघाद्यौवयोरपि। २० किञ्च, अपोहो वाच्यः, अर्थावाच्यो वा? वाच्यश्चेत्किं विधिरूपेण, अन्यव्यावृत्त्या वा? यदि विधिरूपेण; कथमपोहः सर्व
१ वासनाकारणस्य । २ तुच्छरूपत्वान्निविषयत्वमपोहस्य सविकल्पकशानस्य । ३ गवादीनाम् । ४ ताल्वादि । ५ भिन्न । ६ अध्यासो ग्रहणम् । ७ पारमार्थिकाथेस्य । ८ परेण सौगतेम। ९ स्वलक्षणरूपशब्दस्य । १० विनष्टत्वात् । ११ हेतोः। १२ शब्दस्वभावस्य । १३ बौद्ध । १४ अस्वलक्षणरूपैः शब्दरस्वलक्षणरूपार्धप्रतिपादने न किञ्चित्साध्यसिद्धिौद्धमते इत्यभिप्रायः। १५ परेण । १६ सङ्केतकालात् । १७ अशातत्वात् । १८ उत्तरकाले । १९ अर्थशब्दयोः । २० तर्हि सामान्याकारण वाच्यवाचकतास्त्वित्याशङ्कायामाह । सामान्यस्य वाच्यवाचकतयोपदेशे च । २१ गोशब्दादश्वशब्दः शब्दान्तरं तेन वाच्योऽपोहस्तत्र । २२ अवास्तवे । परिकल्पितप्रकारेण। २३ शब्दानाम् । २४ समर्थ्यते। २५ सौगतानाम् । २६ अभावरूपयोरपि गम्यगमकभावोस्तीति वक्ति बौद्धः। २७ गम्यगमकभावसद्भावात्। २८ अवस्तुत्वादिति । २९ मेवादिभिन्न। ३० जैन। ३१ सौगत । ३२ वाच्यवाचकयोः। ३३ तुच्छरूपत्वात् । ३४ अन्यश्च । ३५ शब्देन । ३६ अथवा। ३७ शब्देन । ३८ अस्तित्वसद्भावेन। ३९ एव ।
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सू० ३११०१]
अपोहवादः
शब्दार्थः? अथान्यव्यावृत्या, तर्हि नापोहोपि शब्दाधिगम्यो मुख्यः। अनवस्था चे-तद्व्यावृत्तेरपि व्यावृत्त्यन्तरेणाभिधानात् । अथाऽवाच्यः, तर्हि 'अन्यशब्दार्थाऽपोहं शब्दः प्रतिपादयति' इत्यस्य व्याधीतः!
किञ्च, 'नोन्यापोहः अनन्यापोहः' इत्यादौ विधिरूपादन्य-५ द्वाच्यं नोपलभ्यते प्रतिषेधद्वयेन विधेरेबाध्यवसायाद ।
कश्चायमन्यापोहशब्दवाच्योों यत्रान्यापोहसंज्ञा स्यात् ? अथ विजातीयव्यावृत्तानर्थानाश्रित्यानुभवादिक्रमेण यदुत्पन्नं विकल्पज्ञानं तत्र यत्प्रतिभाति ज्ञानात्मभूतं विजातीयव्यावृत्ताकारतयाध्यवसितमर्थप्रतिविम्वकं तत्रान्यापोह इति संज्ञा । ननु १० विजातीयव्यावृत्तपदार्थानुभवद्वारेण शाब्दं विज्ञानं तथाभूतार्थाध्यवसाय्युत्पद्यते इत्यत्राविवाद एव । किन्तु तत्तथाभूतपारमार्थिकार्थग्राह्यभ्युपगन्तव्यमध्यवसायस्य पँहणरूपत्वात् । विजा'तीयव्यावृत्तेश्च समानपरिणामरूपवस्तुधर्मत्वेन व्यवस्थापितत्वान्नाममात्रमेव भिद्येत।
यच्चोक्तम्-"तत्प्रतिविम्बकं च शब्देन जन्यमानत्वात्तस्य कार्यमेवेति कार्यकारणभाव एव वाच्यवाचकभावः"
१ अपोहस्य विधिरूपेण वाच्यत्वात्सर्वशब्दार्थोऽपोह एव न भवतीत्यर्थः। २ अपोह। ३ न केवलं स्वलक्षणम्। ४ अन्यव्यावृत्तिरपि वाच्याऽवाच्या वा स्यात् ? अवाच्या तदाऽवाच्ययान्यव्यावृत्त्या कथमपोहो वाच्योतिप्रसङ्गात् । अथ वाच्या किं विधिरूपेणान्यव्यावृत्त्या वा ? न तावदिधिरूपेणोक्तदोषानुषङ्गात् । अथान्यव्यावृत्त्या अन्यव्यावृत्तिर्वाच्या चेत्तत्राप्यन्यव्यावृत्तिर्यथा वाच्या सापि वाच्याऽवाच्या वेत्यादिप्रकारेणानवस्था। ५ कुतः। ६ शब्देन । ७ अश्व। ८ यतः। ९ अश्वलक्षण। १० गौरिति । ११ मतस्य । १२ अपोहस्याऽवाच्यत्वात् । १३ सर्वेषां परस्परेण: व्यावृत्तिस्वभावो यतः। १४ अविधिरूपम् । वस्तु। १५ आदी यो नञ् स एकोपोहो द्वितीयेन तस्याप्यपोहः । दो नौ प्रकृतमर्थ गमयतः। १६ इति । १७ सङ्केतः । १८ कश्चिद्वौद्धविशेषः प्राह । १९ अश्वादिभ्यः। २० खण्डमुण्डादिस्खलक्षणान् । २१ प्रथमं खण्डमुण्डाद्यनुभवो नाम निर्विकल्पकं दर्शनं, तदनु विकल्पवानुद्वोधस्तदनु सङ्केतकालगृहीतवाच्यवाचकस्सरणं तदन्वितं वाच्यवाचकमिति योजनं, तदनु विकल्पोयं गौरिति । २२ अश्वादिभ्यः। २३ ज्ञानादभेदरूपम् । २४ जैनबौद्धयोः । २५ शाने ज्ञानस्वरूपाकारोऽपोह इति बौद्धविशेषस्याऽभिप्रायः। २६ श्रावणप्रत्यक्षम्। २७ निश्चयस्य । ८ सौगतेन। ९ पदार्थानां शानस्य । ३० बौद्धमते। ३१ खण्डमुण्डादिखव्यक्त्यपेक्षया । ३२ विजातीयव्यावृत्तिः समानपरिणामरूपसामान्यं चेति। ३३ स्वग्रन्थे । ३४ अर्थ । शाने।
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४४२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० तदप्ययुक्तम् । शब्दाद्विशिष्टसङ्केतसव्यपेक्षाद्वाह्यार्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीतेः स एवास्यार्थो युक्तः, न तु विकल्पप्रतिविस्वकमात्र शब्दात्तस्य वाच्यतयाऽप्रतीतेः।
अतोऽयुक्तम्-"प्रतिविम्वस्य मुख्यमन्यापोहत्वं विजातीयव्या५वृत्तस्खलक्षणस्यान्यव्यावृत्तेश्चौपचारिकम्" [ इति । अन्यापोहस्य हि वाच्यत्वे मुख्योपचारकल्पना युक्तिमती, तच्चास्य नास्तीत्युक्तम् । ततः प्रतिनियताच्छब्दात्प्रतिनियतेऽथै प्राणिनां प्रवृत्तिदर्शनात्सिद्धं शब्दप्रत्ययानां वस्तुभूतार्थविषय
त्वम् । प्रयोगः-ये परस्परासंकीर्णप्रवृत्तयस्ते वस्तुभूतार्थविषयाः २० यथा श्रोत्रादिप्रत्ययाः, परस्पराऽसङ्कीर्णप्रवृत्तयश्च दण्डीत्यादिशाब्दप्रत्यया इति । न चायमसिद्धो हेतुः; 'दण्डी विषाणी' इत्यादिधीवनी हि लोके द्रव्योपोधिको प्रसिद्धौ, 'शुक्ल: कृष्णो भ्रमति चलति' इत्यादिको तु गुणक्रियानिमित्तौ, 'गौरश्वः' इत्यादी . सामान्यविशेषोपाँधी, 'इहात्मनि ज्ञानम्' इत्यादिको १५ सम्वन्धोपाधिकावेवेति प्रतीतेः।
नैनु चाकृतसमया ध्वनयोर्थाभिधायकाः, कृतसमया वा? प्रथमपक्षेतिसङ्गः। द्वितीयपक्षे तु व तेषां सङ्केतः-स्खलक्षणे, जाँतौ वा, तद्योगे वा, जातिमत्यर्थे वा, वुद्ध्योकारे वा प्रकारान्त
रासम्भवात् ? न तावत्स्वलक्षणे; समयो हि व्यवहारार्थ क्रियमाणः २० सङ्केतव्यवहारकालव्यापके वस्तुनि युक्तो नान्यत्र । न च स्खल
क्षणस्य सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्वम् ; शाबलेयादिव्यक्तिविशेषाणां देशोदिभेदेन परस्परतोऽत्यन्तव्यावृत्ततयाऽन्वयाभावात् ,
१ घटपटादिलक्षणे । २ अर्थतया। ३ सम्बन्धिन्याः । ४ तथा हि । ५ शब्देन । ६ किञ्चापोहावाच्योथेत्यादिना। ७ शब्दाथोंऽपोहो विचार्यमाणो. न घटते' यतः। ८ परमार्थ । ९ बसः। १० असङ्कलित । ११ लोचनादिज्ञानानि । १२ द्वन्द्वः। १३ ध्वनिः शब्दः। १४ उपाधिः-विशेषणं कारणमित्यर्थः। १५ धीध्वनी । १६ धीध्वनी । १७ गोत्वादि । १८ अश्वादेयावर्त्तमानत्वात्तदेव विशेषः । १९ धीवनी । २० संबन्धः समवायः। २१ अत्र प्रतिविधीयते । इत्येतावतः प्राक् सौगतः पूर्वपक्षयति । २२ घटादिवाचकाः। २३ घटशब्दः पटाभिधायको भवतु सङ्केताभावात् ।. २४ सदृशपरिणामलक्षणे संकेतोस्ति । २५ बुद्धावकारे। २६ प्रतिबिम्बके । २७ क्षणिकादिरूपे। २८ प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप । २९ स्थायिनि । ३० अव्यापके क्षणिके। ३१ आदिना खण्डमुण्डशवलादीनाम् । ३२ आदिना कालस्वरूपस्वभावाः । ३३ खण्डो मुण्डादत्यन्तव्यावृत्त इति सम्बन्धाभावात् । ३४ यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः। न देशकालयोाप्तिर्भावानामिह विद्यते।
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सू० ३।१०१] अपोहवादः
४४३ तत्रानन्त्येन सङ्केतासम्भवाच्च । विकल्पबुद्धावध्याहृत्य तेषु सङ्केताभ्युपंगमे विकल्पसमारोपितार्थविषय एव शब्दसङ्केतः, न परमार्थवस्तुविषयः स्यात् । स्थिरैकरूपत्वाद्धिमाचलादिभावानां सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्वेन संमयसम्भवोप्यसम्भाव्यः तेषामप्यनेकाणुप्रचयखभावानां प्रादुर्भावानन्तरमेवावर्गितया तद-५ सम्भवात्।
किञ्च, एतेषु समयः क्रियमाणोऽनुत्पन्ने क्रियेत, उत्पनेषु वा ? न तावदनुत्पन्नेषु परमार्थतः समयो युक्तः; असतः सर्वोपाख्यारहितस्याधारत्वानुपपत्तेः । नाप्युत्पन्नेषुः तस्यार्थानुभवशब्दस्सरणपूर्वकत्वात् , शब्दस्सरणकाले चार्थस्य प्रध्वंसात् । १० सर्वेषां खलक्षणक्षणानां सादृश्यमैक्येनाध्यारोप्य सङ्केतविधाने सिद्धं स्खलक्षणस्याऽवाच्यत्वम् वुद्ध्यारोपितसादृश्यस्यैवाभिधानरभिधानात् । वाच्यत्वे वा शब्दबुद्धेः स्पष्टप्रतिभासप्रसङ्गः, न चैवम् । न खलु यथेन्द्रियवुद्धिः स्पष्टप्रतिभासा प्रतिभासते तथा शब्दवुद्धिः। प्रयोगश्च-यो येत्कृते प्रत्यये न प्रतिभासते न स १५ तस्यार्थः यथा रूपशब्दप्रभवप्रत्यये रसाप्रतिभासने नासौ तदर्थः, न प्रतिभासते च शाब्दप्रत्यये स्खलक्षणमिति । उक्तञ्च
"अन्यथैवाग्निसम्बन्धादोहं ग्धो हि मन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते ॥ १॥"
[वाक्यप० २२४२५] २० न चैकस्य वस्तुनो रूपयमस्ति, येनास्पष्टं वस्तुगैतमेव रूपं शब्दैरभिधीयेत ऐकस्य द्वित्वविरोधात् । तन्न स्खलक्षणे सङ्केतः ।
• १ यो यो गोशब्दः स स मुण्डवाचक इति । २ व्यक्तिषु। ३ गोशब्दस्य । ४ सर्वव्यक्तयो गोशब्देन वाच्या इति आरोप्य। ५ जैनादिना। ६ बसः। ७ बसः। ८ पदार्थानाम् । ९ सङ्केत । १० विनाशितया। ११ शाबलेयादिविशेषेषु । १२ अजातेषु । १३ उपाख्या स्वभावः। १४ समयस्य । १५ अयमस्य शब्दस्य वाच्य इति । १६ त्रिकालत्रिलोकोदरवर्तिनाम् । १७ सदृशापरापरोत्पत्त्या यत्सादृश्यम् । १८ अभेदेन। १९ अङ्गीक्रियमाणे जैनादिना । २० शब्देन । २१ आरोपितसामान्यस्यैव वाच्यत्वं शब्देन यतः । २२ शब्दैः जातायाः । २३ स्वलक्षणस्य ! २४ उपर्युक्तसमर्थनम् । २५ नेत्रादि । २६ स्वलक्षणरूपोर्थः । २७ स्पष्टत्वेन । २८ यसः। २९ स्पर्शनेन्द्रियेण । ३० साक्षात् । ३१ (नहि) दाहमित्युक्ते मुख्यं दह्यते । ३२ पुमान् । ३३ अस्पष्टत्वेन। ३४ स्पष्टत्वास्पष्टत्वे । ३५ युक्तिसिद्धम् । ३६ स्पष्टास्पष्टत्वलक्षणम् । ३७ रूपस्य । ३८ परमार्थभूतः।
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४४४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० नापि जातौ तस्याःक्षणिकत्व स्वलक्षणस्येवान्वयाभावान्न सङ्केतः फैलवान् । अक्षेणिकत्वे तु क्रमेण ज्ञानोत्पादकत्वाभावः। नित्यैकखभावस्य परापक्षाप्यलम्भाव्या ! प्रतिषिद्धा चेयं यथास्थानम इत्यलमतिमलङ्गेले । ५ नापि तद्योगे सङ्केतः; तस्यापि समवायादिलक्षणस्य निराकृतत्वाद् । जातितद्योगयोश्चासम्भवे तद्वतोप्यर्थस्यासम्भवाकथं तत्रापि सङ्केतः? बुद्ध्यांकारे वा; स हि वुद्धितादात्म्येन स्थितत्वान्न वुमन्तरं प्रतिपाद्यमर्थ वानुगच्छति ।
किञ्च, 'इतः शब्दीदर्थक्रियार्थी पुरुषोऽर्थक्रियाक्षमानान्वि१० ज्ञाय प्रवर्तिष्यते' इति मन्यमानैर्व्यवहर्तृभिरभिधायकों नियु
ज्यन्ते न व्यसनितया । न चासौ विकल्पवुद्ध्याकोरोऽर्थिनोभिप्रेतं शीतापनोदादिकार्य सम्पादयितुं समर्थः ।।
किञ्च, बुद्ध्याकारे शब्दसङ्केताभ्युपगमेऽपोहादिपक्ष एवाभ्युपगतो भवेत्; तथाहि-अपोहादिनापि वुद्ध्याकारो बाह्यरूप. १५ तयाध्यवसितः शब्दार्थोभीष्ट एव, अर्थविक्षां च कार्यतया शैब्दो गमयति यथा धूमोनिमिति ।
अंत्र प्रतिविधीयते । कृतसमया एव ध्वनयोऽर्थाभिधायकाः। समयश्च सामान्यविशेषात्मकेर्थेऽभिधीयते न जात्यादिमात्र ।
१ कुतः। २ जातेः। ३ गोत्वादिसामान्ये। ४ भवेत् । ५ अनुस्यूतत्वे । ६ तस्या जातेः । ७ परं-निमित्तम् । ८ जातिः । ९ जातौ सङ्केतनिराकरणप्रसङ्गेन । १० पक्षान्तरम् । ११ तयोः स्खलक्षणजात्योः सम्बन्धे । १२ आदिना संयोगतादात्म्यादेश्च । १३ शब्देन । १४ अर्थस्य । १५ नान्वेति । १६ अतः केन सार्क सङ्केतः स्यात्। १७ विवक्षितत्वात्। १८ जैनमताभिप्रायं वक्ति सौगतः। १९ अर्थ:प्रयोजनम् । २० शब्दाः। २१ कार्य विना प्रवृत्तिर्व्यसनम् । २२ अर्थस्य । २३ पुरुषस्य । २४ अर्थप्रतिबिम्बरूपे । २५ जैनेन । २६ सौगत। २७ जैनस्य । २८ सौगतेन । २९ शानात्मा बुद्ध्याकार एव बाह्यार्थों नापरः कश्चिदित्यभिप्रायो बौद्धविशेषस्य । ३० आन्तरार्थस्य वक्तुमिच्छां शानस्वभावां शब्दस्य कारणभूताम् । ३१ कार्यरूपः । ३२ शापयति । ३३ शानस्वभावा विवक्षा एव बाह्यार्थः शन्दविषयों नापरः कश्चिदित्यपि बौद्धविशेषाभिप्रायः । अन्यापोहरूपो बुद्ध्याकाररूपो विवक्षारूप एवं त्रिविधः शब्दविषयो बौद्धमते इति ज्ञेयम् । ३४ कार्यम् । ३५ कारणम् । ३६ परकृतपक्षे। ३७ शब्दाः। ३८ वाचकाः। ३९ तादात्म्यस्वरूपै। ४० परार्थे । ४१ क्रियते । ४२ केवलायां जातौ केवले विशेषे वा नाभिधीयते ।
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सू० ३११०१] अपोहवादः
४४५ तथाभूतश्चार्थो वास्तवः सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्वेन प्रमाणसिद्धः 'सामान्यविशेषात्मा तदर्थः [परीक्षामु०४।१] इत्यत्रातिविस्तरेण वर्णयिष्यते । सामान्यविशेषयोर्वस्तुभूतयोस्तत्सम्बन्धस्य चात्र प्रमाणतः प्रलापयिष्यमाणत्वात् । न चात्राप्यानन्त्यान्यक्तीनां परस्पराननुगमा सङ्केताऽसम्भवः, समान-५ परिणामापेक्षया क्षयोपशमविशेषाविभूतोहात्यमागेल तासां प्रतिभालमानतया सङ्केतविपयतोपपत्ते, कथनन्यथानुमानवृत्तिः तंत्राप्यानन्त्यानंनुगमरूपतया साध्यसाधनव्यहीनो सन्दधग्रहणासम्भवात् ? __ अन्यव्यावृत्त्या सम्वन्धग्रहणम् ; इत्यप्यसत्तस्या एवसदृशप-१० रिणामसामान्यासम्भवे असम्भाव्यमानत्वात्। न चाऽसदृशेष्वप्य. थेषु सामान्यविकल्पजनकेषु तद्दर्शनद्वारेण सदृशव्यवहारे हेतुत्वम्नीलादिविशेषाणामप्यभावानुषङ्गात् । यथा हि परमार्थतोऽसदेशा अपि तथाभूतविकल्पोत्पादकदर्शनहेतवः सदृशव्यवहारभाजोभावाः तथा स्वयमनीलादिस्वभावा अपि नीलादिविकल्पोत्पाद-१५ कदर्शननिमित्ततया नीलाव्यिवहारभारत्वं प्रतिपत्स्यन्ते । संहशपरिणामाभावे व अर्थानां सजातीयेतरव्यवस्थाऽसम्भावाकुंदः कस्य व्यावृत्तिः ? अन्यव्यावृत्त्या लस्बन्धविगमेपि चैतलब सॉनम्-तंत्रानन्त्याननुगमरूपत्वस्याऽविशेषात् । ततो 'ये यंत्र भावतः कृतसमया न भवन्ति न ते तस्याभिधायकाः यथा २०
3
१ सङ्केतिताथों नास्तीत्युक्ते आह । २ सूत्रे । ३ जैनाचार्यैः । ४ प्रत्यक्षादितः । ५ व्यवहारकाले। ६ अस्य शब्दस्यायनर्थ इत्येवंरीत्या । ७ सदृश । ८ ये ये त्रिकालत्रिलोकोदरवर्तिनः सास्लादिनन्तस्ते ते गोशब्देन वाच्या इत्येवन् । ९ कुतः । १० अनुमानव्यवहारकाले । ११ परस्पर । १२ असाध्यासाधनरूपेण । १३ अविनामावलक्षण । १४ या गोव्यक्तयस्ता गोशब्देन वाच्या इति । १५ पूर्व निराकृतत्वात् । १६ खण्डादिषु । १७ सामान्यरूपश्चासौ विकल्पश्च । १८ अयमनेन सदृश इति विकल्पोयं गौरयं गौवेति विकल्पः। १९ विसदृशार्थ । २० प्रवीति । २१ मुखेन । २२ कथम् । तथा हि । २३ खण्डमुण्डादयः पदार्थाः। २४ सन्तः। २५ स्युः। २६ स्वरूपेण। २७ नीललक्षणभावाः। २८ विकल्पः ज्ञानम् । २९ सामान्य । ३० सास्लादिमत्वादिना। ३१ गोघटपटादीनाम् । ३२ विजातीय । ३३ कस्मात् । ३४ साध्यसाधनव्यक्तीनाम्। ३५ किञ्च । ३६ सङ्केतपक्षे यत्परेणोच्यते । ३७ अन्यव्यावृत्तिविषयकम् । ३८ अन्यव्यावृत्तयोऽनन्ता इत्येवम् । ३९ व्यावृत्तिग्रह णकाले। ४० साध्यसाधनव्यक्तीनां सम्बन्धावगमो यथा वस्तुनि शब्दस्य सङ्केतपरिझानमपि तथा स्याद्यतः। ४१ वस्तुनि। ४२ परमार्थतः ।
प्र. क. मा० ३८
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४४६
प्रमेय कमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० सानादिमत्वकृतोऽशक्षः, न सवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वसिवस्टानि लवं वनयः' इत्यत्र प्रयोगेऽसिद्धो हेतुः; उक्तप्रकारेणार्थे ध्वनीनां समयसम्भवात् ।
यश हिमाचलादिभावानामप्यनेकपरमाणुप्रचयात्मनां क्षणिक५ त्वेन समयासम्भव इत्युक्तम् । तदप्युक्तिमात्रम् ; सर्वथा क्षणिकत्वल्य वाह्याध्यात्मिकाथै प्रतिवेत्त्यमानत्वात् । तथा चोत्पन्नेष्वप्यर्थेषु सङ्केतलम्भवात् , अयुक्तमुक्तम्-'उत्पन्नेष्वनुत्पन्नेषु वा सङ्केतासम्भवः' इत्यादि।
ननु शब्देनास्यानिधेयंत्रे लाक्षादेवातोप्रतिपत्तेरिन्द्रिय१० संहतेवैफल्यग्रसङ्गः, तन्ना अतोऽर्थयाऽस्पष्टाकारतया प्रतिपत्तेः, स्पटाकारतया तत्प्रतिपत्त्यर्थमिन्द्रियसंहतिरप्युपपद्यते एवेति कथं तस्या वैफल्यम् ? स्पष्टाऽस्पष्टाकारतयार्थप्रतिभासमेदश्च सामनीभेदान विरुध्यते, दूरासन्नार्थीपनिवद्धेन्द्रियप्रतिभाँसर्वत्।
अथाऽसत्यप्यर्थेऽतीतानागतादौ शब्दस्य प्रवृत्ति(त्ते नईयार्था१५भिधायकत्वम् । तदसत्। तस्येदानीमभावेपि स्वकाले भावात्, 'अन्यथी प्रत्यक्षस्याप्यर्थविषयत्वाभावः स्यात् तद्विपयस्यापि तत्कालेऽभावात् । अविसंवादस्तु प्रमाणान्तरप्रवृत्तिलक्षणोऽध्यक्षवच्छोदेप्यनुभूयत एव। 'आँसीद्वह्निः' इत्याद्यतीतविषये वाक्ये विशिष्टंभस्मादिकार्यदर्शनोद्भूतानुमानेन संवादोपलब्धेः, चन्द्रार्क२० ग्रहणाधनांगतार्थविषये तु प्रत्यक्षप्रमाणेनैव । केचिद्विसंवादा
सर्वत्र शाब्दस्याऽप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्यापि क्वचिद्विसंवादात्सर्वत्राप्रामाण्यप्रसङ्गः। ततो निराकृतमेतत्
"अन्यदेवेन्द्रियग्रामन्यच्छब्दस्य गोचरः।
१ सालादिमदर्थाभिधायको न भवति यतः । २ परकृते । ३ भावतोऽकृतसमयस्वादिति । ४ समानपरिणामापेक्षयेत्यादिना। ५ परेण । ६ घटादौ। ७ शानादौ । ८ परेण। ९ प्रतिपाद्यत्वे । १० अन्यवधानेन। ११ श्रूयमाणाच्छब्दात् । १२ चक्षुरादिसमूहस्य । १३ सूक्तम् । १४ विवक्षिताच्छन्दात् । १५ घटते । १६ एकार्थ । १७ एकार्थस्य। १८ स्पष्टाऽस्पष्टतया। १९ एकार्थस्य । २० शब्दो. च्चारणसमये । २१ अर्धस्यानभिधायकत्वे । २२ क्षणिकत्वात् । २३ प्रत्यक्षोत्पत्तिकाले इव । २४ शने। २५ कथम् । २६ इह प्रदेशे। २७ किञ्चिदुष्णताकाष्ठाद्याकारधारित्वविशिष्ट। २८ भविष्यत् । २९ वाच्ये। ३० शब्दप्रतिपाये। ३१ अर्थे। ३२ अङ्गीक्रियमाणे परेण। ३३ अमिन्नविषयत्वेपि शाब्दप्रत्यक्षयोः प्रतिभासमेदो दर्शितो यतः। ३४ खलक्षणम् । ३५ सामान्यम्।
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सू० ३।१०१] अपोहवादः
४४७ शब्दात्प्रत्येति मिनाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥ १॥" ! "अन्यथैवाग्निसम्बन्धादाहं दग्धोभिमन्यते । अन्यथी दाहशब्देन दाहाः सम्प्रतीयते॥”
[वाक्यप० २।४१२५] इत्यादि। सामग्रीभेदाद्विशदेतरप्रतिभासदो न पुनर्विवर्य भेदात्,सामा-५ न्याविशेषात्मकॉर्थविषयतया सकलप्रमाणानां त दामावादित्य वक्ष्यमाणत्वात् । ततो 'यो यत्कृते प्रत्यायन प्रतिमास इलादिप्रयोगे हेतुरसिद्धः; सामान्यविशेषात्मार्थलैक्षणललक्षमाख्या शाह प्रत्यये प्रतिभासनात्।
प्रयोगः-यद्यत्र व्यवहृतिमुपजनयति तत्तद्विषयम् यथा सामान्य-१० विशेषात्मके वस्तुनि व्यवहृतिमुपजनयत्त्यक्षं तद्विषयम् , तत्र व्यवहृतिमुपजनयति च शब्द इति । न चासिद्धो हेतुः, वहिरन्तश्च शान्व्यवहारस्य तथाभूते वस्तुन्युपलस्मात् । भवैकल्पितखलक्षणस्य तु प्रत्यक्षेऽन्यत्र वा खप्नेप्यप्रतिभासैनात् ।
प्रतिज्ञापयोश्च व्याघातः; तथाहि-'अन्यदेदेन्द्रियग्राह्यम् १५ इत्यनेन शब्देन कश्चिदर्थोभिधीयते वा, न वा? नाभिधीयते चेत् कथमिन्द्रियोहास्यान्यवमतः प्रतीयते ? अथाभिधीयतेथः तर्हि तस्यैव तद्विपयत्वप्रसिद्धेः कथन शब्दस्यार्थागोचरत्वप्रतिशाऽतो व्याहन्येत ? साँक्षादिन्द्रियग्राह्यागोचरोऽसाविति चेत् । पारम्पर्येणासौ तद्गोचरो भवति, न वा ? यदि न भवति; तर्हि २० 'साक्षात्' इति विशेषणं व्यर्थम् । अथ भवति, तर्हि तज्ज्ञा(तज्जा)
१ कुतः। २ अर्थम् । ३ जानाति । ४ उत्पाटिताक्षः अन्ध इत्यर्थः । ५ क्रियाविशेषणमेव । ६ परोक्षं जानातीत्यर्थः । ७ अर्थन् । ८ स्पर्शनेन्द्रियग्राह्य तया । ९ स्पष्टत्वेन । १० जानाति । ११ अस्पष्टत्वेन । १२ आसन्नदूरत्वादि । १३ सामान्यविशेषात्मकार्थों विषयो भवतीति साध्यः, शब्दो धी : १४ बसः । १५ विषय। १६ चतुर्थाध्याये। १७ शब्दप्रत्ययेऽर्थप्रतिभासः सिद्धो यतः । १८ अनुमाने। १९ शब्दकृते प्रत्ययेऽप्रतिभासमानत्वात्स्वलक्षणस्येति । २० कुतः । २१ यसः। २२ शब्दशानजनितशाने। २३ विकल्पज्ञानम् । २४ विकल्पम् । २५ नायनादि । २६ तत्र व्यवहृतिजनकत्वात्। २७ गवादौ । २८ आत्मादौ । २९ सौगत । ३० अनुमानादौ । ३१ खरविषाणवत् । ३२ व्याघातमेव दर्शयति । ३३ बौद्धमते शब्दः कञ्चिदप्यर्थ न वक्ति तर्हि। ३४ अर्थस्य । ३५ भिन्नत्वम् । ३६ अर्थोऽगोचरो यस्य । ३७ अव्यवधानेन । ३८ बसः। ३९ स्वलक्षणं प्रत्यक्षं गृह्णाति । प्रत्यक्षाच्च विकल्पः (नीलमिदं पीतमिदमिति)। विकल्पाच शब्द उत्पद्यते । विकल्पयोनयः शब्दः इत्यभिधानादिति । ४० स गोचरो यस्य शब्दस्य । ४१ पारम्पयेणेन्द्रियग्राह्यार्धगोचरो भवति शब्दः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डै ३. परोक्षपरि० प्रतीतिः किसिन्द्रियजप्रतीतितुल्या, तद्विलक्षणा वा? यदि तत्तुल्या, तदा 'शब्दात्प्रत्येति विनष्टाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्ष इत्यनेन विरोधः। तद्विलक्षणा चेत्, न तर्हि प्रतीतिवलक्षण्यं विषयभेदसाधनम् , एकत्रापि विषये तद्भ्युपगमात् । ५ दाहशब्देन चाँत्र कोर्थोभिप्रेतः-किमग्निः, उष्णस्पर्शः, रूपविशेषः, स्फोटः, तदुःखं वा ? अस्तु यः कश्चित् , किमेभिर्विकल्पै. भंवैतां सिद्धमिति चेत् ? एतेषां मध्ये योर्थोभिप्रेतो भवतां तेनार्थनार्थवत्त्वप्रसिद्धः तस्यानर्थविषयत्वाभावः सिद्ध इति ।
नन्वेवं दहेनलम्बन्धाद्यथा स्फोटो दुःख्न वा तथा दाहशब्दादमि १० किन्न स्यादर्थप्रतीतेरविशेषात् ? तन्न; अन्य कार्यत्वात्तस्य, न खल
दहनप्रतीतिकार्य स्फोटादि । किं तर्हि ? दहनदेहसम्बन्धविशेषकार्यम्, सुषुप्ताद्यवस्थायामप्रतीतावपि अग्नेस्तत्सम्बन्धविशेषात् स्फोटादेर्दर्शनात्, दूरस्थस्य चक्षुषा प्रतीतावप्यदर्शनात् , मन्त्रादिबलेन त्वगिन्द्रियेणापि प्रतीतावप्यदर्शनात् । तस्मादसिनेपि १५विषये सामग्रीभेदाद्विशदेतरप्रतिभासभेदोऽभ्युपगन्तव्यः ।
तथा चेमप्ययुक्तम्-'न चैकस्य वस्तुनो रुपद्वयमस्त्ोकस्य द्वित्वविरोधात्' इति।
यदि चोभावोभिधीयते शब्दभावो नाभिधीयते इति क्रियाप्रतिषेधान्न किञ्चित्कृतं स्यात् । तथा च कथं नदीदेशद्वीपपर्वत२० वर्गापवर्गादिष्वातप्रजीतवाक्यात्प्रतिपत्तिः श्रेयःसाधनानुष्ठाने
प्रवृत्तिर्वा ? अन्यथा सर्वसादपि वाक्यात्सर्वत्रार्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्त्यादिप्रेसङ्गः।
२४
२.०
१ सामान्यार्थ जानाति । २ अन्धो ना। ३ क्रियाविशेषणम् । चक्षुःप्रत्यक्षेण यादृशमीक्षते न तादृशमिति भावः । ४ अर्थम् । ५ शब्दजेन्द्रियजप्रतीत्योः समानत्वात् । ६ दूरनिकटैकपादपादौ स्वलक्षणे। ७ परेण। ८ श्लोके। ९ सौगतस्य तव। १० जनानाम् । ११ पदार्थानाम् । १२ सौगतानाम् । १३ शब्दस्य। १४ तेनाथेनार्थवत्त्वसिद्धिप्रकारेण । १५ वह्निदहनसम्बन्धादर्थप्रतीतिर्विद्यते शब्दादप्यर्थप्रतीतिरिति । १६ दहनस्य । १७ स्फोटादिकस्य । १८ दूरपादपादौ । १९ दूरनिकटादि । २० परेण । अनेन कथनेन बौद्धस्य यथा स्खलक्षणस्य प्रत्यक्षेण स्पष्टतया प्रतिभासन तथा शब्देनाप्यस्पष्टतया प्रतिभासनं जातमिति । २१ सामग्रीमेदात्प्रतिभासमेदे च । २२ वैशधावेशद्यरूपम् । २३ अपोहः। २४ भावस्य । २५ तहीति शेषः । २६ शब्दैः। २७ शब्दैन किंचित् वाच्यं स्यात्। २८ शब्देन करसायकरणेभ्यर्थप्रतीतिरनुष्ठाने प्रवृत्तिश्च यदि । २९ अकृतत्वाविशेषात् ।
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सू० ३।१०१] अपोहवादः
सत्येतरव्यवस्थाभावश्च तत्त्वेतरप्रतिपत्तेरभावात् । तथाच 'यत्सत्तत्सर्वमक्षणिक क्षणिके असयोगपद्याभ्यानर्थक्रियाविरोधात्' इत्यादेरिव 'यत्तत्तत् क्षणिकं नित्ये कायौरपद्याभ्यामर्थक्रियानुपपत्तेः' इत्यादेरप्यसत्त्वानुमङ्गः । विपर्ययप्रसङ्गो वा, सर्वथालिस्पर्शित्वाविशेषात् । केल्यचिदनुमाननान्यस्य केथ-५ विदर्थ संस्पार्शिवे सर्वार्थत्यादभिधेयत्वादिरोया लपक्षविपक्षयोश्च सत्यासत्यत्वप्रदर्शनाय शास्त्रं मजयन बल्लु लवथाऽनभिधेयं प्रतिजानाति इत्युपेक्षत्यिप्रज्ञः, सर्वथाभिधेयरहोल लेन तस्य प्रणेतुमशक्तेः।
"शंक्तस्य सूचकं हेतुवचोऽशक्तमपि स्वयम्" [प्रमाणवा १० ४।१७ ] इत्यभिधानात् । तत्कृतां तत्त्वसिद्धिमुपजीवति, नार्थस्य तद्वाच्यतामिति किमपि महाद्भुतम् ! वस्तुदर्शनवंशप्रभवत्वाद्धेतुवचो वस्तुसूचकम् । इत्यक्षणिकवादिनोपि समानम् । मद्वचनमेवार्थदर्शनवंशप्रभवं न पुनः परवचनम्, इत्यन्यत्रापि समानम्।
सकलवचसा विवक्षामात्रविपयत्वाभ्युपगमाञ्च, तावन्मात्रसूचकत्वेन च शब्दल्य प्रामाण्ये सर्व शाब्दविज्ञानं प्रमाणं स्यात्, प्रत्यागमस्यापि प्रतिवाद्यभिप्रायप्रतिपादकत्वाविशेषात् ।
किञ्च, अर्थव्यभिचारवच्छब्दानां विवक्षाव्यभिचारस्यापि दर्शनात्कथं ते तामपि प्रतिपादयेयुः? गोत्रस्खलनादौ ान्यविवक्षाया-२० मप्यन्यशब्दप्रयोगो दृश्यते एव । 'सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति' इति नियमोऽर्थविशेषप्रतिपादकत्रेप्यस्याऽस्तु ।
न चास्य विवक्षायास्तदधिरूढार्थ वा प्रतिपादकत्वं युक्तम् । ततो वहिरर्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीतेःप्रत्यक्षवत् । यथैव हि
१ सत्येतरव्यवस्थाऽभावे च। २ पूर्वोक्तस्य सत्यत्वमुत्तरोतस्यासत्यत्वमित्यर्थः । ३ अविषयत्वं शब्दानां यतः। ४ सौगतोकस्य । ५ कथञ्चित्पारम्पर्येण । कथम् ? प्रथमतस्त्रिरूपधूमादिस्वलक्षणलिङ्गदर्शनं, तदनु सम्बन्धस्सरणं, तदनु शब्दप्रयोग इति । ६ सौगतेनाङ्गीक्रियमाणे । ७ दिग्नागादिः। ८ स्खलक्षणम् । ९ शब्देन । १० शास्त्रान्तरेपि स्वलक्षणसूचकं वचोस्तीति वदति शक्तस्य समर्थस्य हेतोषूमादिस्वलक्षणस्य वाच्यस्य । ११ साध्येऽशक्तमपि । १२ स्वरूपेण। १३ सौगतेन । १४ वचन। १५ अङ्गीकरोति । १६ त्रिरूपधूमादिस्खलक्षणलिङ्ग । १७ वंशः अन्वयः। १८ जैनस्य । १९ शानस्य। २० परवचनस्य। २१ जनादि। २२ गोत्र-3 नाम । २३ देवदत्त। २४ जिनदत्त । २५ शब्दलक्षणम् । २६ विवक्षालक्षणम् । २७ षटपटादौ।
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४५०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० प्रत्यक्षात्प्रतिपत्तप्रणिधानसामग्रीसापेक्षात्प्रत्यक्षार्थ प्रतिपत्तिस्तथा सङ्केतसामनीसापेक्षादेव शब्दाच्छब्दार्थप्रतिपत्तिः सकलजनप्रसिद्धा, अन्यथाऽतो वहिरप्रतिपत्त्यादिविरोधः । न चार्थेऽर्थिनोऽर्थित्वादेव प्रवृत्तेः शब्दोऽप्रवर्तकः, अध्यक्षादेरप्येवमप्रवर्त्त५कत्वप्रसङ्गात् तदर्थेप्यभिलाषादेव प्रवृत्तिप्रसिद्धः । परम्परया प्रवर्तकत्वं शब्देप्य॑स्तु विशेषाभावात् ।
का चेयं विवक्षा नाम-किं शब्दोच्चारणेच्छामात्रम्, 'अनेन शब्देनामुमर्थ प्रतिपादयामि' इत्यभिप्रायो वा? प्रथमपक्षे वक्तृश्रोत्रोः शास्त्रादौ प्रवृत्तिन स्यात् । न खलु कश्चिदनुन्मत्तः शब्द१० निमित्तेच्छामात्रप्रतिपत्त्यर्थ शास्त्रं वाक्यान्तरं वा प्रणेतुं श्रोतुं प्रवर्तते । दशदाडिमादिवाक्यैः सह सर्ववाक्यानामविशेषप्रसङ्गश्च, सर्वेषां स्वप्रभवेच्छामात्रानुमापकत्वाविशेषात् । अथ 'अनेन शब्देनामुमर्थ प्रतिपादयामि' इत्यभिप्रायो विवक्षा,
तत्सूचकत्वेन शब्दानामनुमानत्वम् । तदप्ययुक्तम् व्यभिचारात्। १५न हि शुकशारिकोन्मत्तादयस्तथाभिप्रायेण वाक्यमुच्चारयन्ति ।
किञ्च, समयानपेक्षं वाक्यं तादृशमभिप्राय गमयेत् , तत्सापेक्ष वा? आद्य विकल्पे सर्वेषांमर्थप्रतिपत्तिप्रसङ्गान्न कश्चिद्भाषानभिज्ञः स्यात् । संमयापेक्षस्तु शब्दोऽर्थमेव किं न गमयति ? न ह्यय. मर्थाद्विभेति येन तत्र साक्षान्न वर्तेत । यश्चाशक्यसमयत्वादिकेर्थे २० शब्दाप्रवृत्तौ न्यायः, सोऽभिप्रायपि समान इत्यभिप्रायावगमोपि शब्दान्न स्यात् । तन्न स्वलक्षणस्याभिधानेनानिर्देश्यत्वम् ।
किञ्च, तच्छब्देनाऽप्रतिपाद्याऽनिर्देश्यत्वमस्योच्येत, प्रतिपाद्य वा? न तावदप्रतिपाद्य; अतिप्रसङ्गात् । प्रतिपाद्य चेत्, न;
१ प्रणिधानमेव सामग्री। २ शब्दात् । ३ पुरुषस्य । ४ पुरुषस्य। ५ अथित्वादेव। ६ प्रत्यक्षमभिलाषमुत्पादयति, अभिलाषाचार्थे प्रवृत्तिरिति। ७ प्रत्यक्षस्य । ८ शब्दोप्यभिलाषमुत्पादयति, अभिलाषात्प्रवृत्तिरिति। ९ परम्परया प्रवर्तकत्वस्य । १० धीमान्। ११ शब्दस्य निमित्तं कारणं या सा, सा चासाविच्छा च सैवेच्छा एवंभूता यतः शब्दोचारः पुरुषस्य । १२ खेषां वाक्यानां प्रभव उत्पत्तियस्या इच्छायाः सा चासाविच्छा चेति । १३ विवक्षा धर्मिणी अस्यास्तीति साध्यं शब्दोच्चारणान्यथानुपपत्तेरिति । १४ अस्यैवंविधोभिप्रायोस्ति तदभिधायकशब्दोच्चारणादिति । १५ समयः संकेतः । १६ सर्वतया। १७ अविशेषतः । १८ कचिद्देशादौ । १९ सकलभाषात्मकशब्दश्रवणात् । २० द्वितीयविकल्पः । २१ अर्थानामानन्त्यात् । २२ अभिप्रायाणामानन्त्यात्। २३ शब्दश्रोतृणाम् । २४ अशक्यसमयत्वाविशेषात् । २५ सामान्यविशेषात्मकस्याधस्य । २६ शब्देन । २७ स्खलक्षणेति शम्देन । २८ घटादेरप्यनिर्देश्यत्वप्रसङ्गात् ।
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सू० ३११०१] स्फोटवादः
४५१ स्ववचनविरोधात् । शब्देन हि खलक्षणं प्रतिपादयता निर्देश्यत्वसस्थाभ्युपगतं स्यात्, पुनश्च तदेव प्रतिषिद्धमिति। कथं चानिदेश्यशब्देनाप्यस्यानभिधाने अनिदेश्यत्वसिद्धिः? भ्रान्तिमात्राव ततस्तत्सिद्धौ न परमार्थतत्तदनिदेश्यमन्ताधारणं वा सिद्ध्येत् । प्रत्यक्षात्तथाभूतस्यास्य प्रसिद्धिः; इसपि मनोरथमात्रम् । निर्देश ५ योग्यस्य साधारणालाधारणरूपस्य वस्तुल लेन साक्षात्करणात् । ‘বিস্ক লাখ; নিহৰ মাহতাব সারি’ इत्यसाधारणतायामनि समानम्। वस्तुस्वरूपमेव सा इत्यन्यत्रापि समानम्।
किञ्च, विकल्पप्रतिभास्यऽन्यापोहगता वाच्यता वस्तुनि प्रति १० षिध्यते, वस्तुगता वा? आद्यविकल्पे सिद्धसाध्यता । न ह्यन्यापोहवाच्यतैव वस्तुवाच्यता; तत्प्रतिषेधविरोधात् । द्वितीयपक्षे तु स्ववचनविरोध इत्युक्तम् । ततः प्रामाणिकत्वमात्मनोऽभ्युपगच्छता प्रतीतिसिद्धा वाच्यतार्थस्याभ्युपगन्तव्या।
सत्यम् ; वाच्य एवार्थः। तद्वाचकस्तु पदादिस्फोट एव, न १५ पुनर्वर्णाः। ते हि किं सैमस्ताः, व्यस्ता वा तद्वाचकाः? यदि व्यस्ताः; तदैकेनैव वर्णन गवाद्यर्थप्रतिपत्तिरुत्पादितैति द्वितीयादिवर्णोच्चा. रणमनर्थकम् । अथ समुदिताः; तन्नक्रमोत्पन्नानामन्तरविनष्टत्वेन समुदायस्यैवासम्भवात् । न च युगपदुत्पन्नानां तेषां समुदायकल्पना; एकपुरुषापेक्षया युगपदुत्पत्त्यसम्भवात्, प्रतिनियेत-२० स्थानकरणप्रयत्नप्रभवत्वात्तेषाम् । न च भिन्नपुरुषप्रयुक्तगकारौकारविसर्जनीयानां समुदायेप्यर्थप्रतिपादकं प्रतिपन्नम्। प्रतिनियतवर्णक्रमप्रतिपत्त्युत्तरकालभावित्वेन शाब्दप्रतिपत्तेः प्रतिभासनात्।
१ इति । २ इदं खलक्षणमनिर्देश्यमिति अकथने। ३ खलक्षणस्य । ४ निर्विकल्पकात् । ५ शब्देन । ६ स्खलक्षणव्यतिरेकेण साधारणतापि पृथक् नो भातीति । ७ निर्देश्यतायां साधारणतायां च । ८ वस्तुस्वरूपत्वम् । ९ बुद्धि । १० शब्देन । ११ स्वलक्षणे। १२ स्खलक्षणमनिर्देश्यमित्यनेनोल्लेखेन। १३ बुद्धिप्रतिबिम्बरूपस्थान्यापोहगतस्य (वाच्यत्वस्य ) खलक्षणेऽसामिरपि प्रतिषेधाभ्युपगमात् । १४ वस्तुनि अन्यापोहवाच्यता विद्यते चेन्न तर्हि प्रतिषेधः । कथमिति विरोधः। १५ शन्देन हीत्यादि । १६ शब्देन । १७ लब्धावसरो मीमांसकोऽवतिष्ठते । १८ शब्दैः । १९ वर्णादिनाभिव्यज्यमानो नित्यो व्यापकः पदादीनामर्थः पदादिस्फोटः । २० सदेव भावयति। २१ गौरित्यत्र गकारौकारविसर्जनीयाः गकारादिना। २२ हेतोः । २३ औकारादि । २४ उत्पनः । २५ वाल्वादि । २६ क्रिया।
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४५२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० न चान्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णनां क्रमोत्पादे सत्यर्थप्रतिपादकः पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्यनुग्राहकत्वायोगात् । तद्धि अन्त्यवर्ण प्रति जनकत्वं तेषां स्यात्, अर्थज्ञानोत्पत्तौ लहकारित्वं वा ? न तावजनकत्वम् ; वर्णाद्वर्णोत्पत्तेरभावात् , प्रति५ नियतस्थानकरणादिप्रभवत्वात्तस्य, वर्णाभावेप्याद्यवोत्पत्त्युपलम्भाच्च । नाप्यर्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं तेषामन्त्यवर्णानुग्राहकत्वम्, अविद्यमानानां सहकारित्वस्यैवासम्भवात् । यथा चान्त्यवर्ण प्रति पूर्ववर्णाः सहकारित्वं न प्रतिपर्धन्ते तथा तज्जनितसंवेदनान्यपि, तत्प्रभवसंस्काराच । १० किञ्च, संवेदनप्रभवसंस्काराः स्वोत्पादकविज्ञानविषयस्मृति
हेतदो नार्थान्तरे ज्ञानमुत्पादयितुं समर्थाः । न खलु घटज्ञानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृति विद्धदृष्टः । न च तत्संस्कारप्रेभवस्मृतीनां तत्सहायता; तासां युगपदुत्पत्त्यभावात् । अयुगपदुत्प
नानां चावस्थित्यसम्भवात् । न चाखिलसंस्कारप्रभवैका स्मृतिः १५ सम्भवति; अन्योन्यविरुद्धानेकार्थानुभवप्रभवसंस्काराणामप्येकस्मृतिजनकत्वप्रसङ्गात् । न चान्यवर्णाऽनपेक्ष एव 'गौः' इत्यत्रान्त्यो वर्णोर्थे(र्थ)प्रतिपादकः, पूर्ववर्णोच्चारणवैयर्थ्यानुषङ्गात्। घटशब्दान्त्यव्यवस्थितस्यापि ककुदादिमदर्थप्रतिपादकत्वप्रसङ्गाच्च । तन्न वर्णाः समस्ता व्यस्ता वार्थप्रतिपादकाः सम्भवन्ति । अस्ति २०च गवादिशब्देभ्योऽर्थप्रतीतिः, तदन्यथानुपपत्त्या वर्णव्यतिरिक्तोऽर्थप्रतीतिहेतुः स्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः।
श्रोत्रविज्ञाने चासौ निरवेयवोऽक्रमः प्रतिभासते, श्रवणव्यापारानन्तरमभिन्नार्थावभासिन्याः संविदोऽनुभवात् । न चासो
वर्णविषया; वर्णानां परस्परव्यावृत्तरूपतयैकप्रतिभासजनकत्व२५ विरोधात् । न चेयं सामान्य विषया; वर्णत्वंव्यतिरेकेणापरसामा
१ विसर्जनीयलक्षणः । २ गकारौकाराभ्याम् । ३ उत्पद्य विनष्टत्वात्पूर्ववर्णानाम् । ४ माद्यो गकारः। ५ असतां पूर्ववर्णानाम् । ६ उत्पत्त्यनन्तरं विनष्टत्वात् । ७ ( पूर्ववर्णानां) धारणारूपाः। ८ अन्त्यवर्णश्रवणकाले प्राक्तनवर्णसंवेदनसंस्कारा. मावात् । ९ पूर्ववर्णानाम् । १० पूर्णवर्णशान । ११ पूर्ववर्णलक्षण । १२ बहिरणे गवादौ। १३ पूर्ववर्णस्मृतीनाम् । १४ प्राक्तनप्राक्तनानां विनष्टत्वात् । १५ सर्वेधामेका स्मृतिर्भविष्यतीत्युक्त आह। १६ अन्यवर्णसहाया। १७ घटपटलकुटशकटादि। १८ अन्त्यवर्णापेक्षया अन्यवों-गकारौकारौ। १९ विसर्जनीयस्य । २० गोरूप। २१ मा भवन्त्वित्युक्ते आह । २२ स्फोटं विना। २३ निरंशः । २४ प्रभिन्न:-एकः। २५ अर्थः स्फोटः तेन। २६ एकार्थेनावभासिन्याः । २० ममित्ररूप। २८ एकानसूचक ।
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सू० ३।१०१] स्फोटवादः
४५३ ज्यस्य गकारौकारविसर्जनीयेष्वसम्भवात्, वर्णत्वस्य च प्रतिनियतार्थप्रत्यायकत्वायोगात् । न चेयं भ्रान्ता; अवाध्यमानत्वात् । न चाबाध्यमानप्रत्ययगोचरस्यापि स्पोटस्यासत्वम् : अवयविद्रव्यादेरप्यसत्त्वप्रसङ्गात् : नित्यश्चातौ स्कोटोऽभ्युपगन्तव्यः । अनित्यत्वे सङ्केतकालानुभूतस तदैव ध्वस्तत्वाकालान्तरे देशा-५ न्तरे च गोशब्दशवणाककुदादिमदाप्रतीतिने स्वाद, असङ्केतिताच्छब्दादर्थप्रतिपत्तेरसम्भवात् । सस्ट का हील्लादायतस्स गोशब्दाद्वार्थप्रतिपत्तिः स्यात् , लकेतकर गदैव चासन्येत । ___ अत्र प्रतिविधीयते । प्रतीयमानात्पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टादन्यारी. दर्थप्रतीतेरभ्युपगमादुक्तदोपाभावः । न चाभावस्य सहकारित्न विरुद्धम् ; वृन्तफलसंयोगाभावस्य अप्रतिवद्धगुरुत्वफलप्रपातक्रियाजनने तद्दर्शनात् , दृष्टं चोत्तरसंयोगं कुर्वत्प्राक्तनसंयोगाभावविशिष्टं कर्म, परमाण्वग्निसंयोगश्च परमाणौ तद्गतपूर्वरूपैप्रध्वंसविशिष्टो रक्ततामुत्पादयन्प्रतीतः।
यद्वा, पूर्ववर्णविज्ञानामावविशिष्टः तज्ज्ञानजनितसंस्कारसव्य-१५ पेक्षो वाऽन्त्यो वर्णोऽर्थप्रतीत्युत्पादकः । ननु संस्कारस्य कथं विषयान्तरे विज्ञानजनकत्वम् इत्यप्यचोद्यम् । तद्भावनावितयार्थप्रतीतेल्पलब्धः।
पूर्ववर्णविज्ञानप्रभवसंस्कारश्च प्रणालिकयाऽन्त्यवर्णसहायता प्रतिपद्यते; तथाहि-प्रथमवर्णे तावद्विज्ञानम् , तेन च संस्कारो२० जन्यते । ततो द्वितीयवर्णविज्ञानम् , तेन च पूर्वज्ञानाहितसंस्कारसहितेन विशिष्टः संस्कारो जन्यते । एवं तृतीयादावपि योजनीयं यावदन्त्यः संस्कारोऽर्थप्रतिपत्तिजनकान्त्यवर्णसहायः।
अथवा, शब्दार्थोपलब्धिनिमित्तक्षयोपशमप्रतिनियमादविनष्ट एव पूर्ववर्णसंविदस्तत्संकारीश्चाऽन्त्यवर्णसंस्कारं विद्धति १२५
१ गवादेः । २ स्फोट एव प्रतिनियतार्थप्रत्यायको यतः। ३ अर्थः-गोलक्षणः, तस्य, ककुदादिमतोर्थस्य च । ४ (घटवाचकघटशब्दे )धकारादावपि वर्णत्वस्य सत्त्वात् । ५ श्रोत्रप्रत्यक्षशानेन । ६ प्रत्यक्षशानगोचरस्य घटादेः । ७ स्फोटस्य । ८ स्फोटात् । ९ गोरहितात्। १० तथा च । ११ श्रयमाणात् । १२ वाक्यपक्षे वर्णसाने पदं ग्राह्यम्। १३ जनैः। १४ पूर्ववर्णोच्चारणादिवैयर्थ्यलक्षण उक्तदोषः। १५ शाखादिना। १६ बसः। १७ तस्य कारणत्वस्य । १८ श्येनादेः। १९ गमनक्रिया। २० कृष्णादिरूप। २१ घटादौ । २२ पक्षेऽन्त्यपदम् । २३ पूर्ववर्णानाम् । २४ गोपिण्डे । २५ प्रवाहेण । २६ पक्षे प्रथमपदे । २७ समुत्पद्यते । २८ उभयविषयः, धारणा परनामकः । २९ भवति । ३० द्रव्यत्वस्वरूपापेक्षया । ३१ ये अविनमः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० तथाभूतसंस्कारभवतिलाव्यपक्षो वान्त्यो वर्णः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः । वाक्यार्थ प्रतिपत्ताचप्ययमेव न्यायोऽङ्गीकर्तव्यः । वर्णावत्पत्त्यभावप्रतिपादनं च सिद्धसाधनमेव । तदेवं यथोक्तसहकारिकारणसव्यपेक्षादनलवर्णादर्थप्रतिपत्तेरन्वययंतिरेकाभ्यां ५ निश्चयात् स्फोटपरिकल्पनाऽसम्भव एव; तदभावेप्यर्थप्रतिपत्तेरक्तप्रकारेण सम्भवेऽन्यथानुपपत्तेः प्रक्षयात् । न खलु दृष्टादेव कारणात्कार्योत्पत्तावदृष्टकारणान्तरपरिकल्पना युक्तिः स(क्तिस)ङ्गता अतिप्रसङ्गीत्।
न चैववादिनो वर्णेभ्यः स्फोटाभिव्यक्तिर्घटते; तथाहि-न सम१०स्तास्ते स्फोटमभिव्यञ्जयन्ति; उत्तप्रकारेण तेषां सामस्त्यासम्भ
वात् । नापि प्रत्येकम् ; वर्णान्तरोच्चारणानर्थक्यप्रसङ्गात् , एकेनैव वर्णेल सर्वात्मनाऽस्याभिव्यक्तत्वात् । पदार्थान्तरप्रतिपत्तिव्यवच्छे. दार्थ तदुच्चारणमिति चेत्, न; तदुच्चारणेयि तत्प्रतिपत्तेरेवानुषझात् । यथाहि 'गौः' इति पदस्यार्थो गकारोचारणात्प्रतीयते तथौ१५कारोच्चारणात् 'औशनसः' इति पदार्थोपि, तथा च 'गौः' इति
पदादेव 'गौः, औशनसः' इत्यर्थद्वयं प्रतीयेत । संशयो वा स्यात्'किमेकपदस्फोटाभिव्यक्तये गायनेकवर्णोच्चारणं पदान्तरस्फोट. व्यवच्छेदेन, किं वानेकपदस्फोटाभिव्यक्तयेऽनेकाद्यवर्णोच्चारणम्'
इति। २० न च पूर्ववर्गः स्फोटत्य संस्कारेऽन्त्यो वर्णस्तस्याभिव्यञ्जकः
इति न वर्णान्तरोच्चारणवैयर्थ्यम् ; अभिव्यक्तिव्यतिरिक्तसंस्कारस्वरूपानवधारणात् । न खलु तत्र तैर्वेगाख्यः संस्कारो निर्वय॑ते; तस्य मूर्तेष्वेव भावात् । नापि वासनारूपः, अचेतनत्वात् । स्फोटस्य तच्चैतन्याभ्युपगमे वा खशास्त्रविरोधः । नापि स्थित
१ ततः संस्कारस्य सव्यपेक्षोऽन्त्यवर्णोऽर्थप्रतीतिजनक इति । २ परेण । ३ जैनानाम् । ४ उक्तप्रकारेण । ५ ताल्वादि । ६ अन्त्यवर्णसद्भावेऽर्थप्रतिपत्तिस्तदभावेऽर्थप्रतिपत्त्यभाव इत्येवम् । ७ स्फोटसद्भावेऽर्थप्रतिपत्तिः स्फोटाभावे च तदभाव इति स्फोटानुमापिकायाः। ८ दृष्टाग्निकारणाद्भूमो जलकार्य स्यात् । ९ समस्तेभ्यो व्यस्तभ्यो वा वर्णेभ्योऽर्थप्रतीतिर्नास्तीत्येवं वादिनः। १० गौरित्यत्र गाभिव्यक्तस्फोटप्रतिपन्नार्थागोलक्षणादन्यपदाभिव्यक्तस्फोटप्रतिपन्नार्थोऽर्थान्तरम् , प्रकृतात्पदार्थादन्यः पदार्थः पदार्थान्तरम्। ११ घटादिपदस्फोट। १२ पदार्थप्रतिपत्तिं दर्शयन्त्याचार्याः । १३ एकस्य - गकारस्य । १४ उशनसि शब्दे भव औशनसः शुक्र इत्यर्थः । १५ कृत्वा। १६ हेतोः। १७ उत्तरवर्ण । १८ कथम् ? तथा हि । १९ वर्णैः । २० पदार्थेषु । २१ वासनायाश्चेतनत्वात् । २२ मीमांसक।
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सू० ३।१०१] स्फोटवादः ।
४५५ स्थापकः, अस्यापि मूर्त्तद्रव्यवृत्तित्वात् , स्फोटस्य चाऽमूर्त्तत्वाभ्युपगमात् ।
किञ्च, असौ संस्कारः स्फोटखरूपः, तद्धर्मों वा? तत्राद्यविक ल्पोऽयुक्तः, स्फोटस्य वर्णोत्पाद्यत्वानुपङ्गात् । द्वितीय विकल्पोऽसम्भाव्यः; व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त विकल्पानुपपत्तेः । स्फोटात्तस्या-५ व्यतिरेके तत्करणे स्फोट एव कृतो भवेत् , तथा चास्याऽनित्यत्वानुषङ्गात् स्वाभ्युपगमविरोधः। ततस्तद्धर्मस्य व्यतिरेके सम्बन्धानुपपत्तिः तदनुपकारकत्वात्। तस्योपकाराभ्युपगमे व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तविकल्पानुषङ्गः, तत्रापि पूर्वोक्त एव दोपोऽनवस्थाकारी। न च व्यतिरिक्तधर्मसद्भावेपि स्फोटस्यानभिव्यक्तस्वरूपापरित्यागे १० पूर्ववदर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वम् । तत्त्यागे चाऽनित्यत्वप्रसक्तिः।
किञ्च, पूर्ववर्णैः संस्कारः स्फोटस्य क्रियमाणः किमेकदेशेन क्रियते, सर्वात्मना वा ? यद्येकदेशेन; तदा तद्देशानामप्यतोर्थान्तरानान्तरपक्षयोः पूर्वोक्तदोषानुषङ्गः । सर्वात्मना तु संस्कार सर्वत्र सर्वेषां ततोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात्।
किञ्च, स्फोटसंस्कारः स्फोटविषयसंवेदनोत्पादनम्, आव. रणापनयनं वा? यद्यावरणापनयनम्; तदैकत्रैकदांवरणापगमे सर्वदेशावस्थितैः सर्वदा व्यापिनित्यतयोपलभ्येत, नित्यव्यापित्वाभ्यामपगतावरणस्यास्य सर्वत्र सर्वदोपलभ्यस्वभावत्वात् । अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा न क्वचित्कदाचित्केनचिदप्युपलभ्येत । अथैक-२० देशेनौवरणापगमः क्रियते; नन्वेवमावृतानावृतत्वेन सावयवत्वमस्यानुषज्येत । अथाऽविनिर्भागत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रानावृतोऽभ्युपगम्यते; तर्हि तैदेवस्थोऽशेपदेशावस्थितैरुपलब्धिप्रसङ्गः । यथा च निरवयत्वादेक त्रानावृतः सर्वत्रानावृतः तथैकत्रावृतः सर्वत्राप्यावृत इति मैनागपि नोपलभ्येत ।
२५
१ स्थितस्थापकरूपकस्य । २ मीमांसकेन । ३ तथा च स्फोटनित्यत्वव्याघातः । ४ स्फोटेन सह । ५ स्फोटधर्मलक्षणसंस्कारेण स्फोटस्योपकारः क्रियते । ६ परेण। ७ स्फोटात् । ८ धर्मः संस्कारः। ९ संस्कारात्पूर्व यथाऽकृतसंस्कारस्य स्फोटस्वार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं नास्ति । १० घटते । ११ अन्यथा। १२ स्फोटोऽनित्यः पूर्वाकारपरित्यागात् घटाकारपरिणतमृत्पिण्डवत् । १३ स्फोटस्य । १४ प्राणिनाम् । १५ व्यापकत्वनित्यत्वात्। १६ प्रतिपत्तॄणाम् । १७ एकस्थानेक। १८ स्फोटका । १९ नरेण। २० नित्यव्यापिनः सदैकस्वभावत्वात् । २१ न सर्वात्मना। २२ प्रय निरंशत्वव्याघातः । स्फोटो न निरंश आवृताऽनावृतदेशत्वात् । २३ निरंशत्वात् । २४ मीमांसकेन । २५ पूर्ववत् । २६ नृभिः। २७ ईषत् । २८ स्फोटः ।
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४५६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [३. परोक्षपरि० अथ स्फोटविषयसंवेदनोत्पादस्तत्संस्कारः, सोप्ययुक्तः, वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजननवत् स्फोटप्रतिपत्तिजननेषि सामर्थ्यासम्म वात् , न्यायस्य समानत्वात्।
अथ मैतम्-पूर्ववर्णश्रवणज्ञानाहितसंस्कारस्यात्मनोऽन्त्यवर्ण५श्रवणशानानन्तरं पदादिस्फोटस्याभिव्यक्तेरयमदोषः; तद्प्यसङ्ग
तम् ; पदार्थप्रतिपत्तेरप्येवं प्रसिद्धः स्फोटपरिकल्पनार्थनक्यात् । चिदात्मव्यतिरेकेण तत्त्वान्तरस्यास्यार्थप्रकाशनसामर्थ्यासम्भवाञ्च स एव हि चिदात्मा विशिष्टशक्तिः स्फोटोऽस्तु । 'स्फुटति प्रकटी
भवत्यर्थोस्मिन्' इति स्फोटाश्चिदात्मा। पदार्थज्ञानावरणवीर्यान्त१० रायक्षयोपशमविशिष्टः पदस्फोटः। वॉकयार्थज्ञानावरणवीर्यान्त
रायक्षयोपशमविशिष्टस्तु वाक्यस्फोटः इति । भावश्रुतज्ञानपरिपतस्यात्मनस्तथाभिधानाऽविरोधात् ।
वायवः स्फोटाभिव्यञ्जकाः; इत्यप्ययुक्तम् शब्दाभिव्यक्तिवस्फोटाभिव्यक्तेस्तेभ्योऽनुपपत्तेः। तेषां च व्यजकत्वो वर्णकल्पाना१५ वैफल्यम्, स्फोटाभिव्यक्तावर्थप्रतिपत्तौ चामीषामनुपयोगीत् । स्थिते च स्फोटस्य वर्णवायूत्पादात्पूर्व सद्भावे वर्णानां वायूनां वा व्यजकत्वं परिकल्प्येत । न चास्य सद्भावः कुतश्चित्प्रमाणात्मतिपन्नः । यच्चोक्तम्
"नादेनाऽहितबीजायामन्ये(न्त्ये )न निना सह । आँवृत्ति पारिपाकायां वुद्धौ शब्दोऽवभासते ॥"
[वाक्यप० ११८५] इति; तदप्येतेनीपाकृतम् ; नित्यत्वमन्तरेणामपि चार्थप्रतिपत्तिर्यथा भवति तथा प्रतिपादितमेव ।
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१ प्रथमपक्षः। २ पुरुषं प्रति। ३ समस्ता व्यस्ता वा वर्णाः स्फोटप्रतिपत्ति जनयन्तीत्यादिप्रकारेण । ४ मीमांसकस्य तव। ५ जनित । ६ पुरुषस्य । ७ तथा च। ८ शान । ९ कथम् ? तथा हि । १० हेतोः। ११ आत्मा। १२ भवति । १३ कथमिदानी दैविध्यमस्य स्यादित्याशङ्कायामाह । १४ वीर्य शक्तिः। १५ आत्मा। १६ तथाभिधाने विरोधो भविष्यतीत्यत्राह । १७ वर्णा मा भवन्तु किन्तु। १८ कुतः। १९ स्फोटस्थ । २० उपकाराभावात् । २१ सति । २२ पूर्ववर्णेन वायुना वा । २३ बीजः संस्कारः। २४ अन्त्यवर्णेन वायुना वा। २५ आवृत्तिः सामस्त्येनोचारणम् । ६२ पूर्णायाम् । २७ ज्ञाने। २८ स्फोटः। २९ वायुभ्यः स्फोटाभिव्यतिनिराकरणेन। ३० अनित्येभ्यो वणेभ्यः कथं स्यादर्थप्रतिपत्तिरित्युक्ते सत्याह । ३१ पूर्व वर्णविचारे।
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सू० ३.१०१] स्फोटवादः
४५७ यच्च श्रवणव्यापारानन्तरमित्याधुक्तम् । तदप्यसारम् : वटादिशब्देषु परस्परव्यावृत्तकालप्रत्यासत्तिविशिष्टवर्णव्यतिरेकेण स्फोटात्मनोऽर्थप्रकाशकत्यैकल्याध्यक्षपतिपत्तिविपयत्वेनाप्रति. भासनात् । न चासिन्नप्रतिमासमात्रादभिन्नार्थव्यवस्था, अन्यथा दूरादविरलानेकतरु एकप्रतिभालाईकन्वव्यवन्या स्यात् । न ५ चार वाध्यमानत्वान्नकत्वव्यवस्थापकत्वः स्कोटप्रतिभासेपि वाध्यमानत्वस्य प्रदर्शितत्वात् । न खलु नियोऽनलो निन्यत्वादिधर्मोपेतोऽसी क्वचिदपि प्रत्ययेऽवभाहले।
कथं चैवं शब्दस्फोटवद्गन्धादिस्फोटोप्यऽर्थप्रातिरिमिनं न स्यात् ? यथैव हि शब्दः कृतसङ्केतस्य क्वचिदर्थे प्रतिपत्तिहेतुत्या ३० गन्धादिरप्यविशेषात् । एवंविधमेकं गन्धं समानाय स्पर्श च संस्पृश्य रसं चाखाद्य रूपं चालोक्य त्वयैवंविधार्थः प्रतिपत्तव्यः' इति समयग्राहिणां पुनः क्वचित्तादृशगन्धाधुपलम्भात् तयाँविधार्थनिर्णयप्रसिद्धो गन्धादिविशेषाभिव्यङ्ग्यो गन्धादिस्फोटोऽस्तु [वर्ण ]विशेषाभिव्यङ्ग्यपदादिस्फोटवत् ।
एतेन हस्तपादकरणमात्रिकाङ्गहारादिस्फोटोप्यापादितो द्रष्टव्यः । पदादिस्फोट एक, न तु स्वस्वयंवक्रियाविशेषाभिव्यङ्गयो हंसपक्ष्मादिर्हस्तस्फोटः, विकुट्टिादिलक्षणः पादस्फोटः, हस्तपादसायोगलक्षणः करणस्फोटः,करणद्वयरूपो मात्रिकास्फोटः, मात्रिकासमूहलक्षणोऽङ्गहारस्फोटो वेति मनोरथमात्रम् । तस्यापि २० खखावयवाभिव्यङ्ग्यस्य स्वाभिनेयार्थप्रतिपत्तिहेतोरशक्यनिराकरणत्वात् । तन्निराकरणे वा शब्दस्फोटाभिनिवेशो दूरतः परि
१ परेण । २ घकारात् टकारो व्यावृत्त इत्यादेप्रकारेन, ३ पूर्वक्षो वकानोच्चारणमुत्तरक्षणे टकारोचारणनिति। ४ यद्यपि स्टादिशब्देषु परस्तरब्याइत्तकालप्रत्त्यासत्तिविशिष्टवर्णव्यतिरेकेण स्फोटः प्रत्यक्षविषयत्वेन नावभासते तथापि अभिन्नप्रतिभासोस्ति । ननु ततः स्फोटव्यवस्था भविष्यतीत्याशङ्कायामाह। ५ शब्देषु स्फोटस्य । ६ समीपं गते सति । ७ अनेकतरुप्रतीत्या। ८ स्फोटः। ९ अवगन्द्रियविषयभूते शन्दे शब्दस्यार्थप्रतिपादकत्वाभावादर्थप्रतिपत्त्यर्थ स्फोटकल्पने घ्राणेन्द्रियादिविषयेषु गन्धादिषु तदर्थ चत्वारः स्फोटाः कल्पनीयास्तेषामपि तदभावादिति भावः । १० गन्धादिस्फोटनिराकरणद्वारेण शब्दादिस्फोटं निराकुर्वन्तीति भावः। ११ अस्य शब्दस्यायमर्थ इति । १२ जातिकुसुमादीनाममयादीनामाम्रफलादीनां कामिन्यादीनां च प्रतिपत्तिहेतुः । १३ अर्थे कृतसंकेतस्य । १४ गन्धादिस्फोटस्य कथं सङ्केत इत्याशङ्कायामाह। १५ यथाविधः पूर्व श्रुतः। १६ गन्धादिस्फोटापादनपरेण ग्रन्थेन । १७ नर्तनसमये नृत्यकारस्य । १८ अवयवाः हस्तपादादयोङ्गुल्यादयश्च । १९ विकट्टितं भ्रमणम् । २० युगपद्व्यापारः समायोगः । २१ अभिनेयः अनुकरणम् ।
प्र. क. मा० ३९
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४५८
प्रमेयाकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० त्याज्यः क्षेपसमाधानानामुअयंत्र समानत्वात् । ततः शब्दस्फोटस्वरूपस्य विचार्यमाणस्यायोगानासौ पदार्थप्रतिपत्तिनि. बन्धनं प्रेक्षादक्षः प्रतिपत्तव्यम् । किन्तु पदं वाक्यं वा तनिवन्धनत्वेन प्रतिपत्तव्यम् । ५ किं पुनः पदं वाक्यं वा यन्निवन्धनाऽर्थप्रतिपत्तिरित्यभिधीयते ? वर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम् । पदानां तु तदपेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यमिति । नन्वेवं कथमिदं साधनवाक्यं घटते-'यत्सत्तत्सर्वे परिणामि यथा घटः,संश्च शब्दः
इति ? 'तस्मात्परिणामी' इत्याकाणोत्साकाङ्क्षस्य वाक्यत्वौनिष्टेः १० इत्यप्यचोद्यम् ; कस्यचित्प्रतिपतुस्तद्नाकाहत्वोपपत्तेः । निराका
सत्वं हि प्रतिपत्तधर्मो वाक्येष्वध्यारोप्यते, न पुनः शब्दधर्मस्तल्याचेतनत्वात् । स चेत्प्रतिपत्ता ताँवार्थ प्रत्येति, किमित्यपरमाकाङ्केत ? पक्षधर्मोपसंहारपर्यन्तसाधनवाक्यादर्थप्रतिपत्ता.
वपि निगमनवचनापेक्षायाम् निगमनान्तपञ्चावयववाक्यादप्यार्थ१५ प्रतिपत्तौ परापेक्षाप्रसङ्गान्न कचिनिराकाङ्क्षत्वसिद्धिः। तथा च वाक्याभावान वाक्यार्थप्रतिपत्तिः कस्यचित्स्यात् । ततो यस्य प्रतिपत्तुर्यावत्सु परस्परापेक्षेषु पदेषु समुदितेषु निराकाङ्क्षत्वं तस्य तावत्सु वाक्यत्वसिद्धिरिति प्रतिपत्तव्यम् । एतेने प्रकरणोंदिगम्यपदान्तरसापेक्षश्रूयमाणसमुदायस्य नि
१ (जैनमतापेक्षया) अवयवक्रियाभिनेयार्थव्यतिरेकेणान्यार्थस्य हस्तपादादिस्फोटलक्षणस्याप्रतिभासनलक्षण आक्षेपस्तहिं वर्णाव्यतिरेकेणान्यस्य स्फोटलक्षणार्थस्याप्रतिभासनमिति समाधानम् । नतु वर्णानामनित्यत्वेनार्थप्रतिपादकत्वायोगात्स्फोट एवार्थप्रतिपत्तिहेतुरित्यभ्युपगन्तव्यम् । तन्नः क्रियाया अप्यनित्यत्वेनाभिनेयार्थप्रतिपादकत्वा. योगाद्धस्तादिस्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः ( मीमांसकेन) इति । २ पदादिस्फोटहस्तादिस्फोटयोः । ३ प्रश्ने सति । ४ जैनैः। ५ पदान्तरगतवर्णनिरपेक्षः। ६ परस्पर । ७ वाक्यान्तरपदात् । ८ निरपेक्षस्य पदसमुदायस्य वाक्यत्वप्रकारेण। ९ साध्यसिद्धौ। -१० जैनस्य तव । ११ सर्व परिणामि सत्त्वादिति योज्यम् । १२ आकाङ्क्षणे वाक्यत्वं कुतो न स्यादित्युक्ते सत्याह साकाहस्येति । १३ जैनस्य । १४ व्युत्पन्नस्य यस्य हि प्रतिपत्तुस्तस्मात्परिणामीत्यत्राकामाक्षयस्तदपेक्षया तद्वाक्यं भवत्युक्तवाक्यलक्षणसद्भावाद, नान्यापेक्षया । १५ चेतन । १६ शब्दोऽचेतन इति वचनात् । १७ साधनवाक्यमात्रेण । १८ साध्यार्थम् । १९ तहीति शेषः। २० वाक्ये । २१ निराकासत्वसियभावे च। २२ कचित् । २३ वाक्याभावाद्वाक्यार्थप्रतिपत्तिर्नास्ति यतः । २४ अर्थप्रतिपत्तिमिच्छतः पुरुषस्य । २५ वाक्यसिद्धिप्रकारेण । २६ आदिना सामर्थम् । २७ तिष्ठतिभवतीत्यादि ।
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सू० ३३१०१] वाक्यलक्षणविचारः राकाङ्क्षस्य सत्यभामादिपर्दवद्वाक्यत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् । यच्चोच्यते"ऑख्यातंशब्दः सातो जातिः संघानवतिनी। एकोऽनवयवः शब्दः कमो कुर्नुहती ॥१॥ पदमा पदं चान्त्यं पदं सापेक्षनित्यादि। धाकर प्रति मातर्विका बहुधा याबदेलान् २॥"
इति; तदप्युक्तिमात्रम् ; यस्मादाख्यातशब्दः पदान्तनिरपेक्षः, सापेक्षो वा वाक्यं स्यात् ? न तावदाद्यः पक्षः पदान्तरनिरपेक्ष स्यास्य पदत्वात् । अन्यथा आख्यातपदाभावः स्यात् । द्वितीयपक्षेपि १० कैचिन्निरपेक्षोसो, न वा? प्रथमपक्षेऽस्मन्मतप्रसङ्गः। द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः, पदान्तरसापेक्षस्याप्यस्य कचिन्निरपेक्षत्वाभावे प्रकृ. तार्थापरिसमाप्त्या वाक्यत्वाऽयोगार्द्धवाक्यवत् ।
संघातो वाक्यमित्यत्रापि देशकृतः, कालकृतो वा वर्णानां संघातः स्यात् ? न तावदाद्यविकल्पो युक्तः, क्रमोत्पन्नप्रध्वंसिनां१५ तेषामेकस्सिन्देशेऽवस्थित्या संघातत्वासम्भवात् । द्वितीयविकल्पे तु पदरूपतामापन्नेभ्यो वणेभ्योऽसौ भिन्नः, अभिन्नो का? न तावद्भिन्नोनशैः; तथाविधस्यास्याऽप्रतीतेः, संघातत्वविरोधाच्च वर्णान्तरवत् । अथ तेभ्योऽभिन्नोसो, किं सर्वथा, कथञ्चिद्वा ? सर्वथा चेत् कथमसौ संघातः संघौतिखरूपवत्? अन्यथा २० प्रतिवर्ण संघातप्रसङ्गः। न चैको वर्णः संघातो नामातिप्रसङ्गाद। कथञ्चिच्चेत्; जैनमतप्रसँङ्गः-परस्परापेक्षाऽनोकाङ्क्षपदरूपतापन्न
१ प्रकरणादिगम्यपदान्तरादरवाक्यान्तरपदस्य । २ पदसमुदायस्य प्रकरमादिगम्यतिष्ठतीत्यादिपदान्तरसापेक्षस्य वाक्यस्वं यथा तद्वदत्रापि विचारणीयम् । ३ वाक्यस्य लक्षणान्तरम् । ४ भवतिगच्छतीत्यादिः । ५ वाक्यम् । ६ वर्णानाम् । ७ वर्णत्वलक्षणा। ८ स्फोटः। ९ वर्णानाम् । १० अनुसंहतिः परामर्शः। ११ माख्यातशब्दस्य वाक्यत्वे । १२ वाक्यान्तरे । १३ जैन । १४ असदुक्तस्यैव वाक्यलक्षणस्ये. ग्छयाभ्युपगमात् । १५ निरपेक्षत्वात् । १६ पदान्तरे। १७ देवदत्त गामित्यादिवत् । १८ पक्षे। १९ पदानां वा। २० वाक्यम् । २१ सकृत् । २२ खपुस्तके 'नंश' इति पाठो नास्त्येव । पदेभ्यो भिन्न इत्यर्थः। २३ एकस्य वर्णस्य संघातत्वं विरुद्ध यथा। २४ वर्णः। २५ संघातः सर्वथा संघातिभ्यो वर्गेभ्योऽभिन्नोपि यदि स्यात्तहिं। २६ अस्तु इत्युक्ते सत्याह । २७ एकार्थव्यक्तेरपि जातित्वप्रसङ्गात् । २८ एकस्मिन्वणे विवर्तमाने (वर्णसमूहान्नष्टे सति ) संघातो न निवर्त्तते इति मिन्नः । वर्णेभ्यो ( पक्षे पदेभ्यः ) मेदेनानुपलभ्यमानत्वादमिन्नः (संघातः) इति । २९ वाक्यान्तरपदेभ्यः ।
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प्रमेयकालमार्चण्डे३. परोक्षपरिक মুলা জামাকাজি আবস্থা অস্বীসিল্ক जैनोक्तवादलक्षणाचतिक्रमात् । साकाङ्क्षान्योन्यानपेक्षाणां तु तेषां वाल्यत्वे प्रायतिपादितदोषानुषङ्गः।
तेन्द जातिः संघातवर्तिनी वाक्यम् ; इत्यपि नोत्सृष्टम् ; निपराकाङ्कान्योन्यापेक्षपदसंघातवार्त्तन्याः सहशपरिणामलक्षणायाः कश्चित्ततोऽभिन्नाया जातेाक्यत्वघटनात्, अन्यथा संघातपक्षोक्ताशेषदोषानुषङ्गः।
एकोनवयवः शब्दो वाक्यम् । इत्येतत्तु मनोरथमात्रम् । तस्याप्रामाणिकत्वात् , स्फोटस्यार्थप्रतिपादकत्वेन प्रागेव प्रतिविहि१० तत्वात्।
क्रमो वाक्यमित्येतत्तु संघातवाक्यपक्षान्नातिशेते इति तद्दो षेणैव तदुष्टं द्रष्टव्यम्।
वुद्धिर्वाक्यमित्यत्रापि भाववाक्यम् , द्रव्यवाक्यं वा सा स्यात् ? प्रथमप्रकल्पनायां सिद्धसाध्यता, पूर्वपूर्ववर्ण ज्ञानाहितसंस्कारस्या१५ त्मनो वाक्यार्थग्रहणपरिणतस्यान्त्यवर्णश्रवणाऽनन्तरं वाक्यार्थावबोधहेतोर्बुद्ध्यात्मनो भाववाक्यस्याऽस्माभिरभीष्टत्वात् । द्रव्यवाक्यरूपतां तु बुद्धेः कश्चेतनः श्रद्दधीत प्रतीतिविरोधीत् ?
एतेनीनुसंहृतिर्वाक्यम्; इत्यपि चिन्तितम् ; यथोक्तपदानुसं. हृतिरूपस्य चेतासि परिस्फुरतो भाववाक्यस्य परामर्शात्मनोऽ. २० भीष्टत्वात् ।
'आद्यं पदमन्त्यमन्यद्वा पदान्तरापेक्षं वाक्यम्' इत्यपि नोक्तवाक्याद्भिद्यते, परस्परापेक्षपदसमुदायस्य निराकाङ्क्षस्य वाक्यत्वप्रसिद्धः, अन्यथा पदासिद्धेरभावानुषङ्गः स्यात् ।
१ पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यमिति । २ वाक्यान्तरपदेभ्यः । ३ संघातो वाक्यमित्येतन्निराकरणपरेण ग्रन्थेन । ४ सर्वेषु वर्णेषु वर्णत्वलक्षणा। ५ श्रोत्रग्राह्यत्वेन ताल्वादिव्यापारजनितत्वेन वा, न सर्वथा । ६ पदेभ्यो वर्णेभ्यश्च । ७ प्रतिवर्ण वाक्यत्वप्रसङ्गरूपः। ८ निरंशः। ९ स्फोटः। १० एको वर्णः समु. त्पद्यते पश्चाद्वितीयः ततस्तृतीय इत्यादिप्रकारेण वर्णानां क्रमः। ११ वर्णानाम् । १२ पक्षे। १३ जैनैः। १४ अचेतनत्वाद्वाक्यानां चेतनत्वाद्बुद्धेश्च । १५ बुद्धि
क्यमित्येतन्निराकरणपरेण ग्रन्थेन। १६ पदरूपतामापन्नानां वर्णानां परामशोनुसंहतिः। १७ प्रतिभासमानस्य । १८ देवदत्तः' इति । १९ 'गच्छति' इति । २० परस्परापेक्षादि इत्यसात् । २१ परस्परापेक्षारहितं पदं यदि वाक्यम् । २२ सर्वस्य पदस्य वाक्यत्वात् ।
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सू० ३११०१] अन्विताभिधानवादः __ अन्ये मन्यन्ते- पदान्येव पदार्थप्रतिपादनपूर्वकं वाक्याथोववोध विधानानि वाक्यव्यपदेशं प्रतिपद्यन्ते ।। "पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं तद्भावनावर्तः।"
मी० लो० वाक्या० श्लो० १११] "पदार्थ पूर्वकस्तस्माद्वाक्याायमवस्थितः
मी० श्लो. वाक्या लो० ३३६] इत्यभिधानात् तेयन्यसपविलपवेशन्यायन्य लक्षामेवानुसरन्ति; अन्योन्यापेक्षानाकाङ्क्षाक्षरपदसमुदायस्य वाक्य वेन तैरप्यभ्युपगमात् । __ यदि च पदान्तरार्थैरन्विंतानीमेवार्थानां पदैरभिधानात्पदार्थ-१० प्रतिपत्तेर्वाक्यार्थ तिपत्तिः स्यात् । तदा देवदत्तंपदेनैव देवदत्तार्थस्य गमभ्याजेत्यादिपदवाक्यार्थरन्वितस्याभिधानाच्छेपपदोचारणवैयर्थ्यम् । प्रथमपैदस्यैव च वाक्यरूपताप्रसङ्गः। यावन्ति वा पदानि तावतां वाक्यत्वं यावन्तश्च पदार्थास्तावतां वाक्यार्थत्वं स्यात् । अविवक्षितपदार्थव्यवच्छेदार्थत्वान्न गाम्' इत्यादि-१५ पदोच्चारणवैयर्थ्यम् : इत्यत्राप्यांवृत्त्या वाक्यार्थप्रति पत्तिः स्यान्प्रथमपदेनाभिहितस्य द्वितीयादिपदाभिधेयरन्वितवार्य व द्वितीयादिपदैः पुनः पुनः प्रतिपादनात् ।
अथ द्वितीयादिपैदैः स्वार्थस्य प्रधानभावेन पूर्वोत्तरपदाभिधेयार्थैरन्वितस्याभिधानं नौद्यपदेन अंतोयमदोषः; तर्हि यावन्ति २० पदानि तावन्तस्तदर्थाः पदान्तराभिधेयार्थान्विताः प्राधान्येन प्रतिपत्तव्या इति तावत्यो वास्यार्थप्रतिपत्तयः कथं न स्युः?
१ भट्टप्राभाकराः । २ अवयवार्यप्रतिपत्तिपूर्वकत्वाद्वाक्याथै प्रतिपत्तेः । ३ कारणत्वं वाक्यार्थ प्रति । ४ वाक्यार्थस्य । ५ पिपीलिकाधुपद्रवमयाद्विलपरित्यागे भ्रनित्वा पुनरपि तत्रैव प्रवेशो यथा तथानिच्छया स्वीकारोन्धसर्पबिलप्रवेशन्यायः। ६ जैनोस । ७ वाक्यविचारानन्तरं वाक्यार्थ विचारयन्नाह । ८ गामित्यादि पदान्तराधैः । ९ सम्बद्धानाम् । १० देवदत्तलक्षणोों गामित्यादिपदार्थैरन्वितो गामित्यादिपदार्थाश्च पूर्वोत्तरपदार्थैरन्विता भवन्ति। ११ सर्वथा। १२ केवलैर्देवदत्तादिकैः । १३ एकेन । १४ गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेति । १५ पूर्वपदार्थस्योत्तरपदाथैः सर्वथान्वितत्वात् । १६ तथा च। १७ देवदत्तेति । १८ विवक्षिताद् देवदत्त इत्युक्ते गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेत्यादिपदार्थादविवक्षितो देवदत्तेत्युक्ते पठ गच्छ याहि पिवेत्यादि पदार्थः तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात् । १९ पुनः पुनः प्रवृत्तिरावृत्तिः । २० एकस्यैवार्थस्य । २१ देवदत्तपदापेक्षया गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेति पदैः। २२ द्वितीयादिपदार्थस्याभिधानं प्रधानभावेन । २३ न द्वितीयादिपदार्थस्याभिधानं प्रधानभावेन यतः ।
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प्रमेयकमलनार्तण्डे ३. परोक्षपरि० न हान्त्यपदोचारणातदर्थस्याशेषपूर्वपदाभिधेयैरन्वितस्य प्रतिपत्तेर्वाक्यार्थावबोधो अवति, न पुनः प्रथमपदोच्चारणात् तदर्थस्थावान्तर पदाभिधेयैरन्वितस्य, द्वितीयादिपदोच्चारणाचाऽशेषपदाभिधेऔरन्वितस्य तदर्थस्य प्रतिपत्तरित्यत्र निमित्तमुत्पश्यामः । ५ अथ 'गम्यमानैस्तैस्तस्यान्वितत्वम् न पुनरभिधीयमानः तेनायमदोषः, किमिदानीमभिधीयमान एव पदस्यार्थः ? तथोपैगमे कथमन्विताभिधानम्-विवक्षितपर्दस्य गम्यमानपदान्तराभिधेया र्थानामविषयत्वात् ?
अथ पदानां द्वौ व्यापारी-स्वार्थाभिधानव्यापारः, पदान्तरार्थ१० गमकत्वव्यापारश्च । कथमेवं पदार्थप्रतिपत्तिरावृत्त्या न स्यात् ?
पव्यापारात्प्रतीयमानस्येव गम्यमानस्यापि पदार्थत्वात् । न च पव्यापारात्प्रतीयमानत्वाविशेषेपि कश्चिदभिधीयमानः कश्चिद्गम्यमान इति विभागो युक्तः।
ननु पदप्रयोगः प्रेक्षावता पदार्थप्रतिपत्त्यर्थः, वाल्यार्थप्रति१५ पत्त्यर्थो वाभिधीयेत? न तावत्पैदार्थप्रतिपत्त्यर्थः अस्य प्रवृत्त्यऽहेतुत्वात् । अथ वाक्यार्थप्रतिपत्त्यर्थः, तदा पदप्रयोगानन्तरं पदार्थे प्रतिपत्तिः साक्षाद्भवतीति तत्र पदस्याभिधानव्यापारः पदार्थान्तरे तु गमकत्वव्यापारः; तदप्यसाम्प्रतम् । 'वृक्षः' इति पदप्रयोगे शाखादिमदर्थस्यैव प्रतिपत्तेः । तदर्थाच्च प्रतिपन्नात् २० तिष्ठति' इत्यादिपवाच्यस्य स्थानाद्यर्थस्य सामर्थ्यतः प्रतीते, तत्र पैदस्य साक्षाद्व्यापाराऽभावतो गमकत्वायोगात् तदर्थस्यैव
१ उक्तमेव समर्थयन्ति । सर्वेभ्यः पदेभ्यो वाक्यार्थावबोधो, भवतीति परस्याभिप्रायं मनसि धृत्वा वक्ति जैनः । २ दण्डेनेति । ३ प्रकृतादुच्चार्यमाणात्पदादन्यत्पदं पदान्तरम् । ४ प्रतिपत्तेर्वाक्यार्थावबोधो, न पुनरिति । प्राक्तनं न पुनरिति पदमत्र सम्बन्धनीयम् । ५ वाक्यार्थावबोधो, न पुनरिति सम्बन्धः। ६ वयं जैनाः। ७ पदान्तराभिधेयाथै रन्वितत्वे आवृत्त्या वाक्यार्थप्रति पत्तिलक्षणदोषो जायते तन्निरासार्थ पदान्तरार्थानां गम्यमानाभिधेयमानौ द्वावर्थाविति परो वदति । ८ पदान्तीयमानैर्गोचरीकृतैरित्यर्थः। ९ उच्चार्यमाणपदार्थस्य। १० उच्यमानैद्वितीयादिपदार्थैः । ११ आक्षेपः। १२ एवं प्रतिपादनसमये। १३ शायमानो न भवति। १४ परेणाङ्गीकृते सति । १५ पूर्वपदार्थ उत्तरपदार्थैरन्वित इति । १६ देवदत्तादेः। १७ गामित्यादि । १८ द्वितीयादि । १९ सति । २० पुनः पुनः । २१ केवलं देवदत्तपदार्थस्य केवलमभ्याजेति पदार्थस्य चेति। २२ प्रयोजनार्थिनां पुंसां प्रवृत्तिहेतुर्न भवति । नहि गौरिति शब्दश्रवणात्प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा घटते। २३ पदप्रयोगः। २४ गम्ये । २५ ततश्चान्वितत्वमेव शब्दार्थः। २६ वृक्ष इत्यादेः। २७ वृक्षपदार्थस्य ।
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सू० ३.१०१]
अन्विताभिधानवादः
तद्गमकत्वात् । परम्परया तत्रास्य व्यापारे लिङ्गवचनस्य लिहिप्रतिपत्तौ व्यापारोऽस्तु, तथा च शाब्दमेवानुमानज्ञानं स्यात् । लिङ्गवाचकाच्छन्दालिङ्गल प्रतिपतेः सैव शादी, न पुनस्तत्प्रतिपन्नलिङ्गाल्लिङ्गिमंतिपत्तिरतिमलत: नर्हि वृक्षशब्दास्थानाद्यर्थप्रतिपत्तिर्भवती शाब्दी मा मूलत ख, अन्य कार्यप्रतिपत्तावेव५ पार्यवासितत्वाल्लिङ्गशब्दवत् !
कि, विशेष्यपदं विशेष्यं विशेरपलायनान्वितम् , विशेषणविशेषण वाऽभिधत्ते, तदुभयेन वा ? प्रथनपक्षे विशिष्ट वाक्यार्थप्रतिपत्तिविरोधः । द्वितीयपक्षे तु निश्चयासम्भवःप्रतिनियतविशेषणस्य शब्देनानिर्दिष्टस्य स्वोक्तविशेष्येऽन्वयसं-१० शीतेः, विशेषणान्तराणामपि संम्भवात् । वक्तुरभिप्रायात्प्रतिनियतविशेषणस्य तत्रान्वयश्चेद: नयं प्रति शब्दोच्चारणं तस्य वभिप्रायाऽप्रत्यक्षतस्तदनिर्णयप्रसङ्गात् , आत्मानमेव प्रति वक्तः शब्दोच्चारणानर्थक्यात् । तृतीयपक्षे तु उभयदोषानुपङ्गः ।
एतेन क्रियासामान्येन क्रियाविशेषेण तदुभयेन वान्वितस्य १५ साधनस्य, साधनसामान्येन साधनविशेषेण तदुभयेन वालितायोः प्रतिपादनमाख्यातेन प्रत्याख्यातम् ।
यदि च पदात्पदार्थे उत्पन्नं ज्ञानं वाक्यार्थाध्यवसायि स्यात्; तर्हि चक्षुरादिप्रभवं रूपादिज्ञानं गन्धाध्यवसायि किन्न स्यात् ? अथास्य गन्धादिसाक्षात्कारित्वाभावान्नायं दोपः तर्हि पदोत्थ-२० पदार्थज्ञानस्यापि वाक्यार्थावनासित्याभावात्कथं तदध्यवसायित्वं
१ सामर्थ्यात्। २ वृक्षशब्दाच्छाखादिमदर्थप्रतिपत्तिस्तस्याः सकाशासानाद्यर्थप्रतिपत्तिरिति परम्परा। ३ वृक्षपदस्य । ४ परेणाङ्गीकृते सति । ५ धूमवचनस्य । ६ लिङ्गी अग्निः। ७ किंतु न लिङ्गप्रभवम् । ८ शाब्दी। ९ प्रत्यक्षप्रतीतिरिन्द्रियादुत्पद्यमाना शाब्दी स्यात् । १० वृक्षशब्दस्य शाखादिमत्यर्थे साक्षायापारः स्थानाद्यर्थ तु परम्परयेति । ११ शाखादिमदर्थ । १२ यथा लिङ्गवाचकः शब्दो धूमप्रतिपत्ती पर्यवसितः सन्नग्निगमको न भवति, धूमस्यैव गमकस्तथा वृक्षशब्दः शाखादिमदर्थस्य वाचको भवति, न पदार्थान्तरगमकः । १३ अन्विताभिधानपक्षे दूषणमाह । १४ गामिति कर्तृ । १५ गोलक्षणम् । १६ शुक्छेति । १७ प्रतिनियतविशेष विशिष्ट । १८ शुक्रमिति शब्देन। १९ गामिति शब्देन । २० सास्लादिमदर्थे गोपिण्डे । २१ या गौः सा कि शुक्केन विशिष्टा कृष्णेन वेति । २२ कृष्णादीनाम् । २३ शन्देनानिर्दिष्टत्वाविशेषात् । २४ गामित्यादिकारकपदस्य क्रियाकाहित्वे विकल्पत्रयम् । २५ अभ्याजेत्यादिक्रियापदस्य कारकपदाकाङ्गित्वे विकल्पत्रयम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ३. परोक्षपरि० स्यात् ? चक्षुरादेर्गन्धादाविव पदस्य वाक्यार्थसम्बन्धानवधारणतः सामर्थ्यानुपश्तेः ! तचान्विताभिधानं श्रेयः।
नाप्यभिहितान्वयः, यतोऽभिहिताः पदैः शब्दान्तरादन्वीयन्ते, बुद्ध्यावा ? न तावदाद्यः पक्षः; शब्दान्तरस्याशेषपदार्थ५विषयस्याभिहितान्वयनिबन्धनस्याभावात् । द्वितीयपक्षे तु वुद्धिरेव वाक्यं ततो वाक्यार्थप्रतिपत्तेः, न पुनः पदान्येवें । ननु पदा. र्थेभ्योऽपेक्षावुद्धिसन्निधानात्परस्परमन्वितेभ्यो वाक्यार्थप्रतिपत्तः परम्परया पदेभ्य एव भावान्नातो व्यतिरिक्तं वाक्यम् ; तर्हि प्रकृत्यादिव्यतिरिक्तं पद्मपि मा भूत् , प्रकृत्यादीनामन्वितानाम१० भिधाने अभिहितानां वान्वये पदार्थप्रतिपत्तिप्रसिद्धः।।
ननु 'पदमेव लोके वेदे वार्थप्रतिपत्तये प्रयोगार्हम् न तु केवला प्रकृतिः प्रत्ययो वा, पदादपोद्धृत्य तद्युत्पादनार्थ यथाकथञ्चित्तदभिधानात् । तदुक्तम्-"अथ गौरित्यत्र कः शब्दः? गकारी
कारविसर्जनीया इति भगवानुवर्षः" [शाबरा० १२५] १५ इति । यथैव हि वर्णोऽनंशः प्रकल्पितमात्राभेदैस्तथा गौः' इति पदमप्यनंशमपोद्धृताकारादिभेदं खार्थप्रतिपत्तिनिमित्तमवसीयते । इत्यप्यनालोचिताभिधानम् वाक्यस्यैवं तात्त्विकत्वप्रसिद्धः, तात्पादनार्थ ततोऽपोद्धृत्य पदानामुपदेशाद्वाक्यस्यैव लोके शास्त्रे वार्थप्रतिपत्तये प्रयोगार्हत्वात् । तदुक्तम्"द्विधा कैश्चित्पदं भिन्न चतुर्धा पञ्चधापि वा। अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥"
] इति ।
२०
१ वाच्यवाचकलक्षण । २ पदार्थान्तरैरन्विता अर्था इति। ३ इति प्राभाकरमतं निरस्य भाट्टमतनिरासार्धमाह। ४ वाक्यार्थः। ५ देवदत्तादिकैः। ६ एकेन शब्दान्तरेण। ७ परस्परं सम्बध्यन्ते । ८ एकेन पदान्तरेण सर्वेषां पदार्थो ज्ञातो भवेत्तदा तेन कृत्वा सम्वन्धप्रतिपत्तिर्यतः। ९ पदपरिज्ञानम् । १० वाक्यम् । ११ यसः। १२ आदिपदेन प्रत्ययधात्वादिग्रहणम् । १३ परस्परं सम्बद्धानाम् । १४ क्रियाकारकरूपे विशेषणविशेष्यरूपे च। १५ पृथकृत्य । १६ पदनिष्पत्त्यर्थम् । १७ अहो। १८ पदसंशकः। १९ ( उपवर्षनामा ऋषिः ) प्राह । २० मात्राः उदात्तादयः । २१ बसः। २२ कल्पित । २३ सास्लादिमदर्थ । २४ उक्तप्रकारेण । २५ पदानि । २६ अर्थःप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणः। २७ न तु गामिति पदेन कस्य चित्प्रवृत्तिनिवृत्तिा घटते यतः। २८ सुबन्तं तिडन्तं पदमित्यादि । २९ पृथकृतम्। ३० नामाऽऽख्यात निपातकर्मप्रवचनीयमेदेन । ३१ उपसर्गाधिकम् । ३२ पदानि । ३३ तद्यथा पदादपोद्रियते तथा वाक्येभ्यः पदान्यपोद्रियन्ते इति भावः ।
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सू० ३।१०१] अभिहितान्वयवादः ततः प्रकृत्याद्यवयवेभ्यः कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नं च पदं प्रातीतिकमभ्युपगन्तव्यम्, न तु सर्वथाऽनंशं वर्णवत्तद्भाहकाभावात् । तद्वत्पदेभ्यः कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नंच वाक्यं द्रव्यभाववाक्यमेदभिन्नं प्रोक्तलक्षणलक्षितं प्रतीतिपदमारूढमभ्युपगन्तव्यम् अलं प्रतीत्यपलापेनेति । प्रामाण्यं सुधियो धियो यदि मतं संवादतो निश्चितात्,
स्मृत्यादेरपि किन्न तन्मतमिदं तस्याऽविशेषात्स्फुटम् । तत्संख्या परिकल्पितेयमधूना सन्तिष्ठतेऽतः कथम् ,
तस्माजनमते मतिर्मतिमतां स्थेयाचिरं निर्मले ॥१॥ इति श्रीप्रभाचन्द्रदेव विरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे
तृतीयः परिच्छेदः ॥ श्रीः ॥
१ पदं प्रकृतिर्न भवति, पदं च प्रकृतिनैति व्यावृत्तिरूपेण । २ समुदायरूपेण । ३ निरंशस्य वर्णस्य यथा ग्राहकं प्रमाणं नास्ति तथाऽनंशपदस्य च। ४ पदं वाक्यं न भवति, वाक्यं च पदं न भवतीति व्यावृत्तिरूपेण। ५ समुदायरूपेण । ६ वचनात्मकं द्रव्यवाक्यं, बोधात्मकं तु भाववाक्यम् । ७ पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यमिति । ८ सकलं परिच्छेदार्थमुपसंहरन्नाह । ९ पुंसः। १० प्रामाण्यम् । ११ संवादस्य। १२ तस्य प्रमाणस्य । १३ स्मृत्यूहादीनां प्रामाण्यप्रति. पादनसमये।
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अथोक्तप्रकारं प्रमाणं किं निर्विषयम्, सविषयं वा ? यदि निर्विषयम् कथं प्रमाणं केशोण्डुकादिज्ञानवत् ? अथ सविषयम्; कोस्य विषयः ? इत्याशङ्क्य विषयविप्रतिपत्ति निराकरणार्थे 'सामान्यविशेषात्मा' इत्याद्याह
;
श्रीः ।
अथ चतुर्थः परिच्छेदः ||
५
सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः ॥ १ ॥
तस्य प्रतिपादितप्रकारप्रमाणस्यार्थो विषयः । किंविशिष्टः ? सामान्यविशेषात्मा । कुत एतत् ?
२०
पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेन अर्थक्रियोपपत्तेश्च ॥ २ ॥
१० अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्, यो हि यदाकारोल्लेखिंप्रत्ययगोचरः स तदात्मको दृष्टः यथा नीलाकारोल्लेखिप्रत्ययगोचरो नीलस्वभावोर्थः, सामान्यविशेषाकारोल्लेख्यनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरश्चाखिलो वाह्याध्यात्मिकप्रमेयोर्थः, तस्मात्सामान्यविशेपात्मेति । न केवलमतो हेतोः स तदात्मा, अपि १५ तैराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनाऽर्थक्रियोपपत्तेश्च । तु पूर्वो'सामान्यविशेषात्मा तदर्थः' इत्यभिसम्बन्धः ।
कतिप्रकारं सामान्यमित्याह -
सामान्यं द्वेधा ॥ ३ ॥
कथमिति चेत्
तिर्यगूर्द्धताभेदात् ॥ ४ ॥
तत्र तिर्यक् सामान्यस्वरूपं व्यंक्तिनिष्ठतया सोदाहरणं प्रदर्शयति
१ स्वापूर्वेत्यादि । २ ज्ञानं धर्मिं प्रमाणं न भवतीति साध्यो धर्मों निर्विषयत्वात्केशोण्डुकज्ञानवत् । ३ सामान्यं च विशेषश्च सामान्यविशेषौ तावात्मानौ यस्य स तथोक्तः । ४ सिद्धम् । ५ गौर्गौरित्यादिप्रत्ययः अनुवृत्तः । श्यामः शबलो न भवतीत्यादिप्रत्ययो व्यावृत्तरूपः । ६ उल्लेखः = प्रतिभास: । ७ पूर्वोत्तराकारौ पर्यांयौ = विशेषः। ८ स्थितिलक्षणं द्रव्यमूर्द्धतासामान्यम् । श्रौव्यमित्यर्थः । ९ विशेषो व्यक्तिः ।
1
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सू० ४११-५] सामान्यस्वरूपविचारः सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु
गोल्ववत् ॥ ५॥ नेनु खण्डमुण्डादिव्यक्तिव्यतिरेणापरस्य भवत्कल्पितसामान्यस्याप्रतीतितो गगनाम्भोरुहवनसत्त्वाइसान्प्रतमेवेदं तल्लक्षणप्रणयनम् इत्यस्य समीचीनम् । 'मगौः' इत्यायवाधितप्रत्ययविष-५ यस्य सामान्यस्याऽभावासिद्धेः । तथाविधल्याप्यस्थालवे विशेषस्याप्यसत्वालङ्गः, तथाभूतप्रत्ययत्वव्यतिरेकेणापरस्य तन्यवस्थानिवन्धनस्यात्राप्यसत्त्वात् । अबाधितप्रत्ययस्य च विषयाव्यतिरेकेणापि सद्भावाभ्युपगमे ततो व्यवस्थाऽभावप्रसङ्गः न चानुगताकारत्वं वुद्धर्वाध्यते सर्वत्र देशोंदावनुगतप्रतिभासस्याऽ-१० स्वलद्रूपस्य तथाभूतव्यवहारहेतोरुपलम्भात् । अतो व्यावृत्चाकारानुभवानधिगतमनुगताकारमवभासन्त्यऽवाधितरूपा बुद्धिः अनुभूयमानानुगताकारं वस्तुभूतं सामान्य व्यवस्थापयति ।
ननु विशेषव्यतिरेकेण नापरं सामान्यं वुद्धिभेदाभावात् । न च बुद्धिभेदमन्तरेण पदार्थ मेव्यवस्थाऽतिप्रसङ्गात् । तदुक्तम्- १५
"न भदौद्भिन्नमस्यन्यत्लामान्यं बुधमेदतः। वुद्ध्याकारस्य भेदेन पदार्थस्य विभिन्नता ॥"
[ ] इति; तद्प्यपेशलम् ; सामान्यविशेषयोवुद्धिभेदस्य प्रतीतिसिद्धत्वात् । रूपरसादेस्तुल्यकालस्याभिनाश्रयवर्तिनोप्यत एव भेद-२० प्रसिद्ध ! एकेन्द्रियाध्यवसेयत्वाजातिव्यक्तयोरमेदे वातातपादावप्योदप्रसङ्गः । तत्रापि हि प्रतिभासदौन्नान्यो सेव्यवस्थाहेतुः। स च सामान्यविशेषयोरप्यस्ति । सामान्यप्रतिभासो हाँनुगताकारः, विशेषप्रतिभासस्तु व्यावृत्ताकारोऽनुभूयते।
१ सास्नादिमत्त्वेन। २ सौगतः। ३ जैन। ४ परेणाङ्गीक्रियमाणे सति । ५ अबाधितप्रत्ययविषयत्वाविशेषादिति । ६ प्रमाणान्तरस्य। ७ विशिष्टस्थितिकारणं व्यवस्था। ८ विशेषसत्त्वेपि । ९ परेण । १० गौगौरिति । ११ विशेषणम् । १२ आदिना कालादौ। १३ अनुगताकारत्वं बुद्धेर्न बाध्यते यतः। १४ इदं सामान्यमयं विशेष इति । १५ विशेषात् । १६ स्वतबम् । १७ अभेदे हेतुरयम् । १८ यतः। १९ बीजपूरादि । २० अयं रस इदं रूपमिति बुद्धिभेदात् । २१ एके न्द्रिया ( स्पर्शनेन्द्रिय ) ध्यवसायस्याविशेषात् । २२ अयं वातोऽयमातप इति । २३ गौगौरित्यवम् । २४ अयमसाद्भिन्न इति.।
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४६८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० दूरादूईतासामान्यमेव च प्रतिभासते न स्थाणुपुरुषविशेषौ तत्र सन्देहात् । तत्परिहारेण प्रतिमासनमेव च सामान्यस्य ततो व्यतिरेकस्तल्लक्षणत्वाद्भेदस्य ।
यदप्युक्तम्-- ५ ताभ्यां तद्यतिरेकश्च किन्नाऽदूरेऽवभासनम् । दूरेऽवभासमानस्य सन्निधानेऽतिभासनम् ॥"
[प्रमाणवार्त्तिकालं०] तदप्यसुन्दरम् ; विशेषेपि समानत्वात् , सोपि हि यदि सामान्यायतिरिक्त, तर्हि दूरे वस्तुनः स्वरूप सामान्य प्रतिभासमाने १०किनार्वभासते? न हीन्द्रधनुविनाले रूपे प्रतिभासमाने पीताईदरूपं दूरन्न प्रतिभासते। अथ निकटदेशसामग्री विशेषप्रतिमासस्य जनिका, दूरदेशवर्त्तिनां च प्रतिपत्तृणां सा नास्तीति न विशेष प्रतिभासा, तर्हि सामान्यप्रतिभासस्य जनिका दूरदेश
सामग्री निकटदेशवर्तिनां चासौ नास्तीति न निकटे तत्प्रति१५ भासनमिति समः समाधिः । अस्ति च निकटे सामान्यस्य प्रति
भासनं स्पष्टं विशेषस्य प्रतिभासवत्, यादृशं तु दूरे तस्यास्पष्टं प्रतिभासनं तादृशं न निकटे वसामय्यभावात् तद्वदेव ।
न चानुगतप्रतिभासो वहिःसाधारणनिमित्तनिरपेक्षो घटते; प्रतिनियतदेशकालाकारतया तस्य प्रतिभालामावग्रसङ्गात् । न २० चाऽसाधारणा व्यक्तया एक तन्निमित्तम् । तासां भेदरूपतया
ऽऽविष्टत्वात् । तथापि तन्निमित्तत्वे कर्कादिव्यक्तीनामपि गौगारिति बुद्धिनिमित्तत्वानुषङ्गः।
न चाऽतकार्यकारणव्यावृत्तिः एकप्रत्यवमर्शायेकार्थसाधन
१ युक्त्यन्तरेण सामान्यं व्यवस्थापयति जैनः। २ ऊर्ध्वताकारसदृशसामान्यम् । ३ ऊर्वताकारसामान्यस्य । ४ विशेषः। ५ इन्द्रधनुषि विद्यमानम्। ६ दूरदेशतादि । ७ समानाकारलक्षणसामान्यपदार्थ । ८ न बहिः साधारणनिमित्तं सामान्यं तन्नि"मित्तम् । ९ व्यापकत्वात् । १० परेणाङ्गीकृते। ११ कर्क: श्वेताश्वः । १२ व्यक्तीनां तन्निमित्तत्वाविशेषात् । १३ या या व्यक्तयस्तास्ता भेदरूपाः। १४ कार्य च कारणं च कार्यकारणे तस्य खण्डादेः कार्यकारणे न विद्यते ते अकार्यकारणे यस्याऽसावत'त्कार्यकारणः कर्कादिस्तस्माब्यावृत्तिः । दृष्टान्ते समासयुक्तिं दर्शयति । दृष्टान्ते त्वेकेन्द्रियादिरूपे तच्छब्देन विवक्षितेन्द्रियादिरन्यत्र समुदितेतरगुडूच्यादिर्घायः । बहुव्रीहिसमासकरणानन्तरं कांदिवदन्या विवक्षितेन्द्रियादिरन्या विवक्षितप्रयोगश्च ग्राह्यः । तस्माब्यावृत्तिरित्यवसातव्यः । १५ कर्कादीनामुत्तरक्षणाः कारणानि, तेभ्यो व्यावृत्तिः। १६ गौगौरित्यादि । १७ आदिशब्देनैकन्यवहारादिभिः ।
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सू० ४.५]
अतव्यावृत्तिरूपसामान्यनिरासः
हेतुः अत्यन्तभेदेपोन्द्रियादिवत् समुदितेतरगुडूच्यादिवच्चेत्यभिधातव्यम्; सर्वथा समानपरिणामानाधारे वस्तुन्यतत्कार्यकारणव्यावृत्तेरेवासम्भवात् । अनुगतप्रत्ययावस्तुनि प्रवृत्त्यऽभावप्रसङ्गाच्च । गुडूच्यादिदृष्टान्तोपि साध्यविकलः, न खलु ज्वरोपशमनशक्तिसमानपरिणामाभावे 'गुडूच्यादयो ज्वरोपश-५. मनहेतवः न पुनर्दधिंत्रासादयोपि' इति शक्यव्यवस्थम् , 'चक्षुरादयो वा रूपज्ञानहेतवस्तजननशक्तिलमानपरिणामविरहिणोपि न गुना रसादयोपि' इति निर्निवन्धना व्यवस्थितिः।
किञ्च, अनुगतप्रत्ययस्य सामान्यमन्तरेणैव देशादिनियमेनोत्पत्तौ व्यावृत्तप्रत्ययस्यापि विशेषमन्तरेणैवोत्पत्तिः स्यात् । शक्य १० हि वक्तुम्-अभेदाविशेपेप्येकमेव ब्रह्मादिरूपं प्रतिनियतानेकनीलाद्याभासनिवन्धेनं भविष्यतीति किमपररूपादिखलक्षणपरिकल्पनया । ततो रूपादिप्रतिभासस्येवानुगतप्रतिभासस्याप्यालम्वनं वस्तुभूतं परिकल्पनीयम् इत्यस्ति वस्तुभूतं सामान्यम् ।
एककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायो व्यक्तीनाम् ; इत्यप्यचारु; १५ कार्याणामभेदासिद्धेः, वाहदोहादिकार्यस्य प्रतिव्यक्ति भेदात्। तत्राप्यपरैककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायेऽनवस्था। ज्ञानलक्षणमपि कार्य प्रतिव्यक्ति भिन्नमेव ।
अनुभवानामेपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वादेकत्वम् , तद्धेतुत्वाच्च व्यक्तीनामित्युपचरितोपचारोपि श्रद्धामात्रगम्यः; अनुभवानामप्य-२० त्यन्तवैलक्षण्येनैकपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वायोगात्, अन्यथा कर्कादिव्यत्यनुभवेभ्योपि खण्डमुण्डादिव्यक्तौ एकपरामर्शप्रत्ययस्यो. त्पत्तिः स्यात् । अथ प्रत्यासत्तिविशेषात्खण्डमुण्डाद्यनुभवेभ्य एवास्योत्पत्तिर्नान्यतः । ननु प्रत्यासत्तिविशेषः कोन्योऽन्यत्र
१ खण्डादयो विशेषा धर्मिणः समानपरिणामरहिता एव एकप्रत्यवमीयेकार्थसाधनहेतवः अतत्कार्यकारणकर्कादिव्यावृत्तित्वादिन्द्रियादिवत् । २ व्यक्तीनाम् । ३ आदिना-अर्थालोकयोग्यतादिग्रहणम् । ४ समुदितेतरगुडूच्यादयो विशेषाः समानपरिणामाहिता एव एकप्रत्यवमर्शाधेकार्थहेतवोऽतत्कार्यकारणाविवक्षितेन्द्रियादिव्यावृत्तित्वाद्यथा । ५ शुण्ठ्यादि । ६ खण्डादिव्यक्तौ । ७ अभावरूपाया व्यावृत्तेतित्वादनुगतप्रत्ययस्य । ८ तथा हि। ९ कर्कटी। १० निर्विकल्पस्य । ११ बाह्यनीलादिस्वलक्षणम् । १२ बाह्यनीलादिविशेषमन्तरेणैव । १३ सौगतेन त्वया । १४ व्यक्तीनामेककार्यत्वसमर्थनार्थम् । १५ निर्विकल्पकप्रत्यक्षशानानाम्। १६ गौगौरिति । १७ एकत्वम् । १८ विकल्पगतमेकत्वमनुभवेऽनुभवगतं चकत्वं व्यक्तिष्विति । १९ निर्विकल्पकेभ्यः।
प्र० क० मा० ४०
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० समानाकारानुभवात् , एकप्रत्यवमर्शहेतुत्वेनाभिमतानां निर्विकल्पकबुद्धीनामप्रसिद्धेश्च । अतोऽयुक्तमेतत्--
"एकप्रत्यवमर्शस्य हेतुत्वाद्धीरभेदिनी।। एकधीहेतुभावेन व्यक्तीनामप्यभिन्नता ॥"
- [प्रमाणवा० १२११०] इति । ततोऽबाधबोधाधिरूढत्वात्सिद्धं सदृशपरिणामरूपं वस्तुभूतं सामान्यम् । तस्याऽनेभ्युपगमे
"नो चेद्धान्तिनिमित्तेन संयोज्येत गुंणान्तरम् । शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात् ॥"
[प्रमाणवा० १४५] इत्यस्य, "अर्थन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयो(या)ऽधिगतेः प्रमाणं मेयरूपंता॥"
[प्रमाणवा० ३।३०५] इत्यस्य च विरोधानुषङ्गः। १५ तच्चाऽनित्यासर्वगतखभावमभ्युपगन्तव्यम्; नित्यसर्वगतस्वभावत्वेऽर्थक्रियाकारित्वायोगात् । न खलु गोत्वं वाहदोहादा. वुपयुज्यते, तत्र व्यक्तीनामेव व्यापाराभ्युपगमात् ।
स्वविषयज्ञानजनकत्वेपि व्यापारोस्य केवलस्य, व्यक्तिसहितस्य वा? केवलस्य चेत् ; व्यक्त्यन्तरालेप्युपलम्भप्रसङ्गः। व्यक्तिसहि. २० तस्य चेत्, किं प्रतिपन्नाखिलव्यक्तिसहितस्य, अप्रतिपन्नाखिलव्यक्तिसहितस्य वा? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः, असर्वविदोऽखिलव्यक्तिप्रतिपत्तेरसम्भवात् । द्वितीयपक्षे पुनः एकव्यक्तेरप्यग्रहणे
१ सौगतेन। २ उपचरितोपचारोपि श्रद्धामात्रगम्यो यतः। ३ निर्विकल्पिका बुद्धिः। ४ एका। ५ परेण । ६ चेत्पक्षान्तरसूचकम् । इति हेतोः स्वलक्षणे भ्रान्तिनिमित्तेनाक्षणिकत्वं नो संयोज्येत चेत्तर्हि स्वलक्षणस्य परमार्थभूतमक्षणिकत्वं स्यात् स्खलक्षणस्य क्षणिकत्वसिध्यर्थ सर्व क्षणिक सत्त्वादित्यनुमानं च व्यर्थ स्यादिति भावः। ७ परमार्थभूतसदृशापरापरोत्पत्तिलक्षणेन । ८ पुरुषेण । ९ क्षणिके स्वलक्षणे वस्तुनि। १० अक्षणिकत्वलक्षणम् । ११ वायथार्थकः। १२ अपरमार्थभूतः। १३ परमार्थभूतरूपसादृश्यदर्शनात् । १४ ग्रन्थस्य । १५ विषयविषयिभावं न कारयतीत्यर्थः। १६ निर्विकल्पकबुद्धिम् । १७ अन्यत्संन्निकर्षादि कर्तु। १८ पदार्थसादृश्याकारधारित्वम् । १९ उभाभ्यां श्लोकाभ्यां परस्य सादृश्याङ्गीकारो विद्यत इति सूचितम् । २० सामान्यस्य। २१ व्यक्तिरहितं केवलम् । २२ पुरुषं प्रति । २३ सामान्यस्य । न च तथा।
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सू० ४/५ ]
सामान्यस्वरूप विचारः
४७१
सामान्यज्ञानानुषङ्गः । प्रतिपन्नकतिपयव्यक्तिसहितस्य जनकत्वे तु तस्य ताभिरुपकारः क्रियते, न वा ? प्रथमपक्षे सामान्यस्य व्यक्तिकार्यता, तदभिन्नोपकारकरणात् । ततो भिन्नस्यास्य करणे 'तस्य' इतिव्यपदेशासिद्धिः । तत्कृतोपकारेणाप्युपकारान्तरकरणेऽनवस्था । द्वितीयपक्षे तु व्यक्तिसहभाववैयर्थ्यम् सामा- ५ न्यस्य, अकिञ्चित्करस्य सहकारित्वासम्भवात् ।
सामान्येन सहैर्कज्ञानजनने व्यापाराद्व्यक्तीनां तत्सहकारित्वेपि There arभावेन तत्र तासां व्यापारः, अधिपतित्वेन वा ? प्राच्यकल्पनायाम् एकमनेकाकारं सामान्यविशेषज्ञानं सर्वदा स्यात्, स्वालम्बनानुरूपत्वात्सकलविज्ञानानाम् ।
१०
द्वितीयविकल्पे तु व्यक्तीनामनधिगमेपि सामान्यज्ञानप्रसङ्गः । नैं खलु रूपज्ञाने चक्षुषोधिगतस्याधिपतित्वेन व्यापारो दृष्टः अदृष्टस्य वा, सर्वथा नित्यवस्तुनः क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरो 'धाच्चास्य न कस्याञ्चिदर्थक्रियायां व्यापारः । व्यापारे वा सहकारिनिरपेक्षितया सदा कार्यकारित्वानुषङ्गः, तदवस्थाभाविनः १५. कार्यजननस्वभावस्य सदा सम्भवात्, अभावे च अनित्यत्वं स्वभावभेदलक्षणत्वात्तस्य । कार्याजननस्वभावत्वे वा अस्य सर्वदा कार्याजनकत्वप्रसङ्गः । यो हि यदऽजनकस्वभावः सोन्येस हितोपि न तज्जनयति यथा शालिबीजं क्षित्याद्यविकलसामग्रीयुक्तं कोद्रवाङ्कुरम्, अजनकस्वभावं च सामान्यं कार्यस्य, इत्यवस्तुत्वापत्ति २० नित्यैकस्वभावसामान्यस्य, अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वाद्वस्तुनः ।
१३
तथा तत्सर्व सर्वगतम्, स्वव्यक्तिसर्वगतं वा ? न तावत्सर्वसर्वगतम् व्यक्तयन्तरालेऽनुपलभ्यमानत्वाद्व्यक्तिखात्मवत् । तत्रानुपलम्भो हि तस्याऽव्यक्तत्वात्, व्यवहितत्वात्, दूरस्थित
;
१ न विशेषज्ञानानुषङ्गः, न च तथा - विशेषमन्तरेण सामान्याप्रतीतेः । २ अयमुपकारः सामान्यस्येति । ३ सम्बन्धसिद्ध्यर्थम् । ४ गौगौरित्यादि । ५ सामान्यस्यैकत्वादेकं सामान्यज्ञानम् । ६ व्यक्तीनामनेकत्वादनेकाकारम् । ७ अपरिज्ञाता व्यक्तयः सामान्यज्ञानं कथं जनयन्तीत्युक्ते सत्याहाचार्यः । ८ चक्षुर्धर्मस्य । ९ सामान्यलक्षणस्य । १० स्वविषयज्ञानलक्षण | ११ तदवस्था = सहकारिरहि• तत्वम् । १२ कूटस्थनित्यसामान्यस्य । १३ सामान्यं कार्यजनकं न भवति तदजन • कत्वादित्यध्याहृत्य । १४ सहकारिकारण । १५ अर्थों घटादिः तस्य क्रिया कार्यत्वं जन्यत्वमिति यावत्, तां करोति यः पदार्थों मृत्पिण्डलक्षणः सोर्थक्रियाकारी, तस्य भावस्तत्त्वम्, तस्मात् । १६ सर्वासु स्वसम्बन्धिखण्डमुण्डादिव्यक्तिषु । १७ स्वव्यक्तौ विवक्षितैकव्यक्तौ ।
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४७२ प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० त्वात् , अदृश्यत्वात्, स्वाश्रयेन्द्रियसम्बन्धविरहात्, आश्रयसस वेतरूपामावादा यादत्यन्तराऽभावात् ? न तावदव्यतत्वात् । एकत्र व्यन्तौ सर्वत्र व्यक्तेरभिन्नत्वात् । अव्यक्तत्वाच्चान्तरले तस्यानुपलस्से व्यक्तिस्वात्मनोप्यनुपलम्भोऽत एवास्तु। तत्रास्य ५ सद्भावावेदकप्रमाणाभावादसत्त्वादेवाऽनुपलम्भे सामान्यस्यापि सोऽलत्त्वादेवास्तु विशेषाभावात् । न खलु प्रत्यक्षतस्तत्तत्रोपलभ्यते विशेषरहितत्वात् खरविषाणवत् ।
किञ्च, प्रथमव्यक्तिग्रहणवेलायां तदभिव्यक्तस्यास्य ग्रहगे अभेदात्तस्य सर्वत्र सर्वदोपलम्भप्रसङ्गः सर्वात्मनाभिव्यक्त१०त्वात् , अन्यथा व्यक्ताव्यक्तस्वभावभेदेनानेकत्वानुषङ्गादसामान्यरूपतापत्तिः। तस्मादुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भाव्यत्यन्तराले सामान्यस्यासत्वं व्यक्तिस्वात्मवत् ।
'व्यत्यन्तरालेऽस्ति सामान्यं युगपद्भिन्नदेशवाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वादशादिवत्' इत्यनुमानात्तत्र तद्भावसिद्धिः; इत्यप्यसङ्ग१५तम्; हेतोः प्रतिवाद्यऽसिद्धत्वात् । न हि भिन्नदेशासु व्यक्तिषु
सामान्यमेकं प्रत्यक्षतः स्थूणादौ वंशादिवत्प्रतीयते, यतो युगपद्भिन्नदेशवाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वं तस्य सिध्यत्वाधारान्तरा. लेऽस्तित्वं साधयेत् । तन्नाव्यक्तत्वात्तत्राऽनुपलम्भः।
नापि व्यवहितत्वादभिन्नत्वादेव । नापि दूरस्थितत्वात्तत एव । २० नाप्यदृश्यात्मत्वात् , खाश्रयेन्द्रियसम्वन्धविरहात्, आश्रय
समवेतरूपाभावाद्वा; अभेदादेव । तन्न सर्वसर्वगतं सामान्यम् । . नापि स्वव्यक्तिसर्वगतम् ; प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तत्वेनास्याऽनेकत्वानुषङ्गाद् व्यक्तिस्वरूपवत् । कात्स्न्यैकदेशाभ्यां वृत्त्यनुपपत्ते
चाऽसत्त्वम्। २५ किञ्च, एकत्र व्यक्तौ सर्वात्मना वर्तमानस्यास्यान्यत्र वृत्तिर्न स्यात् । तत्र हि वृत्तिस्तदेशे गमनात्, पिण्डेन सहोत्पादात्,
१ एकस्यां व्यक्तौ । २ प्राकट्ये सति । ३ व्यक्तिषु । ४ सामान्यस्याभिव्यक्तेः । ५ प्रकटरूपसामान्यस्यैकत्वात् । ६ व्यत्यन्तराले। ७ नाऽभावात् । ८ ततश्च सामान्यवद्यक्तेरपि व्यापकत्वान्नित्यत्वप्रसङ्गः। ९ सद्भावावेदकप्रमाणाभावस्य । १० व्यापकत्वनित्यत्वात् । ११ विशेषरूपताप्रतिपत्तिरिति भावस्तस्याऽनेकरूपत्वात् । १२ देवदत्तेन व्यभिचारपरिहारार्थ विशेषणद्वयम् । १३ स्तम्भादौ । १४ जैनादि । १५ व्यक्तावsभिव्यक्तस्य सामान्यस्य । १६ एकस्वभावत्वात् (व्यतया सह )। १७ व्यापित्वात् । १८ सामान्यस्याश्रयाः खण्डादयः। १९ इन्द्रियसम्बद्धत्वादिविशिष्टव्यक्तिरूपत्वात् । २० व्यक्तीनामानन्त्यात् । २१ अनेकत्वसांशत्वलक्षणं दूषणमुदेष्यतीति भावः ।
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४७३
सू० ४५] . सामान्यस्वरूपविचारः तद्देशे सद्भावात् , अंशवत्तया वा स्यात् ? न तावद्मनादन्यत्र पिण्डे तस्य वृत्तिः निष्क्रियत्वोपेगमात् ।
किञ्च, पूर्वपिण्डपरित्यागेन तत्तत्र गच्छेत् , अपरित्यागेन वा? न तावत्परित्यागेन, प्राक्तनपिण्डस्य गोत्वपरित्यक्तस्यागोरूपताप्रसङ्गात् । नाप्यपरित्यागेन, अपरित्यक्तप्राक्तनपिण्डस्यास्यानंशस्य५ रूपादेरिव रामनासम्भवात् । न परित्यक्तपूर्वाधाराणां रूपादीदामाधारान्तरसङ्क्रान्तिर्दशा
नापि पिण्डेन सहोत्पादात्; तस्याऽनित्यतानुषङ्गात् । नापि तद्देशे सत्त्वात्; पिण्डोत्पत्तेः प्राक् तंत्र निराधारस्यास्यावस्थानाभावात् । भावे वा स्वाश्रयमात्रवृत्तित्वविरोधः।
नाप्यंशवत्तया; निरंशत्वप्रतिज्ञानात् । ततो व्यक्त्यन्तरे सामान्यस्याभावानुषङ्गः । परेषां प्रयोगः 'ये यत्र नोत्पन्ना नापि प्रागवस्थायिनो नापि पश्चादन्यतो देशादागतिमन्तस्ते तत्राऽसन्तः यथा खरोत्तमाओं तद्विषाणम्, तथा च सामान्यं तच्छून्यदेशोत्पावति घटादिके वस्तुनि' इति । उक्तञ्च
१५ "न याति न च तंत्रासीदस्ति पश्चान्न चौशवत् । जहाति पूर्वमाधारमहो व्यसनसन्ततिः* ॥ १॥"
[प्रमाणवा० ११५३] ये तु व्यक्ति स्वभावं सामान्यमभ्युपगच्छन्ति
"तादात्म्यमस्य कमाञ्चेत्स्वभावादिति गम्यताम्।” [ ]२० इत्यभिधानात्; तेपा व्यक्तिवत्तस्यालाधारणरूपत्वानुषङ्गाद व्यक्त्युत्पादविनाशयोश्चास्यापि तद्योगित्वंप्रसङ्गान्न सामान्यरूपता । अथाऽसाधारणरूपत्वमुत्पाद विनाशयोगित्वं चास्य नाभ्युपगम्यते, तर्हि विरुद्धधर्माध्यासतो व्यक्तिभ्योऽस्य मेदः स्यात् ।
१ सामान्यं निष्क्रियमिति वचनात् । २ परेण । ३ व्यक्तिदेशे। ४ जटिलानाम् । ५ सामान्यमसत् अनुत्पधमानादित्वादित्युपरिष्टायोज्यम् । ६ तच्छून्यौ च तद्देशोत्पादौ चेति । ७ व्यक्त्यन्तरम् । ८ व्यक्तिदेशे। ९ व्यक्तौ भन्नायां सत्याम् । १० सामान्यस्य विशेषणम् । ११ वृथा स्थितिः। * श्लोकोयं मुद्रितपुस्तके 'व्यक्तिभ्योऽस्य भेदः स्यात्' इत्यनन्तरं मुद्रितः । प्रकरणानुरोधात् स्थानभ्रष्टो भातिसम्पा०। १२ मीमांसकाः। १३ व्यक्तिरेव स्वभावो यस्य तयोरभेदात् । १४ व्यत्या सह । १५ मीमांसकानाम् । १६ असाधारणरूपताया व्यक्तेरभिन्नत्वात् । १७ सामान्यस्य । १८ व्यक्तिसामान्ययोरभेदात् । १९ परेण । २० घटपटयोरिव:
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प्रमेयकालमार्तण्डे [४. विषयपरि० "तादात्म्य चेन्मतं जोतेर्व्यक्तिजन्मन्यजातता। नाशेऽनाशश्च केनेष्टस्तद्वच्चानन्वयो न किम् ? ॥२॥ व्यक्तिजन्मन्यजाता चेदागता नाश्रयान्तरात् ।। प्रागासीन च तद्देशे सा तया सङ्गता कथम् ? ॥३॥ व्यक्तिनाशे न चेन्नष्टा गता व्यत्यन्तरं न च । तच्छन्ये न स्थिता देशे सा जातिः केति कथ्यताम् ? ॥४॥ व्यक्ते त्योंदियोगेपि यदि जातेः स नेष्यते । तादात्म्यं कथमिष्टं स्यादनुपप्लुतचेतसाम् ? ॥ ५॥"[ ] ततो यदुक्तं कुमारिलेन
"विषयेण हि बुद्धीनां विना नोत्पत्तिरिष्यते । विशेषादन्यदिच्छन्ति सामान्यं तेन तेंडुवम् ॥ १ ॥ तो हि तेन विनोत्पन्ना मिथ्याः स्युर्विषयाहते । न त्वैन्येन विना वृत्तिः सामान्यस्येह हुँष्यति ॥२॥"
[मी० श्लो० आकृति० श्लो० ३७-३८] १५ इति; तन्निरस्तम्; नित्यसर्वगतसामान्यस्याश्रयादेकान्ततो भिन्नस्याभिन्नस्य वाऽनेकदोषदुष्टत्वेन प्रतिपादितत्वात् । अनुगतप्रत्ययस्य च संदृशपरिणामनिवन्धनत्वप्रसिद्धः। स चानित्योsसर्वगतोऽनेकव्यक्त्यात्मकतयाऽनेकरूपश्च रूपादिवत्प्रत्यक्षत एव प्रसिद्धः। ततो भट्टेनायुक्तमुक्तम्
"पिण्डभेदेषु गोवुद्धिरेकगोत्वनिवन्धना। २० गवाभासकरूपाभ्यामेकगोपिण्डवुद्धिवत् ॥१॥"
[मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४४] यञ्चेदमुक्तम्__"न शावलेयागोवुद्धिस्ततोऽन्योलम्बनापि वा ।
१ व्यक्त्या सह । २ तदा इति शेषः। ३ जातेः । ४ व्यक्तेः। ५ जातेः। ६ व्यक्तिवत्। ७ असाधारणता । ८ किन्तु स्यादेव। ९ सति । १० व्यक्तयन्तरात् । ११ जाति: जन्म । १२ आदिना विनाशग्रहणम् । १३ जात्यादियोगः । १४ तहीतिशेषः । १५ जातिव्यक्त्योः । १६ अभ्रान्तचेतसाम् । १७ सामान्यैन । १८ अनुगताकाराणाम्। १९ यैर्वादिभिः। २० ते। २१ नित्यमचलम् । २२ विषयेण विनोत्पत्तिः कथमित्युक्ते आह । २३ यतः। २४ समवायेन । २५ तादात्म्येन खभावाद्वर्तत इत्यर्थः । २६ व्यक्तेः सकाशात्। २७ एकत्वापत्तिन्यपदेशाभावादयोनेके। २८ सालादिमत्त्वेनायमनेन सदृश इति । २९ गौगौरिति । ३० गवाभासश्चैकरूपं च ताभ्याम् । एक (गौगौरित्याध्यात्मिककारण ) शानत्वादेकरूप(गोरूपपिण्ड बाह्यकारण )त्वाचेत्यर्थः। ३१ सामान्यनिबन्धनेति । ३१ ततोन्य खण्डादि । ३३ नेति संबन्धः ।
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सू० ४५] सामान्यस्वरूपविचारः तंदभावपि सद्भावाद् घटे पार्थिववुद्धिवत् ॥"
मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४ ] तत्सिद्धसाधनम् ; व्यक्तिव्यतिरिक्तसदृशपरिणामालम्बनत्वातस्याः । यञ्च सामान्यस्य सर्वगतत्वसाधनमुक्तम्
"प्रत्येकसमवेतार्थविषया वाथ गोमतिः। प्रत्येकं कृत्स्मरूपत्वात्प्रत्येक व्यक्तिवुद्धिवत् ॥ १॥" ।
[मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४६] प्रयोगः-येयं गोवुद्धिः सा प्रत्येकसमवेतार्थविषया प्रतिपिण्डं कृत्स्नरूपपदार्थाकारत्वात् प्रत्येकव्यक्तिविषयवुद्धिवत् । एकत्वम-१० प्यस्य प्रसिद्धमेव; तथाहि-यद्यपि सामान्यं प्रत्येकं सर्वात्मना परिसमाप्तं तथापि तदेकमेवैकांकारवुद्धिग्राह्यत्वात् , यथा नञ्यु. क्तवाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्त्तनम् । न चेयं मिथ्या; कारणदोषवा. धकप्रत्ययाभावात् । उक्तञ्च
"प्रत्येकसमवेतापि जातिरेकैकबुद्धितः। नयुक्तेष्विक वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्त्तनम् ॥ १ ॥ नैकरूपा मतिर्गोत्वे मिथ्या वक्तुं च शक्यते । नात्र कारणदोषोस्ति बाधकप्रत्ययोपि वा ॥२॥"
[मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४७-४९] तदप्युक्तिमात्रम् । प्रतिपिण्डं कृत्स्नरूपपदार्थाकारत्वस्य सदृश-२० परिणामाविनाभावित्वेन साँध्यविपरीतार्थ साधनस्य विरुद्धत्वात् । नित्यैकरूपप्रत्येकपरिसमाप्तसामान्यसाधने दृष्टान्तस्य साध्यविकलता। तथाभूतस्य चास्य सर्वात्मना वैहुषु परिसमाप्तत्वे सर्वेषां व्यक्तिभेदानां परस्परमेकरूपतापत्तिः एकव्यक्तिपरिनिष्टितखभावसामान्यपदार्थसंसृष्टत्वात् एकव्यक्तिखरूपवत् । सामान्यस्य २५
१ शावलेयाभावेपि खण्डादिगोबुद्धिसद्भावात् तदभावेऽपि शावलेयादेस्तत्सद्भावादित्यर्थः। २ गोबुद्धेः। ३ श्वेतपीतादिविशेषमन्तरेण यथा घटे पृथिवीत्वसामान्येन पार्थिवबुद्धिः। ४ न केवलमेकगोत्वनिबन्धना। ५ एकामेका व्यक्तिं प्रति। ६ गोमतेः। ७ गौगौरिति प्रत्ययः। ८ अर्थो गोत्वलक्षणसामान्यम् । ९ गोत्वादिसामान्य । १० अयं गौरयं गौरिति । ११ नायं ब्राह्मणो नायं ब्राह्मण इत्यादि । १२ एकमेव । १३ इन्द्रियादि । १४ गौगौरिति। १५ हेतोः। १६ सदृशपरिणामः-साध्यम् । १७ सर्वगतत्व । १८ असर्वगतत्वे । १९ व्यक्तीनां नित्यत्वमेकरूपत्वं च नास्ति यतः। २० एकत्वानुमाने दूषणमाह । २१ विशेषेषु । २२ अभिन्नत्वात् , तादाल्यापन्नत्वात्।
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४७६
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
वानेकत्वापत्तिः, युगएदनकवस्तुपरिसमासात्मरूपत्वात् दूरतरदेशोवच्छिन्नानेकभाजनगतबिल्वादिफलवत् । ततोऽयुक्तमुक्तम्'नात्र बाधकप्रत्ययोस्ति' इति प्राक्प्रतिपादितप्रकारेणानेकबाध. कप्रत्ययोपनिपातात् । प्रत्येकसमवेतायाँश्च जातेरसिद्धत्वात ५'एकबुद्धिग्राह्यत्वात्' इत्याश्रयासिद्धो हेतुः । खरूपासिद्धश्चः अवार्धसादृश्यवोधाधिगम्यत्वेनैकाकारप्रत्ययग्राह्यत्वस्यासिद्धः । ब्राह्मणादिनिवृत्तिश्च परमार्थतो नैकरूपास्तीति साध्यविकल. मुदाहरणम्। । एतेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण-"गवादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययः पिण्डा. १० दिव्यतिरिक्तानिमित्ताद्भवति विशेषकत्वान्नीलादिप्रत्ययवत् । तथा गोतोऽर्थान्तरं गोत्वं भिन्नप्रत्ययविषयत्वाद्रूपादिवत् तस्येति च व्यपदेशविषयत्वात्, यथा चैत्रस्याश्वश्चैत्राद्व्यपदिश्यमानः" [ न्यायवा० पृ० ३३३] इति; तन्निरस्तम्; अनुवृत्तिप्रत्ययस्य हि
सामान्येन पिण्डादिव्यतिरिक्तनिमित्तमात्रसाधने सिद्धसाध्यता१५ नुषङ्गात् , सदृशपरिणाम निवन्धनतयाऽस्याभ्युपगमात् । नित्यै
कानुगामिसामान्यनिबन्धनत्वसाधने दृष्टान्तस्य साध्यविकलता। न ह्येवम्भूतेन क्वचिदैन्वयः सिद्धः।
न चानुगतज्ञानोपलम्भादेव तथाभूतसामान्यसिद्धिः। यतः किं यत्रानुगतज्ञानं तत्र सामान्यसम्भवः प्रतिपाद्यते, यत्र वा सामान्य२० सम्भवस्तत्रानुगतज्ञानमिति? तत्रायः पक्षोऽयुक्तः, गोत्वादि
सामान्येषु 'सामान्यं सामान्यम्' इत्यनुगताकारप्रत्ययोपलम्मेमाऽपरसामान्यकल्पनाप्रसङ्गात् । न चात्रासौ प्रत्ययो गौणः, अस्खलढत्तित्वेन गौणत्वासिद्धः । तथा प्रागभावादिष्वप्यभावेषु
१ सम्पूर्ण । २ भिन्नभिन्न। ३ नित्याया एकरूपायाः प्रत्येकं परिसमाप्तायाश्च । ४ अयं गौरयं गौरिति । ५ आश्रयभूताया जातेरभावात् । ६ अयमनेन सदृश इति । ७ अनेकरूपसामान्य। ८ कृत्त्वा। ९ एकाकारप्रत्ययेन ग्राह्य सामान्यं परमते । .. सामान्यस्य । ११ नायं क्षत्रियो ब्राह्मणो नायं वैश्यो ब्राह्मण इत्यादिना कृत्वाऽभावानामनेकत्वात् , अभावः अभाव इति प्रत्ययसंयुक्तप्रागभावादिवत् । १२ एकत्वेन साध्येन । १३ मीमांसकं प्रति नित्यसर्वगतजातिनिराकरणपरेण ग्रन्थेन । १४ शबलशावलेयादिविशेषगोपिण्डादि। १५ सर्वगनित्यत्वात् । १६ भेदकत्वात् । १७ गोरिदं गोत्वमिति । १८ भेदेनाभिधीयमानः। १९ साधारणेन कृत्वा । २० जनानाम् । २१ पिण्डादिव्यतिरिक्तान्नित्यैकानुगामिसामान्यानिमित्ताद्भवतीति साध्यम्। २२ यो यो भेदकप्रत्ययः स स नित्यैकानुगामिसामान्याद्भवतीति । २३ परेण । २४ गवादिव्यक्तिनिष्ठेषु गोत्वादिसामान्येषु घटत्वमपि सामान्यं पटत्वमपि सामान्यमित्यनुगताकारप्रत्ययः। २५ गोत्वादिभ्यः । २६ कल्पित ।
२६
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सू० ४।५]
सामान्यस्वरूपविचारः
४७७
'अभावोऽभावः' इत्यनुगतप्रत्ययप्रवृत्तिरस्ति, न च परैरभावसामान्यमभ्युपगतम् । न खलु तत्रानुगाम्येकं निमित्तमस्त्यन्यत्र सदृशपरिणामात्।
ननु चौपरसामान्यस्य प्रागभावादिष्वभावेपि सत्ताख्यं महासामान्यमस्ति, तद्वलादेवाभावप्रत्ययोऽनुगतो भविष्यति ।५
"ननु च प्रागभावादी सामान्य वस्तु नेव्यते । सत्तैव यत्र सामान्यमनुत्पत्त्यादिरूपता" ॥१॥
[मी० श्लो० अपोहवाद श्लो० ११] अनुत्पत्त्यादिविशिष्टेत्यर्थः। तदयुक्तम् ; अभिप्रेतपदार्थव्यतिरि-१० क्तानां मतान्तरीयार्थानाम उत्पाद्यकथार्थानां वाऽभावप्रतीतिविषयतोपलम्भेन सत्त्वप्रसङ्गात् । तन्नाभावेष्वनुवृत्तप्रतीतेरनुगाम्येकलामान्यनिवन्धनत्वमस्तीत्यन्यत्राप्यस्यास्तनिवन्धनत्वाभावः । प्रयोगः-ये क्रमित्वानुगामित्ववस्तुत्वोत्पत्तिमत्त्वसत्त्वादिधर्मोपेतास्ते परकल्पित नित्यैकसर्वगतसामान्यनिवन्धना न भवन्ति १५ यथाऽभावेष्वभावोऽभाव इति प्रत्ययाः, सामान्येषु सामान्य सामान्यमिति प्रत्यया वा, तथा चामी प्रत्यया इति !
