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है। वस्तुतः भगवान के प्रमुख गणधर और प्रधान शिष्य होने के कारण इन्द्रभूति गौतम उनके पट्टधर बनने के सर्वप्रथम अधिकारी थे, संभवतः इसी दृष्टि से दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में एतद्विषयक किसी प्रकार के ऊहापोह, युक्ति अथवा प्रमाण के प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता न समझकर सहज रूप से यह उल्लेख कर दिया गया कि प्रभु के निर्वाण पश्चात् इन्द्रभूति गौतम उनके प्रथम पट्टधर बने।
श्वेताम्बर परम्परा के अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों में इन्द्रभूति की विद्यमानता में प्रार्य सुधर्मा को भगवान् का प्रथम पट्टधर बनाये जाने के सम्बन्ध में सयौक्तिक एवं सप्रमाण पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के "केवलिकाल" शीर्षकान्तर्गत प्रकरण में इस विषय पर विस्तारपूर्वक जो विवेचन किया गया है उसका सारांश इस प्रकार है :
१. सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने तीर्थप्रवर्तन काल में ही अपने ११ प्रमुख शिष्यों को गणधर पद प्रदान करते समय प्रार्य सुधर्मा को दीर्घजीवी समझकर - "मैं तुम्हें धुरी के स्थान पर रखकर गण की अनुज्ञा देता है"-यह कह कर एक प्रकार से अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
२. प्रभु के निर्वाण के थोड़े समय पश्चात्, उसी निर्वाण रात्रि में इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई थी। केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व उत्तराधिकारी के पद पर नियुक्त व्यक्ति केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् उस पद पर बना रह सकता है पर जिसे केवलज्ञान की उपलब्धि हो चुकी है, वह व्यक्ति किसी का उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता। इसका कारण यह है कि कोई भी पट्टधर अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य के प्रादेशों, उपदेशों, प्रादों एवं सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार तथा प्राशाओं का पालन करवाता है । परन्तु केवलज्ञानी निखिल चराचर के पूर्ण ज्ञाता एवं साक्षात् द्रष्टा होने के कारण-"भगवान् ने जैसा कहा है, वही मैं कह रहा है" यह कहने के स्थान पर "मैं ऐसा देखता है, मैं ऐसा कहता हूँ" यह कहने की स्थिति में रहता है। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर महावीर द्वारा अर्थतः प्ररूपित द्वादशांगी का श्रमण-समूह को ज्ञान कराते समय कोई केवलज्ञानी यह नहीं कह सकते कि भगवान महावीर ने ऐसा देखा, ऐसा जाना और ऐसा कहा । वे तो प्रत्यक्ष ज्ञाता एवं द्रप्टा होने के कारण यही कहते कि मैं ऐसा देखता हूँ, ऐसा जानता हूँ और जो देखता जानता हूँ वही कहता हूँ। उस दशा में अंतिम तीर्थकर द्वारा प्ररूपित धुतपरम्परा भगवान महावीर की परम्परा न रहकर गौतम केवली की श्रुतपरम्परा कही जाती।
आर्य सुधर्मा उस समय तक चार ज्ञान और चतुर्दश पूर्वो के धारक थे। उन्हें वीर निर्वारण के १२ वर्ष पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान् द्वारा उपदिष्ट द्वादशांगी का उपदेश करते समय वे प्रस्थ होने के कारण यही कहते
' प्रावश्यक चूरिण, पृ. ३७०
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