________________
७६१
साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण जाने की घटना का काल अनुमानतः वीर नि० सं० ४४-४५ के आसपास ठहरता है। इस आक्रमण से कुछ समय पूर्व साध्वी विगतभया द्वारा अनशन किये जाने का उल्लेख आवश्यक चूरिण में है। इससे यह सिद्ध होता है कि महतरा विजयवती वीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी के प्रथम चरण में साध्वियों के किसी छोटे अथवा बड़े संघाटक की प्रमुखा थीं।
प्रजातनामा साध्वी मुरुण्ड-राजकुमारी
(वीर की पांचवी छठी शती) जिस प्रकार भगवान् महावीर के श्रीचरणों में कोटिवर्ष के-उस समय विदेशी समझे जाने वाले---चिलातराज के श्रमण-धर्म में दीक्षित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है, उसी प्रकार निर्वाणोत्तर काल में भी एक विदेशी महिला के श्रमरणीधर्म में दीक्षित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है।
विशेषावश्यक भाष्य एवं निशीथ चूरिण के उल्लेखानुसार मुरुण्डराज (विदेशी शक शासक) के समक्ष उसकी विधवा बहिन ने प्रवजित होने की इच्छा प्रकट की । मुरुण्डराज ने अपनी बहिन को प्रवजित होने की अनुज्ञा प्रदान करने से पूर्व यह परीक्षा करना चाहा कि कौनसा धर्म सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें दीक्षित होकर उसकी बहिन सच्चे अर्थों में अपनी आत्मा का उद्धार कर सके । बहुत सोचविचार के पश्चात् इस प्रकार की परीक्षा लेने का एक उपाय उसे सूझा । उसने अपनी हस्तिशाला के एक कुशल हस्तिवाहक (महावत) को आदेश दिया कि वह हस्तिशाला के सबसे विशालकाय हाथी पर आरूढ़ हो राजपथ पर राजप्रासाद के समीपस्थ चतुष्पथ पर खड़ा हो जाय । जब भी जिस किसी धर्म की कोई साध्वी उस पथ पर उसे दृष्टिगोचर हो तो उसकी ओर हाथी को तीव्र वेग से हांकते हुए बड़े कर्कश स्वर में कठोर चेतावनी दे कि वह सब वस्त्रों को तत्काल डालकर निर्वसना हो जाय, अन्यथा मदोन्मत्त हाथी उसे अपने पांवों से कुचल डालेगा।
- मुरुण्डराज ने राजप्रासाद के गवाक्ष से देखा कि हस्तिवाहक उसके आदेश का अक्षरशः पालन कर रहा है और उस पथ पर आने-जाने वाली साध्वियां भीमकाय गजराज को अपनी ओर अतिवेग से बढ़ते देख, घबड़ा कर, हस्तिवाहक. की कड़ी चेतावनी के अनुसार अपने सभी वस्त्र एक ओर फेंक आशाम्बरा हो जाती हैं। यह देखकर मुरुण्डराज को बड़ी निराशा हुई। वह चिन्तित हो सोचने लगा कि उसकी स्नेहमयी सहोदरा कृतसंकल्पा है प्रजित होने के लिये पर इन काषाय, पीत, गेरुक, श्वेत आदि विभिन्न रंग के परिवेश को धारण करने वाली विभिन्न मतमतान्तरों की परिव्राजिकाओं में एक भी ऐसी समर्थ साध्वी प्रतीत नहीं होती, जिसके पास प्रवजित हो वह अपना इहलोक और परलोक सुधार सके ।
उपर्युक्त विचारों में डूबे हुए मुरुण्डराज के कर्णरन्ध्रों में पुनः हाथी की चिघाड़ के साथ हस्तिवाहक का कर्कश स्वर गूंज उठा । मुरुण्डराज ने कुछ उन्मने, ' जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० ४५०-४५१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org