अथ यत्र सामान्यं तत्रैवानुगतज्ञानकल्पना; न; पाँचकादिषु तद्भावेप्यनुगतप्रत्ययप्रवृत्तेः । न खलु तत्रानुगाम्येकं सामान्यमस्ति यत्प्रसादात्तत्प्रवृत्तिः स्यात् । निमित्तान्तरमस्तीति २० चेत्तत्किं कर्म, कर्मसामान्यं वा स्यात्, व्यक्तिः, शक्तिर्वा ? न तावत्कर्म; तस्य प्रतिव्यक्ति विभिन्नत्वात् । 'विभिन्नं ह्यऽभिन्नस्य कारणं न भवति' इति सर्वोयमारम्भः। तच्चेद्भिन्नमपि तथाभूतकार्यकारणं तैदान्यत्र कः प्रद्वेषः?
किञ्च, तत्कर्म नित्यं वा स्यात्, अनित्यं वा ? न तावन्नित्यम् :२५ तथानुपलब्धेरनभ्युपगमाञ्च । अनित्यं तु न सर्वदा स्थितिमदिति विनष्टे तस्मिन्न तथाभूतो व्यपदेशो ज्ञान वा स्यात् , अपचतः
१ अभावत्वस्य । २ परेण । ३ एका सर्वगता। ४ आदिना नित्यसर्वगतत्वादिग्रहणम् । ५ ततोऽभावप्रत्ययोऽनुगतो भविष्यति। ६ अभिप्रेतानि द्रव्यगुणकर्माणि । ७ अद्वैतप्रधानादीनाम् । ८ लोके विचित्रकथार्थानाम् । ९ पुरुषेषु। १० पाचकः पाचक इत्यादि । ११ कथं सामान्यं नास्तीत्युक्ते आह। १२ पचनक्रियायाः पूर्व नास्ति। १३ देवदत्तयशदत्तचैत्रमैत्रेषु पचनक्रियालक्षणं कर्म भिन्नम् । १४ अनुगताकारस्य । १५ जैनमताभ्युपगते प्रतिव्यक्ति भिन्ने सदृशपरिणामे। १६ शब्दबुद्धिकर्मणां त्रिक्षणावस्थायित्वाभ्युपगमात् । १७ परेण । १८ पाचक इति । १९ पाचक इति ।
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४७८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० क्रियाविरहात् । पचन्नेव हि तथा व्यपादिश्येत नान्यदा । तन्न कर्मतस्य प्रत्ययसा निवन्धनम् ।
नापि कर्म सामान्यम् । तद्धि कर्माश्रितम् , कर्माश्रयाश्रितं वा? यदि कर्माश्रितम् ; कथमन्यत्र ज्ञानं जनयेत् ? न हन्यत्र वृत्ति५मदन्यत्र ज्ञानकारणमतिप्रसङ्गात्।
किञ्च, कर्मसामान्यात् 'पाकः पाकः' इति प्रत्ययः स्यान पुनः 'पाचकः पाचकः' इति । अथ कर्माश्रयाश्रितम् ; तन्न, कर्माश्रित त्वात् । परम्परया कर्माश्रयाश्रितं तत् ; इत्यसारम् ; अपर्चतः कर्मविवेकात् । विविक्ते च कर्मणि न कर्मत्वं कर्मणि तदाश्रये वाss. १०श्रितम् , अनाश्रितं च कथं तत्तत्र तथाज्ञानहेतुः स्यात् ? ।
अथाऽपचतोऽतीतानागते कर्मणी तथाव्यपदेशज्ञाननिबन्धनं न कर्मत्वम्ननु सती, असती वा ते तन्निबन्धनं स्याताम् । न तावत्सती; अतीतस्य प्रच्युतत्वादनागतस्य चालब्धात्मस्वरूपत्वात् । असती च कथं कस्यापि निवन्धनमतिप्रसङ्गात् ? तन्न १५ कर्मत्वमपि तत्प्रत्ययस्य निबन्धनम् ।
नापि व्यक्तिः, अनिष्टेर्विभिन्नत्वाच्च । नापि शक्तिः, सा हि पाचकादन्या, अनन्या वा स्यात् ? अनन्यत्वे तयोरन्यतरदेव स्यात् । अन्यत्वे च अस्या एव कार्योपयोगि. । त्वेन कर्तुरकर्तुत्वानुपङ्गः । अथ पारम्पर्येणोपयोगः-कर्त्ता हि २०शक्तावुपयुज्यते शक्तिश्च कार्य। नन्वसौ शक्तावुपयुज्यते स्वरूपेण, शक्यन्तरेण वा? शत्यन्तरेणोपयोगेऽवस्था । स्वरूपेणोपयोग कार्येप्यसौ तथा किन्नोपयुज्यते किं परम्परापरिश्रमेण ? ने चान्यन्निमित्तमस्ति।
पाचकत्वमस्तीति चेत्, तत्किं ट्रैव्योत्पत्तिकाले व्यक्तम् , २५अव्यक्तं वा? व्यक्तं चेत्, तर्हि पाकक्रियायाः प्रागेव तथा ज्ञानाभिधाने स्याताम् । अथाऽव्यक्तम्, तहि पश्चादपि न ते स्यातां
१ पाचक इति । २ कर्मवरपुरुषाश्रितम् । ३ कर्माश्रये देवदत्ते। ४ कर्मणि । ५ देवदत्ते। ६ गृहे वृत्तिमान्प्रदीपो गुहायां शानकारणं स्यादित्यतिप्रसङ्गः। ७ कर्मत्वं कर्माश्रितं कर्म च देवदत्ताश्रितमिति । ८ पुरुषस्य । ९ नष्टे। १० सामान्यम् । ११ देवदत्ते। १२ पाचक इति । १३ पाचकः पाचक इति । १४ अनुगतप्रत्ययस्य । १५ परेणानभ्युपगमात् । १६ अनेकत्वात् । १७ पचनलक्षणं कार्यम् । १८ कर्मादिभ्योऽन्यनिमित्तं भविष्यतीत्याह। १९ पाचकः पाचक इति शानव्यपदेशयोरनुगतप्रत्ययहेतुः। २० देवदत्तलक्षण। २१ पाचक इति ।
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सू० ४।५] सामान्यस्वरूपविचारः ४७९ विशेषाभावात् । तथाहि-तत्पूर्व द्रव्यसमवायधैर्मः स्याद्वा, नवा? सत्त्वे सत्त्ववत्पूर्वमेव व्यक्तिः, ताव्यपदेशश्च स्यात् । अथ न; तदा पश्चादपि द्रव्यसमवार्यधर्मत्वं न स्यादेकरूपत्वात्तस्य । तन्न पश्चाध्यक्तिस्तस्य।
अस्तु बा; तथाप्यलौ द्रव्येण, क्रियया, उभाभ्यां वाभिधीयते १५ न ताकद्रव्येण अस्य प्रागपि विद्यमानत्वात् । नापि क्रियया; तस्या अनाधेयातिशयेऽकिञ्चित्करत्वात् । नाप्युभाभ्याम् ; पृथगऽ. सामर्थ्य सहितयोरप्यसामर्थ्यात् । तन्नानुगतःप्रत्ययोऽनुगास्येक सामान्यमालम्वते ।
किञ्च, गोत्वं वर्तते' इत्यभ्युपेतं भवता, तत्र किं गोवे गोत्वं १० वर्तते, किं वा गोषु गोत्वमेव, गोषु गोत्वं वर्तते एवेति वा? प्रथमपक्षेऽनन्वयित्वाविशेषाद्यावत्तेपु गोत्वं वर्त्तते तावदन्यत्रापि किन्न वर्तेत ? द्वितीये पक्षे तु सत्त्वद्रव्यत्वादीनां व्यवच्छेदाद्यक्तेरप्यभावप्रसङ्गस्तद्रूपत्वात्तस्याः। अथ 'गोषु गोत्वं वर्त्तते एवेति पक्षः; 'तत्र चाँन्यत्र गोत्वं वर्तत ऐव' इति गोव्यक्तिवत्कर्कादावपि १५ 'गौौंः' इति ज्ञानं स्यात्तदृत्तेरविशेषात् । तन्न व्यक्त्यात्मकात् प्रतिव्यक्तिविभिन्नासहशपरिणामात् अन्यद् व्यक्तिभ्यो भिन्नमेकं सामान्यं घटते।
विभिन्नं हि प्रतिव्यक्ति सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यं विसदृशपरिणामलक्षणविशेषवत् । यथैव हि काचिद्यक्तिरुपलभ्यमाना २० व्यक्त्यन्तराद्विशिष्टा विसदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते तथा सहशपरिणामदर्शनात्किञ्चित्केनचित्समानमपि तेनायं समानः सोऽनेन सामानः' इति प्रतीतेः। न चा व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात्सामान्यरूपताव्याघातोऽस्य; रूपादेरप्यत एव रूपादिस्वभावताव्याघात
१ भेदाभावान्नित्यत्वस्यैकस्वभावत्वात् । २ देवदत्तलक्षण । ३ धर्मः स्वभावः । ४ देवदत्तस्य । ५ पाचकत्वस्य । ६ पाचकः पाचक इति । ७ द्रव्योत्पत्तिकालेपि । ८ पचाकत्वस्य । ९ पश्चाद्वयक्तिः (प्रकटनम् )। १० द्रव्यक्रियाभ्याम् । ११ देवदत्तादिना । १२ पचनलक्षणया । १३ पाचकत्वसामान्ये । १४ न च जैनानामिदं दूषणं तेषां शक्तरङ्गीकारात्, परेषां शक्तरङ्गीकारो नास्ति यतः। १५ नैयायिकेन । २६ नान्यत्रेत्यर्थः। १७ न सत्त्वद्रव्यत्वादिकं गोषु वर्तते। इत्यन्ययावृत्तिः (१) । १८ अन्यत्रापि गोत्वं वर्तते इत्यर्थः । १९ गोषु गोत्वसम्बन्धाभावाविशेषात् । २० समवायादीनां प्रागेव प्रतिक्षिप्तत्वात् । २१ अनन्वयो-विभिन्नत्वमसम्बद्धत्वं वा। २२ अश्वादिषु । २३ कर्कादिषु । २४ एवकारयोगेनान्ययोगायोगाऽत्यन्ताऽयोगव्यवच्छेदादिति सिद्धम् । २५ भनेकम् । २६ व्यच्यात्मकादिति विशेषणं समर्थयति ।"
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
४८०
[ ४. विषयपरि०:
प्रसङ्गात् । प्रत्यक्षविरोधोऽन्यत्रापि समानः- सामान्यविशेषात्म-' तयार्थस्याध्यक्षे प्रतिभासनात् ।
ननु प्रथमव्यक्तिदर्शनवेलायां सामान्यप्रत्ययस्याभावात्सदृशपरिणामलक्षणस्यापि सामान्यस्यासम्भवः, तदप्यसाम्प्रतम् ; तदा 'सद्रव्यत्वादिप्रत्ययस्योपलम्भात् । प्रथममेकां गां पश्यन्नपि हि सदादिना सायं तत्रार्थान्तरेण व्यपदिशत्येव । अननुभूतव्यक्तयन्तरस्यैकव्यक्तिदर्शने कस्मान्न समानप्रत्ययोत्पत्तिः तत्र सदृशपरिणामस्य भावादिति चेत् ? तवापि विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तिः कस्मान्न स्याद्वैसादृश्यस्यापि भावात् ? परापेक्षत्वात्तस्याप्रसङ्गोऽन्यत्रापि समानः । समानप्रत्ययोपि हि परापेक्षस्तामन्तरेण क्वचि'त्कदाचिदप्यभावात् द्वित्वादिप्रत्ययवद्दूरत्वादिप्रत्ययवद्वा ।
१०
द्विविधो हि वस्तुधर्मः - परापेक्षः, परानपेक्षश्च, स्थौल्यादि - द्वर्णादिवच्च । अतो यथान्यापेक्षो विशेषः स्वामर्थक्रियां व्यावृत्तिज्ञानलक्षणां कुर्वन्नर्थक्रियाकारी, तथा सामान्यमप्यनुगतज्ञान१५ लक्षणामर्थक्रियां कुर्वत्कथमर्थक्रियाकारि न स्यात् ? तद्वाह्यां पुनर्वाह दोहाद्यर्थक्रियां यथा न केवलं सामान्यं कर्त्तुमुत्सहते तथा विशेषोपि, उभयात्मनो वस्तुनो गवादेस्तत्रोपयोगात्, इत्यर्थक्रियाकारित्वेपि सामान्य विशेषांकारयोरभेदात्सिद्धं वास्त वत्वम् ।
२०
ततोऽपाकृतमेतत्
"सर्वे भवाः स्वभावेन स्वैस्वभावव्यवस्थितेः । स्वभावपरभावाभ्यां यस्माद्यावृत्तिभागिनः ॥ १ ॥ तस्माद्यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः ।
२४
१ व्यक्तिस्वरूपत्वादभिन्नत्वाविशेषात् । २ एकगवि । ३ सत्त्वादिनायं सदृश इत्यादि । ४ पुरुषस्य ! ५ विशिष्टः = विसदृशः । ६ परो = महिषादिः | ७ परापेक्षाम् । ८ समानप्रत्ययस्य । ९ यथा द्वित्वमेकत्वापेक्षं दूरत्वं चासन्नत्वापेक्षम् । १० श्वेतपीतादिवत् । ११ सदृशपरिणामलक्षणम् । १२ अनुगतज्ञानलक्षणार्थक्रिया यतः । १३ विशेषनिरपेक्षम् । १४ केवलतया । १५ सामान्यविशेषात्मनः । १६ न केवलमबाधितप्रत्ययविषयत्वेन । १७ सामान्यविशेषावेव चाकारौ तयोरमेदाद्विशेषाभावादित्यर्थः । १८ सामान्यविशेषाकारौ सिद्धौ यतः । १९ प्रतिक्षणं ध्वंसिनः परस्परमसंसृष्टाः परमाणुरूपा गवादिस्वलक्षणाः । २० वर्त्तन्ते इति शेषः । २१ स्वेषां भावानां स्वरूपेण व्यवस्थितेः । २२ सजातीयविजातीय परमाणुरूपार्थतः । २३ विजातीयादर्थात् । २४ स्वलक्षणानाम् । २५ व्यावृत्तिनिबन्धनं येषां ते ।
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सू० ४५] सामान्यस्वरूपविचारः ४८१ जातिभेदाः ग्रंकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः ॥ २॥"
[प्रमाणवा० ११४१-४२ ] इति । ननु सादृश्ये सामान्ये 'स एवायं गौः' इति प्रत्ययः कथं शवलं दृष्ट्वा धवलं पश्यतो घटेतेति चेत् ? 'एकत्वोपचारात्' इति ब्रूमः। द्विविधं होकत्वम्-मुख्यम् , उपचरितं च । मुख्यमात्मादिद्रव्ये ।। सादृश्ये तूपचारितम् । नित्यसर्व गतस्वभावत्व सामान्यस्यानेकदोषदुष्टत्वप्रतिपादनात् । _ 'तेन समानोयम् इति प्रत्ययश्च कथं स्यात् ? तयोरेकसामान्ययोगाचेत् ; न; "सामान्यवन्तावेतौ' इति प्रत्ययप्रसङ्गात् । तयोरभेदोपचारे तु 'सोमान्यम्' इति प्रत्ययः स्यात्, न पुनः तेन २० समानोयम्' इति। यष्टिपुरुषयोरभेदोपचाराद्यष्टिसहचरितः पुरुषो यष्टिः' इति यथा।
ननु 'व्यक्तिवत्समॉनपरिणामेष्वपि लमानप्रत्ययस्यापरसमानपरिणामहेतुकत्वप्रसङ्गादनवस्था स्यात् । तमन्तरेणाप्यत्र समानप्रत्ययोत्पत्तौ पर्याप्तं खण्डादिव्यक्तौ समानपरिणामकल्पनया' १५ इत्यन्यत्रापि समानम्-विसदृशपरिणामप्वपि हि विसहशप्रत्ययो यदि तदन्तरहेकोऽनवस्था । स्वभावतश्चेत्, सर्वत्र विसदृशपरिणामकल्पनानर्थक्यम् ।
न च सदृशपरिणामानामर्थवत्स्वात्मन्यपि समानप्रत्ययहेतुत्वे अर्थानामपि तत्प्रसङ्गः, प्रतिनियतशक्तित्वाद्भावानाम्, अन्यथा घटादेः प्रदीपात्स्वरूपप्रकाशोपलम्भात्प्रदीपेपि तत्प्रकाशः प्रदीपान्तरादेव स्यात् । स्वकारणकलापादुत्पन्नाः सर्वेऽर्था विसदृशप्रत्ययविषयाः स्वभावत एवेत्य युगमले समानप्रत्ययविषयास्ते तथा किं नाभ्युपगम्यन्ते अलं प्रतीत्यपलापेन ?
१ सामान्यभेदाः। २ वासनातः। ३ ते खण्डादिकर्कादयश्च विशेषाश्च तानवगाहन्ते इत्येवंशीलाः। ४ विशेषा एव सन्ति न सामान्य मिति भावः । ५ जैनेनाङ्गीक्रियमाणे सादृश्ये सामान्ये सति। ६ स एवायमात्मादिः पदार्थ इति । ७ सालादिमत्त्वेन । ८ भवतां मीमांसकानाम् । ९ खण्डमुण्डयोः शबलधवलयोर्वा । १० सामान्यतद्वतोः । ११ परेणाङ्गीक्रियमाणे। १२ इदं (व्यक्तिः ) सामान्यमिति । १३ कुन्ताः प्रविशन्ति अश्वा आगच्छन्तीत्यादिवद्वा। १४ व्यक्तिर्यथा सादृश्यपरिणामात्तेन मुण्डेन सदृशः खण्ड इत्यादि । १५ समान इति परिणामेषु । १६ विसदृशपरिणामपक्षेपि । १७ अपरविसदृश। १८ तहीति शेषः । १९ विशेषरूपाणाम्। २० स्वात्मनि समानप्रत्ययहेतुत्वप्रसङ्गः । २१ प्रतिनियतशकित्वाभावात् । २२ सौगतेन ।
प्र. क. मा० ४१
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० एतेन नित्यं निखिलवाह्मणव्यक्तिव्यापकं ब्राह्मण्यमपि प्रत्याख्यातम् । न हि तत्तथाभूतं प्रत्यक्षादिप्रमाणतः प्रतीयते । ननु च 'ब्राह्मणोयं ब्राह्मणोयम्' इति प्रत्यक्षत एवास्य प्रतिपत्तिः । न चेदं विपर्ययज्ञानम् ; बाधकामावात् । नापि संशयज्ञानम् ; उभयांशा५ नवलस्वित्वात् । पित्रादिब्राह्मण्यज्ञानपूर्वकोपदेशंसहाया चास्य व्यक्तिय॑जिका, तत्रापि तत्सहायेति । न चानाऽनवस्था; बीजाङ्कारादिवदनादित्वात्तत्तद्रूपोपदेशपरम्परायाः।
तथानुमानतोपि; तथाहि-ब्राह्मणपदं व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्वद्धं पदत्वात्पटादिपदवत् । न चायमसिद्धो हेतुः; १० धर्मिणि विद्यमानत्वात् । नापि विरुद्धः, विपक्षे एवाभावात् । नाप्यनैकान्तिकः, पक्षविपक्षयोरवृत्तेः । नापि दृष्टान्तस्य साध्यवर्कल्यम्, पटादौ व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वाभावे व्यक्तीनामानन्त्येनाऽनन्तेनापि कालेन सम्वन्धग्रहणाघटनात् । तथा, 'वर्णविशेषाध्ययनाचारयज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्त निमित्त नि१५ बन्धनं 'ब्राह्मणः इति ज्ञानम्, तन्निमित्तवुद्धिविलक्षणत्वात् ,
गवाश्वादिज्ञानवत्' इत्यतोपि तत्सिद्धिः । तथा ब्राह्मणेन यष्टव्यं ब्राह्मणो भोजयितव्यः' इत्याद्यागमाँच्चेति । ___ अत्रोच्यते । यत्तावदुक्तम्-प्रत्यक्षत एवास्य प्रतिपत्तिः, तत्र किं निर्विकल्पकात् , विकल्पकाद्वा ततस्तत्प्रतिपत्तिः स्यात् ? न २० तावन्निर्विकल्पकात्। तत्र जात्यादिपरामर्शाभावात् , भावे वा सविकल्पकानुनङ्गः । अन्यथा
"अस्ति ह्यालोचनाशान् प्रथमं निर्विकल्पकम् । वालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥१॥ ततः परं पुनर्वस्तुधमैर्जात्यादिभिर्यया।
वुद्ध्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ॥ २॥" [ मी० श्लो० प्रत्यक्षसू० ११२,१२०] इति वचो विरुद्ध्येत ।
१ विस्फारिताक्षस्य पुरुपस्य पुरो व्यवस्थितेषु क्षत्रियादिसङ्केषु । २ इति= अनुगतेकाकारप्रत्ययतया। ३ पित्रादिब्राह्मण्यशानादस्य पुत्रस्य ब्राह्मण्यमित्युपदेशः। ४ क.ठकलापादिः । ५ ब्राह्मणोयं ब्राह्मणोयमिति सामान्यस्य वाचकत्वात् ब्राह्मण इति सामान्यपदम्। ६ ब्राह्मण्यं तदेवाभिधेयं तेन सम्बद्धम् । ७ पदत्वस्य । ८ नापि दृष्टान्त स्य साधनवैकल्यं पटादिपदे पदत्वस्य विद्यमानत्वात् । ९ पटत्व । १० द्वितीयमनुमानम् । ११ गौरत्वादि । १२ ब्राह्मण इति ज्ञानस्य । १३ अपुरुषकृतात् । १४ जात्यादिपरामर्शकत्वेपि निर्विकल्पकत्वे । १५ इन्द्रिय । १६ अक्षिविस्फालनानन्तरम् । १७ तज्ज्ञानं वक्तुं न शक्यते यतः : विशेषणविशेष्यरहितं शुद्धं भेदरहितसन्मात्रलक्षणवस्तुतो जातन् । १८ भेदसहितं समन्वितमिति यावत् ।
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सू० ४५] ब्राह्मणत्वजातिनिरासः ४८३
नापि सविकल्पकात् , कैठकलापादिव्यक्तीनां मनुष्यत्वविशिष्टतयेव ब्राह्मण्यविशिष्टतयापि प्रतिपत्यसम्भवात् । पित्रादिब्राह्मण्यज्ञानपूर्वकोपदेशसहाया व्यक्तिय॑ञ्जिकास्य; इत्यप्यसारम् । यतः पित्रादिब्राह्मण्यज्ञानं प्रमाणम् , अप्रमाणं वा? अप्रमाणं चेत्, कथमतोर्थ सिद्धिरतिप्रसङ्गात् ? प्रमाणं चेत्, किं प्रत्य-५ क्षम् , अनुमानं का? प्रत्यक्षं चेत् : न; अस्य तंद्राहकत्वेन प्रागेव प्रतिषेधाद।
किञ्च, 'ब्राह्मण्यजाते. प्रत्यक्षतासिद्धौ यथोक्तोपदेशय प्रत्यक्षहेतुतासिद्धिः, तत्सिद्धौ च तत्प्रत्यक्षतासिद्धिः' इत्यन्योन्याश्रयः । यथा च ब्राह्मण्यजातेः प्रत्यक्षत्वमुपदेशेन व्यवस्थाप्यते १० तथा ब्रह्माद्यद्वैतप्रत्यक्षत्वमपि, तत्कथमप्रतिपक्षा पक्षसिद्धिर्भवतः स्यात् ? अथाद्वैताद्युपदेशस्याध्यक्षबाधितत्वान्न प्रत्यक्षाङ्गत्वम् । तदन्यत्रापि समानम् । ब्राह्मण्यविविक्तपिण्डग्राहिणाध्यक्षेणैव हि तदुपदेशो बाध्यते । अथाऽदृश्या ब्राह्मण्यजातिस्तेनायमदोषः; कथं तर्हि सा 'प्रत्यक्षा' इत्युक्तं शोभेत ?
किञ्च, औपाधिकोयं ब्राह्मणशब्दः, तस्य च निमित्तं वाच्यम् । तच्च किं पित्रोरविप्लुतत्वम् , ब्रह्मप्रभवत्वं चा? न तावदविप्लुतत्वम् । अनादी काले तस्याध्यक्षेण ग्रहीतुमशक्यत्वात् , प्रायेण प्रमदानां कामातुरतयेह जन्मन्यपि व्यभिचारोफ्लम्भाच्च कुतो योनि निवन्धनो ब्राह्मण्यनिश्चयः? न च विप्लुतेतरपित्रऽपत्त्येषु वैलक्षण्यं २० लक्ष्यते । न खलु वडवायां गर्दाश्वप्रभवापत्येष्विव ब्राह्मण्यां ब्राह्मणशूद्रप्रभवापत्येष्वपि वैलक्षण्यं लक्ष्यते । क्रियाविलोपात् शूद्रान्नादेश्च जातिलोयः स्वयमेवाभ्युपगतः"शूद्रानाच्छूद्रसम्पर्काच्छूद्रेण सह भाषणात् । इह जन्म नि शूद्रत्वं मृतः श्वा चाभिजायते ॥"
[ ] इत्यभिधानात् ।
१ कठः स्वरे ऋचां भेदः। २ ब्राह्मणव्यक्तीनाम् । ३ वैधर्म्यदृष्टान्तोयन् । यत्र दृष्टान्तदार्टान्तयोरुभयोरस्तित्वं तत्रान्वयदृष्टान्तः । यत्रैकस्यास्तित्वमेकस्य नास्तित्वं तत्र व्यतिरेकदृष्टान्तः। ४ संशयादपि स्वाभिमतार्थसिद्धिप्रसङ्गात् । ५ ब्राह्मण्यजाति । ६ अनन्तरमेव । ७ व्यवस्थाप्यतां शास्त्रोपदेशेन । ८ परपक्षस्यानिराकरणात् । ९ अङ्गं कारणम् । १० विशेष्यवाच्यस्य विशेषणं (तस्य वाचकत्वात् ) पचः (तद्वाचकं) इत्यभिधानात् । ११ प्रवृत्तरिति शेषः। १२ अभ्रान्तत्वम् । १३ पित्रोः। १४ ब्राह्मण्यस्य । १५ जाते: ब्राह्मण्यस्य । १६ ततो नित्यत्वव्याघातः । १७ मीमांसकेन ।
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४८४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० कथं चैवं वादिनो ब्रह्मव्यासविश्वामित्रप्रवृतीनां ब्राह्मण्यासिद्धिस्तेषां तेजन्यत्वासंभवात् । तन्न पित्रोरविप्लुतत्वं तैनिमित्तम् ।
नापि ब्रह्मप्रभवत्वम् ; सर्वेषां तत्प्रभवत्वेन ब्राह्मणशब्दाभिधेयतानुषङ्गात् । 'तन्मुखाजातो ब्राह्मणो नान्यः' इत्यपि भेदो ५ ब्रह्मप्रभवत्वे प्रजानां दुर्लभः। न खल्वेकवृक्षप्रभवं फलं मूले मध्ये शाखायां च भिद्यते। ननु नागवल्लीपत्राणां मूलमध्यादिदेशोत्पत्तेः कण्ठभ्रामर्यादिभेदो दृष्ट एवमत्रापि प्रजाभेदः स्यात् ; इत्यप्यसत्; यतस्तत्पत्राणां जघन्योत्कृष्टप्रदेशोत्पादात्तत्पत्राणां तन्दो युक्तो ब्रह्मणस्तु तद्देशाभावान्न तद्भेदः । तद्देशमारे चास्य जघन्योत्कृष्ट१० तादिप्रसङ्गः स्यात् ।
किञ्च, ब्रह्मणो ब्राह्मण्यमस्ति वा, न वा? नास्ति चेत् कथमतो ब्राह्मणोत्पत्तिः ? न ह्यमनुष्यादिभ्यो मनुष्यायुत्पत्तिर्घटते । अस्ति चेत्किं सर्वत्र, मुखप्रदेश एव वा? सर्वत्र इति चेत् ; स एव प्रजानां भेदाभावोनुषज्यते । मुखप्रदेशे एव चेत् ; अन्यत्र प्रदेशे १५ तस्य शूद्रत्वानुषङ्गः, तथा च न पादादयोस्य वन्द्या वृषलादिवत्, मुखमेव हि विप्रोत्पत्तिस्थानं वन्द्यं स्यात् ।
किञ्च, ब्राह्मण एव तन्मुखाजायते, तन्मुखादेवासौ जायेत ? विकल्पद्वयेप्यन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि ब्राह्मणत्वे तस्यैव तन्मुखादेव
जन्मसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च ब्राह्मणत्वसिद्धिरिति । अथ जात्या २० ब्राह्मण्यस्य सिद्धिस्तन्मुखादेव तजन्मनायमदोषः, न; अस्याः प्रत्यक्षतोऽप्रतीतेः । न खलु खण्डमुण्डादिषु सादृश्यलक्षणगोत्ववद्देवदत्तादौ ब्राह्मण्यजातिः प्रत्यक्षतः प्रतीयते, अन्यथा 'किमयं ब्राह्मणोऽन्यो वा' इति संशयो न स्यात् । तथा च
तन्निरासाय गोत्राद्युपदेशो व्यर्थः। न हि 'गौरयं मनुष्यो वा' २५ इति निश्चयो गोत्राद्युपदेशमपेक्षते ।
ननु यथा सुवर्णादिकं परोपदेशसहायात्प्रत्यक्षात्प्रतीयते तथा सापि; इत्यप्ययुक्तम् ; यतो न पीततामा सुवर्णमतिप्रसँङ्गात्, किन्तु तद्विशेषः, स च नाध्यक्षो दाहच्छेदादिवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । तस्यापि सहार्यत्वे तंजातौ किञ्चित्तथाविधं सहायं वाच्यम्-तच्चा
१ पित्रोरविप्लुतत्वं ब्राह्मणशब्दप्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तमित्येवं वादिनः। २ अविप्लुतपित। ३ ब्राह्मणशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् । ४ मूले उत्पन्नानि पत्राणि कण्ठस्य भ्रमं कुर्वन्ति, मध्ये उत्पन्नानि कण्ठस्य सुस्वरत्वं कुर्वन्तीति मेदः। ५ तत्र ब्राह्मण्या: भावात् । ६ सिद्धिरिति सम्बन्धः। ७ रीतिकादेः सुवर्णत्वप्रसङ्गात् । ८ सुवर्णादिशाने । ९ ब्राह्मण्य । .
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सू० ४.५] ब्राह्मणत्वजातिनिरासः ४८५ कारविशेपो वा स्यात् , अध्ययनादिकं वा? न तावदाकारविशेषः; तस्याब्राह्मणेपि सम्भवात् । अत एवाध्ययनं क्रियाविशेषो वा तत्सहायतां न प्रतिपद्यते । दृश्यते हि शूद्रोपि स्वजातिविलोपाद्देशान्तरे ब्राह्मणो भूत्वा वेदाध्ययनं तत्प्रणीतां च क्रियां कुर्वाणः। ततो ब्राह्मण्यजातेः प्रत्यक्षतोऽप्रतिभालनात्कथं व्रतवन्धवेदाध्य-५ यनादि विशिष्टव्यक्तावेव सिद्ध्येत् ?
यदप्युक्तम्-'ब्राह्मणपदम्' इत्याद्यनुमानम् ; तत्र व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्वद्धत्वं तत्पदस्थाध्यक्षवाधितम्, कठकलापादिव्यक्तीनां ब्राह्मण्यविविक्तानां प्रत्यक्षतो निश्चयात्, अश्रावणत्वविविक्तशब्दवत् । अप्रसिद्ध विशेषणश्च पक्षः; न खलु १० व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयाभिसम्बद्धत्वं मीमांसकस्यास्माकं वा कंचित्प्रसिद्धम् , व्यक्तिभ्यो व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याभ्युपगमात् ।
हेतुश्चानैकान्तिकः; सत्ताकाशकालपदे अद्वैतादिपदे वा व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वाभावेपि पदत्वस्य भावात् । १५ तंत्रापि तत्सम्वद्धत्वकल्पनायाम् सामान्यवत्वेनाद्वैताश्वविषाणदेवस्तुभूतत्वानुषङ्गात् कुतोऽप्रतिपक्षा पक्षसिद्धिः स्यात् ? सत्तायाश्च सामान्यवत्त्वप्रसङ्गः, गगनादीनां चैकव्यक्तिकत्वात्कथं सामान्यसम्भवः ? दृष्टान्तश्च साध्यविकलः, पटादिपदे व्यक्तिव्यतिरिक्तकनिमित्तत्वासिद्धेः।।
२० एतेन वर्णविशेषेत्याद्यनुमानं प्रत्युक्तम् । नगरादौ च व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्तनिवन्धनाभावेषि तथाभूतज्ञानस्योपलम्भाँदनेकान्तः । न खलु नगरादिज्ञाने व्यतिरिक्तमनुवृत्तप्रत्ययनिवन्धनं किञ्चिदस्ति, काष्ठादीनामेव प्रत्यासत्तिविशिष्टत्वेन प्रासा
१९
१ ब्राह्मणे। २ ब्राह्मण्य । ३ साध्यधर्मः। ४ अश्रावणत्वविविक्तशब्दस्याध्यक्षतो निश्चयाद्यथाऽप्रावणः शब्द इति पक्षः प्रत्यक्षबाधितस्तथेत्यर्थः। ५ दृष्टान्ते । ६ भिन्नशानजनकत्वे भिन्न व्यक्तिभ्यः, पृथक्कर्तुमशक्यत्वादभिन्नं सामान्यमिति । ७ मीमांसकैजनैश्च । ८ पदत्वादिति । ९ आदिना अश्वविषाणादिपदे। १० साध्याभावे । ११ हेतोः। १२ इदमेव विवृणोति । १३ घटादिवत् । १४ अर्थस्य । १५ परमते । १६ एषां भेदा उपचरिता इत्यर्थः। १७ नैकव्यक्तिकं सामान्यमिति वचनात् । १८ गगनत्वादि । १९ इति साध्याभावो दर्शितः। २० पटादिपदव"दिति । २१ नित्यसर्वगतादिरूपसामान्य। २२ पदत्वानुमाननिराकरणेन। २३ पदे। २४ साध्याभावे । २५ वर्णविशेषादिनिमित्तबुद्धिवैलक्षण्यस्योपलम्भात् । २६ नगरमिति शानोपलम्भात् । २७ व्यक्तः सकाशात् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
दादिव्यवहारनिवन्धनानां नगरादिव्यवहारनिवन्धनत्वोपपत्तेः, अन्यथा 'षण्णगरी' इत्यादिष्वपि वस्त्वन्तरकल्पनानुषङ्गः। __ 'ब्राह्मणेन यष्टव्यम्' इत्याद्यागमोपि नात्र प्रमाणम् ; प्रत्यक्षबाधितार्थाभिधायित्वात् तृणाने हस्तियूथशतमास्ते इत्यागमवत् । ५ ननु ब्राह्मण्यादिजातिविलोपे कथं वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो वा तपोदानादिव्यवहारो जैनानां घटेत? इत्यप्यसमीचीनम् । क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिन्होपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यवस्थायास्तद्व्यवहारस्य चोपपत्तेः। कथमन्यथा परशुरामेण निःक्षत्री. कृत्य ब्राह्मणदत्तायां पृथिव्यां क्षत्रिय सम्भवः? यथा चानेन निःक्ष१०त्रीकृतासौ तथा केनचिन्निाह्मणीकृतापि सम्भाव्येत । ततः क्रियाविशेषादिनिवन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारः।
एतेनाविगीनतस्त्रैवर्णिकोपदेशो वस्तुनि प्रमाणमिति प्रत्युक्तम् । तस्याप्यव्यभिचारित्वाभावात् । दृश्यन्ते हि बहवस्त्रैवर्णि
कैरविगानेन ब्राह्मणत्वेन व्यवहियमाणा विपर्ययभाजः । तन्न १५परपरिकल्पितायां जातौ प्रमाणमस्ति यतोऽस्याः सद्भावः स्यात् ।
सद्भावे वा वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मण्याभावो निन्दा च न स्यात् जातियतः पवित्रताहेतुः, सा च भवन्मते तद्वस्थैव, अन्यथा गोत्वादपि ब्राह्मण्यं निकृष्टं स्यात् । गवादीनां हि चाण्डालादिगृहे चिरोधितानाम पीष्टं शिष्टैरादानम्, न तु २० ब्राह्मण्यादीनाम् । अथ क्रियाभ्रंशात्तत्र ब्राह्मण्यादीनां निन्द्यता; न; तज्जात्युपलम्भे तद्विशिष्टवस्तुव्यवसाये च पूर्ववक्रियाभ्रंशस्याप्यऽसम्भवात् । ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टव्यक्तिव्यवसायो ह्यप्रवृ. त्ताया अपि क्रियायाः प्रवृत्तेनिमित्तम् , स च तदवस्थ एवं
१ नगरषट्वव्यतिरिक्तं षण्णगरीशब्दवाच्यवस्त्वन्तरम् । २ ब्राह्मण्ये। ३ ब्राह्मण्य । ४ ब्रह्मचारी गृहीत्यादिः । ५ वर्णाश्रमाणां तदधीनत्वात् न तु शूद्रजात्यधीनत्वम् । ६ ब्राह्मणादौ। ७ अतो ज्ञायते क्रियाविशेषादिकं चिह्नं दृष्ट्वैव पुरुषेषु क्षत्रियव्यवहारः कृतः । ८ रावणेन । ९ पुनर्ब्राह्मणेति व्यवहारः क्रियादिविशेषचिह्नं दृष्ट्वैव कृतोस्तीति ज्ञायते। १० क्षत्रियब्राह्मणयोर्निराकरणे पुनर्व्यवस्थापने च क्रियादिविशेष एव निबन्धनमित्यर्थः । ११ आगमनिराकरणपरेण। १२ अविवादतः । १३ यत्र ब्राह्मण्यजातिस्तत्र त्रैवर्णिकोपदेश इति । १४ ब्राह्मण्ये । १५ त्रैवर्णिकशास्त्रोपदेशैः। १६ शूद्राः । १७ गृहप्रासादशालादिस्थानभेदे पाटकशब्दः। १८ इयं ब्राह्मणीति ।' १९ वेश्यागृहादिप्रवेशात्पूर्ववत् । २० वेश्यादिगृहे । २१ नमस्कारादेः । २२ वेश्यादिगृहादौ ।
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सू० ४५ ब्राह्मणत्वजातिनिरासः भवदभ्युपगमेन । क्रियाभ्रंशे तजातिनिवृत्तौ च बोत्येप्यस्या निवृत्तिः स्यात्तद्भशाविशेषात् ।
किञ्च, क्रियानिवृत्तौ तज्जातेर्निवृत्तिः स्याद् यदि क्रिया तस्याः कारणं व्यापिका वा स्यात्, नान्यथातिप्रसङ्गात् । न चास्याः कारणं व्यापकं वा किश्चिदिष्टम् । न च नियाभ्रंशे जातेर्विकारोस्ति;५ "भिन्नवासिन्ना नित्या निरवयवा च जाति।" ] इत्यभिधानात् । न चाविकृताया निवृत्तिः सम्भवत्यतिप्रसङ्गात् । किञ्चेदं ब्राह्मणत्वं जीवस्य, शरीरस्य, उभयस्य वा स्यात् , संस्कारस्य वा, वेदाध्ययनस्य वा गत्यन्तरासम्भवात् ? न तावजीवस्य; क्षत्रियविशूद्रादीनामपि ब्राह्मण्यस्य प्रसङ्गात् , तेषामपि १० जीवस्य विद्यमानत्वात् ।
लापि शरीरस्य; अस्य पञ्चभूतात्मकस्यापि घटादिवद् ब्राह्मण्यासम्भवात् । न खलु भूतानां व्यस्तानां समस्तानां वा तत्सम्भवति। व्यस्तानां तत्सम्भवे क्षितिजलपवनहुताशनाकाशानामपि प्रत्येक ब्राह्मण्यप्रसङ्गः । समस्तानां च तेषां तत्सम्भवे घटादीनामपि १५ तत्सम्सवः स्यात् , तत्र तेषां सामस्त्यसम्भवात् । नाप्युभयस्य उभयदोषानुषङ्गात् ।
नापि संस्कारस्य; अस्य शूद्रवालके कर्तुं शक्तितस्तत्रापि तत्प्रसङ्गात् ।
किञ्च,संस्कारात्प्राग्वाह्मणवालस्य तदस्ति वा,न वा? यद्यस्ति;२० संस्कारकरणं वृथा। अथ नास्ति; तथापि तवृथा। अव्राह्मणस्याप्यतो ब्राह्मण्यसम्भवे शूद्रवालकस्यापि तत्सम्भवः केन वार्यंत ?
नापि वेदाध्ययनस्य; शूद्रेपि तत्सम्भवात् । शूद्रोपि हि कश्चिदेशान्तरं गत्वा वेदं पठति पाठयति वा । न तावतास्य ब्राह्मणत्वं भवद्भिरभ्युपगम्यत इति । ततः सदृशक्रियापरिणामादिनिवन्ध-२५ नैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था इति सिद्धं सर्वत्र सदृशपरिणामलक्षणं समानप्रत्ययहेतुस्तिर्यक्सामान्यमिति । किं पुनरूर्वतासामान्यमित्याह
१ नित्यत्वादिरूपाया जातेः ततो नास्ति क्रियानंश इत्यर्थः । २ कदाचिनमस्कारहीनेपि। ३ अग्निनिवृत्तौ धूमनिवृत्तिरतोऽग्निः कारणं धूमस्य तद्वत् । '४ वृक्षनिवृत्तौ शिंशपात्वनिवृत्तिरतो वृक्षः शिंशपाया व्यापकस्तद्वत् । ५ घटनिवृत्ती पटनिवृतिः स्यात् । ६ क्रिया-सन्ध्यावन्दनादिः। ७ नाशरूपः । ८ आत्माकाशादेरपि निवृत्तिः स्यादिति । ९ वेदाध्ययनमात्रेण ।
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see प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० परापरविर्तव्यापिद्रव्यमूर्खता वृद्धिव
स्थालादिषु ॥६॥ सामान्यमित्यभिसम्बन्धः । तदेवोदाहरणद्वारेण स्पष्टयतिमृदिव स्थासादिएं। ५ नंनु पूर्वोत्तरविवर्त्तव्यतिरेकेणापरस्य तद्व्यापिनो द्रव्यस्याप्रतीतितोऽसत्त्वात्कथं तल्लक्षणमूर्खतासामान्यं सत्; इत्यप्यसमीची. नम् ; प्रत्यक्षत एवार्थानामन्वयिरूपप्रतीतेः प्रतिक्षणविशरारुतया खप्नेपि तत्र तेषां प्रतीत्यभावात् । यथैव पूर्वोत्तरविवर्त्तयोर्व्यावृत्तप्रत्ययादन्योन्यमभावः प्रतीतस्तथा मृदाद्यनुवृत्तप्रत्ययात्स्थि१० तिरथि
ननु कालत्रयानुयायित्वमेकस्य स्थितिः, तस्याश्वाऽक्रमेण प्रतीतौ युगपन्मरणावधि ग्रहणम् , क्रमेण प्रतीतौ न क्षणिका बुद्धिस्तथा तांप्रत्येतुं समर्था क्षणिकत्वात् ; इत्यप्ययुक्तम् । वुद्धेः क्षणिकत्वेपि
प्रतिपत्तुरक्षणिकत्वात् । प्रत्यक्षादिसहायो ह्यात्मैवोत्पाद्व्ययभ्रौ१५ व्यात्मकत्वं भावानां प्रतिपद्यते । यथैव हि घटकपालयोर्विनाशो
त्पादौ प्रत्यक्षसहायोसौ प्रतिपद्यते तथा मृदादिरूपतया स्थितिमपि । न खलु धेटादिसुखाँदीनां भेद एवावभासते न त्वेकत्वमित्यभिधातुंयुक्तम् । क्षणक्षयानुमानोपन्यासस्यानर्थक्यप्रसङ्गात्।
स ह्येकत्वप्रैतीति निरासार्थों न क्षणक्षयप्रतिपत्त्यर्थः, तस्य प्रत्यक्षे. २० णैव प्रतीत्यभ्युपगमात्।
१ पूर्वापरकालवत्ति त्रिकालानुयायीत्यर्थः। २ पर्यायरूपविशेषव्यापित्वादयक्तिनिष्ठत्वमूर्द्धतासामान्य सिद्धम् । ३ विवत्तेंषु। ४ तदेव जैनैरुपादानकारणं प्रोक्तं नैयायिकादिभिश्च समवायिकारणमुक्तमित्यर्थः । ५ सौगतः। ६ विद्यमानम् । १७ सर्वविवर्तानुगामी अन्वयी। ८ न केवलं जामदवस्थायाम् । ९ पूर्वविवर्तादुत्तरविवत्ततॊ व्यावृत्तः। १० भेदः। ११ बौद्धमते । १२ इदं मृद्रूपमिदं मृद्र्पमिति । १३ द्रव्यरूपपदार्थस्य । १४ सत्याम् । १५ यथा भवति तथा । १६ ज्ञानं स्यादात्मद्रव्यादेः। १७ आत्मनः। १८ अक्षणिक आत्मा स चेत्सदैव कथं न जानातीत्युक्ते आह । १९ आदिपदेन प्रत्यभिज्ञानादि । २० मृदादिपदार्थानाम् । २१ बाह्यपदार्थ । २२ आभ्यन्तरीयपदार्थ। २३ आदिना आत्मादीनाम् । २४ घटात्कपालं भिन्नं कपालाद्धटो भिन्न इति भेदः परस्परं तथा सुखदुःखादेरात्मा भिन्नस्तस्मात्सुखादि । भिन्नमिति भेदः परस्परम् । २५ अभिधीयते सौगतेन। २६ सर्वथा नास्तिरूपस्य निषेधो न घटते गगनकुसुमवत् । २७ सौगतेन ।
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सू०४।६] क्षणभङ्गवादः
ने चानन्तरातीतानागतक्षणयोः प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तौ सरणप्रत्यभिज्ञानुमानानां वैफल्यम्। तत्र तेषां साफल्यानभ्युपगमात्, अतिव्यवहिते तदङ्गीकरणात् । न चाक्षणिकस्यात्मनोऽर्थग्राहकत्वे खगतवालवृद्धाद्यवस्थानामतीतानागतजन्म परस्परायाः सकलभावपर्यायाण चैकदेवोपलम्भप्रसङ्गः, ज्ञानसहायस्यैवार्थग्राह-५ कत्वाभ्युपगमाद, तस्यं च प्रतिवन्धकक्षयोपशमाऽनतिक्रमेण प्रादुर्भावान्दोक्तदोषानुषङ्गः ।
न च द्रव्यग्रहणेऽतीताधवस्थानां ततोऽभिन्नत्वाद्रहण प्रसङ्गः, अभिन्नत्वस्य ग्रहणं प्रत्यनङ्गत्वात्, अन्यथा ज्ञानादिक्षणानुभव सञ्चेतनादिवत् क्षणक्षयवर्गप्रापणशक्त्याद्यनुभवानुषङ्गः । तस्मा-१० द्यत्रैवास्य ज्ञानपर्यायप्रतिवन्धापायस्तत्रैव ग्राहकत्वनियमो नान्यत्रेत्यनवद्यम्-'आत्मा प्रत्यक्षसहायोऽनन्तरातीतानागतपर्याययोरेकत्वं प्रतिपद्यते' इति, स्मरणप्रत्यभिज्ञानसहायश्चातिव्यवहितपर्यायेष्वपि । तयोश्च प्रामाण्यं प्रांगेव प्रसाधितम् ।
ननु स्मरणप्रत्यभिज्ञानयोः पूर्वोपेलब्धार्थविषयत्वे तदर्शनकाल १५ एवोत्पत्तिप्रसङ्गः, तदर्शनवत्तद्विषयत्वेनानयोरप्यविकलकारणत्वात्, न चैवम् , तस्मान्न ते तद्विषये प्रयोगः-यस्मिन्नविकलेषि यन्न भवति न तत्तद्विषयम् यथा रूपेऽविकले तत्राभवच्छोत्रविज्ञानम् , न भवतोऽविकलेपि च पूर्वोपलव्धार्थे स्मृतिप्रत्यभिज्ञाने इति; तदप्यपेशलम् । तदर्शनकाले तयोः कारणाभावे.२० नाऽप्रादुर्भावात् । न ह्यर्थस्तयोः कारणम् ; ज्ञानं प्रति कारणत्वस्यार्थे प्रांगेव प्रतिपेधात् । स्मरणं हि संस्कारप्रबोधकारणम् ,
१ प्रत्यक्षादिसहाय इत्यत्रादिग्रहणं निरर्थकमित्युक्ते आह । २ घटकपाललक्षणयोः । ३ जैनेन । ४ नित्य आत्मातीतानागतपर्यायानेकदैव ग्रहीष्यतीत्युक्ते आह । ५ अङ्गीक्रियमाणे जैनैः। ६ स्वतोऽभिन्नानां पर्यायाणाम् । ७ जैनैः। ८ ज्ञानेन युगपद्ग्रहीष्यतीत्युक्ते आह। ९ शानस्य । १० प्रतिबन्धकं कर्म । ११ युगपन्मरणावधि-- ग्रहणलक्षण। १२ शानम् । १३ अकारणत्वात् । १४ संसारिणः । १५ पदार्थ ! १६ तव सौगतस्य । ज्ञानादिलक्षणादभिन्नसद्भावात्। १७ घटकपाललक्षणयोः। १८ एकत्वं प्रतिपद्यते। १९ स्मृतिप्रत्यभिज्ञानयोः प्रामाण्यं न विद्यते, तत्सहाय आत्मातिव्यवहितपर्यायेघु कथमेकत्वं जानीयादित्युक्ते सत्याह । २० तृतीयाध्याये । २१ प्रत्यक्षेण । २२ स उपलब्धोर्थो विषयो ययोस्ते तत्वे । २३ प्रत्यक्ष । २४ स उपलब्धार्थों विषयो ययोस्ते। २५ अनुत्पाद्यमानत्वात्। २६ नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवदित्यत्र द्वितीयपरिच्छेदे। २७ तहिं सरणप्रत्यमिशानयोः कारणं किमित्युक्ते आह।
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४९०
प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० संस्कारश्च कालान्तराविस्मरणकारणलक्षणधारणारूपः, तदर्शनकाले नास्तीति कथं तदैवास्योत्पत्तिः प्रत्यभिज्ञानस्य वा? तद्त्पत्तों हि देर्शनं पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रवोधप्रभवस्मृतिसहायं प्रवर्त्तते, तच्च प्रान्नास्तीति कथं तदैव तदुत्पत्तिः ? ५ अथ सतम्-आत्मनः केवलस्यैवातीताद्यर्थग्रहणसामर्थ्य स्मरगाद्यपेक्षावैयर्थ्यम् , तदसामर्थ्य वा नितरां तद्वैयर्यम्, न खल केवलं चक्षुर्विज्ञानं गन्धग्रहणेऽसमर्थ सत्तत्स्मृतिसहायं समर्थ दृष्टमिति; तदप्यसङ्गतम् ; यतः स्मरणादिरूपतया परिणतिरेवा
मनोऽतीताद्यर्थग्रहण सामर्थ्यम् , तत्कथं तदपेक्षावैयर्थ्यम् ? चक्षु१० विज्ञानस्य तु गन्धग्रहणपरिणामस्यैवाभावान्न तत्स्मृतिसहायस्यापि गन्धग्रहणे सामर्थ्य मिति युक्तमुत्पश्यामः ।
ततो निराकृतमेतत्-पूर्वोत्तरक्षणयोरग्रहणे कथं तत्र स्थानताप्रतीतिः' इति; आत्मना तयोर्ग्रहणसम्भवात् । भवतां तु तयोर
प्रतीतौ कथं मध्यक्षणस्य तत्राऽस्थास्नुताप्रतीतिरिति चिन्त्यताम् ? १५ पूर्वदर्शनाहितसंस्कारस्य मध्यक्षणदर्शनात्तत्क्षणस्मृतिस्तस्याश्च 'स इह नास्ति' इत्यस्थास्नुतावगमे स्थास्नुतावगमोप्येवं किन्न स्यात् ?
ननु चास्थास्नुता पूर्वोत्तरयोर्मध्येऽभावः तस्य वा तंत्र, स च तदात्मकत्वात्तद्रहणेनैव गृह्यते; तदप्यसारम् । तद्नतीतौ तनास्य २० अत्र वा तयोनिषेधस्याप्यसम्भवात् । न ह्यप्रतिपन्नघटस्य 'अत्र
घटो नास्ति' इति प्रतीतिरन्ति । कथं चैवं स्थास्नुता न प्रतीयेत? सापि हि पूर्वोत्तरयोर्मध्ये कथञ्चित्सद्भावस्तस्य वा तंत्र, स च तेंदात्मकत्वात्तद्हणेनैव गृह्येत।।
ननु स्थास्नुतार्थानां नित्यतोच्यते, सा च त्रिकालापेक्षा, तद२५ प्रतिपत्तौ च कथं तदपेक्षनित्यताप्रतिपत्तिः? तदसाम्प्रतम् वस्तुस्वभावभूतत्वेनान्यानपेक्षत्वान्नित्यतायाः, तथाभूतायाश्चास्याः प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धत्वेन प्रतीतेः प्रतिपादनात् । न खलु स्वयं नित्यतारहितस्य त्रिकालेनासौ क्रियतेऽनित्यतावत् । न हि वर्त
१ कारणम् । २ द्वितीयम् । ३ तस्य प्रत्यक्षादिसहायरहितस्य । ४ क्षणिकबुद्ध्या। ५ अक्षणिकेन। ६ अयं मध्यक्षणस्तत्र नाभून भविष्यतीति प्रतीतिः। ७ परेण । ८ क्षण। ९ दर्शनम् अनुभवः। १० सकाशात् । ११ पूर्वदर्शनाहितसंस्कारस्य मध्यक्षणदर्शनात्तत्क्षणस्मृतिः, तस्याश्च स इह द्रव्यरूपेणास्तीति । १२ क्षणयोः । १३ क्षणे । १४ अभावः । १५ पूर्वोत्तरक्षणयोरभावात्मकत्वान्मध्यक्षणस्य । १६ द्रव्यरूपेण । १७ द्रव्यरूपेण । १८ द्रव्यरूपेण मध्यक्षणस्य । १९ अग्रे। २० पदार्थस्य ।
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सू० ४।६] क्षणभङ्गवादः
४९१ मानकालेनानित्यता क्रियते तस्याऽसत्त्वात् , सत्त्वे वा तनित्यः त्वस्याप्यपरेण करणेऽनवस्थाप्रसङ्गः । ततो यथा स्वभावतः पूर्वोत्तरकोटिविच्छिन्नः क्षणो जातः क्षणिको विधीयते कालनिरपेक्षश्च प्रतीयते तथाऽक्षणिकत्वमपि ।
ननु चाक्षणिकत्वम् अर्थानामतीतानागतकालसम्बन्धित्वेना-५ तीतानामतत्वम् ! ल य कालस्यातीतायातत्वं सिद्धम् । तद्धि किमपरातीतादिकालसम्बन्धात्, तथाभूतपदार्थ क्रियासम्बन्धाद्वा स्यात्, स्वतो वा? प्रथमपक्षेऽनवस्था ।
द्वितीयपक्षेपि पदार्थक्रियाणां कुतोऽतीतानागतत्वम् ? अपरातीतानागतपदार्थक्रियासम्वन्धाञ्चेत् ; अनवस्था। अतीतानागतकाल-१० सम्वन्धाच्चेत् ; अन्योन्याश्रयः। स्वतः कालस्यातीतानागतत्वे अर्थानामपि स्वत एवातीतानागतत्वमस्तु किमतीतानागतकालसम्बधित्वकल्पनया? इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; स्वरूपत एवातीतादिसमयस्यातीतादित्वप्रसिद्धः । अनुभूतवर्तमानत्वो हि समयोतीतः, अनुभविष्यद्वर्त्तमानत्वंश्चानागतः, तत्सम्बन्धित्वा-१५ चार्थानामतीतानागतत्वम् । न च कालवदर्थानामपि स्वरूपेणैवातीतानागतत्वं युक्तम् । न ह्येकस्य धर्मान्यत्रायासयितुं युक्तः, अन्यथा निस्वादेस्तिकतादिधर्मो गुडादेरपि स्यात् , ज्ञानधर्मो वा स्वपरप्रकाशकत्वं घटादेरपि स्यात् , तद्धर्मो वा जडता ज्ञानस्यापि स्यात्।
ननु चानुवृत्ताकारप्रत्ययोपलम्भादक्षणिकत्वधर्मार्थानां साध्यते, स च वाध्यमानत्वादसत्यः, तदप्यसम्यक् यतोऽस्य बाधको विशेषप्रतिभास एव, ल चौतुमपन्नः। तथाहि-अनुवृत्ताकारे प्रतिपक्ष, अप्रतिपने वशालौ तद्वन्धको सवेत् ? यदि प्रतिपन्ने तदा किमनुवृत्तप्रतिभासात्मको विशेषप्रतिमासः, तव्य-२५ तिरिक्तो वा? प्रथमपक्षेऽनुवृत्तप्रतिभासस्य मिथ्यात्वे विशेषप्रतिभासस्यापि तदात्मकत्वात्तत्प्रसक्तेः कथमसौ तद्बाधकः ? द्वितीयपक्षेप्यनुवृत्ताकारप्रतिभासमन्तरेण स्थासकोशादिप्रतिभासस्य तद्व्यतिरिक्तस्यासंवेदनात्तद्वाधकत्वायोगात् । अनुवृत्ताकाराप्रतिपत्तौ च विशेष प्रतिभासस्यैवासम्भवात्कथं तद्बाधकता?३०
१ सौगताभ्युपगमरीत्या । २ कालस्य । ३ कालेन। ४ कालनिरपेक्षम् । ५ अपरस्या परसात्सिद्धावन्योन्याश्रयप्रसङ्गात् । ६ कालस्यातीताऽनागतत्वे सिद्धे सति पदार्थक्रियाणामतीतानागतत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ च तत्सिद्धिरिति । ७ द्रव्यरूपेण पुरुषेण । ८ भण्यते । ९ समयः। १० अती तानागतकाल । ११ संयोजयितुम् । १२ बाधकत्वेनेति शेषः। १३ मिथ्यारूपः। १४ द्वितीयविकल्पोऽयम् ।
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४९२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० किञ्च, विपरीतार्थव्यवस्थापकं प्रमाण बाधकमुच्यते । प्रतिक्षणविनाशिपदार्थव्यवस्थापकत्वेन च प्रत्यक्षम् , अनुमान् वा प्रवत्ताज्यस्य प्रमाणत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् ? तत्र न तावप्रत्यक्षं तद्यवस्थापकम् । तत्र तथार्थानामप्रतिमासनात् । न हि प्रतिक्षणं त्रुट्यद्रूपतां विभ्राणास्तत्रार्थाः प्रतिभासन्ते, स्थिरस्थूलसाधारणरूपतयैव तत्र तेषां प्रतिभासनात् । न चान्याहग्भूतः प्रतिभासोऽन्यादृग्भूतार्थव्यवस्थापकोऽतिप्रसङ्गात् ।
न च तत्र तथा तेषां प्रतिभासेपि सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भाद्यथानुभवं व्यवसायानुपपत्तेः स्थिरस्थूलादिरूपतया व्यव२. सायः; इत्यभिधातव्यम् ; अनुपहतेन्द्रियस्थान्याग्भूतार्थनिश्चयो. त्पत्तिकल्पनायां प्रति नियतार्थव्यवस्थित्यभावानुषङ्गात् । नीलानुभवेषि पीतादिनिश्चयोत्पत्तिकल्पनाप्रसङ्गात् । तथा च “यत्रैव जनयेदेनों तत्रैवास्य प्रमाणता" [ ] इत्यस्य विरोधः।
ततो यथाविधार्थाध्यवसायी विकल्पस्तथाविधार्थस्यैवानुभवो १५ग्राहकोभ्युपगन्तव्यः । न चार्थस्य प्रतिक्षिण] विनाशित्वातंत्सामर्थ्यवलोद्भुतेनाध्यक्षेणापि तद्रूपमेवानुकरणीयमिति वाच्यम्; इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-सिद्धे हि क्षणक्षयित्वेऽर्थानां तत्सामर्थ्याविनाभाविनोध्यक्षस्य तद्रूपानुकरणं सिद्ध्यति, तत्सिद्धौ च क्षण
क्षयित्वं तेषां सिध्यतीति । २० नाप्यनुमानं तद्राहकम् ; तंत्र प्रत्यक्षाप्रवृत्तावनुमानस्थाप्रवृत्तेः।
तथा हि-अध्यक्षाधिगतम विनाभावमाश्रित्य पक्षधर्मतावगमबलादनुमानमुदयमासादयति । प्रत्यक्षाविषये तु स्वर्गादाविवानुमानस्याप्रवृत्तिरेव।
किञ्च, अत्र स्वभावहेतोः, कार्यहेतोर्वा व्यापारः स्यात् ? न २५ तावत्स्वभावहेतोः; क्षणिकस्वभावतया कस्यचिदर्थस्वभावस्यानिश्चयात्, क्षणिकत्वस्याध्यक्षागोचरत्वात् । अध्यक्षगोचरे एव ह्यर्थे स्वभावहेतोर्व्यवहृतिप्रवर्तनफलत्वम् , यथा विशददर्शनावभासिनि तरौ वृक्षत्वव्यवहारप्रवर्त्तनफलत्वं शिंशपायाः।
१ आगमादेः। २ विनश्यद्रूपताम् । ३ पटशानं घटव्यवस्थापकं स्यात् । ४ क्षणिकोयं क्षणिकोयमिति । ५ जायते । ६ निर्विकल्पकप्रत्यक्षं कर्तृ। ७ सविकल्पकां बुद्धिम् । ८ निर्विकल्पकस्य । ९ अतिप्रसङ्गो यतः। १० तस्य विनाश्यर्धस्य । ११ तस्य प्रतिक्षणं विनाश्यर्थस्य । १२ तथा च सति तथाविधार्थस्यैवानुभवो ग्राहको भविष्यतीत्यर्थः । १३ क्षणिकेर्थे । १४ दृष्टान्तधर्मिणि। १५ विनाशिपदार्थेन सह । १६ सत्त्वादिति । १७ दृष्टम् । १८ अयं वृक्षः शिंशपात्वादिति ।
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सू० ४।६] . क्षणभङ्गवादः __ अथोच्यते-'यो यद्भावं प्रत्यन्यानपेक्षः स तत्स्वभाव नियतः यथाऽन्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादने, विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षाश्च भावाः' इति; तदप्युक्तिमात्रम्; हेतोरसिद्धः । न खलु मुद्गराधनपेक्षा घटादयो भावाः प्रमाणतो विनाशमनुभवन्तोनुभूयन्ते प्रतीतिविरोधात्।
किञ्च, अत्राल्यानपेक्षत्वमात्रं हेतुः, तत्स्वभावत्वे सत्यन्यानपेक्षत्वं वा? प्रथमपक्षे यववीजादिभिरनेकान्तो हेतोः, शाल्यङ्घरोत्पादनसामग्रीसन्निधानावस्थायां तदुत्पादनेऽन्यानपेक्षाणामप्येषां तद्भावनियमाभावात् । द्वितीयपक्षे तु विशेष्यासिद्धो हेतुः, तत्स्वभावत्वे सत्यप्यन्यानपेक्षत्वासिद्धेः। न ह्यन्त्या कारणसामग्री १० खकार्योत्पादनस्वभावापि द्वितीयक्षणानपेक्षा तदुत्पादयति, दहनखभावो वा वह्निः करतलादिसंयोगानपेक्षो दाहं विदधाति । भागे विशेषणासिद्धं च तत्स्वभावत्वे सत्यन्यानपेक्षत्वम् ; शृङ्गोत्थशरादीनां क्षणिकखभावाभावात् ।
किञ्च, यदि नामाऽहेतुको विनाशस्तथापि यदैव मुद्रादिव्या-१५ पारानन्तरमुपलभ्यते तदैवासावभ्युपगमनीयो नोदयानन्तरम् , कस्यचित्तदा तदुपलस्माभावात् । न च मुद्गरादिव्यापारानन्तरमस्योपलम्भात्प्रागपि संद्धावः कल्पनीयः प्रथमक्षणे तस्यानुपलम्भान्मुद्गरादिव्यापारानन्तरमप्यभावानुषङ्गात् । न चौन्ते क्षयोपलम्भादादावप्यसावभ्युपगन्तव्यः; सेंन्तानेनानेकान्तात्। २०
किञ्च, उदयानन्तरध्वंसित्वं भावानाम् भिन्नाभिन्नविकल्पाभ्यामन्येन ध्वंसस्यासम्भवादवसीयते,प्रमाणान्तराद्वा? तत्रोत्तरविकल्पोऽयुक्तः, प्रत्यक्षादेरुदयानन्तरध्वंसित्वेनार्थग्राहकत्वाप्रतीते। प्रथमविकल्पे तु भिन्नाभिन्न विकल्पाभ्यां मुद्राद्यनपेक्षत्वमेवास्य
१ 'भावा धर्मिणः, विनाशस्वभावनियता इति साध्यधर्मः, विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्वादिति हेतुः' इत्युपरितः। २ साध्याभावे प्रवर्त्तमानत्वात् । ३ विनाशहेतुः । ४ बौद्धमतेऽपि एकस्मिन्क्षणे कारणं कार्य न करोति यतः। ५ सर्वे भावा विनाशखभावनियता इति पक्षस्यैकदेशे भागासिद्धो हेतुरित्यर्थः। ६ महिषमृगादिशृङ्गेऽन्यनिरपेक्षतयोत्थशरीरादीनाम् । ७ एकस्मिन्क्षणे पदार्थ उत्पन्नः द्वितीयक्षणे मुद्रादिव्यापारमन्तरेण विनश्यतीति नाभ्युपगमनीयं त्वया सौगतेन। ८ तस्य विनाशस्य । ९ मुद्रादिव्यापारानन्तरं विनाशोस्ति मुद्गरादिव्यापारात्पूर्व ( उत्पत्तिक्षणाद् द्वितीयक्षणे ) मपि विनाशोस्तीत्युक्त आह। १० विनाशस्य । ११ मुद्रादिव्यापारापूर्वक्षणे । १२ मुद्गरादिव्यापारस्यान्ते । १३ मुद्गरादिव्यापारात्पूर्वम् । १४ निर्वाणस्यान्ते उत्तरक्षणोत्पत्तेः क्षयोस्ति, नादौ । १५ यद्यदन्ते क्षयि तत्तदादौ क्षयीति । १६ मुद्गरादिना । १७ स्थितिपक्षे उत्पादपक्षे चाग्रे यदुक्तमस्ति तत्सर्वमत्र द्रष्टव्यम् ।
प्र०क० मा०४२
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० स्यात् न तूंदयानन्तरं भावः । न खलु निर्हेतुकस्याश्व विषाणादेः पदार्थोदयानन्तरमेव भावितोपलब्धा ।
अथाहेतुकत्वेन ध्वंसस्य सदा सम्भवात्कालाधनपेक्षातः पदा थोदयानन्तरमेव भावः, नन्वेवमहेतुकत्वेन सर्वदा भावात्प्रथमः ५क्षणे एवास्य भावानुषङ्गो नोदयानन्तरमेव । न ह्यनपेक्षत्वाद हेतुकः क्वचित्कदाचिच्च भवति, तथाभावस्य सापेक्षत्वेनाहेतुकत्व. विरोधिना सहेतुकत्वेन व्याप्तत्वात् , तथा सौगतैरप्यभ्युपगमात् ।
ननु प्रथमक्षणे एव तेषां ध्वंसे सत्त्वस्यैवासम्भवात्कुतस्तत्प्रच्युतिलक्षणो ध्वंसः स्यात् ? ततः स्वहेतोरेवार्था ध्वंसस्वभावाः १० प्रादुर्भवन्ति; इत्यप्यविचारितरमणीयम् ; यतो यदि भावहेतोरेव
तत्प्रच्युतिः; तदा किमेकक्षणस्थायिभावहेतोस्तत्प्रच्युतिः, कालान्तरस्थायिभावहेतोर्वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, एव(क)क्षणस्थायिभावहेतुत्वस्याऽद्याप्यसिद्धेः तत्कृतत्वं तत्प्रच्युतेरसिद्धमेव । द्वितीयपक्षे तु क्षणिकताऽभावानुषङ्गः। १५ किञ्च, भावहेतोरेवं तत्प्रच्युतिहेतुत्वे किमसौ भावजनना
प्राक्तत्प्रच्युति जनयति, उत्तरकालम् , समकालं वा? प्रथमपक्षे प्रागभावः प्रच्युतिः स्यान्न प्रध्वंसाभावः। द्वितीयपक्षे तु भावो. त्पत्तिवेलायां तत्प्रच्युतेरुत्पत्त्यभावान्न भावहेतुस्तद्धेतुः । तथा
चोत्तरोत्तरकालभाविभावपरिणतिमपेक्ष्योत्पद्यमाना तत्प्रच्युतिः २० कथं भावोदयानन्तरं भाविनी स्यात् ? तृतीयपक्षेपि भावोदयसमसमयभाविन्या तत्प्रच्युत्या सह भावस्यावस्थानाविरोधान कदाचिद्भावेन नष्टव्यम् । कथं चासौ मुद्रादिव्यापारानन्तरमेवो. पलभ्यमाना तद्भावे चानुपलभ्यमाना तजन्या न स्यात् ?
अन्यत्रापि हेतुफलभावस्यान्वयव्यतिरेकानुविधानलक्षणत्वात् । २५ न च मुद्रादीनां कपालसन्तत्युत्पादे एंव व्यापार इत्यभिधातव्यम्; घटादेः खरूपेणाविकृतस्यावस्थाने पूर्ववदुपलब्ध्यादिप्रेसङ्गात् । न चास्य तदा स्वयमेवाभावान्नोपलब्ध्यादिप्रसङ्गः,
१ अर्थस्य । २ नाशस्य । निर्हेतुकत्वात् । ३ अश्वलक्षण । ४ कालाधनपेक्षत्वाविशेषात्। ५ किंतु सर्वदैव भवतीत्यर्थः। ६ वञ्चित्कदाचिद्भवतः पदार्थस्य । ७ कालादिना। ८ अनुत्पन्नत्वात्। ९ अर्थोत्पत्तिकारणात् । १० मृच्चक्रादेः। ११ भावस्य घटादेः। १२ घटादिभावस्य । १३ घटप्रध्वंसस्य । १४ भावोत्पत्तिवेलायां येन कारणेन भावोत्पत्तिर्जाता तसिन्नेव समये तेनैव कारणेन घटप्रध्वंसो जायते तदा उभयोः कारणमेकं स्यादिति भावः। १५ भावहेतोर्विनाशहेतुत्वाभावे च । १६ कपालोत्पत्तौ। १७ मुद्गरादिना सह। १८ न घटप्रच्युतौ । १९ आदिना जलाहरणादिग्रहणम् । २० मुद्गरादिसन्निधानकाले ।
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सू० ४६] . . क्षणभङ्गवादः
४९५ तद्भावस्यापि तदैवोपलभ्यमानतयाऽन्यदा चानुपलभ्यमानतया कपालादिवत्तंत्कार्यतानुषङ्गात् । • अथ घट एव मुद्रादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थ क्षणान्तरमुत्पादयति, तदप्यपेक्ष्य अपरमसमर्थतरम् , तदप्युत्तरमसमर्थतमम् , यावद्धटसन्ततेर्नि-५ वृत्तिरित्युच्यते ननु चात्रापि घटक्षणस्यासमर्थक्षणान्तरोत्पादकत्वेनाभ्युपगतस्य मुद्रादिना कश्चित्सामर्थ्य विधातो विधीयते वा, न वा? प्रथमविकल्पे कथममावस्याहेतुकत्वम् ? द्वितीय विकल्प तु मुद्रादिसन्निपाते तजनकस्वभावाऽव्याहतौ संमर्थक्षणान्तरोत्पादप्रसङ्गः, समर्थक्षणान्तरजननस्वभावस्य भावात्प्राक्तनक्षणवत्। १० • किञ्च, भावोत्पत्तेः प्राग्भावस्याभावनिश्चये तदुत्पादककारणापादनं कुर्वन्तः प्रतीयन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः तदुत्पत्तौ च निवृत्तव्यापाराः, विनाशकहेतुव्यापारानन्तरं च शत्रुमित्रध्वंसे सुखदु:खभाजोऽनुभूयन्ते । न चानयोः सद्भावः सुखदुःखहेतुः, ततस्तव्यतिरिक्तोऽभावस्तद्धेतुरभ्युपगन्तव्यः। 'किञ्च, अभावस्यार्थान्तरत्वानभ्युपगमे किं घट एव प्रध्वंसोsभिधीयते, कपालानि, तदपरं पदार्थान्तरं वा? प्रथमपक्षे घटखरूपेऽपरं नामान्तरं कृतम् । तत्स्वरूपस्य त्वविचलितत्वान्नित्यस्वानुषङ्गः। अथैकक्षणस्थायि घटस्वरूपं प्रध्वंसः, न; एकक्षणस्थायितया तद्रूपस्याद्याप्यप्रसिद्धः । द्वितीयपक्षेपि प्राकपालो-२० त्पत्तेः घटस्यावस्थितेः कालान्तरावस्थायितैवास्य, न क्षणिकता। .. किञ्च, कपालकाले 'सः, न' इति शब्दयोः किं भिन्नार्थत्वम् , असिन्नार्थत्वं वा? मिन्नार्थत्वे कथं न नशब्दवाच्यः पदार्थान्तरमभावः? अभिन्नार्थत्वे तु प्रागपि नञ्प्रयोगसक्तिः । न चानुपलम्भे सति नप्रयोग इत्यभिधातव्यम्। व्यवधानाद्यभावे२५.
२२
। १ घटाभावः कार्य भवति मुद्राद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्। २ सहायमात्रम् । ३ घटस्य घट एव । ४ घटभङ्गलक्षणम् । ५ मुद्गरादिकं कर्मत्वेन । ६ भवदुक्तपक्षे । ७ घटस्य । ८ मुद्रादिकारणजन्यत्वात् । ९ समानक्षणान्तरोत्पादने। १० घटस्य । ११ उत्पादात् । १२ मृचक्रादि । १३ स्वीकरणम् । १४ कस्यचित्पुरुषस्य घटं दृष्ट्वा लेहो जायते कस्यचित्तु द्वेषो जायते इति स्वभावद्वययुक्तत्वाद्धट एव शत्रुमित्ररूपः, तस्य प्रध्वंसे । १५ अनेन वाक्येन सहेतुको विनाशोस्तीति दर्शितम् । १६ स मुद्रादिहेतुर्यस्य सः। १७ पटादिकमित्यर्थः। १८ प्रध्वंस इति। १९ गगनादिवत् । २० बहुतरकालम् । २१ यावत् कपालानि । २२ घटे सत्यपि घटो नास्तीति । २३ घटस्य । २४ कर्तव्यः। २५ देशकालादिना ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० खरूपादप्रच्युतार्थस्यानुपलमानुपपत्तेः । स्वरूपात्प्रच्युतौ वा कथं न कपालकाले मुद्गरादिहेतुकं भावान्तरं प्रच्युतिर्भवेत् ? ___ अथ घटकपालव्यतिरिक्तं भावान्तरं घटप्रध्वंसः; नन्वत्रापि तेन
सह घटस्य युगपदवस्थानाविरोधात् कथं तत्तत्प्रध्वंसः? अन्य. ५थोत्पत्तिकालेपि तत्प्रध्वंसप्रसङ्गाद्धटस्योत्पत्तिरेव न स्यात् ।
अन्यानपेक्षतया चाग्नेरुष्णत्ववत्स्वभावतोऽभावस्य भावे स्थिते. रपि स्वभावतो भावः किन्न स्यात् ? शक्यते हि तत्राप्येवं वक्तुं
कालान्तरस्थायी स्वहेतोरेवोत्पन्नो भावो न तद्भावे भावान्तर। मपेक्षते अग्निरिवोष्णत्वे । भिन्नाभिन्नविकल्पस्य चाभाववत्, १०स्थितावपि समानत्वात् तत्राप्यन्यानपेक्षया निर्हेतुकत्वानुषङ्गः। तथाहि-न वस्तुनो व्यतिरिक्ता स्थितिस्तद्धेतुना क्रियते; तस्याऽस्थास्नुतापत्तेः। स्थितिसम्बन्धात्स्थासुता; इत्यप्ययुक्तम् ; स्थितितद्वतोयतिरेकपक्षाभ्युपगमे तावत्तादात्म्यसम्वन्धोऽसँङ्गतः ।
कार्यकारणभावोप्यनयोःसंहभावादयुक्तः। असहभावे वा स्थित १५ पूर्व तत्कारणस्यास्थितिप्रसङ्गः । स्थितेरपि स्वकारणादुत्तरकाल
मनाश्रयतानुषङ्गः। अव्यतिरिक्तस्थितिकरणे च हेतुवैयर्थ्यम् । ततः स्थितिखभावनियतार्थस्तद्भावं प्रत्यन्यानपेक्षत्वादिति स्थितम् । ___ अहेतुकविनाशाभ्युपगमे च उत्पादस्याप्यऽहेतुकत्वानुषङ्गो ८. विनाशहेतुपक्षनिक्षिप्तविकल्पानामत्राप्यविशेषात्; तथा हि२० उत्पादहेतुः स्वभावत एवोत्पित्सुं भावमुत्पादयति, अनुत्पित्सु
वा? आद्यविकल्पे तद्धेतुवैफल्यम् । द्वितीयविकल्पेपि अनुत्पित्सोरुत्पादे गगनाम्भोजादेरुत्पादप्रसङ्गः । खहेतुसन्निधेरेवोत्पिसोरुत्पादाभ्युपगमे विनाशहेतुसन्निधानाद्विनश्वरस्य विनाशो. प्यभ्युपंगमनीयो न्यायस्य समानत्वात् ।
१ पृथुबुध्नोदरादेः। २ घटलक्षणस्य । ३ घटात् । ४ तृतीयविकल्पः। ५ पदार्थान्तरस्य सदैव सद्भावात् । ६ भिन्नाभिन्नविकल्पाभ्यां यथाऽभावः कारणान्तरनिरपेक्ष (बौद्धमते ) स्तथा ताभ्यां स्थितिरपि कारणनिरपेक्षे (जैनमते ) ति भावः । ७ घटपटयोरिव । ८ सव्येतरगोविषाणवत् । ९ घटस्य । १० स्वकारणस्य क्षणभङ्गुरत्वेन नष्टत्वादिति भावः। ११ घटात्। १२ अव्यतिरिक्तस्थितिकरणे च स्थितिमद्वस्त्वेव कृतं स्यात् , तस्य च स्वहेतुनैव कृतत्वात्स्थितेर्हेतुना करणमनुपपन्नमित्यस्य वैयर्थ्यम् । १३ स्थितावन्यानपेक्षतया निर्हेतुकत्वं सिद्धं यतः । १४ स्थितिस्वभावम् । १५ भिन्नाऽभिन्नवक्ष्यमाणानाम् । १६ स्वभावत एव भावस्योत्पत्तिसम्भवात् । १७ कारणेन ।
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सू० ४।६] क्षणभङ्गवादः
४९७ ततः कार्यकारणयोरुत्पादविनाशौ न सहेतुकाऽहेतुको कारजानन्तरं संहभावाद्रूपादिवत् । न चानयोः सहभावोऽसिद्धा "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नामो तुलान्तयोः॥"[ ]
इत्यभिधानात् । न चाहेतुकेन पर्यायसहभाविना द्रव्येणानेकान्तः; 'कारणानन्तरम्' इति विशेषणात् । न चैवमसिद्धत्वम् ५ मुद्रादिव्यापारानन्तरं कायोत्पादनकारणविनाशस्यापि प्रतीतेः, "विनष्टो घटः, उत्पन्नानि कपालानि' इति व्यवहारद्वयदर्शनात् । न च साध्यविकलमुदाहरणम् ; न हि कारणभूतो रूपादिकलाप: कार्यभूतस्य रूपस्यैव हेतुर्न तु रसादेरिति प्रतीतिः । नाप्यसहभावो रूंपादीनां येन साधनविकलं स्यात् । तन्नोक्तहेतोरर्थानां १० क्षणक्षयावसायः।
नापि सत्त्वात् । प्रतिवन्धासिद्धः । न च विद्युदादौ सत्त्वक्षणिकत्वयोः प्रत्यक्षत एव प्रतिवन्धसिद्धेर्घटादौ सत्त्वमुपलभ्यमानं क्षणिकत्वं गमयति इत्यभिधातव्यम् । तत्राप्यनयोः प्रतिवन्धासिद्धः। विद्युदादौ हि मध्ये स्थितिदर्शनं पूर्वोत्तरपरिणामौ प्रसा-१५ धयति । न हि विद्युदादेरनुपादानोत्पत्तियुक्तिमती; प्रथमचैतन्य स्याप्यनुपादानोत्पत्तिप्रसङ्गतः परलोकाभावानुषङ्गात्, विद्युदा. दिवत्तत्रापि प्रागुपादानाऽदर्शनात् । न चानुमीयमानमत्रोपादानम् । विद्युदादावपि तथात्वानुषङ्गात् ।
नौप्यस्य निरन्वया सन्तानोच्छित्तिः, चरमक्षणस्याकिञ्चित्क-२० रत्वेनावस्तुत्वांपत्तितः पूर्वपूर्वक्षणानामप्यवस्तुत्वापत्तेः सकल सन्तानाभावप्रसङ्गः । विद्युदादेः सजातीयकार्याकरणेपि योगिज्ञानस्य करणान्नावस्तुत्वमिति चेत्, न; आस्वाद्यमानरससमानकालरूपोपादानस्य रूपाकरणेपि रससहकारित्वप्रसङ्गात् । ततो
१ ययोः सहभावस्तयोः सहेतुकासहेतुकत्वभावेन न जननमिति । २ रूपरसादीनां यथा। ३ उपादानरूपः। ४ सहकारिलक्षणः। ५ इत्युदाहरणस्य । ६ उदाहरणम् । ७ तत्स्वभावत्वे सत्यन्यानपेक्षत्वादिति । ८ सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह । ९ प्रथमचैतन्यं जन्मान्तरचैतन्यपूर्वकं चिद्विवर्तत्वान्मध्यचिद्विवर्त्तवदिति । १० विद्युदुत्तरपरिणामाविनाभाविनी न भविष्यतीत्युक्ते आह । ११ उत्तराकारपरिणमनविषये। १२ अकिञ्चित्करत्वाविशेषात् । १३ अन्त्यचित्तक्षणस्यार्थक्रियाशून्य
खेनासत्त्वप्रसङ्गात् तस्यासत्त्वे तत्पूर्वक्षणस्याप्यर्थक्रियारहितत्वेनासत्त्वम् , तत एव तत्पूर्वक्षणानामप्यसत्त्वेन सर्वशून्यतापत्तिरेव स्यात् । १४ पूर्वोत्तरक्षणानां समूहः सन्तानः, तन्मध्ये एकैकक्षणः सन्तानी। १५ विजातीयस्य । १६ पूर्वरूपस्य । १७ उत्तररूपाकरणे।
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४९८
प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० रसाद्रूपानुमान न स्यात् । 'तथा दृष्टत्वान्न दोषः' इत्यन्यत्रापि समानम् , विधुच्छन्दादेरपि विधुच्छन्दाद्यन्तरोपलम्मात् । • न बैकत्र सत्त्वक्षणिकत्वयोः सहभावोपलम्भात्सर्वत्र ततस्तदनुमान युक्तम् ; अन्यथा सुवर्णे सत्त्वादेव शुक्लतानुमितिप्रसङ्गः, ५ शुक्ले शङ्ख शुक्लतया तत्सहभावोपलम्भात् । अथ सुवर्णाकारनिर्भासिप्रत्यक्षेण शुक्लतानुमानस्य वाधितत्वान्न तत्र शुक्लता. सिद्धिः; तर्हि घटादौ क्षणिकतानुमानस्य स एवायम्' इत्येकत्वप्रतिभासेन वाधितत्वात्प्रतिक्षणविनाशितासिद्धिर्न स्यात्। :
अथैकत्वप्रत्यभिज्ञा भिन्नेष्वपि लूनपुनर्जातनखकेशादिष्वभेद१० मुल्लिखन्ती प्रतीयत इत्येकत्वे नाऽसौ प्रमाणम् । नन्वेवं काम
लोपहताक्षाणां धवलिमामाविभ्राणेष्वपि पदार्थेषु पीताकारनिर्भालिप्रत्यक्षमुदेतीति सत्यपीताकारपि न तत्प्रमाणम् । भ्रान्ता
भ्रान्तस्य विशेषोन्यत्रापि समानः । प्रसाधितं च प्रत्यभिज्ञानस्याभ्रान्तत्वं प्रौगित्यलमतिप्रसङ्गेन । १५ अथ विपंक्षे बांधकप्रमाणवलात्सत्त्वक्षणिकत्वयोरविनाभावोवगम्यते । ननु तत्र सत्त्वस्य बाधकं प्रत्यक्षम् , अनुमानं वा स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षम्। तत्र क्षणिकत्वस्याप्रतिभासनात् । न चाप्रतिभासमानक्षणक्षयवरूपं प्रत्यक्षं विपक्षाव्यावर्त्य सत्त्वं क्षणिकत्वनियतमादर्शयितुं समर्थम् । अथानुमानेन तत्ततो व्यावर्त्य क्षणि२० कनियततया साध्येत; ननु तदनुमानेप्यविनाभावस्यानुमान वलात्प्रसिद्धिः, तथा चानवस्था । न च तद्वाधकमनुमानमस्ति । :
ननु 'यत्र क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधो न तत्सत् यथा गगनाम्भोरुहम्, अस्ति च नित्ये सः' इत्यतोनुमानात्ततो व्या. वर्तमानं सत्त्वमनित्ये एवावतिष्ठत इत्यवसीयते; तन्न; सत्त्वाऽ. २५क्षणिकत्वयोर्विरोधाऽसिद्धेः। विरोधो हि सहानवस्थानलक्षणः, परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो वा स्यात् ? न तावदाद्यः; स हि पदार्थस्य पूर्वमुपलम्मे पश्चात्पदार्थान्तरसद्भावाभावावगतौं निश्चीयते शीतोणवत् । न च नित्यत्वस्योपलम्भोस्ति सत्त्वप्रस
ङ्गात् । नापि द्वितीयो विरोधस्तयोः सम्भवति; नित्यत्वपरि३० हारेण सत्त्वस्य तत्परिहारेण वा नित्यत्वस्यानवस्थानात् ।
१ अस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसादिति । २ उपादानकारणाद्रूपात् सजातीयरूपकरण प्रकारेण । ३ तृतीयपरिच्छेदे। ४ प्रत्यभिज्ञानस्याभ्रान्तत्वसमर्थनेन । ५ अक्षणिकले। ६ सत्त्वस्य। ७ बसः। ८ सत्त्वं क्षणिकत्वनियतं तदन्वयव्यतिरेकानुविधानादिति । ९ नित्यं सन्न भवति क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । १० तमःप्रकाशयोरिव वा।
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४९९
सू० ४६] क्षणभङ्गवादः 'क्षणिकतापरिहारेण ह्यक्षणिकता व्यवस्थिता तत्परिहारेण च क्षणिकता' इत्यनयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो विरोधः । न चार्थक्रियालक्षणलवल्य क्षणिकतया व्याप्तत्वान्नित्येन विरोधः, अन्योन्याश्रयानुपङ्गात्-अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वं क्षणिकतया व्याप्तं नित्यताविरोधासिध्यति, लोप्यस्य क्षणिकतया व्याप्तेरिति। ५
ननु च अर्थक्रियायाः ऋरयोगपद्याभ्यां व्याप्तत्वात्तयोश्चाक्षणिकेऽसम्भवात्कुतः ऋनवत्यऽर्थक्रिया नित्ये सम्भाविनी? न च सहकारिक्रमान्नित्ये क्रमवत्यप्यसौ सम्भवति; अस्योपकारकानुएकारकपक्षयोः सहकार्यऽपेक्षाया एवासम्भवात् । नापि यौगपधेनासौ नित्ये सम्भवतिः पूर्वोत्तरकार्ययोरेकक्षण एवोत्पत्तेदितीय-१० क्षणे तस्यानर्थक्रियाकारित्वेनावस्तुत्वप्रसङ्गात्, इत्यप्यसारम् । एकान्त नित्यवदऽनित्येपि क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाऽसम्भवात्, तस्याः कथञ्चिन्नित्ये एव सम्भवात् , तत्र क्रमाक्रमवृत्त्यनेकखभावत्वप्रसिद्धः, अन्यत्र तु तत्स्वभावत्वाप्रसिद्धः पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानान्वितरूपाभावात्, सकृदनेकशक्त्यात्मकत्वाभावाच्च । न १५ खलु कूटस्थेथे पूर्वोत्तरखभावत्यागोपादाने स्तः, क्षणिके चान्वितं रूपमस्ति, यतः क्रमः कालकृतो देशकृतो वा । नापि युगपदनेकस्वभावत्वं यतो योगॅपचं स्यात्, कौटस्थ्यविरोधानिरन्वयविनार्शित्वव्याघाताच्च।
किञ्च, क्षणिकं वस्तु विनष्टं सत्कार्यमुत्पाद्यति, अविनष्टम् ,२० उभयरूपम् , अनुभयरूपं वा? न तावद्विनष्टम्चिरतरनष्टस्येवानन्तरनष्टस्याप्यसत्त्वेन जनकत्वविरोधात् । नाप्यविनष्टम्; क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् सकलशून्यतानुषङ्गाद्वा, लकलकार्याणामेकदैवोत्पंद्य विनाशात् । दाप्युभयरूपम् । निरंशैकखभावस्य विरुद्धोभयरूपासम्भवात् । नाप्यनुभयरूपम् ; अन्योन्य व्यवच्छेदरूपाणामेक-२५ निषेधस्यापरविधाननान्तरीयकत्वेनानुभयरूपत्वायोगात् ।
कथं च निरन्वयनाशित्वे कारणस्योपादानसहकारित्वस्य व्यवस्था तत्स्वरूपापरिज्ञानात् ? उपादानकारणस्य हि खरूपं कि
१ न तु सत्त्वाक्षणिकत्वयोः। २ प्रथमभेदे वाध्यबाधकभावेन विरोधः । द्वितीयभेदे तु स्वभावेनैव-यत्र क्षणिकत्वं तत्र न सत्वमिति विरोधः। ३ द्रव्यत्वेन । ४ सर्वथा क्षणिके। ५ अवस्थितस्य पदार्थस्यैकस्य हि नानादेशकालकलाव्यापित्वं देशक्रमः कालक्रमश्च । ६ नित्यक्षणिकाभ्यां कृतानां कार्याणाम् । ७. एकानेकात्मकत्वप्रसक्तेः । ८ क्षणिकत्व। ९ युगपदनेकस्वभावत्ववत् क्रमेणापि तथा प्राप्तेः । १० द्वितीयक्षणे कार्याजनकत्वात् । ११ अविनाभूतत्वेन । १२ एकं कार्य प्रत्युपादानत्वमपरं प्रति सहकारित्वमिति । १३ जैनो बौद्धं प्रति वक्ति। १४ बौद्धमते ।
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५००
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० खसन्ततिनिवृत्तौ कार्यजनकत्वम् , यथा मृत्पिण्डः स्वयं निवर्तमानो घटमुत्पादयति, आहोस्विदनेकस्मादुत्पद्यमाने कार्य स्वगतः विशेषाधायकत्वम् , समनन्तरप्रत्ययत्वमात्रं वा स्यात् , नियमवद
न्वयव्यतिरेकानुविधानं वा ? प्रथमपक्षे कथञ्चित्सन्तान निवृत्तिः, ५सर्वथों वा? कथञ्चिच्चेत्, परंमतप्रसङ्गः । सर्वथा चेत्, परलोकाभावानुषङ्गो ज्ञानसन्तानस्य सर्वथा निवृत्तेः।।
द्वितीयपक्षेपि किं स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वम्, सकलविशेपाधायकत्वं वा? तत्राद्यविकल्पे सर्वज्ञशाने स्वाकारार्पकस्या
सदादिज्ञानस्य तत्प्रत्युपादानभावः, तथा च सन्तानसङ्करः । १० रूपस्य वा रुपज्ञानं प्रत्युपादानभावोनुषज्येत स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वाविशेषात् । रूपोपादानत्वे च परलोकाय दत्तो जैलाञ्जलिः । कतिपय विशेषाधायकत्वेनोपादानत्वे च एकस्यैव ज्ञानादिक्षणस्यानुवृत्तव्यावृत्ताऽनेकविरुद्धधर्माध्यासप्रसङ्गात् स एव परमतप्रसङ्गः। द्वितीयविकल्पे तु कथं निर्विकल्पकाद्विकल्पो१५त्पत्तिः रूपाकारात्समनन्तर#त्ययाद्रसाकारप्रत्ययोत्पत्तिर्वा, स्वगतसकलविशेषाधायकत्वाभावात् ? सन्तानवहुत्वोपैगमात्सर्वस्य खसदृशादेवोत्पत्तिरित्यभ्युपगमे तु एकस्सिन्नपि पुरुषे प्रमात वहुत्वापत्तिः। तथा च गवाश्वादिदर्शनयोभिन्नसन्तानत्वादेकेने दृष्टेथे परस्यानुसन्धानं न स्याद्देवदत्तेन दृष्टे यज्ञदत्तवत् ।
१ (ज्ञानं प्रति ) इन्द्रियार्थालोकादिकारणकलापात् । (घटं प्रति ) मृदादिकारण, कलापात् । २ ज्ञानलक्षणे घटादौ वा। ३ पर्यायरूपेण। ४ द्रव्यरूपेणापि । ५ तथैव जैनानामपीष्टत्वात् । ६ एकजन्मनि वर्तमानस्य, उत्तरोत्तरशानसन्तान एवात्मेति वचनात् । ७ किञ्चिज्ज्ञत्वं वर्जयित्वाऽन्यान् चेतनत्वादिज्ञानगतविशेषान् समर्पयतीति भावः। ८ सहकारिकारणभूतस्य । ९ अस्सदादिज्ञानं यदा सर्वशो विषयीकरोति तदा तत्स्वाकारं कतिपयं समर्पयति यतः । १० सहकारिकारणभूतस्य । ११ कार्यभूतम् । १२ कतिपयविशेषाः रूपगतजडत्वं वर्जयित्वा स्वगतश्वेतपीताचाकारविशेषाः। १३ रूपशानस्य । १४ अचेतनरूपादुपादानाच्चैतन्योत्पत्तिय॑तः । १५ रूपं रूपज्ञाने रूपं समर्पयति न तु जडत्वम् । १६ आदिना अर्थादि । १७ अप्तिानर्पितादिविशेषापेक्षयाऽनुवृत्तव्यावृत्तरूप । १८ अनेकान्तात्मकत्वाज शानस्य। १९ उत्तरनिर्विकल्पकज्ञानस्योपादानात्सविकल्पकस्य सहकारिकारणात् । २० रूपज्ञानादुत्तररूपज्ञानस्योपादानादुत्तररसशानस्य सहकारिकारणात् । २१ एकसिन्पुरुषे। २२ निर्विकल्पकस्य निर्विकल्पकमुपादानं सविकल्पकस्य सविकल्पकमुपादानमिति भावः । २३ शानसन्तानस्य बहुत्वात् । २४ गोदर्शनेन । २५ अश्वादि. दर्शनस्य । २६ य एवाहं पूर्व गामद्राक्षं स एवाहमिदानीमश्वं पश्यामीति क्रमेण, युगपदश्वगावी पश्यामीत्यक्रमेण च ।
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सू० ४।६] क्षणभङ्गवादः
किञ्च, सकलस्वगतविशेषाधायकत्वे सर्वात्मनोपादेयक्षणे एवास्योपयोगात् तत्रानुपयुक्तस्वभावान्तराभावाच एकसामध्यन्तर्गतं प्रति सहकारित्वाभावः, तत्कथं रूपादेः रसतो गतिः? खभावान्तरोपगमे त्रैलोक्यान्तर्गतान्यजन्यकार्यान्तरापेक्षया तस्याजनकत्वमपि स्वभावान्तरमभ्युपगन्तव्यम् , इत्यायातमेकस्यैवो-५ पादानसहकार्यऽजनकत्वाद्यनेकविरुद्धधर्माध्यासितत्वम् । न चैते धर्माः काल्पनिकाः, तत्कार्याणामपि तथात्वप्रसङ्गात् ।
समनन्तरप्रत्ययत्वमप्युपादानलक्षणमनुपपन्नम्। कार्य समत्वं कारणस्य सर्वात्मना, एकदेशेन वा? सर्वात्मना चेत्, यथा कारणस्य प्राग्भावित्वं तथा कार्यस्थापि स्यात्, तथा च सव्येतर-३० मोविषाणवदेककालत्वात्तयोः कार्यकारणभावो न स्यात् । तथा कारणाभिमतस्यापि स्वकारणकालता, तस्यापि सेति संकलशून्यं जगदापयेत । कथञ्चित्समत्वे योगिज्ञानस्याप्यस्मदादिज्ञानावलॅम्बनस्य तदाकारत्वेनैकसन्तानत्वप्रसङ्गः स्यात् ।। ___ अनन्तरत्वं च देशकृतम्, कालकृतं वा स्यात् ? न तावद्देशकृतं १५ तत्तत्रोपयोगि व्यवहितदेशस्यापि इह जन्ममरणचित्तस्य भाविजन्मचित्तोपादानत्वोपंगमात् । नापि कालानन्तर्य तत् ; व्यवहितकालस्यापि जाग्रचित्तस्य प्रवुद्धचित्तोत्पत्तावुपादानत्वाभ्युपगमात् । अव्यवधानेन प्राँग्भावमात्रमनन्तरत्वम्, इत्यप्ययुक्तम् । क्षणिकैकान्तवादिनां विवक्षितक्षणानन्तरं निखिलजगत्क्षणाना-२० मुत्पत्तेः सर्वेषामेकसन्तानत्वप्रसङ्गात् ।
नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानं तल्लक्षणम् ; इत्यप्यसमीचीनम्। वुद्धतरचित्तानामप्युपादानोपादेयभावानुषङ्गात् , तेषामव्यभिचारेण कार्यकारणभूतत्वाविशेषात् । निरौलवचित्तोत्पादात्पूर्व
१ स्वगतसकलविशेषाधायकत्वे दूषणान्तरमाह। २ कार्यजन्ये । ३ रूपाधुपादानस्य । ४ पूर्वरूपरसौ एकसामग्री। ५ उत्तररसम् । ६ पूर्वरूपस्य । ७ शानम् । ८ रूपाद्युपादानस्य । ९ आदिपदेन पूर्वकालभावित्वमुत्तरकालनाशित्वम् । १० अयथार्थाः। ११ तृतीयविकल्पः । १२ प्रत्ययः कारणम्। १३ समकालत्वमित्यर्थः। १४ सर्वात्मना समानत्वात् । १५ पूर्वरूपक्षणे कार्य पूर्वतररूपक्षणस्य कारणभूतस्य समत्वम् । १६ कार्यकारणयोरभावात् । १७ शातत्वेन । १८ बहुव्रीहिः । १९ कथञ्चित्समत्वेन सद्भावात् । .२० सौगतेन। २१ निद्रायाम् । २२ अन्येन वस्तुना तिरोधायकेन। २३ पूर्वरूपस्य कारणस्य । २४ चेतनाऽचेतनानां कार्याणाम् । २५ चतुर्थविकल्पः। २६ सुगत । २७ किञ्चिज्ज्ञ । २८ चित्तं शानम्। २९ अस्मदादिज्ञानसद्भावे सुगतस्यास्सदादिशानविषयकशानोत्पत्तिस्तदभावे नोत्पत्तिरित्यन्वयव्यतिरेकाभ्याम् । ३० आस्रवरहितचित्त ।
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५०२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० बुद्धचित्तं प्रति सन्तानान्तरचित्तस्याकारणत्वान्न तेषामव्यभिचारी कार्यकारणभावः इति चेत्, यतः प्रभृति तेषां कार्यकारणभावस्तत्प्रभृतितस्तस्याव्यभिचारात्, अन्यथाऽस्याऽसर्वज्ञत्वं स्यात् । “नाकारणं विषयः" [ ] इत्यभ्युपगमात् । ५ अव्यभिचारेण कार्यकारणभूतत्वाविशेषेपि प्रत्यासत्तिविशेषवशात्केषाञ्चिदेवोपादानोपादेयभावो न सर्वेषामिति चेत्, स कोन्योन्यत्रैकद्रव्यतादात्म्यात् ? देशप्रत्यासत्तेः रूपरसादिभिर्वातातपादिभिर्वा व्यभिचारात् । कालप्रत्यासत्तेः एकसमयवर्तिभिः
रशेषार्थैरनेकान्तात् । भावप्रत्यासत्तेश्च एकार्थोद्भूतानेकपुरुष. १० विज्ञानैरनेकान्तात् ।
न चात्रीन्वयव्यतिरेकानुविधानं घटते । न खलु समर्थ कारणे सत्यभवतः स्वयमेव पश्चाद्भवतस्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानं नाम नित्यवत् । “खदेशवत्स्वकाले सति समर्थ
कारणे कार्य जायते नासति' इत्येतावता क्षणिकपक्षेऽन्वयव्यति१५रेकानुविधाने नित्येपि तत्स्यात् , स्वकालेऽनाद्यनन्ते सति समर्थ नित्ये स्वसमये कार्यस्योत्पत्तेरसत्यऽनुत्पत्तेश्च प्रतीयमानत्वात् । सर्वदा नित्ये समर्थे सति स्वकाले एव कार्य भवत्कथं तदन्वयव्यतिरेकानुविधायीति चेत् ? तर्हि कारणक्षणात्पूर्व पश्चाच्चाना
धनन्ते तद्भावेऽविशिष्टे क्वचिदेव तदभावसमये भवत्कार्य कथं २० तदनुविधायीति समानम् ?
नित्यस्य प्रतिक्षणमनेककार्यकारित्वे क्रमशोनेकस्वभावत्वसिद्धेः कथमेकत्वं स्यादिति चेत् ? क्षणिकस्य कथमिति समः पर्यनु. योगः? सँ हि क्षणस्थितिरेकोपि भावोऽनेकखभावो विचित्र
कार्यत्वान्नानार्थक्षणवत् । न हि कारणशक्तिभेदमन्तरेण कार्य२५ नानात्वं युक्तं रूपादिज्ञानवत् । यथैव हि कर्कटिकादौ रूपादि
ज्ञानानि रूपादिस्वभावभेदनिबन्धनानि तथा क्षणस्थितेरेकरमा
१ सास्रवम् । २ निरास्रवचित्तोत्पत्तेः। ३ यदैव घटस्तदैव मृत्पिण्ड इति । ४ बुद्धस्य । ५ यत्सुगतानोत्पत्तौ कारणं तदेव विषयः। ६ सुगतचित्तानां परस्परम् । ७ अत्रात्मैव एकद्रव्यम् । ८ प्रत्यासत्तिरत्रैक्यम् यत्र यत्र देशप्रत्या. सत्तिस्तत्र तत्रोपादानोपादेयभाव इत्युच्यमाने। ९ भावः स्वरूपम् । १० क्षणिके। ११ पूर्वक्षणे जाग्रद्दशान्त्यचित्ते। १२ उत्तरक्षणस्य प्रबुद्धचित्तस्य । १३ कारणं विना । १४ सौगतेनाङ्गीक्रियमाणे। १५ कारणे। १६ अव्यापकत्वेनाभिमते । १७ क्षणिकस्यानेकस्वभावत्वं नास्त्यतः कथं समः पर्यनुयोग इत्याह । १८ विचित्रकार्यत्वमस्तु न त्वनेकस्वभावत्वमिति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सतीदम् ।
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सू० ४।६]. क्षणभङ्गवादः
५०३ प्रदीपादिक्षणाद् वर्तिकादाहतैलशोपादिविचित्रकार्याणि शक्तिभेदनिमित्तकानि व्यवतिष्ठन्ते, अन्यथा रूपादेरपि नानात्वं न स्यात् ।
ननु च शक्तिमतोऽर्थान्तरानान्तरपक्षयोः शक्तीनामघटनात्तासां परमार्थसत्त्वाभावः; तर्हि रूपादीनामपि प्रतीतिसि-५ द्धद्रव्यादर्थान्तरानान्तरविकल्पयोरलम्भवात्परमार्थसत्त्वाभावः स्यात् । प्रत्यक्षवुद्धौ प्रतिभासमानत्वाद्रूपादयः परमार्थसन्तो न धुनस्तच्छक्तयस्तासामनुमानवुद्धौ प्रतिभासमानत्वात् । इत्यप्ययुक्तम् ; क्षणक्षयवर्गप्रापणशक्त्यादीनामपरमार्थसत्त्वप्रसङ्गात् । ततो यथा क्षणिकस्य युगपदनेककार्यकारित्वेप्येकत्वाविरोधः,१० तथाऽक्षणिकस्य क्रमशोनेककार्यकारित्वेपीत्यनवद्यम् ।
यच्चार्थक्रियालक्षणं सत्वमित्युक्तम् । तत्र लक्षणशब्दः कारपार्थः, स्वरूपार्थः, शापकार्थो वा स्यात् ? प्रथमपक्षे किमर्थक्रिया लक्षणं कारणं सत्त्वस्य, तद्वार्थक्रियायाः? तंत्रार्थक्रियातः सत्त्वस्योत्पत्तौ प्राक् पदार्थानां सत्त्वमन्तरेणाप्यस्याः प्रादुर्भावान्नि-१५ हतुकत्वं निराधारकत्वं वानुषज्येत । अथ संत्त्वादर्थक्रियोत्पद्यते; तदार्थ क्रियातःप्रागपि सत्त्वसिद्धर्भावानां स्वरूपसत्त्वमायातम् ।
अथ स्वरूपार्थोसो; तत्रापि तद्धेतोरसत्यप्रसङ्गः, न बर्थक्रियाकाले तद्धेतुर्विद्यते । न चान्यकालस्यास्यान्यकाला सा खेरूपमतिप्रसङ्गात् ।
२० नापि ज्ञापकार्थोसौ; अर्थक्रियाकालेर्थस्यासत्त्वादेव । असतश्वास्याऽतः कथं सत्ताज्ञप्तिरतिप्रसङ्गात् ? न चार्थक्रियोदयाप्राक कारणमासीदिति व्यवस्थापयितुं शक्यम् । यतो यदि स्वरूपेण पूर्व हेतुरवगतो भवेत्तदनन्तरं चार्थक्रिया, तदार्थक्रिया प्रतिपन्नसम्वन्धोपलभ्यमाना प्राग्धेतुसत्तां व्यवस्थापयतीति २५
१ आदिना स्वपरप्रकाशनादिग्रहणम् । २ अर्थात्सकाशात् । ३ भिन्नाश्चेत्तस्येति सम्बन्धाभावः । सम्बन्धसियर्थमुपकारकल्पनेऽनवस्था । अभिन्नाश्चेच्छक्तय एव शक्तिमन्त एव वा स्युः। ४ सस्य प्रदीपस्य । ५ साधनं विचार्यते। ६ लक्ष्यते जन्यते कार्यमनेनेति लक्षणं कारणमित्यर्थः-अनेकार्थत्वाद्धातूनाम् । ७ सत्वस्य । ८ सत्त्वस्य । ९ द्वयोः पक्षयोर्मध्ये । १० कारणभूतात् । ११ सर्वथा क्षणिकत्वात् । १२ न हि स्वरूपिखरूपयोः कालभेदो यतः। १३ गगनकुसुमादेरपि शापकत्वप्रसङ्गात् । १४ अर्थक्रिया लानपानादिः । १५ जलादिलक्षणः अर्थक्रियायाः । १६ कारणेन सह ।
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५०४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० स्यात् । न चार्थक्रियामन्तरेण हेतुः स्वरूपेण कदाचिदप्युपलब्धः परैः स्वरूपसत्त्वप्रसङ्गात् ।
अर्थक्रियायाश्चापरार्थक्रिया यदि सत्वव्यवस्थापिका; तदान वस्था। न चार्थक्रियाऽनधिगतसत्त्वस्वरूपापि हेतुसत्त्वव्यवस्था५पिका, अश्वविषाणादेरपि तत्सत्त्वव्यवस्थापकत्वानुषङ्गात् । न व हेतुजन्यत्वादर्थक्रिया सती नार्थक्रियान्तरोदयात् , इत्यभिधातव्यम्। इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-हेतुसत्त्वाध्यऽर्थक्रिया सती, तत्सत्त्वाच्च हेतोः सत्त्वमिति ।
अस्तु वार्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् । तथाप्यतोर्थानां क्षणस्थायिता १०क्षणिकत्वं साध्येत, क्षणादूर्वमभावो वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, नित्यस्याप्यर्थस्य क्षणावस्थित्यभ्युपगमात् । कथमन्यथास्य सदावस्थितिः क्षणावस्थिति निवन्धनत्वात् क्षणान्तराद्यव. स्थितेः ? अथ क्षणादूर्वमभावः साध्यते; तन्न; अभावेन सहास्य
प्रतिवन्धासिद्धेः । न चाप्रतिवन्धविषयोऽश्वविषाणादिवद. १५ नुमेयः । तन्न सत्त्वादप्यर्थानां क्षणिकत्वावगतिः।
नापि कृतकत्वात्; उक्तप्रकारेण क्षणिके कार्यकारणभाव. प्रतिषेधतः कृतकस्याऽसिद्धस्वरूपत्वेन तदवगतिं प्रत्यनङ्गत्वात् । ततः प्रतीत्यनुरोधेन स्थिरः स्थूलः साधारणस्वभावश्च भावो.
भ्युपगन्तव्यः। २० ननु चाणूंनामयःशलाकाकल्पत्वेनान्योन्यं सम्बन्धाभावतः
स्थूलादिप्रतीतेन्तत्वात्कथं तद्वशात्तत्स्वभावो भावः स्यात् ? तथाहि-सम्बन्धोर्थानां पारतन्यलक्षणो वा स्यात् , रूपश्लेषलक्षणो वा स्यात् ? प्रथमपक्षे किमसौ निष्पन्नयोः सम्बन्धिनोः स्यात्, अनिष्पन्नयोर्वा ? न तावदनिष्पन्नयोः स्वरूपस्यैवाऽसत्त्वात् २५शशाश्व विषाणवत् । निष्पन्नयोश्च पारतच्याभावादसम्बन्ध एव । उक्तश्च"पारतन्त्र्यं हि सम्बन्धः सिंद्ध का परतन्त्रता। तस्मात्सर्वस्य भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः॥१॥"
[सम्बन्धपरी०] ३० नापि रूपश्लेषलक्षणोसौ, सम्बन्धिनोत्वेि रूपश्लेषविरो
१ अर्थक्रियाकारणम् । २ सौगतैः। ३ अनुमानत्रयेण क्षणिकत्वं पदार्थानां न सिद्ध्यति यतः। ४ रूपरसगन्धस्पर्शपरमाणूनां सजातीयविजातीयव्यावृत्तानां परस्परमसम्बद्धानाम् । ५ सम्बन्धिनि । ६ सह्यविन्ध्ययोरिव । ७ अन्योन्यस्वभावानुप्रवेशलक्षणः।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः
५०५ धात् । तयोरक्ये वा सुतरां सम्वन्धाभावः, सम्वन्धिनोरमावे सम्बन्धायोगात् द्विष्ठत्वात्तस्य । अथ नैरन्तर्य तयो रूपश्लेषः, न; अस्यान्तरालाभावरूपत्वेनाऽतात्त्विकत्वात् सम्वन्धरूपत्वायोगः । निरन्तरतायाश्च सम्वन्धरूपत्वे सान्तरतापि कथं सम्बन्धो न स्यात् ?
किञ्च, असौ रूपलेपः सर्वात्मना, एकदेशेन वा स्यात् ? सर्वात्मना रूपश्लेवे अणूनां पिण्डः अणुमात्रः स्यात् । एकदेशेन तच्छेषे किमेकदेशास्तस्यात्मभूताः, परभूताः वा? आत्मभूताश्चेत्, न एकदेशेन रूपश्लेषस्तभावात् । परभूताश्चेत् ; तैरप्यणूनां सर्वात्मनैकदेशेन वा रूपश्लेषे स एव पर्यनुयोगोनवस्था १० च स्यात् । तदुक्तम्
"रूपश्लेषो हि सम्वन्धो द्वित्वे स च कथं भवेत्। तस्मात्प्रकृतिभिन्नानां सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः॥२॥"
[सम्बन्धपरी.] किञ्च, परोपेक्षैव सम्वन्धः, तस्य द्विष्ठत्वात् । तं चापेक्षते १५ भावः स्वयं सन् , असन्वा ? न तावदसन् ; अपेक्षाधर्माश्रयत्वविरोघात् खरशृङ्गवत् । नापि सन् ; सर्वनिराशंसत्वात् , अन्यथा सत्त्वविरोधात् । तन्न परापेक्षा नाम यद्रूपः सम्वन्धः सिद्ध्येत् । उक्तश्च
"परापेक्षा हि सम्बन्धः सोऽसन् कथमपेक्षते । संश्च सर्वनिराशंसो भावः कथमपेक्षते ॥ ३॥"
[सम्वन्धपरी०] किञ्च, असौ सम्बन्धः सम्बन्धिभ्यां भिन्नः, अभिन्नो वा? यद्यभिन्नः; तदा सम्बन्धिनावेव न सम्वन्धः कश्चित्, स एव वा न ताविति । भिन्नश्चेत्, सम्वन्धिनौ केवलौ कथं सम्वधौ धौ )२५ स्याताम् ?
भवतु वा सम्बन्धोर्थान्तरम् ; तथापि तेनैकेन सम्वन्धेन सह द्वयोः सम्वन्धिनोः कः सम्वन्धः? यथा सम्वन्धिनोयथोक्तदोषान्न कश्चित्सम्बन्धस्तथात्रापि । तेनानयोः सम्बन्धा
१ इति चेदित्युपरितः । २ अन्तरालाभावो नैरन्तर्यमिति । ३ तुच्छभावरूपत्वादभावस्य । ४ निरन्तरतावत्पदार्थद्वयापेक्षत्वाविशेषात् । ५ अंशाः। ६ निरंशत्वादणोः। ७ सम्बन्धिनोः। ८ प्रकृत्या स्वभावेन। ९ अणूनाम् । . १० सम्बन्धलक्षणः । ११ सर्वेषु निराकांक्षत्वात् । १२ परमपेक्षते चेत् । १३ परम्। १४ सम्बन्धरहितो। १५ सम्बन्धिभ्याम् ।
प्र० क० मा० ४३
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५०६
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
न्तराभ्युपगमे चानवास्था स्यात्तत्रापि सस्वन्धान्तरानुषकात। तन्न सम्बन्धिनोः सम्वन्धबुद्धिवास्तवी तद्वयतिरेकेणान्यस्य सम्बन्धस्यासम्भवात् । तदुक्तम्
"द्वयोरेकाभिसम्बन्धात्सम्बन्धो यदि तद्वयोः। ५ कैः सम्वन्धोनवस्था च न सम्बन्धमतिस्तथा ॥४॥
ततःतौ च भावौ तदन्यश्च सर्वे ते स्वात्मनि स्थिताः। इत्यमिश्राः स्वयं भावास्तान् मिश्रयति कल्पना ॥५॥"
[सम्बन्धपरी०] २० तौ च भावौ सम्बन्धिनौ ताभ्यामन्यश्च सम्वन्धः सर्वे ते स्वात्मनि स्वखरूपे स्थिताः। तेनामिश्रा व्यावृत्तस्वरूपाः स्वयं भावास्तथापि तान्मिश्रयति योजयति कल्पना । अत एंव तद्वास्तवसम्वन्धाभावेपि तामेव कल्पनामनुरुन्धानैर्व्यवहर्तृभिर्भावानां
भेदोऽन्यापोहस्तस्य प्रत्यायनाय क्रियाकारकादिवाचिनः शब्दाः १५प्रयोज्यन्ते-'देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन' इत्यादयः । न खलु कारकाणां क्रियया सम्बन्धोस्ति; क्षणिकत्वेन क्रियाकाले कारकाणामसम्मवात् । उक्तञ्च
"तामेव चानुरुन्धानैः क्रियाकारकवाचिनः। भावभेदप्रतीत्यर्थ संयोज्यन्तेभिधायकाः॥६॥"
[सम्बन्धपरी०] कार्यकारणभावस्तर्हि सम्बन्धो भविष्यति; इत्यप्यसमीचीनम् । कार्यकारणयोरसहभावतस्तस्यापि द्विष्ठस्यासम्भवात् । न खलु कारणकाले कार्य तत्काले वा कारणमस्ति, तुल्यकालं कार्यकारणभावानुपपत्तेः सव्येतरगोविषाणवत् । तन्न सम्बन्धिनौ २५ सहभाविनौ विद्यते येनानयोर्वर्तमानोसौ सम्वन्धः स्यात् । अद्विष्टे च भाँवे सम्बन्धतानुपपन्नैव।
कार्य कारणे वा क्रमेणासौ सम्बन्धो वर्तते; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यतः क्रमेणापि भावः सम्बन्धाख्य एकत्र कारणे कार्ये
१ स च सम्बन्धिनौ च। २ सम्बन्धसम्बन्धिनोः। ३ अन्यथेति शेषः । ४ सम्बन्धः । ५ वासनारूपा की। ६ अवास्तवी । ७ कल्पनैव मिश्रयति यतः । ८ स्थिरस्थूलसाधारणाकाररूपः । ९ अगोव्यावृत्तिौंः , अघटव्यावृत्तिर्घट इत्यादि । १० कल्पनामवास्तवीं बुद्धिम् । ११ सामान्यसम्बन्धं संदूष्य सम्बन्धविशेषं दूषयनाह । १२ क्षणिकत्वात् । १३ कार्यकारणलक्षणौ। १४ कार्यकारणलक्षणे ।
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५०७
१३
सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः वा वर्तमानोऽन्यनिस्पृहा कार्यकारणयोरन्यतरानपेक्षो नैकवृत्तिमान् सम्बन्धो युक्तः, तदभावपि कार्यकारणयोरभावपि तद्भावात् । यदि पुनः कार्यकारणयोरेकं कार्य कारणं वापेक्ष्यान्यत्र कार्य कारणे वास सम्वन्धः क्रमेण वर्त्तत इति सस्पृहत्वेन द्विष्ठ एवेष्यते; तदानेनापेक्ष्यमाणेनोपकारिणी भवितव्यं ५ यस्लादुपकार्यऽपेक्ष्यः स्यान्नान्यः । कथं चोपकरोत्यऽसन् ? यदा कारणकाले कार्याख्यो भावोऽसन् तत्काले वा कारणाख्यस्तदा नैवोएंकुर्यादसामर्थ्यात् ।
किञ्च, यद्येकार्थाभिसम्बन्धात्कार्यकारणता तयोः कार्यकारणभावत्वेनाभिमतयोः तर्हि द्वित्वसंख्यापरत्वापरत्वविभागादि-१० सम्बन्धात्प्राप्ता सा सव्येतरगोविषाणयोरपि । न येन केनचिदेकेन सम्बन्धात्सेष्यते; किं तर्हि ? सम्वन्धलक्षणेनैवेति चेत् तन्न; द्विष्ठो हि कश्चित्पदार्थः सम्बन्धः, नातोर्थद्वयाभिसम्बन्धादन्यत्तस्य लक्षणम् , येनास्य संख्यादेविशेषो व्यवस्थाप्येत ।
कस्यचिद्भावे भावोऽभावे चाभावः तावुपाधी विशेषणं यस्य १५ योगस्य सम्बन्धस्य स कार्यकारणता यदि न सर्वसम्बन्धः; तदा तावेव योगोपाँधी भावाभावी कार्यकारणताऽस्तु किमसत्लम्बन्धकल्पनया? भेदाचेत् 'भावे हि भावोऽभावे चाभावः' इति बहवोभिधेयाः कथं कार्यकारणतेत्येकार्थाभिधायिना शब्देनोच्यन्ते ? नन्वयं शब्दो नियोक्तारं समाश्रितः। नियोक्ता हि य २० शब्दं यथा प्रयुङ्क्ते तथा प्राँह, इत्यनेकत्राप्येका श्रुतिन विरुध्यते इति तावेव कार्यकारणता।
यस्मात् पश्यन्नेक कारणाभिमतमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्याऽदृष्टस्य कार्याख्यस्य दर्शने सति तदर्शने च सत्यऽपश्यत्कार्यमन्वेति
१ 'अन्यनिस्पृहस्य' प्रत्यर्थः । २ प्रत्यर्थः। ३ अन्यतरस्य। ४ अस्य कार्यस्येदं कारणमिति। ५ हेतोः। ६ कार्येण कारणेन वा। ७ सम्बन्धेन । ८ लोके । ९ कार्ये कारणमपेक्ष्य कारणे कार्यमपेक्ष्य यो वर्तते सम्बन्धस्तम् । १० खरविषाणादिवत् । ११ सम्बन्धलक्षण। १२ द्वन्द्वः। १३ आदिना पृथक्त्वादि । १४ द्वित्वसंख्यालक्षणेकार्थाभिसम्बन्धस्याविशेषात् । १५ एकेन सह । १६ कार्यस्य कारणस्य वा। १७ कार्यकारणतायाः स्यात् । १८ भावाभावौ। १९ उपाधिः विशेषणम् । २० सम्बन्धः । २१ जैनानाशङ्कयाह बौद्धः। २२ भावाभावाभ्यां कार्यकारणभावसम्बन्धस्य । २३ सम्बन्धस्य । २४ चत्वारोऽर्थाः। २५ कार्यकारणसम्बन्धप्रतिपादकः कार्यकारणलक्षणः । २६ एकार्थमभिप्रेत्यानेकार्थ वाभिप्रेत्य। २७ एकार्थाननेकार्थान्वा। २८ यथोदधिशब्दः उदकानि असिन्धीयन्ते स उदधिरित्यादिः। २९ कारणाभिमतपदार्थदर्शनात्पूर्वम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० 'इंदमतो भवति' इति प्रतिपद्यते जनः 'अत इदं जातम्' इत्याख्यातृभिविनापि तसार्शनादर्शने-विषयिणि विषयोपचारात्-भावाभावी मुक्त्वा कार्यबुद्धरसम्भवात् कार्यादिश्रुतिरप्यत्र 'भावाभावयोर्मा लोकः प्रतिपदमियती शब्दमालामभिदध्यात्' ५ इति व्यवहारलाघवार्थ निवेशितेति । __ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणता नान्या चेत् कथं भावाभावाभ्यां सा प्रसाध्यते ? तदभावाभावात् लिङ्गात्तत्कार्यतागतिर्याप्यनुवर्ण्यते 'अस्येदं कार्य कारणं च' इति; सङ्केतविषयाख्या
सा । यथा 'गौरयं सास्नादिमत्वात्' इत्यनेन गोव्यवहारस्य १० विषयः प्रदर्श्यते । यतश्च भावे भाविनि-भवनधर्मिणि तद्भावः
कारणाभिमतस्य भाव एव कारणत्वम् , भावे एव कारणाभिमतस्य भाविता कार्याभिमतस्य कार्यत्वम्' इति प्रसिद्ध प्रत्यक्षानुपलम्भतो हेतुफलते। ततो भावाभावावेव कार्यकारणता
नान्या। तेनैतावन्मात्रं-भावाभावौ तावेव तत्त्वं यस्यार्थस्यासावे १५ तावन्मात्रतत्त्वः, सोर्थो येषां विकल्पानां ते एतावन्मात्रतत्त्वार्थाः= एतावन्मात्रैवीजाः कार्यकारणगोचराः, दर्शयन्ति घटितानिवसम्बद्धानिवाऽसम्बद्धानप्यर्थान् । एवं घटनाच मियार्थाः ।
किञ्च, असौ कार्यकारणभूतोर्थो भिन्नैः, अभिन्नो वा स्यात् ? यदि भिन्नः; तर्हि भिन्ने का घेटना स्वस्वभावव्यवस्थितः ? अथाऽ. २०भिन्नः तदाऽभिन्ने कार्यकारणतापि का ? नैव स्यात्।।
स्यादेतत्, न भिन्नस्याभिन्नस्य वा सम्बन्धः । किं तर्हि ? सम्बन्धाख्येनैकेन सम्बन्धात्; इत्यत्रापि भावे सत्तायामन्यस्य - १ कथम् ? तथा हि । २ स्वयम् । ३ शब्दोल्लेखमन्तरेण उपदेशकैः पुरुषैः । ४ कारणस्य । ५ कार्यस्य । ६ कार्यकारणाभिमतयोः पदार्थयोः कार्यकारणता भवत्विति । ७ दर्शनादर्शनलक्षणे झाने। ८ भावाभावावेव कार्य, नान्यदित्यर्थः । ९ श्रुतिः शब्दः । १० न केवलं कार्यकारणश्रुतिः किंतु। ११ भावे भावः अमावे चाऽभाव इत्येतावतीम् । १२ समर्थिता । १३ इति सम्बन्धवादी ब्रूते । १४ भावाभावाभ्यामनुमीयमाना यदि कार्यकारणता ताभ्यामन्या तदा दूषणम् । १५ सम्बन्धकादिना। १६ तस्य कारणस्य । १७ अस्य कारणस्येदं कार्यमस्य च कार्यस्येदं कारणमिति । १८ अनुमानेन । १९ प्रकारान्तरेण तावेव कार्यकारणतेति निरूपयति । २० कार्यलक्षणे। २१ वरूपम् । २२ कार्यकारणस्य । २३ अर्थः विषयः । २४ भ्रान्तज्ञानानाम् । २५ बसः। २६ विकल्पाः । २७ प्रत्यर्थः । २८ विकल्पाः । २९ परस्परम् । ३०. सम्बन्धः । ३१ कार्यकारणयोः। ३२ कार्यस्य कारणस्य वा । ३३ प्रत्यर्थोयम् । ३४ भिन्नस्य ।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः सम्वन्धस्य विश्लिष्टौ कार्यकारणाभिमतौ लिष्टौ स्याताम् कथं च तौ संयोगिसमवायिनौ ? आदिग्रहणात्स्वस्वाम्यादिकम्, सर्वतेनानन्तरोक्तेन सामान्यसम्बन्धप्रतिषेधेन चिन्तितम् ।
संयोग्यादीनामन्योल्यमनुपकाराचाऽजन्यजनकभावाच न सम्बन्धी च तादृशोनुपकार्योपकारकभूतः।
अथास्ति कर्चित्समायी योऽवरविरूपं कार्य जनयति अतो नानुपकारादसम्बन्धितेति; तन्न; यतो जननेदि कार्यख्य केनचिसमवायिनाभ्युपगम्यंमाने समवायी नासौ तदा जननकाले कार्यस्यानिष्पत्तेः । न च ततो जननात्समवायित्वं सिद्ध्यति; कुम्भकारादेरपि घटे समवायित्वप्रसङ्गात् । तयोः समवायिनोः १० परस्परमनुपकारेपि ताभ्यां वा समवायस्य नित्यतया समवायेन वा तयोः परत्र वा कचिदनुपकारेपि सम्बन्धो यदीष्यते; तदा विश्वं परस्परासम्वद्धं समवायि परस्परं स्यात् । यदि च संयोगस्य कार्यत्वात्तस्य ताभ्यां जननात्संयोगिता तयोः तदा संयोगजननेपीष्टौ, ततः संयोगजननान्न तौ संयोगिनौ, कर्मणोपि १५ संयोगितीपत्तः । संयोगो हान्यतैरकर्मजः उभयकर्मजश्चेष्यते । आदिग्रहणात्संयोगस्यापि संयोगिता स्यात् । न संयोगजननात्संयोगिता। किन्तर्हि ? स्थापनादिति चेत् ; न स्थितिश्च प्रतिवर्णिता अन्थान्तरे प्रतिक्षिप्ती, स्थाप्यस्थापकयोर्जन्यजनकत्वाभावान्नान्या स्थितिरिति ।
"कार्यकारणभावोपि तयोरसहभावतः। प्रसिद्धयति कथं द्विष्टोऽद्विष्ठ सम्वन्धता कथम् ॥ ७॥
२०
१ स्वरूपेण । २ कारिकायान् । ३ स्वामिभृत्यभावसम्बन्धादिकम् । ४ निराकृतम्। . ५ अर्थः । ६ उपकारकः । ७ तन्त्वादिः । ८ सम्बन्धवादिना । ९ कार्येण समम् । १० समवायिना कारणेन कार्यस्य निष्पादनसमये कार्यस्यानिष्पन्नत्वात्कुतः कार्येण समत्वं कारणस्य ? तत्करणे सति तस्य विनष्टत्वात्। ११ तन्तूनाम् । १२ तन्तुपटयोः । १३ असमवायिनि कारणे कायें वा। १४ उपकारकत्वाभावाविशेषात् । १५ सम्बन्धस्य । १६ समवायिभ्याम् । १७ संयोगिनोः। १८ क्रियायाः। १९ कर्मणः सकाशात्संयोगजननात् । २० तथा च द्रव्ययोरेव हि संयोगो, न कर्मणोरेवेति मतं विघटेत । २१ शैलश्येनयोः । २२ मल्लयोः । २३ कारिकायाम् । २४ गुणरूपस्य । २५ हस्तपुस्तकसंयोगात्कायपुस्तकसंयोगस्योत्पत्तेः । २६ संयोगिभ्यां स्थाप्यपदार्थस्य संयोगलक्षणस्य स्थितिनिष्पादनात् । २७ संयोगिनोः संयोगस्य च । २८ निराकृता । २९ प्रत्यर्थः । ३० जन्यजनकभावस्तु प्राक्प्रतिक्षिप्त इत्यर्थः ।
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५१०
प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० क्रमेण भाव एकत्र वर्तमानोन्य निस्पृहः। तेदभावेपि तैद्भावात्सम्बन्धौ नैकवृत्तिमान् ॥ ८॥ यद्यपेक्ष्य तयोरेकमन्यत्रासौ प्रवर्त्तते । उपकारी ह्यपेक्ष्यः स्यात्कथं चोपकरोत्यसन् ॥९॥ यद्येकार्थाभिसम्बन्धात्कार्यकारणता तयोः। प्राप्ता द्वित्वादिसम्बन्धात्सव्येतरविषाणयोः॥ १० ॥ द्विष्ठो हि कश्चित्सम्बन्धो नातोन्यत्तस्य लक्षणम् । भावाभावोपधिोर्गः कार्यकारणता यदि ॥ ११॥ योगोपाधी न तावेव कार्यकारणतात्र किम् । भेदाच्चेन्नन्वऽयं शब्दो नियोक्तारं समाश्रितः॥१२॥ पश्यन्नेमदृष्टस्य दर्शने तैदर्शने। अपश्यत्कार्यमन्वेति विना व्याख्यातृभिर्जनः॥१३॥ दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यवुद्धरसम्भवात् । कार्यादिश्रुतिरप्यत्र लाघवार्थ निवेशिता ॥ १४ ॥ तद्भावाभावात्तत्कार्यगतिर्याप्यनुवर्ण्यते। सङ्केतविषयाख्या सा सानादेोगतिर्यथा ॥ १५॥ भावे भाविनि तद्भावो भाव एव च भावितो। प्रसिद्ध हेतुफलते प्रत्यक्षानुपलम्भतः ॥ १६ ॥ एतावन्मात्रतत्त्वार्थाः कार्यकारणगोचराः। विकल्पा दर्शयन्त्यर्थान् मिथ्यार्थी घटितानिव ॥ १७॥ भिन्ने का घेटनाऽभिन्ने कार्यकारणतापि का। भावे ह्यन्यस्य विश्लिष्टौ श्लिष्टौ स्यातां कथं च तौ ॥ १८ ॥ संयोगिसमवाय्यादि सर्वमेतेन चिन्तितम् । अन्योन्यानुपकाराच न सम्बन्धी च तादृशः॥ १९ ॥ जननेपि हि कार्यस्य केनचित्समवायिना। समवायी तदा नासौ न ततोतिप्रसङ्गतः ॥ २०॥ तयोरनुपकारेपि समवाये परत्र वा। सम्वन्धो यदि विश्वं स्यात्समवायि परस्परम् ॥ २१॥ संयोगजननेपीष्टौ ततः संयोगिनौ न तौ।
२०
-
१ कार्ये कारणे वा । २ तयोः कार्यकारणयोः । ३ तस्य सम्बन्धस्य । ४ सम्बन्धः। ५ नरम् । ६ कारणम् । ७ कार्यस्य । ८ तस्य कारणस्य । ९ तस्य कारणस्य । १० तस्य-कारणस्य। ११ साधनात् । १२ कार्यता। १३ अन्वयव्यतिरेकतः । १४ सम्बन्धः। १५ सम्बन्धस्य । १६ समवायिनोः। १७ तहीति शेषः। १८ कुतः १ यतः।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः
५११ कर्मादियोगितापत्तेः स्थितिश्च प्रतिवर्णिता ॥ २२॥"
[सम्वन्धपरी०] इति । अस्तु वा कार्यकारणभावलक्षणः सम्बन्धः, तथाप्यस्य प्रतिपन्नस्य, अप्रतिपन्नस्य वा सत्त्वं सिद्धयेत् ? न तावदप्रतिपन्नस्य; अतिप्रसङ्गात् । प्रतिपन्नस्य चेत् कुतोस्य प्रतिपत्तिः-प्रत्यक्षेण, प्रत्यक्षा-५ नुपलम्माभ्यां वा, अनुमानेन वा प्रकारान्तराऽसम्भवात् ? प्रत्यक्षेण चेत् ; अग्निस्वरूपग्राहिणा,धूमस्वरूपग्राहिणा, उभयस्वरूपग्राहिणा वा? न तावदन्तिस्वरूपग्राहिणा; तद्धि तत्सद्भावमात्रमेव प्रतिपद्यते न धूमस्वरूपम् , तदप्रतिपत्तौ च न तदपेक्षयाग्नेः कारणत्वावगमः। न हि प्रतियोगिवरूपाप्रतिपत्तौ तं प्रति कस्यचित्कारण-१० त्वमन्यद्वा धर्मान्तरं प्रत्येतुं शक्यमतिप्रसङ्गात् । नापि धूमस्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण कार्यकारणभावावगमः; अत एव, उभयस्वरूपग्रहणे खलु तनिष्ठसम्बन्धावगमो युक्तो नान्यथा । नाप्युभयखरूपग्राहिणा; तत्रापि हि तयोः स्वरूपमात्रमेव प्रतिभासते न त्वग्नेधूमं प्रति कारणत्वं तस्यैव तं प्रति कार्यत्वम्। न हि स्वस्वरूपनिष्ठ-१५ पदार्थद्वयस्यैकज्ञानप्रतिभासमात्रेण कार्यकारणभावप्रतिभासः, घटपटादेरपि तत्प्रसङ्गात् । यत्प्रतिभासानन्तरमेकत्र ज्ञाने यस्य प्रतिभासस्तयोस्तदवगमः, इत्यपि ताण; घटप्रतिभासानन्तरं पटस्यापि प्रतिभासनात् । न च 'क्रमभाविपदार्थद्वयप्रतिभाससमन्वय्येकं ज्ञानम्' इति वक्तुं शक्यम्; सर्वत्रै प्रतिभासभेदस्य २० भेदनिबन्धनत्वात्।
अथाग्निधूमस्वरूपद्वयग्राहि ज्ञानद्वयानन्तरभाविस्मरणसहकारीन्द्रियजनितविकल्पज्ञाने तद्यस्य पूर्वापरकालभाविनः प्रतिभासाकार्यकारणभावनिश्चयो भविष्यतीत्युच्यते; तदप्युक्तिमात्रम्, चक्षुरादीनां तज्ज्ञानजननासामर्थ्य स्मरणसव्यपेक्षाणामपि जैन-२५
१ गगनाब्जादेरपि सत्त्वप्रसङ्गोऽप्रतिपन्नत्वाविशेषात् । २ अन्वयव्यतिरेकशानाभ्याम् । ३ उक्तप्रकारेभ्यः प्रमाणान्तरस्य परेणानभ्युपगमात् । ४ अयमग्निधूमस्य कारणमिति । ५ प्रतियोगी धूमः । ६ धूमम् । ७अग्न्यादेवस्तुनः । ८ सादृश्यादिकम् । ९ स्वकुसुमादिकं प्रत्यपि कस्यचित्कारणत्वप्रसङ्गात् । १० अग्निधूमयोः । ११ न त्वयमग्निधूमस्य कारणं धूमोऽग्नेः कार्यमिति प्रतिभासः। १२ एव । १३ युक्तः। १४ तस्य कार्यकारणभावस्य । १५ एकज्ञानप्रतिभासमानत्वस्याविशेपात् । १६ अर्थस्य । १७ कुतः । १८ एकं ज्ञानं परिहरति परः पदार्थद्वयप्रतिमासे । १९ अनुयायि । २० शाने ज्ञेये च। २१ घटपटयोरिव । २२ तौ अग्निधूमाविति मीमांसकाभ्युपगते प्रत्यभिशाप्रत्यक्षे। २३ सम्बन्धवादिना। २४ अग्निधूमद्वयकार्यकारणभावज्ञानोत्पादनासामर्थे । २५ शानस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
कत्वविरोधात् । न हि परिमलस्मरणसव्यपेक्षं लोचनं 'सुरभि चन्दनम्' इति प्रत्ययमुत्पादयति । तत्सव्यपेक्षलोचनव्यापारानन्तरमेते कार्यकारणभूता इत्यवभासनात्तद्भावः सविकल्पकप्रत्यक्षप्रसिद्धः, इत्यप्यसमीचीनम् गन्धस्यापि लोचनज्ञान विषय५त्वप्रसङ्गात्, गन्धस्मरणसहकारिलोचनव्यापारानन्तरं 'सुरभि चन्दनम्' इति प्रत्ययप्रतीतेः। तन्न प्रत्यक्षेणासौ प्रतीयते।
नापि प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्याम् ; प्रत्यक्षस्येवानुपलम्भस्यापि प्रतिषेध्यविविक्तवस्तुमात्रविषयत्वेनात्राऽसामर्थ्यात् । अथानिसद्भाव एव धूमस्य भावस्तभावे चाभावः कार्यकारणभावः, स चैताभ्यां १० प्रतीयते इच्युच्यते; तर्हि वक्तृत्वस्यासर्वज्ञत्वादिना व्याप्तिः स्यात् । तद्धि रागादिमत्त्वाऽसर्वज्ञत्वसद्भावे स्वात्मन्येव दृष्टम् , तदभावे चोपलशकलादौ न दृष्टम् । तथा च सर्वज्ञवीतरागाय दत्तो जलांजलिः।
वक्तृत्वस्य बक्तुकामताहेतुकत्वान्नायं दोषः; रागादिसद्भावेपि १५वक्तुकामताभावे तस्यासत्त्वात् । नन्वेवं व्यभिचारे विवक्षाप्यस्य निमित्तं न स्यात्, अन्य विवक्षायामप्यन्यशब्दोपलम्भात्, अन्यथा गोस्खलनादेरभावप्रसङ्गात् । अथार्थविवक्षाव्यभिचारेपि शब्द. विवक्षायामप्यव्यभिचारः, न; स्वप्नावस्थायामन्यत्र गतचित्तस्य वा
शब्दविवक्षाभावेपि वक्तृत्वसंवेदनात् । न च व्यवहिता सा २० तन्निमित्तमिति वक्तव्यम् । प्रतिनियतकार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात्, सर्वस्य तत्प्राप्तः। अथ 'असर्वज्ञत्वाद्यभावे सर्वत्र वक्तृत्वं न सम्भवति' इत्यत्र प्रमाणाभावान्न तस्य तेन कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः सिद्धयति; तेंदग्निधूमादावपि समानम् ।
२ कर्तृपदम् । २ कर्मपदम् । ३ परिमलस्मरणसव्यपेक्षत्वेपि लोचने सति चन्दनं सुरभीति ज्ञानं घ्राणेन्द्रियादेव जायत इत्यर्थः । ४ अग्निधूमादयः। ५ तदपि कुत इत्याह। ६ अग्निधूमादि । ७ महाहदादि । ८ असर्वशत्वादिसद्भावे वक्तृत्वस्य सद्भावस्तदभावे चाभाव इति । ९ सर्वज्ञो वीतरागश्च नास्तीति भावः। १० सर्वशास्तित्ववादिना जैनादिना। ११ सर्वशास्तित्वं सूचयन्नाह । १२ साधनस्य । १३ न तु रागादिहेतुकत्वात् । १४ असर्वशत्वलक्षणः। १५ आदिना द्वेषादि । १६ उक्तप्रकारेण । १७ वक्तृत्वसाधनस्य । १८ अग्निदत्त। १९ जिनदत्तादि। २० नाम। २१ वत्कृत्वस्य । २२ कार्यान्तरे । २३ शब्दविवक्षा यदासीत्तदा वक्तृत्वस्य निमित्तं स्यात्कार्यान्तरेणाव्यवहिता। अतोऽव्यवहिता या शब्दविवक्षा पश्चात्तन्निमित्तं भवतीत्युक्ते आह । २४ व्यवहितस्य कार्यस्य । २५ तस्य व्यवहितकारणत्वस्य । २६ आदिना रागादिमत्त्वादि । २७ नृषु । २८ अविनाभावः। २९ यतो युक्तिमन्तरेण बौद्धेनोक्रमिति भावः ।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः
५१३ अथ 'अग्न्यभावे धूमस्य भावे तद्धेतुकताविरहात्सकृदप्यहेतोरग्नेस्तस्य भावो न स्यात् , दृश्यते च महानसादाग्नितः, ततो नानग्नेधूमसद्भावः' इति प्रतिवेन्धसिद्धिरित्यभिधीयते; तदप्यभिधानमात्रम्; यथैव हीन्धनादेरेकदा समुद्भूतोप्यग्निः अन्यदारणि निर्मथनात् मण्यादेर्वा भवन्नुपलभ्यते, धूमो वाग्नितो५ जायमानोपि गोपालघटिकादौ पावकोद्भूतधूमादप्युपजायते, तथा 'अग्न्यभावेपि कदाचिद्भुमो भविष्यति' इति कुतःप्रतिवन्धसिद्धिः? अथ 'यादृशोग्निरिन्धनादिसामग्रीतो जायमानो दृष्टो न तादृशोऽ. रणितो मण्यादेर्वा । धूमोपि यादृशोनितो न तादृशो गोपालघटिकादौ वह्निप्रभवधूमात्, अन्यादृशात्तादृशंभावेतिप्रसङ्गात् १० इति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृशस्य चानने वः । भावे वा ताहशधूमजनकस्याग्निस्वभावतैव इति न व्यभिचारः। तदुक्तम्
"अग्निखभावः शक्रस्य मूर्धा यद्यग्निरेव सः। अथानग्निस्वभावोसौ धूमस्तत्र कथं भवेत् ॥"
[प्रमाणवा० ३१३५] इत्यादि। १५ तदेतद्वक्तृत्वेपि समानम्-'तद्धि संवैज्ञे वीतरागे वा यदि स्यात्, असर्वज्ञाद्रागादिमतो वा कदाचिदपि न स्यादैहेतोः सकृदयसम्भवात् , भवति च तत्ततः, अतो न सर्वज्ञे तस्य तत्सदृशस्य वा सम्भवः' इति प्रतिवन्धसिद्धिः।
किञ्च, कार्यकारणभावः सकलदेशकालावस्थिताखिलाग्निधूम-२० व्यक्तिकोडीकरणेनावगतोऽनुमाननिमित्तम् , नान्यथा । न च निर्विकल्पकसविकल्पकप्रत्यक्षस्येयति वस्तुनि व्यापारः, प्रत्यक्षानुपलम्भयो ।
किञ्च, कार्योत्पादनशक्तिविशिष्टत्वं कारणत्वम् । न चासौ शक्तिः प्रत्यक्षावसेया किन्तु कार्यदर्शनगम्या, "शक्तयः सर्वभावानां कार्यार्थापत्तिगोचराः”
[मी० श्लो० शून्यवाद श्लो०२५४] इत्यभिधानात् ।
१ धूमोग्नेः कार्य न भवतीति भावः। २ तस्य भावः । ३ अनेन प्रकारेण । ४ कार्यकारणयोरविनाभावसिद्धिः । ५ जैनादिना भवता । ६ सूर्यकान्तादेः । ७ धूमाग्निलक्षणकार्यकारणयोः। ८ मतम् । ९ न दृष्ट इति संबन्धः। १० वहिप्रभवधूम । ११ जलादग्निसद्भावप्रसङ्गात् । १२ अर्थस्य । १३ धूमाग्मिलक्षणकार्यकारणयोः । १४ तर्हि । १५ कुतः । १६ वक्तृत्वस्य । १७ वक्तृत्वस्यासर्वशत्वादिना। १८ आवृत्तत्वेन एकत्वेन च ।
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५१४
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
५.
