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________________ प्रस्तावना व्योमवती ( पृ० २० क) के "नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात.....यथा प्रदीपसन्तानः ।" इस अनुमानको 'तार्किका' तथा 'आचार्याः' शब्दके साथ उद्धृत किया है। कन्दली (पृ. २०) में व्योमवती (पृ. १४९) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योगः' इस मतकी आलोचना की गई है । इसी तरह कन्दली (पृ० १८) मे व्योमवती (पृ० १२९) के 'अनित्यवं तु प्रागभावप्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता ।' इस अनित्यवके लक्षणका खण्डन किया है । कन्दली (पृ० २००) में व्योमवती (पृ० ५९३ ) के 'अनुमान-लक्षणमें विद्याके सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना तथा स्मरणके व्यवच्छेदके लिये 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्तन करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है । कन्दलीकार श्रीधरका समय कन्दलीके अन्तमें दिए गए "व्यधिकदशोत्तरनवशतशकाब्दे" पदके अनुसार ९१३ शक अर्थात् ९९१ ई० है । और उदयनाचार्यका समय ९८४ ई० है। वादिराज अपने न्यायविनिश्चय-विवरण (लिखित पृ० १११ B. तथा १११ A.) में व्योमवतीसे पूर्वपक्ष करते हैं । वादिदेवसूरि अपने स्याद्वादरत्नाकर (पृ० ३१८ तथा. ४१८ ) में पूर्वपक्षरूपसे व्योमवतीका उद्धरण देते हैं। सिद्धर्षि न्यायावतारवृत्ति (पृ. ९) में, हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा (पृ० ७) में तथा गुणरत्न अपनी षड्दर्शनसमुच्चयकी वृत्ति (पृ० ११४ A.) में व्योमवतीके प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम रूप प्रमाणत्रिखकी वैशेषिकपरम्पराका पूर्वपक्ष करते हैं । इस तरह व्योमवतीकी संक्षिप्त तुलनासे ज्ञात हो सकता है कि व्योमवतीका जैनग्रन्थोंसे विशिष्ट सम्बन्ध है। इस प्रकार हम व्योमशिवका समय शिलालेख तथा उनके ग्रन्थके उल्लेखोंके आधारसे ईस्वी सातवीं शताब्दीका उत्तर भाग अनुमान करते हैं। यदि ये आठवीं या नवमी शताब्दीके विद्वान् होते तो अपने समसामयिक शंकराचार्य और शान्तरक्षित जैसे विद्वानोंका उल्लेख अवश्य करते । हम देखते है कि-व्योमशिव शांकरवेदान्तका उल्लेख भी नहीं करते तथा विपर्यय ज्ञानके विषयमें अलोकिकार्थख्याति, स्मृतिप्रमोष आदिका खण्डन करने पर भी शंकरके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादका नाम भी नहीं लेते । व्योमशिव जैसे बहुश्रुत एवं सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करनेवाले आचार्यके द्वारा किसी भी अष्टमशताव्दी या नवम शताव्दीवर्ती आचार्यके मतका उल्लेख न किया जाना ही उनके सप्तमशताब्दीवर्ती होनेका प्रमाण है। . अतः डॉ० कीथका इन्हें नवमी शताब्दीका विद्वान् लिखना तथा डॉ० एस० एन. दासगुप्ताका इन्हें छठी शताब्दीका विद्वान् बतलाना ठीक नहीं जंचता। श्रीधर और प्रभाचन्द्र-प्रशस्तपाद भाष्यकी टीकाओंमें न्यायकन्दली टीकाका भी अपना अच्छा स्थान है । इसकी रचना श्रीधरने शक ९१३
SR No.010677
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages921
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size81 MB
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