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________________ प्रस्तावना . २९ समय ई० ९८४ से पहिले तो होना ही चाहिए। भिक्षु राहुल सांकृत्यायनजीके नोट्स देखनेसे ज्ञात हुआ है कि-ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्याय या अपोहसिद्धि(?)के प्रारम्भमें यह कारिका है “अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते ।” विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें भी यह कारिका उद्धृत है । आ० प्रभाचन्द्रने भी अपोहवाद के पूर्वपक्षमें "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां" कारिका उद्धृत की है । वाचस्पतिमिश्र (ई० ८४१ ) के ग्रन्थों में ज्ञानश्रीकी समालोचना नहीं हैं पर उदयनाचार्य (ई० ९८४) के ग्रन्थोंमें है, इसलिए भी ज्ञानश्रीका समय ईसाकी १० वीं शताब्दीके बाद तो नहीं जा सकता । जयसिंहराशिभट्ट और प्रभाचन्द्र-भट्ट श्री जयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ गायकवाड सीरीजमें प्रकाशित हुआ है । इनका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दी है । तत्त्वोपप्लवग्रन्थ में प्रमाण प्रमेय आदि सभी तत्त्वोंका बहुविध विकल्पजालसे खंडन किया गया है । आ० विद्यानन्दके ग्रन्थों में सर्वप्रथम तत्त्वोपप्लववादीका पूर्वपक्ष देखा जाता है । प्रभाचन्द्रने संशयज्ञानका पूर्वपक्ष तथा बाधकज्ञानका पूर्वपक्ष तत्त्वोपप्लव ग्रन्थसे ही किया है और उसका उतने ही विकल्पों द्वारा खंडन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ६४८) में 'तत्त्वोपप्लववादि' का दृष्टान्त भी दिया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ३३९) में भी तत्त्वोपप्लववादिका दृष्टान्त पाया जाता है । तात्पर्य यह कि परमतके खंडनमें क्वचित् तत्त्वोपप्लववादिकृत विकल्पोंका उपयोग कर लेने पर भी प्रभाचन्द्रने स्थान स्थान पर तत्त्वोपप्लववादिके विकल्पोंकी भी समीक्षा की है। · कुन्दकुन्द और प्रभाचन्द्र-दिगम्बर आचार्यों में आ० कुन्दकुन्दका विशिष्ट स्थान है। इनके सारत्रय-प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसमयसार और समयसार-के सिवाय बारसअणुवेक्खा अष्टपाहुड आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्रो० ए. एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें इनका समय ईसाकी प्रथमशताब्दी सिद्ध किया है । कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुड (गा० ३७) में केवलीको आहार और निहारसे रहित बताकर कवलाहारका निषेध किया है । सूत्रप्रामृत (गा० २३३६) में स्त्रीको प्रव्रज्याका निषेध करके स्त्रीमुक्तिका निरास किया है । कुन्दकुन्दके इस मूलमार्गका दार्शनिकरूप हम प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों में केवलिकवलाहारवाद तथा स्त्रीमुक्तिवादके रूपमें पाते हैं । यद्यपि शाकटायनने अपने केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणों में दिगम्बरोंकी मान्यताका विस्तृत खंडन किया है। जिससे ज्ञात होता है कि शाकटायनके सामने दिगम्बराचार्योका उक्त सिद्धान्तद्वयका समर्थक विकसित साहित्य रहा है। पर आज हमारे सामने प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ ही इन दोनों मान्यताओं के समर्थकरूपमें समुपस्थित हैं । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रवचनसारकी 'ज़ियदु य मरदु य' गाथा, भावपाहुडकी 'एगो मे संस्सदो'
SR No.010677
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages921
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size81 MB
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