तत्र कार्यात्कारणत्वावगमेऽनुमानाच्छत्यवगमः स्यात् । तत्रापि शक्तिकार्ययोः प्रतिवन्धेप्रतीतिर्न प्रत्यक्षादेः, उक्तदोषानुषङ्गात्। अनुमानात्तद्वगमेऽनवस्थेतरेतराश्रयानुषङ्गो वा स्यात् । एतेन तृतीयोपि पक्षश्चिन्तित इति । ५ तदेतत्सर्वमसमीचीनम् ; सम्वन्धस्याध्यक्षेणैवार्थानां प्रतिभासनात्; तथाहि-पटस्तन्तुसम्बद्ध एवावभासते, रूपादयश्च पटादिसम्बद्धाः । सम्बन्धाभावे तु तेषां विश्लिष्टः प्रतिभासः स्यात् , तेमन्तरेणान्यस्य संश्लिष्टप्रतिभासहेतोरभावात् । कथं च
सम्बन्धे प्रतीयमानेऽप्रतीयमानस्याप्यसम्बन्धस्य कल्पना प्रेती१०तिविरोधात् ? अर्थक्रियाविरोधश्च, अणूनामन्योन्यमसम्बन्धतो
जलधारणाहरणाद्यर्थक्रियाकारित्वानुपपत्तेः । रज्जुवंशदण्डादीनामेकदेशाकर्षणे तदन्याकर्षणं चासम्वन्धवादिनो न स्यात् । अस्ति चैतत्सर्वम् । अतस्तदन्यथानुपपत्तेश्चासौ सिद्धः।
यच्च-'पारतन्यं हि' इत्याधुक्तम् । तदप्ययुक्तम् । एकत्वपरि१५णतिलक्षणपारतव्यस्यार्थानां प्रतीतितः सुप्रसिद्धत्वात् , अन्य
थोकदोषानुषंगः । न चार्थानां सम्वन्धः सर्वात्मनैकदेशेन वाभ्युपगम्यते येनोक्तदोषः स्यात् प्रकारान्तरेणैवास्याभ्युपगमात् । सर्वात्मैकदेशाभ्यां हि तस्यासम्भवात् प्रकाराँन्तरस्य वा
भावात् , तत्प्रतीत्यन्यथानुपपत्तेश्च ताभ्यां जात्यन्तरतया श्लेषः २० स्निग्धरूक्षतानिबन्धनो वन्धोऽभ्युपगन्तव्योऽसौ सक्तुतोयादि
वत् । विश्लिष्टरूपतापरित्यागेन हि संश्लिष्टरूपतया कथञ्चिदन्यथात्वलक्षणैकत्वपरिणतिः सम्वन्धोऽर्थानां चित्रसंवेदने नीलाद्याकारवत् । न हि चित्रसंविदो जात्यन्तररूपैतयोत्पादा
१ धूमादेः । २ अग्नयादेः । ३ कार्यकारणभावरूपेण। ४ अनुमानेन वासौ कार्यकारणभावः प्रतीयते इति । ५ बौद्धोक्तम् । ६ कथमर्थानां सम्बन्धस्याध्यक्षेण प्रतिभासनमित्युक्ते सत्याह । ७ अवभासन्ते । ८ पटादेः सकाशाद्भिन्नः । ९ अन्यः कश्चित्संश्लिष्टप्रतिभासहेतुर्भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । १० प्रत्यक्षेण । ११ अर्थानाम् । १२ अन्यथेति शेषः। १३ असम्बन्धपक्षे। १४ अन्यस्य-शेषसकलभागस्य । १५ सौगतस्य । १६ परस्परमसम्बद्धत्वात् । १७ मा भवत्वित्युक्ते सत्याह । १८ अनुमानतः। १९ स्कन्धरूपेण । २० बाह्याध्यात्मिकानाम् । २१ तव सौगतस्य स्यात् । २२ जनैः । २३ सौगतोक्त । २४ पिण्डोणुमात्रः स्यादित्यादिः । २५ कथं तहिं सम्बन्ध इत्युक्ते सत्याह । २६ जैनैः। २७ अपरप्रकारस्य । २८ प्रकारान्तरत्वेन । २९ परेण । ३० एकलोलीभावात्मलक्षणया। ३१ पर्यायरूपेण । ३२ आदौ दघिगुडौ पृथक् तिष्ठतः पश्चात्संयोगेन कृत्वाऽन्यथास्वभावं पर्यायरूपं पानकं जातमिति । ३३ शानस्य । ३४ कथञ्चिन्नीलाकारेभ्योऽशक्यविवेचनत्वेन । ३५ उत्पत्तेः ।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः
५१५ दन्यो नीलाद्यनेकाकारैः सम्बन्धः, सर्वात्मनैकदेशेन वा तैस्तस्याः लम्वन्धे प्रोक्ताशेषदोषानुषङ्गाविशेषात् ।
स चैवंविधः सम्वन्धोर्थानां क्वचिन्निखिलप्रदेशानामन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशतः-यथा सक्तुतोयादीनाम् , क्वचित्तु प्रदेशसंश्लिष्टतामात्रेण-यथाङ्गुल्यादीनाम् । न चान्तर्वहिर्वा सांशवस्तुवादिनः५ सांशत्वानुषङ्गो दोषाय; इष्टत्वात्। न चैवमनवस्था; तद्वतस्तत्प्रदेशानामत्यन्तभेदाभावात् । तद्भेदे हि तेषामपि तद्वता प्रदेशान्तरैः सम्बन्ध इत्यनवस्था स्यात् नान्यथा, अनेकान्तात्मकवस्तुनोऽ. त्यन्तभेदाभेदाभ्यां जात्यन्तरत्वाच्चित्रसंवेदनवदेव।
नन्वेवं परमाणूनामप्यंशवत्त्वप्रसङ्गः स्यात् । इत्यप्यनुत्तरम् ;१० यतोऽत्रांशशब्दः स्वभावार्थः, अवयवार्थो वा स्यात् ? यदि स्वभावार्थः; न कश्चिद्दोषस्तेषां विभिन्नदिग्विभागव्यवस्थितानेकाणुभिः सम्वन्धान्यथानुपपत्त्या तावद्धा स्वभावभेदोपपत्तेः। अवयवार्थस्तु तत्रासौ नोपपद्यते; तेषामभेद्यत्वेनावयवासम्भवात् । न चैवं तेषामविभागित्वं विरुध्यते, यतोऽविभागित्वं मेदयितुमशक्यत्वं १५ न पुनर्निःस्वभावत्वम्। ___ यत्तूक्तम्-'निष्पन्नयोरनिप्पन्नयोर्वा पारतब्यलक्षणः सम्वन्धः स्यात्' इत्यादिः तदप्यसारम् ; कथञ्चिनिष्पन्नयोस्तभ्युपगमात् । पैटो हि तन्तुद्रव्यरूपतया निष्पन्न एव अन्वयिनो द्रव्यस्य पटपरिणामोत्पत्तेः प्रागपि सत्त्वात् , स्वरूपेण त्वनिष्पन्नः, तन्तुद्रव्यमपि २० खरूपेण निष्पन्नं पटपरिणामरूपतयाऽनिष्पन्नम् । तथाङ्गुल्यादिद्रव्यं स्वरूपेण निष्पन्नम् संयोगपरिणामात्मकत्वेनानिष्पन्नमिति ।
किञ्च, पारतन्यस्याऽभावाद्भावानां सम्वन्धाभावे तेन व्याप्तः क्वचिसम्वन्धः सिद्धः, न वा ? प्रसिद्धश्चेत् ; कथं सर्वत्र सर्वदा सम्वन्धाभावः विरोधात् ? नो चेत् । कथमव्यापकाभावाव्याप्य-२५ स्याभावसिद्धिरतिप्रसङ्गीत् ?
१ भिन्नः। २ सौगतेन। ३ पिण्डोणुमात्रः स्यादित्यादि । ४ सांशत्वादि । ५ इति प्रतिबन्धविधानम् । ६ सम्बन्धिनि पदार्थे । ७ भवति । ८ सम्बन्धमात्रेण । ९ जैनस्य । १० पदार्थात् । ११ सर्वथा। १२ कथञ्चिद्भेदे। १३ अन्तो धर्मः, कथञ्चिद्भेदाभेदरूपस्य । १४ सर्वथानेकत्वैकत्वाभ्याम् । १५ सांशवस्तुप्रकारेण । १६ तर्हि । १७ स्वभावभेदाऽभावे । १८ स्वभावभेदसम्भवे । १९ कथम् । २० तन्त्वादेः । २१ पटरूपेण । २२ पटः। २३ भावानां सम्बधो नास्ति पारच्याभावात् । २४ दृष्टान्ते । २५ शातः । २६ शातत्वस्य । २७ अथ न प्रसिद्धस्तर्हि । २८ असाध्य । २९ असाधनस्य । ३० अन्यथा। ३१ घटाभावे पटाभावप्रसङ्गात् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
'रूपश्लेषो हि' इत्याद्यप्येकान्तवादिनामेव दूषणं नास्माकम् ; कथश्चित्सम्वन्धिनोरेकत्वापत्तिखभावस्य रूपश्लेषलक्षणसम्बन्ध स्याभ्युपगमात् । अशक्यविवेचनत्वं हि सम्बन्धिनो रूपश्लेषः,
असाधारणस्वरूपता च तदऽश्लेषः । स चानयोर्द्वित्वं न विरु५न्ध्यात् तथा प्रतीतेश्चित्राकारकसंवेदनवत् । न चापेक्षिकत्वात्सम्वन्धस्वभावो मिथ्याऽर्थानां सूक्ष्मत्वादिवदित्यभिधातव्यम् ; असम्बन्धखभावस्यापि तथाभावानुषङ्गात् । सोपि ह्यापेक्षिक एव कश्चिदर्थमपेक्ष्य कस्यचित्तद्व्यवस्थित्यन्यथानुपपत्तेः स्थूलतादि
वेत् । 'प्रत्यक्षवुद्धौ प्रतिभासमानः सोनापेक्षिक एव तत्पृष्ठभावि१० विकल्पेनाध्यवसीयमानो यथापेक्षिकस्तथाऽवास्तवोपि' इत्यन्य
त्रापि समानम् । न खलु सम्बन्धोऽध्यक्षेण न प्रतिभासते यतोऽनापेक्षिको न स्यात्।
एतेने 'परापेक्षा हिं' इत्यांद्यपि प्रत्युक्तम् ; असम्बन्धेपि समानत्वात्। __ 'द्वयोरेकाभिसम्बन्धात्' इत्याद्यप्यविज्ञातपराभिप्रायस्य विजृ. म्भितम् ; यतो नास्माभिः सम्वन्धिनोस्तोंपरिणतिव्यतिरेके. णान्यः सम्वन्धोभ्युपगम्यते, येनानवस्था स्यात् ।
तथा च 'तामेव चानुरुन्धानैः' इत्याद्यप्ययुक्तम्। क्रियाकारकादीनां सम्वन्धिनां तत्सम्बन्धस्य च प्रतीत्यर्थं तदभि२०धायकानां प्रयोगप्रसिद्धः। अन्यापोहस्य च प्रागेवापास्तस्वरूपत्वाच्छब्दार्थत्वमनुपपन्नमेव । चित्रज्ञानॆवच्चानेकसम्बन्धितादात्म्येप्येकत्वं सम्बन्धस्याविरुद्धमेव ।
यदप्युक्तम्-'कार्यकारणभावोपि' इत्यादि; तदप्यविचारितरमणीयम्; यतो नास्माभिः सहभावित्वं क्रमभावित्वं वा कार्य
१ अनेकान्तवादिनां जैनानाम्। २ एकलोलीभाव। ३ इदं तोयमिमे सक्तव इति विभागस्य कर्तुमशक्यत्वात् । ४ सक्तुतोययोभिन्नस्वरूपता। ५ पृथक्त्वम् । ६ इदं चित्रज्ञानमिमे चित्राकारा इति । ७ परेण। ८ अर्थानाम् । ९ आपेक्षिकत्वाविशेषात् । १० आपेक्षिकत्वाभावे। ११ निर्विकल्पकबुद्धौ। १२ साधनमसिद्धमुद्भावयति । १३ स्यादेव। १४ भवदुत्त्या सम्बन्धस्य परानपेक्षित्वसमर्थनेन । १५ दूषणम् । १६ सौगतोक्तन्यायस्य । १७ जैन। १८ सौंगतस्य । १९ विश्लिष्टरूपतापरित्यागेन संश्लिष्टरूपतया एकलोलीभावलक्षणपरिणतिः। २० सम्बन्धसिद्धौ । २१ देवदत्त गामभ्याजेत्यादीनाम् । २२ शब्दानाम् । २३ सम्बन्धिनामनेकत्वे सम्बन्धस्याप्यनेकत्वं स्यादित्युक्ते सत्याह । २४ चित्रकशानवत्। २५ तन्तुलक्षणैः पक्षे नीलाकारादिभिः । २६ पटस्य । २७ जैनैः ।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः
५१७ कारणभावनिवन्धनमिष्यते । किन्तु यद्भावे नियता यस्योत्पत्ति स्तत्तस्य कार्यम् , इतरच कारणम्। तच्च किञ्चित्संहभावि, यथा घटस्य मृद्रव्यं दण्डादि वा। किञ्चित्तु क्रममावि, यथा प्राक्तनः पर्यायः । तत्प्रतिपत्तिश्च प्रत्यक्षानुपलम्भसहायनात्मना नियते व्यक्तिविशेषे, तर्कसहायेन वाऽनियते प्रसिद्धा । एकमेव च ५ प्रत्यक्ष प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दाभिधेयम् । तद्धि कार्यकारणभावाभिमतार्थविषयं प्रत्यक्षम् , तद्विविक्तान्यवस्तुविषयमनुपलम्भशब्दाभिधेयम् । तथाहि-एतावद्भिः प्रकार—मोग्निजन्यो न स्यात्-यदि अग्निसन्निधानात्प्रागपि तत्र देशे स्यात् , अन्यतो वाऽऽगच्छेत् , तदन्यहेतुको वा भवेत् । एतच्च सर्वमनुपलम्भपुरस्सरेण प्रत्य-१० क्षेण प्रत्याख्यातम् ।
एतेन प्रागनुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसन्निधानानन्तरमुपलभ्यमानस्य तस्य तत्कार्यता स्यादिति प्रतिव्यूढम् ; यदि हि तस्य तंत्र प्रॉगसत्त्वमन्यदेशादनागमन्याहेतुकत्वं च निश्चेतुं शक्येत वादेव कुम्भकारकार्यता । तत्तु निश्चेतुमशक्यम् । १५
न च भिन्नार्थग्राहि प्रत्यक्षद्वयं द्वितीयाग्रहणे तैदपेक्ष कारणत्वं कार्यत्वं वा ग्रहीतुमसमर्थमित्यभिधातव्यम् ;क्षयोपशमविशेषवंतां धूममात्रोपलम्मेप्यभ्यालवशाइनिजन्यत्वावगमप्रतीतेः, अन्यथा बाष्पादिवलक्षण्येनास्याऽनवधारणात्ततोयनुमाभावे सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः। ततः कारणाभिमतपदार्थग्रहणपरिणामापरि-२० त्यागवतात्मना कार्यस्वरूपप्रतीतिरभ्युपगन्तव्या नीलाद्याकारव्याप्येकज्ञाने तत्स्वरूपवत्।
१ सहभवतीत्येवंशीलम् । २ यद् घटोत्पत्तिकाले भवति। ३ कुशूलादिः । ४ उत्तरपर्यायस्य कारणन् । ५ महानसे। ६ महा-हदे। ७ परिमिते । ८ धूमान्योः । ९ यावान् कश्चित्कार्यलक्षणपदार्थः स कारणे सति भवति, नान्यथेति। १० आत्मना। ११ अनुपलम्भशब्देन किमुच्यते इत्याह । १२ नानुमानादिकम् । १३ अभिधूम । १४ बसः। १५ महा-हदादि। १६ 'अनुपलम्भ' इति । १७ प्रत्यक्षम् । १८ तथा हीत्यादिना प्राक् प्रतिपादितार्थ व्यतिरेकद्वारेण समर्थयते । १९ प्राक् प्रतिपादितः प्रत्यक्षानुपलम्भादिभिः। २० तान्प्रकारानाह। २१ एवमस्तु इत्युक्ते सत्याह । २२ प्रत्यक्षानुपलम्भादिभिः कार्यकारणभावसिद्धिसमर्थनेन । २३ निराकृतम्। २४ कुम्भकारावस्थितप्रदेशे । २५ कुम्भकारसन्निधानात् । २६ कुम्भकारापेक्षया । २७ तर्हि। २८ रासभस्य । २९ अग्निधूम । ३० अग्निधूमयोर्मध्येऽन्यतरस्य । ३१ एकेन। ३२ अगृहीतकार्यकारणान्यतरापेक्षम् । ३३ परेण। ३४ कार्यकारणभावज्ञानाच्छादककर्मणः । ३५ नृणाम् । ३६ धूमस्य । ३७ पूर्वोक्तात्कारणामस्य वन्हिजन्यत्वावगमाभावे । ३८ दूरतः। ३९ धूमोग्नेः कार्यमिति । ४० परेण ।
प्र. क. मा० ४४
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० ननु नालिकरद्वीपादिवासिनामकरलाभूमस्याग्नेर्वोपलस्मेपि कार्यकारणभावस्यानिश्चयानासौ वास्तवः; तदप्यापेशलम् ; बाह्या. न्तःकारणप्रसवत्वात्तन्निश्चयस्य । क्षयोपशमविशेषो हि तस्यान्तः
कारणम् , तद्भावभावित्वाभ्यासस्तु बाह्यम् , अकार्यकारणभावा५वगमस्य त्वऽतद्भावभावित्वाभ्यासः। तदभावान्न क्वचित्तेषां कार्यकारणभावस्याऽकार्यकारणभावस्य वा निश्चय इति ।
धूमादिज्ञानजननसामग्रीमात्रार्त्तत्कार्यत्वादिनिश्चयानुत्पत्तेन कायत्वादि धूमादेः स्वरूपमिति चेत्, तर्हि क्षणिकत्वादिरपि तत्स्वरूपं मा भूतत एव । क्षणिकत्वाभावेऽवस्तुत्वम् अन्यत्रापि १० समानम् , सर्वथाप्यकार्यकारणस्य वस्तुत्वानुपपत्तेः खरशृङ्गवत् ।
न च कार्यस्यानुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं धर्मः; असत्त्वात् । नाप्युत्पनस्यात्यन्तं भिन्नं तत् तद्धर्मत्वात् । तत एव कारणस्यापि कारणत्वं धर्मो नैकान्ततो भिन्नम् । तञ्च ततोऽभिन्नत्वात्तग्राहिप्रत्यक्षे.
णैव प्रतीयते तद्व्यक्तिखरूपवत् । दृश्यते हि पिपासाद्याक्रान्तचेत१५ सामितरार्थव्यवच्छेदेनावालं तदपनोदसमथै जलादौ प्रत्यक्षा
त्प्रवृत्तिः। तच्छक्तिप्रधानतायां तु कार्यदर्शनातन्निश्चीयते तद्व्यतिरेकेणास्यासम्भवात् । न च स्वरूपेणाकार्यकारणयोस्तद्भावः सम्भवति । नाप्युत्तरकालं भिन्नेन तेनानयोः कार्यकारणताऽभिन्ना कर्तुं शक्या; विरोधात् । नापि भिन्ना; तयोः स्वरूपेण कार्यकारणता. २० प्रसङ्गात् । न च स्वरूपेण कार्यकारणयोरर्थान्तरभूततत्सम्बन्ध कल्पने किञ्चित्प्रयोजनं कार्यकारणतायाः स्वतः सिद्धत्वात् ?
ननु कार्याप्रतिपत्तौ कथं कारणस्य कारणताप्रतिपत्तिस्तदपेक्षत्वात्तस्याः ? कथमेवं पूर्वापरभागाप्रतिपत्तौ मध्यभांगस्यातो व्यावृत्तिप्रतिपैत्तिरपेक्षाकृतत्वाविशेषात् ? ततः “पश्यन्नयं क्षणि
१ कारण। २ कार्यस्य । ३ पुनः पुनदर्शनम् । ४ कारणम् । ५ वाह्यान्तःकारणयोः। ६ अग्निधूमयोरुपलम्भपि येषां बाह्यान्तःकारणे स्तस्तेषामेव तयोः कार्यकारणभावपरिच्छित्तिर्नान्येषामिति भावः। ७ नेत्रादि । ८ वह्नि। ९ आदिना कारणत्वादि। १० आदिनाग्न्यादेः। ११ धूमादिज्ञानसामग्रीमात्रात् क्षणिकत्वानिश्चयादेव । १२ धूमादिकं धर्म्यऽवस्तु भवतीति साध्यमकार्यकारणत्वाच्छ शविषाणवत्। १३ धर्मधर्मिणोरत्यन्तभेदाभावात् । १४ सन्दिग्धानेकान्तिकत्वेयं परिहारः । १५ कारणभूते । १६ कारणत्वम् । १७ कार्यस्य । १८ घटपटयोरिव। १९ कारणात्। २० सम्बन्धेन। २१ अभिन्ना चेत्कथं भिन्नेन सम्बन्धन विधीयते ? विधीयते चेत्कथमभिन्नेति विरोधः। २२ अग्न्यादेः । २३ क्षणविशेषणम् । २४ वर्तमानक्षणस्य । २५ पूर्वापरभागाव्यावृत्तिमध्यक्षणस्येति प्रतिपत्तिः कथं घटते । २६ मध्यभागस्यातो व्यावृत्तिप्रतिपत्यभावतः । २७ योगी ।
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सू० ४।६] सम्बन्धसद्भाववादः
५१९ कमेव पश्यति" इति [ ] वचो विरुध्येत । मध्यक्षणस्वभावत्वा. त्तद्व्यावृत्तेः तदाहिज्ञानेन प्रतिपत्तिश्चेत् ; तर्हि कार्योत्पादनशक्तेः कारणस्वभावत्वात्तग्राहिणैव ज्ञानेन प्रतिपत्तिरिष्यतां विशेषाभौवात् । उक्ता च कार्यप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षादिसहायेनात्मनेत्युपरम्यते।
किञ्च, कार्यानिश्चये शतरप्यनिश्चये नीलादिनिश्चयोपि मा भूत् । यदेव हि तस्याः कार्य तदेव नीलादेरपि, अनयोर भेदात् । वक्तृत्वस्य चासर्वज्ञत्वादिना व्याप्त्यसम्भवः सवैज्ञसिद्धिमघट्टके प्रतिपादितः।
न चेन्धनादिप्रभवपावकस्य मण्यादिप्रभवपावकादभेदो येन १० नियतः कार्यकारणभावो न स्यात् । अन्यादृशाकारो हीन्धनप्रभवः पावकोऽन्यादृशाकारश्च मण्यादिप्रभवः । तद्विचारे च प्रतिपत्रा निपुणेन भाव्यम् । यत्नतः परीक्षितं हि कार्य कारणं नातिवर्तते । कथमन्यथा वीतरागेतरव्यवस्था तच्चेष्टीयाः साङ्कल्पलम्भात् ? ___ कथं चैवंवादिनो मृतेतरव्यवस्था स्यात् ? व्यापारव्याहारा-१५ कारविशेषस्य हि क्वचिच्चैतन्यकार्यतयोपलम्मे सत्यस्त्यत्र जीवच्छरीरे चैतन्यं व्यापारादिकार्यविशेपोपलम्भात्, मृतशरीरे तु नास्ति तद्नुपलम्भादिति कार्यविशेषस्योपलम्भानुपलम्माभ्यां कारणविशेषस्य भावाभावप्रसिद्धेस्तद्वयवस्था युज्येत ।
अकार्यकारणभावेपि चैतत्सर्व समानम्-सोपि हि द्विष्ठः२० कथमसहभाविनोः कार्यकारणत्वाभ्यां निषेध्ययोर्वतते ? ने चाद्विष्ठोसौ; सम्बन्धाभावविरोधात् । पूर्वत्र भावे वर्तित्वा परत्र क्रमेणासौ वर्त्तमानोऽन्य निस्पृहत्वेनैकवृत्तिमत्त्वात्कथं लम्वन्धाभावरूपता(तां) प्रतिपद्यते ? अथाकार्यकारणयोरेकमपेक्ष्यान्यत्रासौ क्रमेण वर्त्तत इति सस्पृहत्वेनास्य द्विष्ठत्वात्तदभावरूपते-२५
१ बसः । २ एव। ३ कार्यस्य । ४ मध्यक्षणस्वभावत्वाद्वथावृत्तेस्तद्वाहिशानेन प्रतिपत्तिर्घटते, कार्योत्पादनशक्तः कारणभावत्वात्तद्वाहिशानेन प्रतिपत्तिर्ने त्यत्र । ५ कारणसम्बन्धिन्याः कार्योत्पादनलक्षणायाः। ६ तव सौगतस्य । ७ कुतः। ८ शक्तिनीलाद्योः। ९ निरंशवस्तुवादिमते । १० जनैः। ११ किंतु भेद एव । १२ सर्वज्ञेन । १३ अझ्यादिलक्षणम् । १४ इन्धनमण्यादिकम् । १५ जपतपोध्यानादेः। १६ दृष्टान्तभूते । १७ कथम् । १८ गोमहिषयोः । १९ अकार्यकारणयोः। २० अनयोः सम्बन्धाभावो यतः। २१ अकार्यकारणभावतः सम्बन्धाभावरूपो न भवत्यधिष्ठत्वाद्धटसत्त्ववत्। २२ अभावात् । २३ अकारणे। २४ अकार्ये । २५ यथास्माकं सम्बन्धो न घटते तथा तवापीत्यर्थः। २६ असम्बन्धस्य ।
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५२०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरिक ध्यते; तदा तेनापेक्ष्यमाणेनोपकारिणा भवितव्यम् । 'कथं चोपकरोत्यसन्' इत्यादि सर्वमंत्रापि योजनीयम् ।
अकार्यकारणभावस्याप्यर्थानामनभ्युपगमे तु कार्यकारणभावो वास्तवः स्यात् । उभयाभावस्तु न युक्तः विरोधात्, कचिन्नीले५तरत्वाभाववत् । ततो यथा कुतश्चित्प्रमाणादकार्यकारणभावो
गवाश्वादीनामतद्भावभावित्वंप्रतीतेः परस्परं परमार्थतो व्यवतिष्ठते, तथाग्निधूमादीनां तद्भावभावित्वप्रतीतेः कार्यकारणभोवोपि वाधकाभावात् । तन्न प्रमाणतः प्रतीयमानः सम्वन्धः स्वाभिप्रेततत्त्वन्निह्नवनीयो येन स्थूलादिप्रतीतेन्तत्वात्तत्स्व१० भावतार्थस्य न स्यात् । चित्रज्ञानवद्युगपदेकस्यानेकाकारसम्वन्धित्ववत्क्रमेणापि तत्तस्याविरुद्धम् । इति सिद्धं परापरविवर्त्तव्याप्येकद्रव्यलक्षणमूर्खतासामान्यम् । यथा च द्वेधा सामान्यं तथा
विशेषश्च ॥७॥ १५ चकारोऽपिशब्दार्थे । कथं तदैविध्यमित्याह
पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥ ८॥ तत्र पर्यायस्वरूपं निरूपयतिएकस्मिन्द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्यायोः
__ आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥ ९ ॥ २० अत्रोदाहरणमाह आत्मनि हर्षविषादादिवत् ।।
ननु हर्षादिविशेषेव्यतिरेकेणोत्मनोऽसत्त्वादयुक्तमिदमुदाहरणमित्यन्यः; सोप्यप्रेक्षापूर्वकारी3 चित्रसंवेदनवदनेकाकारव्यापित्वेनात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात् । 'यद्यथा प्रतिभासते तत्त
१ सौगतेन मया। २ असम्बन्धेन । ३ अकारणेनाऽकार्येण वा। ४ अकार्यमकारणं वा । ५ असम्बन्धे । ६ न केवलं कार्यकारणभावस्य । ७ परेण । ८ उक्त प्रकारेण सम्बन्धो निराकर्तुं न शक्यते यतः। ९ असम्बन्धः। १० नराश्ववत् । ११ चैतन्यव्याहारादिकार्यवत् । १२ परस्परं परमार्थतो व्यवतिष्ठते । १३ उभयत्र । १४ कार्यकारणाविनाभावः। १५ सौगत । १६ असम्बन्धादिवत् । १७ किंतु स्यादेव। १८ ज्ञानस्य । १९ जीवादिपदार्थस्य । २० ज्ञानसुखवीर्यदर्शनादय आत्मनः सहभावित्वाद्गुणाः स्युः । क्रमभावित्वाच्च पर्यायाश्च भवन्ति-कुतो वस्तुनोऽ. नेकधर्मात्मकत्वात् । २१ भेद । २२ अपरस्य । २३ सौगतः।
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सू० ४।९] अन्वय्यात्मसिद्धिः
५२१ थैव व्यवहर्तव्यम् यथा वेद्याद्याकारात्मसंवेदनरूपतया प्रतिभालमानं संवेदनम् , सुखाद्यनेकाकारकात्मतया प्रतिभासमानश्चात्मा' इत्यनुमानप्रसिद्धत्वाच्च।
सुखदुःखादिपर्यायाणामन्योन्यमेकान्ततो भेदे च 'प्रागहं सु. ख्यासं सम्प्रति दुःखी वर्ते' इत्यनुसन्धानप्रत्ययो न स्यात् । तथा-५ विधवासनाप्रवोधादनुसन्धानप्रत्ययोत्पत्तिः, इत्यप्यसत्यम् ; अनुसन्धानवासना हि यद्यनुसन्धीमानसुखादिभ्यो मिला; तर्हि सन्तानान्तरसुखादिवत्स्व सन्तानेप्यनुसन्धानप्रत्ययं नोत्पादयेदविशेषात् । तदभिन्ना चेत् तावद्धाभिद्येत । न खलु भिन्नादभिन्नमेंभिन्न नामाऽतिप्रसङ्गात् । तथा तत्प्रवोधात्कथं सुखादिष्कमनु-१० सन्धानज्ञानमुत्पंद्येत ? तेभ्यस्तस्याः कथञ्चिद्भेदे नाममात्रं भिद्येतअहमहमिकया स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धस्यात्मनः सहक्रमभाविनो गुणपर्यायानात्मसात्कुर्वतो 'वासना' इति नामान्तरकरणात् ।
क्रमवृत्तिसुखादीनामेकसन्ततिपतितत्वेनानुसन्धाननिबन्धनत्वम् ; इत्यपि तादृगेव; आत्मनः सन्ततिशब्देनाभिधानात् । तेषां१५ कथञ्चिदेकत्वामा नैकपुरुषसुखादिवदेकसन्ततिपतितत्वस्याप्ययोगात्। ___ आत्मनोऽनभ्युपगमे च कृतनाशाकृताभ्यागमदोषानुषङ्गः । कर्तुनिरन्वयनाशे हि कृतस्य कर्मणो नाशः कर्तुः फैलानभिसम्बन्धात् , अकृताभ्यागमश्च अकर्तुरेव फलाभिसम्बधात् । ततस्त-२० दोषपरिहारमिच्छतात्मानुगमोभ्युपगन्तव्यः। न चाप्रमाणकोयम्; तत्सद्भावावेदकयोः खसंवेदनानुमानयोः प्रतिपादनात् ।
'अहलेव ज्ञातवानहमेव वेद्मि' इत्यादेरेकप्रमातृविषयप्रत्यभिज्ञानस्य च लद्भावात् । तथा चोक्तं भट्टेन
१ आदिना वेदकसंवित्तिग्रहः । २ हर्षविषादादिग्रहः । ३ साधनमसिद्धमित्युक्ते सत्याह । ४ सर्वथा। ५ आत्मनः सकाशात् । ६ प्रत्यभिज्ञान । ७ गम्यमान । ८ सर्वथा। ९ सुखादिस्वरूपेण। १० उभयत्र भिन्नत्वस्य। ११ तर्हि । १२ सुखादयो यावन्तः। १३ एकम् । १४ अन्यथा। १५ घटपटादिभ्योऽभिन्नानां तत्स्वरूपाणां भिन्नत्वप्रसङ्गात् । १६ वासनाया अचेतनत्वे च । १७ अनेकवासना । १८ अनेकसुखानुसन्धानज्ञानमुत्पद्यतेत्यर्थः। १९ कारणबहुत्वे कार्यबहुत्वमिति वचनात् । २० आत्मा वासनेति च । २१ अहं सुख्यहं दुःखीति । २२ स्वधर्मान् । २३ हर्षविषादादीनां च। २४ आत्मद्रव्यापेक्षया । २५ कथम् ? । २६ कर्मणः । २७ पुरुषस्य । २८ कर्मणः। २९ कर्मफलकाले तदभावात् । ३० सौगतेन । ३१ पूर्वम् । ३२ इदानीम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि०. "तस्मादुभयंहानेने व्यावृत्त्यनुनमात्मकः। पुरुषोभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सँर्पवत् ॥"
[मी० श्लो० आत्मवाद श्लो० २८] इति । तत्मात्तत्प्रत्यभिज्ञानात्सर्वलोकावधारितात् । ५ नैरात्म्यवादवाधः स्यादिति सिद्धं समीहितम् ॥”
[मी० श्लो० आत्मवाद श्लो० १३६] इति च । अथ कथमतःप्रत्यभिज्ञानादात्मसिद्धिरिति चेत्? उच्यते-'प्रमातृविषयं तत्' इत्यत्र तावदावयोरविवाद एव । स च प्रमाता भव
नात्मा भवेत् , ज्ञानं वा? ल तावदुत्तरः पक्षः; 'अहं ज्ञातवानहमेव १० च साम्प्रतं जानामि' इत्येकप्रमापरामर्शन ह्यहंवुद्धरुपजायमा. नाया ज्ञानक्षणो विषयत्वेन कल्प्यमानोतीतो वा कल्प्येत, वर्तमानो वा, उभौ वा, सन्तानो वा प्रकारान्तरासम्भवात् ? तत्राद्यविकल्प 'ज्ञातवान्' इत्ययमेवाकारावसायो युज्यते पूर्व तेन ज्ञातत्वात्,
'सम्प्रति जानामि' इत्येतत्तु न युक्तम्, न ह्यसावतीतो ज्ञानक्षणो १५वर्तमानकाले वेत्ति पूर्वमेवास्य निरुद्धत्वात् । द्वितीयपक्षे तु 'सम्प्रति जानामि' इत्येतद्युक्तं तस्येदानी वेदकत्वात् , 'ज्ञातवान्' इत्याकारणग्रहणं तु न युक्तं प्रागस्यासम्भवात् । अत एव न तृतीयोपि पक्षो युक्तः, न खलु वर्तमानातीतावुभौ ज्ञानक्षणौ
ज्ञान(त)वन्तौ, नापि जानीतः। किं तर्हि ? एको ज्ञातवान् अन्यस्तु २० जानातीति । चतुर्थपक्षोप्ययुक्तः, अतीतवर्चमानज्ञानक्षणव्यतिरेकेणान्यस्य सन्तानस्यासम्भवात् । कल्पितस्य सम्भवेपि न ज्ञातृत्वम् । न ह्यऽसौ ज्ञान(त)वान्पूर्व नाप्यधुना जानाति, कल्पितत्वेनास्याऽवस्तुत्वात् । न चावस्तुनो ज्ञातृत्वं सम्भवति
वस्तुधर्मत्वात्तस्य इति अतोऽन्यस्यै प्रमातृत्वासम्भवादात्मैव २५प्रसाता सिद्धयति । इति सिद्धोऽतः प्रत्यभिज्ञानादात्मेति ।
ननु चात्मासुखादिपर्यायैः सम्बद्ध्यमानः परित्यक्तपूर्वरूपो वा १ सुखादिपर्यायाणां सर्वथात्मनः सकाशाद्भेदाभेदौ, तयोः। २ परिहारेण । ३ सुखादिस्वरूपतया। ४ चिद्रूपतया । ५ भेदाभेदात्मकः । ६ आकारेषु । ७ स्वर्णवदिति पाठान्तरम्। ८ ज्ञानसन्ततिरेवात्मा नान्यः कश्चिदिति हेतो.रात्म्यम् । ९ जैनबौद्धयोः। १० प्रत्यभिज्ञानेन। ११ सौगतेन। १२ अतीतवर्तमानलक्षणौ । १३ निश्चयः। १४ अतीतज्ञानक्षणस्य । १५ अतीतज्ञानक्षणस्य । २६ कथम् ? । १७ विनष्टत्वात्। १८ एकस्य ज्ञातवत्त्वज्ञातृत्वासम्भवादेव । १९ इत्युल्लेखः । २० इत्युल्लेखः । २१ इत्युल्लेखो युक्तः । २२ अतीतज्ञानक्षणादेः। २३ अवशिष्य
माणत्वात्।
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सू० ४।९ अन्वय्यात्मसिद्धिः
२२३ लम्बद्ध्येत, अपरित्यक्तपूर्वरूपो वा? प्रथमपक्षे निरन्वयनाशप्रसङ्गः, अवस्थातुः कस्यचिदभावात् । द्वितीयपक्षे तु पूर्वोत्तरावस्थयोरात्मनोऽविशेपादपरिणामित्वानुषङ्गः । प्रयोगः यत्पूवोत्तरावस्थासु न विशिष्यते न तत्परिणामि यथाकाशम्, न विशिष्यते पूर्वोत्तरावस्थास्वात्मेति; तदपरीक्षिताभिधानम् ५ आलनो भेदेन प्रसिद्धसत्ताकैः सुखादिपायैः स्वस्य सम्वन्धानभ्युपगमात् । आत्मैव हि तत्पर्यायतया परिणरहे नीलाद्याकाঅন্য স্থললু, সহাকিকালেই লিজালা। न खलु ययैव शत्यात्मानं प्रतिपद्यते विज्ञानं तयैवार्थम् , तयोरअदप्रसङ्गात् । अन्यथात्मनो येन रूपेण सुखपरिणामस्तेनैव दुःख-१० परिणामेपि अनयोरभेदो न स्यात् । न च तच्छक्तिभेदे तदात्मनो ज्ञानस्यापि भेदः, अन्यथैकस्य स्वपरग्राहकत्वं न स्यात् । नापि चित्रज्ञानत्य नीलाद्यनेकाकारतया परिणामेपि एकाकारताव्याघातः । तद्वत्सुखाद्यनेकाकारतया परिणामेपि आत्मनो नैकत्वव्याघातो विशेषाभावात् । न चैकत्र युगपत् , अन्यत्रं तु कालभेदेन १५ परिणामाद्विशेषः, प्रतीतेर्नियामकत्वात् । यत्र हि प्रतीतिर्देशकालभिन्ने तदभिन्ने वा वस्तुन्येकत्वं प्रतिपद्यते तत्रैकत्वं प्रतिपत्तव्यम् , यत्र तु नानात्वं प्रतिपद्यते तत्र तु नानात्व मिति ।
ततो यदुक्तम्-सर्वात्मनैवाभेदे मेदस्तद्विपरीतः कथं भवेत् ? न ह्येकदा विधिप्रतिषेधौ परस्परविरुद्धौ युक्तौ । प्रयोगः-यंत्रा-२० भेदस्तत्र तद्विपरीतो न भेदः यथा तेषामेव पर्यायौंणां ट्रेव्यस्य च यत्प्रतिनियतमसाधारणमात्मस्वरूपं तस्य न स्वभावाद्भेदः, अभेदश्च द्रव्यपर्याययोरिति । किञ्च, पर्याययो द्रव्यस्याभेदः, द्रव्यात्पर्यायाणांवा? प्रथमपक्षे पर्यायवद्रव्यस्याप्यऽनेकत्वानुषङ्गः।
१ पूर्वाकारापरित्यागात् । २ 'आत्मा धर्मी' परिणामी न भवतीति साध्यम् पूर्वोत्तरावस्थास्वविशिष्टत्वात्' इत्युपरिष्टात्संयोज्यम् । ३ भिद्यते । ४ का (पञ्चमी) । ५ जैनैः। ६ कथम् ? तथा हि। ७ ज्ञानस्य शक्तिद्वयं न विद्यते इत्याशङ्कायामाह । ८ स्वस्य स्वरूपम् । ९ एकयैव शक्त्या स्वरूपार्थयोः प्रतिपत्तौ। १० आत्मनि । ११ आत्मनि। १२ ( 'प्रतीतेः' इतिखपुस्तके पाठः)। १३ सुखादिपर्यायैः । १४ परेण । १५ नीलाद्यनेकाकारैः। १६ परेण । १७ सति । १८ द्रव्यपर्याययोभैदः। १९ भेदाभेदौ । २० द्रव्यपर्यायौ धर्मिणौ भिन्नौ न भवतस्तयोरभेदादिति अनुमानं सौगतप्रयुतमुपरितोत्र योज्यम् । २१ पक्षे नीलाद्याकाराणाम् । २२ प्रथमपक्षे आत्मनः, द्वितीयपक्षे चित्रशानस्य । २३ अन्योन्यम् । २४ पक्षे नीलाद्याकारचित्रशानयोः । २५ पक्षे नीलाद्याकारेभ्यः। २६ पक्षे चित्रज्ञानस्य ।
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५२४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० तथा हि-यद्यावृत्तिस्वरूपाऽभिन्न स्वभावं तव्यावृत्तिमत् यथा पर्यायाणां स्वरूपम् , व्यावृत्तिमद्रूपाव्यतिरिक्तं च द्रव्यमिति । द्वितीयपक्षे तु पर्यायाणामप्येकत्वानुषङ्गः । तथाहि-यदनुगतस्वरूपाऽव्यतिरिक्तं तदनुगतात्मकमेव यथा द्रव्यस्वरूपम् , अनु५ गतात्मस्वरूपाऽभिन्नस्वभावाश्च सुखादयः पर्यायाः इत्यादि;
तनिरस्तम् ; प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुरूंपे कुचोद्याऽनवकाशात्। न खलु मदोन्मत्तो हस्ती सन्निहितम् व्यवहितं वा परं भारयति, सन्निहितस्य मारणे मेण्ठस्यापि मारणप्रसङ्गः। व्यवहितस्य च मारणेऽतिप्रसङ्गः, इत्यनर्थानल्पकल्पनाभयात् स्वकार्यकंरणादुप१० रमते । चित्रज्ञानादावपि चैतत्सर्व समानम् । प्रतिक्षितं च प्रतिक्षणं क्षणिकत्वं प्रागित्यलमतिप्रसङ्गेन। अथेदानी व्यतिरेकलक्षणं विशेष व्याचिख्यासुरर्थान्तरेत्याहअर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेकः
गोमहिषादिवत् ॥ १०॥ १५ एकस्मादर्थात्सजातीयो विजातीयो वार्थोऽर्थान्तरम् , तद्तो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् । यथा गोषु खण्डमुण्डादिलक्षणो विसदृशपरिणामः, महिषेषु विशालविसङ्कटत्वलक्षणः, गोमहिषेषु चान्योन्यसलाधारणस्वरूपलक्षण इति ।
तावेवंभकारी सामान्यविशेषावारमा यस्यार्थत्याऽसौ तथोक्तः। स २० प्रमाणस्य विषयः न तु केवलं सामान्यं विशेषो वा, तस्य द्वितीय
परिच्छेदे 'विषयभेदात्प्रमाणभेदः' इति सौगतमतं प्रतिक्षिपता प्रतिक्षिप्तत्वात् । नाप्युभयं स्वतन्त्रम्; तथाभूतस्यास्याप्यप्रतिभासनात् ।
ननु चार्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वमयुक्तम् । तदात्मकत्वे२५ नास्य ग्राहकप्रमाणाभावात् । सामान्यविशेषाकारयोश्चान्योन्यं प्रतिभासभेदेनात्यन्तं भेदात् । प्रयोगः-सामान्याकारविशेषाकारौ
१ व्यावृत्तयः पर्यायाः। २ भेदवत् । ३ तस्मादनेकमिति । ४ अनुगतस्वरूपं= द्रव्यम् । ५ द्रव्यपर्यायात्मके। ६ कुप्रश्न । ७ मदोन्मत्तो हस्ती मारयत्येवेति प्रमाणप्रतिपन्नः। ८ हस्तिपकस्य । ९ मारणात्। १० हस्ती। ११ सर्वात्मनेत्यादि सौगतमते । १२ चित्रशानाकरौ भिन्नौ न भवतः तयोरभेदादित्येवम् । १३ खण्डलक्षणाद्भोः सजातीयो मुण्डलक्षणो गौः, विजातीयो महिषः, खण्डापेक्षया मुण्डो विसदृशाकारो महिषापेक्षया च विसदृशाकार इत्यर्थः । १४ वैशेषिकः। १५ सर्वथा।
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४
सू० ४।१०] अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः ५२६ परस्परतोऽत्यन्तं भिन्नौ भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वाद्धटपटवत् । पेटाः हि भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वमत्यन्तभेदे सत्यवोपलब्धम् , तत् सामान्यविशेषाकारयोरुपलभ्यमालं कथं नात्यन्तभेदं प्रसाधयेत् ? अन्यत्राप्यस्य तदप्रसाधकत्वप्रसङ्गात् । न खलु प्रतिभासभेदाद्विरुद्धधर्माध्यासाच्चान्यत् पटादीनामप्यन्योन्यं भेदनिवन्धनमस्ति। ५ स चावयवावयविनोर्गुणगुणिनोः नियातद्वतोः सामान्यविशेषयोश्चास्त्येव । पटप्रतिभासो हि तन्तुप्रतिभालवैलक्षग्येनानुभूयते, तन्तुप्रतिभासश्च पट प्रतिभालवलक्षण्येन। एवं पटप्रतिभासापादिप्रतिभासवैलक्षण्यमप्यवगन्तव्यम्।
विरुद्धधर्माध्यासोप्यनुभूयत एव, पटो हि पटत्वजातिस-१० म्वन्धी विलक्षणार्थक्रियासम्पादकोतिशयेन महत्त्वयुक्तः, तन्तवस्तु तन्तुत्वजातिसम्वन्धिनोल्पपरिमाणाश्च, इति कथं न भियन्ते ? तादात्म्यं चैकत्वमुच्यते, तस्मिंश्च सति प्रतिभासभेदो विरुद्धधर्माध्यासश्च न स्यात् , विभिन्न विषयत्वात्ततस्तयोः । यदि च तन्तुभ्यो नार्थान्तरं पटः; तर्हि तन्तवोपि नाशुभ्योर्थान्तरम् , १५ तेपि स्वावयवेभ्यः इत्येवं तावञ्चिन्त्यं यावन्निरंशाः परमाणवः, तेभ्यश्चाभेदे सर्वस्य कार्यस्यानुपलम्भः स्यात्। तस्मादर्थान्तरमेव पटात्तन्तवो रूपादयश्च प्रतिपत्तव्याः।
तथा विभिन्नकर्तृकत्वात्तन्तुभ्यो भिन्नः पटो घटादिवत् । विभिन्नशक्तिकत्वाद्वा विषाऽगंदवत् । पूर्वोत्तरकालभावित्वाद्वा२० पितापुत्रवत् । विभिन्नपरिमाणत्वाद्वा वदामलकवत्। .
तथा तन्तुपटादीनां तादात्म्ये 'पटः तन्तवः' इति वचनभेदः, 'पटस्य भावः पटत्वम्' इति षष्ठी, तद्धितोत्पत्तिश्च न प्राप्नोतीति ।
किञ्च, 'तादात्म्यम्' इत्यत्र किं स पट आत्मा येषां तन्तूनां तेषां२५ भावस्तादात्स्यमिति विग्रहः कर्तव्यः, ते वा तन्तवः आत्मा यस्य
१ सन्दिग्धानकान्तिकत्वे प्रतिपादिते सत्याह । २ साधनमिदम् । ३ स्वरूपम् । ४ कथम् ? तथा हि । ५ आदिपदेन क्रियादिग्रहः। ६ शीतापनोदादि । ७ अवयवावयव्यादयः। ८ प्रतिभासभेदे विरुद्धधर्माध्यासे च सत्यपि तादात्म्यं भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ९ तन्त्ववयवेभ्यः। १० व्यणुकादिलक्षणस्य । ११ परमाणुद्वयेन व्यणुकमारभ्यते, व्यणुकत्रितयेन त्र्यणुकमारभ्यते, तच्च प्रत्यक्षमेव तत उपरितन नियमाभावः । १२ जैनेन । १३ प्रतिभासभेदविरुद्धधर्माध्यासप्रकारेण । १४ योषित्कुविन्द । १५ अगदः औषधम् । १६ एकवचनवहुवचनत्वेन । १७ भेदाभावे सति । भेदे षष्ठीति वचनात् ।
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५२६
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
पटस्य, स च ते आत्मा यस्येति वा ? प्रथमपक्षे पटस्यैकत्वात्तन्तूनामप्येकत्वप्रसङ्ग, तन्तूनां वाऽनेकत्वात्पटस्याप्यनेकत्वानुषङ्गः । अन्यथा तत्तादात्म्यं न स्यात् । द्वितीयविकल्पेप्ययमेव दोषः। तृतीयपक्षश्चाविचारितरमणीयः; तद्व्यतिरिक्तस्य वस्तुनोऽ. ५सम्भवात् । न हि तन्तुपटव्यतिरिक्तं वस्त्वन्तरमस्ति यस्य तन्तुपटखभावतोच्येत।
न च तन्तुपटादीनां कथञ्चिद्भेदाभेदात्मकत्वमभ्युपगन्तव्यम् ; संशयादिदोषोपनिपातानुषङ्गात् । 'केन खलु स्वरूपेण तेषां भेदः
केन चाभेदः' इति संशयः। तथा 'यत्राभेदस्तत्र सदस्य विरोधो १० यत्र च भेदस्तत्राभेदस्य शीतोष्णस्पर्शवत्' इति विरोधः। तथा'अमेदस्यैकत्वस्वभावस्यान्यधिकरणं भेदस्य चानेकस्वभावस्यान्यत्' इति वैयधिकरण्यम् । तथा 'एकान्तेनैकात्मकत्वे यो दोषोऽनेकखभावत्वाभावलक्षणोऽनेकात्मकत्वे चैकस्वभावत्वाभा.
वलक्षणः सोत्राप्यनुषज्यते' इत्युभयदोषः । तथा 'येन स्वभावे१५नार्थस्यैकस्वभावता तेनानेकस्वभावत्वस्यापि प्रसङ्गः, येन चानेकखभावता तेनैकस्वभावत्वस्यापि' इति सङ्करप्रसङ्गः । “सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्करः" [ ] इत्यभिधानात् । तथा 'येन स्वभावे. नानेकत्वं तेनैकत्वं प्राप्नोति येन चैकत्वं तेनानेकत्वम्' इति व्यति
करः।"परस्परविषयगमनं व्यतिकरः" [ ] इति प्रसिद्धः । तथा २० येन रूपेण भेदस्तेन कथञ्चिद्भेदो येन चाभेदस्तेनापि कथञ्चि
दभेदः' इत्यनवस्था । अतोऽप्रतिपत्तितोऽभावस्तत्त्वस्यानुषज्येतानेकान्तवादिनाम् । एवं सत्त्वाद्यनेकान्ताभ्युपगमेप्येतेष्टौ दोषा द्रष्टव्याः। तन्न तदात्मार्थः प्रमाणप्रमेयः।
किन्तु परस्परतोत्यन्तविभिन्ना द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेष२५समवायाख्याः षडेव पदार्थाः। तत्र पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव द्रव्याणि । पृथिव्यप्तेजोवायुरित्येतच्चतुःसंख्यं
१ वस्तुनः। २ स तदात्मा, तस्य भावस्तादात्म्यम् । ३ एकरूपपटादभिन्नास्तन्तव एकरूपमापन्ना इति । ४ तन्तुपटौ स्वभावौ यस्य । ५ आदिपदेन गुणगुण्यादीनाम् । ६ कथम् ? तथा हि। ७ भेदाभेदात्मकत्वे वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तेः संशयः। ८ भेदाभेदात्मकत्वे । ९ अयमपि वैयधिकरण्येऽन्तर्भवति । १० स्वभावानाम् । ११ संशयादिदोषतः । १२ अनुपलम्भः। १३ आदिनाअसत्त्वादि । १४ सामान्यविशेषात्मा। १५ ग्राह्यः। १६ विभिन्नप्रत्ययविषयत्वाद्भिन्नलक्षणलक्षितत्वाद्भिन्नकारणप्रभवत्वाद्भिन्नार्थक्रियाकारित्वाच्च घटपटवत् । १७ प्रमाणग्राह्याः।
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सू० ४.१० अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः ५२७ द्रव्यं नित्यानित्यविकल्पाविभेदम् । तत्र परमाणुरूपं नित्यं सदकारणवत्त्वात् । तदारब्धं तु व्यणुकादि कार्यद्रव्यम नित्यम् । आकाशादिकं तु नित्यमेवानुत्पत्तिमत्त्वात् । एपां च द्रव्यत्वाभिसम्वन्धाद्रव्यरूपता
एतच्चतरव्यवच्छेदकमेपां लक्षणम् ; तथाहि-पृथिव्यादीनि ५ मनःपर्यन्तानीतरेभ्यो भियन्ते, 'द्रव्याणि' इति व्यवहर्त्तव्यानि, द्रव्यत्वालिसम्बन्धात् , यानि नैवं न तानि द्रव्यत्वाभिलम्वन्धवन्ति यथा गुणादीनीति । पृथिव्यादीनामप्यवान्तर भेदवतां पृथिवीत्वाद्यभिसम्वन्धो लक्षणम् इतरेभ्यो मेदे व्यवहारे तच्छन्दवाच्यत्वे वा साध्ये केवलव्यतिरेकिरूपं द्रष्टव्यम् । अभेदवतां त्वाकाश-१० कालदिग्द्रव्याणामनादिसिद्धा तच्छब्दवाच्यता द्रष्टव्या। . एवं रूपादयश्चतुर्विंशतिगुणाः । उत्क्षेपणादीनि पञ्च कर्माणि । परापरभेदभिन्नं द्विविधं सामान्यम् अनुगतज्ञानकारणम् । नित्यद्रव्यव्यावृ(व्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा अत्यन्तव्यावृत्तिवुद्धिहेतवः। अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेदमितिप्रत्ययहेतुर्यः सम्ब-१५ न्धः स समवायः।
अत्र पदार्थषके द्रव्यवहुणा अपि केचिन्नित्या एव केचित्तनित्या एव । कर्माऽनित्यमेव । सामान्यविशेषसमवायास्तु नित्या एवेति ।
१ खकुसुमादिना व्यभिचारपरिहारार्थ सदिति, तेनाव्यापिघटादिना व्यभिचारस्तन्निरासार्थमकारणवत्त्वादिति । २ अवयविरूपम् । ३ उत्पत्तिमत्त्वात् । ४ सत्त्वे सतीति योज्यम् । ५ नवसंख्योपेतपृथिव्यादीनाम् ! ६ प्रतिपत्तव्या। ७ इतरे= गुणादयः। ८ असाधारणस्वरूपम् । ९ अत्रापि साध्याभावे साधनाभावोस्ति । १० द्रव्याणां गुणादिभ्यो भेदादिकं प्रसाध्येदानी नवद्रव्याणां तद्भेदानां च परस्पर भेदादिकं साधयति वैशेषिकः। ११ ननु यद्यपि नवानां पृथिव्यादीनां गुणादिभ्यो भेदस्तथा व्यवहारस्तच्छब्दवाच्यत्वं च समर्थितं तथापि तेषां सद्भेदानां च परस्पर भेदस्तथा व्यवहारस्तच्छब्दवाच्यत्वमिति च साध्येषु किं साधनमित्युक्ते आह । १२ घटपटादिमृष्टजलादिप्रतिपादिशीतवातादि इत्यादयोऽवान्तरभेदाश्च तेष्वेव सम्भवन्ति, आकाशादीनां नित्यनिरंशत्वाभ्यामवान्तरभेदासम्भवात् । १३ अबादिभ्यः। १४ साधनम् । १५ पृथिवी धर्मिणीतरेभ्यो भिद्यते पृथिवीति वा व्यवहर्तव्या पृथिवीत्वाभिसम्बन्धादबादिवत् , एवमवादिष्वपि द्रष्टव्यम् । १६ पृथिव्यादिप्रकारेण । १७ सत्ताख्य। १८ द्रव्यत्वादि । १९ इदं सदिदं सत्, इदं द्रव्यमिदं द्रव्यमित्येवम् । २० अपृथक्सिद्धानाम् । २१ गुणगुण्यादीनाम् । २२ नित्यद्रव्याश्रिताः। २३ यथाकाशादौ परममहत्त्वादि । २४ अनित्यद्रव्याश्रिताः । २५ स्वामिदासादयः।
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५२८
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
अत्र प्रतिविधीयते। अनेकधर्मात्मकत्वेनार्थस्य ग्राहकप्रमाणाभावोऽसिद्धः; तथाहि-वास्तवानेकधर्मात्मकोर्थः, परस्परविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वात्, पितृपुत्रपौत्रातृभागिनेयाद्यनेकार्थक्रियाकारिदेवदत्तवत् । न चायमसिद्धो हेतुः; आत्मनो ५मनोज्ञाङ्गनानिरीक्षणस्पर्शनमधुरध्वनिश्रवणताम्बूलादिरसास्वादनकर्पूरादिगन्धाघ्राणमनोज्ञवचनोच्चारणचक्रमणावस्थानहर्षविषादानुवृत्तव्यावृत्तज्ञानाद्यन्योन्यविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वेन अ. ध्यक्षतोनुभवात्। घटादेश्च खान्यव्यक्तिप्रेदेशाद्यपेक्षयानुवृत्तव्यात. त्तसदसत्प्रत्ययस्थानगम जलधारणादिपरस्परविलक्षणानेकार्थ१०क्रियाकारित्वेन प्रत्यक्षतःप्रतीतेरिति । दृष्टान्तोपि न साध्यसाधनविकल; वास्तवानेकधर्मात्मकत्वाऽन्योन्यविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वयोस्तत्र सद्भावात् ।
ननु भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वेन धर्मधर्मिणोरत्यन्तभेदप्रसिद्धः सिद्धेपि धर्मिणि वास्तवानेकधर्माणां सद्भावे तादात्म्याप्रसिद्धिः, इत्यप्य१५ समीचीनम् ; अनैकान्तिकत्वाद्धेतोः, प्रत्यक्षानुमानाभ्यां हि भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वेप्यात्मादिवस्तुनो भेदाभावः, दूरेतरदेशवर्त्तिनामस्पष्टेतरप्रत्ययग्राह्यत्वेपि वा पादपस्याऽभेदः। ननु चात्र प्रत्ययभेदाद्विषयभेदोऽस्त्येवे, प्रथमसमयवर्ति हि विज्ञानमूर्द्धताविषयमुत्तरं च शाखादिविशेषविषयम् । इत्यप्यसाम्प्रतम् । एवंविषय. २० भेदाभ्युपगमे 'यमहमद्राक्षं दूरस्थितः पादपमेतर्हि तमेव
पश्यामि' इत्येकत्वाध्यवसायो न स्यात्, स्पष्टेतरप्रतिभासानां सा. मान्यविशेषविषयत्वेन घटादिप्रतिभासवद्भिन्नविषयत्वात् । अथ पादपापेक्षया पूर्वोत्तरप्रत्ययानामेकविषयत्वं सामान्य विशेषापेक्षया तु विषयभेदः, कथमेवमेकान्ताभ्युपगमो न विशीर्यंत ? गुण
१ वाह्यार्थस्य । २ स्वश्चान्यश्च ती व्यक्तिश्च प्रदेशादयश्च ते स्वान्ययोर्व्यक्तिप्रदेशादयः तेषामपेक्षा तया, ततश्चायमर्थः खव्यक्त्यपेक्षया स्वप्रदेशाद्यपेक्षयान्यव्यक्त्यपेक्षयाऽन्यप्रदेशाद्यपेक्षया यथाक्रममनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययः सदसत्प्रत्ययलक्षणार्थक्रियाकारित्वादि । ३ आदिना कालभावग्रहणम् । ४ घटस्तिष्ठति। ५ घटो जले गच्छति पत्रमाकाशे गच्छतीत्यादि । ६ सत्प्रतिपक्षत्वं हेतोः सद्भावयति परः। ७ धमैः सह धर्मिणो धर्मिणा वा धर्माणाम् । ८ सर्वथा भेदाभावे । ९ भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वादित्यस्य । १० अहं सुख्यहं दुःखीत्यादिस्वसंवेदनेन आत्मास्ति व्याहारादिकार्यदर्शनादित्याद्यनुमानेन च। ११ पुरुषाणाम् । १२ यथा । १३ कुतस्तथा हि । १४ दूरतः । १५ समीपे शाखादिमानति । १६ नरः। १७ तव परस्य । २८ ययोभिन्नप्रमाणग्राह्यत्वं तयोः सर्वथा भेद इति ।
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सू० ४.१०] अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वम् ५२९ गुण्यादिप्वप्यंतस्तद्वत्कथञ्चिद्भेदाभेदप्रसिद्धभिन्नप्रमाणग्राह्यत्वस्य विरुद्धत्वम् ।
एकान्ततोऽवयवावयव्यादीनां भिन्नप्राणग्राह्यत्वं चासिद्धम्; 'पटोयम्' इत्याद्युल्लेखनाभिन्न प्रमाणग्राह्यत्वस्यापि सम्भवात् । न ‘पटोयम्' इत्याधुलेखेनावयव्येव प्रतिभालते नावयवास्तत्क-५ थमभिमप्रमाणाह्यत्वन्; इत्यप्यपेशलम् ; तद्भेदप्रसिद्धः। तन्तव एव वातानवितानीभूता अवस्थाविशेषविशिष्टः 'स्टोयम् इत्याद्युल्लेखेन प्रतिभासन्त नान्यस्ततीर्थान्तरं पटः। प्रमाणं हि यथाविधं वस्तुखरूपं गृह्णाति तथाविधमेवाभ्युपगन्तव्यम् , यत्रात्यन्तभेदग्राहकं तत्तत्रात्यन्त मेदो यथा घटपटादौ, यत्र पुनः १० कथञ्चिद्भग्राहकं तत्र कथञ्चिद्भेदो यथा तन्तुपटादाविति ।
अंतः कालात्ययापदिष्टं चेदं साधनं यथानुष्णोग्निद्रव्यत्वाजलवत् । न च घेटादौ तथाविधभेदेनास्य व्यायुपलम्भात्सर्वत्रात्यन्तभेदकल्पना युक्ता; क्वचित्तार्णत्वादिविशेपाधारेणाग्निना धूमस्य व्याप्त्युपलम्भन सर्वत्राप्यतस्तथाविधविशेषसिद्धिप्रसङ्गात् ।१५ अथ तार्णत्वादिविशेषं परित्यज्य सकलविशेषसाधारणमग्निमात्रं धूमात्प्रसाध्यते । नन्देवमत्यन्त सेदं परित्यज्यावयवावयव्यादिष्वपि भिन्नप्रमाणनात्वा दमात्रं किं न प्रसाध्यो विशेाभावात् ? __ दृष्टान्तश्च साध्यविकलत्वान्न साधनाङ्गम् ; अत्यन्तसेदस्यात्राप्यसिद्धेः। तदसिद्धिश्च सद्रूपतया घटादीनामभेदात्। साधनविकलश्च; २० स्फारिताक्षस्यैकस्मिन्नप्यध्यक्षे घटादीनां प्रतिभाससम्भवात् । न च प्रतिविषयं विज्ञानभेदोभ्युपगन्तव्यः; मेचकज्ञानाभावप्रसङ्गात्। घटादिवस्तुनोप्येकविज्ञानविषयत्वाभावानुषङ्गाचा अत्राप्यूर्वाधोमध्यामागेषु तद्भेदस्य कल्पयितुं शक्यत्वात् । तथा चावयविप्रसिद्धये दत्तो जलाञ्जलिः। प्रेतीतिविरोधोन्यत्रापि न काकैर्मक्षितः। २५
१ भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वात् । २ साध्यविपर्ययव्याप्तो विरुद्धः। ३ साधनम्। ४ असिद्धत्वं परिहरति परः। ५ पटः। ६ पर्यायतया । ७ अभ्युपगन्तव्यः । ८ प्रमाणेन सर्वथा भेदस्य बाधनात् । ९ न केवलमसिद्धम् । १० भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वादिति । ११ घटपटयोः। १२ सर्वथा । १३ तन्तुपटादौ । १४ यथाग्निमात्रे साधिते सति खादिराग्निस्तथा पार्णाग्निरपि लभ्यते एवं भेदमात्रे साधिते भेदो लभ्यतेऽभेदोपि (-ते कथञ्चिद्भदोऽपि ) लभ्यते इति भावार्थः। १५ परेण त्वया । १६ विशेषपरित्यागस्य । १७ घटपटवदिति । १८ अत्यन्तभेदः साध्यः। १९ युगपत् । २० सेनावनादिज्ञानवत् । २१ सर्वथा । २२ तस्य ज्ञानस्य । २३ घटादिवस्तुनो भेदे च। २४ ज्ञानभेदेनैव सिद्धेः। २५ एकोयं घट इति। २६ अवयवावयव्यादेः सर्वथा भेदे साध्ये।
प्र० क० मा० ४५
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५३० प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि०
विरुद्धधर्माध्यासोपि धूमादिनानैकान्तिकत्वाचावयवावयवि. नोरात्यन्तिकं भेदं प्रसाधयति । न खलु स्वसाध्येतरयोर्गमकत्वागमकत्वलक्षणविरुद्धधर्माध्यासेपि धूमो भिद्यते । नन्वत्रापि सामग्रीभेदोस्त्येव-धूमस्य हि पक्षधर्मत्वादिकारणोपचितस्य ५स्वसाध्यं प्रति गमकत्वम् , तद्विपरीतकारणोपचितस्य सामग्र्यन्तरत्वात्साध्यान्तरेऽगमकत्वम्, न त्वेकस्यैव गमकत्वागमकत्वं सम्भवति; इत्यध्यन्धसर्प बिलप्रवेशन्यायेनानेकान्तावलम्बनम् ; धूमस्याभिन्नत्वात् । य एव हि धूमोऽविनाभावसम्बन्धस्मरणादिकारणोपचितो वन्हि प्रति गमकः स एव साध्या. २०न्तरेऽगमक इति । अथान्यः स्वसाध्यं प्रति गमकोऽन्यश्चान्यत्रागम
का; तर्हि यो गमको धूमस्तस्य स्वसाध्यवत्साध्यान्तरेपि सामर्थ्यादेकरसादेव धूमानिखिलसाध्यसिद्धिप्रसङ्गाद्धत्वन्तरोपन्यासो व्यर्थः स्यात् ।
किञ्च, अतोऽप्राप्तपटावस्थेभ्यः प्राक्तनावस्थाविशिष्टेभ्यस्त१५ न्तुभ्यः पटस्य भेदः साध्येत, पटावस्थाभाविभ्यो वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, पूर्वात्तरावस्थयोः सकलभावानां भेदाभ्युपगमात्। न खलु यैवार्थस्य पूर्वावस्था सैवोत्तरावस्था पूर्वाकारपरित्यागेनैवोत्तराकारोत्पत्तिप्रतीतेः । द्वितीयपक्षे तु हेतूनामसिद्धिः, न
खलु पटावस्थाभावितन्तुभ्यः पटस्य भेदाप्रसिद्धौ विरुद्धधर्मा२. ध्यासविभिन्नकर्तृकत्वादयो धर्माः सिद्धिमासादयन्ति । कालात्ययापदिष्टत्वं चैतेषाम् ; आतानवितानीभूततन्तुव्यतिरेकेणार्थीन्तरभूतस्य पटस्याध्यक्षेणानुपलब्धेस्तेन भेदपक्षस्य बाधितत्वात् ।
'तन्तवः पटः' इति संज्ञाभेदोप्यवस्थाभेदनिबन्धनो न पुनईव्यान्तरनिमित्तः। योषिदादिकरव्यापारोत्पन्ना हि तन्तवः कुवि२५न्दादिव्यापारात्पूर्व शीतापनोदाद्यर्थासमर्थास्तन्तुव्यपदेशं लभन्ते,
तद्व्यापारातूत्तरकालं विशिष्टावस्थाप्राप्तास्तत्समर्थाः पटव्यपदेशमिति।
विभिन्नशक्तिकत्वाद्ययवस्थाभेदमेव तन्तूनां प्रसाधयति न त्ववयवावयवित्वेनात्यन्तिकं भेदम् ।
१ हेतुः। २ चक्षुरादिना च। ३ ययोविरुद्धधर्माध्यासस्तयोरात्यन्तिको भेद इत्यनुमाने। ४ उक्तमेव समर्थयन्ति। ५ महानसादौ । ६ जलादौ। ७ आदिना पक्षधर्मत्वादिग्रहणम् । ८ विरुद्धधर्माध्यासात् । ९ जैनैः। १० स्वात्मोपलब्धिम् । ११ विरुद्धधर्माध्यासादयो यदि भेदप्रसाधका त भवेयुस्तदा कथं संशाभेदो भविष्यबीत्याह । १२ साधनम् ।
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सू० ४।१०] अर्थस्य सामान्यविशेपात्मकत्वम्
यच्चोक्तम्-‘पटस्य भावः' इत्यभेदे' पष्ठी न प्राप्नोतीतिः तदप्यप्रयुक्तम् ; 'पण्णां पदार्थानामस्तित्वम् , पण्णां पदार्थानां वर्गः' इत्यादौ भेदाभावेपि पष्ठयाद्युत्पत्तिप्रतीतेः । न हि भवदा षट्पदार्थव्यतिरिक्तमस्तित्वादीप्यते । ननु सतो ज्ञापकप्रमाणवि. षयस्य भावः सत्त्वम्-सदुपलम्भकप्रमाणविषयत्वं नाम धर्मान्तरं५ षण्णामस्तित्वसिष्यते, अँतो नाने नानेकान्तः; तदसत्ः षट्पदार्थसंख्याव्याघातानुपाट, तस्य तेभ्योन्यत्वात् । ननु धर्मिरूपा एव ये भावास्ते पट्पदार्थाः प्रोक्ताः, धर्मरूपास्तु तद्व्यतिरिक्ता इष्टी एव । तथा च पदार्थप्रवेशकग्रन्थः-"एवं धर्मेंविना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः" [प्रशस्तपादभा० पृ० १५] इति!
अस्त्वेवं तथाप्यस्तित्वादेर्धर्मस्य षट्पदाथैः सार्धं का सम्वन्धो येन तत्तेषां धर्मः स्यात्-संयोगः, समवायो वा? न तावत्संयोगः, अस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रयत्वात् । नापि समवायः; तस्यैकत्वेनेष्टत्वात् । समवायेन चास्य समवायसम्बन्धे समायानेकत्वप्रसङ्गः। सम्वन्धमन्तरेण धर्मधर्मिभावाभ्युपगमे चातिप्रसङ्गः।१५
किञ्च, अस्तित्वादेरपरास्तित्वाभावात्कथं तंत्र व्यतिरेकनिवन्धना विभक्तिर्भवेत् ? अथ तत्राप्यपरमस्तित्वमङ्गीक्रियते तदानवस्था स्यात् । उत्तरोत्तरधर्मसमावेशेन च सत्त्वादेर्मरूपत्वानुषङ्गात् 'षडेव धर्मिणः' इत्यस्य व्याघातः । 'ये धर्मिरूपा एव ते षट्केनावधारिताः' इत्यप्यसारम् ; एवं हि गुणकर्मसामान्यविशेष-२० समवायानामनिर्देशः स्यात् । न होपां धर्मिरूपत्वमेव; द्रव्याश्रितत्वेन धर्मरूपत्वस्यापि सम्भवात् ।
१ सामान्यविशेषयोः । तन्तुपटादीनान् । २ षट् पदार्था एव समूहः । ३ वस्तुनः । ४ तदेव । ५ षट्पदार्थेभ्यो भिन्नम् । ६ धमिधर्मरूपयोः षट्पदार्थास्तित्वयोः सर्वथा भेदाभेदसद्भावात् । ७ यत्र षष्ठीतद्धितोत्पत्तिस्तत्रात्यन्तिको भेद इत्यस्य । ८ सप्तमपदार्थापत्तेः। ९ अस्तित्वादयः। १० मम वैशेषिकस्य । ११ धर्मिभ्यो धर्माणां व्यतिरिक्तान्वेषणप्रकारेण । १२ श्रूयते । १३ परेण । १४ अन्यथेति शेषः । १५ समवायपदार्थेस्तित्वेन भाव्यं तत्तु तत्रापरसमवायपदार्थेन कृत्वा वर्तते । एवं तस्यानेकत्वापत्तिर्भवेत् । १६ गगनकुसुमाद्यस्तित्वाद्योधर्मिधर्मभावः स्यादित्यतिप्रसङ्गः । १७ यत्र षष्ठी विभक्तिस्तत्रात्यन्तभेद इत्यस्मिन्पक्षेऽनैकान्तिकं दूषणमुद्भावयति जैनः । १८ सामान्यस्य। १९ सत्ताया अस्तित्वं गोत्वादेरस्तित्वमित्यत्र । २० अनेकान्तदोषपरिहाराय परेण। २१ अपरापरास्तित्वसद्भावात् । २२ दूषणान्तरम् । २३ पूर्वस्य पूर्वस्य । २४ अर्थात्-एकस्यैव द्रव्यस्य निर्देशः स्यात् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० तथा 'खस्य भावः खत्वम्' इत्यत्राभेदेखि तद्धितोत्पत्तेरुपलम्भान्न सापि भेदपक्षमवावलम्बते।
यञ्चोक्तम्-'तादात्म्यमित्यत्र कीदृशो विग्रहः कर्तव्यः' इत्यादि तत्थं विग्रहो द्रष्टव्यः-तस्य वस्तुन आत्मानौ द्रव्यपर्यायौ ५सत्त्वालत्त्वादिधौं वा तदात्मानौ, तच्छब्देन वस्तुनः परामर्शात, तयोर्भावस्तादात्म्यम्-भेदाभेदात्मकत्वम् । वस्तुनो हि भेदः पर्यायरूपतैव, अभेदस्तु द्रव्यरूपत्वमेव, भेदाभेदौ तु द्रव्यपर्यायखभावावेव । न खलु द्रव्यमानं पर्यायमात्रं वा वस्तु; उभयात्मनः समुदायस्य वस्तुत्वात्। द्रव्यपर्याययोस्तु न वस्तुत्वं नाप्यव१० स्तुता; किन्तु वस्त्वेकदेशता। यथा समुद्रांशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रः, किन्तु समुद्रैकदेश इति ।
'स पट आत्मा येषाम्' इत्यपि विग्रहे न दोषः, अवस्थाविशेषा. पेक्षया तन्तूनामेकत्वस्याभीष्टत्वात् ।
'ते तन्तव आत्मा यस्य इति विग्रहे तन्तूनामनेकत्वे पटस्या१५ प्यनेकत्वं स्यादिति चेत्, किमिदं तस्यानेकत्वं नाम-किमनेकावयवात्मकत्वम् , प्रतितन्तु तत्प्रसङ्गो वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता; आतानवितानीभूतानेकतन्त्वाचंक्यवात्मकत्वात्तस्य । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः, प्रत्येकं तेषां तत्परिणामाभावात् । सुमुदि
तानामेव ह्यातानवितानीभूतः परिणामोऽमीषां प्रतीयते, तथा२० भूताश्च ते पटल्यात्मेत्युच्यते ।
वस्तुनो भेदाभेदात्मकत्वे संशयादिदोषानुषङ्गोऽयुक्तः; भेदाभेदाऽप्रतीतौ हि संशयो युक्तः, कचित्स्थाणुपुरुषत्वाप्रतीतौ तत्संशयवत् । तत्प्रतीतौ तु कथमसौ स्थाणुपुरुषप्रतीतौ तत्संशयवदेव ? चलिता च प्रतीतिः संशयः, न चेयं तथेति । २५ न चानयोर्विरोधः; कथञ्चिदर्पितयोः सत्त्वासत्त्वयोरिव भेदा. भेर्दयोर्विरोधासिद्धः, तथाप्रतीतेश्च । प्रतीयमानयोश्च कथं विरोधो नामास्यानुपलम्भसाध्यत्वात् ? न च स्वरूपादिना वस्तुनः सत्त्वे तदैव पररूपादिभिरसत्त्वस्यानुपलम्भोस्ति । न खलु वस्तुनः
१ एतेनोर्द्धतासामान्यपर्यायलक्षणविशेषात्मकवस्तु गृहीतम् । २ एतेन तिर्यक्सामान्यव्यतिरेकविशेषात्मकं वस्तु सङ्गहीतम् । ३ प्रत्येकम् । ४ तन्तूनाम् । ५ पटस्यैकत्वे तन्तूनामेकत्वानुषङ्गलक्षणः। ६ अवस्था पटरूपा । ७ आदिना अंशुग्रहणम् । ८ अस्माभिर्जेनैः। ९ द्रव्यपर्यायापेक्षया। १० विवक्षितयोः (मुख्ययोः)। ११ स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया । १२ पर्यायापेक्षया मेदः । द्रव्यापेक्षया चामेदः। १३ भेदाभेदप्रकारेण।
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सू० ४।१०] अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वम्
सर्वथा भाव एव स्वरूपम् ; स्वरूपेणेव पररूपेणापि भादप्रसङ्गात् । नाप्यभाव एव; पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यभावप्रसङ्गात् ।
न च स्वरूपेण भाव एव पररूपेणाभावः, परात्मना चाभाव एव स्वरूपेण भावः तदपेक्षणीयनिमित्तभेदात्, खद्रव्यादिकं हि निमित्तमपेक्ष्य भावप्रत्ययं जनयत्यर्थः परद्रव्यादिकं त्वपे-५ क्ष्याऽभावप्रत्ययम् इति एकत्वद्वित्वादिसंख्यावदेव वस्तुनि भावाभावयोमदः । न होकन द्रव्ये द्रव्यान्तरमपेक्ष्य द्वित्वादिसंख्या प्रकाशमाना स्वात्ममात्रापेक्षकत्वसंख्यातो नान्या प्रती यते । नापि सोभयी तद्वतो भिन्नैव; अस्याऽसंख्येयत्वप्रसङ्गात् । संख्यासमवायात्तत्त्वम् । इत्यप्यसुन्दरम् कथञ्चित्तादात्म्यव्यति-१० रिक्तस्य समवायस्यासत्त्वप्रतिपादनात् । तत्सिद्धोऽपेक्षणीयमेदात्संख्यावत्सत्वासत्त्वयोमैदः । तथाभूतयोश्चानयोरेकवस्तुनि प्रतीयमानत्वात्कथं विरोधः द्रव्यपर्यायरूपत्वादिना भेदाभेदयो ? मिथ्येयं प्रतीतिः, इत्यप्यसङ्गतम् ; वाधकाभावात् । विरोधो वाधकः, इत्यप्ययुक्तम् । इतरेतराश्रयानुषनात्-सति१५ हि विरोधे तेनास्यावाध्यमानत्वान्मिथ्यात्वसिद्धिः, ततश्च तद्विरोधसिद्धिरिति ।
विरोधश्च अविकलकारणस्यैकल्य अवतो द्वितीयसन्निधानेऽ. भावादवसीयते । न च भेदसन्निधानेऽभेदस्याऽभेदसन्निधाने वा भेदस्याभावोऽनुभूयते।
किञ्च, अत्र विरोधः सहानवस्थानलक्षणः, परस्परपरिहारस्थितिखभावो वा, वध्यघातकरूपो वा स्यात् ? न तावत्सहा. नवस्थानलक्षणः; अन्योन्याव्यवच्छेदेनैकस्मिन्नाधारे भेदाभेदयोधर्मयोः सत्वासत्वयोर्वा प्रतिभासमानत्वात् । परस्परपरिहारस्थितिलक्षणस्तु विरोधः सहैकत्राम्रफलादौ रूपरसयोरिवानयोः२५ सम्भवतोरेव स्यान्न त्वसम्भवतोः सम्भवदसम्भवेतोर्वा ।
किञ्च, अयं विरोधो धर्मयोः, [धर्म धर्मिणो ? प्रथमपक्षे सिद्धसाधनम् । एतल्लक्षणत्वाद् धर्माणाम् । ऐकाधिकरण्यं तु
१ भावः अस्तित्वम् । २ तयोः=भावाभावयोः। ३ कथम् ? तथा हि । ४ स्वापेक्षया एकत्वं यथा तथा परापेक्षया द्वित्वं च । ५ विशेषः । ६ संख्येयत्वम् । ७ अग्रे। ८ भिन्नयोः। ९ सत्त्वासत्त्वयोः । १० शीतस्य । ११ जायमानस्य । १२ उष्ण । १३ ययोस्तथा प्रतिभासमानत्वं न तयोस्तथा विरोधो यथा रूपरसयोः, तथा प्रतिभासमानत्वं च भेदाभेदयोरिति । १४ विद्यमानयोः। १५ अस्मिन्विरोधे सति दोषो नास्तीत्यर्थः। १६ शशाश्वविषाणयोरिव । १७ बन्ध्याऽबन्ध्यास्तनन्धययोरिव ।
२०
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० तेषां न विरुध्यते मातुलिङ्गद्रव्ये रूपादिवत् । धर्मधर्मिणोस्तु विरोधे धर्मिणि धर्माणां प्रतीतिरेव न स्यात्, न चैवम् , अवाधबोधाधिरूढप्रतिभासत्वात्तत्र तेषाम् । वध्यघातकभावोपि विरोधः फणिनकुलयोरिव वलवदवलवतोः प्रतीतः सत्त्वासत्त्वयोर्भेदाभेदयोर्वा नाशङ्कनीयः; तयोः समानवलत्वात् ।
अस्तु वा कश्चिद्विरोधः; तथाप्यसौ सर्वथा, कथञ्चिद्वा स्यात् ? न तावत्सर्वथा; शीतोष्णस्पर्शादीनामपि सत्त्वादिना विरोधासिद्धेः । एकाधारतया चैकस्मिन्नपि हि धूपदहनादिभाजने क्वचित्प्र
देशे शीतस्पर्शः क्वचिञ्चोष्णस्पर्शः प्रतीयत एव । अथानयोः १० प्रदेशयोर्भेद एवेष्यते; अस्तु नामानयोर्भेदः, धूपदहनाद्यवयवि
नस्तु न भेदः । न चास्य शीतोष्णस्पर्शाधारता नास्तीत्यभिधातव्यम् । प्रत्यक्षविरोधात्। तन्न सर्वथा विरोधः। कथञ्चिद्विरोधस्तु सर्वत्र समानः।
किञ्च, आवेभ्योऽभिन्नः, भिन्नो वा विरोधः स्यात् ? न १५ तावत्तेभ्योऽभिन्नो विरोधो विरोधको युक्तः; स्वात्मभूतत्वात्तत्वरूपवत्, विपर्ययानुषङ्गो वा । अथ भिन्नः; तथापि न विरोधकः, अनात्मभूतत्वादर्थान्तरवत् । अथार्थान्तरभूतोपि विरोधो विरोधको भावानां विशेषणभूतत्वात् , न पुनर्भावान्तरं
तस्य तद्विशेषणत्वाभावात्। तदप्यसमीचीनम् ; विरोधो हि २० तुच्छरूपोऽभावः, स यदि शीतोष्णद्रव्ययोर्विशेषणं तर्हि तयोरेंद
शनापत्तिस्तत्सम्वद्धरूपत्वात् । असम्बद्धस्य च विशेषणत्वेऽतिप्रसङ्गात्।
अन्यतरविशेषणत्वेप्येतदेव दूषणम् । तदेव च विरोधि स्याद्य
१ जैनमते । २ प्रदीपादौ। ३ स्वपरप्रकाशादीनाम् । ४ सत्त्वादिरूपाव्यवच्छेदतः । ५ शीतस्पर्शः सन्नष्णस्पर्शः सन्नित्यादिना धर्मेण । ६ शीतोष्णस्पर्शादयो न विरुद्धा एकाधारतया प्रतीयमानत्वात् , यत्तथा प्रतीयते न तत्सर्वथा विरुद्धं यथा रूपरसादि, एकतुलायां नामोन्नामादिर्वा, एकाधारतया प्रतीयन्ते च धूपदहनादौ शीतोष्णस्पर्शादय इति । ७ परेण। ८ भावानामसाधारणस्वरूपप्रकारेण । ९ घटा. कारस्य पटेऽभावात् । १० घटपटादौ घटपटरूपादौ वा। ११ भावा अपि विरोधस्य विरोधकाः कुतो न भवेयुर्विरोधादमिन्नत्वाविशेषात् ?। १२ भावा विशेष्याविरोधो विशेषणमनयोभीवयोर्विरोध इति । १३ घटपटादिरूपः। १४ विवादापन्ने शीतोष्णद्रव्ये धर्मिणी न दृश्येते. इति साध्यो धर्मः, अभावसम्बद्धरूपत्वात् कच्चित्प्रदेशे घटवत् । १५ शीतोष्णद्रव्ययोर्मध्ये शीतद्रव्यस्योष्णद्रव्यस्य वा। १६ शीतोष्ण. द्रव्ययोर्मध्ये। १७ विरोधस्य । १८ अदर्शनापत्तिलक्षणम् । १९ द्वितीयम् ।
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सू० ४.१०] अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वम् ५३५ त्यांनी विशेषणं नान्यत् । न चैकत्र विरोधो नामास्य द्विष्ठत्वात् , अन्यथा सर्वत्र सर्वदा तत्प्रसङ्गः।
अथ विरुध्यमानत्वविरोधकत्वापेक्षया कर्मकर्तृस्थो विरोधः, विरोधसामान्यापेक्षयोभवविशेषणत्वादिष्टोभिधीयते । नन्वेवं रूपाइरदि विष्ठत्वापत्तिः किन्न स्यात् उत्सामान्यस्यापि द्विष्ठत्वा-५ विशेषात् ? विरोधस्यासावरूपत्वे सामान्यविशेषत्वाभावानुपपलिगुंगरूपत्वे गुणविशेषत्वाभावानुङ्गः ।
अथ षट्पदार्थव्यतिरिक्तत्वात् पदार्थविशेषो विरोधोऽनेकस्थो विरोध्यविरोधकप्रत्ययविशेषप्रसिद्धः समाधीयते; तदाप्यस्थालल्बद्धस्य द्रव्यादौ विशेषणत्वम् , सम्वद्धस्य वा? न तावदसम्ब-१० द्धस्य; अतिप्रसङ्गात् , दण्डादौ तथाऽप्रतीतेश्च । न खलु पुरुषेणासम्बद्धो दण्डत्तस्य विशेषणं प्रतीतो येनात्रापि तथाभावः। अथ सम्वद्धः; किं संयोगेन, समवायेन, विशेषणभावेन वा ? न ताव संयोगेन; अस्याद्रव्यत्वेन संयोगानाश्रयत्वात् । नापि समवायेन; अस्य द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेपव्यतिरिक्तत्वेनासमवायित्वात् ।१५ नापि विशेषणभावेन; लम्बन्धान्तरेणासम्बद्ध वस्तुनि विशेषणभावस्याप्यतस्भवात् , अन्यथा दण्डपुरुषादौ संयोगादिसस्वन्धामानषि ल स्यात् इत्यलं संयोगादिसस्वन्धवकल्पनाप्रयासेन । 'विरोध्यविरोधकप्रत्यय विशेषस्तु विशिष्टं वस्तुधर्ममेवालम्बते' इति वक्ष्यते समवायसम्बन्धनिराकरणप्रक्रमे । ततो विरोधस्य २० विचार्यमाणस्यायोगान्नानयोरसौ घटते ।
नापि वैयधिकरण्यम् ; निर्वाधवोधे भेदाभेदयोः सत्त्वासत्त्वयोर्वा एकाधारतया प्रतीयमानत्वात् ।
१ शीतद्रव्यस्योष्णद्रव्यस्य वा। २ उष्णद्रव्यं शीतद्रव्यं वा। ३ उष्णद्रव्ये शीतद्रव्ये वा। ४ तथा च घटस्य सद्रूपतावत् (सत्तासम्बन्धात्सद्रूपाणीति भावो वैशेषिकमते) रूपादिस्वभावतापि न स्यात् , न चैतद्युक्तं प्रतीतिविरोधात् । ५ विरुध्यमानः शीतः। ६ विरोधकः उष्णः । ७ विरोध्यविरोधकभावसम्बन्धापेक्षया । ८ नतु विशेषापेक्षया यतः कर्तृस्थो विरोधो हि कर्मणि नास्ति कर्मस्थः कर्तरि नास्तीत्यद्विष्ठो विशेषापेक्षयेति भावः। ९ विरोधप्रकारेण। १० भावानां विरोधकत्वापत्तिः। ११ विरोधस्याभावरूपत्वं मा भूद्गुणरूपत्वं स्यादित्युक्ते आहाचार्यः। १२ गुणा निर्गुणा इति वचनाच्छीतोष्णस्पर्शयोर्गुणरूपयोविरोधो गुणरूप इति विशेषणत्वमस्य न घटतेऽन्यथा । १३ सह्यो विन्ध्यं प्रति विशेषणं स्यादसम्बद्धत्वाविशेषात् । १४ असम्बद्ध विशेषणत्व. प्रकारेण । १५ असम्बद्धत्वप्रकारेण। १६ पञ्चसु पदार्थेषु समवायोस्ति यतः। १७ प्रत्ययो शानन् । १८ वस्तुनोऽव्यतिरिक्तमभावरूपं विरोधमवलम्बते न तु व्यतिरिक्तम् । १९ भेदाभेदयोः सत्त्वासत्त्वयोर्वा ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० नाप्युभयदोषः; चौरपार]दारिकाभ्यामचौरपारदारिकवत् जैनाभ्युपगतवस्तुनो जात्यन्तरत्वात् । न खलु भेदाभेदयोः सत्त्वासस्वयोर्वाऽन्योन्यनिरपेक्षयोरेकत्वं जैनैरभ्युपगम्यते येनायं दोषः, तत्लापेक्षयोरेव तदभ्युपगमात् , तथाप्रतीतेश्च । १५ नापि सङ्करव्यतिकरौ; स्वरूपेणैवार्थे तयोः प्रतीतेः।
नाप्यनवस्था; 'धर्मिणो हनेकरूपत्वं न धर्माणां कथञ्चन' इति, वस्तुनो ह्यभेदो धर्येव, भेदस्तु धर्मा एव,तत्कथमनवस्था? __ अभावदोषस्तु दूरोत्सारित एव; अशेषप्राणिनामनेकान्तात्म
कार्थस्यानुभवसम्भवात् । २० ननु शरीरेन्द्रियबुद्धिव्यतिरिक्तात्मद्रव्यस्येच्छादिगुणाश्रयस्य नित्यैकरूपत्वात्कथं सर्वस्यानेकान्तात्मकत्वम् ? न च नित्यैकरूपत्वे कर्तृत्वभोक्तत्वजन्ममरणजीवनहिंसकत्वादिव्यपदेशाभावः, ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नानां समवायो हि कर्तृत्वम् , सुखादि
संवित्समवायस्तु भौतृत्वम्, अपूर्वैः शरीरेन्द्रियबुध्यादिभि१५ श्वाभिसम्बन्धो जन्म, प्राणात्तैस्तैस्तु वियोगो मरणम् , जीवनं
तु सदेहस्यात्मनो धर्माधर्मापेक्षो मनसा सम्वन्धः, हिंसकत्वं च शरीरचक्षुरादीनां वधान पुनरात्मनो विनाशात्। तथा च सूत्रम्"कार्याश्रयकर्तृवधाद्धिंसा" [ न्यायसू० ३।१।६] इति । कार्या
श्रयः शरीरं सुखादेः कार्याश्रयत्वात् । कर्तृणीन्द्रियाणि विषयो२० पलब्धेः कर्तृत्वादिति।
तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; सर्वथाऽपरित्यक्तपूर्वरूपत्वेनास्याकाशकुशेशयवत् ज्ञानादिसमवायस्यैवासम्भवात् कथं तदपेक्षया कर्तृत्वादिखरूपसम्भवः ? पूर्वरूपपरित्यागे वा कथं नानेकान्तात्मकत्वम् ; व्यावृत्त्यनुगमात्मकस्यात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षतः २५ प्रसिद्धः । व्यावृत्तिः खलु सुखदुःखादिवरूपापेक्षया आत्मनः
अनुगमश्च चैतन्यद्रव्यत्वसत्त्वादिखरूपापेक्षयाँ । तदात्मकत्वं चाध्यक्षत एव प्रसिद्धम् ।
१ आत्मादिवस्तुनः। २ द्रव्यं पर्यायमपेक्ष्य वर्तते पर्यायो द्रव्यमपेक्ष्य वर्तते । ३ परस्परापेक्षया । ४ भेचकरत्नादौ । ५ धर्माणामपरधर्माऽसम्भवात् । ६ प्रत्यक्षादिप्रमाणतः। ७ येषां वादिनां शरीरमेवात्मा इन्द्रियाण्येवात्मा बुद्धिरेवात्मा वा तेषां मतनिरासार्थमिदं विशेषणम्। ८ आत्मना सह । ९ आदिना चिकीर्षाप्रयत्नादि । १० घटते। ११ आत्मनः। १२ व्यापित्वाव्यापित्वरूपे। १३ घटपटादौ । १४ पर्यायापेक्षाया व्यावृत्त्यात्मकस्य चैतन्यापेक्षयानुगमात्मकस्य । १५ आकारवैलक्षण्याविशेषात् । १६ आत्मसुखादिवत् ।
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सू० ४।१०] परमाणुरूपनित्यद्रव्यविचारः ५३७
ननु चानुवृत्तव्यावृत्तखरूपयोः परस्परं विरोधात्कथं तदात्मकत्वमात्मनो युक्तम् ? इत्यप्यसत् ; प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुखरूपे विरोधानवकाशात् । न खलु सर्पस्य कुण्डलेतरावस्थापेक्षया अङ्गुल्यादेर्वा सङ्कोचितेतरस्वभावापेक्षया व्यावृत्त्यनुगमात्मकत्वं प्रत्यक्षप्रतिपन्नं विरोधमध्यास्ते।
ननु सुखाद्यरस्थानामात्ननोऽत्यन्त भेदात्तब्यावृत्तावप्यात्मनः किमायातं येनास्यापि व्यावृत्त्यात्मकत्वं त्यात् ? इत्यप्पेशलम् : सुखाद्यात्मनोरत्यन्तभेदस्य प्रथमपरिच्छेदे प्रतिविहितत्वात् । ननु चाकारवैलक्षण्येप्यात्मसुखादीनामनानात्वे अन्यत्राप्यन्यतोऽन्येस्थान्यत्वं न स्यात् । तदप्यविचारितरमणीयम्; तद्वत्तादात्म्येना-१० न्यत्रान्यस्य प्रमाणतोऽप्रतीतेः। प्रतीतौ तु भवत्येवाकारनानात्वेप्यनानात्वम् प्रत्यभिज्ञाज्ञानवत्, सामान्यविशेष॑वत्, संशयज्ञानवत्, मेचकज्ञानवद्वेति ।।
यञ्चोक्तम्-'द्रव्यादयः षडेव पदार्थाः प्रमाणप्रमेयाः' इत्यादि। तदप्युक्तिमात्रम्। द्रव्यादिपदार्थपटकस्य विचारासहत्वात् ; १५ तथाहि-यत्तावञ्चतुःसंख्यं पृथिव्यादिनित्यानित्यविकल्पाविभेदमित्युक्तम् । तद्युक्तम् । एकान्त नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । तल्लक्षणसत्त्वस्यातो व्यावृत्त्याऽसवप्रसङ्गात् । यदि हि परमाणवो व्यणुकादिकार्यद्रव्यजननैकस्वभावाः; तर्हि तत्प्रभवकार्याणां सकृदेवोत्पत्तिप्रसङ्गोऽविकलकारणत्वात् ।२० प्रयोगः-येऽविकलकारणास्ते सकृदेवोत्पद्यन्ते यथा समानसमयोत्पादा बहवोऽङ्कराः, अविकलकारणाश्चाणकार्यत्वेनाभिमता भावा इति । तथाभूतानामप्यनुत्पत्तौ सर्वदानुत्पत्तिप्रसक्तिविशेषाभावात्।
ननु समवाय्यऽसमवायिनिमित्तभेदान्त्रिविधं कारणम् । यत्र हि २५ कार्य समवैति तत्समवायिकारणम् , यथा घणुकस्याणुद्वयम् । यञ्च कार्यकार्थसमवेतं कार्यकारणैकार्थसमवेतं वा कार्यमुत्पादयति तदसमवायिकारणम् , यथा पटारम्भे तन्तुसंयोगः, पट
१ घटे। २ पटस्य । ३ तादात्म्ये । ४ पूर्वोत्तरपर्यायशानद्वयाकारवत् । ५ घटादौ । ६ पटादेः। ७ यथा गोत्वं सामान्यमश्वत्वसामान्यापेक्षाया विशेषः । ८ एकान्तनित्यस्य । ९ एकान्तनित्याः । १० अविकलकारणत्वस्य । ११ साधनमसिद्धमिति परः सम्भावयति । १२ पृथग्रूपत्वेनोत्पद्यते। १३ कार्य-पटः तेनैकार्थे तन्तुलक्षणे समवेतं पटम् । १४ कार्यकारणं पटगतरूपादि (देः कार्यस्य कारणं पटः) तेन सह एकार्थसमवेतं तन्तुगतरूपम् ।
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५३८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० समवेतरूपाधारस्ते पटोत्पादकतन्तुरूपादि च। शेषं तृत्पादक निमित्तकारणम् , यथाऽदृष्टाकाशादिकम् । तत्र संयोगस्याऽपेक्षवीर्यस्यामावादविकलकारणत्वमसिद्धम् । तदप्यसास्प्रतम् संयो. गादिनाऽनाधेयातिशयत्वेनाऽणूनां तदपेक्षाया अयोगात्। ५ अथ संयोग एवामीषामतिशयः; स किं नित्यः, अनित्यो वा? नित्यश्चेत्; सर्वदा कार्योत्पत्तिः स्यात् । अनित्यश्चेत् । तदुत्पत्ती कोऽतिर्शयः स्यात्संयोगः, क्रिया वा? संयोगश्चेतिक स एव, संयोगान्तरं वा? न तावत्स एव; अस्याद्याप्यसिद्धः, स्वोत्पत्तौ
खस्यैव व्यापारविरोधाच! नापि संयोगान्तरम्। तस्यानभ्युपग१०मात् । अभ्युपगमे वा तदुत्पत्तावप्यापरसंयोगातिशयकल्पनायामनवस्था। नापि क्रियातिशयः, तदुत्पत्तावपि पूर्वोक्तदोषानुषङ्गात्।
किञ्च, अदृष्टापेक्षादात्माणुसंयोगात्परमाणुषु क्रियोत्पद्यते इत्यभ्युपगमात् आत्मपरमाणुसंयोगोत्पत्तावप्यपरोतिशयो वाच्यस्तत्र च तदेव दूषणम् । १५ किञ्च, असौ संयोगो घ्यणुकादिनिर्वर्तकः किं परमावा
द्याश्रितः, तदन्याश्रितः, अनाश्रितो वा? प्रथमपक्षे तेंदुत्पतीवाश्रय उत्पद्यते, न वा? यद्युत्पद्यते; तदाणूनामपि कार्यतानुषङ्गः । अथ नोत्पद्यते; तर्हि संयोगस्तदौश्रितो न स्यात्,
सैमवायप्रतिषेधात्, तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् । तदकार२० कत्वं चाऽनतिशयत्वात् । अनतिशयानामपि कार्यजनकत्वे सर्वदा कार्यजनकत्वप्रसङ्गोऽविशेषात् । अतिशयान्तरकल्पने च अनवस्था-तदुत्पत्तावप्यपरातिशयान्तरपरिकल्पनात् । तत
१ आदिना कुविन्दादि । २ कारणत्रयमध्ये। ३ द्वथणुकादिकार्योत्पादने । ४ परमाणुभिः। ५ परमाणूनां परमाणुभिः सह संयोगः। ६ नित्यत्वात् । ७ सर्वदा नित्यसंयोगलक्षणातिशयसद्भावात् । ८ कारणम् । ९ परमाण्वोः । १० परमायोः। ११ स्वयमनुत्पन्नस्य स्वात्मनि व्यापारः कथमिति विरोधः । १२ परेण । १३ व्यणुकादीनि कार्याण्यात्मनोऽदृष्टवशाज्जायन्ते आत्मनो व्यापकत्वादिति हेतोः । १४ घणुकादिकार्योत्पादकलक्षणा । १५ परेण । १६ अनवस्थालक्षणम् । १७ ततोऽ. न्यत् अदृष्टाकाशादि निमित्तकारणम् । १८ तस्य संयोगस्य । १९ व्यणुकोत्पादकः संयोगः परमाण्वाश्रितः, त्र्यणुकोत्पादकसंयोगो द्वथणुकाश्रितः, स्कन्धोत्पादकः संयोगरूयणुकाश्रित इति । २० परमाण्वादिः। २१ उत्पद्यमानत्वाद्धटवत् । २२ तस्य परमाणोः । २३ समवायाद्भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । २४ अग्रे । २५ कार्यकारणभावसम्बन्धेन तदाश्रितो भविष्यतीत्युक्ते सत्याहाचार्यः। २६ संयोगजनकस्वभावातिशयाभावात् । २७ अनतिशयत्वस्य । २८ संयोगाश्रयस्यानुत्पद्यमानत्वेन संयोगस्तदाश्रितो
न स्थाधतः।
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सू० ४.१०] परमाणुरूपनित्यद्रव्यविचारः
५३९
स्तेपामसंयोगरूपतापरित्यागेन संयोगरूपतया परिणतिरभ्युपगन्तव्या इति सिद्धं तेषां कथञ्चिदनित्यत्वम् । अन्याश्रितत्वेपि पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः। अनाश्रितले तु निहतुकोत्पत्तिप्रसक्तेः सदा सत्त्वप्रसङ्गतः कार्यस्यापि सर्वदा भावानुपङ्गः । कथं चासौ गुणः स्यादनाश्रितत्वादाकाशादिवत् ?
किञ्च, असौ संयोगः लर्वात्मना, एकदेशेन वा लेपां स्यात् ? सर्वात्मना क्षेत्; पिण्डोणुमात्र त्याला एकदेशेन चेत् सांशत्वप्रसङ्गोऽभीयान् । तदेवं संयोगस्य विचामाणस्यायोगात्कथमलौ देपानतिशयः स्यात् ? निरतिशयानां च कार्यजनकत्ये तु सकृन्निखिलकार्याणामुत्पादः स्यात् । न चैवम् । ततोमीषां प्राक्त-१० नाजनकस्वभावपरित्यागेन विशिष्टसंयोगपरिणामपरिणतानां जनकखभावसम्भवात्सिद्धं कथञ्चिदनित्यत्वम् । प्रयोगः-ये क्रमवकार्यहेतवस्तेऽनित्या यथा क्रमवद्द्यरादिनिर्वर्तका बीजादयः, तथा च परमाणव इति ।
ततोऽयुक्तमुक्तम्-"नित्याः परमाणवः सदकारणवत्त्वादाका-१५ शवत् । न चेदमसिद्धमावयोः परमाणुसत्वेऽविवादात्। अंकारणवत्त्वं चातोऽल्पपरिमाणकारणाभावात्तपां सिद्धन् । कारणं हि कार्यादल्पपरिमाणोपेतमेव; तथाहि-न्यणुकाबवयविद्रव्यं स्वपरिमाणादल्पपरिमाणोपेतकारणारब्धं कार्यत्वात्पटवत्,' इति; अकारणवत्त्वाऽसिद्धिः(द्धेः), परमाणवो हि स्कन्धावयविद्गव्य २० विनाशकारणकाः तद्भावभावित्वाद् घटविनाशपूर्वककपालवत् । न चेद्मसिद्धं साधनम् ; व्यणुकाद्यवयविन्द्रव्यविनाशे सत्येव परमाणुसद्भावप्रतीतेः। सर्वदा स्वतन्त्रपरमाणूनां तद्विनाशमन्तरेणाप्य लल्लवाद आणासिद्धो हेतुः; इत्यासुन्दरम् । तेषामसिद्धेः। तथाहि-विवादापन्नाः परमाणकः स्कन्धभेदपूर्वका एव तत्त्वाद्२५ ध्यणुकादिभेदपूर्वकपरमाणुवत् ।
नर्नु पटोत्तरकालभावितन्तूंनां पटभेदपूर्वकत्वेपि पटपूर्वकालभाविनां तेषामतत्पूर्वकत्ववत् परमाणूनामप्यस्कन्धभेदपूर्व
१ पूर्वरूप। २ सतो हेतुरहितस्य सर्वदा व्यवस्थितेः। ३ द्वयणुकादेः । ४ अनाश्रितपक्षे दूषणान्तरमाहाचार्यः। ५ अवयविनिषेधश्च भवेत् । ६ कथञ्चिदेकत्वलक्षण । ७ आदिना क्षितिजलवातातपादयः। ८ परमाणूनां कथञ्चिदनित्यत्वं यतः । ९ आश्रयासिद्धं स्वरूपासिद्धं वा। १० जनवैशेपिकयोः । ११ द्वितीयविशेषणम् । १२ दृष्टान्ते तन्तवः। १३ कथम् ? तथा हि । १४ अवयविद्रव्यभावं पूर्वमप्राप्तानामित्यर्थः । १५ जगति । १६ स्वतत्रत्वेन । १७ भेदो=विनाशः। १८ साधनस्यानैकान्तिकत्वमुद्भावयति परः। १९ निष्पन्नपटासिष्कासितानाम् ।
१७.
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५४०
प्रमेयकसलमार्तण्डे [४. विषयपरि० कत्वं केवाचिस्यात्, इत्यप्यनुपपन्नम्। तेषामपिप्रवेणीभेद पूर्वकत्वेन प्रतीत्या स्कन्धभेदपूर्वकत्वसिद्धेः। 'वलवत्पुरुषप्रेरित मुद्धराद्यभिघातादक्यवक्रियोत्पत्तेः अवयव विभागात्संयोगविना.
शाद्विनाशार्थानाम्' इत्यादि विनाशोत्पादप्रक्रियोद्धोषणं तु प्रागेव ५ कृतोत्तरम् । ततो नित्यैकत्वस्वभावाणूनां जनकत्वासम्भवात्तदारब्धं तु द्यणुकाद्यवयविद्रव्यमनित्यमित्यप्ययुक्तमुक्तम्।
तेन्त्वाद्यवयवेभ्यो भिन्नस्य च पटाद्यवयविद्रव्यस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्या पलम्भेनासत्त्वात् । न चास्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्व
मसिद्धम्; "महत्यनेकद्रव्यत्वाद्रूपविशेषांच रूपोपलब्धिः" १० [वैशे० सू० ४।३६] इत्यभ्युपगमात् । न च समानदेशत्वाद्वय
विनोऽवयवेभ्यो भेदेनानुपलब्धिः; वातातपादिभी रूपरसादिभिश्वानेकान्तात् , तेषां समानदेशत्वेपि भेदेनोपलम्भसम्भवात् ।
किञ्च, अवयवावयविनोः शास्त्रीयदेशापेक्षया समानदेशत्वम् , लौकिकदेशापेक्षया वा? प्रथमपक्षेऽसिद्धो हेतुः, पटावय१५विनो ह्यन्ये एवारम्भकास्तन्त्वादयो देशास्तेषां चान्ये भवद्भिर
भ्युपगम्यन्ते । द्वितीयपक्षेप्यनेकान्तः; लोके हि समानदेशत्वमेकभाजनवृत्तिलक्षणं भेदेनार्थानामुपलम्भेप्युपलब्धम् , यथा कुण्डे चद्रादीनाम् ।
किञ्च, कतिपयावयवप्रतिभासे सत्यऽवयविनः प्रतिभासः, २० निखिलावयवप्रतिमासे वा? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, जलनिम
नमहाकायगजादेरुपरितनकतिपयावयवप्रतिभासेप्यखिलावयवव्यापिनो गजाधवयविनोऽप्रतिभासनात् । नापि द्वितीयविकल्पो युक्तः, मध्यपरभागवतिसकलावयवप्रतिभासासम्भवेनावयवि
नोऽप्रतिभासप्रसङ्गात् । भूयोऽवयवग्रहणे सत्यवयविनो ग्रहण२५मित्यप्ययुक्तम् । यतोऽर्वाग्भागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षेण परभागभाव्यवयवाग्रहणान्न तेन तद्व्याप्तिरवयविनो ग्रहीतुं शक्या,
१ स्कन्धभेदपूर्वकत्वेऽस्कन्धभेदपूर्वकत्वे च तत्त्वादिति हेतोर्वर्तनात् । २ घटविनाशपूर्वककपालवदिति दृष्टान्तं साध्यसाधन विकलं दर्शयन्नाह परः। ३ एवं प्रवेणीरूपस्यार्थस्य विनाशो ज्ञेयः, तन्तवस्तु स्वारम्भकावयवेभ्यः समुत्पद्यन्ते, ततः प्रवेणीभेदपूर्वकत्वं पटपूर्वकालभाविनामपि तन्तूनां नास्तीति भावः । ४ उक्तन्यायात् । ५ योगपरिकल्पितं स्थूलावयविद्रव्यं निराकुर्वन्नाह जैनः। ६ सर्वथा । ७ भेदेन । ८ विशेषणम् । ९ परमाणुनाऽव्यभिचारार्थमेतत् । १० आकाशेन व्यभिचारपरिहारार्थ रूपविशेष इति । ११ भेदे सत्यपि। १२ अम्भःक्षीरवत्। १३ पटस्य । १४ अन्यथा समानदेशत्वाद्भेदेनानुपलब्धियदि तहि। १५ कथम् ? तथा हि । १६ प्रवेणिकासम्बन्धिनोंशाः । १७ वैशेषिकैः । १८ सर्वथा तयोर्भेदात् । १९ बडु ।
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सू० ४।१०] अवयविस्वरूपविचारः ५४१ व्याप्याब्रहणे तद्व्यापकस्यापि ग्रहीतुमर्शक्तेः। प्रयोगः-यद्येन रूपेण प्रतिभासते तत्तथैव तयवहारविषयः यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तद्रूपतयैव तयवहारविषयः, अर्वाग्भागभाव्यवयवसम्वन्धितया प्रतिभालते चावयवीति । न च परभागभाविव्यवहितावयवाप्रतिमासनेप्यव्यवाहितोऽवयवी प्रतिभाती.५ त्यसिधातव्यन्। तदप्रतिभालने तद्तत्वेन त्याऽप्रतिभासनात् । तथाहि-यलिन्प्रतिमालमाले यन प्रतिभाति तत्ततो भिन्नम् यथा घटे प्रतिमालमानेऽप्रतिभालनानं पटवरूपन्न , न प्रतिभासते चार्वाग्भागभाव्यवयवसम्वन्ध्यवयविखरूपे प्रतिभासमाने परभागभाव्यवयवसम्वन्ध्यवयविर्खरूपम्, इति कथं निरंशैकार-१० यविसिद्धिः? अर्वाग्भागपरभागभाव्यवयवसम्वन्धित्वलक्षणविरुद्धधर्माध्यासेप्यस्याभेदे सर्वत्र भेदोपरतिप्रसङ्गः, अन्यस्य भेदनिवन्धनस्यासम्भवात् । प्रतिभासभेदो भेदनिवन्धनमित्यप्यपेशलम् विरुद्धधर्माध्यासं भेदकमन्तरेण प्रतिभासस्यापि भेदकत्वासम्भवात्।
नापि परभागभाव्यवयवावय विग्राहिणा प्रत्यक्षेणार्वाग्भागभा. व्यवयवसस्वन्धित्वं तस्य ग्रहीतुं शक्यम्; उक्तदोषानुषङ्गात् । नापि स्मरणेनार्वाक्परभागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवयविखरूपग्रहः; प्रत्यक्षानुसारेणास्य प्रवृत्तः, प्रत्यक्षस्य च तदाहकत्वप्रतिषेधात् । नाप्यात्मा अर्वाक्परभागावयवव्यापित्वमवयविनो ग्रहीतुं समर्थः,२० जडतया तस्य तदाहकत्वानुपपत्तेः, अन्यथा खापमदमूर्छाद्यवस्थास्वपि तदाहित्वानुषङ्गः। प्रत्यक्षादिसँहायस्याप्यात्मनोवयविखरूपग्राहित्वायोगः; अवय विनो निखिलावयवव्याप्तिग्राहित्वेनाध्यक्षादेः प्रतिषेधात्।
१ दण्डाग्रहणे तत्सम्बन्धवान्दण्डी पुमान् ग्रहीतुं न शक्यते यथा । २ अवयवी धर्मी अर्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्धितया तयवहारविषयस्तथैव प्रतिभासमानत्वादित्युपरिष्टायोज्यम् । ३ परभागभाविव्यवहितावयवाप्रतिभासमानेपि अव्यवहितोऽवयवी भाति, ततस्तथैव प्रतिभासमानत्वमसिद्धमित्युक्त सत्याह । ४ अवयवी परभागमाव्यऽवयवगतत्वेन न प्रतिभासतेऽगृहीताधारत्वान्मेरुमूनिं मोदकराशिवत् । ५ मिन्नम् । ६ तस्मिन्प्रतिभासमानेऽप्रतिभासमानत्वादिति हेतोः। ७ तस्माद्भिनमेव । ८ भागदये सति । ९ तन्तुलक्षणैरंशैः कृत्वा पटोऽशी प्रतिपाद्यते तस्मात्सर्वथा भिन्ना अतो निरंशावयवी ते तस्मात्सर्वथा भिन्ना अतस्तेषां विनाशेपि अस्य विनाशो नातो नित्यत्वमिति भावः। १० तव परस्य । ११ व्यवहिताऽव्यवहितलक्षण। १२ घटपटादौ । १३ विरुद्धधर्माध्यासादपरस्य । १४ अवयविनः । १५ व्याप्याग्रहणे तदयापकस्यापि ग्रहीतुमशक्तरित्यादि । १६ परमते जड भात्मा। १७ आदिना सरणग्रहणम् ।
प्र. क. मा०४६
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प्रमेचकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० ननु चामिागदर्शने सत्युत्तरकालं परमागदर्शनानन्तरस्मरणसहकारीन्द्रियज नितं स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञाज्ञानमध्यक्षमवयविनः पूर्वापरावयवव्याप्तिग्राहकम्, तदप्यसाम्प्रतम्, प्रत्यभिशाज्ञानेऽध्यक्षरूपत्वस्यैवासिद्धः । अक्षाश्रितं विशदस्वभावं हि ५प्रत्यक्षम्, न चास्यैतल्लक्षणमस्तीति । अक्षाश्रितत्वे चास्याखिला. वयवव्याप्यवयविस्वरूपग्राहकत्वासम्भवः, अक्षाणां सकलावयवग्रहणे व्यापारासम्भवात् । न च सरणसहायस्थापीन्द्रियस्याविषये व्यापारः सम्भवति । यद्यस्याविषयो न तत्तत्र स्मरणसहा
यमपि प्रवर्त्तते यथा परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धे, १० अविषयश्च व्यवहितोऽक्षाणां प्रभागभाव्यवयवसम्वन्धित्वलक्षणोऽवयविनः स्वभाव इति ।
ने चानेकावयवव्यापित्वमेकस्वभावस्यावयविनो घटते; तथा हि-यन्निरंशैकस्वभावं द्रव्यं तन्न सकृदनेकद्रव्याश्रितम् यथा परमाणु, निरंशैकस्वभावं चावयविद्रव्यमिति । यद्वा, यदने द्रव्यं १५ तन्न सकृन्निरंशैकद्रव्यान्वितम् यथा कुटकुड्यादि, अनेकद्रव्याणि चावयवा इति ।
अस्तु वानेकत्रावयविनो वृत्तिः, तथाप्यस्यासौ सर्वात्मना, एकदेशेन वा स्यात् ? यदि सर्वात्मना प्रत्येकमवयवेष्ववयवी वर्तेत; तदा यावन्तोऽवयवास्तावन्त एवावयविनः स्युः, तथा २० चानेककुण्डादिव्यवस्थितविल्वादिवदनेकावयव्युपलम्भानुषङ्गः।
अथैकदेशेन; अत्राप्यस्यानेकत्र वृत्तिः किमेकावयवक्रोडीकृतेन स्वभावेन, स्वभावान्तरेण वा स्यात् ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, तस्य तेनैवावयवेन क्रोडीकृतत्वेनान्यत्र वृत्त्ययोगात् । प्रयोगः-यदेकक्रोडीकृतं वस्तुखरूपं न तदेवान्यत्र वर्त्तते यथैकभाजनक्रोडी२५ कृतमाघ्रादि न तदेव भाजनान्तरमध्यमध्यास्ते, एकावयवक्रोडीकृतं चावयविखरूपमिति । वृत्तौ वान्यत्र अवयवे वृत्त्यनुपपत्तिरपरखभावाभावात् । एकावयवसम्बद्धखभावस्याऽतद्देशावयवान्तरसम्बन्धाभ्युपगमे च तदैवयवानामेकदेशतापंत्तिः, एकदेशतायां चैकात्म्यमविभक्तरूपत्वात् । विभक्तरूपावस्थितौ चैकदेशत्वं
१ स्मरण हि पूर्वभागस्य । २ तदविषयत्वात्। ३ परपरिकल्पितमवयविनः स्वरूपमऽवयवप्रधानतया निराकुर्वन्नाह । ४ एकस्वभावत्वं च नित्यनिरंशैकखभाव. त्वात् । ५ अवयवान्तरे। ६ विवक्षितावयवे। ७ तेषां विवक्षिताविवक्षितानाम् । ८.विवादापना अवयवा एकदेशत्वमाजो भवन्त्येकस्वभावेनावयविना व्याप्यत्वादेकावयववत् । ९ अवयवानाम्। १० अविभक्तरूपत्वमसिद्धमित्युक्ते सत्याह ।
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सू० ४/१० ]
अवयविस्वरूपविचारः
५४३
न स्यात् । अथ स्वभावान्तरेणासाववयवान्तरे वर्त्ततेः तदास निरंशता व्याघातः, कथञ्चिदनेकत्वप्रसङ्गश्च स्वभावभेदात्मकत्वाइस्तुभेदस्य । ते च स्वभावा यद्यतोऽर्थान्तरभूताः तदा तेष्वप्यसौ स्वभावान्तरेण वत्तैतेत्यनवस्था | अर्थानर्थान्तरभूताः तवयवैः किमपराद्धं येनेते तथा नेप्यन्ते ? तदिष्ठ वावयविनोऽने-५ कैत्वमनित्यत्वं च स्वशिरताडं कुर्वतोप्याचा
यदि चावयव्यविभागः स्यात्तदेकदेशस्यावरणे रागे च अखिलस्यावरणं रागश्चानुषज्यते, रक्तारक्तयोरावृतानावृतयोचावयवि रूपयोरेकत्वेनाभ्युपगमात् । न चैवं प्रतीतिः, प्रत्यक्ष विरोधात् । न चान्योन्यं विरुद्धधर्माध्यासेप्येकं युक्तम्, अत एव, अनुमान - १० विरोधाच्च । तथा हि-यद्विरुद्धधर्माध्यासितं तन्नैकम् यथा कुटकुड्याद्युपलभ्यानुपलभ्यस्वभावम्, आवृतानावृतादिस्वरूपेण विरुद्धधर्माध्यासितं चावयविस्वरूपमिति । तथाप्येकत्वे विश्वस्यैकद्रव्यत्वानुषङ्गः ।
ननु वस्त्रादे रागः कुङ्कुमादिद्रव्येण संयोगः, स चाव्याप्यवृत्ति- १५ स्तत्कथमेकत्र रागे सर्वत्र राग एकदेशावरणे सर्वस्यावरणम् ? तद्व्यसारम् ; यतो यदि पटादि निरंशमेकं द्रव्यम्, तदा कुङ्कुमादिना किं तत्राव्यातं येनाऽव्याप्यवृत्तिः संयोगो भवेत् ? अव्याप्तौ वा भेदप्रसङ्गो व्याप्ताव्याप्तस्वरूपयोर्विरुद्धधर्माध्यासेनैकत्वायोगात् ।
किञ्च, अस्याव्याप्यवृत्तित्वं सर्वद्रव्याव्यापकत्वम्, एकदेश- २० वृत्तित्वं वा ? न तावत्प्रथमः पक्षः द्रव्यस्यैकस्य सर्वशब्दविषयत्वानभ्युपगमत् । अनेकत्र हि सर्वशब्दप्रवृत्तिरिष्टा । नापि द्वितीयः; तस्यैकदेशासम्भवात्, अन्यथा सावयवत्वप्रसङ्गेत् । ततो नास्त्यवयवी वृत्तिविकल्पाद्यनुपपत्तेरिति ।
१५
ननु चावयविनो निरासे यत्साधनं तत्किं स्वतन्त्रम्, प्रसङ्गसा- २५
१ किंतु सांशत्वप्रसङ्गः । २ अवयविनः सकाशादभिन्नाः । ३ तन्तुलक्षणैः । ४ अवयवी धर्म्यऽनेको भवतीति साध्यो धर्मोऽवयवेभ्यो ऽनर्थान्तरत्वात्तत्स्वरूपवत् । अवयवी धर्म्यऽनित्यो भवति अवयवेभ्योऽनर्थान्तरत्वात्तत्स्वरूपवत् । अवयवानां बहुत्वादनित्यत्वाच्चेति उभयत्र हेतुः । ५ वैशेषिकस्य । ६ निरंशम् । ७ तस्मान्नैकम् । ८ एकदेशे । ९ अव्याप्यवृत्तिर्गुणः संयोगलक्षण इति वचनात् । ११ देशे । १२ देशस्य । १३ परेण । १४ तथा च निरंशत्वव्याघातः स्यात् । १५ शशविषाणवत् । १६ पक्षहेतुदृष्टान्तादयो यत्र विद्यन्ते तत्स्वतन्त्रम् ।
१० एकदेशे ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० धनं वा? स्वतन्त्रं चेत् धर्मिसाध्यपदयोव्याघातः, यथा-'इदं च नास्ति च इति । हेतोराश्रयासिद्धत्वञ्च अवयविनोऽप्रसिद्धः। न च वृल्या सात्वं व्याप्तम् ; समवायवृत्त्यनभ्युपगमेपि भवता रूपादेः सत्त्वाभ्युपगमात् । एकदेशेन सर्वात्मना वावयविनो ५वृत्तिप्रतिषेधे विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञाविषयत्वात् प्रकारान्तरेण वृत्तिरभ्युपगता स्यात् , अन्यथी 'न वर्तते' इत्येवाभिधातव्यम् । वृत्तिश्च समवायः, तस्य सर्वत्रैकत्वानिरवयवत्वाच्च कात्स्न्यैकदेशशब्दाविषयत्वम् । अथ प्रसङ्गसाधनं परस्येष्ट्याऽनि
टापादनात् । ननु परेष्टिः प्रमाणम् , अप्रमाणं वा ? यदि प्रमाणम् ; १० तर्हि तयैव वाध्यमानत्वादनुन्थानं विपरीतानुमानस्य । न चानेनैवास्या वाधा; तामन्तरेणास्याऽपक्षधर्मत्वात् । अथाप्रमाणम् ; तर्हि प्रमाणं विना प्रमेयस्यासिद्धिरित्यभिधातव्यम् , किमनुमानो. पन्यासेनास्याऽपक्षधर्मतयाऽप्रमाणत्वात् ?
इत्यप्यपरीक्षिताभिधानम् ; यतः प्रसङ्गसाधनमेवेदम् । तच्च १५'साध्यसाधनयोाप्यव्यापकभावसिद्धौ व्याप्याभ्युपगमो व्याप.
