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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति रूपेण इस निर्णय पर पहुँचा जा सके कि - "कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है।"१ डॉ० उपाध्ये ने विविध संभावनाओं पर तो विस्तार पूर्वक चर्चा की है पर उनकी प्रस्तावना के पढ़ने के पश्चात् यह बात खटकती है कि आचार्य कुन्दकुन्द के कालनिर्णय में सर्वाधिक सहायक दिगम्बर परम्परा के आज उपलब्ध प्रमारणों में सबसे अधिक प्राचीन लिखित प्रमाण की ओर उनका ध्यान नहीं गया। जैसा कि पहले बताया जा चुका है - गौतम से लोहार्य (वीर नि० सं०.६८३) तक की प्राचार्य-परम्परा का सभी प्रामाणिक ग्रन्थों में समान उल्लेख है । वीर निर्वाण सं० ६८३ में दिवंगत हुए लोहाचार्य के पश्चात् की, संघविभाजन के समय तक की प्राचार्य परम्परा पुन्नाट संघीय आचार्य 'जिनसेन ने हरिवंश पुराण, सर्ग६६, श्लोक २५ में उल्लिखित की है। हरिवंश पुराण का यह उल्लेख दिगम्बर परम्परा के उपलब्ध प्रमाणों में सबसे अधिक प्राचीन है, इस तथ्य को तो कोई विद्वान् अस्वीकार नहीं कर सकता। इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार के श्लोक संख्या ८४ तथा ८५ द्वारा हरिवंश पुराण के उपरोक्त श्लोक में उल्लिखित तथ्यों की पुष्टि की है कि आर्य लोहाचार्य के पश्चात् अनुक्रमशः पांच प्राचार्य हुए। जिनमें से प्रथम का नाम विनयधर और पांचवें का अहद्वलि था । अर्हद्बलि के पश्चात् हरिवंश पुराण में तो पुन्नाट संघ के प्राचार्यों की नामावलि दी गई है किन्तु इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार के श्लोक सं० १०२ -१०४, १२७, १२८, १३२, १३३, १४६ द्वारा अहबलि के पश्चात् हुए माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त; भूतबलि, और जिनपालित इन ५ प्राचार्यों के नामों का उल्लेख किया है । तदनन्तर श्लोक संख्या १६० तथा १६१ द्वारा इन्द्रनन्दी ने कुण्डकुन्दपुर में आचार्य पद्मनन्दी (कुन्दकुन्दाचार्य) के होने तथा उनके द्वारा षखण्डागम के प्राद्य ३ खण्डों पर १२,००० श्लोक परिमारण के परिकर्म नामक ग्रन्थ के लिखे जाने का उल्लेख किया है।
___षटखण्डागम के आद्य तीन खण्डों पर परिकर्म नामक एक ग्रन्थ लिखा गया था” – इन्द्रनन्दि के इस कथन की तो पुष्टि होती है, पर वह "कोण्डकुन्दपुर के पद्मनन्दि द्वारा लिखा गया था," इस कथन की पुष्टि करने वाला एक भी प्रमाण आज उपलब्ध नहीं है। धवलाकार ने धवला टीका में परिकर्म नामक ग्रन्थ का प्रचुर मात्रा में उल्लेख करने के साथ-साथ उसके अनेक उद्धरण भी दिये हैं । जीवट्ठारण के द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोगद्वार के सूत्र ५२ को धवला टीका को पढ़ने पर तो यह पूर्णतः प्रमाणित हो जाता है कि परिकर्म वस्तुतः षखण्डागम के पश्चाद्वर्ती काल का ही नहीं अपितु षट्खण्डागम का ही व्याख्या-ग्रन्थ है। उपरोक्त सूत्र में लब्धपर्याप्त मनुष्यों का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा से जगतश्रेणी के असंख्यातवें भाग बताने के पश्चात् यह भी कहा गया है कि जगतश्रेणी के प्रसंख्यातवें भाग रूप श्रेणी असंख्यात करोड़ योजन प्रमाण होती है। इस पर धवला में यह शंका उठाई गई है कि इसके कहने की क्या मावश्यकता थी? इस शंका
1.
I am inclined to believe, after this long survey of the available material, that Kundkunda's age lies at the beginning of the Christian era.
(Introduction op Pravacbausara, by A. N. Upadhye, p. 22]
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