Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 924
________________ ७१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा वों तक विद्याभ्यास करते हुए कुशाग्र बुद्धि रक्षित ने छहों अंगों सहित वेदों का अध्ययन किया। सभी विद्याओं में पारंगत होने के पश्चात् वीर नि. सं. ५४४ में जब रक्षित पाटलिपुत्र से दशपुर पहँचा तो राजा और प्रजा ने भव्य समारोद के साथ नगर-प्रवेश करा उसे सम्मानित किया। जिस समय हर्षोल्लास में भरा रक्षित अपनी मां के पदवन्दन हेतु घर में पहँचा, उस समय रुद्रसोमा सामायिक ग्रहण किये आत्म चिन्तन में तल्लीन थी। रक्षित अपनी मां के चरणों में निढाल हो जाना चाहता था पर उसे सामायिक में देख उसने दूर से ही उसके चरणों में भावविभोर हो प्रणाम किया। उसे प्राशा थी कि उसकी मां उसे देखते ही हर्ष गद्गद् हो अपनी गोद में समेट कर उसकी सहस्रों बलयां लेगी। जिस प्रकार दशपुरपति, दशपुर की प्रजा, पिता और पारिवारिक जनों ने उस पर स्मित एवं हर्ष विभोर मुखमुद्रा तथा मधुर वचनों के माध्यम से अपार स्नेह और सम्मान का सागर उस पर उंडेल दिया, उसी प्रकार मां भी उसे देखते ही अवश्यमेव उससे बढ़कर संसार के समस्त मातृवात्सल्य को उस पर उंडेल कर उच्च अध्ययन में किये गये अथक श्रम की थकान को दूर कर देगी। पर उसे यह सब कुछ मां की ओर से नहीं मिला। मां तो केवल एक बार स्नेहभरी दृष्टि डाल कर पुनः अपने नित्य-नियम में तल्लीन हो गई। वह मां के सम्मुख विचारमग्न मुद्रा में बैठ गया। उसके मन में प्रश्न उठा - "क्या मां रुष्ट है ?" दूसरे ही क्षण अन्तर्मन ने उत्तर दिया"नहीं। मां कभी रुष्ट नहीं होती। मां तो स्नेह और ममता की प्रतिमूर्ति है जिसके नेत्रों से, रोम-रोम से स्नेह की सरिताएं निरन्तर बहती रहती हैं।" रक्षित ने देखा कि उसकी मां ने सामायिक का पारण कर लिया है। वह आगे बढ़ा और मां के चरणों से लिपटते हुए उन पर अपना मस्तक रख दिया। मां का स्नेहिल वरद हस्त रक्षित के मस्तक, भाल, कपोल, ग्रीवा और पृष्ठ भाग को सहलाता रहा और रक्षित मां के चरणों से अपना मस्तक चिपकाये चुपचाप लेटा रहा। कई क्षणों तक यही स्थिति रही। रक्षित ने मौन भंग करते हुए रुंधे कण्ठ-स्वर में कहा- "मेरी मां ! सफलतापूर्वक उच्च अध्ययन कर लोटे हुए तेरे लाड़ले लाल का आज दशपुराधीश और दशपुर की प्रजा ने अपनी प्रांखों की पलकें बिछा स्वागत-सम्मान किया। माँ ! अपने पुत्र की इस सफलता और अपूर्व सम्मान पर जिस प्रकार की प्रसन्नता तुम्हें होनी चाहिये, वह में तुम्हारे मुख पर नहीं देख रहा हूँ । सच-सच कहो माँ ! यह कहीं मेरा दृष्टिदोष तो नहीं है ?" रुद्रसोमा ने शान्त स्वर में कहा - "वत्स! भला संसार में ऐसी कौन प्रभागिन मां होगी जो अपने पुत्र की सफलता पर प्रसन्न न हो । तुम्हारी सफलता पर सब को प्रसन्नता है पर तुम जिस विद्या में निष्णात होकर पाये हो, उस विद्या का फल सांसारिक सुखोपभोग प्रदान करने और अपना स्वयं का तथा अपने परिजनों का भरण-पोषण करने तक ही सीमित है। स्व-पर-कल्याण ranamamawuly Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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