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साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाशमण उसके साथ धारिणी ने आगे की ओर प्रस्थान किया। सार्थ में सम्मिलित महिलायों के साथ वह घुलमिल गई । कतिपय दिनों की यात्रा के पश्चात् सार्थ के साथ-साथ धारिणी कौशाम्बी नगर पहुंची।
कौशाम्बी के महाराजा की यानशाला में ठहरी हुई स्थविरा श्रमणियों के दर्शन और उपदेश-श्रवण से धारिणी को अद्भुत् शान्ति की अनुभूति हुई। सांसारिक प्रपंचों से दूर, केवल आध्यात्मिक चिंतन में लीन उन जैन साध्वियों का शान्त-दान्त जीवन धारिणी को बड़ा सुखकर लगा। राष्ट्रवर्द्धन की हत्या, कामान्ध अवन्तीवर्द्धन द्वारा संभावित संकट और पुत्रवियोग के कारण धारिणी का हृदय भोषण भट्रो की तरह जल रहा था । उसको ज्वालाएं उसके तन, मन, रोम-रोम को भस्मसात् किये जा रही थीं। साध्वियों के सानिध्य में धारिणी को अनुभव होने लगा कि उसके अन्तर को प्राग शनैः-शनैः शीतल होती चली जा रही है, उसके तन-मन की जलन मिटती जा रही है। उसके अंतर में प्राशा की नयी किरण उदित हुई। उसके मन में विश्वास जमने लगा कि इन श्रमरिणयों की सेवा में रह कर वह सदा सर्वदा के लिये भवताप को भी समाप्त करने में सिद्धकाम हो सकती है। उसने श्रमणी-धर्म में प्रवजित होने का दृढ़ निश्चय किया। उसने सोचा - "यदि संघाटक-मुख्या साध्वी को उसके गर्भिणी होने की बात विदित हो गई तो निश्चित रूप से वे उसे श्रमरणी-धर्म की दीक्षा प्रदान नहीं करेंगी।" अब उसका वैराग्य अपनी चरम सीमा पार कर चुका था, अब उसे दीक्षित होने में एक-एक भरण का विलम्ब भी प्रसह्य हो रहा था। अतः धारिणी ने इस रहस्य को प्रकट नहीं किया और श्रमणी-मुख्या के पास पंच महाव्रत रूप श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। साध्वी धारिणी अपने बीते दिनों की याद भूला कर अहर्निश साध्वियों की सेवा, ज्ञानार्जन और प्रात्मचिन्तन में तल्लीन रहने लगी।
कुछ समय पश्चात् गर्भसूचक स्पष्ट चिन्हों को देख कर संघाटक-मुख्या स्थविरा ने धारिणी से वस्तुस्थिति के बारे में पूछा। धारिणी ने अपना पूरा परिचय देते हुए अपने साथ घटी माद्योपान्त सारी घटना यथातथ्य रूप से गुरुपीजी को सुना दी।
केवलिकाल के, प्रार्य जम्बू के प्रकरण में प्रद्योत राजवंश का परिचय देते समय प्रस्तुत पुस्तक में यह बताया जा चुका है कि गर्भकाल पूर्ण होने पर धारिणी ने पुत्र को जन्म दिया और रात्रि में उसने नवजात शिशु को उसके पिता के आभूषणों के साथ कौशाम्बी नरेश के राजप्रासाद के प्रांगण में रख दिया। बालक ने रुदन किया। कौशाम्बी नरेश स्वयं अपने शयनकक्ष से नीचे उतर कर पाया और प्रांगण में रखे बालक और उसके पास पड़ी गठरी को उठा कर शयनकक्ष में लोट गया ।पार में खड़ी धारिणी ने जब देखा कि शिशु उपयुक्त स्थान पर पहुंच गया है.तो वह उपाश्रय की मोर लौट गई। वह अपनी गुरूपीजी के निर्देशानुसार प्रायश्चित ले मात्मशुद्धि कर पुनः तप-संयम की साधना में तल्लीन हो गई । कौशाम्बी के महाराजा के कोई संतान नहीं थी अतः राजदम्पति ने उस बालक
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