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अकाचार्य के रूप में ] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम थी। इसके फलस्वरूप अनेक वैभवशाली गृहस्थ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराने के लिये उन्हें अपने यहां आमन्त्रित करने लगे।
जिन दिनों श्रमण भगवान महावीर को केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि हुई उन्हीं दिनों अपापा नगर के निवासी सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण ने अपने यहां एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया । सोमिल अपने यज्ञ के अनुष्ठान हेतु इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, प्रकंपित, अंचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास नामक उस समय के लोकमान्य प्रसिद्ध कर्मकाण्डी प्राचार्यों को बड़े आग्रह और मादर के साथ अपापा ले गया। सोमिल ब्राह्मण ने और भी अनेक विद्वानों को उस यज्ञ में आमन्त्रित किया। यज्ञ के सुविशाल प्रायोजन एवं इन्द्रभूति आदि उपर्युक्त उद्भट प्राचार्यों की कीर्ति से प्राकृष्ट हो कर दूर-दूर के प्रदेशों से अपार जनसमह अपापा नगर की ओर यज्ञ की शोभा देखने उमड़ पड़ा।
इन्द्रभूति गौतम को उनकी अप्रतिम विद्वत्ता और यशोकीति के कारण यज्ञ के अनुष्ठान हेतु मुख्य प्राचार्य के पद पर अभिषिक्त किया गया एवं उनके तत्वावधान में बड़ी धूमधाम के साथ यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ। सहस्रों कण्ठों से उच्चरित वेदमन्त्रों की ध्वनि तथा यज्ञवेदियों में हजारों श्रवाओं से दी जाने वाली.पाइवियों की सुगन्ध एवं धूम्र के घटाटोप से धरा, नभ और समस्त वाताबरण एक साथ ही गुंजरित, सुगन्धित तथा मेघाच्छन्न सा हो उठा। प्रति विशाल यज्ञ-मण्डप में उपस्थित जनता-जनार्दन प्रानन्द-विभोर हो एक अद्वितीय मस्ती के साथ झूमने लगा।
सहसा यज्ञमण्डप में उपस्थित सभी लोगों की प्रांखें एक साथ नीलगगन की पोर उठीं। आकाश के दृश्य को देख कर यज्ञ में उपस्थित लोगों की मांखें चौंधिया गई। सवने वार-वार प्रांखों को मलते हुए स्पष्टतः देखा कि सहस्रों सूर्यो की तरह देदीप्यमान सहस्रों विमानों से नभमण्डल जगमगा रहा है। देवविमानों को यामण्डप की ओर अग्रसर होते देख उपस्थित विशाल जनसमूह के हर्ष का पारावार न रहा।
यज्ञ के प्रमुख प्राचार्य इन्द्रभूति गौतम ने घनगम्भीर सगर्व स्वर में अपने यजमान को सम्बोधित करते हुए कहा "सोमिल ! हमने सत्ययुग के दृश्य को साक्षात्-साकार उपस्थित कर दिया है । तुम महान् भाग्यशाली हो। देखो! 'अपना अपना पुरोडाश ग्रहण करने हेतु स्वयं इन्द्रादि सभी देव सशरीर तुम्हारे
या में उपस्थित हो रहे हैं।" सदा तत्र समवमृतं वीरं विवन्दिपून् ।
सुरानापततः प्रेक्ष्य, वभावे गौतमो द्विजान् ॥६२॥ मंघलास्माभिराहूनाः, प्रत्यक्षा नवमी मुराः । इह बने समायान्ति, प्रभावं पश्यत ऋदोः ॥६३॥
[विपष्टि गलाका पुरुप चरित्र, प १०, रागं ५]
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