काभ्युपगमनान्तरीकः, व्यापकाभावो वा व्याप्याभावाविनाभावी' इत्येतत्प्रदर्शनॆफलम् । [व्याप्य ]व्यापकभावसिद्धिश्चात्र लोकप्रसिद्धैव । लोको हि कस्यचिवचित्सर्वात्मना वृत्तिमभ्युप
गच्छति यथा बिल्वादेः कुण्डादौ, कस्यचित्त्वेकदेशेन यथानेक. २० पीठादिशयितस्य चैत्रादेः । यत्रं च प्रकारद्वयं व्यावृत्तं तत्र वृत्ते
१ परेष्टयानिष्टापादनं यत्र तत्प्रसङ्गसाधनम् । २ अवयवी धर्मी, नास्तीति साध्यपदम्। ३ स्वमतापेक्षया वक्ति वैशेषिकः । लोकप्रसिद्धोऽस्ति नास्तीति प्रतिपाद्यते जैनैरिति विरोध इति भावः। परस्पर विरोध इत्यर्थः । ४ वादिनो जैनस्यापेक्षयाऽवयविनो धर्मिणः । ५ समवायवृत्त्यावयवेष्ववयवी वर्तते यतः। ६ जैनेन । ७ तादाम्येन, न तु समवायेनेति भावः। ८ किञ्च । ९ शेषाभ्यनुज्ञा सामान्याभ्युपगमः । १० समवायेन । ११ विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुशाविषयत्वाभावे । १२ न तु सर्वात्मनैकदेशेनेत्यभिधातव्यम् । १३ अवयवेष्ववयविनः। १४ अवयवेषु । १५ अवयवे. ध्ववयविनः समवायः काख्येनैकदेशेन वेति शब्दः। १६ प्रतिवादिनो वैशेषिकस्य । १७ पराभ्युपगमेन परस्यैवानिष्टापादनात् । १८ अवयवेभ्यो भिन्नोऽवयवी सर्वथा विद्यते इति परेष्टिः। १९ अवयवी नास्ति वृत्ति विकल्पाद्यनुपपत्तरिति । २० अवयवी नास्ति वृत्तिविकल्पाद्यनुपपत्तेरित्यस्य । २१ विपरीतानुमानेन परेष्टेः पराभ्युपगमस्य यदा बाधा स्यात्तदा परेष्टिविषयस्यावयविनोऽसत्वात्तद्धर्मत्वं हेतोर्नास्तीति भावः । २२ अवयविरूपस्य । २३ जैनेन। २४ एवकारः स्वतन्त्रसाधननिरासार्थः । २५ कचिदृष्टान्ते। २६ अविनाभूतः। २७ धर्मिणि । २८ प्रसङ्गसाधनं भवति । २९ कात्सर्यैकदेशवृत्तित्वयोः । ३० अवयवेषु। ३१ अवयवेष्ववयविनः सर्वात्मनैकदेशेन वा वृत्तेः ।
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सू० ४।१० अवयविस्वरूप विचारः
५४५ रभाव एव इति कथं न व्यातियतोत्र प्रसङ्गसाधनस्यावकाशोन स्यात् ? निरस्ता चानेकस्मिन्ने कस्य वृत्तिः प्रागेव । ___ यच्चोक्तम्-'परेष्टिः प्रमाणमप्रमाणं वा इत्यादि तदप्ययुक्तम् । यतः प्रमाणाप्रमाणचिन्ता संवादविसंवादाधीना । परेष्टिमात्रेण च प्रतिपवयविनि संवादकप्रमाणामावादप्रामाण्यं स्वयमेव ५ अविष्यति। ननु च 'इहेदन इति प्रत्ययप्रतीतेः प्रत्यक्षेणैवावयविनो वृत्तिलिद्धः कथं संवादकममाणाभावो यत्तस्याः प्रामाण्यं न स्यात् ? इत्यप्रसङ्गतम् । तन्त्वाद्यवयवेषु व्यतिरित्तख पटाधवयविनः समवायवृत्तेः स्वप्नेप्यप्रतीतेः। न च भेदेनाप्रतिमालमानस्सा 'इहेदं वर्तते' इति प्रतीतिर्युक्ता । न हि भेदेनाप्रतिभालमाने १० कुण्डे 'इह कुण्डे वदराणि इति प्रत्ययो दृष्टः।
यद्य(द)प्प्युक्तम् वृत्तिश्च समवायस्तस्य सर्वत्रैकत्वानिरवयवत्वाच्च कात्स्न्यैकदेशशब्दाविपयत्वमिति; तदपि खमनोरथमात्रम् ; समवायस्याने प्रवन्धेने प्रतिषेधात् । ननु तथाप्येकस्मिन्नवयविनि कात्स्न्यैकदेशशब्दाप्रवृत्तेरयुक्तोयं प्रश्नः-'किमेकदेशेन १५ प्रवर्त्तते कान्येन वा' इति । कृत्स्न मिति तोकस्याशेपाभिधानम् , "एकदेशः' इति चानेको सति कस्यचिदभिधानम् । ताविमौ कात्स्न्यैकदेशशब्दावेकसिन्नक्याविन्यनुपएंन्नौ; इत्मप्यसमीचीनम् । एकत्रैकत्वेनावयविनोऽप्रतिभासमानात् प्रकारान्तरेण च वृत्तेरसम्भवात् । न खलु कुण्डादौ बदरादेः स्तम्भादौ वा वंशादेः२० कात्स्न्यैकदेशं परित्यज्य प्रकारान्तरेण वृत्तिः प्रतीयते । ततोऽवयवेभ्यो भिन्नस्यावयविनो विचार्यमाणस्यायोगान्नासौ तथाभूतोभ्युपगन्तव्यः । किं तर्हि ? तत्वाद्यवयवानामेवावस्थाविशेषः खात्मभूतः शीतापनोदाद्यर्थक्रियाकारी प्रमाणतः प्रतीयमानः पटाद्यवयवीति प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम् ।
२५ ननु रूपाँदिव्यतिरेकेणापरस्यावस्थातुः शीताद्यपनोदसमर्थस्याप्रतीतितोऽसत्त्वात् कस्यावयवित्वं भवतापि प्रसाध्यते ? चक्षुः
१ एकदेशेन सर्वात्मना वेति प्रकारद्वयेन वृत्तिाप्ता, तया वाऽवयविसत्त्वं व्याप्तमिति हेतोः। २ एकस्यावयविनोऽनेकेष्ववयवेषु वृत्तिभविष्यति नन्वित्याशङ्कायामाहाचार्यः । ३ सकाशात् । ४ बदरेभ्यः । ५ विस्तरेण । ६ अशेषाणां खभावानाम् । ७ देशानाम् । ८ देशस्य । ९ सर्वथा । १० अवयवेषु। ११ परमतापेक्षया । १२ वर्तनस्य । १३ सर्वथा । १४ आतानवितानीभूतपरिणामविशेषः। १५ अवयवेभ्यः कथञ्चिदभिन्नः। १६ रूपिप्रतिषेधकः सौगतः। १७ आदिना रसगन्धवशब्दाः । १८ अवयविरूपपदार्थस्य । १९ हेतोरसिद्धत्वं परिहरति परः।
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५४६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० प्रभवप्रत्यये हि रूपसेवावभासते नापरस्तद्वान् , एवं रसनादिप्रत्ययेपि वाच्यम्' इत्यविचारितरमणीयम् । यताः किमेकस्य रूपादिमतोऽसम्मको विरुद्धधर्माध्यासेनैकत्रैकत्वानेकत्वयोस्तादात्म्य विरोधात् , तद्रहणोपायासम्भवाद्वा? प्रथमपक्षे तत्र तयोः कथ५ञ्चित्तादात्म्यं विरुद्ध्यते,सर्वथा वा? सर्वथा चेत्, सिद्धसाध्यता। कञ्चिदेकत्वं तु रूपादिभिर्विरुद्धधर्माध्यासेप्येकस्याऽविरुद्धम चित्रज्ञानस्येव नीलाद्याकारैर्विकल्पज्ञानस्येव वा विकल्पेतराकारैरिति । यथा च रूपादिरहितं प्रत्यक्षे न प्रतिभासते तथा तद्हिता रूपादयोपि । न खलु मातुलिङ्गद्रव्यरहितास्तद्रूपादयः १० स्वप्नेप्युपलभ्यन्ते । वस्तुनश्चेदमेवाध्यक्षत्वं यदनात्मस्वरूपपरिहारेण वुद्धौ स्वरूपसमर्पणं नाम । इमे तु रूपादयो द्रव्यरहिता. स्तत्र स्वरूपं न समर्पयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकर्तुमिच्छन्तीत्या मूल्यादानक्रयिणः।
किञ्च, इदं स्तम्भादिव्यपदेशाह रूपम्-किमेकं प्रत्येकम् , २५ अनेकानंशपरमाणुसञ्चयमानं वा? प्रथमपक्षे अधोमध्योात्मा
कैकरूपवत् रसाद्यात्मकैकस्तम्भद्रव्यप्रसङ्गः। द्वितीयपक्षे तु किमे कमनेकपरमाण्वाकारं ज्ञानं तद्राहकम् , एकैकपरमाण्वाकारमने वा? प्रथमविकल्पे चित्रैकज्ञानवद्रूपाद्यात्मकैकद्रव्यप्रसिद्धिरनिपेच्या स्यात् । द्वितीयविकल्पे तु परस्परविविक्तज्ञानपरमाणुप्रति२० भासँस्यासंवेदनात्सकलशून्यतानुषङ्गः।
अथ तद्हणोपायासम्भवाद्रूपादिमतो द्रव्यस्याभावः, तन्न 'यमहमद्राक्षं तमेतर्हि स्पृशामि' इत्यनुसन्धानप्रत्ययस्य तद्राहिणः सद्भावात् । न च द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपस्पशाधारैकार्थग्रहणं विना प्रतिसन्धानं न्यायम्। रूपस्पर्शयोश्च प्रतिनियतेन्द्रियग्राह्य२५त्वादेतन्न सम्भवति । चेतनत्वाच्चात्मनः स्मरणादिपर्यायसहायस्य
१ एकस्मिन्वस्तुनि । २ अवयविनः। ३ रूपादीनाम् । ४ द्रव्यरूपतया । ५ साहित्ये। ६ अवयविनः। ७ इतरो=निर्विकल्पकः पूर्वसविकल्पकादुपादानभूतानिर्विकल्पकात्सहकारिभूतात्सविकल्पकमुत्पद्यते तदा तदुभयोराकारं बिभ्रति । ८ इदमेव सम्भावयति । ९ तर्हि रूपादयो द्रव्यरहिता बुद्धी स्वरूपसमर्पका भविष्यन्तीत्याह । १० द्रव्यरहितत्वादिति प्रथमान्तोपि हेतुज्ञेयः । ११ मूल्यं स्वरूपसमर्पणलक्षणमदत्त्वा क्रयिण इति भावः। १२ सौगतमते चित्रैकशानं स्वीकृतम् । १३ एकस्मिन्वस्तुनि । १४ लोके। १५ ज्ञेयग्राहकज्ञानाभावात् ज्ञेयस्याप्यभावात् । १६ अनुसन्धानं= प्रत्यभिज्ञानम् । १७ चक्षुःस्पर्शनाभ्याम् । १८ अनेन प्रत्यक्षमपि तद्ब्राहकमुक्तम् , व्रतश्चात्मसिद्धिरिति । १९ वैशेषिकमतनिरासार्थम् । २० बौद्धमतनिरासार्धम् ।
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सू० ४.१०] अवयविस्वरूपविचारः अर्वापरभागावयवव्यापित्वग्रहणमन्यवयविद्रव्यस्योपपन्नम् । म. साधितं चानुसन्धानस्य सविश्यत्वमित्यलमतिप्रसङ्गेन । तन्न परेषां चतुःसंख्यं द्रव्यं यथोपवर्णितस्वरूपं घटते, सर्वथा नित्यस्वभावाणूनामनर्थक्रियाकारित्वेनासलवतः तदारब्धव्यणुकाद्यवयविद्रव्यस्याप्यसम्भवात् । न हि कारणासादे कार्य प्रभव-५ त्यतिप्रलङ्गात् । वायवेश्योन्तरल्यावयविलो प्राहकप्रमाणास्वरवादालत्वम् ।
जातिभेदेन पृथिव्यादिद्रव्याणां भेदोपवर्णनं चानुपपन्नम्। स्वरूपासिद्धौ शशशृङ्गवद्भदोपवर्णनासम्भवात् । जातिभेदेनात्यन्तं तेषां भेदे चान्योन्यमुपादानोपादेयभावो न स्यात् । येषां हि १० जातिभेदेनात्यन्तिको भेदो न तेषां तद्भावः यथात्मपृथिव्यादीनाम् , तथा तद्भेदश्च पृथिव्यादिद्रव्याणामिति । तन्तुपटाद्युपादानोपादेयभावेन व्यभिचारपरिहारार्थम् आत्यन्तिकविशेषणम् । न हि तत्रात्यन्तिकस्तद्भेदः, पृथिवीत्वादिसामान्यस्याभिन्नस्यापीष्टेः। नन्वेवं द्रव्यत्वादिना पृथिव्यादीनामप्यभेदात्तद्भावोस्तु: १५ तन्न; आत्मपृथिव्यादीनामप्येवं तद्भेदाभावादुपादानोपादेयभावः स्यात्, तथा चात्माईतप्रसङ्गाकुतः प्रथिव्यादिभेदः स्यात? तन्नात्यन्तिकभेदे पृथिव्यादीनां तद्भावो घटते । अस्ति चासौचन्द्रकान्ताजलस्य, जलान्मुक्ताफलादेः, काष्ठादनलस्य, व्यजनादेश्वानिलस्योत्पत्तिप्रतीतेः। चन्द्रकान्ताद्यन्तर्भूताजलादेरेव द्रव्या-२० जलाधुत्पत्तिः, इत्यप्यनुपपन्नम्। तत्र तत्सद्भावावेदकप्रमाणाभावात् । तथापि चन्द्रकान्तादौ जलाद्यभ्युपगमे मृत्पिण्डादौ घटाद्यभ्युपगमोपि कर्तव्य इति सांख्यदर्शन व स्यात् । ततो मृत्पिण्डादौ घटादिवञ्चन्द्रकान्तादौ जलादेरप्यप्रतीतितोऽभावात्, आत्यन्तिकभेदे चोपादानोपादेयभावासम्भवात् , 'पर्यायभेदेना-२५ न्योन्यं पृथिव्यादीनां भेदो रूपरसगन्धस्पर्शात्मकपुद्गलद्रव्यरूपतया चाभेदः' इत्यनवद्यम् । रूंपादिसमन्वयश्च गुणपदार्थ
१ रूपस्पर्श । २ प्रत्यभिज्ञानसमर्थनसमये। ३ अनुसन्धानसमर्थनेन। ४ वैशेषिकाणाम् । ५ सर्वथा नित्यानित्यतया। ६ पृथिवीत्वादिना। ७ ययोजातिमेदेन मेदो न तयोरुपादानोपादेयभावोस्तीत्युक्तं ततस्तन्तुपटादौ व्यभिचारो भवति । ८ तन्तुत्वपटत्वजातिभेदे सत्यपि । ९ तन्तुपटादिषु। १० अयमात्मेमे पृथिन्यादय इति । ११ मा भववित्युक्ते सत्याह । १२ पृथिवीरूपात्। १३ सर्व सर्वत्र विद्यते इति वचनात् । १४ पृथिव्यामेव गन्धोऽस्वेव रस इति वचनात्कथं चतुर्णामविशेषेण रूपायात्मकत्वमित्याह । १५ समन्वयः सम्बन्धः ।
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५४८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० परीक्षायां बतुर्णामपि समर्थयिष्यते । तन्न नित्यादिखभावमात्यन्तिकभेदभिन्नं च पृथिव्यादिद्रव्यं घटते।
नाण्याकाशादिः सर्वथा नित्यनिरंशत्वादिधर्मोपेतस्यास्याप्यप्रतीतः। ननु चाकाशस्य तद्धर्मोपेतत्वं शब्दादेव लिङ्गात्प्रतीयते. ५ तथाहि-ये विनाशित्वोत्पत्तिमत्त्वादिधर्माध्यासितास्ते क्वचिदा श्रिता यथा घंटादयः, तथा च शब्दा इति । गुणत्वाच्च ते क्वचिदाश्रिता यथा रूंपादयः । न च गुणत्वमसिद्धम् । तथाहि-शब्दो गुणः प्रतिषिध्यमान,व्यकर्मभावत्वे सति सत्तासम्बन्धित्वाद्ध
पादिवत् । न चेदं साधनमसिद्धम् ; तथाहि-शब्दो द्रव्यं न भव. २० त्येकद्रव्यत्वाद्रूपादिवत् । न चेदमप्यसिद्धम् । तथाहि-एकद्रव्यः
शब्दः सामान्यविशेषवत्त्वे सति वायै केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्तद्वदेव । 'सामान्यविशेषवत्त्वात्' इत्युच्यमाने हि परमाणुभिर्व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् 'इन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इत्युक्तम् । तथापि घटादिना व्यभिचौरः, तन्निरासार्थकविशेषणम् । 'एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' १५इत्युच्यमाने आत्मना व्यभिचारः, तनिवृत्त्यर्थ बाह्यविशेषणम् ।
रूपत्वादिना व्यभिचारपरिहारार्थ च 'सामान्यविशेषवत्त्वे सति' इति विशेषणम्।
तथा, कर्मापि न भवत्यसौ संयोगविभागाकारणत्वाद्रूपादिवदेवेति । तस्मात्सिद्धं प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावत्वं शब्दस्य। २० 'सत्ताँसम्वन्धित्वात्' इत्युच्यमाने च द्रव्यकर्मभ्यामनेकान्तः,
तनिवृत्त्यर्थ 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावत्वे सति' इति विशेषणम् । 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावत्वात्' इत्युच्यमानेपि सामान्यादिनी व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थ 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इत्यभिधानम् । तत्सिद्धं गुणत्वेन क्वचिदाश्रितत्वं शब्दानाम् ।
१ जैनैः। २ गगने। ३ स्वावयवेषु। ४ तस्मात्कचिदाश्रिता भवन्त्येव । ५ आकाशविशेषगुणः शब्द इति वचनात् । ६ रूपिद्रव्ये। ७ शब्दो द्रव्यं न भवति कर्म च नेति। ८ त्रयः पदार्थाः स्वरूपेणासन्तः सत्तासम्बन्धात्सन्त इति वचनात्। ९ गगनलक्षणमेकं द्रव्यं यस्य स एकद्रव्यस्तस्य भावः, दृष्यन्तपक्षे घटायेकद्रव्यं यस्य रूपादेः। १० सामान्यशब्देनात्रापरसामान्यं गृह्यते । ११ एकद्रव्यत्वाभावात् । १२ घटादीनामेकद्रव्यत्वाभावात् । १३ घटस्य स्पर्शनचक्षुरिन्द्रियाभ्यां ग्राह्यत्वात् । १४ यतो मनोलक्षणेन्द्रियप्रत्यक्ष आत्मा। १५ अनेकद्रव्याश्रितत्वात् । १६ विशेषणम्। १७ इदानीं विशेष्यं विचारयति । १८ सत्तासम्बन्धित्वे द्रव्यकर्मणोर्गुणत्वाभावात् । १९ आदिना विशेषसमवाययोर्ग्रहणम् । २० गुणत्वाभावात्। २१ सामान्यविशेषसमवायाः स्वरूपेण सन्तो न तु सत्तासम्बन्धादित्यभिधानात् ।
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सू० ४।१०] आकाशद्रव्यविचारः
५५४९ यश्चैयामाश्रयस्तत्पारिशेप्यादाकाशम् ; तथाहि-न तावदर्शवतां परमाणूनां विशेषगुणः शब्दोऽसदोदिप्रत्यक्षत्वात्कार्यद्रव्यरूपादिवत् । नापि कार्यद्रव्याणां पृथिव्यादीनां विशेषगुणोसौ; कार्यद्रव्यान्तराप्रादुभीवेप्युपजायमानत्वात्मुखादिवत् , अकारणगुणपूर्वकत्वादिच्छादिवत् , अयावद्रव्यमावित्वात् , अस्सदादिपुरु-५ पान्तरप्रत्यक्षत्वे सति पुरुषांन्तराप्रत्यक्षत्वाच तद्वत् , आश्रया. द्धेर्यादेरन्यत्रोपलव्धेश्च । स्पर्शवतां हि पृथिव्यादीनां यथोक्तविपरीता गुणाः प्रतीयन्ते । नाप्यात्मविशेषगुणः, अहङ्कारेण विभक्तग्रहणात्, वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् , आत्मान्तरग्राह्यत्वाच्छ । बुधादीनां चात्मगुणानां तद्वैपरीत्योपलब्धेः। नापि मनोगुणः अस्मदा-१० दिप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवत् । नापि दिकालविशेषगुणः; तयोः पूर्वापरादिप्रत्ययहेतुत्वात् । अतः पारिशेष्याद्गुणो भूत्वाकाशस्यैव लिङ्गम् ।
तच्च शब्द लिङ्गाविशेषाद्विशेपलिङ्गाभावाच्चैकम् । विभु च सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात्, नित्यत्वे सत्यस्मदाधुंपलभ्यमानगुणोंधिष्ठानत्वाच्चात्मादिवत् । नित्यं शब्दाधिकरणं द्रव्यं सामान्य-१५ विशेषेवत्त्वे सत्यनाधितत्वादात्मादिवत् । अनाश्रितं शब्दाधिकरणं द्रव्यं गुणवत्त्वे सत्यस्पर्शवत्वात्तद्वत् । असमवायवत्वे सदानाश्रितत्वाचास्य द्रव्यत्वमिति ।
१ पृथिव्यादिचतुर्णाम् । २ योगिप्रत्यक्षेण व्यभिचारपरिहारार्धम् । ३ तेषामतीन्द्रियत्वात्तद्गुणोप्यतीन्द्रिय एवेति भावः । ४ कार्य-द्वयणुकादि । ५ कारणस्य गगनस्य गुणः कारणगुणः न विद्यते कारणगुणः पूर्व यस्य शब्दस्यासावकारणगुणपूर्वकस्तस्य भावस्तस्मात्, पृथिव्यादिविशेषगुणे परमाणुरूनस्य कारणस्य गुणपूर्वकत्वमस्तीति । ६ दृष्टान्तपक्षे आत्मा कारणम् । ७ गगने सर्वत्र न विद्यते यतः। ८ इच्छादिवदेव । ९ योतिशयेन दूरान्तरितः। १० सर्वत्र सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह। ११ कार्यद्रव्यान्तरप्रादुर्भावे समुपजायमानलक्षणाः। १२ अहं सुख्यहं दुःखीत्यादिवदहंशब्दवान् इत्यहंकारेण विभक्तस्य रहितस्य शब्दस्य ग्रहणात् । १३ सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह । १४ हेतोरसिद्धत्वपरिहारार्थमिदम् । १५ दिगाकाशकालादि सर्वगतं परमते शब्दस्य दिकालविशेषगुणत्वे शब्द एव तयोस्सद्भावे लिङ्गं स्यादिति भावः। १६ अविशेषः एकत्वम् । १७ पटेन व्यभिचारपरिहारार्थम् । १८ परमाणुभिर्व्यभिचारपरिहारार्थम् । १९ स गुणः शब्दः । २० नित्यत्वमसिद्धमित्युक्ते सत्याह। २१ अभावेन वा व्यभिचारपरिहारार्थम् । २२ घटेन व्यभिचारपरिहारार्थम् । २३ असिद्धत्वे सत्याह । २४ गुणेन व्यभिचारपरिहारार्थ गुणवत्स्वमिति विशेषणं गुणानां निर्गुणत्वात् । २५ समवायेनाभावेन वा व्यभिचारपरिहारार्थम् ।
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अमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
__ अत्र प्रतिविधीयते । शब्दानां सामान्यो नाश्रितत्वं किमंतः साध्यते, नित्यैकास्तविभुद्रव्याश्रितत्वं वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता तेषां युगलकार्यतया तदाश्रितत्वाभ्युपगमात् । द्वितीयपक्षे तु सन्दिग्धविपेक्षव्यावृत्तिकत्वेनानैकान्तिको हेतुः; तथाभूतसा९ ध्यान्वितत्वेनास्य क्वचिदृष्टान्तेऽप्रसिद्धः । प्रतिषिध्यमानकर्मभा. करने सत्यपि च प्रतिषिध्यमानद्रव्यभावत्वमसिद्धम् ; द्रव्यत्वाच्छब्दस्य । तथा हि-द्रव्यं शब्दः, स्पर्शाल्पत्वमहत्त्वपरिमाणसंख्यासंयोगगुणाश्रयत्वात् , यद्यदेवंविधं तत्तद्रव्यम् यथा वदा. मलकबिल्वादि, तथा चायं शब्दः, तस्माद्रव्यम् । १० तत्र न तावत्स्पर्शाश्रयत्वमस्यासिद्धम् ; तथाहि-स्पर्शवाञ्छब्दः
खसम्बद्धार्थान्तराभिघातहेतुत्वात् मुद्रादिवत् । सुप्रतीतो हि कंसपाध्यादिध्वानाभिसम्वन्धेन श्रोत्राद्यभिघातस्तत्कार्यस्य वाधिर्यादेः प्रतीतेः । स चास्याऽस्पर्शवत्त्वे न स्यात् । न ह्यस्पर्शवता कालादिनाभिसम्बन्धेऽसौ दृष्टः । न च शब्दसहचरितेन वायुना १५ तदभिघातः इत्यभिधातव्यम्, शब्दाभिसम्वन्धान्वयव्यतिरेका
नुविधायित्वात्तस्य, तथाभूतेपि तदभिघातेऽन्यस्यैव हेतुकल्पने तत्रापि कः समाश्वासः? शक्यं हि वक्तुम्-न वाय्वाधभिसम्वन्धात्तदभिघातः किन्त्वन्येन, इत्यनवस्थानं हेतूनाम् । गुणत्वेनास्य निर्गुणत्वात्स्पर्शाभावात्तदभिघाताहेतुत्वे चक्रकप्रसङ्गः-गुणत्वं २० ह्यद्रव्यत्वे, तदप्यस्पर्शवत्त्वे, तदपि गुणत्वे इति । स्पर्शवतार्थेनाभिहन्यमानत्वाच्च स्पर्शवानसौ । न चानेनाभिहन्यमानत्वमस्यासिद्धम् ; प्रतिवातभित्त्यादिभिः शब्दस्याभिहन्यमानतया सकलजनसाक्षिकात् मूर्तेन चामतस्याविरोधेनाऽप्रतिघातागगनभित्त्या. दिवत् । तन्नास्य स्पर्शाश्रयत्वमसिद्धम्। २६ नाप्यल्पमहत्त्वपरिमाणाश्रयत्वमः अल्पमहत्त्वप्रतीतिविषयत्वा
द्वदादिवत् । ननु च 'अल्पः शब्दो मन्दः' इत्यादिप्रतीत्या मन्द
१ गुणत्वादिति हेतोः । २ इति विशेषणम् । ३ अतोनुमानान्नभसो द्रव्यसिद्धिराश्रयमात्रस्यैव सिद्धिप्रसङ्गात् । ४ जैनानाम् । ५ विपक्षः अनित्यानेकमूर्ताऽविभुद्रव्याश्रितम् । ६ रूपादयो दृष्टान्तभूता अनित्यादिविशिष्टपक्षे वर्तन्तेऽतोऽयमपि हेतुस्वादृशे पक्षे वर्त्तते अन्यादृशे वेति सन्दिग्धः। ७ गुणत्वात् । ८ नित्यैकव्याप्याश्रयाश्रितत्वे साध्यविकलो दृष्टान्तो रूपादीनां तद्विपरीताश्रयाश्रितत्वात् । ९ ते च ते गुणाश्च । १० अनिर्वचनीयेन। ११ आदौ यत्प्रतिपादितं तदेवान्ते स्यादिति चक्रकदोष इति भावः। १२ सन्दिग्धानकान्तिकत्वे हदम् । १३ स्पर्शवद्भिः। १४ असिद्धमिति संबन्धः । १५ शब्दस्य । १६ अल्पत्वमहत्त्वपरिमाणम् ।
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सू० ४११० आकाशद्रव्यविचारः त्वलेश यः गृह्यते, 'महान् पटुस्तीवः' इत्यादिप्रतीत्या च तीनत्वम्, न पुनः परिमाणमियत्तानवधारणात् । नहि 'अयं महा
छब्दः' इति व्यवस्यन् 'इयान् इत्यरधारयति, यथा द्रव्याणि यद रामलकविल्वादीनि । मन्दतीवता चाचान्तरो जातिविशेषो गुणवृत्तित्वाच्छन्दत्ववत् । तदप्यपेशलम् । यतः कथं शब्दस्य गुणत्वं सिद्धं यतत्तवृत्तित्वासदत्वादेजातिविशेष सिद्धयेत् ? अद्रव्यवाचेत् । तदलि का? अहहत्व पारिजाताधिकारणत्वाञ्चेन्; तदन्थि कुतः ? गुणत्वात् चक्रकालङ्गः ।
द्रव्यान्तरवदियत्तानवधारणाचेत् ; न; वायुनानेकान्तात् । न खलु विल्ववदरादेरिव वायोरियत्तावधार्यते । वायोरप्रत्यक्षत्वा-१० दियत्ता सत्यपि नावधार्यते, न शब्दस्य विपर्ययात्; इत्याययुक्तम् ; गुणगुणिनोः कथञ्चिदेकत्वे गुणप्रतिभासे गुणिनोपि प्रतिभाससम्भवात् । वायुगतस्पर्शविशेषस्यैवाध्यक्षत्वाभ्युपगमे च 'स्पर्शीत्र शीतः खरो वा' इति प्रतीतिः स्यान्न वायुरिति । न खलु रूपावभासिनि प्रत्यये सोवभासते। स्पर्शविशेषपरिणामस्यैव १५ च वायुत्वात्कथं नास्य प्रत्यक्षेत्वम् ?
इयत्ता चेयं यदि परिमाणादन्या कथमन्यस्यानवधारणेऽन्देस्याभावः ? न खलु घटानवधारणे पटाभावो युक्तः । परिमाणं चेत्, तर्हि 'इयत्तानवधारणात्परिमाणं नास्ति' इत्यत्र 'परिमाणं नास्ति परिमाणानवधारणात्' इत्येतावदेवोक्तं स्यात् । अल्पत्वमहत्त्व-२० प्रत्ययतस्तत्परिमाणावधारणे च कथं तदनवधारणं नामामलकादावपि तत्प्रसङ्गात् ? मन्दतीव्रताभिसम्बन्धात्तत्प्रत्ययसम्भवे च मन्दवाहिनि नर्मदानीरे अल्पनेतत् तीव्रवाहिनि च कुल्याँजले
१ इयन्ति अवधारयति जनः । २ तीव्रत्वं मन्दत्वं च परिमाणविशेषोऽस्त्वित्युक्ते सत्याह । ३ शब्दे । ४ चक्रकपरिहारार्थ गुणत्वादिति हेतुस्थले इयत्तानवधारणादिति हेतुं योजयति परः। ५ अल्पत्वमहत्त्वपरिमाणाधिकरणत्वेपि वायोरियत्ता नावधार्यते इति भावः। ६ अनैकान्तिकत्वं हेतोः परिहरनाह । ७ प्रत्यक्षत्वात् । ८ इयत्तावावोः। ९ प्रदेशभेदाभावात् । १० ततश्च वायुगतस्य स्पर्शस्य प्रत्यक्षत्वाद्वायोरपि प्रत्यक्षत्वं स्यात् , तथा च वायोरप्रत्यक्षत्वं वक्तमशक्यं तव परस्य । ११ न वायुः शीतः खरो वेति प्रतीतिः । १२ रूपी वायुः। १३ तथा च वायोरभावः स्यात् । १४ कथञ्चिदेकत्वेन । १५ त्वगिन्द्रियग्राह्यत्वम् । १६ इयत्ताया अनवधारणे शब्दस्याल्पत्वमहत्त्वपरिमाणस्याभावः इत्यास्मिन्पक्षे दूषणान्तरम् । १७ इयत्ता परिमाणाद्भिन्नाभिन्ना वेति विकल्पद्वयम् । १८ इयत्तालक्षणस्य । १९ परिमाणलक्षणस्य । २० अन्येति विकल्पे । २१ द्वितीयपक्षे । २२ परेणाङ्गीक्रियमाणे । २३ जलम् । २४ अल्पा सरित् कुल्या।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
[ ४. विषयपरि०
'महदेर्तत्' इति प्रत्ययः स्यात् । नं चैवम् । तस्मान्न मन्दतीव्रतानिबन्धनोयं प्रत्ययः, अपि त्वल्प महत्त्वपरिमाणनिबन्धनः, अन्यथा बदरामलकादावपि तन्निबन्धनोसौ न स्यात् । बदरादीनां द्रव्यत्वेन तत्परिमाणसम्भवात्त तन्निबन्धनत्वे शब्देप्यत एवासी ५ तनिबन्धनोस्तु विशेषभावात् । कारणगतस्य चाल्प महत्त्वपरि मार्णस्य शब्दे उपचारात्तथा प्रत्यये बदरादावप्यसौ तथानुषज्येत । तन्नाल्प महत्त्व परिमाणाश्रयत्वमप्यस्यासिद्धम् ।
नापि सङ्ख्याश्रयत्वम्; 'एकः शब्दो द्वौ शब्दौ बहवः शब्दाः' इति संख्यात्वप्रतीतेर्घटादिवत् । अथोपचाराच्छब्दे संख्याव १० त्वप्रतीतिः ननु किं कारणगता, विषयगता वा शब्दे संख्योपचर्येत ? कारणगता चेत्; किं समवायिकारणगता, कारणमात्रगता वा ? आद्यपक्षे 'एकः शब्दः' इति सर्वदा व्यपदेशप्रसङ्गस्त. स्यैकत्वात् । द्वितीयपक्षे तु 'वहवः शब्दाः' इति व्यपदेशः स्यात्तस्य बहुत्वात् । विषेय संख्योपचारे तु गगनाकाशव्योमादिशब्दा बहु१५ व्यपदेशभाजो न स्युर्गगनलक्षणविषयस्यैकत्वात् । पश्वादीनां च बहुत्वात् 'एको गोशब्द:' इति स्वप्नेपि दुर्लभम् । यथाऽविरोध संख्योपचारः इत्यप्ययुक्तम् स्वयं संख्याववमन्तरेणाविरोधाऽसम्भवात् ।
किश्च, विपरीतोपलम्भस्य बाधकस्य सद्भावे सत्युपचारकल्पना २० स्यात्, न चाग्नित्व रहित पुरुषस्ये वैकत्वादिसंख्यारहितस्य शब्दस्योपलम्भोस्तीति कथमुपचारकल्पना ? तथपि तत्कल्पने अनुपचरितमेव न किञ्चित्स्यात् । तन्न संख्याश्रयत्वमप्यसिद्धम् ।
नापि संयोगांश्रयत्वम्; वाय्वादिनाभिहन्यमानत्वात्, पांश्वादिवत् । संयुक्ता एव हि पांश्वादयो वायुनान्येन वाऽभिहन्यमाना २५ दृष्टाः । ते तदभिघातश्च देवदत्तं प्रत्यागच्छतः प्रतिवातेन प्रति
१ जलम् । २ भवत्वित्युक्ते सत्याद्दाचार्यः । ३ अल्पत्वमहत्त्वलक्षणः । ४ वदरादिष्वल्पत्व महत्त्वप्रत्ययस्य । ५ अल्पत्व महत्त्वप्रत्ययः । ६ द्रव्येत्वे नाल्पत्व महत्त्व परिमाणस सम्भवस्य । ७ शब्दस्य कारणमाकाशम् । ८ द्रव्यस्य । ९ कार्यरूपे । १० वाल्वादिभेर्यादिकारणमात्रस्य । ११ विषयः = शब्दस्य वाच्यः । १२ वाग्दिग्भूरश्मिवारिवाणाख्यस्वर्गाणां ग्रहणमादिशब्देन । १३ किन्तु गोशब्दा बहवो भवेयुरिति भाव:, न तु गोशब्दो बहुप्रकारः । १४ एकस्मिन्घटे एकः शब्द इत्यादिवत् । १५ पदार्थानाम् । १६ शब्दलक्षणार्थानाम् । १७ असंख्यावत्त्वस्य । १८ एकत्वादिसंख्यारहितस्योपलम्भाभावेपि । १९ संयोगो गुणः । २० शब्दस्य । २१ सन्दिग्धत्वे सत्याह । २२ साधनमसिद्धमित्युक्ते सत्याह । २३ शब्दस्य ।
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सू० ४।१०] आकाशद्रव्यविचारः
५५३ निवर्त्तनात्पांश्वादिवदेवावसीयते, तदप्यन्यदिगवस्थितेन श्रमणात् । न गन्धादयो देवदत्तं प्रत्यागच्छन्तस्तेन निवर्त्यन्ते, न च तेषां तेन संयोगो निर्गुणत्याहुणानाम् : तन्न; तद्वतो द्रव्यस्यैवानेन प्रतिनिवर्त्तनात् , केवलानां तेषां निष्क्रियत्वेनागमननिवनायोगात् । ततः सिद्धं गुणवत्त्वाद्रव्यत्वं शब्दस्य ! ५ क्रियावत्त्वाच्च वाणादिवत् । निष्क्रियत्ने तत्य श्रोत्रेणाऽग्रहणमनमिलम्बन्धात् । तथापि ग्रहणे श्रोत्रत्याप्राप्यकारित्वं स्यात् । तथा च, 'प्राप्यकारि चक्षुर्वाह्येन्द्रियत्वात्त्वगिन्द्रियवत्' इत्यल्यानैकान्तिकत्वम् । सम्बन्धकल्पने श्रोत्रं वा शब्दोत्पत्तिप्रदेशं गत्त्वा शब्देनाभिसम्बध्येत,शब्दोवा खोत्पत्तिदेशादागत्य श्रोणामिस-१० म्वध्येत? न तावद्धर्माधर्माभ्यां संस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धनभोदेशलक्षणश्रोत्रस्य शब्दोत्पत्तिदेशे गतिः, तथा प्रतीत्यभावात् , निष्क्रि. यत्वाच्च । गतौ वा विवक्षितशब्दान्तरालवर्तिनामल्पशब्दानामपि ग्रहणप्रसङ्गः, सम्बन्धाविशेपात् । अनुवातप्रतिवाततिर्यग्वातेषु प्रतिपत्त्यप्रतिपत्तीपत्प्रतिपत्तिमेदाभावश्च, श्रोत्रस्य गच्छंतस्तत्कृ-१५ तोपकाराद्ययोगात् । नापि शब्दस्य श्रोत्रप्रदेशागमनम् ; निष्क्रियत्वोपगमात् । आगमने वा सक्रियत्वम् ।
ननु नाद्य एवाकाशतच्छङ्घमुखसंयोमेश्वरीदेः समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणाजातः शब्दः श्रोत्रेणागत्य सम्वध्यते येनार्य दोषः, अपि तु वीचीतरङ्गन्यायेनापरापर एवाकाशशब्दादिलक्ष-२० णात् समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणाजांतः तेनाभिसम्बध्यते; तदप्यसमीचीनम् ; सर्वत्र क्रियोच्छेदानुषङ्गात् । 'वाणादयोपि हि पूर्वपूर्वसमानजातीयलक्षणप्रभवा लक्ष्यप्रदेशव्यापिनो न पुनस्ते एवं' इति कल्पयितुं शक्यत्वात्। तत्र प्रत्यभिज्ञानान्नित्यत्वसिद्धेनैवं
१ निश्चीयते । २ न चेदमसिद्धम् । ३ पुरुषेणावसीयते। ४ अनैकान्तिकहेतुमुद्भावयति परः। ५ द्रव्यरहितानाम् । ६ व्यभिचारो नास्ति प्रतिनिवर्त. नादित्यस्य हेतोर्यतः। ७ शब्दस्य । ८ ताल्वादिकम् । ९ निष्क्रियत्वमसिद्धमित्याह। १० अन्तरालं भेर्या दिशब्दे। ११ अविवक्षितानां नरादिशब्दानाम् । १२ श्रोत्रेण। १३ सत्सु। १४ शब्दोत्पत्तिदेशं प्रति । १५ आदिना अनुपकारेषदुपकारग्रहणम् । १६ परेण । १७ तथा च द्रव्यं शब्द इत्यायातम् शब्दः क्रियावान्पूर्वदेशत्यागेन देशान्तरे समुपलभ्यमानत्वात् , यदित्यं तदित्यं यथा बाणादि, न चेदमसिद्धं वक्तमुखप्रदेशत्यागेन श्रोत्रप्रदेशे समुपलभ्यमानत्वात् । १८ आदिनानुकूलवातादिग्रहः । १९ आदिना ईश्वरादिग्रहः । २० अन्त्यः शब्दः। २१ प्रथममुक्ताः ।
प्र०क०मा०४७
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० कल्पना चेत्, नन्निदं प्रत्यभिज्ञान शब्देपि समानम् उपाध्यायोकं शृणोमि शिष्योक्तं वा शृणोमि' इति प्रतीतेः।
ननु प्रत्यभिज्ञानस्य भेवदर्शने दर्शनस्सरणकारणकत्वादत्र च तदभावात्कथं तदुत्पत्तिः? न खलूपाध्यायोक्ते शब्दे दर्शनवत्स्मरणं ५भवतिः अस्य पूर्वदर्शनाद्याहितसंस्कारप्रबोधनिबन्धनत्वात् । न
च कारणाभावे कार्य भवत्यतिप्रसङ्गात्; इत्यप्यनुपपन्नम्। सम्बन्धिताप्रतिपत्तिद्वारेणात्रैकत्वस्य प्रतीतेः। सम्बन्धितायां च दर्शनस्मरणयोः सद्भावसम्भवात्प्रत्यभिज्ञानस्योत्पत्तिरविरुद्धा। तथाहि
प्रत्यक्षानुपलम्भतोऽनुमानतो वा तत्कार्यतया तत्संबन्धिनं शब्द १० प्रतिपद्येदानीं तत्स्मृत्युपलम्भोद्भूतं प्रत्यभिज्ञानं तत्सम्बन्धितयां तं प्रतिपद्यमानमेकत्वविशिष्टमेव प्रतिपद्यते, अन्यथा 'उपाध्या. योक्तं शृणोमि' इति प्रतीतिर्न स्यात् , किन्तु तदुक्तोद्भूतं तत्सद्देशं शब्दान्तरं शृणोमि' इति प्रतीतिः स्यात् । वीचीतरङ्गन्यायेन तदुत्पत्तिश्चात्रैव निषेत्स्यते। १५ यदि पुनर्लुनपुनर्जातनखकेशादिवत्सदृशापरापरोत्पत्तिनिवन्धनमेतत्प्रत्यभिज्ञानं न कालान्तरस्थायित्व निवन्धनम्। तद्वाणा. दावपि समानम् । न समानमत्र बाधकसद्भावात् ती कल्पना, नान्यत्र विपर्ययात् । नन्वत्र प्रत्यक्षम् , अनुमानं वा बाधकं
कल्प्येत ? प्रत्यक्षं चेत्, किमेकत्वविषयम् , क्षणिकत्वविषयं वा? २० न तावदेकत्वविषयम्; समविषयत्वेन तदनुकूलत्वात् । नापि
क्षणिकत्वविषयम् ; शब्देऽन्यत्र वा तस्य विवादगोचरापन्नत्वात्। नाप्यनुमानम् ; प्रत्यभिज्ञानं हि मानसप्रत्यक्षं भवन्मते तस्य कथमनुमानं बाधकम् ? प्रत्यक्षमेव हि बाधकम् आमताग्राोकशाखाप्रभवत्वानुमानस्य, न पुनस्तदनुमानं प्रत्यक्षस्य । अथाध्यक्षा
१ पूर्वक्षणे । २ उत्तरक्षणे। ३ अहं गुरुः । ४ एकत्वग्राहिणः । ५ जैनमते । ६ श्रोत्रेन्द्रिययशानवत् । ७ भयमुपाध्यायोक्तः शब्द इति । ८ मया यः शब्दः श्रूयते स उपाध्यायेनोक्त इति । ९ अन्वयव्यतिरेकतः। १० श्रूयमाणम् । ११ उपाध्याय. सम्बन्धित्वेन तस्य शब्दस्य । १२ दर्शनस्मृतिप्रभवम् । १३ तेन उपाध्यायोक्तेन शब्देन । १४ व्यजनांनिलवत् । १५ न चैवम् । १६ तथा चाशेषार्थानां क्षणिकत्वप्रसङ्गात्सौगतमतसिद्धिः स्यात् । १७ शब्दे । १८ क्षणिकत्वेन । १९ नेमे ते बाणादय इत्यत्र बाधकाभावात् । २० शब्दाक्षणिकत्वप्रत्यभिशाने। २१ प्रत्यभिशानस्यैकविषयत्वं प्रत्यक्षस्याप्येकविषयत्वम् । २२ तेन प्रत्यभिज्ञानेन । २३ क्षणिक त्वविषयस्य प्रत्यक्षस्य । २४ असिद्धत्वादिति भावः। २५ वैशेषिकमते । २६ पक्कान्येतानि फलानि एकशाखाप्रभवत्वादित्यनुमानस्याऽऽमताग्राहि प्रत्यक्षं बाधकम् ।
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सू० ४.१० आकाशद्रव्यविचारः ५५५ मालत्वादस्यानुमानं वाधकम् , यथा स्थिरचन्द्रार्कादिविज्ञानस्य देशान्तरप्राप्तिलिङ्गजनितं गत्यनुमानम् ; कथं पुनरस्याध्यक्षाभासत्वम् ? अनुमानेन वाधनाञ्चत् । अनेनानुमानस्य वाघनादनुमानाभासता किन्न स्यात् ? अथानुमानवाधितविषयत्वान्नेदमनुमानस्य बाधकम् । अनुमानम्प्येतद्वाधितविषयत्वान्नास वाधकं स्यात् । न ५ छ तदनुमानमस्ति।
नन्विदमस्ति-क्षणिकः शब्दोऽमदादिप्रत्यक्ष सति विमुद्रव्यविशेषगुणत्वात् सुखादिवत् । सत्यमस्ति, किन्त्वेकशाखाप्रभवत्ववदेतत्साधनं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षवाधितकम निर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वान्न साध्यसिद्धिनिवन्धनम् । विमुद्रव्यविशेषगुणत्वं चासिद्धम् : १० शब्दस्य द्रव्यत्वप्रसाधनात् । धर्मादिना व्यभिचारश्च; अस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वेपि क्षणिकत्वाभावात् । तस्यापि पक्षीकरणादव्यभिचारे न कश्चिद्धतुर्व्यभिचारी, सर्वत्र व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणात् । 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति च विशेषणमनर्थकम्; व्यवच्छेद्याभावात् । धर्मादेश्च क्षणिकत्वे स्वोत्पत्तिसमया-१५ नन्तरमेव विनष्टत्वात्ततो जन्मान्तरे फलं न स्यात् ।
शब्दाच्छब्दोत्पत्तिवद्धर्मादेर्धर्माद्युत्पत्तिः, इत्यप्ययुक्तम् । तथाभ्युपगमाभावात् , तद्वदपरापरतत्कार्योत्पत्तिप्रसङ्गाच्च । 'परस्यानुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनितोभिलाषः अभिलषितुर्थाभिमुखक्रियाकारणमात्मविशेषगुणमारानोति अनुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनि-२०
. १ शब्दैकत्वविषयस्याध्यक्षस्य । २ शब्दस्य क्षणिकत्वसाधकेन। ३ एतेन% मानसप्रत्यक्षेण । ४ शब्दक्षणिकत्वानुमानम्। ५ परममहापरिमाणेन व्यभिचारपरिहारार्थमिदं विशेषणम् । ६ विभु आकाशमात्मा च। ७ घटादिगतरूपादिना व्यभिचारनिरासार्थ विशेषेति। ८ उपहासे । ९ कर्मप्रतिज्ञा। १० प्रत्यभिशाप्रत्यक्षेण पूर्व शब्दस्याक्षणिकत्वं साधितं यतः। ११ विभुद्रव्यविशेषगुणत्वादित्येवोच्यमाने । १२ क्षणिकत्वं साध्यम् । १३ अनेकान्तपरिहाराय, पक्षान्तःपातित्वाद्धर्मादेः क्षणिकत्वमायातमिति भावः। १४ व्यवच्छेद्यफलं हि विशेषणमिति वचनात् । १५ अस्सदादिप्रत्यक्षवे सतीति विशेषणेन किलासदाद्यऽप्रत्यक्षो धर्मादिर्व्यवच्छेद्यः, तस्यापि पक्षीकरणे व्यवच्छेद्यमस्य विशेषणस्य नास्तीति भावः, सर्वेषां पक्षीकरणाद्विशेषणेन परिहरणीयस्याभावात् । १६ परेण । १७ धर्माधर्मयोः क्षणिकत्वे । १८ अस्तु, न
चैवम्, न खलु धर्माद्युत्पत्तिवदपरापरवनिताद्यङ्गाद्युत्पत्तिः प्रतीयते । १९ प्रकृतसाध्ये हेवन्तरमिदम्। २० अनुष्ठातुर्वैशेषिकस्य । २१ इज्यायागादिपूजादिषु धर्मोत्पादनकारणभूतेषु । २२ धर्मजनकत्वेन। २३ इमान्यनुकूलानीत्यभिमानस्तेन जनितः । २४ अर्थ स्रक्चन्दनादिकं प्रति । २५ क्रिया कार्यम्। २६ उत्तरजन्मनि । २७ धर्मलक्षणं दृष्टान्तपक्षे प्रयत्नलक्षणं च । २८ उत्पादयति, साधयति ।
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५५६ प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० ताभिलाषत्वात् आत्मनोनुंकूलेण्वनुकूलाभिमानजनिताभिलाषवत्' इत्यस्य च विरोधः, यस्माद्योऽसौ परस्यानुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनिताभिलाषजनित आत्मविशेषगुणो नासावभिलषित.
राभिमुखक्रियाकारणम् , तत्समानस्य तत्कारणत्वात्, यश्चे ५तक्रियाकारणं नासौ यथोक्ताभिलाषजनित इति।
'इच्छाद्वेष निमित्तौ प्रवर्तकनिवर्त्तको धर्माधर्मों, अव्यवधानेन हिताहितविषयप्राप्तिपरिहारहेतोः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वात् , प्रवर्तक निवर्तकप्रयत्नवत्' इत्यत्र हेतोर्व्यभिचा
रश्च-जन्मान्तरफलोदययोर्धर्माधर्मयोः अव्यवधानेन हिताहित१० विषयप्राप्तिपरिहारहेतोः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वे.
पीच्छाद्वेषजनितत्वाभावात् । ततः शब्दाच्छब्दोत्पत्तिवद्धर्मादेधर्माद्युत्पत्त्यभावात् । क्षणिकत्वे चातो जन्मान्तरे फलासम्भवादक्षणिकत्वं तस्याभ्युपगन्तव्यमित्यनेनानैकान्तिको हेतुः।
अथास्सदादिप्रत्यक्षत्वविशेषणविशिष्टस्य विभुद्रव्यविशेषगुण१५ त्वस्यात्रौंसम्भवान्न व्यभिचारः । ननु मा भूयभिचारः; तथापि
साकल्येन हेतोर्विपेक्षाट्यावृत्त्यसिद्धिः। विपक्षविरुद्धं हि विशेषणं ततो हेतुं निवर्त्तयति । यथा सहेतुकत्वमहेतुकत्वविरुद्धं ततः . १ सामान्यं हेतुं ब्रुवतां दोषाभावात् । २ जीवस्य स्वस्य वा। ३ वस्त्रादिषु सक्चन्दनादिषु च । ४ अनुमानस्य । ५ धर्मादेर्धर्माद्युत्पत्तौ सत्याम् । ६ धर्मलक्षणः । ७ अनुष्ठातुर्वैशेषिकस्य । ८ परापरोत्पत्त्या तस्मादन्यत्वात्। ९ अन्त्यो धर्मः । १० इच्छाद्वेषौ निमित्तं कारणं ययोर्धर्माधर्मयोरिति भावः। ११ कार्यस्य निष्पादकानिष्पादकौ। १२ कारणत्वादित्युच्यमाने चक्षुरादिना व्यभिचारस्तनिवृत्त्यर्थमात्मविशेषगुणत्वादित्युक्तम् , तावत्युक्त सुखादिनानेकान्तस्तत्परिहारार्थ कर्मणः कारणखे सतीति विशेषणम् , तावत्युक्ते बुध्यादिनानेकान्तस्तन्निरासाथ हिताहितविषयप्राप्तिपरिहारहेतोरित्युपात्तम् , तावत्युक्ते इच्छाद्वेषाभ्यामनेकान्तस्तन्निरासार्थमव्यवधानेनेति विशेषणमुपादीयते । १३ धर्माद्धितविषयप्रात्यहितविषयपरिहारौ भवतः, अधर्मादहितविषयप्राप्तिहितविषयपरिहारौ स्त इति सम्बन्धः । १४ धर्माधर्मयोः। १५ अनुमाने । १६ धर्मादेः क्षणिकत्वे । १७ पूर्वधर्माधर्मसदृशयोः । १८ धर्मादेः क्षणिकत्वे साध्ये। १९ धर्मादेः क्षणिकत्वाभावात् । २० असदादिप्रत्यक्षत्वे सतीति विशेषणं त्यक्त्वा विभुद्रव्यविशेषगुणत्वादित्ययं हेतुः। २१ व्यभिचारपरिहारार्थम् । २२ साधनस्य । २३ धर्मादौ । २४ शब्दे यथा सम्भवस्तथा धर्मादौ नास्ति यतः । २५ अक्षणिकाद। २६ कथम् ? तथा हि। २७ हेतोर्विपक्षे वृत्तिं वारयति यत्तदेव हेतुविशेषणम् । २८ अनित्यः शब्दः कादाचित्कत्वाद् घटवदित्युक्त खननोत्सेचनादिना कादाचित्केन नमसानैकान्तिकत्वम् , तद्यवच्छेदार्थ सहेतुकत्वे सति कादाचित्कत्वादिति साधनं प्रयोक्तव्यम् । २९ विशेषणम् । ३० अहेतुकम् आकाशादि ।
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सू० ४.१०] आकाशद्रव्यविचारः ५५७ कादाचित्कत्वम् । न चास्मदादिप्रत्यक्षत्वमक्षणिकत्वविरुद्धम् । अक्षणिकेप्वपि सामान्यादिपु भावात् । ततो यथास्मदादिप्रत्यक्षा अपि केचित्प्रदीपादयो भावाः क्षणिकाः सामान्यादयस्त्वक्षणिकास्तथास्मदादिप्रत्यक्षा अपि विभुद्रव्यविशेषगुणाः 'केचित्क्षणिकाः केचिदक्षणिका भविष्यन्ति' इति सन्दिग्धो व्यतिरेकः।५ अशाक्षणिके हाँचिदमदादिप्रत्यक्षदविशेषणविशिष्टस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्यादर्शनात्ततो व्यावृत्तिलिद्धिः न भवदीयादर्शनस्य साकल्येन भावाभावाप्रसाधकत्वात्, अन्यथा परलोकादेरप्यभावानुषङ्गः । सर्वस्यादर्शनं चासिद्धम्। संतोऽपि निश्चेतुमशक्यत्वात् । विपक्षेऽदर्शनमौत्राद्व्यावृत्तिसिद्धौ
"यद्वेदाध्ययनं किञ्चित्तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥"
[मी० श्लो० पृ० ९४९] इत्यस्यापि गमकत्वप्रसँङ्गः। न खलु वेदाध्ययनमतध्ययन-१५ पूर्वकं दृष्टम् । तथा चास्यानादित्वसिद्धेरीश्वरपूर्वकत्वेन प्रामाण्यं न स्यात् । न च कृतकत्वादावप्ययं दोषः समानः; तत्र विपक्षे हेतोः सद्भाववाधकप्रमाणसम्भवात् ।
धर्मादेश्वास्सदाद्यप्रत्यक्षत्वे 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्चादयो देवदत्तगुणाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वाद्वस्त्रादिवत्' इत्यनुमानं न २० स्यात् ; व्याप्तरग्रहणात् । मानसप्रत्यक्षेण व्याप्तिग्रहणे सिद्धं धर्मा. देरमदादिप्रत्यक्षैत्वम् । अथ 'बाह्येन्द्रियेणास्मदादिप्रत्यक्षेत्वे सति'
१ हेतुं निवर्तयति । २ अस्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषणस्य । ३ पदार्थाः। ४ सुखादयः । ५ धर्मादयः । ६ हेतोर्विपक्षायावृत्तिः । ७ धर्मादौ । ८ आदिना परमाण्वादेश्व । १ भवदीयादर्शनस्य परलोकादो सद्भावाविशेषात् , तथा च चार्वाकमतप्रसङ्गः। १० नरस्य । ११ सर्वेषां हेतोविपक्षेऽदर्शनं विद्यते तथापि तस्य। १२ सर्वेषां प्राणिनां ग्रहणाभावात्, अन्यथाऽशेषज्ञत्वप्रसङ्गः। १३ अक्षणिके। १४ अदर्शनसामान्यात् । १५ विपक्षात् । १६ अपौरुषेयत्वलक्षणसाध्यस्य । १७ अवेदाध्ययनपूर्वके लोकवचने विपक्षे हेतोरदर्शनमात्राद्धेतोर्विपक्षाद्वयावृत्तिसिद्धेः सद्भावात् । १८ ईश्वरकर्तृकत्वेन । १९ भवन्मते । २० हेतौ। २१ नित्ये गगनादौ, यत्कृतकं न भवति तदनित्यं न भवति यथा गगनमिति । २२ यद्यत्तं प्रत्युपसर्पणवत्तत्तद्देवदत्तगुणाकृष्टमिति प्रत्यक्षेण धर्मादेरप्रत्यक्षत्वात् । २३ ततश्च धर्मादिना व्यभिचारः पूर्ववदवस्थ एव । २४ इति विशेषणेन ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० इति हेतुर्विशेष्यते तदा साधनवैकल्यं दृष्टान्तस्य, सुखादेस्तथा प्रत्यक्षत्वाभावात्।
यदि च वाचीतरन्यायेन शब्दोत्पत्तिरिष्यते तदा प्रथमतो वक्तृव्यापारादेकः शब्दः प्रादुर्भवति, अनेको वा? यद्येकः कथं ५नानादिकानेकशब्दोत्पत्तिः सदिति चिन्त्यम् । सर्वदिकताल्वादिव्यापारजनितवाय्वाकाशसंयोगानामसमवायिकारणानां समवायिकारणस्य चाकाशस्य सर्वगतस्य भावात् सकृत्सर्वदिकनानाशब्दोत्पत्त्यविरोधे शब्दस्यारम्भकत्वायोगः। यथैवाद्यः शब्दोन
शब्देनारब्धस्ताल्वाद्याकाशसंयोगादेवासमवायिकारणादुत्पत्तेः, १० तथा सर्वदिक्कशब्दान्तराण्यपि ताल्वादिव्यापारजनितवाय्वाकाश.
संयोगेभ्य एवासमवायिकारणेभ्यस्तदुत्पत्तिसम्भवात् । तथा च "संयोगाद्विभागाच्छब्दाच शब्दोत्पत्तिः" [वैशे० सू० २।२।३१] इति सिद्धान्तव्याघातः।
अथ शब्दान्तराणां प्रथमः शब्दोऽसमवायिकारणं तत्सदृश१५त्वात् , अन्यथा तद्विसदृशशब्दान्तरोत्पत्तिप्रसङ्गो नियामकामा
वात् । नन्वेवं प्रथमस्यापि शब्दस्य शब्दान्तरसदृशस्यान्यशब्दाद• समवायिकारणादुत्पत्तिः स्यात् तस्याप्यपरपूर्वशब्दादित्यनादित्वा
पत्तिःशब्दसन्तानस्य स्यात् । यदि पुनः प्रथमः शब्दः प्रतिनियतः प्रतिनियताद्वक्तृव्यापारादेवोत्पन्नः स्वसदृशानि शब्दान्तराण्यार. २० मेत; तर्हि किमायेन शब्देनासमवायिकारणेन ? प्रतिनियतवक्तव्यापारात्तजनितप्रतिनियतवाय्वाकाशसंयोगेभ्यश्व सदृशापरापरशब्दोत्पत्तिसम्भवात् । तन्नैकः शब्दः शब्दान्तरारम्भकः ।
नाप्यनेकः; तस्यैकस्मात्ताल्वाद्याकाशसंयोगादुत्पत्त्यसम्भवात्। न चानेकस्ताल्वाद्याकाशसंयोगः सकृदेकस्य वक्तुः सम्भवति, २५प्रयत्नस्यैकत्वात् । न च प्रयत्नमन्तरेण ताल्वादिक्रियापूर्वकोऽन्यतरकर्मजस्ताल्वाद्याकाशसंयोगःप्रसूते यतोऽनेकशब्दः स्यात् ।
अस्तु वा कुतश्चिदाद्यः शब्दोऽनेकः, तथाप्यसौ संदेशे शब्दा. न्तराण्यारभते, देशान्तरे वा ? न तावत्स्वदेशे; देशान्तरे शब्दो
१ विमुद्रव्यविशेषगुणत्वादित्ययम् । २ बाह्येन्द्रियेण सुखादिवदिति दृष्टान्तः प्रत्यक्षो न भवतीति भावः । ३ शन्दादेव। ४ सर्वदिक्कः सर्वगतः। ५ उपादानस्येत्यर्थः । ६ भवन्मते । ७ प्रथमस्य। ८ शब्दान्तरं प्रति । ९ शब्दान्तरेणारग्धानि। १० शब्दस्यारम्भकत्वायोगे च । ११ मेरीदण्डयोः । १२ वंशादिविभागात् । १३ वैशेषिकस्य लव। १४ प्रतिनियतस्वरूपः विशिष्टः। १५ कल्पितेन। १६ न चेदमसिद्धम् । १७ ताल्वादिषु । १८ स्वोत्पत्तिदेशे ताल्वादौ । १९ स्वोत्पत्तिदेशादन्यदेशेषु। :
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सू० ४.१० आकाशद्रव्यविचारः पलम्भाभावप्रसङ्गात् । अथ देशान्तरे; तत्रापि किं तद्देशे गेला, रूदेशस्थ एव वा देशान्तरे तान्यसौ जनयेत् ? यदि स्वदेशस्थ एव; तर्हि लोकान्तेपि तजनकत्वप्रसङ्गः। अदृष्टमपि च शरीरदेशस्थमेव देशान्तरवर्तिमणिमुक्ताफलाद्याकर्षणं कुर्यात् । तथा च "धर्माधर्मो स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कारभेते"[ ]५ इत्यादिविरोधः। न च वीचीतरङ्गादावन्यप्राप्तकार्यदेशत्वे सत्यारम्मत्वं दृष्टं नात्रापि तथा तत्कल्पयेताध्यक्षविरोधात् । अथ तद्देशे गत्वा तर्हि सिद्ध शब्दस्य क्रियावत्त्वं द्रव्यत्वप्रसाधकम् ।
किञ्च, आकाशगुणत्वे शब्दस्यास्मदादिप्रत्यक्षता न ज्यादाकाशस्यात्यन्तपरोक्षत्वात्। तथाहि-येऽत्यन्तपरोक्षगुणिगुणा न तेऽस- १० दादिप्रत्यक्षाः यथा परमाणुरूपादयः, तथा च परेणाभ्युपगतः शब्द इति । न च वायुस्पर्शन व्यभिचारः; तस्य प्रत्यक्षत्वप्रसाधनात् ।
किञ्च, आकाशगुणत्वेऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वे चास्यात्यन्तपरोक्षा. काशविशेषगुणत्वायोगः। प्रयोगः-यदमदादिप्रत्यक्षं तन्नात्यन्त-१५ परोक्षगुणिगुणः यथा घटरूपादयः, तथा च शब्द इति ।
यञ्चोक्तम्-'सत्तासम्वन्धित्वात्' इति; तत्र किं स्वरूपभूतया सत्तया सम्बन्धित्वं विवक्षितम् , अर्थान्तरभूतयों वा? प्रथमपक्षे सामान्यादिभिर्व्यभिचारः; तेषां प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावत्वे सति तथाभूतया सत्तया सम्बन्धित्वेपि गुणत्वासिद्धः। २० द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः, न हि शब्दादयः खयमसन्त एवार्थान्तरभूतया सत्तया सम्बध्यमानाः सन्तो नामाश्वविषाणादेरपि तथाभावानुषङ्गात् । प्रतिषेत्स्यते चार्थान्तरभूतसत्तासम्वन्धे. नार्थानां सत्त्वमित्यलमतिप्रसङ्गेन।
यञ्चोक्तम्-शब्दो द्रव्यं न भवत्येकद्रव्यत्वात्। तत्रैकद्रव्यत्वं २५ साधनमसिद्धम् । यतो गुणत्वे, गगने एवैकद्रव्ये समवायेन वर्तने च सिद्धे, तत्सिद्ध्येत्, तच्चोतया रीत्याऽपास्तमिति कथं तत्सिद्धिः?
१ आद्योऽनेकः शब्दः । २ स्वाश्रयः आत्मा आत्मनो व्यापकत्वात्। ३ मणिमुक्ताफलादौ, शरीरापेक्षया । ४ आकर्षणादिलक्षणम् । ५ कार्यम्-उत्तरवीचीलक्षणम् । ६ उत्तरतरङ्गाणाम् । ७ वायुस्पर्श अत्यन्तपरोक्षगुणिगुणो भवत्यसदादिप्रत्यक्षो न भवतीति न। ८ आकाशगुणः शब्दः। ९ सामान्यविशेषसमवायवत् (सामान्य विशेषसमवायाः स्वतः सन्त इति वचनात्)। १० शब्दस्य । ११ द्रव्यगुणकर्मवत् । १२ उभयथा सत्तासम्बन्धित्वस्य दृष्टत्वात्प्रकारान्तरासम्भवात् । १३ आदिना विशेषसमवाययोर्ग्रहणम् । १४ रूपादिवत् । १५ शब्दस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
यदप्येकद्रव्यत्वे साधनमुक्तम्-'एकद्रव्यः शब्दः सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाहोकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इति; तदपि प्रत्यनुमानवाधितम्; तथाहि-अनेकद्रव्यः शब्दोऽस्मंदादिप्रत्यक्षत्वे सत्यपि स्पर्शवत्त्वाद् घटादिवत् । वायुनानेकान्तश्च; स हि वायके५न्द्रियप्रत्यक्षोपि नैकद्रव्यः, चक्षुषैकेनाऽस्मदादिभिः प्रतीयमानैश्चन्द्रार्कादिर्भिश्च । अस्सदादिविलक्षणैर्वाह्येन्द्रियान्तरेण तत्प्रतीतौ शब्देपि तथा प्रतीतिः किन्न स्यात् ? अत्र तथानुपलम्भोऽन्यत्रापि समानः।
एतेनेदमपि प्रत्युक्तम्-'गुणः शब्दः सामान्यविशेषवत्त्वे सति १० बायैकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवत्' इति; वाय्वादिभिव्यभिचारात्, ते हि सामान्यविशेषवत्त्वे सति बायैकेन्द्रियप्रत्यक्षा न च गुणाः, अन्यथा द्रव्यसंख्याव्याघातः स्यात् । ततः शब्दानां गुणत्वासिद्धेरयुक्तमुक्तम्-'यश्चैषामाश्रयस्तत्पारिशेष्यादाकाशम्' इति ।
यञ्चोक्तम्-'न तावत्स्पर्शवतां परमाणूनौम्' इत्यादि, तत्सिद्ध१५साधनम् । तद्गुणत्वस्य तत्रानभ्युपगमात् । यथा चास्मदादिप्रत्य
क्षेत्वे शब्दस्य परमाणुविशेषगुणत्वस्य विरोधस्तथाकाशविशेषगुणत्वस्यापि । तथा हि-शब्दोऽत्यन्तपरोक्षाकाशविशेषगुणो न भवत्यस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्कार्यद्रव्यरूपादिवत् । न ह्यस्मदादि
प्रत्यक्षत्वं परमाणुविशेषगुणत्वमेव निराकरोति शब्दस्य नाकाश२० विशेषगुणत्वम् उभयत्राविशेषात् । यथैव हि परमाणुगुणो रूपादिरस्सदाद्यप्रत्यक्षस्तथाकाशगुणो महत्त्वादिरपि ।
यच्चाप्युक्तम्-'नापि कार्यद्रव्याणम्' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् । शब्दस्याकाशगुणत्वनिषेधे कार्यद्रव्यान्तराप्रादुर्भावेप्युत्पत्त्यभ्युपैगमे शब्दो निराधारो गुणः स्यात् । तथा च 'वुद्धयादयः क्वचिद्व
१ अनेकानि द्रव्याणि यस्य परमाणुद्वयाधपेक्षया । २ योगिप्रत्यक्षेण परमाणुना व्यभिचारपरिहारार्थम् । ३ एकेन वायुपरमाणुना व्यभिचारपरिहारार्थम् । ४ पर. माण्वपेक्षया । ५ परमाण्वपेक्षया। ६ अनेकान्त इति संबन्धः एकद्रव्यलक्षणसाध्याभावात् । ७ योगिभिः। ८ चक्षुषोपेक्षयान्येन स्पर्शनलक्षणेन । ९ तथा चानकान्तिक एव हेतुः स्यादिति भावः। १० एकद्रव्यः शब्द इत्यादिनिराकरणेन । ११ आदिना पृथिव्यप्तेजसां ग्रहः। १२ नवद्रव्याणां पञ्चद्रव्यत्वप्रसङ्ग इत्यर्थः । १३ शब्दो विशेषगुणो न भवत्यस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्कार्यद्रव्यरूपादिवत् । १४ जनैः । १५ विशेषणे। १६ भवन्मते। १७ असन्मते। १८ असदादिप्रत्यक्षत्वस्य । २९ पृथिव्यादीनाम् । २० जैनैः। २१ परेण ।
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सू० ४।१०] आकाशद्रव्यविचारः तन्ते गुणत्वात्' इत्यस्य व्यभिचारः। ततः कार्यद्रव्यान्तरोत्पत्तिस्तनाभ्युपगन्तव्येत्यसिद्धो हेतुः ।
अकारणगुणपूर्वकत्वं चासिद्धम् ; तथा हि-नाकारणगुणपूर्वकः शब्दोऽस्मदादिवाह्येन्द्रियग्राह्यत्वे सति गुणत्वात्पटरूपादिवत् । न चाणुरूपादिना सुखादिना वा हेतोयंभिचारः; 'बाहोन्द्रियग्राह्यत्वे ५ सति' इति विशेषणात् । नापि योगिवाह्येन्द्रियनाोणाणुरूपादिना; अस्सदादिग्रहणाद् । नापि सामान्यादिना; गुणग्रहणात् ।
अयावद्रव्यभावित्वं च विरुद्धम् ; साध्यविपरीतार्थप्रसाधनत्वात् । तथाहि-स्पर्शवद्रव्यगुणः शब्दोऽस्मदादिवाह्यन्द्रियप्रत्यक्षत्वे सत्ययावद्रव्यभावित्वात्पटरूपादिवत् । 'अस्मदादिपुरुपान्तर-१० प्रत्यक्षत्वे सति पुरुषान्तराप्रत्यक्षत्वात्' इति वाखाद्यमानेन रसा. दिनानैकान्तिकः। 'आश्रयाऽर्यादेरन्यत्रोपलब्धेः' इति चासङ्गतम् ; मेर्यादेः शब्दाश्रयत्वासिद्धेस्तस्य तन्निमित्तकारणत्वात् । आत्मादिगुणत्वा(त्व)प्रतिषेधस्तु सिद्धसाधनान समाधानमर्हति । __ यच्च 'शब्दलिङ्गाविशेपात्' इत्याद्युक्तम् । तद्वन्ध्यासुतसौभाग्य-१५ व्यावर्णनप्रैख्यम् । कार्यद्रव्यस्य व्यापित्वादिधर्मासम्भवात् ।
एतेनेदमपि निरस्तम्-'दिवि भुव्यऽन्तरिक्षे च शब्दाः श्रूयमाणेनैकार्थसमायिनः शब्दत्वात् श्रूयमाणाद्यशब्दवत् । श्रूयमाणः शब्दः समानजातीयासमवायिकारणः सामान्यविशेषेवत्त्वे सति नियमेनास्मैदादिवाखैकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् कार्यद्रव्यरूपादिवत् २०
१ शब्दस्य गुणरूपस्य कचिद्वर्तनाभावात् । २ कार्यद्रव्यान्तरात्परमाणुरूपाच्छब्दजनकात्। ३ अकारणं गगनम् , तस्य गुणो महत्त्वादिः। ४ किंतु स्पर्शरसगन्धवर्णवपुद्गलद्रव्यहेतुक इति भावः। ५ पटगतरूपगुणो यथा तन्तुगतरूपगुणपूर्वकः । ६ प्रसङ्गसाधनमेतत् । ७ आत्मनः स्वभावत्वात् । ८ वीचीतरङ्गन्यायेन शब्दाच्छब्दोत्पत्तेनिषिद्धत्वात् । ९ प्रसङ्गसाधनमेतत् । १० विशेषगुणो न भवतीति साध्याभावात् । ११ शब्दस्यान्तर्जल्परूपस्य। १२ आदिना मनोदिक्काला गृह्यन्ते। १३ भेदाभावादेकमित्यर्थः। १४ सदृशम्। १५ शब्दस्य आकाशविशेषगुणत्वनिराकरणेन कार्यद्रव्यविशेषगुणत्वसाधनेन वा । १६ शब्देन । १७ एकार्थः आकाशलक्षणार्थः। १८ गगनसमवायिकारणकाः। १९ वीचीतरङ्गन्यायागतेन श्रूयमाणेन घटशब्देन आय घटशब्दाः भूयमाणा घटशब्दस्यासमवायिकारणत्वेनाभिमता एकार्थसमवायिनो यथा । २० सामान्यादिना व्यभिचारपरिहारार्थम् । २१ न चाकाशेन व्यभिचार इन्द्रियग्रहणात्, नापि घटादिना एकपदोपादानात, नापि सुखादिना बाह्यपदोपादानात् , नापि योगिबाझैकेन्द्रियप्रत्यक्षेण परमाणुना तद्रूपादिना वाऽस्मदादिपदग्रहणात्, नापि पिशाचादिना नियमेनेति पदोपानात् । २२ पटसमवेतरूपाद्यारम्भे पटोत्पादकतन्तुरूपादिवत्।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० इति;प्रतिशब्दं पुदलद्रव्यस्य तत्समवायिकारणस्य भेदात्। शब्दस्य क्षणिकत्वनिषेधोच्च कथं समानजातीयासमवायिकारणत्वम् ?
यदि चाकाशमनवयवं शब्दस्य समवायिकारणं स्यात् तर्हि शब्दस्य नित्यत्वं सर्वगतत्वं च स्यादाकाशगुणत्वात्तन्महत्त्ववत। ५क्षणिकैकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वस्य शब्दे प्रमाणतः प्रतिषेधाच्च।
तत्त्वे वा कथं न शब्दाधारस्याकाशस्य सावयवत्वम् ? नहि निरवयवत्वे 'तस्यैकदेशे एव शब्दो वर्त्तते न सर्वत्र' इति विभागो घटते।
किञ्च, सावयवमाकाशं हिमवद्विन्ध्यावरुद्धविभिन्न देशत्वाश. १०मिवत् । अन्यथा तयो रूपरसयोरिवैकदेशाकाशावस्थितिप्रसक्तिः न चैतद् दृष्टमिष्टं वा।
कथं वा तदाधेयस्य शब्दस्य विनाशः? स हि न तावदाश्रयविनाशाद्धटते; तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् । नापि विरोधिगुणसद्भा
वात् , तन्महत्त्वादेरेकार्थसमवेतत्वेन रूपरसयोरिव विरोधित्वा१५ सिद्धेः । सिद्धौ वा श्रवणसमयेपि तद्भावप्रसङ्गः, तदा तन्मह
स्वस्य भावात् । नापि संयोगादिविरोधिगुणः; तस्य तत्कारणत्वात् । नापि संस्कारः; तस्याकाशेऽसम्भवात् । सम्भवे वा तस्याभावे आकाशस्याप्यभावानुषङ्गस्तस्य तद्व्यतिरेकात् । व्यतिरेके वा तस्य' इति सम्बन्धो न स्यात् । नापि शब्दोपलब्धिप्राप. २० कादृष्टाभावात्तभावः, तुच्छाभावस्यासामर्थ्यतो विनाशाहेतुत्वात्
खरविषाणवत्। तन्न शब्दस्याकाशप्रभवत्वमभ्युपगन्तव्यम् । · ननु चाऽस्य पौद्गलिकत्वेऽस्मदाद्यनुपलभ्यमानरूपाद्याश्रयत्वं न स्यात्पटादिवत् तन्नय[कादिना हेतोर्व्यभिचारात् । नाय
नरश्मिषु जलसंयुक्तानले चानुभूतरूपस्पशवेत् शब्दाश्रयद्रव्ये२५ऽस्मदाद्यनुपलभ्यमानानामप्यनुद्भूततया रूपादीनां वृत्त्यविरोधः। यथा च घ्राणेन्द्रियेणोपलभ्यमाने गन्धद्रव्येऽनुभूतानां रूपादीनां वृत्तिस्तथात्रापि । यथा च तैजसत्वात्पार्थिवत्वाचात्रानुपलम्भेपि
१ अनेकात् । २ पर्यायरूपेण वस्तुनो विनाशात् । ३ जैनेन । ४ तन्महत्त्ववत् । ५ तथा च हिमवद्विन्ध्ययोः सहचरभाव इति भावः। ६ परेण । ७ विरोधिगुणरूपस्य । ८ शन्दं प्रति । ९ संयोगादिः शब्दकारणमिति वचनात् । १० कार्यरूपेण। ११ यत्पौद्गलिकं तदस्मदाद्युपलभ्यमानरूपाद्याश्रयमित्युक्ते व्यणुकादिना पौद्गलिकेन व्यभिचारोऽस्मदाद्युपलभ्यमानरूपाश्रयत्वलक्षणसाध्याभावात्। १२ उष्णस्पर्शे। १३ अत्र रूपं भासुरम् । १४ परमते । १५ परमते । १६ नायनरश्म्यादिषु ( जलसंयुक्तानले गन्धद्रव्ये ) त्रिषु ।
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सू० ४.१० आकाशद्रव्यविचारः रूपादीनामनुद्भूततयास्तित्वसम्भावना तथा शब्देपि पौदालेकत्वात् । न च पौद्गलिकत्वमसिद्धम् । तथाहि-पौगलिकः शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वेऽचेतनत्ने च लति क्रियावत्त्वाद्वाणादिवत् । न च मनसा व्यभिचारः; 'अलदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति विशेषणत्वात् । नाप्यात्मना; 'अचेतनत्वे सति' इति विशेषणात् ।५ नापि सामान्येन, अस्य क्रियावाभावाला । सेच 'अस्मदादि. प्रत्यक्षत्वे सति स्पर्शवत्वात्' इत्यादयो हेतवः प्रामुपन्यतास्ते सर्वे पोद्गलिकत्वमसाधका द्रष्टव्याः। ततः शब्दल्या काशगुणत्वासिद्धेर्नासौ तल्लिङ्गम्।
कुतस्तर्हि तत्सिद्धिरिति चेद् ? 'युगपन्निखिलद्रव्यावगाह-१० कार्यात्' इति ब्रूमः; तथाहि-युगपनिखिलद्रव्यावगाहः साधारणकारणापेक्षा तथावगाहत्वान्यथाऽनुपपत्तेः । ननु सर्पिषो मधुन्यवगाहो भस्मनि जलस्य जलेऽश्वादेर्यथा तथैवालोकतमसोरशेषार्थावगाहघटनान्नाकाशप्रसिद्धिः, तन्न; अनयोरप्याकाशाभावेऽवगा. हानुपपत्तेः।
ननु निखिलार्थानां यथाकाशेवगाहः तथाकाशस्याप्यन्यस्मिनधिकरणेऽवगाहेन भवितव्यमित्यनवस्था, तस्य स्वरूऐवगाहे सर्वार्थानां स्वात्मन्येवावगाहप्रसङ्गात्कथमाकाशस्यातः प्रसिद्धिः? इत्यप्यपेशलम् ; आकाशस्य व्यापित्वेन स्वावगाहित्वोपपत्तितोऽ. नवस्थाऽसम्भवात् , अन्येषामव्यापित्वेन वावगाहित्वायोगाच्च । २० न हि किश्चिदल्पपरिमाणं वस्तु स्वाधिकरणं दृष्टम् ; अश्वादेर्जलाद्यधिकरणोपलब्धेः। कथमेवं दिकालात्मनामाकाशेवगाहो व्यापित्वात् ; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; हेतोरसिद्धः । तसिद्धिश्च दिग्द्रव्यस्यासत्त्वात्, कालात्मनोश्चासर्वगतद्रव्यत्वेनाने समर्थनात्प्रसिद्धेति । ननु तथाप्यमूर्त्तत्वेन कालात्मनोः पाताभावात्कथं तदाधेयता? २५ इत्यप्ययुक्तम् ; अमूर्चस्यापि ज्ञानसुखादेरात्मन्याधेयत्वप्रसिद्धः।
एतेनामूर्त्तत्वान्नाकाशं कस्यचिदधिकरणमित्यपि प्रत्युक्तम्; अमूर्त्तस्याप्यात्मनो ज्ञानाद्यधिकरणत्वप्रतीतेः। समानसमयवर्त्तित्वान्निखिलार्थानों नाधाराधेयभावः, अन्यथाकाशादुत्तरकालं भावस्तेषां स्यात्; इत्यप्यसमीचीनम् ; समसमयवर्तिनामप्यात्मा-३० मूर्त्तत्वादीनां तद्भावप्रतीतेः। न खलु परेणाप्यत्र पौर्वापरीभावोs
१ परस्य तव। २ पौद्गलिकस्वाभावाद्भावमनसः। ३ जैनैः । ४ वयं जनाः। ५ सकलद्रव्याणां साधारणमाश्रयकारणमाकाशम् । ६ साधाररणकारणमन्तरेण । आकाशाभावे। ७ बुडनमित्यर्थः। ८ जैनापेक्षया। ९ आत्मादीनाम्। १० वैशेषिकेण ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० भीष्टो नित्यत्वविरोधानुषङ्गात् । क्षणविशरारुतया निखिलार्थानों नाधाराधेयभावः, इत्यपि मनोरथमात्रम्; क्षणविशरारुत्वस्या र्थानां प्रागेव प्रतिषेधात् । 'खे पतत्री' इत्याद्यऽवाधितप्रत्ययाच तद्भावप्रसिद्धः। ततः परेषां निरवद्यलिङ्गाऽभावान्नाकाशद्रव्यय ५प्रसिद्धिः।
नापि कालद्रव्यस्य । यच्चोच्यते-कालद्रव्यं च परापरादित्ययादेव लिङ्गात्प्रसिद्धम् । कालद्रव्यस्य च इतरस्मा दे 'काल' इति व्यवहारे वा साध्ये स एव लिङ्गम् । तथा हि-काल इतरस्माद्भिद्यते 'काल' इति वा व्यतहर्त्तव्यः, परापरव्यतिकरयोगपद्यायोगपद्यचि. १० रक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गत्वात्, यस्तु नेतरस्माद्भिद्यते 'काल' इति वान व्यवहियते नासावुक्तलिङ्गः यथा क्षित्यादिः, तथा च काला, तस्मात्तथेति। विशिष्टकार्यतया चैते प्रत्ययाः काले एव प्रतिबद्धाः। यद्विशिष्टकार्य तद्विशिष्टकारणादुत्पद्यते यथा घट इति प्रत्ययाः, विशिष्ट कार्य च परापरव्यतिकरयोगपद्यायोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्यया १५ इति । परापरयोः खलु दिग्देशकृतयोः व्यतिकरो विपर्ययः-यत्रैव हि दिग्विभागे पितर्युत्पन्नं परत्वं तत्रैव स्थिते पुत्रेऽपरत्वम् , यत्र चापरत्वं तत्रैव स्थिते पितरि परत्वमुत्पद्यमानं दृष्टमिति दिग्देशा. भ्यामन्यन्निमित्तान्तरं सिद्धम् ; निमित्तान्तरमन्तरेण व्यतिकरा
सम्भवात् । न च परापरादिप्रत्ययस्य आदित्यादिक्रिया द्रव्यं वलि२० पलितादिकं वा निमित्तम् । तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्पटादिप्रत्यय
वत् । तथा च सूत्रम् “अपरस्मिन्परं युगपदयुगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि" [वैशे० सू० २।२।६] आकाशवञ्चास्यापि विभुत्वनित्यैकत्वादयो धर्माः प्रतिपत्तव्या इति । __ अत्रोच्यते-परापरादिप्रत्ययलिङ्गानुमेयः कालः किमेकद्र२५व्यम् , अनेकद्रव्यं वा ? न तावदेकद्रव्यम् ; मुख्येतरकालभेदेनास्य
द्वैविध्यात् । न हि समयावलिकादिर्व्यवहारकालो मुख्यकालद्रव्यमन्तरेणोपपद्यते यथा मुख्यसत्त्वमन्तरेण कैंचिदुपचरितं सत्त्वम्।
१ आत्मनः। २ सौगतमतमालम्ब्य। ३ आदिपदेन योगपद्यायोगपचिरक्षिप्रादिग्रहः । ४ बसः । ५ तर्खेते प्रत्यया अविशिष्टनिमित्तका भविष्यन्तीत्युक्ते सत्याह । ६ घटे सत्येव प्रसिद्धाः। ७ कथम् ? तथा हि । ८ प्रत्यर्थः । ९ सन्निहितदिग्देशे । १० कालापेक्षया दूरत्वम् । ११ कालापेक्षया सन्निहितत्वम् । १२ कालद्रव्यम् । १३ कालद्रव्यम् विनाऽन्यन्निमित्तं परापरादिप्रत्ययस्य भविष्यतीत्याशङ्कायामाह । १४ प्रत्ययः-प्रतीतिः। १५ जैनादिभिः। १६ जैनैः। १७ व्यवहार । १८ आदिना लवनिमेषघटिकामुहूर्तप्रहरादिग्रहणम् । १९ अश्यादेरस्तित्वम् । २० माणवके । २१ अनेः।
१३
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सू० ४.१०] कालद्रव्यवादः सच मुख्यः कालोऽनेकद्रव्यम् , प्रत्याकाशप्रदेशं व्यवहारकालभेदान्यथानुपपत्तेः । ग्रंत्याकाशप्रदेशं विभिन्नो हि व्यवहारकालः कुरुक्षेत्रलङ्काकाशदेशयोदिवसादिभेदान्यथानुपपत्तेः । ततः प्रतिलोकाकाशप्रदेशं कालस्याणुरूपतया भेदसिद्धिः । तदुक्तम्
"लोयायासपएले एकेके जे ट्ठिया हु एकेका। रयणाणं रातीविच ते कालाणू मुशेयव्या ! "
[द्रव्यसं० गा० २२ (२) योगपद्यादिप्रत्ययाविशेषात्तस्यैकत्वम् ; इत्यप्यसत्; तत्प्रत्यया. विशेषासिद्धः। तेषां परस्परं विशिष्टत्वात्कालस्याप्यतो विशिष्टत्व-१० सिद्धिः। सहकारिणामेव विशिष्टत्वं न कालस्य; इत्यप्यनुत्तरम्; स्वरूपमभेद्यतां सहकारित्वप्रतिक्षेपात् ।
यदि चास्य निरवयवैकद्रव्यरूपताभ्युपगम्यते कथं तीतीतादिकालव्यवहारः ? स हि किमतीताद्यर्थक्रियासम्बन्धात्, खतो वा स्यात् ? अतीताद्यर्थक्रियासम्बन्धाच्चेत् ; कुतस्तासाम-१५ तीतादित्वम् ? अपरातीताद्यर्थक्रियासम्बन्धाचेत् ; अनवस्था । अतीतादिकालसम्बन्धाचेत्; अन्योन्याश्रयः ! स्वतस्तस्यातीतादिरूपता चायुक्ता, निरंशत्वभेदरूपत्वयोर्विरोधात् । ___योगपद्यादिप्रत्ययाभावश्चैवंवादिनः स्यात्; तथाहि-यत्कार्यजातमेकस्मिन्काले कृतं तद्युगपत्कृतमित्युच्यते । कालैकत्वे चाखि-२० लकार्याणामेककालोत्पाद्यत्वेनैकदेवोत्पत्तिप्रसङ्गान्न किञ्चिदयुगपस्कृतं स्यात् ।
चिरक्षिप्रव्यवहाराभावश्चैवंवादिनः । यत्खलु बहुना कालेन कृतं तच्चिरेण कृतम् । यच्च स्वल्पेन कृतं तत्क्षिप्रं कृतमित्युच्यते । तच्चैतदुभयं कालैकत्वे दुर्घटम् ।
१ कालपरमाणुलक्षणम् । २ मुख्यकालद्रव्यानेकत्वाभावे। ३ हेतुरसिद्ध इत्युक्ते सत्याह। ४ चन्द्रार्कादिदक्षिणायनोत्तरायणयोः सतोः। ५ लोकाकाशप्रदेशे एकैके ये स्थिताः खलु एकैके । रत्नानां राशिरिव ते कालाणवो ज्ञातव्याः। ६ सिद्धे हि क्रियाणामतीतादित्वे तत्सम्बन्धात्कालस्यातीतादित्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ च तत्सम्बन्धातासां तत्सिद्धिरिति । ७ निरंशस्य कालस्यातीतत्ववर्तमानत्वभविष्यत्वलक्षणधर्माणां सद्भावो न घटते इति भावः। ८ कार्यसमूहः । ९ कालस्य नित्यैकत्वादिरूपत्वे । १० अयोगपद्याभावे तदपेक्षया जायमानस्य योगपद्यस्याप्यभाव इति भावः ।
प्र.क. मा०४८
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० ननु चैकत्वेषि कालस्योपाधिभेदाढ़ेदोपपत्तेर्न योगपद्यादि प्रत्ययाभावः। तदुक्तम्-"मणिवत्पाचकवद्रोपाधिदात्कालभेद
] इति; तदप्ययुक्तम् । यतोऽत्रोपाधिमेदः कार्यभेद एव । स च 'युगपत्कृतम्' इत्यत्राप्यस्त्येवेति किमित्य ५युगपत्प्रत्ययो न स्यात् ? अथ क्रमावी कार्यभेदः कालभेदव्यवहारहेतुः । ननु कोस्य क्रमभावः ? युगपदनुत्पादश्चेत्, 'युगपदः नुत्पादः' इत्यस्य भाषितस्य कोर्थः ? एकस्मिन्कालेऽनुत्पादः सोयमितरेतराश्रयः-यावद्धि कालस्य भेदो न लिद्ध्यति न ताव
कार्याणां भिन्नकालोत्पादलक्षणः क्रमः सिध्यति, यावच्च कार्याणां १० क्रममावो न सिध्यति न तावत्कालस्योपाधिमेदाढ़ेदः सिध्यतीति।
ततः प्रतिक्षणं क्षणपर्यायः कालो भिन्नस्तत्समुदायात्मको लव. निमेपादिकालश्च । तथा चैककालमिदं चिरोत्पन्नमनन्तरोत्पन्न मित्येवमादिव्यवहारः स्यादुपपन्नो नान्यथा।
एतेन परापरव्यतिकरः कालैकत्वे प्रत्युक्तः, तथाहि-भूम्यवयः २५ वैरालोकावयवैर्वा वहुमिरन्तरितं वस्तु विनकृष्टं परमिति चोच्यते स्वल्पैस्त्वन्तरितं सचिकृष्टमपरमिति च। तथा बहुभिः क्षणैरहो. रात्रादिभिर्वान्तरितं विप्रकृष्टं परमिति चोच्यते स्वल्पैस्त्वन्तरितं सनिकृष्टमपरमिति च । बह्वल्पभावश्च गुरुत्वपरिमाणादिवदपेक्षा. निबन्धनः कालैकत्वे दुर्घट इति । २० यौगपद्यादिप्रत्ययाविशेषात् कालस्यैकत्वे च गुरुत्वपरिमाणी
देरप्येकत्वप्रसङ्गस्तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् । ततो गुरुत्वपरिमाणादेरनेकगुणरूपतावत्कालस्यानेकद्रव्यरूपताभ्युपगन्तव्या । ये तु वास्तवं कालद्रव्यं नाभ्युपगच्छन्ति तेषां परापरयोगपद्या
१ यथा स्फटिकमणौ पावके च यथाक्रमं जपाकुसुमादिखादिरादिलक्षणोपाधिभेदानेदस्तथा कार्यलक्षणोपाधिमेदाढ़ेदः कालस्यापीत्यर्थः, ततश्च व्यतिकरो न स्यादिति भावः। २ कालक्रमेणोत्पाद इत्यर्थः। ३ कालस्यैकत्वे योगपद्याभावो यतः। ४ बसः । ५ विपर्ययः। ६ कालस्य । ७ अस्मादयं गुरुरस्माल्लघुरिति व्यवहारो वस्तुन एकत्वे दुर्घटो यथा। ८ स्वपरापेक्षा । ९ गुरुत्वादिप्रत्ययाविशेषात् । १० अल्पपरिमाणस्यापि । ११ गुरुत्वपरिमाणमल्पत्वपरिमाणं च प्रतिपदार्थ भिद्यत इत्याक्षेपः, समाधानं-तर्हि योगपद्यादिप्रत्ययोपि प्रतिपदार्थ भिद्यते इति समानम्। १२ नित्यनिरंशैकद्रव्यरूपत्वे चार्थानां भूतभविष्यद्वर्तमानत्वं दुर्घटमतीतानागतवर्तमानकालभेदाभावात् , सिद्धे हि तद्भेदे तत्सम्वन्धादर्थानां तथा व्यपदेशः स्यान्नान्यथातिप्रसङ्गात् । न चास्य तत्सिद्धिर्घटते नित्यनिरंशैकरूपत्वात् । यदेवं विधं न तत्रातीतादिस्वरूपभेदाः । यथा परमाणौ । नित्यनिरंशैकरूपश्च भवद्भिः परिकल्पितः कालः । १३ मीमांसकसौगतद्राविडाः ।
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सू० ४.१०] कालद्रव्यवादः
५६७ योगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययानामभावः स्यात् । न खलु ते निनिमित्ताः कादाचित्कत्वाद्धटादिवत् । नाप्यविशिष्टनिमित्ताः; विशिष्टप्रत्ययस्वात्। न च दिग्गुणजातिनिमित्तास्ते; तज्जातप्रत्ययवैलक्षण्येनोप.
तेः । तथा हि-अपरदिग्व्यवस्थितेऽप्रशस्तेऽधमजाही स्थविरपिण्डे 'परोयम्' इति प्रत्ययो दृश्यते । परदिग्व्यवस्थिते चोत्तम-५ जातीये प्रशस्ते यूनि पिण्डे 'अपरोयम्' इति प्रत्ययो दृश्यते ।
अथादित्यादिक्रिया तन्निमित्तम् ; जन्मतो हि प्रभृत्येकस्य पाणिन आदित्यवर्तनानि भूयांसीति परत्वमन्यस्य चाल्पीयांसीयपरत्वम् । नन्वेवं कथं यौनृपद्यादिप्रत्ययप्रादुर्भावः एकस्मिवादित्यपरिवर्तने सर्वेषामुत्पादात् ? तंथाव्यपदेशाभावाच्च, १० युगपत्कालः' इति हि व्यपदेशो न पुनः 'युगपदादित्यपरि. वर्त्तनम्' इति ।
न च क्रियैव कालः; अस्याः क्रियारूपतयाऽविशेषतो युगपदादिप्रत्ययाभावानुषङ्गात् । तस्य चोक्तकार्यनिर्वर्त्तकस्य कालस्य क्रिया' इति नामान्तरकरणे नाममात्र भिद्येत।
न च कर्तृकर्मणी एव योगपद्यादिप्रत्ययस्य निमित्तम् । यतो पौगपद्यं बहूनां कर्तृणां कार्ये व्यापारो 'युगपदेते कुर्वन्ति' इति प्रत्ययसमधिगम्यः। बहूनां च कार्याणामात्मलाभो 'युगपदेतानि कृतानि' इति प्रत्ययसमधिगम्यः। न चात्र कर्तृमात्र कार्यमा वालम्बनमतिप्रसङ्गात् । यत्र हि क्रमेण कार्य तत्रापि कर्तृकर्मणोः२० सद्भावात्स्यादेतद्विज्ञानम्, न चैवम् । यथाऽ(तथाऽ)योगपद्यप्रत्यपोप्ययुगपदेते कुर्वन्तीति, अयुगपदेतत्कृतमिति नाविशिष्टं कर्तृ
१ किंतु काललक्षणकारणोत्पाद्या इत्यर्थः। २ अविशिष्टं साधारणम् । ३ परप्रत्ययः, अपर प्रत्यय इत्यादिरूपेण। ४ परापरादिप्रत्ययानाम् । ५ निकटदिक् । ३ गुणापेक्षया। ७ मातङ्गादौ । ८ अतद्गुणसंविशानोयं बसः, योगपद्यमादिर्वेषामपौगपद्यादीनां ते योगपद्यादय इति, तेनायौगपद्यादिप्रत्ययप्रादुर्भावः कथमित्यर्थः संपन्नः। ९ युगपदादित्यपरिवर्तनमिति । १० अमुना हेतुना यौगपद्यस्याभावः कृतः । ११ कालव्यतिरिक्तस्य निमित्तस्य योगपद्यादिप्रत्यये विचार्यमाणस्यानुपपद्यमानत्वात्तदादेत्यपरिवर्तनं स्यास्क्रियाविशेषो वा ? न तावदादित्यपरिवर्वनमेकस्सिन्नप्यादित्यपरिवर्तने सर्वेषामुत्पादादिति, अस्य परिवर्तन मेरुपादक्षिण्येन परिभ्रमणमहोरात्रमभिधीयते, तस्मिन्नेकस्मिन्नपि यौगपद्यादिप्रतीतिविषयभूतार्थानामुत्पादः प्रतीयते एव तथा व्यपदेशाभावाच्चेति । १२ क्रिया कालो भविष्यतीत्याह । १३ कालरूपतया योगपद्यादिप्रत्ययो, न पुनः क्रियारूपतया। १४ भेदाभावतः । १५ तर्हि कर्तृकर्मणी यौगपधादिप्रत्ययस्य निमित्तं भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । १६ यौगपद्यम् । १७ योगपद्यप्रत्यये। १८ विषयः, कारणमित्यर्थः।
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५६८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० कर्ममात्रमालम्बतेऽतिप्रसङ्गादेव । अतस्तंद्विशेषणं कालोऽभ्यः पगन्तव्यः । कथमन्यथा चिरक्षिप्रव्यवहारोपि स्यात् ? एक हि कर्ता किञ्चित्कार्य चिरेण करोति व्यासङ्गादनार्थित्वाद्वा. किञ्चित्तु क्षिप्रमर्थितया। तत्र 'चिरेण कृतं क्षिप्रं कृतम्' इति ५प्रत्ययौ विशिष्टत्वाद्विशिष्टं निमित्तमाक्षिपत इति कालसिद्धिः।
लोकव्यवहाराच; प्रतीयन्ते हि प्रतिनियत एव काले प्रति नियता वनस्पतयः पुष्यन्तीत्यादिव्यवहारं कुर्वन्तो व्यवहारिणः । यथा वसन्तसमये एव पाटलादिकुसुमानामुद्भवो न कालान्तरे।
इत्येवं कार्यान्तरेष्वप्यभ्यूह्यम् 'प्रसवनकालमपेक्षते' इति व्यव. १० हारात् । समयमुहूर्तयामाहोरात्रार्द्धमासवयनसंवत्सरादिव्यव. हाराञ्च तत्सिद्धिः। तन्न परपरिकल्पितं कालद्रव्यमपि घटते।
नापि दिग्द्रव्यम्; तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् । यच्च दिशः सद्भावे प्रमाणमुक्तम्-"मूर्तेष्वेव द्रव्येषु मूर्त्तद्रव्यमवधिं कृत्वेद मतः पूर्वेण दक्षिणेन पश्चिमेनोत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरे १५णाऽपरोत्तरेणोत्तरपूर्वेणाधस्तादुपरिष्टादित्यमी दश प्रत्यया यतो
भवन्ति सा दिग" [प्रश० भा० पृ० ६६] इति । तथा च सूत्रम्-"अत ईदमिति यतस्तद्दिशो लिङ्गम्" [वैशे० सू० २।२।१०] तथा च दिग्द्रव्यमितरेभ्यो भिद्यते दिगिति व्यवहतव्यम् , पूर्वादिप्रत्ययलिङ्गत्वात्, यत्तु न तथा न तत्पूर्वादि२० प्रत्ययलिङ्गम् यथा क्षित्यादि, तथा चेदम् , तस्मात्तथेति । न चैते
प्रत्यया निनिमित्ताः; कादाचित्कत्वात् । नाप्यविशिष्टनिमित्ताः; विशिष्टप्रत्ययत्वाद्दण्डीतिप्रत्ययवत् । न चान्योन्यापेक्षमूर्तद्रव्यनिमित्ताः; परस्पराश्रयत्वेनोभयप्रत्ययाभावानुषङ्गात् । ततोऽन्यनिमित्तोत्पाद्यत्वासम्भवादेते दिश एवानुमापकाः । प्रयोगः२५ यदेतत्पूर्वापरादिज्ञानं तन्मूलद्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थ निवन्धनं तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्सुखादिप्रत्ययवत् । विभुत्वैकत्वनित्यत्वादयश्वास्या धर्माः कालवद्वगन्तव्याः । तस्याश्चैकत्वेपि प्राच्यादिभेदव्यवहारो भगवतः सवितुर्मेसें प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य लोकपाल गृहीतदिक्प्रदेशैः संयोगाद्धटते ।
१ युगपदेते कुर्वन्ति युगपदेतानि कृतानीति तयोः कर्तृकर्मणोः। २ पुरुषाः । ३ पुत्रोत्पत्त्यादिलक्षणेषु । ४ शानं भवतीति शेषः। ५ लिङ्गसिद्धौ। ६ बसः। ७ पटादिवत्। ८ साधारणाऽऽकाशादिकारणका न भवन्तीति भावः। ९ एकस्य वस्तुनः पूर्वत्वसिद्धौ सत्यां तदपेक्षया इतरस्यापरत्वसिद्धिरितरस्यापरत्वसिद्धौ सत्यां च तदपेक्षयाऽपरत्वसिद्धि( प्रथमस्य पूर्वत्वसिद्धि )रिति । १० नान्यस्याकाशादेः । ११ इन्द्रादि।
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सू० ४.१०] दिग्द्रव्यवादः
तदप्यसमीचीनम् : प्रोक्तप्रत्ययानामाकाशहेतुकत्वेनाकाशादिशोऽर्थान्तरत्वासिद्धेः। तत्प्रदेशश्रेणिवेव ह्यादित्योद्यादिवशात्याच्यादिदिग्व्यवहारोपपत्तेन तेषां निहतुकत्वं नाप्यविशिष्टपदार्थहेतुकत्वम् । तथाभूतप्राच्यादिदिक्संवन्धाञ्च मूर्त्तद्रव्येषु पूर्वापरादिप्रत्ययविशेषस्योत्पत्तेन परस्परापेक्षया मूर्तद्रव्याण्येव तद्धेतवो५ येनेतरस्य पूर्वत्वासिद्धावन्यतरत्यापरत्वासिद्धिः, तदसिद्धौ चैकतरस्य पूर्वत्वायोगादितरेतराश्रयत्वेनोमयाभावः स्यात् ।
नन्वेवमाकाशप्रदेशश्रेणिष्वपि कुर्तस्तत्सिद्धिः ? स्वरूपत एव तत्सिद्धौ तस्य परीवृत्त्यभावप्रसङ्गः, अन्योन्यापेक्षया तलिद्धौ अन्योन्याश्रयणादुभयाभावः; तदेतदिक्प्रदेशेष्वपि पूर्वापरादि-१० प्रत्ययोत्पत्तौ समानम् । यथैव हि मूर्त्तद्रव्यमवधिं कृत्वा मूर्तेष्वेव 'इदमतः पूर्वेण' इत्यादिप्रत्यया दिग्द्रव्यहेतुकास्तथा दिग्भेमवधिं कृत्वा दिग्भेदेष्वेव 'इयमतः पूर्वा' इत्यादिप्रत्यया द्रव्यान्तरहेतुकाः सन्तु विशिष्टप्रत्ययत्वाविशेषात् , तथा चानवस्था। परस्परापेक्षया तत्सिद्धावितरेतराश्रयणादुभयाभावः । स्वरूपस्तित्प्रत्ययप्रसिद्धौ १५ तेनैवानेकान्तात् कुतो दिग्द्रव्यसिद्धिस्तत्प्रत्ययपरावृत्यभावश्चानुषज्यः।
सवितुरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्येत्यादिन्यायेन दिग्द्रव्ये प्राच्यादिव्यवहारोपपत्तौ तत्प्रदेशपङ्किण्वऽप्यत एव तेव्यवहारोपपत्ते. रलं दिग्द्रव्यकल्पनया, देशद्रव्यस्यापि कल्पनाप्रसङ्गात्-'अयमतः२० पूर्वो देशः' इत्यादिप्रत्ययस्य देशद्रव्यमन्तरेणानुपपत्तेः। पृथिव्यादि. रेव देशद्रव्यम् ; इत्यसत्। तत्र पृथिव्यादिप्रत्ययोत्पत्तेः । पूर्वादि
१ आकाशस्यैकत्वादिग्व्यवहारः कथं स्यादित्याह । २ आकाशप्रदेशलक्षण । ३ पूर्वाद्रेः। ४ पश्चिमाद्रेः। ५ मूर्तद्रव्येषु पूर्वापरादिप्रत्ययविशेषोत्पत्तिप्रकारेण । ६ तस्य-पूर्वापरत्वस्य । ७ पूर्वापराद्रेः। ८ परावृत्तिः निवृत्तिः। ९ न च तथा पूर्वादिदिशामपि कस्यचिद्देशस्यापेक्षया पश्चिमादिव्यपदेशोस्ति। १० पूर्वापेक्षयाऽपरः, अपरापेक्षयापूर्व इति । ११ चोद्यम् । १२ भवन्मते। १३ दिक्। १४ दिशः सकाशात् । १५ जैनमते। १६ अन्यदिग्द्रव्यापेक्षयाऽनवस्था तत्रापि तत्प्रत्ययहेतुत्वस्यापरदिग्द्रव्यहेतुत्वप्रसङ्गात् । १७ दिग्भेदेषु दिग्द्रन्यव्यतिरिक्तद्रव्यान्तराभावेपि पूर्वापरादिप्रत्ययस्य स्वतो जायमानत्वात् । १८ पूर्वापरेति । १९ पूर्वापरादिप्रत्ययेन । २० तत्प्रत्ययविलक्षणत्वादित्यस्य हेतोः। २१ दिग्द्रव्यं पूर्वापरादिप्रत्ययस्य कारणं न भवतीति भावः। २२ पूर्वापर । २३ तस्य आकाशस्य । २४ प्राच्यादि । २५ तथा च नव द्रव्याणीति द्रव्यसंख्याव्याघातः स्यात् । २६ तस्य पृथिव्यादिप्रत्ययहेतुत्वेनायमतः पूर्वो देश इति प्रत्ययहेतुत्वाऽनुपपत्तेः ।
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५७०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० दिक्कतः पृथिव्यादिषु पूर्वदेशादिप्रत्ययश्चेत् । तर्हि पूर्वाद्याकाशकृतस्तत्रैव पूर्वादिदिक्प्रत्ययोस्त्वऽलं दिकल्पानाप्रयालेन।
नन्वेवमादित्योदयादिवशादेवाकाशप्रदेशपतिष्विव पृथिव्यादिप्वपि पूर्वापरादिप्रत्ययसिद्धराकाशप्रदेशश्रेणिकल्पनाप्यनार्थका ५अवत्विति चेत्, न; 'पूर्वस्यां दिशि पृथिव्यादयः' इत्याद्याधाराधेयव्यवहारोपलम्भात् पृथिव्यायधिकरणभूतायास्तत्प्रदेशपड़े परिकल्पनस्य सार्थकत्वात् । आकाशस्य च प्रमाणान्तरतः प्रसाधितत्वात् । तन्न परपरिकल्पितं दिग्द्रव्यमप्युपपद्यते।
नाप्यात्मद्रव्यम् । तद्धि सर्वगतत्वादिधर्मोपेतं परैरभ्युपेयते । १० न चास्य तदुपेतत्वमुपपद्यते प्रत्यक्षविरोधात् । प्रत्यक्षेण ह्यात्मा 'मुख्यहं दुःख्यहं घटादिकमहं वेद्मि' इत्यहमहमिकया स्वदेह एव सुखादिस्वभावतया प्रतीयते, न देहान्तरे परसम्बन्धिनि, नाप्यन्तराले । इतरथा सर्वस्य सर्वत्र तथा प्रतीतिरिति सर्व दार्शत्वं भोजनादिव्यवहारसधैरश्च स्यात् ।। २५ अनुमानविरोधाचास्य तद्धर्मोपेतत्वायोगः; तथाहि-नात्मा परममहापरिमाणाधिकरणो द्रव्यान्तराऽसाधारणसामान्यवत्त्वे सत्यनेकत्वाद्धटादिवत् । 'अनेकत्वात्' इत्युच्यमाने हि सामान्येनानेकान्तः, तत्परिहारार्थ 'सामान्यवत्त्वे सति' इति विशेषणम् ।
तथाकाशादिना व्यभिचारः, तत्परिहारार्थ 'द्रव्यान्तरासाधारण२० सामान्यवत्त्वे सति' इत्युच्यते । एकस्माद्धि द्रव्यादन्यद्रव्यं
द्रव्यान्तरम्, तदसाधारणसामान्यवये सत्यनेकत्वमाकाशादौ नास्तीति । अत एव परममहापरिमाणलक्षणगुणेनापि नानेकान्तः।
तथा, नात्मा तत्परिमाणाधिकरणो दिकालाकाशान्यत्वे सति द्रव्यत्वाद्धटादिवत् । न सामान्येन परममहापरिमाणेन वाने२५ कान्तः, तयोरगव्यत्वात् । नापि दिगादिना, 'तदन्यत्वे सति' इति विशेषणात् ।
तथा, नात्मा तत्परिमाणाधिकरणः क्रियावत्त्वाद्वाणादिवत् । न चेदमसिद्धम् ; 'योजनमहमागतः क्रोशं वा' इत्यादिप्रतीतितस्तत्सिद्धेः । न च मनः शरीरं वागतमित्यभिधातव्यम् । तस्याहं
१ व्योम । २ निखिलद्रव्यावगाहान्यथानुपपत्तेः । ३ आत्मनः सर्वैरात्मभिः सम्बन्धात्। ४ गोत्वाश्वत्वमहिषत्वादिना । ५ सामान्यवत्त्वादित्युच्यमाने । ६ यतो द्रव्यवं सत्त्वं वा सामान्यमाकाशादिषु । ७ आत्मलक्षणात् । ८ आकाशम् । ९ गुणत्वसामान्यसद्भावादनेकत्वाभावाच्च । १० तत्-परममहत् ।
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सू० ४।१०] आत्मद्रव्यवादः
५७१. प्रत्ययाऽवेद्यत्वात् , अन्यथा चार्वाकमतप्रसङ्गः स्यात् । प्रसाधयिष्यते चाने विस्तरतोस्य क्रियावत्त्वमित्यलमतिप्रसङ्गेन ।
तथा, आत्माऽणुपरममहत्त्वपरिमाणानधिकरणः, चेतनत्वात्, ये तु तत्परिमाणाधिकरणा न ते चेतनाः यथाकाशपरमाण्वादयः, चेतनश्चात्मा, तस्मान्न तत्परिमाणाधिकरण इति । ५
ननु चात्मा परममहापरिमाणाधिकरणो न भवतीति प्रतिज्ञाऽनुमानवाधिता। तच्चानुमानम्-आत्मा व्यापकोऽणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वादाकाशवत् । अणुपरिमाणानधिकरणोसौ अस्सदादिप्रत्यक्षविशेषगुणाधिकरणत्वाद्धटादिवत् । तथा नित्यद्रव्यमात्माऽस्पर्शवद्रव्य॑त्वादाकाशवदेवेति। १० . अत्रोच्यते-अणुपरिमाणप्रतिषेधोत्र पर्युदासः, प्रसज्यो वाभिप्रेतः? यदि पर्युदासः; तदासौ भावान्तरस्वीकारेण प्रवर्तते । भावान्तरं च किं परममहापरिमाणम्, अवान्तरपरिमाणं वा स्यात् ? प्रथमपक्षे साध्या विशिष्टत्वं हेतुविशेषणस्य । यथा 'अनित्यः शब्दोऽनित्यत्वे सति बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इति ।१५ द्वितीयपक्षे तु विरुद्धत्वम् , यथा 'नित्यः शब्दोऽनित्यत्वे सति वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इति ।
प्रसज्यपक्षेप्यसिद्धत्वम् तुच्छस्वभावाभावस्य प्रमाणाविषयत्वेन प्रतिपादनात् । सिद्धौ वा किमसौ साध्यस्यै स्वभावः, कार्य वा ? यदि स्वभावः, तर्हि साध्यस्यापि तद्वत्तुच्छरूपतानुषङ्गः । अथ२० कार्यम् ; तन्न; तुच्छवभावाभावस्य कार्यत्वायोगात् । कार्यत्वं हि किं स्वकारणसत्तासमवायः, कृतमिति बुद्धिविषयत्वं वा? न तावदाद्यः पक्षः, अभावस्य खकारणसत्तासमवायानभ्युपगमात्, अन्यथा भावरूपतैवास्य स्यात् । नापि द्वितीयः, तुच्छस्वभावाभावस्य तद्विषयत्वासम्भवात् । तस्य हि प्रमाणागोचरत्वे कथं २५ कृतबुद्धिविषयत्वं सम्भवेत् ? अनैकान्तिकं चैतत् खननोत्सेच नानन्तरमकार्येप्याकाशे कृतबुद्धिविषयत्वसम्भवात् ।
१ अत्रैवात्मसर्वगतत्वादिनिराकरणे । २ कालात्ययापदिष्टेन हेतुना । ३ परमाणुभिरनेकान्तपरिहारार्थमेतत् , परमाणुषु नित्यत्वमस्ति व्यापकत्वं च नास्तीति भावः । ४ हेतोविशेषणसमर्थनार्थमेतत् । ५ योगिप्रत्यक्षविशेषगुणाधिकरणैः परमाणुभियंमिचारस्तत्परिहारार्थमसदादिपदम्। ६ प्रत्यक्षाश्च ते विशेषगुणाश्च तेषामधिकरणम् । ७ हेतोर्विशेष्यदलसमर्थनार्थम् । ८ क्रिययाऽनेकान्तपरिहारार्थ द्रव्येति । ९ हेतो. विशेषणं निरस्यति जैनः । १० साध्यसमत्वम् , महापरिमाणस्याथों हि व्यापकत्वम् , एवं सति आत्मा व्यापकः व्यापकत्वादित्यायातं महापरिमाणव्यापकत्वयोः समानार्थत्वात् । ११ व्यापकत्वविशिष्टस्यात्मनः।
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. ५७२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० नित्यद्रव्यत्वं च किं कथञ्चित्, सर्वथा वा विवक्षितम्! कथञ्चिच्चेत्, घटादिनानेकान्तः, तस्याणुपरिमाणानधिकरणले कथञ्चिन्नित्यद्रव्यत्वे च सत्यपि व्यापित्वाभावात् । सर्वथा चेतः
असिद्धत्वम् , सर्वथा नित्यस्य वस्तुनोऽर्थक्रियाकारित्वेनाश्ववि ५षाणप्रख्यत्वप्रतिपादनात् । अस्मदादिप्रत्यक्षविशेषगुणाधिकरणत्वाचाणुपरिमाणप्रतिषेधमात्रमेव स्याद् घटादिवत्, तस्य चेष्टः स्वात्सिद्धसाध्यता । अस्पर्शवद्रव्यत्वाचात्मनो यदि कथञ्चि नित्यत्वं साध्यते; तदा सिद्धसाध्यता । अथ सर्वथा; तर्हि हेतो. रनन्वयत्वमाकाशादीनामपि सर्वथा नित्यत्वस्य प्रतिषिद्धत्वात्। १० ननु 'देहान्तरे परसम्बन्धिन्यन्तराले चात्मा न प्रतीयते इत्ययुक्तमुक्तम् ; अनुमानात्तत्रास्य सद्भावप्रतीते; तथाहि-देव. दत्ताङ्गनाद्यङ्गं देवदत्तगुणपूर्वकं कार्यत्वे तदुपकारकत्वाबासादिवत् । कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं तजन्मनि व्याप्रियते
नान्यथा, अतस्तदङ्गादिकार्यप्रादुर्भावदेशे तत्कारणवत्तहुण१५ सिद्धिः। यत्र च गुणाः प्रतीयन्ते तत्र तहुण्यप्यनुमीयते एव,
तमन्तरेण तेषामसम्भवात्; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यतो देवदत्तागनाद्यङ्गादिकार्यस्य कारणत्वेनाभिप्रेता ज्ञानदर्शनादयो देवदत्तात्मगुणाः, धर्माधर्मों वा? न तावज्ज्ञानदर्शनसुखादयः स्वसंवेदन
स्वभावास्तजन्मनि व्याप्रियमाणाः प्रतीयन्ते । वीर्य तु शक्तिः, २० सापि तदेह एवानुमीयते, तत्रैव तर्लिङ्गभूतक्रियायाः प्रतीतेः।
तज्ज्ञानादेस्तदेह एव तत्कार्यकारणविमुखस्याध्यक्षादिना प्रतीतेः तद्बाधितकर्म निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति हेतुः।
अथ धर्माधर्मों; तदङ्गादिकार्य तन्निमित्तमस्माभिरपीष्यते एव । २५ तदात्मगुणत्वं तु तयोरसिद्धम् ; तथाहि-न धर्माधर्मों आत्मगुणौ
अचेतनत्वाच्छब्दादिवत् । न सुखादिना व्यभिचारः; अत्र हेतो. रवर्त्तनात्, तद्विरुद्धेन स्वसंवेदनलक्षणचैतन्येनास्याऽव्याप्तत्वा साधनात् । नाप्यसिद्धता; अचेतनौ तौ स्वग्रहणविधुरत्वात्पटादिवत् । न च वुझ्यास्य व्यभिचारः; अस्याः स्वग्रहणात्मकत्व३०प्रसाधनात् । प्रसाधितं च पौद्गलिकत्वं कर्मणां सर्वशसिद्धि
१ हेतोर्विशेष्यं निरस्यति । २ न तु परममहापरिमाणमवान्तरपरिमाणं वा सिध्येत् । ३ तथाविधसाध्येन व्याप्तस्य हेतोदृष्टान्ते सत्त्वं नास्तीति भावः। ४ महेश्वरेणानेकान्तपरिहारार्थमेतत् । ५ व्याघ्रादिना व्यभिचारपरिहारार्थ तदुपकारकेति । ६ लिङ्गशापकम् । ७ भारवाहादिकायाः। ८ देवदत्ताङ्गनाद्यनादि । ९ वीर्यानुमान । १० पक्ष। ११ बसः। १२ धर्माधर्मरूपाणाम् ।
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सू० ४।१०] आत्मद्रव्यवादः
५७३ प्रस्तावे तदलमतिप्रसङ्गेन । तदेवं धर्माधर्मयोस्तदात्मगुणवनिषेधात् तन्निधानुमानवाधितमेतत्-'देवदत्ताङ्गनाद्यङ्गं देवदत्तगुणपूर्वकम्' इति ।
अस्तु वा तयोर्गुणत्वम् । तथापि न तदङ्गनाङ्गादिप्रादुर्भावदेशे तत्सद्भावसिद्धिः । न खलु सर्व कारणं कार्यदेशे सदेव तजन्मनि ५ व्याप्रियते, अजनतिलकमन्त्राऽयस्कान्तादेराकृप्यमाणानादिदेशेऽसतोप्याकर्षणादिकार्यकर्तृत्वोपलस्मात् । कार्यत्वे सति' इति च विशेषणमनर्थकम् ; यदि हि तगुणपूर्वकत्वाभावेपि तदुपकारकत्वं दृष्टं स्यात् तदा 'कार्यत्वे सति' इति विशेषणं युज्येत, 'सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेपणमुपादीयमानमर्थवद्भवति'१० इति न्यायात् । कालेश्वरादौ दृष्टसिति चेत् ; तर्हि कालेश्वरादिकमतहणपूर्वकमपि यदि तेंदुपकारकम् कार्यमपि किञ्चिदन्यपूर्वकमपि तदुपकारकं भविष्यतीति सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिको हेतुः, क्वचित्सर्वज्ञत्वाभावे साध्ये वागादिवत् । न च नित्यैकस्वभावात्कालेश्वरादेः कस्यचिदुपकारः सम्भवतीत्युक्तम् । १५
नच(ननु च) नकुलशरीरप्रध्वंसाभावोऽहेरुपकारकोस्ति तस्मिन्सति सुखावासभ्रमणादिभावादतः सोपि तद्गुणपूर्वकः स्यात्, तथा च कार्यत्वासम्भवेन सविशेषणस्य हेतोरवर्त्तमानाद्भागासिद्धो हेतुः। प्रत्युक्तं चाभावस्यानन्तरमेव कार्यत्वम् । अथाऽतगुणपूर्वकः; अन्यदप्यतहणपूर्वकमपि तदुपकारकं किन्न स्यात् ? २०
साध्यविकलं चेदं निदर्शनं ग्रासादिवदिति । तत्र ह्यात्मनः को गुणो धर्मादिः, प्रयत्नो वा स्यात् ? धर्मादिश्वेत् ; साध्यवत्प्रसङ्गः। प्रयत्नश्चेत् ; कोयं प्रयत्नो नाम? आत्मनः तद्वयवानां वा हस्ताद्यवयवप्रविष्टानां परिस्पन्दः; स तर्हि चलनलक्षणा क्रिया, कर्थ गुणः ? अन्यथा गमनादेरपि गुणत्वानुषङ्गाक्रियावातॊच्छेदः।२५ तथा चायुक्तम्-क्रियावत्त्वं द्रव्यलक्षणम् । यदप्युक्तम्-'अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्ते आश्रयान्तरे कारभते
१ ततश्चाचेतनत्वं कर्मणाम् । २ कर्मणां पौगलिकत्वसमर्थनस्य । ३ आदिना लोहादिदेशे। ४ हेतोर्विपक्षे वृत्तिनिवृत्त्यर्थ हेतौ विशेषणं योजयन्त्याचार्या इति वचनात् । ५ विपक्षे । ६ कुत्रचिनिदर्शने । ७ विशेष्यस्य । ८ हेतोः। ९ अकार्यरूपे । १० अकार्यत्वे सति तदुपकारकत्वम् । ११ तस्य देवदत्तादेः । १२ अभावस्य कार्यत्वासम्भवेन। १३ अणुपरिमाणानधिकरणत्वस्य प्रसज्यपक्षे । १४ देवदत्ताङ्गनाद्यङ्गमपि। १५ साध्यमसिद्धं यथा तथा धर्मादिगुणत्वमप्यसिद्धम्। १६ स्वाश्रयः= आत्मा। १७ द्वीपान्तरवत्तिंपदार्थे ।
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५७४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात्प्रयत्नवत् । न चास्य क्रियाहेतुत्वमालिद्धम् ; तथाहि-अग्नेसर्वज्वलनं वायोस्तिर्यपवनमणुमनसोश्चाद्य कस देवदत्तविशेषगुणकारितं कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् पाण्यादिपरिस्पन्दवत् । नाप्येकद्रव्यत्वाम् ; तथाहि५एकद्रव्यमष्टं विशेषगुणत्वाच्छन्दवत् । “एकद्रव्यगुणत्वात्' इत्युच्यामाने रूपादिमिळभिंचारः, तनिवृत्यर्थ 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इति विशेषणम् । 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्युच्यमाने हस्तमुसलसंयोगेन स्वाश्रयासंयुक्तस्तम्भादिक्रियाहेतुनानेकान्तः, तन्निवृत्य
र्थम् “एकद्रव्यत्वे सति' इति । 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुत्वात् १० इत्युच्यमाने स्वाथयासंयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेनीनेकान्तः, तत्परिहारार्थ गुणत्वात्' इत्युक्तम् ।'
तदेतदप्याविचारितरमणीयम्; अदृष्टस्य गुणत्वप्रतिषेधात् , . अतो विशेष्यासिद्धो हेतुः । विशेषणासिद्धश्च; एकद्रव्यत्वाप्रसिद्धेः । तद्धि किसेकलिन्द्रव्ये संयुक्लत्वात् , लमवायेन वर्तमा१५ नात्, अन्यतो वा स्यात् ? न तावत्संयुक्तस्यात् संयोजत्व गुणत्वेन
द्रव्याश्रयत्वात् , अदृष्टस्य चाद्व्यत्वात् । अन्यथा गुणवत्वेनास्य द्रव्यत्वानुषङ्गात् 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्येतद्विघटते । समवायेन वतनं च समवाये सिद्धे सिद्धयेत्, स चासिद्धः, अग्रे निषेधात् ।
तृतीयपक्षस्त्वनभ्युपगमादेव न युक्तः। २० क्रियाहेतुत्वं चास्याऽनुपपन्नम्। तथा हि-देवदत्तशरीरसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानमदृष्टं द्वीपान्तरवर्तिपु माविमुक्ताफलप्रवालादिषु देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्सु क्रियाहेतुः, उत द्वीपान्तरवर्तिद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशे, किं वा सर्वत्र ? तत्राद्यपक्षस्थानभ्युपगम एव श्रयान् , अतिव्यवहितत्वेन द्वीपान्तरवर्तिद्रव्यैस्तस्यानभिसम्वन्धेन २५ तत्र क्रियाहेतुत्वायोगात् । ननु स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धसम्भवात्तेपामनभिसम्बन्धोऽसिद्धः, अमुमेव ह्यात्मानमाश्रित्यादृष्टं वर्चते, तेन संयुक्तानि सर्वाण्यप्याकृष्यमाणद्रव्याणि; इत्यप्ययुक्तम् । तस्य
१ एकद्रव्यमात्मा, यसः। २ यसः । ३ आत्ममनसोः सर्वथा भेदात् । ४ अणुमनसोः शरीरोत्पत्तिदेशं प्रति गमनक्रिया। ५ असिद्धमिति संबन्धः। ६ पुद्गललक्षणैकद्रव्यं रूपं यतः। ७ क्रिया हननलक्षणा । ८ हस्तमुसलद्रव्यद्वयसद्भावात् । उलूखले धान्यादिके खण्ड्यमाने सति दूरतोऽसंयुक्तस्तम्भादिः पततीति भावः। ९ स्वाश्रयो भूम्यादिः। १० क्रिया आकर्षणम् । ११ भूम्यादौ स्थितोऽयस्कान्त ऊर्ध्वस्थितमसंयुक्तं लोहादिकमाकर्षतीति भावः। १२ परस्य तव। १३ तस्यादृष्टस्थाश्रय आत्मा तेन संयोगः। १४ अदृष्टस्य । १५ द्रव्याणाम्। १६ अदृष्टेन सह । १७ कथम् ? तथा हि ।
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सू० ४।१०] आत्मद्रव्यवादः
५७५ सर्वत्राविशेषेण सर्वसाकर्षणानुपङ्गात् । अथ यदृष्टेन यज्जन्यते तदृष्टेन तदेवाकृष्यते न सर्वम् । तर्हि देवदत्तशरीरारम्भकाणां परमागूनां नित्यत्वेन ताजन्यत्वात् कथं तद्दनाकर्षणम् ? तथाप्याकपणेऽतिप्रसङ्गः तन्नायः पक्षो युक्तः।
नापि द्वितीयः; तथाहि-यथा वायुः स्वयं देवदत्तं प्रत्युपसर्पण-५ वानन्येषां तृणादीनां तं प्रत्युपतर्पणहेतुस्तथाऽदृष्टमपि तं प्रत्युपलपत्स्वयमन्येषां तं प्रत्युपतर्पता हेतुः, द्वीपान्तरवर्तिद्रव्यसंयुतात्मप्रदेशस्थमेव बा? प्रथमपक्षे वयमेवादृष्टं तं प्रत्युपलपति, अदृष्टान्तराद्वा? स्वयमेवास्य तं प्रत्युपसर्पणे द्वीपान्तरवर्तिद्रव्याणामपि तथैव तत् इत्यदृष्टपरिकल्पनमनर्थकम् । 'यदेवदत्तं प्रत्यु-१० पसर्पति तद्देवदत्तगुणाकृष्टं तं प्रत्युपसर्पणात्' इति हेतुश्चानकान्तिका स्यात् । वायुवचादृष्टस्य सक्रियत्वम् गुणत्वं वाधेत । शब्दवच्चापरापरस्योत्पत्तौ अपरमदृष्टं निमित्तकारणं वाच्यम्, तत्राप्यपरमित्यनवस्था । अन्यथा शब्देऽप्यदृष्टस्य निमित्तत्वकल्पना न स्यात् । अदृष्टान्तरात्तस्य तं प्रत्युपलप तदप्यदृष्टान्तरं तं प्रत्युप-१५ सर्पत्यदृष्टान्तरात्तदपि तदन्तरादिति तद्वस्थमनवस्थानम् ।
अथ द्वोपान्तरवद्रिव्यसंयुकात्मप्रदेशस्थमेव तत्तेषां तं प्रत्युपसर्पणहेतुः, न; अन्यत्र प्रयत्नादावात्मगुणे तथानस्युपगमात् । न खलु प्रयत्नो प्रासादिसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव हस्तदिसञ्चलनहेतुसादिकं देवदत्तमुखं प्रापयति, अन्तरालप्रयत्नवैफल्यप्रसङ्गात् । २०
ननु प्रयत्नस्य विचित्रतोपलभ्यते, कश्चिद्धि प्रयत्नः स्वयमपरापरदेशवानन्यत्र नियाहेतुर्यथानन्तरोदितः । अन्यश्चान्यथा বথা লাকংস। শু হাহাহা) दीनां लक्ष्यप्रदेशप्राप्तिक्रियाहेतुरिति । सेयं चित्रता एकद्रव्याणां क्रियाहेतुगुणानां खाश्रयसंयुक्तासंयुक्तद्रव्यक्रियाहेतुत्लेन किन्ने-२५ प्यते विचित्रशक्तित्वाद्भावानाम् ? दृश्यते हि भ्रामकाख्यस्यायस्कान्तस्य स्पर्शी गुण एकद्रव्यः खाश्रयसंयुक्तलोहगव्यक्रियाहेतुः, आकर्षकाख्यस्य तु खाश्रयासंयुक्तलोहद्रव्यक्रियाहेतुरिति । __१ अनाकृष्यमाणेष्वपि । २ संयोगस्य । ३ सर्वस्याप्याकर्षणप्रसङ्गः। ४ स्वयमुपसर्पताऽदृष्टेन। ५ शब्दवदपरापरादृष्टस्योत्पत्तेः कथं सक्रियत्वमित्याशङ्कायामाह । ६ ‘इति चेत्' इत्युपरिष्टायोज्यम् । ७ हस्तादिगतात्मप्रदेशस्थः। ८ येन प्रयत्नेन ग्रासो गृह्यते स प्रथमः प्रयत्नः, अन्तरालप्रयत्नस्तु येन ग्रासादिकमूवं कृत्वा मुखं प्रति नीयते स इति। ९ यः प्रयत्नो भिन्न भिन्न प्रदेशं गृह्णातीत्यर्थः । १० ग्रासादौ । ११ शरासनस्य धनुपोऽध्यासः स्थितिस्तस्य पदं स्थानं हस्तरूपं तत्र संयुक्तश्चासावात्मप्रदेशश्च तत्र तिष्ठतीति विग्रहवाक्यम् । १२ अदृष्टलक्षणानाम् ।
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५७६
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० अथात्र द्रव्यं क्रियाहेतुर्न स्पर्शादिगुणः, कुत एतत् ? द्रव्यरहितस्यास्य तद्धेतुत्वादर्शनाचेत्, तर्हि वेगस्य क्रियाहेतुत्वं क्रियायाश्च संयोगहेतुत्वं संयोगस्य च द्रव्यहेतुत्वं न स्यात् , किन्तु द्रव्यमेवात्रापि तत्कारणम् । ननु द्रव्यस्य तत्कारणत्वे वेगादिरहितस्यापि ५ तत्स्यात् तर्हि स्पर्शस्य तदकारणत्वे तद्हितस्यैवायस्कान्तादेस्तद्धे. तुत्वं किन्न स्यात् ? तथाविधस्यास्यादर्शनान्नेति चेत्, तर्हि लोहद्रव्यक्रियोत्पत्तावुभयं दृश्यते उभयं कारणमस्तु विशेषाभावात् । तथाच एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्यस्यानेकान्तः।
सर्वत्र चादृष्टस्य वृत्तौ सर्वद्रव्यक्रियाहेतुत्वं स्यात् । 'यदृष्टं १० यद्रव्यमुत्पादयति तददृष्टं तत्रैव कियां करोति' इत्यत्रापि शरीरारम्भकाणुषु क्रिया न स्यादित्युक्तम् । अदृष्टस्य चाश्रय आत्मा, स च हर्षविषादादिविवर्तात्मको द्वीपान्तरवर्तिद्रव्यैर्वियुक्तमेवात्मानं खसंवेदनप्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते इति प्रत्यक्षबाधितकर्म निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो हेतुः । तद्वियुक्तत्वेनाऽतस्तत्प्रती१५ तावप्यात्मनस्तद्रव्यैः संयोगाभ्युपगमे पटादीनां मेर्वादिभिस्तेषां
वा पटादिभिः संयोगः किन्नेष्यते यतः साख्यदर्शनं न स्यात् ? प्रमाणबाधनमुभंयत्र समानम् ।
किञ्च, धर्माधर्मयोव्यान्तरसंयोगस्य चात्मक आश्रयः, स च भवन्मते निरंशः। तथा च धर्माधर्माभ्यां सर्वात्मनास्यालिङ्गितत२० नुत्वान्न तत्संयोगस्य तत्रावकाशस्तेन वा न तयोरिति ।
अथ धर्माधर्मालिङ्गिततत्वरूपपरिहारेण तत्संयोगस्तत्स्वरूपान्तरे वर्त्तते; तर्हि घटादिवदात्मनः सावयवत्वं खारम्भकावयवारभ्यत्वमनित्यत्वं च स्यात् ।
एतेनैतन्निरस्तम्-'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वाद्यो देवदत्त२५ गुणाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वाद्रासादिवत्' इति । यथैव हि तद्वि
शेषगुणेन प्रयत्नाख्येन समाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते प्रासादयः, तथा नयनाञ्जनादिना द्रव्यविशेषेणाप्याकृष्टाः स्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते एव, अतः 'किं प्रयत्नसंधर्मणा
१ अवयवाश्रितस्य । २ अवयवेष्वेव । ३ अवयवलक्षणतन्त्वाश्रितस्य संयोगस्य । ४ अवयविलक्षणपटस्य । ५ अवयविद्रव्यम्। ६ क्रियासंयोगद्रव्येष्वेव। ७ तस्य क्रियायाः संयोगस्य द्रव्यस्य च। ८ स्पर्शायस्कान्तौ। ९ स्पर्शेन । १० किं वा सर्वत्र' इति तृतीयो विकल्पोयम् । ११ पूर्वम् । १२ सर्व सर्वत्र विद्यते इति वचनात् । १३ अस्मदुक्ते भवदुक्ते च। १४ द्रव्यस्यापि क्रियाहेतुत्वसमर्थनपरेण ग्रन्थेन एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वानुमाननिराकरणेन वा। १५ प्रयत्नसदृशेनेत्यर्थः ।
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सू० ४।१०
आत्मद्रव्यवादः
५७७
कैनचिदाकृष्टाः पश्चादयः किं वाचनादिसधर्मणा' इति सन्देहः। शक्यं हि परेणाप्येवं वक्तुम्-विवादापन्नाः पश्वादयोऽञ्जनादिसधर्मणा समाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पणवत्वात् स्यादिवत् । अथ तदभावेपि प्रयत्नादपि तदृष्टेरनेकान्तः; तर्हि प्रयत्नसधर्मणो गुणस्याभावेप्यञ्जनादेरपि तदृष्टेभवदीयहेतोरप्यनैकान्तिकत्वं स्यात् । अत्रा-५ नुमीयमानस्य प्रयतसधर्मणो हेर्तुत्वाव्यभिचारे अन्यत्राप्यञ्जनादिसधर्मणोनुमीयमानस्य हेतुत्वाव्यभिचारः स्यात् । तंत्र प्रयत्न स्यैव सामर्थ्यादेख्य वैफल्ये अत्रौप्यञ्जनादेरेव सामर्थ्यात्तद्वैफल्यं किं न स्यात् ? अथाजनादेरेव तद्धेतुत्वे सर्वस्य तद्वतः स्याद्याकयणं स्यात्, न चाअनादौ सत्यप्यविशिष्टे तद्वतः सर्वान्प्रति १० ख्याद्याकर्षणम् , ततोऽवसीयते तदविशेषेपि यद्वैकल्यात्तन्न स्यात्तदपि तत्कारणं नाअनादिमात्रम्। इत्यप्यपेशलम् । प्रयत्नकारणेपि समानत्वात् । न खलु सर्व प्रयत्नवन्तं प्रति ग्रासादयः समुपसपन्ति तदपहारादिदर्शनात् । ततोऽत्राप्यन्यत्कारणमनुमीयताम् , अन्यथा न प्रकृतेप्यविशेषात् ।
अञ्जनादेश्च ख्याद्याकर्षणं प्रत्यकारणत्वे घटादिवत्तदर्थिनां तदुपादानं न स्यात् । उपादाने वा सिकतासमूहात्तैलवन्न कदाचित्ततस्तत्स्यात् । न च दृष्टसामर्थ्य स्याअनादेः कारणत्वपरिहारेणात्रान्यकारणत्वकल्पने भवतोऽनवस्थातो मुक्तिः स्यात् । अथाअनादिकमदृष्टसहकारि तत्कारणं न केवलम् । हन्तैवं सिद्धमदृष्ट-२० वदञ्जनादेरपि तत्कारणत्वम् । ततः सन्देह एव-'किं ग्रासादिवत्प्रयत्नसधर्मणाकृष्टाः पश्वादयः किं वा ख्यादिवञ्जनादिसधर्मणा तेत्संयुक्तेन ट्रैव्येण' इति । परिस्पन्दमानात्मप्रदेशव्यतिरेकेण ग्रासाद्याकर्षणहेतोः प्रयत्नस्यापि तद्विशेषगुणस्य परं प्रत्यसिद्धेः साध्यविकलता दृष्टान्तस्य ।
२५ यञ्चोक्तम्-'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः' इति; तत्र देवदत्तशब्दवाच्यः कोर्थः-शरीरम्, आत्मा, तत्संयोगो वा, आत्मसंयोगविशिष्टं शरीरं वा, शरीरसंयोगविशष्ट आत्मा वा, शरीरसंयुक्त
१ गुणेन । २ अदृष्टलक्षणेन द्रव्यविशेषेण । ३ जैनेनापि । ४ गुणेन समाकृष्टा द्रव्येण वेति । ५ अञ्जनादिसधर्मद्रव्यविशेषाभावेपि । ६ तस्य ग्रासाद्याकर्षणस्य । ७ तस्य स्याद्याकर्षणस्य । ८ उपसर्पणकारणत्वात् । ९ अदृष्टलक्षणद्रव्यविशेषस्य । १० ख्याधाकर्षणे। ११ ग्रासाद्याकर्षणे। १२ द्रव्यस्य । १३ रुयाद्याकर्षणेपि । १४ प्राणिनः। १५ अदृष्ट । १६ यसः। १७ वैशेषिकस्य । १८ दृष्टसामर्थ्य. स्यान्यकारणस्य परिहारेणेत्यादिप्रकारेण । १९ कारणानां पूर्वपूर्वकारणपरित्यागेनाऽपरापरकारणपरिकल्पनात् । २० अदृष्ट । २१ आत्मना। २२ द्रव्यमिदम् ।
प्र. क. मा० ४९
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० आत्मप्रदेशो वा? यदि शरीरम् ; तर्हि शरीरं प्रत्युपसर्पणाच्छरीरगुणाकृष्टाः पश्चादय इत्यात्मविशेषगुणाकृष्टत्वे साध्ये शरीरगुणाकृष्टत्वसाधनाद्विरुद्धो हेतुः।
अथात्मा; तस्य समाकृष्यमाणार्थदेशकालाभ्यां संदाभिसम्ब५न्धान तं प्रति किश्चिदुपसत् । न ह्यत्यन्ताक्लिष्टकण्ठकामिनी कामुकमुपसर्पति । अन्यदेशो ह्यर्थोऽन्यदेशं प्रत्युपसर्पति, यथा लक्ष्यदेशार्थ प्रति बाणादिः । अन्यकालं वा प्रत्यन्यकालः, यथाङ्करं प्रत्यपरापरशक्तिपरिणामलाभेन वीजादिः । न चैतदुभयं नित्य
व्यापित्वाभ्यामात्मनि सर्वत्र सर्वदा सन्निहिते सम्भवति, अतो १०'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः' इति धर्मिविशेषणं 'देवदत्तगुणाकृष्टा'
इति साध्यधर्मः 'तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति साधनधर्मः परस्य स्वरुचि विरचित एव स्यात्।
अथ शरीरात्मसंयोगो देवदत्तशब्दवाच्यः; न; अस्य तच्छब्दवाच्यत्वे तं प्रति चैषामुपसर्पणे 'तगुणाकृष्टास्ते' इत्यायातम् । न १५ च गुणेषु गुणाः सन्ति, निर्गुणत्वात्तेषाम् ।
'आत्मसंयोगविशिष्टं शरीरं तच्छब्दवाच्यम्' इत्यत्रापि पूर्व वद्विरुद्धत्वं द्रष्टव्यम्।
'शरीरसंयोगविशिष्ट आत्मा तच्छब्दवाच्यः' इत्यत्रापि प्राक्तन एव दोषः नित्यव्यापित्वेनास्य सर्वत्र सर्वदा सन्निधानानिवार२० णात् । न खलु घटसंयुक्तमाकाशं मेर्वादौ न सन्निहितम् ।
अथ शरीरसंयुक्त आत्मप्रदेशस्तच्छब्देनोच्यते; स काल्प. निकः, पारमार्थिको वा? काल्पनिकत्वे काल्पनिकात्मप्रदेशगुणाकृष्टाः पश्वादयस्तथाभूतात्मप्रदेशं प्रत्युपसर्पणवत्त्वादिति तहु
णानामपि काल्पनिकत्वं साधयेत् । तथा च सौगतस्येव तहणकृतः २५ प्रेत्यभावोपि न पारमार्थिकः स्यात् । न हि कल्पितस्य पावकस्य रूपादयस्तत्कार्य वा दाहादिकं पारमार्थिक दृष्टम् ।
पारमार्थिकाश्चेदात्मप्रदेशाः; ते ततोऽभिन्नाः, भिन्ना वा? यद्यभिन्नाः तदात्मैव ते, इति नोक्तदोषपरिहारः। भिन्नाश्चेत् ; तद्वि
शेषगुणाकृष्टाः पश्वादय इत्येतत्तेषामेवात्मत्वं प्रसाधयतीत्यन्यात्म३० कल्पनानर्थक्यम् । कल्पने वा सावयवत्वेन कार्यत्वमनित्यत्वं चास्य स्यादित्युक्तम् ।
१ नित्यसर्वगतस्वादात्मनः । २ देशकालकृतोपसर्पणम् । ३ वैशेषिकस्य । ४ इति चेदिति योज्यम् । ५ पश्चादीनाम् । ६ अग्निर्माणवक इत्यादौ । ७ आत्मनः समाकृष्यमाणार्थदेशकालाभ्यामित्यादिना। ८ तस्य आत्मनः। ९ आत्मप्रदेशानाम् । १० घटवत्।
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सू० ४११० आत्मद्रव्यवादः
५७९ यञ्चान्यदुक्तम्-'सर्वगत आत्मा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वादाकाशवत्' इति तत्र किं स्वशरीर एव सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वं हेतुः, उत खशरीरवत्परशरीरेऽन्यत्र च? तत्र प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः, तत्रैव ततस्तस्य सर्वगतत्वसिद्धः। द्वितीयपक्षे त्वसिद्धः, तथोपलम्भाभावात् । न खलु बुद्धादयस्तद्गुणाः सर्वत्रोपलभ्यन्ते, ५ अन्यथा प्रतिप्राणि सर्वज्ञत्वादिप्रसङ्गः ।
अथ मन्याखेटवत्खेटान्तरे मनुष्यजन्मवजन्मान्तरे चोपलभ्यमानगुणत्वं विवक्षितम् ; तत्किं युगपत् , क्रमेण वा ? युगपञ्चेत् : असिद्धो हेतुः। क्रमेण चेत्, सर्वे सर्वगताः स्युः, घटादीनामपि तथा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वसम्भवात् । तेषां देशान्तरगमना- १० त्तत्सम्भवे आत्मनोपि ततस्तत्सम्भवोस्तु तद्वत्तस्यापि सक्रियत्वात् । प्रत्यक्षेण हि सर्वो देशाद्देशान्तरमायातमात्मानं प्रतिपद्यते, तथा च वदत्यहमद्य योजनमेकमागतः। मनः शरीरं वागतमिति चेत् ; किं पुनस्तदहम्प्रत्ययवेद्यम् ? तथा चेत्, चार्वाकमतानुषङ्गः।
ननु चास्य सक्रियत्वे लोष्टादिवन्मतिभिः सम्बन्धः स्यात् । १५ तत्र केयं मूर्तिर्नाम-असर्वगतद्रव्यपरिमाणम् , रूपादिमत्त्वं वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षोन दोषावहः, अभीष्टत्वात् । न हीष्टमेव दोषाय जायते । रूपादिमती मूर्तिः स्यादिति चेत्, न व्याप्त्यभावात् । रूपादिमन्मूर्तिमानात्मा सक्रियत्वाद्वाणादिवत् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; मनसाऽनैकान्तिकत्वात् । न चास्य पक्षीकरणम्, 'रूपादिविशेषगुणा-२० नधिकरणं सन्मनोर्थ प्रकाशयति शरीरादर्थान्तरत्वे सति सर्वत्र शौनकारणत्वादात्मवत्' इत्यनुमानविरोधानुपङ्गात् ।
ननु सक्रियत्वे सत्यात्मनोऽनित्यत्वं स्याद्धटादिवत्। इत्यपि वार्तम् । परमाणुभिर्मनसा चानेकान्तात् ।
किञ्च, अस्यातः कथञ्चिदनित्यत्वं साध्येत, सर्वथा वा ? कथ-२५. श्चिञ्चेत्, सिद्धसाधनम् । सर्वथा चानित्यत्वस्य घटादावप्यसिद्धत्वात्साध्यविकलता दृष्टान्तस्य ।
१ अन्तराले । २ परशरीरादौ। ३ आदिना दुःखित्वादिग्रहः । ४ द्वितीयपक्षे दूषणान्तरप्ररूपणार्थ परमाशङ्कयाह । ५ अयं शब्दो ग्रामभेदे। ६ तथा प्रतीतेरभावात् । ७ तत आत्मना मूर्तिमता भाव्यमिति भावः। ८ शरीरमसर्वगतद्रव्यमत्र । ९ यद्यत्सक्रियं तत्तद्रूपादिमन्मूर्तिमदिति। १० मनसः सक्रियत्वेपि रूपादिमन्मूर्तिमत्त्वाभावात् । ११ एवं निरूपणे घटेन व्यभिचारः । १२ इष्टानिष्टार्थेषु । १३ शानकारणत्वादित्युच्यमाने चक्षुषा व्यभिचारस्तनिवृत्त्यर्थं सर्वत्रेति विशेषणम् , तथापि शरीरेण व्यभिचारपरिहारार्थ शरीरादित्यादि । १४ कारणमत्र सहकारि ।
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५८०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० किञ्च, आत्मनो निष्क्रियत्वे संसाराभावो भवेत् । संसारो हि शरीरस्य, मनसः, आत्मनो वा स्यात् ? न तावच्छरीरस्य; मनुष्यलोके भस्मीभूतस्यामरपुराऽगमनात् ।
नापि मनसः; निष्क्रियस्यास्यापि तद्विरहात् । सक्रियत्वेपि ५तक्रियायास्ततोऽमेदे तद्वत्तदनित्यत्वप्रसङ्गानास्य क्वचित्क्षणमात्रमवस्थानं स्यात् । मेदे सम्बन्धासिद्धिः, समवायनिषेधात् ।
अचेतनं च तदनिष्टनरकादिपरिहारेणेष्टे स्वर्गादौ कथं प्रवर्त्ततखभावतः, ईश्वरात्, तदात्मनः, अदृष्टाद्वा ? प्रथमपक्षे दत्तः
सर्वत्र ज्ञानाय जलाञ्जलिः । अथेश्वरप्रेरणात्, नतनिषेधात् । १० को वायमीश्वरस्याग्रहो यतस्तत्प्रेरयति, न तदात्मानम् ? अस्य प्रेरणे चेर्दैमनुगृहीतं भवति
"अज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा॥"
[महाभा० वनपर्व० ३०१२८] इति । १५ तदात्मप्रेरणात्' इत्यत्रापि ज्ञातम् , अज्ञातं वा तत्तेन प्रेर्येत ? न
तावदाद्यो विकल्पः, जन्तुमात्रस्य तत्परिज्ञानाभावात् । नापि द्वितीयः; अज्ञातस्य बाणादिवत्प्रेरणासम्भवात् । ननु खप्ने वहस्ताद्योऽज्ञाता एव प्रेर्यन्ते; न अहितपरिहारेण हिते प्रेरणा(s)
सम्भवात्, ज्वलज्वलनज्वालाजालेपि तत्प्रेरणोपलम्भात् । २० अदृष्टप्ररेणात्; इत्यप्यसारम्; अचेतनस्यापि(स्यास्यापि) तत्प्रेरकत्वायोगात् । तत्प्रेरितस्यात्मन एवं वरं प्रवृत्तिरस्तु चेतनत्वात्तस्य । दृश्यते हि वशीकरणौषधसंयुक्तस्य चेतनस्यानिष्टगृहगमनपरिहारेण विशिष्टगृहगमनम् । तन्न मनसोपि संसारः।
. १ पर्यायापेक्षया। २ क्रियामनसोः समवायेन सम्बन्धो भविष्यतीत्युक्ते सत्याहाचार्यः। ३ परमतेऽचेतनं मनः। ४ मनःसम्बन्धिजीवात् । ५ इष्टानिष्टवस्तुषु । ६ शानाभावेप्यचेतनस्य मनस इष्टानिष्टवस्तुपु प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् । ७ मन एव प्रेरयति नात्मानमयमेवाग्रह इत्याशङ्कयाह । ८ अग्रे वक्ष्यमाणं भवच्छास्त्रोक्तम् । ९ भवता स्वीकृतम् । १० मनसः प्रेरणे चेदमनुगृहीतं न भवतीति भावः। ११ तदात्मना। १२ अणुरूपमचेतनमतीन्द्रियं मनस्तस्य । १३ अनैकान्तिकत्वं भावयति । १४ 'इति चेत्' इत्युपरितः । १५ तुर्यो विकल्पः। १६ मन एव । १७ न मनसः। १८ अनिष्टनरकादिपरिहारेणेष्टस्वर्गादौ। १९ चेतनवादात्मनः प्रवृत्तिरसिद्धत्युक्ते सत्याहाचार्यः।
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सू० ४११०] आत्मद्रव्यवादः
५८१ आत्मनस्तु स्यात् यद्येकदेहपरित्यागेन देहान्तरमसौ व्रजेत् , तथा च घंटादिवत्तस्य सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमित्युभयोः सर्वगतत्वं न वा कस्यचिदेविशेषात् ।
यच्चाकाशवदित्युक्तम् । तत्राकाशस्य को गुणः सर्वत्रोपलभ्यते-शब्दः, महत्त्वं वा? न तावच्छन्दः, अत्याकाशगुणत्वनिपे-५ घात् । नापि महत्त्वम् ; अस्यातीन्द्रियत्वेनोपलल्मालम्भवात् ।
एतेन 'वुयाधिकरणं द्रव्यं विभु नित्यत्वे सत्यदायुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वादाकाशवत्' इत्यपि प्रत्युक्तम् ; साधनविकलत्वादृष्टान्तस्य । हेतोश्वानकान्तिकत्वम् , परमाणूनां नित्यत्वे सत्यस्मदाधुपलभ्यमानपाकजगुणाधिष्ठानत्वेपि विभुत्वाभावात्। तत्पा-१० कजगुणानामस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे हि 'विवादाध्यासितं क्षित्यादिकमुपलब्धिमत्कारणं कार्यत्वाद्धटादिवत्' इत्यत्र प्रयोगे व्याप्तिर्न स्यात् । अथ 'नित्यत्वे सत्यस्मदादिवाह्येन्द्रियोपलभ्यमानगुणत्वात् इत्युच्यते; तर्हि बाह्येन्द्रियोपलभ्यमानत्वस्य धुंद्धावसिद्धर्विशेषणासिद्धो हेतुः।
नित्यत्वं च सर्वथा, कथञ्चिद्वा विवक्षितम् ? सर्वथा चेत्, पुनरपि विशेषणासिद्धत्वम् ! कथश्चिञ्चेत्, घटादिनानेकान्तः, तस्य कथञ्चिन्नित्यत्वे सत्यलदाधुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वेपि विभुत्वाभावात्।
यदप्युक्तम्-सर्वगत आत्मा द्रव्यत्वे सत्यमूर्त्तत्वादाकाशवत् । २० 'द्रव्यात्' (द्रव्यत्वात्) इत्युच्यमाने हि घटादिना व्यभिचारः, तत्परिहारार्थम् 'अमूर्त्तत्वात्' इत्युक्तम् । 'अमूर्त्तत्वात्' इत्युच्यमाने च रूंपादिगुणेन गमनादिकर्मणा वानेकान्तः, तनिवृत्त्यर्थ 'द्रव्यत्वे सति' इत्युक्तम् ।
१ घटपक्षे देशान्तरपरित्यागेन देशान्तरमसौ व्रजेत् । २ लोकत्रये। ३ आत्मघटयोः । ४ आत्मनोपीत्यर्थः । ५ उभयोगमनस्य । ६ अतः साधनविकलो दृष्टान्तः । ७ सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वादित्यस्य निराकरणपरेण ग्रन्थेन। ८ परमाणुभिर्व्यभिचारपरिहारार्थम् । ९ घटादिना व्यभिचारनिराकरणार्थम् । १० परेणाझीक्रियमाणे । ११ ईश्वरस्य । १२ तत्पाकजगुणानामस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे यद्यत्कार्य तत्तद्धीमद्धेतुकमिति मानसप्रत्यक्षेण साकल्येन व्याप्तिग्रहणं न स्यादिति भावः । कार्याप्रत्यक्षत्वे कार्यकारणयोर्व्याप्त्यसम्भवात् । १३ गुणरूपायाम् । १४ द्रव्यापेक्षया । १५ असर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणमूर्त्तत्वस्य रूपादिष्वभावाद्रूपादीनाममूर्तत्वम् , रूपादीनां तत्परिमाणाभावः कुतः १ निर्गुणा गुणा इत्यभिधानात् ।
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५८२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० तदप्यसमीचीनम् । यतोऽमूर्त्तत्वं मूर्त्तत्वाभावः, तत्र किमिदं मूर्त्तत्वं नाम यत्प्रतिषेधोऽमूर्त्तत्वं स्यात् ? रूपादिमत्त्वम् , असर्वगतद्रव्यपरिमाणं वा? प्रथमपक्षे मनसानेकान्तः तस्य द्रव्यत्वे सत्यमूर्त्तत्वेपि सर्वगतत्वाभावात् । द्वितीयपक्षे तु किमसर्वगत५द्रव्यं भवतां प्रसिद्धं यत्परिमाणं मूर्तिर्वर्ण्यते? घटादिकमिति
चेत्, कुतस्तत्तथा? तथोपलम्भाच्चेत्, किं पुनरसौ भवतः प्रमाणम् ? तथा चेत्, तद्वदात्मनोपि स एवासर्वगतत्वं प्रसाधयतीति मूर्त्तत्वम् , अतः 'अमूर्त्तत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः। तदसाधने
न प्रमाणम्-"लक्षणयुक्ते वाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात्" २० [प्रमाणवार्तिकालं०] इति न्यायात्। तथा चातो घटादावप्यसर्वगतत्वमतिदुर्लभम् । शक्यं हि वक्तुम्-'घटादयः सर्वगता द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वादाकाशवत्' इति । पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनं हेतोश्वासिद्धिः उभयंत्र समाना।
ननु चात्मनः सर्वगतत्वात्तत्रास्त्यमूर्त्तत्वमसर्वगतद्रव्यपरिमाण१५ सम्वन्धाभावलक्षणं न घटादौ विपर्ययात् । ननु चास्य कुतः सर्व
गतत्वं सिद्धम्-साधनान्तरात्, अत एव वा? साधनान्तराञ्चेत्; तदेव (तत एव) समीहितसिद्धेः 'द्रव्यत्वे सत्यमूर्त्तत्वात्' इत्यस्य वैयर्थ्यम् । अत एव चेदन्योन्याश्रयः-सिद्ध हि तस्य सर्वगतत्वेऽसर्वगतद्रव्या(व्य)परिमाणसम्वन्धरूपमूर्त्तत्वाभावोऽमूर्त्तत्वं २० सिध्यति, अतश्च तत्सर्वगतत्वमिति ।
किञ्च 'अमूर्त्तत्वात्' इति किमयं प्रसज्यप्रतिषेधो मूर्त्तत्वाभावमात्रममूर्त्तत्वम्, पर्युदासो वा मूर्तत्वादन्यद्भावान्तरमिति? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, तुच्छाभावस्य पीकप्रबन्धेन प्रतिषेधात् ।
सतोपि चास्य ग्रहणोपायाभावादज्ञातासिद्धो हेतुः। न हि प्रत्यक्ष२५ स्तब्रहणोपायः; तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात् , तुच्छाभावेन सह मनसोऽन्यस्य चेन्द्रियस्य सन्निकर्षाभावात्।।
ननु मन आत्मना सम्बद्धमात्मविशेषणं च तेदभावः, ततः सम्बद्धविशेषणीभीवस्तेन मनस इति । युक्तमिदं यद्यसावात्मनो विशेषणं भवेत् । न चास्यैतदुपपन्नम् । विशेष्ये हि विशिष्टप्रत्यय
१ वैशेषिकाणाम् । २ असर्वगतत्वेन। ३ उपलम्भः। ४ असर्वगतद्रव्यपरिमाणोपलम्भः प्रमाणस्य लक्षणम् । ५ प्रमाणे। ६ प्रमाणस्यात्मन्यसर्वगतत्वासाधनलक्षणे वाधासम्भवे । ७ तस्य प्रमाणस्य । ८ आत्मन्यसर्वगतत्वोपलम्भस्याप्रमाणत्वे च । ९ आत्मनि घटादौ च । १० असर्वगतत्वात् । ११ अमूर्तत्वम् । १२ अभावनिराकरणावसरे । १३ तुच्छाभावेन सह मनसः सन्निकर्ष दर्शयति परः। १४ अमूर्त्तत्वाभावः। १५ सम्बन्धः । १६ परेणोक्तं यत् । १७ मूर्त्तत्वाभावलक्षणं विशेषणम् ।
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सू० ४।१०] आत्मद्रव्यवादः
५८३ हेतुर्विशेषणं यथा दण्डः पुरुष न च तुच्छामावस्तत्प्रत्ययहेतुबटते; सकलशक्तिविरहलक्षणत्वादस्य, अन्यथा भाव एव स्यादर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वात् परमार्थसतो लक्षणान्तराभावात् । सत्तासम्वन्धस्य तल्लक्षणस्य कृतोत्तरत्वात् ।
किञ्च, गृहीतं विशेषणं भवति, "नाऽगृहीतविशेषणा विशेप्ये ५ बुद्धिः" [ ] इत्यविधानात् । ग्रहणे चेतरेतराश्रयः। तथाहि-आत्मसम्बद्धनेन्द्रियेणासौ गृहीतः सिद्धः सन्नात्मनो विशेषणं सिध्यति, तत आत्मलम्बद्धेनेन्द्रियेण ग्रहणमिति । यदि चात्मा स्वयमसर्वगतद्रव्यपरिमाणसम्वन्धविकलः सिद्धस्तर्हि तावतैव समीहितार्थसिद्धेः किमपरेण तदभावेनेति कथं विशे-१० पणम् ? अथ विपरीतः कथं तदभावो यतो विशेषणम् ?
