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साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
७६५ अथवा प्राध्यात्मिक अभ्युत्थान में वह विद्या किचित्मात्र भी सहायक नहीं। पुत्र! सच कहती है, मुझे वास्तविक खुशी तो तब होती जबकि तुम अध्यात्म-विद्या से प्रोतःप्रोत दृष्टिवाद का अध्ययन कर पाते। अपनी और अपने आश्रितों की उदरपूर्ति तो पशुपक्षि तक भी कर लेते हैं। मेरे जीवन की एकमात्र यही साध थी, आन्तरिक अभिलाषा थी कि मेरा पुत्र दृष्टिवाद का अध्ययन कर अध्यात्मविद्या में निष्णात हो अध्यात्म-मार्ग का सफल पथिक और कुशल पथ-प्रदर्शक बने ।”
- माँ के हृदय के गहन तल से प्रकट हुए अमोघ उद्गार पुत्र के हृदयपटल पर सदा-सदा के लिये अंकित हो गये। उसने दृढ स्वर में कहा- "माँ ! मैं तुम्हारी प्रान्तरिक अभिलाषा को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है। मेरी अच्छी मां ! तुमने मेरी अंतर की प्रांखें खोल दी हैं। मैं दृष्टिवाद का अध्ययन करके ही तुम्हारी सेवा में पुनः लौटुंगा । पर माँ ! यह तो बतायो कि मुझे दृष्टिवाद की शिक्षा कहां मिलेगी ?"---
"नगर के बाहर अपनी इक्षुवाटिका में प्राचार्य तोषलिपुत्र विराजमान हैं, उनकी सेवा में चले जायो। सव व्यवस्था हो जायगी।" माँ ने कहा।
दिवस का अवसान होने ही वाला था अतः वह रात्रि तो रक्षित ने मन मसोस कर जिस किसी तरह घर पर बिताई। प्रातःकाल होते ही रक्षित मां की चरणरज भाल पर लगा दृष्टिवाद के अध्ययन की उमंग लिये अपनी इक्षुवाटिका में विराजमान प्राचार्य तोषलिपुत्र की सेवा में पहचा।
"निर्ग्रन्थ श्रामण्य की दीक्षा ग्रहण करने पर ही दृष्टिवाद का अध्ययन कराया जा सकता है, अन्यथा नहीं" - प्राचार्य तोषलिपुत्र से अपनी प्रार्थना का यह उत्तर सुनकर रक्षित ने तत्काल बिना किसी हिचक के प्रार्य तोषलिपुत्र के पास श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर ली।
मार्य रक्षित ने प्राचार्य तोषलिपुत्र के पास एकादशांगी का गहन अध्ययन करने के पश्चात् किस प्रकार मार्य वज्र की सेवा में पहुँच कर सार्द्ध नव पूर्व का शान प्राप्त किया, किस प्रकार माता-पिता द्वारा स्वयं (आर्य रक्षित) को लिवा लें जाने के लिये आये हुए अपने अनुज फल्गुरक्षित को श्रमण धर्म में प्रवजित किया, यह सब प्रार्य रक्षित के प्रकरण में बताया जा चुका है। आर्य रक्षित साढ़े नव पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर पुनः अपने गुरु प्राचार्य तोषलिपुत्र की सेवा में पहुंचे। गुरू ने सार्द्ध नव पूर्व के ज्ञान से सम्पन्न अपने शिष्य को सर्वथा योग्य समझ कर, उन्हें गणाचार्य पद प्रदान किया और तदनन्तर वे समाधि संलेषना पूर्वक स्वर्गस्थ हुए।
प्राचार्य पद पर अधिष्ठित होने के पश्चात् मार्य रक्षित पूर्व में फल्गुरक्षित के माध्यम से किये गये माता रुद्र सोमा के अनुरोध और अनेक दीक्षार्थियों के हित को दृष्टिगत रखते हुए दशपुर पहुंचे।
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