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काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि समाश्रमण तक हुए गौतमादि लोहार्यान्त प्राचार्यों के समुच्चयकाल की तुलना में नन्दी संघ प्राकृत पट्टावलीकार द्वारा प्रत्येक प्राचार्य के पृथक् पृथक् दिये गये काल को कुछ अधिक विश्वसनीय बताया है।' इसके साथ ही हरिवंश पुराण, धवला, श्रुतावतार आदि में उल्लिखित पांच एकादशांगधरों के समुच्चय २२० वर्ष के काल के स्थान पर नन्दीसंघ की प्राकृत पावली में दिये गये १२३ वर्ष के काल निर्देश का तथा प्राचारांगधर सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहार्य को दश, नव व पाठ अंगधारी बताते हुए शेष बचे ६७ वर्ष के समय को इन चारों में विभक्त किये जाने एवं इन चार प्राचारांगधरों के स्थान पर अहंबली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन अंगज्ञान के एक देशधरों का प्राचारांगधरों के रूप में उल्लेख कर शेष ११८ वर्ष का समय इनमें विभक्त किये जाने को एक प्रकार से बुद्धिगम्य अथवा तर्कसंगत बताते हुए डॉ० हीरालालजी ने लिखा है :
"इस पट्टावली में जो अंग विच्छेद का क्रम और उसकी कालगणना पाई जाती है, वह अन्यत्र की मान्यता के विरुद्ध जाती है। किन्तु उससे अकस्मात् अंगलोप सम्बन्धी कठिनाई कुछ कम हो जाती है और जो पांच प्राचार्यों का २२० वर्ष का काल असंभव नहीं तो दुःशक्य जंचता है। उसका समाधान हो जाता है। पर यदि यह ठीक हो तो कहना पड़ेगा कि श्रुत परम्परा के संबंध में हरिवंश पुराण के कर्ता से लगाकर श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दी तक के सब प्राचार्यों ने धोखा खाया है और उन्हें वे प्रमाण उपलब्ध नहीं थे जो इस पट्टावली के. कर्ता को थे।"
यद्यपि डॉ० हीरालालजी ने अपनी उक्त प्रस्तावना में इस प्रश्न को अनिर्णीत ही छोड़ दिया है कि नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली विश्वसनीय एवं प्रामाणिक है अथवा नहीं तथापि उनकी प्रस्तावना के उपरिलिखित दो उद्धरणों से नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली द्वारा प्रकाश में आये, नये एवं अति विलक्षण अभिमत को बल मिला। पं० जुगलकिशोरजी द्वारा प्राचार्य अहंबलि का समय वीर नि० सं० ७१३ अनुमानित किया गया है। पर नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के अभिमत को मान्य कर लिये जाने पर इनका समय इससे १२० वर्ष पूर्व अर्थात् वीर नि० सं० ५६३ ठहरता है । परम श्रद्धेय अर्हबलि आदि प्राचार्य नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में उल्लिखित मान्यतानुसार अधिक प्राचीन सिद्ध होते हैं, इस दृष्टि से प्रात्यन्तिक धर्मानुरागवशात् प्राकृत पट्टावली की मान्यता केवल ' "जहां अनेक क्रमागत व्यक्तियों का समय समष्टि रूप से दिया जाता है, वहां बहुधा ऐसी
भूल हो जाया करती है। किन्तु जहां एक एक व्यक्ति का काल निर्दिष्ट किया जाता है, वहां ऐसी भूल की संभावना बहुत कम हो जाती है ..............." प्रस्तुत परम्परा में इन २२० वर्षों के काल में ऐसा ही भ्रम हुआ प्रतीत होता है।"
_ [धवला, भाग १ (द्वितीय संस्करण) की प्रस्तावना, पृ. २४] २ समन्तभद्र, (पं० जुगलकिशोर मुख्त्यार) पृ० ६१ । । 3 नंदीसंघ की प्राकृत पट्टावली गा० सं० १५ और १६ ।
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