किञ्च, आत्मतदभावाभ्यां सह विशेषणीभावः सम्बद्धः, असस्बद्धो वा? सम्वद्धश्चेत्, तर्हि यथात्मनि विशिष्टविज्ञानविधानादात्मनस्तदभावो विशेषणम् , तथा विशेषणीभावोपि 'आत्मा विशेष्यस्तभावो विशेषणम्' इति विशिष्टप्रत्ययजननात् विशेषणं १५ समवायवत्प्रसक्तम् , तथा च तत्राप्यपरेण तत्सम्बन्धेन भवितव्यमित्यनवस्था । अथासम्बद्धः कथं विशेषणविशेप्याभिमतयोः स भवेत् यतस्तत्र विशिष्टप्रत्ययप्रादुर्भावः सम्वन्धो वा? विशिष्टप्रत्ययहेतुत्वाञ्चेत् ; ईश्वरादौ प्रसङ्गः । तथापि स तयोः' इति कल्पने भावस्याभावः समवायिनोऽस(नोः स)मवायस्तथैव स्थादित्यलं २० तत्र विशेषणीभावसम्बन्धकल्पनया । तन्न प्रत्यक्षं तद्ग्रहणोपायः।
नाप्यनुमानम् ; परस्य प्रत्यक्षाभावे तदभावात्, तन्मूलत्वात्तस्य । नन्विदमस्ति-आत्माऽसूर्त इति वुद्धिर्भिन्नाभावनिमित्ता, अभावविशेषणभावविषयवुद्धित्वात् , अघटं भूतलमित्यादिवुद्धिवत्; इत्यप्यसारम् ; तथाविधाभावस्य विशेषणत्वासिद्धिप्रतिपा-२५ दनात् । अभावविचारे चानयोर्हेतूदाहरणयोः प्रतिहतत्वान्न साध्यसाधकत्वम् ।
१ दण्डीति विशिष्टप्रत्ययहेतुः। २ शातम्। ३ मनसा। ४ मूर्तत्वाभावः। ५ असर्वगतद्रव्यं शरीरम् । ६ असर्वगतद्रव्यपरिमाणसंवन्धरहितः । ७ आत्मा अमूर्त इति । ८ मूर्तत्वाभावः। ९ गुणगुणिनोः समवाय इति । १० विशेषणीमावस्य विशेषणत्वे च । ११ स्वयं संवन्धरूपोपि नैव। १२ ईश्वरकालाकाशादयोपि विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तौ निमित्तकारणकास्तेषामपि विशेषणीभावः सम्बन्धो भवतीति शेषः । १३ संबन्धस्य । १४ सम्बन्धाभावेपि । १५ अभावो विशेषणमस्य, स चासौ भावश्च स विषयो यस्यास्तस्या भाव इति वाक्यम् । १६ द्रव्यत्वे सत्यमूर्चत्वादित्येत निरासेन । १७ तुच्छरूपस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० पर्युदालपक्षेप्यसर्वगतद्रव्यपरिमाणसम्बन्धमाकान्सूर्तत्वादन्यदमूर्त्तत्वं सर्वगतद्रव्यपरिमाणेन परममहत्त्वेन सम्बन्धा(ध)भावः, स च न कुतश्चित्प्रमाणात्प्रसिद्ध इति हेतोरसिद्धिः।
यच्चान्यदुक्तम्-आत्मा व्यापको मनोन्यत्वे सत्यस्पर्शवद्रव्यत्वा५दाकाशवदिति; तदप्येतेनैव प्रत्युक्तम् ; स्पर्शवद्रव्यप्रतिषेधेऽत्रापि प्रागुक्ताशेषदोषानुषङ्गात्।सन्दिग्धानकान्तिकश्चार्य हेतुः; तथाहिअस्पर्शवद्रव्यत्वमाकाशादौ व्यापित्वे सत्युपलब्धं मनसि चाऽव्यापित्वे, तदिदानीमात्मन्युपलभ्यमानं किं 'व्यापित्वं प्रसाधयत्व
व्यापित्वं वा' इति सन्देहः । ननु मनोद्रव्यत्व(मनोऽन्यत्व)वि१० शिष्टस्यास्पर्शवव्यत्वस्य मनस्यनुपलम्भात्कथं संन्देहोऽत्रेति
चेत् ? अत एव । यदि हि तद्विशिष्टं तत्तत्रोपलभ्येत तदा निश्चि. तानैकान्तिकत्वमेवास्य स्यान्न तु सन्दिग्धानकान्तिकत्वमिति । तन्त्रात्मनः कुतश्चित्प्रमाणात्सर्वगतत्वसिद्धिरित्यसर्वगत एवासौ
यथाप्रतीत्यभ्युपगन्तव्यः। १५ ननु चात्मनोऽसर्वगतत्वे दिग्देशान्तरवर्तिभिः परमाणुभिर्युगपत्संयोगाभावोऽतश्चाद्यकाभावः, तदभावादन्त्यसंयोगस्य तन्निमित्तशरीरस्य तेन तत्सम्बन्धस्य चाभावादनुपायसिद्धः सर्वदात्मनो मोक्षः स्यात्, स्यादेवं यदि 'ययेन संयुक्तं तं प्रति तदेवोपसर्पति' इत्ययं नियमः स्यात् । न चास्ति-अयस्कान्तं २० प्रत्ययसस्तेनाऽसंयुक्तस्याप्युपसर्पणोपलम्भात्।।
यस्य चात्मा सर्वगतः तस्यारब्धकारन्यैश्च परमाणुभिर्युगपत्संयोगात्तथैव तच्छरीरारम्भं प्रत्येकमभिमुखीभूतानां तेषामुपसर्पणमिति न जाने कियत्परिमाणं तच्छरीरं स्यात् ।
ननु ये तत्संयोगास्तदऽदृष्टापेक्षास्त एव स्वसंयोगिनां परमाणू२५नामाद्यं कर्म रचय॑न्तीति चेत्, अथ केयं तददृष्टापेक्षा नामएकार्थसमवायः, उपकारो वा, सहायकर्मजननं वा? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; सर्वपरमाणुसंयोगानां तदृष्टैकार्थसमवायसद्भा
१ अस्पर्शवव्यत्वादित्यत्र न पर्युदासः, प्रसज्यो वेत्यादि । २ विपक्षे वाधकं प्रमाणं चेदस्ति तदा सन्देहो निवर्ततेऽनुपलम्भमात्रेण तु परचेतोवृत्तिविशेषवत् सन्देहो भवेदेवेति भावः। ३ शरीरारम्भकाणूनां शरीरोत्पत्तिदेशं प्रति गमनमाचं कर्म । ४ शरीरनिष्पत्त्यवसानकालभावस्य । ५ शरीरारम्मकाणूनां शरीरोत्पत्तिदेशं प्रति गमनम्। ६ अत एव महच्छरीरं न स्यात् । ७ परमाणुसंयोगानाम् । ८ एकसिन्नात्मलक्षणेऽर्थे समवायोऽदृष्टस्य । ९ तस्यात्मनोऽदृष्टं तेन सहैकस्मिन्नर्थे आत्मलक्षणे समवायस्य सद्भावात् ।
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सू० ४।१०] आत्मद्रव्यवादः
५८५ वात् । उपकारः; इत्यप्ययुक्तम् ; अपेक्ष्यादपेक्षकस्यासम्बन्धानवस्थानुषङ्गेणोपकारस्यैवासम्भवात् । सहायकर्मजननम् ; इत्यप्यसत्; तयोरन्यतरस्यापि केवलस्य तजननसामर्थ्य परापेक्षायोगात् । यदि पुनः स्वहेतोरेवादृष्टसंयोगयोः सहितयोरेव कार्यजननसामर्थ्य मिप्यते; तर्हि तत एवादृष्टस्यैव तत्संयोगनिरपेक्षस्य५ तत्सामर्थ्यमस्तु । दृश्यते हि हस्ताश्रयेणायस्कान्तादिना स्वाश्रयासंयुक्तस्य भूभागस्थितस्य लोहादेराकरणमित्यलमतिप्रसङ्गेन ।
यदप्युक्तम्-सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशस्तदात्मा सावयवः स्यात्, तथा च घटादिवत्समानजातीयावयवारभ्यत्वम् , समानजातीयत्वं चावयवानामात्मत्वाभिसम्बन्धादित्येकत्रात्म-१० न्यनन्तात्मसिद्धिः, यथा चावयवक्रियातो विभागात्संयोगविनाशाद्धटविनाशः तथात्मविनाशोपि स्यात्, इत्यप्यपरीक्षिताभिधानम् ; सावयवत्वेन भिन्नावयवारब्धत्वस्य घटादावग्यसद्धेः । न खलु घटादिः सावयवोपि प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगपूर्वको दृष्टः, मृत्पिण्डात् प्रथममेव खावयवरूपाद्यात्मनोस्य १५ प्रादुर्भावप्रतीतेः। न चैकत्र पटादौ स्वावयवतन्तुसंयोगपूर्वकत्वोपलम्भात्सर्वत्र तद्भावो युक्तः, अन्यथा काष्ठे लोहलेख्यत्वोपलम्भावपि तथाभावः स्यात् । प्रमाणवाधनमुभयत्र समानम् ।
किञ्च, अस्य तथाँभूतावयवारब्धत्वम्-आदौ, मध्यावस्थायां वा साध्येत? न तावदादौ; स्तनादौ प्रवृत्त्यभावानुषङ्गात्, तद्धत्वभि-२० लाषप्रत्यभिज्ञानस्सरणदर्शनोंदेरभावात् । तदारम्भकावयवानां प्राक् सतां विषयदर्शनादिसम्भवे तेषामेवाहर्जातवेलायां सत्त्वान्तराणामिव प्रवृत्तिः स्यात् । मध्यावस्थायां तु तत्साधने प्रत्यक्ष
१ व्यापित्वादात्मनः । २ अपेक्ष्येणादृष्टेनापेक्षकस्याणुसंयोगस्य क्रिमयाण उपकारस्तस्मादभिन्नो भिन्नो वा स्यात् ? अभेदे सोपि तज्जन्यः स्यात् । भेदे संबन्धासिद्धिः । अथापकारमुपकारं कृत्वा तत्सम्बन्धीत्यादिपरिकल्पने चानवस्था । अयं संयोगस्योपकार इति न घटते अन्यथातिप्रसङ्गः। यथा संयोगस्य तथान्यस्यापि । तथा चात्मपरमाणुसंयोगस्य नित्यत्वव्याघातः स्यात् । ३ अदृष्टाणुसंयोगयोर्मध्येऽदृष्टस्य परमाणुसंयोगस्य वा। ४ अविशेषतः सर्वत्र तज्जननस्यापि प्रसङ्गात् । ५ आत्मनः। ६ अदृष्टात्माणुसंयोगयोः । ७ परेण । ८ ततश्चाणुसंयोगपरिकल्पनेन किम् । ९ वसः। १० ततश्च स्वाश्रयासंयुक्तमेव परमाण्वादिकमाकृष्यते आत्मना । ततश्च सर्वगतत्वपरिकल्पनेनालमात्मनः। ११ आत्मत्वेन । १२ आत्मनः । १३ उपादानकारणात् । १४ आत्मादिषु । १५ स्वावयवसंयोगपूर्वकत्वम् । १६ वजे आत्मनि च । १७ समानजातीयभिन्नावयव । १८ गर्भावस्थायाम् । १९ संस्कारस्य । २० तस्य आत्मनः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरिक विरोधः । अन्त्यावस्थायां चास्यात्यन्तविनाशे सरणाद्यभावात्स्त. नादौ प्रवृत्त्यभाव एव स्यात् । न चेयं विनाशोत्पादप्रक्रिया कचिद दृश्यते । न खलु कटकस्य केयूरीभावे कुंतचिद्भागेषु क्रिया विभागः संयोगविनाशो द्रव्यविनाशः पुनस्तद्वयवाः केवलास्तद५नन्तरं तेषु कर्मसंयोगक्रमेण केयूरीभाव इति, केवलं सुर्वणकार
का(कारकरा)दिव्यापारे कटकस्य केयूरीभावं पश्यामः । अन्यथा कल्पने च प्रत्यक्षविरोधः।।
न च सावयवशरीरव्यापित्वे सत्यात्मनस्तच्छेदे छेदप्रसङ्गो दोषाय; कथञ्चित्तच्छेदस्येष्टत्वात् । शरीरसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो १० हि तत्प्रदेशानां छिन्नशरीरप्रदेशेऽवस्थानमात्मनश्छेदः, स चात्री
स्त्येव, अन्यथा शरीरात्पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात् । न च छिछन्नावयप्रतिष्ठस्यात्मप्रदेशस्य पृथगात्मत्वानुषङ्गः, तत्रै वानुप्रवेशात् । कथमन्यथा छिन्ने हस्तादौ कम्पादितल्लिङ्गोपलम्भा
भावः स्यात् ? १५ ननु कथं छिन्नाच्छिन्नयोः संघटनं पश्चात् ? न; एकान्तेन
छेदानभ्युपगमात्, पद्मनालतन्तुवविच्छेदस्याप्यभ्युपगमात् । तथाभूतादृष्टवशाच्च तदविरुद्धमेव । ततो यद्यथा निर्वाधबोधे प्रतिभाति तत्तथैव सद्व्यवहारमवतरति यथा स्वारम्भकतन्तुषु प्रतिनियतदेशकालाकारतया प्रतिभासमानः पटः, शरीरे एव २० प्रतिनियतदेशकालाकारतया निर्वाधवोधे प्रतिभासते चात्मेति । न चायमसिद्धो हेतुः; शरीराहिस्तत्प्रतिभासाभावस्य प्रतिपादितत्वात् । उक्तप्रकारेण चानवद्यस्य वाधकप्रमाणस्य कस्यचिद्सम्भवान्न विशेषणासिद्धत्वमिति । तन्न परेषां यथाभ्युपगत
खभावमात्मद्रव्यमपि घटते । २५ नापि मनोद्रव्यम् । तस्य प्रागेव स्वसंवेदनसिद्धिप्रस्तावे निराकृतत्वात् । ततः पृथिव्यादेव्यस्य यथोपवर्णितस्वरूपस्य प्रमाणतोऽप्रसिद्धः 'पृथिव्यादीनि द्रव्याणीतरेभ्यो भिद्यन्ते द्रव्यत्वाभिसम्बन्धात्' इत्यादिहेतूपन्यासोऽविचारितरमणीयः, तत्स्वरूपा सिद्धौ हेतोराश्रयासिद्धत्वात् । वरूपासिद्धत्वाच; द्रव्यत्वाभिस.
१ समानजातीयभिन्नावयवारभ्यत्वं प्रत्यक्षेण न ज्ञायते यतः। २ अग्रे वक्ष्यमाणा। ३ कारणात्। ४ अवयवेषु। ५ क्रिया। ६ केयूरोत्पादः। ७ वयं जैनाः । ८ अवयवापेक्षया। ९ जैनस्य । १० आत्मनि। ११ आत्मन्येव । १२ तस्य मात्मनः। १३ प्रदेशयोः। १४ सङ्घटनकारिकर्मवशात् । १५ शरीरे एव प्रतिनियतदेशकालाकारतया निर्बाधबोधे प्रतिभासमानत्वादिति । १६ वैशेषिकद्वारा ।
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सू० ४।१० गुणपदार्थवादः
५८७ म्बन्धो हि समवायलक्षणो भवताभ्युपगम्यते, न चासौ प्रमाणतः प्रसिद्ध इति । विशेषणासिद्धत्वं च द्रव्यत्वसामान्यस्य यथाभ्युपगंतखभावस्यासम्भवात् । तन्न परपरिकल्पितो द्रव्यपदार्थो घटते।
नापि गुणपदार्थः। स हि चतुर्विशतिप्रकारः परैरिटः। तथाहि"रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्या परिमाणानि पृथकत्वं संयोगविभागौ ५ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छापी प्रयत्नश्च तु गुणाः" [ वैशे० सू० शश६] इति सूत्रसङ्ग्रहीताः सप्तदश, चशब्दसमु. चिताः गुरुत्वद्वत्वस्नेहसंस्कारधर्माधर्मशब्दाश्च सप्तेति । तत्र रूपं चक्षुर्लाह्य पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति । रसो रसनेन्द्रियग्राहाः पृथिव्युदकवृत्तिः। गन्धो ब्राणग्राह्यः पृथिवीवृत्तिः । स्पर्शस्त्व-१० गिन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकज्वलनपवनवृत्तिः।
संख्या त्वेकादिव्यवहारहेतुरेकत्वादिलक्षणा, एकद्रव्या चानेकद्रव्या च । तत्रैकसंख्या एकद्रव्या । अनेकद्रव्या तु द्वित्वादि. संख्या । सा च प्रत्यक्षत एव सिद्धा, विशेषवुद्धश्च निमित्तान्तरापेक्षत्वादनुमानतोपि।
परिमाणव्यवहारकारणं परिमाणम् , महदणु दीर्घ हसमिति चतुर्विधम् । तत्र महद्विविधं नित्यमनित्यं च । नित्यमाकाशकाल. दिगात्मसु परममहत्त्वम् । अनित्यं व्यणुकादिद्रव्येषु । अण्वपि नित्यानित्यभेदाद्विविधम् । परमाणुमनस्सु पारिमाण्डल्यलक्षणं नित्यम् । अनित्यं व्यणुके एव । वंदरामलकबिल्वादिषु तु मह-२० त्खपि तत्प्रकर्षाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽणुव्यवहारः।।
ननु महद्दीर्घत्वयोरूयणुकादिषु प्रवर्त्तमानयोधणुके चाणुत्वहस्वत्वयोः को विशेषः ? 'महत्सु दीर्घमानीयतां दीर्धेषु महदानीयताम्' इति व्यवहारभेदप्रतीतेरस्त्यनयोः परस्परतो भेदः। अणुत्वहखत्वयोस्तु विशेषो योगिनां तद्दर्शिनां प्रत्यक्ष एव । महदादि २५
१ वैशेषिकेण। २ नित्यनिरंशत्वेन। ३ च इति कपुस्तके नास्ति । ख, ग, पुस्तकेभ्यः संयोजितः । ४ एव । ५ विशेषः भेदः। ६ एकादिप्रत्यया विशेषण) ग्रहणापेक्षा विशिष्टप्रत्ययत्वाद्दण्डीत्यादिप्रत्ययवदिति । ७ तत्रैकत्वसंख्या नित्यद्रव्येषु नित्या कार्यद्रव्येष्वनित्या। द्वित्वादिसंख्या तु परार्द्धान्ता अपेक्षाबुद्धिजन्या सर्वत्रानित्या । ८ वर्तुलाकारमित्यर्थः। ९ नन्वणु द्वयणुके एव यदि वर्त्तते तर्हि बदरामलकादिष्वणुपरिमाणव्यवहारः कथमित्याशङ्कायामाह। १० तस्य-अतिशयस्य । ११ उपचरितः । १२ परिमाणयोः। १३ वस्तुषु। १४ वस्तु । १५ महदादिपरिमाणस्य रूपादिभ्योऽभेदो भविष्यतीत्युक्ते सत्याह ।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
२५८८
[ ४. विषयपरि०
च परिमाणं रूपादिभ्योऽर्थान्तरं तत्प्रत्ययविलक्षणबुद्धिग्राह्यत्वा • त्सुखादिवत् ।
संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशात् 'अत्रेदं पृथक्' इत्यपोड्रियते तदपोद्धारव्यवहारकारणं पृथक्त्वं घटादिभ्योऽर्थान्तरं तत्प्रत्ययविल५ क्षणज्ञानग्राह्यत्वात्सुखादिवत् ।
अप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिः संयोगः । प्रातिपूर्विका चाप्राप्तिर्विभागः । तौ च द्रव्येषु यथाक्रमं संयुक्तविभक्तप्रत्यय हेतू ।
'इदं परमिदमपरम्' इति यतोऽभिधानप्रत्ययौ भवतस्तद्यथाक्रमं परत्वमपरत्वं च । वुद्ध्यादयः प्रयत्नान्ताश्च गुणाः सुप्रसिद्धा एव । १० गुरुत्वं च पृथिव्युदकवृत्ति पतनक्रियानिबन्धनम् । द्रवत्वं तु पृथिव्युदकज्वलनवृत्तिः स्प (स्य) न्दनं हेतुः । पृथिव्यनलयोनैमित्ति कैम् । अपां सांसिद्धिकैम् । स्नेहस्त्वऽम्भस्येव स्निग्धप्रत्ययहेतुः ।
१५
संस्कारस्तु त्रिविधो वेगो भावना स्थितस्थापकश्चेति । तत्र वेगाख्यः पृथिव्यप्तेजोवायुमनस्तु मूर्त्तद्रव्येषु प्रयत्नाभिघातविशे१५ षापेक्षात्कर्मणः समुत्पद्यते । नियतदिक्रियाप्रतिब (प्रब) न्धहेतुः स्पर्शवद्रव्यसंयोगविरोधी च । भावनाख्यः पुनरात्मगुणो ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च दृष्टानुभूतश्रुतेष्वप्यर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञाकार्योन्नीयमानसद्भावः । मूर्त्तिमद्रव्यगुणः स्थितस्थापकः, घनावयवसन्निवेशविशिष्टं स्वमाश्रयं कालान्तरस्थायिनमन्यथाव्यवस्थितमपि प्रय२० ततः पूर्ववद्यथावस्थितं स्थापयतीति कृत्वा, दृश्यते च तालपत्रादेः प्रभूततरकालसंवेष्टितस्य प्रसार्यमुक्तस्य पुनस्तथैवावस्थानं संस्कारवशात् । एवं धनुःशाखाश्टङ्गदन्तादिषु भग्नपवर्तितेषु वस्त्रादौ चास्य कार्य परिस्फुटमुपलभ्यत एव । धर्मादयस्तु सुप्र सिद्धा एवेति ।
१ विभागात्पृथक्त्वस्य भेदाभावात्पृथक्त्वप्रतिपादनं किमर्थमित्युक्ते सत्याह । २ पृथक् क्रियते । ३ अस्तु विभागात्पृथक्त्वस्य भेदस्तथापि घटादिभ्योऽभेदो भविष्यतीत्युक्ते वक्ति । ४ अनित्यावेव । ५ अनित्यमेव । ६ अनित्यमेव । ७ अनित्या एव । ८ तच्च पार्थिवाप्याणुषु नित्यं दणुकादिष्वनित्यम् । ९ लाक्षालोहादिषु । १० सर्पिः सुवर्णयोः । ११ अनित्यमित्यर्थः। १२ नित्यमित्यर्थः । आप्याणुपु नित्यमाप्यद्वयणुकादिषु त्वनित्यम् । १३ असर्वगतद्रव्य परिमाणवत्स्वित्यर्थः । १४ कर्मधारयः । १५ वृक्षादिकेन स्पर्शवता द्रव्येण सह वेगाख्यस्य बाणादेः संयोगे सति वेगाख्यः संस्कारः स्वयं विनश्यतीत्यर्थः । १६ आकृष्टमुक्तेषु । १७ स त्रिविधोप्ययं संस्कारो अनित्य एव, धर्माधर्मावात्मविशेषगुणावनित्या वेव, शब्दस्त्वाकाशविशेषगुणोऽनित्य एव । '
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८० ४.१० गुणपदार्थविचारः
५८९ तदेतत्स्वगृहमान्यं परेपाम् : रूपादिगुणानां यथोपवर्णितस्वरूयेणावस्थानासम्भवात् । न खलु रूपं पृथिव्युदकज्वलनवृत्त्येव, वायोरपि तद्वत्तासम्भवात् । तथाहि-रूपादिमानवायुः पौगलिकत्वात् स्पर्शवत्त्वाद्वा पृथिव्यादिवत् । एवं जलानलयोरपि गन्धरसादिमत्ता प्रतिपत्तव्या! रूपरसगन्धस्पर्शमन्तो हि पुद्गलास्तत्कथं ५ तदिकारण प्रतिनियमः १ रुपाद्यविर्भावतिरोभावमात्रं तु तत्राविरुद्धम्, जलकनकादितंप्रयुक्तानले जसरसोगार्शयोस्तिरोभावाविर्भाववत् ।
संख्यापि संख्येयार्थव्यतिरेकेणोपलब्धिलक्षणप्राप्ता नोपलभ्यते इत्यसती खरविषाणवत् । न च विशेषणमसिद्धम् । तस्या १० दृश्यत्वेनेप्टेः । तथा च सूत्रम्-"संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसमवायाच्चाक्षुषाणि" [ वैशे० सू० ४।२११] इति ।
'एकादिप्रत्यया विशेष[णग्रहणापेक्षा विशिष्टप्रत्ययत्वाइण्डी-१० त्यादिप्रत्ययवत्' इत्यनुमानतोपि न संख्यासिद्धिः, यतो यथा 'एको गुणोपि(गः) बहवो गुणाः' इत्यादौ संख्यामन्तरेणाप्येकादिवुद्धिस्तथा घटादिष्वयंसहायादिखभालेष्वेकादिबुद्धिर्भविष्यती त्यलमर्थान्तरभूतयैकादिसंख्यया । न च गुणेषु संख्या सम्भवति; अद्रव्यत्वात्तेषां तस्याश्च गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् । न च २० गुणेषूपचरितमेकत्वादिज्ञानम् , अस्खलवृत्तित्वात् । यदि चाश्रयगता संख्यैकार्थसमवायाहुणेषूपचर्येत; तर्हि 'एकस्मिन्द्रव्ये रूपा
यो वहवो गुणाः' इति प्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात् , तदाश्रयद्रव्ये वहुत्वसंख्याया अभावात् । 'बट पदार्थाः' इत्यादिव्यपदेशे च किं निमित्तमित्यभिधातव्यम् ? न ह्यत्रैकार्थसमवायिनी संख्या २० सम्भवति; तया सह षट्पदार्थानां क्वचित्समवायाभावात् । अस्तु वा संख्या, तथाप्यस्याः कथं गुणत्वसिद्धिः सत्त्वादिवत् षट्वपि पदार्थेषु प्रवृत्तेः?
१ पृथिव्यादीनाम् । २ पृथिव्यामेव गन्ध इत्यादिः । ३ तर्हि सर्वत्र तेषामाविर्भावः कुतो न स्यादित्युक्ते सत्याह । ४ उष्ण। ५ अग्नेरपत्यं प्रथमं सुगर्णमित्यागमतः प्रसिद्धतेजसत्वं कनकादीनां ततः कथमुक्तं कनकादिसंयुक्तानल इत्यारेकायामाह कनकेपि पृथिव्यंशोस्तीति । ६ परस्य । ७ अत्र दण्डपुरुषयोः संयोगो विशेषः । ८ निर्गुणा [गुणा] इति वचनात्। ९ संख्यारहितेष्वित्यर्थः। १० अबाधित। ११ आश्रयगतद्रव्यस्यैकत्वात् । १२ केवलद्रव्यसमवेता। १३ द्रव्यलक्षणेऽर्थे ।
प्र. क. मा० ५.
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५९०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० ननु यदि संख्या गुणो न स्यात्तनित्यत्वमसमवायिकारणत्वं चास्या न स्यात् । अस्ति च तदुभयम् । तथा चोक्तम्-“एकादिव्या वहारहेतुः संख्याः । सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च । तत्रैकदव्यायाः सलिलादिपरमाणुरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः। ५ सलिलादयश्चादिपरमाणवश्चेति विग्रहः । अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परार्धान्ता। तस्याः खल्वेकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः, अपेक्षावुद्धिनाशाच्च विनाशः क्वचिदाश्रयविनाशार्दुभयविनाशाच्चेति चार्थः । असमवायिकारणत्वं च द्वित्ववहुत्वसं. ख्यायाः व्यणुकादिपरिमाणं प्रति" [प्रश० भा० पृ० १११-११३] १० इति; एतदपि मनोरथमात्रम्, भेद्वख्याः कारणत्वाभावात् । यथैव हि कार्यभिन्नतायां कारणभिन्नताया असमवायिकारणत्वं अवता नेष्यते तथैकत्वस्यापि तन्नेष्टव्यं तस्याऽभेदपर्यायत्वात् । अभेदभेदौ च स्वात्मपरात्मापेक्षौ रुपादिष्वपि भवतः । यथा
चैकमभिन्नमिति पर्यायस्तथालेकं भिन्नमित्यपि । तथा च द्वित्वा. १५दिरप्यनेकत्वपर्यायः, तस्योत्पत्त्यादिकल्पना न कार्या।
नन्वेव सर्वत्र 'द्वे त्रीणि' इत्यादिप्रतिभासप्रसङ्गात् प्रतिभासप्रवि.
१ उत्तरसंख्योत्पत्तौ प्राक्तनसंख्याऽसमवायिकारणं, द्रव्यं समवायिकारणमपेक्षावु. द्धिनिमित्तकारणमिति । २ आदिशब्दोत्र लुप्तो द्रष्टव्यः। ३ सलिलादि( कार्यलक्षण) रूपादीनामनित्यत्वनिष्पत्तिर्यथा तथाऽनित्यैकद्रव्यगताया एकसंख्याया नित्यत्वनिपत्तिः, यथा च जलादिपरमाणुरूपादीनां ( कारणरूपाणाम् ) तथा नित्यैकद्रव्यगताया एकसंख्याया नित्यत्वमिति भावः। ४ कार्यरूपाः। ५ कारणरूपपरमाणवः। ६ द्वित्वादिसंख्यां प्रत्यपेक्षाबुद्धेः कारणत्वमेकत्वसंख्यायास्त्वसमवायिकारणत्वमिति भावः। ७ इमौ द्वावनी बहवः। ८ संख्येय आश्रयः । ९ संख्येयस्य च । १० संख्याम् । ११ उत्तरगुणं प्रति प्राक्तनगुणस्यासमवायिकारणत्वाभ्युपगमात् । १२ द्वित्वादिसंख्या प्रति । १३ द्वित्वादिसंख्यां प्रति । १४ अभेदपर्यायत्वेप्यसमवायिकारणत्वं कुतो न भवतीत्युक्ते सत्याह । १५ एकनानात्वम् । १६ रूपस्य स्वरूपापेक्षयाऽभेदः, परापेक्षया भेदः, एवं रसादिपु वाच्यम् । १७ अभेदोऽसमवायिकारणं न भवति द्रव्यादन्यत्र वृत्तिमत्त्वा दवत्सत्त्वादिवद्वेति । १८ अपिशब्देन द्रव्यं ग्राह्यं तत्रापि स्वपररूपापेक्षयाऽभेदभेदौ। १९ आदिशब्देन नाशस्थितिसंग्रहः। २० द्वित्वादेरनेकपर्यायत्वे वस्तुस्वरूपमेवायातम् , तस्य च खकारणकलापादुत्पत्तेरनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरित्यादि निरर्थकमिति भावः । २१ द्वित्वादेरनेकत्वपर्यायत्वप्रकारेण । २२ त्रिचतुःपञ्चषडादिवस्तुषु । २३ द्वित्वादेरनेकपर्यायत्वात्।
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सू० ४।१०] गुणपदार्थविचारः ६९१ भागो न स्यादऽनेकत्वस्याविशिष्टत्वात् ; तन्न; अपेक्षावुद्धिविशेषवत्तत्सिद्धेरप्रतिबन्धात् । यथैव बनेकविषयत्वाविशेपेपि काचि. दपेक्षाबुद्धिः द्वित्वस्योत्पादिका काचित्रित्वस्य । न ह्यपेक्षाबुद्धेः पूर्व द्वित्वादिगुणोस्ति; अनवस्थाप्रसङ्गात् , अपेक्षावुद्धिजनितस्य वा द्वित्वादेरानर्थक्यानुपङ्गात् । तथा द्वित्वादिप्रत्ययविभागोपि भवि-५ ष्यति । यत एक चाभिनभिन्नत्वलक्षणा द्विशेषाद पेक्षाबुद्धिविशेषस्तत एवैकत्वादिव्यवहार मेदोषि अविष्यति इत्यलनन्तड्डनकत्वादिगुणेन ।
एवं च गुणेष्वप्येकत्वादिव्यवहारोऽकष्टकल्पनः स्यात् । गाषितव्यवहारश्च 'षट्पञ्चविंशतिभिः सार्ध शतम्' इत्यादिः १० सुगमः । तस्मादभिन्नं तावदेकमित्युच्यते, तदपरेणाभिन्न सह द्वे इति, ते त्वरेणाभिन्नेन सह त्रीणीत्येवमादिः समयो लोके प्रसिद्धो गणितप्रसिद्धश्चैकत्वादिव्यवहारहेतुर्द्रष्टव्य इति ।
अथ द्वित्ववहुत्वसंख्याया व्यणुकादिपरिमाणं प्रत्यसमवायिकारणत्वोपपत्तेः सद्भावसिद्धिः, तन्नः अस्यास्तदसमवायिका-१५ रणत्वे प्रमाणाभावात् । परिशेषोस्तीति चेत् ; न; कारणपरिमाणस्यैवासमवायिकारणत्वसम्भवाद्रूपादिवत्।
ननु परमाणुपरिमाणजन्यत्वे घ्यणुकेपि परमाणुत्वप्रसङ्गः स्यात् । तन्न; कार्यकारणयोस्तुल्यपरिमाणत्व्ये दृष्टान्ताभावात् । सर्वत्र हि कारणपरिमाणादधिकमेव कार्यपरिमाणं दृश्यते । २० परिमाणवच्च कर्मण्यप्यसमवायिकारणत्वमस्याः स्यात् । दृश्यते हि द्वाभ्यां बहुभिर्वा पाषाणाधुत्थापनम् । न चात्र संख्यायाः कारणत्वं भवद्भिरिष्टम् । अथास्यास्तत्रापि निमित्तत्वमिष्यते; को वै निमित्तत्वे विप्रतिपद्यते ? सामान्यादीनामपि तदभ्युपगमात् । असमवायिकारणत्वं तु तस्याः परिमाणवटुत्थापनादि-२५ कर्मण्यभ्युपगन्तव्यम् , न चान्यत्रीपीत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
१ उत्तरमिदम्-द्वित्वादिसंख्यां प्रति करणत्वेनाभिमताया अपेक्षाबुद्धेरनेकत्वाविशेषेपि भेदो यथा तथा द्वित्वादिप्रत्ययविभागोपीति । २ अपेक्षाबुद्धेः पूर्वमेव द्वित्वादिगुणोस्तीत्युक्ते सत्याह । ३ द्वित्वादिगुणस्यापि द्वित्वादिकमपरसाद्वित्वादिगुणात्तस्याप्यपरस्मादिति । ४ भिन्नाभिन्नत्वलक्षणाद्विशेषादेकत्वादिभवनप्रकारेण । ५ संख्येयात् । ६ एकेन । ७ अपरसंख्येयात् । ८ सङ्केतः। ९ व्यणुकादिपरिमाणमसमवायिकारणकं सद्रूपकार्यत्वाद्धटवदित्यनुमानम् । १० कारणरूपादेर्यथा कार्यरूपादिकं प्रत्यसमवायिकारणत्वम् । ११ द्वयणुकादिपरिमाणस्य । १२ परमाणुपरिमाणस्वरूपवत् । १३ पाषाणाधुत्थापनलक्षणे। १४ नराभ्याम् । १५ परैः । १६ विवादं करोति । १७ पुरुषत्वादीनाम् । १८ अभ्युपगन्तव्यं नेति सम्बन्धः । १९ परिमाणे । २० संख्यायाः परिमाणं प्रत्यसमवायिकारणत्वनिराकरणेन ।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे [ ४. विषयपरि०
यदप्युक्तम्- महदादिपरिमाणं रूपादिभ्योर्थान्तरं वत्प्रत्ययविलक्षणबुद्धिप्राह्यत्वात्सुखादिवत् तद्व्ययुक्तम्; हेतोरसिद्धेः, घटाद्यर्थव्यतिरेकेण महदादिपरिमाणस्याध्यक्षप्रत्ययग्राह्यत्वेनासं वेदनात् ।
५९२
५ असत्यपि महदादौ प्रासादमालादिषु महदादिप्रत्ययप्रादुर्भा प्रतीतेरनैकान्तिकञ्चायम् । न च यत्रैव प्रासादादौ समवेतो मालाख्यो गुणस्तत्रैव महत्त्वादिकमपि इत्येकार्थसमवायवशात् 'महती प्रासादमाला' इतिप्रत्ययोत्पत्तेर्नानैकान्तिकत्वम् ; स्वैसम - यविरोधत् । न खलु प्रासादो भवद्भिरवयविद्रव्यमभ्युपगम्यते १० विजातीयानां द्रव्यानारम्भकत्वात् । किं तर्हि ? संयोगात्मको गुणः । न च गुणः परिमाणवान्, "निर्गुणा गुणा:" [ इत्यभिधानात् । ततो मालाख्यस्य गुणस्य प्रासादादिष्वभावात् 'प्रासादमाला' इत्ययमेव प्रत्ययस्तावद्युक्तः, दूरत एव सा 'महती ह्रस्वा वा' इति प्रत्ययः, मालायाः संख्यात्वेन प्रासादानां १५ संयोगत्वेन महदादेश्च परिमाणत्वेन परैरभ्युपगमात् ।
1
अथ माला द्रव्यस्वभावेष्यते, तथापि द्रव्यस्य द्रव्याश्रयत्वा • नास्याः संयोगस्वरूपप्रासादाश्रयत्वं युक्तम् । अथासौ जातिख• भावेष्यते; तर्हि प्रत्याश्रयं जातेः समवेतत्वादेकस्मिन्नपि प्रासादे 'माला' इति प्रत्ययोत्पत्तिः स्यात् । 'एका प्रासादमाला महती २० दीर्घा हवा वा' इत्यादिप्रत्ययानुपपत्तिञ्च तदवस्थैव मालायां
तदाश्रये च प्रासादादावेकत्वादेर्गुणस्याऽसम्भवात् । बह्वीषु च प्रासादमालसु 'माला माला' इत्यनुगतप्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात्, जातावऽपरापरजातेनुपपत्तेः । न चौपचारिकोयं प्रत्ययोऽस्वलट्टत्तित्वात् । न हि मुख्यप्रत्ययाविशिष्टस्यौपचारिकत्वं युक्तमति २५ प्रसङ्गीत् । अत एव मालादिषु महत्त्वादिप्रत्ययोपि नौपचारिकः । ततो यथा स्वकारणकलापात्प्रासादादयो महदादिरूपतयोत्पन्ना
१ गुणरूपे । २ आदिना पर्वतमालादिषु । ३ अन्यथा । ४ गुणे गुणसद्भावाभ्युपगमात् । ५ वैशेषिकैः। ६ काष्ठादीनाम् ७ प्रासादलक्षणावयविद्रव्यम् । तस्य । ८ तन्त्वादिना सजातीया ये तन्त्वादयस्त एव पटाद्यवयविद्रव्यारम्भका इति भावः । ९ बहुत्वलक्षणेन । १० काष्ठादिभिः । ११ वैशेषिकैः । १२ बसः । १३ एकस्मिन्नपि प्रासादे मालायाः सद्भावात् । १४ महत्त्वगुणयुक्ता । १५ द्वित्वबहुत्वादेः । १६ जातिरूपासु । १७ निस्सामान्यानि सामान्यानीति वचनात् । १८ मुख्यश्चासौ प्रत्ययश्च खण्डमुण्डादिषु गौगौरित्यादिरूपस्तेनाविशिष्टोऽनुगतत्वेन समानस्तस्य । १९ मुख्यस्याप्यौपचारिकत्वप्रसङ्गात् ।
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सू० ४।१० गुणपदार्थविचारः स्तत्प्रत्ययगोचरास्तथा घटायोपायलमर्थान्तरभूतपरिमापरिकल्पनया।
यदप्युक्तम्-‘वदामलकादिपु भात्तोऽणुव्यवहारः' इत्यादि तदप्युक्तिमात्रम् ; मुख्यगौणप्रविभागस्यानावनाणत्वात् । न खलु यथा सिंहमाणवकादिषु मुख्यगौणविवेकप्रतिपत्तिः सर्वपामविगाने नास्ति तथा 'यणु के एकात्वहस्वर में मुख्येऽन्यत्र भाक्ते' इति कस्यचित्प्रतिपत्तिः । प्रक्रियालानरच लवेशालेषु सुलभत्वानातो विवादविवृत्तिः।
आपेक्षिकत्वाच्च परिमाणस्यागुणत्वम् । न हि रूपादेः सुखादेर्दा गुणस्यापेक्षिकी सिद्धिः । योपि नीलनीलतरादेः सुखसुखतरादे.१०
ऽऽपेक्षिको व्यवहारः सोऽपि तत्प्रकर्षापकर्षनिवन्धनो न पुनर्गुणस्वरूपनिवन्धनः। ततो हवदीर्घत्वादेः संस्थानविशेषाद्व्यतिरेकाभावात्कथं गुणरूपता? तद्विशेपस्यापि कथञ्चिद्भेदाभिधाने व्यस्त्रचतुरस्रादेरपि भेदेनाभिधानानुपङ्गात्कथं तंञ्चतुर्विधत्वोपवर्णनं संशोभतेति ?
यञ्चोक्तम्-पृथक्त्वं घटादिभ्योर्थान्तरं तत्प्रत्ययविलक्षणहीन. माहत्वात्सुखादिवत् तदप्युक्तिमात्रम्; हेतोर सिद्धत्वात् । न खलु खहेतोरुत्पन्नाऽन्योन्यव्यावृत्तार्थव्यतिरेकेणार्थान्तरसूतस्य पृथक्त्वस्याध्यक्षे प्रतिभासोस्ति, अंत एवोपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यास्यानुपलम्भादसत्त्वम्। __ रूपादिगुणेषु च 'पृथक्' इतिप्रत्ययप्रतीतेरनेकान्तः। न हि तत्र पृथक्त्वमस्ति गुणेषु गुणासम्भवात् । न च गुणेषु "पृथक्' इति प्रत्ययो भक्तः, मुख्यप्रत्ययाविशिष्टत्वात् । न च स्वरूपेणा (ण) व्यावृत्तानोमर्थानां पृथक्त्वादिवेशात्पृथग्रूपता घटते; भिन्नाभिन्नपृथग्रूपताकरणेऽकिञ्चित्करत्वात् । भेदप-२५ क्षे हि सम्वन्धासिद्धिः। अभेदपक्षे तु पृथग्रूपस्यार्थस्यैवोत्पत्तेरान्तरभूतपृथक्त्वगुणकल्पनावैयर्थ्यम् । प्रयोगः-ये परस्परव्या
१ परिमाणे । २ अविप्रतिपत्त्या। ३ द्वयणुके एवाणुत्वहस्खत्वे मुख्येऽन्यत्रान्यथेति प्रक्रियातो मुख्यगौणविवेकप्रतिपत्तिर्भविष्यतीत्युक्ते सत्याह। ४ अपेक्षाजनितत्वात् । ५ आशङ्कनीया। ६ आपेक्षिकत्वात्परिमाणस्य गुणत्वं नास्ति यतः । ७ परिमाणस्य । ८ व्यतिरेको भेदः । ९ तस्य परिमाणस्य । १० पृथक्त्वमिति । ११ घटात्पटो व्यावृत्त इति। १२ तव्य तिरेकेणार्थान्तरभूतस्य पृथक्त्वस्याध्यक्षे प्रतिभासो नास्ति यतः । १३ गगनकमलवत् । १४ घटपटादीनाम् । १५ आदिशब्देन विभागपरिग्रहः । १६ कथम् ? तथा हि ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
४. विषयपरि०
त्तात्मानस्ते स्वव्यतिरिक्तपृथक्त्वानाधाराः यथा रूपादयः, पररूपरव्यावृत्तात्मानश्च घटायोर्था इति ।
ततो विभिन्नखभावतयोत्पन्नार्थस्यैव 'पृथक् इतिप्रत्ययविषयत्वप्रसिद्धरलं पृथक्त्वगुणकल्पनया। पृथक्प्रत्ययस्याप्यसाधारण५धर्मादेवोपपत्तेः, यदा ह्येकं वस्त्वितरेभ्यो भिन्नं पश्यति प्रतिपत्ता तदा एकं पृथक' इति प्रतिपद्यते । यदा तु द्वे वस्तुनीतरेभ्यो विलक्षणैकधर्मयोगाद्विभिन्ने पश्यति तदा 'द्वे पृथक्' इति मन्यते । यदा त्वेकदेशत्वादिना धर्मणेतरेभ्यो बहूनि भिन्नानि पश्यति तदा 'एतान्येतेभ्यः पृथक् इति प्रतिपद्यते, यथा रूपाद्यो द्रव्या१०त्पृथगिति। __ संयोगस्तु समवायनिराकरणप्रघट्टके प्रतिषेत्स्यते । तद्भावात् 'प्रातिपूर्विका अप्राप्तिर्विभागः' इत्यपि निरस्तम् । न हि प्राग्भावि. सान्तररूपतापरित्यागेन निरन्तररूपतयोत्पन्नवस्तुव्यतिरेकेणान्यः संयोगः संयुक्तप्रत्ययविषयोनुभूयते । अविच्छिन्नोत्पत्ति १५कमेव हि वस्तु निरन्तरप्रत्ययविषयः निरन्तरोपरचितदेवदत्त
यज्ञदत्तगृहवत् । न खलु गृहयोः परेणापि संयोगगुणाश्रयत्व. मिष्टम् , निर्गुणत्वाहुणानाम् , तयोश्च संयोगात्मकत्वेन गुणत्वात् । नापि विच्छिन्नोत्पन्नवस्तुव्यतिरेकेणान्यो विभागो विभक्तप्रत्ययविषयो हिमवद्विन्ध्यवत् । न हि तयोविभागाश्रयत्वं प्राप्तिपूर्वि२० काया अप्राप्तर्विभागलक्षणायास्तयोरभावात् ।
प्रयोगः-या संयुक्ताकारा बुद्धिः सा भवत्परिकल्पितसंयोगानास्पद्वस्तुविशेषमात्रप्रभवा यथा 'संयुक्तौ प्रासादौ' इति बुद्धिः, संयुक्ताकारा च 'चैत्रः कुण्डली' इत्यादिवुद्धिरिति । यद्वा, याऽनेकवस्तुसन्निपाते सति संमुत्पद्यते सा भवत्परिक२५ल्पितसंयोगविकलानेकवस्तुविशेषमात्रभाविनी यथाऽविरलाऽव. स्थिताऽनेकतन्तुविषया बुद्धिः, तथा च विमत्यधिकरणभावापन्ना संयुक्तवुद्धिरिति। तथा मेषादिषु विभक्तबुद्धिर्विभागरहितपदार्थमात्रनिवन्धना
१ खव्यतिरिक्तपृथक्त्वानाधारा घटादयो यतः । २ वस्तुव्यतिरिक्तपृथक्त्वासम्भवात्कथं पृथक्त्वप्रत्ययोत्पत्तिरित्युक्त सत्याह । ३ असाधारण: तन्मात्रवृत्तिः। ४ आदिना कालत्वस्वरूपत्वग्रहः । ५ भिन्नरूपतेत्यर्थः। ६ अभिन्नरूपतयेत्यर्थः । ७ अपृथक् । ८ न केवलमस्माभिः । ९ गृहस्य गुणत्वमसिद्धमित्याह । १० इन्द्रियाणामनेकवस्तुमिः सह सन्निपाते सन्निकर्षः समुत्पद्यते इत्यर्थः । ११ अयमस्मान्मेषाद्भिन्नो मेष इत्यादिप्रकारेण।
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गुणपदार्थविचारः
सू० ४।१० ]
विभक्तत्वादनेकपदार्थसन्निधानांयत्तोदयत्वाद्वा देवदन्तयज्ञदत्त गृहविभागबुद्धिवद् हिमवद्विन्ध्यविभागवुद्धिवद्धा ।
सत्यपि वा संयोगे विभागस्य तद्भावलक्षणत्वान्न गुणरूपता । कथमन्यथा पुत्र विरनिवृत्तेपि संयोगे विभक्तप्रत्ययः स्यात् ? न खलु तत्र विभागः संभवति, अस्य कियत्कालस्थाचिगुणत्वेना-५ भ्युपगमात्। कथं वा हिमवद्विन्ध्यादी संयोगेऽनुत्पन्नपि विभक्तप्रत्ययः स्यात् संयोगाभावात् ? व्यतिरिकेविभागस्वरुपत्य कचिदप्यनुपलम्भानोपचारकल्पनापि साध्वी ।
५९५
विभागाभावे कुतः संयोग निवृत्तिरिति चेत् ? 'कर्मण एव' इति ब्रूमः । 'कर्ममात्रादपि तन्निवृत्तिः स्यात्' इत्यप्यदोषः : १० संयोगमात्रनिवृत्तेरिटत्वात् । संयोगविशेपनिवृत्तिस्तु कैर्मविशेषात्, त्वमेते ततो विभागविशेषोत्पत्तिवत् । कर्मणः संयोगोत्पादकत्वात्कथं तन्निवर्तकत्वमिति चेत् ? तर्हि हस्तवाणादिसंयोगस्य कैर्मोत्पादकत्वोपलम्भात् कथं वृक्षादौ वाणादिसंयो गस्य तन्निर्वैर्तकत्वं स्यात् ? अन्यस्य तन्निवर्तकत्वमन्यत्रापि समानम् । न खलु येनैव कर्मणा यः संयोगो जनितः स तेनैव निवर्त्यते इति ।
१५
ऍतेन विभागजविभागोपि चिन्तितः । तस्यापि संयोगाभावरूपस्य क्रियात एवोत्पत्तिप्रसिद्धेः । ननु यदि विभागजविभागो न स्यात्तर्हि हस्तकुड्यसंयोगविनाशेपि शरीरकुड्यसंयोगविनाशो न२० प्राप्नोति; तन्न; हस्तकुख्यसंयोगव्यतिरेकेण शरीरकुड्यसंयोगस्यैवासंभवात् । हस्तकुड्यसंयोगादेवासौ कल्प्यते इति चेत्; तर्हि हस्तकर्मदर्शनाच्छरीरेपि कर्म कस्मान्न कल्प्यते तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् ?
१ अनेकपदार्थै: सह सन्निकर्ष इन्द्रियाणाम्, तस्यायत उदयो यस्या इति वाक्यम् । २ विभागस्य । ३ यतो यत्र संयोगपूर्वको विभक्तप्रत्ययस्तत्रैव विभागव्यवहारो युज्यते, न चानयोः प्राकू संयोगः पश्चाद्विभाग इति । रिक्तस्य=वस्तुनः सकाशाद्भिन्नरूपस्य । ५ क्वन्विन्मुख्यत्वेनाप्रसिद्धस्योपचाराभावात्, सति संभवेन्यत्र निमित्तप्रयोजनवशादुपचारः प्रकल्प्यते यतः । ६ क्रियातः ।
४ व्यति
७ T: 1 ८ कस्माच्चिदेव कर्मण इत्यर्थः । ९ तस्य = संयोगस्य । १० जैनानाम् । ११ यथा द्रव्यारम्भक ( परमाणु ) संयोगविशेष निवृत्तिर्भिद्यमान वंशाद्यवयविद्रव्यस्यावयवक्रियात इति संबन्धः । १२ तव वैशेषिकस्य । १३ अत्र देशा देशान्तरप्राप्तिलक्षणमेव कर्म गृह्यते । १४ वृक्षादौ संयुज्य बाणादिः पुनर्न ततोप्रदेशं यातीत्यर्थः । १५ संयोगनिवृत्तेः कर्मजत्वप्रतिपादनेन ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० यच्चोच्यते तत्प्रसिद्धयेऽनुमानम्-विवक्षितावयवक्रियाऽऽकाशादिदेशेभ्यो विभाग न करोति, व्यारम्भसंयोगविरो. धिविभागोत्पादकत्वात् , या पुनराकाशादिदेशविभागकी सा संयोगविशेषनिवर्त्तकविभागजनिकापि न भवति यथाजलि५क्रियेति । यदि भिद्यमानवंशाद्यवयविद्रव्यस्यावयवक्रिया आकाशादिदेशेभ्यो विभागं कुर्यात् तर्हि वंशादिद्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादकमेवास्या न स्यादगुल्याद्यवयविद्रव्यकियावत् । ततोऽवयविद्रव्यस्याकाशादिदेशविभागोत्पादकोऽ. विभागोऽभ्युपगन्तव्यः, इत्यप्यसाम्प्रतम्, वश्यं विभागोत्पा१० दकत्वस्यासिद्धत्वात् । क्रियात एव संयोग निवृत्तरुक्तत्वात् । अथ 'अवयविनस्तक्रियाऽऽकाशादिदेशसंयोग न निवर्त्तयति द्रव्यारम्सकसंयोगनिवर्त्तकत्वात्' इतीमत्र विवक्षितम् ; तथाप्यसाधारणो हेतुः; सपक्षेप्याकाशादिदेशसंयोगानिवर्त्तके रूपादौ
वृत्तेरभावात् । न चावयवसंयोगादवयविनः संयोगोन्यः; तद्भेदै१५ कान्तस्य प्रागेव प्रतिक्षेपात्, विनाशोत्पादप्रक्रियायाश्च कृतो. 'त्तरत्वात् । तन्न विभागो घटते।।
नापि परत्वापरत्वे; परापरप्रत्ययाभिधानयोस्तदन्तरेणापि रूपादौ सम्भवात् । तथाहि-क्रमोत्पन्ननीलादिगुणेषु 'परं नीलमपरं च' इति प्रत्ययोत्पत्तिः असत्यपि परत्वापरत्वलक्षणे गुणे दृष्टा २०गुणानां निर्गुणतयोपगमात्, तथा घटादिष्वपि स्यात् । अथात्र दिकालकृतः परापरप्रत्ययः, ननु घटादिष्वप्यसौ तत्कृतोस्तु विशेषाभावात् । तथा च प्रयोगः-योयं परापरादिप्रत्ययः स परपरिकल्पितगुणरहितार्थमात्रकृतक्रमोत्पाव्यवस्थानिबन्धनः, परा
परप्रत्ययत्वात् , रूपाँदिषु परापरप्रत्ययवत् । 'विप्रकृष्टं परं संनि२५कृष्टमपरम्' इति चानयोरेकार्थत्वान्न मेदं पश्यामः । ततश्चायुक्त
१ भिधमानवंशाद्यवयविद्रव्यस्य। २ भिद्यमानवंशाधवयविन इति शेषः । ३ द्रव्यं वंशादि । ४ परमाणु। ५ प्रसारणसङ्कोचनरूपा। ६ द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिवि. भागोत्पादकत्वं च स्यादाकाशादिदेशेभ्यो विभागं च कुर्यादिति सन्दिग्धानैकान्तिकत्वे सत्याह। ७ विभागाद्विभागो जात इत्यर्थः । ८ जैनादिना । ९ तर्हि विभागाभावे संयोगनिवृत्तिः कथमिति शङ्कायामाह । १० अनैकान्तिकः । ११ तयोः अवयवावयविनोः । १२ अवयवेषु क्रिया क्रियातः संयोगः संयोगादवयविन उत्पत्तिरिति प्रक्रियातस्तयोर्भेद इत्युक्ते सत्याह । १३ द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादकत्वसाधनमसिद्धं यतः । १४ न तु स्वाभाविकः । १५ गुणौ परत्वापरत्वलक्षणौ । १६ अर्थो दिक्काललक्षणः । १७ गुणरूपेषु। १८ परविप्रकृष्टयोरपरसन्निकृष्टयोश्च ।
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सू० ४.१०] गुणपदार्थविचारः ५९७ सुक्तम्-'विप्रकृष्टसन्निकृष्टवुद्धिभ्यां परत्वापरत्वयोरुत्पत्तिः' इति । न हि घटबुद्धिमपेक्ष्य कुम्म उत्पद्यते इति युक्तम् । नापि पर्यायशब्दभेदादर्थो भिद्यते इति ।
किञ्च, सामान्येषु महापरिमाणाल्पपरिमाणगुणेषु च महदल्पाधारत्ववुद्ध्यापेक्षयोः परत्वापरत्वयोरुत्पत्तिः कल्प्यतामविशेषात् । ५
किच, परत्वापरत्वयोर्गुणत्वनभ्युपगच्छता मध्यत्वं च गुणोभ्युपगन्तव्यः कालदिकृतमध्याव्यवहारत्यायन समानत्वात् ।
सुखदुःखेडछादीनां चाबुद्धिरूपले रूपादेिवकाल्गुपता युक्ता, बुद्धिरूपत्वे चातो मेदेनाभिधानमयुक्तम् । कंचिद्विशेषनादाय वुद्ध्यात्मकानामप्यतो भेदेनाभिधाने अभिधाना(धादी)दीलामपि १० भेदेनाभिधानं कार्यम् । इत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
गुरुत्वादीनां तु पुद्गलगुणत्वं युक्तमेव । 'अतीन्द्रियं गुरुत्वं पातोपलम्भेनानुमेयत्वात्' इत्येतन्न युक्तम् । करतलाद्युपरिस्थिते द्रव्यविशेष पातानुपलम्भेपि गुरुत्वस्य प्रतिभासनात् । रजःप्रभृतीनामपि गुरुत्वं कस्मान्न गृह्यते इति चेत् ? ग्रहणायोग्यत्वात् । १५ तावतैवातीन्द्रियत्वे गन्धरसादीनामप्यतीन्द्रियत्वं स्यात्। क्वचिद्दरे तदाश्रयस्यानफलादेः प्रत्यक्षत्वेपि तेषां ग्रहणाभावादिति ।।
पृथिव्यनलयोरप्यस्ति द्रवत्वम् । इत्यनुपपन्नन् । सुवर्णादीनाम् "अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णम्"
इत्यागमतः प्रसिद्धतैजसत्वानां जतुप्रभृतिपार्थिवद्रव्याणां चाप्यस्यैव द्रवत्वस्य संयु-२० क्तसमवायवशात्प्रतीतिसम्भवात् ।
अथ 'सर्व पार्थिवं तैजसं च द्रव्यं द्रवत्वसंयुक्तं रूपित्वात्तोयवत्' इत्यनुमानात्तस्य द्रवत्वसिद्धिः, तन्न प्रत्यक्षेण स्प (स्य) न्दनकर्मानुपालसेन च बाधितविषयत्वात् । अथेत्थन्धर्मकं तत्र द्रवत्वं जातं यत्प्रत्यक्षं न भवति स्प (स्य) न्दनक्रियां च न २५ करोतीत्युच्यते; तर्हि गुरुत्वरसावप्येवंधर्मको रूपित्वादेव किन्न तेजसोभ्युपगम्येते तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् ? तथा चाऽस्यो - गतिखभावता न स्यात्, 'रसः पृथिव्युदकवृत्तिः' इत्यस्य च विरोध इति।
१ परापररूपेषु इत्यर्थः। २ उभयत्र अपेक्षाबुद्धेः । ३ आदिना मस्तकस्कन्धादिग्रहणम् । ४ आदिपदेन इरितालरीतिकाग्रहणम् । ५ जलीयस्य । ६ प्रत्यक्षौ न भवतः पतनादिक्रियां च न कुरुत इति । ७ प्रत्यक्षेण पतनादिकर्मानुपलम्भेन च बाधितविषयत्वात् तेजसो गुरुत्वं रसत्वमित्याक्षेपः, अथेत्थकर्मकं तेजसि गुरुत्वं रसत्वं च जातं यत्प्रत्यक्षं न भवति तत्पतनादि क्रियां च न करोतीति समाधानम् । ८ तेजोद्रव्यस्य गुरुत्वरसत्वोपगमे च। ९ तेजस्यपि रसस्य भावात् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० 'स्नेहोऽम्भस्येव' इत्याप्ययुक्तम् । वृतादेरपि लोके वैद्यकादिशास्त्रे च स्निग्धत्वेन प्रसिद्धत्वात् । घृतादावन्यनिमित्तत्केनौपचारिकः स्निग्धप्रत्ययः, इत्यप्यसाम्प्रतम्, विपर्ययस्यामि कल्पायितुं शक्यत्वात् । तथाहि-तोयसम्पर्कप्योदनादौ च स्निग्धप्रत्ययो नास्ति ५घृतादिलस्पर्क तु स्निग्धप्रत्ययः सर्वेषामस्त्येवेति । कणिकादौ तोयस्य वन्धहेतुत्वोपलम्भात्तस्यैव स्नेहो विशेषगुणः; इत्यप्यसारम् ; भवता स्नेहरहितत्वेनाभ्युपगतस्यापि क्षीरजतुप्रभृतेर्वन्धहे. तुत्वेन प्रतीतेः।
स्नेहस्य गुणत्वाभ्युपगमे च काठिन्यमार्दवादेरपि गुणत्वाभ्यु१०पगमः कर्तव्यः, तथा च तत्संख्याव्याघातः स्यात् । ननु काठि. न्यादेः संयोगविशेषरूपत्वात्कथं गुणसंख्याव्याघातहेतुत्वम् ? तथा चोक्तम्-"अवयवानां प्रशिथिलसंयोगो मृदुत्वम्" [
] इत्यादिः तदप्यसङ्गतम् । चक्षुषा संयोगेषु प्रतीयमानेष्वपि मार्दवादेरप्रतिभासनात् । यो हि यद्विशेषः स तस्मिन्प्रतीयमाने १५प्रतीयत एव यथा रूपे प्रतीयमाने तद्विशेषो नीलादिः, न प्रती
यते च संयोगेषु प्रतीयमानेष्वपि काठिन्यादिः, तस्मानासौ तद्विशेष इति । कटाद्यवयवानां प्रशिथिलसंयोगेपि मृदुत्वाप्रतीतेश्च, विशिष्टचर्माद्यवयवानामप्यप्रशिथिलसंयोगित्वेपि मृदुत्वोपलब्धेश्चेति २० ननु काठिन्यादेः संयोगविशेषरूपत्वाभावे कथं कठिनमेव
कणिकादिगव्यं मर्दनादिना मृदुत्वमापाद्यते ? इत्यप्यसुन्दरम्, न हि तदेव द्रव्यं मृदु भवति । किं तर्हि ? पूर्वकठिनपर्याय निवृत्ती मृदुपर्यायोपेतं द्रव्यान्तरमुत्पद्यते । संयोगविशेषमृदुत्ववादिनापि
पूर्वद्रव्यनिवृत्तिरत्राभ्युपगतैव । ततः स्पर्शविशेषो मृदुत्वादिर२५ भ्युपगन्तव्यः 'कठिनः स्पर्शी मृदुः स्पर्शः' इति प्रतीतिदर्श
नात् । तथा च पाकजत्वमपि स्पर्शस्योपपन्नं घटादिषु रूपादिवत् विलक्षणस्पर्शीपलम्भा नान्यथा। न च काठिन्यादिव्यतिरेकेण स्पर्शस्यान्यद्वैलक्षण्यं व्यवस्थापयितुं शक्यमिति ।
वेगाख्यस्तु संस्कारो न केवलं पृथिव्यादावेवास्ति आत्मन्य३० प्यस्य सम्भवात्, तस्यापि सक्रियत्वेन प्रसाधितत्वात् । न च
१ अन्यत्-जलम् । २ मृदुरूपोपि संयोगगुण विशेषः। ३ मृदुत्वादेः स्पर्शविशेषत्वे च । ४ मृदुत्वादेः स्पर्शविशेषस्याभावे स्पर्शस्य न पाकजत्वं विलक्षणस्पर्शाभावादिति भावः । ५ काठिन्यादेः स्पर्शविशेषत्वाभावेपि स्पर्शस्यान्यद्वैलक्षण्यं सम्भविष्यति ततश्च विलक्षणस्पर्शोपलम्भेन पाकजत्वमप्यविरुद्ध स्पर्शस्येत्याशङ्कायामाह । ६ आत्मनो निष्क्रियत्वात्कथं वेगाख्यस्य संस्कारस्य सम्भव इत्युक्ते सत्याह ।
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सू०४।१० गुणपदार्थविचारः
५९९ क्रियातोऽर्थान्तरं वेगः; अस्याः शीघ्रोत्पादमाने वेगव्यवहारप्र. सिद्धेः । वेगेन गच्छति' इति प्रतीतः क्रियातोर्थान्तरं वेगः; इत्यप्ययुक्तम् ; 'वेगेन गञ्छति, शीनं गच्छति' इत्यनयोरेकत्वात् । न च कर्मणः कौरम्मकत्वेऽनुपरमप्रसङ्गः; शब्दवत्तदुपरमोपपत्तेः। यथैव हि त्या शब्दान्तरारम्भकत्येप्युदरमस्तथात्रापि ।५ "कर्म कर्मसाध्य विद्यते" वैशे . १२.११] इत्यपि वचनसानत्वादविरोधकम् ।
न च विभिन्न संस्कारो काणादीनामपातहेतुः प्रतीयते, अन्यथा कदाचिदपि तेषां पातो न स्यात् , तत्प्रतिवन्धकस्य बेगल्स सर्वदावस्थानात् । न च मूर्तिमद्वाय्वादिसंयोगोपहतशक्तिवाद्धे-१० गस्य तेषां पतनम् ; प्रथममेव पातप्रसक्तेः, तत्संयोगस्य तद्विरोधिनस्तदापि सम्भवात् । न च प्राग्वेगस्य वलीयस्त्वाद्विरोधिनअपि मूर्त्तद्रव्यसंयोगमपास्य शरं देशान्तरं प्रापयति; इत्यभिधात. व्यम् । पश्चादप्यस्य बलीयस्त्वात्तथैव तत्प्रापकत्वप्रसक्तः। न खलु वेगस्य पश्चादन्यथात्वम्, तथोत्पत्तिकारणाभावात् , तत्स-१५ मवायिकारणत्वस्येवादेः सर्वदाऽविशिष्टत्वात् । न च कर्माख्यं कारणं पश्चाविशिष्यते; तस्यापि तुल्यपर्यनुयोगत्वात् । न च प्रभूताकाशप्रदेशसंयोगोत्पादनात् संस्कारप्रक्षयादियोः पातः; संस्कारस्यैकस्वभावत्वेनावस्थितल्य प्राणिव पश्चादि प्रक्षयानुपपत्तेः । न चाकाशस्य प्रदेशाः परेणेष्यन्ते, येन तत्संयोगानां २० भूयस्त्वं संस्कारप्रक्षयहेतुत्वं वा युक्तियुक्तं भवेत् । कल्पनाशिल्पिकल्पितानां संयोगभेदकत्वं तदायत्तभेदानां च संयोगानां संस्कारप्रक्षयहेतुत्वं दूरोत्सारितमेव ।
भावनाख्यस्तु संस्कारो धारणापरनामा नानिष्टः; पूर्वपूर्वानुभवाहितसामर्थ्यलक्षणस्यात्मनोऽनर्थान्तरभूतस्य स्मृत्यादिहेतुत्वे-२५ नास्यास्माभिरपीष्टत्वात्।
स्थितस्थापकरूपस्तु संस्कारोऽसम्भाव्य एव । स हि किं स्वयमस्थिरस्वभावं भावं स्थापयति, स्थिरस्वभावं वा? न तावद्स्थिरस्वभावम् । तत्स्वभावानतिक्रमात् । तथाविधस्यापि स्थापनेs.
१ शीघ्रत्वं च क्रियास्वरूपं परमते स्वमते च। २ वेगस्य क्रियात्वे क्रियातः क्रियोत्पद्यत इति भावः। ३ यद्यपि समवायिकारणमविशिष्टं तथापि कर्माख्यं कारणं विशिष्यत इत्युक्ते सत्याह। ४ न खलु कर्माख्यस्य पश्चादन्यथात्वं तथोत्पत्तिकारणाभावादित्यादिरूपेण । ५ नित्यत्वाद्गुणानाम् । ६ आकाशप्रदेशानाम् । ७ संयोगानां नानाकारत्वम् ।
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अमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० तिप्रसङ्गः । क्षमा चार्थस्य स्वयमेवाभावात्कस्यालो स्थापकः स्यात् ? आने वाऽस्थिर स्वभावताविरोधः । अथा द्वितीयः पक्षा, तदा स्थिरस्वभावेऽवस्थितानामर्थानां खयमेवावस्थानाकिमकिञ्चित्करस्थापकप्रकल्पनया? ततः स्वहेतुवशात्तथा तथा परिण५ तिरेवार्थानां स्थितस्थापकः संस्कारो नान्यः।
धर्माधर्मशब्दानां तु गुणत्वं प्रागेव प्रतिविहित मित्यलमतिप्रसङ्गेन । ततः "कर्तुः फलदाय्यात्मगुण आत्ममनःसंयोगजः स्वकायविरोधी धर्माधर्मरूपतया मेद्वानदृष्टाख्यो गुणः" [ ] इत्ययुक्तमुक्तम् । इदं तु युक्तम् "कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुर्धर्मः, १० अधर्मस्त्वप्रियप्रत्ययहेतुः" [प्रश० मा० पृ० २७२-२८०] इति । तन्न गुणपदार्थोपि श्रेयान् ।
नापि कर्मपदार्थः । स हि पञ्चप्रकारः परैः प्रतिपाद्यते- "उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि" [वैशे० सू०
श११७] इत्यभिधानात्। तत्रोत्क्षेपणं यदूर्वाधःप्रदेशाभ्यां संयोग१५ विभागकारणं कर्मोत्पद्यते, यथा शरीरावयवे तत्सम्बद्ध वा मूर्तिमद्रव्ये ऊर्ध्वदिग्भाविमिराकाशदेशाद्यैः संयोगकारणमघोदिग्भागावच्छिन्नैश्च तैर्विभागकारणम् । तद्विपरीतसंयोगकारणं च कर्मावक्षेपणम् । ऋजुद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं च कर्माकुञ्चनम् , यथा ऋजुनोडल्यादिद्रव्यस्य येऽग्रावयवास्तेषामाकाशादिभिः स्वयंयो. २० गिभिर्विभागे सति मूलप्रदेशैश्च संयोगे सति येन कर्मणाङ्गुल्यादिरवयवी कुटिलः संपद्यते तदाकुञ्चनम् । तद्विपर्ययेण संयोगविभागोत्पत्तौ येनावयवी ऋजुः सम्पद्यते तत्कर्म प्रसारणम् । अनियंतदिग्देशैर्यत्संयोगविभागकारणं तद्गमनम् । उत्क्षेपणादिकं
तु चतुःप्रकारमपि कर्म नियतदिग्देशसंयोगविभागकारणमिति । २५ तदेतत्पश्चप्रकारतोपवर्णनं कर्मपदार्थस्याविचारितरमणीयम्; देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दात्मको हि परिणामोऽर्थस्य कर्मोच्यते । उत्क्षेपणादीनां चात्रैवान्तर्भावः। अत्रान्तर्भूतानामपि कञ्चिद्विशेषमादाय मेदेनाभिधाने भ्रमणस्प(स्य)न्दनादीनामप्यतो भेदेनाभिधानानुषङ्गात्कथं पञ्चप्रकारतवास्य ?
१ विद्युदादीनामपि स्थापकः स्यादित्यतिप्रसङ्गः। २ स्वकार्ये क्रियमाणे सति विरोधोऽभावो यस्य सः। ३ मुसलादिर्यथा। ४ प्रियः सुखदः। ५ हितः परिणामपथ्यः। ६ दुःखकारणम् । ७ ऊर्ध्वाधःप्रदेशाभ्यां विपरीतौ अधऊर्ध्वप्रदेशौ । - ऊर्ध्वाः। ९ ऊर्ध्वाधःप्रदेशयोः १० गमनस्य यथाऽनियतदिग्देशः संयोगविभागकारणत्वं तथोत्क्षेपणादेरनियतदिन्देशाभ्यां संयोगविभागकारणत्वं ततश्च कथमुत्क्षेपणादीनां भेद इत्युक्ते सत्याह । ११ पञ्चप्रकाराकर्मणः ।
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सू० ४.१०] कर्मपदार्थविचारः
न चैकरूपस्यार्थस्य क्रियासमावेशो युक्तः, सर्वदाऽविशिष्टत्वात् । यत्सर्वदाऽविशिष्टं न तस्य क्रियासम्भवो यथाकाशस्य, अविशिष्टं चैकरूपं वस्त्विति । न चैकरूपत्वेप्यर्थानां गन्तुस्वभावता युक्ता; निश्चलत्वाभावप्रसङ्गाद्, लदा गन्तृत्वैकरूपत्वात्। अथाऽगन्तृत्वरूपताप्येपामङ्गीक्रियते; तथा सत्याकाशवदगन्तृतैव ५ स्यात् । एवं चा गत्यवस्थायामप्यचलत्वलेषां प्रत्यकं तदपरित्यताऽगतिरूपत्वान्निश्चलावस्थावत् । न बोरसपत्लादेशामयमदोषः, गन्तृत्वागन्तृत्वविरुद्धधर्मायालेनैकत्वसाधतातुरङ्गादचलोऽनिलवत्।
यथा चाक्षणिकैकरूपस्यार्थस्य क्रिया नोपपद्यते तथा क्षणिकैक-१० रूपस्यापि, उत्पत्तिप्रदेश एवास्य प्रध्वंसेन प्रदेशान्तरप्राप्त्यसम्भवात् । यो ह्युत्पत्तिप्रदेश एव ध्वंसमुपगच्छति न सोन्यदेशमाक्रामति यथा प्रदीपः, उत्पत्तिप्रदेश(शे)ध्वंसमुपगच्छति च क्षणिको भाव इति । न चार्थस्य क्षणिकत्वादेशाद्देशान्तरप्राप्तिर्धान्ता; क्षणिकवादस्य प्रतिषिद्धत्वात् । ततः परिणामिन्येवाथै यथोक्तं १५ कर्मोपपद्यते।
न चेदमर्थादर्थान्तरम्; तथाभूतस्यास्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भेनासत्त्वात् । प्रयोगः-यदुपलब्धिलक्षणमा सन्नोपलभ्यते तन्नास्ति यथा क्वचित्प्रदेशे घटः, नोपलभ्यते च विशिष्टार्थखरूपव्यतिरेकेण कर्मेति । न चोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वमस्याऽ-२० सिद्धम् । “संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसमवायाच्चाक्षुषाणि" [वैशे० सू० ४३११११] इत्यभिधानात् । तन्न कर्मपदार्थोपि परेषां घटते ।
नापि सामान्यपदार्थः; तस्य पराभ्युपगतखमावस्य प्रागेव प्रतिषिद्धत्वादिति । विशेषपदार्थोप्यनुपपन्नः। विशेषी हि नित्यद्रव्यवृत्तयः परमा
१ निरंशस्याऽविचलितस्य जीवादेः। २ सर्वदाऽविशिष्टश्च स्थानिक्रयासमवेतश्च स्यादिति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह। ३ गन्तृत्वमेवागन्तृत्वमेवेत्येकान्तप्रसङ्गलक्षणः। ४ पर्वतवायुवत् । ५ लब्धावसरो हि सौगतो ब्रूते-अर्थस्याक्षणिकैकरूपले क्रिया न घटते तर्हि क्षणिकैकरूपत्वे घटिष्यत इत्याशङ्कायामाह। ६ बौद्धमतापेक्षयोदाहरणम् । ७ सर्वथाऽक्षणिके क्षणिके वार्थेऽर्थक्रिया न घटते यतः। ८ कर्मरूपतया परिणतो विशिष्टः । ९ विशेषणमसिद्धमित्युक्ते सत्याह । १० सामान्यनिराकरणसमये। ११ नित्यद्रव्यवृत्तयोऽत्यन्तव्यावृत्तिहेतवो विशेषाः, विशेषा इति बहुवचनेनानन्य विवक्षितम् । १२ सामान्यरहितनित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्या विशेषाः ।
प्र. क. मा० ५१
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६०२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० ग्वाकाशकालदिगात्ममनस्टु वृत्तरत्यन्तव्यावृत्तिवुद्धिहेतवः। ते च जगद्विनाशारम्भकोटिभूतेषु परमाणुषु मुक्तात्मसु मुक्तमनस्सु चान्तेषु भवा 'अन्त्योः' इत्युच्यन्ते, तेषु स्फुटतरमालक्ष्यमाणत्वात् । वृत्तिस्तेषां सर्वस्मिन्नेव परमाण्वादौ नित्ये द्रव्ये विद्यते ५एव । अत एव "नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्याः ' इत्युभयपदोपादानम् । .
व्यावृत्तिबुद्धिविषयत्वं च विशेषाणां सद्भावसाधकं प्रमाणम् । यथा ह्यस्मदादीनां गवादिषु आकृतिगुणक्रियावयवसंयोगॅनिमितोऽश्वादिभ्यो व्यावृत्तःप्रत्ययो दृष्टः, तद्यथा-'गौः, शुक्लः, शीघ्र
गतिः, पीनककुदः, महाघण्ट:' इति यथाक्रमम् । तथास्मद्विशिष्टानां २० योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनस्सु
चान्यनिमित्ताभाने प्रत्याधारं यदलात् विलक्षणोयं विलक्षणो. यम्' इति प्रत्ययप्रवृत्तिस्ते योगिनां विशेषप्रत्ययोनीतसत्त्वा अन्त्या विशेषाः सिद्धाः।
इत्यपि स्वाभिप्रायप्रकाशनमात्रम् ; तेषां लक्षणासम्भवतोऽस१५त्वात् । तथाहि-यदेतेषां नित्यद्रव्यवृत्तित्वादिकं लक्षणमभिहितं तदसम्भवदोषदुष्टत्वादलक्षणमेव; यतो न किञ्चित्सर्वथा नित्यं द्रव्यमस्ति, तस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात् । तद्भावे च तद्वृत्तित्वं लक्षणमेषां दूरोत्सारितमेव ।
यच्चायो(च-यो)गिप्रभवविशेषप्रत्ययवलादेपां सत्त्वं साध्यते; २० तदप्ययुक्तम् । यतोऽण्यादीनां स्वस्वभावव्यवस्थितं स्वरूपं परस्परासङ्कीर्णरूपं वा भवेत् , सङ्कीर्णस्वभावं वा? प्रथमे विकल्पे खत एवासङ्कीर्णाण्वादिरूपोपलम्माद्योगिनां तेषु वैलक्षण्यप्रति पत्तिर्भविष्यतीति व्यर्थमपरविशेषपदार्थपरिकल्पनम् । द्वितीये विशेषाख्यपदार्थान्तरसन्निधानेपि परस्परातिमिश्रितेषुपरमाण्वा. २५ दिषु तद्वलाढ्यावृत्तप्रत्ययो योगिनां प्रवर्त्तमानः कथमभ्रान्तः ?
खरूपतोऽव्यावृत्तरूपेष्वण्वादिषु व्यावृत्ताकारतया प्रवर्त्तमानस्यास्याऽतमिस्तद्रहणरूपतया भ्रान्तत्वानतिक्रमात् ? तथा चैतत्प्रत्यययोगिनस्तेऽयोगिन एव स्युः।
. १ अस्मादयं सर्वथा व्यावृत्त इत्यादिरूपेण। २ अन्तेऽवसाने भवन्ति सन्तीति यावत् , येभ्योऽपरे विशेषा न सन्तीत्यर्थः, सामान्यरूपेभ्यो विशेषेभ्योऽपरे गुणादयो विशेषाः सन्ति, एभ्यस्तु नापरे किन्त्वेष्वेव वैशिष्टयं समाप्यते । ३ खण्डमुण्डादिरूपेषु विशेषेषु । ४ आकृति: जातिः। ५ गुणः श्वेतादिः। ६ क्रिया गच्छत्यादिः। ॐ अवयवः ककुदादिः। ८ घण्टादिभिः। ९ उन्नीतं शातम्। १० द्रव्यपरीक्षाप्रघट्टके। ११ सङ्कीर्णस्वरूपे। १२ तस्यासङ्कीर्णस्य । १३ भ्रान्तप्रत्ययसम्बन्धिन इत्यर्थः। .
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सू० ४.१०] विशेषपदार्थविचारः
६०३ यदि च विशेषाख्यपदार्थान्तरव्यतिरेकेण विलक्षणप्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात्। कथं तर्हि विशेषेषु तस्योत्पत्तिस्तत्रापरविशेषाभावात् ? भावे वा अनवस्था, "नित्यद्रव्यवृत्तयः' इत्यभ्युपगमक्षतिश्च स्यात् । अथ स्वत एवानान्योन्यवलक्षण्यप्रतिपत्तिः, तर्हि परमाण्वादीनामप्यत एव तत्प्रत्ययप्रवृत्तिभविष्यतीति कृतं विशे-५ पाख्यपदार्थ परिकल्पनया
अथ विशेश्वपरविशेपयोगाब्यवृत्तबुद्धिपरिकल्पनयामनवस्थादिवोधकोपपत्तेरुपचारात्ते तबुद्धिः । ननु कोयं तदुद्धरुपचारो नाम ? असतो वस्तुखभावस्य विषयत्वेनाक्षेपश्चेत् : कथं नास्या मिथ्यात्वं तद्योगिनां चायोगित्वम् ?
किञ्च, असौ वस्तुखभावो विषयत्वेनाक्षिप्यमाणः संशयत्वेनाक्षिप्यते, विपर्यस्तत्वेन वा ? तत्राद्ये पक्षे व्यावृत्तरूपतया चलितप्रतिपत्तिविषयाणां विशेषाणां यथावत्प्रतिपत्त्यसम्भवात्तद्योगिनोऽयोगित्वमेव । द्वितीयेप्येतदेव दूपणम् , विशेषरूपविकलानपि तान् विशेषरूपतया प्रतिपद्यमानस्याऽयोगित्वप्रसङ्गाविशेषात् । १५. • यदि च वाधकोपपत्तेविशेषेषु व्यावृत्तवुद्धि परविशेषनिवन्धना; तर्हि परमाग्वादिष्वलौ तन्निवन्धना नाभ्युपगन्तव्या तद्विशेषात् । परमाण्वादौ हि विशेषेभ्योऽन्योन्यं व्यावृत्तबुधुत्पत्ती सकलविशेषेभ्यः परमाणूनां व्यावृत्तबुद्धिर्विशेषान्तरात्स्यादित्यानवस्था । खतस्तेषां ततो व्यावृत्तवुद्धिहेतुत्वेऽन्योन्यमपि तद्धेतुत्वं २० खत एव स्यादिति व्यर्थमर्थान्तरविशेषपरिकल्पनम् । 'ननु यथाऽमेध्यादीनां स्वत एवाशुचित्वमन्येषां तु भावानां तद्योगात्तत्तथेहापि तत्स्वभावत्वाहिशेषेषु स्वत एव व्यावृत्तप्रत्ययहेतुत्वं परमाण्वादिषु तु तद्योगात् ।
किञ्च, अतदात्मकेष्वप्यन्यनिमित्तः प्रत्ययो भवत्येव, यथा २५ प्रदीपोत्पटादियुं, न पुनः पटादिभ्यः प्रदीपे, एवं विशेषेभ्य एवाण्वादौ विशिष्टः प्रत्ययो नाण्वादिभ्यस्तत्र; इत्यप्यसमीचीनम् ।
१ विशेषेषु विशेषाणां प्रवृत्तेः । २ आदिना नित्यद्रव्यवृत्तय इत्यभ्युपगमक्षतिश्चेति । ३ विशेषेषु । ४ तस्य व्यावृत्तस्य । ५ अपरविशेषा उपचारभूतास्तत्संयोगात्तपु जातोपि प्रत्यय उपचाररूप इत्यर्थः । ६ असतो वैलक्षण्यस्य । ७ अन्योन्यव्यावृत्तरूपस्य । ८ वैलक्षण्यरूपः। ९ उपचाररूपः। १० अनवस्थादिरूपो बाधकः। ११ परमाण्वादिभ्यः सर्वर्था भिन्नेभ्यः। १२ विशेषान्तराणामप्यन्येभ्य इत्यादिप्रकारेण । १३ अव्यावृत्तेषु अणुषु मुक्तमनस्सु च । १४ अन्यो=विशेषः । १५ अन्यनिमित्तात् । १६ इमे पटादय इति प्रत्ययः। १७ सर्वथाभिन्नेभ्यः। ... .. .
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६०४
प्रयकसलमार्तण्डे [४. विषयपरि०
यतोऽमेध्यायशुचिद्रव्यलंसोन्मोदकादयो भावा प्रच्युतप्राक्तनशुचिस्वभावा अन्य एवाऽशुचिरूपतयोत्पद्यन्ते इति युक्तमेषामन्यसंसर्गादशुचित्वम्। न चाण्वादिष्वेतत्सम्भवति, तेषां नित्यत्वादेव प्राक्तनाविविक्तरूपपरित्यागेनापरविविक्तरूपतयानुपप(नुत्पत्तेः । ५ प्रदीपदृष्टान्तोप्यंत एवासङ्गतः, पटादीनां प्रदीपादिपदार्थान्तरो
पाधिकस्य रूपान्तरस्योत्पत्तेः, प्रकृते च तदसम्भवात् । ___ अनुमानवाधितश्च विशेषसद्भावाभ्युपगमः; तथाहि-विवादा. धिकरणेषु भावेषु विलक्षणप्रत्ययस्तद्व्यतिरिक्तविशेष निबन्धनो
न भवति, व्यावृत्तप्रत्ययत्वात् , विशेषेषु व्यावृत्तप्रत्ययवदिति। १० तन्न विशेषपदार्थोपि श्रेयान साधकामावाद्वाधकोपपत्तेश्च ।
नापि समवायपदार्थोऽनवद्यतल्लक्षणाभावात् । ननु च "अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेदम्प्रत्ययहेतुर्यः सम्वन्धः स सम. वायः।" [प्रश० भा० पृ० १४] इत्यनवद्यतल्लक्षणसद्भावात्तद
भावोऽसिद्धः । न चान्तरालाभावेन 'इह ग्रामे वृक्षाः' इतीहेद१५म्प्रत्ययहेतुना व्यभिचारः; सम्वन्धग्रहणात् । न चासो सम्ब
न्धोऽभावरूपत्वात् । नापि 'इहाकाशे शकुनिः' इति प्रत्ययहेतुना संयोगेन; 'आधाराधेयभूतानाम्' इत्युक्तेः । न ह्याकाशस्य व्यापि. त्वेनाधस्तादेव भावोस्ति शकुनेरुपर्यपि भावात् । नापि 'इह कुण्डे
दधि' इतिप्रत्ययहेतुना; 'अयुतसिद्धानाम्' इत्यभिधानात् । न खलु २० तन्तुपटादिवद्दधिकुण्डादयोऽयुतसिद्धाः, तेषां युतसिद्धेः सद्भावात् । युतसिद्धिश्च पृथगाश्रयवृत्तित्वं पृथग्गतिमत्त्वं चोच्यते । न चासौ तन्तुपटादिष्वप्यस्ति; तन्तून्विहाय पटस्यान्यत्रावृत्तेः।
तथापि 'इहाकाशे वाच्ये वाचक आकाशशब्दः' इति वाच्यवा. चकभावेन 'इहात्मनि ज्ञानम्' इति विषयविषयिभावेन वा व्यभि२५ चारोऽत्रायुतसिद्धेराधाराधेयभावस्य च भावात्, इत्यप्यसाम्प्रतम् ; उभयत्रीवधारणाऽऽश्रयणात् । एतयोश्च युतसिद्धेष्वप्यना
१ परमते । २ विशेषेभ्यो व्यावृत्तस्वरूपत्वेनोत्पत्तिमत्त्वम् । ३ परमाण्वादीनां नित्यत्वादेव । ४ प्रकाशलक्षणस्य । ५ ग्राहकप्रमाणाभावाच्च । ६ गुणगुण्यादीनाम् । ७ आकाशपरमाण्वादीनां युतसिद्धत्वव्यवस्थापनार्थमिदं लक्षणम् । ८ य इहेदम्प्रत्ययहेतुः स समवाय इत्युच्यमाने । ९ कारणभूतेन । १० कारणभूतेन । ११ अयुतः= अपृथक् । १२ बसः, मल्लयोर्यथा। १३ मेषयोर्यथा वा। १४ अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामित्युभयपदोपादानेपि । १५ सम्बन्धेन। १६ आकाशतद्वाचकशब्दयोरात्मज्ञानयोश्च । १७ आधार्याधारभूतानामयुतसिद्धानां समवाय एवेति न नियम इति भावः। १८ अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामित्यत्र । १९ अवधारणम्एवकारः, अयुतसिद्धानामेवाधार्याधारभूतानामेव समवाय इति ।
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सू० ४.१०] समवायपदार्थविचारः धाराश्यतेप्वपि च भावात् , घटतच्छब्दज्ञानवत् । नन्देव 'अयुत सिद्धानामेव' इत्यवधारोप्य व्यभिचारात्'आधाराधेयभूतानाम्' इति वचनमनश्चकम् , 'आधाराशेयभूतानामेव' इत्यवधारणे "अयुतसिद्धनाम्' इतिवचनवत् , ताभ्यामव्यभिचारात्; इत्यायसारम् । एकद्रव्यसलवादिनां रूपरसादीनामयुतलिद्धानामेव पर-५ स्परं समवायाखावात एकार्थतमकायसवान्धव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमुत्तरावधारणम् । न हयं वाध्यशाचकनावादिवधुत सिद्धान्तामयि लम्भवति । तथोतरावधारणे सत्यपि आधाराधेयभावेन संयोगविशेषेण सर्वदाऽनाधाराधेयभूतानामसम्भवता व्यभिचारो मा भूदित्येवमर्थ पूर्वाधारणम् ।
इति भेदकलक्षणस्याशेषदोषरहितत्वादिदमुच्यते तन्तुपटा. दयः सामान्यतद्वेदादयो वा 'संयुक्ता न भवन्ति' इति व्यवहर्तव्यम् , नियमेनायुतसिद्धत्वादाधाराधेयभूतत्वाच्च, ये तु संयुक्ता न ते तथा यथा कुण्डवदरादयः, तथा चैते, तस्मात्संयोगिनो न भवन्तीति । यद्वा तन्तुपटादिसम्वन्धः संयोगो न भवति, निय-१५ मेनायुतसिद्धसम्वन्धत्वाद् , ज्ञानात्मनोपियविषयिभाववदिति ।
ननु समवायस्य प्रमाणतः प्रतीतौ संयोगाद्वैलक्षण्यासाधनं युक्तम् , न चासौ तस्यास्ति; इत्यप्यसत् ; प्रत्यक्षत एवास्य प्रतीतेः! तथाहि-तन्तुसम्बद्ध एव पटः प्रतिभासते तद्रूपादयश्च पटादिसम्बद्धाः, सम्वन्धाभावे सह्यविन्ध्यवद्विश्लेषप्रतिभासः स्यात् । २०
अनुमानाच्चासौ प्रतीयते; तथाहि-'इह तन्तुषु पटः' इत्यादीहप्रत्ययः सम्वन्धकार्योऽवाध्यमानेहप्रत्ययत्वात् इह कुण्डे दधीत्या. दिप्रत्ययवत् । न तावदयं प्रत्ययो निहेतुकः; कादाचित्कत्वात् ।
१ शब्दश्च शानं च शब्दशाने, तस्य घटस्य शब्दशाने तच्छब्दशने, घटश्च तच्छब्दशाने चेति द्वन्द्वः। २ भूम्याकाशौ घटतच्छब्दाधारौ तौ तत्र सिद्धौ, घटतज्ज्ञाने आत्मभूम्याधारे ते तत्र सिद्ध इति । ३ धाराधेयभूतानामितिवचनसमर्थनार्थमिदम् । आधाराधेयभावस्य रूपरसादावभावात् । ४ रूपरसादय एकार्थाः। ५ आधार्याधारभूतानामेवेति । ६ प्रथमावधारणेनैव तदयभिचारनिवृत्तिः कुतो न भवतीत्याशङ्कयाह । ७ अस्मिन्पर्वते वृक्षा इति । ८ अयुतसिद्धानामेवेति । ९ अनेन प्रकारेणाशेषदोषरहितत्वमयुतसिद्धेत्यादिभेदकलक्षणस्य, इतरेभ्यो द्रव्यादिभ्यः समवायस्य भेदकत्वालक्षणं भेदकमयुतसिद्धेत्यादि । १० अग्रेतनं प्रसक्तप्रतिषेधार्थमनुमानम् । संयोगानां प्रतिषेधात्समवायस्य सिद्धिर्यतो भवति ततः परिशेषानुमानमित्यर्थः । ११ आदिपदेन गुणगुणिनः क्रियातदन्तश्च । १२ प्रत्यक्षतः । १३ पटतद्पादीनाम् । १४ इहात्मनि रूपादय इत्यादीहप्रत्ययेन बाध्यमानेन व्यभिचारपरिहारार्थमिदम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डै [४. विषयपरि० नापि तन्तुहेतुकः पटहेतुको वा; तेत्र 'तन्तवः, पटः' इति वा प्रत्ययप्रसङ्गात् । नापि वासनाहेतुकः तस्याः कारणरहितायाः सम्भवाभावात् । पूर्वज्ञानस्य तत्कारणत्वे तदपि कुतः स्यात् ? तत्पू.
वैवासनातश्चेत् ; अनवस्था। ज्ञानवासनयोरनादित्वादयमदोषश्चेत्। ५न एवं नीलादिसन्तानोन्तरवसन्तानसंविद्वैतादिसिद्धेरप्यभावानुषङ्गात् , अनादिवासनांवशादेव नीलादिप्रत्ययस्य स्वतोऽवभासस्य च सम्भवात् । नोपि तादात्म्यहेतुकोयम् ; तादात्म्यं ह्येकत्वम् , तत्र च सम्वन्धाभाव एव स्यात् द्विष्ट(ष्ठ)त्वात्तस्य । न च तन्तुपटयोरेकत्वम् । प्रतिभासमेदाद्विरुद्धधर्माध्यासात् परिमाणसंख्या१० जातिभेदाच घटपटवत् । नापि संयोगहेतुकःयुतसिद्धेष्वेवार्थेषु
संयोगस्य सम्भवात् । न चात्र समवायपूर्वकत्वं साध्यते येन दृष्टान्तः साध्यविकलो हेतुश्च विरुद्धः स्यात् । नापि संयोगपूर्वकत्वं येनाभ्युपगमविरोधः स्यात् । किं तर्हि ? सम्वन्धमात्रपूर्वकत्वम् ।
तस्मिंश्च सिद्धे परिशेषात्समवाय एव तजनको भविष्यति। १५ त(य)चेम्-'विवादास्पदमिदमिहेति ज्ञानं न समायपूर्व
कमबाधितेहज्ञानत्वात् इह कुण्डे दधीतिज्ञानवत्' इति विशेषे(ष) विरुद्धानुमानम्, तत्सकलानुमानोच्छेदकत्वादनुमानवादिना न प्रयोक्तव्यम्। ___ यच्चोच्यते-इदमिहेति ज्ञानं न समवायालम्वनम् ; तत्सत्यम्। २० विशिष्टाधारविषयत्वात् । न हि 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादीहप्रत्ययः केवलं समवायमालम्वते; समवाय विशिष्टतन्तुपटालम्बनत्वात् । वैशिष्ट्यं चानयोः सम्बन्ध इति ।
१ तन्त्वादौ। २ सौगतं प्रत्याह। ३ विकल्पशानाद्वासना वासनातो विकल्पशानमिति बीजाकरवत् । ४ सन्तानान्तरं च स्वसन्तानश्च तो नीलादीनां ग्राहको नीलसन्तानान्तरस्वसन्तानौ च स्वसंविदद्वैतादिश्च ज्ञानाद्वैतादिश्चेत्यर्थः, तेषां सिद्धिरिति वाक्यम् । ५ नीलादेः समुत्पद्यमानो नीलं नीलमिति प्रत्ययः सन्नव समुत्पद्यते विद्यमानान्नीलादेः समुत्पद्यमानत्वान्न तु कल्पनाशिल्पिकल्पितवासनातः समुत्पद्यमानः सन्समुत्पद्यते। ६ ततोनादिवासनाहेतुकत्वमस्य प्रत्ययस्य नेत्यर्थः । ७ कुतः। ८ न तु नीलादेः। ९ आदिना सन्तानसंग्रहः । १. अन्यतोवभासमाने द्वैतप्रसक्तिस्तन्निरासार्थ स्वतो विशेषणम्। ११ संविदद्वतस्य । १२ जैनमतमाशङ्कयाह । १३ सम्बन्धमात्रे साध्ये सम्बन्धविशेषसाधनात् । १४ किन्तु संयोगपूर्वकम् । १५ विशेषणसमवायपूर्वकत्वेन विरुद्धमसमवायपूर्वकत्वं तस्यानुमानम् , विशेषविरुद्धा. नुमाने इदमुदाहरणं पर्वतः पर्वतस्थेनाग्निनाग्निमान्न भवति धूमवत्स्वान्महानसवदिति । १६ पर्वतोनिमान्धूमवत्त्वादित्यादेः सम्यगनुमानस्य यदुच्छेदकानुमानं तस्य वक्तुमशक्यत्वादिति भावः। १७ जैनादिना । १८ जैनादिना । १९ तस्य शानस्य । '
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मू० ४११० समवायपदार्थविचारः
न चास्य संयोगवन्नानात्वम् : इहेति प्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिझालावाच सत्प्रत्ययाविशेषाद्विशेपलिङ्गामावाच संत्तावत् । न च सस्वन्धत्वमेव विशेषालिङ्गम् ; अस्थायथासिद्धत्वात् । न हि संयोगस्य सम्बन्धन नानात्वं लाध्यतेऽपि तु प्रत्यक्षेण भिन्नाश्रयसनकेतस्य ऋोत्सादोपलब्धः । समवायस्य चानेकत्वे १५ सालि अनुमतलोत्पन्तिन सात् । संबोणेतु संयोगत्ववलानानात्ोदित साल दैवत्सलवारे समवति समवायत्वस्य समवाये ललवामानाबाद, अन्यथालवस्था स्यात् । संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्यवृत्तित्वात् , संयोगत्वं पुनः संयोगे समवेतमिति ।
न चैकत्वे समवायस्य द्रव्यत्ववहुणत्वस्याप्यभिव्यजक द्रव्यं १० कुतो न भवतीति वाच्यम् ? आधारशक्तेर्नियामकत्वात् । ट्रॅव्याणां हि द्रव्यत्वाधारशक्तिरेव, गुणादेस्तु गुणत्वाद्याधारशक्तिरिति । न बानुगतप्रत्ययजनकत्वेन सामान्यादस्याऽभेदः भिन्नलक्षणयोगित्वात्।
यद्वा, 'लमवायीनि इव्याणि' इत्यादिप्रत्ययो विशेषणपूर्वको १५ विशेष्यप्रत्ययत्वादण्डीत्यादिप्रत्ययवत्' इत्यतः समवायसिद्धिः ।। न चान्येपासनातुगः सम्भवति । किन्तर्हि ? समवायस्यैव । अतः स एव विशेषणम् । अप्रतिपन्नसमयस्य सनवायी' इतिप्रतिभासाभावादस्याऽविशेषणत्वम् , दण्डादावपि समानं तस्य
१ सत्प्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिङ्गाभावाच्च सत्ताया नानात्वं नास्ति यथा । २ समवायो नाना सम्बन्धत्वात्संयोगवदिति । ३ संयोगस्य । ४ अयं समवायोऽयं समवाय इति । ५ ननु समवायेपि समवायत्ववलान्नानात्वेप्यनुगतप्रत्ययोत्पत्तिः स्यादिति शङ्कायामाह । ६ सामान्यस्य । ७ समवायत्वस्य समवाये सद्भावेऽपरः समवायः समायातस्तत्रापि समवायत्वसमवायेऽपरः समवायः समायात इति । ८ तर्हि संयोगस्याप्यपरसंयोगपूर्वकत्वेनानवस्था कुतो न स्यादित्याह । ९ कथं तर्हि संयोगत्वमित्याह । १० संयोगान्तरापेक्षा नास्तीति भावः । ११ येन समवायेन द्रव्ये द्रव्यत्वं समवेतं तेनैव समवायेन गुणे गुणत्वमपि समवेतं समवायस्यैकत्वात् , ततश्चात्मनि समवेतस्य द्रव्यत्वस्य द्रव्यं यथाभिव्यञ्जकं भवति तथा गुणत्वस्याप्यभिव्यञ्जकं कुतो न भवति एकसमवायसमवेतत्वाविशेषादिति भावः। १२ जनादिना। १३ द्रव्यस्वरूपायाः। १४ द्रव्यस्य । १५ घटादीनाम्। १६ द्रव्यत्वमेव स्वरूपशक्तिरिति भावः, निजा हि शक्तिः पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादिकमेव। १७ गुणत्वादिकमेव स्वरूपं शक्तिः । १८ स्वाभिधेयस्यैवाभिव्यञ्जकं नान्यथेति भावः। १९ अबाधितानुगतप्रत्ययहेतुः सामान्यमिति लक्षणं सामान्यस्य, समवायस्य त्वयुतसिद्धेत्यादि । २० दण्डलक्षणविशेषणपूर्वकत्वमत्र । २१ तादात्म्यसंयोगादीनाम् । २२ समवायोनि द्रव्याणीति वचने । २३ विशेषणत्वम् । २४ अप्रतिपन्नदण्डस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० दण्डाद्युल्लेखेन 'दण्डी' इत्यादिप्रत्ययानुत्पत्तेः । दण्डादेरभिधानयोजनामावधि 'अनेन वस्तुना तद्वानयम्' इत्यनुरागप्रतीतिः 'संसृष्टा एते तन्तुपटादयः' इति सम्वन्धमाञपि तुल्या। केवलं सङ्केताभावात् 'अयं समवायः' इति व्यपदेशाभावः। प्रतिपन्नस. ५ मयस्तु दण्डादेरिव समवायस्यापि विशेषणतामभिधानयोजनाद्वारेण प्रतिपद्यते।
यञ्चान्यत्समवाये बाधकमुच्यते-'नानिष्पन्नयोः समवायः सम्बन्धिनोरनुत्पादे सम्बन्धाभावात् । 'निष्पन्नयोश्च संयोग
एव । असम्वन्धे चास्य 'समवायिनोः समवायः' इति व्यपदेशा१० नुपपत्तिः । सम्बन्धे वा न खतोसौ; संयोगादीनामपि तथा
तत्प्रसङ्गात् । परतश्चेदनवस्था। न च गुणादीनामाधेयत्वं निष्क्रिय त्वात् । गतिप्रतिवन्धकश्चाधारो जलादेर्घटादिवत् । तथा न खरूपसंश्लेषः समवायो यतस्तस्मिन्सत्येकत्वमेव न सम्वन्धः। नापि पारतन्यम् । अनिष्पन्नयोराधारस्यैवासत्त्वात् । स्वतन्त्रेण १५ निष्पन्नयोश्च न पारतव्यम्' इत्यप्यसमीचीनम् । यतो न निष्पन्न
योरनिष्पन्नयोर्वा समवायः, खकारणसत्तासम्बन्धस्यैव निष्पत्तिरूपत्वात् । न हि निष्पत्तिरन्या समवायश्चान्यो येन पौर्वापर्यम् ।
एतेन 'रूपसंश्लेषः पारतन्यं वा' इत्याद्यपास्तम्। नापि समवायस्य सम्बन्धान्तरेण सम्बन्धो युक्तो येनानवस्था स्यात्, सम्ब२०न्धस्य समानलक्षणसम्बन्धेन सम्वन्धस्यान्यत्रादृष्टेः संयोगवत् ।
अंग्नेरुष्णतावत्तु स्वत एवास्य सम्बन्धो युक्तः स्वत एव सम्बन्ध रूपत्वात्, न संयोगादीनां तदभावात् । न ह्येकस्य स्वभावोऽन्यस्थापि, अन्यथा खतोग्नेरुष्णत्वदर्शनाजलादीनामपि तत्स्यात् ।
यञ्चोक्तम्-'निष्क्रियत्वात्तेषों नाधेयत्वम्' इति; तदप्यसत्; २५ संयोगिद्रव्यविलक्षणत्वाद्गुणादीनाम्, संयोगिनी सक्रियत्वेनेव तेषां निष्क्रियत्वेप्याधाराधेयभावस्य प्रत्यक्षेण प्रतीतेश्चेति ।
१ समवायस्याभिधानयोजनाभावेपि संसृष्टा एते तन्तुपटादय इति सम्बन्धमात्रेपि अनुरागप्रतीतिः । २ जैनादिना। ३ असौ समवायः सम्बन्धिनोरनिष्पन्नयोः स्यान्निष्पन्नयोति विकल्पद्वयं हृदि निधाय दूषयति । ४ किञ्चासौ समवायः समवायिभ्यामसम्बद्धः सम्बद्धो वेति विकल्पद्वयं विधाय प्रथमविकल्पे दूषणमाह । ५ सम्बद्धश्चेत्स्वतः परतो वेति विकल्पद्वयमत्रापि योज्यम्। ६ स्वरूपयोः स्वभावयोः संश्लेषः सम्बन्धः । ७ स्वकारणसत्तासम्बन्धस्यैव निष्पत्तिरूपत्वादित्यनेन ग्रन्थेन। ८ समवायिना सह । ९ अपरसमवायेन । १० संयोगिनोः संयोगस्य च समवायेन सम्बन्धसद्भावात् । २१ कथं तस्य सम्बन्ध इत्याशङ्कायामाह। १२ संयोगस्य। १३ गुणादीनाम् । १४ द्रव्याणाम् । १५ संयोगिनां सक्रियत्वादेव तेषामाधेयत्वमिति भावः।
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सू० ४.१०] समवायपदार्थविचारः
अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तमयुतसिद्धेत्यादिः तत्रेदमयुतसिद्धत्वं शास्त्रीयम् , लौकिकं वा? तबाद्यः पक्षोऽयुक्तः, तन्तुरटादीनां शास्त्रीयायुतसिद्धत्वस्थासम्भवात् । वैशेषिकशास्त्रे हि प्रसिद्धम्-अपृथगाश्रयवृत्तित्वमयुतसिद्धत्वम् , तच्चेह नास्त्येव, 'तन्तूनां स्वावयवांशुपु वृत्तः पटस्य च तन्तुपु' इति पृथगाश्रय-५ वृत्तित्वसिद्धेर पृथगाश्रयवृत्तित्वमालदेव एवं गुणकर्मसामान्यानामप्यपृथगाश्रयवृत्तित्वाभादः प्रतिपत्तव्यः ? लोकालि किभाजनवृत्तिरूपं त्वयुतसिद्धत्वम् दुग्धामसोयुतसिद्धयोरन्यत्तीति ।
ननु यथा कुण्डद्ध्यवयवाख्यौ पृथग्भूतावाश्रयी तयोश्च कुण्डस्य दध्नश्च वृत्तिर्न तथात्रं चत्वारोः प्रतीयन्ते-'द्वावाश्रयो १० पृथग्भूतौ द्वौ चाश्रयिणौ, तन्तोरेव स्वावयवापेक्षयाश्रयित्वात् पटापेक्षया चाश्रयत्वात्रयाणामेवार्थानां प्रसिद्धः, 'पृथगाश्रयानयित्वं युतसिद्धिः' इत्यस्य युतसिद्धिलक्षणस्याभीवादयुतसिद्धत्वं तेषामिति चेत् कथमेवमाकौशादीनां युतसिद्धिः स्यात् ? तेषामन्याश्रयविवेकतः पृथगाश्रयाश्रयित्वाभावात् !
'नित्यानां च पृथग्गतिमत्त्वम्' इत्यपि तत्रासम्भाव्यम् ; न खलु विभुद्रव्यपरमाणुवद्विभुद्रयाणामन्यतरपृथग्गतिमत्त्वं परमाणुद्धयवदुभयपृथग्गतिमत्त्वं वा सम्भवति, अविभुत्वप्रसङ्गात् । तथैकद्रव्याश्रयाणां गुणकर्मसामान्यानां परस्परं पृथगाश्रयवृत्तेरावादयुतसिद्धिप्रसङ्गतोऽन्योन्यं समवायः स्यात् । स च नेष्टस्तेषामा-२० श्रयाश्रयिसमवाय(यिभावा)भावात् । इतरेतराश्रयभावा( यश्चसमवाय) सिद्धौ हि पृथगाश्रयसमवायित्वलक्षणा युतसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तनिषेधेन समवायसिद्धिरिति ।
ननु लक्षणं विद्यमानस्यार्थस्यान्यतो भेदेनावस्थापकं न तु सद्भावकारकम् , तेनायमदोषश्चेत् । ननु ज्ञापकपक्षे सुतरामितरे-२५ तराश्रयत्वम् । तथाहि-नाऽज्ञातया युतसिधा समवायो ज्ञातुं शक्यते, अनधिगतश्वासौ न युतसिद्धिमवस्थापयितुमुत्सहते इति ।
१ गुणादीनां गुणवदादिषु वृत्तिरेषां च स्वावयवेष्वाश्रयभूतेषु वृत्तिरिति भावः । २ अतिव्याप्तिदूषणमिदम् । ३ कुण्डं च दधि च तथोक्ते तयोरवयवौ । ४ अधिकरण. भूतयोः । ५ तन्तुपटादिषु । ६ ते के चत्वारो● इत्युक्ते सत्याह । ७ कुण्डध्यवयवौ। ८ आश्रयौ दधिकुण्डावयवलक्षणौ विद्यते ययोर्दधिकुण्डयोस्तावाश्रयिणौ। ९ समवाये। १० ततश्च । ११ ततश्च तेषां समवायसिद्धिरिति भावः । १२ आदिना आत्मकालदिशां च। १३ विवेकः अभावः, व्यापकत्वात्तेषामेकाश्रयवृत्तेः । १४ पृथगाश्रयाअयित्वं युतसिद्धिलक्षणं नित्येषु यद्यपि नास्ति तथापि पृथग्गतिमत्त्वं भविष्यतीत्याह । १५ लक्षणम् । १६ मध्ये । १७ एकद्रव्यं विभु आत्माकाशादि । १८ बसः।
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे [ ४. विषयपरि०
न चातो लक्षणात्समवायः सिद्ध्यति व्यभिचारात् । तथाहि - निय. मेनायुतसिद्धसम्बन्धत्वमाधाराधेयभूत सम्बन्धत्वं च ' आकाशे वाच्ये वाचकस्तच्छन्दः' इति वाच्यवाचकभावे 'आत्मनि विषय. भूते अहमिति ज्ञानं विषयि' इति विषयविषयिभावे च विद्यते ५ इति । ननु सर्वस्य वाच्यवाचकवर्गस्य विषयविषयिवर्गस्य च नियमेनायुत सिद्धसम्वन्धत्वासम्भवो युतसिद्धेष्वप्यस्य सम्भ वाटतच्छब्दज्ञानैवत्, अतो न व्यभिचारः इत्यप्यसारम् वर्गापेक्षयापि लक्षणस्य विपक्षकदेशवृत्तेर्व्यभिचारित्वात् । इष्टं च विपक्षैकदेशादव्यावृत्तस्य सर्वैरप्यनैकान्तिकत्वम् । १० यच्चोक्तम्-तन्तुपटादयः संयोगिनो न भवन्तीत्यादिः तत्स त्यम् ; तत्र तादात्म्योपगमात् ।
यत्तूक्तम् - प्रत्यक्षत एवं समवायः प्रतीयत इत्यादि, तदयुक्तम्: असाधारणस्वरूपत्वे हि सिद्धे सिध्येदर्थानां प्रत्यक्षता पृथुवुनोदराद्याकारघटादिवत् । न चास्य तत्सिद्धम् । तद्धि किमयुतसिद्ध१५ सम्बन्धत्वम्, सम्बन्धमात्रं वा ? न तावदयुत सिर्द्धसम्बन्धत्वम् सर्वैरप्रतीयमानत्वात् । यत्पुनर्यस्य स्वरूपं तत्तेनैव स्वरूपेण सर्वस्यापि प्रतिभासते यथा पृथुवुनोदराद्याकारतया घट इति । न चैकैस्य सामान्यात्मकं स्वरूपं युक्तम्: समानानामभावे सामान्याभावाद्गगने गगनत्ववत् । नापि सम्वन्धमात्रं समवायस्यासा२० धारणं स्वरूपम् ; संयोगादावपि सम्भवात् ।
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किञ्च तद्रूपतयासौ सम्बन्धबुद्धौ प्रतिभासेत, इहेति प्रत्यये वा, समवाय इत्यनुभवे वा ? यदि सम्बन्धबुद्धौ, कोयं सम्बन्धो नाम - किं सम्बन्धत्वजातियुक्तः सम्बन्धः, अनेकोपादानजनितो वा, अनेकाश्रितो वा सम्बन्धबुच्युत्पादको वा, सम्बन्धबुद्धिवि. २५ षयो वा ? न तावत्सम्बन्धत्वजातियुक्तः समवायस्यासम्वन्धत्वप्रसङ्गात् । द्रव्यादित्रयान्यतमरूपत्वाभावेनं समवायान्तरासने चात्र सम्बन्धत्वजातेरप्रवर्त्तनात् । अथ संयोगवदने कोपादानजनितः तर्हि घटादेरपि सम्बन्धत्वंप्रसङ्गः । नाप्यनेकाश्रितः; घट
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१ विपक्षे । २ शब्दश्च ज्ञानं च शब्दज्ञाने, तस्य घटस्य शब्दज्ञाने तच्छब्दज्ञाने इति द्वन्द्वः । ३ वाच्यवाचकभावविषयविषयिभावसमूहे विपक्षे नास्ति तथापि तस्यैकदेशवृत्तित्वादनैकान्तिकः । ४ असाधारण स्वरूपम् । ५ समवायस्य । ६ समवायेन सह समानानां वस्तूनाम् । ७ तस्यैकत्वात्सामान्यस्यानेकवृत्तित्वात् । ८ अयं सम्बन्ध इति ज्ञाने । ९ समवायस्य । १० सम्बन्धत्वजातेर्वृत्यर्थं समवाये । ११ समवायान्तरासत्त्वं च समवायस्यैकत्वादवगन्तव्यम् । १२ अनेकोपादानजनितत्वाविशेषात् ।
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सू० ४.१०] समवायपदार्थविचारः ६११ त्यादेः सल्वन्धत्वानुपङ्गात् । नापि सम्बन्धबुझुत्पादकः; लोचनादेरवि तत्वप्रसक्तेः। नापि सम्बन्धबुद्धिविषयः सम्बन्धसम्बन्धिःलोरेकज्ञानविषयत्वे सम्बन्धिनोवि तद्रूपतानुपङ्गात् । न च प्रतिविषयं ज्ञानभेदः, मेवकज्ञानामावलङ्गात् ! __ अथेहवुद्धौ सनवायः प्रतिभासते; ने; इहबुद्धरधिकरणाध्य-५
सायरूपत्वात् । न धान्यस्मिन्नातारे प्रतीयमानेऽज्याकारोर्थः कल्पचितुं युक्तोतिभलात् ।
अथ समदायबुद्ध्यालो प्रतीयते; तन्न; लमवायबुद्धरसन्नवात् । नहि एते तन्तकः, अयं पटः, अयं च समवायः' इत्यन्योन्यविविक्तं त्रितयं वहि ह्याकारतया कस्याञ्चित्प्रतीतौ प्रदीयते तथातु-१० भवाभावात्।
सर्वसमवाय्यानुगतैकखभावो ह्यसौ तत्र प्रतिभासेत, तद्व्यावृत्तखभावो का? न तावत्तद्व्यावृत्तस्वभावः; सर्वतो व्यावृत्तस्वभावस्यान्यासम्वन्धित्वेन गगनाम्भोजवत्समवायत्वानुपपत्तेः। नापि तद्नुगतैकखभावः, सामान्यादेरपि समवायत्वानुपङ्गात् । १५ न चाखिलसमवाय्यऽप्रतिभासे तदनुगतस्वभावतयासौ प्रत्यक्षेण प्रत्येतुं शक्यः । अथानुगतव्यावृत्तरूपव्यतिरेकेण सम्वन्धरूपतयासौ प्रतीयते; तन्न; लम्बन्धरूपतायाः प्रागेव तोत्तरत्वाद् । __ यदप्युक्तम्-इह तन्तुषु पटः' इत्यादीहप्रत्ययः सम्वन्धकार्याऽबाध्यमानेहप्रत्ययत्वादिह कुण्डे द्धीत्यादिप्रत्ययवदित्यनुमाना-२० चासौ प्रतीयते' इत्यादि; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; हेतोराश्रयासिद्धत्वात् । तदसिद्धत्वं च 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिप्रत्ययस्य धर्मिणोऽसिद्धः । अप्रसिद्ध विशेषणश्चार्य हेतुः; 'पटे तन्तवो वृक्षे शाखाः' इत्यादिरूपतया प्रतीयमानप्रत्ययेन 'इह तन्तुपु पटः' इति प्रत्ययस्य वाध्यमानत्वात् । खरूपासिद्धश्वायम्; तन्तुपटप्रत्यये २५
१ आदिपदेन प्रकाशादेश्च, लोचनादिरपि वस्तुषु सम्बन्धबुद्धिं जनयति । २ प्रतिविषयं ज्ञानभेदात्कथं सम्बन्धिनोरेकशानविषयत्वं यतः सम्बन्धिनोरपि सम्बन्धरूपता स्यादित्याशङ्कायामाह । ३ इति चेदिति शेषः। ४ समवायस्याधाराधेयभावलक्षणसम्बन्धाकारोल्लेखित्वात्समवाय इति न घटते । ५ इहेति बुद्धेरपि सम्बन्धप्रत्ययत्वं कुतो न स्यादित्युक्त सत्याह । ६ अधिकरणलक्षणेथें । ७ सम्बन्धलक्षणः। ८ घटप्रतिमासे पटप्रतिभासप्रसङ्गात् । ९ कोयं सम्बन्धो नाम ? किं सम्बन्धत्वजातियुक्तः इत्यादिरीत्या। १० प्रतिवादिनं प्रति । ११ अवयविनि। १२ इह तन्तुषु पट इति अवयवेष्ववयविनो वृत्तिद्वारेण प्रत्ययोत्पत्तिर्यथा तथेह पटे तन्तवो वृक्षे शाखा इत्यवयविष्ववयवानां वृत्तिद्वारेणापि प्रत्ययोत्पत्तिर्लोकप्रसिद्धैव यतः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
इहप्रत्ययत्वस्यानुभवाभावात् , "पटोयम्' इत्यादिरूपतया हि प्रत्य. योनुभूयते।
अनेकान्तिकश्चा; इह प्रागभावेऽनादित्वम् , इह प्रध्वंसाभावे प्रध्वंसामावाभावः' इत्यवाध्यमानेहप्रत्ययस्य सन्वन्धपूर्वकत्वा. ५ आवात् । न चात्र विशेषणविशेष्यभावः सम्बन्धो वाच्यः सम्ब. न्धमन्तरेण विशेषणविशेष्यभावस्याऽसम्भवात् , अन्यथा सर्व सर्वस्य विशेषणं विशेष्यं च स्यात् । सम्वन्धे सत्येव हि द्रव्यगणकर्मादावेकस्य विशेषणत्वमपरस्य विशेष्यत्वं दृष्टम् । तदभावेपि विशेषणविशेष्यभावकल्पनायामतिप्रसंङ्गः स्यात् । २० न चौत्रादृष्टलक्षणः सम्बन्धो विशेषणविशेष्यभावनिवन्धनम इत्यभिधातव्यम् । षोढासम्बन्धवादित्वव्याघातानुषङ्गात् । ने चात्य सम्वन्धरूपता। सम्वन्धो हि द्विष्ठो भवताभ्युपेतः। अदृष्टः श्वात्मवृत्तितया प्रागभावाऽनादित्वयोरतिष्टन्कथं द्विष्ठो भवतीति चिन्त्यमेतत् ? यदि चात्रादृष्टः सम्बन्धः तर्हि गुणगुण्यादयोप्यत १५ एव सम्बद्धा भविष्यन्तीत्यलं समवायादिसम्बन्धकल्पनया।
किञ्च, अतोनुमानात्सम्बन्धमात्रं साध्यते, तद्विशेषो वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, तादात्म्यलक्षणसम्बन्धस्येष्टत्वात्तन्तु. पटादीनाम् । ननु तेषां तादात्म्ये सति तन्तवः पटो वा स्यात्, तथा च सम्वन्धिनोरेकत्वे कथं सम्बन्धो नामास्य द्विष्ठत्वात् ? २० तदप्ययुक्तम् ; यो हि द्विष्ठः सम्बन्धस्तस्येत्थमभावो युक्तः, यस्तु तत्स्वभावतालक्षणः कथं तस्याभावो युक्तः? तन्तुस्वभाव एव हि पटो नार्थान्तरम् , आतानवितानीभूततन्तुव्यतिरेकेण देशभेदादिना पटस्यानुपलभ्यमानत्वात् ।
अथ सम्बन्धविशेषः साध्यते; स किं संयोगः, समवायो वा ? २५ संयोगश्चेत्, अभ्युपगमबाधा । समवायश्चेत् ; दृष्टान्तस्य साध्यविकलता।
अथोच्यते-न संयोगः समवायो वा साध्यते किन्तु सम्बन्ध मात्रम् , तत्सिद्धौ च परिशेषात् समवायः सिध्यतीति; तदप्युक्तिमात्रम्, परिशेषन्यायेन समवायस्य सिद्धरसंभवात् , तस्यानेक
१ यतः । २ सह्यविन्ध्ययोरपि विशेषणविशेष्यभावप्रसङ्गः सम्बन्धाभावाविशेषात् । ३ प्रागभावे । ४ अप्रवर्त्तमानः सन् । ५ इह तन्तुषु पट इत्यादीहप्रत्ययः सम्बन्धकार्योऽबाध्यमानेहप्रत्ययत्वादित्यतः । ६ जनानाम् । ७ सम्बन्धिनोरेकत्वप्रकारेण । ८ तन्तव एव स्वभावो यस्य पटस्यासी तथोक्तस्तस्य भावस्तत्स्वभावता सैव लक्षणं यस्य सम्बन्धस्येति बसः। ९ इह कुण्डे दधीत्यादिप्रत्ययवदित्यस्य ।
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सू० ४११०] समवायपदार्थविचारः दोषदुष्टत्वेन प्रतिपादितत्वात् । यदि हि संवन्धान्तरमनेकदोपदुष्टं समवायस्तु निदाषः स्यात् , तदासौ तन्न्यायात् सिध्येत् । न चैवमित्युक्तम् ।
कश्चायं परिशेपो नाम ? प्रसक्तप्रतिपेधे विशि(धे शि)प्यमाणसंप्रत्ययहेतुः से इति चेत् । स किं प्रमाणम् , अप्रमाणं वा ? न५ तावप्रमाणमभिप्रेतसिद्धौ समर्थम् ; अतिप्रसङ्गात् । प्रमाणं चेतिक प्रत्यक्षम् , अनुमानं वा? न तावत्प्रत्यक्ष तत्य प्रसक्तप्रतिषेध. द्वारेणाभिप्रेतसिद्धावसमर्थत्वात् । अथ केवलव्यतिरेक्यनुमान परिशेषः, तर्हि प्रकृतानुमानोपन्यासवैयर्थ्यम् , तस्योपन्यालेपि परिशेषमन्तरेणाभिप्रेतसिद्धेरभावात् । परिशेषस्तु प्रमाणान्तर-१० मन्तरेणापि तत्सिद्धौ समर्थ इति स एवोच्यताम् , न चासायुक्तः, तत् कथं समवायः सिध्येत् ?
