Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 918
________________ ७८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा एक दिन प्रवन्तीवर्दन ने राजप्रासाद के उद्यान में क्रीड़ा करती हुई धारिणी को देखा। वह उस पर मासक्त हो गया। अपनी विश्वस्ता दासी के माध्यम से उसने अपने भाई की पत्नी के पास अपना निन्द्य प्रस्ताव पहुंचाया। धारिणी ने भर्त्सना भरे शब्दों में अपने ज्येष्ठ के कामुकतापूर्ण कुत्सित प्रस्ताव को ठुकराते हुए दासी के माध्यम से उसे कहलवाया कि उनके अनुज के अतिरिक्त संसार के समस्त पुरुषवर्ग को वह पिता, भाई एवं पुत्र तुल्य समझती है । अवन्तीवर्धन पर धारिणी की फटकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह धारिणी को पाने के लिये, जल से स्थल पर पटकी हुई मछली के समान छटपटाने लगा। पारिणी को पाने का और कोई उपाय न देख उस कामान्ध अवन्तीवर्द्धन ने अपने सहोदर राष्ट्रवर्धन की बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से हत्या करवा दी। गुर्विणी (गभिणी) धारिणी को काल की उस कराल करवट ने कुछ समय के लिये किंकर्तव्यविमूढ बना दिया। उसे अपने चारों ओर घोर अन्धकार ही अन्धकार प्रतीत होने लगा। अपने सतीत्व पर प्राने वाले संकट की कल्पना मात्र से वह सिहर उठी। उसका पुत्र प्रवन्तीसेन उस समय एक प्रबोध बालक था। उसे कहीं कोई सहारा दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। उसे समस्त सांसारिक कार्यकलाप विडम्बनापूर्ण प्रतीत होने लगे। उस प्रति विकट संकटापन्न स्थिति में भो, जबकि उसके चारों ओर घोर निराशा के बादल मंडरा रहे थे, धारिणी ने धर्य नहीं त्यागा। उसने अपने सतीत्व की रक्षा का दृढ़ संकल्प किया। अपने और अपने पति के कतिपय बहुमूल्य प्राभूषणों को एक गठरी में लपेट कर राजप्रासाद का सदा के लिये परित्याग करने हेतु वह उद्यत हुई। प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए अपने पुत्र प्रवन्तीसेन की मोर ममता भरी दृष्टि का निक्षेप कर उसने एक बार ऊपर अनन्त प्राकाश की पोर एक क्षरण के लिये देखा और वह प्रछन्न वेष में राजप्रासाद से बाहर निकली । जिस मोर डग पड़े उसी ओर बढ़ती हुई धारिणो नगर के बाहर पहुँची। उसे स्वयं को भी पता नहीं था कि अन्ततोगत्वा उसे कहां पहुंचना है, वह विगविमूढ़ की तरह निरन्तर आगे की ओर बढ़ती रही। उसने मुड़ कर देखाप्रवन्ती, प्रवन्ती के गगनचुम्बी राजप्रासाद, भव्य भवन, अट्टालिकाएं-सब क्षितिज के उस छोर में छुप गये हैं। उसने संतोष की एक दीर्घ सांस ली और वह पुनः अपने लक्ष्य-विहीन पथ पर अग्रसर हुई। विकट वन्य प्रदेशों को पार करती हुई धारिणी रात भर चलती रहो । सूर्योदय हो चुका था, वह थक कर चूर हो चुकी थी तथापि वह अदम्य साहस की पुतली सी बनी, बिना एक क्षण भी विश्राम किये प्रागे की पोर बढ़ती रही । एक टेकरी की चढ़ाई को पूरा करने के पश्चात् ढलान की ओर बढ़ते हुए उसने देखा कि एक सार्थ रात्रि के विश्राम के अनन्तर अपना पड़ाव उठा कर आगे बढ़ने को उद्यत हो रहा है । धारिणी के अन्तर्मन में पाशा और संतोष की एक लहर उठी । वह तीव्र गति से सार्थ की ओर बढ़ी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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