Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PI च A जैन धर्म का मौलिक इतिहास द्वितीय भाग केवली व पूर्वधर खण्ड HOOL चिया LIOLO च राज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास कुछ नये तथ्य: कुछ विशेषताएं: वीर निर्वाण सम्वत् १ से सम्वत्। २००० तक की प्रमुख धार्मिक, 'सामाजिक व राजनैतिक घटनाओं का तथ्यपरक विवेचन। जैन धर्म की धर्माचार्य परम्पराओं का क्रमबद्ध प्रामाणिक इतिहास। द्वादशांगी के क्रमिक हास एवं विच्छेद विषयक शोधपूर्ण विशद् मीमांसा। समसामयिक धर्माचार्यों एवं राजवंशों। 'के इतिवृत्त का शृंखलाबद्ध वस्तुपरक प्रस्तुतिकरण। जैन इतिहास की जटिल गुत्थियों का 'प्रमाण पुरस्सर हल, बद्धमूल भ्रान्तियों का निराकरण एवं समग्र भारतीय इतिहास विषयक कतिपय अन्धकारपूर्ण प्रकरणों पर नूतन प्रकाश। जैन परम्परा में महिला वर्ग द्वारा 'श्रमणी एवं श्रमणोपासिका के रूप में दिये गये अनुपम योगदान का भव्य विवरण। इतिहास जैसे गूढ एवं नीरस विषय का सरस, सुबोध एवं प्रवाहपूर्ण भाषा शैली में आलेखन। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (द्वितीय भाग) केवली व पूर्वधर-खण्ड णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ( द्वितीय भाग ) केवली व पूर्वधर - खण्ड - लेखक एवं निर्देशक आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज डॉ. नरेन्द्र भानावत प्रेमराज बोगावत गजसिंह राठौड़, न्याय-व्याकरण- तीर्थ (मुख्य-सम्पादक) सम्पादक मण्डल पंडितरत्न मुनि श्री लक्ष्मीचन्द्र जी महाराज श्री देवेन्द्र मुनि 'शास्त्री ' पं. शशिकान्त झा सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल बापू बाजार, जयपुर-302003 (राज.) फोन 0141-565997 प्रकाशक जैन इतिहास समिति लाल भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर - 302004 (राज.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल जैन इतिहास समिति बापू बाजार, जयपुर-302003 (राज.) लाल भवन, चौड़ा रास्ता, फोन - 0141-565997 जयपुर-302004 (राज.) © सर्वाधिकार सुरक्षित प्रथम संस्करण : 1974 द्वितीय संस्करण : 1987 तृतीय संस्करण : 1995 चतुर्थ संस्करण : 2001 मूल्य : रु. 500/- मात्र आवरण : पारस भंसाली मुद्रक : दी डायमण्ड प्रिंटिंग प्रेस, मोती सिंह भोमियों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर (राज.) फोन : 562929, 564771 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ************* पुण्ये शताब्दि-सु-महे तव पंचविशे, श्री वर्द्धमान ! जिननाथ ! समर्पयामि । जैनेतिहासकुसुमस्तबकं द्वितीयम्, ते हस्तिमल्लमुनिपोऽहमतीव भक्त्या ॥ ************* Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका प्रकाशकीय सम्पादकीय प्राक्कथन १. स्वर्णिमकाल २. केवलिकाल इन्द्रभूति गौतम जन्म और वंश शिक्षा वेद-विद्या के आचार्य एवं उनके छात्र गार्हस्थ्य-जीवन याजकाचार्य के रूप में स्वाभिमान म. महावीर से शास्त्रार्थ का विचार शास्त्रार्थ के लिये प्रयाण भ. महावीर को देखकर विचार म. महावीर द्वारा उद्बोधन जीव प्रत्यक्ष सिद्ध है विज्ञानघन का वास्तविक अर्थ एकात्मवाद का निराकरण हृदय-परिवर्तन शिष्यमण्डल सहित प्रव्रज्या दीक्षा-समय पिता की विद्यमानता दीक्षा पर दोनों परम्पराओं का समन्वय गणधर-पद प्रदान की विधि गणधर-पद की महत्ता गण और गणधर इन्द्रभूति और सुधर्मा को विशिष्ट पद Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशना के पश्चात् इन्द्रभूति का उपदेश भगवान् की देशना विषयक दिगम्बर-मान्यता इन्द्रभूति का उच्चतम व्यक्तित्व इन्द्रभूति द्वारा देवशर्मा को प्रतिबोध भगवान् महावीर के निर्वाण पर इन्द्रभूति का चिन्तन इन्द्रभूति की निर्वाण-साधना पूर्वभव में इन्द्रभूति गौतम प्रथम पट्टधर विषयक प्राचीन दिगम्बर-मान्यता आर्य सुधर्मा (प्रथम पट्टधर) आर्य सुधर्मा की विशिष्टता जन्मस्थानादि माता-पिता शिक्षण तत्कालीन धार्मिक स्थिति दीक्षा से पूर्व का जीवन प्रतिबोध और दीक्षा-ग्रहण दीक्षा के पश्चात् आर्य सुधर्मा भव्य विराट व्यक्तित्व छद्यस्थकालीन साधना सुधर्मा के गण और साधु ६ गणधरों का निर्वाणकाल और सुधर्मा के साधु क्या सुधर्मा के अधीन अन्य आचार्य भी थे ? आर्य सुधर्मा भ. महावीर के प्रथम पट्टधर संघनायक भ. महावीर के प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा ही क्यों ? पट्ट-प्रदान किसके द्वारा ? सुधर्मा का अपर नाम लोहार्य क्या आर्य सुधर्मा क्षत्रिय राजकुमार थे ? आर्य सुधर्मा का निर्वाण वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार द्वादशांगी का परिचय आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययन द्वितीय अध्ययन १. (२) For Date & Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... . ७ ८ १२१ * १३० * तृतीय अध्ययन चतुर्थ अध्ययन पंचम अध्ययन छट्ठा अध्ययन सातवां अध्ययन विषयवस्तु महापरिज्ञा अध्ययन में मंत्रविद्या आठवां अध्ययन नौवां अध्ययन द्वितीय श्रुतस्कन्ध द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकार कौन ? आचारांग का स्थान एवं महत्त्व २. सूत्रकृतांग स्थानांग स्थानांग की महत्ता समवायांग वियाह-पण्णत्ति अपरनाम भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति का उपलब्ध स्वरूप नाया धम्मकहाओ उवासगदसाओ उपासकदशा का महत्व अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसा पण्हावागरणा११. विवागसुयं १२. दृष्टिवाद द्वादशांगी में मंगलाचरण द्वादशांगी का ह्रास एवं विच्छेद श्वेताम्बर परम्परानुसार द्वादशांगी की पद-संख्या दिग. परम्परानुसार द्वादशांगी की पद, श्लोक एवं अक्षर-संख्या पूर्वो की पद-संख्या द्वादशांगी विषयक दिगम्बर-मान्यता १४० १४१ १४३ १४६ १५२ १५२ १५४ १०. पण्हावापा १५६ १६४ १६६ १७० १७३ १७४ १७४ १७५ १८४ (३) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ १८८ १६५ २०२ २०७ २०८ २०६ २१३ २१४ २१५ २५५ २१६ २१७ २१८ २१६ २२० २२४ २२५ आर्य जम्बू (द्वितीय पट्टधर) आर्य जम्बू के पूर्व भव सागरदत्त और शिवकुमार आर्य जम्बू के माता-पिता जम्बू की विरक्ति अति घोर प्रतिज्ञा माता-पिता के समक्ष प्रव्रजित होने का प्रस्ताव जम्बू का विवाह पत्नियों को प्रतिबोध प्रभव का ५०० चोरों के साथ गृह-प्रवेश प्रभव को प्रतिबोध पत्नियों के साथ चर्चा वानर का कथानक अंगारकारक का दृष्टान्त परिवार को प्रतिबोध जम्बू द्वारा माता-पिता आदि ५२७ व्यक्तियों के साथ दीक्षा .... कूणिक की जिज्ञासा जन्म, निर्वाण आदि काल-निर्णय जम्बू श्रमण की प्रश्न-परम्परा आर्य जम्बू स्वामी की विशेषता आर्य जम्बू स्वामी का निर्वाण दश बोलों का विच्छेद केवलिकाल के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं अन्य मान्यता - भेद वीर कवि और जम्बू जम्बू द्वारा विद्युत् चोर को प्रतिबोध केवलिकाल के राजवंश मगध का शिशुनाग-राजवंश शिशुनागवंश का संक्षिप्त परिचय मगध पर उदायी का शासनकाल पाटलीपुत्र का निर्माण नन्दवंश का अभ्युदय महान् अमात्यवंश का उद्भव मगध-सम्राट् उदायी तथा उसके उत्तराधिकारी नन्द (नन्दिवर्धन) के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं ..... वस्तुत: नन्द कौन था २२८ २३० २३० २३१ ३ २३४ २३६ २३८ २४८ २४८ २५० २५६ २५७ २६७ २६८ २७३ २७५ For late & Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ २८६ २८६ २८६ २६२ २६२ २६३ २६३ २८५ २६६ २६८ २६८ ३०० ३०० ३०५ ३०७ अवन्ती का प्रद्योत राजवंश कौशाम्बी (वत्सराज्य) का पौरव राजवंश कलिंग का चेदिराजवंश ३. श्रुतकेवलिकाल आचार्य प्रभव स्वामी (तृतीय पट्टधर) डाकू सरदार प्रभव प्रभव द्वारा श्रेष्ठी ऋषभदत्त के घर डाका चोरों का स्तम्भन प्रभव का जम्बू से निवेदन जम्बू और प्रभव का संवाद मधुबिन्दु का दृष्टान्त संसार का बड़ा दुःख ललितांग का दृष्टान्त अमरह प्रकार के नाते कुबेरदत्त एवं कुबेरदत्ता का आख्यान गोप युवक का दृष्टान्त महेश्वर दत्त का आख्यान वणिक्काद्दष्टान्त प्रभव का आत्मचिन्तन प्रभव की दीक्षा और साधना उत्तराधिकारी के लिये चिन्तन आर्य प्रभव का स्वर्गगमन दिगम्बर परम्परा की मान्यता आचार्य शय्यंभव (चतुर्थ पट्टधर) बालर्षि मणक दशवैकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव का स्वर्गगमन दिगम्बर मान्यता आचार्य यशोभद्रस्वामी (पंचम पट्टधर) दिगम्बर मान्यता आचार्य सम्भूत विजय (छठे पट्टधर) शिष्य शिष्याएं दिगम्बर-परम्परा """""""" ३१० ३११ ३१२ ३१२ ३१४ ३१४ ३१६ ३१६ """ ३१६ ३२१ ३२२ ३२२ ३२३ ३२३ ३२४ ३२४ २२५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ३२५ ३२६ ३२६ ३२७ ३२७ ३२८ ३२६ ३३३ ३३४ mm m ३३६ m ..... ३३७ ३४१ ३४७ ३५८ ३५६ ३६३ आचार्य श्री भद्रबाहु (सातवें पट्टधर) जैन शासन में भद्रबाहु की महिमा भद्रबाहु के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं व्रतपर्याय से पूर्व का जीवन श्वेताम्बर परम्परागत परिचय आवश्यक-चूर्णि गच्छाचार-पइण्णा, दोघट्टीवृत्ति प्रबन्ध-चिन्तामणि के अनुसार प्रबन्ध-कोश के अनुसार गुरु-पट्टावली के अनुसार दिग. परं. के ग्रन्थों में आ. भद्रबाहु का परिचय - भाव संग्रह के अनुसार वृहत्कथाकोश आ. रत्ननन्दी के अनुसार नामसाम्य से हुई भ्रान्ति छेदसूत्रकार श्रुतकेवली भद्रबाहु श्रतुकेवली भद्रबाहु नियुक्तिकार नहीं निष्कर्ष नियुक्तिकार कौन ? एक महत्वपूर्ण तथ्य तत्कालीन उत्कट चारित्रनिष्ठा भद्रबाहु विषयक श्वे. मान्यताओं का निष्कर्ष श्रुतकेवलिकाल की राजनैतिक एवं अन्य प्रमुख ऐतिहासिक घटनाएं उपकेशगच्छ आचार्य भद्रबाहु का शिष्य-परिवार ४. दशपूर्वधरकाल आर्य स्थूलभद्र (आठवें पट्टधर) जन्म, माता-पिता है कोशा के यहां वररुचि की प्रतिस्पर्धा मंत्रिपुत्रियों की स्मरणशक्ति रहस्यपूर्ण चमत्कार रहस्योद्घाटन ३७१ ३७१ m m mmmmm ३७५ ... ३७७ ३७६ ३८१ ३८३ ३८५ ३८६ ३८७ (६) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ३६३ ३६५ वररुचि का शकटार के विरुद्ध षड्यन्त्र प्राण देकर भी परिवार-रक्षा महामात्य पद स्थूलभद्र की दीक्षा और वररुचि का मरण आर्य स्थूलभद्र द्वारा अति दुष्कर अभिग्रह स्थूल भद्र से होड़ कोशा द्वारा मुनि को प्रतिबोध श्रीयक की विरक्ति अद्भुत कलाकौशल ३६६ ३६६ ४०० .. ४०२ ४०३ म आगम-वाचना ४०४ ४०६ ४१४ ४१५ ४१८ ४२२ ४२३ Www Wwc ४३५ ४४० ४४० एक विकट समस्या मित्रं धर्मेण योजयेत् तृतीय निन्हव अव्यक्तवादी की उत्पत्ति भारत पर सिकन्दर द्वारा आक्रमण मौर्य राजवंश का अभ्युदय प्रौर्य राजवंश का संस्थापक चाणक्य चन्द्रगुप्त का परिचय ग्रामीण महिला से चाणक्य को शिक्षा नन्दवंश का अन्त: मौर्यवंश का अभ्युदय चन्द्रगुप्त के राज्यारोहणकाल के सम्बन्ध में मतभेद आर्य स्थूलभद्र का शिष्य परिवार आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती आर्य महागिरि (नौवें पट्टधर) आर्य सुहस्ती (दशवें पट्टधर) गृहस्थ जीवन श्रमण-दीक्षा श्रमण-जीवन आचार्य-पद आर्य-महागिरि की विशिष्ट साधना आर्य महागिरिकालीन राजवंश बिन्दुसार का जन्म मौर्य सम्राट् बिन्दुसार चाणक्य की मृत्यु आर्य सुहस्ती के आचार्यकाल का राजवंश ४४० ४४० ४४१ ४४१ ४४२ ४४२ ४४४ ४४६ ४४७ ४४८ ४४८ ४५० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० m ४५४ ४५५ मौर्य सम्राट अशोक सुहस्ती द्वारा सम्प्रति को प्रतिबोध सम्प्रेति का पूर्वभंव श्रमण-संघ में विसंभोग का प्रारम्भ राजा सम्प्रति द्वारा जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार उत्कट साधना का अनुपम प्रतीक अवन्ति सुकुमाल आर्य महागिरि की शिष्य-परम्परा आचार्य सुहस्ती की शिष्य-परम्परा समुच्छेदवादी चौथा निन्हव अश्वमित्र द्विक्रियावादी पांचवां निन्हव गंग आचार्य सुहस्ती के बाद की संघ-व्यवस्था वाचकवंश-परम्परा युगप्रधानाचार्य-परम्परा की नामावली गणाचार्य-परम्परा कल्पसूत्रस्थ स्थविरावली वाचनाचार्य बलिस्सह (११ वें पट्टधर) गुण सुन्दर (ग्यारहवें युगप्रधानाचार्य) सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध (गणाचार्य) आर्य-बलिस्सहकालीन राजवंश कलिंगपति महामेघवाहन खारवेल भिक्खुराय खारवेल का वंश खारवेल के शिलालेख का लेखनकाल पुष्यमित्र शुंग ४५८ ४६० ४६३ ४६३ ४६५ ४६७ ४६८ ४७१ ४७२ ४७३ ४७३ ४७४ ४७६ ४७६ ४७७ ४८२ ४८७ ४८८ ४६१ वाचनाचार्य स्वाति (१२ वें पट्टधर) ५ -३ ४६४ ४६६ वाचनाचार्य श्यामाचार्य (१३ वें पट्टधर) १२ वें युगप्रधानाचार्य आर्य श्याम आर्य श्याम के आचार्यकाल की राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिति भ्रम का निराकरण आर्य इन्द्रदिन्न गणाचार्य आर्य प्रिय ग्रन्थ ४६६ ४६६ . ५०६ ५०६ ... ५०८ वाचनाचार्य षांडिल्य (१४ वें पट्टधर) आर्य दिन गणाचार्य Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ५२६ ५३१ ५३८ ५३८ वाचनाचार्य समुद्र (१५ वें पट्टधर) कालकाचार्य (द्वितीय) पंचमी के स्थान पर चतुर्थी का पर्वाराधन कालकाचार्य (द्वितीय) स्वर्णभूमि में ५२१ आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन ५२३. आर्य खपुट आर्य रेवतीमित्र (युगप्रधानाचार्य) ५३१ आर्य समुद्र के समय राजवंश वाचनाचार्य मंगू (१६ वें पट्टधर) आर्य धर्म युगप्रधानाचार्य ... . ५३५ आर्य सिंहगिरि-गणाचार्य आर्य समित आर्य धनगिरि आर्य अर्हद्दत्त .. आर्य मंगू के समय के राजवंश हिमवन्त स्थविरावलीकार और विक्रमादित्य ५४१ वाचनाचार्य नन्दिल (१७ वें पट्टधर) आर्य भद्रगुप्त युगप्रधानाचार्य गणाचार्य ५५२ वाचनाचार्य नागहस्ती (१८ वें पट्टधर) ५५२ आर्य पादलिप्त मुरुण्डराज की बहिन द्वारा जैन श्रमणी-दीक्षा मुरुण्डकाल में धार्मिक कटुता ५६० आर्य श्रीगुप्त युगप्रधानाचार्य छठा निन्हव रोहगुप्त ५६२ आर्य वज्रस्वामी ५६६ आर्य वज्र की प्रतिभा और विनयशीलता दिगम्बर परम्परा में वज्रमुनि दशपूर्वधर-विषयक दिगम्बर मान्यता आ. नागहस्ती एवं आ. वज्र के समय की राजनैतिक स्थिति ... ५८६ ५. सामान्य पूर्वधरकाल ५८७ वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र (१६३ पट्टधर) ५८६ रेवतीमित्र युगप्रधानाचार्य आर्य रक्षित युगप्रधानाचार्य अनुयोगों का पृथक्करण आर्यरथ गणाचार्य सातवां निन्हव गोष्ठा माहिल ५६८ १ देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ४७२ का टिप्पण। ५६१ . . ५७३ ५८२ ५८५ ५६० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ६०२ ... ६०४ आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र युगप्रधानाचार्य शालिवाहन शाक-संवत्सर जैन शासन में सम्प्रदायभेद दिगम्बर परम्परा में संघभेद यापनीय संघ आर्य वज्रसेन युगप्रधानाचार्य आर्य चन्द्र गणाचार्य त्यवास तत्कालीन राजनैतिक स्थिति ६१५ ६१६ . वाचनाचार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह (२० वें पट्टधर) आर्य नागेन्द्र (नागहस्ती) युगप्रधानाचार्य आर्य सामन्तभद्र-गणाचार्य आर्य वृद्धदेव गणाचार्य आर्य प्रद्योतन गणाचार्य आर्य मानदेव गणाचार्य आर्य नागेन्द्र के समय की राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिति नाग भारशिव राजवंश का अभ्युदय आर्य रेवतीमित्र - युगप्रधानाचार्य भारशिव और कुषाण महाराजा हुविष्क कुषाण महाराजा वाशिष्क । भारशिवों द्वारा कुषाण-साम्राज्य पर प्रहार कुषाण-महाराजा वासुदेव भारशिव राजवंश की शाखाएं कान्तिपुरी की मुख्य शाखा पद्मावती शाखा मथुरा शाखा वाकाटकराजवंश का अभ्युदय वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन (प्रवीर) रुद्रसेन प्रथम आर्य ब्रह्मद्वीपकसिंह वाचनाचार्य : आर्यसिंह युगप्रधानाचार्य ... गणाचार्य मानतुंग युग प्र० आर्य सिंह के काल में गुप्त राजवंश का अभ्युदय वाचनाचार्य स्कन्दिल (२१ वें पट्टधर) वाचनाचार्य हिमवन्त क्षमाश्रमण (२२ वें पट्टधर) Umm x 50 m U C MMMmmmmmmmmmmmmmmॐॐॐॐ r m mm Our 99UUU का ० ० ० ० . ६४३ ६४४ ६४५ ..... ६४६ ६४८ ६५३ (१०) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ६५४ ६५६ کی was xx my کی ६६४ ६६५ ६७२ GG .. ६७४ ६७५ वाचनाचार्य नागार्जुन (२३ वें पट्टधर) युगप्रधानाचार्य नागार्जुन आर्य स्कन्दिल एवं नागार्जुन के समय के राजवंश चन्द्रगुप्त (गुप्त) प्रथम आर्य नागार्जुन के समय के राजवंश गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त पराक्रमांक आर्य गोविन्द वाचनाचार्य वाचनाचार्य भूतदिन (२४ वें पट्टधर) आर्य भूतदिन युगप्रधानाचार्य आर्य नागार्जुन एवं भूतदिन के समय का राजवंश चन्द्रगुप्त द्वितीय आर्य भूतदिन के समय की राजनैतिक स्थिति .. वाचनाचार्य लोहित्य (२५ वें पट्टधर) वाचनाचार्य दूष्यगणी (२६ वें पट्टधर) वाचनाचार्य एवं गणाचार्य देवर्द्धिक्षमाश्रमण (२७ वे पट्टधर) आगमवाचना अथवा लेखन देवर्द्धि और देववाचक देवर्द्धि क्षमाश्रमण की गुरुपरम्परा वल्लभी-परिषद का आगमलेखन .. उत्कालिक सुय कालिक सुय (१२ अंग) .. अंग (११) उपांग (१२) प्रकीर्णक (१०) छेदसूत्र (६) मूलसूत्र (४) चूलिका (२) आवश्यक (१) स्पष्टीकरण देवर्द्धिक्षमाश्रमण का स्वर्गगमन और पूर्वज्ञान का विच्छेद कालकाचार्य (चतुर्थ) युगप्रधानाचार्य आर्य सत्यमित्र युगप्रधानाचार्य देवर्द्धिकालीन राजनैतिक स्थिति - गुप्त सम्राट् स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य वीर नि० सं० १००० तक हए गुप्त राजवंश के राजाओं की तिथिक्रम सहित नामावली सामान्य पूर्वधर-काल सम्बन्धी दिगम्बर परम्परा की मान्यता ... ६७७ ६८० ६८१ ६८६ ६८७ ६८७ ६८८ ६८८ ६८६ ६६० ..... ६६२ ६६३ U V 4 पापा ० mmm 4 4 .. ..... ६६८ ६६६ (११) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४-७६८ ..... ७३३ ७३४ ७३५ ७३५ ७३६ ७६६ ७६६ ७७५ प्रज्ञापना-षट्खण्डागम काल निर्णय के सम्बन्ध में गम्भीर भ्रान्ति श्रुतधर पट्टावली हरिवंश पुराणान्तर्गत पट्टावली नन्दि आम्नाय की पट्टावली पट्टावली धीर निर्वाण के पश्चात् राष्ट्रकूटवंशीय महाराजा गोविन्द तृतीय का शक सं०७१६ का ताम्रलेख शक सं०७२४ का दूसरा ताम्रलेख कैवलीकाल से पूर्वधर काल तक की साध्वी परम्परा आर्या चन्दनबाला एक आर्या सुव्रता एवं धारिणी आदि परम प्रभाविका यक्षा आदि साध्वियां आर्या पोइणी साध्वी सरस्वती साध्वी सुनन्दा बालब्रह्मचारिणी साध्वी रुक्मिणी महासती धारिणी महत्तरा विजयवती और साध्वी विगतभया अज्ञातनामा साध्वी मुरुण्ड राजकुमारी साध्वी रुद्रसोमा " साध्वी ईश्वरी उपसंहार ७७७ ७७८ ७८० ७८२ ७८३ ७८४ ७८७ ७६० ७६१ ७६३ ७६७ ८०१ ६. परिशिष्ट (१) शब्दानुक्रमणिका (२) सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची For Pri(१२) Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन धर्म का मौलिक इतिहास (चार खण्ड) आध्यात्मिकता के गौरव शिखर आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. की अद्वितीय और अपूर्व देन है। आचार्यश्री ने जैन संस्कृति के हस्तलिखित ग्रंथागारों और ज्ञान भण्डारों से विपुल ऐतिहासिक सामग्री का चयन कर इस महत् अनुष्ठान को पूरा कर जैन संस्कृति के विकास में एक कीर्तिमान स्थापित किया। ऐतिहासिक सामग्री के संकलन, ऐतिहासिक कड़ियों को जोड़ने और प्रामाणिक आधार पर आचार्य श्री ने समाज शास्त्रीय पद्धति का अनुसरण करके जैन धर्म के मौलिक इतिहास का भव्यवन निर्मित किया है। इसके प्रथम भाग में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक का इतिहास है। द्वितीय भाग में वीर निर्वाण संवत् 1 से 1000 वर्ष के काल का इतिहास प्रस्तुत किया गया। इसके पश्चात् 1500 वर्षों का इतिहास तृतीय और चतुर्थ खण्ड में है। ___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास के चार भाग प्रकाशित हो चुके हैं। जैन धर्म का मौलिक इतिहास (द्वितीय भाग) के इस चतुर्थ संस्करण को प्रस्तुत करते हुए हमें अत्यधिक प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। __ अंत में हम आराध्य गुरुदेव आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. एवं आचार्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा व्यक्त करते हैं, जिनके द्वारा इस महत् अनुष्ठान की सम्पूर्ति हुई। हम सम्पादक मण्डल के समस्त सदस्यों और उन सबके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने समय-समय पर योग देकर अपना दायित्व वहन किया है। निवेदक : चेतनप्रकाश ड्रारवाल प्रकाशचन्द डागा पारसचन्द हीरावत चन्द्रराज सिंघवी अध्यक्ष मंत्री अध्यक्ष मंत्री सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल जैन इतिहास समिति Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय प्रातः स्मरणीय आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी महाराज की स्वनामधन्य एवं सुविख्यात सम्प्रदाय के यशस्वी विद्वान् आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब द्वारा लिखित - "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक ग्रन्थमाला के प्रथम भाग की तरह द्वितीयं भाग के सम्पादक मण्डल में भी मेरा नाम सम्मिलित कर मुझे जो सम्मान प्रदान किया गया है, उसके लिये मैं प्राचार्य श्री के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है। इस युग के उच्च कोटि के विद्वान; प्रमुख इतिहासज्ञ एवं आगमनिष्णात प्राचार्य की कृति के सम्पादन में अन्य किसी व्यक्ति को वस्तुतः विशेष श्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती। सम्पादकमण्डल में पांच लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों को विद्यमानता में मेरा श्रम कितना स्वल्प रहा होगा, इसका पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी वर्तमान युग के अकारणकरूणाकर महर्षि ने असीम अनुग्रह कर मुझ जैसे अकिंचन व्यक्ति को इस परम महत्वपूर्ण ग्रन्थ के सम्पादन का कार्य सौंपा, तो मेरा पूनीत कर्तव्य हो गया कि मैं पूर्ण निष्ठा के साथ अपने सामर्थ्यानुसार पूरी शक्ति लगा कर इस ग्रन्थरत्न को अधिकाधिक, सर्वांग सुन्दर, सर्व साधारण के लिये सुगम और शोधकर्ताओं के लिये सम्पादेय बनाने का.प्रयास करू। इस सब के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुरूप ही अध्ययन की प्रावश्यकता थी, जिसका मुझ में नितान्त अभाव था। लगभग ३५ वर्ष पहले, विद्यार्थी जीवन में किये गये कुछ प्रागमिक अध्ययन का जो धुंधला रेखाचित्र स्मृति पटल पर अंकित था, वह प्रस्तुत ग्रन्थमाला के प्रथम पुष्प के सम्पादनकाल में थोड़ा उभर चुका था। उसी के बल पर सम्पादन एवं प्रगाढ़ प्रसुप्त स्वान्तःकरण के जागरण - इन दोनों ही कार्यों के लिये समान रूप से परमोपयोगी पागम तथा. प्रागमेतर साहित्य के अध्ययन का क्रम बढ़ाया। मैं कृतज्ञ है। प्राचार्य श्री विनय चन्द्र ज्ञानभण्डार के भूतपूर्व मंत्री स्व. श्री सोहनमलजी कोठारी, वर्तमान अध्यक्ष श्री श्रीचन्दजी गोलेछा और पुस्तकालयाध्यक्ष श्री मोतीलालजी गांधी का, जिन्होंने मुझे विशाल ज्ञानभण्डार के उपयोग को पूर्ण सुविधा प्रदान करने के साथ-साथ आवश्यकतानुसार मांग करते ही तत्काल सैकड़ों सन्दर्भ ग्रन्थ उपलब्ध करवाये। ___ इस अध्ययन से प्रत्यक्ष-परोक्ष अनेक लाभ हए । सबसे बड़ा लाभ तो यह हा कि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राचार्य श्री द्वारा जिन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रमाण पुरस्सर प्रतिपादन किया गया था, उन्हें आगमिक, आर्ष, प्राप्त एवं प्राचीन मूल ग्रन्थों के एकाधिक उद्धरणों को आवश्यकतानुसार टिप्परण अथवा मूल में देकर Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्ट किया गया। दूसरा लाभ यह हुआ कि इतिहास की अनेक जटिल गुत्थियों को सुलझाने, अनेक भ्रान्त धारणाओं के निराकरण, विवादास्पद विषयों का निर्णयात्मक निष्कर्ष निकालने तथा अनेक स्थलों पर - इतिहास की टूटी कड़ियों के संधान में इस तुलनात्मक अध्ययन से बड़ी सहायता मिली। किसी उलझी हुई ऐतिहासिक गुत्थी पर उत्कट चिन्तन की अवस्था में "परोक्षप्रियाः वै देवा:" इस तथ्य की भी अनुभूति हुई । अतः उस अचिन्त्य शक्ति के प्रति भी अपना प्रान्तरिक आभार प्रकट करता हूँ । "श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद" के संचालक पं० श्री दलसुखभाई मालवणियां ने “तित्थोगालिय पइण्णा", भद्रेश्वरसूरी की " कहावली" जैसे अलभ्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियों को पढ़ने एवं उनके महत्वपूर्ण स्थलों को लिख लेने की सुविधा प्रदान की, उसके लिये मैं हार्दिक आभार प्रकट करता है। श्री मालवरिणयां साहब व भारतीय संस्कृति बिद्यामन्दिर में कार्य करने वाले अधिकारियों का सुमधुर स्नेह, सौहार्द और सहयोग मेरे हृदयपटल पर सदा अंकित रहेगा । "तित्थोगालिय पइण्णा" वस्तुतः कतिपय महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों के प्रतिपादन में प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता श्राचार्य श्री के लिये बड़ी सहायक सिद्ध हुई । लब्धप्रतिष्ठ इतिहासज्ञ एवं श्रागमवेत्ता वयोवृद्ध विद्वान् मुनि श्री कल्याणविजयजी म. सा. ने अप्राप्य ग्रन्थ "हिमवन्त स्थविरावली" की हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि करने की सुविधा प्रदान कर एवं अपना प्रेरणा प्रदायी श्रात्मवृत्त सुना तथा दिशानिर्देश कर मुझे अनुप्राणित किया, उस उपकार के प्रति अपने अन्तर के उद्गार प्रकट करने में मैं उसी प्रकार प्रसमर्थ हूँ जिस प्रकार कि प्रथम बार गुड़ का रसास्वादन करनेवाला गूंगा गुड़ का स्वाद बताने में। एक प्रजैन कुल में उत्पन्न हुप्रा शिशु सुयोग और सुसंसर्ग पाकर कितना बड़ा धर्म प्रभावक बन सकता है, इस तथ्य के साक्षात् दर्शन कर प्रह्लाद के साथ-साथ अंतर में एक अदम्य द्वन्द्वप्रान्दोलित हो उठा। कितना साम्य था हमारे प्रारम्भिक जीवन का । सम्भवतः दोनों के किशोरवय के भोले निश्छल मानस में समान अध्ययन के फलस्वरूप बहुत कुछ कर गुजरने की एक समान ही उमंगें उठी होंगी। पर " गहना कर्मणो गतिः " इस शाश्वत सत्य को चरितार्थ करती हुई एक प्रोर वे उमंगें दृढ़ संकल्प के सहारे अनुकूल वातावरण में उत्तरोत्तर फली फूलीं और सुरतरु का स्वरूप धारण कर गईं। दूसरी प्रोर सच्ची लगन के प्रभाव में मेरे कच्चे हृदय में उठी उसी तरह की उमंगें प्रतिकूल वातावरण की प्रचण्ड प्रग्नि में जलभुन कर राख बन गईं। सब कुछ प्राप्त करके भी मैं प्रति कंटीला बौना बबूल ही बना रहा । भयावह प्रात्मग्लानि से कराह उठा अन्तर - त्वत्तः सुदुष्प्राप्यमिदं मयाप्तं, रत्नत्रयं भूरिभवभ्रमेण । प्रमादनिद्रावशतो गतं तद्, कस्याग्रतो नायक ! पूत्करोमि ।। अन्तर में धुकधुकाती त्रिविध ताप की भट्टी पश्चात्ताप के पानी से कुछ ( ६ ) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त हुई । सोचा इतिहास की प्रतिस्थूल परतों के नीचे न मालूम कितने असंख्य मुझ से प्रभागों के इतिवृत्त दबे पड़े होंगे, जो अमोघ वीतराग-वारणी की वीचियों से शोभायमान सुधासागर के तट पर पहुँच कर भी निपट प्यासे ही रह गये । मैं अपने अध्यापक पं० हीरालालजी शास्त्री ( ब्यावर ) के प्रति भी श्रद्धासिक्त आभार प्रदर्शित करता हूँ । पंडित सा० ने दिगम्बर परम्परा के हस्तलिखित एवं मुद्रित अनेक ग्रन्थ प्रदान करने के साथ-साथ मार्गदर्शन एवं दिगम्बर परम्परा के विद्वानों से परिचय करवाया, जिससे मुझे अपने कार्य में बड़ी सफलता मिली । मैं हैरत में है कि श्रीमान् दरबारीलालजी कोठिया के प्रति किन शब्दों में प्रभार प्रकट करूं । पं० हीरालालजी और कोठियाजी में मैंने एक अनूठी आत्मीयता देखी । "नन्दी संघ प्राकृतपट्टावली" में वरिणत अंगधारी प्राचार्यों के विवादास्पद काल, नाम प्रादि के सम्बन्ध मे मुझे यथाशक्य अधिकाधिक सामग्री एकत्रित करनी थी । श्री कोठियाजी ने स्व० श्री नेमिचन्दजी, ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित निर्वाणोत्तर काल की प्राचार्य परम्परा विषयक ग्रन्थ की पाण्डुलिपि और दिगम्बर परम्परा की १७ पट्टावलियां मुझे प्रदान कीं । मुद्रणाधीन पुस्तक की पाण्डुलिपि उसी विषय के एक अपरिचित शोधार्थी को दिखा देने की उदारता कोठियाजी जैसे असाधारण सौजन्य के धनी ही कर सकते हैं । कोठियाज़ी ने मुझे एक अनन्य ग्रात्मीय तुल्य सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान कीं । प्रस्तुत ग्रन्थमाला के तृतीय एवं चतुर्थ भांग के लिये उपयोगी उन १७ पट्टावलियों की मैंने प्रतिलिपि कर ली पर २५०० पृष्ठ की पाण्डुलिपि में से मैंने केवल ६०-७० पृष्ठ ही पढ़े । स्वर्गीय पं० नेमिचन्दजी ने निर्वाणोत्तर काल की प्राचार्य परम्परा का बहुमूल्य पानीदार शीशे में क्रमश: प्रतिबिम्बित होने वाले मनमोहक दृश्यों की तरह सजीव चित्रण किया था । पुस्तक बड़ी रोचक थी किन्तु मैं जिस वस्तु की खोज में था, वह उसमें नहीं थी अतः पाण्डुलिपि का जितना भाग मेरे पास श्राया था, न उसे ही पूरा पढ़ा और न अवशिष्ट अंश कोठियाजी के प्राग्रह के उपरान्त भी लिया ही । मैं जैन परम्परा के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् श्री अगरचन्दजी नाहटा का भी बड़ा प्रभारी हूँ कि उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम में से ३ दिन का समय निकाल कर प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि के प्रारूप को सुना और अनेक उपयोगी सुझाव दिये । मैं अपने सहपाठी श्रेष्ठिवर श्री श्रानन्दराज मेहता, न्याय व्याकरणतीर्थं एवं बालसखां श्री प्रेमराज बोगावत, व्याकररणतीर्थ के सौहार्द को कभी नहीं भुला सकता। मेरे इन दोनों मित्रों ने ठंडी, मीठी और उत्साहवर्द्धक वाक्चातुरी से समय २ पर मेरा उत्साह बढ़ाकर मुझे अकर्मण्य होने से बचाया । प्रस्तुत ग्रन्थ और इसके विद्वत्तापूर्ण प्राक्कथन में श्रद्धेय माचार्यश्री ने वीर निर्वारण पश्चात् १००० वर्ष के जैन इतिहास पर इतना विशद रूप से प्रकाश ( O ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाला है कि अब इस सम्बन्ध में मेरे जैसे व्यक्ति के लिये एक शब्द भी कहने अथवा लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती । तथापि जैन इतिहास के इन दो बड़े ग्रन्थों के सम्पादनकाल में सनातन, जैन और बौद्ध, इन भारत की तीन महान् संस्कृतियों के प्रार्ष एवं प्रातर साहित्य तथा भारत के सार्वभौम इतिहास ग्रन्थों का अध्ययन तथा तुलनात्मक चिन्तन-मनन करते समय मुझे जो अनुभूतियां हुई हैं उन्हें केवल अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं के रूप में यहां इस दृष्टि से प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि संभवतः वे समष्टि के लिये न सही, कतिपय नवीन विचारकों के लिये उपयोगी सिद्ध हों । १. हमारा देश आर्यावर्त विगत अचिन्त्य लम्बे अतीत से आध्यात्मिक एवं सार्वजनीन हित साधक ऐहिक ज्ञान का केन्द्र रहा है। एक ही धरातल पर फलीफूली सनातन, जैन एवं बौद्ध ग्रादि संस्कृतियों के धर्म एवं इतर विषयों के ग्रन्थों में इन तीनों संस्कृतियों के अनेक तथ्य संपृक्त रूप में निहित हैं। जहां तक इतिहास जैसे जटिल एवं विस्तीर्ण विषय का प्रश्न है, कतिपय अंशों में इन तीनों संस्कृतियों का साहित्य परस्पर एक दूसरे की कमियों का पूरक है । उदाहरण स्वरूप शिशुनागवंश और नंदवंश का पूरा एवं वास्तविक इतिहास इन तीनों परम्पराओं के ग्रन्थों में वरित एतद्विषयक उल्लेखों के तुलनात्मक अध्ययन और उनमें से सार भूत पूरक तथ्यों को ग्रहण करने से ही पूरा होता है। इन तीनों में से किसी एक को ही आधार मान लेने पर भारत के इन दो प्रमुख राजवंशों का इतिहास अधूरा ही नहीं अपितु पर्याप्त रूपेरण भ्रामक ही रह जाता है । इसी प्रकार हमारे देश आर्यावर्त का नाम भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर 'भारत' पड़ा, इस तथ्य की निष्पक्ष एवं सर्वमान्य साक्षी सनातन परम्परा के पुराणों से ही उपलब्ध होती है । वाराणसी पर इक्ष्वाकु - राजवंश का कब से किस समय तक राज्य रहा और भगवान् पार्श्वनाथ के पिता महाराज अश्वसेन के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् वाराणसी पर किस प्रकार शिशुनागवंश का आधिपत्य हुआ, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख जैन परम्परा के ग्रन्थों में नहीं है । सनातन परम्परा के पुराणों में इम विषय के स्रोत बीज रूप में उपलब्ध होते हैं, जिनसे एतद्विषयक प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने में बड़ी सहायता मिलती है । इसी प्रकार जहां तक अहिंसा एवं अपरिग्रह जैसे विश्वकल्याण-मूलक महान् सिद्धान्तों का प्रश्न है, महाभारत के शान्तिपर्व में वरिणत अहिंसा विषयक उपरिचर वसु और तुलाधार तथा अपरिग्रह विषयक उञ्छवृत्ति के आख्यान इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि जैन परम्परा की तरह सनातन परम्परा में भी अहिंसा एवं अपरिग्रह आदि महान् सिद्धान्तों का बहुत बड़ा महत्व रहा है। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में धर्म, संस्कृति अथवा किसी पुरातन घटनाचक्र का इतिहास लिखते समय विद्वान् लेखक प्रमुखत: इन तीनों संस्कृतियों के ग्रन्थों का ' ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्पक्ष दृष्टि से तुलनात्मक एवं तलस्पर्शी अध्ययन करें, तभी वह इतिहास प्रामाणिक, सर्वांगसुन्दर एवं समष्टि के लिये उपयोगी तथा उपादेय होगा। भारतीय इतिहास पर नवीन शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखने वाले विद्वान् लेखकों के लिये तो इस प्रक्रिया को अपनाना परमावश्यक हो जाता है। इन तीनों परम्पराओं के ऐतिहासिक स्रोतों का इतिहासविदों द्वारा समान रूप से उपयोग न किये जाने के कारण अाज जितने भारतीय इतिहास उपलब्ध हैं, उनमें से अधिकांश को सर्वांगपूर्ण इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती। २. प्राचार्यश्री ने जिस प्रकार जैन काल-गणना को ६० वर्ष पीछे की ओर धकेलने वाली शताब्दियों पुरानी एक भ्रांत मान्यता का सदा के लिए अंत किया है, उसी प्रकार के निष्पक्ष एवं ठोस प्रमाणों द्वारा दो-तीन बड़ी महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान परमावश्यक है। समस्याएं बड़ी ही जटिल हैं, अतः उनको सुलझाने के लिए आज स्व० श्री नाथूराम प्रेमी के समान शोधप्रिय, अध्ययनशील एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त निष्पक्ष चिन्तकों की तथा सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। पीढ़ियों से वैदिक परम्परा के गहरे रंग में रंगे हए वैदिक परंपरा के उद्भट प्राचार्य गौतम आदि ११ गणधर वीर प्रभु की वाणी द्वारा सत्य का बोध होते ही तत्काल निःसंकोच अपनी परम्परागत प्रास्थानों-मान्यताओं का पूर्णतः परित्याग कर सत्य को आत्मसात् कर लेते हैं, तो सहस्राब्दियों से उन्हीं के अन्यायी कहलाने वाले विद्वानों के लिए सत्य की खोज में निष्पक्ष दृष्टि से सामूहिक प्रयास करना कोई कठिन कार्य नहीं। पहली और सबसे जटिल समस्या हमारे समक्ष यह है कि प्रार्य जम्बू के पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों की नामावली में भेद क्यों है ? चार प्राचार्यों के पश्चात् पांचवें श्रुतकेवली भद्रबाह का नाम दोनों परंपरानों में पूनः किस कारण सर्वमान्य हो गया? भद्रबाह के पश्चात् पुनः नदी की दो बिछुडी हुई, कभी न मिलने वाली दो भिन्न धाराओं की तरह दो पृथक धाराएं किस कारण चल पड़ीं ? वास्तव में अब एक दूसरे पर दोषारोपण करने वाली ये निस्सार बातें सुनने के लिए कोई तैयार नहीं कि "अमुक परम्परा के साधु नग्न रहते थे, पोथी-पन्ना उनके पास था नहीं, इसलिए वे अपनी परम्परा के इतिहास को सुरक्षित नहीं रख सकेकालान्तर में जैसा मन में पाया वैसा लिख दिया" अथवा "अमुक परंपरा के साधु दुष्काली में ढीले पड़ गये, अद्धंफालक-डंडा-पात्र धारण कर गृहस्थों से भीख मांग कर उनके घरों में बैठकर खाने लग गये। फिर तो शिथिलाचार में मजा आ गया, गुरु ने ज्यादा कहा तो उनकी खोपड़ी पर लट्ठ का प्रहार कर गुरुहत्या कर दी।" कोटि कोटि कांचन मद्रामों और कनकलता सी कामिनी के प्रलोभन से तिल मात्र भी नहीं डिगने वाले, भीषण दुष्काल के समय विद्यापिण्ड के उपभोग की अपेक्षा मृत्यु को श्रेयस्कर समझने वाले ५०० शिष्यों के साथ संथारा एवं समाधिपूर्वक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितमरण का वरण करने वाले आर्य वज्रस्वामी आदि के दशपूर्वधर पूर्वाचार्यों के लिए इस प्रकार की बात कहना विश्वबन्धु महावीर के अनुयायियों के लिए किसी भी दशा में शोभाजनक नहीं हो सकता। . भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के इस पावन-प्रसंग पर इन सब थोथी बातों को गहन गर्त में फेंक कर वास्तविक तथ्यों की खोज करना प्रत्येक जैन विद्वान् का पुनीत कर्तव्य हो जाता है। तिलोयपण्णत्तीकार और पुन्नाट संघीय विद्वान् प्राचार्य जिनसेन से लेकर पश्चाद्वर्ती सभी बड़े-बड़े दिगम्बराचार्यों ने जम्बूस्वामी के पश्चात विष्णु और भद्रबाह के पश्चात् विशाखाचार्य से प्राचार्यों की पट्टावली प्रारम्भ की है। दिगम्बर परम्परा के वीरसेन, इन्द्रनन्दी, जम्बूदीव प्रज्ञप्तिकार प्राचार्यों ने गौतम से लेकर अंतिम अंगधर लोहार्य तक जो प्राचार्यों की नामावली दी है, उसे आचार्य परम्परा की पट्टावली के नाम से अभिहित न कर, उसका श्रतावतार की परम्परा के नाम से उल्लेख किया है। इस पर प्रश्न उत्पल होता है कि क्या प्राचार्यों की श्रुतावतार परम्परा और पट्टधर प्राचार्य-परम्परा परस्पर दो भिन्न-भिन्न परम्पराएँ हैं। यदि भिन्न हैं तो पट्टानक्रम से प्राचार्य परम्परा की पट्टावली कौन-सी है और कहां है ? पट्टानुक्रम की अन्य पट्टावली के अभाव में यही मानना श्रेयस्कर है कि यह श्रुतावतार परम्परा की नागवली ही प्राचार्य परम्परा की पट्टावली है। जहां तक मुझे याद पड़ता है मेरी जिज्ञासा के उत्तर में दिगम्बर परम्परा के एक माने हुए विद्वान् ने इसे श्रुतावतार पट्टावली ही बताया था। पर वस्तुतः यह श्रुतावतार पट्टावली ही पट्टधर पट्टावली होनी चाहिए । अन्यथा अनेक इस प्रकार की बाधाएँ उपस्थित होंगी, जिनका निराकरण किसी प्रकार संभव नहीं। श्वेताम्बर परम्परा की दो मुख्य स्थविरावलियां हैं - एक तो कल्पसूत्र के अंत में दी हई स्थविरावली और दूसरी नंदीसूत्र के प्रारम्भिक मंगल पाठ में दी हुई वाचक-परम्परा की पट्टावली। मथुरा के कंकाली टीले से निकले प्रायागपट्टों, मूर्तियों, स्तम्भों आदि पर उटंकित शिलालेखों से कल्पस्थविरावली और नन्दीस्थविरावली की प्राचीनता और प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है। इसी प्रकार के प्रामाणिक उल्लेखों की खोज चतुर्दश पूर्वधर आचार्य विष्णु से लेकर अंतिम अंगधर लोहाचार्य के सम्बन्ध में करने की महती आवश्यकता है। श्रवणवेलगोल, पार्श्वनाथ वसति के कुछ शिलालेखों में विष्णु आदि प्राचार्यों के उल्लेख हैं पर वह अपूर्ण, कतिपय अंशों में परस्पर विरोधी और पर्याप्त पश्चाद्वर्ती काल के हैं। ___ इन सब विवादास्पद प्रश्नों का कोई सर्वमान्य हल माज उपलब्ध समस्त जैन वाङमय में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि यापनीय संघ के यापनीय - तन्त्र तथा साहित्य की सामूहिक रूप से खोज की जाय और उस संघ के प्राचार्यों की कोई पट्टावली खोज निकाली जाय तो उस निष्पक्ष साक्ष्य के आधार पर इस प्रकार की अनेक समस्याओं को हल करने में बड़ी सहायता मिल सकती है। ऐसा लगता है कि यापनीय संघ का जो विपुल एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य था, उसका ( १० ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्त अंश दक्षिणी लिपियों में कहीं न कहीं अवश्य अन्धकार में पड़ा हुआ है। प्राशा है शोधप्रिय विद्वान् इस दिशा में प्रयास करेंगे तो अवश्य सफलता प्राप्त होगी। ३. एकादशांगी की विद्यमानता अथवा विच्छेद के सम्बन्ध में भी निष्पक्ष दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है। जहां एक ओर श्वेताम्बर परम्परा की यह दृढ़ मान्यता एवं प्रास्था है कि एकादशांगी का कतिपय अंशों में ह्रास तो हुआ है पर वह विच्छिन्न नहीं हुई है, तो दूसरी प्र; दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में इस प्रकार की मान्यता अभिव्यक्त की गई है कि वीर नि. सं० ६८३ में अंतिम आचारांगधर लोहाचार्य के स्वर्गस्थ होने के साथ ही एकादशांगी का विच्छेद हो गया। इन दोनों परम्पराओं से भिन्न जनसंघ की तीसरी परम्परा - यापनीय संघ के 'ग्रन्थ भगवती प्राराधना' एवं 'विजयोदया टीका' में एकादशांगी की विद्यमानता के स्पष्ट उल्लेख आज भी उपलब्ध हैं। ऐसी स्थिति में एकादशांगी की विद्यमानता विषयक श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता का पक्ष भारी पड़ता है। तत्त्वार्थ-सूत्र के प्रणेता उच्चनागर शाखोद्भव वाचक' उमास्वाति (स्व० प्रेमीजी की मान्यतानुसार वीर नि० को दशवीं शताब्दी) ने इस सूत्र पर निर्मित स्वोपज्ञ भाष्य की प्रशस्ति में एकादशांगी की विद्यमानता का स्पष्ट उल्लेख किया है : वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशांगविदः ॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ।।२।। न्यग्रोषिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे-कुसुमनाम्नि । कौमीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ।।३।। प्रहंद्वचनं गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागमविहतमति लोकमवलोक्य ॥४॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकंपया हन्धम् । तत्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ।। यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाष सुखाख्यं, प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥६॥ अर्थात् - यशस्वी वाचकश्रेष्ठ शिवश्री के प्रशिष्य, एकादशांगधर घोषनन्दिक्षमण के शिष्य, वाचना (विद्या) दान की दृष्टि से महावाचक मुण्डपादक्षमण के प्रशिष्य तथा कीर्तिशाली मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य, पिता स्वाति एवं माता वात्सी के पुत्र, न्यग्रोधिका में उत्पन्न (जन्म ग्रहण करने वाले) 'वाचको हि पूर्व वित्". [तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य की सिङसेनीया टीका, म०६, सूत्र ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोभीषणिगोत्रीय, उच्चनागर शाखा के वाचक उमास्वाति ने पाटलीपुत्र में विचरण करते समय लोगों को दुःखों से त्रस्त एवं दुरागमों से हतबुद्धि देख गुरु परम्परा से प्राप्त अर्हद्वचनों को समीचीनतया अवधारण कर अनुकम्पापूर्वक इस तत्त्वार्थाधिगम नामक स्पष्ट शास्त्र की रचना की। जो व्यक्ति इस तत्त्वार्थाधिगम को हृदयंगम कर इराके अनुसार आचरण करेगा, वह शीघ्र ही अव्याबाध सुख, मोक्ष को प्राप्त करेगा। __उच्चनागर शाखा श्वेताम्बर संघ के प्राचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध से प्रचलित कोटिक गण की एक प्रतिप्रसिद्ध शाखा थी, यह तो अब सर्वसम्मत तथ्य के रूप में सिद्ध हो चुका है। इसके साथ ही साथ वाचकमुख्य, महावाचक, क्षमण और वाचक शब्द श्वेताम्बर परम्परा के पूर्वधर प्राचार्यों के लिये प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त किये हए मिलते हैं। दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों के लिये इन शब्दों का प्रयोग कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। धवला में प्रार्य मंगू और आर्य नागहस्ती के लिये 'खमासमण' और महावाचक शब्दों का प्रयोग किया गया है। वे दोनों प्राचार्य भी श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्य प्रतीत होते हैं क्योंकि दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय में खोजने पर भी किसी पट्टावली अथवा गन्थ में ये दो नाम नहीं मिलते। उमास्वाति ने अपने शिक्षा गुरु प्राचार्य मूल के लिये 'वाचकाचार्य' तथा प्रगुरु मुण्डपाद क्षमण के लिये महावाचक शब्द का प्रयोग किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि वाचक उमास्वाति तथा उनके शिक्षा-गुरु वाचकाचार्य मूल एक पूर्व के ज्ञाता थे और वाचकाचार्य मूल के गुरु महावाचक मुण्डपाद एक से अधिक पूर्वो के ज्ञाता। धवलाकार द्वारा एकाधिक पूर्व के ज्ञाता आर्य मंसू (मंग) के लिये प्रयुक्त महावाचक विशेषण से भी मेरे इस अनुमान की पुष्टि होती है। इन सब उल्लेखो पर तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर यह तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि उमास्वाति दिगम्बर प्राचार्य नहीं थे। स्वर्गीय प्रेमीजी ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य सूत्र पाठ में - 'एकादशजिने'२ 'दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः' और 'पुलाकबकुश' 'संयमश्रुत' आदि सूत्रों को दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं से विपरीत, एवं श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य में उल्लिखित ७ बातों को श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं के प्रतिकूल बता कर .(क) महावाचयाणमज्जमखुसमणाणमुवदेसेण लोगे पुष्णे प्राउअसमं करेदि । [षटखंडागम, भा० १६, पृ० ५१८] (ख) कम्मट्ठिदित्ति परिणयोगदारम्हि भण्णमाणे बे उवएसा होति....प्रज्जणगहत्यि स्खमा समणा भणंति । भज्ज मंखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदि संचिद संतकम्मपरूवरणा कम्मट्ठिदि परूवणेति भणंति [वही] २ तत्वार्थाधिगम सूत्र, म० ६, 3 वही म० ४ ४ वही. अ०६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा तत्त्वार्थाधिगम के स्वोपज्ञ भाष्य के ४ उल्लेखों की यापनीय प्राचार्य शिवार्य द्वारा रचित भगवती आराधना तथा यापनीय आचार्य अपराजित द्वारा रचित भगवती आराधना की विजयोदया टीका में किये गये उल्लेखों से समानता बताते हुए यह संभावना प्रकट की है तत्त्वार्थाधिगम सूत्र एवं इसके स्वोपज्ञ भाष्य के निर्माता वाचक उमास्वाति यापनीय प्राचार्य हो सकते हैं । स्वर्गीय प्रेमीजी की इस संभावना पर विचार करने से पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना सब विद्वानों के लिये आवश्यक हो जाता है कि वीर निर्वाण सम्वत् २९१ में प्रार्य सुहस्ती के स्वर्गस्थ होने के कुछ ही वर्षों के पश्चात् उनके पट्टधर शिष्य गणाचार्य प्रार्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोटिक गण और उच्चनागरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। यह श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद से ३०० वर्ष से भी पूर्व की घटना है। मथुरा के कंकाली टीले से निकले कुषाणकालीन १० शिलालेखों में उच्चनागरी शाखा का उल्लेख है । ये लेख कनिष्क सं०५ से १८ (शालिवाहन शाक संवत्सर ५ से१८) अर्थात् वीर निर्वाण सम्वत् ६१० से ७०३ तक के हैं।' इन १० शिलालेखों में से लेख सं० १६, २०, २२, २३, ३१, और ३५ इन ७ लेखों में स्पष्टतः कोटिक गण ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा का, लेख सं० ३६ और ६४ में केवल उच्चनागरी शाखा का तथा लेख सं० ७० में कोटिक गरण उच्चनागरी शाखा का उल्लेख है। इन शिलालेखों से कल्पसूत्रीया स्थविरावली की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वाचक उमास्वाति ने स्वोपज्ञ भाष्य सहित तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की रचना के समय उसकी प्रशस्ति में स्पष्टतः अपना परिचय एकादशांगविद् गुरु के शिष्य तथा उच्चनागर शाखा के वाचक के रूप में देते हुए यह स्वीकार किया है कि गुरु परम्परा से प्रागत तीर्थंकर महावीर (अर्हत्) की वाणी को हृदयंगम कर इस शास्त्र की रचना की। इससे यही सिद्ध होता है कि वे कल्पस्थविरावली में वर्णित उच्चनागरी शाखा के अर्थात् प्रभु की मूल श्रमण परम्परा के वाचनाचार्य थे। वाचनाभेद, गुरुपरम्परागत पाठभेद, स्मृतिदोष, लिपिदोष आदि अनेक कारणों से कुछ छोटे-बड़े मान्यता भेद संभव हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र का श्वेताम्बर परम्परा द्वारा सम्मत एकादशांगी से कितना साम्य एवं सामीप्य है तथा एकादशांगी के किन-किन स्थलों से किस-किस सूत्र को लेकर तत्त्वार्थाधिगम के सूत्रों की रचना की गई है, इस पर स्वर्गीय प्राचार्य, आत्मारामजी महाराज, प्राचार्य घासीलालजी म. प्रादि विशद प्रकाश डाल चुके हैं। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का एकादशांगी के विभिन्न प्राकृत सूत्रों से साम्य भी इस अनुमान को बल देता है कि उमास्वाति महावीर स्वामी की मूल श्रमण परम्परा के ही प्राचार्य थे। न साहित्य और इतिहास (श्री नाथूराम प्रेमी), पृ. ५३४ से ५४० २जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ५३३ . . जैन शिला लेख संग्रह भाग २, पृ. १८-४७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बड़े महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर मैं विचारकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ जिससे यह प्रमाणित होता है कि उमास्वाति जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य नहीं थे, उसी प्रकार यापनीय परम्परा के प्राचार्य भी नहीं थे। तत्त्वार्थाधिगम के अष्टम अध्याय के अन्तिम सूत्र - "सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्" - की व्याख्या करते हुए प्राचार्य सिद्धसेन गणि ने अपनी तत्त्वार्थ टीका में लिखा है :___“कर्मप्रकृतिग्रन्थानुसारिणस्तु द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतीः पुण्याः कथयन्ति ।...... आसां च मध्ये सम्यक्त्वहास्यरति पुरुषवेदा न सन्त्येवेति कोऽभिप्रायो भाष्यकृतः को वा कर्मप्रकृतिग्रन्थप्रणयिनामिति सम्प्रदायविच्छेदान्मया तावन्न व्यज्ञायीति ।" . अर्थात् "कर्म-प्रकृति ग्रन्थ का अनुसरण करने वाले जिन ४२ प्रकृतियों को पुण्यरूप मानते हैं, उनमें सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद का उल्लेख नहीं है । सम्प्रदाय के लुप्त हो जाने के कारण मैं नहीं कह सकता कि इस प्रकार के भिन्न कथन में भाष्यकार का अभिप्राय क्या था और कर्मप्रकृतिग्रन्थकारों का क्या।" सिद्धसेन के उपर्युक्त कथन में 'सम्प्रदायविच्छेदात्' पद विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । सिद्धसेन के इस कथन से यही प्रकट होता है कि उमास्वाति जिस सम्प्रदाय, जिस उच्चनागरी शाखा के महाश्रमण थे, वह सम्प्रदाय सिद्धसेन के समय से पूर्व ही नष्ट हो चुका था। उस सम्प्रदाय की मान्यताओं का विश्लेषणविशद व्याख्यान करने वाला कोई उनके समय में प्रवशिष्ट नहीं रहा था। ___ यदि वाचक उमास्वाति यापनीय संघ के होते तो सिद्धसेन सम्प्रदाय-विच्छेद की बात कदापि नहीं लिखते । क्योंकि उनसे लगभग ७००-८०० वर्ष पश्चात् तक यापनीय संघ की विद्यमानता अनेक प्रमाणों से और स्वयं प्रेमीजी के अभिमत से प्रमाणित होती है। प्रेमीजी की मान्यतानुसार सिद्धसेन गरिएका समय विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी' और यापनीयों की विद्यमानता का समय विक्रम की १५वीं-१६वीं शताब्दी है। उमास्वाति की तरह यापनीय प्राचार्य अपराजित ने भी भगवती पाराधना की टीका में अपने – “सद्वेद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुवेदाः शुभे नाम गोत्रे शुभं चायुः पुण्यं, एतेभ्योऽन्यानि पापानि ।"3 - इस कथन द्वारा सम्यक्त्व, रति, हास्य और पुरुषवेद को पुण्य रूप माना है - यदि इस आधार पर वाचक उमास्वाति को यापनीय मान लिया जाय तो फिर सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद देवनंदी को दिगंबर परम्परा के प्राचार्य मानने में बाधा उपस्थित की जायगी। क्योंकि पूज्यपाद ने भी अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' में, तथासम्भावित यापनीय उमास्वाति के 'तत्त्वार्थाधिगम स्वोपज्ञभाष्य' में वर्णित पुलाक, बकुश, कुशील, प्रतिसेवनाकुशील और कषाय . जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ५४१ २ वही, पृ० ५७ ३ देखिये - तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य - १/४८, ६/४६ । सर्वार्थसिद्धि - ६/४७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुझील - इन पांच निर्गन्य मुनियों के विवरण को, प्रायः उसी रूप में स्थान दिया है, जैसाकि दिगम्बर परम्परा के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं है। - इतना सब कुछ होते हुए भी स्व० श्री प्रेमीजी द्वारा जो सम्भावना प्रकट की गई है, उसके सम्बन्ध में प्रामाणिक निर्णय उसी समय लिया जा सकता है जब कि हमारे सामने यापनीय संघ की कोई पट्टावली अथवा एतद्विषयक कोई साहित्य हो। इस दृष्टि से भी यापनीय संघ के साहित्य की सम्मिलित रूपेण खोज करना अत्यावश्यक हो गया है। ४. यापनीय संघ द्वारा मान्य एकादशांगी, अंगबाह्य, पागम, यापनीयतंत्र, पट्टावलियां आदि प्रागमेतर साहित्य की वर्तमान में अनुपलब्धि के कारण प्राज यापनीय संघ की ठीक वही दशा हो रही है, जो दो दलों के खेल में गेंद की। एक प्रोर श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथ यापनीयों की उत्पत्ति दिगम्बर संघ से बताते हैं तो दूसरी पोर दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ श्वेताम्बरों से। तीनों परम्पराओं के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा अनुमान किया जाता है कि यापनीय संघ भी अपने आप में पूर्ण, सुसंगठित एवं स्वतन्त्र धर्मसंघ था। आचारांग द्वितीय श्रुत स्कन्ध के पांचवें अध्ययन के वस्त्रषणा तथा छठे अध्ययन के पात्रषणा विषयक उद्देशकों के साथ यापनीयों के उपलब्ध ग्रन्थ भगवती पाराधना और उस पर अपराजितसूरि की विजयोदया टीका के तुलनात्मक अध्ययन से विद्वान् यह अनुभव करेंगे कि यापनीय मुनियों का आचार सर्वथा आचारांग के निर्देशों के अनुसार ही था। __मैं विश्वास करता हूँ कि इन कतिपय तथ्यों पर विद्वान् चिन्तक निष्पक्ष दृष्टि से गवेषणा कर प्रकाश डालेंगे। सम्पादन काल में वस्तुस्थिति के चित्रण में सजीवता लाने का प्रयास करते समय यदि कहीं साधुभाषा का अतिक्रमण हो गया हो तो वह मेरा दोष है। विद्वान् पाठक मेरे उस प्रमाद के लिये मुझे क्षमा करेंगे। गजसिंह राठोड़, न्याय, व्याकरण-तीर्थ, मुख्य सम्पादक १ देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ६१५-६१६ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन पीठिका जैन धर्म का मौलिक' इतिहास, प्रथम भाग इतिहास-प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है। उसमें भगवान् ऋषभदेव से प्रभू महावीर तक चौवीसों तीर्थंकरों के जनक, जननी, च्यवन, जन्म, गृहस्थ जीवन, अभिनिष्क्रमण, दीक्षा छद्मस्थ-जीवन, कैवल्योपलब्धि, तीर्थप्रवर्तन, केवली-चर्या, गणधर, साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका एवं प्रभु द्वारा प्राणिमात्र के प्रति किये गये महान् उपकार एवं निर्वाण प्रादि का पावन परिचय प्रस्तुत किया जा चका है। उसे पढ़ कर संतसतियों, लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों, इतिहासप्रेमियों, श्रद्धालु पाठकों एवं समाज के प्रायः सभी वर्गों ने परम प्रमोद प्रकट किया है। शैलोक्यबन्धु तीथंकरों के भवतापहारी इतिवृत्त को पढ़कर सहस्रों श्रद्धालुओं ने आध्यात्मिक आनन्द का रसास्वादन किया। इससे हम संतोप का अनुभव करते हैं कि हमारा परिश्रम सफल एवं लक्ष्य सार्थक हुआ। हमें इस वात पर बड़ी प्रसन्नता हुई कि कतिपय अध्ययनशील महानुभावों ने इसे अति सूक्ष्म एवं शोधपूर्ण दृष्टि से पढ़कर अपनी शंकाएं एवं सुझाव भेजे हैं। इस प्रकार की शोधप्रिय रुचि वस्तुतः सराहनीय है। प्रथम भाग में जो विपुल सामग्री प्रस्तुत की गई है, उसमें से कुल मिलाकर केवल पांच प्रसंगों के संबंध में जिज्ञासुनों द्वारा जो शंकाएं उठाई गई हैं, वे शंकाएं तथा उनके समाधान निम्न प्रकार हैं : प्रथम भाग के पृष्ठ ६१-३२ पर भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पारण का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा गया है - "भगवान् (ऋषभदेव) मे वैशाख शुक्ला तृतीया को वर्ष-तप का पारणा किया।" यहां यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि भगवान ऋषभदेव ने चैत्रकृष्णा अष्टमी को बेला-तप के साथ दीक्षा ग्रहण की और दूसरे वर्ष की वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयांस कुमार के यहां प्रथम पारणा किया तो इस प्रकार चे.क. ६ से वै. शु. ३ तक उनकी यह तपस्या १३ मास और १० दिन की हो गई। ऐसी स्थिति में-'संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेरण' - इस गाथा के अनुसार प्राचार्यों ने प्रभु आदिनाथ के प्रथम तप को संवत्सर तप कहा है, वह कहां तक ठीक है? क्योंकि वह तप १२ मास का नहीं अपितु १३ मास और १० दिन का तप था। वस्तुतः यह कोई आज का नवीन प्रश्न नहीं। यह एक बहुचचित प्रश्न है। 'संवच्छरेरण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण ।' यह एक व्यवहार वचन 'मूलतो भवं मौलिकम् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानना चाहिये । व्यवहार में ऊपर के दिन अल्प होने के कारण गरगना में उनका उल्लेख न कर मोटे तौर पर संवत्सर तप कह दिया गया है । कल्प किरणावली में स्पष्ट उल्लेख है कि शुद्धाहार न मिलने के कारण प्रभु की तपश्चर्या का एक वर्ष व्यतीत हो गया । फिर उस अंतराय कर्म के क्षयार्थ उन्मुख होने पर प्रभु ने सांवत्सरिक तप का पारण किया । वसुदेव हिंडी में भी इसी से मिलता जुलता उल्लेख किया गया है। इससे भी यही प्रकट होता है कि एक वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी कुछ समय तक शुद्धाहार नहीं मिला । दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ हरिवंश पुराण में ६ मास की अवधि के अनशन तप के साथ प्रभु के दीक्षित होने तथा ६ मास के तप की अवधि के समाप्त हो जाने के अनन्तर भी आहारदान की विधि से लोगों के अनभिज्ञ होने के कारण भिक्षाचरी के लिये भ्रमरण करने पर भी छः मास तक शुद्धाहार न मिलने एवं अन्ततोगत्वा श्रेयांश द्वारा इक्षुरस के दान और प्रभु के पारक का कल्प किरणावली से मिलता-जुलता उल्लेख किया गया है। प्रभु के उम प्रथम तप की अवधि एक वर्ष से कुछ अधिक रही इस प्रकार का स्पष्ट ग्राभास 'हरिवंश पुराण' के उल्लेख में प्रकट होता है । 3 इन उल्लेखों मे यह सिद्ध होता है कि प्रभु ऋषभदेव का प्रथम तप ? वर्ष से अधिक समय का रहा पर व्यवहार में ऊपर के दिनों को गोगा मान कर इसे वर्षी तप ही कहा गया है। जिस प्रकार प्रभु महावीर का केवलज्ञान काल ३० वर्ष माना जाता है परन्तु उनके ४२ वर्ष के संयमित जीवन में से १२ वर्ष और १३ पक्ष से कुछ समय छद्मस्थकाल का निकाल देने पर वस्तुतः उनके केवलज्ञान का काल २६ वर्ष र ६ मास से थोड़ा न्यून होता है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में श्रेयांसकुमार द्वारा भगवान् आदिनाथ का प्रथम पारणा कराये जाने के काररण पारणक दिवस अक्षयतृतीया के रूप में पर्व माना जाता है । यद्यपि भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पाररणक दिवस की तिथि का कहीं प्राचीन उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता परन्तु परम्परा से दोनों शुद्धाहारमलभमानस्य एक वर्ष जगाम । तदा च तस्मिन् कर्मणि क्षयाय उन्मुखे सति ततस्तेन भगवान् सांवत्सरिकतपः पाररणकं कृतवान् । [ कल्प किरणावली, पत्र १५४ ( ६ ) ] २ भयवं पियामहो निराहारो परमधिति-बल-सत्तसायरो सयंभुसागरो इव थिमिम्रो प्रणाउलो संवधरं विहरs, पत्तो य हत्विरणउरं । [बसुदेव हिंडी, प्रथमोंऽशः, पृ. १६४] षण्मासानशनस्यान्ते, प्रतस्थे पदविन्यासः, तथा यथागमं नाथः, षण्मासानविषण्णधीः । प्रजाभिः पूज्यमानः सन्, विजहार महि क्रमात् ।। १५६ ।। संहृतप्रतिमास्थितिः । क्षिति पल्लवयन्निव । । १४२ । । सम्प्राप्तोऽथ वृत्तवृद्ध यं विशुद्धात्मा, पारिणपात्रेण पारणम् । समपादस्थितश्चक्रे, दर्शयन् क्रियया विधिम् ।। १८६|| [ हरिवंश पुराण, सगं ६ ] ( १८ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदायों में इस प्रकार की मान्यता प्रचलित है। शोधक इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन उल्लेख प्रस्तुत कर सकें तो उत्तम होगा। दूसरी शंका ब्राह्मी और सुंदरी के विवाह एवं दीक्षा के सम्बन्ध में उठाई गई है । परम्परागत मान्यतानुसार इन दोनों बहिनों को बालब्रह्मचारिंगी माना गया है। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में इन दोनों को स्पष्ट रूपेगा अविवाहित बताया गया है । हरिवंश पुराणकार ने लिखा है कि वे दोनों कुमारिकाएं अर्थात् अविवाहिता थीं:-- ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे, कुमायौं धैर्यसंगते । प्रव्रज्य बहुनारीभिरार्याणां प्रभतां गते ।।२१७।।' इसी प्रकार प्रादि पुराणकार ने भी ब्राह्मी के लिये राजकन्या का विशेषण प्रयुक्त कर इन दोनों वहिनों के अविवाहित होने का निम्नलिखित म्प में उल्लेख किया है : भरतस्यादुजा ब्राह्मी, दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात् । गणिनीपदमार्याणां, सा भेजे पूजितामरैः ।।१७५।। ग्गज गजकन्या मा, राजहंसीव मुस्वना । दीक्षाशरन्नदीशीलपुलिनस्थलशायिनी ॥१७६।। ............. ................। सुन्दरी चात्त-निर्वेदा, तां ब्राह्मीमन्वदीक्षत ।।१७७।।२ ब्राह्मी और सुन्दरी को हरिवंश पुराणकार ने तो 'कुमायौं' विशेषण के द्वारा स्पष्टरूपेण अविवाहितावस्था में दीक्षित होना बताया है । ग्रादि पुराणकार ने भी ब्राह्मी को राजकन्या बताया है। इससे यही सिद्ध होता है कि दोनों वहिने वालब्रह्मचारिणी थीं। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में तो ब्रह्मी और मुंदरी इन दोनों बहिनों के अविवाहित होने एवं साथ साथ प्रवजित होने की मान्यता प्रचलित है। परन्तु श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में निम्नलिखित तीन प्रकार की विभिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं : १. भगवान ऋषभदेव के धर्म-परिवार का विवरण प्रस्तुत करते हा कल्प सूत्र में ब्राह्मी और सुंदरी का तीन लाख श्रमगिगयों की प्रमुख माध्वियां होने का उल्लेख किया है। साथ ही श्राविका समूह की प्रमुखा सुभद्रा को बताया ' हरिवंश पुराण, सर्ग ६ पृ. १८३, २ प्रादि पुराण, भा. १, पर्व २४. 3 उसभस्स णं अरहनो कोसलियस्स बंभी सुरिपामोक्वागि अज्जियाणं तिणि मयसाहगीग्रो उक्कोसिया अज्जिया संपया होत्था। [कल्पसूत्र, मत्र १६७ (पृष्य विजय जी) ( १६ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गया है न कि सुंदरी को।' कल्प सूत्र के इस उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि उन दोनों बहिनों ने तीर्थ-प्रवर्तन के समय साथ साथ दीक्षा ली। २. अावश्यक मलय और श्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र आदि में दूसरी यह मान्यता उपलब्ध होती है कि भगवान ऋषभदेव ने जिस समय धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया, उस समय ब्राह्मी प्रवजित हो गई । सुन्दरी भी उसी समय प्रवजित होना चाहती थी परन्तु भरत ने उसे यह कह कर प्रवजित होने से रोक दिया कि चक्रवर्ती बन जाने पर उसे (सुन्दरी को) अपनी पत्नी (स्त्रीरत्न) के पद पर स्थापित करेगा। भरत श्रावक बना और सुन्दरी श्राविका ।२ पश्चाद्वर्ती प्रायः सभी ग्रन्थकारों ने इसी मान्यता को प्राश्रय दिया है। ३. तीसरी मान्यता यह प्रचलित है कि भगवान ऋपभदेव ने श्रमण-धर्म में दीक्षित होने से पूर्व भरत की महोदरा ब्राह्मी का सम्बन्ध वाहुबली के साथ और बाहुबली की सहोदरा सुन्दरी का विवाह भरत के साथ कर दिया था। कैवल्योपलब्धि के पश्चात जब प्रभ ने धर्मतीर्थ की स्थापना की तो उस समय वाहवली की ग्राज्ञा के ब्राह्मी श्रमणीधर्म में प्रवजित हो गई। सुन्दरी भी अपनी बड़ी वहिन के साथ ही प्रवजित होना चाहती थी पर भरत ने यह कहते हुए उसे दीक्षीत होने से रोक दिया कि वह उसे चक्रवर्ती बनने पर अपना स्त्रीरत्न वनायेगा। वस्तुतः यह तीसरे प्रकार की मान्यता 'दत्ता' शब्द का सम्यग् अर्थ न समझने के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्त धारणा के फलस्वरूप प्रचलित हुई है। इसके पीछे कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। एतद्विषयक समस्त जैन वाङ्मय के पर्यालोचन से प्रकट होता है कि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में ब्राह्मी तथा सुन्दरी के विवाह का उल्लेख नहीं है। यहां विवाह और वाग्दान का अंतर समझना चाहिये। . विवाह एवं वाग्दान (सगाई) इन दोनों परम्पराओं के प्रचलित होने का प्रारम्भिक इतिहास प्रस्तुत करते हुए आवश्यक नियुक्ति में निन्नलिखित रूप से उल्लेख किया गया है : दलृ कयं विवाहं, जिरणस्स लोगो वि काउमारद्धो। गुरुदत्तिया य कन्ना, परिणिज्जंते ततो पायं ।।२२३॥' १ उसभस्स रणं प्ररहनो कोसलियस्स सुभद्दापामोक्खाणं समणोवासियाणं, पंचसयसाहस्सीप्रो चडपन्नं च सहस्सा उक्कोसिया समगोवासियासंपया होत्था । [कल्पसूत्र, सूत्र १६७ (पुण्य विजयजी)] ......तत्थ उसभसेरणो नाम भरहपुतो पुन्वभवबद्धगणहर-नामगुत्तो जायसंवेगो पव्वईप्रो, बंभी य पव्वइया । भरहो सावनो जाग्रो सुंदरी पव्वयंती भरहेण ईत्थीरयणं भविस्सइ त्ति रुद्धा, सा वि साविया जाया। [अावश्यक, मलय] ३ अावश्यक नियुक्ति । ( २० ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य मलयगिरि ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए प्रावश्यक मानि में लिखा है : "जिनस्य भगवत ऋपभम्वामिनो कृतं विवाहं दृष्ट्वा लोकोऽपि ग्याप याना विवाहं कर्तुमारब्धवान् । गतं विवाहद्वारं । दत्ति द्वारमाह - भगवता युगलधर्म - व्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राह्मी बावलिने दना, बावलिना मह जाता सुन्दरी भरतायेति दृष्ट्वा तत प्रारभ्य प्रायो लोकोऽपि कन्या पित्रादिना दता सती परिणीयते इति प्रवृत्तं ।'' अर्थात् - ऋषभदेव का विवाह किया गया, यह देख कर लोगों ने अपनी अपनी संतति का विवाह करना प्रारम्भ किया। विवाह का प्रसंग समाप्त हुया । अव दत्ति अर्थात वाग्दान (सगाई) के प्रसंग अथवा प्रक्रिया पर कहते हैं- भगवान् ने युगलधर्म को समाप्त करने के अभिप्राय से भरत के साथ उत्पन्न हुई अपनी पुत्री ब्राह्मी की सगाई वाहुबली के साथ तथा बाहुबली के साथ उत्पन्न हुई सुन्दरी की सगाई भरत के साथ की। नियुक्तिकार एवं वृत्तिकार ने विवाह और वाग्दान इन दो भिन्न प्रथाओं के प्रारम्भ होने का जिस प्रकार पृथक रूप से उल्लेख किया है, उससे निर्विवाद रूपेण यही सिद्ध होता है कि प्रभु ने अपनी पुत्रियों - ब्राह्मी और सुन्दरी-का केवल वाग्दान ही किया था विवाह नहीं। यदि विवाह किया होता तो वृत्तिकार "बाह्मी बाहुबलिने दत्ता" के स्थान पर “ब्राह्मी बाहुवलिने दत्ता परिगीता च" इस प्रकार का प्रयोग करते। वस्तुतः इन दोनों बहिनों का वाग्दान ही किया गया था न कि विवाह इसीलिये केवल 'दत्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है। ___ संघदासगरिण-कृत वसुदेव हिण्डी नामक ई. सन् ६०४ के आसपाम की रचना में भी 'दत्ता' शब्द का प्रयोग वाग्दान के अर्थ में किया गया है। यथा एयम्मि य देस याले रुप्पिणी सिसुपालस्स दमघोससुयस्स दत्ता । अर्थात उस समय रुक्मिणी राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल को दी गई। यहां 'दत्ता' शब्द वाग्दान के पर्ष में ही प्रयुक्त हुमा है। यह एक निर्विवाद एवं सर्वसम्मत तथ्य है कि रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण के साथ हुआ। वसुदेव हिन्डी में इन दोनों बहिनों के विवाह का तो दूर वाग्दान तक का उल्लेख नहीं किया गया है। उसमें ब्राह्मी के प्रजित होने तथा श्रमगी समूह की प्रमुखा बनाये जाने का तो उल्लेख है किन्तु सुन्दरी की दीक्षा आदि के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं दी गई है। 'भावश्यक मलयवृत्ति, पत्र २०० (१) १ बसुदेव हिंडी, प्रथमोऽशः, पृ.८० वही, पृ. १६२, १६३, १८३, १८७ १८८ ( २१ ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 उक्त सब उल्लेखों को दृष्टि में रखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि भगवान् ऋषभदेव की दोनों पुत्रियां वालब्रह्मचारिणी थीं। उनका केवल वाग्दान ही किया गया था, न कि विवाह । जहां तक ब्राह्मी और सुन्दरी के एक साथ ग्रथवा पूर्वापर क्रम से प्रव्रजित होने का प्रश्न है वहां कल्पसूत्र, आवश्यक मलय वृत्ति एवं त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के उपरिचित परस्पर भिन्न उल्लेखों को देखते हुए ऐसा अनुमान किया जाता है कि संघ में उनके दीक्षाकाल को ले कर पूर्व समय में दो प्रकार की परम्पराएं प्रचलित थीं। एक परम्परा दोनों बहिनों का साथ-साथ दीक्षित होना मानती थी। दूसरी परम्परा ब्राह्मी की दीक्षा के अनन्तर बड़े लम्बे व्यवधान के पश्चात् सुन्दरी द्वारा दीक्षा ग्रहण किया जाना मानती थी । नीमरी शंका उपस्थित की गई है - चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार के स्वर्गगमन के सम्बन्ध में । प्रस्तुत ग्रन्थ-माला के भाग १, पृष्ठ १६३ पर चक्रवर्ती सनत्कुमार के लिये उल्लेख किया गया है कि वह तीसरे सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न हुआ । मैद्धान्तिक परम्परा में मनत्कुमार चक्री का मोक्षगमन माना गया है। वस्तुतः प्रथम भाग में इस प्रकार का उल्लेख टीकाकार ग्रभयदेव सूरि कृत स्थानांग की टीका' और प्राचार्य हेमचन्द्र कृत त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र के आधार पर किया गया है । स्थानांग सूत्र में चार प्रकार की अंत क्रियाओं का जो सोद्राहरण विवरण दिया गया है, उसका सारांश इस प्रकार है : प्रथम - अल्पकर्म-प्रत्यया अंत-क्रिया, जिसमें भरत की तरह ग्रल्प तप, अल्प वेदना और दीर्घ पर्याय से सिद्ध होना । दूसरी - महाकमं प्रत्यया ग्रन्त किया, जिसमें गज मुकुमाल की तरह तथा प्रकार के तप और वेदना के साथ निरुद्ध पर्याय से अल्प काल में ही सिद्धि प्राप्त करना । तीसरी वही महाकर्मप्रत्यया ग्रन्त क्रिया, जिसमें सनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह दीर्घकालीन तप, रोग के कारण दीर्घकालीन दारण वेदना के साथ दीर्घ पर्याय से सिद्ध होना । चौथी - अल्पकर्मप्रत्यया अन्तक्रिया, जिसमें भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी के समान तथाविध तप वेदना और संयम ग्रहण करते ही निरुद्ध पर्याय से सिद्धि प्राप्त कर लेना । " यथामी सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्ती स हि महातपा महावेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घपर्यायेण च सिद्धस्तद्भवे सिद्धयभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति । [ स्थानांग, ठाणा ४, टीका-प्रभयदेव सुरि ( राय धनपत सिंह प्रकाशन ) भाग १, पत्र १६९ ] स्थानांग, ठाणा ४ ( २२ ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस रूप में इन चारों अन्तक्रियात्रों का वर्गान स्थानांग सूत्र में किया गया है, उसे देखते हुए तो यही प्रतीत होता है कि इन सभी ग्रंत-क्रियाओं के उदाहरण तदुभव की अपेक्षा वतलाये गये हैं । जव प्रथम द्वितीय एवं चतुर्थ अंत-क्रिया में उदाहृत भरत, गजसुकुमाल और मरुदेवी तीनों उसी नव में सिद्ध हुए माने गये हैं तो तीसरी अंत-क्रिया के उदाहरण में निर्दिष्ट सनत्कुमार को भी उसी भंव में सिद्ध हुप्रा मानना उचित प्रतीत होता है क्यों कि तीसरी संत-क्रिया और साधुपर्याय सनत्कुमार चक्रवर्ती की बताई गई है न कि ग्राचार्य अभय देव एवं हेमचन्द्राचार्य द्वारा वरिणत सनत्कुमार देव लोक की देवायु भोगने के पश्चात् महा विदेह क्षेत्र में साधुपर्याय पाल कर सिद्ध होने वाले किसी साधक की । 'सूत्रों के अर्थ विचित्र होते हैं - इस प्रसिद्ध एवं प्राचीन उक्ति के अनुसार प्राचार्य अभय देव जैसे आगम निष्णात टीकाकार के समक्ष क्या इस प्रकार का कोई परम्परागत प्राचीन उल्लेख रहा है, जिसके आधार पर उन्होंने सनत्कुमार चकी का तद्भव में मोक्ष न मान कर तीसरे देव लोक की देवायु पूर्ण कर महाविदेह में जन्म लेने तथा वहां दीर्घ काल तक श्रमरणपर्याय से सिद्ध होने का उल्लेख किया ? यह प्रश्न भी निष्पक्ष विचारक के मस्तिष्क में सहज ही उद्भूत हो सकता है । पर इस प्रकार के निर्णायक प्रमारण के अभाव में स्थानांग सूत्र के एतद्विषयक मूल पाठ की शब्द रचना और पूर्वापर सम्बन्ध को दृष्टि में रखते हुए सनत्कुमार का तद्भव में मोक्ष मानना ही उचित प्रतीत होता है । दिगम्बर परम्परा में भी चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार का उसी भव में मुक्त होना माना गया है । ' चौथी शंका महाबल मुनि द्वारा स्त्री नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किये जाने के सम्बन्ध में उठाई गई है। प्रथम भाग, भगवान् मल्लिनाथ के प्रकरण में उनके पूर्वभव का परिचय देते हुए पृष्ठ १२६ पर लिखा है : " इस प्रकार छद्मपूर्वक तप करने से उन्होंने स्त्रीवेद का और बीस स्थानों की आराधना करने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया ।" यहां यह शंका उपस्थित की जाती है कि भगवान् मल्लिनाथ के जीव ने अपने तीसरे, महाबल के पूर्व भव में जो स्त्रीवेद का उपार्जन किया वह तीर्थकर नामगोत्र कर्म के उपार्जन से पूर्व किया अथवा पश्चात् । ज्ञाताधर्मकयांग सूत्र के एतद्विषयक मूल पाठ का सम्यगुरूपेरण अवलोकन करते ही स्वतः इस शंका का समाधान हो जाता है। मूल पाठ में स्पष्ट उल्लेख है कि राजा महाबल अपने छः बालसखात्रों के साथ श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर एकादशांगी का अध्ययन और विविध तपश्चररण से श्रात्मा को भावित क्षपकश्रेणिमारुह्य, ध्यानद्वय सुसाधनः । घातिकर्मारिण निक्षू य, कंवल्यमुदपादयन् ।। १२७ ।। .. - सर्वकर्मक्षया वाप्यमावापन्मोक्षमक्षयम् ।। १२६ ।। [ उत्तर पुराण, पर्व ६१, पृ. १३७ ] ( २३ ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता हुमा विचरण करने लगा । एक दिन उन सातों मुनियों ने परस्पर विचारविमर्श करने के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की कि वे सब साथ-साथ एक ही प्रकार का तपश्चरण करेंगे। प्रतिज्ञानसार वे सब उपवासादि समान तप करने लगे। पर मुनि महावल ने इस (मागे बताये जाने वाले) कारण से स्त्री-नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन कर लिया। यदि महाबल अणगार के वे छः मित्र मुनि एक उपवास की तपस्या करते तो महाबल दो उपवास की। यदि वे दो उपवास, तीन उपवास, चार, अथवा पांच उपवास की तपस्या करते तो मुनि महाबल उनसे अधिक क्रमशः तीन, चार, पांच और छः उपवासों की तपश्चर्या करता। __ इस प्रकार मूल आगम में मुनि महाबल द्वारा प्रथमत: स्त्रीनाम-गोत्र-कर्म का बन्ध किये जाने का उल्लेख किया गया है। वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है : ___"तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान्, स्त्रोनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धी प्रत्ययत्वात् ।"3 अर्थात् - उस समय महाबल मुनि ने मिथ्यात्व अथवा सास्वादन गुणस्थान का अनुभव किया, क्योंकि मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी माया के कारण ही वस्तुतः स्त्रीनामकर्म का बन्ध होता है। महाबल अणगार बनने से पूर्व अधिनायक था और उसके छहों मित्र उसके अधीनस्थ । उपर्युक्त प्रतिज्ञा को भंग करने के पीछे उसका यही उद्देश्य हो सकता है कि इन छहों से विशिष्ट प्रकार का तपश्चरण कर के वह अागामी भव में भी उन छहों की अपेक्षा अधिकाधिक ऐश्वर्यादि प्राप्त करे। इस अान्तरिक आकांक्षा की पूर्ति हेतु महाबल ने अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत माया-छलछद्मपूर्वक उन छहों मनियों में विशिष्ट तप किया। शंका, अाकांक्षा, वितिगिच्छा, परपापंड-प्रशंसा पौर परपापंड-संस्तव - ये सम्यक्त व के पांच दोष हैं। महावल के अन्तर में अपने मित्रों की अपेक्षा विशिष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति हेतु आकांक्षा उत्पन्न हई और उसके फलस्वरूप उसका सम्यक्त्त्व दूषित हो गया । मैं इन छहों से बड़ा हूँ और आगे भी बड़ा बना रहूँ - इस अभिमान ने महाबल के अन्तर में माया को जन्म दिया। माया स्त्रीनाम-कर्म की जननी है, अत: महाबल ने स्त्रीनामकर्म का अर्थात् स्त्रीवेद का बंध किया। 'गहना कर्मणो गति' - कर्मगति विचित्र है। अपने लिये उपयुक्त अवकाश पाते ही कर्म अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं । यहां ''पडिमरिणता बहूहि च उत्थ जाव विहरंति, तएणं से महब्बले प्रणगारे इमेणं कारगरणं इत्थिरणामगोयं कम्मं निव्वत्तिम् ।।मू.४।। . ज्ञाताधर्मकथांग मूत्र (श्री धामीलाल जी म.) प्र. ८] २ वही, मूत्र ५ का पूर्व भाग ३ जाताधर्मकथांग सूत्र-वृत्ति ( २४ ) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गुणस्थानों का मापदण्ड अान्तरिक भावना है न कि बाह्य लिंग। ज्ञाताधर्मकथांग के पांचवें सूत्र के पूर्व भाग में महाबल द्वारा स्त्री नामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लिये जाने के पश्चात इसके उत्तर भाग में बीस बोलों की उत्कृष्ट साधना से तीर्थकर नामगोत्र कर्म के उपार्जित किये जाते का स्पष्ट उल्लेख है। इससे स्पष्टतः यही सिद्ध होता है कि महाबल ने संयम ग्रहण करने के पश्चात् साधना की प्रारम्भिक अवधि में अभिमान-मायाजन्य आकांक्षा नामक सम्यक्त्व के दोष के प्रभाव से उदित मिथ्यात्व अथवा सास्वादन गुणस्थान में पहुंच कर पहले स्त्रीनामगोत्र-कर्म का उपार्जन किया और तदनन्तर साधनापथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होते हुए वीसों ही बोलों की उत्कट आराधना से तीर्थकरनाम गोत्र-कर्म का उपार्जन किया। ___ मूलपाठ में इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी वृत्तिकार ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि महाबल ने पहले तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया और उसके पश्चात् स्त्रीनामकर्म का। वस्तुतः वृत्तिकार का यह अभिमत कम से कम महाबल के लिये किसी भी दशा में इन दो प्रवल कारणों से मान्य नहीं हो सकता । प्रथम कारण तो यह है कि वृत्तिकार का यह अभिमत शास्त्र के मूल पाठ से विपरीत है। शास्त्र का निर्विवादास्पद एवं स्पष्ट मूल पाठ सदा से सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता रहा है । दूसरा कारण यह है कि महाबल ने जिस साधना से तीर्थंकर नामगोत्र-कर्म का उपार्जन किया, वह अत्युत्कट साधना थी। शास्त्र में वरिंगत बीस बोलों में से किसी एक बोल की उत्कट आराधना से साधक तीर्थकर नामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लेता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान ऋषभदेव, और महावीर की तरह मल्लिनाथ ने भी अपने तीसरे पूर्वभव में उन सभी वीस बोलों की उत्कट साधना की थी जब कि शेष २१ तीर्थंकरों के जीवों ने एक दो, तीन अथवा अधिक बोलों की। ऐसी स्थिति में बीसों बोलों की उत्कट साधना करने के पश्चात् साधक महाबल का सम्यक्त्त्वाकांक्षा दोष से दूषित हो १ इमेहि यं णं बीसाएहि य कारणेहि मासेविय बहुलीकएहि तित्थयर नाम गोयं कम्म नियत्तिसु तं जहा - परहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तबस्सीसुं।..."आदि । [ज्ञाता धर्मकयांग, मूत्र ५ का उत्तर भाग २ जह मल्लिस्स महावलभवम्मि, तित्थयरनामबंधेऽवि । तव विसय-थोवमाया जाया, जुव इत्त हेउ त्ति ।। [जाताधर्मकथांगवृत्ति] ३ (क) पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सव्वे वि फासिया ठाणा । मज्झिमगेहि जिरोहिं, एगं दो तिणि सवे वा ।। [संग्रहीत गाथा] (ब) ग्रासेविय बहुलीकएहि प्रत्येक स्थानस्य सकृत् करणादासेवितानि बहुशः सेवनाद् बहुलीकृतानि त लब्बोत्कृष्टरसायनपरिणाम: तीर्थकरनामगोत्रं कर्म उपाजितवान् । इससे सिद्ध होता है कि महाबल ने बीसों बोलों की आराधना की। ( २५ ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व अथवा सास्वादन के धरातल पर पहुंच गया हो, यह बात न बुद्धिसंगत ही प्रतीत होती है और न युक्तिसंगत ही ! इन सब तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि महावल मुनि ने तीर्थकर नामगोत्र-कर्म के उपार्जन से पूर्व ही स्त्रीनामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लिया था । अंतिम पांचजी शंका में यह कहा गया है कि तीन संघाटकों में भिक्षार्थ देवकी के यहां प्राये छः मुनियों का वास्तविक परिचय देवकी को भगवान् श्ररिष्ट नेमि के समवसरण में स्वयं प्रभु से प्राप्त हुआ था । पर प्रथम भाग में 'चउपन्न महापुरिस चरित्र' के उल्लेखानुसार उन छहों मुनियों द्वारा देवकी को अपना पूरा परिचय दिये जाने का उल्लेख किया गया है। साथ ही साथ शास्त्रीय मान्यता को टिप्परण में बताया गया है, क्या उससे शास्त्रीय अभिमत की गौणता प्रकट नहीं होती ? वस्तुस्थिति यह है कि प्रथम भाग में २०३ से २०६ पृष्ठ पर जो अनीकसेन श्रादि ६ मुनियों के सम्बन्ध में विवरण दिया गया है, उसके शीर्षक और उस विवरण को यदि ध्यान पूर्वक ग्राद्योपान्त पढ लिया जाता है तो इस प्रकार की शंका उठाने की आवश्कता ही नहीं रह जाती । इस सारे विवरण का शीर्षक है - "अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत रहस्य का उद्घाटन "" यह शीर्षक ही एतद्विषयक शास्त्रीय मान्यता का स्पष्टतः बोध करा देता है । इसके अतिरिक्त पृष्ठ २०८ के अन्तिम गद्यौघ ( Paragraph ) से पृष्ठ २०६ में इस आख्यान से सम्बन्धित पूरी शास्त्रीय मान्यता का समीचीनतया दिग्दर्शन कराने के साथ साथ इसकी पुष्टि में त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्रकार द्वारा किये गये वर्णन का भी उल्लेख कर दिया गया है। एक तथ्य का प्रतिपादन करने से पूर्व उसके विविध पक्षों को प्रस्तुत करने की परम्परा सदा से स्वस्थ मानी जाती रही है । उसी स्वस्थ परम्परा का ग्रवलम्बन ले कर इस प्रकरगा में 'चउपन्नमहापुरिस चरियं' के रचयिता का पक्ष प्रस्तुत किया गया है, जो परम वैराग्योत्पादक और सरस होने के साथ साथ अधिकांश विज्ञों के लिये भी नवीन है । इस पक्ष को प्रस्तुत करते समय भी इस बात की पूरी सावधानी बरती गई है कि जिन दो स्थलों पर शास्त्रीय मान्यता से भिन्न प्रकार के उल्लेख आये हैं, वहां तथ्य के प्रकाशार्थ शास्त्रीय मान्यता के द्योतक टिप्पर दे दिये गये हैं । इस प्रकार केवल इस प्रकरण में ही नहीं प्रालेख्यमान सम्पूर्ण ग्रन्थमाला में शास्त्रीय उल्लेखों, श्रभिमतों अथवा मान्यताओं को सर्वोपरि प्रामाणिक मानने के साथ साथ आवश्यक स्थलों पर उनकी पुष्टि में अन्य प्रामाणिक आधार एवं न्यायसंगत, बुद्धिसंगत युक्तियां प्रस्तुत की गई हैं । शास्त्रों के प्रति अगाध श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए शास्त्रीय अभिमतों की सर्वोपरि प्रामाणिकता को अक्षुण्ण बनाये रखने की प्रशस्त भावना से प्रेरित ( २६ ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जिन विज्ञ पाठकों ने जागरूकता दिखाई है, वे वस्तुतः साधुवाद के पात्र हैं। यदि प्रत्येक जिनशासनानुयायी में इस प्रकार की जागरूकता उत्पन्न हो जाय तो आज जैनागमों के सम्बन्ध में तथाकथित सुधारवादियों द्वारा जो विषेला प्रचार किया जा रहा है, उसके कुप्रभाव और कुप्रवाह को रोका जा सकता है। आलेख्यमान ग्रन्थमाला के प्रस्तुत द्वितीय भाग का आलेखन समाप्त करते करते प्रथम भाग से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न हमारे सम्मुख उपस्थित हुअा है । विज्ञ पाठकों, विद्वानों एवं शोधाथियों के विचारार्थ उसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । यह एक शाश्वत नियम है कि सभी तीर्थकर केवलज्ञान की उपलब्धि होते ही उसी दिन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं । हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से कभी कभी इस नियम के अपवाद के उदाहरण भी श्वेताम्बर परम्परा के प्रागम एवं प्रागमेतर साहित्य में उपलब्ध होते हैं। प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल हुण्डावसपिणी माना गया है, जिसके प्रभाव से भगवान महावीर ने, जिस दिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उसी दिन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन नहीं किया। श्वेताम्बर परम्परा के पागम एवं सर्वमान्य प्रागमेतर साहित्य में इसे १० पाश्चर्यों में से एक आश्चर्य मानते हुए यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि प्रभू महावीर ने प्रथम समवसरण के समय अपनी पहली देशना हृदयंगम कर व्रत ग्रहगा करने वाले भव्य प्राणी की अनुपस्थिति के कारण केवल ज्ञान की प्राप्ति के दूसरे दिन धर्मतीर्थ की स्थापना की। केवलज्ञान की उपलब्धि तथा तीर्थप्रवर्तन के बीच काल का व्यवधान तो दोनों परम्परागों में माना गया है परन्तु यह व्यवधान जहां श्वेताम्बर परम्परा में एक दिन का माना गया है वहां दिगम्बर परम्परा के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्रकृत 'गौतमचरित्र' नामक ग्रन्थ में' केवल ३ घण्टों और शेष सभी ग्रन्थों में ६६ दिनों के व्यवधान का उल्लेख उपलब्ध होता है। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उल्लेख है कि साढे बारह वर्ष की कठोर साधना के पश्चात् एक दिन महावीर छट्ठ भक्त की तपस्या किये हुए ऋजुबालुका नदी के तट पर अवस्थित ज भिका ग्राम के बाहर श्यामाक नामक गाथापति के क्षेत्र में शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका पासन से प्रातापन ले रहे थे, उस समय भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुग्रा । तत्काल देवेन्द्र की प्राज्ञा से समवसरण की रचना की गई और प्रभु ने वहां प्रथम देशना दी। पर वहां ऐसा कोई भव्य व्यक्ति विद्यमान नहीं था जो व्रतों को ग्रहण कर सकता। अतः रात्रि में ही भिका ग्राम से विहार कर प्रभु पावापुरी के प्रानन्दोद्यान में पधारे। वहां देवों ने समवसरण की रचना की। गौतमादि के उपस्थित होने पर प्रभु ने देशना दी और धर्मतीर्थ की स्थापना की। ' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. २८, २६ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान की उपलब्धि के पश्चात् भगवान् महावीर ने तीर्थ-प्रवर्तन कब किया, इस विषय में दिगम्बर परम्परा के विभिन्न ग्रन्थकारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख किये हैं । तिलोय पण्णत्तीकार ने भगवान् महावीर को वैशाख शुक्ला १० के अपराह्न में ऋजुकूला नदी के तट पर केवलज्ञान की प्राप्ति होने तथा उससे ६६ दिवस पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन उनके द्वारा पंचशैल ( राजगृह) नगर के विपुलाचल पर्वत पर धर्मतीर्थ की स्थापना का उल्लेख किया है । धवलाकार ने भी केवलज्ञान एवं तीर्थ प्रवर्तन की उपरिलिखित तिथियां बताते हुए लिखा है : "छउमत्थत्तणेण गमिय वइसाहजोगापक्खदसमीए उजुकूललदी तोरे जिभिगामस्सबाहि छट्टोववासेण सिलावट्टे प्रादावतरण अवरव्हे पादछायाए केवलरणामुप्पाइदं । ......... ४ एत्युवज्जतीम्रो गाहाम्रो - गमइय छदुमत्थत्त, वारसवासारिण पंच मासे य । पण्णरसारिणदिरणारिणय, तिरयणमुद्धो महावीरो ।। ३२ ।। • उजूकूलरणदीतीरे, जंभियगामे बहि सिलावट्टे । गादावेंतो, प्रवरण्हे पायछायाए ||३३॥ asसाहजोomपक्खे, दसमीए खवगसेडियारूढो । हंतूरण घाइकम्मं, केवलरणार समावो ||३४|| धवलाकार ने तीर्थप्रवर्तन के स्थल (क्षेत्र) का उल्लेख करते हुए लिखा है :( १ ) " तत्थ खेत्तविसिट्टोत्थकत्ता परूविज्जदि - पंचसेल. पुरे रम्मे, विउले पव्वदुत्तमे । खारणादुमसमाइणे, देवदारणववंदिदे ॥ ५२ ॥ महावीरेणत्थो कहिश्रो, भविलोगस्स । " (२) ...... पंचसेल उरणेरइ दिसाविसयश्रइ - विउलविउलगिरिमत्थयत्थए "गंध उडि- पसायम्मि ट्ठियसीहासरणारूढेण वड्ढमारणभडारएतित्थमुपाइदं । " बहसाहसुद्धदसमी माधारिक्खम्मि वीरगाहस्स । रिजुकूलणदीतीरे प्रवर हे केवलं गाणं ॥ ७०१ ।। [तिलोयपण्णत्ती, ४ महाधिकार ] बासस्स पढ़ममासे, सावरणरणामम्मि बहुल पडिवाए । अभिजीणक्खत्तम्मि य, उत्पत्ती धम्मतित्थस्स ||६|| [ वही, १ महाधिकार ] 3 सुरक्षेयरमणहरणे, गुरणरणामे पंचसेलणयरम्मि । बिउलम्मिपब्वदवरे, वीर जिणो अटुकत्तारो ।। ६५ ।। पट्खण्डागम-धवला - भाग ६ पृष्ठ १२४ [ वही ] ५ पट्खण्डागम, घवलासहित, भाग १, पृष्ठ ६२ बही भाग ६ पृष्ठ ११३ ( २८ ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थोत्पत्ति का समय धवलाकार ने तिलोयपण्णत्ती की एतद्विषयक गाथा से पर्याप्त साम्य रखने वाली निम्नलिखित गाथा द्वारा श्रावण कृष्णा प्रतिपदा बताया है, जो प्रभु महावीर को केवलज्ञान होने की तिथि से ६६ दिन पश्चात् का ठहरता है : वासस्स पढममासे, पढमे पक्खम्हि सावणे बहले। पाडिवद-पुव्व-दिवसे, तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि ।।५६।।' धवलाकार के प्रशिष्य प्राचार्य गुणभद्र ने अपने ग्रन्थ उत्तर पुराण में वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्न में ज़म्भिका ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के तट पर अवस्थित मनोहर नामक वन में बेले की तपस्या से सालवृक्ष के नीचे एक शिला पर विराजमान वीर प्रभु को केवलज्ञान की उपलब्धि का उल्लेख किया है। तत्काल चार प्रकार के देवों के साथ इन्द्र के प्रागमन, समवसरण की रचना, इन्द्र द्वारा इन्द्रभूति गौतम के लाये जाने, शंकासमाधान के पश्चात् इन्द्रभूति के दीक्षित होने, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्वाह्न में प्रभु द्वारा प्रर्षतः द्वादशांगी के उपदेश के अनन्तर इन्द्रभूति द्वारा रात्रि के पूर्व भाग में अंगों तथा पश्चिम भाग में पूर्वो की रचना किये जाने का विवरण तो उत्तर पुराण में दिया गया है पर यह नहीं बताया गया है कि समवसरण की रचना- किस स्थान पर की गई, किस स्थान पर प्रभु ने धर्मतीर्थ की स्थापना की तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति और तीर्थस्थापन के बीच ६६ दिन का व्यवधान किस कारण रहा। उत्तर पुराण के ७४ वें पर्व के श्लोक संख्या ३६६ का अंतिम चरण-"श्रावणे बहुले तिथौ" को यदि हटा दिया जाय तो इस पूरे विवरण से स्पष्टतः यही प्रकट होगा कि वैशाख शुक्ला १० को ऋजुकूला नदी के तट पर ही समवसरण की रचना से लेकर इन्द्रभूति द्वारा द्वादशांगी की प्रतिरचना तक की समस्त घटनायें घटित हुई। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के सर्वाधिक मान्य ग्रन्य तिलोयपम्पत्ती और षटखण्डागम की धवला टीका में वैशाख शुक्ला १० के दिन भगवान महावीर को ऋजुकूला नदी के तट पर अवस्थित जृम्भिका ग्राम के बाहर केवलज्ञान की उपलब्धि का और उससे ६६ दिन पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पंचशेलपुर (राजगृह) के विपुलाचल पर उनके द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन का तो उल्लेख किया गया है पर इस प्रकार का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि भगवान् जृम्भिका ग्राम से राजगृह के विपुलाचल पर कब, कितने समय पश्चात् तथा किस प्रकार पधारे और जब ऋजुकूला नदी के तट पर ही प्रभु को केवलज्ञान की उपलब्धि हो चुकी थी तो उस कैवल्योपलब्धि के स्थल पर ही समवसरण की रचना किस कारण नहीं की गई ? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समुचित समाधान न किये जाने की दशा में जैनेतर एवं निष्पक्ष विद्वानों को अनेक प्रकार के ऊहापोह १ वही, भाग १, पृष्ठ ६४ २ उत्तरपुराण, पर्व ७४, श्लोक ३४८ - ३७१ ( २६ ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का अवसर मिल सकता है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी बोधिलाभ के अनन्तर लोगों को उपदेश, दीक्षा आदि देने के लिये उद्यत नहीं हए। उन्होंने कहा : "कठोर साधना एवं कप्ट सहन के फलस्वरूप मैने जो धर्म अधिगत किया है, उसे राग-द्वेष में फंसे हुए लोग समझ नहीं पायेंगे। क्योंकि वह धर्मतत्त्व लोकप्रवाह से विपरीत दिशा में चलने वाला, अति गम्भीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं दुद्देश्य है । राग के रंग में रंगे तथा प्रज्ञानान्धकार से आच्छन्न मनुष्य उसे नहीं देख पायेंगे।'' सुरलोक से समागत ब्रह्म सुहम्मपति देव ने पुनः विशिष्ट अनुनय-विनय के स्वर में प्रार्थना की- "भगवन् ! देवताओं एवं मनुष्यों के कल्याण के लिये धर्म-देशना दीजिये।" "तब भगवान् बुद्ध ने पहले-पहल ५ मनुष्यों को धर्म में दीक्षित किया और वे पंचवग्गिय कहलाये।"२ बौद्ध धर्म ग्रन्थों का इस प्रकार का उल्लेख तो विचार करने पर सयौक्तिक और बुद्धिगम्य प्रतीत हो सकता है किन्तु केवलज्ञान की उपलब्धि के तत्काल पश्चात् समवसरण की गन्ध कुटी में प्रथम देशनार्थ सर्वज्ञप्रभू ६६ मिनट नहीं ६६ घन्टे नहीं निरन्तर ६६ दिन तक मौन विराजे रहें और ससुरासुर देवेन्द्र, नर, नरेन्द्र इतनी लम्बी अवधि तक निरन्तर निष्क्रिय बैठे रहें, यह बात सहज ही किसी के गले नहीं उतर सकती।। धवलाकार के समकालीन पुन्नाट संघीय प्राचार्य जिनसेन ने धवला से लगभग ३० वर्ष पूर्व रचित अपने ग्रन्थ हरिवंश पुराण में इस उलझन भरी गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करते हुए लिखा है : "चार ज्ञानधारी महावीर ने (छप्रस्थावस्था में) १२ वर्ष पर्यन्त १२ प्रकार का तप किया और विहारक्रम से ऋकूला नदी के तट पर अवस्थित जम्भिक गांव के समीप पहुंचे । वहां वैशाख शुक्ला दशमी के दिन दो दिवस के उपवास का नियम, कर वे सालवृक्ष के समीप एक शिला पर आतापन योग में प्रारूढ़ हुए। उसी समय जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में स्थित था, तब शुक्लध्यानधारी प्रभु महावीर ने चार घाति-कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। समस्त सुरासुरेन्द्रों ने तत्काल वहां उपस्थित हो प्रभु के ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया। तदनन्तर छयासठ दिनों तक मौनावस्था में विहार करते हुए भगवान् महावीर राजगृह नगर के विपुलाचल पर आरूढ़ हुए।४ देवों ने वहां भव्य 'महावग्ग, १, ५.७ " महावग्म, १. ५.१. हरिवंश पुराण, सर्ग २, श्लोक ५६ - ५६ ४ केबलक प्रभावेण, सहसा चलितासनाः । मागत्य महिमां चक्रुस्तस्य सर्वे सुरासुराः ॥६०।। षट्षष्टि दिवसान भूयो, मौनेन विहरन् विभुः । भाजगाम जगत्स्थातं, जिनो राजगृहं पुरम् ।।६१।। मारोह गिरि तत्र, विपुलं विपुलश्रियम् ।।६२॥ [हरिवंश पुगग. सर्ग २, पृ १७) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण की रचना की। सौधर्मेन्द्र की प्रेरणा से इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति पौर कौण्डिन्य नामक विद्वान् भगवान् के समवसरण में उपस्थित हुए पोर उन्होंने अपने पांच-पांच सौ शिष्यों के साथ दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। चेतक की पुत्री चन्दनाकुमारी एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर आर्यिकानों में प्रमुख होगई। राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ प्रभु के समवसरण में पहुंचा। इन्द्रभूति गौतम गणधर ने प्रभु से तीर्थ की प्रवृत्ति करने हेतु प्रश्न किया।' इस पर वर्षमान जिनेश्वर ने श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल दिव्य ध्वनि के द्वारा शासन की परम्परा चलाने के लिए उपदेश दिया। हरिवंश पुराणकार ने जो यहां उल्लेख किया है कि कैवल्योपलब्धि के अनन्तर ६६ दिन तक भगवान महावीर मौन धारण किये हुए विचरण करते रहे, इस प्रकार का उल्लेख दिगम्बर परम्परा के अन्य किसी ग्रन्थ में दृष्टिगोचर नहीं होता। ऋजुकूला नदी पर जृम्भिका ग्राम के बाहर ज्यों ही भगवान् को केवलनान की प्राप्ति हई तत्काल देव देवेन्द्रों ने वहाँ उपस्थित हो ज्ञान कल्याणक का उत्सव तो किया किन्तु उसी स्थान पर देवों द्वारा समवसरण की रचना क्यों नहीं की गई ? इस सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्ती, धवला, जयधवला, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण प्रादि दिगंबर परम्परा के सर्वमान्य ग्रन्थों के रचयिता मौन हैं । उत्तर पुराणकार ने तो विपुलाचल पर समवसरण की रचना का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह प्रकट होता है कि आज से लगभग १२०० वर्ष पूर्व तक इस सम्बन्ध में कोई सुनिश्चित एवं सर्वसम्मत मान्यता दिगम्बर परम्परा में प्रचलित नहीं थी कि प्रभु महावीर को कैवल्यलाभ होते ही ऋजकला नदी के तट पर समवसरण की रचना किस कारण नहीं की गई। क्या यह आश्चर्यजनक घटना प्रवर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव के कारण घटित हुई अथवा सहज ही ? ___ तिलोय पण्णत्ती में हुण्डावसपिरणी के कुप्रभाव के कारण विस्मयजनक अघटित घटनाओं के घटित होने का विवरण दिया गया है, जिसमें सातवें, तेवीसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग होने का तो उल्लेख है पर यह नहीं बताया ' वही, श्लोक ६४ - ८६ २ श्रावणस्यासिते पो, नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिमाह पूर्वाह, शासनायेमुदाहरत् ॥६॥ अवसप्पिरिण उस्सपिरिण कालसलाया गदे य संसारिण । हुंडावसप्पिणी सा एक्का, जाएदि तस्स चिहमिमं ॥१६१।। .."चक्कघराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ॥१६१८॥ "रणवमादिसोलसंतं सत्तसु तिस्येसु धम्मवोच्छेदो ॥१६१९॥ .."सत्तमतेवीसंतिम तित्पयराणं च उसग्गो ॥१६२०॥ [तिलोयपण्णत्ती, प्रथम भाग, ४ महाधिकार] [वही] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है कि प्रभु को केवलज्ञान होते ही तत्काल उस स्थान पर समवसरण, तीर्थ प्रवर्तन आदि की प्रक्रियाएं क्यों न पूर्ण हुई । श्वेताम्बर परम्परा के पागम स्थानांग में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के १० प्राश्चर्यों का उल्लेख है। भगवान महावीर ने केवलज्ञान की उपलब्धि होते ही भिका ग्राम के बाहर देवताओं द्वारा निर्मित समवसरण में जो प्रथम देशना दी उसके परिणाम स्वरूप उसी दिन नियमतः धर्म-तीर्थ की स्थापना हो जानी चाहिए थी। परन्तु ऐसा न होकर दूसरे दिन पावापुरी के महासेन उद्यान में निर्मित समवसरण में प्रभु द्वारा देशना एवं तीर्थ की स्थापना की गई, इस घटना की भी उन १० आश्चर्यों में गणना की गई है।' दिगम्बर परम्परा के अन्यों में इस प्रकार का कोई उल्लेख न होने, कैवल्योपलब्धि और तीर्थप्रवर्तन के बीच व्यवधान विषयंक मतभिन्य तथा घटना के चित्रण में वैविध्य होने के कारण स्थिति बड़ी अस्पष्ट, अनिश्चित एवं विवादस्पद सी प्रतीत होती है। प्राशा है शोधप्रिय विद्वान् इस पर गम्भीर अन्वेषण के पश्चात् समुचित प्रकाश डालेंगे। इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार करते समय इस तथ्य को दृष्टि में रखना परमावश्क होगा कि दिगम्बर परम्परा के हरिवंश पुराण आदि सभी मान्य ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर को छोड शेष ऋपभदेव प्रादि तेवीसों ही तीर्थकरों ने उसी दिन धर्म-तीर्थ का प्रर्वतन किया, जिस दिन कि उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। कल्पसूत्र एवं नन्दी सूत्र की स्थविरावलियों की परम प्रामाणिकता:आज सभी विद्वान समवेत स्वर में स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा की २ स्थविरावलियां कल्पसूत्रीया स्थविरावली और नन्दी स्थविरावली (जिनको मूल प्राधार मान कर प्रस्तुत ग्रन्थ का पालेखन किया गया है), पूर्णतः प्रामाणिक विश्वसनीय एवं अति प्राचीन ऐतिहासिक स्थविरावलियां हैं। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से निकले ई. सन् ८३ से १७६ तक के, (मायागपट्टों, ध्वजस्तम्भों, तोरणों, हरिणगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, सर्वतोभद्र प्रतिमाओं, प्रतिमापट्टों एवं मूर्तियों की चौकियों पर उटंकित) शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वस्तुतः ये दोनों स्थविरावलियां अति प्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी हैं। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई का कार्य सर्व प्रथम ई. सन् १८७१ में जनरल कनिंघम के तत्त्वावधान में, दूसरी बार सन् १८८८ से १८९१ में उसग्ग गन्भहरणं, इथितित्थं प्रभाविया-परिसा । कण्ठस्स अवरकंका. उत्तर चंट-सराण ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पातो तह अट्ठसय सिद्धा। अस्संजतेसु पूषा, दस वि अणंतेण कालेण ॥ [स्थानांग, स्थान १०] विशेष विवरण के लिये देखिये, 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १", पृ. ३४४ -३४६ -सम्पादक ( ३२ ) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा. फ्यूरर के तत्त्वावधान में तथा तीसरी बार पं. राधाकृष्ण के तत्त्वावधान में करवाया गया । इन तीनों खुदाइयों में जैन इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण विपुल सामग्री उपलब्ध हुई। वह सामग्री आज से १८६१ से ले कर १७६८ वर्ष पहले तक की प्राचीन एवं प्रामाणिक होने के कारण बड़ी विश्वसनीय है । इन शिलालेखों में कल्पसूत्र की स्थविरावली के छः गणों में से तीन गरणों, चार गरणों के १२ कुलों, १० शाखाओं तथा नन्दीसूत्र के आदि मंगल के रूप में दी हुई वाचक वंश ( वाचनाचार्यों) की स्थविरावली' के पन्द्रहवें वाचनाचार्य आर्य समुद्र, सोलहवें प्रार्य मंगु, इक्कीसवें प्रार्य नन्दिल ( प्रानन्दिल), बावीसवें ग्रार्य नागहस्ती और उनतीसवें वाचनाचार्य भूत दिन्न के नाम विद्यमान हैं । आज से लगभग १८०० - १६०० वर्ष पूर्व के इन शिलालेखों में लगभग २२०० वर्ष पूर्व, वीर नि. सं. २६१ में हुए ग्रार्य स्थविर रोहण ग्रादि सुहस्ति के शिष्यों के उद्देह प्रभृति ३ गरणों, कालान्तर में प्रसृत हुए उनके १२ कुलों तथा १० शाखानों, वीर नि० सं० ४१४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए श्रार्य समुद्र, वीर नि० सं० ४५४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए प्रार्य मंगू, उनके पश्चात् हुए वाचनाचार्य नन्दिल, उनके अनन्तर अनुमानतः वीर नि० सं० ५८४ तक वाचनाचार्य पद पर रहे आर्य नागहस्ती और वीर नि० सं० ६०४ से १८३ तक युग प्रधानाचार्य पद पर रहे प्रार्य भूतदिन के उल्लेखों से निर्विवाद रूपेण सिद्ध होता है कि प्रार्य सुधर्मा से प्रारम्भ हुई कल्प स्थविरावली और नन्दि-स्थविरावली ये दोनों स्थविरावलियाँ परम प्रामाणिक और पूर्णत: विश्वसनीय हैं। इन शिलालेखों में दशपूर्वधर काल से लेकर सामान्य पूर्वधर काल की समाप्ति से १७ वर्ष पूर्व तक के कतिपय वाचनाचार्यों, गरणों, कुलों आदि का उल्लेख इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये सबल ही नहीं अकाट्य प्रमाण है कि ये दोनों स्थविरावलियां क्रमबद्ध और पूर्णतः प्रामाणिक हैं । जिज्ञासु पाठकों एवं शोधार्थियों के लाभार्थ उन शिलालेखों का यहां संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है, जिनमें कि उपरिलिखित गरणों एवं वाचनाचार्यों का उल्लेख है । - प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ४६४-६५ पर आर्य सुहस्ति के १२ शिष्यों में से ६ के नाम से प्रचलित हुए गरणों, उनकी शाखाओं और कुलों का विवरण दिया गया है । आर्य सुहस्ती के प्रथम शिष्य श्रार्य रोहण के नाम से और नागभूतिकीय (नागभूय) कुल का उल्लेख कनिष्क सं० में है । इसी प्रकार कुषाणवंशी राजा वासुदेव के समय के प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. ४७१-७२ २ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृष्ठ ७५५ 3 १ [ सिद्धम् 11] महाराजस्य राजातिराजस्य देवपुत्रस्य पाहिकरिणष्कस्य सं० ७ हे १ दि १०५ एतस्य पूर्व्वायां भय्यदहिकियातो २ गणातो अर्य्यनागभूतिकियातो कुला तो after बुद्धशिरिस्य शिष्यो वाचको प्रय्यंस [न्धि ] कस्य भगिनि अय्यंजया भयं गोष्ठ..... ( ३३ ) निकले उद्देह गरण ७ के लेख सं० २४ कनिष्क सं० १८, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनुसार वीर नि० सं०७०३ के लेख सं० ६६ में उद्देह गण, इसके परिधासिक (परिहासय) कुल और पेतपुत्रिका (पुण्य पत्रिका) शाखा का स्पष्ट उल्लेख है।" इसी प्रकार आर्य सुहस्ती के चतुर्थ शिष्य आर्य कामधिगरणी से निकले वेसवाडिय गण और उसकी शाखामों का नाम तो मथुरा के शिलालेखों में स्पष्टतः उकित नहीं है किन्तु इस गण के चार कूलों में से मेहिय (मेहिक) नामक कुल का उल्लेख कुछ त्रुटिताक्षरों में लेख सं० २६ और ६३ में विद्यमान है। आर्य सुहस्ती के पांचवें एवं छठे प्रमुख शिष्य आर्य सुस्थित और सुप्रतिबद्ध से निकले कोटिक (कोडिय अथवा कोटिय) गण का उल्लेख शिलालेख संख्या १८ तथा २५ में, कोटिय गण, ब्रह्मदासिय (बंभलिज्ज) कूल एवं उच्चनागरी (उचेनागरी) शाखा का उल्लेख लेख संख्या १९, २०, २२ एवं २३ में, कोटिय गण के वत्थलिज्ज कुल का वच्छलियातो कुलातो के रूप में लेख सं० २७ में, कोटिय गण, ठानिय कुल (संभवतः वारिणय अथवा वाणिज्य कुल का विकृत रूप), श्रीगह संभोग, वजी (वेरि) शाखा का उल्लेख लेख सं० २६ एवं ३० में, कोटिय गरण, बम्भलिज्ज कुल (ब्रह्मदासिक कुल के रूप में), उच्चनागरी शाखा तथा श्रीगृहसंभोग का उल्लेख लेख सं० ३१ में, कोट्टिय गरण, ब्रह्मदासिक (वम्भलिज्ज) कुल तथा उचेनागरी शाखा का उल्लेख लेख सं० ३५ में, इस गण की केवल उच्चनागरी शाखा का उल्लेख लेख सं० ३६ में, कोटिय गण वेरि शाखा ठारिणय (वारिणय) कुल का उल्लेख लेख सं० ४० एवं ४१ में, इस गरण के बंभदासिक (बम्भलिज्ज) कुल मोर उच्चनागरी शाखा का उल्लेख लेख सं० ५० में, कोटिक गण वेरा (वजी) शाखा, स्थानिक कुल, श्रीगृह संभोग, वाचक आर्य घस्तुहस्ति (हस्तिहस्ति अर्थात् नागहस्ति) के शिष्य मंग्रहस्ति का उल्लेख लेख सं० ५४ में, कोटियगण, स्थानिय (वारिणय) कुल वैरा शाखा, श्रीगह संभोग वाचक आर्य हस्तहस्ति (नागहस्ति) का उल्लेख लेख सं० ५५ में किया गया है। १. काल की दृष्टि से गण, कुल एवं शाखा के उल्लेख से युक्त सबसे पहला शिला लेख है कुषारणवंशीय राजा कनिष्क के राज्यकाल के ५ वें वर्ष (ई० सन् ८३ तदनुसार वीर नि० सं० ६१०) का। इसमें लिखा है :'सिद्ध (म) ।। नमो परहतो महावीरस्य दे"रस्य । राजवासुदेवस्या संवत्सरे १०८ वर्षमासे ४ दिवसे १. १. एतस्या २. पूर्वाय पर्य्यदेहिकियातो ग (णातो) परिघासिकातो कुमातो पेतपुत्रिकातो शाखातो गरिणस्य अयं देवदतस्य न ३. य्यं क्षेमस्य ४. प्रकगिरिएं ५. कि हदिये प्रज ६.""तस्य प्रवरकस्य धिनु वरुणस्य गन्धिकस्य वधूये मित्रस"दत्त गा [१] ७ ये""भगवतो महावीरस्य । जैन शिलालेख सं०, भा० २ (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रं. माला समिति), लेख सं. २४ तथा ६६, पृ. २२ एवं ४७ २३ जैन शिलालेख संग्रह भाग २ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - "देवपुत्र कनिष्क के ५वें वर्ष की हेमन्त ऋतु के पहले महिने के पहले दिन कोट्टियगण, ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा के... श्रेष्ठि... सेने की धर्मपत्नी देव....."पाल की पुत्री खडा (क्षद्रा) ने वर्षमान की प्रति (मा)।' लेख सं० ५६ में कोट्टिय गण, स्थानिकीय कुल, रि शाखा के आर्य वृद्ध हस्ति का उल्लेख है। कल्प स्थविरावली के २७वें गणाचार्य प्रार्य वृद्ध ही वस्तुतः इस शिलालेख के आर्य वृद्ध होने चाहिए। क्योंकि प्रार्य सुहस्ती के शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध द्वारा सूरिमन्त्र का एक करोड़ बार जाप किये जाने के कारण उनका विशाल श्रमण समूह कोटिक गण के नाम से विख्यात हुा । मार्य सुस्थितसुप्रतिबुद्ध प्राचार्य सुहस्ति के पट्टधर प्राचार्य हुए प्रतः 'सुहस्ती की मुख्य शिष्य परम्परा कोटिक गरण के नाम से ही अभिहित की जाने लगी। उस मुख्य परम्परा के प्राचार्य होने के कारण कल्प स्थविरावली के २७वें प्राचार्य प्रार्यवृद्ध' ही वे कोट्टिय गण ठारिणय अथवा वारिणय कुल और वज्री शाखा के प्रार्य वृद्धहस्ती होने चाहिए जिनका कि नाम इस लेख में उत्कीर्ण किया हुआ है । इसी प्रकार लेख संख्या ५६ में भी कोट्टिय गण और वहरी (बजी)शाखा के मार्य वृद्धहस्ती का उल्लेख है। वे भी निश्चित रूप से कल्प स्थविरावली के २७वें प्राचार्य प्रार्य वृद्ध ही होने चाहिए। इनके अतिरिक्त लेख सं० ६४ में उच्चनागरी शाखा, लेख सं० ६६ में कोट्टिय गण, पण्हवाहणय कुल एवं मझमा शासा, लेख सं०६८ में कोट्रिय गरण, ठानिय कुल और पइरी शाखा, लेख सं. ७. में कोटिक गरण और उच्चनागरी शाखा, लेख सं०७४ में कोटियगरण का उल्लेख विद्यमान है। कल्पसूत्रीया स्थविरावली में उल्लिखित गणों, कुलों एवं शाखामों प्रादि के उल्लेखों वाले जो लेख मथुरा के कंकाली टीले से उपलब्ध हुए हैं, उनमें अंतिम लेख है गुप्त सं० ११३ तदनुसार ई. सन ४३३ (वीर नि० सं० १६० ) में उत्कीर्ण, गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त' के शासन काल का लेख सं० ६२ ।। इस लेख सं० ६२ में कोट्रिय गरण की विद्याधरी शाखा के प्राचार्य दतिल का उल्लेख किया गया है। वाचनाचार्य परम्परा की, युगप्रधानाचार्य परम्परा 'प. १. "....."() पुत्रस्य क (नि.) कस्य सं.५ हे. १ वि १ एतस्य पूर्म () कोडियातो गणातो ब्रह्मवासिका (तो) (क) सातो (उ) नागरितो हालातो सेषि-8-स्य f-f-f- सेनस्प सहपरि दुगये है (4) व. १. पामस्य पि (a)..... २. वर्षमानस्य प्रति (मा) । [जन शिलालेख संग्रह, भा २ माणकचन्द्र दि. जैन अन्धमामा समिति) लेख सं. १९, पृ.सं. १९] मपुरा का प्राकृत लेख कनिष्क सं० ५. २ कल्पसूत्रीया स्थविरावली के प्राचार्यों की सूची, देखिये प्रस्तुत अन्य के पृष्ठ ४७३-७४ 'कुमारगुप्त का शासन वीर नि.सं. १५१ से ५०२ तक रहा। देखिये प्रस्तुत प्रन्य, पृष्ठ ६७२ ४ जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० ५८ ( ३५ ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की श्रौर कल्पसूत्रीया स्थविरावली इन तीनों स्थविरावलियों में 'दत्तिल' नामक किसी श्राचार्य का नाम उपलब्ध नहीं होता है । हां वाचनाचार्य परम्परा की ( नन्दीसूत्रीया). स्थविरावली के २६ वें (प्रार्य धर्म, भद्रगुप्त, वज्र, रक्षित और गोविन्द - इन पांचों के नाम वाचनाचार्यों में सम्मिलित न किये जाने की दशा में २४ वें )' श्राचार्यं तथा युगप्रधानाचार्य परम्परा की पट्टावली के २६ वें श्राचार्य का नाम भूत दिन्न है । लेख सं० ९२ में उट्टंकित 'दत्तिल' और इन दोनों पट्टावलियों में उल्लिखित 'दिन' ये दोनों (दत्तिल और दिन) शब्द वस्तुतः दत्त शब्द के प्राकृत रूप हैं । आर्यं भूतदिन का युगप्रधानाचार्य काल वीर नि० सं० ६०४ से ६८३ माना गया है। 3 इस लेख सं० ६२ में गुप्त सं० ११३ उत्कीर्ण किया हुआ है, जो वीर नि० सं० ६६० अर्थात् प्राचार्य भूत दिन के प्राचार्य काल का ही समय है । इससे यह प्रमाणित होता है कि उपरिलिखित लेख सं० ९२ में कोट्टि गरण की विद्याधरी शाखा के जिन दत्तिलाचार्य का उल्लेख है, वे वस्तुतः नन्दि स्थविरावली के वाचनाचार्य श्रौर युगप्रधान पट्टावली के युगप्रधान प्राचार्य भूतदिन ही हैं । - युग प्रधानाचार्य भूतदिन की ही तरह लेख सं० ५२ के गरि समदि वस्तुतः वाचक परम्परा के १५ वें वाचनाचार्य श्रार्यं समुद्र, लेख सं० ४१ और ६१ के श्रार्य नन्दिक व गरिनन्दि १७ वे वाचनाचार्य नन्दिल और लेख सं० ५४ औौर ५५ के क्रमश: घस्तु हस्ति और हस्तहस्ति १५ वें वाचनाचार्य श्रार्य नागहस्ती ही हैं । नन्दिसूत्रीया स्थविरावली में इन चारों वाचनाचार्यों के नाम इसी क्रम से एक के पश्चात् एक हैं । आर्य सुधर्मा से लेकर देवद्धि क्षमाश्रमण तक एक हजार वर्ष की लम्बी कालावधि में अनेक प्राचार्य एवं उनके प्राज्ञानुवर्ती सहस्रों महान् प्रभावक श्रमण हुए, सहस्रों प्रभाविका श्रमणियां हुईं, जिन्होंने भारत जैसे प्रतिविशाल देश के कोने-कोने में विचरण कर प्राणिमात्र को अभयदान देने वाले प्रभु महावीर के अहिंसा-सत्य-अस्तेय ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह मूलक विश्वकल्याणकारी धर्म का प्रचारप्रसार किया। कालान्तर में क्रमशः हुए गरणभेद, परम्पराभेद, मान्यताभेद, संघविभाजन, गच्छोपगच्छ- कुलोपकुलजन्य विभिन्न भेद-प्रभेदों के अनन्तर एक ही समय में एक-एक प्रदेश को, एक-एक क्षेत्र को पृथकतः अपना कार्यक्षेत्र चुनकर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले अनेक आचार्य हुए। उनमें से कतिपय महापुरुषों ने स्वर्णभूमि, सिंहल आदि सुदूरस्थ एवं दुर्गम देशों में जाकर वहां पर भी जनमानस में जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न की एवं वहां के लोगों को जैनधर्मावलम्बी बनाया । उक्त १००० वर्ष की अवधि में हुए ग्रनेक राजाओं, महाराजाश्रों, १ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४७२-७३ २ दिन भर दत्तिल दोनों शब्द दत्त शब्द के प्राकृत रूप होते हैं । [जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, भूमिका (डा० गुलाबचन्द्र चौधरी), पृ० १८ टिप्पण २ ] 3 प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ६६५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामन्तों, श्रेष्ठियों एवं सभी वर्गों के श्रावकों तथा श्राविकाओं ने जैनधर्म के प्रचारप्रसार के साथ-साथ इसके दिगदिगन्त पापी प्रताप को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए जो-जो महत्वपूर्ण कार्य किये, उन सबका क्रमबद्ध पूर्ण विवरण प्राज जैन वाङ्मय में उपलब्ध नहीं है। फिर भी उनमें से कतिपय कार्यों का शिलालेखों, प्रायागपट्टों, ताम्रपत्राभिलेखों आदि में उकित विवरण प्राज भी उपलब्ध होता हैं, जिनका प्रस्तुत ग्रन्थ में उल्लेख किया गया है। प्राक्कथन में भी यथास्थान इस पर और अधिक प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। कार्य को गुरुता एवं दुस्साध्यता- इतने सुदीर्घ अतीत के सुविस्तृत इतिहास का यथावत् निरूपण तो वस्तुत: केवल अतिशयज्ञानी ही कर सकते हैं। क्योंकि उनमें से विभिन्न गणों के जिन गणाचायों, प्रभावक महाश्रमणों ने जीवन भर सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु, बंग, कलिंग, आन्ध्र आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया, उनमें से अधिकांश के तो नाम तक भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं। कल्पस्थविरावली में प्रार्य सुहस्ती के पश्चात् जिन प्राचार्यों के नाम दिये गये हैं, उनमें से अधिकांश का नाम के अतिरिक्त किंचित्मात्र भी परिचय आज के उपलब्ध जैन वाङमय में दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी प्रकार नन्दीसूत्र के आदि में दी गई वाचनाचार्यों की स्थविरावली के भी कतिपय आचार्यों का कोई परिचय कहीं उपलब्ध नहीं होता। जब मुख्य-मुख्य प्राचार्यों का भी पूरा परिचय उपलब्ध नहीं होता तो उस दशा में उनके समय में घटित घटनाओं का शृंखलाबद्ध निरूपण करना कितना कठिन कार्य है, इसका विज्ञ स्वयं सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। यह स्थिति वर्तमान समय में ही हो, ऐसी बात नहीं है। प्राज से अनेक शताब्दियों पहले भी कुछ इसी प्रकार की स्थिति को विद्यमानता के उल्लेख जैन साहित्य में उपलब्ध होते हैं। इतिहासलेखन का कार्य कितना जटिल है, इस सम्बन्ध में आज से लगभग ७०० वर्ष पूर्व हुए प्राचार्य प्रभाचन्द्र (वि० सं० १३३४) द्वारा प्रकट किए गए निम्नलिखित उद्गारों से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है : श्रीवज्रानुप्रवृत्त (तो) प्रकटमुनिपति प्रष्ठवृत्तानितत्तद्, ग्रन्थेभ्यः कानिचिच्च श्रतधरमुखत: कानिचित्संकलय्य । दुष्प्रापत्वादमीषां विशकलिततयैकत्रचित्रावदातं, जिज्ञासैकाग्रहाणामधिगतविधयेऽभ्युच्चयं स प्रतेने ।' अर्थात् - आर्य वज्र और उनके अनुवर्ती प्राचार्यों का इतिवृत्त खण्डविखण्डित रूप में इतस्ततः बिखरा हुप्रा एवं अपूर्ण होने के कारण एक प्रकार से दुष्प्राप्य था । अतः उनमें से कतिपय प्राचार्यों का इतिवृत्त अनेक ग्रन्थों के परिशीलन से, कुछ प्राचार्यों का श्रतधरों से सुनकर और कइयों का (जैन वाङमय में से) संकलित कर मैंने (प्रभाचन्द्र ने) उसे सम्यकरूपेण सुव्यवस्थित किया है । प्राचार्य प्रभाचन्द ने "प्रभावक चरित्र' नामक अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण ' प्रभावक चरित्र, ग्रन्थकारकृता स्वकीया प्रशस्तिः, पृष्ठ २१५, श्लोक १७ ( ३७ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं उपयोगी ग्रंथ में कुल मिलाकर २३ प्राचार्यों एवं महाकवि धनपाल के जीवन की कतिपय प्रमुख घटनाओं का विवरण दिया है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र के समय में प्राचीन ग्रन्थ भी प्राज की अपेक्षा निश्चित रूप से कुछ अधिक मात्रा में उपलब्ध रहे होंगे। इतिहास साक्षी है कि प्राचार्य प्रभाचन्द्र के पश्चाद्वर्ती काल में प्राततायी विदेशी प्राक्रान्ताओं ने भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि के रूप में सुरक्षित ग्रन्थागारों, पुस्तकभण्डारों एवं स्वरणपत्र, ताम्रपत्र, प्रस्तर, भित्ति प्रादि पर शताब्दियों पूर्व उत्कीर्ण किए गए अभिलेखों को नष्ट-निश्शेष-करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। एक यवन माक्रान्ता ने तो अपनी सैनिक-पाक शाला-में शताब्दियों के प्रथक श्रम से लिखे गये भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रंथों को इंधन की जगह जलाने के काम में लेकर छः महीनों तक विशाल सेना के लिए भोजन बनवाया, और स्नानार्थ पानी गरम करवाया। ___ वर्गविद्वेष, धार्मिक असहिष्णुता आदि के फलस्वरूप समय-समय पर भारत के विभिन्न प्रदेशों में उत्पन्न हुए आन्तरिक कलहों ने भी भारतीय संस्कृति के अवशेषों, स्मारकों, धर्मस्थानों, तीर्थस्थानों एवं ग्रन्थागारों प्रादि को भयंकर क्षति पहुंचाई। केवल २३ प्राचार्यों के जीवनवृत्त का प्रालेखन करते समय प्राचार्य प्रभाचंद्र द्वारा अभिव्यक्त किए गए उपर्युल्लिखित उद्गारों और उनसे अवांतरवर्ती काल में हुई पुरातन साहित्य की दुखद महती क्षति के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि ईसा पूर्व ५२७ से ई० सन् ४७३ (वीर नि० सं० सं०१ से १०००) तक का १००० वर्ष का जैन धर्म का सर्वांगपूर्ण इतिहास शृंखलाबद्ध रूप में सम्पत्र करना कितना कठिन, कितना दुरूह, दुस्साध्य एवं श्रमापेक्षी कार्य है। पर इन सब कठिनाइयों से हतोत्साहित हो इस दिशा में प्रयास न करने की स्थिति में तो प्रत्येक जैनी के हृदय में खटकने वाली इतिहास के अभाव की कमी कभी दूर नहीं होने वाली है, यह विचार कर इस कार्य को हाथ में लिया गया। पुरातन प्रामाणिक मापार - हमने अंगों, उपांगों, नियुक्तियों, चूरियों, टोकानों, भाष्यों, चरित्रग्रन्थों, कथाकोषों, स्थविरावलियों, पट्टावलियों, जैन एवं वैदिक परम्परा के पुराणों, विभिन्न इतिहास-ग्रन्थों, बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों, शिलालेखों, प्रकीर्णक ग्रन्थों एवं सभी प्रकार की उपलब्ध सामग्री के पर्यवेक्षणपर्यालोचन के माध्यम से प्रामाणिक साधनों के आधार पर अथ से इति तक शृंखलाबद्ध रूप में जैन इतिहास के पालेखन की अमिट अभिलाषा लिये यथामति कुछ लिखने का प्रयास किया है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक इस ग्रन्थ के लेखन में इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है कि थोथी कल्पनाओं और निर्मूल अनुश्रुतियों को महत्व न देकर प्राचीन ग्रन्थों एवं अभिलेखों के आधार पर प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों का ही निरूपण किया जाय। इसी प्रकार बहत-सी चमत्कारिक रूप से चित्रित घटनाओं को भी इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किया ( ३८ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। मध्ययुगीन अनेक विद्वान ग्रन्थकारों ने सिद्धसेन प्रभृति कतिपय प्रभावक प्राचार्यों के जीवन चरित्र का आलेखन करते हुए उनके जीवन की कुछ ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिन पर आज के युग के अधिकांश चिन्तक किसी भी दशा में विश्वास करने को उद्यत नहीं होते। त्यागी, तपस्वी महान पुरुषों के प्रबल आत्मबल में अचिन्त्य शक्ति होती है, इस बहुजन सम्मत तथा भारतीय संस्कृति के प्रायः सभी अध्यात्म विषयक प्राचीन ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित तथ्य से इतिहास के पाठकों को थोड़ा बहुत अवगत कराने की दृष्टि से श्रद्धास्पद पूर्वाचार्यों द्वारा विशद रूपेण वणित घटनाओं में से एक दो चमत्कारिक घटनाओं का भी इस ग्रन्थ में उल्लेख किया गया है । इस स्पष्टीकरण का मूलतः मूख्य तात्पर्य यही है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में जो कुछ लिखा गया है, वह सब कुछ साधार है, बिना प्राधार के एक भी बात नहीं लिखी गई है। विशुख उद्देश्य -केवल तथ्य को खोज : - यह एक निर्विवाद तथ्य है कि इतिहास के क्षेत्र में केवल उन्हीं विवरणों को पूर्ण प्रामाणिक माना जाता है, जिनको सत्य सिद्ध करने वाले ठोस प्राधार हों। कतिपय ऐतिहासिक घटनाओं के सम्बन्ध में समय-समय पर बहुत से विद्वानों ने ऊहापोह, किंवदन्ती, निरे अनुमान, केवल-कल्पना अथवा पारम्परिक मान्यता के नाम पर अपनी-अपनी मान्यताएं रखी हैं। इस प्रकार के प्राचीन अथवा अर्वाचीन विद्वानों की वे व्यक्तिगत मान्यताएं यद्यपि ऐतिहासिक घटनाक्रम, निष्पक्ष साक्ष्य एवं समकालीन अन्य निर्विवादास्पद ऐतिहासिक घटनाचक्र से अन्यथा सिद्ध होती हैं, तथापि प्राज वे लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों की मान्यता होने, बहजनसम्मत होने, पक्ष विशेष की प्राचीनता की साधक होने अथवा अन्य कतिपय कारणों से निर्विवादास्पद मान्यताओं का रूप धारण करती जा रही हैं। इस तरह की कतिपय मान्यताओं को अप्रामाणिक-अमान्य सिद्ध कर देने वाले जो प्रबल तथ्य हमें उपलब्ध हुए हैं, उन्हें यथास्थान उल्लिखित कर हमने वास्तविकता को प्रकाश में लाने का प्रयास किया है। ऐसे प्रसंगों पर हमें कुछ इस प्रकार के तथ्य भी प्रस्तुत करने पड़े हैं, जो कतिपय विद्वानों की मान्यताओं के अनुकूल नहीं पड़ते। ऐसा करने के पीछे हमारी किंचित्मात्र भी इस प्रकार की भावना नहीं रही है कि किसी के भावुक कोमल मन को किसी प्रकार की कोई ठेस पहुंचे। हमारी चेष्टा पक्षपात विहीन एवं केवल यही रही है कि वस्तुस्थिति प्रकाश में लाई जाय । सम्प्रदाय-मोह एवं परम्परा विशेष के पूर्वाग्रह से विमुक्त हो तटस्थ भाव से लिखते हुए भी विचार-भेद अथवा दृष्टिभेदवशात् यदि कोई उल्लेख तथ्य की सीमा का किंचित्मात्र भी अतिक्रमण कर गया हो तो 'तं मे मिच्छामि दुक्कडं ।' संघ-संचालन की प्रणाली :- कोई भी संगठन, चाहे वह धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक अथवा सांस्कृतिक संगठन हो, उसके संचालन के लिए किसी एक प्रणाली को अपनाना प्रावश्यक हो जाता है। अनेक भेद-प्रभेदों के होते हुए भी इस प्रकार के संगठनों को सुचारु रूप से चलाने के लिए मुख्य रूप से Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d evanam दो प्रणालियां प्रधान मानी गई हैं - प्रथम एकतन्त्रीय प्रणाली और दूसरी प्रजातन्त्रीय प्रणाली। तीर्थप्रवर्तन-काल से लेकर आज तक के भगवान महावीर के धर्मसंघ के इतिहास का समीचीनतया पर्यालोचन करने के पश्चात् यही तथ्य प्रकट होता है कि प्रारम्भ से ही इसका संचालन एक ऐसी सुन्दर एवं सुदृढ़ प्रणाली से किया जाता रहा है जिसे न विशुद्ध एकतन्त्री प्रणाली ही कहा जा सकता है और न पूर्ण प्रजातान्त्रिक ही। महावीर यद्यपि लिच्छविराजकुमार थे। लिच्छवि गणतंत्र उनके समय का एक प्रमुख प्रजातान्त्रिक गणराज्य था। पर कैवल्योपलब्धि के अनन्तर तीर्थ-प्रवर्तन के समय उन्होंने अपने धर्म संघ के संचालन के लिए प्रजातान्त्रिक प्रणाली एवं एकतन्त्रीय प्रणाली के केवल गुरणों को ग्रहण कर मिश्र प्रणाली को अधिक उपयुक्त समझा । यद्यपि वे प्रजातान्त्रिक परम्परा से पाये थे परन्तु त्रिकालदर्शी-सर्वज्ञ हो जाने पर उन्होंने देखा कि उनका धर्म संघ एकान्ततः प्रजातान्त्रिक अथवा एकतंत्री प्रणाली का अनुसरण कर चिरकाल तक अपने वास्तविक स्वरूप में अजस्र एवं निर्द्वन्द्व रूप से नहीं चल सकेगा। केवल प्रजातान्त्रिक पद्धति से संघसंचालन की व्यवस्था में उन्हें अपने धर्म संघ का चिरस्थायी जीवन प्रतीत नहीं हमा। __ संघ-व्यवस्था के आद्योपान्त स्वरूप के अध्ययन से तथा भगवान द्वारा की गई पद व्यवस्था से यही तथ्य प्रकट होता है कि भगवान महावीर ने संघसंचालन के लिए प्रजातान्त्रिक प्रणाली के अंकुश सहित सुयोग्य वैयक्तिक अधिकार प्रधान एकतंत्री व्यवस्था प्रणाली को अधिक श्रेयस्कर समझा। संघ तथा प्राचार के प्रति अनन्य निष्ठावान, प्रत्युत्पन्नमति, शासननिपुरण, प्रोजस्वी, प्रतिभाशाली व्यवहारकुशल एवं योग्यतम अधिकारिक व्यक्ति के सांकुश अधिनायकत्व में अपने धर्म संघ का चिर जीवन तथा चिरस्थायी हित समझकर भगवान महावीर ने संघ के संचालन के लिए एक मिश्रित प्रणाली निर्धारित की। प्रनादिकालीन 'पंचपरमेष्ठि नमस्कारमंत्र' के पांचों पदों से भी यही सिद्ध होता है कि जैन धर्म संघ में अनादि काल से दोनों प्रणालियों के दोषों से मुक्त एवं गुणों से युक्त मिश्र शासन-व्यवस्था रही है। अहंतों के पश्चात् प्राचार्यों का धर्म संघ में सदा-सर्वदा सर्वोपरि स्थान माना जाता रहा है पर प्राचार्य सदा संघ के प्रति उत्तरदायी रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि जहां उदायी, अशोक, संप्रति और विक्रमादित्य जैसे एकतन्त्री शासक कर्तव्यपरायणतापूर्वक प्रजावत्सल न्यायनिष्ठ और सेवाव्रती बने रहे, वहां धर्म, समाज एवं राष्ट्र ने सर्वतोमुखी प्रगति की। इसके विपरीत कुछ अपवादों को छोड़ यह कटुसत्य सर्वविदित है कि प्रजातांत्रिकता में प्रभाव, अभियोग, अनुतरदायित्व, अनिश्चितता, अस्थिरता, विषाक्त प्रतिस्पर्धाजन्य अशान्ति का प्राधिक्य रहा। प्रजातान्त्रिक प्रणाली में जहां एक मोर अनेक गुण हैं वहां दूसरी ओर बहुत बड़ा अवगुण भी है। वहां अधिकारी और अधिकृत, बड़े ( ४० ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और छोटे के भेद का केवल कहने भर के लिए स्थान न रहने के कारण प्रत्येक व्यक्ति में सबसे आगे उभरने की, अहमिन्द्र अथवा अधिनायक बनने की प्रतिस्पर्धा प्रबल वेग से जागत रहती है। प्रत्येक व्यक्ति में उत्पन्न हुई इस प्रकार की भावना के परिणामस्वरूप संगठन में सांठ-गांठ, जोड़-तोड़, दलबन्दी, अनुशासनहीनता, और कलह आदि विनाशकारी प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं। इस प्रकार शनैः-शनैः सामूहिक अपनत्व की भावना अधिनायकत्व, अहमिन्द्रत्व का रूप ग्रहण कर लेती है। एक डोर में चलने वाले एक सम्पन्न-समृद्ध घर के सभी सदस्यों में अपनत्व के स्थान पर अहम्मन्यता और अधिनायकत्व की भावना के पनपने पर जो उस घर की दुर्दशा होती है, ठीक वही दशा अन्ततोगत्वा प्रजातान्त्रिक प्रणाली से चलने वाले संगठन की होती है। यों तो सभी स्थितियां सापवाद होती हैं। पर जहां तक धार्मिक संघ का प्रश्न है, कम से कम इसके संचालन में तो एकांतिक प्रजातन्त्रीय प्रणाली न फव सकती है और न चिरकाल तक सफल ही सिद्ध हो सकती है। प्रारम्भिक दशा में भले ही उससे कुछ लाभ दृष्टिगोचर हो पर उसमें चिरकालिक स्थैर्य नहीं आ पाता। परिवर्तन पर परिवर्तन आते हैं। उस संघ का वास्तविक स्वरूप बदलते-बदलते मूल स्वरूप से पूर्णतः भिन्न हो जाता है। धार्मिक संघ मूलतः आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति के लिए स्थापित किये जाते हैं पर उनके एकान्ततः प्रजातान्त्रिक प्रणाली से संचालित किये जाने के परिणामस्वरूप उस संघ के अधिकांश सदस्यों में उत्पन्न हई विषाक्त प्रतिस्पर्धा के कारण प्राध्यात्मिक शान्ति तो दूर भौतिक शान्ति भी नहीं रह पाती। उस धर्म संघ की स्थापना के पीछे जो आध्यात्मिक शांति की अवाप्ति का मूल उद्देश्य रहता है, वह तिरोहित हो जाता है। इस प्रकार 'नष्टे मूले कुतो शाखा' की उक्ति के अनुसार वह संघ निष्प्राण हो जाता है । एकतन्त्री व्यवस्था-प्रणाली में भी अंकुश के प्रभाव तथा सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति को अधिनायक न बना उसके स्थान पर अयोग्य व्यक्ति के मनोनयन के भी बड़े भीषण परिणाम होते हैं। बौद्ध संघ का दृष्टान्त हमारे समक्ष है । बौद्धसंघ की व्यवस्था किस प्रणाली पर आधारित थी, इसका यद्यपि कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता तथापि पाली-पिटकों के उल्लेखानुसार लिच्छवियों के बौद्ध संघ की ओर अधिक झकाव से यह अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भिक काल में बौद्ध संघ की संचालन प्रणाली एकतन्त्री प्रणाली के आधार पर न की जाकर कतिपय परिवर्तनों के साथ गणतन्त्र प्रणाली के अनुरूप प्रजातान्त्रिक आधार पर की गई थी। यह भी एक कारण हो सकता है कि गणतान्त्रिक व्यवस्था के अभ्यस्त, शासक और शासित, अधिनायक और अधीनस्थ आदि के बड़े-छोटे के भेद के अनभ्यस्त लिच्छवियों का प्रारम्भ में बौद्ध संघ की ओर अपेक्षाकृत अधिक झुकाव रहा हो। पर बौद्ध संघ में वज्जिपूत्रक संघ के नाम से एक पृथक संघ की स्थापना से यह प्रकट होता है कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप बौद्धसंध में उत्पन्न हुई अनुशासनहीनता Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा विशृंखलता को दूर करने के उद्देश्य से द्वितीय बौद्ध संगीति के समय संघ व्यवस्था के नियमों में वैयक्तिक अधिकारों के आधार पर कुछ परिवर्तन किये जाने लगे तो वज्जीवंशी 'वज्जि पुत्रक' नामक भिवखु, जो कि लिच्छवी गणतन्त्र के अंगभूत प्रजातान्त्रिक वज्जीसंघ के सदस्य रह चुके थे, बौद्ध भिक्षु संघ से पृथक् हो गये । जब वज्जिपुत्रक भिक्खु ने देखा कि बौद्ध भिक्षुसंघ पर व्यक्तिनिष्ठ अधिनायकवाद छा रहा है, भिक्षुत्रों की स्वतन्त्रता पर वैयक्तिक आधिपत्य छा जाना चाहता है तो उन्होंने पृथकतः, अपने विचारों से सहमत भिक्षुत्रों का, एक संघ स्थापित किया और उस संघ का नाम वज्जिपुत्रक संघ रखा । इस प्रकार इतिहास साक्षी है कि प्रजातान्त्रिक प्रणाली के आधार पर निर्धारित की गई संघीय व्यवस्था के कारण बौद्ध भिक्षुसंघ बुद्ध से थोड़े समय पश्चात् ही विशृंखल होने लगा । विदेशी कुषारणवंशी सम्राट् कनिष्क ( वीर नि० की सातवीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल ) के समय तक विघटित होते होते अनेक खण्डों में विभक्त होगया और कालान्तर में तो वह आर्यधरा से प्रायः विलुप्त ही हो गया । निस्संदेह, विदेशों में बौद्धधर्म का असाधारण प्रचार प्रौर विस्तार हुआ पर सुयोग्य एवं सांकुश एकतन्त्री संचालन प्रणाली के प्रभाव में परिवर्तन पर परिवर्तन होते रहने के कारण उसकी मौलिकता स्थिर नहीं रह पाई । एकतन्त्री व्यवस्था - प्रणाली में भी अधिनायक के मनोनयन के समय यदि समुचित सतर्कता, जागरूकता न वर्ती जाय और उस पर सुयोग्य एवं सजग अंकुश न रखा जाय तो उसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं । इतिहास में इस प्रकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं कि सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति के स्थान पर किसी योग्य व्यक्ति को किसी धर्म संघ, राज्य अथवा राष्ट्र का सर्व सत्ता सम्पन्न अधिनायक बना दिये जाने की स्थिति में उस राज्य, राष्ट्र अथवा धर्म संघ को कितनी बड़ी-बड़ी क्षतियां उठानी पड़ी हैं। जहां तक एकतन्त्री राज्य सत्ता का प्रश्न है, उसमें इस प्रकार के दोषों और दुष्परिणामों की संभावना दो कारणों से अधिक रहती है । प्रथम कारण तो यह रहा है कि एक राजा की मृत्यु के पश्चात् वंश परम्परागत प्रथा के अनुसार उसके पुत्र को, चाहे वह अयोग्य ही क्यों न हो राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त कर उसे राज्य का सर्व सत्ता सम्पन्न निरंकुश अधिनायक बना दिया जाना। दूसरा कारण रहा है विदेशी प्रातताइयों अथवा श्राक्रान्ताओं द्वारा राज्यसत्ता पर बलपूर्वक अपना आधिपत्य स्थापित कर लेना । ये दोनों ही स्थितियां राज्य, राष्ट्र और जन साधारण के लिये बड़ी दुःखद, विनाशकारी एवं भयावह होती हैं। पहली स्थिति में अधिनायक शास्ता की अकर्मण्यता के कारण शासन में दौर्बल्य प्रजा में निराशा एवं प्रविश्वास घर करने लगता है, वांछनीय तत्त्व उभर कर सक्रिय हो उठते हैं, जनहित, उत्पादन, अभिवृद्धि, शक्ति संचय आदि के आवश्यक कार्य और राज्य की आय के स्रोत अवरुद्ध हो जाते हैं । दूसरे प्रकार की स्थिति में विदेशी शासन का मुख्य उद्देश्य येन केन प्रकारेण धन संचय करना अपने शासन को चिरस्थायी बनाने के लिये अपनी ( ४२ ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेना में, राज्य के प्रमुख पदों पर और युद्ध की दृष्टि से देश के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपने कुटुम्ब के, अपनी जाति के और अपने देश के लोगों को अधिकाधिक संख्या में नियुक्त करना, जमाना और शासित देश की सैनिक जातियों एवं शाक्तियों को नष्ट करना मात्र रहता है। विदेशी शासक के अन्तर्मन में जन सेवा, प्रजावत्सलता और राष्ट्र को सशक्त, सुसम्पन्न, समृद्ध समुन्नत बनाने की भावना वस्तुतः नाममात्र को भी नहीं रहती । पर जहाँ तक धर्म संघ की व्यवस्था का प्रश्न है, उसकी सांकुश एकतन्त्री शासन प्रणाली अर्थात् मिश्र शासन प्रणाली में चैत्यवास-संस्थापन जैसे अत्यल्प अपवादों को छोड़ कर इस प्रकार के दोषों के उत्पन्न होने की संभावनाएँ नहीं रहती हैं। किसी राज्य अथवा राष्ट्र की एकतन्त्रीय शासन प्रणाली को सदोष एवं प्रनिष्टकर बना देने वाले मुख्यतया जो दो कारण बताये गये हैं, उसी राजवंश के व्यक्ति को सिंहासनारूढ़ करना और विदेशी प्राक्रान्ता द्वारा बलात् राज्यसत्ता को हथिया लेना, इन दोनों कारणों की एक धर्म संघ के संचालन की एकतन्त्री व्यवस्था प्रणाली में तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में एकतन्त्रीय शासन प्रणाली के इन दो विनाशकारी मूल दोषों से धर्म-संघ सर्वथा अछूता रह सकता है । इनके अतिरिक्त धर्मसंघ की एक तन्त्रीय व्यवस्था प्रणाली में धर्मसंघ को अधःपतन की ओर ले जाने वाले साधारणतः जिन दोषों की संभावना की जा सकती है, उनमें प्रथम है आचार्य पर संघ का अंकुश न रखना tear किसी योग्य व्यक्ति को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित कर देना । श्राचार्य में जिन जिन गुणों का होना आवश्यक है उन गुरणों से विपरीत जितने भी अवगुण हैं उनमें से प्रत्येक वरण किसी भी श्रमरण को प्राचार्य पद के लिये प्रयोग्य ठहराने में पर्याप्त माना जाता रहा है। जो उत्सूत्र प्ररूपक, अदूरदर्शी, शिथिलाचारी, स्वार्थी, निष्प्रभ, निस्तेज, अशक्त हो, अंग-वाचना, प्रवचन, धर्म प्रभावना, संघ-संचालन, संघोत्कर्ष में प्रकुशल, हो उग्र एवं अस्थिर स्वभाव वाला और श्रवशेन्द्रिय हो, मुख्यतः वह श्रमण श्राचार्य पद के लिये प्रयोग्य माना गया है । वस्तुतः सर्वाधिक सुयोग्य एवं आचार्य पद के लिये आवश्यक सर्वगुरणों से सम्पन्न श्रमण को ही प्राचार्य पद पर नियुक्त किये जाने का विधान रखा गया है। किन-किन प्रकार के विशिष्ट गुणों से सम्पन्न श्रमण को प्राचार्य पद पर मनोनीत किया जाता था और इस कार्य में किस प्रकार पूर्ण सतर्कता और जागरूकता से काम लिया जाता था, यह - "निर्वाणोत्तर काल में संघ व्यवस्था का स्वरूप इस शीर्षक के नीचे आगे दिये जा रहे आचार्य के गुणों एवं संपदाओं विवरण से भली भांति प्रकट हो जाता है । प्रायः सभी प्राचार्य अपने जीवन काल में ही सतत प्रयत्नशील रहते थे कि ऐसे योग्यतम व्यक्ति को अपने उत्तराधिकारी के रूप में शिक्षित - दीक्षित किया जाय, जिसके सुदृढ़ नेतृत्व में संघ उत्तरोत्तर उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता रहे, विश्व कल्याणकारी श्रहिंसा-धर्म का उद्योत दिग्दिगन्त में व्याप्त हो जाय, प्रत्येक ( ४३ ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव विश्वबन्धुत्व की भावना से प्रोत-प्रोत होकर स्व-पर के कल्याण में निरत रहे । इस तथ्य का साक्षी है प्राचार्य प्रभव द्वारा अपने उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में अर्द्धरात्रि के समय चिन्तन, यज्ञानुष्ठान में निरत ब्राह्मण, सद्गृहस्थ सय्यंभव का चयन, प्रतिवोधन, दीक्षण, अध्यापन और प्राचार्य पद पर मनोनयन ।' प्राचार्य प्रभव के प्राचार्य काल में श्रमण संघ बड़ा विशाल था। उनके सुविशाल शिष्य समूह में अनेक श्रमण द्वादशांगी के पारंगत और चतुर्दश पूर्वधर होंगे पर तात्कालिक परिस्थितियों में अपने पश्चात् प्राचार्यपद के लिये जिन प्रकृष्ट गुणों की आवश्यकता थी, वे गुण प्राचार्य प्रभव ने गृहस्थ सय्यंभव ब्राह्मण में पाये और उन्होंने प्राचार्य पद के लिये अपने दीक्षावृद्ध, ज्ञानवृद्ध और विद्वान् शिष्यों में से किसी को न चुनकर उनसे पश्चाद् दीक्षित आर्य सय्यंभव को चुना। भगवान महावीर द्वारा अपने धर्मसंघ के संचालन के लिये जो प्रणाली निर्धारित की गई वह एक ऐसी सुन्दर, सुनियोजित, सहज सुव्यवहार्य, समीचीन, श्रेयस्कर एवं स्वस्थ सांकुश एकतन्त्री परम्परा थी, जिसमें संघ के सर्वोपरि अधिनायक प्राचार्य के प्रति अगाध श्रद्धा और पूर्ण विश्वास के उपरान्त भी उसमें पूर्वाग्रह विहीन उन्मुक्त चिन्तन के लिये पूर्ण अवकाश था । विचार स्वातन्त्र्य के लिये द्वार उन्मुक्त थे । निर्णय से पूर्व उस कार्य के प्रौचित्यानौचित्य के सम्बन्ध में अपना-अपना अभिमत प्रकट करने का संघ को पूर्ण अधिकार था। यदि संक्षेप में कहा जाय तो वह संघ के अंकुश सहित एक ऐसी एकतन्त्रीय शासन प्रणाली थी, जिसमें एकान्तिकता अथवा निरंकुशता नाम मात्र को भी नहीं थी। सब के विचारों के प्रति सम्मान और समादर रखा जाता था। सामष्टिक रूप से विवेक की कसौटी पर कसे जाने के अनन्तर ही पेचीदा प्रश्नों पर प्राचार्य द्वारा निर्णय लिया जाता था। स्थविर आदि विशिष्ट श्रमणों के सुदूरस्थ प्रदेशों में विचरण करने की दशा में अथवा किसी प्रकार की अन्य अपरिहार्य परिस्थितियों में जहां समष्टि का अभिमत लिया जाना संभव नहीं होता उस स्थिति में यदि किसी प्रात्यन्तिक महत्त्व के प्रश्न पर प्राचार्य अपना निर्णय देते तो उनका निर्णय सर्वोपरि और सर्वमान्य होता था। तदनन्तर उपयुक्त अवसर उपस्थित होते ही सामूहिक रूप से उस पर पुनर्विचार करने की स्थिति में यदि उस निर्णय में परिवर्तन करना अनिवार्य समझा जाता तो निस्संकोच भाव से प्राचार्य की विद्यमानता में प्राचार्य द्वारा और प्राचार्य के दिवंगत हो जाने की दशा में श्रमण संघ द्वारा उस निर्णय में आवश्यक परिवर्तन भी कर दिया जाता था। किन्तु इस प्रकार की परिस्थितियां कादाचित्क ही होती थी क्योंकि संघहित को सदा लक्ष्य में रखने वाले दूरदर्शी आचार्य प्रत्येक कार्य के प्रौचित्यानौचित्य पर पूरी तरह विचार करने के पश्चात् ही निःस्वार्थ, निर्लेप एवं निर्मोह भाव से निर्णय लेते थे। ' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. ३१२-३१४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य अपने शिष्य वर्ग में से योग्य शिष्यों को अनेक प्रकार से परीक्षाएं लेकर मन ही मन सर्वतः सर्वाधिक सुयोग्य शिष्य को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुन कर उसे स्वाजित समस्त ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते और अन्त में अपनी प्रायु-समाप्ति से पूर्व ही समस्त संघ के समक्ष उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया करते थे। जहाँ इस प्रकार के उत्तराधिकारी नियुक्त करने जैसे प्रात्यन्तिक महत्व के प्रश्न पर श्रमणवर्ग एवं संघ में मतवभिन्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती वहाँ पर प्राचार्य किस प्रकार अपने श्रमरण समूह और संघ का पूर्णतः परितोष और समाधान करते थे, इसका एक बड़ा सुन्दर उदाहरण श्वेताम्बर परम्परा के वाङ्मय में उपलब्ध होता है। घटना वीर नि० सं० ५६७ की है । अनुयोगों के पृथककर्ता महान आचार्य रक्षित अपने अनेक शिष्यों के साथ दशपुर नगर के बाहर अपने दीक्षास्थल इक्षुग्रह में ठहरे हुए थे। चातुर्मासावाधि में अपनी आयु का अन्तिम समय समीप समझ कर अपने शिष्य-समूह एवं संघ के समक्ष अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। आर्य रक्षित अपने अनेक सुयोग्य शिष्यों में से केवल दुर्बलिका पुष्यमित्र को ही अपने उत्तराधिकारी प्राचार्य पद के लिये योग्य समझते थे पर उनके शिष्य समूह में से कतिपय मुनि और संघ के कुछ प्रमुख व्यक्ति फल्गुरक्षित को तथा कुछ मुनि और संघ के प्रमुख व्यक्ति गोष्ठामाहिल को प्राचार्य पद का उत्तराधिकारी बनाये जाने के पक्ष में थे। उत्तराधिकारी की नियुक्ति के प्रश्न पर अपने शिष्यसमूह और संघ में मतभेद देखकर भी आर्य रक्षित संघहित को सर्वोपरि समझ अपने महान् पावन उत्तरदायित्व के निर्वहन में कृतसंकल्प रहे। प्रश्न वस्तुतः वड़ा जटिल था। आर्य फल्गुरक्षित बड़े ही प्रतिभाशाली विद्वान् श्रमण और प्राचार्य रक्षित के छोटे सहोदर थे। उन्होंने किशोरावस्था में अपने ज्येष्ठ भ्राता रक्षित के केवल एक इंगित मात्र पर श्रामण्य अंगीकार कर संसार के समक्ष महान् त्याग और भ्रातृस्नेह का अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया था। बहमत फल्गुरक्षित के पक्ष में था। गोष्ठामाहिल भी बड़े तार्किक और विद्वान मुनि थे। उत्तराधिकार के इस प्रश्न के उपस्थित होने से कुछ समय पूर्व ही संघ की प्रार्थना पर उन्होंने आर्य रक्षित का आदेश पा मथुरा में दुर्दान्त प्रक्रियावादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर धर्म को महती प्रभावना करने के साथ साथ बड़ा यश अजित किया । अतः गोप्ठामाहिल का पक्ष भी पर्याप्त रूपेण सबल था। परन्तु आचार्य रक्षित अपने सहोदर फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल की अपेक्षा दुर्बलिकापुष्यमित्र को प्राचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की दशा में संघ का सर्वतोमुखो विकास, हित और उज्जवल भविष्य देख रहे थे। अपने सम्मुख उपस्थित समस्या का वे इस प्रकार का हल निकालना चाहते थे, जिससे संघ के भावी उत्कर्ष एवं उज्ज्वल भविष्य में किचित्मात्र भी कोर-कसर न रहे और सभी पक्षों का पूर्ण संतोषप्रद समाधान हो जाय । प्राचार्य रक्षित ने बड़ी ही सूझ-बूझ से काम किया। उन्होंने उपस्थिन शिष्य समूह और ( ४५ ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-मुख्यों को सम्बोधित करते हुए पूछा-"यदि हम लोगों के सामने तीन घड़े रखे जायें जो क्रमशः उड़द, तेल और घृत से भरे हों। उन तीनों को क्रमशः पृथकपृथक तीन रिक्त पड़ों में उंडेल दिये जाने पर उनमें उड़द, तेल और घृत कितनीकितनी मात्रा में प्रवशिष्ट रहेंगे ?" सभी ने एक स्वर में उत्तर दिया- उड़द के घड़े में एक भी दाना प्रवशिष्ट न रहेगा। तेल के घड़े में कुछ तेल और घी के घड़े में तेल की अपेक्षा अधिक मात्रा में घृत अवशिष्ट रह जायगा। प्राचार्य रक्षित ने निर्णायक स्वर में कहा - "उड़द के घड़े की तरह मैं अपना समस्त ज्ञान (द्वादशांगी एवं संघ संचालन का ज्ञान) दुर्बलिका पुष्यमित्र में उंडेल चुका हूँ। मेरे शेष सब शिष्यों की स्थितिघृत-घट और तेल-घट तुल्य है। जिस प्रकार तेलपूर्ण एवं घृतपूर्ण घड़े को एक बार अन्य घड़े में उंडेल दिये जाने के मनन्तर भी न्यूनाधिक मात्रा में तेल और घृत अवशिष्ट रह ही जाता है, उसी प्रकार दुर्बलिका पुष्यमित्र को छोड़ कर शेष शिष्य मेरे सम्पूर्ण ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सके हैं।" महान् धर्म प्रभावक एवं अनन्य उपकारी धर्माचार्य के संघहितकनिष्ठ आन्तरिक उद्गारों को सुनते ही तत्क्षरण समस्त संघ का सम्यकपेण समाधान हो गया, सभी मतभेद समाप्त हो गये, सभी पक्षों को पूर्ण संतोष हमा और तत्काल श्रमण समूह और समस्त संघ ने सर्व सम्मति से दुर्बलिका पुष्यमित्र को प्रार्य रक्षित के उत्तराधिकारी प्राचार्य के रूप में स्वीकार किया। भविष्य ने भी सिद्ध कर दिया कि प्राचार्य रक्षित का निर्णय वस्तुतः बड़ा दूरदर्शिता पूर्ण, सर्वथा उपयुक्त, समीचीन एवं भगवान् महावीर के धर्मसंघ की भावी संकट से रक्षा करने वाला था। प्राचार्य रक्षित के स्वर्ग यमन के कुछ ही समय पश्चात मुनि गोष्ठा माहिल जब उत्सूत्र प्ररूपक सातवां निह्नव बना और प्राचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने प्रार्य रक्षित द्वारा प्रदत्त दिव्य प्राध्यात्मिक शक्ति के बल पर गोष्ठा माहिल जैसे शास्त्रार्थ कुशल दुर्जेय तार्किक को समस्त संघ के समक्ष हतप्रभ कर प्रभू महावीर के सिद्धान्तों एवं संघ के प्रति जन-मानस में समादर की अभिवृद्धि की तो धर्म संघ के प्रत्येक सदस्य के मुख से यही उद्गार निकले - "मार्य रक्षित वस्तुतः महान् भविष्य-द्रष्टा थे। उनका निर्णय प्रतीव अद्भुत, सर्वथा उपयुक्त और बड़ा दूरदर्शितापूर्ण था, जो उन्होंने सर्वतः सक्षम-समर्थ दुर्बलिका पुष्यमित्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया। यदि हम लोगों को प्रसन्न रखने के लिये संघहित की उपेक्षा कर गोष्ठामाहिल को प्राचार्य पद का उत्तराधिकारी घोषित कर देते तो प्रभु के विश्व कल्याणकारी धर्म संघ का कितना बड़ा अहित होता। कोटि-कोटि प्रणाम हैं उन दिवंगत महान् दूरदर्शी प्राचार्य को।" ___ इस प्रकार की ऐतिहासिक घटनाओं से यह भली-भांति, प्रमाणित होता है कि भगवान महावीर ने अपने धर्म संघ के संचालन के लिये जो, संघ के अंकुश ' प्रस्तुत, ग्रन्थ, पृ० ५६८-६०२ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित एकतन्त्रीय शासन प्रणाली निर्धारित की, उसमें इस प्रकार की व्यवस्थाएं की गई थी कि उन व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते रहने पर वह सदा निर्दोष और पूण स्वस्थ परम्परा बनी रहे । उस व्यवस्था में संघ के संरक्षण, उत्कर्ष प्रादि के लिये पूर्णतः उत्तरदायी एवं सांकुश सर्व सत्ता सम्पन्न जो प्राचार्य पद रखा, उस पद पर नियुक्ति का प्राधार निर्वाचन के स्थान पर मनोनयन रखा गया। संघ संचालन की इस प्रकार की एकतन्त्री प्रणाली में कभी किसी प्रकार का दोष प्राने की संभावना तक न रहे, इस उद्देश्य से उसी श्रमण को प्राचार्य पद पर मनोनीत अथवा अधिष्ठित करने का कड़ा विधान किया गया, जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों : __जो स्वयं पूर्ण प्राचारवान्, दूसरों से विशुद्ध प्राचार का परिपालन करवाने वाला, संघ में पूर्ण अनुशासन रखने की क्षमता वाला, श्रमण समूह को तलस्पर्शी तत्त्वज्ञान एवं प्रागम वाचना देने में सक्षय, साधक वर्ग को आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर करते रहने की असाधारण योग्यता वाला, जन्मजात मेधावी, सर्वातिशायी प्रोज-तेज-प्रतिभा-प्रभावसम्पन्न व्यक्तित्व का धनी, धीर-वीर-गम्भीर, संस्कार सम्पन्न, पुण्यात्मा, प्रात्मजयी, निष्कलंक जातिकुल-स्वभावसम्पन्न एवं निश्छल प्रकृति का हो। जैसा कि प्रार्य प्रभव एवं प्रार्य रक्षित के उपरिलिखित उल्लेखों से स्पष्ट है वीर निर्वाण के पश्चात् समय-समय पर प्राचार्यों ने और चतुर्विध संघ ने किसी भी श्रमरण को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित अथवा मनोनीत करते समय अपने गुरुतर उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए उपरिलिखित योग्यतानों से सम्पन्न सर्वाधिक योग्य श्रमण को ही प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया। मतभिन्य की स्थिति में अथवा अन्य प्रात्यन्तिक महत्व के अवसरों पर प्रात्मार्थी प्राचार्यों ने समस्त संघ का विश्वास संपादन कर अन्तिम निर्णय वही दिया, जो उन्हें संघ एवं समष्टि के लिये हितकर प्रतीत हुआ। जैसा कि फल्गुरक्षित को उत्तराधिकारी घोषित किये जाने के प्रश्न से प्रकट है, उन्हें उनके पुनीत कर्तव्य के पावन उत्तरदायित्व से न लघुसहोदर का सम्बन्ध विचलित कर सका और न अन्य निकट से निकटतम सम्बन्ध ही। उन निर्लेप-निष्पक्ष महामना महान् प्राचार्यों के सुयोग्य नेतृत्व, दूरदर्शितापूर्ण समुचित निर्णयों, उद्दात्त चारित्र और सही मार्गदर्शन का ही प्रतिफल है कि धर्मसंघ की सांकुश एकतंत्र शासन प्रणाली में विनाशकारी दोष प्रवेश न पा सके और आज सहस्राब्दियां बीत जाने पर भी भगवान महावीर का धर्मसंघ एक प्रतिष्ठित धर्मसंघ के रूप में प्रक्षुण्ण और मजस्र धारा के प्रवाह की तरह चला आ रहा है । जब तक प्राचार्यों ने संघ के प्रति उत्तरदायी रहते हए संघहित के अपने महान् उत्तरदायित्व का सच्चाई के साथ निष्पक्ष और निर्लेप रह कर निर्वहन किया तब तक संघ अभिवृद्ध एवं समुन्नत होकर उत्तरोत्तर आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता रहा। ( ४७ ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालान्तर में ज्यों-ज्यों काल-प्रभाव से प्राचार्यों के अपने पवित्र उत्तर. दायित्वों का न्याय एवं सच्चाई पूर्वक निर्वहन करने में शैथिल्य पाने लगा, पुनीत कर्तव्य की भावना शनैः शनैः विलुप्त होने लगी, धर्म संघ के हितार्थ दिये गये अधिकारों का उपयोग केवल अपनी महानता और स्वामित्व को प्रदर्शित करने मात्र के लिये किया जाने लगा, त्यों-त्यों अनुशासन शिथिल तथा धर्म संघ विकीर्ण एवं क्षीण होता गया । पर सोभाग्य से समय-समय पर अनेक महान विभूतियां उन दुदिनों में उभर कर आगे आईं। उन्होंने घोरातिघोर कष्ट सह कर भी अनेक बार क्रियोद्धार किये। उन महान् आत्माओं के त्याग का ही फल है कि अनेक परिवर्तनों के उपरान्त भी प्राज भगवान महावीर का धर्म संघ अपने मूल स्वरूप को अपरिवर्तित एवं अक्षुण्ण बनाये हुए है। उत्तरवर्ती काल में श्रमण संघ के चतुर्दिक प्रसार, सुदूरस्य प्रदेशों में धर्मप्रचार की दृष्टि से गये हुए श्रमणों द्वारा उन क्षेत्रों में धर्मोद्योत की प्रचुर संभावनाओं के कारण वहीं विहार करते रहने के कारण अथवा कालान्तर में छोटी-बड़ी कतिपय मान्यताओं का भेद उत्पन्न हो जाने के समय प्रभाव से अपना पृथकतः एक गण के रूप में स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखने की भावना के बलवती बन जाने के फलस्वरूप श्रमरण संघ में क्रमशः अनेक संघ, गण, गच्छ, शाखा, उपशाखा, कुल तथा उपकुल आदि का अस्तित्व बढ़ने लगा और मुख्यतः वे विभिन्न संघ, गण, गच्छ प्रादि अपने अपने स्वतन्त्र प्राचार्य के नेतृत्व में धर्म का प्रचारप्रसार करने लगे। इस प्रकार भगवान महावीर के धर्म संघ में अनेक संघों, गरणों तथा गच्छों के प्रादुर्भाव के कारण एक ही समय में अनेक प्राचार्यों की प्रथा का प्रचलन तो हुप्रा पर उन सभी धर्म संघों, गणों अथवा गच्छों के संचालन की परम्परागत सांकुश एकतन्त्री शासन-प्रणाली यथावत् रही। उत्तरोत्तर अंकुश में शैथिल्य के अतिरिक्त उसके मूल स्वरूप में विशेष परिवर्तन नहीं पाया। प्राज भी जैन धर्म के सभी श्रमण संघों एवं सम्प्रदायों की संचालन व्यवस्था अपने उसी पुरातन स्वरूप सांकुश एकतन्त्री व्यवस्था-प्रणाली को लिये हुए है। निर्वाणोत्तर काल में संघ व्यवस्था का स्वरूप :- यह तो एक निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान् महावीर का धर्म-संघ भारत के विभिन्न धर्म संघों में सदा से प्रमुख, सुविशाल तथा बहुजन सम्मत रहा है। जैन वाङमय में निर्वाण-पूर्ववर्ती एवं निर्वाणोत्तरकाल के अनेक ऐसे अन्य धर्मसंघों का उल्लेख उपलब्ध होता है जो विशाल भी थे और बहुजन सम्मत भी। पर ग्राज उन धर्म संघों में से एक दो को छोड़कर शेष का नाम के अतिरिक्त कोई अवशेष तक भी अवशिष्ट नहीं रहा है। इसके विपरीत भगवान् महावीर का धर्म संघ जिस प्रकार प्रभु महावीर के निर्वाण से पूर्व एक विशाल, वहजन सम्मत एवं सुप्रतिष्ठित धर्म संघ के रूप में समीचीन रूप से चलता रहा, उसी प्रकार निर्वाणोत्तर काल में भी चलता रहा । निर्वाणोत्तर काल के १००० वर्ष के इतिहास का विहंगमावलोकन करने पर तो यह विश्वास करने के लिये अनेक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमारण उपलब्ध होते हैं कि जैन धर्म सुदूरवर्ती प्रदेशों तथा देशों में फैला, फला. फूला और एक लम्बे समय तक उत्तरोत्तर अभिवृद्धि को प्राप्त होता रहा । जहां अन्य अनेक बड़े-बड़े धर्म-संघ विषम परिस्थितियों में विशृंखल एवं संक्रान्तिकाल की चपेट से चकनाचूर हो धरातल से तिरोहित हो गये, वहां जन-धर्म प्रभु महावीर द्वारा दी गई अहिंसा, अस्तेय, अचौर्य, प्रब्रह्मनिवृत्ति और अपरिग्रह रूपी अमर, अनमोल, महान् सिद्धान्तों की धरोहर को सुरक्षित रखे हुए प्राज भी अनवरुद्ध गति से एक अजस्त्र धारामयी सौख्य-सरिता के समान चल रहा है। काल प्रभाव से यह धारा पूर्वापेक्षया परिक्षीण तो अवश्य हुई है पर उसके शिवसोख्य प्रदायी मूल गुण में किसी प्रकार की किचित्मात्र भी न्यूनता नहीं पा पाई है। माजीवक प्रभृति अनेक विशाल धर्म-संघ विलुप्ति की घोर अन्धकारपूर्ण गुफा में विलीन होगये। आज उन धर्म संघों का अनुयायी तो दूर, चिन्ह तक कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन धर्म पर भी अनेक बार विपत्ति के बादल मंडराये, द्वादशवार्षिकी दुष्कालियों, राजनयिक उथल-पुथल, वर्ग विद्वेष, धर्मांधताजन्य गृह कलह आदि संक्रान्तिकाल के अनेक दौर आये और चले गये। अनेक धर्म संघों का सर्वनाश करने वाले वे विप्लव भी जैन धर्म को समाप्त नहीं कर सके । अतीत की उन अति-विकट संकटापन्न घड़ियों में भी जैन धर्म किन कारणों से अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल हमा? इस प्रश्न की गहराई में उतरने और खोज करने पर इसके कतिपय प्रबल कारण उभर कर सामने पाते हैं। सबसे पहला और प्रबल कारण तो यह था कि सर्वज्ञ प्रणीत धर्म होने के फलस्वरूप इस धर्म संघ का संविधान सभी दृष्टियों से सुगठित और सर्वांगपूर्ण था। अनुशासन, संगठन की स्थिरता, सुव्यवस्था, कुशलता पूर्वक संघ के संचालन की विधा आदि संघ के उस संविधान की अपनी अप्रतिम विशेषताएं थीं। दूसरा मुख्य कारण था इस धर्म संघ का विश्वबन्धुत्व का महान् सिद्धान्त, जिसमें प्राणिमात्र के कल्याण की सच्ची भावना सन्निहित थी। इन सब से बढ़ कर इस धर्म संघ की घोरातिघोर संकटों में भी रक्षा करने वाला था इस धर्मसंघ के कर्णधार महान् प्राचार्यों का त्याग-तपोपूत अपरिमेय प्रात्मबल । इस प्रकार ये ३ प्रमुख कारण थे, जिनके बल पर सघन काली मेघ घटाओं के विच्छिन्न हो जाने पर जिस प्रकार सूर्य पुनः अपनी प्रखर किरणों के प्रचण्ड तेज से जगती. तल को प्रकाशित करने लगता है, ठीक उसी प्रकार जैन धर्म-संघ भी समय-समय पर पाये संकटों से उभर कर अपने अलौकिक ज्ञानालोक से जन-जन के मनमन्दिर और मुक्ति पथ को प्रकाशित करता रहा। . जैन वाङ्मय के कतिपय अति प्राचीन प्रामाणिक उल्लेखों और पुरातन काल से चली आ रही पारम्परिक मान्यता के आधार पर यह अनुमान करने के अनेक कारण विद्यमान हैं कि श्रुतकेवली प्राचाय भद्रबाहु के समय तक जैन धर्मसंघ का एक सर्वांगपूर्ण एवं अतिविशाल संविधान विद्यमान था। उस संविधान में संभवतः पंच महाव्रतधारी साधु-साध्वी, अणुव्रतधारी श्रावन धाविका Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग के लिये ही नहीं अपितु संघ के प्रति निष्ठा-प्रेम रखने वाले साधारण से साधारण सदस्य के कर्तव्यों एवं कार्यकलापों के लिये मार्ग दर्शक विधिविधान था। उसमें निर्दिष्ट विधि के अनुसार इस धर्म-संघ का प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करता था। ___वीर नि० सं० १६० के आस-पास पाटलिपुत्र में हुई प्रथम आगम-वाचना के समय दृष्टिवाद की रक्षार्थ संघ द्वारा साधुओं के एक संघाटक को भद्रबाहु की सेवा में नेपाल भेज कर उन्हें मेधावी साधुनों को चौदह पूर्वो की वाचना देने की प्रार्थना करना, भद्रबाहु द्वारा प्रथमतः संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करना और अन्ततोगत्वा बारह प्रकार के संभोगविच्छेद की संघाशा के समक्ष झुक कर स्थूल भद्र अदि को पूर्वज्ञान की वाचना देने के उल्लेख' से भी यह अनुमान किया जाता है कि पूर्वकाल में जैन संघ का एक सर्वांग सम्पन्न संविधान था, जिसमें श्रमण संघ की ही तरह साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इन चारों बगों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक जैन संघ के कर्तव्यों एवं दायित्वों के सम्बन्ध में स्पष्ट एवं विशद प्रावधान थे। चतुर्विध तीर्थ का प्रतिनिधित्व करने वाला इस प्रकार का संघ विशिष्ट प्रकार के संकट के समय विचार-विमर्श के पश्चात किसी विकट समस्या के समाधान के लिये निर्णय लेता था। यदि इस प्रकार की व्यवस्था संविधान में नहीं होती, तो न तो संघ ही एक प्राचार्य को इस रूप में प्राज्ञा देने का अधिकारी हो सकता था और न प्राचार्य भद्रबाहु ही उस संघाज्ञा को मानने के लिये बाध्य होते । वह संधाज्ञा केवल श्रमणवर्ग की ही हो, यह भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि भद्रबाहु प्राचार्य होने के नाते समस्त श्रमण वर्ग के शास्ता ये और श्रमरण समूह उनका शासित वर्ग। शासित वर्ग शास्ता को प्राज्ञा दे, यह मुक्तिसंगत नहीं लगता। विद्वान् इतिहासज्ञ इस विषय में गवेषणा करेंगे ऐसी अपेक्षा है। पहली प्रागम-वाचना के समय के उपरिवरिणत उल्लेख के अतिरिक्त पार्य वच की माता द्वारा अपने पुत्र वज़ को पुनः उसे लौटाने के लिये राज्य के न्यायालय में की गई प्रार्थना, प्रार्य रक्षित का उत्तराधिकारी घोषित करने विषयक उलझन जैसे अनेक प्रसंगों पर संघमुख्यों के हस्तक्षेप. विचार विनिमय, सहयोग मादि के उदाहरण भी जैन वाङमय में उपलब्ध होते हैं। इनसे यही प्रकट होता है कि संघमुख्यों के भी परम्परा से कुछ कर्तव्य, कतिपय दायित्व रहे हैं और उनका उल्लेख कहीं न कहीं था, जिसे माज की, भाषा में संविधान की संभा दी जा सकती है। श्रुत केवली प्राचार्य भद्रबाहु ने दृष्टिवाद के नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से, श्रमण. संघ के लिये प्रावश्यक विधि विधानों को निर्यढ-उद्धत कर, चुन चुन कर दशाश्रुत स्कन्ध, कल्प, व्यवहार इन तीन छेद सूत्रों तथा प्राचार-कल्प (निशीय) ' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. ३७७ ( ५० ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन आगमों का निर्माण किया' यही एक सर्वसम्मत ऐतिहासिक घटना इस बात का विश्वास करने के लिये पर्याप्त एवं प्रबल प्रमाण है कि भगवान् महावीर के धर्म-संघ का प्राचीन काल में एक विशाल एवं प्रपने प्राप में सर्वत: परिपूर्ण संविधान था । इस प्रकार की सर्वांगपूर्ण समीचीन व्यवस्था के कारण भगवान् महावीर का धर्म-संघ तत्कालीन क्रमागत प्राचार्यों के नेतृत्व में सुसंगठित रूप से चलता रहा । समय समय पर अनेक प्रतिकूल परिस्थितियां आई, आपत्कालीन स्थितियां भी उत्पन्न हुई, इस धर्म-संघ पर अनेक वार विपत्तियों के घने काले बादल भी मंडराए पर दूरदर्शी अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न, तपोधन प्राचार्यों के कुशल नेतृत्व में यह धर्म-संघ सुसंगठित रहने के कारण उन परीक्षा की घड़ियों में सदा उत्तीर्ण हुआ । उसने अपने अस्तित्व को ही नहीं अपितु अपनी प्रतिष्ठा को भी बनाये रखा । - इस धर्मसंघ की वह सर्वांगपूर्ण एवं छिद्रविहीन सुव्यवस्था किस प्रकार की थी ? इस धर्मसंघ का संविधान क्रमबद्ध एवं पृथक् रूप से एकत्र प्रथित था अथवा प्राज जिस प्रकार विविध छेद सूत्रों, भाष्यों एवं महाभाष्यों श्रादि में विकीर्ण रूप में दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार विभिन्न भागमों में निहित था ? आज श्रागम साहित्य में मुख्यतः केवल श्रमण-श्रमरणीवर्ग की दैनिकचर्या, दीक्षित होने के समय से लेकर प्रारणोत्सर्ग - कालपर्यंत श्रमण श्रमणियों के सभी उत्तरदायित्वों, श्रावश्यक कर्तव्यों प्रचार-विचार, श्राहार-विहार- प्रायश्चित प्रादि के सम्बन्ध में विधान उपलब्ध होता है । श्रावकवर्ग के प्राचार-विचार के सम्बन्ध में तो कुछ स्थलों पर प्रत्यक्ष और कतिपय स्थलों पर अप्रत्यक्ष रूप में थोड़ा बहुत उल्लेख विद्यमान है किन्तु धर्मसंघ के प्रति उनके दायित्वों, धर्मसंघ के प्रभ्युत्थान हेतु उनके कर्त्तव्यों आदि का क्रमिक एवं विस्तृत उल्लेख कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । तो वस्तुतः : श्रावक श्राविका वर्ग के लिये भी इस धर्मसंघ के पूर्वकालवर्ती संविधान में विधिविधान, किसी प्रकार का निती निर्देश था प्रथवा / नहीं ? साधु-साध्वी वर्ग और श्रावक-श्राविकावर्ग के बीच का भी कोई वर्ग था अथवा नहीं? यदि था तो उसका स्वरूप क्या था और उस वर्ग के दायित्व क्या क्या थे ? इन सब प्रात्यन्तिक महत्व के प्रश्नों के यत्किचित् उत्तर तो माज हमें उपलब्ध जैन वाङ्मय में खोजने पर मिल जाते हैं पर उन्हें पूर्ण संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता । इस संबन्ध में गहन शोध के साथ-साथ शास्त्रीय प्राधार पर जैन संघ के संविधान के निर्माण की भी आवश्यकता है, जो सभी दृष्टियों से पूर्ण और स्पष्ट हो । 1 (क) वन्दामि भद्दवाहु, पाईणं चरिम सगलसुयनारिंग । सुत्तस्स कारगमिसि, दसासुकप्पे य ववहारे || १|| (ख) तत्तोच्चिय णिज्जूढं, भरणुगहट्ठाए संपयजतीगं । तो सुतकारगो खलु, स भवति दसकप्प ववहारे ।। ११ ।। (ग) तेरण भगवया प्रायार पकप्प-दसा- कप्प-वबहारा य नवमपुव्यनी संदभूता निज्जूढ़ा ( ५१ ) [ दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति ] [ पंचकल्प महाभाष्य ] [ पंचकल्प चूरिंण, पत्र १] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेद सूत्रों में निर्वाणोत्तर कालीन श्रमण संघ की व्यवस्था का विस्तृत रूप से विवरण उपलब्ध होता है । धर्म संघ का श्रमण-श्रमणीवर्ग सुदृढ संगठन एवं पूर्ण अनुशासन में रहते हुए सम्यग् रीति से ज्ञानाराधना तथा साधना का निरन्तर-उत्तरोत्तर विकास, धर्म का प्रचार-प्रसार-प्रभावना-अभ्युत्थान और निर्दोष रूप से अपने संयम एवं जीवन का निर्वाह कर सके, इस प्रकार धर्मसंघ की व्यवस्था सहज भाव से सम्यक रूपेण चल सके, इस उद्देश्य से श्रमण संघ में निम्नलिखित पदों की व्यवस्था किये जाने के उल्लेख स्थानांग सूत्र की वृत्ति' एवं वृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त होते हैं : १. प्राचार्य, २. उपाध्याय, ३. प्रवर्तक, ४. स्थविर, ५. गगी, ६. गणधर, ७. गणावच्छेदक श्रमण समूह के समान श्रमणी समूह भी प्राचार्य का ही प्राज्ञानुवर्ती रहता था। पर श्रमणीवर्ग की दैनन्दिन-व्यवस्था समीचीनतया चलती रहे, श्रमरणों तथा श्रमणियों का अवांछनीय अतिसम्पर्क न हो और समलैंगिकता के कारण श्रमरिणयों की व्यवस्था भी थमणों की अपेक्षा श्रमणियां सुविधापूर्वक कर सकें, इस दृष्टि से श्रमणीवन्द के लिये प्रवर्तिनी महत्तरा, स्थविरा और गणावच्छेदिका पदों की व्यवस्था निर्धारित की गई है। इन पदों पर अधिष्ठित किये जाने वाले महा श्रमणों की कायिक, वाचिक एवं आध्यात्मिक सम्पदाओं, योग्यताओं, उत्तरदायित्वों, पुनीत कर्तव्यों और उनके द्वारा वहन किये जाने वाले गुरुतर कार्यभार प्रादि का यहां शास्त्रीय एवं पुरातन आधार पर संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राचार्य :- भगवान्-महावीर के धर्मसंघ में प्राचार्य (धर्माचार्य) का पद अप्रतिम गौरव-गरिमापूर्ण और सर्वोपरि माना जाता है। जैन धर्म संघ के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्द्धन, अनुशासन एवं सर्वतोमुखी विकास-प्रभ्युत्थान का सामूहिक एवं मुख्य उत्तरदायित्व प्राचार्य पर रहता है। समस्त धर्म संघ में उनका आदेश अन्तिम निर्णय के रूप में सर्वमान्य होता है। यही कारण है कि जिनवाणी का यथातथ्य रूप से निरूपण करने वाले प्राचार्य को तीर्थकर के समान और सकल संघ का नेत्र बताया गया है।' आवश्यक चूर्णिकार ने 'प्राचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए लिखा ' म्यामांग सूत्र, ४. ३., ३२३ (वृत्ति) २ बृहत्कल्प सूत्र, ४. १२३ ३ तित्थयर समो सूरि, समं जो जिणमयं पयासेई । भारणं महक्कमंतो, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो।। स एव भवसत्ताणं, वायुभूए वियाहिए । दंसेई जो जिरगुदिट्ट, प्रणुारणं जहाहियं ।।। [गच्छाचार पयन्ना, अधि० १] ( ५२ ) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है :- "माङ् मर्यादाभिविध्योः चरिर्गत्यर्थे, मर्यादया चरन्तीत्याचार्या:" प्राचारेण वा चरन्तीत्याचार्याः ।" प्रावश्यक मलय वृत्ति में भी 'प्राचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार उल्लिखित है: "चर गति - भक्षणयोः प्राङ् पूर्व प्राचर्यते कार्याथिभिः सेव्यते इत्याचार्यः, ऋवर्ण व्यंजनाणिति ।'' भगवती राव की वृत्ति में 'प्राचार्य' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए इस पद की गरिमा पर निम्नलिखित रूप में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है : ___ "पा मर्यादया तद्विपयविनयरूपया चर्य्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशत या तदाकांक्षिभिरित्याचार्याः । उक्त च - सुत्तत्थविऊलक्खरण -, जुत्तो गच्छस्स मेढिभूमो य।। गरणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ पायरियो ।।त्ति।। अथवा प्राचारो ज्ञानाचारादि: पञ्चधा। प्रा मर्यादया वाचारो विहार, प्राचारस्तत्र साधवः स्वयं करणात्प्रभापरणाप्रदर्शनाच्चेत्याचार्या: । ग्राह च-- अथवा मा ईषदपरिपूर्ण इत्यर्थश्चाराहैरिका ये ते प्राचाराश्चारकल्पा इत्यर्थः. युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुरणा विनेया अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतयेत्याचार्याः।"३ सारांश यह है कि जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित प्रागमज्ञान को हृदयंगम कर उसे प्रात्मसात् करने को उत्कण्ठा वाले शिष्यों द्वारा जो विनयादिपूर्ण मर्यादापूर्वक सेवित हों, उनको प्राचार्य कहते हैं। कहा भी है - जो सूत्र और मर्थ-उभय के ज्ञाता हों, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हों, संघ के लिये मेढि प्रर्थात् प्राधार स्तम्भ के समान हों, जो अपने गण-गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सक्षम हों तथा जो अपने शिष्यों को प्रागमों की गूढार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें प्राचार्य कहते हैं। जो (ग्राचार्य) पांच प्रकार के प्राचार अर्थात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप प्राचार एवं वीर्याचार का स्वयं सम्यग् रूपेण पालन, प्रकाशन प्रसारण तथा उपदेश करते हैं और अपने अन्तेवासियों से भी उसी प्रकार का पाचरण करवाते हैं, उन्हे प्राचार्य कहा जाता है । राज प्रश्नीय सूत्र में प्राचार्य के तीन भेद बनाने के पश्चात् किस प्रकार के प्राचार्य के प्रति किस तरह का विनय व्वयहारादि प्रशित करते हुए कर्त्तव्यपालन करना चाहिए-इसका निम्नलिखित शब्दों में सुन्दर उल्लेख किया है : - "केसीकुमार समणे पदेसि रायं एवं वयासि - जाणासि णं तुम्हें पएसी केवइयारिया पण्णत्ता ? हता-जाणामि तमो पायरिया । जाणासि रणं तुम्हं 'प्रावश्यक मलयवत्ति, द्वितीय । २ भगवती सूत्र, १. १. १. मंगलाचरण (वृत्ति) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसी तेसि तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणय पडिबत्ती पउंजियव्वा ? हंता जारगामि कलायरियस्स, सिप्पायरियस्य उवलेवरणं वा समज्जरणं करेज्जा, पुप्फारिण वा पाणावेज्जा, मंडावेज्जा वा भोयवेज्जा वा विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलाएज्जा, पुत्ताणं पुत्तियं वावि विकप्पेज्जा । जत्थेव धम्मायारियं पासेज्जा तत्थेव वंदिज्जा, रणमसेज्जा, सक्कारेज्जा, सम्मारगेज्जा, कल्लारणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासेज्जा, फासुएसरिगज्जेण असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएणं पीठफलगसेज्जा संथारगेणं उनिमंतिज्जा।' अर्थात् - केशि कुमार श्रमण के प्रश्न के उत्तर में राजा प्रदेशी ने कहा कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य ये ३ प्रकार के प्राचार्य होते हैं। उनमें से कलाचार्य तथा शिल्पाचार्य ऋतुओं के अनुकूल उबटन, मज्जन, पुष्प, वस्त्राभूषणादि, भोजन और उनके जीवनयापन योग्य प्रीतिदान से सम्मानार्ह होते हैं। उनके पुत्र पुत्रियों को भी इसी प्रकार सम्मानित किया जाना चाहिए । इन दोनों प्रकार के प्राचार्यों की तुलना में धर्माचार्य अत्यधिक सम्मानार्ह होते हैं । जहां कहीं धर्माचार्य के दर्शन हो जायं वहीं उनको भक्ति भाव से वंदन-नमस्कार करना चाहिए, उनका हार्दिक सत्कार कर उनके प्रति सम्मान प्रकट करना चाहिए। हे भगवन् ! आप महान् कल्याणकारी, सर्व मंगल स्वरूप-मंगल-प्रदायी और पूजनीय हैं - इस प्रकार के भक्ति प्ररणं प्रान्तरिक उद्गारों के साथ मधुर शब्दों से उनकी उपासना के पश्चात् उन्हें निर्दोष सात्विक प्रशनपानादि का दान देकर तस्ता (पीठ फलक) संस्तारक मादि आवश्यक वस्तुओं को ग्रहण करने के लिये निवेदन करना चाहिए। सार रूप में 'आचार्य' शब्द के अर्थ का प्रतिपादन निम्नलिखित श्लोक में इस प्रकार किया गया है : आचिनोति च शास्शार्थमाचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कथ्यते ।। अर्थात् – जो श्रमणाग्रणी सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों के अर्थ का प्राचयन - मननपूर्वक संचयन अथवा संग्रहण करते हैं, स्वयं विशुद्ध-निरतिचार प्राचार का सम्यक रूपेण परिपालन करते हैं एवं अपने शिष्य-शिष्याओं तथा भव्य भक्तों को प्राचार में स्थापित करते हैं, इसी लिये उनको प्राचार्य कहा जाता है। महानिशीथ, (अध्ययन ३) में प्राचार्य का लक्षण इस प्रकार वताया गया है : "अठ्ठारस सीलंग-सहसाहिठियं तणू छत्तीसइविहिमायारं जह-ठ्ठियमगिलाए महति सारणुसमयं आयरंतित्ति वत्तयंतित्ति पायरिया परमप्पणो य हियमायरंति पायरिया सव्वसत्तसीसगणारणं च हियमायरंति पायरिया। पारणपरिच्चाए विउ ' राजप्रश्नीय सूत्र Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवादिणं समारंभ नायरंति नारभंति णाणुजाणन्ति पायरिया सुहुमावरद्धेवि ण कस्सई मरणसावि पावमायरंतित्ति वा प्रायरिया।"" फिर वहीं पर प्राचार्य के चार भेदों के निरूपण के साथ भावाचार्य को तीर्थकर के समान समझने का निर्देश किया गया है। यथा "कस्याज्ञा नातिक्रमगीयेत्यधिकृत्य गोयमा ! चउम्विहा पायरिया भवंति, तंजहा - नामायरिया, ठवणायरिया, दव्वायरिया, भावायरिया, तत्थरणं जे ते भावायरिया ते तित्थयरसमा चेव दट्ठव्वा तेसि संतियारणं गाइक्कमेज्जा ।"३ अंगचूलिका में आचार्य के तीन भेद बताने के पश्चात् धर्माचार्यों को उनके गुण कर्मानुसार चार वर्गों में विभाजित किया गया है । “तो पायरिया पण्णता। सिप्पायरिया, कलारिया, धम्मायरिया । जे ते धम्मायरिया, परलोगहियठाए निज्जरट्टाए आराहेयव्वा । अण्णे कलायरिया, सिप्पारियाए कइएहि कित्तबुद्धिए पाराहियव्वे । तत्थेगे धम्मायरिया सोवायकरंडसमा। बद्धाइकथत्थप्पयगाहाइहिं जे सुद्धसभाए वखारिणति ते सोवागकरंडसमा। वेसाकरंडसमा जो रीरी आहारण. सरिसजीहावक्खागडंबरेणं अंतरं सुप्रसार-विरहियावि सुद्ध सभाए जणं विमोहिति रविति, अप्पारणं युतंसि पालुच्च अणत्थे पाडिति गोयम ! गणहराणं उवमाए ते वेसाकरंडसमा। गाहावईकरंडसमा जे समं समुवसिय-सुगुरुहितो संपत्त अंगोवंगाइ सुत्तत्थेसु परिच्छियच्छेयगंथा स-स. नय-पर-समयरिणच्छया परोवयार करणिक्कभल्लिच्छया। जरणजोग विहीए अणुप्रोगं करिति ते गाहावईकरंडसमा। रायकरंडसमा-जे गरगहरा चउदसपुविवरणो वा घडाओ घडसयं, पहायो पडसयं इच्चाई विहाई सयसमरिगया ते रायकरंडसमा । गाहावई करंडसमारणे, रायकरंडसमाणे दो विए आयरिए तित्थयर समाणे।" दिगम्बर परम्परा के ख्यातनामा विद्वान् प्राचार्य वीरसेन ने षटखण्डागम के पादिमंगल पंचपरमेष्ठि-मंत्र के तीमरे पद की व्याख्या करते हुए 'धवला' में प्राचार्य शब्द की परिभाषा निम्नलिखित रूप में की है : ___"गणमो पायरियाग - पचविधमाचारं चरति चारयतीत्याचार्यः चतुर्दशविद्यास्थानपारगः एकादशांगधर: आचारांगधरो वा तात्कालिकस्वसमयपरममयपारगो वा मेरुरिव निश्चल: क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिः क्षिप्तमल: मप्तभयविप्रमुक्तः-प्राचार्यः ।".. प्राचार्य शब्द की उपर्यक्त परिभाषा देने के पश्चात् प्राचार्य वीरसेन ने प्राचार्य के स्वरूप और उसके लिये आवश्यक अनुपम गुणों पर विशद प्रकाश डालने वाली निम्नलिखित तीन गाथाएं उद्धत की हैं :' महानिशीथ, प्र० ३ २ महानिशीय, प्र. १ 3 अंग चूलिका ( ५५ ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पववरण जल हि - जलोयर, पहायामल-बुद्धि-सुद्ध-छावामो । मेरुव्व रिगप्पकंपो, सूरो पंचागरणो वज्जो ||२६|| देस-कुल- जाइ सुद्धो, सोमंगो संग-भंग विम्मुक्को । गयरणव्व रिरुवलेवो, प्राइरियो एरिसो होई ||३०|| संग्रह - गुग्गह- कुसलो, सुत्तत्थ-विसार पहिय- किती । सारण-वारण-सोहण, किरियुज्जुत्तो हु ग्राइरियो ।। ३११ ।। . प्राचार्यों का गुरुतम उपकार :- प्रस्तुत खण्ड में जिन श्राचार्यों का पावन इतिवृत्त प्रस्तुत किया जा रहा है, उनका संसार के प्राणिमात्र पर इतना गुरुतम उपकार है कि उनके द्वारा किये गये महान् उपकार के प्रति ग्राभार प्रकट करने में न लाखों लेखनियां ही सक्षम हैं धौर न सहस्रों जिह्वाएं एवं संसार के समस्त शब्दकोश ही । आज से लगभग २५३० वर्ष पूर्व निखिल विश्वैकवन्धु श्रमण भगवान् महावीर ने सम्पूर्ण संसार के जड़, चेतन, रूपी ग्ररूपी, चर-ग्रचर जीवाजीवादि कालयवर्ती समस्त भावों का हस्तामलक के समान सकल एवं युगपद् साक्षात्कार कराने वाले केवलालोक की उपलब्धि के पश्चात् संसार सागर के सेतु रूप धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया । लगभग ३० वर्ष तक प्रभु अपने प्रमोध उपदेशामृत से प्राणिमात्र का कल्याण और भव्यों का उद्धार करते रहे । प्रभु के निर्वाण पश्चात् की क्रमबद्ध प्राचार्य परम्परा में हुए त्यागी तपस्वी आचार्यों ने भगवान् महावीर की दिव्य-ज्ञान की ज्योति को अपने अपने प्राचार्य-काल में अनवरत अध्ययन, अध्यापन, प्रवचन- प्रख्यापन एवं गहन चिन्तनमनन के स्नेह से सिंचित कर प्रक्षुण्ण श्रखण्डित वनाये रखा। इसी कारण निर्युक्तिकार महान् नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहु ने उन श्राचार्यों को निम्नलिखित शब्दों में उस दीपक की उपमा दी है, जो स्वयं प्रकाशित होते हुए श्रौरों को भी प्रकाशित करता है और जिससे अन्य सैकड़ों सहस्रों दीप प्रदीप्त किये जा सकते हैं जह दीवादीवसयं पंईप्पए, सो य दीप्पए दीवो । दीव समा आयरिया, अप्पं च परं च दीवंति ।। ' वीर निर्वारण के पश्चात् हुए इन परम परोपकारी प्राचार्यों ने भगवान् महावीर की सकल भूत-हितानुकम्पामयी वाणी को न केवल प्रक्षुण्ण बनाये रखा श्रपितु अपने अपने समय में उसे नगर-नगर डगर-डगर में जन-जन तक पहुँचा कर गणित लोगों को सम्यक्त्व प्रदान कर प्राणिमात्र पर कितना वड़ा उपकार किया है, इसका अनुमान प्राचार्य हरिभद्र के निम्नलिखित पदों से लगाया जा सकता है : सयलमत्रि जीव लोए, तेण इह घोसिश्रो श्रमाधाम्रो । इक्क वि जो दुहतं, सत्तं बोहेइ जिरण वयणे ||३२|| 9 श्राचारांग निर्युक्ति, गाथा ८ ( ५६ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त दायगाणं, दुप्पडियारं भवेसु बहुएमु । सव्वगुण मिलियाहि वि, उवयारसहस्सकोडीहिं ।।३।। अर्थात्-जो सत्पुरुष, दुखार्त किसी एक भी जीव को प्रतिबोधित कर वीतराग वाणी में उसकी श्रद्धा उत्पन्न करता है तो ऐसा समझना चाहिए कि उस सत्पुरुष ने सम्पूर्ण जीव लोक में प्रमारि (अभय) की घोषणा करवा दी। क्योंकि वह सम्यक्त्वधारी जीव पूर्ण अहिंसक वनकर प्राणिमात्र को अभयदान देने वाला होता है। सम्यक्त्व प्रदान करने वाले सत्पुरुष के इस महान् उपकार से वह जीव अनेक जन्मों तक करोडों प्रकार के उपकार कर के भी उऋण नहीं हो सकता। दसणभट्रो भट्रो न ह भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो । दंसरणमणुपत्तस्स हु, परियडरणं नस्थि संसारे ।। दसणभट्टो भट्ठो, दसण भट्रस्स नत्थि णिब्बारणं । सिझंति चरण रहिया, दंसरण रहिया न सिझंति ।। इन प्राचार्यों ने प्रवचन को सुरक्षित रक्खा। प्रवचन के अभ्यास से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है : मेरुव्ब णिप्पकंपं गट्ठट्ठमलं तिमूढ उम्मुक्कं । सम्मदंणमणुवममुप्पज्जइ पवयणब्भासा ।। दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र में प्राचार्य की विशेषताओं का विस्तार में वर्णन किया गया है । वहां प्राचार्य की पाठ सम्पदायें बतलाई गई हैं, जो निम्नांकित हैं।' १. प्राचार-सम्पदा ४. वचन-सम्पदा ७. प्रयोग-सम्पदा तथा २. श्रुत-सम्पदा ५. वाचना-सम्पदा ८. संग्रह-सम्पदा ३. शरीर-सम्पदा ६. मति-सम्पदा प्राचार-सम्पदा प्राचार-प्रवणता आचार्य का मुख्य गुण है। प्राचार्य शब्द भी प्रायः इसी आधार पर निष्पन्न हया है। प्राचार-सम्पदा में इसी प्राचार पक्ष का विश्लेषण है, जिसके चार भेद कहे गये हैं : १. संयम ध्वयोग युक्तता-संयम के साथ प्रात्मा का ध्र व या अविचल सम्बन्ध संयम-ध्र वयोग कहा जाता है। प्राचार्य संयम ध्र वयोगी होते हैं। वे अपनी संयम-साधना में सदा अडिग रहते हैं। ____२. प्रसंप्रगृहीतात्मता - जिसे जाति, पद, तप, वैदुष्य प्रादि का मद या अहंकार होता है, उसे संप्रगहीतात्मा कहा जाता है। प्राचार्य निरहंकार होते हैं जो गरिमायें उन्हें प्राप्त हैं, उनका जरा भी मद उन्हें नहीं होता। फलतः वे क्रोध, मानसिक ' दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र २ ( ५७ ) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्ताप मादि से मुक्त होते हैं। प्रतः वे प्रसंप्रगृहीतारमा कहे जाते हैं। अर्थात् उनको मात्मा अहंकार, मद एवं क्रोध आदि से जकड़ी नहीं रहती। ३. अनियतवृत्तिता-जिनका पाहार, विहार नियत या प्रतिबद्ध होता है, उनसे विशुद्ध प्राचारमय जीवन भली भांति सध नहीं पाता। अनेक प्रकार की प्रौद्देशिकता का जुड़ना वहां सम्भावित होता है, जो निर्दोष संयम-पालन में बाधक है । प्रतः प्राचार्य अनियत - वृत्ति होते हैं । शास्त्रीय प्राचार-परम्परा के अनुरूप उनका प्राचार अप्रतिबद्ध होता है। ४. सशीलता - युवा और चिरदीक्षित न होने पर भी प्राचार्य में वयोवृद्ध और दीक्षा-मर्यादा में ज्येष्ठ श्रमणों जैसा शील, संयम, नियम, चारित्र प्रादि पालने की विशेषता होती है । अतः वे वृद्धशील कहे जाते हैं। वृद्धशील का प्राशय यों भो हो सकता है - प्राचार्य वृद्ध या रोग मादि के कारण जो वृद्ध की तरह प्रशक्त हो मये हैं, उन श्रमरणों की सेवा या सुव्यवस्था में सदा जागरूक रहते हैं। भुत-सम्पदा श्रुत-सम्पदा का भी चार प्रकार से विवेचन किया गया है। :१. बहुश्रुतता ३. विचित्र-श्रुतता। २. परिचित-श्रुतता ४. घोषविशूद्धिकारिता १. बहुभ तता- प्राचार्य बहुश्रुत होते हैं । वे अपने समय में उपलब्ध प्रागम सम्यकतया जानते हैं। अपने समय-सिद्धान्त या शास्त्रों के अतिरिक्त परसमय अन्य शास्त्रों के भी वेत्ता होते हैं। यों उनका श्रुत-शास्त्रीय ज्ञान बहुत विस्तीर्ण मोर व्यापक होता है। २. परिचित भूतता- प्राचार्य प्रागमों के रहस्यवित्-मर्मज्ञ होते हैं। वे सूत्र पौर अर्थ - दोनों को भली-भांति प्रात्मसात् किये हुए होते हैं। उनमें क्रम सेप्रादि से अन्त तक और उत्क्रम से -- अन्त से आदि तक धारा-प्रवाह रूप में सूत्रवाचन की क्षमता होती है। संक्षेप में प्राशय यह है कि प्रागों का उन्हें चिरपरिचय, सूक्ष्म परिचय और सम्यक् परिचय होता है। ३. विचित्र-तता - प्राचार्य बहुश्रुत के साथ विचित्रश्रुत भी होते हैं । उनके द्वारा अधिकृत श्रुत अनेक विचित्रतायें या विभिन्नतायें लिए होता है। प्राचार्य को जीव, मोक्ष प्रादि सूक्ष्म विषयों का निरूपण करने वाले विविध प्रागमों का अन्तःस्पर्शी ज्ञान होता है। वे उत्सर्ग, अपवाद आदि विभिन्न पक्षों को विशद रूप से जानते हैं। जिस प्रकार अपने सिद्धान्तों का अंग-प्रत्यङ्ग उन्हें अभिगत होता है, उसी प्रकार अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का भी उन्हें तलस्पर्शी बोध होता है। ४. घोषविशुद्धिकारकता - घोष का अर्थ शब्द या ध्वनि है। अपने पाप में ' दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ४ - - - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलंकृत सत्य, प्रिय, हित, परिमित तथा प्रसंगानुरूप होना शब्द की सुषमा है। अनलंकृतता, असत्यता, अप्रियता, अहितता, अपरिमितता तथा अप्रासंगिकता शब्द के दोष हैं। इनके वर्ज से घोष या शब्द विशुद्ध कहा जाता है। प्राचार्य की यह सहज विशेषता होती है। वे सुन्दर, सत्य, प्रिय, हित, परिमित और प्रसंगानुरूप शब्द बोलते हैं । श्रुत-सम्पदा के अन्तर्गत यह उनका शब्द-सौष्ठव है । शरीर-सम्पदा शरीर-सम्पदा या शारीरिक सुप्ठुता भी चार' प्रकार की मानी गई है। १. पारोह परिणाह सम्पन्नता, ३. स्थिरसंहननता तथा २. अनवत्राप्यशरीरता, ४. बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता १. पारोह परिणाह सम्पन्नता - देह की समुचित लम्बाई और चौड़ाई को प्रारोह परिणाह कहा जाता है। अपने पुण्योदय के कारण प्राचार्य के देह की यह विशेषता होती है। २. अमवत्राप्यारीरता- प्रवत्राप्य का अर्थ लज्जायोग्य है । जो शरीर कुरूप, अंगहीन, घृणोत्पादक तथा उपहासजनक होता है, वह अवत्राप्यशरीर कहलाता है, जो हीन व्यक्तित्व का द्योतक है। प्राचार्य का शरीर इस प्रकार का नहीं होना चाहिये । यह सुरूप सांगोपांग, सुन्दर तथा आकर्षक होना चाहिये । ३. स्थिरसंहननता - प्राचार्य का दैहिक संहनन - शारीरिक गठन सुदृढ होना चाहिये । आचार्य पर जो संघ का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व होता है, उसके निर्वाह ... के लिए सुदृढ़, स्थिर और सशक्त देह का होना भी आवश्यक है। ताकि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियों का अनाकुल भाव से निर्वाह किया जा सके। ४. बहुप्रतिपूर्णन्द्रियता - नेत्र, श्रोत्र, घ्राण प्रादि इन्द्रियों का सर्वथा निर्दोष, अपने-अपने विषयों के ग्रहण में सक्षम होना बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता कहा जाता है। प्राचार्य में इसका होना अपेक्षित है। सर्वेन्द्रियपरिपूर्णता में जहां देह की प्रभावकता फलित होती है, वहां उससे व्यक्ति की गम्भीरता भी प्रकट होती है। प्राचार्य में ऐसा होना चाहिए। वचन-सम्पदा वचन-सम्पदा चार प्रकार की कही गई है :१. प्रादेयवचनता ३. अनिश्चित वचनता २. मधुर वचनता ४. असन्दिग्ध वचनता १. प्रादेयवचनता-जो वचन ग्रहण करने योग्य होता है, वह आदेय वचन कहा जाता है। ग्रहण करने योग्य वही वचन होता है, जिसमें उपयोगिता तथा 'दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, मध्ययन ४, सूत्र ५ २ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४ सूत्र ६ ( ५६ ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेयता हो । श्राचार्य में प्रदेयवचनता की विशेषता होनी चाहिए, जिससे श्रोतागण उनके वचनों की ओर सहजतया ग्राकृष्ट हों, लाभान्वित हों । २. मधुरवचनता - हितकरता और उपादेयता के साथ यदि वचन में मधुरता भी हो तो वह सोने में सुगन्ध जैसी बात है । लौकिक जन सहज ही माधुर्य और प्रेयस् की ओर अधिक ग्राकृष्ट रहते हैं । यदि उत्तम बात भी मधुर या कठोर वचन द्वारा प्रकट की जाए तो सुनने वाला उससे भिजकता है । महान् कवि श्रोर नीतिविद् भारवि ने इसीलिए कहा था हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः अर्थात् ऐसा वचन दुर्लभ है, जो हितकर होने के साथ साथ मनोहर भी हो । प्राचार्य में ऐसा होना सर्वथा वांछनीय है । इससे उनके प्रादेय वचनों की ग्राह्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है । ३. प्रनिधितवचनता - जो वचन राग, द्वेष या किसी पक्ष विशेष के प्राग्रह पर टिका होता है, वह निश्रित वचन कहा जाता है। वैसा वचन न वक्ता के अपने हित के लिए है और न उससे श्रोतृगरण को ही कुछ लाभ हो सकता है। प्राचार्य निश्रितवचन प्रयोक्ता नहीं होते । वे प्रनिश्रित वचन बोलते हैं, जिससे सर्वसाधारण का हित सता है, जिसे सब प्रादरपूर्वक अंगीकार करते हैं । ४. असंदिग्धवचनता - तथ्य का साधक और तथ्य का बाधक जो न हो, वैसा ज्ञान सन्देह कहलाता है। जो वंचन उससे लिप्त है, वह सन्दिग्ध है। प्राचार्य सन्दिग्ध वचन का प्रयोग नहीं करते । वैसा करने से उपासकों की श्रद्धा घटती है। उनका किसी भी प्रकार से हित नहीं सधता । क्योंकि वचन के सन्देहयुक्त होने के काररण वे उधर नाकृष्ट नहीं होते फलतः आचार्य चाहे व्यक्त न सही, अव्यक्त रूप में उपेक्षणीय हो जाते हैं । वाचना-सम्पदा वाचना-सम्पदा के निम्नांकित चार' भेद हैं १. विदित्वोद्देशिता २. विदित्वा वाचिता १. विदित्वोद्दे शिता - पहले उल्लेख किया गया है किं प्राचार्य अन्तेवासियों को श्रुत की अर्थ वाचना देते हैं । वाचना-सम्पदा में इसी सन्दर्भ में कतिपय महत्वपूर्ण विशेषतायें बतलाई गई हैं। उनमें पहली विदित्वोद्देशिता है । इसका सम्बन्ध अध्येता या वाचना लेने वाले अन्तेवासी से है । अध्येता का विकास किस कोटि का है, उसकी ग्राहक शक्ति कैसी है, किस आगम में उसका प्रवेश सम्भव है. इत्यादि पहलुओं को दृष्टि में रखकर प्राचार्य श्रन्तेवासी को पढ़ाने का निश्चय करते हैं । इसका आशय यह है कि अध्येता की क्षमता को ग्रांकने की प्राचार्य में विशेष सुभ-बूझ होती है। दशाथ तरकस्य सत्र अध्ययन ४ मंत्र ७ c. ३. परिनिर्वाप्य वाचिता तथा ४. ग्रर्थनिर्यापिकता ( ६० ) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. विदित्वा वाचिता - उक्त रूप में अन्तेवासी की योग्यता तथा धारणा शक्ति को ग्रांक कर उसे प्रमाण, नय, हेतु, दृष्टांत तथा युक्तिपूर्वक अर्थ-वाचना देना विदित्वा वाचिता है। ____३. परिनिर्वाप्य वाचिता - अन्तेवासी अध्यापित विषयों को असन्दिग्ध रूप से हृदयंगम कर सका है, उसकी स्मति में वे स्थिर हो चुके हैं, यह जानकर उसे वाचना देना परिनिर्वाप्य वाचिता है । अध्यापयिता को ऐसा करना आवश्यक है क्योंकि यदि पूर्व अध्यापित विषय अध्येता यथावत् हृदयंगम नहीं कर सका है तो उस ओर ध्यान दिये बिना आगे से आगे पढ़ाते जाना अध्येता के लिए लाभजनक नहीं होता है। यों अध्यापयिता को वृथा श्रम होता है। उसका अभीप्सित फल नहीं होता। ४. अर्थनिर्यापिकता- सूत्र-अध्यापयिता के लिए आवश्यक है कि सूत्र-निरूपित जीव, अजीव, ग्रास्रव, सम्वर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष, प्रभृति विषयों का उसे पूर्वापर संगति सहित असन्दिग्ध- निर्णायक वोध हो। उत्सर्ग, अपवाद आदि का रहस्य उसे सम्यक परिज्ञात हो। अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से ये समस्त विषय उस द्वारा आत्मसात् किये हुए हों। यह विषय का निर्यापन है। प्राचार्य में ऐसा अध्ययन-अनशीलन होना अपेक्षित है। अपने इस प्रकार के अध्ययन क्रम द्वारा अन्तेवासियों को अर्थ का अवबोध कराना अर्थ निर्यापिकता है । यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जहां किसी कारणवश उपाध्याय के पद की व्यवस्था नहीं होती या सूत्र-वाचना का कार्य नहीं चलता, वहां प्राचार्य सूत्र-वाचना भी देते हैं। वे सूत्र और अर्थ दोनों की वाचना देने के कारण दोनों पदों का उत्तरदायित्व वहन करते हैं। भगवती वृत्ति' तथा व्यवहार भाष्य प्रादि में ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं। इतना ही नहीं, आवश्यक होने पर प्राचार्य अन्य पदों का भार भी स्वयं ले सकते हैं । वस्तुतः वे सर्वाधिकारी होते हैं। मति-सम्पदा मन का पदार्थ विषयक निर्णायक व्यापार मति है । मति-सम्पदा का अर्थ बुद्धि-वैशिष्टय है। मति-सम्पदा के चार' भेद हैं - १. अवग्रह- मति सम्पदा, ३. अवाय-मति सम्पदा, २. ईहा-मति सम्पदा ४. धारणा-मति सम्पदा ' प्राचार्येण सहोपाध्याय: - प्राचार्योपाध्यायः, सविसयंसि त्ति स्वविषयेऽथंदान - सत्रदानलक्षणं गरणं ति शिष्यवर्ग, अगिलाए ति अखेदेन संगृह्णन् - स्वीकुर्वन - उपसम्मयन् । - भगवती, शतक ५, उद्देशक ६, प्रश्न १७ (वृत्ति) २ दशाथ तस्वन्ध सूत्र, अध्ययन ४, मूत्र ८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रवाह हा, अवाय और धारणा - मति-ज्ञान के परिणति-क्रम के ये चार सोपान हैं। सबसे पहले ज्यों ही इन्द्रिय किसी पदार्थ का साक्षात्कार करती है, तब उस (पदार्थ) का प्रति सामान्य ज्ञान होता है। सामान्य का तात्पर्य उस बोध से है, जहां पदार्थ के स्वरूप, नाम, जाति प्रादि की कल्पना नहीं रहती, वे अनिर्दिष्ट रहते हैं। वह मनःस्थिति अवग्रह कही जाती है। प्रवग्रह की प्रशस्त क्षमता का होना अवग्रह सम्पदा है। प्राचार्य में सहज ही यह विशेषता होती है। २. ईहा मति-सम्पदा- अवग्रह में ज्ञेय पदार्थ विषयक अस्पष्ट मनः स्थिति रहती है। तब निश्चोयन्मुख जिज्ञासा का स्पन्दन होता है। मन तदनुरूप चेष्टोन्मुख बनता है। अवग्रह द्वारा गहोत स्वरूपादि के वैशद से रहित अति सामान्य ज्ञान के पश्चात् विशेष ज्ञान की ओर ईहा, मननात्मक चेष्टा, ज्ञान की निर्णीत स्थिति की और बढ़ते क्रम का रूप है। ऐसी उदात्त स्फुरणा का होना ईहा-सम्पदा कहा जाता है। प्राचार्य इससे युक्त होते हैं। ३. प्रवाय-मति सम्पा- ईसा का उत्तरवर्ती क्रम अवाय है। ईहा चेष्टात्मक है, अवाय निश्चयात्मक निर्णय । पदार्थ के साधक और बाधक प्रमाण या गुणागुण विश्लेषण के माध्यम से जो निश्चित मनः स्थिति बनती है, वह अवाय है। रज्जू और सर्प के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है । अंधेरे में सहसा निश्चय नहीं हो पाता कि जिज्ञासित पदार्थ सर्प है या रज्जू। जब साधक प्रमाण द्वारा या स्पष्टता करने वाले हेतु द्वारा यह निश्चित रूप से अवगत हो जाता है कि यह रज्जू है, तब अवाय की स्थिति आ जाती है। अवाय तक सूक्ष्मतापूर्वक पहुंचना या यथावत् अवायात्मक - निश्चयात्मक स्थिति अभिगत कर लेने की विशिष्ट क्षमता प्रवाय-सम्पदा के नाम से अभिहित होती है, जो प्राचार्य में स्वभावतः होनी चाहिये। ४. धारणा मति सम्पदा - अवाय-क्रम में ज्ञान जिस निश्चिति में पहुंचता है, उसका टिकना, स्थिर रहना, स्मरण रहना धारणा है। इसे वासना या स्मृति भी कहा जाता है । यह संस्कारात्मक है। मन के स्मति-पट पर उस ज्ञान का एक भावात्मक रूप अंकित हो जाता है। दूसरे किसी समय वैसे पदार्थ को देखते ही पहले के पदार्थ की स्मृति जाग उठती है। यह जागने वाली स्मति उसी संस्कार का फल है, जो उस पदार्थ के मत्यात्मक मनन-क्रम में मन पर अंकित हो गया था। धारणा, वासना या स्मति का वैशिष्ट्य या वैभव धारणा-मतिसम्पदा है। प्राचार्य इसके धनी होने चाहिये। जिसकी मननात्मक क्षमता जितनी अधिक विकसित होती है, . उसे मति के इस उत्थान क्रम में उतना ही वैशिष्ट्य प्राप्त रहता है। प्राचार्य में यह क्षमता अपनी विशेषता लिये रहनी चाहिये । उदात्त व्यक्तित्व की दृष्टि से प्राचार्य के लिए ऐसा होना आवश्यक भी है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग-सम्पदा किसी विषय पर प्रतिवादी के साथ वाद या विचार करना यहां प्रयोग शब्द से अभिहित किया गया है । वाद सम्बन्धी विशेष पटुता या कुशलता का नाम प्रयोग-सम्पदा है । उसके निम्नलिखित चार' भेद हैं - १. अपने आपको जान कर वाद का प्रयोग करना । २. परिषद् को जान कर वाद का प्रयोग करना । ३. क्षेत्र को जान कर वाद का प्रयोग करना । ४. वस्तु को जान कर वाद का प्रयोग करना । १. आत्म-ज्ञानपूर्वक वाद का प्रयोग - वादार्थ उद्यत व्यक्ति के लिए यह श्रावश्यक है कि पहले वह अपनी शक्ति, क्षमता, प्रमाण, नय आदि के सम्बन्ध में rat योग्यता को प्रां । यह भी देखे कि प्रतिवादी की तुलना में उसकी कैसी स्थिति है । वह तत्पश्चात् वाद में प्रवृत्त हो। ऐसा न होने पर प्रतिकूल परिणाम श्राने की प्राशंका हो सकती है। अतः प्राचार्य में इस प्रकार की विशेषता का होना आवश्यक है । यों सोच-विचार कर, अपनी क्षमता को प्रांक कर बुद्धिमत्तापूर्वक वाद में प्रवृत्त होना पहले प्रकार की प्रयोग-सम्पदा है । २. परिषद्-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग - जिस परिषद् के बीच वाद होने को है, कुशल वादी को चाहिए कि वह उस परिषद् के सम्बन्ध में पहले से ही जानकारी प्राप्त करे कि वह ( परिषद्) गम्भीर वत्त्वों को समझती है या नहीं। यह भी जाने कि परिषद की रुचि. वादी के अपने धार्मिक सिद्धान्तों में है या प्रतिवादी के सिद्धान्तों में । केवल तर्क और युक्ति-बल द्वारा ही प्रतिवादी पर सम्पूर्ण सफलता नहीं पाई जा सकती। जिन लोगों के बीच वाद प्रवृत्त होता है, उनका मानसिक झुकाव भी उसमें काम करता है । प्रतएव सफलता या प्रतिबादी पर विजय चाहने वाले वादी के लिए यह प्रावश्यक है कि पदिषद् की अनुकूलता और प्रतिकूलता को दृष्टि में रखें। इस ओर सोचे-विचारे बिना वाद में प्रवृत्त न हो । प्राचार्य में इस प्रकार की विशेष समझ के साथ वाद में प्रवृत्त होने की सहज विशेषता होनी चाहिये । ३. क्षेत्र-ज्ञानपूर्वक वादप्रयोग - जिस क्षेत्र में वाद होने को है, वह कैसा है, वहां के लोग दुर्लभ बोधि हैं या सुलभ बोधि, वहां का शासक विज्ञ है या प्रश अनुकूल है या प्रतिकूल - इत्यादि बातों को भी ध्यान में रखना वादी के लिए श्रावययक है । यदि लोग सुलभ बोधि, शासक विज्ञ तथा अनुकूल हों तो विद्वान् वादी को सफलता और गौरव मिलता है । क्षेत्र की स्थिति इसके प्रतिकूल हो तो वादी प्रत्यन्त योग्य होते हुए भी सफल बन सके, यह कठिन है । आचार्य में क्षेत्र को परखने की अपनी विशेषता होती है । • दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ( ६३ ) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. बस्तु-मान पूर्वक बार का प्रयोग - वस्तु का अर्ध वाद का विषय है। जिस विषय पर वाद या वैचारिक ऊहापोह किया जाना है, वह वादी के ध्यान में रहना प्रावश्यक है। उस विषय के विभिन्न पक्ष, उस सम्बन्ध में विविध धारणा उनका समाधान इत्यादि दृष्टि में रखते हुए वाद में प्रवृत्त होना हितावह होता है। प्राचार्य में यह विशेषता भी होनी चाहिए। संक्षेप में सार यह है कि प्राचार्य का संघ में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। उनकी विजय सारे संघ को शोभा है, उनकी पराजय सारे संघ का अपमान । अतः यह बांछनीय है कि प्राचार्य में वाद-प्रयोग सम्बन्धी विशेषताएं, जिनका उल्लेख हुअा है, हों। जिससे उनका अपना गौरव बढ़े, संघ की महिमा फैले। संग्रहपरिज्ञा सम्पदा __ जैन श्रमण के जीवन में परिग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है। वह सर्वथा निप्परिग्रही जीवन यापन करता है। यह होने पर भी जब तक साधक सदेह है, उसे जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए कतिपय वस्तुओं की अपेक्षा रहती ही है। शास्त्रीय विज्ञान के अनुरूप उन वस्तुओं को ग्रहण करता हुप्रा साधक परिग्रही नहीं बनता क्योंकि उन वस्तुप्रों में उसकी जरा भी मूळ या आसक्ति नहीं होती। परिग्रह का आधार मूर्छा या आसक्ति है । यदि अपने देह के प्रति भी साधक के मन में मूर्छा या प्रासक्ति हो जाए तो वह परिग्रह हो जाता है । प्रात्मसाधना में लगे साधक का जीवन अनासक्त और अमूच्छित होता है, होना चाहिए। यही कारण है कि उस द्वारा अनिवार्य आवश्यकताओं के निर्वाह के लिए प्रमूच्छित एवं अनासक्त भाव से अपेक्षित पदार्थों का ग्रहण प्रदूषणीय है। संग्रह का अर्थ श्रमण के वैयक्तिक तथा सामष्टिक संघीय जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अवलोकन, प्राकलन है या स्वीकार है। वस्तुओं की आवश्यकता, समीचीनता, एवं सुलभता का ज्ञान संग्रह-परिज्ञा कहा जाता है। प्राचार्य पर संघ के संचालन, संरक्षण एवं व्यवस्था का उत्तरदायित्व होता है अतः उन्हें इस प्रोर जागरूक रहना अपेक्षित है कि कब किस वस्तु की आवश्यकता पड़ जाए और पति किस प्रकार सम्भव हो। इसमें जागरूकता के साथ-साथ सूझ-बूझ तथा व्यावहारिक कुशलता की भी आवश्यकता रहती है। यह प्राचार्य की अपनी असाधारण विशेषता है। संग्रहपरिज्ञा-सम्पदा के चार' प्रकार बताये गये हैं - १. क्षेत्र प्रतिलेखनापरिज्ञा ३. काल सम्मान परिज्ञा तथा २. प्रातिहारिक अवग्रह परिज्ञा ४. गुरु संपूजनापरिज्ञा १. क्षेत्र प्रतिलेखनापरिजा- साधुओं के प्रवास और विहार के स्थान क्षेत्र कहे जाते हैं। जैन श्रमण वर्षा ऋतु के चार महीने एक ही स्थान पर टिकते हैं, 'दसाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र १० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं विहार-यात्रा नहीं करते। इसे चातुर्मासिक प्रवास कहा जाता है। इसके अतिरिक्त वे जन-जन को धर्मोपदेश या अध्यात्म-प्रेरणा देने के निमित्त घूमते रहते हैं। रोग, वार्धक्य, दैहिक अशक्तता आदि अपवादों के अतिरिक्त वे कहीं भी एक मास से अधिक नहीं ठहरते । चातुर्मासिक प्रवास के लिए कौनसा क्षेत्र कैसा है, साधु-जीवन के लिए अपेक्षित निरवद्य पदार्थ कहाँ किस रूप में प्राप्य हैं, अस्वस्थ साधुओं की चिकित्सा, पथ्य, पाहार ग्रादि की सुलभता, जलवायू व निवास-स्थान की अनकलता आदि बातों का ध्यान प्राचार्य को रहता है। चातुर्मासिक प्रवास में इस बात का और अधिक महत्व है। वर्ष भर में वर्षावास के अन्तर्गत ही श्रमणों का एक स्थान पर सबसे लम्बा प्रवास होता है। अध्ययन, चिकित्सा आदि की दृष्टि से वहाँ यथेष्ट समय मिलता है। इसलिए इन बातों का विचार बहुत आवश्यक है। धर्म-प्रसार की दृष्टि से भी क्षेत्र की गवेषणा का महत्व है। यदि किसी क्षेत्र के लोगों को अध्यात्म में रस है तो वहाँ बहुत लोग धर्म भावना से अनुप्राणित होंगे, धर्म की प्रभावना होगी। २. प्रातिहारिक प्रवग्रह-परिक्षा - श्रमरण अपनी अावश्यकता के अनुसार दो प्रकार की वस्तुएं लेते हैं। प्रथम कोटि में वे वस्तुएँ पाती हैं, जो सम्पूर्णतया उपयोग में ली जाती हैं, वापिस नहीं लौटाई जाती, जैसे -- अन्न, जल औषधि प्रादि । दूसरी वे वस्तुएँ हैं, जो उपयोग में लेने के बाद वापिस लौटाई जाती हैं, उन्हें प्रातिहारिक कहा जाता है। प्रातिहारिक का शाब्दिक अर्थ भी इसी प्रकार का है। पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि इस कोटि में पाते हैं । प्राचार्य के दर्शन तथा उनसे अध्ययन आदि के निमित्त अनेक दूसरे साधु भी पाते रहते हैं। उनके स्वागत-सत्कार, सुविधा आदि की दृष्टि से जब जैसे अपेक्षित हो, पीठ, फलक, प्रासन आदि के लिए प्राचार्य को ध्यान रखना आवश्यक होता है। कौन वस्तु कहाँ प्राप्य है, यह ध्यान रहने पर आवश्यकता पड़ते ही शास्त्रीय विधि के अनुमार वह तत्काल प्राप्त की जा सकती है। उसके लिए अनावश्यक रूप में भटकना नहीं पड़ता। ३. काल सम्मान परिज्ञा - काल के सम्मान का प्राशय साधुजीवनोचित क्रियायों का समुचित समय पर अनुष्ठान करना है। ऐसा करना व्यावहारिक दृष्टि मे जहां व्यवस्थित जीवन का परिचायक है, वहाँ प्राध्यात्मिक दृष्टि से जीवन में इममे अन्तः स्थिरता परिव्याप्त होती है। क्रियायों के यथाकाल अनुष्ठान के लिए काल का सम्मान करना - ऐमा जो प्रयोग शास्त्र में पाया है, उससे स्पष्ट है कि यथासमय धामिक क्रियाओं के सम्पादन का कितना अधिक महत्व रहा है। प्राचार्य सारे संघ के नियामक और अधिनायक होते हैं। उनके जीवन का क्षण क्षगग अन्तेवासियों एवं अनुयायियों के समक्ष प्रादर्श के रूप में विद्यमान रहता है। उसका उन पर अमिट प्रभाव होता है। इसलिए यथाममय मव क्रियाएं ( ६५ ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुव्यवस्थित रूप में संपादित करना, उस और अनवरत यत्नशील रहना आचार्य के लिए प्रावश्यक है। ४. गुरु-संपूजना-परिमा- जो दीक्षा-पर्याय में अपने से ज्येष्ठ हों, उन श्रमणों का वन्दन, नमन आदि द्वारा बहमान करने में प्राचार्य सदा जागरूक रहते हैं। इसे वे आवश्यक और महत्वपूर्ण समझते हैं, ऐसा करना गुरु-संपूजना-परिज्ञा है। प्राचार्य की यह प्रवत्ति अन्तेवासियों को बड़ों का सम्मान करने, उनके प्रति आदर एवं श्रद्धा दिखाने की ओर प्रेरित करती है। संघ के वातावरण में इससे सौहार्द का संचार होता है। फलतः संघ विकसित और उन्नत बनता है । उपाध्याय जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधृत है। संयममूलक प्राचार का परिपालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपेक्षित है कि वह ज्ञान की प्राराधना में भी अपने को तन्मयता के साथ जोड़े। सद्ज्ञान पूर्वक प्राचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार ज्ञान-प्रसूत क्रिया की गरिमा है, उसी प्रकार क्रियान्वित या क्रिया-परिणत ज्ञान की ही वास्तविक सार्थकता है। ज्ञान और क्रिया जहां पूर्व और पश्चिम की तरह भिन्न दिशाओं में जाते हैं, वहाँ जीवन का ध्येय सधता नहीं। अनुष्ठान द्वारा इन दोनों पक्षों में सामंजस्य उत्पन्न कर जिम गति से साधक साधना-पथ पर अग्रसर होगा, साध्य को प्रात्मसात् करने में वह उतना ही अधिक सफल बनेगा। जैन-संघ के पदों में प्राचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय का है। इस पद का सम्बन्ध मुख्यतः अध्यापन से है, उपाध्याय श्रमणों को सूत्र-वाचना देते हैं। कहा गया है : बारसंगो जिरणक्खाओ, सज्झायो कहियो बुहे। तं उवदिसति जम्हा, उवज्झाया तेण वच्चंति ।।' जिन प्रतिपादित द्वादशांगरूप स्वाध्याय - सूत्र-वाङ्मय ज्ञानियों द्वारा कथितवरिणत या ग्रथित किया गया है। जो उसका उपदेश करते हैं, वे (उपदेशश्रमण) उपाध्याय कहे जाते हैं, यहां सूत्र-वाङ्मय का उपदेश करने का प्राशय आगमों की सूत्र-वाचना देना है। स्थानांग वृत्ति में भी उपाध्याय का सूत्रदाता (सूत्रवाचनादाता) के रूप में उल्लेख हुअा है। प्राचार्य की सम्पदामों के वर्णन-प्रसंग में यह बतलाया गया है कि आगमों की अर्थ-वाचना प्राचार्य देते हैं। यहां जो उपाध्याय द्वारा स्वाध्यायोप' भगवती सूत्र, १. १. १ मंगलाचरण वृत्ति २. उपाध्याय : सूत्रदाता । स्थानांग सूत्र, ३. ४. ३२३ वृत्ति Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश या सूत्रवाचना देने का उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बनाये रखने के हेतु उपाध्याय पारंपरिक व भाषा वैज्ञानिक प्रादि दृष्टियों से अंतेवासी श्रमणों को मूलपाठ का सांगोपांग शिक्षण देते हैं । अनुयोगद्वार सूत्र में 'पागमतः द्रव्यावश्यक' के सन्दर्भ में पठन या वाचन का विवेचन करते हुए तत्मम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रतीत होता है कि पाठ की एक अक्षुण्ण तथा स्थिर परंपरा जैन श्रमरणों में रही है । प्रागम-पाठ को यथावत् बनाये रखने में इससे बड़ी सहायता मिली है। आगम-गाथाओं का उच्चारण कर देना मात्र पाठ या वाचन नहीं है। अनुयोग द्वार में पद के शिक्षित, जित, स्थित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, प्रत्यक्षर, अव्याविद्धासर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्याग्रंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण-घोष तथा कण्ठोष्ठविप्रमुक्त विशेषण दिये गये हैं।' संक्षेप में इनका तात्यर्य यों है - १. शिक्षित : साधारणतया सीख लेना। २. स्थित : सीखे हुए को मस्तिष्क में टिकाना। ३. जित अनुक्रमपूर्वक पठन करना। ४. मित : अक्षर ग्रादि की मर्यादा, संयोजन आदि जानना। ५. परिजित : अनुक्रम - व्यतिक्रम या अनुक्रम के विना पाठ करना। ६. नामसम : जिस प्रकार हर व्यक्ति को अपना नाम स्मरण रहता है, उस प्रकार सूत्र का पाठ याद रहना अर्थात सूत्रपाठ को इस प्रकार प्रात्मसात् कर लेना कि जब भी पूछा जाए, यथावत् रूप में बतलाया जा सके। ७. घोषसम : स्वर के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के रूप में जो उच्चारण सम्बन्धी तीन भेद वैयाकरणों ने किये हैं, उनके अनुरूप उच्चारण करना । ८. अहीनाचर : पाठक्रम में किसी भी अक्षर को हीन,-लुप्त या अस्पष्ट न कर देना। ६. अनत्यक्षर : अधिक अक्षर न जोड़ना। १०. अव्याविद्धासर : अक्षर, पद आदि का विपरीत-उलटा पठन न करना। ११. अस्खलित : पाठ में स्खलन न करना, पाठ का यथा प्रवाह उच्चारण करना। १२. अमिलित : अक्षरों को परस्पर न मिलाते हए उच्चारणीय पाठ के साथ किन्हीं दूसरे अक्षरों को न मिलाते हुए उच्चारण करना। अनुयोग द्वार, सूत्र २ उच्चरुदात्तः । नीचरनुदात्तः । समाहारः स्वरितः। - सिद्धान्त कौमुदी १. २. २६-३१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. अव्यत्यानेडित : अन्य सूत्रों, शास्त्रों के पाठ को समानार्थक जान कर उच्चार्य पाठ के साथ मिला देना व्यत्यानेडित है । ऐसा न करना अव्यत्यानेडित है । १४. प्रतिपूर्ण : पाठ का पूर्ण रूप से उच्चारण करना, उसके किसी अंग को अनुच्चारित न रखना। १५. प्रतिपूर्णघोष : उच्चारणीय पाठ का मन्द स्वर, जो कठिनाई से सुनाई दे, द्वारा उच्चारण न करना, परे स्वर से स्पष्टता से उच्चारण करना। १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त : उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और अोठों में अटका कर अस्पष्ट नहीं वोलना । सूत्र पाठ को अक्षुण्ण तथा अपरिवर्त्य वनाये रखने के लिए उपाध्याय को सूत्र-वाचना देने में कितना जागरूक तथा प्रयत्नशील रहना होता था - यह उक्त विवेचन से स्पष्ट है। लेखनक्रम के अस्तित्व में आने से पूर्व वैदिक, जैन और वौद्ध सभी परंपरागों में अपने प्रागमों, आर्ष शास्त्रों के कण्ठस्थ रखने की प्रणाली थी। मूल पाठ का रूप अक्षुण्ण बना रहे, परिवर्तमान समय का उम पर प्रभाव न पाए, इस निमित्त उन द्वारा ऐसे पाठ-क्रम या उच्चारण-पद्धति का परिस्थापन स्वाभाविक था, जिससे एक से सुन कर या पढ़ कर दूसरा व्यक्ति सर्वथा उसी रूप से शास्त्र को प्रात्मसात् बनाये रख सके। उदाहरणार्थ- मंत्रपाठ, पदपाठ, जटापाठ आदि के रूप में वेदों के पठन का भी बड़ा वैज्ञानिक प्रकार था, जिसने अब तक उनको मूल रूप में बनाये रखा है। एक से दूसरे द्वारा श्रति परम्परा से प्रागम प्राप्तिक्रम के वावजूद जैनों के प्रागमिक वाङ्मय में कोई परिवर्तन पाया हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता। सामान्यतः लोग कह देते हैं कि किसी से एक वाक्य भी सुनकर दूसरा व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बताए तो यत्किंचित् परिवर्तन पा सकता है फिर यह कब सम्भव है कि इतने विशाल प्रागम-वाङ्मय में काल की इस लम्बी अवधि के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं पा सका। साधारणतया ऐसी शंका उठना अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु प्रागम-पाठ की उपर्युक्त परंपरा से स्वतः समाधान हो जाता है। जहां कि मूल पाठ की सुरक्षा के लिए इतने उपाय प्रचलित थे, वहां प्रागमों का मूल स्वरूप क्यों नहीं प्रव्याहत और अपरिवतित रहता। अर्थ या अभिप्राय का पाश्रय सूत्र का मूल पाठ है। उसी की पृष्ठभूमि पर उसका पल्लवन और विकास सम्भव है । अतएव उसके शुद्ध स्वरूप को स्थिर रखने के लिए सूत्र-वाचना या पठन का इतना बड़ा महत्व समझा गया कि संघ में उसके लिए उपाध्याय का पृथक् पद प्रतिष्ठित किया गया। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तक प्राचार्य के बहुविध उत्तरदायित्वों के सम्यक् निर्वहन में सुविधा रहे, धर्मसंघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहे, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक पद का विश्लेषण करते हुए लिखा है तपः संयमयोगेषु, योग्यं हि यो प्रवर्तयेत् । निवर्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्तकः ।।' प्रवर्तक गण या श्रमण-संघ की चिन्ता करते हैं अर्थात् वे उसकी गतिविधि का ध्यान रखते हैं। वे जिन श्रमरणों को तप, संयम तथा प्रशस्त योगमूलक अन्यान्य सत्प्रवृत्तियों में योग्य पाते हैं, उन्हें उनमें प्रवृत्त या उत्प्रेरित करते हैं। मूलतः तो सभी श्रमण धामण्य का निर्वाह करते ही हैं पर रुचि की भिन्नता के कारण किन्हीं का तप की ओर अधिक झुकाव होता है, कई शास्त्रानशीलन में अधिक रस लेते हैं, कई संयम के दूसरे पहलुओं की भोर अधिक प्राकृष्ट रहते हैं। रुचि के कारण किसी विशेष प्रवृत्ति की ओर श्रमण का उत्साह हो सकता है पर हर . किसी को अपनी यथार्थ स्थिति का भली-भांति ज्ञान हो, यह प्रावश्यक नहीं। अति उत्साह के कारण कभी कभी अपनी क्षमता का प्रांक पाना कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में प्रवर्तक का यह कर्तव्य है कि वे जिनको जिस प्रवृत्ति के लिए योग्य मानते हों, उन्हें उस ओर प्रेरित और प्रवृत्त करें। जो उन्हें जिस प्रवृत्ति के सम्यक् निर्वाह में योग्य न जान पड़ें, उन्हें वे उस ओर से निवृत्त करें। साधक के लिए इस प्रकार के पथ-निर्देशक का होना परम आवश्यक है। इससे उसकी शक्ति और पुरुषार्थ का समीचीन उपयोग होता है। ऐसा न होने से कई प्रकार की कठिनाइयां उपस्थित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-कोई श्रमण प्रति उत्साह के कारण अपने को उग्र तपस्या में लगाये पर कल्पना कीजिये, उसकी दैहिक क्षमता इस प्रकार की न हो, स्वास्थ्य अनुकूल न हो, मानसिक स्थिरता कम हो तो वह अपने प्रयत्न में जैसा सोचता है, चाहता है, सफल नहीं हो पाता। उसका उत्साह टूट जाता है, वह अपने को शायद हीन भी मानने लगता है । प्रतएव प्रवर्तक, जिनमें ज्ञान, अनुभव तथा भनूठी सूझ-बूझ होती है, का दायित्व होता है कि वे श्रमणों को उनकी योग्यता के अनुरूप उत्कर्ष के विभिन्न भागों पर गतिशील होने में प्रवृत्त करें, जो उचित न प्रतीत हो, उनसे निवृत्त करें। उक्त तथ्य को स्पष्ट करते हुए और भी कहा गया है : तवसंजमनियमेसुं, जो जुग्गो तत्थ तं पवते। असहू य नियत्तती, गणतत्तिल्लो पवत्तीमो।। तपः संयमयोगेषु मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्तयन्ति, असहांश्च 'धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा १४३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमर्थांश्च निवर्तयन्ति, एवं गणतृप्तिप्रवृत्ताः प्रवर्तिनः ।' संयम, तप आदि के आचरण में जो धैर्य और सहिष्णुता चाहिए, जिनमें वह होती है, वे ही उसका सम्यक अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनमें वैसी सहनशीलता और दृढ़ता नहीं होती, उनका उस पर टिके रहना सम्भव नहीं होता। प्रवर्तक का यह काम है कि किस श्रमण को किस ओर प्रवृत्त करे, कहां से निवृत्त करे। गरण को तृप्त-तुष्ट - उल्लसित करने में प्रवर्तक सदा प्रयत्नशील रहते हैं। स्थविर जैन संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्थानांग सूत्र में दश प्रकार के स्थविर बतलाये गये हैं, जिनमें से अन्तिम तीन जाति-स्थविर, श्रुतस्थविर तथा पर्याय-स्थविर का सम्बन्ध विशेषतः श्रमण-जीवन से है। स्थविर का सामान्य अर्थ प्रौढ़ या वृद्ध है। जो जन्म से अर्थात् आयु से स्थविर होते हैं, वे जाति-स्थविर कहे जाते हैं । स्थानांग वृत्ति में उनके लिए साठ वर्ष की आयु का संकेत किया गया है। जो श्रत-समवाय आदि अंग-ग्रागम व शास्त्र के पारगामी होते हैं, वे श्रुत-स्थविर कहे जाते हैं। उनके लिए प्रायू की इयत्ता का निर्वन्ध नहीं है। वे छोटो प्राय के भी हो सकते हैं। पर्याय स्थविर वे होते हैं, जिनका दीक्षा-काल लम्बा होता है। इनके लिए बोस वर्ष के दीक्षा-पर्याय के होने का वृत्तिकार ने उल्लेख किया है। जिनकी आयु परिपक्व होती है, उन्हें जीवन के अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। वे जीवन में बहुत प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल, प्रिय-अप्रिय घटनाक्रम देखे हुए होते हैं अतः वे विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होते हैं। वे स्थिर मने रहते हैं । स्थविर शब्द स्थिरता का भी द्योतक है। जिनका शास्त्राध्ययन विशाल होता है, वे भी अपने विपुल ज्ञान द्वारा जीवन-सत्य के परिज्ञाता होते हैं। शास्त्र-ज्ञान द्वारा उनके जीवन में प्राध्यात्मिक स्थिरता और दृढ़ता होती है। जिनका दीक्षा-पर्याय, संयम-जीवितव्य लम्बा होता है, उनके जीवन में धार्मिक परिपक्वता, चारित्रिक बल एवं प्रात्म प्रोज सहज ही प्रस्फुटित हो जाता है। ' व्यवहार भाष्य, उद्देशक १, गाथा ३४० २ स्थानांग सूत्र स्थान १० सूत्र ७६२ 3 जातिस्थविरा:- षष्ठिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः । ___ - स्थानांग सूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ (वृत्ति) ४ श्रुतस्थविरा :- समवायाधंगधारिणः । - स्थानांगसूत्र स्थान, १० सूत्र, ७६२ (वृत्ति) ५ पर्यायस्थविरा :- विशतिवर्षप्रमाण प्रव्रज्यापर्यायन्तः । - स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ (वृत्ति) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार के जीवन के धनी श्रमणों की अपनी गरिमा है । वे दृढ़धर्मा होते हैं और संघ के श्रमणों को धर्म में, साधना में, संयम में स्थिर बनाये रखने के लिए सदैव जागरूक तथा प्रयत्नशील रहते हैं। प्रवचनसारोद्धार (द्वार २) में कहा गया है - "प्रवर्तितव्यापारान् संयम योगेषु सीदतः साधून ज्ञानादिषु ऐहिकामुष्मिकापायदर्शनत: स्थिरीकरोतीति स्थविरः।" जो साधु लौकिक एषणावश सांसारिक कार्य-कलापों में प्रवृत्त होने लगते हैं, जो संयम-पालन में, ज्ञानानुशीलन में कष्ट का अनुभव करते हैं, ऐहिक और पारलौकिक हानि या दुःख दिखला कर उन्हें जो श्रमण-जीवन में स्थिर करते हैं, उन्हें स्थविर कहते हैं। वे स्वयं उज्ज्वल चारित्र्य के धनी होते हैं, अतः उनके प्रेरणा-वचन, प्रयत्न प्रायः निष्फल नहीं होते। स्थविर की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्थविर संविग्न - मोक्ष के अभिलाषी, मार्दवित, - अत्यन्त मृदु या कोमल प्रकृति के धनी और धर्मप्रिय होते हैं। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रय की प्राराधना में उपादेय अनुष्ठानों को जो श्रमण परिहीन करता है, उनके पालन में अस्थिर बनता है, वे (स्थविर) उसे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की याद दिलाते हैं। पतनोन्मुख श्रमणों को वे ऐहिक और पारलौकिक अध: पतन दिखला कर मोक्ष के मार्ग में स्थिर करते हैं।' इसी प्राशय को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है - तेन व्यापारितेष्वर्थे - स्वनगारांश्च सीदतः । स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः ।। सप संयम, ताराधना तथा आत्मसाधना आदि श्रमण-जीवन के उन्नायक कार्य जो संघ-प्रवर्तक द्वारा श्रमणों के लिए नियोजित किये जाते हैं, उन में जो श्रमण अस्थिर हो जाते हैं, इनका अनुसरण करने में जो कष्ट मानते हैं या इनका पालन करना जिनको अप्रिय लगता है, भाता नहीं, उन्हें जो प्रात्म-शक्ति-सम्पन्न दृढ़चेता श्रमरण उक्त अनुष्ठेय कार्यों में दृढ़ बनाता है, वह स्थविर कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि संयम-जीवन जो श्रामण्य का अपरिहार्य अंग है, के प्रहरी का महनीय कार्य स्थविर करते हैं। संघ में उनकी बहुत प्रतिष्ठा तथा साख होती ' संविग्गो मद्दविभो, पियधम्मो नागदंसरणचरित्ते। जे अट्ठ परिहायइ, सावेतो ते हवई थेरो ।। यः संविग्नो मोक्षाभिलाषी, मादवितः संज्ञातमादंविकः । (१) प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः, संयमानुष्ठाने यो ज्ञानदर्शन चारित्रेषु मध्ये यानर्यानुपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति तान् तं स्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान्साधून ऐहिकामुष्मिकापायप्रदर्शनतो मोक्ष-मार्गे स्थिरी करोतीति स्थविर इति व्युत्पत्तेः । धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा ७३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदा है । अवसर प्राने पर वे प्राचार्य तक को ग्रावश्यक बातें सुझा सकते हैं, जिन पर उन्हें (आचार्य को) भी गौर करना होता है। संक्षेप में सार यह है कि स्थविर संयम में स्वयं अविचल-स्थितिशील होते हैं और संघ के सदस्यों को वैसा बने रहने के लिए उत्प्रेरित करते रहते हैं। गरणी गरणी का सामान्य अर्थ गण या साधु समूदाय का अधिपति है। अतः प्राचार्य के लिए भी इस शब्द का प्रयोग देखने में प्राता है। परन्तु यहां यह एक विशिष्ट अर्थ को लिये हए है। संघ में जो अप्रतिम विद्वान, वहश्रत श्रमण होता था, उसे गरणी का पद दिया जाता था। गरणी के सम्बन्ध में लिखा है - अस्य पाश्वे प्राचार्याः सूत्रार्थमभ्यस्यन्ति ।' अर्थात् प्राचार्य उनके पास सूत्र प्रादि का अभ्यास करते हैं । यद्यपि प्राचार्य का स्थान संघ में सर्वोच्च होता है। उनमें प्राचार-पालने, मनवाने, संघ के श्रमरणों को अनुशासन में रखने, उनको तत्त्व-ज्ञान देने, उनका परिरक्षण तथा विकास करते रहने की असाधारण क्षमता होती है। उनके व्यक्तित्व में सर्वातिशायि भोज तथा प्रभाव होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि संघगत श्रमणों में वे सबसे अधिक विद्वान् एवं अध्येता हों। गरणी में इस कोटि की ज्ञानात्मक विशेषता होती है । फलस्वरूप वे प्राचार्य को भी वाचना दे सकते हैं। इससे यह भी स्पष्ट है कि प्राचार्य-पद केवल विद्वत्ता के आधार पर नहीं दिया जाता। विद्या जीवन का एक पक्ष है। उसके अतिरिक्त और भी अनेक पक्ष हैं - जिनके विना जीवन में समग्रता नहीं पाती। प्राचार्य के व्यक्तित्व में वैसी समग्रता होनी चाहिए जिससे जीवन के सव अंग परिपूरित लगें। यह सव होने पर भी प्राचार्य को यदि शास्त्राध्ययन की और अपेक्षा हो तो वे गणी से शास्त्राभ्यास करें। प्राचार्य जैसे उच्च पद पर अधिष्ठित व्यक्ति एक अन्य साधु से अध्ययन करें, इसमें क्या उनकी गरिमा नहीं मिटती - प्राचार्य ऐसा विचार नहीं करते । वे गुणग्राही तथा उच्च संस्कारी होते हैं अत: जो-जो उन्हें अावश्यक लगता है, वे उन विषयों को गणी से पढ़ते हैं। यह कितनी स्वस्थ तथा मुखावह परंपरा है कि प्राचार्य भी विशिष्ट ज्ञानी से ज्ञानार्जन करते नहीं हिचकते। ज्ञान और ज्ञानी के सत्कार का यह अनुकरणीय प्रसंग है। गाधर ___ गगाधर का शाब्दिक अर्थ गरण या श्रमण संघ को धारण करने वाला, गरग का अधिपति, स्वामी या प्राचार्य होता है। आवश्यक वृत्ति में अनुत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण - समूह को धारण करने वाले गणधर कहे गये हैं । १ कल्प सुबोधिका क्षण : २ अनुतरज्ञानदर्शनादिगुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः -- आवश्यकनियुक्ति गाथा १०६२ वृत्ति Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम-वाङ्मय में गणधर शब्द मुख्यतः दो अर्थों में प्रयुक्त है। तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थकर) द्वारा प्ररूपित तत्व-ज्ञान का द्वादशांगी के रूप में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गण के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं, गणधर कहे जाते हैं। अनुयोग-द्वार सूत्र में भाव-प्रमारण के अन्तर्गत ज्ञान गुरण के प्रागम' नामक प्रमारण-भेद में बताया गया है कि गणधरों के सूत्र प्रात्मगम्य होते हैं। दूसरे शब्दों में वे सूत्रों के कर्ता हैं । __ तीर्थंकरों के वर्णन-क्रम में उनकी अन्यान्य धर्म-संपदाओं के साथ-साथ उनके गणधरों का भी यथा प्रसंग उल्लेख हुमा है। तीर्थंकरों के सानिध्य में गणधरों की जैसी परंपरा वर्णित है, वह सार्वत्रिक नहीं है। तीर्थंकरों के पश्चात् अथवा दो तीर्थंकरों के अन्तर्वर्ती काल में गणधर नहीं होते । अतः उदाहरणार्थ गौतम, सुधर्मा आदि के लिए जो गणधर शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह गणधर के शाब्दिक या सामान्य अर्थ में अप्रयोज्य है। गणधर का दूसरा अर्थ, जैसा कि स्थानांग' वत्ति में लिखा गया है, मार्यानों या साध्वियों को प्रतिजागृत रखने वाला अर्थात् उनके संयम-जीवन - के सम्यक निर्वहण में सदा प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं आध्यात्मिक सहयोग करने वाला श्रमरण गणधर कहा जाता है। प्रार्या-प्रतिजागरक के अर्थ में प्रयुक्त गणधर शब्द से प्रकट होता है कि संघ में श्रमणी-वन्द की समीचीन व्यवस्था, विकास, अध्यात्म-साधना में उत्तरोत्तर प्रगति - इत्यादि पर पूरा ध्यान दिया जाता था। यही कारण है कि उनकी देख रेख और मार्गदर्शन के कार्य को इतना महत्वपूर्ण समझा गया कि एक विशिष्ट श्रमण का मनोनयन केवल इसी उद्देश्य से होता था। गरणावच्छेदक इस पद का सम्बन्ध विशेषतः व्यवस्था से है। संघ के सदस्यों का संयम जीवि तव्य स्वस्थ एवं कुशल बना रहे, साधु-जीवन के निर्वाह-हेतु अपेक्षित उपकरण साधु-समुदाय को निरवद्य रूप में मिलते रहें इत्यादि संघीय आवश्यकताओं की पूर्ति का उत्तरदायित्व या कर्तव्य गणावच्छेदक का होता है । उनके संबंध में लिखा है - जो संघ को सहारा देने, उसे सुदृढ़ बनाये रखने अथवा संघ के थमणों की संयम-यात्रा के सम्यक निर्वाह के लिए उपधि- श्रमण-जीवन के लिए यावश्यक साधन-सामग्री की गवेषणा करने के निमित्त विहार करते हैं - पर्यटन करते हैं, प्रयत्नशील रहते हैं, वे गणावच्छेदक होते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और पागम - इन चार प्रमाणों का वहां वर्णन हुआ है । । प्राधिक प्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः । - स्थानांग मूत्र ४, ३, ३२३ वृत्ति ' यो हि तं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति - स्थानांग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक ३ (वृत्ति) ( ७३ ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _श्रामण्य-निर्वाह के लिए अपेक्षित साधन-सामग्री के प्राकलन, तत्सम्बन्धी व्यवस्था आदि की दृष्टि से गणावच्छेदक के पद का बहुत बड़ा महत्व है। गरणावच्छेदक द्वारा आवश्यक उपकरण जुटाने का उत्तरदायित्व सम्हाल लिये जाने से प्राचार्य का संघ-व्यवस्था सम्बन्धी भार काफी हल्का हो जाता है। फलतः उन्हें धर्म-प्रभावना तथा संघोन्नति सम्बन्धी अन्यान्य कार्यों की सम्पन्नता में समय देने की अधिक अनुकूलता प्राप्त रहती है। प्राधार : पृष्ठभूमि पहले यह चर्चित हुआ है कि जैन परंपरा में पद-नियुक्ति का आधार निर्वाचन जैसी कोई वस्तु नहीं थी। वर्तमान आचार्य अपने उत्तराधिकारी आचार्य तथा अन्य पदाधिकारियों का मनोनयन संघ की सम्मति से करते थे। आज भी वैसा ही है। ज्ञातव्य है कि उत्तराधिकारी प्राचार्य का मनोनयन तो प्रावश्यक समझा गया पर दूसरे पदों में से जितनों की, जब प्राचार्य चाहते, पूर्ति करते। ऐसी अनिवार्यता नहीं थी कि उत्तराधिकारी प्राचार्य के साथ-साथ अन्य सभी पदों की पूर्ति की जाए। आचार्य चाहते तो अवशेष सभी पदों का कार्य-निर्वाह स्वयं करते अथवा उनमें से कुछ का करते, कुछ पर अधिकारी मनोनीत करते । मूलत: समग्र उत्तरदायित्व के आधार-स्तम्भ तो प्राचार्य ही माने गये हैं। व्यवस्था-सौकर्य के लिए प्रायः अन्य पदों पर उपयुक्त, योग्य अधिकारियों का मनोनयन भी आचार्य उपयोगी मानते रहे हैं। पर क्रमशः पश्चाद्वर्ती समय में वैसा क्रम रहा। कभी-कभी केवल आचार्य-पद पर अधिष्ठित एक ही व्यक्ति सारा कार्यभार सम्हालते रहे । कभी प्राचार्य तथा उपाध्याय दो-पदों पर कार्य करते रहे। कभी सातों पदों में से जब जो जो अपेक्षित समझे गये, तत्कालीन प्राचार्यों द्वारा भरे गये। कुछ विशिष्ट योग्यताएं पदों पर मनोनीत किये जाने वाले श्रमणों में कुछ विशेष योग्यताएं वांछनीय समझी गई थीं। असाधारण स्थितियों में कुछ विशेष निर्णय लेने की व्यवस्था भी रही है ! व्यवहार-सूत्र तथा भाष्य में इस सन्दर्भ में बड़ा विशद विवेचन हुआ है, जिसके कतिपय पहलू यहां उपस्थित करना उपयोगी होगा। कहा गया है कि जिन श्रमणों निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये माठ वर्ष हो गये हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह (श्रमणों के परिपोषण) में कुशल हों, जिनका चारित्र प्रखण्ड, प्रशबल - अनाचार के धब्बों से रहित - प्रदूषित, अभिन्न - सर्वतः सात्विक, असंक्लिष्ट --संक्लेश' व्यवहार सूत्र, ३ उद्देशक, सूत्र ७ २ श्रमणों के विहार के लिए समीचीन क्षेत्र, प्रपेक्षित उपकरण, उनकी मावश्यकतामों की यथोचित परिपूर्ति । ( ७४ ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित हो अर्थात् जो चारित्र का सम्पूर्ण रूप में प्रात्मोल्लासपूर्वक पालन करते हों, जो बहुश्रुत और विद्वान हों, जो कम से कम अनिवार्यतः स्थानांगसूत्र और समवायांग सूत्र के धारक - वेत्ता हों, उन्हें प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणावच्छेदक पद पर अधिष्ठित करना कल्पनीयविहित है। इसी को और स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि जिन श्रमणों में उक्त गुण या विशेषताएं न हों, उन्हें ये पद देना अकल्पनीय है - ये पद उन्हें नहीं दिये जाने चाहिए। पदों के सम्बन्ध में एक विकल्प यों हैजिन श्रमण-निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये पांच वर्ष व्यतीत हो चुके हों, जो प्राचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह में कुशल हों, जिनका चारित्र अखण्ड, अशबल-प्रदूषित, अभिन्न - एक जैसा सात्विक, असंक्लिष्ट - संक्लेशरहित हो, जो बहुश्रुत और विद्वान् हों, जो कम से कम दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र के वेत्ता हों, उनके लिए प्राचार्य और उपाध्याय का पद कल्पनीय है - उन्हें प्राचार्य या उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना विहित है।' उपाध्याय पद पर मनोनीत किये जाने योग्य श्रमणों का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जिन श्रमणों, निर्ग्रन्थों, को दीक्षा स्वीकार किये तीन वर्ष व्यतीत हो गये हों, जो प्राचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह में कुशल हों, जिनका चारित्र प्रखण्ड, अशबल- प्रदूषित, अभिन्न - सर्वतः सात्विक, असंक्लिष्ट - संक्लेशरहित हो, जो बहुश्रुत और विद्वान् हों, जो कम से कम प्राचारांग और निशीथ के वेत्ता हों, उन्हें उपाध्याय के पद पर आसीन करना कल्पनीय है। उपर्युक्त उद्धरणों में जो दीक्षा-काल दिया गया है, वह न्यनतम है। उससे कम समय का दीक्षित श्रमण साधारणतः ऊपर वरिणत पदों का अधिकारी नहीं होता। पद और दीक्षा-काल पाठ वर्ष, पांच वर्ष और तीन वर्ष के दीक्षा-काल के रूप में ऊपर तीन प्रकार के विकल्प उपस्थित किये गये हैं। अन्य योग्यतायें सबकी एक जैसी बतलाई गई हैं। अाठ वर्ष के दीक्षित श्रमण को प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक का पद दिया जाना कल्पनीय विहित कहा गया है । सात पदों ' व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र ५ २ मावश्यक सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र ३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में से छः पदों का उल्लेख यहां हुआ है। गरणधर का पद उल्लिखित नहीं है। पर, भावतः उसे यहां प्रन्तर्गर्भित मान लिया जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस श्रमण का दीक्षा - पर्याय आठ वर्ष का हो चुका है और जिसमें यदि दूसरी प्रपेक्षित योग्यताएँ हों तो वह सभी पदों का अधिकारी है । पांच वर्ष के दीक्षित श्रमरण को, यदि अन्य योग्यताएँ उसमें हों तो प्राचार्य और उपाध्याय पद का अधिकारी बताया है । तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण को और योग्यताएं होने पर उपाध्याय पद के लिए अनुमोदित किया है । इन तीन विकल्पों में से दो में प्राचार्य का उल्लेख हुआ है और उपाध्याय का तीनों में ही । इसका आशय यह है कि आचार्य के लिए कम से कम पांच वर्ष का दीक्षा-काल होना श्रावश्यक है । तब यदि उनका पाठ वर्ष का दीक्षा-काल हो तो और भी अच्छा । म्राठ वर्ष के दीक्षा काल की अनिवार्यता वस्तुतः प्रवर्तक, स्थविर, गरणी तथा गरगावच्छेदक के पद के लिए है । पहले विकल्प में क्रमश: सभी पदों का उल्लेख करना था अतः ग्राचार्य का भी समावेश कर दिया गया । उपाध्याय - पद के लिए कम से कम तीन वर्ष का दीक्षा - काल अनिवार्य है । फिर वह यदि पांच या आठ वर्ष का हो तो और भी उत्तम है । जैसा कि कहा गया है, आठ वर्ष के दीक्षा - काल की अनिवार्यता प्राचार्य तथा उपाध्याय के अतिरिक्त अन्य पदों के लिए तथा पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता केवल प्राचार्य पद के लिए है । पहले विकल्प में सभी पदों का और दूसरे विकल्प में दो पदों का उल्लेख करना था अतः दोनों स्थानों पर उपाध्याय का समावेश किया गया । श्रुत-योग्यता, प्राचार - प्रवणता, प्रोजस्वी व्यक्तित्व तथा जीवन के अनुभव - ये चार महत्वपूर्ण तथ्य हैं, जिनका संघीय पदों से अंतरंग सम्बन्ध है । उपाध्याय का पद श्रुत-प्रधान या मूत्र प्रधान है। श्रात्म-साधना तो जीवन का अविच्छिन्न अंग है ही, उसके अतिरिक्त उपाध्याय का प्रमुख कार्य श्रमणों को सूत्र - वाचना देना है । यदि कोई श्रमण इस ( श्रुतात्मक) विषय में निष्णात हों तो अपने उत्तरदायित्व का भली भांति निर्वाह करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं प्राती । व्यावहारिक जीवन के अनुभव यादि की वहां विशेष अपेक्षा नहीं रहती । वहां सूत्र सम्वन्धी व्यापक अध्ययन, प्रगल्भ पाण्डित्य तथा प्रकृष्ट प्रज्ञा होनी चाहिये | अतः यदि तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण में भी ये योग्यताएं हों तो वह उपाध्याय पद का अधिकारी हो सकता है । प्राचार्य पद के लिए योग्यता का प्राधार ग्राचार कौशल, शासन - नैपुण्य, ओजस्वी व्यक्तित्व, व्यवहार पटुता, शास्त्रों का तलस्पर्शी, सूक्ष्म ज्ञान तथा जीवन के अनुभव हैं। इनमें अनुभव के अतिरिक्त जो विशेषताएं बतलाई गई हैं, वे कालसापेक्ष कम हैं, क्षयोपशम या संस्कार सापेक्ष अधिक । कतिपय व्यक्ति जन्मजात ( ७६ ) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधावी, प्रभावशील, प्रोजस्वी और कर्त्तव्यकुशल होते हैं तथा कतिपय ऐसे होते हैं कि वर्षों के अभ्यास तथा चिर प्रयत्न के बावजूद इस प्रकार का कुछ भी वैशिष्ट्य अजित नहीं कर पाते । प्रत्येक कार्य में पुरुषार्थ और प्रयत्न तो चाहिये पर तरतमता की दृष्टि से वस्तुतः इन विशेषताओं का सम्बन्ध प्रयत्नों से कम और संस्कारों से अधिक है। प्राचार्य संस्कारी और पूण्यात्मा होते हैं। उनमें ये विशेषताएं स्वाभाविक होती हैं। पर, जीवन का अनुभव भी चाहिए। अतः उनके लिए कम से कम पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता बतलाई गई। संस्कारी एवं प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति के लिए जीवन के बहुमुखी अनुभव अजित करने की दृष्टि के यह समय कम नहीं है। प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक के पद जिस प्रकार के उत्तरदायित्व से जुड़े हैं, उनके निर्वहण के लिए बहुत ही अनुभवी व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल, मधुर-कटु, प्रिय-अप्रिय जैसे अनेक क्रम देख चुका हो, परख चूका हो । अनुभव-परिपक्वता की दृष्टि से उन पदों के अधिकारी होने योग्य श्रमण के लिए जो कम से कम आठ वर्ष का दीक्षा-काल स्वीकार किया गया है, वह वास्तव में आवश्यक है। इसी प्रसंग में व्यवहारसूत्र में एक विशेष बात कही गई है। बताया गया है कि विशेष परिस्थिति में एक दिन के दीक्षित थमण को भी प्राचार्य या उपाध्याय का पद दिया जा सकता है। यह बात विशेषत: निरुद्ध-वास-पर्यायश्रमण को उद्दिष्ट कर कही गई है। निरुद्ध-वास-पर्याय का आशय उस श्रमरण से है, जो पहले श्रमरण-जीवन में था पर दुर्बलता से उससे पृथक् हो गया। यद्यपि ऐसा व्यक्ति संयम से गिरा हुप्रा तो होता है पर उसके पास साधु-जीवन का लम्बा अनुभव रहता है। यदि वह सही रूप में प्रात्मप्रेरित होकर पुनः श्रामण्य अपना लेता है तो उसका विगत श्रमण-जीवन का अनुभव उसके लिए, संघ के लिए क्यों नहीं उपयोगी होगा। प्राचार्य का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को लिए हए होता है। अतः उक्त प्रकार के एक दिवसीय दीक्षित साधु में, जिसे प्राचार्य या उपाध्याय का पद दिया जाना विहित कहा गया है, और भी कुछ असाधारण विशेषताएं होनी चाहिए, जिनका निम्नांकित रूप में उल्लेख किया गया है वह स्थविर ऐसे कुल का हो, जिसके प्रति संघ की प्रतीति हो अथवा जो संघ के लिए दान, सेवा प्रादि की भावना के कारण प्रीतिकारक हो, जो स्थेय होप्रीतिकर होने के नाते जो संघ की चिन्ता में प्रमाणभूत हो, जो संघ के लिए, सबके लिए वैश्वासिक - विश्वास-स्थान हो - सम्मत हो, कठिनाई या संघर्ष ग्रादि की स्थिति में सहयोग करने के नाते जो संघ के लिए प्रमोदकारक हो, जो संघ के लिए अनुमत हो अथवा श्रमणों को दान देने में जहाँ परिवार के छोटे-बड़े-सभी ( ७७ ) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्यों की अनुमति हो-- सभी भिक्षा देने के अधिकारी हों, जो संघ द्वारा बहुसम्मत हो-सेवाशीलता, शालीनता तथा धर्म-भावना की वृत्ति के कारण जिस कुल का संघ में बहुमान हो।' पारंपरिक संस्कारों का मनुष्य-जीवन पर बहत प्रभाव होता है। पारिवारिक और पैतक संस्कार मानव के हृदय में कुछ ऐसी धारणाएँ और मान्यताएँ प्रतिष्ठित कर देते हैं कि वह सहसा हीन पथ का अवलम्बन नहीं कर पाता। उसमें सहज ही धीरज, दृढ़ता, स्थिरता और उदात्तता प्रादि कुछ ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जिनके कारण संघ का गुरुतर उत्तरदायित्व वह वहन कर सकता है। अपनी पैतक प्रतिष्ठा, सम्मान और गरिमा भी उसके मस्तिष्क में रहती है, जो उसे किसी भी महान कार्य में साहस और निर्भीक भाव से जुट जाने को प्रेरित करती है। यही कारण है, यहाँ कुल की महत्ता पर इतना जोर दिया गया है। उक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कुल के जो विशेषण ऊपर दिये गये हैं, उनका सीधा सम्बन्ध श्रमण संघ से है । जिस कुल से श्रमण संघ का इतना नकट्य है, जिसके बच्चे-बच्चे के हृदय में श्रमणों के प्रति अगाध श्रद्धा है, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रमणों को भक्ति और आदर के साथ सदा दान देने को तत्पर रहता है, वहाँ एक दो का अपवाद हो सकता है, पर उस में उत्पन्न व्यक्ति सहज ही संघीय दायित्वों के प्रति बहुत जागरूक होगा। परंपरा और संस्कार के कारण उसे लगभग वह सब प्राप्त होता है, जो काफी समय पूर्व दीक्षित साधु को होता है। ___ यह विशेष परिस्थिति भी, कभी-कभी तब बनती है, जब अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का अवसर पाये बिना ही आचार्य अचानक काल धर्म को प्राप्त हो जाते हैं। अनुमान किया जाता है कि वीर नि० सं० १ से प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण के समय तक की १००० वर्ष की अवधि में प्राचार्य परम्परा की तरह उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर, गरणी, गणधर गरगावच्छेदक, महत्तरा, प्रतिनी प्रादि पदों की भी क्रमबद्ध परम्पराएँ चली हों। अनेक परम उपकारी महान श्रमणों ने अपने अपने समय में श्रमण परम्परा के इन विशिष्ट उत्तरदायित्व पूर्ण पदों का कार्यभार सम्हाला। उन्होंने जीवन भर स्व-पर-कल्याण में निरत रहते हुए बड़ी लगन और योग्यता के साथ भगवान महावीर के सर्वभूत हितकारी धर्मसंघ की चहुंमुखी प्रगति की। हमारी उत्कट अभिलाषा थी कि प्राचार्य परम्परा की तरह उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक, महत्तरा आदि सभी परम्परामों का क्रमबद्ध इतिहास दिया जाय। पर यथाशक्ति पूरी खोज और प्राप्त पुरातन सामग्री के पर्यवेक्षण के पश्चात् हमें बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हम प्रस्तुत ग्रन्थ में उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि पदों को अतीत में विभूषित करने वाले महापुरुषों का परिचय नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि उनका नाम काल आदि साधारण परिचय ' व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, मूत्र ८ ( ७८ ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ग्राज कहीं उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि इस द्वितीय भाग में मुख्यत: प्राचार्यों. वाचनाचार्यों, युग-प्रधानाचार्यों, कतिपय प्रभावक संतों एवं महत्तरा मतियों का तथा उनके समय की विशिष्ट घटनामों का ही परिचय प्रस्तुत कर पा रहे हैं। भविष्य में शोध करते समय इन उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि परम्परात्रों का यदि परिचय प्राप्त हुआ तो उसे समुचित रूप से यथा स्थान देने का प्रयास किया जायगा। अन्तःपरिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन धर्म का वीर नि० सं० १ से १००० तक का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक पाठक निर्वाणोत्तर काल के एक हजार वर्ष के इतिहास को सहज ही हृदयंगम कर स्मति पटल पर अंकित कर सके, इस दृष्टि से इसे निम्नलिखित चार प्रकरणों में विभक्त कर दिया गया है :१. केवलिकाल ३. दशपूर्वधरकाल २. श्रुतकेवलिकाल ४. सामान्य पूर्वधरकाल १. केबलिकाल - श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परामों द्वारा वीर निर्वागण के पश्चात् समान रूप से इन्द्रभूति गौतम, प्राचार्य सुधर्मा और प्राचार्य जम्बू ये तीन केवली माने गये हैं पर इन तीनों केवलियों के मुख्यतः पृथक-पृथक एवं ग्रंशतः समुच्चय काल के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं का परस्पर मान्यता भेद पाया. जाता है। श्वेताम्बर परम्परा के सभी मान्य ग्रन्थों में इन्द्रभूति गौतम का १२ वर्ष, प्रार्य सुधर्मा का ८ वर्ष और प्रार्य जम्बू का ४४ वर्ष, इस प्रकार कुल मिला कर ६४ वर्ष का केवलिकान माना गया है। जव कि दिगम्बर परम्परा में केवलिकाल विषयक दो प्रकार की मान्यताएं उपलब्ध होती हैं, उत्तर पुराण' और पुष्पदन्त-कृत अपभ्रंश भाषा के महापुराण' में इन्द्रभूति गौतम का १२ वर्ष, प्रार्य सुधर्मा का १२ वर्ष और जम्बू स्वामी का ४० वर्ष इस प्रकार कुल मिलाकर ६४ वर्ष का केवलिकाल माना गया है। धवला, श्रुतावतार, ब्रह्म हेमचन्द्रकृत श्रुतस्कन्ध' हरिवंश पुराण और नन्दि संघ की प्राकृत पट्टावली में समान रूप से इन तीनों केवलियों का प्रथक-पृथक केवलिकाल क्रमश: १२ वर्ष, १२ बर्ष और १८ वर्ष उल्लिखित करते हुए समुच्चय केवलिकाल ' उत्तर पुराण, पर्व ७६, पृ० ५३७ २ महा पुराण, संधि १००, पृ० २७४ 3 एट् ग्वण्डागम, वेदना म्ड-धवला, भा. ६, पृ० १३०-३१ ४ श्रुतावतार, लो० ७२-७६ ५ श्रुतस्कन्य, गाथा ६६, ६७ ६ हरिवंश पुरागा, मगं ६६, नो. २२ । • नन्दि मंध की प्राकृत पट्टावली, मा. १, २ . ( ७t ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ वर्ष बताया है। तिलोय पण्णती' में इन तीनों का केवलिकाल पृथक २ न बताकर पिण्ड रूप से ६२ वर्ष लिखा है। तिलोयपणत्तिकार ने इन तीनों केवलियों को अनबद्ध केवली की संज्ञा देते हए अन्तिम केवली श्री धर के कंडलगिरी पर सिद्ध होने का उल्लेख किया है। इस प्रकार का उल्लेख तिलोय पण्णत्ति और उत्तरवर्ती काल के श्रुतंस्कन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण प्राचीन जैन वाङमय में अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। दिगम्बर परम्परा के ही वीर कवि रचित अपभ्रंश भाषा के जम्बू सामिचरिउ तथा पं० राजमल्ल रचित 'जम्बू चरित्र'५ (संस्कृत) में इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा इन दोनों का सम्मिलित रूप से १८ वर्ष और जम्बू का समय १८ वर्ष उल्लिखित करते हुए इन तीनों केवलियो का केवलिकाल कुल मिलाकर केवल ३६ वर्ष ही बताया गया है। ___ इस प्रकार उपरिलिखित उद्धरणों के अनुसार श्वेताम्बर परम्परा में वीर नि० सं० १ से ६४ तक कुल ६४ वर्ष का केवलिकाल माना गया है । जबकि दिगम्बर परम्परा के ऊपर लिखे विभिन्न ग्रन्थों में केवलिकाल विपयक तीन प्रकार की भिन्न-भिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं। एक मान्यता केवलिकाल ६४ वर्ष का, दूसरी ६२ वर्ष का और तीसरी केवल ३६ वर्ष का ही बताती है। इस प्रकार के विभेदात्मक उल्लेखों के उपरान्त भी दिगम्बर परम्परा में ग्राज जो सर्वसम्मत मान्यता प्रचलित है, उसके अनुसार केवलिकाल ६२ वर्ष माना जाता है। केवलिकाल विषयक इस साधारण मतभेद के अतिरिक्त श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं में दूसरा मान्यता भेद भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर के सम्बन्ध में है। जहां श्वेताम्बर परम्परा में प्रार्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर माना गया है, वहां दिगम्बर परम्परा में इन्द्रभूति गौतम को। भगवान महावीर के धर्म संघ के प्राचार्यों की जितनी भी पट्टावलियां उपलब्ध हैं, उनमें मे श्वेताम्बर परम्परा की सभी पट्टावलियां प्रार्य सुधर्मा से और दिगम्बर परम्परा की सभी पट्टावलियां इन्द्रभूति गौतम से प्रारम्भ होती हैं। दोनों परम्परागों में इस बात पर तो मतैक्य है कि जिस रात्रि में भगवान का निर्वागा हुमा उसी रात्रि में प्रथम गणधर इन्द्रभूति को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई परन्तु श्वेताम्बर परम्पग के मभी प्रामाणिक ग्रन्थों में प्रार्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का प्रथम पदघर और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इन्द्रभूति गीतम को भगवान् का प्रथम पट्टधर एवं तत्पश्चात् सुधर्मा को द्वितीय पट्टधर माना गया 'तिलोय पण्णति, महा० ४, गा. १४७८ २ वही, गा. १४.७६ 3 ब्रह्म हेमचन्द्ररचित श्रुतस्कन्ध, गा. ६८ ४ जम्बुमामिचरि उ, वीर कवि चिन (मम्पादक डा. बी. पी. जैन) १० : २३ " जम चरित्र, राजमल्ल रचित, सर्ग १२,लो. १०६, ११०, ११२. १२० और १२१ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वस्तुतः भगवान के प्रमुख गणधर और प्रधान शिष्य होने के कारण इन्द्रभूति गौतम उनके पट्टधर बनने के सर्वप्रथम अधिकारी थे, संभवतः इसी दृष्टि से दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में एतद्विषयक किसी प्रकार के ऊहापोह, युक्ति अथवा प्रमाण के प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता न समझकर सहज रूप से यह उल्लेख कर दिया गया कि प्रभु के निर्वाण पश्चात् इन्द्रभूति गौतम उनके प्रथम पट्टधर बने। श्वेताम्बर परम्परा के अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों में इन्द्रभूति की विद्यमानता में प्रार्य सुधर्मा को भगवान् का प्रथम पट्टधर बनाये जाने के सम्बन्ध में सयौक्तिक एवं सप्रमाण पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के "केवलिकाल" शीर्षकान्तर्गत प्रकरण में इस विषय पर विस्तारपूर्वक जो विवेचन किया गया है उसका सारांश इस प्रकार है : १. सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने तीर्थप्रवर्तन काल में ही अपने ११ प्रमुख शिष्यों को गणधर पद प्रदान करते समय प्रार्य सुधर्मा को दीर्घजीवी समझकर - "मैं तुम्हें धुरी के स्थान पर रखकर गण की अनुज्ञा देता है"-यह कह कर एक प्रकार से अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। २. प्रभु के निर्वाण के थोड़े समय पश्चात्, उसी निर्वाण रात्रि में इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई थी। केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व उत्तराधिकारी के पद पर नियुक्त व्यक्ति केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् उस पद पर बना रह सकता है पर जिसे केवलज्ञान की उपलब्धि हो चुकी है, वह व्यक्ति किसी का उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता। इसका कारण यह है कि कोई भी पट्टधर अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य के प्रादेशों, उपदेशों, प्रादों एवं सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार तथा प्राशाओं का पालन करवाता है । परन्तु केवलज्ञानी निखिल चराचर के पूर्ण ज्ञाता एवं साक्षात् द्रष्टा होने के कारण-"भगवान् ने जैसा कहा है, वही मैं कह रहा है" यह कहने के स्थान पर "मैं ऐसा देखता है, मैं ऐसा कहता हूँ" यह कहने की स्थिति में रहता है। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर महावीर द्वारा अर्थतः प्ररूपित द्वादशांगी का श्रमण-समूह को ज्ञान कराते समय कोई केवलज्ञानी यह नहीं कह सकते कि भगवान महावीर ने ऐसा देखा, ऐसा जाना और ऐसा कहा । वे तो प्रत्यक्ष ज्ञाता एवं द्रप्टा होने के कारण यही कहते कि मैं ऐसा देखता हूँ, ऐसा जानता हूँ और जो देखता जानता हूँ वही कहता हूँ। उस दशा में अंतिम तीर्थकर द्वारा प्ररूपित धुतपरम्परा भगवान महावीर की परम्परा न रहकर गौतम केवली की श्रुतपरम्परा कही जाती। आर्य सुधर्मा उस समय तक चार ज्ञान और चतुर्दश पूर्वो के धारक थे। उन्हें वीर निर्वारण के १२ वर्ष पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान् द्वारा उपदिष्ट द्वादशांगी का उपदेश करते समय वे प्रस्थ होने के कारण यही कहते ' प्रावश्यक चूरिण, पृ. ३७० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि भगवान् ने ऐसा देखा जाना उपदेश दिया और इस प्रकार की ग्राज्ञाएं दीं, जैसा मैंने उनसे सुना वही कह रहा है । इन सब तथ्यों को दृष्टि में रखते हुए तीर्थेश्वर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुतपरम्परा को पंचम आारक की समाप्ति पर्यन्त अविच्छिन्न एवं उत्कर्ष की ओर अग्रसर करने वाली उनकी प्रज्ञात्रों को प्रक्षुण्ण बनाये रखने के लिये केवली गौतम को भगवान् का प्रथम पट्टधर न मान कर चतुर्दश पूर्वधर और मनः पर्यवज्ञानी सुधर्मा को माना गया । धवलाकार (शक सं० ७३८ अनुमानतः ) से ३५८ वर्ष पूर्व मुनि सर्वनन्दि (शक सं० ३८० ) १ द्वारा रचित 'लोक - विभाग (प्राकृत) के संस्कृत रूपान्तरकार सिंहसूरषि ने 'लोक-विभाग' (संस्कृत) की प्रशस्ति में लिखा है --- देवों और मनुष्यों की सभा में तीर्थंकर वर्द्धमान प्रभु ने भव्यजनों के हित के लिये जगत् का विधान कहा, जो सुधर्मा स्वामी आदि ने जाना और जो श्राचार्य - परम्परा से आज तक चला श्रा रहा है, उसे सिंहसूर ऋषि ने भाषापरिवर्तन कर विरचित किया उसका निपूरण जनों ने सम्मान किया है । इससे अनुमान किया जाता है कि दिगम्बर समाज में भी प्राचीन काल में ग्रार्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर मानने की परम्परा प्रचलित थी । श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य धर्मघोप ने अपनी 'दुस्ममाकालसमरणसंघथयं' - नामक ( ऐतिहासिक महत्व की ) एक छोटी सी स्तुतिपरक पुस्तिका की प्रवरी में वीर नि० १ से ६० तक पालक के ६० वर्ष के राज्यकाल में हुए युगप्रधान पुरुषों का उल्लेख करते हुए लिखा है : " तस्स य वरिस ६० रज्जे गोयम १२ सुहम्म ८ जंबू ४४ जुगप्पहारणा ।"3 कुछ विद्वानों का इस पर यह श्रभिमत हो सकता है कि इन तीनों का पृथक् पृथक् समय देते हुए जो कालक्रम की कड़ियां जोड़ी गई हैं, वह भगवान् महावीर के पट्टानुक्रम की घोर ही स्पष्ट इंगित है । परन्तु इस प्रश्न पर सूक्ष्म दृष्टि से थोड़ी सी गम्भीरतापूर्वक विचार करते ही इस प्रकार की प्राशंका निराधार सिद्ध हो जायगी। युगप्रधान पट्टावली में इन्द्रभूति गौतम का कहीं १ प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ४५ २ मध्येभ्यः सुरमानुपोरुसदसि श्रीवर्द्ध मानार्हता, यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञानं सुधर्मादिभिः । प्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहमूरपिणा, भाषायाः परिवर्तनेन निपुणैः सम्मानितं साधुभिः || 3 म्रायं जम्बू के ग्रन्तिम ४ वर्षों की गणना श्रवचूरिकार ने श्रागे चलकर नन्द के राज्य में कर ली है । ( ८२ ) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामोल्लेख नहीं है। यदि युगप्रधान आचार्यों में गौतम की गणना की गई होती तो उनका नाम युगप्रधान पट्टावली में अवश्य होता। इससे यह प्रमाणित होता है कि उपरिलिखित रूप से प्रवचूरी में प्राचार्य धर्मघोष द्वारा जो गौतम का नामोल्लेख किया गया है, वह वीर निर्धारण के पश्चात् हुए प्रथम केवली के नाते उनके प्रति सम्मान प्रगट करने की दृष्टि से उस युग के महान पुरुष के रूप में किया गया है न कि युगप्रधानाचार्य के रूप में । प्रार्य सुधर्मा के प्रकरगा में - 'वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार', 'द्वादशांगी का परिचय', 'द्वादशांगी का हाम एवं विच्छेद' और द्वादशांगी विषयक दिगम्बर मान्यता' - इन उपशीर्षकों के अन्तर्गत पृष्ठ सं०६८ से १८६ तक लगभग ११८ पृष्ठों में द्वादशांगी विषयक सुविस्तृत एवं सर्वाङ्गपूर्ण परिचय दिया गया है। इस प्रकरण को सर्वसाधारण के लिए सुगम तथा शोधाथियों के लिए उपयोगी बनाने के लिए इस ग्रंथ के प्रधान सम्पादक श्री राठोड़ ने अलभ्य सामग्री उपलब्ध कग, एकादशांगी तथा द्वादशांगी से सम्बन्धित उपलब्ध विपुल साहित्य के गहन अध्ययन के माथ जो अनेक उपयोगी परामर्श दिये हैं, उन्हें कभी नहीं भूलाया जा सकता। __ इस प्रकरण में द्वादशांगी की रचना विषयक जो मान्यता-भेद इन दोनोंश्वेताम्बर और दिगम्बर - परम्परागों में पाया जाता है, उस पर भी, यथाशक्य विशद प्रकाश डाला गया है । श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में एक मत से निर्विवादरूपेण यह उल्लेख उपलब्ध होता है कि भगवान महावीर के इन्द्रभूति गौतम प्रभृति ग्यारहों गणधर अपने अपने संदेह का प्रभू से समाधान पाकर एक ही दिन भगवान् के पास श्रमणधर्म में दीक्षित हुए। उसी दिन सर्वज्ञ प्रभू से त्रिपदी का ज्ञान और गणधर पद प्राप्त करने पर तत्काल उत्पन्न हुई गणधर-लब्धि के प्रभाव से उन सवने प्रभु की वाणी के आधार पर सर्व प्रथम चतुर्दश पूर्वो और तदनन्तर शेष दृष्टिवाद सहित एकादशांगी का पृथकतः ग्रथन-गुंफन कियां। तीर्थकर महावीर की वाणी के आधार पर उन ग्यारहों गगगधरों द्वारा स्वतन्त्ररूपेग अथित द्वादशांगी में अर्थतः ममानता रहते हुए भी वाचनाभेद रहा है। जैसा कि प्रालेख्यमान ग्रन्थमाला के प्रथम पुप्प - “जैन धर्म का मालिक इतिहास, प्रथम भाग" - में बताया जा चुका है, भगवान के ११ गणधरों में से सात के पृथकतः, प्रत्येक के एक गरण के हिसाब से मात गरण, प्राठवें तथा नौवें गणधर का सम्मिलित एक गण और दशवं एवं ग्यारहवें गणधर का सम्मिलित एक गण - इस प्रकार कुल : गण थे। गगाधरों की मम्या के अनुसार ग्यारह नहीं पर गरगों की दृष्टि से द्वादशांगी की ६ वाचनाएं मानी गई हैं। इन्द्रभूति गौतम एवं सुधर्मा को छोड़कर शेष ६ गणधर, भगवान महावीर की विद्यमानता में ही अपने अपने गण प्रार्य सुधर्मा को सम्हला, एक एक मास का ( ८३ ) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादोपगमन संथारा कर सिद्ध हो गये। उनके सात गण आर्य सुधर्मा के गण में विलीन हो गये। इन्द्रभूति गौतम भी वीर निर्वाण के १२ वर्ष पश्चात् आर्य सुधर्मा को अपना गरण सौंपकर सिद्ध हुए। इस प्रकार भगवान् के दश गणधरों की शिष्य परम्परा और उनकी ८ वाचनाएं उनके (गणधरों के) निर्वाण के साथ ही समाप्त हो गई और परिणामत: केवल सुधर्मा स्वामी की शिष्य-परम्परा और द्वादशांगी की वाचना अवशिष्ट रह गई। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में द्वादशांगी की रचना के सम्बन्ध में २ प्रकार की मान्यताएँ उपलब्ध होती हैं । धवलाकार से लगभग ढाई सौ - तीन सौ वर्ष पूर्व हुए प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी, (विक्रम की छठी शताब्दी) ने तत्त्वार्थ सूत्र पर लिखी गई अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' नामक वृत्ति में सभी गणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना की जाने का स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखा है - _ "सर्वज्ञ परमर्षि तीर्थंकर ने अपने परम अचिन्त्य केवलज्ञान की विभूति की विशिष्टता द्वारा प्रर्थरूप से प्रागमों का उपदेश दिया। उन तीर्थंकर के, अतिशय बुद्धि की ऋदि से सम्पन्न श्रुतकेवली गणधरों द्वारा भगवान के उस उपदेश के प्राधार पर जो ग्रन्थों की रचना की गई, उसे अंगपूर्व लक्षण अर्थात् द्वादशांगी कहते हैं।" इसी प्रकार धवलाकर के पूर्ववर्ती प्राचार्य प्रकलंक देव (वि० ८ वीं शती) ने तत्वार्थ सूत्र की राजवार्तिक टीका' में तथा विक्रम की ६ वीं शती के प्राचार्य विद्यानन्द ने 'तत्वार्थ श्लोक वार्तिक' नामक अपने ग्रन्थ में इसी मान्यता को अभिव्यक्त किया है। (क) परिरिगया गणहरा जीवन्ते णायए एव जगाउ ॥६५८।। [प्रावश्यक नियुक्ति] (स) ..... यश्च याच कालं करोति, स स सुधर्मस्वामिने गणं ददाति....... [पाव. नि०, गा० ६५८ की मलयवृत्ति] (क) इमे अग्यतारा समणा निग्गंथा विहरंति एए ण सम्मे मजसुहम्मस्स भणगारस्स 'भावधिज्जा, प्रवसेसा गणहरा निरवच्चा निधना। [कल्प स्थविरावली] (ब) मधुनकादशांग्यस्ति, सुधर्मस्वामिभाषिता ॥१४॥ [प्रभावकचरित्र, ८ वृदयादिचरित्र, पृ. ५७] तत्र सर्वशेन परमपिणा परमाचिस्यकेवलज्ञान विभूतिविशेषेण अर्थतः, पागम, उद्दिष्टः । .........."तस्य साक्षात् शिष्यः मुख्यतिशयनियुक्त : गणपरैः श्रुतकेबलिभिरनुस्मृतमन्य रचनम्-अंगपूर्वलक्षणम् । [सर्वार्थसिदि, १२.] अंगप्रविष्टमाचारादि द्वादशभेदं बुरापतिशदि-युक्तगणषरानुस्मृत ग्रन्थ रचनम् ॥१२॥ भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवनिगंतवाग्गंगाध्यविमलसलिलप्रक्षालितान्तःकरणः बुद्धपतिशयद्धियुक्तर्ग पररनुस्मृतप्रन्यरचनम्-प्राचारादि द्वादविधमंगप्रविष्टमित्युच्यते । तद्यथा- प्राचारः, सूत्रकृतम् स्थानम्, समवायः, व्याख्याप्राप्ति.."।। [तत्वार्थवार्तिक, १९२० - १२, पृ० ७२] ... ................"अहंभाषितार्थ गणधरदेवैः प्रथितम्-इति वचनात् । [तस्वार्थ श्लोकवात्तिक, पृ. ६] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दि द्वारा “ तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा " - इस पद में किये गये तृतीया विभक्ति के एक वचन के प्रयोग से तथा - "तस्य साक्षात् शिष्यैः बुद्धपतिशययुक्तः गणधरैः श्रुतकेवलिभिः” इस पद में गणधरों के लिये प्रयुक्त तृतीया विभक्ति के बहुवचन से निर्विवाद रूपेण यही अर्थ प्रकट होता है कि भगवान् महावीर ने प्रर्थतः श्रागमों का जो उपदेश दिया उसी को सब गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया । इसमें आगे ऊहापोह अथवा शंका के लिये किसी प्रकार का अवकाश नहीं रह जाता ।. दूसरी मान्यता यह है कि भगवान् से अर्थतः आगमों का उपदेश सुनकर इन्द्रभूति गौतम ने उसी दिन एक मुहूर्त में द्वादशांगी की प्रतिरचना की । तिलोयपत्ति, ' धवला, जयधवला इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और अंगपण्णत्ती' में इसी मान्यता का प्रतिपादन किया गया है । धवलाकार ने उपरिवरिणत मान्यता के प्रतिपादन के पश्चात् प्रागे चलकर अपनी एक ऐसी मान्यता रखी है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर एवं यापनीय आदि सभी परम्पराओं के उपलब्ध समस्त जैन साहित्य में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती । धवलाकार ने केवल द्वादशांगी को ही नहीं अपितु सामाइक, दशवैकालिक आदि १४ सूत्रों, १४ प्रकीर्णकों एवं अंगवर्ण्य भागमों को भी एक मात्र इन्द्रभूति द्वारा ही ग्रथित बताते हुए लिखा है •-. को होदि त्ति सोहम्मद चालणादो ( प्रश्नेन ) जादसंदेहेरग पंच पंचसयंतेवासिसिहियभादुत्तिदयपरिवुदेण मारणत्थंभदंसणेणेव परणट्ठमारणेण वड्ढमाणविसोहिणा वड्ढमारण जिरिंगददंसणेण गट्ठासं खेज्जभवज्जियगरुवकम्मेल जिरिंगदस्स तिपदाहिणं करिय, पंचमुट्ठीय वंदिय हियएरण जिरगं झाइय पडिवण्णसंजमेर विसोहिबले तोमुहुत्तस्स उप्पण्णा सेसर्गारंगदलक्खरण उवलद्ध जिणवयरणविरिणग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तरेण बम्हरणेरण इंदभूइरणा - प्रायार-सुदयडट्ठा - समवाय-वियाहपण्णत्तिरगाहधम्मकहोवा सयज्झयरांतयड दस प्ररणुत्तरोववा " महावीर भासियत्यो तस्सि खेत्तम्मि तत्काले य ||७६|| विमले गोदमगोते जादेणं, इंदभूदिग्गामेणं ॥ ७८ ॥ | भावसुदपज्जएहि परिणदमइरणा य बारसंगाणं । चोट्स पुण्यारण तहा, एक्कमुहुत्ते विरचरणा विहिदा ||७६ || [तिलोयपण्पत्ति, प्रथम अधिकार ] * पुरणो तेरिंगदभूदिरणा भावसुद-पज्जयपरिणदेण बारहंगाणं चोट्स - पुण्वारणं च गंथारणमेक्केण चैव मुहतेण कमेण रथरणा कदा | [ धवला, १, १, १, पृ० ६६ ] दुवालसंगत्येण तेणेव काले 3 तदो तेल गोप्रमगोतेण इंदभूदिरणा तोमुहुत्तेगावहारिय कयदुबास संगगंथरय रोग.. [ जय धवला ] [ इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार ] [ श्रंग पण्णत्ती ] .... * तेनेन्द्रभूति-गणिना, तद्दिव्यवचोवबुध्य तत्त्वेन । प्रस्थोऽङ्गपूर्वनाम्ना प्रतिरचितो युगपदपराह्ने ॥६६॥ ५ सिरिवढमाणमुहकय विणिग्गयं बारहंग-सुदरगाणं । fifरगोममेण रयं प्रविरुद्ध सुरराह भवियजणा ||४२ || ( 5 ) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दियदस-पण्णवायरण-विवायसुत्त-दिट्टिवादारणं-सामाइय-चवीसत्यय-वंदण-पडिकमरण-वइणइय-किदियम्म-दसवेयालि-उत्तरज्झयण-कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प-पुंडरीय-महापुंडरीय, णिसिहियाणं, चोद्दसपइण्णयाणमंगवज्जाणं च सावण मास बहुलपक्ख जुगादिपडिवय पुष्वदिवसे जेग्ग रयणा कदा तेरिणदभूदि भडारो वद्धमारण-जिरणतित्थगंथकत्तारो।" धवलाकार प्राचार्य वीरसेन के समकालीन पुनाट संघीय प्राचार्य जिनसेन ने धवला से पूर्वरचित अपने ग्रन्थ हरिवंश पुराण में धवला की अपेक्षा और अधिक विस्तार के साथ बताया है कि भगवान् महावीर ने द्वादशांगी, पूर्वो तथा पूर्वी की चूलिकाओं के ज्ञान का उपदेश देने के पश्चात् सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक तथा जिसमें सभी प्रायश्चित्तों का विधान है उस निषद्यका (निपीथ) का उपदेश दिया। तदनन्तर प्रभु ने अपनी देशना में मति प्रादि पांचों ज्ञान के स्वरूप, विषय, फल, अपरोक्ष-परोक्षता, मार्गणा भेद, गुणस्थान विकल्पों, जीवस्थान के भेद-प्रभेदों सहित जीव द्रव्य का, सत्संख्यादि अनुयोगों आदि के द्वारा पुद्गलों एवं उनके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्व, बन्ध, मोक्ष, लोक, अलोक आदि का विशद ज्ञान दिया। प्रभु के उस उपदेश के प्राधार पर गौतम गणधर ने ग्रंग प्रविष्ट द्वादशांगी एवं उपांगों की रचना की। अंगप्रविष्टतत्त्वार्थ, प्रतिपाद्य जिनेश्वरः । अंगबाह्यमवोचत्तत्प्रतिपाद्यार्थरूपतः ॥१०१।। सामायिकं यथार्थास्यं सचतुर्विंशतिस्तवम् । वन्दनां च ततः पूतां, प्रतिक्रमणमेव च ॥१०२।। वैनयिक विनेयेभ्यः कृतिकर्म ततोऽवदत् । दशवकालिकां पृथ्वीमुत्तराध्ययनं तथा ॥१०३।। तं कल्पव्यवहारं च कल्पाकल्पं तथा महाकल्पं च पुण्डरीकं च, सुमहापुण्डरीककम् ॥१०४॥ तथा निषधका प्राय: प्रायश्चित्तोपवर्णनम् । जगत्त्रयगुरुः प्राह पतिपाद्यं हिनोधतः ॥१०॥ मत्यादेः केवलान्तस्य, स्वरूपं विषयं फलम् । अपरोक्षपरोक्षस्य, ज्ञानस्योवाच संख्यया ॥१०६।। मार्गणास्थानभेदश्च, गुणस्थान विकल्पनः । जीवस्यानप्रभेदश्च, जीव-द्रव्यमुपादिशन् ॥१०७॥ सत्संख्याद्यनुयोगश्च, सन्नामादिकमादिभिः। द्रव्यं स्वलक्षणभिन्नं, पुगनादिविलक्षणम् ॥१०॥ द्विविधं कर्मबन्धं च, सहेतुं - सुख दुःखदम् । मोक्षं मोक्षस्य हेतुं च, फल चाष्टगुणात्मकम् ।।१०।। बन्ध-मोक्षफलं यत्र, भुज्यते तत्रिधाकृतम् । अन्तः स्थितं जगी लोकमलोकं च बहिस्थितम् ॥११॥ अथ सप्तद्धिसम्पनः श्रुत्वार्थ जिनभाषितम् । द्वादशांग श्रुतस्कन्धं, सोपांगं गौतमो व्यधात् ।।१११।। [हरिवंश पुराण, सर्ग २, पृ. २०] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थ सूत्र की अपनी सर्वार्थ-सिद्धिवृत्ति में दशवैकालिक प्रादि अंगबाह्य प्रागमों को प्रारातीय आचार्यों की रचना बताते हुए लिखा है : _ "पारातीयैः पुनराचार्य: कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहाथ दशवैकालिकाद्युपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव । पूज्यपाद देवनन्दी के इस उल्लेख से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उनके समय तक दिगम्बर परम्परा में भी दशवकालिक एकादशांगी के समान परम प्रामाणिक माना जाता था।" दिगम्बर आचार्य अकलंक देव ने भी तत्त्वार्थ वात्तिक में अंग बाह्य आगमों को पारातीय प्राचार्यों द्वारा रचित बताते हुए लिखा है : "पारातीयाचार्य-कृतांगार्थ-प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् ।।१३।। यद्गणधर-शिष्य-प्रशिष्यरारातीयरधिगतश्रुतार्थतत्त्वः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्तांगार्थवचनविन्यासं तदंगबाह्यम् । दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ मूलाचार में सूत्र की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतिकेवली और सम्पूर्ण १० पूर्वो के धारण करने वाले प्राचार्यों द्वारा ग्रथित आगम को ही श्रुत के नाम से अभिहित किया जा सकता है । यथा : सुत्तं गणहरकथिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । । सुदकेवलिणाकथिदं, अभिण्णदसपुवकथिदं च ॥४॥ श्वेताम्बर परम्परा के टीका, चूणि भाष्य प्रादि मान्य ग्रन्थों में अंग प्रविष्ट (द्वादशांगी) को गणधरों द्वारा ग्रथित एवं अंगबाह्य आगमों को विशुद्ध प्रागम बुद्धि संयुक्त (चतुर्दशपूर्वधर एवं अभिन्न दशपूर्वधर) प्राचार्यों द्वारा द्वादशांगी के आधार पर रचित माना गया है। . सर्वार्थ सिटि, १, २०, पृ० १२४ • तत्वार्थ बार्तिक, १. २०, पृ० ७८ ३ मूलाचार ३.८० • जे परहंतेहि भगवंतेहिं प्रईयाणागयवट्टमाण - दव्ववेत्तकालमावजयावरियतवंसीहिं प्रत्या परूविया ते गणहरेहिं परमबुद्धिसन्निवायगुणसंपरणेहि सयं चेव तित्थगरसगासाम्रो उवलभिऊणं सम्व-सतारणं हितट्ठयाय सुतत्तेण उवरिणबढा तं अंगपविठ्ठ, मायाराइ दुवालसविहं । [प्रावश्यक चूणि, भाग १, पृ०८] जं पुण अण्णेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्तेहिं थेरेहि प्रप्पाउयाणं मरणुयाणं प्रप्पबुद्धिसत्तीणं च दुग्गाहकति गाऊण तं चेव पायाराइ सुयणाणं परंपरागतं अत्थतो गंथतो य प्रति बहुति काऊण अणुकम्पाणिमित्तं दसवेतालियमादि परूवियं तं प्रणेगभेदं अगपविट्ठ। ( ८७ ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Home मुनि के हितार्थ श्राचार्य शय्यंभव द्वारा द्वादशांगी में से दशवैकालिक सूत्र के निर्यूह किये जाने का स्पष्ट उल्लेख दशवेकालिक नियुक्ति की निम्नलिखित गाथा में किया गया है : मरणगं पडुच्च सज्जंभवेरण, निज्जूहिया दसज्भयरणा ! वेयालियाइ ठविया, तम्हा दसकालियं गाम ।। ' इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराम्रों के प्राचीन एवं प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थों के उपर्युद्धत उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि गणधरों ने प्रभु महावीर के उपदेश के आधार पर केवल द्वादशांगी की ही प्रतिरचना की । द्वादशांगी वस्तुतः गणधरों की कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र के धनी तीर्थंकर प्रभु महावीर ने जो निखिलार्थ प्रतिपादी अथाह ज्ञान का उपदेश दिया उस ही को कतिपय अंशों में हृदयंगम कर गरणधरों ने उसे द्वादशांगी का रूप दिया; श्रतः उनकी इस ग्रथन क्रिया के लिये रचना की अपेक्षा प्रतिरचना शब्द का प्रयोग विशेष उपयुक्त जंचता है । वस्तुत: द्वादशांगी में समस्त ज्ञेय को समाविष्ट कर दिया गया था । उसमें प्रतिपादित ज्ञान के प्रतिरिक्त कोई विशिष्ट ज्ञातव्य प्रवशिष्ट ही नहीं रह गया था, जिसके लिये द्वादशांगी के अतिरिक्त और किसी आगम की प्रतिरचना की गणधरों को आवश्यकता रहती । "जस्स जत्तियाई सीसाई तस्स तत्तियाई पइण्णगसहस्साई " - नन्दीसूत्र के इस उल्लेखानुसार भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्यों (गरणधरों के अतिरिक्त ) तथा प्रत्येक बुद्धों, शय्यंभव और भद्रबाहु जैसे चतुर्दश- पूर्वघर तथा श्यामार्य जैसे दशपूर्वधर एवं श्रुतार्थतत्त्वपारगामी देवद्धि जैसे प्राचार्यों द्वारा द्वादशांगी के प्रथाह ज्ञान में से साधकों के लिये परमोपयोगी ज्ञान को चुन-चुन कर पृथक्-पृथक् प्रकीरों के रूप में संकलित आगम ही अंगबाह्य आगम हैं । यदि संक्षेप में यह कहा जाय तो उपयुक्त होगा कि अंगवाह्य ग्रागम द्वादशांगी रूपी प्रगाध श्रमृतसागर में से भर कर पृथकतः रखे हुए ग्रमृतघट तुल्य हैं । इन सब तथ्यों के पर्यालोचन के पश्चात् सुनिश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्रभु की प्रथम देशना के पश्चात् उसी दिन गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की । तदनन्तर तीर्थंकर के समस्त प्रतिशयों से युक्त भगवान् महावीर ने ३० वर्ष तक विचरण करते हुए अपनी देशनात्रों में समसामायिक, भूत प्रथवा भावी घटनाओं, चरित्रों, दृष्टान्तों आदि प्रसंगोपात्त विविध विषयों का जो दिग्दर्शन कराया उनके आधार पर स्थविरों ने श्रागमों की रचना की। जैसा कि 'उत्तराध्ययन' शब्द की व्युत्पत्ति से स्पष्टतः प्रकट होता है कि यह सूत्र प्रभु महावीर द्वारा दिये गये उत्तरकालवर्ती उपदेशों के आधार पर प्रथित अध्ययनों का संकलन है | समवायांग और कल्पसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् महावीर " दशवंकालिक नियुक्ति, गा. १५ ( वही ) ' 53 } Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने सोलह प्रहर की अपनी अन्तिम देशना में पुण्य फल के ५५, पाप फल विपाक' के ५५ एवं अप्रष्ट व्याकरण (उत्तराध्ययन) के ३६ अध्ययन कहे और ३७ वें अध्ययन का उपदेश देते देते वे शैलेशी दशा में पहुँच निर्वाण को प्राप्त हो गये । इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के उपरिचित उल्लेखों के पर्यालोचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि द्वादशांगी की रचना किसी एक गणधर ने नहीं अपितु सभी गणधरों ने की और निर्वाणानन्तर पश्चाद्वर्ती काल में समय समय पर आवश्यकतानुसार चतुर्दश पूर्वधर तथा कम से कम दशपूर्वधर आचार्यों ने अंगबाह्य आगमों की दृष्टिवाद के पूर्वांग में से संकलना की। प्राचार्य वीरसेन ने गौतम द्वारा द्वादशांगी के साथ ही अंगवर्ण्य १४ प्रागमों की रचना का जो उल्लेख धवला में किया है, उस पर एक प्रश्न उपस्थित होता है। वह यह है कि दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों एवं स्वयं धवलाकार के उल्लेखानुसार वीर नि० सं०६८३ के पश्चात् सम्पूर्ण द्वादशांगी में से किसी एक अंग तक का ज्ञाता मुनि भी यहां विद्यमान नहीं रहा। ऋमिक ह्रास होते होते वीर निर्वाण संवत् ६८३ में अवशिष्ट अंतिम अंग प्राचारांग का भी आर्यधरा से लोप हो गया । तब प्रश्न उठता है कि अंगवयं पागमों का क्या हुआ? वे कुछ अवशिष्ट रहे, अथवा द्वादशांगी के साथ हो सबके सब विलुप्त हो गये ? न तो धवलाकार ने इस विषय में कोई उल्लेख किया है और न किसी अन्य ग्रन्थकार ने ही। इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर शोधप्रिय विद्वान् अवश्य प्रकाश डालेंगे ऐसी प्राशा है। २. श्रुतकेवलिकाल-पृष्ठ २६१ से ३८० तक कुल ८६ पृष्ठों के इस प्रकरण मैं श्रुतकेवलिकाल के चतुर्दशपूर्वधर ५ प्राचार्यों के जीवन परिचय के साथ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में उन प्राचार्यों की समान संख्या किंतु नामभेद, उनके समय में घटित विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं, दशवकालिकसूत्र की रचना, प्रथम आगम वाचना, छेदसूत्रों की रचना, भद्रबाहु के इतिवृत्त को लेकर दोनों परम्परामों में व्याप्त कतिपय भ्रान्त धारणामों, भिन्न समय में हुए प्राचार्य भद्रबाहु और मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त को समकालीन ठहराने तथा उनके समय में दिगम्बर श्वेताम्बर-भेद के तथाकथित बीजारोपण की केवल काल्पनिक (एवं नितान्त निर्मल) मान्यता के जन्म तथा क्रमिक विकास, उपलब्ध नियुक्तियों को श्रुतकेवली भद्रबाह की रचना मानने विषयक भ्रान्ति, प्रोसवाल वंश की उत्पत्ति, गोदास गण तथा सर्वप्रथम गोदासगरण और उसकी शाखाओं के प्रादुर्भाव आदि महत्व के अनेक विषयों पर अनुसन्धानात्मक विवेचन प्रस्तुत कर यथाशक्य पूरा प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । ___ यह प्रकरण वस्तुतः अनेक दृष्टियों से बड़ा ही महत्वपूर्ण है । श्वेताम्बर और दिगम्बर - दोनों ही परम्परागों के परवर्ती ग्रन्थकारों द्वारा वीर निर्वाण ये दोनों विपाकमूत्र से भिन्न हैं, वर्तमान में उपलब्ध नहीं होते । २ देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० ४७० ( ८६ ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १७० (श्वे. मान्यतानुसार) अथवा वीर नि० सं० १६२ (दिगम्बर मान्यतानुसार) स्वर्गस्थ हुए श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के जीवन की घटनाओं के साथ अनुमानतः वीर नि० सं० ६३० से ६६० के बीच हुए नैमित्तिक भद्रबाहु के जीवन की घटनाओं को नाम साम्य के कारण जोड़ दिए जाने के फलस्वरूप दोनों परम्परामों में एक लम्बे समय से अनेक भ्रान्त धारणाएं चली आ रही हैं। इस प्रकरण में इन्हीं दोनों परम्पराओं के प्राचीन एवं मध्ययुगीन ग्रन्थों तथा शिलालेख के आधार पर दोनों परम्पराओं के हृदयों में घर की हुई उन भ्रान्तियों का निराकरण किया गया है। भगवान् महावीर का धर्मसंघ श्वेताम्बर और दिगम्बर - इन दो परम्पराओं के रूप में किस प्रकार विभक्त हुया - इस विषय में तो दोनों परम्पराओं की मान्यताओं में प्राकाश-पाताल का सा अन्तर है। किन्तु यह मतभेद किस समय उत्पन्न हुमा - इस प्रश्न पर यदि मोटे तौर पर विचार किया जाय तो दोनों परम्परात्रों की मान्यता में कोई विशेष अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होगा। केवल तीन वर्ष का अन्तर है। इस प्रकार का सम्प्रदायभेद दिगम्बर परम्परा की प्राचीन एवं साधारणतया वर्तमान में प्रचलित मान्यतानुसार वीर नि० सं०६०६ में और श्वेताम्बर परम्परा की सर्वसम्मत मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में उत्पन्न हुग्रा, माना जाता है। दिगम्बर मत कब और किस प्रकार उत्पन्न हुआ इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकार एकमत हैं। जबकि श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति कब और किस प्रकार हुई - इस विषय में दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थकारों में मतैक्य नहीं है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के जिन-जिन ग्रन्थों में उल्लेख देखे गये हैं वे सब परस्पर एक दूसरे से न्यूनाधिक भिन्न ही हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के उपरिलिखित प्रकरण में पृष्ठ संख्या ३३७ से ३५८ तक २२ पृष्ठों में एतद्विषयक दिगम्बर परम्परा की विभिन्न मान्यताओं का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा के प्राचार्य देवसेनकृत 'भावसंग्रह' (दर्शनसार के कर्ता से भिन्न) प्राचार्य हरिषेणकृत 'वृहत्कथाकोष' (वीर नि० सं० १४५६), अपभ्रंश भाषा के कवि रयधूकृत 'महावीर चरित्' (वि० सं० १४६५ तदनुसार वीर नि० सं० १९६५) और भट्टारक रत्ननन्दिकृत 'भद्रबाहु चरित्र' (वि० सं० १६२५ तदनुसार वीर नि० सं० २०६५) - इन चार ग्रन्थो में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्वेताम्बर परम्परा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख 'दर्शनसार' का है। अपने से पूर्ववर्ती किसी प्राचीन प्राचार्य द्वारा रचित एक गाथा' को प्राचार्य देवसेन ने वि० सं० ६६० में रचित अपने ' छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्पण्णो, सेवडसंघो हु वल्लहीए॥ [दर्शनसार तथा भावसंग्रह] ( १० ) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटे पर ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रन्थ 'दर्शनसार' में उल्लेख किया है। उसी गाथा को मूलाधार के रूप में प्रथम स्थान देते हए देवसेन' (दर्शनसार के रचयिता देवसेन से भित्र) ने अपने ग्रन्थ 'भावसंग्रह' में श्वेत पट संघ की उत्पत्ति का जो विवरण दिया है उससे निम्नलिखित बातें स्पष्टतः प्रकट होती हैं : । १. निमित्त ज्ञानी भद्रबाहु नामक प्राचार्य विक्रम सं० १२४ तदनुसार वीर निर्वाण सम्वत् ५६४ में उज्जयिनी में ठहरे हुए थे। २. उन्होंने अपने निमित्तज्ञान के बल पर समस्त श्रमण संघों को सूचित किया कि अवन्ती सहित समस्त उत्तरापथ में भीषण दुष्काल पड़ने वाला है जो १२ वर्ष तक चलेगा। अतः सभी श्रमण उत्तरापथ से विहार कर सुभिक्षा वाले क्षेत्रों की ओर चले जायं। ३. सभी प्राचार्य अपने-अपने संघ सहित उत्तरापथ से विहार कर अन्यत्र चले गये । शान्ति नामक प्राचार्य सौराष्ट्र प्रदेश के वल्लभी नगर में पहुँचे पर वहां भी बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ गया। दुष्कालजन्य अपरिहार्य परिस्थितियों में शान्त्याचार्य के संघ के श्रमणों ने दण्ड, कम्बल, पात्र, श्वेतवस्त्रादि धारण कर श्रमणों के लिये वजित शिथिलाचार की शरण ली। ४. शेष श्रमणों के संघ जहां जहां गये वहां संभवतः सुभिक्ष रहा और उन्होंने अपने विशुद्ध एवं कठोर श्रमणाचार में किसी प्रकार का शैथिल्य नहीं आने दिया। ५. सुभिक्ष होने पर शान्त्याचार्य ने अपने शिष्य-समूह को सत्परामर्श दिया कि वे दण्ड, वस्त्र, पात्रादि का परित्याग कर प्रायश्चित लें और पूर्ववत् कठोर श्रमणाचार में प्रवृत्त हो जायं । शान्त्याचार्य के कटुसत्य आदेश से क्रुद्ध हो उनके जिनचन्द नामक प्रमुख शिष्य ने उनके कपाल पर दण्ड प्रहार किया जिससे उनका प्राणान्त हो गया। ६. शान्त्याचार्य की हत्या कर जिनचन्द्र उनके संघ का प्राचार्य बन गया और उसने स्वेच्छानुसार अपने प्राचरण के अनुकूल नवीन शास्त्रों को रचना की। ७. दिगम्बर मान्यतानुसार वीर नि० सं० १६२ में स्वर्गस्थ हुए श्रुतकेवली भद्रबाहु का न कहीं इसमें उल्लेख है और न विशाखाचार्य, रामिल्ल, स्थूलवड, स्थूलाचार्य अथवा सम्राट चन्द्रगुप्त का ही। यह पूरा विवरण वस्तुतः वि० ' 'भाव संग्रह' और 'सुलोयणा चरिउ' के रचनाकार देवसेन ने अपने पापको निबडिदेव का प्रशिष्य और विमलसेन (प्रपरनाम मलधारिदेव) का शिष्य बताया है। इन्होंने 'सुलोषणा चरिउ' में कवि-पुष्पदंत का, जिनका समय वि० सं० १०२६ अर्थात् दर्शनसार के रचयिता देवसेन से ३६ वर्ष बाद का है । इन शब्दों में स्मरण किया हैं :बउमुह मयंभु-पमुहि रक्षिय दुहिय पुष्फयंतेण । सुरसइ सुरहीए पयं सिरि देवसेणेण । (६१ ) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १२४ से १३६ के बीच का और उस समय में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु से सम्बन्धित बताया गया है। अवन्ती में भावी द्वादशवर्षीय दुष्काल की नैमित्तिक भद्रबाह द्वारा पूर्व सूचना पर संघ तथा भद्रबाह में दक्षिणगमन का जो विवरण प्राचार्य देव सेन ने प्राचीन गाथा के उल्लेख के साथ भाव संग्रह में किया है, उसकी पुष्टि, श्रमण वेल्गोल पार्श्वनाथ वसति के शक सं० ५२२ (वि० सं० ६५७) के शिला लेख से होती है।' अब तो गहन शोध के पश्चात् दिगम्बर परम्परा के अन्य अनेक विद्वान् भी स्पष्ट रूप से कहने लगे हैं कि दक्षिण में प्रथम भद्रबाह नहीं अपितु द्वितीय भद्रबाहु गये थे। डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी एम० ए०, पी-एच० डी, प्राचार्य, पुस्तकालयाध्यक्ष एवं प्राध्यापक नवनालन्दा महाविहार (नालन्दा) ने लिखा है : __ "हम श्रवण वेल्गोल के एक लेख (प्र. भा. नं. १) से जानते हैं कि दक्षिण भारत में सर्वप्रथम भद्रबाह द्वितीय पाये थे और वहां जैन धर्म की प्रतिष्ठा इनसे ही हुई थी, पर कदम्बवंशी नरेशों के एक लेख (६८) से मालूम होता है कि ईसा की ४-५ वीं शताब्दी में जैन संघ के वहां विशाल दो संप्रदाय - श्वेतपट महाश्रमण संघ और निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ - का अस्तित्व था। इसी तरह इस वंश के कई लेखों में जैनों के यापनीय और कुर्चक नाम संघों का उल्लेख मिलता है, जो कि एक प्रकार से उक्त दोनों से भिन्न थे। दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय एवं यापनीय तथा कर्चक संप्रदायों की स्थापना किसने की, यह बात स्पष्ट रूप से हमें लेखों से विदित नहीं होती, पर यह कहने में शायद आपत्ति नहीं होगी कि निग्रंन्ध सम्प्रदाय वहां भद्रबाह (द्वितीय) द्वारा स्थापित हुआ।" उपरिलिखित प्राचीन गाथा, शिला लेख एवं शोधकर्ताओं द्वारा समर्थित प्राचार्य देवसेन के विवरण के विपरीत प्राचार्य हरिषेण (वीर नि० सं० १४५६) ने अपने 'कथाकोश' में वीर नि० सं०६०६ के आसपास हुए निमितज्ञ भद्रबाहु के इस पाख्यान को वीर नि० सं० १६२ में स्वर्गस्थ हुए श्रुत केवली भद्रबाहु के साथ जोड़कर निम्नलिखित नवीन बातें और बढ़ा दी हैं। ....... महावीर सवितरि परिनिते..... गौत्तम... 'लौहार्य जम्बुविष्णुदेवापराजित गोवन-भद्रबाहु-विशाख-प्रोष्ठिल-कृतिकाय-जयनाम-सिद्धार्थ-वृतिषण-बुद्धिवादि गुरु परम्परीण बक्र (क) माम्यागतमहापुरुष-संतति समवद्योति तान्वय भद्रबाहुस्वामिना उज्जयन्यामष्टांगमहानिमित्ततत्त्वज्ञेन काल्पशिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपामभ्य कथिते सर्वसंघ उत्तरापपाक्षिणापथं प्रस्थितः । [न शिलालेख संग्रह भा० १, शिलालेख सं० १] . [जैन शिलालेख संग्रह, भा. ३ (माणिकचन्द्र दिग. जैन ग्रंथ माला समिति), प्रस्तावना, पृ. २३] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवन्ती में भावी बारह वर्षीय दुष्काल को सूचना श्रुतकेवली भद्रबाहु ने श्रमण संघ को देते हुए निर्देश दिया कि सब श्रमण उत्तरा पथ से दक्षिणापथ में लवण समुद्र के तटवर्ती प्रदेश की ओर विहार कर जायं। दुष्काल का हाल सुनकर मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रवाहु के पास दीक्षा ग्रहण करली और १० पूर्वो का अध्ययन कर वे विशाखाचार्य के नाम से विख्यात हुए। उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर भद्रबाह वहीं रहे और विशाखाचार्य ने श्रमण संघ सहित दक्षिण की ओर विहार किया। वे दक्षिण के पुन्नाट प्रदेश में पहुंचे। रामिल्ल, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र ये तीनों अपने संघ के साथ सिन्धु प्रदेश में चले गये । प्राचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी के अन्तर्गत भाद्रपद नामक स्थान पर अनशन कर एवं समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर स्वर्गस्थ हुए। विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त) अपने श्रमण समूह के साथ जिस प्रदेश में गये थे वहां सुभिक्ष रहा और वे विशुद्ध श्रमणाचार पालते रहे। सिन्धु प्रदेश में भीषण दुष्काल के कारण रामिल्ल, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र के श्रमरण दण्ड कम्बल पात्रादि धारण कर शिथिलाचारी बन गये। सुभिक्ष होने पर रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य इन तीनों ने निर्ग्रन्थ श्रमणाचार स्वीकार कर लिया पर हीन मनोबल वाले श्रमणों ने स्थविरकल्प परम्परा का प्रचलन किया। ___ भट्टारक रत्ननन्दी ने भी वीर निर्वाण सम्वत् २०६५ में रचित अपने भद्रबाह चरित्र नामक ग्रंथ में मुख्य रूप से हरिषेण का अनुसरण करते हुए निम्नलिखित कुछ बातें जोड़ी हैं : चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न, रामल्य, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र आदि साधुनों का अवन्ती से बिहार कर उज्जयिनी के उपवनों में ही रहना, भद्रबाहु का दक्षिण के लिये बिहार, पर एक विस्तीर्णवन में निमित्त ज्ञान से अपनी स्वल्पायु का बोध होने पर चन्द्रगुप्तिमुनि (राजा चन्द्रगुप्त) के साथ वहीं रुक जाना और विशाखाचार्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर समस्त श्रमणसंघ के साथ बाहर वर्ष पर्यन्त दक्षिणी प्रदेशों में विचरण करते रहने का निर्देश, चन्द्रगुप्ति और विशाखाचार्य को पृथक्-पृथक् दो मुनि बताना अर्थात् हरिषेण ने चन्द्रगुप्त के दीक्षित होने पर उसका नाम विशाखाचार्य रखे जाने का जो उल्लेख किया है उसका निराकरण कर चन्द्रगुप्त को चन्द्रगुप्ति मुनि बताना, चन्द्रगुप्ति मुनि को देवनिर्मित नगर में देवपिण्ड प्राप्त होते रहना, भद्रबाहु के स्वर्गगमन के अनन्त र उनके चरण-चिन्हों की सेवा, रामल्य, स्थूलाचार्य, स्थूलभद्रादि श्रमणों का वेष परिवर्तन और शिथिलाचार, सुभिक्ष हो जाने पर विशाखाचार्य का पुनः प्रवन्ती की ओर विहार, मार्ग में चन्द्रगुप्ति से मिलन, देवपिण्ड का सब श्रमणों द्वारा ग्रहण, रहस्योद्घाटन, प्रायश्चित, विशाखाचार्य का अवन्ती में प्रागमन, उनके द्वारा श्रमणाचार से विपरीत वेष और पाचरण धारण करने वाले रामल्य Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि के साधुनों की भर्त्सना, स्थलाचार्य द्वारा अपने श्रमणों को विशुद्ध श्रमणाचार के पालन करने का परामर्श, क्रुद्ध साधुओं द्वारा स्थूलाचार्य की हत्या प्रादि । ___भट्टारक रत्ननन्दी से १३० वर्ष पूर्व हुए कवि रयधू (वीर नि. सं. १९६५) ने महावीर चरित् में चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्ति को राजराजेश्वर बनाये जाने, चन्द्रगप्ति के पुत्र विन्दुसार, पौत्र अशोक प्रपौत्र एउकु (कुरणाल) का वर्णन करते हुए सौतेली मां के षडयन्त्र द्वारा उसको अन्ध बना दिये जाने के उल्लेख के पश्चात् लिखा है कि अशोक ने अन्धे कुणाल के पुत्र चन्द्रगुप्ति को मौर्य साम्राज्य का अधिपति बनाया। कुणाल के पुत्र चन्द्रगुप्ति ने एक रात्रि में १६ स्वप्न देखे। भद्रवाहु से अपने स्वप्नों का दारुण फल सुनकर चन्द्रगुप्ति (सम्प्रति) ने विरक्त हो उनकी सेवा में निर्ग्रन्थ-श्रमरण दीक्षा ग्रहण कर ली। रयधू ने इसके पश्चात् भद्रबाहु द्वारा दुष्काल की पूर्व-सूचना से लेकर सुभिक्ष के अनन्तर स्थलाचार्य प्रादि के श्रमणों द्वारा शिथिलाचार में प्रवृत्त रहने तक का शेष वर्णन रत्ननन्दी की तरह ही किया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि हरिषेण, रत्ननन्दी आदि दिगम्वर परम्परा के प्राचार्यों ने जहां मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली भद्रबाहु का समकालीन बनाकर श्वेताम्बर दिगम्बर मतोत्पत्ति की घटना को वीर नि. सं. १६२ में घटित होना और प्राचार्य देवसेन ने चन्द्रगुप्ति, विशाखाचार्य वामिल्ल, स्थूलाचार्य, स्थूलभद्राचार्य आदि किसी का किसी प्रकार उल्लेख न करते हुए वीर नि. सं. ५६४ में विद्यमान भद्रबाहु नामक नैमित्तिक भद्रबाह के समय में सम्प्रदाय-भेद होना बताया है वहां रयधू ने मौर्यसम्राट सम्प्रति (कुणालपुत्र) को चन्द्रगुप्ति के नाम से अभिहित करते हुए उसके अन्तिम समय में वीर नि. सं. ३३० के आसपास इस सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति होना बताया है। इससे स्पष्ट है कि इस सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के पास कोई सर्वसम्मत प्रामाणिक आधार नहीं था, जिसके फलस्वरूप जिसने जैसा सुना, जिसके सामने जैसी किंवदन्ती पाई उसने उसी को प्राधार माम कर उसमें अपनी ओर से दो चार नाम और कुछ नई बातें बढाकर लिख डाला । (दिगम्बर परम्परा में) यदि इस विषय में कोई ठोस प्रामाणिक प्राधार होता तो जितने मुंह उतनी बात' इस कहावत के अनुसार (दिगम्बर परम्परा के) विभिन्न ग्रंथों में इस प्रकार के आकाश-पाताल तुल्य अन्तर वाले परस्पर विरोधी उल्लेख कदापि नहीं किये जाते । दिगम्बर परम्परा के उपरिचित उल्लेखों से कौन से उल्लेख में कितनी सच्चाई है और कितनी कोरी कल्पना-यह निर्णय तो प्रत्येक उल्लेख को इतिहास की कसौटी पर कसने के अनन्तर ही किया जा सकता है। यह तो ऊपर बताया जा चुका है कि दिगम्बर परम्परा के सबसे प्राचीन शिलालेख (श्रवण बेलगोलपार्श्वनाथ वसति, जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेख सं. १) में प्राचार्य सिद्धार्थ, धृतिषेण एवं बुद्धिल आदि के बहुत काल पश्चात् हुए नैमित्तिक प्राचार्य Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु द्वितीय द्वारा प्रवन्ती में भावी द्वादशवार्षिक दुष्काल की भविष्यवाणी के पश्चात् उनके श्रमण संघ सहित दक्षिण में जाने का उल्लेख है न कि श्रुतकेवली भद्रबाहु का। यदि यह ऐतिहासिक महत्व की घटना श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन से सम्बन्धित होती तो उस प्राचीन शिलालेख में इसका अवश्य उल्लेख होता। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, गहन अन्वेषण के पश्चात दिगम्बर परम्परा के आधुनिक इतिहास गवेषक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दक्षिण में प्रथम भद्रबाहु नहीं अपितु नैमित्तिक भद्रबाहु द्वितीय गये थे। हरिषेण, रत्ननन्दी आदि विद्वानों द्वारा उल्लिखित श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति विषयक उपरिचचित विवरणों को ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर कसने के पश्चात वे केवल किंवदन्ती पर आधारित ही नहीं अपितु नितान्त काल्पनिक और तथ्यविहीन ही सिद्ध होते हैं । श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु तथा दशपूर्वधर प्राचार्य स्थूलभद्र के प्रकरण में भारत, यूनान और विश्व के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य को भली-भांति सिद्ध कर दिया गया है कि ईसा पूर्व ३२७ (वीर नि. सं. २००) में सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। ईसा पूर्व ३२४ तक उत्तरी सीमावर्ती राजा एवं पंजाव के छोटे-छोटे गणराज्य सिकन्दर से लोहा लेते हुए उसको आगे बढ़ने से रोकते रहे । सिकन्दर के सर्वोच्च सेनानायकों तथा यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखे गये कतिपय महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर ईसा पूर्व तथा ईसा की प्रथम, द्वितीय शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों ने जो रचनाएं की, उनमें स्पष्ट उल्लेख किया है कि पोरस तथा चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर को शक्तिशाली नन्द साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिये प्रोत्साहित किया था। उन्होंने सिकन्दर को बताया कि गंगादिराई का राजा विल्कूल दुश्चरित्र शासक है, कोई उसका सम्मान नहीं करता आदि आदि । ईमा की दूसरी शताब्दी के विद्वान् जस्टिन ने अपनी रचना 'एपिटोम' (सारसंग्रह) में स्पष्ट लिखा है कि चन्द्रगुप्त ने भारतीयों में यूनानी शासन के विरुद्ध विद्रोह की ग्राग भड़काई । उसने लुटेरों का दल गठित किया और हाथी पर सवार हो वह यूनानियों से लड़ता रहा। इस प्रकार विदेशी निष्पक्ष साक्षियों से समथित केवल निर्विवाद ही नहीं अपितु सर्वसम्मत ऐतिहासिक तथ्य से यह अन्तिम रुप से मिद्ध हो जाता है कि ईसा पूर्व ३२७ से ३२४ (वीर नि० सं० २०० से २०३) तक चन्द्रगुप्त एक देशभक्त साधारण सैनिक के रूप में और नवम नन्द मगध के महाशक्तिशाली सम्राट् के रूप में विद्यमान था। सिकन्दर के पश्चाद्वर्ती यूनानी शामक सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में किये गये यूनानी लेखकों के उल्लेखों के सन्दर्भ में चन्द्रगुप्त, चारणक्य और मगध सम्राट् नवम नन्द विपयक भारतीय ऐतिहासिक घटनामों पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि चाणक्य ने ईसा पूर्व ३१२ तदनुसार वीर नि० सं० २१५ में नन्द साम्राज्य का अन्त कर चन्द्रगुप्त मौर्य को पाटलिपुत्र के साम्राज्य का अधिपति बनाया। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य के प्रकाश के समान स्पष्टतः भासमान इन ऐतिहासिक तथ्यों के प्रकाश में वस्तुतः दिगम्बर परम्परा के उपरिचबित हरिषेण, रत्ननन्दी मादि द्वारा किये गये श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य को समकालीन बताने वाले उल्लेख केवल काल्पनिक किंवदन्ती मात्र ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि एक मोर तो दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्य, समस्त पट्टावलियां वीर नि० सं० १६२ में श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास होना मानती हैं और दूसरी और भारतीय, यूनानी एवं विश्व इतिहास से निर्विवादरूपेण यह सिद्ध है कि ईसा पूर्व ३२४ (वीर नि० सं० २०३) में अर्थात् श्रतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गस्थ हो चुकने के ४१ वर्ष पश्चात् तक चन्द्रगुप्त साधारण सैनिक और नन्द मगध का शक्तिशाली सम्राट् था। 'तित्थोगालियपइन्ना' जैसे प्राचीन, प्रामाणिक एवं निष्पक्ष अन्य से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि वीर नि० सं० २१५ में नन्द साम्राज्य का अन्त और मौर्य साम्राज्य का अभ्युदय हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचार्य हरिषेण और रत्ननन्दी ने जिस समय ये विवरण लिखे, उस समय ये प्रसिद्ध ऐतिहासिक तथ्य उनके ध्यान में नहीं पाये कि सम्प्रति के मगध सम्राट बनने तक केवल पाटलिपुत्र ही मगध साम्राज्य की राजधानी रही, अवन्ती वस्तुतः सम्प्रति के राज्यारोहण के पश्चात् १ वर्ष तक कुमार भूक्ति में ही रही। इस इतिहास प्रसिद्ध तथ्य की मोर ध्यान न जाने के कारण ही हरिषेण आदि ने मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के अवन्ती में रहने की बात का उल्लेख किया है। इस प्रकार के उल्लेखों के पीछे पूर्वाग्रह का पुट रहा है अथवा नहीं, इस विषय में तो साधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता पर इतना तो सुनिश्चित है कि पश्चाद्वर्ती भद्रबाह नामक प्राचार्य के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं को नामसाम्यजनित भ्रान्तिवशात् लगभग ४४४ वर्ष पूर्व हुए श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन से सम्बद्ध कर दिया गया है । ____ नाम साम्य के कारण केवल दिगम्बर परम्परा में ही इस प्रकार की भ्रान्ति उत्पन्न हुई हो ऐसी बात नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में भी इस प्रकार की भ्रान्तियां उत्पन्न हुई और अवान्तर काल में हुए नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित नियुक्तियों, उवसग्गहरस्तोत्र और भद्रबाहु संहिता को तथा उनके जीवन की कतिपय घटनाओं को श्रुतकेवलीभद्रबाहु के जीवन से जोड़ दिया गया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के प्रकरण में विस्तारपूर्वक प्रमाण प्रस्तुत कर शताब्दियों से व्याप्त इस प्रकार की भ्रान्ति का निराकरण करने का प्रयास किया गया है। श्रुतकेवलीकाल के ५ प्राचार्यों में से भद्रबाहु को छोड़ शेष चार श्रुतकेवलियों के नाम दोनों परम्परामों में भिन्न क्यों पाये जाते है, इस प्रश्न पर यहां विशेष न कह कर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जहां तक प्राचार्यों के नाम का प्रश्न है -- दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में भगवान महावीर के गणधरों के नामों Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सम्बन्ध में भी कहीं मतैक्य नहीं मिलता। यही कारण है कि इस युग के दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों द्वारा सम्मत गरणधरों के नाम, ग्राम यादि परिचय को अपने ग्रन्थों में स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है । श्रुतकेवली काल की समाप्ति के पश्चात् एक नवीन तथ्य सामने आता है जो विद्वानों के लिये विचारणीय और गवेषकों के लिये गहन गवेषरणा का विषय प्रतीत होता है। तीर्थ प्रवर्तन के समय से लेकर प्रार्य सुस्थित एवं सुप्रतिबद्ध के आचार्य काल के प्रारम्भिक कुछ काल तक भगवान् महावीर का धर्म संघ निर्ग्रन्थ संघ के नाम से लोक में विश्रुत रहा। प्रार्य सुधर्मा के प्राचार्यकाल से प्रार्य भद्रबाहु ( श्रुतवली ) के प्राचार्य काल तक इसमें किसी गण विशेष का नाम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । पर प्राचार्यं भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् कल्पस्थविरावली जैसी प्राचीन और प्रामाणिक पट्टावली में उनके प्रथम शिष्य गोदास के नाम से गोदास गरण के प्रचलित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है । निर्ग्रन्थ संघ में गए की विद्यमानता का यह सबसे पहला उल्लेख होने के कारण वस्तुतः विचारणीय है । कल्पस्थविरावली में गोदासगरण की चार शाखाओं - तामलित्तिया, कोडिवरिसिया, पंडुवद्धरिया और दासी खव्वड़िया - का भी उल्लेख है जो संभवतः सुदूरस्थ बंग प्रदेश के ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष, पौण्ड्रवर्धन प्रादि स्थानों में धर्म का प्रचार-प्रसार करने के फलस्वरूप उन स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुई प्रतीत होती हैं । यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या स्थविर गोदास के समय में श्रमण संघ इतना विशाल स्वरूप धारण कर गया था कि श्रमरणों के समीचीन अध्यापन, अनुशासन आदि की दृष्टि से गोदासगरण के नाम से पृथक् गरण स्थापित करने की आवश्यकता पड़ी अथवा स्थविर गोदास और उनके विशाल शिप्य समूह के निरन्तर प्रति दूर बंग प्रदेश में ही विचरण करते रहने के फलस्वरूप केवल पहिचान मात्र के लिये उनके साधु समूह की गोदासगरण के नाम से प्रसिद्धि हुई । बहुत सोच विचार के पश्चात् हमें तो गोदासगरण के उल्लेख के पीछे उपरि अनुमानित दो कारणों में से अंतिम कारण ही उचित प्रतीत होता है । ग्राशा है शोधप्रिय विद्वान् इस पर गवेषणा कर विशेष प्रकाश डालेंगे । इस उल्लेख से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि प्राचार्य भद्रबाहु के प्रमुख शिष्य गोदास ने अपने शिष्य समूह सहित दक्षिण में पहुँच कर वहां जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया । ३. दशपूवंधर- काल :- वीर निर्वारण सं० १७० से ५८४ तक के इस काल में आर्य स्थूलभद्र से लेकर आर्य वज्र तक ११ दशपूर्वधर ग्राचार्यों, प्रार्य सुहस्ती से प्रारम्भ हुई युग-प्रधान-परम्परा, आर्य बलिस्सह से प्रारम्भ हुई वाचकवंश परम्परा " देखिये हरिवंश पुराण, सर्ग ३, श्लोक ४१ से ४३, उत्तर पुराण, २ वीरोदय काव्य ( पं० हीरालालजी शास्त्री द्वारा संपादित ) ( १७ ) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (नन्दीसूत्र के प्रादि मंगल के रूप में दी गई पट्टावली), गणाचार्य परम्परा (प्रार्य सुहस्ती-परम्परा की कल्पसूत्रीया स्थविरावली) के उपर्युक्त ४१४ वर्ष की अवधि में हुए प्राचार्यों और उनके समय में घटित उल्लेखनीय घटनाओं, राजवंशों एवं विदेशी आक्रमणों प्रादि का संक्षेप में सारभूत परिचय दिया गया है । यह प्रकरण भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकरण में जैन काल गणना की एक जटिल गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है, जो विगत एक सहस्र वर्षों से विचारकों के लिये एक जटिल समस्या बनी हुई थी। तित्थोगालिय पइण्णा जैसे प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थ में जैन परम्परा की कालगणना का स्पष्ट तथा निर्विवाद उल्लेख होने के उपरान्त भी ईसा की १०वीं शताब्दी के पश्चात के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दोनों ही परम्परानों के कतिपय ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने के ४५ वर्ष (तिलोयपण्णत्ती हरिवंशपुराण, धवला आदि की दृष्टि से ५३ वर्ष) पश्चात् नन्द साम्राज्य का अन्त कर मगध साम्राज्य के राजसिंहासन पर आसीन होने वाले मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली भद्रबाह का समकालीन बताया गया है। श्वेताम्बर परम्परा के कुछ एक ग्रन्थों में जहाँ चन्द्रगुप्त को भद्रबाहु का श्रद्धालु धावक बताया गया है वहाँ दिगम्बर परम्परा के हरिषेणकृत कथाकोश, रत्ननन्दीकृत भद्रबाहुचरित्र प्रभृति कथासाहित्य के ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त द्वारा श्रुतकेवली भद्रबाहु के पास निर्ग्रन्थ श्रमण दीक्षा ग्रहण किये जाने तक का उल्लेख किया गया है। दिगम्बर परम्परा में यह सर्वसम्मत मान्यता प्रचलित रही है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु वीर निर्वाण सं० १६२ में स्वर्गस्थ हुए । दिगम्बर परम्परा के सर्व ग्रन्थों में भी इसी प्रकार का उल्लेख विद्यमान है। श्वेताम्बर परम्परा के एतद्विषयक सभी ग्रन्थों में भी स्पष्ट उल्लेख है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु वीर नि० सं० १७० में स्वर्गवासी हुए। दूसरी ओर यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने वीर निर्वाण सं० २१५ में नन्द साम्राज्य का अन्त कर मगध साम्राज्य के रायसिंहासन पर प्रारूढ़ हो मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। पर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के उपरिवरिणत उल्लेखों के अनुसार यदि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाह का श्रावक अथवा श्रमणशिष्य माने तो इस दशा में या तो श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गारोहण काल को वीर निर्वाण सं० २१५ के १०-२० वर्ष पश्चात् लाना पड़ेगा या फिर नन्द साम्राज्य के अंत एवं मौर्य साम्राज्य के जन्म काल को वीर नि० सं० १६२ अथवा १७० से न्यून से न्यूनतम १५-१६ वर्ष पीछे की ओर ले जाना पड़ेगा। जैन साहित्य में दोनों प्रकार के उदाहरण उपलब्ध हैं। दिगम्बर परम्परा के कवि ' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ३५१ २.दिगम्बर परम्परा के कवि रयधू ने श्रुतकेवली भद्रबाह के स्वर्गगमन काल को वीर नि० सं० ३३० के आसपास ला रखा है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयधू ने श्रुतकेवली भद्रबाहु को अशोक के पौत्र-णयलु (कुरणाल) के पुत्र चन्द्रगुप्ति (सम्प्रति) का समकालीन बता कर श्रुतकेवली भद्रबाहु का प्राचार्यकाल वीर नि० सं० ३३० के आसपास ला रखा है। दूसरा उदाहरण है श्वेताम्बर परंपरा के आचार्य हेमचन्द्रसूरि और दिगम्बर आचार्य हरिषेण तथा रत्ननन्दी का, जिन्होंने श्रुतकेवली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को समकालीन बताकर प्राचार्य भद्रबाहु का स्वर्गगमन काल क्रमशः वीर नि० सं० १७० तथा १६२ और चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का समय वीर नि० सं० १६२ के पूर्व और हिमवन्त स्थविरावलीकार ने तो शब्दों में वीर नि० सं० १५४ में ला रखा है। काल गणना में इस प्रकार का ६० वर्ष का अन्तर कब और किस कारण माया इस पर निष्पक्ष दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो एक कारण प्रतीत होता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ईसा की ११ वीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्य हरिषेण ने संभवतः दिगम्बर परम्परा को अति प्राचीन और श्वेताम्बर परम्परा को उससे अर्वाचीन सिद्ध करने के अभिप्राय से वीर नि० सं० ६०६ में उत्पन्न हुए सम्प्रदाय भेद की घटना को श्रुतकेवली भद्रबाहु से सम्बद्ध किया हो। इसके साथ ही साथ यह भी संभव है कि दिगम्बर परम्परा को लोक में प्रभावना हो इस दृष्टि से भद्रबाहु के पास मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के दीक्षित होने तथा दीक्षित चन्द्रगुप्त का ही नाम विशाखाचार्य रखे जाने का उल्लेख किया हो । चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा बड़ा सम्राट भी जैन धर्मावलम्बी और श्रुतकेवली भद्रबाह का अनन्य श्रद्धालु श्रावक था- यह जान कर लोगों में जैन-धर्म की प्रभावना होगी इस उद्देश्य से दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य हरिषेण का अनुसरण करते हुए श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने भी मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु का समकालीन एवं परमभक्त श्रावक बताया हो। दोनों परम्पराओं के एतद्विषयक सभी उल्लेखों का समीचीनतया पर्यालोचन करने पर एक आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आता है कि दिगम्बर परम्परा के हरिषेण रत्ननन्दी प्रादि प्राचार्यों ने भद्रबाहु चन्द्रगुप्त विषयक कथानकों में इन दोनों के संवत् काल आदि का कहीं उल्लेख तक नहीं किया है। इस दृष्टि से भी इतिहास के क्षेत्र में इन कथानकों का एक किंवदन्ती से अधिक महत्व नहीं रह जाता। आचार्य हेमचन्द्र ने भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को समकालीन बताकर स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि प्राचार्य भद्रबाहु वीर नि. सं. १७० में स्वर्गस्थ हुए। प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा किये गये इस उल्लेख से यह स्पष्टरूपेण प्रकट होता है कि इन दोनों को समकालीन बताते समय उन्होंने प्राचार्य परम्परा की काल गणना का तो पूरा ध्यान रखा है पर राज्य काल गणना में पालक के राज्यकाल के ६० वर्षों की गणना करना वे एकदम भूल गये' और इस प्रकार वीर नि० ' एवं च श्री महावीर, मुक्तेर्वर्षशतेगते । पंचपंचाशदधिके, चन्द्र गुप्तोऽभवन्नपः ।।३३६।। [परिशिष्ट पर्व] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मं० २१५ में शामनाख्तु हुए ही मगध सम्राट् वना दिया। गगन विषयक त्रुटि उन्हीं के उल्लेख से पकड़ ली गई । चन्द्रगुप्त को वीर नि० सं० १५५ में ६० वर्ष पहले प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा की गई यह राज्यकाल द्वारा किये गये महाराजा कुमारपाल के काल के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराम्रों द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकृतविक्रम संवत्, ई० मन्, शक संवत् तथा वीर नि० संवत् इन सब कालगणनाओं के तुलनात्मक विवेचन के अनन्तर पुर्गातः प्रामाणिक सिद्ध हुई राज्यकालगणना में दोनों परस्परात्रों के हरिगंगा, हेमचन्द्र ग्रादि चार ग्राचार्यों ने जो ६० वर्ष का अन्तर डालकर भ्रान्ति उत्पन्न की है, उस भ्रान्ति का निराकरण न किये जाने की दशा में न केवल जैन इतिहास पर हो अपितु भारत के विगत २३०० वर्षों के इतिहास पर भी बड़ा विपरीत प्रभाव पड़ता है । यद्यपि इस लम्बे काल पं चले या रहे बहुचचित प्रश्न पर हमने ग्रालेख्यमान ग्रन्थमाला के प्रथम भाग ( भगवान महावीर के प्रकरण ) में पर्याप्त प्रकाश डाला है तथापि द्वितीय भाग के लेखन काल में हमें इस भ्रान्ति का सदा के लिये ग्रन्तिम रूप से निवारण करने वाले जो तथ्य उपलब्ध हुए हैं उनका इस प्रकरण में निष्पक्ष विदेशी साध्य के साथ उल्लेख कर इस उलभी हुई गुत्थी को सदा के लिये सुलझाने का प्रयास किया है। हमारा यह प्रयास कहां तक सफल रहा है, इसका निर्णय पाटक तटस्थ दृष्टि से करें । ईसा पूर्व ३२७ में भारत पर आक्रमण के समय सिकन्दर के साथ प्राये हुए सेनाध्यक्षों द्वारा लिखे गये संस्मरणों तथा उनके उल्लेख के साथ प्रसिद्ध यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखे गये संस्मरणों के आधार पर विदेशी विद्वान् जस्टिन (ईमा की दूसरी शती) ने 'एपिटोम' (सारसंग्रह) नामक पुस्तक लिखी । उस पुस्तक में मिकन्दर के सेनानियों द्वारा कतिपय ग्राँखों देखी तथा प्रत्यक्ष अनुभूत घटनाओं का विवरण है। ग्राज मे २३०० वर्ष पूर्व की प्रति प्राचीन, कतिपय ग्रंथों में पूर्णतः निष्पक्ष एवं प्रामाणिक साक्षी के उन उल्लेखों से इस प्रकरण मैं यह सिद्ध कर दिया गया है कि ईसा से ३२४ वर्ष पूर्व तक नन्दवंश का शक्तिशाली साम्राज्य, सम्राट् नवम नन्द और विदेशी प्रातताइयों को भारत की भूमि से बाहर खदेड़ने का दृढ़ संकल्प लिये रणांगण में युद्धरत युवा देशभक्त योद्धा चन्द्रगुप्त - ये सभी विद्यमान थे। इस प्रकार के प्रवल प्रमाणों से पुष्ट ऐतिहासिक तथ्य के समक्ष चन्द्रगुप्त मौर्य को श्रुतकेवली भद्रबाहु का समकालीन, शिष्य श्रमण अथवा साक्षात् आवक बताने वाले कथानक का मूल्य एक निराधार किवदन्ती अथवा कपोलकल्पित कथानक से अधिक नहीं हो सकता । ' पानगरो पट्टी परणरणमयं वियाणि यांदा । मुरियारण गहिसमं तीसा गुणपुरा मिला || [तियोगालिय इला ] * देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४३६ । ( १०० ) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकरगा के - "प्रार्य स्थूलभद्र द्वारा अति दुष्कर अभिग्रह" और "उत्कट साधना का अनुपम प्रतीक अवन्ति सूकुमाल"- ये दो ऐसे अमर ग्राख्यान हैं, जो साधना-पथ पर अग्रसर होने वाले प्राध्यात्मिक पथ के पथिकों को सदा सर्वदा शशि सूर्य की तरह पथप्रदर्शन करते रहेंगे। संसार के साहित्य में अन्यत्र इस प्रकार के अप्रतिम पाख्यान संभवतः खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होंगे। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, कलिगपति महामेघवाहन भिक्खुराय खारवेल, गर्दभिल्ल, विक्रमादित्य आदि गजात्रों के जीवन एवं राज्य का जो परिचय दिया गया है, उससे न केवल जैनधर्म ही अपितु भारतीय इतिहास के कतिपय नवीन तथ्यों पर भी प्रकाश पड़ता है। इस प्रकरण के - "भ्रम का निराकरण" नामक उपशीर्षक के अन्तर्गत किये गये विवेचन में साम्प्रदायिक व्यामोहवशात् कुछ एक आधुनिक विद्वानो द्वारा अहिंसा के महान सिद्धान्तों पर किये गये दोषारोपण का निराकरण किया गया है । इसमें न केवल भारतीय अपितु विश्व इतिहास के कतिपय ऐतिहामिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह बताया गया है कि सही अर्थ में अहिंसा के महान सिद्धांत ही शूरवीरता का पाठ पढ़ाते हैं । अहिंसा में कायरता के लिए कहीं लेशमात्र भी स्थान नहीं है। भारत में जब तक अहिंसा के महान् सिद्धान्तों का अन्तर्मन से पालन होता रहा, तब तक मानवता सर्वतोमुखी सद्धि के साथ समन्नत होती हुई श्रेयष्कर ममुत्कर्ष के उच्चतम शिखर पर प्रासीन रही, देश सर्वतः सुसम्पन्न, स्वतन्त्र, शक्तिशाली. और सूखी बना रहा। निर्वाण पश्चात् उदायो, नन्दिवर्धन. अशोक और विक्रमादित्य जैसे विश्ववन्धुत्व की भावना से प्रोत-प्रोत एवं हिमा के पुजारी राजाओं के राज्यकाल विश्व इतिहास में इस बात के प्रतीक हैं कि सच्ची अहिंसा का अनुपालन ही वस्तुत: सौख्य-समृद्धि एवं कल्याण की कुँजो है। अहिंसा के सिद्धान्तों ने विश्व की केवल मानवता पर ही नहीं अपितु विश्व के समस्त भूतमंघ पर असीम उपकार किया है। ज्यों-ज्यों मानव अहिमा के विश्वकल्याणकारी सिद्धान्तों को भूलता गया त्यों-त्यों वह मानवीय गुरगों में विहीन हो दासता, और दारुण दुःख द्वन्द्व के निबिड़तम बन्धनों में प्राबद्ध हो रसानल में गिरता गया। इस प्रकरण के - "प्रा. सहस्ती के बाद की संघ व्यवस्था"- इस उपशीर्षक के अन्तर्गत गगों, शाखानों, गणधर वंश परम्परा, वाचनाचार्य परम्परा और युग-प्रधानाचार्य परम्परा के उद्भव प्रयोजन और क्रमिक विकास का एक सुस्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया गया है। कालवशात् अवश्यंभावी गणवाहल्य एवं अनेक आचार्यों के पृथक अस्तित्व को, मान्यता प्रदान करते हुए उस समय के धमरा श्रेष्ठों ने जो दुरणिता पूर्ण बुद्धि कौशल प्रशित किया और उसके फलस्वरूप भगवान् महावीर का धर्म-संघ विविधता में भी अपनी एकरूपता बनाये रख सका, उमका भी इस प्रकरण में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ४. सामान्य पूर्वधर-काल - श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि. सं०५८४ से १००० तक का काल सामान्य पूर्वधरकाल माना गया है । इस प्रकरण Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में श्रार्यं रेवती नक्षत्र से लेकर आर्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण तक १० वाचनाचार्यो, आर्य रक्षित से प्रार्य सत्यमित्र तक १० युगप्रधानाचार्यों, प्रार्य रथ, चन्द्र, सामंतभद्र वृद्धदेव, प्रद्योतन, मानदेव आदि गणाचार्यों का परिचय दिया गया है। इस प्रकररण में प्रयोगों के पृथक्करण, शालिवाहन शाक-संवत्सर, जैन-शासन में सम्प्रदायभेद, दिगम्बर परम्परा में संघभेद, यापनीय संघ, गच्छों की उत्पत्ति, चैत्यवास, स्कन्दिलीया एवं नागार्जुनीया- इन दोनों भागमवाचनाओं, वीर नि० सं० १८० में वल्लभी नगर में हुई अन्तिम आगमवाचना के समय श्रागम-लेखन, प्रार्य देवद्ध की गुरु-परम्परा, सामान्य पूर्वधर काल सम्बन्धी दिगम्बर परम्परा की मान्यता, प्रज्ञापना सूत्र और षट्खण्डागम का तुलनात्मक परिचय, नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली को लेकर दिगम्बर परम्परा में व्याप्त कालनिर्णय विषयक भ्रान्ति श्रादि कतिपय महत्वपूर्ण तथ्यों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । वीर नि० सं० ६०५ तदनुसार ई० सन् ७८ से प्रारम्भ हुए शालिवाहन शाकसंवत्सर के सम्बन्ध में यद्यपि इस प्रकरण में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है तथापि इस सम्बन्ध में एक स्पष्टीकरण परमावश्यक है । कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि भारत में कुषारण राज्य की नींव डालने वाले कुषासा राजा कनिष्क ने ई० सन् ७८ में सिंहासनारूढ़ होते ही अपने नाम से जिस कनिष्क संवत् का प्रचलन किया, वही शक संवत्सर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । संयोग की बात है कि भारत भूमि से शक सत्ता का अन्त कर जिस वर्ष सातवाहनवंशीय गौतमीपुत्र सातकरण ने शकारि विक्रमादित्य की उपाधि धारणकर शालीवाहन शाक-संवत्सर की स्थापना की उसी वर्ष में भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर अधिकार कर कनिष्क ने भी अपने राज्यारोहरण की स्मृति में कनिष्क संवत् का प्रचलन किया। इस प्रकरण में यह स्पष्टतः उल्लेख कर दिया गया है कि कुषारणवंशी कनिष्क पार्थियन था । उसने शकों को उत्तरी भारत में परास्त कर भारत के दक्षिण-पश्चिमी प्रदेश कच्छ एवं सौराष्ट्र की ओर खदेड़ दिया । ऐसी स्थिति में शकों के शत्रु एक कुषारगवंशी ( पार्थियन) राजा द्वारा शकों के नाम पर किसी संवत्सर के प्रवर्तन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं के पर्यवेक्षरण से यही सिद्ध होता है कि वर्तमान में प्रचलित शक संवत्सर शकों द्वारा स्थापित नहीं श्रपितु शकारि विक्रमादित्य के विरुद से विभूषित गौतमीपुत्र सातकरिण द्वारा, अवन्ती, सौराष्ट्र एवं पश्चिमी भारत से शकों की विदेशी सत्ता को समाप्त किये जाने के उपलक्ष में स्थापित शक्ति का प्रतीक शाक संवत्सर है । उसी वर्ष कुषाणवंशी राजा कनिष्क ने भी कनिष्क संवत् चलाया ; अतः इन दोनों संवत्सरों की पृथकतः पहिचान के लिए सातकरिण द्वारा स्थापित शाक संवत्सर के साथ शालिवाहन अथवा सातवाहन ( सातकरिंग का वंश) विशेषरण जोड़ा गया । जिस प्रकार श्रुतकेवली भद्रबाहु के प्रकरण में दिगम्बर परम्परा के हरिषेण, रत्ननन्दी, देवसेन आदि प्राचार्यों तथा कवि रयधू द्वारा श्वेताम्बर प्रस्तुत ग्रन्थ, पृष्ठ ६२६ ( १०२ ) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतोत्पत्ति के सम्बन्ध में किये गये उल्लेखों को यथावत् उन्हीं के मृदु प्रथवा कटु शब्दों में प्रस्तुत किया गया है, उसी रूप में इस प्रकरण में भी " जैन- शासन में सम्प्रदायभेद" नामक उपशीर्षक में दिगम्बर मतोत्पत्ति विषयक श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों के उल्लेख को यथावत प्रस्तुत किया गया है। इसमें हमारा उद्देश्य दोनों ओर के उल्लेखों को यथा रूप में इतिहासज्ञों, अनुसन्धाताओं एवं पाठकों के समक्ष रखना मात्र है । वस्तुस्थिति को रखने के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की भावना नहीं रही है । इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र और षट्खण्डागम का तुलनात्मक विवेचन तथा नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को दिगम्बर परम्परा के कतिपय चोटी के विद्वानों द्वारा तिलोयपण्णत्ती, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, धवला, जय धवला प्रादि प्राचीन ग्रन्थों से भी अधिक महत्व देने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई भ्रान्त मान्यता का निराकरण करते समय हमें कतिपय ऐसे विद्वानों की मान्यताओं को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ा है जिन्होंने जैन इतिहास, साहित्य एवं शोध के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं देकर बड़ी ख्याति प्राप्त की है। ऐसा करने में हमारा विशुद्ध लक्ष्य तथ्यों को प्रकाश में लाना मात्र रहा है। इस प्रकरण के अन्त में "केवलिकाल से पूर्वघर काल तक की साध्वीपरम्परा" विषयक शीर्षक में आर्य सुधर्मा से देवद्ध क्षमाश्रमरण तक की १००० वर्ष की अवधि में हुई परम प्रभाविका प्रवर्तिनियों एवं साध्वियों का यथोपलब्ध परिचय दिया गया है । उपसंहार प्रस्तुत ग्रन्थ वोर नि० सं० १ से १००० तक का जैनधर्म का इतिहास / दिया गया है । उसमें प्राचार्यों, ग्रागमों, साधु-साध्वियों, गरणों, गच्छों, कुलों शाखा-उपशाखाओं, जन-साधारण से लेकर शासकवर्ग तक के श्रावक-श्राविकाओं, उन आचार्यों के समय में घटित हुई प्रमुख धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं के उल्लेख के साथ-साथ उक्त अवधि में हुए राजवंशों, उनकी परम्पराओंों, राज्यविप्लवों, विदेशियों द्वारा भारत पर किये गये आक्रमणों आदि का भी यथावश्यक जो संक्षिप्त अथवा विस्तारपूर्वक परिचय दिया गया है, उसकी पृष्ठभूमि में मुख्यतः निम्नलिखित उद्देश्य रहे हैं : १. समसामयिक धार्मिक एवं राजनैतिक घटनाचक्र का साथ-साथ विवरण प्रस्तुत कर धार्मिक इतिहास को विश्वसनीय एवं सर्वांगपूर्ण बनाना । २. जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक घटनाओं का पर्यवेक्षण कर निहित स्वार्थ इतिहासकारों द्वारा उत्पन्न की गई प्रथवा उत्पन्न की जाने वाली भ्रान्तियों का निराकरण । ३. जैन धर्म के इतिहास की विविध कारणों से उलझी हुई जटिल ( १०३ ) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुत्थियों को ( राजनैतिक ) इतिहास ग्रन्थों एवं जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन से सुलझाने का प्रयास करना । ४. स्वतन्त्रता तथा धर्मनिष्ठ शासकों के शासन काल में धर्म की सर्वतो - मुखी प्रभ्युन्नति एवं जन-जीवन की समृद्धि में शासक वर्ग द्वारा दिये गये योग के सुफल से पाठकों को परिचित कराना । ५. अधर्मिष्ठ कुशासकों एवं विदेशी आतताइयों के शासन में परतन्त्र प्रजा के सर्वतोमुखी पतन एवं धर्म के ह्रास के कुफल से पाठकों को परिचित कराना । ६. धार्मिक, सामाजिक प्रार्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से सुशासक अथवा स्वशासित सुशासन जहां सर्वतोमुखी समुन्नति की मूल कुंजी है, वहां कुशासन प्रभाव-अभियोगों एवं घोर अवनति का जनक, इस तथ्य का निरूपण । ७. प्रत्येक जैन को सुनागरिक के उन सभी परमावश्यक कर्त्तव्यों से अवगत कराना, जिनके पालन से देश में लोक कल्याणकारी सुशासन सशक्त एवं समुन्नत होता और उन कर्त्तव्यों से च्युत होने की दशा में कुशासन के पनपने के साथ साथ देश अवनति के गहरे गड्ढे में गिरता है । ८. भारतीय इतिहास के जिस-जिस समय को ऐतिहासिक घटनाओं की अनुपलब्धि के कारण अन्धकारपूर्ण बताया गया है, उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं को जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों, शिलालेखों आदि के ठोस आधार पर प्रकाश में लाकर भारतीय इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ना और इस प्रकार अन्धकारपूर्ण समय को प्रकाशपूर्ण बनाना । ६. स्वातन्त्र्य मूलक सुशासन की सुखद शीतल छाया में ही भौतिक तथा आध्यात्मिक सौख्य- समृद्धि का कल्पतरु अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित एवं सुफल समन्वित होता है । इससे विपरीत पारतन्त्र्य मूलक कुशासन के प्रपावन पंक में सुरतरु के स्थान पर वैषम्य का विषवृक्ष अंकुरित हो देखते ही देखते बीभत्स रूप धारण कर लेता है । उस विषवृक्ष के प्रसितुल्य पत्र, दुर्वासना की दुस्सह्य दुर्गन्ध पूर्ण पुष्प, पग-पग पर कुत्सित क्लेशजनक प्रति तीक्ष्ण त्रिशूलतुल्य कण्टक और प्रभाव, अभियोग, शान्ति, ईर्ष्या, कलह, अन्याय, अनीति, अनाचार रूपी विषाक्त फलों से मानव वस्तुतः मानवता को भूल कर किस प्रकार नारकीय कीट से भी निकृष्ट बन जाता है - इस तथ्य से प्रत्येक पाठक को अवगत कराने के अभिप्राय से ही प्रस्तुत खण्ड में धर्म एवं धर्माचार्यों के इतिहास के साथ साथ उसके समसामायिक इतिहास का भी दिग्दर्शन कराया गया है । मानवता को दानवता में परिवर्तित कर देने वाली भूतकालीन भूलों की पुनः किसी भी दशा में इस धर्मप्रारण देश के निवासी पुनरावृत्ति न करें, वस्तुतः यही मुख्य लक्ष्य इस वर्णन के पीछे रहा है । आशा है केवल जैन ही नहीं प्रत्येक देशवासी इससे प्रेरणा लेकर सदा धर्म, देश और समाज के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन में जागरूक बना रहेगा । ( १०४ ) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस ग्रन्थ को सर्वांगपूर्ण एवं प्रामाणिक बनाने में हमने सम्पूर्ण प्रागमसाहित्य, पुराणादि प्रागमेतर जैन वाङ्मय, श्रुषि, स्मृति, पुराण, कोश, व्याकरण. पिटकादि बौद्ध साहित्य, प्राचीन-अर्वाचीन प्राचार्यों तथा प्राच्य-पाश्चात्य विद्वानों की सामाजिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक कृतियों की सहायता ली है। उन सभी . ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों का यहां नाम निर्देश किया जाना संभव नहीं अत: केवल संदर्भ ग्रन्थों की सूची उनके लेखकों के नाम के साथ परिशिष्ट में दी जा रही है । हम उन सभी ग्रन्थकारों के प्रति प्रान्तरिक अाभार प्रकट करते हैं। संघभेद विषयक विभिन्न विचार - भगवान महावीर के धर्मसंघ में विचार भेद, मान्यताभेद अथवा मंघभेद की उत्पति के सम्बन्ध में कतिपय विचारकों एवं इतिहासविदों द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार के विचार प्रकट किये जाते रहे हैं, जिनमें से अधिकांश को, एतद्विपयक सभी नथ्यों पर गहन विचार-विमर्श के पश्चात् मात्र अटकलबाजी की सजा दी जा सकती है । कतिपय विद्वानों ने अपना यह अभिमत प्रकट किया है कि भगवान महाबोर के निर्धारण के तत्काल पश्चात् ही उनके धर्म संघ में विघटन प्रारम्भ हो गया था। अपने इस कथन की पुष्टि में वे वौद्ध-परम्परा के ग्रन्थ मज्झिम निकाय के निम्नलिखित उद्धरण को प्रस्तुत करते हैं : - "एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे । तेन खो पन ममयेन निम्गन्थो नात पुत्तो पावायं अधुना कालकतो होति । तस्य कालकिरियाय भिन्ननिग्गंधद्वेधिक जाता, भंडन जाता, कलह जाता, विवादापन्ना अण्णमयां मुखसत्तीहिं वितुदता विहरंति ।"- (मझिम निहाय, भाग २, पृ. १४३ ) उक्त ग्रन्थ का उपरिलिखित उल्लेख कई कारणों से विवादास्पद ही नहीं अविश्वसनीय भी है। प्रथम कारण तो यह है कि उक्त ग्रन्थ भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण से शताब्दियों पश्चात् की रचना है। दूसरा कारण यह है कि केवल अन्य साहित्य ही नहीं बौद्ध परम्परा के धर्म ग्रन्थों में भी उपर्युक्त उल्लेख के विपरीत इस प्रकार के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिनसे पहपष्टतः सिद्ध होता है कि बुद्ध का महावीर के निर्वागा से लगभग २२ वर्ष पूर्व ही परिनिर्वाण हो चुका था।' ऐसी स्थिति में मज्झिमनिकाय का उपरोक्त उल्लेख स्वतः ही निराधार एवं तथ्यविहीन सिद्ध हो जाता है । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं के सभी ग्रन्थों में प्रार्य सुधर्मा से अन्तिम केवली जम्बू तक एक ही प्रकार की सर्वसम्मत पट्ट परम्परा का उल्लेख विद्यमान है। केवल इतना ही अन्तर है कि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रभूति गौतम को भगवान् का प्रथम पट्टधर माना गया है ' विशेष विवरण के लिये देखिये - (क) जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग. पृ. ५४८-५५३ (ग्य) वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना (ग) भांगम और त्रिपिटक - एक अनुशीलन ( १०५ ) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और श्वेताम्बर परम्परा में कैवल्यालोकशाली हो जाने के कारण गौतम के प्रति पट्टधर से भी अत्यधिक सर्वोच्च सम्मान प्रदर्शित करते हुए प्रार्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर माना गया है । दोनों परम्पराओं के सुविशाल माहित्य में कहीं किंचित्मात्र भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं है, जिससे निर्वाण पश्चात् के ६४ अथवा ६२ वर्ष के केवलिकाल में पारस्परिक कलह, मतभेद अथवा धर्म मच में विघटन का ग्राभास तक प्रकट होता हो। ___ पूर्वकाल में जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियों में बड़े लम्बे समय तक परस्पर प्रतिस्पर्धा रही है । ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् महायीर के समक्ष उनके प्रथम निह्नव जमाली के साथ इन्द्रभूति गौतम का जो वादविवाद हुआ उस ही को अतिशयोक्तिपूर्ण विकृत रूप देकर बौद्धपरम्परा के ग्रन्थ मज्झिमनिकाय में उपरोक्त उल्लेख कर दिया गया है। किसी धर्मग्रन्थ द्वारा अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी धर्म के सम्बन्ध में किया गया कटू उल्लेख वस्तुतः कितना प्रामाणिक और विश्वसनीय होता है यह किसी विचारक से छुपा नहीं है। __आर्य जम्बू के पश्चात् पाँच श्रुतकेवली प्राचार्यों में से भद्रबाहु को छोड़ शेष चारों के नाम दोनों परम्परात्रों में पूर्णतः भिन्न देखकर कुछ विद्वान् यह ग्रनुमान लगाते हैं कि आर्य जम्बू के पश्चात् भगवान् महावीर के धर्मसंघ में मतभेद उत्पन्न हो गया था। पर वस्तुतः चार श्रुतकेवलियों के नाम भेद के अतिरिक्त दोनों परम्पराओं के साहित्य में इस प्रकार का एक भी स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता जिससे उन विद्वानों के इस अनुमान की पुष्टि होती हों। स्वयं भगवान् महावीर के लिये, उनकी श्रमण एवं श्रमणी परम्परा के लिये शास्त्रों में प्रयुक्त "णिग्गंठ" विशेषण को देख कर जिन विद्वानों ने अपनी यह धारणा बना ली है कि प्रभू महावीर ने तीर्थप्रवर्तन के प्रथम दिन से ही श्रमणों के लिए एकान्ततः जिनकल्प का-नग्नत्व का ही विधान किया था, वे विद्वान् आर्य शय्यंभव द्वारा द्वादशांगी में से विर्यढ अथवा संकलित दसवैकालिकसूत्र में मुनियों के लिये वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पादपंछन का उल्लेख देखकर यह अनुमान लगाते हैं कि अन्तिम केवली जम्बू के निर्वाण के पश्चात् भगवान् महावीर के संघ में नग्नता और सोपधिता को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया। इस प्रकार का अनुमान लगाते समय वे विद्वान् संभवतः इस बात को भूल जाते हैं अथवा नजरंदाज कर देते हैं कि शास्त्रों में जिस प्रकार श्रमणों के लिये निग्गंठ शब्द का प्रयोग किया है, उसी प्रकार श्रमरिणयों के लिये भी "रिणग्गंठियो" विशेषण प्रयुक्त किया गया है। (क) गोयमा जेग रिणग्गथे वा रिणगंथी वा फासुएसरिणज्ज.........[भगवती सूत्र, मतक ७, ३, १, क्षेत्रातिकान्तादि दोष] (ख) निगन्यो धिइमंतो, रिणगंधीवि न करेज्ज छहिं चेव । ........॥३४॥ [उत्तराध्ययन, अध्ययन २६] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः "रिणग्गंठ" शब्द का संस्कृत रूप है निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ है अन्य रहित-ग्रन्थी रहित अर्थात् भवप्रपंच में बांधकर रखने वाली हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि की गांठों से रहित । यह एक बड़ा महत्वपूर्ण और विचारणीय तथ्य है कि यदि "णिग्गंठ" (निर्ग्रन्थ) शब्द का अर्थ एकान्ततः नग्नता ही होता तो श्रमणियों के लिये "रिणग्गंठियो" शब्द का प्रयोग शास्त्रों में कदापि नहीं किया जाता। दशवकालिक सूत्र की जिन गाथाओं में मुनियों द्वारा वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपुंछनक के उपयोग में लाने का उल्लेख है, वे गाथाएं इस प्रकार हैं : जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य ॥२०॥ न सो परिग्गहो वुत्तो", नायपुत्तेण ताइणा । "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो", इइ वुत्तं महेसिरणा ॥२१॥' अर्थात् - संयम के निर्वहन हेतु अथवा लज्जानिवारणार्थ मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कंबल अथवा पादपुंछनक (प्रादि) धारण अथवा परित्यक्त करते हैं, उसे, भवसागर से भव्यों का कारण करने वाले ज्ञात पुत्र भगवान महावीर ने परिग्रह नहीं बताया है। वस्तुतः किसी वस्तु पर ममत्व भाव रखना परिग्रह है, ऐसा महर्षि (महावीर) ने कहा है। इन गाथानों पर तटस्थ दृष्टि से गहन चिन्तन करने पर स्पष्टतः यही सिद्ध होता है कि तीर्थ प्रवर्तन के समय से ही प्रभु महावीर ने श्रमणों के लिये मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण का रखना तो अनिवार्य रखा और अचीवरत्व तथा सचीवरत्व को ऐच्छिक रखा। आर्य सुधर्मा से देवद्धि तक के एक हजार वर्ष के इतिहास के सिंहावलोकन से भी यही तथ्य प्रकट होता है कि प्रार्य रक्षित के समय तक भगवान महावीर के धर्म संघ के श्रमण इन दोनों प्रकार के द्रव्य लिंगों में से ऐच्छिक रूपेण किसी एक का पालम्बन लेते रहे। इस द्रव्यलिंग के विभेद से न उनमें किसी प्रकार के गुरुत्व लघुत्व का भाव रहता था और न किसी प्रकार का मतभेद ही । अपने गुर और अन्य श्रमरणों की अनुपस्थिति में श्रमणों के संस्तारकों को पंक्तियों में रख एवं उन संस्तारकों में ही शिक्षार्थी श्रमणों की कल्पना कर बालक मुनि वज ने शास्र की वाचना दी- इस प्रकार के उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि मार्य वज की गुरु परम्परा के श्रमण वस्त्र पात्रादि रखते थे।।। दमकालिक सूत्र, प्रध्याय ६. २ अवकाशं च बाल्यस्य, ददच्चापलतस्तदा । सर्वषामुपपीमिग्राहं भूमौ निवेश्य च ॥ १११ ।। बामा प्रददौ बजः, श्रुतस्कन्धवजस्य सः । प्रत्येकं गुरुवक्त्रेण कषितस्य महोचमात् ।। ११२ ।। बजोऽपि तं गुरोनिं, श्रुत्वा सजाभयाकुसः । सभिवस्य पचास्मानं, वेष्टिकाः संमुखोऽभ्यगात् ॥ ११६ ।। (प्रभावक च० बज्रचरितम्, पृ०७) ( १०७ ) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य रक्षित ने वस्त्रधारी अपने पिता खन्त मुनि से किस प्रकार पूर्णतः वस का त्याग करवाया, इसका उल्लेख प्रभावक चरित्र में है ।" आर्य वज्र और ग्रायं रक्षित के आख्यानों से यह सिद्ध होता है कि उनके समय तक वस्त्रधारी और निर्वस्त्र दोनों ही प्रकार के मुनियों की परम्पराएं विद्यमान थीं । उन दोनों परम्पराम्रों के मुनि परस्पर एक दूसरे का पूरा सम्मान ही नहीं अपितु द्वादशांगी का अध्ययन अध्यापन भी करते रहते थे । सवस्त्रता और निर्वस्त्रता उनके पारस्परिक श्रमणोचित ऋजु मृदु सम्बन्धों में कभी कहीं याक नहीं बनी। इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में अनेक विद्वानों द्वारा प्रकट किये गये सम्प्रदाय भेद विषयक विभिन्न अभिमतों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर उनके सभी अभिमत प्रमाणाभाव में निराधार और अटकलबाजी मात्र सिद्ध होते हैं । सम्पूर्ण प्राचीन जैन साहित्य में केवल एक ही ऐसा दृष्टान्त उपलब्ध होता हैं, जिससे कुछ क्षणों के लिये संघ में विचार भेद की झलक प्रकट होती है । वह है प्रार्य महागिरि और आर्य सुहस्ति के बीच सम्भोग विच्छेद की क्षरणस्थायी घटना | उस अचिरस्थायिनी घटना के पीछे भी मूल कारण विशुद्ध पिण्डेषरणा का था, न कि सचीवरत्व प्रचीवरत्व का । इन सब प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि वस्तुतः सम्प्रदाय भेद दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर निर्वारण सम्वत् ६०६ और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में हुआ । इस ग्रन्थ के सम्पादन में पं० मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी, श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री तथा सम्पादक मण्डल के अन्य सभी सदस्यों का समय २ पर सहयोग मिलता रहा । इसके लेखन एवं सूची निर्माण आदि कार्यों में श्री हीरामुनि, श्री शीतल मुनि सेवा सहयोग से लघु लक्ष्मीचन्द्रजी, मान मुनि, शुभ मुनि, चंपक मुनि आदि का सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता । प्राचार्यों के साथ-साथ उनके समसामयिक राजवंशों के क्रमबद्ध इतिहास के प्रालेखन तथा कतिपय प्राचार्यों के काल - निर्णय में इस ग्रन्थ के मुख्य सम्पादक श्री राठोड़ ने बड़ी सहायता की। लगन और निष्ठा पूर्वक गवेषणा तथा उपलब्ध साहित्य के आलोडन के अतिरिक्त इतिहासज्ञ प्रत्यूह संघातो, वेदमंत्र मंया हतः । राष्ट्रस्य नृपतेस्तथा ।। १७६ ।। १ पुरा समस्तस्यापि राज्यस्य, संवोदुरस्यांशे, शवं शबरथस्थितम् । ग्राचकर्षनिर्वसन, शिशवः पूर्वशिक्षिताः ।। १७७ ।। गुच्छ कि नग्नस्तात ! मोऽप्युत्तरं ददौ । उपसर्गः समुत्तस्थौ त्वद्वचो ह्यनृतं ताक पिता प्राह, ट्रष्टव्यं दृष्टमेव यत् । नहि ।। १७६ ।। को नः परिग्रहस्तस्मात् नाग्न्यमेवास्त्वतः परम् ।। १८१ ।। ( प्रभावक चरित्र, पृ० १५ ) ततः ( १०८ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् श्री जिन विजयजी, विद्वान् मुनि पं० कल्याण विजयजी, क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी, पं० दलसुख मानवरिया, पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, डॉ० मोहनलाल मेहता, परामर्शदाता श्री अगरचन्दजी नाहटा, श्री दरबारीलालजी कोठिया आदि विद्वानों के साथ विविध विवादास्पद विषयों पर चर्चा कर प्रामाणिक निर्णय प्रस्तुत करने में भी राठोड़ ने पूर्ण सहयोग दिया। श्री राठोड़ के प्रहनिश गवेपण काही फल है कि इतिहास का आलेखन इतना सुन्दर सरस प्रमाणयुक्त वन पाया है । दिगम्बर परम्परा के प्रामाणिक ग्रन्थों-हरिवंश पुराण, धवला, श्रुतावतार, आदि पुराण, महापुराण पट्टावलियां, श्रवणबेलगोल के शिलालेखों ग्रादि के गहन अध्ययन के उपरान्त ही दिगम्बर परम्परा के आचार्यों के काल तथा परिचय आदि के सम्बन्ध में विवरण एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है। अन्त में हम एक बात स्पष्ट करना ग्रावश्यक समझते हैं । यद्यपि हमारा यह सतत प्रयास रहा है कि निर्वारण पश्चात् १००० वर्ष के इस इतिहास में किसी भी धार्मिक अथवा ऐतिहासिक महत्व की कोई घटना श्रालेखन से बची न रह जाय तथापि संभव है किसी महत्वपूर्ण घटना से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थ, शिलालेख आदि के दृष्टिगोचर न होने प्रभृति अनेक कारणों से कतिपय महत्वपूर्ण घटनाओं का ग्रालेखन न किया गया हो । प्राणा है कि विद्वान् पाठक इस प्रकार की अथवा अन्य किसी प्रकार की कमियों को भविष्य में पूरा करने के लिये पूरा सहयोग प्रदान करेंगे । शिवमस्तु सर्वजगत: । ( १०६ ) मुनि: हस्तिमल्लः Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म कामौलिक इतिहास (द्वितीय भाग) केवली व पूर्वधर-खण्ड Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णिमकाल प्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण तक के काल को भारतवर्ष का तीर्थंकर-काल माना गया है । इसे हम भरतखण्ड का स्वर्णिमकाल भी कह सकते हैं । उस स्वगिगमकाल में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौवीस तीर्थकर हुए। उन्होंने जन्म-जरा-व्याधि एवं मृत्यु के घोर दुःखों से पूर्ण, अनादिकाल से चलती आ रही करालकाल की विशाल चक्की में पिसते हुए अनन्त प्राणियों की दारुण एवं दयनीय दशा से रक्षा करने और भवताप से उनका उद्धार करने हेतु अपने-अपने समय में धर्मतीर्थ की स्थापना की। उन्होंने मानव को न केवल मानव के प्रति अपितु संसार के समस्त प्राणियों के प्रति नौहार्द, प्रात्मीयता, निश्छल-विशुद्ध प्रेम एवं विश्व-बन्धुत्व का सक्रिय पाठ पढ़ाते हुए वास्तविक मानवता का प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया। सम्वे जीवावि इच्छंति जीविउंन मरिज्जिउं'२ तथा 'धम्मो मंगलमूक्किद; अहिमा संजमो तवो' के अन्तस्तलस्पर्शी दिव्य घोपों से तीर्थंकरों ने जाति, वर्ग, वर्ग एवं रंग-भेद से विहीन एक ऐसे मानव-समाज की स्थापना की, जिसमें न केवल मानव के ही प्रति अपितु निखिल विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति यात्मीयता का अथाह प्रेम लबालब भरा हुआ था। उन करुगगाकर तीर्थंकरों ने जगह-जगह अप्रतिहत विहार कर भीपगा भवज्वालाओं में निरन्तर झुलसते हुए संसार के अमित प्राणियों को अपनी पीयुगवपिणी अमृततुल्य अमोघ वाणी से प्राप्यायित करते हुए उनका उद्धार कर उन्हें अनन्त-अक्षय सुखसागर, शिवधाम का अधिकारी बनाया। उस अनिर्वचनीय सुखमय तीर्थंकर-काल में तेवीस अन्तरालों और पौने तीन पन्यों के तीर्थोच्छित्तिकाल को छोड़कर शेष सम्पूर्ण समय में इस भरतखण्ड के धरातल और गगनमण्डल में तीर्थंकरों की ३५ अतिशय युक्त दिव्य वागी गंजती ' (क) सव्व जग-जीव रक्खरण- दयट्ठयाए भगवया पावयग सुकहियं । [प्रश्नव्याकरण-सूत्र, द्वितीय भाग, प्रथम संवर द्वार] (ख) सद्धर्म-तीर्थ कुर्वन्तीति तीर्थंकरा........... कृतिनोऽपि तीर्थकरनामोदयात् भव्य सत्त्वानुकम्पापरतया च सद्धर्म-तीर्थप्रदेशनशीला ......... [विशे. भा., स्वोपज्ञ टीका, (भा. सं. वि. अहमदाबाद) गा. १०४४, पृ० १६६]. २ दशवकालिक सू., प्र. ६, गा. ११ 3 दशवकालिक सू., अ. १, गा. १ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग रही और तीर्थंकरों के ३४ अतिशयों एवं प्रष्ट महाप्रातिहार्यों से यह मर्त्यलोक स्वर्गलोक से भी अतिशय सुन्दर, कमनीय, रमरणीय और सुखद बना रहा। वह असंख्य वर्षों का काल इस भारतवर्ष का उत्कृष्ट स्वरिणमकाल था। पर भरत खण्ड के इस वर्तमान अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात भारतवर्ष तीर्थंकरों के इन ३४ अतिशयों, वाणी के ३५ गुणों और उनके अष्ट महाप्रातिहार्यों की उस अनिर्वचनीय अलौकिक शोभा से शून्य हो गया। उस स्वर्णिमकाल का प्राद्योपान्त संक्षिप्त विवरण 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' नामक प्रालेख्यमान ग्रन्यमाला के प्रथम भाग में प्रस्तुत किया जा चुका है। अब भगवान् महावीर के निर्वाणकाल से लेकर एक पूर्वधर आचार्यों के काल तक का ऐतिहासिक विवरण इस द्वितीय भाग में प्रस्तुत किया जा रहा है। ' देखिये "जैन धर्म का मौलिक इतिहास", प्रथम भाग, पृ० ३३, टि. २ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल इन्द्रभूति गौतम निर्वाण - वीर निर्वाण सम्वत् १२ आर्य सुधर्मा प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. १ से २० आर्य जम्बू आचार्यकाल - वी. नि. सं. २० रो ६४ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेव से भगवान् महावीर के निर्वारण तक का काल तीर्थंकर-काल माना जाता है, उसी प्रकार तीर्थंकर-काल के पश्चात् का, वीर निर्वारण संवत् १ से वीर निर्वारण संवत् ६४ तक का काल जैन जगत् और जैन इतिहास में केवलिकाल के नाम से पहिचाना जाता है । आज से लगभग ढाई हजार ( २५००) वर्ष पहले कार्तिक कृष्णा मावस्या की अर्द्धरात्रि के पश्चात् प्रत्यूषकाल की वेला में भगवान् महावीर मोक्ष पधारे ।' भगवान् महावीर के उस निर्वारण समय से ही वीर निर्वाण संवत्सर का प्रारम्भ हुआ । वीर निर्वारण संवत् के प्रारम्भिक प्रथम दिन में ही अत्यन्त ऐतिहासिक महत्व की निम्नलिखित तीन प्रमुख घटनाएं घटीं : (१) उसी निर्वारण रात्रि को म० बुद्ध के समवयस्क अवन्ती के महाराजा चण्डप्रद्योत (जिनका म० बुद्ध के जन्मदिन को ही जन्म हुआ था) का ५८ वर्ष की आयु में देहावसान और अवन्ती के राज्यसिंहासन पर चण्डप्रद्योत के पुत्र पालक का राज्याभिषेक | ( २ ) प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान की प्राप्ति | 3 (३) पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी को भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर के रूप में प्राचार्य-पद प्रदान । पसकाल समयंसि संपलियंक निसन्ने कालगए सब्वदुक्खप्रहीणे । [ कल्पसूत्र, सू० १४६ सिवाना संस्करण ] 2. (क) सिरि जिरणनिव्वाणगमरणरयरिणए उज्जेरणीए चण्डपज्जो मरणे पालो राया हिसितो | [सिरि दुसमाकाल समरणसंघ थयं, प्रवचूरि (पट्टावली समु०, भा० १ ) ] (ख) जं रर्यारण सिद्धिगम्रो अरहा, तित्थयरो महावीरो । तं रयरिणमवंतिए महिसितो पालो राया ॥ 9 [ तित्थोगाली पन्ना, गा० ६२० ] (ग) जक्काले वीरजिरणो, रिणस्सेयससंपयं समावण्णो । तक्काले प्रभिसितो, पालयणामो अवंतिसुदो ।। १५०५ ।। [तिलोयपण्णत्ती, अधिकार ४ ] 3 (क) जं रर्यारिंग व गं समणे भगवं महावीरे काल गए जाव सव्वंदुक्खप्पही गे तं रयरिंग च रणं जेट्ठस्स इंदभूइस्स केवलनारणदंसणे समुप्पन्ने । [ कल्प सू० सू० १२६ ( सिवाना सं० ) ] , (स) जादो सिद्धो वीरो, तद्दिवसे गोदमो परमणाणी । जादो......।। १४७६ ।। [तिलोयपण्णत्ती, अधिकार ४ ] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग केवलिकाल का प्रादुर्भाव चांवीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण होते ही हमारे देश से तीर्थकरकाल की समाप्ति हुई। तदनन्तर केवलिकाल प्रारम्भ होता है। तीर्थकरंकाल और केवलिकाल में यह अन्तर है कि केवलिकाल में तीर्थंकरकाल की तरह तीर्थंकरों के ३४ अतिशय, ३५ वारणी के अतिशय और अष्ट महाप्रातिहार्य नहीं रहते। भगवान् महावीर के धर्म-शासन में उनके सबसे ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम हुए। गुरुभक्ति के प्रगाढ़ शुभराग के कारण इन्द्रभूति को भगवान् महावीर के जीवनकाल में केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं हुई। - कोटि-कोटि सूर्यों से भी अधिक प्रकाश वाले अनन्त केवलज्ञान के धारक भगवान् महावीर के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते ही प्रार्य वसुधा से ज्ञानसूर्य प्रस्त होगया। विशिष्ट अतिशय और अनन्तज्ञानी तीर्थकर भगवान महावीर का निर्वाण होते ही सारा भूमण्डल अन्धकारपूर्ण हो गया। उसी रात प्रथम गणधर महामुनि इन्द्रभूति गौतम के अन्तर में केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदयं हुआ, उससे फिर समस्त भूमण्डल केवलज्ञानालोक से आलोकित हो गया। _____ इन्द्रभूति गौतम से केवलिकाल प्रारम्भ होता है अत: पहले यहां उनका परिचय दिया जा रहा है। ..निहि ठागदि लोगधयामिया नं नहा अग्हतेहिं वाच्छिज्जमाहि, अंग्हतपणानं घम्मे वांच्छिग्जमागो, गुबगा वोच्छिन्नमाणे। [स्थानांग, स्थान ३] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम इन्द्रभूति गौतम महागणनायक इन्द्रभूति गौतम के अलौकिक गौरवपूर्ण विराट व्यक्तित्व का यथातथ्य रूप से चित्रण करने का प्रयास, अनन्त उन्मुक्त प्रकाश को अपने बाहुपाश में प्राबद्ध कर लेने और उत्तुंग तरंगों से उद्वेलित सागरों की अपार जलराशि को एक गागर में भर लेने के समान हास्यास्पद प्रयास है फिर भी सत्य के अनन्य उपासक, प्राणिमात्र के परम हितैषी और अनुपम लोकोपकारी उस महामानव द्वारा मानव जाति ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के लिये किये गये अनन्त उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु कुछ लिखना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। इसीलिये यहां गौतमस्वामी का यत्किंचित् परिचय दिया जा रहा है। - जन्म और बंश मावि जैन वाङ्मय में इन्द्रभूति गौतम का उनके श्रमण-जीवन से पूर्व का कोई विशिष्ट तो नहीं किन्तु थोडा आवश्यक नियुक्ति में जन्मभूमि, नक्षत्र, मातापिता, गोत्र, गहवास और फिर श्रमण-जीवन के छद्मस्थकाल, केवलिकाल, पूर्ण पायु, ज्ञान, निर्वाणकालीन तप, निर्वाण, संहनन तथा संस्थान का वर्णन उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है : इन्द्रभूति गौतम का जन्म ईसा से ६०७ वर्ष पूर्व मगध राज्य के सत्ताकेन्द्र राजगृह के समीपवर्ती गोब्बर ग्राम (गौवर्यग्राम) नामक एक ग्राम के गौतम गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुप्रा । गौतम गोत्र.७ प्रकार का है। आपके जन्म के समय ज्येष्ठा नक्षत्र था। आपके पिता का नाम वसुभूति गौतम और माता का नाम पृथ्वी था। इनके अग्निभूति और वायुभूति नामक दो सहोदर थे। इन तीनों भाइयों में इन्द्रभूति सबसे बड़े, अग्निभूति मंझले और वायुभूति सबसे कनिष्ठ थे। शिक्षा इन तीनों भाइयों ने विद्वान् शिक्षा-गुरु की सेवा में रह कर ऋग्, यजु,. साम एवं अथर्व इन चारों वेदों; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दस् तथा ज्योतिष -- इन छहों वेदांगों और मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र एवं पुराण- इन चारों उपांगों का- इस प्रकार कुल मिलाकर सम्पूर्ण चौदह विद्याओं का सम्यक् अध्ययन किया। ' आवश्यक मलयवृत्ति, गा. ६४३ से ६५६, पृ. ३३७-३६. २ जे गोयमा ते सत्तविहा पण्णता। तं-जहा - ते गोयमा, ते गागा, ते भारदाया, ते अंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराभा, ते उदत्ताभा। [स्थानांग, ७ ठारणा] 3 अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्याय-विस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च, विद्यास्त्वेता चतुर्दशा ।।.. शिक्षा कल्पो व्याकरणं, निरुक्त छन्दसां चयः । ज्योतिषामयनं चैव, वेदांगानि षडेव तु॥ [प्रावश्यक, मलयवृत्ति, पृ० ३३६] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिक्षा कुशाग्रबुद्धि होने के कारण इन्द्रभूति स्वल्प समय में ही उपर्युक्त चौदह विद्याओं के परम पारंगत विद्वान् बन गये। . वेद-विद्या के प्राचार्य एवं उनके छात्र जन वाङ्मय के अनेक ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि इन्द्रभूति गौतम वेद-विद्या के एक प्रख्यात विद्वान् प्राचार्य थे और उनके पास ५०० छात्र अध्ययन करते थे। हमारे विचार से इनके प्राचार्य रूप से अध्यापनकाल का क्रम इस प्रकार हो सकता है कि लगभग २५ वर्ष की वय में अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् उन्होंने ५ वर्ष तक विभिन्न प्रदेशों में घूम कर वहाँ के विद्वानों को शास्त्रार्थ । में पराजित किया हो। जैसा कि टीकाकार ने गौतम के द्वारा कहलवाया है"मैंने तीनों जगत् के हजारों विद्वानों को वाद में पराजित किया है।" संभवतः इस प्रकार ख्याति प्राप्त कर लेने के पश्चात् वे वेद-वेदाङ्ग के प्राचार्य वने हों। उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल जाने के कारण यह सहज ही विश्वास किया जा सकता है कि सैकड़ों की संख्या में शिक्षार्थी उनके पास अध्ययनार्थ आये हों और यह संख्या उत्तरोत्तर वढ़ते-बढ़ते ५०० ही नहीं अपितु इससे कहीं अधिक बढ़ गई हो। इन्द्रभृति के अध्यापनकाल का प्रारम्भ उनकी ३० वर्ष की वय से भी माना जाय तो २० वर्ष के अध्यापनकाल की सुदीर्घ अवधि में अध्येता बहुत बड़ी संख्या में स्नातक वन कर निकल चुके होंगे और उनकी जगह नवीन छात्रों का प्रवेश भी अवश्यंभावी रहा होगा । ऐसी स्थिति में अध्येताओं की पूर्ण संख्या ५०० से अधिक होनी चाहिए। ५०० की संख्या केवल नियमित रूप से अध्ययन करने वाले छात्रों की दृष्टि से ही अधिक संगत प्रतीत होती है। गार्हस्थ्य जीवन आर्य सुधर्मा के विवाह का कुछ प्राचार्यों ने उल्लेख किया है, पर इन्द्रभति गौतम का विवाह हुभ्रा अथवा नहीं, यदि हुया तो कहां हुया, इस सम्बन्ध में सभी परम्पराएं मौन हैं। इन्द्रमति का ५० वर्ष की वय तक गहवास में रहना सभी को मान्य है किन्तु उस अवस्था तक ब्रह्मचारी रूप में रहे या गृहस्थ रूप में एतद्विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख कहीं पर दृष्टिगोचर नहीं होता। नियुक्तिकार ने भी “सव्वे य माहणा जच्चा," इस गाथा के माध्यम से केवल इतना ही कहा है कि सब गणधर जाति से ब्राह्मण, सभी विद्वान् प्राध्यापक, सव द्वादशांगी के ज्ञाता और सभी चतुर्दश पूर्वधर थे। गवेपणाशील विद्वान् इस सम्बन्ध में प्रयत्न कर तथ्य प्रकट करें, यह इष्ट है। याजकाचार्य के रूप में कर्मकाण्ड एवं यज्ञ-यागादि त्रियानों के अनुष्ठान में प्रतिनिपात और वेदविद्या के पारंगत आचार्य इन्द्रभूति की यशोगाथा दशों दिशाओं में फैल चुकी १.चित्रं चैव त्रिजगति महस्रशो निजिने मया वादै । . [कल्प गुपोधिरा, श्लो. १५, पृ० ३८८] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाचार्य के रूप में ] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम थी। इसके फलस्वरूप अनेक वैभवशाली गृहस्थ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराने के लिये उन्हें अपने यहां आमन्त्रित करने लगे। जिन दिनों श्रमण भगवान महावीर को केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि हुई उन्हीं दिनों अपापा नगर के निवासी सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण ने अपने यहां एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया । सोमिल अपने यज्ञ के अनुष्ठान हेतु इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, प्रकंपित, अंचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास नामक उस समय के लोकमान्य प्रसिद्ध कर्मकाण्डी प्राचार्यों को बड़े आग्रह और मादर के साथ अपापा ले गया। सोमिल ब्राह्मण ने और भी अनेक विद्वानों को उस यज्ञ में आमन्त्रित किया। यज्ञ के सुविशाल प्रायोजन एवं इन्द्रभूति आदि उपर्युक्त उद्भट प्राचार्यों की कीर्ति से प्राकृष्ट हो कर दूर-दूर के प्रदेशों से अपार जनसमह अपापा नगर की ओर यज्ञ की शोभा देखने उमड़ पड़ा। इन्द्रभूति गौतम को उनकी अप्रतिम विद्वत्ता और यशोकीति के कारण यज्ञ के अनुष्ठान हेतु मुख्य प्राचार्य के पद पर अभिषिक्त किया गया एवं उनके तत्वावधान में बड़ी धूमधाम के साथ यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ। सहस्रों कण्ठों से उच्चरित वेदमन्त्रों की ध्वनि तथा यज्ञवेदियों में हजारों श्रवाओं से दी जाने वाली.पाइवियों की सुगन्ध एवं धूम्र के घटाटोप से धरा, नभ और समस्त वाताबरण एक साथ ही गुंजरित, सुगन्धित तथा मेघाच्छन्न सा हो उठा। प्रति विशाल यज्ञ-मण्डप में उपस्थित जनता-जनार्दन प्रानन्द-विभोर हो एक अद्वितीय मस्ती के साथ झूमने लगा। सहसा यज्ञमण्डप में उपस्थित सभी लोगों की प्रांखें एक साथ नीलगगन की पोर उठीं। आकाश के दृश्य को देख कर यज्ञ में उपस्थित लोगों की मांखें चौंधिया गई। सवने वार-वार प्रांखों को मलते हुए स्पष्टतः देखा कि सहस्रों सूर्यो की तरह देदीप्यमान सहस्रों विमानों से नभमण्डल जगमगा रहा है। देवविमानों को यामण्डप की ओर अग्रसर होते देख उपस्थित विशाल जनसमूह के हर्ष का पारावार न रहा। यज्ञ के प्रमुख प्राचार्य इन्द्रभूति गौतम ने घनगम्भीर सगर्व स्वर में अपने यजमान को सम्बोधित करते हुए कहा "सोमिल ! हमने सत्ययुग के दृश्य को साक्षात्-साकार उपस्थित कर दिया है । तुम महान् भाग्यशाली हो। देखो! 'अपना अपना पुरोडाश ग्रहण करने हेतु स्वयं इन्द्रादि सभी देव सशरीर तुम्हारे या में उपस्थित हो रहे हैं।" सदा तत्र समवमृतं वीरं विवन्दिपून् । सुरानापततः प्रेक्ष्य, वभावे गौतमो द्विजान् ॥६२॥ मंघलास्माभिराहूनाः, प्रत्यक्षा नवमी मुराः । इह बने समायान्ति, प्रभावं पश्यत ऋदोः ॥६३॥ [विपष्टि गलाका पुरुप चरित्र, प १०, रागं ५] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मोनिक इतिहास-द्वितीय भाग [याजकाचार्य के रूप में ___"भगवन् ! यह सब पाप जैसे समर्थ. वेदाचार्य की कृपा और करुणा का ही प्रसाद है।" अपने रोम-रोम से प्रतीम कृतज्ञता प्रकट करते हुए पुमकितमना सोमिल ने गद्गद् स्वर में कहा। ___ "नहीं, सोमिल ! यह सब वेदमन्त्रों का प्रताप है।" इन्द्रभूति गौतम ने अपने प्रोन्नत भाल को और समुन्नत करते हुए कहा और वे कनखियों से आकाश की ओर देखते हुए पुनः शतगुरिणत उत्साह एवं उच्च स्वरों से वेदमन्त्रों के पाठ के साथ आहूतियों पर आहूतियां देने लगे। .. पहले की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च स्वर में की जाने वाली मंत्रध्वनि पौर स्वाहा के घोष आकाश को अधर उठाने लगे। हजारों ही नहीं, माखों नेत्र प्राकाशमार्ग से प्राते हुए सहस्रों देवविमानों की ओर अपलक देख रहे थे। ... उसी समय यज्ञस्थल को लांघ कर देवविमान आगे बढ़ गये। सहसा मंत्रपाठ की ध्वनि मंद पड़ गई । उत्साह का स्थान अचानक ही निराशा ने ले लिया। हताश लाखों लोचन मूक जिज्ञासा लिये कभी इन्द्रभूति गौतम के मुख की पोर, तो कभी जाते हुए विमानों की ओर देखने लगे । सर्वत्र निस्तब्धता छा गई। स्वामिमान "अरे ! ये देवगण उस ओर पास ही के किस स्थान पर प्राकाश से नीचे की ओर उतर रहे हैं ?" सहसा अति विस्मित सहस्रों कष्ठों से य. प्रश्न फूट पड़ा। जिस प्रकार प्रायः सभी नदियां समुद्र की ओर दौड़ी जाती हैं ठीक उसी प्रकार यज्ञमण्डप में एकत्रित अधिकांश जनसमूह देवविमानों के सम्पातस्थल की ओर उमड़ पड़ा। इन्द्रभूति ने आश्चर्य, निराशा और झुंझलाहट भरे स्वर में कहा- "अरे! ये देवगण कहीं मार्ग तो नहीं भूल गये हैं ? आखिर ये इस महान यज्ञ को छोड़ कर अन्यत्र जा कहां रहे हैं ? वेदमन्त्रों द्वारा पाहूत एवं आमन्त्रित हो कर भी ये भ्रान्तिवश आगे कहां वढ़े जा रहे हैं ? इसकी छानबीन कर शीघ्र ही कोई मुके सूचित करे।" कुछ ही समय पश्चात् कतिपय व्यक्तियों ने आकर इन्द्रभूति से कहा"प्राचार्य प्रवर ! समीपस्थ प्रानन्दोद्यान में सर्वज्ञ श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं। उन्हें हाल ही में सकल चराचर का साक्षात्कार करने वाला समस्त लोकालोक को हस्तामलक की भांति देखने-जानने वाला केवलज्ञान हुअा है। अतः सभी देवगण भगवान् महावीर के समवसरण में जा रहे हैं।" ___इतना सुनते ही इन्द्रभूति गौतम क्षुब्ध हो उठे। उनकी आंखों से ऋोध की चिनगारियां मी बरसने लगीं। उन्होंने हंकार भरे स्वर में कहा- "अरे ! तुम यह क्या कह रहे हो? क्या मेरी उपस्थिति में और भी कोई सर्वज्ञ बनने का साहस कर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभिमान] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम सकता है ? प्रतीत होता है, वह कोई बहुत बड़ा ऐन्द्रजालिक है' जिसने बुद्धिमान. कहे जाने वाले देवों तक को छल लिया है और वे देव उसे सर्वज्ञ समझ कर उसकी वन्दना एवं स्तुति करने जा रहे हैं। मुझे तरस आता है इन देवताओं की बुद्धि पर कि जिस प्रकार कौवे तीर्थजल का, मेंढक पद्मसरोवर का, मक्खियां सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का, उष्ट्र अंगूर की वल्लरियों का, ग्राम शूकर क्षीरोदन का और उलूक प्रकाश का परित्याग कर अन्यत्र चले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार ये देवगण भी इस पवित्र हविष्यान्न और मेरे जैसे सर्वज्ञ को छोड़ कर कहीं अन्यत्र भागे जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार का. वह नामधारी सर्वज्ञ है उसी प्रकार के ये देव भी हैं। ग्राम्य नट और मूर्ख ग्रामीणों जैसा यह कैसा हास्यास्पद संयोग है। खैर, कुछ भी हो पर में किसी भी दशा में इस सर्वज्ञता के ढोंगपूरणं नाटक को चूपचाप बैठे नहीं देख सकता। क्या आज तक कभी नील . गगन में एक साथ दो सूर्य उदित हुए हैं ? क्या एक ही गिरिगह्वर में कभी दो मृगराज एक साथ रह पाये हैं ? नहीं, नहीं, कदापि नहीं। तो ठीक उसी प्रकार मुझ जैसे सर्वज्ञ के रहते अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता। देवताओं और दानवों के देखते ही देखते अभी में जटिल प्रश्नों की झड़ी लगा उसे हतप्रभ कर उसकी सर्वशता के छम पावरण को उतार फेंकता हूं।" ठीक उसी समय इन्द्रभूति के आदेश से वस्तुस्थिति का पता लगा कर कुछ व्यक्ति समवसरण से लौटे। उनकी आंखों से उनके मनोगत भावों को पढ़ते हुए इन्द्रभूति ने बड़ी व्यग्रता के साथ पूछा- "क्यों ? देख आये उस मायावी को ? कैमा है वह ऐन्द्रजालिक ?" उनमें से एक ने कहा -- "हजारों जिह्वानों से भी उस अलौकिक विभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकी के समस्त प्राणियों की गरगना करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता, ठीक उसी प्रकार करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान श्रमण भगवान् महावीर के अनन्त गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता। ईश्वर के समस्त गुणों का वर्णन करने में असमर्थ वेदों के "नेति, नेति" इस मन्त्र का वास्तविक अर्थ वस्तुतः आज ही हमारी समझ में आया है । भगवान् महावीर की गुणगाथा वर्णनातीत है, वह तो केवल प्रात्मानुभवगम्य ही है।" अपने ही लोगों के मुख से श्रमण भगवान् महावीर की इस प्रकार की प्रशंसा सुन कर इन्द्रभूति तिलमिला उठे और बोले - "अवश्यमेव यह कोई महान धूर्त, माया का प्रादि-आवास है। बड़े आश्चर्य का विषय है कि सभी लोगों को इसने भ्रम में डाल दिया है। मैं तो निमेपमात्र के लिये भी दम महामायावी की सर्वज्ञता के. दावे को राहन नहीं कर सकता । क्योंकि घोर अन्धकार को विनष्ट एम मा इंदजालियोनि कलिऊग ममापण तिवाहिग्गियमा "प्रवर्गाम मे विउमवाय"नि भणिकग ...... . उपन महापुरिसचनियं, पृ० ३०१) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [स्वाभिमान करने के लिये सूर्य कभी प्रतीक्षा में नहीं रहता। अग्नि किसी के करस्पर्श, सिंह अपनी ग्रीवा के वालों के कर्षण को और क्षत्रिय अपने शत्रु को कभी चुपचाप सहन नहीं कर सकता। मैंने वड़े से बड़े दिग्गजवादियों को शास्त्रार्थ में हरा कर उनका मह सदा के लिये वन्द कर दिया है तो यह गेहेनर्दी गहशूर सर्वज्ञ मेरे समक्ष चीज ही क्या है ? जिस अग्नि ने गगनचुम्बी गिरीन्द्रों को भस्मसात् कर राख को ढेरी बना दिया हो उस अग्नि के समक्ष बेचारे वृक्षों और घास-फूस की क्या सामर्थ्य ? जिस प्रचण्ड पवन के झोंकों ने हाथियों के झुण्डों को आकाश में उड़ा दिया हो उसके समक्ष क्या कभी रूई की फुरहरी ठहर सकती हैं ? ___ मेरे भय से अंग देश के विद्वान् अपना पारम्परिक निवासस्थान छोड़ कर सुदूर देशों की ओर भाग गये, बंग देश के विद्वान् मेरे भय से त्रस्त और जर्जर हो गये, अवन्ती देश के विद्वान् मेरे भय से मानो मर ही गये और तिलंग देश के विद्वान् तो मेरे भय के ही कारण तिलंकरण के रंग की तरह काले हो गये हैं। अरे पो लाट देश के विद्वानो ! तुम सबके सब कहां चले गये हो? मनुष्यों में सर्वोत्कृष्ट चतुर द्रविड़ विद्वानो! तुम मारे लज्जा के किस गिरिगह्वर में जा छिपे हो ? खेद ! महाखेद ! शास्त्रार्थ के लिये परम आतुर, कण्डूयमान जिह्वा वाले इस इन्द्रभूति के लिये तो आज समस्त जगत् में वादियों का भयंकर दुष्काल और एकान्ततः प्रभाव हो गया है। ऐसे मुझ इन्द्रभूति के समक्ष सर्वज्ञता का दम्भ लिये हुए यह नया वादी कौन आया है ?" वस्तुतः मानव-स्वभाव में अहं इतना संपृक्त और घुला-मिला रहता है कि उसे मानव के सहजन्मा की संज्ञा दी जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अधिकांशतः यह देखा जाता है कि मानव थोड़ा-सा ज्ञान अजित कर अपने उस पल्लवग्राही पाण्डित्य से ही अपने आपको सकल विद्यानिधान, अद्वितीय प्रकाण्ड पण्डित और यहां तक कि सब कुछ जानने देखने वाला सर्वज्ञ तक घोषित करने का दुराग्रह एवं दम्भ कर बैठता है । यह हमें प्रत्यक्ष में और पुरातन इतिहास के पन्नों में यत्र-तत्र देखने को मिलता है। ___मानव-मानस में उद्भूत इस अहं की विपवल्लरी के साथ-साथ जव दम्भ अथवा दुराग्रह का विपवृक्ष अंकुरित-पल्लवित तथा पुष्पित हो जाता है तो वह उस मानव के साथ-साथ कभी-कभी समग्र मानव जाति के अधःपतन का कारण भी बन जाता है। अपने समय में अपने समकक्ष अन्य किसी विद्वान को न पा कर मानव स्वभाव के कारण इन्द्रभूति के मन में भी कुछ क्षणों के लिये अहं के अंकुरित होने की संभावना महज प्रतीत होती है। पर पूर्वाग्रह, दुराग्रह अथवा दम्भ का उद्भव उनके मानस में किचित्मात्र भी नहीं हो पाया था। उनका अन्तर्मन तथ्य को ग्रहण करने के लिये मदा पूर्वाग्रह, दुगग्रह एवं दम्भ ग्रादि से उन्मुक्त और अछूता रहा। यही कारण है कि तथ्य की प्रवल जिज्ञाना और गत्य को ग्रहण Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शास्त्रार्थ का विचार केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम कर उसे आत्मसात् करने की उनकी उदार मनोवृत्ति ने उनके एकांगीण व्यक्तित्व को प्रागे चल कर समष्टि के विराट् व्यक्तित्व का स्वरूप प्रदान किया। म. महावीर से शास्त्रार्थ का विचार अपने अहं के पूर्णरूपेण जागृत होने के फलस्वरूप इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर से शास्त्रार्थ करने हेतु भगवान के समवसरण की ओर जाने के लिये उद्यत हुए। - इन्द्रभूति को भगवान् महावीर के पास जाने के लिये उद्यत देख कर उनके अनूज अग्निभूति ने उनसे कहा- "ज्येष्ठार्य ! जिस प्रकार कोमल कमलनाल को उखाड़ने के लिये इन्द्र के हस्तिशिरोमणि ऐरावत का उपयोग करना अनावश्यक है उसी प्रकार इस नगण्य साधारण वादी के लिये आपको कष्ट उठाने की प्रावश्यकता नहीं। मैं ही वहां जा कर अभी उसे परास्त किये देता हूं।" इन्द्रभृति ने कहा- "वत्स ! यह सर्वज्ञप्रलापी यों तो मेरे किसी भी छात्र के द्वारा भी जीता जा सकता है पर किसी भी प्रतिवादी का नाम सुनने के पश्चात मैं चुपचाप बैठ नहीं सकता। जिस प्रकार तिलराशि को पेरते समय कोई एक तिल का दाना, धान्य को दलते समय कोई एक धान्यकरण, घास को काटते समय कोई एक तृण और अन्न को पीसते समय कोई तुसकरण वचा रह जाता है, उसी प्रकार संसार के समस्त वादियों को परास्त करते समय किसी न किसी तरह यह वादी वचा रह गया है। अपने आपको सर्वज्ञ बताने वाले इस वादी को मैं किसी भी तरह सहन नहीं कर सकता । अव यदि इस एक वादी को मैं पराजित नहीं करता हूं तो मेरे द्वारा पराजित समस्त वादी अपराजित हो जायेंगे । क्योंकि सती स्त्री यदि एक वार अपने सतीत्व से स्वलित हो जाती है तो वह सदा के लिये दुराचारिणी कही जाती है।" "वत्स! मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि मैंने त्रैलोक्य के हजारों प्रतिवादियों को पराजित कर दिया फिर भी पाकशाला को हंडिया में पकाये गये अन्न में बिना पके एक कोरड़ की तरह यह एक वादी अपराजित कैसे बचा रह गया? इस एक के अनिजित रहने पर तो मेरा विश्वविजयित्व का समग्र यश ही नष्ट हो जायगा । क्योंकि शरीर में रहा हुआ एक साधारण शल्य भी, यदि उसका शमन नहीं किया जाय तो एक न एक दिन असाध्य वन कर प्रारणों का अपहरण कर लेता है। वत्स ! क्या एक जलयान में किसी भी तरह हुआ एक छोटा सा छिद्र भी उसे समुद्र में नहीं डुबो देता? क्या एक आधारभूत ईट को खींच लेने पर सारा दुर्ग ढह नहीं पड़ता?"' पस्मिन्नजिते सर्व, जगज्जयोद्भूतमपि यशो नश्येत् । अल्पमपि शरीरस्थं शल्यं प्राणान् वियोजयति ।।१६।। छिद्रे स्वल्पेऽपि पोत: किं पयोधी न निमज्जति । एकस्मिन्तिंष्टके कृष्टे, दुर्गः सर्वोऽपि पात्यते ॥१७॥ किल्प सुबोधिका पृ० ३८८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शास्त्रार्थ के लिए प्रयाण देवों द्वारा यज्ञभूमि का उल्लंघन कर भगवान् महावीर के समवसरण में जाने की घटना पर कुछ क्षण विचार करने के अनन्तर इसे अपने अहं पर वज्राघात समझ कर इन्द्रभूति ने आवेशपूर्ण स्वर में कहना प्रारम्भ किया- "इस मायावी ने अपने आपको सर्वज्ञ घोषित कर के अकारण ही मेरी क्रोधाग्नि को भड़का दिया है। यह तो इसका वस्तुतः वैसा ही दुस्साहस है जैसे मानो कोई मेंढक भयंकर काले विषधर को चपत लगाना, म्वर्गलोक के निवासी देव पर धरती पर रहने वाला बैल अपने सींगों से प्रहार करना, एक हाथी अपने दांतों से गिरिराज को उखाड़ कर धराशायी करना और एक अकिंचन शशक सिंह के कन्धे के बालों को खींचना चाहता हो। जिस प्रकार कोई मूढ़ व्यक्ति शेषनाग के मस्तक की मणि को लेने के लिये हाथ बढ़ा कर अपने काल को स्वयं बुलावा देता है उसी प्रकार इसने अपनी सर्वज्ञता का आडम्बर रच कर मेरे क्रोध को भड़का दिया है। जिस प्रकार कोई मूर्ख व्यक्ति घने जंगल में आग लगा कर उसके मध्य भाग में बैठ जाता है अथवा कोई बुद्धिहीन व्यक्ति सुखप्राप्ति की अभिलाषा से कंटकलता का आलिंगन करता है, ठीक उसी प्रकार इसने मेरी उपस्थिति में सर्वज्ञता का ढोंग रच कर अपने लिये संकट को निमन्त्रित किया है। खद्योत तभी तक टिमटिमाता और चन्द्र तभी तक चमकता है जब तक कि प्रखर किरणों वाला प्रचण्ड मार्तण्ड उदित नहीं हो जाता। सूर्योदय हो जाने पर न कहीं खद्योत का पता चलता है और न कहीं चन्द्रमा का ही। ओ हाथियो ! हरिणो और वन्य पशुओं के मुण्डो! अब इस जंगल से शीघ्रातिशीघ्र भाग निकलो। देखो! क्रोष से अपनी ग्रीवा की बड़ी-बड़ी केमर का प्राटोप बनाये तुम्हारा काल वह सिंह पा रहा है।" "ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे सौभाग्य से ही यह वादी यहां पाया है। आज मै निश्चित रूप से इसकी जिह्वा की खुजली सदा के लिये मिटा दूंगा।" शास्त्रार्थ के लिये प्रयारण इस प्रकार का निश्चय कर इन्द्रभूति गौतम ने यज्ञोपवीत, पीला चोला आदि बारह विशिष्ट चिह्न धारण कर अपने ५०० शिष्यों के साथ श्रमण भगवान् महावीर के समवसरण की ओर प्रस्थान किया। इन्द्रभूति के अनेक शिष्य अपने हाथों में विविध प्रकार के उपकरण लिये हुए थे। कई शिष्य कमण्डलु और कई विजय के द्योतक पवित्र दर्भ हाथों में लिये हुए थे। वे सभी ५०० शिष्य अपने गुरु इन्द्रभूति की महिमा के चोतक "सरस्वतीकण्ठाभरण की जय हो", "वादिविजयलक्ष्मीशरण की जय हो", "वादिमदगंजन-वादिमुखभंजन की जय हो", "वादिगजसिंह की जय हो" आदि ' कल्पसूत्र की सुबोषावृत्ति (पृ. ३८६) के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि इनभूति गौतम को अनेक शास्त्राचों में विजयोपलब्धि के फलस्वरूप उस समय की परम्पराविशेष के विद्वसमाज द्वारा निम्नलिखित उपाधियों से संबोधित किया जाता ण:(१) सरस्वती कण्ठाभरण, (३) वादि-मदगंजन, (२) वादिविजयलक्ष्मीशरण, (४) वादि-मुख-मंजन, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थ के लिए प्रयाण] केवनिकाल : इन्द्रभूति गौतम जयघोषों से गगनमण्डल को गुंजाते हुए इन्द्रभूति के पीछे-पीछे भगवान महावीर के समवसरण की ओर बढ़ चले। म. महावीर को देख कर विचार मार्ग में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प करते हुए इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के समवसरण के सन्निकट पहुंचे। अष्ट महाप्रातिहार्यों और श्रमण भगवान् महावीर के महाप्रतापी अलौकिक ऐश्वर्य को देख वे अत्यन्त प्राश्चर्य से स्तंभित हो सीढ़ियों पर निश्चल खड़े रह कर निनिमेष दृष्टि से प्रभु की ओर देखते ही रह गये। वे मन ही मन सोचने लगे "कहीं ये साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु प्रथवा शंकर तो नहीं हैं। चन्द्र तो ये निश्चित रूप से नहीं है, क्योंकि चन्द्र तो सकलंक होता है और इनका स्वरूप, शान्त, स्वच्छ एवं निष्कलंक है। ये सूर्य भी नहीं है, क्योंकि सूर्य तो संतापकारी प्रखर किरणों वाला है, पर इनका स्वरूप बड़ा ही सौम्य, सुखद, शीतल, मनोहारि और नयनाभिराम है।" . . "ये सुमेरु पर्वत भी नहीं हैं क्योंकि प्रति कठोर सुमेरु की तुलना में ये प्रत्यन्त सुकोमल हैं। न ये विष्णू ही हो सकते हैं, क्योंकि विष्णु तो सस्यश्यामल वर्णवाले हैं और इनका स्वरूप तपाये हुए स्वर्ण के समान बड़ा ही मनोहारि है। यह ब्रह्मा भी नहीं हैं क्योंकि ब्रह्मा बुड्ढा है और ये युवा हैं । ये कामदेव भी नहीं हो सकते क्योंकि वह तो वृद्धावस्था से सदा भयभीत रहने वाला और अशरीरी है।" "तो निश्चित रूप से मुझे यह विश्वास करने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है कि उन सब दोषों से रहित और समस्त गुणों से सम्पन्न ये अन्तिम तीर्थंकर हैं।" (३) पादि-गव-सिंह, (१९) पादितुल्सुरेल, (१) बादीश्वरलीह, (२०) वादिगरुड़गोविन्द, (७) बादिसिंहाष्टापद, (२१) वादिजनराजान, (८) बादिविनयविशद, (२२) वादिकंसकान्ह, (९) वादिवृन्वभूमिपाल, (२३) वादिहरिणहरिः, (१०) वादिशिरःकाल, (२४) वादिज्वरधन्वन्तरि, (११) बादिकदलीकपाण, (२५) वादियूथमल्ल, (१२) बादितमोमाण, (२६) वादिहृदयशल्य, (१३) बादिगोधूमपरट्ट, (२७) वादिगरणजीपक, (१४) मदितवादिमरट्ट, (२८) वादिशलभदीपक, (१५) वादिषटमुद्गर, (२९) वादिचक्रचूड़ामणि, (११) वादिषूकमाकर, (३०) पण्डितशिरोमणि, .(१०) वादिसमुद्रागस्ति, (३१) विजितानेकवाद, और (१०) पावितस्मूलनहस्ती, (३२) सरस्वतीलषप्रसाद । [सम्पादक] 'ब चुतणं पत्तो, बढुं तेल्लुक्कपरिपुर वीरं। परतीसाइसयनिहि, स संकिमो चिठ्ठिो पुरभो ॥१२४।। [भावश्यक, मलय, पत्र ३१३] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [म. म. को देखकर विचार · अपने मन में इस प्रकार के विचारों के उत्पन्न होते ही इन्द्रभूति सशंक हो उठे । स्फटिक सिंहासन पर विराजमान तथा देव-देवेन्द्रों एवं नर-नरेन्द्रों द्वारा सेव्यमान त्रिलोकपूज्य भगवान् महावीर को देख कर इन्द्रभूति मन ही मन सोचने लगे – “शोक ! महाशोक ! मैंने स्वयं अपने लिये एक बड़ी विकट समस्या उत्पन्न कर ली है । मेरा समस्त पूर्वोपार्जित यश अब धूलि में मिलने जा रहा है। जिस प्रकार एक मूर्ख व्यक्ति एक साधारण कील को प्राप्त करने के लिये अपने विशाल, भव्य भवन को गिरा देने जैसी भयंकर मूर्खता कर बैठता है, ठीक उसी प्रकार की मूर्खता मैं ग्राज कर बैठा है। इस एक वादी को न जीतने की दशा में मेरे मान-सम्मान को कहाँ ठेस पहुंचती थी ? अपने विश्वविजयी नाम की लज्जा, अब मैं किस प्रकार रखूंगा। मैंने मदान्ध हो अपनी अदूरदर्शिता के कारण बिना विचारे ही यह मूर्खता की, जो मैं इन त्रिलोकीनाथ को जीतने को दुराशा लिये यहां चला आया । इनके समक्ष मैं बोलने का साहस ही किस प्रकार कर सकूंगा ? अब मैं यहां आकर पीछे की ओर भी किस प्रकार लौटू ? क्योंकि मेरे इस प्रकार लीटने को संसार में पलायन की संज्ञा दी जायगी । पलायनजन्य अपकीति तो मृत्यु से भी अधिक घोर कष्टप्रद होती है । मैंने अपने प्रापको घोर संकट में डाल लिया है। अब तो इस संकट से भगवती भवानी ही मेरी रक्षा कर सकती है। यदि सद्भाग्य से किसी न किसी प्रकार प्राज मेरी विजय हो जाय तव तो निश्चित रूप से त्रैलोक्य के विद्वानों का शिरोमरिण होने का मेरा विरुद सुरक्षित रह सकता है ।" १६ स्थाणु के समान निश्चल इन्द्रभूति गौतम जिस समय मन ही मन इस प्रकार विचारसागर में गोते लगा रहे थे, ठीक उसी समय सर्वज्ञ- सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर ने अमृत से भी प्रति मधुर अनिर्वचनीय ग्रानंदप्रदायिनी वाणी में उन्हें उनके नाम - गोत्रोच्चाररण पूर्वक सम्बोधित करते हुए कहा - "हे इन्द्रभूति गौतम ! सागयं 'सु ग्रागतं स्व-पर कल्याणकारी होने से - तुम्हारा श्रागमन अच्छा है, लाभकारी है ।"" ९. इतना सुनते ही इन्द्रभूति सोचने लगे " आश्चर्य है ! ये मेरा नाम भी जानते हैं ।" पर क्षण भर में आश्वस्त हो उन्होंने मन ही मन विचार किया - " इसमें प्राश्चर्य की कोई बात नहीं। तीनों लोकों में विख्यात लब्धप्रतिष्ठ इन्द्रभूति गौतम को भला कौन नहीं पहिचानता ? सूर्य भी कभी कहीं किसी आबाल-वृद्ध से छुपा रह सकता है ? यदि ये मेरे मन में छुपे मेरे गुप्तत सन्देह को प्रकट कर दें तो मैं इन्हें सर्वज्ञ मान सकता हूँ, अन्यथा मेरी दृष्टि में ये नगण्य ही रहेंगे ।" - ● आभट्ठो य जिरणेणं, जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गुतेण य, सव्वन्नू सव्वदरिसिरणा ||५६६ ।। हे इंदभूइ ! गोग्रम ! सागयमुत्ते जिणेण चितेइ । नामपि मे विप्राणs, श्रहवा को मं न यागेइ ।। १२५ ।। [ श्रावश्यक, मलय, ( समवसरण ), पत्र ३१३] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव प्रत्य-सिब है] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर द्वारा उद्बोधन इन्द्रभूति गौतम अपने मन में इस प्रकार के विचार कर ही रहे थे कि प्रभु महावीर ने उनसे कहा-"गौतम! तुम्हारे मन में प्रात्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में सन्देह है । तुम यह सोचते हो कि जीव घट-पट आदि की तरह प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता और जो वस्तु प्रत्यक्ष में किसी भी तरह दिखाई नहीं देती उसका प्राकाशकुसुम अथवा खर-विषाण की तरह संसार में कोई अस्तित्व नहीं होता।' वेदवाक्यों के गूढार्थ को अच्छी तरह समझ नहीं पाने के कारण तुम्हारे मन में यह संशय उत्पन्न हुआ है । लो सुनो, मैं तुम्हें वेद की ऋचाओं का वास्तविक अर्थ समझाता हूं।" कभी किसी पर प्रकट नहीं किये गये अपने मन के निगूढ़तम संदेह को भगवान् द्वारा प्रकट कर दिये जाने पर इन्द्रभूति गौतम साश्चर्य निनिमेष दृष्टि से भगवान की ओर देखने लगे । वे मन ही मन सोचने लगे - "अाज तक किसी भी व्यक्ति के सम्मुख प्रकट नहीं किया गया मेरा मनोगत गूढतम संशय इन्हें कैसे विदित हो गया? सर्वज्ञ के अतिरिक्त मनोगत भावों को कौन जान सकता है ? वस्तुतः क्या में किसी सर्वज्ञ के सम्मुख खड़ा हूं?" जीव प्रत्यक्ष-सिद्ध है इन्द्रभूति मन ही मन इस प्रकार के ऊहापोह में लीन थे, उसी समय प्राणिमात्र के मनोगत भावों को जानने वाले महावीर प्रभु की घनरव गम्भीर वारणी उनके कानों में गूंज उठी - "इन्द्रभूते ! मैं सर्वज्ञ होने के कारण जीव को प्रत्यक्ष देख रहा हूं। जीव तुम्हारे लिये भी प्रत्यक्ष है। तुम्हारे अन्तर में जीव के अस्तित्वानस्तित्व विषयक शंका जिसको हुई है, वही वस्तुतः जीव है । चित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, उपयोग, संशय, जिज्ञासा, सुखदुःखादि की अनुभूति, चिकीर्षा, जिगमिषा, दुःखों से सदा दूर भागने और बचे रहने की प्रवृत्ति, सुखपूर्वक चिरंजीवी रहने की लिप्सा आदि समस्त लक्षण देहधारी प्रत्येक आत्मा में स्पष्टतः प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं अतः प्रात्मा का अस्तित्व भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ' (क) जीवे तुव संदेहो, पच्चक्खं जं न पिप्पइ घडोव्व । प्रच्चन्तापच्चक्खं च, नत्थि लोए खपुप्फ व ।।१५४६।। [विशेषा० भा०] (ख) जंपइ पुणोवि भयवं, तुह हियए संसपो समुप्पण्णो । जीवो कि पत्थि रण वात्थि एत्थ तं मुगासु परमत्थं ।। इन उपत्र म• पु० चरियं, पृ० १ ०१J २ वत्तणालक्खरणो कालो, जीवो उवप्रोगलक्खगो। नाणेणं दंसरणेणं च, सुहेण य दुहेण य ।।१०।। नारणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । वीरियं उवनोगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ।।११।। [उत्तराध्ययन मुत्र, अ. २८] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जीव प्रत्यक्ष-सिद्ध है स्वतः सिद्ध है। जो प्रत्यक्षतः सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिये अन्य प्रमाण की अावश्यकता नहीं। जिस प्रकार अनुभूति, इच्छा, संशय, हर्ष, विषाद आदि भाव अमर्त-अरूपी होने के कारण बाह्य चक्षुषों से दृष्टिगोचर नहीं होते उसी प्रकार जीव भी अमूर्त-अरूपी होने के कारण चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता। गौतम ! प्रत्येक व्यक्ति द्वारा वर्तमान, भूत और भविष्य के अपने कार्यकलापों के सम्बन्ध में इस प्रकार की अनुभूति की जाती है कि “मैं सुन रहा हूँ", "मैंने सुना था", "मैं सुनंगा"। इस प्रकार की अनुभूतियों में "मैं" की प्रतिध्वनि से प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीव का प्रत्यक्षानुभव होता है।" भगवान महावीर प्राणिमात्र के मनोगत भावों को जानने वाले थे अतः गौतम के मन में जो भी शंका उठी, गौतम द्वारा उस शंका के प्रकट किये जाने से पहले ही भगवान ने उसे गौतम के समक्ष रख कर उसका तत्काल समाधान कर दिया और इस प्रकार गौतम इन्द्रभूति को अपनी शंकानों के समाधान के लिये बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। भगवान् ने फरमाया- “गौतम ! प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गई-'मैं प्रसन्न हूं' अथवा 'मैं पीडित हं' इत्यादि अनभूतियों में प्रयुक्त- 'मैं' पद से आत्मा का ही बोध होता है । 'मैं नहीं हैं' इस प्रकार की अनुभूति अथवा अभिव्यक्ति कोई व्यक्ति नहीं करता।" - आगम प्रमाण के सम्बन्ध में गौतम के अन्तर्मन में उठी शंका का तत्काल समाधान करते हुए प्रभु ने कहा - "गौतम ! तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न होने का मूल कारण यह है कि तुम वेद की ऋचाओं के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाये हो । एक ओर -- । 'न ह वै सशरीरस्यसतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसंत प्रियाप्रिये न स्पृशतः' तथा ‘स्वर्गकामो यजेत' १ (क) अत्थि रिणरुत्तं जीवो, इमेहिं सो लक्खणेहिं मुणियब्वो। चित्तं-चेयग-सण्णा. विण्णाणादीहिं चिधेहि ।।४२०।। चिउपन्नमहापुरिस चरियं, पृ० ३०१] (ग्व) गोयम पच्चक्षुच्चिय, जीवो जं संसयाइ विन्नाणं । पच्चश्वं च न सझं, जह · सुह-दुक्खा सदेहम्मि ।।१५५४।। [विशेषावश्यक भाष्य २ नागादग्रो न देहस्स, मुत्तिमत्ताइयो घडस्सेव । तम्हा नागाइ गुगगा जस्म, स देहाइग्रो जीवो ॥१५६२।। [विशेषावश्यक भाप्य] 3 छान्दोग्योपनिषद्, ४४५ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजामवन का अर्थ केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम इन वेद-पदों से प्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । दूसरी पोर - 'विज्ञानघन एवतेभ्यो भूतेभ्यः समृत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति'' इस वाक्य से तज्जीव तच्छरीरवाद की प्रतिध्वनि व्यक्त होती है। वेद के इन वाक्यों को परस्पर विरोधी मानने के कारण तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न हुया है। गौतम ! उपर्युक्त अंतिम वेदवाक्य का वस्तुतः तुम अर्थ ही नहीं समझे हो । मैं तुम्हें इसका सही अर्थ समझाता हूं।" विज्ञानधन का वास्तविक पर्व "इस वाक्य में ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोगरूप विशिष्ट ज्ञानपुंज से युक्त प्रात्मा को विज्ञानघन कहा गया है, क्योंकि प्रात्मा स्वयं ज्ञानपंज है। विज्ञान प्रात्मा से पृयक नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से प्रात्मा सर्वव्यापी है। वह अात्मविज्ञान घटपटादि भूतों के ज्ञान से विज्ञान के रूप में उत्पन्न होता है । जव वे घटपटादि भूत शनैः शनैः विज्ञानघन प्रात्मा का ध्यान दूसरी ओर प्राकर्षित होने के कारण विज्ञेय के भाव से नष्ट - तिरोहित हो जाते हैं तो वह आत्मा का विज्ञान स्वरूप अपने उस पूर्वोपलब्ध घटपटादि के ज्ञान की दृष्टि से उन घटपटादि के विनष्ट अर्थात् तिरोहित होते ही उन्हीं के साथ नष्ट हो जाता है।" उक्त वेदवाक्य का तात्पर्य यह है कि विज्ञानघन प्रात्मा को घटपटादि भूतों के देखने से जो घटविषयक अथवा पटविषयक ज्ञान होता है, वह क्रमशः अन्य वस्तुओं की ओर ध्यान आकर्षित होने पर नष्ट हो जाता है और उसके स्थान पर वृक्ष, फूल, फलादि अन्य वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है । किसी वस्तु के प्रथम दर्शन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसके अनन्तर दूसरी वस्तु के दर्शन से तद्विषयक नवीन ज्ञान होते ही पूर्व वस्तुओं से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञान का स्थान नवीन वस्तुओं का ज्ञान ग्रहण कर लेता है। यही क्रम आगे से आगे चलता रहता है। इस प्रकार पहले देखी हुई वस्तु का ज्ञान उसके पश्चात् देखी हुई वस्तु के ज्ञान के साथ ही नष्ट हो जाता है। वस्तुतः आत्मा नप्ट नहीं होती, अपितु पूर्ववर्ती ज्ञान का स्थान पश्चाद्वर्ती ज्ञान द्वारा ले लिये जाने पर वह पूर्ववर्ती घटपटादि ज्ञेय वस्तुओं का ज्ञाता विज्ञान ही नष्ट होता है । एक ज्ञेय के पश्चात् अन्य जेय का ज्ञान विज्ञानघन आत्मा में अविकल रूप से क्रमशः चलता रहता है अतः प्रात्मा के नष्ट होने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।" वेदपद में प्रयुक्त प्रेत्य संज्ञा का वास्तविक अर्थ "न प्रेत्य संज्ञास्ति' इस वेदपद का अर्थ समझाते हए प्रभू महावीर ने कहा-"घट को देखते ही पात्मा में घटोपयोग अर्थात् जेयभूत घट का विज्ञान १ वहदारण्यकोपनिषद् (१२-५३८) में "न प्रेन्य संज्ञास्ति' इमगे नागे "इत्वरे ब्रवीति होवाच याज्ञवल्क्यः "- देकर वाक्य की पूर्ति की गई है। . [सम्पादक Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रेत्य संज्ञा का अर्थ उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् पट को देखने पर प्रात्मा का ध्यान घट की ओर से हट कर पट की ओर आकर्षित हुअा। उस दशा में घट के दृष्टि से ओझल होने के साथ ही आत्मा का घटोपयोग नष्ट हो गया और उसका स्थान प्रात्मा में पटसम्बन्धी ज्ञान होने के कारण पटोपयोग ने ले लिया और इस तरह पटोपयोग के आविर्भूत हो जाने पर प्रात्मा में घटोपयोग की प्रत्य अर्थात् पूर्व की संज्ञाजानकारी नहीं रहती।" "ज्ञान वस्तुतः भूतों का धर्म नहीं है क्योंकि वह वस्तु के अभाव में भी विद्यमान और वस्तु की विद्यमानता में अविद्यमान भी रहता है। जिस प्रकार घट से पट एक भिन्न वस्तु है, उसी प्रकार भूतों से ज्ञान नितान्त भिन्न वस्तु है । घट और पट दोनों भिन्न-भिन्न दो वस्तुएं होने के कारण जिस प्रकार घट के अभाव में पट की और पट के अभाव में घट की विद्यमानता रहती है, उसी प्रकार मुक्तावस्था में वस्तुओं का अभाव होने पर भी उनका ज्ञान विद्यमान रहता है और मृत शरीर में भूतों की विद्यमानता रहने पर भी ज्ञान नहीं रहता। वस्तुतः शरीर और जीव एक दूसरे से भिन्न दो वस्तुएं हैं। शरीर जीव का आधार और जीव शरीर का प्राधेय है। उपयोग, अनुभूति, संशयादि विज्ञान जीव के लक्षण अरूपी-अमूर्त हैं, पर शरीर मूर्त है। किसी मूर्त का गुण अमूर्त नहीं हो सकता, अतः विज्ञानादि अमूर्त गुण मूर्त शरीर के नहीं अपित् अमूर्त आत्मा केही हो सकते हैं। जिस प्रकार दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, पुष्प में सुगन्ध, चन्द्रकान्त मरिण में सुधा घुलीमिली प्रतीत होने पर भी वस्तुतः दुग्ध प्रादि से भिन्न है, उसी प्रकार शरीर के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों में व्याप्त आत्मा भी निश्चित रूपेरण शरीर से भिन्न है।" एकात्मवाद का निराकरण तदनन्तर-"पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं, उतामृतत्वस्येशानः यदन्नेनातिरोहति, यदेजति, यन्नेजति, यद्रे, यदुअन्तिके यदन्तरस्य सर्वम्य, यत् सर्वस्यास्य बाह्यतः । [ईशावास्योपनिषद् तथा : एक एव हि भूतात्मा, भूते-भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ।। तथेदममलं ब्रह्म, निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं, भेदरूपं प्रकाशते ।। + क्षीरे घृतं तिले तैलं काष्टेऽग्निः सौरभं सुमे । . चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत्तथात्माप्यंगतः पृथक् ।। [गणधरवाद की टीका] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ एकात्मवाद] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम आदि एकात्मवादपोषक उक्तियों के अनुसार समग्र संसार में भिन्न-भिन्न मात्माएं नहीं अपितु अाकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त एक ही प्रात्मा है -" इन्द्रभूति गौतम के हृदय में उत्पन्न हुए इस प्रकार के संशय का भी बड़ी युक्तिपूर्ण मधुर वाणी से समाधान करते हुए भगवान महावीर ने फरमाया"इन्द्रभूते! यदि निर्मल अनन्त आकाश के समान विराट् एक ही प्रात्मा सब पिण्डों में विद्यमान होता तो जिस प्रकार प्रकाश सभी भिन्न-भिन्न पिण्डों में एक ही रूप से विद्यमान है, आकाश की नानारूपता, विचित्रता और विलक्षणता उन पिण्डों में दिखाई नहीं देती उसी प्रकार जीव भी सब भूतसंघों में नानारूपता, वैचित्र्य एवं विलक्षणता से रहित एकरूपता में ही दिखाई देता पर प्राणी-समूह में ऐसी समानरूपता एवं एकरूपता का नितान्त अभाव है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि एक प्रारपी के लक्षणों से दूसरे प्राणी के लक्षण बिलकुल ही भिन्न दिखाई देते हैं। इससे सहज ही यह सिद्ध होता है कि सब प्राणियों में एक ही पात्मा नहीं अपितु भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं। लक्षणभेद होने पर लक्ष्यभेद स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। यदि सभी देहसमूहों में आकाश की तरह सर्वव्यापी एक ही प्रात्मा होता तो, कर्ता, भोक्ता, मन्ता, एवं सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष प्रादि की विभिन्न दशाएं प्राणियों में विद्यमान नहीं रहतीं। पर वस्तुस्थिति सर्वथा प्रत्यक्ष है कि सुख-दुःख आदि की समानता प्राणिवर्ग में दृष्टिगोचर नहीं होती। प्राज अनेकों प्राणी दुःख के,कारण छटपटाते और कई प्राणी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला यह अन्तर इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि समस्त भूतसंघों में व्योम की तरह कोई विराट् एक प्रात्मा नहीं बल्कि अलग अलग अनन्त प्रात्माएँ हैं।" "जीव का प्रमुख लक्षण है उपयोग । वह उपयोग प्रत्येक प्राणी में एक दूसरे से भिन्न-भिन्न, स्वल्पाधिक मात्रा में और विभिन्न प्रकार का पाया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक देहधारी में उपयोग के उत्कर्ष-अपकर्ष एवं न्यूनाधिक्य भेद के कारण संसार में आत्माओं की संख्या भी अनन्त है। वस्तुतः प्रात्मा अविनाशीध्रौव्य है । संसारी आत्माओं में घटपटादि के इन्द्रियगोचर होने पर जो घटोपयोग, पटोपयोग प्रादि ज्ञान-पर्यायें उत्पन्न होती हैं उस दृष्टि से प्रात्मा के उत्पाद स्वभाव का तथा उसमें पटोपयोग के उत्पन्न हो जाने पर पूर्व के घटोपयोग रूपी ज्ञानपर्याय का व्यय अर्थात् विनाश हो जाने के कारण प्रात्मा के व्यय स्वभाव का परिचय प्राप्त होता है। पर उत्पाद और व्यय की उन दोनों ही परिस्थितियों में प्रात्मा का अविनाशी स्वभाव सदा सर्वदा अपने शाश्वत ध्रुव स्वरूप में विद्यमान रहता है अतः प्रात्मा ध्रौव्य स्वभाव वाला माना गया है । ज्ञान-पर्यायों के उत्पाद एवं व्यय के कारण हो आत्मः उत्पाद और व्यय रूप में परिलक्षित होता है अन्यथा वह शाश्वत-ध्रौव्य-अविनाशी है।" इस प्रकार पंचभूतवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, एकात्मवाद प्रादि का निरसन करते हुए भगवान् महावीर ने अपनी गुरुगम्भीर मृदुवारणी द्वारा अनुपम कुशलता. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-दितीय भाग हृदय परिवर्तन पूर्वक प्रमागसंगत एवं हृदयग्राही युक्तियों से प्रात्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में इन्द्रभूति गौतम के मनोगन गम्पूर्ण संशयों का मूलोच्छेद कर दिया । हृत्तल के निविड़तम प्रज्ञानान्धकार को विनष्ट कर देदीप्यमान ज्ञानालोक प्रकट करने में समर्थ सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर के अमोघ वचनों का, परम सत्य को पहिचान कर उसे प्रात्मसात् करने की उत्कट अभिलापा रखने वाले इन्द्रभूति के पूर्वाग्रहों से विनिर्मुक्त स्वच्छ निश्छल अन्तर्मन पर अत्यन्त अद्भुत प्रभाव पड़ा। प्रभु की दिव्य ध्वनि से न केवल उनके अन्तर्मन के संदेह ही दूर हुए अपितु उनका अन्तर अचिन्त्य, अनिर्वचनीय अद्भुत एवं अलौकिक उल्लास से प्रोतःप्रोत हो गया। हत्यपरिवर्तन इन्द्रभूति गौतम ने अपनी प्रांखों से असीम कृतज्ञता प्रकट करने के साथ-साथ अपने पापको प्रभुचरणों पर न्योछावर करते हुए हर्षगद्गद् स्वर में कहा-"भगवन् ! अव मैं सम्पूर्णरूपेण प्रापकी शरण में है। प्रभो ? माज का दिन मेरे लिये परम सौभाग्यशाली दिन है। आज मेरा सकल जीवन सफल हो गया क्योंकि आज मुझे पाप जैसे महान् जगत्गुरु प्राप्त हुए हैं। आपने मेरे हृदय में व्याप्त घोर अन्धकार को विनष्ट कर दिया है। आपकी युक्तिपूर्ण, सुधासिक्त शाश्वत-सत्य वाणी से मेरे मन के समस्त संशयों का समूल नाश हो गया है। मैं आपको पूर्णरूपेण सर्वज्ञ और सर्वदर्शी स्वीकार करता है तथा आपके वचनों एवं सिद्धान्तों पर प्रगाढ़ श्रद्धा रखता हूँ। आपके कृपाप्रसाद से मैंने वास्तविक सत्य को पा लिया है।" पश्चात्ताप भरे स्वर में आत्मनिन्दा करते हुए इन्द्रभूति कहने लगे-"शोक ! महाशोक ! विश्व में मिथ्यात्व वस्तुतः पाप का बहुत बड़ा भण्डार है। अपने जीवन का आज तक का इतना अमूल्य समय मैंने मिथ्यात्व का सेवन करते हुए ..व्यर्थ ही खो दिया है।"२. इस प्रकार सर्वज्ञ प्रभु महावीर की अतुल प्रभावोत्पादक तर्क एवं युक्तिसंगत अमोघ वाणी द्वारा इन्द्रभूति गौतम की सत्यान्वेषिणी, सरल, स्वच्छ एवं अनाग्रहपूर्ण मनोभूमि में बोया हुआ एवं परिसिंचित आध्यात्मिकता का बीज सहसा अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हो उठा। .... पूर्वाग्रहों के प्रति किचित्मात्र भी मोह न होने तथा सत्य के प्रति परम निष्ठा के साथ-साथ सत्य को अपने जीवन में ढालने का प्रबल साहस होने के ' अचाहमेव धन्योऽहं (स्मि), 'सफलं जन्म मेऽखिलम् । . यतो मयातिपुण्येन, प्राप्तो देवो जगद्गुरुः ।।१३४।। . - [वीर वर्धमानचरित्र-भट्टारक श्री सकलकीति] . २ ग्रहो मिथ्यात्व मार्गोऽयं, विश्वपापाक रोऽशुभः । चिरं वृथा मया निन्दः, सेवितो मूढचेतसा ॥१३३।। [वही] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ हृदय-परिवर्तन] . केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम कारण इन्द्रभूति गौतम ने श्रमरण भगवान् महावीर द्वारा परम सत्य का बोध होते ही तत्क्षरण बिना किसी प्रकार की हिचक के सहर्ष अपना सर्वस्व श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने समाज में अर्जित उज्वल यश, धार्मिक जगत् एवं विद्वत्समाज में वर्षों के अथक प्रयास से अजित अपनी प्रतिष्ठा और शिष्यसंघ के हृदयों में प्रोत:प्रोत अपने प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, उत्कट निष्ठा व सर्वोच्च समादर आदि की किंचित्मात्र भी चिन्ता किये बिना उन्होंने प्रभु-चरणों में प्रवजित होने का दृढ़ संकल्प कर लिया। . उन्होंने सांजलि शीश झुका कर प्रभु से प्रार्थना भरे स्वर में कहा-"प्रभो ! मुझे आपके चरणों में पूर्ण आस्था है। मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि आपके द्वारा बताये गये प्रशस्त मार्ग का अवलम्बन करने पर ही प्राणी सब प्रकार के दुःखों पौर बन्धनों से विनिर्मुक्त हो अपने चरम एवं परम लक्ष्य शिवपद को प्राप्त कर सकता है। मैं अब आजीवन आपके चरणों की शरण में रहना चाहता है, यतः आप मुझे अपने परम कल्याणकारीधर्म में श्रमण-दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ कीजिये।" शिष्यमंडल सहित प्रव्रज्या परम दयालु प्रभु महावीर ने "अहासुहं देवाणुपिया !" इस मुधासिक्त सुमधुर वाक्य से इन्द्रभूति को यथेप्सित सुखद कार्य करने की अनुजा प्रदान की। तदनन्तर इन्द्रभूति गौतम ने अपने ५०० शिष्यों को सम्बोधित करते हुए शान्त, सहज, सरल एवं गम्भीर स्वर में कहा- "अायुष्मन् अन्तेवासियो ! मुझे प्रभूकृपा से वास्तविक सत्य का बोध हा गया है। मैं अव सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमरण भगवान् महावीर से श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर शिष्यरूपेण इनकी शरण ग्रहण करना चाहता है। अतः अब आप लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार जैसे आपको अच्छा लगे, वही कर सकते हैं।" इस पर इन्द्रभूति गौतम के ५०० शिष्यों ने एक स्वर में कहा-"परम श्रद्धास्पद गुरुदेव ! हमारी आन्तरिक प्रगाढ़ श्रद्धा के एकमात्र केन्द्रविन्दु आप जैसे महान् प्राचार्य जब भगवान महावीर के पास शिष्यभाव से दीक्षित हो रहे हैं तो हम लोग आपको छोड़ कर अन्यत्र कहाँ और क्यों जायं? हम सब लोग भी आपके चरणचिन्हों पर चलते हुए आपकी एवं प्रभु की सेवा करते हुए अपना प्रात्मकल्याण करेंगे।" श्रमण-दीक्षा ग्रहण करने हेतु समुद्यत इन्द्रभूति गौतम के अन्तर्मन की पुकार और प्रार्थना को सुन कर भगवान महावीर ने उन्हें अपना भावी प्रथम गणधर जान कर प्रमुख शिष्य के रूप में ईसा पूर्व ५५७ एवं विक्रमपूर्व ५०० वैशाख ' एत्य संपतो संबुद्धो य भणइ पंच खंडितसते, एस सम्वन्नु ग्रहं पव्वयामि तुम्भे जहिनियं करेहि। ते भरणन्ति जदि तुन्भे एरिसगा होता पव्वयह तो मम्हे का पन्ना गतिनि: एवं सो पंचसयपरिवारो पबतितो। - [मावश्यक बुरिण, पृ. ३३६] - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग प्रव्रज्या शुक्ला ११ के दिन स्वयं के श्रीमुख से सर्वविरति श्रमरण- दीक्षा श्रर्थात् पंच महाव्रतों की भागवती दीक्षा प्रदान की । २४ प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र" में उल्लेख किया है कि इन्द्रभूति यादि श्रमरणों को वस्त्र, पात्र, उपकरणादि कुबेर द्वारा प्रदान किये गये। उन्होंने धर्मोपकररण ग्रहरण करने की प्रावश्यकता पर भी प्रकाश डाला है ।' अपने ५०० शिष्यों सहित, श्रमण भगवान् महावीर के पास इन्द्रभूति के प्रजित होने का संवाद सुनकर क्रमशः अग्निभूति, वायुभूति, प्रार्य व्यक्त, श्रार्य सुधर्मा प्रत्येक अपने पांच-पांच सौ शिष्यों, मण्डित तथा मौर्यपुत्र अपने साढ़े तीन तीन सौ शिष्यों और अकम्पित, अचल भ्राता, मैतार्य एवं श्रार्य प्रभास अपने तीन-तीन सौ शिष्यों के साथ श्रमरण भगवान् महावीर के समवसरण में आये और अपने मनोगत संशयों का भगवान् महावीर द्वारा पूर्णरूपेण समाधान पाकर अपने-अपने शिष्यमण्डल संहित श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंडित होकर विधिवत् निर्ग्रन्थ बन गये । ग्रनेक आचार्यों ने उल्लेख किया है कि गरणधरों की दीक्षा के समय देवगरण ने पंच- दिव्यों की वर्षा कर अपनी प्रसन्नता एवं धर्म की महिमा प्रकट की । २ इस प्रकार एक ही देशना में वेद-वेदान्तों के विख्यात ज्ञाता ग्यारह विद्वान् प्राचार्यों और उनके ४४०० शिष्यों ने शाश्वत सत्य को हृदयंगम कराने वाले भगवान् महावीर के परम तात्त्विक उपदेश से धर्म के सत्य स्वरूप को पहिचान कर प्रभु के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की । साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुविध तीर्थ की स्थापना के अनन्तर भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति गौतम को श्रग्निभूति आदि अपने १० प्रमुख शिष्यों के साथ उत्पाद ( उप्पन्नेइ वा ), व्यय ( विगमेइ वा ) और धोव्य १ (क) उपनीतं कुबेरे धर्मोपकरणं ततः । त्यक्तसंगोऽप्याददानो गौतमोऽथेत्यचिन्तयत् ॥६४॥ निरवद्यव्रतत्राणे, यदेतदुपयुज्यते । वस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यं धर्मोपकरणं हि तत् ॥६५॥ छद्मस्थैरिह पजीवनिकाययतनापरः । सम्यक् प्राणिदया कतु", शक्येत कथमन्यथा ॥ ८६ ॥ (ख) जलज्वलनवायूर्वी तरुत्रसतया बहून् । जीवांस्त्रातुं कथमलं, धर्मोपकरणं विना ॥९१॥ इन्द्रभूतिविभाव्यंवं, शिष्याणां पंचभिः शतैः । समं जग्राह धर्मोपकरणं त्रिदशापितम् ||१३|| [त्रिपटि श० पु० च०, पर्व १०, सगं ५ ] २ प्रावश्यक चूरिण, त्रिपष्टि श. पु. च., महावीर चरित्र प्रादि । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ani-UrinemmeHimand ana - - - matar Marey प्रवज्या ] केबलिकाम: इन्द्रभूति गौतम (धुवेइ वा) इस त्रिपदी का सविस्तार उपदेश देकर उन्हें संसार के समस्त तत्वों के उत्पन्न, नष्ट एवं स्थिर रहने के स्वभाव तथा स्वरूप का सम्यक्रूपेण सम्पूर्ण ज्ञान करवाया। भगवान् महावीर ने फरमाया- "उत्पाद - व्यय-ध्रौव्यात्मक सार्वभौम .. सिद्धान्त संसार के समस्त जड़-चेतन तत्त्वों पर परिघटित होता है। संसार के समस्त तत्त्व उत्पाद- व्यय - ध्रौव्यात्मक स्वभाव वाले हैं।" त्रिपदी का साररूप में अर्थ बताते हुए भगवान् महावीर ने फरमाया "उत्पाद - स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पादः ।" अर्थात् किसी द्रव्य द्वारा अपने मूल स्वरूप का परित्याग किये बिना दूसरे रूपान्तर का ग्रहण कर लेना उस द्रव्य का 'उत्पाद' स्वभाव कहा जाता है । ___ "व्यय-तथा पूर्वभावविगमो व्ययः ।" अर्थात् किसी द्रव्य द्वारा रूपान्तर करते समय पूर्वभाव-पूर्वावस्था- का परित्याग करना द्रव्य का 'व्यय' स्वभाव कहा गया है। ___"ध्रौव्य - ध्रुवे स्थैर्य कर्मणि ध्रुवतीति ध्रौव्यः ।" अर्थात् उत्पाद और व्यय स्वभाव की परिस्थितियों में भी पदार्थ का अपने मूल गुण, धर्म और स्वभाव में बने रहना उस द्रव्य का 'ध्रौव्य' (ध्रुवत्व - ध्रुवस्वभाव) कहलाता है । उदाहरण के रूप में स्वर्ण का एक पिण्ड है। उस स्वर्णपिण्ड को गला कर उससे कंकण का निर्माण किया गया तो कंकरण का उत्पाद हुमा और स्वर्ण पिण्ड का व्यय हुा । दोनों ही परिस्थितियों में स्वर्ण द्रव्य की विद्यमानता उस स्वर्ण का ध्रौव्य है। __ इसी प्रकार प्रात्मा, मनुष्य, देव या तिथंच रूप में उत्पन्न होता है तो वह प्रात्मा का मनुष्य, देवादि रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उत्पाद और देव तियंचादि पूर्व शरीर के त्याग की अपेक्षा से व्यय है। दोनों अवस्थाओं में आत्मगुण की विद्यमानता के कारण ध्रौव्य समझना चाहिये । पहली दो अवस्थाओं में अर्थात् उत्पाद और व्यय में वस्तु के पर्याय की प्रधानता है। जबकि अन्तिम ध्रौव्य अवस्था में द्रव्य के मूल रूप की प्रधानता है। स्वर्ण के कंकण को तोड़ कर मंगलसूत्र बनाने की दशा में जिस प्रकार कंकरण के प्रति ममता रखनेवाली स्त्री के मन में विषाद, मंगलसूत्र के प्रति ममता रखने वाली सुहागिन के मन में हर्ष और स्वर्ण के मूल्य को समझने वाली तटस्थ स्त्री के मन में मुल द्रव्य,स्वर्ण के यथावत स्थिति में विद्यमान रहने के कारण तटस्थ भाव रहता है। उसी प्रकार सांसारिक तत्वों के उत्पाद-व्यय - ध्रौव्या तत्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २८] ' उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त सत् । _ २ घटमौलिसुवर्णार्थी - नाशोत्पादस्थितिप्षयम् । .. शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥५६।। [प्राप्त मीमांसा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 11: नाला शतहास-द्वताय भाग [प्रवज्या त्मक स्वभाव को जानने वाला प्रबुद्धचेता, ज्ञानवान् व्यक्ति समस्त तत्त्वों की उत्पाद - व्यय अवस्था में हर्ष-विषाद से परे रह कर उनके ध्रौव्य स्वभाव का विचार कर तटस्थ रहता हुआ प्रात्मकल्याण में निरत रहता है । ___ सरल, निर्मल और तीक्ष्ण बुद्धि के कारण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभृति गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर की विशिष्ट ३५ अतिशययुक्त अमोघ वाणी के प्रभाव से अपने अन्तर में अनिर्वचनीय दिव्य ज्ञानालोक का अनुभव किया। उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक त्रिपदी के रूप में समस्त विश्व के त्रिकालवर्ती संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान को कुन्जी प्राप्त कर वेद-वेदांग के पारंगत विद्वान् इन्द्रभूति गौतम आदि के अन्तर में रंधे हुए ज्ञान के समस्त स्रोत अजस्ररूपेण फूट पड़े और ज्ञान का अथाह सागर उनके हृदयों में हिलोरें लेने लगा। उनके हृदय की समस्त कुंठाए, रिक्तताएं, शंकाएं, अनिश्चितताएं एवं सभी प्रकार की कमियां क्षण भर में ही दूर हो गई। उन्होंने अनुभव किया कि अज्ञान के एक घने काले प्रावरण के हट जाने के कारण उनके अन्तर में दिव्य तेजोमय प्रकाशपुंज ज्ञान का सहस्ररश्मि आलोक जगमगाने लगा है। ___ तीर्थंकर भगवान् महावीर की अतिशययुक्त दिव्य वाणी के प्रभाव से तथा पूर्वजन्म में कृत उत्कट साधना के परिणामस्वरूप इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारहों सद्यःप्रवजित विद्वानों के श्रुतज्ञानावरण कर्म का तत्क्षण विशिष्ट क्षयोपशम हुआ और वे उसी समय समग्र श्रुतज्ञानसागर के विशिष्ट वेत्ता बन गये। उन्होंने सर्वप्रथम चौदह पूर्वो की रचना की, जो इस प्रकार हैं : १. उत्पादपूर्व ८. कर्मप्रवाद पूर्व २. अग्रायणी पूर्व ६. प्रत्याख्यान पूर्व ३. वीर्यप्रवाद पूर्व १०. विद्यानप्रवाद पूर्व ४. अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व ११. कल्याणवाद पूर्व ५. ज्ञानप्रवाद पूर्व १२. प्रारणावाय पूर्व ६. सत्यप्रवाद पूर्व १३. क्रियाविशाल पूर्व ७. प्रात्मप्रवाद पूर्व १४. लोकविन्दुसार पूर्व अतिविशाल चौदह पूर्वो की रचना आचारांगादि द्वादशांगी से. पूर्व की गई, अतः इन्हें पूर्वो के नाम से अभिहित किया गया।' चौदह पूर्वो की रचना के पश्चात् अंगशास्त्रों की रचना की गई। ' (क) जम्हा तित्यगरो तित्थपवत्तण काले गणधराणं सव्वमुत्ताधारत्तणतो पुग्वं पुम्वगय सुत्तत्यं भासइ तम्हा पुन्वत्ति भणिया;... [नन्दी - हारिभद्रीया वृति पृ० १०७] (ख) सूषितानि गणधररंगेभ्यः पूर्वमेव यत् । . पूर्वाणीत्यभिधीयते, तेनंतानि चतुर्दश ।।