ननु चेहप्रत्ययस्य समवायाहेतुकत्वे निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात् कादाचित्कत्वविरोधः, तदसत्; तादात्म्यहेतुकतयास्य प्रतिपादितत्वात्। महेश्वरहेतुकत्वाद्वा कादाचित्कत्वाविरोधः। तस्य तदहेतु-१५ कत्वे वा तेनैव कार्यत्वादिहेतोर्व्यभिचारः। ननु महेश्वरोऽसम्बन्धत्वात्कथं लस्बन्धबुद्धेः कारणमिति चेत् ? प्रभुशक्तेरविन्त्यत्वात्। यो हीश्वरस्त्रैलोक्यकार्यकरणसामर्थः स कथं 'पटे रूपादयः' इति बुद्धिं न विद्ध्यात् ? प्रभुः खलु यदेवेच्छति तत्करोति, अन्यथा प्रभुत्वमेवास्य हीयते । नच 'इह कुण्डे दधि' इत्यादिप्रत्यये २० सम्बन्धपूर्वकत्वोपलम्भादत्रापि तत्पूर्वकत्वस्यैव सिद्धिः; तंत्रापीश्वरहेतुकत्वं कार्यस्येच्छतेस्तच्चोद्यानिवृत्तः । संयोगश्चार्थान्तरभूतस्तन्निमित्तत्वेनात्राप्यसिद्धः; तस्यासिद्धस्वरूपत्वात्।
"ननु संयोगो नामार्थान्तरं न स्यात्तदा क्षेत्रे बीजायो निर्विशिष्टत्वात् सर्वदैवाङ्कुरादिकार्य कुर्युः, न चैवम् । तस्मात्सर्वदा२५
१ संयोगतादात्म्यादिरूपम् । २ प्रसक्तः प्रसङ्गप्राप्तः सर्वजनप्रसिद्धो वा संयोगतादात्म्यरूपः, तस्य प्रतिषेधे सति विशिष्यमाणः समवायरूपस्तस्य सम्यक् प्रतीतिहेतुरित्यर्थः। ३ परिशेषः । ४ प्रत्यक्षस्य सन्निहितरूपादिष्वेव प्रवर्तमानत्वात् । ५ परिशेषोपि प्रमाणान्तरमन्तरेण तत्सिद्धावसमर्थो भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ६,७ इहेदमिति प्रत्ययस्य । ८ इहेदमिति प्रत्ययस्य । ९ इह तन्तुषु पट इत्यादीहप्रत्ययेपि । १० इह कुण्डे दधीत्यादिप्रत्यये। ११ दधीत्यादिप्रत्ययस्य । १२ वैशेषिकस्य । १३ तच्चो हि महेश्वरहेतुकत्वाद्वा कादाचित्कत्वाविरोध इत्यादि। १४ अौँ संयोगक्रियाधारौ ताभ्यामन्यः संयोग इत्यर्थः । १५ इहेति प्रत्ययनिमित्तत्वेन। १६ रह कुण्डेपि । १७ संयोगे सत्यप्यपूर्वसामोद्भवाभावादित्यर्थः । १८ गृहे स्थापिताः सन्तोपीत्यर्थः।
प्र. क. मा० ५२
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० कार्यानारम्भात् तेऽङ्करादिकार्योत्पत्तो कारणान्तरसापेक्षाः, यथा मृत्पिण्डदण्डादयो घटकरणे कुस्मकारादिसापेक्षाः । योसाव. पेक्ष्यः स संयोग इति।
किञ्च, द्रव्ययोर्विशेषेणभावेनाध्यक्षत एवासौ प्रतीयते; तथाहि५कैश्चित्केनचित् 'संयुक्ते द्रव्ये आहर' इत्युक्ते ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति, न द्रव्यमात्रम् ।
किञ्च, 'कुण्डली देवदत्तः' इत्यादिमतिरुपजायमाना किन्निवन्धनेत्यभिधातव्यम् ? न तावत्पुरुषकुण्डलमानिवन्धना; सर्वदा
तस्याः सद्भावप्रसङ्गात् । २० किञ्च, यदेव केनचित्क्वचिदुपलब्धसत्त्वं तस्यैवान्यत्र विधि
प्रतिषेधमुखेन लोके व्यवहारप्रवृत्तिर्दृष्टा । यदि तु संयोगो न कदाचिदुपलब्धस्तत्कथमस्य 'चैत्रोऽकुण्डली कुण्डली' वा इत्येवं विभागेन व्यवहारो भवेत् ? 'चैत्रोऽकुण्डली' इत्यत्र हि न कुण्डलं
चैत्रो वा प्रतिषिध्यते देशादिभेदेनानयोः सतोःप्रतिषेधायोगात। १५ तस्माच्चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते । तथा 'चैत्रः कुण्डली'
इत्यनेनापि विधिवाक्येन चैत्रकुण्डलयोर्नान्यतरस्य विधानं तयोः सिद्धत्वात् । पारिशेष्यात्संयोगस्यैव विधिर्विज्ञायते ।" [न्यायवा० पृ० २१८-२२२]
इत्यप्युयोतकरस्य मनोरथमात्रम्; तथाहि-यत्तावदुक्तम्२० निर्विशिष्टत्वाद्वीजादयः सर्वदैवाङ्कुरं कुर्युः; तयुक्तम् । तेषां निर्विशिष्टत्वासिद्धेः, सकलभावानां परिणामित्वात् । ततो विशिष्टपरिणामापन्नानामेव तेषां जनकत्वं नान्यथा।
यञ्चोक्तम्-'सर्वदा कार्यानारम्भात्' इत्यादि; तत्रापि कारणमात्रसापेक्षत्वसाधने सिद्धसाध्यता, अस्माभिरपि विशिष्टपरिणा२५ मापेक्षाणां तेषां कार्यकारित्वाभ्युपगमात् । अथाभिमतसंयोगा ख्यपदार्थान्तरसापेक्षत्वं साध्यते; तदानेन हेतोरन्वयासिद्धेरनैकान्तिकता, तमन्तरेणापि संभवाविरोधात् । दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता । यदि च संयोगमात्रसापेक्षा एव ते तजनकाः, तर्हि प्रथमोपनिपाते एव क्षित्यादिभ्योङ्कुरादिकार्योदयप्रसङ्गः पश्चा
१ कारणान्तरं संयोगः। २ द्रव्ये संयोगवती इति । ३ पुमान् । ४ पुंसा। ५ संयोगरूपापूर्वस्वभावप्रादुर्भावानपेक्षा। ६ पुरुषकुण्डलयोः पार्थक्येन स्थिता वस्थायामपीत्यर्थः । ७ चैत्रोऽकुण्डलीति निषेधवाक्येन । ८ अन्वयः अविनाभावः ९ मृत्पिण्डादयः 'कुम्भकारापेक्षा घटकरणे प्रभवन्ति तथापि नासौ कुम्भकार संयोगस्वरूप इति ।
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सू०४।१०] समवायपदार्थविचारः दिवाविकलकारणत्वात् । तदा तदनुत्पत्तौ वा पश्चादप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गो विशेषाभावात् ।
यद्प्युक्तम्-द्रव्ययोर्विशेषणभावेनेत्यादिः तदप्ययुक्तम् ; यतो न द्रव्याभ्यामर्थान्तरभूतः संयोगः प्रतिपतुः प्रत्यक्षे प्रतिभाति यतस्तदर्शनाद्विशिष्टे द्रव्ये आहरेत् । किं तर्हि ? प्राग्भाविसान्तराव-५ स्थापरित्यागेन निरन्तरावस्थारूपतयोत्पन्ने क्रतुनी एव संयुक्तशब्दवाच्ये, अवस्थाविशेष प्रभावितत्वात् संयोजशइत्य । तेन यत्र तथाविधे वस्तुनी संयोगशब्द विषयमावापन्ने पश्यति ते एवाहरति, नान्ये।
यदप्युक्तम्-कुण्डलीत्यादिः तदप्युक्तिमात्रम् ; यतो यथैव हि १० चैत्रकुण्डलयोर्विशिष्टावस्थाप्राप्तिः संयोगः सर्वदा न भवति, तद्वत् 'कुण्डली' इति मतिरप्यवस्थाविशेपनिवन्धना कथं तदभावे भवेत् ? विधिप्रतिषेधावपि न केवलयोश्चैत्रकुण्डलयोः, किन्त्ववस्थाविशेषस्यैवेत्युक्तदोषानवकाशः । ततो ये अनेकवस्तुसन्निपाते सत्युपजायन्ते प्रत्यया न ते परपरिकल्पित-१५ संयोगविषयाः यथा प्रविरलावस्थितानेकतन्तुविषयाः प्रत्ययाः, तथा चैते संयुक्तप्रत्यया इति ।
यच्चान्यदुक्तम्-'विशेषविरुद्धानुमान सकलानुमानोच्छेदकत्वान वक्तव्यमिति; तत्किमनुमानाभासोच्छेदकत्वान्न वाच्यम् , सम्यगनुमानोच्छेदकत्वाद्वा? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः, न हि काला-२० त्ययापदिष्टहेतूत्थानुमानोच्छेदकस्य प्रत्यक्षादेरनुमानवादिनोपन्यासो न कर्तव्योऽतिप्रंसक्तेः। द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः, न हि धूमादिसस्यगनुमानस्य विशेषविरुद्धानुमानसहस्त्रेणापि प्रत्यक्षादिभिरपहृतविषयेण वाधा विधातुं पार्यते । न च विशेषविरुद्धानुमानत्वादेवेदमवाच्यम्; यतो न विशेषविरुद्धानुमानत्वम-२५ सिद्धत्वादिवद्धत्वाभासनिरूपणप्रकरणे दोषो निरूपितो येनानु. मानवादिभिस्तदसिद्धत्वादिवन्न प्रयुज्यते । ततो यहुष्टमनुमानं तदेव विशेषविघाताय न प्रयोक्तव्यम्-यथा 'अयं प्रदेशोत्रत्येनाग्निनाग्निमान्न भवति धूमवत्त्वान्महानसवत्' इत्यादिकम् । यतस्तेन यो विशेषो निराक्रियते स प्रत्यक्षेणैव तद्देशोपसर्पणे ३०
१ कुम्भकारस्य संयोगरूपत्वाभावादेव। २ उच्चारितत्वात् । ३ अवस्थात्र संयुक्तरूपा। ४ चैत्रकुण्डलयोविधिप्रतिषेधलक्षण उक्तदोषः। ५ इन्द्रियाणां सन्निकर्षे । ६ अत्र प्रकरणे विशेषः समवायः। ७ कालात्ययापदिष्टहेत्वाभासस्येव प्रत्यक्षादेरप्युच्छेदानुप्रसङ्गात् । ८ जैनाचैः। ९ तस्य अग्नेः।
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६१६
अमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० सति प्रतीयते । न चैतत् समवाये संभवातिः प्रत्यक्षागोचर. त्वेनास्य प्रतिपादितत्वात् । न चातद्विषयं बाधकमातिप्रंसगात्।
यत्पुनरुक्तम्-न चास्य संयोगवन्नानात्वमित्यादि; तदप्यसमीचीनम् । तदेकत्वस्यानुमानबाधितत्वात् । तथाहि-अनेकः सम५वायो विभिन्नदेशकालाकारार्थेषु सम्बन्धबुद्धिहेतुत्वात् । यो य इत्थंभूतःस सोनेकः यथा संयोगः, तथा च समवायः, तस्मादनेक इति । प्रसिद्धो हि दण्डपुरुषसंयोगात् कटकुड्यादिसंयोगस्य भेदः। "निविडः संयोगः शिथिलः संयोगः' इति प्रत्ययभेदात्संयोगस्य
भेदाभ्युपगमे 'नित्यं समवायः कदाचित्समवायः' इति प्रत्यय१० भेदात्समवायस्यापि भेदोस्तु । समवायिनोनित्यकादाचित्कत्वाभ्यां समवाये तत्प्रत्ययोत्पत्तौ संयोगिनोर्निविडत्वशिथिलत्वाभ्यां संयोगे तथा प्रत्ययोत्पत्तिः स्यान्न पुनः संयोगस्य निवि. डत्वादिस्वभावभेदात्, इत्येकं संधिसोरन्यत् प्रच्यवते।
तथा, 'नाना समवायोऽयुतसिद्धावयविद्रव्याश्रितत्वात् संख्या. १५वत्' इत्यतोप्यस्यानेकत्वसिद्धिः। न चेदमसिद्धम् ; अनाश्रितत्वे हि
समवायस्य "पंण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य” [प्रश०भा० पृ१६] इत्यस्य विरोधः। अथ न परमार्थतः समवायस्याश्रितत्वं नाम धर्मो येनानेकत्वं स्यात् किन्तूपचारात् । निमित्तं तूपचारस्य
समवायिषु सत्सु समवायज्ञोनम् । तत्त्वतो ह्याश्रितत्वेस्य खान२० यविनाशे विनाशप्रसङ्गो गुणादिवत्, इत्यप्ययुक्तम् । विशेषपरित्यागेनाश्रितत्वसामान्यस्य हेतुत्वात् , दिगादीनामाश्रितत्वापत्तेश्व, मूलद्रव्येषूपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु दिग्लिङ्गस्य 'इमतः पूर्वेण' इत्यादिप्रत्ययस्य काललिङ्गस्य च परत्वापरत्वादिप्रत्ययस्य सद्भावात् ।
तथा च 'अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः' इति विरुध्यते । सामान्यस्या२५ नाश्रितत्वप्रसङ्गश्च; आश्रयविनाशेप्यविनाशात् समवायवत् ।
अस्तु वानाश्रितत्वं समवायस्य, तथाप्यनेकत्वमनिवार्यम्; तथाहि-अनेकः समवायोऽनाश्रितत्वात्परमाणुवत् । नाकाशादि
१ गगनकुसुमस्यापि बाधकत्वप्रसङ्गात् । २ संबन्ध इति बुद्धिः संबन्धबुद्धिः, तस्याः। ३ दृष्टान्तं समर्थयति । ४ परमाणुतद्रूपयोः। ५ तन्तुपटयोः। ६ सम• वायस्य । ७ वैशेषिकस्य । ८ द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानाम् । ९ ग्रन्थस्य । १० स्वरूपम् । ११ तन्तुपटादिषु। १२ समवाय इति ज्ञानम् । १३ स्वाश्रयादभिन्नत्वात्। १४ गुणो गुण्याश्रितः, अवयवोवयव्याश्रित इति विशेषपरित्यागेन। १५ आश्रयविनाशेप्याश्रितत्वसामान्यस्याविनाश एव तस्य नित्यत्वात् । १६ दिगादीनामाश्रितत्वे च सति । १७ नित्यद्रव्याणामाश्रितत्वात् ।
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सू० ४१० समवायपदार्थविचारः भिर्व्यभिचारः; तेपामपि कथंचिन्नानात्वलाधनात् । ततोऽयुक्तमुक्तम्- ‘इहेति प्रत्ययाविशेपादिशेपालिङ्गाभावाच्चैकः समवायः' इति । विशेपलिङ्गामावस्यानन्तरप्रतिपादितलिङ्गसद्भावतोऽसिद्धत्वात् । इहेति प्रत्ययाविशेयोप्यसिद्धः, 'इहात्मनि ज्ञानमिह पटे रूपादिकम्' इतीहेति प्रत्ययस्य विशेषात् । विशेषणानुरागो५ हि प्रत्ययस्य विशिष्टत्वम् ! न बानुगत प्रत्ययप्रतीतितः समवायस्यैकत्वं सिध्यति; गोवा दिसालापदाथै रानुगतस्यैकत्वस्यामाप्यनुगतप्रत्ययप्रतीते _ 'सत्तावत्' इति दृष्टान्तोपि साध्यसाधनविकलः सर्वथैकत्वस्य सत्प्रत्ययाविशेषस्य चासिद्धत्वात् । सर्वथैकत्वे हि सत्तायाः १० 'पटः सन्' इति प्रत्ययोत्पत्तौ सर्वथा सत्तायाः प्रतीत्यनुपङ्गात् क्वचित् सत्तालंदेहो न स्यात् । तस्याः सर्वथा प्रतीतावपि तद्विशेष्यार्थानामप्रतीतेः क्वचित्सत्तासंदेहे पटविशेषणत्वं तस्या अन्य दन्यदर्थान्तरविशेषणत्वम् इत्यायातमनेकरूपत्वं तस्याः।
यदप्युक्तम्-समवायीनि द्रव्याणीत्यादिप्रत्ययो विशेषणपूर्वको १५ विशेष्यप्रत्ययत्वादित्यादिः तदप्यनल्पतमोविलसितम्; हेतोविशेषणासिद्धत्वात् । तदसिद्धत्वं च समायानुरागस्याप्रतीतेः। प्रतीतौ वानुमानानर्थक्यम् । को हि नाम समवायानुरक्तं द्रव्यादिकं मन्यमानः समवायं न मन्येत? तदनुरागाभावेपि तेनास्य विशेष्यत्वे खरशृङ्गेणापि तत्स्यादविशेषात् । ननु सम्वन्धानुरक्तं २० द्रव्यादिकं प्रतिभाति । सत्यं प्रतिभाति, समवाये तु किमायातम् ? न च स एव स इति वाच्यम्; तादात्म्यादपि तत्संभवात् संयोगवत् । तथाप्यत्रैवाग्रहे खरविषाणेप्याग्रहः किन्न स्यात् ? 'खरविषाणी पट इति प्रत्ययो विशेषणपूर्वको विशेष्यप्रत्ययत्वात् इति । अत्राश्रयासिद्धतान्यत्रापि समाना । न खलु 'समवायी २५ पटः' इति प्रत्ययः केनाप्यनुभूयते।
अथाप्रतिपन्नसमयस्य संश्लेषमात्रं प्रतिपन्नसमयस्य तु 'समवायी' इति प्रतिभातीति चेत्, न; ज्ञानाद्वयादेः प्रसङ्गात् । शक्यते हि तत्राप्येवं वक्तुम्-अप्रतिपन्नसमयस्य वस्तुमात्रम
१ प्रदेशमेदापेक्षया। २ समवायस्य नानात्वं सिद्धं यतः। ३ भिन्नभिन्नविशेषणसंबन्धः । ४ इहेतिप्रत्ययस्य । ५ भिन्नत्वम् । ६ गोत्वमपि सामान्यं घटत्वमपि सामान्यमिति, अयमपि पदार्थोयमपि पदार्थ इत्येवं प्रकारेण । ७ दण्डाभावे दण्डीति प्रत्ययो यथा न स्यात्तथा समवायलक्षणविशेषणाभावेपि विशेष्यप्रत्ययो न स्यादिति भावः। ८ समवाय एवानुरागः संवन्धस्तस्य । ९ समवायेन। १० द्रव्यादेः। ११ तस्य अनुरागस्य । १२ आदिना ब्रह्माद्वैतादेश्च ।
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६१८
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० भिधानयोजनारहितं प्रतिभाति, संकेतवशाच्चैतत्सर्व ज्ञानात यादि । स्वशास्त्रजनितसंस्कारवशाद्विज्ञानाद्वयादिप्रतिमासोऽन माणम् ; इत्यन्यत्रापि समानम् । न हि तत्रापि स्वशास्त्रसंस्काराहते 'समवायी' इति ज्ञानमनुभवत्यन्यजनः। न चैवच्छास्त्रमप्रमाण५. सेतच प्रमाणमिति प्रेक्षावतां वक्तुं युक्तमविशेषात् ।
समवाय इति प्रत्ययेनानैकान्तिकश्चार्य हेतुः; स हि विशेष्यप्रत्ययो न च विशेषणमपेक्षते । अथात्र समवायिनो विशेषणम् । नन्वस्तु तेषां विशेषणत्वं यत्र 'समवायिनां समवायः' इति प्रतिभासते, यत्र तु'समवायः' इत्येतावाननुभवस्तत्र किं विशेषणमिति १०चिन्त्यताम् ? अथ विशेषणाभावान्नेदं विशेष्यज्ञानम् ; तन्यिस्य विशेष्यस्यात्रासंभवाद्विशेषणज्ञानमपि तन्मा भूत् । न चैतंयुक्तम्। कथं चैवं 'पटः' इति प्रत्ययो विशेष्यः स्यात् विशेषणाभावाविशेषात् ? अथात्र पटत्वं विशेषणम् , तर्हि 'समवायः' इति
प्रत्यये किं विशेषणम् ? न तावत्समवायत्वम् ; अनभ्युपगमात् । १५ अथ येन सता विशिष्टः प्रत्ययो जायते तद्विशेषणम् , तत्र
'समवायः' इति प्रत्ययोत्पादे समवायत्वसामान्यस्यानभ्युपगमात्, ,व्यादेश्चाप्रतिभासनादृष्टस्यैव विशेषणत्वमिति; तन्न यतः किं येन सता विशेष्यज्ञानमुत्पद्यते तद्विशेषणम् , किं वा
यस्यानुरागः प्रतिभाँसते तदिति ? प्रथमपक्षे चक्षुरालोकादेरपि २० तदनिवार्यम् । अथ यस्यानुरागस्तद्विशेषणम् ; न तर्हि 'दण्डी'
इति प्रत्यये दण्डवद्दण्डशब्दोल्लेखेन 'समवायः' इति प्रत्ययेप्यदृष्टस्य तच्छब्दयोजनाद्वारेणानुरागं जनो मन्यते । तथाप्यदृष्टस्य विशेषणत्वकल्पनायाम् 'दण्डी' इत्यादिप्रत्ययेप्यस्यैव तत्कल्प
नास्तु किं द्रव्यादेविशेषणभावकल्पनया? २५ यञ्चोक्तम्-खकारणसत्तासंबन्ध एवात्मलाभ इत्यादि, तन्न;
आत्मलाभस्य स्वकारणसत्तासमवायपर्यायतायां नित्यत्वप्रेसङ्गात्, तन्नित्यत्वे च कार्यस्याविनाशित्वं स्यात् ।
१ अभिधानः शब्दः। २ समवाये। ३ वैशेषिकः। ४ विशेषणपूर्वकलक्षणसाध्याभावात् । ५ विशेष्यप्रत्ययत्वादिति । ६ तन्तुपटादयः। ७ समवायिभ्यां भिन्नस्य । ८ समवायिप्रकरणे । ९ उभयं मा भूदिति । १० समवायः प्रतिभासते इति प्रत्यये विशेषणभूतस्य तन्तुपटादेः। ११ अदर्शनीभूतस्य (पुण्य-पापरूपस्य)। १२ इदं विशेष्यमिति ज्ञानम् । १३ संबन्धः। १४ विशेष्ये। १५ दण्डीति प्रत्यये दण्डशब्दोदेखेन दण्डस्य यथानुरागं मन्यते जनो न तथा प्रकृतेऽदृष्टशब्दयोजनाद्वारेणादृष्टस्यानुरागमिति संबन्धः । १६ अदृष्टानुरागाभ्युपगमाभावेपि । १७ दण्डादेस्तन्तुपटादेवा । १८ कार्यरूपस्य वस्तुनः स्वरूपोद्भवः । १९ सत्तासमवाययोनित्यत्वात् ।
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सू० ४.१०] समवायपदार्थविचारः
६१९ किञ्च, असौ सतां सत्तालनवायः, असतां वा स्यात् ? न तारदसताम् ; व्योमोत्पलादीनामपि तत्प्रसङ्गात् । अथात्यन्तालस्वात्तेषां न तत्पलङ्गः सुगनुयादीचालत्यस्तालवाभावः कुतः? लमवायाञ्चेत् । इतरेतराश्रयः-सिद्ध हि सलवाये तेयामत्यन्तासस्वाभावः, तइयावाद रूनवायः । नापि सताम् : समवायात्पूर्व ५ हि लत्वं तेषां लगवायान्तरल, सतो का? जलवायान्तराचेत्; न अत्यैकत्वान्युपगमात् । अनेकदेवि तोपि पूर्व (व)लमवा. यन्तरात्तेषा तत्त्वमित्यनवस्था स्वतः सत्त्वाभ्युपगमे तु समवायपरिकल्पनानर्थक्यम् । ननु न समवायात् पूर्व तेषां सत्वमसत्त्वं वा, सत्तासमवायात्सत्त्वाभ्युपगमात्; इत्यप्यसङ्गतम्:१० परस्परव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्यापरविधाननान्तरीयकत्वेनोभयनिषेधविरोधात् । न चानुपकारिणोः सत्तासमवाययोः परस्परसम्बन्धो युक्तोतिप्रसङ्गात् ।
अव्यापि चेदं सत्त्वलक्षणम् सत्तासमवायान्त्यविशेपेषु तस्यासंभवात् । “त्रिपु पदार्थेषु सत्करी संत्ता"[ ] इत्यभिधा-१५ नात्। अतिव्यापि चाकाशकुशेशयादिष्वपि भावात् । न च तेषामसत्वान्न सत्तासमवायः, अन्योन्याश्रयानुपङ्गात्-असत्त्वे हि तेषां सत्तासमवायविरहः, तद्विरहाच्चासत्त्वमिति। न च सत्तासमवायः सत्वलक्षणं युक्तमर्थान्तरत्वात् । न लान्तरमर्थान्तरस्य खरूपम् ; अतिप्रसंङ्गादर्थान्तरत्वहानिप्रसङ्गाच्च ।
२० किञ्च, सत्तासमवायात्पदार्थानां सत्त्वे तयोः कुतः सत्त्वम् ? असत्संवन्धात्सत्त्वे अतिप्रसङ्गात् । सत्तासमवायान्तराञ्चेत्, अनवस्था । स्वतश्चेत् ; पदार्थानामपि तत्खत एवास्तु किं सत्ता. समवायेन?
यदप्यभिहितम्-अग्नेरुष्णतावदित्यादिः तदप्यभिधानमात्रम्:२५ यतः प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थखभावे स्वभावैरुत्तरं वक्तुं युक्तम् । न च 'समवायस्य खतः सम्वन्धत्वं संयोगादीनां तु तस्मात्' इत्यध्यक्ष
१ व्योमोत्पलादीनां सर्वथा असत्त्वे प्रतिपादिते आचार्याः प्राहुः। २ अस्ससमवायस्य । ३ अतोपि विवक्षितसमवायान्तरादपि । ४ सताम् । ५ व्यवच्छेदो हि परस्पर विरुद्धधर्मयोगिनामेव स्यात् । ६ परस्परम् । ७ द्वन्द्वोत्र ज्ञेयः। ८ तेषां खरूपेणैव सत्त्वस्वभावत्वात् । ९ तेषां हि सत्तासंबन्धादेव सत्त्वं स्वयं त्वसत्त्वमेवेति भावः। १० घटस्य पटवरूपत्वप्रसङ्गात्। ११ सञ्चां सत्तासमवायाभ्यां संवन्धः सत्संबन्धः, न सत्संबन्धोऽसत्संबन्धः। १२ गगनकुसुमादिषु । १३ अपरसचासमवायाभ्यां संबन्धाभावेपीत्यर्थः ।
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६२०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
[४. विषयपरि०
प्रसिद्धम् , तत्वरूपस्याध्यक्षाद्यगोचरत्वप्रतिपादनात् । 'समवा. योन्येने संवध्यमानो न स्वतः संबध्यते संवध्यमानात्वाद्रपादिवत्' इत्यनुमानविरोधाच्च । यदि चाग्निप्रदीपगङ्गोदकादीनामुष्ण प्रकाशपवित्रतावत्समवायः स्वपरयोः सम्वन्धहेतुः; तर्हि तदृष्टा५न्तावष्टंम्भेनैव ज्ञानं स्वपरयोः प्रकाशहेतुः किन्न स्यात् ? तथाच "ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात्" [ ] इति प्लवते।
यच्चोच्यते-'समवायः सम्बन्धान्तरं नापेक्षते, खतः सम्वन्धत्वात् , ये तु सम्वन्धान्तरमपेक्षन्ते न ते स्वतः सम्वन्धाः यथा घटा
दयः, न चायं न स्वतः सम्वन्धः, तस्मात्सम्बन्धान्तरं नापेक्षते इतिः १० तदपि मनोरथमात्रम् ; हेतोरसिद्धः। न हि समवायस्य स्वरूपासिद्धौ स्वतः सम्वन्धत्वं तत्र सिध्यति । संयोगेनानेकान्ताच; स हि स्वतः सम्बन्धः सम्वन्धान्तरं चापेक्षते । न हि स्वतोऽसम्वन्धस्वभावत्वे संयोगादेः परतस्तयुक्तम् ; अतिप्रसङ्गात् । घंटादीनां च
सम्वन्धित्वान्न परतोपि सम्बन्धत्वम् । इत्ययुक्तमुक्तम्-'न ते १५ स्वतःसम्बन्धाः' इति । तन्नास्य स्वतः सम्बन्धो युक्तः।
परतश्चेत्किं संयोगात्, समवायान्तरात्, विशेषणभावात्, अदृष्टाद्वा? न तावत्संयोगात्; तस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रयत्वात् , समवायस्य चाद्रव्यत्वात् । नापि समवायान्तरात्; तस्यैकरूपतयाभ्युपगौत्, “तत्त्वं भावेन" व्याख्यातम् [वैशे० सू० २०७२।२८] इत्यभिधानात् ।
नापि विशेषणभावात् ; सम्वन्धान्तभिसम्वद्धार्थेष्वेवास्य प्रवृत्तिप्रतीतेर्दण्डविशिष्टः पुरुष इत्यादिवत्, अन्यथा सर्व सर्वस्य विशेषणं विशेष्यं च स्यात् । समवायादिसम्बन्धानर्थक्यं च, तद्
भावेपि गुणगुण्यादिभावोपपत्तेः । समवायस्य समवायिविशे२५षणतानुपपत्तिश्च, अत्यन्तमर्थान्तरत्वेनातद्धर्मत्वादाकाशवत् ।
न खलु 'संयुक्ताविमौ' इत्यत्र संयोगिधर्मतामन्तरेण संयोगस्य
१ तस्य समवायस्य । २ तन्तुपटादिलक्षणसंबन्धिना सह । ३ समवायसमवायिनोः । ४ अवष्टम्भोऽवलम्बः साहाय्यं वा । ५ स्वतःसंबन्धत्वादिति हेतोः। ६ न केवलं हेतोरसिद्धरेव । ७ आदिना संयुक्तसमवायादिसंबन्धग्रहणम् । ८ समवायात् । ९ तत्-संबन्धत्वम् । १० दृष्टान्तभूतानाम् । ११ संयोगात्। १२ 'समवायस्य संबन्धः स्वसमवायिषु' इति शेषः । १३ समवायस्य । १४ परेण । १५ एकत्वम् । १६ सत्तया। १७ संबन्धान्तरं तादात्म्यसंयोगादि । समवायसमवायिलक्षणेष्वित्यपरा टिप्पणी। १८ विशेषणभावस्य । १९ अतद्धर्मत्वं च स्यात्समवायिनां विशेषणत्वं च स्यादिति सन्दिग्धानकान्तिकत्वपरिहारार्थमिदमाह ।
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सू० ४।१० 1
समवायपदार्थविचारः
६२१
तद्विशेषणता दृष्टा । न च समवायसमवायिनां सम्वन्धान्तराभिसम्बद्धत्वम्; अनभ्युपगमात् ।
किञ्च, विशेषेणभावोप्येतेभ्योत्यन्तं भिन्नस्तत्रैव कुतो नियाम्येत ? समवायाच्चेत्; इतरेतराश्रयः समवायस्य नियमसिद्धौ हि ततो विशेषणभावस्य नियमसिद्धिः तत्सिद्धेश्व समवायस्य ५ तत्सिद्धिरिति ।
3
9
किञ्च, अयं विशेषणभावः षट्पदार्थेभ्यो भिन्नः अभिन्नो वा ? भिन्नश्चेत्; किं भावरूपः, अभावरूपो वा ? न तावद्भावरूपः 'पडेव पदार्थाः' इति नियमविरोधात् । नाप्यभावरूपः; अनभ्युपगमात् । अभेदेपि न तावद्द्रव्यम्; गुणाश्रितत्वाभावप्रसङ्गात् । अत एव १० न गुणोपि । नापि कर्मः कर्माश्रितत्वाभावानुषङ्गात् । "अकर्म कर्म" [ ] इत्यभिधानात् । नापि सामान्यम् ; समवाये तदनुपपत्तेः, पदार्थत्रयवृत्तित्वात्तस्य । नापि विशेषः विशेषाणां नित्यद्रव्याश्रितत्वात् । अनित्यद्रव्ये चास्योपलम्भात् समवाये चाभावानुषङ्गात् । युगपदनेकसमवायिविशेषणत्वे चास्यानेकत्व - १५ प्राप्तिः । यदिह युगपदनेकार्थविशेषणं तदनेकं प्रतिपन्नम् यथा दण्डकुण्डलादि, तथा च समवायः, तस्मादनेक इति । न च सत्त्वादिनाऽनेकान्तः, तस्यानेकस्वभावत्वप्रसोधनात् । तन्न विशेषणभावेनाप्यसौ सम्बद्धः ।
नाप्यऽद्दष्टेन; अस्य सम्बन्धरूपत्वासम्भवात् । सम्बन्धो हि २० द्विष्टो भवताभ्युपगतः, अदृष्टश्चात्मवृत्तितया समवायसमवायिनोरतिष्ठन् कथं द्विष्टो भवेत् ? षोढा सम्बन्धवादित्वव्याघातश्च । यदि चाऽदृष्टेन समवायः सम्बध्यते तर्हि गुणगुण्यादयोप्यत एव सम्बद्धा भविष्यन्तीत्यलं समवायादिकल्पनया । न चादृष्टोप्यसम्बद्धः समवायसम्बन्धहेतुः अतिप्रसङ्गात् । सम्बद्धश्चेत्; २५ कुतोस्य सम्बन्धः ? समवायाच्चेत्; अन्योन्यसंश्रयः । अन्यतश्चेत्; अभ्युपगमव्याघातः । तन्न सम्बद्धः समवायः ।
नाप्यसम्बद्धः ' षण्णामाश्रितत्वम्' इति विरोधानुषङ्गात् । कथं चासम्बद्धस्य सम्बन्धरूपतार्थान्तरवत् ? सम्बन्धबुद्धिहेतुत्वाच्चेत्; महेश्वरादेरपि तत्प्रसङ्गः । कथं चासम्बद्धो सौ सम - ३०
१ समवायस्य । २ समवायिभ्यः 1 ३ विशेषा नित्यद्रव्यवृत्तय इति वचनात् । ४ विशेषणभावस्य । ५ पूर्वम् । ६ समवायसिद्धौ हि समवायेनादृष्टस्य सम्बन्धत्वं सिध्यति तत्सिद्धौ चाऽदृष्टस्य सम्बद्धस्य समवायहेतुत्वं सिध्यति ।
७ समवायः स्वत
एव सम्बद्ध इत्यभ्युपगमः । ८ मतस्य ।
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६२२
प्रमेयकमलमार्तण्डे [४. विषयपरि० वायिनोः सम्बन्धबुद्धिनिवन्धनम् ? न ह्यङ्गुल्योः संयोगो पटयोरप्रवर्त्तमानस्तयोः सम्वन्धबुद्धिनिवन्धनं दृष्टः । तथा. 'इहात्मनि ज्ञानमित्यादिसम्बन्धबुद्धिर्न सम्बन्ध्यऽसम्बद्धसम्ब न्धपूर्विका सम्वन्धवुद्धित्वात् दण्डपुरुषसम्बन्धबुद्धिवत्' इत्यनु५मानविरोधश्च।
किञ्च, अयं समवायः समवायिनो परिकल्प्यते, असमवाय. नोर्वा ? यद्यसमवायिनोः; घटपटयोरप्येतत्प्रसङ्गः । अथ समः वायिनो, कुतस्तयोः समवायित्वम्-समवायात्, खतो वा?
समवायाचेत् ; अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि समवायित्वे तयोः समः १० वायः, तस्साच्च तत्त्वमिति ।
किञ्च, अभिन्नं तेनानयोः समवायित्वं विधीयते, भिन्नं वा ? न तावदभिन्नम्। तद्विधाने गगनादीनां विधानानुषङ्गात् । भिन्नं चेत्, तयोस्तत्सम्बन्धित्वानुपपत्तिः। सम्वन्धान्तरकल्पने चानवस्था। तत एव तनियमे चेतरेतराश्रय:-सिद्धे हि समवायिनोः १५ समवायित्वनियमे समवायनियमसिद्धिः, ततश्च तन्नियमसिद्धि. रिति । स्वत एव तु समवायिनोः समवायित्वे किं समवायेन ?
ननु संयोगेप्येतत्सर्वं समानम् ; इत्यप्यवाच्यम् ; संश्लिष्टतयोत्पन्नवस्तुखरूपव्यतिरेकेणास्याप्यसम्भवात् । भिन्नसंयोगवशात्तु संयोगिनोर्नियमे समानमेवैतत्। २० यच्चान्यदुक्तम्-संयोगिद्रव्यविलक्षणत्वाहुणत्वादीनामित्यादि
तदप्यनुक्तसमम् । यतो निष्क्रियत्वेप्येषामाधेयत्वमल्पपरिमाणत्वात् , तत्कार्यत्वात्, तथाप्रतिभासाद्वा? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः, सामान्यस्य महापरिमार्णगुणस्य चानाधेयत्वप्रसंङ्गात् । द्वितीय पक्षोप्यत एवायुक्तः। २५ तृतीयपक्षोप्यविचारितरमणीयः, तेषामाधेयतया प्रतिभासा
भावात् । तद्भावश्च रूपादीनां वाधारेवन्तर्वहिश्च सत्त्वात् । न हन्यत्र कुण्डादावधिकरणे बदरादीनामाधेयानां तथा सत्त्वमस्ति । अथ रूपादीनामाधेयत्वे सत्यपि युतसिद्धेरभावादुपरि
१ सम्बन्धी । २ घटपटाभ्यां पृथग्भूतः। ३ शब्दगगनाभ्यां समवाय्यभिन्नस्य समवायित्वस्य समवायेन विधानात्तयोरपि विधानमित्यर्थः, एवं शानात्मादिष्वपि । ४ समवायिनोरिदं समवायित्वमिति सम्बन्धाभाव इति भावः। ५ तत्सम्बन्धित्वसिमर्थम् । ६ तस्य-गुण्यादेः। ७ आधेयतया। ८ गगनवत्तिनः। ९ अल्पपरिमाणत्वाभावात् । १० घटादिषु। ११ आधेयस्य बहिरेव सत्त्वसद्भावादिति भावः । १२ अन्तर्बहिःप्रकारेण।
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सू० ४.१०] धर्माधर्मद्रव्यविचारः तनतया प्रतिभासामावः; नं; युतसिद्धत्वस्योपरितनत्वप्रतीत्यहेतुत्वात् , अन्यथोविस्थितवंशादेः क्षीरनीरयोश्च सम्वन्धे तत्प्रसङ्गात् । ततः परपरिकल्पितपदार्थानां विचार्यमाणानां स्वरूपाव्यवस्थितेः कथं 'पडेय पदार्थाः' इत्यवधारणं घटते स्वरूपासिद्धौ संख्यासिद्धेरभावात् ?
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तात्रयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छल जाति निग्रहस्थानानां नैयायिकाभ्युपगतषोडशपदार्थानां पट्पदार्थाधिक्येन व्यवस्थानाच । न च पदार्थषोडशकस्य षट्स्लेवान्तर्भावानातोधिकपदार्थव्यवस्थेत्यभिधातव्यम् ; द्रव्यादीनामपि षण्णां प्रमाणप्रमेयरूपपदार्थद्वये-१० ऽन्तर्भावात्पदार्थषट्कस्याप्यनुपपत्तेः । अथ तदन्तर्भावेप्यवान्तरविभिन्नलक्षणवशात् प्रयोजनवशाच द्रव्यादिषट्कव्यवस्था; तर्हि तत एव प्रमाणादिषोडशव्यवस्थाप्यस्तु विशेषाभावात् । न च सापि युक्ता; परोपगतस्वरूपाणां प्रमाणादीनां यथास्थानं प्रतिषेधात्, विपर्ययानध्यवसाययोश्च प्रमाणादिपोडशपदार्थेभ्यो-१५ ऽर्थान्तरभूतयोः प्रतीतेः।
धर्माधर्मद्रव्ययोश्च। कुतः प्रमाणातत्तिद्धिरिति चेत् ? अनुमानात्; तथाहि-विवादापन्नाः सकलजीवपुरलाश्रयाः सकृद्तयः साधारणवाह्यानिमित्तापेक्षाः, युगपद्भाविगतित्वात् , एकसरःसलिला श्रयानेकमत्स्यगतिवत् । तथा सकलजीवपुद्गलस्थितयः२० साधारणवाह्यनिमित्तापेक्षाः, युगपद्भाविस्थितित्वात् , एककु. ण्डाश्रयानेकबदरादिस्थितिवत् । यत्तु साधारणं निमित्तं स धर्मोऽधर्मश्च, ताभ्यां विना तंद्रतिस्थितिकार्यस्यासम्भवात् ।
गतिस्थितिपरिणामिन एवार्थाः परस्परं तद्धेतवश्चेत्, न; अन्योन्याश्रयानुपङ्गात्-सिद्धायां हि तिष्ठत्पदार्थेभ्यो गच्छत्पदा-२५ र्थानां गतौ तेभ्यस्तिष्ठत्पदार्थानां स्थितिसिद्धिः, तत्सिद्धौ च गच्छत्पदार्थानां गतिसिद्धिरिति । साधारणनिमित्तरहिता एवाखिलार्थगतिस्थितयः प्रतिनियतखकारणपूर्वकत्वादिति चेत्; कथमिदानीं नर्तकीक्षणो निखिलप्रेक्षकजनानां नानातवेदनो
१ इति चेन्न इत्यर्थः । २ युतसिद्धयोः। ३ उपरितनतया प्रतिभासस्य । ४ प्रमाणप्रमेयपदार्थद्वयेन्तभावः षण्णां विश्वतत्त्वप्रकाशिकायाम्। ५ विभिन्नलक्षणवशात्प्रयोजनवशाच्च द्रव्यादिषट्कव्यवस्था भवति प्रमाणादिषोडशव्यवस्था च न भवतीति विशेष नोत्पश्यामः। ६ बसः। ७ बाह्यं निमित्तं धर्मः। ८ अत्र निमित्तमधर्मः । ९ तस्य सकलजीवादेः। १० नर्तकी एव क्षणः पर्यायः । ११ कामोत्कटहर्षादि ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० त्पत्तौ साधारण निमित्तम् ? सहकारिमात्रत्वेने चेत; ताई सकलार्थगतिस्थितीनां सद्भुवां धर्माधों सहकारिमात्रत्वेन साधारणं निमित्तं किन्नेष्यते ?
प्रथिव्यादिदेव साधारणं निमित्तं तासाम्; इत्यप्यसकतम, ५ गगनवर्तिपदार्थगतिस्थितीनां तदसम्भवात् । तर्हि नभः साधारण निमित्तं तासामस्तु सर्वत्र भावात् ; इत्यप्यपेशलम् । तस्यावगाह निमित्तत्वप्रतिपादनात् । तस्यैकस्यैवानेकेकार्यनिमित्ततायाम अनेकसर्वगतपदार्थपरिकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात्, कालात्मदि
क्सामान्यसमवायकार्यस्यापि योगपद्यादिप्रत्ययस्य वुद्ध्यादेः १० इदमतः पूर्वण' इत्यादिप्रत्ययस्य अन्वयज्ञानस्य 'इहेदम्' इति
प्रत्ययस्य च नमोनिमित्तस्योपपत्तेस्तस्य सर्वत्र सर्वदा सद्भावात् । कार्यविशेषात्कालादिनिमित्तभेद्व्यवस्थायाम् तत एव धर्मादिनिमित्तभेदव्यवस्थाप्यस्तु सर्वथा विशेषाभावात्।
एतेनादृष्टनिमित्तत्वमप्यासां प्रत्याख्यातम् ; पुद्गलानामदृष्टा१५ सम्भवाच्च । ये यदात्मोपभोग्याः पुद्गलास्तद्गतिस्थितयस्तदा
त्माऽदृष्टनिमित्ताश्चेत् ; तासाधारणं निमित्तमदृष्टं तासांप्रति. नियतात्मादृष्टस्य प्रति नियतद्रव्यगतिस्थितिहेतुत्वप्रसिद्धः । न च तनिष्टं तासां क्षमादेरिवासाधारणकारणस्यादृष्टस्यापीष्टत्वात् । साधारणं तु कारणं तासां धर्माधर्मावेवेति सिद्धः कार्यविशेषा२० त्तयोः सद्भाव इति ।
अथेदानीं फैलविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थमज्ञाननिवृत्तिरित्याद्याह
अज्ञाननिवृत्तिः हानोपादानोपेक्षाश्च
__फलम् ॥ ५॥१॥ २५ प्रमाणादभिन्नं भिन्नं च ॥ ५॥२॥
१ तस्याः। २ अनेकानि-गतिस्थित्यवगाहलक्षणानि । ३ कार्यविशेषत्वस्य । ४ सकृद्भवां सकलार्थगतिस्थितीनां नभोनिमित्तत्वनिराकरणेन । ५ तेषां पुद्गलानाम् । ६ येनात्मना ते पुद्गला उपभुज्यन्ते तस्य । ७ गत्यादीनाम् । ८ पृथिव्यादेः । ९ जनानाम्। १० विषयविप्रतिपत्तिनिराकरणानन्तरम् । ११ प्रमाणाद्भिन्नमेव 'फलमिति यौगाः अभिन्नमेवेति सौगता इति भिन्नाभिन्नत्वाभ्यां फले विप्रतिपत्तिः ।
* ( परीक्षामुखे-प्रमेयरत्नमालायां च अत्रैव चतुर्धपरिच्छेदस्य समाप्तिः अशाननिवृत्तिः' इत्यादिसूत्रं तु पंचमाध्याये संगणितम् )
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फलस्वरूपविचारः
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द्विविधं हि प्रमाणस्य फलं ततो भिन्नम्, अभिन्नं च । तत्राज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणादभिन्नं फलम् । ननु चाज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणभूतज्ञानमेव, न तदेव तस्यैव कार्य युक्तं विरोधात्, तत्कुतोसौ प्रमाणफलम् ? इत्यनुपपन्नम् यतोऽज्ञानमज्ञतिः स्वपररूपयोर्व्यामोहः, तस्य निवृत्तिर्यथावत्तद्रूपयोज्ञप्तिः, प्रमाणधर्मत्वात् तत्कार्यतया ५ न विरोधमध्यास्ते । स्वविपये हि स्वार्थस्वरूपे प्रमाणस्य व्यामोहविच्छेदाभावे निर्विकल्पकदर्शनात् सन्निकर्याच्चाविशेषप्रसङ्गतः प्रामाण्यं न स्यात् । न च धर्मधर्मिणोः सर्वथा होवो वा तद्भावविरोधानुषङ्गात् तदन्यतरवदर्थान्तरवच्च ।
सू० ४।१०] 1.
अथाज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानमेवेत्यनयोः सामर्थ्यासिद्धत्वान्यथानुपप- १० तेरभेदः तन्नः अस्याऽविरुद्धत्वात् । सामर्थ्यसिद्धत्वं हि दे सत्येवोपलब्धं निमन्त्रणे आकारणवत् । कथं चैवं वादिनो हेतावन्वयव्यतिरेकधर्म योर्भेदः सिध्येत् ? 'साध्यसद्भावेऽस्तित्वमेव हि साध्याभावे हेतोर्नास्तित्वम्' इत्यनयोरपि सामर्थ्यासिद्धत्वा • विशेषात् ।
१५
१२
न चानयोरभेदे कार्यकारणभावो विरुध्यते; अभेदस्य तद्भावाविरोधकत्वाजीव सुखादिवत् । साधकतमस्वभावं हि प्रमाणम् स्वपररूपयोज्ञप्तिलक्षणामज्ञाननिवृत्तिं निर्वर्त्तयति तत्रान्येनास्या निर्वर्त्तनाभावात् । साधकतमस्वभावत्वं चास्य स्वपरग्रहणव्यापार एव तग्रहणाभिमुख्यलक्षणः । तद्धि स्वकारणकलापादुपजायमानं २० स्वपरग्रहणव्यापारलक्षणोपयोगरूपं सत्स्वार्थव्यवसायरूपतया परिणमते इत्यभेदेऽप्येनयोः कार्यकारणभावाऽविरोधः ।
नन्वेवमज्ञान निवृत्तिरूपतयेव हाँनादिरूपतयाप्यस्य परिणमनसम्भवात् तदप्यस्याऽभिन्नमेव फलं स्यात् इत्यप्यसुन्दरम् ; अज्ञा• ननिवृत्तिलक्षणफलेनास्यै व्यवर्धीनसम्भवतो भिन्नत्वाविरोधात् । २५
१ सौगतः प्राह । २ अज्ञाननिवृत्तेः । ३ प्रमाणविषये । ४ प्रमाणधर्मत्वादित्यतस्याऽसिद्धत्वनिरासार्थमिदम् । ५ शानाज्ञाननिवृत्त्योः सामर्थ्यमस्ति तच्चामेदमन्तरेण - नोपपद्यते तस्मादनयोरभेद इति भावः । ६ अभेदमन्तरेण । ७ भेदस्य ॥ ८ आह्वानवत् । ९ अज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानमेवेत्यनयोः सामर्थ्यसिद्धत्वान्यथानुपपत्तेरभेद इत्येवंवादिनः । १० नन्वज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणादभिन्नं फलमित्यनेन प्रकारेण प्रमाणफलयोरभेदे कार्यकारणभावो विरुध्यत इत्युक्ते सत्याह । ११ प्रमाणाज्ञाननिवृत्त्योः । १२ सन्निकर्षादिना । १३ अर्धग्रहणे व्यापारो छुपयोग इति वचनात् । १४ प्रमाणफलयोः । १५ साक्षात्फलमेतत् । १६ परम्पराफलमेतत् । १७ हानादेः । १८ प्रमाणादशाननिवृत्तिः फलं स्यात्, अज्ञाननिवृत्तिफलात्पश्चाद्धानोपादानोपेक्षाश्च फलं स्यादिति भावः ।
प्र० क० मा० ५३
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरिः अत आह-हानोपादानोपेक्षाश्च प्रमाणाद्भिन्न फलम् । अत्रापि कथञ्चिद्भेदो द्रष्टव्यः । सर्वथा भेदे प्रमाणफलव्यवहारविरोधात । अमुसेवार्थ स्पष्टयन् यः प्रमिमीते इत्यादिना लौकिकेतरप्रति पत्तिप्रसिद्धा प्रतीतिं दर्शयति५ यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त
उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥ ५॥३॥ यः प्रतिपत्ता प्रमिमीते स्वार्थग्रहणपरिणामेन परिणमते स एव निवृत्ताज्ञानः स्वविषये व्यामोहविरहितो जहात्यभिप्रेतप्रयो
जनाप्रसाधकमर्थम्, तत्प्रसाधकं त्वादत्ते, उभयप्रयोजनाऽन१० साधकं तूपेक्षणीयमुपेक्षते चेति प्रतीतेः प्रमाणफलयोः कथ. श्चिद्भेदाभेदव्यवस्था प्रतिपत्तव्या ।
नेन्वेवं प्रमातृप्रमाणफलानां भेदाभावात्प्रतीतिप्रसिद्धस्तद्व्यव. स्थाविलोपः स्यात्, तदसाम्प्रतम् ; कथञ्चिल्लक्षणभेदतस्तेषां
भेदात् । आत्मनो हि पदार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यानि-, १५ यमाणं स्वरूपं प्रमाणं निर्व्यापारम्, व्यापारं तु क्रियोच्यते,
खातन्येण पुनर्व्याप्रियमाणं प्रमाता, इति कथञ्चित्तद्भेदः । प्राक्तनपर्यायविशिष्टस्य कथञ्चिदवस्थितस्यैव बोधस्य परिच्छि-' त्तिविशेषरूपतयोत्पत्तेरमेद इति । साधनभेदाच्च तद्भेद, करणसाधनं हि प्रमाणं साधकतमस्वभावम् , कर्तृसाधनस्तु २० प्रमाता खतन्त्रखरूपः, भावसाधना तु क्रिया स्वार्थनिर्णीतिस्वभावा इति कथञ्चिद्भेदाभ्युपगमादेव कायकारणभावस्याप्यविरोधः। . यच्चोच्यते-आत्मव्यतिरिक्तक्रियाकारि प्रमाणं कारकत्वाद्वा
स्यादिवत् । तत्र कथञ्चिद्भेदे साध्ये सिद्धसाध्यता, अज्ञाननिवृत्ते. २५ स्तद्धर्मतया हानादेश्च तत्कार्यतया प्रमाणात्कथञ्चिद्भेदाभ्युपगमात् । सर्वथा भेदे तु साध्ये साध्यविकलो दृष्टान्तः, वास्यादिना
१ इतरः शास्त्रज्ञः। २ यः प्रतिपत्ता प्रमिमीते इत्यादिप्रकारेण । ३ आत्मस्व. रूपम् । ४ परिच्छित्तिरूपा। ५ प्रमाणस्य । ६ फलरूपतया। ७ साधनं करण. कादि । ८ प्रमातृप्रमाणपरिच्छित्तिभेदः। ९ करणे साधनं व्युत्पादनं यस्य, प्रमीयते वस्तुतत्त्वं येनेति तत्करणसाधनं प्रमाणम् । १० कर्तरि साधनं व्युत्पादन यस्य प्रमातुः, प्रमिमीते इति तथोक्तः । ११ प्रमितिः प्रमाणम् । १२ यः प्रतिपत्ता प्रमिमीते इत्यनेन प्रकारेण प्रमाणफलयोरभेदे कार्यकारणभावविरोध इत्युक्ते सत्याह । १३ भात्मा स्वरूपम्।
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सू० ५१३] फलस्वरूपविचारः हि काष्ठादेश्छिदा निरूप्यमाणा छेद्यद्रव्यानुप्रवेशलक्षणैवावतिष्ठते । स चानुप्रवेशो वास्यादेरात्मगत एव धर्मो नार्थान्तरम् । ननु छिदा काष्ठस्था वास्यादिस्तु देवदत्तस्थ इत्यनयो द एव; इत्यप्यसुन्दरम्; सर्वथा मेदस्सर्वमासिद्धेः, सत्त्वादिनाऽमेदस्यापि प्रतीतेः। न च सर्वथा करणाभिन्नैव क्रिया' इति नियमोस्तैि;५ 'प्रदीपः स्वात्मनात्मानं प्रकाशयति' इत्यत्राभेदेनान्यस्याः प्रतीतेः। न खलु प्रदीपात्मा प्रदीपादिन्नः तस्याऽप्रदीयत्वासझाद पटवत् । प्रदीऐ प्रदीपात्मनो भिन्नस्यापि समवायात्प्रदीपत्वसिद्धिरिति चेत्, न; अप्रदीपेपि घटादौ प्रदीपत्वसमवायानुपङ्गात् । प्रत्यासत्तिविशेषात्प्रदीपात्मनः प्रदीप एव समवायो नान्यत्रेति चेत् ल १० कोऽन्योन्यत्र कथञ्चित्तादात्म्यात् ।
एतेन प्रकाशनक्रियाया अपि प्रदीपात्मकत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् । तस्यास्ततो भेदे प्रदीपस्याऽप्रकाशकद्रव्यत्वानुपङ्गात् । तत्रास्याः समवायान्नायं दोषः; इत्यप्यसमीचीनम् ; अनन्तरोकाऽशेषदोषानुषङ्गात् । तन्नानयोरात्यन्तिको भेदः। १५
नाप्यभेदः, तद्ऽव्यवस्थानुषङ्गात् । न खलु सारूप्यमय प्रमाणमधिगतिः फलम्' इति लर्वथा तादात्ल्ये व्यवस्थापयितुं शक्यं विरोधात् ।
ननु सर्वथाऽभेदेप्यनयोावृत्तिमेदात्प्रमाणफलव्यवस्था घटते एव, अप्रमाणव्यावृत्त्या हि ज्ञानं प्रमाणमफलव्यावृत्या च फलम् : २० इत्यप्यविचारितरमणीयम्; परमार्थतः स्खेष्टसिद्धिविरोधात् । न च स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदोप्युपपद्यते इत्युक्तं सारूप्यविचारे । कथं चास्याऽप्रमाणफलव्यावृत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थावत् प्रमाणफलान्तरव्यावृत्त्याऽप्रमाणफलव्यवस्थापि न स्यात् ? ततः पारमार्थिक प्रमाणफले प्रतीतिसिद्ध कथञ्चिद्भिन्ने प्रतिपत्तव्ये २५ प्रमाणफलव्यवस्थान्यथानुपपत्तेरिति स्थितम् ।
१ दृश्यमाना क्रियमाणा वा। २ भिन्नाधिकरणत्वेन। ३ लोके । ४ आत्मा खरूपं प्रदीपत्वमिति यावत् । ५ अन्यथा। ६ प्रदीपप्रदीपात्मनोरमेदप्रतिपादनेन। ७ प्रमाणफलयोः। ८ सौगतमाशङ्कयोच्यते। ९ अर्थेन सादृश्यं प्रमाणम् । १० निर्विकल्पकज्ञानस्य । ११ स्वेष्टः प्रमाणफलयोर्भेदः । १२ पारमाथिककथञ्चिद्भिन्नत्वव्यतिरेकेण ।
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६२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरि० योऽनेकान्तपदं प्रवृद्धमतुलं खेष्टार्थसिद्धिप्रदम् ,
प्राप्तोऽनन्तगुणोदयं निखिलविनिःशेषतो निर्मलम् । स श्रीमानखिलप्रमाणविषयो जीयाजनानन्दना,
मिथ्यैकान्तमहान्धकाररहितः श्रीवर्द्धमानोदिताः ॥ इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे
चतुर्थः परिच्छेदः ॥ श्रीः॥
१ अखिलप्रमाणविषयपक्षे निखिलवित् केवलज्ञानं यसादनेकान्तपदात्तन्निखिलविदनेकान्तपदम् । सर्वज्ञपक्षे तु निखिलं वेत्तीति निखिलवित् । एतत्पदं सर्वशापरनामकं विशेष्यमपराणि विशेषणानि । ततश्च निखिलवित्सर्वशो जीयात् । विषयपक्षेऽखिलानां प्रमाणानां विषयोऽर्थ इति यसपूर्वकस्तासः। सर्वशपक्षे तु निखिलविस्कथम्भूतः अखिलप्रमाणविषयः सर्वप्रमाणग्राह्य इत्यर्थः ।
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श्री। अथ पञ्चमः परिच्छेदः ॥
अथेदानी तदानालस्वरूप निरूपणाय
हतोन्यत्तदानास इत्याधाह!
प्रतिपादितस्वरूपात्प्रमाणसंख्याप्रमेयफलाद्यदन्यत्तत्तदासासमिति। तदेव तथाहीत्यादिना यथाक्रमं व्याचष्टे । तत्र प्रतिपादि-५ तखरूपात्स्वार्थव्यवसायात्मकप्रमाणादन्येअक्षेसंविदितगृहीतार्थदर्श संशयायः
प्रमाणाभासाः ॥ २॥ प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥ ३॥ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपु. १० . रुषादिज्ञानवत् ॥ ४॥ चक्षुरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायच ॥ ५॥ एतच्च सर्व प्रमाणसामान्यलक्षणपरिच्छेदे विस्तरतोऽभिहितमिति पुनर्नेहाभिधीयते । तथा अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्मा- १५
झूमदर्शनाद् वह्निविज्ञानवत् ॥ ६॥ विशदं प्रत्यक्षमित्युक्तं ततोन्यस्मिन्नऽवैशघे सति प्रत्यक्षं तदा
१ तेषां प्रमाणसंख्याविषयफलानाम् । २ अस्वसंविदितस्य स्वग्राहकत्वाभावेनार्थप्रतिपत्त्ययोगात्प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वाभावः । ३ निर्विकल्पकं दर्शनम् , तस्य प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वाभावस्तज्जनितविकल्पस्यैव तदुपदर्शकत्वात् । ४ आदिना विपर्ययानध्यवसायौ। ५ अत्रोदाहरणानि यथाक्रममाह। ६ सन्निकर्षवादिनं प्रत्यपरं च दृष्टान्तमाह । ७ अयमर्थो-यथा चक्षुरसयोः संयुक्तसमवायः सन्नपि न प्रमाणं तथा चक्षुरूपयोरपि । तस्मादयमपि प्रमाणाभास एवेति ।
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६३०
प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि० भासं वौद्धस्याकस्मिकधूमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् इत्यप्युक्तं प्रए. वतः प्रत्यक्षपरिच्छेदे। वैशद्यपि परोक्षं तदाभासं भीमालकस्य
करणज्ञानवत् ॥ ७॥ ५ न हि करणज्ञानेऽव्यवधानेन प्रतिभासलक्षणं वैशद्यमसिद्ध स्वार्थयोः प्रतीत्यन्तरनिरपेक्षतया तत्र प्रतिभासनादित्युक्तं तत्रैव।
तथाऽनुभूतेथें तदित्याकारा स्मृतिरित्युक्तम् । अननुभूते.. अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते
स देवदत्तो यथेति ॥८॥ १० तथैकत्वादिनिबन्धनं तदेवेदमित्यादि प्रत्यभिज्ञानमित्युक्तम् । तद्विपरीतं तु
सदृशे तेदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥ ९॥
असम्बन्धे तज्ज्ञानं तर्काभासम् , यावाँस्त१५ पुत्रः स श्यामः इति यथा ॥१०॥
व्याप्तिज्ञानं तर्क इत्युक्तम् । ततोन्यत्पुनः असम्बन्धे-अव्याप्तौ तज्ज्ञानं-व्याप्तिज्ञानं तर्कामासम् । यावास्तत्पुत्रः स श्याम इति यथा।
इदमनुमानाभासम् ॥ ११ ॥ २० साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानमित्युक्तम् । तद्विपरीतं त्विदं
वक्ष्यमाणमनुमानाभासम् । पक्षहेतुदृष्टान्तपूर्वकश्चानुमानप्रयोगः प्रतिपादित इति । तत्रेत्यादिना यथाक्रमं पक्षाभासादीनुदाहरति। - तत्र अनिष्टादिः पक्षाभासः॥ १२ ॥
१ यथा धूमबाष्पादिविवेकनिश्चयाभावाव्याप्तिग्रहणाभावादकस्माद्भूमदर्शनाज्जातं यद्वह्रिविज्ञानं तत्तदाभासं भवति कस्मादनिश्चयात् , तथा बौद्धपरिकल्पितं यन्निर्विकल्पकप्रत्यक्षं तत् प्रत्यक्षाभासं भवति कस्मादनिश्चयात् । २ एकत्वप्रत्यभिज्ञानाभासम् । ३ सादृश्यप्रत्यभिशानाभासम् , स्वयं स्वेन सदृशमित्यर्थः । ४ यमलकं युगलम् । ५ अविनाभावाभावे ।
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सू० ६१७-१९] अनुमानाभासविचारः ६३१
तत्रानुमानाभासेऽनिष्टादिः पक्षाभासः। तत्रअनिष्टो मीमांसकस्याऽनित्यः शब्द इति ॥ १३ ॥ • स हि प्रतिवाद्यादिदर्शनात्कदाचिदाकुलितबुद्धिर्विसैरन्ननभिप्रे. तमपि पक्षं करोति।
तथा सिद्धः श्रावणः शब्दः ॥ १४॥ सिद्धः पक्षानासः, यथा श्रावणः शब्द इति, वादिप्रतिवादिनोस्तत्राऽविप्रतिपत्तेः। तथाबाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैः ॥१५ १३ पक्षाभासो भवति । तत्र प्रत्यक्षवाधितो यथा____ अनुष्णोग्निद्रव्यत्वाजलवत् ॥ १६ ॥ अनुमानवाधितो यथाअपरिणामी शब्दः कृतकत्वाद्धटवत् ॥ १७ ॥ तथाहि-परिणामी शब्दोऽर्थक्रियाकारित्वात्कृतकत्वाद् घटवत्' इति अर्थक्रियाकारित्वादयो हि हेतवो घटे परिणामित्वे १५ सत्येवोपलब्धाः, शब्देप्युपलभ्यमानाः परिणामित्वं प्रसाधयन्ति इति 'अपरिणामी शब्दः' इति पक्षस्यानुमानबाधा। आगमबाधितो यथाप्रेत्याऽसुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्म
वदिति ॥ १८॥ आगमे हि धर्मस्याभ्युदयनिःश्रेयसहेतुत्वं तद्विपरीतत्वं चाध. मस्य प्रतिपाद्यते । प्रामाण्यं चास्य प्रागेव प्रतिपादितम् । लोकबाधितो यथाशुचि नरशिरःकपालं प्राण्यङ्गत्वाच्छवशुक्ति. वदिति ॥ १९॥
२५
१ बाधितः। २ आदिना सभ्यसभापत्यादिग्रहः। ३ स्वाभिप्रेतं नित्यः अन्द इति पक्षम् ।
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प्रमैयक्रमलमार्तण्डै ५ तदाभासपरि० लोके हि प्राण्यङ्गत्वाविशेषौषि किञ्चिदपवित्रं किञ्चित्पवित्र र वस्तुस्वभावात्प्रसिद्धम् । यथा गोपिण्डोत्पन्नत्वाविशेष वस्तख. भावतः किञ्चिदुग्धादि शुद्धं न गोमांसम् । यथा वा मणित्वावि. शेषषि कश्चिद्विषापहारादिप्रयोजनविधायी महामूल्योऽन्यस्त ५तद्विपरीतो वस्तुखभाव इति । खवचनबाधितो यथामाता मे वन्ध्या पुरुषसंयोगेप्यगर्भत्वा
प्रसिद्धवन्ध्यावत् ॥ २० ॥ ' अथेदानी पक्षाभासानन्तरं हेत्वाभासेत्यादिना हेत्वाभासानाह१० हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानकान्ति
___ काऽकिञ्चित्कराः ॥ २१ ॥ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुरित्युक्तं प्राक् । तद्विपरीतास्तु हेत्वाभासाः । के ते? असिद्धविरुद्धानकान्तिकाऽकिञ्चि
कराः। १५ तत्रासिद्धस्य स्वरूपं निरूपयति
असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः इति ॥ २२ ॥ सत्ता च निश्चयश्च [सत्तानिश्चयौं] असन्तौ सत्तानिश्चयौ यस्य स तथोक्तः। तत्र
अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षु२० षत्वादिति ॥ २३ ॥ कथमस्याऽसिद्धत्वमित्याह
खरूपेणासिद्धत्वात् इति ॥ २४ ॥ चक्षुर्सानग्राह्यत्वं हि चाक्षुषत्वम्, तच्च शब्दे स्वरूपेणासत्त्वादसिद्धम् । पौगलिकत्वात्तत्सिद्धिः; इत्यप्यपेशलम् ; तदविशेषेप्यनु २५द्भूतखभावस्थानुपलम्भसम्भवाजलकनकादिसंयुक्तानले भासुर रूपोष्णस्पर्शवदित्युक्तं तत्पौगलिकत्वसिद्धिप्रघट्टके । ये च विशेष्यासिद्धादयोऽसिद्धप्रकाराः परैरिष्टास्तेऽसत्सत्ता १ श्रावणशानग्राह्यत्वमस्येति । २ रूपादिलक्षणस्य, यसः। ३ चक्षुषा ।
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झू० ६.२०-२४] हेत्वाभासविचारः
६३३ कत्वलक्षणासिद्धप्रकारान्नार्थान्तरम् , तल्लक्षणभेदाभावात् । दथैद हि स्वरूपासिद्धस्य स्वरूपतोऽसत्त्वादसत्सत्ताकत्वलक्षणमसिद्धत्वं तथा विशेष्यासिद्धादीनामपि विशेष्यत्वादिस्वरूपतोऽसत्त्वात्तल्लक्षणमेवासिद्धत्वम् ।
तत्र विशेष्यासिद्धो यथा-अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति ५ चाक्षुषत्वात्। विशेषणासिद्धो यथा-अदित्यः शब्दचक्षुपके सात सामान्यवत्त्वात् । आश्रयासिद्धो यथा-अस्ति प्रधानं विश्वपरिणामित्वात् ।
आश्रयैकदेशासिद्धो यथा-नित्याः परमाणुप्रधानात्मेबारा १० अकृतकत्वात्।
व्यर्थविशेष्यासिद्धो यथा-अनित्याः परमाणवः कृतकत्वे सति सामान्यवत्त्वात्।
व्यर्थविशेषणासिद्धो यथा-अनित्याः परमाणवः सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वात् । व्यर्थविशेष्यविशेषणश्चासावसिद्धश्चेति। १५
व्यकिरणासिद्धो यथा-अनित्यः शब्दः पटस्य कृतकत्वात् । व्यधिकरणश्वासावसिद्धश्चेति । ननु शब्दे कृतकत्वमस्ति तत्कथमस्यासिद्धत्वम् ? तयुक्तम् । तस्य हेतुत्वेनाप्रतिपादितत्वात् । न चान्यत्र प्रतिपादितमन्यत्र सिद्धं भवत्यतिप्रंसगात् ।
भागासिद्धो यथा-[अ]नित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् । २० व्यधिकरणासिद्धत्वं भागासिद्धत्वं च परप्रक्रियाप्रदर्शनमात्रं न वस्तुतो हेतुदोषः, व्यधिकरणस्यापि 'उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात्, उपरि वृष्टो देवोऽधः पूरदर्शनात्' इत्यादेर्गमकत्वम
१ परमार्थतः प्रधानं नास्तीति भावः । २ अयमाश्रयस्तत्र प्रधानेश्वरौ न स्त एव । ३ कृतकत्वेनाऽनित्यत्वसिद्धिर्यतः। ४ व्यर्थ विशेषणं यस्य स तथोक्तः, स चासावसिद्धश्चति विग्रहः। ५ विशेष्यं च विशेषणं च विशेष्यविशेषणे, व्यर्थे विशेष्यविशेषणे यस्येति विग्रहः। ६ विभिन्नमधिकरणमस्येति विग्रहः। ७ शब्दस्थस्य कृतकत्वस्य। ८ तथा प्रतिपादितमपि कृतकलं शन्दे सिद्धं भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ९ एकत्र हेतूपन्यासे सर्वत्र साध्यसिद्धिप्रसङ्गात्। १० पक्षकभागे असिद्धः, आश्रयैकदेशासिद्धभागासिद्धयोरयं विशेषः-तत्राश्रयैकदेशोऽसिद्धो हेतुश्च सिद्ध एव, अत्र त्वाश्रयैकदेशे हेतुरसिद्ध आश्रयैकदेशस्तु सिद्ध एव । ११ प्रयत्नानन्तरीयकत्वं पुरुषव्यापारोत्पन्ने शन्दे न तु मेघादिशब्दे इति भावः । १२ परे नैयायिकादयः । १३ जैनानाम् ।
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६३४
प्रमेयकमलमार्तण्डै [५. तदामासपरि० तीतेः । अविनाभावनिवन्धनो हि गस्यगमकभावः, नातु व्यति करणाव्यधिकरणनिवन्धनः स श्यामस्तत्पुत्रत्वान, धवला प्रासादः काकस्य कार्यात्' इत्यादिवत् ।
ने च व्यधिकरणस्थापि गमकत्वे अविद्यमानसत्ताकत्वलक्षण५मसिद्धत्वं विरुध्यते; न हि पक्षेऽविद्यमानसत्ताकोऽसिद्धोऽभि. प्रतो गुरूणाम् । किं तर्हि ? अविद्यमाना साध्येनासाध्येनोभयेन वाऽविनाभाविनी सत्ता यस्यासावसिद्ध इति ।
भागासिद्धस्याप्यविनाभावसद्भावाद्गमकत्वमेव । न खलु प्रयनानन्तरीयकत्वमनित्यत्वमन्तरेण क्वापि दृश्यते । याति च १० तत्प्रवर्त्तते तावतः शब्दस्यानित्यत्वं ततः प्रसिद्धयति, अन्यस्य त्वन्यतः कृतकत्वादेरिति । यद्वा-'प्रयत्नानन्तरीयकत्वहेतूपादानसामर्थ्यात् प्रयत्नानन्तरीयक एव शब्दोत्र पक्षः । तत्र चास्य सर्वत्र प्रवृत्तेः कथं भागासिद्धत्वमिति ?
अथेदानीं द्वितीयमसिद्धप्रकारं व्याचष्टे१५ अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र
धूमादिति ॥२५॥ कुतोस्याविद्यमाननियततेत्याहतस्य बाष्पादिभावेन भूतसंघाते
सन्देहात् ॥ २६ ॥ २० मुग्धबुद्धेर्बाष्पादिभावेन भूतसंघाते सन्देहात्। न खलु साध्य
साधनयोरव्युत्पन्नप्रज्ञः 'धूमादिरीदृशो बाष्पादिश्चेदृशः' इति विवेचयितुं समर्थः।
साङ्ख्यं प्रति परिणामी शब्दः
कृतकत्वादिति ॥ २७॥ २५ चाविद्यमाननिश्चयः। कुत एतत् ?
तेनाज्ञातत्वात् ॥ २८॥ १ भव्यधिकरणव्यधिकरणत्वमुभयत्रास्ति तथाप्यविनाभावाभावेनासद्धेतुत्वमिति भावः। २ न चाशनीयम् । ३ दृष्टान्तेन । ४ हेतोः। ५ साधनम् । ६ पुरुषम्यापारोत्पन्ने शब्दे । ७ मेघादिशब्दस्य धर्मिरूपस्य । ८ पृथिव्यादिलक्षणानां भूतानां संघातो धूमस्तस्मिन् धूमे। ९ विधमानधूमेपि ।
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सू० ६।२५-२९] हेत्वाभासविचारः
न ह्यस्याविर्भावादन्यत् कारणव्यापारादसतो रूपस्यात्मलाभलक्षणं कृतकत्वं प्रसिद्धम् ।
सन्दिग्धविशेष्यादयोप्य विद्यमाननिश्चयतालक्षणातिकमाभावानान्तरम् । तत्र सन्दिग्धविशेष्यासिद्धो यथा-अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः पुरुषत्वे सत्यद्याप्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात् । सन्दि-५ ग्धविशेषणासिद्धो यथा-अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वात् । रते एकालिद्धभेदाः केचि. दन्यतरासिद्धाः विदुयालिद्धाः प्रतिपत्तव्याः !
ननु नास्त्यन्यतरासिद्धो हेत्वाभांसः, तथाहि-परेणासिद्ध इत्यु. द्भाविते यदि वादी तत्साधकं प्रमाणं न प्रतिपादयति, तदा प्रमा-१० णाभासवदुभयोरसिद्धः। अथ प्रमाणं प्रतिपादयेत् तर्हि प्रमाणस्थापक्षपातित्वादुभयोरप्यसौ सिद्धः। अन्यथा साध्यमप्यन्यतरासिद्धं न कदाचित्सिद्ध्येदिति व्यर्थः प्रमाणोपन्यासः स्यात् इत्यप्यसमीचीनम् । यतो वादिना प्रतिवादिना वा सभ्यसमक्ष खोपन्यस्तो हेतुः प्रमाणतो यावन्न परं प्रति साध्यते तावत्तं १५ प्रत्यस्य प्रसिद्धरभावात्कथं नान्यतरासिद्धता? नन्वेवमप्यस्यासिद्धत्वं गौणमेव स्यादिति चेत् । एवमेतत् , प्रमाणतो हि सिद्धेरभावादसिद्धोलौ न तु स्वरूपतः । न खलु रत्नादिपदार्थस्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावत्कालं मुख्यतस्तदाभासो भवतीति ।
अथेदानी विरुद्धहेत्वाभासस्य विपरीतस्येत्यादिना स्वरूपं २० दर्शयतिविपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः अपरि
णामी शब्दः कृतकत्वात् ॥ २९ ॥ साध्यस्वरूपाद्विपरीतेन प्रत्यैनीकेन निश्चितोऽविनाभावो यस्यासौ विरुद्धः। यथाऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वादिति ! कृत-२५ कत्वं हि पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनैवावि
१ यतस्तस्य सर्वस्य वस्तुनः सद्भावः सदेति वचः। २ सांख्यगुरुः। ३ सांख्येनोक्तं भवतां जैनानां विशेष्यासिद्धो हेतुरिति भावः। ४ वादिप्रतिवादिनोर्मध्ये एकस्य । ५ वादिप्रतिवादिनः। ६ किन्तर्हि ? उभयासिद्ध एव । ७ प्रतिवादिना। ८ उपन्यस्तेपि निर्दुष्टे हेतुसाधके प्रमाणे यद्यसौ नोभयोः सिद्धः स्वातहि । ९ साध्यस्यान्यतरासिद्धत्वात् । १० यावत्प्रमाणतः सिद्धरेवाभावस्तावत्स्वरूपतोप्यसिद्धः कुतो न स्यादित्युक्ते सत्याह । ११ सह । १२ हेतोः। १३ एकस्वभाव्यऽक्षणिकलक्षणो नित्यैकलक्षणः। १४ साध्यविपरीतेन ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाआसपरिः
नाभूतं बहिरन्तर्वा प्रतीतिविषयाः सर्वथा नित्ये क्षणिक र तदभावप्रतिपादनात्।
ये चाटौ विरुद्धभेदाः परैरिष्टास्तेप्येतल्लक्षणलक्षितत्वाविशेष तोऽत्रैवान्तर्भवन्तीत्युदाहियन्ते । सति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः। ५पक्षविपक्षव्यापकः सपक्षावृत्तिर्यथा-नित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मक त्वात् । उत्पत्तिधर्मकत्वं हि पक्षीकृते शब्दे प्रवर्तते, नित्यविप. रीते चानित्ये घटादौ विपक्षे, नाकाशादौ सत्यपि संपक्षे इति।
विपक्षकदेशवृत्तिः पक्षव्यापकः सपक्षावृत्तिश्च यथा-नित्यः शब्दः सामान्यवत्वे सत्यस्मदादिवाोन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् । बाह्ये. १०न्द्रियग्रहणयोग्यतामात्रं हि वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वमत्र विवक्षितम्,
तेनास्य पक्षव्यापकत्वम् । विपक्षैकदेशव्यापकत्वं चानित्ये घटादौ भावात्सुखादी चाभावात् सिद्धम् । सपक्षावृत्तित्वं चाकाशादौ. नित्येऽवृत्तेः । सामान्ये वृत्तिस्तु 'सामान्यवत्त्वे सति' इति विशेषणाद्व्यवच्छिन्ना। १५ पक्षविपक्षकदेशवृत्तिः सपक्षावृत्तिश्च यथा-सामान्यविशेष
वती अस्मदादिवाह्यकरणप्रत्यक्षे वाग्मनसे नित्यत्वात् । नित्यत्वं हि पक्षैकदेशे मनसि वर्त्तते न वाचि, विपक्षे चास्सदादिबाह्यकरणाप्रत्यक्षे गगनादौ नित्यत्वं वर्त्तते न सुखादौ । सपक्षेच
घटादावस्याऽवृत्तेः सपक्षावृत्तित्वम् । सामान्यस्य च सपक्षत्वं २० सामान्या(न्य) विशेषवत्त्वविशेषणाद्व्यवच्छिन्नम्। योगिबाह्यकरण प्रत्यक्षस्य चाकाशादेरस्मदाद्यऽग्रहणादसपक्षत्वम् ।
पक्षकदेशवृत्तिः सपक्षावृत्तिर्विपक्षव्यापको यथा-नित्ये वाग्मनसे उत्पत्तिधर्मकत्वात् । उत्पत्तिधर्मकत्वं हि पक्षैकदेशे वाचि वर्त्तते न मनसि, सपक्षे चाकाशादौ नित्ये न वर्तते, विपक्षे २५च घटादौ सर्वत्र वर्तते इति ।
तथाऽसति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः । पक्षविपक्षव्यापकोऽवि. - 'द्यमानसपक्षो यथा-आकाशविशेषगुणः शब्दः प्रमेयत्वात् । प्रमे यत्वं हि पक्षे शब्दे वर्तते । विपक्षे चानाकाशविशेषगुणे घटादौ,
न तु सपक्षे तस्यैवाभावात् । न ह्याकाशे शब्दादन्यो विशेषगुणः ३० कश्चिदस्ति यः सपक्षः स्यात् । परममहापरिमाणादेरन्यत्रापि प्रवृः त्तितः साधारणगुणत्वात्।।
१ नैयायिकादिभिः। २ एतत् विपरीतनिश्चिताविनामावता। ३ सपक्षे अव. त्तिरवर्तनं यस्य स तथोक्तः । ४ नित्यरूपे सपक्षे ५ नित्यत्वस्य हेतोः । ६ सामान्यस्य सपक्षत्वं भविष्यतीत्युक्त सत्याह । ७ अनित्यत्वेन । ८ भादिना संख्यादेश्च । ९ मात्मादावपि ।
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खू० ६१३०-३३.] हेत्वाभासविचारः
पक्षविपक्षैकदेशवृत्तिरविद्यमानसपक्षो यथा-सत्तासम्बन्धिनः यह पदार्था उत्पत्तिमत्त्वात् । अत्र हि हेतुः पक्षीकृतषट्पदार्थैकदेशे अनित्यद्रव्यगुणकर्मण्येव वर्तते न नित्यद्रव्यादौ । विपक्षे चासत्तासम्वन्धिनि प्रागभावाद्येकदेशे प्रध्वंसाभावे वर्त्तते न तु प्रागभावादौ । सपक्षस्य चासम्भवादेव तत्रास्यावृत्तिः सिद्धा। ५
पक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तिरविद्यमानलपक्षो यथा-आकाशविशेषगुणः शब्दो वाहोन्द्रियग्राहत्वात् । अयं हि हेतुः पक्षीकृते शब्दे वर्तते । विपक्षस्य चानाकाश विशेषगुणस्यैकदेशे रूपादौ वर्तते, न तु सुखादौ । सपक्षस्य चासम्भवादेव तत्रा. स्याऽवृत्तिः सिद्धा।
पक्षकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षो यथा-नित्ये वाङ्मनसे कार्यत्वात् । कार्यत्वं हि पक्षस्यैकदेशे वाचि वर्त्तते न मनसि । विपक्षे चानित्ये घटादौ सर्वत्र प्रवर्तते सपक्षे चाव: त्तिस्तस्याभावात्सुप्रसिद्धा। . अथानैकान्तिकः कीदृश इत्याह
विपक्षेप्याविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥ ३० ॥ न केवलं पक्षसपक्षेऽपि तु विपक्षेपीत्यपिशव्दार्थः ! एकस्मिनन्ते नियतो बैकान्तिकस्तद्विपरीतोऽनैकान्तिकः सव्यभिचार इत्यर्थः। कः पुनरयं व्यभिचारो नाम ? पक्षसपक्षान्यवृत्तित्वम् । यः खलु पक्षसपक्षवृत्तित्वे सत्यन्यत्र वर्त्तते स व्यभिचारी २० प्रसिद्धः। यथा लोके पक्षसपक्षविपक्षवर्ती कश्चित्पुरुषस्तथा चायमनैकान्तिकत्वेनाभिमतो हेतुरिति । स च द्वेषा निश्चितवृत्तिः शङ्कितवृत्तिश्चेति । तत्रनिश्चितवृत्तिर्यथाऽनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद्
घटवदिति ॥ ३१॥ .. कथमित्याहआकाशे नित्येप्यस्य सम्भवादिति ॥ ३२॥
शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो - वक्तृत्वादिति ॥ ३३ ॥
१ धर्मे । २ अन्यो विपक्षः।
प्र० क. मा० ५४
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ५. तदाभासपरि० कुतोऽयं शङ्कितवृत्तिरित्याह
सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥ ३४ ॥ एतच्च सर्वशसिद्धिप्रस्ताव प्रपञ्चितमिति नेहोच्यते । पराभ्या. गतश्च पक्षत्रयव्यापकाद्यनैकान्तिकप्रपञ्च एतल्लक्षणलक्षितत्वावि. ५शेषान्नातोऽर्थान्तरम्, सर्वत्र विपक्षस्यैकदेशे सर्वत्र वा विपक्षे वृत्त्या विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तित्वलक्षणसम्भवादित्युदाहियते । पक्ष त्रयव्यापको यथा-अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् । पक्षे सपक्षे विपक्ष चास्य सर्वत्र प्रवृत्तेः पक्षत्रयव्यापकः।
सपक्षविपक्षकदेशवृत्तिर्यथा-नित्यः शब्दोऽमूर्त्तत्वात् । अमः १० तत्वं हि पक्षीकृते शब्दे सर्वत्र वर्तते । सपक्षकदेशे चाका
शादौ वर्तते, न परमाणुषु । विपक्षैकदेशे च सुखादौ वर्तते न घटादाविति ।
पक्षसपक्षव्यापको विपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा-गौरयं विषाणित्वात् । विषाणित्वं हि पक्षीकृते पिण्डे वर्त्तते, सपक्षे च गोत्व२५ धर्माध्यासिते सर्वत्र व्यक्तिविशेषे, विपक्षस्य चागोरूपस्यैकदेशे महिष्यादौ वर्त्तते न तु मनुष्यादाविति ।
पक्षविपक्षव्यापकः सपक्षकदेशवृत्तिर्यथा-अगौरयं विषाणित्वात् । अयं हि हेतुः पक्षीकृतेऽगोपिण्डे वर्त्तते । अगोत्वविपक्षे च गोव्यक्तिविशेषे सर्वत्र, सपक्षस्य चागोरूपस्यैकदेशे महि२० ज्यादौ वर्तते न तु मनुष्यादाविति ।
पक्षत्रयैकदेशवृत्तिर्यथा-अनित्ये वाग्मनसेऽमूर्त्तत्वात् । अमूतत्वं हि पक्षस्यैकदेशे वाचि वर्त्तते न मनसि, सपक्षस्य चैकदेशे सुखादौ न घटादौ, विपक्षस्य चाकाशादेर्नित्यस्यैकदेशे गगनादौ न
परमाणुष्विति। २५ पक्षसपक्षैकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापको यथा-द्रव्याणि दिकाल
मनांस्यमूर्तत्वात् । अमूर्तत्वं हि पक्षस्यैकदेशे दिक्काले वर्तते न मनसि, सपक्षस्य च द्रव्यरूपस्यैकदेशे आत्मादौ वर्तते न घटादौ, विपक्षे चाद्रव्यरूपे गुणादौ सर्वत्रेति ।. . .,
१ सर्वज्ञे वक्तृत्वस्य बाधकप्रमाणाभावात्किं वक्तृत्वं तत्र वर्त्तते न वेति संदेहः । २ परैः नैयायिकादिभिः । ३ पक्षसपक्षविपक्षाः पक्षत्रयम् । ४ विपक्षेप्यविरुद्धतेति । ५ इयत्तावच्छिन्नपरिमाणयोगित्वं मूर्तिमत्वम् । निर्गुणा गुणा इति वचनादियचाव.. च्छिन्त्रपरिमाणाभावः।
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सू० ६३४-३९] हेत्वाभासविचारः
एक्षाविपक्षकदेशवृत्तिः सपक्षव्यापको यथा-अद्रव्याणि दिला. लझानांस्यमूर्तत्वात् । अत्रापि प्राक्तनमेव व्याख्यानम् अद्रव्यरूपम गुणादेस्तु सपक्षतेति विशेषः ।
सपक्षविपक्षव्यापकः पक्षकदेशवृत्तिर्यथा-पृथिव्यप्तेजोवावाकाशान्यनित्यान्यगन्धवत्त्वात् । अगन्धयत्त्वं हि पृथिवीतोऽन्यत्र ५ पक्षकदेशे वर्तते न तु पृथिव्याम् , लपक्षे चानित्ये गुगे कर्मणि ब, विपक्षे चात्मादौ नित्ये सर्वत्र वर्तत इति ! अथेदानीमकिञ्चित्करस्वरूपं सिद्ध इत्यादिना व्याच --
सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये
__हेतुरकिञ्चित्करः ॥ ३५॥ सिद्धे निर्णीते प्रमाणान्तरात्साध्ये प्रत्यक्षादिवाधिते च हेतुर्न किञ्चित्करोतीत्य किञ्चित्करोऽनर्थकः । यथा श्रावणः शब्दः शब्दत्वादिति ॥ ३६ ॥ न ह्यसौ खसाध्यं साधयति, तस्याध्यक्षादेव प्रसिद्धः। नापि साध्यान्तरम् । तत्रावृत्तेरित्यत आह
किञ्चिदकरणात् ॥ ३७॥ प्रत्यक्षादिवाधिते च साध्येऽकिञ्चित्करोसौ
अनुष्णोग्निद्रव्यत्वादित्यादौ यथा
किंचित्कर्तुमशक्यत्वात् ॥ ३८ ॥ कुतोस्याऽकिञ्चित्करत्वमित्याह-किञ्चित्कर्तुमशक्यत्वात्। २० ननु प्रसिद्धः प्रत्यक्षानुमानागमलोकखवचनैश्च वाधितः पक्षाभासः प्रतिपादितः। तद्दोषेणैव चास्य दुष्टत्वात् पृथगकिश्चित्कराभिधानमनर्थकमित्याशङ्ख्य लक्षण एवेत्यादिना प्रतिविधत्तेलक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य
पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३९ ॥ २५ लक्षणे लक्षणव्युत्पादनशास्त्रे एवासावकिञ्चित्करत्वलक्षणो दोषो विनेयव्युत्पत्त्यर्थ व्युत्पाद्यते, न तु व्युत्पन्नानां प्रयोगेकाले। कुत एतदित्याह-व्युत्पन्नप्रयोगस्य पंक्षदोषेणैव दुष्टत्वात्। १ अबादिषु । २ उपन्यासकाले । ३ पक्षाभासलक्षणेन ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डै [५० तदाभासपरित
अथेदानीं दृष्टान्ताभासप्रतिपादनार्थ दृष्टान्तेत्याधुपक्रमते । दृष्टान्तो ह्यन्वयव्यतिरेकमेदाद्विधेत्युक्तम् । तद्विपरीतस्तदामा. सोपि तद्भेदाद्विधैव द्रष्टव्यः । तत्र___ दृष्टान्ताभासा अन्वये असिद्धसाध्या५ साधनोभयाः॥४०॥
अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रियसुख-पर
___माणु-घटवदिति ॥ ४ ॥ इन्द्रियसुखे हि साधनममूर्त्तत्वमस्ति, साध्यं त्वपौरुषेयत्वं नास्ति पौरुषेयत्वात्तस्य । परमाणुषु तु साध्यमपौरुषेयत्वमस्ति, १० साधनं त्वमूर्तत्वं नास्ति मूर्तत्वात्तेषाम् । घटे तूभयमपि पौरुषेयत्वान्मूर्त्तत्वाच्चास्येति । न केवलमेत एवान्वये दृष्टान्ताभासाः
किन्तुविपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्त्तम् ॥ ४२ ॥
विपरीतोऽन्वयो व्याप्तिप्रदर्शनं यस्मिन्निति । यथा यदपौरुषेयं १५तदमूर्तमिति । 'यदमूर्त तदपौरुषेयम्' इति हि साध्येन व्याप्ते
साधने प्रदर्शनीये कुतश्चिद्व्यामोहात् 'यदपौरुषेयं तदमूर्तम्' इति प्रदर्शयति । न चैवं प्रदर्शनीयम्
विद्युदादिनाऽतिप्रसङ्गादिति ॥ ४३ ॥ विद्युद्धनकुसुमादौ ह्यऽपौरुषेयत्वेप्यमूर्तत्वं नास्तीति । २०. व्यतिरेके दृष्टान्ताभासाः
व्यतिरेके असिद्धतयतिरेकाः परमा
ण्विन्द्रियसुखाकाशवत् ॥ ४४ ॥ असिद्धतद्व्यतिरेकाः-असिद्धस्तेषांसाध्यसाधनोभयानां व्यतिरेको [व्यावृत्तिर्येषु ते तथोक्ताः । यथाऽपौरुषेयः शब्दोऽमू२५तत्वादित्युक्त्वा यन्नापौरुषेयं तन्नामूर्त्त परमाण्विन्द्रियसुखाकाशवदिति व्यतिरेकैमाह । परमाणुभ्यो ह्यमूर्तत्वव्यावृत्तावप्यऽपौरुषेयत्वं न व्यावृत्तमपौरुषेयत्वात्तेषाम् । इन्द्रियसुखे त्वपौरुषेय. त्वव्यावृत्तावप्यमूर्त्तत्वं न व्यावृत्तममूर्त्तत्वात्तस्य । आकाशे तूभयं १ अन्वयव्यतिरेकभेदात् । २ योग्निमान्स धूमवानिति यथा । ३ दृष्टान्तम् । :
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खू० ६।४०-५० ]. दृष्टान्ताभासविचारः ४ ५ म व्यावृत्तमपौरुषेयत्वादमूर्त्तत्वाच्चास्येति । न केवलमेत एच व्यतिरेके दृष्टान्ताभासाः किंतुविपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्त तन्ना
पौरुषेयम् ॥ ४५ ॥ विपरीतो व्यतिरेको व्यावृत्ति प्रदर्शनं यस्येति ! यथा यन्नामूः ५ तन्नापौरुषेयमिति । 'यनापौरपेयं तन्नासूर्तम्' इति हि साध्यव्यतिरेके साधनव्यतिरेका प्रदर्शनीयस्तथैव प्रतिवन्धादिति ।
अव्युत्पन्नव्युत्पादनार्थ पञ्चावयवोपि प्रयोगः प्राक् प्रतिपादितस्तत्प्रयोगाभासः कीदृश इत्याहबालप्रयोगाभासः पञ्चावयवेषु कियद्धीनता॥४६॥१०
यथाग्निमानयं देशो धूमवत्त्वात् , यदित्थं तदित्थं यथा महानस इति ॥ ४७॥
धूमवांश्चायमिति वा ॥४८॥ यो व्युत्पन्नप्रशोऽनुमानप्रयोगे पञ्चावयवे गृहीतसङ्केतः स उपनयनिगमनरहितस्य निगमनरहितस्य वानुमानप्रयोगस्य तदा-१५ भासतां मन्यते । न केवलं कियद्धीनतैव बालप्रयोगाभासः किंतु तद्विपर्ययश्च तेषामवयवानां विपर्ययस्तत्प्रयोगाभासो यथा- .
तस्मादग्निमान् धूमवांश्चार्यमिति ॥ ४९ ॥ से झुपनयपूर्वकं निगमनप्रयोग साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं मन्यते, .. नान्यथा। कुत एतदित्याह
२० स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥ ५० ॥ स्पष्टतया प्रकृतस्य साध्यस्य प्रतिपत्तेरयोगात् । यो हि यथा गृहीतसङ्केतः स तथैव वाक्प्रयोगात्प्रकृतमर्थ प्रतिपद्येत नान्यथा लोकवत् । यस्तु सर्वप्रकारेण वाक्प्रयोगे व्युत्पन्नप्रज्ञा स यथा यथा वाक्प्रयुज्यते तथा तथा प्रकृतमर्थ प्रतिपद्येत२५ लोके सर्वभाषाप्रवीणपुरुषवत् । तथा च न तं प्रत्यनन्तरोक्तः कश्चित्प्रयोगाभास इति। -. .. . . ----- ... .१ कुत इत्याह । २ अविनाभावात् । ३ अनुमानप्रयोगः । ४ बालव्युत्पत्त्यर्थमेव । ५ पश्चावयवानुमानवादी बालो वा । ६ निगमनपूर्वकमुपनयप्रयोगं न मन्यते । -
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अमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरिक . अथेदानीमागमाभासप्ररूपणार्थमाह-- অক্ষরমালম্বৰললাম
. .. गमाभासम् ॥ ५१॥ रागाकान्तो हि पुरुषः क्रीडावशीकृतचित्तो विनोदार्थ वस्त ५ किञ्चिदप्राप्नुवन्माणवकैरपि सह क्रीडाभिलाषेणेदं वाक्यमुच्चारः यति
यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति
धावध्वं माणवका इति ॥ ५२ ॥ तथा कचित्कार्य व्यासक्तचित्तो माणवकैः कर्थितो द्वेषाका १०न्तोप्यात्मीयस्थानाचदुच्चाटनाभिलाषेणेदमेव वाक्यमुच्चारयति । मोहाक्रान्तस्तु सांख्यादिः- . अङ्गुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इति च ॥ ५३॥
उच्चारयति । न खल्वज्ञानमहामहीधराक्रान्तः पुरुषो यथावः द्वस्तु विवेचयितुं समर्थः। १५ ननु चैवंविधपुरुषवचनोद्भूतं ज्ञानं कस्मादागमाभासमित्याह
विसंवादात् ॥ ५४॥ प्रतिपन्नार्थविचलनं हि विसंवादो विपरीतार्थोपस्थापकप्रमाणा. वसेयः। स चात्रास्तीत्यागमाभासता।
अथेदानीं संख्याभासोपदर्शनार्थमाह२०प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥५५॥
कमादित्याहलौकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य - परबुद्ध्यादेश्चासिद्धेः अतद्विषयत्वात् ॥५६॥
कुतोऽसिद्धिरित्याह-अतद्विषयत्वात् । यथा चाध्यक्षस्य परलो. २५कादिनिषेधादिरविषयस्तथा विस्तरतो द्वितीयपरिच्छेदे प्रतिपादितम् ।।
..१ क्रीडाकारणम् । २ वक्ष्यमाणव्यतिरिक्तम् । ३ सांख्यमते सर्व सर्वत्र विपते यतः। ४ रजते नेदं रजतमिति यथा। ५ रागाधकान्तपुरुषवचनाजाते हाने । ६ आदिना परबुद्यांदिग्रहः।।
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सू० ६.५१-६१] संख्याभासविचारः
अनुसेवार्थ समर्थयमानः सौगतादिपरिकल्पितां च संख्या निराकुर्वाणः सौगतेत्याद्याह-- सौगतसांख्ययोगशामाकरजैनिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्यभानैः एकैकाधिकैः व्यातिवत् । ९७
५ यथैव हि लौगतसांख्ययोगमायालरजैमिनीयाला मते प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यभावैः प्रमाणैरेकैकाधिकैातिन सिध्यत्यतद्विषयत्वात् तथा प्रकृतमपि । प्रयोगः-यद्यस्याऽविषयो न ततस्तत्सिद्धिः यथा प्रत्यक्षानुमानाद्यविषयो व्याप्तिन ततः सिद्धिलौनशिखरमारोहति, अविषयश्च परलोकनिषेधादिः प्रत्यक्षस्येति। १०
मा भूत्प्रत्यक्षस्य तद्विषयत्वमनुमानादेस्तु भविष्यतीत्याहअनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥ ५८ ॥ चार्वाकं प्रति । सौगतादीन्प्रतितर्कत्येक व्यातिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वम्
अप्रमाणस्य अव्यवस्थापकत्वात् ।। ५९ ॥ १५ कुत एतदित्याह अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात्। प्रतिभासादिभेदस्य च भेदकत्वादिति ॥ ६ ॥
प्रतिपादितश्चायं प्रतिभासभेदः सामग्रीमेदश्चाध्यक्षादीनां प्रप. वतस्तद्देधेत्यत्रेत्युपरम्यते । अथेदानी विषयामासप्ररूपणार्थ विषयेत्याधुपक्रमते- २० विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा
खतन्त्रम् ॥ ६१॥ विषयामासाः-सामान्यं यथा सत्ताद्वैतवादिनः। केवलं विशेषो वा यथा सौगतस्य । द्वयं वा स्वतन्त्रं यथा योगस्य । कुतोस्य विष याभासतेत्याह
१ अनुमानस्य । २ परलोकनिषेधादेः । ३ अस्तु प्रामाण्यमनुमानस्य किन्तु तत्प्रत्यक्षे एवान्तर्भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ४ ततः प्रत्यक्षेऽनुमानस्यान्तर्भावाभाव इत्यर्थः । ५ अन्योन्यनिरपेक्षम् ।
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प्रमेयकमलमार्कण्डे [ ५. तदाभासपरि, तथाऽप्रतिभासनात् कार्याऽकरणाचा ॥ ६२॥
स होवविधोर्थः स्वयमसमर्थः समर्थो वा कार्यं कुर्यात् १३ तावत्प्रथमः पक्षा __ स्वयमसमर्थस्याऽकारकत्वात्पूर्ववत् ॥६३॥ ५ एतश्च सर्व विषयपरिच्छेदे विस्तारतोभिहितमिति नेहामि धीयते।
नापि द्वितीयः पक्षः, समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६४॥
परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा १० . तदभावादिति ॥६५॥
अथेदानी फलाभासं प्ररूपयन्नाहफलाभासं प्रमाणादभिन्नं भिन्नमेव वा ॥६६॥ कुतोस्य फलाभासतेत्याह
अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ।। ६७॥ १५ न खलु सर्वथा तयोरभेदे 'इदं प्रमाणमिदं फलम्' इति व्यव
हारः शक्यः प्रवर्त्तयितुम् । ... ननु व्यावृत्त्या तयोः कल्पना भविष्यतीत्याहव्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फैलान्तराद्वयावृत्त्याऽ.
..... फलत्वप्रसङ्गात् ॥ ६८ ॥ २०प्रमाणान्तराद्यावृत्तौ वाऽप्रमाणत्वस्येति ॥ ६९॥ एतञ्च फलपरीक्षायां प्रपञ्चितमिति पुनर्नेह प्रपश्यते ।
तस्माद्वास्तवो भेदः ॥ ७० ॥
१ केवलंसामान्यतया केवलविशेषतया द्वयस्य स्वतन्त्रतया वा। २ केवलसामान्यरूपः केवलविशेषरूपश्च । ३ पश्चादपि । ४ परस्य। ५ अनपेक्षाकारपरित्यागेना पेक्षाकारेण परिणमनात् । ६ सर्वथा। ७ तयोः प्रमाणफलयोः । ८ अफलाद्यावृत्ति पथा तथा फलान्तराायावृत्त्या भाव्यम् , तथा सति फलान्तरादयावृत्तिः फलविशेषा दयावृत्तिरित्यर्थः, अफलत्वप्रसङ्गः गोळवृत्त्याऽगोस्वं भवति यथा। .
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सू० ६६२-७३] जय-पराजयव्यवस्था ६४५
प्रमाणफलयोस्तद्वयवहारान्यथानुपपत्तरिति प्रेक्षादक्षः प्रतिपतव्यम्। अस्तु तर्हि सर्वथा तयोर्भेद इत्याशङ्कापनोदार्थमाहभेदे त्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तिः (तः) ७१ ॥
समवायेऽतिप्रसङ्गः ।। ७२ ॥ इत्यप्युक्तं तत्रैव।
अथेदानी प्रतिपन्नप्रमाणतदाभासस्वरूपाणां विनेयानां प्रमाणतदाभासावित्यादिना फलमादर्शयतिप्रमाण-तदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृता-परिहृतदोषौ वादिनः साधन-तदाभासौ प्रतिवा- १०
दिनो दूषण-भूषणे च ॥ ७३ ॥ प्रतिपादितस्वरूपी हि प्रमाणतदाभासौ यथावत्प्रतिपन्नाप्रैतिपन्नखरूपौ जयेतरव्यवस्थाया निवन्धनं भवतः । तथाहि-चतुरङ्गवादमुररीकृत्य विज्ञातप्रमाणतदाभासस्वरूपेण वादिना सस्यक्प्रमाणे स्वपक्षसाधनायोपन्यस्ते अविज्ञाततत्स्वरूपेण तु तदा-१५ भासे । प्रतिवादिना वाऽनिश्चिततत्स्वरूपेण दुष्टतया सम्यक्प्रमाणेपि तदाभासतोद्भाविता । निश्चिततत्स्वरूपेण तु तदाभासे तदाभासतोद्भाविता । एवं तौ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितो परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः संधिनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च भवतः।
ननु चतुरङ्गवादमुररीकृत्येत्याद्ययुक्तमुक्तम् । वादस्याविजिगीपुविषयत्वेन चतुरङ्गत्वासम्भवात् । न खलु वादो विजिगीषतोर्वर्तते तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थरहितत्वात् । यस्तु विजिगीषतोसौ तथा सिद्धः यथा जल्पो वितण्डा च, तथा च वादः,
१ वास्तवभेदाभावे । २ वादिना प्रतिपन्नाप्रतिपन्नस्वरूपौ प्रतिवादिनापि तथेत्यर्थः । ३ सभ्यसभापतिवादिप्रतिवादीति चत्वार्यङ्गानि यस्य स तथोक्तः। ४ अन्यवादिना । ५ उपन्यस्ते। ६ अन्यप्रतिवादिना । ७ प्रतिवादिना। ८ वादिनेति शेषः। ९ स्वपक्षस्य । १. यौगः प्राह । ११ जैनैः। १२ वीतरागकथा वादो योगमते यतः। १३ जयेच्छाऽभावात्तेषां सभ्यादीनां प्रयोजनाभावो वादे इति भावः । १४ जल्पो वितण्डा च विजिगीषतोरतो न वादरूपः, व्यतिरेकी दृष्टान्तः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ५. तदाभासपरित तस्मान्न विजिगीषतोरिति । न हि वादस्तत्त्वाध्यवसायसंग णार्थो भवति जल्पवितण्डयोरेव तत्त्वात् । तदुक्तम्---
"तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणा कंटकशाखावरणवत्" [न्यायसू० ४।२।५०] इति । तदप्यसमीची ५नम् ; वादस्याविजिगीषुविषयत्वासिद्धेः। तथाहि-वादो नाविजि. गीषुविषयो निग्रहस्थानवत्त्वात् जल्पवितण्डावत् । न चास्य निग्रह स्थानवत्त्वमसिद्धम् : 'सिद्धान्ताविरुद्धः' इत्यनेनापसिद्धान्तः, पञ्चा वयवोपपन्नः' इत्यत्र पञ्चग्रहणात् न्यूनाधिके, अवयवोपपन्नग्रहणा.
हेत्वाभासपञ्चकं चेत्यष्टनिग्रहस्थानानां वादे नियमप्रतिपादनात्। १० ननु वादे सतामप्येषां निग्रहवुद्ध्योद्भावनाभावान्न विजिगी.
पास्ति । तदुक्तम्-"तर्कशब्देन भूतपूर्वगतिन्यायेन वीतरागकथात्वज्ञापनादुद्भावन नियमोपलभ्यते" [ ] तेन सिद्धान्ता. विरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न इति चोत्तरपदयोः समस्त निग्रहः
स्थानाधुपलक्षणार्थत्वाद्वादेऽप्रमाणवुद्ध्या परेण छलजातिनिग्रहः १५ स्थानानि प्रयुक्तानि न निग्रहवुझ्योद्भाव्यन्ते किन्तु निवारणवुझ्या।
तत्त्वज्ञानायावयोः प्रवृत्तिन च साधनाभासो दूषणाभासो वा तद्धेतुः। अतो न तत्प्रयोगो युक्त इति । तदप्यसाम्प्रतम् ; जल्प. वितण्डयोरपि तथोद्भावननियमप्रसङ्गात् । तयोस्तत्त्वाध्यवसाय
संरक्षणाय स्वयमभ्युपगमात् । तस्य च छलजातिनिग्रहस्थानः । २० कर्तुमशक्यत्वात् । परस्य तूष्णीभावार्थ जल्पवितण्डयोश्छलाधु
१ वादो न विजिगीषतोर्वर्ततां तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थश्च भवत्विति सन्दिग्धानकान्तिकत्वे सत्याह । २ स्तः। ३ प्रमाणतर्क( विचार )साधनो( स्वपक्षस्य )पालम्भः (परपक्षस्य दूषणं) सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद इति परकीयं वादलक्षणसूत्रम् । जैनमते तु समर्थ( वादिप्रतिवादिनोर्जयपराजयार्थ )वचनं वाद इति वादलक्षणम् । ४ प्रतिज्ञोपपन्न इत्यनेनाश्रयासिद्धहेत्वाभासग्रहणं, हेतूपपन्न इत्यनेन स्वरूपासिद्धहेत्वाभासस्य, अन्वयदृष्टान्तोपपन्न इत्यनेन विरुद्धहेत्वाभासस्य व्यतिरेकदृष्टान्तोपपन्न इत्यनेनानैकान्तिकहेत्वाभासस्योपनयोपपन्न इत्यनेन कालात्ययापदिष्टस्य, निगमोपपन्न इत्यनेन सत्प्रतिपक्षस्य च ग्रहणम् । ५ अनेनात्र भवितव्यं नान्येनेति सम्भावनाप्रत्ययस्तों विचार इति यावत्, वादलक्षणे गृहीतेन । ६ व्याख्यानकाले क्रियमाणे विचारे वीतरागत्वं वादिप्रतिवादिनोस्तथा वादकालेपि तत्स्यात् । कुत एतत् ? वादलक्षणे तर्कशब्दोपादानाद् ज्ञायते। ७ व्याख्यानकाले विचारो वीतरागत्वस्य हेतुस्तथा वादेपीति तात्पर्यम् । ८ अपसिद्धान्तादिकं निग्रहबुध्या नोद्भावनीयमिति। ९ प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ इति प्रथमपदापेक्षयोत्तरपदत्वमनयोः। १. ततश्च छलजात्यादीनां निवारणबुदयोद्भावनमिति भावः, निग्रहस्थानैः प्रतिक वादिनो निराकरणं न तु तत्त्वनिर्णय इति भावः ।
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सू० ६१७३]. जय-पराजयव्यवस्था द्धावनमिति चेत् ; न तथा परस्य तूष्णीभावाभावादऽसदुत्तराणामानन्त्यात्।
[न च] तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वरहितत्वं च वादेऽ. सिद्धम् ; तस्यैव तत्संरक्षणार्थत्वोपपत्तेः । तथाहि-वाद ऐव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थः, प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भत्वे सिद्धा-५ ताविरुद्धत्वे पञ्चाक्यकोपपन्नत्वे च सति पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्वात् , यस्तु न तथा सन तथा यथाक्रोशादिः, तथा च वादः, तस्मात्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ इति । न चायमसिद्धो हेतुः
"प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयकोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः।” [ न्यायसू० १०२।१] इत्यनि-१० धानात् । 'पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्त्वात्' इत्युच्यमाने जल्पोपि तथा स्यादित्यवधारणविरोधः, तत्परिहारार्थ प्रमाणतर्कसाधनोपालस्मत्व विशेषणम् । न हि जल्पे तदस्ति, "यथोकोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः।" [न्यायसू० ११२।२] इत्यभिधानात् । नापि वितण्डा तथानुषज्यते; जल्पस्यैव वितण्डा-१५ रूपत्वात् , "स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा।" [ न्यायसू० २॥२॥३] इति वचनात् । स यथोक्तो जल्पः प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषितो वितण्डात्वं प्रतिपद्यते । वैतण्डिकस्य च वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षो हस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन । तस्मिन्प्रतिपक्षे वैतण्डिको हि न साधनं वक्ति । केवलं २० परपक्षनिराकरणायैव प्रवर्त्तते इति व्याख्यानात् ।
पक्षप्रतिपक्षौ च वस्तुधर्मावेकाधिकरणौ विरुद्धावेककालावन वसितौ। वस्तुधर्माविति वस्तुविशेषौ वस्तुनः । सामान्येनाधिगतत्वाद्विशेषतोऽनधिगतत्वाच्च विशेषावगमनिमित्तो विचारः ।
, १ हेतुः । २ न जल्पवितण्डे इत्यर्थः । ३ एवकारेण । ४ केवलम् । ५ यथोक्तेन वादलक्षणेनोपपन्नः, यथोक्तोपपन्नग्रहणेन प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भमात्रमुपलक्ष्यते न समस्तं वादलक्षणं सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न इत्युत्तरपदद्वयस्य निग्रहस्थाननियमनिवन्धनस्यात्र सम्बन्धाऽभावात् जल्पे समस्तनिग्रहस्थानासम्भवात् । ६ तत्त्वाध्यवसायसंरक्षार्थत्वेन। ७ प्रतिवादि । ८ हस्त्येव प्रतिहस्ती हस्त्यन्तरापेक्षया, तस्य न्यायेन। ९ स्वपक्षसाधनाय हेतुम् । १० प्रतिवादी यं कञ्चन सिद्धान्तमवलम्ब्यावस्थितः प्रतिपक्षभङ्गमात्रेण विजयी भवति न तु जल्पवत्स्वपक्षसाधनेनेति भावः। ११ पक्षप्रतिपक्षयोर्लक्षणं कृत्वा जल्पवितण्डयोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वं निराकरोति जैनः। १२ शब्दाद्याश्रितनित्यानित्यत्वादिलक्षणौ। १३ शब्दादिलक्षणस्य । १४ भवतीति शेषः।
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. प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि०
एकाधिकरणाविति, नानाधिकरणौ विचार न प्रयोजयत उभयोः प्रमाणोपपत्ते, तद्यथा-अनित्या वुद्धिनित्य आत्मेति । अविरुद्धा. वैप्येवं विचारं न प्रयोजयतः, तद्यथा-क्रियावद्रव्यं गुणवच्चेति । एककालाविति, भिन्नकालयोर्विचाराप्रयोजकत्वं प्रमाणोपपत्तेः, ५यथा क्रियावद्रव्यं निष्क्रियं च कालभेदे सति । तथाऽवसितौ विचारं न प्रयोजयतः; निश्चयोत्तरकालं विवादाभावादित्यनवसितौ तौ निर्दिष्टौ । एवंविशेषणौ धौ पक्षप्रतिपक्षौ । तयोः परिग्रह इत्थंभावनियमः ‘एवंधर्मायं धर्मी नैर्वधर्मा' इति च ।
ततः प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भत्वविशेषणस्य पक्षप्रतिपक्षपरि२० ग्रहस्य जल्पवितण्डयोरसम्भवात् सिद्धं वादस्यैव तत्त्वाध्यवसा. यसंरक्षणार्थत्वं लाभपूजाख्यातिवत् ।
तत्वस्याध्यवसायो हि निश्चयस्तस्य संरक्षण न्यायबलान्निखिलबाधकनिराकरणम् , न पुनस्तत्र वाधकमुद्भावयतो यथाकथञ्चिनिर्मुखीकरणं लकुटचपेटादिभिस्तन्यकरणस्यापि तत्त्वाध्यवसाय. १५संरक्षणार्थत्वानुषङ्गात् । न च जल्पवितण्डाभ्यां निखिलबाधक निराकरणम् ; छलजात्युपक्रमपरतया ताभ्यां संशयस्य विपर्ययस्य वा जननात् । तत्वाध्यवसाये सत्यपि हि परनिर्मुखीकरणे प्रवृत्ती प्राश्निकास्तत्र संशेरते विपर्ययस्यन्ति वा-'किमस्य तत्त्वाध्यवसा
योस्ति किं वा नास्तीति, नास्त्येवेति वा' परनिर्मुखीकरणमात्रे २० तत्त्वाध्यवसायरहितस्यापि प्रवृत्त्युपलम्भात् तत्त्वोपप्लववादिवत् । तथा चाख्यातिरेवाल्य प्रेक्षावत्सु स्यादिति कुतः पूजा लामो वा?
ततः सिद्धश्चतुरङ्गो वादः स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापनफलत्वादादत्वाद्वा लोकप्रख्यातवादद्वत् । एकाङ्गस्यापि वैकल्ये प्रस्तुतार्थाऽप.
१ एकाश्रयौ नित्यानित्यलक्षणौ यथा। २ प्रवयते यत इत्यध्याहार्यम् । ३ प्रति। ४ वादिप्रतिवादिनौ । ५ नानाधिकरणयोर्वस्तुधर्मयोः । ६ वस्तुधर्मदयस्यैकाधिकरणत्वे सति विचारो भवति, न तु नानाधिकरणे सतीति भावः। ७ अनित्यस्य बुझ्यधिकरणं नित्यस्य त्वात्माधिकरणम् , अत्र यथा प्रमाणोपपत्तेर्विचारो न स्यात् । ८ वादिप्रतिवादिनौ । ९ वादिप्रतिवादिनोः । १० प्रति । ११ अनित्यलक्षणः । १२ शब्दादिः । १३ नित्यलक्षणः । १४ प्रमाणतर्काभ्यां पक्षप्रतिपक्षौ साधनोपालम्भस्वरूपी जल्पवितण्डयोन भवतस्तत्र तयोविचारत्वात् । १५ लाभपूजाख्यातयो यथा वादस्यैव । १६ बाधक विरुद्धप्रमाणम् । १७ तस्य परस्य । १८ जल्पवितण्डाभ्यां निखिलबाधकनिराकरण भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । १९ उपक्रमः प्रस्तावः । २० परः प्रतिवादी। २१ सत्याम् । -२२ सन्देहं कुर्वन्ति । २३ तत्त्वाध्यवसायाभावेन । २४ अप्रसिद्धिः। २५ वादिनः। २६ हेतोः। २७ चतुरङ्गत्वाभावसाधनमविजिगीषुविषयत्वसाधनं तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थरहितत्वसाधनमसिद्धं यतः । २८ सन्दिग्धानकान्तिकस्वपरिहारमाह। ..
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सू० ६.७३] जय-पराजयव्यवस्था रिसमातेः। तथा हि । अहङ्कारग्रहग्रस्तानां मर्यादातिक्रमेण चर्चमानानां शक्तित्रयसमन्वितौदासीन्यादिगुणोपेतसभापतिमन्तरेण
"अपक्षपतिताः प्राज्ञा सिद्धान्तद्वर्यवेदिनः ।
असद्वादनिषेद्धारः प्राश्निकाः ग्रॅहा इव।" इत्येवंविधप्राश्निकांश्च विना को नाम नियामकः स्यात् ? प्रमाणतदाभासपरि-५ ज्ञानसामोपेतवादिप्रतिवादिभ्यां च चिन्ता कथं वादः प्रवर्तेत ?
ननु चास्तु चतुरङ्गता वादया। जयेतरव्यवस्था नु छलजातिनिग्रहस्थातैरेव न पुनः प्रमाणतदाभासयोर्दुष्टतयोद्भावितयोः परिहतापरिहृतदोषमात्रेण; इत्यप्यपेशलम् ; छलादीनामसदुन्तरत्वेन वपरपक्षयोः साधनदूषणत्वासम्भवतो जयेतरव्यवस्थानि-१० बन्धनत्वायोगात् । ततः परेषां सामान्यतो विशेषतश्च छलादीनां लक्षणप्रणयनमयुक्तमेव।
तत्र सामान्यतश्छललक्षणम् -
"वचनविधातोर्थविकल्पोपंपत्त्या छलम्" [न्यायसू० ११२।१०] इति । "तत्रिविधं वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं च"१५ [न्यायसू० ०२।११] इति!
तत्र वाक्छललक्षणं तेषाम्-"अविशेषाभिहितेथे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम्" [ न्यायसू० २२११२ ] इति । अस्योदाहरणम्-'आढ्यो वै वैधवेयोयं वर्तते नवकम्वलः' इत्युक्ते प्रत्यवस्थानम् कुतोस्य नव कम्बलाः ? नवकम्बलशब्दे हि सामा-२० न्यवाचिन्यत्र प्रयुक्ते 'नवोस्य कम्बलो जीणों नैव' इत्यभिप्रायो वक्तुः, तस्मादन्यस्यासम्भाव्यमानार्थस्य कल्पना नव अस्य कम्वला नाष्टौ' इति । एवं प्रत्यवस्थातुरन्यायवादित्वात्पराजयः। न खलु प्रेक्षावतां तत्त्वपरीक्षायां छलेन प्रत्यवस्थानं युक्तमिति योगा, तेप्यतत्त्वज्ञाः; यतो यद्येतावतैव जिगीषुर्निगृह्येत तर्हि पत्रवाक्य-२५ मनेकार्थे व्याचक्षाणोपि निगृह्यताम् । न चैवम् । यत्र हि पक्षे वादिप्रतिवादिनोविप्रतिपत्त्या प्रवृत्तिस्तत्सिद्धरेवैकस्य जयोन्यस्य पराजयः न त्वनेकार्थत्वप्रतिपादनमात्रम् । एवं च 'आढ्यो वै
१ प्रभूत्साहमत्रभेदात् । २ उदासीनःपक्षपातरहितः। ३ आदिना पापभीरतादि. संग्रहः । ४ वादिप्रतिवादिनोः। ५ शकटोपयुक्तबलीवईद्वन्द्वधरणराशय (बलीवर्दावरोधकरजवः) इव। ६ इति चतुरङ्गत्वं सिद्धं वादस्य । ७ इति चातुर्विध्यम् । ८ छलजात्यादिवादिनाम् । ९ न मुखपिधानेन । १० प्रतिवादिना । ११ दूषणदातुः प्रतिवादिनः। १२ गुरुशिष्याणाम् । १३ ब्रुवन्ति । १४ अनेकार्थप्रतिपादनमात्रेण । १५ छलवादी।
प्र.क० मा० ५५
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ९. तदाभासपरि० वैधवेयो नवकम्वलत्वादेवदत्तवत्' इति प्रयोग यदि वक्तः 'नवः कम्बलोस्येति, नवास्य कम्वलाः' इति चार्थद्वयं 'नवकस्वलः' इति शब्दस्याभिप्रेतं भवति तदा-'कुतोस्य नव कस्वलाः' इति प्रत्यकतिष्ठमानो हेतोरसिद्धतामेवोद्भावयति । अन्यस्तु तदुभयार्थसम५र्थनेन तदेकतरार्थसमर्थनेन वा हेतुसिद्धिं प्रदर्शयति । नवस्तावदेकः कम्बलोस्य प्रतीतो भवता, अन्येऽप्यष्टौ कस्वला गृहे तिष्ठन्तीत्युभयथा नवकम्वलत्वस्य सिद्ध सिद्धतोद्भावनीया। नवकम्वलयोगित्वस्य वा हेतुत्वेनोपादानात्सिद्ध एव हेतुः। इति
स्वपक्षसिद्धौ सत्यामेव वादिनो जयः परस्य च पराजयो २० नान्यथा। तन्न वाक्छलं युक्तम् ।
नापि सामान्यच्छलम् । तस्य हि लक्षणम्-“सम्भवतीर्थस्यातिसामान्ययोगादसद्भूतार्थकल्पना सामान्यच्छलम्" [ न्यायसू० श।१३] इति । तथा हि-'विद्याचरणसम्पत्ति ह्मणे सम्भवेत्' इत्युक्तेऽस्य वाक्यस्य विघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्याऽसद्भूतार्थकल्प१५ नया क्रियते । यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसम्पत्सम्भवति बोत्येपि
सम्भवेद्राह्मणत्वस्य तत्रापि सम्भवात् । तदिदं ब्राह्मणत्वं विवक्षितमर्थ विद्याचरणसम्पल्लक्षणं 'क्वचिद्राह्मणे तादृश्येति क्वचित्तु ब्रात्येऽत्येति तावेपि भाँवात्' इत्यतिसामान्यम्, तेन योगा
द्वक्तुरभिप्रेतादर्थात्सद्भूतादन्यस्यासद्भूतार्थस्य कल्पना सामान्य२० च्छलम् । तच्चायुक्तम् ; हेतुदोषस्यानकान्तिकत्वस्यात्रापरेणो
द्भावनात् । न चानैकान्तिकत्वोद्भावनमेव सामान्यच्छलमें; 'अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद्धटवत्' इत्यादेरपि सामान्यच्छलत्वानुषङ्गात् । अत्रापि हि प्रमेयत्वं क्वचिद्धटादावनित्यत्वमेति, आका
शादौ तदभावेपि भावादत्येतीति । तथाप्यस्यानैकान्तिकत्वेपि २५ प्रकृतेपि तदस्तु विशेषाभावात् । तन्न सामान्यच्छलमप्युपपन्नम्।
१ प्रतिवादी । २ वादी । ३ प्रतिवादिना । ४ अन्येप्यष्टौ गृहे तिष्ठन्तीति, नवकम्बलयोगित्वस्य वा हेतुत्वेनोपादानात्सिद्ध एव हेतुरित्युभयथा नवकम्बलत्वस्य सिद्धर्नासिद्धतोद्भावनीया, इति स्वपक्षसिद्धौ सत्यामेव वादिनो जयः परस्य च पराजयो नान्यथेति वाक्यरचना द्रष्टव्या। ५ नवो नूतनः। ६ स्वपक्षसिध्यभावे जयपराजयो न भवतो वादिप्रतिवादिनोरिति । ७ जायमानस्य । ८ अयं विद्याचरणसम्पत्तिमान्भवति ब्राह्मणत्वात्तादृशब्राह्मणवदिति । ९ वादिना । १० अर्थस्य विकल्पो भेदस्तस्योपपत्त्या कृत्वा । ११ तर्हि। १२ भ्रष्टे ब्राह्मणे । १३ कर्तृ । १४ व्यक्तयन्तरे सपक्षे । १५ प्राप्नोति । १६ विपक्षरूपे। १७ विद्याचरणसम्पलक्षणमर्थ ब्राह्मणत्वं अतिक्रम्य वर्तते इत्यर्थः । १८ ब्राह्मणत्वस्य । १९ अतिशयेन ब्राह्मणत्वम् । २० अनुमाने । २१ अन्यथा । २२ अनुमाने । २३ अतिसामान्ययोगेपि ।
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सू० ६१७३] जय-पराजयव्यवस्था ६५१
नाप्युश्चारच्छलम् । तस्य हि लक्षणम्-"धर्मविकल्पनिदेशेऽर्थलद्भावप्रतिषेध उपचारच्छलम्" [न्यायसू० २०१४] इति । धर्मस्य हि क्रोशनादेर्विकल्पोऽध्यारोपत्तत्य निर्देशे 'मञ्चाः क्रोशन्ति गायन्ति' इत्यादौ तात्थ्यात्तच्छब्दोपचारेणासद्धृतार्थस्य तु परिकल्पनं कृत्वा परेण प्रतिषेधो विधीयते-'न मञ्चाक्रोशन्ति किन्तु ५ मञ्चस्थाः पुरुषाः कोशन्ति' इति । तच परस्य पराजयाय जायते यथावक्तुरभिप्रायमप्रतियात् । शब्द्धयोगो हि लोके प्रधानभावेन गुणभावेन च प्रसिद्ध ततो यदि बहुगौगोथोभिप्रेतः, तदा तत्यानुज्ञान प्रतिषेधो वा विधातव्यः। अथ प्रधानभूतः तदा तत्य ताविति । यदा तु वक्ता गौणमर्थमभिप्रेति प्रधानभूतं परिकल्प्य १० परः प्रतिषेधति तदा तेन स्वमनीषा प्रतिषिद्धा स्थान परस्याभिप्रीय इति नौस्यायमुपालम्भः स्यात् , तदनुपालम्भाचासौ परजीयते; इत्यप्यविचारितरमणीयम्; यतो यद्येतावतैवासौ निगृह्येत तर्हि यौगोपि सकलशून्यवादिनं प्रति मुख्यरूपतया प्रमाणादिप्रतिषेधं कुर्वन्निगृह्यत, संव्यवहारेण प्रमाणादेस्तेनाभ्युपगमात् । १५ ततः स्वपक्षसिदैव परस्य पराजयो न पुनश्छलमात्रेण ।
नापि जातिमात्रेण । तथाहि-तस्याः सामान्यलक्षणम्-"साधयंवैधाभ्यां प्रत्यवेस्थानं जातिः” [ न्यायसू० १२।१८] इति । तस्याश्चानेकत्वं साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य मेदात् । तथा च न्यायभाष्यकार:-"साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य २० विकल्पाँजातिबहुत्वमिति" [न्यायभा० ५।११] । ताश्च खल्विमा जातयः स्थापनाहेतौ प्रत्युक्ते चतुर्विंशतिः प्रतिषेधहेतवः"साधर्म्यवैधोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पलाध्यप्राप्त्यऽप्राप्ति. प्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तानुपपत्तिसंशयप्रकरणाहेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसैमाः" [ न्यायसू० ५।११] २५ इति सूत्रकारवचनात् ।
१ मुख्यार्थप्रतिषेधः । २ उपचारः। ३ प्रयोगे कृते । ४ प्रतिवादिना। ५ वक्रsभिप्रायानतिक्रमेण प्रतिषेधः स्यादिति भावः। ६ अनुज्ञानप्रतिषेधौ विधातव्यो, इयं व्यवस्था भवतु। ७ सा व्यवस्थात्रापि भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ८ प्रतिवादिना। ९ वादिनः। १० प्रतिषिद्धः। ११ वादिनः। १२ पराजयः। १३ तस्य वादिनः। १४ प्रतिवादी। १५ गौणेथेभिप्रेते मुख्याधप्रतिषेधमात्रेण। १६ ननु सकलशून्यवादिनाऽमुख्यरूपतयाभ्युपगतस्य प्रमाणादेर्मुख्यरूपतयैव प्रतिषेधं विदधानः कथं योगो निगृह्यतेत्याशङ्कायामाह। १७ उपचारेण । १८ नैतावता प्रतिवादिनः पराजयो यतः। १९ दूषणम् । २० भेदात् । २१ विधिसाध्यस्य । २२ कार्याणि, तैः समाः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ४. विषयपरिक तंत्र साधर्म्यसमां जाति न्यायभाष्यकारी व्याचष्टे-साधयणोपसंहारे कृते साध्यधर्मविपर्ययोपपत्तेः साधण प्रत्यवस्थान साधय॑समः प्रतिषेधः । निदर्शनम्-'क्रियावानात्मा, क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वात्, यो यः क्रियाहेतुगुणाश्रयः स स क्रियावान् यथा ५लोष्टः, तथा चात्मा, तस्माक्रियावान्' इति साधोदाहरणेनोपसंहारे कृते पैरः साध्यधर्मविपर्ययोपपत्तितः साधोदाहरणेनैव प्रत्यवतिष्ठते-'निष्क्रिय आत्मा विभुद्रव्यत्वादाकाशवत्' इति । न चास्ति विशेषः-'क्रियावत्साधाक्रियांवता भवितव्यं न पुनर्निष्क्रियत्वसाधान्निष्क्रियेण' इति साधर्म्यसमो दूषणाभासः। न १० ह्यात्मनः क्रियावत्त्वे साध्ये क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वस्य हेतोः स्वसा
ध्येन व्याप्तिः विभुत्वान्निष्क्रियत्वसिद्धौ विच्छिद्युते । न च तद्विच्छेदे तदूषणत्वम् , साध्यसाधनयोाप्तिविच्छेदसमर्थस्यैव दोषत्वेनोपवर्णनात् ।
वार्तिककारस्त्वेवमाह-साधम्र्येणोपसंहारे कृते तद्विपरीतसा१५धर्येण प्रत्यवस्थानं वैधम्र्येणोपसंहारे तत्साधर्येण प्रत्यवस्थानं
साधर्म्यसमः। यथा 'अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वात्कुम्भादिवत्' इत्युपसंहृते परः प्रत्यवतिष्ठते-यद्यऽनित्यघटसाधादयमनित्यो नित्येनाप्याकाशेनास्य साधर्म्यमूर्त्तत्वमस्तीति नित्यः
प्राप्तः । तथा 'अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वात् , यत्पुनरनित्यं २० न भवति तन्नोत्पत्तिधर्मकम् यथाकाशम्' इति प्रतिपादिते परः
प्रत्यवतिष्ठते यदि नित्याकाशवैधैादनित्यः शब्दस्तदा साधर्म्यमप्यस्याकाशेनास्त्यमूर्त्तत्वम् , अतो नित्यः प्राप्तः । अथ सत्यप्येतस्मिन्साधम्र्ये नित्यो न भवति, न तर्हि वक्तव्यम्-'अन्नित्यघट
साधान्नित्याकाशवैधाच्चाऽनित्यः शब्दः' इति । २५ वैधर्म्यसमायास्तु जातेः-वैधय॑णोपसंहारे कृते साध्यधर्मविपर्ययाद्वैध\ण साधम्र्येण वा प्रत्यवस्थानं लक्षणम् । 'यथात्मा
१ जातिषु मध्ये। २ साध्यस्य । ३ साधनवादिना । ४ सक्रियत्वलक्षणानिष्क्रियत्वं यथा विपर्ययः । ५ जातिवादिना । ६ गमनादि । ७ प्रयत्नोत्र गुणः। ८ अन्वयेन । ९ वादिना। १० प्रतिवादी। ११ क्रियावत्साधाक्रियावान्भवतु निष्क्रियत्वसाधानिष्क्रियो न भविष्यतीत्युक्ते सत्याह। १२ आत्मना। १३ निराक्रियते । १४ व्याप्तिविच्छेदो मा भवतु तदूषणत्वं च भवत्वित्युक्ते सत्याह । १५ साध्यसम इति । १६ उक्तसाधर्म्यात् । १७ वैधर्म्यस्य । १८ वादिना। १९ जातिवादी। २० प्रतिकूलतया परिवर्त्तते। २१ तहिं । २२ वादिना। २३ जातिवादी । २४ उक्तवैधात् । २५ यदि । २६ आकाशेन सह शब्दस्य । २७ घटेन सह शब्दस साधात् । २८ शब्दस्य ।
A
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S
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खू० ६७३ जय-पराजयव्यवस्था
६५३ निस्कियो विभुत्वात् , यत्पुनः सक्रियं तन्न विभु यथा लोष्टादि, विमुश्वात्मा, तस्मानिष्क्रियः' इत्युक्तं परः प्राह-निष्क्रियत्वे सत्यात्मनः क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वं न स्यादाकाशवत्, अस्ति चैतत्, ततो नायं निष्क्रिय इति । साधयेण तु प्रत्यवस्थानम्'क्रियावानेवात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वात् , य ईदृशः स ईदृशो५ दृष्टः यथा लोष्टादिः, तथा चात्मा, तलाक्रियावानेव' इति ।
उत्कर्षसमादीनां लक्षणम्-"लाध्यधान्तबोधर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाचोत्कर्षापकर्षवार्य विकल्पसाध्यसमः" न्यायसू० ५१०४] इति ।
तत्रोत्कर्षसमायास्तावल्लक्षणम्-दृष्टान्तधर्म साध्ये समाल-१० यतो मतोत्कर्षसमा जातिः । तद्यथा-'क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वाल्लोष्टवत्' इत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-यदि क्रियाहेतुगुणाश्रयो जीवो लोष्टवत्क्रियावाँस्तदा तद्वदेव स्पर्शवान्भवेत्। अथ न स्पर्शवांस्तर्हि क्रियावानपि न स्यादविशेषात् ।
यस्तु तत्रैव क्रियावजीवसाधने प्रयुक्ते साध्ये साध्यधर्मिणि १५ धर्मस्यामावं दृष्टान्तात्समासञ्जयन्वक्ति सोऽपकर्यसमां जाति वक्ति । यथा लोष्टः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्माप्यसर्वगतोस्तु, विपर्यये विशेषो वा वाच्य इति । __ ख्यापनीयो वर्योऽख्यापनीयोऽवर्ण्यः । तेन वयेनावण्येन च समा जातिः। तद्यथात्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-यद्या-२० त्मा क्रियावान् वर्ण्यः साध्यस्तदा लोष्टादिरपि साँध्योस्तु । अथ लोष्टादिवर्ण्यस्तात्माप्यवोस्तु विशेषाभावादिति ।
विकल्पो विशेषः, लोध्यधर्मस्य विकल्पं धर्मान्तर विकल्पात्प्रसञ्जयतो विकल्पसमा जातिः । यथात्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-क्रियाहेतुगुणोपेतं किञ्चिहरु दृश्यते यथा लोष्टादि,२५ किञ्चित्तु लघूपलभ्यते यथा वायुः, तथा क्रियाहेतुगुणोपेतमपि किञ्चिक्रियाश्रयं युज्येत यथा लोष्टादि, किञ्चित्तु निष्क्रिय यथात्मेति।
१ वादिना । २ आत्मा । ३ सामान्यलक्षणम् । ४ साध्यः-पक्षः। ५ विकल्पः= समारोपः। ६ समारोपयतः । ७ क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वस्य । ८ पक्षे । ९ सर्वगतकलक्षणस्य । १० सर्वगतत्वे । ११ वादिना त्वया। १२ साध्यधार्मिधर्मः। १३ पक्षः। १४ दृष्टान्तोपि । १५ पक्षोस्तु । १६ क्रियाश्रयत्वस्य । १७ भेदम् । १८ धर्मान्तरविकल्पेन प्रत्यवस्थान विकल्पसमा जातिः। १९ प्रतिवादिनः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि० हेत्वाद्यवयवयोगी धर्मः साध्या, तमेव दृष्टान्ते प्रसञ्जयतः साध्यसमा जातिः। यथात्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्राह-यदि यथा लोष्टस्तथात्मा तदा यथात्मायं तथा लोष्टः स्यात् । 'लौक्रियः' इति साध्यश्चात्मा लोष्टोपि तथा साध्योस्तु । अथ लोष्टः क्रियावान ५साध्या; तदात्मापि क्रियावान्साध्यो मा भूद्विशेषो वा वाच्यं इति ।
दूषणाभासता चासाम्-सत्साधने दृष्टान्तादिसामर्थ्ययुक्ते सति साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्पमात्रात्प्रतिषेधस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यत्र हि लौकिकेतरयोवुद्धिसाम्यं तस्य दृष्टान्तत्वान्न साध्यत्वमिति ।
सम्यक्साधने प्रयुक्त प्राप्त्या यत्प्रत्यवस्थानं सा प्राप्तिसमा १० जातिः । अप्रात्या तु प्रत्यवस्थानमप्राप्तिसमेति । तद्यथा-हेतुः
साध्यं प्राप्य, अप्राप्य वा साधयेत् ? 'प्राप्य चेत् ; हेतुसाध्ययोः प्रायोर्युगपत्सस्सवात्कथमेकस्य हेतुतान्यस्य साध्यता युज्येत्' इति प्रत्यवस्थान प्राप्तिसमा जातिः। अथ 'अप्राप्य हेतुः साध्य
साधयेत्; तर्हि सर्वसाध्यमसौ साधयेत् । न चाप्राप्तः प्रदीपः १५ पदार्थानां प्रकाशको दृष्टः' इति प्रत्यवस्थानमप्राप्तिसमेति ।
ताविमौ दूषणाभासौ प्राप्तस्यापि धूमादेरन्यादिसाधकत्वोपलम्भात्, कृत्तिकोदयादेस्त्वप्राप्तस्य शकटोदयादौ गमकत्वप्रतीतेरिति ।
दृष्टान्तस्यापि साध्यविशिष्टतया प्रतिपत्तौ साधनं वक्तव्यमिति २० प्रसङ्गेन प्रत्यवस्थानं प्रसङ्गसमा जातिः । यथात्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-'क्रियाहेतुगुणयोगाक्रियावाँल्लोष्टः' इति हेतुनॊक्तः। न च हेतुमन्तरेण साध्यसिद्धिः।
अस्याश्च दूषणाभासत्वम्-यथैव हि रूपं दिखूणां प्रदीपोपादानं प्रतीयते न पुनः स्वयं प्रकाशमानं प्रदीपं दिखूणाम् । २५ तथा साध्यस्यात्मनः क्रियावत्त्वस्य प्रसिद्ध्यर्थे लोष्टस्य दृष्टान्तस्य ग्रहणमभिप्रेतं न पुनस्तस्यैव सिद्ध्यर्थ साधनान्तरस्योपादानम् , वादिप्रतिवादिनोरविवादविषयस्य दृष्टान्तस्य दृष्टान्तत्वोपपत्तेस्तत्र साधनान्तरस्याफलत्वादिति।
प्रतिदृष्टान्तरूपेण प्रत्यवस्थानं प्रतिदृष्टान्तसमा जातिः। यथा३० त्रैव साधने प्रयुक्ते प्रतिदृष्टान्तेन परः प्रत्यवतिष्ठते-क्रिया
१ आदिना प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनानि । २ उभयोरपि दृष्टान्तसाध्ययोः साध्यत्वापादनेन प्रत्यवस्थानं साध्यसमा जातिः। ३ प्राकनवाक्यं विवृणोति । ४ सक्रिय इति । ५ अस्ति चेतर्हि । ६ त्वया वादिना । ७ उत्कर्षसमादिषण्णाम् । ८ विकल्प आरोपः । ९ विशेषाभावात् । १० हेतुमन्तरेण साध्यसिद्धिर्भविष्यतीत्युक्त सत्याह । ११ कथम् । तथा हि।. .
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सू०६।७३] जय-पराजयव्यवस्था हेतुगुणाश्रयमाकाशं निष्क्रियं दृष्टमिति । कः पुनराकाशस्य क्रियाहेतुगुणः? संयोगो वायुना सह ! कालत्रयेप्यसम्भवादाकारो क्रियायाः। न क्रियाहेतुर्वायुना संयोगः; इत्यप्यसारम् । वायुसंयोगेन वनस्पती शियाकारणेन समानधर्मत्वादाकाशे वायुसंयोगय । यत्वसौ तत्र क्रियां न करोति तन्नाकारणत्वात् ,५ किन्तु परममहापरिमाणेन मातिवद्धत्वात् । अथ क्रियाकारणवायुवनस्पतियोगसदृशो वायवाकाशसंयोग न पुनः क्रियाकारणम् ; न कश्चिदप्ये हेतुरलैकान्तिकः स्यात्-अनित्या शब्दोऽमूतत्वात्सुखादिवत्' इत्यत्राप्यमूर्त्तत्वं हेतुः शन्देऽन्योन्यश्चाकाशे तत्सदृश इति कथमस्याकाशेनानैकान्तिकत्वम् ? सकलानुमानो-१० च्छेदश्च, अनुमानस्य सादृश्यादेव प्रवर्त्तनात् । न खलु ये धूलधर्माः कचिद्भुमे दृष्टास्त एवान्यत्र दृश्यन्ते तत्सदृशानामेव दर्शनात् । ततोनेन कस्यचिद्धेतोरनैकान्तिकत्वं वचिदनुमानात्प्रवृत्ति वेच्छता तद्धर्मसदृशस्तद्धर्मोनुमन्तव्य इति क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वाकाशसंयोगोपि क्रियाकारणमेव । तथा १५ च प्रतिदृष्टान्तेनाकाशेन प्रत्यवस्थानं प्रतिदृष्टान्तसमः प्रतिषेधः।
स चायुक्तः अस्य दूषणामालत्वात् । तथाहि-यदि तावदयं ब्रूते-'यथावं त्वदीयो दृष्टान्तो लोष्टादिस्तथा मदीयोप्याकाशादिः' इति, तदा व्याघातः-एकस्य हि दृष्टान्तत्वेन्यस्यादृष्टान्तत्वमेव, उभयोस्तु दृष्टान्तत्वविरोधः । अथैवं ब्रूते-'यथायं मदीयो न २० दृष्टान्तस्तथा त्वदीयोपि' इति । तथापि व्याघातः-प्रतिदृष्टान्तस्य ह्यदृष्टान्तत्वे दृष्टान्तस्यादृष्टान्तत्वव्याघातः, प्रतिदृष्टान्ताभावे तस्य दृष्टान्तत्वोपपत्तेः । दृष्टान्तस्य वाऽदृष्टान्तत्वे प्रतिदृष्टान्तस्यादृष्टान्तत्वव्याघातः, दृष्टान्ताभावे तस्य तत्त्वोपपत्तेरिति ।
"प्रागुत्पत्तेः कारणाभावाद्या प्रत्यवस्थितिः सानुत्पत्तिसमा २५ जातिः" [न्यायसू० ५।१११२] तद्यथा-'विनश्वरः शब्दः प्रयत्ना. नन्तरीयकत्वात्कटकादिवत्' इत्युक्ते परः प्राह-'प्रागुत्पत्तेरनुत्पन्ने शब्दे विनश्वरत्वस्य यत्कारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं तन्नास्ति ततोयमविनश्वरः, शाश्वतस्य च शब्दस्य न प्रयत्नानन्तरं जन्म इति ।
सेयमनुत्पत्त्या प्रत्यवस्था दूषणाभासोन्यायातिलचनात्। उत्पन्न-३० स्यैव हि शब्दस्य धर्मिणः प्रयत्नानन्तरीयकत्वमुत्पत्तिधर्मकत्वं वा
१ तद्वदात्मापि निष्क्रियो भवत्विति । २ तार्णत्वादयः। ३ महानसादौ । ४ वादिना। ५ पर्वतादौ । ६ जातिवादी। ७ दृष्यन्तः । ८ व्याधातं भावयति । ९ शब्दस्य । १० कारणं ताल्वादि । ११ प्रतिकूलता । १२ लिङ्गम् । १३ न्यायातिलहनमेव भावयति।
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अमेधकामालभालण्डै
५. तदापासपरि०
भवति नाजुत्पन्नाल्या भागुत्पत्तेः शब्दस्याऽलरने किमाश्रयोय. पालम्मान हायमनुत्पनोऽसन्नेव 'शब्दः' इति प्रयत्नानन्तरी यकः' इति अनित्यः' इति वा व्यपदेष्टुं शक्यः सत्वे तु सिद्धमेन प्रयत्नानन्तरीयकत्वकारणं नश्वरत्वे साध्ये, अतः कथमस्य ५प्रतिषेध इति?
"सामान्यघटयोरैन्द्रियिकत्वे समाने नित्यानित्यसाधर्म्यात्संशयसमा जातिः।" [ न्यायसू० ५।०१४ ] यथा 'अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद् घटवत्' इत्युक्ते परः सदूषणमपश्यन्
संशयेन प्रत्यवतिष्ठते-प्रयत्नानन्तरीयकेपि शब्दे सामान्येन साध१.hमैन्द्रिायिकत्वं नित्येनास्ति घटेन चानित्येनास्ति, संशयः शब्दे नित्यत्वानित्यत्वधर्मयोरिति ।
अत्याच दूषणाभासत्वम्-शब्दाऽनित्यत्वाऽप्रतिबन्धित्वात् । यथैव हि पुरुषे शिरःसंयमनादिना विशेषेण निश्चिते सति न स्थाणुपुरुषसाधादूर्ध्वत्वात् संशयस्तथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वेन १५ विशेषेणानित्ये शब्दे निश्चिते न घटसामान्यसाधादैन्द्रियकत्वात् संशयो युक्त इति ।
"उभयसाधर्म्यात्प्रक्रियासिद्धेः प्रकरणसमा जातिः।" [ न्यायसू०५।१।१६] 'यथा अनित्यः शब्दः प्रतानन्तरीयकत्वाद् घटवत्' इत्यनित्यसाधर्म्यात्प्रयत्नानन्तरीयकत्वाच्छब्दस्यानित्यतां कश्चि२० साधयति । अपरः पुनर्गोत्वादिना सामान्येन सँघियत्तस्य नित्यताम् इति, अतः पक्षे विरक्षे च प्रक्रिया समानेति ।
ईदृश्यं च प्रक्रियाऽनतिवृत्त्या प्रत्यवस्थानमयुक्तम् ; विरोधात् । प्रतिपक्षप्रक्रियासिद्धौ हि प्रतिषेधो विरुध्यते । प्रतिषेधोपपत्तौ तु प्रतिपक्षप्रक्रियासिद्धिाहन्यते इति । २५ "त्रैकाल्यासिद्धेहेतोरहेतुसमा जातिः।" [न्यायसू० ५।१।१८]
यथा सत्साधने दूषणमपश्यन्परः प्राह-'साध्यात्पूर्व वा साधनम्, उत्तरं वा, सहभावि वा स्यात् ? न तावत्पूर्वम् । असत्यर्थे तस्य साधनत्वानुपपत्तेः । नाप्युत्तरम् । असति साधने पूर्व साध्यस्य साध्यखरूपत्वासम्भवात् । नापि सहभावि; खतन्त्रतया प्रसिद्धयोः
. १ भूयोदर्शनानिश्चितव्याप्तेः साधर्म्यवैधयोपाधिप्रतिकूलतर्कादिना पक्षे सन्देहोपादानं संशयसमा जातिः । २ शब्दवलक्षणेन । ३ साधर्म्यम् । ४ केशबन्धादिना । ५ अनित्यनियाभ्यां घटसामान्याभ्यां। ६ प्रत्यनुमानेन प्रत्यवस्थानं प्रकरणसमा वाशिः। ७ ऐन्दियिकत्वात् । ८ प्रक्रिया अनुमानरचना। ९ साध्यस प्रागेष सिद्धत्वात्किमनेन हेतुनेति भावः ।
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सू० ६१७३ जय-पराजयव्यवस्था
६५७ साध्यसाधनभावासम्भवात्सह्यविन्ध्यवत्' इत्यहेतुसमत्वेन प्रत्यवस्थानमयुक्तम् हेतोः प्रत्यक्षतो धूमादेवन्ह्यादौ प्रसिद्धेरिति ।
"अर्थापत्तितःप्रतिपक्षसिद्धरापत्तिसमा जातिः।” [न्यायसू० ५।११२१] यथात्रैव साधने प्रयुक्त परः प्राह-'यदि प्रयत्नानन्तरीयकत्वेनानित्यः शब्दो घटवत्तदार्थापत्तितो नित्याकाशसाधा-५ नित्योस्तु यथैव ह्यस्पर्शवत्वं खे नित्ये दृष्टं तथा शब्देपि' इति ।
अस्याश्च दूषणामालत्वम; सुखादिनाकान्तिकत्वात् । नचानैकान्तिकाद्धेतोः प्रतिपक्षसिद्धिरिति ।
“एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसङ्गात् सत्त्वोपपत्तितो. ऽविशेषसमा जातिः।" [ न्यायसू. ५।११२३ ] यथात्रैव लाधले १० प्रयुक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-प्रयत्नानन्तरीयकत्वलक्षणैकधर्मोपपत्तेघंटशब्दयोरनित्यत्वाविशेषे सत्त्वधर्मस्याप्यखिलार्थेषपपत्तरनित्यत्वाविशेषः स्यात् ।
तस्याश्च दूषणाभासता; तथा साधयितुमशक्यत्वात् । न खलु यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वं साधनधर्मः साध्यमनित्यत्वं शब्दे १५ साधयति तथा सर्वार्थे सत्त्वम्, धर्मान्तरस्यापि नित्यत्वस्याकाशादी सत्ते सत्युपलम्भात् , प्रयत्नानन्तरीयकत्वे च सत्यऽ नित्यत्वस्यैवोपलम्भादिति।
"उभयकारणोपपत्तेरुपपत्तिसमा जातिः।" [न्यायसू० ५।२१ २५] यथात्रैव साधने प्रयुक्त परः प्राह-'यद्यनित्यत्वे कारणं २० प्रयत्नानन्तरीयकत्वं शब्दस्यास्तीत्यनित्योसौ तदा नित्यत्वेप्यस्य कारणमस्पर्शवत्त्वमस्तीति नित्योप्यस्तु' इत्युभयस्य नित्यत्वस्थानित्यत्वस्य च कारणोपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमो दूषणाभासः । एवं ब्रुवता वयमेवानित्यत्वकारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं तावदभ्युपगतम् । एवं तदभ्युपगमाच्चानुपपन्नस्तत्प्रतिषेध इति । २५
"निर्दिष्टंकारणाभावेप्युपलम्भादुपलब्धिसमा जातिः।" [न्यायसू० ५।१२२७ ] यथात्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-'शाखा. दिभङ्गजे शब्दे प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभावेप्यनित्यत्वमस्ति' इति ।
दूषणाभासत्वं चास्याः; प्रकृतसाधनाप्रतिबन्धित्वात् । न खलु ३० 'साधनमन्तरेण साध्यं न भवति इति' नियमोस्ति, साधनस्यैव
१ अर्थापत्त्या प्रत्यवस्थानम् । २ घटसाधयेण। ३ अनित्येन । ४ अल्पविस्थादिति । ५ परेणाङ्गीक्रियमाणे । ६ यथा सर्वार्थेषु साधनधर्मः सत्त्वमनित्यत्वं न साधयति तथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वसाधनधर्मोऽनित्यत्वं न साधयतीत्युक्ते सत्याह। ७ निर्दिष्टस्य साध्यधर्मसिद्धिकारणस्याभावेपि साध्यधर्मोपलब्ध्या प्रत्यवस्थानम्। ८ साध्यस्य ।
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६५८
प्रमेयकमलमार्तण्डे५. तदाआसपरि०
साध्याभावेऽभावनियमव्यवस्थित्तेः । न चानित्यत्वे प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव गमकम् ; उत्पत्तिमत्त्वादेरपि तद्गमकत्वात् ।
"तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ तद्विपरीतोपपत्तेरनुपलब्धिसमा जातिः।" [न्यायसू०५।१२९] 'यथा अविद्यमानः शब्द ५ उच्चारणात्पूर्वमनुपलब्धेरुत्पत्तेः पूर्व घटादिवत् । न खलूच्चारणा
प्राग्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिः तदावरणानुपलब्धेः, उत्पत्तेः प्राग्घटादेरिव । यस्य तु दर्शनात् प्राग्विद्यमानस्यानुपलब्धिस्तस्य नावरणानुपलब्धिः, यथा भूम्याद्यावृतस्योदकादेः, आवरणानुप
लब्धिश्च श्रवणात्प्राक् शब्दस्य ।' इत्युक्ते परः प्राह-तस्य शब्द१० स्यानुपलब्धेरप्यनुपलस्भादभावसिद्धौ सत्यां शब्दस्याभावविपरीतत्वेन भावस्योपपत्तेरनुपलब्धिसमा जातिः।
अस्याश्च दूषणाभासत्वम् ; अनुपलब्धेरनुपलब्धिखभावतयोपलब्धिविषयत्वात् । यथैव ह्युपलब्धिरुपलब्धेविषयस्तथानुप
लन्धिरपि । कथमन्यथा 'अस्ति मे घटोपलब्धिः तद्नुपलब्धिस्तु १५ नास्ति' इति संवेदनमुपपद्यते? ___ "साधर्म्यात्तुल्यधर्मोपपत्तेः सर्वानित्यत्वप्रसङ्गादनित्यसमा जातिः।" [न्यायसू०५।११३३ ] यथा 'अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवत्' इत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-यदि शब्दस्य घटेन साधर्म्य कृतकत्वादिनाऽनित्यत्वं साधयेत्, तदा सर्व वस्त्वनित्यं प्रस२० ज्येत घटादिनाऽनित्येनं सत्त्वेन कृत्वा साधर्म्यमात्रस्य सर्वत्राऽविशेषात्।
तस्याश्च दृषणाभासत्वम्, प्रतिषेधकस्याप्यसिद्धिप्रसङ्गात् । पक्षो हि प्रतिषेध्यःप्रतिषेधकस्तु प्रतिपक्षः। तयोश्च साधर्म्य प्रति
शादियोगः तेन विना तयोरसम्भवात् । ततः प्रतिज्ञादियोगाद्यथा २५ पक्षस्यासिद्धिस्तथा प्रतिपक्षस्यापि । अथ सत्यपि साँधम्य पक्षप्रतिपक्षयोः पक्षस्यैवासिद्धिर्न प्रतिपक्षस्य; तर्हि घटेन साध्याकृतकत्वाच्छब्दस्याऽनित्यतास्तु, सकलार्थानां त्वनित्यना तेन साधर्म्यमात्रात् मा भूदिति।
१ तस्य-शब्दस्य । २ सन्दिग्धानकान्तिकत्वपरिहारमाह । ३ ब्यतिरेकनिदर्शनमाह । ४ जातिवादी। ५ अनुपलव्धेरप्यभावसिद्धिः कथमित्युक्ते सत्याह । ६ द्वितीयानुमानमाश्रित्य जाति वदति । ७ कुतः। ८ अनुपलब्धेरुपलब्धिविषयत्वं यदि न स्यात् । ९ एकस्यानित्यत्वे सर्वस्यानित्यत्वापादनमनित्यसमा जातिः। १० धर्मेण । ११ पूर्वोक्ताया जातेः । १२ अन्यथा । १३ प्रतिपक्षस्य । १४ कथम् । १५ प्रतिशादियोगेन।
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सू० ६।७३] जय-पराजयव्यवस्था
६५९ "शब्दाऽनित्यत्वोक्तौ नित्यत्वप्रत्यवस्थितिनित्यसमा जातिः।" [ न्यायसू० ५।१॥३५? ] तद्यथा-'अनित्यः शब्दः' इत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-शब्दाश्रयमनित्यत्वं किं नित्यम् , अनित्यं वा? यदि नित्यम्, तर्हि शब्दोपि नित्यः स्यात्, अन्यथात्य तदाधारत्वं न स्यात् । अथानित्यम् । तथाप्ययमेव दोषः-अनित्यत्वस्याऽ-५ नित्यत्वे हि शब्दस्य नित्यत्वमेव स्यात् । __ दूषणामासत्वं चाल्या प्रकृतलानाऽप्रतिबन्धित्वात् । प्रादुभूतस्य हि पदार्थस्य अवंलोऽनित्यत्वमुच्यते, तस्य प्रतिज्ञाने प्रतिषेधविरोधः । स्वयं तदप्रतिज्ञाने च प्रतिषेधो निराश्रयः स्यात् । तन्नानित्यता शब्दे नित्यत्वप्रत्यवस्थितेनिराकर्तुं शक्येति ।१०
"प्रयत्नानेककार्यत्वात्कार्यसमा जातिः।" [न्यायसू० ५।१॥३७] यथा 'अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' इत्युक्ते परःप्रत्यवतिष्ठते-प्रयत्नानन्तरं घटादीनां प्रागऽसतामात्मलाभोपि प्रतीतः, आवारकापनयनात् प्राक्सतामेवाभिव्यक्तिश्च । तत्कथमतः शब्दस्यानित्यतेति ?
