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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा बीच के अनेक अन्तरालों में साध्वी-परम्परा की साध्वियों के नाम सुरक्षित न रह पाने के कारण उपलब्ध साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होते तथापि न केवल साध्वीपरम्परा ही अपितु सम्पूर्ण एकादशांगी की पारंगत साध्वी-परम्परा सदा प्रक्षुण्ण रूप में विद्यमान रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो एकादशांगी के ज्ञान में निष्णात सानियों से बालक वज्र द्वारा ऐकादशांगी के कण्ठान किये जाने का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं किया जाता।
वस्तुतः प्रार्या सुनन्दा और वे अनपलब्धनामा ज्ञानस्थविरा आर्याएं, जिनसे बालक वज ने एकादशांगी कण्ठस्थ की और जिनके पास वज्र की महामहिमामयी माता सुनन्दा ने. श्रमण-धर्म अंगीकार किया, उस अक्षुण्णा साध्वी-परम्परा की श्रृंखला की अविच्छिन्न कडियां हैं, जो तीर्थस्थापन की वेला से आज तक मनवरत रूप से स्व-पर-कल्याण करती चली पा रही है । . प्रार्या सुनन्दा का विस्तृत परिचय प्रार्य सिंहगिरि के प्रकरण में दिया जा चुका है।
बालब्रह्मचारिणी साध्वी विमरणी
(वीर निर्वाण की छठी शताब्दी का पूर्वार्द) साधना पथ पर अग्रसर होने वाले नरशार्दूलों के समान नाहरियों तल्य पराक्रमशालिनी नारियों द्वारा किये गये त्याग के भी एक से एक बढ़ कर बड़े ही अद्भुत एवं अनुपम उदाहरण जैन वाङमय में उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार के प्रत्युञ्चकोटि के त्याग करने वाली महामहिमामयी महिलाओं में साधिका रुक्मिरणी का भी बहुत ऊंचा स्थान है । वस्तुतः साध्वी रुक्मिरणी का त्याग अपने आप में सब से निराला-सबसे अनूठा है । एक क्षरण पहले मोह के मादक नशे के वशीभूत हए मन ने जिसे अपने विलासितापूर्ण भोगमार्ग के आराध्य देव के रूप में वरण कर लिया हो, दूसरे ही क्षण, मोह का नशा उतार दिये जाने पर भोग-मार्ग के लिये चूने गये उसी प्राराध्य देव को योग-मार्ग का प्राराध्य देव बना कर समस्त भोगों को ठकरा जीवन भर के लिये कण्टकाकीर्ण योग-पथ का पथिक बन जानायह कोटिपति श्रेष्ठि की इकलौती पुत्री रुक्मिणी के जीवन की अप्रतिम एवं बड़ी ही अद्भुत् विशेषता है । वह अभूतपूर्व घटना इस प्रकार है :. गणाचार्य आर्य सिंहगिरि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् मार्य वज्र विहार क्रम से पाटलीपुत्र पहुंचे। अपने समय के महान् युगपुरुष के, अपने नगर के बहिर्भाग में प्रवस्थित उपवन में, शुभागमन का समाचार सुनते ही पाटलीपुत्र का अपार जनसमूह उद्वेलित सागर के समान आर्य वज्र के दर्शन एवं उपदेश श्रवरण की उत्कण्ठा लिये उस उपवन की अोर उमड़ पड़ा। पाटलिपुत्र के धन नामक कोट्यधीश श्रेष्ठी की इकलौती पुत्री कुमारी रुक्मिणी भी अपनी सखी-सहोलयों के साथ उस उपवन में पहुँची। . देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ५६६-५७२
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