१७१॥ [त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पवं १०, सगं ५] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम - भगवान् महावीर के इन्द्रभूति प्रादि ग्यारहों प्रमुख शिष्यों ने भगवान की वाणी को जो द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया उसमें इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त, पार्यसुधर्मा, मंडित और मौर्यपुत्र इन सात गणधरों की अलग-अलग रूप से सात वाचनाएं थीं। आठवीं वाचना के रूप में प्रकम्पित एवं मचल माता की सम्मिलित रूप से एक वाचना थी, तथा नवमी वाचना के रूप में मेतार्य मोर प्रभास की भी सम्मिलित रूप से एक वाचना थी। इस प्रकार क्योंकि पृथक-पृथक रूप से ६ वाचनाएं थीं, अतः पृथक-पृथक् वाचनाभेद की दृष्टि से भगवान महावीर के ६ गण विख्यात हुए एवं अलग-अलग व्यक्तियों की दृष्टि से ११ गणधर कहलाये।' भगवान् महावीर के ६ गणों के स्थान पर समवायांग सूत्र में बताई गई ११ गण संख्या, गणधरों के अधीन ११ साधु समुदायों की अपेक्षा से होनी संभव है। दीक्षा-समय पिता की विद्यमानता श्वेताम्बर साहित्य में इन्द्रभूति गौतम के दीक्षाकाल में उनके पिता के विद्यमान होने अथवा न होने का कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। दिगम्बर परम्परा के भी अधिकांश प्राचार्य इस विषय में मौन हैं। किन्तु दिगम्बर कवि 'रयधु' ने जो अपभ्रंश भाषा में महावीर-चरित्र लिखा है उसके अनुसार इन्द्रभूति के दीक्षाकाल में उनके पिता शांडिल्य विद्यमान थे। जब देवपति शक्रेन्द्र के साथ इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के समवसरण की ओर प्रस्थान करने लगे तब उनके दोनों भाई अग्निभूति और वायुभूति भी अपने छात्रमंडल सहित उनके साथ हो लिये। यह देख कर इन्द्रभृति के पिता शांडिल्य ब्राह्मण चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे- "हाय रे दुर्दैव ! मेरा तो सर्वस्व लुट गया। मेरे इन पुत्रों के जन्मसमय नैमित्तिक ने अपनी भविष्यवाणी में कहा था कि तुम्हारे ये पुत्र जैनधर्म की महती प्रभावना कर परम-सौख्यदायी मार्ग को प्रशस्त करने वाले होंगे। प्राज उस ज्योतिषी की बात सत्य होने जा रही है। हाय ! यह मायावी महावीर यहां कहां से प्रा गया है ?" ' समणस्स भगवनो महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्या। [कल्प सूत्र (स्थविरावली) सूत्र २०१] २ समणस्स भगवनो महावीरस्स एक्कारस गणा एक्कारस गणहरा होत्या-तं जहा...... [समवायांग सूत्र, समवाय ११] ता संडिल्ले विप्पे सिट्ठउ, हा हा हा कहु काज विणट्ठउ । एपहिं जम्मरणदिणि मई लक्खिउ, ऐमित्तिएण मज्म णिउ अक्खहु ॥ ए तिष्णि वि जिणसमय- पहावरण, पयड करेसहि सुहगइ दावण । तं. पहिहाणु एह पुणु जायउ, कुवि मायादि इहु णिस पायउ ।। ___ [महावीर चरित, (अप्रकाशित) पत्र ५० ए] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [ीक्षा पर दोनों दीक्षा पर दोनों परम्परामों का समन्वय इन्द्रभूति गौतम की श्रमण-दीक्षा को लेकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा प्रभु महावीर की केवल ज्ञानोपलब्धि के दूसरे ही दिन इन्द्रभूति की दीक्षा मानती है; जबकि दिगम्बर परम्परा ६६ दिन बाद । भगवान् महावीर और गौतम गणधरं को समान रूप से आदरणीय मान कर भी दोनों परम्पराएं सामान्य मतभेद के कारण एक प्रकार से कुछ अलग, कुछ दूर सी दृष्टिगोचर होती हैं। श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परा के इस मंतव्यभेद के कारण धर्मशासन के संचालन में एकरूपता नहीं रही। पर यह प्रसन्नता की बात है कि हमें दोनों परम्पराओं में समन्वय का एक आधार मिल रहा है। दिगम्बर परम्परा के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कृत 'गौतमचरित्र' में भगवान् महावीर के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण और धर्मसंघ प्रादि विषयों में श्वेताम्बर - दिगम्बर, दोनों परम्पराओं में कोई खास मतभेद नहीं है। केवल गर्भापहरण, कुमारत्व, तीर्थस्थापन जैसे कुछ प्रसंगों में सामान्य परम्परा-भेद है, जो प्रायः प्रसंग को नहीं समझने अथवा अर्थभेद की दृष्टि से उत्पन्न हुमा प्रतीत होता है। समन्वय दृष्टि से विचार करने पर कई विषयों के हल निकम आते हैं। उदाहरण के तौर पर 'कुमार' का अर्थ अविवाहित की तरह अनभिषिक्त भी मान लिया जाय तो समन्वय हो सकता है। वैसे श्रमण भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परानुसार वैशाख शुक्ला ११ को और दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्रावण कृष्णा १ (प्रतिपदा) को तीर्थस्थापना और गौतमादि की दीक्षा मानी गई है; पर उसका समन्वय भी प्राप्त होता है। . प्रायः सभी दिगम्बर ग्रन्थों में प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति के ६६ डिन पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को इन्द्रभूति आदि की दीक्षा का होना माना महा है; जबकि मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कृत 'गौतमचरित्र' में एक नवीन समन्वयकारी तथ्य दृष्टिगोचर होता है। गौतमचरित्र में लिखा है :"ऋजुकूला नदी के तट पर स्थित जभक नामक ग्राम के पास शालवृक्ष के नीचे शिला पर विराजमान भगवान महावीर को वैशाख शुक्ला १०के दिन सायंकाल की वेला में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्र की प्राज्ञा के तत्काल कुबेर द्वारा समवसरण की रचना की गई। भगवान् महावीर सिंहासन पर विराजमान हुए किन्तु याममात्र अर्थात् तीन घण्टे व्यतीत हो जाने पर भी प्रभु की दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई।'' ' याममात्र व्यतिक्रान्ते, सिंहासनप्रसंस्थिते । अथ श्री वीरनाथस्य, नाभवद् ध्वनि निर्गमः ।।७२॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरामों का समन्वय] केवलिकाल': इन्द्रभूति गौतम __इन्द्र ने अवधिशान से दिव्यध्वनि प्रस्फुटित न होने का कारण जाना और वह इन्द्रभूति गौतम को लेने के लिए वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उनके पास पहुंचा। शक्र युक्तिपूर्वक गौतम को भगवान् के पास ले आया। .वृद्ध - ब्राह्मण - वेषधारी इन्द्र द्वारा पूछे गये श्लोक का अर्थ समझ में न माने, मानस्तम्भ को देखते ही अपने मान के तत्काल विगलित हो जाने तथा प्रभू के अलौकिक प्राभासम्पन्न, त्रैलोक्य विमोहक दिव्य तेजोमय स्वरूप को देखने के कारण इन्द्रभूति प्रतिबुद्ध हुए और प्रभुचरणों में दीक्षित हो गये। ६६ दिन पश्चात् ही इन्द्रभूति के दीक्षित होने की मान्यता को अभिव्यक्त करना यदि मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र भट्टारक को अभीष्ट होता तो वे "याममात्रे व्यतिक्रान्ते" पद का प्रयोग नहीं करते। संभव है उनके समक्ष एकादशी के दिन इन्द्रभूति के दीक्षित होने की समाज में मान्य कोई प्राचीन परम्परा रही हो। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में समन्वय प्राप्त होता है। समन्वयप्रेमी विद्वान् इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें। ___गरगषर-पद प्रदान की विधि वर्तमान काल में प्राचार्यादि पद प्रदान के अवसर पर जिस प्रकार कुछ विधि-विधान और मंगल उत्सव होते हैं उसी तरह शास्त्र में तीर्थंकर भगवान द्वारा वासक्षेपादि किसी विशेष विधिपूर्वक गणधर नियुक्त करने का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। संभव है त्रिपदी-ज्ञान के पश्चात् तीर्थकर भगवान् विशिष्ट योग्यता वाले मुनियों को चतुर्विध संघ के समक्ष गणधर रूप से घोषित करते हों और उपस्थित चतुर्विध संघ एवं देव-देवी समूह हर्षध्वनिपूर्वक मंगल-महोत्सव मनाकर अभिनन्दन तथा अनुमोदन अभिव्यक्त करते हों। - आवश्यक चूरिण, महावीर चरित्र और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में इस प्रकार का उल्लेख है कि इन्द्रभूति आदि ग्यारहों गणधर प्रभु महावीर के सम्मुख कुछ झुक कर परिपाटी से खड़े हो गये। कुछ क्षण के लिए देवों ने वाचनिनाद बंद किये । उस समय जगद्गुरु प्रभू महावीर ने सर्वप्रथम इन्द्रभूति गौतम को लक्ष्य कर यह कहते हुए कि "मैं तुम्हें तीर्थ की अनुज्ञा देता हूं" - इन्द्रभूति के सिर पर स्वयं के करकमलों से सौगन्धिक रत्नचूर्ण डाला । तदनन्तर प्रभु ने क्रमशः अन्य सब गणधरों के सिर पर भी उसी प्रकार चूर्ण डाला। तत्पश्चात् प्रभु महावीर ने अपने पंचम गणधर आर्य सुधर्मा को चिरंजीवी समझ कर सब गरगधरों के मागे खड़ा किया और श्रीमुख से फरमाया- "मैं तुम्हें धुरी के स्थान पर रख कर गण की अनुज्ञा देता हूं।"" . (क) प्रावश्यक चूणि पृष्ठ ३७० (ख) त्रिषष्टि श० पु. १०, पर्व १० सर्ग ५, श्लोक १७६-८० (ग) महावीर चरित्र (गुणचन्द्रगणि) पत्र २५८ (१) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [गणधर-पद मूल श्रागम - शास्त्रों में इस प्रकार की किसी प्रक्रिया का कहीं किंचित्मात्र भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि प्राचार्यों द्वारा प्रावश्यक चूरिंग प्रादि ग्रन्थों में उपरोक्त उल्लेख किस प्राधार पर किया गया है। • गरगधर-पद की महत्ता इन्द्रभूति गौतम ने चरमशरीरी गरणधर पद की प्राप्ति की। इससे उनके द्वारा पूर्वजन्म में की गई उत्कट साधना और प्रभूत पुण्योपार्जना का परिचय मिलता है। जैन परम्परा के आगम और भागमेतर साहित्य में विश्ववंद्य, त्रैलोक्य श्रेष्ठ तीर्थंकर-पद के पश्चात् गरणधर-पद को ही श्रेष्ठ माना गया है ।". जिस प्रकार कोई विशिष्ट साधक प्रत्युच्च कोटि की साधना के द्वारा त्रैलोक्यपूज्य तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन करता है उसी प्रकार गरगधर पद को प्राप्त करने के लिये भी साधक को उच्चकोटि की साधना करनी पड़ती है । तीर्थंकर नामगोत्र के उपार्जन के लिये तो श्रागमों में स्पष्ट उल्लेख है कि अमुक १६ या २० स्थानों में से किसी एक अथवा एक से अधिक स्थानों की उत्कट साधना करने से साधक तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन करता है । किन्तु गणधर नाम-कर्म की उपार्जना किस-किस प्रकार की उत्कृष्ट कोटि की साधना करने पर होती है, इसका कोई उल्लेख प्रागम साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । श्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति में इस प्रकार का उल्लेख अवश्य उपलब्ध होता है कि. भरत चक्रवर्ती का ॠषभसेन नामक पुत्र, जिसने कि पूर्व भव में गणधर नामगोत्र का उपार्जन किया था, संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो गया । " भद्रेश्वर ने ईसा की ग्यारहवीं शती में रचित प्रपने प्राकृत भाषा के " कहावली” नामक बृहद् ग्रन्थ में भी भगवान् ऋषभदेव के प्रथम गणधर ऋषभसेन के प्रव्रजित होने का उल्लेख करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि उन्होंने अपने पूर्वभव में गरणधर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। इस सम्बन्ध में कहावलीकार भद्रेश्वर द्वारा उल्लिखित पंक्तियां इस प्रकार हैं - "सामिरणो य समोसरणे ससुरासुरमरगुयसभाए धम्मं साहिन्तस्सोसभसेरगोनाम भरहपुसो पुग्वभवनिबद्धगरणहरनामगो जायसंवेगो पव्वइयो ।” श्रमण भगवान् महावीर के इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गरणधरों ने भी अपने-अपने पूर्वजन्म में गणधर पद की प्रवाप्ति के योग्य किसी न किसी प्रकार की विशिष्ट साधना की थी इस प्रकार का संकेत कतिपय आचार्यों ने किया है । यथा ' प्रत्यन्ताप्तगोचरंश्रद्धास्थैर्यवतोऽनुष्ठानात्तीर्थकृत्त्वं, मध्यम, श्रद्धा समन्विताद् गणधरत्वम् । [ योगबिन्दुसार] - १ देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ह 3 "तत्य उसभसेरा नाम भरहपुत्तो पुग्वभवबद्धगरणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पव्वइम्रो...!". [प्रावश्यक मलय, प्र०भा० ] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की महत्ता] केवलिकाल : इंद्रभूति गौतम "..."मध्यमा नाम नगरी, तत्र सोमिलार्यों नाम ब्राह्मणः, स यज्ञं यष्ट्रमुद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खल्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपार्जितगणधरलब्धयश्च, तान् विज्ञाय......."मध्यमनगर्यां महसेनवनोद्यानं संप्राप्तः। [प्रावश्यक मलय । प्रवचनसारोदार] विक्रम सं० ११३६ में विरचित "महावीरवरियं" नामक ग्रन्थ में गुणचन्द्रगरिण ने भगवान महावीर के ११ गणधरों द्वारा अपने-अपने पूर्वजन्म में गणधर-पद की अवाप्ति के योग्य की गई साधना का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है - __ "ते हि या पुन्वभवभत्थसमत्थपरमत्थसत्थवित्थारवियक्खरणत्तणेरण तक्कालुप्पन्नपन्नाइमयमुव्वहंतेहिं तयणुसारेण विरइयाई दुवालसअंगाई।" [महावीर चरियं पृष्ठ २५७] जैन सिद्धान्त में कर्मवाद को प्रमुख एवं महत्वपूर्ण स्थान है और यह एक निर्विवाद सत्य है कि प्रत्येक प्राणी जिस जिस प्रकार के कर्म करता है उन्हीं कर्मों के अनुसार वह संसार में सामान्य अथवा विशिष्ट स्थान, स्थिति एवं सत्ता प्राप्त करता है। तदनुसार तीर्थकर पद की प्राप्ति के लिये साधक को जिस प्रकार की कठोर साधना के दौर से गुजरना पड़ता है उसी प्रकार निश्चित रूप से तीर्थकर पद के पश्चात् सर्वोच्च गरिमापूर्ण पद की प्राप्ति के लिये भी साधक को उससे कुछ ही कम कठोर साधना की कसौटी को पार करना होगा। भद्रेश्वरसूरि ने गणधर ऋषभसेन के लिये जो "पुन्वभवनिबद्ध गणहरनामगो" का विशेषण प्रयुक्त किया है, इससे पूर्वकाल में प्रख्यात पर पश्चाद्वर्ती काल में विलुप्त एकं परम्परा का आभास होता है कि तीर्थंकरों के जो गराधर होते हैं वे अपने पूर्वभव . में एक विशिष्ट प्रकार की उच्चतम साधना से गगधर नामकर्म का उपार्जन कर लेते हैं। गण और गरगघर .. __ एक ही प्रकार की वाचना वाले साधु-समुदाय को गण और उस साधु. समुदाय की व्यवस्था का संचालन करने वाले मुनि को गणधर कहा गया है। श्रमरण भगवान् महावीर के ११ प्रमुख शिष्यों ने प्रभु के मुख से 'त्रिपदी' सुन कर तीन निषद्याओं में चौदह पूर्वो की रचना की और वे गणधर कहलाये । आवश्यक रिण में बतलाया गया है कि गौतम स्वामी ने किस तरह 'त्रिपदी' का ज्ञान ग्रहण किया। वहां कहा गया है कि तीन निषद्याओं से गणधरों ने १४ पूर्वो की रचना की । 'निषद्या' का अर्थ वंदन करके पूछना लिखा है । 'उत्पाद' आदि प्रत्येक पद पर गणधर पृच्छा करते हैं और प्रभु से उत्तर सुन कर सूत्रों की रचना करते हैं।' 'तं. कहं गहितं गोयम सामिणा ? तिहिं निसेज्जाहिं चोट्स पुव्वाणि उप्पादितारिण । 'निसेज्जा" णाम परिणवतिऊण जा पुच्छा...."ते य ताणि पुच्छिऊंग एगतमं ते सुत्तं करेति, जारिसं जहा भरिणतं । [मावश्यक चरिण, पूर्वभाग, पत्र ३७०) - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ . जैन धर्म का मालिक इतिहास-द्वितीय भाग [गण और गणपर श्रमण भगवान महावीर द्वारा अर्थ रूप में कही गई वाणी को इन्द्रभूति आदि ने सूत्ररूप में प्रथित कर द्वादशांगी की रचना की । जैसा कि कहा है प्रत्थं भासइ.परहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । अब यहां सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब भगवान महावीर के गणधर ११ हैं तो उनके गरण भी ११ ही होने चाहिये। गण ११ न होकर ९ ही क्यों? 'वस्तुस्थिति यह है कि ग्यारह गणधरों की शास्त्र-वाचना.६ प्रकार की रही। इन्द्रभूति प्रादि प्रथम ७ गणधरों की प्रत्येक की प्रथक वाचना होने के कारण प्रत्येक के साधु-समुदाय की पृयक गण के रूप में गणना की गई। पर पाठवें और नौवें गणधर - प्रकंपित एवं प्रचलनाता की समान वाचना थी। उसी प्रकार मेतार्य और प्रभास इन दोनों- क्रमशः दसवें और ग्यारहवें गणधरों की भी वाचना एक थी। अतः वाचना के साम्य से अंतिम चार गणधरों में से दो-दो गरगधरों की एक-एक वाचना होने के कारण ग्यारह गणधरों के ९गरण कहलाये। समवायांग सूत्र में भगवान महावीर के ग्यारह गणधर और गरण भी ग्यारह बताये गये हैं। संभव है वहां व्यवस्था की दृष्टि से ११ गणधरों के शिष्यमंडल अलग-अलग होने के कारण ग्यारह गण के रूप में माना गया है। इनभूति और सुषर्मा को विशिष्ट पद । भगवान् महावीर के ग्यारह प्रमुख शिष्यों द्वारा चतुर्दश पूर्वो की रचना के पश्चात् प्रभु ने उन्हें गणधर घोषित किया । आवश्यक चूरिण और महावीर चरित्र आदि के अनुसार वैशाख शुक्ला एकादशी को भगवान् महावीर ने अपनी प्रथम देशना में ही अपने ११ प्रमुख शिष्यों को, जिसका जितना शिष्य समुदाय था उसको उतना गणरूप से प्रदान किया और वे गणधर कहलाये। चूर्णिकार आदि ने लिखा है कि प्रार्य सुधर्मा अन्य गणधरों की अपेक्षा दीर्घजीवी हैं और उनसे आगे धर्म-तीर्थ चलेगा, ऐसा जान कर प्रभु ने उनके लिये गण की अनुज्ञा दी और इन्द्रभूति को द्रव्य गुण, पर्यायों से तीर्थ की अनुज्ञा दी। अर्थात् इन्द्रभूति को तीर्थनायक और सुधर्मा को गणनायक के सम्मानित पद पर स्वयं प्रभु ने अपने हाथ से अभिषिक्त किया। यहां पर यह विचार होता है कि जब शासनपति - तीर्थपति भगवान् स्वयं विराजमान हों तब इन्द्रभूति और सुधर्मा को क्रमशः तीर्थ एवं गण की अनुज्ञा देना क्या अर्थ रखता है ? उत्तर स्पष्ट है कि जैसे किसी सम्राट की शासन व्यवस्था में उसको सर्व सत्तासम्पन्न शासक मान कर भी शिक्षा, न्याय आदि की व्यवस्था अन्यान्य अधिकारियों द्वारा सम्पन्न करवाई जाती है और वे भी शासक कहलाते हैं, उसी प्रकार तीर्थकर भगवान् को पूर्ण सत्तासम्पन्न शासनपति मान Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनाभूति, सुवर्मा को विशिष्ट पद] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम । कर उनकी प्राशा में प्रागम-वाचना और साधु-समुदाय के प्राचार-पालन आदि की व्यवस्था इन दो गणधरों के आधीन रखी गई हो। इस दृष्टि से इन्द्रभूति. पौर मुषर्मा का काम भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुत की रक्षा के लिये शिक्षा एवं साधु-समुदाय की व्यवस्था सम्हालना हो सकता है। क्योंकि प्रागमप्रणेतामों में इन्द्रभूति.प्रमुख रहे हैं, इसीलिये उन्हें भगवान् द्वारा श्रत-तीर्थ का दायित्व सम्हलाना उचित लगता है। प्रागमों में भी जहां किसी विषय का भगवान् द्वारा निरूपण उपलब्ध होता है, वहां प्रायः गौतम को सम्बोधित कर के ही भगवान् ने अधिकांश निरूपण किये हैं। "ममयं गोयम् ! मा पमायए" की तरह "समयं सुहम्म मा पमायए' का उल्लेख कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। सुषर्मा को गणाधिनायक चुनने का अभिप्राय सुधर्मा द्वारा दश गरगधरों के माश्रित साधु-समुदाय को छोड़ कर अवशिष्ट साधु समूह को संयम-मार्ग में स्थिर करने का दायित्व सम्हलाना था। सुधर्मा से पूर्व निर्वाण प्राप्त करने वाले सभी गणधरों द्वारा अपने निर्वाणकाल से पूर्व अपने-अपने गण सुधर्मा को सम्हलाना इस तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये अत्यन्त प्रबल और पुष्ट प्रमाण है। जैन वाङ्मय में इस प्रकार के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं कि सुधर्मा की अपेक्षा शेष गरगषर अल्पायु थे और वे अपने पीछे अपने-अपने गण की व्यवस्था सम्हालने का काम सुधर्मा को सौंप कर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हुए। इस तरह चूणिमादि में कही गई इन्द्रभूति के लिये तीर्थ की अनुज्ञा और सुषर्मा के लिये गण की अनुशा वस्तुतः संगत हो सकती है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि संघ में इन्द्रभूति और सुधर्मा को क्रमशः तीर्थनायक और गणाधिनायक नियुक्त कर भगवान् महावीर संघ-संचालन से पूर्णरूपेण विरत हो गये । देशना के पश्चात इन्नभूति का उपदेश , मावश्यक चूणि प्रादि ग्रन्थों के अनुसार पौरुषी के पश्चात् तीर्थकर भगवान् के उठ जाने पर प्रभू के सिंहासन के नीचे पादपीठ पर यासीन होकर गौतमस्वामी अथवा अन्य गणधर धर्मोपदेश करते थे।' तीर्थकर भगवान् ही द्वितीय प्रहर में भी धर्मदेशना क्यों नहीं करते इस प्रकार के प्रश्न के उत्तर में प्राचीन प्राचार्यों ने भगवान् की देशना के पश्चात् मुख्य गणधर अथवा अन्य गणषरों द्वारा द्वितीय प्रहर में उपदेश दिये जाने के निम्नलिखित तीन प्रयोजन बताये हैं :' (क) तित्वगरो पदमपोल्सीए सम्म ताप कहेति जाव पढमपोरुसी उग्घाडवेला ।। [भाव. चूरिण, भाग १, पृ० ३३२] (ख) उपरि पोरसीए उठिते तित्वकरे गोयमसामी अन्नो वा गणहरो बितीय पोम्मीए धम्म कहेति । [वही, पृ. ३३३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [इनभूति का उपदेश १. तीर्थकर भगवान् को विश्राम देना एवं शिष्यों की योग्यता का बढ़ाना । २. श्रोतानों को विश्वास दिलाना कि गणधर भी तीर्थकर जैसा ही उपदेश देते हैं एवं गुरु-शिष्य के वचनों में कोई विरोध नहीं है। ३. यह बताना कि भगवान् ने अर्थरूप वाणी फरमाई, उस वाणी को गणधरों ने सूत्र रूप में अथित किया एवं गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित भगवान् की उसी वारणी को वाचना में सुनाया जाता है।' प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जब भगवान् महावीर गणधरों को सद्यः. स्थापित चतुर्विध तीर्थ के संचालन की अनुमति प्रदान कर देवच्छंद में पधार गये तब प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् के सिंहासन के पास पादपीठ पर मासीन हो द्वितीय प्रहर में परिषद को उपदेश दिया ।' __ "सेन प्रश्न" के अनुसार तीर्थस्थापना दिवस के अतिरिक्त भी सर्वदा द्वितीय पौरुषी में प्रथम या अन्य गणधर का व्याख्यान करना माना गया है। . प्रागमकालीन परम्परा में कहीं ऐसा स्पष्ट निर्देश नहीं है कि तीर्थकर भगवान् प्रथम प्रहर में ही धर्मोपदेश करते हैं। प्रथम प्रहर का ही देशना का नियम माना जाय तो जहां प्रथम प्रहर के बाद ही भगवान् का पदार्पण हुमा होगा वहां उस दिन देशना नहीं हुई होगी। पर ऐसा आगमकालीन स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । संभव है उत्तरकालीन परम्परा में ऐसा माना गया हो। गणधर द्वारा द्वितीय प्रहर के धर्मोपदेश में जो 'खेद-विनोद' का हेतु प्रस्तुत किया गया है वहां अनन्तशक्ति सम्पन्न भगवान् के लिये खेद की संभावना विचारणीय है,। संभव है भगवान् से सुने हुए भावों को गणधर सूत्र रूप से फिर वहीं पर सुनाते हों । जैसा कि चूर्णिकार ने कहा है :"भगवता अत्थो भणितो, गणहरेहि गंथो को, वाइनो य इति ।" [आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३३४] . समवायांग सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर अपनी निरिणरात्रि में कल्याणफल विपाक एवं पापफल विपाक के क्रमशः ५५-५५ अध्ययनों का उपदेश देकर सिद्ध हए । इस तरह प्राचार्यों ने १६ प्रहर तक निरन्तर भगवान् महावीर द्वारा देशना देना मान्य किया है। इससे प्रमाणित होता है कि तीर्थकर प्रथम प्रहर में ही देशना देते हैं, ऐसा नियम नहीं है। ' भगवता प्रत्यो भरिणतो, गणहरेहिं गंथो को वाइमो य इति । [भाव. चु, पृ० ३३४] २ त्रिषष्टि०, पर्व १०, सर्ग ५, श्लो० १८४ ३ ज्येप्ठो अन्यो वा...... [१७५ प्रश्न, सेनं प्र०, ३] ४ (क) समरणे भगवं महावीरे अंतिम राइयंसि पणपनं प्रज्झयणाई कल्लागफल विवागाई पणपन्नं अज्झयरपाइं पावफल विवागाइं वागरित्ता सिद्धे. बुद्धे जावप्पहीणे।। [समवायांग-समवाय ५५] (ख) जैन धर्म का मौलिक इतिहास-प्रथम भाग, पृ० ४७० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर-मान्यता] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम भगवान् को देशना विषयक विगम्बर-मान्यता तीर्थकर भगवान की देशना-रूप दिव्य ध्वनि कब और कितने समय तक प्रकट होती है, इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता है कि तीर्थंकर भगवान् की दिव्य ध्वनि त्रिकाल में नवमहर्त तक और इसके अतिरिक्त गणधर, देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपण हेतु शेष समय में भी प्रकट होती है। इन्द्रभूति का उच्चतम व्यक्तित्व व्यक्ति का महत्व धन, वैभव अथवा किसी उच्च पद से नहीं किन्तु उसके उच्च व्यक्तित्व से होता है । प्राकृति से भी व्यक्ति की महत्ता समझी जाती है पर कई बार इसमें भ्रान्ति भी हो जाती है। शास्त्र में कहा है कि कुछ व्यक्ति रूपमंपन्न होते हैं पर शीलसंपन्न नहीं। कुछ. व्यक्ति शीलवान-गुणवान् होकर भी रूपवान नहीं होते। परन्तु महामूनि इन्द्र, ति भव्य प्राकृति के साथ शांत-सौम्य प्रकृति के भी धनी थे । लोकोक्ति में कहा है : "सुलभा प्राकृतिरंम्या, दुर्लभं हि गुणार्जनम् ।" इन्द्रभूति गौतम इसके अपवाद थे। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति का शरीर ऊंचाई में सात हाथ का, आकार समचतुरस्त्र-लक्षण युक्त, बल वज्रऋषभनाराचवन सा मजबूत, वर्ग तपाये हए कुन्दन अथवा पकमल सा गौर । इन्द्रभूति की भव्य और सुन्दर प्राकृति को देखकर मनुष्य तो क्या देव भी मोहित हो जाते थे। विशाल भाल और कमलपुष्प सम खिले नयनों की रमणीकता देख दर्शकजन के नयन अपलक निहारते ही रह जाते थे। __ शरीर की तरह उनका अन्तर्मन भी अनुपम शान्ति का प्राकर था। प्रकाण्ड पाण्डित्य के साथ इन्द्रभूति के विमल प्राचार और तपस्तेज ने उनके जीवन को गतगुना चमका रखा था। इन्द्रभूति के व्यक्तित्व का परिचय देते हुए भगवती और उपासकदशा मूत्र में कहा है - श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अरणगार. उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप और महातप के धारण थे। घोर गुणी और घोर ब्रह्मचारी थे। शरीर से ममता-रहित, तप की साधना से प्राप्त तेजोलेश्या को गुप्त रखने वाले, ज्ञान की अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधारी और चार ज्ञान के धारक थे। 'पठादीए अक्सलियो, संमतिदय गणवमुहुतागि। हिस्सरदि बिरुवमाणो, दिव्यमुणी जाव जोयणयं ६०३|| सेसेसु समएम, गगहरदेविंदचक्कवट्टीणं । पण्हाणुरुवमत्थं, दिवमुरणी प्र सत्तभंगीहिं ।।१०४॥ [तिलोथपणती, महाधिकार ४] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उच्चतम व्यक्तित्व वे मर्वाक्षर-मन्निपात जैमी विविध लब्धियों के धारक और महान् नेजस्वी थे। वे भगवान महावीर से न अति दूर न अनि ममीप ऊर्ध्वजान और अधोसिर हो बैठते थे, सब पोर मे अवरुद्ध अपने ध्यान को केवल प्रभु के चरणारविन्द में केन्द्रित किये हुए संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । ' वे अतिशय ज्ञानी होकर भी परम गुरुभक्त और आदर्श शिष्य थे। . उपासकदशासूत्र के अनुसार वे छट्ठ-छ? तप के निरन्तर पारणा करने वाले थे । २ अापका विनय इतना उच्चकोटि का था कि जब भी उन्हें कोई प्रश्न पूछना होता तो वे तत्परता से उठकर भगवान् के पास जाते और श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना-नमस्कार करते और तदनन्तर मर्यादित क्षेत्र में सम्मुख बैठ कर सेवा करते हुए, विनय से प्रांजलियुक्त भगवान् से पूछते । ३ संक्षेप में कहा जाय तो वे "जाइसंपन्ने, कुलसम्पन्ने, वलसम्पन्ने, विरणयसंपन्ने, गाणसम्पन्ने, दंसणसंपन्ने, चरित्तसंपन्ने, प्रोयंसीतेयंसी जसंसी" आदि संसार के समस्त सर्वोच्च कोटि के गुणों के अक्षय भंडार थे। कितना उच्चकोटि का व्यक्तित्व था इन्द्रभूति गौतम का! इन्द्रभूति द्वारा देवशर्मा को प्रतियोष - जब भगवान् महावीर ने अपना निर्वाण-काल निकट देखा तो उन्होंने अपने प्रति निस्सीम स्नेह व प्रगाढ़ राग रखने वाले गणधर इन्द्रभूति गौतम को अपने निरिण समय में अपने से दूर रखना आवश्यक समझ कर देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु एक गांव में भेज दिया। गुरु-प्राज्ञा पालन में अहर्निश तत्पर रहने वाले परम प्राज्ञाकारी इन्द्रभूति गौतम ने प्रभु-प्राज्ञा को शिरोधार्य कर नत्क्षगग देवशर्मा के ग्राम की ओर प्रस्थान कर दिया। भद्रेश्वरसूरि ने कहावली में इस प्रकार का उल्लेख किया है कि भगवान् ने इन्द्रभूति गौतम को चम्पा नगरी के मार्गस्थ ग्राम में देवशर्मा को ' तेणं कालेणं तेणं समएणं समरणस्स भगवनो महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णाम अरणगारे गोयम गुत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए, वज्जरिसह-नारायसंघयरणे, करणयपुलयनिसहपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, पोराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्तविउलतेउलेस्से, चोहसपुग्वी, चउनागोवगए, मव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवनो महावीरस्स प्रदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे उभारणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पारणं भावमाणे विहरइ । [भगवती सूत्र, शतक १] २ छठें छद्रेणं अग्गिक्वित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पारणं भावेमाणे विहरई । 3 ना गं से भगवं गोयमे जायमड्ठे जायसंसए...''उठाए उट्टेइ, उठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेगेव उवागच्छदइ उवागच्छित्ता समरणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो पायाहिरणं पयाहिग करेड करेडता वंदइ नमसइ नमसइला नच्चासन्न नाइदूरे सुस्मूसमारणे नमसमारणे अभिमहे विग्गाएरणं पंजलिउडे पज्जुवासमारणे एवं वयासी । भगवती मूत्र, शतक १, उ० १] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवशर्मा को प्रतिबोध केवलिकाल : इन्द्रभूमि गौतम प्रतिवोध देने और उसे प्रतिबोध देने के पश्चात् चम्पा नगरी में जाकर सुभद्रा थाविका को धर्म-संदेश सुनाने का प्रादेश देकर भेजा था। भगवान् की आज्ञानुसार देवशर्मा को प्रतिबोध देकर जब इन्द्रभूति गौतम चम्पा नगरी में सुभद्रा श्राविका के घर पहुंचे तो वहां सुभद्रा धाविका ने उन्हें भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त कर लेने का समाचार सुनाया ।' परम्परागत मान्यता यह है कि अर्द्धरात्रि के पश्चात् निर्वाणोत्सव मनाने हेतु देवों के ग्राकाशमार्ग से गमनागमन को देखकर ज्ञानोपयोग से इन्द्रभूति गौतम को विदित हो गया कि भगवान् महावीर ने निर्वाण-पद प्राप्त कर लिया है । "मेरे आराध्य देव श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हो गया है", इस बात का विचार आते ही इन्द्रभूति गौतम क्षण भर के लिये स्तब्ध रह गये । इन्द्रभूति गौतम का श्रमण भगवान् महावीर के प्रति प्रगाढ़ अनुराग होने के कारण वे शोकसागर में निमग्न हो गये और उनके शोकसंतप्त अन्तरंग से हठात् इस प्रकार के करुणोद्गार प्रकट होने लगे : _____ भगवान महावीर के निर्वाण पर इन्द्रभूति का चिन्तन "शोक ! महाशोक ! आज मिथ्यात्व अपना निबिडान्धकार फैलाने में समर्थ हो गया। रात्रि के अन्धकार में जिस प्रकार उलूक बोलते हैं उसी तरह अब मिथ्या-मत के प्रवर्तक गर्जना करने लगेंगे। अब दुर्भिक्षादि का यत्र-तत्र प्रसार होगा। जिस प्रकार राहु द्वारा सूर्य के ग्रस्त कर लिये जाने पर गगन में और दीपक के बुझ जाने पर भवन में अन्धकार व्याप्त. हो जाता है, उसी प्रकार हे त्रैलोक्य-प्रभाकर प्रभो! आपके निर्वाणपद को प्राप्त हो जाने के कारण आज समस्त भरतक्षेत्र तिमिराच्छन्न और श्रीहीन हो गया है। नाथ ! अब में किनके चरण-कमलों पर अपना मस्तक रखकर अपने अन्तर में उद्भूत हुई शंकाओं के समाधान हेतु ' दुहविवगमोहहारी, सामी भरणइ गोयमं । पुहविवाग मोहं तं, पेच्छन्तो तह चेव से ।। वच्च गोयम चंपाए, बोहंतो मग्गसंठियं । देव समट्टियं ततो, चंपं पत्तो पुरि तुमं ।। पत्ता उ छपएणं मे, संभासिज्जेसु मायरं । सुढ़धम्मं जिणणाए, सुभई नाम सावियं ॥ सोउं च गोयमो धीमं, चोत्तुं (वोत्तुं) भंते तहत्ति य । तत्तो सिग्धं विणायप्पा, निवियप्पो गयो तहिं ।। गोयमेण विमगत्थ देवसम्म माहणं संबोहित्ता चंपाए गंतुं महावीर-भरिणयं साहिऊरण सविसेसं भासिया सुभद्दा तीए वि विणाय परमत्याए भरिणयं सिद्धो सामी....... कहावली (मप्रकाशित)] २ देखिये, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ ४७० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग | भ०म० के निर्वाण पर :. प्रश्न रखूंगा ? प्रभो ! अव में किसको भदन्त एवं भगवन कह कर पुकारूंगा और मुझे अब प्रगाढ़ स्नेह एवं अनन्त श्रात्मीयता से श्रोतः प्रांत अमृत से भी अत्यंत मधुर वारणी में "गौतम !" इस सम्बोधन से कॉन सम्बोधित करेगा ?" " "हा, हा ! करुणैकसिन्धो ! प्रापने यह क्या किया जो अपने सदा-सर्वदा के दास को अवसान की इस अन्तिम वेला में अपने से दूर भेज दिया ? प्रभो ! हठी बालक की तरह क्या में बलात् आपकी गोद में बैठने वाला था ? क्या मैं आपके केवलज्ञान में से कोई हिस्सा बंटा लेता ? क्या मुझे साथ ले जाने से मोक्ष में स्थान की प्रवकुण्ठा प्राने वाली थी और क्या मैं आपके लिये कोई भाररूप हो रहा था जो ग्राप दास को इस प्रकार असहाय छोड़ कर मोक्ष में पधार गये ?" "1 इस प्रकार पूर्ण मनोयोग के साथ-साथ "वीर ! वीर ! का निख्तर उच्चारण एवं ध्यान करते-करते इन्द्रभूति स्वयं वीरमय हो गये, वीर की अनन्त वीतरागता का उद्गम उनके अन्तर में हुआ और उनकी उत्कट विचारधारा ने अपना प्रवाह पलटा । उन्हें अनुभव हुआ - "अरे ! वीर तो परम वीतराग थे। वीतराग प्रभु में किसी के प्रति अनुराग नहीं होता, यह तथ्य मेरे परम दयालु प्रभु ने मुझे कितनी बार समझाया है । यह तो मेरा ही अपराध था कि मैंने इस तथ्य की ओर किंचितमात्र भी अपना उपयोग नहीं लगाया और एकपक्षीय अनुरागसागर में पूर्णतः निमग्न रहा । धिक्कार है मेरे इस एकपक्षीय राग को, एकपक्षीय स्नेह को । सचमुच इस प्रकार का एकांगीण स्नेह-राग ही शिवसुख की प्राप्ति में शैलाधिराज के समान सवल अवरोध है । अब मैं इस अनुराग को इस स्नेह को सदा-सर्वदा के लिये तिलांजलि देता हूँ । वस्तुतः मैं एकाकी है। न तो में स्वयं किसी का हूँ और न कोई मेरा ।" इन्द्रभूति गौतम ने स्नेह की वज्रव खलानों को एक ही झटके में तोड़ डाला। वे उत्कट चिन्तन से तत्क्षरण उच्चतर ध्यान की परम उच्च सीढ़ी पर . पहुँचे और उन्हें निखिल विश्व की त्रिकालवर्ती सकल चराचर वस्तुओं के समस्त भावों को देखने-जानने वाले केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई । ' प्रसरति मिथ्यात्वतमो, गर्जन्ति कुतीर्थिकौशिका प्रद्य । दुर्भिक्षडमरवरादि राक्षसाः प्रसारमेष्यन्ति ।। ग्रहग्रस्तनिशाकरमिव गगनं, दीपहीनमिव भवनम् । भरतमिदं गतशोमं त्वया विनाद्य प्रभो ! जज्ञे । कस्यांपिीडे प्ररणतः पदार्थान् पुनः पुनः प्रश्नपदी करोमि । कं वा भदन्तेति वदामि को वा, मां गौतमेत्याप्तगिराथ वक्ता ॥ , [ कल्पसुबोधिका ८ क्ष्वरण ] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति का चिन्तन] केवलिकालः इन्द्रभूति गौतम उसी दिन से लोक में ये दो उक्तियां प्रचलित हो गईं : मुक्खमग्गपवनाणं, सिणेहो वज्जसिंखला। वीरे जीवन्तए जामो, गोयमो न केवली ।। अर्थात् मोक्ष पथ के पथिकों के लिये स्नेह वज्रशृंखलाओं के समान है। इसका ज्वलंत उदाहरण है इन्द्रभूति गौतम का भगवान् महावीर के प्रति सीमातीत स्नेह, जिसके कारण वीरप्रभु की विद्यमानता में गौतम केवली न हो सके। अहंकारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये। . विषादः केवलायाभूत् चित्रं श्री-गौतम प्रभोः ॥ . अर्थात् संसार के प्राणियों के लिये अहंकार, राग और बिषाद नितान्त अनर्थकारी हैं; पर बड़े पाश्चर्य की बात है कि गौतम स्वामी के लिये तो ये तीनों महान् अनर्थकारी सिद्ध होने के स्थान पर महान् लाभकारी सिद्ध हो गये क्योंकि अहंकार उन्हें शास्त्रार्य हेतु भगवान महावीर के पास लाया और उनके लिये बोधिप्राप्ति में परम सहायकं कारण हुआ। राग के कारण उनके हृदय में गुरुभक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और वे गुरुभक्तों के प्रतीक माने जाने लगे। विषाद वस्तुतः सबके लिये दुःखदायी है पर गौतम इन्द्रभूति के लिये तो भगवान् महावीर के निर्वाण से उनके अन्तर में उत्पन्न हुआ विषाद भी उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि कराने में कारण बना। ..इनभूति को निर्वाणसापना पचास वर्ष की वय में इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के प्रथम दिन में ही वे चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता बन गये। वे निरन्तर ३० वर्ष तक विनय भाव से भगवान् की सेवा करते हुए प्रामानुग्राम विचरण कर जिनशासन की प्रभावना करते रहे । उनके द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के ३० वर्ष पश्चात् जब पावापुरी में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान का निर्वाण हुमा तब प्रात्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए उन्होंने घाति-कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने बारह वर्ष तक केवलीभाव से पृथ्वीमण्डल पर विचरण करते हुए जिनमार्ग की प्रभावना की और अन्त में वीर निर्वाण सं० १२ के अंत में उन्होंने अपना अवसान काल निकट जान कर राजगह के गुणशील चैत्य में आमरण अनशन स्वीकार किया। एक मास के अनशन की भाराधना के पश्चात् समाधिपूर्वक काल कर वे सिम्बुद-मुक्त हो गये। मापकी पूर्ण प्रायु ६२ वर्ष की थी। पापका मंगल नामस्मरण पाज भी जन-जन के हदय को प्राल्लादित व मानंदित करता है। प्रतिदिन लाखों जन प्राज भी प्रभात को मंगल वेला में भक्तिपूर्वक भावविभोर हो बोलते हैं : अंगूठे अमृत बसे, लधि तणा भण्डार । श्री गुरु गौतम समरिये, वांछित फल दातार ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पूर्वभव म पूर्वभव में इन्द्रभूति गौतम कर्म के अनुसार अनन्तकाल से प्रत्येक प्राणी संसार में जन्म-मरण ग्रहण करता पा रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का जीव भी पूर्वभव में विविध गति, जाति और शरीरों को धारण करता आया था, इसमें कोई सन्देह नहीं। पर ऐसी उत्तम करणी करने वाला यह जीव पहले कौन था और भगवान् महावीर से उनका पहले कहां-कहां और कैसा-कैसा सम्बन्ध रहा, इस सम्बन्ध में जिज्ञासा होनी सहज है। श्वेताम्बर साहित्य में प्रागमकार इतना तो स्पष्टतः उल्लेख करते हैं कि भगवान् महावीर और गौतम का पहले अनेकों भवों का प्रेमसम्बन्ध रहा था। भगवती सूत्र में इस प्रकार का उल्लेख आता है कि एक बार इन्द्रभूति गौतम के द्वारा इस बात पर खेद प्रकट करने पर कि उनके समक्ष दीक्षित अनेक मुनियों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया पर उनको स्वयं को केवलज्ञान की प्राप्ति किस कारण से नहीं हुई, श्रमण भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति को आश्वस्त करते हुए कहा - "गौतम ! तेरा और मेरा अनेक भवों में प्रेमसम्बन्ध रहा है। तुम चिरकाल से मेरे साथ स्नेहसूत्र में बँधे हो। तुम चिरकाल से मेरे द्वारा प्रशंसित, परिचित, सेवित एवं मेरे अनुवर्ती रहे हो। कभी देव भव में, तो कभी मनुष्य भव में मेरे साथ रहे हो। यही नहीं, अब यहां से मरणानन्तर हम दोनों परस्पर तुल्य रूप वाले, भेदरहित, कभी न विछुड़ने वाले एवं सदा एक साथ रहने वाले मंगी-साथी बन जायेंगे।' अभी तक तुम्हारा मेरे प्रति प्रगाढ धर्मानुराग रहने के कारण तुम्हें केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं हो पाई हैं किन्तु चिन्ता जैसी कोई बात नहीं है।" ... भगवती मूत्र के उपरिवरिणत उल्लेखानुसार भगवान् महावीर के साथ इन्द्रभूति गौतम का अनेक भवों का सम्बन्ध होना प्रमाणित होता है। किन्तु भगवान महावीर के त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर्वभव में इन्द्रभूति गौतम के जीव का उनके सारथी के रूप में उनके साथ होने के अतिरिक्त अन्य किसी भव का श्वेताम्बर साहित्य में कहीं कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। दिगम्बर परम्परा के कवि 'रयधु' कृत अपभ्रश भापा के "महावीर चरित्र" और भट्टारक धर्मचन्द्रकृत “गौतम चरित्र" में इन्द्रभूति, अग्निभूति रायगिहें जाव परिसा पडिगया गोयमादि । समणे भगवं महावीरे गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी- “चिरसंसिट्ठोसि मे गोयमा ! चिरसंयुतोसि मे गोयमा ! चिरपरिचितोसि में गोयमा ! चिरमिग्रोसि मे गोयमा ! चिगणगग्रोमि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीमि म गोयमा ! अगातरं देवलोग अणंतरं मारगुम्माए भवे कि परं मरणकायस्म भेदा, इतो नृता दो वि तला रागट्ठा प्रविमेगमगणागापना भविम्मामा । [भगवती मूत्र, शतक १६, अशा ७] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम एवं वायुभूति के सात भवों का परिचय उपलब्ध होता है, पर उनमें से किसी एक भव में भी भगवान् महावीर के जीव के साथ उनका किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं बताया गया है। पाठकों की जानकारी हेतु उस कथा-भाग का यहां सार प्रस्तुत किया जा रहा है :. एक बार भगवान् महावीर विभिन्न देशों के अनेक भव्यों का उद्धार करते हुए राजगृह नगर के विपुलाचल पर पधारे। वहां मगधाधिपति श्रेणिक ने सविधि वंदन के पश्चात् अत्यन्त विनीत एवं मधुर स्वर में त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवान् महावीर से प्रश्न किया- "भगवन् ! आपके प्रमुख शिष्य एवं प्रथम गरणधर आर्य इन्द्रभूति गौतम ने ऐसी अद्भुत और अचिन्त्य आध्यात्मिक संपदा किस महान् सुकृत के फलस्वरूप प्राप्त की है ?" भगवान महावीर ने महाराजा श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हए फरमाया - "श्रेणिक ! प्राणी पाप - प्रकृतियों के बन्ध से अवनति की ओर तथा पुण्य - प्रकृतियों के बन्ध से उन्नति की ओर अग्रसर होता है। यह इन्द्रभूति गौतम के पूर्वभवों से भलीभांति विदित हो जाता है।" अति प्राचीन समय में काशी देश के महाराज विश्वलोचन एक बड़े प्रतापी राजा हए हैं। उनकी पटरानी का नाम विशालाक्षी था जो परम सुन्दरी पर स्वभाव से बड़ी चंचल एवं अजितेन्द्रिया थी। एकदा रात्रि के समय रंगिका और चामरी नाम की अपनी दो दासियों के साथ रानी विशालाक्षी ने एक नाटक देखा । नाटक के शृगाररसपूर्ण उत्तेजक अभिनयों को देख कर विशालाक्षी की कामवासना इतने प्रचण्ड वेग से जागृत हो उठी कि वह स्वैरिणी की तरह स्वेच्छाविहार की भावना लिये राजमहलों से भाग निकलने को छटपटाने लगी। दोनों दामियों की दुरभिसंधि एवं सहायता से वह मध्यरात्रि में छल-छद्मपूर्वक महलों से भाग निकलने में सफल हुई। नगर से दूर जंगल में पहुंचने पर उन्होंने योगिनियों का रूप धारण किया और चोरी-छिपे काशी राज्य की सीमा पार . की। तदनन्तर वे तीनों योगिनियों का वेप धारण किये हुए विभिन्न ग्रामों एवं नगरों ग्रादि में उन्मन भाव मे काम-मेवन करती हई यथेच्छ विचरने लगीं। उधर महलों में गनी को न पा कर गजा विश्वलोचन बड़ा चिन्तित हमा और लग्जा, वियोग एवं शोक मे संतप्त हो कुछ ही दिनों पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुआ ।' उधर योगिनिया के वेप में स्वच्छन्दतापूर्वक भटकती हुई वे तीनों प्रवन्ती देग में पहनो । एक दिन किमी ताम्वी मनि को नगर की ग्रोर नग्न रूप में प्राते दग्व व नीनो ऋद हो मनि को भला-बग मुनाने लगी। अन्तराय समझ कर मनि विना भिक्षा ग्रहगा किये ही लौट पहे। उन कामान्ध नीनों स्त्रियों ने जंगल नसन पान नदियागप्रवीडित :... - गौतम चरित्र, अधिकार २, श्लो. १८५ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पूर्वभव में में पहुंच कर रात्रि के समय अपनी वासनापूर्ति के लिये ध्यानस्थ मुनि को ध्यान से विचलित करने के अनेक उपाय किये। मुनि को ध्यान से विचलित करने के सभी उपायों के निष्फल हो जाने पर उन तीनों स्त्रियों ने बड़ी निर्दयतापूर्वक मुनि पर दण्डों और पत्थरों के प्रहार किये। मुनि को दी गई घोर पीड़ा के फलस्वरूप वे तीनों स्त्रियां अति भीषण कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो अन्ततोगत्वा पंचम नरक में उत्पन्न हुई। १७ सागर तक नरक के .असह्य दारुण दुःखों को भोग कर वे तीनों क्रमशः बिल्ली, शूकरी, कुतिया और मुर्गी के भव कर म्लेच्छ कूल में कन्याओं के रूप में उत्पन्न हई। सबः जात अवस्था में माता-पिता और शैशवावस्था में अभिभावकों तक के मर जाने के कारण वे तीनों कन्याएं दर-दर की ठोकरें खाती हुई बड़ा दुःखमय जीवन बिताने लगीं। उन तीनों का स्वरूप बड़ा ही अमनोज्ञ था। उनके शरीर से निरन्तर ऐसी कुत्सित दुर्गन्ध निकलती रहती थी कि कोई उन्हें पास तक नहीं फटकने देता था। कुला' होने के साथ-साथ उनमें से एक कानी, दूसरी लंगड़ी पोर तीसरी कौवे की तरह नितान्त काली-कलूटी थी । इस प्रकार असहायावस्था में भूखी-प्यासी इधर-उधर भटकती हुई वे तीनों कन्याएं एक नगर के बाहर विराजमान ग्रंगभूषण नामक मुनि के पास पहुंची और वंदन-नमस्कार के पश्चात् उनका उपदेश श्रवण करने लगीं। उपदेश-श्रवण के पश्चात् अवन्ती के महाराज महीचन्द्र ने मुनि से प्रश्न किया- "भगवन् ! इन अत्यन्त घृणित शरीर वाली नितान्त कुरूप कन्याओं के प्रति मेरे मानस में प्रात्मीय भाव से स्नेह किस कारण जागृत हो रहा है ?" उत्तर में अंगभूषण मुनि ने कहा- "राजन् ! पूर्वभव में यह कानी कन्या तुम्हारी विशालाक्षी नाम की रानी और ये दोनों उसकी दासियां थीं। मुनि को भीषण यातना देने के फलस्वरूप ये तीनों दुर्गतियों में भटकती हुई शूद्रकन्याओं के रूप में उत्पन्न हुई हैं। पूर्वभव के सम्बन्ध के कारण तुम्हारे मन में इनके प्रति स्नेह जागृत हो उठा है।" ___ पश्चात्ताप के प्रांतू बहाती हुई कन्याओं की प्रार्थना पर मुनि ने उन्हें "लब्धिविधान" नामक व्रत करने का उपदेश दिया ! मुनिराज के उपदेश और महाराज महीचन्द्र के सहयोग से उन तीनों ने सम्यक्त व ग्रहण किया और सन्धिविधान व्रत एवं तप करती हुई वे तीनों कन्याएं धर्माचरण में निरत रहतीं। अन्त में वे तीनों कन्याएं अपनी स्त्रीलिंग की कर्मप्रकृतियों को विनष्ट कर समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर पंचम देवलोक में महद्धिक देवों के रूप में उत्पन्न हुई। पंचम स्वर्ग के अनुपम सुखों का १० सागर की सुदीर्घ अवधि तक उपभोग करने के मनन्तर विशालाक्षी का जीव भरत क्षेत्रान्तर्गत मगध देश के ब्राह्मण नवर के निवासी शांडिल्य नामक वेदपाठी विद्वान् ब्राह्मण की ज्येष्ठ भार्या स्पंडिला के गर्भ में उत्पन्न हुमा। गर्भाधान की रात्रि में स्थंडिला ने एक महा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम .. प्रतापी पुत्र के जन्म का सूचक शुभ स्वप्न देखा । गर्भकाल की समाप्ति पर भाग्यवती स्थंडिला ब्राह्मणी ने एक महान तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। ब्राह्मरंग-दम्पति ने अपने उस पुत्र का नाम इन्द्रभूति रखा। कालान्तर में चामरी दासी का जीव भी पंचम स्वर्ग की आयु पूर्ण कर स्थंडिला के गर्भ में अवतरित हया। यथासमय स्थंडिला ने दूसरे तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अग्निभूति (दूसरा नाम गार्ग्य) रखा गया। तदनन्तर रंगिका दासी का जीव भी पंचम स्वर्ग की १० सागर की प्राय पूर्ण होने पर उसी शांडिल्य ब्राह्मण की दूसरी धर्मपत्नी केसरी नाम की ब्राह्मणी के गर्भ में पाया और गर्भकाल पूर्ण होने पर पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस सौम्य शिशु का नाम वायुभूति (दूसरा नाम भार्गव) रखा गया। दोनों मातानों और पिता शांडिल्य ने अपने परम भाग्यशाली तीनों पुत्रों का बड़े दुलार और प्यार के साथ पालन-पोषण किया। शांडिल्य ने समय पर अपने तीनों पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की । तीनों भाइयों ने परिश्रमपूर्वक विविध शास्त्रों का अध्ययन किया और वे वेदविद्या के पारगामी विद्वान् बन गये । इस प्रकार वे ही विशालाक्षी, रंगिक़ा और चामरी के जीव-क्रमशः इन्द्रभूति अग्निभूति एवं वायुभूति-ये तीन गणधर कहलाये । रयधू और भट्टारकजी ने किस प्रामाणिकं आधार से इन्द्रभूति आदि तीन गरणधरों के इन पूर्वभवों का उल्लेख किया है यह ज्ञात नहीं होता,' क्योंकि दिगम्वर परम्परा के अन्य ग्रन्थ इस विषय में मौन हैं। . भगवती सूत्र के. पूर्वोक्त उल्लेख के अनुसार तो भगवान् महावीर और इन्द्रभूति गौतम की पूर्वभव-परम्पग अनेक पूर्वभवों में एक दूसरे से सम्बन्धित और साथ-साथ होनी चाहिए। अपभ्रंश भाषा के कवि रयधू और भट्टारक धर्मचन्द्र द्वारा उल्लिखित इन्द्रभूति प्रादि तीनों गौतम बन्धुओं के ये पूर्वभव भगवती सूत्र के भावों से मेल नहीं खाते । विद्वज्जन इस विषय में विशेष रूप से प्राचीन साहित्य में तथ्य की गवेपणा करें, यह वांछनीय है। प्रथम पट्टधर विषयक प्राचीन दिगम्बर मान्यता यद्यपि दिगम्बर परम्परा के प्रायः सभी मान्य ग्रन्थों में यह उल्लेख है कि भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम ही भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर प्राचार्य बने किन्तु दिगम्बर परम्परा के एक सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'लोक विभाग' में श्वेताम्बर मान्यता की ही तरह इस बात का संकेत उपलब्ध होता ' ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः भट्टारक परंपरा के प्रसार के समय व्रतों के माहात्म्य को बहाचढ़ा कर जनता के ममक्ष रखने की दौड़ में "लन्धिविधानवन" को लोकप्रिय बनान की दृष्टि से इस कथा की कल्पना की गई हो। -मम्पादक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मोलिक इतिहास - द्वितीय भाग | प्रथम पट्टधर विषयक है कि भगवान् के निर्वारण के पश्चात् उनके प्रथम पट्टधर ग्रार्य सुधर्मा बने, न कि 1 इन्द्रभूति गौतम । ४८ दिगम्बर परम्परा का वह प्रतिप्राचीन ग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में था । वह तो विलुप्त हो चुका है परन्तु उसी प्राकृत भाषा के 'लोकविभाग' ग्रन्थ के आधार पर बना संस्कृत 'लोक विभाग' उपलब्ध होता है । संस्कृत 'लोकविभाग के कर्त्ता सिंहसूरपि ने मूल लोक विभाग का संस्कृत में ग्रनुद करते समय ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखा है : लोकालोक विभागज्ञान्, भक्त्या स्तुत्वा जिनेश्वरान् । व्याख्यास्यामि समासेन, लोकतत्वमनेकधा ॥ अन्त में प्रशस्ति में लिखा है * भव्येभ्यः सुरमानुषोरु सदसि श्री वर्द्धमानार्हता, यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञातं सुधर्मादिभिः । ग्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहसूरर्षिरणा । भाषाया परिवर्तनेन निपुणैः सम्मानितं साधुभिः ।। अर्थात् लोक और अलोक के विभागों को जानने वाले जिनेश्वरों की भक्तिसहित स्तुति कर के लोकतत्व का संक्षेप में व्याख्यान करता हूँ । अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है कि देवों और मनुष्यों की सभा में तीर्थंकर वर्द्धमान ने समस्त जगत् का विधान भव्यजनों के लिये कहा, जो सुधर्मा स्वामी आदि ने जाना और जो प्राचार्य परम्परा से आज तक चला आ रहा है, उसे सिंहसूर - ऋषि ने भाषा-परिवर्तन कर के विरचित किया, उसका निपुण साधुजनों सम्मान किया है | प्रशस्ति के श्लोक में प्रयुक्त - "ज्ञातं सुधर्मादिभिः " प्रौर "प्राचार्यावलिकागतं”- इन दोनों पदों पर सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर इनका स्पष्टरूप से यही अर्थ निकलता है कि - 'सुधर्मा' आदि ने उसे सुना, सुधर्मा श्राचार्य ने अपने उत्तराधिकारी प्राचार्य को वह ज्ञान दिया और क्रमशः उनके उत्तराधिकारी प्राचार्य अपने-अपने उत्तराधिकारी प्राचार्यों को वह ज्ञान देते रहे। इस प्रकार आचार्य परम्परा से वह ज्ञान प्राज तक चला आ रहा है। भगवान् महावीर से ज्ञान प्राप्त करने वालों के नामोल्लेख के समय प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का नामोल्लेख करने के स्थान पर सुधर्मा का नामोल्लेख किया जाना और " प्राचार्यावलिकागतं " - इस पद से पहले "ज्ञातं सुधर्मादिभि: "इस पद का प्रयोग वस्तुतः प्रत्येक विचारक को यह विश्वास करने के लिये प्रेरित करता है कि भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर प्राचार्य सुधर्मा स्वामी हुए, न कि इन्द्रभूति गौतम । उपरोक्त श्लोक के पदविन्यास से "लोकविभाग" के रचनाकार की यही भावाभिव्यक्ति स्पष्ट प्रतिध्वनित होती है कि महावीर के प्रथम पट्टधर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन दिगम्बर मान्यता] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम इन्द्रभूति गौतम नहीं, अपितु सुधर्मा स्वामी हुए । उपरोक्त श्लोक में छन्द की दृष्टि से गौतमः इन्द्रभूति का नामोल्लेख करने में ग्रन्थकार को कठिनाई आई होगी इसलिये उसके द्वारा सुधर्मा का नाम रखा गया- इस प्रकार की लचर दलील दे कर इस श्लोक के अर्थ को यदि तोड़-मरोड़ कर अन्य रूप से रखने का प्रयास किया जाय तो निश्चित रूप से मूलग्रन्थकार और संस्कृत में उसका अनुवाद करने वालेइन दोनों ही ग्रन्थकारों के प्रति अन्याय होगा। मूल “लोकविभाग" की रचना मुनि सर्वनन्दि ने पाण्ड्य राष्ट्र के पाटलिक ग्राम में की और शक संवत् ३८०, तदनुसार विक्रम सं० ५५५ में इसे समाप्त किया' इस प्रकार का उल्लेख संस्कृत “लोकविभाग" के रचयिता ने किया है.। __इस प्रकार के प्राचीन ग्रन्थ में भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर के सम्बन्ध में परोक्ष रूप से जो यह उल्लेख किया गया है यह इतिहास के विद्वानों के लिये विचारणीय है। ' विश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे, राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । प्रामे च पाटलिकनामनि पाण्ड्यराष्ट्र, शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनि सर्वनन्दिः ।।२।। संवत्सरे तु द्वाविशे, कांचीसिंहवर्मणः । मशीत्यने शकान्दानां, सिद्धमेतच्छतत्रये ॥३॥ [लोकविभाग] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य सुधर्मा (भगवान् महावीर के प्रथम पट्टपर) भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् वीर संवत् के प्रारम्भकाल में अर्थात् शक संवत् से ६०५ वर्ष पूर्व कार्तिक शुक्ला १ के दिन चतुर्विध संघ ने प्रार्य सुधर्मा को भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर के रूप में नियुक्त किया। - भगवान् महावीर के समय संघ की व्यवस्था में अनुशासन एवं संगठन आदि की जो प्रमुख विशेषताएं थीं, उन्हें भगवान् के निवारण पश्चात् भी पार्य सुधर्मा ने बड़ी ही कुशलता के साथ यथावत् बनाये रखा। प्राचार्य सुधर्मा के प्रशासन-कौशल, दूरदर्शिता और तपस्तेज का ही चमत्कार है कि उनके उत्तरवर्ती काल में अनेक बार अगणित प्रतिकूल परिस्थितियों के उपस्थित होने पर भी भगवान महावीर का धर्मसंघ इतने सुदीर्घ काल तक एक महान संघ के रूप में समीचीन रूप से चलता रहा और आज तक विविध बाह्य विभिन्नताओं के होते हुए भी वह अपने मूलभूत महान् सिद्धान्तों को अमूल्य थाती के रूप में सुरक्षित रख पाया है। धर्म संघ की वह पतितपावनी अध्यात्म-सरिता आज भी निर्बाध गति से निरन्तर चलती आ रही है। ... लगभग ढाई हजार वर्ष के प्रति दीर्घ प्रतीत की लम्बी अवधि में अगणित आपत्तियों, विषम परिस्थितियों, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक क्रान्तियों, विप्लवों तथा दिल दहला देने वाले कई द्वादशवर्षीय दुष्कालों ने प्राचीन और अर्वाचीन सभी धर्मसंघों को बुरी तरह झकझोरा। उन संकटों की विकट घड़ियों में बौद्ध धर्म जैसे अनेक धर्मसंघ इस आर्य धरा से विलुप्त हो गये, किन्तु भगवान् महावीर द्वारा त्याग-तप व संगठन की सुदृढ़ नींव पर खड़े किये गये इस निर्ग्रन्थ संघ की प्रार्य सुधर्मा ने प्रभू महावीर द्वारा प्ररूपित नीति का पालन करते हुए ऐसी चिरस्थायी और दृढ़ व्यवस्था की कि भीषण से भीषण एवं प्रलयंकर क्रान्तियां भी इस धर्मसंघ की गहरी जड़ों को नहीं हिला सकीं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इन प्रतिकूल परिस्थितियों का भगवान् महावीर के धर्मसंघ पर बिलकुल ही प्रभाव नहीं पड़ा। लगातार प्रापत्तियों पर आपत्तियां आने के कारण अन्ततोगत्वा इस धर्मसंघ में भी अनेक विकृतियां उत्पन्न हुई और पर्याप्त हानियां उठानी पड़ी । प्राचार्य भद्रबाह के समय, प्राचार्य सुहस्ती के समय एवं आर्यवज्र के समय में पड़े दीर्घकालीन दुष्कालों के विनाशकारी कुप्रभाव के कारण श्रमणों के केवल स्मृतिपटल पर अंकित रहने वाले श्रुतशास्त्र में ही नहीं, अपितु आचरण में भी मन्दता आई। इस मंदता से धर्मसंघ का सर्वांग Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य सुषर्मा पूर्ण संविधान भी शनैः शनैः विस्मृति के गर्त में विलीन हो क्षीण होने लगा। परन्तु सुधर्मा स्वामी द्वारा द्वादशांगी के रूप में ग्रथित भगवान महावीर की वाणी से अनेक महापुरुषों ने अचिन्त्य-अपरिमेय शक्ति का संचय कर समय-समय पर क्रियोद्वार किया और प्रभु महावीर के धर्मसंघ की गौरव-गरिमा को समुज्ज्वल एवं अक्षुण्ण बनाये रखा। प्रार्य सुषर्मा को विशिष्टता सभी गणधरों में चतुर्दश पूर्व के ज्ञान की समानता होने पर भी उनकी अपनी अलग-अलग विशिष्टताएं थीं। निरन्तर प्रभू-सेवा में रह कर शास्त्रीय विषयों की गम्भीर छानबीन करना इन्द्रभूति की विशिष्टता थी, अतः उन्हें जिस प्रकार प्रभु द्वारा श्रुततीर्थ की अनुज्ञा प्रदान की गई उसी प्रकार प्रार्य सुधर्मा में भी कोई विशिष्टता होनी चाहिये जिससे त्रिकालदर्शी भगवान महावीर ने उन्हें गणसंचालन की अनुज्ञा दी। हजारों साधुनों के गणों का व्यवस्थितरूपेण संचालन एवं परिपालन करना और प्रभु के निर्वाण पश्चात् संपूर्ण संघ को संगठित एवं सुशासित रखना कोई साधारण योग्यता की बात नहीं थी। प्रार्य सुधर्मा में संघ को सुदृढ़, सुसंगठित, सुशासित और सशक्त बनाये रखने की अपूर्व क्षमता थी। संभव है उनकी इसी विशिष्ट योग्यता के कारण भगवान् महावीर ने सब गणधरों को अपने-अपने गण सम्हलाते समय आर्य सुधर्मा के सबल कन्धों पर प्रवशिष्ट साधु-समुदाय के गण-संचालन का गुरुतर भार रखा। आवश्यक चूर्णिकार ने उपर्युक्त प्रसंग का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है : ........पच्छा सामी जस्स जत्तिप्रो गणो तस्स तत्तियं अणुजापति, पातीए सुहम्मं करेति, तस्स महल्लं आउयं, एत्तो तित्थं होहितित्ति । ........अज्ज सुहम्मस्स निसिरंतिगणं ।। [आवश्यक चूरिण, पूर्वभाग, पृ० ३३७] .......ताहे गोयमसामीप्पमुहा एक्कारसवि गणहरा तीसी प्रोणता परिवाडीए ठायंति,.......पुव्वं तित्थं गोयमसामिस्स दव्वेहिं पज्जवेहि अरणुजाणा मित्ति........गणं च सुहम्म सामिस्स धुरे ठावेत्ता णं अणुजाणति ।" [वही, पृ. ३६०] जन्म स्थानादि आर्य सुधर्मा का जन्म ईसा से ६०७ वर्ष पूर्व विदेह प्रदेश के कोल्लाग नामक ग्राम में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हमा। यह एक अद्भुत संयोग की बात है कि भगवान् महावीर की तरह आर्य सुधर्मा का जन्म-नक्षत्र भी उत्तराफाल्गुनी और जन्मराशि कन्याराशि थी। जिस प्रकार पुण्य अथवा पाप-प्रकृतियों का बन्ध प्राणी द्वारा किये गये पुण्य अथवा. पापपूर्ण कार्यों में उसके अपने पौरुष के तारतम्य के अनुसार न्यनाधिक होता है, ठीक उसी प्रकार उन पुण्य या पापमयी प्रकृतियों के उदय के समय प्राणी को पूर्व में किये गये अपने कार्यों का शुभाशुभ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जन्म स्थानादि] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा फल भी.तदनुकूल भोगना पड़ता है। जन्म-नक्षत्र एवं जन्मराशियां उन पुण्य तथा पापबन्धों के भावी उदयकाल की पूर्वसूचना के माध्यम माने जा सकते हैं। भगवान् महावीर की जन्मराशि और जन्म-नक्षय से जिस प्रकार यह पूर्वाभास होता है कि प्रभु महावीर का शासन २१ हजार वर्ष तक चलता रहेगा, ठीक उसी प्रकार आर्य सुधर्मा के जन्म-काल में उसी राशि और उसी नक्षत्र का होना भी यह पूर्व सूचना देता है कि भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर द्वारा प्रथित मागम परम्परा, उनके द्वारा की हुई संघ-व्यवस्था और उनकी शिष्य-परम्परा भी २१ हजार वर्ष तक बिना किसी व्यवधान के निरन्तर चलती रहेगी। प्राचीन काल में भारतवर्ष का वह भू-भाग - जिसको पूर्व में कोशिकी नदी, पश्चिम में गंडकी नदी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में गंगानदी घेरे हुए थी-विदेह के नाम से विख्यात था। जिस कोल्लाग सग्निवेश में प्रार्य सुधर्मा का जन्म हुआ वह लिच्छवी गणराज्य की राजधानी वैशाली के आस-पास ही बसा हुअा था। पुरातत्त्ववेत्तानों द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि प्राजकल जो कोल्लुमा ग्राम प्रवस्थित है, वहीं उस समय संभवतः कोल्लाग ग्राम बसा हुमा होगा।' माता-पिता आर्य सुधर्मा के पिता का नाम घम्मिल्ल और माता का नाम भद्दिला था। अग्निवैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण प्रार्य धम्मिल्ल वेद-वेदांग के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् थे। अनुमान से यह कहना भी अधिक संगत प्रतीत होता है कि अपने समय में गुरुकुल प्रणाली के प्राचार्यों में उनकी गणना की जाती हो। कोल्लाग मनिवेश में एक ही समय में आर्य व्यक्त और प्रार्य सुधर्मा जैसे दो विद्वानों के सान्निध्य में पांच-पांच सौ छात्रों का अहर्निश सेवा में रहते हुए विद्याध्ययन करना इस बात का द्योतक है कि उन दिनों वैशाली और उसके आस-पास का क्षेत्र शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र बना हुआ था एवं आर्य व्यक्त तथा प्रार्य सुधर्मा को अपने-अपने पिता से गुरुकूल पद्धति के प्राचार्य-पद की प्राप्ति हुई थी। वैशाली और नालन्दा जैसे विशाल एवं समुत्रत शिक्षा केन्द्रों के कारण ही अतीत में आर्य-धरा की गौरवगाथाओं के गरिमापूर्ण स्वर निम्नलिखित रूप में विश्व के विस्तीर्ण गगन में गंज रहे थे एवं प्राज भी उन स्वरों की गूंज मिटी नहीं है : एतद्देशप्रसूतस्य, सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्, पृथिव्यां सर्वमानवाः ।। शिक्षण विद्यानुरागी समाज और विद्वद्वंश-परम्परा के संस्कारों में पले-पुसे सुधर्मा ने अपने विद्यार्थी जीवन में ऋक्, साम, यजुः और अथर्व इन चार वेदों, शिक्षा, Suburb Kollaga (HEIT Afragt)--Pet haps Modern Kollua. (The Journal of The Royal Asiatic Society, 1902 P. 283 २ मनुस्मृति, अ० २, श्लो० २० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग - शिक्षण कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष इन छः वेदांगों तथा मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र एवं पुराण इस कार कुल मिला. कर चौदह विदामों का सम्यकरूपेण अध्ययन किया। तत्कालीन शिक्षा प्रणाली के अनुसार पारगामी विद्वान् बनने के पश्चात् प्रार्य सुधर्मा ने अध्यापन का कार्य प्रारम्भ किया। उनके पास ५०० छात्रों के नियमित अध्ययन से यह अनुमान लगाया जाता है कि उनकी गणना उस समय के बहुत उच्चकोटि के विद्वानों में की जाती रही होगी। उस समय की शिक्षा प्रणाली के तलस्पर्शी विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि तत्कालीन जनमानस में ज्ञान-पिपासा और शिक्षा के प्रति अभिरुचि पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थी, पर वस्तुतः लोगों का शास्त्रीय पाण्डित्य की भोर जितना मधिक झुकाव था उतना अध्यात्म-चिन्तन की अोर नहीं था। सत्कालीन पार्मिक स्थिति : ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों कतिपय अंशों में ब्राह्मण क्रियाकाण्डों पोर या-यागादि का धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में बड़ा महत्व माना जाता था मोर यज्ञानुष्ठान को ही सबसे बड़ा धर्म समझा जाने लगा था। यही कारण था कि उस समय यत्र-तंत्र, यदा-कदा बड़े-बड़े आयोजनों के साथ समारोहपूर्वक यज्ञ किये जाते थे। उन यज्ञों में यजमानों द्वारा यज्ञानुष्ठान कराने वाले विद्वानों और बाह्मणों को निमन्त्रित कर बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं दी जाती थीं। वेद-वेदांगों के प्रकाण्ड पण्डित मार्य सुधर्मा को उस समय किये जाने वाले अनुष्ठानों में बुलाया जाता रहा होगा। इस प्रकार का विश्वास करने के लिये उनका सोमिल द्वारा बनष्ठित यज्ञ में सम्मिलित होना पर्याप्त प्रमाण है। ५०० विद्यार्थी सदा भार्य मुषर्मा की सेवा में रह कर उनसे विद्याध्ययन करते थे, यह तथ्य इस बात का बोतक है कि प्रार्य सुधर्मा प्रकाण्ड पण्डित होने के साथ-साथ पर्याप्तरूपेण साधनसम्पन्न एवं समृद्ध भी थे। दीक्षा से पूर्व का जीवन श्रमण भगवान महावीर के पास दीक्षित होने से पूर्व के किसी भी गणधर के जीवन का पूर्ण विवरण जैन वाङ्मय में उपलब्ध नहीं होता। केवल अावश्यक नियुक्ति में भगवान् महावीर के ग्यारहों गणधरों के नाम, ग्राम, गोत्र, जन्म-नक्षत्र, जाति, माता-पिता के नाम, शैक्षणिक योग्यता, शिष्य-परिवार, तात्त्विक शंका और दीक्षा के समय उनकी आयु आदि का विवरण दिया गया है। इससे अधिक, दीक्ष से पूर्व का गणधरों के गहस्थ-जीवन का कोई विवरण प्राज जैन अथवा जैनेतर ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता। यदि इस दिशा में प्रयास किये जायं तो अन्धेरे में छिपे अनेक ऐतिहासिक महत्व के तथ्य प्रकाश में लाये जा सकते हैं। __इन्द्रभूति गौतम के जीवन-परिचय में अपभ्रंश भाषा के कवि रयधू द्वारा रचित "महावीरचरित" के आधार पर जिस प्रकार कुछ नये तथ्य विद्वानों के ममक्ष प्रस्तुत किये गये हैं उसी प्रकार प्रायं सुधर्मा के गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा से पूर्व का जीवन ] केवलिकाल : श्रायं सुषमा ५१ भी खोज करने पर कुछ प्रपुष्ट विवरण प्रकाश में प्राये हैं। शोधार्थियों की सुविधा और विद्वानों के विचार हेतु उन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। पुरातत्ववेत्ता मुनि जिनविजयजी ने "जैन साहित्य संशोधक", रु. १, अंक ३ के परिशिष्ट में 'वीर वंशावलि अथवा तपागच्छ वृद्ध पट्टावलि' प्रकाशित की है। उसके पृष्ठ १-२ में श्रार्य सुधर्मा के श्रमरणजीवन से पूर्व का विवरण देते हुए लिखा गया है : : “१. सुधर्मा स्वामी पछी श्री वीर पाटे पांचवां गणधर श्री सुधर्मा स्वामी पहले पाटे थया । तथा हि कोल्लाग सन्निवेशे धम्मिल्ल नामा विप्र तेहनी स्त्री भद्दिला नामे । ते हरिद्रायण गोत्र थी उपनी । तेहनो पुत्र । उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में जन्म हुम्रो सुधर्मा नाम दीधु । अनुत्र में यौवनावस्था में वक्षस (वत्स ) गोत्र थकी उपनी एक कन्या परगावी । तेहसुं सांसारिक सुख भोगवतां एक पुत्री हुई। ते सुधर्मा चार वेद-वेदांग नो पाठी छे । तेहूने पासे पांच सये विद्यार्थी बाड़वसुत विद्याभ्यास ( २ - १ ) करे छे । पिरण ते सुधर्मा ना जिसने विषे एक महा संदेह छे । ते किस्यो ? जे जेहवो ते तेहवो । ते संदेह श्री वीरवचने निःसंदेह हुन । तिवारे पांच सय छात्र युक्त वर्ष ५० गृहस्थ पशुं भोगवी संसय छेदक श्री वीर हस्ते दीक्षा लीधी ।" ·इस प्रकार उपर्युक्त तपागच्छ वृद्ध पट्टावलि में दिये गये सुधर्मा स्वामी के गृहस्थ- जीवन संबंधी वृत्त में निम्नलिखित जो तीन बातों का उल्लेख किया गया है, वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता : १. प्रायं सुधर्मा की माता का हरिद्रायरण गोत्र होना । २. यौवनावस्था में प्रार्य सुधर्मा का वक्षस ( वत्स्य) गोत्र की कन्या के साथ विवाह होना । और ३. सुधर्मा की वत्स्य गोत्रीया पत्नी से एक पुत्री का जन्म होना । उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त लींबड़ी संघवी उपाश्रय के पूज्य श्री मोहन लालजी स्वामी के शिष्य स्वर्गीय मुनि श्री मणिलालजी महाराज द्वारा लिखित " श्री जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास अने प्रभु वीर पट्टावली" नामक ग्रन्थ में प्रार्य सुधर्मा का प्रव्रजित होने से पूर्व का जो जीवन-परिचय दिया गया है उसमें तपागच्छ पट्टावली में उल्लिखित ऊपर दी हुई तीन बातों में से पहली को छोड़ कर शेष दो के उल्लेख के साथ दो और नये तथ्य दिये गये हैं । मुनि मणिलालजी ने लिखा है कि प्रार्य सुधर्मा ने वत्स गोत्रीया कन्या के साथ विवाह करने और उससे एक कन्या का जन्म होने के पश्चात् संसार से विरक्त हो संन्यास ग्रहरण किया और उन्हें कालान्तर में शंकराचार्य की सम्माननीय उपाधि से अलंकृत किया गया था । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दीमा से पूर्व का जीवन स्वर्गीय मुनि मणिलालजी द्वारा प्रार्य सुधर्मा के जीवन-परिचय के सम्बन्ध में दिया गया वह विवरण यहां यथावत् दिया जा रहा है : ___ "प्रभु वीर पट्टावली भगवान् महावीर नी पहेली पाट पर श्री सुधर्म स्वामी विराज्या। तेमनो जन्म "कोल्लाग सन्निवेश" नामक स्थल मां 'धम्मिल' नामना विप्र ने त्यां थयो हतो। बाल्यावस्था थीज धर्म प्रत्ये तेमनी प्रयाग रुचि होवा थी तेमन नाम "सुधर्म" तरीके जनता में प्रसिद्ध थयं । योवन वय प्राप्त थई त्यारे पोतानी अनिच्छा छतां तेमने माता-पिताए "वात्स्य गोत्र" मां उत्पन्न थयेली एवी एक कन्या साथे तेमन पाणिग्रहण कराव्यं । उदासीन भावे संसार मां रहेतां तेमने एक पुत्री थई हती। सतत ज्ञानाभ्यास मां रहेतां तेत्रो चार वेद, श्रुति, स्मृति वगेरे अढ़ार पुराण मां सम्पूर्ण पारंगत थया। दिन प्रतिदिन संसार पर तेमनी अरुचि बघती गई, प्रने समय परिपक्व थतां सर्व नी अनुमति लई तेमणे सन्यासपणुं अंगीकार कयु अने छेवटे शंकराचार्य नी पदवी प्राप्त करी, पोताना शिष्य परिवार साये फरता-फरता ज्यारे तेसो "जंभिका" नामनी नगरी मां प्राव्या, त्यारे तेमने प्रभु महावीर नो समागम थयो । ज्यां तेमने शंकामोन समाधान ययु 'प्रने प्रभु वीर पासे तेमणे भागवती दीक्षा अंगीकार करी।" मार्य सुधर्मा के सम्बन्ध में उपर्युक्त विवरण देते हुए स्व० मुनि मणिलालजी ने जो नवीन तथ्य रखने का प्रयास किया है, उन तथ्यों को रखते समय उनके समक्ष क्या प्राधार था इसे जानने के लिये हमारी भोर से पूरा प्रयास किया गया, पर अभी तक वृद्ध पट्टावली के उपरिलिखित प्रालेख के अतिरिक्त और कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हरा है, जिसके माधार पर प्रार्य सुधर्मा के जीवन के सम्बन्ध में जो नवीन बातें मुनि श्री मणिलालजी ने रखी हैं उन्हें पूर्ण प्रामाणिक माना जा सके। - इस सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा अप्रकाशित पुस्तकों की खोज की जाय तो जैन और वैदिक दोनों ही परम्परामों के इतिहास में कुछ नवीन उपलब्धियां हो सकती हैं। प्राशा है इस सम्बन्ध में इतिहास के विद्वान तथ्य को खोजने का प्रयास करेंगे। प्रार्य सुधर्मा के गृहस्थ-जीवन के सम्बन्ध में जो प्रामाणिक विवर उपलब्ध होता है, उससे यह तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि विद्वत्ता साथ-साथ वे प्रार्थिक दृष्टि से भी पर्याप्तरूपेण सम्पन्न थे। यज्ञानुष्ठानादि से उन्हें विपुल अर्थ की उपलब्धि होती रही होगी तभी उनकी सेवा में ५०० छात्र सदा विद्यमान रहते थे। 'श्री जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास अने प्रभु वीर पट्टावलि, (पंच भाई नी पोळ, महमदाबाद)। - - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा से पूर्व का जीवन) केवलिकोल : प्रार्य सुधर्मा __सोमिल ब्राह्मण द्वारा मध्यम पावा में यज्ञानुष्ठान के लिये मामन्त्रित मार्य सुधर्मा अन्य १० विद्वानों के साथ जिस समय यज्ञानुष्ठान कर रहे थे, उसी समय मध्यम. पावा नगरी के प्रानन्दोद्यान में भगवान् महावीर का समवसरण हुमा। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इन्द्रभूति तथा अग्निभूति गौतम भगवान् महावीर को शास्त्रार्थ में जीतने की अभिलाषा लिये और वायुभूति तथा प्रार्य व्यक्त अपनी-अपनी शंकाओं के समाधानार्थ प्रभु के समवसरण में अपने शिष्य-समूह के साथ क्रमशः गये और भगवान् महावीर द्वारा अपनी गूढ़ शंकामों का समुचित समाधान पा कर उनके चरणों में दीक्षित हो गये। प्रार्य सुधर्मा ने जब यह सुना कि इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति और मार्य व्यक्त जैसे उच्चकोटि के विद्वान् अपने-अपने मन की शंकानों का समाधान पा कर भगवान् महावीर के पास श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये हैं, तो उनके मन में भी उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई कि क्यों न वे भी नर, नरेन्द्र, देवेन्द्रादि द्वारा पूजित सर्वज्ञ प्रभु महावीर से अपने मन में चिरकाल से संचित निगूढ़ शंका का समाधान कर लें। वे तत्काल अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रभू के समवसरण में पहुंचे ।' उन्होंने श्रद्धावनत हो प्रभु के चरणों में नमन किया। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर ने नाम - गोत्रोच्चारणपूर्वक प्रार्य सुधर्मा को सम्बोधित करते हुए धनरव-गम्भीर स्वर में कहा - "प्रार्थ सुधर्मन् ! तुम्हारे मन में यह शंका है कि प्रत्येक जीव वर्तमान भव में मनुष्य, तिथंच आदि जिस गति में है, वह मरने के पश्चात् भावी भवों में भी क्या उसी गति में उसी प्रकार के शरीर में उत्पन्न होगा? अपनी इस शंका की पुष्टि में तुम मन ही मन यह युक्ति देते हो कि जिस प्रकार एक खेत में जो बोये जायं तो जौ और गेहूं बोये जायं तो गेंहूं पैदा होंगे। यह संभव नहीं कि जो बोने पर गेहूं उत्पन्न हो जायं प्रथवा गेहं बोने पर जो उत्पन्न हो जायं। सौम्य सुधर्मन् ! तुम्हारी यह शंका वस्तुतः समुचित नहीं है। क्योंकि प्रत्येक प्राणी त्रिकरण एवं त्रियोग से जिस प्रकार की अच्छी अथवा बुरी क्रियाएं करता है, उन्हीं कार्यों के अनुसार उसे भावी भवों में अच्छी अथवा बुरी गति, शरीर, सुख-दुःख, संपत्ति:विपत्ति, संयोगवियोगादि की प्राप्ति होती रहती है और कृतकर्मजन्य यह क्रम अजस्ररूपेण तब तक चलता रहता है जब तक कि वह आत्मा अपने-अच्छे-बुरे- सभी प्रकार के समस्त कर्मों का समूल नाश कर शुद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हो जाता। एक मनुष्य अपने वैराग्य, सदाचार, आर्जव, मार्दव आदि गुणों से मनुष्यमायु का बन्ध कर अगले जन्म में पुनः मानव-भव प्राप्त कर सकता है । यदि उस मनुष्य में त्याग-तप-दया मादि सद्गुणों का बाहुल्य हो तो वह देवायु का बन्ध कर, मरने पर देव रूप से उत्पन्न हो सकता है । परन्तु वही मनुष्य, यदि उसमें ते पम्पइए सोङ, सुहम्मो मागन्या जिणसगासं । बच्चामि वं वंदामि, वंदित्ता पाणुवासामि ॥६१४।। [भाव नि०१] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [परीक्षा से पूर्व का जीवन उपर्युक्त सद्गुणों का प्रभाव एवं हिंसा, असत्य-भाषण, चौर्य, दुराचरण, क्रोध, मान, मद, मोह, मात्सर्य और लोभादि दुर्गुणोंका प्राचुर्य हो तो वह मर कर कमि-कीट-पतंग एवं नारकीय अथवा निगोद के रूप में भी उत्पन्न हो सकता है। ___ एक प्राणी जिस योनि में है, वह यदि उसी योनि में उत्पः कराने वाले कर्मो का बन्ध करे तो पुनः उस योनि में भी उत्पन्न हो सकता है, पर एकान्ततः यह मानना सत्य नहीं है कि जो प्रारणी वर्तमान में जिस योनि में है, वह सदा-सर्वदा के लिये निरंतर उसी योनि में उत्पन्न होता रहे ।" प्रतिबोष और दीक्षा-पहरण श्रमण भगवान् महावीर की निर्दोष एवं प्रमोघ वाणी को सुन कर प्रार्य सुधर्मा के मन में प्रभु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई। उनके समस्त संशय छिन्नभिन्न हो गये, उनके हृदय की सभी ग्रंथियां स्वतः ही खुल गईं। त्रैलोक्यैकनाथ प्रभु महावीर के दर्शन और कृपाप्रसाद के फलस्वरूप प्रार्य सुधर्मा पर उपनिषद्कार की निम्नलिखित उक्ति पूर्णरूपेण घटित हो गई : भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यते सर्वसंशयाः ।" ज्ञानी सदगुरु की संगति हृदय की मोहजन्य गांठ का भेदन कर सकल संशयों का अंदन करती है । जगद्गुरु प्रभु महावीर की कृपा से प्रार्य सुधर्मा के अन्तर्मन में उद्भूत मानालोक जगमगा उठा और उन्हें अनिर्वचनीय प्रानन्द की उपलब्धि हुई। उन्होंने भावविभोर हो :प्रभु के चरणों पर अपना सिर रखते हुए गद्गद् स्वर में कहा- "प्रभो! आपने मेरे अन्तस्तल में व्याप्त प्रज्ञानान्धकार को दूर कर दिव्य प्रालोक से मेरे हृदय को प्रकाशमान कर दिया है। में प्रापकी वीतराग वाणी में पूर्ण श्रद्धा और आस्था रखता हूँ। मै आपकी निर्दोष वाणी में पूर्ण प्रीति करता है। करुणाधन ! मापने मुझे सही दिशा और मेरे चरम लक्ष्य का बोध करा दिया है। मैं अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आपके चरणों की शरण में श्रमरण-दीक्षा ग्रहण कर आजीबन अापकी सेवा करना चाहता है।" इस प्रकार प्रार्य सुधर्मा की भरल, निर्लेप, मुमुक्षु एवं सत्योपासक वृत्ति का परिचय मिलता है । भगवान् महावीर के मुखारविन्द से सत्य का परिज्ञान होते ही उन्होंने अपनी चिरपरिपालित परम्परा, बड़े परिश्रम से अजित प्रतिष्ठा, शिष्यों और अनुयायियों के मोह आदि का परित्याग कर दिया और वे तत्काल श्रमरणदीक्षा ग्रहण करने के लिये तत्पर हो गये। ___इससे यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि प्रार्य सुधर्मा के हृदय में सत्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा और सत्य को प्रात्मसात् करने की अनुपम तत्परता थी। उनकी बुद्धि सत्य को ग्रहण करने हेतु सदा उन्मुक्त-द्वार एवं तत्पर रहती थी। उन्नति के पथ पर अग्रसर होने से रोकने वाली सभी दुर्बलतामों, विचारों एवं वाधाओं को झटक कर उन्होंने अपने मन से दूर फेंक दिया। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतियोष पौर दीक्षा ग्रहण केवमिकाम : पायं सुधर्मा स्वयं द्वारा चिरपोषित, चिरपरिपालित परंपरा की अनुपादेयता पोर प्रयचाता का ज्यों ही उन्हें बोध होता है वे तत्काल उसका सदा के लिये उसी प्रकार परित्याग कर देते हैं जिस प्रकार कि सांप प्रपनी केंचुल का। "तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः, क्षारं जलं कापुरुषा पिवन्ति" इस उक्ति के अनुसार कदाग्रही कायर व्यक्ति ही अपनी रूढ़ मान्यता को सदोष समझ कर भी उससे चिपटे रहते हैं। सत्योपासक एवं तस्वदर्शी पुरुषों की यह विशेषता होती है कि वे सत्य का दर्शन होते ही तत्काल निर्मीकता के साथ असत्य का परित्याग कर सत्य को प्रात्मसात् कर लेते हैं। आर्य सुधर्मा पूर्वाग्रहों से परे, सत्य के परमोपासक और प्रबुद्धचेता विद्वान् थे। उन्होंने प्रभु द्वारा अपनी प्रार्थना के स्वीकृत होते ही भगवान् महावीर के करकमलों से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। प्रार्य सुषर्मा के साथ उनके ५०० शिष्यों ने भी सत्य मार्ग को पहिचाना और अपने शिक्षा-गुरु के पदचिन्हों पर चलते ए श्रमणधर्म स्वीकार कर प्रभुचरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया। बीमा के पश्चात मार्य सुधर्मा जिस समय प्रार्य सुधर्मा ने भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की, उस समय उनकी आयु ५० वर्ष थी। वे वंय में भगवान् महावीर से लगभग ८ वर्ष बड़े थे । वेद-वेदांगादि के धुरंधर विद्वान होने के साथ-साथ वे पूर्ण अनाग्रही भी थे। उनकी बुद्धि पर्याप्तरूपेणं परिपक्व हो चुकी थी पर वे बड़े जिज्ञासु वृत्तिके विद्वान् थे। महान् अतिशयों से युक्त सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर महावीर को गुरुरूप में पा कर उनकी जिज्ञासु-वृत्ति बड़े वेग के साथ जागृत हो उठी। - गौतम प्रभृति अन्य गणधरों के साथ-साथ प्रार्य सुधर्मा ने भी एकाग्र चित्त हो जब भगवान् महावीर से त्रिपदी का ज्ञान सुना तो वे अथाह ज्ञान के भण्डार बन गये । सभी गणधरों ने प्रभु के मुख से सुने उपदेश के आधार पर सर्वप्रथम चतुर्दश पूर्वो की रचना की और तदनन्तर एकादशांगी का प्रथन किया। चतुर्दश पूर्व जो पहले संस्कृत भाषा में थे, वे काल-प्रभाव से विच्छिन्न हो गये हैं। भाज जो प्राचारांगादि एकादशांग उपलब्ध होते हैं, वे आर्य सुधर्मा की वाचना के ही माने जाते हैं।' ___ जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने ग्यारहों गणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना के पश्चात् मार्य सुधर्मा को अपने पंचम 'यदिति श्रुतमस्माभिः, पूर्वेषां सम्प्रदायतः । चतुर्दशापि पूर्वाणि, संस्कृतानि पुराभवन् ।।११३।। प्रजातिशय साध्यानि, तान्युच्छिन्नानि कालतः । प्रधुनकादशांग्यस्ति, सुधर्मस्वामिभाषिता ।।११४।। [प्रभावक परित्र, ८, स्वादिसूरिवरित्र, पृ० ५८] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौसिक इतिहास-द्वितीय भाग [दीक्षा के प० मार्य . गणधर के पद पर नियुक्त करते समय उन्हें दीर्घजीवी और पंचम पारक के अन्त तक अनवछिन्न शिष्य-सन्तति वाला समझ कर गणनायक घोषित किया। मार्य सुधर्मा ने तीस वर्ष तक भगवान् महावीर की सेवा में रह कर अपने गएं के श्रमणों को द्वादशांगी का अध्यापन कराने के साथ-साथ प्रभु वीर के समस्त श्रमरण-संघ की समीचीन रूप से व्यवस्था और अभिवृद्धि की। वे चतुर्दश पूर्वधरद्वादशांगो के सूत्र, अर्थ और विवेचन प्रादि के ज्ञाता एवं व्याख्याता ही नहीं अपितु रचयिता भी थे। भव्य-विराट व्यक्तित्व प्रार्य सूधर्मा ब्राह्मण-परम्परा के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् एवं प्राचार्य तो ये ही पर श्रमण-परम्परा में दीक्षित होने के पश्चात् उनकी प्रतिष्ठा विश्वमान्य हो चली थी। वे नरेन्द्र-सुरेन्द्रों के भी पूजनीय मौर समस्त विश्व के वन्दनीय बन गये थे। प्रार्य सुधर्मा के शरीर की ऊंचाई सात हाथ थी। आकार-प्रकार से समचतुरस्र संस्थान' और वजऋषभनाराच संहनन' से सुगठित उनकी देह प्रत्यन्त बलिष्ठ, सुन्दर, सौम्य और प्राकर्षक थी। तपाये हुए सोने के समान उनका तेजोमय लालिमा लिये सुन्दर एवं सुगौर वर्ण दर्शक के मन को हठात् विमुग्ध कर देता था। वे अतुल बल, प्रदम्य उत्साह, अटल र्य, प्रवाह माम्भीर्य पौर प्रक्षोभ्य क्षमा एवं शान्ति के सापर थे। ____ आर्य सुधर्मा का बहिरंग व्यक्तित्व जितना पाकर्षक, सम्मोहक और सुन्दर था उससे कई गुना अधिक पाकर्षक, सम्मोहक और सुन्दर उनका प्राभ्यंतर व्यक्तित्व था। वे क्षमा, दया, प्रार्जव, मार्दव प्रादि गुणों के प्रागार तथा विनय, त्याग और तप की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने तन, मन और इन्द्रियों का निग्रह कर काम, क्रोध, मोह, अहंकार, निद्रा एवं परीषहों पर विजय प्राप्त कर ली थी। वे स्वसमय तथा परसमय के पूर्ण ज्ञाता, जीव प्रणीव प्रादि समस्त तत्त्वों के विशेषज्ञ, उग्र तपस्वी, घोर तपस्वी, धोर ब्रह्मचारी, अनासक्त, विमल ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के धनी, प्रोजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी मोर यशस्वी थे। उनकी साधना उस चरमोत्कृष्ट कोटि तक पहुंच चुकी थी जिसमें जीवन की कामना और मृत्यु से भय का लवलेशमात्र भी अवशिष्ट नहीं रहता। 'णायाधम्मकहानो' के अध्ययन प्रथम, सूत्र दो में प्रार्य सुधर्मा को 'आर्य', 'स्थविर' आदि जिन सम्मानसूचक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है, उनसे प्रार्य सुधर्मा के प्रतिभाशाली विराट व्यक्तित्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः प्रार्य सुधर्मा का विराट बहिरंग व्यक्तित्व समस्त श्रमण ' शरीर लक्षणोक्त प्रमाणाविसंवादिन्यश्चतम्रो यस्य सत्समचतुरनम् ।, [भगवती (टीका) १॥ व प्रश्नोत्थान पृ० ३४] २ भगवती, शतक १ प्रश्नोत्थान पृ० ३४" Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्य- विराट व्यक्तित्व] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा ५७ परम्परा का प्राकर्षरण केन्द्र और उनका उदात्त प्राध्यात्मिकता से प्रोतः प्रोत प्राभ्यंतर व्यक्तित्व हमारी सम्पूर्ण श्रमण संस्कृति का पुंजीभूत तेजोमय स्वरूप सा प्रतीत होता है । वयस्थकालीन साधना प्रार्य सुधर्मा वेद-वेदांगादि चतुर्दश विद्यानों के कुशल ज्ञाता थे । सकल शास्त्र के पारगामी विद्वान् होने पर भी उन्हें कठोर परिश्रम से अर्जित अपनी विशाल ज्ञानराशि में एक प्रकार की न्यूनता, अपूर्णता एवं रिक्तता का अनुभव होता था । ज्ञान की यह रिक्तता उनके अन्तर्मन में अहर्निश एक शल्य की तरह लटकती रहती थी। वे सत्य की गवेषरणा में सतत प्रयत्नशील थे । जब उन्हें भगवान् महावीर के प्रथम दर्शन हुए तो वे उनकी सौम्य मुखमुद्रा के दर्शन प्रौर उनकी बीतरागतापूर्ण बारणी के श्रवरण से पूर्णरूपेण प्रभावित हुए । प्रभुदर्शन से उनके मानस में प्राशा की किरण प्रस्फुटित हुई और उन्हें यह अनुभव हुमा कि उनकी वह रिक्तता प्रपूर्णता विश्व की महान विभूति - भगवान् महावीर के द्वारा अवश्य ही भर दी जायगी - पूर्ण कर दी जायगी । सर्वश-सर्वदर्शी भगवान् महावीर के मुखारविन्द से अपने अन्तर्मन की निगूढतम शंका को सुन कर तो वे प्राश्चर्य से अभिभूत हो गये और उनकी वह श्राशा तत्क्षरण प्रास्था के रूप में परिरणत हो गई । भगवान् महावीर की तर्कसंगत एवं युक्तिपूर्ण प्रमोघ वाणी से अपने सन्देह का सम्पूर्ण रूप से समाधान होते ही धार्य सुधर्मा ने परम सन्तोष का अनुभव करते हुए श्रमण दीक्षा ग्रहण कर अपने प्रापको प्रभु की चरण-शरण में समर्पित कर दिया। भगवान् महावीर द्वारा दिये गये 'त्रिपदी' के ज्ञान से प्रार्य सुधर्मा ने प्रपने अन्तर में भरे प्रक्षय्य ज्ञान भण्डार के बन्द कपाटों की मानो कुंजी ही प्राप्त कर ली । अभ्यन्तर के कपाट खुलते ही उनके मनोमंदिर में अनन्तकाल से प्राधिपत्य जमाया हुआ निबिड़तम प्रज्ञानान्धकार क्षण भर में तिरोहित हो गया और उसके स्थान पर अनिर्वचनीय, शुभ्र, दिव्य प्रकाश जगमगा उठा । प्रायं सुधर्मा ने प्रभु के प्रथमोपदेश से सामायिक चारित्र के महत्व को प्रात्मसात् कर प्रपने लोकजनीन प्रकाण्ड पाण्डित्य के प्रवाह को थोथे कर्मकाण्ड की प्रोर से मोड़ कर सम्पूर्ण सावद्य - त्यागरूप सामायिक चारित्र की दिशा में जोड़ दिया । पूर्ण ज्ञानी त्रिलोकगुरु भगवान् महावीर के उपदेशों से उन्होंने प्रपने ज्ञान की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि के साथ-साथ श्रमरणसंघ की सुव्यवस्था, उन्नति एवं अभिवृद्धि करते हुए भार्य जम्बू और प्रभव जैसे सहस्रों भव्यों को श्रमरणधर्म में दीक्षित किया। शासन सेवा की तरह प्राप कठोर और दीप्त तप की साधना में भी पीछे नहीं रहे । उपशम भावपूर्वक घोर तपस्या के प्रभाव से उन्हें अनेक प्रकार की प्राश्चर्यकारी लब्धियां भी शक्तिरूप से प्राप्त हो गई । परन्तु प्रापने सदा शान्त, दान्त एवं गम्भीर भाव से उन सिद्धियों को अपने अभ्यन्तर में ही दबाये रखा । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [षपस्थकालीन साधना . आर्य सुधर्मा मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान - इन चार ज्ञान के धारक थे। प्रागम और प्रागमेतर साहित्य में जिस प्रकार इनके केवलज्ञान की उपलब्धि का समय मिलता है उस प्रकार इन्हें चार ज्ञान कब हुए, इसका कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आर्य सुधर्मा भगवान् महावीर की विद्यमानता में ही चार ज्ञान के धारक हो चुके थे और वर्षों चार ज्ञान के धारी रहे । सुधर्मा के गरण और साधु अग्निभूति आदि ६ गणधर आर्य सुधर्मा को दीर्घजीवी समझ कर उन्हें अपना-अपना गण सम्हला कर भगवान् महावीर की विद्यमानता में ही सिर-परमुक्त हो गये, अतः क्रमश: उनके निर्वाण से एक-एक मास पूर्व उनके गणों का भी आर्य सुधर्मा के गरण में विलय हो गया और उन ६ गणधरों के गणों के सभी श्रमण आर्य सुधर्मा के अन्तेवासी कहलाने लगे।' ६ गणषरों का निर्वाणकाल और सुधर्मा के साषु भगवान् महावीर के निर्वाण से पूर्व जिन ६ गणधरों का निर्वाण हुमा एवं जिनके गण प्रार्य सुधर्मा के गण में विलीन हुए उनके नाम व निर्वाणकाल निम्न प्रकार से हैं :गरणधर-नाम निर्वाण-काल द्वितीय गणधर अग्निभूति वीर-निर्वाण से २ वर्ष पूर्व तृतीय गणधर वायुभूति वीर-निर्वाण से २ वर्ष पूर्व चतुर्थ गरगधर आर्य व्यक्त वीर-निर्वाण से कुछ समय पूर्व छठे गणधर आर्य मण्डित वीर-निर्वाण से कुछ समय पूर्व सातवें गणधर प्रायं मौर्यपुत्र बीर-निर्वाण से कुछ समय पूर्व पाठवें गणधर पार्य अकम्पित वीर-निर्वाण से कुछ समय पूर्व नवमें गणधर अचलभ्राता वीर-निर्वाण से ४ वर्ष पूर्व दशवें गणधर मेतार्य वीर-निर्वाण से ४ वर्ष पूर्व. ग्यारहवें गणधर आर्य प्रभास वीर-निर्वाण से ६ वर्ष पूर्व ये ही गणधर एक मास की संलेखना से राजगृह में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गये। इसके परिणामस्वरूप आर्य सुधर्या के शिष्य-श्रमणों की संख्या भगवान् महावीर की विद्यमानता में ही ३६०० तक पहुंच गई। ग्यारह गणधरों के श्रमणों की कुल संख्या ४४०० आगम एवं प्रागमेतर साहित्य में बताई गई है और भगवान महावीर के संघ में कुल साधु १४,००० थे। उनमें से इन्द्रभूति के ५०० श्रमणों को छोड़ कर शेष साधु-समुदाय ' परिणिव्या गणहरा जीवंते णायए रणव जणाउ । ६५८ [पावश्यक नियुक्ति, भा० १] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ६ मण• का नि• काल...] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा प्रार्य सुधर्मा के ही नेतृत्व में आ जाता है। क्योंकि भगवान महावीर ने सुधर्मा को गणधर नियुक्त करते समय गरण की अनुज्ञा प्रदान कर दी थी। उसकी सार्थकता सुघर्मा के ५०० शिष्यों के अतिरिक्त अन्य साधु-समुदाय के मिलाने पर ही हो सकती है। अतः और गणधरों के गणों के अतिरिक्त शेष श्रमणों को सुधर्मा के गरण में ही समझना चाहिये। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् मार्य सुधर्मा गणधर के स्थान पर संघाधिनायक प्राचार्य कहलाये क्योंकि वे भगवान महावीर के पट्टधर हो चुके थे । क्या सुषर्मा के प्राधीन अन्य प्राचार्य भी थे ? प्रश्न उपस्थित होता है कि हजारों श्रमणों के उस अतिविशाल समुदाय की शिक्षा-दीक्षा और दैनिकचर्या की समुचित व्यवस्था का संचालन तप-स्वाध्यायनिरत और शास्त्र की वाचना देने वाले आर्य सुधर्मा स्वयं ही करते थे अथवा संघ-संचालन में उनके सहायक कोई अन्य प्राचार्य आदि भी थे। शास्त्रीय प्रकरणों का ध्यानपूर्वक अध्ययन एवं अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के शासनकाल में जिस प्रकार गणधर और स्थविर मादि श्रमणसंघ की व्यवस्था का कार्य करते थे, उसी प्रकार आर्य सुधर्मा के काल में भी प्राचार्य, स्थविर मादि संघ की व्यवस्था में प्रार्य सुधर्मा का हाथ बटाते थे। शास्त्र में स्थान-स्थान पर उल्लेख पाता है : "राणं अंतिए साभाइयमाइपाई एक्कारस अंगाईं अहिज्जइ-बहिज्जित्ता" मादि। नियुक्ति, रिण प्रादि प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समय में भी अलग-अलग प्राचार्यों के नेतृत्व में साधुनों का मध्ययन-अध्यापन एवं विचरण होता था। भगवान महावीर के शासन में ३०० चतुर्दश पूर्वधर और ४०० वादी थे, तो उनके साथ रहने वाले साधुषों के अध्ययन प्रादि की व्यवस्था उनके द्वारा अवश्य की जाती होगी। आवश्यक रिण आदि ग्रन्थों से हमारे इस अनुमान की पूर्ण पुष्टि होती है जैसाकि नियुक्ति में कहा है - "राजगृही के गुणशील उद्यान में चतुर्दश पूर्वी प्राचार्य वसु के शिष्य तिष्यगुप्त से 'जीवप्रदेश' दृष्टि उत्पन्न हई। मामलकल्पा के मित्रश्री ने उसको प्रतिबोध देकर समझाया।"इससे यह सिद्ध . (क) "जीवपएसा य तीसगुत्तायो ।" [प्राव० नियुक्ति गाथा] रायगिहे गुणसिलए वसुबोहसपुवि तीसगुत्तामो। प्रामलकप्पा गयरी, मितसिरि करपिंडाई ॥१२८।। [मूलभाष्य] (स) "वित्तियो सामिणा सोलसवासाई उप्पाडितस्स गाणस्स तो उप्पण्णो। तेणं कालेलं तेणं समएरणं राबगिहे गुणसिलए चेतिए वतू नाम भगवंतो पायरिया चोद्दसपुब्बी समोसा , तस्स सीसो तीसगुत्तो नाप्र. [प्राव० चू०, मा० १, पृ. ४१६-२०] (ग) राजगृहे गुणणीलके उद्याने वसुराचार्यश्चतुर्दशपूर्वी समवसृतः, तन्छिष्या तिष्यगुप्तादेषा दृष्टिरुत्पन्ना।" [प्रावश्यकनियुक्तेरवरिण, भा० १] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अधीनस्थ मन्य माचार्य ? होता है कि प्राचार्य वसु की तरह अन्य भी जो पूर्वधारी एवं विशिष्ट योग्यता वाले मुनि थे उनके प्राधीन साधु-समुदाय की व्यवस्था का कार्य रखा गया हो। निरयावलिका सूत्र में लिखा है कि आर्य सुधर्मा ५०० साधुओं के परिवार से राजगृह नगर में पधारे।' संभव है उन ५०० साधुओं के अतिरिक्त प्रवशिष्ट जो साधु आर्य सुधर्मा के शासन में थे उन सब को विभिन्न संघाटकों में बांट दिया गया हो और उनकी व्यवस्था सुयोग्य संघाटकपतियों के प्राधीन रखी गई हो। वे संघाटकपति प्राचार्य, उपाध्याय अथवा स्थविर प्रादि किसी पद के अधिकारी. हो सकते हैं। प्राचार्य वसु और आर्य सुधर्मा के ५०० साधुओं के परिवार से विहार को दृष्टिगत रखते हुए यह निश्चय करना अनुचित नहीं होगा कि स्वयं प्रभू महावीर की विद्यमानता में और उनके पश्चात् भी गणघरों के अतिरिक्त प्राचार्य, स्थविर प्रादि पदों पर सुयोग्य साधुओं को नियुक्त करने की व्यवस्था थी। ____ प्रार्य सुधर्मा भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर संघनायक जैसा कि इस ग्रन्थमाला के प्रथम भाग में बताया जा चुका है, ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत् से ४७० वर्ष और शक संवत् से ६०५ वर्ष पूर्व, वर्षाकाल के चौथे मास एवं सातवें पक्ष में कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में भगवान् महावीर का निर्वाण हुअा। भगवान् के निर्वाण के पश्चात् उसी रात्रि को इन्द्रभूति गौतम ने केवलज्ञान की उपलब्धि की। दूसरे ही दिन कार्तिक शुक्ला १ के दिन आर्य सुधर्मा को भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर के रूप में धर्मसंघ का अधिनायक-प्राचार्य नियुक्त किया गया। वर्तमान, अनन्त-अनागत. और विगतकाल की सभी बातों को प्रत्यक्ष जाननेदेखने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान ने अपने निर्वाण से लगभग ३० वर्ष पूर्व तीर्थस्थापना के दिन ही प्रार्य सुधर्मा को दीर्घायु एवं योग्य जान कर गरण की अनुज्ञा दे रखी थी ; इस बात से चतुर्विध तीर्थ भलीभांति परिचित था। इसके साथ ही साथः चतुर्विध तीर्थ को यह भी विदित था कि श्रमण, भगवान महावीर की विद्यमानता में अग्निभूति प्रादि जिन ६ केवलज्ञानी गरगधरों ने निर्वाण प्राप्त किया, उन्होंने अपने-अपने निर्वाण से एक मास पूर्व ही प्रार्य सुधर्मा को गणनायक एवं दीर्घायुष्मान् जान कर अपने-अपने गण सम्हला दिये थे। इन दो सर्वविदित तथ्यों के अतिरिक्त भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् भगवान् के पट्टधर बनने के सभी दृष्टियों से योग्यतम अधिकारी भगवान् के ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम को कुछ ही याम पश्चात उसी रात्रि में केवलज्ञान की उपलब्धि हो चुकी थी, अतः वे भगवान् के उत्तराधिकारी नहीं बन सकते थे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स अन्तेवासी मज्जसुहम्मे नाम प्रणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी जाव पंचहिं अरणगारसएहिं सद्धि संपरिबुडे पुष्वाणुपुग्विं चरमाणे.... जेणेव रायगिहे नयरे जाव प्रहापरिरूवं उग्गहं मोगिव्हित्ता संजमेणं जाव विहरह। [निरयावलियामो, प्र.१] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पट्टधर] बलिकाल : भार्य सुधर्मा ऐसी स्थिति में उपरिवरिणत तीन प्रमुख कारणों से चतुर्विध तीर्थ के समक्ष भगवान् महावीर का पट्टधर किसको नियुक्त किया जाय, इस प्रकार का कोई प्रश्न अथवा विवाद उत्पन्न होने जैसा प्रसंग ही उपस्थित नहीं हुमा। प्रतः भगवान महावीर के निर्वाण के दूसरे ही दिन चतुर्विध तीर्थ ने आर्य सुधर्मा को सर्वसम्मति से भगवान महावीर का सर्वसत्तासम्पन्न प्रथम पट्टधर, संघनायकप्राचार्य नियुक्त कर दिया। उसी दिन से आज तक सुधर्मा स्वामी की शिष्यपरम्परा चलती पा रही है।' बाज जितने भी श्रमण एवं श्रमरिणयां विद्यमान हैं, वे सब मार्य सुधर्मा की शिष्य परम्परा के हैं। क्योंकि शेष सभी गणधरों ने निर्वाण प्राप्त करने से पहले ही अपने-अपने शिष्यमण्डल आर्य सुधर्मा को शिष्य रूप में समर्पित कर निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान् महावीर के प्रथम पट्टपर प्रार्य सुधर्मा ही क्यों ? साधारण से साधारण और प्रबुद्ध से प्रबुद्ध व्यक्ति के मन में भी यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि श्रमण भगवान् महागीर के ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम की विद्यमानता में उनको छोड़ पंचम गरगधर आर्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का पट्टधर क्यों बनाया गया? इन्द्रभूति ने तीर्थ-स्थापना काल से लेकर प्रभु के निर्वाण समय तक उनकी अहर्निश सेवा की। भगवान् के प्रति उनकी भक्ति एवं प्रीति भी अप्रतिम थी। फिर क्या कारण था कि इन्द्रभूति को भगवान् का उत्तराधिकारी नहीं बनाया गया ? उत्तर साफ है कि उत्तराधिकारी अपने पूर्ववर्ती आचार्य प्रादि के अधिकार को आगे चलाने वाला होता है। यह जानी हुई बात है कि पट्टधर अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य के प्रादेश, उपदेश और सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर उसका प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ अनुयायी समाज से उनकी प्राज्ञा का पालन करवाते हैं। किन्तु केवलज्ञानी स्वयं समस्त चराचर के पूर्ण ज्ञाता होने के कारण जो कुछ ' सोहम्मं मुणिनाहं, पढमं वंदे सुभत्ति संजुत्तो। जस्सेसो परिवाउं, कप्परुक्खुव्व वित्परिउं ॥२॥ [हिमवन्त स्थविरावली] २ (क) जे इमे प्रज्जतारा समणा निग्गंधा विहरंति एए णं सव्वे प्रज्जसुहम्मस्स भणगारस्स प्रावच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वुच्छिन्ना [कल्पसूत्र स्थविरावली] (ख) परिणिवुया गणहरा जीवंते णायए णव जणाउ ।।६५८ [आवश्यक नियुक्ति] (ग) जीवति ज्ञातके -- ज्ञातकुलोत्पन्ने वीरे भगवति नव जनाः इन्द्रभूति सुधर्मस्वामिवर्जाः परिनिर्वृत्ताः, इन्द्रभूति: सुधर्मश्च स्वामिनि वीरे निर्वृत परिनिर्वृत्तः, तथापि प्रथममिन्द्रभूति: पश्चात्सुधर्मा स्वामी यश्च यश्च कालं करोति, स स सुधर्मस्वामिनो गणं ददाति तेषां तथाभूत सन्तानप्रवृत्ति हेतुभूताचार्यसम्भवात्...। [प्राव० नि०, गा० ६५८ की मलयगिरिवृत्ति] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन धर्म का मालिक इतिहास-दितीय भाग [पट्टधर सुवर्ना ही क्यों ? उपदेश देते हैं वह वे अपने ज्ञान के प्राधार से देते हैं न कि अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य के उपदेश-पादेश के प्राधार से। प्रार्य सुधर्मा प्रभु के निर्वाण के समय १४ पूर्व के ज्ञाता थे, केवली नहीं। मतः वे यह कह सकते थे कि "भगवान् ने ऐसा फरमाया है", अथवा "भगवान ने जैसा फरमाया है वैसा ही मैं कह रहा हूँ।" किन्तु इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर की निर्वाण-रात्रि के अवसान में ही सकल चराचर के पूर्ण ज्ञाता केवली बन चुके थे। ऐसी स्थिति में वे यह नहीं कह सकते थे कि "भगवान् ने ऐसा कहा है, वही मैं कहता हूँ"। केवली होने के कारण वे तो यही कहते कि- "मैं ऐसा देखता हूँ, मैं ऐसा कहता हूँ"। ऐसी स्थिति में तीर्थकर भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित श्रुतपरम्परा को अविच्छिन्न रूप से यथावत् रखने की दृष्टि से इन्द्रभूति गौतम को भगवान् महावीर का उत्तराधिकारी न बनाया जाकर प्रार्य सुषर्मा को प्रथम पट्टधर नियुक्त किया गया। दूसरा कारण यह भी है कि केवली किसी के पट्टधर अथवा उत्तराधिकारी नहीं होते क्योंकि वे मात्मज्ञान के स्वयं पूर्ण अधिकारी होते हैं। पट्ट-प्रदान किसके द्वारा ? मार्य सुधर्मा की तीर्थाधिनायक के रूप में भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर पद पर नियुक्ति चतुर्विध संघ ने को प्रथवा स्वयं श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रश्न पर प्रकाश डालने वाली एक गाथा 'गणहरसत्तरी" में उपलब्ध होती है, जो इस प्रकार है : 'तित्याहिवो सुहम्मो, लहुकम्मो गरिमगयण संकासो। वीरेण मज्झिमाए, संठविप्रो अग्गिवेसारगो ॥२॥ इस गाथा का सामान्य मर्म इस प्रकार होता है कि स्वयं भगवान् महावीर ने मध्यमपावा में प्रतिक्षीणकर्मा, केसरीसिंह तुल्य, अग्निवेश्यायन गोत्रीय सुधर्मा को तीर्थाधिप पद पर प्रतिष्ठित किया। गाथा में प्रयुक्त "तित्याहिवो" और "मज्झिमाए" इन दो शब्दों पर समीचीन रूपेण विचार करने की आवश्यकता है । यह तो निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान् महावीर ने मध्यमा (मध्यम पावा) में तीर्थ की स्थापना की और लगभग ३० वर्ष पश्चात् वहीं निर्वाण प्राप्त किया। ऐसी स्थिति में प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रभु महावीर द्वारा प्रार्य सुधर्मा की तीर्थाधिप पद पर नियुक्ति तीर्थ-स्थापना के समय की गई अथवा निर्वाण के समय ? जैसा कि पहले बताया जा चुका है "प्रावश्यक नियुक्तिकार ने - "पुव्वं तित्वं गोयमसामिस्म दम्वेहि पज्जवेहि अणुजाणामित्ति" - इन शब्दों के साथ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्ट-प्रदान किसके द्वारा) केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा भगवान् द्वारा इन्द्रभूति गौतम को तीर्थ की अनुज्ञा और - "गणं च सुहम्म सामिस्स घुरे ठावेत्ता णं अणुजाणति" इन शब्दों के साथ प्रार्य सुधर्मा को गण की अनुमा प्रदान किये जाने का स्पष्टतः उल्लेख किया है । उस समय भगवान महावीर न तो एकाकी इन्द्रभ्रति गौतम को तोर्थ तथा गण की सम्मिलित रूप से अनुज्ञा प्रदान की पोर न एकाकी प्रार्य सुवर्मा को ही। इस गाथा में - "मज्झिमाए वीरेण सुहम्मो तित्याहिवो संठवियो" - ये शब्द विद्यमान हैं । इन शब्दों का सीधा सा स्पष्ट अर्थ यही है कि भगवान महावीर ने मध्यम पावा में सुधर्मा को तीर्थाधिप-तीर्थनायक (जिसमें गणाधिनायकत्व सम्मिलित होना स्वत: ही सिद्ध है) नियुक्त किया। इस प्रकार उपरिलिखित गाथा में प्रयुक्त शब्दावली के सम्यक् पर्यालोचन से गाथा का यही अर्थ-संगत प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण के समय मज्झिमा (मध्यम पावा) में आर्य सुधर्मा को तीर्थाधिप अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ के नायक पद पर अपना प्रथम पट्टधर नियुक्त किया। "वीरवंश पदावली- अपर. नाम विधिपक्ष गच्छ पट्रावली" की निम्नलिखित गाथा में तो इस प्रकार का और भी स्पष्ट उल्लेख है कि स्वयं भगवान् महावीर ने आर्य सुधर्मा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया: भवियजणे पडिबोहिय, बावत्तरि पालिऊण वरिसाइं। सोहम्म गणहरस्स य, पट्ट दाउं सिवं पत्तो ।।६।। अर्थात्-भव्य जीवों को प्रतिबोध दे, बहत्तर वर्ष की आयुष्य पूर्ण कर और गरणधर सुधर्मा को अपने उत्तराधिकारी के रूप में पट्टधर पद देकर भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों में कहीं इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि स्वयं भगवान् महावीर ने प्रार्य सुधर्मा को अपने निर्वाण के समय अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया फिर भी उपरोक्त गाथाओं में प्रकट किये गये भाव सभी दृष्टियों से विचार करने पर संगत प्रतीत होते हैं। क्योंकि त्रिकालज्ञ सर्वदर्शी प्रभु अपने निर्वाण से पूर्व संघहित के अत्यन्त महत्वपूर्ण इस प्रश्न का स्पष्ट रूप से हल न करें कि उनके पश्चात् चतुर्विध तीर्थ की सुचारु रूप से व्यवस्था करने वाला उनका उत्तराधिकारी कौन होगा, इस बात को मानने के लिये संभवतः कोई विचारक तैयार नहीं होगा। मागम एवं इतिहास के मर्मज्ञ इस पर विचार करें । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E7 जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अपर नाम नोहार्य सुषर्मा का प्रपर नाम लोहार्य दिगम्बर परम्परा के कतिपय ग्रन्थों में प्रार्य सुधर्मा का अपर नाम लोहार्य भी उपलब्ध होता है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ तिलोयपणती प्रादि में प्रार्य सुधर्मा के इस अपर नाम का उल्लेख नहीं है और पट्टधरों के क्रम में श्वेताम्बर परम्परा की तरह सुधर्मा का नाम ही उपलब्ध होता है न कि लोहार्य का तथापि उपरिलिखित मान्यता के अनुसार पट्टधरों के क्रम में दिगम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों और पट्टावलियों में सुधर्मा के स्थान पर लोहार्य का नाम उपलब्ध होता है। श्वेताम्बर परम्परा की किसी भी पड़ावली अथवा ग्रन्थ में पद्रधरों के क्रम में कहीं भी लोहार्य का नाम दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्वत्र सुधर्मा का नाम ही उपलब्ध होता है। प्रावश्यक नियुक्ति के वृत्तिकार प्राचार्य मलयगिरी ने भगवान महावीर को कैवल्योपलब्धि के पश्चात् माहार लाकर देने वाले श्रमण का नाम लोहार्य लिखकर उनकी निम्नलिखित शब्दों में स्तुति की है : धन्नो सो लोहज्जो, तिखमो पवरलोह सरिवन्नो। जस्स जियो पत्तागो, इच्छइ पारिणहिं भोतुं जे ॥२॥ अर्थात् - वे क्षमासागर, लोहसार के समान कान्तिमान वर्ण बाले लोहार्य धन्य हैं जिनके भिक्षापात्र से स्वयं जिनेन्द्र भगवान् (महावीर) अपने पारिणपात्र द्वारा भोजन करना चाहते हैं। __ इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी “लौहार्य" - यह नाम तो उपलब्ध होता है पर यह प्रार्य सुधर्मा का ही अपर नाम था ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख न तो कहीं उपरोक्त "प्रावश्यक नियुक्ति मलयगिरी वृत्ति" में दृष्टिगोचर होता है और न श्वेताम्बर परम्परा के किसी अन्य ग्रन्थ में ही। भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के पश्चात् उनके द्वारा तीर्थस्थापना के समय उनके तत्कालीन मुनियों में ग्यारह गणधरों का और उनमें भी इन्द्रभूति गौतम तथा प्रार्य सुधर्मा-इन दो गणधरों का विशिष्ट स्थान माना गया है । ऐसी दशा में केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भगवान महावीर को प्राहार लाकर देने वाले सुयोग्यतम साधु इन्द्रभूति गौतम एवं आर्य सुधर्मा से बढ़कर कोई अन्य नहीं (क)....गोदमसामिम्हि णिवुदे संते लोहजाइरिमो केवलणाणसंताणहरो जादो। [छक्खंडागम वेदनाखंड, धवला, पृ० १३०] (ख)....एदम्हादो विउलगिरिमत्ययस्थवड्ढमारणदिवायरादो विरिणग्गमिय गोदम - लोहज - जम्बुसामियादि-माइरियपरंपराए मागंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय प्रज्जमंखुणागत्यीहितो जइवसहायरियमवरणमिय.... कसायपाहुर, जयधवला" अणुभागविहत्ती, पृ० ३८८] २ जादो सिद्धो वीरो तदिवसे गोदमो परमणाणी। जादो तस्सिं सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६।। तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामि ति केवली जादो।.... तिलोयपणती, महा० ४ ] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरनाम लोहायं] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा हो सकते। इन्द्रभूति का प्रपरनाम लोहार्य हो इस प्रकार का उल्लेख दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता जब कि आर्य सुधर्मा के लिये कषायपाहड़ तथा षट्खंडागम की टीकामों में एवं दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में लोहार्य नाम का प्रयोग किया गया है। - दिगम्बर परम्परा में केवली द्वारा कवलाहार किया जाना मान्य नहीं प्रतः केवलज्ञान के पश्चात् भगवान् को पाहार देने वाले साधु का नाम लोहार्य था इस अभिमत की दिगम्बर परम्परा में तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। पर श्वेताम्बर परम्परा में केवली द्वारा कवलाहार किया जाना मान्य है। ऐसी स्थिति में "प्रावश्यक मलयवृत्ति" में भगवान् को कैवल्यप्राप्ति के पश्चात् पाहार ला कर देने वाले, "खंतिखमो, पवरलोह सरिवन्नो" इन उत्कृष्ट विशेषणों से सम्बोधनीय साधु संभवतः मार्य सुधर्मा हो सकते हैं। तत्कालीन साधुनों में लोहज्ज (लोहार्य) नामक अन्य किसी साधु का श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इन सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि प्रार्य सुधर्मा का अपरनाम लोहार्य हो । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य मागम में और यापनीय परम्परा (जो विलुप्त हो चुकी है) के "केवलिभक्ति"' नामक उपलब्ध ग्रन्थ में केवली द्वारा कवलाहार किया जाना मान्य है। भगवान् स्वयं भिक्षार्थ नहीं पधारते । ऐसी दशा में भगवान को प्राहार मा कर देने वाला कोई न कोई साधु अवश्य होना चाहिए। भगवान् को माहार ला कर देने के लिये कोई एक ही साधु नियत था अथवा विभिन्न इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। सीहा मरणगार ने मेढियाग्राम में रेवती गाथापत्नी के घर से बीजोरापाक ला कर दिया और उसके सेवन से भगवान् का रोग शान्त हुआ, इस प्रकार का उल्लेख भगवती सूत्र में उपलब्ध होता है। यह एक विशिष्ट परिस्थिति में घटित हुई घटना है । इससे यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि भगवान् को आहार ला करे देने का कार्य किसी एक साधु के जिम्मे था या अनेक के। क्या प्रार्य सुधर्मा क्षत्रिय राजकुमार थे ? यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो परम्परात्रों के मान्य ग्रन्थों में भगवान् महावीर के ग्यारहों गणधरों को ब्राह्मण जाति का बताया गया है किन्तु दिगम्बर परम्परा के वीर नामक कवि ने वि० सं० १०७६ में रचित अपने अपभ्रंश भाषा के महाकाव्य "जम्बूसामिचरिउ" में और कवि राजमल्ल ने वि० सं० १६३२ में रचित संस्कृत भाषा के अपने काव्य "जम्बूस्वामिचरितम्" में चौथे और पांचवें-दो गरा वरों के क्षत्रिय होने का उल्लेख करते हुए पांचवें गगाधर आर्य सुधर्मा को चौथे गणधर सुप्रतिष्ठ का पुत्र बताया है । ' केवलिमुक्ति, यापनीय प्राचार्य शाकटायन (पाल्यकोत्ति) रचित (विक्रम की ६ वी शताब्दी) २ भगवती सूत्र, शतक १५, सू० ५५७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मालिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य सु..रा.? दिगम्बर परम्परा के उपरोक्त दोनों विद्वानों ने जम्बुकुमार को संसार से विरक्ति होने के प्रकरण में चौथे और पांचवें गणधर के क्षत्रिय होने का जो उल्लेख किया है वह इस प्रकार है : ___ "एक दिन जम्बुकुमार ने अपने मन में विचार किया कि विपुल वैभव एवं यश की जो उन्हें प्राप्ति हुई है वह किस सुकृत के प्रताप से हुई है ? अपनी इस पान्तरिक जिज्ञासा को शान्त करने के लिये जम्बुकुमार ने एक मुनि को सविधि वन्दन करने के पश्चात् प्रश्न किया-भगवन् ! में यह जानना चाहता है कि वास्तव में मैं कौन हूँ, कहां से आया हूँ और जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ है, वह किस पुण्य के फल से प्राप्त हुआ है ? माप दया कर मुझे मेरे पूर्व-भव का वृत्तान्त सुनाइये। “सौधर्म नामक उन मुनि ने, जो कि धर्मोपदेशक थे, उत्तर दिया- वत्स! सुन, मैं तुझे पूर्व-भवों का वृतान्त सुनाता हूँ।'' इसी मगर देश के वर्षमान नामक ग्राम में किसी समय भवदत्त और भवदेव नामक दो सहोदर रहते थे। उन दोनों ने क्रमशः जैन श्रमण-दीक्षा ग्रहण की और बहुत वर्षों तक श्रमणाचार का पालन किया एवं दोनों भाई मृत्यु के पश्चात् सनत्कुमार स्वर्ग में देव रूप से उत्पन हुए । देवायु पूर्ण होने पर बड़े भाई भवदत्त का जीव महाविदेह क्षेत्र में वषदन्त नामक राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सागरचन्द्र रखा गया। छोटे भाई भवदेव का जीव देवलोक से च्युत हो महाविदेह क्षेत्र में महापदम चक्रवर्ती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। सागरचन्द्र संयम ग्रहण कर कठोर तपश्चर्या करने लगा और शिवकुमार माता-पिता के प्रत्यधिक अनुरोध के कारण घर में रहते हुए भी श्रमणाचार का पालन एवं उग्र तपश्चरण करने लगा। अन्त में क्रमशः समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर वे दोनों ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुए।" ___ "दश सागर की देवाय पूर्ण होने पर बड़े भाई भवदत्त का जीव मगध देश के संवाहनपुर नामक नगर के राजा सुप्रतिष्ठ की रानी धर्मवती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सोधर्म रखा गया। सौधर्मकुमार क्रमशः सभी विद्याओं में निष्णात हुआ। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ अपने परिवार सहित भगवान् महावीर के दर्शन-वन्दन, उपदेश-श्रवण के लिये प्रभु के समवसरण में पहुँचा। भगवान् की भवरोग विनाशिनी देशना सुनकर राजा सुप्रतिष्ठ ने संसार से विरक्त हो प्रभु के पास निग्रंथ-दीक्षा ग्रहण कर ली। थोड़े ही दिनों में वह सुप्रतिष्ठ मुनि समस्त श्रुतशास्त्र के ज्ञाता बन गये और भगवान् महावीर ने उन्हें अपने चतुर्थ गणधर के पद पर नियुक्त किया।" 'प्रथोवाच मुनिर्नाम्ना, सौधर्मा धर्म देशकः । शृणु वत्स वदे तेऽथ, वृत्तान्तं पूर्वजन्मनः ।। [जम्बूस्वामीचरितम् (पं० राजमल्ल) सर्ग १] २ [वही, सर्ग ६, श्लो० १८-२३] 3 दिवसः कतिभिभिक्षुः श्रुतपूर्णोऽभवन्मुनिः । गरणधरस्तुर्यो जातो वर्द्धमानजिनेशिनः ।।२८।। [ वही ] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा सुधर्मा क्षत्रिय राज थे?] केवलिकाल : मार्य सुपर्मा _ "सौधर्मकुमार ने कुछ दिनों पश्चात् अपने पिता सुप्रतिष्ठ को भगवान् के गणधर के रूप में देखा तो उसे भी संसार से विरक्ति हो गई और वह भी प्रवजित हो गया। थोड़े समय के पश्चात् वह भी भगवान् का पांचवां गणधर बन गया। सुधर्मा नाम का वह पंचम गणधर मैं ही हूँ जो कि तुम्हारे भयदेव के भव में तुम्हारा भवदत्त नामक बड़ा भाई था।' तुम (छोटे भाई भवदेव के जीव) ब्रह्मोसर स्वर्ग से च्युत हो राजगृह नगर के श्रेष्ठी प्रहंदास की पत्नी जिनमती की कुषि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । तुम्हारा नाम जम्बूकुमार रखा गया।" कवि वीर और पं० राजमल्ल ने भगवान् महावीर के चतुर्य एवं पंचम गणघर को किस आधार पर क्षत्रिय वंशोद्भव बताया है इसे खोज निकालने का पर्याप्त प्रयास किये जाने के उपरान्त भी अभी तक किसी भी अन्य अन्य में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध नहीं हो सका है। . यह पहले बताया जा चुका है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परायें एक मत से भगवान महावीर के सभी गणधरों को ब्राह्मण कुलोद्भव ' (क) सौधर्मोऽपि तथा पश्चादीक्य तं गणनायकम् । जातसर्वागनिर्वेद: प्रवद्वाज महामुनिः ॥२६॥ क्रमात्सोऽभ्यभवत्तस्य पंचमो गणनायकः । सोऽहं सुधर्मनामा स्यां भवद्भ्रातृवरोधुना ॥३०॥ [ बही ] (ख) तं पुरु सुपइट्ठियनिवइ जिणचरणमइ परिपालइ समरे बलुखरु । "तहो सुहलक्खणभायणा, गुरदेवच्चरणकयमणा । सिंगारासयसिप्पिणी, पढ़मकलत्तं रुप्पिणी। भवयत्तु जेठु जो विहि मि चिरु सुरु सायरचंदु पुणो वि सुरु । सो गाउ पुत्तु जगजाणियहे नरना, रुप्पिणीराणियहे । सउहम्मनामुविजापवरु, नीसेससत्यविष्णाणधरु । एक्कहिं दिणे सुप्पइट्ठ निवड सकलतु सनंदणु सुद्धमई। गउ वंदणभत्तिए भवतरणु सिरिवीरजिणंदसमोसरणु । निसुणेवि परमेट्ठिहि दिव्यमुरिण पम्वज्ज लेवि हुउ परममुरिण । गणहरु पउत्यु तवतवियतणु सिरिवहुनिवेसियविमलमणु । पेक्षेनि लणेरु निवसिरि चइउ सउहम्मकुमारु वि पव्वइउ । गणहरु पंचमु नासियदुहहो प्रविणट्ठयाणु सासयसुहहो । सो हउँ रिसिसंघविराइयउ विहरंतुज्जाणि पराइयउ ।। [जंबूसामिचरिउ (वीर विरचित) ८-३, ८.४] त्वं हि ततो दिवश्व्युत्वा, विद्युन्मालिचरोऽमरः । प्रहंदासगृहे मूनुजातः सर्वसुखाकरः ।।३३।। [जम्बूस्वामिचरितम् (पं० राजमल्ल रचित), सर्ग ] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य सू० भ० रा. थे? मानती हैं। ऐसी दशा में उपरोक्त दोनों कवियों ने चतुर्थ एवं पंचम गणधर को क्षत्रिय माना है। इस सम्बन्ध में विशेष खोज करने की आवश्यकता है। यहां सबसे बड़ी विचारणीय बात तो यह है कि भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में सुप्रतिष्ठ नाम के कोई भी गणधर नहीं थे। ऐसी स्थिति में वीर कवि और पं० राजमल्ल ने चतुर्य गणधर का नाम आर्यव्यक्त के स्थान पर सुप्रतिष्ठ और प्रार्य सुधर्मा को सुप्रतिष्ठ का पुत्र बताते हुए जों कथानक प्रस्तुत किया है, वह सारा कथानक ही तब तक प्रामाणिक नहीं माना जा सकता जब तक कि इसकी पुष्टि में कोई प्राचीन ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हो जाता। मार्य सुधर्मा का निर्वाए मार्य सुधर्मा ने ५० वर्ष की अवस्था में भगवान् महावीर के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण कर तप-संयम की माराधना और निरन्तर ३० वर्ष तक एक परम विनीत शिष्य के रूप में भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए गण की महती सेवा की। उन्होंने प्रभु के निर्वाण के पश्चात् प्रभु के प्रथम पट्टधर के रूप में २० वर्ष तक संघाधिनायक रहकर संघ का संचालन किया। वीर-निर्वाण संवत् १२ में इन्द्रभूति गौतम के निवारण के पश्चात् उन्होंने चार घाति-कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार आर्य सुधर्मा ने १२ वर्ष छपस्थचर्या में संघाधिनायक रहते हुए तथा ८ वर्ष तक केवली रूप से संघाधिनायक रहते हुए कुल मिलाकर २० वर्ष तक भगवान महावीर के शासन की अमूल्य सेवाएं की, जो इस पंचम प्रारक की समाप्ति तक जिनशासन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित की जाती रहेंगी। अन्त में वीर नि० संवत् २० के अन्तिम चरण में ईसा से ५०७ वर्ष पूर्व राजगृह नगर के गुरणशील चैत्य में प्रार्य सुधर्मा ने पादोपगमन संथारा किया। आर्य सुधर्मा ने पचास वर्ष का एक लम्बा आदर्श, पवित्र और सफल जीवन जीते हए वीर निर्वाण संवत् २० के अन्तिम चरण में एक मास के पादोपगमन संथारे से १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर अपने जीवन का चरम और परम लक्ष्यनिर्वाण प्राप्त किया जिसके लिये वे पचास वर्ष की प्रायू में अपना सर्वस्व त्याग कर साधनापथ पर पारूढ़ हुए थे। विश्व-कल्याणकारी उन महान् आचार्यप्रवर को कोटि-कोटि प्रणाम ! वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार ममस्त जैन परम्परा की मान्यतानुसार तीर्थकर भगवान् अपनी देशना में जो अर्थ अभिव्यक्त करते हैं, उनको उनके प्रमुख गिय गग्गधर शामन के हितार्थ मवे य माहणा जच्चा, सम्वे प्रभावया विऊ । गये दुवाळसंगीग्रा, गवे व उदम पुश्विगो ।। ६५.७।। प्रावश्यक नियु नि, भन्टयति, भाग २, पत्र ३६६ (२), Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा अपनी शैली में सूत्रबद्ध करते हैं । वे ही बारह अंग प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में द्वादशांगी - सूत्र रूप में प्रचलित एवं मान्य होते हैं । द्वादशांगी का गणिपिटक के नाम से भी उल्लेख किया गया है। सूत्र गणधर - कथित या प्रत्येकबुद्ध-कथित होते हैं । वैसे श्रुतकेवलि-कथित और अभिन्न दशपूर्वी कथित भी होते हैं । यद्यपि विभिन्न तीर्थंकरों के धर्मशासन में तीर्थस्थापना के काल में ही गणधरों द्वारा द्वादशांगी की नये सिरे से रचना की जाती है तथापि उन सब तीथंकरों के उपदेशों में जीवादि मूल भावों की समानता एवं एकरूपता रहती है क्योंकि प्रर्थ रूप से जैनागमों को अनादि अनंत अर्थात् शाश्वत माना गया है। जैसा कि नन्दीसूत्र के ५८वें सूत्र में तथा समवायांगसूत्र के १८५वें सूत्र में कहा गया है। : “इच्चेइयं दुवालसंग गरि पिडगं न कयाई नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भुवि च भवइ य भविस्सइ य, धुवे, निम्रए, सासए, प्रक्खए, अवए, प्रवट्ठिए निच्चे । " समय-समय पर अंगशास्त्रों का विच्छेद होने और तीर्थंकरकाल में नवीन रचना के कारण इन्हें सादि और सपर्यवसित भी माना गया है । इस प्रकार द्वादशांगी के शाश्वत और प्रशाश्वत दोनों ही रूप शास्त्रों में प्रतिपादित किये गये हैं । इस मान्यता के अनुसार प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल के अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर द्वारा चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के दिन जो प्रथम उपदेश इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों को दिया गया, भगवान् की उस वारणी को अपने साथी अन्य सभी गणधरों की तरह आर्य सुधर्मा ने भी द्वादशांगी के रूप में सूत्रबद्ध किया ६६ ग्यारहों गणधरों द्वारा पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से ग्रथित बारह ही अंगों में शब्दों और शैली की न्यूनाधिक विविधता होने पर भी उनके मूल भाव तो पूर्णरूपेण वही थे जो भगवान् महावीर ने प्रकट किये । पहले बताया जा चुका है कि भगवान् महावीर के ११ गणधरों की वाचनात्रों की अपेक्षा से गरण थे और उनकी पृथक्-पृथक् ६ वाचनाएं थीं । ११ में से 8 गणधर तो भगवान् महावीर के निर्वाण से पूर्व ही मुक्त हो गये । केवल इन्द्रभूति और आर्य सुधर्मा ये दो ही गरणधर विद्यमान रहे । उनमें भी इन्द्रभूति गौतम " प्रत्यं भासइ प्ररहा, सुत्तं गंधति गणहरा निउणं । सासरणस्स हिपट्ठाए, तम्रो सुत्तं पवतइ ।। १६२ ।। - २ "दुवालसंग गरि पिड़ग " 3 सुत्तं गरणहरकथिदं तहेव [ आ० नियुक्ति, गा० १९२, धवला भा० १ पृ० ६४, ७२ ] [ समवायांग सूत्र १ व १३६, नंदी० ४० | पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिगा कथिदं अभिण्णदसपुव्वकथिदं च || ४ || [ मुलाचार, ५-८० ] ४ इच्चेइयं दुवालगंगं गरिपिड बुच्छिनियट्टाए साध्यं सगज्जव मियं प्रयुच्छित्तिनपट्ठाए मरणाइयं गज्जव मियं । [ नन्दी मु०, मू०.४२ ] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ वर्त० द्वा० के ० तो प्रभु की निर्वारणरात्रि में ही केवली बन गये और १२ वर्ष पश्चात् प्रार्य सुधर्मा को अपना गण. सौंप कर निर्वाण को प्राप्त हुए । प्रतः प्रार्य सुधर्मा को छोड़कर शेष दशों गणधरों की शिष्य-परम्परा और वाचनाएं उनके निर्वारण के साथ ही समाप्त हो गईं, मागे नहीं चल सकीं । ७० ऐसी अवस्था में भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके धर्मतीर्थ के उत्तराधिकार के साथ-साथ भगवान् के समस्त प्रवचन का उत्तराधिकार भी मार्य सुधर्मा को प्राप्त हुआ और केवल प्रार्य सुधर्मा की ही मंगवाचना प्रचलित रही । बारहवें अंग दृष्टिवाद का प्राज से बहुत समय पहले विच्छेद हो चुका है । प्राज जो एकादशांगी उपलब्ध है, वह प्रार्य सुधर्मा की ही वाचना है । १ इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमारण मागमों में उपलब्ध हैं उनमें से कुछ प्रमारण यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं : - आचारांग सूत्र के उपोद्घातात्मक प्रथम वाक्य में "सुयं मे प्राउ ! तेरण भगवया एवमक्खायं ।” अर्थात् - हे प्रायुष्मन् (जंबू) मैंने सुना है, उन भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा है" । इस वाक्य रचना से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस वाक्य का उच्चारण करने वाला गुरु अपने शिष्य से वही कह रहा है जो स्वयं उसने भगवान् महावीर के मुखारविन्द से सुना था । आचारांग सूत्र की ही तरह समवायांग, स्थानांग, व्याख्या- प्रज्ञप्ति प्रादि अंग-सूत्रों में तथा उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अंगबाह्य श्रुत में भी प्रार्य सुधर्मा द्वारा विवेच्य विषय का निरूपण - "सुयं मे भाउ ! तेण भगवया एवमक्वायं" इसी प्रकार की शब्दावली से किया गया है । अनुत्तरोपपातिक सूत्र, ज्ञाताधर्म कथा आदि के आरंभ में और भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है : 14.......... 'तेरणं कारणं तेरणं समएणं रायगिहे नयरे, प्रज्ज सुहम्मस्स समोसरणं परिसा पडिगया ॥ २ ॥ जंबू जाव पज्जुवासइ एवं वयासी जद्दणं भंते! समरणेणं जाव संपलेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं प्रयमट्ठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते ! अंगस्स प्रणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के प्रट्ठे पते || ३ || तरण से सुहम्मे अरणगारे जंबू अरणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स श्रंगस्स श्रणुत्तरोववाइयदसाणं तिष्णि वग्गा पण्णत्ता ॥४॥" आर्य जम्बू ने अपने गुरु श्रार्य सुधर्मा से समय-समय पर अनेक प्रश्न प्रस्तुत करते हुए पूछा - "भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने प्रमुक अंग का क्या अर्थ बताया ? " अपने शिष्य जम्बू के प्रश्न के उत्तर में उन अंगों का अर्थ बताने का उपक्रम करते हुए प्रार्य सुधर्मा कहते हैं - "आयुष्मन् जंबू ! अमुक अंग का जो Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा अर्थ भगवान् महावीर ने फरमाया वह मैंने स्वयं ने सुना है। उन प्रभु ने अमुक अंग का अमुक अध्ययन का, अमुक वर्ग का यह अर्थ फरमाया है." अपने शिष्य जम्बू को आगमों का ज्ञान कराने की उपरिवरिणत परिपाटी सुखविपाक, दुखविपाक आदि अनेक सूत्रों में भी परिलक्षित होती है। नायाधम्मकहानो के प्रारम्भिक पाठ से भी यही प्रमाणित होता है कि वर्तमान काल में उपलब्ध अंग-शास्त्र प्रार्य सुधर्मा द्वारा गुंफित किये गये हैं।' आगमों में उल्लिखित -- "उन भगवान् ने इस प्रकार कहा -" इस वाक्य से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि इन आगमों में जो कुछ कहा जा रहा है उसमें किंचित्मात्र भी स्वकल्पित नहीं अपितु पूर्णरूपेण वही शब्दबद्ध किया गया है जो श्रमण भगवान् महावीर ने उपदेश देते समय अर्थतः श्रीमुख से फरमाया था। केवल धवला को छोड़कर सभी प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों में भी यही मान्यता अभिव्यक्त की गई है कि अर्थ रूप में भगवान महावीर ने उपदेश दिया और उसे सभी गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया। प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने विक्रम की छठी शताब्दी में तत्वार्थ पर सर्वार्थसिद्धि की रचना की उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि परम. अचिन्त्य केवलज्ञान की विभूति से विभूषित सर्वज्ञ परमषि तीर्थंकर ने अर्थरूप से आगमों का उपदेश दिया। उन तीर्थंकर भगवान् के अतिशय बुद्धि सम्पन्न एवं श्रुतकेवली प्रमुख शिष्य गणधरों ने अंग-पूर्व लक्षण वाले प्रागमों (द्वादशांगी) की रचना की। इसी प्रकार प्राचार्य अकलंक देव (वि. ८वीं शती) ने तत्त्वार्थ पर अपनी राजवात्तिक टीका में और आचार्य विद्यानन्द (वि. हवीं शती) ने अपने तत्त्वार्थ ' "तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मस्स अरणगारस्स जेठे अंतेवासी प्रज्ज जंबू नामे प्रणगारे"...................."प्रज्ज सुहम्मस्स थेरस्स नच्चासन्ने नाइदूरे,........."विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी जइणं मंते समणेणं भगवया महावीरेणं............"पंचमस्स मंगस्स अयमठे पन्नत्ते छट्ठस्स रणं मंते ! नायधम्मकहाणं के प्रठे पन्नत्ते ? जंबूत्ति मज्जसुहम्मे थेरे अज्ज जंबू नामं प्रणगारं एवं वयासी..............।" [नायाधम्मकहानो १-५] । तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्टः ।......" तस्य साक्षात् शिष्यः बुढ्यतिशदियुक्तं : गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनम्अंगपूर्वलक्षणम् । [सर्वार्थसिद्धि १-२०] 3 बुदयतिशढियुक्त गणघररनुस्मृतग्रन्थरचनम्-पाचारादि द्वादशविघमंगप्रविष्टमुच्यते । - [राजवार्तिक १-२० १२, पृ० ७२] ४ (क) तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतृकत्वसिद्धेः अहंदुभाषितार्थ गणधर देव: ग्रथितम् इति वचनात् । [तत्वार्थश्लोकवातिक, पृ० ६] (ख) द्रव्यश्रुतं हि द्वादशांगं वचनात्मकमाप्तोपदेशरूपमेव, तदर्थज्ञानं तु भावश्रुतं, तदुभयमपि ग़णधरदेवानां । भगवदर्हत्सर्वज्ञवचनातिशयप्रसादात् स्वमतिश्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपमशमातिशयांच्च उत्पद्यमानं कथमाप्तायत्तं न भवेत् ? [तत्वार्थश्लोकवात्तिक] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ... जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वर्त० द्वा० के रच. श्लोकवात्तिक में इसी मान्यता को अभिव्यक्त किया है कि तीर्थकर प्रागमों का अर्थतः उपदेश देते हैं और उसे सभी गणधर द्वादशांगी के रूप में शब्दता ग्रथित करते हैं। धवला में यह मन्तव्य दिया गया है कि प्रार्य सुधर्मा को अंगज्ञान इन्द्रभूति गौतम ने दिया। परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परामों के प्राचीन ग्रंथों में कहीं इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि धवलाकार की यह अपनी स्वयं की नवीन मान्यता है । .. श्वेताम्बर प्राचार्यों की ही तरह धवलाकार के अतिरिक्त अन्य सभी प्राचीन दिगम्बर प्राचार्यों की यह मान्यता है कि भगवान महावीर ने सभी गणधरों को अर्थतः द्वादशांगी का उपदेश दिया। जयधवला में जब यह स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि प्रार्य सुधर्मा ने अपने उत्तराधिकारी शिष्य जम्बूकुमार के साथ-साथ अन्य अनेक प्राचार्यों को द्वादशांगो को वाचना दी थी। तो यह कल्पना धवलाकार ने किस आधार पर की कि श्रमण भगवान महावीर ने अर्थतः द्वादशांगी का उपदेश सुधर्मादि अन्य गणधरों को न देकर केवल इन्द्रभूति गौतम को ही दिया? ऐसी स्थिति में अपनी परंपरा के प्राचीन प्राचार्यों की मान्यता के विपरीत धवलाकार ने जो यह नया मन्तव्य रखा है कि प्रार्य सूधर्मा को द्वादशांगीका ज्ञान भगवान महावीर ने नहीं अपितु इन्द्रभूति गौतम ने दिया इसका पौचित्य विचारणीय है। ऊपर उल्लिखित प्रमाणों से यह निर्विवादरूपेण सिद्ध हो जाता है कि अन्य गणधरों के समान आर्य सुधर्मा ने भी भगवान महावीर के उपदेश के आधार पर द्वादशांगी की रचना की। अन्य दश गणधर आर्य सुधर्मा के निर्वाण से पूर्व ही अपने-अपने गण उन्हें सम्हला कर निर्वाण प्राप्त कर चुके थे अतः प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही प्रचलित रही और आज वर्तमान में जो एकादशांगी प्रचलित है वह आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित है । शेष गणधरों द्वारा ग्रथित द्वादशांगी वीर निर्वाण के कुछ ही वर्षों पश्चात् विलुप्त हो गई। द्वादशांगी का परिचय समवायांग और नन्दीसूत्र में द्वादशांगी का परिचय दिया गया है। .' तहिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामीयादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खारिणददुवालसंगो घाइचउक्कखयेण केवली जादो। [जयवला, पृ० ८४] २ सुयं मे पाउसं तेरणं भगवया एवमक्खायं ।। सू० १॥ इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं प्राइगरेणं तित्थगरेणं............."इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णते, तं जहा-पायारे, सूयगडे, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नत्ति, नायाधम्मकहानो, उवासगदसामो, अंतगडदसामो, अणुत्तरोववाइयदसामो, पण्हावागरणं, विवागसुए, दिठिवाए।" [समवायांग, प्रारम्भिक पाठ) . ......."अंगपविटें दुवालसविहं पण्णतं । तं जहा-मायारो, सूयगडो, ठाणं, समवायो, अंतगडदसाम्रो, अरगुत्तरोववाइयदमानो, पण्हावागरणं, विवागसुयं दिठिवायो, ॥सू० ४४। [नंदीसूत्र] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगी का परिचय) - केवलिकाल : आर्य सुधर्मा समवायांग सूत्र में सागरोपम कोटाकोटि समवाय के पश्चात् बारह अंगों का क्रम और प्रत्येक का विस्तारपूर्वक परिचय दिया गया है । केवल समवायांग ही नहीं अपितु श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में द्वादशांगी का क्रम निम्नलिखित रूप में दिया गया है : १. प्राचारांग २. सूत्रकृतांग (गोम्मटसार के अनुसार सुद्दयड़) ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (अंगपण्णत्ति के अनुसार विपाकप्रज्ञप्ति) (गोम्मटसार के अनुसार-विक्खापरणत्ति) ६. ज्ञाताधर्मकथा (अंगपण्णत्ति के अनुसार ज्ञातृधर्मकथा) (गोम्मटसार के अनुसार-नाहस्स धम्मकहा) ७. उपासकदशा (अंगपण्णत्ति के अनुसार-उपासकाध्ययन) ८. अंतकृद्दशा (गोम्मटसार के अनुसार-अंतयडदसा) ६. अनुत्तरोपपातिक दशा (अंगपण्णति के अनुसार-अनुत्तरोपत्पाद) १०. प्रश्न व्याकरण ११. विपाकसूत्र (विपाकश्रुत, विवायसुय, विवागसुय और विवागत्त ये सभी समानार्थक नाम हैं।) १२. दृष्टिवाद्र १. प्राचारांग (१) आचारांग - में श्रमण निग्रंथों के प्राचार, गोचर, विनय, कर्मक्षयादि विनय के फल, कायोत्सर्ग, उठना-बैठना, सोना, चलना, घमना, भोजन-पानउपकरण की मर्यादा एवं गवेषणा आदि, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि, पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन, दोषों को टाल कर शयया, वसति, पात्र, उपकरण, वस्त्र, प्रशन-पानादि का ग्रहण करना, महाव्रतों, विविध व्रतों, तपों, अभिग्रहों, अंगोपांगों के अध्ययनकाल में प्राचाम्ल आदि तप, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार - इन सब बातों का सम्यकरूपेण विचार किया गया है। प्राचारांग में. वाचनाएं, अनयोगद्वार, प्रतिपत्तियां वेष्टक, श्लोक, नियुक्तियां-ये सभी संख्यात हैं। अंगों के क्रम की अपेक्षा से प्राचारांग का प्रथम स्थान है अतः यह प्रथम अंग माना गया है । श्रुत-पुरुष का प्रमुख अंग प्राचार होने के कारण भी इसे प्रथम अंग कहा गया है। प्राचारांग में दो थतस्कन्ध, पच्चीस अध्ययन, ८५ उद्देशनकाल एवं ८५ ही समूद्देशनकाल कहे गये हैं। इस प्रथम अंग में १८,००० पद, संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, और इसकी वर्णन परिधि में पाने वाले अमंल्यात म एवं अनन्त स्थावर माने गये हैं । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्राचारांग पच्चीस अध्ययनात्मक आचारांग के जो ८५ उद्देशन और ८५ समुद्देशनकाल माने गये हैं उसका कारण यह है कि दोनों श्रुतस्कन्धों के कुल मिला कर ८५ उद्देश होते हैं । उनमें से प्रत्येक उद्देशक का वाचनाकाल एक-एक मान कर उद्देशकों के अनुसार ही उद्देशनकाल कहे गये हैं, जो इस प्रकार हैं : ७४ प्रथम अध्ययन के ७, दूसरे के ६, तीसरे और चौथे के चार-चार, पाँचवें के ६, छठे के ५, सातवें के ८, आठवें के ७, नौवें के ४, दशवें के ११, ग्यारहवें एवं बारहवें के तीन-तीन, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें - इन चारों के क्रमशः दो-दो उद्देशक तथा शेष εअध्ययनों में से प्रत्येक के एक-एक उद्देशक । इस प्रकार कुल ८५ उद्देशकों के अनुसार उद्देशनकाल और समुद्देशनकाल भी ८५-८५ हैं । ' उपर्युक्त सभी जिनोक्त जीवादि पदार्थ जो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शाश्वत एवं पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से प्रशाश्वत हैं, उन सब का समस्त जीवों पर दया व उनके कल्याण की दृष्टि से श्राचारांग में समीचीन एवं समग्ररूपेण विवेचन किया गया है । आचारांग में गद्य और पद्य इन दोनों ही शैलियों में प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन होने के कारण यह गद्य-पद्यात्मक अंगशास्त्र है। इसके त्रिष्टुभ, जगती आदि पद्य वैदिक पद्यों से पर्याप्त सादृश्य रखते हैं। वर्तमान में दोनों श्रुतस्कन्धरूप आचारांग का पद - परिमाण २५०० श्लोक प्रमारण है । १ सत्त य छ चड चउरो, छ पंच प्रट्ठेव सत्त चउरो य । एक्कारा ति ति दो दो, सत्तेक्क एक्को य ॥ [ संग्रह गाथा ] गणना एवं छन्द की दृष्टि से चतुर्थ चरण में "सत्तेक्के क्क एक्को य" इस प्रकार का पाठ होना चाहिए। सम्पादक २ पद के परिमाण का पता लगाने के लिये पूर्वाचार्यों ने पूरा प्रयास किया है । विशेषावश्यक भाष्य की गाथा १००३, अनुयोगद्वारवृत्ति, अगस्त्यसंह की दशवंकालिकचूरण, दशर्वकालिक की हारिभद्रया वृत्ति ( अध्ययन १ की गाथा १ ) तथा शीलांकाचार्य-कृत प्राचारांग वृत्ति ( तस्कन्ध १, सूत्र १ ) में पद शब्द पर प्रकाश डाला गया है। पर शास्त्रों में प्रयुक्त " पद" का युक्तिसंगत वास्तविक अर्थ क्या होना चाहिए इसका निर्णय प्रभी तक नहीं हो पाया है । प्राचार्य देवेन्द्रसूरि को पहले कर्मग्रन्थ की ७वीं गाथा के अन्तर्गत " पद" की व्याख्या करते समय लिखना पड़ा कि "जिससे पूरे अर्थ का बोध हो उसे "पद" माना गया है ।" दिगम्बरपरम्परा के मान्य ग्रन्थ "अंग पण्णत्ती" में एकादशांगी के कुल श्लोकों और पदों की जो संख्या दी है उसके अनुसार श्लोक संख्या में पदसंख्या का भाग लगाने पर ५१०८८४६२१ श्लोकों का एक पद बनता है। ऐसी स्थिति में द्वादशांगी में प्रयुक्त पद के परिमाण के सम्बन्ध में आज हमारे समक्ष ऐसी कोई सर्वमान्य परम्परा नहीं है जिससे कि पद का निश्चित स्वरूप जाना जा सके । -- सम्पादक 1 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापाराग] कवनिकाल : मार्य सुधर्मा -७५ समवायांग सूत्र' पौर नन्दी सूत्रों के मूल पाठ में प्राचारांग की (दोनों श्रुतस्कन्धों को मिला कर) पदसंख्या उल्लिखित है। इसके विपरीत पाचारांग नियुक्तिकार', पाचारांग -वृत्तिकार शीलांकाचार्य और समवायांग की टीका में नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सूरि प्रादि ने प्राचारांग के केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध की पदसंख्या १८,००० मानी है। इस सम्बन्ध में यथास्थान आगे विवेचन किया जायगा। प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम नवब्रह्मचर्य है और इसमें निम्नलिखित ६ अध्ययन हैं : शस्त्रपरिमा, मोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, लोकसार (पावंति),धूत, महापरिक्षा, विमोक्ष (विमोह) पौर उपधानश्रुतः । आचारांग सूत्र में ये ९ मध्ययन इसी क्रम से दिये हुए हैं। प्राचारांग नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार " (क) घेणं मंगट्टाए पड़मे अंगे. दो सुयक्खंघा, पणवीसं प्रज्मयणा, पंचासीइं उद्दे सणकाला, पंचासोई समुद्दे सणकाला, अट्ठारस पदसहस्साई पदग्गेणं [समवायांग, (पू० घासीलालजी म.) पृ० ६५७] . (ब) पायारस्स एणं भगवमो समिपागस्स भट्ठारसपयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णताई - वही, पृ० २३२ से वं अंगठ्याए पड़ने भंगे, दो सुपक्संधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीई उद्देसणकाला, पासीह समुद्देमणकाला, अट्ठारस पयसहस्साइं पयग्गेणं. [नन्दी सूत्र, (पू० घासीलालजी म०) पृ० ५४८] . नव बभबेरमइयो अट्ठारस पयसहस्सियो वेभो । हवा य सपंच सो बहु - बहुत्तरमो पयग्गेणं ॥ [पाचारांग नियुक्ति] सपनवब्रह्मवाभिधानाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपः तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न पूलामाम्, यवाह- "नवभरमामो अट्ठारस पयसहस्सिमो वेग्रो, हवइ य सपंच चूलो बहुबहुत्तरमो पयम्नेणं ॥१॥ ति । यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चूलिकासत्ता प्रतिपादनार्थम् न तु पदप्रमाणामिषानार्थम् । यतोऽवाचि नन्दी टीकाकृता" -- "मट्ठारस पपसहस्साणि पुण पढमसुयक्षस्स, नव बंभरमझ्यस्स पमारणं विचित्तत्यारिणय सुत्तारिण मुस्बएसमो तेसि प्रत्यो जाणिव्यो। [समवायांग टीका (माचार्य अभयदेव सूरि)] सत्यपरिष्णा लोगविजमो य सीउसरिणज्ज सम्मत्तं । तह सोनसार नामं, धुतं तह महापरिण्णा य ।। ३१ ।। पखए य विमोक्ता उहाण सुयं च नवमगं भरिणयं । ................................ || ६२॥ [भाचारांग नियुक्ति] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग शीलांक ने भी अध्ययनों का यही क्रम दिया है। स्थानांग' और समवायांग में महापरिज्ञा अध्ययन को सातवें स्थान पर न रख कर नवम स्थान पर रखा गया है। नंदिसूककी हारिभद्रीया तथा मलयवृत्ति में महापरिज्ञा अध्ययन को आठवें और उपधानध्रुत को नौवें स्थान पर रखा है। इस प्रकार इन अध्ययनों के क्रम में थोड़ा बहुत अंतर उपलब्ध होता है पर संख्या में कहीं कोई अंतर नहीं दिया गया है । ६ अध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कंध में पांच प्रकार के प्राचार -ज्ञान आचार, दर्शन आचार, चारित्र आचार, तप आचार और वीर्य प्राचार का वर्णन किया गया है। प्रथम अध्ययन प्रथम श्रुतस्कन्ध के शस्त्र-परिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में ७ उद्देशक हैं, जिसमें विश्वबन्धुत्व का सजीव चित्र खींचते हुए बताया गया है कि प्रत्येक जीव अपने ही समान चेतना वाला है और सब को अपना-अपना जीवन प्रिय है अतः प्रत्येक प्राणी को प्रात्मवत् समझ कर किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय में से किसी भी जीव की हिंसा करना दुर्गति और अनन्त भवभ्रमरण का कारण है । वनस्पति काय की सजीवता बताने के लिये अध्ययन में मनुष्य-देह के साथ वनस्पति की तुलना की गई है। प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्र-परिज्ञा रखा गया है, उसका अर्थ यह है कि द्रव्य-शस्त्र-लाठी, तलवार, तोप आदि तथा भाव-शस्त्र काम, क्रोध, मद, मोहादि की भयंकरता एवं उनके द्वारा अजस्ररूपेण वृद्धिगत होने वाले अनन्त भवभ्रमण के भयावह स्वरूप को समझ कर द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र दोनों प्रकार ने शस्त्रों का परित्याग करना। द्रव्य और भावशस्त्रों को जान कर उनका परित्याग करना साधना का प्रथम चरण और मुक्ति का प्रथम सोपान है। द्वितीय अध्ययन दूसरे "लोकविजय" नामक अध्ययन में ६ उद्देशक हैं । लोकविजय का अर्थ है लोक अर्थात् संसार पर विजय । लोक दो प्रकार का है-पहला, चार प्रकार की गतियों में भ्रमण रूप द्रव्यलोक, और दूसरा राग-द्वेषादि भावलोक । राग-द्वेषादि भावलोक के कारण ही जीव चतुर्गतिरूप द्रव्यलोक में परिभ्रमण करता है । इस अध्ययन में राग-द्वेष-विषय-कषायदि पर विजय प्राप्त करके लोक अर्थात् भवभ्रमण पर विजय प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है। इसमें संसार के बीजरूप मूल कारण क्रोध, मान, माया व लोभ का नाश कर वैराग्य एवं संयम में दृढ़चित्त होने त' । सब प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भों में ममत्वत्याग का निर्देश ' व बंभचेरा पण्णता तंजहा - सत्यपरिन्ना, लंगविजयो जाव उवहारणसुयं महापरिण्णा । [स्थानांग सूत्र, स्थान ६] २ पायारस्स णं भगवो सचूलिपागस्स पणवीसं अज्झयणा पणता तंजहा सत्थपरिण्णा लोगविजयो सीग्रोसरणीय सम्मत्तं । मावंति धुय विमोह उवहारणसुयं महपरिणा । [समवायांग, समवाय २५] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचारांग ] केवलिकाल : श्रार्य सुधर्मा है । इसके साथ ही साथ इसमें साधक को अनुकूल तथा प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में समभाव रखने और संयमपालन के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त कर प्रात्मलक्षी बनने का उपदेश है । तृतीय अध्ययन तीसरे शीतोष्णीय नामक अध्ययन में ४ उद्देशक हैं। शीत का अर्थ है अनुकूल परीषह और उष्ण का अर्थ प्रतिकूल परीषह । इस अध्ययन में साधनापथ के पथिक- भिक्षु को उपदेश दिया गया है कि वह अनुकूल परीषहजन्य सुख की स्थिति में अथवा प्रतिकूल परीषहजन्य दुःख की स्थिति में समभाव रखते हुए साधनापथ पर निरन्तर गतिशील रहे। इसके प्रथम उद्दे शक में असंयमी को सुप्त की संज्ञा दे कर द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि सुप्त व्यक्ति निरन्तर घोर दुःख भोगते रहते हैं । इसके तृतीय उद्देशक में देह-दमन के साथ-साथ श्रमरण के लिये चित्तशुद्धि करना परमावश्यक ही नहीं अनिवार्य बताया गया है। चौथे उद्देशक में कषाय तथा पापकर्म के त्याग एवं संयम में उत्तरोत्तर उत्कर्ष करते रहने का उपदेश है । नियुक्तिकार द्वारा भी तृतीय अध्ययन के इन चारों उद्देशकों का विषयक्रम उपर्युल्लिखित रूप में ही बताया गया है और यही विषयक्रम वर्तमान में उपलब्ध होता है । चतुर्थ अध्ययन चौथे अध्ययन का नाम सम्यक्त व अध्ययन है । सम्यक्त व का अर्थ है शाश्वत सत्य धर्म में विश्वास, आस्था-श्रद्धा-निष्ठा । इस चौथे सम्यक्त व नामक अध्ययन में ४ उद्देशक हैं । इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में शाश्वत सत्य धर्म के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है- "प्रतीत, वर्तमान और प्रागामी काल के सभी प्रर्हन्तों तीर्थंकरों का यही कथन है कि किसी भी प्रारणी, भूत, जीव और सत्व की न तो हिंसा करनी चाहिए न करवानी ही चाहिए और न उसको किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचानी चाहिए । ग्रहिंसा रूप यही धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है । सम्पूर्ण लोक के समस्त जीवों के दुःखों को जानने वाले महापुरुषों ने इस (धर्म) का वर्णन किया है । यह अहिंसामूलक धर्म उन सब लोगों को सुनाना चाहिए जो इसको सुनने के लिये उद्यत अथवा अनुद्यत, उपस्थित अथवा अनुपस्थित, मन, वचन एवं काय रूप दण्ड से उपरत अथवा अनुपरत, सोपधिक अथवा निरुपधिक और संयोगरत अथवा संयोग से उपरत हों, क्योंकि यही सच्चा धर्म है, यही मोक्षप्रदायी है । ७७ ܟܙܙ " से बेमि जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे श्रागमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खति, एवं भाति, एवं पणविति, एवं परूविति - सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधित्तव्वा, न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोयं खेयेहि पवेइए, तंजहा - उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा उवट्ठिएस वा श्रवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा गोवहिसु वा संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा तच्च चेयं तहा चेयं, श्रस्सिं चेयं पवुच्चइ ।। २२७ ।। [ आचारांग अध्ययन ४ उद्देशक १, सूत्र प्रथम ] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [पाचारांग अथाह सागर तुल्य जैन दर्शन को इस एक ही सूत्र रूप गागर में समाविष्ट कर दिया गया है । सच्ची मानवता का प्रतीक यह सूत्र जैन धर्म को विश्व धर्म के गौरव गरिमापूर्ण पद पर प्रतिष्ठापित करने के लिये पर्याप्त है । ७८ द्वितीय उद्देशक में प्रासव एवं संवर द्वारों का विवेचन करते हुए बताया गया है कि भाव एवं संवर एकान्ततः स्थान भौर क्रिया पर नहीं अपितु मूलत: साधक की क्रमशः शुभाशुभ तथा विशुद्ध भावना पर निर्भर करते हैं प्रतः साधक को राग द्वेष से रहित विशुद्ध भावना रखने के लिये सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। तृतीय उद्देशक में साधक को उपदेश दिया गया है कि वह भाव-विशुद्धि द्वारा नये कर्मों के ग्रागमन को रोकने के साथ-साथ पूर्वसंचित कर्मों का नाश करने के लिये यथाशक्य तप-साधना में निरत रहे । चौथे उद्देशक में साधनामार्ग को कठोर भौर वीरों का मार्ग बताते हुए साधक को उपदेश दिया गया है कि वह समस्त ऐहिक सुखों और अपने शरीर के प्रति भी ममत्व का त्याग कर सम्यक्त व द्वारा महिंसा, संवर भौर निर्जरा पर प्राप्त हुई अपनी श्रद्धा को सदा अपने श्राचररण में उतारने का प्रयत्न करता रहे। चारों उद्देशकों का यही विषयक्रम निर्युक्ति एवं वृत्ति में निर्दिष्ट है और यही क्रम प्राचारांग में प्राज भी विद्यमान है । पंचम अध्ययन पांचवें अध्ययन का नाम लोकसार अध्ययन है । इसके आादि, मध्य और अंत में 'प्रावति' शब्द भाया है इस दृष्टि से इसका दूसरा नाम 'प्रावंति अध्ययन' भी रखा गया है। इसमें समग्र लोक के सारभूत धर्म -मर्म का निरूपण करते हुए बताया गया है कि लोक में सारभूत तत्व धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार मोक्ष है। प्रस्तुत अध्ययन में ६ उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में प्राणिहिंसा को कर्मबन्ध एवं भवभ्रमरण का कारण बताते हुए कहा गया है कि जो कोई व्यक्ति किसी प्रयोजन अथवा बिना किसी प्रयोजन के प्राणियों की हिंसा करता है, वह निरन्तर उन्हीं जीवों में घूमता हुआ दुस्सह दुःखों का अनुभव करता है । हिंसा, संशय एवं भोगों का परित्याग किये बिना कोई प्राणी संसारसागर से पार नहीं हो सकता । द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि सभी प्राणी जीना और सुखी रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, श्रतः सच्चा मुनि वही है जो किसी जीव की हिंसा नहीं करता और हिंसाजन्य पाप से सदा दूर रहता है । तृतीय उद्देशक में साधक को उपदेश दिया गया है कि वह सर्वथा अपरिग्रही रह कर कामोन्मुख एवं भोगासक्तं प्रपनी श्रात्मा के साथ युद्ध करते हुए अपनी श्रात्मा पर विजय प्राप्त करे । बाह्य युद्धों को अनार्य युद्ध की संज्ञा देते हुए आत्मविजय हेतु किये जाने वाले युद्ध को ही श्रार्य युद्ध एवं सच्चा युद्ध बताया गया है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पाचारांग] केवलिकाल : पार्य सुधर्मा चतुर्थ उद्देशक में उस मुनि के लिये एकाकी विचरण वर्जनीय बताया गया है जो कि वय एवं ज्ञान की दृष्टि से अपरिपक्व अथवा परीषहों को सहन करने में सक्षम न हो। पंचम उद्देशक के प्रारम्भ में प्राचार्य की उस निर्मल जल से भरे उपशान्त जलाशय से तुलना की गई है जो अपने स्वच्छ जल से समस्त जलचर जन्तुओं की रक्षा करते हुए समभूमि में अवस्थित है। इसमें बताया गया है कि प्राचार्य भी उस स्वच्छ जलपूर्ण जलाशय के समान सदगुरणों से प्रोतःप्रोत, उपशान्त, मन एवं इन्द्रियों को वश में रखने वाले, प्रबुद्ध, तत्वज्ञ, और श्रुत से अपना तथा पर का कल्याण करने वाले हैं। जो साधक संशय रहित हो जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित तत्वज्ञान को सत्य समझ कर ऐसे महर्षियों की प्राज्ञानुसार संयम का पालन करता है वह समाधि को प्राप्त करता है। __ इस पांचवें उद्देशक के पांचवें सूत्र में हिंसा से उपरत रहने का जिन मार्मिक और अन्तस्तलस्पर्शी शब्दों में जो महत्त्वपूर्ण उपदेश दिया गया है वह उस रूप में संभवतः अन्यत्र विश्व के किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं होगा। इसमें बताया गया है - (ो मानव ! ) जिसे तू मारने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू अपना प्राज्ञावर्ती बनाने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू परिताप पहुंचाने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू पकड़ने-बांधने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू प्राणों से वियोजित कर देने योग्य समझता है वह भी तू ही तो है। इस प्रकार के वास्तविक तथ्य को पहिचान कर प्रत्येक जीव को अपनी प्रात्मा के समान समझने वाला सरलवृत्ति युक्त साधु किसी भी जीव की न तो स्वयं हिंसा करें न किसी दूसरे से हिंसा करवाये और न किसी प्राणी की हिंसा का अनुमोदन ही करे। दूसरे की हिंसा के फलस्वरूप होने वाला घोर दुःख मेरी प्रात्मा को ही भोगना पड़ेगा इस प्रकार का विचार कर बुद्धिमान् अपने मन में किसी प्राणी की हिंसा का विचार तक न माने दे।' इस सूत्र में निहित उद्बोधन के माध्यम से स्पष्टरूपेण प्रत्येक प्राणी को सतर्क किया गया है कि किसी प्राणी के वध, बन्धन, उत्पीड़न आदि का विचार करना वस्तुतः स्वयं का वध, बन्धन, उत्पीड़न करना है। इस प्रकार के विचार करने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम स्वयं ही अपने विचारों का निशाना बनता है । क्योंकि दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुंचाने के संकल्पमात्र से, इस प्रकार का संकल्प करने वाले प्राणी के प्रात्मगुरगों का हनन हो जाता है। आत्मगुरणों का हनन वस्तुतः प्रात्मपात तुल्य है । ' तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतम्बंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं प्रज्जावेयन्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि एवं जं परिघित्तव्वति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि अंजू चय परिबुद्ध जीवी, तम्हा न हंता न वि घायए, प्रणुसवेयरणमप्पाणेण जं हंतव्वं नाभिपत्थए। [प्राचारांग ५।५] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग माचारांग छट्टे उद्देशक में बताया गया है कि जो साधक जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित संयमधर्म का अपने प्राचार्य की आज्ञानुसार अप्रमत्तरूप से निरन्तर पालन करता है और सब प्रकार के कर्मबन्धों के भाव-स्रोतों से पूरी तरह बचते हुए साधनारत रहता है वह क्रमशः चार घातिकर्मों का क्षय कर अन्त में जन्म-मरण के बन्धन से निर्मुक्त हो निरञ्जन-निराकार, सच्चिदानन्दस्वरूप सिद्धत्व को प्राप्त करता है। इसमें सिद्ध भगवान् के स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया गया है"वह जन्म-मरण के मार्ग से परे, मुक्तावस्था में रत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय, तर्क द्वारा प्रगम्य, मति द्वारा अग्राह्य, केवल विशुद्ध चैतन्य, अनन्त ज्ञान-दर्शनयुक्त, अनन्त अक्षय सुख एवं अनन्त शक्ति सम्पन्न, मोक्ष का क्षेत्रज्ञ, परमपद का अध्यासी, है। न वह दीर्घ है न ह्रस्व, न वर्तुलाकार, न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न परिमंडलाकार, न कृष्ण, न नील, न रक्तवर्ण, न पीत, न श्वेत, सुगन्ध एवं दुर्गन्ध रहित, न तिक्त, न कटु, न कषायरस वाला, न खट्टा, न मधुर, कर्कश अथवा कोमल स्पर्श रहित, न भारी न हल्का, न उष्ण न शीत, न स्निग्न, न रूक्ष, काया-लेश्या तथा कर्मबीज से रहित, नितान्त निस्संग, न स्त्री, न पुरुष और न नेपुसंक, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, निरुपम, अरूपी सत्ता वाला और प्रपद होने के कारण वह सिद्ध भगवान् किसी भी पद के द्वारा अनिर्वचनीय-अनिरूपरणीय हैं।' छट्ठा प्रध्ययन __छठे अध्ययन का नाम धूत अध्ययन है। धूत का अर्थ है किसी वस्तु पर लगे मैल को दूर करके उसे स्वच्छ बना देना। इस अध्ययन में प्रात्मा पर लगे कर्म-मैल को तप-संयम द्वारा दूर कर प्रात्मा को समुज्वल बनाने का उपदेश दिया गया है। इस अध्ययन के ५ उद्देशक हैं। इसके प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि जिस प्रकार शैवाल से समाच्छादित जलाशय का कछुमा बाहर की वस्तुओं एवं बाहर जाने के मार्ग को नहीं जान सकता, जिस प्रकार एक वृक्ष अपना अधोभाग पृथ्वी में गड़ा हुआ होने के कारण शीतोष्णादि संकटों से अपना बचाव करने हेतु अन्यत्र नहीं जा सकता, ' अच्चेइ जाईमरर रस वट्टमग्गं विक्खायरए, सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्य न विग्जा, मई तत्थ न गाहिया, प्रोए अप्पइट्ठाणस खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुक्किल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न सोए न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रूहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न ग्रनहा परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि ॥ [प्राचारांग सूत्र, अ० ५ उ० ६, सू० १७१] मुण्डकोपनिषद्, १, १, ६ में भी कुछ इसी प्रकार का वर्णन है : यनद द्रेश्यम ग्राह्यमगोत्रमवर्णम चक्षुः श्रोत्रं तदपारिणपादम् । नित्यं विभु सर्वगतं सुसूक्ष्म तमव्ययं तद्भुनयोनि परिपश्यति धीराः । -सम्पादक Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारांग] केवलिकाल : पायं सुधर्मा ८१ उसी प्रकार मोह में आसक्त व्यक्ति न तो सत्य-मार्ग को देख सकता है और न प्रशस्त पथ पर चल कर शान्ति के स्थल पर ही पहुंच सकता है । इसके परिणामस्वरूप वह जन्म-मरण और संसार के दुःखों की चक्की में निरन्तर पिसता रहता है। अतः साधक को चाहिये कि वह सांसारिक मोह एवं प्रासक्ति से सर्वथा बचा रह कर सदा साधनारत रहे। द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि जो साधक परीषहों से. डर कर साधुत्व एवं वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपंछनक, रजोहरणादि संयमसाधना के उपकरणों का परित्याग कर देते हैं वे दीर्घकाल तक भवभ्रमण करते रहते हैं और जो साधक परीषहों को समभाव से सहन करते हुए संयमपूर्वक साधना में निरत रहते हैं वे अन्ततोगत्वा संसारसागर को पार कर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। तृतीय उद्देशक में साधु को उपदेश दिया गया है कि वह धर्मोपकरणों के अतिरिक्त अन्य उपकरणों को कबन्ध का कारण समझे। वह कभी मन में इस प्रकार का विचार न करे कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है अतः नये वस्त्र को याचना करूंगा, अथवा सूई-धागे की याचना कर फटे हुए वस्त्र को सीऊंगा अपितु वह उन धीर-वीर महापुरुषों के चरित्र का चिन्तन करे, जिन्होंने निर्वस्त्र रह कर अनेक पूर्वो अथवा वर्षों तक संयम-मार्ग में स्थिर रह परीषहों को सहन कर परमपद प्राप्त किया। साधक उन महापुरुषों की तरह परीषहों को सहन करने की शक्ति अपने अन्तरं में उत्पन्न करने की कामना करे । परीषहों को सहन करतेकरते जिस साधक की भुजाएं कृश हो जाती हैं, मांस तथा रुधिर स्वल्प मात्रा में अवशिष्ट रह जाता है और जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर समत्वभाव प्राप्त कर लिया है वह साधक संसारसागर को पार कर लेता है। इसके पश्चात् संयमनिष्ठ साधु को असन्दीन (जल से कभी न भरने वाले) द्वीप की उपमा देते हुए सब जीवों की रक्षा करने वाला तीर्थंकरप्रणीत धर्मतीर्थस्वरूप बताया गया है। ___ चतुर्थ उद्देशक में बताया गया है कि जो साधू ज्ञान और प्राचार दोनों से ही भ्रष्ट हो जाते हैं वे अनन्त काल तक भवभ्रमरण करते हुए संसार में भटकते रहते हैं अतः साधक को चाहिये कि वह अहर्निश ज्ञान और क्रिया की साधना में निरत रह कर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर होता रहे। पंचम उद्देशक में उपदेष्टा के लक्षणों का निरूपण करते हुए बताया गया है कि उपदेष्टा वस्तुतः कष्टसहिष्ण, वेदवित् अर्थात् आगमज्ञान में निष्णात, सर्वभूतानुकम्पी, सकल चराचर जीवनिकाय का शरुण्यभूत हो। उसका उपदेश समष्टि के लिये और समष्टि का हितसाधक तथा शान्ति, क्षमा, अहिंसा, विरति, कषायों के उपशमन, निर्वाण, निर्दोष व्रताचरण, सरलता, मृदुता एवं लाघवता आदि विषयों पर आगमानुसार होना चाहिये। उपदेश देते समय मुनि स्वयं की तथा अन्य की प्राशातना-अवहेलना न करे। जिस प्रकार धीर, वीर योद्धा संग्राम में सबसे आगे रह कर शत्रुओं के साथ घोर युद्ध करता हुआ विजय प्राप्त करता Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग है उसी प्रकार साधक घोरातिधोर परीषहों को निर्भय और स्थिरभाव से सहन करते हुए मृत्युकाल उपस्थित होने पर पादोपगमन आदि अनशन कर जब तक प्रात्मा शरीर से पृथक न हो जाय तब तक आध्यात्मिक चिन्तन में स्थिरभाव से दत्तचित्त रहे। सातवां अध्ययन सात उद्देशकों वाला “महापरिज्ञा" नामक सातवां अध्ययन वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में उसके अन्तर्गत किन-किन विषयों पर विवेचन किया गया था इस पर साधिकारिक रूपेरण कोई प्रकाश नहीं डाला जा सकता। यह महापरिज्ञा अध्ययन किस समय विलुप्त हुआ, इसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता परन्तु कुछ तथ्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विक्रम संवत् ५६२ के पश्चात् विक्रम सं० ६३३ से पहले किसी समय में महापरिज्ञा अध्ययन उच्छिन्न हुआ होगा। शीलाचार्य अपर नाम तत्वादित्य'. ने शक संवत् ७६८ की वैशाख शुक्ला ५ के दिन प्राचारांग की टीका का लेखन सम्पूर्ण किया।२ प्राचारांग सूत्र की टीका में प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन की टीका सम्पूर्ण करने के पश्चात् लिखा है- "छठे अध्ययन की टीका समाप्त हुई। अब सातवें अध्ययन की टीका करने का अवसर समुपस्थित है किन्तु सातवां अध्ययन विच्छिन्न हो चुका है अतः उसे छोड़ कर पाठवें अध्ययन के सम्बन्ध में कहा जा रहा है।"3 आचारांग टीका में उपलब्ध उपरोक्त उल्लेखों से यह तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि शक सं० ७९८ तदनुसार विक्रम सं० ६३३ में महापरिज्ञा अध्ययन विद्यमान नहीं था और उससे पहले ही यह विलुप्त हो चुका था। अब यह देखना है कि महापरिज्ञा अध्ययन किस समय तक विद्यमान था। आज दुर्भाग्यवश महापरिज्ञा अध्ययन तो उपलब्ध नहीं पर सौभाग्य से इस पर लिखी हुई नवगाथात्मक नियुक्ति उपलब्ध है। आचारांग-नियुक्ति में महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के विलुप्त होने का कोई उल्लेख न होना और उसमें इस अध्ययन की नियुक्ति का अस्तित्व, इन दो प्रबल प्रमारणों से यह निविवादरूपेरण सिद्ध हो जाता है कि नियुक्ति की रचना के समय नियुक्तिकार के समक्ष महापरिक्षा अध्ययन विद्यमान था। 'ब्रह्मचर्याख्य श्रुतस्कंधस्य निवृत कुलीनश्री शीलाचार्येरण तत्वादित्यापरनाम्ना वाहरिसाधु. सहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति श्लोकतो ग्रन्थमानं ६७६ । [पाचारांम, प्र०७० स्कं०, शीलोकाचार्यकृत टीका, पृ० ४२७] २ शकवृषकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्नगु अष्टानवतीत्यधिकेषु वैशाखशुक्ल पंचम्यां २ आचार____टीका कृतेति । [वही, द्वितीय श्रु तस्कन्ध, पृ० २८१] 3 उक्त षष्टमध्ययनमधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञास्यस्यावसरस्तच्च व्यवच्छिन्नमितिकृत्वातिलंघ्याष्टमस्य संबन्धो वाच्यः। [वही, पृ० ३४२ : धनपतिसिंह आगमसंग्रहः] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ पाचारांग] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा इस तथ्य के स्पष्ट हो जाने के पश्चात् यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्राचारांग-नियुक्ति की रचना किस समय की गई ? परम्परागत जनश्र ति के प्राधार पर बहुत प्राचीन काल से यह मान्यता चली आ रही है कि चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु ने प्राचारांगादि १० सूत्रों पर नियुक्तियों की रचना की। श्रतकेवली भद्रबाह का प्राचार्यकाल वीर नि० सं० १५६ से १७० तक का है। नियुक्तियों में उल्लिखित अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों, घटनाओं और व्यक्तियों से सम्बन्धित विवेचनों पर गम्भीरतापूर्वक पर्यालोचन के पश्चात् प्रत्येक निष्पक्ष विचारक की यह निश्चित धारणा बन जाती है कि परम्परागत मान्यता के अनुसार चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु भले ही मूल नियुक्तियों के रचनाकार रहे हों पर वर्तमान में जो स्वरूप इन नियुक्तियों का उपलब्ध होता है, वह स्वरूप विक्रम सं० ५६२ के आस-पास हुए नैमित्तिक भद्रबाहु ने प्रदान किया। इसी ग्रन्थ के आगे के श्रतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के प्रकरण में एतद्विषयक महत्वपूर्ण तथ्यों पर यथास्थान पर्याप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा। उपर्यल्लिखित तथ्यों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि आचारांग सूत्र का महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन नियुक्तियों को अन्तिम रूप देने वाले नैमित्तिक भद्रबाह के समय में वि० सं० ५६२ तक विद्यमान था और इसके पश्चात् वि० सं० ५६२ से वि० सं० ६३३ के बीच की ३७१ वर्ष की अवधि में किसी समय वह लुप्त हो गया। विषय-वस्तु यह तो पहले बताया जा चुका है कि महापरिज्ञा अध्ययन में किन-किन विषयों का समावेश था, यह आधिकारिक रूप से विस्तारपूर्वक नहीं बताया जा सकता क्योंकि मूलतः यह अध्ययन विलुप्त हो चुका है। फिर भी प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों की विषय-परिचायिका गाथाओं में, और शीलांकाचार्यकृत इनकी टीका में किचित संकेत के रूप में और प्राचारांग नियुक्ति में उसकी अपेक्षा थोड़े विस्तार के साथ महापरिज्ञा अध्ययनान्तर्गत विषय का परिचय दिया गया है। प्राचारांग नियुक्ति में प्रथम श्र तस्कन्ध के अध्ययनों के विषय का परिचय देते हुए सातवें महापरिज्ञा अध्ययन का विषय बताया गया है- "मोहजन्य परोषह उपसर्ग ।” इस गाथा-पद की व्याख्या करते हुए टीकाकार आचार्य शीलांक ने लिखा है “संयमादि गुण युक्त साधु के समक्ष यदि कभी मोहजन्य ' जियसंजमो य लोगो, जह वज्झइ जह य तं पज्जहियन्वं । सुहदुक्खतितिक्खा वि य, संमत लोगसारो य ।।३३।। निस्संगया य छठे, मोहसमुत्था परीसहोवसग । निज्जारणं अट्ठमए, नवमे य जिणेरण पयंति ॥३४।। [प्राचारांग-नियुक्ति, (प्रथम श्रुतस्कंध)] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग परीषह अथवा उपसर्ग उत्पन्न हो जायं तो उसे चाहिये कि वह उन्हें दृढ़ता के साथ समीचीन रूपेण सहन करे।' , प्राचारांग नियुक्ति में महापरिज्ञा अध्ययन पर जो ६ गाथाएं दी हुई हैं उनमें से पहली दो गाथाओं में यह बताया गया है कि साधक अपनी दैनंदिनी क्रिया से लेकर अंतक्रिया संलेखना तक में अपने सम्मुख उपस्थित होने वाले अनुकूल परीषहों तथा साध्वाचार के समस्त अतिचारों को उत्कृष्ट कोटि के प्रादर्श एवं विशिष्ट ज्ञान से समझ कर उनसे किंचित्मात्र भी विचलित न होते हुए संयममार्ग में स्थिर रहे । ___ इनसे आगे की तीन गाथाओं में बताया गया है कि महा शब्द का प्राधान्य अर्थ में और परिमारण अर्थ में भी प्रयोग होता है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की दृष्टि से जो प्राधान्यता में महान् हों वहां महा शब्द प्राधान्यता का द्योतक और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से जहां, आकार, प्रकार, परिमारण, भार आदि का बोध कराने के लिये महा शब्द का प्रयोग किया जायगा वहां वह परिमारण का बोधक होगा। इससे आगे की तीन गाथाओं में परिज्ञा के द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से भेद उपभेद बताने के पश्चात् भावपरिज्ञा को मूलगुण एवं उत्तरगुरण के भेद से दो प्रकार का, मूल गुण भावपरिज्ञा को पांच प्रकार का और उत्तर गुण भावपरिज्ञा को दो प्रकार का बताया गया है और यह कहा गया है कि प्राधान्यता की दृष्टि से दोनों प्रकार की परिज्ञाओं में जो सर्वोत्तम परिज्ञान होता है उसे महापरिज्ञा कहते हैं। 'इस अध्ययन की नियुक्ति की अंतिम गाथा में साधक को यह निर्देश दिया गया है कि वह मन, वचन और काय से पूर्णतया देवांगना, मानवांगना एवं तिर्यंचांगना का परित्याग करे। ' सम: त्वयं-संयमादि गुणयुक्तस्य कदाचित्मोहसमुत्था परीषहोपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते स, बोहव्या। [प्राचारांग, शीलांकाचार्यकृत टीका, पृ०८] २ स... ।। तिष्णिपलिया, सीयंपरीसह हीयासणं धुवणं । सूईमादियाणं, सन्निही अट्ठवडिया ।।६।। प्रासंदीय प्रकरणं उवएसाणं निकायणा चेव ।। संलेहणिया ऐया, भत्तपरिणंतकिरिया य ॥६१।। पाहत्थे महासदो परिमाणो चेव होइ नायव्यो । पाहणे परिमाणे य छविह. होइ निक्लेवो ।।६२।। दब्वे खेत्ते काले, भावंमि य होंति या पहाणाउ । तेसिं महासद्दो खलु, पाहणेणं तु निप्पन्नो ।।६३।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचारांग) केवलिकाल : मार्य सुधर्मा ___ महापरिज्ञा अध्ययन पर दी हई उपरिलिखित ह निर्यक्ति-गाथाओं से इस अध्ययन के विषय पर स्पष्ट रूप से पूर्ण प्रकाश तो नहीं पड़ता पर इतना संकेत अवश्य मिलता है कि इस अध्ययन में साधक को अपने सम्पूर्ण साधक जीवन में प्रतिपल प्रतिपद पर सजग रहने, साध्वाचार तथा साध्वाचार के अतिचारों को विशिष्ट प्रज्ञा द्वारा भलीभांति समझकर तीव्र मोह के उदय से उत्पन्न सभी प्रकार के यौन अथवा अन्य परीषहों एवं उपसर्गों से किंचित्मात्र भी चलित न हो ब्रह्मनिष्ठ, आत्मनिष्ठ और संयमनिष्ठ रहने का उपायों सहित उपदेश दिया गया था। लुप्त हुए "महापरिज्ञा” अध्ययन में किन-किन विषयों का निरूपण किया गया था इस सम्बन्ध में उपर्युल्लिखित टीका, रिण एवं नियुक्ति के उल्लेखों के अतिरिक्त एक और बड़ा ही महत्त्वपूर्ण उल्लेख आचारांग-द्वितीय श्रुतस्कन्ध की नियुक्ति तथा टीका में उपलब्ध होता है। उसमें यह बताया गया है कि प्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की “सप्तसप्तिका" नाम की द्वितीया चूला के सातों अध्ययनों की रचना आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के सातों उद्देशकों के आधार पर की गई है।' नियुक्तिकार और टीकाकार, दोनों ने ही आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को प्राचारांग और द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्राचाराग्र बताते हुए कहा है कि नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचारांग में साधुओं के जानने योग्य सभी बातें नहीं बताई जा सकी हैं तथा अनेक बातें संक्षेप में बताई गई हैं। शिष्यों को उन सब आवश्यक ज्ञेय वस्तुओं का स्पष्टरूपेण बोध हो जाय इस दृष्टि से चतुर्दशपूर्वधर स्थविरों ने दन्वे. खेत्ते काले भावंमिय जे भवे महंताउ । तेसु महासद्दो खलु, पमाणउ होंति निप्पण्णो ॥६४।। दवे खेत्ते काले, भावे परिण्णा य बोधव्वा । जाणण उववक्खणउ य, दुविहा पुणेक्केक्का ॥६५॥ भावपरिणा दुविहा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहा, दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥६६।। पाहणाण उपमयं भाव, परिण्णाए तह य दुविहाए। परिणाणेसु पहाणे, महापरिणा तउ होइ ॥६७।। देवीणं मणुईणं, तिरिक्खजोरिणगयाण इत्थीरणं । तिविहेण परिव्वाउ, महापरिणाए निज्जुत्ती ॥६८।। __ [प्राचारांग-नियुक्ति (प्रथम श्रुतस्कध)] ' सत्तेकाणि सत्तवि, णिज्जूढाई महापरिणाप्रो । .........।।६।। [आचारांग नियुक्ति, श्रुत० २] (ख) तथा महापरिज्ञाध्ययन सप्तोद्दे शकास्तेभ्यः प्रत्येक सप्तापि सप्तकका निव्यूंढा । [शीलांकाचार्यकृत आचारांग टीका, पृ० ४] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाचारांग उन नवब्रह्मचर्याध्ययनों में से, उक्त, अनुक्त अथवा संक्षेप से कही गई बातों को लेकर द्वितीय श्रुतस्कन्धरूप प्राचाराग्र की विस्तारपूर्वक रचना की।' नियुक्तिकार और टीकाकार के इस कथन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशकों में. जिन विषयों का विवेचन विवक्षित था अथवा जिन विषयों का संक्षेपतः उल्लेख किया गया उन्हीं सातों अध्ययनों में प्रतिपादित विषयों के आधार पर प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की द्वितीया चूला के सात अध्ययनों की रचना की गई। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि द्वितीया चूला के सात अध्ययनों में जो विषय हैं वे तो कम से कम, संक्षेपतः अवश्य ही महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशकों में प्रतिपादित किये गये थे। महापरिज्ञा अध्ययन में मंत्र-विद्या ___ यद्यपि प्राचारांग नियुक्ति, शीलांककृत प्राचारांग टीका, जिनदास गणि द्वारा रचित आचारांग रिण और अन्य प्रागमिक ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता पर पारम्परिक प्रसिद्ध जनश्रुति के आधार पर यह मान्यता चली आ रही है कि प्राचारांग सूत्र के "महापरिज्ञा" अध्ययन में अनेक मन्त्रों और वड़ी महत्वपूर्ण विद्याओं का समावेश था। उन मन्त्रों और विशिष्ट विद्यानों का स्वल्प सत्व, धैर्य एवं गाम्भीर्य वाले साधक कहीं दुरुपयोग न कर लें इस जनहित की भावना से पूर्वकाल के प्राचार्यों ने अपने शिष्यों को इस अध्ययन की वाचना देना बन्द कर दिया और इसके परिंगामस्वरूप शनैः शनैः कालक्रम से महापरिज्ञा अध्ययन विलुप्त हो गया। इस परम्परागत प्रसिद्ध जनश्रुति को एकान्ततः अविश्वसनीय किंवदन्ती की गगाना में भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि आचार्य वज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या की उपलब्धि की, इस प्रकार का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध होता है ।२ आचारांग रिणकार ने लिखा है - "विना प्राज्ञा, विना अनुमति के. महापरिज्ञा अध्ययन ' (क) अायाराउ अत्थो पायारग्गेसु पविभत्तो ।।३।। [प्राचारांग-नियुक्ति, श्रुतस्कंध २] (ख) तत्राद्ये श्रुतस्कन्धे नववर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि तेषु च न समस्तोऽपि विवक्षि तोऽर्थोऽभिहितो... 'संक्षेपोक्तस्य प्रपंचाय तदप्रभूताश्चतस्र-चूड़ा... शिष्यहितं भवत्विति कृत्वा अनुग्रहार्थ तथा अप्रकटोऽर्थ प्रकटो यथास्यादित्येवमयं च कुतो निव्यूंट: ? याचारात सकाशात् समस्तोऽप्यथं प्राचाराग्रेषु विस्तरेण प्रविभक्त इति । शीलांकाचार्यकृत टीका, श्रु० २, पृ० ४] २ (क) जेगुरिया विज्जा, ग्रागामगमा महापरिन्नाग्रो । वंदामि ग्रज वडर, अपच्छिमो जो सुप्रधराग ।। ७६६॥ यावश्यक मलय, उपोद्घात, पृ० ३६० (१)] (ब) महापरिज्ञाध्ययनाद, ग्राचारांगातरस्थितात् । श्री वज्र गणोद्धता विद्या तदा गगनगामिनी ।। १४८॥ (प्रभावक चरित्र Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ भाचारांग केवलिकाल : मार्य सुधर्मा नहीं पढ़ा जाता (था)।" इससे भी थोड़ा आभास होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में कुछ इस प्रकार की विशिष्ट बातें थीं जिनका बोध साधारण साधक के लिये वर्जनीय था। माठवां अध्ययन पाठवें अध्ययन के दो नाम हैं विमोक्ष और विमोह । इसके मध्य में "इच्चेयं विमोहाययणं" तथा "अणुपुम्वेण विमोहाई" और अन्त में-"विमोहन्नयरं हियं"- इन पदों में विमोह शब्द का प्रयोग होने के कारण संभवतः इस अध्ययन का नाम विमोह अध्ययन रखा गया हो। अर्थतः इन दोनों शब्दों में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता क्योंकि विमोक्ष का अर्थ है सब प्रकार के संग से पृथक् हो जाना और विमोह का अर्थ है मोह रहित होना। इस अध्ययन में ये दोनों शब्द समस्त ऐहिक संसर्गों के परित्याग के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में श्रमणों के लिये निर्देश है कि वे अपने से भिन्न आचार, भिन्नं धर्मवाले साधुओं के साथ न प्रशन-पान करें और न वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपुंछनक, निमन्त्रण, आदर-समादर, सेवा-शुश्रूषा आदि का आदानप्रदान ही करें। इसमें सदा सब प्रकार के पापों से बचते रहने के आदेश के साथ कहा गया है कि विवेकपूर्वक सब पाप-कर्मों को सम्यकपेण समझते हुए किसी भी दशा में पाप न करना ही वास्तविक धर्म है। द्वितीय उद्देशक में साधु को यह उपदेश दिया गया है कि वह अकल्पनीय वस्तु को किसी भी दशा में ग्रहण न करे मोर उस प्रकार की स्थिति में यदि कोई गृहस्थ अप्रसन्न हो कर ताड़न-तर्जन प्रादि भयंकर कष्ट भी दें तो साधु शान्तचित्त और समभाव से उन परीषहों को सहन करे। तीसरे उद्देशक में एकचर्या, भिक्षुलक्षण प्रादि का उल्लेख करने के पश्चात् कहा गया है कि यदि किसी साधु के शरीर-कम्पन को देख कर किसी गृहस्थ के मन में इस प्रकार की शंका उत्पन्न हो जाय कि कामोत्तेजना के कारण उसका शरीर कांप रहा है तो उस साधु को चाहिये कि उस गृहस्थ की उस शंका का समीचीन रूपेण समाधान करे । चौये उद्देशक में एक प्रभिग्रहधारी मुनि के वस्त्र, पात्र प्रादि की मर्यादा के उल्लेख के साथ साधु को निर्देश दिया गया है कि वह जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित मुनि की सचेलक तथा अचेलक अवस्थामों को समभावपूर्वक अच्छी तरह से जाने और समझे। इसमें साधक को निर्देश दिया गया है कि उन विषम परिस्थितियों में जब कि संयम की रक्षा सभी तरह से असंभव प्रतीत होने लगे अथवा स्त्री आदि का अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर उसे अपने संयम के भंग होने की पूरी संभावना हो तो उस प्रकार की विषम परिस्थितियों में वह विवेक एवं समभावपूर्वक प्राणों के मोह का परित्याग कर सहर्ष मृत्यु का बरण करे। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग पाचारांग पांचवें उद्देशक में बताया गया है कि दो वस्त्र एवं एक पात्रधारी, एक साटकधारी अथवा' अचेल साधक समभाव से परीषहों को सहन करे। विभिन्न अभिग्रहधारी साधु जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को अच्छी तरह जानता हुमा अपने अभिग्रह का यथार्थरूप से पालन करे और भक्तपरिज्ञा द्वारा अन्त में समाधिपूर्वक प्राणत्याग करे । छठे उद्देशक में साधु को उपदेश दिया गया है कि यदि उसने एक वस्त्र और एक पात्र रखने का अभिग्रह किया है तो शीतादि परीषहों के समुपस्थित होने पर दूसरे वस्त्र अथवा पात्र की कांक्षा न करे। इस उद्देशक में वस्त्र, पात्र आदि की लाघवता एवं प्रात्मलाघवता अर्थात्-मैं एकाकी हूं, न तो मेरा कोई है और न मैं किसी का हूं- इस प्रकार की भावना को तप और प्रात्मविकास का साधन बताया गया है। इसमें साधु को यह भी उपदेश दिया गया है कि वह रस का आस्वादन नहीं करते हुए पाहार करे और जब उसे विश्वास हो जाय कि संयमसाधना के कठोर क्रियानुष्ठानों का पालन करते हुए अथवा रोगादि के कारण उसका शरीर अत्यंत क्षीण एवं अशक्त हो गया है तो वह किसी गृहस्थ से निर्दोष घास की याचना कर जीवजन्तु रहित एकान्त स्थान में भूमि को परिमार्जित कर तृणशय्या बिछाये और उस पर शान्ति एवं समतापूर्वक इंगितमरण स्वीकार करे। सातवें उद्देशक में बताया गया है कि जो प्रतिमासम्पन्न अचेलक साधु संयम में अवस्थित है उसके मन में यदि इस प्रकार के विचार उत्पन्न हों कि वह तृणस्पर्श, शीत, उष्ण, डांस मच्छर आदि के परीषहों को सहन करने में तो समर्थ है पर लज्जा को जीतने में असमर्थ है तो उस स्थिति में उसे कटिबन्ध धारण करना कल्पता है।' संयमसाधना अथवा रोगादि के कारण बल तथा शरीर के अत्यधिक क्षीण हो जाने की दशा में साधु के लिये इस उद्देशक में विधान किया गया है कि वह गुफा आदि प्राशुक स्थान में गृहस्थ. से याचना कर लाये हुए तृणों की शय्या बिछा उस पर कटी हुई लकड़ी की तरह निश्चल हो पादोपगमन अनशन करे। ___ आठवें उद्देशक में पंडितमरण का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन करते हुए, बताया गया है कि निरन्तर संयम की कठोर साधना करते हुए अथवा असाध्य रोग से शरीर इतना निर्बल हो जाय कि स्वाध्यायादि संयमसाधना का भी सामर्थ्य न रहे तो मुनि पूर्ववणित विधि से जीवजन्तुरहित एकान्त स्थान में तृणासन बिछा कर बाह्याभ्यंतर ग्रन्थियों के परित्याग के साथ शान्त चित्त से अनशन स्वीकार करे । भक्त प्रत्याख्यान, इंगित मरण और पादोपगमन-इन तीन प्रकार के सन्थारों ' जे भिक्खु अचेले परिवुसिए तस्स रणं भिक्खुस्स एवं भवइ चाएमि अहं तणफास अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए..................हिरिपडिच्छायणं च हं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पेइ कडिबन्धरणं धारित्तए ॥२२०॥ (प्राचा०, प्र. ६ उ०) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचारांग] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा ८९ में पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे को श्रेष्ठ बताते हुए साधक को निर्देश दिया गया है कि वह जीवन और मरण दोनों में समान रूप से अनासक्त रहते हुए न जीने की अभिलाषा करे और न मरने की प्रार्थना ही। वह प्रात्मचिन्तन के अतिरिक्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक सभी प्रकार के व्यापार को बन्द कर केवल आत्मरमण करता हुमा घोर से घोर उपसर्ग उपस्थित होने पर भी शान्त, दान्त एवं स्थिर रहे । प्रनशनावस्था में उसके शरीर के मांस का मदि हिंस्र पशु भक्षण करें या उसके रक्त का पान करें तो उस हिंसा-जन्य वेदना को अपनी आत्मा के लिये अमृतसिंचन तुल्य समझ कर समभाव से अंतिम सांस तक अपने कर्मों की निर्जरा करता रहे। यदि उसे उस अवस्था में मानवोपभोग्य अथवा देवोपभोग्य कमनीय से कमनीय भोगों का भी प्रलोभन दिया जाय तो वह उनको ग्रहण करने की इच्छा तक न करे और मोहरहित हो कर उपरोक्त तीन प्रकार के अनशनों में से यथाशक्ति किसी एक अनशन को हितकारी समझ कर स्वीकार करे। नौवां अध्ययन नौवें उपधानश्रुत नामक अध्ययन में मुख्य रूप से भगवान् महावीर की साधना का वर्णन है। यह पूरा अध्ययन गाथात्मक है। इसमें एक भी सूत्र नहीं है । इसके ४ उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में भगवान् महावीर द्वारा दीक्षा से दो वर्ष पूर्व सचित्त का त्याग, दीक्षानन्तर विहार, परपात्र एवं परवस्त्र का त्याग और १३ मास पश्चात् देवदूष्य वस्त्र का परित्याग बताया गया है। इसमें यह बताया गया है कि भगवान् महावीर ने केवल पूर्व-तीर्थकरों की परम्परा का निर्वहन करने के लिये ही देवदूष्य वस्त्र स्वीकार किया पर शीत एवं दंस-मशकजन्य परीषहों से बचने के लिये उन्होंने उसका कभी उपयोग नहीं किया। दूसरे और तीसरे उद्देशक में यह बताया गया है कि भगवान् महावीर को किन-किन विकट क्षेत्रों में विहार कर कैसे-कैसे स्थानों में रहना पड़ा और उन्हें वहां कितने प्रसह्य एवं घोर परीषह सहन करने पड़े। चौथे उद्देशक में भगवान् महावीर की घोर तपश्चर्यानों के वर्णन के साथसाथ यह भी बताया गया है कि उन्हें भिक्षा में किस-किस प्रकार का रूक्ष एवं नीरस भोजन मिला, कितना समय उन्होंने निराहार रह कर तथा कितना समय बिना पानी के बिताया। अनार्य देश में बिहार के समय वहां के निवासियों द्वारा प्रभ को दिये गये भीषण कष्टों के हृदयद्रावी वर्णन के साथ इसमें बताया गया है कि भगवान् महावीर उन असह्य परीषहों से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए। - इस प्रकार प्राचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में अध्ययन और नवों मध्ययनों के कुल ५१ उद्देशक हैं। महापरिज्ञा अध्ययन और उसके सातों उद्देशकों के विलुप्त हो जाने के कारण वर्तमान में प्रथम श्रुतस्कन्ध के ८ अध्ययन और ४४ उद्देशक ही उपलब्ध हैं। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [माचारांग द्वितीय तस्कन्ध नियुक्तिकार के मतानुसार आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की ५ चूलिकाएं मानी गई हैं उनमें से प्रथम चार चूलिकाएं ही विद्यमान हैं तथा निशीथ नाम की पांचवीं चूलिका विस्तृत होने के कारण संभवतः नियुक्तियों के रचनाकाल से पहले ही आचारांग से अलग की जा कर निशीथ नामक शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित कर दी गई थी। क्योंकि नन्दिसूत्र में इसका निशीथ के नाम से तथा स्थानांग, समवायांग एवं नियुक्ति में इसका प्राचारकल्प अथवा प्राचारप्रकल्प के नाम से उल्लेख उपलब्ध होता है । प्रथम चूलिका में पिण्डषणा आदि सात अध्ययन और उनके कुल मिला कर २५ उद्देशक हैं। पिण्डषणा नामक इसके प्रथम अध्ययन में निर्दोष माहारपानी किस प्रकार प्राप्त करना, भिक्षा के समय किस प्रकार चलना, किस प्रकार की भाषा बोलना, किस प्रकार पाहार प्राप्त करना आदि का वर्णन है। शय्यषणा नामक द्वितीय अध्ययन में सदोष-निर्दोष उपाश्रय का विचार किया गया है। तीसरे ईयषणा अध्ययन में चलने की विधि और अपवाद काल में नाव में बैठने की विधि बताई गई है। चौथे भाषेषणा अध्ययन में वक्ता के लिये १६ वचनों की जानकारी मावश्यक बताते हए क्रोधोत्पत्ति के कारणों का निषेध किया गया है। पांचवें वस्त्रषणा अध्ययन में यह बताया गया है कि साधु को किस प्रकार वस्त्र ग्रहण करने चाहिये। छठे पात्रषणा नामक अध्ययन में पात्र-ग्रहरण की विधि का निरूपण किया गया है। सातवें अवग्रहैषरणा नामक अध्ययन में यह बताया गया है कि श्रमण को अपने सावधि निवासार्थ किस तरह का मर्यादित स्थान किस प्रकार प्राप्त करना और उसमें किस प्रकार रहना आदि । यह पूरी चूलिका गद्यात्मक है। द्वितीय चूलिका में भी स्थान, निषीधिका आदि ७ अध्ययन हैं जो सभी उद्देशकरहित हैं। पहले अध्ययन में कायोत्सर्ग (ध्यान) आदि की दृष्टि से उपयुक्त स्थान तथा दूसरे अध्ययन में निषीधिका की प्राप्ति के सम्बन्ध में निर्देश दिया गया है। तीसरे अध्ययन में दीर्घशंका तथा लघुशंका के स्थान के बारे में निरूपण है। चौथे तथा पांचवें अध्ययन में क्रमशः शब्द और रूप के प्रति राग-द्वेष रहित रहने का श्रमण के लिये विधान है। द्वितीय चूलिका भी पूरी गद्यमय है। तीसरी "भावना" नामक चूलिका में भगवान महावीर के गर्भावतरण, गर्भ-साहरण, जन्म, जन्मोत्सव, नामकरण, तीन नाम, माता-पिता-पितृव्य के नाम, बहिन, भाई, भार्या, पुत्री एवं दोहित्री के नाम, माता-पिता का स्वर्गवास, वर्षीदान और साधना का वर्णन किया गया है। इसमें प्रत्येक महाव्रत की पांचपांच भावनाओं का भी प्रतिपादन किया गया है। इस चूलिका में चौवीस गाथाएं और शेष सब गद्य-पाठ हैं। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचारांग] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा चौथी "विमुक्ति" नामक चूलिका में वीतराग स्वरूप का उपमानों के साथ वर्णन किया गया है। इस चूलिका में केवल ११ गाथाएं हैं। इस प्रकार प्राचारांग सूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों के कुल मिला कर २५ अध्ययन और ८५ उद्देशक होते हैं पर प्रथम श्रुतस्कन्ध के महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के लुप्त हो जाने के कारण वर्तमान में सम्पूर्ण प्राचारांग के दो श्रुतस्कन्ध, २४ अध्ययन और ७८ उद्देशक ही उपलब्ध हैं। गोम्मटसार, धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ति, राजवार्तिक आदि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्राचारांग के विषयों का परिचय कराते हुए बताया गया है कि प्राचारांग में मन, वचन, काय, भिक्षा, ईर्या, उत्सर्ग, शयनासन एवं विनय इन पाठ प्रकार की शुद्धियों का विधान है। समीचीनतया विचार किया जाय तो यह कथन प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध पर पूरी तरह घटित होता है। वस्तुत प्राचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध में प्राचार पर विशेष बल दिया जा कर उसके प्रत्येक पहलू पर पूर्णरूपेण प्रकाश डाला गया है। उदाहरणस्वरूप "पिण्डषणा" नामक अध्ययन में श्रमणों को निर्देश दिया गया है कि उनका माहार किस प्रकार का होना चाहिये, उन्हें किस प्रकार, किस समय और किस स्थान पर आहार लेना एवं उसका उपयोग करना चाहिये। शयषणा नामक प्रध्ययन में विस्तार के साथ पूर्ण स्पष्ट रूप से साधु को निर्देश दिये गये हैं कि उसे किस-किस प्रकार के निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिये और किस-किस प्रकार के स्थान से सदा बचते रहना चाहिये । इन सब निर्देशों के साथ ही साथ गमनागमन की दूरियों के सम्बन्ध में, भाषा, पात्र, वस्त्र, अवग्रह एवं स्थान का परिसीमन, खड़े रहने के स्थान, मलोत्सर्गस्थान, शब्द के प्रति विरति, रूप के प्रति अनासक्ति, साधुओं की अहर्निश क्रियाएं, महावीर-चरित्र और पंच महाव्रतों की भावनामों का द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सम्यगरूपेण प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकार कौन यह पहले सप्रमारण बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण द्वादशांगी अर्थतः भगवान् महावीर की और शब्दतः गणधरों की कृति है । इसके साथ ही साथ समवायांग' पौर नन्दिसूत्र में जो पाचारांग का परिचय दिया गया है उसमें समान रूप से दोनों श्रु तस्कन्धों, अध्ययनों, उद्देशनकालों, समुद्दे शनकालों और पदसंख्या को प्राचारांग का अभिन्न स्वरूप मानते हुए स्पष्टरूपेण कहा गया है- "प्राचारांग अंग की अपेक्षा से प्रथम अंग है, इसमें दो श्रुतस्कन्ध, २५ अध्ययन, ८५ उद्देशनकाल और १८००० पद हैं।" यदि आचारांग सूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रर्थतः भगवान महावीर द्वारा कथित और शब्दतः गणधरों द्वारा प्रथित नहीं होता तो इसे प्रागमों के मूल पाठ में इस प्रकार आचारांग का अभिन्न अंग कदापि स्वीकार 'समवायांग (राय धनपतिसिंह द्वारा प्रकाशित), पत्र १६६ (१) २ नम्बी सूत्र (पू. पासीलालजी म.) पृ० ५४८ - Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग नहीं किया जाता। इस प्रकार की स्पष्ट एवं निर्विवाद स्थिति में इस तरह के किसी प्रश्न के लिये किंचित्मात्र भी अवकाश नहीं रहता कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकार कौन हैं। वस्तुतः मूल आगम में कहीं ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता जिससे स्वल्पमात्र भी ऐसा आभास होता हो कि आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध आचारांग का अभिन्न अंग न हो कर आचाराग्र, प्राचारांग का परिशिष्ट अथवा पश्चाद्वर्ती काल में जोड़ा हुअा भाग हो । ... ऐसी स्पष्ट स्थिति में यह प्रश्न कब और किस प्रकार उत्पन्न हुआ इस पर सभी दृष्टियों से समीचीनतया विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचारांग सूत्र की पदसंख्या के सम्बन्ध में विचार करते समय आचारांग-नियुक्तिकार ने सर्वप्रथम अपना यह अभिमत रखा कि समवायांग और नन्दी सूत्र में प्राचारांग का जो पद परिमारण १८००० पद बताया गया है- "वह केवल नवब्रह्मचर्याध्ययन नामक प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का ही पदपरिमारण है। पांच चूलिकाओं सहित प्राचारांग की पदसंख्या तो १८००० से बहुत अधिक और अधिकतर है।'' "१८,००० पदसंख्या प्राचारांग के केवल नव ब्रह्मचर्याध्ययनों की ही है न कि द्वितीय श्रुतस्कंध सहित प्राचारांग की"-अपनी इस आगमों. के उल्लेखों से विपरीत मान्यता की पुष्टि में न तो नियुक्तिकार ने किसी आगमिक आधार का ही उल्लेख किया है और न अपने किसी पूर्ववर्ती प्राचार्य के एतद्विषयक अभिमत . का ही। यही नहीं, उन्होंने आगम के उस मूलपाठ की प्रामाणिकता अथवा अप्रामाणिकता के सम्बन्ध में भी नियुक्ति में अपना कोई मन्तव्य अभिव्यक्त नहीं किया है जिसमें स्पष्ट रूप से एक चूलिका वाले प्राचांरांग की निम्नलिखित शब्दों में १८,००० पदसंख्या बताई गई है : "प्रायारस्स णं भगवनो सचूलिपागस्स अट्ठारसपयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताई।" यदि यह कहा जाय कि इस निर्णायक और अत्यधिक महत्वपूर्ण तथ्य पर नियुक्तिकार का मौन वस्तुतः उनके पक्ष की निर्बलता का बहुत बड़ा प्रमाण है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। संभवतः समवायांग के उपरोक्त सूत्र को ध्यान में रखते हुए हो प्राचार्य शीलांक ने प्राचारांग टीका में इस प्रश्न पर अपना कोई अभिमत व्यक्त नहीं किया है कि १८,००० पदप्रमाण केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का है अथवा दो श्रुतस्कन्धात्मक सम्पूर्ण प्राचारांग का । ___ नन्दीसूत्र के चूर्णिकार ने नियुक्तिकार की मान्यता का समर्थन करते हुए कहा है - "१८,००० पदसंख्या नवब्रह्मचर्याध्ययनरूप प्रथम श्रुतस्कन्ध की है, सूत्रों के अर्थ विविध-विचित्र होते हैं, गुरु के मुख से ही उनका अर्थ समझना चाहिये।" 'प्राचारांग नियुक्ति (१ श्रुतस्कंध), गाथा ११ २ समवायांग सूत्र, समवाय १८ . 3 अट्ठारस पयसहस्साणि पुरण पढमसुयक्खंघस्स, नवबंभचेरमइयस्स पमाणं विचित्तत्थाणि य सुताणि गुरूवएसमो तेसिं प्रत्यो जाणिप्रवो । [नंदी-बूरिण] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग ] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मां इस प्रकार नन्दी - चूरिंगकार ने भी कोई प्रागमिक अथवा अन्य आधार प्रस्तुत नहीं किया है कि किस आधार पर वे अपना यह मन्तव्य अभिव्यक्त कर रहे हैं । उपरोक्त सूत्र में प्रयुक्त "सचूलिग्रागस्स" - इस पद पर भी उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला है । नवांगी टीकाकार श्रभयदेव सूरि ने समवायांग सूत्र की समवाय संख्या १८ के उपरोक्त सूत्र की टीका में निर्मुक्तिकार की मान्यता का समर्थन करते हुए एक नवीन युक्ति भी प्रस्तुत की है- "चूलिकानों सहित आचार नामक प्रथम अंग की द्वितीय श्रुतस्कंधात्मिका पिण्डेषरणा आदि पांच चूलाएं हैं। वह प्रथम अंग आचार नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कंध स्वरूप ही है । उस ही का यह पदप्रमारण है न कि चूलाओं का । जैसा कि नियुक्तिकार ने कहा है divis नवभचेरमो, अट्ठारस पयसहस्सियो वेद्यो । हवइ य सपंच चूलो, बहु बहुतरम्रो पयग्गेणं ॥ ति । जो 'संचूलिकाकस्य' शब्द का इस सूत्र में प्रयोग किया गया है वह इस प्रथमांग का विशेषरण है और वह चूलिकाओं के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त किया गया है न कि चूलिकाओं का पदप्रमारण बताने के लिये ।" इसके पश्चात् उन्होंने नन्दी - टीकाकार ( चूर्णिकार) के उपरोक्त अभिमत को दोहराया है । ' केवल प्रथम श्रुतस्कंध को ही १८००० पदसंख्या वाला श्राचारांग तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध को पंचचलात्मक बता कर उसे आचारांग से भिन्न प्रचाराग्र अथवा आचारांग का परिशिष्ट सिद्ध करने की दृष्टि से "केवल चूलिकानों का अस्तित्व बताने के लिये विशेषरण के रूप में 'सचूलिकाकस्य' शब्द का प्रयोग इस सूत्र में किया गया है" - नवांगी टीकाकार द्वारा इस सूत्र का इस प्रकार का किया गया अर्थ साधारण से साधारण भाषाविद् को भी मान्य नहीं हो सकता । यदि आगमकार को इस सूत्र का इस प्रकार का अर्थ अभिप्रेत होता तो वे निश्चित रूप से "सलिकाकस्य" के स्थान पर इस सूत्र में "चूलिकावर्जस्य" शब्द का प्रयोग करते । पर न इस सूत्र की शब्द रचना को देखते हुए इस प्रकार का अर्थ किंवा जाना संभव है और न सूत्रकार का ही इस प्रकार का अभिप्राय था । आगमकार तो यही बताना चाहते थे कि चूलिकावाले आचारांग का पदपरिमाण १८,००५ पद हैं और उन्होंने अपने इस अभिप्राय को इस सरल सूत्र के माध्यम से स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर दिया - "आयारस्स गं भगवओो सचूलियागस्स अट्ठारस सहस्सारण पयग्गेणं पण्णत्ताइं ।” वांगी टीकाकार द्वारा प्रस्तुत की गई युक्ति के केवल कुछ ही अंश से हम साभार सहमत हैं । उपरोक्त सूत्र में “सचूलिश्रागस्स" शब्द का प्रयोग निश्चित रूप से दो श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग के विशेषरण के रूप में केवल उसकी एक १ समवायांग टीका ( प्रभयदेवसूरिकृता), राय धनपतिसिंह द्वारा प्रकाशित पत्र ५४ ( २ ) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [माचारांग चूलिका का अस्तित्व मात्र प्रकट करने के लिये ही किया गया है, इसका पदसंख्या से सीधा कोई संबन्ध नहीं। वस्तुतः यह एक तथ्य है कि प्राचारांग की उस एक चूलिका के पदों की संख्या को दो श्रुतस्कंधात्मक आचारांग की पदसंख्या में सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि वह आचारांग से प्रगाढ़रूपेण सम्बन्धित होते हुए भी पूर्व-ज्ञान का अंश होने के कारण पाचरांग से पूर्णतः पृथक् एवं भिन्न है। पागम में कहीं उल्लेख नहीं है कि प्राचारांग की पांच चूलिकाएं हैं। यह तो नियुक्तिकार की अपनी स्वयं की स्वतन्त्र कल्पना है। प्रागम द्वारा असमर्थित नियुक्तिकार की इस स्वकल्पित मान्यता से प्रभावित होने के कारण ही अभयदेव सूरि ने आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को पंचचूलात्मक माना है और अपनी इस पहले से ही बनी हुई धारणा के फलस्वरूप उन्होंने इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार किया है - "द्वितीय श्रुतस्कन्धरूपी पांच चूलाओं वाले प्रथम श्रुतस्कन्धात्मक प्राचारांग भगवान् के १८ हजार पद हैं।" यदि वे मूल आगम (समवायांग एवं नन्दी सूत्र) के द्वादशांगी परिचायक पाठ से प्रभावित होते तो इस सूत्र का अर्थ निम्नलिखित रूप में करते : "एक चूलिका वाले दो श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग भगवान् के १८,००० पद हैं।" यही अर्थ सही और संगत भी होता क्योंकि "पायारस्स भगवनो" - यह पद दो श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग का परिचायक है न कि एक श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग का। और प्राचारप्राभूत आचारांग की एक ऐसी चूला है जिसकी पदसंख्या आचारांग की पदसंख्या में न कभी सम्मिलित थी और न है। ___"सूत्रों के अर्थ विचित्र और गूढार्थ भरे होते हैं, गुरु के उपदेश से ही उनके अर्थ को समझना चाहिये"-इस प्रकार की उक्ति का अवलम्बन लेकर मूल आगम के पाठ की तुलना में नियुक्तिकार के अभिमत को प्रश्रय देते हुए केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही १८००० पदवाला पूर्ण प्राचारांग तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध को उसका पंचचूलात्मक आचाराग्र अथवा परिशिष्ट मात्र बताते समय टीकाकार के पास निर्यक्ति के अतिरिक्त और क्या प्राधार था, यह विचारणीय होते हुए भी स्पष्ट है। केवल इस सूत्र में ही नहीं इस सूत्र से आगे कोटाकोटि समवाय के पश्चात् प्रागमों का परिचय देते हुए समवायांग में और नन्दी सूत्र में जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि प्राचारांग में दो श्रुतस्कन्ध, २१ अध्ययन. ८५ उद्देशनकाल और ८५ समुद्देशनकाल हैं तथा उसकी पदसंख्या १८,००० है। दोनों श्रुतस्कन्धात्मक प्राचारांग के १८ हजार पद हैं - इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख पागम के मूल पाठों में दो स्थान पर किये जाने के उपरान्त भी "विचित्तत्थागि य मुत्तागि" इस पद का अवलम्बन लेकर.