दूषणाभासता चास्या प्रकृतसाधनाप्रतिवन्धित्वादेव । शब्दस्य हि प्रागसतः स्वरूपलाअलक्षणं जन्मैव प्रयत्नानन्तरीयकत्वमुपपद्यते प्रागनुपलब्धिनिमिसालावेप्यनुपलब्धितः सत्त्वासम्भवादिति।
तदेतद्योगकल्पितं जातीनां सामान्यविशेषलक्षणप्रणयनमयुक्त-२० मेव साधनाभासेपि साधादिना प्रत्यवस्थानस्य जातित्वप्रसङ्गात् । तथेष्टत्वान्न दोषः, तथा हि-असाधौ साधने प्रयुक्ते यो जातीनां प्रयोगः सोनभिज्ञतया वा साधनदोषस्य स्यात् , तद्दोषप्रदर्शनार्थ वा प्रसङ्गव्याजेन; इत्यप्यसमीचीनम्; साधनाभासप्रयोगे जातिप्रयोगस्य उद्योतकरेण निराकरणात् ।
२५ जातिवादी च साधनाभासमेतदिति प्रतिपद्यते वा,न वा? यदि प्रतिपद्यते; तर्हि य एवार्य साधनाभासत्वं हेतुदोषोऽनेन प्रतिपन्नः स एव वक्तव्यो न जातिः, प्रयोजनाभावात् । प्रसङ्गव्याजेन दोष. प्रदर्शनार्थ सा; इत्यप्ययुक्तम् । अनर्थसंशयात् । यदि हि परप्रयु
१ पक्षस्थानित्यत्वधर्मस्य नित्यत्वापादनेन तृतीयासः प्रत्यवस्थानं नित्यसमा जातिः । २ अङ्गीकारे। ३ उत्पत्तेः। ४ प्रयत्नेन । ५ उच्चारणात् । ६ शब्दस्यानुपलब्धेनिमित्तमावारकम् । ७ दूषणस्य । ८ मम योगस्य । ९ पूर्वपक्षवादिना । १० जातिवादिना प्रयुक्तः। ११ पूर्वपक्षवादिना प्रयुक्त। १२ प्रतिवादिप्रयुक्तस्य । १३ नैयायिकाचार्येण । १४ वादिनः। १५ अनर्धः दोषः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि०
तायां जातौ साधनामारवादी स्वप्रयुक्तसाधनदोष पश्यन् समा. यामेवं ब्रूयात् 'मया प्रयुक्त साधनेऽयं दोषःस चानेन नोद्भावितः, जातिस्तु प्रयुक्ता' इति तदा तावजातिवादिनो न जयः प्रयोजनम् ; उसयोरज्ञान सिद्धेः। नापि साम्यम् ; सर्वथा जयस्यासम्भवे ५ तस्याभिप्रेतत्वात् “ऐकान्तिकं पराजयाद्वरं सन्देहः"[ ] इत्यभिधानात् । तदप्रयोगेपि चैतत्समानम्-पूर्वपक्षवादिनो हि साधनाभासाभिधाने प्रतिवादिनश्च तूष्णींभावे यत्किञ्चिदभिधाने वा द्वयोरज्ञानप्रसिद्धितः प्राश्निकैः साम्यव्यवस्थापनात् । यदा च
साधनाभासवादी खसाधने दोषं प्रच्छाद्य परप्रयुक्तां जातिमेवो. १०द्भावयति तदा न तद्वादिनो जयः साम्यं वा प्रयोजनम् । पराजय
स्यैव सम्भवात् । __ अथा साधनाभासमेतदित्यप्रतिपाद्य जातिं प्रयुङ्क्ते; तथाप्यफलस्तत्प्रयोगः प्रोक्तदोषानुषङ्गात् । सम्यक्साधने तु प्रयुक्त तत्प्रयोगः पराजयायैव । अथ तूष्णींभावे पराजयोऽवश्यंभावी, तत्प्रयोगे तु १५ कदाचिदसदुत्तरेणापि निरुत्तरः स्यात् इत्यैकान्तिक पराजयाद्वरं
सन्देह इत्यसौ युक्त एवेति चेत् ; न; तथाप्यैकान्तिकपराजयस्यानिवार्यत्वात् । यथैव ह्युत्तरपेक्षवादिनस्तूष्णींभावे सत्युत्तराऽ. प्रतिपत्त्या पराजयः प्राश्निकैर्व्यवस्थाप्यते तथा जातिप्रयोगेप्यु
तराप्रतिपत्तेरविशेषात् , तत्प्रयोगस्यासदुत्तरत्वेनानुत्तरत्वात् । २० ननु चास्य पराजयस्तैर्व्यवस्थाप्येत यद्युत्तराभासत्वं पूर्वपक्षवायुद्भावयेत्, अन्यथा पर्यनुयोज्योपेक्षणात्तस्यैव पराजयः स्यात् । नन्वेवमुत्तराभासस्योत्तरपक्षवादिनोपन्यासेपि अपरस्योद्भावनशत्यशक्यपेक्षया जयपराजयव्यवस्थायामनवस्था स्यात् । न खलु
जातिवादिवदस्यापि तूष्णीभावः सम्भवति, सम्यगुत्तराप्रतिपत्ता२५ वपि उत्तराभासस्योपन्याससम्भवात् । ततश्चोपन्यस्तजातिस्वरूपस्यातोऽन्यस्य चोद्भावनेपि उत्तरपक्षवादिनस्तत्परिहारे शक्तिमशक्ति चापेक्ष्यैव पूर्वपक्षवादिनो जयः पराजयो वा व्यवस्थाप्येत जातिवादिन इवेतरस्योद्भावनशत्यशक्यपेक्ष इति ।
जातिलक्षणासदुत्तरप्रयोगादेव तत्परिहाराशक्तिनिश्चयात् पुनरु३० पन्याँसवैफल्ये सत्साधनाभिधानादेवोत्तराभासत्वोद्भावनशक्तेरप्यवसायाद् इतरस्यापि कथं तद्वैफल्यं न स्यात् ? सत्साधनाभिधानात्तदभिधानसामर्थ्यमेवास्यावसीयते न परोपन्यस्तजात्युद्भा.
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१ पराजयायैव न जयायेति । २ वादिना। ३ प्रतिवादिनः। ४ जातिवादिनः ५ त्वया. जातिः प्रयुक्तेति वचनीयं तस्योपेक्षणात् । ६ तस्य उद्भावितस्य। ७ उपन्यास हि जातेः। ८ निश्चयात् । ९ तस्य जात्युद्भावनस।
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सू० ६१७३] जय-पराजयव्यवस्था वनसामर्थ्यम् ; तर्हि जातिप्रयोगेप्युत्तराभासवादिनः सम्यगुत्तराभिधानासामर्थ्य मेवावसीयेत न परोद्भावितजातिपरिहारसामर्थ्यम् । ननु सदुत्तराभिधानासामर्थ्यादेव तत्परिहारासाम
र्थ्यनिश्चयः, तत्सद्धावे हि न सदुत्तराभिधानासामर्थ्य स्यात् : एवं तर्हि सत्साधनाभिधानसामर्थ्यादेवास्य परोपन्यस्तजात्युद्भाव-५ नशक्त्यवसायोस्तु, तद्भावे तदभिधानसामर्थ्यायोगात् । सत्साधनाभिधानसमर्थस्यापि कदाचिदऽलडुत्तरेण व्यामोहसम्भवान्न तदुद्भावनसार्थ्यमवश्यंभावीति चेत् तर्हि जातिवादिनः सदुत्तराभिधानासमर्थस्यापि स्वोपन्यस्तपरोद्भावितोत्तराभासपरिहारसामर्थ्यसम्भवात्पुनरुपन्यासश्चतुर्थोऽपेक्षणीयः स्यात् । साधन-१० वादिनोपि तत्परिहारनिराकरणाय पञ्चमः । पुनर्जातिवादिनस्तनिराकरणयोग्यताववोधार्थ षष्ठ इत्यनवस्थानं स्यात् ।
ननु नायं दोषः पर्यनुयोज्योपेक्षणस्य प्रतिवादिनाऽनुद्भावनात्, 'कस्य पराजयः' इत्यनुयुक्ताः प्राश्निका एव हि पूर्वपक्षवादिनः पर्यनुयोज्योपेक्षणमुद्भावयन्ति । न खलु निग्रहप्राप्तो जातिवादी स्खं १५ कौपीनं विवृणुयात् । तर्हि जात्यादिप्रयोगमपि त एवोद्भावयन्तु न पुनः पूर्वपक्षवादी । पर्यनुयोज्योपेक्षणं ते पूर्वपक्षवादिन एवोद्भावयन्ति न जात्यादिवादिनो जात्यादिप्रयोगमिति महामाध्यस्थ्यं तेषां येनैकस्य दोषमुद्भावयन्ति नापरत्येति । ततः पूर्वपशवादिनं तूष्णीभावादिकमारचयन्तमुत्तराप्रतिपत्तिमुद्भावयन्नेव २० जातिवादी निगृह्णातीत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
तत्रापि कथम्भूतेनोत्तराप्रतिपत्त्युद्भावनेनासौ विजयते ? किं खोपन्यस्तजात्यपरिज्ञानोद्भावनरूपेण, परोद्भावितजायन्तरनिराकरणलक्षणेन चो(वा, उत्तरप्रतिपत्तिमात्रोद्भावनाऽऽकारेण वा? तंत्राद्यविकल्पे 'अपकर्षसमाऽन्या वा जातिर्मया प्रयुक्तापि२५ न ज्ञातानेन' इत्येवं खोपन्यस्तजात्यपरिज्ञानमुद्भावयन्नात्मनः सम्यगुत्तराप्रतिपत्तिमसम्बद्धाभिधायित्वं परकीयसाधनसस्यक्त्वं चोद्भावयतीति जात्युपन्यासवैयर्थ्यम् , अवश्यम्भावित्वात्प
१ प्राश्निकानाम् । २ आद्यपक्षवादिनः। ३ ततश्च तृतीया जातिरुद्भावनीयेत्यर्थः। ४ पृष्टाः। ५ जातिवाद्यहं जातिमुक्तवान् त्वया वादिना न सम्भावितेति न प्रतिपादयतीति भावः। ६ गुह्येन्द्रियम् । ७ प्राश्निकाः । ८ नोद्भावयन्तीति संबन्धः । ९ उपहासवचनमिदम्। १० प्राश्निकानाम् । ११ प्राश्निकानां माध्यस्थ्याभावो यतः । १२ जानन् । १३ परेण। १४ पक्षे। १५ वादिनम् । १६ पूर्वपक्षवादिनः । १७ परः वादी । १८ जात्यन्तरं-जातिविशेषः । १९ त्रिषु. विकल्पेषु मध्ये । २० उत्कर्षसमा वा जातिः। २१ पूर्वपक्षवादिना। २२ जातिवादी ।
प्र०क० मा० ५६
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि०
राजयस्य । परेणाविज्ञातमात्मनो दोषं स्वयमुद्भावयन्नपिन पराजयमास्कन्दतीति चेत्, परेणाविज्ञातः स दोष इति कुतोऽवसितम् ? तूष्णीभावादन्यस्य चोद्भावनादिति चेत् ;न, वादविस्तरपरिहारार्थत्वात्तस्य । स्ववाग्यन्त्रिता हि वादिनो न विचलिष्यन्तीति ५ स्वयमुद्भावनीयं दोषं परेणोद्भावयितुं तूष्णींभावोऽन्यस्य चोभावनं नाज्ञानात् । खयमुद्भाविते हि दोषे जात्यादिवादी तत्परिहारार्थ किञ्चिदन्यद्भूयादिति न वादावसानं स्यात् । परस्याऽज्ञानमाहात्म्यख्यापनार्थ वा; पश्यतैवंविधमस्याज्ञानमाहात्म्यं येन
खयमेव स्वदोषकलापमस्मत्साधनस्य सम्यक्त्वं चोद्भावयतीति । १०एवं. साध्येन पूर्वपक्षवादिना प्रत्यर्वस्थिते किमत्र जातिवादी
ब्रूयात्-'जातिर्मया प्रयुक्तापि न ज्ञातानेनेति वचनांदुत्तरकालमनेनीवसितो दोषकलापो न प्राक, अतोऽज्ञानेनैव प्रतिवादिना तूष्णीभूतमन्यद्वोद्भावितम्' इति । अत्रापि शपथः शरणम् । ननु यदि नाम जौनतैव पूर्वपक्षवादिना तूष्णीभूतमन्यद्वोद्भावितं १५ तथापि तेन सदुत्तरानभिधानात्कथं नास्य पराजयः स्यात् ? तदे
तजातिवादिनो जात्युपन्यासेपि समानं जातीनां दूषणाभासत्वात् । तस्मान्न खोपन्यस्तजात्यपरिज्ञानोद्भावनरूपेणोत्तराऽप्रतिपत्त्युद्भावनेन तूष्णीभूतमन्यद्वोद्भावयन्तमितरं निगृह्नोति ।
द्वितीयविकल्पे खोपन्यस्ता जातिः कथं परोद्भावितजात्यन्त२० ररूपा न भवतीति वादिनेतरः प्रतिपाद्यते ? न तावत्स्वोपन्यस्त
जातिस्वरूपानुवादेन, यथा नेयमुत्कर्षसमा जातिरपकर्षसमत्वादस्या इति; प्रथमपक्षोदितदोषप्रसङ्गात् । नाप्यनुपलम्भात्; अनुपलम्भमात्रस्याप्रमाणत्वात् । अनुपलम्भविशेषस्यापि खोपन्यस्त
जातिखरूपोपलम्भलक्षणत्वात्, तत्र चोक्तदोषप्रसङ्गात् । तन्न २५ जातिवादी जात्यन्तरमुद्भावयन्तं प्रतिवादिनं तदुद्भावितजात्यन्तरनिराकरणलक्षणेनोत्तराप्रतिपत्त्युद्भावनेन विजयते ।
नाप्युत्तराप्रतिपत्तिमात्रोद्भावनरूपेण; 'त्वया न ज्ञातमुत्तरम्' इत्युत्तराप्रतिपत्तिमात्रोद्भावने हि पूर्वपक्षवादिनस्तद्विशेषविषयः
प्रश्नोऽवश्यंभावी 'मया तावदुत्तरमुपन्यस्तमेतञ्च कथमनुत्तरम्' ३० इति । जातिवादिना चास्योत्तराप्रतिपत्तिर्विशेषेणोद्भावनीया
१ वादिना । २ तूष्णीभावादेः। ३ प्रतिवादिना। ४ वादिना जात्युद्भावनेपि वादावसानं न भविष्यति ततश्च तूष्णींभावोऽन्योद्भावनं च वादावसानाय व्यर्थमित्युक्ते सत्याह । ५ प्रयोजनान्तरं तूष्णीभावादेराह । ६ निरीक्षध्वं यूयं सभ्याः । ७ बसः। ८ पर्यनुयुक्ते सति । ९ सकाशात् । १० पूर्वपक्षवादिना। ११ दोषम् । १२ पूर्वपक्षवादी। १३ दोषः उत्तराप्रतिपत्तिः। १४ जातिवादी।
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सू० ६७३] जय-पराजयव्यवस्था
६६३ 'मयोपन्यस्ताप्येषा जातिस्त्वया न ज्ञाता जात्यन्तरं चोद्भावितम् इति । अत्र च प्रागुक्ताशेषदोपानुपङ्गः । तदेवमुत्तराऽप्रतिपत्त्युद्भावनत्रयेपि जातिवादिनः पराजयस्यैकान्तिकत्वात् 'ऐकान्तिकपराजयाद्वरं सन्देहः' इति जानन्नपि जात्यादिकं प्रयुङ्क्ते इत्येतद्वचो नैयायिकस्यानैयायिकतामाविर्भावयेत् । ततः स्वपक्षसिद्ध्यैव ५ जयस्तदसिध्या तु पराजयः, न तु सिथ्योत्तरलक्षणजातिशतैरपीति।
नापि निग्रहस्थानः । तेषां हि "विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्" [ न्यायसू० १२।१९ ] इति सामान्यलक्षणम् । विपरीता कुत्सिता वा प्रतिपत्तिर्विप्रतिपत्तिः। अप्रतिपत्तिस्त्वा-१० रम्भविषयेऽनारम्भः, पक्षमभ्युपगम्य तस्याऽस्थापना, परेण स्थापितस्य वाऽप्रतिषेधः, प्रतिषिद्धस्य चानुद्धार इति । प्रतिज्ञाहान्यादिव्यक्तिगतं तु विशेषलक्षणम् ।
तत्र प्रतिज्ञाहानेस्तावल्लक्षणम्-"प्रतिदृष्टान्तधर्म्य(मा)नुज्ञा खदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः" [न्यायसू०५।२।२] "साध्यधर्मप्रत्यनीकेन १५ धर्मेण प्रत्यवस्थितः प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञोहानिः । यथा 'अनित्यः शब्द ऐन्द्रियिकत्वाद् घटवत्' इत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-सामान्यमैन्द्रियिकं नित्यं दृष्टम् , कस्मान्न तथा शब्दोपि ? इत्येवं स्वप्रयुक्तस्य हेतोराभासतामवस्यन्नपि कथावसानमकृत्वा प्रतिज्ञात्यागं करोति-यथै-२० न्द्रियिकं सामान्यं नित्यं कामं घटोपि नित्योस्त्विति । न (स) खल्वयं ससाधनस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रेसजनिगमनान्तमेव पक्षं जहाति । पक्षं च परित्यजन्प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात्पक्षस्य" [ न्यायमा० ५।२।२] ।
इति भाष्यकारमतमसङ्गतमेव; साक्षाद्दुष्टान्तहानिरूपत्वात्त-२५ स्यास्तत्रैव साध्यधर्मपरित्यागात् । परम्परया तु हेतूपनयनिगम
१ प्रागुक्तः उत्तराप्रतिपत्तिलक्षणादिः। २ पराजयो न भवतीति। ३ तत्त्वप्रतिपत्तेरभावो विप्रतिपत्तिः। ४ कथम् ? तथा हि । ५ वादिपक्षस्य । ६ अपरिहारः। ७ उक्ते हेतौ दूषणोद्भावने सति पक्षाभ्युपगमः प्रतिशा। ८ अभ्युपगमः। ९ धर्मधर्मिसमुदायः प्रतिज्ञा तस्या हानिः । १० प्रतिवादिना पर्यनुयुक्तो वादी। ११ परकीयोदाहरणधर्मम् । १२ वादिनः। १३ इन्द्रियग्राह्यत्वात् । १४ वादिना। १५ प्रतिवादी । १६ जानन् । १७ कथा वादः। १८ साधनवादी। १९ वादी। २० अभ्युपगच्छन् । २१ घटादिदृष्टान्तः । २२ प्रतिशाहानेः। २३ शब्दानित्यत्वं साध्यधर्मः।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि०
नानां त्यागः, दृष्टान्तालाधुत्वे तेषामप्यसाधुत्वात् । तथा च 'प्रतिज्ञाहानिरेव' इत्यसङ्गतम्।।
वार्तिककारस्त्वेवमाचष्टे-"दृष्टश्चासावन्ते स्थितश्चेति दृष्टान्तः पक्षः स्वपक्षः, प्रतिदृष्टान्तः प्रतिपक्षः। प्रतिपक्षस्य धर्म खैपक्षे. ५भ्यनुजानन् प्रतिज्ञां जहाति । यदि सामान्यमन्द्रियिकं नित्यं शब्दोप्येवमस्त्विति ।" [ न्यायवा० ५।२।२]
तदेतदप्युयोतकरस्य जाड्यमाविष्करोति; इत्थमेव प्रतिज्ञा हानेरवधारयितुमशक्यत्वात् । प्रतिपक्षसिद्धिमन्तरेण च कस्यचिनिग्रहाधिकरणत्वायोगात् । न खलु प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽ१० भ्यनुजानत एव प्रतिज्ञात्यागो येनार्यमेक एव प्रकारः प्रतिज्ञाहानौ स्यात् । अधिक्षेपादिभिराकुलीभावात् प्रकृत्या सभाभीरुत्वादऽन्यमनस्कत्वादेर्वा निमित्तात्किञ्चित्साध्यत्वेन प्रतिज्ञाय तद्विपरीतं प्रतिजानतोप्युपलम्भात् पुरुषभ्रान्तेरनेककारणत्वोपपत्तेरिति ।
तथा “प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञा१५न्तरम् ।" [न्यायसू० ५।२।३] प्रतिज्ञातार्थस्याऽनित्यः शब्द इत्या
रैन्द्रियिकत्वाख्यस्य हेतोर्व्यभिचारोपदर्शनेन प्रतिषेधे कृते तं दोषमनुधरन् धर्मविकल्पं करोति 'किमयं शब्दोऽसर्वगतो घटवत्, किं वा सर्वगतः सामान्यवत्' इति । यद्यसर्वगतो घटवत्
तर्हि तद्वदेवानित्योस्त्वित्येतत्प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानं साम२०.ऽपरिज्ञानात् । स हि पूर्वस्याः अनित्यः शब्दः' इति प्रतिज्ञायाः
साधनायोत्तराम् 'असर्वगतः शब्दोऽनित्यः' इति प्रतिज्ञामाह । न च प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तरसाधने समर्थाऽतिप्रसङ्गात् ।
इत्यप्येतेनैव प्रत्युक्तम् । प्रतिज्ञाहानिवत्तस्याप्यनेकनिमित्तत्वोपपत्तेः। प्रतिज्ञाहानितश्चास्य कथं भेदः पक्षत्यागस्योभयत्राऽविशे२५षात् ? यथैव हि प्रतिदृष्टान्तधर्मस्य खदृष्टान्तेऽभ्यनुज्ञानात्पक्षत्यागस्तथा प्रतिज्ञान्तरादपि । यथा च खपक्षसिद्ध्यर्थ प्रतिज्ञान्तरं विधीयते तथा शब्दाऽनित्यत्वसिद्ध्यर्थम् , भ्रान्तिवशात्तद्वच्छब्दोपि नित्योस्त्वित्यभ्यनुज्ञानम् । यथा चाभ्रान्तस्येदं विरुध्यते तथा प्रतिज्ञान्तरमपि । निमित्तभेदाच्च तद्भेदेऽनिष्टनिग्रहस्थानान्तरा
१ विचारान्ते । २ नित्यत्वलक्षणम् । ३ अनित्ये । ४ वादी । ५ ऐन्द्रियिकत्वाविशेषात् । ६ प्रतिपक्षस्य स्वपक्षेऽभ्युपगमनेनैव । ७ वादिनः प्रतिवादिनो वा । ८ प्रतिदृष्टान्तधर्मस्य खपक्षेभ्युपगमः । ९ अधिक्षेपस्तिरस्कारः। १० सामान्येन । ११ भेदम् । १२ वादी। १३ वादिनः। १४ ननु प्रतिशान्तरात्पक्षत्यागस्तस्य स्वपक्षसिमर्थ विधीयमानत्वादित्युक्ते सत्साह ।
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सू० ६१७३] जय-पराजयव्यवस्था
६६५ णामप्यनुषङ्गः स्यात् । तेषां तंत्रान्तर्भाव वा प्रतिज्ञान्तरस्यापि प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावः स्यादिति ।
"प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः" त्यायनु० ५।२।४ ] यथा गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रूपादिभ्यो भेदेनानुपलब्धेः । इत्यप्यसुन्दरम् ; यतो हेतुना प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे निरस्ते प्रकारान्तरतः५ प्रतिज्ञाहानिरवेयमुक्ता स्यात् , हेतुदोषो कार विरुद्धतालक्षणः, न प्रतिज्ञादोष इति।
"पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यास न्यायसू० ५।२।५] यथा 'अनित्यः शब्द ऐन्द्रियिकत्वाद् घटवत् इत्युक्ते पूर्ववत्सामान्येनानैकान्तिकत्वे हेतोरुद्भाविते प्रतिज्ञा-१० संन्यासं करोति-क एवमाह 'नित्यः(अनित्यः)शब्दः'? इत्यपि प्रतिज्ञाहानितो न भिधेत हेतोरनैकान्तिकत्वोपलम्भेनानापि प्रतिज्ञायाः परित्यागाविशेषादिति ।
"अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेष मिच्छतो हेत्वन्तरम् । [ न्यायसू० ५।२६] निदर्शनम्-'एकप्रकृतीदं व्यक्तं विकाराणां १५ परिमाणान्मृत्पूर्वकघटशरावोदञ्चनादिवत्' इत्यस्य व्यभिचारेण प्रत्यवस्थानम्-नानाप्रकृतीनामेकप्रकृतीनां दृष्टं परिमाणमित्यस्य हेतोरहेतुत्वं निश्चित्य 'एकप्रकृतिसमन्वये विकाराणां परिमाणात्' इत्याह । तदिदमविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषं ब्रुक्तो हेत्वन्तरं नाम निग्रहस्थानम् ।
इत्यप्यसुन्दरम्; एवं सत्यविशेषोक्ते दृष्टान्तोपनयनिगमने प्रतिषिद्धे विशेष मिच्छतो दृष्टान्ताद्यन्तरमपि निग्रहस्थानान्तरमनुषज्येत तत्राक्षेपसमाधानानां समानत्वादिति।।
"प्रकृतादर्थादप्रतिसम्बन्धार्थमर्थान्तरम्।" [न्यायसू० ५।२।७] यथोक्तलक्षणे पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहे हेतुतः साध्यसिद्धौ प्रकृतायां२५
१ प्रतिशाहान्यादौ । २ यत्र प्रतिज्ञा विरुध्यते हेतुना हेतुर्वा प्रतिज्ञया विरुध्यते स प्रतिशाविरोधः। ३ उक्तहेतौ दूषणोद्भावने स्वसाध्यपरित्यागः प्रतिशासन्न्यासः । ४ वादिना। ५ त्यागम् । ६ अविशेषोक्त हेतौ व्यभिचारेण प्रतिषिद्धे पश्चादिशेषणोपादानं हेत्वन्तरम् । ७ प्रतिवादिना। ८ प्रधानम् । ९ महदादिकार्यम् । १० वस्तुभेदानाम् । ११ वादिनोक्तानुमानस्य । १२ घटमुकुटपटलकुटशकादीनाम् । १३ एककारणानुस्यूतत्वे सतीत्यर्थः । १४ वादी । १५ दृष्टान्ताद्यन्तरं निग्रहस्थानं न स्यान्चेद्धत्वन्तरमपि निग्रहस्थानं मा भूदिति । १६ प्रकृतप्रमेयानुपयोगिवचनमर्थान्तरं नाम निग्रहस्थानम् । १७ वस्तुधर्मावेकाधिकरणावित्यादि ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि० प्रकृतं हेतु' प्रमाणसामर्थ्येनोहमसमर्थः समर्थयितु मित्यवस्यन्नपि कैथामपरित्यजन्नर्थान्तरमुपन्यस्यति-नित्यः शब्दोऽस्पर्शवत्त्वादिति हेतुः । हेतुश्च हिनोतेर्धातोस्तुप्रत्यये कृदन्तं पदम्, [पदं]च नामाख्यातोपसर्गनिपाता इति प्रस्तुत्य नामादीनि व्याचष्टे । ५ तदेतदप्यर्थान्तरं निग्रहस्थानं समर्थे साधने दूषणे वा प्रोक्ते निग्रहाय कल्प्येत, असमर्थ वा ? न तावत्समर्थे; स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोपि दोषाभावाल्लोकवत् । असमर्थेपि प्रतिवादिनः पक्षसिद्धौ तन्निग्रहाय स्यात्, असिद्धौ वा ? प्रथमपक्षे तत्पक्षसिद्ध्यैवास्य निग्रहो न त्वतो निग्रहस्थानात् । द्वितीयपक्षेप्यतो न निग्रहः पक्ष१० सिद्धरुभयोरप्यभावादिति ।। ___ "वर्णक्रमनिर्देशवनिरर्थकम् ।" [न्यायसू० ५।२।८] यथाऽनित्यः शब्दो जबगडदश्त्वात् झमघढधष्वत् । इत्यपि सर्वथार्थशून्यत्वान्निग्रहाय कल्प्येत, साध्यानुपयोगाद्वा? तत्राद्यविकल्पोऽ
युक्तः, सर्वथार्थशून्यस्य शब्दस्यैवासम्भवात् । वर्णक्रमनिर्देशस्या१५प्य कार्येणार्थनार्थवत्त्वोपपत्तेः। द्वितीयविकल्पे तु सर्वमेव निग्रह
स्थानं निरर्थकं स्यात्; साध्यसिद्धावनुपयोगित्वाविशेषात् । केनचिद्विशेषमात्रेण भेदे वा खात्कृताकम्पहस्तास्फालनकक्षापिट्टिकादेरपि साध्यसिध्यनुपयोगिनो निग्रहस्थानान्तरत्वानुषङ्ग इति ।
"परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञीतार्थम् ।” २०[न्यायसू० ५।२।९] अत्रेदमुच्यते-वादिना त्रिरभिहितमपि वाक्यं परिषत्प्रतिवादिभ्यां मन्दमतित्वादविज्ञातम् , गूढाभिधानतो वा, द्रुतोच्चाराद्वा? प्रथमपक्षे सत्साधनवादिनोप्येतन्निग्रहस्थानं स्यात्, तत्राप्यनयोर्मन्दमतित्वेनाविज्ञातत्वसम्भवात् । द्वितीयपक्षे तु
पत्रवाक्यप्रयोगेपि तत्प्रसङ्गो गूढाभिधानतया परिषत्प्रतिवादि२५ नोर्महाप्राशयोरप्यविज्ञातत्वोपलम्भात् । अथाभ्यामविज्ञातमप्येतद्वादी व्याचष्टे, गूढोपन्यासमप्यात्मनः स एव व्याचष्टाम् । अव्याख्याने तु जयाभाव एवास्य न पुनर्निग्रहः, परस्य पक्षसिद्धे. रभावात् । द्रुतोञ्चारेपि अनयोः कथञ्चित् ज्ञानं सम्भवत्येव सिद्धान्तद्वयवेदित्वात् । साध्यानुपयोगिनि तु वादिनः प्रलापमात्रे
१ अस्पर्शवत्वादिति । २ वादी । ३ वादम् । ४ प्रकृतार्थ परित्यज्यान्यमर्थ ब्रूते इत्यर्थः । ५ तस्य वादिनः। ६ वादिप्रतिवादिनोः । ७ अर्थरहितशब्दोच्चारणं निरर्थक नाम निग्रहस्थानम् । ८ पश्चास्क्रियमाणेन। ९ निरर्थकत्वान्निग्रहस्थानानाम् । १० वादिना। ११ वादिना त्रिरुपन्यस्तमपि परिषत्प्रतिवादिभ्यामविशातमविद्याताई नाम निग्रहस्थानं वादिनः । प्रतिवादिनोप्येवम् । १२ तार्यम् ।
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सू० ६७३] जय-पराजयव्यवस्था
६६७ तयोरज्ञानं नाविज्ञातार्थ वर्णक्रमनिर्देशवत् । ततो नेदमभि(वि) ज्ञातार्थ निरर्थकाद्भिद्यते इति ।
“पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्वद्धार्थमपार्शकम् ।" न्यायसू० ५। २१०] यथा दश दाडिमानि पडयूपाः कुण्डमजाऽजिनं पललपिण्डः।
इत्यपि निरर्थकान भिद्यते यथैव हि जवगडश्यादौ वर्णानां नैरर्थक्यं तथान पदानादिति । यदि दुलः पदनरर्थक्यं वर्णनैरर्थक्यादन्यत्वान्निग्रहस्थानान्तरमभ्युपगम्यते; तर्हि वाक्यनरर्थक्यस्याप्याभ्यामन्यत्वान्निग्रहस्थानान्तरत्वं स्यात् । पदव पोमिदैणा(ण)प्रयुज्यमानानां वाक्यानामप्यनेकधोपलन्मात् । २० "शङ्ख कदल्यां कदली च भेर्या तस्यां च भेया सुमहद्विमानम् ! तच्छङ्कमेरीकदलीविमानमुन्मत्तमङ्गप्रतिमं बलूव॥"[ ] इत्यादिवत् । यदि पुनः पदनैरर्थक्यमेव वाक्यनरर्थक्यं पद्समुदायात्मकत्वात्तस्य; तर्हि वर्णनैरर्थक्यमेव पद्नैरर्थक्यं स्याहर्णसमुदायात्मकत्वात्तस्य । वर्णानां सर्वत्र निरर्थकत्वात्पद-१७ स्यापि तत्प्रसङ्गश्चेत्तर्हि पदस्थापि निरर्थकत्वात् तत्समुदायास्मनो वाक्यस्यापि नैरर्थक्यानुषङ्गः। पदार्थापेक्षया पदस्यार्थवत्त्वे वार्थापेक्षया वर्णस्यापि तदस्तु प्रकृतिप्रत्ययादिवर्णवत् । न खलु प्रकृतिः केवला पदं प्रत्ययो वा, नाप्यनयोरनर्थकत्वम् । अभिव्यक्तार्थाभावादनर्थकत्वे पदस्थापि तत्स्यात् । यथैव हि प्रकृत्यर्थः२० प्रत्ययेनाभिव्यज्यते प्रत्ययार्थश्च प्रकृत्या तयोः केवलयोरप्रयोगात्, तथा 'देवदत्तस्तिष्ठति' इत्यादिप्रयोगे सुवन्त पदार्थस्य तिङन्तपदेन तिङन्तपदार्थस्य च सुबन्तपदेनाभिव्यक्तेः केवलँस्याप्रयोगः । पदान्तरापेक्षस्य पदस्य सार्थकत्वं प्रकृत्यपेक्षस्य प्रत्ययस्य तदपेक्षस्य च प्रकृत्यादिवर्णस्य समानमिति ।
"अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ।" [न्यायसू० ५।२।११] अवयवानां प्रतिज्ञादीनां विपर्यासेनाभिधानमप्राप्तकालं नाम निग्रहस्थानम् । इत्यप्यपेशलम् । प्रेक्षावतां प्रतिपत्तॄणामवयवक्रमनियम विनाप्यर्थप्रतिपत्त्युपलम्भादेवदत्तादिवाक्यवत्। ननु यथापशब्दा
१ पूर्वापराऽसङ्गतपदकदम्बकोच्चारणादप्रतिष्ठितवाक्यार्थमपार्थकं नाम निग्रहस्थानम्। २ उन्मत्ता गङ्गा यस्मिन्प्रदेशेऽसावुन्मत्तगङ्गः। ३ वाक्ये पदे च। ४ प्रकृत्यादावपि पदानामेवार्थवत्त्वं न पुनर्वर्णानां येन दृष्टान्तः सिद्धः स्यादित्युक्ते सत्याह । ५ वर्णस्य । ६ पदस्य । ७ सार्थकत्वम् । ८ यथाक्रमोल्लङ्घनेन प्रयुज्यमानमनुमानवाक्यम् । ९ अप्राप्तावसरम् । १० देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेत्यादिवत् ।
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६६८
प्रमेयकमलमार्तण्डे । ५. तदाभासपरि० च्छुताच्छब्दस्मरणं ततोऽर्थप्रत्यय इति शब्दादेवार्थप्रत्ययः परम्प. रया तथा प्रतिज्ञाद्यवयवव्युत्क्रमात् तत्क्रमस्मरणं ततो वाक्यार्थप्रत्ययो न तद्युत्क्रमात्, इत्यप्यसारम् ; एवंविधप्रतीत्यभावात् । यस्माद्धि शब्दादुच्चरिताद्यत्राथै प्रतीतिः स एव तस्य वाचको ५नान्यः, अन्यथा 'शब्दात्तत्क्रमाञ्चापशब्दे तद्युत्क्रमे च स्मरणं ततोऽर्थप्रतीतिः' इत्यपि वक्तुं शक्येत । एवं शब्दाद्यन्वाख्यानवैयर्थ्य चेत् ;न; एवं वादिनोऽनिष्टमात्रापादनात् , अपशब्देपि चान्वाख्यानस्योपलम्भात् । 'संस्कृताच्छब्दात्सत्याद्धर्मोन्यस्मादऽधर्मः' इति नियमे चान्यधर्माधर्मोपायानुष्ठानवैयर्थ्यम् । धर्माधर्मयोश्चाप्रति१० नियमप्रसङ्गः, अधार्मिके धार्मिके च तच्छब्दोपलम्भात् । भवतु
वा तत्क्रमादर्थप्रतीतिः, तथाप्यर्थप्रत्ययः क्रमेण स्थितो येन वाक्योन व्युत्क्रम्यते तन्निरर्थकं न त्वऽप्राप्तकालमिति ।
"शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् ।” [ न्यायसू० ५।२।१४] तत्रार्थपुनरुक्तमेवोपपन्नं न शब्दपुनरुक्तम् । अर्थभेदे १५शब्दसाम्येप्यस्याऽसम्भवात्
"हसति हसति स्वामिन्युच्चैरुदत्यतिरोदिति,
कृतपरिकरं स्वेदोद्गोरि प्रधावति धावति । गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति, धनलवपरिक्रीतं यत्रं प्रनृत्यति नृत्यति ।”
[वादन्यायपृ० १११] इत्यादिवत् । ततः स्वेष्टार्थवाचकैस्तैरेवान्यैर्वा शब्दैः सत्याः प्रतिपादनीयाः । तत्प्रतिपादकशब्दानां तु संकृत्पुनः पुनर्वाभिधानं निरर्थकं न तु पुनरुक्तम् । यद्य(द)प्यादापनस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तमुक्तम् । यथा 'उत्पत्तिधर्मकम नित्यम्' २५ इत्युक्त्वाऽर्थादापन्नस्यार्थस्य योऽभिधायकः शब्दस्तेन स्वशब्देन
ब्रूयात् 'नित्यमनुत्पत्तिधर्मकम्' इति । तदपि प्रतिपन्नार्थप्रतिपादकत्वेन वैयर्थ्यान्निग्रहस्थानं नान्यथा । तथा चेदं निरर्थकान्न विशेष्येतेति।
१ सत्यशब्दस्य । २ स्मृतशब्दात् । ३ विपर्ययात् । ४ स्मृतक्रमात् । ५ स्मृतापशब्दात्स्मृततत्क्रमात् । ६ शब्दादेरपशब्दादिस्मरणप्रकारेण । ७ पुनः पुनः कथनमन्वाख्यानम् । ८ संस्कृताच्छन्दाद्धर्मोऽन्यसादधर्म इति नियमानापशब्देऽन्वाख्यापनमस्तीत्युक्ते सत्याह। ९ इज्याऽध्ययनादिरन्यः। १० सति । ११ क्रियाविशेषणम् । १२ क्रियाविशेषणम् । १३ मौल्येन सङ्ग्रहीतम्। १४ यत्रमिव यत्रं भृत्यः । १५ शब्दपौनरुक्त्यमुपपन्नं न भवेद्यतः। १६ प्रथमोच्चारितैः। १७ कथनानन्तरमेकवारम् । १८ अर्थस्य । १९ पुनरुक्तत्वप्रकारेण ।
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सू० ६१७३] जय-पराजयव्यवस्था __"विज्ञातस्य परिषदा त्रिरभिहितस्याऽप्रत्युच्चारणमननुभापणम् ।" [न्यायसू०५।२०१६] अप्रत्युच्चारयन्किमाश्रयं परपक्षप्रतिषेधं ब्रूयात्? इत्यत्रापि किं सर्वस्य वादिनोक्तस्याननुभाषणम् , किं वा यन्नान्तरीयिका साध्यसिद्धिस्तस्येति ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; परोक्तमशेषमप्रत्युच्चारयतोपि दूपणवचनाऽव्याघातात् । यथा५ 'सर्वमनित्यं सत्त्वात्' इत्युक्ते 'सत्त्वात् इत्ययं हेतुविरुद्धः' इति हेतुमेवोच्चार्य विरुद्धतोद्भाव्यते-'क्षणक्षयायेकान्ते सर्वथार्थक्रियाविरोधात्सत्त्वानुपपत्तेः' इति, समर्थ्यते च, तावता च परोक्तहेतोर्दूषणात्किमन्योच्चारणेन ? अंतो यन्नान्तरीयिका साध्यसिद्धिस्तस्यैवाऽप्रत्युच्चारणमननुभाषणं प्रतिपत्तव्यम् । अथैवं दूषयितुम-१० समर्थः शास्त्रार्थपरिज्ञानविशेषविकलत्वात् तदाऽयमुत्तराऽप्रतिपत्तेरेव तिरस्क्रियते न पुनरननुभाषणादिति ।
"अविज्ञातं चाज्ञानम् ।” [ न्यायसू० ५।२।१७] विज्ञातार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना यदविज्ञातं(न)तदज्ञानं नाम 'निग्रहस्थानम् । अजानन् कस्य प्रतिषेधं ब्रूयात् ? इत्यप्यसारम् ; प्रतिज्ञाहान्यादि-१५ निग्रहस्थानानां भेदाभावानुषङ्गात् तत्राप्यज्ञानस्यैव सम्भवात् । तेषां तत्प्रभेदत्वे वा निग्रहस्थानप्रतिनियमाभावप्रसङ्गः परोक्तस्या ज्ञानादिभेदेन निग्रहस्थानानेकत्वसम्भवात् ।
"उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा।" [ न्यायसू० ५।२।१८] साप्यज्ञानान्न भिद्यत एव।
"निहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् ।" [न्यायसू० ५।२।२१] पर्यनुयोज्यो हि निग्रहोपपत्या चोर्दनीयस्तस्योपेक्षणं "निग्रहं प्राप्तोसि' इत्यननुयोग एव । एतच्च 'कस्य पराजयः इत्यनुयुक्तँया परिषदा वचनीयम् । न खलु निग्रहप्राप्तः खं कौपीनं विवृणुयात् । इत्यप्यज्ञानान्न व्यतिरिच्यत एव ।
"अंनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगः ।" [न्यायसू० ५।२।२२] तस्याप्यज्ञानात्पृथग्भावोनुपपन्न एव ।
१ वादिना । २ प्रतिवादिना । ३ प्रतिवाद्युक्तस्य । ४ प्रतिवादिना । ५ अन्यत् धर्मिसाध्यादि । ६ सर्वस्य वादिनोक्तस्याननुभाषणं न घटते यतः । ७ परेण । ८ हेतू. चारणं कृत्वा । ९ प्रतिवादी। १० प्रतिवादी। ११ परिषदा विज्ञातस्यापि वादिवाक्यस्य प्रतिवादिना यदविशातं तदशानं नाम । १२ प्रतिवादी। १३ आदिना अर्धा दि. ग्रहः। १४ प्राप्तदोषानुद्भावनं पर्यनुयोज्योपेक्षणं नाम निग्रहस्थानम् । १५ प्रतिवादिनः । १६ इदं ते निग्रहस्थानमायातमतो निग्रहीतोसीति वचनीयः । १७ पृष्टया। १८ गुह्यम् । १९ दोषरहिते दोषोद्भावनं निरनुयोज्यानुयोगो नाम निग्रहस्थानम् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे । ५. तदाभासपरि० "कार्यव्याखङ्गात्कथाविच्छेदो विक्षेपः।" [न्यायसू० ५।२।१९ ] सिसाधयिषितस्यार्थस्याऽशक्यसाध्यतामवसीय कालयापनार्थ यत्कर्त्तव्यं व्यासज्य कथां विच्छिनत्ति-इदं मे करणीयं परिहीयते. तस्मिन्नवसिते पश्चात्कथयिष्यामि । इत्यप्यज्ञानतो नार्थान्तरमिति ५प्रतिपत्तव्यम्। ___ "वपक्षे दोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसङ्गो मतानुज्ञा ।" [न्यायसू०५।२।२०] यः परेण चोदितं दोषमनुद्धृत्य ब्रवीति-भवत्पक्षेप्ययं दोषः समानः' इति, स खपक्षे दोषाभ्युपगमात्परपक्षे
दोषं प्रसजन् परमतमनुजानातीति मतानुशा नाम निग्रहस्थान१०मापद्यते । इत्यप्यज्ञानान्न भिद्यते एव । अनैकान्तिकता चात्र
हेतोः; तथाहि-तस्करोयं पुरुषत्वात्प्रसिद्धतस्करवत्' इत्युक्ते 'त्वमपि तस्करः स्यात्' इति हेतोरनैकान्तिकत्वमेवोक्तं स्यात् । स चात्मीयहेतोरात्मनैवानैकान्तिकत्वं दृष्ट्वा प्राह-भवत्पक्षेप्ययं दोषः समानः-त्वमपि पुरुषोसि इत्यनैकान्तिकत्वमेवोद्भाव १५ यतीति । ___ "हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनम्।” न्यायसू० ५।२।१२] यस्सिन्वाक्ये प्रतिज्ञादीनामन्यतमोऽवयवो न भवति तद्वाक्यं हीनं नाम निग्रहस्थानम् । साधनाभावे साध्यसिद्धेरभावात्, प्रतिज्ञादीनां च
पञ्चानामपि साधनत्वात् ; इत्यप्यसमीचीनम्; पश्चावयवप्रयोग२० मन्तरेणापि साध्यसिद्धेः प्रतिपादितत्वात् , पक्षहेतुवचनमन्तरे
णैव तत्सिद्धेरभावात् अतस्तद्धीनमेव न्यूनं निग्रहस्थानमिति । _ "हेतूदाहरणाधिकमधिकम्।” न्यायसू०५।२।१३] यस्मिन्वाक्ये द्वौ हेतू द्वौ वा दृष्टान्तौ तदधिक निग्रहस्थानम् ; इत्यपि वार्तम्; तथाविधाद्वाक्यात्पक्षप्रसिद्धौ पराजयायोगात् । कथं चैवं प्रमा२५ णसंप्लेवोभ्युपगम्यते ? अभ्युपगमे वाधिकत्वान्निग्रहाय जायेत । 'प्रतिपत्तिदाढ्य-संवादसिद्धिप्रयोजनसद्भावान्न निग्रहः' इत्यन्यत्रापि समानम् । हेतुना दृष्टान्तेन वैकेन प्रसाधितेप्यर्थे द्वितीयस्य हेतोदृष्टान्तस्य वा नानर्थक्यम्, तत्प्रयोजनसद्भावात् । न चैवैम
नवस्था; कस्यचित्तचिनिराकांक्षतोपपत्तेः प्रमाणान्तरवत् । कथं ३० चास्य कृतकत्वांदो स्वार्थिककप्रत्ययवचनम् , 'यत्कृतकं तदनि
१ शात्वा। २ स्वपक्षोक्तदोषमपरिहृत्य परपक्षेपि दूषणमुद्भावयतो मतानुशा नाम निग्रहस्थानम् । ३ वादी। ४ प्रतिवादिना। ५ स्वपक्षे । ६ सम्बन्धयन् । ७ वादी । ८ स्वयम् । ९ अनुमानस्य । १० अधिकस्य निग्रहस्थानत्वप्रकारेण । ११ एकस्मिप्रमाणविषये प्रमाणान्तरवर्तनं प्रमाणसंपवः। १२ परेण । १३ हेतुदृष्टान्तान्तरान्वेषणप्रकारेण । १४ अनुमाने । १५ अधिकनिग्रहस्थानवादिनः। १३ साधने ।
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सू० ६।७३] जय-पराजयव्यवस्था ६७१ त्यम्' इति व्याप्तौ यत्तद्वचनम्, वृतिपदप्रयोगादेव चार्थप्रतिपत्तौ वाक्यप्रयोगः अधिकत्वान्निग्रहस्थानं न स्यात् ? तथाविधस्याप्यस्य प्रतिपत्तिविशेषोपायत्वात्तवेति चेत् : कथमनेकल्य हेतोदृष्टान्तस्य वा तदुपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणम् ? निरर्थकस्य तु वचनं निरर्थकत्वादेव निग्रहस्थानं नाधिकत्वादिति । ५ _ "सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः।” न्यायसू० ५।२।२३] प्रतिज्ञातार्थ परित्यागान्निग्रहस्थानम् ! यथा नित्यानऽभ्युपेत्य शब्दादीन् हुनर नित्यान् ब्रूते । इत्यपि प्रतिवादिनः प्रतिपक्षसाधने सत्येव निग्रहस्थानं नान्यथा। ___ "हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः।" [न्यायसू० ५।२।२४] असिद्धवि-१० रुद्धानकान्तिककालात्ययापदिष्टप्रकरणसमा निग्रहस्थानम् । इत्यत्रापि विरुद्धहेतूद्धावने प्रतिपक्षसिद्धेर्निग्रहाधिकरणत्वं युक्तम् । असिद्धाधुद्भावने तु प्रतिवादिना प्रतिपक्षसाधने कृते तद्युक्तं नान्यथेति ।
एतेनासाधनाङ्गवचनादि निग्रहस्थानं प्रत्युक्तम् ; एकस्य स्वए-१५ क्षसियैवान्यस्य निग्रहप्रसिद्धः । ततः स्थितमेतत्"वपक्षसिद्धेरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः। नासाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः॥"[ ] इति । इदं चानवस्थितम्"असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः। निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्त मिति नेष्यते ॥” [ वादन्यापृ० १] इति। अत्र हि स्वपक्षं साधयन् वादिप्रतिवादिनोरन्यतरोऽसाधना. ङ्गवचनादऽदोषोद्भावनाद्वा परं निगृह्णाति, असाधयन्वा ? प्रथमपक्षे खपक्षसियैवास्य पराजयादन्योद्भावनं व्यर्थम् । द्वितीयपक्षे तु असाधनाङ्गवचनाद्युद्भावनेपि न कस्यचिजयः पक्षसिद्धरुभयोर-२५ भावात् ।
यच्चास्य व्याख्यानम्-"साधनं सिद्धिः तदङ्गं त्रिरूपं लिङ्गम् , तस्याऽवचनं तूष्णींभावो यत्किञ्चिद्भाषणं वा। साधनस्य वा
१ समासोत्र वृत्तिः। २ स्यादेव। ३ अधिकत्वान्निग्रहस्थानत्वं कः कारयेत्तद्वचनस्य । ४ निरर्थकत्वान्निग्रहस्थानं भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ५ स्वीकृतागमविरुद्धअसाधनमपसिद्धान्तो नाम निग्रहस्थानम् । ६ प्रतिपक्षसिध्यभावे । ७ सौगतमतमेतत् । ८ आदिना अदोषोद्भावनादि । ९ वादिप्रतिवादिनोः। १० एतदीयं व्याख्यानमस्त्यग्रे। ११ असाधनाङ्गवचनं वादिन एव निग्रहस्थानमदोषोद्भावनं तु प्रतिवादिन । एवेति द्वयोरिति पदमुक्तम् । १२ हेतोः। १३ अन्यस्य दोषस्य ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि०
त्रिरूपलिङ्गस्याङ्गं समर्थनम् विपक्षे बाधकप्रमाणदर्शनरूपम. तस्याऽवचनं वादिनो निग्रहस्थानम्" [वादन्यायपृ०५-६) इति । तत्पश्चावयवप्रयोगवादिनोपि समानम्-शक्यं हि तेनाप्येवं वक्तुम्-सिद्धङ्गस्य पञ्चावयवप्रयोगस्यावचनात्सौगतस्य वादिनो ५ निग्रहः । न चास्य तदवचनेपि न निग्रहः, प्रतिज्ञानिगमनयोः 'पक्षधर्मोपसंहारस्य सामर्थ्यागम्यमानत्वात् । गम्यमानयोश्च वचने पुनरुक्तत्वानुषङ्गात्। ननुतत्प्रयोगेपि हेतुप्रयोगमन्तरेण साध्यार्थाप्रसिद्धिः; इत्यप्यपेशलम् ; पक्षधर्मोपसंहारस्याप्येवैमवचनानुषङ्गात् । अथ सामर्थ्यागम्यमानस्यापि 'यत्सत्तत्सर्वे क्षणिकं यथा घटः संश्च शब्दः' इति पक्षधोपसंहारस्य वचनं हेतोरपक्षधमत्वेनासिद्धत्वव्यवच्छेदार्थम् ; तर्हि साध्याधारसन्देहापनोदार्थ गम्यमानस्यापि पक्षस्य निगमनस्य च पक्षहेतूदाहरणोपनयानामेकार्थत्वप्रदर्शनार्थ वचनं किन्न स्यात् ? न हि पक्षादीनामेकार्थत्वोपदर्शनमन्तरेण सङ्गतत्वं घटते; भिन्नविषयपक्षादिवत् । १५ ननु प्रतिज्ञातः साध्यसिद्धौ हेत्वादिवचनमनर्थकमेव स्यात्, 'अन्यथा नास्याः साधनाङ्गतेति चेत्, तर्हि भव॑तोपि हेतुतः साध्यसिद्धौ दृष्टान्तोनर्थकः स्यात्, अन्यथा नास्य साधनाङ्गतेति समानम् । ननु साध्यसाधनयोव्याप्तिप्रदर्शनार्थत्वाद् दृष्टान्तो नानर्थकः
तत्र तदप्रदर्शने हेतोरगमकत्वात् । इत्यप्यसङ्गतम् ; सर्वानित्यत्व२० साधने सत्त्वादेदृष्टान्ताऽसम्भवतोऽगमकत्वानुषङ्गात् । विपक्षव्या
वृत्त्या सत्वादेर्गमकत्वे वा सर्वत्रापि हेतौ तथैव गमकत्वप्रसङ्गाद दृष्टान्तोनर्थक एव स्यात् । विपक्षव्यावृत्त्या च हेतुं समर्थयन् कथं प्रतिज्ञा प्रतिक्षिपेत् ? तस्याश्वानभिधाने क्व हेतुः साध्यं वा वर्त्तत ? गम्यमाने प्रतिज्ञाविषये एवेति चेत्, तर्हि गम्यमानस्यैव २५ हेतोरपि समर्थनं स्यान्न तूक्तस्य । अथ गम्यमानस्यापि हेतोर्मन्मतिप्रतिपत्त्यर्थ वचनम् ; तथा प्रतिज्ञावचने कोऽपरितोषः ?
यच्चेदम्-'असाधनाङ्गम्' इत्यस्य व्याख्यान्तरम्-“साधम्र्येण हेतोर्वचने वैधय॑वचनं वैधम्र्येण वा प्रयोगे साधर्म्यवचनं गम्यमानत्वात् पुनरुक्तम् । अतो न साधनाङ्गम् ।" [ वादन्यायपृ० ३०६५] इत्यप्यसाम्प्रतम् । यतः सम्यक्साधनसामर्थेन स्वपक्षं साधयतो वादिनो निग्रहः स्यात् , अप्रसाधयतो वा? प्रथमपक्षे कथं
१ व्याख्यानम् । २ योगस्य । ३ सौगतमतमालम्ब्याचार्येणोच्यते । ४ प्रतिज्ञानिगमनप्रकारेण । ५ व्यतिरेकेण । ६ सौगतस्य । ७ हेतुतः साध्यसिद्धिर्न भवतीति चेत् । ८ साध्यस्याऽशापको भवति हेतुरिति भावः। ९ विपक्षोत्र नित्यः । १० सौगतः। ११ प्रतिपादनम् । १२ हेतोर्वचने। १३ प्रतिपादनम् ।
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सू० ६।७३] जय-पराजयव्यवस्था ६७३ साध्यसिद्ध्यऽप्रतिवन्धिवचनाधिक्योपलम्भमात्रेणास्य निग्रहो विरोधात् ? नन्वेवं नाटकादिघोषणातोप्यस्य निग्रहो न स्यात् सत्यमेवैतत् स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोपि दोपामावाल्लोकवत् । अन्यथा ताम्बूलभक्षणभृक्षेपलात्कृताकस्पहत्तास्फालनादिभ्योपि सत्यसाधनवादिनो निग्रहः स्यात् । अथ स्वपक्षमप्रसाधयतोस्य५ निग्रहः, नन्वत्रापि किं प्रतिवादिना स्वपक्षे साधिले वादिनो वचनाधिक्योपलम्भान्निग्रहो लक्ष्येत, अलाधिदे का? प्रथमविकल्पे स्वपक्षसिधैवात्य लिग्रहाचदाधियोद्भावनमनर्थकम् , तस्मिन् सत्यपि स्वपक्षसिद्धिमन्तरेण जयायोगात् । द्वितीयपक्षे तु युगपद्वादिप्रतिवादिनोः पराजयप्रसङ्गो जयप्रसङ्गो वा स्यात्स्व-१० पक्षसिद्धेरभावाविशेषात् ।
ननु न स्वपक्षसिद्ध्यसिद्धिनिवन्धनौ जयपराजयौ तयोर्शानाशाननिवन्धनत्वात । साधनवादिना हि साधु साधनं ज्ञात्वा वक्तव्यं दूषणवादिना च तद्रूपणम् । तत्र साधर्म्यवचनाद्वैधर्म्यवचनाद्वाऽ. र्थस्य प्रतिपत्तौ तदुभयवचने वादिनः प्रतिवादिना सभायामसा-१५ धनाङ्गवचनस्योद्भावनात् साधुसाधनाभिधानाज्ञानसिद्धेः परा. जयः, प्रतिवादिनस्तु तद्पणज्ञाननिर्णयाजयः स्यात् ; इत्यप्यवि. चारितरमणीयम् । विकल्पानुपपत्तेः । स हि प्रतिवादी निदोषसाधनवादिनो वचनाधिक्यमुद्भावयेत्, साधनाभासवादिनो वा? तत्राद्यविकल्पे वादिनः कथं साधुसाधनाभिधानाऽज्ञानम् ,२० तद्वचनेयत्ताज्ञानस्यैवासम्भवात् ? द्वितीयविकल्पे तु न प्रतिवादिनो दूषणशानमवतिष्टते साधनाभासस्यानुद्भावनात् । तद्वचना. धिक्यदोषस्य ज्ञानाढूषणशोसाविति चेत् ; साधनाभासाज्ञानादूपणज्ञोपीति नैकान्ततो वादिनं जयेत्, तददोषोद्भावनलक्षणस्य पराजयस्यापि निवारयितुमशक्तेः । अथ वचनाधिक्यदोपोद्भाव-२५ नादेव प्रतिवादिनो जयसिद्धौ साधनाभासोद्भावनमनर्थकम् ; नन्वेवं साधनाभासानुद्भावनात्तस्य पराजयसिद्धौ वचनाधिक्योद्भावनं कथं जयाय प्रकल्प्येत? अथ वचनाधिक्यं साधनाभासं चोद्भावयतः प्रतिवादिनो जयः; कथमेवं साधर्म्यवचने वैधर्म्यवचनं तद्वचने वा साधर्म्यवचनं जयाय प्रभवेत् ?
१ सम्यक्साध्यसिद्धिश्चेन्निग्रहः कथं निग्रहश्चेत्सा कथमिति विरोधः। २ साध्यसिद्धयप्रतिबन्धिवचनाधिक्यमात्रतोपि न निग्रह इति प्रकारेण। ३ साधनदूषणं ज्ञात्वा वक्तव्यम् । ४ साध्यलक्षणस्य । ५ एतावत्परिमाणेन साधुसाधनं वाच्यमिति ज्ञानस्य । ६ सर्वथा। ७ ततश्च जयायैवोभयवचनम् ।
प्र. क. मा० ५७
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६७४
प्रमेयकमलमार्तण्डे [५. तदाभासपरि० कथं चैवं वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपारिग्रहवैयर्थं न स्यात् ? क्वचिदेकनापि पक्षे साधनसामर्थ्यशानाशानयोः सम्भवात् । न खलु शब्दादौ नित्यत्वस्यानित्यत्वस्य वा परीक्षायाम एकस्य साधनसामर्थ्य ज्ञानमन्यस्य चाज्ञानं जयस्य पराजयस्य वा ५ निवन्धनं न सम्भवति । युगपत्साधनसामर्थ्यस्य ज्ञानेन वादिप्रतिवादिनोः कस्य जयः पराजयो वा स्यात्तविशेषात् ? न कस्यचिदिति चेत्, तर्हि साधनवादिनो वचनाधिक्यकारिणः साधनसामर्थ्याऽज्ञानसिद्धेः प्रतिवादिनश्च वचनाधिक्यदोषोद्भावनात्तदोषमात्रे ज्ञानसिद्धेर्न कस्यचिजयः पराजयो वा १० स्यात् । न हि यो यद्दोषं वेत्ति स तद्गुणमपि, कुतश्चिन्मारणशक्तिवेदनेपि विषद्रव्यस्य कुष्ठापनयनशक्तौ संवेदनानुदयात् । तन्न तत्सामर्थ्यज्ञानाज्ञाननिवन्धनौ जयपराजयौ शक्यव्यवस्थौ यथो. कदोषानुषङ्गात् । स्वपक्षसिद्ध्यसिद्धिनिबन्धनौ तु तौ निरवद्यौ पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्याभावात् । कस्यचित्कुतश्चित्वपक्षसिद्धौ १५ सुनिश्चितायां परस्य तत्सियभावतः सजयपराजयाप्रसङ्गात् ।
यच्चेदम्-'अदोषोद्भावनम्' इत्यस्य व्याख्यानम्-"प्रसज्यप्रतिषेधे दोषोद्भावनाऽभावमात्रमदोषोद्भावनम् , पर्युदासे तु दोषाभासानामन्यदोषाणां चोद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रहस्थानम्"
] इति; तद्वादिना दोषवति साधने प्रयुक्ते २० सत्यनुमतमेव, यदि वादी स्वपक्षं साधयेत्, नान्यथा । वचनाधिक्यं तु दोषः प्रांगेव प्रतिविहितः । यथैव हि पञ्चावयवप्रयोगे वचनाधिक्यं निग्रहस्थानम् , तथा व्यवयवप्रयोगे न्यूनतापि स्याद्विशेषाभावात् । प्रतिज्ञादीनि हि पञ्चाप्यनुमानाङ्गम्-"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः" [न्यायसू० १११।३२] इत्य२५ भिधानात् । तेषां मध्येऽन्यतमस्याप्यनभिधाने न्यूनताख्यो दोषो.
नुषज्यत एव । “हीनमन्यतमेनापि न्यूनम्" [न्यायसू० ५।२।१२] इति वचनात् । ततो जयेतरव्यवस्थायाः 'प्रमाणतदाभासौं' इत्यादितो नान्यनिबन्धनं व्यवतिष्ठते, इत्येतच्छलादौ तन्निवन्धनत्वेनाग्रहग्रहं परित्यज्य विचारकभावमादायाऽमलमनसि प्रामाणिकाः ३० स्वयमेव सम्प्रधारयन्तु, कृतमतिप्रसङ्गेन ।
१ वादिनः। २ प्रतिवादिनः। ३ अत्यन्ताभावमात्रम् । ४ प्रतिवादिना । ५ वचनाधिक्यदोषनिराकरणसमये । ६ योगस्य । ७ सौगतस्य । ८ निग्रहस्थानम् ।
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सू० ६७३] जय-पराजयव्यवस्था साभार गदितं प्रमाणमखिलं संख्याफलस्वार्थतः,
सुव्यक्तैः सकलार्थसाविषयैः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः । येनासौ निखिलप्रबोधजननो दियाद्गुणाम्भोनिधिः, वाकीयोः परमालयोऽत्र सततं माणिक्यनन्दिप्रभुः॥१॥ इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलनार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे ५
पञ्चमः परिच्छेदः समाः (परीक्षामुखसूत्रपाठापेक्षया तु 'सम्भवदन्यद्विचारणीयम्
इति सूत्रान्तं षष्ठपरिच्छेदसमाप्तिः)
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श्री।
अथ षष्ठः परिच्छेदः॥
प्राचां वाचाममृततटिनीपूरकर्पूरकल्पान् ,
बन्धान(न्म)न्दा नवकुकवयो नूतनीकुर्वते ये। तेऽयस्काराः सुभटमुकुटोत्पाटिपाण्डित्यभाजम् ,
भित्त्वा खड्गं विद्धति नवं पश्य कुण्ठं कुठारम् ॥ ५ ननूक्तं प्रमाणेतरयोर्लक्षणमधुणं नयेतरयोस्तु लक्षणं नोक्तम्, तञ्चावश्यं वक्तव्यम् , तवचने विनेयानां नाऽविकला व्युत्पत्तिः स्यात् इत्याशङ्कमानं प्रत्याह
सम्भवदन्यद्विचारणीयम् ॥ ६७४ ॥ इति। १० सम्भवद्विद्यमानं कथितात्प्रमाणतदाभासलक्षणादन्यत् नय
नयाभासयोर्लक्षणं विचारणीयं नयनिष्ठैदिग्मात्रप्रदर्शनपरत्वादस्य प्रयासस्येति । तल्लक्षणं च सामान्यतो विशेषतश्च सम्भवतीति तथैव तद्वद्युत्पाद्यते । तत्राऽनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुं
रभिप्रायो नयः । निराकृतप्रतिपक्षस्तु नयाभासः । इत्यनयोः १५ सामान्यलक्षणम् । स च द्वेधा द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकविकल्पात् । द्व्यमेवार्थो विषयो यस्यास्ति स द्रव्यार्थिकः । पर्याय एवार्थों यस्यास्त्यसौ पर्यायार्थिकः । इति नयविशेषलक्षणम् । तत्राद्यो नैगमसङ्ग्रहव्यवहारविकल्पात् त्रिविधः । द्वितीयस्तु ऋजुसूत्र
शब्दसमभिरूढैवंभूतविकल्पाच्चतुर्विधः। २० तत्रानिष्पन्नार्थसङ्कल्पमात्रग्राही नैगमः। निगमो हि सङ्कल्पः,
तत्र भवस्तत्प्रयोजनो वा नैगमः । यथा कश्चित्पुरुषो गृहीतकुठारो गच्छन् 'किमर्थं भवान्गच्छति' इति पृष्टः सन्नाह-प्रेस्थमानेतुम्' इति । एंधोदकाद्याहरणे वा व्याप्रियमाणः "किं करोति भवान्' इति पृष्टः प्राह-'ओदनं पचामि' इति । न चासौ प्रस्थप
१ कल्पः सदृशः। २ 'बन्धान्' इति विशेष्यपदमध्याहार्यम् । ३ परीक्षामुखस्य । ४ प्रकरणस्य । ५ विकलादेशविशेषमाश्रित्य प्रवृत्तो शातुरभिप्रायो ( शानस्वरूपः) नयः । ६ सामान्यलक्षणलक्षितो नयः। ७ द्रवति द्रोष्यत्यऽदुद्रुवच्चेति द्रव्यं जीवादि। ८ जीवस्य यथा नरनारकादिः सुखदुःखादि । ९ प्रस्थो मानविशेषः। १० एधःकाष्ठम् । दकमुदकम्।
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सू० ६१७४ } नयविवेचनम्
६७७ र्याय ओदनपर्यायो वा निष्पन्नलन्निप्पत्तये सङ्कल्पमात्रे प्रस्थादिव्यवहारात् । यद्वा नैकङ्गमो नैगमो धर्मधर्मिणोर्गुणेप्रधानभावेन विषयीकरणात् । 'जीवगुणः सुखम्' इत्यत्र हि जीवस्याप्राधान्यं विशेषणत्वात् , सुखस्य तु प्राधान्यं विशेष(ग्यत्वात् । 'सुखी जीवः' इत्यादौ तु जीवस्य प्राधान्य न सुखादेविपर्ययात् । न चास्यैवं ५ प्रमाणात्मकत्वानुपङ्गः, धर्मधर्मिणोः प्राधान्येनात्र शप्तेरसम्भवात् । तयोरन्यतैर एव हि नैगमनयेन प्रधानतयानुभूयते। प्राधान्येन द्रव्यपर्यायद्वयात्मकं चार्थमनुभवद्धिज्ञानं प्रमाण प्रतिपत्तव्यं नान्यदिति।
सर्वथानयोरर्थान्तरत्वाभिसन्धिस्तु नैगमाभासः। धर्मधर्मिणोः १० सर्वथार्थान्तरत्वे धर्मिणि धर्माणां वृत्तिविरोधस्य प्रतिपादितत्वादिति।
खात्यविरोधेनैकँध्यमुपनीयार्थानाक्रान्तभेदान् समस्तग्रहणात्संग्रहः। स च परोऽपरश्च । तत्र परः सकलभावानां सदात्मनेकत्वमभिप्रैति । 'सर्वमेकं सदविशेषात्' इत्युक्ते हि 'सत्' इति-१५ वोग्विज्ञानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्तात्मकत्वेनैकत्वमशेपार्थानां संगृह्यते । निराकृताऽशेषविशेषस्तु सत्ताऽद्वैताभिप्रायस्तैदाभासो दृष्टेष्टवाधनात् । तथाऽपरः संग्रहो द्रव्यत्वेनाशेषद्रव्याणामेकत्वमभिप्रेति । 'द्रव्यम्' इत्युक्ते ह्यतीतानागतवर्तमान कालवर्तिविवक्षिताविवक्षितपर्यायवणशीलानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानामेक-२० त्वेन संग्रहः । तथा 'घटः' इत्युक्ते निखिलघटव्यक्तीनां घटत्वेनैकत्वसंग्रहः।
सामान्यविशेषाणां सर्वथार्थान्तरत्वाभिप्रायोऽनर्थान्तरत्वाभिप्रायो वाऽपरसङ्ग्रहाभालः, प्रतीतिविरोधादिति।
सङ्ग्रहगृहीतार्थानां विधिपूर्वकमबहरणं विभजनं भेदेन प्ररूपणं २५ व्यवहारः । परसंग्रहेण हि सद्धर्माधारतया सर्वमेकत्वेन 'सत्' इति संगृहीतम् । व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रेति । यत्सत्तद्रव्यं
१२
१ अन्योन्यगुणप्रधानभूतभेदाभेदप्ररूपणो नैगमः। २ गौणमुख्यरूपेण । ३ धर्मों धर्मी वा। ४ अभिप्रायः। ५ भिन्नत्वे । ६ स्वस्यार्थस्य जातिः सदात्मिका । ७ एकप्रकारम् । ८ अन्तलीनविशेषान्। ९ प्रति। १० वस्तूनाम् । ११ विषयी. करोति । १२ द्वन्दः। १३ इदं सदिदं सदिति। १४ एता एव लिङ्गं तेन । १५ ब्रह्मवादः। १६ सङ्ग्रहाभासः। १७ दृष्टेन प्रत्यक्षेणेष्टेनानुमानेन च । १८ परि. णमनस्वभावानाम् । १९ विशेषस्य सव्यपेक्षः सन्मात्रग्राही सङ्ग्रहः । २० भेदरूपेण । २१ अभेदरूपेण । २२ योगस्य मीमांसकस्य च ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [६. नयपरि० पर्यायो वा । तथैवापरः सङ्ग्रहः सर्वद्रव्याणि 'द्रव्यम्' इति, सर्वपर्यायांश्च 'पर्यायः' इति संगृह्णाति । व्यवहारस्तु तद्विभागममिप्रैति-यद्रव्यं तज्जीवादि षड्विधम् , यः पर्यायः स द्विविधः सहभावी क्रमभावी च । इत्यपरसङ्ग्रहव्यवहारप्रपञ्चः प्रागृजुसूत्रात्प. ५रसङ्ग्रहादुत्तरः प्रतिपत्तव्यः, सर्वस्य वस्तुनः कथञ्चित्सामान्यविशेषात्मकत्वसम्भवात्। न चास्यैवं नैगमत्वानुषङ्गः; सङ्ग्रहविषयप्रविभागपरत्वात् , नैगमस्य तु गुणप्रधानभूतोभयविषयत्वात् ।
यः पुनः कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः, प्रमाणवाधितत्वात् । न हि कल्पनारोपित एव द्रव्यादि१० प्रविभागः; स्वार्थक्रियाहेतुत्वाभावप्रसङ्गाद्गगनाम्भोजवत् । व्यवहारस्य चाऽसत्यत्वे तदानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता न स्यात् । अन्यथा स्वप्नादिविभ्रमानुकूल्येनापि तेषां तत्प्रसङ्गः। उक्तं च"व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता।
नान्यथा वाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसङ्गतः॥" [ लघी० का० १५७०] इति ।
ऋजु प्राञ्जलं वर्तमानक्षणमात्रं सूत्रयतीत्यजुसूत्रः 'सुखक्षणः सम्प्रत्यस्ति' इत्यादि । द्रव्यस्य सतोप्यनर्पणात् , अतीतानागतक्षणयोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासम्भवात् । न चैवं लोकव्यवहारविलो
पप्रसङ्गः, नयस्याऽस्यैवं विषयमात्रप्ररूपणात् । लोकव्यवहारस्तु २० सकलनयसमूहसाध्य इति। ।
यस्तु बहिरन्तर्वा द्रव्यं सर्वथा प्रतिक्षिपत्यखिलार्थानां प्रतिक्षणं क्षणिकत्वाभिमानात् स तदाभासः, प्रतीत्यतिक्रमात्। बाधविधुरा हि प्रत्यभिज्ञानादिप्रतीतिर्बहिरन्तश्चैकं द्रव्यं पूर्वोत्तरविवर्त्तवर्ति
प्रसाधयतीत्युक्तमूर्खतासामान्यसिद्धिप्रस्तावे। प्रतिक्षणं क्षणिकत्वं २५च तत्रैव प्रतिव्यूढमिति।
कालकारकलिङ्गसंख्यांसाधनोपहभेदाद्भिन्नमर्थ शपतीति
१ जीवाऽजीवधर्माऽधर्मनभःकालभेदात् । २ यथा चैतन्यम् । ३ सुखादिर्यथा । ४ द्रव्यपर्यायविभिन्नत्वप्रकारेण । ५ नैगमोऽपि संग्रहनयप्रविभागपरो भविष्यतीत्युक्ते सत्याह । ६ व्यवहारानुकूल्याभावेन । ७ व्यक्तम् । ८ बोधयति । ९ शुद्धपर्यायग्राही प्रतिपक्षसापेक्ष ऋजुसूत्रः। क्षणिकैकान्तनयस्तु तदाभासः । १० क्षणः पर्यायः। ११ द्रव्यस्यातीतानागतक्षणयोश्च सूचकः कुतो न स्यादित्युक्ते सत्याह । १२ विवक्षाऽभावात् । १३ सुखक्षणः सम्प्रतीत्यादिप्रकारेण। १४ निराकरोति । १५ जैनैः । १६ संख्या एकवचनादिः। १७ साधनो युष्मदस्मत्स्वभेदात्रिधा। १८ उपग्रहः= उपसर्गः।
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सू० ६१७४] नयविवेचनम् शब्दो नयः शब्दप्रधानत्वात् । ततोऽपास्तं वैयाकरणानां मतम् । ने हि "धातुसम्वन्धे प्रत्ययाः" [पाणि निव्या० ३।४।१] इति सूत्रमारभ्य 'विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो भविता' इत्यत्र कालभेदेप्येकं पदार्थमाताः-'यो विश्वं द्रक्ष्यति सोस्य पुत्रो भविता' इति, भविष्यकालेनातीतकालस्याऽभेदाभिधानात् तथा व्यवहारोपलम्भात् । ५ तच्चानुपपन्नम् ; कालभेदेप्यर्थत्याऽमेदेऽतिप्रसङ्गात् , रावणशङ्खचक्रवर्तिशब्दयोरप्यतीतानागतार्थनचरयोरेकार्थतापत्तेः । अथानयोभिन्नविषयत्वान्नैकार्थता, 'विश्वश्या भविता' इत्यनयोरप्यसौ मा भूत्तत एव । न खलु 'विश्वं दृष्टवान्-विश्वदृश्वा' इति शब्दस्य योऽर्थोतीतकालः, स 'भविता' इति शब्दस्यानागतकालो १० युक्तः, पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थत्वे तु न परमार्थतः कालभेदेप्यभिन्नार्थव्यवस्था स्यात्।
तथा 'करोति क्रियते' इति कर्तकर्मकारक भेदेप्यभिन्नमर्थ ते एवाद्रियन्ते । 'यः करोति किञ्चित् स एव क्रियते केनचित्' इति १५ प्रतीतेः । तदप्यसाम्प्रतम् ; 'देवदत्तः कटं करोति' इत्यत्रापि कर्तृकर्मणोदेवदत्तकटयोरभेदप्रसङ्गात् ।
तथा, 'पुष्यस्तारका' इत्यत्र लिङ्गभेदेपि नक्षत्रार्थमेकमेवाद्रियन्ते, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात्तस्यः इत्यसङ्गतम् ; 'पटः कुटी' इत्यत्राप्येकत्वानुषङ्गात् ।
२० ___ तथा, 'आपोऽम्भः' इत्यत्र संख्यामेदेप्येकमर्थ जलाख्यं मन्यन्ते, संख्याभेदस्याऽभेदकत्वाहादिवत् । तदप्ययुक्तम् ; 'पटस्तन्तवः' इत्यत्राप्येकत्वानुषङ्गात् ।
तथा 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' इति साधनभेदेप्याऽभेदमाद्रियन्ते "प्रहासे मन्यवाचि युष्मन्म-२५ न्यतेऽस्मदेकवच" [जैनेन्द्रव्या० १०२।१५३] इत्यभिधानात् । तद्प्यपेशलम् ; 'अहं पचामि त्वं पचसि' इत्यत्राप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् ।
तथा, 'सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते' इत्यत्रोपग्रहभेदेप्यामेदं प्रतिपद्यन्ते उपसर्गस्य धात्वर्थमात्रोद्योतकत्वात् । तदप्यचार, 'सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते' इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । ततः३०
१ कालादिभेदाद्भिन्नमर्थ प्रतिपादयति शब्दो नयो यतः। २ शब्दभेदादर्थभेदमकुर्वताम्। ३ प्रतिशावन्तः। ४ अत एवावीतार्थको विश्वदृश्वशब्दो द्रक्ष्यतीति वय॑त्कालेन विगृह्यते । ५ वैयाकरणाः । ६ वैयाकरणाः । ७ आदिना लघ्वादिग्रहः। ८ जैनेन्द्रव्याकरणस्य सूत्रम् । मूल'क' पुस्तके 'प्रहसे' इति पाठोस्ति । ९ वैयाकरणाः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [६. नयपरि० । कालादिभेदाद्भिन एवार्थः शब्दस्य । तथाहि-विवादापन्नो विभिन्न कालादिशब्दो विभिन्नार्थप्रतिपादको विभिन्नकालादिशब्दत्वात् तथाविधान्यशब्दवत् । नन्वेवं लोकव्यवहारविरोधः स्यादिति
चेत्; विरुध्यतामसौ तत्त्वं तु मीमांस्यते, न हि भेषजमातुरे५च्छानुवर्ति।
नानार्थान्समेत्याभिमुख्येन रूढः समभिरूढः । शब्दनयो हि पर्यायशब्दभेदान्नार्थभेदमभिप्रैति कालादिभेदत एवार्थभेदाभिप्रायात् । अयं तु पर्यायभेदेनाप्यर्थभेदमभिप्रेति । तथा हि-'इन्द्रः
शक्रः पुरन्दरः' इत्याद्याः शब्दा विभिन्नार्थगोचरा विभिन्नशब्द१० त्वाद्वाजिवारणशब्दवदिति।
एमित्थं विवक्षितक्रियापरिणामप्रकारेण भूतं परिणतमर्थ योभिप्रेति स एवम्भूतो नयः । समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमन. क्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्, तथा रूढेः सद्भावात्, १५ अयं तु शकनक्रियापरिणतिक्षणे एव शक्रमभिप्रेति न पूजनाभिषे. चनक्षणे, अतिप्रसङ्गात् । न चैवंभूतनयाभिप्रायेण कश्चिदक्रियाशब्दोस्ति, 'गौरश्वः' इति जातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्द. त्वात्, 'गच्छतीति गौराशुगाम्यश्वः' इति । 'शुक्लो नीलः' इति
गुणशब्दा अपि क्रियाशब्दा एव, 'शुचिभवनाच्छुक्लो नीलना२० नीलः' इति । 'देवदत्तो यज्ञदत्तः' इति यदृच्छाशब्दा अपि क्रिया
शब्दा एव, 'देवा एनं देयासुः' इति देवदत्तः, 'यज्ञे एनं देयात्' इति यज्ञदत्तः । तथा संयोगिसमवायिद्रव्यशब्दाः क्रियाशब्दाः एव, दण्डोस्यास्तीति दण्डी, विषाणमस्यास्तीति विषाणीति। पञ्चतंयी तु शब्दानां प्रवृत्तिर्व्यवहारमात्रान्न निश्चयात् । २५ एवमेते शब्दसमभिरूद्वैवम्भूतनयाः सापेक्षाः सम्यग् , अन्यो. न्यमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपत्तव्यम् ।
एतेषु च नयेषु ऋजुसूत्रान्ताश्चत्वारोर्थप्रधानाः शेषास्तु त्रयः शब्दप्रधानाःप्रत्यतव्याः। .
१ विश्वदृश्वा भविता करोति क्रियते इत्यादिः। २ रावणशङ्खचक्रवर्त्यादिशब्दवत् । ३ लिङ्गवचनादिभेदेनार्थभेदप्रकारेण । ४ समाश्रित्य । ५ पर्यायभेदात्पदार्थनानात्वप्ररूपकः समभिरूढः। ६ क्रियाश्रयेण भेदप्ररूपणमित्थम्भावोत्र । ७ यथा नमनक्रियां कुर्वतोपि पाचकत्वप्रसङ्गः स्यात् । ८ क्रियाप्रधानतया। ९ अस्तीति क्रियात्र । १० जातिक्रियागुणयदृच्छासम्बन्धवाचकप्रकारेण ।
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सू० ६१७४] नयविवेचनम्
कः पुनरत्र बहुविषयो नयः को वाल्पविषयः कश्चात्र कारणभूतः कार्यभूतो वेति चेत् ? 'पूर्वः पूर्वो बहुविषयः कारणभूतश्च परः परोल्पविपयः कार्यभूतश्च' इति ब्रूमः ! संग्रहाद्धि नैगमो बहुविषयो भावाऽभावविषयत्वात् , यथैव हि संति सङ्कल्पस्तथाऽसत्यपि, सङ्ग्रहस्तु ततोल्पविषयः सन्मात्रगोचरत्वात् , ५ तत्पूर्वकत्वाच तत्कार्यः संग्रहाव्यवहारोपि तत्पूर्वकः सद्विशेपाववोधकत्यादल्पविषय एक । व्यवहारकालत्रितयवृत्त्यर्थगोचरात् ऋजुलूत्रोणि तत्पूर्वको वर्तमानार्थगोचरतयाल्पविषय एका । कारकादिभेदेनाऽभिन्नमर्थ प्रतिपद्यमानाजुसूत्रतः तत्पूर्वकः शब्दनयोप्यल्पविषय एव तद्विपरीतार्थगोचरत्वात् । शब्द-१० नयात्पर्यायभेदेनार्थाभेदं प्रतिपद्यमानात् तैद्विपर्ययात् तत्पूर्वक समभिरूढोप्यल्पविषय एव । समभिरूढतश्च क्रियाभेदेनाऽभिन्नमर्थ प्रतिय॑तः तद्विपर्ययात् तत्पूर्वक एवम्भूतोप्यल्पविषय एवेति ।
नन्वते नयाः किमेकस्मिन्विपयेऽविशेषेण प्रवर्त्तन्ते, किंवा विशेषोस्तीति ? अत्रोच्यते-यत्रोत्तरोत्तरो नयोऽर्थाशे प्रवर्त्तते १५ तत्र पूर्वः पूर्वोपि नयो वर्तते एव, यथा सहस्त्रेऽष्टशती तस्यां वा पञ्चशतीत्यादौ पूर्वसंख्योत्तरसंख्यायामविरोधतो वर्तते । यत्र तु पूर्वः पूर्वो नयः प्रवर्तते तत्रोत्तरोत्तरो नयो न प्रवर्तते; पञ्च. शत्यादावऽष्टशत्यादिवत् । एवं नयार्थे प्रमाणस्यापि सांशवस्तुवेदिनो वृत्तिरविरुद्धा, न तु प्रमाणार्थे नयानां वस्त्वंशमात्रवेदि-२० नामिति ।
कथं पुनर्नयसप्तभङ्गयाः प्रवृत्तिरिति चेत् ? 'प्रतिपर्यायं वस्तुन्येकत्राविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पनायाः' इति ब्रूमः। तथाहि-सङ्कल्पमात्रग्राहिणो नैगमस्याश्रयणाद्विधिकल्पना, प्रस्थादिकं कल्पना मात्रम्-'प्रस्थादि स्यादस्ति' इति । संग्रहाश्रयणात्तु प्रतिषेधक-२५ ल्पना; न प्रस्थादि सङ्कल्पमात्रम्-प्रस्थादिसन्मात्रस्य तथाप्रतीतेरसतः प्रतीतिविरोधादिति । व्यवहाराश्रयणाद्वा द्रव्यस्य पर्यायस्य
१ विद्यमाने वस्तुनि । २ अतीतेऽनागते च। ३ पर्यायभेदेन भिन्नार्थगोचरत्वादित्यर्थः । ४ प्राप्नुवतः प्रकटयतो वा। ५ उत्तरोत्तरनयविषये पूर्वपूर्वनयप्रवर्तनप्रकारेण उत्तरोत्तरसंख्यायां पूर्वपूर्वसंख्याप्रवर्तनप्रकारेण वा पञ्चशत्यादावष्टशत्याद्यऽप्रवतनप्रकारेण वा। ६ अविरोधेनेत्यभिधानात्प्रत्यक्षादिविरुद्धविधिप्रतिषेधकल्पनायाः, एकत्र वस्तुनीत्यभिधानादनेकवस्त्वाश्रयविधिप्रतिषेधककल्पनायाश्च सप्तभङ्गीरूपता प्रत्युक्ता । ७ विधिप्रतिषेधौ अस्तित्वनास्तित्वे । ८ संग्रहो नयः । ९ प्रस्थादित्वेन । १० गगनकुसुमवत् ।
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प्रबेयकमालमार्तण्डै [६. नयपरि० वा प्रस्थादिप्रतीति तद्विपरीतस्थाऽसतः सतो वा प्रोतुमशक्तः। ऋजुसूत्राश्रयणाद्वा पर्यायमात्रस्य प्रस्थादित्वेन प्रेतीतिः, अन्यथा प्रतीत्यनुपपत्तः । शब्दाश्रयणाद्वा कालादिभिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वम्, अन्यथातिप्रसङ्गात् । समभिरूढाश्रयणाई। पर्यायभेदेन ५ भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वम्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । एवंभूताश्रय
णाा प्रस्थादिक्रियापरिणतस्यैवार्थस्य प्रस्थादित्वं नान्यस्य अतिप्रसङ्गादिति । तथा स्यादुर्भयं क्रमार्पितोभयनयार्पणात् । स्यादवक्तव्यं सहार्पितोभयनयाश्रयणात् । एवमवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो
भङ्गा यथायोगमुदाहाः । १० ननु चोदाहृता नयसतमङ्गी । प्रमाणसप्तभङ्गीतस्तु तस्याः किङ्कतो विशेष इति चेत् ? 'सकलविकलादेशकृतः' इति ब्रूमः। विकलादेशसभावा हि नयसप्तभङ्गी वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात्। सकलादेशसभावा तु प्रमाणसप्तभङ्गी यथावद्वस्तुरूपप्ररूपकत्वात् । तथा हि-स्यादस्ति जीवादिवस्तु खद्रव्यादिचतुष्टयापे१५क्षया । स्यानास्ति परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया। स्यादुभयं क्रमार्पि
तद्वयापेक्षया । स्यादवक्तव्यं सहार्पितद्वयापेक्षया । एवमवक्तव्यो. त्तरास्त्रयो भङ्गाः प्रतिपत्तव्याः।
कस्मात्पुनर्नयवाक्ये प्रमाणवाक्ये वा सप्तैव भङ्गाः सम्भव न्तीति चेत् ? प्रतिपाद्यप्रश्नानां तावतामेव सम्भवात् । प्रश्नवशा. २० देव हि सप्तभङ्गीनियमः। सप्तविध एव प्रश्नोपि कुत इति चेत् ?
सप्तविधजिज्ञासासम्भवात् । सापि सप्तधा कुत इति चेत् ? सप्तधा संशयोत्पत्तेः। सोपि सप्तधा कथमिति चेत् ? तद्विषयवस्तुधर्मस्य सप्तविधत्वात् । तथा हि-सत्त्वं तावद्वस्तुधर्मः; तदन
भ्युपगमे वस्तुनो वस्तुत्वायोगात् खरशङ्गवत् । तथा कथञ्चिद२५ सत्त्वं तद्धर्म एव; स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभिरप्यस्याऽसत्त्वा.
१ सङ्कल्पमात्रस्य प्रस्थादित्वेन ज्ञातुम् । २ प्रतिषेधकल्पना स्यात् । ३ सङ्कल्पमात्रेण । ४ प्रतिषेधकल्पनेति सम्बन्धः। ५ पटादेरपि प्रस्थादित्वं स्यात् । ६ प्रतिषेध. कल्पना । ७ संकल्पमात्रेण। ८ सङ्कल्पमात्रेण । ९ प्रतिषेधकल्पना। १० सङ्कल्पमात्रस्य। ११ एतावता स्यादस्ति स्यान्नास्तीति भङ्गद्वयं सिद्धम्। १२ प्रस्थादिः स्यादस्ति नास्ति च । १३ सह-युगपत् । १४ अपितः विवक्षितः । १५ प्रस्थादिः स्यादस्त्यवक्तव्यः, स्यान्नास्त्यवक्तव्यः, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यश्चेति । १६ कथनात् । १७ नयप्रमाणसप्तभझ्या यथाक्रम मेदशानार्थमुल्लेखः कथ्यते स्यादस्ति स्यानास्तीत्यादिः । तथा च स्यादस्ति जीवादिवस्तु स्यान्नास्ति जीवादिवस्तु इत्यादि । १८ आदिना क्षेत्रकालभावग्रहः। १९ शातुमिच्छा जिज्ञासा । २० स्वरूपस्य । २१ परेणाङ्गीक्रियमाणे । २२ जीवादिपदार्थस्य । २३ अन्यथा।
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सू० ६७३]
सप्तभंगीविवेचनम्
निष्टौ प्रतिनियतस्वरूपोऽसंभवाद्वस्तुप्रतिनियमविरोधः स्यात् । एतेनै क्रमार्पितोभयंत्वादीनां वस्तुधर्मत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् । तद्भावे क्रमेण सदसत्त्वविकल्पशब्दव्यवहारविरोधात्, सहाऽवक्तव्यत्वोपलक्षितोत्तरधर्मत्रयविकल्पस्य शब्दव्यवहारस्य चासत्त्वप्रसङ्गात् । न चामी व्यवहारा निर्विषया एव; वस्तुप्र-५ तिपत्तिप्रवृत्तिप्रातिनिश्चयात् तथाविधरूपादिव्यवहारवत् ।
ननु च प्रथमद्वितीयधर्मवत् प्रथमतीयोदिया क्रमेतरार्पितानां धर्मान्तरत्वलिद्धेर्न लतविधधमनियमः लिज्येत् : इत्यायसुन्दरम् ; क्रमाप्तियोः प्रथमतृतीयधर्मयोः धर्मान्तरत्वेनाऽप्रतीतेः, सत्त्वद्वयस्यासम्भवाद्विवक्षितवरूपादिना सत्त्वस्यैकत्वात् ११० तदन्यस्वरूपादिना सत्त्वस्य द्वितीयस्य सम्भवे विशेषादेशात् तत्त्रतिपक्षभूतासत्त्वस्याप्यपरस्य सम्भवादपरधर्मसप्तकसिद्धिः(द्धेः) सप्तभयन्तरसिद्धितो न कश्चिदुपालम्भः। एतेन द्वितीयतृतीयधर्मयोः क्रमाप्तियोर्धर्मान्तरत्वमप्रातीतिक व्याख्यातम् । कथमेवं प्रथमचतुर्थयोर्द्वितीयेचतुर्थयोस्तृतीयेचतुर्थयोश्च सहितयोधर्मा-१५ न्तरत्वं स्यादिति चेत् ? चतुर्थेऽवक्तव्यत्वधर्मे सत्त्वासत्त्वयोरपरामर्शात् । न खलु सहार्पितयोस्तयोरवक्तव्यशब्देनाभिधानम् । किं तर्हि ? तथापितयोस्तयोः सर्वथा वक्तुमशक्तेरवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरस्य तेन प्रतिपादन मिष्यते । न च देव सहितस्य सत्त्वस्यासत्वस्योभयस्य वाऽप्रतीतिधर्मान्तरत्वासिद्धिा, प्रथमे भङ्गे २० सत्त्वस्य प्रधानभावेन प्रतीतेः, द्वितीये त्वसत्त्वस्य, तृतीये क्रमार्पितयोः सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थे त्ववक्तव्यत्वस्य, पञ्चमे
१ परेण। २ पृथुबुनोदराद्याकारः सास्लादिमत्त्वादिा प्रतिनियतस्वरूपः । ३ सत्त्वासत्त्वयोर्वस्तुधर्मत्वसमर्थनपरेण ग्रन्थेन। ४ सहार्पितोभयत्वादीनां च । ५ अवक्तव्यं सदवक्तव्यमऽसदवक्तव्यमुभयाऽवक्तव्यं चेति । ६ ननु येभ्यः शब्दव्यवहारेभ्योऽन्यथानुपपत्त्या क्रमार्पितोभयत्वाद्वयः पञ्च धर्मा अवस्थाप्यन्ते ते निर्विषया एवातः कथं तेभ्यस्तत्सिद्धिरित्यारेकायामाह। ७ तथाविधः प्रतिपत्तिप्रवृत्तिमाप्तिनिश्चयहेतुभूतः। ८ तस्यापि निर्विषयत्वे सकलप्रत्यक्षादिव्यवहारापह्नवान्न कस्यचिदिष्टतत्त्वव्यवस्था स्यात् । ९ आदिना द्वितीयतृतीयादिग्रहः । १० युगपत् । ११ मनुष्यस्वरूपे स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावाः स्वरूपम् , आदिना पररूपसंग्रहः, ते च यतः परकीया द्रव्यादयः। १२ एकजीवस्य । १३ तस्मात् । १४ अन्यस्य देवादेः। १५ भवान्तरापेक्षया। १६ पर्यायकथनात् । १७ सः द्वितीयसत्त्वः । १८ बसः। १९ प्रथमतृतीयधर्मयोधर्मान्तरत्वनिराकरणेन। २० इति। २१ प्रथमतृतीयादिप्रकारेण । २२ स्यादस्त्यवक्तव्यमिति । २३ स्यान्नास्त्यवक्तव्यमिति । २४ स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति । २५ अप्रतीतेः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [६. नयपरि० सत्त्वसहितस्य, बष्ठे पुनरसत्त्वोपेतस्य, सतो क्रमे क्रमवत्तदुभययुक्तस्य सकलजनैः सुप्रतीतत्वात्।। . ननु चावक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्वे वस्तुनि वक्तव्यत्वस्याष्टमस्य धर्मान्तरस्य भावात्कथं सप्तविध एव धर्मः सप्तमङ्गीविषयः ५स्यात् ? इत्यप्यपेशलम् ; सत्त्वादिभिरभिधीयमानतया वक्तव्य स्वस्य प्रसिद्धः, सामान्येन वक्तव्यत्वस्यापि विशेषेण वक्तव्यतायामवस्थानात् । भवतु वा वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वयोर्धर्मयोः प्रसिद्धिः। तथाप्याभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पनाविषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्ग्यन्तरस्य प्रवृत्तेर्न तद्विषयसप्तविधधर्मनियमव्या१० घातः, यतस्तद्विषयः संशयः सप्तधैव न स्यात् तँ तुर्जिज्ञासा वा
तन्निमित्तः प्रश्नो वा वस्तुन्येकत्र सप्तविधवाक्य नियमहेतुः। इत्युपपन्नेयम्-प्रश्नवशादेकवस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तमङ्गी । 'अविरोधेन' इत्यभिधानात् प्रत्यक्षादिविरुद्धविधिप्रतिषेधकल्पनायाः सप्तमझीरूपता प्रत्युक्ता, 'एकवस्तुनि' इत्यभि१५धानाञ्च अनेकवस्त्वाश्रयविधिप्रतिषेधकल्पनाया इति ।
अथवा प्रागुक्तश्चतुरङ्गो वादः पत्रावलम्वनमप्यपेक्षते, अतस्त. लक्षणमत्रावश्यमभिधातव्यम् यतो नास्याऽविज्ञातखरूपस्यावलम्वनं जयाय प्रभवतीति ब्रुवाणं प्रति सम्भवदित्याह । सम्भव द्विद्यमानमन्यत् पत्रलक्षणं विचारणीयं तद्विचारचतुरैः। तथाहि२० स्वाभिप्रेतार्थसाधनानवद्यगूढपदसमूहात्मकं प्रसिद्धावयवलक्षणं वाक्यं पत्रमित्यवगन्तव्यं तथाभूतस्यैवास्यं निर्दोपतोपपत्तेः। न खलु स्वाभिप्रेतार्थासाधकं दुष्टं सुस्पष्टपदात्मकं वा वाक्यं निर्दोष पत्रं युक्तमतिप्रसङ्गात् । न च क्रियापदादिगूढं काव्यमप्येवं
पत्रं प्रसज्यते प्रसिद्धावयवत्वविशिष्टस्यास्य पत्रत्वाभिधानात् । २५न हि पदगूढादिकाव्यं प्रमाणप्रसिद्धप्रतिज्ञाद्यवयवविशेषणतया किश्चित्प्रसिद्धम् , तस्य तथा प्रसिद्धौ पत्रव्यपदेशसिद्धेरवाधनात् ।
"प्रसिद्धावयवं वाक्यं खेटस्यार्थस्य साधकम् । साधु गूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ॥” [पत्रप० पृ० १]
१ तदुभयं सत्त्वासत्त्वम् । २ आदिना ह्यसत्त्वं सत्त्वासत्त्वे च संगृह्यते । ३ वस्तुनः। ४ सदादिभङ्गत्रयरूपेण संघटते इत्यादिप्रकारेण । ५ कल्पना भेदः । ६ यथा स्यादस्ति स्यान्नास्तीत्यादि तथा स्याद्वक्तव्यं स्यादवक्तव्यं स्याद्वक्तव्यावक्तव्यमित्यादिप्रकारेण । ७ बसः। ८ परीक्षामुखे। ९ पत्रस्य । १० अपशब्दबहुलम् । ११ काव्यादेरपि पत्रत्वप्रसङ्गात् । १२ अबाधितम् ।
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खू० ६७४ पत्रविचारः कथं प्रागुक्तविशेषणविशिष्टं वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रोत्रसमधिगम्य पदसमुदयविशेषरूपत्वात् , पत्रस्य च तद्विपरीताकारत्वात् ? न च यद्यतोऽन्यत्तत्तेन व्यपदेष्टुं शक्यमतिप्रेसङ्गादिति चेत्, 'उपचरितोपचारात्' इति ब्रूमः । श्रोत्रपथप्रस्थायिनो हि वर्णात्मकपदसमूहविशेषस्वभाववाक्यस्य लिप्यामुपचारस्तत्रास्य जन-५ रारोप्यमाणत्वात् , लिप्युपचरितवाक्यस्यापि पत्रे, तत्र लिखितस्य तत्रस्थत्वात्' इत्युपचारितोपचारात्पत्रव्यपदेशः लिद्धः । न च यद्यतोन्यत्तत्तेनोपचारादुपचारितोपचाराद्या व्यपदेष्टुमशक्यम् , शक्रादयंत्र व्यवहर्तृजनाभिप्राये शक्रोपचारोपलम्माद, तस्माचान्यत्र काष्ठादावुपचरितोपचाराच्छक्रव्यपदेशसिद्धेः । अथवा १० प्रकृतस्य वाक्यस्य मुख्य एव पत्रव्यपदेशः-'पदानि भायन्ते गोप्यन्ते रक्ष्यन्ते परेभ्यः स्वयं विजिगीषुणा यस्मिन्वाक्ये तत्पत्रम्' इति व्युत्पत्तेः । प्रकृतिप्रत्ययादिगोपनाद्धि पदानां गोपनं विनिश्चितपदखरूपतदभिधेयतत्त्वेभ्योपि परेभ्यः सम्भवत्येव । तस्योक्तप्रकारस्य पत्रस्यावयवौ क्वचिद्बावेव प्रयुज्यते १५ तावतैव साध्यसिद्धः। तद्यथा: "स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतदुभान्तवाक् ।
परान्तद्योतितोहीशमितीतकात्मकत्वतः ॥” [ इति । अन्त एव ह्यान्तः, स्वार्थिकोऽण् वानप्रस्थादिवत् । प्रादिपाठापेक्षया सोरान्तः स्वान्तः उत्, तेन भासिता द्योतिता भूति-२० रुद्भूतिरित्यर्थः । सा आद्या येषां ते वान्तभासितभूत्याद्याः ते च ते त्र्यन्ताश्च उद्भूतिव्ययध्रौव्यधर्मा इत्यर्थः । ते एवात्मानः तांस्तनोतीति स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतत् इति साध्यधर्मः। उभान्ता वाग्यस्य तदुझान्तवाक्-विश्वम्, इति धर्मि । तस्य साध्यधर्मविशिष्टस्य निर्देशः । उत्पादादित्रिस्वभावव्यापि सर्व-२५ मित्यर्थः। परान्तो यस्यासौ परान्तः प्रः, स एव द्योतितं द्योतनमुपसर्ग इत्यर्थः । तेनोद्दीप्ता चासौ मितिश्च तया इतः खात्मा यस्य तत्परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मकं 'प्रमितिप्राप्तस्वरूपम्' इत्यर्थः । तस्य भावस्तत्त्वं 'प्रमेयत्वम्' इत्यर्थः, प्रमाणविषयस्य प्रमेयत्वव्यवस्थितेः इति साधनधर्मनिर्देशः। दृष्टान्ताद्यभावेऽपि ३० च हेतोर्गमकत्वम् "एतद्वयमेवानुमानाङ्गम्" [परीक्षामु० ३।३७]
१ घटस्य पटव्यपदेशप्रसङ्गात् । २ पुंसि । ३ प्रतिवादिभ्यः। ४ अनुमानवाक्ये । ५ विश्वम् । ६ प्रमेयत्वात्। ७ प्रपराऽपसमन्वादिः प्रादिः। ८ व्याप्नोति । ९ परान्तद्योतितेन । १० प्राप्तः। ११ स्वसाध्यप्रतिपादकत्वम् ।
प्र. क. मा० ५८
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [६. नयपरि० इत्यत्र समर्थितम् । अन्यथानुपपत्तिबलेनैव हि हेतोर्गमकत्वम् , सा चात्रास्त्येव एकान्तस्य प्रमाणागोचरतया विषयापरिच्छेदे समर्थनात् । एवं प्रतिपाद्याशयवशानिप्रभृतयोप्यवयवाः पत्र वाक्ये द्रष्टव्याः। तथाहि५ "चित्राद्यदन्तराणीयमारेकान्तात्मकत्वतः।
यदित्थं न तदित्थं न यथाऽकिञ्चिदिति त्रयः॥१॥ तथा चेदमिति प्रोक्तौ चत्वारोऽवयवा मताः। तस्मात्तथेति निर्देशे पञ्च पत्रस्य कस्यचित् ॥ २॥"
[पत्रप० पृ० १०] १० चित्रमेकानेकरूपम्, तदेततीति चित्रात्-एकानेकरूपव्यापि
अनेकान्तात्मकमित्यर्थः । सर्वविश्वयदित्यादिसर्वनामपाठापेक्षया यदन्तो विश्वशब्दो 'यत् अन्ते यस्य' इति व्युत्पत्तेः। तेन राणीयं शब्दनीयं विश्वमित्यर्थः । तदनेकान्तात्मकं विश्वमिति पक्षनिर्देशः । आरेका संशयः, सा अन्ते यस्येत्यारेकान्तःप्रमेयः १५"प्रमाणप्रमेयसंशय" [ न्यायसू० ॥१॥१] इत्यादिपाठापेक्षया, स
आत्मा यस्य तदारेकान्तात्मकम् , तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात् , इति साधनधर्मनिर्देशः। यदित्थं न भवति यच्चित्रान्न भवति तदित्थं न भवति आरेकान्तात्मकं न भवति यथाऽकिञ्चित्-न किञ्चित्
अथवा अकिञ्चित् सर्वथैकान्तवाद्यभ्युपगतं तत्त्वम् । इति त्रयोs२० वयवाः पत्रे कचित्प्रयुज्यन्ते । तथा चेदमिति पक्षधर्मोपसंहारवचने चत्वारः। तस्मात्तथाऽनेकान्तव्यापीति निर्देशे पञ्चेति । , यञ्चेदं योगैः स्वपक्षसियर्थ पत्रवाक्यमुपन्यस्तम्- सैन्यलड्भार नाऽनन्तरानार्थप्रस्वापदाऽऽशैयतोऽनीकोनेनलड्युक्
कुलोद्भवो वैषोप्यनैश्यतापस्तन्नऽनृरड्लजुत् परापरतत्ववित्त२५ दन्योऽनादिरवायनीयत्वत एवं यदीक्तत्सकलविद्वर्गवदेतञ्चैवमेवं तदिति पत्रम् । अस्यायमर्थः-इन आत्मा सकलस्यैहिकपारलौकिकव्यवहारस्य प्रभुत्वात् , सह तेन वर्तते इति सेनः । स एव चातुर्वर्ष्यादिवत्वार्थिके ध्यणि कृते "सैन्यम्' इति भवति । तस्य लड्-विलासः, तं भजते सेवते इति सैन्यलनाक्-'देहः'
१.जैनैः। २ सर्वथा नित्यस्य क्षणिकस्य वा वस्तुनः। ३ अत सातत्यगमने । ४-खरविषाणवद ।५-आरेकान्तात्मकम् । ६. देहः। ७.प्रबोधकारीन्द्रियादिकारणकलापः। ८ आसमुद्रात् । ९ मिरिनिकरो भुवनसन्निवेशश्च । १० इनलड्युक्= सूर्याचन्द्रमसौ। ११ पृथिव्यादिकार्यद्रव्यसमूहः। १२ वक्ष्यते स्वयमेवामेस्वार्थः । १३ शानभोगादिपदार्थः । १४ लड विलासे ।।
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पर
सू० ६७४ पत्रविचारः
६८७ इति यावत् । अर्थः प्रयोजनं तस्मै अर्थार्थः, न अर्थार्थोऽनार्थः । प्रकृष्टो लौकिकस्वापाद्विलक्षणः स्वापः प्रखापा-बुद्ध्यादिगुणवियुकल्यात्मनोऽवस्थाविशेषः मोक्ष इति यावत् । न हि तत्साध्य किश्चित्प्रयोजनमस्ति; तस्य लकलपुरुषप्रयोजनानामन्ते व्यवस्थानात् । अनर्थश्चासौ प्रतापश्च । नन्वेवं सौगतल्यापत्यापि ग्रहण ५ स्यात् , सोपि नार्थप्रस्वापो भवति सकलसन्ताननिवृत्तिलक्षगख्या मोक्षय लोगतैरन्युपगमात् । तदुक्तम्"दीपो यथा नितिनभ्युपेतो नैदानि गच्छदे बान्तरिक्षम् ! दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । १० दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।।
[सौन्दरनन्द १६६२८,२९] अनाह-नानन्तरेति । अन्तो विनाशस्तं रोति पुरुषाय ददातीत्यन्तरः। नान्तरोऽनन्तरः पुरुषस्य विनाशदायको नेत्यर्थः । अनन्तरश्वासावनर्थार्थप्रस्खापश्वानन्तराऽनर्थार्थप्रस्वापः।नेति निपातः१५ प्रतिषेधवाची। नानन्तरानार्थप्रस्वापो लौकिको निद्राकृतः वाप इत्यर्थः । तं कृन्तति छिनत्तीति नानन्तरानार्थप्रस्वापकृत्-'प्रवोधकारीन्द्रियादिकारणकलापः' इति यावत्। शिषु इत्ययं धातुभौवादिकः सेचनार्थः, "जिषु डिषु शिषु विपु उक्ष पृष्ठ वृधु सेचने"
] इत्यभिधानात् । तस्माच्छेषणं भावे घनि कृते २० 'शेषः' इति भवति । तस्मात्स्वार्थिकेऽणि कृते 'शैर्षः' इति जायते । शैषं करोति “तत्करोति तदाचष्टे, तेनातिकामति धुरूपं च" [ ] इति णिचि कृते टेः खे च कृते शैषीति भवति । "तदन्ता धवः" जैनेन्द्रव्या० २०१३९ ] इति (संज्ञायां सत्यां "प्राग्धोस्ते" [जैनेन्द्रव्या० २।१४८] इत्याङा योगः। आशेष-२५ यति समन्ताद्भुवः सेकं करोतीति क्विपि तस्य च सर्वापहारेण लोपे डत्वे च कृते आशैडिति भवति । आशैट् चासौ स्यच्चाशैट्स्यत् लोकप्रसिद्धः समुद्रः । तस्मादाशैट्स्यतः-आ समुद्रादिति यावत् । निपूर्व इष् इत्ययं धातुर्गत्यर्थः परिगृह्यते-"इषु गतिहिंसनयोश्च" [
] इति वचनात् । नीषते ३० गच्छतीति नीद, न नीडऽनीद । तस्मात्स्वार्थिक के प्रत्ययेऽनीक इति भवति । अचलो गिरिनिकर इत्यर्थः । यदि वा अं विष्णु नीषति गच्छति समाश्रयतीत्यनीड्-भुवनसन्निवेशः। तदुक्तम्
१ अनर्थार्थप्रस्वापः। २ परममोक्षस्य न तु जीवन्मोक्षस्य। ३ रा दाने । ४ शेष एव शेषः । ५ लोपे । ६ 'धु' इति धातुसंशा। ७ ( माघे )।
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६८८ प्रमेयकमलमार्तण्डे [६. नयपरि. "युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां साविकासमासते। तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विषस्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मः॥"
[शिशुपालव० १२३ ] न विद्यते ना समवायिकारणभूतो यस्यासावऽना, "ऋण्मो ५(मो.) [जैनेन्द्रव्या० ४।२।१५३] इति कप सान्तो न भवति "सान्तो विधिरनित्यः" [ ] इति परिभाषाश्रयणात् । इनो भानुः । लषणं लट् कान्तिः-"लष् कान्तौ"[
] इति वचनात् । लषा युक् योगो यस्यासौ लड्युक्-चन्द्रः । इनश्च
लड्युक् चेनलड्युक् सूर्याचन्द्रमसौ। कुल मिव कुलं सजातीयार१०म्भकावयवसमूहः। तस्मादुद्भव आत्मलामो यस्यासौ कुलोद्भवः
पृथिव्यादिकार्यद्रव्यसमूहः । 'वा' इत्यनुक्तसमुच्चये, तेनानित्यस्य गुणस्य कर्मणश्च ग्रहणम्। एषःप्रतीयमानः। अतो नाश्रयासिद्धिः। अद्भ्यो हितोऽप्यः-समुद्रादिः। निशायाः कर्म नैश्यमन्धकारादि।
ताप औष्ण्यम् । स्तनतीति स्तन् मेघः। एतेषां द्वन्द्वैकवद्भावः । १५ किम्भूतः स तच्च । न विद्यते ना पुरुषो निमित्तकारणमस्येति ।
रटनं परिभाषणं तस्य लड् विलासः, तं जुषते सेवते इति-"जुषी प्रीतिसेवनयोः"[
] इत्यभिधानात् । अनुरड्लड्जुत् । अत्रापि कवऽभावे निमित्तमुक्तम् ।
अंत्र साध्यधर्ममाह । परापरतत्त्ववित्तदन्य इति । परं पार्थिवा२० दिपरमाण्वादिकारणभूतं वस्तु, अपरं पृथिव्यादिकार्यद्रव्यम् ,
तयोस्तत्त्वं स्वरूपम् , तस्मिन्विद् बुद्धिर्यस्यासौ परापरतत्त्ववित्कार्यकारणविषयबुद्धिमान् पुरुष इत्यर्थः । तस्मात्परोक्तादन्यः परापरतत्त्ववित्तदन्यो बुद्धिमत्कारण इत्यर्थः। यदा नपुंसकेन
सम्बन्धस्तदा परापरतत्त्ववित्तदन्यदिति व्याख्येयम् । कुत एत२५ दित्याह-अनादिरवायनीयत्वत इति । कार्यस्य हेतुरादिस्ततः प्रागेव तस्य भावात् । तस्मादन्योऽनादिः कार्यसन्दोहः । तस्य रवस्तत्प्रतिपादकं कार्यमिति वचनम् । तेनायनीयं प्रतिपाद्यं तस्य भावस्तत्त्वम् , तस्मादनादिरवायनीयत्वतः-'कार्यत्वात्' इत्यर्थः।
एवं यदनादिरवायनीयं तदीर बुद्धिमत्कारणम् । तत्कला अव. ३० यवा भागा इत्यर्थः, सह कलाभिर्वर्तते इति सकला। वित् आत्म
१ तिष्ठन्ति । २ नारायणस्य । ३ प्रकारणात्तपोधनोत्र नारदः । ४ सन्तोषाः । ५ समासान्त इत्यर्थः। ६ हेतोः। ७ अप्यादीनाम् । ८ पुल्लिङ्गनिर्दिष्टः सर्वः नपुंसकलिङ्गनिर्दिष्टं सर्वम्। ९ सामान्यनरः। १० धर्मिणि। ११ अबुद्धि
मत्कारणात् ।
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सू०६७४] . पत्रविचारः लामो-"विदु लाभे" [
इति वचनात् ! यस्य सकला वित् वृणोति प्रच्छादयतीत्यौणादिके गे वर्ग इति भवति । सकलविच्चासौ वर्गश्चेति सकलविद्वर्ग:-पट इत्यर्थः। तेन तुल्यं वर्त्तते इति सकलविद्वर्गवत् । एतच्च तन्वादि एवमनादिरवायनीयप्रकारं तत्तस्माद्बुद्धिमत्कारणमिति । तदेतदसमीचीनम् ५ अनुमानाभासत्वादस्य । तदामासत्वं च तदवयवानां प्रतिज्ञाहेतू. दाहरणानां कालात्ययापदिष्टत्वाधनेशदोषदुष्टत्वेन तदाभासत्वात्सिद्धम् । एतश्चेश्वरनिराकरजप्रकारमाद्विशेषतोदगन्तव्यम् ।
ननु चोक्तलक्षणे पत्रे केनचित्कमप्युद्दिश्यावलम्बिते तेर्ने च गृहीते मिन्ने च यदा पत्रस्य दातैवं ब्रूयात् 'नायं मदीयपत्रस्यार्थः' १० इति, तदा किं कर्तव्यमिति चेत् । तदासौ विकल्प्य प्रष्टव्यः कोथं भवत्पत्रस्यार्थी नाम-किं यो भवन्मनसि वर्तते सोस्यार्थः, वाक्यरूपात्पत्रात्प्रतीयमानो वा स्यात्, भवन्मनसि वर्तमानः ततोपि च प्रतीयमानो वा प्रकारान्तरालम्भवात् ? तत्र प्रथमपक्षे पत्रावलम्बनमनर्थकम् । तद्वि(द्धि)प्रतिवादी समादाय विज्ञा-१५ तार्थखरूपस्तत्र दूषणं वदतु विपरीतस्तु निर्जितो भवत्वित्यवले. म्ब्यते । यश्च तस्मादर्थः प्रतीयते नासौ तदर्थ इति न तत्र केनचित्साधनं दूपणं वा वक्तव्यमनुपयोगात् । यस्तु तदर्थों भवञ्चेतसि वर्तमानो नाली कुतश्चित्प्रतीयते परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वादिति ? तत्रापि न साधनं दूषणं वा सम्भवति । न २० ह्यप्रतीयमानं वस्तु साधनं दूषणं वाहत्यऽतिप्रसङ्गात् । यदि पुनरन्यतः कुतश्चित्तं प्रतिपद्य प्रतिवादी तंत्र साधनादिकं ब्रूयात्; तर्हि पत्रावलम्वनानर्थक्यम् । तत एव तत्प्रतिपत्तिश्वेच्चित्रमेतत्-तस्यासावों न भवति ततश्च प्रतीयते' इति, गोशब्दादप्यश्वादिप्रतीतिप्रसङ्गात् । सङ्केते सति भवतीति चेत्कः२५ सङ्केतं कुर्यात् ? पत्रदातेति चेत्; किं पत्रदानकाले, वादकाले 'वा, तथा प्रतिवादिनि, अन्यत्र वा? तदानकाले प्रतिवादिनीति चेत्, न तथा व्यवहाराभावात् । न खलु कैश्चिद् ‘अयं मम चेत
१ अनुमानस्य । २ वादिना । ३ प्रतिवादिनम् । ४ प्रतिवादिना । ५ शातार्थे । ६ अर्थ विचार्य पत्रे खण्डीकृते । ७ प्रतिवादिना। ८ कथम् । ९ तत् पत्रम् । १० व्यवहर्तृभिः । ११ प्रमाणात् । १२ अन्वयो-निश्चयः। १२ चेतसि वर्तमानेथेपि। १४ चेतोवर्तमानपत्रार्थम् । १५ चेतोवर्तमानपत्रार्थे । १६ तस्य चेतसि वर्तमानपत्रार्थस्य । १७ चेतसि वर्तमानः । १८ पत्रादप्रतीयमानोऽपि चेतसि वर्तमानपत्रार्थः सङ्केतकाले तदर्थो भविष्यतीत्याशङ्कयाह । १९ पुरुषान्तरे। २० पत्रदानकाले प्रतिवादिनि सङ्केतप्रकारेण। २१ वादी।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे ६. नयपरिक स्यों वर्ततेऽस्येदं पत्रं वाचकममात्त्वयायमों वादकाले प्रतिपत्तव्यः' इति सङ्केतं विदधाति । तथा तद्विधाने वा किं पत्रदानेन ? केवलमेवं वक्तव्यम्-'अर्थों मम चेतसि वर्तते, अन त्वया साधनं दूषणं वा वक्तव्यम्' इति । दृश्यन्ते साम्प्रतमप्यऽमत्सराः ५ सन्त एवं वदन्त:-'शब्दो नित्योऽनित्य इति वाऽस्माकं मनसि प्रतिभाति, तत्र यदि भवतां दूषणाद्यभिधाने सामर्थ्यमस्ति यामः सभ्यान्तिकम्' इति । कालान्तरेऽविस्मरणार्थ तहानं चेत्, तहगूढं पत्रं दातव्यम्, इतरथा तदानेपि विस्मरणसम्भवे किं कर्त व्यम् ? विस्मर्तुर्निग्रहश्चेत् ; न; पूर्वसङ्केतविधानवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । न १० तत्प्रसङ्गः प्रतिवादिनः पत्रार्थपरिज्ञानार्थत्वात्तस्येति चेत्, तर्हि
तत्परिज्ञानार्थ विस्मृतसङ्केतस्य पुनस्तद्विधानमेवास्तु, न तु निग्रहः । यदि च भवञ्चित्ते वर्तमानोप्यर्थः सङ्केतवलेन पत्रा. देव प्रतीयते; तर्हि ततो यः प्रतीयते स तदर्थो न मनस्येव वर्तमानः । यदि पुनः सङ्केतसहायात्पत्रात्तस्य प्रतीतेन तदर्थत्वम् । १५ तर्हि न कश्चित्कस्यचिदर्थः स्यात् सङ्केतमन्तरेण कुतश्चिच्छब्दादर्थाऽप्रतीतेः । तन्न तहानकाले प्रतिवादिनि सङ्केतः । नापि वादकाले; तथाव्यवहारविरहादेव । किं च वादकालेपि चेद्वादी प्रतिवादिने स्वयं पत्रार्थ निवेद्यति; तर्हि प्रथमं पत्रग्रहीतुरुपन्या
सोऽनवसरः स्यात् । तन्नायमपि पक्षः श्रेयान् । २० अथान्यत्र; तर्हि स एव तदर्थज्ञः, इति कथं प्रतिवादी साधनादिकं वदेत् तस्य तदर्थाऽपरिज्ञानात् ? प्रतिवादिनस्तापरिज्ञानं वादिनोभीष्टमेव तदर्थत्वात्पत्रदानस्येति चेत्, तर्हि पत्रमनक्षरं दातव्यमतः सुतरां तदपरिज्ञानसम्भवात् । अशिष्टचेष्टाप्रसङ्गोन्य
त्रापि समानः। इति न किञ्चित्प्रागुक्तलक्षणपत्रदानेन प्रयोजनम् । २५ ननु वादप्रवृत्तिः प्रयोजनमस्त्येव-तदाने हि वादः प्रवर्तते,
साधनाद्यभिधानं तु मानसार्थे वचनान्तरात्प्रतीयमान इत्यभिधाने तु पराक्रोशमानं लिखित्वा दातव्यं ततोपि वादप्रवृत्तेः सम्भवात् किमतिगूढपत्रविरचनप्रयासेन ? तन्नाद्यपक्षे पत्राव लम्बनं फलवत्।
अथ तच्छब्दाद्यः प्रतीयते स तदर्थः; तर्हि खात्पतिता नो ३० रत्नवृष्टिः प्रकृतिप्रत्ययादिप्रपञ्चार्थप्रविभागेन प्रतीयमानस्य पत्रार्थत्वव्यवस्थितेः । अथ नायं तदर्थः, कथमन्यस्तदर्थः स्यात् ?
१ प्रतिवादिना । २ तहीति शेषः । ३ सङ्केतितार्थस्य । ४ कर्त्तव्य इति शेषः । ५ पुरुषान्तरे। ६ अन्यः । ७ स्वमनसि व्यवस्थितार्थे । ८ अस्माकम् । ९ सिद्धोऽसदीयः पक्ष इत्यर्थः ।
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सू० ६१७४
पत्रविचारः अथान्यार्थसम्भवेपि यस्तवलम्बिनेष्यते स एव तदर्थः । कुत एतत् ? ततः प्रतीतेश्चेत्, अन्योप्यत एव स्यात् । अथ ततः प्रतीयमानत्वाविशेषेपि यत्तेनेप्यते स एव तदर्थो नान्यः, ननु शब्दः प्रमाणम् , अप्रमाणं का? प्रमाणं चेत् तर्हि तेन यावानर्थः प्रदर्श्यते स सोपि तदर्थ एव न खलु चक्षुपानेकस्मिन्नर्थ ५ घटादिके प्रदर्घामाने तद्वता य इप्यते स एव तदर नान्यः' इति युक्तन् । अथानमायाम् ; तर्हि नेयमाणोदि नार्थः । न हि द्विचन्द्रादिकत्तद्दर्शिनेयमाणों सवितुमर्हति, अन्यथा पेरेगेस्यामरणोप्यर्थों किं न स्यात् । तन्नायमपि पक्षो युक्तः।
ततो यः प्रतीयते तदातुश्चेतसि च वर्तते स तदर्थः, इत्यत्रापि-१० केनेद्मवगम्यताम् वादिना, प्रतिवादिना, प्राश्निकै ? तत्राद्यवि. कल्पे प्रतिवादिना वादिमनोनुकूल्येन पत्रे व्याख्याते वादिना तथावधारितेपि ल वैयात्याद्यदैवं वदति 'नायमस्याओं मम चेतस्थन्यस्य वर्तनात्, विपरीतप्रतिपत्तेनिगृहीतोसि' इति तदा किं कर्तव्यं प्राश्निकैः? तथाभ्युपगमश्चेत् ; महामध्यस्थास्ते यत्तदर्थ-१५ प्रतिपादकस्यापि प्रतिवादिनो निग्रहं व्यवस्थापयन्ति वाद्यभ्युपगममात्रेण । न तावन्मात्रेणास्य निग्रहोऽपि तु यदा वादी स्वमनोगतमर्थान्तरं निवेदयतीति चेत्, ननु तेन निवेद्यमानमर्थान्तरं पत्रस्याभिधेयम्' इति कुतोऽवगम्यताम् ? तदप्रातिकूल्येन निवेदनाचेत् । तत एव प्रतिवादिप्रतिपाद्यमानोप्यर्थस्तद्भिधेयोस्तु २० विशेषाभावात् । वादिचेतस्यऽस्फुरणानेति चेत् ; इदमपि कुतोऽवगम्यताम् ? तत्रार्थदर्शनाचेत्, किं पुनस्तच्चेतः प्रानिकानां प्रत्यक्षं येनैवं स्यात् ? तथा चेत्, अतीन्द्रियार्थदर्शिभिस्तर्हि प्राश्निकैर्मवितव्यं नेतरपण्डितैः । तथा च प्रत्यक्षत एव वादिप्रतिवादिनोः लारेतरविभाग विझायोपन्यासमन्तरेणैव जयेतरव्यवस्थां२५ रचयेयुः । नो चेत्कथं तत्र कस्यचित्स्फुरणमस्फुरणं वा ते प्रतियन्तु ? न ह्यप्रतिपन्नभूतलस्य 'अत्र भूतले घटोस्ति नास्ति' इति वा प्रतीतिरस्ति । अथ स्वयमेव यदासौ वदति-'ममायमर्थों मनसि वर्तते नायम्' इति तदा ते तथा प्रतिपद्यन्तै, न; तदापि संदेहात्-"किं प्रतिवादिना योर्थों निश्चितः स एवास्य मनसि ३० वर्तते शब्देन तु वदति नायमों मम मनीति किन्त्वन्य एव-यों मया प्रतिपाद्यते, उतायमेव, इति न निश्चयहेतुः। दृश्यन्ते ह्यने
१ वादिना। . २ पत्रं गृहीत्वा। ३ पत्रात् । ४ धाष्ात् । ५ पत्रस्य । ६ स्वीकर्तव्यः । ७ वादी। ८ प्रतिवादिनिगद्यमानार्थस्य वादिचेतसि स्फुरणास्फुरणप्रकारेण। ९ इति चेदिति शेषः ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
६. नयपरि०
कार्थ पत्रं विरचय्या, 'यदीदमस्यार्थतत्त्वं प्रतिवादी शास्यति तावं वदिष्यामः, नेदमर्थतत्त्वमस्य किन्त्विदमिति, अथेदं ज्ञास्यति तत्राप्यन्यथा गदिष्यामः' इति सम्प्रधारयन्तो वादिनः । अथ गुर्वादिभ्यः पूर्वमसौ तन्निवेदयति, ततस्तेभ्यः प्राश्निकानां तन्नि५श्चयः, न; अत्राप्यारेकाऽनिवृत्तेः, स्खशिष्यपक्षपातेनान्यथापि तेषां वचनसम्भवात् । यदि पुनर्वादी वादप्रवृत्तेः प्राक् प्रानिकेभ्यः प्रतिपादयति-'मदीयपत्रस्यायमर्थः, अत्रार्थान्तरं ब्रुवन् प्रतिवादी भवद्भिर्निवारणीयः' इति । अत्रापि प्रागप्रतिपन्नपत्रा
र्थानां महामध्यस्थानामुभयाभिमतानामकस्मादाहूतानां सभ्यानां २० मध्ये विवादकरणे की वार्ता ? 'पत्राद्यः प्रतीयते स एव तंत्र
तदर्थः' इति चेत्, अन्यत्रापि स एवास्त्वविशेषात् । तन्नाद्यः पक्षो युक्तः।
नापि द्वितीयः। न खलु प्रतिवादी वादिमनो जानाति येन 'योस्य मनसि वर्तते स एव मयार्थो निश्चितः, इति जानीयात् । १५एतेने तृतीयोपि पक्षश्चिन्तितः; सभ्यानामपि तन्निश्चयोपायाभावात् । किञ्चेदं पत्रं तदातुः स्वपक्षसाधनवचनम् परपक्षदूषणवचनम्, उभयवचनम् , अनुभयवचनं वा? तत्राद्यविकल्पत्रये सभ्यानामग्रे त्रिरुच्चारणीयमेव तत्तत्रापि वैषम्यात् । तथोच्चारितमपि यदा प्राश्निकैः प्रतिवादिना च न ज्ञायते वाद्यऽभिप्रेतार्था२० नुकूल्येन तदा तदातुः किं भविष्यति ? निग्रहः, "त्रिरभिहितस्यापि
कष्टप्रयोगद्रुतोच्चारादिभिः परिषदा प्रतिवादिना चाज्ञातमज्ञातं नाम निग्रहस्थानम्" [ न्यायसू० ५।२।९] इत्यभिधानात्, इति चेत्; तस्य तर्हि खवधाय कृत्योत्थापनम् उक्तविधिना सर्वत्र तेदज्ञानसम्भवात् । तावन्मात्रप्रयोगाच्च स्वपरपक्षसाधनदूषणभावे २५प्रतिवाद्युपन्यासमनपेक्ष्यैव सभ्याः वादिप्रतिवादिनोर्जयेतरव्य
वस्थां कुर्युः । चतुर्थपक्षे तु तन्निग्रहः सुप्रसिद्ध एव; स्वपरपक्षयोः साधनदूषणाऽप्रतिपादनात् । इत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
अथेदानीमात्मनः प्रारब्धनिर्वहणमौद्धत्यपरिहारं च सूचयन् परीक्षामुखेत्याद्याह
१ निवेदनयोगे चतुर्थी । २ वादी । ३ पत्रार्धम् । ४ निवेदनात् । ५ पत्रार्थ । ६ इति चेदिति शेषः। ७ पक्षे। ८ न कापि । ९ अकस्मादाहूतेषु। १० पूर्वप्राश्निकेष्वपि। ११ उभयपक्षनिराकरणेन। १२ स्वपरपक्षसाधनदूषणकारकपत्रम् । १३ राक्षसी। १४ परिषदि। १५ तस्य पत्रार्थस्य । १६ स्वपरपक्षसाधनदूषणकारकपत्र । १७ पत्रपरीक्षायाः।
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APA
फरणाम
सू० ६७४ उपसंहारः
६९३ परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः सविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवव्यधाम् ॥१॥
परीक्षा तर्कः, परि समन्तादशेषविशेषत ईक्षणं यत्रार्थानामिति व्युत्पत्तेः । तस्या मुखं तद्युत्पत्तौ प्रवेशार्थिनां प्रवेशद्वारं शास्त्रमिदं व्यधामहं विहितवादसि । पुनस्तद्विशेष-५ णमादर्शमित्याद्याह । आदर्शधर्मसद्भावादिदमवादः । यथैव हादशः शरीरालङ्कारार्थिनां तन्मुखमण्डनादिकं विरूपकं हेयत्वेन सुरूपकं चोपादेयत्वेन सुस्पष्टमादर्शयति तथेदमपि शास्त्रं हेयोपादेयतत्त्वे तथात्वेन प्रस्पष्मादर्शयतीत्यादर्श इत्यभिधीयते । तदीदृशं शास्त्रं किमर्थ विहितवान् भवानित्याह । संविदे । कस्ये-१० त्याह मादृशः। कीदृशो भवान् यत्सदृशस्य संवित्त्यर्थ शास्त्रमिदमारभ्यते इत्याह-वालः। एतदुक्तं भवति-यो मत्सद्दशोऽल्पप्रशस्तस्य हेयोपादेयतत्त्वसंविदे शास्त्रमिदमारभ्यते इति । किंवत् ? परीक्षादक्षवत् । यथा परीक्षादक्षो महाप्रज्ञः स्वसदृशशिष्यव्युत्पादनार्थ विशिष्टं शास्त्रं विदधाति तथाहमपीदं विहि-१५ तवानिति ननु चाल्पप्रशस्य कथं परीक्षादक्षवत् प्रारब्धैवंविधविशिष्टशास्त्र निर्वहणं तखिन्वा कथमल्पप्रज्ञत्वं परस्परविरोधात्? इत्यप्यचोद्यम्; औद्धत्यपरिहारमात्रस्यैवैवमात्मनो ग्रन्थकृता प्रदर्शनात् । विशिष्टप्रज्ञासद्भावस्तु विशिष्टशास्त्रलक्षणकार्योपलम्भादेवास्याऽवसीयते । न खलु विशिष्टं कार्यमविशिष्टादेव कार-२० णात् प्रादुर्भावमहत्यतिप्रसङ्गात् । मादृशोऽवाल इत्यत्र नञ् वा द्रष्टव्यः । तेनायमर्थः-यो मत्सद्दशोऽवालोऽनल्पप्रज्ञस्तस्य हेयोपादेयतत्त्वसंविदे शास्त्रमिदमहं विहितवान् । यथा परीक्षादक्षः परीक्षादक्षार्थ विशिष्टशास्त्रं विधातीति । ननु चानल्पप्रज्ञस्य तत्संवित्तेर्भवत इव खतः सम्भवात्तं प्रति शास्त्रविधानं व्यर्थमेव:२५ इत्यप्यसुन्दरम्; तब्रहणेऽनल्पप्रज्ञासद्भावस्य विशिष्य विवक्षितत्वात् । यथा ह्यहं तत्करणेऽनल्पप्रशस्तज्ज्ञस्तथा तद्हणे योऽनल्पप्रज्ञस्तं प्रतीदं शास्त्रं विहितम् । यस्तु शास्त्रान्तरद्वारेणावगतहेयोपादेयस्वरूपो न तं प्रतीत्यर्थ इति । इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे
३० षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ॥ छ ।
१ संशानाय । २ श्रीमदकलङ्कदेवः। ३ तद्हणरूपे ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे [६. नयपरि० गम्भीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदम्,
यद्यक्तं पदमाद्वितीयमखिलं माणिक्यनन्दिप्रो। तन्याख्यातमदो यथावगमतः किञ्चिन्मया लेशतः,
स्थेयाच्छुद्धधियां मनोरतिगृहे चन्द्रार्कतारावधि ॥ १ ॥ ५ मोहध्वान्तविनाशनो निखिलतो विज्ञानशुद्धिप्रदः,
मेयानन्तनोविसर्पणपटुर्वस्तूक्तिभाभासुरः। शिष्याब्जप्रतिवोधनः समुदितो योऽद्रेः परीक्षामुखात्, जीयात्सोत्र निबन्ध एष सुचिरं मार्तण्डतुल्योऽमलः ॥२॥ गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः । नन्दतादुरितैकान्तरजाजनमताकः ॥ ३॥ श्रीपानन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः । प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्रत्ननन्दिपदे रतः॥४॥ श्रीभोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदनणामार्जितामलपुण्य निराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्र१५पण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं 'विवृतमिति ॥ (इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचितः प्रमेयकमलमार्तण्डः समाप्तः)
॥ शुभं भूयात् ॥
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१ अथेदानी माणिक्यनन्दिपदव्यावर्णनपूर्वकं तत्पदाशीर्वादपूर्वकं चात्मनः प्रारब्धनिर्वहणमौद्भत्यपरिहारं च सूचयन्नाह गम्भीरेत्यादि । २ अप्रमितम् । ३ मार्तण्ड इत्यस्योपपत्तिं दर्शयति । ४ खस्य । ५ माणिक्यनन्दी।
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प्रमेयकमलमार्तण्डस्य ॥ परिशिष्टानि ॥
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प्रथमं परिशिष्टम् । परीक्षामुखसूत्रपाठः।
॥ प्रथमः परिच्छेदः॥
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।। इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥ १॥ १ वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । २ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । ३ तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् । ४ अनिश्चितोऽपूर्वार्थः । ५ दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् । ६ खोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः। ७ अर्थस्येव तदुन्मुखतया । ८ घटमहमात्मना वनि। ९ कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः । १० शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् । ११ को वा तत्प्रतिभा सिनमर्थनध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् । १२ प्रदीपवत् । १३ तत्प्रामाण्यं खतः परतश्चेति ।
१२९ १२१
१२८
१४९
१४९
१८०
२१६
२१९
॥द्वितीयः परिच्छेदः ।। १ तद्वेधा । २ प्रत्यक्षेतरभेदात् । ३ विशदं प्रत्यक्षम् । ४ प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशयम् । ५ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ।
२२९ ६ नालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ।
२३१ ७ तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच केशोण्डुकज्ञानवन्नकञ्चरज्ञानवच्च । २३३ ८ अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।
२३९ ९ खावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति । २४० १० कारणस्य च परिच्छेद्यले करणादिना व्यभिचारः । ११ सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम् । १२ सावरणत्वे करणजन्यले च प्रतिबन्धसम्भवात् ।
२४०
२४१
प्र० क० मा० ५९
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६९८
प्रमेयकमलमार्तण्डे
॥ तृतीयः परिच्छेदः।। । १ परोक्षमितरत् । २ प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदम् । ३ संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः। ४ स देवदत्तो यथा । ५ दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेदं तत्सदृशं
तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि। ६ यथा स एवायं देवदत्तः। ७ गोसदृशो गवयः। ८ गोविलक्षणो महिषः । ९ इदमस्माद् दूरम् । १० वृक्षोऽयमित्यादि। ११ उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः । १२ इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च । १३ यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च । १४ साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् । १५ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः। १६ सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः। १७ सहचारिणोप्प्यव्यापकयोश्च सहभावः । १८ पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः । १९ तर्कात्तन्निर्णयः। २० इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् । २१ सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्य सिद्धपदम् । २२ अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यवं माभूदितीष्टाबाधितवचनम् । २३ न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः। २४ प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव । २५ साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी । २६ पक्ष इति यावत् । २७ प्रसिद्धो धर्मी। २८ विकल्पसिद्धे तस्मिन्सत्ततरे साध्ये । २९ अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम् । ३० प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता । ३१ अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा । ३२ व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव । ३३ अन्यथा तदघटनात् । ३४ साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ।। ३५ साध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् । ३६ को वा त्रिधा हेतुमुक्ला समर्थयमानो न पक्षयति ।
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परीक्षामुखसूत्रपाठः
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३७ एतद्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् । ३८ न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्तहेतोरेव व्यापारात् । ३९ तदविनाभावनिश्चयार्थं वा विपक्षे वाधकादेव तत्सिद्धः । ३७५ ४० व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि तद्विप्रतिपत्ताव
नवस्थानं स्यात् दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् । ४१ नापि व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृतेः। ४२ तत्परमभिधीयमानं साध्यर्मिणि साध्यसाधने सन्देहयति । ४३ कुतोऽन्यथोपनयनिगमने । ४४ न च ते तदङ्गे । साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् । ४५ समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वाऽस्तु साध्ये तदुपयोगात् : ४६ बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ।। ४७ दृष्टान्तो द्वेधा । अन्वयव्यतिरेकभेदात् । ४८ साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः । ४९ साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः । ५० हेतोरुपसंहार उपनयः । ५१ प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् । ५२ तदनुमानं द्वधा । ५३ स्वार्थपरार्थभेदात् । ५४ स्वार्थमुक्तलक्षणम् । ५५ परार्थं तु तदर्थपरामर्शिवचनाज्जातम् । ५६ तद्वचनमपि तद्धेतुखात् ।। ५७ स हेतुद्वैधोपलब्ध्यनुपलब्धिमेदात् । ५८ उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च । ५९ अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् । ,, ६० रसादेकसामग्र्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं
हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिवन्धकारणान्तरावैकल्ये । ६१ न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः। ३८० ६२ भाव्यतीतयोमरणजाग्रबोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् । ३८१ ६३ तद्व्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् । ६४ सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच । ६५ परिणामी शब्दः, कृतकलात् , य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः,
कृतकश्चायम् , तस्मात्परिणामी, यस्तु न परिणामी स न कृतको
दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनन्धयः, कृतकश्चायम् , तस्मात्परिणामी। ६६ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः । ६७ अस्त्यत्र छाया छत्रात् । ६८ उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ।
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
६९ उदगाद्भरणिः प्राक्तत एव । ७० अस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसात् । ७१ विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा । ७२ नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् । ७३ नास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात् । ७४ नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् । ७५ नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् । ७६ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्वं पुष्योदयात् । ७७ नास्त्यत्र भित्तो परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् । ७८ अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वो
त्तरसहचरानुपलम्भभेदात् । ७९ नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः । ८. नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः। ८१ नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामोऽग्नि—मानुपलब्धः। ८२ नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः। ८३ न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोदयानुपलब्धेः। ८४ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्प्राक् तत एत । ८५ नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धः। ८६ विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा । विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिमेदात् ।, ८७ यथाऽस्मिन्प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः । ८८ अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् । ८९ अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः । ९० परम्परया सम्भवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् । ९१ अभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात् । ९२ कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ । ९३ नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात् कारण विरुद्ध कार्य
विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा । ९४ व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा। ९५ अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेधूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेर्वा । ९६ हेतुप्रयोगो हि यथाव्याप्तिग्रहणं विधीयते सा च तावन्मात्रेण
व्युत्पन्नैरवधार्यते। ९७ तावता च साध्यसिद्धिः। ९८ तेन पक्षस्तदाधारसूचनायोक्तः । ९९ आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः। १०० सहजयोग्यतासङ्केतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः। १०१ यथा मेर्वादयः सन्ति।
३
४२८
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परीक्षामुखसूत्रपाठः
॥ चतुर्थः परिच्छेदः ॥ १ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः। २ अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षण
परिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च । ३ सामान्यं द्वधा, तिर्यगूर्वताभेदात् । ४ सदृशपरिणामस्तिर्यक् , खण्डमुण्डादिषु गोलवत् ।
४६० ५ परापरविवर्त्तव्यापिद्रव्यसूर्वता दिव स्थासादिघु ।
૪૮૮ ६ विशेषश्च ।
५२० ७ पर्यायव्यतिरेकभेदात् । ८ एकस्मिन्द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् ।, ९ अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ।
५२४
॥पञ्चमः परिच्छेदः॥ १ अज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ।
६२४ २ प्रमाणादभिन्न भिन्नञ्च ।
६२४ ३ यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः । ६२६
॥ षष्ठः परिच्छेदः॥ १ ततोऽन्यत्तदाभासम् । २ अखसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः । ३ स्वविषयोपदर्शकवाभावात् ।। ४ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् । ५ चक्षुरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च । ६ अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्मालूमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् । ७ वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् । ८ अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासम् , जिनदत्ते स देवदत्तो यथा । ९ सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि
प्रत्यभिज्ञानाभासम् ।। १० असम्बद्ध तज्ज्ञानं तर्काभासम् , यावाँस्तत्पुत्रः स श्यामो यथा। ११ इदमनुमानाभासम् । १२ तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः। १३ अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः शब्दः। १४ सिद्धः श्रावणः शब्दः । १५ बाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोकखवचनैः। १६ अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वाजलवत् । १७ अपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् घटवत् ।
१
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
१८ प्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितलादधर्मवत् । १९ शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यङ्गवाच्छङ्खशुक्तिवत् । २० माता मे वन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भवात्प्रसिद्धवन्ध्यावत् । २१ हेलाभासा असिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिञ्चित्कराः। २२ असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः। २३ अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषवात् । २४ स्वरूपेणासत्त्वात् । २५ अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र धूमात् । २६ तस्य बाष्पादिभावेन भूतसङ्घाते सन्देहात् । २७ सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् । २८ तेनाज्ञातत्वात् । २९ विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकखात् । ३० विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः । ३१ निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् । ३२ आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् । ३३ शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृवात् । ३४ सर्वज्ञलेन वक्तवाविरोधात् । ३५ सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिश्चित्करः। ३६ सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् । ३७ किञ्चिदकरणात् । ३८ यथाऽनुष्णोऽग्निद्रव्यवादित्यादौ किञ्चित्कर्तुमशक्यत्वात् । ३९ लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टखात् । ४० दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनोभयाः। ४१ अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रियसुखपरमाणुघटवत् । ४२ विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्तम् । ४३ विद्युदादिनाऽतिप्रसङ्गात् । ४४ व्यतिरेकेऽसिद्धतयतिरेकाः परमाण्विन्द्रियसुखाकाशवत् । ४५ विपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्त तन्नापौरुषेयम् । ४६ बालप्रयोगाभासः पञ्चावयवेषु कियद्धीनता। ४७ अग्निमानयं देशो धूमवत्त्वात् यदित्थं तदित्थं यथा महानस इति । ४८ धूमवांश्चायमिति वा। ४९ तस्मादग्निमान् धूमवांश्चायमिति । ५० स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् । ५१ रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाजातमागमाभासम् । ५२ यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावध्वं माणवकाः। ५३ अङ्गुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्त इति च ।
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परीक्षामुखसूत्रपाठः
६४४
५४ विसंवादात् । ५५ प्रत्यक्षमेवकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् । ५६ लौकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परवुद्ध्यादेश्वासि
धेरतद्विषयलात् । ५७ सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमा___नार्थापत्त्यभावैरेकैकाधिकैर्व्याप्तिवत् । ५८ अनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् । ५९ तर्कस्यैव व्याप्तिगोचरवे प्रमाणान्तरत्नम् अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ! ६० प्रतिभासमेदस्य च भेदकलात् । ६१ विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा खतन्त्रम् । ६२ तथाऽप्रतिभासनात्कार्याकरणाच्च । ६३ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् । ६४ परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् । ६५ खयमसमर्थस्य अकारकत्वात्पूर्ववत् । ६६ फलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा । ६७ अमेदे तद्व्यवहारानुपपत्तः। ६८ व्यावृत्त्याऽपि न तत्कल्पना फलान्तराद्यावृत्त्याऽफलवप्रसङ्गात् । ६९ प्रमाणायावृत्त्येवाप्रमाणवस्य । ७० तस्माद्वास्तवो भेदः। ७१ भेदे खात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः। ७२ समवायेऽतिप्रसङ्गः। ७३ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषी वादिनः
साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च । .. ७४ संभवदन्यद्विचारणीयम् ।।
परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः । संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्यधाम् ॥ १ ॥
इति परीक्षामुखसूत्रं समाप्तम् ।
६७६
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द्वितीय परिशिष्टम् । प्रमेयकमलमार्तण्डगतानामवतरणानां सूचिः।
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः अकथितम् [ जैनेन्द्र व्या० १।२।१२०] अकर्म कर्म [ ]
६२१ ११ अकुर्वन् विहितं कर्म [ ]
३०९ २१ अग्निखभावः शक्रस्य [प्रमाणवा० ३१३५]
५१३ १३ अमेरपत्यं प्रथमं [रामता० उ० ६।५]
५९७ १९ अग्नेरूज़ज्वलनं [प्रश० व्यो० पृ० ४११]
२७४ २ अगोनिवृत्तिः सामान्यं [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० १] ४३३ ७ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयं [ महाभा. वनपर्व ३०।२८]
५८० १२ अत इदमिति यत- [ वैशे० सू० २।२।१०]
५६८ १७ अतद्भदपरावृत्त- [ ]
१८१ १७ अतीतानागतौ कालौ [ तत्त्वसं० पृ० ६४३ पूर्वपक्षे ] ३९८ २८ अतीतैककालानां [प्रमाणवा० स्ववृ० १११३]
३८१ २ अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ [ न्यायबि० पृ. ३९]
७८ १५ अत्र ब्रूमो यदा [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८० ] ४०८ ७ अथ तद्वचनेनैव [ तत्त्वसं० पृ० ८३२ पूर्वपक्षे]
२५० १३ अथ ताद्रूप्य विज्ञानं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१३ ] ४१६ २३ अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन [ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ६२-६३ ] १८४ ४ अथ स्थगितमप्येतद- [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ३३] ४२२ २१ अथान्यथा विशेष्येपि [ मी० श्लो. अपोह० श्लो० ९.] ४३८ १२ अथान्यदप्रयत्नेन [ ] अथापीन्द्रियसंस्कारः [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ६९] अथाऽसत्यपि सारूप्ये [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ७६ ] अर्थवत्प्रमाणम् [ न्यायभा० पृ० १]
२३७ १४ अर्थसहकारितया-[ ]
२३५ १७ अर्थादापन्नस्य खशब्देन- [न्यायसू० ५।२।१५]
३७२ २६ अर्थापत्तितः प्रतिपक्ष- [ न्यायसू० ५।१।२१] अर्थापत्तिरियं चोक्का [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २३७] ४०५ २. अर्थापत्त्यावगम्यैव [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ७] १८८ २० अर्थेन घटयत्येनां [प्रमाणवा० ३१३०५] १०७-१, ४७० ११ अदृष्टसंगतत्वेन [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४९] ४१० १४
१७५
४२४
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अवतरणसूचिः
अवतरणम्
अधिष्ठानानृजुवाच्च [ मी० वी० शब्दनि० श्रो० १८७ ] अनादिनिधनं शब्द- [ वाक्यप० १1१]
अनादेरागमस्यार्थी - [
]
अनिग्रहस्थाने निग्रह - [ न्यायसू० ५/२/११] अनिर्दिष्टफलं [
]
अनेकदेशवृत्तौ च [ मी० श्लो० शब्दनि० श्रो० ९९० अनैकान्तिकता तावद्धे- [ मी० श्रो० शब्दनि० श्र० १९ अन्यथैवाग्निसम्बन्धा- [ वाक्यप० २।४२५] अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यअन्यधियो गतेः [
1
अन्यार्थ प्रेरितो वायुर्य- [ मी० श्रो० शब्दनि० श्लो० ८० ] अन्ये तु चोदयन्त्यत्र [ मी० वी० शब्दनि० श्लो० ८३] अन्यैस्तात्वादिसंयोगे - [ मी० श्लो० शब्दनि० ० ८१] अन्वयेन विना तावद् - [
1 अन्वयो न च शब्दस्य [ मी० लो० शब्दपरि० छो० ८५] अपरस्मिन् परं [ वैशे० सू० २।२६ ]
अपूर्वकर्मणामाश्रव निरोधः [ तत्त्वार्थसू० ९।१ ] अप्रत्यक्षोपलम्भस्य [
1 अप्राप्तकर्णदेशत्वाद् - [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ७० ] अप्रामाण्यं त्रिधा भिन्नं [ मी० श्लो० सू० २ छो० ५४ ] अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ [ मी० श्रो० अभाव० श्लो० ६ ] अप्सूर्यदर्शिनां नित्यं [ मी० लो० शब्दनि० श्लो० १८६ ] अभावगम्यरूपे च [ मी० वी० अपोह० श्लो० ९१] अभ्यासात्पक्वविज्ञानः [ प्रश० व्यो० पृ० २० ख० अयमर्थो नायमर्थं [ प्रमाणवा० २।३१२] अयमेवेति यो ह्येष [ मी० लो० अभावपरि० छो० २० ] अयुतसिद्धानामाधार्या- [ प्रश० भा० पृ० १४ ]
1
अवयव विपर्यासवचन- [ न्यायसू० ५।२1११]
अवयवानां प्रशिथिल - [ 1 अविज्ञातं चाज्ञानम् [ न्यायसू० ५/२/१७] अविनाभाविता चात्र [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ३० ] अविशेषाभिहितेऽर्थे [ न्यायसू० १२।१२]
अविशेषोक्ते हेतौ [ न्यायसू० ५।२६ ] असंस्कार्यतया पुंभिः [ प्रमाणवा० १।२३२]
1
७०५
पृष्ठ पि
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16
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प्रमेयकमलमार्तण्डै
२८७ १८
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः असदकरणादुपादान- [ सांख्यका० ९] असर्वज्ञप्रणीतात्तु [ तत्त्वसं० पृ० ८३२ पूर्वपक्षे]
२५० १५ असाधनाङ्गवचन- [वादन्याय० पृ० १]
६७१ २० अस्ति ह्यालोचनाज्ञानम् [ मी० श्लो. प्रत्यक्षसू० श्लो० १२०] ४८२ २२ आकाशमपि नित्यं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ३०-३१] ४२२ १७ आख्यातशब्दः सङ्घातो वाक्यप० २।२] आगच्छतां च विश्लेषो [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ११०] ४२७ ५ आचेलकुद्देसिय [जीतकल्पभा० गा० १९७२ भग० आ० गा० ४२७] ३३१६ आत्मलामे हि भावानां [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४८] १५३ २१ आनन्दं ब्रह्मणो रूपं [ ]
३१० १६ आप्तवचनादिनिवन्ध- [परीक्षामु० ३।१०.]
