________________
४६०
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जैन धर्म का प्र० एवं.प्र.
___ दशम सदी से पूर्व के बहुत कम ऐसे शिल्पावशेष मिले हैं जो श्वेत प्रस्तरों पर उत्कीरिणत हों। मौर्यकाल में अधिकतर प्रादेशिक पत्थर ही शिल्पकला में व्यवहृत होते थे। मौर्यकाल की मूर्तियां जितनी भी उपलब्ध हैं, लगभग सभी सचिक्वण हैं । ये प्रतिमाएं अपनी शैली के कारण दूर से ही पहिचानी जा सकती हैं । पाटन-लोहानीपुरा मोहल्ले से निकलीं कुछ खण्डित प्रतिमाएं पटना-म्यूजियम में सुरक्षित हैं। एक बात और भी है कि मन्दिर बनवाने के सम्बन्ध में भी यदि स्पष्ट कहा जावे तो स्थिति सन्देहात्मक ही है, कारण कि मौर्य-शासित प्रदेशों में जहां कहीं भी उत्खतन हुअा है वहां इनके अवशेष या चिह्न कहीं नहीं मिले हैं। यदि संप्रति राजा ने इतना विशद् शैल्पिक निर्माण करवाया होता तो कम से कम कहीं न कहीं तो इनके अवशेषों एवं चिह्नों की प्राप्ति होनी ही चाहिये थी। इन बातों के बावजूद भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जैनत्व के प्रति राजा सम्प्रति के हृदय में अगाध श्रद्धा और आस्था थी।
विदेशों में समनीया जाति कही जाती है । वह असम्भव नहीं, सम्प्रतिकालिक प्रचार एवं पुरुषार्थ का ही प्रतिफल हो । श्रमरण और समनीया का साम्य स्पष्ट है । कालान्तर में उचित जैन संस्कारों के अभाव में समनीया जाति में से जैनत्व के संस्कार विलुप्त हो गये हों, पर नाम समणीया आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है।"
उपरोक्त विचारों पर पाठक तटस्थता से चिन्तन कर तथ्य पर पहुंचने का प्रयास करें।
उत्कट साधना का अनुपम प्रतीक प्रवन्तिसुकुमाल आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए आर्य सुहस्ती एकदा पुनः उज्जयिनी पधारे और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने अपने दो साधुओं को भद्रा नाम की एक अति समृद्ध श्रेष्ठिमहिला के पास भेजा और उससे किसी स्थान में ठहरने की आज्ञा चाही। भद्रा ने बड़ी श्रद्धापूर्वक श्रमणद्वय को वन्दन किया और उनसे उनके पाने का प्रयोजन ज्ञात होने पर उसने अपनी वाहनकुटी में साधुओं को ठहरने की अनुमति प्रदान की। तदनन्तर आर्य सुहस्ती अपने शिष्य परिवार सहित भद्रा की वाहनकूटी में ठहरे !
दूसरे दिन प्रदोषवेला मे प्राचार्य सुहस्ती नलिनीगुल्म नामक अध्ययन का सस्वर पाठ कर रहे थे। उस समय भवन की सातवीं मंजिल पर अपनी ३२ सुकुमार पत्नियों के साथ सोये हुए भद्रा के पुत्र अवन्तिसुकुमाल के कर्णरन्ध्रों में आचार्यश्री का सुमधुर स्वर प्रतिध्वनित होने लगा। अवन्तिसुकुमाल प्राचार्य सुहस्ती के स्वर को दत्तचित हो सुनने लगा। वह पाठ उसे इतना कर्णप्रिय लगा कि वह उसे और अधिक स्पष्ट रूप से सुनने और समझने की उत्कण्ठा से प्रेरित हो मन्त्रमुग्ध की तरह अपने महलों से उतरा और प्राचार्यश्री के पास आकर बड़े ध्यान से सुनने लगा । पाठ को सुन कर अवन्तिसुकुमाल के मन में उथल-पुथल सी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org