महजसुगम स्पष्ट सूत्रों का अर्थ इस प्रकार बदलने की प्रक्रिया को यदि मान्य किया जाने लगे तो निश्चित रूप से इसका परिणाम अन्ततोगत्वा बड़ा भयावह होगा। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ पाचारांग केवलिकाल : मार्य सुधर्मा प्राचारांग की ही तरह दो श्रुतस्कन्ध वाले अन्य भी पागम हैं पर उनके सम्बन्ध में प्रथम श्रतस्कन्ध से द्वितीय श्रतस्कन्ध की पथक पदसंख्या की इस प्रकार की मान्यता को कहीं नहीं अपनाया गया है। सूत्रकृतांग, ज्ञातृधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण और विपाक-इन चारों अंगों के पदपरिमाण प्रत्येक के दोनों श्रुतस्कन्धों को मिला कर ही माने गये हैं। ऐसी स्थिति में केवल प्राचारांग के दोनों श्रतस्कंधों का पदपरिमारण पृथक-पृथक बताते हुए केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध काही पदपरिमारण १८,००० पद किस कारण माना है, यह समझ में नहीं. पाता । इसका स्पष्टीकरण न नियुक्तिकार ने किया है, न चूरिणकार ने अथवा किसी वृत्तिकार ने और न इसका कोई प्राधार कहीं खोजने पर उपलब्ध ही होता है। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ धवला और अंगपण्णत्ती में भी प्राचारांग की पदसंख्या १८,००० मानी गई है तथा उन ग्रन्थों में प्राचारांग के विषयों का जो परिचय दिया गया है वहः आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में प्रतिपादित विषयों से प्रायः पूरी तरह मिलता-जुलता है। इन सब तथ्यों पर गम्भीरता और निष्पक्षतापूर्वक विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि आगमों के मूल पाठ में दो श्रुतस्कन्ध और २५ अध्ययनात्मक सम्पूर्ण प्राचारांग की जो १८,००० पदसंख्या बताई गई है वही पूर्णरूपेरण, सही, प्रामाणिक और मान्य हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आगम सर्वोपरि है और नियुक्तियों, चूणियों और टीकामों की तुलना में निश्चित रूप से सर्वतः सर्वाधिक प्रामाणिक भी। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) तथा टीकाकार आचार्य अभयदेव और चूर्णिकार जैसे प्रागमनिष्णात, एवं विद्वान् परमषियों ने आगम के उल्लेख से भिन्न इस प्रकार की मान्यता आखिरकार क्यों अभिव्यक्त की ? दयोंकि उन्होंने इसका कोई प्राधार या कारण अपनी रचनाओं में नहीं लिखा है इसलिये निश्चित रूप से तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता किन्तु ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह एक ऐसा जटिल प्रश्न है जो शताब्दियों से विचारकों के मस्तिष्क में अनेक प्रकार की कल्पनाओं और ऊहापोहों का जनक बना हुआ है। इस प्रश्न का समीचीनतया समाधान न हो पाने के कारण ही आगमिक इतिहासविदों के समक्ष अाज भी एक उलझन भरी ऐतिहासिक गुत्थी अनबुझी पहेली का रूप धारण किये उपस्थित है। वह जटिल ऐतिहासिक गुत्थी यह है कि - प्राचारांग के पदपरिमाण विषयक प्रश्न को हल करने के प्रयास में सर्वप्रथम नियुक्तिकार ने और तदनन्तर नियुक्तिकार का अनुसरण करते हुए चूरिणकार, टीकाकार और वृत्तिकार आदि ने बिना किसी प्रामाणिक आधार के अपनी एक ऐसी मान्यता अभिव्यक्त कर दी जो आगम के उल्लेखों से विपरीत है । नियुक्तिकार, वृत्तिकार आदि ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि गणधर कृत प्राचारांग तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक ही है और केवल उसी का पदपरिमारण १८,००० पद है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचारांग नहीं अपितु स्थविरकृत आचाराग्र Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांगहै जिसमें नवब्रह्मचर्याध्ययनों में संक्षेपतः उल्लिखित तथ्यों का विशद व्याख्यात्मक विवेचन मात्र है। केवल यही नहीं उन्होंने अपनी मोर से यह मान्यता भी प्रकट की है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध ५ चूलाओं में विभक्त है। इसकी पदसंख्या प्रथम श्रुतस्कन्ध से अधिक और अधिकतर है ।' - नियुक्तिकार प्रादि के आगमों से भिन्न इस अभिमत का अनुकरण करते हुए हरमन जैकोबी आदि प्राधुनिक विद्वान् विचारकों ने भी अपना यह मन्तव्य प्रकट किया है कि भाषा एवं शैली की दृष्टि से प्राचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्रति प्राचीन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध उससे पश्चाद्वर्ती काल की रचना है।' पद-प्रमाण सम्बन्धी नियुक्ति की मान्यता को मूल पागम के उल्लेखों से बाधित तथा प्राधारविहीन सिद्ध करते हुए ऊपर यह सप्रमाण बताया जा चुका है कि आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों का पदपरिमाण १८,००० पद है न कि केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध का। आचारांग की पदसंख्या के प्रश्न को हल करने के प्रयास में ही नियुक्तिकार तथा वृत्तिकारों ने इसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थविरकृत पंचचूलात्मक प्राचाराग्र माना। इस कारण ये दोनों प्रश्न परस्पर संपृक्त हैं अतः द्वितीय श्रुतस्कन्ध की मौलिकता के सम्बन्ध में विचार करने से पूर्व यह देखना परमावश्यक है कि यह पदसंख्या का प्रश्न किस कारण उत्पन्न हुआ। । एतद्विषयक सभी तथ्यों का समीचीनतया पर्यालोचन करने के पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि निशीथ को आचारांग की पांचवीं चूला मानने और उसके पश्चात् उसे आचारांग से पृथक किया जाकर स्वतन्त्र छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की मान्यता के कारण पदसंख्या विषयक मतभेद और उसके फलस्वरूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्राचारांग से भिन्न उसका परिशिष्ट अथवा प्राचाराग्र मानने की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। समवायांग सूत्र की समवाय संख्या १८ में आये हुए "चूलिकासहित आचारांग भगवान् के १८,००० पद है।" इस उल्लेख के कारण अधिकांशतः जनमानस में यही धारणा बनी हुई थी कि चूलिका सहित प्राचाराग की पदसंख्या १८,००० है। समवायांग की समवाय संख्या २५ में प्राचारांग के २५ अध्ययनों के नाम दो गाथानों में गिना चुकने और गाथाओं की परिसमाप्ति के पश्चात् "निसीहज्झयणं पणवीस इम" - इस 'प्राचारांग नियुक्ति (प्रथम श्रु० स्कन्ध), गा० ११ तथा आचा० नि० (२ श्रृं० स्कंध), गा० २ से ७ 8. The Acharaoga Sutra contains two books, or Srutskandhas, very different from each other in style and in the manner in which the subject is treated. The subdivisions of the second book being called Chulas (चूलाज), or appendices, it follows that only the first book is really old.. The first book, then, is the oldest part of the Acbaranga Sutra; it is probably the old Acharanga itself to which other treatises have been added. [Sacred Book of the East, Vol. 22, Introduction; P. 47, - By Hermann Jacobi]. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. माचारोग ] . केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा प्रकार के विवादास्पद पाठ को देखकर और समवाय संख्या ५७ में "प्रायारचूलियावज्जाणं" इस पद के द्वारा पाचारांग के २५ अध्ययनों में से एक अध्ययन के चूलिकास्वरूप होने तथा प्राचारांग के अध्ययनों से पृथक रखने के संकेत से यह अनुमान लगा लिया गया कि निशीथ प्राचारांग की चूलिका के रूप में जब विद्यमान था उस समय आचारांग की पदसंख्या १८,००० थी और जब निशीथ को प्राचारांग से पृथक किया जाकर छेदसूत्र के रूप में उसकी प्रतिष्ठापना हो चुकी है तो उस दशा में स्वतः ही प्राचारांग की पदसंख्या १८,००० से कम हो गई। वस्तुतः प्राचारांग की ५ तो क्या एक भी ऐसी चूलिका नहीं थी जो याचारांग का अभिन्न अंग हो और उसके पदों की संख्या की गणना पाचारांग की पदसंख्या में सम्मिलित मानी गई हो। इस ओर न तो नियुक्तिकार का ही ध्यान गया और न वृत्तिकार, चूणिकार अथवा डॉ० हर्मन जैकोबी का ही। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने अपने इस अभिमत के समर्थन में जो युक्तियां दी हैं उनको देखने से स्पष्टतः यह प्रकट होता है कि वे नियुक्तिकार, वृत्तिकार तथा टीकाकार के विचारों से और विशेषतः आचारांग चूर्णिकार द्वारा प्रारम्भ में प्रस्तुत मंगल प्रकरण से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं जिसमें चूर्णिकार ने प्रथम श्रुतस्कन्ध के"सुयं में पाउसं तेणं भगवया एवमक्खायं" इस प्रथम सूत्र को आदिमंगल तथा "से बेमि जे य अतीता अरहंता भगवंता" एवं “से बेमि से जहा विहरे"- इन मध्यवर्ती सूत्रों को मध्यमंगल और "अभिनिव्वूडे अमाई य" -प्रथम श्रुतस्कन्ध के इस अंतिम पद को अंत-मंगल बताते हुए केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही परिपूर्ण प्राचारांग मानने विषक अपना अभिमत व्यक्त किया है ! तथ्यों पर गहराई से विचार करने पर उपरोक्त सभी विद्वानों की मान्यता प्रमाण के स्थान पर केवल कल्पना पर आधारित नितान्त निराधार धारणा ही सिद्ध होती है। वस्तुतः आगमों के रचनाकाल में प्राचारांग की एक भी ऐसी चूला विद्यमान नहीं थी जिसे प्राचारांग का अभिन्न अंग मानकर उसके कलेवर की प्राचारांग के १८,००० पदपरिमारण में गणना की गई हो। इसका प्रबल प्रमाण आगम का मूल पाठ है। यह पहले बताया जा चुका है कि समवायांग और नन्दी सूत्र में जो द्वादशांगी का सर्वांगपूर्ण परिचय दिया है उसमें प्राचारांग का स्वरूपदो श्रुतस्कन्ध, २५ अध्ययन, ८५ उद्देशनकाल, ८५ समुद्देशनकाल और १८,००० पदयुक्त बताया गया है। उपरोक्त दो सूत्रों के अतिरिक्त अन्य किसी पागम में द्वादशांगी का इतना विस्तृत परिचय नहीं मिलता। ____ द्वादशांगी के इस परिचय में बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के तृतीय भेद 'पर्वगत' के १४ पूर्वो में से आदि के चार पूर्वो को छोड़ कर शेष किसी भी अंग की चलिकाओं का अस्तित्व नहीं बताया गया है। जहां द्वादशांगी के परिचय में . चत्तारि दुवालस, अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्यूणि । पाइल्लाग चउण्हं, सेसारणं चूलिया नत्थि ।। [नन्दीमूत्र (द्वादशांगी प्रकरण)] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाचारांग प्रत्येक अंग के श्रुतस्कन्धों, अध्ययनों, उद्देशकों, पदों एवं अक्षरों तक की संख्या बताई गई है और प्रथम चार पूर्वो की चूलिकाओं तथा उनकी संख्या का उल्लेख किया गया है वहां प्राचारांग की चूलिका के सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख महोना इस बात का स्वतःसिद्ध प्रमाण है कि वस्तुतः प्राचारांग की एक भी चूलिका नहीं थी। द्वादशांगी के इस परिचय से यह प्रमाणित होता है कि दृष्टिवाद के उपरोक्त चार पूर्वो को छोड़ कर अन्य किसी भी अंग की एक भी चूलिका नहीं थी। चूलिकामों की वस्तुतः एकादशांगी के लिये आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि दृष्टिवाद में एकादशांगी के प्रत्येक अंग से सम्बन्धित, उनमें उक्त, अनुक्त एवं संक्षेपतः उक्त सभी विषयों का बड़े विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया था।' तदनुसार जहां प्राचारांग में प्राचार-धर्म (साध्वाचार) के विधिमार्ग का प्रतिपादन किया गया है वहां नवम पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभूत में साध्वाचार के अपवादों और उनकी शुद्धि हेतु सम्पूर्ण विधि-विधानों का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया था। चतुर्दश पूर्व जब तक विच्छिन्न नहीं हुए तब तक उपरोक्त वीसवां प्राभूत प्राचारांग का अभिन्न अंग नहीं होते हुए भी आचारसुमेरु के शिखर (चूला) के रूप में प्राचारांग का सहायक अथवा पूरक माना जाता रहा। कालान्तर में कालदोषजन्य बुद्धिमान्ध के कारण पूर्वज्ञान क्षीण होने लगा और पूर्वधर प्राचार्यों ने शानबल से यह देखा कि सन्निकट काल में ही पूर्वो का ज्ञान विच्छिन्न होने वाला है तो विशाख नाम के प्राचार्य ने प्रत्याख्यान-पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभृत से सारभूत अंशों को उद्धत कर 'प्राचार प्रकल्प' अर्थात् निशीथ का निष्पादन किया और उसे छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया। पूर्वज्ञान ' पाटलीपुत्र में हुई प्रथम मंगवाचना के समय एकादशांगी के पाठों को व्यवस्थित करने के पश्चात् जब वहां उपस्थित स्थविरों को यह विदित हा कि 'दृष्टिवाद' उनमें से किसी श्रमण के स्मृतिपटल पर अंकित नहीं है तो उन्होंने खिन्न हो जो शोकोद्गार प्रकट किये उन्हें "तित्थोगालिय पइन्ना" में निम्नलिखित रूप से प्रकट किया गया है : ते विति सव्वसारस्स दिठिवायस्स नत्थि पडिसारो। कह पुन्वगएण बिणा, पवयणासारं घरेहामो । अर्थात् जब उन्हें विदित हुआ कि परम सारभूत दृष्टिवाद उनमें से किसी की स्मृति में नहीं रहा है तो उन्होंने खिन्न हो परस्पर एक दूसरे से पूछा - "अरे ! अब हम लोग पूर्वज्ञान के बिना प्रवचन के सार को किस प्रकार धारण करेंगे ?" इस गाथा से प्रकट होता है कि दृष्टिवाद में प्रत्येक अंगशास्त्र के सम्बन्ध में परमोपयोगी तथ्यों का प्रतिपादन किया गया था। -सम्पादक २ दंसरण चरित्तजुत्तो, गुत्तो गुत्तीसु (परि) संझणहिए । नामेगा विसाहगगी, महत्तरो गारगमंजुसी ।। तस्स लिहियं निस्साहिं धम्मधुराधरणे पवर पुज्जस्स । [हस्तलिखित निशीथ की कुछ प्रतियों की प्रशस्ति] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचारांग ] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा के विच्छिन्न हो जाने के पश्चात् भी परंपरागत धारणा के अनुसार पूर्वगत से उद्धृत होने की स्थिति में भी निशीथ को पानासंग की तूला ही माना जाता रहा । जिस प्रकार गंगा के जल को यमुना जल और यमुना के जल को गंगाजल नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार आचारांग और निशीथ को एक नहीं माना जा सकता। क्योंकि दोनों का परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध होने के उपरान्त भी प्राचारांग श्रुत-गंगा की एकादशांगी रूप एक धारा का जल है तो निशीथ चतुर्दश पूर्व रूपी दूसरो धारा का जल । स्वयं नियुक्तिकार ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि प्राचारप्रकल्प (निशीथ) प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के आचार नामक बीसवें प्राभूत से निव्यूंढ किया गया है।' उपरिलिखित तथ्यों से यह निस्संदिग्धरूपेण सिद्ध हो जाता है कि प्राचारांग की अभिन्न अंग के रूप में कोई चूला न तो पूर्वकाल में कभी थी और न वर्तमान में ही है। इसका प्रबल प्रमाण है समकायांग और नन्दी सूत्र में उल्लिखित द्वादाशांगी का परिचय जिसमें कि आचारांग की किसी चूला के अस्तित्व का संकेत तक नहीं किया गया है। प्राचारांग की अभिन्न अंग के रूप में चूलिका का अस्तित्व न होते हुए भी अपवाद की स्थिति में साध्वाचार में लगे अतिचारों के विशुद्धिकरण की दृष्टि से पूर्वकाल में प्रचारप्राभूत को और पश्चाद्वर्तीकाल में उसी के सारभूत स्वरूप निशीथ को परमावश्यक समझ कर आचारांग की वस्तुतः चूला न होते हुए भी चूला माना जाता रहा। यही कारण है कि. समवायांग सूत्र की समवाय संख्या १८, २५ ओर ८५ में "प्रायारस्स भगवो सचूलियागस्स" - इस पद के द्वारा एक चूलिका की सत्ता का संकेत किया गया। यहां संकेत शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि मूल आगम में उस चूलिका के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है। समवाय संख्या ५७ में जो-"प्रायारचूलावज्जाणं" इस पद के प्रयोग से सूत्रकृतांग के २३, स्थानांग के १० और प्राचारांग के २५ अध्ययनों में से चूलिकात्मक एक अध्ययन को छोड़ कर शेष २४ को मिला कर प्रथम के तीन अंगों के ५७ अध्ययन बताये गये हैं। इस सूत्र में प्राचारांग का २५ वां अध्ययन चलात्मक बताया गया है पर समवायांगसूत्र को समवाय संख्या २५ में प्राचारांग के प्रथम अध्ययन "शस्त्रपरिज्ञा से लेकर विमुक्ति नामक २५वें अध्ययन तक के २५ नामों का उल्लेख करने के पश्चात् "निसीहं परणवीसइम" इस प्रकार का पद देकर निशीथ को आचारांग का २५वां अध्ययन बताया गया है। २५वीं समवाय में जो प्राचारांग के २५ अध्ययनों के नाम गिनाये गये हैं उन्हीं नामों के २५ अध्ययन वर्तमान काल में प्राचारांग में विद्यमान हैं। ऐसी स्थिति में जो ५७वें समवाय ' प्रायारपकप्पोउ, पच्चखाणस्स तइयवत्यूप्रो। पायारणामधेज्जा, विसइमा पाहुडच्छेया ।। [प्राचारांग-नियुक्ति, श्रु० २] २ तिण्हं गरिणपिडगाणं प्रायारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा प्रायारे सूयगड़े ठाणे। [समवायांग, समवाय ५७] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ आचारांग में २५ वें अध्ययन को चूलिकास्वरूप और २५वीं समवाय में विमुक्ति अध्ययन को प्राचारांग का पच्चीसवां अध्ययन बताने के पश्चात् जो निशीथ को भी २५वां अध्ययन बताया गया है, इसका वास्तविक अर्थ क्या है, इसमें किसी लिपिकार की भूल है अथवा संकलनाकाल में इन दोनों सूत्रों के पाठ में किसी प्रकार की भूल हुई है यह तो अतिशय ज्ञानी ही बता सकते हैं पर इस प्रकार के पाठों से यह अवश्य प्रकट होता है कि नवम पूर्व की तृतीय वस्तु के प्रचार नामक बीसवें प्राभृत को आचारांग का अंग न होते हुए भी परमावश्यक होने के कारण जो आचारांग की चूला माना गया है उसके प्रस्तुतीकरण ( Interpretation) को लेकर मान्यता-भेद उत्पन्न हो गया था । अब हमें निष्पक्ष दृष्टि से यह देखना है कि निशीथ वस्तुतः श्राचारांग का ही अंग है अथवा उससे पूर्णतः पृथक् । इस सम्बन्ध में आगम और आगम से सम्बद्ध इतर साहित्य के पर्यालोचन से यह प्रकट होता है कि निशीथ आचारप्रकल्प अथवा प्रकल्प का ही दूसरा नाम है । ये तीनों शब्द समानार्थक और एक दूसरे के पर्यायवाची हैं । . स्थानांग और समवायांग ? में श्राचार प्रकल्प के क्रमशः ५ और २८ भेदों का निरूपण करते हुए जो नाम दिये हैं उनसे यह प्रकट होता है कि प्रचारप्रकल्प और श्राचारांग इन दोनों की विषयवस्तु विभिन्न होने के कारण ये दोनों अपनाअपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी आचारप्रकल्प २८ प्रकार का बताया गया है। आवश्यक वृहद्वृत्ति में २८ प्रकार का आचार प्रकल्प बताते हुए २५ नाम तो वही गिनाये गये हैं जो कि आचारांग के २५ अध्ययनों के हैं । इन पच्चीस के साथ निशीथ के तीन भेद जोड़कर २८ प्रकार के प्रचारप्रकल्प की संख्या पूरी की गई है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रचारप्रकल्प आचारांग का अभिन्न अंग नहीं अपितु इससे भिन्न है । १ पचविहे प्रायारकप्पे पं० तं मासिए उग्धाइए मासिए प्रणुग्धाइए, चउमासिए उग्धाइए, मासिए अणुधाइए, प्रारोवरणा ॥ [ स्थानांग, ठाणा ५ ] २ अट्ठावीसविहे प्रायारकप्पे पं० तं० मासिया श्रारोवरणा (१) अक सिरा आरोवणा ( २८ ) [समवायांग, सम० २८ ] [ प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार ५ ] 3 अट्ठावीसा प्रायारकप्पा | ४ सत्यपरिन्दा लोगविजओ सिप्रोसणिज्जं संमत्तं । आवंति घुम विमोहो, उवहारणसुत्रं महपरिन्ना ॥ ५१ पिडेसर सिज्जिरिज्जा, भासज्जाया य वत्थपाएसा । उग्गहपडिमा सत्तिक्कसत्तयं भावरण विमुत्ति ।। ५२ उग्धायमणुग्धायं आरोवरण तिविमो निसीहं तु । इति अट्ठावीसविहो, आयरपकप्पनामोयं ॥ ५३ [ आवश्यक वृहद्वृत्ति, प्र० ३ ] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचारांग ] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा १०१ . व्यवहारकल्प' और पंचकल्पभाष्य में भी आचारांग-नियुक्तिकार को तरह प्राचारप्रकल्प को नवम पूर्व से नियंढ माना गया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्राचारप्रकल्प (निशीथ) आचारांग का अंग नहीं अपितु अपना पृथक अस्तित्व रखता है। ___ "धर्म प्रकरण" में "प्राचारप्रकल्प" शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है :- "प्राचार आचारांगम्, प्रकल्पो निशीथाध्ययनम्-तस्यैव पंचमचूला, आचारेण सहितः प्रकल्प प्राचारप्रकल्पः निशीथाध्ययनसहिते पाचारांगे। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि ने समवायांग-टीका में 'प्राचारप्रकल्प' शब्द का दो प्रकार से अर्थ करते हुए लिखा है- "प्राचारः प्रथमांगस्तस्य प्रकल्पोऽध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधानस्य, वा साध्वाचारस्य ज्ञानादि विषयस्य प्रकल्पोऽध्यवसायमित्याचारप्रकल्पः ।" उपरोक्त व्याख्यानों में दोनों टीकाकारों ने प्राचार शब्द का प्राचारांग पौर प्रकल्प का अर्थ निशीथाध्ययन किया है, इससे भी दोनों का एक दूसरे से पार्थक्य तो सिद्ध होता ही है। नियुक्तिकार के अभिमत से प्रभावित होकर उन्होंने निशीथ को आचारांग का अध्ययनविशेष अथवा पांचवीं चूला लिख दिया है पर जो २८ प्रकार का प्राचारप्रकल्प ऊपर बताया गया है उससे भी निशीथ के आचारांग का अध्ययन होने की संगति बिल्कुल नहीं बैठती। क्योंकि २८ प्रकार के प्राचारप्रकल्प में शस्त्रपरिज्ञा से लेकर विमुक्ति तक के आचारांग के २५ अध्ययन और उग्धाइये, अणुग्धाइये और आरोवणा- ये निशीथ के तीन प्रकार - इस तरह कुल मिलाकर २८ भेद गिना दिये गये हैं अतः निशीथ की प्राचारांग के २५ अध्ययनों में किसी भी तरह गणना नहीं की जा सकती। आगम में आचारांग के २५ अध्ययन होने का उल्लेख है न कि २६ का। ऐसी दशा में यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि प्राचारांग से प्राचारप्रकल्प अर्थात् निशीथ सदा से पृथक् ही माना जाता रहा है। आचारांग और निशीथ के पृथक्-पृथक् और भिन्न-भिन्न होने का एक सबसे अधिक सशक्त और, अकाट्य प्रमाण यह है कि प्राचारांग कहीं से नियंढ नहीं है, उद्धृत नहीं है जब कि निशीथ को नियुक्तिकार, वृत्तिकार, चुरिणकार आदि सभी विद्वान् एकमत हो नवम पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभृत. से उद्धत अथवा निव्यूंढ मानते हैं। ऐसी स्थिति में निशीथ को प्राचारांग का अध्ययन अथवा अंग नहीं माना जा सकता। हां, साध्वाचार के लिये परमोपयोगी होने के कारण इसे पाचारांग की चूला माना जा सकता है, वह भी पांचवीं नहीं अपितु पहली और अंतिम अर्थात् एक मात्र । 'मायारपकप्पो उ नवमे पुष्वंमि भासि सोषीय । तत्तोम्वि य निज्जूढो. इहारिणयतो किं न सरिभवे ॥ [व्यवहारकल्प] २ मायारदसाकप्पो ववहारो नवमपुव्वाणिसंदा चारित्तरक्खणट्ठा सुयकडस्सुवरिठविताई... [पंचकल्पभाष्य' Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ आचारांग उपरोक्त सभी तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक मनन के पश्चात् सिद्ध हो जाता है कि वस्तुतः आचारांग की ऐसी एक भी चूला नहीं थी और न है, जिसकी कि गणना श्राचारांग के दो श्रुतस्कन्धों, २५ अध्ययनों, ८५ उद्देशकों अथवा सम्पूर्ण आचारांग के १८००० पदों में सम्मिलित की जा सके । प्रारम्भ से प्रचारप्राभृत, अपर नाम आचारप्रकल्प, प्रकल्प अथवा निशीथ जो कि पूर्वज्ञान का अंश है, आचारांग की ऐसी चूला माना जाता रहा है जिसकी पदसंख्या आचारांग की पदसंख्या में सम्मिलित नहीं मानी जाती । १०२ इस प्रकार आगमों में उपलब्ध आचारांग की चूलिका से सम्बन्धित उल्लेखों के पर्यवेक्षण से जो स्थिति स्पष्टतः प्रकट होती है वह इस प्रकार है: १. समवायांग और नन्दीसूत्र में श्रागमों के परिचय के प्रकरण में जो आचारांग का परिचय दिया गया है उसमें आचारांग की एक भी चूलिका के अस्तित्व का उल्लेख नहीं किया गया है । उसमें यह स्पष्ट उल्लेख है कि दो श्रुतस्कन्ध, २५ अध्ययन, ८५ उद्देशन काल तथा ८५ समुद्देशनकाल वाले प्राचारांग की पदसंख्या १८००० है । २. पूरे नन्दी सूत्र में एक भी ऐसा उल्लेख नहीं है जिससे कि श्राचारांग की एक भी चूलिका का अस्तित्व प्रकट होता हो । ३. समवायांग की समवाय संख्या १८, २५ और ६५ में आचारांग की चूलिका के अस्तित्व का उल्लेख अवश्य है । उसके अतिरिक्त चूलिका के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया गया है । समवाय संख्या २५ में शस्त्रपरिज्ञा से प्रारम्भ कर २५वें विमुक्ति नामक अध्ययन तक आचारांग के पच्चीसों अध्ययनों के नामों का उल्लेख करने के पश्चात् सन्देहास्पद स्थिति में जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है - "निसीहं परणवीस इमं " - अर्थात् पच्चीसवां अध्ययन निशीथ । ४. समवाय संख्या ५७ मे "प्रायारचूलावज्जारणं" अर्थात् "आचार चूला को छोड़कर " - इस उल्लेख के साथ श्राचारांग के २५ अध्ययनों में से प्रचारवूला स्वरूप एक अध्ययन को छोड़कर शेष २४ अध्ययनों के साथ सूत्रकृतांग के २३ और स्थानांग के १० अध्ययनों को मिलाकर प्रथम तीन अंगों के अध्ययनों की संख्या ५७ बताई गई है। इस समवाय में भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि आचार-चूला आचारांग का कौनसा अध्ययन है । यह ध्यान देने योग्य बात है कि आचारांग के जिन २५ अध्ययनों के नाम समवाय संख्या २५ में उल्लिखित किये गये हैं वे पच्चीसों ही अध्ययन उन्हीं नामों के साथ आचारांग में आज भी विद्यमान हैं । ५. संभव है समवाय सं० २५ और ५७ में परिलक्षित होने वाली चूलिकाविषयक संदेहास्पद स्थिति ही पदसंख्याविषयक, चूलिकाविषयक और आचारांग के 'द्वतीय तस्कन्धको आचारांग से भिन्न प्रचारांग की चूलिकाएं - प्राचाराय एवं Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग ] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा १०३ प्राचारांग का परिशिष्ट मात्र मानने विषयक और निशीथ को आचारांग की चूलिका मानने विषयक विवादों की जननी हो । ६. आचारांग की चूलिका के सम्बन्ध में उपरोक्त उल्लेखों के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार का उल्लेख आगमों में दृष्टिगोचर नहीं होता। ७. आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पंच चूलात्मक होने अथवा प्राचारांग से भिन्न प्राचाराग्र, चूलिकास्वरूप, अथवा परिशिष्टमात्र होने का आगम में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। ८. मूल आगम में कहीं एक भी ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता जिससे यह प्रकट होता हो कि आचारांग के केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध की पदसंख्या १८००० है। 8. समवाय संख्या २५ में निशीथ विषयक संदिग्ध पाठ और समवाय संख्या ५७ में "पायारचूलावज्जारणं" इस पद द्वारा आचारांग के २५ अध्ययनों में से १ अध्ययन को प्राचारचूला मान कर उसे अध्ययनों की गणना में न रखने विषयक पाठ संभवतः चूलिका के स्वरूप के प्रस्तुतीकरण (Interpretation) में किसी प्रकार की भ्रान्ति के प्रतिफल हों। १०. द्वादशांगी के रचनाकाल में प्राचारांग के जो २५ अध्ययन थे उनमें से महापरिज्ञा सातवां अध्ययन विलुप्त हो चुका है और शेष २४ अध्ययन आज भी आचारांग में विद्यमान हैं। ११. आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध को ही गणधरकृत मानते हए नियुक्तिकार ने आचारांग के द्वितीय श्रतस्कन्ध को जो स्थविरकृत और आचारांग से भिन्न पंचचूलात्मक प्राचारान सिद्ध करने की मान्यता प्रकट की है वह मूल प्रागम की भावना से विपरीत और आगमिक आधारविहीन होने के कारण काल्पनिक अमान्य मान्यताओं की कोटि में परिगणित की जा सकती है। १२. आगम में जिन-जिन स्थलों पर दो श्रुतस्कन्धों, २५ अध्ययनों, ८५ उद्देशनकालों, ८५ समुद्देशनकालों और १८ हजार पदों से युक्त स्वरूप वाले प्राचारांग को उद्दिष्ट कर के कोई भी बात कही गई है, केवल उन्हीं स्थलों पर "पायारस्स भगवायो", "से कि पायारे" और "पायारे" इन पदों का प्रयोग किया गया है। और जहां केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध को लक्ष्य कर कोई बात कही गई है वहां इन पदों में से किसी भी पद का प्रयोग न किया जाकर "नवण्हं बंभचेरःणं" अर्थात् "नवब्रह्मचर्याध्ययनों का" - इस पद का प्रयोग किया गया है। . उपरोक्त प्रमाणों से यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार सम्पूर्ण द्वादशांगी अर्थतः तीर्थंकरप्रणीत और शब्दतः गणधरों द्वारा ग्रथित है ' (क) नंदी एवं समवायांग के द्वादशांगी परिचय प्रकरण । . (ख) समवायांग, सम० १८, २५ और ८५ २ नवण्हं बंभचेराणं एकावन्न उद्देसणकाला पण्णत्ता। [समवायांग, सम० ५१] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [ प्राचारांग उसी प्रकार आचारांग का द्वितीय श्रतस्कन्ध भी द्वादशांगी का अभिन्न अंग होने के कारण अर्थतः तीर्थकरप्रणीत और शब्दतः गरगधरों द्वारा ग्रथित है । उपयुल्लिखित प्रमाणों के अतिरिक्त अन्य आगमों में भी इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध हैं जिनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है । "प्रश्नव्याकरण सूत्र" में जिस स्थल पर यह विवेचन आया है कि अमुकअमुक प्रकार का सावद्य आहार ग्रहण करना साधु को नहीं कल्पता, वहां शिष्य ने प्रश्न किया है- "तो फिर किस प्रकार का आहार ग्रहण करना कल्पता है ?" इस प्रश्न के उत्तर में आचारांग के दशवें, तदनुसार द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पहले पिण्डपात अध्ययन का उल्लेख करते हुए बताया गया है - “ 'पिण्डपात' अध्ययन के ११ उद्देशकों में जो आहार ग्रहण करने की निर्दोष विधि बताई गई है उसके अनुसार साधु को प्राहार ग्रहण करना चाहिये।'' “स्थानांग सूत्र" चतुर्थ स्थान में प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के शय्या, वस्त्रैषणा, आदि चार अध्यायनों में वर्णित विषयों का तथा सातवें स्थानक में प्राचारांग - द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात सप्तैकका अध्ययनों तथा पिण्डेषण आदि का उल्लेख किया गया है । 'दशवकालिक सूत्र' का 'छज्जीवणिकाय' नामक चौथा अध्ययन प्राचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक पन्द्रहवें अध्ययन के आधार पर निर्मित किया गया है । दशवकालिक का 'पिण्डैषणा' नामक पांचवां अध्ययन तो वस्तुतः प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'पिण्डेषणा' नामक प्रथम अध्ययन का सुगठित रूपान्तर है। दोनों प्रागमों के इन अध्ययनों का नामसाम्य और विषयसाम्य इस तथ्य के सबल साक्षी हैं कि दशवैकालिक के संकलयिता अथवा निर्माता - प्राचार्य सय्यंभव (भ० महावीर के चतुर्थ पट्टधर) के समक्ष आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध विद्यमान था। इसी प्रकार दशवकालिक सूत्र का 'सुवक्कसुद्धी' नामक सातवां अध्ययन भी प्राचारांग - द्वितीय श्रृतस्कन्ध के 'भाषेषणा' नामक चतुर्थ अध्ययन का पद्यानुवाद प्रतीत होता है । अल्पायुष्क मणकमुनि के हित को दृष्टि में रखते हुए आचारांग के द्वितीय श्रुत अथवा पूर्वो के आधार पर प्रा० सय्यंम्भव ने “दशवकालिक सूत्र" का ग्रथन किया अतः वह प्राचाय सय्यंभव की रचना माना जाता है। नियुक्तिकार के कथनानुसार यदि शिष्यों के हित के लिए किसी स्थविर ने आचारांग के द्वितीय ' अह केरिसयं पुणाइ कप्पइ ? जं तं इक्कारस पिंडवायसुद्धं ....... [प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार ५] २ चत्तारि सेज्जापडिमाग्रो प० चत्तारि वत्थपडिमानो प० चत्तारि पायपडिमाग्रो प० . चत्तारि ठाणपडिमाग्रो प० ।।४२४।। [स्थानांग, ठा० ४।३] ३ मत्त पिडेमग्गाग्रो प० ६६३। सत्त पागोसणाग्रो प० ।६६४ । सत्त उग्गहपडिमाग्रो प० ।।६६५।। सत्त सत्तिक्कया प० ।।६६६ स्थानांग, स्थान ७] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राचारांग ] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा १०५. श्रुतस्कन्ध की रचना की होती तो इसके साथ भी इसके रचनाकार का नाम अवश्य जुड़ा हुआ होता और प्रश्नव्याकरण- सूत्र, स्थानांग, समवायांग आदि एकादशांगी प्रमुख अंगों में इसके अध्ययन, विषय आदि का उल्लेख एवं परिचय उपलब्ध नहीं होता । के ग्राचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों की शैली और भाषा में द्विरूपता देखकर कतिपय विद्वानों ने अपना यह अभिमत व्यक्त किया है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से पश्चाद्वर्तीकाल की कृति है । वस्तुतः यह तर्क एकान्ततः सभी जगह उपयोग में नहीं लाया जा सकता क्योंकि ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां एक ही सूत्र में समास और व्यास दोनों ही प्रकार की वर्णनशैलियां और क्लिष्ट एवं सरल-सुगम भाषाशैलियां अपनाई गई हैं । ज्ञाताधर्मकथाङ्ग के प्रथम १६ अध्ययनों की वर्णनशैली और इनके पीछे के अध्ययनों की वर्णनशैली में इस प्रकार का अन्तर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । ज्ञाताधर्मकथांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रत्येक अध्ययन में विषयवस्तु का विस्तारपूर्वक वर्णन है जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में प्रतिसंक्षेपतः धर्मकथाओं का उल्लेख है । केवल इस आधार पर ज्ञाताधर्मकथांग के दोनों श्रुतस्कन्धों के भिन्नकर्तृ के होने की कल्पना नहीं की जा सकती । इसी तरह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में पांच प्रकार के आचार का दार्शनिक एवं तात्विक दृष्टि से प्रतिपादन किया गया है । दार्शनिक एवं तात्विक विवेचन प्रायः सूत्र शैली में ही पाये जाते हैं । सागर को गागर में समा देने की क्षमता सूत्रशैली में ही है । आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सूत्रशैली को अपनाया गया है अतः वहां भाषा, भाव और शैली में गाम्भीर्य एवं गूढ़ार्थताजन्य क्लिष्टता का आजाना अनिवार्य ही था । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में यह सब कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता । इसका कारण यह है कि इसमें साध्वाचार के लिये आवश्यक छोटी से छोटो और बड़ी से बड़ी सभी बातों का साधक को समीचीनतया ज्ञान कराने के लिए सरल भाषा में उचित विस्तार के साथ समझाया गया है । आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में दार्शनिक एवं तात्विक विषय का प्रतिपादन किया गया है अतः उसमें सूत्रशैली अपनाई गई है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साधु के प्राचार के प्रत्येक पहलू को व्याख्यात्मक ढंग से समझाना आवश्यक था इसलिये यहां सरल और सुगम व्यास शैली को अपनाया गया है । वस्तुतः सूत्रात्मक समास शैली के माध्यम से साध्वाचार की सब बातें साधारण साधक को सरलता के साथ हृदयंगम नहीं कराई जा सकतीं । दोनों श्रुतस्कन्धों में दृष्टिगत होने वाली दो शैलियों का यही कारण है । वस्तुतः ये दोनों श्रुतस्कन्ध श्रार्य सुधर्मा की ही कृति हैं । निष्कर्ष उपरिचचित सभी तथ्यों के समीचीनतया पर्यालोचन से जो निष्कर्ष निकलता है वह इस प्रकार है : Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग १. आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्ध द्वादशांगी के रचनाकाल में गणधरों द्वारा सर्वप्रथम ग्रथित किये गये थे। अागम में जो पाचारांग की पदसंख्या १८,००० उल्लिखित है वह वस्तुतः दोनों श्रु तस्कन्धों सहित सम्पूर्ण आचारांग की है न कि केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध की। २. द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पंचचूलात्मक एवं आगमों के रचनाकाल से ‘पश्चाद्वर्ती काल में स्थविरकृत पाचाराग्र मात्र होने तथा प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही मूल प्राचारांग मानते हुए केवल उसी की पदसंख्या १८,००० होने की जो मान्यता नियुक्तिकार आदि द्वारा अभिव्यक्त की गई है वह आगमिक एवं अन्य किसी आधार पर आधारित न होने के कारण निराधार, काल्पनिक एवं अमान्य है। ३. वर्तमानकाल में आचारांग के द्वितीय श्र तस्कन्ध के स्वरूप के सम्बन्ध में जो यह मान्यता प्रायः सर्वत्र प्रचलित है कि संपूर्ण द्वितीय श्र तस्कन्ध चार चूलाओं में विभक्त है, यह मान्यता किसी शास्त्र द्वारा सम्मत न होने के कारण शास्त्रीय मान्यता की कोटि में नहीं आती। यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि आचारांग की मूलतः अभिन्न अंग के रूप में एक भी चूला न तो कभी थी और न है ही। आगमों के रचनाकाल से लेकर निशीथ के छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने तक नवम पूर्व की तृतीय वस्तु का प्राचार नामक बीसवां प्राभृत संभवतः आचारांग की चूलिका के रूप में माना जाता रहा और कालान्तर में उस प्राभूत की निशीथ छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापना के पश्चात् निशीथ को आचारांग की चूलिका माना जाने लगा। इतना होने पर भी न कभी प्राचारप्राभृत की पद-संख्या प्राचारांग की पदसंख्या के सम्मिलित मानी गई थी और न निशीथ की ही। प्राचारांग का स्थान एवं महत्व प्राचार जीवन को समन्नत बनाने का साधन, साधना का मूलाधार और मोक्ष का सोपान है अतः आचारांग का जैन वाङ्मय में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" - इस सर्वजनसुविदित सुविख्यात सूक्ति के अनुसार सर्वप्रथम सदसद् का ज्ञान तथा तदन्तर उस ज्ञान के माध्यम से विवेकपूर्वक असद् अर्थात् हेय का परित्याग एवं सद् अर्थात् उपादेय का विवेकपूर्वक आचरण करने पर ही साधक द्वारा मोक्ष की उपलब्धि की जा सकती है। प्राचारांग में मोक्षप्राप्ति के बाधक असद् का एवं मोक्ष-प्राप्ति में परम सहायक सद् का ज्ञान कराते हए समस्त हेय के परित्याग का और उपादेय के आचरण का उपदेश दिया गया है। इस दृष्टि से आचारांग के सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने के कारण ही समवायांग और नन्दी सूत्र में द्वादशांगी का परिचय देते हए इसे द्वादशांगी के क्रम में सर्वप्रथम स्थान पर रखा गया है।' ' से णं अंगठ्ठाए पढ़मे अंगे। [समवायांग एवं नन्दीसूत्र] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग] केलिकाल : मायं सुधर्मा १०७ नियुक्तिकार, टीकाकार और चूर्णिकार ने भी आचारांग का द्वादशांगी के क्रम में सर्वप्रथम स्थान माना है। नियुक्तिकार के उल्लेखानसार तीर्थंकर भगवान् सर्वप्रथम आचारांग का और तदनन्तर शेष अंगों का प्रवर्तन-प्रचलन करते हैं।' गणधर भी उसी क्रम से अंगों की रचना करते हैं। प्राचारांग को अंगों के क्रम में प्रथम स्थान देने का कारण बताते हुए नियुक्तिकार ने लिखा है कि प्राचारांग में मोक्ष के उपायों का प्रतिपादन किया गया है और यही प्रवचन का सार है, इसलिए इसको द्वादशांगी के क्रम में प्रथम स्थान दिया गया है ।२ . - प्राचारांग के चूर्णिकार और टीकाकार दोनों ने ही आगम और नियुक्ति के उपरोक्त उल्लेखों का समर्थन करते हुये निम्नलिखित रूप में प्राचारांग की सर्वाधिक महत्ता प्रकट की है : "अनन्त अतीत में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, उन सब ने सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश दिया, वर्तमान काल के तीर्थकर जो महाविदेह क्षेत्र में विराजमान हैं, वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देते हैं और अनागत अनन्त काल में जितने भी तीर्थकर होने वाले हैं वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देंगे, तदनन्तर शेष ११ अंगों का। गणधर भी इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए इसी अनुक्रम से द्वादशांगी को ग्रथित करते हैं ।"3 समवायांग की टीका में अभयदेव सूरी ने और नन्दी सूत्र की वृत्ति में ' सम्बेसिमायारो तित्थस्य पवत्तणे पढ़मयाए । सेसाई अंगाई, एक्कारस प्रणुपुवीए ।।८।। [प्राचारांग नियुक्ति] २ मायारो अंगाणं, पढ़ममंगं दुवालसण्हं पि। इत्य य मोक्खो वामो, एस य सारो पवयणस्स ।।६।। [वही] ३ (क) सव्व तित्यगरा वि य प्रायारस्स प्रत्यं पढ़मं प्राइक्खंति ततो सेसगाणं एक्कारसण्ह मंगाणं ताए चेव परिवारीए गणहरा वि सुत्तं गुपंति । (प्राचारांग चूणि, पृ. ३) (स) कदा पुनमंगवताचार: प्रणीत; इत्यत प्राह सन्वेसिमित्यादि-सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थप्रवर्तनादावाचारार्थः प्रथमतयाभूद्, भवति, भविष्यति च ततः शेषांगार्थ इति गणधरा मप्यनयवानुपूर्ध्या सूत्रतया प्रघ्नंतीति । [पाचारांग शीलांकाचार्यकृत टीका, पृ० ६ राय धनपतिसिंह] प्रय कि तत् पूर्वगतं ? उच्यते, यस्मात्तीर्थकरः तीर्थप्रवर्तनकाले गणघराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्राथं भाषते तस्मात्पूर्वाणोति भरिणतानि, गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधाना भाचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च, मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थः पूर्वमहता भाषितो गणधररपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्व रचितं पश्चादाचारादि, नन्वेवं यदाचारनियुक्त यां सझेसि पायारो पढ़मो इत्यादि, तत्कयम् ? उच्यते, तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भणितं पूर्व पूर्वाणि कृतानीति ।" [समवायांग टीका (मभयदेवसूरि विरचिता) पत्र १६६१(१)] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्राचारांग आचार्य मलयगिरि' ने उपरोक्त मान्यता के समर्थन में अपना अभिमत व्यक्त करने के पश्चात् इस प्रकार की मान्यता का उल्लेख भी किया है कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से पहला अङ्ग और रचनाक्रम की दृष्टि से १२ वां अङ्ग माना गया है । मूल आगम समवायांग में तथा नन्दी सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है - "से गं श्रङ्गट्ठाए पढमे अङ्गे”। इस सूत्र की संस्कृत छाया इस प्रकार होगी - तन्ननु अङ्गार्थ प्रथममङ्गम् ।" इस सूत्र में प्रयुक्त "णं" शब्द को केवल वाक्यालंकार के लिए प्रयुक्त न मानकर निश्चयार्थक माना जाय तो इस सूत्र का अर्थ होता है - "वह आचारांग प्रक्रम की दृष्टि से निश्चितरूपेण प्रथम प्रङ्ग है ।" मूल आगम में इस प्रकार के निश्चयात्मक स्पष्ट उल्लेख के पश्चात् इस प्रकार के प्रश्न के लिए किंचित् मात्र भी अवकाश नहीं रहना चाहिये था कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से प्रथम अङ्ग है अथवा रचना की दृष्टि से । पर यह प्रश्न पूर्वाचार्यों के समक्ष उठा और आज तक इसका कोई सर्वसम्मत समाधान नहीं हो पाया है । कि ऐसा प्रतीत होता है कि एक छोटी सी भ्रांति के कारण ही संभवत: इस प्रश्न का प्रादुर्भाव हुआ है । यद्यपि आगम में तो स्पष्ट उल्लेख है प्रङ्गों के क्रम में आचारांग का प्रथम स्थान है परन्तु आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने “त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र" २ में इस प्रकार का उल्लेख किया है कि प्रभु से त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त होने पर गौतमादि गणधरों ने सर्वप्रथम चौदह पूर्वो की रचना की और तदनन्तर द्वादशांगी की । गरणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना से पहले ही चतुर्दश पूर्वो की रचना की गई, इस कारण चतुर्दश पूर्वो की रचना को पूर्व के नाम से अभिहित किया गया है । इस प्रकार की स्थिति में गहराई से विचार करने से पहले यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था कि जब पूर्वों की रचना प्रङ्गों से पहले कर ली गई तो द्वादशांगी के क्रम में आचारांग का प्रथम स्थान किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर यह है कि पूर्वो की प्रथम रचना से आचारांग का द्वादशांगी • के क्रम में प्रथम स्थान मानने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती । १ 、 इह तीर्थंकरस्तीर्थप्रवर्त्तनिकाले गणधरान् सकलश्रुतार्थावगाहन समर्थानधिकृत्य पूर्व पूर्वगतं 'सूत्रार्थं भाषते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते, गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधतः प्राचारादिक्रमेण विदति स्थापयन्ति वा (च), प्रन्ये तु व्याचक्षते - पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन् भाषते, गणधरा अपि पूर्वं पूर्वगतसूत्रं विरचयन्ति पश्चादाचारादिम्, भ्रत्र चोदक ग्राह नन्विदं पूर्वापरविरुद्ध यस्मादादी निर्युक्तायुक्त "सब्वेसि श्रायारो पढ़मो" इत्यादि, सत्यमुक्त, किन्तु तत्स्थापना - मधिकृत्योक्तम्, अक्षररचनामधिकृत्य पुनः पूर्व पूर्वाणि कृतानि ततो न कश्चित् पूर्वापरविरोधः । " [ नन्दी - मलयगिरिकृता वृत्ति, पृ० ४८१ ( धनपतिसिंह ) ] २ सूत्रितानि गणधर रंगेभ्यः पूर्वमेव यत् । , पूर्वारणीत्यभिधीयते तेनैतानि चतुर्दश ।। १७२ । । [ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५ ] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १०६ क्योंकि बारहवां अङ्ग 'दृष्टिवाद' है न कि पूर्व । वस्तुतः पूर्व तो दृष्टिवाद के पांच विभागों में से एक विभाग है।' सबसे पहले पूर्वो की रचना गणधरों ने कर ली-पर बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद के शेष बहुत बड़े भाग का तो ग्रथन आचारांगादि के क्रम से बारहवें स्थान पर ही हा। इस प्रकार का तो एक भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता जिसमें बताया गया हो कि बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद का गणधरों द्वारा सबसे पहले ग्रथन किया गया। ऐसी स्थिति में आगम के उल्लेख के अनुसार यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि रचना एवं स्थापना दोनों ही दृष्टियों से द्वादशांगी के क्रम में प्राचारांग का प्रथम स्थान है। आचारांग को द्वादशांगी में सर्वप्रथम स्थान दिया गया है, वस्तुतः वह सब दृष्टियों से विचार करने पर पूर्णतः संगत प्रतीत होता है। प्राचार को नियुक्तिकार द्वारा अङ्गों का सार माना गया है । क्योंकि अक्षय अव्याबाध शिवसुख की प्राप्ति का मूलाधार प्राचार है । उस आचार अर्थात् साध्वाचार का आचारांग में सांगोपांग समीचीनरूपेरण निरूपण होने के कारण इसे द्वादशांगी में प्रथम स्थान दिया गया है। आचारांग सूत्र के विशिष्ट ज्ञाता मुनि को ही उपाध्याय और प्राचार्य पद के योग्य माना जाय, इस प्रकार के अनेक उल्लेख आगम साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आचारांग का सर्वप्रथम अध्ययन करना साधु-साध्वियों के लिए अनिवार्य रखने के साथ-साथ इस प्रकार का भी विधान किया गया था कि यदि कोई, साधु अथवा साध्वी, आचारांग का सम्यकरूपेण अध्ययन करने से पूर्व ही अन्य आगमों का अध्ययन-अनुशीलन करता है तो वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का अधिकारी बन जाता है । 3 इतना ही नहीं प्राचारांग का अध्ययन एवं ज्ञान प्राप्त नहीं करने वाले साधु को किसी भी प्रकार का पद नहीं दिया जाता था। प्राचारांग के अध्ययन के पश्चात् ही प्रत्येक साधु धर्मानुयोगऔर द्रव्यानुयोग पढ़ने का अधिकारी समझा जाता था। नवदीक्षित मूनि की उपस्थापना भी आचारांग के "शस्त्र-परिज्ञा” अध्ययन द्वारा की जाती थी। वह पिण्डकल्पी (भिक्षा लाने योग्य) भी प्राचारांग का अध्ययन करने के पश्चात् माना जाता था। इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि द्वादशांगी में प्राचारांग का कितना महत्वपूर्ण स्थान माना जाता रहा है । वर्तमान में प्राचारांग के स्थान पर दशवैकालिक सूत्र का अध्ययन, अागमों के अध्ययनक्रम में सर्वप्रथम प्रचलित होने के कारण अाचारांग की सबसे पहले वाचना की अनिवार्यता नहीं रही है। आचारांग के परिशीलन एवं निदिध्यासन के पश्चात् बिना किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से प्रभावित हुए निष्पक्षतापूर्वक विचार करने पर अन्तर्मन यही साक्षी देता ' परिकर्म-मूत्र-पूर्वानुयोग-पूर्वगत-चूलिकाः पंच । स्युष्टिवादभेदाः, पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ।। १६०।। [भिधानचिन्तामणि २ अंगाणं कि सारो ? प्रायारो,..... [प्राचारोग नियुक्ति 3 निशीथ सूत्र, १६ - २० । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्राचारांग है कि वस्तुतः श्राचारांग विश्वधर्म का प्रतीक है । विश्वबन्धुत्व की भावनाओं से प्रोतः प्रोत सच्चे और आदर्श मानवीय सिद्धान्तों का इसमें सजीव वर्णन होने के कारण आचारांग का केवल द्वादशांगी में ही नहीं अपितु संसार के समग्र धर्मशास्त्रों में एक बड़ा ऊंचा एवं महत्वपूर्ण स्थान है । आचारांग के ह्रास एवं तथाकथित विच्छेद विषयक विविध मान्यताओं पर " द्वादशांगी का ह्रास" शीर्षक आगे के प्रकरण में यथाशक्य समुचित प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा । २. सूत्रकृतांग द्वादशांगी के क्रम में सूत्रकृतांग का दूसरा स्थान है । नियुक्तिकार ने इस अंग के सूयगड के अलावा सूतगड, सुत्तकड़ और सुयगड- ये तीन और नाम भी बताये हैं ।' समवायांग में आचारांग के पश्चात् सूत्र कृतांग का परिचय देते हुए कहा गया है कि इसमें स्वमत, परमत, जीव, प्रजीव, पुण्य, पाप, श्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष प्रादि तत्वों का निरूपण एवं नवदीक्षितों के लिए हितकर उपदेश हैं । इसमें एक सौ अस्सी क्रियावादी मतों, चौरासी प्रक्रियावादी मतों, सड़सठ अज्ञानवादी मतों एवं बत्तीस विनयवादी मतों - इस प्रकार कुल मिलाकर तीन सौ त्रेसठ अन्य मतों पर चर्चा की गई है । इन सब की समीक्षा के पश्चात् यह बताया गया है कि अहिंसा ही धर्म का मूल स्वरूप और श्रेष्ठ तत्व है । सूत्र कृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं । इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह और द्वितीय श्रुतस्कंध में सात इस तरह कुल २३ अध्ययन, ३३ उद्देशनकाल, ३३ समुद्देशनकाल तथा ३६,००० पद हैं । समवायांग सूत्र की २३ वीं समवाय में सूत्र कृतांग के तेबीस अध्ययनों का नामोल्लेख भी किया गया है । नंदिसूत्र में सूत्रकृतांग का परिचय देते हुए बताया गया है कि इसमें लोक, अलोक, लोकालोक, जीव प्रजीव, स्वसमय, तथा परसमय का निदर्शन और क्रियावादी, प्रक्रियावादी आदि ३६३ पाषण्ड मतों पर विचार किया गया है । दिगम्बर परम्परा के अंग पण्णत्ति, धवला, जयधवला, राजवार्तिक आदि मान्य ग्रन्थों में जो सूत्रकृतांग का परिचय दिया गया है वह काफी अंशों में श्वेताम्बर परम्परा द्वारा दिये गए इस अंग के परिचय से मिलता-जुलता है । दिगम्बर परम्परा के "प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी" नामक ग्रंथ में सूत्रकृतांग के २३ श्रध्ययन हैं, इस प्रकार का उल्लेख - " तेवीसाए सुद्दयड' ज्भारणेसु" - इस पद से किया है । इस पाठ की प्रभाचन्द्रकृत वृत्ति में इन तेवीस अध्ययनों के नाम , सूयगडं अंगारण बितियं, तस्स य इमारिण नामाणि । सूतगड, सुत्तकडं, सुयगडं चेव गोण्णाई ॥ २ ॥ [ सूत्रकृतांग श्र० जवाहरलालजी म०द्वारा संपादित, प्रस्ता० पृ० ६ ] सुद्द या सुत्त और कृत का प्राकृत रूप यड या कड, इस प्रकार [सम्पादक ] २ सूत्र का प्राकृत रूप संस्कृत शब्द सूत्रकृत का प्राकृत स्वरूप सुद्दयड होता है । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-सूक्षकृतांग] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा दिये गये हैं, जिनका श्वेताम्बर परम्परा को आवश्यक वृत्ति में दिये गए नामों से नगण्य अन्तर को छोड़ पूर्ण साम्य है। प्रथम श्रुतस्कन्ध - इसके १६ अध्ययनों में से प्रथम "समय" अध्ययन में पर-समय का परिचय देकर उसका निरसन किया गया है। यहां परिग्रह को बन्ध और हिंसा को वैरद्धि का कारण बताकर कुछ परवादियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। उनमें भूतवाद, आत्माद्वैतवाद, एकात्मवाद, देहात्मवाद, अकारकवाद (सांख्य), अात्म षष्टवाद, पंच स्कन्धवाद, क्रियावाद, कर्तृत्ववाद और राशिक आदि का परिचय देकर उन वादों का निरसन किया गया है। दूसरे अध्ययन में पारिवारिक मोह से निवृत्ति, परीषहजय, कषायजय, आदि का उपदेश, सूर्यास्त के पश्चात् विहार का निषेध और काम-मोह से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है। तीसरे उपसर्ग अध्ययन में अनुकूल, प्रतिकूल परीषह सहन का उपदेश देते हए अनकूल परीषह से प्रतिकूल परीषह की अपेक्षा अधिक हानि बताई गई है। साथ ही इसमें उस समय की विभिन्न मान्यताओं का परिचय देते हुए कहा गया है कि कुछ लोग जहाँ जल से, कुछ लोग पाहार ग्रहण करने से, कुछ आहार ग्रहण न करने से मुक्ति मानते हैं, वहां आसिल, द्वीपायन आदि ऋषि पानी पीने और वनस्पति भक्षण से सिद्धि मानते हैं। इस अध्ययन के अन्त में ग्लान-सेवा और उपसर्ग-सहन का उपदेश दिया गया है। "स्त्री परिज्ञा" नामक चतुर्थ अध्ययन में स्त्री सम्बन्धी परीषहों को सहने का उपदेश दिया गया है। पांचवे नरकविभक्ति नामक अध्ययन के दो उद्देशकों में यह बताते हुए कि भोगों से नरक गति होती है-नरक के दुःखों का वर्णन किया गया है। छटे “वीरस्तुति" नामक अध्ययन में भगवान् महावीर के गुणानुवाद और उपमाओं का वर्णन किया गया है। सातवें "कुशील" नामक अध्ययन में बताया गया है कि जो हिंसक जिस जीव-काय की हिंसा करता है, वह उसी जीवनिकाय में उत्पन्न होकर वेदना भोगता है। यहां उपसर्गसहन एवं रागद्वेष की निवृत्ति से कर्मक्षय और मोक्ष का लाभ बताया गया है। ... आठवें, वीर्य अध्ययन में बाल और पंडित वीर्य के भेद से मनुष्य की शक्ति के उपयोग की दृष्टि से २ प्रकार बतलाये गये हैं। इन्हें कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य भी कहा गया है। नौवें-"धर्म" अध्ययन में धर्म का स्वरूप बतलाते हुए बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग तथा हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और कषाय को कर्मबन्ध का कारण बतलाकर इनके त्याग एवं अनाचारवर्जन का उपदेश भी दिया गया है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [२. सूत्रकृतांग . दशवे - "समाधि' अध्ययन में हिसानिषेध, संयमपालन और समत्व का उपदेश दिया गया है । धार्मिक व्यक्ति को पाप से सदा उसी प्रकार डरते रहने का उपदेश दिया गया है जिस प्रकार कि मृग सिंह से डरता रहता है। ग्यारहवें "मार्ग" अध्ययन में मोक्ष-मार्ग पर विचार किया गया है । बारहवें “समवसरण' अध्ययन में प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी, और क्रियावादी ‘ऐसे ४ समवसरणों का वर्णन है । इसमें मुक्ति, एकान्तक्रियावाद से नहीं किन्तु सर्वज्ञसम्भत ज्ञान-क्रिया से बताई गई है। तेरहवें अध्ययन में यथातथ्य स्थिति का वर्णन करते हुए बताया गया है कि क्रोध के दुष्परिणाम समझकर सुशिष्य को पापभीरू, लज्जावान्, श्रद्धालु, अमायी और आज्ञापालक होना चाहिये। इसमें यह भी बताया गया है कि अभिमानी का तप निरर्थक होता है और ज्ञान एवं लाभ का मद करने वाला अज्ञानी है अतः मद नहीं करने वाला ही पण्डित एवं मोक्षगामी कहा गया है। चौदहवें - "ग्रंथ अध्ययन" में जीवननिर्माण की विविध शिक्षाओं के रूप में बताया गया है कि साधक को प्रथम गुरुकुलवास-गुरुजनों का सहवास आवश्यक है। अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, प्राज्ञापालन और अप्रमाद साधना के प्रमुख अंग हैं। इसमें आगे कहा गया है कि साधक को हास्य, अप्रिय सत्य, प्रतिष्ठा की चाह और कषाय से बचते रहना आवश्यक है। पन्द्रहवें - "यादान अध्ययन" में स्त्री लिंग-त्याग और निष्काम-साधना का उपदेश देते हुए रत्नत्रय की आराधना से भवभ्रमण मिटना बतलाया गया है। ___ सोलहवें - "गाथा अध्ययन' में साधु के "माहन", "श्रमरण", "भिक्खु" और "निर्ग्रन्थ' ये चार नाम देकर इनकी व्याख्या की गई है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन में । प्रथम "पुण्डरीक" अध्ययन में बताया गया है कि संसार सरोवर में साधु रूक्ष वत्ति से रहता हा राजा आदि अधिकारी को निस्पृह भाव से धर्मोपदेश करते.हुए स्व-पर कल्याण का अधिकारी होता है। अन्त में श्रमण के सोलह पर्यायवाची शब्द बताये गये हैं। दूसरे-"क्रियास्थान अध्याय" में १३ क्रियाओं का वर्णन किया गया है। क्रिया के सन्दर्भ में धर्मस्थान को उपशान्त और अधर्म को अनुपशान्त स्थान कहा गया है । संक्षेप में संसारी जीवों के तीन भाग किये गये हैं। इनमें निरारम्भी मुनिजीवन को धर्मपक्ष कह कर उपादेय और महा आरम्भी गृहस्थों के अधर्मपक्ष को और मिश्र पक्ष लो हेय बतलाया गया है । किन्तु धार्मिक गृहस्थों का धर्माधर्ममिश्रित जीवन उपादेय कहा गया है । तीसरे ‘पाहार परिज्ञा अध्ययन" में जीवों के आहार का विचार किया गया है । वनस्पति के ग्राहार पर विस्तृत विचार है । वनस्पतियां पृथ्वीयौनिक, वृक्षयौनिक रूप से मुख्यतः दो प्रकार की बताई गई हैं । वृक्षों की उत्पत्ति का कारण आहारक शरीर और उनके विभिन्न १० अंगों में भिन्न-भिन्न जीव बतलाये गये Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सूत्रकृतांग केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा है । कुछ वनस्पतियां उदकयौनिक भी बताई गई हैं। अन्त में प्रारणभूत जीव तत्व की अनेक योनियों में उत्पत्ति, आहार, शरीर और तत्वों के स्वरूप को पहिचान कर मुनि को "पाहारगुप्त" रहने की शिक्षा दी गई है। 'चौथे - "प्रत्याख्यान अध्ययन" में, यह बताते हुए कि प्रत्याख्यान नहीं करने से सर्वदा पाप-कर्मों का उपार्जन होता है, प्रत्याख्यान करने की शिक्षा दी गई है। । पांचवें - "प्राचारश्रृत अध्ययन" में एकान्त वचन का निषेध करते हुए अनाचार के त्याग का उपदेश दिया गया है । छठे प्रार्द्रकुमार के अध्ययन में प्रार्द्रकुमार के गोशालक, ब्राह्मणों और हस्तितापसों के साथ संवाद का वर्णन किया गया है। प्रसंगोपात्त शाक्य भिक्षुषों की भोजनचर्या का भी इसमें वर्णन है। सातवें - "नालन्दीय अध्ययन" में लेप गाथापति के धार्मिक जीवन और उसके द्वारा भवन-निर्माण से बची हुई सामग्री से बनाई गई "सेसदविया" नाम की एक उदकशाला का उल्लेख है। इसके पश्चात् उस उदकशाला से ईशान कोणस्थ वनखण्ड के एक भाग में विराजमान इन्द्रभूति गौतम के साथ पार्धापत्य पैढालपुत्र का संवाद और गौतम से प्रतिबोध पाकर पैढालपुत्र द्वारा भगवान् महावीर के पास चातुर्याम धर्म का परित्याग कर पंचमहाव्रत-धर्म स्वीकार करने का उल्लेख है। उपरोक्त संवाद में प्रश्नोत्तर के संदर्भ में एक स्थान पर यह बताया गया है कि जो लोग सम्पूर्ण पापों का परित्याग नहीं कर सकने की स्थिति में देशविरति धर्म स्वीकार कर त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करते हैं वह त्याग भी उनके लिये कुशल एवं लाभ का कारण होता है। इसमें स्थावर काय की हिसा के खुले रखने का त्याग कराने वाले को दोष नहीं लगता। इस बात को समझाने के लिए एक उदाहरण दिया गया है, जो इस प्रकार है : रत्नपुर के राजा ने एक दिन कौमुदी महोत्सव के अवसर पर अपने नगर में घोषणा करवाई कि महोत्सव के दिन कोई भी पुरुष नगर में न रहे। यदि कोई व्यक्ति रात्रि के समय नगर में रहा तो उसे मृत्युदण्ड दिया जायगा । राजाज्ञानुसार कौमुदी-महोत्सव के दिन सभी लोग संध्या होते-होते नगर से बाहर चले गये लेकिन एक व्यापारी के छः पूत्र कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण समय पर नगर से बाहर नहीं जा सके । सूर्यास्त के पश्चात् जब वे श्रेष्ठिपुत्र नगर से बाहर जाने के लिए उद्यत हुए तो उन्होंने नगर के सब द्वार बन्द पाये । परिणामतः भयभीत होकर वे छहों भाई किसी गुप्त स्थान में छुप बैठे। दूसरे दिन गुप्तचरों द्वारा राजा को जब यह ज्ञात हुआ कि रात्रि में ६ श्रेष्ठिपुत्र राजाज्ञा का उल्लंघन कर नगर के अन्दर ही रहे, तो वह बड़ा क्रुद्ध हरा। राजा ने छहों वरिणकपुत्रों के वध की आज्ञा दी। अपने पुत्रों के वध की सूचना मिलते ही श्रेष्ठी बड़ा दुखित हमा। उसने राजा के पास जाकर प्रार्थना की Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन धर्म का मोलिक इतिहास-द्वितीय भाग २. मूत्रकृतांग "स्वामिन ! मेरे कुल का सर्वनाश मत करिये। मेरे पास जितनी सम्पत्ति है वह .सब लेकर भी मेरे पुत्रों को जीवनदान दे दीजिये।" । राजा ने कुपित हो कहा- 'पापिष्ट! राजा की प्राज्ञा का उल्लंघन राजा के प्राणहरण तुल्य है। तेरे पुत्रों ने मेरी प्राज्ञा की अवहेलना की है अतः मैं उन्हें किसी भी तरह क्षमा नहीं कर सकता।" धष्ठी ने पूनः करुण स्वर में प्रार्थना की- 'स्वामिन् ! यदि प्राणदण्ड ही देना है तो मेरे ६ पुत्रों में से किसी एक को प्रारणदण्ड देकर शेष को दण्डमुक्त कर दीजिये।" - राजा ने श्रेष्ठी की इस प्रार्थना को भी स्वीकार नहीं किया। तत्पश्चात् श्रेष्ठी ने क्रमशः चार, तीन और दो पूत्रों को छोड़ने की प्रार्थनाएं कीं पर राजा ने उसकी एक भी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। अन्त में श्रेष्ठी ने घबड़ाकर प्रतिष्ठित नागरिकों के माध्यम से अत्यन्त विनयपूर्वक प्रार्थना की -- “स्वामिन् ! आप प्रजा के पिता हैं अतः हमारी रक्षा करना आपका कर्तव्य है। हम आपकी शरण में हैं, चाहे तारो या मारो।" इस प्रकार कहते हुए वह श्रेष्ठी राजा के पैरों पर गिर पड़ा। श्रेष्ठी की साननय प्रार्थना से द्रवित हो राजा ने भी उसके ६ पुत्रों में से एक ज्येष्ठ पुत्र को मुक्त कर दिया। सर्वनाश की अपेक्षा एक ज्येष्ठ पुत्र बचा इसी से संतोष मानकर श्रेष्ठी अपने घर गया। . " जिस प्रकार राजा द्वारा श्रेष्ठी के सभी पुत्रों को मृत्युदण्ड देने का आग्रह करने पर श्रेष्ठी ने अपने एक पुत्र के दण्डमुक्त होने में भी बड़ा संतोष माना। यहां पर पांच पुत्रों की मृत्यु में श्रेष्ठी को दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि श्रेष्ठी के मन में उनकी मृत्यु के लिए किंचित्मात्र भी अनुमति नहीं अपितु विवशता थी। उसी प्रकार साधु द्वारा षटकायिक जीवों की हिंसा से बचाने का उपदेश होने पर भी गहस्थ राजा के समान केवल बसकाय की हिंसा का ही त्याग करता है, ५ स्थावरकाय के जीवों की हिंसा नहीं छोड़ता, इसमें व्रतदाता मुनि दोष का भागी नहीं माना जा सकता। . सूत्र कृतांग वस्तुतः प्रत्येक साधक के लिये दार्शनिक ज्ञान की प्राप्ति में बड़ा पथप्रदर्शक है। मुनियों के लिये इसका अध्ययन, चिन्तन, मनन और . निदिध्यासन परमावश्यक है। इसमें उच्च प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों को जीवन में ढालने, सभी प्रकार के अन्य मतों का. परित्याग करने, विनय को प्रधान भूषण मानकर आदर्श श्रमणाचार का पालन करने आदि की बड़ी प्रभावपूर्ण ढंग से प्रेरणाएं दी गई हैं। दार्शनिक दृष्टि से यह आगम उस समय की चिन्तन प्रणाली का बड़ा ही मनोहारी दिग्दर्शन प्रस्तुत करता है । सूत्रकृतांग में बताया गया है कि साधना के क्षेत्र में आने वाले भीषण से भीषण उपसर्गों से विचलित, परिचितों के स्नेहसिक्त मधुर संलापों से पतित न Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सूत्रकृतांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा ११५ होते हुए प्राध्यात्मिक साधना के पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होने वाला साधक ही अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। सुत्रकृतांग में आध्यात्मिक विषयों पर दिये गये सुन्दर एवं सोदाहरण विवेचनों से भारतीय जीवन, दर्शन और अध्यात्मतत्व का भलीभांति बोध हो जाता है । माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे यहां भारतवर्ष में कौन-कौन से धर्म एवं संप्रदाय प्रचलित थे और उनकी किस-किस प्रकार की मान्यताएं थीं, इस सम्बन्ध में सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पहले एवं बारहवें तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'पुण्डरीक', 'माईकीय' और 'नालंदीय' अध्ययनों में बड़ा सुन्दर दिग्दर्शन कराया गया है। वह वस्तुतः ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आदि अनेक दृष्टियों से परमोपयोगी है। ___३. स्थानांग द्वादशांगी में स्थानांग का तीसरा स्थान है। समवायांग एवं नन्दी सूत्र में जो प्रागमों का परिचय दिया गया है उसमें स्थानांग का परिचय निम्नलिखित रूप में उल्लिखित है : स्थानांग नामक तीसरे पक्ष में स्वसमय, परसमय, स्व-पर उभय समय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की गई है। इसमें जीवादिक पदार्थों का उनके द्रव्य, गुरण, क्षेत्र, काल और पर्याय की दष्टि से विचार किया गया है। इसमें एक स्थान, दो स्थान, यावत् दश स्थान से दशविध वक्तव्यता की स्थापना तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आदि द्रव्यों की प्ररूपणा की गई है। स्थानांग में वाचनाएं, अनुयोगद्वार, प्रतिपत्तियां, वेष्टक, नियुक्तियां और संग्रहणियां-ये प्रत्येक संख्यात-संख्यात हैं। अंग की अपेक्षा यह तीसरा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दश अध्ययन, २१ उद्देशनकाल, २१ समुद्देशनकाल, ७२,००० पद, अक्षर संख्यात, गम अनन्त, पर्याय अनन्त, तथा इसकी वर्णन-परिधि में असंख्यात त्रस और अनन्त स्थावर हैं। वर्तमान में उपलब्ध इस सूत्र का पाठ ३७७० श्लोक परिमारण है। स्थानांग एवं समवायांग - ये दो सूत्र अन्य दश अङ्गों से भिन्न प्रकार के संकलनात्मक अङ्ग हैं। इन दोनों अङ्गों में जैन प्रवचनसम्मत तथा लोकसम्मत तथ्यों के रूप में संसार की प्रायः सभी वस्तुओं का संख्या के क्रम से कोश-शैली में संग्रहात्मक निरूपण किया गया है। अगणित तथ्यों को स्थायी रूप से चिरकाल तक स्मृतिपटल पर अङ्कित रखने और अथाह ज्ञानार्णव में से अभीष्ट तथ्य को तत्काल खोज निकालने की अद्भुत क्षमताशालिनी जिस शैली का इन दो अङ्गों की रचना में उपयोग किया गया है वह वस्तुतः अद्वितीय और बड़ी ही उपयोगी शैली है। - स्थानांग में संख्याक्रम से द्रव्य, गुरग एवं क्रियानों आदि का निरूपण किया गया है। इसके प्रथम प्रकरण में एक-एक, दूसरे में दो-दो, तीसरे में तीन-तीन, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग . [ ३. स्थानांग इस अनुक्रम से अन्तिम प्रकरण में दश-दश वस्तुओं का वर्णन किया गया है। जिस संख्या की वस्तु का निरूपण जिस प्रकरण में किया गया है, उसी संख्या के आधार पर इसके प्रकरणों का नाम प्रथम स्थान, द्वितीय स्थान, तृतीय स्थान और इसी अनुक्रम से अन्तिम प्रकरण का नाम दशम स्थान रखा गया है । जिस प्रकरण में तत्संख्याविषयक निरूपणीय सामग्री का प्राचुर्य हो गया, वहां उस प्रकरण के उपविभाग कर दिये गये हैं। दूसरे, तीसरे तथा चौथे- इन तीनों प्रकरणों के, प्रत्येक के चार-चार उपविभाग और पांचवें प्रकरण के ३ उपविभाग हैं। प्रथम तथा छठे से दशवें तक इन ६ स्थानों में पृथक कोई उपविभाग नहीं है। १५ उद्देशकों और ६ अध्ययनों के, प्रत्येक के एक-एक उद्देशनकाल के हिसाब से स्थानांग सूत्र के कुल मिला कर २१ उद्देशनकाल और २१ ही समुद्देशनकाल होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के निर्वाण-पश्चात् दूसरी से छठी शताब्दी तक के अवान्तर काल की कुछ घटनामों का उल्लेख किया गया है। उसे देखकर कुछ इतिहास के विद्वानों को इस प्रकार की भ्रांति होती है कि स्थानांग सूत्र की रचना गणधरों द्वारा नहीं अपितु किसी अर्वाचोन प्राचार्य द्वारा की गई है । अपने इस अभिमत की पुष्टि में वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं-"स्थानांगसूत्र के नौवें स्थान में गोदास से कोडिन्न तक के ६ गणों का उल्लेख है पर वस्तुतः वे गण भगवान् महावीर के निर्वाण से लगभग २०० वर्ष पश्चात् अस्तित्व में आये । इसी प्रकार ७ वें स्थान में जो ७ निन्हवों का उल्लेख है उनमें रोहगुप्त नामक निन्हव वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के अन्त में हुआ है। भगवान् महावीर के निर्वाण से लगभग २०० और ६०० वर्षों पश्चात् घटित हई घटनाओं का स्थानांग में उल्लेख होना यह प्रमाणित करता है कि इसकी रचना भगवान् महावीर की विद्यमानता में गरगधरों द्वारा नहीं अपितु भगवान के निर्वाण से ६०० वर्ष पश्चात् किन्हीं प्राचार्यों द्वारा की गई है।" किन्तु इस प्रकार केवल इन उल्लेखों के आधार पर यह मान्यता बना लेना कि स्थानांग सूत्र की रचना ही किसी परवर्ती प्राचार्य ने की है, किसी भी दशा में न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। द्वादशांगी के विलुप्त हो जाने की मान्यता अभिव्यक्त करने वाली दिगम्बर परम्परा भी इस तथ्य को स्वीकार करती है कि द्वादशांगी का अर्थतः उपदेश भगवान् महावीर ने दिया और गणधरों ने उसी को शब्द रूप में ग्रथित किया। ऐसी स्थिति में किसी पश्चाद्वर्ती घटना का स्थानांग में उल्लेख देखकर बिना विचारे ही यह कह देना कि यह गणधर की कृति नही किसी पश्चाद्वर्ती प्राचार्य की कृति है - कदापि न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता। इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में दो बातें विशेष विचारणीय हैं । प्रथम तो यह कि अतिशयज्ञानी सूत्रकार ने कतिपय भावी घटनाओं की पूर्वसूचना बहत पहले ही दे दी हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं जैसे कि स्थानांग के नवम स्थान में आगामी उत्सर्पिणी काल के भावी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. स्थानांग] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा तीर्थंकर महापद्म का चरित्रचित्रण किया गया है। दूसरी विचारणीय बात यह है कि श्रुति-परम्परा से चला आने वाला आगमपाठ स्कंदिलाचार्य और देवदि गणी द्वारा आगमवाचना में स्थिर किया गया। संभव है उस स्थिरीकरण के समय मूल भावों को यथावत् सुरक्षित रखते हुए भी उसमें प्रसंगोचित समझ कर कुछ आवश्यक पाठ बढ़ाया गया हो। यह भी संभव है कि भविष्यकाल की घटनाओं के रूप में जिन घटनाओं का आगम में उल्लेख किया गया था, आगमवाचना के समय तक वे घटनाएं घटित हो चुकने के कारण भावी घटनाएं न रह कर भूत . की घटनाएं बन चुकी थीं अतः उन्हें यथावत् भविष्य की घटनाओं के रूप में ही उल्लिखित किये जाने की अवस्था में कहीं भ्रांति न हो जाय इस दृष्टि से आगमवाचना के समय सर्वसम्मति से संघ द्वारा भविष्य काल की क्रिया के स्थान पर भूतकाल की क्रिया का प्रयोग कर दिया गया हो। शासनहित में सामयिक संवर्द्धन करने का गीतार्थ प्राचार्यों को पूर्ण अधिकार था। ऐसी स्थिति में यह शंका करना कि स्थानांग मौलिक नहीं है- यह सर्वथा अदूरदर्शितापूर्ण एवं अनुचित है। स्थानांग के १० स्थानों में क्रमशः जो विवरण दिया गया है उसको संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : (१) प्रथम स्थान में आत्मा, अनात्मा, धर्म, अधर्म, बंध और मोक्ष आदि को सामान्य दृष्टि से एक बतलाया गया है। गुण-धर्म एवं स्वभाव की समानता के कारण अनेक भिन्न-भिन्न पदार्थों को एक बताया गया है। प्रार्दा चित्रा और स्वाति का एक-एक तारा बताकर प्रकरण पूरा किया गया है । (२) दूसरे प्रकरण में वोध की सुलभता के लिये जीवादि पदार्थों के दोदो प्रकार किये हैं। जैसे आत्मा के दो प्रकार-सिद्ध और संसारी। धर्म दो प्रकार का आगार धर्म, अनागार धर्म, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म । बंध के दो प्रकार - रागबन्ध एवं द्वेषबंध । वीतराग के दो प्रकार - उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय । काल के दो प्रकार-अवसर्पिणी काल एवं उत्सर्पिणी काल । राशि दो - जीवराशि तथा अजोव राशि । दो प्रकार के मरण - बालमरण और पण्डितमरण । (३) तीसरे विभाग में कुछ और स्थूल दृष्टि से विचार किया गया है । जैसे-दृष्टि ३-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्र दृष्टि । तीन वेद - स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद । पक्ष तीन - धर्म पक्ष, अधर्म पक्ष और धर्माधर्म पक्ष । लोक तीन-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । आहार के तीन प्रकार - सचित्तपाहार अचित्त आहार और मिश्र आहार । तीन प्रकार का परिग्रह - सचित्त परिग्रह, दास-दासी-पशु आदि, अचित्त परिग्रह - सोना, चांदी आदि, मिश्र परिग्रह - आभूषणयुक्त दासदासी। अशुभ दीर्घायु के तीन कारण - प्राणघात करना, मृषा बोलना एवं तथारूप श्रमण की हीलना, निन्दा तथा तिरस्कार करना एवं अमनोज्ञ अशनादि से प्रतिलाभ देना इत्यादि । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ ३. स्थानांग (४) चौथे प्रकरण में स्त्री-पुरुष, प्राचार्य श्रावक आदि के चार-चार विकल्प कर सैकड़ों प्रकार की चौभंगियां बताई गई हैं। जैसे-खजूर ऊपर से मृदु और अन्दर से कठोर (१), बादाम जिस प्रकार ऊपर से कठोर अन्दर कोमल ( २ ), जिस प्रकार सुपारी अन्दर और बाहर दोनों ही प्रोर से कठोर ( ३ ) और द्राक्षा - जिस प्रकार ऊपर से भी मृदु तथा अन्दर से भी मृदु (४) । ११८ चार पुरुष - रूपवान - गुणहीन, (१) गुणवान -रूपहीन, (२) रूप और गुरग दोनों से रहित ( ३ ), तथा रूप और गुण उभय - सम्पन्न ( ४ ) | चार प्रकार की नारियां-रूपवती पर शीलविहीन ( १ ), शीलवती पर रूपविहीन ( २ ), रूप और शील उभयसम्पन्न, ( ३ ) रूप और शील उभयहीन ( ४ ) । चार प्रकार के कुंभ - अमृत का कुंभ - मुख पर विष (१) विषकुंभ - मुख पर अमृत ( २ ), विषकुंभ और विषभरा ढक्कन (३), तथा अमृत का घड़ा-अमृत का ढक्कन ( ४ ) । चार प्रकार के पुरुष – कार्य करे पर मान नहीं, (१), मान करे कार्य नहीं (२), कार्य भी करे और मान भी करे ( ३ ) और न कार्य करे न मान करे ( ४ ) इत्यादि । (५) पांचवें प्रकरण में जीवादि पदार्थों को ५ प्रकार से बतलाया है । जीव के ५ प्रकार - एकेन्द्रिय ( १ ), द्वीन्द्रिय ( २ ), त्रीन्द्रिय ( ३ ), चतुरिन्द्रिय (४) और पंचेन्द्रिय ( ५ ) । विषय पांच - शब्द विषय ( १ ), रूप ( २ ), गन्ध ( ३ ), रस ( ४ ) और स्पर्श विषय ( ५ ) | इन्द्रियां ५ - श्रवणेन्द्रिय ( १ ), चक्षु इंन्द्रिय (२), धारणेन्द्रिय (३), रसनेन्द्रिय ( ४ ) और स्पर्शन - इन्द्रिय ( ५ ) । जीव के. ५ गुरण - उत्थान (१), क्रम (२), बल (३), वीर्य, (४) और पुरुषकार - पराक्रम (५) । अजीव के पांच प्रकार - धर्मास्तिकाय ( १ ), अधर्मास्तिकाय ( २ ), आकाशास्तिकाय ( ३ ), पुद्गलास्तिकाय ( ४ ), और काल द्रव्य ( ५ ) । आस्रव के पांच प्रकार - मिथ्यात्व ( १ ), अविरति ( २ ), प्रमाद (३), कषाय ( ४ ) और अशुभयोग - आस्रव ( ५ ) । पांच प्रकार का मिथ्यात्व अभिग्रहिक ( १ ), अनाभिग्रहिक ( २ ), अभिनिवेश ( ३ ) संशय मिथ्यात्व ( ४ ) और प्रनाभोग मिथ्यात्व ( ५ ) इत्यादि । (६) छठे प्रकरण में जीवादि पदार्थों का छः-छः की संख्या में वर्णन किया गया है । जैसे- जीव छः प्रकार का पृथ्वीकायिक जीव ( १ ), अप्कायिक जीव ( २ ), तेजस्कायिक जीव ( ३ ), वायुकायिक जीव ( ४ ), वनस्पतिकायिक जीव - - Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ":३. स्थानांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा (५) और त्रसकायिक जीव (६) । जीव की छः प्रकार को लेश्या (मनोवत्ति)कृष्ण लेश्या (१), नील लेश्या (२), कापोत लेश्या (३), तेजो लेश्या (४), पद्म लेश्या (५) और शुक्ल लेश्या (६) । आहार-ग्रहण के छ: कारण, छः प्रकार का बाह्यतप, छः प्रकार का प्रान्तरिक तप इत्यादि । सातवें प्रकरण में पूर्वोक्त पदार्थों का सात की संख्या में वर्णन किया गया है। जैसे-जीव के सात प्रकार-सूक्ष्म एकेन्द्रिय (१), बादर एकेन्द्रिय (२), द्वीन्द्रिय (३), त्रीन्द्रिय (४), चतुरिन्द्रिय (५), असज्ञी पंचेन्द्रिय (६) और संज्ञी पंचेन्द्रिय (७) । सात भय के स्थान-इस लोक का भय (१), परलोक का भय (२), आदान भय (३), प्राकस्मिक भय (४), अयश भय (५), प्राजीविका भय (६) और मरण भय (७)। सप्त स्वर का स्वर मण्डल में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसमें जमालि आदि सात निन्हवों का भी उल्लेख किया गया है। (८) आठवें स्थान में प्रात्मा आदि का पाठ संख्या से वर्णन किया गया है। जैसे - प्रात्मा आठ प्रकार का-द्रव्य प्रात्मा (१), कषाय प्रात्मा (२), योग प्रात्मा (३), उपयोग आत्मा (४), ज्ञान प्रात्मा (५), दर्शन प्रात्मा (६), चारित्र आत्मा (७) और वीर्य पात्मा (८) । पाठ प्रकार का मदस्थान- जाति मद स्थान (१), कुल मद स्थान (२), बल मद (३), रूप मद (४), लाभ मद (५), तप मद (६), श्रुत मद (७) और ऐश्वर्य मद स्थान (८)। पाठ प्रकार की समिति- ईर्या-समिति (१), भाषा-समिति (२), एषणा-समिति (३), आदान-निक्षेपरणा-समिति (४), परिष्ठापना-समिति (५), मन-समिति (६), - वाक्समिति (७) और काय-समिति (८)। (E) नौवें स्थान में प्रत्येक पदार्थ का ६ की संख्या में वर्णन किया गया है। इसमें नव तत्त्व, नव ब्रह्मचर्य-गुप्ति और चक्रवर्ती की निधियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । पुण्य के ६ प्रकार - अन्न पुण्य (१), पान पुण्य (२), लयन पुण्य (३), शयन पुण्य (४), वस्त्र पुण्य (५), मन पुण्य (६), वचन पुण्य (७) काय पुण्य (८) और नमस्कार पुण्य (8)। ६ पाप के स्थान -प्रारणातिपात (१), मृषाभाषण (२), चौर्य (३), अब्रह्म (४), परिग्रह (५), क्रोध (६), मान (७) माया (८) और लोभ (६) । नव कोटि प्रत्याख्यान-हिंसा करना नहीं, कराना नहीं, करने वाले को भला जानना नहीं (३), पकाना नहीं, पकवाना नहीं और पकाने वाले का अनुमोदन करना नहीं (६), न खरीदना, न खरीदवाना और न खरीदने वाले का अनुमोदन करना (६)। इत्यादि। (१०) दशवें प्रकरण में प्रत्येक वस्तु का १०-१० की संख्या से वर्णन किया गया है। धर्म के १० प्रकार-क्षान्ति (१), मक्ति-निर्लोभता (२), मार्जव. धर्म (३), मार्दवधर्म (४), लाघवधर्म (५), सत्यधर्म (६), संयमधर्म (७), तपधर्म (८), त्यागधर्म (8) और ब्रह्मचर्यवास (१०)। १० प्रकार का धर्मग्रामधर्म (१), नगरधर्म (२), कुलधर्म (३), गणधर्म (४), संघधर्म (५), Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..१२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [३. स्थानांग , राष्ट्रधर्म (६), पाषण्डधर्म (७), श्रुतधर्म (८), चारित्रधर्म (8) और अस्तिकायधर्म-वस्तुधर्म (१०) । दश प्रकार का दान-अनुकम्पा दान (१), संग्रहदान (२), भयदान (३), शोकदान (४), लज्जादान (५), अहंकारदान (६), अधर्मदान (७), धर्मदान (८), भविष्य के लाभ हेतु दान (६) और उपकार के बदले कृतज्ञतादान (१०) । दश प्रकार का सुख- शरीर की निरोगता (१), दीर्घ प्रायु (२), पाढयता (३), शब्द एवं रूप का कामसुख (४), इष्ट गन्ध, इष्ट रस और इष्ट स्पर्श रूप भोगसुख (५), संतोष (६), आवश्यकता की पूर्ति (५), सुसयोग (मानसिक) (८), निष्क्रमण - त्याग-ग्रहण (९) और निराबाध सुख मोक्ष (१०)। इसमें १० प्रकार की लोक स्थिति, क्रोधोत्पत्ति के १० कारण, अभिमान के १० कारण, १० प्रकार की समाधि, आलोचना के १० दोष, १० प्रकार का प्रायश्चित्त, सुकाल-दुकाल के १०-१० लक्षण, १० प्रकार के कल्पवृक्ष, शतायु पुरुष की १० दशा, ज्ञान वृद्धि के १० नक्षत्र और १० आश्चर्यो का उल्लेख किया गया है। स्थानांग की महत्ता विषय को गम्भीरता एवं नयज्ञान की दृष्टि से स्थानांग सूत्र की बहुत बड़ी महत्ता मानी गई है। इसमें जो कोश-शैली अपनाई गई है वह बड़ी ही उपयोगी और विचारपूर्ण है। बौद्ध परम्परा के अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपण्णत्ती, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में तथा वैदिक परम्परा के महाभारत (वनपर्व, अध्याय १३४) में भी इसी शैली से संग्रह किया गया है। इसके गम्भीर भावों को समझने वाला श्रुतस्थविर माना गया है। जैनागम में बताये गये तीन प्रकार के स्थविरों में से श्रुतस्थविर के लिए "ठाणसमवायधरे” इस प्रकार के विशेषण द्वारा स्थानांग और समवायांग के धारक होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसके विषयों और विचारों की गम्भीरता एवं दुरूहता के कारण स्वयं टीकाकार अभयदेवसूरी ने इसकी व्याख्या करते समय अपनी कठिनाई का उल्लेख करते हुए लिखा है - "प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या के समय सिद्धान्तज्ञान की सही परम्परा का अभाव है और आवश्यक तर्कशक्ति का भी योग नहीं है । स्व तथा पर शास्त्रों का अवलोकन भी यथावत् नहीं हो सका और न दृष्ट एवं श्रुत विषयों का पूर्ण स्मरण ही रहा है। इसके उपरांत वाचनामों की अनेकता, प्रादर्श पुस्तकों का प्रशुद्ध-लेखन, सूत्र की अतिशय गम्भीरता और स्थान-स्थान पर मतभेदों के कारण इसकी समीचीन रूप से व्याख्या करने में स्खलनाएं संभव हैं। विवेकशील विचारक इससे केवल शास्त्रसम्मत अर्थ को ही ग्रहण करें।'' सत्संप्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः । • सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥१॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धतः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यात, मतभेदाच्च कुत्रचित् ।।२।। भूणानि संभवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तानुगमो योऽर्थः सो स्मात् ग्राह्यो न चेतरः ।। ३।। [स्थानांग-वृत्ति प्रशस्ति] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा ४. समवायांग द्वादशांगी के क्रम में समवायांग का चौथा स्थान है । इसमें कोटाकोटिसमवाय के पश्चात् जो द्वादशांगी का परिचय दिया गया है, उसमें और नन्दीसूत्र में समवायांग का परिचय निम्नलिखित रूप में उल्लिखित है : :-- ४. समवायांग ] " समवायांग की परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ़ा (छन्दविशेष), संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां, संख्यात प्रतिपत्तियां, एक श्रुतस्कन्ध, एक अध्ययन, एक उद्देशनकाल, एक ही समुद्देशनकाल, १,४४,००० पद और संख्यात अक्षर हैं। इसकी वर्णनपरिधि में अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों का वर्णन, प्ररूपरण, निदर्शन और उपदेश आता है ।" १२१ समवायांग का वर्तमान में उपलब्ध पाठ १६६७ श्लोक-परिमाण है। इसमें संख्याक्रम से संग्रह की प्रणाली के माध्यम से पृथ्वी, आकाश, और पाताल-इन तीनों लोकों के जीवादि समस्त तत्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव की दृष्टि से संख्या एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या तक बड़ा महत्वपूर्ण परिचय दिया गया है । इसमें आध्यात्मिक तत्वों, तीर्थंकरों, गणधरों, चक्रवर्तियों और वासुदेवों से सम्बन्धित उल्लेखों के साथ-साथ भूगर्भ, भूगोल, खगोल-सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र एवं तारों प्रादि के सम्बन्ध में बड़ी ही उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की गई है । स्थानांग की तरह समवायांग में भी संख्या के क्रम से तथा कहीं-कहीं उस प्रणाली को छोड़कर वस्तुनों के भेदोपभेद का वर्णन किया गया है। समवायांग सूत्र की प्रत्येक समवाय में समान संख्या वाले भिन्न-भिन्न विषयों एवं वस्तुयों से सम्बं धित सामग्री का संकलनात्मक संग्रह होने के कारण विषयानुक्रम से इसका परिचय दिया जाना संभव नहीं है अतः मोटे रूप में समवाय के क्रम को दृष्टिगत रखते हुए इसका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है । समवायांग में द्रव्य की अपेक्षा से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, आदि का ( १ ), क्षेत्र की अपेक्षा से लोक, अलोक, सिद्धशिला आदि का (२), समय, श्रावलिका, मुहूर्त आदि से लेकर पत्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, और पुद्गलपरावर्तन आदि काल की अपेक्षा से देवों, मनुष्यों, तिर्यंचों और नारक प्रादि जीवों की स्थिति आदि का ( ३ ), तथा भाव की अपेक्षा से ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि जीव-भाव और वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, गुरु, लघु आदि अजीव-भाव का (४) वर्णन किया गया है । समवायांग की पहली समवाय में एक संख्या वाले जीव, अजीव प्रदि तत्वों का उल्लेख करते हुये श्रात्मा, लोक, धर्म, अधर्म आदि को संग्रह नय की अपेक्षा से एक-एक बताया गया है। इसके पश्चात् एक लाख योजन की लम्बाई चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप, सवार्थसिद्ध विमान, एक तारा वाले नक्षत्र, एक सागर की Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [४. समवायांग स्थिति वाले नारक, देव, आदि का, असंख्य वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी तियंच पंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों प्रादि का विवरण दिया गया है। ___ समवाय संख्या २ में अर्थदण्ड एवं अनर्थ दण्ड-दो प्रकार के दण्ड, रागबन्ध एवं द्वेषबन्ध-दो प्रकार के बन्ध इस रूप में दो संख्या वाली वस्तुओं का उल्लेख करते हुये अन्त में कुछ भवसिद्धिकों की दो भव से मुक्ति होना बताया गया है । तीसरी समवाय में- मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड-ये तीन दण्ड, मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति-तीन प्रकार की गुप्ति, तीन प्रकार के शल्य, तीन प्रकार के गौरव और तीन प्रकार की विराधना का उल्लेख करने के पश्चात् उन नक्षत्रों के नाम दिये गये हैं जिनमें तीन-तीन तारे हैं। इसके अनन्तर प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय नरक के नारकीयों, असुरकुमारों, भोगभूमि के संशी पंचेन्द्रियों, सौधर्म, ईशान देवलोकों के कुछ देवों एवं प्राभंकर आदि १४ विमानों के देवों की स्थिति का वर्णन किया गया है। इस समवाय के अन्त में बताया गया है कि उपरोक्त १४ विमानों में उत्पन्न होने वाले उन देवों में से कुछ देव तीन भव करने के पश्चात् शाश्वत मोक्षसुख को प्राप्त करेंगे। चौथी समवाय में कषाय, ध्यान, विकथा, संज्ञा, बन्ध के चार-चार भेद, योजन का परिमारण और चार तारों वाले नक्षत्रों का उल्लेख करने के पश्चात् चार पल्योपम और चार सागरोपम की आयु वाले नारक, देव आदि का नामोल्लेख किया गया है। ... पांचवीं समवाय में क्रिया, महाव्रत, कामगुण, प्रास्रवद्वार, संवरद्वार, निर्जरास्थान, समिति और अस्तिकाय - इनमें से प्रत्येक के पांच-पांच भेदों का निरूपण किया गया है । तदनन्तर पांच तारों वाले नक्षत्र, पांच पल्योपम, पांच सागरोपम की आयु वाले नारक, देव आदि का उल्लेख किया गया है। ___ छठे समवाय में लेश्या, जीवनिकाय, बाह्य तप, आभ्यंतर तप, छामस्थिक समुद्घात एवं अर्थावग्रह - इन सबके छः छः प्रकारों का नामोल्लेख करने के पश्चात् कृत्तिका तथा प्राश्लेषा नक्षत्र को छ:-छः तारों वाला बताया गया है। इस समवाय में यह भी बयाया गया है कि रत्नप्रभा पृथिवी में कतिपय नारकीयों की स्थिति छः पल्योपम, तृतीय पृथ्वी में कतिपय नारकीयों की स्थिति छः सागरोपम, असुर कुमार देवों में से कतिपय देवों की स्थिति ६ पल्योपम, सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति ६ पल्योपम तथा सनस्कुमार एवं माहेंद्रकल्प के कितने ही देवों की स्थिति छः सागरोपम होती है। इस समवाय के अन्त में बताया गया है कि स्वयंभू, स्वयंभूषण, घोष, सुघोष आदि बीस विमानों के देवों की उत्कृष्ट स्थिति छः सागरोपम की होती है । इन विमानों के देव ६ अर्द्ध मासों के अन्त में बाह्य तथा प्राभ्यंतर उच्छ्वास ग्रहण करते हैं। उन्हें छः हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर प्रहार की इच्छा उत्पन्न होती है उन देवों में कतिपय देव ६ भवों में सिद्धि प्राप्त करने वाले हैं। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४. समवायांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १२३ ___ सातवें समवाय में सात प्रकार के भयस्थान एवं सात ही प्रकार के समुद्घोत का उल्लेख करने के पश्चात् निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख है :-श्रमण भगवान् महावीर का शरीर सात रत्नि (मुंड हाथ) प्रमाण ऊंचा था। जम्बूद्वीप में सात वर्षधर और सात ही क्षेत्र हैं। बारहवें गुरणस्थानवर्ती वीतराग भगवान् मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का अनुभव करते हैं। मघा नक्षत्र ७ तारों वाला है। कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्वद्वार वाले, मघा मादि सात नक्षत्र दक्षिण द्वार वाले, अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम द्वार वाले और घनिष्ठा आदि ७ नक्षत्र उत्तर द्वार वाले बताये गए हैं । इस समवाय में नारकीयों असुरकुमारों और देवों में से कतिपय की आयु ७ पल्योपम और कतिपय की उत्कृष्ट प्रायु ७ सागरोपम की बताने के पश्चात् यह उल्लेख भी किया है कि सम, समप्रभ आदि पाठ विमानों के कतिपय देव सात भवों में सिद्ध होने वाले हैं । आठवें समवाय में ८ मदस्थान और आठ प्रवचनमाताओं के नामोल्लेख के पश्चात् बताया गया है कि व्यन्तरदेवों के चैत्यवृक्षों, जम्बूद्वीप की जगती, और देवकुरूक्षेत्र स्थित गरुड़ जातीय वेणुदेव के आवास की ऊंचाई आठ योजन है। इसमें आठ समय के केवलिसमुद्घात का विवरण देते हुये बताया गया है कि प्रथम समय में वे दण्ड, द्वितीय समय में कपाट, और तीसरे समय में मंथान करते हैं। चतुर्थ समय में वे मंथान के छिद्रों को पूरित, पांचवें समय में उन छिद्रों को संकुचित और छटे समय में मंथान को प्रतिसंहरित करते हैं । सातवें समय में कपाट को और पाठवें समय में दंड को संकोचते हैं और तदनन्तर वे पुनः स्वशरीरस्थ हो जाते हैं। इस समवाय में भगवान् पार्श्वनाथ के ८ गरण और ८ गणधरों के उल्लेख के पश्चात यह बताया गया है कि जब चन्द्रमा कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा इन आठ नक्षत्रों के साथ रहता है तब प्रम नाम का योग होता है। इस समवाय में कुछ नारकीयों, असुरकुमारों और देवों की मध्यम स्थिति ८ पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति ८ सागरोपम की बताने के पश्चात यह उल्लेख किया गया है कि अचि, अचिमालि, वैरोचन आदि ११ विमानों के देवों में से कतिपय देव पाठ भवों में सिद्धि प्राप्त करने वाले हैं। __नौवें समवाय में ह ब्रह्मचर्यगुप्तियों, ६ अब्रह्मचर्यगुप्तियों, प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के ६ अध्ययनों के नामोल्लेख के पश्चात् बताया गया है कि भगवान् पार्श्वनाथ के शरीर की ऊंचाई ६ रत्नि (मुण्ड हाथ) थी। इसमें तारामण्डल को रत्नप्रभा पृथिवी के सम भाग से ९०० योजन दूरी पर बताया गया है। इसमें जम्बूद्वीप की जगती में ह योजन के छेदों के उल्लेख के साथ यह भी बताया गया है कि ह योजन की लम्बाई-चौड़ाई के मच्छ लवरणसमुद्र में से जम्बूद्वीप में पहले भी आये हैं, पाते हैं और आते रहेंगे। इस समवाय में जम्बूद्वीप सम्बन्धी विजयद्वार के पार्श्व में नौ-नो भोमों, व्यन्तरों की सुधर्मसभा की ऊंचाई ६ योजन, दर्शनावरणीय कर्म की ६ उत्तरप्रकृतियों और कतिपय नारकीयों, असुरकुमारों, देवों की मध्यम स्थिति ६ पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [४. समवायांग सागरोपम होने का उल्लेख है। इसमें यह भी बताया गया है कि पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्षमावर्त प्रादि ३५ विमानों के देवों में से कतिपय देव ६ भवों में अजरामर मोक्षपद को प्राप्त कर लेंगे। .. यों तो इन समवायों में दी हई पूरी की पूरी सामग्री महत्वपूर्ण है किन्तु इनमें से प्रत्येक समवाय में अनेक ऐसे तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है जो प्राध्यात्मिक, ऐतिहासिक, तात्विक और साहित्यिक सभी दृष्टियों से अत्यधिक महत्व रखते हैं। १० वीं समवाय में ज्ञानवृद्धि के मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वा प्राषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपदा, मूळा, पाश्ळेषा, हस्त और चित्रा- इन १० नक्षत्रों का उल्लेख किया गया है। ११ वीं समवाय में ११ उपासक पडिमानों का उल्लेख है तथा लोकान्त से ज्योतिषचक्र का अन्तर ११११ योजन बताया गया है। - १२ वीं समवाय में १२ भिक्षु-प्रतिमाओं, श्रमणों के १२ प्रकार के व्यवहारसंभोग, एवं रामबळदेव की १२०० वर्ष की आयु प्रादि का उल्लेख है। १३ वें समवाय में दिलुप्त हुये प्रारणायुपूर्व की १३ वस्तु और १३ प्रकार के चिकित्सा स्थान आदि का निरूपण किया गया है। .. १४ वें समवाय में १४ प्रकार के भूतग्राम-जीवसमूह, अग्रायणी पूर्व की १४ वस्तुओं, भगवान् महावीर की १४,००० उत्कृष्ट श्रमरण संपदा, १४ जीव स्थानमिथ्यात्व प्रादि का उल्लेख है। १५ वें समवाय में राह द्वारा कृष्ण पक्ष में नित्य प्रति चन्द्र के १५ वें भाग का प्रावरण, अमावस्या को पूरे १५ ही भागों का प्रावरण और इसी क्रम से शुक्ल पक्ष में अनावरण करना बताया गया है। इसमें विलुप्त हुए विद्यानुप्रवादपूर्व की १५ वस्तुओं का भी उल्लेख है । ... १६ वें समवाय में प्रात्मप्रवाद पूर्व का १६ वस्तुओं का, १७ वें समवाय में १७ प्रकार के मरण का, १८ वें समवाय में अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व की १८ वस्तुओं का, श्रमण निर्ग्रन्थों के १८ स्थानों प्रादि का और १६वें समवाय में शुक्र ग्रह का १६ नक्षत्रों के साथ भ्रमण करना और पश्चिम में प्रस्त होना तथा १६ तीथंकरों का गृहस्थवास में रहकर दीक्षित होना बताया गया है। २० वें समवाय में प्रत्याख्यान पूर्व की २० वस्तुओं तथा २१ वें समवाय में २१ प्रकार के दोषों का उल्लेख किया गया है। २२ वें समवाय में दृष्टिवाद के २२ सूत्र छिन्नछेद नय वाले २२ सूत्र माजीविक की अपेक्षा अछिन्नछेद नय सम्बन्धी, २२ सूत्र राशिक सूत्र की परिपाटी से पोर २२ सूत्र चतुर्नयिक स्वसमय सूत्र की दृष्टि वाले कहे गये हैं। २३ वें समवाय में भगवान् अजितनाथ आदि २३ तीर्थकर पूर्व भव में एकादशांगधर और मंडलिक राजा बताये गये हैं। २४ वें समवाय में ऋषभ आदि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. समवायांग ] केवलिकाल : श्रार्यं सुधर्मा १२५ २४ देवाधिदेव कहे गये हैं । २५ वें समवाय में पांच महाव्रतों की २५ भावनाओं और प्राचारांग के २५ अध्ययन तथा २५ संख्या वाली वस्तुनों का उल्लेख किया गया है । २६ वें समवाय में अभव्य के मोह की २६ प्रकृतियां सत्ता में मानी गई हैं । २७ वें समवाय में साधु के २७ गुरण आदि का वर्णन किया गया है । २८ वें समवाय में मोहकर्म की २८ प्रकृतियों और मतिज्ञान के २८ भेद आदि का वर्णन है । २६ वें समवाय में २६ पापश्रुत तथा प्राषाढ, भाद्रपद, कार्तिक, पोष, फाल्गुन और वैशाख - ये छः मास २६ दिन के बताये गये हैं । ३० वें समवाय में महामोह-बन्ध के ३० कारण, तीस मुहूर्त के ३० नाम और मंडित पुत्र गरगघर का तीस वर्ष का दीक्षाकाल आदि बताया गया है । ३१ वें समवाय में सिद्धों के ३१ गुण आदि का वर्णन किया गया है । ३२ वें समवाय में ३२ योगसंग्रह और ३२ देवेन्द्र प्रादि बताये गये हैं । ३३ वें समवाय में गुरु की ३३ प्रकार की आशातना आदि, ३४ वें समवाय में तीर्थंकर के ३४ अतिशय और ३५ वें समवाय में तीर्थंकर की वाणी के ३५ अतिशयों (नाम नहीं) का उल्लेख किया गया है । ३६ वें में उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ययन आदि, ३७ वें में कुंथुनाथ स्वामी के ३७ गण और गणधर प्रादि, ३८ वें समवाय में पार्श्वनाथ की ३८,००० श्रर्यिकाएं श्रादि ३६ वें में नमिनाथ के ३६०० अवधिज्ञानी, समय क्षेत्र में ३६ कुलपर्वत आदि, ४० वें में प्ररिष्ठनेमि की ४०,००० आर्यिकाएं श्रादि, ४१ वें में नमिनाथ की ४१,००० प्रार्यिकाएं आदि और ४२ वें समवाय में श्रमण भगवान् महावीर के ४२ वर्ष साधिक श्रामण्य पालकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने तथा नाम कर्म के ४२ भेद - गति, जाति आदि का उल्लेख किया गया है । ४३ वें समवाय में कर्मविपाक के ४३ अध्ययनः आदि ४४ वें में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन आदि और ४५ वें में मनुष्य क्षेत्र, सीमंतक, नरकावास उडुबिमान और सिद्धशिला इन चारों में से प्रत्येक को ४५ लाख योजन विस्तार वाला बताया गया है । ४६ वें समवाय में दृष्टिवाद के ४६ मातृकापद और ब्राह्मीलिपि के ४६ मातृकाक्षर बताये गये हैं । ४७ वें समवाय में स्थविर श्रग्निभूति के ४७ वर्ष तक गृहवास में रहने का उल्लेख है । ४८ वें समवाय में चक्रवर्ती के ४८,००० पाटण और भगवान् धर्मनाथ के ४८ गरण एवं ४८ गणधर बताये गए हैं । ४६ वें समवाय में तीन इन्द्रिय वाले जीवों की ४६ अहोरात्र की स्थिति श्रादि, ५० वें में भगवान् मुनिसुव्रत की ५०,००० आर्यिका ५१ वें में नवब्रह्मचर्य अध्ययन के ५१ उद्देशनकाल, ५२ वें समवाय में मोहनीय के ५२ नाम आदि का उल्लेख है । ५३ वें समवाय में श्रमरग भगवान् महावीर के ५३ साधुओं के एक वर्ष की दीक्षा से अनुत्तर विमान में जाने का उल्लेख है । ५४ वें में बताया गया है कि भरत तथा ऐरवत में क्रमशः ५४-५४ उत्तम पुरुष हुए, प्ररिष्टनेमि ५४ रात्रि छपस्थ रहे Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [४. समवायांग और अनन्तनाथ के ५४ गणधर थे। ५५ वें समवाय में बताया गया है कि भगवान् मल्लिनाथ ५५००० वर्ष आयु पूर्ण कर सिद्ध हये। ५६ वें समवाय में विमलनाथ के ५६ गरण एवं ५६ गणधर बताने के साथ-साथ ५६ संख्या वाले अनेक तथ्यों का उल्लेख किया गया है। ५७ वें समवाय में मल्लिनाथ के ५७० , मनपर्यवज्ञानी, ५८ वें में ज्ञानावरणीय, वेदनीय, प्रायु, नाम और अन्तराय - इन पांच कर्मों की ५८ उत्तरप्रकृतियां होने का उल्लेख है। ५६ वीं समवाय में बताया गया है कि चन्द्र संवत्सर में एक ऋतु ५६ अहोरात्र की होती है। ६० वें समवाय में सूर्य का ६० मुहूर्त तक एक मंडल में रहना बताया गया है। ६१ वें समवाय में एक युग के ६१ ऋतुमास कहे गये हैं। ६२ वें समवाय में भगवान् वासुपूज्य के ६२ गण और ६२ ही गणधर बताये गये हैं। ६३ वें समवाय में भगवान ऋषभदेव के ६३ लाख पूर्व तक राज्य-सिंहासन पर रहने के पश्चात् दीक्षित होने का उल्लेख है। ६४ वें समवाय में चक्रवर्ती की ऋद्धि में अमूल्य अलभ्य मणिरत्नादि के ६४ हारों का उल्लेख है। ६५ वें समवाय में बताया गया है कि गणधर मौर्यपुत्र ६५ वर्ष तक ग्रहवास में रहने के पश्चात् दीक्षित हुए। ६६ वें समवाय में उल्लेख है कि भगवान् श्रेयांसनाथ के ६६ गरण और ६६ गणधर थे तथा मतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर की होती है। ६७ वें समवाय में बताया गया है कि एक यूग में नक्षत्रमास की गरगना से ६७ मास होते हैं । ६८ वें समवाय में उल्लेख है कि धातकीखण्ड द्वीप में चक्रवर्ती की ६८ विजय (प्रदेश), ६८ राजधानियां और उत्कृष्टतः ६८ ही अरिहंतादि उत्तम पुरुष होते हैं तथा भगवान विमलनाथ के ६८००० साधु थे। ६६ वें समवाय में बताया गया है कि मनुष्यलोक में मेरु को छोड़कर ६६ वर्ष और ६६ वर्षधर पर्वत हैं। ७० वें समवाय में उल्लेख है कि श्रमण भगवान महावीर ने वर्षावास के १ मास और बीस रात्रि बीतने और ७० रात्रि दिन शेष रहने पर पर्युषण किया तथा भगवान् पार्श्वनाथ ७० वर्ष संयम-पालन कर सिद्ध-मुक्त हुए। __७१ वे समवाय में यह बताया गया है कि भगवान् अजितनाथ और सगर चक्रवर्ती ७१ लाख पूर्व तक गृहवास में रहकर दीक्षित हुए। ७२ वीं समवाय में श्रमण भगवान महावीर और उनके गणधर अचल भ्राता की ७२ वर्ष की आयु बताई गई है। इसमें चक्रवर्ती के ७२००० नगर होने का तथा ७२ कलाओं का भी उल्लेख किया गया है। ७३ वें समवाय में बताया गया है कि विजय नामक बलदेव ७३ लाख पूर्व आयु पूर्ण कर सिद्ध हुए। ७४ वीं समवाय में गणधर अग्निभूति द्वारा ७४ वर्ष के प्रायुभोग के पश्चात् सिद्ध होने का उल्लेख है । ७५ वें ममवाय में भगवान सुविधिनाथ के ७५०० केवली, शीतलनाथ के ७५ लाख पूर्व और भगवान् शान्तिनाथ के ७५ हजार वर्ष गृहवास का उल्लेख है। ७६ वें समवाय में विद्युत्कुमार आदि के ७६-७६ भवन बताये गये हैं। ७७ वें समवाय में भरत चक्री के ७७ लाख पूर्व कुमारावस्था में रहने के पश्चात् महाराज पद पर Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ ४. समवायांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा प्रारूढ होने तथा अंगवंश के ७७ राजाओं के दीक्षित होने का उल्लेख है। ७८ वें समवाय में बताया गया है कि गणधर अकंपित ७८ वर्ष की पूर्ण प्राय भोग कर सिद्ध । ७६ वें समवाय में बताया गया है कि छट्टी नरक के मध्य भाग से छट्टे घनोदधि के नीचे के चरमान्त का अन्तर ७६ हजार योजन है। ८० वें समवाय में भगवान श्रेयांसनाथ, त्रिपृष्ठ वासुदेव और अचल राम की ८० धनुष ऊंचाई का और त्रिपृष्ठ वासुदेव के ८० लाख वर्ष तक महाराज पद पर रहने का उल्लेख है। समवाय सं० ८१ में भगवान् कुंथुनाथ के ८१०० मनःपर्यवज्ञानी बताये गये हैं। ८२ वें समवाय में उल्लेख है कि ८२ रात्रियां बीतने पर भगवान महावीर का गर्भातर में साहरण किया गया। ८३ वें समवाय में यह बताया गया है कि भगवान् शीतलनाथ के ८३ गण और ८३ गणधर, स्थविर मण्डित के ८३ वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध होने तथा भरत चक्रवर्ती के ८३ लाख पूर्व गृहवास में रहकर केवली होने का उल्लेख है। ८४ वें समवाय में सातों नारकं पृथ्वियों के ८४ लाख नरकावासों, भगवान् ऋषभदेव की ८४ लाख पूर्व की प्रायु, भगवान् श्रेयांसनाथ द्वारा ८४ लाख वर्ष का प्रायू पूर्णकर सिद्ध होने और त्रिपृष्ठ वासुदेव के ८४ लाख वर्ष की आयु के उपभोग के अनन्तर अपइट्ठाणा नरक में जाने का उल्लेख है। इसमें यह भी वताया गया है कि पूर्व से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक की संख्याओं में परवर्ती संख्या अपनी पूर्ववर्तिनी संख्या से गुना अधिक होती है। इसमें भगवान् ऋषभ देव के ८४ गण, ८४ गणधर और ८४००० साधु बताये गये हैं। ८५ वें समवाय में प्राचारांग के ८५ उद्देशनकाल बताये गये हैं। ८६ वें समवाय में भगवान् सुविधिनाथ के ८६ गरण और ८६ गणधर तथा भगवान सुपार्श्वनाथ के ८६०० वादी बताये गये हैं। ८७ वें समवाय में आठ कर्मों में से प्रथम और अन्तिम को छोड़कर शेष छः कर्मों की ८७ उत्तर-प्रकृतियां बताई गई हैं। ८८ वें समवाय में प्रत्येक सूर्य तथा चन्द्र के साथ ८८-८८ महाग्रह बताये गये हैं। ८६ वें समवाय में तीसरे आरे के ८६ पक्ष शेष रहने पर भगवान् ऋषभदेव के मोक्ष पधारने, दशवें हरिषेण चक्रवर्ती के ८६ हजार वर्ष चक्रवर्ती पद पर रहने और भगवान् शान्तिनाथ की ८६००० साध्वियां होने का उल्लेख है। समवाय संख्या ६० में भगवान् अजितनाथ और शान्तिनाथ इन दोनों तीर्थंकरों के ९०-६० गण और उतने ही गणधर बताये गये हैं। समवाय संख्या ६१ में भगवान् कुंथुनाथ के अवधिज्ञानी साधुओं की संख्या ६१००० बताई गई है । ६२ वीं समवाय में बतलाया गया है कि स्थविर इन्द्रभूति ६२ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर सिद्ध हुए। ६३ वीं समवाय में भगवान् चन्द्रप्रभ के ६३ गण और ६३ गणधर तथा शान्तिनाथ के ६३०० चतुर्दश पूर्वधर होने का उल्लेख है। ६४ वीं समवाय में भगवान अजितनाथ के १४०० अवधिज्ञानी बताये गये हैं । ६५ वें समवाय में भगवान् सुपार्श्वनाथ के ६५ गण एवं ६५ गणधर होने, भगवान् कुंथुनाथ के ६५००० वर्ष और स्थविर मौर्यपुत्र के ६५ वर्ष के प्रायु Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [४. समवायांग भोग के पश्चात् सिद्ध होने का उल्लेख है। समवाय संख्या ६६ में प्रत्येक चक्रवर्ती के ९६ करोड़ गांव होने का उल्लेख है। १७ वीं समचाय में पाठ कर्मों की ६७ उत्तर-प्रकृतियां तथा भगवान् नमिनाथ के समय में हुए हरिषेण चक्रवर्ती के ६७०० वर्ष से कुछ कम गहवास में रहने के पश्चात् दीक्षित होने का उल्लेख है। १८ वीं समवाय में रेवती से ज्येष्ठा पर्यन्त के १६ नक्षत्रों के १८ तारे बताये गये हैं। ६९ वीं समवाय में मेरू पर्वत को भूमि से १६ हजार योजन ऊंचा बताया गया है। १०० वें समवाय में शतभिषा के १०० तारे और भगवान् पार्श्वनाथ एवं स्थविर आर्य सुधर्मा की पूर्ण आयु १००-१०० वर्ष बताई गई है। उपरोक्त १०० समवायों के पश्चात् क्रमशः डेढ सौ, दो सौ, ढाई सौ, तीन सो, साढे तीन सौ, चार सौ, साढे चार सौ, पांच सौ यावत् एक हजार, ११००, दो हजार से १० हजार, एक लाख से आठ लाख तथा कोटि संख्या वाली विभिन्न वस्तुओं का उल्लिखित संख्या के अनुसार पृथक-पृथक ३२ समवायों में संकलनात्मक विवरण दिया गया है । कोटि समवाय में भगवान महावीर के तीर्थकर भव से पहले छठे पोटिल के भव का एक करोड़ वर्ष का श्रामण्य-पर्याय बताया गया है। तदनन्तर कोटाकोटि समवाय में भगवान् ऋषभ देव से भगवान् महावीर के बीच का अन्तर एक कोटाकोटि सागर बताया गया है । कोटाकोटि समवाय के पश्चात् १२ सूत्रों में द्वादशांगी का "गणिपिटक" के नाम से सारभूत परिचय दिया गया है । तदनन्तर १५७ वें सूत्र में समवसरण के वर्णन तथा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की प्रतीत उत्सपिणी एवं अवसर्पिणी के कुलकरों तथा वर्तमान अवसर्पिणी के कुलकरों तथा उनकी भार्याओं का वर्णन करने के पश्चात् वर्तमान अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थंकरों के सम्बन्ध में बड़ा ही महत्वपूर्ण विवरण दिया गया है । तीर्थंकरों से सम्बन्धित उस विवरण में चौबीसों तीर्थंकरों के पिता तथा माता के नाम, तीर्थंकरों के पूर्वभवों के नाम, तीर्थंकरों की शिबिकानों, जन्मभूमियों, देवदूष्य, दीक्षा-साथी, दीक्षा-तप, प्रथम भिक्षादाता, प्रथम भिक्षा का समय, प्रथम भिक्षा में मिले पदार्थ, तीथंकरों के चैत्यवृक्ष, उन चैत्यवृक्षों की ऊंचाई, चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम शिष्यों और प्रथम शिष्याओं के सम्बन्ध में संक्षिप्त एवं परमोपयोगी विपुल जानकारी दी गई है। इसमें यह भी बताया गया है कि तीर्थंकर अन्यलिंग, गृहलिंग अथवा कुलिंग में कभी नहीं होते। ___ सूत्र संख्या १५८ में चक्रवतियों, बलदेवों और वासुदेवों के सम्बन्ध में मावश्यक परिचय और प्रतिवासुदेवों के नाम मात्र दिये गये हैं। यह उल्लेखनीय है कि सभवायांग में प्रतिवासुदेवों की महापुरुषों में गणना नहीं की गई है। सूत्र संख्या १५६ में सर्वप्रथम जम्बूद्वीप के ऐरवत क्षेत्र में हुये इस अवसर्पिणी के २५ तीथंकरों, भरत क्षेत्र की प्रागामी उत्सपिणी के सात कुलकरों, ऐरवत क्षेत्र की भावी उत्सपिणी के १० कुलकरों और भरतक्षेत्र तथा ऐरवत क्षेत्र के आगामी Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. समवायांग ] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा १२६ उत्सर्पिणी काल के चौवीस तीर्थकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों एवं वासुदेवों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी तथा प्रतिवासुदेवों के नाम दिये गये हैं । उपसंहारात्मक अन्तिम सूत्र में समवायांग की एक संक्षिप्त विषयसूची दी गई है । यों तो समवायांग की प्रत्येक समवाय, प्रत्येक सूत्र प्रत्येक विषय के जिज्ञासुत्रों एवं शोधार्थियों के लिए ज्ञातव्य महत्वपूर्ण तथ्यों का महान् भंडार है पर समवायांग के अन्तिम भाग को एक प्रकार से "संक्षिप्त जैन पुराण" की संज्ञा दी जा सकती है । वस्तुतः वस्तुविज्ञान, जैन सिद्धान्त और जैन इतिहास की दृष्टि से समवायांग एक आत्यंतिक महत्व का श्रुतांग है । समवायांग की समवाय संख्या ६२ में इन्द्रभूति गौतम के ९२ वर्ष की आयु पूर्ण करने पर सिद्ध होने तथा समवाय संख्या १०० में प्रार्य सुधर्मा के १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध होने के उल्लेख को तर्क के रूप में प्रस्तुत कर अनेक विद्वान् अपना यह अभिमत प्रकट करते हैं कि समवायांग सूत्र की रचना आर्य सुधर्मा के मोक्षगमन के पश्चात् की गई है । वस्तुस्थिति यह है कि पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने इन्द्रभूति गौतम और प्रार्य सुधर्मा जैसे महापुरुषों की आयु के सम्बन्ध में कहीं आगे चल कर किसी प्रकार का भ्रम न हो जाय, इस दृष्टि से उपरोक्त दोनों समवायों में इस प्रकार के उल्लेख अभिवृद्ध किये हैं। केवल इन दो उल्लेखों को देखकर पूरे समवायांग के लिये इस प्रकार की कल्पना कर लेना कि इसकी रचना पश्चाद्वर्ती काल में की गई है वस्तुतः किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता । स्थानांग सूत्र के परिचय में इस प्रकार की स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है । इस तथ्य को स्वीकार करने में तो किसी भी निष्पक्ष विचारक को किसी प्रकार की हिचक अथवा झिझक नहीं हो सकती कि समवायांग सूत्र का, इसके प्रणयनकाल से लेकर सम्पूर्ण एकादशांगधरों के काल तक जो वृहद् आकार और विशाल स्वरूप था वह आकार और स्वरूप काल के प्रभाव से सिमटते सिकुड़ते प्राज बहुत छोटा रह गया है । समवायांग, नन्दी प्रादि सूत्रों तथा दिगम्बर ग्रन्थों में दी गई इस अंग की पदसंख्या के साथ वर्तमान में उपलब्ध इसकी पदसंख्या का मिलान करने पर यह भलीभांति प्रकट हो जाता है कि इस अंग का बहुत बड़ा भाग विलुप्त हो चुका है । ग्रामों के वृत्तिकार प्राचार्य अभयदेवसूरि ने समवायांग-वृत्ति की प्रशस्ति में बड़े ही मार्मिक शब्दों में शोक प्रकट करते हुये इस तथ्य को स्वीकार किया है कि प्राचीनकाल में समवायांग का १, ४४, ० पदप्रमारण था पर कालप्रभाव से अब उसका बहुत ही छोटा प्रकार अवशिष्ट रह गया है । " १ यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च . चत्वारिंशदहो चतुभिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैश्चुलुका कृति निदधतः कालादि दोषात् तथा, दुखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं माणाः । [समवायागवृत्ति ( अंतस्थ प्रशस्ति ) | Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग ____५. वियाह-पण्पत्ति पांचवां अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति है । इसे भगवती सूत्र के नाम से भी पहिचाना जाता है . समवायांग सूत्र में व्याख्या प्रज्ञप्ति का निम्नलिखित रूप से परिचय उपलब्ध होता है : "व्याख्या प्रज्ञप्ति में जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय, स्व-परसमयोभय, लोक, अलोक और लोकालोक विषयक विस्तृत व्याख्या-चर्चा की गई है। इसकी परिमित वाचनाएं हैं। इसमें संख्यात प्रनयोगद्वार, संख्यात वेढा (छंदविशेष), संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। व्याख्या प्रज्ञप्ति में १ श्रुतस्कन्ध, १०१ अध्ययन, १० हजार उद्देशनकाल, दश हजार समुद्देशनकाल, ३६ हजार प्रश्न एवं उनके उत्तर, २,८८,००० पद और संख्यात अक्षर हैं। व्याख्या प्रज्ञप्ति की वर्णन-परिधि में अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित अस और अनन्त स्थावर पाते हैं। इसमें जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों का वर्णन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदेश दिया गया है।" ___ व्याख्या प्रज्ञप्ति के अध्ययन शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। वर्तमान में इसके ४१ शतक और उनमें से ८ शतक १०५ अवान्तर शतकात्मक हैं। इस प्रकार शतक और अवान्तर शतक इन दोनों की सम्मिलित संख्या १३८ और उद्देशकों की संख्या १८५३ है। व्याख्या प्रज्ञप्ति अन्य सब अंगों की अपेक्षा अतिविशाल अंग है। वर्तमान में इसका पद परिमारण १५७५१ श्लोकप्रमाण है। व्याख्या प्रज्ञप्ति के - वियाह पण्णत्ति, विवाह पण्णत्ति और विबाह पण्पत्ति-ये तीन नाम उपलब्ध होते हैं। वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इसके "वियाह पण्णत्ति" नाम को सर्वाधिक महत्व देकर सर्व प्रथम इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है :- "विविविधा, प्रा-अभिविधिना, ख्या-ख्यानानि भगवतो महावीरस्य गौतमादीन् विनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्याः ताः प्रज्ञाप्यन्ते, भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम् ।" अर्थात् गौतमादि शिष्यों को उनके प्रश्नों के उत्तर में भगवान् महावीर ने अत्युत्तम विधि से जो विविध विषयों का विवेचन किया, वह सुधर्मा स्वामी द्वारा अपने शिष्य जम्बू को प्ररूपित किया गया विशद विवेचन जिसमें दिया हया हो वह व्याख्या प्रज्ञप्ति है। यद्यपि इस अंग का संस्कृत में जहां कहीं भी नाम आया है वहां “व्याख्या प्रज्ञप्ति" ही आया है तथापि वृत्तिकार ने इसके "विवाह पत्ति ' और 'विबाह पण्पत्ति' इन दोनों रूपों की भी व्याख्या की है। "विवाह पगत्ति' - की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है - "विवाह-प्रज्ञप्ति' - अर्थात् जिसमें विविध प्रवाहो की प्रज्ञापना की गई है - वह विवाहपण्णत्ति । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. वियाह-पण्णत्ति] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा इसी प्रकार 'विबाह पण्णत्ति' शब्द की व्याख्या में लिखा है - "वि-बाधाप्रज्ञप्ति' - अर्थात् जिसमें निर्बाध रूप से अथवा प्रमाण से अबाधित निरूपण किया गया है वह विबाह पण्णत्ति है। ___ इन दोनों प्रकार की व्युत्पत्तियों का इस सूत्र के संस्कृत नाम व्याख्या प्रज्ञप्ति से किसी भी प्रकार का मेल नहीं बैठता। ऐसा प्रतीत होता है कि इस आगम का प्राकृत नाम मूलतः वियाहपण्णत्ति ही रहा होगा किन्तु लिपिकों एवं प्रतिलिपिकारों की असावधानी के कारण कहीं विवाह पण्णत्ति और कहीं विबाह पण्णत्ति भी लिख दिया गया होगा। ___ व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक इस पंचम अंग की शैली प्रश्नोत्तर के रूप में है। इन्द्रभूति गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न किये और उन प्रश्नों का भगवान् द्वारा उत्तर दिया गया है। इसी प्रश्नोत्तर के रूप में यह सुविशाल पागम आज विद्यमान है। वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इन प्रश्नोत्तरों की संख्या ३६००० बताई है। उनमें से अनेक प्रश्न और उनके उत्तर छोटे-छोटे हैं । यथा : प्रश्न - भगवन् ! ज्ञान का क्या फल है ? उत्तर - विज्ञान। प्रश्न -विज्ञान का क्या फल है ? उत्तर - प्रत्याख्यान । प्रश्न - प्रत्याख्यान का क्या फल है ? उत्तर - संयम। अनेक प्रश्नोत्तर बहुत बड़े-बड़े हैं। कहीं-कहीं तो एक ही प्रश्न ऐसा है कि उसके उत्तर में पूरा का पूरा एक शतक भर गया है। उदाहरण के रूप में मंखलि गोशालक के सम्बन्ध में जो प्रश्न किया गया है उसके उत्तर में पूरा का पूरा पन्द्रहवां शतक पा गया है। व्याख्या प्रज्ञप्ति के प्रथन में जो प्रश्नोत्तर की शैली अपनाई गई है वह वस्तुतः अति प्राचीन प्रतीत होती है। भट्ट अकलंक ने अचेलक परम्परा के ग्रन्थ राजवार्तिक में व्याख्या प्रज्ञप्ति की इस शैली का उल्लेख किया है।' भगवती सूत्र के ४१ मूल शतक हैं। प्रथम शतक में चलन आदि १० उद्देशक हैं। प्रारम्भ में नमस्कार मंत्र और ब्राह्मी लिपि व श्रत के नमस्कार द्वारा मंगलाचरण किया गया है। प्रश्नोत्थान में महावीर और गौतम का संक्षिप्त परिचय है। तत्पश्चात् चलित आदि ६ प्रश्न, २४ दण्डक के आहार, स्थिति एवं श्वासोच्छ्वास काल का विचार, आत्मारम्भ आदि, संवृत-असंवृत, अनगार और असंयत की देवगति का कारण बताया गया है। स्वकृत दुःख का वेदन, उपपात के असंयत प्रादि १३ बोल, कांक्षामोहनीय आदि २४ दण्डकों के प्रावास - स्थिति ' “एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडकेषु उक्तम् ..... ...." इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम् । [राजवातिक, प्र० ४, सू० २६, पृ० २४५] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५. वियाह-पण्यत्ति आदि स्थान, सूर्यलोक, अलोक, क्रिया, महावीर और रोहक के प्रश्नोत्तर, लोक-- स्थिति में मशक का उदाहरण, जीव और पुद्गल के सम्बन्ध में सछिद्रा नाव का उदाहरण, जीवादि का गुरुत्व-लघुत्व विचार, सामायिक आदि पदों के अर्थ, उपपात विरह आदि का इसमें वर्णन है। . दूसरे शतक में १० उद्देशक हैं जिनमें श्वासोच्छ्वास का विचार, स्कन्दक परिव्राजक के लोक और मरण सम्बन्धी प्रश्न, समाधान के लिये स्कन्दक का महावीर के पास प्रागमन, गौतम द्वारा स्वागत, समाधान पाकर स्कन्दक द्वारा दीक्षाग्रहण, तुंगिया के श्रावकों द्वारा पापित्यों से प्रश्नोत्तर, समुद्घात, सात पृथ्वियां, इन्द्रियवर्णन, उदग्गर्भविचार, तिर्यग्गर्भ, मानुषी गर्भ, मनुष्य और तिर्यंच स्त्री के बीज की स्थिति, एक जीव के पिता-पुत्र का उत्कृष्ट परिमाण आदि का उल्लेख है । तीसरे शतक में १० उद्देशक हैं जिनमें तामली तापंस की साधना, नियाग नहीं करने से दूसरे स्वर्ग में उत्पाद, प्रणामा प्रव्रज्या, दूसरे उद्देशक में चमरेन्द्र के पूर्वभव पूरण तापस की दानाभा प्रव्रज्या, सौधर्म देवलोक जाना, महावीर की शरण में आना आदि, उद्देशक ३ में क्रिया-विचार, उद्देशक ४ में अनगार वैक्रिय, उद्देशक ५, ६ में भी विक्रिया, उद्देशक ७ में लोकपाल सोम आदि और उनके कार्य का उल्लेख है। शतक ४ में १० उद्देशक हैं। पाँचवें शतक के १० उद्देशकों में से ७वें उद्देशक में नारदपुत्र और निग्रन्थीपुत्र का सम्वाद है। शतक ६ में वेदना आदि १० उद्देशक हैं, उनमें महावेदना में भी नरक की अल्प निर्जरा, श्रमण निर्ग्रन्थ की महानिर्जरा, निर्जरा के लिये कर्दम राग और खंजन राग के वस्त्र का उदाहरण, अग्नि में सूखे तृणों की पूली और तपे हुए तवे पर जलाबन्दु के समान श्रमण के कर्मभोग महानिर्जराजनक होते हैं, अल्पवेदन - महानिर्जरा की सोदाहरण चौभंगी, मूहुर्त के श्वासोच्छवास और कालंमान, पावलिका से उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, पृध्वियां, बंध आदि का उल्लेख है । ___७वें शतक में प्राहार प्रादि १० उद्देशक हैं। उनमें आहारक-अनाहारक कम की गति, पच्चखाण के भेद और स्वरूप, साता-असाता के बन्ध-कारण और छठे पारे का छठे उद्देशक में वर्णन किया गया है। महाशिला कण्टक और रथमृसल संग्राम का वर्णन, वरुण नाग का अभिग्रह और दिव्य गति - ये इस शतक के महत्वपूर्ण उल्लेख है। वें शतक में १० उद्देशक हैं। प्रथम में पुद्गल, दूसरे में प्राशीविष और शानलन्धि, तीसरे में वृक्ष, पांचवें में ३६ भांगा, श्रावक और आजीवक उपासक. की तुलना, छठे में तीन प्रकार के दान, एकान्त निर्जरा आदि, आठवें में प्राचार्य प्रादि के प्रत्यनीक, ५ व्यवहार बन्ध आदि, वें और १०वें उद्देशकों में बन्ध आदि का वर्णन किया गया है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. वियाह- पण्णत्त ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १३३. हवें शतक में ३४ उद्देशक हैं, जिनमें असोच्चा केवली, गांगेयभंग और ऋषभ दत्त - देवानन्दा व जमाली के बोध आदि का वर्णन है । १० वे शतक में २८ अन्तद्वीप आदि के ३४ उद्देशक हैं । ११ वें शतक में १२ उद्देशक हैं। इनमें शिवराज ऋषि की प्रव्रज्या, सुदर्शन श्रेष्ठ के कालविषयक प्रश्न का उत्तर, महाबल का वर्णन, श्रालंभिका के इसिभद्रपुत्र श्रावक पुद्गल का वर्णन आदि है । यह परिव्राजक पुद्गल भगवान् महावीर के पास दीक्षित होकर सिद्ध बुद्ध हुए । १२ वें शतक में शंस्त्र आदि १० उद्देशक हैं । इसमें सावत्थी के शंख एवं पोखली श्रावक और उनके द्वारा सामूहिक रूप से खा पीकर पाक्षिक पौषधविचार, उपासिका उत्पला का पुष्कली श्रमणोपासक के प्रति शिष्टाचार प्रादि का वर्णन हैं । दूसरे उद्देशक में श्रमरगोपासिका जयन्ती द्वारा भगवान् महावीर से तात्विक प्रश्नोत्तर, उदायी राजा द्वारा भगवद्वन्दन आदि का तथा तृतीय उद्देशक में सात पृथ्वियां और चौथे उद्देशक में पुद्गलपरिवर्तन का विचार है। पांचवें उद्देशक में रूपी प्ररूपी, छठे में राहु का, सातवें उद्देशक में लोक, आठवें उद्देशक में नाग के रूप में देव की उत्पत्ति और उसका एकाभवावतारीपन, नौवें में ५ देव, तथा दशवें में ८ प्रकार की आत्मा का वर्णन है । १३ वें शतक में १० उद्देशक हैं। प्रथम ६ उद्देशकों में क्रमशः सात पृथ्वियों में नारक जीवों की उत्पत्ति आदि, चार जाति के देव, नारक, पृथ्वी, नारक का आहार, उपपात, राजा उद्दयन द्वारा भगवद्वन्दन, प्रव्रज्या का विचार, पुत्र भी के हितार्थ केशी का राज्याभिषेक, उदयन की दीक्षा, प्रभीचि कुमार का मनोमालिन्य और कूरिणक के पास गमन, अभीचिकुमार द्वारा श्रावकधर्मग्रहण और अनालोचनापूर्वक मरण के कारण असुर योनि में उत्पन्न होने का वर्णन है । सातवें उद्देशक में भाषा, मन, काय और मरण का विचार है । श्राठवें उद्देशक में कर्मप्रकृति, वें उद्देशक में अनगार की विक्रिया और दसवें में ६ समुद्घात का वर्णन है । १४ वे शतक में १० उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में भावितात्मा अनगार की देवावास में उत्पत्ति, नैरयिकों की शीघ्र गति और प्रायुबन्ध, दो में उन्माद आदि, तीन में मध्यगति, विनय प्रार पुद्गल प्रादि, ४ में पुद्गल, पांच में अग्नि, छः में आहार, ७ में गौतम को केवलज्ञान की प्रप्राप्ति से खिन्नता और भगवान् द्वारा उन्हें केवलज्ञान-प्राप्ति होने व अपने समान ही अक्षय पदप्राप्ति का प्राश्वासन आदि, आठवें उद्दे शक में अन्तर, शालवृक्ष की पूजा, अम्बड़ परिव्राजक, जृम्भक देव आदि, नौवें में अनगार और दशवें में केवली के ज्ञान का वर्णन है । पन्द्रहवें शतक में कोई उद्दे शक नहीं है। इसमें गोशालक का परिचय, भगवान् महावीर की दीक्षा, भगवान् का प्रथम वर्षावास अस्थिग्राम में, दूसरा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५. वियाह-पण्णत्ति राजगृह में, दान की महिमा देखकर गोशालक का आगमन और छः वर्ष तक भगवान् के साथ विहार, तिल के पौधे को देख कर गोशालक की भगवान से पृच्छा से लेकर गोशालक को तेजोलेश्या की प्राप्ति एवं उसके द्वारा भविष्य-कथन तक का वृत्तांत है। १६ वें शतक के १४ उद्देशक हैं, जिनमें से पहले में अधिकरण, दूसरे में जरा, शोक, अवग्रह, शक्रेन्द्र की भाषा आदि, तीसरे उद्दे शक में कर्म-क्रियाविचार, चौथे में अधिक निर्जरा के हेतु, पांचवें में गंगदेव, छठे में स्वप्नविचार, सातवें में उपयोग, आठवें में लोक, नौवें में बली इन्द्र, दशवें में अवधिज्ञान, ग्यारहवें में द्वीपकुमार, बारहवें में उदधिकुमार, तेरहवें में दिशाकुमार और चौदहवें उद्देशक में स्तनितकुमार का वर्णन है । १७ वें शतक में १७ उद्देशक हैं। पहले उद्दे शक में उदायी हस्ती और क्रियाविचार, दूसरे में धार्मिक-अधार्मिक, धर्म, अधर्म, धर्माधर्म, जीव-बाल, पंडित और बालपण्डित आदि, तीसरे में शैलेषी विचार, चौथे में क्रिया, पांचवें में सुधर्मा सभा, छठे-सातवें में पृथ्वीकायिक, आठवें और नौवें में अपकायिक, दशवें-ग्यारहवें में वायुकायिक, १२ वें में एकेन्द्रिय, तेरहवें में नागकुमार, चौदहवें में स्वर्णकुमार, पन्द्रहवें में विद्युत्कुमार, १६ वें में वायुकुमार और १७ वें में अग्निकुमार का वर्णन है। -- १८ वें शतक में १० उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में प्रथम तथा अप्रथम का विचार, दूसरे में विशाखा नगर के कार्तिक सेठ की तपस्या, तीसरे में माकंदीपुत्र का स्थविरों से प्रश्नोत्तर, चार में प्राणातिपात, पांच में असुरकुमार, छः में गुड़ आदि के वर्ण प्रभृति, सात में केवली, उपधि, परिग्रह, मद्रक श्रावक के साथ अन्यतीथिक के प्रश्नोत्तर, देवासुरसंग्राम, पाठवें में अनगार क्रिया, नौवें में भव्य, द्रव्य, जीव, दशवें में सोमिल का भगवान् महावीर से शंकासमाधान, साधना, निर्वाण आदि का वर्णन किया गया है। १६ वें शतक में १० उद्देशक हैं। २० वें शतक में १० उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में द्विन्द्रिय आदि जीवों के शरीर बन्ध आदि, दूसरे में प्राकाश, तीसरे में प्राणिवध प्रादि.१८ पाप और पापविरक्ति आदि, चौथे में इन्द्रियोपचय, पांचवें में परमाणु आदि, छठे में अन्तर प्रादि, सातवें में बन्ध, पाठवें में कर्मभूमि अकर्मभूमि, तीर्थकर और अन्तरकाल, कालिक सूत्र का विच्छेद-अविच्छेद, पूर्वज्ञान की स्थिति, तीर्थ, तीर्थंकर प्रादि, नौवें उद्देशक में चारणमुनि, और दशवें उद्देशक में सोपक्रम, निरुपक्रम आयु आदि का वर्णन है। २१ वे शतक में ८ वर्ग और प्रत्येक वर्ग में दश-दश के हिसाब से ८० उद्देशक हैं। २२ व शतक में ६ वर्ग और छहों वर्गों में – प्रत्येक वर्ग के दश-दश उदेशक के हिसाब से कुल ६० उद्देशक हैं । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. विग्राह-पपत्ति ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १३५. २३ वें शतक में ५ वर्ग और प्रत्येक वर्ग के दश दश उद्देशक के हिसाब से कुल ५० उद्देशक हैं । २४ वें शतक में २४ उद्देशक हैं । २५ वें शतक में १२ उद्देशक हैं। पहले में लेश्या और योग का, दूसरे में द्रव्य का, तीसरे में संस्थान, गरिपिटक, अल्पबहुत्व, चार में युग्म और पर्याय, अल्प बहुत्व आदि, पांचवें में कालपर्यव और दो प्रकार के निगोद, छठे में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ का ३६ द्वारों से वर्णन, सातवें में पांच प्रकार के संयम का ३६ द्वार से वर्णन करके दश प्रतिसेवना, दश आलोचना दोष, दश प्रालोचनायोग्य, दश समाचारी, दश प्रायश्चित्त, और तप के बारह भेदों का विस्तृत वर्णन है । प्राठव उद्देशक में समुच्चय नारक, नौवें में भव्य नारक, दशवें में प्रभव्य नारक, ग्यारहवें में समदृष्टि और बारहवें में मिथ्यादृष्टि नारक की उत्पत्ति मादि के सम्बन्ध में विचार किया गया है । २६ वें शतक में ११ उद्देशक हैं। पहले में जीव के पापबन्ध का विचार दूसरे में अनन्तरोपपन्न, तीसरे में परंपरोपपन्न, चौथे में अनन्तरावगाढ़, पांचवें उद्देशक में परम्परावगाढ़, छठे में अनन्तराहारक, सातवें में परम्पराहारक, पाठवें में प्रन्तर्पर्याप्त, नौवें में परम्परपर्याप्त, दशवें में चरम और ११ वें में प्रचरम चौवीस दण्डक के जीवों में बन्ध कहा गया है । २७ वें शतक में ११ उद्देशकों से पाप कर्म के बन्ध का विचार किया गया है । २८ वे शतक में ११ उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में भूतकाल के बन्ध प्रादि का वर्णन किया गया है और शेष १० उद्देशक २६ वें शतक के उद्दे शकों के समान हैं । २९ वे शतक में ११ उद्दे शक हैं जिनमें से पहले अध्ययन में पाप कर्मों के वेदन का विवरण दिया गया है और शेष १० उद्देशक छब्बीसवें शतक के उद्देशकों के समान हैं । ३० वे शतक में ११ उद्देशक हैं। पहले उद्दे शक में चार समवसरण मौर जीव के सम्बन्ध का विवेचन किया गया है । शेष दश उद्देशक २६ वें शतक के उद्देशकों के समान हैं । ३१ वें शतक में २८ उद्देशक हैं जिनमें चार युग्म से नरक के उपपात का विवरण दिया गया है । ३२ वें शतक में २८ उद्दे शक हैं जिनमें नारक का उद्वर्तन ३१ वे शतक के समान बताया गया है । ३३ वें शतक में १२ अवान्तरशतक हैं जिन्हें १२ एकेन्द्रिय शतक के नाम से सम्बोधित किया गया । प्रथम ८ श्रवान्तरशतकों के ११-११ और अंतिम ४ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [५. वियाह-पण्णति के ६-६ उद्देशक के हिसाब से इस तेतीसवें शतक के कुल १२४ उद्दे शक हैं । प्रथम एकेन्द्रिय शतक के प्रथम उद्देशक में एकेन्द्रिय के पृथ्वी, आप, तेज वायु और वनस्पति ये पांच भेद और उनके उपभेद बताते हुए उनके कर्मप्रकृतियों के बन्धन एवं वेदन का और शेष १० उद्दे शकों में क्रमशः अनन्तरोपपत्र एकेन्द्रिय, परम्परोपपन्न एकेन्द्रिय अनन्तरावगाढ़ पंचकाय, परम्परावगाढ़ पंचकाय, अनन्तराहारक पंचकाय, परम्पराहारक पंचकाय, अनन्तर पर्याप्त पंचकाय, परम्पर पर्याप्त पंचकाय, चरम पंचकाय और प्रचरम पंचकाय आदि के सम्बन्ध में सूक्ष्म विवेचन किया गया है। द्वितीय एकेन्द्रिय शतक ( श्रवान्तरशतक) में कृष्णलेश्यी, तृतीय में नील लेश्यी चौथे में कापोतलेश्यी, पांचवें में भवसिद्धिक, छठे में कृष्णलेश्यायुक्त भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, सातवें में नील लेश्या के साथ, आठवें में कापोतलेश्या के साथ, नौवें में प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय, दशवें में कृष्णलेश्यी, ग्यारहवें में नीललेश्यी और बारहवें में कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय प्रभव्य का विवेचन किया गया है । ३४ वें शतक में १२ अवान्तरशतक और प्रथम आठ अवान्तर शतकों के ११-११ उद्देशक और अन्तिम चार प्रवान्तरशतकों के ६-६ उद्देशक के हिसाब से इस ३४ वें शतक में कुल १२४ उद्देशक हैं । प्रथम एकेन्द्रिय शतक समुच्चय में अनन्तरोपपन्न से प्रचरम तक ११ उद्देशक हैं । दूसरे में कृष्णलेश्यी, तीसरे में नीललेश्यी, चौथे में कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय, पांचवें में भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, छठे में कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक, सातवें में नीललेश्यायुक्त मन, आठवें में कापोत लेश्यायुक्त मन का विवेचन है । इन आठों अवान्तरशतकों के ग्यारह - ग्यारह उद्देशक हैं । नौवें अवान्तर शतक में प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय, दशवं प्रवान्तरशतक में कृष्णलेश्यी, ग्यारहवें में नीललेश्या, वारहवें में कापोतलेश्यायुक्त प्रभवसिद्धिक का वर्णन है । इन चारों प्रवान्तर शतकों के प्रत्येक के ६-६ उद्देशक हैं । ३५ वें शतक में भी प्रथम एकेन्द्रिय महायुग्म शतक से लेकर द्वितीय, तृतीय यावत् द्वादश एकेन्द्रिय महायुग्म शतक तक बारह प्रवान्तरशतक हैं । इनमें पहले अवान्तरशतकों में ग्यारह ग्यारह उद्देशक और अन्त के ४ अवान्तरशतकों के - उद्देशक हैं। इस प्रकार इस ३५ वें शतक के कुल मिलाकर १२४ उद्देशक हैं । के प्रथम एकेन्द्रिय महायुग्म शतक (अवान्तरशतक) के पहले उद्देशक में महायुग्म के १६ भेद, उनके हेतु, कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय का उपपात, एक समय के उपपात, जीवों की संख्या, कृतयुग्म - कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रियों के आठ कर्मों के बन्ध-वेदन, साता असाता वेदन, इनकी लेश्याएं शरीर के वर्ण - अनु'वन्धकाल, सर्व जीवों के इस राशि में उत्पाद प्रादि २० स्थानों का निरूपण किया गया है । द्वितीय उद्देशक में प्रथम संमयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के उत्पाद श्रौर अनुबन्ध का निरूपण, तृतीय उद्दे शक में प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. विवाह-पण्णत्ति] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १३७ प्रमारण एकेन्द्रियों के उत्पाद का, चौथे में चरम समय, पांचव में अचरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म प्रमाण के एकेन्द्रियों के उत्पाद का, छठे में प्रथम समय, सातवें में प्रथम अप्रथम समय, पाठवें में प्रथम चरम समय, नौवें में प्रथम अचरम समय, दशवें में चरम-अचरम समय और ग्यारहवें में चरम-अंचरम समय कृतयुग्म-कृतयुग्म प्रमाण एकेन्द्रियों के उत्पाद का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय चतुर्थ यावत् बारहवें अवान्तरशतक में क्रमशः कृष्णलेश्य, नीललेश्य, कापोतलेश्य, भवसिद्धिक, कृष्णलेश्य भवसिद्धिक,नीललेश्य भवसिद्धिक कापोतलेश्य भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, कृष्णलेश्य प्रभवसिद्धिक, नीललेश्य अभवसिद्धिक और कापोतलेश्य अभवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म प्रमाण एकेन्द्रियों के उत्पाद का प्रथम अवान्तरशतक के समान वर्णन किया गया है । - ३६ वें शतक में १२ अवान्तर शतक और उनके कुल मिलाकर १२४ उद्देशक हैं। इन बारहों अवांन्तर शतकों में बेइन्द्रिय महायुग्म के उत्पाद आदि का वर्णन किया गया है अतः इनके नाम प्रथम, द्वितीय, यावत् द्वादश बेइन्द्रिय महायुग्म शतक रखे गये हैं। इनमें से प्रथम आठ अवान्तर शतकों के ग्यारह-ग्यारह उद्देशक और शेष चार के ६-६ उद्देशक हैं। इन सब अवान्तरशतकों के उद्देशकों में ३५ वें शतक के एकेन्द्रिय महायुग्म अवान्तर शतकों के उद्देशकों के समान ही बेइन्द्रियों के उत्पाद अनुबन्ध और लेश्याओं के अनुक्रम से कृतयुग्म-कृतयुग्म बेइन्द्रियों का वर्णन किया गया है। ३७ वें शतक में भी १२ अवान्तर शतक हैं। इसमें कुल मिलाकर १२४ उद्देशक हैं। इस शतक में कृतयुग्म-कृतयुग्म त्रीन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि का पैतीसवें शतक के समान ही वर्णन किया गया है। - ३८ वें शतक में १२ अवान्तरशतक और १२४ उद्देशक हैं। इस शतक में ३४ वें शतक के समान कृतयुग्म-कृतयुग्म चतुरिन्द्रियों के उत्पाद आदि का वर्णन किया गया है। ३६ वें शतक में भी १२ अवान्तरशतक और १२४ उद्देशक हैं जिनमें ३४ वें शतक के सनान ही असंज्ञी पंचेन्द्रियों के उपपात आदि का वर्णन किया गया है। ४० वें शतक में २१ अवान्तरशतक और प्रत्येक के ग्यारह-ग्यारह उद्देशक के हिसाब से कुल मिलाकर २३१ उद्देशक हैं। इस शतक में संज्ञी पंचेन्द्रिय महायुग्मों के उत्पाद आदि का ३४ वें शतक के. अनुसार ही वर्णन किया गया है। ४१ वें (अन्तिम) शतक में कुल मिलाकर १६६ उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में राशियुग्म के चार भेद, उन भेदों के हेतु कृतयुग्म राशि प्रमाण चौवीस दण्डकों के जीवों के उपपात, सान्तर अथवा निरन्तर उपपात, कृतयुग्म के साथ अन्य राशियों के सम्बन्ध का निषेध जीवों के उपपात की पद्धति, उपपात का हेतु, प्रात्मा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५. वियाह-पण्णत्ति का प्रसंयम प्रादि का वर्णन करने के पश्चात् सलेश्य और सक्रिय प्रात्म असंयमी और क्रिया रहित की सिद्धि प्रादि का निरूपण किया गया है । ___ द्वितीय उद्देशक में त्र्योज राशि प्रमाण चौवीस दण्डक के जीवों का उपपात, तृतीय में द्वापर और चतुर्थ में कल्योज राशि प्रमाण चौवीस दण्डकों के जीवों के उपपात के विषय में विवरण दिया गया है । पंचम उद्देशक में कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म प्रमाण, छठे में कृष्ण लेश्या व्योज राशि प्रमाण, सातवें में कृष्ण लेश्या वाले द्वापर युग्म प्रमाण और पाठवें में कृष्ण लेश्या वाले कल्योज प्रमाण चौवीस दण्डकों के जीवों के उपपात का वर्णन किया गया है। , नवमें से १२ वें उद्देशक में नीललेश्या वाले, तेरहवें से सोलहवें उद्देशक में कापोत लेश्या वाले, सत्रहवें से बीसवें उद्देशक में तेजोलेश्या वाले, २१ वें से चौबीसवें उद्देशक में पद्म लेश्या वाले, और पच्चीसवें से २८ वें उद्देशक में शुक्ललेश्या वाले चार राशि युग्म प्रमाण चौवीस दण्डकों के जीवों के उपपात का वर्णन किया गया है। २६ ३ से ५६ वें उद्देशक में चार राशि युग्मप्रमारण भवसिद्धिक, ५७ से ८४ ३ उद्देशक में चार राशि युग्मप्रमाण अभवसिद्धिक, ८५ से ११२ वें उद्देशक में चार राशि युग्मप्रमाण सम्यग्दृष्टि भवसिद्धिक, ११३ ३ से १४० वें उद्देशक में चार राशि युग्मप्रमाण मिथ्यादृष्टि भवसिद्धिक कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या वाले चौवीस दण्डक के जोवों के उपपात का वर्णन किया गया है। .. १४१ वें से १६८ वें उद्देशक में चार राशि युग्मप्रमाण कृष्णपक्षी और १६६ वें से १६६ उद्देशक में चार राशि युग्मप्रमाण शुक्लपक्षी चौवीस दण्डकों के जीवों के उपपात का वर्णन किया गया है। व्याख्या प्रज्ञप्ति में भगवान् महावीर के जीवन का, उनके शिष्यों, भक्तों, गृहस्थ अनुयायियों, अन्य तीथिकों एवं उनकी मान्यताओं का विस्तृत परिचय दिया गया है। गौशालक के सम्बन्ध में जितना विस्तृत परिचय इस अङ्ग में मिलता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। इसके साथ ही साथ भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायियों तथा चातुर्याम धर्म के सम्बन्ध में व्याख्या प्रज्ञप्ति में स्थान-स्थान पर विवरण मिलते हैं। भगवान महावीर के पंचमहाव्रत धर्म से प्रभावित होकर अनेक पापित्यों ने चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंचमहाव्रत धर्म अंगीकार किया, इस प्रकार के विवरण व्याख्या प्रज्ञप्ति में बहुलता से उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त कूणिक और महाराज चेटक के बीच हुए महाशिलाकण्टक संग्राम एवं रथमुसल संग्राम नामक दो महायुद्धों का व्याख्याप्रज्ञप्ति में बड़ा ही Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. बियाह - पण्णत्ति ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा मार्मिक वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है क्रमशः ८४ लाख और ६६ लाख योद्धा दोनों पक्षों के १३६ कि उन दोनों महायुद्धों में मारे गये । १ व्याख्या प्रज्ञप्ति के २१ वें, २२ वें और २३ वें शतकों में जो वनस्पतियों का वर्गीकरण किया गया है वह अनुपम है । इस प्रकार व्याख्या प्रज्ञप्ति में ३६ हजार प्रश्नोत्तरों के रूप में विविध विषयों का अथाह ज्ञान संकलित कर लिया गया है जो जैन सिद्धान्त, इतिहास, भूगोल, राजनीति आदि अनेक दृष्टियों से बड़ा ही महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ प्राध्यात्मिक तत्व की कुंजी की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। तत्कालीन, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों पर व्याख्या प्रज्ञप्ति में दिये गये अनेक विवरण समीचीन रूप से साधिकारिक प्रकाश डालते हैं । इस पंचम अंग में देवगति प्राप्त करने वाले प्राणियों के सम्बन्ध में विचार करते हुए यह बताया गया है कि संयम का निरतिचार रूप से पलन करने वाले केवल बाहरी रूप से संयम का पालन करने वाले, असंयत, संयम के विराधक, श्रावकधर्म का न्यूनाधिक रूपेरण पालन करने वाले, श्रसंज्ञी जीव, तापस जो जिन प्रवचनों का पालन नहीं करते, कांदर्पिक, चरक अर्थात् त्रिदण्डी, लंगोटधारी परिव्राजक, कपिल के शिष्य, ज्ञानियों, साधुत्रों तथा धर्माचार्यों की निन्दा करने वाले, किल्विषिक अर्थात् बाह्य रूप से जैन श्रमरणाचार का पालन करने वाले और जिन मार्गानुयायी तियंच कम से कम और अधिक से अधिक किन-किन देवयोनियों में उत्पन्न हो सकते हैं । इस विवरण में बौद्ध भिक्षुकों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, यह केवल विचारणीय ही नहीं अपितु गहन शोध का विषय भी है । क्या वस्तुतः इस अंग की रचना के समय तक बौद्ध धर्म का इतना प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया था अथवा कोई अन्य कारण रहा है जिससे कि बौद्ध धर्म के भिक्षुग्रों का इस प्रकरण में नामोल्लेख तक नहीं किया गया है ? सभी विद्वानों का यह तो निश्चित श्रभिमत है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति का विषयवर्णन प्रति प्राचीन श्रौर प्राचार्य - परम्परागत है तथापि इसमें द्वादशांगी के पश्चादुवर्ती काल में रचित भागमों-रायपसेण इज्ज, उववाइय, पण्णवरणा, जीवाभिगम तथा नंदी प्रादि का उल्लेख करके अनेक स्थलों पर इसके विवरणों को तथा पूरे के पूरे उद्दे शकों को संक्षिप्त कर दिया गया हैं ।" यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब रायपसेर इज्ज आदि उपर्युक्त श्रागमों की रचना द्वादशांगी के पश्चात् हुई है तब पूर्वरचित व्याख्या प्रज्ञप्ति में बाद की रचनाओं के उल्लेख किस कारण किये गये हैं ? नन्दीसूत्र तो निश्चित रूप से वीर निर्वारण सं० ६५० के प्रास-पास की, वल्लभी-वाचना के सूत्रधार एवं नायक देवगिरिण क्षमाश्रमरण की संकलना मानी गई है। विस्तृत जानकारी के लिये देखिये "जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग", १० ५१-५२३ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [५. वियाह-पत्ति इस प्रकार की शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है । सामान्य रूप से जिस ग्रन्थ में किसी अन्य सूत्र अथवा सूत्रकार का नाम उपलब्ध होता है उसे, जिस ग्रन्थ में उसका उल्लेख है उस ग्रन्थ की रचना से पूर्ववर्ती माना जाता है किन्तु जैन सूत्रों पर इस प्रकार की बात घटित नहीं होती । कारण कि रचना के भी पश्चात् सूत्र शताब्दियों तक गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलते रहे । वीर - निर्वाण ६८० में सूत्र अन्तिम रूप से लिपिबद्ध किये गये । ऐसा प्रतीत होता है कि श्रागमों को लिपिबद्ध करते समय इस नियम का पालन करना आवश्यक नहीं समझा गया कि जिस अनुक्रम से आगमों की रचना हुई है उसी क्रम से उनको लिपिबद्ध किया जाय । इसके परिणामस्वरूप पश्चाद्वर्ती काल में रचित कतिपय श्रागमों का लेखन सुविधा की दृष्टि से पहले सम्पन्न कर लिया गया । तदनन्तर रचनाक्रम की दृष्टि से प्रथम, द्वितीय, तृतीय प्रादि स्थान पर माने जाने वाले श्रागमों का लेखन किया गया तो पश्चाद्वर्ती श्रागम होते हुए भी जो पहले लिपिबद्ध कर लिये गये थे और उनमें पूर्ववर्ती जिन प्रांगमों के जो-जो पाठ अंकित हो चुके थे उन पाठों की पुनरावृत्ति न हो इस दृष्टि से बाद में लिपिबद्ध किये जाने वाले पूर्ववर्ती भागमों में " ज़हा नन्दी" आदि पाठ देकर पश्चाद्वर्ती आगमों और श्रागमपाठों का उल्लेख कर दिया गया । यह केवल पुनरावृत्ति को बचाने की दृष्टि से किया गया। इससे मूल रचना की प्राचीनता में किसी प्रकार की किंचित् मात्र भी न्यूनता नहीं प्राती । हो सकता है उस समय आगमों को लिपिबद्ध करते समय पुनरावृत्ति के दोष से बचने के साथ-साथ इस विशाल पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति के प्रति विशाल स्वरूप एवं कलेवर को थोड़ा लघु स्वरूप प्रदान करने की भी उन देवगिरिग क्षमाश्रमरण प्रादि प्राचार्यों की दृष्टि रही हो । १४० इसके अतिरिक्त अन्य भी मन्दमेघा आदि कारण व्याख्या प्रज्ञप्ति के कलेवर को छोटा बनाने के हो सकते हैं अथवा नहीं इस पर इतिहास के विशेषज्ञ मुनि एवं विद्वान् प्रकाश डालने का सद्प्रयास करेंगे, ऐसी आशा है । अपरनाम - भगवती इस पंचम अंग का अपर नाम भगवती सूत्र भी है जो वियाह पष्णत्ति ( व्याख्या प्रज्ञप्ति) नाम की अपेक्षा प्रसिद्ध एवं प्रचलित । अन्य सभी अंगों की अपेक्षा अधिक विशाल इस व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक पंचम अंग में भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर द्वारा प्रभु के समक्ष प्रस्तुत किये गये प्रश्नों एवं भगवान् द्वारा दिये गये उनके तात्विक उत्तरों का सुविशाल संकलन होने के कारण इसके प्रति सर्वाधिक, सम्मान, आदर और पूज्यभाव प्रकट करने हेतु बहुत सम्भव है कि विगत कतिपय शताब्दियों से वियाहपण्णत्ति नामक इस पंचम अंग को भगवती सूत्र इस प्रति सम्माननीय नाम से सम्बोधित किया जाने लगा हो । आज तो चतुविध तीर्थ में यह पंचम अंग भगवती सूत्र के नाम से ही लोकप्रिय है । : Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. विवाह पम्पत्ति] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा १४१ व्यास्याप्राप्ति का उपलब्ध स्वरूप व्याख्याप्राप्ति नामक पंचम अंग के प्रारम्भ में, तथा १५, १७, २३ एवं २६ इन चार शतकों के प्रारम्भ में और इस अंग के सम्पूर्ण होने पर अन्त में - इस प्रकार कुल मिलाकर ६ स्थानों पर मंगलाचरण किया गया है। इस सूत्र के प्रारम्भ में सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र से और तदनन्तर "णमो बंभीयस्स लिवियस्स" तथा "मो सुयस्स" इन पदों द्वारा मंगलाचरण किया गया है। इसके पश्चात् शतक संख्या १५, १७, २३ और २६ के प्रारम्भ में"णमो सुयदेवयाए भगवईए"- इस पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है । व्याख्याप्रज्ञप्ति के अन्त में दिये गए "इक्कचत्तालीसइमं रासी जुम्मसयं समत्त"- इस समाप्तिसूचक पद से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि इस पंचम अंग के १०१ शतक (अध्ययन) थे उनमें से केवल ४१ शतक ही अवशिष्ट रहे हैं शेष सब विलुप्त हो चुके हैं। उपरोक्त समाप्तिसूचक पद के पश्चात् यह उल्लेख किया गया है कि भगवती में सब शतकों की (अवान्तरशतकों को मिलाकर) संख्या १३८ और उद्देशकों की संख्या १९२५ है।' प्रथम शतक से ३२वें शतक तथा ४१वें शतक के कोई अवान्तरशतक नहीं हैं। ३३वें शतक से ३६वें शतक तक के ७.शतक बारह-बारह अवान्तर शतकों के तया ४०वां शतक २१ अवान्तर शतकों का समूह है. अतः इन ८ शतकों की गणना १०५ प्रवान्तर शतकों के रूप में की गई है। इस प्रकार अवान्तर शतक रहित उपरोक्त ३३ शतकों और १०५ अवान्तरशतकात्मक शेष ८ शतकों को मिलाकर व्याख्याप्रज्ञप्ति के शतकों तथा अवान्तर शतकों की सम्मिलित संख्या १३८ बताई गई है वह तो ठीक है परन्तु उपरोक्त संग्रहणी पद में जो उद्देशकों की संख्या १९२५ बताई गई है, उसका आधार खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होता। व्याख्या प्रज्ञप्ति के मूल पाठ में इसके शतकों एवं अवान्तरशतकों के उद्देशकों की संख्या दी गई है, केवल ४०वें शतक के २१ अवान्तरशतकों में से अन्तिम १६ से २१ इन ६ प्रवान्तरशतकों के उद्देशकों की संख्या स्पष्ट रूप में नहीं दी गई है परन्तु जिस प्रकार इस शतक के पहले से १५वें अवान्तर शतक तक प्रत्येक की उद्देशक संख्या ११ बताई गई है उसी प्रकार उक्त शेष ६ अवान्तर शतकों में से प्रत्येक की उद्देशक संख्या ११-११ मान ली जाय तो व्याख्याप्रज्ञप्ति के कुल उद्देशकों की संख्या १८८३ होती है । कुछ प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में केवल "उद्देसगारण" इतना ही पाठ देकर संख्या का स्थान रिक्त छोड़ दिया गया है। इसके पश्चात् एक गाथा द्वारा इस पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति की पदसंख्या 'सव्याए भगवईए पट्ठतीस सयं सयारणं (१३८) उद्दे सगाण १९२५ (व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक ४१ के पश्चात् ) Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५. विवाह पण्णत्ति ८४ लाख पद बताई गई है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सरि ने व्याख्या प्रज्ञप्ति की टीका में इस पर "विशिष्टसम्प्रदायगम्यानि" केवल इतना ही लिखा है। इससे आगे की गाथा में संघ की समुद्र के साथ तुलना करते हुए उसकी स्तुति की गई है। इसके पश्चात् गौतम आदि गणधरों को, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति मौर द्वादशांगी रूप गरिणपिटक को नमस्कार किया गया है। तदनन्तर प्रतिलिपिकार ने कच्छप के समान सुगुप्त चरणों वाली कोरंट वृक्ष के अम्लान (नवविकसित) कुसुम की कली के समान मनोहर भगवती श्रुतदेवी से प्रार्थना की है कि वह उसके अज्ञानान्धकार को विनष्ट करे । ३ श्रुतदेवी की स्तुति के पश्चात् व्याख्याप्रज्ञप्ति के पठन-पाठन के श्रम के साथ-साथ विधि आदि का उल्लेख किया गया है । । अन्त में प्रतिलिपिकार द्वारा तीन गाथानों में श्रुतदेवी आदि की निम्नलिखित रूप में स्तुति की गई है - प्रखर बुद्धि वाले विद्वानों द्वारा सदा अभिवंदित, अज्ञानान्धकार विध्वंसिनी नवविकसित शतदलकमल वरद हस्त में लिये हुए श्रुताधिष्ठातृ देवी मुझे भी बुद्धि प्रदान करे । जिसके कृपा प्रसाद से ज्ञान सीखा है उस श्रुतदेवता को हम प्रणाम करते हैं । शान्ति प्रदायिनी प्रवचनदेवी को भी मैं नमस्कार करता हूं। श्रुतदेवता, कुम्भधरयक्ष, ब्रह्मशान्ति, वैरोटयादेवी, विद्यादेवी और अंतहंडी लेखक की सब प्रकार के विघ्नों से रक्षा करे । व्याख्याप्रज्ञप्ति की मंगलसहित ग्रन्थान० संख्या १५७५१ बताई गई है। व्याख्या प्रज्ञप्ति की समाप्ति के पश्चात् जो "रणमोगोयमाइण" आदि जितने भी नमस्कारपरक उल्लेख हैं उनके सम्बन्ध में टीकाकार ने लिखा है कि ये सब लिपिकार अथवा प्रतिलिपिकार द्वारा किये गये नमस्कार हैं।" ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति के अंत में जो इसके पठन-पाठन का क्रम दिया गया है वह किसी श्र तस्थविर द्वारा साधकों के हितार्थ किया गया उल्लेख प्रतीत होता है। १ चुलसीयसयसहस्सा, पयारण पवरवरणाणदंसीहिं । भावाभावमणंता, पन्नता एत्थमंगंमि ।। ४१वें श० के अन्त में २ तवनियमविणयवेलो, जयइ सया नारणविमलविउलजलो। हेउसयविउलवेगो, संघसमुद्दो गुणविसालो। वही३ (कुसुम) कुम्मसुसंठियचलणा, अमलियकोरंटवेंटसंकासा। सुयदेवया भगवई, मम मइतिमिरं पणासेउ । वही४ वियसियअरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिवा देवी । मझ पि देहु मेहं, बुधविबुहणमंसियारिणच्चं ॥१॥ सुयदेवयाए परणमिमो जीए पसाएण सिक्खियं नाणं । अण्णं पवयणदेवी संतिकरी तं णमंसामि ॥२॥ सुयदेवया य जक्खो कभधरो बंभसंति वेरोद्रा। विज्जा य अंतहुडी, देउ अविग्धं लिहंतस्स ।।३।। - - (व्याख्याप्रज्ञप्ति की समाप्ति के अनन्तर) .५ णमो गोयमाइण' मित्यादय पुस्तकलेखककृता नमस्काराः प्रकटाश्चेिति । - (व्याख्याप्राप्ति, टीका) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. वियाह पम्पत्ति केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा १४३ • व्याख्याप्रज्ञप्ति के शतकों, वर्गों, अवान्तरशतकों एवं उद्देशकों की संख्या इस प्रकार है :शतक वर्ग प्रवा० श० उद्देशक शतक वर्ग अवा० श० उद्देशक १० २२ २३ . لہر لہ لہ لہ لہ لہ س س OMMGmummon Gnxx www ०G००००००००००००० ~~00oroMomoroummroorwooooooorU 6MKKWOMMGmc س wrxnormomorrorrrrrrrrrrru ~~omorrowr ~ س س له سه له سم سم ه ه onnaronommar | دلہ نہ لعل لہم ~ 10. इस प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्ति में ४१ शतक, वर्ग १६, अवान्तरशतक १०५, शतक और अवान्तरशतक दोनों मिलाकर १३८ तथा उद्देशक १८८३ हैं। शतक संख्या ३३ से ४० तक के ८ शतक अवान्तरशतकों से गठित हैं। अतः शतकों और अवान्तरशतकों की गणना में इन पाठ शतकों की पृथक् गणना नहीं करने के कारण शतकों एवं उपशतकों की सम्मिलित संख्या १३८ होती है। ६. नायाधम्मकहानो नायाधम्मकहानो का संस्कृत नाम ज्ञातधर्मकथा है। द्वादशांगी के क्रम में इसका छठा स्थान है। इसमें उदाहरणप्रधान धर्मकथाएं दी हुई हैं, जिनमें मेघकुमार आदि के नगरों, उद्यानों, चैत्यों, वनखण्डों, राजाओं, माता-पिता, समवसरणों, धर्माचार्यों, धर्मकथाओं, ऐहिक एवं पारलौकिक ऋद्धियों, भोग परित्याग, प्रव्रज्या, श्रतपरिग्रह, उत्कृष्ट तपस्याओं, पर्यायों, संलेखनामों, भक्तप्रत्याख्यानों, पादपोपगमनों, स्वर्गगमन, उत्तम कुल में जन्म, बोधिलाभ, अन्तक्रिया आदि विषयों का वर्णन तथा भगवान महावीर के विनयमूलक श्रेष्ठ शासन में प्रवजित उन साधकों का वर्णन है जो ग्रहण किये हुए व्रतों के परिपालन में दुर्बल, शिथिल, हतोत्साहित, विषयसुखमूर्छित, संयम के मूल गुणों एवं उत्तरगुणों की विराधना Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [६. नायाधम्मकहानो करने वाले बन गये। इस छठे अंग में उन धीर-वीर साधकों का भी वर्णन है जो घोरातिघोर परीषहों के उपस्थित होने पर भी संयम मार्ग से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए। इसमें देवलोकों के भोगोपभोग सुखादि का, देवलोक से च्यवन के पश्चात् मानव जीवन में पुनः साधनापथ पर अग्रसर होने वालों का, संयमविराधनाजन्य दोषों और संयमाराधन के गुणों का, लोकमुनि शुक परिव्राजक के जिन-शासन में आने का तथा शाश्वत मोक्ष सुख प्राप्त करने वाले साधकों आदि का वर्णन है। ज्ञातृधर्मकथा की परिमित वाचनाएं, अनुयोग द्वार, वेढा छन्द, श्लोक, नियुक्तियाँ, संग्रहणियां और प्रतिपत्तियां प्रत्येक संख्यात-संख्यात हैं। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दश वर्ग हैं। दोनों श्रुतस्कन्धों के २६ उद्देशनकाल, २६ समुद्दे शनकाल, पांच लाख ७६ हजार पद, संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित शाश्वत भाव कहे गए हैं। इसका वर्तमान में उपलब्ध पदपरिमारण ५५०० श्लोक प्रमाण है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययनों के संक्षेप में चरित्र और कल्पित ये दो प्रकार बताये हैं। मेघ कुमार आदि के जो चरित्र बताये गये हैं वे सत्य उदाहरण हैं और तुम्ब आदि के उदाहरण कल्पित हैं जो भव्यजनों को प्रतिबोधित करने की दृष्टि से प्रस्तुत किये गए हैं। धर्मकथाओं के जो दश वर्ग हैं उनमें से प्रत्येक धर्मकथा में ५००-५०० आख्यायिकाएं, एक-एक आख्यायिका में पांच सौ-पांच सौ उपाख्यायिकाएं और उनमें से एक-एक उपाख्यायिका में पांच सौ-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार इन सबको मिलाकर कुल साढ़े तीन करोड़ उदाहरणस्वरूप कथाएं इसमें दी गई हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञातृरूप-उदाहरणस्वरूप १६ अध्ययन तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध में धर्मकथात्रों के १० वर्ग कहे गए हैं । उनका सारांश इस प्रकार है : प्रथम श्रुतस्कन्ध के मेघकुमार नामक प्रथम अध्ययन में राजपुत्र मेघकुमार की भगवान् महावीर की सेवा में दीक्षा तथा शय्यापरीषह से उसके खिन्न होने पर प्रभु द्वारा उसे संयम में स्थिर करने का वर्णन किया गया है। महावीर ने कहा"मेघ ! मेरुप्रभ हाथी के भव में तुमने दारुण दावानल से भयभीत खरगोश पर अनुकम्पा कर उसके प्रारणों की रक्षार्थ अपने प्राण दे दिए थे। उस अनुकम्पा के फलस्वरूप ही हाथी के भव से मरकर तुम इस भव में महाराज श्रेणिक के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए हो।" भगवान् की वाणी से उद्बोधित हो कर मेघमनि ने श्रमणवर्ग की सेवार्थ अपना तन-मन-सर्वस्व समर्पित कर दिया और समीचीन रूपेण संयम का परिपालन कर आत्मकल्याण किया। । दूसरे धन्ना सार्थवाह के अध्ययन में विजय चोर और धन्ना के उदाहरण के माध्यम से साधक को यह समझाया गया है कि सुदीर्घकाल तक समीचीनतया Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. नायाधम्मकहाओ ] केवलिकाल : श्रार्य सुधर्मा १४५ साधना में निरत रहने के एक मात्र उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए साधक ग्राहारादि से किस प्रकार अपने शरीर को प्रारण धारण करने योग्य बनाए रखे । तीसरे 'मयूराण्ड' नामक अध्ययन में सार्थवाहपुत्रों के उदाहरण के माध्यम से शास्त्रवारणी में शंका न करने का उपदेश दिया गया है । चौथे 'कूर्म अध्ययन' में दो कट्टयों के उदाहरण से इन्द्रियों को वश में करने और न करने के लाभ एवं हानि का दिग्दर्शन कराते हुए साधक को इन्द्रियविजय का उपदेश दिया गया है। पांचवें 'थावच्चापुत्र' के अध्ययन में श्रीकृष्ण वासुदेव के परिवार में समुद्रविजय आदि दण दशार्ह, उग्रसेन ग्रादि १६ हजार राजा, प्रद्युम्नकुमार श्रादि साढ़े तीन करोड़ कुमार, २१ हजार वीर, ५६ हजार बलवान् और रुक्मिणी यादि ३२ हजार रानियों का उल्लेख किया गया है । इस अध्ययन में श्रीकृष्ण द्वारा गाथापतिपुत्र थावच्चापुत्र की दीक्षा का समुचित प्रबन्ध करने का, थावच्च । पुत्र मुनि द्वारा सेलक राजा को उसके पांच सौ साथियों सहित दीक्षित करने. शुकदेव सन्यासी के साथ धर्मचर्चा का शुकदेव परिव्राजकाचार्य के प्रतिबुद्ध हो शिष्यों सहित श्रमरणधर्म में दीक्षित होने एवं पन्थक मुनि द्वारा सेलक राजपि के प्रमाद - परिहार का वर्णन किया गया है। छट्ठे अध्ययन में जीव का तूंबे के उदाहरण से हल्के और भारी होने का स्वरूप समझाया गया है। जिस प्रकार मिट्टी के लेप से भारी बना हुआ तूंवा जल में डूब जाता है और मिट्टी का लेप हट जाने पर ऊपर आकर तैरने लगता है, उसी प्रकार कर्मबन्धन से बन्धा हुआ आत्मा संसारसमुद्र में डूबता और बन्धन कटने पर हल्का होकर भवसागर को पार कर लेता है । सातवें अध्ययन में धन्ना सार्थवाह की ४ पुत्रवधुत्रों के उदाहरण से संयमी साधु की योग्यता का मापदण्ड बताया गया है। जैसे श्रेष्ठी की पुत्रवधुओं में से एक ने श्रेष्ठी द्वारा दिये गए ५ शालीकरणों को फेंक दिया, दूसरी ने प्रसाद समझकर खा डाला, तीसरी ने यथावत् सुरक्षित रखा और चौथी ने कृषि के माध्यम से उन पांच शालीकरणों को सहस्रों गुना बढ़ाकर श्रेष्ठी के घर में सम्मान प्राप्त किया उसी प्रकार जो शिष्य गुरु द्वारा दिये गए व्रतों को प्रमाद और खानपान के भोग में न गंवाकर सुरक्षित रखता है अथवा प्रचार-प्रसार के द्वारा बढ़ाता है, वह भी गुरु द्वारा सम्मान प्राप्त करता है । आठवें मल्ली अध्ययन में १६ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान् के जन्म. बालक्रीड़ा, विवाह के लिए ६ राजाओं के आगमन, मल्ली भगवती द्वारा स्वर्णपुतलिका के माध्यम से राजाओं को प्रतिबुद्ध कर दीक्षित करने और दोलाग्रहगा के दिन ही मल्लिनाथ भगवान् द्वारा घाति कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्न करने एवं चतुविध तीर्थ की स्थापना कर भावतीर्थंकर बनने का वर्णन किया गया है । मल्लिनाथ के धर्मपरिवार, विहारक्षेत्र, संहनन, संस्थान, वर्ण श्रीर Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [६. नायाधम्मकहानो निर्वाण प्राप्त करने तक का पर्ण विवरण भी इसमें दिया गया है। मल्ली भगवती ने . गृहस्थ अवस्था में उस समय की प्रसिद्ध परिवाजिका चोखा को शुचिमूलधर्म की सदोषता बतलाते हुए विनयमूल धर्म की शिक्षा दी और कहा कि जिस प्रकार रक्तरंजित वस्त्र रक्त से धोने पर स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार हिंसा आदि से मलीनात्मा यज्ञ-यागादि की हिंसा से शुद्ध नहीं किया जा सकता। इस अध्ययन में प्रसंगोपात्त दिया गया अरणक श्रावक और ६ राजाओं का परिचय भी द्रष्टव्य है। नौवें “माकन्दी अध्ययन" में बताया गया है कि वासना से चलचित्त होने वाला साधक जिनरक्षित के समान अपने प्राण गंवाता और स्थिरचित्त रहने वाला साधक मिनपालित की तरह सदा सुरक्षित रहकर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलकाम होता है । दशवें "चन्द्र अध्ययन" में कृष्ण और शुक्लपक्षीय चन्द्रमा की हानि-वृद्धि के उदाहरण से जीव के ज्ञानादि गुणों की हानि-वृद्धि समझाई गई है कि आत्मारूपी चन्द्र का ज्ञान रूपी उद्योत कर्मावरणों के कारण क्षीण और कर्मावरणों के क्षयोपशम से वृद्धिगत होता है। ___ ग्यारहवें "द्रावद्रव" नामक अध्ययन में जिनमार्ग की आराधना और विराधना पर विचार व्यक्त किये गए हैं। वन के वृक्षों की तरह साधक-श्रमण अन्य तीथिकों की संगति द्वारा पाराधना से विचलित होता है तथा सम्यगज्ञानियों के संसर्ग से साधनामार्ग में स्थिर होकर आराधक बनता है। ___ बारहवें “खातोदक अध्ययन" में श्रावक सुबुद्धि प्रधान द्वारा जितशत्रु राजा को पुद्गलों के परिवर्तनशील परिणामी स्वभाव को समझाने का उल्लेख किया गया है। मन्त्री ने खाई के गन्दे जल को शुद्धिकारक प्रयोगों द्वारा स्वच्छ, सुस्वादु और सुपेय बना कर यह प्रमाणित किया कि कोई भी वस्तु एकान्ततः शुभ अथवा अशुभ नहीं होती । संसार का प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ और अशुभ से शुभ रूप में परिवर्तित होता रहता है अतः एक पर राग और दूसरे पर द्वेष रखमा अज्ञान का सूचक है। तेरहवें "दर्दर अध्ययन" में राजगह नगर के श्रावक नन्द मणिकार का परिचय देते हुए बताया गया है कि सत्संग के अभाव में नन्द-मरिणकार व्रत-नियम करते हुए भी श्रद्धा से विचलित हो गया। उसने अष्टम तप के समय .प्यास से व्याकुल होने पर नगरी के बाहर पुष्करिणी बनवाने का निर्णय किया और चार शालाओं के साथ वापी का निर्माण करवा दिया । अन्त में वापी के प्रति अत्यधिक ममत्व और प्रार्तध्यान की दशा में मरकर नन्दन मणिकार ने उसी बावड़ी में दर्दुर के रूप में जन्म ग्रहण किया। एक बार भगवान् महावीर के राजगृह नगर में पदार्पण की बात सुनकर दर्दुर वन्दन हेतु निकला और मार्ग में एक घोड़े की टाप से घायल हो गया। गम्भीररूपेण घायल होने पर भी दर्दुर ने प्रभु चरणों में अपना Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. नायाधम्मकहाओ ] haलिकाल : श्रयं सुधर्मा १४७ वित्त स्थिर रखा और अन्त में समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर वह स्वर्ग का अधिकारी बना । चौदहवें 'तेतलीपुत्र' के अध्ययन में बताया है कि. दुःखावस्था में मनुष्य को सत्संग और धर्म जितना प्रिय लगता है उतना सुखावस्था में नहीं लगता। इसमें मित्र और प्रेमी का यह कर्त्तव्य बताया गया है कि वह अपने सखा एवं प्रियजन को सब प्रकार से धर्ममार्ग पर लगाने का प्रयत्न करे । पोटिल देव ने तेतली प्रधान को विविध प्रकार के कष्ट पहुंचाकर भी संयम-धर्म के अभिमुख किया। वस्तुतः इसी को उपकारियों के प्रत्युपकार का सही मार्ग बताया गया है । पन्द्रहवें नन्दीफल अध्ययन में बतलाया गया है कि नन्दीफल की तरह श्रज्ञातफल में लुभाने वाले को जीवन से हाथ धोना पड़ता है। इसमें यह उपदेश दिया गया है कि ज्ञानी को किसी भी दशा में रसना के अधीन नहीं होना चाहिये । सोलहवें "अमरकंका अध्ययन" में पाण्डवपत्नी द्रौपदी का पद्मनाभ द्वारा हस्तशीर्ष नगर से अपहरण और श्रीकृष्ण द्वारा अमरकंका में जाकर पद्मनाभ को पराजित करना, द्रौपदी को पुनः प्राप्त करना, लौटते समय कारणवशात् अप्रसन्न हो श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवों का निर्वासन, कुन्ती की प्रार्थना से द्रवित हो समुद्रतट पर मथुरा बसा कर पाण्डवों को वहाँ रहने की अनुमति स्थविरों की वारणी सुनकर पाण्डवों द्वारा मुनिव्रत ग्रहरण और संयम एवं तप की साधना से निर्वारणप्राप्ति बतलाई गई है । इसमें यह भी बताया गया है कि द्रौपदी ने अपने पूर्वभव में नागश्री ब्राह्मणी के रूप में तपस्वी मुनि को कड़वे तूंबे का साग बहरा कर दुर्लभबोधि की स्थिति का उपार्जन किया और उसके फलस्वरूप अनेक भवों में जन्ममरण के दुःख सहन कर वही नागश्री द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई और अन्त में साधना कर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई । द्रौपदीहरण के प्रसंग में यहां "कछुल्ल नारद" की करतूतों का भी परिचय मिलता है । सत्रहवें अध्ययन में समुद्री अश्व के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है कि शब्द रूप आदि विषयों में लुभाने वाले व्यक्ति समुद्री अश्व की तरह पराधीन होते हैं और विषयों से विरक्त रहने वाले स्वाधीन होकर प्रात्मसुख के अधिकारी होते हैं । अठारहवें "सुसुमा" नामक अध्ययन में धन्ना सार्थवाह के उदाहरण से बताया गया है कि साधक को जीवन निर्वाह के लिये उदासीन भाव से प्रहार ग्रहण करना चाहिये । धन्ना सार्थवाह और उसके पुत्रों ने सुमुमा के अपहरणकर्त्ता नौरराट् का भीषण - प्रटवियों में निरन्तर पीछा करते हुए जिस प्रकार भूख के कारण मरणासन्न स्थिति में चिलात द्वारा मार कर पटकी हुई सुसुमा दारिका की मृत देह से अपनी क्षुधानिवृत्ति की, उसमें आत्मीयता के कारण मृत दारिका के मांसभक्षरण में धन्ना आदि के मन में किचित्मात्र भी राग का अंश नहीं हो सकता, केवल प्राणरक्षा का ही विचार हो सकता है। ठीक उसी प्रकार साधक Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [६. नायाधम्मकहामो श्रमण को सहज बने अचित्त आहार के ग्रहण करने में रागरहित होकर अधिकाधिक साधना हेतु शरीर को बनाये रखने का ही लक्ष्य रखने की शिक्षा दी गई है। उन्नीसवें पुण्डरीक अध्ययन में भोगासक्ति का कटु फल बताते हुए विदेह क्षेत्र के पुण्डरीक और कुण्डरीक नामक दो राजकुमारों का उपाख्यान प्रस्तुत किया गया है। उसमें बताया गया है कि पुण्डरी किरणी नगरी के महाराज महापद्म जब संसार की नश्वरता को समझकर श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये तब उनके ज्येष्ठ पुत्र पुण्डरीक राज्य का संचालन करने लगे और उनके छोटे भाई कुण्डरीक युवराज के रूप में सुखोपभोग करते रहे। _____ कालान्तर में मुनि महापद्म विचरण करते हुए पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे, तब महाराज कुण्डरीक और उनके लघु भ्राता दर्शन-वन्दन आदि के लिये मुनि सेवा में पहुंचे। उपदेश श्रवण कर पुण्डरीक ने मुनि महापद्म की सेवा में श्रामण्य स्वीकार कर लिया। बहुत काल पश्चात् अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए कुण्डरीक मुनि पुनः उस नगर में आये । उस समय उनके शरीर में दाहज्वर का प्रकोप था। राजा ने उनकी मुनिधर्म के अनुकूल औषधोपचारादि की समुचित व्यवस्था कर दी। परिणामतः मुनि कुण्डरीक कुछ ही समय में पूर्णतः स्वस्थ हो गये। जब मुनि स्वस्थ हो जाने पर भी विहार के प्रति उपेक्षा एवं उदासीनता दिखलाने लगे तो राजा ने उन्हें समझा-बुझाकर विहार करवाया। अनिच्छा होते हुए भी मुनि ने विहार तो कर दिया पर उनका मन राज्य भोगों में विलुब्ध हो चुका था अतः कुछ ही काल के पश्चात् वे पुन: पुण्डरीकिरणी नगरी में लोटे और नगरी के बाहर एक उद्यान में विराजमान हुए। मुनि के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही राजा उन्हें वन्दन-नमन करने हेतु उद्यान में पहुंचा और मुनि को चिंतित देखकर बोला - "महाराज! आप धन्य हैं, जो विषय-कषायों के प्रगाढ़ बन्धन काट कर संयमसाधना करते हुए विचरण कर रहे हैं। मै अधन्य है, जो अभी तक राज्य के प्रपंचों में उलझा हुआ है।" राजा द्वारा इस प्रकार की बात के पुनः पुनः दोहराये जाने पर भी मुनि ने जब उस पर कोई ध्यान नहीं दिया तो राजा ने मुनि से पूछा- महाराज ! आपको भोग से प्रयोजन है अथवा योग से ?" मुनि कुण्डरीक. ने दबे स्वर में कहा - "भोग से।" अनेक प्रकार से समझाने पर भी जब कुण्डरीक संयम-मार्ग में स्थिर नहीं हुए तो राजा पुण्डरीक ने अपने छत्र, चामरादि राजचिन्ह मुनि कुण्डरीक को देकर उसे राज्य सिंहासन पर आसीन किया और स्वयं शासनहित और वंश की प्रतिष्ठा को उज्ज्वल बनाये रखने हेतु राज्यवैभव का तृणवत् त्याग कर कुण्डरीक के धर्मोपकरण धारण कर संयम मार्ग में दीक्षित हो गये । मुनि पुण्डरीक विहार करते हुए स्थविरों के पास पहुंचे और उनसे चातुर्याम धर्म स्वीकार कर निरन्तर छह-छट्ठ तप करते हुए तप की जाज्वल्यमान ज्वाला Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६..नायाधम्मकहाओ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १४६ में अपने कर्मसमूह को जलाने लगे। प्रतिकूल, अन्तःप्रान्त और निस्सार प्राहार के कारण मूनि पुण्डरीक के शरीर में प्रबल व्याधि उत्पन्न हो गई पर वे संयम मार्ग में पूर्णरूपेण स्थिर रहे। मुनि पुण्डरीक ने जब देखा कि उनका शरीर असाध्य रोग से ग्रस्त होने के कारण उपचार की स्थिति में नहीं है तो उन्होंने सभी प्रकार के मोह-ममत्व का परित्याग कर स्थितप्रज्ञ हो आजीवन अनशन स्वीकार कर लिया और वे समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागर की स्थिति वाले देव के रूप में उत्पन्न हुए। ___इधर कुण्डरीक राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही स्वच्छन्द रूप से यथेप्सित भोगोपभोगों में निरन्तर पासक्त रहने लगा । विषयासक्ति और आहारादि के .असंयम के परिणामस्वरूप भीषण दाहज्वर की असह्य पीड़ा ने उसे धर दबाया। राज्य, राष्ट्र और अन्तःपुर के भोगों में मूच्छित बना हुमा वह रौद्रभाव में करालकाल का कवल बनकर सातवीं नरक में उत्पन्न हो योर दुःखों का भागी बना। इस प्रकार संयम लेकर पुनः भोगों में आसक्त होने वाला व्यक्ति कुण्डरीक की तरह घोर दुःखों का भागी बनता है, यह इस अध्ययन में बताया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १० वर्गों में चमरेन्द्र, बलीन्द्र, धरणेन्द्र, पिशाचेन्द्र, महाकालेन्द्र, शक्र एवं ईशानेन्द्र की अग्रमहीषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली साध्वियों की पुण्य कथाएं विविध अध्ययनों के रूप में दी गई हैं। दशों वर्गों में कूल २०६ अध्ययन हैं। इनमें वरिणत अधिकांश वृद्धकुमारियां भगवान पार्श्वनाथ के शासन में दीक्षित होकर उत्तरगुण की विराधना के कारण देवियों के रूप में उत्पन्न हुई बताई गई हैं। उन साधिकारों के देवियों के रूप में उत्पन्न होने पर भी उनका उन्हीं नामों से परिचय दिया गया है जो नाम उनके मानवभव में थे। इस अंग में उल्लिखित धर्मकथानों में पार्श्वनाथकालीन जनजीवन, विभिन्न मतमतान्तर, प्रचलित रीतिरस्म, नौका सम्बन्धी साधन सामग्री, कारागार पद्धति, राज्य व्यवस्था, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों आदि का बड़ा सजीव वर्णन किया गया है। ७. उवासगवसाम्रो उवासंगवसाम्रो- नामक सातवें अंग में नाम के अनुसार दश उपासक गहस्थों का वर्णन किया गया है। उनके अध्ययन भी दश हैं अतः शास्त्र का नाम उपासकदशा युक्तिसंगत है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १० अध्ययन, १० उद्देशनकाल और १० ही समूद्देशनकाल कहे गये हैं। इसमें संख्यात हजार पद, संख्यात अक्षर, संख्यात निरुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां, संख्यात प्रतिपत्तियां और संख्यात श्लोक बताये गए हैं। वर्तमान में इस पागम का परिमाण ८१२ श्लोक-प्रमाण है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [७. उवासगदसामो इसके १० अध्ययनों में आनन्द प्रादि विभिन्न जाति व व्यवसाय वाले श्रावकों की जीवनचर्या का वर्णन किया गया है । प्रथम अध्ययन में प्रानन्द गाथापति के सामाजिक जीवन का परिचय देते हुए उसकी १२ करोड़ सम्पदा को तीन भागों में बांट कर रखने. ४० हजार पशु और स्व-पर समाज में उसकी आदर्श प्रामाणिकता का परिचय दिया गया है। मानन्द द्वारा भगवान् महावीर के पास अहिंसादि ५ अणुव्रत, तीन गुरगवत और चार शिक्षावत रूप द्वादशविध श्रावकधर्म स्वीकार करने का उल्लेख है। करोड़ों की सम्पदा के होते हुए भी उस समय के नागरिक-जीवन में आहार-विहार एवं परिधान का कैसा सादापन था, इसका प्रानन्द के जीवन से सही परिचय प्राप्त होता है। इसमें प्रागे बताया गया है कि श्रावकधर्म ग्रहण करने के १४ वर्ष पश्चात् मानन्द ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर कोल्लाग सन्निवेश की निजी पौषधशाला में पडिमाघारी जीवन से विरक्ति मार्ग की साधना की और अन्त समय में प्रवधिज्ञान के साथ आजीवन अनशनपूर्वक काल कर वह प्रथम स्वर्ग का अधिकारी बना। दूसरे अध्ययन में उपासक कामदेव के व्रतग्रहण और साधनापूर्ण जीवन का परिचय देते हुए बतलाया गया है कि कामदेव ने देवता द्वारा उपस्थित किये गए पिशाच, सर्प, हाथी आदि के विविध उपसों में भी अविचल रहकर अपनी पार्मिक दृढ़ता का परिचय दिया। देव ने पिशाच एवं हाथी आदि के रूप से उसे खूब डराया, धमकाया और मारणान्तिक कष्ट देने में भी किसी प्रकार की कमी नहीं रखी पर कामदेव पूर्णतः प्रचल रहा, जिसकी भगवान् महावीर ने भी श्रमणमण्डल के सम्मुख प्रशंसा की। तीसरे अध्ययन में चुलणीपिता श्रावक की जीवनचर्या का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि चुलगीपिता के यहां ८ गोकुल (८० हजार पशु)एवं २४ करोड़ की सम्पदा थी। चौथे और पांचवें अध्ययन में क्रमशः सुरादेव और चुलरिणशतक के छः-छः गोकुलों (६०-६० हजार पशुओं) और पाठ-पाठ करोड़ की सम्पदा का उल्लेख है। इन तीनों श्रावकों ने भगवान् महावीर से धर्म-श्रवण किया और अन्त में ५ वर्ष तक पडिमाघारी के रूप में विरक्तजीवन की साधना करते हुए समाधि-मरण से प्रायु पूर्ण कर प्रथम स्वर्ग में देवस्व प्राप्त किया। ___छठे अध्ययन में उपासक कुण्डकौलिक के साथ प्रशोलवनिका में नियतिवादी देव के संवाद की चर्चा की गई है। देव ने श्रावक को नामांकित मुद्रिका और प्रोढ़ने का चादर उठाकर प्राकाश में स्थित हो कुण्डकौलिक से कहा - "भगवान् महावीर का उत्थान, क्रम, बलवीर्य वाला मार्ग ठीक नहीं है । गोशालक मंखलिपुत्र की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है । क्योंकि उसमें उत्थान, क्रम, बलवीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम की अावश्यकता नहीं होती।" Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. उबा सगदसाम्रो ] केवलिकाल : मायं सुधर्मा १५१ इस पर कुण्डकौलिक श्रावक देव से पूछा - "तुमने देवभव किस तरह से प्राप्त किया है ?" गृहस्थ श्रावक भी उस सम थे, इसका कुण्डकौलिक के जीवन े धर्म मर्म के ज्ञाता और दृढ़ श्रद्धालु होते हज ही परिचय हो जाता है । सातवें अध्ययन में कुम्भका सद्दालपुत्त की जीवनचर्या का वर्णन किया गया है ! यह पहले मंखलिपुत्र गोक का उपासक था। फिर एक देव द्वारा प्रेरणा पाकर भगवान् महावीर को वन्दन करने गया । उनकी देशना सुनने पर उसके हृदय में कुछ श्रद्धा एवं जिज्ञ सा जागृत हुई । उसने भगवान् कहावीर को अपनी कुम्भकारशाला में पधारने का प्रार्थना की। प्रभु भी अवसर देखकर वहां घारे प्रौर उन्होंने सकड़ालपुत्र के साथ नियतिवाद की यथार्थता पर चर्चा की । प्रभु ने पूछा - "सकडाल ! घड़ा में बनता है ?" सकडाल ने घटनिर्मारण की सारी प्रक्रिया कह सुनाई । प्रभु ने कहा - "यदि कोई दुर्मति पुरुष धूप में सूखते हुए तेरे घड़ों को पत्थर मारकर फोड़ने लगे और तेरी प्रिय पत्नी प्रग्निमित्रा के साथ छेड़छाड़ एवं कुचेष्टा करे तो तू क्या करेगा ? यदि तेरी मान्यता के अनुसार यह सब कुछ नियतिकृत है तो तुझे उन दुष्ट पुरुषों पर रुष्ट होने एवं उनको मारने कोटने की चेष्टा करना उचित नहीं । यदि तू उन पर रोष करता है और अपराध का दण्ड देने के लिए उन्हें मारता पीटता है तो नियतवश सब कार्य का होना मानना ठीक नहीं ।" प्रभु महावीर के इस प्रकार के हृदयग्राही एवं तर्कपूर्ण विचारों से प्रभावित हो सकडाल महावीर भगवान् की धर्मप्रज्ञप्ति का अनुयायी बन गया । सकडाल के यहां ३० हजार पशु और १ करोड़ की सम्पदा एवं ५०० दुकानें थीं । गोशालक सकडाल के मतपरिवर्तन की सूचना पाकर उसे समझाने प्राया पर सकडाल पुरुषार्थवाद की सम्यक् श्रद्धा पर इतना दृढ़ हो गया था कि उसने गोशालक को प्रादर से देखा तक नहीं । गोशालक ने भगवान् महावीर की स्तुति कर उसे आकर्षित करने का प्रयत्न किया । अन्त में ५ वर्ष तक पड़िमाधारी रूप से विरक्तभाव की साधना कर सकडाल ने भी अनशनपूर्वक स्वर्ग प्राप्त किया। आठवें अध्ययन में उपासक महाशतक की चर्या का वर्णन किया गया है । - उसके ८० हजार पशु, २४ करोड़ की सम्पदा और रेवती आदि १३ स्त्रियों का परिवार था । पापकर्म के उदय से रेवती अनार्य कर्म करने लगी। मोहोदय से उसको महाशतक का धार्मिक जीवन प्रप्रीतिकर लगने लगा। एक बार वह मद्य के उन्माद में उन्मत्त होकर धर्मसाधना में निरत महाशतक के पास जाकर यद्वातद्वा बोलने लगी । महाशतक ने परिवार से विरक्त हो एकान्तसेवन बालू कर रखा था अतः रेवती के दुर्वचनों को सुनकर भी वह कुछ काल तक शान्त रहा पर रेवती जब अपने प्रसंगत प्रलाप से बाज नहीं आई तो रुष्ट हो महाशतक ने उसे सातवें दिन मर कर छुट्टी नरक में जाने का अनिष्ट भविष्य सुना डाला । भगवान् Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [७. उवासगदसाम्रो महावीर उस समय राजगृह नगर में ही विराजमान थे। उन्होंने अपने ज्येष्ठ शिष्य गौतम द्वारा महाशतक को भूलसुधार के लिए प्रेरित किया। ... नौवें अध्ययन में नन्दिनीपिता और दशवें अध्ययन में सालिहीपिता नामक दो श्रावकों के जीवन का परिचय दिया गया है। उन दोनों के यहां चालीसचालीस हजार पशु और बारह-बारह करोड़ की सम्पदा थी। अन्त में इन दोनों श्रावकों ने भी पडिमाधारीपन की साधना कर प्रारम्भ-परिग्रह से विरक्ति स्वीकार की ओर अन्त समय में अनशनपूर्वक काल कर प्रथम स्वर्ग में महद्धिक देव रूप से उत्पन्न हुए। ___ शास्त्र में वर्णित ये सभी श्रावक बारह व्रतधारी उपासक थे। महाशतक को छोड़ सबने एक-एक पत्नी के अतिरिक्त मैथुन-सेवन का त्याग कर रक्खा था। सबने १४ वर्ष तक उपासक धर्म की पालना कर १५ वें वर्ष श्रमणधर्म के निकट पहुंचने की भावना से अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को गार्हस्थ्य सम्हला कर श्रावक के वेश में शनैः शनैः प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग वढ़ाकर अन्त में श्रमणभूत प्रतिमा में साधु की तरह त्रिकरण त्रियोग से पाप-निवृत्ति की साधना की। आनन्द की साधना उपसर्ग रहित रही पर अन्य उपासकों- कामदेव से महाशतक तक को देवकृत उपसर्ग और शेष तीन को स्त्री का उपसर्ग होना बताया गया है। सबने २० वर्ष की अवधि तक श्रावक धर्म का पालन कर सद्गति प्राप्त की और आगामी भव में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वे सब मोक्ष के अधिकारी बनेंगे। उपासकदशा का महत्व सद्गृहस्थों - श्रावक-श्राविकाओं के गृहस्थ धर्म पर समीचीनतया पूर्ण रूपेण प्रकाश डालने वाला यह सातवां अंग उपासकदशा वस्तुतः सभी गहस्थों के लिए बड़ा ही उपयोगी है। इसमें जिस प्रकार के सदाचार का दिग्दर्शन कराया गया है, उसके अनुसार यदि प्रत्येक गृहस्थ अपने जीवन को ढालने का प्रयास करे तो यह मानवता के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। इसमें तत्कालीन भारत और भारतीयों के अतुल धनवैभव, अनुकरणीय सदाचार, उन्नत विचार, सुखपूर्ण आदर्श जीवन और प्रगाढ़ धर्मानुराग के दर्शन होते है। ८. अंतगडदसाम्रो • पाठवां अंग अन्तकृत्दशा है। इसमें १ श्रुतस्कंध, ८ वर्ग, ६० अध्ययन, ८ उद्देशनकाल और ८ ही समुद्देशनकाल तथा परिमित वाचनाएं हैं। इसमें अनुयोगद्वार, वेढा, श्लोक, निर्यक्तियां, संग्रहणियां, एवं प्रतिपनियां संख्यातमख्यात है। इसके पद-संख्यात हजार और अक्षर-संव्यात बताये गये हैं। वर्तमान में यह अंगशास्त्र ९०० श्लोकपरिमागा का है। इसके पाठा वर्ग क्रमशः १०,८,१३,१०, १०, १६, १३ और १० अध्ययनों में विभक्त हैं। प्रस्तुत मूत्र में Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अंतमदसामो] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १५३ भवभ्रमण का अन्त करने वाले साधकों की साधनादशा का वर्णन होने के कारण इसका नाम अन्तकृद्दशा रखा गया है। अंतकृद्दशा के प्रथम दो वर्गों में गौतम प्रादि वृष्णि कुल के १८ राजकुमारों की साधना का वर्णन है। उनमें से १० का दीक्षा काल १२-१२ वर्ष का और शेष ८ का १६-१६ वर्ष बताया गया है। इन सभी उच्चकुलीन राजकुमारों ने गुरगरत्नसंवत्सर जैसे कठोर तप की आराधना कर एक-एक मास की संलेखना से सब दुःखों का अन्त कर मुक्ति प्राप्त की। तीसरे वर्ग के १३ और चौथे वर्ग के १० अध्ययनों में वरिणत २३ चारिजारमा भी श्री वसुदेव, श्री कृष्ण, श्री बलदेव और श्री समुद्रविजय के राजकुमार बताये गये हैं। उन सभी ने भगवान् नेमिनाथ की सेवा में मुनिव्रत ग्रहण कर अनेक वर्षों तक संयमधर्म की पालना और कठोर तपश्चरण करते हुए समस्त कर्मों का अन्त कर अजरामर सिद्धपद प्राप्त किया। इनमें से श्रीकृष्ण के अनुज गजसुकुमाल ने बिना दीर्घकाल की श्रमणपर्याय के एक ही दिन की साधना द्वारा आत्मस्वरूप में लीन होकर समस्त कर्मों का एक अन्तर्मुहूर्त में ही अन्त कर दिया। सोमिल ब्राह्मण ने गजसुकुमाल के शिर पर भीगी मिट्टी की पाज बांध कर खैर के प्रदीप्त अंगारे रख दिये पर वे तन मन से अडोल निष्कंप, शान्त और आत्मस्वरूप में लीन रहे । कैसी अद्भुत क्षमता थी? केवल कुछ ही क्षणों की ज्ञानाराधना थी पर सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र की उत्कृष्टतम पाराधना द्वारा उन्होंने अन्तर्मुहुर्तकाल में ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति कर ली। गजसुकुमाल की प्रति स्वल्पकालीन सफल साधना इस वात का ज्वलंत प्रमाण है कि सम्यग्ज्ञान स्वल्पतर होते हुए भी यदि अन्तस्तलस्पर्शी अथवा अन्तर्मुखी है तो वह बिना दीर्घकाल की तपस्या के भी सिद्धि प्रदान कर सकता है। पंचम वर्ग में बताया गया है कि राजकुमारों की तरह राजरानियां भी संयमसाधना द्वारा सिद्धि प्राप्त कर सकती हैं, स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही तद्भव मोक्षगमन का अधिकार है। श्रीकृष्ण की पद्मावती आदि रानियों और पूत्रवधुनों ने भी बोस २ वर्ष के दीक्षाकाल में ११.अंगों का ज्ञान प्राप्त कर दीर्घकालीन कठोर तपश्चर्या द्वारा सकल दुःखों का अन्त कर शाश्वत शिवपद प्राप्त किया। उपरोक्त पांच वर्गों में वरिणत सब साधक-साधिकारों ने भगवान नेमिनाथ के धर्मशासन में मक्ति प्राप्त की फिर भी उन सबका साधनापूर्ण जीवन साधनापथ में मार्गदर्शक है, इसलिये उनके उत्कृष्ट जीवनचरित्र भगवान् महावीर के शासनवर्ती "अन्तगडसूत्र" में सम्मिलित किये गये हैं। छठे वर्ग में भगवान महावीर के शासनवर्ती विभिन्न श्रेणी के १६ साधकों का वर्णन है । इन अध्ययनों से प्रमाग्मित किया गया है कि साधना में कुल, जाति व प्रवस्था का वर्गभेद नहीं होता। गाथापति, माली, राजा और बालक भी साधना Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [८. अंतगडदसामो के अधिकारी हो सकते हैं। निरन्तर ६ मास तक सात-सात मनुष्यों की हत्या करने वाला अर्जुन माली भी क्षमतापूर्वक तप की साधना से ६ माह की अल्प अवधि में ही मुक्ति का अधिकारी हो गया। सचमुच ही वीतराग-मार्ग पतितपावन है। अवस्था की दृष्टि से अतिमुक्त कुमार जैसा ७ वर्ष का बालक भी संयममार्ग को साधना के माध्यम से नर से नारायण और जीव से शिव पद की प्राप्ति का अधिकारी बताया गया है। सातवें और आठवें वर्ग के २३ अध्ययनों में नन्दा नन्दमती एवं काली, सुकाली आदि श्रेणिक की २३ रानियों के साधनामय जीवन का वर्णन है। इन सब महासतियों ने मुक्तावली, रत्नावली, कनकावली, लघुसिंहविक्रीड़ित, और महासिंहविक्रीड़ित, लघुसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर एवं आयंबिल वर्द्धमान जैसे तपों के द्वारा कर्मक्षय कर सिद्धि प्राप्त की। अन्तकृत् दशा सूत्र की यह विशेषता है कि इसमें तद्भवमोक्षगामी जीवों काही वर्णन किया गया है। यह भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय थी कि राजघराने के नरनारी विपुल ऐश्वर्य एवं अपरिमित भोगों को त्यागकर बड़ी संख्या में त्याग की ओर अग्रसर हुए। अन्तकृत् दशा के उपलब्ध अध्ययनों के अतिरिक्त स्थानांग सूत्र में अन्य १० अध्ययनों का भी उल्लेख मिलता है । जैसे : नमी मयंगे सोमिल्ले, रामगुत्ते सुदंसणे। जमाली अ भगाली अकिंकमे पल्लए इअ ।। फाले अअठ्ठपुत्ते य एमे.ते दस आहिया ।। [स्थानांगसूत्र, स्थान १०] श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी अन्तकृतदशा और अनुत्तरोववाइय दशा के इन दश. अध्ययनों के नाम उपलब्ध होते हैं। प्राचार्य अकलंक ने अपने ग्रन्थ राजवार्तिक में प्रायः इसी रूप में इन अध्ययनों का उल्लेख किया है। धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ती' आदि में भी इन दोनों अंगों के अध्ययनों का उल्लेख है और वे राजवातिक तथा स्थानांग में लिखित नामों से मिलते-जुलते हैं। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत् दशा में इन नाम वाले १० अध्ययनों का बिल्कुल उल्लेख न होकर अन्य पात्रों का जो वर्णन मिलता है इसका प्रमुख कारण वाचना-भेद ही हो सकता है । ६. प्रणुत्तरोववाइयवसा द्वादशांगी के क्रम में अनुत्तरोपपातिकदशा नौवां अंग है। इसमें १ श्रुतस्कंध ३ वर्ग, ३ उद्देशनकाल, ३ समुद्देशनकाल, परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, ' मायंग रामपुत्तो सोमिल जमलीकरणाम किक्कंबी । सुदंसरणो बलीको य गमी अलंबद्ध पुत्तलया ॥ ५१ ।। [अंग पण्णत्ती] Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अणुतरोववाइयदसा] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा १५५ संख्यात वेढा छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात निरुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां, संख्यात प्रतिपत्तियां, संख्यात हजार पद और संख्यात अक्षर हैं। वर्तमान में यह सूत्र १६२ श्लोकपरिमारण का है। ____ इस अंग में ऐसे महापुरुषों का चरित्र दिया गया है जिन्होंने घोर तपश्चरण पौर विशुद्ध संयम की साधना के पश्चात् मरण प्राप्त कर अनुतरविमानों में देवत्व प्राप्त किया और वहां से च्यवन कर मनुष्य भव में संयमधर्म को सम्यग् अाराधना कर मुक्ति प्राप्त करेंगे। अनुत्तरोपपातिक दशा के तीन वर्गों में क्रमशः १०, १३ प्रौर १० इस प्रकार कुल मिला कर ३३ अध्ययनों में ३३ चरित्रात्माओं का संक्षिप्त वर्णन है। उन ३३ महापुरुषों में से प्रथम जालीकुमार प्रादि २३ तो मगधसम्राट श्रेणिक के पुत्र थे। उन २३ राजकुमारों में से कतिपय राजकुमारों की माता धारिणी, कुछ की चेलना तथा कतिपय की नन्दा थीं। तीसरे वर्ग के धन्य प्रादि १० चरित्रात्मा काकन्दी नगरी की सार्थवाहपली भद्रा के पुत्र थे। इसमें धन्ना के यहां करोड़ों की सम्पदा और ३२ पत्नियां होने का उल्लेख है। इसमें बताया गया है कि भगवान् महावीर का धर्मोपदेश सुन कर धशा को वैराग्य उत्पन्न हुआ। प्रभु चरणों में दीक्षित होने के पश्चात् धना अरणगार ने जीवन भर के लिए छह-छ? तप से पारणा करने की प्रतिज्ञा की। बेले के पारणे में भी प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) का रूदा भोजन जो गहस्थ के यहां बाहर फेंकने योग्य होता उसे धन्ना मुनि ग्रहण करते। घोर तपश्चरण के कारण उनका रक्त एवं मांस सूख गया और उनका शरीर केवल मस्थिपंजर सा प्रतीत होता था। एक बार मगधाधिपति श्रेणिक द्वारा यह पूछने पर कि १४,००० साधुमों में से कौनसा मूनि दुष्करकारक है, भगवान महावीर ने धन्ना मुनि को ही अपने समस्त श्रमणोत्तमों में सर्वोत्तम श्रमण बताया। धन्ना प्रणगार ने ६ मास की स्वल्पकालीन साधना से ही मायु पूर्ण की। तपस्या से मुनि धन्ना का शरीर इतना क्षीण हो गया था कि उसमें रक्त-मांस का कहीं पता तक नहीं लगता था। वे अपने चविनद्ध अस्थिमात्रावशिष्ट शरीर को ही मनोबल से चलाते रहे। अन्त में संलेखनापूर्वक एक मास के अनशन से वे सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। ___ स्थानांग, राजवार्तिक और प्रगपण्णत्ती प्रादि में इसके १० अध्ययनों के नाम दिये गए हैं, उनमें से कुछ वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा में मिलते हैं। ............", उजुदासो सालिभद्दक्यो । सुरणवखतो प्रभयो वि य धण्णो वरवारिसेणणंदरगया। णंदो चिलायपुत्तो कत्तइयो जह · तह अण्णे ।। ५५ ॥ [मंग पम्पती] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग १०. पण्हावागरण दशवां अंग प्रश्नव्याकररण (पण्हावागररण) है, इसका द्वादशांगी के क्रम में दशवां स्थान है । समवायांग, नन्दीसूत्र और स्थानांग तथा दिगम्बर परम्परा के अंगपत्ति आदि ग्रन्थों में प्रश्नव्याकरण सूत्र का जिस प्रकार का परिचय दिया गया है उससे वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण का मेल नहीं बैठता, यह एक विचारणीय विषय है । समवायांग सूत्र में प्रश्नव्याकररण का परिचय निम्नलिखित रूप में दिया गया है : : १५ " प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्न, १०८ प्रश्न और १०८ प्रश्नाप्रश्न', विद्यातिशय, नागकुमार, सुपर्णकुमार अथवा यक्षादि के साथ साधकों के जो दिव्य संवाद हुआ करते हैं - उन सब विषयों का निरूपण किया गया है । स्वकीय तथा परकीय सिद्धान्त के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्धों ने विविध अर्थ वाली भाषाम्रों द्वारा जिन प्रश्नों का प्रतिपादन किया, विशिष्ट· लब्धिसम्पन्न, उपशान्तकषाय, अनेक गुणों और योग्यतात्रों से सम्पन्न महान् प्राचार्यों ने जिन प्रश्नों का कथन किया, जिनशासन में हुए अनेक महर्षियों ने जिन प्रश्नों को अनेक प्रकार के विस्तार के साथ कहा है, जगत् के उपकारक जो प्रश्न दर्पण, अंगुष्ट, बाहु, खड्ग, मरकतादि मरिण, प्रतसी अथवा कपास से निर्मित वस्त्र, सूर्य, भित्ति, शंख घण्टा श्रादि से संम्बन्ध रखते हैं, उन सब प्रश्नों का, देवसहायप्राप्त महाप्रश्न विद्याओं तथा मनः प्रश्न विद्याओं का, लब्ध्यतिशय से सबको विस्मय में डाल देने वाले प्रश्नों का, अनन्त प्रतीत में हुए तीर्थंकरों की सत्ता को सिद्ध करने में समर्थ प्रश्नों का श्रीर प्रश्न- विद्याओं के अद्भुत गुणों का निरूपण प्रश्नव्याकरण में किया गया है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में १ श्रुतस्कन्ध, ४५ उद्दे शनकाल, ४५ समुद्द शनकाल, संख्यातसहस्र पद, संख्यात प्रक्षर, परिमित वाचनाएं, संख्यात श्लोक, संख्यात निर्युक्तियां, संख्यात संग्रहणियां और संख्यात ही प्रतिपत्तियां हैं।" नंदीसूत्र में प्रश्नव्याकरण सूत्र का परिचय देते हुए बताया गया है :" दशवें अंग प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न १०८ अप्रश्न एवं १०८ प्रश्नाप्रश्न जैसे कि अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न, दर्पणप्रश्न आदि ( जिनमें मंत्र अथवा विद्यां के प्रभाव से अंगुष्ठ, भुजा एवं दर्पण प्रादि शुभाशुभ का कथन कर देते हैं) विचित्र प्रभावशाली विद्याओं का वर्णन तथा साधकों के साथ नाग कुमारों, सुपर्णकुमारों प्रादि भुवनपति देवों के संवादों का वर्णन है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, ४५ अध्ययन, " नंदी - मलय वृत्ति के अनुसार जिन मंत्रों-विद्यानों द्वारा अंगुष्ठ, बाहु आदि के प्रश्न के माध्यम से शुभाशुभ का कथन किया जाता है, उन्हें प्रश्न, और जिन विद्यानों अथवा मंत्रों के द्वारा बिना किसी प्रकार का प्रश्न किये ही शुभाशुभ का कथन किया जाता है उन्हें अप्रश्न धौर जिन मंत्रों अथवा विद्यानों द्वारा अंगुष्ठ प्रादि के प्रश्न तथा अप्रश्न दोनों से सम्बन्ध रखकर शुभाशुभ का कथन किया जाता है उन्हें प्रश्नाप्रश्न कहा गया है । [सम्पादक ] - Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. पन्हावामरण) निकाल : मार्य सुवर्मा १५७ ४५ उद्देशनकाल, संख्यातसहस्र पद', संख्यात अक्षर, परिमित वाचनाएं, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां और संख्यात ही प्रतिपत्तियां हैं।" स्थानांग सूत्र में प्रश्नव्याकरणसूत्र के निम्नलिखित १० अध्ययनों का उल्लेख है : उपमा (१), संख्या (२), ऋषिभाषित (३), प्राचार्यभाषित (४), महावीरभाषित (५), क्षोभक प्रश्न (६), कोमल प्रश्न (७), अद्दाग प्रश्न (८), अंगुष्ठ प्रश्न (९) और बाहु प्रश्न (१०) । . दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ अंगपण्णत्ति और राजवातिक आदि ग्रन्थों में भी स्थानांग से कुछ मिलता-जुलता इस अंग के विषयों का उल्लेख किया गया है। वर्तमान में उपलब्ध इस दशम अंग प्रश्नव्याकरण में न तो उपरिवरिणत विषय ही हैं और न ४५ अध्ययन ही। प्राज जो प्रश्नव्याकरण उपलब्ध है वह दो खण्डों में विभाजित है । इसके प्रथम खण्ड में ५ प्राश्रवद्वारों का वर्णन है और दूसरे खण्ड में पांच संवरद्वारों का। ५ प्राश्रवद्वारों में हिंसादि पांच पापों और संघरद्वारों में हिंसादि पापों के निषेधरूप अहिंसादि ५ व्रतों का सुव्यवस्थित विवरण दिया गया है। · श्वेताम्बर परम्परा के समवायांग, स्थानांग और नन्दीसूत्र में तथा दिगंबर परम्परा के मान्य ग्रन्थों राजवातिक, धवला, अंगपण्रणत्ति आदि में प्रश्नव्याकरणसूत्र के जिन विषयों का उल्लेख किया गया है उन विषयों का उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र में नामशेष भी दृष्टिगोचर न होकर जो उनसे सर्वथा भिन्न विषयों का निरूपण मिलता है, उसके सम्बन्ध में वृत्तिकार अभयदेव सूरि का निम्नलिखित स्पष्टीकरण दृष्टव्य है : ___ "इस समय का कोई अनधिकारी व्यक्ति प्रश्नव्याकरण सूत्र में वरिणत विचारों का दुरुपयोग न कर बैठे इस आशंका से वे सब विद्याएं इस सूत्र में से "नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि द्विनवतिलक्ष्यः षोडश सहस्रा इत्यर्थः । नंदी-मलयवृत्ति, पृ० ४७२, धनपतिसिंह] २ पम्हस्स दूदवयणगठ्ठपमुठिमणुत्थयसरूवस्स। पादुणरमूलजस्स वि प्रत्यो तियकालगोचरयो ।।५७।। पणषण्णजयपराजयलाहालाहादिसुहदुहं णेयं । बीवियमरणत्यो वि य जत्य कहिज्जह सहावेण ॥५८।। परमाणुयोगकरणाणुयोगवरचरणदव्यप्रणुयोगं । संठाणं लोपस्स य, यदि सावयधम्मवित्थारं ।।६०।। संसारदेहभोगा रागो जीवस्स जायदे तम्हा । ममुहाणं कम्माएं, बंघो तत्तो हवे दुक्खं ।।७।। [अंगपण्णत्ति) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [१०. पन्हावागरण निकाल दी गई और उनके स्थान पर प्राश्रव एवं संवर का समावेश कर दिया गया।" 