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पूर्वधर काल सं. दिग. मा०] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
७०१ अथवा विप्लवकारी घटना के उल्लेख के, यह कहा जाय कि अंतिम दश पूर्वधर प्राचार्य धर्मसेन के वीर नि० सं० ३४५ में स्वर्गस्थ होते ही दशों पूर्वो का ज्ञान सहसा एक ही क्षण में विलुप्त हो गया, दश में से एक भी पूर्व का ज्ञान अवशिष्ट नहीं रहा, यह बात किसी निष्पक्ष विचारक के गले नहीं उतर सकती।
पूर्वज्ञान विषयक दोनों परम्पराओं के इस गहन मान्यता-भेद की अपेक्षा एक और अत्यधिक गम्भीर मतभेद एकादशांगी की विच्छित्ति के सम्बन्ध में है। दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में स्पष्टतः एक स्वर से यह उल्लेख किया गया है कि वीर नि० सं०६८३ में एकादशांगी का विच्छेद हो गया और उसके पश्चात् उसका केवल एक देश ज्ञान ही अवशिष्ट रह गया।'
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, श्वेताम्बर परम्परा का मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ आगमों को और स्थानकवासी तथा तेरापंथ ये दोनों सम्प्रदाय ३२ भागमों को वर्तमान काल में विद्यमान मानते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के इन तीनों सम्प्रदायों की स्पष्ट पौर निश्चित मान्यता है कि काल-प्रभाव से मागमज्ञान अंगोपांगादि उत्तरोत्तर क्षीण, अति क्षीण और क्षीणतर होते रहने पर भी दुष्षमाकाल की समाप्ति पर्यंत वीर नि० सं० के २१००३ वर्ष ८ मास १४ दिन बीत जाने पर १५वें दिन प्रथम प्रहर तक अपने शुद्ध स्वरूप में अंशतः विद्यमान रहेगा।
यहां यह विचारणीय है कि दिगम्बर परम्परा के सभी मान्य ग्रन्थों में अंगप्रविष्ट प्राचारांगादि (द्वादशांगी) के विच्छेद का तो उल्लेख है किन्तु अंगबाह्य प्रादि शेष भागमों के विच्छिन्न होने का किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं किया गया है। दिगम्बर परम्परा की प्रचलित मान्यता के अनुसार तो द्वादशांगी की तरह मंगबाह्य भागम भी विच्छिन्न की कोटि में गिने जाते हैं पर यदि दिगम्बर परम्परा के उपलब्ध वाङमय का समीचीनतया अनुशीलन किया जाय तो उसमें कहीं इस बात का संकेत तक भी नहीं मिलेगा कि अंगबाह्य भागम विलुप्त हो गये।
यदि निष्पक्ष एवं सूक्ष्म दृष्टि से इन दोनों परम्पराओं के आगमों का तुलनात्मक विवेचन किया जाय तो स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति (केवलि-कवलाहार) आदि छोटी बडी ८४ बातों के मान्यताभेद के अतिरिक्त शेष सभी सिद्धान्तों का प्रतिपादन, ' (क) पट्खण्डागम, वेदनाखण्ड, धवला टीका, भाग ६, पृ० १३०
(ख) हरिवंश, पु०, सर्ग ६६, श्लोक २२ से २४ (ग) उत्तरपुराण, पर्व ७६, श्लोक ५१६ से ५२७ (घ) महापुराण पुष्पदन्त, सन्धि १००, पृ० २७४ (3) तिलोयपणती, प्रधि० ४, गा० १४६२ (च) श्रुतावतार (इन्द्रनन्दी), श्लोक ७८.८४ (छ) छ सयतिरासिय वासे रिणवारणा अंगच्छित्ति कहिय जिग ।।१७।।
(नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली)
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