Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 922
________________ ७९२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा कुछ उत्सुकता भरे भाव से चतुष्पथ पर दृष्टिपात किया। वह सहसा एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ। वह गवाक्ष में भूक कर सांस को जहां की तहां रोके बड़ी उत्सुकता के साथ चतुष्पथ की ओर देखने लगा। यह देखकर उसके पाश्चर्य का पारावार न रहा कि कालोपम हस्तिराज चिंघाड़ता हुआ एक श्वेताम्बरा कृषकाय-साध्वी की पोर बड़े वेग से बढ़ा जा रहा है। हस्तिवाहक द्वारा बिजली की कड़क के समान अति कठोर स्वर में पुनः पुनः दुहराई गई चेतावनी समस्त वातावरण को विभत्स बनाती हुई गगन में गुंजरित हो रही है पर वह साध्वी शान्त मुखमुद्रा धारण किये सहजगति से अपने गन्तव्य की ओर, जिस ओर से कि हाथी उस पर झपटा पा रहा है, उसी ओर निडर हो बढ़ती जा रही है। उसकी ओर बढ़ता हुआ हाथी जब उससे थोड़ी ही दूर पर रह गया तो साध्वी ने अपनी मुखवस्त्रिका हाथी की ओर डाली। हाथी सहसा रुका, मुखवस्त्रिका को सूंड में पकड़ इधर-उधर करते हुए देखा और उसे एक ओर डालकर पुनः द्रुतगति से साध्वी की ओर बढ़ने का उपक्रम करने लगा। निरन्तर अति तीव्र स्वर में चीख-चीख कर चेतावनी देने के कारण अब हस्तिवाहक के कण्ठ से फटे बांस की फटकार के समान स्वर निकल रहे थे। हाथी पुनः चिंघाड़ कर आगे बढ़ा। सहजशान्त-निर्भय मुद्रा में खड़ी साध्वी ने अपना रजोहरण हाथी की ओर गिराया।' वह बढ़ने से पुनः रुका। उसने रजोहरण की डंडी को अपनी संड में पकड़ कर कुछ क्षणों तक चामर की तरह इधर-उधर हवा में घुमाया-फेरा और फिर एक ओर फेंक दिया। इसी प्रकार वह साध्वी एक-एक करके अपने पात्रादि अन्य धर्मोपकरणों को हाथी की ओर डालती रही और वह उन्हें थोड़ी-थोड़ी देर इधरउधर करके देखता और अन्त में एक ओर फेंकता रहा। प्रब साध्वी के पास एक वस्त्र के अतिरिक्त और कुछ भी बचा न रहा। हाथी पुनः प्रागे बढ़ा । एक वसन में लिपटी दुबली-पतली साध्वी द्रुतगति से कभी हाथी के इस भोर तो कभी उस मोर होती हई बड़े धर्य के साथ स्वयं को बचाती रही। चतुष्पथ पर एकत्रित विशाल जनसमूह तपोपूता साध्वी के अद्भुत बुद्धिकौशल और अनुपम धैर्य एवं साहस को देख कर स्तब्ध रह गया। उपस्थित जन-समूह के धैर्य का पात्र किनारे तक भर चुका था, सब का प्याला लबरेज हो चुका था। अब धैर्य प्रतिकार के रूप में वह निकला । क्रुद्ध जन-समूह ने हस्तिवाहक को ललकारा । सहस्रों कण्ठों से क्रोष-प्राक्रोश भरा यह निर्घोष सहसा गंज उठा - "बन्द करो इस दुष्टता को। अब यदि हाथी ने एक डग भी भागे बढ़ा दिया तो न तुम्हारी कुशल है, न हाथी की ही। कुल भीड़ के कोलाहल से हाथी और महावत दोनों ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके थे। हस्तिवाहक ने मुरुण्डराज की मोर दृष्टि धुमाई, उसे कुछ संकेत मिला । मुरुग्णराज का संकेत पाते ही हस्तिवाहक ने एक विचित्र ध्वनि करते हुए हाथी के स्कन्द भाग पर अंकुश का प्रहार किया। एक चिंघाड़ के साथ हाथी मुड़ा और अपनी लम्बी पूंछ, सूंड और कानों को फटकारता हुमा हस्तिशाला की भोर भाग खड़ा हुमा। १ वहत्कल्प भाष्य, मा. ४, पृ. ११२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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