'अभयदेव सूरि का यह कथन ठीक प्रतीत होता है । आगम के मलपाठ से यह स्पष्टतया प्रकट होता है कि भूतकाल की घटनाओं एवं अतीन्द्रिय विषयों के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष के समान प्रतीति कराने वाली चमत्कारपूर्ण दर्पणप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न आदि अनेक विद्याएं इस अंग में विद्यमान थीं। उन प्रश्नों द्वारा अत्यन्त निगूढ़ मनोगत प्रश्नों तक का पूर्ण प्रतीतिकारक वास्तविक उत्तर दे दिया जाता था और इस प्रकार के प्रत्यद्भुत चमत्कार से लोगों के हृदय में दृढ़ विश्वास उत्पन्न हो जाता था कि प्रतीत काल में, तीर्थंकर निश्चित रूप से हुए हैं तभी उन्होंने इस प्रकार के अलौकिक प्रश्नों का प्रतिपादन किया है। यदि अतिशय ज्ञानी तीर्थकर नहीं हुए होते तो इस प्रकार के प्रश्नों (विद्याओं) का प्रादुर्भाव ही नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन सिद्धान्त के अनुरूप भारम्भ-समारम्भ पूर्ण विद्यानों एवं निमित्तकथन आदि से सर्वथा बचते हुए प्राध्यात्मिक अम्युन्नति, प्रतीति अथवा धर्माभ्युदय हेतु अपवाद रूप से ही इस प्रकार की विद्यामों का उपयोग किया जाता होगा। परन्तु कालप्रभाव से परिवर्तित परिस्थितियों में पूर्वाचार्यों को आध्यात्मिक अभ्युत्थान में सहायक उन विद्यानों के दुरुपयोग की आशंका हुई तो उन्होंने उन विद्याओं को इस अंग में से निकाल दिया।। वास्तविकता क्या है, यह वस्तुतः विद्वानों के लिए गहन शोध का एक अच्छा विषय है। वर्तमान में प्रश्नव्याकरणसूत्र १३०० श्लोकप्रमारण कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों में प्रतिपादित विषय का सारांश इस प्रकार है : प्रथम श्रुतस्कन्ध में ५ आश्रव द्वारों का निरूपण किया गया है । १. प्रथम 'अधर्मद्वार' में हिंसा का पांच प्रकार से वर्णन किया गया है। वीतराग जिनेश्वर ने हिंसा को पापरूप, अनार्य (कर्म) और नरक गति में ले जाने वाला बताया है। प्रारणवध आदि इसके ३० नाम दिये गए हैं। इसमें यह समझाया गया है कि असंयमी, अविरति और मन, वारणी तथा कार्य के प्रशुभ योग वाले जीव, पशु-पक्षी-कीटादि जीवों की हिंसा करते हैं। बस जीवों की हिंसा अय प्रश्नध्याकरणाख्यं दशमांगं व्याख्यायते । अथ कोऽस्याभिधानस्यार्थः ? उच्यते प्रश्नीः अंगुष्ठादिप्रश्न विद्यास्ता व्याक्रियतेऽस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणं । क्वचित्प्रश्नव्याकरणदशा इति दृश्यते तत्र प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरादशादशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्थपद्धतयः इति प्रश्नव्याकरणदशाः। अयं च व्युत्पत्यर्थोऽस्यपूर्वकालेऽभूदिदानी त्वाश्रवपंचक संवरपंचकव्याकृतिरेवेहोपलभ्यतेऽतिशयानां पूर्वाधारदंयुगीनां पुष्टालंबनप्रतिविपुरुषापेक्षयोतारितत्वादिति । [प्रश्नव्याकरण, अभयदेवमूरिकृता. टीका, पृ० १ (धनपतिसिंह)] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५६ १. पहाबागरण] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा के विविध कारणों में से मुख्य कारणों का उल्लेख करते हुए इसमें बताया गया है कि अस्थि, मांस, चर्म आदि प्राण्यंगों के लिए तथा शरीर एवं भवन आदि की शोभा बढ़ाने हेतु मुख्यतः त्रस जीवों की हिंसा की जाती है। पथ्वी, जल आदि स्थावरकायिक जीवों की हिंसा के कारणों का उल्लेख करने से पहले इसमें कहा गया है कि मन्दबुद्धि लोग जानते हुए और अनजान में भी स्थावरकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। पृथ्वीकाय की हिंसा के कारणों को बताते हुए यह कहा गया है कि कृषि, कुआ, बावडी, चैत्य, स्मारक, स्तूप, घर, भवन, मन्दिर, मूर्ति और भाण्डोपकरण आदि के लिए मंदबुद्धि प्राणी हिंसा करते हैं। - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक आदि हिंसा के अंतरंग कारणों का उल्लेख करते हुए इसमें बताया गया है कि धर्म, अर्थ और काम के निमित्त से मन्द बुद्धिवाले प्राणी प्रयोजनवशात् तथा निष्प्रयोजन ही जीवों की हिंसा करते हैं। हिंसा करने वालों में शिकारी, पारधि, धीवर प्रादि क्रूरकर्मी तथा शक, यवन आदि ५० प्रकार के अनार्यों को गिनाया गया है। हिंसाजन्य पाप के फलस्वरूप होने वाले दुःखों में नरक और तिर्यंचों के विविध दुःखों का उल्लेख किया गया हैं। जो लोग चैत्य, मंदिर, मठ और यज्ञयागादि धर्मकार्यों में होने वाली हिंसा को हिंसा नहीं मानते उन्हें प्रश्नव्याकरण के इस अध्ययन का ध्यानपूर्वक पठन एवं मनन करना चाहिए। इसमें अर्थ और काम निमित्त की जाने वाती हिंसा की ही तरह धर्म हेतु की जाने वाली हिंसा को भी अधर्म बताया गया है। इसमें हिंसा, हिंसा के विविध कारण और हिंसक अनार्य जातियों का विस्तृत परिचय दिया गया है। २. द्वितीय अध्ययन में झूठ को भयंकर और अविश्वासकारक बताते हुए झूठ बोलने वालों के ३० नाम दिये गये हैं, जिनमें मृषाभाषी, क्रोधी, लोभी, भयग्रस्त, हास्यवश झूठ बोलने वाले, अधिकांश गवाह चोर, भाट, जुमारी, वेषधारी, मायावी, अवैध माप-तौल करने वाले, स्वर्णकार, वस्त्रकार, चुगलखोर, दलाल, लोभी, स्वार्थी आदि के नाम बताये गए हैं। धार्मिक दृष्टि से नास्तिकों, एकान्तवादियों और कुदर्शनियों को भी मृषाभाषी बताया गया है। नरक, तिर्यंच गति की अजस्र एवं असह्य वेदना, दुर्मति और अशुभवचन आदि को मृषाभाषण का फल बताते हुए इसमें कहा गया है कि मृषावादी इस लोक और परलोक-उभयत्र ही सव प्राकर के कष्टों और अविश्वास का पात्र होता है। ३. तीसरे अध्ययन में चोरी को चिन्ता एवं भय की जननी तथा साधपुरुषों द्वारा विनिन्दित बताते हए इसके चोरी, एवं हरण आदि ३० नामों का उल्लेख किया गया है। चोरी कौन लोग किस प्रकार करते हैं - यह समझाते हुए कहा गया है कि अत्यधिक लालसा वाले, परधन और परकीय भूमि पर पासक्त, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. बैन धर्म का मालिक इतिहास-द्वितीय भाग [१०. पाहावागरण परराष्ट्र पर अधिकार करने के लोभवश अाक्रमण करने वाले राजा लोग, प्रश्वचोर, पशुचोर पोर दासचोर प्रादि के एतद्विषयक सभी उपक्रम चोरी की परिधि में सम्मिलित हैं। इसमें चोरी के उपकरणों और प्रकारों का भी विस्तारपूर्वक वर्णन के साथ-साथ छोटे-बड़े सभी तरह के चोरों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि परद्रव्य-हारी अनुकम्पारहित एवं निर्लज्ज होते हैं। चोरी के अपराध में दिये जाने वाले कठोर दण्ड - ताडन, तर्जन, छेदन-भेदन, अंग घोटन, कारावास, बन्धन प्रादि का भी इसमें विस्तार सहित वर्णन है। इसके उपरान्त चोर्यकर्म के फलस्वरूप परलोक में नरक एवं तिथंच गति के अनेक प्रकार के दारुण दुःखों के परवश अवस्था में भोगने का भी इसमें उल्लेख किया गया है । इस अध्ययन के अन्त में बताया गया है कि चोर को इहलोक, परलोक में कहीं पर भी शान्ति नहीं मिलती। वह सदा भयभीत वना ना छूपकर इधर-उधर भटकता हुमा दुःखमय एवं प्रशान्त जीवन व्यतीत करता है। चौथे अध्ययन में चौथे अधर्म स्थान मैथुन-कुशील को जरा, मरण, राग, शोक विवर्द्धक और मोहवद्धि का प्रमुख कारण बताया गया है। इसके भी अब्रह्म प्रादि ३० नाम दिये गये हैं। मैथुन-कुशील की ग्रासेवना एवं प्रासक्ति में मोहमुग्धमति देव-देवी, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क आदि, मनुष्यों में चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव, मांडलिक राजा, योगलिक मानव अादि अनुपम-अपार भोगसामग्री को सुदीर्घ काल तक भोग कर भी बिना तृप्ति के कराल काल के कवल बन जाते हैं। मैथुनासक्त नर दूसरे के धन, जीवन आदि का विनाश करने में, नहीं सकुचाते। हाथी, घोड़े, महिषादि पशु और पक्षिगरण मैथुनासक्तावस्था में एक दूसरे को मार डालने के लिए तत्पर रहते हैं। प्राचीन समय में मैथुनासक्ति के कारण जो अनेक जनक्षयकारी युद्ध हुए उनमें से सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कंचना, सुभद्रा, अहिल्या, सुवर्णगुलिका, किन्नरी, सुरूपा विद्युन्मती और रोहिणी के लिए हुए संग्रामों का इसमें उल्लेख किया गया है। इसमें प्रसंगवशात् स्त्रियों के सौन्दर्य का भी वर्णन किया गया है। मैथुनसेवन के दारुण दुःखपूर्ण फल का उल्लेख करते हुए इसमें बताया गया है कि मैथुनासक्ति के कारण प्राणी इस लोक और परलोक दोनों में ही नष्ट होकर बस-स्थावर, सूक्ष्म-बादर भेद वाले नरक आदि चतुर्गति रूप संसार में दीर्घ काल तक भटकता हुआ जरा-मरण, रोग-शोक आदि दुःखों को भोगता रहता है। ५. पंचम अध्ययन में विविध प्रकार के चल, अचल तथा मिथ परिग्रह का उल्लेख किया गया है । इसमें वृक्ष के रूपक के माध्यम से परिग्रह का वर्णन है । इसमें परिग्रह के ३० नामों का उल्लेख करते हुए संचय, उपचय, लोभात्मा आदि शब्दों को एकार्थक अर्थात् पर्यायवाची बताया गया है। इस अध्ययन में यह भी स्पष्ट किया गया है कि चार जाति के देवगण और ८८ ग्रहों के देव-देवी आदि भी ममत्व रखते हैं तथा कर्म भूमि के मनुष्य - चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक, ईश्वर, तलवर, श्रेष्ठी, सेनापति, इभ्य आदि परिग्रह का संचय करते Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा हैं। इसमें बताया गया है कि पग-पग पर वध-बन्ध-क्लेशादि की बाहल्यता को उपस्थित करने वाले प्रशाश्वत परिग्रह के लिये ही प्राणी सैकड़ों प्रकार के शिल्प ग्रोर अनेक प्रकार की कलाओं को सीखता है। परिग्रह की वृद्धि के लिये ही पुरुप की बहतर कलायों एवं ६४ महिला-गुग्गों तथा शिल्प, सेवा प्रादि का शिक्षण प्राप्त किया जाता है। परिग्रह के हेतु ही मानव हिंसा, झूठ, अदत्तहरण ग्रादि दुष्कर्म तथा भूख, प्याम, अपमान आदि विविध कष्टों को सहन करता है । परिग्रह से बढ़कर मनुष्यलोक में अन्य कोई बन्धन नहीं है । परिग्रह से क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। परिग्रह में संसक्त प्रारणी इस लोक में भी महान् दुःखी बनता है और परलोक में भी त्रस-स्थावर प्रादि जीवयोनियों में दीर्घकाल तक भ्रमण करता हुग्रा दारुण दुःखों का भागी बनता है। अध्ययन के अन्त में बताया गया है कि परिग्रह वस्तुतः मोक्षमार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाला अर्गला रूप अन्तिम अधर्म द्वार है। इन पांच प्रकार के प्राथवों से कर्मरज का संचय कर जीव चतुर्गतिक संसार में अनन्त काल तक भटकते रहते हैं। भव-भ्रमरण में निरन्तर भटकते हुए प्राणियों की दयनीय दशा पर गहरा दुःख प्रकट करते हुए सूत्रकार ने कहा है - "सब दुःखों को दूर करने वाला जिनवाणी रूपी औषध सभी को निःशुल्क दिया जा रहा है पर जगजीव उसका सेवन नहीं करके असह्य दुःख भोग रहे हैं, क्या किया जाय ?" दूसरे श्रुतस्कन्ध में ५ धर्मद्वारों अर्थात् संवरद्वारों का वर्णन किया गया है । अहिंसा (१), सत्य (२), दत्तादान (३), ब्रह्मचर्य (४) और अपरिग्रह (५) ये पांच धर्मद्वार हैं। १. द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में अहिंसा को प्रथम धर्म बताते हुए कहा गया है कि यह देव, मनुष्य और असुरादि लोक में दीप के समान प्रकाशक और सब की शरणभूत है। दया, शान्ति, उत्सव, यज्ञ, पूजा आदि शब्दों को अहिंसा के ही पर्यायवाची शब्द बताते हुए इसके ६० नाम दिये गए हैं। अहिंसा को पक्षियों के लिए आकाश और समुद्र में जहाज के समान जगजीवों का आधार माना गया है। जीव मात्र के लिए अहिंसा को क्षेमंकरी बताते हुए कहा गया है कि अहिंसा अपरिमितज्ञानी, त्रिलोकपूज्य तीर्थंकरों द्वारा सुदृष्ट, प्रवधिज्ञानियों द्वारा ज्ञात, ऋजुमति, विपुलमति के धारकों द्वारा जानी गई, पूर्वधारियों द्वारा पढ़ी गई और विविध प्रकार के ज्ञान, तप और लब्धिधर साधकों द्वारा अनपालित एवं उपदिष्ट है। बड़े-बड़े महात्मानों द्वारा भगवती अहिंसा प्रशंसित. है। इस अध्ययन में अहिंसा के रक्षण हेतु आहारशुद्धि को परमावश्यक बताया गया है। पटकायिक जीवों की दया के लिए शुद्ध पाहार की गवेषणा का इसमें उपदेश दिया गया है। अहिंसक मुनि को कैसे और किस प्रकार के प्राहार की गवेषणा करनी चाहिए, यह इसमें बड़े विस्तार के साथ बताया गया है। जो पाहार साधु के लिए कृत, कारित और बुला कर दिया गया न हो, प्रोद्देशिक Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग | प्रश्नव्याकरण और क्रयदोष से रहित हो, उद्गम, उत्पादना एवं एषणा दोष से रहित, नवकोटिशुद्ध हो, वह भिक्षा साधु के ग्रहरण करने योग्य बताई गई है । कथाप्रयोजन से लाई हुई भिक्षा तथा मंत्र, मूल, भैषज्य, स्वप्नफल और ज्योतिष आदि बताने के उपलक्ष में दी जाने वाली भिक्षा को साधु के लिए अग्राह्य और निषिद्ध बताया गया है । हिंसा का प्रवचन भगवान् ने प्राणिमात्र के हित और उनके जन्मान्तर के कल्याण के लिए दिया है। इसमें अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए ५ भावनाएं बताई गई हैं। प्रथम भावना में स-स्थावर जीवों की दया हेतु ईर्या -समिति से अर्थात् देख कर चलना । दूसरी मनममिति में अशुभ एवं प्रधार्मिक विचार नहीं करना । तीसरी वाक्समिति में सावद्य वचन से बचकर निर्दोष भाषा बोलना । चौथी एषण समिति में भिक्षेषरगा में नियुक्त मुनि को निर्देश दिया गया है कि वह घर-घर से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे और गुरु के समक्ष भिक्षा निवेदित कर आलोचना करे । तदनन्तर प्रमादरहित एवं प्रशान्तरूपेण बैठकर क्षण भर शुभ योगों का चिन्तन करे और उसके पश्चात् छोटे-बड़े सभी साधुनों को निमन्त्रित एवं शरीर को साफ कर मूर्च्छारहित हो श्राहार करे । खाते समय सुरसुर अथवा अन्य किसी प्रकार का शब्द न करे अर्थात् भोजन करते समय मुंह न बोलावे, भूमि पर भोजन का श्रंश नहीं गिरावे, केवल साधना हेतु प्रारण धारण करने के लिए रागद्वेषविहीन भाव से प्रहार करे। पांचवीं प्रदान- निक्षैपरणासमिति में पीठ, फलक और मुँहपत्ती आदि उपकरणों को रागद्वेषरहित भावना से यतनापूर्वक ग्रहण करने का निर्देश है। इसमें बताया गया है कि आजीवन इस प्रकार के योग से चलने वाला साधक आज्ञा का आराधक होता है । २. दूसरे अध्ययन में दूसरे धर्मद्वार सत्य की इहलोक और परलोक में उभयत्र महिमा बताते हुए कहा गया हैं कि सत्यवादी न समुद्र में डूबता है और न अग्नि में ही जलता है । पर्वतं से गिरा दिये जाने पर भी वह सुरक्षित ही रहता है क्योंकि पुण्ययोग से देव भी उसकी रक्षा करते हैं । सत्य भगवान् का तीर्थंकरों ने भी कथन किया है । दश प्रकार का सत्य देव, दानव और मानवों का वन्दनीय और पूजनीय है । दूसरे की निन्दा, प्रात्मप्रशंसा एवं अपवादपूर्ण भाषरण को सत्य में सम्मिलित नहीं किया गया है। हिंसाकारी सत्य भी श्रवाच्य बतलाया गया है। सत्यवादी मुनि के लिए व्याकरण का ज्ञान भी श्रावश्यक बताया गया है । नामसत्य, रूपसत्य एवं स्थापनासत्य जैसे भेदों को वास्तविकता नहीं होने पर भी व्यवहार में बोलचाल की दृष्टि से सत्य माना है । सत्यधर्म के रक्षणार्थ भी ५ भावनाएं बताई गई हैं। प्रथम भावना में बताया गया है कि संयमी हितमित-पथ्य वारणी विचार कर बोले । बिना विचारे नहीं बोले । क्रोधावेश में नहीं बोले । लोभवश झूठ बोला जाता है अतः लोभ का परित्याग कर संयत भाषा . बोले । रोग, व्याधि, जरा श्रादि से भयभीत होकर नहीं बोले । हास्य को भी झूठ का कारण बताते हुए इसमें कहा गया है कि पंचम भावना में हास्य से सदा बचता रहे । हास्य का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर मौन रखे पर हास्य-वश किसी 1 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा भी दशा में मृषा न बोले। इस प्रकार सदा सावधान रहकर बोलने वाला भाषा का पाराधक बताया गया है। ३. तीसरे अध्ययन में दत्तादान अर्थात् अचौर्य नामक तीसरे धर्मद्वार का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि पूर्ण संयमी साधक ही अचौर्यधर्म का सम्यकरूपेण अाराधन कर पाते हैं। अचौर्यव्रत का स्वरूप बताते हुए इसमें कहा गया है कि ग्राम, नगरादि में कोई वस्तु पड़ी हुई हो, कोई भूल गया हो तो उस वस्तु को नहीं लेना । खेत अथवा जंगल के फल, फूल, तृणादि भी खेत अथवा वन के स्वामी की बिना प्राज्ञा के तोड़ना अदत्तादान बताया गया है । इसमें संयमी के लिए यह आवश्यक बताया गया है कि वह पीठ, फलक, शय्या और वस्त्र, उपकरण आदि का सहधर्मियों में रामान रूप से विभाग करके उपयोग करे। अचौर्यव्रत का पाराधक उसे माना गया है जो बाल, दुर्बल, वृद्ध, तपस्वी और प्राचार्य आदि की बिना किसी प्रकार की अपेक्षा किये १० प्रकार की सेवा करता है एवं जो अप्रीतिकारक घर तथा उसके यहां के प्राहार, उपकरण आदि का सेवन नहीं करता और निषिद्ध प्राचरणों से सदा दूर रहता है। तीसरे अदत्तादान-विरमरण व्रत की रक्षा के लिए ५ भावनाएं बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं : स्त्री, पशु, पण्डकरहित निर्दोष वसति में वास करना (१), प्रतिदिन उस वसति में निवास के लिए प्राज्ञा प्राप्त करना तथा बिना प्राज्ञा के उसमें से किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना (२), पीठ, फलक प्रादि के लिए प्रारम्भ नहीं करना (३), साधारण पिण्ड की गवेषणा कर विधिपूर्वक आहार करना (४) और सहधर्मी के प्रति विनय प्रदर्शित करना (५) । ४. चौथे अध्ययन में चौथे धर्मद्वार ब्रह्मचर्य का वर्णन किया गया है। इसमें ब्रह्मचर्य को तप एवं संयम का मूल और सुगति का पथप्रदर्शक बताया गया है। इसे "ब्रह्मचर्य भगवान्" कह कर ३२ उपमाओं से उपमित किया गया है। इसमें ब्रह्मचर्य को देवेन्द्र-नरेन्द्रों से पूजित और सद्गुणों में मुकुट के समान श्रेष्ठ बताया गया है। ब्रह्मचारी के आहार, विहार एवं जीवनचर्या का वर्णन करने के पश्चात् इसमें इस व्रत की रक्षा के लिए आवश्यक ५ भावनामों का उल्लेख किया गया है। ब्रह्मचारी के लिए सादा वेश और सात्विक परिमित भोजन आवश्यक बताया गया है। १. पांचवें अध्ययन में पांचवें धर्मद्वार अपरिग्रह का निरूपण करते हए बताया गया है कि अपरिग्रही सब प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भ और परिग्रहों से पूर्णरूपेण विरत और जिनप्रणीत भावों में शंका-कांक्षा रहित होता है। इसमें अपरिग्रह का संवर वृक्ष के रूप में वर्णन किया गया है। अपरिग्रही के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए इसमें बताया गया है कि अपरिग्रही थोड़ा अथवा बहुत, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रश्नव्याकरण सूक्ष्म अथवा स्शुल, सजीव अथवा निर्जीव - किसी प्रकार का द्रव्य ग्रहण नहीं करता । पूर्ण अपरिग्रही को दांत, शृंग, काच, पत्थर एवं चर्म आदि के पात्र प्रभृति तथा फल-फूल, कन्द-मूल आदि ग्रहण करने का इसमें निषेध किया गया है और यह बताया गया है कि अपरिग्रही साधक भोजन के लिए भी हिंसा नहीं करता। वह कारण से ही आहार को ग्रहण करता और कारणवशात् ही आहार का त्याग करता है। निष्परिग्रही साधक शरीर-रक्षा और धर्मसाधना के लिए जो वस्त्र, पात्रादि ग्रहण करता है वह भी आवश्यकतानुसार निर्ममत्व भाव से ही ग्रहण एवं धारण करता है। इसमें अपरिग्रही साधु को ३१ उपमाओं से उपमित किया गया है। __ अन्य व्रतों की तरह अपरिग्रह व्रत की भी पांच भावनाओं से सुरक्षा वताई गई है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का इतना विस्तृत और बहुमुखी विश्लेषण अन्य किसी शास्त्र में एकत्र उपलब्ध नहीं होता । हिंसा, मृषा, अदत्तादान, कुशील और परिग्रह - इन पांच पाश्रव-द्वारों तथा अहिंसा, सत्य प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच संवर-द्वारों का सर्वांगपूर्ण बोध प्राप्त करने के लिए प्रश्नव्याकरण के इन दोनों श्रुतस्कन्धों का पठन-पाठन एवं मनन बड़ा ही उपयोगी है। विचारकों के लिए तो प्रश्नव्याकरण वस्तुतः एक महान् निधि के समान है। ११. विवागसुर्य विपाकसूत्र - यह ग्यारहवां अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध, २० अध्ययन, २० उद्देशनकाल, २० समुई शनकाल, संख्यात पद, संख्यात अक्षर व परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढा छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात निरुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। वर्तमान में इसका स्वरूप १२१६ श्लोक-परिमारण है। विपाकसूत्र का मुख्य लक्ष्य कर्म के शुभाशुभ फल-विपाक को समझाना है । .. विपाक सूत्र के, दुःखविपाक और सुखविपाक ये दो विभाग हैं । कर्मसिद्धांत वस्तुतः जैनधर्म का एक प्रमुख और महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। कर्म सिद्धान्त के उदाहरणों के लिए यह आगम अत्यन्त उपयोगी है । ___इसके पहले भाग दुःख विपाक में ऐसे १० व्यक्तियों का वर्णन है जिन्हें अशुभ कर्मानुसार अनेक कष्ट सहन करने पड़े और जो कष्ट से मुक्ति प्राप्त कर सके। पहले भाग के १० अध्ययनों में से प्रथम मृगापुत्र के अध्ययन में बताया गया है कि राष्ट्रकूट की तरह कठोर एवं क्रूर शासन करने वाले को मृगा लोढ़ा की तरह कैसा विकलांग और निन्द्य जीवन जीना पड़ता है । दूसरे अध्ययन में गो-मांस भक्षरण और मद्यपान के दुखद फलों को बताते हुए उज्झित कुमार का परिचय दिया गया है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. विवागसुयं] कलिकाल : प्रार्य सुधर्मा तीसरे अध्ययन में प्रभंगसेन चोर के माध्यम से बताया गया है किमद्यपान एवं अण्डों का विक्रय करने वाला किस प्रकार वध-बन्ध के दुःखों का भागी होता है। चौथे शकट अध्ययन में मांस विक्रय और व्यभिचार के फल बतलाते हुए 'छागलिक' कसाई के जन्म-जन्मान्तरं के दुःख और राजपुरुषों द्वारा निर्दयतापूर्वक उसे वध हेतु ले जाये जाने का उल्लेख है। . . ___पांचवें अध्ययन में यज्ञ की हिंसा और परस्त्रीगमन के कटु फलों का वर्णन करते हुए 'महेश्वरदत्त' पुरोहित के माध्यम से नरकादि दुर्गतिरूप हिंसा व व्यभिचार का फल बताया गया है। छठे अध्ययन में तत्कालीन विविध प्रकार के दण्डविधान का परिचय दिया गया है, और कठोर दण्ड देने वाले को नन्दीषेण की तरह वध, बन्ध और नरकगमन के कैसे कटु फल भोगने पड़ते हैं, यह बताया गया है । सातवें अध्ययन में मांस और प्राणी-अंगों से चिकित्सा करने का फल बताते हुए 'उमरदत्त' के १६ रोग एक साथ उत्पन्न होने और दीर्घकाल तक उसके भवभ्रमण का परिचय दिया गया है। ___ आठवें अध्ययन में मच्छीमार के व्यवसाय का दुःखद फल बताते हुए एक मच्छीमार के विविध कष्टपूर्ण नरकादि दुर्गतियों में भ्रमण करने और भयंकर कष्ट पाने का उल्लेख किया गया है। नौवें अध्ययन में ईर्ष्या का फल बताते हुए राजकुमार सिंहसेन' का उल्लेख किया गया है । 'सिंहसेन' ने 'श्यामा' रानी में प्रासक्त होकर ४६६ रानियों को द्वेषवश महल में बन्द कर जला दिया। इसके परिणामस्वरूप उसको अनेक जन्मों तक नरकादि दुर्गतियों में वध-बन्ध के कष्ट भोगने पड़े, यह बताया गया है। दशवें अध्ययन में वेश्यावत्ति के फलस्वरूप होने वाले दारुण दुःखों का चित्रण करते हुए बताया गया है कि अंजुश्री को व्यभिचार के कारण किस प्रकार असह्य एवं असाध्य योनिशूल की वेदना भोगनी पड़ी और अनेक जन्मों तक कष्ट भोगने के पश्चात् अन्ततोगत्वा अत्यन्त कठिनाई से उसे बोधि प्राप्त हुई। - दूसरे श्रुतस्कन्ध में सुबाहु, भद्रनन्दि आदि १० राजकुमारों के सुखमय जीवन का वर्णन है। इन सबने पूर्वभव में तपस्वी मुनि को पवित्र भाव से निर्दोष आहार का प्रतिलाभ देकर संसार का अन्त किया और उत्तम कुल में जन्म लेकर सुखपूर्वक साधना से मुक्ति प्राप्त की। इन १० अध्ययनों में कुछ सुबाहु की तरह १५ भव कर मोक्ष जाने वाले और कुछ तद्भव-मोक्षगामी बताये गये हैं। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग १२. दृष्टिवाद दिट्ठिवाय दृष्टिवाद- दृष्टिपात - यह प्रवचनपुरुष का बारहवां अंग है, जिसमें संसार के समस्त दर्शनों और नयों का निरूपण किया गया है' प्रथवा जिसमें सम्यक्त्व आदि दृष्टियों अर्थात् दर्शनों का विवेचन किया गया है ।" दृष्टिवाद नामक यह बारहवां अंग विलुप्त हो चुका है अतः आज यह कहीं उपलब्ध नहीं होता। वीर निं० सं० १७० में श्रुतकेवली श्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गगमन के पश्चात् दृष्टिवाद का हास प्रारम्भ हुआ और वी० नि० सं० १००० में यह पूर्णतः ( शब्द रूप से पूर्णतः और अर्थ रूप से अधिकांशतः ) विलुप्त हो गया । स्थानांगसूत्र में दृष्टिवाद के दश नाम बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं : १. दृष्टिवाद, २. हेतुवाद, ३. भूतवाद, ४. तथ्यवाद, ५. सम्यक्वाद, ६. धर्मवाद, ७. भाषाविचय अथवा भाषाविजय, ८. पूर्वगत, ६. अनुयोगगत और १०. सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावह । * [१२. दृष्टिवाद समवायांग एवं नन्दीसूत्र के अनुसार दृष्टिवाद के पांच विभाग कहे गये हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । इन पांचों विभागों के विभिन्न भेदप्रभेदों का समवायांग एवं नन्दीसूत्र में विवरण दिया गया है, जिनका सारांश यह है कि दृष्टिवाद के प्रथम विभाग परिकर्म के अन्तर्गत लिपिविज्ञान और सर्वांगपूर्ण गणित विद्या का विवेचन था । इसके दूसरे भेद सूत्र - विभाग में छिन्न-छेद नय, छिन्न-छेद नय, त्रिक नय तथा चतुर्नय की परिपाटियों का विस्तृत विवेचन था । नय की इन चार प्रकार की परिपाटियों में से प्रथम - छिन्न-छेद नय और चतुर्थ चतुर्नय- ये दो परिपाटियां निर्ग्रन्थों की और अछिन्न- छेद नय एवं त्रिनय की परिपाटियां प्राजीविकों की कही गई थीं । " दृष्टयो दर्शनानि नया वा उच्यन्ते श्रभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यत्रासी दृष्टिवादो, दृष्टिपातो वा । प्रवचनपुरुषस्य द्वादशेऽङ्गे २ दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वादि, वदनं वादो, दृष्टिनां वादो दृष्टिवादः । [ स्थानांग वृत्ति, ठा० ४, उ०.१] [प्रवचन सारोद्धार, द्वार १४४] 3 गोयमा ! जंबूद्दीने गं दीवे भारहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुम्बगए अगुसज्जिस्सइ * [ भगवतीसूत्र, शतक २०, उ० ८, सू० ६७७ सुत्तागमे, पृ० ८०४ ] दिट्ठिवायरस णं दस नामधिज्जा पण्णत्ता । तं जहा दिट्ठिवाएइ वा हेतुबाएर वा भूयवाएइ वा तच्चावाएइ वा सम्मावाएइ वा, धम्मावाएइ वा भासाविजएर बा, पुनगएइ वा, प्रोगगएइ वा सव्वपारण भूयजोवसससुहाबहेर वा । [ स्थानांग सूत्र, ठा० १० ] * सेकि? से समासप्रो पंचविहे पण तं जहा परिकम्मे, सुताई, पुम्बगए, रोगे चूलिया । ( नन्दी) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. दृष्टिवाद] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा दृष्टिवाद का तीसरा विभाग - पूर्वगत विभाग अन्य सब विभागों से अधिक विशाल और बड़ा महत्वपूर्ण माना गया है । इसके अन्तर्गत निम्नलिखित १४ पूर्व थे : १. उत्पादपूर्व - इसमें सब द्रव्य और पर्यायों के उत्पाद (उत्पत्ति) की प्ररूपणा की गई थी।' इसका पदपरिमारण १ कोटि पद माना गया है। २. अग्रायणीयपूर्व- इसमें सभी द्रव्य, पर्याय और जीवविशेष के अग्रपरिमाण का वर्णन किया गया था। इसका पद-परिमारण ६६ लाख पद माना गया है। ३. वीर्यप्रवाद - इसमें सकर्म एवं निष्कर्म जीव तथा अजीव के वीर्यशक्तिविशेष का वर्णन था । इसकी पद संख्या ७० लाख मानी गई है। ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व - इसमें वस्तुओं के अस्तित्व तथा नास्तित्व के वर्णन के साथ-साथ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का अस्तित्व और खपुष्प आदि का नास्तित्व तथा प्रत्येक द्रव्य के स्वरूप से अस्तित्व एवं पररूप से नास्तित्व का प्रतिपादन किया गया था। इसका पदपरिमाण ६० लाख पद बताया गया है। ५. ज्ञानप्रवादपूर्व- इसमें मतिज्ञान आदि ५ ज्ञान तथा इनके भेद-प्रभेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था । इसकी पदसंख्या १ करोड़ मानी गई है । ६. सत्यप्रवादपूर्व - इसमें सत्यवचन अथवा संयम का, प्रतिपक्ष (असत्यों के स्वरूपों) के विवेचन के साथ-साथ, विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था। इसमें कुल १ करोड़ और ६ पद होने का उल्लेख मिलता है । ७. प्रात्मप्रवादपूर्व- इसमें प्रात्मा के स्वरूप, उसकी व्यापकता, ज्ञातृभाव तथा भोक्तापन सम्बन्धी विवेचन अनेक नयमतों की दृष्टि से किया गया था। इसमें २६ करोड़ पद माने गये हैं। .. ८. कर्मप्रवादपूर्व- इसमें ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ कों का, उनकी प्रकृतियों, स्थितियों, शक्तियों एवं परिमारणों प्रादि का बन्ध के भेद-प्रभेद सहित विस्तारपूर्वक वर्णन था। इस पूर्व की पदसंख्या १ करोड ८० हजार पद बताई गई है। ९. प्रत्याख्यान-प्रवादपूर्व- इसमें प्रत्याख्यान का, इसके भेद-प्रभेदों के साथ विस्तार सहित वर्णन किया गया था। इसके अतिरिक्त इस नौवें पूर्व में प्राचारसम्बन्धी नियम भी निर्धारित किये गए थे। इसमें ८४ लाख पद थे। १०. विद्यानुप्रवादपूर्व - इसमें अनेक अतिशय शक्तिसम्पन्न विद्यामों एवं उपविद्यानों का उनकी साधना करने की विधि के साथ निरूपण किया गया था, जिनमें अंगुष्ठ-प्रश्नादि ७०० लघु विद्यामों, रोहिणी आदि ५००. महाविद्यामों ' पढम उप्पायपुव्वं, तत्य सम्वदम्वाणं पज्जवाण य उप्पायभावमंगीकाउं पण्णवणा कया। [नन्दी पूणि]] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [१२. दृष्टिवाद एवं अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यजन और छिन्न- इन प्राठ महानिमित्तों द्वारा भविष्य को जानने की विधि का वर्णन किया गया था । इस पूर्व के पदों की संख्या १ करोड़ १० लाख बताई गई है । १९. प्रवन्ध्यपूर्व- -वन्ध्य शब्द का अर्थ है निष्फल ग्रथवा मोघ । इसके विपरीत जो कभी निष्फल न हो अर्थात् जो अमोघ हो उसे अबन्ध्य कहते हैं । इस प्रबन्ध्यपूर्व में ज्ञान, तप आदि सभी सत्कर्मों को शुभफल देने वाले तथा प्रमाद आदि असत्कर्मों को अशुभ फलदायक बताया गया था । शुभाशुभ कर्मों के फल निश्चित रूप से अमोघ होते हैं, कभी किसी भी दशा में निष्फल नहीं होते इसलिए इस ग्यारहवें पूर्व का नाम अबन्ध्यपूर्व रखा गया । इसकी पदसंख्या २६ करोड़ बताई गई है । दिगम्बर परम्परा में ग्यारहवें पूर्व का नाम "कल्याणवाद पूर्व" माना गया है । दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार कल्याणवाद नामक ग्यारहवें पूर्व में तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों के गर्भावतरणोत्सवों, तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कराने वाली सोलह भावनाओं एवं तपस्याओं का तथा चन्द्र व सूर्य के ग्रहरण, ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव, शकुन, उनके शुभाशुभ फल आदि का वर्णन किया गया था । श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी इस पूर्व की पदसंख्या २६ करोड़ ही मानी गई है । १२. प्राणायु पूर्व - इस पूर्व में श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार श्रायु और प्रारणों का भेद-प्रभेद सहित वर्णन किया गया था । दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार इसमें काय- चिकित्सा प्रमुख ग्रप्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, जांगुलि, प्रक्रम, साधक आदि प्रायुर्वेद के भेद, इला, पिंगलादि प्राण, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि तत्वों के अनेक भेद, दश प्रारण, द्रव्य, द्रव्यों के उपकार तथा अपकार रूपों का वर्णन किया गया था । श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार प्रारणायुपूर्व की पदसंख्या १ करोड़ ५६ लाख और दिगम्बर मान्यतानुसार १३ करोड़ थी । १३. क्रियाविशाल पूर्व - इसमें संगीतशास्त्र, छन्द, अलंकार, पुरुषों की ७२ कलाएं, स्त्रियों की ६४ कलाएं, चौरासी प्रकार के शिल्प, विज्ञान, गर्भाधानादि कायिक क्रियाओं तथा सम्यग्दर्शन क्रिया, मुनीन्द्रवन्दन, नित्यनियम आदि प्राध्यात्मिक क्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था । लौकिक एवं लोकोत्तर सभी क्रियाओं का इसमें वर्णन किया जाने के कारण इस पूर्व का कलेवर प्रति विशाल था । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इसकी पद संख्या ६ करोड़ मानती हैं। १४. लोकविन्दुसार - इसमें लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की विद्यायों का एवं सम्पूर्ण रूप से ज्ञान निष्पादित कराने वाली सर्वाक्षरसन्निपातादि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ १२. दृष्टिवाद केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा विशिष्ट लब्धियों का वर्णन था। अक्षर पर बिन्दु की तरह सब प्रकार के ज्ञान का सर्वोत्तम सारं इस पूर्व में निहित था। इसी कारण इसे लोकबिन्दुसार अथवा त्रिलोकबिन्दुसार की संज्ञा से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं की मान्यता के अनुसार इसकी पद संख्या साढ़े बारह करोड़ थी। उपर्युक्त १४ पूर्वो की वस्तु (ग्रन्थविच्छेदविशेष) संख्या क्रमशः १०, १४, ८, १८, १२, २, १६, ३०, २०, १५, १२, १३, ३० और २५ उल्लिखित है।' चौदह पूर्वो के उपरोक्त ग्रन्थविच्छेद-वस्तु के अतिरिक्त आदि के ४ पूर्वो की क्रमशः ४, १२, ८ और १० चूलिकाएं (चुल्ल-क्षुल्लक) मानी गई हैं। शेष १० पूर्वो के चुल्ल अर्थात् क्षुल्ल नहीं माने गये हैं। - जिस प्रकार पर्वत के शिखर का पर्वत के शेष भाग से सर्वोपरि स्थान होता है उसी प्रकार पूर्वो में चूलिकाओं का स्थान सर्वोपरि माना गया है।' अनुयोग - अनुयोग नामक विभाग के मूल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग ये दो भेद बताये गए हैं। प्रथम मूल प्रथमानुयोग में अरहन्तों के पंचकल्याणक का विस्तृत विवरण तथा दूसरे गंडिकानुयोग में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों का चरित्र दिया गया था। दृष्टिवाद के इस चतुर्थ विभाग अनुयोग में इतनी महत्वपूर्ण विपुल सामग्री विद्यमान थी कि उसे जैन धर्म का प्राचीन इतिहास अथवा जैन पुराण की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है । दिगम्बर परम्परा में इस चतुर्थ विभाग का सामान्य नाम प्रथमानुयोग पाया जाता है। चूलिका - समवायांग और नन्दी सूत्र में आदि के चार पूर्वो की जो चूलिकाएं बताई गई हैं, उन्हीं चूलिकायों का दृष्टिवाद के इस पंचम विभाग में समावेश किया गया है। यथा :- "से. किं तं चूलियाओ? चूलियारो पाइल्लाणं चउण्हं पुवारणं चूलिया, सेसाई अचूलियाई, से तं चूलियाओ।" पर दिगम्बर परम्परा में जलगत, स्थलगत, मायागत, रूपगत और आकाशगत-ये पांच प्रकार की चूलिकाएं बताई गई हैं। • दस चोद्दस अट्ठ अट्ठारसेव बारस दुवे य वत्थूगिण । सोलस तीसा वीसा पण्णरस अणुप्पवायम्मि । बारस इक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्यूणि । तीसा पुण तेरसमे चोद्दसमे पण्णवीसा उ ।। २ चतारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्यूरिण । • पाइल्लाण चउण्हं सेसारणं चूलिया नत्यि : [श्रीमानन्दीमूत्रम् (पू० हस्तीमलजी म. सा. द्वारा अनूदित) पृ. १४८] 3 ते सखुवरि ठिया पहिग्जंति य प्रतो तेसु य पम्वय चूला इव चूला। [नन्दीचूणि] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग द्वादशांगी में मंगलाचरण परममंगल स्वरूप परमाहत् प्रभु महावीर के मुखारविन्द से प्रकट हुई सकल अघ-अमंगल-विघ्नविनाशिनी एवं समस्त महामंगल प्रदायिनी वाणी का प्रत्येक पद, वाक्य, शब्द और अक्षर तक परमोत्कृष्ट मंगलाचरण ही है। ऐसी स्थिति में द्वादशांगी के प्रादि, मध्य अथवा अन्त में पृथकरूपेण किसी मंगलाचरण की पावश्यकता ही नहीं रह जाती। निसर्गतः मंगल स्वरूप आगम के लिए भी यदि मंगलाचरण किया जाता है तो इससे निश्चितरूपेण 'अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। यही कारण है कि महावीरवाणी (द्वादशांगी) को सूत्र रूप में प्रथित करते समय भगवान् के गणधरों ने द्वादशांगी के किसी भी अंग के आदि, मध्य अथवा अंत में स्तुति-नमस्कृति-परक मंगलाचरण के रूप में कोई पृथक मंगलपाठ नहीं दिया है। द्वादशांगी के पांचवें अंग 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' के आदि में पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र, 'रणमो बंभीए लिवीए' और 'णमो सुयस्स' - इन प्रकार के उल्लेखों से, शतक संख्या १५, १७, २३ और २६ के प्रारम्भ में 'णमो सुयदेवयाए भगवईए' इस पद से तथा अंत में संघ-स्तुति के पश्चात् गौतमादि गणषरों, भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति, द्वादशांगी रूप गरिणपिटक, श्रुतदेवता, प्रवचनदेवी, कंभधर यक्ष, ब्रह्मशान्ति, वैरोट्यादेवी, विद्यादेवी और अंतहंडी को नमस्कार किया गया है। इस प्रकार 'व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र' में प्रादि से अंत तक नमनादि के रूप में कुल मिलाकर १८ बार मंगलाचरण किया गया है । उपरोक्त मंगलाचरणों में पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र से लेकर संघस्तुति तक के ८ मंगलाचरणों को नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभय देव सूरि ने यद्यपि स्पष्ट शब्दों में सूत्रकार द्वारा किये गए मंगलाचरण नहीं बताया है तथापि अपनी टीका में इन्हें स्थान देकर और शेष १० मंगलाचरणों के लिए - "णमो गोयमाइणं गणहराणमित्यादयः पुस्तक-लेखककृता नमस्काराः" यह कह कर एक प्रकार से सूत्रकार द्वारा किये गए मंगलाचरण ही माना है। परन्तु वस्तुतः सम्बन्धित तथ्यों पर समीचीनतया विचार करने पर उपरोक्त १८ मंगलांचरणों में से एक भी मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा किया हुआ प्रतीत नहीं होता। निम्नलिखित 'तथ्यों से यह सिद्ध होता है. कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में दिये गए मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा किये गए मंगलाचरण नहीं हैं : १. यदि द्वादशांगी की रचना के समय सूत्रकार ने मंगलचरण का पाठ दिया होता तो द्वादशांगी के क्रम में प्रथम स्थान पर माने जाने वाले तथा द्वादशांगी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राचारांग सूत्र में सर्वप्रथम इस प्रकार पृथक रूप से मंगलाचरण का पाठ दिया जाता। पर वस्तुस्थिति इससे विपरीत है । . अनेक प्राचीन प्रतियों में "मो सुयस्स" - यह पाठ उल्लिखित नहीं किया गया है । [सम्पादक Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगी में मंगलाचरण] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा १७१ आचारांग सूत्र के प्रादि, मध्य अथवा अन्त में इस प्रकार का कोई पृथक मंगलपाठ. नहीं दिया हुआ है। व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग को छोड़ कर द्वादशांगी के शेष किसी अंग में मंगलाचरण का न होना इस बात को प्रमाणित करता है कि व्यख्याप्रज्ञप्ति के आदि, मध्य तथा अन्त में उल्लिखित उपरोक्त १८ मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा कृत नहीं अपितु किसी लिपिकार अथवा प्रतिलिपिकार द्वारा किये गए मंगलाचरण हैं। . २. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग के प्रारम्भ में दी हुई संग्रहगाथा' से स्पष्टतः यह प्रकट होता है कि इस अंग का प्रारम्भ राजगह शब्द से हुअा है, न कि मंगलाचरण से । यदि मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा कृत और सूत्र का अभिन्न अंग होता तो संग्रह गाथा निश्चितरूपेण "मो प्ररहंताणं" इस पद से पहले उल्लिखित की जाती और उसमें 'रायगिह' शब्द के स्थान पर "रणमो" शब्द होता। ३. "मो बंभीए लिवीए" यह किसी भी दशा में सूत्रकार द्वारा किया हुआ मंगलाचरण नहीं हो सकता क्योंकि श्रुतरचना के समय गौतम-सुधर्मा आदि द्वादशांगी के सूत्रकारों ने न तो ब्राह्मी लिपि का ही उपयोग किया और न अन्य किसी लिपि का ही। ऐसी स्थिति में सूत्रकार आर्य सुधर्मा द्वारा ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किये जाने के इस प्रकार के उल्लेख का कोई औचित्य दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि द्रव्यश्रुत का भावश्रुत के समकक्ष महत्व स्थापित करने अयवा द्रव्यश्रुत के माध्यम से भावश्रुत की पूजा अर्चा आदि के विधान को लोक में प्रचलित करने की दृष्टि से 'रणमो बंभीए लिवीए' - इस पद को चैत्यवास के समय में अथवा अन्य किसी काल में जोड़ा गया हो। प्राचीन प्रतियों में 'रणमो बंभीए लिविए' इस प्रकार का पाठ उपलब्ध होता है पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस पद को द्रव्यश्रुत की पूजा का आधारभूत मान कर चर्चास्थल बनाया गया हो और उसके निराकरण हेतु "सुत्तागमे" के संपादक मुनि 'पुप्फभिक्खु' ने "रणमो बंभीयस्स लिवीयस्स"२ इस प्रकार का पाठ प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया हो कि यह वस्तुतः ब्राह्मी लिपि को नमस्कार नहीं लेकिन ब्राह्मी को लिपि-विज्ञान की शिक्षा देने वाले भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार किया गया है। परन्तु इस प्रकार की पाठपरिवर्तन की परम्परा चाहे वह किसी दृष्टि से प्रारम्भ की जाय उचित नहीं। जहां तक “गमो बंभीए लिवीए" - इस पद के यहां उल्लिखित किये जाने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वीर नि० सं०६८० में, देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में, वल्लभी में हुई अन्तिम 'रायगिह चलण १ दुक्खे २ कंख परोसे य ३ पगइ ४ पुढवीमो ५। जायते ६ णेरइए ७ बाले ८ गुरुएय ६ चलणाग्रो १०।। २ सुत्तागमे, भाग १, पृ. २८४ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वादशांगी में मंगलाय. प्रागमवाचना के समय में प्रागमों को लिपिबद्ध करते समय व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग की आदि में पंचपरमेष्ठि को नमस्कार और ब्राह्मी लिपि आदि को नमस्कार के पाठ प्रविष्ट हुए हों। इसे स्वीकार कर लेने पर भी यह प्रश्न तो ज्यों का त्यों बना ही रहता है कि नमस्कारादि के रूप में यह मंगलाचरण प्रथम अंग प्राचारांग में तथा द्वादशांगी के अन्य किसी अंग में उल्लिखित न किए जाकर केवल व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक पांचवें अंग में क्यों उल्लिखित किए गए हैं ? वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि द्वादशांगी की रचना करते समय गणधारों ने द्वादशांगी के प्रत्येक अक्षर को महामंगलकारी मानते हुए किसी भी अंग के ग्रादि, मध्य अथवा अंत में पृथकतः मंगलाचरण उल्लिखित नहीं किया। कालान्तर में मंगलचरगण प्रणाली के अत्यधिक लोकप्रिय बन जाने की स्थिति में चूणिकारों वृत्तिकारों आदि ने जैन आगमों के आदि, मध्य और अन्त के कुछ सूत्रपाठों को ही मंगलाचरणात्मक सिद्ध करते हुए आदि मंगल, मध्य मंगल और अन्त मंगल की कल्पना विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत की। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति के आदि, मध्य और अन्त में पृथकतः कुल मिला कर १८ मंगलाचरण प्रस्तुत करने की नूतन पद्धति के पीछे क्या कारण हो सकता है, इस पर गम्भीरतापर्वक विचार करने पर यह ध्यान में आता है कि भगवती सूत्र में इष्टलाभ, लोकपाल वर्णन, चरमोत्पात, देवसहाय प्राप्त रथ-मूसल एवं महाशिलाकण्टक संग्राम और गोशालक द्वारा प्रभु महावीर के समवसरण में तेजोलेष्या द्वारा श्रमण-निग्रन्थों के दहन जैसे ग्रनिष्ट और भयोत्तेजक प्रसंगों का चित्रण हुअा है। संभव है किसी मन्द सत्वशाली शिष्य को किसी तरह इसके पठन-पाठन के समय किसी प्रकार का कोई विघ्न न हो जाय अतः शिष्यहिताय, विघ्नोपशान्ति और समाधिलाभ के लिए ग्राचार्यों ने इस सत्र में साक्षात् मंगल विधान किया हो और तदनन्तर लिपिकारों एवं उनका अनुसरण करते हुए प्रतिलिपिकारों ने इन मंगलाचरणों की संख्या में वृद्धि की हो । व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ के मंगलाचरण के पश्चात् २ से १४ तक के शतकों में मंगलाचरण न करके १५ वें शतक में - जो कि गोशालक का प्रकरण है, पुनः मंगलाचरगा किया गया है। इससे भी इस विचार को पुष्टि मिलती है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में गोशालक के रौद्र और अप्रीतिकारक प्रकरण आदि की विद्यमानता के कारण ही इतनी अधिक संख्या में मंगलाचरण किये गए हों। वस्तुतः ये मंगलाचरण मूत्रकार द्वारा नहीं अपितु पश्चाद्वर्ती काल में संभवतः प्राचार्यों की अनुमति मे लिपिकारों एवं प्रतिलिपिकारों द्वारा ही किये गए हैं। हम मायल में प्रागमनिगगात मनि और विद्वान विचारक अवश्य और प्रकाश डालगे, मी ग्राणा है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा द्वादशांगी का ह्रास एवं विच्छेद द्वादशांगी के सम्बन्ध में इससे पूर्व जो तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं उनसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि निखिल विश्वसत्वैकबन्धु सर्वभूतानुकम्पी चरम तीर्थकर भगवान महावीर की पतितपावनी, सर्वोत्कृष्ट मंगलप्रदायिनी उस अमोघ वाणी का नाम ही द्वादशांगी है जिसे उनके ११ गणधरों ने सूत्र रूप से ग्रथित किया । यह भी बताया जा चुका है कि आर्य सुधर्मा गणधरों में दीर्घायुष्क थे अतः शेष सब गणधरों ने अपने-अपने गरण आर्य सुधर्मा के अधीन कर मोक्ष प्राप्त किया और इसके परिणामस्वरूप न उनकी शिष्य संतति ही अवशिष्ट रही और न उनके द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही । भगवान् महावीर की निर्वाणरात्रि में ही इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई ग्रतः भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर पद पर प्रार्य सुधर्मा को ही आसीन किया गया । ऐसी दशा में यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार आज की श्रमण परम्परा आर्य सुधर्मा की शिष्य परम्परा है उसी प्रकार ग्राज की श्रुतपरम्परा भी प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही है । हा • का ह्रास एवं विच्छेद ] १७३ भगवान् महावीर ने विकट भवाटवी के उस पार पहुंचाने वाला, जन्म, जरा, मृत्यु के अनवरत चक्र से परित्राण करने वाला अनिर्वचनीय शाश्वत सुखधाम मोक्ष का जो प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया था, उस मुक्तिपथ पर अग्रसर होने वाले असंख्य साधकों को आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी प्रकाशदीप की तरह २५०० वर्ष से आज तक पथप्रदर्शन करती आ रही है । इस ढाई हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में भीषण द्वादशवार्षिक दुष्कालों जैसे प्राकृतिक प्रकोपों, सामाजिक, ग्रार्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक क्रान्तियों आदि के कुप्रभावों से प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी भी पूर्णतः प्रछूती नहीं रह पाई । इस सब के अतिरिक्त कालप्रभाव, बुद्धिमान्द्य, प्रमाद, शिथिलाचार, सम्प्रदायभेद, व्यामोह आदि का घातक दुष्प्रभाव भी द्वादशांगी पर पड़ा। यद्यपि ग्रागमनिष्णात आचार्यों, स्वाध्यायनिरत श्रमरण-श्रमणियों एवं जिनशासन के हितार्थ अपना सर्वस्व तक न्यौछावर कर देने वाले सद्गृहस्थों ने श्रुतशास्त्रों को अक्षुण्ण और सुरक्षित att रखने के लिये सामूहिक तथा व्यक्तिगत रूप से समय २ पर प्रयास किये, अनेक वार श्रमण श्रमणी वर्ग और संघ ने एकत्रित हो आगम-वाचनाएं कीं किन्तु फिर भी काल अपनी काली छाया फैलाने में येन केन प्रकारेण सफल होता ही गया। परिणामतः उपरिवति दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के कारण द्वादशांगी का समय-समय पर बड़ा ह्रास हुआ । द्वादशांगी का कितना भाग आज हमारे पास विद्यमान है और कितना भाग हम अब तक खो चुके हैं, इस प्रकार का विवरण प्रस्तुत करने से पूर्व यह वताना आवश्यक है कि मूलतः अविच्छिन्नावस्था में द्वादशांगी का आकार-प्रकार कितना विशाल था । इस दृष्टि से प्रार्य सुधर्मा के समय में द्वादशांगी का जिस प्रकार का ग्राकार-प्रकार था, उसकी तालिका यहां प्रस्तुत की जा रही है । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग श्वेताम्बर परम्परानुसार द्वादशांगी को पदसंख्या अंग का नाम समवायांग के नंदीसूत्र सम० वृत्ति नंदी वृत्ति अनुसार १. प्राचारांग १८००० २. सूत्रकृतांग ३६००० ३. स्थानांग ७२००० ४. समवायांग १४४००० ५. व्याख्याप्राप्ति ८४००० २८८००० ८४००० २८८००० ६. माताधर्मकया संख्यात हजार संख्यात हजार ५७६००० ५७६००० ७. उपासकदशा ११५२००० ११५२००० ८: प्रतकद्दशा २३०४००० २३०४००० ६. अनुतरोपपातिकदशा ४६०८००० ४६०८००० १०. प्रश्नण्याकरण ६२१६००० ६२१६००० ११. विपाकसूत्र १८४३२००० १८४३२००० १२. दृष्टिवाद दिगम्बर परम्परानुसार' द्वादशांगी की पब, श्लोक एवं प्रक्षर-संख्या ___ अंग का नाम पद संख्या श्लोक संख्या अक्षर संख्या १. प्राचारांग १८००० ६१६५६२३११८७००० २६६२६६५४१९८४००० २. सूत्रकृत ३६००० १८३६१८४६३७४००० ५८८५३९०८३६६८००० ३. स्थानांग ४२००० २१४५७१५४१०३००० ६८६६२८६३१२९६००० ४. समवायांग १६४००० ८३७८५०७७६२६००० २६८११२२४६३६३२००० ५. विपाकप्रज्ञप्ति २२८००० ११६४८१६६३७०२००० ३७२७४१४१९८४६४००० ६. शातृधर्मकथांग ५५६००० २८४०५१८४६५५४००० ६८६६५६१८५७२८००० ७. उपासकाध्ययन ११७००० ५६७७३५००७१५५००० १६१२७५२०२२८६६०००० ८. अंतकृद्दशांग २३२८०००। ११८६३३६३६८८५२००० ३८०५८८६०७६३२३४०००, ९. अनुत्तरोपत्पाद ६२२४४००० ४७२२६१७४४१४६०००। १५११२३७५८११६६७००० १०. प्रश्नव्याकरण ६३१६००० ४७५६४०११३३८६४००० १५२३००८३६२८४६०८००० ११. विपाकसूत्रांग १८४००००० १४००२७७०३५६००००० ३००८०८.८६५१३६२००००० १२. दृष्टिवादांग १०८६८५६००५ ५५५२५८०१८७३६४२७१०७ १७७६८२५६५६६६६१६६७४४० मंगपणत्ति Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वा० का ह्रास एवं विच्छेद ] पूर्वनाम १. उत्पाद पूर्व २. प्राणी ३. वीर्यप्रवाद ४. श्रस्तिनास्ति प्रवाद ५. ज्ञानप्रवाद ६. सत्यप्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद ६. प्रत्याख्यान पद १०. विद्यानुवाद ११. अवघ्य १२. प्रारणायु १३. क्रियाविशाल १४. लोक बिन्दुसार केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा पूर्वो की पदसंख्या श्वेताम्बर परम्परानुसार एक करोड़ पद छियानवे लाख सत्तर लाख साठ लाख एक कम एक करोड़ एक करोड़ ६ पद छब्बीस करोड़ पद १ करोड़ अस्सी हजार ८४ लाख पद १ करोड़ १० लाख पद २६ करोड़ पद १ करोड ५६ लाख पद 8 करोड़ पद साढ़े बारह करोड़ पद १७५ दिगम्बर परम्परानुसार एक करोड़ पद 'छियानवे लाख सत्तर लाख साठ लाख एक कम एक करोड़ पद एक करोड़ छः पद छब्बीस करोड़ पद १ करोड़ ८० लाख पद ८४ लाख पद १ करोड १० लाख पद २६ करोड़ पद ' १३ करोड़ पदर ६ करोड़ पद साढ़े बारह करोड़ पद उपर्युल्लिखित तालिकाओं में अंकित दृष्टिवाद और चतुर्दश पूर्वो की पदसंख्या से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के श्रागमों एवं श्रागम सम्बन्धी प्रामाणिक ग्रन्थों में दृष्टिवाद की पदसंख्या संख्यात मानी गई है । शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की टीका में पूर्व को अनन्तार्थ युक्त बताते हुए लिखा है : "पूर्व अनन्त अर्थ वाला होता है और उसमें वीर्य का प्रतिपादन किया जाता है अतः उसकी अनन्तार्थता समझनी चाहिए ।" अपने इस कथन की पुष्टि में उन्होंने दो गाथाएं प्रस्तुत करते हुए लिखा है - " समस्त नदियों के बालुकरणों की गणना की जाय अथवा सभी समुद्रों के पानी को हथेली में एकत्रित कर उसके जलकरणों की गणना की जाय तो उन बालुकरणों तथा जलकरणों की संख्या से भी अधिक अर्थ एक पूर्व का होगा । दिगम्बर परम्परा में ११ वें पूर्व का नाम कल्याण है । * श्वेताम्बर परम्परानुसार पूर्वो की उपरोक्त पदसंख्या समवायांग एवं नन्दी-वृत्ति के प्राधार पर तथा दिगम्बर परम्परानुसार पदसंख्या घवला, जयधवला, गोम्मटसार एवं अंग पणति के अनुसार दी गई है । [सम्पादक ] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद इस प्रकार पूर्व के अर्थ की अनन्तता होने के कारण वीर्य की भी पूर्वार्थ के समान अनन्तता (सिद्ध) होती है ।" १७६ नंदी बाळबोध में प्रत्येक पूर्व के लेखन के लिए ग्रावश्यक मसि की जिस अतुल मात्रा का उल्लेख किया गया है उससे पूर्वो के संख्यात पद और अनन्तार्थयुक्त होने का आभास होता है। ये तथ्य यही प्रकट करते हैं कि पूर्वों की पदसंख्या असीम अर्थात् उत्कृष्टसंख्येय पदपरिमाण की थी । इन सब उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि द्वादशांगी का पूर्वकाल में बहुत बड़ा पद-परिमाण था । कालजन्य मन्दमेधा आदि कारणों से उसका निरन्तर हास होता रहा । श्राचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को कभी गर्व न करने का उपदेश देते हुए जो धूलि की राशि का दृष्टांत दिया उस दृष्टांत से सहज ही यह समझ में आ जाता है कि वस्तुतः द्वादशांगी का हास किस प्रकार हुआ । कालकाचार्य ने अपनी मुट्ठी में धूलि भर कर उसे एक स्थान पर रखा । तत्पश्चात् उन्होंने उस धूलि की राशि को उस स्थान से हटाकर क्रमश: दूसरे, तीसरे तथा चौथे स्थान पर और फिर पांचवें स्थान पर रखा । आचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को सम्बोधित करते हुए कहा- " वत्स ! जिस प्रकार यह धूलि की राशि एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे स्थान पर रखने के कारण निरन्तर कम होती गई है, ठीक इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् महावीर से गणधरों को जो द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त हुआ था वह गरणधरों से हमारे पूर्ववर्ती अनेक प्राचार्यों को, उनसे उनके शिष्यों और प्रशिष्यों आदि को प्राप्त हुआ, वह द्वादशांगी का ज्ञान एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे और इसी क्रम से अनेकों स्थानों में प्राते-आते निरन्तर ह्रास को ही प्राप्त होता चला आया है । " ३४ प्रतिशय, ३५ वारणी के गुण और अनन्त ज्ञान-दर्शन- चरित्र के धारक प्रभु महावीर ने अपनी देशना में अनन्त भावभंगियों की अनिर्वचनीय एवं अनुपम तरंगों से कल्लोलित जिस श्रुतगंगा को प्रवाहित किया, उसे द्वादशांगी के रूप में आबद्ध करने का गणधरों ने यथाशक्ति पूरा प्रयास किया पर वे उसे निश्शेष यतोऽनन्तार्थं पूर्वं भवति, तत्र च वीर्यमेव प्रतिपाद्यते श्रनन्तार्थता चातोऽवगन्तव्या तद्यथा :सव्व नईगंजा होज्ज बालुया गणरणमागया सन्ती । जत्तो बहुयतरांगो, एगस्स त्यो पुवस्स ||१| सव्व समुद्दाणजलं, जइ पत्थमियं हविज्ज संकलियं । एत्तो बहुयतरागो, अत्थो एगम पुव्वस्स ||२|| तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्याद्वीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता वीर्यस्येति । [ सूत्र कृतांग, (वीर्याधिकार) शीलांकाचार्यकृता टीका, ग्रा. श्री जवाहरलालजी म. द्वारा संपादित, पृ. ३३५ ] २ नंदी सूत्र ( धनपतिसिंह द्वारा प्रकाशित) पृ. ४६२ - ८४ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०० द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा १७७ रूप से तो आबद्ध नहीं कर पाये । तदनन्तर आर्य सुधर्मा से प्रार्य जम्बू ने, जम्बू से आर्य प्रभव ने और आगे चल कर क्रमशः एक के पश्चात् दूसरे प्राचार्यों ने अपनेअपने गुरू से जो द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त किया उसमें एक स्थान से दूसरे स्थान में आते-आते द्वादशांगी के अर्थ के कितनी बड़ी मात्रा में पर्याय निकल गए, छूट गए अथवा विलीन हो गए, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। आर्य भद्रबाह के पश्चात् (वी०नि० सं० १७०) अन्तिम चार पूर्व अर्थतः और आर्य स्थूलभद्र के पश्चात् (वी०नि० सं० २१५) शब्दतः विलुप्त हो गए। द्वादशांगी के किस-किस अंश का किन-किन आचार्यों के समय में हास हुआ यह यथास्थान बताने का प्रयास किया जायगा। आर्य सुधर्मा से प्राप्त द्वादशांगी में से आज हमारे पास कितना अंश अवशिष्ट रह गया, यहां केवल यही बताने के लिए एक तालिका दी जा रही है, जो इस प्रकार है :अंग का नाम मूल पद संख्या उपलब्ध पाठ (श्लोक प्रमाण) प्राचारांग १८,००० २५०० महापरिज्ञा नामक ७ वां अध्ययन विलुप्त हो चुका है। सूत्रकृतांग ३६,००० स्थानांग ७२,००० ३७७० समवायांग १,४४,००० १६६७ व्यख्याप्रज्ञप्ति २,८८,००० (नंदीसूत्र) १५७५२ ८४,००० (समवायांग) १०१ शतकों में से प्राज ४१ शतक ही उपलब्ध हैं। ज्ञातृधर्मकथा समवायांग और नन्दी ५५०० के अनुसार संख्येय इस अंग के अनेक कथानक हजार पद और इन वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। दोनों अंगो की वृत्ति के अनुसार ५,७६,००० उपासकदशा संख्यात हजार पद ८१२ सम० एवं नंदी के अनुसार पर दोनों सूत्रों की वृत्ति के अनुसार ११,५२,००० १ दो लक्खा अठासीइं पयसहस्साई पयग्गेणं...." [नंदी, पृ० ४५८, राय धनपतिसिंह] २ चउरासीइपयसहस्साई पयग्गेणं पण्णता...... [समवायांग, पृ० १७६ (प्र), राय धनपतिसिंह] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकसूत्र १७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद अंतकृद्दशा संख्यात हजार पद, ६०० सम० नंदी वृत्ति के अनुसार २३,०४००० अनुत्तरोपपातिकदशा संख्यात हजार पद, १६२ सम०, नंदी वृ० के अनुसार ४६,०८००० प्रश्नव्याकरण संख्यात हजार पद, १३०० सम० एवं नंदी वृ० के समवायांग और नंदी सूत्र अनुसार ६२,१६,००० में प्रश्नव्याकरण सत्र का जो परिचय दिया गया है, वह उपलब्ध प्रश्नव्याकरण में विद्यमान नहीं है। संख्यात हजार पद, सम० १२१६ और नंदीवृत्ति के अनुसार १,८४,३२,००० दृष्टिवाद सख्यात हजार पद पूर्वो सहित बारहवां अंग वीर निर्वाण सं० १००० में विच्छिन्न हो गया। वस्तुस्थिति यह है कि द्वादशांगी का बहुत बड़ा अंश कालप्रभाव से विलुप्त हो चुका है अथवा विच्छिन्न-विकीर्ण हो चुका है। इस क्रमिक ह्रास के उपरान्त भी द्वादशांगी का जितना भाग आज उपलब्ध है वह अनमोल निधि है और साधनापथं में निरत मुमुक्षुत्रों के लिए बराबर मार्ग-दर्शन करता पा रहा है। श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता है कि दुःषमा नामक प्रवर्तमान पंचम प्रारक के अन्तिम दिन के पूर्वाह्न काल तक भगवान महावीर का धर्मशासन और महावीर वाणी-द्वादशांगी अंशत: विद्यमान रह कर भव्यों का उद्धार करते रहेंगे। इस प्रकार की मान्यता के उपरान्त भी श्वेताम्बर परम्परा के एक प्राचीन ग्रन्थ 'तित्थोगाली पन्ना" में भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात् २१००० वर्ष पर्यन्त पंचम प्रारक के अन्तिम दिन तक 'दशवकालिक सूत्र का अर्थ' 'पावश्यक सूत्र', 'अनुयोगद्वार' और 'नंदीसूत्र'- चार सूत्रों के अविछिन्न रूप से विद्यमान रहने के उल्लेख के साथ' द्वाद त्र होने के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप से विवरण दिया गया है :'वासाण सहस्सेण य, इकवीसाए इहं भरहवासे । दसवेगालिय प्रत्यो. दुप्पसहजइंमि नासिहिति ॥५०।। इगवीस सहस्साई, वासारणं वीरमोक्खगमणाम्रो । पम्वोच्छिन्न होही, प्रावस्सगं जाव तित्यं तु ॥५२।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा. का ह्रास एवं विच्छेद] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा १७९ ___ "भगवान्, महावीर के आठवें पट्टधर (प्रार्य स्थूल भद्र) के समय में १४ पूर्वो में से अन्तिम ४ पूर्व प्रणष्ट हो गए। उनके समय में अनवष्टप तप और पारंचित तप ये दोनों तप भी नष्ट हो गए क्योंकि चतुर्दश पूर्वधरों के काल तक ही ये दोनों तप विद्यमान रहते हैं। शेष सब (तप) तीर्थ की अवस्थिति तक विद्यमान रहते हैं।' सकडाल कुल के यश को बढ़ाने वाले धीरवर आर्य स्थूलभद्र प्रथम दशपूर्वधर और श्रेष्ठ श्रमणगुणों के धारक सत्यमित्र नामक श्रमण अन्तिम दशपूर्वधर होंगे। वीर-निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् उत्तरबलिस्सह के वाचकवंश में हुए वृषभतुल्य प्राचार्य (देवद्धि क्षमाश्रमण) के स्वर्गगमन के साथ ही पूर्वो का ज्ञान विच्छिन्न हो जाएगा। वीर-निर्वाण संवत् १२५० में दिन्नगरिण-पुष्यमित्र के स्वर्गगमन के साथ 'वियाहपण्णत्ति' का विच्छेद हो जायगा। श्रामण्य के परिपालन में निपूण वीरवर श्रमण पुष्यमित्र 'वियाह पण्णत्ति' के धारकों में अन्तिम होंगे। गुणों से प्रोत-प्रोत ८४ हजार पदों से सुशोभित 'वियाहपण्णत्ति' रूपी वृक्ष के विच्छिन्न हो जाने पर लोग गुण रूपी फल से वंचित हो जायेंगे।' इगवीस सहस्साइं, वासाणं वीरमोक्खगमणाम्रो । अणुमोगदार-नंदी, मयोच्छिन्नार जा तित्यं ॥५३॥ [विजयदानसूरि द्वारा अपने अन्य विविध प्रश्नोत्तर' में तीर्थोद्गाली के नाम से उद्धृत] ये ३ गाथाएं हमारे पास उपलब्ध तित्योगालीपइन्ना में नहीं हैं। [सम्पादक] ' एतेण कारणेण उ, पुरिसजुगे भट्ठमंमि वीरस्स । सयराहेण परगट्ठाई, जाण चत्तारि पुबाई ॥७९८॥ प्रणवठ्ठपो य तवो, तव पारंची य दोवि वोच्छिन्ना । चाउदस पुष्वधरंमि, घरंति सेसा उ जा तित्यं ॥७६६॥ तित्योगाली पइन्ना २ पढमो दस पुव्वीरणं, सकाल कुलस्स जसकरो धीरो। नामेण थूलभद्दो, . प्रविहि साधम्ममहोत्ति ।।८०१॥ नामेण सच्चमित्तो, समणो समरणगुणनिउरणविंचतिम्रो । होही अपच्छिमो किर, दसपुवीधारमो वीरो ॥८०२॥ [तित्योगालीपइष्णा] 3 बोलीणम्मि सहस्से, वरिसाण वीरमोक्खगमणामो। उत्तरवायगवसभे, पुष्वगयस्स भवे छेदो ॥८०५॥ [वही] " पण्णासा वरिसेहिं य बारसवरिससएहिं वोच्छेदो। दिण्णगणिपूसमित्ते, सविवाहाणं खलं मारणं ।।८०७॥ नामेण पूसमित्तो, समणो समणगुणनिउरगचित्तो। होही अपच्छिमो किर, विवाहसुयधारको वीरो ।।८०८।। संनि य विवाहरुक्खे, चुलसीति पयसहस्सगुणकिलियो। सहसंघिय संमंतो होही गुणनिप्फलो लोगो ॥८०६॥ [वही] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद वीर - निर्वारण सं० १३०० में माढर गोत्रीय संभूति नामक श्रमण की मृत्यु होने पर द्वादशांगी के चतुर्थ अंग समवायांग सूत्र का विच्छेद हो जायगा । ' १८० वीर-नि० सं० १३५० में आर्जव मुनि के स्वर्गगमन के पश्चात् जिनेन्द्र भगवान् ने स्थानांग सूत्र के विच्छिन्न होने का निर्देश किया है। वीर-नि० सं० १५०० में गौतम गोत्रीय महासत्वशाली श्रमण फल्गुमित्र के निधन पर दशाश्रुतस्कंध का विच्छेद होना बताया गया है । 3 वीर - निर्वाण सं० १९०० में भारद्वाज गोत्रीय महाश्रमण नाम से विख्यात श्रमरण के पश्चात् 'सूत्रकृतांग' का विच्छेद हो जायगा । " वीर - नि० सं० २०,००० में हारित गोत्रीय विष्णु मुनि का निधन हो जाने पर श्राचारांग का विच्छेद हो जायगा । दुःषमा नामक पंचम श्रारक का थोड़ा-सा समय अवशिष्ट रहने पर क्षमा, तप आदि गुणों के भण्डार दु:प्रसह नाम के. रणगार होंगे। वे भरत क्षेत्र में अन्तिम प्रचारांगधर होंगे। उनके निधन के साथ ही चारित्र सहित श्राचारांग समूल नष्ट हो जायगा । अनुयोग सहित प्राचारांग ही श्रमरणगरण को प्रचार का बोध कराने वाला है अतः आचारांग के प्ररणष्ट हो जाने पर सर्वत्र अनाचार का साम्राज्य व्याप्त हो जायगा । प्रचार सूत्र के प्ररणष्ट हो जाने पर फिर श्रमरणों का नाम मात्र भी अवशिष्ट नहीं रहेगा । " समवाय ववच्छेदो, तेरसहि सतेहि होहि वासाणं । माढर गोत्तस्स इहं, संभूतिजतिस्स मरणंमि ।। ८१०।। [ तित्थोगाली पन्ना ] २ तेरसवरिस सतेहि, पण्णासा समहिएहि वोच्छेदो । १ प्रज्जव जतिस्स मरणे, ठारणस्स जिणेहि निद्दिट्ठी ॥ ६११ ॥ [ वही ] ३ भरिणदो दसारण छेदो पमरससएहि होइ वरिसारणं । समरणम्मि फग्गु मित्ते, गोमगोते महासत्ते ॥ ८१३॥ [ वही ] भारद्दायसगुत्ते, सूयगडगं महासमरण नामे | गुणवीससतेहि जाही वरिसारण वोच्छित्ति ।। ६१४ ॥ । [ वही ] ५ विण्हु मुरिणम्मि मरते, हारित गोत्तम्मि होति वीसाए । रिसा सहस्से हि प्रायारंगस्स वोच्छेदो ॥१६॥ ग्रह दुसमाए सेसे, होही नामेरग दुप्पसह समरणो । प्रणगारो गुणगारो, खमागारो सो किर प्रायारवरो, अपच्छिमो होहीति भरहवासे । तेल समं प्रायारो, निस्सिही समं चरिते ।।८१८ || श्ररोगच्छिण्णायारो, यह समरणगरणस्स दावियायारो । तवागारो ||८१७॥ श्रायारम्मि परणट्ठे होहीति तइया प्ररणायारो ||८१६ ॥ चकमिउं वरतरं तिमिसगुहाए तमंधकाराए । नय तइया समरणाणं, भायार-सुत्ते परणट्ठमि ||८२० ।। [ वही ] x Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १८१ __ इस प्रकार द्वादशांगी में से पांच अङ्गों के विच्छेद के समय का उल्लेख तित्थोगाली में किया गया है। इस प्रकरण को पढ़ने के पश्चात् समीचीनतया विचार करने पर दो मुख्य प्रश्न उपस्थित होते हैं। पहला प्रश्न यह है कि इसमें जो अङ्गों के विच्छिन्न होने का उल्लेख किया गया है, वह वस्तुतः उस श्रुत के नष्ट होने के सम्बन्ध में उल्लेख है अथवा प्रधान सूत्रधर के नष्ट होने के सम्बन्ध में? दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जिन-जिन अङ्गों के जिस-जिस समय में विच्छिन्न होने का उल्लेख किया गया है, वे अङ्ग-शास्त्र उस समय में पूर्णतः नष्ट हो गए अथवा अंशतः ? जहां तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है यह प्रश्न बड़े लम्बे समय से बहुचर्चित रहा है। व्यवहारभाष्य में भी इस प्रकार का उल्लेख है : "तित्थोगाली में अनुक्रम से यह विवरण दिया हुआ है कि किस-किस अंग का किस-किस समय में विच्छेद होगा।"' श्रुत-विच्छेद के सम्बन्ध में दो प्रकार के अभिमत रहे हैं, इस प्रकार का प्राभास नन्दीसूत्र की चूरिणं से स्पष्टतः प्रकट होता है। नन्दीसूत्र-थेरावली की ३२ वीं गाथा की व्याख्या में नन्दीचरिणकार ने इन दोनों प्रकार के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है-"बारह वर्षीय भीषण दुष्काल के समय आहार हेतु इधर-उधर भ्रमण करते रहने के फलस्वरूप अध्ययन एवं पुनरावर्तन आदि के अभाव में श्रुतशास्त्र का ज्ञान नष्ट हो गया। पुनः सुभिक्ष होने पर स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में श्रमसंघ ने एकत्रित हो, जिस जिस सोधु को आगमों का जो जो अंश स्मरण था, उसे सुन-सुन कर सम्पूर्ण कालिक श्रत को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित किया। वह वाचना मथुरा नगरी में हुई इसलिए उसे माथुरी वाचना और स्कन्दिलाचार्य सम्मत थी अतः स्कंदिलीय अनुयोग के नाम से पुकारी जाती है। दूसरे (आचार्य) कहते हैं-सूत्र नष्ट नहीं हुए, उस दुर्भिक्षकाल में जो प्रधान-प्रधान अनुयोगधर (श्रुतधर) थे, उनका निधन हो गया। एक स्कन्दिलाचार्य बचे रहे। उन्होंने मथुरा में साधुनों को पुनः शास्त्रों की वाचना-शिक्षा दी, अतः उसे माधुरी वाचना और स्कन्दिलीय अनुयोग कहा जाता है।"२ नन्दी चूरिण में जो उक्त दो अभिमतों का उल्लेख किया गया है, उन दोनों प्रकार की मान्यताओं को यदि वास्तविकता की कसौटी पर कसा जाय तो वस्तुतः पहली मान्यता ही तथ्यपूर्ण और उचित ठहरती है। "सूत्र नष्ट नहीं हुए"- इस प्रकार की जो दूसरी मान्यता अभिव्यक्त की गई है वह तथ्यों पर प्राधारित प्रतीत नहीं होती। द्वादशांगी की प्रारम्भिक अवस्था के पद-परिमारण और वर्तमान में उपलब्ध इसके पाठ की तालिका इसका पर्याप्त पुष्ट प्रमाण है। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा की आवश्यकता नहीं क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध द्वादशांगी का ,तित्थोगाली एत्वं, वत्तव्वा होई मारणुपुबीए । __जे तस्स उ अंगस्स, वुच्छेदो जहिं विणिहिट्ठो ॥ व्या. भा० १०,७०४ २ नंदीचरिण, पृ. ६ (पुण्यविजयजी म. द्वारा संपादित)। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दा. का ह्रास विच्छेद पाठ वल्लभी में हुई मन्तिम वाचना में देवद्धि क्षमाश्रमण आदि प्राचार्यों द्वारा बीर निर्वाण सं० १८० में निर्धारित किया गया था। इस अन्तिम प्रागम-वाचना से १५३ वर्ष पूर्व वीर नि० सं० ८२७ में, लगभग एक ही समय में दो विभिन्न स्थानों पर दो प्रागम-वाचनाएं, पहली प्रागम-वाचना आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में और दूसरी प्राचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में, वल्लभी में हो चुकी थीं। उपरिवरिणत द्वितीय मान्यता के अनुसार द्वादशांगी का मूलस्वरूप ८२७ वर्षों तक यथावत् बना रहा हो और केवल १५३ वर्षों की अवधि में ही इतने स्वल्प परिमाण में अवशिष्ट रह गया हो, यह विचार करने पर स्वीकार करने योग्य प्रतीत नहीं होता। श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के जीवनकाल में वीर नि० सं० १६० के आसपास की अवधि में हुई प्रथम आगम-वाचना के समय द्वादशांगी का जितना ह्रास हुमा, उसे ध्यान में रखते हुए विचार किया जाय तो हमें इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि वी०नि० सं० ८२७ में हई स्कन्दिलीय और नागार्जुनीय.वाचनाओं के समय तक द्वादशांगी का प्रचुर मात्रा में ह्रास हो चुका था तथा एकादशांगी का प्राज जो परिमाण उपलब्ध है, उससे कोई बहत अधिक परिमाण स्कन्दिलीय और नागार्जुनीय वाचनात्रों के समय में नहीं रहा होगा। इन सब तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् पहले प्रश्न का यही वास्तविक उत्तर प्रतीत होता है कि कालप्रभाव, प्राकृतिक प्रकोपों एवं अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण प्रमुख सूत्रधरों के स्वर्गगमन के साथ-साथ श्रुत का भी शनैः शनैः ह्रास होता गया। द्वादशांगी का कौन कौन सा अंग किस किस समय में विच्छिन्न.हा, इस सम्बन्ध में जो तित्थोगाली में विवरण दिया गया है, उसके अनुसार जिस अंग के जिस समय में विच्छिन्न होने का उल्लेख है, उस समय में वह अंग पूर्णतः लुप्त हो गया अथवा अंशतः ही लुप्त हुआ, इस दूसरे प्रश्न पर अब हमें विचार करना है। इस सन्दर्भ में हमें उन सब गाथानों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा जो प्राचारांग के विच्छेद के विषय में ऊपर दी गई हैं। गाथा संख्या ८१६ में बताया गया है कि वी० नि० सं० २०,००० में आचारांग का विच्छेद हो जायगा। इसके पश्चात् गाथा सख्या ८१७ में बताया गया है कि दुःषमा नामक पंचम प्रारक का कुछ समय शेष रहने पर दुःप्रसह नामक प्राचार्य अंतिम आचारांगधर होंगे। उन दुःप्रसह प्राचार्य के निधन के साथ ही साथ चारित्र सहित आचारांग नष्ट हो जायगा। अंत में गाथा संख्या ८२० में बताया गया है कि प्राचारसूत्र के नष्ट हो जाने के पश्चात् श्रमणों का नाम तक अवशिष्ट नहीं रहेगा और लोग अंधकारपूर्ण तिमिस्र गुफा में रहेंगे। इन गाथानो पर गहन चिन्तन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वी० नि० सं० २०००० में प्राचारांग के बहुत बड़े भाग का लोप हो जायगा किन्तु वह पूर्णतः विलुप्त नहीं होगा। अंशतः एवं अर्थतः आचारांग, आचारसूत्र के रूप में उक्त विलोप के पश्चात् भी १००० वर्ष तक विद्यमान रहेगा और वीर निर्वाण Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १८३ सं० २१,००० के लगभग जिस दिन पचम प्रारक समाप्त होगा, उस दिन के प्रथम प्रहर में प्राचार्य दुःप्रसह के स्वर्ग-गमन के साथ ही आचारांग का भी पूर्णतः उच्छेद हो जायगा । यदि वीर नि० सं० २०,००० में ही प्राचारांग का पूर्णतः उच्छेद हो जाता है तो वीर निर्वाण के लगभग २१००० वर्ष पश्चात् पंचम प्रारक को समाप्ति के अंतिम दिन में स्वर्गस्थ होने वाले दुःप्रसह प्राचार्य को अंतिम प्राचारधर किस प्रकार बताया जा सकता है ? यदि कहा जाय कि यहां 'प्राचारधर' शब्द का प्रयोग प्राचारांगधर के अर्थ में नहीं अपितु आचारधर के अर्थ में किया गया है तो यह कथन किसी भी दशा में उचित नहीं ठहरता। क्योंकि गाथा में निर्दिष्ट - "तेरण समं पायारो, निस्सिही समं चरित्तेणं" - इस पद में 'चरित्तेणं' इस शब्द से चारित्र अर्थात् प्राचार का और 'मायारो' इस शब्द से प्राचारांग का स्पष्ट शब्दों में पृथक-प्रयक उल्लेख किया गया है। यदि तित्थोगाली के रचनाकार को 'प्रायारो' शब्द से चारित्र-प्राचार अर्थ अभीष्ट होता तो वे 'समं चरित्तेणं' इस पद से चारित्र का पुनः पृयक रूप से उल्लेख नहीं करते। वस्तुतः उन्होंने 'आयारो' शब्द का प्रयोग इस गाथा में प्राचारांग के लिये ही प्रयुक्त किया है और इससे आगे की गाथा संख्या ८२० के- "न य तइया समणाणं, पायारसुत्ते परदुम्मि" - इस पद में अपने अभिप्रेत कथन को यह कह कर सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट कर दिया है कि प्राचार-सूत्र के विनष्ट होने के पश्चात् श्रमणों का एकान्ततः अभाव हो जायगा। इन सब तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि 'तित्थोगाली' में जो अंगशास्त्रों के विच्छेद का पृथक-पृथक समय दिया गया है, उस-उस समय में आचारांगादि अंग शास्त्रों का पूर्णतः नहीं अपितु अंशतः विच्छेद बताया गया है। तित्थोगाली के प्रणेता आचार्य का उक्त प्रकरण में यही बताने का अभिप्राय है कि गणधरकाल में द्वादशांगी का जो विशाल स्वरूप था उसका प्रचुर मात्रा में विच्छेद हो गया अथवा होगा पर अंशतः छोटे-बड़े यत्किचित् रूपेण द्वादशांगी पंचम पारक की समाप्ति के अंतिम दिन में चतुर्विध तीर्थ की विद्यमानता तक निश्चित रूप से विद्यमान रहेगी। तित्थोगाली के उपरोक्त प्रकरण की गाथाओं को ध्यानपूर्वक देखने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि जहां किसी अंगशास्त्र के सम्पूर्ण रूप से विलुप्त होने का उल्लेख करना ग्रन्थकार को अभीप्सित था वहां उन्होंने 'नासिही', 'निस्सिही'. और 'पणम्मि' शब्दों का प्रयोग किया है और जहां उन्हें किसी अंगशास्त्र के कुछ अंश, कुछ भाग के विलुप्त होने का उल्लेख करना अभीष्ट था वहां उन्होंने "वोच्छेदो", "वोच्छित्ती" - इन शब्दों का प्रयोग किया है । इससे भी ग्रन्थकार के अभिप्राय का स्पष्ट पाभास होता है कि अंगशास्त्रों के विच्छेद का जो विवरण उन्होंने तित्थोगाली में प्रस्तुत किया है उसमें उन्होंने कतिपय अंगों के अंशतः लोप का और अंत में दुप्पसह प्राचार्य की मृत्यु के पश्चात् पादारांग के सम्पूर्णतः विनष्ट होने का उल्लेख किया है । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद एक श्रुतधर के निधन के साथ जिस अंगशास्त्र के व्यवछेद का तित्थोगाली के रचयिता ने उल्लेख किया है, उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही विचार संगत प्रतीत होगा कि एक श्रुतधर के दिवंगत होने पर उस ध्रुत का पूरणतः नहीं. अपितु अंशतः लोप हो गया। क्योंकि किसी भी अंगशास्त्र को सुत्र और अर्थसहित कण्ठस्थ रखने वाले उस शास्त्र के विशिष्ट ज्ञाता किसी एक समय में कोई एक श्रतधर हो सकते हैं पर उसके सामान्य सूत्र और अर्थ को कण्ठस्थ रखने वाले हजारों नहीं तो सैकड़ों मुनि उस समय में अवश्य रहे होंगे। ऐसी दशा में एक विशिष्ट सूत्रधर के निधन के साथ उस सूत्र का विशिष्ट ज्ञान विलुप्त हो सकता है न कि वह सम्पूर्ण शास्त्र हो। अपने समय के उन प्रधान और विशिष्ट श्रुतधर के न्यूनाधिक मेधावी शिष्य भी रहे होंगे जिन्होंने सम्पूर्ण न सही पर कुछ न कुछ तो प्राचारांग का अध्ययन उन श्रुतधर प्राचार्य के पास अवश्य किया होगा । उन शिष्यों के अतिरिक्त विशाल श्रमरण-श्रमणियों के संघों में प्रत्येक साधु अथवा साध्वी ने थोड़ा बहुत तो प्राचारांग का अध्ययन अवश्यमेव किया होगा। क्योंकि उस समय तक प्रत्येक श्रमण-श्रमणी के लिये प्राचारांग के अध्ययन की अनिवार्य प्राथमिकता मानी जाती थी। ऐसी स्थिति में एक श्रुतधर के निधन पर किसी भी श्रुत का स्वल्स अयवा अधिक अंश तो विलुप्त हो सकता है पर वह पूरा का पूरा अंगशास्त्र ही एक श्रुतधर के न रहने पर सम्पूर्णरूपेण विलुप्त हो जाय यह किसी भी तरह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। उपरोक्त सब तथ्यों से यही प्रकट होता है कि तित्थोगाली में जो अंगों के विच्छेद का विवरण दिया गया है वह वस्तुतः अंगों के अंशत: विच्छेद का ही विवरण है न कि सम्पूर्णतः विच्छेद का । द्वादशांगी का जो ह्रास हुअा है उसका चित्र माज हमारे समक्ष प्रत्यक्ष विद्यमान है। द्वादशांगी विषयक दिगम्बर मान्यता दिगम्बर परम्परा वर्तमान काल में द्वादशांगी के किसी एक भी अंग का अस्तित्व नहीं मानती। उसकी मान्यतानुसार वी०नि० सं० ६८३ में ही द्वादशांगी विलुप्त हो गई। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रंथ तिलोयपण्ण त्ति, अंगपण्यत्ति श्रुतावतार, आदिपुराण, उत्तरपुराण प्रादि में द्वादशांगी के विनष्ट होने का थोड़े. बहुत मतभेद के साथ जो विवरण दिया गया है, उसका मोटे तौर पर निम्नलिखित रूप से निष्कर्ष निकलता है :१. वीर निर्वाण सं० ६२ तक केवलज्ञान विद्यमान रहा। वीर नि० सं० १ से १२ तक गौतम, वी०नि० सं० १२ से २४ तक प्रार्य सुधर्मा और वो नि० सं० २४ से ६२ तक जम्बू स्वामी केवली रहे। २. वीर नि० सं० ६२ से १६२ तक १०० वर्ष का काल चतुदंश पूर्वघर काल रहा । इन १०० वर्षों में नंदी (विष्णुकुमार), नंदीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाह ये ५ श्रुतकेवली हुए। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वा. वि. दिग. मान्यता ] ३. केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा १८५ वी० नि० सं० १६२ से ३४५ पर्यन्त अर्थात् १८५३ वर्ष तक १० पूर्वधरों का काल रहा । इस अवधि में विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, घृतिसेन, विजय, बुद्धिल, देव और धर्मसेन ये ११ दश पूर्वधर हुए । ४. वी० नि० सं० ३४५ से ५६५ पर्यन्त २२० वर्षों का काल एकादशांगधरों का काल रहा । इस २२० वर्ष की अवधि में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसार्य ये ५ एकादशांगधर हुए । ५. तत्पश्चात् वी० नि० सं० ५६५ से ६८३ तक ११८ वर्ष का आचारांगधर काल रहा । इस अवधि में समुद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु (द्वितीय) और लोहार्य ये ४ आचारांगधर हुए । इसके पश्चात् कोई अंगधर नहीं रहा और इस प्रकार वी० नि० सं० ६८३ में द्वादशांगी विलुप्त हो गई । यद्यपि तिलोयपत्ति, आदिपुराण आदि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन श्रौर मान्य ग्रंथों में स्पष्ट रूप से इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि द्वादशांगी का वी० नि० सं० ६८३ में विच्छेद हो जाने के उपरान्त भी वी० नि० सं० २०३१७ तक अर्थात् दुःषमा काल की समाप्ति के कतिपय वर्ष पूर्व तक द्वादशांगी अंशतः विद्यमान रहेगी, ' तथापि - दिगम्बर परम्परा में आज यह मान्यता ग्रामतौर से प्रचलित है - "वीर नि० सं० ६८३ में ११ अंगों का, १४ पूर्वी का, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र का और समस्त मूल जिनागम साहित्य का सम्पूर्ण रूप से विनाश हो गया । प्रभु महावीर की दिव्य ध्वनि से प्रकट हुआ एक भी शब्द श्राज विद्यमान नहीं रहा है ।" इस प्रकार की प्रचलित मान्यता का कोई ठोस आधार दिगम्बर परम्पर. के किसी मान्य प्राचीन ग्रंथ में खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होता । भगवान् महावीर के अनुयायी सभी विद्वानों, विचारकों और प्रत्येक जैन के लिए यह निष्पक्ष रूप से चिन्तन का विषय है कि क्या भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित शाश्वत सत्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और भावनाओं आदि के अमर सिद्धान्त आर्यधरा से विलुप्त हो चुके हैं ? क्या अमरता की ओर , (क) वीससहस्सं तिसदा, सत्तारस वच्छराणि सुदतित्थं । धम्मपयट्टरण हेदू.. वोच्छिसदि काल दोसेरणं ।। १४९३ || (ख) श्रुतं तपोभृतामेषां प्रणेश्यति परम्परा । शेषरपि श्रुतज्ञानस्यैको देशस्तपोधनः ।। ५२७।। जिन सेनानुगैर्वीरसेनं प्राप्तमहद्धिभिः । समाप्ते दुष्पमायाः प्राक्प्रायशो वर्तयिष्यते ।। ५२८ ।। [तिलोय पण्णत्त, म. ४] [ महापुराण ( उत्तरपुर |रण, पर्व ७६ ) ] Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वा. वि. दिग. मान्यता अग्रसर कर अमृतत्व प्रदान करने वाले, जैन धर्म के आधारस्तम्भोपम मूल सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने वाले अमृत से भी अधिक मधुर निम्नलिखित अमोल वचन किसी छद्मस्थ प्राचार्य के मस्तिष्क की कल्पना से उद्भूत हैं :१. सव्वे पारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयव्वा न परिधितव्वा न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए सासए........... । २. तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि..... । ३. धम्मो मंगलमुक्किटं, अहिंसा संजमोतवो । इत्यादि । ये शाश्वत सत्य प्रभू महावीर द्वारा प्ररूपित हैं, इसमें किसी को किसी भी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिए। महावीर वाणी (द्वादशांगी) के पूर्णतः विनष्ट हो जाने की बात कहना वस्तुतः एक प्रकार से जिन शासन की प्रतिष्ठा के लिये हितकर नहीं अपितु अहितकर ही सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इस प्रकार की मान्यता अभिव्यक्त करने पर सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि प्रभु महावीर की वाणी का एक भी शब्द विद्यमान नहीं है तो आज जो जैन धर्म और जैन सिद्धान्तों का स्वरूप विद्यमान है वह किनके शब्दों पर अवलंबित एवं आधारित है ? जो कुछ आज हमारे पास विद्यमान है क्या वह सब महावीर वाणी की देन नहीं है? द्वादशांगी के बहुत बड़े भाग का विच्छेद हुअा है, इस तथ्य को कोई भी विचारक अस्वीकार नहीं कर सकता। द्वादशांगी की भाषा में भी थोड़ा बहुत परिवर्तन पाना सम्भव है पर वस्तुतः आर्य सुधर्मा द्वारा प्रभु की दिव्य ध्वनि के आधार पर ग्रथित एकादशांगी और पूर्वज्ञान आज भी अंशत: विद्यमान हैं और पंचम प्रारक की समाप्ति से कुछ समय पूर्व तक ये विद्यमान रहेंगे। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य जम्बू . (भगवान महावीर के द्वितीय पहषर) भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा के निर्वाण पश्चात् उनके प्रमुख शिष्य आर्य जम्बू ईसा से ५०७ वर्ष पूर्व, वीर निर्वाण संवत् २० में धर्म-संघ के द्वितीय आचार्य बने । ___ भगवान् महावीर के शासन में आर्य जम्बू एक महान् समर्थ प्राचार्य हुए हैं। जिस प्रकार उनके अनुपम त्याग की महत्ता प्रकट करने के लिए संसार में कोई उपमा उपलब्ध नहीं होती, ठीक उसी प्रकार उनकी शरीर-सम्पदा, वैराग्य, तप, गुरुभक्ति, सरलता और आध्यात्मिक ज्ञान आदि का चित्रण करने के लिए अथक परिश्रम से भी कोई उपयुक्त शब्दावली प्राप्त नहीं होती। __ अत्यन्त सुकुमार, स्वस्थ, सुन्दर, सुडौल और सशक्त, स्वर्ण के समान कान्तिमान सुमनसर-सुरोपम शरीर, मादक यौवन में प्रथम पाद-निक्षेप, समस्त विद्यानों एवं ७२ कलाओं में निपुणता, कुबेरोपम अक्षय-अतुल धन-वैभव, सुरसुन्दरियों के समान रूप-लावण्यसम्पन्न आठ कोकिलकण्ठिनी नववधुएं, विपुल विलासोपकरण, सुन्दर-सुखद वातावरण, सुख के समस्त साधन - ये सब कुछ सहजप्राप्त ऐहिक प्रलोभन जिस मुक्तिपथ के पथिक को किंचित्मात्र भी लुब्ध न कर सके, उस महान् साधक की विराटता का वास्तविक वर्णन लेखनी अथवा शब्दों से किया जाना एक प्रकार से असम्भव है। उद्दाम यौवन में अपने समक्ष भोगार्थ प्रस्तुत असीम भोग सामग्री को ठकरा कर जम्बू कुमार का स्वेच्छा से कण्टकाकीर्ण त्याग-पथ पर आरूढ़ होना, यह अपने आप में एक ऐसा असाधारण आश्चर्यजनक उदाहरण है जो सम्भवतः संसार के इतिहास में खोजने पर भी अन्यत्र नहीं मिलेगा। प्रत्येक मुमुक्षु साधक के लिए प्रकाशस्तम्भ की तरह पथ-प्रदर्शक जम्बूकुमार का उत्कट विरक्तिपूर्ण, आध्यात्मिक साधना की अमिट लौ यूक्त अखण्ड ज्योति से जगमगाता हुअा परम उद्दीप्त,परम उद्दात्त साहसी जीवन एक लम्ब काल से कवियों, कलाकारों, एवं लेखकों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है और उनके द्वारा समय-समय पर जम्बूकुमार के जीवन के सम्बन्ध में प्रचुर मात्रा में अनेक भाषाओं एवं विविध विधाओं में साहित्य का सृजन किया जाता रहा है। आर्य जम्बू वर्तमान अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र के अन्तिम केवली एवं अन्तिम मुक्तिगामी माने गए हैं। श्रद्धालु कवि ने निम्नलिखित सुन्दर शब्दों में एतद्विषयक अपनी भावाभिव्यंजना की है : लोकोत्तरं हि सौभाग्यं, जम्बूस्वामि महामुनेः । अद्यापि यं पतिं प्राप्य, शिवश्रीन्यिमिच्छति ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग आर्य जम्बू के पूर्वमव : .आर्य जम्बू ने ऐसी अद्भुत आत्मशक्ति, इतनी अपरिमित धन-सम्पत्ति एवं सर्वप्रिय-सम्मोहक भव्य व्यक्तित्व किस प्रकार प्राप्त किया, यह उनके पूर्वभव के वृत्तान्त से भलीभांति जाना जा सकता है अतः यहां उनके पूर्वभवों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। भगवान् महावीर, निर्वाणगमन से १६ वर्ष पूर्व, एक समय राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में पधारे हुए थे। भगवान् की दिव्य देशना सुनने हेतु अपार जनसमूह प्रभु के समवसरण की ओर उमड़ पड़ा। मगध-सम्राट् श्रेणिक भी अपने परिजन-पुरजन आदि के साथ तीर्थंकर महावीर के दर्शन-वन्दन एवं उपदेश-श्रवण की उत्कण्ठा लिए प्रभु-सेवा में उपस्थित हुए। दर्शनार्थ जाते समय श्रेणिक ने मार्ग में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को चिलचिलाती धूप में ध्यानमग्न देखा। उनके उग्र तप से प्रभावित श्रेणिक त्रिभुवनतिलक भगवान् महावीर से महर्षि प्रसन्नचन्द्र के घोर तप के फलस्वरूप होने वाली उनकी भावी गति के सम्बन्ध में ऊहापोहात्मक अनेक प्रश्न कर रहे थे। भगवान महावीर श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर में राजर्षि प्रसन्नचन्द्र द्वारा अपने तीव्र अशुभ एवं शुभ अध्यवसायों के कारण किए जा रहे नारक एवं देवायु के उपार्जन तथा क्षय के सम्बन्ध में फरमा रहे थे। उसी समय श्रेणिक ने देवदुन्दुभि-श्रवण एवं देवों के सम्पात को देखकर साश्चर्य प्रभु से उसका कारण पूछा। प्रभु ने फरमाया- "राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञानोपलब्धि हो गई है।" देवों ने पंच-दिव्य वर्षा कर केवली प्रसन्नचन्द्र का केवल-ज्ञानोत्सव मनाया और उसके पश्चात् वे दर्शन हेतु प्रभु के समवसरण में आये। उन देवों ने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया। उसी समय विद्युन्माली नामक एक महासमृद्धिशाली देव ने समवसरण में उपस्थित हो प्रभु को वन्दन करते हुए सूर्य एवं चन्द्रमा के समान जगमगाती हुई मणियों से जटित मुकुट से सुशोभित अपना मस्तक प्रभु के पदारविन्द में झुकाया। विद्यन्माली का सौन्दर्य और शरीर की कान्ति अन्य सब देवों से इतनी अधिक तेजस्वी सौम्य, नयनाभिराम और मनोहारो थी कि परिषद् में उपस्थित अधिकांश लोग विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर एक-टक देखते ही रह गये। महाराज श्रेणिक ने प्रभु को सांजलि शीश झकाते हए प्रश्न किया"विश्वकनाथ ! सब देवों में अत्यधिक तेजस्वी यह कौनसा देव है ? इसने किस महान सुकृत के प्रताप से ऐसा अद्भुत कान्तिमान एवं मनमोहक सौन्दर्य प्राप्त किया है ? भगवान महावीर ने मगधसम्राट के प्रश्न का उत्तर देते हए फरमाया"राजन् ! इसी मगध जनपद में सुग्राम नामक ग्राम में प्रार्जव नामक एक राष्ट्रकूट अथवा राठोड़ (रट्ठउड़ो) रहता था।' उसकी पत्नी रेवती की कुक्षि ' तत्थासि तत्थवाणी प्रज्जवं प्रज्जवति रट्ठउडो।॥२॥ [उपदेशमाला, दोघट्टी वृत्ति] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायं जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : प्रायं जम्बू १८६ से भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। युवावस्था में पदार्पण करते ही भवदत्त ने संसार से विरक्त हो सुस्थित नामक प्राचार्य के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली और उनके साथ विभिन्न क्षेत्रों, नगरों एवं ग्रामों में विचरण करते हुए संयम की साधना करने लगा। एक बार आचार्य सुस्थित का एक शिष्य उनसे आज्ञा प्राप्त कर कुछ श्रमणों के साथ अपने छोटे सहोदर को दीक्षित होने की प्रेरणा देने हेतु अपने ग्राम पहँचा। ग्राम में उसके छोटे भाई का विवाह निश्चित हो चुका था अतः वह प्रवजित नहीं हशा और फलतः मुनि को बिना कार्यसिद्धि के ही लौटना पड़ा। मूनि भवदत्त ने अपने साथी मनि से बात ही बात में कह दिया- "आपके भाई के हृदय में यदि आपके प्रति प्रगाढ़ प्रीति और सच्चा भ्रातप्रेम होता तो बड़े लम्बे समय के पश्चात् आपको देख कर अवश्यमेव वह आपके पीछे २ चला प्राता।" मुनि भवदत्त के इस कथन को अपने भ्राता के स्नेह पर ग्राक्षेप समझ कर उस मुनि ने कहा - "मुने! कहना जितना सरल है, वस्तुतः करना उतना सरल नहीं। यदि आपको अपने भाई के प्रति इतना दृढ़ विश्वास है तो आप उन्हें प्रवजित करवा कर दिखाइये।" भवदत्त मुनि ने कहा – “यदि प्राचार्यश्री मगध जनपद की ओर विहार करें तो कुछ ही दिनों पश्चात् आप मेरे लघु भ्राता को अवश्य ही मुनिवेश में देखेंगे। ___ संयोगवश आचार्य सुस्थित अपने शिष्यों सहित विचरण करते हुए मगध जनपद में पहुंच गए। मुनि भवदत्त भी अपने गुरु से प्राज्ञा लेकर कुछ साधुओं के साथ अपने ग्राम में पहुंचे। मुनि भवदत्त के दर्शन कर उनके परिजन व परिचित परम प्रसन्न हुए और उन्होंने सब श्रमणों को निरवद्य आहारादि का दान देकर अपने आपको कृतकृत्य समझा। जिस समय भवदत्त अपने परिवार के लोगों के बीच पहुंचे उससे कुछ ही समय पहले भवदेव का विवाह नागदत्त एवं वासुकी की कन्या नागिला के साथ सम्पन्न हुआ था। अपनी सखी-सहेलियों के बीच बैठी नववधु नागिला को जिस समय भवदेव शृगारालंकारादि से अलंकृत कर रहा था, उसी समय उसे अपने अग्रज भवदत्त के शुभागमन का समाचार मिला। वह तत्काल उनके दर्शन एवं वन्दन हेतु उठ बैठा। यद्यपि नववधु की सखियों ने उसे बहुतेरा समझाया कि नवविवाहिता पत्नी को प्रसाधनादि से अर्द्धशृगारितावस्था में छोड़कर उसे नहीं जाना चाहिए तथापि भवदेव क्षण भर भी बिना रुके सुदीर्घकाल से बिछुड़े अपने बड़े भाई से मिलने की उत्कण्ठा लिए यह कह कर चल दिया - "कुलबालाअो! मैं अपने ज्येष्ठार्य को प्रणाम कर अभी-अभी लौटता हूँ।" तदनन्तर भवदेव बड़ी शीघ्रतापूर्वक अपने बड़े भाई भवदत्त के पास पहुंचा और उसने असीम हर्षोल्लास से भावविभोर हो अपना मस्तक उनके चरणों पर रख दिया। मुनि भवदत्त ने घृत से भरा अपना एक पात्र भवदेव के हाथों पर Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौसिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य जम्बू के पूर्वभव रख दिया और साथी श्रमणों के साथ वे अपने प्राश्रमस्थल की ओर लौट पड़े। भवदेव और अन्य परिजनों सहित अनेक ग्रामवासी भी मुनियों को पहुंचाने हेतु उनके पीछे पीछे चल दिये । साधुषों को थोड़ी दूरी तक पहुंचा कर महिलाएं अपने अपने घरों की पोर लौट गई। तदनन्तर कुछ प्रौर दूरी पर साधुनों को पहुंचाकर पुरुष-वर्ग भी लोटने लगा। उन लोगों ने वरवेशधारी भवदेव को भी लोटने का प्राग्रह करते हए कहा- "जैन श्रमण, "अब तुम लौट जात्रो"-इस प्रकार का सदोष बचन कभी नहीं बोलते, प्रतः भवदेव ! अब तुम भी लौट चलो।" . "पर बिना भैया के कहे मैं कैसे लौटूं" - यह सोचकर भवदेव उन लोगों के साथ नहीं लौटा और भवदत्त के पीछे-पीछे पागे की मोर बढ़ता ही गया। ग्राम से पर्याप्त दूरी पर निकल जाने के पश्चात् एक उपाय भवदेव के ध्यान में पाया कि बातचीत का क्रम चालू करने पर बहुत सम्भव है उसके बड़े भाई उसे लौटने का कुछ संकेत करें। वह बातचीत का सिलसिला चलाते हुए बोला- "श्रेष्ठार्य ! यह खेत अपना है, यह बनखण्ड और वह तालाब भी अपने ही हैं। वह जो उस पार का खेत है वह अपने पड़ौंसी का और उस छोर वाला पाम्रकुंज प्रापके परमसखा का है।" ___ इस प्रकार की अनेक बातं भवदेव ने कहीं पर भवदत्त ने "हां-हां, मैं जानता हं", इन वाक्यों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा। इस प्रकार बातों ही बातों में वे अपने गांव की सीमा से बहुत आगे बढ़ गये और कुछ ही समय में वे प्राचार्यश्री की सेवा में पहुंच गये। वरोचित वेश में भवदेव को देखकर प्राचार्य सुस्थित ने पूछा - "यह सौम्य युवक कैसे पाया है ?" भवदत्त ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया - "प्रव्रज्यार्थ ।" प्राचार्य श्री ने भवदेव की ओर दृष्टिनिक्षेप करते हुए पूछा - "क्या यही बात है ?" कहीं बड़े भाई की अवहेलना न हो जाय इस विचार से भवदेव ने स्वीकृतिसूचक मुद्रा में मस्तक झुकाते हुए कहा - "यही बात है भगवन् !" प्राचार्यदेव.द्वारा भवदेव को उसी समय जैनी भागवती-दीक्षा दे दी गई। पुषही मरणों पूर्व भोग-मार्ग की पोर उठे हुए चरण त्यागमार्ग पर चल पड़े। सभी भमरणों के मुख से सहसा निकल पड़ा - "प्रार्य भवदत्त ने जो कहा वही कर दिखाया।" कालान्तर में मुनि भवदत्त ने अनशनपूर्वक समाधि के साथ नश्वर शरीर का त्याग किया पोर वे सौधर्मेन्द्र के सामानिक देव बने । उपर भवदेव दीक्षित हो जाने पर भी सदा अपनी पत्नी का चिन्तन किया करता था। वह बहिरंग रूप से तो श्रमणाचार का पालन कर रहा था परन्तु मणि समसमायणं भवदेवस्स करे..... [जंबुचरियं (गुणपाल), पृ० १८] Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य जम्बू के पूर्वमव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू १९१ आभ्यंतर में सदा उसकी प्राणप्रिया पत्नी ही बसी रहती थी। वह अहर्निश मन ही मन अपनी पत्नी के सम्बन्ध में सोचता रहता - "हाय ! मैं अपनी सद्यपरिणीता, अर्द्धशृगारिता और भोली-भाली प्रिया को प्रवंचिता सी छोड़कर प्रबजित हो गया। मेरी वह परित्यक्ता पत्नी मुझे किन-किन शब्दों में कोसती होगी? उस पर न मालूम क्या-क्या बीती होगी? वह कैसी होगी, किस प्रकार रहती होगी? जल से निकाल कर प्रतप्त मरुभूमि पर पटकी हुई मीन की भांति बहुत सम्भव है वह कब की ही अपने प्रारणों का परित्याग कर चुकी होगी अथवा अत्यन्त कृश हो वह अस्थिपंजरमात्रावशिष्ट रह गई होगी।" इस प्रकार पूत पंचगव्य और अपवित्र मदिरा को एक साथ रखने वाले मूर्ख व्यक्ति की तरह भवदेव अपनी जीवनचर्या में प्रतिपल बाह्यरूपेण श्रमणाचार और अन्तर्मनसा कामिनी की चाह को साथ-साथ संजोये रखता था। भवदत्त के स्वर्गगमन के पश्चात् भवदेव के मन में नागिला को देखने की बड़ी तीव्र उत्कण्ठा जागृत हुई। वह पाज के टूट जाने पर बंध में रोके हुए पानी की तरह बड़े वेग से स्थविरों की आज्ञा लिए बिना ही अपने ग्राम सुग्राम की ओर चल पड़ा। ग्राम के पास पहुँच कर वह एक चैत्यघर के पास विश्राम हेतु बैठ गया। थोड़ी ही देर में एक संभ्रान्त घर की महिला एक ब्राह्मणी को साथ लिए हुए वहां पहुंची। उसने भवदेव मुनि को वन्दन-नमस्कार किया। मुनि भवदेव ने उस महिला से पूछा- "श्राविके! क्या प्रार्जव राष्ट्रकूट और उनकी पत्नी रेवती जीवित हैं ?" उस महिला ने उत्तर दिया - "मुनिवर ! उन दोनों को तो इहलीला समाप्त किए बहुत समय बीत चुका है।" यह सुनते ही मुनि के मुखमण्डल पर शोक की काली छाया छा गई । कुछ क्षण मौन एवं विचारमग्न रहने के पश्चात् उन्होंने थोड़ी हिचक के साथ पुनः प्रश्न किया- "धर्मनिष्ठे.! क्या भवदेव की पत्नी नागिला जीवित है ?" इस प्रश्न को सुनकर वह महिला चौंकी। उसने साश्चर्य मुनि के मुख की ओर देखते हुए अनुमान लगाया कि बहुत सम्भव है यह भवदेव ही हों। उस महिला ने प्रश्न किया - "आप आर्य भवदेव को किस प्रकार जानते हैं और यहां एकाकी किस कार्य से आये हैं ?" भवदेव ने कहा- "मैं आर्य प्रार्जव का छोटा पुत्र भवदेव हैं। अपने बड़े भाई भवदत्त की इच्छा के कारण अपनी नवविवाहिता पत्नी को बिना पूछे तथा अन्तर्मन से न चाहते हुए भी मैं लज्जावश प्रवजित हो गया था। कहीं मेरी गणना अकुलीनों में न कर ली जाय, इस हेतु मैं नागिला के मुखकमल को देखने की चिरलालसा से प्रेरित हो यहां पाया है। "श्राविके! तुम तो नागिला Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य जम्बू के पूर्वभव को अवश्य पहिचानती होगी। मेरी वह नागिला कैसी है ? उसका रूपलावण्य कैसा है और देखने में वह कैसी लगती है ?" श्राविका वोली - "वह ठीक ऐसी ही दिखती है जैसी कि मैं। उसमें और मुझमें कोई विशेषता नहीं है। पर एक बात मैं समझ नहीं पाई कि आप तो पवित्रश्रमणाचार का पालन कर रहे हैं, अब आपको उस नागिला से क्या कार्य है?" भवदेव - "पाणिग्रहण के तत्काल पश्चात् ही मैं उसे छोड़कर चला गया था।" श्राविका - "यह तो पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रताप से आपने बहुत अच्छा किया कि भवभ्रमण की विषवल्लरी को बढ़ने से पहले ही सुखा डाला ।" __ भवदेव - "क्या नागिला शील, सदाचारादि - श्राविका के व्रतों का पालन करती हुई प्रादर्श जीवन बिता रही है ?" श्राविका - "नागिला न केवल स्वयं ही आदर्श श्राविका के व्रतों का पालन करती है अपितु अन्य अनेक महिलाओं से भी पालन करवा रही है।" भवदेव - "जिस प्रकार मैं उसका अहनिश स्मरण करता है, उसी प्रकार क्या वह भी मेरा स्मरण करती रहती है ?" श्राविका - आप साधु होकर भी अपने कर्तव्य को भूल गए हैं पर वह श्राविका नागिला कल्याणकारी साधना-पथ पर चलती हुई आपकी तरह भूल नहीं कर सकती। वह श्राविका के योग्य उच्च भावनाओं का अनुचिंतन करती हुई कठोर तपस्याएं करती है, उत्तम आत्मार्थी साधु-साध्वियों के उपदेशामृत का पान करती है और प्रतिक्रमण प्रत्याख्यानादि से भवभ्रमण की महाव्याधि के समूलनाश के लिए सदा प्रयत्नशील रहती है।" भवदेव - "श्राविके ! मैं नागिला को एक बार अपनी इन प्रांखों से देखना चाहता हूँ।" श्राविका - "अशुचि के भाजन उसके शरीर को देखने से महामने! आपका कौनसा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है ? मुझे आपने देख ही लिया है। मुझ में और उसमें कोई अन्तर नहीं है। जो नागिला है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही वह . नागिला है।" भवदेव - "तो सच कहो श्राविके ! क्या तुम्ही नागिला हो?" श्राविका-भंते ! मैं ही हैं वह अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाली और रुधिर, मांस, मज्जा, मूत्र, पुरीषादि अशुचि से परिपूर्णगात्रा नागिला।" भवदेव श्राविका नागिला की ओर निनिमेष दृष्टि से देखता हुआ चित्रलिखित सा मौन खड़ा रहा। नागिला ने वातावरण की निस्तब्धता को भंग करते हुए कहना प्रारम्भ किया- "महामुने ! मैंने अपनी पूज्या गुरुणीजी से एक बड़ा सुन्दर और शिक्षा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : आर्य जम्बू १६३ प्रद पाख्यान सुना है । वह मैं आपको सुनाना चाहती हूँ । कृपया ध्यान से सुनिए : भवाटवी के संकटों से संत्रस्त एक मुमुक्ष ब्राह्मण अपने पुत्र के साथ एक महाश्रमरण के पास पंचमहाव्रतों की दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करने लगा। वह कठिन श्रमणाचार का पूरी तरह से पालन करता हुआ भिक्षा में प्राप्त रूखे-सूखे भोजन से तप के पारणे करता। पर उसका पुत्र कठोर. साधुमार्ग से विचलित होकर बार-बार उससे कहता- “खन्त ! मैं यह रूखा-सूखा भोजन नहीं खा सकता। खन्त ! मैं इस स्वादरहित और विरस, भिक्षा में मिले पेय पदार्थ - पानी आदि भी नहीं पी सकता।" . उस श्रमण ने अपने पुत्र को अनेक प्रकार से समझाया कि पंच महाव्रतों का पालन करने से दिव्य सुखों की उपलब्धि और अन्त में अक्षय शिव-मुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कुछ समय तक तो वह छोटा मुनि अपने पिता के समझाने-बुझाने से येन-केन प्रकारेण श्रमणाचार का पालन करता रहा पर एक दिन उसने अपने पिता से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि शुष्क एवं नीरस खान-पान से उसकी शारीरिक शक्ति पूर्णरूपेण क्षीण हो चुकी है अतः वह अव एक क्षण के लिए भी कठोर श्रमणाचार का पालन नहीं कर सकता। यह कह कर उसने साधु-वेश का परित्याग कर दिया और वह एक परिचित ब्राह्मण के घर पर कामकाज करने लगा। वृद्ध मुनि ने निरतिचार श्रमण-धर्म का पालन करते हुए समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण की और वे सौधर्मेन्द्र के सामानिक देव हुए। इधर कुछ समय पश्चात् ब्राह्मण ने उस युवक के साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण करा दिया। विवाह के समय डाकुओं ने ब्राह्मण के घर पर आक्रमण किया और नवविवाहित दम्पती उन डाकुओं द्वारा मौत के घाट उतार दिये गए। श्रमणधर्म से च्युत भोगलोलुप वह ब्राह्मणपुत्र प्रार्तध्यान से मर कर महिष के रूप में उत्पन्न हुआ। बड़े होने पर उस भैंसे को एक कर व्यक्ति ने खरीद लिया और उससे भार ढोने का कार्य लेने लगा। वह उस पर अधिक से अधिक भार लादता और उस पर स्वयं बैठकर डंडों के प्रहार करता हुअा एक स्थान से दूस - स्थान पर ले जाता। एक बार ग्रीष्मकाल की मध्याह्नवेला में उस भैसे के स्वामी ने उस पर अत्यधिक भार लादा और उस पर यष्टिप्रहारों की बौछार करता हुया एक गांव से दूसरे गांव की मोर बढ़ा। ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप के कारण मार्ग की वाल आग की तरह जल रही थी। दुवह भार, लगुड़-प्रहार, भीषण गर्मी और प्रतप्त बालुकरणों के कारण भैसे की जिह्वा बाहर निकल पाई और वह आग की तरह जलती हई धरती पर धड़ाम से गिर पड़ा। भैंसे के स्वामी ने इस पर क्रुद्ध हो पूरी शक्ति के साथ यष्टिप्रहार प्रारम्भ कर दिये। बेबस भैंसा मरणासन्न सा हो गया। सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए ब्राह्मण मुनि ने महिप रूप में उत्पन्न हुए अपने पुत्र की दयनीय दशा देख कर उसे प्रतिबोध देने का निश्चय Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य जम्बू के पूर्वभव किया। वे अपना पूर्व का खन्त मुनि.का वेश बनाकर महिष के सम्मुख उपस्थित हुए और मुनिचर्या से दुखित हो उनके पुत्र ने जो वाक्य कहे थे उन्हीं वाक्यों को महिष के समक्ष बार-बार दोहराने लगे- “खन्त ! मैं यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता।" खन्त के स्वरूप को देखकर महिष ने विचार किया- "मैंने ऐसा स्वरूप कहीं देखा है और ये वाक्य भी परिचित से प्रतीत होते हैं।" इस प्रकार चिन्तन करते हुए महिष को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उस महिष ने उस ही क्षण मन ही मन देशविरति श्रावकधर्म धारण कर जीवन भर के लिए प्रशन-पान का परित्याग कर दिया। कुछ ही समय पश्चात् वह भंसा मरकर अनशन और शुभ अध्यवसायों के फलस्वरूप सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ।" नागिला ने प्रश्न किया- "मुने! इस प्रकार तिर्यंच योनि में पड़े हुए उस ब्राह्मणपुत्र का उसके पिता ने उद्धार किया। आश्चर्य की बात है कि देवरूप से उत्पन्न हुए आपके बड़े भाई भवदत्त ने अभी तक आपको प्रतिबोधित करने का विचार तक क्यों नहीं किया ?" अन्त में नागिला-श्राविका ने कहा- "महात्मन् ! यह जीवन जलबुद्बुद के समान धरणविध्वंसी है। यदि आप श्रमरणधर्म से विचलित हो गये तो संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करते रहेंगे। अतः अब भी सम्हलिए। अपने गुरु के पास लौट जाइए और प्रायश्चित्त लेकर पंच महाव्रतों का पूरी तरह से पालन कीजिए । तप और संयम से आप अन्ततोगत्वा समस्त कर्मों का क्षय कर अवश्य ही अक्षय, अव्याबाध, अनन्त शिवसुख प्राप्त करने में सफल हो सकेंगे।" ठीक उसी समय नागिला के साथ आई हुई ब्राह्मणी का पुत्र वहां माया और उसे किसी कारण से वमन हो गया। थोड़ी ही देर पहले खाई हुई खीर बालक के मुंह से बाहर आ गिरी। यह देख कर ब्राह्मणी ने अपने पुत्र से कहा"वत्स ! इधर-उधर से चावल मांग कर मैंने तेरे लिए बड़े ही चाव से प्रत्यन्त स्वादु खीर बनाई थी। यह खीर बड़ी ही स्वादिष्ट और मीठी है अतः इस वमन की हुई खीर को तुम पुनः खा लो।"" १ (क) जायं कुप्रो वि कारणो वमणं । भरिणयं बभणीए • जाय ! जाइऊण तंदुलाइणि मए कनो पायसो एसो ता भुज्जो वि मुंजेसु । प्रइ लठं मिट्ठमेयं ति । [जम्बूस्वामी चरित (रत्नप्रभसूरिचित)] (ब) वसुदेवहिण्डी में दक्षिणा के लोभ से वमन करने की बात कही गई है। "एयम्मि देसयाले तीए माहणीए दारगो पायसं मुंजिऊरण प्रागतो भणइ - अम्मो! प्राणेह कोलालं जाव पायसं वमामि, ततो पुणो मुंजीहं प्रईब मिट्ठो, पुणो दक्षिणा हेउं अन्नत्थ भुंजामि । तीए भरिणयं - पुत्त वंतं न भुजेइ पुणो प्रलं ते दक्खिरणाए, • वच्च अच्छसु सुहंति । [सम्पादक] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रार्य जम्बू के पूर्वभव ] केवलिकाल : आर्य जम्बू १९५ ब्राह्मणी की बात सुनकर मुनि भवदेव ने कहा - "धर्मशीले! तुम बालक को यह क्या कह रही हो ? वमन की हुई वस्तु को खाने वाला व्यक्ति तो अत्यन्त निकृष्ट और घृणापात्र होता है ।" इस पर नागिला ने मुनि को सम्बोधित करते हुए कहा - " महात्मन् ! आप अपने अन्तर्मन को टटोलिए कि कहीं प्राप भी वमितभोजी तो नहीं बनने जा रहे हैं ? क्योंकि एक वार परित्यक्त मेरे इस मांस, मज्जा, प्रस्थि आदि से बने शरीर को अपने उपभोग में लेने की अभिलाषा से आप यहां आये हैं । ग्राप बुरा न मानें तो मैं आपसे एक बात पूछू ? चिरपरिपालित प्रव्रज्या का परित्याग करने का जो विचार ग्रापके मन में ग्राया है क्या इस बारे में आपको किंचित्मात्र भी लज्जा का अनुभव नहीं होता ? यदि लज्जा का अनुभव होता है तो ग्रव ग्राम बाह्यरूपेण चिरकाल तक परिपालित श्रमणाचार का अन्तर्मन से पूर्णरूपेण परिपालन कीजिए। जो कुत्सित विचार आपके मन में आये हैं उनके लिए प्राचार्य सुस्थित के पास जाकर प्रायश्चित्त लीजिए।' नागिला के हितप्रद एवं बोधपूर्ण वचन सुन कर भवदेव के हृदयपटल पर छाये हुए मोह के घने बादल तत्क्षण छिन्न-भिन्न हो गए और उसका अज्ञानतिमिराच्छन्न अन्तःकरण ज्ञान के दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठा । उसने नागिला के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हुए शान्त निश्छल स्वर में कहा - " श्राविके ! तुमने मेरी अन्तर्चक्षुत्रों को उन्मीलित कर दिया है। तुम्हारे उपदेश से मैंने अपने चिरपालित संयम मार्ग को हृदय से अपना लिया है । वस्तुतः तुमने मुझे अन्धकूप में गिरने से बचा लिया है। तुम मेरी सच्ची सहोदरा श्री गुरुरणी तुल्य हो । तुमने मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया है । मैं अब तुम्हारे कथनानुसार निर्दोष साधुधर्म का त्रिकररण- त्रियोग से पालन करूंगा ।' यह कह भवदेव वहां से प्रस्थान कर प्राचार्य सुस्थित के पास पहुँचे और अपने दोषों के लिए प्रायश्चित्त कर कठोर तपश्चरण में निरत हो गये । अनेक वर्षों तक श्रमरणधर्म का पालन करने के पश्चात् समाधिपूर्वक काल कर वह सौधर्मेन्द्र के सामानिक देव हुए। इधर नागिला भी अपनी गुरुरणी के पास दीक्षित हो संयमधर्म की साधना करती हई देवगति की अधिकारिणी बनी । सागरदत्त और शिवकुमार सौधर्म देवलोक की आयु पूर्ण होने पर भवदत्त का जीव वहां से च्युत हो महाविदेह क्षेत्रान्तर्गत पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नगरी के चक्रवर्ती सम्राट् वज्रदत्त की महारानी यशोधरा के गर्भ में आया । गर्भकाल में महादेवी को सागरस्नान का दोहद उत्पन्न हुआ जिसे चक्रवर्ती वज्रदत्त ने वड़े समारोह के साथ पूर्ण किया। गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने अत्यन्त मनोहर एवं शुभलक्षणसम्पन्न पुत्र को जन्म दिया। गर्भकाल में सागर-स्नान के दोहद के कारण माता-पिता ने पुत्र का नाम सागरदत्त रखा । अपनी परमाह्लादकारिणी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राय जम्बू के पूर्वभव बाललीलामों से माता-पिता और परिजनों के प्रानन्दोल्लास को बढ़ाते हुए बालक ने शैशवावस्था को पार किया। सुयोग्य कलाचार्यों एवं अध्यापकों से बालक ने समस्त कलाओं और विद्याओं में कुशलता प्राप्त की। युवा होने पर राजकुमार सागरदत्त का अनेक सर्वाङ्गसुन्दरी कुलीन कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कराया गया। वह मुररमणियों के समान रूपवती पत्नियों के साथ विविध भोगोपभोगों का उपभोग करता हुआ बड़ा ही सुखमय जीवन बिताने लगा। एक दिन शरद ऋतु में राजकुमार सागर अपनी पत्नियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा हुआ प्राकृतिक छटा का निरीक्षण कर रहा था। उसने देखा कि क्षितिज के एक छोर से बादल उभरा और देखते ही देखते उसने ऐसा विशाल रूप धारण कर लिया कि वह समस्त नभमण्डल पर छा गया। समस्त अम्बर सघन काली घनघटा से गहडम्बर बन गया। सहसा दक्षिण-दिशा से पवन का एक झोंका पाया और कुछ ही क्षरणों में घनघोर मेघघटा छिन्न-भिन्न होकर न मालूम कहां विलीन हो गई। राजकुमार की विचारधारा ने इससे एक नया मोड़ लिया। वह सोचने लगा - "जिस प्रकार बादलों का वह नयनाभिराम मनोहारी दृश्य क्षण भर में ही जलबुबुदु की तरह शून्य में विलीन हो गया, ठीक उसी प्रकार यह राज्यलक्ष्मी, ऐश्वर्य, भोगोपभोग, सुख के सारे साज और शरीर तक भी एक न एक दिन अचानक ही नष्ट होने वाले हैं। दृश्यमान समस्त सांसारिक वस्तुओं का बादल के समान विनाश सुनिश्चित है-अवश्यंभावी है। विनाशशील वस्तूमों में मोह वस्तुतः महामूर्खता का द्योतक है। भोगी और भोग्य ये दोनों ही क्षणभंगुर हैं। इनमें प्रासक्ति का अर्थ है आत्मनाश-अपना सर्वनाश । भवभ्रमण बढ़ाने वाले इन विषयभोगों में लुब्ध होकर मैंने अपने मानव-जीवन की लाखों अमूल्य घड़ियां व्यर्थ ही बिता दी हैं। अब मुझे सजग होकर प्रात्मोद्धार के लिए अनवरत प्रयास करना चाहिए। वृद्धावस्था इस देह-पंजर को जर्जरित न कर दे, उससे पहले ही मुझे प्रवजित होकर अपनी प्रात्मा के उद्धार-कार्य में जुट जाना चाहिए।" । ___इस प्रकार चिन्तन करते हुए राजकुमार सागरदत्त को संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई और उन्होंने दूसरे ही दिन अपने परिवार के अनेक सदस्यों के साथ अभयसार नामक प्राचार्य के पास भागवती-दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर उन्होंने परम विनीत भाव से अपने प्राचार्य और ज्येष्ठ श्रमणों की लगन के साथ सेवा की और अध्ययन करते हुए गुरुकृपा से मुनि सागरदत्त स्वल्प समय में ही शास्त्रों के पारगामी बन गये। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ उन्होंने घोर सामरस भी किया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें प्रवधिज्ञान की उपलब्धि हुई। बेअपने गुरु की सेवा और भव्य प्राणियों का उद्धार करते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करने लगे। उधर भवदेव का जीव भी.देवायु पूर्ण होने पर सौधर्म देवलोक से च्यवन कर उसी पुष्कलावती विजयान्तर्गत बीतशोका नगरी के नृपति पमरथ की रानी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू १६७ वनमाला की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। माता-पिता द्वारा उसका नाम शिवकुमार रखा गया । युवा होने पर शिवकुमार का अनेक राजकन्याओं के साथ, पाणिग्रहण हुआ और वह देवोपम भोगों का उपभोग करने लगा। एक समय मुनि सागरदत्त ग्राम-नगरों में विचरते हुए वीतशोका' नगरी पधारे। धर्मोपदेश के पश्चात् उन्होंने मासोपवास का पारणा एक सार्थवाह के यहां किया । दान की महिमा में आकाश से पंच-दिव्यों की वृष्टि हुई। वसुधारा की बात सुनकर राजकुमार शिवकुमार भी दर्शनार्थ मुनि सागरदत्त की सेवा में पहुँचा। उसने बड़ी श्रद्धा से मूनि को वन्दन किया और उपदेश सुन कर प्रसन्न हुआ। उपदेश के पश्चात् शिवकुमार ने मुनि से पूछा - "श्रमणशिरोमणे ! मुझे आपको देखते ही अत्यधिक हर्ष और परम उल्लास का अनुभव क्यों हो रहा है ? क्या मेरा आपके साथ कोई पूर्वभव का सम्बन्ध है ?" ___ मुनि सागरदत्त ने अवधिज्ञान से जान कर कहा - "शिवकुमार ! इससे पहले के तीसरे भव में तुम मेरे भवदेव नामक अनुज थे। तुमने मेरा मन रखने के लिए सद्य:परिणीता नववधु को छोड़कर मेरी इच्छानुसार श्रमणत्व स्वीकार कर लिया। श्रमणाचार का पालन करते हुए आयु पूर्ण कर तुम सौधर्म देवलोक में महान ऋद्धिसम्पन्न देव हुए। वहां भी हम दोनों में परस्पर प्रगाढ़ स्नेह था। उन दो भवों के स्नेहपूर्ण सम्बन्ध के कारण आज भी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति स्नेहसागर उमड़ रहा है । वीतरागमार्ग का पथिक होने से मेरे मन पर अब राग अथवा द्वेष का कोई प्रभाव नहीं होता। क्योंकि अब मैं संसार के समस्त प्राणियों को प्रात्मवत् समझता हूं।" राजपुत्र शिवकुमार ने हर्षविभोर हो सांजलि मस्तक झुकाया और मधुर स्वर में कहा-"भगवन् ! अापने जो फरमाया वह तथ्य है। मैं इस भव में भी प्रवजित हो पापकी पर्युपासना एवं प्रात्मकल्याण की साधना करना चाहता हूं। मैं अपने माता-पिता की प्राज्ञा लेकर प्रभी भापकी सेवा में उपस्थित होता. हूं।" मुनि सागरदत्त ने कहा- "देवप्रिय ! शुभ कार्य में प्रमाद नहीं करना ही श्रेयस्कर है।" तदनन्तर शिवकुमार ने राजभवन में पहुंच कर माता-पिता के सम्मुख अपनी प्रान्तरिक अभिलाषा प्रकट करते हए कहा- "अम्ब-तात! मैंने माज एक अवधिज्ञानी मुनीश्वर से अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त सुना। मुझे संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई है। मैं श्रमण बन कर आत्मकल्याण करना चाहता हूं। अतः आप मुझे प्रवृजित होने की आज्ञा प्रदान कर मेरी आध्यात्मिक साधना में सहायक बनिये।" अपने पुत्र की बात सुन कर महाराज पपरथ और महारानी वनमाला वजप्रहार से प्रताड़ित की तरह अवाक् निषण्ण रह गये ! आंखों से अश्रुधाराएं प्रवाहित करते हुए अत्यन्त करुण और दीन स्वर में वे बोले-"वत्स! तुम Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रायं जम्बू के पूर्वभव हमारे इकलौते पुत्र हो। हमारे लिये एक मात्र तुम ही स्वर्ग, अपवर्ग, त्राण, शरण और प्रकाशपूर्ण कुलप्रदीप हो। हमारे प्राण तुम्हारे सहारे से ही देहपंजर में रुके हुए हैं। तुम यह निश्चित समझो कि तुम्हारे प्रवजित होते ही हमारे प्राण बिना नीड़ के पक्षी की तरह उड़ कर अनन्त शून्य में विलीन हो जायेंगे।" बहुत कुछ समझाने-बुझाने और अनुनय-विनय के पश्चात् भी जब शिवकुमार को अपने माता-पिता से प्रवजित होने की अनुज्ञा प्राप्त नहीं हुई तो वह समस्त सावद्य योगों का पारित्याग कर विरक्त भाव से धीर-गम्भीर मुद्रा धारण किये राजप्रासाद में ही श्रमण की तरह स्थिर आसन जमा कर बैठ गया। उसने हास-परिहास, आमोद-प्रमोद, खेल-कूद, बोल-चाल, और खान-पान तक का परित्याग कर दिया। वह एकाग्रचित्त हो अंन्तःपुर के एक कोने में इस प्रकार निलिप्तभाव से रहने लगा मानो किसी सुनसान बियावान निर्जन वन में निवास कर रहा हो। माता-पिता, परिजन, एवं प्रतिष्ठित पौरजनों ने शिवकुमार को समझाने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी पर सब व्यर्थ । विरक्ति-मार्ग से कुमार को कोई किंचित्मात्र भी विचलित नहीं कर सका। सभी प्रकार के उपायों के निष्फल हो जाने पर राजा पद्मरथ बड़ा चिंतित हुआ। उसने अन्त में दृढ़धर्म नामक एक अत्यन्त विवेकशील श्रावक को बुलाया और उसे सारा वृत्तान्त सुना कर कहा-"श्रेष्ठिपुत्र! तुम अपने बुद्धिबल से येन-केन-प्रकारेण राजकुमार को अन्न-जल ग्रहण करने के लिये सहमत कर हमें नवजीवन प्रदान करो।" ___ "राजन् ! मैं यथाशक्ति पूरा प्रयास करूंगा।" यह कह कर श्रेष्ठिपुत्र दृढ़धर्मा राजकुमार शिवकुमार के पास पहुंचा। "निसीहि" "निसीहि" के उच्चारण के साथ दृढ़धर्मा ने राजकुमार के पास पहुंच कर प्रादक्षिणा-प्रदक्षिणापूर्वक साधुनों के समान सविधि वन्दन किया। तत्पश्चात् राजकुमार की अनुज्ञा प्राप्त कर स्थान को सावधानी से देख कर दृढ़धर्मा शिवकुमार के पास बैठ गया। राजकुमार ने यह सब देख कर मन ही मन विचार किया कि इस श्रावक ने मुझे ठीक साधु की तरह नमस्कार क्यों किया है ? अपनी शंका के निवारण हेतु उसने दृढ़धर्मा से पूछा-"श्रेष्ठिपुत्र! मैं साधु नहीं हूं। फिर भी तुमने मुझे साधु की तरह नमस्कार किया, इसका क्या कारण है ?" श्रेष्ठिपूत्र दृढधर्मा ने उत्तर में कहा- भाग्यवान ! श्रमणों के समान प्रापके माचरण को देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। यद्यपि इस प्रकार वन्दन-नमन मुनियों को ही किया जाना उचित है तथापि..समस्त सदोष कार्यों का परित्याग करने के कारण प्राप भाव-यति बन गये हैं प्रतः भापके समान त्यागियों को भी उस प्रकार नमन करना विनयमूलक जैनधर्म के अनुसार अनुचित नहीं है।" __ इतना कहने के पश्चात् श्रावक दृढ़धर्मा ने शिवकुमार से प्रश्न किया"साधकश्रेष्ठ ! मुमुक्षु राजकुमार ! प्रापने प्रशन-पान, संभाषणादि का परित्याग क्यों कर दिया है ?" Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू १६६ ___ शिवकुमार ने उत्तर दिया- "इभ्यकुमार ! मैने पंच महाव्रतों के पालन का दृढ़ संकल्प कर लिया है किन्तु मेरे माता-पिता मुझे प्रवजित होने की आज्ञा प्रदान नहीं करते अतः जब तक कि वे मुझे अनुज्ञा नहीं देते तब तक के लिये भावश्रमणत्व को धारण किये मैं घर में ही रह रहा हूं। मैं सभी प्रकार के सावद्य-कर्म के परित्याग की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। ऐसी दशा में मैं सदोष अशन, वसन, पानादि ग्रहण नहीं कर सकता और न इन स्वजन-परिजनों के साथ संभाषण ही कर सकता हूं। श्रेष्ठिपूत्र दृढ़धर्मा ने शिवकुमार के वैराग्य की प्रशंसा करते हुए कहा"कुमार ! साधनामार्ग में प्रापका दृढ़ निश्चय वस्तुतः स्तुत्य है पर इस प्रकार अनशन करना तो उन्हीं महापुरुषों के लिये लाभप्रद हो सकता है जो कि कृतकृत्य हो चुके हैं। आप तो साधक हैं। कर्मनिर्जरा हेतु आप अपने भावचारित्र का . निर्वहन प्रशन-पानादि के परिहार से तो अधिक समय तक नहीं कर सकेंगे। अन्न-जल के बिना तो शरीर कुछ ही समय में विनष्ट हो जायगा। यदि आप आवश्यक मात्रा में प्रशन-पानादि ग्रहण करते रहेंगे तो चिरकाल तक संयम का परिपालन कर कर्मसमूह को विनष्ट करने में अधिकाधिक सफल हो सकेंगे। प्रतः आपके लिये यही श्रेयस्कर है कि जब तक माता-पिता प्रापको प्रवजित होने की अनुज्ञा प्रदान न करें तब तक निरवद्य अशन-पानादि आवश्यकतानुसार ग्रहण करते हुए अपने घर में ही रह कर साधु तुल्य जीवन व्यतीत करें।" शिवकुमार ने कहा-"सुश्रावकः ! आप जो कह रहे हैं, वह ठीक है किन्तु यहां राजप्रासाद में रहते हुए प्राशुक अशन-पान-वसनादि का मिलना असंभव समझ कर ही मैंने इन सब का परित्याग किया है।" दृढ़धर्मा ने कहा-"आप इसके लिये निश्चिन्त रहें । मैं यथासमय पूर्णरूपेण प्राशुक आहार-पानी-वस्त्रादि भिक्षा से प्राप्त कर मापको देता रहूंगा और माप जैसे साधुतुल्य महापुरुष की एक विनीत शिष्य की तरह सभी प्रकार से सेवा करता रहूंगा।" ___इस पर शिवकुमार ने अपनी सहमति प्रकट करते हुए एवं अपने प्रतिकठोर अभिग्रह से दृढ़धर्मा को परिचित कराते हुए कहा- "श्रावकोत्तम ! आप मेरे हित में यह प्रावश्यक समझते हैं कि मैं प्रशन-पान ग्रहण करता रहूं, तो मैं जीवन पर्यंत छट्ठभक्त की तपस्या करता रहूंगा भोर तप के पारणे के दिन भी प्राचाम्ल प्रत करूंगा।" __इस प्रकार शिवकुमार और श्रावक दृढ़धर्मा ने परस्पर एक दूसरे का कहना मान लिया और वे दोनों अपनी-अपनी प्रतिज्ञानुसार कार्य में निरत हो गये। राजप्रासाद में रहते हुए भी शिवकुमार ने निस्पृहभाव से एक महाश्रमण की तरह बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण किया और अंत में पण्डित-मरण से प्रायु पूर्ण कर वह पांचवें ब्रह्म देवलोक में ब्रह्मेन्द्र के समान दश सागरोपम की भायु वाले महर्दिक और महान् तेजस्वी विद्युन्माली नामक देव के रूप में उत्पन्न हुमा। वहां Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य जम्मू के पूर्वभव वह अतिशय रूप सम्पन्न प्रमरसुन्दरियों के साथ अनक प्रकार के दिव्य भोगो का उपभुंजन करता हुमा अत्यन्त सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा। अपनी देवियों के साथ जिनेन्द्र भगवान् के समवसरण में जाकर वह प्रभु की अमृतोपम अमोघ वाणी के श्रवण का भी आनन्दानुभव करने लगा।" त्रिकालज्ञ भगवान् महावीर ने मगध सम्राट् श्रेणिक को इस प्रकार आर्य जम्बू के चार पूर्वभवों का वृत्तान्त सुना कर फरमाया- "मगधेश! यह वही भवदेव का जीव विद्युन्माली देव है। आज से सातवें दिन यह देवायु की समाप्ति कर इसी राजगृह नगर के श्रेष्ठिमुख्य ऋषभदत्त की पत्नी धारिणी के गर्भ में अवतरित होगा। गर्भकाल की समाप्ति पर धारिणी इसे पुत्र रूप में जन्म देगी और इसका नाम जम्बूकुमार रखा जायगा । जम्बूकुमार विवाहित होकर भी प्रखण्ड ब्रह्मचारी रहेगा और विवाह के पश्चात् दूसरे ही दिन विपुल धन-सम्पत्ति का परित्याग कर अपनी सद्यःपरिणीता पाठों पत्नियों, अपने और उन पत्नियों के माता-पिता, पल्लीपति प्रभव और प्रभव के ५०० साथियों के साथ प्रवजित होगा। जम्बूकुमार इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र का अन्तिम केवली और चरमशरीरी मुक्तिगामी होगा। उसके मोक्षगमन के पश्चात् भरत क्षेत्र से इस अवसर्पिणीकाल में और कोई मुक्त नहीं होगा।" इस पर श्रेणिक ने भगवान् से पूछा- "प्रभो! देवायु की समाप्ति का समय सन्निकट आने पर देवों के शरीर की कान्ति अक्सर तेजोविहीन हो जाती है पर इसके विपरीत विद्युन्माली देव का शरीर अत्यन्त तेजस्वितापूर्ण और परम कमनीय प्रतीत हो रहा है । ऐसा क्यों ? इसका क्या कारण है?" __ प्रभु ने फरमाया - "प्राचाम्ल तप के प्रभाव से विद्युन्माली के शरीर की कान्ति इस समय जैसी तुम देख रहे हो उससे लक्ष-लक्ष गुनी अधिक कमनीय और तेजपूर्ण थी। देवायु पूर्ण होने का समय समीप.मा जाने से वह कान्ति अब बहुत कम हो गई है।" भगवान् महावीर के मुख से विद्युन्माली देव के भूत और भावी भवों का वृत्तान्त सुनकर राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का केवल-ज्ञानोत्सव मनाने के पश्चात् प्रभु दर्शनों के लिए आया हुआ अनाधृत देव हर्षातिरेक से प्रानन्द विभोर हो अपने स्थान से उठा। उसने तीन बार प्रदक्षिणा कर भगवान् महावीर को बड़ी ही श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वन्दन किया और मधुर स्वर में कहने लगा- "अहो! धन्य है मेरा उत्तम कुल ।" ' एवं च भयवनो सोजण बयणं -प्रणाडियो जंबूदीवाहिवई ...........तिविहं वंदिऊरण, माफोडेऊण, महुरेण सद्देण - "अहो मम कुलं उत्तमं ति । [वसुदेव हिंडी, प्रश्रम ग्रंश, पृष्ठ २५] Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राय जम्बू के पूर्व भव] केवलिकाल : आर्य जम्बू __ अनाधृत देव के उपरोक्त वचन सुन कर सम्राट् श्रेरिणक ने आश्चर्य भरे स्वर में भगवान् से पूछा - "प्रभो! यह देव अपने आन्तरिक आनन्दोल्लास को प्रकट करते हुए अपने कुल की किस कारण प्रशंसा कर रहा है ? इसका वह कौनसा कुल है और यहां उसकी प्रशंसा का क्या प्रसंग है ?" भगवान् महावीर ने कहा- “मगघेश! यह जम्बूद्वीप का अधिपति 'अनाधृत' नामक देव है। यह अपने देवभव से पहले के भव में इसी राजगृह नगर के गुप्तिमति नामक श्रेष्ठी का 'जिनदास' नामक छोटा पुत्र था। जिनदास के बड़े भाई का नाम 'ऋषभदत्त' है जिसका आज भी राजगृह नगर के समृद्ध श्रीमन्तों में प्रमुख स्थान है। सदाचारसम्पन्न होने के कारण ऋषभदत्त तो सर्वत्र सम्मानित होने लगा किन्तु उसका छोटा भाई जिनदास मद्यपी, वेश्यागामी और जुपारी बन गया। ऋषभदत्त द्वारा अनेक प्रकार से समझाने-बुझाने पर भी जब जिनदास ने दुर्व्यसनों का परित्याग नहीं किया तो तंग आकर ऋषभदत्त ने अपने प्रात्मीयों, परिजनों और परिचितों को यह ज्ञापित कर जिनदास का परित्याग कर दिया - "अनेक दुर्व्यसनों से ग्रस्त जिनदास आज से न तो मेरा भाई है और न अब उसके साथ मेरा किसी प्रकार का सम्बन्ध है।" इतना सब कुछ होते हए भी जिनदास अपनी बरी आदतों का परित्याग करने के स्थान पर और अधिक दुर्व्यसनों का सेवन करने लगा। एक दिन जिनदास सेना के एक उच्च अधिकारी के साथ द्यूतक्रीड़ा में निरत था। द्यूत में हार-जीत की धनराशि के सम्बन्ध में जिनदास ने कुछ आनाकानी की इस पर सेनाधिकारी ने क्रुद्ध हो उस पर घातक हमला कर दिया। जिनदास शस्त्रप्रहार से आहत होकर वहीं गिर पड़ा। ऋषभदत्त ने जब भाई के घायल होने की बात सुनी तो वह उसके पास पहुँचा। भाई को देखकर घायल जिनदास को अपने दुष्कृत्यों पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उसने ऋषभदत्त के चरणों पर अपना शिर रख दिया और उससे क्षमा-प्रार्थना करते हुए वह निराश एवं करुण स्वर में बोला- "भैया ! अब मैं परलोक के लिए प्रयाण करने वाला हूँ। मुझे आपका कहा न मानने और दुर्व्यसनों में निरत रहने का बड़ा दुःख है। अब अन्तिम समय में आप मुझे धर्म का उपदेश देकर मेरा लोकान्तर सुधारने में मेरी कुछ सहायता कीजिये।" अपने भाई को मरणासन्न देख कर ऋषभदत्त ने उसे धैर्य दिलाते हुए आजीवन चतुर्विध आहार और प्रारम्भ-परिग्रह आदि का त्याग कराते हुए पंचपरमेष्टि-नमस्कार महामन्त्र का पाठ सुनाना प्रारम्भ किया। शुभ परिणाम एवं नमस्कार महामन्त्र के प्रभाव से जिनदास मृत्यु के पश्चात् जम्बूद्वीप का अधिपति देव हुमा।" ___ "मेरे बड़े भाई का पुत्र भरत क्षेत्र से इस अवसर्पिणीकाल में अन्तिम केवली और मुक्तिगामी होगा" - यह जानकर इसे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। इसी कारण इसने पानन्दविभोर होकर अपने कुल की प्रशंसा की है।" Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रायं जम्बू के पूर्वभव त्रिकालदर्शी तीर्थकर भगवान् महावीर के मुख से विद्युन्मालो के पूर्वभवों और भावी-भव का वृत्तान्त सुन कर सबने प्रभु को नमन किया और वे अपने २ स्थान की ओर लौट गये । उस देव की चारों देवियों ने केवली प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को सांजलि शीश झुकाते हुए अत्यन्त विनम्र एवं संभ्रम भरे स्वर में पूछा - "देव ! कृपा कर हमें भी बताइये कि सुरलोक की आयु पूर्ण कर हम चारों कहांकहां उत्पन्न होंगी? विद्युन्माली देव से विछोह हो जाने पर क्या पुनः हमारा उनसे संयोग होगा?" राजर्षि ने फरमाया - "देवियो! तुम चारों स्वर्ग से च्यवन कर इसी राजग्रह नगर के निवासी वैश्रमरण, धनद, कुबेर तथा सागरदत्त नामक समृद्धिशाली श्रेष्ठियों के यहां पुत्रियों के रूप में उत्पन्न होोगी। वहां जम्बू कुमार के रूप में जन्म ग्रहण किये हुए इस देव के जीव के साथ तुम चारों का पाणिग्रहण संस्कार होगा। जम्बूकुमार के साथ-साथ तुम भी प्रव्रज्या ग्रहण करोगी और संयम की सम्यक् रूपेण साधना कर तुम चारों आयु पूर्ण होने पर ग्रेवेयकों में देव रूप से उत्पन्न होवोगी।" केवली प्रसन्नचन्द्र से यह सुनकर कि भावी-भव में भी उनका परस्पर वियोग नहीं होगा - देवियां बड़ी प्रसन्न हुईं। उन्होंने श्रद्धावनत हो मुनि को नमन किया और वे सब स्वर्ग की ओर लौट गईं । प्रार्य जम्ब के माता-पिता धन-जन और सद्गुण-समृद्ध मगध राज्य की राजधानी राजगृह नगर जिन दिनों उन्नति के उच्चतम शिखर पर आरूढ था, उन दिनों मगध सम्राट महाराज श्रेणिक बिम्बसार मगध पर शासन करते थे। श्रेणिक बड़े धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय एवं लोकप्रिय नरेश थे। राजगृह नगर में ऋषभदत्त नाम के एक अति समृद्ध इभ्य (श्रेष्ठी) रहते थे। उनके पास उनके पूर्वपुरुषों द्वारा न्याय से उपार्जित विपुल सम्पत्ति थी। वह बड़े दयालु, दृढ़ प्रतिज्ञ, दानशील, दक्ष, विनयी और विद्वान् थे। पत्नी का नाम धारिणी था जो विशुद्ध शीलालंकार से अलंकृत और निष्कलंक एवं स्वच्छ स्फटिक मणि के समान निर्मल स्वभाव वाली थी। श्रेष्ठी ऋषभदत्त और उनकी पत्नी धारिणी का जिन-शासन के प्रति बड़ा अनुराग था। वे ऐहिक भोगों का उपभोग करते हुए बड़े संतोष से गृहस्थ जीवन बिता रहे थे। सभी दृष्टियों से सम्पन्न होते हुए भी संतति के अभाव में वे दोनों सदा चिंतित रहते थे। इभ्य-पत्नी धारिणी को निस्संतान होने का बहुत बड़ा दुःख था। वह यदा-कदा इस शोक से संतप्त हो मन ही मन विचार किया करती कि उन स्त्रियों का सुरसुन्दरियों के समान अनुपम रूप-लावण्य, सौन्दर्य पौर लक्ष्मी के समान अक्षय वैभव एवं सुखोपभोग की विपुल सामग्री किस काम की, जिनकी कुक्षि से एक भी संतति का जन्म नहीं हुआ। जिन दिनों इभ्य पत्नी धारिणी अहर्निश इस प्रकार की चिन्ता में घुल रही थी उन्हीं दिनों एक समय Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राय जम्बू के माता-पिता] केवलिकाल : प्रायं जम्बू २०३. भगवान् महावीर के पंचम गणधर आर्य सुधर्मा का वैभारगिरी पर पदार्पण हुआ । राजगृह नगर के नर-नारियों के समूह मार्य सुधर्मा के दर्शनार्थ वैभारगिरी की ओर उमड़ पड़े। श्रेष्ठी ऋषभदत्त भी अपनी पत्नी धारिणी के साथ सुधर्मा के दर्शनार्थ वैभारगिरी की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में उन्हें जसमित्र नामक एक निमित्तज्ञ श्रावक मिले जो ऋषभदत्त के परम मित्र थे। निमित्तज्ञ जसमित्र ने क्षेम कुशल के समाचारों के आदान-प्रदान के अनन्तर ऋषभदत्त से पूछा - "मित्रराज भाभी का मुख प्रगाढ़ चिन्ता से संतप्ता के समान श्यामल किस कारण हो रहा है ?" "तुम ही अपनी भाभी से पूछ लो" - ऋषभदत के मुख से अपने प्रश्न का यह उत्तर सुनकर 'जसमित्र' ने धारिणी से उसकी चिन्ता का कारण पूछा। धारिणी ने अपनी आन्तरिक चिन्ता को हंसी की अोट में छपाने का प्रयास करते हुए कहा - "देवर ! तुम्हारा निमित्तज्ञान बड़ा अद्भुत है। यह कैसी निमित्तज्ञता कि पूछने पर ही तुम्हें दूसरे के मन की वात विदित होती है ? इस प्रकार तो प्रत्येक व्यक्ति अपने पापको निमित्तज्ञ कहला सकता है। मेरे मन की बात तुम अपने निमित्तज्ञान से विचार कर ही वताओ तब मैं समझू कि वास्तव में मेरा देवर निमित्तज्ञ है।" अपनी प्रिय कला पर परिहास के तीखे प्रहार से जसमित्र का अन्तर्मन सहसा तड़प उठा। अपने निमितज्ञान का चमत्कार बताने की जस मित्र के मन में एक प्रबल लहर उठी। कुछ ही क्षणों के गणन-चिन्तन के पश्चात् उसने बड़ी दृढ़तापूर्वक गम्भीर स्वर में कहा “भाभी ! • आप पुत्रवती नहीं हैं अतः उत्तम पुत्र को जन्म देने की अभिलाषा लिये अापका चित्त रातदिन प्रगाढ़ चिन्ता से संतप्त रहता है। सिद्धिप्रदायक शकुन हो रहा है । अव आपका मनोरथ सफल होने वाला है। आपकी कुक्षि से एक महान् प्रतापी पुत्र का जन्म होगा, जो हमारे इस भरत क्षेत्र का अन्तिम केवली होगा। आप स्वप्न में एक मूछों वाले सिंह को शीघ्र ही देखेंगी। उससे आपको मेरे कथन पर और अपनी कार्य-सिद्धि पर विश्वास हो जायगा। भाभी ! आपके इस कार्य में एक छोटा सा अंतराय-विघ्न अवश्य है, वह किसी देवता की आराधना से दूर हो सकता है। पर वह देव कौन सा है यह मैं नहीं जानता।" जसमित्र द्वारा की गई भविष्यवाणी को सुनकर हर्षातिरेक से इभ्यपत्नी धारिणी का मन-मयूर नाच उठा। वह जसमित्र से बातें करती हुई ऋशभदत्त के साथ उपवन में पहुँची जहां सुधर्मा स्वामी विराजमान थे । ऋषभदत्त जसमित्र और धारिगी ने श्रद्धावनन हो भक्तिपूर्वक सुधर्मा स्वामी को वन्दन-नमन किया और तत्पश्चात् यथास्थान बैठकर सुधर्मा स्वामी का उपदेश सुनने लगे। उपदेश श्रवण करते गमय धारिगगी ने मन ही मन सुधर्मा म्वामी से पूछने का विचार किया कि उमे पुत्र प्राप्ति में हो रही अलगय को दूर करने के लिए किस देव को Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रायं जम्बू के मा०-पि. अनुकूल करना चाहिये। उसी समय सुधर्मा स्वामी ने वह सारा वृत्तान्त सुनाया कि किस प्रकार ऋषभदत्त का छोटा भाई मरते समय 'पंचपरमेष्टि-नमस्कारमंत्र के प्रताप से जम्बूद्वीप का अधिपति अनाधृत देव बना। धारिणी ने अपने अन्तर में उठे प्रश्न का इसे उत्तर समझा।' सुधर्मा स्वामी की देशना के अनन्तर ऋपभदत्त अपनी पत्नी धारिणी के साथ अपने घर लौट आया। धारिणी ने अनाधृतदेव के साथ अपने परिवार का अत्यन्त सन्निकट का सम्बन्ध होने के कारण उसकी आराधना प्रारम्भ की। धारिणी ने जम्बूद्वीपाधिपति देव के नाम पर १०८ प्राचाम्ल व्रत किये। जैसाकि श्रमण भगवान् महावीर ने मगधपति श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में बताया था - उस दिन से ठीक सातवें दिन विद्युन्माली देव ब्रह्मलोक से च्यवन कर ऋषभदत्त की पत्नी धारिगणी के गर्भ में अवतरित हया। रात्रि के अन्तिम चरण में अर्द्ध-जागृतावस्था में सोई हुई धारिणी ने स्वप्न में मृगराजकिशोर एवं सुन्दर, सरस-सुगन्धित जम्बूफल आदि को देखा।' १ मुनिवर गुणपाल रचित जम्बूचरियं में - "भगवं । किं मम पुत्तो होही नव ति ?" इस रूप में स्वयं धारिणी द्वारा सुधर्मा स्वामी के सम्मुख प्रश्न उपस्थित करने तथा जसमित्र द्वारा उत्तर देने का उल्लेख है । इसमें बताया गया है कि जसमित्र ने धारिणी से कहा - "अहो श्राविके ! श्रमण निग्रंथ जानते हुए भी इस प्रकार के सावध प्रश्नों का उत्तर नहीं देते। मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, बलदेव, वासुदेव तथा जम्बूद्वीप समुद्र आदि की चर्चा के पश्चात् यह प्रश्न किया गया है अतः निश्चित रूप से तुम महाभाग्यवान् पुत्र को जन्म दोगी। स्वप्न में जम्बूफल को देखने के पश्चात् तुम्हें मेरी बात पर विश्वास हो जायगा।" [सम्पादक] २ (क) भयवं ! जइ इमं एवं, ता. अहं जम्बूदेवयाए नामेण अठुत्तरसयं अंबिलाणं काहामि [जम्बुचरियं, गुणपाल, पृ० ५६] (ख) सयमहोत्तरमायंबिलाण मन्नेई धारिणी धीरा । सिरिजंबुदेवयाए, तह तन्नामेण सुयनामं ।।१६६॥ जंबुचरित्र, रत्नप्रभमूरि (क) "मगहापुरे उसभदत्तो नाम इभो धारिणी नाम भारिया ....."सा कयाइ सयणगया सुत्तं - जागरा पंच सुमिणे पासित्ता पडिबुद्धा, तं जहा - विधूमं हुयवहं १, पउमसरं वियसिय - कमलकुमुदकुवलयउज्जलं २, फलभारनमियं च सालिवणं ३, गयं च गलित - जलवलाहकपंडुरं समुसियचउविसाणं ४, जंबुफलागि य वण्णरसगंधोववेयारिण ५ ति । (वसुदेवहिण्डी, प्रथमोऽश, पृ० २) तथा : [कल्पान्तर्वाच्यानि, पत्र ४१-४८, (हस्तलिखित, संवत् १५६६) अलवर भंडार] (ख) सा अन्नया कयाई पच्छिमजामंमि पेच्छए मुमिरणं । सीहं सरं समुद्द दामं जलणं च जम्बुफले ।। (जम्बुचरियं, गुणपाल] (ग) अह मयरायकिसोरं, सेयं मुमिणमि पासिऊणेसा । ___ पडिबुद्धा गन्तूगणं, तं माहइ उसभदत्तस्स ।।१७१।।। (जबुचरित रत्नप्रभमूरि) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य जम्बू के माता-पिता] केवलिकाल : आर्य जम्बू २०५ स्वप्न देखने के तत्काल पश्चात् धारिणी जग उठी और पति के पास जाकर अतीव प्रसन्न मुद्रा में अपने स्वप्न का हाल सुनाते हुए बोली- "प्राणनाथ ! देवर जसमित्र के कथनानुसार मैंने स्वप्न में केसरीसिंह को देखा है। अब मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि हमारी चिंराभिलषित मनोकामना पूर्ण होगी। अन्धे को दो आंखें मिल जाने पर जिस प्रकार की प्रसन्नता होती है उसी प्रकार की प्रसन्नता ऋषभदत्त को हुई और उसने कहा - "देवी ! जैसा कि भगवान् महावीर ने फरमाया था, तुम वैसे ही महाप्रतापी पुत्र को जन्म दोगी।'' धारिणी बड़े ही प्रमोद के साथ गर्भ को धारण करती हुई अपने आपको धन्य समझने लगी। गर्भकाल में धारिणी को दीनदुखियों के दुःखों को दूर करने एवं श्रमण-निग्रंथों को प्रशन-पानादि से प्रतिलाभित करने आदि के अनेक दोहद उत्पन्न हुए। ऋषभदत्त और धारिणी ने मुक्तहस्त से अपार धनराशि व्यय कर उन दोहदों की बड़े हर्षोल्लास के साथ पूर्ति की। अनुक्रम से ज्यों-ज्यों गर्भ बढ़ने लगा त्यों-त्यों गर्भगत महापुण्यशाली पाणी के प्रभाव से श्रेष्ठिपत्नी धारिणी की धर्म के प्रति अभिरुचि उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। ___ गर्भकाल के परिपक्व होने पर धारिणि ने एक महातेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। नवजात शिशु का वर्ग करिगकार कुसुम की केसर के समान और शरीर की कान्ति बालसूर्य के समान कमनीय थी। पुत्र-जन्म की खुशी में सेठ ऋषभदत्त के भव्य भवन में हर्षोल्लास का सुखद वातावरण व्याप्त हो गया। मंगलगीतों और विविध वाद्यवृन्दों की कर्णप्रिय धुनों से गगनमण्डल गुंजरित हो उठा। लय और ताल पर नृत्य के साथ-साथ मंगल गान गाती हई कोकिलकठिनी सुरवधूपम सुन्दरियों के नूपुरों की झंकारों और गुकोमल कंठारवों से मादकता मुखरित हो उठी। श्रेष्ठिवर ऋषभदत्त ने अपने अनुचरों, वन्दीजनों, याचकों एवं दीन-दरीद्रों को दिल खोल कर इतना द्रव्य लुटाया कि उनका दारिद्र्य सदा के लिए दूर हो गया। उसने अपने सम्बन्धी एवं स्वजनों को भी द्रव्यालंकारादि से सम्मानित एवं संतुष्ट किया। बारह दिन तक बड़े ही ठाट-बाट के साथ ग्रहनिश मंगल महोत्सव मनाये गये। एक शुभ दिन एवं शुभ मुहूर्त में विशिष्ट ममारोह के साथ शिशु का नामकरण किया गया। परिजनों एवं परिचितों को परम स्वादिष्ट पड़रम भोजन से तृप्त करने के पश्चात् पुत्र का नामकरण किया गया। माता द्वारा स्वप्न में जम्बूफल देखने और जुम्बद्वीपाधिपति ' तेगा वि भगिया - पहागो ते पुनो भविस्सनि जहा वागरियो । ___- वसुदेव हिडी, प्र० ग्रंश, पृ० २.३ २ समुप्पन्नोय से दोहलो जिग्गासाहपूयाए सोय विभव ग्रो सम्मागियो । -वही, पृ०३ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [आर्य जम्बू के मा०-पि. अनाधृत देव की कृपा एव सानिध्य के कारण सर्व लक्षण-सम्पन्न पुत्र का नाम जम्बू रखा गया। विद्युन्माली देव के ब्रह्मलोक से धारिणी के गर्भ में पाने के कुछ ही समय पश्चात् उसकी चारों देवियां भी अपनी-अपनी देवी-आयु पूर्ण कर राजगृह नगर के प्रति समृद्ध श्रेष्ठियों के यहां पुत्रियों के रूप में उत्पन्न हुई। उन चारों कन्याओं और उनके माता-पिता के नाम इस प्रकार हैं :पुत्री का नाम पिता का नाम माता का नाम १. समुद्रश्री समृद्रप्रिय पद्मावती २. पद्मश्री समुद्रदत्त कमलमाला ३. पद्मसेना सागरदत्त विजयश्री ४. कनकसेना कुबेरदत्त जयश्री लगभग उन्हीं दिनों चार अन्य कन्यानों ने भी राजगह के सम्पन्न कुलों में जन्म ग्रहण किया। उनके तथा उनके माता-पिता के नाम इस प्रकार हैं :पुत्री का नाम पिता का नाम माता का नाम ५. नभसेना कुबेरसेन कमलावती ६. कनकश्री श्रमणदत्त सुषेरणा ७. कनकवती वसुषेण वीरमती ८. जयश्री वसुपालित जयसेना जम्बूकुमार जिस समय धारिणी के गर्भ में आये उसी दिन से श्रेष्ठिवर ऋषभदत्त की समृद्धि एवं सम्मान की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती गई। जिस प्रकार कल्पवृक्ष का पौधा क्रमश: वृद्धिगत होता है, ठीक उसी प्रकार पांच निपुण धात्रियों की सार-सम्हाल एवं देख-रेख में बालक जम्बुकुमार बढ़ने लगे। __योग्य प्रायु होने पर बालक जम्बुकुमार के लिये सुयोग्य कलाचार्य के सान्निध्य में शिक्षा की व्यवस्था की गई । कुशाग्र बुद्धि जम्बुकुमार ने दत्तचित्त हो पूर्ण विनय के साय अपने सुयोग्य प्राचार्य के पास शिक्षा प्राप्त की और युवावस्था में पदार्पण करने से पहले ही समस्त विद्यानों और कलानों में दक्षता प्राप्त कर ली। जम्बुकुमार के साथ उपरिवणित पाठ श्रेष्ठि कन्याओं ने भी युवावस्था में पदार्पण किया। जम्बुकुमार की अति कमनीय सौम्य मुखाकृति उनके दयालुता, १ (क) कयजाय कम्मस्स य से जंबुफललाभ - जंबुदीवाधिपतिकयसन्नेझनिमित्तं कयं नाम 'जबु' त्ति । - वसुदेव हिण्डी, प्र० ग्रंश, पृ० ३ (ख) महया महसवेणं, से नाम निम्पियं सुह मुहुत्ते । ____ दिन्नो जम्बू देवेग जंबुग्णामोत्ति तो होउ ।। १७६। जम्बूचरित्र (उपदेश माला, दोघट्टि से समुद्धृत) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ प्रार्य जम्बू के माता-पिता केवलिकाल : प्रार्य जम्बू दूरदर्शिता आदि अनेक अनुपम सद्गुणों की अभिव्यक्ति कर रही थी। प्रगाढ़ पूर्वसम्बन्ध के कारण जम्बुकुमार की यशोगाथाएं सुनते ही प्रांठों श्रेष्ठि कन्याओं ने जम्बुकुमार को पतिरूपेण वरण करने का मन ही मन अटल निश्चय कर लिया। सखी-सहेलियों के माध्यम से अपनी पुत्रियों की आन्तरिक अभिलाषाओं के ज्ञात होते ही पाठों बालाओं के माता-पिता ने परम हर्ष का अनुभव करते हुए जम्बु. कुमार के माता-पिता के पास उनके इकलौते पुत्र जम्बुकुमार के साथ अपनी पुत्रियों के विवाह-प्रस्ताव रखे । ऋषभदत्त और धारिणी ने भी उनके उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। जम्बू को विरक्ति उन्हीं दिनों भगवान् महावीर के दिव्य संदेश को ग्रामों, नगरों तथा जनपदों में पहुंचाते हए एवं ममक्ष भव्य प्राणियों के अन्तर्मन को प्रफुल्लित करते हुए आर्य सुवर्मा अपने श्रमरणसंघ के साथ राजगृह नगर के गुरणशील चैत्य में पधारे । सुधर्मा स्वामी के आगमन का शुभ संवाद सुनते ही जम्बुकुमार के हर्ष का पारावार न रहा। वे एक शीघ्रगामी एवं धार्मिक अवसरोचित रथ पर प्रारूढ हो सुधर्मा स्वामी की सेवा में पहुंचे। उन्होंने सुधर्मा स्वामी को अगाध श्रद्धा और परमाभक्ति से विधियुक्त वन्दन-नमन किया और धर्मपरिषद् में यथास्थान बैठ गये। अमृत की धनघटा से जिस प्रकार अमृतवर्षा की ही अपेक्षा की जाती है, उसी प्रकार अर्हत् भगवान् के समान समस्त तत्वों की विशद् व्याख्या करने वाले प्रार्य सुधर्मा ने धर्मपरिषद् को उद्दिष्ट कर आध्यात्मिक उपदेश देना प्रारम्भ किया। उन्होंने अपनी देशना में जीव, अजीव, पुण्य-पाप, प्रास्रव, बंध, संवर निर्जरा तथा मोक्ष के स्वरूप का सब के लिये बोधप्रद विशद् विवेचन किया । मानवभव की महत्ता बताते हुए उन्होंने फरमाया- "भव्यो ! विश्वहितैषी भगवान महावीर के उपदेशानुसार पाचरण करके भव्य प्राणी भवसागर को पार करने में सफल हो सकते हैं । अतः मानव मात्र को इस प्राप्त अवसर का लाभ उठाना चाहिये। आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में मानव भौतिक एषणामों के पीछे अहर्निश भागता है और भव सागर में आर्थिक हानि-लाभ के उतार-चढ़ावों के कारण उठी उत्तुंग तरंगों की थपेड़ें खाता हुआ अनन्त काल तक भवभ्रमण करता रहता है। काम भोगों के क्षणिक एवं दुखांत काल्पनिक सुख में लुब्ध मानव यह नहीं सोचता कि पवन के प्रबल झोंकों से झकझोरित वृक्षों से तड़ातड़ झड़ते हुए पत्तों की तरह प्राणियों का जीवन क्षणिक और अनिश्चित है। वादल में से जिस प्रकार पानी तीव्र वेग से झरता है उसी प्रकार मानव की आयु प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है। जो प्रियजनों का संयोग है वह वस्तुतः वियोगान्त है और लक्ष्मी विजली की चमक के समान क्षणिक, चंचल एवं अस्थिर है। बुद्धिमान मानव वही हैं जो आयु, यौवन, कामभोग, लक्ष्मी एवं शरीर को क्षण विध्वंसी समझ कर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र रूपी रत्नत्रयी को ग्रहण कर इनकी सम्यकरूपेगा आराधना-पालना करते हुए अनन्त, अव्यावाध, शाश्वत शिवसुख की प्राप्ति हेतु Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ — जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जम्बू को विरक्ति दृढ़ निश्चय के साथ प्रयत्नशील रहते हैं। जो प्राणी इस वास्तविकता को न. समझ कर अथवा समझते हुए भी मोह के बन्धनों से जकड़े हुए रह कर प्रमाद एवं आलस्य के वशीभूत हो अपनी प्राध्यात्मिक उन्नति के कार्य में अकर्मण्य रहते हैं, वे इस भयावह विकट भवाटवी में सदा सर्वदा असहायावस्था में भीषण एवं दारुण दु.खों को भोगते हुए भटकते रहते हैं।" आर्य सुधर्मा स्वामी के इस हृदयस्पर्शी उपदेश को सुनकर जम्बूकुमार का हृदय वैराग्य से ओतप्रोत हो गया। अपने अन्तर में असीम आत्मतोष का अनुभव करते हुए वे आर्य सुधर्मा के समीप आये और सविधि वन्दन के साथ आर्य सुधर्मा के पावन चरणों में अपना शीश रखते हुए अति विनीत स्वर में बोले-"स्वामिन् ! मैंने आपसे सच्चे धर्म का स्वरूप सुना । मुझे वह बड़ा रुचिकर और आनन्दप्रद लगा। आपके द्वारा बताये गए धर्म के स्वरूप पर मेरे हृदय में प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई है। मैं अब अपने माता-पिता से प्राज्ञा प्राप्त कर आपके चरणों की शरण में दीक्षित हो पात्म कल्याण करना चाहता है।" आर्य सुधर्मा ने कहा - "सौम्य ! जिससे तुम्हें सुख हो, वही कार्य करो, शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित नहीं।" जम्बुकुमार ने आर्य सुधर्मा को प्रणाम किया और रथारूढ़ हो वे द्रुतगति से अपने भवन की ग्रोर लौटे। नगर के द्वार पर अनेक रथों, यानों और वाहनों की भीड़ देख कर विलम्ब की अाशंका से साथी को दूमरे द्वार से नगर में प्रवेश करने का अादेश दिया। सारथी ने 'जो ग्राना' कह कर शीघ्र ही रथ को मोड़कर नगर के दूसरे द्वार की ओर बढ़ा दिया। अति घोर प्रतिज्ञा शत्रुओं का संहार करने के लिए उस द्वार पर मजबूत रम्मों से मिलाएं, शतघ्नी, कालचक्र प्रादि संहारक शस्त्र. लटकाये हुए थे। जम्बुकुमार ने उनको दूर से ही देख कर मन ही मन सोचा - "इन शस्त्रों में से यदि कदाचिन एक भी शस्त्र मेरे रथ पर गिर जाए तो बिना व्रत ग्रहगा किर ही मेरी मृत्यु मनिश्चित है और मैं दुर्गति का अधिकारी हो सकता हं ।'' इस प्रकार का विचार अाते ही जम्वृकुमार ने गुगाणील चन्य को और रथ लौटाने का मारथी को ग्रादेश दिया। “यथाज्ञापयति देव ! ' कह कर मारथी ने भी रासों के संकेत मे ग्थ को घुमाया गौर ग्राणुगामी अश्व रथ को लिए गुगाशील नेत्य की अोर सरपट न ले। कुछ ही क्षम्गों में ग्थ उपवन के द्वार पर जा सका। जम्बकुमार रथ मे उतर कर ग्रार्य मृधर्मा की सेवा में पहने और मविधि वन्दन के पश्चात् उन्होंने निवेदन किया - "भगवन् ! मैं ग्राजीवन बहानयंत ग्रहगा करना नाहता हूँ। ' कल्पानवाच्यानि, पत्र ४१-८८ (हम्नलिगित). अनवर भगटार Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति घोर प्रतिज्ञा केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २०६ जम्बुकुमार की प्रार्थना पर आर्य सुधर्मा ने भी उन्हें जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारी रहने का व्रत ग्रहण करवाया। व्रत ग्रहण के पश्चात् जम्बुकुमार ने पुनः बड़ी श्रद्धा से आर्य सुधर्मा को प्रणाम किया और रथ में बैठकर अपने घर पहुंचे। माता-पिता के समक्ष प्रवजित होने का प्रस्ताव अपने विशाल भवन के प्रांगण में पहुँचते ही जम्बुकुमार रथ से उतर कर सीधे अपने माता-पिता के पास पहुंचे। माता-पिता को प्रणाम कर जम्बुकुमार ने उनसे निवेदन किया – “अम्ब तात! मैंने आज आर्य सुधर्मा स्वामी के पास जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित सारभूत धर्मोपदेश सुना।" । ___माता धारिणी ने अपने प्राण प्रिय पुत्र जम्बू की बलयां लेते हुए स्नेहसिक्त स्वर में कहा - "वत्स ! तुम परम भाग्यशाली हो कि तुमने ऐसे महान् धर्म-धुरीण धर्मोपदेशक के दर्शन, वन्दन-नमन एवं उपदेशश्रवण से अपने नेत्रों, शिर, कर्णरन्ध्रों, अन्तःकरण एवं जीवन को सफल किया।" जम्बुकुमार ने पुनः कहा – “अम्ब-तात ! सुधर्मा स्वामी के उपदेश को सुनकर मेरे अन्तर के पट खुल गये, मुझे मेरे कर्तव्य का और सत्पथ का बोध हो गया, मेरे अन्तर में उस अक्षय-अमर-परमपद को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई है, जहां जन्म, जरा, मृत्यू और रोग-शोक प्रादि के लिए कोई स्थान नहीं है। संकट के समय शत्रु से नगर की रक्षार्थ नगर के द्वार पर विशाल शिलाखण्ड एवं गोले यन्त्रों में रखे हए हैं। उन्हें देख कर मुझे ऐसा अनुभव. हुप्रा कि यदि उनमें से एक भी शिला खण्ड अथवा गोला मेरे ऊपर गिर जाय तो अवती दशा में मेरी मृत्यु हो सकती है। अतः मैं लौट कर पुनः सुधर्मा स्वामी की सेवा में उपस्थित हुअा और उनसे मैंने प्राजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत ग्रहण किया । पूज्यो! मैं सुधर्मा स्वामी के पास आहती दीक्षा ग्रहण कर उस परमपद की प्राप्ति हेतु प्रयास करने का दृढ़ निश्चय कर चुका हूँ। कृपा कर आप मुझे दीक्षित होने की प्राज्ञा प्रदान कीजिये ।" अपने प्राणप्रिय एक मात्र पुत्र के मुख से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने एवं प्रवजित होने की बात सुनते ही ऋषभदत्त और धारिणी के हृदय पर वज्राघात सा लगा और वे कुछ क्षणों के लिए मूछित हो गये। मूर्छा दूर होने पर वे दोनों अपनी प्रांखों से अविरल अश्रुधाराएं बहाते हए बड़े दीन स्वर में बोले - "प्रिय पुत्र! तुम ही हमारे मनोरथों को पूर्ण करने वाले हो । तुम्हारे बिना हमारा जीवन दूभर हो जायगा। तुमने प्रार्य सुधर्मा स्वामी से जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्मोपदेश सुना, यह तो बहुत अच्छा किया। परम्परा से हमारे अनेक पूर्वज भी जिन शासन के श्रद्धालु भक्त रहे हैं पर जहां तक हमने सुना है, उनमें से किसी ने प्रव्रज्या ग्रहण नहीं की। हम दोनों भी बहुत समय से जिनोपदेश सुनते पा रहे हैं पर आज तक हमारे मन में कभी इस प्रकार का निश्चय उत्पन्न नहीं हुमा। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रवजित होने का प्रस्ताव ऐसी दशा में तुमने आज एक ही दिन में ऐसी कौनसी विशिष्टता उपलब्ध करली है जिसके कारण तुम प्रवजित होने की बात कह रहे हो?" इस पर जम्बुकुमार ने कहा- "तात-भात ! संसार में कई लोग ऐसे होते हैं जो बहुत समय के पश्चात् कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर पाते हैं और कुछ लोग प्रति स्वल समय में विशिष्ट परिज्ञा प्राप्त कर लेते हैं।" विशिष्ट परिज्ञा के उदाहरणस्वरूप जम्बुकुमार ने अपने माता-पिता को एक श्रेष्ठिपुत्र का निम्नलिखित आख्यान सुनाया : "किसी समय एक प्रसिद्ध नगर में अप्सरा के समान सुन्दर गुणज्ञा नाम की एक गणिका रहती थी। प्रदीप पर पतंगों की तरह उसके रूप-लावण्य की छटा पर विमुग्ध हो देश-विदेश के अनेक रसिक राजपूत्र, अमात्यपुत्र और इभ्यपुत्र उसके यहां आकर अपना सर्वस्व लुटाते रहते थे। उस गरिएका के प्रेम में पागल से बने वे तरुण जब अपना समस्त वैभव व्यय कर अपने-अपने घरों की ओर लौटने के लिए समुद्यत होते तब वह उन्हें कहती-"पाप तो मुझे छोड़कर जारहे हैं लेकिन मैं कृतघ्ना नहीं हैं। मेरे स्मृतिचिह्न के रूप में आप मेरे पास से कोई न कोई वस्तू अवश्य लेते जाइये।" विदाई की बेला में गणिका की उपर्युक्त बात सुनकर वे लोग गणिका द्वारा उपभुक्त करकंकरण, हार, भुजबन्ध प्रादि आभूषणों में से कोई एक आभूषण लेकर अपने घर की राह पकड़ते । अपना सर्वस्व लुटा चुकने के पश्चात् एक बार एक इभ्यपुत्र की वहां से विदाई का समय आया तो गणिका ने उसके समक्ष भी अपनी वही बात दोहराई। वह श्रेष्ठी-पुत्र एक निष्णात रत्नपरीक्षक था। उसने गणिका का अमूल्य पंचरत्नों से जटित स्वर्णनिर्मित पादपीठ देखा और कहा - "सुमुखि ! मैं तुम्हें अपना सर्वस्व समर्पित कर चुका है. अतः तुम से कुछ भी लेना अपने सम्मान के अनुकूल नहीं समझता। फिर भी तुम्हारे सुकोमल हृदय को ठेस न पहुंचे इस दृष्टि से तुम्हारी इच्छा रखने हेतु चाहता है कि सदा तुम्हारे पैरों नीचे रहने वाला यह पाद पीठ दे दिया जाय। बस, तुम्हारे स्मृति-चिह्न के रूप में मेरे लिए यही पर्याप्त है।" गणिका ने बड़े प्राग्रहपूर्ण शब्दों में कहा- "आपने ऐसी स्वल्प मूल्य की वस्तु क्या मांगी? कोई और बहुमूल्य वस्तु मांगिये।" श्रेष्ठिपुत्र रत्नों का कुशल पारखी था। उसने पादपीठ को गणिका के घर की सारभूत वस्तु समझकर कहा - "मुझे तो सदा तुम्हारे पैरों के नीचे रहने वाली यही साधारण वस्तु प्रिय है।" अन्ततोगत्वा गरिएका ने अपना पादपीठ श्रेष्ठिपुत्र को दे दिया। श्रेष्ठिपुत्र उस पादपीठ को लेकर अपने घर लौट आया। उसने पादपीठ के कीमती Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवजित होने का प्रस्ताव] केवलिकाल : आर्य जम्बू २११ रत्नो से विपुल अर्थोपार्जन किया और वह दीर्घ काल तक सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करता रहा। _ विशेष परिज्ञा वाले श्रेष्ठिपुत्र के दृष्टांत की दार्टान्तिक रूप में व्याख्या करते हुए जम्बूकुमार ने कहा - "जिस प्रकार उस श्रेष्ठिपुत्र ने सारभूत वस्तु को ग्रहण कर लम्बे समय तक सुखोपभोग किया, उसी प्रकार मैं भी सुधर्मा स्वामी के उपदेश में से सारभूत अमूल्य वस्तु -प्रव्रज्या को ग्रहण कर अनन्त, शाश्वत सुख स्वरूप परमपद मोक्ष को प्राप्त करना चाहता है। अतः आप मुझे प्रवजित होने की आज्ञा प्रदान कर परमपद प्राप्त करने के मेरे लक्ष्य में सहायक बनिये।" जम्बूकुमार द्वारा सहज भाव से प्रकट किये गये इन उद्गारों एवं अन्तस्तल से प्रस्तुत की गई तथ्यपूर्ण युक्तियों से श्रेष्ठिदम्पति को विश्वास हो गया कि जम्बू के अंतःकरण में प्रवजित हो, परमपद प्राप्त करने की उत्कट एवं अमिट अभिलाषा उत्पन्न हो चुकी है, वह अब किसी भी दशा में गृहस्थाश्रम में रहने वाला नहीं है। फिर भी उन्होंने अत्यधिक स्नेह के कारण जम्बुकुमार को और कुछ दिन गृहवास में रहने का अनुरोध करते हए अाग्रहपूर्ण स्वर में कहा"पुत्र ! इस बार तो तुम प्रवजित होने का विचार त्याग दो। हां, जब विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए सुधर्मा स्वामी पुनः यहां पधारें तब तुम उनके पास दीक्षित हो जाना।" जम्बुकुमार ने अपने लक्ष्य से किंचित्मात्र भी विचलित हुए बिना विविध युक्तियों से धर्म की महत्ता एवं दुर्लभता सिद्ध करने वाली अपनी बात को प्रारम्भ रखते हुए कहा - "तात-मात ! यदि मैं अभी प्रवजित हो जाऊं तो निश्चित रूपेण अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सिद्ध हो सकंगा। काल का क्या भरोसा ? अतः मेरे हित को ध्यान में रखते हुए आप मुझे अभी ही प्रवजित होने की आज्ञा प्रदान कर दीजिए।" ___अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र के भावी विछोह को टालने का एक और प्रयास करते हुए श्रेष्ठिवर ऋषभदत्त ने पुनः बड़े दुलार भरे स्वर में कहा - "वत्स? तुम्हारे पास सभी प्रकार के सुखोपभोग का अनन्यतम साधन-विपूल वैभव विद्यमान है। मानव-मन जिन सुखों के उपभोग के लिए सदा लालायित रहता है, जिन सुखोपभोगों को प्राप्त करने में अधिकांश मानव जीवन भर अहर्निश अथक परिश्रम करते रहने के उपरान्त भी सफल नहीं होते, वे सब सुखोपभोग तुम्हें तुम्हारे प्रबल पुण्य के प्रताप से सहज ही प्राप्त हैं। अतः यथेप्सित विषय - सुखों एवं विविध भोगोपभोगों का जी भर आनन्द लूटने के पश्चात् तुम दीक्षित हो जाना।" इस पर जम्बुकुमार ने अपने माता-पिता को विषय-लोलुपता की भयावहता बताते हुए एक बन्दर का दृष्टांत सुनाया जो विषयासक्ति के कारण शिलाजीत से चिपक कर मर गया था। विषयासक्ति के कारण हुई बन्दर की मृत्यु के दृष्टांत को Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रव्रजित होने का प्रस्ताव दार्टान्तिक रूप में घटित करते हए कुमार ने कहा - "अम्बतात ! अभी तो मुझे बाले भाव के कारण केवल भोज्य पदार्थों की ही अभिलाषा रहती है। अभी रसनेन्द्रिय के आस्वाद-सुख से ही प्रतिबद्ध है जिससे कि मैं अभी अपने आपको बड़ी आसानी में उन्मुक्त कर सकता है। किन्तु यदि मैं पांचों ही इन्द्रियों के विषय सुखों में आसक्त हो गया तो मैं भी उस विषयलोलुप बन्दर की तरह दयनीय एवं दुःखपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो अन्ततोगत्वा अनन्त भव भ्रमण के भंवर में फंस कर अनन्त दुःखों का भागी बन जाऊंगा। अम्ब-तात ! मैं भवंभ्रमण की विभीषिका से भयभ्रान्त हूँ। कृपा कर मुझे प्रवजित होने की आज्ञा प्रदान कीजिए। जिस प्रकार मकड़ी के जाल के तन्तु मच्छर आदि क्षद्र कीटों को तो अपने पाश में प्राबद्ध कर लेते हैं किन्तु मत्त गजेन्द्र को नहीं बाँध सकते, ठीक उसी प्रकार ऐहिक तुच्छ विषय सुख केवल कापुरुषों को ही अपने वशवर्ती बना सकते हैं, प्रबुद्ध चेतस को नहीं।" जम्बू द्वारा कही गई उपरोक्त बातें सुन कर मां धारिणी इस भय से अधीर हो उठी कि अब तो उसका पुत्र निश्चित रूप से प्रवजित हो जायगा । उसने करुण रुदन करते हुए कहा- "पुत्र मैं चिरकाल से अपने हृदय में इस प्राशा को संजोये बैठी हूं कि एक बार बरवेश में तुम्हारा मुख-कमल देखू । यदि तुम मेरे चिराभिलषित इस मनोरथ को पूर्ण कर दो तो मैं भी तुम्हारे ही साथ दीक्षा ग्रहण कर लूंगी।" उत्तर में जम्बुकुमार ने कहा- "अम्ब ! यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो मैं उसकी पूर्ति करने को तैयार है । परन्तु इसके साथ एक शर्त है कि आपकी मनोरथपूर्ति के उस शुभदिन के पश्चात् फिर आप मुझे प्रवजित होने से नहीं रोकेंगी।" धारिणी ने संतोष की सांस ली, मानो डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया हो। मां के ममता भरे मन में इस विचार से पाशा की किरण प्रकट हुई कि बड़े से बड़े योगियों को विचलित कर देने के लिए एक ही रमणी पर्याप्त होती है। परम रूप-लावण्य एवं सर्व गुरगसम्पन्न उसकी आठ बधुएं अपने सम्मोहक हाव-भावों एवं नेत्र-वारणों से उसके पुत्र को भोगमार्ग की ओर आकृष्ट करने में अवश्य ही सफल हो जायेंगी। ____ उसने हर्षमिश्रित स्वर में कहा - "वत्स! जो तुम कह रहे हो वही होगा। हम लोगों ने पहले से ही तुम्हारे अनुरूप सर्व गुणसम्पन्न अतिशय रूपवती पाठ श्रेष्ठि कन्याओं का तुम्हारे साथ विवाह करने हेतु वाग्दान स्वीकार कर रखा है। वे पाठों ही श्रेष्ठी-परिवार जिन शासन में श्रद्धा-अनुराग रखने वाले एवं सम्पन्न हैं । मैं अभी उन आठों सार्थवाहों को सूचना भिजवाती हूँ।" ' विषयगणः कापुरुषं करोति वशवतिनं न सत्पुरुषम् । बघ्नाति मशकमेव हि लतातन्तुर्न मातङ्गम् ॥ [नीति शास्त्र] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्रजित होने का प्रस्ताव ] केवलिकाल : प्रयं जम्बू २१३ श्रेष्ठिवर ऋषभदत्त ने तत्काल विश्वस्त संदेशवाहकों के साथ उन आठों सार्थवाहों के पास संदेश भेजा । उसमें यह स्पष्ट कहला दिया कि विवाह हो जाने के पश्चात् जम्बुकुमार प्रव्रजित हो जायेंगे, अतः सभी बातों पर सुचारु रूप से विचार कर शीघ्र उत्तर दिया जाय । संदेश में जम्बुकुमार के दीक्षित होने की बात सुन कर उन सभी सार्थ वाहों के हृदय पर गहरा आघात पहुंचा। वे अपनी पत्नियों के साथ इस विषय में विचार करने लगे कि समुपस्थित समस्या का हल किस प्रकार किया जाय । आठों श्रेष्ठि-कन्यात्रों ने भी जम्बुकुमार के दीक्षित होने और अपने मातापिता के पास श्रेष्ठि ऋषभदत्त के यहां से प्राप्त संदेश की बात सुनी । समान निश्चय वाली उन सभी कन्याओं ने अपने माता-पिता से स्पष्ट शब्दों में कह दिया - " आपने हमें उन्हें वाग्दान में दे दिया है । अब धर्म से वे ही हमारे स्वामी हैं । वे जिस पथ का अवलम्बन करेंगे, चाहे वह कितना ही दुर्गम अथवा कण्टकाकीर्ण क्यों न हो, हमारे लिये भी वही प्रशस्त पथ होगा । प्राप और किसी बात का विचार नहीं करें ।" कन्याओं के दृढ निश्चय को सुन कर उनके पिता सार्थवाहों ने ऋषभदत्त को विवाह की स्वीकृति का संदेश प्रेषित कर दिया। दोनों ओर विवाह की तैयारियां होने लगीं । जम्बू का विवाह विवाह की मांगलिक वेला में अमूल्य भूल एवं अलंकारों से सुसज्जित हाथी की पीठ पर देव विमान के समान सुन्दर अम्बावारी में वरवेषधारी जम्बुकुमार आरूढ़ हुए। अपने समय के धनकुबेर श्रेष्ठिवर ऋषभदत्त के प्रारणाधिक प्रिय इकलौते पुत्र जम्बुकुमार की वर यात्रा को देखने राजगृह नगर के नर-नारियों के समूह के समूह सुन्दर परिधान पहने उमड़ पड़े । गवाक्षों से सुन्दरियां सुमन-वृष्टि करने लगीं । समस्त वातावरण को गुंजरित कर देने वाले विविध वाद्यवृन्दों की मधुर ध्वनि के साथ वर यात्रा मुख्य बाजारों से प्रागे बढ़ी । पूर्णचन्द्र जिस प्रकार तारिकाओं के समीप जाते हैं उसी प्रकार वरवेष में सजे परम कान्तिमान जम्बुकुमार कन्याओं के घर पहुंचे । मंगल आरतियों के साथ वर को वधुओं के घर में प्रवेश करवाया गया और सम्पूर्ण वैवाहिक विधि-विधान के साथ जम्बू कुमार का आठों वधुनों के साथ पाणिग्रहरण एक ही साथ करवाया गया । पाणिग्रहण सम्पन्न होने पर उन म्राठों सार्थवाहों ने अपने जामाता जम्बुकुमार को दहेज में भोगोपभोग योग्य वसनालंकारादि विपुलं सामग्रियों के साथ प्रचुर मात्रा में स्वर्ण मुद्राएं प्रदान कीं। तदनन्तर जम्बुकुमार अपनी ग्राठों वधुनों के साथ भवन की ओर लौटे । कुटुम्बियों और नागरिकों ने वधुनों सहित वर का हार्दिक अभिनन्दन किया । नव वधुत्रों के साथ अपने गृह में प्रवेश करते हुए जम्बुकुमार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो वे अष्ट सिद्धियों को अपने साथ उस घर में लाये हों । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग जम्बू का विवाह अपने लाडले लाल को अनुपम रूप-लावण्यवती पाठ पुत्रवधुनों के साथ देख-देख कर प्रफुल्लवदना मां धारिणी परम प्रसन्न मुद्रा में उनकी वलयां ले रही थी। श्रेष्ठी ऋषभदत्त और धारिणी ने अपने पुत्र के विवाहोत्सव की खुशी के उपलक्ष में मुक्तहस्त हो स्वजनों, स्नेहियों, पाश्रितों और अपाहिजों को मनचाहा द्रव्य देकर संतुष्ट किया। निशा के आगमन के साथ ही बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत जम्बूकुमार ने पाठों नव वधुनों के साथ अपने भवन में सजाये गये सुन्दर शयन-कक्ष में प्रवेश किया। विशाल कक्ष के मध्य भाग में अत्यन्त सुन्दर कला-कृतियों के प्रतीक ६ सुखासन एक दूसरे के सन्निकट गोलाकर में रखे हुए थे। जम्बुकुमार ने उनमें से मध्यवर्तो सिंहासन पर बैठते हुए सहज मृदु एवं शान्त स्वर में अपनी पत्नियों को प्रासनों पर बैठने को कहा । प्रथम मिलन की वेला में मुख पर मधुर मुस्कान और अन्तःकरण में अगणित अरमान लिये कुछ सकुचाती कुछ लजाती हुई सी वे आठों अनुपम सुन्दरियां अपने प्राणवल्लभ के दोनों पार्श्व में बैठ गईं। पत्नियों को प्रतिबोध वातावरण की मादकता, माधुरी और मोहकता चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। उत्कृष्ट कोटि के सुगंधित द्रव्यों की महक से कक्ष गमक रहा था। प्रथम मिलन की रात, रूप सुधा से ओत-प्रोत सरिताओं के समान इठलाती, बल खाती, कनकलतातुल्य पाठ कामिनियां, अंगडाइयां लेता हा नवयौवन, एकान्त कक्ष, सहज सुलभ सभी भोग्य सामग्रियां किन्तु जम्बूकुमार के मन पर इन सब का किंचित्मात्र भी प्रभाव नहीं। वे तो जलगत कमल के समान बिल्कुल निर्लिप्त, वीत-दोष की तरह विरक्त एवं निर्विकार बने रहे। नववधुएं अपने जीवनधन जम्बुकुमार के अति कमनीय, परमकान्त मुखचन्द्र की ओर निनिमेष दृष्टि से अपनी सभी सुध बुध भूले इस प्रकार निहार रही थीं मानों वर्षों से चंद्रिका की प्यासी पाठ चकोरियां पूर्ण चन्द्र की ओर अपलक देखती हुईं अपनी यांखों की प्यास बुझा रही हों। वातावरण की निस्तब्धता को भंग करते हुए जम्बुकुमार ने अपनी प्राठों पत्नियों को सम्बोधित किया - "भव्यात्माओं ! आपको विदित ही है कि मैं कल प्रातःकाल प्रवजित होकर मुक्तिपथ का पथिक होने जा रहा हूँ। संभवत: ग्राप आश्चर्य कर रहीं होंगी कि मैं विषयोपभोग योग्य इस तरुण वय में अपार वैभव का परित्याग कर भोगों से विमुख हो त्याग मार्ग की ओर उन्मुख क्यों हो रहा है। मेरे द्वारा त्याग मार्ग अपनाने के औचित्य को आप शीघ्र ही भलीभांति समझ सके इसलिए मैं सर्व प्रथम एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ । वह यह है कि ये सांसारिक विषय भोग मानव को उसी समय तक सुखप्रद प्रतीत होते हैं जव तक कि उसके हृदय में तत्ववोध न होने के कारण मूढ़ता व्याप्त है। जीवाजीवादि तत्वों का वोध होते ही मानव के हृदय में व्याप्त विमूढ़ता विनष्ट हो जाती है और वह तत्वविद् व्यक्ति प्रबुद्धचेता बन जाता है । तत्ववेता बन Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नियों को प्रतिबोध ] केवलिकाल : आर्य जम्बू २१५ जाने के पश्चात् उस व्यक्ति के मन में विषय, सुख एवं मूढ़ता के लिए कोई स्थान अवशिष्ट नहीं रह जाता । " मैंने सुधर्मा स्वामी की कृपा से तत्वबोध प्राप्त कर लिया है अतः अब मैं विषय भोग के सुख को और समस्त सांसारिक वैभव को विषवत् हानिप्रद और हेय समझता हूं । वस्तुतः ये सब विषय भोग क्षणभंगुर हैं । इन विषय भोगों से प्राप्त होने वाले सुख भी क्षणिक होने के साथ-साथ अनन्त दुखानुबन्धी होने के कारण अनन्त काल तक भवभ्रमरण कराने वाले और भीषरण दुखदायी हैं । इस संसार रूपी विषवृक्ष के जन्म, जरा, रोग, शोक, भीषरण यातनाएं और मृत्यु ये दुःखप्रद फल हैं । विषय भोगों में फंसे रहने के कारण हम लोग अनन्तकाल से भवभ्रमरण करते हुए दुस्सह दारुण दुःख उठाते प्रा रहे हैं।" प्रभव का ५०० चोरों के साथ गृह प्रवेश जिस समय जम्बूकुमार अपनी आठों पत्नियों को इस प्रकार शिक्षा दे रहे थे, उसी समय प्रभव नामक एक कुख्यात चोर अपने ५०० साथी चोरों के साथ ऋषभदत्त के घर में चोरी करने के लिये श्रा पहुंचा । प्रभव ने अवस्वापिनी विद्या के प्रयोग से घर के सभी लोगों को प्रगाढ़ निद्रा में सुला दिया और तालोद्घाटिनी विद्या के प्रयोग से सभी कक्षों के ताले खोल डाले । प्रभव के साथ प्राये हुए चोरों ने जब सेठ ऋषभदत्त और उनके यहां श्राये हुए श्रीमन्त अतिथियों के बहुमूल्य रत्न एवं आभूषण आदि उतार कर ले जाने की तैयारी की तो शांत गम्भीर स्वर में चोरों को सम्बोधित करते हुए जम्बूकुमार बोले - "प्रय तस्करो ! तुम लोग हमारे यहां अतिथि के रूप में प्राये हुए इन लोगों की सम्पत्ति को कैसे चुरा कर ले जा रहे हो ?" जम्बूकुमार के इतना कहते ही ५०० चोर जहां, जिस रूप में थे, उसी रूप में चित्रलिखित से स्तंभित हो गये । यह देख कर प्रभव को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसकी अमोघ अवस्वापिनी विद्या का जम्बूकुमार पर किस कारण से प्रभाव नहीं हुआ । उसने जम्बूकुमार के पास जा कर कहा - "श्रेष्ठिपुत्र ! मैं जयपुर नरेश विन्ध्यराज का ज्येष्ठ पुत्र प्रभव प्रापके साथ मित्रता करना चाहता हूं । श्राप मुझे स्तंभिनी और मोचिनी विद्याएं सिखा कर उनके बदले में मुझ से श्रवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी विद्याएं प्राप्त कर लीजिये ।” २ प्रभव को प्रतिबोध जम्बूकुमार ने कहा - " प्रभव ! में तो प्रातःकाल होते ही सब सम्पत्ति और परिवार का परित्याग कर प्रव्रजित होने वाला हूं। मुझे इन पापकरी ' ददति तावदिमे विषयाः सुखं, स्फुरति यावदियं हृदि मूढ़ता | मनसि तत्वविदां तु विचारके, क्व विषयाः क्व सुखं क्व च मूढ़ता ॥ २ 'देसु मम' एयाओ विज्जाश्रो थंभ - मोक्खणीयाम्रो | ||३७|| [ जंबुचरियं ( गुणपाल), पृ० ८२] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रभव को प्रतिबोध विद्यानों से कोई प्रयोजन नहीं । वस्तुतः मैं कोई विद्या नहीं जानता। मैं तो पंचपरमेष्टिमंत्र को ही सबसे बड़ा मंत्र जानता हूं।" जम्बूकुमार की निस्पृहता और प्रवजित होने की बात सुन कर प्रभव को बड़ा विस्मय हुआ । उसने आग्रहपूर्ण स्वर में कहा- “सौम्य ! कुबेरोपम संपत्ति और सुरबालाओं के समान इन सुन्दर नववधुओं को छोड़ कर अभी आप प्रवजित न होइये । आप इन रमणी-रत्नों के साथ इस विपुल वैभव का समीचीनतया सुखोपभोग करने के पश्चात् वृद्धावस्था में प्रवजित हो जाना।" जम्बूकुमार ने पूर्ण कुशलता के साथ युक्तिपूर्वक प्रभव को प्रतिबोध दिया।' जम्बूकुमार के उपदेश से प्रबुद्ध हो प्रभव तथा उसके ५०० साथियों ने भी जम्बूकुमार के साथ ही प्रवजित होने की इच्छा प्रकट की और जम्बूकुमार की सहमति प्राप्त होने पर अपने माता-पिता की प्राज्ञा प्राप्त करने हेतु वह अपने साथियों सहित श्रेष्ठि ऋषभदत्त के घर से चला गया। पत्नियों के साथ चर्चा जम्बूकुमार की समुद्रश्री आदि आठ नवविवाहिता पत्नियों ने विरक्त जम्वूकुमार · को . संयम मार्ग से रोकने और सहज प्राप्त विपुल सुखसामग्री का सुखपूर्वक उपभोग करने की अनुरोधपूर्ण प्रार्थना करते हुए क्रमशः आठ दृष्टान्त सुनाये । उनके उत्तर में जम्बूकुमार ने भी अपनी पाठों पत्नियों द्वारा प्रस्तुत किये गये पाठ मार्मिक दृष्टान्तों के उत्तर में पाठ दृष्टान्त सुनाये। जम्बूकुमार और उनकी पत्नियों के बीच हुआ संवाद बड़ा प्रेरणादायक, बोधप्रद, रोचक और अनादि काल से अज्ञानावरणों के कारण पूर्णतः निमीलित अन्तर्वानों को सहसा उन्मीलित कर देने वाला है। उन दृष्टान्तों में से एक पद्मश्री द्वारा तथा उसके उत्तर में जम्बूकुमार द्वारा प्रस्तुत किया गया, ये दो दृष्टान्त यहां अविकल रूप से दिये जा रहे हैं : जम्बूकुमार की प्रथम पत्नी. समुद्रश्री के पश्चात् दूसरी पत्नी पद्मश्री ने अपने प्राणेश्वर को सम्बोधित करते हुए प्रति विनम्र एवं मधुर स्वर में कहा"प्राणनाथ! पूर्वजन्म के पुण्यप्रताप से प्रापको विपुल वैभव और छाया के समान सदा आपकी अनुगामिनी ८ पत्नियां मिली हैं, इस सबसे और अधिक सुखोपभोग की सामग्री प्राप्त करने की प्राशा में इस सब का परित्याग कर प्रापको भी कहीं उस वानर की तरह घोर पश्चात्ताप और दारुण दुःख सहन नहीं करना पड़े जो मानवस्वरूप पा कर भी देवत्व की प्राप्ति के प्रयास में पुनः वानर बन गया ?" जम्वूकुमार ने सस्मित स्वर में पूछा - "मुग्धे ! वानर को किस प्रकार का पश्चात्ताप करना पड़ा?" इस पर पद्मश्री ने निम्नलिखित दृष्टान्त सुनाया :१ विस्तृत विवरण के लिये प्राचार्य प्रभव सम्बन्धी इतिवृत में देखिये । -सम्पादक Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ वानर का कथानक] केवलिकाल : प्राय जम्बू वानर का कथानक किसी सर्वकामप्रदायी द्रह के तट पर स्थित एक विशाल वृक्ष पर वानर और वानरी का युगल (एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूद-फांद करते हुए) क्रीड़ा कर रहा था । वामर किसी तरह फाल चूक गया और उस द्रह में जा गिरा | उस दिव्य द्रह के जल के प्रभाव से वानर तत्काल अति सुन्दर युवा मनुष्य बन गया। इस अद्भुत रूप-परिवर्तन को देख कर वानरी ने भी द्रह में छलांग लगाई और वह भी तत्काल अति सुन्दर रूप- लावण्यवती मानवकन्या बन गई। वे दोनों एक दूसरे के प्रति कमनीय मानव स्वरूप को देख कर अतीव प्रमुदित हुए। युवा पुरुष के रूप में परिवर्तित हुए वानर ने अपनी पत्नी से कहा - "सुमुखि ! हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि इस द्रह में कूदने के कारण हमें मनोहारी मानवतनु मिल गये । अव हम इस वृक्ष पर चढ़ कर एक बार पुनः इस द्रह में कूदें । अब की बार हम निश्चित रूप से देव तथा देवी बन जायेंगे और सहस्रों वर्षों तक दिव्य सुखों का उपभोग करेंगे।'' मानवी देहधारिणी वानरी ने कहा- "प्रियं! मानवदेह हमें मिल गई है। इसी में संतोष करके हमें मानवोचित सुखों का उपभोग करना चाहिये। संशयास्पद देवत्व की प्राप्ति के प्रयास में कहीं हम अपना यह मानवतन भी न खो बैठें।" अपनी प्रिया द्वारा बहुत कुछ समझाये जाने के उपरान्त भी मानवतनधारी वह वानर वृक्ष पर चढ़ कर द्रह में कूद गया। यह देख कर उसे बड़ा दुःख हुमा कि वह पुनः वानर बन गया है । द्रह से निकल कर वानर अनेक बार उस वृक्ष पर चढ़ा और द्रह में कूदा पर सब निष्फल, वह तो वानर ही बना रहा । अपनी असंतोषी वृत्ति पर पश्चात्ताप करता हुआ वह रोने लगा। दूसरी ओर वनक्रीडार्थ वहां आये हुए एक महाराजा ने जब उस अनुपम सुन्दरी को देखा तो वह उसे अपने राजमहलों में ले गया और उसने उसे अपनी पट्टमहिषी बना दिया। वह एक बड़े नरपति की अग्रमहिषी के रूप में राजकीय विविध सुखों का उपभोग करने लगी। उधर उस वानर को एक मदारी पकड़ कर ले गया और उसे अनेक प्रकार की वानर-कलाएं सिखा कर ग्रामों व नगरों में उसकी कलाओं का प्रदर्शन करने लगा। एक दिन वह मदारी उस वानर को ले कर उसी राजा के यहां पहुंचा जहां पर उस वानर की महिला रूपधारिणी वानरी पट्ट महिषी के रूप में अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग कर रही थी। मदारी ने राजा, रानी और रनिवास की रमरिगयों के समक्ष वानर के खेल दिखाने का उपक्रम किया पर वह वानर राजा के अर्द्ध सिंहासन पर बैठी हुई अपनी पूर्वपत्नी को देख कर रोने लगा। मदारी द्वारा बहतेरा ताड़न-तर्जन किये जाने पर भी वानर ने किसी प्रकार का नाटय नहीं दिखाया, वह तो राजमहिषी की ओर देख-देख कर रोता ही रहा । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग वानर का कथानक वानर को रोते हए देख कर राजमहिषी ने कहा - "वानर ! अब तो तुम अपने स्वामी की आज्ञानुसार अपनी वानरी विद्या का प्रदर्शन करते रहो, इसी में तुम्हारी भलाई है । अब उस वृक्ष पर से द्रह में दो बार कूदने की घटना को बिल्कुल भूल जायो । अब पश्चात्ताप से कोई लाभ नहीं होने वाला है।" पद्मश्री ने कटाक्षनिक्षेपपूर्वक सस्मित स्वर में जम्बू कुमार की ओर देखते हुए कहा - "कान्त ? मुझे भय है कि अनिश्चित अनागत के अद्भुत सुखों की मवाप्ति की आशा में आप भी कहीं वर्तमान में प्राप्त इन सुखद भोगोपभोगों का परित्याग कर उस वानर की तरह पश्चात्ताप से संतप्त न हो जायें ?" पद्मश्री की बात सुनकर मुस्कुराते हुए जम्बू कुमार ने कहा - 'पद्मश्री ! मुझे अंगारकारक की तरह विषयों की किंचित्मात्र भी तृष्णा अथवा चाह नहीं है । सुनो : अंगारकारक का दृष्टांत "एक अंगारकारक (कोयले बनाने वाला) अपने साथ पर्याप्त मात्रा में पीने का पानी लेकर दूरस्थ किसी जंगल में कोयले बनाने के उद्देश्य से पहुंचा। वहां उसने लकड़ियों को जलाना प्रारम्भ किया। ग्रीष्म ऋतु की तेज धूप और जलती हुई लकड़ियों की ज्वाला के कारण उसे तीव्र प्यास और असह्य जलन का अनुभव होने लगा। उसने बार-बार पानी पीना प्रारम्भ किया पर इससे भी उसकी प्यास और शरीर की तपन शान्त नहीं हुई। प्यास और तपन से पीड़ित हो वह बार-बार अपने शरीर पर और मुंह में पानी डालने लगा। इस प्रकार उसके पास जितना जल था, वह सब समाप्त हो गया। अब उसकी प्यास और शरीर की जलन तीव रूप धारण करने लगी। वह जल की तलाश में निकल पड़ा। थोड़ी ही दूर चलने के अनन्तर असह्य तृष्णा और ताप की पीड़ा से वह एक वृक्ष के नीचे पहुंचते-पहुंचते मूछित हो वृक्ष की छाया में गिर पड़ा। वृक्ष की शीतल छाया से उसे कुछ शान्ति का अनुभव हुआ और थोड़ी देर के लिए उसे निद्रा ने आ घेरा। उस अंगारकारक ने स्वप्नावस्था में संसार के समस्त वापी, कूप, तडाग ग्रादि जलाशयों का मन्त्रदिग्ध आग्नेयास्त्र की तरह समस्त जल पी डाला पर उसकी तृष्णा एवं तपन किंचित्मात्र भी कम नहीं हुई। उसकी निद्रा भंग हुई और वह वहां से चल कर एक वापी के पास पहुंचा। उस बावड़ी में उतर कर उसने अंजलि से पानी पीना चाहा पर वहां पानी के स्थान पर केवल कीचड़ पाया। तृषा और तपन से व्याकूल वह अंगारकारक झुक कर अपनी जिह्वा से उस वापी के कीचड़ को चाटने लगा पर इससे न उसकी प्यास ही बुझी और न तपन ही मिटी।" तदनन्तर पद्मश्री को सम्बोधित करते हए जम्बूकूमार ने कहा - बाले! हम सब लोगों के जीव अंगारकारक की तरह हैं और संसार के समस्त विषयमुख Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगारकारक का दृष्टांत ] केवलिकाल : मायं जम्बू २१६ एवं भोगोपभोग वापी, कूप, तड़ागादि के जल के समान हैं। हमारा जीव चक्रवर्ती देव, देवेन्द्रों के दिव्य भोगों से भी तृप्त नहीं हुआ तो अब उसे वापी के कीचड़ के समान तुच्छ मानवी भोगों से तृप्त करने की इच्छा करना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं ।" अपनी नव विवाहिता पत्नियों द्वारा भोग मार्ग की ओर प्राकर्षित करने हेतु प्रस्तुत किये गए मार्मिक दृष्टांतों एवं तर्कों के उत्तर में जम्बूकुमार ने हृदयग्राही दृष्टांत सुनाते हुए प्रकाट्य एवं प्रबल युक्तियों से संसार की निस्सारता, भोगों की क्षणभंगुरता और भवाटवी की भयावहता का ऐसा मार्मिक चित्ररण किया कि जम्बूकुमार को भोग-मार्ग की ओर आकर्षित करने का प्रयास छोड़ कर समुद्रश्री प्रादि प्राठों कुसुम- कोमलांगिनियां कुलिश कठोर योग-मार्ग पर चलने के लिये उदयत हो गई । जम्बूकुमार के अन्तर्मन के सच्चे उद्गारों को सुनकर उन आठों ही रमणियों की मोहनिद्रा भंग हो गई । उन प्राठों रमणी-रत्नों ने श्रद्धापूर्वक मस्तक झुकांते हुए जम्बूकुमार से निवेदन किया- "आर्य ! आपकी कृपा से हमें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई है । हमारे मन में अब सांसारिक भोगोपभोगों एवं सुखों के प्रति किंचितमात्र भी आकर्षण नहीं रह गया है। हमें यह संसार वस्तुतः भीषरण ज्वालामालानों से प्राकुल एक प्रति विशाल भट्टी के समान प्रतीत हो रहा है । हम आपके पदचिह्नों का अनुसरण करती हुईं प्रपने समस्त कर्म-समूहों को ध्वस्त कर शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए लालायित हैं । हम अच्छी तरह समझ चुकी हैं कि प्राप जिस पथ के पथिक बनने जा रहे हैं, वही पथ वस्तुतः हमारे लिए श्रेयस्कर है । अज्ञानवश हमने ग्रापको भोग-मार्ग की ओर आकृष्ट करने के जो प्रयास किये हैं उनके लिए हम आपसे क्षमा प्रार्थना करती हैं। हम आपके साथ ही प्रव्रजित होना चाहती हैं अतः आप हमें अपने साथ ही प्रव्रजित होने की प्राज्ञा प्रदान कर पाणिग्रहरण की लौकिकी क्रिया को सही मायनों में सार्थक कीजिए ।" जम्बूकुमार की अनुमति प्राप्त हो जाने के पश्चात् समुद्रश्री प्रादि प्राठों रमणियों ने अपने-अपने माता-पिता के पास अपने निश्चय की सूचना करवा दी कि प्रातः काल होने पर वे भी अपने पति के साथ प्रव्रजित हो जायेंगी । अपनी पुत्रियों के प्रव्रजित होने की बात सुनते ही ग्राठों श्रेष्ठि-दम्पति तत्काल जम्बूकुमार के भवन पर प्राये । उस समय तीन प्रहर रात्रि बीत चुकी थी, केवल अन्तिम प्रहर अवशिष्ट था । परिवार को प्रतिबोध प्रभवादि दस्युमण्डल और अपनी ग्राठों पत्नियों को प्रतिबोध देने के पश्चात् जम्बूकुमार प्रतिदिन के नियमानुसार अपने माता-पिता के पास गये । उन्होंने अपने माता-पिता और उनके पास बैठे सास- श्वसुरों को विनय पूर्वक प्रणाम किया । प्राशीर्वचन के पश्चात् श्रेष्ठि ऋषभदत्त ने स्नेहसिक्त स्वर में जम्बूकुमार Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ परिवार को प्रतिबोध से पूछा - "चिरंजीव ! अपने आत्मीयों के भविष्य और अन्य समस्त परिस्थितियों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन तथा नववधुओं के साथ विचार विनिमय के पश्चात् तुम अवश्य ही किसी न किसी निश्चय पर पहुंचे होंगे ?" जम्बूकुमार ने कहा - "हां, पितृदेव ! आपकी आठों कुलवधुनों और मैंने श्रात्मोद्धार हेतु यही दृढ़ निश्चय किया है कि आपकी अनुमति पाकर हम प्रातः काल श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहरण कर लेंगे । हमें अब केवल आपकी अनुमति की ही आवश्यकता है। कृपा कर अब बिना विलंब के श्राप हमें दीक्षित होने की अनुमति प्रदान कर दीजिये ।" तदनन्तर मोहग्रस्त श्रेष्ठि- दम्पतियों को मोहनिद्रा से जागृत करते हुए जम्बूकुमार ने शान्त, मधुर पर दृढ़ स्वर में सम्बोधित किया- 'मातृपितृदेवो ! जिस प्रकार लवणसमुद्र अपार क्षारयुक्त जलराशियों से पूर्ण रूपेण भरा हुआ है ठीक उसी प्रकार भवसागर शारीरिक एवं मानसिक असंख्य दुःखों से भरा हुआ है । वस्तुतः इस संसार में सुख नाम की कोई वस्तु नहीं है । दुःख में सुख के विभ्रम, एवं दुःख में सुख की मिथ्या कल्पना द्वारा दुःख मूलक सुखाभास को ही विषयासक्त प्राणियों ने सुख समझ रखा है । शहद से सिक्त तलवार की तीक्ष्ण धार को जिह्वा से चाटने पर जिस प्रकार शहद के क्षणिक एवं तुच्छ सुख के साथ जिह्वा कटने की असह्य व्यथा संपृक्त है - जुड़ी हुई है, शतप्रतिशत वही स्थिति इन सांसारिक विषयोपभोगजन्य सुखों पर घटित होती है । इसके अतिरिक्त गर्भवास के घोर दुःख की कल्पना तक नहीं की जा सकती । वह नारकीय दुःखों से भी अत्यधिक दुखद और भट्टी की तीव्रतम ज्वालाओं से भी अधिक दाहक है । इस संसार में एकान्ततः दुःख ही दुःख है, सुख नाम मात्र को भी नहीं है। यदि आपके अन्तर्मन में वास्तविकं सुख प्राप्ति की अभिलाषा है तो आप सब प्रातःकाल होते ही मेरे साथ मुक्तिपथ के पथिक बन जाइये ।” कितना सजीव एवं सच्चा चित्ररण था संसार का ? जम्बूकुमार के इन नितान्त विरक्तिपूर्ण वचनों में अद्भुत चमत्कार था । श्रेष्ठिदम्पतियों के अन्तःकरण में प्रविष्ट हो इन वाक्यों ने उनकी अन्तश्चेतना को जागृत कर उनके अन्तों को उन्मीलित कर दिया। उन्हें अपने अन्तस्तल में अद्भुत प्रालोक का अनुभव हुआ । संसार के वास्तविक स्वरूप को समझते ही अठारहों भव्य जीवों ने दीक्षित होने का निश्चय कर लिया । सहमा सबके मुख से एक ही स्वर प्रतिध्वनित हुआ 'वत्स ! तुमने हमारी मोहनिद्रा को भगा दिया है। अब हम तुम्हारे साथ ही प्रव्रजित हो आत्मकल्याण करेंगे ।" जम्बूकुमार द्वारा माता-पिता श्रादि ५२७ व्यक्तियों के साथ दीक्षा प्रातःकाल होते ही सारे राजगृह नगर में यह समाचार विद्युत् वेग की तरह घर-घर पहुंच गया कि जम्बूकुमार कुबेरोपम अपार वैभव का परित्याग कर • Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ के साथ दीक्षा] केवलिकाल : आर्य जम्बू २२१ अपने माता-पिता, पाठों नवविवाहिता पत्नियों, पाठों पत्नियों के माता-पिता तथा कुख्यात चौरराज प्रभव एवं उसके ५०० साथियों के साथ आज ही दीक्षित हो रहे हैं। दीक्षा समारोह के अपूर्व ठाट को देखकर अपने नेत्रों को पवित्र करने की अभिलाषा लिये सभी नर-नारी शीघ्रतापूर्वक अपने आवश्यक कार्यों से निवृत्त एवं सुन्दर वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होने लगे । अभिनिष्क्रमण सम्बन्धी सभी प्रकार की व्यवस्था बड़ी शीघ्रता के साथ सम्पन्न . कर ली गई । श्रेष्ठिवर । ऋषभदत्त एवं माता धारिणी ने अपने पुत्र को स्वयं सुगन्धित उबटनों के विलेपन के पश्चात् स्नान कराया और अंगराग एवं बहमूल्य वस्त्रालंकारों से विभूषित किया। उसी समय जम्बूद्वीप के अधिष्ठाता अनाधृत देव भी जम्बूकुमार की सन्निधि में पाये। अनेक प्रकार के वाद्य यन्त्रों की मधुर ध्वनि के बीच जम्बकुमार अपने माता-पिता के साथ एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में प्रारूढ़ हए।' जयघोषों और वाद्यवृन्दों की कर्णप्रिय धुनों के साथ जम्बूकुमार की अभिनिष्क्रमण यात्रा प्रारम्भ हुई। कल ही जिनकी वरयात्रा का मनोरम दृश्य देखा गया था, उन्हीं जम्बूकुमार को अभिनिष्क्रमण यात्रा को देखने के लिए राजगृह के विशाल राजपथों पर चारों ओर जनसमुद्र उमड़ पड़ा । राजगृह के गगनचुम्बी भवनों की अट्टालिकाओं एवं सुन्दर गवाक्षों में अति मनोज्ञ वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कोकिलकण्ठिनी कुलवधुओं द्वारा गाये जा रहे मंगल गीतों की सुमनोहर स्वरलहरियों से गगनमण्डल गुंजरित हो रहा था । शिबिकारूढ़ जम्बूकुमार सावन-भादों की घनघटा से जलवर्षा की तरह अमूल्य मरिण-कांचनमिश्रित वसुधाराओं की अनवरत वर्षा कर रहे थे। उन्होंने लोक कल्याणकारी कार्यों के लिये अपनी सम्पत्ति का बहुत बड़ा भाग दान कर डाला और सम्पूर्ण चलअचल सम्पदा का सर्प कंचुकवत् परित्याग कर दिया । अगणित कंठों द्वारा उद्भूत 'धन्य', 'धन्य' की ध्वनि से राजगृह नगर का समस्त वायु-मण्डल प्रतिध्वनित हो रहा था। नगर के सभी नर-नारी विस्मित एवं विमुग्ध थे, नव-वय में जम्बूकुमार द्वारा किये गये अपूर्वत्याग पर । उनके द्वारा करोड़ों स्वर्णमुद्राओं और आठ नारी-रत्नों के त्याग पर प्रत्येक नागरिक आश्चर्य प्रकट कर रहा था। आबालवृद्ध द्वारा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक जम्बूकुमार पर की गई गुलाल एवं सुगन्धित द्रव्यों की निरंतर वृष्टि के कारण नगर के मुख्य मार्ग ऐसे मनोहर प्रतीत हो रहे थे मानों उन पर लाल-लाल मखमली कालीन बिछा दिये गये हों। ' जम्बूरनाधृतेनाथ, देवेन कृतसन्निधि : । उदवा ह्या नृसहस्रण, शिबिकामारुरोह च ।। २८३ ।। परिशिष्ट पर्व, सर्ग ३ २ दानं विश्वजनीन स, ददान : कल्पवृक्षवत् ।......"।।२८४।। परिशिष्ट पर्व, सर्ग ३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५२७ के साथ दीक्षा मगधेश्वर कुणिक अपनी चतुरंगिणी सेना और समस्त राज्यद्धि के साथ जम्यूकुमार के दर्शनार्थ मभिनिष्क्रमणोत्सव में संमिलित हुए।' मगधनरेश कूरिणक पोर जम्बूद्वीप के अधिष्ठाता अनाधृत देव से परिवृत्त जम्बूकुमार वर्षाकालीन घनघोर घटा की तरह द्रव्य की वर्षा कर रहे थे। कूणिक ने जम्बूकुमार से कहा- "धीरवर ! मेरे योग्य कोई कार्य आप उचित समझते हों, उसे करने की मुझे भी आज्ञा दीजिये।" कूणिक का इतना कहना था कि प्रभव, कुमार अपने पांच सौ साथियों के साथ वहां आ पहुंचा और उसने गुरुचरणों में मस्तक झुका कर नमस्कार किया। जम्बूकूमार ने महाराज कृरिणक से कहा- "राजन् ! इस प्रभव ने जो भी अपराध किये हों, उन्हें पाप क्षमा कर दीजिये। विगत रात्रि में यह मेरे घर में चोरी करने हेतु प्राया था। उस समय मैंने इसकी समस्त ऐहिक एषणाओं को शान्त कर दिया । अब यह मेरे साथ संयम ग्रहण करेगा।" इस पर कुणिक ने कहा- "इन महानुभाव ने आज तक जितने भी अपराध किये हैं, उनके लिये मैं इन्हें क्षमा करता हूं। ये निर्विघ्न रूप से श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण करें। जम्बूकुमार का अभिनिष्क्रमण जनौष (जुलूस) राजगृह नगर के मुख्य मार्गों से क्रमशः आगे बढ़ता हुआ नगर के बाहर उस पाराम के पास पहुंचा जहां सुषर्मा स्वामी प्रपने श्रमण संघ के साथ विराजमान थे। शिविका से उतर कर जम्मूकुमार ५२७. मुमुक्षणों के साथ सुधर्मा स्वामी के सम्मुख पहुंचे और उनके परणों पर अपना मस्तक रख कर प्रार्थना करने लगे- "प्रभो! प्राप मेरे परिजनों सहित मेरा उदार कीजिए।" दीक्षार्थियों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व की जाने वाली सभी प्रावश्यक क्रियामों के सम्पादन के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बूकुमार, उनके मातापिता पाठों पत्नियों, पत्नियों के माता-पिता, प्रभव तथा प्रभव के ५०० साथियों ' गुरुसेन मिलियसहरिसम्वुररवसंपायलिय भूवीढो । जंबुस्स दंसरणत्यं, समागमो कोणिय नरिंदो ॥५०३।। [जंबुचरियं, गुगपाल रचितं, १६ उ०] २ घणमो व पूरमाणो, दविणमहासंचएण पणइयणं । कोणिय नरनाहेणं, सहियो य अमढिय सुरेण ॥५१५।। [जंबुचरियं (गुणपाल) १६ उ.] . पभवो पभूयपहाणपुरिसपरिवारवुड़ो पत्तो। नरनाहाणुनामो, सिबियाए सहेव संचलियो ।।८४३।। जम्बूचरियं – रत्नप्रभसूरि विरनित नरनाहेणं भरिणयं कुणम् प्रविग्घेण एस सामण्णं । खमियं सम्बं पि मए, एयस्स महारणुभावस्स ।।५२६।। (जंबुचरियं, उ०१६] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ के साथ दीक्षा] केवलिकाल : मार्य जम्बू २२३ को विधिवत् भागवती दीक्षा प्रदान की।' इस प्रकार ६९ करोड़ स्वर्ण मुद्रामों एवं ८ रमणी-रत्नों को त्याग कर जम्बूकुमार ५२७ मुमुक्षों के साथ सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हए। दीक्षा देने के पश्चात् सुधर्मास्वामी ने जम्बूकूमार की माता, उनकी पाठ पत्नियों और पाठों पत्नियों की माताओं को सुव्रता नामक प्रार्या की आज्ञानुवत्तिनी बना दिया। अपने साथियों सहित प्रभवमुनि सुधर्मा द्वारा जम्बू मुनि को शिष्य रूप से सौंपे गये। ___अपार धन-सम्पदा, सुरम्य विशाल भवन, कोटि-कोटि कांचनमुद्राओं और सुररमरिणयों के समान अतीव सुन्दर आठ रमणी-रत्नों का परित्याग कर जम्बू कुमार अति कठोर त्यागपथ के पथिक बने, इस प्रकार के घटनाचक्र में सहज ही पाठक को एक चमत्कार सा प्रतीत हो सकता है, कौतुहल भी हो सकता है। पर जिस प्रकार जीवन और जीवन के मूल्य कालक्रम से बदलते रहते हैं, उसी प्रकार हमें भी प्रत्येक युग की, प्रत्येक काल की परिस्थितियों एवं तज्जनित जीवन के मूल्यों के प्रकाश में ही उस समय के जनजीवन का मूल्यांकन करना चाहिए। सर्वज्ञ प्रभु महावीर के अन्तस्तलस्पर्शी उपदेशों से जनमानस में एक नवीन चेतना जाग्रत हुई। इस चेतना के जागृत होने पर जनमानस जिज्ञासु भोर चिन्तनशील बना। भगवान् महावीर के दिव्य सन्देश से जीवन की वास्तविकता.और सार्थकता का बोध होते ही जन-जीवन में सच्ची संस्कृति साकार हो उठी और जीवन के उच्चतम मादों, उच्चतम संस्कारों को प्रात्मसात् करने की प्रवृत्ति प्रबल वेग से प्रबुद्ध व्यक्तियों के मानस में घर करने लगी। ऐसी स्थिति में वास्तविक सत्य का बोध हो जाने के पश्चात् उसको प्रात्मसात् कर लेना और उसे अपने जीवन में मूर्त स्वरूप देना असम्भव अथवा आश्चर्यजनक नहीं। प्राज के अर्थमूलक युग में प्राज के भौतिक मापदण्ड.से तत्कालीन माध्यात्मिक प्रवृत्तियों एवं सांस्कृतिक मूल्यों पर प्राधारित परिस्थितियों का मूल्यांकन करना वस्तुतः उचित नहीं होगा। दीक्षानन्तर नवदीक्षित श्रमण श्रमणियों को सम्बोधित करते हुए प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने फरमाया- 'मायुष्मन् श्रमण-श्रमणियो! पाप सबने विषय, कषायादि के बन्धनों को काटकर श्रमणधर्म में दीक्षित हो जो वीरता का परिचय 'प्राचार्य हेमचन्द्र ने जम्बूकुमार की दीक्षा के पश्चात दूसरे दिन अथवा कुछ दिनों पश्चात प्रभव द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख किया है । यथा :पितृनापृच्छ्य चान्येप : प्रभवोऽपि समागतः । जम्बूकुमारमनुयान्परिव्रज्यामुपारदे । २६. [परिशिष्ट प० ३] २ नवाणुई कंचणकोरिमाउ, जेणुज्मिमा भट्ट य गलिमानो। सो जंडू सामी पढमो मुणीणं, अपच्छिमो नंदर केवळीणं ॥ [कल्पान्तर्वाच्यानि, पत्र ४१-४८ (हस्तलिखित - संवत् १५६६) अलवर भण्डार] ३ सम्भव है कि श्रमणी संघ की मुस्था चंदनवाला की भाशानुवर्तिनी स्थविरा साध्वी का नाम सुव्रता हो। प्रायः साध्वी का नाक स्मरण न होने की दशा में अपनी रचनामों में विभिन्न रचनाकारों द्वारा सुव्रता नाम लिख दिया गया है। [सम्पादक Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [५२७ के साथ दीक्षा दिया है । वह प्रशंसनीय है। बहुत से लोग सिंह के समान व्रत लेकर शृगालवत् कायरतापूर्वक संयम का पालन करते हैं । कुछ व्यक्ति शृगाल की तरह डरते हुए संयम ग्रहण करते हैं और उसका पालन भी शृगाल की ही तरह कायरतापूर्वक करते हैं । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शृगाल के समान डरते हुए संयम ग्रहरण करते हैं किन्तु संयम ग्रहण करने के पश्चात् सिंह के समान वीरता से संयम का पालन करते हैं । कुछ ऐसे भी पराक्रमी पुरुष होते हैं जो सिंह के समान पूरे साहस एवं उत्साह के साथ ही संयम ग्रहण करते और उसी प्रकार पूर्ण साहस और पराक्रम के साथ जीवन भर संयम का पालन करते हैं । आप लोगों को चाहिये कि जिस प्रकार सिंह के समान साहसपूर्वक संयम ग्रहण किया है उसी प्रकार सिंह तुल्य पराक्रम प्रकट करते हुए ही जीवन भर संयम का पालन करते रहें जिससे कि आप लोगों को शीघ्र ही परमपद निर्वाण की प्राप्ति हो सके । जीवन के प्रत्येक क्षरण को अमूल्य समझते हुए प्रमाद का पूर्णतः परिहार कर अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में पूरी तरह यतना रखिये जिससे कि आप पाप-बन्ध से बचे रह सकें । वस्तुतः प्रमाद साधक का सबसे बड़ा शत्रु है । चतुर्दश पूर्वधर, प्रहारक लब्धि के धारक, मनः पर्यवज्ञानी और रागरहित बड़े-बड़े साधक भी प्रमाद के वशीभूत हो जाने पर देव, मानव, तिथंच और नारक गति रूप दुःखपूर्ण संसार में भटकते रहते हैं ।" " जम्बूकुमार सहित सभी नव दीक्षितों ने अपने श्रद्धेय गुरु सुधर्मा स्वामी के उपर्युक्त उपदेश को शिरोधार्य किया और वे ज्ञानार्जन एवं तपश्चरण के साथ साथ श्रमणाचार का बड़ी दृढ़ता से पालन करने लगे । महामेधावी जम्बू अरणगार ने अहर्निश अपने गुरु सुधर्मा स्वामी की सेवा में रहते हुए परम विनीत भाव से बड़ी लगन, निष्ठा और परिश्रम के साथ सूत्र, अर्थ और विवेचन - विस्तारसहित सम्पूर्ण द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त करना प्रारम्भ किया । कूरिक की जिज्ञासा कालान्तर में सुधर्मा स्वामी ने अपने जम्बू आदि शिष्य परिवार सहित राजगृह से विहार किया और विभिन्न क्षेत्रों में प्रगणित भव्यात्मानों के अन्तर्मन को उपदेशामृत से निर्मल बनाते हुए एक दिन वे चम्पानगरी के "पूर्णभद्र" चैत्य में पधारे । उद्यानपाल के माध्यम से सुधर्मा स्वामी के शुभागमन की सूचना प्राप्त होते ही मगधाधिपति कूणिक अपने पुरजन - परिजन आदि सहित अपने राज्योचित वैभव के साथ उनके दर्शन एवं उपदेश श्रवरण के लिए उद्यान में पहुँचा । उद्यान के द्वार पर ही अपने वाहन, खङ्ग, छत्र, चामर एवं समस्त राज्य चिह्न तथा पुष्पमाला मोजड़ी आदि का परित्याग कर सुधर्मा स्वामी की सेवा में दसपुष्वी, श्राहारगावि मरणनारंगी विरागा य । होंति पमायपरवसा, तयणंतरमेव चउगइना ॥ [ स्थानांग ] Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूणिक की जिज्ञासा ] केवलिकाल : भार्य जम्बू २२५ पहुंचा। उसने भगवान् महावीर के पट्टधर श्रार्य सुधर्मा स्वामी को बड़ी श्रद्धापूर्वक एवं भक्ति सहित वन्दन - नमन के पश्चात् समस्त साधुसंघ को वंदन किया । तपोपूत युवा श्रमरण जम्बू के प्रत्यन्त तेजस्वी दिव्य स्वरूप को देखकर कूरिक को बड़ा विस्मय हुआ । कूरिणक ने आश्चर्य प्रकट करते हुए सुधर्मा स्वामी से पूछा - "भगवन् ! आपके शिष्य श्रमणसमूह में यह तारामण्डल में पूर्णचन्द्र के समान कान्तिमान, घृतसिंचित प्रग्नि की जाज्वल्यमान ज्वाला की तरह दुर्निरीक्ष्य और महान् तेजस्वी स्वरूप वाले युवा श्रमरण कौन हैं ? इन्होंने किस तपश्चरण, शीलपालन अथवा महान् दान के प्रभाव से इस प्रकार का अत्यन्त आकर्षक एवं देदीप्यमान सुन्दरतम स्वरूप पाया है ?" इस पर सुधर्मा स्वामी ने कूणिक को जम्बू कुमार के पूर्वभवों का वह पूरा वृत्तान्त कह सुनाया जो विद्युन्माली देत्र के सम्बन्ध में श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर भगवान् महावीर ने जम्बू कुमार के गर्भावतररण से ७ दिन पूर्व सुन्नाया था । श्राचार्य हेमचन्द्र ने "परिशिष्ट पर्व" में इस बात का उल्लेख किया है कि कूरिक को जम्बू श्रमरण का पूर्व वृत्तान्त आदि सुनाने के पश्चात् श्रार्य सुधर्मा - अपने शिष्य मण्डल सहित चम्पा से विहार कर श्रमरण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ विचरण करते रहे ।" पर प्राचार्य हेमचन्द्र का यह कथन तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । क्योंकि स्वयं उनके द्वारा परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित कतिपय तथ्यों से आर्य जम्बू का दीक्षा-काल भगवान् महावीर के निर्वारण के पश्चात् का ही ठहरता है । जन्म, निर्वारण आदि कालनिर्णय सम्बन्धित घटनाक्रम पर विचार करने से यह विदित होता है कि जम्बू कुमार का जन्म महावीर की केवली चर्या के १४ वें वर्ष में हुआ । जम्बू कुमार के जन्म से ७ दिन पूर्व महाराज श्रेणिक ने भगवान् महावीर से पूछा - " भगवन् ! भरत क्षेत्र में केवलज्ञान किसके पश्चात् समाप्त हो जायगा ।" भगवान् ने उत्तर दिया- "देखो ! चार देवियों से परिवृत्त ब्रह्म ेन्द्र के समान ऋद्धिवाला जो यह विद्युन्माली देव है, यही प्राज से सातवें दिन ब्रह्म स्वर्ग से च्यवन कर तुम्हारे नगर राजगृह में श्रेष्ठी ऋषभदत्त के यहां समय पर पुत्र रूप से उत्पन्न होगा और यही भरत क्षेत्र का इस अवसर्पिणी काल का अन्तिम केवली होगा । , सुषर्मापि ततः स्थानाज्जगाम सपरिच्छदः । श्री महावीर पादान्ते, तत्समं विजहार च ॥ २ नाथोऽप्यकथयत्पश्य, विद्युन्माली सुरो हासी । सामानिको ब्रह्मन्द्रस्य चतुर्देवीसमावृतः ॥ मोऽमुष्मात्सप्तमेऽच्युत्वा भावी पूरे तब । श्रेष्ठिऋषभदत्तस्य जम्मूः पुत्रोऽन्त्यकेवली || ६४ ॥ [ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४ ] [ नही] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन्म, नि• काल निर्णय श्रेणिक और भगवान महावीर के बीच यह प्रश्नोत्तर की घटना चम्पा नगरी में हुए भगवान् की केवलीचर्या के १३ वें चातुर्मास से पूर्व की घटना है। शास्त्रीय उल्लेख के अनुसार चम्पा नगरी में हुए इस चातुर्मास से पहले कूरिणक मगध का शासक बन चुका था और मगध की राजधानी राजगृह से हटाकर वह चम्पा में ले आया था। ___ इस दृष्टि से विचार करने पर जम्बूकुमार का जन्म भगवान महावीर की केवलीचर्या के १४ वें वर्ष में होना अनुमान किया जा सकता है और इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण के समय में जम्बू कुमार की आयु १६ वर्ष की होना प्रमाणित हो जाता है। ___ जम्बू कुमार के विवाह की घटना का वर्णन करते हुए प्राचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में लिखा है : क्रमेण प्रतिपेदे च, वयो प्रथममार्षभिः । अभूत्पाणिग्रहाहश्च, पित्रोराशालतातरुः ।। ७४ ।। [परिशिष्ट पर्व, सर्ग २] विवाह योग्य वय सोलह वर्ष से कम की नहीं हो सकती। ऐसी दशा में प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जम्बूकुमार का विवाह १६ वर्ष की अवस्था में हुमा और विवाह होने के पश्चात् दूसरे दिन ही उन्होंने आर्य सुधर्मा के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। इसके पश्चात् प्राचार्य हेमचन्द्र स्पष्ट रूप से 'परिशिष्ट पर्व' में यह उल्लेख करते हैं कि - भगवान महावीर के निर्वाण से ६४ वर्ष पश्चात् जम्बूकुमार ने निर्वाण प्राप्त किया। . इन सब तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य जम्बकूमार ने १६ वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की और ६४ वर्ष तक श्रमणधर्म का परिपालन करने के पश्चात् ८० वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त किया। ___ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित उपरोक्त तथ्यों से यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि प्रार्य जम्बूकुमार ने भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् १६ वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की। ऐसी दशा में आर्य सुधर्मा स्वामी का जम्बू श्रमण सहित भगवान् महावीर की सेवा में पहुंचने का जो उल्लेख किया गया है, वह संगत प्रतीत नहीं होता। भगवान् महावीर का निर्वाण जम्बूकुमार की दीक्षा से कुछ मास पूर्व हो चुका था, इस प्रकार के उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परामों के प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। 'श्रीवीरमोक्षदिवसादपि हायनानि, चत्वारि पष्टिमपि च व्यतिगम्ये जम्बूः । कात्यायनं प्रभवमात्मपदे निवेश्य, कमंमयेण पदमम्ययमाससाद ॥६॥ परिशिष्ट पर्व, सर्ग.४] Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म, नि० काल निर्णय ] केवलिकाल : ग्रार्य जम्बू ( १ ) श्वेताम्बर परम्परा की प्रायः सभी पट्टावलियों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि जम्बूकुमार की दीक्षा वीर निर्वाण संवत् १ में हुई । (२) दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य गुणभद्र द्वारा रचित महापुराण के द्वितीय विभाग उत्तरपुराण में श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर के प्रथम गंगाधर इन्द्रभूति गौतम ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अर्हदास और जिनदासी का पुत्र जम्बूकुमार बड़ा ही भाग्यशाली और कान्तिमान होगा । अनाधृत देव उसकी पूजा करेगा । वह अत्यन्त प्रसिद्ध तथा विनीत होगा। वह यौवन के प्रारम्भ से ही विकार से रहित होगा । जिस समयं भगवान् महावीर स्वामी पावापुर में मोक्ष प्राप्त करेंगे उसी समय मुझे भी केवलज्ञान होगा । तदनन्तर सुधर्माचार्य गणधर के साथ अनेक क्षेत्रों में विचरण करता हुआ मैं पुनः इस नगर के विपुलाचल पर्वत पर आऊँगा । मेरे प्राने का समाचार सुन कर इस नगर का राजा चेलिनी का पुत्र कूणिक अपने परिवार सहित वन्दन तथा उपदेशश्रवणार्थं आवेगा । उसी समय जम्बूकुमार भी संसार से विरक्त हो दीक्षा ग्रहण करने के लिये समुत्सुक होगा। माता-पिता कुटुम्बीजनों के आग्रह को स्वीकार कर वह ४ कन्याओं के साथ विवाह करेगा । जम्बूकुमार द्वारा प्रतिबोध पाकर उसकी चारों पत्नियां, उनके तथा जम्बू के माता-पिता और उसके घर में चोरी करने हेतु प्राया हुआ अपने पांच सौ साथियों सहित विद्य ुच्चोर भी संसार से विरक्त हो दीक्षित होने का दृढ़ संकल्प करेगा । जम्बूकुमार को दीक्षा लेने के लिये उत्सुक देखकर उसके सब परिजन, अपनी अठारह प्रकार की सेनाओं के साथ कूरिणक और अनाधृत देव जम्बू के पास श्राकर उसका मांगलिक दीक्षा महोत्सव करेंगे । वे सब लोग विपुल वैभव के साथ विपुलाचल पर हमारे पास प्रावेंगे और जम्बू ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के अनेक लोगों, विद्युच्चोर प्रौर उसके ५०० साथियों के साथ सुधर्माचार्य के पास दीक्षा ग्रहण करेगा । " १ इम्यात्कृती सुतो भावी, जिनदास्यां महाब ति: । जम्ब्वाख्योऽनाघृताद्देवादाप्तपूजोऽतिविश्रुतः ||३७|| विनीतो यौवनारम्भेऽप्यनाविष्कृतविक्रियः । वीरः पावापुरे तस्मिन् काले प्राप्स्यति निर्वृतिम् ॥३८॥ तत्रैवाहमपि प्राप्य बोधं केवल संज्ञकम् । सुधर्माख्यगणेशेन सार्धं संसारवह्निना ||३६|| करिष्यन्नतितप्तानां ह्लादं धर्मामृताम्बुना । इदमेव पुरं भूयः संप्राप्यात्रंव भूघरे ||४०|| स्थास्याम्येतत्समाकर्ण्य कुरिणकश्चेलिनीसुतः । तत्पुराधिपतिः सर्वपरिवारपरिष्कृतः ||४१|| प्रागस्याभ्यच्यं वन्दित्वा श्रुत्वा धर्म ग्रहीष्यति । [ उत्तरपुराणः पर्व ७६ ] २२७ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन्म नि० काल निर्णय मुनिवर गुणपाल द्वारा रचित "जम्बूचरियं" में भी स्पष्ट उल्लेख है कि जिस समय जम्बूस्वामी ने दीक्षा ग्रहण को उससे पहले हो भगवान् महावीर का निर्वाण हो चुका था। जम्बूकुमार को दीक्षार्थ जाते हए देख कर राजगह नगर के नर-नारियों ने जो अपने अन्तर्मन के उद्गार अभिव्यक्त किये थे उनका चित्रण करते हुए जम्बूचरियं के रचनाकार ने स्पष्ट लिखा है : __"जिस प्रकार सूर्य से विहीन नभ-मण्डल और भगवान महावीर के निर्वाण से भारतवर्ष शून्य (सुनसान) प्रतीत होता है उसी प्रकार जम्बूकुमार के दीक्षित हो चले जाने पर समस्त मगधपुर (राजगृह) शून्य हो जायगा।' इस उल्लेख से स्पष्ट है कि जम्बू स्वामी की दीक्षा के समय भगवान् महावीर का निर्वाण हो चुका था। जम्बू श्रमरण की प्रश्न-परम्परा : श्रमणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् प्रार्य जम्बू अहर्निश अपने आराध्य गुरु सुधर्मा स्वामी की सेवा में श्रुताराधन करने लगे। कठोर तपश्चरण के साथ विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए वे एकाग्रचित्त हो पागमों के अध्ययन में निरत रहते। जिस प्रकार प्रथम गणघर इन्द्रभूति गौतम अपने अन्तर में उत्पन्न हुई जिज्ञासाओं, शंकाओं इवं कुतूहलों के समाधान हेतु पूर्ण श्रद्धा के साध जगद्गुरु भगवान् महावीर के समक्ष परम विनीत भाव से उपस्थित होते थे, ठीक उसी प्रकार जम्बू अरणगार भी, अपने मन में कभी किसी प्रकार की शंका अथवा जिज्ञासा उत्पन्न होती तो अपने श्रद्धास्पद गुरु सुधर्मा स्वामी की सेवा में उपस्थित होते और अपनी जिज्ञासामों की शान्ति के लिये अनेक प्रश्न प्रस्तुत करते । आर्य सुधर्मा भी भगवान् महावीर से प्राप्त प्रवाह ज्ञान के अनुसार अपने परम विनीत और सुयोग्य शिष्य जम्बू की सभी शंकामों, जिज्ञासाओं और कुतहलों का समिचीन रूप से समाधान कर उन्हें पूर्णरूप से संतुष्ट करते। ___इस प्रकार प्रगाढ़ श्रद्धा, विनय और निष्ठा के साथ अध्ययन करते हुए तीक्ष्ण बुद्धि जम्बू स्वामी ने स्वल्प समय में ही द्वादशांगी रूप प्रगाध श्रुतसागर का अर्थ, व्याख्या और विस्तारादि सहित सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। .. ____ गुरु द्वारा अपने शिष्य को प्रागमों का ज्ञान देने की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप से आगे से आगे पश्चाद्वर्ती काल में भी चलती रही । जैनागमों को आज तक यथावत् रूप में बनाये रखने का सारा श्रेय प्रागमज्ञान केमादानप्रदान की उस पुनीत परम्परा को ही है। इसी परम्परा के कारण भगवान् महावीर द्वारा अनुप्राणित, ' नहभोयं रविरहियं, भारहवासं व जिणवरविहीणं । एएण विणा एवं होहो मुन्नं व मगहपुरं ।।