३५५ २३ आशङ्केत हि यो [ तत्त्वसं० पृ० ७६० पूर्वपक्षे]
१५७ १० आसर्गप्रलयादेका [ ]
२९४ ४ आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं [ ] आहैकेन निमित्तेन [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७९] ४०८ ३ इदानीन्तनमस्तित्वं [ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २३४ ] इन्द्रियार्थसन्निकर्षो- [ न्यायसू० ११११४] २२०-१८, ३६५ १४ इषं गतिहिंसनयोश्च [ ]
६८७ २९ ईषत्सम्मिलितेऽङ्गुल्या [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८२] ४०८ १३ उत्क्षेपणमवक्षेपण- [वैशे० सू० १११।७] उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः [भगवद्गी० १५।१७ ]
२६८ उत्तरस्याप्रतिपत्ति- [न्यायसू० ५।२।१८]
६६९ १९ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं [ तत्त्वार्थसू० ५।३०]
२५९ १० उपदेशो हि बुद्धादेर्धर्मा- [ तत्त्वसं० पृ० ८३८ पूर्वपक्षे ] २५० २१ उभयकारणोपपत्तरुपपत्तिसमा [न्यायसू० ५।१।२५] ६५७ १९ उभयसाधर्म्यात् [ न्यायसू० ५।१।१६] ऊर्णनाभ इवांशूनां [ ] ऊर्ध्ववृत्तितदेकत्वाद् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८८] ऋन्मोः [जैनेन्द्रव्या० ४।२।१५३ ] एकधर्मोपपत्तेरविशेषे [न्यायसू० ५।१।२३ ]
६५७ ९ एकप्रत्यवमर्शस्य हेतु- [प्रमाणवा० १११०] एकशास्त्रविचारेषु [ तत्त्वसं० पृ० ८२६ पूर्वपक्षे]
२५२ एकस्मिन्नपि दृष्टेऽर्थे [ मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० ४६] . [ए]कस्यार्थखभावस्य [प्रमाणवा० ११४४]
२३६ २
६००
४०९
६८८
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अवतरणसूचिः
४०९
अवतरणम्
पृष्ठं पक्षिः एकादिव्यवहारहेतुः [प्रश० भा० पृ० १११]
५९० २ एतद्वयमेवानुमा- [परीक्षामु० ३॥३७ एतावन्मात्रतत्त्वार्थाः [ सम्बन्धनरी०]
५१० १९ एवं त्रिचतुरज्ञान- [ मी० श्लो० सू. २ श्लो० ६१] १५७ ५ एवं धर्मेविना धर्मिणामेव [प्रशस्तपादभा० पृ० १५] एवं परीक्षकज्ञानं तत्त्वसं० पृ० ७६० पूर्वपक्षे एवं परोक्तसम्बन्ध- [ ]
२१ ५ एवं प्राग्गतया वृत्त्या [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८९] एवं यत्पक्षधर्मवं[ ]
१९५ ऐकान्तिकं पराजयाद्वरं । ] कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुर्ध- [प्रश० भा० पृ. २७२-२८०] कर्तुः फलदाय्यात्मगुण- [ ] कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा [ मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० १३५] २५४ २५ कस्यचित्तु यदीष्येत [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ७६ ] १५५ ७ कारणानुविधायित्वं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१०-२११] ४१५ ३४ कार्य धूमो हुतभुजः [प्रमाणवा० ११३५]
३५० ७ कार्यकारणभावादि-[ ]
२१-१, ३८२ १६ कार्यकारणभावोपि [ सम्बन्धपरी०]
५०९ २९ कार्यवान्यत्वलेशेन [ ]
२७५ ६ कार्यव्यासगात् [ न्यायसू० ५।२।१९]
६७० १ कार्याश्रयकर्तृवधाद्धिंसा [ न्यायसू० ३।१।६]
५३६ १८ किं स्यात्सा चित्रतैक- [प्रमाणवा० ३।२१०]
९६ १३ किन्तु गोर्गवयो हस्ती [ तत्त्वसं० का० ९११ पूर्वपक्षे] ४३२८ कीदृशाद्रचनाभेदाद्व- [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १०९] ४२७ ३ कुड्यादिप्रतिबन्धोपि [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो १२९] कूपादिषु कुतोऽधस्तात् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८४ ] क्रमेण भाव एकत्र [ सम्बन्धपरी.]
५१०१ क्षणिका हि सा न [शाबरभा० १।११५]
२३ ११ क्षीरे दधि भवेदेवं [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० ५] १९० २६ गला गत्वा तु तान्देशान् [ मी० श्लो० वा० अर्था० श्लो० ३८] २२ १७ गवयश्चाप्यसम्बन्धान [ मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० ४५] १८७ ५ गवये गृह्यमाणं च [ मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० ४४] १८७ ३ गवयोपमिताया गोस्त- [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ४-५] १८८ १६ पवादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययः [ न्यायवा० पृ० ३३३]
४७६ १
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२४
४०८ १७
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः गव्यसिद्धे खगौर्नास्ति [ मी० श्लो० अपो० श्लो० ८५] ४३६ १३ गेहाच्चैत्रबहिर्भाव- [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ७-८] १८९ ३ गोशब्दे ज्ञातसम्बन्धे [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४४] ४०६ १४ गृहीतमपि गोलादि [ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० ३२]
३३९ १० गृहीला वस्तुसद्भावं [ मी० श्लो० अभावप० श्लो० २७] १८९-९, २६५ २६ चित्रप्रतिभासाप्येकैव [प्रमाण वार्तिकालं०]
९५ १ चित्राद्यदन्तराणीय- [पत्रप० पृ० १०] चैत्रः कुण्डली [न्यायवा० पृ० २१८]
६१४ १५ चोदनाजनिता बुद्धिः [ मी० श्लो० सू० ५ श्लो० १८४] १५८ ३ चोदना हि भूतं भवन्तं [ शावरभा० १११।२] २५३-२०, २५५ १३ जननेपि हि कार्यस्य [ सम्बन्धपरीक्षा ]
५१० २५ जलपात्रेषु चैकेन [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७८ ] जातेपि यदि विज्ञाने [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४९] १५८ २३ जिषु डिषु शिषु [ ]
६८७ १९ जीवस्तथा निति- [ सौन्दरनन्द १६-२९]
६८७ १० जुषी प्रीतिसेवनयोः [पा० धातुपा०]
६६८ १६ जैनकापिलनिर्दिष्टं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १०६] ज्ञातसम्बन्धस्यैक-[ शाबरभा० ११५]
२० १५ ज्ञातैकलो यथा चासौ [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १९९] ज्ञाला व्याकरणं दूरं [तत्त्वसं० पृ० ८२६ पूर्वपक्षे] २५२ १० ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं [ ]
६२० ६ ज्योतिर्विच प्रकृटोपि [ तत्त्वसं० पृ० ८२६ पूर्वपक्षे ] २५२ १२ णोकम्म कम्महारो [ ]
३०० २१ ततो निरपवादखाते- [ तत्त्वसं० पृ० ७६० पूर्वपक्षे] ततः परं पुनर्वस्तुधमै- [ मी० श्लो० प्रत्यक्ष० सू० ११२] ४८२ २४ तत्करोति तदाचष्टे [
६८७ २२ तत्प्रतिबिम्बकं च [ ]
४४१ १६ तत्रिविधं वाक्छलं [ न्यायसू० १।२।११]
६४९ १५ तत्त्वं भावेन व्याख्यातं [वैशे० सू० ७॥२॥२८]
६२० १९ तत्त्वाध्यवसायसंरक्ष- [ न्यायसू० ४।२।५० ]
६४६ तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५०] १५९ तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञाताद् [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ३] तत्र शब्दान्तरापोहे [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० १०४] तत्रापवाद निर्मुक्तिर्व- [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६८] तंत्रापूर्वार्थविज्ञानं [ ]
६१ १०
४०९
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४४.
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१७५ १८
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अवतरणसूचिः
६४६
अवतरणम्
सृष्टं पतिः तत्रैव बोधयेदर्थं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८५] ४०८ १९ तथा ( यथा ) घटादेदीपा- [ मी० श्लो० शब्दनि श्लो० ४२] ४२४ २० तथा च स्यादपूर्वोपि [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४२] तथाचेदनिति प्रोत्तो [ पत्रप० पृ० १०]
૬૮૬ तथा भिन्नमभिन्नं वानी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २७११ ४११ तथा वेदेति हाचादि- [तत्त्वसं० १० ८२६ पूर्वपक्षे
२५२ तथेदममलं ब्रह्म [बृहदा० भा० वा० ३।११४४] तथैव यत्समीपस्थनादेः [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८५-८६] ४२० ९९ तथैवाभावभेदेपि न [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० ४६] तदनुपलब्धेरनुपलम्भा- [ न्यायसू० ५।१।२९] तदन्ता धवः [ जैनेन्द्रव्या० २।१।३९]
६८७ २४ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्द [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६३] १७५-१४ ३९७ १७ तद्भावमाविता चात्र [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १२७-१२८] ४१८ २२ तद्भावाभावात्तत्कार्य- [सम्बन्धपरीक्षा ]
५१० तयोरनुपका रेपि [ सम्बन्धपरीक्षा ]
५१० २७ तर्कशब्देन भूतपूर्वगतिन्यायेन [ ] तस्मात्तत्प्रत्यभिज्ञानात् [ मी० श्लो. आत्म० श्लो० १३६] ५२२ ४ तस्मात्सर्वेषु यद्रूपं [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० १० ] ४३३ १४ तस्मात्खतः प्रमाणवं [ तत्त्वसं० पृ० ७५८ पूर्वपक्षे]
१७४ तस्मादननुमानत्वं [ मी० श्लो० शब्दप० श्लो० १८] तस्मादुत्पत्त्यभि- [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८२] ४२३ ११ तस्मादुभयहानेन [ मी० श्लो० आत्मवाद० श्लो० २८ ५ २२ १ तस्माद्गुणेभ्यो दोशणान- [मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६५] तस्माद्यतो तोऽर्थानी [प्रमाणवा० ११४२]
१८० २३ तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात् [मी० श्लो उपमानपरि० श्लो०३७] १८६-१,३४५ १३ तस्माद् व्याख्यानमि- [ मी० श्लो० प्रति० सू० श्लो० २५] ३ १६ तस्यापि कारणे शुद्ध [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५१] १५९ ३ तस्योपकारकत्वेन [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० १४] १९१ १४ तां ग्राह्यलक्षणप्राप्तामास- [प्रमाणवा० ३।५१३ ] तादात्म्यं चेन्मतं [ ] तादात्म्यमस्य कस्माचेत् [ ]
४७३ २० तामेव चानुरुन्धानैः [ सम्वन्धपरी.]
५०६ १८ ताभ्यां तव्यतिरेकश्चे [प्रमाणवार्त्तिकालं.] • ता हि तेन विनोत्पन्ना [ मी० श्लो० आकृति० श्लो० ३०] ४७४ १२
प्र० क० मा०६०
४७४
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७१०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः तिष्ठन्त्येव पराधीना [प्रमाणवा० २११९९]
९५ १६ तेन जन्मैव बुद्धेर्विषये [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५६]
१६४ १६ तेन सम्बन्धवेलायां [ मी० श्लो. अर्था० श्लो० ३३] १९३ २. तेन सर्वत्र दृष्टवाट्य- [ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ८८] १८५ ३ तेनात्रैवं परोपाधिः [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१८-१९] ४१७ १७ तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् [ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २३६-२३७] ३३९ तेषां चाल्पकदेशत्वाद् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७३] ४०७ ९ तेषामनुपलब्धेश्च [ मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० १२] ४१७ २८ तौ च भावौ तदन्यश्च [ सम्बन्धपरी.]
५०६७ त्रिगुणमविवेकि विषयः [ सांख्यका० ११]
२८६ ७ त्रिरभिहितस्यापि [न्यायसू० ५।२।९]
६९२ २० त्रिषु पदार्थेषु सत्करी [ ]
६१९ १५ त्रैकाल्यासिद्धेहेतोरहेतु- [न्यायसू० ५।१।१८]
६५६ २५ बगग्राह्यलमन्ये [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १०८]
४२७ १ दर्शनस्य परार्थत्वात् [जैमिनिसू० १११११८] ६२-१, ४०४ २४ दर्शनस्य परार्थवादित्य- [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ७-८] १८९ १ दर्शनादर्शने मुक्त्वा [ सम्बन्धपरी.]
५१० १३ दशहस्तान्तरं व्योम्नि [तत्त्वसं० पृ. ८२६ पूर्वपक्षे] २५२ १६ दीपो यथा निर्वृतिम- [ सौन्दरनन्द १६-२८]
६८७८ दृष्टश्चासावन्ते स्थितश्चेति [ न्यायसू० ५।२।२]
६६४ ३ देशकालादिभेदेन [ मी० श्लो. प्रत्यक्ष सू० श्लो. २३३-३४] २५८ ७ देशभेदेन भिन्नवं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. १९७] ४०९ ९ दृश्यमानाद्यदन्यत्र [ ]
१८५ १० दृष्टो न चैकदेशोस्ति लिङ्ग [ तत्त्वसं० पृ० ८३० पूर्वपक्षे] द्वयसंस्कारपक्षे तु [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८६] ४२४ ३१ द्वयोरेकाभिसम्बन्धात् [ सम्बन्धपरी.] द्वाविमौ पुरुषौ लोके [भगवद्गी० १५।१६ ]
२६८ १५ द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं [ ]
४६४ २० द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिः[ ]
९१ ४ द्विष्ठो हि कश्चित्सम्बन्धो [सम्बन्धपरी०]
५१० . द्वितावानुपलब्धो हि [ मी० श्लो. शब्दनि० श्लो० २५०] द्वीन्द्रियग्राह्याग्राह्यं [ ]
२६९ २६ धत्तूरकपुष्पवदादौ सूक्ष्मा-[ ]
२२७ १ धर्मे चोदनैव प्रमाणम् [ ]
४०१
२५०
४१०
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م م م م
८४
४०७
م م س م ه م
ه س ي
अवतरणसूचिः
७११ अवतरणम्
पृष्ठं पतिः धर्मयोर्भेद इष्टो हि [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० २०] १९२ ७ धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थ- [न्यायसू० १।२।१४] धर्माधर्मों खाश्रयसंयुक्ते [ ] धर्मज्ञखनिषेधस्तु [ तत्त्वसं० पृ० ८१७ पूर्वपक्षे] २५३ ५ धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः [पाणिनिव्या० ३।४।१] धियो (योऽ) नीलादिरूप- [प्रमाण दा० ३।४३११ ध्वनीनां भिन्नदेशत्वं मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७३] न च ध्वनीनां सामर्थ्य [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७२ ] न च स्याम्यवहारोऽयं [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० ७] न चागमविधिः कश्चिन्नि- [ तत्त्वसं० पृ० ८३१ पूर्वपक्षे] २५० न चान्यरूपमन्यादृक् [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ८९] ४३८ १० न चान्यार्थप्रधानैस्तैस्त- [ ]
२५० न चा (च) पर्यनुयोगोत्र [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ४३] ४२४ ।। न चापि स्मरणात्पश्चादि- [ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० ३५-३६] ३३९ न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो- [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ८८] ४३८ न चावस्तुन एते स्यु:- [ मी० श्लो० अभाव० श्लो ८] न चावान्तरवर्णानां [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ११२] न चासाधारणं वस्तु [ मी० श्लो० अपोह० श्लो ८६] न चास्यावयवाः सन्ति [ ]
४१४ न चैतस्यानुमानत्वं [ मी० श्लो० उपमानप० श्लो० ४३ ] १८७ न तावदनुमानं हि [ मी० श्लो० शब्दप० श्लो० ५६ ] न तावदिन्द्रियेणैषा [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० १८] न तावद्यत्र देशेऽसौ न [ मी० श्लो० शब्दप० श्लो० ८७] १८५ न तु (ननु) भावादभिन्न- [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० १८] १९२ नदीपूरोप्यधोदेशे [ ]
१९५ ३ ननु च प्रागभावादौ [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ११] ४७७ ७ ननु ज्ञानफलाः शब्दा [ भामहालं. ६।१८]
४३२ १३ नन्वन्यापोहकृच्छब्दो [ तत्त्वसं० का० ९१० पूर्वपक्षे ] ४३२ ६ न मेदाद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामा-[ ]
४६७ १६ न याति न च तत्रासीद-[प्रमाणवा० १११५३ ]
४७३ १६ नवानां गुणानामत्यन्तो-[ ] न शाबलेयागोवुद्धिस्ततोऽ- [ मी० श्लो० वनवाद श्लो० ४] १७४ २३ न सोस्ति प्रत्ययो लोके [वाक्यप० १११२४] न स्यादव्यङ्ग्यता तस्मिंस्त- [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ११६-१७] ४१६ ३४
م م ه س م س
१८४
ه م م س و
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७१२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
४३९
।
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः न हि तत्क्षणमप्यास्ते [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५५] १६४ १४ न हि स्मरणतो यत्प्राक् [ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० ३३४-३५] ३३९ १ नाकारणं विषयः [ ]
३५५-११, ५०२ ४ नाऽक्रमात्क्रमिणो भावाः [प्रमाणवा० १।४५]
३२५ १६ नागृहीतविशेषणा विशेष्ये [ ] २१०-७१, ३८३-५, ४३७ १३ नाज्ञातं ज्ञापकं नाम [ ]
१२४-१९, २०६ ७ नार्थशब्दविशेषेण वाच्य-[ ]
३४०८ नार्थालोको कारणं [परी० २।६]
२२५ १७ नादेनाऽहितबीजाया- [ वाक्यप० ११८५]
___४५६ १९ नान्योऽनुभाव्यो वुद्ध्यास्ति [प्रमाणवा० ३।३२७ ]
९० १० नाऽपोह्यत्वमभावानाम- [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ९६] नाभुक्तं क्षीयते कर्म [ ]
३०८ १५ नाशोत्पादौ समं [ ] नास्तिता पयसो दन्नि [ मी० श्लो अभाव० श्लो० ३] १९० १९ निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः [न्यायसू० ५।२।२१]
६६९ २१ नित्यत्वं व्यापकलं च [ ]
४०६ २०. नित्यनैमित्तिके कुर्यात् [ मी० श्लो० सम्बन्ध० श्लो० ११०] ३०९ २३ नित्यनैमित्तिकैरेव [प्रश० व्यो० पृ० २० ख०]
३१० १ नित्याः शब्दार्थसम्बन्धास्त- [वाक्यप० १।२३]
४२९ ५ निर्गुणा गुणाः [ ]
५९२ ११ निर्दिष्टकारणाभावेप्युपल- [न्यायसू० ५।१।२७]
५२७ २६ निष्फलत्वेन शब्दस्य [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १३९] नीलोत्पलादिशब्दा [ ] नूनं स चक्षुषा सर्वान् [ मी० श्लो. चोद० सू० श्लो० ११२] ४४९ नेष्टोऽसाधारणस्तावद्वि- [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ३] ४३३ ११ नो चेद्धान्तिनिमित्तेन [प्रमाणवा० १।४५]
४७० नैकरूपा मतिर्गोत्वे [ मी० श्लो० वनवा० श्लो० ४९] ४७५ १७ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्था- [ न्यायसू० ५।२।५]
६६५ पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनान्य-[ न्यायसू० १।१।३२] ३७४ १२. पदमाद्यं पदं चान्त्यं पदं [वाक्यप० १।२] पदार्थपूर्वकस्तस्माद्वाक्या- [ मी० श्लो० वाक्या० श्लो० ३३६ ] ४६१ ५ पदार्थानां तु मूलवमिष्टं [ मी० श्लो० वाक्या० श्लो० १११] ५६१ ३ परलोकिनोऽभावात्परलोका-[ ]
११६ ९ परस्परविषयगमनं व्यतिकरः[ ]
५२६ १९
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अवतरणसूचिः
अवतरणम् पराधीनेपि वै तस्मान्ना- [तत्त्वसं० पृ० ७५८ पूर्वपक्षे] परापेक्षा हि सम्बन्धः [ सम्बन्धप०]
५०५ २० परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभि- [ न्या० सू० ५।२।९ ] ६६६ १९ पर्यायादविरोधश्चेद्यापि- [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २००१ ४०९ १५ पर्यायेण यथा चैको [ मी० श्लो० शब्दनि श्लो० १९८] ४०९ ११ पश्यन्नयं क्षणिकमेव [ ] पश्यन्नेकमदृष्टस्य दर्शने । सम्बन्धपरी.]
५१० ११ पारतन्यं हि सम्बन्धः [ सम्बन्धपरी.]
५०४ २७ पिण्डभेदेषु गोवुद्धिरेक- [ मी० श्लो० वन० श्लो० ४४] ४७४ १९ पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन [ ]
१९५-५, २५५ ५ पीनो दिवा न भुङ्क्ते [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ५१] १८८ १२ पुंवेदं वेदंता जे पुरिसा [ ]
३३३ १२ पुरुष एवैतत्सर्वं यद्भूतं [ऋक्सं० मण्ड० १० सू० ९० ऋ० २] ६४ २१ पृथग् न चोपलभ्यन्ते [ मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० ११] ४१७ २६ पृथिव्य( व्या)पस्तेजोवायुरिति [ ]
११६ १ पृथिव्यप्तेजोवायुभ्यो [ ] पौर्वापर्यायोगादप्रति- [ न्यायसू० ५।२।१०] प्रकृतादादप्रतिसम्बन्धा-[ न्या० सू० ५।२।७]
६६५ २४ प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारस्त- [ सांख्यका० २१]
२८५ २६ प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य [ ]
२८१ २३ प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्म-[ न्या० सू० ५।२।३] प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनय- [न्यायसू० ५।२।३२]
૬૭૪ ૨૩ प्रतिज्ञाहेलोविरोधो [न्यायसू० ५।२१४] प्रतिदृष्टान्तधा (मा)नुज्ञा [ न्या० सू० ५।२।२] ६६३ १४ प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभिव्य- [ ]
१९ १३ प्रतिबिम्बस्य मुख्यमन्यापो- [ ]
४४२ ४ प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या [ मत्स्यपु० १४५।५८ ] ३९२ १८ प्रत्यक्षं कल्पनापोडं [प्रमाणवा० ३।१२३]
३२ १० प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्षः [ ]
७८ ८ प्रत्यक्षपूर्वकं त्रिविधमनु- [न्यायसू० ११११५]
३६२ १८ प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० ११] १८९-१२, २६५ १७ प्रत्यक्षाद्यवतारश्च [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० ९७] १९१-१५, २०६ १२ प्रत्यक्षेणावबुद्धश्च [ मी० श्लो० स्फोट० श्लो० १४ ] ४१७ ३२ प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि [ मी० श्लो० उपमान० श्लो० ३०] १८६-३, ३४५ १५
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७१४
प्रमेयकमलमार्तण्डे
४७५
६
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः प्रत्यक्षेपि यथा देशे [ मी० श्लो० उपमानप० ३९] १८६ ५ प्रत्येकसमवेताथ विषया [ मी० श्लो० वन० श्लो० ४६] प्रत्येकसमवेतापि [ मी० श्लो० वन० श्लो० ४७-४८] ४७५ १५ प्रधानपरिणामः शुक्लं कृष्णं [ ] २४४-३, २८५ २० प्रमाणं ग्रहणात्पूर्व स्वरूपे [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ८३] १५६ ९ प्रमाणप्रमेयसंशय- [ न्या० सू० १।१।१]
६८६ १५ प्रमाणं हि प्रमाणेन [ तत्त्वसं० पृ० ७५९ पूर्वपक्षे]
१७४ १२ प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः [न्यायसू० ११२।१]
६४७ ९ प्रमाणपञ्चकं यत्र [ मी० श्लो० अभाव० श्लो०] १८९-१५, २६५-२२,
३९८ १ प्रमाणभूताय [ प्रमाणसमुच्चय श्लो० १]
८०-८, ९५ १४ प्रमाणमविसंवादि ज्ञानं [प्रमाण वा० २।१]
३४१ १३ प्रमाणषट्कविज्ञातो [ मी० श्लो० अर्था० परि० श्लो० १] १८७ १३ प्रमाणस्यागौणवादनुमाना-[ ]
१८. १ प्रमाणेतरसामान्यस्थितेर-[ ]
१८०-५, ३२४ ४ प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं [ न्यायभा० पृ० २]
१६ १० प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरं [ ]
२३७ १५ प्रयत्नानेककार्यलात्कार्यसमा [ न्यायसू० ५।१।३७] ६५९ ११ प्रयत्नानन्तरं ज्ञानं [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ३१-३२] ४२२ १९ प्रयोगपरिपाटी तु प्रति-[ ]
३७३ १७ प्रसज्यप्रतिषेधे दोषोद्भावना- [ ]
६७४ १६ प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्य- [न्यायसू० १।१।६] ३४७-८, ૨૭૪ ૧૮ प्रसिद्धावयवं वाक्यं [ पत्रपरी० पृ० १]
६८४ २८ अहासे मन्यवाचि युष्मन्मन्यते- [जैनेन्द्र० २१।१५३ ] ६७९ प्रागगौरिति विज्ञानं [ भामहालं. ६।१९]
४३२ १५ प्रागुत्पत्तेः कारणाभावा- [न्यायसू० ५।१११२]
६५५ २५ प्राग्धोस्ते [जैनेन्द्र० १।२।१४८]
६८७ २५ प्राज्ञोपि हि नरः सूक्ष्मानर्था- [ तत्त्वसं० पृ. ८२५ पूर्वपक्षे] २५२ ६ प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा [ वाक्यप० टी० १११४४] ४२ ३ प्रामाण्यं व्यवहारेण [प्रमाणवा० ३१५]
२१७-८, ३८३ १४ बाधकप्रत्ययस्तावदर्था- [तत्त्वसं० पृ० ७५९ पूर्वपक्षे] १७४ १४ बाधकान्तरमुत्पनं [ तत्त्वसं० पृ. ७६० पूर्वपक्षे]
१७५ १ बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्तयते [ ] १००-१०, ३२७ २३ बुद्धादयो ह्यवेदज्ञाः [ तत्त्वसं० पृ. ८४० पूर्वपक्षे]
२५० २३
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अवतरणसूचिः
अवतरणम्
बुद्धितत्रत्वमन्दत्वे [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१९] बुद्धिरेव तदाकारा [ प्रमाणवार्तिकालं० प्रथमपरि० बोधाद् बोधरूपता [ भावान्तरविनिर्मुक्तो [
1
२७१५
पृष्टं पङ्किः
१४
४१४
२१८
३४३ २३
१६०
१२
૪૨૨ ९
१४
९
]
भावान्तरात्मकोsभावो [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० २ ] भावाभावयोस्तद्वत्ता [ न्यायवा० पृ० ६ ]
भावे भाविनि तद्भावो [ सम्बन्धपरी० ] भिन्ने का घटनाऽभिन्ने [ सम्बन्धपरी० ]
भिन्ने चैकत्वनित्यत्वे [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २७२] भुवनहेतवः प्रधान परमाण्व- [ न्यायवा० पृ० ४५७ ] मेदानां परिणामात्समन्वया- [ सांख्यका० १५] मणिवत्पाचकवद्वोपाधि- [ प्रश० भा० पृ० ६४] मन्दप्रकाशिते मन्दा [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २२०] महत्यनेकद्रव्यत्वाद्रूप - [ वैशे० सू० ४|१|६ ] महाभूतादि व्यक्तं [ न्यायवा० पृ० ४६७ ] मिथ्याध्यारोपहानार्थं [ प्रमाणवा० २।१९२] मूर्तेष्वेव द्रव्येषु [ प्रश० भा० पृ० ६६ ] मूलप्रकृति र विकृतिर्म - [ सांख्यका० ३] मेयो यद्वदभावो हि [ मी० श्लो० अभाव० ४५] मृत्पिण्डदण्डचक्रादि [ तत्त्वसं० पृ० ७५७ पूर्वपक्षे ] मृत्योः स मृत्युमाप्नोति [ बृहदा० उ० ४|४|१९, कठ० ४।१० ] यज्जातीयैः प्रमाणैस्तु [ मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० ११३] यत्र धूमोस्ति तत्राग्निरस्ति [ मी० हो० शब्दपरि० श्लो० ८६] १८४ २१ यत्रापि त्वपवादस्य [ तत्त्वसं० पृ० ७५९ पूर्वपक्षे ] यत्राप्यतिशयो दृष्टः स [ मी० श्लो० चोदनासू० श्रो० ११४] २५२ १ यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य
१०
२४
३
२५१ ८
१७४
१६
३५-१५, ४९२
१२
] यथा महत्यां खातायां [ मी० लो० शब्दनि० श्लो० २१७] यथा विशुद्धमाकाशं [ बृहदा० भा० वा० ३।५।४३ ] यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्म - [ भगवद्गी० ४।३७] यथैव प्रथमज्ञानं [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ७६ ] यथैवोत्पद्यमानोऽयं [ मी० श्लो० शब्दनिश्वो० ८४-८५] यथोक्तोपपन्नश्छलजाति - [ न्यायसू० १/२/२ ] यदा चाऽशब्दवाच्यत्वान्न [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ९५] यदा स्वतः प्रमाणत्वं [ मी० टी० सू० २ छो० ५२]
५१०
५१०
२७०-५, ५४०
४११
२७०
११
२८८ १३
५६६
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૪૧૪ १६
१७
२१
S २६९ २० ३२१
१२
५६८ १३
२८९ २४
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१५३
६५
४१७ १५
૪૪ १९
३
३०९
१५५
४२० १७
६४७ १३
४३९ ६
१७३ १०
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
२४९
१
५१०
३
५५७ १२
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः यदि गौरित्ययं शब्दः [भामहालं. ६।१७]
४३२ ११ यदि षड्भिः प्रमाणैः [ मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० १११] यद्यपि व्यापि चैकं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ६८] ४२४ ११ यद्यपेक्ष्य तयोरेकमन्यत्रा- [संबन्धपरी०] योकार्थाभिसम्बन्धात्कार्य- [ सम्बन्धपरी.]
५१० ५ यद्वानुवृत्तिव्यावृत्ति- [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० ९] १९० १२ यद्वेदाध्ययनं किञ्चित्तद- [ मी० श्लो० पृ० ९४९] यस्मात् प्रकरणचिन्ता स [न्यायसू० ११२।७]
३५७ ९ यस्य यत्र यदोद्भूतिर्जि- [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० १३]
१९१ १२ यावत् प्रयोजनेनास्य [ मी० श्लो० प्रति० सू० श्लो० २० ] युगपज् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो [ न्यायसू० १।१।१६]
१८ । युगान्तकालप्रतिसंहृता- [ शिशुपालव० १।२३ ]
६८८ १ युज्यते नाशिपक्षे च [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४१] ये तु मन्वादयः सिद्धाः [ तत्त्वसं० पृ० ८४० पूर्वपक्षे] २५१ १ येऽपि सातिशया दृष्टाः [तत्त्वसं० पृ० ८२५ पूर्वपक्षे] २५२ ४ योगोपाधी न तावेव [ सम्बन्धपरी.]
५१० १ यो यो गृहीतः सर्वस्मिन्देशे [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७१] ४०७ १ यो वेदांश्च प्रहिणोति [श्वेता० ६।१८]
३९२ १९ रजोजुषे जन्मनि सत्त्व- [ कादम्बरी पृ० १]
२९८ १७ रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्या [ वैशे० सू० १।१।६] रूपश्लेषो हि सम्बन्धो [ सम्बन्धपरी० ]
५०५ १२ 'लक्षणयुक्त बाधासम्भवे [प्रमाणवार्तिकालं. ]
५८२ ९ लष् कान्तौ [पा० धातु पा० भ्वा० ८८८]
६८८७ लिखितं साक्षिणो भुक्तिः [ याज्ञव० स्मृ० २।२२]
८ १८ लोयायासपएसे एकेके [ द्रव्यसं० गा० २२ (2)]
५६५ वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य [ ]
३९२ १५ वचनविघातोर्थविकल्पोपपत्त्या [न्यायसू० १।२।१०] ६४९ १४ वटे वटे वैश्रवणः [ ]
३९२ १४ वरिससयदिक्खियाए [ ]
३३० २४ 'वर्णक्रमनिर्देशवनिरर्थ- [न्या० सू० ५।२।८]
६६६ ११ वर्णान्तरजनौ तावत्तत्पदत्वं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१२] ४१६ १ वर्णोऽनवयवत्वात्तु [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१३ ] वस्तुत्वे सति चास्यैवं [मी० श्लो० उप० श्लो० ३४] ३४६ ३ वस्वऽसङ्करसिद्धिश्च [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० २] १९. १७
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________________
अवतरणसूचिः
७१७
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः वाग्रूपता चेदुत्कामेदवबोधस्य [ वाक्यप० १३१२५] वादिप्रतिवादिनोर्यत्र [ ]
३७४ १५ विकल्पोऽवस्तुनिर्भासः[ ]
३१ १७ विग्गहगइलावण्णा केवलिगो जीवाण्डगा० ६६५ श्रावकप्रज्ञ० रहा० ६८]
३०० २६ विज्ञातस्य परिषदा निरनि- [न्याय ५१२:१६ विदु लामे [पा० घातु पा०] विधूतकल्पनाजाल [प्रमाणवा० ३-२८१]
૩૪ ૧૨ विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्ति- [न्यायसू० १।२।३९] विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये [ ]
१७७ १६ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो [श्वेताश्वत० ३।३] २६४-२०, २६८ विषयस्यापि संस्कारे मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८३] ४२० १५ विषयेण हि बुद्धीनां [ मी० श्लो० आकृति० श्लो० ३७] ४७४ १० वेदाध्ययनं सर्व गुर्व- [मी० श्लो० अ० ७ श्लो० ३५५ ] ३९६ १९ वृक्षाद्यभिहतानां च [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १११] व्यक्तिजन्मन्यजाता चेदागता[ ] व्यक्तिनाशे न चेन्नष्टा[
४७४ ५ व्यक्तिनित्यत्वमापन्नं तथा [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २७३] ४११६ व्यकैर्जात्यादियोगेपि [ ]
४७४ व्यक्त्यल्पलमहत्त्वे [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१४] ४१६ २५ व्यङ्ग्यानां चैतदस्तीति [ मी० श्लो० शब्द नि० श्लो० २१५-२१६] ४१६ ३२ व्यञ्जकानां हि वायूनां [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ७९] ४२३ ५ व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमा- [लघी० का० १५ ] शक्तयः सर्वभावानां कार्या- [ मी० श्लो० शून्य० श्लो० २५४] शक्तस्य सूचकं हेतुवचो- [प्रमाणवा० ४।१७ ]
४४९ १० शङ्खः कदल्यां कदली च [ ] . शब्दं तावदनुच्चार्य [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २५६ ] ४१० शब्दः स्वसमानजातीय-[ ]
२३० २६ शब्दत्वं गमकं नात्र [ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ६४] १८४ . शब्दस्यागमनं तावददृष्टं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १०७] ४२६ शब्दादुदेति यज्ज्ञानमप्र- [ ] शब्दानित्यत्वोक्तौ नित्यत्व- [ न्यायसू० ५।११३५] शब्दाल्लिङ्गाद्वा विशेषप्रतिपत्तौ [ ]
२१७ ३ शब्दे दोषोद्भवस्तावद्व- [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६२] १७५-१२, ३९७ १५
५१३
१८३
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
m
.
१९०
४८३
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः शब्देनागम्यमानं च [मी० श्लो० अपो० श्लो० ९४] ४३८ १७ शब्दे वाचकसामर्थ्य ततो [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २३९] ४०६ २ शब्दे वाचकसामर्थ्यात्तनित्यत्व- [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ५६] १८८ १८ शब्दोत्पत्तेनिषिद्धवाद- [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १२६-१२७]४१८ २० शब्दो वर्तत इत्येव तत्र [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७२] ४०७ ३ शावलेयाच भिन्नत्वं [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ७७ ] शास्त्रस्य तु फले ज्ञाते [ ] शिरसोऽवयवा निम्ना [ मी० श्लो० अपो० श्लो० ४ ] शूद्रान्नाच्छूद्रसम्पर्काच्छू-[ ] श्रोता ततस्ततः शब्द- [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७५] ४०७ ११ श्रोत्रधीश्चाप्रमाणं [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ७७ ]
१७०७ षण्णामाश्रितत्वम् [प्रश० भा० पृ० १६] ६१६-१६, ६२१ २८ संख्या परिमाणानि पृथक्वं [वैशे० सू० ४।१।११] ५८९-११, ६०१ २१ संयोगजननेपीष्टौ ततः [सम्बन्धपरि०]
५१० २९ संयोगिसमवाय्यादिसर्वमे- [ सम्बन्धपरि०]
५१० २३ संवादस्याथ पूर्वेण [ ]
१५५ १० संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमिते- [प्रमाणवा० ३।१२४ ] स एवेति मवि पि [ मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० १८] स चेदगोनिवृत्यात्मा [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ८४]
४३६ ११ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म [ तैत्ति० २।१] सदृशलात्प्रतीतिश्चे- [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४८-४९] ४१० १२ स धर्मोऽभ्युपगन्तव्यो [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४०] ४०६ ६ सम्बद्धं वर्तमानश्च [ मी० श्लो. प्रत्यक्ष० श्लो० ८४] सम्बन्धज्ञानसिद्धिश्चेब्रुवं [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २४३] ४०६ १२ सम्भवतीर्थस्यातिसामान्य- [ न्यायसू० १।२।१३ ]
६५० ११ सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थ-[ न्यायवि० १११] सरागा अपि वीतरागवच्चे-[ ]
३२४ ३१ सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो-[ ]
२७०७ सर्व खल्विदं ब्रह्म [ मैन्यु.]
___४६-१७, ६४ १९ सर्वचित्तचैत्तानामात्म- [ न्यायबि० पृ० १९]
२९ ११ सर्वज्ञसदृशं कञ्चिद्यदि [ तत्त्वसं० पृ. ८३८ पूर्वपक्षे] २५० १९ सर्वज्ञोकतया वाक्यं [ तत्त्वसं० पृ० ८३२ पूर्वपक्षे] २५० १५ सर्वज्ञो दृश्यते तावनेदा- [ मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० ११७] २५० ४ सर्वज्ञो नावबुद्धश्च येनैव [ मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० १३६] २५४ २७.
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अवतरणसूचिः
अवतरणम्
पृष्ठं पतिः सर्वज्ञोऽयमिति ह्येतत्तत्काले- [मौ० श्लो० चोदनासू० १३४] २५४ २३ सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षा- [ तत्त्वसं० पृ० ८२० पूर्वपक्षे] २५३ ३ सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य [ मी० श्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० १२] सविशेषेण हेतुश्चत्त- [ मी० श्लो० शब्दानि० श्लो० १७७] ४०७ सर्वेप्यनियमा ह्यते [ ]
२१-३, ३८२ १८ सर्वे भावाः स्वभावेन [प्रमाणवा० ११४१7
४८० २२ सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः[ ] स वेत्ति विश्वं न हि तस्य [ श्वेताश्वत० ३।३]
२६४ २२ सा ते भवतु सुप्रतीता [ ] सादृश्यस्य च वस्तुलं [ मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० १८] १८५ १७ साधनं सिद्धिः तदङ्गं [वादन्या० पृ० ५]
६७१ २७ साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं [ न्यायसू० १।२।१८] साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य [न्यायभा० ५।१।१] ६५१ २० साधर्म्यवैधात्कर्षापकर्ष- [ न्यायसू० ५।१।१]
६५१ २३ साधर्म्यात्तुल्यधर्मोपपत्तेः [न्यायसू० ५।१।३३ ]
६५८ १६ साधर्म्यण हेतोवंचने [ वादन्या० पृ० ६५]
६७२ २७ साध्यदृष्टान्तयोर्धर्म- [न्यायसू० ५.१।४] साध्यधर्मप्रत्यनीकेन् [ न्याय० सू० ५:२।२] सान्तो विधिरनित्यः [ ]
૬૮૮ ૨ सामान्य घटयोरैन्द्रियकत्वे[ न्यायसू० ५।१।१४] सामान्य प्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्य-[ वैशे० सू० २।२।१७]
२३४ ५ सामान्यवच्च सादृश्यमेकै- [ मी० श्लो० उपमा० श्लो० ३५] सामान्य विशेषात्मा तदर्थः [परीक्षामु० ४-१] १७८-२०, ४४५ २ सामान्य विषयत्वं हि [ मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० ५५] १८३ सिद्धश्चागौरपोधेत गोनिषेध- [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० ८३] ४३६ सिद्धान्तमभ्युपेत्या- [न्या० सू० ५।२।२३]
६७१६ सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं [ मी० श्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० १७] सूर्यस्य देशभिन्नत्वं न [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १७६] ४०७ स्थानेषु विवृते वायौ [वाक्यप० टी० १।१४४] स्थिरवाय्वपनीत्या च [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ६२] ३१९ ३ स्याच्छब्दस्य हि संस्कारा- [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ५२] ४१९ खतः सर्वप्रमाणानां [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४७] १५३ १० खदेशमेव गृह्णाति [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८१] वपक्षसिद्धरेकस्य [ ]
६७१ १७
Raman Sins
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७२०
प्रमेयकसलमार्त्तण्डे
. अवतरणम्
स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात् [ न्यायसू० ५।२।२० ] स्वभावेप्यविनाभावो [ प्रमाणवा० ११४०] स्वरूपज्योतिरेवान्तः [ वाक्यप० टी० १।१४४ ] स्वरूपसत्त्वमात्रेण न [ मी० श्लो० अपोह० छो० ८७ ]
खसमवेतानन्तरज्ञानवेद्य- [
1
स्वान्तभासितभूत्याद्यभ्य - [
पृष्ठं पङ्किः
६७०
३५०
४२
४३८ ६
१८३ ३
1
६८५
१७
६६८ १६
हसत हसत [ वादन्या० पृ० १११ ]
२६४ २३
६७०-१६; ६७४ २६
हिरण्यगर्भ [ ऋग्वेद अष्ट० ८ मं० १० सू० १२१] हिरण्यगर्भः समवर्तता [ ऋग्वेद अष्ट०८ मं० १० सू० १२१] ३९९ १८ हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन [ न्यायसू० ५।२।१२] हेतुमदनित्यमव्यापि [ सांख्यका० १०] हेतूदाहरणाधिकमधिकम् [ न्यायसू० ५ | २|१३] तोत्रिष्वपि रूपेषु [ प्रमाणवा० १११६ ] हेखाभासाश्च यथोक्ताः [ न्यायसू० ५/२/२४ ]
२८६ २२
६७० २३
३५४ १३
६७१
१०
.९
१०
S
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________________
३ परीक्षामुखगतानां लाक्षणिकशब्दानां सूचिः। अकिञ्चित्कर ६॥३५ पर्याय (विशेष)
४।८ अनुमान ३.१४ प्रत्यक्ष
२।३ अनैकान्तिक
६।३० प्रत्यभिज्ञान अन्वयदृष्टान्त રા૪૮ प्रत्यभिज्ञानाभास
६९ अपूर्वार्थ ११४,५ प्रमाण
११ अविनाभाव
प्रमाणाभास
६१२ असिद्ध (हेलाभास) ६॥२२ फलाभास आगम ३३९९ बालप्रयोगाभास
६.४६ आगमाभास
| मुख्य (प्रत्यक्ष) उपनय ३१५० योग्यता
३९ ऊर्ध्वता (सामान्य) ४।५ विरुद्ध (हेवाभास) ६।२९ ३।११ विषय
४११ क्रमभाव ३११८ विषयाभास
६।६१ तदाभास (प्रमाणाभास) ६।१
३१४ तदाभास (प्रत्यक्षाभास) દાદી व्यतिरेक
४॥९ तदाभास (परोक्षाभास )
व्यतिरेकदृष्टान्त तर्काभास ६१० सहभाव
३।१७ तिर्यक् (सामान्य) ४.४ साध्य
३।२० धर्मी
३।२७ संख्याभास निगमन
३३५१ सांव्यवहारिक पक्षाभास ६।१२ | स्मरणाभास
६८ परार्थ (अनुमान) ३३५५ | स्मृति
३३३ परोक्ष
३१ । हेतु
ऊह
वैशय
१ परिशिष्टेऽस्मिन् प्रथमोऽङ्कः अध्यायसंख्यां द्वितीयश्च सूत्रसंख्यां बोधयति ।
प्र० क० मा० ६१
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________________
४८१ १५ नैगम
२५
उत्क्षेपण
४ प्रमेयकमलमार्तण्डगतानां लाक्षणिक
शब्दानां सूचिः। अंगहारस्फोट ४५७ २० | नयाभास
६७६ १४ अतीत ४९१ १५ निश्चय
२७ १८ अनागत
६७६ २० अनुपक्रम २४४ २६ | नैगमाभास
६७७ १० अनेकान्तिक ६३७ १७ | पत्र
६०४१२१,२९ अध्यक्षल
५४६ १० पद अवक्षेपण
पदस्फोट
४५६ १० अहितपरिहार
४ पर्यायार्थिक ६७६ १७ आकुंचन ६०० २१ / परिशेष
६१३ ४ पश्यन्ती
४१ १६ १४ पादस्फोट
४५७ १८ ऋजुसूत्र ६७८ १६ प्रध्वंसाभाव
२१५ औपक्रमिकी २४४ २५ प्रमाण
२७ २० ९ १५ | प्रमाणसप्तभंगी ६८२ १० करणस्फोट ४५७ १९ प्रसारण
६०० २२ ९।१३; ११३।४; प्रागमाव
२१४ १६ २६७।२७, २७९।१ प्राप्ति
२५ १८ कर्तृत्व ५३६ १३ प्रामाण्य
१६३ १२ कर्मल
९ १४ बाधक कारक
११६ १३ बाध्य गमन
६०० २३ / भावनाज्ञान चिन्तामयी
२४६ २८ भावेन्द्रिय १५।२५,२२९।२८ जन्म ५३६ १५ भोक्तृल
५३६ १४ 'जाति ६५१ १८ | मध्यमा
४१ १५ जीवन
५३६ १५ मरण तदाभास (ऋजुसूत्र) ६७८ २२, मात्रिकास्फोट ४५७ १९ द्रव्यार्थिक
६७६ १६ मोक्ष द्रव्येन्द्रिय
२२९ २४ लब्धि १२२१५, २२९ २९ नय ६७६ १६ | वाक्य
४५८ ७ नयसप्तभंगी ६८२ १२ ) वाक्यस्फोट ४५६ ११
करणल
कर्तृता
१ परिशिष्टेष्वेषु प्रथमोऽङ्कः पृष्ठसंख्यां द्वितीयश्च पङ्क्तिसंख्यां सूचयति ।
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________________
लाक्षणिकशब्दसूचिः
७२३
विरोध विसंवाद वैखरी व्यञ्जक व्यवहार व्यवहाराभास शब्दनय
२२ ९ संशय ४७१२३४९।१०, ५२६१९; ६४२ १७
५३२१२८ ४१ १३ सप्तभंगी
समभिरूड ६८०६ ६७७ २६ समर्थन
३७६ १६ समवाविकारण समारोप
२७ १५ संवाद २४६ २५
सांव्यवहारिक २२९ १७ ५२६ १६ साधकतम
१४८ ६७७ १४ ६७७ २४ । हस्तस्फोट ४५७ १८
श्रुतमयी
संकर
संग्रह संग्रहाभास
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________________
५ प्रमेयकमलमार्तण्डनिर्दिष्टाः ग्रन्था ग्रन्थकृतश्च । अकलङ्कदेव ६।१४ | प्रमेन्दु
१४ अद्वैतादिप्रकरण ८०९ | प्रशस्तमति
२७०७ अविद्धकर्ण २६९।२४ भट्ट
२५।११,४७४।१८ उद्योतकर २७०।११; ४७६।९;
५२११२४ ६१४।१९; ६५९।२५, ६६४७ | भारतादि
३९६।२५ उपवर्ष ४६४।१४ भाष्य
४२९६ कादम्बर्यादि
भाष्य (न्याय) २३७।१५ कुमारिल १८७।१२, ४०८१६;
| भाष्यकार
१८७११२ ४७४।९। मन्वादि
४०१ जीवसिद्धिप्रघटक ७३।१ माणिक्यनन्दिन् १७; ६७४।४; जैमिनि २५१।२५, २६२१८
६९४।२,९ तत्त्वोपप्लववादिन् ६४८१२० रत्ननन्दिन
६९४११२ दिग्नाग ८०९, ४३६११६ रामायणादि
२५८२ द्विसन्धानादि
४०२।९ वार्तिककार २६९।१९; २८३।१९; धर्मकीर्ति
૭૮
६५२।१४; ६३४३ न्यायभाष्यकार ६५१।२०, ६५२।१; विद्यानन्द
१७६६ ६६३३२५ वेद
२६२२ पदार्थप्रवेशकग्रन्थ १३११९
वैद्यकादिशास्त्र
५९८१ पद्मनन्दिसैद्धान्त ६९४।११ परीक्षामुख
६०९।३ ३९३।१; ६९४७
वैशेषिकशास्त्र पाणिन्यादि
३९५ व्यास
२६८०२० प्रज्ञाकर
३८०१७ समन्तभद्र
१७६४ २०६४, ५६।२, ७;
४२९।६, ५८९।११ १२८१ सूत्रकार
६५१।२६ प्रभाचन्द्र ६९४।१२ । स्मृतिपुराणादि
३९२।२१
प्रभाकर
सूत्र
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________________
६ प्रमेयकमलमार्तण्डगताः केचिद्विशिष्टाः शब्दाः। अंगुल्यो हस्तियूथशतमास्ते १२८ ८ अन्नं वै प्राणाः ८१२ अंजनतिलकमन्त्रायस्का
अन्यापोह ४३१, ४४१।१० न्तादि
अपनृत्युरहित ३०६ २३ अकलङ्कार्थ . २१७; १७६॥३ अप्रमत्त
३०६ १३ अक्षर २९:१६; २६८।१५ अप्रामाण्य
१६३ १३ अक्षिपक्ष्मनिमेष ३०२ १३ अबाधितविषयल ३५८ २६ अग्निपाषाणादिशब्दश्रवण ४६ १५ अभावदोष अग्निप्रदीपगङ्गोदकादि ६२० ३ अमेदवादिन् अग्निहोत्रादि २६२ ९ | अमूल्यदानक्रयिन् ५४६ १३ अचेलसंयम
३३० १७ अयःशलाकाकल्प ५०४ २० अजाजिन
६६७ ४ अयस्कान्त अतीन्द्रियार्थवेदिन् ५८ २ अयोगोलकादिवानेः १०१ १ अत्यन्तोपकारकभृत्य ११२ ६ अर्थक्रियाकारिस्तम्भाधुपअद्वैत
लब्धि अद्वैतप्रतिपादकागम ७२ ११ अर्थतथालपरिच्छेदरूपाअधीतानभ्यस्तशास्त्रवत् ५९ १३ । शक्ति
१५३ ७ अनन्तपर्यायचेतनद्रव्य ७० १४ | अर्थप्रधाननय ६८० २७ अनन्तप्रमातृमालाप्रसक्तिः १७ ६ अर्थवाद
७० १७ अनन्तसुखवीर्य ३०६ २४ | अर्धजरतीयन्याय १०४।१६; १०५।४ अनन्तानुबन्धिक्रोधादि
अर्हत्प्रणीतागमाश्रयणप्रसंग २४८ १४ परमप्रकर्ष २४५ २५ अर्हदादि
३३१ ४ अनवस्था ५२६ २१ अर्हन्
२५६ ११ अन्तरंगग्रन्थ ३३२ २० अवग्रहेहावायधारणास्मृत्याअन्तरङ्गबहिरङ्गानन्तज्ञान
दिचित्रस्वभावता ३३६ २५ प्रातिहार्यादिश्री ७ १२ | अविद्या
६६ ११ अन्तराभवशरीर ३१४ ४ अशक्यविवेचनल अन्तरायविषये ३०६ ४, अशुभप्रकृति ३०३ २५ अन्तर्गडुना १४।१६, ३३।१० | अश्रुतकाव्यादि ४०२ ५ अन्तर्गडुना पीडाकारिणा ७१ १२ / अश्वविषाण
५०४ ५ अन्तर्व्याप्तिः
१९४ १६ | अष्टक अन्ध
२३ ६ असंयतसम्यग्दृष्ट्यादि २४५ २२ अन्धपरम्परा २१६ ४ असत्कार्यदर्शनसमाश्रयण १५३ १३ अन्धसर्पबिलप्रवेशन्याय ४६१।७; | असमवायिकारण ५३७ २८
५३०१७ | असातवेदनीयोदय
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________________
७२६
प्रमेयकमलमार्तण्डगताः
११२ १०
५५० १२
असाधारणानैकान्तिक ३५५ ५ / उपचार अहमहमिकया प्रतीयमान ७२ १७ | ऊर्णनाभ
६५।१; ७२ आकलङ्क
६ १० ऊहापोहविकल्पज्ञान ३५२ ८ आकर्षकाख्यायस्कान्त ५७५ २८ ऋद्धिविशेषहेतु आगम
६३१ २१ | एकं सन्धित्सोरन्यत् प्रच्यआगमप्रामाण्यवादिन् ७० १७ वते
६१६ १३ आचार्य २११०, ७३; १७७१८ | एकाकारता
३६७।२२ | एकान्तवादिन् ६३।२२; १४८९; आत्मश्रवणमननध्यान
५१६१ आत्माद्वैत ६४.१५, ७०१७ एकेन्द्रियाण्डजत्रिदशादि ३०० २४ ३१६ २ एवम्भूत
६८० १२ आदर्शादि
१०२ ११ औदारिकशरीरस्थिति आयुःकर्म
३०२ ९ औशनस
४५४ १५ आर्या
३३. २४ / कंसपाच्यादिध्वान आशुवृत्या योगपद्याभिमान १३९ १४ कठकलापादि ४८३ १ आसयोगकेबलिन् ३०० १८ कपिल आहार ३०० २१ करणकुशलादि
६३ १८ आहारकथा
३०६ १३ | करतलरेखादिक ३८१।१०; ३८२०२० आहारिन्
३०० २७ कर्कटिकादि २०२।१; ५०२।२५ इक्षुक्षीरादिमाधुर्यतारतम्य १७४ १३ कर्कादिव्यक्ति
४६९ २१ इन्द्रधनुष
४६८ १० कर्मकर्तृकरणक्रिया ८५ १९ इन्द्रियसंस्कार
४२४ ५ कवलाहार ५७३ १५ काकदन्तपरीक्षा
२१८ उत्कलितलमात्र १३१ ११ काकस्य कााद्धवलः उत्कृष्टध्यान
प्रासादः
२१७ २१ उत्तम्भकमणि १९८ ४ | काकैभक्षितम् २१४।११; २३९।१; उत्पतननिपतनव्यापार १३८ १९
५२९।२५ उत्पाद्यकथा
४७७ ११ | काचकामलादिदोषलक्षणविउदकाहरणशक्तिः १५३।१८; शिष्टचक्षुरादि १५० १३
६५९।२९; ६६४१७ | काचाभ्रकादिव्यवहितार्थ ३७ १ उन्मत्तकादिजनितोन्माद २४३ १० काण्वमाध्यन्दिनतैत्तिरीयाउपचरितोपचार
। दयः शखामेदाः ३९२ २१ उभयसंस्कार ४२४ ३० कात्यायनाद्यनुमानातिशय २५१ २४ उभयदोष
५२६ १४ | कापिल २८।१३, २८५।२५, ४२१६ उपयोग
२३० १ | कामलाद्युपहतचक्षुषः शुक्लेउपाध्यायज्ञान
३१४ ६ शंखे पीतज्ञानम् १०९ ९
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विशिष्टशब्दाः
७३ १३
काम्यनिषिद्धकर्म ३०९ २४ गृद्धवराहपिपीलिकादिप्रत्यक्ष कायाकारपरिणतभूत ११८ १४
२५१।२२, २५८३ कालप्रत्यासत्तिः ५०२ ८ . गृहस्थ
३३१ ५ कुण्डलादिषु सर्पवत् ५२२ २ गोत्रस्खलन
४४९ २० कुरुक्षेत्रलंकाकाश ५६५ ३ : गोमयादि
११८ ९ कुल्याजल
५५१ २३ गोमांस कुष्टिनीस्त्रीवत् ३१६ ८ गोलकामाश्रय
२२२ ९ कुसूल
२८३ ३ घटनामारामादि कूर्मरोमादि
७५ १० घटाद्यवच्छेदकभेद ६७ २ कृतनाशाकृताभ्यागमदोष ५२१ १८ घातिकर्मचतुष्टय २५९ ६ कृत्तिकोदय ३२९।६६५४।१७ / वृतादिना च पादयोः कृषीवलादि १६७ १४ संस्कारे
२२२ १० केवलिन् २९९।३०, ३०१।१४ चतुरङ्गवाद
६४५ १३ केशोण्डुकज्ञान २३३१८, २४०१९ / चन्द्रकान्त ६५।१; ५४७।१९ केशोण्डुकादिकादि ६३ ७ चन्द्रार्कादिविषय कैटभद्विष् ६८८ २ चाण्डालादि
४८६ १९ कौपीन ६६१११६, ६६९।२४ चावाक
१८० १ क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादि ४८६ ७ चार्वाकमत ५७१।१; ५७९।१४ क्षणक्षयवर्गप्रापणशक्ति ५०३ ९ चित्रकूट
२१३ १५ क्षत्रियविटूशूद ४८७ १० चित्रज्ञान
९२ ३ २६८ १५ | चित्रपट्यादिज्ञान ६९ १४ क्षायिक .
२४५ २७ चित्रसंवेदन ५१४।२२, ५१६१५, क्षायोपशमिक २४५ २६
५२०१२२ खररटित २८ ११ चित्राद्वैत
९५ ३ खरविषाण ६१७ चित्रैकज्ञान
५४६ १८ खरशृंग ५०५ १७ चोदना
२५३ २० खात्पतिता नो रत्नदृष्टिः ६९० ३० | चोदनाजनिताबुद्धि १७५ २१ खे पुष्पसंसर्ग ५४ २ | जपापुष्पसन्निधानोपनीतगजस्नान
१६६ ६ स्फटिकरक्तिमा १०१ ११ गण्डक
३४७ २० जलनिमममहाकायगजादि ५४० २१ गतसर्पस्य वृष्टिकुट्टनन्याय ६३६; जलादेर्मुक्ताफलादिपरिणाम २३० ६
७६।१२ जाततैमिरिक १५९ १८ गर्दभाश्वप्रभवापत्य ४८३ २१ | जाततैमिरिकप्रतिभासविषय ५७ ६ गिरितरुपुरलतादि ४३.८ जिन
३०५ १८ गुणव्यतिरिक्त गुणी १६८ १३ जिनपतिमत
२९२ ९ गुरु
६३४ ६ जिनपतिमतानुसारिन् ३७७ ५
क्षर
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--------------------------------------------------------------------------
________________
७२८
प्रमेयकमलमार्तण्डगता
४९७ ३
जैन ११:३; ९३।६, ३७०१३; | दूरे पर्वतः निकटो मदीयो ___४२६।१७,२०, ४८६।६; ६८५।६ बाहुः
१०३ १४ जैनमत १४५।६, ४५९।२२; ४६५।९ देवमनुष्य ज्ञानाग्नि ३०९ ४ देशप्रत्यासत्तिः
५०२ ४ ज्ञानाद्वयादि ६१७ २८ | देशसंयमिन्
३३० १८ तत्त्वचतुष्टय
१११ ४ देवरक्ता हि किंशुका केन रज्यन्ते तद्धितोत्पत्ति
५२५ २३ तन्त्राद्युपयोगजनितविशिष्टा
दोष भिरति
२४२ ११/द्विचन्द्रादि तपोदानादिव्यवहार ४८६ ६ द्विचन्द्रादिप्रत्यक्ष २८१५; ३०१।१७ तिमिर
द्विचन्द्रादिवेदन ५८।११; ६२।१०; तिमिराद्युपहतचक्षुष ३७ १७
७९, १०२३ तिमिरोपप्लुत
४४ १९
द्वैतिन् तिर्यग्गृहस्थादिसंयम
धत्तरकाधुपयोगिन्
२४२ २७ तुरङ्गमोत्तमाझे शृङ्गम्
धनुःशाखाराङ्गदन्तादि ५८८ २२ धर्माधर्मद्रव्य
६२३ १७ तुलान्त
१६९ तृविच्छेदादि
४ धूपदहनादिभाजन ५३४ ८
२७७ ४ तमिरिकप्रतिभास ७८
धूमघटिका १
ध्यामलितवृक्षादिवेदन २२० १ तैमिरिकस्य द्विचन्द्रदर्शन
नखकेशवृद्ध्यादि ३०२ १३
___ ९३।१२ तोयशीतस्पर्शव्यञ्जकवाय्व
नड्वलोदकं पादरोगः ८ १६ नपुंसक
३३३ २८ वयविवत् २३० १७
नदीद्वीपदेशखर्गापवर्गादि ४४८ १९ त्रयीमय
२९८ १९ त्रिगुणात्मन्
२९८ १९
नरशिरःकपालं ६३१ २४ त्रिचतुरपिच्छग्रहण
नर्तकीक्षण
६२३ २९ नर्मदानीर
५५१ २३ त्रैरूप्य दण्डकवाटप्रतरादि ३०३ २९
नागकर्णिकाविमर्दककरतलवत्
२३० ९ दधित्रपुसादयः
नागवल्लीपत्र
૪૮૪ ૬ दशदाडिमादि ४५०।११; ६६७४ । नाटकादिघोषणा।
६७३ २ दिवोलूकादिवेदन २१८ २१
नारकादिदुःखितप्राणि दिव्यपरमाणु ३०२ ११ नारिकेलद्वीप
५१८ १ दीर्घशष्कुलीभक्षण १८१६; २८१६; निग्रहस्थान
१२६।१८ नित्यनिरंशव्यापिन् __७२ ९ दीर्घखापवान् १०४ १ नित्यनैमित्तिक कर्म ३०९ २३ दुग्धादि ६३२ ३ निन्दावाद
७२ ५
३३२ १४
३५४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५६ १७
विशिष्टशब्दाः
७२९ निमन्त्रणे आकारणवत् ६२५ १२ | पृथिव्यादिभूतचतुष्टय ११७ १ निराश्रवचित्त ५०१ २४ पौराणिक
३९२ १७ निरुपाख्य २०५ १५ प्रकरणसम
३५७ निर्जीविकादिचक्षुष् २५८ २४ प्रक्षालिताशुचिमोदकपरिनिम्बकीटोष्ट्रादि
। त्यागन्याय २८१ २४ नीलकुवलयसूक्ष्मांश ९७ ६ प्रक्रियोद्धोषण नीलोत्पलादि १६५ १२ प्रतिकर्मव्यवस्था ८६ २० नृपत्यादेरतिभोगिनः ३१९ २२ प्रतिवन्धकमणि १९८ ६ नैयायिकमत ३४७ १ प्रतीतिभूधरशिखरारूढग्रामानैयायिकादि
९२ १२ रामादिप्रतिभास ९७ १४ नैयायिकाभ्युपगतषोडशप
प्रदीप
१३५ ७ दार्थ
६२३ ७ प्रधान नैयायिकस्यानैयायिकता ६६३ ५ प्रभाकरमत न्यायवेदिन
प्रमत्तगुणस्थान ३०० ४ पथिकानि ११८ १३ प्रमाणसम्प्लव
६७० २४ पद्मनालतन्तु
५८६ १६ प्रमाणसम्प्लववादिता ५९ ४ परघातकर्म
३०३ प्रमाणान्तरवादिन् १८३ ६ परमचारित्रपद ३०५ २८ प्रमेयद्वैविध्य
१८० १४ परमनैर्ग्रन्थ्य ३३२ १७ प्ररोह परमौदारिकशरीरस्थिति ३०१ ७ प्रश्नमत्रादिसंस्कृतचक्षुष् २५८ २३ परशुराम
४८६ ८ प्रसङ्गाविपर्यय २५२ १९ परस्परपरिहारस्थिति ५३३ २१ प्रसङ्गसाधन
५४४ १४ परीषह
३०६ २६ प्राणिभक्षणलाम्पट्य ७२ ३ पललपिण्ड ६६७ ४ | प्रातिभज्ञान
२५८ ११ पशु
प्रामाण्य
१६३ पाटलादिकुसुम ५६८ ८ प्राश्निक
६४९।४, ६६० पाटलिपुत्र २१३ १५ फणिनकुलयोरिव
५३४॥४ पारदारिकवद्दीनवद्वा ३०७ १२ बड़वा
४८३ २१ पारिमाण्डल्य
५८७ १९ बदरामलकवत् ५२५ २१ पिच्छौषधादि ३३२ १३ बधिर
४३ १७ पिण्डखजूर
१८४ १४ | बलवत्पुरुषप्रेरितमुद्गराधभिपितापुत्रवत् ५२५ २१ घात
२१५ २६ पिशाचादि
बध्यघातक
५३३ २२ पिष्टोदकगुणधातक्यादि ११५।१४; बहलतमःपटलपटावगुण्ठित
११४१२ | विग्रह ११२।८ ११९:१९ पुंवेद
३३८ २२ | बहिरङ्गग्रन्थ ३३२ २०
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________________
७३०
प्रमेयकमलमार्तण्डगता
बाधककारणदोषज्ञान १५६ १४ | मदशक्तिवत् ११५११४. ११ बाह बलि प्रभृति ३०२ ८ | मनुष्यपारावतवलीवः । २२५१८ बीजाङ्कुरवत्
४४२ ६ | मनोज्ञानादिविषयोपनीताबीजाङ्कुरसन्तान २४५ १५ __त्मसुखादि
१०१ १२ बीजाङ्करादि
२८३ १३
| मनोराज्यादिविकल्प ३३॥३; बुद्ध २४८३१८, २५६।१५;
३५।१८ ३५४।२३ | मन्त्रादिसंस्कृतलोचन २६१ १६ बुद्धचित्त ५०२ १ मन्याखेट
५७९ ७ बुद्धतरचित्त
५०१ २३ | मरीचिचक्र ४८।२०; ७६९ बौद्ध । १८।२६; १०३।९; महती प्रासादमाला ५९२ ८
६३०१ | महर्षि ब्रह्म ४५११; ४६।१८, ६४।१९; महेश्वर ७१४; १८३१४; १३३।१३;
६५।६, ६७९ १४१।१२, १४२१५, १४४।१०; ब्रह्मकर्तृकवेद' ३९२ १७ १४६।१०; २८२, २८३, २९८; ब्रह्मन ४०१ २७
३१९।२; ६१३ ब्रह्मवाद
९५ १२ / महेश्वरज्ञान १३२।५; १३४; १३८ ब्रह्म च्या स विश्वा मित्र ४८४ १ महेश्वरवुद्धिवत् २७४ ११ ब्रह्मादिपिशाचान्त २८४ १८
माणवके सिंहाद्युपचार ७० ५ ब्रह्माद्यद्वैत
४८३ ११
माता मे वन्ध्या २०६ १९ ब्रह्माद्वैतप्रघट्टक
मातुलिङ्गद्रव्य
५३४ १ ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था ४८७ २६
मातृविवाहोपदेश
२ १९ भानु . १३५ ५ माध्यमिक
९७ ३ भानुना तारानिकरस्याभिभवः २९ ४
माया
६६ १८ भावनानियोगाद्यर्थ १६५ १४
मायापरमप्रकर्ष
३२९ २१ भावप्रत्यासत्ति ५०२ १३
माषपाक
३३३ ८ भावश्रुतज्ञान
४५६ ११ भिक्षाशुद्धि
३०५ १९
मिथ्यात्वकर्मोदय ४८८ भित्ताविव चित्रम् १५३ ४
मिथ्यालाराधना ३३० १६ भुजगरक्षोयक्षप्रभृति २८४ २१
| मिथ्यादृष्टि
२४५ २५ भूतसंघात ६३४ २० मीमांसक
३९३ २८ भैषज्यमातुरेच्छानुवति ६८० ४
मीमांसकमत १३८।४; १४३१५ भ्रामकाख्यायस्कान्त ५७५ २६ / मीमांसकमतानुषा १०३।७,३०११२७ मणिप्रभायां मणिबुद्धिः १७० १५ मुक्तात्मवत्
२७७ १४ मणिमुक्ताफलप्रवाल ५७४ २१ मुकाफल
५४७ १९ भतिज्ञान ३०४ १० मूलकीलोदक
२४२ २ मत्स्यादि
३०५ २० | मृच्छकले काञ्चनज्ञान २४२ २७
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________________
विशिष्टशब्दाः
७३१
३४।१२, ४५ |
६५९ २०
मृत्पिण्डदण्डचक्रादि १५३ २४ | लूनपुनर्जातनखकेशादि ३४२२२४; मेचकज्ञान ५२९ २३ /
४९८१९; ५५४।१५ मेचकज्ञानवत् सामान्य विशे- लोकपालगृहीतदिप्रदेश ५६८ २८ षवच्च १४ लौकायतिक
६४२ २२ मेण्ठ
वर्णाश्रमव्यवस्था मेध्या आपः
२६९ ४ वर्तिकादाहतैलशोषादि २०१।२; मेर्वादि २४२ १
५०३११ मोहनीयकर्म ३०३ ३ वन्ध्यासुताधीन ९५ १७ यज्ञानुष्ठानागम ३३०१२; ३३१११६ | वन्ध्यासुतसौभाग्यव्यावर्णनयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षित ४८६ ७ प्रख्य
५६१ १५ यथाख्यातसंयम ३०६ २१ | वलातैलादि
४२४ १६ युगपद्वृत्ति २८ ७ वर्ध मा न जि न
१७६ ७ योगिन्
वल्मीकि
२७५ ३ यौग १८।२६,६४३।२४,६५१।१४; वशीकरणौषध ५८० २२
६८६।२२ वसन्तसमय
५६८ ८ योगकल्पित
वाद
६४५ २२ रजःसम्पर्ककलुषोदक ६६ २०
वालाग्रमपि खण्डयितुं
शक्यते २९८ १८
४८ रजोजुष्
१ रजोनीहाराधन्तरिततरुनि
वासीकतर्यादि १४० ३ विग्रहगति
३०० २६ रज्जुवंशदण्डादि
विज्ञप्तिमात्र
७७ ७
विनाशोत्पादप्रक्रियोद्धोषण ५०० ४ रत्नत्रयाराधन
३३२ १९
विरुद्धधर्माध्यास ५३० १ रत्नादिपदार्थ ६३५ १९
विरोध
५२६ १० रावण
३८० १२ रावण शंख च क व या दि
विशेषतोदृष्टानुमान ३५० १७
विषं विषान्तरं शमयति ६६ २२ १८४।१६, ६७९१६ रा व णा दि
२४२ १
विषयापहारश्च राज्ञां धर्मः ७५ २० विषागदवत्
५२५ २० रूपश्लेष .
विषापहारादि
६३२ ४ लकुटचपेटादि ६४८ १४
विष्टिकर्मकरादिवत् २७९ १९ लघुवृत्ति
२८ १२
वीचीतरङ्गन्याय ४२६।२२, लाभान्तराय ३०२।११; ३०६।१८
५५८३ लालावत्
२३० १२ | वीणादिरूपविशेष १७० ६ लावकादिपलादिक ३३१ २६ | वृक्षशाखाभंग २७२ १२ लिङ्गाप्तोत्यक्षबुद्धिवत् १५८ ४ वृक्षो न्यग्रोध इति ५९ ७ लुञ्चनादिक्रिया ३३१ १२ | वृक्षो हस्ती पलालकूटादिर्वा २२० ५
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________________
प्रमेयकमलमार्तण्डगताः
११८
शूद्र
६१२।११
। १
"
९७
वृश्चिकादि
४८५ ३ वृषलादि
४८४ १६ शृङ्गोत्थशरादि ४९३ १३ वेद्य (वेदनीयकर्म)
श्री व ई मा न
६२८ ४ वेश्यापाटक ४८६ १६ श्रेणि
३०६ १५ वैद्योपदेश ३१९ २२ श्रोत्रिय
२६० २७ वैधवेय
६४९ १९ षडपूपाः
६६७ ४ वैनतेयप्रत्यक्ष २५८ २
षोढासम्बन्धवादिल वैयधिकरण्य ५२६ १२
६२११२२ वैयाकरण
संकेतस्मरणविवक्षाप्रयत्न व्यक्त
९९ १२
___ ताल्वदिपरिस्पन्दक्रमेणोव्यतिकर
५२६ १९ पजायमानशब्द
६९ १६ व्यभिचार
६३७ १९
संविन्निष्ठत्वाद्भावव्यवस्थितेः १६ १६ व्याधलुब्धकप्रभृति ३०५ २०
संसर्गविशेषवशाद्विपलब्धः १०० १६ व्योमोत्पल
६१९ २ सकलव्याप्ति
३६५ ९ व्रतबन्धवेदाध्ययनादि
सकलशून्यता व्रात्य
६५० १५
सकलशून्यवादिन् ६५१ १४ शंखः कदल्याम् ६६७ ११
सङ्करव्यतिकरौ ५३६ ५ शंख च क व ति
३८०१ सचेलसंयम
३३० १३ शकटोदय
६५४ १७ शकटोदयाद्यर्थ
सत्ताद्वैतवादिन् ६४३ २३ स सभा मा
४५९ १ शकादि
२८४ २६ शत्रुमित्रध्वंस
४९५ १३
सत्येतरव्यवस्थासंकर शब्दप्रधाननय
६८० २८ सन्तानान्तर
८० ५ शब्दब्रह्म ३९, ४४, ४५, ४६
सन्निकर्षप्रमाणवादिन् १७ ११ शब्दसंस्कार
४१९ ६ | सप्तमनरकभूमि २४५ २३ शब्दाद्वैत
३१६ १ सप्तमपृथिवी ३२८1१६, ३३४१३ शब्दाद्वैतवादिन्
सप्रतिघादिरूपता ८६ १३ शब्दानुविद्धख
४६ १९ / समानकालयावद्रव्यभावि- १३३ ४ शरभ
३४७ २१ | समुदितेतरगुडूच्यादि ४६९ १ शलाका २२२ १४ सम्बन्ध
५१४ २२ शशशृंगादि
७३ ११ सम्यग्दर्शनाद्यन्तरङ्गसामग्री २४१ ८ शास्त्रकार
३७३ २२ सम्यग्दर्शनाराधक ३३३ २० शुकशारिकोन्मत्तादि ४५० १५ | सर्पस्य कुण्डलेतरावस्था ५३७ ३ शुक्लध्यान
३०३ ९ | सर्वज्वरहरतक्षक चूडारत्नाशुक्लशंखे पीतज्ञान १३९ २२ लङ्कारोपदेश
२२० शुभप्रकृति
३०३ २२ | सर्वज्ञ .
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________________
विशिष्टशब्दाः
४२९
६
स्रष्टा
सिंह
सविकल्पकप्रत्यक्षवादिन् ३४ १९ । सौगतसांख्य यौगप्राभाकरसव्येतरगोविषाण २१४।१७, ५०१। जैमिनीयानाम् ६४३ ६
१०, ५०६।२४ सौगतादि ३९३।२७९६४३११ सहस्रकिरण १३८ ५ सौगती गति
९६ १ सहानवस्थान
५३३ २१ | स्त्रीवेद सहोपलम्भनियम ७९।२,८०।१४ स्थावरादि
२६७ १४ सांख्य
१९ ३ स्थितिकल्प सांख्यदर्शन
५७६ १६ / स्नानपानावगाहन ७५ २० सांख्यादि
६४२ ११ | स्पष्टज्ञानावरणवीर्यान्तरायसांसारिकलब्धि
३३० ६ क्षयोपशम २१८ १७ साकारवादप्रतिक्षेप ८६ २० स्फटिकादि
२२८ ५ साधननिर्भासिज्ञान १५५ १५
स्याद्वादिन्
३६७ २२ सानुतन्त्र सार्वभौमनरपति २८४ २०
खपरप्रकाश
१४७ १२ ३४७ २१
स्वप्नावस्था सिद्ध
३७० २७ स्वर्गपटल
२१९ ११ सिद्धि
वर्गादि
२३० १८ सुगत ८०1७, ९५; २३५।२५,
स्वर्गापूर्वदेवतादि १७९ १९ २३६।४, २४७१७
खवधाय कृत्योत्थापन ६९२ २३ सुगतज्ञान
२६७, ९५।९
खशिरस्ताडं पूत्कुर्वतः ५४३ ६ सुगतसत्ताकाल ९५।१३, ९६२
खसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि सुतीक्ष्णोऽपि खड्गः १३६ १५ सुशिक्षितोऽपि वा नटवटुः १३६ १६
दोषाभावात् ६६६।६, ३७३३३ १३९ १३
खापमदमूर्छाद्यवस्था २८० सूच्या
३ सूर्याचन्द्रमसौ
६८८ ९ ।
हर्षविषादाद्यनेकाकारसंविद्रूप १०० १२
हस्तपादकारणमात्रिकाङ्गसेश्वरसांख्य
४५७ १६ सौगत ७७।१२,९०।९,१८०।१२; |
| हस्तिप्रतिहस्तिन्याय ६४७ १९ ३८२।१,६४३,६७२।४,६८७ | हिमवद्विन्ध्यादि ५६२।९; ५९४११९ सौगतमत
५२४ २१ हिरण्यगर्भ ३९३।२०; ३९८।१८ सौगतवज्जैनैरिष्टं १७८ ११ | ह्रीशीतादिनिवृत्त्यर्थ : ३३१ २३
सृष्टि
२९७ १७
हारादिस्फोट
प्र० क० मा० ६२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
في م
ة
م
م
م
م م
..७ आरानगरस्थ-श्रीजैनसिद्धान्तभवनसत्काया:
प्रतेः पाठान्तराणि। पृ० पं० मुद्रितपाठः
पाठान्तरम् सुधियः
'सततम् विस्फुरिताद्ग
विस्फुरितर्गतदपहृति
तदपकृतिप्रयोजनवत्त्वव्यु
प्रयोजनव्यु•मक्षुण्ण
मक्षण-शास्त्रार्थसं
-शास्त्रसंअसम्बद्ध
असम्बन्धज्ञापक
ज्ञायक-हृतं तदेव
-हृतं सिद्धं तदेव •व्युत्पादनार्थ
-व्युत्पत्त्यर्थ-खाभिधानक
-खाभिधानं चेत्स
-चेत्तत्स१० १९ दृष्टस्य पृथि
दृष्टपृथिनित्यखभा
नित्यैकखभा११ .
चाभि-अॅपलब्धि
-र्थेऽपिलब्धि-दिना (संयुक्तसमवायः -दिना संयुक्तसमवायः __ रूपखादिना) सं.
रूपत्वादिना सं१४ ७ वाभाव
चाभाव१५२१ यस्तस्य तत्र
' -यस्तत्र तस्य कुठार (काष्ठ) च्छे
काष्ठच्छे
م
م
م
م
१० २०
बाभि
ه
»
वा
१६ १८ .१८ १ १८ ३ १८ २३ १९ १३ २० ६ २० १० २१ १५ २१ १९
भावे तद-णास्य योगजधर्मसह-करणं (योगजधर्मानु ) गृहीतं । गृह्यते -रभिव्यज्येत् -देव प्रसिद्धः बाह्येन्द्रियजमिन्द्रियाणां तदनन्तरप्रचास्य
भावे वा तद-णास्य सह-करणं योगजधर्मानुगृहीत गृह्येत -रभिव्यज्यते -देव प्रमाणवप्रसिद्धः वाह्येन्द्रियाणां तदनन्तरं प्रवास्य
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--------------------------------------------------------------------------
________________
. पाठान्तराणि
पृ० पं० १२ ९ २३ १२ २३ २० २४ १६
२८ २८ २८
३ ५ ७
पाठान्तरम् हि एको चापार्थक्रिया स्प-शक्तिवत्त्वेन योगि तद्वि-ला चारूपादे-षणखमलाह्यत्रान्य-स्वरूपं परितदिव -ताकृत्साह-षयत्वमध्ये अन्यविकल्पकधर्माचाव•कलं स्व-थ्यो विरोअन्योपपा- . सविकल्पकप्रभवात्ततो •खाद्रूपाधुमीयते
३० २३ ३२ १३
मुद्रितपाठः -हि को (एको) वापार्थक्रिया परिस्प-शक्तिकत्वेन -योगि(ख)तद्वि-ला तूपादे •षणमस्माह्यन्यत्रान्य-स्वरूपं वै ( पमवैशयं )परितदिति -ता साह•षयवम् अन्यविकल्पधाचात्राव-कवं घटते ख-र्थ्यानि(वि)रोअन्योत्पासविकला(ल्प)क. प्रभवत्त (वात् त) तो -खाद्रूपादिवत् । रूपाद्युभीयेत शब्दप्रभवत्वात् (ग्राह्यार्थं विना
तन्मात्रप्रभवत्वाद्वा) गकाचाम्रका -सतस्तद्भेद-पत्तिप्रवृत्तिशब्दाध्य-क्षस्यार्थातत्स्पर्श-वेशोऽसौ ताप्रतिपन्नाः लोचनाध्यघटते ब्रह्मणि
३४ १० ३४ १९ ३५ १७ ३६ ४
३६ १७
३७ १ ३७ ११ ३७ १५
م م ر . م
शब्दप्रभवलाद्वा गकाचान्यका -सतस्ततस्तद्धेद-पत्तिवृत्तिशान्दाध्य-क्षार्थातत्संस्पर्शदेशोऽसौ . -तापन्नाः लोचनाद्यध्यघटेत
२
४० ८ ४० १५ ४१ १३ ४४ १३ ४४ १६
-ब्रह्मणा
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
पृ०
पं०
४६ १
४७ १४
४८
४
६२ १
भो
मेदानु
६३ २२
६
६६ २२ ६६ २४
मुद्रितपाठः
पाठान्तरम् । द्वैतप्र
द्वैतसिद्धिप्र : -रेवसं
-रेव स सं.. प्रश्नहेतुक
प्रश्ने हेतुक. -वाभिप्रे
चाभिप्रे- . अबहिष्ठाऽस्थि
अबहिरस्थिसत्त्वेनासत्त्वेनान्येन
सत्त्वेनान्येन खे खपुष्प
खखपुष्पसामान्यमात्र
सामान्यभावप्रविषये सह
विषयेषु सहसर्वस्यास्वत्प्र.
सर्वस्याः स्मृतेखत्प्रभेदे अनुनचानेकान्त
नचैकान्तमेदानुप
तदनुपचासत्य
वासत्य. खच्छां
खस्था मेदे समु.
भेदसमुभेदात्तयव
मेदाधवन्य पक्षोप्य
न्य विकल्पोप्यतथा तद्व्यक्ति
तथा व्यक्ति साच्छब्दे(ब्दो)स्त्रीत्यभ्यु. -साच्छब्दोत्पत्त्यभ्युचाररूपं कल्प
-चाररूपकल्पमुख्यं भेदा
मुख्यभेदाअसिद्धिः
असिद्धः प्रवर्तते
प्रवर्तेत परदुःखं
परत्र दुःखं . -न्ति पर
-न्ति तेषां परप्रवृत्तेः
प्रवृत्ती कथन्नाद्वैत.
कथं द्वैततस्याबाध्यमानत्वात्
तस्याबाधात् -सत्यमभ्यु
-सत्यमित्यभ्युयद्याद्यः पक्षस्त
यद्यायः खपक्षस्त. अनुपलब्धि
उपलब्धिसाकारो वा (भिन्नकालः समकालोवा)नी
साकारो वा भिन्नकालः समकालो वा नी-.
६७ १३
७०
७१ १४ ७१ १४ ७१ १५ ७२ ११ ७५ १३
७५ १७
७७ १० ७८ १३ ८३ १४
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________________
पाठान्तराणि
पृ०
पं०
९१ १३
९२ २१
मुद्रितपाठः सप्रतिघादि•स्याध्यक्षेणसिजडस्यापि परव्याप्तौ तौ प्रतिप्रसिद्धयतः स्वतः प्र. व्यापिल-व्यापिलं ज्ञानखभावताविनिवर्तनआकाराधायक•दुत्तरार्थक्षणखात्मनोऽर्थापुनस्तल्लक्षणं
१०१ १३ १०३ १६ १०४ ५ १०४ १२ १११ १३
पाठान्तरम् प्रतिघातादि-स्याध्यक्षसिजडस्यापरव्याप्नोति प्रतिसिद्धयतः प्र•व्याप्तिल-व्याप्तिवं ज्ञानस्वभावविविवर्तन
आकाराध्यापक-दुत्तरोत्तरार्थक्षण
आत्मनार्थापुनस्तत्त्वलक्षणान्तरलक्षणं तत्सद्भावावेदक चैतन्यस्येन्द्रियं सर्वत्र यश्चात्मायं ज्ञानमा. चास्य सन्निकर्षों वा संयुक्त संयोगावि-स्यानिष्टदशादि-णेष्टदशान वादृष्ट•मस्तु किं ज्ञानान्तरेण ज्ञानावार्थ -नौ तावेव
१११ १८ ११४ ४ ११९ १२ १३४ ४ १३५ १९ १४१ २ १४१ ११ १४१ ११ १४२ १ १४२ १७ १४८ १ १४८ २ १४८ १३ १४९ १७ १५० ५ १५२ २१ १५३ ३ १५४ १७ १५४ २१
तद्भावावेदकं चैतन्यम् , सर्व यश्चात्मीयज्ञानमाचास्य संयुक्तसंयोगोऽवि-स्यानिष्टदेशादि-णेष्टदेशाचादृष्ट-मस्तु ज्ञानाचार्थ -नौ तर्हि तावेव
वा
विज्ञानं -ग्रीतो ग
ज्ञानं -ग्रीतो वा गन चात्र येन तदुत्पशुक्तिशकले प्रवृत्त्याभावे
न चासो
: येन प्रामाण्यं तदु
शुक्तिकाशकले प्रवृत्त्याद्यभावे.
Page #900
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________________
७३८
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
मुद्रितपाठः तावतैवेयं प्रवर्तत तावन्नार्थोवधार्यते कारणे शुद्ध तज्ज्ञा
पाठान्तरम् तावतैवायं प्रवर्तते तावन्नार्थोऽभिधीयते कारणाशुद्धर्ज्ञा
पृ० पं० १५७ ६ १५८ ११ १५८ २३ '१५९ ३ १५९ ४ १५९ ७ १५९ १४ १६० १३ १६१ १२ १६२ ३ १६२ ५
१६३ ३ १६३ ७ १६४ १६ १६५ ३ १६५ ९ १६५ १०
१६८ ११
१६९
४
•न्द्रिये शक्ति
-न्द्रियशक्ति-क्षेण तेनो
-क्षेण तत्तेनोसमस्त(सम्मतस्त)स्य संयतस्तस्य चेन्द्रिये
वेन्द्रिये कथन्तत्वतः
कथन्न स्वतः प्रमाणपञ्चकाभाव
प्रमाणिकाभावचाभावप्रमाणोत्पत्तो
चाप्रमाणोत्पत्ती नैर्मल्यादियुक्तस्य
नैर्मल्ययुक्तस्य तत्रापि
तथापि जन्मैव
यत्रैव प्रमाणस्य किं
प्रमाणस्य तु कि -विनाभावस्य
-विनाभावलस्य हेतोः ख
हेतुख-क्रियाज्ञानस्याप्य.
-क्रियासाधनस्याप्यवृद्धिच्छेदा
तृडिच्छेदास्वप्नार्थक्रिया
स्वप्नेप्यर्थक्रियाअपर (अपवर ) कान्तर्देश
सम्बद्धे तु मणा- -अपवरकान्तर्देशसम्बद्धमणा-निश्चयात्मक
-निश्चायक -ताशकाः
•तशंकाः कञ्चित्का
किञ्चित्काकञ्चित्का
किञ्चित्काप्रागेव
इत्यपि प्रागेव वैतस्मि
चैतस्मिनेष्यते
नेक्ष्यते शब्दे स
शब्दससिद्धं सर्वजनप्रबोधेत्यादिश्लोकस्य व्याख्यानं आ० प्रतौ नास्ति। -त्तदभिप्रायवांत
तद्युत्पादनाभिप्रायवांस्त-तैकद्वित्र्यादिप्रमाण
तैकलादिप्रमाण
१७१ २
१७१ १२
१७२ ११ १७२ १२ १७४ ३ १७४ १० १७५ १७५ १४ १७६ ७ १७७ ३ १७७ ७
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________________
पाठान्तराणि
पृ० पं० १७७ १६
मुद्रितपाठः -साधनम् इति
१७८ ७ १७८ ११ १८१ १५ १८१ २० १८१ २२ १८२ १३ १८२ २१ १८३ १९ १८४ ७ १८४ १० १८४ १२ १८४ २२ १८५ ३ १८५ ११ १८६ १२ १८७ १ १८७ ३ १८७ ५ १८७ १३ १९० ३ १९० ९ १९० ९ १९१ ५ १९१ १२ १९२ ३ १९२ ८ १९२ ८
कुतो (गौणखम् ) -षयलस्याविरोधी ज्ञापकज्ञातसह्य-न्यस्य विशेसम्बद्ध शब्दो नात्र हि सद्भावेन सत्तया वह्निरस्तीत्यस्तिन त्वेवं चागतेः -ततज्जैन तद्धन चैत
पाठान्तरम् साधनं तद्वतोऽनुपपन्नत्वमनुमानकथा कुतः ॥ इति . कुतो गौणत्वम् •षयस्या-विरोधो ज्ञायक-ज्ञातस्य सह्य. .न्य विशेसम्बद्ध शाब्दो तत्र हि सत्तया वह्निरस्तिन चैवं चागमे तत्त्वज्ञैन तस्य तद्धन वैत
-म्बन्धान गो.
१३
भवन्
•म्बन्धो न गोभवेत् -वियोगतः
-विभागतः को -दिनः चापरस्याचोप•च्छेद्यत इति -वात्मवादचावविना नोसपक्षानुगमाननुगममेदः स्थिताम् नियामिकाम् न तत्सन्निधाने
-दितः च परस्यावोप•च्छेद्य इति "चासत्त्वाद्रनावविना अन्येनोसपक्षानुगमभेदः स्थिता नियामिका न तावत्समभिधाने
१९४ १९ १९५ ३ १९४ ४ १९८ ८
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________________
७४०
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
पृ० पं० मुद्रितपाठः १९८ १२ सहकारी १९८ १८ -राभावात्
-प्येतच्चोद्यं समानम् २०० ११ अनादिनिधन२०५ २ -लब्धिविशेषतः प्रति२०७ १७ अनुष्णाग्नि२०८ ५ -लापात्वस्वभाव२०९ २६ -भावग्रहणस्य २१० ६ -भावग्रहणस्य२१० १३ ___-पटादिव्यक्तिभ्यो२१० १५ न निखिल२१० १७ -तराश्रयत्वं च
विनाशेप्युत्प२१५ २ -दिव्यापारवैय२१५ ११ घटादे२१५ १३
भावान्तर२१५ १९ -रेव तेन वि. २१८ २३ -स्योपघातः २१९ १७ चेदं २१९ २३ नाव्याप्त्यस२२० ७ -विशेषवि२२१ १२ तथा चेन्द्रि२२१ १४ -वात्तन्नष्यते २२१ १९ रूपं चक्षुः २२२ १४ वलग्नं शला२२३ १० अन्यथा२२८ ११
-कं तद२३० २३ रसाभिव्य२३१८ २३२ १६ कार्यकारणभा२३३ १२ भवति २३३ १४ पुरःस्थतया २३४ १४ तदसतो २३४ १५ -र्थजत्वे
पाठान्तरम् सहकारिणोः रासंभवात् -प्येतयोः भृशं मानम् अनाद्यनिधन-लब्धेर्विशेषतः विप्रतिअनुष्णोऽग्नि-लापात्स्वभाव-भावस्य -मावस्य -पटादिभ्योनाखिल-तराश्रयत्वाच्च विनाशिन्युत्प-दिवैयपटादेभावोत्तर-रेव वि-स्योपपातः वेदं नाव्याप्यस-विशेषैर्वि यथा वेन्द्रिवात्तु नेक्ष्यते रूपचक्षुः -वलनशलानान्य -कं दृष्टं तदरसव्यবন্ন कारणकार्यभाभवेत् पुरःस्थिततः तदंशतो -र्थजन्यत्वे
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________________
पाठान्तराणि
७४१
पृ० पं० २३४ २२ २३५ १
मुद्रितपाठः कारणलकल्पतत्तेनोपलभ्यते न
२३५ १५ २३५ १६ २३५ १९ २३५ २४ २३६ ५ २३६ १६ २३७ ३
-मतज्ञानं लब्धा-नाप्यतत्का-दे तस्यापि मैत्रे प्रतीयेत सान्यस्यापि तदन्यज्ज्ञातनिखिलार्था
पाठान्तरम् कारणकल्पतत्त्वेनार्थाभावेऽपि उपलभ्यते अभ्रान्तं तु तद्भाव एवोपलभ्यते न -मतं ज्ञानं तल्लब्धानाप्यका-देऽपि तस्यापि मित्र प्रतीयते सामान्यस्यापि तदन्यजातनिखिलज्ञानेनाखिलार्था
वा
२४० १५ २४३ १५ २४४ २८ २४६ २१ २४७ १३ २५० ९ २५३ ४ २५३ ८ २५३ ९ २५५ १० २५५ २९
-वेतत्पार
-खात्तत्पार-कर्मणां नि.
•कर्मणो नित्राशेषज्ञान
-त्राशेषज्ञज्ञान-र्थज्ञातुस्त(ज्ञानस्य तज्ज्ञान- -र्थज्ञानस्य तज्ज्ञान-र्थप्रधानैस्तै
-र्थप्रमाणैस्तैलप्स्यते
लभ्यते -प्रभवं वानुमाना
प्रभवलानुमाना-षयत्वेन तत्प्र
-षयत्वे तत्प्रयद्धि यद्वि
यद् यद्विइति तत्सर्वा
इति च सर्वाखान्न वक्तव्यम्
खान वक्तुं शक्यम् प्रत्यक्षखाप्र
प्रत्यक्षाप्र. -सम्बन्धित्वस्यातीतदर्शनसम्बन्धित्वस्य च पाहि -सम्बन्धित्वस्य च नाहि भाविधर्मादेरतीतकालादेरिवावि
भाविधर्मादेरिवातीतकालादेरविलोकोपभो
-लोकभोन्यानालो.
-स्याप्यनालोप्रक्षीण
क्षीणयच्चोकं
यथोक्तं तळ्याख्यातार्थाश्र
तद्व्याख्यानाश्रः
२५७ १० २५८ ५
२५८ १८
२५८ १९ २५९ २ २६१ ३ २६२ ६ २६२ ९
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________________
७४२
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
सेवानु
पृ. ५० मुद्रितपाठः
पाठान्तरम् २६५ २ वार्थे
चार्थे प्रपञ्चनो
प्रसङ्गेनो२६८ १ जानतो
ज्ञानतो. २७२ २२ -न्तिकं व
न्तिकलाच २७३ ६.९ तत्सम
सम२७३ १० -कान्ते व्य-.
-कान्तेप्यव्य२७३ १५ -भूतलादि
-भूतत्वादि२७३ २४ -बुद्धिवै
-बुध्यादिवै. २७४ २३ व्याप्येत
व्याप्यताम् २७५ १३ बाधकप्रमाणब
बाधकब२७७ १६ -खप्र
-खसंप्र२८१ १५ -णयापि
-णया हि २८२ ३ सेवाभेदानु२८३ २६ -सङ्गः स्यादि
-सङ्गालादि२८३ २७ तेनैवा
अनेनैवा२८६१७ -धर्मिवत्
-धर्मि च २८९ १७ -कत्वे
-कत्वेन २८९ २० -कीर्यंत
कीर्यते २९३ २८ निश्चयस्योत्पा
निश्चयोत्पा२९४ ३ हि भव
हि ज्ञानं भव२९४ १६ २९५ २ -णादित्या
-णादिनियमस्य घटनादुपादान
ग्रहणादित्या२९५ ५ . सिद्ध्यति
सिद्ध्येत ३०१ १४ प्रसाध्य
साध्य३०२ २८ -वति तन्निमित्तकर्मसद्भावे तत्फल
सिद्धिस्तस्याश्च तन्निमि- -वति क्षुधादिफलसद्भावे तन्नित्तकर्मसद्भावसिद्धिरिति मित्तकर्मसिद्धावसिद्धिः तत्सिद्धौ
च क्षुधादिफलसद्भावसिद्धिरिति ३०३ १३ -तदुदयेऽपि
-तदुत्तरं तदुदयेऽपि ३०४ २ मानं क्रियते
-मानं कर्म क्रियते ३०४ १३ विरतव्यामो
व्यावृत्तव्यामो३०५ १२ घटेत ३०९ ३४ मोक्षार्थी
घटते मोक्षार्थ
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________________
पाठान्तराणि
पृ० पं० ३१४ २० ३१५ ९ ३१५ १४ ३१८ ३० ३२० २४ ३२३ २२ ३२६ ७ ३२६ २४ ३२७ ६ ३२७ २७ ३२९ १३
मुद्रितपाठः बनाभ्यासात् -यां ग्रहो न प्रतिइन्द्रियजज्ञा-न [ख] भानास्ति तत्र तत -षरूपतया एवेदानी मुक्तः -प्यात्मनिश-तनप्र(ब)सं-गतेनैव वादिक्खिओ क्रम्म इत्यादेः
पाठान्तरम् वनावशात् -यां हि ग्रहो न च प्रतिइन्द्रियादिजन्यज्ञा-न खभा नास्ति तत -पतया एव मुक्तः -प्यात्मनः श.
-तनसं
३३१ ६
-गतेन च बा दिक्खिऊ -कम्मे वदजिट्ठ.. पडिकमणे मासं पजोसमणकप्पे इत्यादेः तन्मतो -नं दृष्ट्वा यति श-विवेचनायु. -परि
३३२ ९ ३३६ २४
ANM WWW
तस्य मतो -नं साधुं दृष्ट्वा श-विवेचनखाद्यु. -[प] रिस्मृतावपि
३३७ २३
स्मृतार्थावपि
३४० २० ३४१ २१
ao
३४२ २०
w w
तत् -ज्ञाशतस्यैवासइत्यसा-स्याप्यस्त्यन्य-षये प्रवृलिङ्गनाभ्यु-कारेणैवोप-नुलम्बिनि तत्प्रभवप्रत्यलोकप्रसि-श्चितसा
-ज्ञानशतस्य चासइत्यप्यसा-स्यापि अन्य-षयप्रवृ. लिङ्गजाभ्यु-कारेण वोप-नुबन्धिनि तत्प्रत्यलोके प्रसि-श्चितं सा
iu
३५० ४ ३५० १० ३५१ २१ ३५५ २० ३५६ १९ ३६१ ५ ३६६ ३
ज्ञाप्यते
ज्ञायते
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________________
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
मुद्रितपाठः -व्याप्तेरभाचलितप्र
पृ० पं० ३६६ १६ ३६९ २१ ३६९ २५ ३७१ २३ ३७३ १०
-रीतस्य -न्द्रियप्र
नं सा
३८६ १९ ३८७ ५ ३८७ १४ ३९४ १९
०
०
गौरेपि तत्पुत्रे तत्पु-लभ्येत -भाववतो योयो व्यामु. -मानं स्वविशे-श्यन्तया -द्धिरित (रितीत)रेनेकप्रसंकेते(ता)नयत्र पु-यान्तमिव यावज्जसम्बन्धावधारणम् -तो लक्षितलक्षणयाचेत्किं यु
०
०
४०२ १० ४०२ २१ ४०७ ११
०
०
पाठान्तरम् -व्यापाराभाभिन्नप्र
रीतार्थस्य -न्द्रियार्थप्रनं हि सागौरेऽपि तत्पुलभ्यते -भाववादिनो योयो सुमानं विशे-श्यन्तथा -द्धिरितीतरेनेकधा प्रवृसंकेतानयत्र यत्र पु-यातमिव तावजसम्बन्धावगमः -तो लक्षणया
चेटिक पुनः यु. -पत्तिः प्रथमवि-त्वे कल्पनानिन चासिचासद्भावायो-दृष्टे चोतावत्प्रति-न्तरं तत्र कफकांशाकुम्भादिखस्यात्मनास्त्येव -रे सर्वत्र सर्वदोइत्यचसन्ततिः
-पत्तेः
४११ १४ ४१२ १३ ४१३ १७ ४१४ ३० ४१५ १ ४१५ ३२ ५१६ २१ ४१७ २९ ४१८ ८ ४१८ १० ४१८ २४ ४१९ ६ ४१९ २६ ४२० ५ ४२० ६ ४२० १९
प्रथमे वि-त्वेऽल्पतानिननु चासिचापह्नवायो-दृश्ये चोतान्प्रति-न्तरं कफांशाकुड्यादितस्यात्मनाम्नव -रे सर्वदोइत्यप्यचसंस्कृतिः
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________________
पाठान्तराणि
७४५
पृ०
पं०
४२१ २७ ४२२ ५ ४२२ २८ ४२२ ३०
मुद्रितपाठः नित्यस्यास्यानाधेयाखदेशे तदावारकाः तयन्तराशक्यम् -घातः। प्रत्यतथा च व्यञ्ज
पाठान्तरम् नित्यस्यानादेयाखदेशेन वावारकाः सूर्यान्तराशक्यते -घातः स्यात् । प्रत्यतथा व्यङ्ग्यवत् व्यन्ज
WWW
संसष्ट-प्रसशात् -भावेऽपि गौः -व्याप्तखात् -ज्ञानम् -मपोह्यत
किश्च
किंवा
संस्ट (संस्)ष्ट४३४ ११ -प्रसंगः ४३६ १३ -भावेप्य(भावेऽपि)गौः
-वाच्यवात्
-ज्ञापनं (ज्ञानम् ;) ४३८ २१ -मपोह्येत ४३९ ११ ४३९ १५ -लक्ष्येण(तदवलक्षण्येन) ४४१ ३ परापेक्षा४४७ २१ तज्ज्ञा (तज्जा) ४५३ २४ -त्तक्षयो
-मन्ये (न्ये )न ४५६ २० बुद्धौ शब्दोऽव४५८ १९ -णादिगम्य४६० २३ पदासि४६७ ९ -णापिसद्भावा
ततो व्यव४६७ १६ बुद्ध्यभेद५६८ १६ प्रतिभासवत् ४७२ १५ भिन्नदेशासु ४७४ ६ जातिः क्वेति ४८१ ९ -पचारे तु ४८४ १४ अन्यत्र प्र४८५ ७ -तिरिक्तैकनिसि૪૮૬ ૬ घटेत ४८६ २१ न तज्जा४८९ ८ -स्थानां त४९२ १५ प्रति [क्षण] वि
प्र० क० मा० ६३
-लक्षण्येन परीक्षातज्जा -त्तज्ञानक्षयो-मन्त्येन शब्दो बुद्धाव-णाभिगम्यपदसि-णाविनाभावाततो वस्तुव्यबुद्धिमेदप्रतिभासनवत् भिन्नदेशेषु जातिराकृतिः -पचारात् अन्यप्र-तिरिक्तकनिबन्धननिमिघटते ननु तज्जा-स्थार्थानां तप्रतिक्षणवि
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________________
७४६
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
१७
पृ. पं० ४९२ २६ ५०४ २० ५०७ ५०७ १७ ५०७ २१ ५०८ ११ ५११ १७ ५११ १९ ५१२ २२ ५१२ २३ ५१९ २४ ५२१ ४ ५२१ १० ५२१ ११ ५२२ ९ ५२३ ६ ५२७ १४ ५२८ २४ ५३१ १६
मुद्रितपाठः -णिकखस्याध्य-न्यं सम्बन्धा-वेव यो-वौ काप्रयुङ्क्ते एव कारणाभिघटप्रपटस्यापि -न्न तस्य तदग्नि-रूपता(तां) सुखमासं तथा त-त्पद्येत -त्माभ
पाठान्तरम् -णिकार्थस्याध्य-न्यं बन्धा-वेव च यो-चौ द्वौ काअनुयुत एव च कारणाभिपटप्र. घटस्यापि -न्न चात्र तस्य तदेतदग्निरूपता सुखमासे तथाच त-त्पाद्यते -त्मा वा भ
तस्य
-व्यवृत्तवस्ति वि-वात्का तत्र -षङ्गोप्यवदेकवस्तुधर्मधचौरपार-धः
५३३ २७ ५३६ १ ५३८ ९ ५३९ २० ५४४ १७ ५४५ १८
-व्यव्या (व्य)त्ततु वि-वात्कथं तत्र -षड्गोऽयु-वदेव वस्तु[धर्म ] धचौर [पार] -धाच्च -द्धिः [द्धः] [ व्याप्य ] व्यायुक्ता -द्यवयवानामेवावएकद्रव्यः रूपादिना सु-खा (ख) प्रयथाऽ( तथाs)नच वत्परशरीरेन्य
५४८ १० ५६१ ५ ५६१ १४ ५६७ २१ ५७३ १६ ५७९ ३
व्याप्यव्यायुक्तिमती -द्यवयवावएकद्रव्यं रूपादिसुव प्रतथाऽकिंच -वदन्य
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________________
पाठान्तराणि
पृ० पं० ५८२ १७ ५८२ १९ ५८४ ९ ५८४ १५ ५८५ २० ५८६ १२ ५८८ ११ ५८८ १५ ५८९ ५ ५९० ७ ५९० ८
६०१ १३
६०२ १८ ६०३ १४ ६०३ १५ ६०४ ३ ६०४ १४
मुद्रितपाठः
पाठान्तरम् तदेव (तत एव)
तत एव •व्या (व्य)प
-व्यपमनोद्रव्यल (मनोऽन्यत्र) मनोऽन्वखदिग्देशा
हि देशा-भिलाषप्रत्यभिज्ञानम
-भिज्ञानम-प्रतिष्ठ
-प्रविष्ट•स्प(स्य) प्रतिब (प्रब)
प्रब. मन्तो
बन्तो -द्धिनाशा
द्धिविनाद्विखवहुः
द्विबहु -कं तदपरि
-कमपरि-श(शे)ध्वं.
-शेवंहि नि
हि तन्निलक्षणमेषां
लक्षणं तेषां -तीयेप्येतदेव
-तीयोऽप्यसदेव -योगिलप्र
योगिवत्प्र-नुपप(त्पतेः
नुत्पत्तेः -द्धः नचान्तरालाभा- •द्धः भावान्तराभा-शेषे(ष)वि
शेषविसमवायी इति
समवायीनि इति तदप्यसत्
तदसत् अपृथगाश्रयवृत्ति
अपृथग्वृत्तितत्रासंभाव्यम्
तत्रासद्भावात् यिसमवाय( यिभावा) भावात् -यिभावाभावात् -राश्रयभावा ( यश्च समवाय) सिद्धौ हि
-राश्रयस्य समवायसिद्धे हि सम्बन्धलजा
सम्बन्धजा-तयासौ प्र
-तया प्र
घटो परपरिक
परिकनर्थक्यम्
नर्थवत्त्वम् स एव स इति
स एवमिति समवायस्य नि
समवायनि
६०७ १८ ६०८ २४
६०९ २१ ६०९ २१
६१० २५ ६११ १७ ६१२ १८
पटो
६१७ १८ ६१७ २२ ६२१ ४
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________________
७४८
प्रमेयकमलमार्तण्डस्य
पृ० पं० मुद्रितपाठः
पाठान्तरम् ६२१ ९ इति नि
प्रतिनि६२२ २० गुणवादी
दुणादी६२४ १३ -था वि
-थापि वि६२५ २४ -प्यसुन्दरम्
-प्ययुक्तम् ६२६ १७ बोध
अवबोध६२८ ६
-दः समाप्तः ६३४ १७ -नियतते
-निश्चयते६३५ ११ -भासवदु
-भावादु. निले
नित्यत्वे ६४० १४ -रीतोऽन्व
-रीतेऽन्व६४८ ४ -लयोः वि.
लयोः विवादापन्नयोः वि. -समः
•समा: -न्द्रियिकत्वे
•न्द्रियत्वे ६६० ९ स्वसा
खेष्टसा६६४ १९ साम
साधनसाम६६५ १७ नांह
नां दृनेदमभि(वि)ज्ञा
नेदमविज्ञासत्याः
सभ्याः ६६९ २० त एव ६७० ३० •र्थिककप्र
र्थिकप्र६७१ १८ -नमदो
-नं नादो६७४ ५ ज्ञानेन वा
ज्ञाने च वा६७४ ७ चिदिति चेत्तर्हि
-चिदेव तर्हि ६७६
'प्राचां वाचाम्' इत्यादिश्लोको आ० प्रतो नास्ति । ६७७ १३ ध्यमु
-कट्यमु६७८ ८ यः पुनः
यत्पुनः ६७८ १९ विषयमात्रप्र
विषयभावप्र६८९ १५ तद्वि (द्धि) प्र
तद्विधं प्र६९४ १२ ___'श्रीभोजदेवराज्ये' इत्यादि प्रशस्तिः आ० प्रतो नास्ति ।
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________________
९. मूलटिप्पन्युपयुक्त ग्रन्थसूचिः सङ्केतविवरणश्च । अभिसमयालोकालं. अभिसमयालोकालङ्कारः (गायकवाड सीरिज बडौदा) ९५, अष्टश० अष्टशती अष्टसहस्रयां मुद्रिता (निर्णयसागर प्रेस बम्बई) ३५,३८॥
७७,८१,८३,९४,१०९। अष्टसह० अष्टसहस्री (निर्णयसागर बम्बई) ३५,३८,५९,६२,६३,७७,८१,
९४,९६-९८,१००,१०९,१११,११७,११८॥ आप्तप० आप्तपरीक्षा (जैनसाहित्यप्रसारक का० बम्बई ) ८३,९३,९४,९९,
१३६,१३७। आप्तमी० आप्तमीमांसा (जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था कलकत्ता) ७७,९४, ऋग्वेद. 1
९० १ ऋग्वेद संहिता ६४,२६४,३९९। ऋक्सं० कठोप० कठोपनिषद् (निर्णयसागर वम्बई) ६४। कादम्बरी कादम्बरी (निर्णयसागर बम्बई ) २९८॥ कुमारसं० टी० कुमारसंभवटीका ( "
)४२॥ कशुर० कशुरोपनिषत् ( , , ) ६५॥ चित्सुखी तत्त्वप्रदीपिका चित्सुखी ( , " )५३। छान्दोग्योप० छान्दोग्योपनिषत् ( "
) ६४॥ जीतकल्पभा० जीतकल्पभाष्यम् (जैनसाहित्यसंशोधकग्रन्थमाला पूना) ३३११ जीवकाण्डगो० जीवकाण्डम् गोम्मटसारस्य (रायचन्द्रशास्त्रमाला बम्बई ) ३००। जैनेन्द्रव्या० जैनेन्द्रव्याकरणम् (जैनसिद्धान्त प्र० संस्था कलकत्ता) ७,१७६,
६७९,६८७,६८८॥ जैमिनिसू० जैमिनिसूत्रम् (आनन्दाश्रम सीरिज पूना) ६२,४०४। तत्त्ववै० योगभाष्यतत्त्ववैशारदी ( चौखम्बा सीरिज बनारस ) ९४॥ तत्त्वसं० तत्त्वसङ्ग्रहः ( गायकवाड सीरिज बडौदा) २९,३२,३९,४४,४५,६५,
७१,७२,७७,७९,८३,८४,१००,१५०,१५३,१५४,१५७,१६२,१६४
१७१,१७४,२५०,२५२,२५३,३९२,४३२॥ तत्त्वसं० पं० तत्त्वसंग्रहपञ्जिका (गायकवाड सीरिज बडौदा ) ४३,४५,६५,
७९,८१,११६,११७,१५०,१६१,१६३,१६५-१७१, तत्त्वार्थश्लो० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् (निर्णयसागर बम्बई) १९,२०,४२,४६,
६१,६२,९१,९४,११०,११६,११८,१२०-१२३,१३३,१३७,१४८,१५०। तत्त्वार्थसू० तत्त्वार्थसूत्रम् (जैनसाहित्यप्रसारकका० वम्बई) २४५,२५९। तत्त्वोपप्लव० । तत्त्वोपप्लवसिंहस्य प्रूफपुस्तकम् (पं. सुखलालसत्कम् तत्त्वो० सिंहः B. H. U. काशी)४७,४८,५६,५९,६२,६३,७५,७६,
११६,१७२॥
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________________
७५०
सङ्केतविवरणम्
तैत्ति तैत्तिरीयोपनिषत् ( निर्णयसागर वम्बई ) ६६। द्रव्यसं० द्रव्यसंग्रहः (रायचन्द्रशास्त्रमाला बम्बई ) ५६५। न्यायकुमुदचं० न्यायकुमुदचन्द्रः (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई) २०,२५, ३१,३८,३९,४२,४३-४६,४९,५०-५३,५५,५६,५९,७२,७७,८३,९४,९५,
९७,९९,१००-१०४,१०६,१०७,११०,११२-११९,१२१-१२५,१२७. १३२,१३५-१३७,१४०-१४२,१४५,१४७,१४८,१५०,१६१,१६२,१६७, १६९,१७०। न्यायभा० न्यायभाष्यम् (चौखम्बा सीरिज काशी ) १६,५९,९८,१६७,२३७,
६५१,६६३॥ न्यायवा० न्यायवार्तिकम् (चौखम्बा सीरिज काशी) १४,१६,७५,१३२,
२६९,२७०,४७६,६१४,६६४॥ न्यायवा० ता० टी० न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका (चौखम्बा सीरिज काशी) १४,
२०,४९,५१,५३,५९,९५,१३२॥ न्यायमं० न्यायमञ्जरी (विजयनगरम् सीरिज काशी) १३,१४,२०,२५,४६,
४९-५१,५३,५४,५९,६१,६२,६७,७२-७४,७७,७९,९४,१००,११४,
११८,१६७॥ न्यायबि० न्यायबिन्दुः (चौखम्बा सीरिज काशी) ७,२२,७८,९३,१०३। न्यायबि० टी० न्यायबिन्दुटीका० ( , , )२५,२८॥ न्यायविनि० न्यायविनिश्चयः (सिंघीजैन सीरिज कलकत्ता) ११९। न्यायलीला० न्यायलीलावती (निर्णयसागर बम्बई ) ५९। न्यायसू० न्यायसूत्रम् (चौखम्बा सीरिज काशी ) १८,९७,१००,११४,
११५,११८,२२०,२५७,२५८,३४७,३५७,३६२,३६५,३७२,३७४,५३६, ६४६,६४७,६४९-६५१,६५३,६५५-६५९,६६३-६७१,६७४,६८६,६९२॥ पत्रप० पत्रपरीक्षा (जैनसिद्धान्तप्रकाशिनीसंस्था कल कत्ता) ६८४,६८६, परीक्षामु० परीक्षामुखम् (जैनसाहित्यप्रसारक का • बम्बई) १७८,२२५,
३५५,४४५,६८५। पाणिनिधातुपा० पाणिनिधातुपाठः (सिद्धान्तकौमुद्यन्तर्गतः) ७,६८८॥ पा० महाभा० पातञ्जलमहाभाष्यम् ( निर्णयसागर बम्बई ) १०४। पाणिनिव्या० पाणिनिव्याकरणम् ( निर्णयसागर बम्बई ) ६७९। प्रकरणपं० प्रकरणपञ्जिका (चौखम्बा सीरिज काशी) ५३,५४,१२८॥ प्रमाण० । प्रमाणपरीक्षा (जैनसिद्धान्तप्रकाशिनीसंस्था कलकत्ता) १५, प्रमाण प० । १९,३१,३३,३८,६३,१२१,१२५,१२७,१२८,१३२-१३४,
१५०॥ प्रमाणवा० प्रमाणवार्तिकम् (भिक्षु राहुलसांकृत्यायन सत्कं प्रूफपुस्तकम् ) २८,
३२,३४,३८,८३,८४,९०,९५,९६,१०३,१०४,१०७,१०८,१६६,१८०,
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सङ्केतविवरणम्
२१७,३२१,३२५,३३१,३४१,३५०,३५४,३८१,३८३,४३१,४४९,४७०,
४७३,४८१,५१३। प्रमाणवा० ख० प्रमाणवार्तिकखोपज्ञवृत्तिः (भिक्षु राहुलसांकृत्यायनसत्कं
प्रूफपुस्तकम् ) ३८१॥ प्रमाणवार्तिकालं० प्रमाणवार्तिकालङ्कारः (भिक्षु राहुलसांकृत्यायनसत्कं मुद्रणीय
पुस्तकम् ) ५८,९५,८३,९०,१०६,२१८,४६८,५८२। प्रमाणसमु० प्रमाणसमुच्चयः (मैसूर यूनि० सीरिज) ८०,९५,१०३। प्रश० भा० प्रशस्तपादभाष्यम् (विजयनगरम् सीरिज काशी) १७,१००, __ १०३,११३-११५,५३१,५६६,५६८,५९०,६००,६०४,६१६,६२१।। प्रश० कन्द० प्रशस्तपादभाष्यकन्दलीटीका (विजयनगरम् सीरिज काशी)
१४,३१,५९,११५,१४०,१५०। प्रश० किरणावली प्रशस्तपादभाष्यकिरणावलीटीका (चौखम्बा सीरिज काशी)
१३२,१५०, प्रश० व्यो० । प्रशस्तपादभाष्यव्योमवतीटीका (चौखम्बा सीरिज काशी) व्योभव० ८ ०-८२,८४-८६,९३,९८,१११-११५,१३२,१४०,१४७,
२७४,३१०॥ प्रमेयरत्नमा० प्रमेयरत्नमाला (विद्याविलास प्रेस काशी स० पं० फूलचन्द्रजी)
७०-७२,८०-८३,८५ बृहती शाबरभाष्यवृहतीटीका (मद्रास यूनि० सीरिज) ५३,५४,९५॥ पञ्जिका बृहतीपञ्जिकाऋजुविमला ( , , ) ९५॥ वृहदा. वृहदारण्यकोपनिषद् (निर्णयसागर बम्बई ) ६४,६५, बृहदा० भा० वा. बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिकम् ( आनन्दाश्रम पूना) ४४,
४५,६४,६५। ब्रह्म० ब्रह्मोपनिषद् (निर्णयसागर बम्बई ) ६५,६६,८०,९४, ब्रह्मसू० शां० भा० रत्नप्रभा ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यरत्नप्रभा (निर्णयसागर बम्बई)
१०४॥ ब्रह्मसू० शां० भा० ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यम् ( निर्णयसागर बंबई ) ११४॥ भामती ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्यस्य भामतीटीका (,,) ५१-५३,५९,६६,८०, ९४,११६। भगवद्गीता भगवद्गीतोपनिषद् ( , , )२६८,३०९। भामहालं. भामहविरचितः काव्यालङ्कारः (चौखम्बा सीरिज काशी ) ४३२॥ मत्स्यपु० मत्स्यपुराणम्
(मुम्बई) ३९२॥ भग० आ० भगवती आराधना (सोलापुर) ३३१ महाभा० वन० महाभारतम् वनपर्व (चित्रशाला प्रेस पूना) ५८०॥ मुण्डकोप० मुण्डकोपनिषत् (निर्णयसागर बम्बई ) ६५।
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७५२
सङ्केतविवरणम्
मी० श्लो० मीमांसाश्लोकवार्तिकम् ( चौखम्बा सीरिज काशी) ३,२०,२२,५३.
५९,७०-७२,७७,९४,९५,११२,१३७,१५३,१५५-१५९,१६१,१६५, १७४,१७५,१८०,१८३-१९३,२०६,२४९-२५२,२५४,२५८,२६५, ३०९,३३९,३४५,३४६,३९६,४०६-४११,४१४-४२०,४२२-४२४, ४२६,४२७,४३३,४३५,४३६,४३८-४४०,४६१,४७४,४७५,४७६,
४८२,५१३,५२२,५५७। मी० श्लो० न्यायरत्ना० मीमांसाश्लोकवार्तिकन्यायरत्नाकरव्याख्या (चौखम्बा __सीरिज काशी) १५१,१५२,१५४,१५६,१५७॥ मैत्र्यु. मैन्युपनिषत् ( निर्णयसागर बम्बई) ४६,६४। युक्त्यनु० युक्त्यनुशासनम् (माणिकचन्द्रजैनग्रन्थमाला वम्बई) ९४,११६,
११७,१२७,१३२,१४३-१४५ योगकारिका साङ्गयोगदर्शनान्तर्गता (चौखम्बा सीरिज काशी) १९॥ योगद० व्यासभा० योगसूत्रव्यासभाष्यम् ( , , ) १९,९४। योगसू० योगसूत्रम्
( , , ९४॥ रत्नाकरावता० रत्नाकरावतारिका (यशोविजयग्रन्थमाला काशी) ९८,१२०॥ रामता० उ० रामतापिन्युपनिषत् (निर्णयसागर वम्बई) ५९७। लघी० लघीयस्त्रयम् (सिंधी जैन सीरिज कलकत्ता) ६७८॥ लघी० ख० लंघीयस्त्रयखविवृतिः ( , , ) १२२॥ वाक्यप० वाक्यपदीयम् (चौखम्बा सीरिज काशी) ३९,४२९,४४३॥ वाक्यप० टी० वाक्यपदीयटीका पुण्यराजीया ( , , ) ४२,४४५,
४५६,४५९/ वादन्या० वादन्यायः (महाबोधि सोसाइटी सारनाथ) ६६८,६७१,६७२। विधिवि. विधिविवेकः (लाजरसकम्पनी काशी) ७९,९४,१३२, विधिवि० न्यायक० विधिविवेकन्यायकणिकाटीका (लाजरसकम्पनी काशी)
विवरणप्रमेयसं० विवरणप्रमेयसंग्रहः (विजयनगरम् सीरिज काशी) ५९। वैशे० सू० वैशेषिकसूत्रम् (निर्णयसागर वम्बई) २३४,२७०,५४०,५६४,५६८
५८७,५८९,६००,६०१,६२० . शाबरभा० शाबरभाष्यम् (आनन्दाश्रम पूना) २०,२१,२३,९४,११२,२५३,
शिशुपालव० शिशुपालवधकाव्यम् ( निर्णयसागर बम्बई ) ६८८॥ शास्त्रदी० शास्त्रदीपिका (चौखम्वा सीरिज काशी) २०,६०,९४। शास्त्र वा० टी० । शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य यशोविजयविरचिता टीका शास्त्र वा० समु० टी० ।(जैनधर्मप्र० सभा भावनगर) ४५,४६,१०४। श्रावक प्रज्ञ० श्रावकप्रज्ञप्तिः (जैनधर्म प्र. , , ) ३०० श्वेताश्वत• श्वेताश्वतरोपनिषद् ( निर्णयसागर बम्बई) ६५,२६४,२६८,३९२॥ .
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सङ्केतविवरणम्
७५३
सम्बन्धपरी० सम्बन्धपरीक्षा धर्मकीर्तिविरचिता तिब्वतीयभाषोपलब्धा ।
५०४-५०६,५०९-५१११ सन्मति० टी० सन्मतितर्कटीका (गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदाबाद ) १४, २५,२९,३१,३८,३९,४२,४४,४६,५६,५९,६०-६३,६५,६७,७०-७४, ७७-८०,८२,९०-९२,९४,९८,१००,१०७,१०८,११२,११६,१२६, १२७,१२९,१३०,१३२,१३५,१३६,१३९-१४२,१४४,१४६,१४७,
१६०-१६९,१७२-१७४३ सांख्यका० सांख्यकारिका ( चौखम्बा सीरिज काशी) ८८,८९,९८-१००,
२८५-२८९ सांख्यका० गौडपादभा० सांख्यकारिकागौडपादभाष्यम् (,, ,,) ९८,१०१। सांख्यका० माठरवृत्ति सांख्यकारिकामाठरवृत्तिः ( , , ) ९८,१०१५ सांख्यप्र० भा० सांख्यप्रवचनभाष्यम् (चौखम्बा सीरिज काशी) १९॥ सांख्यसं० सांख्यसंग्रहः सौन्दरनन्द० सौन्दरनन्दमहाकाव्यम् (पंजाव युनि० सीरिज) ६८७॥ स्फुटार्थः स्फुटार्थ-अभिधर्मकोशव्याख्या ( बिब्लोथिका बुद्धिका सीरिज रशिया)
१३६॥ स्था० मं० स्याद्वादमञ्जरी (रायचन्द्रशास्त्रमाला बम्बई) ९४,९८,११३,१३४॥ स्या० रत्ना० स्याद्वादरत्नाकरः (आर्हत्प्रभाकरकार्यालय पूना) १४,१९,२०,
२८-३०,३३,३५,३६,३८-४०,४२-५२,५६,५९,६२,६५,६७-७५,७७, ७९,८०-८३,८५-८७,८९,९१,९२,९४,९६,९८-१०२,१२०-१२३, १२५,१३२,१३३,१३५-१३९,१४७,१४८,१५७,१५९,१६१,१६२,१६७,
१६८,१७१। हेतुबिन्दुटीका अर्चटकृता लिखिता (पं० सुखलालसत्का B.H.U. काशी) १४॥ मीमांसाभाष्यपरि० मीमांसाभाष्यपरिशिष्टम् (मद्रास यूनि० सीरिज) १५६।
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शुद्धिवृद्धिपत्रम्
अशुद्धम्
शुद्धम्
९ १२
१९ १३
३० ३५ ३१ ३२
कारणआस्था-रूपपता -रभिव्यज्येत् न्यायवि. विरोधे वा पृ. ५० पृ. ५० पृ० ५२ पृ० ५४ क्षणाक्षयादिपृ० ५६ अगृहीतपृ० ५७ धियो (योऽ) लादिसंर्वत्रा-धारलक्षण-तत्सादृश्योस्या० रत्ना. -स्यादृष्टास्याचादृष्ट-तयोस्तरप्रप्रवृत्त्याभा-त्तदविषयम् -पक्ष
करणअस्यारूपता रभिव्यज्येत न्यायबि० अविरोधे वा पृ० ८० पृ० ८० पृ०८२ पृ. ८४ क्षणक्षयादिपृ० ८६ गृहीतपृ० ८७ धियो (योऽ)नीला
३५३४
संवत्रा
८४ १६ १०५ २० १११ १६ ११८ ७ १२० ३४ १४१ १० १४२ १ १४८ १३ १५४ २१ १५६ १ १५८ ८ १९७ ४ २३७ १४ २४५ २७ २६० ६ २६३ २ २६४ २४ ३०. १०
धारणलक्षणत्तत्तस्यादृश्योरत्नाकराव० स्यादृष्टस्यान चादृष्टकयोस्तयोरप्रप्रवृत्त्यभा. त्तद् विषयम् पक्षे मेदः न्यायभा० हानेरेवासंकरणक्रमभावात्
मेदः
न्यायमा० हाने-वास कारणक्रम-भावत् न न कण्ठोष्ठ
न
कण्ठोष्ठ
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शुद्धिवृद्धिपत्रम्
७५५
पृ० पं० अशुद्धम्
शुद्धम् ३४९ २ भवत्येवेति
भवत्येवेति वा ३५७ ५ आत्मता
आमता३७३ १९ ने नि
स्नेऽनि३९५ १ समानम् । 'न च' इति
समानं नवेति ४०४ २४ [१।१८]
[१११११८] ४०८ २६ •मर्वाग्थ
मवाग्व४४५ १७ -सम्भावात्
सम्भवात् ४६० २३ पदासि
पदादिसिएतत् ? पूर्वो.
एतत् ? अनु
[वृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरखात् पूर्वो५८६ १२ छिछन्ना
छिन्ना५९६ ८ कोऽ वि
कोऽवश्यं वि-तम् ; वश्यं वि
तम् ; वि६२६ २१ कायकारण
कार्यकारण६४६ १२ नियमोपलभ्य
नियमो लभ्य६५१ २२
प्रयुक्त ६५२ १८ -धर्म्यमू
धर्म्यममू६५४ १२ युज्येत् ६५८ २७ -त्यना
-त्यता ६७३ ३० जयाय
पराजयाय विषयसूच्याम् २५ २३ यदभावे
परिशिष्टेषु ७०४ ८ अग्नेरपत्यं प्रथम [रामता० उ० ६।५] ५९११९
[, , अत्रिस्मृतिः ६।६] ७१८ १० शूद्रानाच्छूद्रसम्पर्काच्छू- [ ] ४८३।२४
[आपस्तम्बस्मृतिः ८१७]
प्रत्युक्ते
युज्येत
यद्भावे
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