४७०।। बिम्परियं (गुणपाल), उ० १६] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बू को प्रश्नपरंपरा केवलिकाल : प्राय जम्बू २२६ गणधरों द्वारा प्राकलित, और भगवान के प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा द्वारा अपने सुयोग्य शिष्य आर्य जम्बू के मानस में प्रवाहित पुनीत श्रुतसरिता आज भी अपने मूल स्वरूप को बिना छोड़े मुमुक्षुत्रों के अन्तस्तल में प्रवाहित हो रही है । उपलब्ध आगमों का जो स्वरूप प्राज विद्यमान है, यह उस समय की मूल परम्परा को सही रूप में समझने का एक आधार है । आगमों के प्रारम्भिक स्थलों को ध्यानपूर्वक देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर की वाणी को अर्थरूप से सुनकर आर्य सुधर्मा ने जिस प्रकार शब्द रूप से ग्रथित किया, और जिस रूप में जम्बू स्वामी ने पृच्छा कर आगमज्ञान को प्राप्त किया, उसी अपरिवर्तित स्वरूप में आज विद्यमान है। इसकी पुष्टि में "ज्ञाता-धर्मकथा' का निम्नलिखित उपोद्धात सूत्र दृष्टव्य है : - "उस काल उस समय में प्रार्य सुधर्मा अणगार के ज्येष्ठ (प्रमुख) शिष्य सात हाथ की ऊँचाई वाले कश्यपगोत्रीय जम्बू नामक अरणगार प्रार्य सुधर्मा से न बहुत दूर और न बहुत समीप घुटने ऊँचे तथा सिर नीचा किये, धर्मध्यान एवं शुक्ल ध्यान रूपी कोष्ठ (प्राकर अथवा प्रकोष्ठ) में स्थित, संयम एवं तप से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए विचर रहे थे। संयोगवश आर्य जम्बू के मानस में श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न होने पर वे उठे और जहां प्रार्य सुधर्मा थे वहां आये। आर्य सुधर्मा को वन्दन नमस्कार किया और उनके न अधिक समीप न अधिक दूर, सुनने की इच्छा से उनकी प्रोर अभिमुख हो, उनको सुश्रूषा करते हुए, नमन करते हुए, सांजलि शीश झुकाते हुए विनयपूर्वक बोले- "भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने पांचवें व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग का यह अर्थ बताया। प्रभु ने छठे अंग-ज्ञाता धर्मकथा का क्या अर्थ बताया था?" प्रार्य सुधर्मा ने जम्बू मणगार को संबोधित करते हुए इस प्रकार कहा :"हे जम्बू ! श्रमरण भगवान् महावीर ने छठे अंग ज्ञाताधर्मकथांग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररुपित किये हैं। वे यह हैं, पहला ज्ञाता और दूसरा धर्म कथा।"' __छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा के इस उपरिलिखित उद्धरण के एक-एक शब्द से यह स्पष्टतः प्रतिध्वनित होता है कि भगवान महावीर ने विश्व के प्राणियों का कल्याण करने के लिये जो श्रुत-सरिता प्रवाहित की थी उसका समग्ररूपेण पान करने की उत्कण्ठा लिये मार्य जम्बू अपने श्रद्धय गुरु सुधर्मा स्वामी के पास जाते हैं और उनसे जिस रूप में उन्होंने भगवान महावीर से श्रुतसरितावतरण प्राप्त किया, उसी रूप में श्रुतसरित को प्रवाहित करने की प्रार्थना करते हैं। अपने ज्ञानपिपासु, और उत्कट जिज्ञासु सुयोग्य शिष्य जम्बू की प्रार्थना स्वीकार कर प्रार्य सुधर्मा भी उसी रूप में, प्रबल देग के साप श्रुतसरिता को प्रवाहित करते हैं। प्रार्य जम्बू ने महान् उल्लास के साथ अपने निर्मल मानस में प्रार्य सुधर्मा के ' नामाधम्मकहामो, १.५ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ जम्बू की प्रश्नपरंपरा मुखारविन्द से निकलती हुई श्रुत धारा को ग्रहण किया । वही आज श्रार्यधरा के मुमुक्षुत्रों के मानस में प्रवाहित हो रही है । यह प्रवाह चलता रहेगा पंचम आारक के अन्त तक । प्रार्थ जम्बूस्वामी की विशेषता जम्बूस्वामी के अनुपम गुणों के सम्बन्ध में विशेष वर्णन की आवश्यकता नहीं क्योंकि ऊपर दिये हुए नायाधम्मक हाम्रो सूत्र के मूल पाठ से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परम श्रद्धालु, परम विनीत, उत्कट जिज्ञासु और आर्य सुधर्मा के सुयोग्य ज्येष्ठ शिष्य थे। उनके महान् प्रतिभाशाली विराट व्यक्तित्व का, शारीरिक प्रोज, तेज़ और कान्ति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मगधपति कूरिणक ने जब जम्बू अरणगार को आर्य सुधर्मा के शिष्य समूह में देखा तो वे आश्चर्य से हठात् स्तब्ध हो गये । श्रार्य जम्बूस्वामी के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उनके जीवनकाल में प्रार्य वसुन्धरा कोटि-कोटि सूर्यों से भी अनन्तगुनित कान्तिमान केवलालोक से निरन्तर प्रकाशमान रही और उनके शुद्ध सच्चिदानन्दधन स्वरूप में लीन होते ही प्रागामी उत्सर्पिणी काल की चौवीसी के प्रथम जिन को harोपलब्धि होने तक के लिये केवलालोक से वंचित बन गई । जब जम्बू स्वामी का जन्म हुआ उस समय सर्वज्ञ - सर्वदर्शी २४वें तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे । जम्बू स्वामी की दीक्षा के समय इन्द्रभूति गौतम, उनकी दीक्षा के १२ वर्ष पश्चात् श्रार्य सुवर्मा स्वामी और दीक्षा के २० वर्ष पश्चात् स्वयं जम्बू स्वामी प्रपने केवलालोक से समस्त लोकालोक को प्रलोकित करते रहे । पर जम्बू स्वामी के निर्वारण के साथ ही प्रार्यावर्त से केवलज्ञान का सूर्य इस अवसर्पिणी काल में सदा के लिये अस्त हो गया । प्रायं जम्मू स्वामी का निर्वाण भार्य जम्बू स्वामी सोलह वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहे। फिर दीक्षा ग्रहण कर बीस वर्ष तक गुरु सेवा के साथ-साथ ज्ञानोपार्जन, तपश्चररण और संयम साधना में निरत रहे । वीर निर्वारण संवत् २० की समाप्ति पर भगवान् . महावीर के प्रथम पट्टधर श्रार्य सुधर्मा स्वामी ने अपने निर्वारण -गमन के समय शायं जम्बू को अपने उत्तराधिकारी के रूप में भगवान् महावीर का द्वितीय पट्टधर नियुक्त किया । श्रयं जम्बू स्वामी ने प्राचार्यपद पर प्रासीन होने के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया। अपने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र से भव्यजीवों का कल्याण करते हुए आप ४४ वर्ष तक भगवान् महावीर के द्वितीय पट्टधर के रूप में प्राचार्य पद पर रहे । अन्त में श्रार्य प्रभव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर, वीर नि० सं० ६४, तद्नुसार Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य जम्बू का निर्वाण] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २३१ । ईसा पूर्व ४६३ में प्रार्य जम्बू ने ८० वर्ष की आयु पूर्ण कर अक्षय प्रव्याबाप निर्वाणपद प्राप्त किया।' मुनिवर गुणपाल (विक्रम की ६ वीं शताब्दी) ने जम्बूचरियं में लिखा है कि जम्बूस्वामी ने अपनी प्रायु अल्प समझकर एक मास के पादपोपगमन संपारे से शैलेशी दशा प्राप्त की और अपूर्वकरण द्वारा कर्मबन्धन से मुक्त हो शरीर त्याग एक समय की अविग्रह गति से निर्वाण प्राप्त किया। मुनिवर गुणपाल ने अपने इस अभिमत की पुष्टि में किसी प्राचीन प्राचार्य द्वारा रचित किसी अन्य की पांच गाथाएं प्रस्तुत करते हुए लिखा है :भणियं च पुव्वसत्येसु - . भयवं पि जंबुरणामो, बहूणि वासाणि विहरिऊरण जिणे। भत्तं पच्चक्खायइ, वालाहगसेलसिहरेसु ॥' बश बोलों का विच्छेद जम्बू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र से निम्नलिखित १० वस्तुएं विलुप्त हो गई : मण परमोहि पुलाए, आहार खवग उवसमे कप्पे । संजमतिग केवल सिज्झरणा य जम्बुम्मि वुच्छिण्णा ॥ अर्थात् - (१) मनःपर्यव ज्ञान, (२) परमावधि ज्ञान, (३) पुलाक लब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) क्षपक श्रेरिण, (६) उपशम श्रेणि, (७) जिनकल्प, (८) तीन प्रकार के चारित्र, अर्थात् -परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात चारित्र, (९) केवलज्ञान और (१०) मुक्तिगमन - , बीमो जंबूत्ति, श्रीसुधर्मस्वामिपट्टे द्वितीयः श्री जम्बू स्वामी। स च नवनवतिकोटिसंयुक्ता प्रष्टो कन्यकाः परित्यज्य श्रीसुधर्मस्वाम्यन्तिके प्रवजितः । स च षोडश वर्षारिण गृहस्थपर्याये, विंशतिवर्षारिण व्रतपर्याये, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि युगप्रधानपर्याये चेति सर्वायुरशीति वर्षाणि परिपाल्य श्री वीरात् चतुःषष्टि वर्षे सिखः । .[तपागच्छ पट्टावली, स्वोपज्ञ वृत्ति, पन्यास श्री कल्याणविजयजी द्वारा सम्पादित, पृष्ठ ५] २ भयवं पि....... “संपत्तो विमलुत्तुंगगयणंगणसण्णिहं तं वलाहगसेलसिहरं ति । तमो भगवया नाऊण प्रत्तणो थोवाउयत्तणं कयं सम्व भत्तपच्चक्खाणं पायवोवगमणाइयं जहाविहिं जहाकरणीयं । ठियो य तत्थ सिलायलोवगो मासमेगं पामोवगमणेण ।........ सेलेसि संपत्तो, विमुक्को अउव्वकरणेण एक्कसमएणेव विमुक्कवुन्दी नेम्वाणपुरवरं संपत्तो ति।" [जंदुचरियं, (गुणपाल) पृ० १९६-९७] ' [वही ] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दश बोलों का विच्छेद इन १० विशिष्ट प्राध्यात्मिक शक्तियों का जम्बू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् विच्छेद हो गया। आर्य जम्बू स्वामी को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परामों में मन्तिग केवली माना गया है । इस प्रकार जम्बू स्वामी के निर्माण के साथ ही वीर निर्वाण सं० ६४ में केवलिकाल समाप्त हो गया। केबलिकाल के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही शाखामों की यह परम्परागत एवं सर्वसम्मत मान्यता रही है कि २४ वें तीर्थकर भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम, प्रार्य सुधर्मा स्वामी और पार्य जम्बू स्वामी-ये तीन केवली हुए और जम्बू स्वामी के निर्वाण के साथ ही केवली काल की परिसमाप्ति हो गई। ये तीनों महापुरुष कितने-कितने समय तक केवली रहे, इस सम्बन्ध में इन दोनों परम्परामों में मान्यताभेद हैं। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में इन्द्रभूति गौतम का केवली काल १२ वर्ष, सुधर्मा स्वामी का ८ वर्ष और पार्य जम्बू स्वामी का ४४ वर्ष, इस प्रकार सब मिलाकर ६४ वर्ष का केवली काल माना गया है। किन्तु इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में मतैक्य नहीं पाया जाता। दिगम्बर परम्परा के प्राचीन तथा परममान्य ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति (डा० ए० एन० उपाध्ये के मतानुसार ई. ५७३ से ६०६ के बीच की कृति) में इन तीनों केवलियों का अलग-अलग केवली काल न देकर पिण्डरूप से ६२ वर्ष दिया है।' दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में गौतम स्वामी का कैवल्यकाल १२ वर्ष, आर्य सुषर्मा स्वामी का १२ वर्ष और जम्बूस्वामी का ३८ वर्ष इस प्रकार कुल मिला कर ६२ वर्ष का केवली काल माना गया है। इसी प्रकार षट्खण्डागम के धवला 'मनः परापपीत्रेयो, पुलाकाहारको शिवम् । कल्पत्रिसंपमा भान, नासन् जम्मूमुनेरनु । [परिशिष्ट पर्व] तिलोयपत्ति में गौतम, सुधर्मा स्वामी और जम्मु स्वामी के ६२ वर्ष के केवली काल का उल्लेख करने के पश्चात् यह स्वीकार करते हुए कि जम्बू स्वामी के पश्चात् कोई अनुबड केवली नहीं हुमा, यह भी उल्लेख किया गया है कि केवलज्ञानियों में अन्तिम केवली श्रीधर कुंडलगिरी से सिट हुए । यथा : कुंडलगिरिम्मि परिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिदो। पारगरिसीसु परिमो सुपासचंदाभिषाणो य ॥४॥ १४७६।। इस प्रकार का उल्लेख (समस्त प्राचीन जैन बाङ्गमय में) अन्यत्र देखने में नहीं पाता। [सम्पादक] वासही वासारिण गोदमपहुदोणं जाणवंताएं । पापपट्टणकाले परिमाणं पिंडस्वेणं ॥४॥१३७८।। [तिलोयपण्णत्ति] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के काल वि. मान्यताएं] केवलिकाल : मार्य जम्बू २३३ टीकाकार वीरसेन ने और हरिवंशपुराणकार तथा श्रुतावतारकार ने भी वीर निर्वाण १ से १२ वर्ष पर्यन्त गौतम स्वामी का, गौतम स्वामी के पश्चात १२ वर्ष तक सुधर्मास्वामी का और सुधर्मास्वामी के निर्वाण पश्चात् ३८ वर्ष तक जम्बू स्वामी का केवली काल माना है जो कुल मिलकर ६२ वर्ष होता है। इसके विपरीत प्राचार्य गणभद्र ने अपने ग्रंथ महापुराण-उत्तरपुराण' में तथा पुष्पदन्त ने अपभ्रंश भाषा के अपने महापुराण में गौतम स्वामी और सुधर्मा स्वामी का क्रमशः बारह-बारह वर्ष और जम्बू स्वामी का ४० वर्ष- इस प्रकार कुल ६४ वर्ष का केवली काल माना है, जिससे श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य ६४ वर्ष के केवली काल की मान्यता की पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में ६४ वर्ष का केवली काल दोनों परम्परामों में मान्य होने के कारण अधिक प्रामाणिक माना जा सकता है। इन सब से विपरीत वीर कवि ने अपने अपभ्रंश महाकाव्य "जम्बचरिउ" और पं० राजमल्ल ने अपने संस्कृत काव्य - "जम्बस्वामिचरितम्" में जम्बस्वामी के केवलिकाल के सम्बन्ध में एक नया ही अभिमत रखा है। गौतमस्वामी और सधर्मास्वामी के केवलज्ञान के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जिस दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुमा उसी दिन गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुमा और जिस दिन गौतमस्वामी का निर्वाण हुआ उसी दिन सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान हमा। सुधर्मा स्वामी के निर्वाण के समय जम्बस्वामी को दीक्षा ग्रहण किये १८ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। और सुधर्मा स्वामी के निर्वाण पश्चात् प्रर्द्ध ' सुधर्मगणभृत्पा समचित्तो गृहीष्यति । कैवल्यं द्वादशान्दान्ते मय्यन्त्यां गोतमांगते ॥११॥ मुषर्मा केवली जम्बूनामा च श्रुतकेवली । भूत्वा पुनस्ततो द्वादशाम्दान्ते नितिगते ।।१२।। सुधर्मण्यन्तिमं ज्ञानं जम्यूनाम्नो भविष्यति । तस्य गिष्यो भवो नाम, चत्वारिकरसमा महान् । इह धर्मोपदेशेन, परित्र्यां विहरिष्यति । इत्यवादीतदाकण्यं स्थितस्तस्मिन्ननावृतः ॥ [उत्तरपुराण, ७६ पर्व, पृ० ५३७] पत्तइ-बारहमइ संवच्छरि, चित्तारिट्टि विलियमचरि । पंचमु णाणु एहु पावेसइ भवु गामेण महारिसि होसइ तेण समऊ महियलि विहरेसई दहगुरिणयई पत्तारि कहेसइ । बरिसइं धम्म सव्वमम्वोहहं वि सियबहु मिच्छामोहहं अंतिम केवली उप्पजेसह मह पहुवंसह उष्णई होसह । [महापुराण, पुष्पदंत, संधि १.०, पृ० २७४] ३ (क) जम्बूसामिचरित (वीरविरचित, डॉ. वी० पी० जैन द्वारा सम्पादित), १०:२३ (ख) एवमष्टादशाम्दानां, व्यतिक्रान्ता इव क्षरणं । जम्यूस्वामिनि धोरोपं, तपः कुर्वति नेकपा ॥१.६ तपोमासे सिते पक्षे सप्तम्यां च शुभे दिने । 'निर्वाणं प्राप सौधर्मों, विपुलाचल मस्तकात् ॥११. [जम्बू च० (राजमल्ल), सं० १२] - Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [के• काल वि. मान्यताएं प्रहर दिन व्यतीत होने पर जम्बू स्वामी को केवलज्ञान हुप्रा ।' तत्पश्चात् जम्बू स्वामी १८ वर्ष तक केवली रूप से विचरण करते रहे और अन्त में विपुलाचन के शिखर पर पाठों कर्मों का क्षय कर सिद्ध हुए। इस प्रकार इन दोनों विद्वानों ने गौतम और सुधर्मा इन दोनों का मिलाकर १८ वर्ष केवल्य काल, जम्बू स्वामी का कैवल्य काल केवल १८ वर्ष और इन तीनों का मिलाकर कुल ३६ वर्ष का ही कैवल्यकाल माना है, जो आज तक उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री एवं श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों परम्पराओं द्वारा स्वीकृत कालक्रम से बिल्कुल विपरीत पड़ता है, प्रतः प्रामाणिक न होते हुए भी विचारणीय अवश्य है। .. इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परामों द्वारा मान्य उपरिवरिणत अधिकांश ऐतिहासिक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि जम्बस्वामी का जन्म वीर-निर्वाण से १६ वर्ष पूर्व, दीक्षा वीर निर्वाण सं० १ में, केवलज्ञान की प्राप्ति वीर नि० सं० २० में और निर्वाण वीर नि० सं० ६४ में हुआ। अन्य मान्यता भेद आर्य जम्ब स्वामी को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परामों में अन्तिम केवली माना गया है । जम्बू स्वामी के अपूर्व त्याग, उत्कटं वैराग्य और कठोर साधना के प्रति अगाध श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए दोनों परम्पराओं के प्राचीन तथा अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने समय-समय पर इस महाश्रमण के जीवन पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। यद्यपि दोनों परम्परामों के विद्वानों द्वारा जम्बू स्वामी के जीवनवृत्त पर लिखे गये ग्रन्थों में कतिपय घटनाओं, दृष्टान्तों और नामादि का साधारण वैविध्य है, तथापि जम्बस्वामी के जीवन की महत्वपूर्ण एवं मूल घटनाओं के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं के विद्वानों का परस्पर पर्याप्त मतैक्य पाया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में जम्ब स्वामी के पिता का नाम ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी बताया गया है, जब कि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में पिता का नाम अहहास और माता का नाम जिनमती उल्लिखित है। श्वेताम्बर मान्यता के ग्रन्थों में जम्ब कुमार का पाठ श्रेष्ठि-कन्याओं के साथ पाणिग्रहरण होना बताया गया है; जब कि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में ४ श्रेष्ठि-कन्यानों के साथ । श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता के अनुसार प्रभव चोर अपने ५०० १ (क) तवानि यामार्थव्यवधानवती प्रभोः । उत्पन्न केवलज्ञानं जम्बूस्वामिमुनेस्तदा ।।११२।। [जम्बू च० (राजमल्ल), सर्ग १२] (ख) जम्बूस्वामिचरिउ, १०:२४, पृ० २१५ २ (क) कुर्वन् धर्मोपदेशं स केवलज्ञानलोचनः । वर्षाष्टादशपर्यन्तं स्थितस्तत्र जिनाधिपः ।।१२०।। ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् । [जम्बूस्वामिचरितम् (राजमल्ल)] (ख) जम्बूसामिचरिउ (वोर विरचित), १०:२४, पृ० २१५ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य मान्यता भेद] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २३५ साथियों के साथ जम्बकूमार के घर में चोरी करने हेतु धूसा, वहाँ दिगम्बर परम्परा प्रभव के स्थान पर विद्युच्चर चोर का, चोरी करने के अभिप्राय से जम्बूकुमार के घर में प्रवेश करना मानती है । संयोग की बात है कि दोनों ही परम्पराएं जम्बूकुमार के घर में चोरी करने हेतु प्रविष्ट होने वाले चौरराट् को क्षत्रिय राजकूमार मानती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में प्रार्य प्रभव को विन्ध्य की तलहटी के जयपुर नामक राज्य का राजकुमार और दिगम्बर ग्रन्थकारों ने विद्युच्चर को हस्तिनापुर जैसे शक्तिशाली राज्य का राजकुमार बताया है।' दिगम्बर परम्परा के विद्वान् कवि राजमल्ल ने विद्युच्चर के साथ दीक्षित हुए प्रभव आदि ५०० चोरों के सम्बन्ध में लिखा है कि वे सभी राजकुमार थे। उन्होंने जम्बूस्वामीचरित्र में प्रभव का दो स्थलों पर नामोल्लेख करते हुए लिखा है कि विद्युच्चर के साथ प्रभव आदि चोर भी दीक्षित हुए और भूत-प्रेतराक्षसादि द्वारा उपस्थित किये गये घोरांतिघोर परीषहों से भी विचलित न हो कर द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते हुए विधुच्चर सर्वार्थसिद्ध में और प्रभव प्रादि ५०० मुनि सुरलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए। अपभ्रंश के कवि वीर ने वि० सं० १०७६ में रचित "जम्बूसामिचरिउ" में प्रभव का कहीं नामोल्लेख भी नहीं किया है । श्वेताम्बर परम्परा में जैसा कि आगे बताया जायगा प्रार्य प्रभव का बहुत ऊंचा स्थान है । उन्हें जम्बू स्वामी का उत्तराधिकारी और भगवान महावीर का तृतीय पट्टधर माना गया है । पर दिगम्बर परम्परा में जम्बू स्वामी का उत्तराधिकारी विद्य च्चर अथवा प्रभव को न मान कर आर्य विष्णु को माना गया है। दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में जम्बूकुमार द्वारा महाराज श्रेणिक की हस्तिशाला में से बन्धन तुड़ा कर भागे हुए मदोन्मत्त हाथी को वश में करने का और विद्याधर मृगांक की सहायतार्थ विद्याधरराज रत्नचूल से युद्ध करने और युद्ध में उसे दो बार पराजित करने का उल्लेख किया गया है। किन्तु श्वेताम्बर मरम्परा द्वारा मान्य किसी ग्रंथ में इन दोनों घटनामों का कहीं कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। प्रपात्र मगधे देशे, विद्यते नगरं महत् । हस्तिनापुरं नाम्ना, स्वर्लोकैकपुरोपमम् ॥२८॥ तत्रास्ति संवरो नाम्ना, भूपो दोदंडमंडितः । तस्य भार्यास्ति श्रीषेणा, कामयष्टिः प्रियंवदा ॥२६॥ तयोः सूनुरभून्नाम्ना, विद्वान् विद्युच्चरो नृपः । शिक्षिताः सकला विद्या, वर्षमानकुमारतः ॥३०॥ [जपू. च०सगं .५] शतानां पंचसंख्याकाः प्रभवादिमुनीश्वराः भंते सल्लेखनां कृत्वा दिवं जग्मुर्यथायथम् ॥१६॥ [वही सर्ग १३] } सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मणाहस्स तेण जंबुस्स । विण्हू गदिमित्तो तत्तो य पराजिदो तत्तो ॥४३॥ [पंगपण्णती] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अन्य मान्यता भेद इसके अतिरिक्त जैसा कि पहले बताया जा चुका है श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में जम्बू स्वामी का वीर नि० सं० ६४ में निर्वाण होना माना गया है और दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रंथ तिलोयपण्णत्ती तथा पट्टावलियों में वीर नि० सं० ६२ में तथा अनेक दिगम्बर ग्रन्थों में वीर नि०सं० ६४ में निर्वाण होना माना गया है। वीर कवि और जम्बू वीर कवि ने अपने महाकाव्य "जम्बूसामिचरिउ" में जम्बू स्वामी के जीवन की कतिपय घटनामों का विवरण देते हुए तिथियों एवं समय का उल्लेख भी किया है जो विवादास्पद तथ्यों के निर्णय में शोध की दृष्टि से बड़ा सहायक सिद्ध हो सकता है अतः उनका संक्षेप में यहां उल्लेख किया जाना आवश्यक है । जम्बू स्वामी के जन्म दिन के सम्बन्ध में वीर कवि ने अपने महाकाव्य "जम्बूसामिचरिउ" में लिखा है कि वसंतमास में शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन जिस समय चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में स्थित था उस समय वसंतपंचमी के दिन प्रत्यूषकाल में जिनमती ने जम्बू स्वामी को जन्म दिया।' सागरदत्त प्रादि चारों श्रेष्ठियों ने अपने बालसखा अहंद्दास को परस्पर की गई पूर्वप्रतिज्ञा की याद दिलाते हुए कहा- "मित्र ! तुम्हें भलीभांति स्मरण होगा कि कुमारावस्था में क्रीड़ा करते समय हम लोगों ने एक दिन यह प्रतिज्ञा की थी कि हम पांचों मित्रों में से किसी एक भाग्यवान् मित्र के यदि पुत्र उत्पन्न हो जाय और शेष चारों के कन्याएं हो जायं तो हम लोग अपनी कन्याओं का पाणिग्रहण अपने मित्र के पुत्र के साथ ही करेंगे। पुण्य के प्रताप से तुम्हारे घर पुत्र का जन्म हुमा और हम चारों मित्र पुत्रियों के पिता बने हैं। अतः हमें अपनी प्रतिज्ञानुसार चारों कन्यामों का जम्बूकुमार के साथ पारिणग्रहण करा देना चाहिये । प्रहदास ने अपने चारों मित्रों का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और ज्योतिषी से परामर्श कर उन पांचों मित्रों द्वारा अक्षय तृतीया का दिन विवाह के लिये निश्चित किया गया ।' 'पंचमिहे वसंते पक्ने षवले, रोहिरिगठिए मयलंधणे विमले । पन्नसे पसूय समक्सणउ, कुलमंगलु जयवल्सह तणउ ।। [जम्बूसामिपरिउ, ४.७, १०६८] ' सायरदत्तपमुहणिउत्तहि, पुन्बई परहयासु नयनुत्तहि । मित कुमारभावे रइवंतहि, किय पइज्ज पंचाहि मि रमंतहि । एक्हो पुत्तु होइ जइ पल्पर, इसरहं पर मि जहि कमाउ । तो तहो पियरहिं दुहियउ देवउ, तेण विवरेण तार परिणेक्ट । [बम्सामिपरिट (वीरकविरचित, विमलप्रसाद जैन द्वारा सम्पादित, १४-४-७, पृ.७१)] 'बिउ विवाहलग्गु घणरासिए. भालय तन दिपसे जोहसए । [बही] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर कवि मौर बंबू) केपलिकाल : आर्य जम्बू २३७ जम्बू स्वामी द्वारा महाराज श्रेणिक की हस्तिशाला से बन्ध तुड़ा कर भागे हुए मदोत्मत्त हाथी को वश में करने और केरल के विद्याधरराज मृगांक के शत्रु हंसद्वीप के शक्तिसाली विद्याधरपति चन्द्रचूल को युद्ध में पराजित करने की घटनाएं वीर कवि के उल्लेखानुसार जम्बू स्वामी के विवाह का दिन निश्चित हो जाने के पश्चात् की हैं। स्वयं वीर कवि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि आर्ष-ग्रन्थों अथवा उनके पूर्ववर्ती जम्बूचरित्रों में वसंतवर्णन, हाथी का मदमर्दन और केरल में रत्नचूल विद्याधर के साथ जम्बूस्वामी के युद्ध का वर्णन नहीं है । अपने ग्रन्थ में केवल स्वयं द्वारा किये गये इस प्रकार के वर्णन के लिये गुरुजनों से क्षमायाचना करते हुए उसने स्पष्ट रूप से कहा है कि काव्य के अंग व रसों को समृद्ध करने हेतु घटित अथवा अघटित रचनाओं का विचारक कवियों द्वारा जो युक्तिसंगत वर्णन किया जाता है वह सच्चरित्रों में घटित होना संभव माना जाता है। कवि वीर के इस कथन का स्पष्ट और सीधा अर्थ यह है कि ये घटनाएं वीर कवि ने अपने इस काव्य को एक महाकाव्य के सभी लक्षणों से सुसमृद्ध करने की दृष्टि से अपनी कल्पनाशक्ति से आविष्कृत की हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के सम्यक् पर्यवेक्षण से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि जिस समय जम्बूकुमार युवा हुए उससे अनेक वर्षों पहले ही मगध-सम्राट् श्रेणिक का देहावसान हो चुका था। महाराज श्रेणिक की मृत्यु के कुछ ही दिन अनन्तर कूणिक ने मगध की राजधानी राजगृह नगर से हटा कर चम्पा नगरी में स्थापित कर दी थी। ऐसी दशा में जम्बूकुमार द्वारा श्रेणिक के पट्टहस्ती को वश में करना, श्रेणिक की राज्यसभा में गगनगति नामक विद्याधर का प्राना, विद्याधर मृगांक द्वारा अपनी पुत्री का महाराज श्रेणिक के साथ पाणिग्रहण कराने का निश्चय करना, जम्बूकुमार का गगनगति के साथ विमान में बैठकर रत्नचूल से युद्ध करने हेतु प्रस्थान तथा महाराज श्रेणिक का सेना सहित जम्बू की सहायतार्थ केरल की ओर प्रयाण करना, युद्ध में जम्बूकुमार की विजय, मृगांक द्वारा अपनी पुत्री का थेगिक के साथ विवाह करना, जम्बूकुमार के साथ महाराज श्रेणिक का राजगृह नगर में प्रवेश करने से पूर्व उपवन में सुधर्मास्वामी के दर्शन कर उन्हें वन्दन-नमन करना और जम्बूस्वामी के अभिनिष्क्रमण के समय महाराज श्रेणिक द्वारा जम्बूकुमार को पालकी में बैठाकर उनके साथ-साथ उपवन में आर्य सुधर्मा के पास जाना आदि श्रेणिक के सम्बन्ध में वीर कवि द्वारा अपने इस महाकाव्य में दिया गया सभी विवरण कवि की कल्पनामात्र है। । प्रारिमकहाए अहियं महुकीला करि-नरिंदपत्थारणं । संगामो वित्तमिरणं जं दिळं तं खमंतु महु गुरुणो ।।१।। कव्वंगरससमिद्ध चितंतारणं कईण सव्वं पि । वित्तमहवा न वित्तं सच्चरिए धड़इ जुत्तमुत्त जं ।।२।। [वही, संधि ८-१] , Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वीर कवि और बंदू हंसद्वोपपति विद्याधरराज रत्नचूल को विजित कर तथा केरलपति विताधरेश मृगांक की कन्या विलासवती का महाराज श्रेणिक के साथ पारिणग्रहण कराने के पश्चात् जम्बूकुमार ने राजगृह के बाहर स्थित एक उपवन में गणाधिपति सुधर्मस्वामी से उनके प्रति अपने हृदय में उमड़ते हुए स्नेहसागर का कारण और अपने पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा । उस समय भी प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने एक निश्चित समय का गल्लेख करते हुए जम्बूकुमार से कहा कि आज से दसवें दिन 'तुम्हारा उन चार श्रेष्ठिकन्यानों के साथ पारिणग्रहण होगा, जो कि नएस्वर्ग के देव भव में तुम्हारी चार देवियां थीं।'. . भगवान् महावीर के पंचम गणधर प्रार्य सुधर्मा स्वामी के निर्वाणकाल के सम्बन्ध में वीर कवि ने लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जम्बूस्वामी को बारह प्रकार के महातप करते हए जब १८ वर्ष व्यतीत हो गये, उस समय माघ शुक्ला सप्तमी के दिन प्रातःकाल की वेला में सुधर्मा स्वामी ने विपुलाचल पर निर्वाण प्राप्त किया।२: सुधर्मा स्वामी के निर्वाण पश्चात् अर्द्ध प्रहर दिन व्यतीत होने पर जम्बूस्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। जम्बूस्वामी के निर्वाण के सम्बन्ध में वीर कवि ने लिखा है कि कैवल्यप्राप्ति के पश्चात् जम्बूस्वामी १८ वर्ष तक भव्यजनों का उद्धार करते रहे और अंत में (दीक्षा ग्रहण करने के ३.६ वर्ष पश्चात् ) उन्होंने विपुलाचल के शिखर पर प्रष्टकर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया। जंबू द्वारा विद्युत् चोर को प्रतिबोध महापुराण (उत्तरपुराण) में दिगम्बर आचार्य गुणभद्र ने विद्युच्चोर का परिचय देते हए श्रेष्ठी अहहास के गृह में चोरी करने की इच्छा से अपने ५०० साथियों के साथ उसके प्रवेश का जो वर्णन किया है वह संक्षेप में इस प्रकार है :१ जंतं तउ चिरु देविचउक्कं, छम्मासावहिं-पिययममुक्कं । चिकभवनेहनिवद प्राय, सायरदत्ताईणं जायं ।। ........................................ दिशं तुज्झ ताएं तं सव्वं, दसमए वासरे परिणेयव्यं । [जं० चरिउ, ८-५, पृ० १५१-१५२] २'अट्ठारहवरिसहं कालु गउ माहहो सियसत्तमि पसरे त उ । विउलइरिसिहरे विसुद्धगुरिण निवारणु पत्त सोहम्मु मुरिग ॥२३॥ 1 [वही १०-२३, पृ० २१५] 3 तत्लेव दिवसि पहरीमाणि पाउरियजोएं सुक्कझाणि । पलिपंकासीणहो निम्ममासु जंबूकुमार मुरिणपुंगमासु । उप्पण्णउ केवलु पुणु निरंधु अवलोयउ तिहुयणु एक्कखंघु । - [वही, १०-२४] ४ भव्वयणचित्तचूरियकुतक्कु, अट्ठारहवरिसहं जाम थक्कु । विउलइरिसिहरि कम्मट्ठचत्तु सिद्धालय सासयसोक्खपत्तु । [वही, १०-२४, पृ० २१५] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ विचुचोर को प्रतिबोध] केवलिकाल : प्रायं जम्बू "पद्मश्री, कनकधी, विनयश्री और रूपश्री नाम की अपनी चारों नवविवाहिता पत्नियों के साथ जम्बूकुमार प्रथम-मिलन की रात्रि में अपने प्रासाद के अत्यन्त मनोरम ढंग से सुसज्जित शयनकक्ष में बैठे हुए थे । जम्बूकुमार की माता जिनदासी के हृदय की धड़कन रात्रि के एक-एक क्षण के व्यतीत होने के साथ-साथ निरन्तर बढ़ती जा रही थी। यह रात्रि उसकी कुलपरम्परा, गार्हस्थ्य जीवन और उसके जीवन के समस्त प्रकार के प्राकर्षण और भविष्य के लिये अन्तिम निर्णायक रात्रि थी। वह अपने अन्तर में अनन्त उत्सुकता लिये बार-बार दबे पांवों अपने शयनकक्ष से निकल कर अपने नयनतारे जम्बू के शयनकक्ष के द्वार पर आती और बन्द कपाटों पर कान रख कर यह जानना चाहती थी कि अप्सराओं के समान अनुपम सुन्दर उसकी चार नव-कुलवधुएं अपनी रूपसुधा से उसके लाल को मदविह्वल कर अपने स्नेह-सूत्र के प्रगाढ़ बन्धन में प्राबद्ध करने में सफ़ल हुईं अथवा नहीं। अपने पुत्र और पुत्रवधुओं के वार्तालाप का जो थोड़ा बहुत अंश उसके कर्णरन्ध्रों में पड़ता उससे उसकी प्राशाओं पर तुषारापात हो जाता और वह अपरिसीम वेदना से छटपटाती हुई पुनः अपने कक्ष की ओर लौट जाती। उसे सारा संसार अन्धकारपूर्ण प्रतीत होने लगता। कुछ ही क्षणों पश्चात् वह पुनः प्राशा का सम्बल लिये जम्बूकुमार के शयनागार के द्वार पर पहंचती। मातृस्नेह ने इस क्रम को निरन्तर बनाये रखा । वह स्वासोच्छ्वास को अवरुद्ध किये अपने लाडले लाल के शयनगृह के द्वार पर कान लगाये खड़ी थी। - उसी समय विद्युत्प्रभ नामक एक प्रतिसाहसी कुख्यात चोर ने अपने ५००. साथी चोरों के साथ प्रहदास के घर में प्रवेश किया। वह चोर पोदनपुर नगर के राजा विद्युतराज और रानी विमलमती का पुत्र था । विद्युतप्रभ किसी कारणवश अपने बड़े भाई से रुष्ट हो अपने पांच सौ योद्धानों के साथ पोदनपुर से निकल गया और चौर्यकर्म से अपनी आजीविका चलाता था। वह अदृश्य होने और तालों तथा कपाटों को खोलने की विद्या में निपुण था । जिनदासी को विनिद्र और चिन्तितावस्था में कपाट के पास खड़ी देख कर विद्युत्प्रभ ने उससे उसका कारण पूछा। माता जिनदासी ने अपनी अथाह अन्तर्व्यथा को उंडेलते हुए संक्षेप में अपनी चिन्ता का कारण विद्यच्चोर को बता दिया। विद्युच्चोर ने जब यह सूना कि कुबेरोपम अपार कांचनराशि और कामिनियों का परित्याग कर युवा जन्बूकुमार दीक्षित होना चाहता है तो उसके अन्तर्चा उन्मीलित हो गये । उसे अपने चौर्यकर्म से और स्वयं अपने आपसे घृणा हो गई। उसने जिनदासी को आश्वस्त करते हुए जम्बूकुमार के शयनकक्ष में प्रवेश किया और उन्हें त्यागमार्ग से विमुख तथा भोगमार्ग की ओर उन्मुख करने हेतु अपनी समस्तं वाक्चातुरी, सुतीक्ष्ण बुद्धि पौर नैपुण्य का प्रयोग किया। विद्युमोर पोर जम्मूकुमार के बीच काफी देर संवाद चला और अंततोगत्वा विद्युयोर जम्बूकुमार के विरक्ति के रंग में Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युबोर को प्रतिबोष स्वयं रंग गया एवं दूसरे दिन अपने पांच सौ साथियों सहित जम्बूकुमार के साथ ही दीक्षित हो गया। वीर कवि रचित अपभ्रन्श भाषा के महाकाव्य 'जम्बूचरिउ' के आधार पर दिगम्बर परम्परा के विद्वान् कवि जमल्ल ने विक्रम संवत् १६३२ में रचित 'जम्बूस्वामिचरितम्' में जम्बूकुमार को संसार से विरक्ति होने के कारण का विवरण देते हुए अनेक नई बातों पर प्रकाश डाला है, जिनका श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं है। ऐतिहासिक शोध को हष्टि से वे बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं अतः उनका यहां साररूप में उल्लेख किया जा रहा है। कवि राजमल्ल ने अपने उक्त काव्य के छठे सर्ग में जम्बूकुमार द्वारा मदोन्मत्त हाथी को वश में करने, सातवें सर्ग में जम्बूकुमार द्वारा विद्याधर राजा, रलचूल को पराजित कर मृगांक नामक विद्याधरराज की उससे रक्षा करने और पाठवें सर्ग में विद्याधरराज पर विजय का तथा जम्बूकुमार और महाराज श्रेणिक के नगरप्रवेश का वर्णन करने के पश्चात् 'जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम्' नामक नवम सर्ग के प्रारम्भ में उनको विरक्ति होने की घटना का वृत्तान्त दिया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है: ' सुतो ममायं रागेण प्रेरितो विकृति भजन् । स्मितहासकटाक्षेक्षणादिमाकि भवेन्नवा ॥५१॥ इत्यात्मानं तिरोषाय पश्यन्ती स्थास्यति स्निहा । माता तस्य तदवक: पापिष्ठः प्रथमांशकः ॥५२॥ सुरम्यविषये स्यातपोदनास्यपुरेशिनः । विद्रावस्य तुग्विवृत्तभो नाम भटाग्रणी ।।५३।। तीक्ष्णो विमलबत्यश्च कृष्या केनापि हेतुना । निवाग्रजाय निर्गत्य तस्मात्पंचशमिटः ॥५४॥ विचचोराह्वयं कृत्वा स्वस्य प्राप्य पुरीमिमाम् । जानन्नदृश्यदेहत्वकपाटोबाटनादिकम् ।।५।। चोरशास्त्रोपदेशेन तन्त्रमन्त्रविशारदः । महद्दासगृहाभ्यन्तरस्थं चोरयितुं धनम् ।।५६।। प्रविश्य नष्टनिंदान्तां बिनवासी विलोक्य सः । निवेचात्मानमेवं किं, विनिद्रासीति वक्ष्यति ॥५॥ सूनुनमक एवायं प्रातरेव तपोवनम् । अहं गमीति संकल्प स्थितस्तेनास्मिनोफिनी ।।५।। धीमानसि यदीम , बायस्वाहात्ततः । उपावर ते सर्व पदास्थाम्यत्रीप्सितम् IRell इति मात्री भवेत्सापि सोऽपि सम्प्रतिपद तत् । एवं सम्पन्नमोनोऽपि शिव पिरिरंसति ॥६॥ [उत्तरपुराल पर्व Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fage को प्रतिबोध ] केवलिकाल : आर्य जम्बू २४१ " एक दिन जम्बूकुमार ने अपने मन में विचार किया कि विशाल वैभव श्रौर विपुल यश की जो उन्हें प्राप्ति हुई है वह किस सुकृत के प्रताप से हुई है ? अपनी इस आन्तरिक जिज्ञासा को शान्त करने के लिये जम्बूकुमार एक मुनि के पास गये और उन्होंने मुनि को सविधि वन्दन करने के पश्चात् प्रश्न किया "भगवन् ! मैं यह जानना चाहता हूं कि मैं वास्तव में कौन हूं, कहां से आया हूं और जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ है वह किस पुण्य के फल से हुआ है ? आप दया कर मुझे मेरे पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाइये ।” सौधर्म नामक उन मुनि ने, जो कि धर्मोपदेशक थे, उत्तर दिया - "वत्स ! सुन मैं तुझे पूर्व भवों का वृत्तान्त सुनाता हूं।' इसी मगध देश में वर्द्धमान नामक ग्राम में किसी समय भावदेव और भवदेव नामक दो सहोदर रहते थे । उन दोनों ने क्रमशः जैन श्रमरण दीक्षा ग्रहण की और बहुत वर्षो तक श्रमणाचार का पालन कर मृत्यु कें पश्चात् सनत्कुमार नामक स्वर्ग में दोनों भाई देव रूप में उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् देवायु पूर्ण होने पर बड़े भाई भावदेव का जीव वज्रदन्त नामक राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम सागरचन्द्रमा रखा गया । छोटे भाई भवदेव का जीव देवलोक से च्युत हो महापद्म चक्रवर्ती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ । सागर चन्द्र संयम ग्रहरण कर कठोर तपश्चर्या करने लगा और शिवकुमार माता-पिता के अत्यधिक अनुरोध के कारण घर में रहते हुए भी पूर्णरूपेण श्रमणाचार का पालन करते हुए षष्ठभक्त, प्रष्ठभक्त, अर्द्धमासिक, मासिक आदि घोर तपश्चरण और इन तपस्रात्रों के पारण के दिन प्राचाम्लव्रत करने लगा । इस प्रकार शिवकुमार ने घर में रहते हुए ही ६४,००० वर्ष तक घोर तपश्चररण किया । अन्त में समाधिपूर्वक मरण प्राप्त कर क्रमशः दोनों ब्रह्मोनर स्वर्ग में देव हुए । दश सागर की देवायु पूर्ण होने पर बड़े भाई भावदेव का जीव मगध देश के संवाहनपुर नामक नगर के अधिपति राजा सुप्रतिष्ठ की रानी धर्मवती की कुक्षि से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम सौधर्म रखा गया । सौधर्मकुमार क्रमशः सभी विद्यात्रों में निष्णात हुआ। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ अपने परिवार सहित भगवान् महावीर के दर्शन-वन्दन- नमन एवं उपदेशश्रवण के लिये प्रभु के समवशरण में पहुंचा । भगवान् की भवरोगविनाशिनी देशना सुनकर राजा सुप्रतिष्ठ ने प्रभु के पास निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर ली। थोड़े ही दिनों में वह सुप्रतिष्ठ मुनि समस्त श्रुतशास्त्र के ज्ञाता बन गये और भगवान् ने उन्हें चतुर्थ गणधर के पद पर नियुक्त किया | 3 १ प्रयोवाच मुनिर्नाम्ना सोधर्मो धर्मदेशकः । शृणु वत्स वदेतेय, वृत्तान्तं पूर्वजन्मनः ॥८॥ २ [जम्बूस्वामिचरितम् ( पं० राजमल्ल - रचित) सर्ग ६ ] जम्बूस्वामिचरितम् (पं० राजमल्लरचितं ), सर्ग ६, श्लो० १८ - २३ • दिवसैः कतिभिभिक्षुः श्रुतपूर्णोऽभवन्मुनिः । गणधरस्तुर्यो जातो वर्द्धमानजिनेशिनः ||२८|| [ वही ] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युचोर को प्रतिबोष सौधर्मकुमार ने कुछ दिन पश्चात् अपने पिता सुप्रतिष्ठ को भगवान् के गणधर के रूप में देखा तो उसे भी संसार से विरक्ति हो गई और वह भी प्रवजित हो गया। थोड़े समय के पश्चात् वह भी भगवान् का पांचवां गणधर बन गया। सुधर्मा नाम का वह पंचम गणधर मैं ही हं जो कि तुम्हारे भवदेव के भव में तुम्हारा भावदेव नामक बड़ा भाई था।' तुम (छोटे भाई भवदेव का जीव) ब्रह्मोत्तर स्वर्ग से च्युत हो राजगृह नगर के श्रेष्ठी अर्हद्दास की पत्नी जिनमती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । तुम्हारा नाम जम्बूकुमार रखा गयो ।' विद्युन्मालि देव के भव में जो तुम्हारी चार देवियां थीं वे भी क्रमशः पंचम स्वर्ग से च्युत हो राजगृह नगर के वाद्धिदत्त आदि श्रेष्ठियों के घर में पुत्रियों के रूप में उत्पन्न हुई हैं। वे भी पूर्वभव के स्नेह के कारण तुम्हें प्राणपण से चाहती हैं और वे तुम्हारी लोकधर्मानुसार विवाहित पत्नियां बनेंगी।" वर्तमान, भूत और भविष्यत् को प्रत्यक्ष की तरह देखने वाले चारज्ञानधारी सुधर्मा स्वामी के मुख से अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त सुनकर सांसारिक विषय-भोगों के प्रति जम्बूकुमार के हृदय में उत्कट वैराग्य की भावनाएं उद्भूत हुई। उनका अन्तर्मन प्रबुद्ध हो गयां अतः उन्हें भवभ्रमण भयावह प्रतीत होने लगा और उनके मन में अपने शरीर तक के प्रति किसी प्रकार का व्यामोह अवशिष्ट न रहा। जम्बूकुमार ने विनयपूर्वक सुधर्मा स्वामी को प्रणाम करते हुए प्रार्थना की"दयासिन्धो ! जिस प्रकार आपने पूर्वभव में निश्छल, स्वच्छ और सच्चे बन्धुत्व का निर्वहन करते हुए मेरा उद्धार किया था, उसी प्रकार आप अब भी मुझे निग्रंथ श्रमणधर्म में दीक्षित कर मेरा इस भवसागर से उद्धार कीजिये।" भोगों के प्रति निस्पृह एवं प्रात्मकल्याण के लिये समुत्सुक जम्बूकुमार को प्रासन्नभव्य (निकट भविष्य में मुक्ति प्राप्त करने वाला) जानते हुए भी आर्य सुधर्मा ने कोमल स्वर में कहा- "जम्बू ! कहां तो तुम्हारी यह सुकुमारावस्था और कहां बड़े-बड़े साधकों के लिये भी कठिनतापूर्वक पाला जाने वाला यह श्रमणाचार ? फिर भी यदि तुम्हारे हृदय में दीक्षित होने की उत्कट अभिलाषा है तो एक बार अपने बन्धुवर्ग को पूछकर, उनका समाधान करके फिर दीक्षा ग्रहण करो।" यह सुनकर जम्बूकुमार कुछ क्षणों के लिये विचार में पड़ गये। अन्त में उन्होंने गुरु आज्ञा के समक्ष हठ करना उचित न समझ माता-पिता की आज्ञा 'सौधर्मोऽपि तथा पश्चाद् वीक्ष्य तं गगानायकम् । जातसंवेगनिर्वेद: प्रवद्राज महामुनिः ।।२।। क्रमात्सोऽप्यभवत्तस्य पंचमो गणनायकः । सोऽहं सुधर्मनामा स्यां भवद्भातृचरोऽधुना ।।३०।। जंबूस्वामिचरितम् (पं० राजमल्ल)] २वं हि ततो दिवश्च्युत्वा विद्युन्मालिंचरोऽमरः ।. .. प्रहंदासगृहे सूनुर्जातः सर्वसुखाकरः ॥३३॥ . वही] Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधुचोर को प्रतिबोष] केवलिकाल : मार्य जम्बू २४३ प्राप्त करने के पश्चात् ही दीक्षित होने का निश्चय किया। तदनुसार वे अपनी माता के पास गये और अपनी प्रान्तरिक इच्छा उनके समक्ष प्रकट की। शोकाकुल हो माता-पिता ने उन्हें समझाने का पूरा प्रयास किया पर व्यर्थ । जम्बूकुमार को उनके दीक्षित होने के दृढ़ निश्चय से किंचितमात्र भी विचलित न होते देख अहंदास ने वाद्धिदत्त आदि चारों श्रेष्ठियों के पास जिनकी कि पुत्रियों के साथ जंबूकुमार का विवाह होना निश्चित हो चुका था- संदेश भेजकर उन्हें जम्बूकुमार के दीक्षित होने के दृढ़ निश्चय से अवगत कराया। उन चारों श्रेष्ठियों ने अपनी पुत्रियों को जम्बूकुमार के दीक्षित होने का निश्चय सुनाते हुए उन्हें अन्य किसी वर से विवाह करने का सुझाव दिया। चारों कन्यानों ने अपने-अपने माता-पिता को कहा कि वे अन्तर्मन से जम्बूकुमार को अपना पति चुन चुकी हैं प्रतः जम्बूकुमार के साथ ही उनका विवाह कर दिया जाय । यदि वे विवाहो. परान्त अपने पति को भोग-मार्ग की प्रोर प्राकर्षित कर सकी तो ठीक, अन्यथा वे भी उनके साथ-साथ दीक्षित हो जाएंगी। अन्ततोगत्वा जम्बूकुमार ने अहंदास और जिनमती के अनन्य अनुरोष से इस शर्त पर उन चारों कन्याओं के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया कि विवाहोपरान्त उन्हें दीक्षित होने से रोका नहीं जायगा। . ... बड़ी धूमधाम और समारोहपूर्वक जम्बूकुमार का पद्मश्री प्रादि चार कन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। विवाहोपरान्त पद्मश्री प्रादि नववधुएं अपने पति जम्बूकुमार को विविध उपायों, युक्तियों, दृष्टान्तों आदि से भोगमार्ग की भोर प्राकर्षित करने का और जम्बूकुमार अपनी पत्नियों को विषयभोगों की दुःखान्तता और भवभ्रमण की विभीषिका के विषय में समझाने का प्रयास करने लगे। रम्भा तुल्य चारों नववधनों ने संमोहक विविध हाव-भावों एवं चेष्टानों से जम्वृकुमार के मन में. कामाग्नि प्रदीप्त करने का पूर्णरूपेण प्रयास किया किन्तु जम्बूकुमार निस्तरंग अथाह पाथोधि की तरह शान्त तथा निश्चल बने रहें। जिस समय जम्बूकुमार और उनकी चारों पत्नियों में परस्पर वार्तालाप हो रहा था, उस समय विधुच्चर नामक एक चोर महहास के घर में चोरो करने के लिये घुसा। जम्बूकुमार के घर में धनागारों को देखते समय विद्यच्चर की दृष्टि बड़े ही आकर्षक ढंग से सजे हुए जम्बूकुमार के शयनागार पर पड़ी । उसके मन में कुतुहल जागृत हुमा और उसने निश्चय किया कि रत्नादि बहुमूल्य वस्तुनों को तो यहां से लौटते समय ही ले लंगा, पहले जम्बूकुमार और उनकी नववधुनों का वार्तालाप ही सुन लूं । यह विचार कर विणुचर जम्बूकुमार के शयनागार के एक बन्द द्वार से अपना कान सटाकर खड़ा हो गया। सुहागराषि (प्रथम मिलन की रात्रि) के समय बहुमार के मुख से भोगों के प्रति निरासक्ति प्रकट करने वाली बातें सुनकर रास-दिन कामलता येवा विवाद Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युच्चोर को प्रतिबोध गृह में विषयासक्त रहने वाला विद्युच्चर चोर स्तब्ध रह गया। वह और सावधान होकर नवविवाहित वर-वधुओं की बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा। . जम्बूकुमार और उनकी चार नववधुत्रों का परस्पर जो संवाद हो रहा था उसे विद्युच्चर स्पष्टरूप से सुन रहा था। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि यह नव तारुण्य की भोगयोग्य वय, सभी प्रकार की भोग्य सामग्री सहजरूपेण समुपलब्ध, सुरसुन्दरियों के समान अनुपम रूपलावण्यवती चार नवविवाहिता लोकधर्मानुसार न्यायतः प्राप्त पत्नियां, एकान्त स्थान, विषयभोगों के उपभोग की पूर्ण सामर्थ्य, कुबेरोपम वैभव, भोगोपभोगों के लिये अनुरोध और आग्रहभरा आमन्त्रण किन्तु यह तरुण निर्विकार, निर्लिप्त और निश्चल बना हुआ है । ऐसा अभूतपूर्व पाश्चर्य उसके दृष्टिगोचर होना तो दूर उसके कर्णरन्ध्रों में भी कभी नहीं पड़ा है। वह अपने चोर-कार्य को भूल कर नवदम्पति के अद्भुत और अन्तस्तलस्पर्शी संवाद को सुनने में प्रात्मविस्मृत हो तल्लीन हो गया। ___माता जिनमती के लिये यह रात्रि उसके कुटुम्ब एवं वंश-परम्परा के भविष्य के लिये निर्णायक रात्रि थी। उसके हृदय में यह जानने की उत्कण्ठा बार-बार बलवती बनती जा रही थी कि उसकी रूप-यौवन और सर्वगुण सम्पन्ना चार पुत्रवधुएं उसके इकलौते लाडले लाल को भोगमार्ग की ओर आकृष्ट करने में सफल हुई हैं या नहीं। इस उत्कट उत्कण्ठा को अपने अन्तर में लिये वह बार-बार छुपे पावों जम्बूकुमार के शयनकक्ष के द्वारों के पास प्राकर कान लगा कर अपने पुत्र और पुत्रवधुओं के वार्तालाप को सुनती और अपने पुत्र को अपने निश्चय पर अचल समझ कर हताश हो पुनः अपने शयनकक्ष की ओर लौट जाती। धारिणी का यह क्रम बीच-बीच में कुछ क्षणों के व्यवधानों से निरन्तर चल रहा था। इस बार वह दबे पांवों जम्बूकुमार के शयनकक्ष के उस द्वार की पोर आई जहां चोर विद्युच्चर अपनी सुध-बुध भूले नव वर और वधुओं का संलाप सुन रहा था। . द्वार पर सटे चोर पर दृष्टिपात होते ही जिनमती ने आश्चर्य एवं भय मिश्रित स्वर में पूछा - "अरे ! इस समय यहां तुम कौन हो?" . विधुच्चर ने मन्द किन्तु निर्भय स्वर में उत्तर दिया - "बहिन ! तुम विह्वल न होना । मैं विद्युच्चर नामक चोर हं जो तुम्हारे इसी राजगह नगर में रहते हुए चोरियां करता रहता हूं। मैंने तुम्हारे इस भवन से भी अनेक बार रत्न-स्वर्ण और विपुल धन चुराया है । उसी चौर्यकार्य के लिये मैं प्राज भी यहां पाया था।" मां जिनमती ने रनेहसिक्त स्वर में कहा- "वत्स ! मेरे इस घर में से जो कुछ तुम्हें अच्छा लगे वही ले जा सकते हो।"" विद्युच्चर ने कहा- "बहिन ! सच मानो, प्राज चोरी करने की इच्छा ही नहीं हो रही है। भाज मैंने अपने जीवन में पहली बार यह अदृष्टपूर्व-अश्रतपूर्व प्रत्यन्त अद्भुत कुतूहलपूर्ण दृश्य एवं संवाद देखा और सुना है कि दिव्य रूपलावण्यमयी युवतियों के कटाक्षों भोर करुण-कोमल प्रार्थना स्वरों से इस युवक का Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युचोर को प्रतिबोध ] केवलिकाल : भ्रायं जम्बू २४५ मन किंचितमात्र भी विचलित नहीं हुआ । में यह जानना चाहता हूं कि इस सब के पीछे कारण क्या है। आज से तुम मेरी धर्म बहिन हो और में तुम्हारा सहोदरोपम भाई ।” अपने उद्वेलित अश्रुसमुद्र को हठात् रोकते हुए साहस बटोर कर जिनमती ने कहा - "भैया ! मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय और मेरे कुल का दीपक यह मेरा इकलौता पुत्र है । इसने जैन श्रमरण - दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। मोहवश हमने बड़े हठाग्रहपूर्वक इसका विवाह कर दिया है पर यह सूर्योदय होते ही सब कुछ छोड़ - छिटका कर जैन श्रमण बन जायगा । इसके इस अवश्यंभावी वियोग के वज्र से मेरा हृदय खंड-खंड हो विचूरिंगत हो रहा है ।" विद्युच्चर ने कहा - "बहिन ! यदि ऐसी किसी प्रकार की चिन्ता न करो। मैं अभी कुछ ही पूर्ण किये देता हूं। जम्बूकुमार को गृहस्थ धर्म की व्यक्ति के लिये एक साधारण सरल कार्य है । किसी न किसी तरह तुम मुझे एक बार जम्बूकुमार के पास पहुंचा दो । फिर देखना कि जिस कार्य को तुम नितान्त दुस्साध्य समझती हो, उसे मैं किस प्रकार बात ही बात में सुसाध्य ही नहीं, सिद्ध बना देता हूं।" बात है तो तुम अपने मन में क्षणों में तुम्हारी मनोकामना प्रोर प्रवृत्त करना मेरे जैसे कुछ हो क्षरण गहन चिन्तन की मुद्रा में खड़ी रहने के पश्चात् जिनमती अपने पुत्र के शयनागार के द्वार पर शनैः शनैः तर्जनी-प्रहार किया । जम्बूकुमार ने तत्क्षरण द्वार खोला और बड़े आदर के साथ अपनी माता को एक उच्चासन पर बैठाकर विनम्र स्वर में पूछा - "अम्ब ! इस समय आपने किस कारण स्वयं पधारने का कष्टं किया ?" जिनमती ने कहा- "पुत्र ! जिस समय तुम गर्भस्थ थे उस समय मेरा भाई व्यापारार्थ विदेश गया हुआ था। वह अब लौटा है । तुम्हारे विवाह की शुभ सूचना मिलते ही यह तुम्हें देखने की उत्कण्ठा लिये बड़ी दूर से चलकर प्राया है ।" जम्बूकुमार ने अपने मातुल से मिलने की अभिलाषा प्रकट की। विद्युच्चर को निमती तत्काल जम्बूकुमार के शयनकक्ष में ले गई। जम्बूकुमार मायामातुल (कृत्रिम मामा ) को देखते ही अपने प्रासन से उठे और दोनों ने प्रफुल्लित हो एक दूसरे को अपने बाहुपाश में भाबद्ध कर लिया । परस्पर कुशलक्षेम के प्रश्नोत्तर के पश्चात् प्रहर्निश चतुर वेश्या की संगति में रहने वाले चतुर विद्युच्चर ने अपनी वाक्चातुरी का चमत्कार दिखाते हुए जम्बूकुमार को भोगमार्ग की ओर आकृष्ट करने का भरपूर प्रयास किया । उसने . बड़ी चतुराई से जादूभरी शैली में त्यागमार्ग के प्रति तत्काल अनास्था उत्पन्न कर भोगमार्ग की ओर आकृष्ट कर देने वाले अनेक दृष्टान्त प्रस्तुत किये। कभी न उतरने वाले वैराग्य के रंग में रंगे हुए प्रत्युत्पन्नमति जम्बूकुमार ने विद्युच्चर द्वारा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वियुबोर को प्रतिबोष प्रस्तुत किये गये प्रत्येक दृष्टान्त का उससे भी अधिक युक्तिसंगत एवं प्रभावोत्पादक दृष्टान्त सुना कर सहज शान्त स्वर में उत्तर दिया। पर्याप्त समय तक यह रोचक संवाद चला । अन्ततोगत्वा परिणाम यह हुआ कि जो मामाजी भानजे पर अपना रंग जमाने आये थे वे स्वयं ही भानजे के वैराग्यरंग में पूर्णरूपेण रंग गये। विद्युच्चर ने जम्बूकुमार के चरणों में अपना सांजलि मस्तक झुकाते हुए अति विनीत स्वर में कहा- “महाप्राज्ञ महात्मन् ! आप धन्य हैं । आपकी जितनी भी प्रशंसा की जाय वह कम है। प्राप निर्विकार और निर्लेप हैं अतः आपके लिये इस भीषण भवोदधि को पार कर लेना कोई कठिन कार्य नहीं।" . तदनन्तर विद्युच्चर ने जम्बूकुमार को अपना वास्तविक परिचय देते हुए कहा- "कुमार ! मैं हस्तिनापुर के महाप्रतापी राजा संवर और उनकी महारानी श्रीषेणा का विद्युच्चर नामक पुत्र हूं। मैंने वर्द्धमान कुमार से सब प्रकार की विद्यानों में निष्णातता प्राप्त की। उसके पश्चात चौर्य-विद्या में निपुणता प्राप्त करने की मेरे मन में उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। सर्वप्रथम मैंने अपने ही राज्यकोष में से बहुमूल्य रत्न चुराये परं चोरी करते हुए मुझे किसी राजपुरुष ने देख लिया था अतः मेरे पिता महाराज संबर मेरे उस वृणित कार्य से अवगत हो गये। उन्होंने मुझे राज्य-संपत्ति का खुले रूप में यथेच्छ उपभोग करने की अनुज्ञा देते हुए सब प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि मैं उभयलोक बिगाड़ने वाले अति गर्हणीय चौर्य कर्म का परित्याग कर दूं पर उस समय मेरे हृदय पर पूर्णरूपेण दुर्बुद्धि का आधिपत्य था अतः मैंने धृष्ठतापूर्वक उत्तर दिया- महाराज! राज्य की सम्पत्ति चाहे कितनी ही विपुल क्यों न हो, आखिर वह परिमित ही है किन्तु चौर्यकार्य के अन्तर्गत लक्ष्मी का कोई पार नहीं, वह अपरिमित है। यह कह कर मैं इस राजगृह नगर में चला पाया और कामलता नाम की वेश्या के यहां रात-दिन विषयोपभोगों में निरत रहते हुए चोरियां करने लगा। पर माज आपने मेरी अन्तर की चक्षुषों के निमीलित प्रक्षपटलों को उन्मीलित कर दिया है । अब मैं भी अपना प्रत्मकल्याण करूंगा।" - इसी समय प्रातःकाल हो गया। महाराज श्रेणिक को जम्बूकुमार के दीक्षित होने का समाचार मिलते ही वे अपने समस्त राजकीय वैभव के साथ अहंद्दास के घर पर आये । जम्बूकुमार ने दीक्षा लेने हेतु वन की ओर प्रयाण किया। राजा श्रेणिक ने उन्हें शिबिका में प्रारूढ़ किया।' जम्बूकुमार को दीक्षार्थ जाते देख राजगृह नगर में चारों ओर शोक का वातावरण फैल गया। ' ऐतिहासिक तथ्यों के विश्लेषण से जम्बूकुमार के समय में पण्डित राजमल्म डारा उल्लि. खित मगधपति महाराज श्रेणिक सम्बन्धी समस्त विवरण निराधार और कवि की कल्पनामात्र सिद्ध होता है क्योंकि जम्बूकुमार जिस समय घुटनों के बल भी नहीं पते होंगे उसमें पहले ही णिक का देहावसान हो चुका था। -सम्पादक Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ . विद्युबोर को प्रतिबोध] केवलिकाल : मार्य जम्बू ___ जम्बूकुमार ने सुधर्मा स्वामी के पास पहुंच कर वस्त्राभूषणों का परित्याग किया और पंचमुष्टि लुंचन कर उनसे निर्ग्रन्थ श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। जम्बूकुमार के पश्चात् अनेक राजानों ने दीक्षा ग्रहण की । तदनन्तर विद्युच्चर चोर ने प्रभव आदि ५०० राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण की जो सभी चौर्यकर्म में निरत रहते थे। इनके पश्चात् जिनदास ने भी समस्त ऐहिक सुख-वैभव का परित्याग कर संयम ग्रहण किया। तत्पश्चात् जम्बूकुमार की माता जिनमती ने और जम्बूकुमार की पद्मश्री आदि चारों पत्नियों ने भी सुप्रभा आर्यका के पास श्रमणी-दीक्षा ग्रहण की। __जम्बूस्वामी के निर्वाण गमन के वर्णन के पश्चात् पण्डित राजमल्ल ने जम्बूस्वामिचरित्र में विद्युच्चर मुनि द्वारा अपने प्रभव आदि ५०० साधुपरिवार सहित मथुरा नगरी की ओर विहार करने, मथुरा के महोद्यान में ठहरने, सूर्यास्तवेला में चण्डमारि नाम की वनदेवी द्वारा उन्हें उस महोद्यान में रात्रि के समय भूतप्रेतादि द्वारा घोर उपसर्ग देने की सम्भावना.की पूर्वसूचना दिये जाने के साथसाथ उन्हें वहां से विहार कर अन्यत्र चले जाने का परामर्श दिये जाने का उल्लेख किया है। इसके पश्चात् यह बताया गया है कि उन मुनियों ने सूर्यास्त के पश्चात् विहार करना अनुचित समझ कर वहीं आवश्यक श्रमरणक्रियाएं करना प्रारम्भ कर दिया। रात्रि के समय भूतप्रेतादि द्वारा विद्युच्चर और उनके ५०० साथी साधुओं को ताड़न, तर्जन, मर्दन आदि घोर उपसर्ग दिये गये । पिशाचों द्वारा उन मुनियों को शूलादि तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहारों से क्षत-विक्षत किया गया, बार-बार आकाश में ऊपर उठा कर पृथ्वी पर पटका गया। पर वे सभी मुनि शान्तभाव से उन दुस्सह्य परीषहों को सहते रहे। महामुनि विद्युच्चर को उन प्रेतादि द्वारा सबसे अधिक कष्ट दिया गया पर उन्होंने अनित्यानुप्रेक्षा आदि १२ प्रकार की अनुप्रेक्षाओं से अपने मन को निश्चल बनाये रखा। प्रातःकाल होते ही उपसर्ग तो शान्त हुए, किन्तु उन मुनियों के शरीर ताड़न, छेदा, भेदन आदि के कारण इतने जर्जरित हो गये थे कि उन्हें जीने की आशा न रही। उन ५०१ मुनियों ने संलेखनापूर्वक चार प्रकार की आराधना करते हुए देह त्याग किया । उत्कट भावशुद्धि के कारण मुनि विद्युच्चर सर्वार्थसिद्ध ' ततः केचित्तु भूपालाः, शुद्धसम्यक्त वभूषिताः । बभूवुर्मुनयो नूनं, यथाजातस्वरूपकाः ॥६४।। मथ विद्यु च्चरो दस्युविरक्तो भवभोगतः । सर्वसंगपरित्यागलमणं व्रतमग्रहीत् ॥६६॥ साधं पंचशतभूपपुरासीत्स संयमी। दस्युकर्मरतः . सर्वेः, प्रभवादिसुसंशिकः ॥६॥ [जम्बूस्वामिचरितम्, सर्ग १२] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युबोर को प्रतिबोध विमान में ३३ सागर की प्रायु वाले देव बने और प्रभव प्रादि ५०० मुनि भी स्वर्ग में महर्दिक देव रूप से उत्पन्न हुए।' केवलिकाल के राजवंश . ऐतिहासिक घटनाक्रम के पर्यवेक्षण से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन समय में राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध अधिकांशतः बड़ा ही मधुर और प्रगाढ़ रहा । देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रार्थिक एवं धार्मिक अभ्युत्थान में जनसाधारण की तरह राजवंशों ने भी समय-समय पर अपनी प्रोर से उल्लेखनीय योगदान किया, इसकी पुष्टि में बड़ी ही प्रचुर मात्रा में प्रमाण उपलब्ध होते हैं। प्राचीन काल में जैन धर्म के पल्लवन से लेकर प्रचार-प्रसार, अभ्युत्थान प्रादि सभी कार्यों में जब-जब और जो-जो भी लोकजनीन प्रयास किये गये, उनमें राजवंशों ने भी जनसाधारण के साथ कंधे से कंधा मिला कर बड़ा महत्त्वपूर्ण सक्रिय सहयोग दिया है। वस्तुतः प्राचीन काल के राजवंशों का लोकजीवन के साथ ऐसा संपृक्त सम्बन्ध रहा कि भारत का राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक अथवा प्रार्थिक इतिहास लिखते समय यदि तत्कालीन राजवंशों की उपेक्षा कर ले जाय तो कोई भी इतिहास न पूर्ण ही माना जा सकता है और न प्रामाणिक ही। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए केवलिकाल के राजवंशों का यहां संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है। वीर नि० सं० १ से ६४ तक के केबलिकाल में मुख्यतः निम्नलिखित राजवंश भारत के विभिन्न प्रदेशों में सत्तारूढ़ रहे : १. मगध में शिशुनाग राजवंश २. अवंती में प्रद्योत राजवंश ३. वत्स (कोशाम्बी) में पौरव राजवंश ४. कलिंप में चेदि राजवंश . मगध का शिशुनाग-राजवंश शिशुनाग राजवंश भारत के प्राचीन राजवंशों में बड़ा प्रतापी मोर प्रसिद्ध राजवंश रहा है । इस वंश में अनेक न्यायप्रिय, प्रजाहितषी और शक्तिशाली राजा .. व्यतीते चोपसर्गेऽथ, मुनिविद्युन्चरो महान् । व्यभ्रे व्योम्नि येपादित्यो, तेजपुंज इवा तः ।।१६४।। प्रातःकालेऽथ संजाते, प्रान्त्यसल्लेखनाविधी । चतुर्विधाराधनां कृत्वागमत्सर्वार्थ सिद्धि के ॥१६५।। जतानां पंच संख्याकाः, प्रभवादिमुनीश्वराः । प्रते सल्लेखनां कृत्वा, दिवं जग्मुर्यथायथम् ।।१६६ [जम्बूस्वामिचरित्रं, सर्ग १३] जम्बस्यो चरित्र में पं. गजमल्ल ने दो बार प्रभव का उल्लेख किया है पर कहीं उनका परिचय नहीं दिया है। -सम्पादक Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ मगध का शिशुनाग-राजवंश] - केवलिकाल : पायं जम्बू हुए हैं। मगध के उन प्रतापी शासकों ने समय-समय पर क्षितिप्रतिष्ठित नगर, चरणकनगर, वृषभपुर, कुशाग्रपुर, राजगह, चम्पा और पाटलीपुत्र (पटना) नगर बसा कर उन्हें मगध की राजधानी बनाया, इस प्रकार के उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं।' इतिहासप्रसिद्ध इस वंश के राजा प्रसेनजित् भगवान् पार्श्वनाथ के धर्मतीर्थ के परमभक्त एवं श्रद्धालू श्रावक थे। प्रस्तुत ग्रन्यमाला के प्रथम भाग में विस्तारपूर्वक बताया जा चुका है कि मगधाधीश प्रसेनजित् के पुत्र महाराज श्रेणिक (विम्बसार) भगवान् महावीर के प्रमुख भक्त नराधिपों में अग्रणी थे। उन्होंने भगवान् महावीर के धर्मशासन की प्रत्युत्कट सेवा कर तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया। महाराजा श्रेणिक की अनेक रानियों,पुत्रों और कुटुम्बीजनों ने, भगवान महावीर के उपदेशों से प्रभावित हो श्रामण्य अंगीकार कर आत्मकल्याण किया। ___ मगधाधिप महाराज श्रेणिक की मृत्यु (वीर निर्वाण से लगभग १७ वर्ष पूर्व) के पश्चात् कूरिणक (अजातशत्रु)ने मगध की राजधानी राजगृह मगर से हटा कर चम्पा में स्थापित की। अपने पिता महाराज श्रेणिक की ही तरह कूरिणक भी भगवान् महावीर का परमभक्त था।' जिस समय भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ और उस ही रात्रि के भवसान से पूर्व गौतम गणधर को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई, उस समय मगध पर महाराजा कृरिणक का शासन था और मगध की राजधांनी चम्पा नगरी थी। कूरिणक द्वारा वैशाली के शक्तिशाली गणतन्त्र का अन्त कर दिये जाने के पश्चात् कूरिणक की सम्राट के रूप में और मगधराज्य की एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में गणना की जाने लगी थी। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुधर्मास्वामी के प्राचार्यकाल में भी मगधेश्वर कूरिणक केवलज्ञानी गौतमस्वामी के तथा प्राचार्य सुधर्मा स्वामी के दर्शन, वन्दन, उपदेशश्रवण आदि के लिये समय-समय पर उनकी सेवा में प्राता रहा, इस प्रकार के उल्लेख जैन वाङमय में उपलब्ध होते हैं। - आर्य सुधर्मास्वामी के प्राचार्यकाल में महत्त्वाकांक्षी मगधेश्वर कूणिक ने मगध राज्य का पर्याप्त विस्तार कर लिया था। कृरिणक के पिता श्रेणिक ने अपने राज्यकाल में ही अंग राज्ग पर विजय प्राप्त कर उसे मगध राज्य के अधीन कर लिया था अतः कूणिक को मगध और अंग का राज्य अपने पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुआ । उसके अनन्तर कणिक ने बंग, विदेह, काशी, कौशल और कौशाम्बी पर भी विजय प्राप्त कर इन राज्यों को मगध के अधीन कर लिया था। 'प्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १२८४ एवं पावश्वक हारिभद्रीया वृत्ति, उत्तर भाग, पृ०सं०.६७०-७१ २ प्रौपपातिक सूत्र, सूत्र ८ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशुनाग राजवंश अजातशत्रु कूणिक किस समय मगध के सिंहासन पर बैठा और कितने वर्ष तक शासन करने के पश्चात् किस समय उसका देहान्त हुआ इस सम्बन्ध में जैन वाङमय में यद्यपि कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता तथापि आगम में उपलब्ध उल्लेख से यह अनुमान किया जाता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण से लगभग १७ वर्ष पूर्व वह मगध के राज्य सिंहासन पर बैठा । कूणिक ने कितने वर्ष तक शासन किया इस सम्बन्ध में मथुरा संग्रहालय में उपलब्ध कूरिणक की मूर्ति पर खुदे शिलालेख में कूणिक का शासनकाल ३४ वर्ष ८ मास बताया गया है।' इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि वीर नि०.सं० १७ अथवा १८ के मध्यवर्ती काल में कूणिक का देहावसान हुआ। शिशुनागवंश का संक्षिप्त परिचय शिशुनागवंश कब से प्रचलित हुआ, इस वंश का प्रवत्तंक मूल-पुरुष कौन था और किस-किस समय में इस वंश के किन-किन राजाओं का किस-किस राज्य पर शासन रहा, इस सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों में प्रारम्भिक काल का विवरण नहीं के तुल्य उपलब्ध होता है। वस्तुतः जैन ग्रन्थों में "शिशुनागवंश" नामक किसी वंश का उल्लेख अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । बिम्बसार (श्रेणिक), कूरिणक (अजातशत्रु), उदायी (उदयाश्व), नंद (नन्दिवर्धन) महानन्द आदि इतिहास प्रसिद्ध मगध के सम्राटों का भारतीय इतिहास के ग्रन्थों में एवं मत्स्यपुराण, वायुपुराण, और श्रीमद्भागवतपुराण मादि पुराणग्रन्थों में शिशुनागवंशी राजाओं के रूप में परिचय दिया गया है। जब कि जैनग्रन्थों में इन मगधसम्राटों एवं इनके पुत्र-पौत्रों, महारानियों, युवराशियों तक के जीवनवृत्त पर पर्याप्त प्रकाश डाले जाने के उपरान्त भी ये सम्राट् किस वंश के थे इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। एक स्थल पर मागध दूत के द्वारा जिस समय कि श्रेरिणक की अभिलाषा की पत्ति हेतु वैशाली गणतन्त्र के अधीश्वर महाराजा चेटक के समक्ष उनकी पुत्री सुज्येष्ठा का विवाह मगधपति श्रेणिक के साथ करने का प्रस्ताव रखा गया, उस अवसर पर त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रकार - प्राचार्य हेमचन्द्र ने चेटक के मुख से कहलवाया है - चेटकोऽप्यब्रवीदेवमनात्मज्ञस्तव प्रभुः । वाहीककुलजो वांछन्, कन्यां हैहयवंशजाम् ।।२२६॥ समानकुलयोरेव विवाहो, हन्त नान्ययोः । तत्कन्यां न हि दास्यामि श्रेणिकाय प्रयाहि भो ॥२२७।। 'निभद प्रसेनी पज (1) सत्रु राजो (सि) र (1) ४,२० (य) १० (ड) - (हि अथवा ही) कूणिक सेवासि नागो मागधानाम् राजा । ३४ (वर्ष) ८ (महिना) (शासन काल) - जनरल प्राफ दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, दिसम्बर १९१६ वोल्यूम ५, भाग ४,प. ५५० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु० का संक्षिप्त परिचय] केवलिकाल : भार्य जम्बू २५१ मागध दूत के मुख से मगवपति श्रेणिक द्वारा अपनी सुज्येष्ठा नामक राजकुमारी की याचना का संदेश सुनकर महाराजा चेटक ने कहा : "दूत ! तुम्हारे स्वामी को अपने स्वयं के सम्बन्ध में वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं है। यही कारण है कि वाहीक' कुल में उत्पन्न होकर भी वह हैहय वंश की कन्या के साथ पाणिग्रहण करना चाहते हैं। समान कुल वालों में ही परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध हो सकते हैं न कि असमान कुलों में। अतः मैं अपनी कन्या श्रेणिक को नहीं दूंगा। अब तुम यहां से यथेच्छ जा सकते हो।" . "वाहीककुलजो" इस वाक्यांश से यह तथ्य प्रकट होता है कि उपरिवरिणत बिम्बसार आदि मगध सम्राट् वाहीक कुलोद्भव थे। विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार किया जाय तो शिशुनागवंश एक प्रतापी पुरुष के प्रताप का द्योतक होने के कारण कोई मूलवंथ नहीं किन्तु एक वंश विशेष के व्यक्तियों की शाखा का वोधक है। किसी एक वंशविशेष में शिशुनाग नामक प्रतापी और प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति उत्पन्न हुआ, उसने एक राज्य की स्थापना की। उस वंश के अन्यान्य सहस्रों अथवा लाखों व्यक्तियों से अपनी विशिष्टता अभिव्यक्त करने हेतु उस शिशुनाग को संतति अपना परिचय शिशुनागवंशी के रूप में देने लगी। इसी प्रकार "वाहीक" भी कोई मूलवंश नहीं। "वाहीक" शब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं - (१) वाहीक अथवा वाल्हीक देश का रहने वाला, (२) वाहीक बाह्य देश का रहने वाला और (३) वाहीक-बाह्य-बहिष्कृत (जाति से बहिष्कार किया हुमा) व्यक्ति अथवा जाति। इन तीनों प्रयों में से इन मगध सम्राटों पर कौनसा अर्थ लागू होता है यह एक विचारणीय विषय है। . प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा प्रयुक्त "वाहीककुलजो" पद को लेकर अनेक पाश्चात्य एवं भारतीय इतिहासकारों ने कल्पना की बहुत लम्बी लम्बीउड़ानें भरी हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् ए. के. मजूमदार ने अपनी पुस्तक "दी हिन्दू हिस्ट्री माफ इन्डिया" के पृष्ठ ४६६ पर लिखा है : "Shishunaga was formerly a vassal of the Turanian Vrijjians. He founded his dynasty of ten Kings and ruled for 250 years." दी जरनल प्राफ दी मोरिसा-बिहार रिसर्च सोसायटी, पुस्तक संख्या १, पृष्ठ ७६ पर यह उल्लेख है : "The Pali writers relate that the Sisunagas belonged to the family of Vaishali (Lichhavis). 'पहिावनाम हीकश्च, विपाशायां पिशापको ॥४१॥ : .. तयोरपत्यं बाहीका, नपा सृष्टिः प्रजापतेः। [महाभारत, कर्णपर्व, प..] . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशु० का सं० परिचय इस प्रकार इतिहासविद् श्री मजूमदार ने शिशुनागवंशियों को तुर्किस्तान के निवासी और बिज्जी जाति के माना है और पाली ग्रन्थों ने वैशाली निवासी लिच्छवी क्षत्रिय । भारतवर्ष के सगरकालीन प्रतिप्राचीन इतिहास का विहंगमावलोकन करने पर यह विदित होता है कि चन्द्रवंशी हैहय जाति के क्षत्रियों ने शक आदि अनेक जातियों की सहायता से अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा बाहुक पर आक्रमण किया और उसे पराजित कर अयोध्या पर अधिकार कर लिया। राज्यच्युत राजा बाहुक अपनी रानियों के साथ वन में चला गया। वनवासकाल में बाहुक की एक रानी ने गर्भ धारण किया किन्तु पुत्र का मुख देखने से पूर्व ही बाहुक का देहावसान हो गया। समय पर बाहक की रानी ने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम सगर रखा गया। सगर शैशवकाल से ही बड़ा प्रोजस्वी था। उसने महर्षि प्रौर्व के पास समस्त विद्याओं का अध्ययन किया। अपने समय के अप्रतिम धनुर्धर सगर ने युवावस्था में पदार्पण करते ही अपने शत्रुओं पर भीषण आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया और अपने वंशपरम्परागत अयोध्या के राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया ! अयोध्या के राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही सगर के अन्तर में प्रतिशोध की अग्नि प्रचण्ड रूप से प्रज्वलित हो उठी। वह अपने पिता पर आक्रमण करने वाले हैहय आदि क्षत्रियों का सर्वनाश करने पर उतारू हो गया। सगर के भय के कारण उसके शत्रु सुदूर देशों की ओर पलायन कर गये। सगर ने वहां पर भी उनका पीछा किया और उन्हें वह चुन-चुनकर मारने लगा। अन्ततोगत्वा प्रौर्वऋषि द्वारा बीच-बचाव करने पर सगर ने उन क्षत्रियों को विरूप और बहिष्कृत कर उन्हें प्राण-दान दिया।' इस घटना के पश्चात् तालजंघों, हैहयों, शकों प्रादि क्षत्रियों को अन्य क्षत्रियों द्वारा कुछ हीन समझा जाने लगा। कालान्तर में समय-समय पर परस्पर बिगड़े हुए ये सम्बन्ध कुछ सुधरे पर यादवों के प्रति रुक्मी और शिशुपाल द्वारा प्रयुक्त किये गये कटु वाकप्रहारों, जातीय हीनतासूचक कटाक्षों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि महाभारत काल तक इक्ष्वाकु आदि जातियों के क्षत्रिय यदुवंशियों, हैहयों आदि को अपने से हीन समझते रहे हैं। ' भएकस्तरसुतस्तस्माद् वृकस्तस्यापि बाहुकः । सोऽरिभितभू राजा सभार्यो वनमाविशत् ।।२।। वृद्ध तं पंचता प्राप्तं महिष्यनु मरिष्यती। मौर्वेण जानतात्मानं प्रजावन्तं निवारिता ॥३॥ प्राज्ञायास्य सपत्नीभिगरी दत्तोऽन्यसा सह । सह तेनैव संजातः सगरास्यो महायशाः ।।४।। सगरश्चक्रवर्त्यासीत सागरो यत्सुतैः कृतः । यस्तालजंघान् यवनानछकान हैहयबर्बरान् ॥५॥ नावधीद् गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः । [भागवत्, स्कन्ध ६ म०८] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु का संक्षिप्त परिचय ]. केवलिकाल : भायं जम्बू २५३ इस परम्परागत जातिविद्वेष के कारण तो वैशाली के महाराज चेटक मगधपति श्रेणिक को वाहीक नहीं कह सकते क्योंकि वे स्वयं हैहय वंश की लिच्छवी जाति के क्षत्रिय थे और मगधपति श्रेणिक वज्जी (व्रिज्जी) जाति के हैहयवंशी क्षत्रिय । ऐसी दशा में चेटक द्वारा श्रेणिक के लिये "वाहीककुलजो " कहने के दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि महाराजा श्रेणिक महाराजा चेटक की इच्छानुसार गरगराज्य व्यवस्था में सम्मिलित नहीं हुए इसलिये उन्हें वाहीक कहा हो। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि श्रेणिक के पूर्वज हैहयवंशी क्षत्रिय होने पर भी किसी संक्रान्तिकाल में किसी ( टर्की आदि) ऐसे प्रदेश में रह चुके हों जिसे उस समय अनार्य देश समझा जाता हो । युक्ति की कसौटी पर कसे जाने के अनन्तर यह दूसरा कारण केवल काल्पनिक ही ठहरता है, क्योंकि सगर के समय में कौन लोग कहां-कहां गये थे इसका लेखा-जोखा अनेक सहस्राब्दियों तक रखना नितांत असाध्य ही समझा जायगा । पहला कारण युक्तिसंगत माना जा सकता है । हैहयवंशी समस्त कुलों के क्षत्रियों ने संगठित हो कर वैशाली गणराज्य की स्थापना की, उस समय उन सब लोगों ने मगध के हैहयवंशी शासकों को उस संघ में सम्मिलित होने के लिये बहुत श्राग्रह किया होगा पर मगध के शासकों द्वारा उनकी प्रार्थना को पूर्णरूपेण ठुकरा दिये जाने के पश्चात् ६ मल्ली, εलिच्छवी राजाओं ने मगध के राज्यवंश के प्रति क्षोभ प्रकट करते हुए उसे वाहीक ( बहिष्कृत) घोषित कर दिया होगा । इस प्रकार की घोषणा के पीछे जातीय हीनता अथवा उच्चता कारण न बन कर राजनैतिक (सैद्धान्तिक ) मतभेद ही कारण रहा होगा । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि व्रिज्जी शाखा के ये हैहयवंशी शासक शिशुनागवंशी किस कारण से कहलाये । शिशुनागवंश की स्थापना के सम्बन्ध में वायुपुराण में विवरण दिया गया है कि वाराणसी में शिशुनाक नामक राजा होगा । वह अपने पुत्र शकवर्ण ( काकवर्ण) को वाराणसी के राज्य का स्वामी बना कर स्वयं गिरिव्रज के राज्य का स्वामी बनेगा ।" हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनाको भविष्यति ॥ १७३ ॥ वाराणस्यां सुतस्तस्य, संप्राप्स्यति गिरिव्रजम् । शिशुनाकस्य वर्षाणि चत्वारिंशद् भविष्यति ॥ १७४।। [ वायु पुराण, म० ६१] नोट : वायु पुराण में शिशुनाक को प्रद्योतों के पश्चात् बताया गया है यह ठीक नहीं है। " श्लोक संख्या १६८ के तृतीय पाद" बृहद्रश्रेश्वतीतेषु" के संदर्भ में ही 'शिशुनाको भविष्यति' पढ़ना चाहिये। क्योंकि प्रद्योत वंश का संस्थापक चण्ड प्रद्योत भगवान् महावीर, बुद्ध और श्रेणिक का समकालीन था इस तथ्य को बौद्ध और जैन दोनों परम्पराएं एक मत से स्वीकार करती हैं । सम्पादक Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५४ ३६ ॥ २५" २५ ॥ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशु० का सं० परिचय मत्स्यपुराण, वायुपुराण, श्रीमद्भागवतपुराण और जैन तथा बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में मगध के इस प्रतापी राजवंश के सम्बन्ध में जो सामग्री उपलब्ध है, उसके सम्यक पर्यालोचन से शिशुनाग द्वारा वाराणसी में इस नवीन राजवंश की स्थापना का समय तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के पिता काशिपति महाराज अश्वसेन के स्वर्गगमन के पश्चात् ईसा पूर्व ८वीं शताब्दी के आसपास का निकलता है। श्रीमद्भागवतपुराण में शिशुनाग से ले कर महामन्दी तक नागदशकों (शिशुनागवंशी दश राजाओं) का शासनकाल समष्टि रूप से ३६० वर्ष बताया गया है।' वायुपुराण में इन नागदशकों का राज्यकाल ३६२ वर्ष और क्रपशः प्रत्येक राजा का राज्यकाल निम्नलिखित रूप से बताया गया है :राजा का नाम शासनकाल १. शिशुनाक ४० वर्ष २. शकवर्ण (काकवर्ण) ३. क्षेमवर्मा २०, ४. अजातशत्रु ५. क्षत्रौजा (प्रसेनजित्) ६. बिंबिसार (श्रेरिणक) २८ ॥ ७. दर्शक (कूणिक-अजातशत्रु) ८. उदायी ३३ । ६. नन्दिवर्धन ४२ ॥ १०. महानन्दी ४३ , इन दश का सब मिला कर शासनकाल : ३३२ वर्ष इस प्रकार इन. शिशुनागवंशी दस राजाओं का पृथक्-पृथक् राज्यकाल उल्लिखित करने के पश्चात् वायुपुराणकार ने लिखा है :- . इत्येते भवितारो वै, शैशुनाका नृपा दश । शतानि त्रीणि वर्षाणि, द्विषष्ट्यभ्यधिकानि तु ॥१८०।। अ० ६१ . अर्थात् ये दश शिशुनागवंशी राजा होंगे जिनका कि ३६२ वर्ष (तीन सौ. बासठ वर्ष) तक शासन रहेगा। किन्तु इन दशों राजाओं का पृथक्-पृथक् जो शासनकाल दिया गया है, उस सबको जोड़ने पर ३६२ वर्ष के स्थान पर ३३२ वर्ष का ही होता है। वायु पुराणकार द्वारा इस प्रकार इन राजाओं का पृथक् २ जो शासनकाल बताया गया है, उसमें निश्चित रूप से किसी शासक का ३० वर्ष का शासनकाल जोड़ना रह गया है। इसी कारण समष्टि रूप से जो ३६२ वर्ष ' शिशुनागा दर्शवते षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ।७ समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं, कुरुश्रेष्ठ कलो नृपाः । [भागवत्, स्कंध १२, प्र० १] २ वायुपुराण, प्र. ६१, श्लोक १७४ से १८० । . -- Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु का संक्षिप्त परिचय] केवलिकाल : मार्य जम्बू २५५ का इन नागदशकों का शासनकाल बताया है वह प्रत्येक राजा के पृथक्-पृथक् दिये गये शासनकाल को जोड़ने पर ३३२ ही होता है। इसी प्रकार की भूल नामों के सम्बन्ध में भी हुई है जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न पुराणों में उल्लिखित इन नागदशकों के नामों में भी विभेद पाया जाता है। मत्स्य पुराण में नागदशकों के स्थान पर १२ नागवंशी राजामों के नाम व शासनकाल के सम्बन्ध में जो विवरण दिया गया है, वह इस प्रकार है : "वाराणसी का राज्यसिंहासन अपने पुत्र काकवर्ण को सम्हलाकर शिशुनाग गिरिखम में प्रायेगा। शिशुनाग का मगध पर ४० वर्ष, काकवर्ण का २६ वर्ष, क्षैमवर्मा का ३६ वर्ष, क्षेमजित् का २४ वर्ष, विन्ध्यसेन का २८ वर्ष, काण्वायन का ६ वर्ष, उसके पुत्र भूमिमित्र का १४ वर्ष, प्रजातशत्रु का २७ वर्ष, वंशक का २४ वर्ष, उदासी (उदायी) का ३३ वर्ष, नन्दिवर्धन का ४० वर्ष और महानन्दी का ४३ वर्ष राज्य होगा। ये १२ शिशुनागवंशी राजा.३६० वर्ष तक राज्य करेंगे।' इन १२ शिशुनागवंशी राजाओं के पृथक्-पृथक् शासनकाल को जोड़ने पर कुल ३४४ वर्ष ही होते हैं किन्तु समष्टिरूप से पुराणकार ने ३६० वर्ष का इनका शासनकाल लिखा है। यह सम्भव है कि काकवर्ण को वाराणसी का राज्य देने एवं शिशुनाग द्वारा मगध के राज्य सिंहासन पर अंधिकार करने से पूर्व शिशुनाग का वाराणसी राज्य पर १६ वर्ष तक शासन रहा हो और पुराणकार ने वाराणसी पर शिशुनागवंशियों के शासनकाल को मगध के शासनकाल के साथ जोड़ कर ३६० की गणना पूरी की हो। उपयुक्त तीनों पुराणों में नागदशकों का कुल मिला कर ३६० - ३६२ वर्ष का शासनकाल माना है। . अब हमें इन मगध के शासकों के शासनकाल के सम्बन्ध में जो जैन वाङमय में उल्लेख उपलब्ध हैं, उनकी ओर दृष्टिपात करना होगा। भगवान् महावीर की केवलिचर्या के तेरहवें वर्ष में मगध पर कूणिक के शासन का उन्लेख उपलब्ध होता है । इस वर्ष से पहले अथवा इसी वर्ष में कूणिक मगध की राजधानी को राजगह से चम्पा में स्थानान्तरित कर चुका था। इससे यह फलित होता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के समय अर्थात् ईसा पूर्व ५२७ में शिशुनाग वंश के ७वें शासक कृरिणक के मगध पर शासनकाल के लगभग १७ वर्ष व्यतीत हो चुके थे । इस प्रकार शिशुनाग के शासनकाल के ४० वर्ष, काकवर्ण के ३६, क्षेमवर्मा के २०, अजातशत्रु के २५, क्षत्रीजा (प्रसेनजित्) के ४०, बिम्बिसार (श्रेणिक) के २८ वर्ष और कूरिणक के महावीर निर्वाणकाल तक १७. वर्ष इस प्रकार इन शिशुनागवंशी ७ राजाओं का कुल मिला कर २०६ वर्ष का . शासनकाल होता है और पुराणकार जो ३० वर्ष का समय जोड़ने में भूल बैठे ' मत्स्यपुराण, म. २७१ श्लोक ५ से १२ २ जन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० ४१७ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशु० का सं० परिचय उस ३० वर्ष के शासनकाल को इसमें जोड़ने पर ईसा पूर्व ७६३ में शिशुनागवंश के संस्थापक एवं मूलपुरुष शिशुनाग द्वारा वाराणसी के राज्य सिंहासन पर आसीन होना सिद्ध होता है। भगवान् पार्श्वनाथ का निर्वाण ईसा पूर्व ७७७ में हुआ। इन सब तथ्यों पर विचार करने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकुवंशी वृहद्रथ राजाओं की परम्परा में हुए वाराणसी के महाराजा अश्वसेन के स्वर्गगमन के पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण हा और भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण के १४ वर्ष पश्चात् शिशुनाग वाराणसी का राजा बना। वाराणसी के राज्य सिंहासन पर शिशुनाग ने किस समय में अधिकार किया इस समस्या का निर्णायक हल करने में एक और तथ्य सहायक हो सकता है । वह यह है कि भगवान पार्श्वनाथ के पंचम पट्टधर प्रार्य केशी मगध सम्राट बिंबसार (श्रेणिक) के समय में विद्यमान थे। वायुपुराण और भागवतपुराण के उल्लेखों के अनुसार श्रेणिक शिशुनागवंश का छठा राजा और मत्स्यपुराण के उल्लेखानुसार ८वां राजा था। भगवान पार्श्वनाथ के ५वें पट्टधर की विद्यमानता में शिशुनागवंश का छठा अथवा पाठवां वंशज विद्यमान हो इस अनुमान के सहारे यह मानना असंगत नहीं कहा जा सकता कि शिशुनाग ने भगवान् पार्श्वनाथ के पिता वाराणसीपति महाराजा अश्वसेन के देहावसान के कुछ ही समय पश्चात् अथवा तत्काल पश्चात् वाराणसी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया हो। इन सब तथ्यों पर समीचीनतया विचार करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महाराज अश्वसेन के स्वर्गगमन के पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ की विद्यमानता में ही शिशुनाग ने वाराणसी के राज्य पर अधिकार कर लिया था। मगध पर उदायी का शासनकाल मगध के महान् प्रतापी एवं महत्त्वाकांक्षी महाराजा कूणिक की मृत्यु के पश्चात् वीर निर्वाण सं० १८-१६ में मगध के राज्यसिंहासन पर कूरिणक के पुत्र उदायी का अभिषेक किया गया। उदायी भी अपने पिता और पितामह की ही तरह बड़ा शक्तिशाली और न्यायप्रिय शासक था। जैनधर्म के प्रति उसकी प्रगाढ़ श्रद्धा और भक्ति थी। उसने न केवल प्रजा को सुशासन ही दिया अपितु पैतृक परम्परा से प्राप्त मगध के राज्य की शक्ति, सीमा, यशकीर्ति, श्री और समृद्धि में भी उत्तरोत्तर अभिवृद्धि की। जिस प्रकार कुणिक ने अपने पिता श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् मगध राज्य की राजधानी राजगृह से हटाकर चम्पा में प्रतिष्ठापित की, उसी प्रकार कूरिणक की मृत्यु के पश्चात् उदायी ने भी मगध की राजधानी को चम्पा से किसी अन्य स्थान पर ले जाने का विचार किया। उस समय के विशाल मगधराज्य के अनुरूप ही राजधानी के लिये उपयुक्त स्थान की खोज हेतु विशेषज्ञों और नैमित्तिकों के दल चारों ओर प्रेषित किये गये। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'केवलिकाल : भ्रायं जम्बू पाटलीपुत्र का निर्माण उनमें से विशेषज्ञों का एक दल अनेक स्थानों के गुणदोष देखता हुमा गंगा नदी के तट पर पहुंचा। वहां उन निमित्तशास्त्र के विशेषज्ञों ने सुन्दर पुष्पों से प्राच्छादित एक पाटली (केसूला- रोहीड़ा) वृक्ष देखा जिस पर (चाष) नीलकण्ठ पक्षी अपना मुख खोले बैठा हुआ था और चारों ओर से कोट-पतंगे स्वतः हीं श्रा श्राकर उसके मुख में प्रवेश कर रहे थे । इस प्रकार का अद्भुत दृश्य देखकर नैमित्तिकों को बड़ा प्राश्चर्य हुआ । परस्पर विचार-विनिमय के पश्चात् उन लोगों ने यह मन्तव्य अभिव्यक्त किया कि इस स्थान में कोई अद्भुत विशेषता है । जिस प्रकार इस चाष पक्षी के मुख में कीट-पतंगे स्वयमेव श्रा प्राकर गिर रहे हैं, ठीक उसी प्रकार यदि इस स्थान पर नगर बसा दिया जाय तो उस नगर में रहने वाले पुण्यवान् नृपति के पास दूर-दूर से धन-सम्पत्ति स्वतः ही ग्रा ग्राकर एकत्रित होगी । ' वस्तुस्थिति पर विचार-विमर्श करते समय उनमें से एक प्रतिवृद्ध नैमित्तिक ने कहा - " बन्धुओ ! यह कोई सामान्य पाटलवृक्ष नहीं है । ज्ञानियों द्वारा इसकी . बड़ी महिमा बतायी गई है : + यह प्रतिकापुत्र केवली के कपाल में पड़े हुए पाटली बीज का ही विशाल रूप है । २५७ प्राचीन काल में दक्षिरण मथुरा और उत्तर मथुरा नामक दो नगरियां थीं । उत्तरमथुरा का निवासी देवदत्त नामक एक युवा व्यवसायी देशाटन करता हुआ दक्षिण मथुरा में पहुंचा । दक्षिण मथुरा के निवासी जयसिंह नामक एक वणिक् पुत्र से देवदत्त की मित्रता हो गई। एक दिन जयसिंह द्वारा निमन्त्रण पाकर देवदत्त जयसिंह के घर भोजनार्थं गया । जयसिंह की रूपगुणसंपन्ना बहिन, कुमारी प्रनिका ने अपने सहोदर और उसके सखा को षड्रसयुक्त स्वादिष्ट भोजन कराया । प्रतिका के रूप लावण्य को देखकर देवदत्त उस पर आसक्त हो गया । दूसरे दिन देवदत्त ने जयसिंह के पास एक प्रस्ताव भेजा, जिसमें उसने. पत्रिका के साथ अपना विवाह करने की प्रार्थना की। जयसिंह ने इस शर्त के साथ विवाह करने का सन्देश भेजा कि उसकी बहिन अनिका उसे प्रारणों से भी अधिक प्रिय है, वह एक क्षरण के लिए भी उसे दूर नहीं रख सकता । यदि देवदत्त यह प्रतिज्ञा करे कि विवाह होने पर जब तक प्रनिका पुत्रवती न हो तब तक वह प्रनिका सहित उसके घर पर ही रहेगा, तो वह देवदत्त के साथ अपनी बहिन fair का विवाह करने को तैयार है ? ते चिन्तयत्रिहो शे, पक्षिरणोऽस्य यथा मुखे । कीटिकाः स्वयमागत्य, निपतन्ति निरन्तरम् ||३८|| तथास्मिन्नुत्तमे स्थाने, नगरेऽपि निवेशिते । राश: पुण्यात्मनोऽमुष्य, स्वयमेष्यन्ति सम्पदः || ३६ | [ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६ ] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण देवदत्त अनिका के गुणों और रूपराशि पर इतना विमुग्ध हो गया था कि उसने अपने वृद्ध माता-पिता का विचार किये बिना ही जयसिंह द्वारा रखी गई शर्त को स्वीकार कर लिया। अपनी शर्त के स्वीकृत हो जाने पर जयसिंह ने देवदत्त के साथ अनिका का विवाह कर दिया और नवदम्पती बड़े प्रानन्द के साथ रहने लगे। अनिका के प्रेमपाश में आबद्ध देवदत्त ने अपने वृद्ध माता-पिता की वर्षों तक कोई सुध-बुध नहीं ली। पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने पर एक दिन देवदत्त के पास उत्तरमथुरा से उसके माता-पिता का पत्र आया। उस पत्र में लिखा हुआ था- "चिरंजीवीपुत्र ! अब हम दोनों चक्षुविहीन एवं वृद्धावस्था के कारण शिथिलांग हो गये हैं और कराल काल के गाल में जाने ही वाले हैं। हमारी मृत्यु के पहले यदि तुम एक बार पाकर हमसे मिल लो तो हमारे हृदय को शान्ति मिल सकेगी।" अपने वृद्धमाता-पिता का पत्र पढ़ते ही देवदत्त की प्रांखोंसे अश्रुओं की धाराएं बहने लगीं। वह बार-बार पत्र को पढ़ने लगा और उसका प्रथुप्रवाह बढ़ता ही गया। अपने पति को दाम्पत्य जीवन में पहली बार इस प्रकार रोते देखकर अनिका ने उससे शोक का कारण पूछा और उससे किसी प्रकार का उत्तर न मिलने पर अनिका ने देवदत्त के हाथ से वह पत्र लेकर एक ही सांस में पढ़ डाला। पत्र को पढ़ते ही वह सारी स्थिति को समझ गई। अनिका तत्काल अपने भाई के पास पहुंची और उसे सब बात समझाकर उसने उत्तर मथुरा जाने की अनुमति प्राप्त करली। - देवदत्त और अनिका जिस समय अपने सेवकों के साथ उत्तर मथुरा की मोर प्रस्थित हुए, उस समय अनिका गर्भवती थी। उत्तर मथुरा की.पोर यात्रा करते हुए मार्ग में अनिका ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । उत्तर मथुरा पहुंचने पर शिम् के पितामह और पितामही ही इसका नाम रखेंगे, यह सोच कर देवदत्त और अनिका ने उस शिशु का कोई नाम नहीं रखा । साथ के लोग उसे अग्निकापुत्र कह कर सम्बोधित करने लगे। कुछ ही समय पश्चात् देवदत्त ने अपने घर पहेच कर अपने वृद्ध माता-पिता को प्रणाम किया और उस शिशु को उनकी गोद में रखते हुए कहा - "विदेश में रहते हुए मैंने जो कुछ अजित किया है, वह यह लीजिये ।" पौत्र को गले से लगा कर वृद्ध दम्पती अति प्रसन्न हुए और अपना पहले का सब दुःख भूल गये । उन्होंने अपने पौत्र का नाम सन्धीरण (धर्य बंधाने वाला) रखा पर सबको अनिकापुत्र सम्बोधन बड़ा प्रिय लगता था अतः वह बालक अग्निकापुत्र के नाम से ही पहचाना जाने लगा। लालन-पालन के साथ-साथ अध्ययन योग्य वय होने पर अग्निकापुत्र को शिक्षा दिलाने का समुचित प्रबन्ध किया गया। सभी विद्याओं में निष्णातता प्राप्त करने के साथ-साथ अग्निकापुत्र ने युवावस्था में प्रवेश किया। अग्निकापुत्र ने युवावस्था में ही भोगों का विषवत् परित्याग कर प्राचार्य जयसिंह के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण की । दीक्षित होने के पश्चात् श्रमण Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलीपुत्र का निर्माण] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू '२.५६ अग्निकापुत्र ने सभी शास्त्रों का समीचीन रूप से अध्ययन किया । निरतिचाररूप से विशुद्ध संयम का पालन करते हुए अग्निकापुत्र में दुष्कर घोरातिघोर तपश्चरण द्वारा अपने पूर्वसंचित कर्मसमूह को ध्वस्त करना प्रारम्भ किया। प्राचार्य जयसिंह ने अग्निकापुत्र को सभी भांति सुयोग्य समझ कर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और उनके दिवंगत होने पर अग्निकापुत्र प्राचार्य बने। एक समय वे अपने श्रमणसंघ के साथ विचरण करते हए गंगातट पर बसी हुई पुष्पभद्रा नगरी में आये । उस समय पुष्पभद्रा नगरी पर पुष्पचूल नामक राजा का शासन था। उसकी रानी का नाम पुष्पचूला था जो कि वस्तुतः उस (पुष्पचूल) के साथ युगल रूप से उत्पन्न हई उसकी सहोदरा थी । युगल रूप से उत्पन्न हए उन दोनों बहिन-भाइयों में प्रगाढ़ स्नेह था। उनके पिता महाराज पुष्पकेतु ने अपने पूत्र और पूत्री का प्रगाढ़ स्नेह देख कर लोकनियम के विरुद्ध उनका विवाह कर दिया। इस अनंतिक विवाह सम्बन्ध से दुखित हो पुष्पचूल और पुष्पचूला की माता पुष्पवती ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और अनेक वर्षों तक तपश्चरण करके अन्त में समाधिमरण द्वारा देवत्त्व प्राप्त किया । राजा पुष्पकेतु की मृत्यु के पश्चात् पुष्पचूल पुष्पभद्रा के राज्य सिंहासन पर बैठः और वे दोनों वहिन-भाई अनेक वर्षों तक पति-पत्नी रूप से दाम्पत्य जीवन बिताने लगे । देवरूप से उत्पन्न हुई पुष्पवती ने पूर्व स्नेहवश सोचा कि इस लोकविरुद्ध वैवाहिक सम्बन्ध और विषयभोगों में भासक्त रहने के कारण पुष्पचूला कहीं नरक में न चली जाय । पुष्पचूला के भावी जीवन को सुधारने की इच्छा से प्रेरित हो उस देव ने पुष्पचूला को स्वप्नों में नरक के दारुण दृश्य दिखाने प्रारम्भ किये । स्वप्न में उन अत्यन्त दुखदायक दृश्यों को देखने के कारण पुष्पचूला अहर्निश कांपती हुई शोकसमुद्र में डूबी रहती । पुष्पचूल द्वारा चिन्ता का कारण पूछने पर पुष्पचूला ने स्वप्न में देखे गये घोर कष्टदायक दृश्यों का विवरण सुनाया। पुष्पचूल ने अनेक प्रकार के शान्तिपाठ करवाये पर देव पूष्पचूला को स्वप्नों में नरक के पहले दिखाये गये दृश्यों से पौर अधिक भयंकर दृश्य दिखाने लगा। राजा ने अनेक पाखण्डियों को बुला कर पुष्पचूला द्वारा देखे गये स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछा पर कोई पुष्पचूला . द्वारा देखे गये दृश्यों का यथातथ्यरूपेण चित्रण कर उसको जिज्ञासा को शान्त करने में समर्थ नहीं हो सका। मनिकापुत्र के प्रागमन का समाचार सुन कर राजा और रानी ने उनसे भी उन स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछा । पत्रिका पुत्र ने नरकों के नामोल्लेख के साथ-साथ पुष्पचूला द्वारा देखे गये सभी स्वप्नों का ठीक उसी प्रकार से वर्णन किया जिस प्रकार से उसने (पुष्पचूला ने) स्वप्नों में देखा था। अपने स्वप्नों का बिना किसी न्यूनाधिक्य से वास्तविक चित्रण सुन कर पुष्पचूला ने प्रश्न किया- "भगवन् ! क्या मापने भी कभी इस प्रकार के स्वप्न देते हैं, जिसके कारण पाप उन स्वप्नों का ठीक उसी प्रकार से वर्णन कर रहे हैं, जैसा कि मैंने देखा था?" Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण प्राचार्य अनिकापुत्र ने कहा - "श्राविके ! मैंने कभी इस प्रकार के स्वप्न नहीं देखे पर बिना देखी हुई बातें भी जिनागमों से देखी हई के समान मालूम हो जाती हैं। मंमार में एक भी ऐसी वस्तु नहीं, जो जैन प्रागमों के द्वारा नहीं जानी जा सकती हो।" पुष्पचूला ने प्रश्न किया-"भगवन् ! इस प्रकार के घोर दुःखों से पूर्ण नरकों में जीव किस कारण उत्पन्न होता है ?" अनिकापुत्र ने उत्तर दिया- 'घोर प्रारम्भ-परिग्रह, गुरु के प्रति अविनय, मद्य-मांससेवन, द्यूत, परस्त्री-परपुरुष-गमन, विषयासक्ति, पंचेन्द्रियवध आदि पापों के कारण जीव घोरातिघोर नरकों में उत्पन्न हो अनेक प्रकार के दारुण दुःख भोगता है।" अनिकापुत्र द्वारा किये गये अपने स्वप्नों के समाधान से पुष्पचूला को पूर्ण संतोष प्राप्त हुआ और वह अपने राजप्रासाद में लौट गई। उस रात्रि में देव ने उसे स्वर्ग के अत्यन्त मनोहारी एवं असीम प्रानन्दोत्पादक दृश्य दिखाये।" प्रातःकाल पुष्पचूला ने अनिकापुत्र से अपने इन नवीन सुखद स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछा । अनिकापुत्र ने द्वादश देवलोकों, अनुत्तरविमानों आदि के देवों की महद्धि, सुदीर्घायु, शक्ति, ऐश्वर्य एवं सुख प्रादि का वर्णन करते हुए कहा कि अरिहंत, गुरु, साधु और धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति रखने वाले प्राणी के लिये स्वर्गसुखों की प्राप्ति एक साधारण एवं सुसाध्य कार्य है । सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक्चारित्र से प्राणी समस्त कर्मसमूह को ध्वस्त कर परमपद निर्वाण प्राप्त करता है। मनिकापुत्र द्वारा किये गये विवेचन से पुष्पचूला ने संसार का वास्तविक स्वरूप समझ लिया । उसने संसार के घोर दुखों से सदा के लिये अपना उद्धार करने का दृढ़ संकल्प अभिव्यक्त करते हुए अग्निकापुत्र से प्रार्थना की - "भगवन् ! मुझे इस संसार से विरक्ति हो गई है, मैं अपने पति से प्राज्ञा लेकर प्रापके पास संयम ग्रहण करूंगी।" पुष्पचूला ने राजप्रासाद में लौट कर अपने पति के समक्ष अपनी प्रान्तरिक अभिलाषा प्रकट करते हुए कहा - "देव ! मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं प्रवजित हो तपश्चरणपूर्वक संसृति के दुःखों के मूल कारण कर्मसमूह का समूल नाश करूंगी। मुझे प्राज्ञा दीजिये, मैं प्रषित होना चाहती हूं।" पुष्पचूल ने अपनी पत्नी के दृढ़निश्चय को देख कर कहा- "मैं तुम्हें उस ही दशा में प्रवजित होने की प्राज्ञा दे सकता हूं जब कि तुम यह प्रतिज्ञा करो कि प्रजित होने के पश्चात् भी तुम इस राजप्रासाद के ही किसी एक स्थान में रहोगी पोर राजप्रासाद से ही भीक्षा ग्रहण करोगी।" Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलीपुत्र का निर्माण ] केवलिकाल : प्राय जम्बू २६१. पुष्पचूला ने अपने पति के उस आग्रह को स्वीकार कर दीक्षा ग्रहण कर ली एवं पूर्णरूपेण निर्दोष श्रमणाचार का पालन करते हुए शास्त्रों का अध्ययन किया और वह राजप्रासाद में रहकर घोर तपश्चर्याएं करने लगी । कालान्तर में निकापुत्र ने अपने ज्ञान से भावी द्वादशवार्षिक भीषरण दुष्काल का ग्रागमन जान कर अपने श्रमरणसंघ को अन्यत्र भेज दिया और वे जराजीर्ण शिथिलांग होने के कारण पुष्पभद्रा नगरी में ही रहे । वृद्धावस्था के कारण अनिकापुत्र को चलने फिरने में भी कठिनाई होती थी अतः आर्या पुष्पचूला प्रतिदिन राजप्रासाद के अन्तःपुर से निर्दोष प्राहार- पानी समय पर ला कर देती । संसार की प्रसारता के चिन्तन एवं अपने वृद्ध गुरु feng की बड़ी लगन के साथ उत्कट भावना से सेवा करने के फलस्वरूप पुष्पचूला को एक दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई । अब तो पुष्पचला केवलज्ञान की धारिका होने के काररण अनिकापुत्र के मन में जिस-जिस कार्य अथवा वस्तु के लिये विचार उत्पन्न होता उसे तत्काल पूर्ण कर देती । एक दिन प्रत्रिकापुत्र ने पूछा - "जिस वस्तु की जिस समय मैं इच्छा करता हूं, तत्काल वह वस्तु मुझे मिल जाती है । तुम्हें मेरे मनोगत विचारों का ज्ञान कैसे हो जाता है ?" पुष्पचूला ने उत्तर दिया- "भगवन् ! मैं आपकी रुचि को पहचानती हूं।" एक दिन वर्षा हो रही थी, उस समय पुष्पचूला ने आहार ला कर अनिकापुत्र के समक्ष रखा। उन्होंने कहा- "तुम तो श्रमरणाचार को सुचारु रूप से जानने वाली और सम्यकरूपेरण पालन करने वाली हो, फिर इस वर्षा में तुम प्राहार ले कर कैसे भाई ?"" पुष्पचूला ने कहा- "भगवन् ! जिस मार्ग में पानी प्रचित्त हो गया, उस मार्ग से मैं प्राहार- पानी लायी हूं । अतः प्राहार लाने में किसी प्रकार का प्रायश्चित्तं नहीं लगा है ।" " वत्से ! तुमने यह कैसे जान लिया कि उस मार्ग में अप्काय (जल) प्रचि (जीवरहित ) हो गया है ?" अनिकापुत्र ने साश्चर्य प्रश्न किया । केवली 'पुष्पचूला ने कहा - "भगवन् ! मुझे केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई है।" यह सुनते ही अनिकापुत्र ने पश्चात्ताप भरे स्वर में कहा - "भगवती ! श्राप मुझे क्षमा करें। मैंने केवलज्ञानी की प्रासातना की है। मेरा वह पाप निष्फल हो जाय ।" अत्यन्त जिज्ञासापूर्ण स्वर में अनिकापुत्र ने केवली पुष्पचूला से पूछा"प्रभो ! मुझे निर्वारण की प्राप्ति होगी अथवा नहीं ?" केवली पुष्पचूलां ने कहा- " प्राप चिन्ता न करें ! गंगा नदी को पार करते समय आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हो जायगी ।" Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण यह सुन कर अन्त्रिकापुत्र केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रत्यन्त उत्कण्ठित हो गंगा की ओर चल पड़े । गंगातट पर पहुंच कर निकापुत्र भी अन्य लोगों के साथ नाव में बैठे । नाव गंगानदी में प्रवाहित की गई । नाव जब गंगा के मध्यभाग में पहुंची तो अचानक उस ओर से पानी में डूबने लगी जिस मोर कि अनिकापुत्र बैठे हुए थे। यह देख कर अग्निकापुत्र नाव में दूसरी ओर बैठे। उनके बैठते ही नाव उस ओर से पानी में डूबने लगी। जिस-जिस मोर मनिकापुत्र सरकते, नाव उस ही ओर से पानी में डूबने लगतो। अन्त में अग्निकापुत्र नाव के बीच में बैठे तो पूरी नाव ही पानी में डूबने लगी । यह देख कर नाव में बैठे हुए अन्य व्यक्तियों ने अग्निकापुत्र को उठा कर गंगा के प्रवाह में फेंक दिया।' अग्निकापूत्र शान्तभाव से प्राणिमात्र पर दया रखते हुए विचार करने लगे- "मेरे इस शरीर के द्वारा पानी के कितने जीवों का विनाश हो रहा है ?" इस प्रकार का विचार करते-करते अग्निकापुत्र का चिन्तन अपकश्रेणी पर प्रारूढ़ हुआ और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान की प्राप्ति के तत्काल पश्चात् अग्निकापुत्र शुक्लध्यान के तीजे और चौथे चरण में प्रविष्ट हुए और उस ही समय समस्त कर्मों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त हुए। __ मत्स्य, मच्छ आदि जलचर प्राणियों ने मुनि के पार्थिव शरीर को खा डाला और उनकी करोटी(ठुड्डी सहित कपाल)धड़ से अलग हो गंगा की धाराओं में इधर-उधर बहती हुई गंगा के किनारे एक स्थान पर प्रा लगी। संयोगवश पाटली वृक्ष का बीज उस करोटी में पा घुसा और कुछ ही समय पश्चात् उस करोटी की दाहिनी हनु (ठुड्डी) को फोड़ कर एक पाटल वृक्ष का छोटा सा पौधा अंकुरित हुआ। वह पौधा समय पाकर विशाल वृक्ष का रूप धारण कर गया। यह वही पाटली का पवित्र वृक्ष है, जिस पर कि यह चाष पक्षी बैठा हुआ है।" वृद्ध नैमित्तिक से पाटली वृक्ष के सम्बन्ध में सारा विवरण सुन कर अन्य सभी नैमित्तिक पाश्चर्यभरी दृष्टि से उस पाटली वृक्ष को देखने लगे। 'मावश्यक चूणि । मावश्यक हारिभद्रीया, पत्र ६८९ (ख) प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि ज्यों ही मनिकापुत्र को गंगानदी में फेंका गया त्यों ही पूर्वजन्म में वैर रखने वाली एक व्यन्तरी ने उन्हें धूल पर उठा लिया । शूल से विधे हुए पनिकापुत्र ने उत्कट भावनाओं के माध्यम से केवलज्ञान प्राप्त किया और तत्काल वे मुक्त हुए। यथा : ततो नौस्थितलोकेन, सूरिः विपि वारिणि । शूले न्यधात्प्रवचनप्रत्यनीकामरी व तम् ।।१६।। शूलपोतो पि गंगान्तः मूरिश्वमचिन्तयत् । महो वपुर्ममानेकप्राण्युपद्रवकारणम् ॥१६६॥ [परिशिष्टपर्व, सर्ग ६] Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलीपुत्र का निर्माण! केवलौकाल : आर्य जम्बू २६३ तदनन्तर वह विशेषज्ञों का दल मगध की राजधानी के लिये नवीन नगर बसाने हेतु उस स्थान को सर्वश्रेष्ठ स्थान निश्चित कर महाराज उदायी के पास चम्पा पहुंचा। उन लोगों से उस स्थान की विशेषता और महिमा सुन कर मगधपति उदायी बड़ा प्रसन्न हुप्रा । उसने मुख्यामात्य को आदेश दिया कि शुभ मुहूर्त में गंगा के तट पर पाटली वृक्ष के पास नगर के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया जाय। महाराज उदायी के आदेशानुसार इस कार्य से सम्बन्धित मगध के उच्च निर्माण अधिकारी, स्थापत्य एवं वास्तुकला के लब्धप्रतिष्ठ शिल्पी, निमित्तज्ञ और हजारों कर्मकार गंगातट पर पाटली वृक्ष के पास पहुंचे। नगरी के लिये प्रावश्यक भूमि का माप करना प्रारम्भ किया गया। नाप करने के लिये सांकलें (जरी) डाली जाने लगीं। मुख्य नैमित्तिक ने कहा - "डोरी को पकड़े हुए पहले पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर बढ़ो । जब तक शृगाल न बोले तब तक पश्चिम दिशा की प्रोर बढ़ते ही जामो। शृगाल के बोलते ही वहां रुक जाम्रो और फिर पश्चिम दिशा से उत्तर दिशा की मोर बढ़ते जानो। उत्तर दिशा में भी बढ़ते हुए जिस जगह पहुंचने पर शृगाल की ध्वनि सुनो वहीं रुक जागो और फिर वहां से पूर्व दिशा की ओर बढ़ो। शृगाल का शब्द सुनते ही पूर्व की ओर बढ़ना भी रोक दो तथा वहां से दक्षिण दिशा की ओर बढ़ना प्रारम्भ करो और शृगाल के बोलते ही वहां रुक जाम्रो।" ___ नैमित्तिक के परामर्शानुसार पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से उत्तर, उत्तर से पूर्व प्रौर अन्त में पूर्व से दक्षिण की पोर डोरी डालने वाले बढे। शृगाल के बोलते ही उस दिशा की ओर बढ़ना बन्द कर उपरिवरिणत दिशाक्रम से बढ़ते गये और इस प्रकार नगर बसाने के लिए एक सुविस्तीर्ण भूखण्ड का माप किया जाकर उस पर चारों पोर चिन्ह अंकित कर दिये एवं नगर-निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया। उस नगर के निर्माण में छोटे-से-छोटे कर्मकार से लेकर बड़े-से-बड़े शिल्पी ने अथक श्रम, अद्भुत कला-कौशल, और उत्कट कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया। विस्तीर्ण राजपथों, सुन्दर मुख्य मागों, सीधे उपमार्गों, गगनचुम्बी राजप्रासादों, भव्य भवनों, विशाल व्यापारिक केन्द्रों, प्रति सुरम्य अतिथिगृहों, माकर्षक बाजारों, स्थान-स्थान पर वापियों, कूपों, तड़ागों एवं वाटिकामों आदि से सुशोभित प्रति कमनीय नगरी का निर्माण पूरा हुमा । शुभ मुहूर्त में उदायी ने उस नगर का नाम पाटलीपुत्र रखा और मगध की राजधानी चम्पा से हटाकर इसी पाटलीपुत्र में प्रतिष्ठापित की। सोन नदी पौर गंगा नदी के संगम स्थल के पास गंगा नदी के दक्षिणी तट पर पाटलीपुत्र नामक यह नगर मगधपति उदायी ने अपने राज्यकाल के चौथे वर्ष में बनवाया, इस प्रकार का उल्लेख वायुपुराण में किया गया है । यथा अष्टाविंशस्समा राजा दिविसादो भविष्यति । पंचविंशत्समा राजा दर्शकस्तु भविष्यति ॥१७७॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण उदायी भविता तस्मात्त्रयस्त्रिंशत्समा नृपः । सवै पुरवरं राजा प्रथिव्यां कुसुमाह्वयं । गंगाया दक्षिणे कूले चतुर्थेऽन्दे करिष्यति ॥१७८।। [वा० पु० अ० ६१] जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों, वैदिक परम्परा के पुराणग्रन्थों और गर्ग संहिता में यही अभिमत सर्वसम्मत रूप से दिया गया है कि मगधपति उदायी, उदयाश्व अथवा उदाई भट्ट ने पाटलीपुत्र नगर बसाया । वायुपुराण में कूणिक का दर्शक के नाम से परिचय दिया गया है। अशोक की राज्य-सभा में यूनान की ओर से मेगस्थनीज नामक राजदूत कई वर्षों तक पाटलीपुत्र में रहा। उसने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में पाटलीपुत्र का वर्णन करते हुए लिखा है : "पाटलीपुत्र नगर का आवासस्थल ८० स्टूडिया अर्थात् ६ माइल लम्बा, १५ स्टुडिया अर्थात् १ माइल और १२७० गज चौड़ा है। इसके चारों ओर लकड़ी का एक बड़ा सुदृढ़ परकोटा बना हुआ है जिसमें ५७० कोठे, (बुर्जे) और ६४ दरवाजे बने हए हैं । इस परकोटे को चारों ओर से घेरे हुए एक खाई है, जो ६० फीट गहरी और २०० गज चौड़ी है।" वर्तमान में परिवर्तित रूप से पाटलीपुत्र प्राज भी विद्यमान है, जिसको पटना कहते हैं। जो कोई भी नवागन्तुक पाटलीपुत्र को देखता, उसके मुख से सहसा यही उद्गार निकल पड़ते - "अरे ! यह तो असीम प्राकाश में प्रवस्थित सुरलोक की राजधानी अलकापुरी ही प्रवनीतल पर अवतरित हो गई है।" इस प्रकार स्वल्प समय में हो पाटलीपुत्र की ख्याति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई । देश-देशान्तरों से बड़े-बड़े लक्ष्मीपति श्रेष्ठी, उद्योगपति, समस्त विद्यानों के पारगामी विद्वान, ज्योतिर्विद, साहित्यिक, आयुर्वेद-विशारद, वैयाकरणी, सामन्त, शिल्पी और कलाकार प्रादि प्रा-मा कर पाटलीपुत्र के स्थायी निवासी वनने लगे। महाराज उदायी द्वारा पाटलीपुत्र को मगध की राजधानी बनाये जाने के पश्चात् पाटलीपुत्र भारतवर्ष का एक प्रमुख, सुन्दर, समृद्ध और अजेय नगर समझा जाने लगा। शनैः शनैः पाटलीपुत्र उद्योग, व्यापार, कलाकौशल, संस्कृति, शिक्षा और धर्म का एक बहत महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया । उदायी ने स्वयं द्वारा बसाये गये इस नगर की श्री-अभिवृद्धि में किसी प्रकार की कोर-कसर न रखी। वह पाटलीपुत्र में रहते हुए न्याय, नीति और धर्मपूर्वक शासन करने लगे। उन्होंने अपनी मन्त्रिपरिषद, माण्डलिक राजाओं, सामन्तों, विद्वानों, विशेषज्ञों और महापौरों के परामर्श से सभी वर्गों के लोगों के लिये सभी प्रकार की सुखसुविधाओं का समुचित रूप से यथासमय प्रबन्ध कर पाटलीपुत्र की चहंमुखी प्रगति करने में बड़ी तत्परता से कार्य किया। उदायी बड़ा दुर्घर्ष योद्धा, नीतिनिपुण और कुशल शासक था। उसने उद्दण्ड सामन्तों और युद्धप्रिय राजामों को Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ पाटलीपुत्र का निर्माण] केवलीकाल : प्रायं जम्बू युद्ध में पराजित कर मगध के विशाल राज्य को निष्कंटक-शत्रुविहीन बना कर प्रजा को सुशासन दिया। . कुशल राजनीतिज्ञ एवं सुयोग्य शासक होने के साथ-साथ उदायी बड़े ही धर्मनिष्ठ थे। उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा थी। वे प्रत्येक पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी के दिन नियमित रूप से पौषध किया करते थे। अपने शासन को सुदृढ़ बनाने हेतु उन्होंने अनेक उद्धत राजामों एवं सामन्तों की सैन्यशक्ति को विच्छिन्न कर उन्हें राज्यच्युत किया। एक समय अपने वशवर्ती इसी प्रकार के एक उद्दण्ड राजा द्वारा उनके प्रति किये गये विद्रोह को दबाने के लिये उदायी ने उसके राज्य पर आक्रमण किया। युद्ध में वह विद्रोही राजा बुरी तरह पराजित हुप्रा और इसी शोक से कुछ ही समय पश्चात् उसका प्राणान्त हो गया। उस मृत विद्रोही राजा का बड़ा, राजकुमार अपने पिता की मृत्यु और राज्य छिन जाने से क्रुद्ध हो उदायी से बदला लेने की सोचने लगा। भीषण प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो वह उज्जयिनी गया । उस समय उज्जयिनी में चण्डप्रद्योत के पौत्र का राज्य था। चण्ड प्रद्योत और श्रेणिक के समय से ही मगध और मालवा के राजवंशों में परस्पर शत्रुता एवं स्पर्धापूर्ण सम्बन्ध चले आ रहे थे। अतः राजकुमार ने मालवपति की सेवा में उपस्थित हो उदायी से प्रतिशोध लेने का अपना संकल्प प्रकट किया। उदायी जसे प्रबल प्रतापी एवं शक्तिशाली राजा के साथ खुले रूप में टक्कर लेने का मालवपति. साहस न कर सका और उसने केवल मौखिक सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे यह कह कर विदा किया कि उपयुक्त अवसर माने पर ही कुछ किया जा सकता है। . विद्रोही राजकुमार के हृदय में प्रतिशोध की अग्नि प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो रही थी। उचित अवसर की प्रतीक्षा करने का उसमें धैर्य नहीं रहा प्रतः वह राजकुमार छप वेष में पार्टीलपुत्र पहुंचा और महाराजा उदायी पर कपटपूर्वक प्राणघातक प्रहार करने की अन्तर में दुराशा छुपाये रात-दिन किसी उपयुक्त अवसर की टोह में रहने लगा । विद्रोही राजकुमार ने उदायी के प्राणों से अपनी प्यास बुझाने के मार्ग में सभी प्रकार के छल-छप का सहारा लिया किन्तु राजकीय सुदृढ़ रक्षा व्यवस्था के कारण उसे अपने उद्देश्य की पूर्ति में किंचित्मात्र भी सफलता प्राप्त नहीं हुई । अपनी असफलता पर हताश होने के स्थान पर वह प्रतिशोध लेने के लिये दिमः तिदिन और अधिक उत्तेजित रहने लगा । अहर्निश इस उधेड़-बुन में रहते-रहते अन्ततोगत्वा उसने अपनी उद्देश्यप्रति के लिये एक जघन्य उपाय ढूंढ़ निकाला। उसने देखा कि उदायी न माधयों का अनन्य भक्त है। प्रत्येक पक्ष की अष्टमी पौर चतुर्दशी को वह अपनी पौषधशाला में श्रमणों को मामन्त्रित करता है और उनसे पौषभ ग्रहण कर महनिश उनकी सेवा में रहता है । श्रमणों पर Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ पाटलीपुत्र का निर्माण पूर्ण विश्वास होने के कारण सुरक्षा व्यवस्था उन दिनों में केवल पौषधशाला के बाहर ही रहती थी । पौषधशाला के अभ्यन्तर कक्ष में किसी प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था नहीं रहती । अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उस विद्रोही राजकुमार ने एक प्राचार्य की सेवा में उपस्थित हो निर्ग्रथ-दीक्षा ग्रहण की। अपने अन्तर में प्रतिशोध की आग को गुप्त रखते हुए वह प्रकट में सभी प्रकार के श्रमणाचार का समीचीन रूप से पालन करने लगा । विनय, परिचर्या आदि गुणों के कारण वह स्वल्प समय में ही सब साधुयों का विश्वासपात्र और प्रीतिभाजन बन गया । इस प्रकार उस विद्रोही राजकुमार को श्रमणाचार का पालन करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये । विविध क्षेत्रों में विहार करते हुए जैनाचार्य एक दिन पाटलीपुत्र नगर में पधारे । अष्टमी के दिन उदायी ने उन प्राचार्य को राजप्रासाद में अवस्थित अपनी पौषधशाला में उपदेश देने के लिये प्रार्थना की । उदायी की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन प्राचार्य महाराज ने अपने उस छद्मवेषधारी शिष्य को उपकरणादि ले कर राजप्रासाद में चलने के लिये कहा । अपने चिरप्रतीक्षित कार्य की सिद्धि का समय सन्निकट आया समझ कर वह छद्मवेषधारी शिष्य मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने अन्य उपकरणों के साथ-साथ अपनी दीक्षा के समय से ही छुपाकर साथ में रखी हुई कंकलोहनिर्मित छुरी भी अपने साथ रख ली और वह अपने धर्माचार्य का पदानुसरण करता हुआ राजप्रासाद में पहुंच गया । उदायी ने भक्तिपूर्वक आचार्य और उनके शिष्य को सविधि वन्दन कर पौषव्रत ग्रहरण किया । श्राचार्य श्री ने राजकीय पौषधशाला में प्रवचन दिये । दिन भर उदायी ने प्राचार्य महाराज की सेवा में रह कर उनसे धर्मचर्चा की। रात्रि में भी एक प्रहर तक धर्मचर्चा का क्रम चलता रहा । तदन्तर अपने शिष्य सहित धर्माचार्य और महाराजा उदायी ने पोषधशाला में ही शयन किया । महाराजा उदायी और श्राचार्य को निद्राधीन समझ कर वह छद्मवेषधारी साधु चुपके से उठा और बड़ी सावधानी से उदायी के पास प्राया । उसने १२ वर्ष पूर्व अपने पास छुपा कर रखी हुई तीक्ष्ण छुरी को दाहिने हाथ में दृढ़तापूर्वक पकड़ा और उससे उदायी की गर्दन काट दी । उदायी की हत्या करने के पश्चात् वह साधु वेषधारी विद्रोही राजकुमार पौषधशाला से बाहर निकला । "यह सांधु शारीरिक शंका की निवृत्ति हेतु बाहर जा रहा होगा" यह समझ कर द्वारपालों ने उसे नहीं रोका और इस प्रकार वह उदायी का हत्यारा पाटलीपुत्र से भाग निकलने में सफल हुआ । उदायी के धड़ श्रीर मस्तक से बहे रुधिर से प्रार्द्र होने पर प्राचार्य की निद्रा भंग हुई । उदायी की कटी हुई ग्रीवा के पास ही लहू से लथपथ छुरी नौर अपने शिष्य की अनुपस्थिति को देख कर उन्हें वस्तुस्थिति को समझने में अधिक विलम्ब नहीं हुआ । उन्हें तत्काल विश्वास हो गया कि उनके शिष्य के वेष में वस्तुतः उदायी का कोई घोर शत्रु छुपा हुआा था भोर वह उदायी की हत्या करने के पश्चात् वहाँ से पलायन कर गया है। जिनशासन और जिनवाणी को अप्रकीति Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलीपुत्र का निर्माण ] केवलिकाल : श्रार्य जम्बू २६७ से बचाने के लिये उन्होंने तत्काल अपना प्राणान्त करने का निश्चय किया । आलोचना-प्रतिक्रमण करके आचार्य महाराज ने उदायी के हत्यारे द्वारा घटनास्थल पर छोड़ी गई छुरी से अपना मस्तक काट कर अपना प्राणान्त कर लिया ।" इस प्रकार श्रावश्यक चूरिंग, आवश्यक वृत्ति, परिशिष्ट पर्व आदि प्राचीन ग्रंथों के उल्लेखानुसार वीर निर्वाण संवत् ६० में, आर्य जम्बूस्वामी के संघाधिनायकत्व काल में ही शिशुनागवंश के अन्तिम राजा संततिविहीन उदायी की हत्या के साथ ही मगध राज्य पर शिशुनागवंश का आधिपत्य समाप्त हो गया । उदायी का हत्यारा विद्रोही राजकुमार साधुवेष का परित्याग कर उज्जयिनी के अधीश्वर के पास पहुंचा और उसे स्वयं द्वारा की गई उदायी की हत्या का सारा वृत्तान्त कह सुनाया । उज्जयिनी के महाराजा ने उसकी भर्त्सना करते हुए कहा - "बारह वर्ष की लम्बी अवधि तक महान् प्राचार्य की सेवा में रहते हुए श्रमणाचार के पालन करने के अनन्तर भी तुम्हारी पाशविक मनोवृत्ति में किंचित्मात्र भी परिवर्तन नहीं आया, इससे सिद्ध होता है कि तुम एकान्ततः प्रविश्वसनीय नराधम हो । तुम यथाशीघ्र मेरी राज्य-सीमा से बाहर निकल जाओ ।" अवन्तीपति द्वारा तिरस्कृत हो कर वह विद्रोही गया । वह जहां कहीं जाता लोगों द्वारा यह कह कर उदायी मारक है । अनेक इतिहासज्ञों द्वारा आशंका प्रकट की जाती है कि कौशाम्बी के राजा उदयन के जीवन की अन्तिम घटना को मगधपति उदायी के साथ किसी समय भ्रान्तिवश अथवा भूल से जोड़ दिया गया है। उनका प्रभिमत है कि वत्सपति उदयन पुत्र विहीन था और उसके किसी शत्रु ने साधु का छद्मवेष धारण कर उसकी हत्या की थी । मगधपति उदायी न तो पुत्र विहीन ही था और न उसकी किसी के द्वारा हत्या ही की गई थी । वस्तुतः यह एक गहन शोध का विषय है । भारतीय वाङ्मय से भिन्न 'महावंशों' के एतद्विषयक कतिपय उल्लेखों से इस प्रश्न की जटिलता और भी बढ़ गई है । नन्दवंश का प्रभ्युदय प्रायः श्वेताम्बर परम्परा के प्रावश्यक चूरिंग प्रादि सभी ग्रन्थों में नन्दवंश अभ्युदय के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप से उल्लेख उपलब्ध होता है : के राजकुमार वहां से चला दुत्कारा जाता कि यह मगधपति महाराजा उदायी की हत्या से कुछ समय पूर्व वेश्यां के गर्भ से उत्पन्न पाटलिपुत्र निवासी नन्द नामक एक नापितं पुत्र ने रात्रि की अवसान वेला में स्वप्न देखा कि उसने अपनी प्रांतों से समस्त पाटलिपुत्र नगर को परिवेष्टित कर लिया है। नन्द ने प्रातःकाल होते ही अपने उपाध्याय को अपना स्वप्न , रुहिरेणु ग्रायरिया पच्चालिया, उडिया, पेच्छ्रति रायाराग वाबाइयं मा पवयस्स उडाहो होहित्ति ग्रालय पडिकको ग्रापणो सीमं छिदेई कालगओ से एवं । [ ग्रावश्यक हारिभद्रीया, पत्र ६६० ] Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [नन्दवंश का अभ्युदय सुनाया। उपाध्याय स्वप्नशास्त्र का मर्मज्ञ था। नन्द के मुख से उसके स्वप्नदर्शन की बात सुनकर वह उसे अपने घर ले गया। वहां उसने नन्द को नहला-धुला एवं सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। उपाध्याय की पुत्री के साथ पाणिग्रहण संस्कार होने के उपरान्त नन्द उपाध्याय के घर पर ही रहने लगा। उपाध्याय ने नन्द के लिये एक सुन्दर पालकी का प्रबन्ध कर दिया, जिसमें बैठकर नन्द अपनी इच्छानुसार नगर में परिभ्रमण करने लगा। ममधपति उदायी के कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी के रूप में, किसको मगध के राज्यसिंहासन पर अभिषित्त किया जाय, यह प्रश्न मंत्रियों एवं अधिकारियों के समक्ष उपस्थित हुआ। बड़े विचार-विनिमय के पश्चात् मन्त्रियों द्वारा उदायी के पट्टहस्ती, प्रमुख प्रश्व, छत्र, कुम्भकलश और चंवरों को मन्त्राभिषिक्त किया गया एवं उन्हें राज्यप्रासाद की परिधि में घूमाया जाने लगा। कुछ समय तक प्रासाद के प्रांगण में घुमाने के पश्चात् पट्टहस्ती, प्रधान अश्व आदि पांचों दिव्य प्रासाद के बाहर आये। पालकी में आसीन नन्द को उधर से निकलते हुए देखकर पट्टहस्ती ने चिघाड़ते हुए अपनी संड से कुम्भकलश को उठाकर उसके जल से नन्द का अभिषेक कर दिया। प्रधानाश्व भी नन्द के पास पहुंचा और नन्द को उसने अपनी पीठ पर बैठा लिया। ज्योंही नन्द उस प्रधानाश्व की पीठ पर बैठा त्योंही वह प्रधानाश्व हर्षातिरेकवशात् बड़े जोर-जोर से हिनहिनाने लगा। उदायी का राजछत्र भी स्वतः ही नन्द के मस्तक पर तन गया और नन्द के दोनों ओर मन्त्राधिष्ठित वे दोनों चामर स्वतः ही अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो व्यजित होने लगे। यह सब चमत्कार देखकर अमात्यों, मन्त्रियों, प्रमुख पोरों एवं नागरिकों ने मिलकर बड़े प्रानन्दोल्लास एवं उत्सव के साथ नन्द का मगध के राज्यसिंहासन पर राज्याभिषेक कर दिया। नन्द का मगध के सिंहासन पर यह राज्याभिषेक वीर निर्वाण के पश्चात् ६० वर्ष व्यतीत हो जाने पर वीर नि० सं० ६१ में हुमा।' प्रारम्भ में नन्द के सामन्तों, द्वारपालों और अंगरक्षकों तक ने उसे नापितपुत्र समझकर उसका सम्मान, प्राज्ञापालन अादि नहीं किया किन्तु कुछ ही समय में उसके प्रबल पूण्य के प्रताप से वे सभी उसकी प्रत्येक प्राज्ञा का अक्षरशः पालन करने लगे। राजा नन्द किसी सुयोग्य एवं विश्वासपात्र व्यक्ति को अपने कुमारामात्य के पद पर नियुक्त करना चाहता था। अतः वह रातदिन किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में रहने लगा। महान अमात्य वंश का उद्भव पाटलिपुत्र नगर में मगध की राजधानी स्थानान्तरित हो जाने के अनन्तर कपिल नामक एक विद्वान् एवं अग्निहोत्री ब्राह्मगा अपनी गहिरणी के साथ पाटलि' अनन्तरं वर्द्धमानम्वामिनिर्वाणवागरात् । गतायां पष्टि वात्समिप नन्दोऽभवन्नृपः ।।४।। [परिशिष्ट पर्व. सर्ग ६) Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० अमात्य वंश का उद्भव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २६९ पुत्र नगर में पाया और वह उस नगर से कुछ ही दूर पर घर बनाकर वहां निवास करने लगा। कालान्तर में एक स्थविर मुनि अपने शिष्यों सहित विचरण करते हुए कपिल ब्राह्मण के निवासस्थान पर पहंचे। उस समय सूर्यास्त होने ही वाला था इसलिये वे मुनि कपिल से प्राज्ञा प्राप्त कर अपने शिष्यों सहित उसकी यज्ञशाला में रात्रिविश्राम के लिये ठहर गये।। कपिल के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि ये जैन साधु धर्म के गूढ़ रहस्य और तत्वों के ज्ञाता हैं या नहीं। वह रात्रि के समय उनके पास पहुंचा और उसने उन मुनि के साथ धर्मचर्चा प्रारम्भ की। मुनि के मुख से जीव, अजीवादि तत्वों और धर्म की अश्रुतपूर्व विशद व्याख्या सुनकर वह मुनि-चरणों में श्रद्धावनत हो गया और उन्हें अपना गुरु बनाकर उसने उनसे श्रमणोपासक धर्म अंगीकार कर लिया। दूसरे दिन वे मनि वहां से विहार कर अन्यत्र विचरण करने लगे। . कपिल द्वारा श्रावकधर्म स्वीकार किये जाने के कुछ ही समय पश्चात् एक अन्य प्राचार्य विहारक्रम से विचरण करते हए वहां पहुंचे और कपिल से अनुज्ञा प्राप्त कर उसके घर में ठहरे । दूसरे ही दिन कपिल की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया । उस नवजात शिशु को व्यन्तरियों ने अपने प्रभाव से अभिभूत कर निश्चेष्ट कर दिया। कपिल जैन साधनों के तप, त्याग एवं तेजस्विता से बड़ा प्रभावित था। उसने अपने उस निस्संज्ञ पुत्र को उठाकर साधुनों द्वारा सुखाने के लिये उल्टे रखे गये एक पात्र के नीचे रख दिया। उन तपोधन महर्षियों के पात्रजल के स्पर्शमात्र से ही शिशु व्यन्तरियों के दुष्ट प्रभाव से सदा के लिये विमुक्त हो पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गया। मुनियों द्वारा कल्प किये जाने वाले पात्रों के जल के प्रभाव से उस शिशु की जीवन-रक्षा हुई, इस स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये कपिल ने अपने उस पुत्र का नाम कल्पाक रखा । कल्पाक ने अपने पिता से समस्त विद्याओं एवं जैनागमों का अध्ययन किया। कालान्तर में कल्पाक के माता और पिता का देहान्त हो गया। __कल्पाक अपने समय का एक उच्च कोटि का विद्वान् था। उसके घर पर विभिन्न विषयों के विद्यार्थियों की भीड़ रहने लगी। कल्पाक जब नगर में जाता तो उसके पीछे उसके शिष्यों की भीड़ लग जाती। पाटलिपुत्र के निवासी कल्पाक का बड़ा सम्मान करते थे। अपने पिता द्वारा प्राप्त श्रावक धर्म के संस्कारों के कारण कल्पाक बड़ा संतोषी विद्वान् था। धन-सम्पत्ति के संग्रह करने का कभी कोई विचार तक भी उसके मन में उत्पन्न नहीं हुआ। अनेक विद्वानों ने अपनीअपनी कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कर लेने की प्रार्थनाएं कल्पाक से की पर कल्पाक ने विवाह करना स्वीकार नहीं किया। ' तस्यामेव हि तामस्यां धर्मदेशनया तया । श्रावकः कपिलो जज्ञेऽषाचार्या ययुरन्यतः ॥१३॥ [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ७) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [म० भ० वंश का उद्भव कल्पाक जिस मार्ग द्वारा अपने घर से पाटलिपुत्र नगर में जाता-पाता था, उस ही मार्ग पर एक ब्राह्मण रहता था। उसकी एक कन्या जलोदर रोग से ग्रस्त थी प्रतः अनिन्ध सुन्दरी होते हुए भी किसी ब्राह्मण कुमार ने उसके साथ विवाह करना स्वीकार नहीं किया। उस कन्या के रजस्वला होने पर ब्राह्मण बड़ा चिन्तित हुप्रा और अपने आपको भ्रूण हत्या करने वाले अपराधी के तुल्य पापी समझते हुए अपनी कन्या के विवाह का कोई उपाय सोचने लगा। बहुत सोचविचार के पश्चात् उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने घर के सम्मुख मार्ग के पास ही कूपतुल्य एक गड्डा खोदा और कल्पाक को इस मार्ग से आते देखकर उसने अपनी कन्या को उस गड़े में ढकेल दिया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा- “जो व्यक्ति मेरी कन्या को इस गहरे गड्ढे में से निकालेगा उस ही को मैं अपनी यह कन्या दे दूंगा।" कल्पाक कन्या के गड्ढे में गिर पड़ने की बात सुनते ही दौड़ कर गड्ढे के पास गया। उस ब्राह्मण के अन्तिम वाक्य को कल्पाक ने नहीं सुना । वह दया से द्रवीभूत हो गड्ढे में उतरा और उस कन्या को पकड़ कर गड्ढे से बाहर ले प्राया। ब्राह्मण ने कल्पाक से कहा- "मैंने उच्च-स्वर में कहा था कि जो इस कन्या को इस कूपिका से निकालेगा उस ही को में यह कन्या दूंगा। मेरी उस प्रतिज्ञा को सुन कर आपने इसे निकाला है अतः आप इसके साथ पाणिग्रहण कीजिये । आप सत्यसन्ध हैं।" कल्पाक उस ब्राह्मण की बात सुन कर अवाक् खड़ा का खड़ा रह गया। अन्ततोगत्वा विवाह करने की इच्छा न होते हुए भी उसे उस ब्राह्मण-कन्या के साथ विवाह करने की स्वीकृति देनी पड़ी। सकल विद्यानिष्णात कल्पाक ने आयुर्वेदिक औषधियों के प्रयोग से उस ब्राह्मण कन्या को जलोदर रोग से विमुक्त कर उसके साथ विवाह कर लिया। - कल्पाक की विद्वत्ता और प्रत्युत्पन्नमती सम्बन्धी यशोगाथाएं सुन कर महाराज नन्द ने उसे अपना कुमारामात्य बनाने का निश्चय कर अपने पास बुलाया और उसे मगध राज्य के प्रधानामात्य का पद स्वीकार करने की प्रार्थना की। कल्पाक ने नन्द की प्रार्थना को अस्वीकृत करते हुए कहा - "राजन् ! समय पर दो रोटी के अतिरिक्त मुझे और किसी प्रकार का परिग्रह बढ़ाने की इच्छा नहीं है। महत्वाकांक्षानों से विहीन मेरे जैसे धर्मभीरु व्यक्तियों के लिये अमात्य जैसे गुरुतर पद के कर्तव्यों का निर्वहन करना सम्भव नहीं। अतः प्राप मुझे क्षमा प्रदान कीजिये, में इस पद को ग्रहण करने में असमर्थ हूं।" कल्पाक द्वारा अपनी आज्ञा की अवहेलना से नन्द को वड़ा क्षोभ हुआ और वह उसे अपनी इच्छानुसार अपना आज्ञावर्ती अमात्य बनाने के लिये अहर्निश कल्पाक में किसी प्रकार के छिद्र का अन्वेषण करने में प्रयत्नशील रहने लगा। बहुत प्रयास करने पर भी नन्द उस स्वल्पसन्तोषी निरभिलाषी कल्पाक में किसी प्रकार का दोष न पा सका । बहुत सोच-विचार के पश्चात् नन्द ने अपने रंजक Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० अमात्य वंश का उद्भव] केवनिकाल : मार्य जम् २७१ (रंगरेज) से पूछा - "तुम्हारे ही घर की ओर कल्पाक पण्डित रहता है। वह तुमसे कभी अपने वस्त्र रंगवाता है अथवा नहीं ?" __रंजक ने सांजलि शीश झुकाते हुए उत्तर दिया- "पृथ्वीनाथ ! वे अपने घर के वस्त्र मुझ से ही रंगवाया करते हैं।" नन्द ने आज्ञासूचक स्वर में कहा- “अब जब कभी वह तुम्हें वस्त्र रंगने के लिये दे तो उन वस्त्रों को उसे लौटाना मत ।" "जो आज्ञा महाराज !" कह कर रंजक ने नन्द की आज्ञा को शिरोधार्य किया और वह वहां से अपने घर चला गया। एक दिन कौमुदी महोत्सव का समय समीप पाया समझ कर कल्पाक की पत्नी ने अपने पति से कहा- "कान्त ! मेरे इन बहुमूल्य वस्त्रों को प्राप राजा के रंजक से रंगवा दीजिये।" कल्पाक ने पहले तो यह सोच कर अपनी पत्नी की बात को उपेक्षा की कि त्योहार के दिनों में राजमान्य रंजक किराये के लोभ में किसी अन्य को वे सुन्दर वस्त्र दे सकता है किन्तु वह अपनी पत्नी के आग्रहपूर्ण अनुरोध को टाल न सका और अन्त में उसने अपनी पत्नी के वस्त्र उस राज-रंजक को रंगने हेतु दे दिये। . उत्सव के दिन कल्पाक रंजक के घर पर गया और उससे वस्त्र मांगे। राजाज्ञा का अनुपालन करते हुए रजक ने कल्पाक को वस्त्र नहीं लौटाये । कल्पाक अनेक बार रंजक के घर पर वस्त्र लेने गया पर हर बार रंजक ने उसे कोई न कोई बहाना बना कर बिना वस्त्र दिये ही लौटा दिया। इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये । तृतीय वर्ष का प्रारम्भ होने पर एक दिन कल्पाक पुनः रंजक के घर पर पहुंचा और उसने पूर्ववत् उससे अपने वस्त्रों की मांग की। रंजक द्वारा पुनः एक नया बहाना बनाने और वस्त्र न लौटाने के कारण कल्पाक अत्यन्त क्रुद्ध स्वर में कहने लगा- “ो परमाधम रंजक ! तू बड़ा अद्भुत चोर है, अब तो मेरे वस्त्र भी जीर्ण होने आये हैं। तुमने मुझे बहुत परेशान किया है । पर याद रखना, अब तो मैं अपने वस्त्र तेरे रक्त से रंग कर ही ले जाऊंगा।" यह कह कर कल्पाक क्रुद्ध सर्प की तरह फूत्कार करता हुआ अपने घर की ओर लौट गया। दूसरे दिन सूर्यास्त हो जाने पर कल्पाक ने अपना छुरा अपनी बगल में छुपाया और वह क्रुद्ध मुद्रा में रंजक के घर की ओर बढ़ा । रंजक के द्वार पर पहुंच कर कल्पाक ने क्रोधावेश भरे स्वर में पुकारा- "प्रो नराधम ! मैं पिछले दो वर्षों से सेवक की तरह तेरे घर पर प्राता रहा हूं। आज तू स्पष्ट उत्तर दे कि मेरे वस्त्र देता है अथवा नहीं ?" क्रुद्ध यमराज की तरह भृकुटी ताने हुए कल्पाक को देख कर रंजक भय से सिहर उठा । उसने हड़बड़ाहट भरे स्वर में अपनी स्त्री से कहा- "प्रो लक्ष्मी ! शीघ्रतापूर्वक आपके वस्त्र ला कर आपको दे दे।" "रजकपत्नी ने तत्काल गह के अभ्यन्तर कक्ष से वस्त्र लाकर कांपते हुए हाथों से कल्पाक के समक्ष रख दिये। अपनी पत्नी के वस्त्रों को देखकर कल्पाक Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [म० अ० ० का उद्भव ने अपने बगल में छुपाई हुई छुरी को निकाला। एक दो क्षण उस छुरी को अपने हाथ में नचाते हुए कल्पाक ने ब्रह्मराक्षस की तरह भीषण अट्टहास किया और लपक-झपक कर उस छूरी के प्रहार से रजक का पेट चीर डाला। रजक धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा और उसके उदर से रक्तधारा बह निकली। कल्पाक ने उस रजक के लह में अपनी पत्नी के वस्त्रों को रंगा। अपने पति को निश्चेष्ट पृथ्वी पर छटपटाते देखकर रजकपत्नी ने करुण ऋदन करते हुए कल्पाक से कहा"ब्राह्मण देवता ! आपने मेरे निरपराध पति को व्यर्थ ही.मार डाला है। हमारा कोई अपराध नहीं, हमने तो महाराज नन्द की आज्ञा से अनुबद्ध होने के कारण प्रापको वस्त्र नहीं दिये ।" यह कहकर रजकपत्नी फूट-फूटकर रोने लगी। विलक्षण बुद्धि कल्पाक ने तत्क्षण वस्तुस्थिति को समझ लिया। उसने मन ही मन सोचा - "अच्छा, तो महाराज नन्द ने अपनी आज्ञा का अनुपालन करवाने हेतु यह षड्यंत्र रचा है। इस रंजक की हत्या के अपराध में राजपुरुष मुझे पकड़ कर ले जायं, उससे पहले ही मुझे महाराज नन्द के समक्ष उपस्थित हो जाना चाहिये।" इस प्रकार का निश्चय कर कल्पाक तत्काल त्वरित गति से मगधपति महाराज नन्द के राजभवन की ओर प्रस्थित हुआ। कल्पाक को दूर से देखते ही नन्द ने अनुमान लगा लिया कि उसका दूरदर्शितापूर्ण प्रपंच अाज रंग ले प्राया है और उसकी मनोकामना आज पूर्ण होने जा रही है। वह मन ही मन अपार मानन्द का अनुभव करने लगा। ज्योंही कल्पाक ने उसके कक्ष में पैर रखा कि नन्द अपने सिंहासन से उतर कर कल्पाक के सम्मुख पाया। बड़े अादर के साथ उसने कल्पाक को अपने पास ही के एक उच्च सिंहासन पर बैठाया। नन्द ने कल्पाक के मुख के हाव-भावों से उसकी प्राभ्यंतरेच्छा का परिज्ञान कर लिया। अपनी कार्यसिद्धि के लिये उपयुक्त अवसर देखकर नन्द ने अत्यन्त मधुर स्वर में कल्पाक से प्रार्थना की - "विद्वन् ! आप मगधराज्य का प्रधानामात्य पद स्वीकार कर मगधराज्य की सर्वतोमुखी प्रगति एवं श्रीवृद्धि कीजिये।" "यथाज्ञापयति देव !" कहकर कल्पाक ने महाराजा नन्द की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। एक नीतिनिष्णात सुयोग्य विद्वान को अपने प्रधानामात्य के रूप में प्राप्त कर नन्द ने अपने आपको कृतकृत्य माना। नन्द ने अत्यन्त हर्षविभोर हो अपने हृदय में सुदीर्घकाल से कण्टक के समान खटकने वाली अनेक विकट समस्थानों के समाधान के सम्बन्ध में कल्पाक के सम्मुख कतिपय गूढ़ प्रश्न रखे । सुतीक्षणबुद्धि कल्पाक ने तत्क्षण उन समस्यायों के समाधान सम्बन्धी सहज उपाय नन्द के सम्मुख प्रस्तुत किये, जिन्हें सुनकर नन्द बड़ा प्रसन्न, प्रभावित एवं चमत्कृत हुआ। जिस समय महाराज नन्द और कल्पाक मन्त्रणा कर रहे थे, उस ही समय रंजकों का एक प्रतिनिधिमंडल महाराज नन्द के दरबार में कल्पाक के विरुद्ध Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० अमात्य वंश का उद्भव केवलिकाल : प्रार्य जम्बू अभियोग प्रस्तुत करने नन्द के प्रासाद में उपस्थित हुआ पर ज्यों ही उस प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों ने देखा कि कल्पाक महाराजा नन्द के प्रति सन्निकट एक उच्चासन पर बैठा है और राजा उसके साथ गूढ मन्त्रणा में निरत हैं, तो वे सभी रंजक भय एवं आश्चर्य से अभिभूत हो बिना कुछ बोले चुपचाप अपने-अपने घरों की ओर लौट गये। महाराज नन्द ने तत्काल अपने पहले के प्रधानामात्य को अपदस्थ कर कल्पाक को मगध का प्रधानामात्य बनाया। राजा ने कल्पाक को प्रधानामात्य की मुद्रा, चिन्ह, अधिकार एवं सुख-सुविधा प्रादि प्रदान की। प्रधानामात्य का पदभार वहन करने के पश्चात् कल्पाक ने बड़ी कुशलता से शाम, दाम, दण्ड, भेद आदि के प्रयोग से क्रमशः नन्द के समस्त शत्रु राजानों को वश में कर लिया और दूरदूर तक मगध राज्य का विस्तार कर दिया। कल्पाक के नीतिनैपुण्य के कारण प्रथम नन्द की भारत के महान् शक्तिशाली महाराजामों में गणना की जाने लगी। मगध सम्राट उदायी तथा उसके उत्तराधिकारी नन्द (नन्दिवर्डन) के सम्बन्ध में विमिन माग्यताएं जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि ने परिशिष्ट पर्व में', श्री जिनदास गणि महत्तर ने प्रावश्यक चूरिण में, श्री हरिभद्रसूरि ने मावश्यक वृत्ति में तथा अनेक पूर्वाचार्यों एवं विद्वानों ने कतिपय ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में मगधसम्राट् उदायी- की अपुत्रावस्था में हत्या किये जाने का उल्लेख किया है । भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति में एक स्थान पर उदायी की संततिविहीन दशा में हत्या किये जाने का तथा दूसरे स्थल में उदायी द्वारा अपने . उदाययपुत्रगोत्रो हि परलोकमगादिति । तत्रान्तरे पंचदिव्यान्यभिषिक्तानि मन्त्रिभिः ।।२३६॥ [परिशिष्टपर्व, सर्म ६] २ रुपिरेण पायरिका सिका, पेन्छति राया विवावाहितो, मा पवयणस्स उड्डाहो होहितिति पालोइतपरिक्कता अप्पणो सीसं चिदंति, तेवि कालगता, सोवि एवं । इतो य हावियदासो....."सीयाए णगरं हिंडाविषजति, सो य राया अंतेपुरपालेहिं सेज्जावतीए विट्ठो, सहसा उ कूवितं, रातं, अपुत्तोत्ति प्रष्णेण दारेण णीतो, सक्कारितो..... . [मावश्यकरिण, भा॰ २, पृ० १५०] 3 राजापि प्रसुप्त, तेनोत्याय राज्ञः शीर्षे निवेशिता,....... रुपिरेण प्राचार्याः प्रत्याद्विताः, प्रेक्षन्ते राजानं म्यापादितं, मा प्रवचनस्य . उड्डाहो भूदित्यालोचितप्रतिक्रान्ता पात्मनः शीर्ष छिन्दन्ति, कालगतास्त एवं । इतश्च नापितशालायां नापितदास उपाध्यायाय कपतियथा ममाचान्त्रेण नगरं वेष्टितं, प्रभाते दृष्टं, स स्वप्नशास्त्रं जानाति, तदा हं नीत्वा मस्तकं पोतं दुहिता च तस्मं दत्ता, दीपितुमारब्धः शिविकया नगरं हिन्ज्यते, सोऽपि राजा अन्तःपुरिकाशययापालिकाभिहष्ट: सहसा, कूजितं, ज्ञातः प्रपुत्र इत्यन्येन द्वारेण नीतः सत्कारितः, प्रश्वोऽधिवासितः, अभ्यन्तरे हिण्डितो मध्ये हिण्डित: बहिनिर्गतो राजकुलात् तं नापितदारकं पृष्ठो लगयति प्रेक्षते च तं तेजसा ज्वलंत राज्याभिषेकेणाभिषिक्तो राजा जातः । - [भावश्यक हारिभद्रीया, पत्र ६९०] - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ , जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उदायी एवं नंद विषयक मा० पुत्र अनुरुद्ध को राज्यभार सौंपा जा कर यात्रा, प्रात्मसाधना में निरत रहने का उल्लेख किया गया है। __ लंका में लिखित बौद्ध ग्रंथ महावंश में तथा एक अन्य बौद्ध कृति अशोकावदान में मगधपति उदायी की मृत्यु के पश्चात् ६ वर्ष तक अनुरुद्ध और २ वर्ष तक मुन्द का मगध पर शासन रहने का उल्लेख किया गया है। वायुपुराण में मगधसम्राट् बिम्बसार के पुत्र अजातशत्रु कूणिक का दर्शक के नाम से परिचय दिया गया है और जैन ग्रंथों की मान्यता के अनुरूप उसके पुत्र का नाम उदायी बताया गया है। उदायी के पश्चात् वायुपुराण में नन्दिवर्द्धन को मगध का शासक बताते हुए लिखा गया है कि नन्दिवर्द्धन ने ४२ वर्ष तक मगध का शासन किया।' . श्रीमद्भागवत पुराण में उदायी को अज और उसके उत्तराधिकारी मगध के राजा नन्दिवर्द्धन (नन्द) को प्राजेय के नाम से सम्बोधित किया गया है। गर्ग संहिता में उदायी को "धर्मात्मा उदयन" के सम्मानपूर्ण सम्बोधन से सम्बोधित किया गया है। बौद्धों के सर्वमान्य धर्मग्रंथ दीर्घनिकाय में उदायी का "उदायी भह" नाम से परिचय दिया गया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्तुतः उदायी बड़ा शान्त, निश्छल, सौम्य और बहुत अच्छी प्रकृति का राजा था। ऐतिहासिक महत्त्व के 'महावंशो" नामक लंका में निर्मित ग्रंथ में उदायी के अनुरुद्ध और मुंद नामक दो पुत्रों के होने का जो उल्लेख किया गया है, उस उल्लेख के अाधार पर कतिपय विद्वानों ने यह मान्यता अभिव्यक्त की है कि उदासी ने अथवा उदायी के निर्देश से उसके बड़े पुत्र अनुरुद्ध ने लंका पर सैनिक अभियान किया एवं वहां के राजा को युद्ध में पराजित कर लंका में अनुरुद्धपुर नामक नगर बसाया और उसमें लंका की राजधानी प्रतिष्ठापित की। ‘महावंशो' के आधार पर कतिपय विद्वानों ने उदायी के पश्चात् उसके ज्येष्ठ पुत्र अनुरुद्ध का मगध साम्राज्य पर ६ वर्ष का और उसके पश्चात् उसके लघु सहोदर मुंद का दो वर्ष का शासनकाल माना है। किन्तु इन तथ्यों की किसी भी प्रामाणिक अभिलेख अथवा ग्रंथ आदि से न केवल पुष्टि ही नहीं होती अपितु प्राचीन जैन ग्रंथों एवं पौराणिक ग्रन्थों में उदायी के पश्चात् दिये गये नन्द अथवा नन्दिवर्द्धन के राज्य के उल्लेखों से 'महावंशो' की मान्यता का मूलतः निराकरण होता है । माज तक एक भी ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ प्रकाश में नहीं आया है, जिसमें उदायी के पश्चात् और नन्द अथवा नन्दिवर्द्धन से पूर्व मगध पर अनुरुद्ध और मंद के शासन का उल्लेख हो । ऐसी दशा में 'महावंशो' के प्राधार पर कतिपय विद्वानों द्वारा अभिव्यक्त की गई मान्यता को काल्पनिक न सही पर विश्वसनीय कभी नहीं माना जा सकता। लोक संख्या १७७-१७८ तथा : द्वावस्वारिमसमा माग्यो राजा वं नन्दिवदनः ॥१७६।। वायुपुराण, म० ६१] Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिकाल : श्रायं जम्बू वस्तुतः नन्द कौन था ? आवश्यकचूरिण, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, परिशिष्टपर्व तथा अनेक अन्य जैन ग्रन्थों में मगधसम्राट उदायी के पश्चात् मगध के राज्यसिंहासन पर प्रासीन होने वाले नन्द को नापितदास, नापितपुत्र, एवं वैश्यापुत्र बताया गया है। इसके विपरीत वायुपुराण' और श्रीमद्भागवत पुराण में इस नन्द का नन्दिवर्द्धन के नाम से परिचय देते हुए इसे उदायी का पुत्र बता कर इसकी गरणना नार्गदशकों में की गई है। इस प्रकार सनातन परम्परा के इन दोनों मान्य पुराणों में नन्दिवर्द्धन को शिशुनागवंशी और उदायों का पुत्र माना गया है। जैन परम्परा के ग्रन्थों में मगध के वाहीक कुलोद्भव शिशुनागवंशी राजाओं के नाम क्रमशः जितशत्रु, प्रसेनजित् श्रेणिक ( बिम्बसार), कूणिक ( अजातशत्रु) मौर , " हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं, शिशुनाको भविष्यति ॥ १७३ ॥ | वाराणस्यां सुतस्तस्य, संप्राप्स्यति गिरिव्रजम् । शिशुनाकस्य वर्षाणि चत्वारिशद्भविष्यति ॥ १७४ ।। शकवर्णः सुतस्तस्य षट्त्रिंशच्च भविष्यति । ततस्तु विशति रांजा क्षेमवर्मा भविष्यति ।। १७५ ।। प्रजातशत्रुमविता पंचविशत्समा नृपः । चत्वारिंशत्समा राज्यं क्षत्रौजा प्राप्स्यते ततः ॥ १७६ ॥ प्रष्टाविशत्समा राजा बिबिसारों भविष्यति । पंचविशत्समा राजा दर्शकस्तु भविष्यति ।। १७७।। उदायी भविता तस्मात्त्रयस्त्रिशत्समा नृपः । द्वाचत्वारिंशत्समा भाव्यो राजा वं नन्दिवर्द्धनः । चत्वारिंशस्त्रयं चैव महानन्दो भविष्यति ।।१७६ ।। इत्येते भवितारो वं शशुनाका नृपा दश ।. शतानि त्रीणि वर्षाणि द्विषष्ट्यम्यधिकानि तु ।। १६० ।। शिशुनागस्ततो भाग्यः, काकवर्णस्तु तत्सुतः । क्षेमधर्मा तस्य सुतः, क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः ||५| विषिसारः सुतस्तस्याजातशत्रुर्भविष्यति । दर्शकस्तत्सुतो भावी दर्शकस्याजयः स्मृतः ||६| नन्दिवर्द्धन प्राजेयो, महानन्दिः सुतस्ततः । शिशुनागा दर्शवते पष्ट्युत्तर शतत्रयम् ॥७॥ समा भोक्ष्यन्ति पृथिवों, कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः । [ वायुपुराण, प्र० ६१] स्पष्टीकरण : रेखांकित पद के स्थान पर निम्नलिखित पद होना चाहिये क्योंकि इन नागदशकों का कुल मिला कर शासनकाल ३६२ वर्ष नहीं अपितु ३३२ वर्ष ही होता है:द्वात्रिंशदधिकानि तु ॥ २७५ - सम्पादक [ श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कम्भ १२, ०१ ] Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ... जन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वस्तुतः नन्द कौन था ? उदायी दिये हुए हैं ।' इनसे पूर्व के इस वंश के राजाओं के नाम उपलब्ध जैन ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होते । ऐसी दशा में वायुपुराण, श्रीमद्भागवतपुराण प्रादि पौराणिक ग्रन्थों में जो नागदशकों (शिशुनागवंशी दश राजाओं) के नाम दिये गये हैं, उनमें प्रथम ३ राजाओं, शिशुनाग, काकवर्ग और क्षेमधर्मा के नाम इस सूची में सर्वोपरि सम्मिलित करने और इस सूची के अन्त में नन्दिवर्द्धन और महानन्दि के नाम शिशुनागवंशियों में सम्मिलित करने पर ही नागदशक राजाओं की सूची पूर्ण होती है। नागदशकों की नामपूत्ति के लिये सनातन परम्परा के पुराणों में परिणत शिशुनागवंशियों के उपरिलिखित तीन पूर्वजों के नामों को ग्रहण करने और प्रामारिणक मानने में किसी को किचित्मात्र भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये क्योंकि पूर्वकाल में घटित घटनाक्रम के संकलन एवं प्रालेखन का नाम ही इतिहास है। . इतिहास में किसी देश, धर्म, जाति अथवा संस्कृति का विभेद नहीं होता, वह तो वस्तुतः अनादिकाल से अनवरतरूपेण घटित होने वाली घटनाओं का प्रक्षय्य, अथाह एवं अपार सागर है, जिसमें असंख्य गंगानों के पूर के समान प्रतिदिन नवीनतम घटनामों के प्रवाह पाकर सम्मिलित एवं संचित होते रहते हैं। उस सबका संकलन प्रालेखन अथवा परिज्ञान त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ के अतिरिक्त और किसी मानव की शक्ति की परिधि में नहीं पाता। उस अथाह इतिहास सागर के गहन तल में गोते लगा लगाकर प्राचीनकाल से महान् प्राचार्य महर्षि और परमार्थी विद्वान् अपने-अपने प्रिय एवं अभीष्ट विषय का इतिहास खोज कर लिखते पाये हैं। इस बात को हमें सदा ध्यान में रखना होगा कि पागमों, पुराणों एवं प्राचीन ग्रन्थों को उन प्राचार्यों, महर्षियों, महात्माओं और विद्वानों ने लिखा है - जिन्होंने समस्त ऐहिक प्राकर्षणों, लोकेषणाओं और अपनी कर्मेन्द्रियों तथा भावेन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनके समस्त प्रालेखन का उद्देश्य केवल "जनहिताय" ही रहा। किसी तथ्य की स्मृति से स्खलना, पारम्परिक मान्यताभेद, विस्मृति ' प्रतीताबायां क्षितिप्रतिष्ठितं नगरं, जितशत्रु राजा, तस्य नगरस्य वस्तून्युत्सनानि, मन्य नगरस्थानं वास्तुपाठकगियति, तैरेकं चरणकक्षेत्र अतीव पृष्पः फलंश्चोपपेतं दृष्ट्वा षरणकनगरं निवेशितं..."तत्र कुशाग्रपुरं जातं, तस्मिंश्च काले प्रसेनजित् राजा तच्च नगरं पुनः पुनः अग्निना दह्यते, तदा लोकभयजनननिमित्तं घोषयति यस्य गृहेऽग्निरुत्तिष्ठति स नगरात् निष्काश्यते, तत्र महानसिकानां प्रमादेन राज्ञ एव गृहात् अग्निरुत्थितः, ते सत्यप्रतिज्ञा राजानः निर्गतो नगरात् तस्मात् गव्यूतमात्रे स्थितः, तदा दण्डिकभटभोजका वरिणजाच तत्र वजन्तः भणन्ति क्व जप ? प्राह राजगृहमिति, कुत प्रायाच ? राजगृहात् एवं नगरं राजगृहं जातं यदा च राशो गृहेऽग्निरुत्थितस्ततः कुमारा ययस्य प्रियमश्वो हस्ती वा तत्तेन निष्काशित श्रेणिकन ढक्का नीता । राजा पृच्छत्ति केन कि नीतमिति ? भन्यो भगति-मया हस्ती, प्रश्व एवमादिः ; श्रेणिक: पृष्टः-सम्भा, तदा रामा भणति श्रेणिकं- एष ते मारो भम्भेति? श्रेणिको मसति-प्रोम स व रामोज्यन्तप्रियः, तेन तस्य माम कृतं भस्मसार इति [मालायक हारिमनीया वृत्ति, पत्र ६७०-७१ पारि Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः नन्द कौन था ? ] केवलिकाल : आयं जम्बू २७७ अथवा लिपिक के दोष के कारण नामभेद, कालभेद आदि उन प्राचीन ग्रन्थों में मिल सकते हैं। पर इसके लिये किसी प्रकार की दूषित भावना का दोषारोपण उन पर नहीं किया जा सकता । इन सब वास्तविकताओं पर विचार करने के पश्चात् पुराणों में उदायी के उत्तराधिकारी मगधपति नन्दिवर्द्धन और नन्दिवर्द्धन की मृत्यु के अनन्तर मगध के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ़ होने वाले महानन्दी को जो विशुद्ध शिशुनागवंशी बताया गया है, उस तथ्य को किसी भी दशा में उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता । अब प्रश्न यहां यह उपस्थित होता है कि जैन परम्परा के ग्रन्थों में उदायी को प्रपुत्र और उसके पश्चात् मगध के राज्यसिंहासन पर बैठने वाले नन्द को नापित एवं वेश्यापुत्र क्यों बताया गया है ? यद्यपि, जैन ग्रन्थों में इस प्रकार का कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसका आश्रय लेकर इस प्रश्न का सर्वमान्य रूप से समाधान किया जा सके- किन्तु वायुपुराणादि में उपलब्ध एतद्विषयक सामग्री के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करने और अनुमान प्रमारण का सहारा लेने पर इस प्रश्न का हल ढूंढा जा सकता है । शिशुनाग से लेकर महानन्दी तक के नागदशकों का संक्षिप्त उल्लेख करने के पश्चात् भागवतकार और वायुपुराणकार ने लिखा है: : मगधपति महानन्दी की शूद्रा पत्नी के गर्भ से नन्द नामक एक बड़ा बलवान् पुत्र होगा, जो महापद्म नामक निधि का स्वामी होगा और इसी कारण वह महापद्म नाम से भी विख्यात होगा । महापद्म समस्त क्षत्रिय राजानों का अन्तकरेगा । उस महापद्म के समय से ही राजा लोग प्रायः शूद्र और प्रधार्मिक होंगे। वह पृथ्वी का एकच्छत्र शासक होगा । उसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं कर सकेगा । क्षत्रान्तक होने के कारण वह एक प्रकार से दूसरा परशुराम होगा । उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे जो १०० वर्ष तक, पृथ्वी के राज्य का उपभोग करेंगे । " वायुपुराण में भी पर्याप्तरूपेण इससे मिलता-जुलता ६ नन्दों का परिचय दिया गया है, जो इस प्रकार है : -- महानन्दिसुतो राजन् शूद्रीगर्भोद्भवो बली ||८|| महापद्मपतिः कश्चिन्नन्दः क्षत्रविनाशकृत् । ततो नृपाः भविष्यन्ति शूद्रप्रायास्त्वधार्मिकाः || स एकच्छत्रां पृथिवीमनुल्लंघितशासनः । शासिष्यति महापद्म द्वितीय इव भार्गवः ॥ १०॥ तस्य चाष्टो भविष्यन्ति सुमाल्य प्रमुखाः सुता । य इमां भोषयन्ति महीं, राजानः स्म शतं समाः ॥ ११ ॥ [ श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १२, अध्याय १ ] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ वस्तुतः नन्द कौन था ? " महानन्दी की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुआ कालोपेत ( कृतान्तोपम) महापद्म 'नामक पुत्र समस्त क्षत्रियों के अनन्तर होगा । वह एकराट् और एकच्छत्र राजा होगा । उसके समय से ही प्रायः सभी राजा शूद्र होंगे। वह समस्त क्षत्रियों से बलपूर्वक कर ग्रहरण कर विपुल धन एकत्रित करेगा श्रौर २८ वर्ष तक पृथ्वी पर शासन करेगा। उसके ८ पुत्र होंगे जो महापद्म की मृत्यु के पश्चात् क्रमशः राजा होंगे और वे कुल मिलाकर १२ वर्ष तक राज्य करेंगे । " २७८ इस प्रकार श्रीमद्भागवतपुराण श्रौर. वायुपुराण के अनुसार नन्दिवर्द्धन और महानन्दी जिन्हें जैन परम्परा के ग्रन्थों में प्रथम नन्द और द्वितीय नन्द बताया गया है, विशुद्ध नागवंशीय राजा थे तथा महापद्म नन्द से शूद्र ६ नन्द राजानों का राज्यकाल प्रारम्भ होता है । धार्मिक प्रतिद्व ंद्विता के कारण पुरातन काल में हुए धार्मिक संघर्षो दुoकालों, विदेशी प्राक्रमणां प्रादि के कारण प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री के कतिपय अंशों में नष्ट हो जाने की दशा में यह संभव माना जा सकता है कि साहित्य का नव-निर्वाण करते समय जैन विद्वानों ने शूद्रा स्त्री के गर्भ से उत्पन्न महापद्म नन्द के जीवन की घटनाओं को नन्दिवर्द्धन के जीवनवृत्त के साथ जोड़कर उसे ही प्रथम नन्द समझ लिया हो। इस प्रकार की त्रुटि होना असंभव नहीं है क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम भाग में यह बताया जा चुका है कि भगवान् महावीर के छठे एवं सातवें गणधर प्रार्य मंडित और मौर्यपुत्र को कतिपय ख्यातनामा प्राचार्यों ने सहोदर बताकर उनकी समान नाम वाली माताओं को एक ही महिला मान लिया और अपने इस कथन की पुष्टि में यहां तक लिख दिया कि मंडित के पिता धनदेव की मृत्यु के पश्चात् मंडित की माता विजया ने मौर्य नामक एक ब्राह्मरण नवयुवक से विधवा-विवाह कर लिया और मौर्य से विजया ने मौर्यपुत्र को जन्म दिया। जब कि वस्तुस्थिति यह है कि आगमों में और स्वयं उन प्राचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में मौर्यपुत्र को मंडित से प्रायु में १३ वर्ष ज्येष्ठ बताया गया है । इस प्रकार की और भी अनेक भूलें हुई हैं । अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के प्रकरण में प्रागे बताया जायगा कि किस प्रकार एकादशांगी के अंशधर, " महानन्दिसुतश्चापि शूद्रायां कालसंवृतः । उत्पत्स्यते महापद्म: सर्वक्षत्रान्तरे नृपः ।। १८५ ।। ततः प्रभृति राजानो भविष्याः शूद्रयोनयः । एकराट् स महापद्म एकच्छत्रो भविष्यति ।। १८६ ।। प्रष्टाविंशतिवर्षारिण पृथिवीं पालयिष्यति । सर्वक्षत्राहृतोद्धृत्य भाविनोऽर्थस्य वै बलात् ।।१८७।। सहस्रास्तत्सुता ह्यष्टी समा द्वादश ते नृपाः । महापद्मस्य पर्याये भविष्यन्ति नृपाः क्रमात् ।।१८८।। [ वायुपुराण, प्र० ६१] श्लोक १८८ के प्रथम पाद में सहस्रा के स्थान पर साहसा होना चाहिये । सम्पादक - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुत: नन्द कौन था ?] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू - २७६. नैमित्तिक भद्रबाह और अंतिम श्रतकेवली धतूर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाह को एक ही भद्रबाहु मानने की भूल पिछली अनेक सदियों से आज तक चली आ रही है । ठीक उसी प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि वत्सपति उदयन का अपुत्रावस्था में मृत्यु हुई और कालान्तर में उदायी और उदयन नामों में यत्किचित् समानता होने के कारण उदायो के लिये यह मान्यता लोगों के मन में घर कर गई कि उसकी मृत्यु संततिविहीन दशा में हुई । इसके परिणामस्वरूप शूद्र स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए महापद्मनन्द को घटना को उदायी के उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धन के साथ जोड़कर उसे ही प्रथम नन्द माना जाने लगा। __इन सब तथ्यों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उदायी का उत्तराधिकारी उदायी के पश्चात् मगध के राज्य सिंहासन पर आसीन होने वाला नन्दिवर्द्धन शिशुनागवंशीय ही था न कि नापितपुत्र अथवा वेश्यापुत्र । नन्दिवर्द्धन के विशुद्ध शिशुनागवंशीय होने का एक प्रबल प्रमाण यह है कि वत्सपति उदयन की पुत्री का विवाह नन्दिवर्द्धन के साथ सम्पन्न हया था। प्रवन्ती का प्रद्योत राजवंश जैसा कि पहले बताया जा चुका है, वीर निर्वाण संवत् के प्रारम्भ होते ही प्रथम दिन में उज्जयिनी के अधीश्वर चण्डप्रद्योत के पुत्र पालक का अवन्ती (मालव) राज्य के राजसिंहासन पर राज्याभिषेक हप्रा। उस समय महत्वाकांक्षी मगधपति कूणिक अपने राज्यविस्तार में जुटा हुअा था। कूणिक द्वारा वैशाली के शक्तिशाली गणतन्त्र को भूलुण्ठित कर देने के पश्चात् मगव की गणना एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में की जाने लगी थी । मगधपति के प्रचण्ड प्रताप के कारण चण्डप्रद्योत के शासनकाल में अजित अवन्ती राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा भी शनैः शनैः क्षीण होने लगी थी। पालक के राज्यारोहरण के कुछ ही समय पश्चात् उसके छोटे भाई गोपाल ने प्रार्य सुधर्मा के उपदेश से विरक्त हो उनके पास श्रमरण दीक्षा ग्रहण कर ली थी। पालक के दो पुत्र थे, बड़ा अवन्तीवर्धन और छोटा राष्ट्रवर्धन । पालक ने उज्जयिनी में रहते हुए अवन्ती राज्य पर २० वर्ष तक शासन किया। पालक के शासनकाल में प्रवन्ती राज्य में कोई विशेष रूप से उल्लेखनीय घटना घटित हुई हो, ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। वीर निर्वाण सं० २० में प्रार्य सुधर्मास्वामी के निर्वाणगमन से कुछ समय पूर्व पालक ने अपने बड़े पुत्र प्रवन्तीवर्धन को उज्जयिनी का राज्य और छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन को युवराज पद देकर आर्य सुधर्मा स्वामी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रद्योत राजवंश की इन तीन पीढ़ियों के घटनाक्रम का एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व है । वह यह है कि जिस दिन भण्डप्रद्योत का जन्म हुमा उस ही दिन बौद्धधर्म के प्रवर्तक भ० बुद्ध का जन्म हुमा था। जिस दिन बुद्ध को Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अवंती का प्रद्योत रा. बोधिलाभ हुआ, उसी दिन चण्डप्रद्योत उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर बैठा और जिस दिन चौबीसवें तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उस ही दिन चण्डप्रद्योत का देहावसान हुआ ।' . जिस दिन पालक का राज्याभिषेक हुअा उस ही दिन गौतमस्वामी को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई और आर्य सुधर्मास्वामी श्रमण भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर बने । वीर निर्वाण संवत् २० में प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने परमपद निर्वाण प्राप्त किया, उसी वर्ष में अवन्ती के अधीश्वर पालक ने अपने बड़े पुत्र को राज्य और छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन को युवराज पद दे आर्य सुधर्मा के पास श्रमरणदीक्षा ग्रहण की और पालक का बड़ा पुत्र अवन्तीवर्धन अवन्ती के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ हुआ। - यूवराज राष्ट्रवर्धन राज्यसंचालन में अपने बड़े भाई अनन्तीवर्धन को सहायता करने लगा । एक दिन अवन्तीवर्धन ने अपने छोटे भाई राष्ट्रवर्धन की प्रतिरूपवती पत्नी धारिणी को उद्यान में क्रीडा करते हुए देखा। उद्यान में किसी पुरुष की उपस्थिति की उसे आशंका नहीं थी, इसलिये वह निस्संकोचभाव से क्रीड़ा में निरत थी । प्रवन्तोवर्धन अपनी भ्रातृजाया के अंगप्रत्यंगों के सौष्ठवपूर्ण गठन और अनुपम सौन्दर्य को प्रच्छन्न रूप से देख कर उस पर मुग्ध हो गया। उसने कामासक्त हो अपनी विश्वस्त दासी को धारिणी के पास भेज कर अपनी आन्तरिक अभिलाषा से उसे अवगत कराया। धारिणी ने अवन्तीवर्धन के पापपूर्ण प्रस्ताव को ठुकराते हुए क्रुद्ध हो कहा- 'उस कामुक से कहना कि क्या तुम्हें अपने भाई से भी लज्जा का अनुभव नहीं होता।" राजा प्रवन्तीवर्धन ने कामान्ध हो षड्यन्त्र कर अपने छोटे भाई राष्ट्रवर्धन की रहस्यमय हत्या करवा दी। अपने पति की मृत्यु से दुखित हो धारिणी ने अपने सतीत्व की रक्षा हेतु उज्जयिनी का परित्याग करना ही श्रेयस्कर समझा । रात्रि के अन्धकार में अपने पोगण्ड-पुत्र अवन्तीसेन को सोते छोड़कर धारिणी अपने और अपने मृत पति के मूल्यवान प्राभरण लेकर उज्जयिनी के राजप्रासादों से निकली और प्रच्छन्नरूप से किसी सार्थ के साथ कौशाम्बी की ओर चल पड़ी। कौशाम्बी पहुंचने पर धारिणी कौशाम्बी के राजा की यानशाला में ठहरी हुई साध्वियों की सेवा में उपस्थित हुई और उसने उनके पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । इस डर से कि कहीं साध्वियां उसे प्रवजित ही न करें, धारिणी ने उनके समक्ष यह बात प्रकट नहीं की कि वह गर्भिणी है। थोड़े ही समय के पश्चात् महत्तरिका (गुरुणी) ने उसके गर्भ की बात ज्ञात होने पर धारिणी से उसके गर्भ के सम्बन्ध में पूछा। १ देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ५४५ से ५५३ -सम्पादक इतो य उज्जेणीये पज्जोतसुता दोणि पालो गोपालमो य, गोपालप्रो पब्वइतो पालगो रज्जे ठितो, तस्स दो पुत्ता पालको प्रतिवद्धणं राजाणं रज्जवद्धरणं जुवरायारणं ठवेत्ता पम्वइतो . [प्राव० चूणि, भा० २ पृ० १८६] (स) तो राज-युवराजी च, कृत्वाभूत्पालको वती। [प्रावश्यक कथा] Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवंती का प्रयोत राजवंश केवलिकाल : मायं जम्बू २८१ धारिणी ने अपना परिचय देते हए अपने साथ घटित हई सारी घटनाएं अपनी गुरुणी के समक्ष निवेदित कर दीं। गर्भकाल पूर्ण होने पर रात्रि के समय धारिणी ने एकान्त स्थान में पुत्र को जन्म दिया। उसके पुत्र के सम्बन्ध में लोकों में निरर्थक चर्चा न चल पड़े, इस अभिप्राय से धारिणी ने अपनी नामांकित मुद्रिका, पाभरण पौर अपने पति के प्राभरणों की गठरी प्रच्छन्न स्थान से खोद कर निकाली और उसके साथ उस बालक को कौशाम्बी के राजप्रासाद के प्रांगण में ले जा कर रख दिया। उसका पुत्र किसी उचित स्थान पर पहुंचता है अथवा नहीं, यह देखने के लिये धारिणी एक अन्धकार-पूर्ण स्थान में बैठ गई। उसे वहां बैठे कुछ ही क्षण व्यतीत हुए होंगे कि नवजात शिशु चिल्लाया। शिशु का रुदन सुन कर कौशाम्बी नरेश अजितसेन प्रासाद से नीचे पाया और मणिरत्नाभरणों की गठरी सहित उस बालक को उठा कर अपने प्रासाद में ले गया। प्रजितसेन ने नवजात शिशु को राजमहिषी के अंक में सुलाते हुए कहा- "देवि! देव ने हमें इस राज्य का उत्तराधिकारी दिया है।" राजदम्पति निस्संतान था अतः पुत्र के समान हो उस शिशु का राजकीय ऐश्वर्य और लाड-प्यार के साथ लालन-पालन होने लगा। प्रवन्तीसेन ने उस शिशु को अपना पुत्र घोषित करते हुए उसका नाम मणिप्रभ रखा। मन ही मन अपने पुत्र के भाग्य की सराहना करती हई साध्वी धारिणी अपनी गुरुणी के पास लौट गई और उनसे निवेदन कर दिया कि मृत बालक का जन्म हना था अतः वह उसे एकान्त में छोड़ पाई है। पुत्र के प्रति अपने उत्तरदायित्व से उन्मुक्त हो धारिणी निरतिचार साध्वो धर्म का पालन करने लगी। उधर उज्जयिनीपति प्रवन्तीवर्धन अनुताप की अग्नि में जलने लगा। अपने निरपराध भाई की हत्या करवाने का और धारिणी के न मिलने का शोक उसे महनिश संतप्त करने लगा। उसने अपने उस जघन्य अपराध के प्रायश्चित्तस्वरूप अपने भाई राष्ट्रवर्षन और देवी धारिणी के पुत्र प्रवन्तीसेन को उज्जयिनी का प्रधीश्वर बना कर लगभग वीर निर्वाण संवत् २४ में आर्य जम्बूस्वामी के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण करली। धारिणी यदा-कदा कौशाम्बी जाने पर राजप्रासाद में जाती रहती थी। कौशाम्बीराज के अन्तःपुर की सभी स्त्रियां साध्वी धारिणी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखने लगीं और बालक मणिप्रभ भी उसके प्रति बड़ा स्नेह रखने लगा। क्रमशः मणिप्रभ युवा हुमा मोर भजितसेन की मृत्यु के पश्चात् वह कौशाम्बी के राज्यसिंहासन पर पासीन हुमा। कौशाम्बी-मृप शतानीक और प्रवन्तीपति चण्डप्रद्योत के समय से इन दोनों राजवंशों में देर-विरोष चला पा रहा था । किसी एक कारण को ले कर अवन्तीसेन ने अपनी बड़ी शक्तिशाली सेना के साथ कौशाम्बी पर माक्रमण कर दिया। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अवंती का प्रद्योत रा० __अवन्तीसेन द्वारा कौशाम्बी पर आक्रमण करने से कुछ समय पूर्व विजयवती नाम की महत्तरा की शिष्या विगतभया ने अनशन किया था। कौशाम्बी के श्रद्धालु श्रावक-श्राविका संघ ने उस अवसर पर साध्वी के त्याग की महिमा करते हुए बड़े महोत्सव के साथ उसका अनेक प्रकार से सम्मान किया। इस घटना के थोड़े ही दिनों पश्चात् धर्मघोष और धर्मयश नामक दो साधुनों ने अपना अन्तिम समय समीप समझ कर अनशन करने का निश्चय किया। धर्मघोष मुनि के मन में लोगों द्वारा सम्मान और प्रतिष्ठा पाने की उत्कण्ठा जागृत हुई और यह सोच कर कि जिस प्रकार विगतभया साध्वी की प्रतिष्ठा हुई थी उसी प्रकार की उसकी भी होगी, उन्होंने कौशाम्बी नगरी में अनशन किया। धर्मयश मुनि को मान-सम्मान की किसी प्रकार की चाह नहीं थी अतः उन्होंने अवन्ती और कौशाम्बी के मध्यमार्ग में स्थित पत्सका नदी के तटवर्ती पर्वत की गुफा के एकान्त स्थान में प्रनशन करने का निश्चय कर उस ओर विहार किया। जिन दिनों धर्मघोष मूनि कौशाम्बी में अनशन कर रहे थे, उन्हीं दिनों अवन्तीसेन ने कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। शत्रु के भय से लोग अपने घरों से बाहर निकलते हुए भी हिचकते थे प्रतः अनशन धारण किये हुए धर्मघोष मुनि के पास कोई व्यक्ति नहीं गया और उनका प्राणान्त हो गया। नगर के चारों ओर अवन्तीराज की सेना का घेरा पड़ा था अतः नगर के परकोटे के द्वार को खोलना खतरे से खाली नहीं था। यह सोच कर लोगों ने धर्मघोष मुनि के शव को परकोटे की दीवार पर से शहर के बाहर फेंक दिया। दोनों ओर से युद्ध की पूरी तैयारियां हो चुकी थी। उस समय साध्वी धारिणी ने भीषण नरसंहार को बचाने के लिये अपने निगूढ़ रहस्य का उद्घाटन करना आवश्यक समझा। धारिणी राजभवन में मणिप्रभ के पास पहुंची। साध्वी को देखते ही मणिप्रभ ने अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में प्रगाढ़ भक्ति के साथ उन्हें वन्दन किया । साध्वी ने कहा - "अपने सहोदर के साथ तुम्हारा यह युद्ध कैसा?" ___ मणिप्रभ ने पाश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा- "पूज्ये ! यह पाप क्या कह रही हैं ? यह शत्रु मेरा सहोदर किस प्रकार हो सकता है ?" इस पर साध्वी धारिणी ने प्रादि से अन्त तक समस्त वृत्तान्त सुनाते हुए बताया कि उसने उसे जन्म देते ही किस प्रकार, किस स्थान पर, किन-किन प्राभरणों एवं पहिचान के चिन्हों के साथ रखा और किस प्रकार कौशाम्बी के अधिपति महाराज अजितसेन उसे प्रांगण से उठा कर अपने अन्तःपुर में ले गये। ___ कौशाम्बी की राजमाता ने अपने समक्ष घटित हुई उन सब बातों की पुष्टि की, जो साध्वी धारिणी ने बताई थीं। नामांकित मुद्रिकामों, राष्ट्रवर्धन तथा धारिणी के प्राभरणों पर अंकित नाम एवं राजचिन्हों आदि तथा मणिप्रभ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवंती का प्रद्योत राजवंश] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २८३ एवं साध्वी धारिणी की नासिका, ललाट एवं लोचनों की साभ्यता से सब को दृढ़ विश्वास हो गया कि धारिणी मणिप्रभ की माता है और मणिप्रभ उसका पुत्र । __सहसा मणिप्रभ के हर्ष गद्गद् कण्ठ से हठात् उद्भूत हुए संसार के समस्त स्नेह और ममता के प्रागर - "मां ! मेरी मो!" इन मधुर स्वरों ने सभी उपस्थित नारियों के हृदयों को पिघला कर पानी-पानी कर दिया और वह पानी बने हृदय प्रांसुओं की झड़ियां बन कर प्रति प्रबल प्रवाह के साथ प्रवाहित हो उठे। कुछ क्षरणों तक सभी की अन्तरात्माएं उस अथाह अवसागर में स्नान करती हुई एक अनिर्वचनीय प्राह्लाद का अनुभव करती रहीं। मणिप्रभ ने नीरवता को भंग करते हुए कुछ दुविधा भरे स्वर में कहा"पूज्ये ! मेरा रोम-रोम इसी समय ज्येष्ठार्य के चरणों पर लुंठित होने हेतु उत्कण्ठित हो रहा है पर जब तक वे इस तथ्य से अवगत हो मुझे अपने हृदय से लगाने के लिये उद्यत न हों तब तक मेरी ओर से किया गया इकतरफा मैत्री प्रस्ताव कायरता का प्रतीक और कौशाम्बी के राजवंश के लिये अपयश का जनक बन सकता है।" ."मैं अभी अवन्तीसेन के पास जाकर उसे वस्तुस्थिति से.परिचित किये देती हूं।" यह कह कर साध्वी धारिणी राजप्रासाद से प्रस्थित हो अवन्ती के सैन्यशिविर पर पहुंचीं । प्रतिहार से साध्वी के प्रागमन का समाचार सुनते ही अपनी अंगपरिचारिकामों सहित प्रवन्तीसेन ने अपने शिबिरकक्ष के द्वार पर उपस्थित हो साध्वी को बड़ी श्रद्धा के साथ वन्दन किया। कुछ वृद्धा परिचारिकामों ने धारिणी के चरण पर स्फुट प्राकृतिक चिह्न को देखते ही उसे तत्काल पहिचान लिया। एक परिचारिका ने विस्फारित नेत्रों से प्रवन्तीसेन की पोर देखते हुए पाश्चर्य एवं उत्सुकतामिश्रित स्वर में कहा - "महाराज ! ये तो हमारी स्वामिनी और उज्जयिनी के महाप्रतापी-चिरायु राजराजेश्वर की मातेश्वरी हैं।" माता की ममतामयी गोद से चिरवंचित पुत्र की, अपनी जननी को पहचानते ही क्या दशा हुई होगी, यह कल्पना की पहुंच के परे है। बड़े-बड़े भूपतियों के भालों को भूलुण्ठित करने वाले प्रवन्तीपति प्रवन्तीसेन का मातृचरणों में झुकता हुमा भाल सहसा भूमि से छू गया। शिशु के समान सुबकियां भरते हुए प्रवन्तीसेन ने कहा- "मां! तुम इतने वर्षों तक अपने लाड़ले से दूर क्यों रही ?" साध्वी धारिणी ने प्रवन्तीसेम को प्राश्वस्त करते हुए संक्षेप में समस्त घटनाचक्र का विवरण सुनाने के पश्चात् कहा-"प्रवन्तीसेन ! प्रसव के तत्काल ' पतीतो भणति पनि भोसरामि तापम बनसो, भकति संवि बहेहि, [भावायकपरिणा, उत्तरमाग, पृ. ५.] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अवंती का प्रद्योत रा. पश्चात् ही मैंने तुम्हारे जिस. लघु सहोदर का परित्याग कर दिया था, वही तो प्राज का कौशाम्बीपति मणिप्रभ है । एक प्रारण-दो शरीर-सहोदरों में परस्पर यह युद्ध कैसा?' वास्तविकता से अवगत होते ही प्रवन्तीसेन ने स्नेहविह्वल स्वर में कहा"पूजनीये ! मैं अज्ञानतावश अपने दक्षिण हस्त से स्वयं के वाम हस्त को काटने जैसी मूर्खता कर रहा था। आपने हमें उपकृत किया है । क्षण भर पहले तलवार का प्रहार करने के लिये उद्यत मेरे बाह यूगल अब मेरे लघु बान्धव को दुलार भरे प्रगाढ प्रालिंगन में प्राबद्ध करने के लिये लालायित हो रहे हैं। कहां है मेरा वह प्राणप्रिय सहोदर?" तत्पश्चात् दोनों भाइयों का पहली बार मिलन हुआ। चरणों पर झुकते हुए अपने छोटे भाई को प्रवन्तीसेन ने भुजपाश में प्राबद्ध कर बड़ी देर तक अपने हृदय से चिपकाये रखा । दो राजवंशों के पीढ़ियों के वैर को दोनों नरेशों ने अपने प्रेमाश्रुनों के प्रवाह में बहा दिया । क्षरण भर में ही यह समाचार दोनों सेनामों के योद्धानों और कौशाम्बी के घर-घर में विद्युत् के संचार की तरह प्रसृत हो गया। योद्धाओं के हाथों की चमचमाती हुई तलवारें म्यानों में रख दी गईं, शतघ्नियों के कानों में कैंचियां डाली जाकर उनके मुख नीचे की ओर झुका दिये गये और रणभेरी सेंधव आदि रणवाद्यों के घोरारव के स्थान पर मृदंग, मशक, झांझ, बीणा, शहनाई प्रादि की करर्णप्रिय स्वरलहरियों की गंज से समस्त वातावरण मृदुल, मोहक और मादक बन गया। क्षरण भर पहले प्रज्ञानवश जो सेनाएं एकदूसरे के खून से होली खेलने को उद्यत थीं, वे अब अज्ञान का परदा हटते ही परस्पर एक दूसरे को प्रबीर-गुलाल के रंग से शराबोर करने लगीं। इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा दिये गये विश्वकल्याणकारी अहिंसा के दिव्य संदेश को जन-जन तक पहुंचाने वाली सजग साध्वी धारिणी ने उस समय की मानवता को . एक भीषण नरसंहार से बचा लिया । बड़े प्रानन्दोल्लास और सम्मान के साथ अवन्तीसेन का कौशाम्बी में नगर प्रवेश करवाया गया। थोड़ी ही देर पहले जो कौशाम्बी के नागरिक मातताई के रूप में पाये हए प्रवन्तीसेन से प्रातंकित थे वे अब उसे अपना प्रिय अतिथि समझकर उस पर मानन्दविभोर हो पुष्पों की वर्षा करने लगे। अपने छोटे भाई के आग्रह पर अवन्तीसेन को एक मास तक कौशाम्बी में रुकना पड़ा। दोनों भाइयों ने सह-अस्तित्व की भावनाओं का समादर करते हुए दोनों राज्यों की प्रजा की सुख-समृद्धि में अभिवृद्धि करने वाली अनेक नीतियों का निर्धारण किया। अवन्तीसेन ने कौशाम्बी राज्य की जनता के हित के लिये अनेक लोकोपयोगी कार्यों को सम्पन्न करने हेतु अपार धनराशि दी। एक मास तक कौशाम्बी में अनेक प्रकार के मंगलमय महोत्सव मनाये गये। अन्ततोगत्वा एक मास पश्चात् प्रवन्तीसेन ने उज्जयिनी की ओर प्रस्थान किया। उसने पापहपूर्वक अपने छोटे भाई मणिप्रभ को भी साथ लिया। दोनों Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवंती का प्रद्योत राजवंश] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २८५ भाइयों की प्रार्थना पर साध्वी धारिणी ने भी अपनी महत्तरा और अन्य साध्वियों के साथ उज्जयिनी की ओर विहार किया। स्थान-स्थान पर पड़ाव डालते हुए अवन्तीसेन और मणिप्रभ कौशाम्बी तथा उज्जयिनी के बीच में वत्सका नदी के तट पर पहुंचे। उस समय तक धर्मयश मुनि यथाशक्य विहारक्रम से वहां पहुंच चुके थे और उन्होंने वत्सका नदी के पास के एक पहाड़ की गुफा में अनशन प्रारम्भ कर दिया था। उस निर्जन एकान्त स्थान में अनशन प्रारम्भ करने पर भी लोगों से यह बात छुपी न रह सकी और अनशन में स्थित धर्मयश मुनि के दर्शन करने के लिये दूर-दूर से श्रद्धालु नर-नारी बड़ी संख्या में आने लगे। बहुत बड़ी संख्या में नर-नारियों के समूहों को अनवरत रूप से पहाड़ पर चढ़ते-उतरते देखकर उन दोनों राजाओं ने चरों से वहां लोगों के आवागमन का कारण पूछा। धर्मयश मुनि द्वारा अनशन किये जाने के समाचार सुनकर दोनों भाइयों ने वत्सका नदी के तट पर दोनों सेनाओं का पड़ाव डाला। धारिणी आदि साध्वियां, अवन्तीसेन, मणिप्रभ्र और उन दोनों राजाओं की सेनाओं ने पहाड़ पर चढ़कर गुफा में स्थित अनशन किये हुए मुनि के दर्शन किये । हजारों कण्ठों ने जयघोष कर मुनि के अपूर्व त्याग, वैराग्य और अनशन की महिमा का गान किया। मुनि के अनशन के अन्त तक साध्वी धारिणी की उसी स्थान पर ठहरने की इच्छा जानकर उन दोनों भाइयों ने भी अपनी सेनाओं के साथ उस ही स्थान पर रहने का निश्चय किया। मुनि धर्मयश के अनशन की यशोगाथाएं दिग्दिगन्त में दूर-दूर तक गाई जाने लगी। दिन भर उस पर्वत पर अनशनस्थ मुनि के दर्शनार्थ पाने वाले यात्रियों का प्रावागमन बना रहता । अन्त में मुनि ने लम्बे अनशन के पश्चात् देहत्याग किया। अपूर्व श्रद्धा और सम्मान के साथ धर्मयशमुनि के पार्थिव शरीर का राजकीय ऋद्धि के साथ अन्तिम संस्कार किया गया। इस प्रकार किंचित्मात्र भी यश की कामना न करने वाले धर्मयश मुनि का यश चारों ओर छा गया।' तदनन्तर अवन्तीसेन और मणिप्रभ ने उज्जयिनी की ओर प्रस्थान किया। महत्तरिका ने भी धारिणी प्रादि साध्वियों के साथ उज्जयिनी की भोर विहार किया। कौशाम्बीपति मणिप्रभ का बड़े महोत्सव के साथ प्रवन्तीसेन ने उज्जयिनी में प्रवेश करवाया। मणिप्रभ के सम्मान में राज्य और उज्जयिनी की प्रजा दोनों ही अोर से मानन्दोल्लास के साथ अनेक उत्सवों के प्रायोजन किये गये। कतिपय दिनों तक अपने अग्रज के साथ उज्जयिनी में रहने के पश्चात् मणिप्रभ अपने राज्य की राजधानी कौशाम्बी में लौट पाया। '...तामो भणंति-भत्तपच्चक्सातमो एरच ता पम्हे मच्छामो, ताहे ते दोवि रायाणो ठिता दिवे दिवं महिमं करेंति, कालगता एवं ते गया रायाणो, एवं तस्स परिणच्छमाणस्सवि जाता, इतरस्स इच्छमाणस्स न जाता पूजा। [मावश्यक पूणि, उत्तर माग, पृ० १९१] Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अवंती का प्रद्योत रा० उज्जयिनी और कौशाम्बी राज्यों का दीर्घकाल तक बड़ा स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहा। पारस्परिक सहयोग, व्यापार तथा कला-कौशल एवं विद्या के आदानप्रदान के कारण दोनों राज्यों के कोष और प्रजा की सुख समृद्धि में उन दिनों उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई। कहा जाता है कि वत्सका नदी के तटवर्ती पर्वत पर आर्य सुधर्मा के श्रमणसंघ के मुनि धर्मयश के अनशनपूर्वक पण्डितमरण की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये उज्जयिनी के राजा प्रवन्तीसेन और कौशाम्बी के राजा मरिणप्रभ ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था जो प्राज सांची के स्तूप के रूप में विख्यात. है।' इस सम्बन्ध में समीचीन रूप से शोध करने और ठोस प्रमाण एकत्रित करने की प्रावश्यकता है। कौशाम्बी (वत्सराज्य) का पौरव राजवंश केवलिकाल के प्रथम चरण में कौशाम्बी पर पौरव राजवंश का शासन रहा पर द्वितीय चरण में जैसा कि उज्जयिनी के प्रद्योत राजवंश के विवरण में बताया जा चुका है - कौशाम्बी के राजा अजितसेन ने निसन्तान होने के कारण अवन्ती के राष्ट्रबर्द्धन के नवजात पुत्र को अपने पुत्र की तरह पाला और उसका नाम मणिप्रभ रखा। अजितसेन की मृत्यु के पश्चात् कौशाम्बी के राज्य सिंहासन पर मणिप्रभ बैठा जो कि वण्ड प्रद्योत का प्रपौत्र था। इस प्रकार कौशाम्बी पर पौरव राजवंश के स्थान पर प्रद्योत राजवंश का अधिकार हो गया। कौशाम्बी पति मणिप्रभ के राज्यकाल की कतिपय घटनामों का प्रद्योत राजवंश के परिचय में उल्लेख कर दिया गया है। उन घटनामों के अतिरिक्त केवलिकाल में कौशाम्बी के राजवंश से सम्बन्धित कोई ऐतिहासिक महत्त्व की घटनामों के घटित होने का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। कलिंग का चेदिराजवंश केवलिकाल में वीर नि० सं० १७ तक चेदि राजवंश के राजा सुलोचन का राज्य रहा। हिमवन्त स्थिविरावली के उल्लेखानुसार वीर नि० सं० १८ में सुलोचन के मपुत्रीवस्था में निधन पर वैशाली गणराज्य के अधीश्वर महाराज चेटक के पुत्र शोभनराय को कलिंग के सिंहासन पर अभिषिक्त किया गया। हिमवन्त स्थिविरावली में यह उल्लेख किया गया है कि वैशाली के अधिपति चेटक ने कूरिणक के साथ युद्ध में अपनी पराजय के पश्चात् अनशन द्वारा स्वर्गारोहण किया। उनके पुत्रों में से शोभनराय नाम का एक पुत्र अपने श्वसुर कलिंगपति सुलोचन के पास कनकपुर चला गया । कलिंगपति सुलोचन के कोई पुत्र ' जैन परम्परा नो इतिहास, भा० १, (त्रिपुटी महाराज) [पृ० ७४, ७६] Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिंग का चेदि राजवंश केवलिकाल : मार्य जम्बू २८७ नहीं था अतः उन्होंने अन्तिम समय में अपने जामाता शोभनराय को कलिंग राज्य का अधिपति बनाकर परलोक गमन किया। शोभनराय जैन धर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा रखने वाला प्रमुख श्रमणोपासक था।' - केवलिकाल में केवल कलिंग के राजवंश का ही नहीं अपितु भारत के प्रायः सभी अन्य राजवंशों का तेज शिशुनागवंश के बढ़ते हुए प्रताप के समक्ष एक प्रकार से निस्तेज तुल्य ही रहा। मह वेसाली गयराहियो चेडनो णिवो सिरि महावीर तित्थयरस्सुकिट्ठो समणोवासमो मासी । से रणं रिणय भाइणिज्जेणं चंपाहिवेणं कुरिणगेणं संगामे अहिरिणक्खित्तो प्रणसरणं किच्चा सग्गं पत्तो। तस्सेगो सोहणरायनामधिज्जो पुत्तो तमो उच्चलिम्रो रिणय ससुरस्स कलिंगाहिवस्स सुळोयण णामधिजस्स सरणं गमो । सुलोयणो वि णिप्पुत्तो तं सोहणरायं कलिंग रज्जे ठाइत्तां परलोग्रातिहि जानो। तेणं कालेणं तेणं समएएणं वीरामो प्रड्ढारस वासेसु विइक्कतेसु से सोहणराम्रो कलिंग विसए कणगपुरम्मि अभिसित्तो। से विय रणं जिणधम्मरमो तस्य तित्थभूप कुमरगिरिम्मि कयजत्तो उक्किट्ठो समरणोवासगो होत्था । [हिमवंत स्थविरावली, अप्रकाशित] Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली-काल (वीर निर्वाण संवत् ६४ से १७०) श्रुतकेवली-काल के प्राचार्य : प्राचार्य प्रभवस्वामी प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. ६४ से ७५ प्राचार्य सय्यंभवस्वामी प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. ७५ से ६८ प्राचार्य यशोभद्रस्वामी प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. १८ से १४८ प्राचार्य संभूतविजयस्वामी प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. १४८ से १५६ प्राचार्य भद्रबाहुस्वामी प्राचार्यकाल - वी. नि, सं. १५६ से १७० Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतवली-काल वीर निं० सं० ६४ में केवलिकाल की समाप्ति के साथ ही श्रुतकेवलिकाल प्रारम्भ हुआ । श्रुतकेवली का मतलब है समस्त श्रुतशास्त्र अर्थात् द्वादशांगी का केवली के समान पारगामी ज्ञाता एवं व्याख्याता । श्रागम में श्रुतकेवली को जीव, अजीव प्रादि समस्त तत्वों के व्याख्यान में केवली के समान ही समर्थ बताया गया है | श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता के अनुसार श्रुतकेवलिकाल वीर नि० सं० ६४ से वीर नि० सं० १७० तक रहा और श्रुतकेवलिकाल की उस १०६ वर्ष अवधि में निम्नलिखित ५ श्रुतकेवली हुए : १. प्रभवस्वामी २. सय्यंभवस्वामी ३. यशोभद्रस्वामी ४. संभूतविजय - और ५. भद्रबाहुस्वामी दिगम्बर मान्यता :- दिगम्बर परम्परा के अधिकांश ग्रन्थों एवं प्रायः सभी पट्टावलियों में वीर नि० सं० ६२ से वीर नि० सं० १६२ तक कुल मिला कर १०० वर्ष का श्रुतकेवलिकाल माना गया है। दिगम्बर परम्परा द्वारा सम्मत ५ श्रुतकेवलियों के नाम एवं उनका प्राचार्यकाल इस प्रकार है : १. विष्णुनन्दि अपरनाम नन्दि २. नन्दिमित्र ३. अपराजित ४. गोवर्धन ५. भद्रबाह प्रथम 11 11 वी० नि० सं० ६२ से ७६ वी० नि० सं० ७६ से ६२ दी० नि० सं० वी० नि० सं० वी० नि० सं० २ से ११४ ११४ से १३३ १३३ से १६२ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. प्राचार्य प्रभवस्वामी जम्बूस्वामी के पश्चात् भगवान् महावीर स्वामी के तृतीय पट्टधर प्राचार्य प्रभवस्वामी हुए.। आप ३० वर्ष गृहस्थ-पर्याय में, ६४ वर्ष सामान्य व्रतपर्याय में और ११ वर्ष तक युगप्रधान-प्राचार्य के रूप में रह कर शासन सेवा करते रहे। आपकी कुल व्रतपर्याय ७५ वर्ष और पूर्ण प्राय १०५ वर्ष थी। आचार्य प्रभवस्वामी वीर निर्वाण संवत् ७५ में स्वर्ग पधारे।' आपका जीवन परिचय संक्षेप में इस प्रकार है :- प्रभवकुमार विन्ध्याचल की तलहटी में स्थित जयपुर नामक राज्य के कात्यायन गोत्रीय क्षत्रिय महाराजा विन्द्य के ज्येष्ठ पुत्र थे । राजकुमार प्रभव का जन्म ईसा पूर्व ५५७में विन्द्य प्रदेश के जयपुर नगर में हुआ । इन के लघु भाई का नाम सुप्रभ था। दोनों का लालन-पालन राजकुल के अनुरूप बड़े दुलार और प्यार के साथ हमा। राजकुमार प्रभव को शिक्षा-योग्य वय में राज्याधिकारी राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गई । वे बड़े साहसी और तेजस्वी राजकुमार थे। जिस समय राजकुमार प्रभव किशोरावस्था पार कर १६ वर्ष के हुए उस समय उनके पिता जयपुर नरेश विन्द्य किसी कारणवश उनसे अप्रसन्न हो गये । उन्होंने क्रुद्ध हो राजकुमार प्रभव को राज्य के अधिकार से वंचित कर दिया और अपने कनिष्ठ पुत्र सुप्रभ को अपने राज्य का उत्तराधिकारी युवराज घोषित कर दिया। डाकू सरदार प्रमव अपने न्यायोचित पतक अधिकार से वंचित कर दिये जाने के कारण राजकुमार प्रभव को बड़ा मानसिक आघात पहुंचा और वे पिता से रुष्ट हो घरद्वार छोड कर विन्द्य पर्वत के विकट और भयानक जंगलों में रहने लगे। विन्द्याटवी में रहने वाले लुटेरों ने साहसी एवं युवा राजकुमार प्रभव के साथ संपर्क स्थापित किया। लूट के अभियानों में राजकुमार प्रभव उन लुटेरों के साथ रहने लगे। प्रभव के पराक्रम और साहस को देख कर डाकुओं के गिरोह ने उन्हें अपना सरदार बना लिया। अब डाकू-सरदार प्रभव अपने ५०० डाकुओं के शक्तिशाली दल के साथ दिन-दहाड़े बड़े-बड़े कस्बों और ग्रामों को आये दिन लूटने लगे । डाकू-सरदार प्रभव को डकैती के अभियानों में ज्यों-ज्यों सफलताएं प्राप्त होती गई त्यों-त्यों उसकी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ती गई । अपनी महत्वा गुरुपट्टावली, तपागच्छ पट्टावली आदि अनेक ग्रन्थों में गणना की भूल के कारण प्रभवस्वामी की सामान्य वनपर्याय ४४ वर्ष लिख दी है जब कि वह ६४ वर्ष होती है । गणना की इस त्रुटि के कारण प्रार्य प्रभव की कुल प्रायु भी उन स्थलों पर ८५ वर्ष हो लिखी है । वस्तुतः प्रा० प्रभव की कुल प्रायु १०५ वर्ष हो टीक बैठती है ! - संपादक Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाकू सरदार प्रभव ] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी २६३ hi की पूर्ति के लिये उसने तालोद्घाटिनी विद्या- ( मजबूत से मजबूत तालों को अनायास ही खोल डालने की विद्या) और " अवस्वापिनी विद्या " - ( लोगों को प्रगाढ़ निद्रा में सुला देने वाली विद्या) - इन दो विद्याओं की भी प्रयत्नपूर्वक साधना कर ली। अपने शक्तिशाली डाकूदल और उपरोक्त दोनों विद्यानों के बल पर डाकू सरदार प्रभव बड़े से बड़े शहरों में रहने वाले धनाढ्यों के घरों में निशंक हो प्रवेश करता और बिना लहू की एक बूंद बहाये ही अपार सम्पत्ति लूटने में सफल हो जाता । चारों प्रोर डाकू सरदार प्रभव का भयंकर प्रातंक छा गया । प्रभव द्वारा श्रेष्ठी ऋषभस्त के घर डाका एक दिन डाकू सरदार प्रभव को उसके चरों ने सूचना दी कि राजगृह नगर में कुबेर के समान अपरिमित सम्पत्ति के स्वामी ऋषभदत्त श्रेष्ठी के पुत्र जम्बूकुमार का पाठ बड़े-बड़े सम्पत्तिशाली श्रेष्ठियों की ८ कन्याओं के साथ विवाह हुआ है और विवाह के अवसर पर जम्बूकुमार को अन्य अपरिमित दहेज के साथ-साथ कई करोड़ स्वर्णमुद्राएं भी प्राप्त हुई हैं । चरों के मुंह से जम्बूकुमार को दहेज में मिलने वाली सम्पत्ति र श्रेष्ठी ऋषभदत्त के घर में विद्यमान विपुल सम्पत्ति का व्यौरा सुन कर डाकुनों ने अपने सरदार प्रभवकुमार से कहा- "स्वामिन्! इस अवसर का लाभ उठाने पर एक ही वार में इतनी सम्पत्ति मिल जायगी कि उससे हम सब लोगों की अनेक पीढ़ियां सुखपूर्वक जीवनयापन कर सकेंगी।" प्रभव ने इसे स्वरिणम अवसर समझ कर अपने ५०० साथियों के साथ शस्त्रास्त्रों से सजधज कर राजगृह की ओर प्रयाण कर दिया। रात्रि के समय तालोद्घाटिनी विद्या के प्रयोग से मुख्य द्वार खोल कर प्रभव ने अपने ५०० साथियों के साथ जम्बूस्वामी के गृह में प्रवेश किया । उसने अवस्वापिनी विद्या के प्रयोग से विवाहोत्सव पर एकत्रित हुए सभी स्त्री-पुरुषों एवं घर के समस्त लोगों को प्रगाढ निद्रा में सुला दिया । तालोद्घाटिनी विद्या के प्रभाव 'जम्बूकुमार के सुविशाल भव्य भवन के सभी कक्षों के ताले तत्क्षरण खुल गये । प्रभव एवं उसके साथियों ने देखा कि सभी कक्ष अनमोल एवं अपार सम्पत्ति से भरे पड़े हैं । चोरों का स्तंभन प्रभव के ५०० साथियों ने अवस्वापिनी विद्या के प्रभाव से प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए जम्बूस्वामी के अतिथियों के अंग-प्रत्यंगों से रत्नजटित अनमोल आभूषण उतारना और विभिन्न कक्षों से बहुमूल्य सम्पत्ति एकत्रित करना प्रारम्भ किया । जम्बूस्वामी पर अवस्वापिनी विद्या का किंचित् मात्र भी प्रभाव नहीं हुआ था । जब उन्होंने देखा कि अतिथियों के अंगप्रत्यंग पर से चोरों द्वारा आभूषण Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चोरों का स्तंभन उतारे जा रहे हैं; तो उन्होंने घनरव गम्भीर स्वर में कहा - "तस्करो ! तुम लोग इन अतिथियों के प्राभूषण क्यों उतार रहे हो?" जम्बूस्वामी के मुख से उपरोक्त वाक्य के निकलते ही प्रभव के सभी ५०० साथी चित्रलिखित की तरह, जहां जिस मुद्रा में थे, वहां उसी रूप में स्तंभित हो गये। अपने ५०० साथियों को चित्रलिखित से निश्चल मुद्रा में खड़े देख कर प्रभव को बड़ा आश्चर्य हुमा । उसने अपने उन साथियों में से कई का नाम ले ले कर उन्हें पुकारा, उनके कंधे पकड़-पकड़ कर झकझोरा पर सब व्यर्थ । वे सब ज्यों के त्यों खड़े के खड़े ही रह गये । प्रभव ने इसका कारण जानने के लिये एक के बाद एक, सारे कक्षों को देख डाला पर सर्वत्र निस्तब्धता और निद्रा का साम्राज्य था। जब वह जम्बूकुमार के शयनकक्ष की ओर बढ़ा तो उसने वहां तारिकाओं से घिरे हुए शरदपूरिंणमा के प्रकाशपुंज पूर्णचन्द्र के समान अपनी पाठ नववधुनों के साथ सुखासन पर विराजमान जम्बूकुमार को देखा । प्रभव ने जम्बूकुमार को प्रगाढ़ निद्रा में सुला देने हेतु अपनी अवस्वापिनी विद्या का प्रयोग किया किन्तु उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि उसकी कभी नहीं चूकने वाली उस विद्या का जम्बूकुमार पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा है । प्रभव का जम्बू से निवेदन प्रभव ने हाथ जोड़ कर जम्बूकुमार से कहा :- “भाग्यवान् ! मुझे निश्चय हो गया है कि आप कोई महापुरुष हैं । आपने कदाचित् सुना होगा, मैं जयपुर नरेश विन्द्यराज का बड़ा पुत्र प्रभव हूं। आपके प्रति मेरे हृदय में मैत्री के भाव प्रबल वेग से उमड़ रहे हैं। मैं आपके साथ मैत्री-सम्बन्ध चाहता हूं। कृपा कर आप मुझे अपनी "स्तंभिनी" पर मोचनी" विद्याएं सिखा दीजिये। मैं आपको सालोद्घाटिनी और अवस्वापिनी नामक दो विद्याएं सिखाये देता हूं।" इस पर जम्बकूमार ने कहा- "सुनो प्रभव ! वस्तुस्थिति यह है कि मैं अपने समस्त कुटुम्बी जनों और अपरिमित वैभव का परित्याग कर कल ही प्रातःकाल प्रव्रज्या ग्रहण करने जा रहा हैं। वैसे मैंने भाव से सभी प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भों का परित्याग कर दिया है । में पंचपरमेष्ठि का ध्यान करता हूं प्रतः मुझ पर किसी विद्या का अथवा देवता का प्रभाव नहीं हो सकता । मुझे इन पापानमन्धी विद्याओं से कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि ये सब घोरातिघोर दुःखपूर्ण. दुर्गतियों में भटकाने वाली हैं । न मेरे पास कोई स्तंभिनी विद्या है और न विमोचनी ही। मैंने तो प्रार्य सुधर्मा स्वामी से भवविमोचनी विद्या ग्रहण कर रखी है।" 'बयररेण तेरण तेरणा ते, सम्वे भिया तमो भवरणे । पित्तनिहियन जाया, प्रहवा पाहाणघड़ियन्त्र ।।२१७।। [जम्बू-चरित्र, रत्नप्रभसूरिरचित] Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाका जंबू से निवेदन] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी २६५ . जम्बूकुमार की बात सुन कर प्रभव प्राश्चर्यमग्न हो विस्फारित नेत्रों से उनकी मोर देखता ही रह गया । वह सोचने लगा-कैसा प्रश्रुतपूर्व महान् पाश्चर्य है ? यौवन की मध्याह्नवेला में बल, वैभव और सौन्दर्य की अतुल राशि को पाकर भी देवकन्यामों जैसी पाठ-पाठ रमणियों के बीच निलिप्त रहने वाला यह कौन शूरशिरोमरिण है ? इन सब का इस महापुरुष ने तृणवत् परित्याग कर दिया। यह तो कोई अलौकिक अनुपम ज्ञानी, अद्भुत विरागी पुरुष है। वस्तुतः यह वन्दनीय और पूजनीय है । सहसा प्रभव का सांजलि शीश जम्बूकुमार के समक्ष मुक गया। जम्मू और प्रभव का संवाद प्रभव असीम प्रात्मीयता से ओतप्रोत स्वर में कहने लगा - "जम्बूकुमार! माप स्वयं विज्ञ हैं। फिर भी में एक बात आपसे निवेदन करता हं । संसार में रमा और रामा- ये दो अमृतफल हैं, जो देव को भी सहसा दुर्लभ हैं पर सौभाग्य से माफ्को ये दोनों प्रमतफल प्राप्त.हैं। प्राप इनका यथेच्छ, जी भर कर उपभोग कीजिये । भविष्य के गर्भ में छुपे बड़े से बड़े सुख की प्राशा में, उपलब्ध सुख के परित्याग की पण्डितजन प्रशंसा नहीं करते । अभी तो अापकी वय संसार के इन्द्रियजन्य सुखों के उपभोग करने की है। मेरी समझ में नहीं पाता कि इस असमय में भोग-मार्ग से मुख मोड़ कर आपने अपने मन में प्रवजित होने की बात क्यों सोच रखी है? जिन लोगों ने मानन्दप्रद सांसारिक भोगोपभोगों का जी भर रसास्वादन कर लिया हो और जिनकी अवस्था परिपक्व हो चुकी हो, ऐसे व्यक्ति यदि धर्म का प्राचरण करें, तो उस स्थिति में त्याग का औचित्य समझ में प्रा सकता है।" इस पर जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! तुम जिन्हें सुख समझते हो वे तथाकथित विषयसुख मधुबिन्दु के समान अति तुच्छ, नगण्य और क्षणिक हैं। इनका परिणाम अत्यन्त दुःखदायी है।" प्रभव ने पूछा - "बन्धुवर ! वह मधुबिन्दु क्या है ?" इस पर जम्बूकुमार ने प्रभव को मधुबिन्दु का पाख्यान सुनाया, जो इस प्रकार है : मधुबिन्दु का दृष्टान्तधनोपार्जन की अभिलाषा से एक सार्थवाह अनेकों अन्य अर्थाथियों को साथ लिये देशान्तर की यात्रा को चला। उसके साथ एक बुद्धिहीन निर्धन व्यक्ति भी था । दूरस्थ प्रदेश की यात्रा करता हुप्रा वह सार्थ एक जंगल में पहुंचा । वहां एक मकुमों के दल ने सार्थ पर आक्रमण कर उसे लूटना चाहा । वह गरीब व्यक्ति भय के मारे वहां से किसी न किसी प्रकार अपने प्राण बचा कर भाग निकला । पर थोड़ी ही दूर चलने पर उसने देखा कि एक भयानक जंगली हाथी उसका पीछा कर रहा है। अपने प्राणों की रक्षा हेतु उसने इधर-उधर देखा कि Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मधुबिंदु का दृष्टांत कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाय । उसकी दृष्टि पास ही के एक वट वृक्ष पर पड़ी। उसने वट वृक्ष के प्ररोहों को पकड़ने के लिये कूप के पास पहुंच कर छलांग मारी पोर वट वृक्ष के प्ररोहों को पकड़ लिया। कुछ समय के लिये अपने आपको सुरक्षित समझ कर उसने बड़ की शाखा पर लटके-लटके ही कुए के अन्दर की पोर दृष्टि दौड़ाई, तो उसने देखा कि कुएं के बीचोंबीच एक बहुत बड़ा भयकर प्रजार अपना मुंह फैलाये, जिह्वा लपलपाते हुए उसकी ओर सतृष्ण, नेत्रों से देख रहा है और उससे प्राकार-प्रकार में छोटे चार अन्य सर्प कुएं के चारों कोनों में बैठे हुए उसको प्रोर मुंह खोले देख रहे हैं। भय के कारण उसका सारा शरीर कांग उठा । अब उसने ऊपर की प्रोर प्रांख उठाई तो देखा कि दो चूह. जिनमें से एक काले रंग का और दूसरा श्वेत रंग का है, जिस. शाखा के सहारे वह लटक रहा है, उसी को बड़ी तेजी से काट रहे हैं। यह सब कुछ देखकर उसे पक्का विश्वास हो गया कि उसके प्राण निश्चित रूप से पूर्ण संकट में हैं और अब उसके बचाव का कोई उपाय नहीं है । इधर उस व्यक्ति के पदचिन्हों की टोह लेता हुआ वह जंगली हाथी भी कुएं के पास पहुंचा और उस वृक्ष को जोर-जोर से हिलाने लगा। वृक्ष पर मधुमक्खियों का एक बहुत बड़ा छत्ता था। वृक्ष के हिलने से मधुमक्खियां उड़-उड़कर उस आदमी के रोमरोम में डंक लगाने लगी, जिसके कारण उसके शरीर में प्रसह्य पीड़ा और जलन होने लगी। अब तो साक्षात् मृत्यु उसकी आंखों के समक्ष नाचने लगी। मृत्यु के भय से वह सिहर उठा। . सहसा मधुमक्खियो के छत्ते में से एक शहद की बून्द टपक कर उसके मुह में गिरी। उस घोर दुःखदायी और संकटपूर्ण स्थिति में भी मधु की एक बिन्दु के मधुर रसास्वाद पर मुग्ध हो वह अपने आपको सुखी समझने लगा। ठोक उसी समय आकाशमार्ग से गमन करता हुआ एक विद्याधर उस ओर से निकला। उसने कुएं में लटकते हुए और सब ओर संकटों से घिरे उस व्यक्ति की दयनीय स्थिति पर दया कर उससे कहा - "प्रो मानव ! तुम मेरा हाथ पकड़ लो। मैं तुम्हें इस कुएं में से निकालकर और सब संकटों से बचाकर सुखद एवं सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दूगा।" शाखा पर लटके एवं संकटों में फंसे हुए उस व्यक्ति ने उत्तर में विद्याधर से कहा - "तुम थोड़ी देर प्रतीक्षा करो। देखो वह मधुबिन्दु मेरे मुंह में टपकने वाली है।" उस दयालु विद्याधर ने अनेक बार उस व्यक्ति को अपना हाथ पकड़ने और कुएं से बाहर निकलने के लिये कहा किन्तु हर बार उस व्यक्ति ने घोर दुःखो में फसे होते हए भी यही उत्तर दिया - "थोड़ी देर और प्रतीक्षा करो, मैं एक और मधुबिन्दु का आनन्द ले लं ।" Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुबिंदु का दृष्टांत] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी २६७ पर्याप्त प्रतीक्षा करने के पश्चात उस विद्याधर ने देखा कि घोर दुःखों से पीडित होते हर और मृत्यु के मह में फंसा होकर भी यह अभागा मधु-बिन्दु के लोभ को नहीं छोड़ रहा है, तो वह उसे वहां छोड़कर अपने सुन्दर एवं सुखद आवास की ओर चला गया और वह दुःखी व्यक्ति अनेक प्रकार की असह्य यातनामों को भोगता हुमा अंततोगत्वा काल का कवल बन गया। जम्बूकुमार ने कहा- "प्रभव ! इस दृष्टान्त में वर्णित अर्थार्थी वणिक - संसारी जीव, भयानक वन- संसार, हाथी-मृत्यू, कुमा- देवमानवभव, वणिजसंसार की तृष्णा, अजगर-नरक और तिर्यंच गति, चार भीषण सर्प - दुर्गतियों में ले जाने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चार कपाय, वट वृक्ष की शाखाप्रत्येक गति की आयु, काले और श्वेत रंग के दो चूहे - कृष्ण और शुक्ल पक्ष, जो रात्रि और दिन रूपी अपने दांतों से आयुकाल की शाखा को निरन्तर काट रहे हैं। वृक्ष-कर्मबन्ध के हेतुरूप अविरति और मिथ्यात्व, मधुविन्दु-पांचों इन्द्रियों के विषय सुख और मधुमक्खियां-शरीर में उत्पन्न होने वाली अनेक व्याधियां हैं। विद्याधर हैं सद्गुरु जो कि भवकूप में पड़े हुए दुःखी प्राणियों का उद्धार करना चाहते हैं।" .. प्रभव से जम्बूकुमार ने प्रश्न किया - "प्रभव ! अव तुम बताओ कि जिन परिस्थितियों में वह व्यक्ति कुएं के अन्दर लटक रहा था, उसे कितना सुख था और कितना दुःख ?" प्रभव ने क्षरणभर के लिये विचार कर कहा - "लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् जो शहद की एक बून्द उसके मुख में गिरती थी, बस यही एक थोड़ा-सा उसे सुख था, शेष सब दुःख ही दुःख थे।" जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! यही स्थिति संसार के प्राणियों के सुख और दुःख पर घटित होती है। अनेक प्रकार के भय से घिरे हए उस व्यक्ति को वस्तुत: नाममात्र का भी सुख कहां? ऐसी दशा में मधुबिन्दु के रसास्वाद में सुख की कल्पनामात्र कही जा सकती है, वस्तुतः सुख नहीं।" जम्बकुमार ने प्रभव से पुनः प्रश्न किया-- "प्रभव ! इस प्रकार की दयनीय और संकटपूर्ण स्थिति में कोई व्यक्ति फंसा हा हो और उसे कोई परोपकारी पुरुष कहे - "यो दुःखी मानव ! ले मेरा हाथ पकड़ ले, मैं तुझे इस घोर कष्टपूर्ण स्थान से बाहर निकालता हूं।" तो वह दुःखी व्यक्ति उस परोपकारी महापुरुष का हाथ पकड़कर बाहर निकलना चाहेगा या नहीं ?" प्रभव ने उत्तर दिया - "दुःखों से अवश्य वचना चाहेगा।" जम्बूकुमार ने कहा - "कदाचित् मधुबिन्दु के स्वाद के मोह में फंस कर कोई मूढ़तावश कह दे कि पहले मुझे मधु से तृप्त होने दीजिये फिर बाहर निकाल लेना, तो वह दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि उसकी इस प्रकार कभी तृप्ति होने वाली नहीं है । जिस शाखा के सहारे वह लटक रहा है, उस शाखा के काले और श्वेत मूशकों द्वारा, कटते ही वह भयंकर अजगर के मुंह में पड़ेगा। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग प्रभव ! इस प्रकार को वस्तुस्थिति को समझ जाने के पश्चात् से निकलने के कार्य में किंचितमात्र भी प्रमाद नहीं करूंगा ।" [सबिंदु का दृष्टांत इस भवकूप में प्रभव ने जम्बूकुमार द्वारा रखी गई वस्तुस्थिति की तथ्यता को स्वीकार करते हुए प्रश्न किया - "आपने जो कहा वह तो सब ठीक है किन्तु आपके समक्ष ऐसी कौनसी दुःखपूर्ण स्थिति उपस्थित हो गई है, जिसके कारण आप असमय में ही अपने उन सब स्वजनों को छोड़कर जा रहे हैं, जो आपको प्रारणों से भी अधिक चाहते हैं ?" मैं संसार का बड़ा दुःख जम्बूकुमार ने उत्तर दिया “प्रभव ! गर्भवास का दुःख क्या कोई साधारण दुःख है ?" जो विज्ञ व्यक्ति गर्भ के दुःखों को जानता है, उसको संसार से विरक्त होने के लिये वही एक कारण पर्याप्त है, निर्वेद प्राप्ति के लिये उसे इसके अतिरिक्त अन्यान्य कारणों की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।" यह कह कर जम्बूकुमार ने प्रभव को गर्भवास के दुःख के सम्बन्ध में ललितांग का दृष्टान्त सुनाया, जो इस प्रकार है : · ललितांग का दृष्टान्त " किसी समय वसन्तपुर नगर में शतायुध नामक एक राजा राज्य करता था । शतायुध की एक रानी का नाम ललिता था। रानी ललिता ने एक दिन एक अत्यन्त सुन्दर तरुण को देखा और उसके प्रथम दर्शन में ही वह उस पर प्रारणपण से विमुग्ध हो, उसके संसर्ग के लिये छटपटाने लगी। रानी ने अपनी एक विश्वस्त दासी को भेज कर उस युवक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त की और जब उसे यह ज्ञात हुआ कि वह युवक उसी वसन्तपुर नगर के निवासी समुद्रप्रिय नामक सार्थवाह का पुत्र है, तो उसने एक प्रेमपत्र लिखकर अपनी दासी के द्वारा उस युवक के पास पहुँचाया । छल-छद्म में निपुण उस दासी ने येन-केन प्रकारेण युवक को रानी के भवन में लाकर रानी से उसका साक्षात्कार करवा दिया। रानी और ललितांग वहां निश्शंक हो विषयोपभोग में निरत रहने लगे। एक दिन राजा को अपनी रानी और युवक ललितांग के अनुचित सम्बन्ध के बारे में सूचना मिली, तो सहसा रानी के महल में वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिये छानबीन प्रारम्भ करा दी गई । चतुर दासी को तत्काल ही इसकी सूचना मिल गई और उसने अपने तथा अपनी स्वामिनी के प्राणों की रक्षा के निमित्त ललितांग को श्रमेध्यकूप. ( गन्दा पानी डालने का कुप्रा) में ढकेल दिया । नितान्त अपवित्र एवं दुर्गन्धपूर्ण उस कुए में अपने आपको बन्द पाकर ललितांग अपनी दुर्बुद्धि और अज्ञानता पर प्रहर्निश पश्चात्ताप करते हुए विचार करने लगा - हे प्रभो ! अब अगर एक बार किसी न किसी तरह इस प्रशुचि स्थान से बाहर निकल जाऊं, तो इन भयंकर दुखद परिणाम वाले काम-भोगों का सदा के लिये परित्याग कर दूंगा ।" Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ललितांग का दृष्टांत] 'श्रुतकेतली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी २६९ ललितांग पर दया कर के वह दासी प्रति दिन प्रचुर मात्रा में उस कुएं में जूठन डालती और सार्थवाहपुत्र ललितांग उस जूठन एवं दुर्गन्धपूर्ण गन्दे पानी से अपनी भूख और प्यास शान्त करता। . अन्ततोगत्वा वर्षा ऋतु प्राई और वर्षा के कारण वह कुयां पानी से भर गया। सफाई का कार्य करने वाले कर्मचारियों ने गन्दे नाले से जुड़ी हुई उस कुएं की मोरी को खोला। मोरी के खोलते ही पानी के तेज बहाव के साथ ललितांग गंदे नाले में बहकर दूर, नाले के एक किनारे जा पड़ा। ललितांग एक लम्बे समय तक गंदे और बंद कुएं में रह चुका था अतः बाहर की हवा लगते ही वह मूच्छित हो गया। उसको गन्दे नाले के एक छोर पर मूच्छितावस्था में पड़े देख कर बहुत से नागरिक वहां एकत्रित हो गये। ललितांग की धाय भी मूच्छित युवक की बात सुन कर वहां पहुंची और बहुत समय से खोये हुए अपने ललितांग को पहिचान कर उसे सार्थवाह के घर ले आई । दीर्घकालीन उपचारों के पश्चात् ललितांग बड़ी कठिनाई से स्वस्थ हमा।" ललितांग के उपर्युक्त दृष्टान्त का उपसंहार करते हुए जम्बूकुमार ने कहा“प्रभव ! इस दृष्टान्त में वरिणत ललितांग के समान संसारी जीव हैं, रानी के दर्शन के समान मनुष्यजन्म है। दासी का उपमेय इच्छा, अन्तःपुरप्रवेश-विषयप्राप्ति, दुर्गन्धपूर्ण कूप में प्रवेश-गर्भवास का द्योतक, उच्छिष्टभोजन-माता द्वारा खा कर पचाये हुए अन्न तथा जल के स्राव के आहार का, कूप से वाहर निकलनाप्रसवकाल का और धात्री द्वारा परिचर्या-देह की पुष्टि करने वाले कर्मविपाक की प्राप्ति का प्रतीक है।" ____ जम्बूकुमार ने प्रभव से प्रश्न किया- "कहो प्रभव ! यदि वह रानी ललितांग को पुनः अपने यहाँ आने का निमन्त्रण दे, तो क्या वह उसके निमन्त्रण को स्वीकार करेगा?" प्रभव ने दृढ़तापूर्ण स्वर में उत्तर दिया- "नहीं, कभी नहीं। इतना घोर नारकीय कष्ट उठा चुकने के पश्चात् वह कभी उस ओर मुंह भी नहीं करेगा।" जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! वह कदाचित् अज्ञान के वशीभूत हो, विषयभोगों के प्रति प्रगाढ़ासक्ति के कारण पुनः रानी के निमन्त्रण पर जा सकता है किन्तु मैंने बन्ध और मोक्ष के स्वरूप को समीचीन रूप से समझ लिया है अतः मैं तो किसी भी दशा में जन्म-मरण की मूल और भवभ्रमण में फंसाने वाली रागद्वेष को परम्परा को स्वीकार नहीं करूंगा।" इस पर प्रभव ने कहा - "सौम्य ! आपने जो कुछ कहा है, वह यथार्थ है किन्तु मेरा एक निवेदन है, वह सुनिये । लोकधर्म का निर्वहन करते हुए पति को अपनी पत्नियों का लालन-पालन एवं परितोष करना चाहिये। यह प्रत्येक पति का नैतिक दायित्व है । तदनुसार इन नववधुओं के साथ कुछ वर्षों तक सांसारिक सुखोपभोग करने के पश्चात् ही आपका प्रवजित होना वस्तुतः शोभास्पद रहेगा।" ! Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग अठारह प्रकार के नाते जम्बूकुमार ने सहज शान्त स्वर में कहा - "प्रभव ! संसार में यह कोई निश्चित नियम नहीं है कि जो इस भव में पत्नी अथवा माता है, वह भागामी भव में भी पत्नी अथवा माता ही होगी। वास्तविकता यह है कि जो इस भव में माता है, वह भवान्तर में बहिन, पत्नी अथवा पुत्री भी हो सकती है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार का विपर्यास भी होता है कि पति पुत्र के रूप में उत्पन्न हो सकता है, पिता भाई के रूप में अथवा अन्य किसी भी रूप में उत्पन्न हो सकता है । अपने कृतकमों के अनुसार जीव जन्मान्तरों में स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक रूप में उत्पन्न होता रहता है। ऐसी दशा में एक समय जो माता, बहिन अथवा पुत्री थी, उसके साथ पत्नी जैसा व्यवहार करते हुए किस प्रकार लालन-पालन परिपोषण किया जा सकता हैं ?" प्रभव ने कहा - "महाभाग ! भवान्तरों के सम्बन्ध तो वस्तुतः विज्ञेय ही हैं, इसी कारगण वर्तमान की स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए पिता, पुत्र, पति, पत्नी आदि के सम्बन्ध समझे और कहे जाते हैं।" जम्बूकुमार ने उत्तर में कहा - "यह सब अज्ञान का दोष है। अज्ञान के कारण ही मानव अकार्य में कार्यबुद्धि से प्रवृत्त होता है अथवा कार्याकार्य को समझते हुए भी भोगलोलुपता एवं धन-सम्पत्ति के सुख से विमोहित हो प्रकरणीय दुष्कार्य में प्रवृत्त तथा संलग्न होता रहता है।" जम्बूकुमार ने अपनी बात को प्रारम्भ रखते हुए कहा - "प्रभव ! भवान्तर की बात को छोड़ो। एक ही भव में किस तरह १८ प्रकार के सम्बन्ध हो जाते हैं और अज्ञानवश कितनी अनर्थपूर्ण घटनाएं घटित हो जाती हैं, इसका वृत्तान्त मैं तुम्हें सुनाता हूं। कुबेरक्त एवं कुबरवत्ता का प्राख्यान ___ "किसो समय गथुरा नगर में कुबेरसेना नामकी एक रिणका रहती थी। जब वह पहली बार गर्भवती हुई तो उसके पेट में बड़ी पीड़ा रहने लगी। जब उसे वैद्य को बताया गया, तो उस अनुभवी वैद्य ने कहा - "इसके गर्भ में दो बच्चे हैं, इसी कारण इसे अधिक पीड़ा हो रही है। वस्तुतः इसे अन्य कोई रोग नहीं है।" कुबेरसेना की माता ने अपनी पुत्री को बहुत समझाया कि वह गर्भस्राव की कोई अच्छी औषधि लेकर उस पीड़ा से छुटकारा पा ले किन्तु कुबेरसेना ने गर्भपात कराने की अपनी माता की बात को स्वीकार नहीं किया। समय पर कुबेरसेना ने एक पुत्र और एक पुत्री के युगल को एक साथ जन्म दिया । कुबेरसेना ने अपने पुत्र का नाम कुबेरदत्त और पुत्री का नाम कुवेरदत्ता रखा । एक दिन कुबेरसेना की माता ने उससे कहा - "बच्चों की विद्यमानता में तुम्हारा यह गणिका-व्यवसाय पूर्णतः ठप्प हो जायगा अतः तुम्हें इन बच्चों का किसी निर्जन स्थान में परित्याग कर देना चाहिये।" Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबेरदत्त कु० का प्रा० [0] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी ३०१ माता द्वारा बार-बार बल दिये जाने पर कुबेरसेना ने कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता के नाग की अंगूठियां बनवाई और जब वे दोनों शिशु ग्यारह दिन के हुए तब कुबेरसेना ने उनके नाम की अंगूठियां सूत्र में पिरोकर उनके गले में बांध दीं और उन्हें बहुमूल्य रत्नों की दो गठरियों के साथ दो छोटी नावों के कार के लकड़ी के सन्दूकों में रख दिया। रात्रि के समय कुबेरसेना ने अपने उन दोनों बच्चों सहित उन दोनों सन्दूकों को यमुना नदी के प्रवाह में बहा दिया । नदी के प्रवाह में तैरती हुई वे दोनों सन्दूकें सूर्योदय के समय शोरिपुर नामक नगर के पास पहुंचीं। वहां यमुनास्नान करने हेतु आये हुए दो श्रेष्ठिपुत्रों जब नदी में सन्दूकों को आते देखा तो तत्काल उन्होंने दोनों सन्दूकों को नदी से बाहर निकाल लिया। उनमें दो शिशुओं को नामांकित मुद्रिकाओं एवं रत्नों की पोटलियों के साथ देख कर उनको बड़ी प्रसन्नता हुई । परस्पर विचारविनिमय के पश्चात् एक श्रेष्ठिपुत्र बालक को और दूसरा बालिका को अपने घर ले गया । उन दोनों श्रेष्ठिपुत्रों एवं उनकी पत्नियों ने उन शिशुत्रों को अपनी ही संतान के समान रखा और बड़े दुलार एवं प्यार से पालन-पोषण करते हुए क्रमशः शिक्षरण देकर उन्हें योग्य बनाया । जिस समय कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता ने युवावस्था में पदार्पण किया, उस समय समान वैभव वाले उन श्रेष्ठियों ने उन्हें एक दूसरे के अनुरूप और योग्य समझ कर बड़े समारोह के साथ उन दोनों का परस्पर पाणिग्रहरण करवा दिया । " विवाह के दूसरे दिन द्यूतक्रीड़ा की लौकिक रीति का निर्वहन करते समय कुबेरदत्ता की सहेलियों ने कुबेरदत्त की अंगूठी उतार कर कुबेरदत्ता की अंगुली में और कुबेरदत्ता की अंगूठी कुबेरदत्त की अंगुली में पहना दी। कुबेरदत्ता ने अपनी अंगूठी के साथ उसकी साम्यता देख कर बड़े ध्यान से उसे देखा । यह देख कर उसे कुतूहल के साथ ही साथ बड़ा आश्चर्य हुआ कि दोनों अंगूठियों की बनावट और उन पर अंकित अक्षरों में किंचितमात्र भी अन्तर नहीं है । वह सोचने लगी कि इन दोनों अंगूठियों की इस प्रकार की समानता के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये । उसने स्मृति पर बल देते हुए मन ही मन कहा - "हमारे पूर्वजों में इस नाम का कोई पूर्वज हुआ हो, यह बात भी प्राज तक किसी के मुंह से नहीं सुनी । इसके साथ ही साथ मेरे अन्तर्मन में इस कुबेरदत्त के प्रति उस प्रकार की भावना स्वल्पमात्र भी उत्पन्न नहीं हो रही है, जिस प्रकार की कि एक पत्नी के मन में अपने पति के प्रति उत्पन्न होनी चाहिये ।' उसके मन में दृढ़ विश्वास हो गया कि इस सब के पीछे अवश्य ही कोई न कोई गूढ़ रहस्य होना चाहिये। यह विचार कर कुबेरदत्ता ने अपनी अंगुली में से " ततो नवीन यौवनिकानिकामरामणीयकरं जितहृदयाभ्यां ताभ्यामिभ्याभ्यां सुमहशरूपरेखाविशेषो विशेषफलवानस्त्विति कृतस्तयोरेव परिणयः । [ जम्बू चरित्र, ( रत्नप्रभसूरिरचित ) उपदेशमाला दोघट्टीवृत्ति ] Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैन धर्म का मौलिक इतिह: - द्वितीय भाग [ कुबेरदत्त कुष् का श्रा० अंगूठी निकाल कर कुबेरदत्त की उसी अंगुली में पहना दी जिसमें कि उसकी स्वयं की नामांकित अंगठी विद्यमान थी । दोनों अंगूठियों में पूर्ण साम्य देख कर कुबेरदत्त के मन में भी उसी प्रकार के विचार उत्पन्न हुए और उसे भी विश्वास हो गया कि निश्चित रूप से उस समानता के पीछे कोई रहस्य छुपा हुआ है । कुबेरदत्त ने कुबेरदत्ता को उसकी अंगूठी लौटा दी और अपनी अंगूठी लेकर वह अपनी माता ( धर्ममाता) के पास पहुंचा । कुबेरदत्त ने अपनी माता को शपथ दिलाते हुए कहा - "मेरी अच्छी मां ! मुझे साफ-साफ और सत्य बात बता दो कि मैं कौन हूं, यह अंगूठी मेरे पास कहां से भाई ? कुबेरदत्ता के पास भी ऐसी ही अंगूठी है जिस पर अंकित अक्षर मेरी अंगूठी पर अंकित अक्षरों से पूर्ण रूपेरण मिलते-जुलते हैं ।" श्रेष्ठपत्नी ने श्रादि से लेकर अन्त तक की सारी घटना कुबेरदन को सुना दी कि वस्तुतः वह उसका अंगज नहीं है । उसके पति ने उसे यमुना के प्रवाह में बहती हुई एक छोटी सी सन्दूक में रत्नों से भरी एक पोटली और उस अंगूठी के साथ पाया था । श्रेष्ठिपत्नी से पूरी घटना सुनने के पश्चात् कुबेरदत्त को पक्का विश्वास हो गया कि कुबेरदत्ता वस्तुतः उसकी सहोपरा है। उसने पश्चात्ताप और उपालम्भभरे स्वर में कहा - "मां तुमने जानते -बूझते भाई का बहिन के साथ विवाह करा कर ऐसा अनुचित और निन्दनीय कार्य क्यों किया ?" श्रेष्ठिपत्नी ने भी पश्चात्तापभरे स्वर में कहा - "पुत्र ! हमने जानते हुए भी मोहवश यह अनर्थ कर डाला है । पर तुम शोक् त करो। वधू को केवल पाणिग्रहण का ही दोष लगा है । कोई महापाप नहीं हुआ है । जो होना था सो हो गया। अब मैं पुत्री कुबेरदत्ता को उसके घर भेज देती हूं। तुम कुछ दिनों के लिये दूसरे नगरों में घूम आाम्रो । वहां से तुम्हारे लौटते ही में किसी दूसरी कन्या से तुम्हारा विवाह कर दूंगी ।' " तदनन्तर कुबेरदत्त की माता ने कुबेरदत्ता को उसके घर पहुंचा दिया और कुबेरदत्त भी अपने साथ पर्याप्त सम्पत्ति एवं पाथेय ले कर किसी अन्य नगर के लिये प्रस्थित हुआ | कुबेरदत्ता ने भी अपने घर पहुंच कर अपनी माता से अपने तथा उस अंगूठी के सम्बन्ध में शपथ दिला कर पूछा । श्रेष्ठिपत्नी ने भी यथाघटित सारी घटना उपे सुना दी। सारी घटना सुन कर कुवेरदत्ता को संसार से विरक्ति हो गई। उसने प्रवर्तिनी माध्वी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और निरतिचार पंचमहाव्रतों का पालन वरती हुई वह उनके साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने लगी । उसने प्रवर्तिनी से प्राज्ञा लेकर वह अंगूठी जिसके कारण कि उसे निर्वेद हुआ था, अपने पास रख ली । विशुद्ध चारित्र के पालन और कठोर तपश्चरण में कुछ ही वर्षो पश्चात् Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली-काल : श्राचार्य प्रभवस्वामी कुबेरदत्ता को अवधिज्ञान की उपलब्धि हो गई । जब कुबेरदत्ता को प्रवधिज्ञान से यह विदित हुआ कि उसका भाई कुबेरदत्त अपनी माता कुबेरसेना के साथ दाम्पत्य जीवन व्यतीत कर रहा है तो उसे सांसारिक प्राणियों की गर्हणीय एवं दयनीय स्थिति पर बड़ा प्राश्चर्य हुआ । उसने मन ही मन विचार किया -- "प्रज्ञान के कारण मानव कितना घोर अनर्थ कर डालता है । कुबेरसेना और कुबेरदत्त को प्रतिबोध देने हेतु उसने प्रवर्तिनी की आज्ञा से कुछ आर्यानों के साथ मथुरा की ओर विहार किया। वहां पहुंच कर कुबेरसेना गरिका के घर में ही एक निवासयोग्य स्थान मांग कर कुबेरदत्ता ने वहां रहना प्रारम्भ किया । कुबेरदत्त से कुबेरसेना को एक बालक की प्राप्ति हुई थी । उस बालक को कुबेरसेना बार-बार साध्वी कुबेरदत्ता के पास लाने लगी । कुबेरदत्त कु० का प्रा०. ०] कुबेरसेना और कुवेरदत्त को प्रतिबोध देने के लिये कुबेरदत्ता ने उस बालक को दूर से ही दुलारभरे स्वर में हुलराना प्रारम्: किया - "अरे प्रो नन्हें मुन्ने ! रो मत, तू मेरा भाई है, देवर भी है, पुत्र भी है, मेरी सौत ( विपत्नी) का पुत्र भी है। एक तरह से तू मेरा भतीजा भी है । काका भी है। ओ मुन्ने ! जिसका तू पुत्र है वह मेरा भाई भी है, पति भी है, पिता भी, पितामह भी, श्वसुर भी और पुत्र भी है । ग्ररे बालक ! और भी सुन ! में एक और निगूढ़ तथ्य का उद्घाटन तेरे समक्ष करती हूं - प्रो बच्चे ! जिस स्त्री के गर्भ से तू उत्पन्न हुना है, वह मेरी माता है । वह मेरी सास भी, विपत्नो भी, भ्रातृजाया भी, पितामही भी और बहू भी है ।" ३०३ साध्वी कुबेरद्वत्ता द्वारा अपने पुत्र का इस प्रकार का हुलराना सुन कर कुबेरदत्त चौंका । उसने वन्दन करने के पश्चात् साध्वी से प्रश्न किया " साध्वीजी ! प्राप इस प्रकार की परस्परविरोधी और असम्बद्ध बातें क्यों प्रौर किस कारण से कह रही हैं ? क्या प्रापकी बुद्धि में कोई भ्रान्ति हो गई है अथवा आप इस बालक के विनोद के लिये केवल क्रीडार्थ ऐसी प्रयोग्य बातें कह रही हैं ?" साध्वी कुबेरदत्ता ने उत्तर में कहा- "श्रावक ! में जो बातें कह रही हूं वे सब सच्ची हैं। मैं तुम्हारी बहिन वही कुबेरदत्ता हूं जिसके साथ तुम्हारा पाणिग्रहण हो गया था और यह है हम दोनों की माता कुबेरसेना ।" कुबेरसेना प्रौर कुबेरदत्त प्राश्चर्य से श्रवाक् हो साध्वी की ओर निहारते ही रह गये । तत्पश्चात् साध्वी कुबेरदत्ता ने अपने अवधिज्ञान द्वारा देखी हुई अनेक बातें उन दोनों को प्रमाणपुरस्सर सुनाई और नामांकित मुद्रिका की बात कही, जिन पर कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता के नाम अंकित थे । साध्वी कुबेरदत्ता के मुख से समस्त यथातथ्य वृत्तान्त सुन कर कुबेरद को संसार से तीव्र वैराग्य हो गया । उसने अत्यन्त विषादभरे स्वर में अपने Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जंन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कुबेरदत्त कु. का मा० आपको धिक्कारते हुए कहा – “शोक ! महाशोक ! अज्ञानवश मैंने कैसा प्रकरणीय, अनर्थभरा घोर कुकृत्य कर डाला। प्रात्मग्लानि और शोक से अभिभूत हो कुबेरदत्त ने उस बालक को अपनी समस्त सम्पत्ति का स्वामो बना कर साध्वी कुबेरदत्ता को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नमन करते हुए कहा - "आपने मुझे प्रतिबोध दिया है । यह आपका मुझ पर बहुत बड़ा उपकार है। अब में अपना शेष जीवन आत्मसाधना में ही व्यतीत करूंगा।" ___ यह कह कर कुबेरदत्त घर से निकल गया। उसने एक स्थविर श्रमण के पास जाकर भागवती दीक्षा ग्रहण की और निश्चल-निर्वेद के साथ विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए अन्त में वह समाधिमरण द्वारा आयु पूर्ण कर देवरूप से उत्पन्न हुआ। कुबेरसेना भी बोध पाकर श्राविका-धर्म का एवं गृहस्थ योग्य नियमों का पालन करती हुई अपने घर में रहने लगी और साध्वी कुबेरदत्ता अपनी प्रवर्तिनी की सेवा में लौट गई।" उपर्युक्त पाख्यान सुनाने के पश्चात् जम्बूकुमार ने प्रभव से प्रश्न किया"प्रभव ! अब तुम ही बताओ कि उन तीनों को उपरिवरिणत वस्तुस्थिति का सही-सही बोध हो जाने के पश्चात् भी क्या कभी विषय भोगों के प्रति राग अथवा आसक्ति हो सकती है ?" प्रभव ने कहा - "कभी नहीं ।” जम्बकूमार ने त्यागमार्ग को अपनाने का अपना दृढ़ निश्चय दोहराते हए कहा - "प्रभव ! कुबेरसेना आदि उन तीनों प्राणियों में से कदाचित् कोई मढ़तादश प्रमत्त हो विषयसेवन की अोर प्रवृत्ति कर सकता है किन्तु मैंने अपने गुरु के पास प्रमाण पुरस्सर विषयभोगों से होने वाले महान् अनर्थों को अच्छी तरह से समझ लिया है अतः मेरे मन में विषय-भोगों के लिये कभी लेशमात्र भी अभिलाषा उत्पन्न नहीं हो सकती।" प्रभव का मस्तक श्रद्धा से अवनत हो गया। उसने कहा - "श्रद्धेय ! तथ्यों से ओतप्रोत अतिशय सम्पन्न आपके वचनों को सुनकर ऐसा कौनसा चेतनाशील प्राणी है, जिसे प्रतिबोध नहीं होगा। किन्तु एक बात मैं आपसे कहना चाहता हूं। वस्तुतः धन बड़े ही कठोर परिश्रम और प्रयत्नों से प्राप्त होता है। प्रापके पास अपार सम्पत्ति है । इस विपुल वैभव का उपभोग करने के लिये पाप कम से कम एक वर्ष तक तो गृहवास में रहिये और षड्ऋतुओं के अनुकूल विषयभोगों का मानन्द लेते हुए दीन-दुःखियों की सेवा कर इस द्रव्य का सदुपयोग करिये। फिर मैं भी प्रापके साथ प्रजित होने को तैयार हूं।" ___ जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! पण्डित लोग सत्पात्रों को दान देने में सम्पत्ति का सदुपयोग प्रशंसनीय बताते हैं न कि विषय सुखों की कामनामों की Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपयुवक का दृष्टांत ] श्रुतवली - काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी ३०५ पूर्ति में ।" तत्पश्चात् जम्बूकुमार ने अर्थ के अनुचित उपयोग के सम्बन्ध में एक गोपयुवक का दृष्टांत सुनाया जो इस प्रकार है : गोपयुवक का दृष्टांत "अंग जनपद के एक गोकुल में अनेक समृद्ध गोपालक रहते थे, जिनके पास गणित गायें तथा भैंसें थीं। एक बार डाकुओंों के एक सशक्त एवं सशस्त्र दल ने उस गोकुल पर आक्रमण किया। डाकू लूट में मिले धन के साथ साथ एक अत्यन्त सुन्दरी गोपयुवती को भी अपने साथ ले गये जो एक पुत्र की मां थी । जाते समय डाकू उस युवती के पुत्र को गोकुल में ही छोड़ गये प्रौर उस गोपवधू को डाकू बेचने के लिये चम्पा नगरी में ले गये, जहां एक वेश्या ने उसे खरीद लिया । वेश्या ने उस गोपवधू को नृत्य एवं संगीत कला तथा गरिएकाकर्म की उच्चकोटि की शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध किया । कुछ ही वर्षों के प्रयास से वह गोपयुवति संगीत और नृत्य कला में निष्णांत एवं निपुण गणिका बन गई । वृद्धा गणिका ने गरिणका कार्य में निपुण उस गोपवधू के साथ एक रात्रि सहवास करने का एक लाख रुपया मूल्य रखा । उधर गोकुल में रहे उस गोपवधू के पुत्र ने भी युवावस्था में प्रवेश किया । वह गोपयुवक घृतपात्रों से भरे अनेक गाडे लेकर बेचने के लिये एक दिन चम्पा नगरी में पहुंचा । घृत विक्रय के पश्चात् उसने देखा कि अनेक युवक गणिकाओं के घरों में नृत्य संगीत का श्रानन्द लूटते हुए यथेप्सित क्रीड़ाएं कर रहे हैं। उसके मन में भी विचार उठा कि यदि सुन्दर से सुन्दर गरिणका के साथ क्रीड़ा का आनन्द वह न ले सका तो फिर उसका सारा धन किस काम प्रायगा । यह विचार कर वह युवक अनेक गणिकाओं के सौन्दर्य को देखता हुआ गणिका बनी हुई उस गोपवधु के यहां जा पहुंचा। वह उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो, उसे मुंह-मांगा शुल्क देर रात्रि के समय आने का कह कर अपने गाडों के पास चला प्राया । संध्या के समय वह गोपयुवक स्नानादि से निवृत्त हो सुन्दर वस्त्राभूषरण पहन कर उस गरिएका के घर की ओर चल पड़ा। एक देवी ने अनुकम्पावश उस युवक को उस घोर अनाचार से बचाने के लिये सवत्सा गो का रूप धारण किया और मार्ग के बीचों-बीच बैठ गई। मार्ग में उस युवक का एक पैर मार्ग में पड़े मानव के मल से लिप्त हो गया । उस व्यक्ति ने मैले से भरा अपना पैर उस गाय के बछड़े की पीठ पर पोंछ डाला मनुष्य की भाषा में बोलते हुए उस बछड़े ने अपनी माता से पूछा - "मां ! यह ऐसा कौन पुरुष है, जो विष्टा से भरा अपना पैर मेरे शरीर पर पोंछ रहा है ?" । गौ ने भी मानव को वोली में उत्तर दिया- " वत्स ! इस निकृष्ट नराधम पर क्रोध मत करना, यह ग्रभागा तो अपनी माता के साथ सम्भोग करने जा रहा है । इस प्रकार का दुष्कृत्य करने वाला मानव यदि तेरे शरीर पर अपना विष्टालिप्त पांव पोछे, तो यह कोई ग्राश्चर्य की बात नहीं है ।" Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ । ३०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [गोपयुवक का दृष्टांत - यह कह कर गौ अपने बछड़े के साथ अन्तर्धान हो गई। पशुओं के मुंह से अश्रुतपूर्व मानवभाषा सुन कर गोपयुवक को आश्चर्य के साथ-साथ उनकी बात की प्रामाणिकता पर भी विश्वास हुना। उसने विचार किया कि डाकू लोगों ने उसकी माता का अपहरण किया था। बहुत संभव है कि वह गणिका बन गई हो। क्षणभर के ऊहापोह के पश्चात् उसने निश्चय किया कि वह उस गरिणका के पास जाकर वास्तविकता का पता अवश्य लगायगा। अपने निश्चय के अनुसार गोपयुवक उस गणिका के घर पहुंचा। चतुर गणिका ने उस युवक के समक्ष स्वादिष्ट प्रशन-पानादि प्रस्तुत कर नृत्य-संगीत प्रादि से उसका मनोरंजन करने का उपक्रम किया। युवा गोप ने कहा - "यह सब कुछ रहने दो। सबसे पहले तुम मुझे यह बतायो कि तुम कौन हो और कहां की रहने वाली हो ?" । गणिका ने उत्तर दिया - "तरुण ! तुमने मेरे जिन गुणों पर मुग्ध होकर उनके शुल्क के रूप में विपुल धन दिया है, उन गुणों के सम्बन्ध में तुम अपने मतलब की बात करो। तुम्हें मेरी उत्पत्ति अथवा अन्य परिचय से क्या प्रयोजन है?" युवक ने कहा - "तुम विश्वास करो, वास्तव में मुझे तुम्हारी उत्पत्ति के परिचय से ही प्रयोजन है, अन्य बातों से नहीं । कृपा कर बिना छुपाये अपना सारा इतिवृत्त सच-सच सुना दो।" __युवक की बात सुन कर गणिका कुछ क्षणों के लिये ऊहापोहात्मक विचारसागर में डूबी रही पर अन्ततोगत्वा उसने अपने श्वसुर-पक्ष एवं पितृपक्ष के मुख्यमुख्य स्वजनों के नामोल्लेखपूर्वक अपने डाकुओं द्वारा अपहरण तथा गणिका द्वारा क्रय किये जाने आदि सभी घटनाओं का पूरा परिचय दे दिया। युवा गोप लज्जित हो गरिणका के चरणों पर गिर कर कहने लगा- "मां ! मैं ही तुम्हारा वह अभागा पुत्र हूं, जिससे विलग कर तुम्हें डाकू उठा लाये थे। देव-कृपा से आज हम दोनों माता और पुत्र घोर अनाचार से बच गये हैं।" ___ तदनन्तर गोपकुमार वृद्धा गणिका को उसके कहे अनुसार मूल्य चुका कर अपनी मां को अपने साथ गोकुल में ले गया।" उपर्युक्त दृष्टान्त सुनाने के पश्चात् जम्बूकुमार ने प्रभव से पूछा- "प्रभव ! यदि देवता द्वारा उस गोपयुवक को प्रतिबोध नहीं दिया जाता, तो उस दशा में उस युवा गोप के धन का उपयोग कैसा होता ?" प्रभव ने कहा “अत्यन्त गर्हणीय और नितान्त निन्दनीय । जम्बूकुमार ने एक और प्रश्न किया- "प्रभव ! माता-पुत्र का सम्बन्ध ज्ञात हो जाने पर क्या वह युवक गणिका बनी अपनी उस माता के साथ कभी विषयोपभोग की अभिलाषा कर सकता है ?" Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपयुवक का दृष्टांत ] श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी प्रभव ने तत्काल उत्तर दिया- "कभी नहीं, स्वप्न में भी नहीं ।" जम्बूकुमार ने कहा - " प्रतिबोध पाया हुमा प्रबुद्धचेता व्यक्ति ही सब प्रकार के अनाचारों से बच सकता है, न कि प्रज्ञाननिद्रा से विमूढ़ बना हुआ व्यक्ति । वस्तुतः ज्ञान द्वारा ही सब प्रकार के दुखों तथा दुष्कृत्यों से परित्राण हो सकता है ।" इस बार प्रभव ने जम्बूकुमार को श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर अनुनयपूरण स्वर में कहा - "स्वामिन्! श्राप लोकधर्म के अनुरूप सभी कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए पुत्र उत्पन्न कीजिये । पुत्र उत्पन्न करने से पितृगण परम प्रसन्न होते हैं, क्योंकि पुत्र द्वारा किये गये तर्पण के माध्यम से उनका महान् उपकार होता है । विचक्षरण पुरुषों का यह कथन लोकविश्रुत है कि - पितृऋरण से उन्मुक्त (पुत्र उत्पन्न करने वाला) व्यक्ति मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग में निवास करता है। लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि प्रपुत्र की गति नहीं होती, उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती । ' जम्बूकुमार ने प्रभव की युक्ति का उत्तर देते हुए कहा- "प्रभव ! तुमने पितृऋण से उन्मुक्त व्यक्ति के सम्बन्ध में स्वर्ग प्राप्ति की जो बात कही है, वह वस्तुतः सच नहीं है। मरने के पश्चात् अन्य भव में उत्पन्न पिता का उपकार करने की बुद्धि से किये गये अपने कार्य द्वारा पुत्र उसका कभी-कभी बड़ा अपकार भी कर डालता है, जबकि दूसरे भव में गये हुए पिता को पुत्र की श्रोर से वास्तव में किसी भी प्रकार की शान्ति नहीं मिलती। क्योंकि सभी प्राणियों को स्वयं द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मों का ही सुख एवं दुःख रूप फल प्राप्त होता है, न कि किसी दूसरे के द्वारा किये गये कर्म का । पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र द्वारा उसकी तृप्ति प्रथवा शान्ति के लिये किये गये कार्य से मृत प्रारणी को तृप्ति प्रथवा शान्ति तो किसी भी दशा में नहीं मिल सकती । प्रत्यक्ष देखा जाता है कि एक ग्रामान्तर में रहे हुए मित्र की भी श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाये गये भोजन से तृप्ति नहीं होती, तो फिर लोकान्तर में स्थित जीव की इस प्रकार के तर्पण से कैसे तृप्ति हो सकती है ? जलादि तर्पण से तृप्ति के विपरीत कभी कुंथू अथवा चींटी आदि जैसे छोटे-छोटे जन्तुनों के रूप में उत्पन्न हुए पिता को पुत्र द्वारा उनके तर्पण हेतु छींटे गये जल से मृत्यु आदि का कष्ट अवश्य हो सकता है । लोकधर्म की असंगति के सम्बन्ध में मै तुम्हें एक दृष्टान्त सुनाता हूँ, जो इस प्रकार है : * ३०७ महेश्वरदत्त का प्राख्यान "किसी समय ताम्रलिप्ति नामक नगर में महेश्वरदत्त नामक एक सार्थवाह रहता था । उसका पिता समुद्रदत्त अत्यन्त छल-छद्म एवं लोभपूर्ण प्रवृत्ति के १ पुत्रस्य गतिर्नास्ति, स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, स्वर्ग गच्छन्ति मानवाः ।। [वैदिक साहित्य ] Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ महेश्वरदत्त का प्राण्यान कारण मर कर उसी नगर में महिष की योनि में उत्पन्न हुग्रा और महेश्वरदत्त की माता भी पतिवियोग के शोक से सन्तप्त हो चिन्तावस्था में काल कर उसी नगर में कुतिया के रूप में उत्पन्न हुई । महेश्वरदत्त की युवा पत्नी गांगिला अपने घर में किसी वृद्धा का अंकुश न रहने के कारण स्वेच्छाचारिणी बन गई। एक दिन उसने एक सुन्दर युवक पर ग्रासक्त हो उसे रात्रि के समय अपने घर श्राने का संकेत किया । संध्याकाल के पश्चात् गांगिला द्वार पर खड़ी हो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही क्षणों की प्रतीक्षा के अनन्तर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत एवं शस्त्र धारण किये हुए वह जार पुरुष अपनी प्रतीक्षा में खड़ी गांगिला के पास पहुंचा। संयोगवश उसी समय महेश्वरदत्त भी उन दोनों प्रेमी एवं प्रेमिका के मिलनस्थल पर जा पहुंचा । जारपुरुष ने अपने प्रारणों को संकट में देख कर महेश्वरदत्त को मार डालने के उद्देश्य से उस पर तलवार का घातक वार किया। पर महेश्वरदत्त ने पटुतापूर्वक अपने आपको उसके प्रहार से बचाते हुए उस जारपुरुष को अपनी तलवार के प्रहार से ग्राहत कर दिया । घातक प्रहार के कारण वह जारपुरुष कुछ ही कदम चल कर लड़खड़ाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। जारपुरुष ने अपने दुष्कृत्य के लिये पश्चात्ताप करते हुए विचार किया - "मेरे जैसे प्रभागे को अपने दुराचार का तात्कालिक फल प्राप्त हो गया ।" सरल भाव से श्रात्मालोचन करते हुए उसकी मृत्यु हो गई और वह गांगिला के गर्भ में आया । गांगिला ने समय पर उसे पुत्र रूप में जन्म दिया। इस प्रकार महेश्वरदत्त का शत्रु वह जारपुरुष महेश्वरदत्त का लाडला लाल बन गया । महेश्वरदत्त उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करने लगा । कालान्तर में महेश्वर दत्त ने अपने पिता का श्राद्ध करने का विचार किया और कुल परम्परानुसार उसने एक भैंसा खरीदा। संयोग की बात कि उसका पिता मर कर जिस भैंसे के रूप में उत्पन्न हुआ था वही भैंसा उसने खरीदा । उसने उस भैंसे को मार कर उसके मांस से तैयार की हुई भोज्य सामग्री से अपने पिता के श्राद्ध में ग्रामन्त्रित लोगों को भोजन खिलाया । श्राद्ध के पश्चात् दूसरे दिन महेश्वरदत्त मद्यपान के साथ उस भैंसे के मांस को बड़ी रुचिपूर्वक खाने लगा । वह अपनी गोद में बैठे हुए उस जार के जीव-अपने पुत्र को महिष-मांस के टुकड़े खिला रहा था और पास ही में कुतिया के रूप में बैठी हुई अपनी मां को लाठी से मार रहा था। उसी समय एक मुनि भिक्षार्थ भ्रमरण करते हुए महेश्वरदत्त के घर में आये । मुनि ने महेश्वरदत्त को प्रतिप्रसन्न मुद्रा में महिषमांस खाते, को पुत्र दुलार करते और कुतिया को मारते देखा । मुनि अपने अवधिज्ञान से वस्तुस्थिति को जान कर मन ही मन विचार करने लगे - " अहो ! अज्ञान की कैसी विडम्बना है । अज्ञान के कारण इस मानव ने अपने शत्रु को तो गोद में ले रखा है, मां को पीट रहा है और अपने पिता के श्राद्ध में अपने पिता के जीव को ही मार कर Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . महेश्वरदत्त का पाख्यान ] श्रुतकेवलीःकाल : प्राचार्य प्रभवस्वामी स्वयं खाता है और अन्य लोगों को भी खिलाता है।" वे 'अहो अकार्य' कह कर घर के द्वार से ही लौट गये । महेश्वरदत्त ने अपने मन में विचार किया कि मुनि बिना कुछ लिये ही "अहो अकार्य" कह कर घर के द्वार से ही लौट रहे हैं, क्या कारण है ? मुनि से इसका कारण पूछना चाहिये, ऐसा सोच कर वह मुनि को खोजता हमा उस स्थान पर पहुंचा जहां वे ठहरे हुए थे। महेश्वरदत्त ने मुनि को प्रणाम कर उनसे अपने घर से बिना भिक्षा लिये ही "अहो प्रकार्य" कह कर लौट माने का कारण पूछा। साधु ने उत्तर दिया - "भव्य ! मांसभोजियों के ग्रहों से, जहां मर्यादा का विचार न हो, भिक्षा ग्रहण करना हम श्रमणों के लिये कल्पनीय नहीं है।' मांसाशन नितान्त हिंसापूर्ण और जुगुप्सनीय है प्रतः मांसभोजी कुलों में मैं भिक्षा ग्रहण नहीं करता । फिर तुम्हारे घर में तो............। अपने अन्तिम वाक्य को अपूर्ण छोड़ कर ही मुनि मौनस्थ हो गये। महेश्वरदत्त ने मुनि के चरणों में अपना मस्तक रखते हुए बड़े अनुनय-विनय के साथ वास्तविक तथ्य बताने की प्रार्थना की। इस पर मुनि ने अपने प्रवषिशान द्वारा जाना हुमा महेश्वरदत्त के पिता, माता, जारपुरुष, महिष, कुत्ती और पुत्र का सारा वृत्तान्त सुना दिया। महेश्वरदत्त ने कहा- "भगवन् ! आपने जो कुछ कहा, वह सत्य है पर क्या इन तथ्यों की पुष्टि में आप कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं ?" मुनि ने कहा- "कुतिया को तुम अपने भण्डार-कक्ष में ले जामो, उसे वहां जातिस्मरण ज्ञान हो जायगा और वह अपने पंजों से प्रांगन खोद कर रत्नों से भरा कलश बता देगी। - मुनि के कथनानुसार महेश्वरदत्त कुतिया को अपने घर के भण्डारकक्ष में ले गया। वहां जाते ही उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो पाया और उसने अपने पंजों से कच्चा प्रांगन खोद कर रत्नों से भरा चरू बता दिया। मनि द्वारा प्रति निगढ रहस्यों का प्रमाणपुरस्सर अनावरण हो जाने पर महेश्वरदत्त को संसार से विरक्ति हो गई। उसने उन्हीं अवधिज्ञानी मुनि के.पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर अपना उद्धार किया। 'किन गृहीता भिक्षा भगवन्, मुनिराह कल्पतेऽस्माकं । न खलु पिशिताशिवेश्मनि, महेश्वर : प्राह को हेतु : ॥२७८।। जिम्बूचरित्र, रलप्रभसूरिकत] १ तेन न भिक्षे भिक्षां, मांसाशिकुलेष्वहं जुगुप्सावान् । भवतो गृहे विशेषादित्युक्त वा स स्थितस्तूष्णीम् ।।२८३॥ (वही) अन्तर्गृहं शुनी नीता, जातजातिस्मृतिः सती । रत्नजातं तदेषा तमिलातं दर्शयिष्यति ।। (वही) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [महेश्वरदत्त का पाख्यान दृष्टान्त के निष्कर्ष को समझाते हए जम्बूकूमार ने कहा - "प्रभव ! लोकाचार की तो वस्तुतः इस प्रकार की स्थिति है। अज्ञानान्धतम से आवृत्त मन वाले प्राणी ही इसे प्रमाणभूत मान कर प्रकरणीय कार्यों में प्रवृत्ति और करने योग्य कार्यों में निवृत्ति रखते हैं। परन्तु जिनके हृदय में ज्ञान का विमल प्रकाश हो चुका है, वे लोग कभी ऐसे कार्यों में प्रवृत्त नहीं होते । यह संसार दुःखों से प्रोत-प्रोत है, इस बात को जो प्राणी अनुभव करता है, उसे चाहिये कि वह संसार के समस्त प्रपंचों का परित्याग कर मोक्षप्राप्ति के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा कर निरन्तर प्रयत्न करता रहे।" सुख के वास्तविक स्वरूप को समझने की जिज्ञासा लिये प्रभव ने जम्ब कुमार से अन्तिम प्रश्न किया - "स्वामिन् ! विषयसुख में और मुक्तिसुख में क्या अन्तर है ? जम्बूकूमार ने उत्तर दिया- "प्रभव ! मुक्ति का सुख अनिर्वचनीय और निरुपम है। उसमें क्षणमात्र के लिये भी कभी कोई बाधा व्यवधान नहीं पाता इसलिये वह अव्यावाध है, उसका कोई छोर नहीं, उसकी कभी कहीं परिसमाप्ति नहीं प्रतः वह अनन्त है और देवताओं के सुख से भी वह अनन्तगुना अधिक है, जिसका. वर्णन नहीं किया जा सकता इसलिये वह अनिर्वचनीय है। विषयजन्य तथाकथित सुख वस्तुतः सुख नहीं है, वह तो सुख की कल्पना और विडम्बनामात्र है। प्रशन, पान, विलेपन आदि का उपभोग करते समय सुख की कल्पना करता हुआ मानव वस्तुतः दुखों को ही निमन्त्रण देता है । अनुभवियों ने ठीक ही कहा है कि भोग में रोग का भय है।" दुःख में सुख की कल्पना करने विषयक एक दृष्टान्त सुनाते हुए जम्बूकुमार ने कहा : परिणकका दृष्टान्त "एक समय एक व्यापारी माल से कई गाड़े भर कर सार्थ के साथ देशान्तर जाता हुआ एक विकट अटवी में पहुंचा। उस व्यापारी ने मार्ग में लेन-देन की मुविधा की दृष्टि से एक खच्चर पर खरीज (रेजगी, फुटकर सिक्के) से भरा एक वोरा लाद रखा था। जंगल में पहुंचते-पहुंचते फुटकर सिक्कों से भरा वह वोरा किसी तरह फट गया । परिणामत: बहुत से पैसे मार्ग में ही बिखर गये। ज्ञात होने पर उस व्यापारी ने अपने सभी गाडों को रोक दिया और राह में विखरी हई रेजगी को अपने प्रादमियों की सहायता से वीनने लगा। सार्थ के रक्षकों ने उस व्यापारी से कहा - "क्यों कौड़ियों के बदले में करोड़ों की सम्पत्ति को खतरे में डाल रहे हो? यहां इस भयावह वन में चोरों का बड़ा अातंक है अतः गाड़ों को शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ने दो।" Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणकका दृष्टांत श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी ३११ रक्षकों की उचित सलाह को अस्वीकार करते हुए उस व्यापारी ने कहा"भविष्य का लाभ संदिग्ध है, ऐसी दशा में जो पास में है, उसका परित्याग करना बुद्धिमानी नहीं" और वह उन फुटकर सिक्कों को बीनने में जुट गया । साथ के अन्य लोग और सार्थ के रक्षक उस व्यापारी के माल से भरे गाड़ों को वहीं छोड़ कर भागे बढ़ गये । व्यापारी राह में बिखरे सिक्कों को बीनता रहा और शेष सार्थ रक्षकों के साथ-साथ उस घने जंगल से पार हो गया। उस व्यापारी के साथ रक्षकों को न देख कर चोरों के एक दल ने पाक्रमण किया और वे व्यापारी का सारा माल लूट कर ले गये।" जम्बूकुमार ने दृष्टान्त को दार्टान्तिकरूप से घटित करते हुए कहा - "जो मनुष्य विषयों के तुच्छ और नाममात्र के तथाकथित सुख में ग्रासक्त हो भावी मोमसुख की प्राप्ति का प्रयास छोड़ देते हैं, वे संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण करते हुए उसी प्रकार शोक और दुःख. से ग्रस्त रहते हैं, जैसे कौड़ियों के लोभ में करोड़ों की सम्पत्ति गंवा देने वाला यह व्यापारी।" .प्रमय का प्रात्मचिंतन जम्बूकुमार द्वारा कही गई हित-मित-तथ्य-युक्ति प्रौर विरक्तिपूर्ण उपर्युक्त बातों को सुनने के पश्चात् प्रभव के अन्तर्चक्ष कुछ उन्मीलित हुए, उसके हृदय में एक प्रकार की हलचल सी प्रारम्भ हुई। उसके अन्तर्मन में विचारों का फव्वारा फूट पड़ा। उसने सोचा- "यह अतिशय कान्त, परम सुकुमार, सुधांशु से भी सौम्य, सर्वांगसुन्दर एवं मनमोहक अनुपम स्वरूप, कुवेरोपम अपरिमित वैभव, सुरवालानों के समान अनिन्द्य सौन्दर्य एवं सर्वगुण सम्पन्न पाठ पत्नियां, भव्यभवन भोर सहज सुलभ प्रचुर भोग सामग्री-इन सब का तृणवत् परित्याग कर एक मोर जम्बूकुमार मुक्तिपथ के पथिक बन रहे हैं । इसके विपरीत दूसरी मोर में अपने पांच सौ साथियों के साथ दूसरे लोगों की उनके द्वारा कठोर परिश्रम से उपार्जित सम्पत्ति लूटने के जघन्य दुष्कृत्य में रात-दिन निरत है। मैंने अगणित लोगों को उनकी प्रिय सम्पत्ति से वंचित करके रुलाया है, उनके सर्वस्व का अपहरण कर उनके जीवन को दुखमय बना डाला है । हाय ! मैंने लूट-मार मौर चोरी के अनैतिक, सामाजिक और धुरिणत कार्य को अपना कर घोरातिधोर पाप-पुंजों का उपार्जन कर लिया है। निश्चित रूप से मेरा भविष्य बड़ा ही भीषण, दुःखदायी-मोर अन्धकारपूर्ण है।" अपने कुकर्मों का फल कितना दारुण पौर भयावह होगा? यह विचार माते ही प्रभव सिहर उठा । उसने तत्काल दृढ़ निश्चय किया कि प्रब वह सब प्रकार के पापपूर्ण कार्यों का परित्याग कर एवं समस्त विषयोपभोगों से विरक्त हो अपने बिगड़े भविष्य को सुधारने में प्रौर प्रात्मकल्याण में जुट जायगा। मन ही मन यह निश्चय कर प्रभव ने अपना मस्तक जम्बूकुमार के चरणों पर रखते हुए हाथ जोड़ कर कहा - "स्वामिन् ! पाप मेरे गुरु हैं मोर में मापका Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग वणिक का ष्टात शिष्य । आपने मुझे मोक्ष का मार्ग दिखा दिया है । मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं अब आपके साथ ही प्रवजित हो कर जीवनभर अापकी सेवा करूंगा। आप मुझे शिष्य रूप से स्वीकृत करें।" । जम्बूकुमार ने स्वीकृति सूचक स्वर में कहा - "अच्छा ।" जम्बकुमार द्वारा स्वीकृति सूचक शब्द के उच्चारण के साथ ही प्रभव के पांच सौ स्तंभित साथी स्तंभन से विमुक्त हो गये। प्रभव ने अपने सब साथियों को प्रादेश देकर सब सम्पत्ति को जहां से हटाया था वहां यथास्थान रखवा दिया और वह जम्बूकुमार से अनुमति ले कर दीक्षार्थ अपने पिता की आज्ञा लेने हेतु तत्काल अपने साथियों सहित जयपुर नगर की ओर प्रस्थान कर गया। प्रमव की बीमा और सापना ... घर पहुंच कर प्रभव कुमार ने अपने कुटुम्बियों से प्राज्ञा प्राप्त की और दूसरे ही दिन अपने ५०० साथियों के साथ सुषर्मा स्वामी की सेवा में उपस्थित हो आर्य जम्बू के अनन्तर उनके २६ प्रात्मीयों एवं अपने ५०० साथियों के साथ भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकार डाकुनों एवं लुटेरों के अग्रणी प्रभव साधकों के अग्रणी प्रभवस्वामी बन गये । जैसा कि जम्बूस्वामी के प्रकरण में पहले बताया जा चुका है, कुछ ग्रन्थकार जम्बू के पश्चात् कालान्तर में प्रभव का दीक्षित होना मानते हैं पर इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। दीक्षा ग्रहण के समय आर्य प्रभव की अवस्था ३० वर्ष की थी। प्रार्य प्रभव विवाहित थे अथवा अविवाहित, एतद्विषयक कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। दीक्षा-ग्रहण के पश्चात प्रार्य प्रभव ने विनयपूर्वक आर्य जम्बूस्वामी के पास ११ अंगों एवं १४ पूर्वो का सम्यक् रूप से अध्ययन किया और अनेक प्रकार की कठोर तपश्चर्याएं कर के तपस्या की प्रचण्ड अग्नि में अपने कर्मसमूह को ईंधन की तरह जलाने लगे। दीक्षित होने के पश्चात् ६४ वर्ष तक उन्होंने जम्बूस्वामी की सेवा करते हुए साधक के रूप में श्रमरण धर्म का पालन किया। तदनन्तर वीर निर्वाण संवत् ६.४ में आर्य जम्बूस्वामी द्वारा प्राचार्यपद प्रदान किये जाने और प्रार्य जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् प्रभवस्वामी प्राचार्य बने । अपनी मात्मा के उद्धार के साथ-साथ प्रभवस्वामी ने युगप्रधान प्राचार्य के रूप में भगवान महावीर के शासन की बड़ी निष्ठा और लगन के साथ महती सेवा एवं प्रभावना की। उत्तराधिकारी के लिये चिन्तन एकदा रात्रि के समय प्राचार्य प्रभवस्वामी योगसमाधि लगाये ध्यान में मग्न थे। शेष सभी साधु निद्रा में सो रहे थे । अर्द्धरात्रि के पश्चात ध्यान की परिसमाप्ति पर उनके मन में विचार पाया कि उनके पश्चात् भगवान् महावीर के सुविशाल धर्मसंघ का सम्यक् रूपेण संचालन करने वाला पट्टधर बनाने योग्य Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरा० के लिये चिन्तन] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी कौन है ? उन्होंने श्रमणसंघ के अपने सभी साधुनों की पोर ध्यान दिया पर उनमें से एक भी साधु उन्हें अपनी अभिलाषा के अनुकूल नहीं जंचा । तत्पश्चात् उन्होंने अपने साधुसंघ से ध्यान हटा कर जब अन्य किसी योग्य व्यक्ति को खोजने के लिये श्रुतज्ञान का उपयोग लगाया, तो उन्होंने अपने ज्ञानबल से देखा कि राजगृह नगर में वत्स गोत्रीय ब्राह्मण सय्यंभव भट्ट, जो कि उन दिनों यज्ञानुष्ठान में निरत है, वह भगवान महावीर के धर्मसंघ के संचालन के भार को वहन करने में पूर्णरूपेण समर्थ हो सकता है। दूसरे ही दिन गणनायक प्रभवस्वामी अपने साधुओं के साथ विहार करते हए राजगृह नगर पधारे। वहां पहुंचने पर उन्होंने अपने दो साधूनों को प्रादेश दिया- "श्रमणो! तुम दोनों सय्यंभव ब्राह्मण के यज्ञ में भिक्षार्थ जानो। वहां जब ब्राह्मण लोग तुम्हें भिक्षा देने से इन्कार कर दें तो तुम उच्च स्वर से निम्न श्लोक उन लोगों को सुना कर पुनः यहां लौट पाना - "अहो कष्टमहो कष्टं, तत्वं विज्ञायते न हि ।' अर्थात - अहो! महान् दुःख, की बात है, बड़े शोक का विषय है कि सही तत्वं (परमार्थ) को नहीं समझा जा रहा है । इस प्रकार प्राचार्य के संकेतानुसार तत्काल दो साधु भिक्षार्थ राजगृह नगर को पोर प्रस्थित हुए और सय्यंभव भट्ट के विशाल यज्ञ-मंडप में पहुंच कर भिक्षार्थ खड़े हुए। वहां यज्ञ में भाग लेने हेतु उपस्थित विद्वान् ब्राह्मणों ने उन दोनों साधुनों को यज्ञान की भिक्षा देने का निषेध कर दिया। इस पर प्रभवस्वामी की प्राज्ञानुसार मुनि-युगल ने उच्च स्वर में उपरिलिखित श्लोक का उच्चारण किया और वे अपने स्थान की ओर लौट पड़े। मुनि-युगल द्वारा उच्चारण किये गये उपरोक्त श्लोक को जब यज्ञानुष्ठान में निरत, पास ही में बैठे हुए सय्यंभव भट्ट ने सुना तो वह इस पर ईहापोह करने लगा । वह इस बात को भलीभांति जानता था कि जैन श्रमण किसी दशा में असत्य-भाषण नहीं करते। अतः उसके मन में वास्तविक तत्वज्ञान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की शंकाएं उठने लगीं। सय्यंभव के अन्तर्मन में उठे अनेक प्रकार के संशयों के तूफान ने जब उसे बुरी तरह झकझोरना प्रारम्भ किया, तो उसने यज्ञ का अनुष्ठान करवाने वाले अपने उपाध्याय से प्रश्न किया- "पुरोहितप्रवर! वास्तव में तत्व का सही रूप क्या है ?" उपाध्याय ने उत्तर में कहा- "यजमान ! सही ज्ञान का सार यही है कि वेद स्वर्ग और मोक्ष देने वाले हैं। जिन्होंने तत्वज्ञान को जान लिया है, वे कहते हैं कि वेदों के अतिरिक्त और कोई तत्व नहीं है।" इस पर सय्यंभव भट्ट ने क्रुद्ध स्वर में कहा- “सच, सच बतायो कि तत्व क्या है, अन्यथा मैं तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दूंगा।" यह कह कर सय्यंभव भट्ट ने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उत्तरा के लिये वितन उपाध्याय ने काल के समान करवाल लिये अपने जजमान को सम्मुख देख कर सोचा कि अब सच्ची बात बताये बिना प्राणरक्षा असंभव है । यह विचार कर उसने कहा महत् भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म ही वास्तविक तत्व और सही धर्म है। इसका सही उपदेश यहां विराजित प्राचार्य प्रभव से तुम्हें प्राप्त करना चाहिये।" उपाध्याय के मुख से सच्ची बात सुन कर सय्यंभव बड़ा प्रसन्न हमा। उसने समस्त यज्ञोपकरण और यज्ञ के लिये एकत्रित पूरी की पूरी सामग्री उपाध्याय को प्रदान कर दी और स्वयं खोज करते हुए प्राचार्य प्रभव की सेवा में जा पहुंचा। सय्यंभव भट्ट ने प्राचार्य प्रभव के चरणों में प्रणाम करते हुए उनसे मोक्षदायक धर्म का उपदेश देने की प्रार्थना की। प्राचार्य प्रभव ने सम्यक्त्व सहित अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य पौर अपरिग्रह रूप धर्म की महिमा समझाते हुए सय्यंभव से कहा कि वस्तुतः यही वास्तविक तत्व, सही ज्ञान और सच्चा धर्म है । इस वीतराग मार्ग की साधना करने वाला जन्म, जरा, मरण के बन्धनों से सदा-सर्वदा के लिये छुटकारा पा कर अक्षय सुख की प्राप्ति कर लेने में सफल होता है। प्राचार्य प्रभव के मुख से शुद्ध मार्ग का उपदेश सुन कर सय्यंभव भट्ट ने तत्काल ही प्रभवस्वामी के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। प्राचार्य प्रभव द्वारा सय्यंभव भट्ट को प्रतिबोध दिये जाने का यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि हमारे महान् प्राचार्य अपने प्रात्मकल्याण के साथ-साथ भविष्य में प्राने वाली भव्य प्राणियों की पीढ़ियों को कल्याण का मार्ग बताने वाली श्रमण परम्परा को सुदीर्घ काल तक स्थायी प्रोर सशक्त बनाने के लिये भी पहनिश प्रयत्नशील रहते थे। प्रार्य प्रभव का स्वर्गगमन डाकुओं के प्रधिनायक प्रभव ने ३० वर्ष की भरपूर युवावस्था में दीक्षित होकर ६४ वर्ष के सुदीर्घ काल तक प्रतिकठोर संयम का पालन किया और ११ वर्ष तक श्रमसंघ के गौरव-गरिमापूर्ण प्राचार्य पद पर अधिष्ठित रह कर ७५ वर्ष तक स्व प्रौर पर का कल्याण किया। इस प्रकार के उदाहरण संसार के इतिहास में विरले ही उपलब्ध होते हैं। अन्त में १०५ वर्ष की प्रायू में महान राजर्षि प्राचार्य प्रभव ने अपना अन्त समय सन्निकट समझ अपने शिष्य सय्यंभव को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और अनशनपूर्वक १०५ वर्ष की पायु पूर्ण कर वीर निर्वाण संवत् ७५ में स्वर्गगमन किया। दिगम्बर परम्परा की मान्यता दिगम्बर मान्यता के सभी ग्रन्थों मोर पट्टावलियों में भगवान महावीर के धर्मसंघ के प्राचार्यों की परम्परा में प्रार्य जम्बू के पश्चात् मार्य प्रभव के स्थान पर विष्णु को प्राचार्य माना गया है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि. परंपरा की मान्यता] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी ३१५ यह पहले बताया जा चुका है कि दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ उत्तरपुराण (पर्व ७६) में जम्बूस्वामी के शिष्य के रूप में भव नामक मुनि का और पं० राजमल्ल ने 'जम्बूचरितम्' में प्रभव का उल्लेख किया है। जम्बूचरितम् में यह भी बताया गया है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण से कुछ दिन पश्चात् पिशाचादि द्वारा दिये गये घोर उपसर्गों के परिणामस्वरूप विद्युच्चर और उसके साथ दीक्षित हुए प्रभव प्रादि ५०० दस्यु राजकुमारों की मृत्यु हो गई और वे सब देव बने । उपरोक्त दोनों ग्रन्थों में इससे अधिक प्रभव का कोई परिचय नहीं दिया गया है। ___ जम्बूस्वामी के पश्चात् भगवान् महावीर के धर्मसंघ के प्राचार्य, आर्य प्रभव बने अथवा प्रार्य विष्णु-अपरनाम नन्दि बने- यह एक बड़ा ही जटिल, महत्त्वपूर्ण और नाजूक प्रश्न है। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् की प्राचार्य परम्परा के सम्बन्ध में प्राय जम्बू तक सचेलक और अचेलक दोनों परम्परामों में प्रायः मतैक्य ही दृष्टिगोचर होता है। इन्द्रभूति गौतम को प्रथम पट्टधर मानने न मानने से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उसमें विभेद की कोई गन्ध नहीं पाती। अचेलक परम्परा इन्द्रभूति को प्रथम पट्टधर मानती है तो सचेलक परम्परा उन्हें पट्टधर पद से भी अधिक गरिमापूर्ण गौरव और सम्मान देती है। परन्तु जम्बूस्वामी का उत्तराधिकारी कौन बना इस प्रश्न को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के मतभेद का सूत्रपात होता है। यह मतभेद प्राचार्य विष्णू अपरनाम नन्दि से प्रारम्भ होकर नन्दिमित्र-अपरनाम, नन्दि, अपराजित और प्राचार्य गोवर्धन तक चलता है। अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु को दोनों परम्पराएं समान रूप से अपना अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य मानती हैं। प्राचार्य भद्रबाह के पश्चात् पुनः यह मतभेद प्रारम्भ होता है और उसके पश्चात् कहीं इन दोनों परम्परामों में एतद्विषयक मतैक्य के दर्शन नहीं होते। कालान्तर में यतिवृषभ के गुरु मार्य मंक्षु और नागहस्ति का काल ही एक ऐसा काल कहा जा सकता है जिसमें ये दोनों परम्पराएं संभवतः एक दूसरी के निकट संपर्क में प्राई हों। जम्बूस्वामी के उत्तराधिकारी के नामभेद को देखकर अनेक विद्वानों ने अपना यह अभिमत व्यक्त किया है कि संभवतः जम्बस्वामी के निर्वाण के पश्चात ही भगवान् महावीर के धर्मसंघ में श्वेताम्बर मोर दिगम्बर - इस प्रकार के भेद के बीज का वपन हो चुका था। पर उन विद्वानों के इस अभिमत को दोनों परम्पराएं समान रूप से अस्वीकार करती हैं । जम्बूस्वामी के पश्चात् प्राचार्यों के नाम के सम्बन्ध में मतभेद होने के उपरान्त भी न श्वेताम्बर परम्परा इस बात को मानने के लिये तैयार है और न दिगम्बर परम्परा ही कि प्रायं जम्ब के निर्वाण के पश्चात् ही श्वेताम्बर और दिगम्बर - इस प्रकार की दो शाखानों में भगवान महावीर का धर्मसंघ विभक्त हो गया। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका समाधान करना कोई साधारण Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दि० ५० की मान्यता कार्य नहीं। इस सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है । एतद्विषयक शोध-कार्य में जो कतिपय तथ्य सहायक सिद्ध हो सकते हैं, उन तथ्यों को यहां रखा जा रहा है : (१) दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में विष्णूनन्दि को जम्बस्वामी का उत्तराधिकारी (पट्टधर) तो माना गया है पर कहीं पर यह स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है कि वे जम्बूस्वामी के शिष्य थे अथवा और किसी के। (२) जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जम्बूस्वामी के पट्टधर प्रभवस्वामी का विस्तार के साथ परिचय दिया गया है, उस प्रकार दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रार्य विष्णु का कोई परिचय नहीं दिया गया है। (३) दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रभव का उल्लेख किया गया है पर श्वेताम्बर परम्परा के एक भी प्राचीन ग्रन्थ में जम्बूस्वामी के उत्तराधिकारी इन विष्णुनन्दि का कहीं नामोल्लेख तक उपलब्ध नहीं होता। प्राशा है दोनों परम्परामों के विद्वान् इस सम्बन्ध में गहन शोध के पश्चात् समुचित प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। . ४. प्राचार्य सम्यंभव भगवान् महावीर के तृतीय पट्टधर प्राचार्य प्रभवस्वामी के पश्चात् वीर निर्वाण संवत् ७५ में चतुर्थ पट्टधर प्राचार्य सय्यंभव हुए। पाप वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कुल के विशिष्ट विद्वान् थे। २८ वर्ष की वय में प्राचार्य प्रभव स्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर, जिस समय सय्यंभव ने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की, उस समय उनके परिवार में केवल उनकी युवा पत्नी विद्यमान थी। अपनी पत्नी को असहायावस्था में छोड़कर सय्यंभव के दीक्षित होने पर नगर के नागरिक बड़े खेद के साथ निश्वास छोड़ते हुए बोले- "भद्र सययंभव जैसा संसार में अन्य कौन इतना वजहृदय होगा जो अपनी युवती, सुन्दरी, सती स्त्री को एकाकिनी छोड़कर संयम-मार्ग का पथिक बना हो। एक पुत्र भी यदि होता तो उस माशालता के सहारे इस युवती का जीवन इतना दूभर नहीं होता।" बातर्षि मणक उसी दिन पास-पड़ोस की स्त्रियों ने सय्यंभव की पत्नीसे पूछा - "सरले क्या तुम्हें माशा है कि तुम्हारी कुक्षि में भट्ट कुल का कुलप्रदीप मा चुका है ?" लज्जा से परुणमुखी सययंभव की पत्नी ने अपने अंचल में मुंह छपाने में उपक्रम करते हुए ईषत् स्मित के साथ उस समय की बोलचाल की भाषा में छोट सा उत्तर दिया- "मरणगं" (मनाक) जिसका अर्थ होता है- हां, कुछ है। ... Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालपि मणक] श्रुतकेवली-कास : प्राचार्य सय्यंभवस्व मी २९७ . कर्ण-परम्परा से विद्युत् वेग की तरह यह समाचार सय्यंभव भट्ट के परिजनों तथा पुरजनों में फैल गया और सब ने परम हर्ष और संतोष का अनुभव किया। . समय पर माता के नीरस जीवन में प्राशा-सुधा का सिंचन करते हुए. सय्यंभव के घर में पुत्र ने जन्म ग्रहण किया। माता के "मरणगं" शब्द से उस शिशु के पागमन की पूर्व सूचना लोगों को प्राप्त हुई थी अतः सब ने उस शिशु का नाम "मणक" रखा। माता ने अपने पुत्र मरणक के प्रति माता भोर पिता दोनों ही रूप में अपना कर्तव्य निभाते हुए बड़े स्नेहपूर्वक उसका लालन-पालन किया। द्वितीया के चन्द्र की तरह क्रमशः बढ़ते हुए बालक मणक ने पाठ वर्ष की वय में पदार्पण किया और अपने समवयस्क बालकों के संग खेलने के साथ ही साथ अध्ययन भी करने लगा। बालक मणक प्रारम्भ से ही बड़ा भावूक और विनयशील था। उसने एक दिन अपनी माता से प्रश्न किया- "मेरी अच्छी मां ! मैंने मेरे पिता को कभी नहीं देखा, बतलामो मेरे पिता कौन और कहां हैं ?" माता ने अपनी प्रांखों में उमड़ते हुए प्रश्रुसागर को बलपूर्वक रोकते हुए धर्य के साथ कहा- "वत्स ! जिस समय तुम गर्भ में थे, उसी समय तुम्हारे पिता ने श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली थी। एकाकिनी मैंने ही तुम्हारा लालनपालन किया है। पुत्र ! जिस प्रकार तुमने अपने पिता को नहीं देखा, ठीक उसी प्रकार तुम्हारे पिता ने भी तुम्हें नहीं देखा है। तुम्हारे पिता का नाम सय्यंभव भट्ट है। जिस समय तुम गर्भ में पाये थे, उस समय उन्होंने एक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया था। उसी समय दो धूर्त जैन श्रमरण प्राये मोर उनके धोखे में पाकर तेरे पिता ने उनके पीछे-पीछे जा मेरा और अपने घर-द्वार का परित्याग कर जैनश्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली। यही कारण है कि तुम पिता-पुत्र परस्पर एक दूसरे को अभी तक नहीं देख सके हो।" माता के मुख से अपने पिता का सारा वृत्तान्त सुनकर बालक मणक के हृदय में अपने पिता सय्यंभव प्राचार्य को देखने की उत्कट अभिलाषा जाग उठी पोर एक दिन अपनी माता को पूछ कर वह अपने पिता से मिलने के लिये घर से निकल पड़ा। प्राचार्य सय्यंभव उन दिनों अपने शिष्य समुदाय के साथ विविध ग्राम नगरों में विहार करते हुए चम्पापुरी पधारे हुए थे। सुयोग से बालक मणक भी पिता की खोज में घूमता-चामता चम्पा नगरी जा पहुंचा। वास्तव में जिसकी जो सन्ची लगन होती है वह अन्ततोगत्वा पूरी होकर ही रहती है। कहा भी है : "जिहि के जिहि पर सत्य सनेहू, सो तिहि मिलत न कछु सन्देहू ।" पुण्योदय से मणक की मनोकामना पूर्ण हो गई। उसने नगरी के बाहर बोष-निवृत्ति के लिये माये हुए एक मुनि को देखा। "अवश्य ही ये मेरे पिता के सहयोगी मुनि होंगे" - इस विचार के माते ही सहसा मणक के हृदय में बड़ी Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [बालर्षि मरणक' प्रसन्नता हुई। उसने मुनि के पास पहुंच कर बड़े विनय से उन्हें वन्दन किया। मुनि भी कमल- नयन सुन्दर प्राकृति वाले बालक को देखकर सहज स्नेह भरी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगे। एक दूसरे को देखकर अनायास ही दोनों के हृदय में प्रानन्द की मियां तरंगित होने लगीं। बालक द्वारा वन्दन किये जाने के पश्चात् प्राचार्यश्री ने स्नेह-गद्गद् स्वर में बालक से पूछा- "वत्स ! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, कहां से आये हो और कहां जा रहे हो?" उत्तर में बालक मणक ने मधुर स्वर में कहा - "देव ! मैं राजगृह नगर निवासी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण सय्यंभव भट्ट का पुत्र हूं। मेरा नाम मणक है। मैं जिस समय माता के गर्भ में था, उसी समय मेरे पिता घर-द्वार और मेरी माता के स्नेहसूत्र को तोड़कर श्रमण-धर्म में दीक्षित हो गये। मैं राजगृह नगर से उन्हें अनेक नगरों और ग्रामों में ढूंढता हुमा यहां आया हं। भगवन् यदि ! आप मेरे पिताजी को जानते हों तो कृपा कर मुझे बताइये कि वे कहां हैं ? मुझे यदि वे एक बार मिल जायं तो मैं उनके पास प्रवज्या ग्रहण कर सदा के लिये उन्हीं के चरणों की सेवा में रहना चाहता हूं।" बालक मणक के मुंह से यह सुनकर प्राचार्य सय्यंभव की मनोदशा किर प्रकार की रही होगी, यह केवल अनुभवगम्य ही है। समुद्र के समान गम्भीर प्राचार्य सययंभव ने प्रदर्भत धैर्य के साथ स्नेह सनी निगूढ़ भाषा में कहा - "मायुष्मन् वत्स ! मैं तुम्हारे पिता को जानता हूं। वे केवल मन से ही नहीं अपितु तन से भी मुझ से अभिन्न हैं । तुम मुझे उनके तुल्य ही समझ कर मेरे पास प्रवज्या ग्रहण कर लो।" मणक सय्यंभवसूरि के साथ हो लिया और सूरि उसे अपने साथ लेकर माश्रय स्थान की ओर लौटे। उपाश्रय में माने पर बालक मणक को जब अन्य मुनियों से यह ज्ञात हुम्रा कि जिनके साथ वह जंगल से उपाश्रय में पाया है, वे ही प्राचार्य सय्यंभव हैं, तो अपने प्रान्तरिक प्रानन्दातिरेक को बिना किसी पर प्रकट किये वह मन ही मन बड़ा प्रमुदित हुमा । भक्तिविह्वल एवं हर्षविभोर हो वह अपने पिता के चरणों पर गिर कर प्रार्थना करने लगा- "भगवन् ! मुझे शीघ्र ही श्रमण-दीक्षा प्रदान कीजिये, अब मैं मापसे पृषक नहीं रहूंगा।" बालक मणक की प्रबल भावना देखकर प्राचार्य सय्यंभव ने भी उसे सम्पूर्ण सावख-विरतिरूप श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान कर दी। बालक मणक जो कल तक खेलकूद में प्रमोद मान रहावा, पाष एक बालर्षि के रूप में मुक्तिपथ का सच्चा पपिक मन मया । प्राक्तम संस्कारों का कितना जबरदस्त प्रभाव है कि उपदेश और रेखा का भी प्रावश्यकता नहीं पड़ी? Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य सय्यं भवस्वामी दशवेकालिक की रचना मरणक ने दीक्षित होकर जब प्राचार्य सय्यंभव को श्रात्मसमर्पण कर दिया तो वे मांक के प्रात्मकल्याण की दिशा में विचार करने लगे । श्रुतज्ञान में उपयोग लगा कर उन्होंने देखा कि इस बालर्षि की प्रायु केवल ६ मास की ही प्रवशिष्ट रह गई है । इस प्रति स्वल्प काल में बालक मुनि ज्ञान श्रीरक्रिया, दोनों ही का सम्यक्रूपेण आराधन कर के किस प्रकार अपना श्रात्मकल्याण साध सकता है इस पर चिन्तन करते हुए प्राचार्य सय्यंभव को ध्यान प्राया कि "चतुर्दश पूर्वो का पारगामी विद्वान् मुनि या १० पूर्वघर कभी विशेष कारण के उपस्थित होने की दशा में स्व-पर कल्याण की कामना से पूर्व श्रुत में से प्रावश्यक ज्ञान का उद्धार कर सकते हैं। बालक मुनि मरणक का प्रल्प समय में प्रात्मकल्याण सम्पन्न करने के लिये मेरे समक्ष भी यह कारण है इसलिये मुझे भी पूर्वो में से सार ग्रहण कर एक सूत्र की रचना करनी चाहिये।" ३१६ यह निश्चय कर प्राचार्य सय्यंभव ने विभिन्न पूर्वो से सार ले कर दश प्रध्ययनों वाले एक सूत्र की रचना की। सायंकाल के विकाल में पूर्ण किये जाने के कारण उस सूत्र का नाम दशवैकालिक रखा गया। प्राचार्य सय्यंभव ने स्वयं मरणक मुनि को उसका अध्ययन श्रौर ध्यानादि का अभ्यास कराया। मुनि मरणक अपनी विनयशीलता, श्राज्ञा- पालकता और ज्ञानरुचि के कारण प्राचार्यश्री की कृपा से अल्प समय में ही ज्ञान प्रौर क्रिया का सम्यक् श्राराधक बन गया । प्राचार्य सय्यंभव ने जब मरणक मुनि का अंतिम समय सन्निकट देखा, तो उन्होंने उसकी अन्तिम प्राराधना के लिये प्रालोचनादि श्रावश्यक क्रियाएं सम्यक् रीति से सम्पन्न करवाईं। मरणक मुनि ने भी ६ मास के प्रत्यल्प काल के निर्मल श्रमधर्म की प्राराधना के पश्चात् समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर स्वर्गगति प्राप्त की । मरणक मुनि के इस स्वल्पकालीन साधना के पश्चात् सहसा देहत्याग पर प्राचार्य सत्यभव को सहज ही मानसिक खेद हुआ और उनके नेत्रों से हठात् प्रश्रुकरण निकल पड़े। जब यशोभद्र आदि मुनिमण्डल ने वालमुनि मरणक की देहलीला - समाप्ति के साथ प्राचार्य सय्यंभव के मुखकमल को म्लान श्रौर उनके नयनों में दु को देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने विनयपूर्वक अपने गुरुदेव से पूछा - "भगवन् ! हमने प्राज तक कभी आपके मुखकमल पर किंचितमात्र भी खिन्नता नहीं देखी पर आज सहसा श्रापके नयनों में प्रश्रु भर आने का क्या कारण है ? प्राप जैसे परमविरांगी एवं शोकमुक्त महामुनि के मन में खेद होने का कोई खास कारण होना चाहिये । कृपया हमारी शंका दूर करने का कष्ट करें।" मुनिसंघ की बात सुन कर श्राचार्य सय्यंभव ने मरणक मुनि और प्रपने बीच के पिता-पुत्र रूप सम्बन्ध का रहस्य प्रकट करते हुए बताया- "इस बालमुनि ने इतनी छोटी वय में सम्यक्ज्ञान के साथ निर्मल चारित्र का पालन किया और साधना के मध्य में ही वह परलोकगमन कर गया, इसलिये मेरा हृदय भर प्राया । होता, यह कुछ प्रायु बल पा कर साधना को पूर्ण कर पाता ।" Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग प्राचार्य के मुख से यह जान कर कि बालक मुनि मणक उनके गुरु का पुत्र था, मुनिमण्डल को वड़ा पश्चात्ताप हया और उन्होंने कहा - "भगवन् ! प्रापने इतने समय तक हमें इस बात से अज्ञात रखा कि पापका और बालक मुनि मरणक का परस्पर पिता-पुत्र का सम्बन्ध था। यदि हमें समय पर इस सम्बन्ध का पता चल जाता, तो हम लोग भी अपने गुरुपुत्र की सेवा का कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठाते।" प्राचार्य सय्यंभव ने कहा- "मुनियो ! यदि आप लोगों को बालमुनि का मेरे साथ पुत्ररूप सम्बन्ध ज्ञात हो जाता तो आप लोग मरणक ऋषि से सेवा नहीं करवाते और वह भी इस प्रकार प्रापके स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण ज्येष्ठ मुनियों की सेवा के महान लाभ से वंचित रह जाता। अतः आपको इस बात का मन में खेद नहीं करना चाहिये । बालमुनि की अल्पकालीन प्रायु को देख कर मैंने, ज्ञान और क्रिया का वह सम्यक् प्राराधन कर सके, इस हेतु पूर्व-श्रुत से सार निकाल कर एक छोटे सूत्र की रचना की। कार्य सम्पन्न हो जाने से अब मैं उस दशवकालिक सूत्र का पुनः पूर्वो में संवरण कर देना चाहता हूं।" प्राचार्य सय्यंभव की बात सुन कर यशोभद्र आदि मुनियों ने और संघ ने प्राचार्यश्री की सेवा में विनयपूर्वक प्रार्थना की - "पूज्य ! मणक मूनि के लिये मापने जिस शास्त्र की रचना की है, वह आज भी मन्दमती साधु-साध्वियों के लिये माचारमार्ग का ज्ञान-सम्पादन करने के लिये उपयोगी है और भविष्य में होने वाले अल्पबुद्धि साधु-साध्वी भी इसके द्वारा संयमधर्म का ज्ञान प्राप्त कर सरलता से साधना कर सकेंगे प्रतः कृपा कर आप इस सूत्र का पूओं में संवरण न कर इसे यथावत् रहने दें।" संघ द्वारा की गई प्रार्थना को स्वीकार कर आचार्य सय्यंभव ने "दशवैकालिक सूत्र" को यथावत् स्थिति में रहने दिया। सय्यंभवस्वामी के इस कृपाप्रसाद के फलस्वरूप प्राज भी साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ दशवैकालिक सूत्र से पूरा प्राध्यात्मिक लाभ उठा रहा है। दशवकालिक सूत्र के दश अध्ययन न केवल मुनियों के लिये अपितु प्रत्येक साधक के लिये प्रलौकिक ज्योतिर्मय प्रदीपस्तम्भ हैं। उन अध्ययनों में प्रतिपादित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक विषयों का सार रूप में विवरण इस प्रकार है : १. दुमपुष्पक नामक प्रथम अध्ययन में अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म का स्वरूप पोर महत्त्व बताया गया है। वस्तुतः प्रार्य संस्कृति के मूल सिद्धान्तों को पांच गाथानों में सूत्र रूपेण ग्रथित कर समर्थ प्राचार्य सय्यंभव ने सागर को गागर में भर दिया है। २. श्रामण्यपूर्वक नामक द्वितीय अध्ययन में संयम से विचलित मन को स्थिर करने के अंतरंग एवं बहिरंग उपाय बताये गये हैं। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य सयंम्भव स्वामी ३२१ ३. क्षुल्लकाचार नामक तृतीय अध्ययन में साधु के लिये अनाचरणीय कार्यों की तालिका दी गई है। ४. पड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन में छः प्रकार के जीवनिकाय का संक्षिप्त स्वरूप और उनकी रक्षा हेतु यतना का निर्देश दिया गया है । ५. पिंडैषणा नामक पंचम अध्ययन में मुनियों की प्राहारविधि एवं भिक्षाविषयक अन्य नियमों का विवेचन दो उद्देशकों द्वारा किया गया है। ६. धर्मार्थकाम नामक छठे अध्ययन में साधु के आचार धर्म का वर्णन करते हुए १८ स्थानों के वर्जन का उपदेश दिया गया है। ७. वचनशुद्धि नामक सातवें अध्ययन में वाणी और भाषा के भेदों का विशद् वर्णन कर प्रसत्य एवं दोषपूर्ण भाषा से बचकर सत्य और निर्दोष वाणी बोले यह बताया गया है। ८. प्राचार प्रणिधान नामक अष्टम अध्ययन में मुनियों के प्राचारों का वर्गीकरण सन्निहित है। ६. विनयसमाधि नामक नवम अध्ययन में चार उद्देशकों से विनय धर्म की शिक्षा दी गई है तथा (१) विनयसमाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपसमाधि और (४) माचारसमाधि रूप से समाधि के चार कारण बतलाये हैं। १०. "सः भिक्षु" नामक दशम अध्ययन में - साधु-जीवन का अधिकारी कोन है, किस प्रकार सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, इसका माध्यम क्या है मादि आदर्श साधु-जीवन का सुन्दर विश्लेषण सारगर्भित एवं सीमित शब्दावलि में प्रस्तुत किया गया है। शवकालिक सूत्र पर नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहस्वामी (श्रतकवली भद्रबाहु से भिन्न) द्वारा रचित नियुक्ति के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण टीकाएं और वृत्तियां प्राज भी उपलब्ध हैं। प्रात्मधर्म का जितना सुन्दर, व्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण विवेचन दशवकालिक में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र एक ही स्थान में उपलब्ध नहीं होता। समस्त श्रुतसागर के विलोडन के पश्चात् प्राचार्य सय्यंभव ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रागम का गुंफन किया। इस सूत्र के अध्ययन और मनन को अपने दैनिक जीवन में प्रमुख स्थान देकर मणक मुनि ने अतीव स्वल्पतरे समय में दुस्साध्य मुनिधर्म का सम्यक् रीति से पाराषन किया और प्राध्यात्मिक पथ पर अद्भुत प्रगति करते हुए स्वर्गगमन किया। प्राचार्य सम्यंमव का स्वर्गगमन प्राचार्य सय्यंभव ने २८ वर्ष की युवा अवस्था में (वी० नि० सं० ६४ में) दीक्षा ग्रहण की । वे ११ वर्ष तक सामान्य साधु रहे और २३ वर्ष तक युगप्रधानप्राचार्य पद पर रहकर उन्होंने महावीर के धर्मशासन की बड़ी तत्परता से सेवा की। मन्त में अपना आयुकाल सनिकट समझकर अपने प्रमुख शिष्य यशोभद्र को Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [सय्यंभव का स्व. अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और अनशन एवं समाधिपूर्वक वीर निर्वाण संवत् ६८ में ६२ वर्ष की आयु पूर्ण कर आपने स्वर्गगमन किया। दिगम्बर मान्यता दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में सय्यंभव के स्थान पर नन्दिमित्र को प्राचार्य माना गया है। प्राचार्य नन्दिमित्र का भी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। ५. प्राचार्य यशोभद्र स्वामी प्राचार्य सय्यंभव के पश्चात् भगवान् महावीर के पंचम पट्टधर श्री यशोभद्र स्वामी हुए। आपका विस्तृत जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं होता । नन्दी स्थविरावली और युग प्रधान पट्टावली आदि में जो थोड़ा बहुत पग्निय प्राप्त होता है, उसके आधार पर यहां भी संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है : प्रापका जन्म तंगियायन गोत्रीय याज्ञिक ब्राह्मण परिवार में हमा। आपने अपना अध्ययनकाल पूर्ण कर जब तरुण अवस्था में प्रवेश किया, तब सहसा प्राचार्य सय्यंभव के सत्संग का प्रापको सुयोग मिला । प्राचार्य सय्यंभव की त्यागविराग भरी वाणी सुन कर यशोभद्र की सोई हुई आत्मा जग उठी। उनके मन का मोह दूर हुआ और वे २२ वर्ष की भर तरुण अवस्था में सांसारिक मोहमाया का परित्याग कर प्राचार्य सय्यंभव के पास दीक्षित हो मुनि बन गये । १४ वर्ष तक निरंतर गुरु-सेवा में ज्ञान-ध्यान की साधना करते हुए यशोभद्र ने चतुर्दश पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और गुरु-प्राज्ञा से अनेक प्रकार की तपस्या करते हुए वे विधिवत् संयम धर्म का पालन करते रहे । वीर नि० सं० ६८ में प्राचार्य सय्यंभव के स्वर्गारोहण के पश्चात् प्राप युगप्रधान प्राचार्यपद पर आसीन हुए । ५० वर्ष तक प्राचार्य पद पर रह कर जिनशासन की अनुपम सेवा करते हुए आपने वीतराग मार्ग का प्रचार एवं प्रसार किया। वीर निर्वाण सं० १४८ में अपने पश्चात् श्री संभूतविजय तथा भद्रवाह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर पाप समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर स्वर्ग सिधारे।' प्राचार्य यशोभद्र स्वामी ने अपने प्राचार्यकाल में अपने प्रभावशाली उपदेशों से बड़े-बड़े याज्ञिक विद्वानों को प्रतिबोध दे कर जैनधर्मानुरागी बनाया । यह , मेधाविनी भद्रबाहसम्भूतविजयो मुनी। · · चतुर्दशपूर्वधरो. तस्य शिष्यो बभूवतु : ।।३।। सूरि श्रीमान्यशोभद्रः, श्रुतनिध्योस्तयोदयोः । स्वमाचार्यकमारोप्य, परलोकमसापयत् ॥४॥ [परिशिष्टपर्व, सर्ग १] Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य यशोभद्रस्वामी ३२३. आप ही की विचक्षण प्रतिभा का फल था कि एक ही प्राचार्य के शासनकाल में संभूतविजय और भद्रबाहु जैसे दो समर्थ शिष्य चतुर्दश पूर्वधर-श्रुतकेवली बने। प्राचार्य यशोभद्रस्वामी २२ वर्ष गृहस्थ पर्याय में रहे, १४ वर्ष सामान्य साधु-पर्याय में और ५० वर्ष तक युगप्रधान-प्राचार्यरूप से जिन शासन की सेवा में निरत रह ८६ वर्ष की कुल आयु पूर्ण कर वी० नि० सं० १४८ में स्वर्गवासी हुए । भगवान् महावीर के पश्चात् सुधर्मा स्वामी से प्राचार्य यशोभद्र तक जैन श्रमसंघ में एक ही प्राचार्य की परम्परा बनी रही। वाचनाचार्य आदि रूप से संघ में रहने वाले अन्य प्राचार्य भी एक ही शासन की व्यवस्था निभाते रहे। प्राचार्य यशोभद्र ने अपने शासनकाल तक इस परम्परा को सम्यकपेरण सुरक्षित रखा, यह अापकी खास विशेषता है। गुरुपद्रावली में प्राचार्य यशोभद्र का जीवनकाल इस प्रकार बताया गया है : "तत्पट्टे ५ श्री यशोभद्र स्वामी । स च २२ वर्षारिण गृहे, १४ वर्षाणि व्रते, ५० वर्षाणि युगप्रधानत्वे, सर्वायुः षडषिति (८६) वर्षारिण प्रपाल्य श्री वीरात् १४८ वर्षान्ते स्वर्ययो।" पट्टावली समुच्चय, पृ० १६४ दिगम्बर ". दिगम्बर मान्यता के ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में तीसरे श्रुतकेवली प्राचार्य यशोभद्र के स्थान पर अपराजित को तीसरा श्रुत-केवली प्राचार्य माना गया है। आपका भी कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता। ६. श्री सम्भूतविजय प्राचार्य यशोभद्र स्वामी के पश्चात् भगवान् महावीर के छठे पट्टधर प्राचार्य श्री सम्भूतविजय और भद्रबाहु स्वामी हुए। आचार्य सम्भूतविजय का विशेष परिचय कहीं उपलब्ध नहीं होता। इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही ज्ञात है कि वे माढर गोत्रीय ब्राह्मण थे । तपागच्छ पद्रावली में इनके नाम की व्युत्पति बताते हुए लिखा गया है - "पदसमुदायोपचारात् संभूतेति श्री संभूतविजयः भद्दत्ति।" प्राचार्य संभूतविजय का जन्म वीर नि० सं० ६६ में हुमा । ४२ वर्ष तक गृहवास में रहने के पश्चात् आचार्य यशोभद्र के उपदेश से प्रापने वीर नि० सं० १०८ में श्रमरण दीक्षा अंगीकार की। आपने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए प्राचार्य यशोभद्र के पास द्वादशांगी का समीचीन रूप से अध्ययन कर श्रतकेवली पद प्राप्त किया । ४० वर्ष तक आपने सामान्य साधु पर्याय में रहते हुए जिनशासन की सेवा की और वीर निर्वाण संवत् १४८ से १५६ तक प्राचार्य पद पर Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग रहते हुए भगवान् महावीर के संघ का सुचारु रूप से संचालन किया । चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता और वाग्लब्धिसम्पन्न होने के कारण श्रापने अपने उपदेशों से प्रनेक भोगीजनों को त्यागी -विरागी बनाया । श्रार्य स्थूलभद्र जैसे परम भोगी गृहस्थ प्रापके ही शिष्य थे, जिनकी महान् योगियों में सर्वप्रथम गणना की जाती है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आपके निम्नलिखित मुख्य स्थविर शिष्य और शिष्याएं थीं : शिष्य १. नंदनभद्र, २. उपनंदन भद्र, ३. तीसभद्द, ४ जसभद्द, ५. सुमिरणभद्द, ६. मणिभद्द, ७. पुण्यभद्द, ८. स्थूलभद्र, ६. उज्जुमई, १०. जम्बू, ११. दीहभद्द और १२. पंडुभद्द ।' शिष्याएं १. जक्खा, २. जक्खदिण्णा, ३. भूया, ४. भूयदिण्णा, ५. सेरणा, ६. वेरणा श्रौर ७. रेणा । ये सातों ही श्रार्य स्थूलभद्र की बहिनें थीं । वीर निर्वारण संवत् १५६ में प्रार्य संभूतविजय ने अपनी श्रायु का अन्तिम समय सन्निकट जानकर अनशन किया और समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया । यह यहां उल्लेखनीय है कि भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर प्रार्य सुधर्मा से लेकर प्राचार्य यशोभद्र स्वामी तक अर्थात् ५ पट्ट तक श्रमरणसंघ में एक प्राचार्य परम्परा बनी रही । वाचनाचार्य प्रादि के रूप में रहने वाले अन्य श्राचार्य एक ही पट्टधर प्राचार्य के तत्वावधान में शासन सेवा का कार्य करते प्राये थे पर प्राचार्य यशोभद्र ने संभूतविजय और भद्रबाह नामक दो श्रुतकेवली शिष्यों को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । श्रावार्य यशोभद्र ने अपने पश्चात् दो प्राचार्यों की परम्परा किस कारण प्रारम्भ की, इसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता पर ऐसा प्रतीत होता है कि श्रमरणसंघ के प्रत्यधिक विस्तार को देखकर संघ का संचालन समीचीन रूप से हो सके, इसी दृष्टि से प्राभ्यंतर प्रौर बाह्य संचालन का कार्य दो अलग श्राचार्यों में विभक्त कर दो प्राचार्यों की परम्परा प्रचलित की हो । • इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि प्राचार्य संभूतविजय वी० नि० सं० १४८ से १५६ तक भगवान् महावीर के शासन के सर्वेसर्वा श्राचार्य रहे और उनके स्वर्गगमन के पश्चात् ही प्राचार्य भद्रबाहु ने संघ की बागडोर सम्पूर्ण रूप से अपने हाथ में सम्भाली। संघ वस्तुतः दो प्राचार्यों की नियुक्ति के पश्चात् भी 'नंवरणभवु १ बनंदण-भद्दे २ तह तीसभद्दे ३ जसभद्दे । मेरे य सुमरणभद्दे ५ मणिमद्दे ( गरिणभद्दे ) ६ पुष्णभद्दे ७ य । मेरे पूलम ८ मई १ जंतूनांमविज्जे १० य । मेरे बीम ११ मेरे तह पंडुभद्दे १२ य ।। [ कल्पसूत्र स्थविरावली ] Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ श्रुतकेवली-काल : भाचार्य संभूतविजय वी०नि० सं० १४८ से १५६ तक प्राचार्य संभूतविजय का पाशानुवर्ती और १५६ से १७० तक प्राचार्य भद्रबाहु की प्राज्ञा का अनुवर्ती रहा । ऐसी दशा में यह कल्पना करना कि उस समय जैन संघ में किसी प्रकार के मतभेद का बीजारोपण हो चुका था, नितान्त निराधार कल्पना मात्र ही कहा जा सकता है। दिगम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा में चौथा श्रुतकेवली प्राचार्य गोवर्धन को माना गया है। इनका भी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता। ७. प्राचार्य श्री भद्रबाहु भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी हुए। मापका जन्म प्रतिष्ठानपुर के प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में वी०नि० सं० ६४ में हुमा। ४५ वर्ष गृहस्थाश्रम में रहने के पश्चात् भद्रबाहु ने वीर नि० सं० १३६ में भगवान् महावीर के पांचवें पट्टधर प्राचार्य यशोभद्रस्वामी के पास निग्रंथ श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। अपने महान् यशस्वी गुरु यशोभद्र की सेवा में रहते हुए मापने बड़ी लगन के साथ सम्पूर्ण द्वादशांगी का अध्ययन किया और भाप श्रुतकेवली बन गये। वीर नि० सं० १४८ में प्राचार्य यशोभद्रस्वामी ने स्वर्गगमन के समय श्री सम्भूतविजय के साथ-साथ प्रापको भी प्राचार्य पद पर नियुक्त किया। वीर नि० सं० १४८ से १५६ तक अपने बड़े गुरुभाई प्राचार्य संभूतविजय के. प्राचार्यकाल में आपने शिक्षार्थी श्रमणों को श्रुतशास्त्र का प्रध्यापन कराने के साथ-साथ भगवान् महावीर के शासन की महती सेवा की। भगवान् महावीर के छठे पट्टधर भाचार्य संभूतविजय के स्वर्गगमन के पश्चात् मापने वीर निर्धारण संवत् १५६ में संघ के संचालन की बागडोर पूर्णरूपेण अपने हाथ में संभाली। प्राचार्य भद्रबाहु ने दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार पौर निशीथ- इन चार छेद सूत्रों की रचना कर मुमुखं साधकों पर महान् उपकार किया। अनेक पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने इन अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु को (१) प्राचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) मावश्यक, (४) दशवैकालिक, (५) उत्तराध्ययन, (६) दशाश्रुतस्कन्ध, (५) कल्प (८) व्यवहार, (९) सूर्यप्राप्ति मोर- (१०) ऋषिभाषित- इन दश सूत्रों का नियुक्तिकार, महान् नैमित्तिक मौर उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहु संहिता तथा सवा लाख पद वाले "वसुदेव चरित्र" नामक ग्रन्थ का कर्ता भी माना है। इस संबंध में मागे यथास्थान प्रमाण पुरस्पर विचार किया जायगा। प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने मार्य स्थूलभद्र जैसे योग्य श्रमणश्रेष्ठ को दो वस्तु कम दश पूर्वी का सार्थ सम्पूर्ण ज्ञान और प्रन्तिम चार पूर्वो का मूल स्पेण पापन देकर पूर्व-ज्ञान को नष्ट होने से बचाया। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु की महिमा __ आचार्य भद्रबाहु अपने समय के घोर तपस्वी, महान् धर्मोपदेशक, सकल श्रुतशास्त्र के पारदृश्वा और उद्भट विद्वान् होने के साथ-साथ महान् योगी भी थे। आपने निरन्तर १२ वर्ष तक महाप्राण-घ्यान के रूप में उत्कट योग की साधना की। इस प्रकार की दीर्घकालीन योगसाधना के उदाहरण भारतीय इतिहास में विरले ही उपलब्ध होते हैं। आपने वी० नि० सं० १५६ से १७० तक के १४ वर्ष के प्राचार्य-काल में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिनशासन का प्रचारप्रसार और उत्कर्ष किया। जैन शासन में भद्रबाहु की महिमा आपको श्वेताम्बर तथा दिगम्बर' दोनों परम्पराओं द्वारा पांचवें तथा अन्तिम श्रुतकेवली माना गया है। भद्रबाहु स्वामी द्वारा की गई संघ एवं श्रुत की उत्कट सेवा के कारण उनका स्थान जैन इतिहास में बहुत ऊंचा है । श्रुतशास्त्र विषयक आपके द्वारा निर्मित कृतियां लगभग २३ शताब्दियों से प्राज तक मुमुक्षु साधकों के लिये प्रकाशमान दीपस्तम्भों का काम कर रही हैं। शासन-सेवा और अपनी इन अमूल्य कृतियों के कारण आप भगवान् महावीर के शासन के एक महान् ज्योतिर्धर प्राचार्य के रूप में सदा से सर्वप्रिय और विख्यात रहे हैं। मुमुक्षु साधकों पर किये गये इस उपकार के प्रति अपनी निस्सीम कृतज्ञता प्रकट करते हुए अनेक प्राचार्यों और विद्वानों ने आपकी बड़े भावपूर्ण शब्दों में स्तुति की है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु का जैन इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। दिगम्बर आम्नाय के कतिपय ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख किया गया है कि अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के जीवन के अन्तिम चरण में ही दिगम्वर तथा श्वेताम्बर-इस प्रकार के मतभेद का सूत्रपात हो चूका था। इस दृष्टि से भी प्राचार्य भद्रबाहु के जीवन-चरित्र का एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक ' सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मरणाहस्स तेग जंबुस्स । विण्हु णंदीमित्तो तत्तो य पराजिदो य तत्तो ॥४३॥ गोवद्धरणो य तत्तो भद्दभुप्रो अंतकेवली कहियो ॥४४॥ [अंगपण्णत्ती] वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनारिण। सुत्तस्स कारगमिसि, दसासु कप्पे य ववहारे ॥१॥ [दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति] येनैषा पिण्डनियुक्तियुक्तिरम्या विनिमिता। द्वादशांगविदे तस्मै नमः श्री भद्रबाहवे ॥ [मलयगिरि पिंडनियुक्ति टीका] वंदामि भहबाहुं जेरण य अईरसियं बहुकलाकलियं । रइयं सवायलक्खं चरियं वसुदेवरायस्स ॥ [शान्तिनाथ चरित्र-मंगलाचरण] श्री कल्पसूत्रममृतं विबुधोपयोगयोग्यं जरामरणदारुणदुःखहारि । येनोद्धृतं मतिमता मथितात् श्रुताब्धेः, श्री भद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ।। [क्षेत्रकीति-वृहत्कल्प टीका Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० वि० मान्यताएं। श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु महत्व है। प्राचार्य भद्रबाह के जीवनचरित्र के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्परामों में तो मान्यताभेद है ही पर भद्रबाहु के जीवनचरित्र विषयक दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों का समीचीनतया अध्ययन करने से एक बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य प्रकट होता है कि न श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्राचार्य भद्रबाह के जीवनचरित्र के सम्बन्ध में मतैक्य है और न दिगम्बर परम्परा के प्रन्थों में ही। भद्रबाह के जीवन सम्बन्धी दोनों परम्पराओं के विभिन्न ग्रन्थों को पढ़ने से एक निप्पक्ष व्यक्ति को स्पष्ट रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः दोनों परम्परामों के अनेक ग्रन्थों में भद्रबाह नाम वाले दो-तीन प्राचार्यों के जीवन चरित्रों की घटनाओं को गड्ड-महु कर के अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु के जीवनचरित्र के साथ जोड़ दिया गया है । पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों द्वारा लिखे गये कुछ ग्रन्थों का, उनसे पूर्ववर्ती प्राचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह स्पष्टरूपेण आभासित होता है कि भद्रबाहु के चरित्र में पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने अपनी कल्पनाओं के आधार पर कुछ घटनाओं को जोड़ा है। उन्होंने ऐसा अपनी मान्यताओं के अनुकूल वातावरण बनाने के अभिप्राय से किया अथवा और किसी दृष्टि से किया, यह निर्णय तो तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् पाठक स्वयं ही निष्पक्ष बुद्धि से कर सकते हैं। इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन शोधार्थियों एवं इतिहास में रुचि रखने वाले विज्ञों के लिये लाभप्रद होने के साथ-साथ वास्तविकता को खोज निकालने में सहायक सिद्ध होगा, इस दृष्टि से श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्परामों के ग्रन्थों में भद्रबाह से सम्बन्धित जो सामग्री उपलब्ध है, उसमें से प्रावश्यक सामग्री यहां प्रस्तुत की जा रही है । व्रत-पर्याय से पूर्व का जीवन । यों तो प्रव्रज्या ग्रहण से पूर्व का भद्रवाह का जीवन-परिचय श्वेताम्वर और दिगम्बर - दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों में उपलब्ध होता है किन्तु वह सम्बन्धित घटनाचक्र और तथ्यों की कसौटी पर कसने से खरा नहीं उतरता। ऐसी दशा में भद्रबाह के गृहस्थ जीवन के परिचय के रूप में निश्चित रूप से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उनका जन्म वीर नि० संवत् ६४ में हुआ। आप प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण थे और आपने ४४ वर्ष की अवस्था में प्राचार्य यशोभद्र स्वामी के उपदेश से प्रतिबोध पा कर भागवती दीक्षा ग्रहण की। श्वेताम्बर परम्परागत परिचय दीक्षा ग्रहण के पश्चात् का प्राचार्य भद्रबाहु का जीवन-परिचय वित्योगालियपइन्ना, आवश्यकरिण प्रादि ग्रन्थों में अति संक्षिप्त एवं प्रतिस्वल्प मात्रा में मिलता है। दीक्षा-ग्रहण से पूर्व का भद्रबाहु का जीवनवृत्त "गच्याचार पत्रा" की गाथा ८२ की टीका में, प्रबन्ध चिन्तामरिण में तथा राजशेखरसूरि कत प्रबन्धकोश मादि अर्वाचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । जो क्रमशः इस प्रकार है: Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वे० परं० परिचय तित्थोगालियपइन्ना के अनुसारः - लगभग विक्रम की पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में रचित "तित्थोगालियपइण्णा" नामक प्राचीन ग्रन्थ में निम्नलिखित रूप से उल्लेख उपलब्ध होता है : ____ "प्राचार्य श्री सय्यंभव के सर्वगुण सम्पन्न शिष्य जसभद्र हए। जसभद्र के शिष्य यशस्वी कुल में उत्पन्न श्री संभूत हुए । तदनन्तर सातवें आचार्य श्री भद्रबाहु हुए, जिनका भाल प्रशस्त एवं उन्नत तथा भुजाएं आजानु थीं । वे धर्मभद्र के नाम से भी प्रख्यात थे। प्राचार्य भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने बारह वर्ष तक योग की साधना की और (सुत्तत्थेण निबन्धइ अत्थं अज्झयणबन्धस्स) छेदसूत्रों की रचना की। उस समय मध्यप्रदेश में भयंकर अनावृष्टि के कारण दुष्काल पड़ा। व्रतपालन में कहीं किसी प्रकार का किंचित्मात्र भी दोष न लग जाय अथवा किसी प्रकार कर्मबन्ध न हो जाय- इस आशंका से अनेक धर्मभीरु साधुओं ने अत्यन्त दुष्कर आमरण अनशन की प्रतिज्ञाएं की और संलेखना कर समाधिपूर्वक प्रारणत्याग किये। अवशिष्ट साधुनों ने अन्यान्य प्रान्तों की ओर प्रस्थान कर समुद्र और नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में विरक्त भाव से विचरण करना प्रारम्भ किया। प्रा० भद्रबाहु नेपाल पधारे और वहां योग साधना में निरत हो गये। दुभिक्ष के समाप्त होने पर अवशिष्ट साधु पुनः मध्यप्रदेश की ओर लौटे । "तित्थोगालियपइण्णा" में उपर्युल्लिखित के पश्चात् पाटलीपुत्र में हुई प्रथम आगमवाचना, साधुओं को चौदह पूर्वो की वाचना देने की प्रार्थना के साथ संघ द्वारा साधुओं के एक संघाटक का भद्रबाहुस्वामी की सेवा में नेपाल भेजना, भद्रबाहुस्वामी द्वारा प्रथमतः संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करना और अन्ततोगत्वा संभोगविच्छेद की संघाज्ञा के सम्मुख भूक कर स्थूलभद्र आदि साधुनों को वाचना देना, स्थूलभद्र द्वारा पाटलीपुत्र में यक्षा आदि आर्याओं के समक्ष अपने विद्या प्रदर्शन के कारण प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा उन्हें अन्तिम चार पूर्वो की वाचना न देने का संकल्प, संघ द्वारा स्थूलभद्र के अपराध को क्षमा कर वाचना देने की प्रार्थना, प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा चार पूर्वो की वाचना न देने के कारणों पर प्रकाश और अन्ततोगत्वा केवल मूलरूप से अन्तिम चार पूर्वो की भद्रबाहु द्वारा आर्य स्थूलभद्र को वाचना देने आदि का.उल्लेख किया गया है। यह सब विवरण स्थूलभद्रस्वामी के प्रकरण में यथास्थान दिया जा रहा है । पावश्यकरिण आवश्यकचूर्षिण में भद्रबाहु विषयक तित्थोगालियपइण्णा में उल्लिखित उपरोक्त तथ्यों में से कुछ का अति संक्षेप में उल्लेख किया गया है । ' तित्थोगालियपइण्णा, गाथासंख्या ७०० से ८०० के बीच की गाथाएं २ मावश्यकचूरिण, भाग २, पृ० १८७ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्वे. परं० परिचय) श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु गच्छाचार पइन्ना, दोघट्टीवृत्ति यों तो श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों में प्राचार्य भद्रबाह के जीवन की घटनाओं का थोड़ा बहुत उल्लेख उपलब्ध होता है पर गच्छाचार पइन्ना की गाथा संख्या ८२ की टीका में प्राचार्य भद्रबाहु का गृहस्थ जीवन से लेकर स्वर्गारोहण तक का थोड़े विस्तार के साथ जीवन-परिचय दिया हुआ है । उसका सारांश इस प्रकार है : ___“परम समृद्ध महाराष्ट्र प्रदेश में श्रीप्रतिष्ठान नामक एक नगर था। वहाँ चतुर्दश विद्याओं में पारंगत, षट्कर्ममर्मज्ञ और प्रकृति से भद्र एक भद्रबाहु नामक ब्राह्मण रहता था। उसके सहोदर का नाम वराहमिहिर था, जो उसे परमप्रिय था। एक दिन वहां चतुर्दशपूर्वधर एवं महान् तत्वज्ञ याचार्य श्रीयशोभद्रस्वामी का.पधारना हुआ। __यशोभद्रस्वामी के परमवैराग्योत्पादक उपदेश को सुनकर पंडित भद्रबाहु को संसार में विरक्ति हो गई। उन्होंने अपने अनुज वराहमिहिर से कहा"वत्स ! मुझे भवभ्रमण से विरक्ति हो गई है अतः मैं इन गुरुदेव की चरणशरण में दीक्षित हो निर्दोष संयम का पालन करना चाहता हूं। तुम घर लौट कर सावधानीपूर्वक अपने घर का कार्य सम्हालो।" इस पर वराहमिहिर ने उत्तर दिया- "भैया ! आप यदि संसार सागर को तैर कर पार करना चाहते हैं, तो फिर मैं टूटी हुई नैया के नाविक की तरह भवाब्धि में क्यों डूबूंगा? शर्करामिश्रित खीर यदि ब्राह्मण को मीठी लगती है, तो क्या वह ब्राह्मणेतर जनों को मीठी नहीं लगेगी ?" भद्रबाहु ने यह सोच कर कि यह कहीं भवाटवी में भटकता ही न रह जाय, वराहमिहिर को अपने साथ प्रवजित होने की अनुमति प्रदान कर दी और दोनों भाई समर्थ प्राचार्य यशोभद्रस्वामी के पास प्रवजित हो गये। ज्ञान और चारित्र की शिक्षा ग्रहण कर भद्रबाहु ने अपने गुरु के पास क्रमशः मूल, अर्थ और रहस्य सहित द्वादशांगी का अध्ययन किया और वे चतुर्दशपूर्वधर हो समस्त श्रमण संघ में चूड़ामणि की तरह सुशोभित होने लगे। प्राचार्य यशोभद्रसूरि के प्रमुख शिष्य का नाम आयं संभूतविजय था, जो चतुर्दश पूर्वघर और अनुपम चारित्रवान् थे। अपने जीवन का अन्तिम समय सनिकट समझ कर प्राचार्य यशोभद्रसूरि ने अपने दोनों सुयोग्य प्रौर श्रुतकेवली शिष्यों-संभूतविजय और भद्रबाहु को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठापित कर संलेखना की और कुछ दिनों पश्चात् समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया। ___प्राचार्य यशोभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् संभूतविजय पौर भद्रबाहु-ये दोनों प्राचार्य चन्द्र और सूर्य की तरह अपनी ज्ञानरश्मियों से प्रज्ञान-तिमिर का नाश करते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करने लगे। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्वे० परं० परिचय उधर वह अल्पमति वराहमिहिर मुनि चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि कुछ ग्रन्थों का अध्ययन कर अहंकार से अभिभूत हो प्राचार्य-पद प्राप्त करने की अभिलाषा करने लगा। किन्तु आचार्यद्वय ने अपने ज्ञान बल से उसे इस पद के अयोग्य समझा और : बूढो गणहरसद्दो, गोयममाईहिं धीरपुरिसेहिं । जो तं ठवइ अपत्ते, जारणंतो सो महापावो ।। अर्थात् – गणधर जैसे गरिमामय पद को गौतम आदि धीर-गम्भीर महापुरुषों ने वहन किया है। ऐसे महान पद पर यदि कोई जानबूझ कर किसी अपात्र को नियुक्त कर देता है, तो वह घोरातिघोर पाप का भागी होता है। इस प्राप्तवचन को ध्यान में रखते हुए उन्होंने वराहमिहिर को गणधर पद का अधिकारी नहीं बनाया। इसके परिणामस्वरूप मुनि वराहमिहिर मन ही मन अपने ज्येष्ठ भ्राता आचार्य भद्रवाहु के प्रति घोर विद्वेष रखने लगा और उसने इसे अपना घोर अपमान समझ कर सदा के लिये उनका साथ छोड़ने का निश्चय कर लिया। तीव्र कषाय और मिथ्यात्व के उदय से उसने बारह वर्ष के साधु-जीवन का परित्याग कर पुनः गार्हस्थ्य जीवन स्वीकार कर लिया। चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि प्रागमग्रन्थों से सार ग्रहण कर उसने वराहीसंहिता नामक सवालक्ष पद प्रमारण ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की। वह द्रव्यानुयोग एवं अन्य अंगोपांगों में से मंत्र ग्रहण कर, उनके प्रयोग से धनी-मानी लोगों का मनोरंजन करने लगा। ___ वराहमिहिर ने सर्वत्र सम्मान पाने की अभिलाषा से अपने भोले भक्त लोगों के माध्यम से इस प्रकार का मिथ्या प्रचार करना प्रारम्भ किया कि वह १२ वर्ष तक सूर्यमण्डल में रह कर पाया है। वहां स्वयं सूर्य भगवान् ने समस्त ग्रहमण्डल के उदयास्त, गति, स्थिति, फल आदि को प्रत्यक्ष दिखा-दिखा कर उसे ज्योतिष-विद्या की सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान की। ज्योतिष-विद्या में पारंगत वना कर सूर्य भगवान ने उसे मर्त्यलोक में भेजा है। सूर्यमण्डल से पृथ्वी पर पाकर उसने ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है। धूर्त भक्तों के माध्यम से यह कपोलकल्पित कथानक लोगों में शीघ्र ही फैल गया और इस प्रकार वराहमिहिर की सर्वत्र वड़ी प्रतिष्ठा होने लगी। इस प्रकार की लोकप्रसिद्धि से प्रभावित हो प्रतिष्ठानपुर के महाराजा ने वराहमिहिर को अपने राजपुरोहित के पद पर प्रतिष्ठापित कर दिया। राज्य से प्रतिष्ठा पाने के अनन्तर तो वराहमिहिर की कीर्ति दिग्दिगन्तव्यापिनी हो गई। उन्हीं दिनों विविध क्षेत्रों के भव्यजनों को जिन-वचनामृत से तृप्त करते हुए प्राचार्य भद्रबाह प्रतिष्ठानपुर के बहिस्थ उद्यान में पधारे। उनके प्रागमन का समाचार सुनकर प्रतिष्ठानपुर के नरेन्द्र अपने पुरजन परिजन सहित उनका वन्दन एवं उपदेश श्रवण करने हेतु उद्यान में पहुंचे। राजपुरोहित वराहमिहिर Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० परं० परिचय] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३३१ भी राजा के साथ था । उसी समय एक पुरुष ने वहां उपस्थित हो महाराज के समक्ष ही वराहमिहिर को हर्षभरा शुभ-संवाद सुनगया- "देव ! अभी-अभी प्रापके यहां पुत्ररत्न का जन्म हुआ है।" यह हर्षप्रद सन्देश सुन कर महाराज न प्रसन्न हो समाचार लाने वाले व्यक्ति को अच्छा पारितोषिक दिया और पुरोहित से प्रश्न किया- "पुरोहितजी! यह बताइये कि यह तुम्हारा पुत्र किन-किन विद्यानों में पारंगत और कितनी आयुष्य वाला होगा ? इसके साथ ही साथ यह भी बताइये कि यह हमारे द्वारा सम्मानित होगा अथवा नहीं ? आज तो परम सौभाग्य की बात है कि सर्वज्ञपुत्र एवं शत्रु तथा मित्र के प्रति समान व्यवहार रखने वाले श्री भद्रबाहु और समस्त ज्योतिष्चक्र को सूक्ष्म से सूक्ष्म गति एवं उसके परिणाम के ज्ञाता तुम जैसे ज्योतिष-शास्त्र के पारगामी विद्वान् यहां विद्यमान हैं। अतः दोनों विद्वशिरोमणि विचार कर कहिये।" निज चपल स्वभाववश वराहमिहिर ने अपने पाण्डित्य की उत्कृष्टता का प्रदर्शन करते हुए कहा- "महाराज! इस नवजात शिशु के जन्मकाल, लग्न, ग्रहमादि पर विचार करने के पश्चात् में यह कहने की स्थिति में हूं कि यह बालक शतायु, आपके द्वारा तथा आपके पुत्रों एवं पौत्रों द्वारा भी पूजित और अठारह विद्यामों का पारंगत विद्वान् होगा।" - जैन सिद्धान्त में निमित्त-कथन का निषेध है फिर भी राजा और उपस्थित अन्य पौरजनों के अनुरोध से, रोगनिवारणार्थ कटू औषध का पिलाना भी आवश्यक होता है, इस विचार से गीतार्थशिरोमणि आचार्य । भद्रबाह ने बताया कि सातवें दिन के अन्त में इस बालक की विडाल से मृत्यु हो जायगी। यह सुन कर वराहमिहिर बड़ा क्रुद्ध हुआ । उसने महाराज से प्रार्थना की कि यदि भद्रबाहु का कथन असत्य सिद्ध हो तो इनको कोई कठोर दण्ड दिया जाय । घर पहुंच कर वराहमिहिर ने अपने घर के चारों ओर सैनिकों का कड़ा पहरा लगा दिया। सूतिकागृह में सभी आवश्यक सामग्री का समुचित प्रबन्ध करने के पश्चात् पुत्र की रक्षार्थ धात्री को नियुक्त कर दिया । तदनन्तर विडाल के संचार को रोकने हेतु सूतिकागृह के द्वार को अन्दर की ओर से बन्द करवाकर वराहमिहिर स्वयं सूतिकागृह पर अहर्निश पहरा देने लगा। ___ इस प्रकार के कडे सुरक्षा प्रबन्धों के बीच सातवां दिन मा उपस्थित हा। ज्यों-ज्यों आशंकित संकट की घड़ी सन्निकट आती गई त्यों-त्यों सुरक्षा के प्रबन्ध और अधिक कड़े किये जाने लगे और अधिकाधिक सावधानी बरती जाने लगी। सातवें दिन के समाप्त होते-होते अकस्मात् सूतिकाग्रह के सुदृढ़ कपाटों की विडालमुखी भारी अर्गला बालक के ऊपर गिरी और उसके प्रहार से वह नन्हा सा बालक तत्काल प्राणविहीन हो गया। सारे घर में कुहराम मच गया। वराहमिहिर करण ऋदन करते हुए कहने लगा- "हायरे देव ! तुम्हारी गति Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्वे. परं० परिचय विचित्र है, जो तुमने अपने हाथ से कल्पवृक्ष बोया था, उसे मदोन्मत्त हाथी की तरह एक ही क्षण में उखाड़ कर फेंक दिया।" राजा और प्रजा-सभी यह जानने को उत्सुक थे कि किस की भविष्यवाणी सत्य निकलती है । पुरोहितपुत्र की मृत्यु का समाचार तत्क्षण वन में लगी अग्नि की तरह सारे नगर में फैल गया। प्रतिष्ठानपुर के नरेन्द्र ने वराहमिहिर के घर पहुंच कर उसे शान्त किया और कहा- "महामुनि भद्रबाहु ने बालक के मरण की बात कही, वह तो सत्य सिद्ध हो गई पर उन्होंने जो मरण का हेतु बताया था वह सम्भवतः सत्य नहीं निकला है।" धात्री से बालक की मृत्यु का कारण पूछा गया तो उसने रोते हुए उस प्रर्गला को उठा कर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया । अर्गला के मुख पर उत्कीर्ण की हुई विडाल की प्राकृति को देख कर महाराज पाश्चर्याभिभूत हो बारम्बार प्राचार्य भद्रबाहु की महिमा करते हुए कहने लगे- "धन्य है इन सर्वज्ञतुल्य श्वेताम्बर महामुनि की अद्भुत ज्ञान-गरिमा मीर उनके सत्य भविष्य-कथन को।" भविष्यवाणी की शतप्रतिशत सत्यता से चमत्कृत हो प्रतिष्ठानपुरपति तत्काल वराहमिहिर के घर से प्रस्थान कर प्राचार्य भद्रबाहु की सेवा में पहुंचे और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम कर पूछा - "भगवन् ! पुरोहित के वचन किस कारण से भूठ सिद्ध हुए ?" उत्तर में प्राचार्य भद्रबाह ने फरमाया- "राजन ! उस गुरुद्रोही ने व्रतों को ग्रहण कर के भी अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर प्रापका पौरोहित्य स्वीकार कर लिया। इसी कारण उसके वचन प्रसत्य सिद्ध हुए । राजन् ! जो वचन सर्वश प्रभु द्वारा प्रणीत है वह तो युग-युगान्तर में भी सत्य ही सिद्ध होता है।" भद्रवाह स्वामी की बात सुन कर प्रतिष्ठानपति को वास्तविक तथ्य का बोध हो गया और वे पश्चात्ताप भरे स्वर में भद्रबाहु स्वामी से निवेदन करने लगे-- "महामुने! मैंने मिथ्यात्वरूपी धतूरे के नशे में चूर हो संसार की सब वस्तुओं को स्वर्णमय समझते हुए अपना निश्शेष मनुष्य जीवन व्यर्थ ही खो दिया । प्रभो! अब प्राप मुझे कुपा कर ऐसी शिक्षा दीजिये, जिससे में कृतकृत्य हो सकू।" राजा की प्रार्थना पर भद्रबाहु ने उसे दुर्गतिनिवारण कल्याणकारी सच्चे धर्म का उपदेश दिया, जिसे राजा ने हृदयंगम एवं शिरोधार्य करते हुए पुरोहित के मत का परित्याग कर जैन धर्म स्वीकार किया। इस दुःखद घटना के पश्चात् लोग वराहमिहिर का उपहास करने लगे और वह भी पुत्रमरण के शोक एवं लोगों में फैली अपनी अपकीति के कारण संसार से विरक्त हो परिव्राजक बन गया। वह प्रज्ञानवश केवल काया को क्लेश पहुंचाने वाला तप करने लगा और अन्त में अपने अन्तर के पाप-शल्य का प्रायश्चित्त किये बिना ही मर कर हीन ऋद्धि वाला वाणव्यन्तर देव हुमा । उसने विभंगज्ञान से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त ज्ञात कर जिनशासन से अपने पूर्ववर का Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे. परं० परिचय] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३३३ बदला लेने की ठानी और जनसंघ को अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग दिये । व्यन्तरकृत उपसर्गों को अपने ज्ञानबल से जान कर प्राचारनिष्ठ श्रमणों ने भद्रबाहु स्वामी को सारी स्थिति से अवगत कराया। भद्रबाह स्वामी ने श्रमरणसंघ के कष्ट का निवारण करने हेतु महान् चमत्कारी "उवसग्गहर स्तोत्र" की रचना कर उसका पाठ स्वयं ने भी किया और समस्त श्रमणसंघ से भी उस स्तोत्र का पाठ करवाया। उस स्तोत्र के प्रभाव से व्यंतरकृत सारा उपद्रव सदा के लिये शान्त हो गया। युगप्रधान प्राचार्य भद्रबाहु ने प्राचारांग आदि दश सूत्रों पर नियुक्तियों की रचना कर जिनशासन की बड़ी प्रभावना की और पंचम तथा अन्तिम श्रतकेवली के रूप में प्राचार्यपद का वहन करते हुए अन्त में अनशनपूर्वक स्वर्गारोहण किया।' प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार प्रबन्ध चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में भद्रबाहु और वराहमिहिर का जो परिचय उल्लिखित है वह गच्छाचार प्रकीर्णक की टोका में दिये गये परिचय से लगभग मिलता-जुलता ही है। (प्रबन्ध चिन्तामरिण में) जो विभिन्नता है, वह इस प्रकार है (१) इसमें वराहमिहिर को पाटलीपुत्र का निवासी, भद्रबाहु का ज्येष्ठ भ्राता और राजा नन्द द्वारा प्रतिष्ठाप्राप्त नैमित्तिक बताया गया है।। (२) इसमें उल्लेख है कि वराहमिहिर को, पुत्रजन्मोत्सव के समय उसके घर पर जन-साधारण से लेकर स्वयं नन्दराजा के उपस्थित होने पर भी अपने छोटे भाई भद्रबाहु का न आना बड़ा खटका और उसने श्रद्धालु श्रावक शकडाल को भद्रबाहु की अनुपस्थिति के लिये उपालम्भ दिया। शकडाल मंत्री द्वारा वराहमिहिर की अप्रसन्नता की बात सुनकर भद्रबाह ने कहा कि दो बार कष्ट करने की क्या आवश्यकता है ? जिस नवजात शिशु की वराहमिहिर भ्रमवश सौ वर्ष की आयु बता रहा है, वह वस्तुतः बीसवें दिन बिलाव से मृत्यु को प्राप्त हो जायगा । शकडाल मंत्री के मुख से भावी संकट की सूचना पाकर वराहमिहिर ने बालक की सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध किया किन्तु कपाट की लोहार्गला जिस पर कि विडाल की प्राकृति अंकित थी, के गिरने से बालक की बीसवें दिन मृत्यु हो गई। प्रबन्ध चिन्तामणि में वराहमिहिर के दीक्षित होने, १२ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय के पालन करने, प्राचार्यपद न मिलने के कारण रुष्ट हो श्रमणत्व का - "भत्यि सिरिभरवरिठे..." पहजुगुप्पहाणागमो सिरिभद्दबाहुस्वामी-पापारंग (१), सूयगडंग (२), पावस्सय (३), दसर्वयालिय (४), उत्तरज्झयण (५), दसा (६), कप्प (७), ववहार (८), सूरियपन्नति उवंग (६), रिसिभासियारणं (१०), दस निज्जुत्तीपो काऊण जिग्णसासरणं पंचमसुयकेवलियपयमणुहविऊरण य समए प्रणसणविहाणणं तिदसावासं पत्तो ति ।" [गच्छाचार पइण्णा, २ अधि० व कल्प] .. .......... Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रबंध चिन्ता ० के अनु० परित्याग करने और भद्रबाहु द्वारा १० नियुक्तियों की रचना करने का उल्लेख नहीं है, जबकि इसमें इन भद्रबाहु को चतुर्दश पूर्वधर बताया गया है । प्रबन्धकोश के अनुसार राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश में भद्रबाहु और वराहमिहिर के प्रतिष्ठानपुर निवासी निर्धन, निराश्रित पर विद्वान् ब्राह्मण होने, यशोभद्रसूरि के उपदेश से विरक्त एवं दैन्य-दुःख से प्रवजित होने, भद्रबाहु के चतुर्दश पूर्वधर बनने एवं उनके द्वारा १० नियुक्तियों की रचना किये जाने का उल्लेख है । इसमें वराहमिहिर के रुष्ट हो प्रतिष्ठानपुर के राजा जितशत्रु का पौरोहित्य स्वीकार करने तक का सारा विवरण दोघट्टी वृत्ति में दिये गये विवरण से मिलता-जुलता है। इसमें विशेष बात यह बताई गई है कि राजपुरोहित का पद मिल जाने पर वराहमिहिर ने गर्वोन्मत्त हो श्वेताम्बरों की निन्दा और गर्दा करनी प्रारम्भ कर दी। वह प्रायः यही कहता कि ये बेचारे काक-तुल्य श्वेताम्बर कुछ नहीं जानते, केवल मक्खियों की तरह भिनभिनाते और मलीन वस्त्र धारण किये अपना जीवन नष्ट करते हैं। इससे क्रुद्ध हो श्रावकों ने भद्रबाहु से प्रतिष्ठानपुर प्राने की प्रार्थना की और उनके पधारने पर नगरप्रवेश का बड़ा भव्य महोत्सव किया। भद्रबाह के आगमन पर वह उनका कुछ भी अपकार नहीं कर सका। उन्हीं दिनों वराहमिहिर को पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र-जन्म की खुशी में उसने प्रसन्न हो अपार धनराशि व्यय की। नागरिकों ने उसे बधाइयां दीं। जितशत्रु राजा व राजसभा के समक्ष उसने अपने ज्योतिष के ज्ञान-बल पर भविष्यवारणी की कि उसका पुत्र शतायु होगा। वराहमिहिर ने एक दिन. राजसभा में कहा- “समस्त पौरजन पुत्रजन्म के उपलक्ष में मुझे बधाई देने आये पर भद्रबाहु मेरे सहोदर होते हुए भी मेरे यहां नहीं आये। श्रावकों ने प्राचार्य भद्रबाहु को इसकी सूचना दी और उनसे प्रार्थना की कि वे एक बार उसके घर पर अवश्य पधारें, व्यर्थ ही उसके क्रोध को न बढ़ावें। इस पर भद्रबाहु ने कहा कि दो बार कष्ट करने से क्या लाभ ? क्योंकि सातवीं रात्रि में बिल्ली के द्वारा इस बालक की मृत्यु हो जायगी। भद्रबाहु द्वारा कथित भावी अनिष्ट की सूचना पा, वराहमिहिर ने अपने पुत्र की सुरक्षा का बड़ा कड़ा प्रबन्ध किया पर सातवीं रात्रि में कपाट की अर्गला के गिर जाने से बालक की मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु के शोक से संतप्त वराहमिहिर को भद्रबाहु ने "शोकोपनोदो धर्माचार्यः' - इस उक्ति के अनुसार सान्त्वना देना आवश्यक समझा और वे उसके घर गये। वराहमिहिर ने उठकर भद्रबाहु के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा- "प्राचार्यजी ! आपका ज्ञान और कथन सत्य सिद्ध हया पर बच्चे की मृत्यू आपके कथनानुसार बिल्ली से न होकर आगल से हई है।" Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोश के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु इस पर भद्रबाहु ने कहा - "भद्र ! हम लोग कभी असत्य भाषण नहीं करते। अच्छी तरह से देखो, उस लोहे की अर्गला के अग्रभाग पर बिल्ली का रेखांकित चित्र है। वराहमिहिर ने देखा कि वस्तुतः पागल के अग्रभाग पर बिल्ली का चित्र खुदा हुआ है । तदनन्लर उसने कहा - "पुत्र की मृत्यु के शोक से मुझे उतना कष्ट नहीं हो रहा है, जितना कि राजा के समक्ष मेरे द्वारा की गई अपने पुत्र के शतायु होने की भविष्यवाणी के असत्य सिद्ध होने से। धिक्कार है इन मेरी सब पुस्तकों को, जिन पर विश्वास करके मैंने भविष्यवाणी की। ये सब पुस्तकें असत्य हैं। मैं इन सब को अभी नष्ट किये. देता हूं।" यह कहते हुए वराहमिहिर अपनी सब पुस्तकों को जल से भरे कुडों में डालने के लिये उद्यत हुप्रा । भद्रबाह ने उसे रोकते हुए कहा - "तुमने अपने प्रमाद के कारण ज्ञान को कलुषित किया है, इन पुस्तकों पर तुम व्यर्थ ही कुपित होते हो। ये पुस्तकें तो सर्वज्ञभाषित बातों को ही प्रकट करती हैं। वस्तुतः इनके ज्ञाता लोग ही दुर्लभ हैं। देखो तुमने भविष्य-कथन के समय अमुक-अमुक स्थान पर मतिविभ्रम के कारण त्रुटि की है। अतः तुम इन पुस्तकों की नहीं प्रत्युत अपनी स्वयं की निन्दा करो। तुम अपने पाण्डित्य के मद में मदोन्मत्त हो गये हो । प्रमत्त पुरुष में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने की क्षमता नहीं रहती। अपराध तुम्हारा ही है, न कि इन पुस्तकों का प्रतः इन पुस्तकों को विनष्ट मत करो।" - भद्रबाहु की बात सुनकर बराहमिहिर किंकर्तव्यविमूढ़ की तरह शोकमग्न मुद्रा में एक ओर बैठ गया। वराहमिहिर की यह स्थिति देखकर एक श्रावक बोला- "वह रात्रि व्यतीत हो चुकी जिसमें तुम्हारे जैसे खद्योत भी टिमटिमा कर प्रकाश करने का दम भरते थे। अब तो सूर्य की प्रखर किरणों से दशों दिशाओं को प्रकाशमान करता हुआ दिवस आ गया है । इस दिवस में तुम्हारे जैसे खद्योतों की तो सामर्थ्य ही क्या स्वयं निशानाथ चन्द्रमा का भी कहीं पता नहीं है।" यह कहकर वह श्रावक तत्काल वहां से चल दिया। वराहमिहिर को मन ही मन असह्य पीड़ा का अनुभव हुआ। उसी समय प्रतिष्ठानपुर के महाराज वराहमिहिर के घर पर आये और शोकसन्तप्त वराहमिहिर को सान्त्वना देते हुए उन्होंने कहा - "पुरोहितराज ! इस प्रकार शोकसागर में निमग्न न होमो, यह तो संसार का अटल नियम है कि एक पाता है और चला जाता है।" उसी समय एक मन्त्री ने राजा से निवेदन किया - "महाराज ! ये आचार्यश्री इन्हीं दिनों यहां पधारे हैं। इन्होंने हो वराहमिहिर के नवजात शिशु की प्रायु सात दिन की वताई थी। आपका नाम ग्राचार्य भद्रवाह है। अापकी भविष्यवाणी वस्तुतः सत्य सिद्ध हुई।" ___यह सुनकर दुःखी वराहमिहिर और अधिक दुःखी हुअा। राजा ने श्रावकधर्म ग्रहण किया और तदनन्तर सब अपने-अपने स्थान को लौट गये । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रबंधकोश के अनुसार अपने अपमान से संत्रस्त वराहमिहिर ने पुनः भागवती दीक्षा ग्रहण की और प्रत्युग्र तप करने लगा। अन्त में वराहमिहिर मर कर जैनधर्म का विद्वेषी व्यन्तर देव हुप्रा। वह व्यन्तर बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी साधुओं का किसी प्रकार का अपकार न कर सका क्योंकि तपोपूत महात्माओं के वजोपम तप-कवच पर किसी भी प्रकार के अनिष्ट का किंचित्मात्र भी प्रभाव नहीं होता। अतः वह व्यन्तर श्रावकों को अनेक प्रकार के रोगों और उपद्रवों से पीड़ित करने लगा। श्रावकों ने आचार्य भद्रबाह के समक्ष अपनी दुःखगाथाएं रखते हुए उनसे रक्षा की प्रार्थना की। इस पर प्राचार्य भद्रबाहु ने श्रावकों को प्राश्वस्त करते हुए कहा कि उन्हें डरने की प्रावश्यकता नहीं है । व्यन्तर रूप से उत्पन्न हुआ वराहमिहिर पूर्ववैर के कारण उन्हें कष्ट दे रहा है। वह तो साधारण कोटि का व्यन्तर जाति का देव है, आवश्यकता पड़ने पर वे वज्रपाणि (इन्द्र) से भी अपने भक्तों की रक्षा करेंगे । तदनन्तर प्राचार्य भद्रबाहु ने पूर्वो से उद्धत कर "उवसग्गहरं पासं"इस पद से प्रारम्भ होने वाली पांच गाथानों का एक स्तोत्र बना कर लोगों को सिखाया। उस उपसर्गहर स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से तत्काल व्यन्तरकृत सब उपसर्ग शान्त हो गये और सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य व्याप्त हो गया। कष्टनिवारणार्थ आज भी लोग उस स्तोत्रराज का पाठ करते हैं। वस्तुतः वह अद्भुत चिन्तामणिरत्न के समान है । गुरु पट्टावली के अनुसार "गुरु पट्टावली" - (जिसके रचनाकार का नाम अज्ञात है) में छठे पट्टधर प्राचार्य संभूतविजय के पश्चात् भद्रबाहु का जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है : ___ "भद्रबाहुस्वामी पुनः आवश्यक नियुक्तिकृत् । तद्भ्राता वराहमिहिरस्त्यक्तव्रतो राज्ञः पुरोहितो राज्ञः पुरो निमित्तप्रकाशाद्यः प्राप्तप्रतिष्ठः तद्भातुः पराजयकरणे सभासमक्षं ५१ पल प्रमाणो मत्स्यः कुण्डप्रान्ते पतिष्यति, गुरुर्वक्ति ५२ पलप्रमारणो भत्स्यः कुण्डमध्ये पतिष्यति । जिनशासनप्रभावात् गुरुवाक्यमेव संजातं राजापि शासनोत्सवं चकार । ततोऽसौ वराहमिहिरो मानभ्रष्टो मृत्वा व्यतरीभूतः श्रीसंघमुपदद्राव, तज्ज्ञात्वा च भगवता उपसर्गहरस्तोत्रकरणेन स उपद्रवो निवारितः । स भगवान् ४५ वर्षारिण ग्रहे सप्तदश वर्षाणि व्रते चतुर्दश वर्षाणि युगप्रधानत्वे सर्वायुः षड्सप्तति बर्षारिण प्रपाल्य श्री वीरात् १७० वर्षे स्वर्ययो।" [पट्टावली समुच्चय, पृ० १६४] महामहोपाध्याय श्री धर्मसागरणी ने तपागच्छ पावली में मत्स्यपतन की घटना को छोड़ कर गुरु पट्टावली के समान ही भद्रबाहु का परिचय दिया है। [पट्टावली समुच्चय, पृ० ४४] Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु दिगम्बर परम्परा के प्रन्थों में प्रा० भद्रबाहु का परिचय मावसंग्रह के अनुसार प्राचार्य विमलसेन के शिष्य प्रा० देवसेन' ने दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ भावसंग्रह में श्वेताम्बर परम्परा की उत्पत्ति का विवरण देते हुए गाथा संख्या ५२ से ७५ तक की २४ गाथानों में भद्रबाह नामक प्राचार्य का परिचय दिया है। चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाह के जीवन-चरित्र के विषय में किस प्रकार भ्रान्तियों का श्रीगणेश हुमा, इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये वे गाथाएं बड़ी सहायक सिद्ध होंगी अतः उन गाथाओं का अविकल अनुवाद यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : राजा विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात सोरठ देश की वल्लभी नामक नगरी में श्वेतपट-श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई ।।५२।। उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु नामक एक प्राचार्य थे। वे निमित्तशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने निमित्त ज्ञान के बल पर उन्होंने अपने संघ से कहा ॥५३॥ यहां पर निरन्तर १२ वर्ष पयंत भयंकर दुष्काल का प्रकोप रहेगा प्रतः पाप लोग अपने-अपने संघ के साथ अन्यान्य प्रान्तों और क्षेत्रों की पोर चले जाम्रो ॥५४॥ भद्रबाह की यह भविष्यवाणी सुन कर सभी गणनायकों ने अपने-अपने संघ के साथ उज्जयिनी के विभिन्न क्षेत्रों से विहार कर दिया और जिन प्रदेशों में सुभिक्ष था वहां जाकर विचरण करने लगे ॥५५॥ शान्ति नामक एक संघपति अपने बहुत से शिष्यों के साथ सुरम्य सोरठ प्रदेश की वल्लभी नगरी में पहुंचा ॥५६।। ' दर्शनसार के कर्ता देवसेन से भिन्न । इनके काल के सम्बन्ध में प्रभी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। २ छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्पण्णो सेवड़संघो हु वल्लहीए ॥५२॥ प्रासी उज्जेणीपयरे मायरियो भद्दबाहु णामेण । जाणिय सुणिमित्तघरो भणिमो संघो णितो तेण ॥५३॥ होहइ इह दुभिक्खं बारह वरसाणि जाव पुण्णारिण । देसंतराए गच्छह रिणय णिय संघेण संजुता ॥५४॥ सोऊण इयं वयणं गाणा देसेहि गणहरा सम्वे । गिय रिणय संघ पउत्ता विहरिमा जत्य सुम्भिवखं ॥५५॥ एक्क पुरण संति णामो संपत्तो वलहीणाम यरीए । बहुसीस सम्पउत्तो विसए सोरट्ठए. रम्मे ॥१६॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ भद्रबाहु दि० परं० अपने साधु-संघ के साथ प्राचार्य शान्ति के वल्लभी पहुंचने के पश्चात् वहां पर भी बड़ा भीषण दुष्काल पड़ा। वहां घोर दुष्काल के कारण ऐसी atree स्थिति उत्पन्न हो गई कि भूख से पीड़ित रंक लोग अन्य लोगों के पेट . चोर-चीर कर और उनकी प्रांतों एवं प्रोझरियों में से सद्यभुक्त प्रश्न निकालनिकाल कर खाने लगे ।। ५७ ।। ३३८ इस भयावह स्थिति से मजबूर हो कर प्राचार्य शान्ति के संघ के सभी साधुयों ने कम्बल, दण्ड, तूंबा, पात्र और प्रावरण हेतु श्वेत वस्त्र धारण कर लिये ।। ५८ । उन्होंने साधुओं के योग्य आचरण का परित्याग कर दीनवृत्ति से मांगना और बस्तियों में अपनी इच्छानुसार जा जा कर और बैठ बैठ कर भोजन करना प्रारम्भ कर दिया ॥१५६॥ इस प्रकार का श्राचररण करते हुए उनका बहुत सा काल व्यतीत हो गया । अंततोगत्वा दुष्काल का अन्त और सुभिक्ष का प्रादुर्भाव हुआ । तब प्राचार्य शान्ति ने अपने संघ के सभी साधुत्रों को संबोधित करते हुए कहा कि अब इस कुत्सित प्राचरण को छोड़ दो और अपने इस प्राचरण की गर्हा निन्दा कर के ( प्रायश्चित कर के ) पुनः महर्षियों के श्रेष्ठ प्राचरण को ग्रहण करो ।। ६०-६१।। प्राचार्य शान्ति' की इस बात को सुन कर उनके प्रथम शिष्य ने कहा"अब इस प्रकार के प्रति कंठोर श्राचरण का कौन पालन कर सकता है ? उपवास, भोजन का प्राप्त न होना, प्रसह्य अनेक अन्य प्रन्तराय, एक स्थान, नग्नत्व, मौन, ब्रह्मचर्य, भूमिशय्या, दो-दो मासों के अन्तर से केशों का प्रसह्य कष्टप्रद लुंचन, तरथ वि गयस्त जायं दुम्भिक्वं दारुणं महाघोरं । जत्य विमारिय उपरं खड़ो रकेहि कुरुति ।। ५७ ।। तं लहिऊरण णिमित्तं गहियं सम्बेहि कम्बलि दंडं । दुद्दियतं च तहा पावत्वं सेयवत्थं च ।। ५८ ।। चतं रिसि प्रावरणं गहिया भिनला य दीबितीए । उबबिसिय जाइऊणं भुतं बसहीसु इच्छाए ।। ५६ ।। एवं वट्टताणं कितिय कालम्मि चावि परिमलिए । संजायं सुम्भिक्वं जंपर ता संति मायरियो ||६०|| प्रावाहिऊण संघ भरिणयं खंडे कुत्थियावरण । लिदिय गरहिय गिण्हह पुणरवि परियं मुणिदारणं ॥ ६१ ॥ विक्रम सं० १३६ ( वीर नि० सं० ३०६ ) से १२ वर्ष पूर्व निमित्तज्ञ भा० भद्रबाहु द्वारा द्वादशवार्षिक goकाल की सूचना मिलने पर शान्ति नामक संघपति के अपने शिष्यों सहित वल्लभी जाने का जो उल्लेख प्रा० देवसेन ने किया है उसमें रामिल्ल, स्थूलाचार्य पौर स्थूलभद्र का कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया है। - सम्पादक Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु-दि० परं०] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु नित्य ही घोर बावीस परीषहों का सहन करना प्रादि ये तो बड़े ही कठोर प्राचरण हैं ।। ६२, ६३, ६४ ।। इस समय हम लोगों ने जो यह पाचरण ग्रहण कर रखा है, वह वस्तुतः इस लोक में सुखकर है अतः इसे इस दुःषम नामक पांचवें प्रारक में हम नहीं छोड़ सकते ।।६।। इस पर शान्त्याचार्य ने कहा कि इस प्रकार का चरित्रभ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं। यह तो जिनप्ररूपित धर्ममार्ग को दूषित करने वाला है ॥६६।। जिनेन्द्रप्रभु ने निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही परमोत्कृष्टं बताया है, उसका त्याग कर अन्य मार्ग की प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है ।। ६७।। शान्त्याचार्य के इस कथन से रुष्ट हो कर उनके उस प्रधान शिष्य ने लम्बे डण्डे से गुरु के सिर पर प्रहार किया जिसके प्राघात से स्थविर प्राचार्य शान्ति का प्राणान्त हो गया और वे मर कर व्यन्तर जाति के देव हुए ॥६८॥ शान्त्याचार्य के मरने पर उनका वह प्रमुख शिष्य संघाधिपति वन बैठा और प्रकट में पाषंड-श्वेताम्बर हो गया। वह लोगों को इस प्रकार के धर्म का उपदेश देने लगा कि सग्रन्थ (वस्त्र-पात्रादि के परिग्रहधारक) को भी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ॥६६॥ उसने (जिनचन्द्र ने) तथा उसके अनुयायियों ने स्वयं द्वारा ग्रहण किये गये पाषण्डों के अनुरूप शास्त्रों की रचना की और उन शास्त्रों का उपदेश दे कर लोगों में उस प्रकार के प्राचरण को प्रचलित कर दिया ॥७०॥ तं वयणं सोऊणं उत्तं सीमेण तत्य पढमेण । को सक्कइ पारेउं एवं पइ दुखरायरणं ॥६२।। उववासो य मलाभो अणे दुस्सहाइ अंतरायाई । एकट्ठाणमल मज्जायणं बम्भचेरं च ॥६३।। भूमीसयणं लोच्चे दे दे मासेहिं असहिरिणज्जो हु । बावीस परिसहाई मसहिणिज्जाई निन्ध पि ।।६४।। अंपुण संपइ गहियं एवं मम्हेहि किपि मायरणं। . इह लोय सुक्खयरणं ण चंडिमो हु दुस्समे काले ॥६५।। ता संतिणा पउत्तं चरियपभठेहिं जीवियं लोए । एवं ए हु सुन्दरयं दूसरणयं जहण मग्गस्स ।।६६।। णिग्गंधं पम्बयणं जिणवरगाहेण प्रक्खियं परमं । तं छडिऊरण . अण्णं पवत्तमारणेण मिश्यतं ॥७॥ ता रूसिऊण पहमो सीसे सीसेण दीह दरेण । पविरो पाएण मुमो जामो सो वितरो देवो ।।६।। इयरो संघाहिबइ पयडिय पासंर सेवरो बायो। मक्खइ लोए धम्म सग्गंयं प्रत्यि रिणवारणं ॥६६॥ सत्याइ विरइयाइं रिणय णिय पासंड गहियसरिसाई। वखारिणऊरण लोए पवत्तिमो तारिसायरणो ।।७।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु-दि० परं० उन लोगों ने निर्ग्रन्थ मार्ग की निन्दा और अपने मार्ग की प्रशंसा करते हुए अनेक प्रकार की मायामों के प्रदर्शन से लोगों को मूढ़ बना कर बहुत सा द्रव्य ग्रहण किया ।।७१।। प्राचार्य शान्ति व्यन्तर बन कर अनेक प्रकार के उपद्रव करने लगा और उन लोगों (श्वेताम्बरों) को कहने लगा कि तुम लोग जैन धर्म को पाकर मिथ्यात्व मार्ग पर मत चलो ॥७२॥ व्यंतर द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों से डर कर उन लोगों ने उस व्यन्तर की सकल द्रव्यों से संयुक्त पाठ प्रकार की पूजा की । उस व्यन्तर की उस समय जो पूजा जिनचन्द्र द्वारा विरचित की गई वह प्राज दिन तक प्रचलित है ।।७३।। आज भी सबसे पहले वह बलिपूजा उस व्यन्तर के नाम से दी जाती है और वह व्यन्तर श्वेताम्बर संघ का पूज्य कुलदेव कहा जाता है ।।७४॥ यह पथभ्रष्ट श्वेताम्बरों की उत्पत्ति बताई गई है । अब मैं पागे प्रज्ञान मिथ्यात्व के विषय में कहूंगा उसे सुनो ।।७।। इन गाथानों द्वारा प्राचार्य देवसेन ने स्पष्ट रूप से अपनी यह मान्यता प्रकट की है कि विक्रम संवत् १२४ तदनुसार वीर निर्वाण संवत् ५६४ में प्राचार्य भद्रबाहु ने श्रमणसंघ को भावी द्वादश वार्षिक दुष्काल की पूर्वसूचना देते हुए सलाह दी कि सब साधु उज्जयिनी (अवन्ती) राज्य को छोड़ कर दूर के प्रान्तों में चले जायं । तदनुसार शान्ति नामक एक आचार्य भी सोरठ देश की वल्लभीपुरी में जाकर अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ रहने लगा। वहां शान्त्याचार्य एवं उनके शिष्यों ने दुष्कालजन्य विकट परिस्थितियों से मजबूर हो कर कम्बल, दण्ड, वस्त्र, पात्रादि धारण किये और गृहस्थों के यहां बैठ कर भोजन करना प्रारम्भ किया । मुभिक्ष होने पर शान्त्याचार्य ने अपने शिष्यों को पुनः निरवद्य दिगम्बर श्रमणाचार ग्रहण करने की सलाह दी । शान्त्याचार्य के शिष्यों ने उनकी प्राज्ञा का पालन करने से स्पष्टतः इन्कार कर दिया । शान्त्याचार्य ने अपने शिष्यों के जिनप्ररूपित धर्म से विपरीत पाचरण की कटु शब्दों में भर्त्सना की। इससे क्रुद्ध हो शान्त्याचार्य के प्रमुख शिष्य ने उनके कपाल पर दण्ड का प्रहार किया। रिणग्गंधं दूसित्ता णिदित्ता अप्पणं पसंसित्ता । जीवे मूढए लोए कयमाए मेहियं बहु दय्वं ॥७१।। इयरो वितर देवो संति लग्गो उवहवं काउं। जंपइ मा मिच्छत्तं गच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥७२। भीएहि तस्स पूमा अट्टविहा सयलदम्यसंपुष्णा । जा जिरणवन्द रइया सो प्रज्जवि दिगिया तस्स ।।३।। प्रग्ज वि सा बलि पूया पढ़मयरं दिति तस्स गामेण । सो कुलदेवो उत्तो सेवा संघस्स पुखो सो ॥७४।। इय उप्पत्ती कहिया सेवरयाणं च मग्गमवाणं । एन्चो उद्धं वोच्छ रिणसुबह मण्णाणमिच्छतं ॥७५।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु दि० परं०] श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३४१ परिणामतः शान्त्याचार्य की मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के पश्चात् विक्रम संवत् १३६ तदनुसार वीर निर्वारण संवत् ६०६ में उनके शिष्यों ने अपने शिथिलाचार अनुसार नवीन शास्त्रों की रचना कर श्वेताम्बर संघ की स्थापना की । के वीर निर्वारण संवत् ६०६ में दिगम्बर श्वेताम्बर मतभेद प्रारम्भ हुआ, यह दिगम्बर सम्प्रदाय को सर्वसम्मत मान्यता है अतः उसके आधार पर देवसेन द्वारा प्रस्तुत की गई उपर्युक्त मान्यता को दिगम्बर परम्परा की मान्यता संख्या १ के नाम से अभिहित किया जा सकता है । प्राचार्य हरिषेण इससे कुछ आगे बढ़े, वृहत्कथाकोश पुनाट संघ के श्री मौनि भट्टारक के प्रशिष्य तथा श्री भरतसेन के शिष्य आचार्य श्री हरिषेण ने विक्रम संवत् ६८६ में निर्मित वृहत् कथाकोश में जो प्राचार्य भद्रबाहु का कथानक ( कथानक संख्या १३१) दिया है, उसका सारांश यहां दिया जा रहा है : प्राचीनकाल में पुण्ड्रवर्धन राज्य में कोटिपुर नामक एक नगर था जो प्राज कल देवकोट्ट के नाम से प्रसिद्ध है । वहां के राजा पद्मरथ के राज पुरोहित सोमशर्मा की धर्मपत्नी सोमश्री की कुक्षि से भद्रबाहु का जन्म हुआ । बालक भद्रबाहु जब कुछ बड़ा हुआ तो वह अपने समवयस्क बालकों के साथ खेलने लगा । एक दिन नगर के बाहर अपने साथियों के साथ खेलते हुए भद्रबाहु ने बात ही बात में गोली पर गोली चढ़ाते हुए चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ा कर सब खिलाड़ियों को आश्चर्य में डाल दिया । उसी समय भगवान् नेमिनाथ की स्तुति करने हेतु उर्जयन्त ( गिरनार ) पर्वत की ओर जाते हुए चौथे चतुर्दश पूर्वधर आचार्य गोवर्धन उस स्थान पर पधारे। उन्होंने बालक भद्रबाहु द्वारा चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ा देने के अद्भुत कौशल को देख कर अपने ज्ञान से जान लिया कि यही प्रतिभाशाली बालक प्रागे चल कर अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर होगा । गोवर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहु के पिता को सारा हाल सुना कर उनकी अनुमति से बालक भद्रबाहु को अध्ययन कराने हेतु अपने पास रख लिया और स्वल्प समय में ही सब विद्याओं एवं शास्त्रों मैं उसे पारंगत बना दिया । सब विद्याओं में निष्णात होने पर भद्रबाहु गुरु प्राज्ञा से अपने माता-पिता के पास गये परन्तु कुछ ही दिनों पश्चात् वे अपने माता-पिता से दीक्षित होने की प्रज्ञा प्राप्त कर प्राचार्य गोवर्द्धन के पास लौट आये और उनके पास निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित हो गये । गुरु की कृपा से भद्रबाहु कुछ ही काल में द्वादशांगी के पारगामी विशेषज्ञ श्रुतकेवली बन गये । प्रपने अन्तिम समय में प्राचार्य, गोवर्द्धन ने भद्रबाहु को प्राचार्य पद प्रदान कर दिया और स्वयं कठोर तपश्चरण करते हुए अन्त में अनशन-पूर्वक स्वर्गगमन किया । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु दि० परं० प्राचार्य भद्रबाह विविध क्षेत्रों में धर्म का प्रचार करते हुए एक समय अवन्ती राज्य की राजधानी उज्जयिनी पुरी के बाहर क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उपवन में पधारे। उस समय अवन्ती राज्य पर महाराज चन्द्रगुप्त का शासन था। वे उज्जयिनी में रहते थे। महाराज चन्द्रगुप्त एक दृढ़ सम्यक्त वी और जिनशासन के श्रद्धालु श्रावक थे। उनकी महारानी का नाम सुप्रभा था। एक दिन प्राचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी में घर-घर भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए एक ऐसे घर में प्रविष्ट हुए जिसके अन्दर झोली में लेटे हुए एक शिशु के अतिरिक्त और कोई नहीं था । भद्रबाह को देखते ही वह नन्हा सा शिशु बोल उठा - भगवन् ! आप यहां से शीघ्र ही चले जाइये। दिव्यज्ञानी भद्रबाह ने उस शिशु के अत्यन्त पाश्चर्योत्पादक वचन सुनकर तत्काल ही समझ लिया कि इस प्रकार के प्रति स्वल्पायुष्क शिशु के मुख से इस प्रकार के वचन प्रकट होने का परिणाम यह होने वाला है कि इस समस्त प्रदेश में निरन्तर १२ वर्ष तक भयंकर अनावृष्टि होगी। वे तत्क्षरण बिना भिक्षा ग्रहण किये ही उपवन की अोर ाट गये। अपराह्न वेला में उन्होंने श्रमण संघ को एकत्रित कर उसे भावी द्वादशवार्षिक दुर्भिक्ष के महान संकट से अवगत कराते हुए कहा.- "श्रमणो! जन-धन और अन्न से परिपूर्ण यह सुरम्य प्रदेश बारह वर्ष तकं अनावृष्टि और दुष्काल के कारण शून्यप्रायः होने वाला है। मेरी तो बहत ही कम प्राय अवशिष्ट रह गई है अतः मैं तो यहीं रहूंगा पर आप सब लोग लव समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों की ओर चले जाओ।" । प्राचार्य भद्रबाह के उपरोक्त वचन सुनकर महाराज चन्द्रगुप्त ने उनके पास श्रमरण-दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि बनने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु से १० पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया और वे विषाखाचार्य के नाम से विख्यात हो श्रमण संघ के अधिपति बन गये। प्राचार्य भद्रबाहु की आज्ञानुसार श्रमण संघ इन विषाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ के पुन्नाट प्रदेश में चला गया तथा रामिल्ल स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र - ये तीनों अपने संघ के साथ सिन्धु प्रदेश में चले गये। ___प्राचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी के अन्तर्गत भाद्रपद नामक स्थान में प्राकर ठहरे और वहां कई दिनों के अनशन के पश्चात् समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग सिधारे। ___ रामिल्ल, स्थूलवृद्ध (स्थूलाचार्य) और स्थूलभद्र जिस समय सिन्धु प्रदेश में पहुंचे, उस समय वहां पर भी दुष्काल का प्रभाव व्याप्त हो चुका था। सिन्धु प्रदेश के श्रद्धालु श्रावकों ने उनके सम्मुख उपस्थित होकर निवेदन किया- "महात्मन् ! भूखे लोगों की अपार भीड़ के डर से हमारे घरों में रात्रि के समय ही भोजन बनाया जाता है, अतः जब तक यह संकटकाल समाप्त न हो जाय तब तक Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु दि० परं०] श्रुतकेवली-काल : आचार्य श्री भद्रबाहुँ आप लोग भिक्षापात्र लेकर भिक्षा लेने हेतु रात्रि के समय ही हमारे घरों में पाया करें। रात्रि में लाया हुआ आहार दूसरे दिन खा लिया करें।" श्रावकों के प्राग्रहपूर्ण निवेदन को स्वीकार करते हए उन श्रमणों ने रात्रि के समय पात्रों में भिक्षा लाने तथा दूसरे दिन आहार करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी और इस प्रकार उस भयावह दुर्भिक्ष का समय व्यतीत होने लगा। कुछ समय पश्चात् उन श्रमणों में से एक अत्यंत कृषकाय श्रमण अर्द्धरात्रि के समय भिक्षापात्र लिये गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ। रात्रि के घनान्धकार में उस नग्न साधु के कंकालावशिष्ट बीभत्स स्वरूप को देखकर उस घर की गभिरणी गृहणी इतनी अधिक भयभीत हुई कि तत्काल उसका गर्भ गिर गया । इस दुर्भाग्यपूर्ण काण्ड से श्रमणों एवं श्रावकों को बड़ा दुःख हुआ । श्रावकों ने श्रमणों से प्रार्थना की कि वे अपने बांये स्कन्ध पर कपड़ा (अर्द्धफालक) रखें। भिक्षा ग्रहण करते समय बायें हाथ से कपड़े को आगे की ओर कर दें और दक्षिण हाथ में ग्रहण किये हुए पात्र में भिक्षा ग्रहण करें। सुभिक्ष हो जाने पर इस प्रकार के प्राचरण के लिये प्रायश्चित्त कर लें। श्रावकों की प्रार्थना को समयोचित समझ कर श्रमणों ने स्वीकार कर लिया और अर्द्धफालक एवं दण्ड आदि रखना प्रारम्भ कर किया। उधर विशाखाचार्य के साथ गये हुए श्रमणों के संघ ने दक्षिण देश में सुभिक्ष होने के कारण ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सम्यक रूप से परिपालन करते हुए बारह वर्ष का संक्रान्तिकाल दक्षिणापथ में सुखपूर्वक व्यतीत किया। उस द्वादशवार्षिक दुभिक्ष की समाप्ति पर सुभिक्ष होते ही विशाखाचार्य ने अपने श्रमण संघ के साथ दक्षिणापथ से मध्यप्रदेश की अोर विहार कर दिया और अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए वे मध्यप्रदेश में आ पहुंचे। उधर रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य ने दुर्भिक्ष की समाप्ति पर समस्त श्रमण संघ को एकत्रित कर कहा कि दुभिक्ष के दिन व्यतीत हो गये हैं। अतः अब सब मुमुक्षु श्रमरणों को अर्द्धफालक का परित्याग कर निर्ग्रन्थता स्वीकार कर लेनी चाहिये । उनके वचन सुनकर मुक्ति के अभिलाषी कुछ साधुओं ने पुनः निर्ग्रन्थता ग्रहण कर ली । परम वैराग्यशाली रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्रा. चार्य- ये तीनों विशाखाचार्य के पास आये और भवभ्रमण के भय से संत्रस्त उन तीनों ने दुष्काल के समय ग्रहण किये गये अर्द्धफालक (प्राधे कपड़े) का तत्काल परित्याग कर निर्ग्रन्थ मुनियों का वेष धारण कर लिया। जो साधु कष्टसहन से कतराते थे और जिनका मनोबल दृढ़ नहीं था, उन्होंने जिनकल्प और स्थविर 'रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी। महावैराग्यसम्पन्ना विशाखाचार्यमाययुः ।।६।। स्यक्त वाकपटं सद्यः संसारात्त्रस्तमानसाः । नैन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः ।।६६।। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग (भद्रबाहु दि० परं. कल्प के विधान की कल्पना कर निर्ग्रन्थ (नग्न) परम्परा से विपरीत स्थविरकल्प परम्परा को प्रचलित किया।'' इस प्रकार प्राचार्य देवसेन ने अपने ग्रन्थ 'भावसंग्रह' में वीर निर्वाग्ग संवत् ६०६ में हुए प्राचार्य भद्रबाह (निमित्तज्ञ) के समय में जिस घटना के घटित होने का उल्लेख किया है उसे प्राचार्य हरिषेण ने अपने ग्रन्थ 'वृहत् कथाकोश' में श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया है, जो कि दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० १६३ में और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वी०नि० सं० १७० में स्वर्ग सिधारे। प्राचार्य हरिषेण ने रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य - इन तीनों के सम्बन्ध में लिखा है कि उन तीनों ने पुनः निर्ग्रन्थ प्राचार स्वीकार कर लिया। पर भट्टारक रत्ननन्दी इनसे बहुत आगे बढ़ गये ..... ___ इस प्रकार विमलसेनगरिण के शिष्य देवसेन२ (जो कि दर्शनसार ले रचयिता देवसेन से भिन्न हैं) ने अपने ग्रन्थ "भावसंग्रह" में वीर निर्वाण सं० ६०६ में हुए भद्रबाहु के समय में श्वेताम्बर दिगम्बर भेद होने का उल्लेख किया है, उसे हरिषेण ने वी०नि० सं० १६३ अथवा १७० में स्वर्गस्थ होने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया। घटनाचक्र के पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि हरिषेण ने श्वेताम्बरदिगम्बर मतभेद उत्पन्न होने की घटना को श्रुतकेवली भद्रबाह के समय से जोड़ने का जो प्रयास किया, वह उनके अनुयायियों के भी गले नहीं उतरा। हरिषेण के इस बयास का अनौचित्य कुछ विद्वानों के मन में खटकता रहा और इसके परिणामस्वरूप ईसा की १५वीं शताब्दी में एक नई मान्यता का प्रचार एवं प्रसार दिगम्बर परम्परा में हुआ। ' इष्टं नयंगरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च विधाय विविधं भुवि ।।६७।। प्रलंफालकसंयुक्तमज्ञात परमार्थकः। तैरिदं कल्पितं तीर्थ कातरः शक्तिवजितः ।।६।। [वृहत् कथाकोश, कथानक १३१, पृ० ३१८, ३१६] २ सिरिविमलसेणगणहरसिस्सो पामेण देवसेणो ति । मबुहजणबोहणत्यं तेणेयं विरहयं सुत॥ "भावसंग्रह" के अन्त में दी.हुई इस गाथा के माधार पर परमानन्द शास्त्री ने यह अभि. मत जाहिर किया है कि भावसंग्रह के कर्ता देवसेन दर्शनसार के कर्ता देवसेन से भिन्न है। देवसेन ने दर्शनसार में यह स्पष्टतः स्वीकार किया है कि प्राचीन भाचार्यों की गाथानों का संकलन कर वे दर्शनसार की रचना कर रहे हैं। वर्तनसार में दी हुई गाधामों में से कुछ गाथाएं भावसंग्रह में उपलला है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन गाथामों के कर्ता ये देवसेन हों पोर इस प्रकार पूर्ववर्ती प्राचार्य हों। ३ हरिषेण का समय ई० सन् ८३१ है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु दि० परं०] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु वि० सं० १४६५ तदनुसार ई. सन् १४३६ में हुए रयधू नामक अपभ्रंश भाषा के महाकवि ने अपने ग्रन्थ "महावीर चरित्" में मौर्य राजाओं का उल्लेख करते हुए कुणाल के पुत्र का नाम सम्प्रति के स्थान पर चन्द्रगुप्ति दिया है । रयधू ने लिखा है कि कुणाल के पुत्र चन्द्रगुप्ति ने एक रात्रि में १६ स्वप्न देखे । श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाह से अपने स्वप्नों के फल को सुनकर उसे संसार से विरक्ति हुई और उसने प्राचार्य भद्रबाहु के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। इन प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने निमित्तज्ञान से भावी बारह वर्ष तक दुष्काल पड़ने की सूचना श्रमणसंघों को दी और उन्हें दक्षिण में विचरण करने की सलाह दी। इसी द्वादशवार्षिक काल के पश्चात् श्वेताम्बर-दिगम्बर मतभेद उत्पन्न होने का उल्लेख करते हुए रयधु ने प्राचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ श्वेताम्बर-दिगम्बर मतभेद की घटना को भी वीर निर्वाण संवत् ३३० के आसपास ला रखा है । रयधु ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उसका स्थान दिगम्बर परम्परा के महाकवियों में माना जाता है। अतः रयधू की एतद्विषयक मान्यता वो यहां संक्षेप में दिया जा रहा है। __ "चाणक्य ने चन्द्राप्ति को राजराजेश्वर के पद पर अभिषिक्त किया। वह चन्द्रगुप्ति बड़ा ही विख्यात राजा हुमा। उसके बिन्दुसार नामक पुत्र हुआ। बिन्दुसार का पुत्र हुमा अशोक और अशोक के रणउलु (कुरणाल) नाम का पुत्र हुमा। एक समय राजा अशोक अश्वों और हाथियों को सेना से सुसज्जित हो एक शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिये गया। अशोक ने युद्धस्थल से अपने नगर में एक प्राज्ञापत्र भेजा, जिसमें लिखा था कि "प्रधीयतु कुमारः" - अर्थात् कुमार को अब पढ़ाया जाय । गउलु (कुणाल) की सौतेली माता ने अपने नेत्रों के अंजन को मसी से 'प्रधीयतु' शब्द के प्रथमाक्षर पर अनुस्वार लगाकर "अंधीयतु कुमारः" बना दिया। प्राज्ञापत्र पढ़ कर अधिकारियों ने राजकुमार (कुणाल) को नेत्रविहीन कर दिया। ____ शत्रु पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अशोक पुनः अपने घर लौटा तब अपने पुत्र को लोचनविहीन देखकर उसे बड़ा संताप हमा। समय पाने पर अशोक ने अपने अंधे पुत्र का विवाह कर दिया। उस अंधे राजकुमार के चन्द्रगुप्ति नामक एक पुत्र उत्पत्र हुमा जो कि सज्जनों को बड़ा आनन्द देने वाला था। अशोक ने अन्ततोगत्वा अपने पौत्र चन्द्रगुप्ति को राज्यपद दिया। राजा वनने के पश्चात् चन्द्रगुप्ति बड़े उत्साह के साथ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार और पालन करने लगा। चन्द्रगुप्ति बड़ी श्रद्धा व भक्ति के साथ मुनियों को दान दिया करता था। एक समय रात्रि में सुसुप्तावस्था में चन्द्रगुप्ति ने १६ स्वप्न देखे। ' चन्दगुत्ति ते पविहिउ राउ, किंउ चाणक्क त उ जि पहाणउं । चन्दगुत्ति रायहो विक्खायउ बिदुसारु णंदरणु संजायउं ।। तहो पुत वि प्रमो उहु उप्पुषणउं, रणउनु 'णाम तहु सुउ उप्पण्णउं । गि उ प्रमोउ गउ वहरिउ उप्परि, पल्लाणेप्पिणु सज्जिवि हरि करि । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु दि. पर। नगण्य भेद के अतिरिक्त रयधू वरिणत चन्द्रगुप्ति द्वारा देखे गये १६ स्वप्न वही हैं जो दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्नों के नाम से उपलब्ध होते हैं।' इन सोलह स्वप्नों को देखने के पश्चात् चन्द्रगुप्ति की निन्द्रा भंग हुई। वे अद्भुत स्वप्नदर्शन से चिन्तातुर हुए । उन्हीं दिनों उस नगर में श्रुतकेवली भद्रबाहु का पधारना हमा। राजा चन्द्रगुप्ति ने भद्रबाह की सेवा में पहुंच कर उनके समक्ष अपने सोलह स्वप्न सुनाये और उनसे स्वप्नफल बताने की प्रार्थना की। भद्रबाहु से अपने स्वप्नों का फल सुनकर चन्द्रगुप्ति को विश्वास हो गया कि निकट भविष्य में सभी दृष्टियों से बड़ी गम्भीर और हीन स्थिति पैदा होने वाली है । चन्द्रगुप्ति को संसार से विरक्ति हो गई और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंप कर भद्रवाहु के पास श्रमरणदीक्षा ग्रहण कर ली। . इसके पश्चात् रयधू ने भिक्षार्थ म्रमण करते हुए भद्रबाहुस्वामी द्वारा एक घरं में शिशु के मुख से 'जा, जा' शब्द सुनना, उनके द्वारा उस शिशु से पूछना कि कितने वर्ष के लिये, शिशु द्वारा उत्तर देना कि १२ वर्ष के लिये, भद्रबाहु द्वारा भावी द्वादशवार्षिक काल के सम्बन्ध में श्रमण संघ को सूचित करना, श्रावकों की प्रार्थना पर भी भद्रबाह का न रुकना तथा स्थूलभद्र, रामिल्ल, और स्थलाचार्य का अपने-अपने श्रमण संघ सहित उज्जयिनी में ही रहना, भद्रबाहु का बारह हजार तेण जि सणयरहु, लेहु जु पेरिउ, सालिकूरुमति देविन दूसिउ । उज्झायहो णंदणु पादेव्यउ, प्रयरें एहु वयणु महु किव्वउ । तं जि लेहु वंचिउ विवरेरउ, रणयजुयलु हरियउ सुयकेरउ । परि जित्ति विजापहु पाउ घरि, पुत्त णिजि विगय एयणे । बहु मोउ पउंजिवि तेण तहिं, विहिउ सुयही पुणु परिणयणु || रगामें चंदगुत्ति तहो णंदणु संजायउ सज्जण पाणंदणु । पोडत्तणि सो राजि परिट्ठिउ, रिणयपउ पालरिण सो उक्कंठिउ । जिणधम्मामय तित्तिउ प्रछइ, मुरिगणाहं रिणरुदाणु पयछइ । अण्णहि दिणि वि रयणि सुपसुत्तई, सिविणई दिट्ठई सोलहमत्तई । [रयघू कृत महावीर चरित् (अप्रकाशित ] दिट्ठउ प्रत्यंग दिवसेसरु, साहामंग कप्परुक्खहु परु । उंतु विमाण ‘वि याहुरि जंतउ, अहि बारहफण फुफूवंतउ । ससिमंडलहु मेउ तहं दिट्ठ उ, हस्थि किण्ह जुज्झंत प्रहिउ । खज्जोउ वि दिट्ठउ पहवंतउ, मज्झि सुक्क सरवरु वि महंतउ । धूम हु पूरे गयणु वि छण्णउं, वणयरगणु विड्ढरिहि णिसण्णउं । करणय थालि वायसु मुंजंतउ, सारगरिण हालिय तेय फुरंत । कारकर खंधारूढा वाणर, दिट्ठ कयार मज्जि कमलयंवर । मज्जा यंचतउ पुणु सायरु, बाल वसह घुरजोत्तिय रहवर । तरुण वसह प्रारूढा खत्तिय दिट्ठा तेण प्रतुल बलसत्तिय । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगा दि० श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३४७ श्रमणों के साथ दक्षिण की ओर विहार करना, एक वन में पहुंचने के पश्चात् अदृश्य वारणी से अपना अन्तिम समय निकट समझ विशाख मुनि को प्राचार्य पद प्रदान कर उन्हें वारह वर्ष तक दक्षिणापथ में विचरते रहने का आदेश देना, चन्द्रगुप्ति का भद्रबाहु की सेवा में रहना, भद्रवाहु द्वारा अनशन ग्रहण, चन्द्रगुप्ति को वन में देवनिर्मित नगर से भिक्षा मिलना, भद्रबाहु का स्वर्गारोहण करना, स्थूलाचार्य प्रादि श्रमणों द्वारा पात्र, दण्ड वस्त्रादि ग्रहण करना, सुभिक्ष के पश्चात् श्वेताम्बर दिगम्बर भेद उत्पन्न होना आदि घटनानों का उसी रूप में वर्णन किया है, जिस प्रकार कि दिगम्वर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में ग्रामतौर से उपलब्ध होता है । ० परं०] प्राचार्य रतननन्दी के अनुसार श्राज दिगम्बर परम्परा में ग्रामतौर पर वि० सं० १६२५ के आसपास हुए दिगम्बर प्राचार्य रत्ननन्दी, अपर नाम रत्नकीर्ति द्वारा रचित “भद्रबाहु चरित्र" सर्वाधिक मान्य गिना जाता है। अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों द्वारा वरिंगत भद्रबाहु चरित्र में रत्ननन्दी ने किस प्रकार की नवीन अभिवृद्धियां कीं, इस तथ्य से पाठक भली-भांति अवगत हो जायं, इस दृष्टि से उनके द्वारा रचित ग्रन्थ "भद्रबाहु चरित्र" में उल्लिखित भद्रबाहु का जीवन-परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है : "भारतवर्ष के पुण्ड्रबर्द्धन राज्य की राजधानी कोट्टपुर नगर में पद्मधर नामक राजा राज्य करता था । उसके राजपुरोहित सोमशर्मा की पत्नी सोमश्री की कुक्षि से भद्रबाहु का जन्म हुआ । पौगण्डावस्था में एक दिन कुमार भद्रबाहु ने नगर के बाहर अपने सखानों के साथ गोलियों का खेल खेलते हुए बड़ी कुशलता के साथ चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ा दिया । उस समय गिरनार की यात्रा के लिये जाते हुए श्री गोवर्द्धनाचार्य वहां पहुंचे। नग्न साधुग्रों को देखकर अन्य सव बालक तो भाग खड़े हुए पर निर्भीक कुमार भद्रबाहु वहीं खड़े रहे । गोली पर गोली, इस तरह चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ी देख कर चतुर्दश पूर्वघर प्राचार्य गोवर्द्धन ने निमित्तज्ञान से पहिचान लिया कि वह बालक भविष्य में पंचम श्रुतकेवली होगा। बालक का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् प्राचार्य गोवर्द्धन बालक भद्रबाहु के साथ उसके घर पहुंचे । द्विज-दम्पती ने हर्ष विभोर हो बड़ी श्रद्धा से प्राचार्यश्री को सविधि वन्दन किया । तदनन्तर सोमशर्मा ने विनयपूर्वक निवेदन किया- " करुणासिन्धो ! आपके दर्शन से हम कृतकृत्य हुए । प्रापके चरणसरोज से हमारा घर पवित्र हो गया । प्रभो ! इस दास के योग्य कोई सेवा कार्य फरमाकर इसे श्रनुगृहीत कीजिये ।" गोवर्द्धनाचार्य ने कहा- "भद्र ! तुम्हारा यह पुत्र वालक भद्रबाहु महान् प्रतिभा सम्पन्न धौर महान् भाग्यशाली है । भविष्य में यह बहुत उच्चकोटि का विद्वान होगा। मैं इसे समस्त विद्याम्रों में पारंगत करना चाहता हूं, अतः इसे पढ़ाने के लिये हमारे सुपुर्द करो ।" Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचार्य रत्न के अनुसार द्विजदम्पती ने कहा - "अकारण करुणाकर ! यह तो आप हम लोगों पर महान् उपकार करने जा रहे हैं । इसके लिये हमसे पूछने की क्या आवश्यकता है? यह बच्चा आप ही का है। आप इसे ले जाइये और अपनी इच्छानुसार इसे सब शास्त्र पढ़ाइये।" माता-पिता की अनुमति मिल जाने पर गोवर्द्धनाचार्य. बालक भद्रबाहु को अपने साथ ले गये और उसे व्याकरण, न्याय, साहित्य, दर्शन मादि सभी विषय पढ़ाने लगे । कुशाग्रबुद्धि भद्रबाहु ने अप्रतिम विनय, भक्ति, निष्ठा एवं परिश्रम से अध्ययन करते हुए स्वल्प समय में ही गुरू गोवर्द्धनाचार्य से समस्त विद्यामों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। अध्ययन समाप्त कर चुकने के पश्चात् भद्रबाहु अपने गुरू से प्राज्ञा प्राप्त कर अपने माता-पिता की सेवा में कोट्टपुर लौटे । समस्त विद्याओं में निष्णात अपने पुत्र को देख कर सोमशर्मा और सोमश्री के हर्ष का पारावार न रहा । दृढ़ सम्यक्त वधारी विद्वान् भद्रबाहु के अन्तर में दिन प्रतिदिन जैन धर्म का उद्योत करने की भावना बल पकड़ने लगी। एक दिन भद्रबाहु कोटपुर नरेश पप्रधर की राज्यसभा में पहुंचे । महाराज पप्रधर ने अपने पुरोहित के तेजस्वी और विद्वान् पुत्र भद्रबाहु का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रादरसत्कार किया। राज्यसभा में उस समय एकत्रित विद्वान् इस प्रश्न पर चर्चा कर रहे थे कि सब धर्मों में कौनसा धर्म श्रेष्ठ है। कोई भी विद्वान् अपनी युक्तियों से महाराज पअधर को संतुष्ट नहीं कर सका। अतः उन्होंने भद्रबाहु से अनुरोध किया कि वे इस विषय में अपना मन्तव्य रखें। भद्रबाहु ने शान्त, गम्भीर और युक्तिपूर्ण शब्दों में धर्म के प्राधारभूत गूढ़ तथ्यों को रखते हुए सम्यक्त व, सत्य, अहिंसा प्रादि जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों का ऐसी कुशलता से और सरलता के साथ प्रतिपादन किया कि सारी राजसभा मन्त्रमुग्ध सी हो निनिमेष दृष्टि से भद्रबाहु की ओर देखती रह गई। ___ वर्षों के प्रयास से अजित अपनी यशस्कीत्ति एवं विद्वत्ता की धाक को इस प्रकार एक अल्पवयस्क कुमार के हाथों अनायास ही धूलिधूसरित होते देख राजसभा के अनेक पण्डितमानी विद्वानों ने विविध प्रकार की जटिल से जटिलतर समस्याएं भद्रबाहु के समक्ष रखीं। पर प्रखरबुद्धि भद्रबाहु ने अपनी प्रकाट्य युक्तियों और प्रबल प्रमाणों से उन सब का तत्क्षण समाधान कर दिया। राज्यसभा में हुअा वह वादविवाद कुछ ही क्षणों में एक निर्णायक शास्त्रार्थ का रूप धारण कर गया । राज्य सभा के सभी विद्वानों ने संगठित हो भद्रबाहु को शास्त्रार्थ में पराजित करने के लिये प्रारणपण से पूरा बल लगा कर प्रयास किया किन्तु स्याद्वाद-सिद्धान्त रूपी सात धार वाले अमोघास्त्र से भद्रबाहु ने उन विद्वानों के युक्तिजाल को छिन्न-भिन्न कर डाला। अन्ततोगत्वा उस शास्त्रार्थ में भंद्रबाहु को समस्त विद्ववन्द का विजेता घोषित किया गया। महाराज पद्मधर और सभासद् भद्रबाहु द्वारा प्रस्तुत किये गये जैनधर्म के स्वरूप से ऐसे प्रभावित हुए Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० रन० के अनुसार ] श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३४६ कि उन्होंने उसी समय जैनधर्म अंगीकार कर लिया। महाराज पद्मधर ने वस्त्राभूषणादि से भद्रबाहु को सम्मानित किया और भद्रबाहु की कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई । कुछ ही समय पश्चात् भद्रबाहु ने अपने माता-पिता से प्राज्ञा प्राप्त कर गोवर्द्धनाचार्य के पास निर्ग्रन्थ-श्रमरणदीक्षा ग्रहण की । श्रमरोचित सभी प्राचारों का सम्यग्रूपेरण पालन करते हुए भद्रबाहु ने अपने गुरू गोवर्द्धनाचार्य के पास क्रमशः सभी अंग शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया और वे गुरू के अनुग्रह से शीघ्र ही सम्पूर्ण द्वादशांगी के पारगामी चतुर्दश पूर्वधर विद्वान् बन गये । कालान्तर में गोवर्द्धनाचार्य ने अपना अन्तिम समय निकट समझ कर भद्रबाहु को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्रचार्य पद पर नियुक्त किया और घोर तपश्चरण करते हुए अन्त में चतुविध प्रहार का परित्याग कर समाधिपूर्वक स्वर्गमन किया | प्राचार्य पद पर आसीन होने के पश्चात् भद्रबाहु संघ का संचालन करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में जैनधर्म का प्रचार एवं प्रसार करने लगे । उस समय धन-धान्यादिक से सम्पन्न श्रवन्ती राज्य में चन्द्रगुप्ति नामक राजा का राज्य था, जो उस राज्य की राजधानी उज्जयिनी में निवास करता था । महाराज चन्द्रगुप्ति ने एक समय रात्रि के पिछले प्रहर में बड़े प्राश्चर्यजनक १६ स्वप्न देखे । उन स्वप्नों का फल जानने की राजा के मन में तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । प्रातःकाल वनपाल ने राजा चन्द्रगुप्ति को सूचित किया कि नगर के बाहर राजकीय उपवन में प्राचार्य भद्रबाहु अपने १२,००० मुनियों के साथ पधारे हुए हैं। यह शुभसंवाद सुन कर राजा चन्द्रगुप्ति ग्रपने मन्त्रियों, सामन्तों, परिजनों और प्रतिष्ठित पौरजनों के साथ प्राचार्यश्री की सेवा में पहुंचा। दर्शन, वन्दन एवं उपदेशश्रवरण के पश्चात् चन्द्रगुप्ति ने प्राचार्य भद्रबाहु के समक्ष अपने सोलह स्वप्न सुनाते हुए उनसे उनका फल पूछा । श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञानबल से राजा चन्द्रगुप्ति के स्वप्नों का फल बताते हुए कहा- "राजन् ! ये स्वप्न भावी घोर अनिष्ट के सूचक हैं. जो इस प्रकार हैं : - (१) अस्तमान रविदर्शन का प्रथम स्वप्न इस बात का द्योतक है कि इस पंचम काल में द्वादशांगादि का श्रुतज्ञान न्यून हो जायगा । (२) दूसरे स्वप्न में कल्पवृक्ष की शाखा के भंग होने का फल यह है कि अब भविष्य में कोई राजा श्रमरणदीक्षा ग्रहरण नहीं करेगा । (३) तीसरे स्वप्न में चलनीतुल्य सछिद्र चन्द्र के दर्शन का फल यह हैं कि इस दुषमा नामक पंचम काल में जैन धर्म में से अनेक मतों का प्रादुर्भाव होगा । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा० रन के अनुसार (४) चौथा स्वप्न, जिसमें तुमने बारह फरणों वाला सर्प देखा, उसका फल यह है कि निरन्तर बारह वर्ष पर्यन्त अत्यन्त भीषण दुष्काल पड़ेगा। (५) पांचवें स्वप्न में उल्टे लौटते हुए देवविमान के दर्शन का यह फल है कि पंचम काल में देवता, विद्याधर, तथा चारण मुनि भरतक्षेत्र में नहीं प्रावेंगे। (६) छठे स्वप्न में तुमने जो अशुचि स्थान में उगे हुए कमल को देखा है, उसका फल यह है कि भविष्य में क्षत्रियादि उत्तम कुलोत्पन्न पुरुपों के स्थान पर हीन जाति के लोंग जैन धर्म के अनुयायी होंगे। (७) सातवें स्वप्न में भूतों का नृत्य देखने का फल यह है कि अब भविष्य में मनुष्यों की प्रधोजाति के देवों के प्रति अधिक श्रद्धा होगी। (८) खद्योत का उद्योत जिसमें देखा गया, उस पाठवें स्वप्न का फल यह है कि जैनागमों का उपदेश करने वाले मनुष्य भी मिथ्यात्त्व से ग्रस्त होंगे और जैन धर्म कहीं-कहीं रहेगा। (6) बीच में सुखा हमा पर छिछले जल से युक्त किनारों वाला सरोवर जो तुमने हवें स्वप्न में देखा है, उसका फल यह होने वाला है कि जिन पवित्र स्थानों पर तीर्थंकरों के पंचकल्याणक हुए हैं, उन स्थानों में जैन धर्म विनष्ट होगा पौर दक्षिणादि देशों में कहीं-कहीं थोड़ा-बहुत धर्म रहेगा। (१०) दशवें स्वप्न में तुमने कुत्ते को स्वर्ण की थाली में खीर खाते देखा, वह इस भावी का द्योतक है कि लक्ष्मी का उपभोग प्रायः नीच पुरुष ही करेंगे । लक्ष्मी कुलीनों को दुष्प्राप्य होगी। (११) ग्यारहवें स्वप्न में तुमने बन्दर को हाथी पर बैठे देखा, उसका फल यह है कि क्षत्रिय लोग राज्यरहित होंगे और नीच कुल के अनार्य लोग राज्य करेंगे। (१२) बारहवें स्वप्न में तुमने समुद्र को वेलामों (तटों) का उल्लंघन करते देखा है, इसका फल यह है कि राजा लोग न्यायमार्ग का उल्लंघन करने वाले और प्रजा की समस्त लक्ष्मी को लूटने वाले होंगे। (१३) तेरहवें स्वप्न में तुमने बछड़ों द्वारा वहन किया जा रहा अति भारयुक्त रथ देखा, उसका फल यह है कि प्रब भविष्य में बहुधा लोग युवावस्था (बाल अवस्था) में ही संयम ग्रहण करेंगे और वृद्धावस्था में शक्ति क्षीण हो जाने के कारण संयम धारण नहीं कर सकेंगे। (१४) चौदहवें स्वप्न में तुमने राजकुमार को ऊंट पर चढ़े देखा, उसका फल यह है कि अब भविष्य में राजा लोग निर्मल सत्य धर्म का परित्याग कर हिंसा-मार्ग स्वीकार करेंगे। (१५) पन्द्रहवें स्वप्न में तुमने धूलि से आच्छादित रत्नराशि के दर्शन किये, उसका यह फल होने वाला है कि भविष्य में निर्ग्रन्थ मुनि भी परस्पर एकदूसरे की निन्दा करने लगेंगे। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० रत्न० के अनुसार ] श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३५१ (१६) सोलहवें (अंतिम) स्वप्न में तुमने दो काले हाथियों को लड़ते देखा है, वह स्वप्न इस दुःखद भविष्य का द्योतक है कि अब आगे के समय में बादल समय पर और मनुष्यों की अभिलाषा के अनुसार नहीं बरसेंगे । श्रुतकेवली भद्रबाहु से अपने १६ स्वप्नों का फल सुन कर महाराज चन्द्रगुप्ति को दृढ़ विश्वास हो गया कि भविष्य में पग-पग पर भीषरण संकटों से प्राकी विकट समय आने वाला है । भवभ्रमरण की भयावहता पर विचार करतेकरते उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने अपने पुत्र को ग्रवन्ती का राज्य सौंप कर प्राचार्य भद्रबाहु के पास निर्ग्रन्थ श्रमरण - दीक्षा ग्रहण कर ली । कुछ समय पश्चात् एक दिन प्राचार्य भद्रबाहु जिनदास सेठ के घर पर आहार के लिये गये । उस सुनसान घर में पालने में झूलते हुए दो मास के शिशु ने चिल्ला कर भद्रबाहु को कहा - "चले जाओ ! चले जाओ !" यह अद्भुत एवं अभूतपूर्व दृश्य देख कर प्राचार्य भद्रबाहु ने शान्त स्वर में उस शिशु से पूछा - "बोलो वत्स ! कितने वर्ष के लिये चले जायें ?" उत्तर में उस शिशु ने कहा- "बारह वर्ष के लिये ।" निमित्तज्ञान में निष्णात श्रुतकेवली भद्रबाहु को यह समझने में निमेषमात्र समय भी नहीं लगा कि समस्त मालव प्रदेश में १२ वर्ष के लिये भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है । वे तत्काल अपने स्थान की ओर लौट गये । अपने स्थान पर प्राकर भद्रबाहु ने समस्त मुनिसंघ को बुलाया और भावो भीषण संकट की सूचना देते हुए उन्होंने कहा कि धनधान्यादिक में सुसम्पन्न यह मालव प्रदेश श्रागामी बारह वर्षों के लिये प्रभाव-अभियोग, लूट-खसोट, एवं भुखमरी का बीभत्स क्रीडांगरण बनने वाला है । अब आगे चल कर यहां संयम का पालन दुरूह ही नहीं अपितु असंभव सा बन जायगा अतः समस्त श्रमरणसंघ को सुदूर दक्षिण की प्रोर विहार कर देना चाहिये ।" अपने दूरदर्शी एवं श्रुतकेवली प्राचार्य का प्रादेश सुन कर समस्त मुनिसंघ दक्षिण की ओर विहार करने के लिये उद्यत हो गया । श्रावकसंघ को ज्यों ही प्राचार्यश्री के इस निर्णय की सूचना मिली तो समस्त श्रावकसंघ भद्रबाहु स्वामी की सेवा में उपस्थित हो प्रार्थना करने लगा कि समस्त श्रमरणसंघ अवन्ती देश में ही रहे, अन्यत्र विहार न करे । अनेक कोटिपति श्रावकों ने कहा कि उनमें से एक-एक के पास धन-धान्यादिक का इतना अपार संग्रह है कि उससे वे बारह वर्ष ही नहीं बल्कि सौ वर्ष तक उज्जयिनी के अकालग्रस्त लोगों का परिपालन कर सकते । ऐसी दशा में भीषरण से भीषण और लम्बे से लम्बे दुष्काल में भी श्रमण संघ को किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होगी । श्रावकसंघ द्वारा श्रनेक बार प्रार्थना किये जाने पर भी भद्रबाहु स्वामी ने अपने निर्णय पर स्थिर रहते हुए कहा- "श्रद्धालु उपासकवृन्द ! यहां जो Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० रत्न० के अनुसार निरंतर बारह वर्ष का दुष्काल पड़ने वाला है, वह इतना भयावह होगा कि यहां पर रहने वाले साधुओं के लिये व्रत-संयम का पालन असंभव हो जायगा।" श्रावकसंघ द्वारा बारम्बार की गई आग्रहपूर्ण प्रार्थना सुन कर रामल्य, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र आदि साधुनों ने उज्जयिनी के बाहर उपवनों में रहना स्वीकार कर लिया पर शेष १२,००० साधुओं को साथ ले कर प्राचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण की ओर विहार कर दिया । शने-शनै विहार करते हुए प्राचार्य भद्रबाहु अपने साधुसमूह सहित एक गहन एवं विस्तीर्ण वन में पहुंचे। वहां एक अद्भुत गगनघोष को सुन कर निमित्त-ज्ञान से भद्रबाहु को ज्ञात हो गया कि अब उनका अन्तिम समय सन्निकट ही है । उन्होंने तत्क्षण दशपूर्वधर विशाखाचार्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और श्रमणसंघ से कहा कि अब उनकी प्रायु का अति स्वल्प समय अवशिष्ट रहा है अतः वे उसी वन की किसी गिरिकन्दरा में रहेंगे। उन्होंने विशाखाचार्य के नेतृत्व में श्रमणसंघ को बारह वर्ष पर्यन्त दक्षिण देश में ही विचरण करते रहने का आदेश दिया। विशाखाचार्य और अन्य श्रमणों ने यह सब कुछ सुन कर शोकसंतप्त हो अत्यन्त प्राग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि समग्र श्रमणसंघ को अपने प्राचार्य की अन्तिम सेवा का लाभ लेने दिया जाय । पर अन्ततोगत्वा गुरु प्राज्ञा को शिरोधार्य कर विशाखाचार्य को श्रमणसंघ के साथ दक्षिण की ओर विहार करना पड़ा। चन्द्रगुप्ति मुनि, भद्रबाहु द्वारा बार-बार श्रमणसंघ के साथ चले जाने का आग्रह किये जाने के उपरान्त भी भद्रबाहु की सेवा में ही रहे । __ प्राचार्य भद्रबाहु ने यौगिक विधि से अपने मन, वचन, काय के समस्त योगों की वृत्तियों का निरोध कर एक गिरिगुहा में संलेखना की । उस निर्जन बीहड़ वन में आहार-पानी का मिलना नितान्त असंभव समझ कर चन्द्रगुप्ति मुनि कई दिन तक उपवास पर उपवास करते हुए रात दिन निरन्तर गुरु-सेवा में रहने लगे। कुछ दिनों पश्चात् मुनि चन्द्रगुप्ति को गुरु-प्राज्ञा शिरोधार्य कर वन में भिक्षार्थ जाना पड़ा। प्रथम दो दिन तक तो देवी माया से बिना किसी दानदाता की उपस्थिति के निर्दोष भोजन उनके समक्ष प्रस्तुत होता रहा पर प्राचारनिष्ठ मुनि ने उसे ग्रहण नहीं किया और वन से लोट कर सारा वृत्तान्त अपने गुरु को निवेदन कर दिया। योगी भद्रबाह ने चन्द्रगुप्ति के प्राचार की प्रशंसा की। तीसरे दिन भिक्षार्थ वन में घूमते हुए चन्द्रगुप्ति मुनि ने देखा कि एकाकिनी स्त्री उन्हें भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना कर रही है पर इसे भी साधु प्राचार के प्रतिकूल समझ कर मुनि चन्द्रगुप्ति विना भिक्षा ग्रहण किये ही लौट आये। भद्रबाहु ने अपने शिष्य के मुख से उपरोक्त विवरण सुन कर उनकी प्राचारनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। चौथे दिन गुरु-प्राशा से मुनि चन्द्रगुप्ति उस वन में भिक्षा एक पोर निकले तो उन्होंने समीप ही एक सुन्दर नगर देखा। मुनि ने उस नगर में प्रवेश Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० रन० के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३५३ किया तो पग-पग पर श्रद्धालु भक्तों ने उनका हार्दिक स्वागत करते हुए सात्विक परमान से उन्हें पारणा करवाया। मुनि चन्द्रगुप्ति ने गिरिगुहा में लौट कर अपने गुरु भद्रबाहु की सेवा में सारा वृत्तान्त यथावत् निवेदित किया और वे अहर्निश गुरु-सेवा में निरत रहने लगे। अनेक दिनों के अनशन के पश्चात् चार प्रकार की आराधना एवं निर्मल ध्यान करते हुए कामनाशून्य हो भद्रबाहु ने समाधिपूर्वक प्राणत्याग कर स्वर्गगमन किया। प्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गगमन के पश्चात् भी मुनि चन्द्रगुप्ति उसी पर्वत की गुफा में अपने गुरु के चरण अंकित कर उन चरणों की सेवा एवं श्रमणधर्म का पालन करते हुए रहने लगे । । उधर अवन्ती राज्य में रामल्य, स्थूलाचार्य, और स्थूलभद्र प्रादि जो मुनि प्राचार्य भद्रबाह के आदेश का उल्लंघन कर उज्जयिनी में रहे थे, उनको भीषण दुर्भिक्ष के कारण अनेक प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ा। दुर्भिक्ष के प्रारम्भ में कोटिपति कुबेरमित्र आदि दानी एवं धर्मात्मा श्रेष्ठियों ने मुक्तहस्त हो अकाल पीड़ितों को धन-धान्यादिक का दान दिया पर ज्यों ही अकालग्रस्त अन्य क्षेत्रों के लोगों को उन श्रेष्ठियों द्वारा दिये जाने वाले दान का पता चला तो सभी दुर्भिक्षग्रस्त क्षेत्रों की दुष्कालपीड़ित भूखी प्रजा बाढ़ की तरह उज्जयिनी की अोर उमड़ पड़ी। उस भूखे जनसमुद्र के कारण उज्जयिनी की स्थिति भी बड़ी करुण, बीभत्स, क्षुब्ध, अस्तव्यस्त, निरंकुश और बड़ी हृदयद्रावक बन गई। नगर के सभी पथ, वीथियां, बाजार, चौगान आदि का चप्पा-चप्पा नरकंकालों से ठसाठस व्याप्त हो गया। सारी उज्जयिनी रकमयी दिखने लगी।' उज्जयिनी में रामल्य प्रादि साधनों के समक्ष भिक्षार्थ शहर में जाते समय अनेक प्रकार की बाधाएं और विषम परिस्थितियां पाने लगीं। एक दिन नगर में श्रावकों के घर आहार करने के पश्चात् जब श्रमरणसमूह नगर के बाहर उपवन की ओर जा रहा था तो उस समय एक मुनि किसी तरह उन साधुनों से पीछे रह गया। उसी समय भोजन कर के प्राये हुए उन एकाकी मुनि का उदर भरा हुप्रा देख कर कुछ भूखे लोगों ने मुनि को घेर लिया। उन बुभुक्षित लोगों ने तत्क्षण बड़ी निर्दयतापूर्वक उस मुनि का पेट चीर डाला और उसमें से सद्यःभुक्त भोजन निकाल कर खा लिया। इस अमानवीय हृदयद्रावक घटना से सारे नगर में हाहाकार व्याप्त हो गया। श्रावकसंघ ने एकत्रित हो साधुषों की सुरक्षा हेतु विचारविनिमय किया और अच्छी तरह सोच विचार के पश्चात् मुनिसंघ से प्रार्थना की कि जब तक ' भद्रबाहु चरित्र, (रत्ननंदी) परिच्छेद ३, श्लोक ४७ से ५३ २ वही, श्लोक ५४ से ५६ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा. रत्न के अनुसार यह संकटकाल है, तब तक वे नगर के मध्यभाग में रहें, जिससे कि समस्त श्रावक संघ को पाने पूज्य श्रमणों को सुरक्षा व भोजन आदि की व्यवस्था के सम्बन्ध में निश्चिन्तता एवं संतोष रहे। साधुसंघ श्रावकों के प्राग्रह को न टाल सका और श्रावकसंघ बड़े उत्सव के साथ मुनिसंघ को उसी समय नगर में ले आया।' __ रामल्य, स्थूलाचार्य, स्थूलभद्र आदि मुनियों को आहारार्थ जाते देख कर हजारों भूखे मानवों की भीड़ उनको घेर लेती और बड़े करुण स्वर में खाने के लिये कुछ दिलाने को उनसे प्रार्थना करती। उन भूखे लोगों की रुकावट के कारण साधुओं को बिना भोजन लिये ही पुनः अपने स्थान पर लौट जाना पड़ता। आहारार्थ निकलने पर मुनि लोग उन भूखे लोगों की अपार भीड़ के कारण किसी श्रावक के घर पर पहुंच तक नहीं पाते थे। उन भूखे कृषकाय नरकंकालों को मुनियों के मार्ग में से हटाने हेतु यदि कोई श्रद्धालु श्रावक उन्हें लकड़ी प्रादि से डराने का प्रयास करते तो वे बड़ी करुण पुकार कर रोने लगते । करुण, कोमल चित्तवाले दयालु मुनिगण. उन अस्थिपंजरावशेष दुष्कालपीड़ित लोगों की हृदयद्रावक करुण पुकार से द्रवित हो बिना पाहार किये ही अपने स्थान को लोट जाते। इस प्रकार की संकटापन्न स्थिति से दुखित हो श्रावक लोग मुनिगण के पास जाकर प्रार्थना करने लगे- “पूज्यवर ! नगर की सम्पूर्ण भूमि दीन-हीन दुखी और भूखे लोगों से पूर्णरूपेण संकुल है। इन लोगों के भय से कोई ग्रहस्थ क्षण भर के लिये भी अपने घर के कपाट नहीं खोल पाता। इसी कारण हम लोग दिन में भोजन न बना कर रात्रि में बनाते हैं। येन केन प्रकारेण इस प्रति विकट दुरे समय को निकालना होगा। जब तक यह संकटकाल है तब तक प्राप मुनिगण रात्रि के समय पात्रों में हम लोगों के घरों से पाहार ले आया करें और दिन के समय भोजन कर लिया करें । अब दूसरा और कोई रास्ता नहीं है । अतः प्राप हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। श्रावकों की बात सुनकर उन मार्गभ्रष्ट कुमार्गगामी साधुओं ने यह कहते हए कि- "जब तक अच्छा काल नहीं भावेगा तब तक ऐसा ही किया जायगा" तुम्बी के पात्र स्वीकार कर लिये । भिक्षुक तथा कुत्ते प्रादि के भय से वे लोग हाथ में दण्ड धारण कर गृहस्थों के घरों से तथा घरों के द्वार बन्द रहने की दशा में उन बन्द गृहों के गवाक्षों से प्राहार ले कर अपने स्थान पर लाने लगे पोर वे कुपथगामी साधु निरन्तर इसी प्रकार पाहार ला कर अपना उदरपोषण करने लगे। 'भाईरभ्ययिता भूयोऽङ्गी बस्तहनोवरम् । ___ संयतास्त: समानीता, मध्ये बंगं महोत्सवात् ॥६१॥ . भद्रबाहु परित्र, परिच्छेद ३, श्लोक ७२ से ७५ (भद्रबाहु चरित्र Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० रत्न के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३५५ एक समय एक क्षीणकाय नग्न साधु रात्रि के समय लाठी व पात्र हाथ में लिये आहार लेने हेतु यशोभद्र श्रेष्ठी के घर पहुंचा। गर्भवती गृहस्वामिनी अन्धेरे में मुनि की बीभत्स आकृति को देखकर इतनी भयविह्वल हुई कि तत्क्षण उसका गर्भ गिर गया।' इस प्रकाण्ड काण्ड को देखकर मुनि उन्हीं पैरों अपने स्थान को लौट गये। यशोभद्र श्रेष्ठी के घर में कुहराम मच गया। इस दुःखद घटना पर श्रावकों ने मिल कर विचारविमर्श किया और उन्होंने मुनियों के समक्ष जाकर पुनः प्रार्थना की कि वस्तुतः उनका वह विषम स्वरूप भयोत्पादक है अतः जब तक सुभिक्ष न हो जाय तब तक कन्धे पर कम्बल धारण कर के गृहस्थों के घरों में रात्रि के समय भिक्षार्थ जाया करें। मनियों ने श्रावकों की उस प्रार्थना को भी स्वीकार कर लिया और वे धीरे-धीरे शिथिलाचारी बनकर व्रतादि में दोष लगाने लगे। इस प्रकार उस बारह वर्ष के महाविनाशकारी भीषण भिक्ष में गृहस्थों और मुनियों.को अनेक प्रकार के दारुण दुःख सहने पड़े। बारह वर्ष बीत जाने पर अच्छी वर्षा होने के कारण जब पुनः सुभिक्ष हुमा तो दैवी प्रकोप से पीड़ित प्रजा ने सुख की सांस ली। ___अवन्ती प्रदेश में सुभिक्ष होने की सूचना मिलने पर विशाखाचार्य ने भी अपने मुनिमण्डल सहित दक्षिण से उत्तरी क्षेत्रों की ओर विहार किया। क्रमशः अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए वे उस विकट वन में आये जहां भद्रबाहु ने समाधि ली थी। मुनि चन्द्रगुप्ति द्वारा अंकित भद्रबाहु के चरणयुगल में उन सब ने प्रणाम किया। ___ मुनि चन्द्रगुप्ति ने विशाखाचार्य को प्रणाम किया पर विशाखाचार्य ने यह विचारते हुए प्रतिवन्दन नहीं किया कि श्रावकों से विहीन उस विकट वन में वह मुनि १२ वर्ष तक किस प्रकार श्रमणाचार का पालन कर सका होगा। उस वन में कहीं भोजन नहीं मिलेगा, इस विचार से उस दिन विशाखाचार्य एवं उनके साथ पाये हुए सब मुनियों ने उपवास रखा। ___ दूसरे दिन मुनि चन्द्रगुप्ति ने विशाखाचार्य से निवेदन किया कि पास में एक बड़ा नगर है, उसमें श्रद्धालु श्रावक निवास करते हैं अतः वहां जाकर समस्त मुनिमण्डल आहार ग्रहण करे। उस वन में कोई बड़ा नगर भी है, यह सुनकर सब मुनियों को बड़ा पाश्चर्य हुमा मौर वे वहां भिक्षार्थ गये। उस नगर में श्रद्धालु श्रावकों ने पग-पग पर मुनियों का वन्दन-सत्कार किया और उन्हें भोजन कराया। पारणा करने के पश्चात् श्रमण संघ प्राचार्य भद्रबाहु के समाधिस्थल पर लौट आया। मुनिमण्डल के साथ का एक ब्रह्मचारी उस नगर में भोजनोपरान्त अपना कमण्डलु भूल पाया था अतः वह अपना कमण्डलु लेने के लिये पुनः 'यही, श्लोक ७८, ७६ वही, श्लोक ८१, ८२, ८४ । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा० रल० के अनुसार नगर की ओर गया। पर यह देखकर उसके प्राश्चर्य का पारावार न रहा कि उस स्थान पर नगर का नामोनिशां तक नहीं। केवल उसका कमण्डलु एक वृक्ष की टहनी पर टंगा हुआ है। ब्रह्मचारी अपना कमण्डलु लिये मुनिमण्डल के पास लौटा और विशाखाचार्य आदि समस्त मुनियों को आश्चर्य में डालते हुए उस 'नगर के अन्तर्धान होने और वृक्ष की टहनी पर अपने कमण्डलु के मिलने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। विशाखाचार्य ने कहा कि निश्चित रूप से यह सब कुछ मुनि चन्द्रगुप्ति के विशुद्ध चारित्र का चमत्कार था। इन्हीं के पुण्य प्रताप से देवताओं ने उस मायानगरी की रचना की थी। विशाखाचार्य ने मुनि चन्द्रगुप्ति की उत्कट चारित्रनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रतिवन्दना कर कहा- "मुनिश्रेष्ठ ! देवताओं द्वारा कल्पित आहार मुनि को लेना उचित नहीं अतः सब को इसका प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये।" ____ विशाखाचार्य के आदेशानुसार मुनि चन्द्रगुप्ति और सभी मुनिमण्डल ने देवपिण्ड-ग्रहण का प्रायश्चित्त किया। तदनन्तर विशाखाचार्य ने अपने मुनियों के साथ उज्जयिनी की ओर विहार किया। अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए वे उज्जयिनी आये और नगर के वाहर एक सुन्दर उपवन में ठहरे । स्थूलाचार्य ने समस्त मुनिसंघ सहित विशाखाचार्य के लौटने का समाचार सुन कर अपने शिष्यों को उन्हें देखने के लिये भेजा । स्थूलाचार्य के शिष्यों ने विशाखाचार्य के पास पहंच कर उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दना की। विशाखाचार्य ने बिना प्रतिवन्दन किये ही उनसे पूछा - "अरे ! मेरी अनुपस्थिति में तुम लोगों ने यह कोनसा दर्शन (मत) अपना लिया है ?" इस पर स्थूलाचार्य के शिष्य लज्जित हो बिना कुछ उत्तर दिये ही अपने गुरु के पास लौट गये और उन्हें पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। इस पर रामल्य, स्थलाचार्य और स्थूलभद्र ने अपने सब मुनियों को एकत्रित कर मन्त्रणा की कि अब उन्हें किस स्थिति को अपनाना चाहिये? वृद्ध स्थूलाचार्य ने अपना यह अभिमत व्यक्त किया कि अब उन्हें कुमार्ग का परित्याग कर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित, मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले छेदोपस्थापनीय चारित्र को ही अपनाना चाहिये । स्थूलाचार्य के उपरोक्त वचन सुन कर वे मुनि लोग क्रुद्ध हो स्थूलाचार्य को कोसते हए कहने लगे- "इस विषम पंचम प्रारक में ऐसे ससाध्य मार्ग का परित्याग कर कौन इतने कष्टकर दुस्साध्य, बावीस परीषहों और अन्तरायादि से कण्ट काकीर्ण दुरूह पथ को अपनायेगा ?" स्थूलाचार्य ने उन साधुओं को समझाने का प्रयास करते हुए कहा- "अभी तो यह पथ तुम्हें किम्माक फर के समान मनोहर प्रतीत होता है किन्तु पन्त में इसका परिणाम अत्यन्त दुखदायक होगा। यह मार्ग मुक्तिप्रद नहीं अपितु अनन्तकाल तक भवभ्रमण कराने वाला है।" Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ प्रा० रत्न० के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु . स्थूलाचार्य की बात सुन कर कतिपय साधुओं ने तो उसी समय मूलमार्ग अपना लिया किन्तु बहुत से मुनि क्रुद्ध हो स्थूलाचार्य को डण्डों से पीटने लगे । उन मुनियों ने स्थूलाचार्य को बड़ी निर्दयतापूर्वक मार कर वहीं एक गहरे गड्ढे में डाल दिया । प्रार्तध्यान के साथ मर कर स्थूलाचार्य व्यन्तर देव हुए। अवधिज्ञान से अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जान कर स्थूलाचार्य के जीव व्यन्तर देव ने अग्नि, धूलि और पत्थर आदि की वृष्टि कर उन साधुओं को तरह-तरह के घोर कष्ट देने प्रारम्भ किये। ___ व्यन्तर द्वारा दिये गये घोर कष्टों से पीड़ित हो उन साधुओं ने व्यन्तर से क्षमायाचना करते हुए स्थूलाचार्य की हड्डी तथा चार अंगुल चौड़ी, पाठ अंगुल लम्बी लकड़ी की पट्टी में स्शुलाचार्य की कल्पना कर उनकी पूजा करना प्रारम्भ किया। कालान्तर में वह व्यन्तर देव इन लोगों का पर्युपासन नामक कुलदेवता कहलाने लगा, जो आज भी गन्धादि द्रव्यों से पूजा जाता है । वही आश्चर्यजनक अर्द्धफालक मत कलियुग का बल पाकर आज सब लोगों में फैल गया।" यह है, विभिन्न काल में हुए भद्रबाहु नामक प्राचार्यों के साथ श्वेताम्बरदिगम्बर मतभेद की उत्पत्ति को जोड़ने का एक प्रकार से ऋमिक इतिहास । दिगम्बर परम्परा के विभिन्न ग्रन्थों के अध्ययन से यह तथ्य सामने प्राता है कि विभिन्नकाल में भद्रबाहु नाम के निम्नलिखित ५ प्राचार्य हुए हैं : , (१) अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु, जिनका स्वर्गवास वी०नि० सं० १६२ में हुआ और जो भगवान् महावीर के वें पट्टधर थे। (२) २६वें पट्टधर प्राचार्य भद्रबाह अपर नाम यशोबाह जो पाठ अंगों के धारक थे और जिनका काल वीर नि० सं० ४६२ से ५१५ तक का माना गया है। (३) प्रथम अंगधर आचार्य भद्रबाहु, जिनका काल वी०नि०सं० १००० के पास-पास का अनुमानित किया जाता है । यथा : अग्गिम अंगी सुभद्दो, जसभद्दो भद्दबाहु परमगणी। पायरियपरंपराइ, एवं सुदणाणमावहदि ॥४७॥ [मंग पन्नत्ति, चूलिका प्रकीर्णक प्रज्ञप्ति] (४) नन्दीसंघ, बलात्कार गण की पट्टावली के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु जिनका प्राचार्यकाल वी० नि० सं० ६०६ से ६३१ माना गया है। इन्हीं के शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त था।' ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं भद्रबाहु और गुप्तिगुप्त के कथानक को थोड़ा अतिरंजित करके कहीं श्रुतकेवली भद्रबाह की जीवनी के साथ जोड़ दिया गया हो । गुरु-शिष्य के नाम मोर उनका काल भी करीब-करीब वही है। (५) निमित्तज्ञ भद्रबाहु जो एकादशांगी के विच्छेद के पश्चाद हुए। श्रुतस्कन्ध के कर्ता के अनुसार इनका समय विक्रम की तीसरी शताब्दी बैठता न सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ. ३३३ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रा० रत्न० के अनुसार है ।' क्योंकि वी० नि० सं० ६५३ में एकादशांगी का विच्छेद हो जाने के अनन्तर इनका उल्लेख दिया है । उपरिवरिणत उल्लेखों पर गम्भीरता से विचार करने के पश्चात् केवल इतिहास का विद्वान् ही नहीं अपितु साधारण विद्यार्थी भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि ये सभी उल्लेख सम्भवतः किंवदन्तियों, दन्तकथाओं और लोककथाओं के आधार पर किये गये हैं । वस्तुतः इनके पीछे कोई ठोस आधार अथवा पुष्ट प्रमारण नहीं है । ऊपर उद्धृत की गई सभी मान्यताओं के निरसन करने वाले अनेक प्रमाण स्वयं दिगम्बर परम्परा में विद्यमान हैं। उनमें से एक प्रबल श्रीर ठोस प्रमाण है पार्श्वनाथ बस्ती का शिलालेख, जिसका अभिलेखनकाल शक संवत् ५२२ तदनुसार विक्रम संवत् ६५७ और वीर निर्वाण संवत् ११२७ है । उस शिलालेख में क्रमशः गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णु, देव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृत्तिकाय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण और बुद्धिल इन १६ आचार्यों के नाम देने के पश्चात् इनकी उत्तरवर्ती श्राचार्यपरम्परा में हुए प्राचार्य भद्रबाहु को निमित्तज्ञ बताते हुए यह उल्लेख किया गया है कि उन भद्रबाहु स्वामी ने अपने निमित्तज्ञान से भावी द्वादशवार्षिक दुष्काल की संघ को सूचना दी। तदनन्तर समस्त संघ ने दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान किया। नामसाम्य से हुई भ्रान्ति जिस प्रकार गणधर मंडित और मौर्यपुत्र की माताओं के केवल नामसाम्य के आधार पर कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, आवश्यकचूरिंणकार आदि अनेक प्राचीन विद्वान् प्राचार्यों ने मौर्यपुत्र को मंडित का लघु सहोदर बता कर यह मान्यता अभिव्यक्त कर दी कि भगवान् महावीर के जन्म से पूर्व भरतक्षेत्र के कतिपय प्रान्तों के उच्चकुलीन ब्राह्मणों तक में विधवाविवाह की प्रथा प्रचलित थी । किसी ने आगमों तथा इतर साहित्य में बार-बार दोहराये गये इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि जिन्हें छोटा भाई बताने का प्रयास किया जा रहा है, वह मौर्यपुत्र वस्तुतः मंडित से वय में छोटे नहीं अपितु तेरह वर्ष बड़े थे । ठीक उसी प्रकार वीर नि० सं० १५६ से १७० तक आचार्य पद पर रहे हुए छेदसूत्रकार - चतुर्दशपूर्वघर प्राचार्य भद्रबाहु को और वीर नि० सं० १०३२ (शक सं० ४२७ ) के अासपास विद्यमान वराहमिहिर के सहोदर भद्रबाहु को एक ' प्रायरियो भद्दबाहु, प्रट्ठगमहरिणमित्त जाण्यरो रिगणासह कालवसं, स चरिमो हु रिणमित्तियो होदि ||८०|| - २ $........... [ श्रुतस्कन्ध ] "महावीर सवितरि परिनिवृ ते भगवत्परमर्षि गौतमगरण- घरसाक्षाच्छिष्यलोहार्यजम्बु - विष वापराजित - गोवर्द्धन भद्रबाहु - विशाख प्रोष्ठिल - कृतिकाय - जयनाम - सिद्धार्थ धृतिषेरण - बुद्धिलादि गुरु - परम्परीण वक्र (क) माभ्यागत महा पुरुष संततिसमवद्योर्तितान्वय भद्रबाहुस्वामिना उज्जयन्यामष्टांग महानिमित्ततत्वज्ञेन कात्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपालभ्य कथिते सर्व्वसंघ उत्तरापथादक्षिणापथं प्रस्थितः । [ पार्श्वनाथ वस्ति का शिलालेख ] Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामसाम्य से हुई भ्रान्ति] श्रुतके वली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३५६ ही व्यक्ति मानने का भ्रम भी काफी प्राचीन समय से विद्वानों में चला आ रहा है। इस प्रकार की भ्रान्त धारणा का जन्म सर्वप्रथम किस समय और किस विद्वान् के मस्तिष्क में उत्पन्न हुअा यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। बहत प्राचीन समय से श्वेताम्बर परम्परा में यह मान्यता चली आ रही है कि चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य श्री भद्रबाह स्वामी के द्वारा ही छेदसूत्रों की तथा नियुक्तियों की भी रचना की गई थी। सर्वप्रथम संभवतः डा० हर्मन जैकोबी ने ई० सं० १६३१ में इस मान्यता की समीक्षा करते हुए प्राचार्य हेमचन्द्रकृत "परिशिष्ट पर्व" के इन्ट्रोडक्शन में लिखा : “There are ten Sutras to which Bhadra Bahu, a late namesake of the sixth patriarch, has written Niryukties, i.e., systematic expositions of the subject of Sutra to which they belong." (Parisista Parva, Introductory, page 6] डा० हर्मन जैकोबी ने इससे आगे पृ० ७ पर और लिखा है : The author of the Niryukties Bhadraba hu is identified by the Jains with the patriarch of that name who died 170 A. V. There can be no doubt that they are mistaken. For the account of seven schisms (Ninhaga) in the Avashyaka Niryukti VIII 56-100 must-have been written 584 and 609 of the Vira Era. There are the dates of the 7th and 8th schisms of which only the former is mentioned in the Niryukti. It is therefore, certain that the Niryukti was composed before the 8th schism 609 A.V. डा० हर्मन जैकोबी द्वारा इस तथ्य के प्रकाश में लाये जाने के पश्चात् अनेक अन्य विद्वानों ने भी इस दिशा में अनुसन्धान और छानबीन करना प्रारम्भ किया, जिसके परिणामस्वरूप अनेक विचारणीय तथ्य विद्वानों के सामने माये । छेवसूत्रकार श्रुतकेवली भाबाहु इस तथ्य को सभी विद्वान् एक मत से स्वीकार करने लगे हैं कि छेदसूत्रों के कर्ता प्रसंदिग्ध रूप से चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु ही हैं । यद्यपि छेद सूत्रों के प्रादि, मध्य अथवा अन्त में कहीं पर भी ग्रन्थकार के नाम का उल्लेख नहीं है फिर भी इनके पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों में जो उल्लेख किये हैं, उनके प्राधार पर यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि छेदसूत्रों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ही हैं । 1 वीरमोक्षावर्षशते, सप्तत्यने गते सति । . भद्रबाहुरपि स्वामी, ययौ स्वर्ग समाधिना ।।११२।। [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६] Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ छेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु - दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र के नियुक्तिकार ने नियुक्ति के प्रारम्भ में लिखा है : वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिम सगलसुयनारिणं । सुत्तस्स कारगमिसि, दसासु कप्पे य ववहारे || १ || अर्थात् में दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प और व्यवहार सूत्र के प्रणेता प्राचीन गोत्रीय एवं अन्तिम श्रुतकेवली महर्षि भद्रबाहु को नमस्कार करता हूं । यह एक अद्भुत संयोग की बात है कि दशाश्रुतस्कन्ध के नियुक्तिकार का नाम भी भद्रबाहु है और वे भद्रबाहु नमस्कार कर रहे हैं प्राचीन गोत्रीय श्रुतकेवली भद्रबाहु को । वस्तुतः यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण और निर्णायक तथ्य है जिस पर आगे विचार किया जायगा । पंचकल्प महाभाष्यकार ने उपरिलिखित गाथा में वरिगत तथ्यों की पुष्टि निम्नलिखित रूप में की है : भद्दंति सुंदरं ति य, तुल्लत्थो जत्थ सुंदरा बाहू । सो होति भद्दबाहु, गोण्णं जेणं तु बालत्ते ॥ ६॥ पाए र लक्खिज्जइ, पेसलभावो तु बाहुजुयलस्स । उववण्णमतो रणामं, तस्से यं भद्दबाहुत्ति ||७|| to वि भद्दबाहू, विसेसरणं गोण्णगहण पाईणं । अण्ोसि पविसिट्ठे, विसेसरणं चरिमसगलसुतं ॥ ८ ॥ चरिमो पच्छिमो खलु चोद्दसपुव्वा तु होति सगलसुतं । सेसारण वुदा सट्ठा, सुत्तकरज्भयरणमेयस्स || || कि तेरण कयं तं तू, जं भण्णति तस्स कारतो सोउ । भण्गति गरणधारीहिं सव्वसुयं चेव पुव्वकयं ॥ १० ॥ तत्तोच्चिय रिगज्जूढं प्रगुग हरणट्ठाए संपयजतीरणं । तो सुत्तकारतो खलु, स भवति दसकप्प ववहारे ।। ११ ।। इन गाथाओं में सुन्दर भुजाओं वाले प्राचीन गोत्रीय एवं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की छेदसूत्रकार के रूप में स्तुति करते हुए भाष्यकार ने इस बात का संकेत किया है कि भद्रबाहु नाम के अन्य भी प्राचार्य हुए हैं । अतः पेशल - सुन्दरभुज, प्राचीन गोत्रीय और अन्तिम श्रुतकेवली ये विशेषण छेद सूत्रकार भद्रबाहु के लिये प्रयुक्त किये हैं । यह ध्यान में रहे कि इन गाथाओं में उपर्युक्त तीन विशेषरणों से युक्त भद्रबाहु के निर्युक्तिकार होने का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। निर्युक्तिकार और भाष्यकार दोनों ने ही आचार्य भद्रबाहु को दशाश्रुत, कल्प और व्यवहार इन तीन छेदसूत्रों का कर्त्ता माना है । पंचकल्प भाष्य की चूरिंग में इन्हें श्राचारकल्प अर्थात् निशीथ सूत्र का प्रणेता' भी बताया गया है। विक्रम की पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रणीत “तित्थोगालिय पइण्णा" नामक ग्रन्थ में 1 तेरण भगवता प्रायारपकल्प-दसा कप्प-ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढ़ा । [ पंचकल्पचूरिंग । पत्र १ ] Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु भी प्राचार्य भद्रयाहु का चतुर्दशपूर्वधर और छेदसूत्रकार के रूप में परिचय दिया गया है। इस प्रकार इन उपरिलिखित प्रमाणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि अंतिम श्रतकेवली प्राचीन गोत्रीय प्राचार्य भद्रबाह छेदसूत्रों के निर्माता थे। प्रब सबसे बड़ा यह प्रश्न सामने प्राता है कि दश नियुक्तियों के कर्ता अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु थे अथवा भद्रबाहु नाम के अन्य कोई प्राचार्य। भगवान् महावीर के शासन के सातवें पट्टधर चतुर्दश पूर्वधर आचार्यभद्रबाहु वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों के रचनाकार नैमित्तिक भद्रबाहु से भिन्न हैं। दोनों समान नाम वाले महापुरुषों को एक ही व्यक्ति ठहराने के पक्ष में जो प्राचीन प्राचार्यों के उल्लेख कतिपय विद्वानों द्वारा प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं उनकी प्रौचित्यानौचित्यता पर विचार करने से पहले उन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : १. प्रोष नियुक्ति की द्रोणाचार्य कृत टीका में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु स्वामी को ही नियूंक्तिकार बताते हुए लिखा है : गुणाधिकस्य वन्दनं कर्त्तव्यं न त्वषमस्य, यत उक्तम् - "गुणाहिए वंदणयं ।” भद्रबाहु स्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति ? इति । अत्रोच्यते गुणाधिका एव ते,अव्यवच्छित्ति गुणाधिक्यात्, प्रतो न दोष इति ।" (पत्र ३) २. शीलांकाचार्यकृत प्राचारांग की टीका पत्र ४ पर - "अनुयोगदायिनः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्यों प्रतस्तान् सर्वानिति ।" ऐसा उल्लेख है। ३. उत्तराध्ययन सूत्र की शान्तिसूरि द्वारा कृत पाइय टीका के पत्र १३६ पर भी लिखा है : "न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालाक्किालाभाविता इत्यन्योक्तत्वमाशंकनीयम्, स हि भगवांश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवलो कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशंका ? इति ।" ४. विशेषावश्यक टीका, पत्र १ पर मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने लिखा है :'सतमतो पिरवाहू जाणुयसीमुपरिन्यय सुबाहू । नामेण भवाहू पविहि साधम्ममहोत्ति ।। सो विय चोदसपुम्बी, वारसवासाई जोगपडियन्नो। सुतत्येण निबंधह, प्रत्यं प्रज्झयण बन्धस्स ।। [तिस्योगालियपइणा (अप्रकाशित)] Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छेद० श्रुत मावाहु "अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकल साधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दश-पूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनतद्व्याख्यानरूपा "अभिनिबोहियनाणं" इत्यादि प्रसिद्ध ग्रन्थरूपा नियुक्तिकृत्ता।" । ५. मलयगिरि ने बृहत्कल्पपीठिका की टीका, पत्र २ पर लिखा है : साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र चकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पशिक नियुक्तिः ।" .. ६. वृहत्कल्पपीठिका की श्री क्षेमकीतिसूरि कृत टीका के पत्र १७७ पर उल्लेख है कि "श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्धनियुक्तिशास्त्र संसूत्रणसूत्रधार"....... श्री भद्रबाहुस्वामी....""कल्पधेयनामाध्ययनं नियुक्तियुक्त नियूंढ़वान् ।" - ७. मुनि सुन्दरसूरि ने 'गुर्वावली' में चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी और 'उपसर्गहरस्तोत्र' के रचयिता भद्रबाहु को एक ही महापुरुष बताते हुए लिखा है : अपश्चिमः पूर्वभृतां द्वितीयः, श्री भद्रबाहुश्च गुरू: शिवाय । कृत्वोपसर्गादिहरस्तवं यो, ररक्ष संघं धरणार्चितांह्रिः ॥१३॥ नियूँढसिद्धान्तपयोधिराप, स्वर्यश्च वीरात् खनगेन्दुवर्षे । ८. गच्छाचार पइन्ना की वृत्ति में श्रुतकेवली भद्रबाहु और नियूंक्तिकार भद्रबाहु को एक ही व्यक्ति बताते हुए लिखा है : "अत्थि सिरिभरवरिठे...."अह जुगप्पहाणागमो सिरिभद्दबाहुसामी. आयारांग १. सूयगडांग २. आवस्सय ३. दसवैयालिय ४, उत्तरज्झयण ५, दसा ६, कप्प ७, ववहार ८, सूरियपन्नत्ति उवंग ६, रिसिभासियारणं १० दस नियुत्तिमो काऊरण जिणसासणं पभावेऊरणं पंचमसुयकेवलिपयमणहविऊरण य समए अणसणविहाणेण तिदसावासं पत्तोत्ति ।" उपरोक्त सभी उल्लेख प्रामाणिक प्राचार्यों द्वारा किये गये हैं। इनमें प्राचार्य शीलांक का उल्लेख सबसे प्राचीन-अर्थात् विक्रम की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा नौवीं शताब्दी के प्रारम्भ का है। उपरोक्त उल्लेखों में सभी प्राचार्यों ने चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहुस्वामी को ही नियुक्तिकार माना है पर अपनी इस मान्यता के समर्थन में शान्त्याचार्य के अतिरिक्त किसी भी विद्वान् प्राचार्य ने कोई युक्ति प्रस्तुत नहीं की है। साधारण तौर पर केवल यह उल्लेख मात्र किया है कि चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी नियुक्तिकार थे। शान्त्याचार्य ने चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी को ही नियुक्तिकार ठहराने की अपनी मान्यता के पक्ष में यह युक्ति दी है कि उत्तराध्ययन की नियुक्ति में नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी ने अपने से बहुत काल पश्चात् हुए महापुरुषों के व उनसे सम्बन्धित उदाहरण दिये हैं - उनके आधार पर कोई यह शंका न कर Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्रकार श्रृंत भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु बैठे कि उत्तराध्ययन की नियुक्ति चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित नहीं अपितु किसी अन्य द्वारा रचित है अथवा ये उदाहरण किसी अन्य प्राचार्य द्वारा इसमें जोड़े गये हैं । क्योंकि आचार्य भद्रबाहु स्वामी श्रुतकेवली होने के कारण त्रिकालदर्शी थे और अपने पश्चाद्वर्ती अर्वाचीन महापुरुषों के सम्बन्ध में भी विवरण लिखने में समर्थ थे। तकेवली भद्रबाहु नियुक्तिकार नहीं चतुर्दशे पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु नियुक्तिकार नही हो सकते, इस तथ्य की पुष्टि में निम्न लिखित प्रमाण द्रष्टव्य हैं :- १. चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु नियुक्तियोंके कर्ता नहीं हैं । यदि वे नियुक्तिकार होते तो वे अपने आपकी स्तुति करते हुए स्वयं को नमस्कार नहीं करते और न अपने शिष्य आर्य स्थूलभद्र का 'भगवान् स्थूलभद्र' इन स्तुत्यात्मक शब्दों में गुणगान ही करते । पर नियुक्तियों में इस प्रकार के लोकव्यवहार विरुद्ध उदाहरण विद्यमान हैं । दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति की पहली गाथा में नियुक्तिकार द्वारा भद्रबाहु स्वामी को निम्नलिलित शब्दों में नमस्कार किया गया है : वंदामि भद्दबाहुं, पाइणं चरिमसगलसुयनारिंग । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ।।१।। यदि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु नियुक्तिकार होते तो क्या वे अपने आपको इस प्रकार वन्दन करते ? कदापि नहीं। सभ्य संसार के साहित्य में एक भी इस प्रकार का उदाहरण उपलब्ध नहीं होता, जिसमें किसी साधारण से साधारण अथवा महान् से महान् व्यक्ति ने अपने आपको नमस्कार किया हो । लोकगुरू तीर्थकर भी “नमो तित्थस्स" कह कर तीर्थ को नमस्कार करते हैं न कि स्वयं को। ___ यहां यह शंका उठाई जा सकती है कि यह गाथा नियुक्तिकार की नहीं अपितु भाष्यकार की है अथवा प्रक्षिप्त है । पर चुरिणकार के निम्नलिखित स्पष्टीकरण के पश्चात् इस प्रकार की शंका के लिये कोई अवकाश नहीं रह जाता। चूरिणकार ने इस गाथा को भावमंगल की संज्ञा देते हुए नियुक्ति की मूल गाया बताया है : चूणि :- तं पुरण मंगलं नामादि चतुर्विधं प्रावस्सगाणुक्कमेण परवेयव्वं । तत्थ भावमंगलं निज्जूत्तिकारो आह - "वंदामि, भद्दबाहं....."इत्यादि । भहबाह नामेणं । पाईयो गोत्तेणं । चरिमो अपच्छिमो। सगलाई चोहसपुव्वाइं। कि निमितं नमोक्कारो तस्स कज्जति ? उच्यते जेण सुत्तस्स कारपोण अस्पस्स, अत्थो तित्यगरातो पसूतो । जेण भण्णति - "प्रत्थं भासति परहा० गाथा । कतरं सुत्तं? दसानो कप्पो ववहारो य । कतरातो उद्धृतम् । उच्यते पच्चक्खाणपुण्यातो। प्रहवा भावमंगलं नंदी सा तहेव चउन्विहा । छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध श्रुतकेवली भद्रबाहु की सर्वप्रथम कृति के रूप में प्रसिद्ध है, इसी लिये नियुक्तिकार ने दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति में श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [श्रुत० भ० नियुं ● नहीं O उत्तराध्ययन सूत्र की नियुक्ति में नियुक्तिकार ने आचार्य स्थूलभद्र को भगवान् की उपमा से अलंकृत करते हुए उनका निम्नलिखित शब्दों में गुरणगान किया है : 'भगवं पि थूलभद्दो, तिक्खे चकम्मिश्रो न उरण छिन्नो । प्रग्गिसिहाए वुत्थो चाउम्मासे न उरण दडूढो || साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी निर्युक्ति की इस गाथा को देखकर यही कहेगा कि इस नियुक्ति के कर्त्ता यदि श्रुतकेवली भद्रबाहु होते तो वे अपने शिष्य की भगवान् के तुल्य इस प्रकार स्तुति नहीं करते । इन दोनों गाथाओं की ओर शान्त्याचार्य ने ध्यान दिया होता तो वे कदापि उत्तराध्ययन सूत्र के परीषहाध्ययन की टीका में " न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालाद्दर्वाक्काला - भाविता इत्यन्योक्तत्वमाशंकनीयम्, स हि भगवांश्चतुदेश पूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशंका ? इति" यह कभी नहीं लिखते । क्योंकि श्रुतकेवली त्रिकालवर्ती वस्तुनों को देखते हैं लेकिन स्वयं को नमस्कार करने और अपने शिष्य की भगवान् तुल्य स्तुति करने जैसे लोक व्यवहार विरुद्ध आचरण कदापि नहीं कर सकते । २. चतुर्दश पूर्वघर प्राचार्य भद्रबाहु निर्मुक्तिकार नहीं हैं, इस पक्ष का प्रबल समर्थक दूसरा प्रमाण यह है कि श्रावश्यक नियुक्ति की गाथा संख्या ७६२, ७६३, ७७३, और ७७४ में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि वज्रस्वामी के समय ( वी० नि० सं० ५८४ तदनुसार वि० सं० ११४) तक कालिक सूत्रों का पृथक् पृथक् अनुयोग के रूप में विभाजन नहीं हुआ था । वज्रस्वामी के पश्चात् देवेन्द्रवन्दित श्रार्य रक्षित ने समय के प्रभाव से अपने विद्वान् शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र की स्मरणशक्ति के ह्रास को देखकर सूत्रों का पृथक्करण चार अनुयोगों के रूप में किया ।' पट्टावलियों में प्रार्य रक्षित के वी० नि० सं० ५६७ में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख मिलता है । ऐसी दशा में वी० नि० सं० ५८४ से ५६७ के बीच में चार " मूढरणइयं सुयं कालियं, तु ग गया समोयरंति इहं । धपुत समोयारो प्रत्थि पुहुत्त समोयारो ।।७६२ ।। जाति प्रज्जवइरा, प्रपुहत कालियारणुद्योगे य । तेरणारेण पुहुत, कालियसुय दिट्ठिवाए य । । ७६३ । । प्रहतं मरणुभोगो, बत्तारि दुवार भासई एगो । पहत्तारणुभोगकरणे ते प्रत्यतम्रो उ वोच्छिन्ना ।।७७३।। देविदवं डिएहि, महाणुभागेहि रक्खि भज्जेहि । जुगमासज्ज विभत्तो, धरणुभोगो तो कम्रो चउहा ।। ७७४ || मत्र श्री स्वामिश्रीवासेनयोरंतरालकाले श्रीमदायं रक्षितसूरिः श्रीदुर्बलिकापुष्य (मित्र) श्वेति क्रमेण युगप्रधानद्वयं संजातं । तत्र श्रीमदायं रक्षितसूरिः सप्तनवत्यधिकपंचशत ५६७ वर्षान्त स्वर्गभागिति पट्टावस्यादी दृश्यते परमावश्यकवृत्यादी श्रीमदार्थ - रक्षित सूरीणां स्वर्थगमनानन्तरं चतुरशीत्यधिकपंचशत ५८४ वर्षान्त सप्तम निन्हर्वोत्पत्तिरुक्तास्ति । तर बहुत तगम्यमिति । [तपागच्छ पट्टावली ( धर्मसागर गरिरचित), गा.० ६ ] Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३६५ अनुयोगों के रूप में किये गये सूत्रों के विभाजन की घटना का उल्लेख श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा किया जाना संभव एवं बुद्धिगम्य नहीं हो सकता क्योंकि उनका वीर नि० संवत् १७० में स्वर्गवास हो चुका था। ३. प्रावश्यक नियुक्ति की गाथा ७६४ से ७६६ और ७७३ से ७७६ में वज्रस्वामी के विद्यागुरु स्थविर भद्रगुप्त, 'आर्य सिंहगिरि, श्री वज्रस्वामी', आचार्य तोसलिपुत्र, आर्य रक्षित, फल्गुरक्षित आदि, .श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों से सम्बन्धित विवरणों के उल्लेख के साथ-साथ वज्र ऋषि को अनेक बार वंदन-नमस्कार किया गया है। ऐसी स्थिति में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को नियुक्तिकार कदापि नहीं माना जा सकता। क्शोंकि उनके द्वारा अपने से बहुत काल पश्चात् हए प्राचार्यों के प्रति इस प्रकार के विनय-वन्दननमन आदि की किसी भी दशा में संगति नहीं हो सकती। ४. पिण्ड नियुक्ति की गाथा ४६८ में प्राचार्य पादलिप्तसूरि के सम्बन्ध में तथा ५०३ से ५०५ गाथाओं में वज्रस्वामी के मामा आर्य समितसूरि के सम्बन्ध में और ब्रह्मद्वीपिक तापसों की श्रमणदीक्षा एवं ब्रह्मद्वीपिक शाखा की तुंबवरणसग्निवेसामो, निग्गयं पिउसगासमल्लीणं । छम्मासियं छसु जयं, माउय समन्तियं वन्दे ।।७६४।। जो गुज्झएहिं बालो, निमन्तिम्रो भोयणेण वासंते । णेच्छइ विणीयविणो, तं वयररिसिं ‘णमंसामि ।।७६५।। उज्जणीए जो जंभगेहिं, प्राणक्खिऊरण थुयमहियो । अक्खीणमहाणसियं, सीहगिरिपसंसियं वंदे ॥७६६।। जस्स अरगुण्णए वायगत्तणे दसपुरम्मिणयरम्म । देवेहिं कया महिमा, पयाणुसारि रणमंसामि ।।७६७।। जो कन्नाइ धणेण य, णिमंतिम्रो जुव्वणम्मि गिहवइणा । नयरम्मि . कुसुम नामे, तं वइररिसिं रणमसामि ।।७६८।। जेणुद्धरिमा विज्जा, पागासगमा महापरिण्णायो।। वंदामि प्रज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयहराणं ।।७६६।। अपुहुत्ते अणुप्रोगो, चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहुत्ताणुप्रोगकरणे ते अत्थतम्रो उ वोच्छिन्ना ।।७७३।। देविदेवंदिएहि, महाणुभागेहिं रखि अज्जेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो, अणुप्रोगो तो कमो चउहा ।।७७४।। माया य रुद्द सोमा, पिया य नामेण सोमदेव त्ति । भाया य फग्गुर क्खिय, तोसलिपुत्ता य पायरिया ।।७७५।। निज्जवरण भद्दगुत्ते, वीसुं पढ़णंच तस्स पुव्वगयं । पवावियो य भाया, रक्खियखमणेहिं जरणपो य ।।७७६।। [प्रावश्यक नियुक्ति Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छेद० श्रुत० भद्रबाहु उत्पत्ति आदि का वर्णन किया गया है ।' इन गाथाओं में उल्लिखित विवरण श्रुतकेवली भद्रवाहु से बहुत काल पश्चात् हुए प्राचार्यों तथा उन प्राचार्यों के समय में घटित हुई घटनाओं से सम्बन्ध रखते हैं । ५. उत्तराध्ययनसूत्र की नियुक्ति की गाथा संख्या १२० में श्रुतकेवली भद्रबाहु से बहुत समय पश्चात् हुए कालिकाचार्य के जीवन की घटनाग्रों का विवरण दिया गया है । यथा : उज्जेरिण कालखमणा, सागरखमरणा सुवण्णभूमीए। ईदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च ।।१२०॥ ६. वर्तमान काल में उपलब्ध नियुक्तियां चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की कृतियां नहीं, इस तथ्य को सिद्ध करने वाला एक प्रवल प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययनसूत्र की नियुक्ति (अकाममरणीय) की निम्नलिखित गाथा में नियुक्तिकार ने यह स्पष्ट संकेत किया है कि वह चतुर्दश पूर्वधर नहीं है : सम्वे एए दारा, मरणविभत्तीइ वण्णिया कमसो। सगलणिउणे पयत्थे, जिरण चउद्दसपुग्वि भासंति ।।२३३।। अर्थात - मैंने मरणविभक्ति से सम्बन्धित समस्त द्वारों का अनक्रम से वर्णन किया है। वस्तुतः पदार्थों का सम्पूर्णरूपेण विशद वर्णन तो केवलज्ञानी और चतुर्दश पूर्वधर ही करने में समर्थ हैं। समस्त आगमों और जैन साहित्य में एक भी इस प्रकार का उदाहरण उपलब्ध नहीं होता जिसमें किसी केवलज्ञानी ने किसी तत्व का विवेचन करने के पश्चात् यह कहा हो कि इसका पूर्णरूपेण विवेचन तो केवली ही कर सकते हैं । ठीक इसी प्रकार यदि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर होते तो वे यह कभी नहीं कहते कि वस्तुतः पदार्थों का सम्पूर्णरूपेण विशद वर्णन तो केवलज्ञानी और चतुर्दश पूर्वधर ही करने में समर्थ हैं। यह नियुक्ति-गाथा ही इस बात का स्वतःसिद्ध प्रमाण है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु नहीं कोई अन्य ही प्राचार्य हैं। __ जैसा कि पहले बताया जा चूका है शान्त्याचार्य ने "चतुर्दश पूर्वधर प्रा० भद्रबाहु ही नियुक्तिकार हैं - इस पक्ष का समर्थन करते हुए उपरोक्त नियुक्ति' जइ जह पइसिगी जायागुम्मि पालिनग्रो भमाडेइ । तह तह सीमे वियगगा, पगास्मइ मुझडरायस्म ।।४६८।। नइ कण्ह-विन्न दीव, पंचसया तावमागण गिग वसति । पव्वदिवमेमु कुलवइ पालेवुनार मक्कारे ।।५०६।। जगण सावगागा खिमग, समियकवण माइठागण लेवेण । सावय पयन करणं, अविगणयलोए चलग धोए ।।५०४।। पडिलाभिन वच्चता निवुड्ड न इकूलमिलगा ममियायो । विम्हिह्य पंचमया, तावमागग पवन माहा य ।।५०५।। [पिण्ड नियुनि] Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३६७ गाथा की 'टीका में यह युक्ति दी है - "प्राचार्य भद्रबाहु चतुर्दशपूर्वधर अर्थात् श्रुतकेवली थे प्रतः वे त्रिकाल के पदार्थों को जानने में समर्थ थे ऐसी दशा में नियुक्तियों के अन्तर्गत अर्वाचीन घटनाओं एवं प्राचार्यों के विवरण देख कर इस प्रकार की कतई शंका नहीं करनी चाहिये कि नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के अतिरिक्त अन्य कोई प्राचार्य हैं।' पर इस गाथा की टीका करते समय उन्हें अपने स्वयं के अन्तर से कितना जझना पड़ा इसकी झलक टीका में स्पष्टतः प्रकट होती है :___"सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दर्शयन्नात्मौद्धत्यपरिहारायाह भगवान् नियुक्तिकार : सव्वे एए दारा गाथा व्याख्या - 'सर्वारिण' अशेषाणि 'एतानि' अनन्तरमुपदर्शितानि 'द्वारारिण', अर्थप्रतिपादनमुखानि 'मरणविभक्तेः' मरणविभक्त - यपरनाम्नोऽस्यैवाध्ययनस्य 'वणितानि' प्ररूपितानि, मयेति शेषः, 'कमसो' ति प्राग्वत् क्रमशः । आह एवं सकलापि मरणवक्तव्यता उक्ता उत न ? इत्याहसकलाश्च- समस्ता निपुणाश्च-अशेषविशेष-कलिताः सकलनिपुणाः तान् पदार्थान् इह मरणप्रशस्तादीन जिनाश्च केवलिनः चतुर्दशविणश्च-प्रभवादयो जिनचतुर्दशपूर्विणो 'भाषन्ते' व्यक्तमभिदधति, अहं तु मन्दमतित्वान्न तथा वर्णयितुं क्षम इत्यभिप्रायः । स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यच्चतुर्दशपूर्युपादानं तत् तेषामपि षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यख्यापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति गाथार्थः ।।२३३॥ [उत्तराध्ययन पाइय टीका, पत्र २४०] नियुक्तिकार ने इस गाथा में यह कह कर कि - यद्यपि उन्होंने मरण-विभक्ति विषयक सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन करने का प्रयास किया है, तथापि इनका सम्पूर्णरूपेण विशदवर्णन तो केवली या चतुर्दश पूर्वधर ही कर सकते हैं- यह स्पष्टतः स्वीकार किया है कि न तो वे केवली हैं और न चतुर्दश पूर्वधर हो। ____ शान्त्याचार्य ने नियुक्तिकार की इस सरल और स्पष्ट स्वीकारोक्ति की अपने पक्ष के साथ संगति बैठाने हेतु क्लिष्ट कल्पना करते हुए टीका में दो युक्तियां दी हैं। पहली यूक्ति यह कि नियुक्तिकार ने स्वयं चतुर्दश पूर्वधर होते हुए भी अर्थज्ञान की अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधर भी परस्पर एक दूसरे से न्यूनाधिक समझने वाले होते हैं, इस दृष्टि से अपने से पूर्व के पूर्वधरों को अपनी अपेक्षा अधिक महत्ता प्रकट करने हेतु ही लिखा है कि केवली या चतुर्दश पूर्वधर ही इन पदार्थों का सम्पूर्ण रूप से विशद वर्णन कर सकते हैं । प्रत्येक चतुर्दश पूर्वधर को, चाहे वह पूर्ववर्ती हो अथवा पश्चाद्वर्ती - उसे आगमों में श्रुतकेवली के विरुद से विभूषित कर केवलीतुल्य प्ररूपणा करने वाला माना गया है । एक श्रुतकेवली चाहे वह कितना ही अवान्तरकालवर्ती क्यों न हो वह पदार्थों के निरूपण में केवलीतुल्य है अतः वह यह कह कर कि अमुक-अमुक विषयों का विवेचन वह नहीं कर सकता है, चौदह पूर्वो के ज्ञान की हीनता अपने Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छेदः श्रुत० भद्रबाहु मुख से किसी भी दशा में प्रकट नहीं कर सकता । शान्त्याचार्य इस तथ्य से भलीभांति परिचित थे अतः अपनी इस प्रथम युक्ति की मौचित्यता और सबलता के सम्बन्ध में सशंक होने के कारण उन्होंने दूसरी यूक्ति यह दी- "यह भी अधिक संभव है कि द्वारगाथा से इस गाथा तक की सभी गाथाएं मूल नियुक्ति की गाथाएं न होकर भाष्य की गाथाएं हों। इनकी यह युक्ति तो वस्तुतः एक प्रकार से इस पक्ष को ही बल देती है कि नियुक्तियां चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियां नहीं । वैसे इनकी इस युक्ति को चूणिकार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है। शान्त्याचार्य स्वयं भी अपने अभिमत की सत्यता के सम्बन्ध में सशंक हैं। ऐसी दशा में शान्त्याचार्य का यह अभिमत कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ही नियुक्तिकार हैं, कैसे मान्य हो सकता है ? ७. श्रुकेवली भद्रबाहु नियुक्तिकार नहीं, इस पक्ष की पुष्टि हेतु सातवें प्रमाण के रूप में प्रावश्यक नियुक्ति की ७७८ से ७८३ तक की गाथानों को प्रस्तुत किया जाता है। इन गाथानों में भगवान् महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन के चौदहवें वर्ष से लेकर भगवान् महावीर के निर्वाण से ५८४ वर्ष पश्चात् हुए सात निन्हवों का तथा वीर नि० सं०६०६ में हुई दिगम्बर मतोत्पत्ति तक का वर्णन किया गया है। वीर नि० सं० १७० में स्वर्गस्थ होने वाले भद्रबाह द्वारा यदि नियुक्तियों की रचना की गई होती तो वी० नि० सं० ६०६ में हुई घटनामों का उनमें उल्लेख कदापि नहीं होता। ८. इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र की नियुक्ति (चतुरंगीय अध्ययन) की गाथा संख्या १६४ से १७८ में सात निन्हवों तथा दिगम्बर मत की उत्पत्ति का पावश्यक नियूंक्ति से भी विस्तृत विवरण दिया हुआ है। ६. दशवकालिक नियुक्ति और प्रोध नियुक्ति की गाथाओं में दशव'बहुरय पएस अन्वत समुच्छ दुग तिग प्रबद्धिगा चेव । सत्तेए पिण्हगा खलु तिथम्मि उ वद्धमाणस्स ।।७७८।। बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्तायो । प्रवत्तासाढामो समुच्छेयासमिसामो ।।७७६।। गंगाप्रो दो किरिया, छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती। थेरा य गोट्ठमाहिल, पुट्ठमरदं पविति ।।७८०॥ सावत्थी उसमपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि रहवीरपुरं च गयराइं ॥७८१॥ चोद्दस सोलस वासा, चोइस वीसुत्तरा य दोणिसया । अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयालो ।।७८२।। पंचसया चुलसीया, छच्चेव सया रणवोत्तरा हुंति । णाणुपत्ती य दुवे उप्पण्णा निव्वुए सेसा ।।७८३।। [माव. नि.] २ प्रपुहुत - पुहुत्ताइं निहिसिउं एत्थ होइ अहिगारो। चरणकरणारणुप्रोगेण, तस्स दारा इमे हुँति ।। [दशवकालिक नि०] . पोहेणउ णिज्जुत्ति, वुच्छं चरणकरणाणुप्रोगामो। मप्पक्खरं महत्यं, मणुग्गहत्यं सुविहियाणं ।। [मोष-नियुक्ति] Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु ] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३६६ - कालिकसूत्र और ओघ – इन दोनों का समावेश चरणंकररणानुयोग में किया गया है । अनुयोगों के रूप में सूत्रों का पृथक्करण वीर नि० सं० ५६० से ५६७ के बीच के समय में, तदनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् ४२० से ४२७ वर्ष के मध्यवर्तीकाल में प्रार्य रक्षित द्वारा किया गया है । १०. श्रुतकेवली भद्रबाहु निर्युक्तिकार नहीं, इस पक्ष की पुष्टि में दशाश्रुतस्कन्ध-निर्युक्ति की एक और गाथा प्रमाण रूप से प्रस्तुत की जाती है : एगभविए य बढाउए य, श्रभिमुहियनामगोए य । एते तिन्नि वि देसा, दव्वम्मि य पोंडरीयस्स || १४६ || इस गाथा में द्रव्य निक्षेप के तीन प्रदेशों का विवेचन किया गया है। इसकी वृत्ति इस प्रकार है : एगेत्यादि एकेन भवेन गतेन श्रनन्तरभव एक यः पौण्डरीकेषु उत्पत्स्यते स - एकभविकः । तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बद्धायुष्कः ततोऽप्यासन्नतमः । अभिमुखनामगोत्र: 'अनन्तर समयेषु यः पौण्डरीकेषु उत्पद्यते । एते प्रनन्तरोक्ता त्रयोप्यादेशविशेषा द्रव्यपोण्डरीकेऽवगन्तव्या इति । [ सूत्रकृतांगनिर्युक्ति, श्रुत० २, अध्ययन १, पत्र २६७-६८ ] वृहत्कल्पसूत्र के चूरिंगकार के कथनानुसार ये तीनों ही स्थविर श्रार्य -मंगू, स्थविर आर्य समुद्र और स्थविर प्रार्य सुहस्ती की पृथक्-पृथक् तीन मान्यताएं हैं । इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है कल्पभाष्य की हस्तलिखित प्रति की अधोलिखित गाथा और उसकी चूरिंग : गरणहरथेरकयं वा, आएसा मुक्कवागररणतो वा । ध्रुवचल विसेसतो वा, अंगाऽगंगेसु णाणत्त ॥ १४४ ।। चूरिण: - किं च प्राएसा जहा अज्ज मंगू तिविहं संखं इच्छति - एगभवियं, बद्धाउयं, अभिमुह्नामगोत्त च । ग्रज्ज समुद्दा दुविहं बद्धाउयं श्रभिमुहनामगोत्तं च । श्रज्ज सुहत्थी एगं- अभिमुहनामगोयं इच्छति । [ स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी, वृहत्कल्पसूत्र नी प्रस्तावना, पृष्ठ १३ ] इस प्रकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु के बहुत पश्चात् हुए प्रार्य मंगू, आर्य समुद्र और प्रायं सुहस्ती की मान्यताओं का आकलन एवं उल्लेख जिस निर्युक्त में हो, उसे किसी भी स्थिति में श्रुतकेवली भद्रबाहु की कृति नहीं माना जा सकता । निर्युक्तिकार भद्रबाहु और चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के एक होने न होने का विवादास्पद प्रश्न कल्पभाष्य के चूर्णिकार के समक्ष कभी रहा हो, इस प्रकार का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, अतः चूरिंणकार के इस कथन की निष्पक्ष अभिमत के रूप में गणना की जाकर प्रामाणिक और सत्य मानने में किसी प्रकार की शंका के लिये कोई अवकाश नहीं रहता । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छेद० श्रुत० भद्रबाहु ११. वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियां श्रुतकेवली भद्रबाह की कृतियां नहीं, इस पक्ष की पुष्टि करने वाला एक और प्रबल प्रमाण है स्वयं-इन नियुक्तियों का वर्तमान प्राकार-प्रकार । आवश्यक नियुक्ति में जिन-जिन सूत्रों पर नियुक्तियों की रचनाएं करने का उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है - मायारस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे निज्जुत्ति, वोच्छामि तहा दसाणं च ।।१४।। कप्पस्स य णिज्जुत्ति, ववहारस्सेस परमनिउणस्स । सूरियपण्णत्तीए, वुच्छं इसिभासियारणं च ।।५।। इन दश सूत्रों में से आचारांग और सूत्रकृतांग ये दोनों पागम प्राचार्य भद्रबाहु के समय में सर्वसम्मत मान्यतानुसार प्रति वृहदाकार एवं परिपूर्ण रूप में विद्यमान थे और प्रत्येक सूत्र पर चार-चार अनयोग प्रवृत्त थे। ऐसी स्थिति में यदि श्रुतकेवली भद्रबाह स्वामी द्वारा इन पर नियुक्तियों की रचना की गई होती तो वे उनके अनुरूप ही चार-चार अनुयोगों से युक्त अति विस्तीर्ण एवं प्रति विशाल प्राकार वाली होतीं। पर वस्तुस्थिति उससे नितान्त भिन्न दृष्टिगोचर होती है। प्राज के इनके अन्तरंग और बहिरंग स्वरूप को देखने से यही मानना उचित प्रतीत होता है कि माधुरी आदि विभिन्न वाचनाओं द्वारा अंतिमरूपेण सुसंस्कृत एवं संकलित आगम जिस रूप में आज हमारे समक्ष हैं, उन्हीं को आधार मानकर इनके अनुरूप नियुक्तियों की रचनाएं उपर्युक्त वाचनाओं के पश्चात् की गई हैं। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि आर्य रक्षित ने अपने विद्वान् शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र की विस्मृति और भावी शिष्य-प्रशिष्यों की क्रमशः मन्द से मन्दतर बुद्धि को ध्यान में रखते हुए जिस समय अनुयोगों को पृथक् किया उसी समय चार अनुयोगमय नियुक्तियों को अनयोग से पृथक कर व्यवस्थित कर लिया गया था। पर इस सम्बन्ध में वस्तुस्थिति पर सम्यगरूपेण विचार करने पर स्वतः ही इस कथन की अवास्तविकता और अनौचित्यता प्रकट हो जायगी। इस कथन की अवास्तविकता को प्रकट करने वाला प्रथम तथ्य तो यह है कि जिस प्रकार आगमों की विविध वाचनानों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उस प्रकार का एक भी उल्लेख नियुक्तियों को व्यवस्थित करने के सम्बन्ध में नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त दूसरा सबल तथ्य यह है कि प्राचारांग और सुत्रकृतांग का जो पूर्ण स्वरूप चतुर्दश पूर्ववर प्राचार्य भद्रबाह के समय में था, ठीक उसी प्रकार का इनका स्वरूप प्रार्य रक्षित के समय में भी था । ऐसी स्थिति में प्रार्य रक्षित द्वारा अनुयोगों के पृयककरण के समय ही इन दो सूत्रों को नियुक्तियों की इनके अनुयोगमय स्वरूप से पृयक कर व्यवस्था की जाती तो इन दोनों सूत्रों की वहदाकारता और विशालता के अनुरूप ही इन दोनों सूत्रों की नियुक्तियों का प्राकार एवं विस्तार भी वृहत् तथा विशाल होना चाहिये था और इन सूत्रों के जो बहुत Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३७१ से अंश तत्पश्चादवर्ती काल में विलुप्त हो गये उनमें से सबके सम्बन्ध में न सही पर कम से कम.दो-चार अंशों के सम्बन्ध में तो थोड़े बहत तथ्य इन नियुक्तियों में हमें आज भी अवश्य देखने को मिलते । पर वस्तुस्थिति इससे बिल्कुल विपरीत ही दृष्टिगोचर हो रही है। इन सब प्रमाणों के अतिरिक्त एक बड़ा महत्त्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न इस सन्दर्भ में हमारे समक्ष एक पेचीदा पहेली के रूप में यह उपस्थित होता है कि भीषण दुष्कालों एवं अनवरत गति से चले आ रहे ऋमिक स्मृतिहास के परिणामस्वरूप श्रुतकेवली भद्रबाह के समय में जो एकादशांगी का वृहतस्वरूप विद्यमान था उसको तो श्रमण-पीढ़ियां यथावत् स्वरूप में सुरक्षित नहीं रख सकी और उनके द्वारा (श्रुतकेवली भद्रबाह द्वारा) निर्मित नियुक्तियों को आज तक सुरक्षित रख सकीं, क्या यह बात किसी निष्पक्ष विचारक के गले उतर सकती है ? कदापि नहीं। निष्कर्ष उपर्युक्त विस्तृत विवेचन में प्रमाण पुरस्सर जो विपुल सामग्री प्रस्तुत की गई है उससे भली-भांति निर्विवादरूप से यह सिद्ध होता है कि ये नियुक्तियां अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की कृतियां नहीं, किन्तु भद्रबाहु नाम के किसी अन्य प्राचार्य की हैं । यदि ये उनकी कृतियां होती तो वे न स्वयं को (चतुर्दश पूर्वधर प्राचीन गोत्रीय प्रा० भद्रबाहको) ही नमस्कार करते और न अपने शिष्य प्रार्य स्थूलभद्र के लिये "भगवं पि एलभद्दो" - जैसे अपने पूज्य के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों का प्रयोग कर उनका गुणगान ही करते । इसके अतिरिक्त इन नियुक्तियों में श्रुतकेवली भद्रबाह से ४२० वर्ष पश्चात् हए अन्योगों के पृयक्करण का, वीर नि० संवत् ६०६ तक की मुख्य घटनाओं का एवं पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों का उल्लेख है, तथा आर्य वचस्वामी को नियुक्तिकार द्वारा नमस्कार किया गया है। अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तिया श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु द्वारा नहीं अपितु उनके पश्चाद्वर्ती भद्रबाहु नामक अन्य किसी भाचार्य द्वारा निमित्त की गई हैं। नियुक्तिकार कौन __चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाह उपलब्ध नियुक्तियों के कर्ता नहीं हैं, यह सिद्ध कर दिये जाने के पश्चात् यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर ये नियुक्तियां किसकी कृतियां हैं ? प्रश्न वस्तुतः बड़ा जटिल है। इसको सुलझाने का प्रयास करने से पहले हमें यह देखना होगा कि भद्रबाह नाम के कितने प्राचार्य हुए हैं और वे किस-किस समय में हुए हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्परामों के ग्रन्थों एवं शिलालेखों को देखने से ज्ञात होता है कि भद्रवाह कई हए हैं। दिगम्बर परम्परा में तो विभिन्न समय में भद्रबाहु नाम के ६ आचार्य हुए हैं, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में • भद्रबाह नाम के दो प्राचार्यों के होने का ही उल्लेख उपलब्ध होता है। एक तो Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ नियुक्तिकार कौन चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु और दूसरे नैमित्तिक भद्रबाहु । नैमित्तिक भद्रबाहु के सम्बन्ध में निम्नलिखित जनप्रिय गाथा प्रसिद्ध है पावयरणी १ धम्मकही २ वाई ३, मित्तिश्रो ४ तवस्सी ५ य । विज्जा ६ सिद्धो ७ य कई ८ अठेव पभावगा भरिया || १ || प्रज्जरक्ख ९ नन्दिसेरगो २ सिरिगुत्त विषेय ३ भद्दबाहु ४ य । खवग - ५ ज्जखवुड ६ समिया ७ दिवायरो ८ वा इहाहररणा ||२|| आठ प्रभावकों में नैमित्तिक भद्रबाहु को चौथा प्रभावक माना गया है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है - श्वेताम्बर परम्परा में काफी प्राचीन समय से यह मान्यता सर्वसम्मतरूपेण प्रसिद्ध है कि दशाश्रुतस्कन्ध कल्पसूत्र व्यवहारसूत्र और निशीथ सूत्र – ये चार छेदसूत्र आवश्यक नियुक्ति आदि १० नियुक्तियां 'उवसग्गहरस्तोत्र' और 'भद्रवाहु संहिता' ये १६ ग्रन्थ भद्रबाहु स्वामी की कृतियां हैं । इन १६ कृतियों में से ४ छेदसूत्र श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा निर्मित हैं, यह प्रमाणपुरस्सर सिद्ध किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में अनुमानतः शेष १२ कृत्तियां नैमित्तिक भद्रबाहु की हो सकती हैं क्योंकि इन दो भद्रबाहु के अतिरिक्त अन्य तीसरे भद्रबाहु के होने का श्वेताम्बर वाङ् मय में कहीं कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । इस अनुमान को पुष्ट करने वाला प्रमाण भी उपलब्ध है । वह यह है कि चौदहवीं शताब्दी की नोंध - पुस्तिका में उपसर्गहरस्तोत्रकार एवं ज्योतिर्विद् भद्रबाहु की कथा उट्ठकित है । इसके साथ ही साथ जैसा कि भद्रबाहु के परिचय में पहले बताया जा चुका है - श्वेताम्बर परम्परा के अनेक प्राचीन ग्रन्थों में भद्रबाहु और वराहमिहिर को सहोदर मानकर उनका विस्तृत परिचय संयुक्त रूप से दिया गया है । ऐसी दशा में वराहमिहिर का समय निश्चित हो जाने पर भद्रबाहु का समय भी स्वतः ही निश्चित हो जाता है । ● वराहमिहिर ने अपने "पंचसिद्धान्तिका" नामक ग्रन्थ के अन्त में निम्नलिखित श्लोक से ग्रन्थ रचना का समय शक सं० ४२७ दिया है :सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्र शुक्लादौ । अर्धास्तमिते भानो, यवनपुरे सौम्य - दिवसाद्ये || इस श्लोक के आधार पर वराहमिहिर के साथ-साथ नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहु का समय भी शक सं० ४२७, तदनुसार वि० सं० ५६२ और वीर निर्वाण संवत् १०३२ के आसपास का निश्चित हो जाता है । यह पहले ही बताया जा चुका है कि बारह वर्ष तक श्रमरणपर्याय की पालना के पश्चात् वराहमिहिर अपने बड़े भाई भद्रबाहु से विद्वेष रखने लगा । दोनों भाइयों की इस प्रतिस्पर्धा के परिरणामस्वरूप वराहमिहिर ने वाराही संहिता की और भद्रबाहु ने भद्रबाहु संहिता' की रचना की इस प्रकार की श्वेताम्बर परम्परा की आम मान्यता अधिक तर्कसंगत और युक्तिसंगत प्रतीत होती है । " वर्तमान में उपलब्ध भद्रबाहुसंहिता को विद्वानों ने भद्रबाहु की कृत्ति नहीं माना है । वस्तुतः भद्रबाहुसंहिता अभी प्रकाशित नहीं हुई है । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिकार कौन] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३७३ इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि वीर निर्वाण सं० १५६ से १७० तक आचार्यपद पर रहने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु और वीर नि० सं० १०३२ के आसपास होने वाले महान् प्रभावक नैमित्तिक भद्रबाहु की जीवनियों को कालान्तर में एक दूसरे के साथ जोड़ कर प्रथम भद्रबाहु को ही स्मृतिपटल पर अंकित रखा गया और द्वितीय भद्रबाहु को एक दम भूला दिया गया। दो प्राचार्यों के जीवन-परिचय के इस सम्मिश्रण के फलस्वरूप इस भ्रान्त धारणा ने जन्म लिया कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह ही नियुक्तिकार, उपसर्गहरस्तोत्रकार और भद्रबाहुसंहिताकार थे । इस प्रकार के भ्रम का निराकरण हो जाने के पश्चात् स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु छेदसूत्रकार थे और नैमित्तिक भद्रबाहु द्वितीय, नियुक्तियों, उपसर्गहरस्तोत्र और भद्रबाहुसंहिता के रचयिता थे । नियुक्तियों के रचनाकार वस्तुतः ज्योतिष विद्या के प्रेमी और नैमित्तिक थे इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमाण नियुक्तियों में उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहां दिये जा रहे हैं : १. आवश्यक नियुक्ति में गन्धर्व नागदत्त का कथानक दिया हुअा है । उसमें १२५२ से १२७० तक की गाथानों के मननपूर्वक अध्ययन से यह स्पष्टतः प्रतीत होता है कि प्रावश्यक नियुक्तिकार अष्टांगनिमित्त और मंत्रविद्या के एक चोटी के विद्वान थे । गन्धर्व नागदत्त के उक्त कथानक में निर्यक्तिकार का नैमित्तिक ज्ञान सहजरूप से स्वतः ही परिस्फुटित हो गया है और उन्होंने नाग के विष को उतारने के व्याज से काम, क्रोध, मद, मोह आदि नागों से उसे हुए प्राणियों के विष को उतारने की प्रक्रिया का उल्लेख किया है ।' "उपसर्गहर स्तोत्र" में प्रयुक्त 'विसहर फुलिंगमंतं', इस पद का प्रावश्यक नियुक्ति में वर्णित विषनिवारक प्रक्रिया से तालमेल भी यह मानने के लिये बाध्य करता है कि ये दोनों कृतियां एक ही महापुरुष की हैं। प्रावश्यक नियुक्ति की गाथा १२७० में सामान्यतया मन्त्रतन्त्रादि क्रियानों में सर्वत्र प्रयुक्त किये जाने वाले रूढ़ शब्द "स्वाहा” का प्रयोग भी इस बात का ' गन्धब नागदत्तो, इच्छइ सप्पेहि खिल्सिउं इहयं । तं जइ कहं चि खज्जइ, इत्य हु दोसो न कायन्यो ।।१२५२।। एए ते पावाही, चत्तारि वि कोहमाणमयलोभा । जेहि सया संसत्तं, जरियमिव जयं कलकलेइ ।।१२६२।। एएहि मह खइयो, चउहि वि मासीदिसेहि पावेहि । विसनिग्घायण हेळं, चरामि विविहं तवोकम्मं ।।१२६४।। सिवे नमंसिऊणं, संसारत्या य जे महाविज्जा । वोच्छामि दण्डकिरियं, सव्वविसनिवारण विज्ज ।।१२६६।। सव्वं पाणाइवाय, पच्चक्खाई मि पलियवयणं च । सब्वमद तादाणं, प्रबंभ परिग्गहं स्वाहा ।।१२७०।। [मावश्यक नियुक्ति] Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ नियुक्तिकार कौन प्रमारण है कि नियुक्तिकार अष्टांग निमित्त तथा मंत्र-विद्या के पारंगत विद्वान् थे । आध्यात्मिक साधना पर इस प्रकार की मंत्र-विद्या की छाप वस्तुतः निर्युक्तिकार के अतिशय निमित्त प्रेम का ही द्योतक है । ३७४ ज्योतिष विद्या के मान्य शास्त्र " सूर्य प्रज्ञप्ति " पर भी भद्रबाहु ने निर्युक्ति की रचना की । यह भी इस तथ्य को प्रकट करता है कि वे एक महान् नैमित्तिक थे और ज्योतिष शास्त्र के प्रति उनके प्रगाध प्रेम एवं प्रगाध ज्ञान ने ही उन्हें इस ज्योतिष शास्त्र के भण्डार "सूर्यप्रज्ञप्ति" शास्त्र पर नियुक्ति की रचना करने को प्रेरित किया । वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों के कर्त्ता प्राचार्यं भद्रबाहु एक महान् नैमित्तिक थे, इस बात का एक और प्रबल प्रमारण यह है कि श्राचारांग जैसे चरणकररणानुयोग के तात्विक शास्त्र पर नियुक्ति की रचना करते समय भी निमित्त शास्त्र के प्रति उनका अगाध प्रेम-पयोधि उद्वेलित हो उठा है और वे तात्विक निर्देश के समय भी निम्नलिखित गाथा में निमित्त का वर्णन कर देते हैं : : जत्थ य जो पण्णवप्रो, कस्स वि साहइ दिसासु यणिमित्तं । जत्तो मुहो य ठाई, सा पुव्वा पच्छन अवरा ॥ ५१ ॥ अर्थात् जो व्याख्याता जिस जगह पर जिस ओर मुंह किये हुए किसी को निमित्त का निरूपण करता है, उस स्थिति में जिस प्रोर उसका मुँह है वह पूर्व दिशा और जिस ओर उसकी पीठ है वह पश्चिम दिशा समझनी चाहिये ! दशाश्रुतस्कन्ध-निर्युक्ति की मंगलगाथा “वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनारिण" में प्रयुक्त 'पाईरणं' प्राचीनं शब्द हमें यह सोचने के लिये अवसर प्रदान करता है कि भद्रबाहु नामक निमित्तशास्त्र के विद्वान् महापुरुष ने नियुक्ति की रचना करते समय दशाश्रुतस्कन्धकार चतुर्दश पूर्वघर श्रा० भद्रबाहु को प्रपने से प्राचीन मानकर वन्दन किया है । हो सकता है कि प्राचीनता के बोधक इस "पाई" शब्द का आगे चल कर प्राचीन गोत्रीय ऐसा अर्थ कर लिया गया हो । इस प्रकार का विचार करने के लिये इस कारण अवसर मिलता है कि प्राचीन ग्रन्थ तित्थोगालिय पन्ना में श्रुतकेवली भद्रबाहु के नाम के साथ "पाई" विशेषरण किसी भी स्थान पर नहीं लगाया गया है । इस अनुमान से भी वीर नि० संवत् १०३२ के आसपास होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु ही नियुक्तियों के रचनाकार हैं, इस प्रकार के विश्वास को बल मिलता है । इन सब प्रमाणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण सं० १०३२ के लगभग होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु, जो कि वराहमिहिर के भाई थे, उन्होंने ही ग्रावश्यक आदि दश निर्युक्तियों, उपसर्गहरस्तोत्र और भद्रबाहुसंहिता की रचनाएं कीं। यह संभव है कि आचार्य हेमचन्द्रसूरि के पश्चाद्वर्ती किसी काल में नाम साम्य के कारण चतुर्दश पूर्वधर, प्राचीन अथवा प्राचीन Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिकार कौन ] श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३७५ गोत्रीय भद्रबाहु को तथा वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु को एक ही महापुरुष मानने की भ्रान्त धारणा प्रचलित हो गई हो । वस्तुतः 'तित्थोगालिय पन्ना', 'आवश्यकचूरिंग', आवश्यक हारिभद्रीया टीका और परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन का जो थोड़ा बहुत परिचय उपलब्ध होता है, उनमें द्वादशवार्षिक दुष्काल, भद्रबाहु द्वारा छेदसूत्रों की रचना, उनके नेपालगमन, महाप्राणध्यान को साधना और श्रार्य स्थूलभद्र को पूर्वो की वाचना देना आदि घटनात्रों का विवरण दिया गया है । इन ग्रन्थों में इनके वराहमिहिर का सहोदर होने, निर्युक्तियों, उपसर्गहस्तोत्र तथा भद्रबाहु संहिता की रचना करने का कहीं किंचितमात्र भी उल्लेख नहीं किया गया है । एक महत्वपूर्ण तथ्य उपरोक्त उल्लेखों से यह जो प्रमाणित किया गया है कि वर्तमान में उपलब्ध श्रावश्यक निर्युक्ति आदि निर्युक्तियों के रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि नियुक्तियों के सर्वप्रथम कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु ही हैं । समवायांगसूत्र, स्थानांग सूत्र श्रौर नन्दीसूत्र में जहां द्वादशांगी का परिचय दिया गया है, वहाँ प्रायः प्रत्येक सूत्र के सम्बन्ध में "संखेज्जाश्रो निज्जुतीप्रो” इस प्रकार का उल्लेख है। मूल आगमों में इस प्रकार के उल्लेख से यह प्रकट होता है कि नियुक्तियों की परम्परा प्रागमकाल से ही प्रचलित रही है । "संखेज्जाश्रो निज्जुत्तीम्रो" - ग्रागम के इस पाठ पर ध्यानपूर्वक विचार करने से प्रतीत होता है कि प्रत्येक आचार्य, प्रत्येक उपाध्याय अपने शिष्यों को श्रागमों की वाचना देते समय अपने शिष्यों के हृत्पटल पर आगमों के अर्थ को सदा के लिये अंकित कर देने के अभिप्राय से अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से निर्युक्तियों की रचना करते रहे हों । वस्तुतः प्राज की शिक्षा प्रणाली में व्याख्याता प्राध्यापकों द्वारा अपने छात्रों को "नोट्स" लिखाने की परम्परा प्रचलित है, उसी प्रकार आज की इस परम्परा से और अधिक परिष्कृत रूप में शिक्षार्थी श्रमणों के हित को दृष्टि में रखते हुए प्राचार्यों द्वारा निर्युक्तियों की रचनाएं परम्परा से की जाती रहीं हैं । निशीथ चूरिण, कल्पचूरिण यादि में प्रार्य गोविन्द की निर्युक्ति का उल्लेख उपलब्ध होता है । ये प्रार्य गोविन्द युगप्रधान पट्टावली के अनुसार २८ वें युगप्रधान थे। इनका समय विक्रम की पांचवीं शताब्दी के अंतिम चरण से छठी शताब्दी के प्रथम चरण के बीच का बैठता है । अतः ये नियुक्तिकार भद्रबाहु से पूर्व के हैं । प्रत्येक सूत्र के साथ "संखेज्जाम्रो निज्जुत्तीम्रो" यह पाठ देख कर यह भी संभव प्रतीत होता है कि समय-समय पर प्रायः सभी प्राचार्यों द्वारा निर्युक्तियों की रचनाएं की गई । उन निर्युक्तियों की अनेक उत्तम एवं लोकप्रिय गाथाएं भद्रबाहु Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [एक महत्वपूर्ण तथ्य (प्रथम) के काल से प्रचलित रही हों और उनमें से कतिपय गाथानों का संकलन कर उन्हें नियुक्तिकार नैमित्तिक भद्रबाहु ने अपनी नियुक्तियों में स्थान दिया हो। तत्कालीन उत्कट चारित्रनिष्ठा अंतिम श्रतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के समय के प्रात्मार्थी श्रमणवर्ग के मानस में किस प्रकार की उत्कृष्ट कोटि की चारित्रनिष्ठा थी, इसकी कल्पना भद्रबाहु के चार शिष्यों के निम्नलिखित उदाहरण से की जा सकती है : प्राचार्य भद्रबाहु विविध क्षेत्रों में अनेक भव्य - प्राणियों का उद्धार करते हुए एक समय राजगृह नगर पधारे । अनन्तकाल से मोह की प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए प्राणियों को जगाकर उनके अन्तर में प्रात्मोद्धार की उत्कट अभिलाषा जागृत कर देने वाले भद्रबाहु के उपदेश को सुनकर अनेक व्यक्ति अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हुए। बाल्यकाल से ही साथ-साथ रहने वाले चार सम्पन्न श्रेष्ठी भद्रबाहु के उपदेश से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन चारों ने अपनी अपार धनसम्पत्ति का तत्काल परित्याग कर भद्रबाहु के पास श्रमण - दीक्षा ग्रहण कर ली। उन चारों ने कठोर तपश्चरण के साथ-साथ शास्त्रों का अध्ययन किया। वे चारों ही श्रमरण बड़े शान्त, दान्त, निरीह, वैराग्य रंग में पूर्णरूपेण रंजित, मित, मधुर एवं सत्यभाषी, विनीत और सेवाभावी थे। प्राचार्य भद्रबाहु से प्राज्ञा प्राप्त कर वे चारों श्रमण एकलविहारी प्रतिमापारी बन गये। अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए कालान्तर में वे चारों एकलविहारी श्रमरण पुनः राजगृह नगर के वैभार पर्वत पर प्राये । उस समय शीतकाल की प्रति शीत लहरों के कारण राजगृह में अंग-प्रत्यंग को ठिठुरा देने वाली ठंड पड़ रही थी। दिन के तीसरे प्रहर में वे चारों एकलविहारी श्रमण राजगह नगर में भिक्षार्थ पाये । भिक्षा ग्रहण कर उनके लौटते-लौटते चतुर्थ प्रहर पा उपस्थित हुमा । एक साधु पर्वत की गुफा के द्वार पर, दूसरा उद्यान में, तीसरा उद्यान के बाहर और चौथा नगर के बहिमार्ग में ही पहुंच पाया था कि चतुर्थ प्रहर का समय हो गया। "साधु तृतीय प्रहर में ही भिक्षाटन एवं गमनागमनादि करे" - इस श्रमण - नियम के सच्चे परिपालक वे चारों साधु जहां थे वहीं ध्यानमग्न हो गये । रात्रि की निस्तब्धता के साथ-साथ प्रारणहारी शीत की भीषणता भी बढ़ती गई । भीषण शीत लहर के कारण उन चारों मुनियों के अंग-प्रत्यंग पूर्णरूतेण ठिठुर गये । उनकी धमनियों में खून ठंड के मारे बरफ की तरह जमने लगा। किन्तु इस प्रकार की असह्य मारणान्तिक वेदना से भी वे चारों मुनि किंचित्मात्र भी विचलित हुए । वे अत्यंत उज्वल परिणामों के साथ शुभध्यान में मग्न रहे । पर्वत के ऊपर गुफा के पास अत्यधिक ठंड थी अतः गुफा के द्वार पर ध्यानस्थ मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में ही काल कर स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुए । उद्यान में पर्वत की अपेक्षा कम ठंड थी अतः उद्यान में ध्यानस्थ मुनि रात्रि के द्वितीय प्रहर में, उद्यान के बाहर ध्यान मग्न मुनि रात्रि के तृतीय प्रहर में और Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ उत्कट चारित्रनिष्ठा] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु नगर के बहिमार्ग में ध्यानस्थ मुनि रात्रि के चतुर्थ प्रहर में शरीर त्याग कर देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए। ___ साधना-पथ के पथिक श्रमणों के हृदय में उस समय श्रमणाचार के प्रति कितनी प्रगाढ़ निष्ठा और शरीर के प्रति कितनी निर्ममत्व भावना थी, इसका अनुमान भद्रबाह के इन चार शिष्यों की अंतिम चर्या से सहज ही लगाया जा सकता है। भद्रबाहु विषयक श्वेताम्बर मान्यतामों का निष्कर्ष तित्थोगालियपइन्ना, अावश्यक चूणि, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति और प्रा० हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्व - इन श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में अन्तिम श्रतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के सम्बन्ध में केवल इतना ही परिचय उपलब्ध होता है कि वे अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर थे, उनके समय में द्वादश वार्षिक दुष्काल पड़ा, वे लगभग १२ वर्ष तक नेपाल प्रदेश में रहे, वहाँ उन्होंने बारह वर्ष तक योगारूढ़ रहकर महाप्रारण ध्यान की साधना की, उनके समय में पर उनकी अनुपस्थिति में प्रागमों की वाचना वीर नि० सं० १६० के आसपास पाटलिपुत्र नगर में हई, उन्होंने आर्य स्थूलभद्र को दो वस्तु कम १० पूर्वो का सार्थ और शेष पूर्वो का केवल मूल वाचन दिया, उन्होंने ४ छेदसूत्रों की रचना की और जिनशासन का महान उद्योत कर वे वी० नि० सं० १७० में स्वर्ग पधारे । उपरोक्त चार ग्रन्थों के पश्चाद्वर्ती काल में बने श्वेताम्बर परम्परा के कतिपय ग्रन्थों में श्रतकेवली भद्रबाह के जीवनचरित्र के साथ वीर नि० सं० १०३२ के आसपास हुए नैमित्तिक भद्रबाह के जीवन की घटनाओं को जोड़कर जो उन्हें वराहमिहिर का सहोदर बताया गया है, उस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण कर दिया गया है। उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं । । ऐसी स्थिति में श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन का जो परिचय तित्थोगाली पइन्ना आदि उपरोक्त चार ग्रन्थों में दिया गया है वही वास्तव में प्रामाणिक है। अन्य ग्रन्थों में उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त जिन घटनाओं को श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन के साथ जोड़ा गया है उन्हें वी० नि० सं० १०३२ के आसपास हुए नैमित्तिक भद्रबाह के जीवन से सम्बन्धित समझना चाहिए। श्रुतकेवलिकाल को राजनैतिक एवं अन्य प्रमुख ऐतिहासिक घटनाएं प्रमुख राजवंश :- यह पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ६० में शिशुनागवंशी राजा उदायी के पश्चात् नन्दिवर्धन पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर प्रारूढ़ हया । नन्दिवर्धन से लेकर अन्तिम नंद धननंद तक पाटलिपुत्र के राजारों को जैन एवं जैनेतर साहित्य में नव नन्दों के नाम से अभिहित किया गया है । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासक ६ वर्ष ३७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्रु० की ऐति० घटनाएं श्रुतकेवलिकाल प्रारम्भ हुआ उस समय प्रथम नन्द को पाटलिपुत्र के शासन की बागडोर सम्भाले ४ वर्ष बीत चुके थे। उन ६ नन्दों में से किस-किस का कितने-कितने वर्षों तक शासन रहा, इस सम्बन्ध में "दुष्षमा श्रमणसंघ स्तोत्र" की अवचूरि में निम्नलिखित रूप से विवरण दिया गया है : शासनकाल शासनकाल में प्राचार्य एवं प्रा० काल १. नन्द प्रथम ११ वर्ष आर्य जम्बू ४ वर्ष, प्रभव ७ वर्ष २..नन्द द्वितीय १० वर्ष । प्रभव ४ वर्ष, सय्यंभव ६ वर्ष ३. नन्द तृतीय १३ वर्ष सय्यंभव १३ वर्ष ४. नन्द चतुर्थ २५ वर्ष सय्यंभव ४ वर्ष, यशोभद्र २१ वर्ष ५. नन्द पंचम २५ वर्ष यशोभद्र २५ वर्ष ६. नन्द षष्ठ यशोभद्र ४ वर्ष संभूतविजय २ वर्ष ७. नन्द सप्तम ६ वर्ष संभूतविजय ६ वर्ष ८. नन्द अष्टम ४ वर्ष भद्रबाहु ४ वर्ष ६. नवम नन्द धननंद ५५ वर्ष भद्रबाहु १० वर्ष स्थूलभद्र ४५ वर्ष दुष्षमा श्रमरणसंघ स्तोत्र में उल्लिखित उपरिवरिणत विवरण से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि श्रुतकेवलिकाल के प्रारम्भ होने से ४ वर्ष पूर्व प्रथम नन्द नन्दिवर्धन पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन हया और श्रुतकेवलिकाल की समाप्ति के समय वीर निर्वाण संवत् १७० में अन्तिम एवं नवम नंद धननन्द के शासनकाल के १० वर्ष व्यतीत हो चुके थे तथा श्रुतकेवलिकाल की समाप्ति के ४५ वर्ष पश्चात् १५५ वर्ष के नन्दों के शासनकाल की समाप्ति के साथ पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त आसीन हुअा। उपरोक्त ६ नन्दों में से केवल प्रथम, अष्टम और नवम नंद के अतिरिक्त अन्य ६ राजाओं के नाम उपलब्ध नहीं होते । इन : नन्द राजाओं के कुल मिला कर १५५ वर्प के राज्यकाल में किस-किस नन्द का कितने-कितने वर्ष तक राज्य रहा, इस सम्बन्ध में भी दुष्पमाश्रमणसंघस्तोत्र-प्रवचूरि को छोड़ कर अन्यत्र प्राचीन ग्रन्थों में कोई विश्वसनीय और सुव्यवस्थित उल्लेख नहीं मिलता। दुष्षमाश्रमणसंघ स्तोत्र में नव नन्दों का राज्यकाल दिया गया है, उसे तब तक अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता जब तक कि इससे भिन्न कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं हो जाता । ___ प्राचीन ऐतिहासिक घटनाक्रम के पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि वीर नि० सं० ६४ से १७० तक के १०६ वर्ष के ध्रुतकेवलिकाल में एक प्रकार 'पुगो पाडलीपुरे ११, १०, १३, २५, २५, ६, ६, ४, ५५ नवनन्द एवं वर्ष १५५ रज्जे - जंवू शेषवर्षारिण ४, प्रभव ११, सय्यं भव २३. यशोभद्र ५०, संभूतविजय.८, भद्रबाहु २४, स्थूलभद्र ४५, एवं वीरनिर्वाणात २१५ । [दुष्पमाकाल श्री श्रमगगसंघस्तोत्र, प्रवचूरि, पट्टावली - समुच्चय पृ० १७] Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ १० की ऐति० घटनाएं] श्रुतकेवली-काल :माचार्य श्री भद्रबाहु से प्रायः तन्द राजाओं का ही प्रभूत्व रहा । प्रथम नन्द नन्दिवर्धन ने अनेक राज्यों को विजित कर मगधराज्य की सीमाओं और शक्ति में अभिवृद्धि की। नन्दिवर्धन के राज्यकाल से ही अवन्ती, कौशाम्बी और कलिंग के राजा मगध राज्य के प्राज्ञावर्ती शासक बन चुके थे। उपकेशगच्छ उपकेशगच्छ पट्टावली आदि के अनुसार वी० नि० सं० ७० में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेश नगर (प्रोसियां) में चातुर्मास किये जाने और वहां के क्षत्रियों को प्रोसवाल बनाने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि पार्श्वपरम्परा के प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के पास विद्याधर राजा 'मणिरत्न' भिन्नमाल में वन्दन करने आया और उनका उपदेश सुन कर अपने पुत्र को राज्य सम्हला प्राचार्यश्री के पास दीक्षित हो गया। उस समय विद्याधरराज मरिणरत्न के साथ अन्य ५०० विद्याधर भी दीक्षित हो गये। दीक्षा के पश्चात् प्राचार्य स्वयंप्रभ ने उनका नाम 'रत्नप्रभ' रखा। वीर नि० सं० ५२ में मुनि रत्नप्रभ को प्राचार्य पद प्रदान किया गया। भाचार्य रत्नप्रभ अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए एक समय उपकेशनगर में पधारे। __ उपकेश नगर के सम्बन्ध में उपकेशगच्छ पट्टावली में उल्लेख है कि भिन्नमाल के राजा भीमसेन के पुत्र पुंज का राजकुमार उत्पलकुमार किसी कारणवश अपने पिता से रुष्ट हो कर क्षत्रिय मंत्री के पुत्र ऊहड़ के साथ 'भिन्नमाल' से निकल पड़ा। राजकुमार और मन्त्रिपुत्र ने एक नवीन नगर बसाने का विचार किया और अन्ततोगत्वा १२ योजन लम्बे-चौड़े क्षेत्र में उपकेशनगर बसाया। नये बसाये गये उपकेश नगर में भिन्नमाल के १८०० व्यापारी, ६०० ब्राह्मण तथा अनेक अन्य लोग भी पाकर बस गये । प्राचार्य रत्नप्रभसूरि जिस समय अपने शिष्यसमूह के साथ उपकेशनगर में पधारे उस समय सारे नगर में एक भी जैन धर्मावलम्बी गृहस्थ के न होने के कारण उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। भिक्षा न मिलने के कारण उन्हें और उनके शिष्यों को उपवास पर उपवास करने पड़े फिर भी उन्होंने ३५ साधुओं के साथ उपकेश नगर में चातुर्मास करने का निश्चय किया और अपने शेष सब शिष्यों को कोरंटा आदि अन्य नगरों और ग्रामों में चातुर्मास करने के लिये उपकेशनगर से विहार करवा दिया। उपकेशनगर में चातुर्मास करने के पश्चात् रत्नप्रभसूरि पाहार-पानी की अनुपलब्धि प्रादि अनेक घोर परीषहों को समभाव से सहते हुए प्रात्मसाधना में तल्लीन रहने लगे। इस प्रकार चातुर्मास का कुछ समय निकलने के पश्चात् एक दिन उपकेश नगर के राजा उत्पल के दामाद त्रैलोक्यसिंह को, जो मंत्री ऊहड का पुत्र था एक भयंकर विषधर ने डस लिया। उपचार के रूप में किये गये सभी Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग (उपकेशगच्छ प्रयत्न निष्फल रहे और कुमार को मृत समझ कर दाहसंस्कार के लिये स्मशान की ओर ले चले। वहां प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का चरणोदक सींचने पर कुमार का जहर उतर गया और उसने नवीन जीवन प्राप्त किया। शोक में डूबा हुमा राजपरिवार और समस्त उपकेश नगर पुनः आनन्दित हो उठा। इस अद्भुत घटना से प्रभावित हो कर राजा, मन्त्री, उनके परिजनों और पौरजनों आदि ने बहत बड़ी, संख्या में जैनधर्म स्वीकार किया और उन सब के प्रोसियां निवासी होने के कारण उन नये जैन बने लोगों की "पोसवाल" नाम से प्रसिद्धि हुई। __यह भी कहा जाता है कि राज्य की अधिष्ठायिका चामुण्डा देवी को भीजिसे कि - बलि दी जाती थी, प्राचार्य रत्नप्रभ ने उपदेश देकर सम्यक्त वधारिणी बनाया और "सच्चिका" नाम देकर उसे प्रोसवालों की कुलदेवी के रूप में प्रतिष्ठापित किया। देवी ने केवल पशुओं की बलि लेना ही नहीं छोड़ा अपितु लाल रंग के फूल भी वह पसंद नहीं करती थी। उपकेशगच्छ पट्टावली में प्राचार्य रत्नप्रभ के इस प्रकार के अन्य अनेक चमत्कारों की घटनाओं का उल्लेख किया गया है। कहा जाता है कि आपने १,८०,००० अजैनों को जैन धर्मावलम्बी बनाया और वीर नि० सं० ८४ में स्वर्ग प्राप्त किया। रत्नप्रभसूरि के पश्चात् यक्षदेवसूरि आदि के क्रम से उपकेशगच्छ की प्राचार्य परम्परा अद्यावधि अविच्छिन्न रूप से चलती हुई बताई गई है। द्विवन्दनिक गच्छ और तपारत्न शाखा इन्हीं प्राचार्य यक्षदेव के शिष्य उदयवर्द्धन से निकली कही जाती है। प्राचार्य भद्रबाहु का शिष्यपरिवार प्राचार्य भद्रबाहु के निम्नलिखित ४ प्रमुख शिष्य थे:१. स्थविर गोदास २. स्थविर अग्निदत्त ३. स्थविर यज्ञदत्त और ४. स्थविर सोमदत्त ये चारों शिष्य काश्यपगोत्रीय थे। स्थविर गोदास से गोदास-गण प्रचलित हुआ, जिसकी निम्नलिखित चार शाखाएं थीं :१. तामलित्तिया, २. कोडीवरिसिया ३. पंडुवद्धणिया (पोंडवद्धणिया) और ४. दासी खब्बडिया ' विशेष जानकारी के लिये देखें भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वधर - काल ( वीर नि. सं. १७० से ५८४ ) दशपूर्वर- काल के प्राचार्य : ८. आचार्य स्थूलभद्र आचार्यकाल - वी. नि. सं. १३० से २१५ ६. आचार्य श्रायं महागिरि आचार्यकाल - वी. नि. सं. २१५ से २४५ १०. प्राचार्य श्रार्य सुहस्ती आचार्यकाल - वी. नि. सं. २४५ से २६१ ११. प्राचार्य गुरण सुन्दर प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. २०१ से ३३५ १२. प्राचार्य श्याम ( कालकाचार्य प्रथम ) आचार्यकाल - वी. नी. सं. ३३५ से ३७६ १३. प्राचार्य सांडिल्य आचार्यकाल - वी. नि. सं. ३७६ से ४१४ १४. प्राचार्य रेवतीमित्र आचार्यकाल - वी. नि. सं. ४१४ से ४५० • १५. आचार्य धर्म आचार्यकाल - वी. नि. सं. ४५० से ४९४ १६. प्राचार्य भद्रगुप्त प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. ४६४ से ५३३ १७. प्राचार्य श्री गुप्त प्राचार्यकाल - वी. नि. सं० ५३३ से ५४८ १८. प्राचार्य श्रार्य वज्र आचार्यकाल - वी. नि. सं. ५४८ से ५८४ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वधर-काल अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाह के स्वर्गगमन के साथ ही वीर नि० सं० १७० में श्रुतकेवलिकाल की समाप्ति और दशपूर्वधरों के काल का प्रारम्भ होता है। श्वेताम्बर परम्परा वीर नि० सं० १७० से ५८४ तक कुल मिला कर ४१४ वर्ष का और दिगम्बर परम्परा वी० नि० सं० १९२ से ३४५ तक कृल १८३ वर्ष का दशपूर्वधरकाल मानती है । ८. प्रार्य स्थूलभद्र अन्तिम तकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के पश्चात् भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर प्राचार्य प्राय स्थूलभद्र हुए। कामविजयी प्रार्य स्थूलभद्र की गणना उन विरले नरपंगवों में सर्वप्रथम की जा सकती है जिनका उल्लेख भर्तृहरि ने निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से किया है :मत्तेभकुंभदलने भुवि सन्ति शूराः, कैचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य, ___ कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ।। आर्य स्थूलभद्र द्वारा काम पर प्राप्त की गई अद्भुत विजय से उत्प्रेरित हो अनेक कवियों ने इनके जीवनचरित्र पर अनेक भाषाओं में अनेक काव्य लिखे हैं। शृंगार और वैराग्य दोनों ही की पराकाष्ठा का अपूर्व एवं अद्भुत समन्वय प्रार्य स्थूलभद्र के जीवन में पाया जाता है। कज्जल से भरी कोटरी में रह कर भी कोई व्यक्ति अपने शरीर पर किंचित् मात्र भी कालिख न लगने दे, यह असंभव है। परन्तु आर्य स्थूलभद्र ने निरन्तर चार मास तक अपने समय की सर्वाधिक सुन्दरी कामिनी कोशा वेश्या के गृह में रहते हुए भी पूर्ण निष्काम रह कर इस असंभव को संभव कर बताया। जन्म, माता-पिता. प्राचार्य स्थूलभद्र का जन्म वीर निर्वाण सं० ११६ में एक ऐसे संस्कारसम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुप्रा जो जैन धर्म पर दृढ़ आस्था रखने वाला और राजमान्य था। मगधसम्राट उदायी की मृत्यु के पश्चात् इस परिवार का पूर्व पुरुष कल्पक प्रथम नन्द द्वारा मगध साम्राज्य का महामात्य नियुक्त किया गया। तब ही से अर्थात् प्रथम नन्द के समय से नवम नन्द के समय तक निरन्तर - इसी ब्राह्मण परिवार का मुखिया मगध के महामात्य पद को सुशोभित करता रहा। नवम नन्द के महामात्य का नाम शकटार अथवा शकडाल था। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन्म माता-पिता ग्रार्य स्शुलभद्र इन्हीं गौतम गोत्रीय ब्राह्मण शकडाल के पुत्र थे । स्थूलभद्र की माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। ___ मन्त्रीश्वर शक डाल अपने समय के मवोच्च कोटि के राजनीतिज्ञ, शिक्षा विशारद और कुशल प्रशासक थे। शकटार के महामात्य काल में मगधराज्य की उल्लेखनीय सीमावृद्धि के माथ-साथ राजस्व खाते में अभूतपूर्व अभिवृद्धि हुई । अनेक प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि नवम नन्द के कोश में इतनी वृद्धि हुई कि स्वर्ण की पहाड़ियां बना कर उसे अपने धन की रक्षा करने की स्थिति उत्पन्न हो गई। शकटार के महामान्त्रत्वकाल में शिक्षा के क्षेत्र में अभ्यूनति हेतु अपार धनराशि व्यय की जाती रही। उन दिनों नालन्दा विश्वविद्यालय चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुका था और उसकी ख्याति समुद्र के पारवर्ती देशों तक फैल गई थी। इस प्रकार के विख्यात महामात्य के घर में स्थूलभद्र का जन्म हुमा। स्थूलभद्र के छोटे सहोदर का नाम श्रीयक था। यक्षा, यक्षदिना, भूता, भूतदिन्ना, सैरगा, मैरणा तथा रेणा नाम . को स्थूलभद्र और श्रीयक की सात बहिनें थीं। मन्त्रीश्वर शकटार ने अपने दोनों पुत्रों और सातों पुत्रियों की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध किया और उन सबको सभी प्रकार की विद्याओं की उच्च कोटि की शिक्षा दिलवाई। कोशा के यहां सकल विद्यानों में निष्णात होने के उपरान्त भी युवक स्थूलभद्र भोगमार्ग से नितान्त अनभिज्ञ रहे अतः संसार से विरक्त स्थूलभद्र को व्यावहारिक शिक्षा दिलाने एवं गृहस्थ जीवन की ओर आकृष्ट करने की दृष्टि से मन्त्रीश्वर शकटार ने उन्हें कोशा नाम की एक बड़ी चतुर वेश्या के यहां रखा, जो अपनी वाक्पटुता, अवसरज्ञता एवं अवसरानुकूल नैसर्गिक अभिनयकला के लिये विख्यात थी। कुछ ही दिनों के संसर्ग से शिक्षिका कोशा पौर शिक्षार्थी स्थूलभद्र एक दूसरे के गुरणों पर इतने अधिक मुग्ध हो गये कि क्षण भर के लिये भी एक दूसरे की दृष्टि से दूर रहना उन दोनों के लिये प्राणापहरण के समान असह्य हो गया। यह पारस्परिक आकर्षण अन्ततोगत्वा उस चरम सीमा तक पहुच गया कि बारह वर्ष पर्यन्त उन दोनों ने एक दूसरे में अत्यन्त अनुरक्त रहते हुए अपनी दासियों के अतिरिक्त किसी अन्य का मुख तक नहीं देखा। संभवतः अपने इस कटु अनुभव से शिक्षा लेकर मन्त्रीश्वर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र की तरह कनिष्ठ पुत्र को शिक्षण प्राप्त कर लेने पर किसी वेश्या के यहां व्यावहारिक शिक्षा दिलाना आवश्यक नहीं समझा। अतः श्रीयक अपने पिता के साथ नवम नन्द के राज-दरबार में जाने और राज्यकार्य में अपने पिता की सहायता करने लगा। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वधर काल : प्रार्य स्थूलभद्र वररुचि को प्रतिस्पर्धा यथार्थतः राज्यतन्त्र का व्यवस्थित रूप से संचालन बड़ा काठन कार्य है क्योंकि गज्यतन्त्र अथवा राजनीति स्वयं एक अस्थाई तत्व है । शकटार के जीवन का अन्तिम समय वस्तुतः राजनैतिक दृष्टि से बड़ा ही विषम और विकट था । चरमोत्कर्ष के पश्चात् नन्द का राज्य संभवतः प्रकृति के नियम के अनुसार अपने पतन की प्रतीक्षा में पतन के गहन गर्त की कगार की ओर अग्रसर होना चाहता था। शकटार के बुद्धिकौशल द्वारा संचालित नन्द का राज्यतन्त्र स्वचालित यन्त्र की तरह सुनियोजित ढंग से स्वतः ही चलता हुआ प्रतीत हो रहा था। राज्य के छोटे से छोटे कार्य से लेकर बड़े से बड़े कार्य में सर्वत्र शकटार का वर्चस्व था। प्रचण्ड मार्तण्ड के प्रबल प्रताप से उलूक के मन में ईर्ष्या का उत्पन्न होना नैसर्मिक है। शकटार के प्रवल प्रताप को देखकर वररुचि नामक विद्वान् के मन में ईप्या उत्पन्न हई और शनैः शनैः विद्वान वररुचि मन्त्रीश्वर शकटार का प्रबल प्रतिस्पर्धी बन गया । अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य के माध्यम से राजा और प्रजा के मन में अपने लिये स्थान बनाने की दृष्टि से वररुचि राजा की प्रशंसा में प्रतिदिन नवीनतम काव्य-रचना सुनाकर राजां से प्रतिष्ठा के साथ-साथ अर्थप्राप्ति का प्रयत्न करने लगा। महाराजा नन्द अपने महामात्य शकटार की मर्मज्ञता से पूर्णरूपेण प्रभावित था। शकटार के मुख से वररुचि की काव्यरचना की श्लाघा में एक भी शब्द न सुनकर नन्द ने न तो वररुचि के अभिनव एवं सुन्दर काव्यों की कभी सराहना ही की और न कभी प्रसन्न हो उसे उसकी काव्यरचना के उपलक्ष में अर्थ ही प्रदान किया । अथक प्रयास से तैयार की गई सुन्दर से सुन्दरतम काव्यरचना पर भी जब वररुचि को राजा की ओर से किसी प्रकार का परितोषिक प्राप्त नहीं हुआ तो वररुचि वस्तुस्थिति को समझ गया। बहुत सोच विचार के पश्चात् वररुचि ने साहित्य की मर्मज्ञा शकटार-पत्नी लक्ष्मीदेवी को अपनी काव्यरचनाओं से प्रसन्न करने का प्रयास प्रारम्भ किया। वह प्रतिदिन विदुषी लक्ष्मीदेवी की सेवा में उपस्थित हो अपनी नवीनतम रचनाएं सुनाने लगा। अपने पदलालित्य से लक्ष्मीदेवी को प्रसन्न कर वररुचि ने उससे प्रार्थना की कि मन्त्रीश्वर शकटार को कह कर वह नन्द की राज्यसभा में उसकी काव्यकृतियों की प्रशंसा करवाये । वररुचि द्वारा की गई चाटुकारिता से प्रसन्न हो लक्ष्मीदेवी ने अपने पति से प्रार्थना की कि अर्थार्थी ब्राह्मण वररुचि को लाभ पहेचाने के लिये वे उसके काव्यों की राज्यसभा में प्रशंसा करें। अपनी विदुषी गृहिणी के आग्रह से दूसरे दिन शकटार ने वररुचि के काव्य की राज्यसभा में प्रशंसा की। फलतः नन्द ने प्रसन्न हो वररुचि को उसके काव्यपाठ के उपलक्ष में १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान की। ___ वररुचि नित्यप्रति अपनी नवीन काव्य रचनाएं नन्द के दरबार में सुनाता और उसे तत्काल १०८ स्वर्णमुद्राएं मगधाधिप महाराज नन्द के कोश से मिल जातीं। यह क्रम निरन्तर अनेक दिनों तक चलता रहा। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ वररुचि की प्रतिस्पर्धा राज्यकोश से प्रतिदिन इतनी बड़ी धनराशि के व्यय को रोकना ग्रावश्यक गम महामन्त्री शकटार ने एक दिन नन्द से कहा - " राजन् ! प्रतिदिन १०८ मुद्राएं वररुचि को किस अभिप्राय से दी जा रही हैं ? ૩૬ अपने महामात्य के प्रति गहरी आस्था प्रकट करते हुए जिज्ञासा भरे स्वर में नन्द ने कहा "महामन्त्रिन् ! हम तो अपने महामात्य के इंगित के अनुसार हो वररुचि को प्रतिदिन १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान कर रहे हैं। हम यदि स्वेच्छा से हो दते तो अपने प्रधानमन्त्री के मुख से काव्य को प्रशंसा सुनने से पहले ही दे देते ।" शकटार ने गम्भीर स्वर में कहा - "एकराट् मगधेश्वर का महामात्य किसी अन्य कांव द्वारा कृत-काव्य का पाठ वररुचि के मुख से सुनकर कैसे प्रशंसा कर सकता है ? वस्तुतः मैंने उस दिन किसी अज्ञात कवि द्वारा निर्मित पदों के लालित्य को प्रशंसा को थो न कि वररुचि को । वह तो दूसरे कवियों को रचनाओं की हमारे समक्ष पढ़ता है। उसके द्वारा सुनाई गई काव्य रचना को यक्षा, यक्षदिन्ना दि आपको सातों बच्चियां सुना सकती हैं, कल प्रातःकाल ही इसको प्रत्यक्ष देख लिया जाय ।" महाराज नन्द को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल राज्यसभा में यवनिका के पीछे महामात्य शकटार की यक्षा आदि सातों पुत्रियों को वैठा दिया गया । वररुचि ने महाराज नन्द की प्रशंसा में अपने नवीनतम १०० श्लोक राज्य सभा में सुनाये । मंत्र-पुत्रियों को स्मरण शक्ति वररुचि और समस्त राज्यसभा को आश्चर्य में डालते हुए महामात्य की बड़ी पुत्र यक्षा ने वररुचि द्वारा पढ़े गये १०८ श्लोकों को यथावत् सुना दिया । तदनन्तर यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, एला, वेरणा और रेखा ने भो एक-एक के पश्चात् अनुक्रम से खड़े होकर उन श्लोकों को राज्यसभा के समक्ष सुना दिया । वस्तुतः वे कन्याएं क्रमश: एक पाठी ( एक बार सुनने मात्र से बड़े से बड़े गद्य अथवा पद्य को कण्ठस्थ कर लेने वाली ), द्विपाठी, त्रिपाठी, चतुष्पाठी, पंचपाठी, षड्पाठी एवं सप्तपाठी थीं । समस्त राज्य परिषद स्तब्ध रह गई । सब के वक्र नेत्रों से वररुचि की प्रोर घृणा की वर्षा होने लगी । उसके पाण्डित्य की प्रतिष्ठा क्षण भर में ही धूलि में मिल गई । काव्यों की चोरी के कलंक का टीका अपने मस्तक पर लगा देख वररुचि हतप्रभ एवं लज्जित हो राज्यसभा से उठकर चला गया । महामात्य की एक ही चाल से अपनी बड़े परिश्रम से अर्जित प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिली देख कर वररुचि के हृदय में शकटार के प्रति प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी । उसने येन-केन प्रकारेण अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर I Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ मंत्री-पुत्रियों को स्मरण शक्ति] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र शकटार से बदला लेने का निश्चय किया। बहुत सोच-विचार के पश्चात् उसने एक उपाय खोज निकाला। रहस्यपूर्ण चमत्कार कार्यसिद्धि हेतु समुचित प्रबन्ध करने के पश्चात् वररुचि ने अपने शिष्यों के माध्यम से पाटलिपुत्र के निवासियों में इस प्रकार का प्रचार करवाया कि अमुक तिथि को प्रातः सूर्योदय के समय वररुचि स्वनिर्मित काव्यपाठ से गंगा को प्रसन्न करेगा और गंगा स्वयं अपने हाथ से उसे १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान करेगी। निश्चित तिथि को सूर्योदय से पूर्व ही अपार जनसमूह गंगा के तट पर उपस्थित हो गया। वररुचि गंगा में स्नान करने के पश्चात् उच्चस्वर में गंगा की स्तुति करने लगा । स्तुतिपाठ को समाप्ति के साथ ही प्राची में अरुण अंशुमालि उदित हए। सहस्रों नरनारियों ने देखा कि सहसा गंगा के प्रवाह में से एक नारी का हाथ उठा और गंगा के जानूदन जल में खड़े वररुचि के हाथ में एक थैली रख कर पुनः गंगा के वारिप्रवाह में विलीन हो गया । थैली खोल कर सबके समक्ष स्वर्णमुद्राएं गिनी गईं तो वे पूरी १०८ निकलीं । सहस्रों कंठों से उद्घोषित गंगामैया और वररुचि के जयघोषों से गगन गूंज उठा। विद्युत्वेग से यह संवाद सर्वत्र फैल गया कि राजा ने वररुचि को स्वर्णमुद्राएं देना बन्द कर दिया तो क्या हुआ, उसे तो स्वयं गंगामाता प्रसन्न हो कर स्वर्णमुद्राएं देती है । ___ इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिये प्रतिदिन प्रातःकाल गंगानदी के तट पर लोगों का जमघट लगा रहता । प्रतिदिन सबके समक्ष एक हाथ गंगधारा से बाहर निकलता और वररुचि के हाथ में १०८ स्वर्णमद्रामों से भरी थैली रख कर पुनः जलप्रवाह में तिरोहित हो जाता। कुछ ही दिनों में वररुचि का यश दूर-दूर तक व्याप्त हो गया। एक दिन राजा नन्द ने शकटार से कहा- "महामात्य! हम कई दिनों से यह सुन रहे हैं कि गंगा स्वयं अपने हाथ से वररुचि को प्रतिदिन १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान करती है।" __ शकटार ने कहा- “नरनाथ ! सुन तो मैं भी यही रहा हूं, अच्छा हो कल गंगातट पर चल कर प्रत्यक्ष यह चमत्कार देख लिया जाय।" दूसरे दिन प्रातःकाल महाराज नन्द और महामन्त्री शकटार के गंगातट पर जाने की बात पाटलीपुत्र के प्रत्येक नागरिक के पास पहुंच गई। महामात्य शकटार ने अपने गुप्तचर विभाग के एक अत्यन्त चतुर चरकार्यप्रवीण अधिकारी को वास्तविकता का पता लगाने का आदेश दिया। सूर्यास्त से पहले ही गुप्तचर विभाग का वह अधिकारी गंगातट के घने एवं ऊंचे सरकंडों की प्रोट में छुप कर बैठ गया। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य हो चुकने के पश्चात् उसने देखा कि एक व्यक्ति दबे पांवों गंगातट की ओर बढ़ रहा है । अधिकारी ने सावधान हो बड़े ध्यान ने उस व्यक्ति की ओर देखा । शरीर की ऊंचाई एवं आकार-प्रकार से उसने तत्काल पहचान लिया कि वह वररुचि ही Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [रहस्यपूर्ण चमत्कार है । वह श्वासोच्छवास को रोके अपलक दृष्टि से वररुचि की ओर देखने लगा। उसने देखा कि वररुचि गंगा के जल में घुस रहा है । वह गुप्तचर अपने स्थान से बड़ी सावधानी के साथ उठा और ध्यानपूर्वक वररुचि की ओर देखने लगा । उसे ऐसा लगा मानो वररुचि ने एक जगह पर पानी में अपने पैर से किसी वस्तु को टटोला है और फिर उसे अपने पैरों से दबा दिया है। अन्धेरा होने पर भी तारों की टिमटिमाहट में चमकते हुए गंगाजल में उसने देखा कि कोई वस्तु पानी से ऊपर उठी है और वररुचि ने अपनी बगल में से कुछ निकाल कर उसमें रख दिया है। इसके पश्चात् उसने देखा कि वररुचि शीघ्रतापूर्वक गंगा से बाहर निकला और पाटलीपुत्र नगर की ओर लौट गया। ___ वररुचि के लौट जाने के अनन्तर शकटार द्वारा नियुक्त गुप्तचर विभाग का वह अधिकारी गंगा के जल में ठीक उस ही जगह पहंचा जहां थोड़ी देर पहले वररुचि को उसने देखा था । पानी में उस अधिकारी ने अपने पैरों से टटोलना प्रारम्भ किया। कुछ ही क्षणों के प्रयास के पश्चात् पानी की निचली सतह में उसके पैर ने किसी कठोर वस्तु के स्पर्श का अनुभव किया। पर से अच्छी तरह टटोल कर उस गुप्तचर ने उस वस्तु पर पैर रखा और धीरे-धीरे उसे अपने पैर से दबाना प्रारम्भ किया। उसने देखा कि गंगाजल में से एक वस्तु ऊपर उठी और उसके पास पा कर रुक गई । उसने पानी की सतह में अपने पैर के नीचे की वस्तु को यथापूर्व दबाये ही रखा और अपना हाथ बढ़ा कर पानी से ऊपर उठी हाथ के आकार की वस्तु से लटकी हुई थैली को ले लिया। बायें हाथ से उस थैली को थामे उस गुप्तचर ने पानी से ऊपर उठी वस्तु को अपने दाहिने हाथ से अच्छी तरह टोल कर देखा। उसे विश्वास हो गया कि वह किसी कुशल शिल्पी द्वारा निर्मित काष्ठ का नारी-कर है । तत्काल सारा रहस्य उस गुप्तचर की समझ में आ गया कि वस्तुतः पानी में यंत्र रखा हुअा है, जिसको दबाने से काष्ठनिर्मित हाथ ऊपर उठ पाता है। उसने अपने दाहिने पैर को ऊपर उठाया। पैर के उठाते ही वह काष्ठनिर्मित हाथ पानी में चला गया। ___ अपने अनुमान को दृढ़ विश्वास में परिणत करने और अपने आपको आश्वस्त करने की दृष्टि से उस गुप्तचर ने पानी के अन्दर स्थित उस यन्त्र को बार-बार दबाकर देखा। जितनी बार उस यन्त्र को पैर से दबाया गया उतनी ही बार वह दारुमय हाथ पानी से ऊपर उठा पर अब वह रिक्त था, उसमें कोई थैली नहीं थी। पूर्णरूपेण प्राश्वस्त हो चुकने के पश्चात् वह गुप्तचर गंगा से बाहर निकला। उसने थैली को खोलकर उसमें रखी स्वर्णमुद्राओं को गिना और पाया कि वे संख्या में पूरी १०८ हैं। स्वर्णमुद्रामों को पुनः थेली में रखकर वह तत्काल नगर की ओर लोट पड़ा और महामात्य के गुप्त मंत्ररणाकक्ष में पहुंचकर उसने उन्हें प्रणाम किया। महामात्य शकटार ने अन्तर्वेधो दृष्टि से उस अधिकारी की ओर देखते हुए कहा - "मा गये सौम्य ! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। तुम्हारी प्रसन्न Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्यपूर्ण चमत्कार ] दशपूर्वधर काल : श्रार्यं स्थूलभद्र ३८६ मुखमुद्रा से प्रतीत हो रहा है कि तुमने उस धूर्त की धूर्तता का पूरा रहस्य जान लिया है । तुम्हारे हाथ में वही स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली है ? अब और कोई थैली उस यंत्र में नहीं है ?" "मन्त्रीश्वर का अनुमान शतप्रतिशत ठीक निकला । यह है वह १०८ स्वर्णमुद्रात्रों से भरी थैली, जो वररुचि को कल प्रातःकाल गंगामाता के हाथ से नहीं अपितु मगध के महाप्रतापी महामात्य के हाथ से ही प्राप्त हो सकेगी। मैंने समीचीन रूप से देख लिया है कि अब उस यन्त्र में और कोई थैली नहीं है ।" उस थैली को अपने आसन के पास रखने का संकेत करते हुए शकटार ने " बहुत सुन्दर" इन दो शब्दों से अपने अधिकारी का उत्साह बढ़ाने के पश्चात् कहा - "सौम्य अब तुम विश्राम करो। अपने चरों को नियुक्त कर उस स्थान पर कड़ी दृष्टि रखना । " महामात्य को अभिवादन करने के पश्चात् गुप्तचर विभाग का अधिकारी वहां से चला गया । रहस्योद्घाटन दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही विशाल जनसमूह गंगा के तट पर एकत्रित हो गया । यथासमय मगधेश्वर महाराज नन्द अपने महामात्य एवं अन्य अधिकारियों के साथ गंगातट पर पहुंचे । वररुचि ने गंगा में स्नान करने के पश्चात् उच्च एवं मधुर स्वर में गंगा की स्तुति करना प्रारम्भ किया । स्तुतिपाठ के अनन्तर वररुचि ने प्रतिदिन की भांति यन्त्र पर पैर रखकर दबाया । सहसा गंगा की धारा में से एक हाथ ऊपर उठा पर वह हाथ पूर्णतः रिक्त था । उसमें स्वर्णमुद्राओं से भरी थैली नहीं थी । वररुचि ने गंगा में डुबकी लगाकर पानी में उस स्वर्णमुद्रापूर्ण थैली को इधर-उधर बहुत ढूंढा पर उसका सारा प्रयास व्यर्थ गया । अन्ततोगत्वा वह आकस्मिक अनभ्रवज्रपात से प्रताड़ित की तरह अधोमुख किये हुए चुपचाप खड़ा हो गया । वररुचि के पास पहुंच कर महामात्य शकटार ने घनगम्भीर स्वर में उसे सम्बोधित करते हुए कहा - " वररुचे ! क्या यह गंगा नदी तुम्हारे द्वारा धरोहर के रूप में इसके पास रखा हुआ द्रव्य भी तुम्हें नहीं लौटा रही है, जिससे कि तुम बार-बार उस द्रव्य को खोज रहे हो ? शोक न करो ब्रह्मन् ! महाराज नन्द के राज्य में कोई भी व्यक्ति अपने स्वत्व से वंचित नहीं किया जा सकता । यह लो तुम्हारी वह १०८ स्वर्णमुद्राओं से पूरित थैली जिसे तुमने रात्रि के समय गंगा के पास धरोहर ( अमानत ) के रूप में रखा था ।" यह कहते हुए महामात्य शकटार ने स्वर्णमुद्राओं से भरी थैली वररुचि के हाथ पर रख दी । वररुचि ने अनुभव किया कि विगत कतिपय दिनों से जो विशाल जनसमूह उसे गंगामाता का परमप्रीतिपात्र समझकर सम्मान की दृष्टि से देखता आ रहा था वह अब उसे महाधूर्ताविराज समझकर घृणा और Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [रहस्योद्घाटन तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देख रहा है। उसे अपने प्राणापहरण से भी अत्यधिक दुस्सह पीड़ा का अनुभव हुआ। महामात्य ने प्रणतिपूर्वक महाराज नन्द से निवेदन किया - "महाराज! यह वररुचि रात्रि के समय यहां आकर स्वर्णमुद्राओं की थैली गंगा के अन्दर लगाये गये यन्त्र में रख देता है और प्रातःकाल पर से उस यन्त्र को दबाकर उस थैली को प्राप्त कर जनसाधारण की आंखों में धूल झोंकता है।" नन्द ने सस्मित आश्चर्य भरे स्वर में कहा - "महामात्य ! आपने इस छलछद्म को सर्वसाधारण पर प्रकट कर एक बहुत बड़ी भ्रान्ति का निराकरण कर दिया।' तदनन्तर गंगातट पर एकत्रित समस्त जनसमूह अपने-अपने निवास स्थान को लौट गया। वररुचि अपने इस छलप्रपंच के प्रकट हो जाने से इतना अधिक लज्जित हुआ कि वह कई दिनों तक अपने निवास स्थान से बाहर तक नहीं निकला। अपने इस सार्वजनिक अपमान का कारण महामात्य शकटार को मानकर वररुचि अहर्निश इसका प्रतिशोध लेने हेतु शकटार के दास-दासी के माध्यम से शकटार के किसी छिद्र को ढूंढने के प्रयास में रहने लगा। एक दिन वररुचि को शकटार की एक दासी से यह सूचना मिली कि अपने पुत्र श्रीयक के विवाह के अवसर पर महामात्य शकटार महाराज नन्द को अपने निवास स्थान पर भोजनार्थ निमन्त्रित करने वाले हैं। उस समय महाराज नन्द को भेंट करने हेतु सुन्दरतम एवं बहुमूल्य छत्र-चंवरादि समस्त राज्यचिन्ह और आधुनिकतम विशिष्ट प्रकार के संहारक शस्त्रास्त्र मन्त्रीश्वर द्वारा निर्मित करवाये जा रहे हैं। वररुचि का शकटार के विरुद्ध षड्यन्त्र शकटार से प्रतिशोध लेने हेतु वररुचि ने उपर्युक्त सूचना को अपने भावी षड्यन्त्र की उपयुक्त पृष्ठभूमि समझ कर निम्नलिखित श्लोक की रचना की : न वेत्ति राजा यदसौ शकटालः करिष्यति । व्यापाद्य नन्दं तद्रराज्ये, श्रीयकं स्थापयिष्यति । अर्थात् - महामन्त्री शकटार जो कुछ करना चाहता है, उसे महाराज नन्द नहीं जानते । नन्द को मार कर शकटार अपने पुत्र श्रीयक को एक दिन मगध के राज्यसिंहासन पर बैठा देगा। अभीप्ट कार्यसाधक श्लोक अनायास ही बन पड़ा है, यह देख कर उसे कार्यनिप्पत्ति का विश्वास हुआ। उसने पोगण्डावस्था के बहुत से बालकों को मिप्टान्नादि दे एकत्रित किया, उन्हें यह श्लोक कण्ठस्थ करवा कर और अधिक प्रलोभन देते हुए कहा कि वे लोग इस श्लोक को गलियों, वाजारों, चौहटों, क्रीड़ास्थलों एवं उद्यानों प्रादि में बारम्बार उच्च स्वर से बोलें। __वररुचि का तीर ठीक निशाने पर लगा। पाटलिपुत्र के सभी सार्वजनिक स्थानों पर उस रहस्यपूर्ण श्लोक की ध्वनि गुंजरित होने लगी । चरों के माध्यम Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वररुचि का षड्यन्त्र] दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र से जन-जन में प्रसृत वह श्लोक राजा नन्द के पास पहुंचा । नन्द चौंक पड़ा। उसने मन ही मन शकटार के व्यक्तित्व के साथ अपने व्यक्तित्व की तुलना की । उमे अनुभव हगा कि शकटार वस्तुतः सारे साम्राज्य पर छाया हया है। शकटार का प्रभाव, प्रताप, वर्चस्व और सभी कुछ अपनी तुलना में नन्द को विराट, सर्वतोमुखी एवं सर्वव्यापी प्रतीत होने लगा। उसने सोचा सामूहिक स्वरों में प्रकट हई बात निश्चित रूप से सत्य ही होगी। इसके अतिरिक्त श्लोक द्वारा इंगित कार्य शकटार के लिये दुस्साध्य नहीं । नन्द की विचारधारा ने नया मोड़ लिया। शकटार द्वारा अतीत में राजा और राज्य दोनों के हित में किये गये स्वामिभक्ति के अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यों का विहंगमावलोकन करते हुए नन्द को दृढ़ विश्वास हो गया कि शकटार किसी भी दशा में उस प्रकार का घृणित कार्य नहीं कर सकता। __ "प्रत्येक परिस्थिति में वस्तुस्थिति से अवगत हो जाना तो सर्वथा हितप्रद है" इस विचार के अन्तर्मन में उद्भूत होते ही नन्द ने अपने एक विश्वासपात्र व्यक्ति को महामात्य के निवासस्थान पर किये जा रहे कार्यों का विस्तृत विवरण प्राप्त करने हेतु प्रादेश दिया । नन्द की आज्ञा को शिरोधार्य कर वह व्यक्ति तत्काल महामात्य शकटार के निवासस्थान पर पहुंचा। उस समय संयोगवश महाराज नन्द को भेंट करने हेतु छत्र, चँवर, खड्ग व नवाविष्कृत शस्त्रास्त्र भण्डार में रखवाये जा रहे थे। नन्द के विश्वासपात्र व्यक्ति ने तत्काल नन्द के पास लौट कर जो कुछ उसने अपनी प्रांखों से देखा था वह सारा विवरण नन्द के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। नन्द को उक्त श्लोक में किये गये इंगित पर कुछ विश्वास हुआ । पर नन्द बड़ा चतुर नीतिज्ञ था। "कभी-कभी प्रांखों से देखी हुई बात भी असत्य सिद्ध हो सकती है" इस नीतिवाक्य को उसने अपने प्राचरण में ढाल रखा था। उसने सहसा कोई साहसपूर्ण कार्य करना उचित नहीं समझा। राजसेवा में महामात्य के समुपस्थित होने का नियत समय सन्निकट आ रहा था। नन्द उस समय की प्रतीक्षा में अपने सिंहासन पर बैठा रहा । निश्चित समय पर महामात्य शकटार नन्द की सेवा में उपस्थित हमा और उसने राजा को प्रणाम किया। बहुत प्रयास करने पर भी नन्द अपने क्रोध को छुपा नहीं सका और उसने वक्र एवं क्रुद्ध दृष्टि से शकटार की ओर देखते हुए अपना मुख शकटार की ओर से दूसरी ओर मोड़ लिया। प्राण देकर भी परिवार-रक्षा नन्द की तनी हुई भौंहों और वक्रदृष्टि को देख कर शकटार समझ गया कि उसके विरुद्ध किया गया कोई भीषण गुप्त षड्यन्त्र सफल हो चुका है। तत्काल अपने घर लौट कर शकटार ने श्रीयक से कहा- "वत्स ! महाराज नन्द को किसी षड्यन्त्रकारी ने विश्वास दिला दिया है कि अब मैं उनके प्रति स्वामिभक्त नहीं रहा हूं। ऐसी स्थिति में किसी भी समय हमारे समस्त परिवार का सर्वनाश हो सकता है अतः अपने कुल की रक्षार्थ मैं तुम्हे आदेश देता हूं कि Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ वररुचि का पड्यन्त्र जिस समय में नन्द के समक्ष प्ररणाम करते हुए अपना सिर झुकाऊं उस ही समय तुम बिना किसी प्रकार का सोच-विचार किये अपनी तलवार से मेरा शिर काट कर धड़ से पृथक् कर देना और राजा के प्रति पूर्ण स्वामिभक्ति प्रकट करते हुए कहना, "स्वामिद्रोही चाहे पिता ही क्यों न हो, उसका तत्काल वध कर डालना चाहिये । केवल इस उपाय से ही हमारे परिवार की रक्षा हो सकती है अन्यथा सर्वनाश समुपस्थित है ।" श्रीक ने प्रांसू बहाते हुए प्रकम्पित स्वर में कहा- “तात ! जिस जघन्य कृत्य को करने के लिये आप आदेश दे रहे हैं वैसा कुकृत्य तो संभवतः कोई चाण्डाल भी नहीं करेगा ।" शकटार ने श्रीयक को सान्त्वना देते हुए कहा - "प्रसन्नसंकट की घड़ियों में इस प्रकार के विचार मन में ला कर तो तुम शत्रुनों के मनोरथों की पूर्ति में सहायता ही करोगे । राजा को प्रणाम करते समय मैं अपने मुख में कालकूट विष रख लूंगा । ऐसी दशा में मेरा शिर काटने से तुम्हें पितृहत्या का दोष भी नहीं लगेगा | काल के समान विकराल राजा नन्द हमारे समस्त परिवार को मौत के घाट उतारे, उससे पहले ही तुम अपने वंश को विनाश से बचाने हेतु मेरा शिर काट डालो। तुम अब मेरी चिन्ता न करो, मैं तो अब जराजीर्ण होने के कारण कुछ ही समय में मृत्यु के मुख में जाने वाला था। बेटा ! चलो, मेरी आज्ञा का पालन कर अपने वंश की रक्षा करो ।" श्रीयक को साथ लिये शकटार राजभवन में नन्द के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे प्रणाम करने के लिये उसने शिर झुकाया । श्रीयक ने तत्काल खड्ग के प्रहार से शकटार का शिर काट डाला। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना वीर निर्वारण सं० १४६ में घटित हुई । नन्द ने हड़बड़ा कर आश्चर्य भरे स्वर में कहा - "बेटा श्रीयक ! तुमने यह क्या कर डाला ? " श्रीयक ने प्रति गम्भीर मुद्रा में कहा - "स्वामिन्! जब आपको यह विदित हो गया कि महामात्य स्वामिद्रोही हैं तो उस दशा में मैंने इनको मार कर सेवक के योग्य ही कार्य किया है । प्रत्येक सेवक का यह कर्त्तव्य है कि यदि स्वयं उसको किसी के द्वारा स्वामिद्रोह किये जाने की बात विदित हो तो उस पर कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विचार करे किन्तु यदि उसके स्वामी को स्वयं को ही ज्ञात हो जाय कि अमुक व्यक्ति स्वामीद्रोही है, तो उस दशा में सेवक का यह कर्तव्य नहीं कि वह विचार करे अपितु उसका तो उस दशा में यह परम कर्तव्य हो जाता है कि तत्काल उस स्वामिद्रोही के अस्तित्व को ही मिटा दे ।" नन्द अवाक् हो श्रीक की ओर देखता ही रह गया। उसने पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ अपने स्वर्गस्थ महामात्य का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करवाया । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ . वररुचि का षड्यन्त्र] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र मृतक की प्रौद्धदैहिक क्रियाओं की समाप्ति के अनन्तर नन्द ने श्रीयक से मगधराज्य के महामात्य पद को स्वीकार करने की अभ्यर्थना की। श्रीयक ने विनम्र स्वर में कहा - "मगधेश्वर ! मेरे ज्येष्ठ भ्राता स्थूलभद्र मेरे पिता के समान ही योग्य हैं । अतः आप महामात्य का पद उन्हें ही प्रदान करें। मेरे पितश्री के निस्सीम स्नेह के प्रसाद से वे विगत बारह वर्षों से कोशा वेश्या के निवासस्थान पर ही रहते पा रहे हैं!" महामात्य पद महाराज नन्द ने तत्काल अपने उच्चाधिकारियों को आदेश दिया कि वे पूर्ण सम्मान के साथ स्थूलभद्र से निवेदन करें कि मगधाधिराज उनसे मिलने के लिये बड़े उत्सुक हैं। पर्याप्त प्रतीक्षा के पश्चात् प्रोन्नतभाल, व्यूढोरष्क, वृषस्कन्ध, प्रलम्बबाहु, सुगौरवर्ण अत्यन्त सम्मोहक व्यक्तित्व वाले एक तेजस्वी युवक ने धीर-मन्थर गति से मगधपति के राजभवन में प्रवेश कर महाराज नन्द को प्रणाम करते हुए कहा- "मगधराज्य के स्वर्गीय महामात्य श्री शकटार का पुत्र स्थूलभद्र मगध के महामहिम सम्राट् महाराज नन्द को सादर प्रणाम करता है।" नन्द ने अपने समीपस्थ आसन पर बैठने का संकेत करते हुए स्थूलभद्र से कहा - "सौम्य स्थूलभद्र ! अपने पिता के स्वर्गगमन के कारण रिक्त हुए मगध के महामात्य पद को अब तुम स्वीकार करो।" __ "महाराज मैं सोच-विचार के पश्चात् ही इस सम्बन्ध में निवेदन कर सकता हूं।" स्थूलभद्र ने यह छोटा-सा उत्तर दिया। नन्द ने कहा - "स्थूलभद्र ! राजभवन के अशोकोद्यान में बैठकर तुम यहीं विचार करलो और शीघ्र मुझे उत्तर दो।" "यथाज्ञापयति देव !" कह कर स्थूलभद्र ने महाराज नन्द को प्रणाम किया और वे अशोकोद्यान में एक वृक्ष के नीचे बैठकर अपने सम्मुख उपस्थित प्रश्न पर विचार करने लगे। यों तो स्थूलभद्र कोशा वेश्या के यहां रहकर शारीरिक वासनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे पर उनका विवेकशील अन्तर्मन वस्तुतः पूर्णरूपेण जागरूक था। जिन परिस्थितियों में उनके पिता मगध के महामात्य शकटार की मृत्यु हुई, उन सब पर विचार करने के पश्चात् स्थूलभद्र के मन में एक विचित्र प्रकार का विचारमन्थन प्रारम्भ हो चुका था। स्थूलभद्र ने सोचा - "जिस राजसत्ता और राज-वैभव ने मेरे देवतुल्य पिता को अकारण ही अकालमृत्यु के गाल में ढकेल दिया, उस प्रभुत्व एवं सत्तासम्पन्न महामात्य पद कों पाकर वस्तुतः मैं सुखी नहीं हो सकता। मेरी भी एक न एक दिन वैसी ही दुर्गति हो सकती है। ऐसी संशयास्पद स्थिति में मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस प्रकार की सम्पदा और सत्ता का वरण करू जो सदा के लिये मुझे सुखी बना कर मेरी चिरसंगिनी बनी रहे।" Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [महामात्य पद - इस प्रकार के विचारमन्थन ने स्थूलभद्र को सासारिक वैभवों, प्रपंचों और बन्धनों से विरक्त बना दिया। वस्तुस्थिति के इस वास्तविक बोध ने स्थूलभद्र के जीवन की दशा ही बदल डाली। उन्होंने मन ही मन विचार किया – “महामात्य का पद निस्संदेह बड़ा उच्च पद है पर वह भी अन्ततोगत्वा है तो भृत्यकर्म, दासत्व और पारतन्त्र्य ही। पराधीन व्यक्ति स्वप्न तक में सुख की अनुभूति नहीं कर सकता। राजा, राज्य और राष्ट्र की चिन्ताओं से पूर्णरूपेण आच्छादित एक भृत्य के चित्त में स्वयं के सुख-दुःख के लिये सोचने का कोई अवकाश ही नहीं रह जाता। राजा और राज्य के हित में अपनी बौद्धिक एवं शारीरिक शक्ति का निश्शेष व्यय करने के पश्चात् भी भृत्य के लिये प्रत्येक पद पर सर्वस्वापहरण और प्राणापहार तक का भय सदा बना रहता है। उस समस्त शक्तिव्यय का प्रतिफल शून्य के तुल्य है। कहा भी है :मुद्रेयं खलु पारवश्य जननी सौख्यच्छिदे देहिनां, नित्यं कर्कशकर्मबन्धनकरी, धर्मान्तरायावहा । राजार्थेकपरैव संप्रति पुनः स्वार्थप्रजापिहृत्, - तब्रूमः किमतः परं मतिमतां, लोकद्वयापायकृत् ।। अर्थात् - यह राजमुद्रा परवशता उत्पन्न करने वाली और मनुष्यों के सुख का विनाश करने वाली है। सदा कठोर कर्मबन्ध की कारण और धर्मसाधन में विघ्न रूप है। एक मात्र राजा के हित को ही दृष्टि में रखने वाली यह (प्रधानामात्य की) प्रभुता स्वयं के तथा प्रजा के हित का हरण करने वाली है। वस्तुतः इहलोक और परलोक - दोनों ही लोकों को बिगाड़ने वाली इससे (प्रधानामान्य की मुद्रा अथवा सत्ता से) बढ़कर संसार में और कौनसी वस्तु हो सकती है ? . ऐसी दशा में बुद्धिमान् व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह केवल राजा के हित में अपनी शक्ति का अपव्यय न कर प्रात्मकल्याण के लिये शक्ति का सद्व्यय करे। ___इस प्रकार विचार करते-करते स्थूलभद्र शीघ्र ही एक निर्णय पर पहुँच गये। उन्होंने संसार के सम्पूर्ण प्रपंचों का परित्याग कर प्रात्मकल्याण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उन्होंने तत्क्षण पंचमुष्टि-लंचन कर अपने रत्नकंबल की फलियों का प्रोषा (रजोहरण) बनाकर साधु वेष धारण कर लिया। तदनन्तर वे साधु वेष में ही महाराज नन्द के सम्मुख राज्यसभा में उपस्थित हो बोले"राजन् ! मैंने बहुत सोच-विचार के पश्चात् यह निर्णय किया है कि मुझे भवप्रपंच वढ़ाने वाला महामात्यासन नहीं अपितु अपरोपतापी वैराग्यसाधक. दर्भासन चाहिए। मैं राग का नहीं किन्तु त्याग का उपासक बनना चाहता है। यह कहकर प्रार्य स्थूलभद्र ने राज्यप्रासादों से बाहर की ओर प्रस्थान कर दिया। महाराज नन्द सहित समस्त राज्यपरिषद स्थूलभद्र द्वारा किये गये इस अप्रत्याशित निर्णय से स्तब्ध रह गई। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ महामात्य पद दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र __ कहीं प्रार्य स्थूलभद्र पुनः कोशा वेश्या के ग्रह की ओर तो नहीं लौट रहे हैं इस अाशंका से राजा नन्द अपने प्रासाद के गवाक्ष से राजपथ पर जाते हए आर्य स्थूलभद्र की ओर देखने लगे । जब महाराज नन्द ने देखा कि प्रार्य स्थूलभद्र नगर की घनी बस्ती वाले मुहल्लों से मुख मोड़कर सुनसान श्मशानों और निर्जन एकान्त स्थलों को भी पार करते जा रहे हैं तो नन्द का मस्तक सहसा श्रद्धा से झुक गया। उसने पश्चात्तापपूर्ण स्वर में कहा- "मुझे खेद है कि मैंने ऐसे महान् त्यागी महात्मा के लिये भी अपने मन में कुविचार को स्थान दिया।" स्थूलभद्र की दीक्षा और वररुचि का मरण स्थूलभद्र ने भव्य भवन, सुर सुन्दरी-सी कोशा और नव्य-भव्य भोगों का तत्क्षरण उसी प्रकार परित्याग कर दिया, जिस प्रकार कि सर्प कंचूकी को छोड़ता है। वे तन, धन, परिजन का मोह छोड़कर पूर्ण वैराग्यभाव से नगर के बाहर विराजमान प्राचार्य संभूतविजय के पास पहुंचे और सविनय वन्दन के पश्चात् उनकी चरणशरण ग्रहण कर वीर नि० सं० १४६ में उन्होंने श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। समस्त श्रमरणचर्या का निर्दोषरूप से पालन करने के साथ-साथ, सविनय गुरुपरिचर्या, दीक्षावद्ध थमणों की सेवा-सुश्रुषा एवं तपश्चरण द्वारा अपने कर्मन्धन को भस्मसात् करते हए मुनि स्थूलभद्र अपने गुरू प्राचार्य सम्भूतविजयजी के पास वड़ी तन्मयता से शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। आर्य स्थूलभद्र के चले जाने के अनन्तर महाराज नन्द ने श्रीयक को मगध का महामात्य बनाया। कुशल राजनीतिज्ञ श्रीयक ने अपने पिता शकटार की तरह बड़ी निपुणता के साथ राज्य का संचालन करते हए मगध की श्री में अभिवृद्धि करना प्रारम्भ किया। महाराज नन्द अपने स्वर्गीय महामात्य शकटार के समान ही अपने युवा महामात्य श्रीयक का समादर करते थे। महामन्त्री शकटार की मृत्यु के पश्चात् वररुचि भी नित्यप्रति नियमित रूप से महाराज नन्द की सेवा में उपस्थित होने लगा। वह पुनः राजा और प्रजा का शनैः शनैः सम्मानपात्र बन गया। श्रीयक समय निकालकर अपने ज्येष्ठ सहोदर स्थूलभद्र के प्रवजित होने के कारण दुखित कोशा वेश्या को सान्त्वना देने हेतु उसके घर पर जाते रहते थे। श्रीयक को देखकर अपने प्राणाधिक प्रिय स्थूलभद्र के विरह-जन्य दुःख से विह्वल हो कोशा फूट-फूटकर रोने लगती। अपने सहोदर के प्रति कोशा का निस्सीम प्रेम देखकर श्रीयक के मन में कोशा के प्रति आदर एवं प्रात्मीयता के भाव दिनप्रतिदिन बढ़ते ही गये। शकडाल की मृत्यु के पश्चात् वररुचि निर्भय होकर रहने लगा। राज्य सारा प्राप्त मम्मान के मद में मदान्ध हो वररुचि पथभ्रप्ट एवं वेश्यागामीबन गया। ग्रहनिश उपकोशा के संसर्ग में रहते-रहते वह शीघ्र ही मद्यपायी बन गया। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दीक्षा व वर० का मरण वररुचि के मद्यपी होने की सूचना प्राप्त होते ही महाराज नन्द बड़े क्रुद्ध हुए और उन्होंने उसके मद्यपी होने अथवा न होने का निर्णय करने के लिये परीक्षा करना आवश्यक समझा। एक दिन जब वररुचि राज्य सभा में आये तो उन्हें मदनफल के चूर्ण से युक्त कमल पुष्प संघने हेतु दिया गया। उसके संघते ही वररुचि को वमन हुप्रा और चन्द्रहास सुरा की तीव्र गन्ध राज्य सभा में तत्काल व्याप्त हो गई। फलतः वररुचि का राजा, राजसभा, समाज और प्रजाजनों द्वारा बड़ा तिरस्कार हुया एवं वह बड़ी दुर्लक्ष्यपूर्ण स्थिति में अकाल में ही काल का कवल बन गया। अपने पिता की हत्या करवाने वाले वररुचि की मृत्यु के पश्चात् श्रीयक कतिपय वर्षों तक बड़ी कुशलता के साथ मगध साम्राज्य के महामात्य पद के कार्यभार का निर्वहन करता रहा किन्तु उसके अन्तर में केवल राजनयिक प्रपंचों के प्रति ही नहीं अपितु समस्त सांसारिक कार्यकलापों के प्रति विरक्ति के बीज अंकुरित हो शनैः शनैः पल्लवित एवं पुष्पित होने लगे। प्रार्य स्थूलभद्र द्वारा अतिदुष्कर अभिग्रह उधर ग्रहनिश अपने पाराध्य गुरुदेव के सानिध्य में रहते हुए सुतीक्ष्ण बुद्धि स्थूलभद्र मुनि ने अनवरत परिश्रम करते हुए सम्पूर्ण एकादशांगी पर आधिकारिक रूप से निष्णातता प्राप्त कर ली।। वर्षाकाल समुपस्थित होने पर प्राचार्य सम्भूतविजय के सम्मुख उपस्थित होकर उनके तीन शिष्यों ने घोर अभिग्रहों को धारण करने की इच्छा प्रकट करते हए क्रमशः प्रार्थना की। प्रथम शिष्य ने सांजलि शीश झुका कर कहा - "प्रभो! मैं निरन्तर चार मास तक उपवास के साथ सिंह की गुफा के द्वार पर ध्यानमग्न रहना चाहता हूं।" दूसरे शिष्य ने निवेदन किया- "भगवन् ! मैं चार मास तक निर्जल एवं निराहार रहते हुए दृष्टिविष सर्प की बांबी के पास खडे रह कर कायोत्सर्ग करना चाहता हूं।" तीसरे शिष्य ने कहा- "आराध्य गुरुवर ! यह आपका अकिंचन शिष्य कुएं के मांडके पर अपना पासन जमा कर उपवास पूर्वक निरन्तर चार मास तक ध्यानमग्न रहने की आपसे आज्ञा चाहता है।" आचार्य सम्भूतविजय ने अपने उन तीनों शिष्यों को उनके द्वारा अभिग्रहीत दुष्कर कार्यों के निष्पादन के योग्य समझ कर उन्हें उनकी इच्छानुसार दुष्कर तपस्या करने की अनुमति प्रदान कर दी। उस ही समय आर्य स्थूलभद्र मुनि ने अपने गुरु के चरणों में मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़ कर प्रार्थना की - "करुणासिन्धो! आपका यह अनन्य सेवक कोशा वेश्या के भवन की, कामोद्दीपक अनेक आकर्षक चित्रों से मण्डित चित्रशाला में षड्रस व्यंजनों का आहार करते हुए चार मास तक रह कर समस्त विकारों से दूर रहने की साधना करना चाहता है।" Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलभद्र द्वारा अ० अभिग्रह] दशपूर्वधर - काल : आर्य स्थूलभद्र ३६७ आचार्य सम्भूतविजय ने अपने विशिष्ट ज्ञानोपयोग से क्षण भर विचार कर प्रार्य स्थूलभद्र को उस कठोर साधना में समुत्तीर्ण होने के योग्य समझा और उन्हें कोशा वेश्या की चित्रशाला में चातुर्मास व्यतीत करने की आज्ञा प्रदान कर दी । आचार्य सम्भूतविजय की प्रज्ञा प्राप्त कर चारों शिष्य अपने-अपने अभीष्ट स्थान की प्रर प्रस्थित हुए । प्रथम तीनों शिष्य अपने-अपने उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच कर ध्यानमग्न हो गये । उनके तपोपूत शान्त प्रात्मतेज के प्रभाव से सिंह, सर्प और कुएं का माण्डका ये तीनों ही क्रमशः उन तीनों मुनियों के समक्ष शान्त एवं निरापद हो गये । उन तीनों मुनियों ने पृथक्-पृथक् उन तीन स्थानों पर चार मास के लिये अशन-पानादि का परित्याग कर ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया । आर्य स्थूलभद्र भी कोशा वेश्या के भव्य भवन के प्रांगण में पहुंचे । चिरप्रोषित अपने जीवनधन को देखते ही कोषा हर्षोत्फुल्ल हो हाथ जोड़े शीघ्रतापूर्वक मुनि स्थूलभद्र के सम्मुख उपस्थित हुई। उसने मन ही मन सोचा कि जन्मजात सुकुमार स्थूलभद्र संयम के दुर्वह विपुल भार से अभिभूत होकर सदा-सर्वदा उसके पास रहने के लिये ही आये हैं । सस्मित सुमधुर स्वर में कोशा ने कहा - "स्वामिन् प्रापकी जन्म-जन्म की यह दासी आपका स्वागत करती है । अपने अभीष्ट की अभिनिष्पत्ति हेतु प्रज्ञा प्रदान कर इसे कृतार्थ कीजिये । जीवनधन ! यह तन, मन, धन, जीवन और सर्वस्व आपके चरणों पर समर्पित है ।" 1 मुनि स्थूलभद्र ने कहा - "श्राविके ! चार मास तक तुम्हारी चित्रशाला में निवास करने की स्वीकृति दो ।" "स्वामिन् ! चित्रशाला प्रस्तुत है, इसमें विराजिये और सेविका को कृतार्थ कीजिये ।" हर्ष से पुलकितांगी कोशा ने कहा । अपने श्रात्मबल पर पूर्णरूपेण प्राश्वस्त प्रार्य स्थूलभद्र ने रती की रंगस्थली के समान सहज ही कामोद्दीपिनी उस चित्रशाला में प्रवेश कर वहां अपना आसन जमाया | मधुकरी के समय कोशा ने मुनि स्थूलभद्र को स्वादुतम षड्रस भोजन करवाया । आहार आदि से मुनि के निवृत्त हो जाने के उपरान्त सोलह शृंगारों से विशिष्ट रूपेण सुसज्जित कोशा ने चित्रशाला के समस्त दायुमण्डल को अनेक प्रकार की सुगन्धियों से मादक और अपने नूपुरों की झंकार से चित्रशाला को मुखरित करते हुए मुनि स्थूलभद्र के समक्ष उपस्थित हो उन्हें प्रणाम किया । लौकिक रूपसुधा के उद्वेलित सागर के समान उस कोशा की मुखमुद्रा से उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई अनुपम सुन्दरी सुरबाला अपने अप्रतिम सौन्दर्य से त्रिभुवन पर प्रपनी विजयवैजयन्ती फहराने के लिये कृतसंकल्प हो । उस प्रतिकमनीय कान्तारत्न कोशा ने कतिपय वीरणाओं के कसे हुए पतील तारों की लययुक्त प्रति कोमल एवं कर्णप्रिय युगपद् भंकार के समान प्रति सम्मोहक Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [स्थूलभद्र द्वारा प्र० प्र० स्वर में कहा - "मेरे जीवनधन ! आपकी विरहाग्नि में विदग्धप्राया आपकी इस कामवल्लरी को अपनी मधुर मुस्कान के अमृत से पुनरुज्जीवित कीजिये।" मुनि स्थूलभद्र पूर्णतः निर्विकार और मौन रहे। अपनो कारुण्यपूर्ण कामाभ्यर्थना का आर्य स्थूलभद्र पर कोई प्रभाव न होते देख कर कोशा के अन्तर में प्रसुप्त नारीत्व का अहं पूर्ण रूपेण जागृत हो उठा। उसने त्रियाचरित्र के समस्त अध्यायों को खोलते हुए आर्य स्थूलभद्र पर क्रमशः अपने अमोघ कटाक्ष-बाणों, विविध हावभावों के सम्मोहनास्त्रों और हृदय को हठात् आबद्ध करने वाले करुणक्रन्दन, मूर्छा, प्रलाप, विविध व्याज आदि नागपाशों का, पुनः पुनः प्रयोग करना प्रारम्भ किया। पर जिस प्रकार वज्र पर किया गया नखों का प्रहार नितान्त निरर्थक और निष्प्रभाव होता है, ठीक उसी प्रकार एकान्ततः आत्मनिष्ठ महामुनि स्थूलभद्र पर कोशा द्वारा किये गये समस्त कामोद्दीपक कटाक्ष-प्रहार पूर्णरूपेण व्यर्थ ही गये । ज्यों-ज्यों स्थूलभद्र को साधनापथ से विचलित करने के अभिप्राय से कोशा द्वारा कामोत्तेजक प्रहारों में क्रमशः तीव्रता लाई गई त्यों-त्यों मुनि स्थूलभद्र के ध्यान की एकाग्रता उत्तरोत्तर वढ़ती ही गई । कोशा ने निरन्तर बारह वर्ष तक अपने साथ स्थूलभद्र द्वारा पूर्व में की गई कामकेलियों का स्थूलभद्र को स्मरण दिलाते हए उस ही प्रकार की कामकेलियां पुनः करने के लिये बारम्बार असीम प्रेम के साथ आमन्त्रित किया, उत्तेजित किया पर सब व्यर्थ । कोशा प्रतिदिन मुनि स्थूलभद्र को षडसमय अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन कराती और उन्हें विषय सुखों के उपभोग के लिये आमन्त्रित करती हुई नित्यप्रति नवीनतम उपायों का प्राश्रय ले उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का अहर्निश प्रयास करती रहती किन्तु स्थूलभद्र मुनि किंचित्मात्र भी विचलित हुए बिना निरन्तर इन्द्रियदमन करते हुए साधनापथ पर उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ते रहे । अन्ततोगत्वा चातुर्मास का अवसान होते-होते कोशा ने अपनी हार स्वीकार करते हए हताश हो मुनि स्थूलभद्र को अपनी ओर आकर्षित करने के सभी प्रयास समाप्त कर दिये । महायोगी स्थूलभद्र का इन्द्रियदमन में अदृप्टपूर्व अलौकिक सामर्थ्य देख कर कोशा स्थूलभद्र के समक्ष अपना मस्तक झुकाते हुए पश्चात्ताप भरं स्वर में कहने लगी"क्षमासागर महामुने ! मेरे सब अपराध क्षमा कर दीजिये। मुझ मूर्खा को अनेकशः धिक्कार है कि मैंने अज्ञानवश पहले की तरह आपको विषयोपभोगों की प्रोर आकर्षित करने का विफल प्रयास किया। कज्जलगिरि की गुफा में रह कर कोई अपने आपको कालिमा से नहीं बचा सकता पर ग्रापने इस असभव कार्य को सम्भव कर बताया है । असाध्य को सिद्ध करने वाले योगिराज ! पापको सहस्रशः नमस्कार है।" मुनि स्थूलभद्र के उपदेश से कोशा ने धर्म में अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए मुनि स्थूलभद्र से श्राविका-धर्म अंगीकार किया और वह पूर्ण विशुद्ध मनोभावों के साथ उनकी सेवा करने लगी। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलभद्र द्वारा प्र. अभिग्रह) दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र ३६६ चातुर्मास की समाप्ति पर सिंहगुहा, दृष्टिविष-विषधर-वल्मीक और कूप'माण्डंक पर चातुर्मास करने वाले तीनों मुनि निरतिचार रूपेण अपने-अपने अभिग्रहों का पालन करने के पश्चात् प्राचार्य सम्भूतविजय की सेवा में उपस्थित हुए। क्रमशः उन तीनों मुनियों के प्रागमन पर आचार्य सम्भूतविजय ने अपने ग्रागन से कुछ ऊपर उठ कर उन धार तपस्विया का स्वागत करते हुए कहा - "दुरकर साधना करने वाले तपस्वियो ! तुम्हारा स्वागत है।" - कोशा वेश्या के घर से पाते हए दैदीप्यमान शुभ्र ललाट वाले अपने शिष्य स्थूलभद्र को देख कर प्राचार्य संभूतविजय सहसा अपने पासन से उठ खड़े हुए और उन्हाने मुनि स्थूलभद्र का स्वागत करते हुए कहा - "दुष्कर से भी अतिदुष्कर कार्य को करने वाले साधक शिरोमरगे ! तुम्हारा स्वागत है।" - स्थूलभद्र ने प्राभार प्रदशित करते हए विनयावनत हो कहा - "गुरुदेव ! यह सब पापका ही नाप है । मेरी क्या शक्ति है ?'' मुनि स्थूलभद्र को गुरू द्वारा अपने से अधिक सम्मानित हा देख उन तीनों साधुओं के मन में ईर्ष्या अंकुरित हो उठी । वे तीनों मुनि प्रार्य स्थूलभद्र के प्रति अपने ईर्ष्या के भाव अभिव्यक्त करते हुए परस्पर बात करने लगे- "ग्रार्य स्थूलभद्र मन्त्रिपूत्र हैं, इस ही कारण गुरुदेव ने उनके साथ पक्षपात करते हुए उन्हें "दुष्करदुष्करकारिन्" के सम्बोधन से सर्वाधिक सम्मान दिया है । भव्य भवन में रह कर षड्रस भोजन करते हुए भी यदि "दुष्करदुष्करकारी" की उपाधि प्राप्त की जा सकती है तो आगामी चातुर्मास में हम लोग भी अवश्यमेव यह सुकर कार्य कर "दुष्करदुष्करकारी" की दुर्लभ उपाधि प्राप्त करेंगे।" तदनंतर प्राचार्य सम्भूविजय ने अपने शिष्यसमूह सहित अन्यत्र विहार कर दिया। पाठ मास तक अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए उन्होंने अनेक भव्य जीवों का कल्याण किया। इस प्रकार पुनः चातुर्मास का समय पा समुपस्थित हुआ। स्थूलभद्र से होड़ ____सिंह की गुफा के द्वार पर विगत चातुर्मास व्यतीत करने वाले मुनि ने प्राचार्यप्रवर के सम्मुख उपस्थित हो सविधि वन्दन के पश्चात् उनकी सेवा में प्रार्थना की- “गुरुदेव ! मैं यह चातुर्मास कोशा वेश्या की चित्रशाला में रह कर षड्रस भोजन करते हुए व्यतीत करना चाहता हूं। कृपा कर मुझे इसके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये।" ___आचार्य सम्भूतविजय से यह छुपा न रह सका कि वह मुनि आर्य स्थूलभद्र के प्रति मात्सर्यवश उस प्रकार का अभिग्रह धारण कर रहा है। अपने विशिष्ट ज्ञान से उपयोग लगाने के पश्चात प्राचार्यश्री ने कहा- "वत्स ! तुम इस प्रकार के अतिदुष्करदुष्कर अभिग्रह को धारण करने का विचार त्याग दो, इस प्रकार के अभिग्रह को धारण करने में सुमेरु के समान अचल और दृढ़ मनोबल वाला स्थूलभद्र मुनि ही समर्थ है।" Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [स्थूलभद्र द्वारा प्र० प्र० शिष्य ने हठपूर्वक उत्तर दिया - "गुरुदेव ! यह कार्य मेरे लिये दुष्करदुष्कर नहीं अपितु सहज सुकर है । मैं इस अभिग्रह को अवश्यमेव धारण करूगा।" घोर गर्त में जानबूझ कर गिरने के इच्छुक अपने शिष्य की दयनीय दशा पर दया से द्रवित हो आचार्य सम्भूतविजय ने उसे समझाते हुए शान्त और मधुर स्वर में कहा- "वत्स ! ऐसा दुस्साहस न करो। अपनी इस अविचारकारिता के कारण तुम अपने पूर्वोपार्जित तप-संयम को भी खो बैठोगे। अपनी शक्ति से अधिक भार को अपने सिर पर उठाने पर प्रत्येक व्यक्ति के अंगभंग का भय रहता है। कहा भी है : "देखा-देखी साधे जोग, छीजे काया बाढ़े रोग" ईर्ष्या से अभिभूत उस मुनि को अपने गुरु के हितकर वचन किंचित्मात्र भी रुचिकर नहीं लगे। वह गुरुप्राज्ञा की अवहेलना कर कोशा वेश्या के भवन की ओर प्रस्थित हुआ। अपने प्रांगण में उस मुनि को आया हया देख कर कोशा तत्काल समझ गई कि आर्य स्थूलभद्र के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना से प्रेरित हो यह मुनि यहां चातुर्मास व्यतीत करने आया है। यह कहीं भवसागर के भंवर में फंस कर अनन्तकाल तक भववीचियों की भयावह थपेड़ों के असह्य कष्ट का भागी न हो जाय इस आशंका को ध्यान में रखते हुए उसकी रक्षा का उपाय करना आवश्यक है। यह विचार कर कोशा उस मुनि के समक्ष उपस्थित हुई और उसने मुनि को प्रणाम करते हुए पूछा- “महामुने ! अाज्ञा दीजिये, मैं आपके किस अभीष्ट का निष्पादन करू?" __ "भद्रे ! मैं आर्य स्थूलभद्र की तरह तुम्हारी चित्रशाला में चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हूं, अतः तुम मुझे अपनी चित्रशाला रहने के लिये दो।" कोशा द्वारा मुनि को प्रतिबोध कोशा ने मुनि को चित्रशाला में रहने की अनुमति देकर षड्रस भोजन कराया। मध्याह्नवेला में मुनि की परीक्षा हेतु कोशा ने अति मनोरम एवं आकर्षक वेषभूषा से अपने आपको सुसज्जित कर चित्रशाला में प्रवेश किया। कोशा को एक भी कटाक्षनिक्षेप की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि आकर्षक वस्त्राभूषणों से अलंकृत उस रूपराशि को देखते ही मुनि कामविह्वल हो अभ्यस्त याचक की तरह उससे अभ्यर्थना करने लगे। षड्रस भोजन के पश्चात् सुन्दर नारी के दर्शनमात्र से कामान्ध हो उस मुनि ने भर्तृहरि की निम्नलिखित उक्ति को तत्काल चरितार्थ कर दिखाया :विश्वामित्र परासरः प्रभृतयो वाताम्बुपासना स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वंव मोहंगताः । शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुंजन्ति ये मानवा स्तेषामिद्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्धस्तरेच्छागरम् ।। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोशा द्वारा मुनिको प्रति०] दशपूर्वर-कान : सर्व स्थूलभद्र मुनि को विषय-वासनाओं के घोर अन्धकूप में गिरने से बचाने हेतु कोणा ने कहा - " महात्मन् ! साधाररण से साधारण व्यक्ति भी इस बात को भलीभांति समझता है कि हम वारांगनाएं केवल द्रव्य की ही दासियां हैं ।" "भद्रे ! मुझ जैसे व्यक्ति से द्रव्य की आशा करना बालू से तेल निकालने जैमी दुराशा मात्र है । सुमुखि ! तुम मेरी दयनीय दशा पर दया कर मेरी मनोकामना पूर्ण करो ।” स्मरार्त मुनि ने याचनाभरे करुण स्वर में अभ्यर्थना की । चतुर कोशा ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा - "महात्मन् ! मुनि भले ही पना नियम तोड़ दें पर वेण्या अपने परम्परागत नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकती | ग्राम ग्रपनी मनोकामना पूर्ण करना ही चाहते हैं तो आपको एक उपाय मैं बता सकती हूं। वह यह है कि नेपाल देश के क्षितिपाल नवागत साधुत्रों को रत्नकम्बलों का दान करते हैं । आप वहां जाइये और रत्नकम्वल ले आइये ।" विपयान्ध व्यक्ति को औचित्यानौचित्य का कोई ध्यान नहीं रहता । वह अपनी वासनापूर्ति के लिये नहीं करने योग्य कार्य को भी करने में नहीं हिच - किचाता। वह मुनि रत्नकम्बल की प्राप्ति के लिये तत्काल नेपाल की ओर चल पड़े। उन्होंने कामान्ध होने के कारण यह तक नहीं सोचा कि चातुर्मास के समय में विहार करना श्रमरणकल्प के प्रतिकूल है । विषयोपभोग के अनन्तर और भी प्रचण्ड वेग से भड़कने वाली और कभी न बुझने वाली कामाग्नि को शान्त करने की अभिलाषा लिये वह मुनि हिंसक पशुओं से व्याप्त सघन वनों और दुर्लध्य गगनचुम्बी पर्वतों को पार करते हुए नेपाल प्रदेश में पहुंचे। वहां के राजा से उन्हें रत्नकम्बल की प्राप्ति हुई । रत्नकम्बल को मुनि ने बांस के एक प्राकरर्णान्त डंडे में छुपा कर रख लिया और वे प्रसन्न मुद्रा में पुनः पाटलिपुत्र नगर की ओर लौट पड़े । कोशा के प्रावास में पहुंचते ही उनकी इच्छापूर्ति हो जायगी, इस मधुर आशा को अपने अन्तर में छुपाये वे बिना विश्राम किये द्रुततर गति से मंजिलों पर मंजिलें पार करते हुए एक विकट अटवी के मध्यभाग में पहुंचे। वहां चोरों के शकुनी तोते ने कहा - "एक लाख रौप्यक के मूल्य का माल आ रहा है ।" ४०१ चोरों के अधिपति ने वृक्ष पर चढ़े अपने एक चोर साथी से पूछा - "सावधानी से देखो, कौन आ रहा है ?" वृक्ष पर चढ़े चोर ने कहा - "एक साधु आ रहा है ।" उस मुनि के समीप आने पर चोरों ने उसे पकड़ा पर उसके पास किसी प्रकार का द्रव्य न पा कर उन्होंने उसे जाने की अनुमति दे दी। मुनि के पथ पर अग्रसर होते ही उस शकुनी ने पुन: कहा - "एक लाख रुपयों के मूल्य का माल जा रहा है।" कहा कि वह सच सच बता दे, वस्तुतः चोरों के नायक ने उस मुनि से 'उसके पास क्या है ? मुनि ने बांस के दीर्घ दण्ड में छुपाये हुए रत्नकम्बल की ओर इंगित करते हुए कहा कि वह एक वेश्या को प्रसन्न करने के लिये नेपाल के महाराजा से एक Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कोशा द्वारा मुनि को प्र. रत्नकम्बल माग कर लाया है और उसे वेश्या को देने के लिये ले जा रहा है। चोरराट् ने साश्चर्य एक अट्टहास किया और मुनि को अपनी अभीष्टसिद्ध्यर्थ जाने की अनुमति प्रदान कर दी। रत्नकम्बल लिये वह मुनि कोशा वेश्या के सम्मुख उपस्थित हया और ललचाई हुई अांखों से अपनी आन्तरिक अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए उसने कठोर परिश्रम से प्राप्त वह रत्नकम्बल कोशा के हाथों में रख दिया । कोशा ने उस रत्नकम्बल से अपने पैरों को पोंछ कर उसे गन्दी नाली के कीचड़ में फेंक दिया। अथक प्रयास और अनेक कष्टों को झेलने के पश्चात् लाये गये उस रत्नकम्बल की इस प्रकार की दुर्दशा देखकर मुनि ने अति खिन्न एवं आश्चर्यपूर्ण स्वर में कहा – “मीनाक्षि ! इतने महाय॑ रत्नकम्बल को तुमने इस अशुनिपूर्ण कीचड़ में फेंक दिया, तुम बड़ी मूर्खा हो।" . कोशा ने तत्क्षण उत्तर दिया - "तपस्विन् ! आप एक महामूढ़ व्यक्ति की तरह इस कम्बल की तो चिन्ता कर रहे हैं पर आपको इस बात का स्वल्पमात्र भी शोक नहीं है कि आप अपने चारित्र-रत्न को अत्यन्त अशुचिपूर्ण पंकिल गहन गर्त में गिरा रहे हैं।" कोशा की बोधप्रद कटूक्ति को सुनते ही मुनि के मन पर छाया हुआ कामसम्मोह तत्क्षण विनष्ट हो गया। उन्हें अपने पतन पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने अत्यन्त कृतज्ञतापूर्ण स्वर में कोशा से कहा- "श्राविके! तुमने मुझे समूचित शिक्षा देकर भवसागर में निमज्जित होने से बचा लिया है। गुरुप्राज्ञा की अवहेलना कर मैंने जो यह पापाचरण किया है, उसकी शुद्धि हेतु मैं अभी गुरुदेव की शरण में जाकर कठोर प्रायश्चित्त ग्रहरण करूंगा।" यह कहकर मुनि तत्काल कोशा के घर से निकलकर प्राचार्य सम्भूतविजय की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने पतन का सत्वा विवरण उनके समक्ष प्रस्तुत करते हुए क्षमायाचना के साथ-साथ समुचित प्रायश्चित्त ग्रहण कर अपनी शुद्धि की। उन्होंने मुक्तकण्ठ से मुनि स्थूलभद्र की प्रशंसा करते हुए कहा- "प्रार्य स्थूलभद्र वस्तुतः महान् हैं। सच्चे कामविजयी होने के कारण वे ही 'दुष्करदुष्करकारक" की सर्वोत्कृष्ट महती उपाधि से विभूषित किये जाने योग्य हैं।" तदनन्तर वे मुनि निर्मल भाव से कठोर तपश्चरण और निरतिचार संयम साधना से अपने कर्मसमूह को विध्वस्त करने में प्रवृत्त हो गये। श्रीयक को विरक्ति शकडाल पुत्र स्थूलभद्र की तरह शकडाल की यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिना, सेरणा, वेणा और रेणा नामक सातों पुत्रियों ने भी अपने पिता की मृत्यू के पश्चात् संसार से विरक्त हो दीक्षा ग्रहण कर ली थी। वररुचि को भी उसके Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयक को विरक्ति] दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र ४०३ दुष्कर्म के अनुरूप प्रतप्त शीशा पीकर मरना पड़ा। उसे उसके पाप का फल मिल चुका था। कर्म-रज्जू के निबिड़तम पाश में आबद्ध प्राणियों की मदारी के मर्कट के समान विचित्र लीलाएं देखकर श्रीयक को भी संसार के प्रपंचों से विरक्ति हो गई और उसने भी लगभग ७ वर्ष तक मगध के महामात्य पद का कार्यभार सम्भालने के पश्चात् अन्ततोगत्वा वीर नि० सं० १५३ में आचार्य संभूतविजय के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण करली । तत्कालीन संस्कृति में त्याग, तप की ओर इतना आकर्षण था कि महामात्य पद और लक्ष्मीदेवी को छोड़कर शकडाल के दोनों पुत्र और सातों कन्याएं दीक्षित हो गईं। कितना बड़ा त्यागानुराग ! . आचार्य संभूतविजय और प्राचार्य भद्रबाहु के सम्मिलित आचार्य काल में भी एक सुदीर्घकाल का भीषण दुष्काल पड़ा। उस भीषण दुष्काल की. भयावह स्थिति के समय आचार्य संभूतविजय का वीर निर्वारण संवत् १५६ में स्वर्गवास हुआ। अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता आचार्य संभूतविजय के स्वर्गगमन के पश्चात् आचार्य भद्रबाहु ने संघ के संचालन की बागडोर पूर्णरूपेण अपने हाथ में सम्भाली। आर्य स्थूलभद्र आचार्य भद्रबाह की आज्ञानुसार विविध क्षेत्रों में धर्मप्रसार करते हुए विचरण करने लगे। उन्हीं दिनों मगधपति नन्द ने अपने एक सारथी के रथसंचालन-कौशल पर प्रसन्न हो उसे पारितोषिक के रूप में कोशा-वेश्या प्रदान कर दी। अपने अन्तर्मन से अभिग्रहीत श्राविकावत पर संकटपूर्ण स्थिति आई समझकर कोशा ने बड़ी चतुराई से काम लिया। वह एक विरागिन की भांति हास-परिहास, शृगारालंकारादि प्रसाधनों का परित्याग कर सादे वेष में उदास मुखमुद्रा बनाये उस सारथी के समक्ष उपस्थित होती और प्रत्येक बार भार्य स्थूलभद्र की प्रशंसा करते हुए कहती - "इस संसार में वस्तुतः यदि कोई पुरुष है, तो वह मार्य स्थूलभद्र ही हैं । उनके अतिरिक्त मुझे अन्य कोई पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता।" मद्भुत कला-कौशल . अपने प्रति विरक्ता कोषा को आकर्षित करने की दृष्टि से उस रथिक ने अपनी धनुर्विद्या का अद्भूत कौशल प्रदर्शित किया। उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा पर सर-संधान कर पके हुए ग्रामों के गुच्छे में एक तीर मारा। तदनन्तर अति त्वरित वेग से हस्तलाघव प्रकट करते हुए उसने तीर पर तीर मारना प्रारम्भ किया। कुछ ही क्षरणों में तीरों की एक लम्बी पंक्ति बन गई और उस बाणावली का अन्तिम छोर उस रथिक से एक हाथ की दूरी पर रह गया। अब उसने एक अर्द्धचन्द्राकार बाग के प्रहार से उस टहनी को काट डाला, जिस पर कि वह प्रामों का झुमका लटक रहा था। इसके पश्चात् उसने उस तीरों की पंक्ति के अन्तिम तीर को अपने हाथ से पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए प्रामों के उस गुच्छे को अपने एक हाथ से पकड़कर कोशा को भेंट किया। रथिक अपने शस्त्रकौशल पर फूला नहीं समा रहा था। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अद्भुत् कला-कौशल पर कोशा को किंचित्मात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ । वह रथिक के गर्व को चूर्ण करने की इच्छा से यह कहते हुए उठी - "अव तुम मेरी कला का चमत्कार देखो।” कोशा ने अपनी दासियों को कह कर उस विशाल कक्ष के प्रांगण के बीचोंबीच सरसों का एक ढेर लगवाया । गुलाब के फूल की कतिपय पंखुड़ियों को सुई से वेध कर कोशा ने उस सर्पपराशि पर डाल दिया। तदनन्तर कोशा ने सर्षपराशि पर नृत्य प्रारम्भ किया। अपनी सधी हई सुकोमल देहयष्टि को यथेप्सित रूप से झुकाती, झुमाती हुई वह भूरे बादलों पर चपला की अनवरत चमक की तरंह सर्पपराशि पर एक घटिका पर्यन्त नृत्य करती रही। प्रत्यद्भुत, परम मनोहारि होने के साथ-साथ कोशा के नृत्य- कौशल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इतने लम्बे समय के नृत्य से भी न कहीं से वह सर्षपराशि खण्डित हई और न सूई ही उसके पैर में कहीं चुभी। __कोशा के नृत्य की समाप्ति पर भी रथिक चित्रलिखित सा अवाक् कोशा की ओर देखता ही रह गया । कतिपय क्षणों के पश्चात् थोड़ा प्रकृतिस्थ होने पर रथिक ने कोशा को सम्बोधित करते हुए कहा - "भद्रे ! किसी भी मानवी द्वारा दुस्साध्यं तुम्हारे इस चमत्कारपूर्ण अत्यद्भुत, अतिसुन्दर नृत्य को देख कर मुझे अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव हो रहा है। तुम जो कुछ मांगना चाहती हो वह मुझसे मांग लो, मैं इसी समय तुम्हारी वह अभीप्सित वस्तु तुम्हें दूंगा।" कोशा ने कहा - "भद्र ! न तुम्हारा यह लुम्बिछेदन ही दुष्कर है और न मेरा सर्पप-सूची पर नृत्य ही। निरन्तर अभ्यास करने पर इनसे भी अत्यधिक कठिन कार्य किये जा सकते हैं। वस्तुतः दुष्करातिदुष्कर कार्य तो प्रार्य स्थूलभद्र ने किया है कि वारह वर्षों तक मेरे साथ यहां विविध कामोपभोगों का उपभोग करते रहे किन्तु दीक्षित होने के पश्चात् चार मास तक पडस भोजन करते हुए मेरे साथ इस चित्रशाला में संयमपूर्वक रह कर उन्होंने अजेय कामदेव पर विजय प्राप्त की। उन कामविजयी महान योगी स्थूलभद्र के चरित्र से प्रेरणा लेकर मैंने भी श्राविका-व्रत अंगीकार किया है। संसार का प्रत्येक पुरुष अब मेरे लिये सहोदर के समान है।" कोशा की बात सुन कर रथिक निषण्ण रह गया । कोशा से मुंनि स्थूलभद्र का परिचय प्राप्त कर वह संसार से विरक्त हो गया और उनके पास दीक्षित हो धमरणाचार का पालन करने लगा। प्रार्य स्थूलभद्र के इस प्रेरणाप्रद चरित्र ने न मालूम ऐसे कितने ही पतनोन्मुख प्राणियों का उद्धार किया होगा। पाटलीपुत्र में हुई प्रथम प्रागम-वाचना (वीर नि० सं० १६०) ग्राचार्य सम्भूतविजय के स्वर्गगमन से पूर्व मध्य देश में अनावृष्टिजन्य जो भीपगा दुप्काल पड़ा था, उसकी विभीषिका से बचने के लिये वहत से श्रमण दुःकाल से प्रभावित क्षेत्र का परित्याग कर सुदूरवर्ती क्षेत्रों की ओर चले गये। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलिपुत्र में पागम-वाचना] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभर ४०५ आचार्य भद्रबाहु स्वामो भी कुछ श्रमणों के साथ नेपाल की ओर विहार कर गये । दुष्कालजन्य अन्नाभाव के कारण अनेक प्रात्मार्थी मुनियों ने संयम विराधना के भय से अनशन एवं समाधिपूर्वक भक्त-प्रत्याख्यान द्वारा देहत्याग कर अपना जीवन सफल किया। उन्होंने अपवाद की स्थिति में भी अपने संयम में शैथिल्य नहीं आने दिया। दुभिक्ष की समाप्ति और सुभिक्ष हो जाने पर विभिन्न क्षेत्रों में गये हुए श्रमण-श्रमणी-समूह पुनः पाटलीपुत्र लौटे । भीषण दुष्काल के दुस्सह परीषहों के भुक्तभोगी वे सब श्रमण परस्पर एक-दूसरे को देख कर ऐसा अनुभव करने लगे मानो वे परलोक में जा कर पुनः लौटे हों। २ सुदीर्घकाल की भूख-प्यास और पग-पग पर अनभूत विविध मारणान्तिक संकटों के कारण भ्रत का परावर्तन न हो सकने के फलस्वरूप बहुत सा श्रुत विस्मृत हो गया। वे एक-दूसरे से पूछने लगे कि किस-किस को कितना-कितना श्रुत याद है ? 3 जव सभी भ्रमणों ने देखा कि दीर्घकाल के दैवी प्रकोप के कारण श्रमण वर्ग समय पर एकादशांगी के पाठों का स्मरण,चिन्तन, मनन, पुनरावर्तन आदि नहीं कर सका है, जिसके परिणामस्वरूप सूत्रों के अनेक पाठ अधिकांश श्रमरणों के स्मृतिपटल से तिरोहित हो चुके हैं। तब अंग शास्त्रों की रक्षा हेतु उन्होंने यह आवश्यक समझा कि वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध एकादशांगी के पारगामी स्थविर एक जगह एकत्रित हो समस्त अंगों की वाचना करें और द्वादशांगी को क्षीण एवं विनष्ट होने से बचायें। ___इस प्रकार के निश्चय के पश्चात् आगमों की पहली वृहद्वाचना पाटलीपुत्र में लगभग वीर निर्वाण संवत् १६० में की गई। वहां उपस्थित समस्त श्रमरण उस वाचना में सम्मिलित हुए । श्रमरण-संघ के प्राचार्य भद्रबाहु उस समय नेपाल प्रदेश में महाप्राण ध्यान की साधना प्रारम्भ करने गये हुए थे अतः स्वर्गस्थ प्राचार्य सम्भूतविजय के शिष्य आर्य स्थूलभद्र के तत्वावधान में यह वाचना हुई। केहिं वि विराहणा-भीरुएहिं अइभीरुएहिं कम्माणं । समणेहिं संकिलिलैं, पच्चक्खायाई भत्ताई ॥६॥ [तित्थोगालियपइण्णा] २ (क) ते दाई एक्कमेक्कं, गयसेसा विरस दठूरण । परलोगगमणपच्चागयं व मण्णंति प्रप्पारणं ॥१२॥ [तित्थोगालिय प०] (ख) जाग्रो प्रतम्मि समए दुक्कालो दोय दस य वरिसाणि । .. सम्वो साहुसमूहो गयो तपो जलहितीरेसु ।। तदुवरमे सो पुरणरवि पाउलिपुत्ते समागमो विहिया। संघेण सुयविसया चिंता कि कस्स प्रत्येति ।। जं जस्स आसि पासे उद्देसज्झयणमाइ संघडिउं । तं सव्वं एक्कारय अंगाई तहेव ठवियाई॥ [उपदेशपद, हरिभद्रसूरिकृत] ते विति एक्कमिक्क, सम्भामो कस्स कित्तिमो धरंति । हंति दुठुकालेणं, मग्हं नट्ठो हु सम्भावो ।।१३।। [तित्योगालियपइन्ना (मप्रकाशित)] Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पा० में प्रागम-वाचना द्वादशांगी के अनुक्रम से एक-एक अंग की समीचीनरूपेण वाचना में श्रमणों के पारस्परिक प्रात्यन्तिक सहयोग से विस्मृत पाठों को यथातथ्यरूपेण संकलित कर लिया गया। कतिपय मासों के अनवरत एवं अथक प्रयास से सम्पूर्ण एकादशांगी की वाचना संपन्न हुई। सब साधुओं ने अपने विस्मृत पाठों को उन साधुनों से सुन-सुन कर कण्ठस्थ किया जिनको कि वे कण्ठस्थ थे। इस प्रकार श्रमणसंघ की दूरदर्शिता और परस्पर सहयोग एवं आदान-प्रदान की वृत्ति ने एकादशांगी को विनष्ट होने से बचा लिया। दुष्काल के दुस्सह ताप से शुष्क श्रतसागर पुनः श्रमणसंघ के मानस में अपनी पूर्ववत् अथाह ज्ञान-जलराशि और उत्ताल तरंगों के साथ कल्लोलित हो उठा। एक विकट समस्या एकादशांगी की वाचना के समीचीनतया सम्पूर्ण होते ही श्रमणसंघ के समक्ष श्रुत की रक्षा के विषय में एक विकट समस्या उपस्थित हो गई। वह यह कि उपस्थित श्रमणों में द्वष्टिवाद का ज्ञाता एक.भी श्रमण विद्यमान नहीं था। श्रमणसंघ के प्रत्येक साधु को पूछा गया कि क्या उनमें कोई चतुर्दश पूर्वधर है ? पर सब का उत्तर नकारात्मक था। इस पर श्रमरणसंघ को बड़ी चिन्ता हुई कि बिना दृष्टिवाद के भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित प्रवचनों के सार को किस प्रकार धारण किया जा सकता है ? ' गम्भीर मन्त्रणा के पश्चात् श्रमसंघ को पाशा की एक किरण दृष्टिगोचर हुई। संघ के समक्ष कतिपय श्रमणों ने यह बात रखी कि समस्त श्रमसंघ में केवल प्राचार्य भद्रबाहु ही चतुर्दशपूर्वधर हैं। वे इस समय नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे हैं। केवल वे ही चतुदर्श पूर्वो की सम्पूर्ण वाचनाएं श्रमरणों को दे कर दृष्टिवाद को नष्ट होने से बचा सकते हैं। संघ के समक्ष यह विचार भी रखा गया कि इस प्रकार की उच्चकोटि की आध्यात्मिक साधना में निरत आचार्य भद्रबाह श्रमणों को पूर्वो की वाचना देना स्वीकार न करें तो उस दशा में क्या उपाय किया जाय । अन्ततोगत्वा श्रमरणसंघ द्वारा यही निश्चय किया गया कि श्रमणों के एक विशाल संघाटक को भद्रबाहु के पास नेपाल भेज कर संघ की ओर से प्रार्थना की जाय कि वे साधुओं को चतुर्दश पूर्वो की वाचनाएं दे कर श्रुतसागर की रक्षा करें। श्रमरणसंघ के इस निर्णय के अनुसार स्थविरों के तत्वावधान में श्रमणों का एक बड़ा संघाटक पाटलीपुत्र से नेपाल की मोर प्रस्थित हुआ । श्रुतरक्षा की पावन एवं अमिट अभिलाषा लिये हुए उग्र विहार करता हुआ वह श्रमणों का संघाटक कुछ ही दिनों में प्राचार्य भद्रबाहु की सेवा में नेपाल पहंचा । सविधि वंदन के पश्चात् उस संघाटक के मुखिया स्थविरों ने उस समय के सर्वसत्तासम्पन्न प्राचार्य भद्रबाह की सेवा में संघ की ओर से निवेदन किया - "केवली तुल्य भगवन् ! पाटलीपुत्र में एकत्रित श्रमणसंघ ने एकादशांगी वाचना के अनन्तर ' ते विति सव्व सारस्स दिठिवायस्स नत्थि पडिसारो। कह पुब्वगएग विणा, पवयणसारं घरेहामो ॥१५।। [तित्योगालियपइण्णा (अप्रकाशित)] Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक विकट समस्या दशपूर्वघर-काल : प्रायं स्थूलभद्र ४.७ आपकी सेवा में प्रार्थना के रूप में यह संदेश भेजा है कि आज श्रमणसंघ में आपके अतिरिक्त चतुर्दश पूर्वो का ज्ञाता और कोई अन्य श्रमण अवशिष्ट नहीं रहा है अतः श्रुतरक्षा हेतु आप योग्य श्रमरणों को चौदह पूर्वो का ज्ञान प्रदान करें।" . आवश्यक चूणि और धर्मसागरकृत तपागच्छ पट्टावली के अनुसार पाटलिपुत्र से एक साधुनों का संघाटक भद्रबाह को लाने के लिये नेपाल भेजा गया । महाप्रागण ध्यान में संलग्न होने के कारण भद्रबाहु द्वारा संघाज्ञा के अस्वीकार किये जाने पर संघ ने दूसरा संघाटक भेजा। उस संघाटक ने भद्रबाह से पूछासंघ की आज्ञा न मानने वालों के लिये किस प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है ? भद्रबाहु ने कहा - "बहिष्कार । पर मैं महाप्राण ध्यान की साधना प्रारम्भ कर चुका हूँ, संघ मेरे ऊपर अनुग्रह करे और सुयोग्य शिक्षार्थी श्रमणों को यहां भेज दे । मैं उन्हें प्रतिदिन ७ वाचनाएं देता रहूंगा।" तदनन्तर संघ ने स्थूलभद्र आदि ५०० श्रमणों को भद्रबाहु के पास पूर्वज्ञान के अभ्यासार्थ भेजा, इस प्रकार का उल्लेख उपरोक्त ग्रन्थों में किया गया है। पर तित्थोगालिय पइन्ना के अनुसार एक ही बार भेजे गए संघाटक द्वारा ही उपरिलिखित पूरी बातचीत व व्यवस्था की गई। संभव है संघाटक द्वारा भद्रबाह की ओर से स्वीकृति सूचक उत्तर पाने पर ही पाटलीपुत्र से साधु-समुदाय को नेपाल भेजा गया हो। तित्थोगाली का उल्लेख इस प्रकार है : आगत श्रमणों से श्रमसंघ का संदेश सुन कर आचार्य भद्रबाह ने कहा"पूर्वो के पाठ प्रति क्लिष्ट हैं, उनकी वाचना देने के लिये पर्याप्त समय की अपेक्षा है। परन्तु मेरे जीवन का संध्याकाल समुपस्थित हो जाने के फलस्वरूप पर्याप्त समयाभाव के कारण मैं श्रमणों को पूर्वो की वाचनाएं देने में असमर्थ हूं। मेरी अब थोड़ी ही प्राय अवशिष्ट है, मैं प्रात्मकल्याण में व्यस्त हं, ऐसी दशा में इन . वाचनाओं के देने से मेरा कौन सा प्रात्म-प्रयोजन सिद्ध होगा?" संघ की विनति को प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा इस प्रकार ठुकराये जाने पर संघ की ओर से नियुक्त श्रमणों ने कुछ आवेशपूर्ण स्वर में भद्रबाहु से कहा "प्राचार्यप्रवर ! हमें बड़े दुःख के साथ आपसे यह पूछने को बाध्य होना पड़ रहा है कि संघाज्ञा के न मानने के परिणामस्वरूप क्या दण्ड प्राप्त होता है ?"' प्राचार्य भद्रबाहु ने गम्भीरतापूर्ण स्वर में उत्तर दिया- "वीरशासन के नियमानुसार इस प्रकार का उत्तर देने वाला साधु श्रुतनिन्हव समझा जाकर संघ से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिये।" इस पर साधु-संघाप्टक के मुखियों ने कहा- "प्राप संघ के सर्वोच्च नायक हैं । ऐसी दशा में बारह प्रकार के संभोगविच्छेद के नियम को जानते हुए भी माप पूर्वो की वाचना देना अस्वीकार किस प्रकार कर रहे हैं ?" ' सो भणति एव भरिणए भविसनो वीरवयणनियमेण । ... बम्वेवमो सुनिन्हको ति,......॥२५॥ [तित्योगालियपना] Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ४०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [एक विकट समस्या प्राचार्य भद्रबाह ने निर्णयात्मक स्वर में कहा - "एक शर्त पर मैं वाचना देने को तैयार हैं। वह यह है कि जिस समय मैं महाप्राण ध्यान द्वारा प्रात्मसाधना में लगा रहूं उस समय मैं किसी से बात नहीं करूंगा और न उस समय और कोई मुझसे बात करे। ध्यान के पारण के पश्चात् मैं साधुओं को पूर्वो की प्रतिदिन ७ वाचनाएं दूंगा। एक वाचना गोचरी से लौटने के पश्चात्, तीन वाचनाएं तीनों कालवेलाओं में और तीन वाचनाएं सायंकाल के प्रतिक्रमण के पश्चात् दूंगा। इस प्रकार "मेरे ध्यान में भी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होगी और संघ के आदेश की पूर्ति भी हो जायगी।'' ___श्रमण-संघाटक के मुखियों ने भद्रबाहु की इस शर्त को स्वीकार कर लिया और आर्य स्थूलभद्र ग्रादि ५०० मेधावी श्रमणों को प्राचार्य भद्रबाहु ने अपनी प्रतिज्ञानुसार पूर्वो की वाचना देना प्रारम्भ किया। विषय की जटिलता, दुरूहता अथवा यथेप्सित वाचनाएं न मिलने के कारण शनैः शनैः ४६६ पूर्व-ज्ञान के शिक्षार्थी-श्रमण हताश हो पढ़ना वन्द कर वहां से पाटलिपुत्र लौट गये पर पार्य स्थूलभद्र धैर्य, लगन एवं बड़े परिश्रम के साथ निरन्तर प्राचार्य भद्रबाहु के पास पूर्वो का अध्ययन करते रहे। इस प्रकार अपने द्वादशवाषिक महाप्राण ध्यान के अवशिष्ट काल में प्राचार्य भद्रबाहु ने ध्यान की साधना के साथ-साथ आर्य स्थूलभद्र को निरन्तर आठ वर्ष तक वाचनाएं दीं और उस आठ वर्ष की अवधि में आर्य स्थूलभद्र पाठ पूर्वो के ज्ञाता वन गये । आर्य स्थूलभद्र के धैर्य और ज्ञानपिपासा आदि गुणों से प्रसन्न हो कर प्राचार्य भद्रबाह ने एक दिन उनसे कहा"वत्स ! अब मेरे ध्यान की समाप्ति का समय सन्निकट ग्रा पहुंचा है। ध्यान के समाप्त हो जाने पर मैं तुम्हें यथेप्सित वाचनाएं देता रहूँगा।" गुरुचरणों में मस्तक झुकाते हुए स्थूलभद्र ने पूछा – “भगवन् ! अब मुझे और कितना अध्ययन करना अवशिष्ट है ?" प्राचार्य भद्रबाहु ने उत्तर में कहा - "सौम्य ! सिन्धु की अगाध जलराशि में से एक बूंद के तुल्य तुम्हारा अध्ययन सम्पन्न हुआ है । एक बिन्दु के अतिरिक्त अभी सिन्धु सम ज्ञान का अध्ययन अवशिष्ट है।" १ "तम्मि य काले वारसवरिसो दुक्कालो उपट्टितो। संजता इतो-इतो य समुद्दतीरे गच्छित्ता पुणरवि 'पाडलिपुत्ते' मिलिता। तेसिं अण्णस्स उद्देसो, अण्णस्स खंड, एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातितारिण दिठिवादो नत्थि । 'नेपाल' वत्तिणीए य भद्दबाहुसामी अच्छंति चोद्दसपुवी, तेसि संघेणं पत्थवितो संघाडो 'दिठिवाद' वाइंहि त्ति । गतो, निवेदितं संघकज्जं । तं ते भांति-दुक्कालनिमित्तं महापाणं न पविट्ठी मि तो न जाति वायां दातु। पडिनियत्तेहि संघस्स अक्खातं । तेहि अण्णो वि संघाडग्रो विसज्जितो, जो संघस्स पारणं प्रतिक्कमति तस्स को दंडो? तो अक्साई-उग्घाडिज्जड । ते भांति मा उग्घाडेह, पेसह मेहावी, सत्त पडिपुच्छगागिण देमि ।" । [अावश्यकरिण, भा० २, पृ० १०.] Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४०६ एक विकट समस्या] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र अपने शिप्य के शुभ्र मुखमण्डल पर निराशा की हल्की सी काली छाया देख कर प्राचार्य भद्रबाह ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा - "हताश न हो सौम्य ! मैं तुम्हें शेष पूर्वो का अध्ययन बहुत शीघ्र ही करवा दूंगा।" __ महाप्राण ध्यान की परिसमाप्ति होते-होते प्राचार्य भद्रबाहु ने प्रार्य स्थूलभद्र को दो वस्तु कम दश पूर्वो का ज्ञान करवा दिया। ध्यान के समाप्त होते ही प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने शिष्यसंघ सहित नेपाल से पाटलिपुत्र की ओर विहार किया। महान् प्राचार्य श्रुतकेवली भद्रबाहु के शुभागमन का समाचार सुन कर पाटलिपुत्र के नागरिक हर्ष से फूले नहीं समाये । हजारों नागरिकों, सामन्तों और श्रेष्ठियों ने सम्मुख जाकर उस महान् योगी के भावपूर्ण स्वागत एवं दर्शन, वन्दन तथा उपदेश श्रवण से अपने पापको कृतकृत्य किया। नगर के बाहर उद्यान में पहुंच कर प्राचार्य भद्रबाहु ने उद्वेलित सागर की तरह उमड़े हुए सुविशाल जनसमूह के समक्ष अध्यात्म ज्ञान से प्रोतःप्रोत धर्मोपदेश दिया । आचार्यश्री की पातकप्रक्षालिनी जगद्धितकारिणी अमृत-वारणी को सुन कर अनेक भव्यों ने यथाशक्ति सर्वविरति और देशविरति व्रत ग्रहण किये। __ प्राचार्य भद्रबाह और आर्य स्थूलभद्र आदि महर्षियों के दर्शन हेतु स्थूलभद्र की यक्षा आदि सातों बहनें साध्वियां भी नगर के बाहर उस उद्यान में पहुंची। प्राचार्यश्री को प्रगाढ़ श्रद्धा से वन्दन करने के पश्चात् महासती यक्षा ने हाथ जोड़ कर अति विनीत स्वर में प्राचार्यश्री से पूछा - "भगवन् ! हमारे ज्येष्ठ बन्धु आर्य स्थूलभद्र कहां विराजते हैं ?" आचार्यश्री ने फरमाया- “आर्य स्थूलभद्र उस ओर के जीर्ण-शीर्ण खण्डहरप्राय चैत्य में स्वाध्याय कर रहे होंगे।" __ प्रार्या यक्षा आदि सातों बहनें अनेक पूर्वो का ज्ञान उपाजित कर वर्षों पश्चात आये हुए अपने ज्येष्ठ बन्धु को देखने की तीव्र उत्कण्ठा लिये प्राचार्यश्री द्वारा इंगित खण्डहर की ओर बढ़ीं। दूर से ही अपनी बहनों को प्राती हुई देख कर आर्य स्थूलभद्र के मन में अपनी बहिनों को अपनी विद्या का चमत्कार दिखाने का कुतूहल उत्पन्न हुआ। उन्होंने तत्क्षरण विद्या के प्रभाव से घनी और लम्बी केसर युक्त अति विशालकाय सिंह का स्वरूप बना लिया। उस जीर्ण चैत्य के अन्दर पहुंच कर साध्वियों ने देखा कि वहां एक भयावह सिंह बैठा हुआ है और उनके अग्रज आर्य स्थूलभद्र वहां कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं, तो वे तत्क्षण आचार्यश्री के पास लौट कर कहने लगीं- "भगवन् वहां तो एक केसरी बैठा हुआ है, प्रार्य स्थूलभद्र वहां कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। हम इस आशंका से आकुल-व्याकुल हो रही हैं कि कहीं उन होनहार विद्वान् श्रमण को सिंह ने तो नहीं खा डाला है ?" ____ आचार्यश्री ने ज्ञानोपयोग से तत्क्षण वस्तुस्थिति को समझ कर आश्वासन भरे स्वर कहा- "वत्साप्रो ! लौट कर देखो, अब वहां कोई सिंह नहीं अपितु Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [एक विकट समस्या . तुम्हारा बड़ा भाई ही बैठा हुअा है । जिसे तुम सिंह समझ रही हो वह सिंह नहीं तुम्हारा भाई ही था।" ___ यक्षा आदि साध्वियां जब चैत्य में लौटी तो वहां सिंह के स्थान पर अपने भाई को देख कर वे बड़ी प्रसन्न हुई। वन्दन-नमन के पश्चात् उन्होंने उत्सुकता भरे स्वर में पूछा - "ज्येष्ठार्य.! अभी कुछ ही क्षणों पहले तो आपके स्थान पर सिंह बैठा हुआ था, वह सिंह कहां गया?" आर्य स्थूलभद्र ने हंसते हुए कहा – “यहां कोई सिंह नहीं था, वह तो मैंने अपनी विद्या का परीक्षण किया था।" अपने अग्रज को अद्भुत विद्याओं का प्रागार समझ कर यक्षा आदि सातों साध्वियों ने असीम आनन्द का अनुभव किया। तदनन्तर साध्वी यक्षा ने अपने अनुज मुनि श्रीयक को एकाशन और तत्पश्चात् उपवास करने की प्रेरणा देने व उपवास के फलस्वरूप परम सुकुमार श्रीयक के दिवंगत होने की दुखद घटना मुनि स्थूलभद्र को सुनाई। मुनि श्रीयक का उपवास में मरण होने के कारण साध्वी यक्षा को बड़ा दुःख हुआ। कहा जाता है कि यक्षा ने मुनि श्रीयक की मृत्यु के लिये अपने आपको दोषी मानते हुए उग्र तपस्या करना प्रारम्भ किया। अनेक पूर्वाचार्यों ने यह मान्यता अभिव्यक्त की है कि यक्षा की कठोर तपस्या से चिन्तित हो संघ ने शासनदेवी की साधना की। देवी सहायता से साध्वी यक्षा महाविदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर स्वामी की सेवा में पहुंची। श्री सीमंधर प्रभु ने साध्वी यक्षा को निर्दोष बताते हुए उसे चार अध्ययन चूलिका रूप में प्रदान किये। प्राचार्य भद्रबाह के समय में साध्वी समुदाय का नेतृत्व किस आर्या द्वारा किया जाता रहा, इसका तो कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता पर परम विदुषी साध्वियां यक्षा आदि आर्य स्थूलभद्र की ७ बहिनों के नाम प्रमुख रूप से पाते हैं।' इससे नह अनुमान होना सहज है कि प्रार्या यक्षा का तत्कालीन साध्वीसंघ में अवश्य ही कोई विशिष्ट स्थान रहा होगा। - ज्ञानाराधन सम्बन्धी कुछ प्रश्नोत्तरों के पश्चात् वे सातों साध्वियां अपने स्थान को लौट गई। साध्वियों के लौट जाने के पश्चात् वाचना का समय आने पर जब मार्य स्थूलभद्र प्राचार्यश्री की सेवा में पहुंचे तो प्राचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में कहा- "वत्स! ज्ञानोपार्जन करना बड़ा कठिन कार्य है पर वस्तुतः उपार्जित किये हुए शान को पचा जाना उससे भी अति दुष्कर है । तुम गोपनीय विद्या को पचा नहीं सके । तुम अपने शक्तिप्रदर्शन के लोभ का संवरण नहीं कर सके। रस्स रणं भज संभूइविजयस्स माटरगुत्तस्स इमामो सत अंतेवासिणीमो महाबच्चामो, भन्नायामो होला तं जहा- अक्सा य जक्सविना..... [कल्पसूच] Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक विकट समस्या ] दशपूर्वघर - काल : प्रायं स्थूलभद्र ४११ तुमने अपनी बहनों के समक्ष अपनी गुरुता और अपनी विद्या का चमत्कार प्रकट कर ही दिया । ऐसी दशा में तुम अब आगे के पूर्वो की वाचना के योग्य पात्र नहीं हो । जितना तुमने प्राप्त कर लिया है, उसी में सन्तोष करो । यह याद रखो, साधना के प्रति विकट पथ पर विचरण करने वाला केवल वही साधक अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है, जो पूर्णरूपेण स्व को विस्मृत कर देता है । प्रदर्शन स्व की विस्मृति नहीं अपितु स्व की ओर आकर्षण है । साधक को एक क्षण के लिये भी यह नहीं भूलना चाहिये कि आत्मानन्द की अवाप्ति ही उसका एकमात्र ध्येय है । आत्मानन्द की अनुभूति के समक्ष अष्ट सिद्धि, नवनिधि तुल्य उच्च से उच्च कोटि के वैभव का न कभी कोई मूल्य रहा है और न होना ही चाहिए । समस्त भौतिक सम्पदाएं आत्मानन्द की तुलना में नगण्य, तुच्छ और नश्वर हैं ।" प्राचार्य श्री की बात सुन कर प्रार्य स्थूलभद्र को अपनी भूल पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । उन्होंने गुरुचरणों पर अपना मस्तक रखते हुए अनेक बार क्षमायाचनाएं कीं और बार-बार इस प्रतिज्ञा को दोहरा गये कि वे भविष्य में इस प्रकार की भूल कभी नहीं करेंगे। किन्तु प्राचार्य भद्रबाहु ने यह कहते हुए वाचना देने से इन्कार कर दिया कि अन्तिम चार पूर्वी के अनेक दिव्य विद्याओं एवं चमत्कारपूर्ण लब्धियों से श्रोत-प्रोत ज्ञान को धारण करने के लिये वह योग्य पात्र नहीं है । . वस्तुस्थिति का बोध होते ही समस्त श्रीसंघ भी प्राचार्य भद्रबाहु की सेवा में उपस्थित हुआ और आचार्य श्री से बड़ी अनुनय-विनय के साथ प्रार्थना करने लगा कि आर्य स्थूलभद्र के अपराध को क्षमा कर के अथवा उसका उचित दण्ड दे कर उन्हें आगे के पूर्वो की वाचनाएं दी जायं । संघ की प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुनने के पश्चात् प्राचार्य भद्रबाहु ने कहा" वस्तुतः पूर्वज्ञान का योग्य पात्र समझ कर मैंने प्रार्य स्थूलभद्र को दो वस्तु कम १० पूर्व का अर्थ और पूर्ण विवेचन सहित ज्ञान दिया है । मैं यह भलीभांति जानता हूं कि बुद्धिबल, अध्यवसाय, धैर्य, गाम्भीर्य, वैराग्य, त्याग और विनय श्रादि जो गुण स्थूलभद्र में हैं, उस दृष्टि से इनकी तुलना करने वाला अन्य कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । श्राप लोगों को चिन्तित प्रथवा दुःखित होने की प्राव'श्यकता नहीं । मैं जो आगे के चार पूर्वो की बाचनाएं इन्हें नहीं दे रहा हूं उसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है । यह तो सर्वविदित ही है कि प्रार्य स्थूलभद्र का जन्म महामन्त्री शकडाल के यहां हुआ है । इन्होंने कुमारावस्था में समस्त विद्याओं का अध्ययन कर उनमें निपुरगता प्राप्त की । रूप-लावण्यादि स्त्रियोचित सभी गुणों में सुरबाला के समान कोशा के लक्ष्मीगृह तुल्य सभी सामग्रियों से सम्पन्न एवं समृद्ध सुरम्य भवन में रहते हुए इन्होंने सुरोपम कामादि सभी सुखों 'का कोशा के साथ जी भर बारह वर्षों तक उपभोग किया । पितृमरण के पश्चात् मगधाधिपति नन्द द्वारा महामात्य पदग्रहण करने की प्रार्थना पर विचार करते -- Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२. जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ एक विकट समस्या हुए इन्होंने समस्त सांसारिक वैभव एवं मुखोपभोगादि को तुच्छ समझा । इन्हें तत्क्षरण संसार से उत्कट विरक्ति हो गई और तत्काल मगध के महामात्य पद को, अपने घर की तथा कोशा की अपार सम्पत्ति को और अपनी प्रेयसी कोशा तक को युवावस्था में त्याग कर संयम ग्रहरण कर लिया । गुरू की प्राज्ञा ले कर चार मास तक षड्स भोजन करते हुए निरन्तर कोशा के एकान्त संसर्ग में रह कर भी संयम मार्ग पर मेरू गिरी की तरह स्थिर रहे । अजेय कामदेव पर इनकी इस महान् विजय के उपलक्ष में आचार्य संभूतविजय ने इन्हें 'दुष्कर - दुष्करकारकः' की उपाधि से विभूषित किया ।" इस प्रकार का महान् त्यागी, उच्चकोटि का मनोविजयी, दश पूर्वों के ज्ञान का धारक यह कुल-सम्पन्न व्यक्ति भी अपने शक्ति प्रदर्शन के लोभ का संवरण नहीं कर सका तो अन्य साधारण लोग तो उन दिव्य विद्याओं, शक्तियों और लब्धियों को प्राप्त कर किस प्रकार पचा सकेंगे, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती । अब भविष्य में ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायगा त्यों-त्यों क्षण-क्षण में रुष्ट हो जाने वाले, प्रविनीत और गुरू की अवज्ञा करने वाले स्वल्पसत्वधारी श्रमण होंगे। उन मुनियों के पास यदि इस प्रकार की महाशक्तिशालिनी विद्याएं चली गईं तो वे क्षुद्रबुद्धि वाले श्रमरण साधारण से साधारण बात पर किसी से क्रुद्ध हो कर चार प्रकार की विद्याओं के बल से लोगों का अनिष्ट कर अपने संयम से पतित हो सर्वनाश तक करने पर उतारू हो जायेंगे और इस प्रकार के उन दुष्ट कर्मों के फलस्वरूप अनन्त काल तक संसार में भ्रमरण करते रहेंगे । ऐसी दशा में सभी दृष्टियों से श्रेयस्कार यही है कि शेष चार पूर्वो का ज्ञान अब भविष्य में लोगों को न दिया जाय ।" इस पर आर्य स्थूलभद्र ने कहा- "आप जो फरमा रहे हैं, वह ठीक है परन्तु श्राने वाली पीढ़ियां यही कहेंगी कि स्थूलभद्र की भूल के कारण अंतिम रायकुलसरिसभूते, सगडालकुलम्मि एस संभूतो । गेहगम्रो चेव पुणो, विसारश्र सव्वसत्थेसु ||६ सो कुलघरस सिद्धि, गणियावरसंतियं च सामिद्धि । पाण पुरणो वेडं, गातिरणगरा भरणवयक्खा ||८७|| जो एवं पुब्ववि, एवं सज्झायझाणउज्जुत्तो, गारव करणेरण हिश्रो, सीलभ रूव्वहरणधारणया ||८८ || 3 जह जह एही काले, तह तह अप्पावराहसंरद्धा । अणगारा पडणीए, निसंसय वट्टवेहिति ॥ ८६ ॥ . उप्पायरणीहि प्रवरे, केई विज्जाए इत्तरणं । उ व्हिविज्जाहि इट्ठाहि काहि उड्डाहं ॥६०॥ तेहि यहि य कुच्छियविज्जाहिं तेा निमित्तेरणं । कारण उवज्झायं, भमिही सो गंतसंसारे । [ तित्थोगा लियपना ] [ वही ] [ वही ] Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक विकट समस्या] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र चार पूर्व विनष्ट हो गये । इस अपयश की कल्पनामात्र से मैं सिहर उठता हूं अतः आप मुझे भले ही शेष पूर्वो का अर्थ और विशिष्ट विवेचन न बताइये पर मूल रूप से तो उनकी वाचना मुझे देने की कृपा करिये।" चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने यह निश्चित तौर पर समझ लिया था कि सम्पूर्ण चतुर्दश पूर्वो के ज्ञान में से अंतिम चार पूर्वो का ज्ञान उनकी आय की समाप्ति के साथ ही विछिन्न हो जायगा; उन्होंने प्रार्य स्थूलभद्र को अंतिम चार पूर्वो की मूल मात्र वाचनाएं दीं। वीर निर्वाण संवत् १७० में, तदनुसार ईसा से ३५७ वर्ष पूर्व प्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गारोहण के पश्चात् आर्य स्थूलभद्र भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर आचार्य बने। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं का इस विषय में मतैक्य है कि प्राचार्य भद्रबाह भगवान् महावीर के शासन में अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर अथवा श्रुतकेवली हुए।' आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने स्थूलभद्र को भी चतुर्दशपूर्वधर माना है। उनके अनुसार भद्रबाहु ने इस आदेश के साथ शेष पूर्वो का ज्ञान दिया कि अन्य किसी को इन पूर्वो का ज्ञान नहीं दिया जाय । जैसा कि उन्होंने परिशिष्ट पर्व में लिखा है : स संघेनाग्रहादुक्तो, विवेदेत्युपयोगतः । न मत्तः शेषपूर्वाणामुच्छेदो भाव्यतस्तु सः ।।१०६।। अन्यस्य शेषपूर्वारिग प्रदेयानि त्वया न हि । इत्यभिग्राह्य भगवान् स्थूलभद्रमवाचयत् ॥११०॥ सर्वपूर्वधरोऽथासीत् स्थूलभद्रो महामुनिः ॥१११।। कल्प किरणावली में भी प्राचार्य स्थूलभद्र को चौदह पूर्वधर माना है । यहां अन्तिम चार पूर्वो की मूल वाचना प्राचार्य भद्रबाहु ने आर्य स्थूलभद्र को दी थी इसी दृष्टि से उन्हें चतुर्दश पूर्वधर मान लिया गया है । वस्तुतः आर्य स्थूलभद्र दो वस्तु कम १० पूर्वो के ही पूर्ण रूप से ज्ञाता थे। अन्तिम चार पूर्वो का तो उन्हें विना अर्थ के मूल पाठ ही पढ़ाया गया था। संघाधिनायक बनने के पश्चात् प्राचार्य स्थूलभद्र ने विभिन्न क्षेत्रों में विहार कर ४५ वर्ष तक अनेक भव्यों का उद्धार करते हुए जिनशासन की उल्लेखनीय सेवा की। १ पढमो दसपुग्वीणं, सगडालकुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभद्दो, प्रवहिं साधम्मभद्दो ति ||७|| [तित्योगालीपइन्ना] (ख) सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मरणाहस्स तेण जंबुस्स। विण्ह रणदीमित्तो तत्तो य पराजिदो य तत्तो ।।४३।। गोवद्धणो य तत्तो भद्दभुप्रो अंतकेवली कहियो। [अंगपण्णत्ती (दिगम्बरमान्यता का ग्रन्थ)] Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ • जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग मित्रं धर्मेण योजयेत् प्राचार्य स्थूलभद्र अनेक क्षेत्रों के भव्यों का उद्धार करते हुए विहारानुक्रम से एक दिन श्रावस्ती पधारे । दर्शन-वन्दन-उपदेशश्रवण की उमंगों से उद्वेलित जनसमुद्र आचार्यश्री की सेवा में उमड़ पड़ा। समस्त संसार के प्राणियों की कल्याणकामना करने वाले प्राचार्य भद्रबाहु के भवरोग निवारक भावपूर्ण उपदेशामृत का पान कर श्रावस्ती के आबालवृद्ध नागरिकों ने परमानन्द का अनुभव करते हुए सच्चे धर्म का स्वरूप समझा। देशनानन्तर श्रोताओं में अपने बालसखा धनदेव को न देख कर प्राचार्य स्थूलभद्र ने विचार किया कि श्रावस्ती के प्रायः सभी श्रद्धालु जन वहां आये हैं पर धनदेव नहीं पाया। हो सकता है वह कहीं अन्यत्र गया हया हो अथवा रुग्ण हो। उसके न आने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है अन्यथा वह उनका नाम सुनते ही अवश्य उपस्थित होता। ऐसी दशा में उन्हें स्वयं उसके घर जा कर देखना चाहिये कि आत्मकल्याणं की ओर भी उसका ध्यान है अथवा नहीं। इस प्रकार विचार कर आचार्य स्थूलभद्र धनदेव पर विशेष अनुग्रह कर मार्ग में साथ हुए जनसमूह सहित उसके घर पहुंचे । धनदेव की पत्नी कल्पवृक्ष के समान महान् प्राचार्य को अपने घर के प्रांगण में देख कर हर्षविभोर हो उठी। उसने भक्तिपूर्वक प्राचार्यश्री को वन्दन किया और एक काष्टासन प्रस्तुत करते हुए उस पर विराजमान होने की उनसे प्रार्थना की। आसन पर बैठने के पश्चात् प्राचार्य स्थूलभद्र ने धनदेव की पत्नी से धनदेव के सम्बन्ध में पूछा कि क्या वह कहीं बाहर गया हुआ है ? धनदेव की पत्नी ने उत्तर दिया- "भगवन् ! वे अपनी समस्त सम्पत्ति का व्यय कर चुकने के पश्चात् दैन्य के दारुण दुःख से पीड़ित हो अर्थोपार्जन हेतु देशान्तर में गये हुए हैं।" अपने बालसखा की दैन्यावस्था पर विचार करते हुए स्थलभद्र ने अपने ज्ञानबल से देखा कि धनदेव के घर में एक स्तम्भ के नीचे अपार निधि रखी हुई है। उन्होंने उस स्तम्भ की ओर देखते हुए धनदेव की गृहिणी से कहा - "श्राविके ! देख, संसार का वास्तविक स्वरूप यही है। कितनी विपुल सम्पत्ति थी तुम्हारे घर में, कितना बड़ा व्यवसाय था धनदेव का और आज यह दशा हो गई है।" तदनन्तर थोड़े समय तक सारभूत धर्मोपदेश दे कर प्राचार्य स्थूलभद्र अपने स्थान की ओर लौट गये और दूसरे दिन वहां से विहार कर धर्म का दिव्य सन्देश जन-जन तक पहुंचाते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करने लगे। धनदेव को बहुत कुछ प्रयास करने पर भी अर्थप्राप्ति नहीं हुई और जिस दशा में, जिन वस्त्रों को पहने हुए वह घर से निकला था, उसी दशा में और उन्हीं वस्त्रों को धारण किये हुए कुछ दिनों पश्चात् वह पुनः अपने घर लौटा । अपनी Por Private & Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रं धर्मेण योजयेत् ] दशपूर्वधर - काल : आर्य स्थूलभद्र ४१५ पत्नी के मुख से प्राचार्य स्थूलभद्र के आगमन का समाचार सुन कर उसने उससे पूछा - "क्या प्राचार्यदेव ने तुम्हें कुछ कहा था ?" धनदेव की पत्नी ने उत्तर दिया- “संसार की विचित्र गति और धर्मोपदेश के अतिरिक्त उन्होंने कोई विशेष बात तो नहीं कही पर वे बार-बार अपने घर के इस स्तम्भ की ओर देख रहे थे । " धनदेव समझ गया कि महापुरुषों की कोई भी चेष्टा निरर्थक नहीं होती । उन ज्ञानी महात्मा की दृष्टि इस स्तम्भ पर अटकी तो निश्चित रूप से इसके नीचे विपुल धन होना चाहिये । इस प्रकार विचार कर धनदेव ने उस स्तम्भ के आसपास की भूमि को खोदना प्रारम्भ किया। थोड़े से परिश्रम के पश्चात् ही धनदेव ने देखा कि उस थम्भे के नीचे अपार सम्पत्ति गडी पड़ी है । धनदेव ने भूमि में दबी पड़ी उस सम्पत्ति को निकाला और पुनः कुबेर के समान सम्पत्तिशाली श्रीमन्तों में उसकी गणना होने लगीं । धनदेव को ज्यों ही विदित हुआ कि आचार्य स्थूलभद्र पाटलिपुत्र में विराजमान हैं, तो वह उनकी सेवा में पाटलिपुत्र पहुंचा । श्राचार्यश्री और समस्त मुनिवृन्द को भक्ति सहित वन्दन नमन करने के पश्चात् धनदेव ने प्राचार्यश्री की सेवा में निवेदन किया- “भगवन् ! मेरी अनुपस्थिति में मेरे घर में आपके पावन पदार्परम एवं कृपा-कटाक्षनिक्षेप से मेरा दारिद्र्य दुःख दूर हुआ । प्राप ही मेरे स्वामी, गुरु और सर्वस्व हैं । कृपा कर प्रदेश दीजिये कि में क्या सेवा करू ?" आचार्य स्थूलभद्र ने कहा- “धनदेव ! भगवान् जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्म ही अक्षय एवं अव्यावाध सुख का देने वाला है अतः तुम अन्तर्मन से उसका यथाशक्ति पालन करो | बस तुम्हारे लिये सबसे बड़ा और परमावश्यक यही कार्य है ।" आचार्य स्थूलभद्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर धनदेव भगवान् जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित दया-धर्म का व्रतधारी श्रद्धालु उपासक बना और कतिपय दिनों तक आर्य स्थूलभद्र की सेवा में रह कर अपने घर लौट गया । इस प्रकार प्राणिमात्र का कल्याण चाहने वाले करुणासागर प्राचार्य स्थूलभद्र ने अपने बालवय के मित्र धनदेव को सच्चे धर्म का अनुयायी और उपासक बना कर उसे भवभ्रमरण से बचने का प्रशस्त मार्ग बताया । तृतीय निन्हव प्रव्यक्तवादी की उत्पत्ति (वीर निर्वाण संवत् २१४) आचार्य स्थूलभद्र के आचार्यत्वकाल के ४४ वर्ष बीत जाने पर वीर निर्वारण संवत् २१४ में श्वेताम्बिका नगरी में प्राषाढ़ाचार्य के शिष्यों से तीसरे निन्हवअव्यक्तवादी की उत्पत्ति हुई । उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : एक दिन श्वेताम्बिका नगरी में आर्य आषाढ़ नामक प्राचार्य प्रपने अनेक शिष्यों के साथ पउलाषाढ़ नामक चैत्य में विराज रहे थे । वे अपने शिष्य समुदाय को वाचना प्रदान कर रहे थे। संयोगवश वाचनाकाल में ही प्राषाढ़ाचार्य एक Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [तृतीय निन्हव की उत्पत्ति समय रात्रि में हृदयशूल की व्यथा से पीड़ित हो काल कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हए। उस समय उनके सभी श्रमण निद्राधीन थे अतः गच्छ के किसी साधु को उनकी मृत्यु हो जाने के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। । उधर सौधर्म देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुए प्राचार्य आषाढ़ के जीव ने देवभव में अवधिज्ञान लगाकर जब वस्तुस्थिति को जाना तो अपने शिष्यों के प्रति अनुकम्पा से प्रेरित हो वे अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो गये। उन्होंने साधुओं को उठा कर वैरात्रिक काल के कार्यक्रम करने की उन्हें प्रेरणा दी और अवशिष्ट वाचनाएं यथासमय पूर्ण की। वाचनाएं पूरी होने के पश्चात् अपने शरीर को छोड़कर सौधर्म देवलोक में जाते समय उन्होंने साधुओं से कहा - "मुनियो ! असंयत होते हुए भी मैंने आपको मुझे वन्दन करने से नहीं रोका, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। आप लोग सर्वविरति साधु हैं और मैं अमुक रात्रि में काल कर देव बन चूका हं पर तुम लोगों पर अनुकम्पा वश पुनः देवलोक से अपने इस शरीर में आकर मैंने वाचना-कार्य पूर्ण कराया है।" इस प्रकार कहकर जब देव चला गया तब वे साधु मृत शरीर की परिस्थापनक्रिया करने के पश्चात् सोचने लगे- "अहो ! हमने बहुत समय तक ' असंयती की वंदना की। न मालूम इस तरह अन्यत्र भी कौन वास्तव में संयमी और कौन देव है, यह मालूम करना कठिन है, अतः सबको वन्दन न करना ही समुचित है अन्यथा असंयमी-वंदन और मृषावाद का दोष लग सकता है।" इस प्रकार तीव्र कर्म के उदय से वे अपरिणत बुद्धि साधु अव्यक्तवादी बन गये और उन्होंने परस्पर वन्दन-व्यवहार पूर्णतः वन्द कर दिया। स्थविरों ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा - "साधुनो ! यदि तुम्हें अन्य सब में सन्देह ही करना है तो देव की वात पर सन्देह क्यों नहीं किया ? अपने इस अव्यक्तवादी सिद्धान्त के अनुसार तुम निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकते कि वह वस्तुतः कोई देव था या कोई मायावी। जिस प्रकार तुम्हें उसने अपने प्रापको देव बताया और बाहर से भी उसके दिव्य तेज को देखकर उसकी बात को सच मानते हुए उसे देव माना, उसी प्रकार साधु को भी उसके वचन और व्यवहार से सच मानना चाहिये।" इस प्रकार अनेक तरह से समझाने पर भी जब वे साधु नहीं समझे तो उन्हें श्रमणसंघ द्वारा संघबाह्य घोषित कर दिया गया। . संघ से निष्कासित किये जाने के कुछ ही समय पश्चात् वे अव्यक्तवादी निन्हव साधु घूमते-घामते राजगृह नगर में आये। उस समय वहां मौर्यवंश में उत्पन्न वलभद्र' नामक राजा शासन करता था जो कि जैन धर्म का श्रद्धालु श्रावक था। ' नन्दवंश का अन्त और पाटलीपुत्र में मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का अभ्युदय वीर नि० संवत् २१५ में हुप्रा अतः अनुमान किया जाता है कि वीर नि० सं० २१४ में निन्हव बनने के कतिपय वर्षों पश्चात् वे लोग अपने मत का प्रचार करते हुए राजगृह में माये हों और मौर्यवंशी सामन्त बलभद्र ने उन्हें प्रतिबोध दिया हो। -सम्पादक Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय निन्हव की उत्पत्ति] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभद्र ४१७ राजा बलभद्र को जब यह विदित हा कि अव्यक्तवादी निन्हव राजगृह नगर के वाहर गुरणशील उद्यान में पाये हुए है तो उसने अपने सेवकों को भेजकर साधुओं को ग्रामन्त्रित किया और उनको हाथियों द्वारा कटक-मर्दन से मारने की आज्ञा दी। जब साधुनों का मर्दन करने हेतु हाथी पास में लाये गये तो उन निन्हवों ने राजा से पूछा - "राजन् ! हम तो जानते हैं कि तुम श्रावक हो, तब फिर तुम हम श्रमरणों की हिंसा क्यों कर रहे हो?" राजा ने कहा- "महाराज! प्रापके सिद्धान्तानुसार कौन जानता है कि मैं श्रावक हूं, अथवा नहीं। तुम सब भी चोर, गुप्तचर हत्यारे हो या साधु हो यह कोई नहीं जानता।" साधुओं ने कहा - "हम साधु हैं।" राजा ने कहा- "यदि ऐसा निश्चित है तो अव्यक्तवादी होकर परस्पर बड़ों को वन्दनादि क्यों नहीं करते ?" वर्षों से साथ-साथ रहने वाले पाप लोगों को परस्पर एक-दूसरे पर यदि भरोसा नहीं है तो मुझे पाप लोगों पर किस प्रकार विश्वास हो सकता है ?" राजा की युक्तिसंगत बात सुनकर वे बड़े लज्जित हुए और उन निन्हव साधुनों की शंका का पूर्णतः समाधान हो गया। उन्होंने अव्यक्तवाद का परित्याग कर दिया और गुरू-चरणों में जाकर उन्होंने पूर्ववत् वन्दनादि करना प्रारम्भ कर दिया। आर्य स्थूलभद्र ३० वर्ष तक गृहस्थ-पर्याय में रहे। वीर निर्वाण संवत् १४६ में आपने आर्य संभूतिविजय. के पास दीक्षा ग्रहण की। २४ वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में रहे। वीर नि० सं० १७० से २१५ तक आपने प्राचार्यपद पर रहते हुए वीरशासन की सेवाएं की। अन्त में ९६ वर्ष की प्रायूष्य पूर्ण कर वीर निर्वाण सं० २१५ में राजगह नगर के समीप वैभारगिरि पर १५ दिन के अनशन व संथारे के बाद आपने स्वर्गगमन किया। जैसा कि आगे बताया जायगा, भारतीय इतिहास की दृष्टि से मार्य स्शुलभद्र का यूग राज्य-परिवर्तन अथवा राज्य-विप्लव का युग रहा। भारत पर यूनानियों का आक्रमण, महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य का अभ्युदय, नन्दराज्य का पतन और मौर्य-राज्य का उदय - ये उनके काल की प्रमुख राजनैतिक घटनाएं हैं। प्रार्य स्थूलभद्र के प्रारम्भिक जीवन-वृत्त से यह भी भलीभांति प्रकट होता है कि उन दिनों की राजनीति में जैनों का कितना व्यापक प्रभाव रहा। यह इसी से स्पष्ट है कि शकडाल और श्रीयक आदि नन्द-साम्राज्य के परम राजभक्त महामात्य रहे। तात्कालिक जनजीवन का भी एक स्पष्ट चित्र आर्य स्थूलभद्र के समय के घटनाक्रम के चित्रणं में उभर पाता है। अहिंसा-संयम और तपोमय जीवन द्वारा श्रमरण-संस्कृति के सिद्धान्त उस समय के प्रजाजीवन में साकार थे। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग मारत पर सिकन्दर द्वारा प्राक्रमण प्राचार्य स्थूलभद्र के प्राचार्यत्वकाल में लगभग वीर निरिण सं० २०० तदनुसार ईसा पूर्व ३२७ में भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों पर यूनान के शाह सिकन्दर (एलेक्जेन्डर दी ग्रेट) ने एक प्रबल सेना लेकर आक्रमण किया। उस समय भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में छोटे-छोटे राज्य तथा पंजाब में विभिन्न जातियों के गणराज्य थे। मगध सम्राट् धननन्द (नवम नन्द) अपनी अत्यन्त लुब्ध प्रकृति और जनता पर अधिकाधिक करभार बढ़ाते रहने की प्रवृत्ति के कारण अपने प्रति जनता का प्रेम और विश्वास खो चुका था.। उसके अधीनस्थ अनेक राजाओं और सामन्तों ने उसके प्रति विद्रोह का झण्डा उठा अपने प्रापको स्वतन्त्र घोषित कर दिया था । गृह-कलह के कारण राजा गण एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में लगे हुए थे। - देश में सार्वभौम सत्तासम्पन्न एक शक्तिशाली राज्य के अभाव में सिकन्दर को प्रारम्भ में अपने सैनिक अभियान में सफलता मिली । उसने हिन्दुकुश, काबुल की घाटी से लेकर सिन्धु नदी के पूर्व का इलाका तथा काश्मीर और तक्षशिला मादि भारतीय प्रदेशों पर विजयश्री प्राप्त की। छोटे-छोटे भारतीय राजाओं ने सिकन्दर के प्राक्रमण को निष्फल करने के लिये बडी वीरता के साथ प्राणों की बाजी लगा कर युद्ध किया किन्तु सिकन्दर की विशाल विजयवाहिनी के समक्ष वे बहुत अधिक समय तक नहीं टिक सके । अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये बहुत बड़ा बलिदान करने और शत्रुपक्ष को भारी क्षति पहुंचाने के पश्चात् भी अन्त में उन्हें प्रात्मसमर्पण करना ही पड़ा। पंजाब की हस्तिनायन, प्रश्वकायन मादि जातियों के गणतन्त्रों ने अपने-अपने राज्यों की शक्ति से कहीं प्रषिक सेनाएं संगठित कर सिकन्दर की सेना के साथ भयंकर युद्ध किये। - यों तो सभी राजानों और गणराज्यों ने सिकन्दर की सेना के साथ बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया पर उनमें राजा पौरव द्वारा किया गया युद्ध भारत के इतिहास में सदा विशेष उल्लेखनीय रहेगा। राजा पौरव ने अपने तीस हजार पैदल सैनिकों, चार हजार घुड़सवारों, तीन सौ रथों और २०० हाथियों की सशक्त सेना लेकर आगे बढ़ती हई सिकन्दर की सेना को रोका । राजा पौरव की सेना प्राणों की बाजी लगा कर बड़ी वीरता के साथ सिकन्दर की सेना के साथ लड़ी। यूनानी सेना को इस युद्ध में बड़ी भारी क्षति उठानी पड़ी किन्तु सहसा यूनानी सैनिकों के तीक्ष्ण तीरों की बौछारों से पौरव की हस्ति-सेना संत्रस्त होकर विगड़ खड़ी हुई और उसने पीछे की ओर तथा इधर-उधर भागते हुए बेकाबू हो स्वयं राजा पोरव की सेना को ही बड़ी क्षति पहुंचाई और इस प्रकार दुर्भाग्य से युद्ध का पासा ही पलट गया। राजा पौरव को पराजय का मुंह देखना पड़ा। जयश्री प्राप्त हो जाने पर भी सिकन्दर ने राजा पौरव की शक्ति और वीरता देखते-हए उसके साथ मैत्री करना मावश्यक समझा और उसका जीता हुमा राज्य उसे पुनः लौटा कर वह विजय-अभियान में आगे बढ़ गया। पग-पग Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत पर सि० द्वारा प्रा०] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थलभद्र पर भारतीयों द्वारा किये गये भीषण प्रतिरोध और उससे हुई अपनी गहरी क्षति को देख कर यूनानी सेना हतोत्साहित हो गई। किन्तु सिकन्दर समस्त भारतवर्ष पर अपनी विजय वैजयन्ती फहराने का दृढ़ संकल्प ले कर अपने देश से निकला था। उसने निरुत्साहित सैनिकों को तूफान की तरह आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया। सिकन्दर की सेना ने आगे बढ़ना चाहा पर क्षुद्रक और मालव गणतन्त्रों की संयुक्त सेना ने उसे सिन्धु और चिनाब के संगम के रणांगण में ललकारा। यहां यूनानी सेना को बहत बड़ी क्षति उठानी पड़ी। इस युद्ध में मालवों से लड़ते हुए सिकन्दर स्वयं आहत हो गया था। उसके घाव लगने के कारण सिकन्दर की मृत्यु की अफवाह फैल गई और भारत के विजित क्षेत्रों में भारतीयों के विद्रोह को दबाये रखने की दृष्टि से जो क्षत्रपियां स्थापित की गई थीं व यूनानी सैनिकों की बस्तियां बसाई गई थीं, उनमें से बहुत से यूनानी सैनिक सामूहिक रूप से यूनान की ओर भाग खड़े हए । सिकन्दर के सैनिकों का मनोबल भी टूट गया। उसके सैनिक अधिकारियों ने स्पष्ट शब्दों में सूचित कर दिया कि उसकी सैनिक शक्ति बहुत क्षीण हो चुकी है। बहुत बड़ी संख्या में उसके सैनिक युद्ध में मारे गये हैं तथा अनेक सैनिक रोगग्रस्त हो मर चुके हैं। अवशिष्ट सैनिकों में न पहले के समान शारीरिक शक्ति ही रही है और न मनोबल ही। अपनी और अपने सैनिकों की वास्तविक स्थिति को देखते हुए सिकन्दर अपनी सेना के साथ विजय अभियान को बन्द कर पुनः अपने देश की ओर लोट पड़ा। भारतीय विद्रोही प्रश्वकायनों ने सिकन्दर द्वारा नियुक्त सिन्धु के पश्चिमी प्रदेश के क्षत्रप (शासक-गवर्नर) निकानोर की हत्या कर डाली। तत्पश्चात् जिस समय सिकन्दर झेलम नदी के रास्ते से लौट रहा था, उस समय उसका एक प्रति कुशल और अनुभवी क्षत्रप फिलिप उसे यूनान के लिये विदा करने पहुंचा। सिकन्दर को विदा करने के पश्चात् जिस समय फिलिप अपनी क्षत्रपी की ओर लौट रहा था उस समय उसकी हत्या कर दी गई। जिस समय सिकन्दर के पास यह सूचना पहुंची तो उसे बड़ा गहरा आघात पहुंचा। सिकन्दर चूंकि उस समय तक बहुत दूर नहीं निकला था.प्रतः वह अगर चाहता तो विद्रोह को दबाने के लिये उस क्षेत्र में लौट सकता था पर अब वह उस स्थिति में नहीं रह गया था। तक्षशिला तथा सिन्धु एवं झेलम के संगम वाले प्रदेश का शासन जब तक कि दूसरा प्रबन्ध नहीं कर दिया जाय तब तक के लिये वह तक्षशिला के राजा को सुपुर्द कर चला गया। ज्यों-ज्यों यूनान की ओर लौटता हुआ सिकन्दर भारतीय प्रदेश को अपने पीछे छोड़ता गया त्यों-त्यों वे भारतीय प्रदेश विदेशी शासन के बूए को दूर फेंक कर स्वतन्त्र होते चले गये । बैबिलौन पहुंचते-पहुंचते सिकन्दर की ई० पूर्व जून ३२३ में मृत्यु हो गई ।। 1 In June 323 B. C. Alaxender died at Babylon and no permanent incumbent in IV. A. Smith's Ashoka P. 1. Cambridge History, P. 428 - 1.23-8. ...Philip's place could.ever beappointed. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भा० पर सि० द्वारा प्रा. सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके साम्राज्य में सर्वत्र अराजकता व्याप्त हो गई। सिकन्दर के कोई सन्तान नहीं थी अतः उसके सेनापतियों ने सिकन्दर के राज्य का परस्पर बंटवारा किया। पहला बंटवारा सिकन्दर की मृत्यु के तत्काल पश्चात् ईसा पूर्व ३२३ में और दूसरा बंटवारा त्रिपाशडिंसस नामक स्थान पर ईसा पूर्व ३२१ में हमा। पर इन दोनों बंटवारों के समय सिकन्दर द्वारा विजित सिन्धु नदी के पूर्वीय प्रदेशों को यूनानी साम्राज्य की गणना में नहीं लिया गया। इससे सिद्ध होता है कि सिकन्दर की भारत में विद्यमानता के समय में ही भारतीयों द्वारा यूनानी शासन के विरुद्ध खड़ा किया गया विद्रोह बल पकड़ता गया और सिकन्दर के पाहत होकर यूनान की ओर मुंह करते ही उन प्रदेशों के निवासियों ने यूनानी गुलामी के जुए को तत्काल झटक कर सदा के लिये उतार फेंका। इस सब घटनाचक्र पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह तथ्य स्पष्टरूपेण प्रकट हो जाता है कि जो सिकन्दर एक अजेय विशालवाहिनी के साथ विश्वविजय की महत्वाकांक्षा लिये यूनान से भारत की पश्चिमोत्तर सीमा तक के प्रदेशों की अनेक शक्तिशाली राज्यसत्तामों को भूलुण्ठित करता हमा एक तीव्रगामी प्रचण्ड तूफान की तरह प्रागे बढ़ता ही गया, उसे भारतीय रणबांकुरे देशभक्तों ने पगपग पर अपने प्रतिरोध की फौलादी दीवार बनकर रोका। यह भी तथ्य है कि सार्वभौम सत्तासम्पन्न एक सशक्त और विशाल राज्य के रूप में सुसंगठित न होने के कारण पश्चिमोत्तर सीमावर्ती छोटे-छोटे राजामों और गणराज्यों की बिखरी हुई शक्ति अधिक समय तक सिकन्दर की सशक्त एवं सुविशाल वाहिनी के प्रबल प्रहारों के सम्मुख नहीं टिक सकी। इतना होने पर भी यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उस बिखरी हुई भारतीय शक्ति ने भी अपने दृढ़ संकल्प, तीव्र प्रतिरोध मोर प्रबल प्रहारों से सिकन्दर की सेना को बहुत बड़ी क्षति पहुंचा कर तथा उसके मनोबल एवं प्रोज-तेज को समाप्तप्राय बनाकर सिकन्दर की सब महत्वाकांक्षामों पर पानी फेर दिया। यहां यह प्रश्न उपस्थित होना स्वाभाविक ही है कि भारतीय छोटे-छोटे राजा तथा गणराज्य बिना संगठित हुए अलग-अलग रूप से सिकन्दर की बड़ी सेना के साथ लड़ने के कारण अन्ततोगत्वा परास्त होते गये तो उसके पश्चात सर्वव्यापी सामूहिक विद्रोह संगठित करने वाला कोई न कोई सूत्रधार तो अवश्य होना चाहिये अन्यथा पराजित भारतीयों द्वारा एक के पश्चात् दूसरे यूनानी सत्रपों को हत्या करना एवं यूनानी साम्राज्य की जड़ों को भारत से उखाड़ फेंकना भारतीयों के लिये कभी संभव नहीं होता। ___ इस प्रश्न का हमें भारतीय वाङ्मय में तो खोजने पर भी कोई उत्तर नहीं मिलता किन्तु सिकन्दर के निपार्कस, प्रोनेसिक्रिटस पोर परिस्टोबुलस नामक तीन अधिकारियों द्वारा भारत की स्थिति के सम्बन्ध में लिखे गये विवरणों और उनके पश्चात् भारत में यूनानी राजदूत मेगास्थनीज द्वारा लिखे गये विवरणों के प्राधार पर लिखी गई विदेशी विद्वानों की रचनामों से पर्याप्त संतोषजनक उत्तर Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारस पर सि० द्वारा प्रा०J दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र ४२१ मिल जाता है । ईसा की दूसरी शताब्दी में जस्टिन नामक एक लेखक ने उपर्युक्त, सिकन्दर और सेल्यूकस के समकालीन अधिकारियों द्वारा लिखे गये विवरणों के आधार पर एपिटोम अर्थात् 'सारसंग्रह' की रचना की। उसके बारहवें खण्ड में उसने सिकंदर के विजय अभियानों का विवरण देते हुए लिखा है : .."सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् भारत ने मानो अपने गले से यूनानी दासता का जूमा उतार फेंका और उसके अनेक क्षत्रपों को मार डाला। इस मुक्तिअभियान का सूत्रधार सेंड्रोकोट्टस था। उसका जन्म एक साधारण कुल में हुमा था पर कुछ देवी प्रोत्साहनों से उसे राजा का पद प्राप्त करने की प्रेरणा मिली। हुआ यह कि उसकी धृष्टता पर 'नैडम'' (नन्द) को क्रोध या गया और उसने उसे मरवा डालने की आज्ञा दी, पर वह अपने प्राण बचा कर वहां से भाग निकला। संड्रोकोट्टस-चन्द्रगुप्त जब थक कर सो रहा था उस समय एक सिंह उसके पास पाया और उसके शरीर से बहता हुआ पसीना चाट कर धीरे से उसे जगाया और चला गया । इस अनहोनी घटना से पहले-पहल चन्द्रगुप्त के मन में एक राजा का सम्मान प्राप्त करने की अभिलाषा जागृत हुई और उसने अपने चारों ओर लुटेरों का एक गिरोह जमा करके भारतवासियों को तत्कालीन (यूनानी) शासन का तस्ता उलट देने के लिये भड़काया। इसके कुछ समय पश्चात् जब वह सिकन्दर के सेनापतियों से लड़ने जा रहा था, तो एक विशालकाय जंगली हाथी अपने-आप उसके सामने आकर खड़ा हो गया और सहसा पालतू हाथी की तरह शीलस्वभाव का होकर उसने चन्द्रगुप्त को अपने ऊपर बिठा लिया। वह हाथी चन्द्रगुप्त का पथप्रदर्शक बन गया और रणक्षेत्र में बहुत आगे-आगे रहा । इस प्रकार राजसिंहासन पर अधिकार कर के सैंड्रोकोट्टस ने भारत को अपने अधीन कर लिया। इसी समय सेल्यूकस अपनी भावी महानता की नींव डाल रहा था।" ___ जस्टिन द्वारा दिये गये इस विवरण से इस प्रश्न के हल के साथ-साथ भारतीय इतिहास के अनेक धुन्धले तथ्य स्पष्ट रूप से किस प्रकार उभर आते हैं, यह चन्द्रगुप्त के जीवन वृत्त में प्रागे दिया जायगा। यहां यही बताना अभीष्ट है कि सिकन्दर के इस आक्रमण ने भारतीयों में एक नवीन चेतना जागृत करदी और भारत में एक महान् शक्तिशाली बड़ी राजसत्ता को जन्म देने की पूर्वपीठिका.का निर्माण किया । वस्तुतः सिकन्दर के इस सैनिक अभियान ने भारतीयों की रणक्षमता शोर वीरता को संसार के समक्ष प्रकट कर दिया क्योंकि सिकन्दर की विजय की कहानियों से भी उसके विरुद्ध भारतीयों द्वारा किये गये प्रतिरोध की कहानियां अधिक वीरताभरी, पाम तौर पर इस स्थान पर 'अलेक्जेंडस' शब्द मिलता है, जिसके बारे में डि ने सिद्ध कर दिया है कि वह गलत है प्रतः उसके स्थान पर 'नेडम' शब्द रख दिया है। [मैककिरिन की इन्वेजन माफ इन्डिया बाई अलेक्जेंटर पृ. ३२७] Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भा० पर सि० द्वारा प्रा० रोचक और प्रेरणाप्रदायिनी हैं । केवल पुरुषों ने ही नहीं यहां की वीरांगनाओं. ने भी युद्ध के मैदानों में रणचण्डी के रूप में डट कर यूनानियों के आक्रमण से मातृभूमि की रक्षा करते हुए प्राणाहूतियां दीं। ३६ ई० पूर्व तक जीवित यूनानी लेखक डियोडोरस ने लिखा है : ___ "प्रश्वकायनों ने अपनी वीरांगना रानी क्लियोफिस (संभवतः कृपा देवी) के नेतृत्व में अन्त तक अपने देश की रक्षा करने का दृढ़ निश्चय किया। रानी के साथ ही वहां की स्त्रियों ने भी प्रतिरक्षा में भाग लिया। वेतनभोगी सैनिक प्रारम्भ में बड़े निरुत्साहित हो कर लड़े परन्तु बाद में उन्हें भी जोश आ गया और उन्होंने अपमान के जीवन की अपेक्षा गौरव के साथ मर जाना ही श्रेष्ठ समझा।"" ३२७ ई० पूर्व सिकन्दर द्वारा भारत पर किये गये आक्रमण के दौरान, ई० पूर्व ३२३ में सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात्, ३०४ ई० पूर्व में यूनानी शासक सेल्यूकस द्वारा पुनः भारत पर किये गये आक्रमण के समय तथा ३२७ ई० पूर्व से ३०४ ई० पूर्व तक विदेशी आक्रमणों को विफल करने तथा भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने में चन्द्रगुप्त मौर्य ने क्या-क्या महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा की इस सन्दर्भ में संक्षेपतः उसका जीवनवृत्त यहां दिया जा रहा है । मौर्य राजवंश का अभ्युदय वीर निर्वाण संवत् २१५ और तदनुसार ईसा पूर्व ३१२ में नन्द राज्यवंश की समाप्ति के साथ भारत में मौर्य-वंश के नाम से एक शक्तिशाली राज्यवंश का अभ्युदय हुप्रा । इस राज्यवंश ने अपनी मातृभूमि आर्यधरा पर से यूनानियों के शासन का नामोनिशान मिटा न केवल सम्पूर्ण भारत पर ही अपितु भारत के बाहर के अनेक प्रान्तों पर भी अपनी विजयवैजयन्ती फहरा कर एक सशक्त और विशाल राजसत्ता के रूप में १०८ वर्ष तक शासन किया। इस राजवंश के शासनकाल में भारतवर्ष में चहुंमुखी प्रगति हुई। इस राज्यवंश के संस्थापक मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त के जीवन के साथ उस समय के महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य का संपृक्त सम्बन्ध है, जिसे वस्तुतः इस शक्तिशाली राज्यवंश का संस्थापक एवं अभिभावक कहा जा सकता है। विद्वान् ब्राह्मण चाणक्य के बुद्धिकौशल के बल पर ही इस महान् राज्यवंश की स्थापना हुई प्रतः इस राज्यवंश का परिचय देने से पूर्व महान् राजनैतिक, उच्चकोटि के अर्थशास्त्री एवं अद्वितीय कूटनीतिश चाणक्य का परिचय देना परमावश्यक है। चाणक्य और चन्द्रगुप्त-दोनों का जीवन एक दूसरे से पूर्णतः सम्बद्ध है अतः उन दोनों का संक्षिप्त परिचय यहां साथ-साथ दिया जा रहा है । 'मककिडिल-कृत 'इन्वेजन माफ इन्डिया बाई अलेक्जेंडर', पृ० २७० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ दशपूर्वधर-काल : मार्य स्थूलभद्र मौर्य राजवंश का संस्थापक चाणक्य प्राचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में चाणक्य के जीवन का परिचय देते हुए लिखा है कि गोल्ल-प्रदेश के चरणक नामक ग्राम में चरणी नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम चरणकेश्वरी था। यह ब्राह्मण दम्पति जैनधर्म का अनन्य अनुयायी था और श्रावक व्रत का पालन करते हुए श्रमरणों की सेवा किया करता था। विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए जैन-श्रमण, ब्राह्मण चणी के गृह में प्रायः ठहरा करते थे। ब्राह्मणी चणकेश्वरी ने कालान्तर में एक पुत्र को जन्म दिया। उस शिशु के जन्म के समय चरणी ब्राह्मण के घर के एक एकान्त कक्ष में कुछ स्थविर श्रमण ठहरे हुए थे। चरणी ने अपने नवजात पुत्र को उन स्थविरों के समक्ष लाकर दिखाया और कहा - "भगवन् ! आज जो मेरे यहां पुत्र का जन्म हुआ है, इसके जन्म से ही मुंह में दांत हैं। वस्तुतः यह अहष्टपूर्व घटना है, आज तक दांतों सहित बालक का जन्म न कहीं देखा गया है और न सुना ही।" नवजात शिशु के मुंह में दातो को देख कर स्थविर श्रमण न कहा"सुश्रावक ! तुम्हारा यह पुत्र एक महान् प्रतापी राजा होगा।" "मेरा पुत्र राज्यसत्ता का स्वामी होकर कहीं नरक का अधिकारी न बन जाय", यह विचार कर चरणी ने शिशु को घर ले जाकर रेती से उसके दांत घिसना प्रारम्भ कर दिया। नवजात शिशु दन्तपर्षण की पीड़ा से रोया-चिल्लाया और छटपटाया पर चरणी ने कठोर हृदय कर के उसके दांतों को घिस डाला। जब चणी ने अपने पुत्र के दांतों को घिस दिये जाने की बात मुनियों से कही तो स्थविर मुनि ने कहा कि दांतों के घिस दिये जाने पर अब वह बालक कालान्तर में सम्राट नहीं पर सम्राट तुल्य (अन्य व्यक्ति को राजा बना कर उसके माध्यम से राज्यसत्ता का संचालन करने वाला) होगा। ब्राह्मण चरणी ने यह विचार कर कि 'यदभावी न च तद्भावी, भावी चेन तदन्यथा' दांतों को और अधिक नहीं घिसा.पौर अपने उस पुत्र का नाम चारणक्य रखा तथा यथासमय उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया। बड़ी लगन के साथ अध्ययन करते हुए कुशाग्रबुद्धि चाणक्य ने अनेक प्रकार की विद्यानों में निष्णातता प्राप्त की। विद्वान् चाणक्य संतोष को ही सबसे बड़ा धन समझ कर श्रक के व्रतों का सम्यक्पे ण पालन करता था। ___जब चाणक्य युवा हुअा तो एक कुलीन ब्राह्मणकन्या के साथ उसका पाणिग्रहण सम्पन्न हुमा । अपने माता-पिता के देहावसान पर चाणक्य ने अपनी छोटी सी गृहर थी का कार्यभार सम्हाला पर स्वल्पसंतोषी होने के कारण पनसंग्रह की मोर उसने कभी ध्यान नहीं दिया। अपने सहोदर के विवाह के अवसर पर एक दिन चाणक्य की पत्नी अपने मातृग्रह गई। उसकी बहिनें पहले ही वहाँ पहुंच चुकी थीं । चाणक्य की सभी सालियों का विवाह महासम्पत्तिशाली सम्पन्न घरों में हुमा था अतः वे सभी बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत, षोडश श्रृंगारों Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मौर्य रा० का सं० चाणक्य से सुशोभित और दासिवृन्दों से सदा परिवृत्त रहती थीं। चाणक्य की पत्नी के पास प्राभूषण के नाम पर कुछ भी नहीं था। वह रातदिन एक ही पुरानी साड़ी एवं कंचुकी पहने रहती थी। उसकी इस दरिद्रावस्था को देख कर उसकी लक्ष्मी के समान वैभवशालिनी बहनों तथा विवाहोत्सव में सम्मिलित हुई अन्य प्रायः सभी स्त्रियों ने विविध व्यंगोक्तियों से बड़ी हँसी उड़ाना प्रारम्भ कर दिया। स्वाभिमानिनी चाणक्यपत्नी मारे लज्जा के ग्रह के एकान्त कक्ष के एक कोने में सबकी निगाहों से अपने प्रापको छुपाये हुए बैठी रहती। विवाह के उस मांगलिक महोत्सव में उसने लज्जावश कोई भाग नहीं लिया और विवाह के सम्पन्न होतें ही वह अपने पतिगृह को लौट आई। दरिद्रता के कारण हुए अपने अपमान का उसे इतना गहरा दुःख हुमा कि वह अपने पतिग्रह में आकर रात भर रोती रही। चाणक्य को अपनी पत्नी की प्रांखों में प्रांसू देख कर बड़ा दुःख हुआ। चाणक्य ने अपनी पत्नी से उसके शोक का कारण जानना चाहा । अनेक बार आग्रहपूर्वक पूछने पर नहीं चाहते हुए भी पत्नी को अपने पति के सम्मुख प्रपनी अन्तर्वेदना को प्रकट करना ही पड़ा। चारणक्य को जब यह विदित हुप्रा कि उसकी दारिद्रधावस्था के कारण उसकी पत्नी का परिहास हुआ है, तो उसने धन उपार्जित करने का दृढ़ संकल्प किया। उसे यह विदित ही था कि मगधपति नन्द ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में पर्याप्त धन देता है प्रतः वह धन-प्राप्ति की मांशा लिये पाटलिपुत्र पहुंचा। अन्य दक्षिणार्थियों के प्रागमन से पूर्व ही राजप्रासाद में प्रवेश कर चारणक्य सबसे प्रागे रखे हुए एक उच्चासन पर बैठ गया। वस्तुतः नन्द सदा उस प्रासन पर बैठ कर ही दक्षिणाएं दिया करता था। नन्द के साथ पाये हुए नन्द के पुत्र ने तिरस्कारपूर्ण स्वर में एक दासी से कहा- "देखना इस ब्राह्मण की धृष्टता कि यह मगधमम्राट् के ग्रामन पर पा कर बैठ गया है।" - दामी ने चाणक्य के पास पहुंच कर शान्त स्वर में कहा - "ब्रह्मन! प्राप इस दूसरे प्रामन पर बैठ जाइये।" _ "इस पर तो मेरा कमण्डलु रहेगा"-यह कहते हुए चाणक्य ने दूसरे प्रासन पर अपना कमण्डलु रख दिया। दासी ने क्रमशः तीसरे, चौथे और पांचवें प्रासन पर बैठने की चाणक्य से .प्रार्थना की पर चाणक्य ने उन तीनों प्रासनों पर क्रमशः प्रपना दण्ड, जपमाला और यज्ञोपवीत रखते हुए कहा इस पर मेरा दण्ड, इस प्रासन पर मेरी जपमाला, और इस पर मेरा यज्ञोपवीत रहेगा। चाणक्य के न उठने एवं प्रन्यान्य प्रासनों को रोकते रहने से क्षुब्ध हो, यह कहते हुए कि कितना धृष्ठ है यह ब्राह्मण जो बार-बार कहने पर भी प्रासन से उठता नहीं है और दूसरे मासनों को रोकता ही चला जा रहा है, दासी ने पाणिप्रहार कर चाणक्य को उस मासन से उठा दिया । दासी द्वारा किये गये इस अपमान से चागक्य की क्रोधाग्नि प्रवल वेग से भड़क उठी। उसने उपस्थित विशाल जनसमूह के समक्ष दृढ़ और प्रत्युच्च Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य रा० का सं० चाणक्य] दशपूर्वघर-काल : पायं स्थूलभद्र ४२५ स्वर में यह प्रतिज्ञा की - "मैं इस नन्द का इसके सैन्य, पुत्र, मित्र और कोश के साथ सर्वनाश करके ही विश्राम लूंगा।" ___ उपर्युक्त कठोर प्रतिज्ञा करने के पश्चात् भ्रूविक्षेप और लाल-लाल मांखों से नन्द की पोर दृष्टिनिक्षेप करते हुए मारे क्रोध के कांपता हुप्रा चाणक्य राजप्रासाद से निकल कर नगर से बाहर चला गया। चाणक्य को अपने माता-पिता से सुनी हुई स्थविरों की उस भविष्यवाणी का स्मरण हो पाया जिसमें उन्होंने कहा था कि यह आगे चलकर सम्राट नहीं पर सम्राट् के समान "बिम्बान्तरित"यवनिका के पीछे रहते हुए, सम्राट् बनेगा। 'निस्पृह श्रमरणश्रेष्ठ द्वारा कही गई बात कभी असत्य नहीं होती' यह विचार कर चाणक्य ने राजा बनने योग्य किसी व्यक्ति को दंढ कर उसके माध्यम से नन्द, उसके वंश और राज्य का नाश करने का दृढ़ संकल्प कर लिया। चन्द्रगुप्त का परिचय किसी सुयोग्य व्यक्ति की तलाश में सन्यासी का वेष धारण किये हुए घूमता हुग्रा चाणक्य एक दिन एक ऐसे ग्राम में भिक्षार्थ पहुंचा, जहां राजा नन्द के मयूरों का पालन-पोषण करने वाले लोग निवास करते थे। मयूरपोषकों के मुखिया ने परिव्राजक वेषधारी चाणक्य को देख कर कहा- "महात्मन् ! मेरी पुत्री को चन्द्रपान का एक बड़ा ही प्रभुद दोहद उत्पन्न हुमा है। उसको चन्द्रमा के पीने की प्रत्युत्कट अभिलाषा बनी हुई है। इस प्रसंभव कृत्य को कैसे किया जा सकता है ? गभिरणी के दोहद की पूर्ति न होने की दशा में गर्भस्थ शिशु के साथ-साथ मेरी पुत्री का प्राणान्त होना भी अवश्यम्भावी है, यह चिन्ता मुझे महर्निश पीड़ित कर रही है। यदि माप इस अद्भुत दोहद की पूर्ति का कोई उपाय कर सकें तो हम पर बड़ा उपकार होगा।" विद्वान् चाणक्य ने समझ लिया कि जिस सुयोग्य पात्र की खोज में वह प्रयत्नशील है, वह पात्र तो मयूरपोषक की पुत्री के गर्भ में है। चाणक्य ने मयूरपोषकों के मुखिया से कहा - "गर्भस्थ बालक को बड़ा होने पर यदि तुम मुझे दे देने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हारी पुत्री के दोहद की पूर्ति कर सकता हूं।" मयूरपोषकों के स्वामी ने चाणक्य की शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। तदनन्तर बुद्धिमान चाणक्य ने घास-फूस की एक झोंपड़ी तैयार करवाई। उस झोंपड़ी के ऊपरी भाग में एक बड़ा-सा छिद्र रखवाया। उस झोपड़ी में रात्रिके समय खिद्र में से पूर्णचन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ने लगा। चाणक्य ने गुप्तरूप से एक पादमी को झोंपड़ी पर यह कह कर बढ़ा दिया कि उसके संकेत करते ही वह धीरे-धीरे उस छिद्र को तृणों से ढंकना प्रारम्भ कर दे। यह सब व्यवस्था करने के पश्चात् चाणक्य ने गभिणी को बुलाकर उस झोपड़ी में एक पीड़े पर बैठाया और उसके हाथ में पानी से भरी हुई एक पाली Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त का परिचय रख दी । उस थाली में पूर्णचन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था । चारणक्य ने गर्भिणी को सम्बोधित करते हुए कहा- "बेटी ! इस चन्द्रमा को पी जाओ ।" गर्भिणी ने थाली का पानी पीना प्रारम्भ किया । ज्यों-ज्यों वह पानी पीती जा रही थी त्यों-त्यों झोंपड़ी के ऊपर बैठा हुआ पुरुष झोंपड़ी में रखे हुए छेद को तृणों से ढांपता जा रहा था । इस प्रकार थाली का पूरा पानी पी लेने पर गर्भिणी को चन्द्र दिखना बन्द हो गया और उसके यह समझ लेने पर कि उसने चन्द्रपान कर लिया है, उसका दोहद पूर्ण हो गया । दोहद की पूर्ति हो जाने पर गर्भ निर्विघ्न रूप से बढ़ने लगा और समय पर मयूरपोषक की पुत्री ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । दोहद की बात को ध्यान में रखते हुए उस बालक का नाम चन्द्रगुप्त रखा गया । धुन दूरदर्शी चाणक्य भावी राजा की सेना के लिये स्वर्ण एकत्रित करने की धातु - विशारदों की खोज करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा । में इधर कुछ बड़ा होने पर बालक चन्द्रगुप्त अपने समवयस्क बालकों के साथ खेलते समय राजाओं जैसी चेष्टाएं करने लगा । वह कभी किसी बालक को हाथी बनाकर उस पर बैठता, तो कभी दूसरे बालक को घोड़ा बनाकर उस पर सवार होता । वह खेल ही खेल में मिट्टी के घरोंदे बनाकर उन्हें गांव की संज्ञा देता और हाथी बनाये हुए किसी बालक पर बैठकर अपने साथियों की सेना ले उस गांव पर प्राक्रमरण करता । वह उन कृत्रिम गांवों को जीत कर बड़े आनन्द का अनुभव करता । वह अपने साथी बालकों को अनेक प्रकार की प्रज्ञाएं देता और वे बालक स्वामिभक्त सेवक की तरह चन्द्रगुप्त की प्राज्ञानों का पालन करते । अनेक स्थानों पर घूमता हुआ चारणक्य एक दिन मयूरपोषकों के उस गांव में पहुंचा। उस समय चन्द्रगुप्त बालकों के साथ क्रीड़ा करते हुए अनेक प्रकार की राज- लीलाएं कर रहा था । चारणध्य उस तेजस्वी बालक की राजसीला देखकर मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ । बालक की बुद्धि और बहादुरी की परीक्षा करने की दृष्टि से चाणक्य ने उससे कहा- "महाराज ! मुझे भी प्राप कुछ दान दीजिये ।" बालक चन्द्रगुप्त ने तत्काल उत्तर दिया - " गांव की ये इतनी गायें हैं उनमें से छांट-छांट कर आपको जो-जो अच्छी लगें, वे सब मैंने आपको दीं, आप उन्हें ले जाइये ।" चाणक्य ने हँसते हुए उत्तर दिया- "राजन् ! इन श्रौरों की गायों को मैं कैसे ले जाऊं, इनके स्वामी मुझे मारेंगे नहीं ?" वालक चन्द्रगुप्त ने भी दृढ़ता के साथ कहा - "ब्रह्मदेव ! आपको किसी से डरने की आवश्यकता नहीं । मैंने ये गायें आपको दे दी हैं, मैं राजा हूं, मेरी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता । क्या आपको ज्ञात नहीं है कि "वीरभोग्या वसंघरा", यह पृथ्वी वीर पुरुषों के ही उपभोग की वस्तु है । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त का परिचय दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र ४२७ चाणक्य उस वालक के उत्तर को सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने बड़े ध्यान में बात के शारीरिक लक्षणों को और प्राकृति को देखा तो उसे ऐसा अनुभव हा कि वह बालक वस्तुतः राजा बनाये जाने के योग्य है । बालक के दृढ़ ग्रात्मविश्वास और सहज निर्भय स्वभाव से चाणक्य वड़ा प्रभावित हुप्रा । उसके कुल-शील और माता-पिता के सम्बन्ध में परिचय प्राप्त करने की इच्छा से चाणक्य ने एक बालक से पूछा- “यह बालक-राजा किसका पुत्र है ?" अनेक वालकों ने एक साथ उत्तर दिया - "महाराज ! यह एक संन्यासीजी महाराज का दत्तक पुत्र है । इसका नाम चन्द्रगुप्त है। जिस समय यह गर्भ में था उस समय इसकी माता को यह तीव्र चाह हुई कि वह चन्द्रमा को पी जाये। उसकी चाह पूरी न होने के कारण माता और गर्भ दोनों ही दिन-प्रतिदिन क्षीरण होते चले गये। इसके नाना ने अपना दुःख उन संन्यासीजी महाराज के समक्ष प्रकट किया। संन्यासीजी ने इस शर्त पर इसकी माता की चन्द्रपान की इच्छा पूर्ण करने का विश्वास दिलाया कि जिस पुत्र को यह जन्म दे उसे बड़ा होने पर उन्हें दे दिया जाय । इसके नाना ने संन्यासीजी की वह शर्त स्वीकार कर ली और उन महात्मा ने इसकी माता को न मालुम किस विद्या के प्रभाव से चांद पिला ही दिया। इसकी माता की चन्द्रमा को पीने की इच्छा पूर्ण होने से वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और उसने समय पर इस बालक को जन्म दिया। इसकी माता द्वारा चन्द्रमा के पिये जाने के कारण इस बालक की रक्षा हुई इसलिये इसके नाना-नानी ने इसका नाम चन्द्रगुप्त रखा। "महाराज ! यह बड़ा बहादुर तथा बहुत ही अच्छा लड़का है पर क्या करें एक न एक दिन वे संन्यासीजी महाराज पायेंगे और इसको अपने साथ ले जायेंगे। हमारा यह प्यारा और अच्छा राजा एक दिन हम लोगों को छोड़ कर चला जायगा इस बात का हमें बड़ा दुःख है।" ___ चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के मुख और मस्तक पर दुलार से हाथ फेरते हुए कहा- “मेरे बच्चे !” मैं ही तो वह सन्यासी हूं। मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें राजा बना दूंगा।" महत्वाकांक्षी बालक चन्द्रगुप्त ने तत्काल चाणक्य के वामहस्त की कनिष्ठिका पकड़ ली और वह पाशा के अनन्त नीलगगन में अपने भावी साम्राज्य के सुन्दर-सुनहले चित्र बनाता हुआ चारणक्य के साथ हो लिया। अब तो वह राजा बन कर ही अपने नाना-नानी, माता-पिता और बाल-सखायों से मिलेगा इस प्रकार का मन ही मन दृढ़ निश्चय कर चुकने के कारण बालक चन्द्रगुप्त में अपने साथी बालकों और अपने ग्राम की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा । अपने स्वप्नों को माकार करने वाले उस स्वरिणम सुयोग में कहीं किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं हो जाय, इस आशंका से चाणक्य ने बालक के माता-पिता मादि अभिभावकों को बिना पूछे ही उस गांव से अनिश्चित स्थान के लिये तत्काल प्रस्थान कर दिगा। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त का परिचय 1 . बालक चन्द्रगुप्त को चारणवय अपने साथ बिना उसके अभिभावकों को पूछे ले गया, इस घटना के उल्लेख के तत्काल पश्चात् ही प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने परिशिष्ट पर्व में नन्द के साथ चारणक्य के संघर्षरत हो जाने का उल्लेख करते हुए बताया है कि चाणक्य ने धातुविज्ञान के माध्यम से उपार्जित स्वर्ण से एक सेना संगठित की और चन्द्रगुप्त ने उस सेना के साथ पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर दिया । परिशिष्ट पर्व में किया गया यह उल्लेख नितांत प्रसंगत और अव्यवहार्य प्रतीत होता है । बालक्रीड़ात्रों में निरत एक ग्रामीण बालक को बिना किसी प्रकार की सैनिक शिक्षा दिये सहसा सेनापति बना कर उस समय के भारतवर्ष की सबसे शक्तिशाली राज्यसत्ता के विरुद्ध सैनिक अभियान करने के लिये झौंक देने जैसी अदूरदर्शिता चाणक्य जैसा उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ नहीं कर सकता । विस्तारभय अथवा अन्य किन्हीं कारणों से प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन दोनों घटनाओं के मध्यवर्ती काल में चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को एक कुशल सेनानी और सुयोग्य शासक बनाने के लिये उसे समुचित शिक्षा दिलाने का उल्लेख नहीं किया है । ४२८ चाणक्य ने जिस कार्य को निस्पन्न करने का बीड़ा उठाया था वह वस्तुतः बड़ा गुरुतर और दुस्साध्य कार्य था । चाणक्य के कार्य का मूल्यांकन करने पर स्पष्टरूपेण यह विदित हो जायगा कि केवल अपने अपमान के प्रतिकार के लिये बदले की भावना से प्रेरित हो कर ही उसने इतना बड़ा संघर्ष नहीं किया था । वस्तुतः इस महान् संघर्ष के पीछे उसके अन्तर में अनेक उद्देश्य थे । तात्कालिक देशव्यापी विघटनकारी प्रवृत्तियों ने उसके मानस में तीव्र असंतोष को जन्म दिया । करभार से दबी हुई और कुशासन से प्रपीड़ित जनता को वह एक सार्वभौम सत्तासम्पन्न सशक्त सुशासन देना चाहता था । हो सकता है कि नन्द के राजप्रासाद में हुए अपमान ने उसके अन्तर में छुपे उन विचारों को प्रचण्ड रूप दे कर उसे राज्यक्रान्ति के लिये तीव्रतम प्रेरणा दी हो । अजस्र श्रम, शक्ति, शौर्य, साहस और मेमा से भी कष्टसाध्य इस महान् कार्य का श्रीगणेश करने से पहले महान् कूटनीतिज्ञ चरणक्य ने चन्द्रगुप्त को किसी न किसी प्रादर्श विद्यालय में उच्चशिक्षा प्रवश्यमेव दिलाई होगी, यह तो निश्चित रूप से मानना ही पड़ेगा । उस समय भारतवर्ष में दो महान् विश्वविद्यालय थे, एक तो तक्षशिला का प्रोर दूसरा नालन्दा का । नन्द के नाक के नीचे रहे हुए नालन्दा विश्वविद्यालय में चन्द्रगुप्त को शिक्षा दिलाने का खतरा मोल न ले कर चारणक्य ने प्रवश्यमेव तक्षशिला विश्वविद्यालय में उसके लिये शिक्षा की व्यवस्था की होगी, यह अनुमान युक्ति संगत ठहराया जा सकता है । जातक कथानों से पता चलता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में राजकुमारों के लिये उच्चकोटि के सैनिक प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था थी, जिसमें सिद्धान्त तथा व्यवहार के साथ-साथ जातक के शब्दों में 'इस्सत्य सिव्य' प्रर्थात् धनुविद्या एवं 'हत्यिसुत' हाथियों से सम्बन्ध रखने वाली विद्या प्रादि की Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ पानुप्त का परिचय दशपूर्वपर-काम : प्रार्य स्वममा शिक्षा दी जाती थी। विश्वविद्यालय के प्रतिरिक्तवहां एक शिक्षाशास्त्रीद्वारा स्वतन्त्ररूप से भी राजकुमारों को इस प्रकार का सैनिक प्रशिक्षण दिये जाने का जातक कथानों में विवरण उपलब्ध होता है। नालन्दा विश्वविद्यालय की सैनिक एकेडेमी में १०१ राजकुमार और स्वतन्त्र प्राध्यापक की शिक्षणशाला में १०३ राजकुमार उच्च सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करते रहते थे इस प्रकार का उल्लेख जातकों में है। चाणक्य के समान उस समय के चोटी के विद्वान के लिये चन्द्रगुप्त को उपरिवरिणत दोनों शिक्षण संस्थानों में से किसी एक में प्रवेश दिला कर उच्च सैनिक प्रशिक्षण दिलवाना कोई कठिन कार्य नहीं था। ऐसी दशा में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि चाणक्य को मयूरपालकों के ग्राम में ज्यों ही प्रतिभाशाली वाक चन्द्रगुप्त मिला, त्यों ही वह उसे ले कर सीधा नालन्दा पहुंचा मोर वहां उस उसकी शिक्षा के लिये समुचित व्यवस्था की। हमारे इस अनुमान को ईसा की दूसरी शताब्दी में हुए पाश्चात्य लेखक जस्टिन द्वारा लिखित 'एपिटोम' (सारसंग्रह) के उस विवरण से बल मिलता है, जिसमें यह बताया गया है कि तत्कालीन यूनानियों के शासन का तख्ता उलट देने के लिये सैंडोकोट्टस (चन्द्रगुप्त) ने डाकुत्रों का दल एकत्रित कर के भारतवासियों को भड़काया। इसके कुछ समय पश्चात् जब वह सिकन्दर के सेनापतियों से लड़ने जा रहा था तो एक विशालकाय जंगली हाथी ने उसको पालतू हाथी की तरह अपनी पीठ पर बैठा लिया । वह हाथी युद्ध में चन्द्रगुप्त का पथप्रदर्शक बन गया और रणक्षेत्र में सदा बहुत मागे-आगे रहा ।' 1 .........He then passed over to India, whichafter Alexender's death, as if theyoke of servitude had been sbaken off from its ncak, had put his prefects to death. Sandrocottus had been the leader, who achieved their freedom, but after his victory he had forfeited by bis tyranny, all little to the name of liberator : for haviog ascended the throne, he oppressed with servitude the very people whom he had emancipated from foreign thraldom. He was born in humble life, but was prompted to aspire to royalty by an omeo, significant of an august destiny. For, when by insolent bebaviour he had offended king Nandrus, and was ordered by that king to be put to death, he had sought safety by a speedy flight. When he lay down, overcome with fatigue and had fallen into a deep sleep, a lion of enormous size, approaching the slumberer, liked with its tongue, the sweat, which oozed profusely from his body, and when he awoke, quietly took its departure. It was this prodigy, which first inspired him, with the hope of winning the throne, and so having collected a band of robbers, be instigated the lodians to overthrow the existing government. When he was there, after preparing to attack. Alexander's prefects, a wild elephant of monstrous size approached him and kpccling submissively like tame elepham, received him on to its neck and fought vigorously in front of the army. Sandrocottus having thus won the throne, was reigning over India when Seluccus was laying the foundation of his future greatness. Seleucus having made a treat with him and otherwise settled his affairs in the cast, returned home to prosecute the war with Antigonous. - From . 4: as translated by Mr. Creadke, Principal, u Itzseb. Corp. Inser. Indic. Pt. 1. Pruf xxxit. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त का परिचय ___ईसा की दूसरी शती में हुए विदेशी विद्वान् जस्टिन ने सिकन्दर के अधि-. कारियों द्वारा तथा मेगस्थनीज द्वारा लिखे गये संस्मरणों के आधार पर अपने "सारसंग्रह" में ये पंक्तियां लिखीं। इनसे हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचते हैं - सिकन्दर ने एक बड़ी सेना के साथ यूनान से लेकर भारत की पश्चिमोत्तर सीमा तक के देशों को विजित करने के पश्चात् ईसा पूर्व ५२७ में भारत पर प्राक्रमरण किया। अनेक बड़ी-बड़ी राज्यसत्ताओं को पददलित एवं पराजित कर देने के कारण सिकन्दर की सेना का मनोबल बढ़ा हुआ था। नवीनतम शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित सिकन्दर की शक्तिशाली विशाल सेना के समक्ष भारत के पश्चिमोत्तर सीमावर्ती छोटे-छोटे राज्यों तथा गणराज्यों की सेनाएं कड़े संघर्ष के पश्चात् एक के बाद एक पराजित होती ही गई। इस दयनीय स्थिति को देखकर देश के प्रावाल वृद्ध के अन्तर्मन में उत्पन्न हुए क्षोभ ने प्रत्येक भारतवासी को अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये कुछ न कुछ कर गुजरने की प्रेरणा दी। प्रबृद्ध बुद्धिजीवियों ने विदेशी शक्ति से लोहा लेने के लिये जनमानस को उभारा। नवयुवक अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये प्राणाहुति देने को तत्पर हुए। चाणक्य जैसे कूटनीतिज्ञ और रणनीति विशारदों की निगाह तक्षशिला में "उच्च सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले शिक्षार्थियों की ओर गईं और उनमें से सुयोग्य युवकों का चयन कर उनके द्वारा युवावर्ग को आवश्यक सैनिक प्रशिक्षण दिलवाया तथा इस प्रकार तक्षशिला की सैनिक एकेडमी से शिक्षा प्राप्त स्नातकों के सेनापतित्व में तत्काल खड़ी की गई सैनिक टुकड़ियों में से कुछ को विदेशी शासन की समाप्ति के लिये युद्ध के मैदानों में भेजकर तथा कुछ को गुरिल्ला युद्ध से शत्रु की शक्ति क्षीण करने का कार्य सौंप कर सामूहिक विद्रोह का झण्डा फहराया गया। चन्द्रगुप्त जैसा महत्वाकांक्षी युवक, जो उस समय तक तक्षशिला में पर्याप्त सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त कर चुका था, देश पर आई हुई संकट की घड़ियों में चुपचाप नहीं बैठ सकता था। अतः चन्द्रगुप्त ने भी एक सैनिक टुकड़ी का सेनापतित्व करते हुए सिकन्दर की सेना के सम्मुख डटकर लोहा लिया। एक विदेशी लेखक, तूफान की तरह निरन्तर आगे बढ़ती हुई अपने देश की बहादुर सेना की राह में डटकर उसकी प्रगति को रोकने वाले भारतीय सेनापति के लिये यह लिखे कि - चन्द्रगुप्त ने डाकुओं का दल एकत्रित करके भारतवासियों को भड़काया- तो इसके लिये उसे दोष नहीं दिया जा सकता। संसार का इतिहास साक्षी है कि अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये प्रारणाहुति देने वाले ररपबांकुरे देशभक्तों को माततायी सदा से ही चोर, डाकू, · लुटेरे, गुण्डे मादि सम्बोधनों से सम्बोधित करते माये हैं। अपने समय के अप्रतिम कूटनीतिज्ञ और राजनीति-विशारद चाणक्य के दूरदर्शितापूर्ण निर्देशन में साहसी नवयुवक चन्द्रगुप्त ने अपनी मातृभूमि भारत को विदेशी यूनानियों की दासता से उन्मुक्त कराने का बीड़ा उठाया और अद्भुत धर्य, साहस एवं पराक्रम से उसने यूनानियों को भारतवर्ष की सीमाओं से बाहर Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ चन्द्रगुप्त का परिचय] दशपूर्वघरःकाल : प्रार्य स्थूलभद्र खदेड़ने में सफलता प्राप्त की। चन्द्रगुप्त उस राजनैतिक विप्लव के समय न तो किमी राज्य का शासक ही था और न उसके पास कोई नियमित सेना ही थी। उसने देश की ग्रान-बान पर मर मिटने की साध रखने वाले युवकों को संगठित कर इस अति दुष्कर कार्य को सम्भव बनाया। अपने देश में विदेशी शासन का अन्त करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपने अभिभावक अथवा भाग्यविधाता चाणक्य के आदेशानुसार पाटलिपुत्र पर अधिकार करने हेतु अनवरत परिश्रम द्वारा एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मगध जैसे उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य की सुसंगठित सेनाओं से लोहा लेने के लिये एक सशक्त सेना तैयार करने में चन्द्रगुप्त और चाणक्य को पर्याप्त समय लगा होगा । पर्याप्त शक्तिशाली सेन के मंगठित हो जाने और सभी प्रकार की सैनिक तैयारियां सम्पन्न हो जाने पर चारणक्य ने चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र पर प्रबल वेग के साथ आक्रमण करने का आदेश दिया । चन्द्रगुप्त ने चारणक्य के आदेश का पालन करते हुए तत्काल अपनी सेना के साथ पाटलिपुत्र की ओर रणप्रयाण किया। भारत पर विदेशी याक्रमण के समय से ही धननन्द सावधान हो चुका था। कहीं सिकन्दर उसके राज्य पर भी आक्रमण न कर दे, इस आशंका से उसने अपनी फौजों को सुसंगठित कर रखा था। चन्द्रगुप्त द्वारा किये जाने वाले इस अप्रत्याशित आक्रमण की सूचना मिलते ही धननन्द अपनी विशाल वाहिनी के साथ चन्द्रगुप्त से युद्ध करने के लिये युद्धस्थल में आ डटा । इस सैनिक अभियान में चाणक्य भी चन्द्रगुप्त के साथ था। दोनों सेनाएं बड़ी वीरता के साथ लड़ीं किन्तु मगध की सुसंगठित और विशाल सेना के सम्मुख चन्द्रगुप्त की सेना के पैर उखड़ गये । चन्द्रगुप्त की सेना में भगदड़ मचते ही धननन्द की सेना ने द्विगुणित वेग से उस पर प्रबल अाक्रमण किया । परिणाम यह हुआ कि चन्द्रगुप्त की सेना के सिपाही बहुत बड़ी संख्या में मगध की सेना द्वारा मौत के घाट उतार दिये गये और अन्ततोगत्वा चन्द्रगुप्त और चाणक्य को अपने प्राणों की रक्षा के लिये युद्धस्थल छोड़ कर भागना पड़ा। धननन्द के आदेश से मगध के सैनिकों द्वारा चन्द्रगुप्त और चाणक्य का पीछा किया गया। उस संकटापन्न भयानक स्थिति में भी प्रत्युत्पन्नमती चाणक्य ने चन्द्रगुप्त एवं स्वयं के प्राणों की बड़ी ही दक्षता से रक्षा की। धननन्द ने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो कोई व्यक्ति चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य को जीवित अथवा मृत अवस्था में उसके समक्ष प्रस्तुत करेगा उसे बहुत बड़ा पारितोषिक तथा राजकीय सम्मान दिया जायगा । ऐसी स्थिति में चाणक्य और चन्द्रगुप्त के लिये पग-पग पर प्रारणों का संकट था। उधर मगध का समस्त गुप्तचर विभाग एवं सैन्य संगठन चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त को पकड़ने के लिये धननन्द के समस्त साम्राज्य में सक्रिय था पर चतुर चाणक्य चन्द्रगुप्त को साथ लिये विकट वनों, दुर्लध्य पर्वतों और वेगवती नदियों को छद्मवेष में पार करता चला जा रहा था। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग ग्रामीण महिला से चाणक्य को शिक्षा नन्दवंश को समाप्त करने की अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने हेतु जीवित रहने का दृढ़ संकल्प हृदय में पाये हुए चाणक्य एक रात्रि में विश्राम के लिये चन्द्रगुप्त के साथ एक एकांत झोंपड़ी में ठहरा । उस वृद्ध महिला ने एक थाली में गरम-गरम राब डाल कर अपने बालकों के सम्मुख रख दी। उन बालकों में से एक ने राव खाने के लिये थाली के बीच में हाथ डाला और हाथ जल जाने के कारण कराह उठा । उस वृद्धा ने खीझ भरा उपालम्भ देते हुए उस बालक मे कहा- "मेरे बच्चे ! तू भी चारणक्य की तरह नितांत मूढ़ ही नजर पाता है।' वृद्धा की बात सुन कर चाणक्य चौंक उठा । उसने वृद्धा से पूछा - "चाणक्य ने ऐसी कौनसी मूर्खता की है, जिसके कारण तुम इस बालक को उसके समान मूर्ख वता रही हो?" ___वृद्धा ने उत्तर दिया- "पान्थ ! जिस प्रकार चाणक्य ने. मगध के सीमावर्ती क्षेत्रों को विजित किये बिना सहसा विशाल साम्राज्य के मध्यभाग में स्थित पाटलीपुत्र नगर पर आक्रमण कर के भयंकर पराजय के साथ प्रारणसंकट मोल लेने की मूर्खता की उसी प्रकार यह मूर्ख बालक भी थाली के किनारों के प्रास-पास की राब न खा कर गरमागरम राब के बीच में हाथ डाल कर अपना हाथ जला चुका है।" चाणक्य ने उस ग्रामीण वृद्धा द्वारा दिये गये ताने से शिक्षा ग्रहण की। मन ही मन वृद्धा का उपकार मानते हुए उसने रात भर जागते रह कर अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित किया और सूर्योदय से पूर्व ही अज्ञात स्थान के लिये वहां से प्रस्थान कर दिया। अपने बुद्धि-कौशल से चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की ओर सरपट दौड़ से प्राते हुए नन्द के घुड़ सवारों को मौत के घाट उतार कर अपने तथा चन्द्रगुप्त के प्राग्गों की रक्षा की। अनेक संकटों का सामना करने के पश्चात् चाणक्य चन्द्रगुप्त के साथ मगध की सीमाओं से सकुशल बाहर निकलने में सफल हुमा । निरापद स्थान पर पहुंचने के पश्चात् चाणक्य ने पुनः संन्य-संगठन का कार्य प्रारम्भ किया। प्रव की बार चाणक्य ने हिमालय की तलहटी के राजा पर्वतक के साथ मित्रता की और उसे नन्द का प्राधा राज्य देने का विश्वास दिला कर धननन्द के राज्य पर प्राक्रमण करने के लिये राजी कर लिया। कुछ ही समय में चन्द्रगुप्त ने भी एक सशक्त सेना सुगठित कर ली। चाणक्य के निर्देश के अनुसार चन्द्रगुप्त पीर पर्वतक की सेनाओं ने सम्मिलित रूप से मगध राज्य पर पाक्रमण किया और मगध के एक के पश्चात् दूसरे सीमावर्ती क्षेत्रों एवं नगरों पर अधिकार करते हुए अन्ततोगत्वा पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया । चाणक्य की इस नवीन रणनीति के कारण इस बार के युद्ध में शीघ्र ही मगध का बहुत बड़ा भाग चन्द्रगुप्त तथा पर्वतक के अधिकार में प्रा जाने के कारण धन जन. रसद प्रादि की दृष्टि में Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ ग्रा० म० से चा० को शिक्षा] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभद्र चन्द्रगुप्त और पर्वतक की सम्मिलित सैन्य शक्ति धननन्द के लिये अजेय बन गई । अन्ततोगत्वा तुमुल युद्ध के पश्चात् मगध की सेना युद्धस्थल छोड़ कर भाग खड़ी हुई । पाटलीपुत्र का पतन होते ही चन्द्रगुप्त ने धननन्द को जीवितावस्था में पकड़ लिया । इस सैनिक अभियान की सफलता का सारा श्रेय चाणक्य को दिया जा सकता है, जिसकी गूढ़ कूटनीतिक चालों के कारण चन्द्रगुप्त और पर्वतक की सेनायों को निरन्तर सफलताएं प्राप्त होती रहीं। नन्दवंश का अन्त : मौर्यवंश का अभ्युदय चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य के समक्ष बन्दी-वेष में धननन्द को उपस्थित किया। धननन्द ने चाणक्य के सम्मुख प्रागणभिक्षा मांगते हुए कहा कि वह अब एकान्त में धर्म-साधना करना चाहता है। चारणक्य ने धननन्द की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा कि वह अपनी दोनों रानियों, एक पुत्री और यथेप्सित धन-सम्पत्ति के साथ एक रथ में बैठ कर जहां चाहे वहां जा सकता है। " चाणक्य के आदेशानुसार धननन्द ने अपनी दोनों पत्नियों और एक पुत्री को रथ में बिठाया और जीवनयापन योग्य पर्याप्त सम्पत्ति ले कर रथारूढ़ हो रथ को हांक दिया । जिस समय नन्द ने अपने रथ को हांका दैवयोग से उसी समय चन्द्रगुप्त का रथ उसके सामने की ओर से प्राया। रथारूढ़ तेजस्वी युवक चन्द्रगुप्त पर दृष्टि पड़ते ही धननन्द की राजकुमारी अपना समस्त भान-कुल-कान आदि विस्मृत कर बैठी । जिस प्रकार चकोरी चन्द्र की ओर विस्फारित नेत्रों से देखती रहती है उसी प्रकार धननन्द की कन्या अपनी सुध-बुध भूले अपलक दृष्टि से चन्द्रगुप्त की ओर निहारती ही रह गई ! अनुभवी वृद्ध धननन्द से यह छुपा न रहा कि उसकी पुत्री चन्द्रगुप्त पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर चुकी है। उसने रथ रोक कर अपनी पुत्री से कहा- "वत्से ! क्षत्रिय कन्याओं के लिये स्वयंवर ही वर-चयन का श्रेष्ठ माध्यम माना गया है। तुम अपनी इच्छानुसार प्रसन्नतापूर्वक चन्द्रगुप्त का वरण करो। प्रब तुम मेरे रथ से उतर कर चन्द्रगुप्त के रथ पर आरूढ़ हो जाओ और इस तरह मुझे तुम्हारे लिये सुयोग्य वर ढूंढने की चिन्ता से सदा के लिये मुक्त कर दो।" अपने पिता की बात सुनते ही वह राजकन्या मन्त्रमुग्धा सी तत्काल धननन्द के रथ से उतर कर चन्द्रगुप्त के रथ पर चढ़ने लगी। चन्द्रगुप्त के रथ पर नन्दराज की कन्या द्वारा एक पैर ही रखा गया था कि उसके पहियों के ६ आरे चर्र-चर्र शब्द करते हुए तत्काल टूट गये। __ यह देखते ही - "अरे ! मेरे रथ पर यह महा अमंगलकारिणी कौन प्रारूढ़ हो रही है, जिसके द्वारा रथ में एक पैर के रखने मात्र से मेरे रथ के आरे टूट गये। यदि यह पूरी तरह से रथ में बैठ गई तो मेरे रथ का ही नहीं संभवतः मेरा स्वयं का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायगा" - यह कहते हुए चन्द्रगुप्त ने नन्ददुलारी को अपने रथ में बैठने से रोका। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मौयवंश का अभ्युदय चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बीच में ही टोकते हुए कहा - "नहीं, नहीं चन्द्रगुप्त ! ऐसा न करो। तुम निस्संकोच होकर राजकुमारी को अपने रथ में बैठने दो। रथ के पहिये के दारों के टूटने का यह तुम्हारे लिये और तुम्हारी भावी पीढ़ियों के लिये महान् शुभ शकुन है। तुम्हारी ६ पीढ़ियां अक्षुण्णरूप से राज्य करती रहेंगी।" ___ "यथाज्ञापयति देव !" कहते हए चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की आज्ञा को शिरोधार्य किया और धननन्द की राजपुत्री को अपने रथ में बिठा लिया। तदनन्तर चन्द्रगुप्त और राजा पर्वतक ने धननन्द की अतुल धन-सम्पत्ति का परस्पर विभाजन करना प्रारम्भ किया। ___ धननन्द की सम्पत्ति का बंटवारा करते समय धननन्द के रनिवास की एक अद्भुत रूप-लावण्यसम्पन्न कन्या चन्द्रगुप्त और पर्वतक के समक्ष प्रस्तुत की गई। राजा पर्वतक उस कन्या को देखते ही उस पर मुग्ध हो गया। वह कन्यारत्न किसके पास रहे, इस प्रकार का प्रश्न उठने से पहले ही दूरदर्शी चाणक्य ने कहा - "चन्द्रगुप्त ! धननन्द की राजपुत्री तुम्हारा वरण कर चुकी है, अब यह अनुपम सुन्दरी कन्या महाराज पर्वतक की पत्नी बने, यही न्यायसंगत है।" चन्द्रगुप्त ने बिना किसी प्रकार की नन्नो-नच्च के अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया। महाध्य वस्तुओं का बंटवारा होते ही पर्वतक की इच्छानुसार उस रूपवती कन्या के साथ पर्वतक का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ सम्पन्न किया जाने लगा । सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित वर-वधू को हवन-वेदी के पास बिठाया गया और वर-वधू का परस्पर करग्रहण करवाने के पश्चात् विवाह की मांगलिक क्रियाएं की जाने लगीं। विवाह-वेदी की अग्नि के ताप से वर-तधू के हाथों में स्वेद उत्पन्न हुआ । वधू के हाथ का स्वेद लगते ही पर्वतक पर अति वेग से विष का प्रभाव होने लगा। वस्तुतः वह कन्या विषकन्या थी, जिसे धननन्द ने अपनी राह के कांटों को गुप्त रूप से साफ करने हेतु अनुपात से उत्तरोत्तर अधिकाधिक विष खिला कर पाला-पोसा था। उस विषकन्या के स्वेद के प्रभाव से पर्वतक के समस्त अंगोपांग शिथिल होने लगे। उसके अन्तर में विषजन्य तीव्र जलन होने लगी। उसने करुणापूर्ण याचनाभरे स्वर में चन्द्रगुप्त को सम्बोधित करते हुए कहा - "मित्र ! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मुझे विष पिला दिया गया हो । मेरे कण्ठ अवरुद्ध हो रहे हैं । अब मुझ में बोलने का भी साहस नहीं रहा है । मेरे प्राण निकलने ही वाले हैं । कृपा कर मेरा शीघ्रतापूर्वक कुशल वैद्यों से उपचार करवायो।" चन्द्रगुप्त को सहसा ऐसा अनुभव हुआ मानो उस पर अनभ्र-वज्रपात हुप्रा हो । वह हड़बड़ा कर अपने स्थान से उठा और - "कहां हैं मान्त्रिक ! कहां हैं वैद्य !" कहता हुआ स्वयं द्वार की ओर भागा। चाणक्य ने इस प्रकार हड़बड़ा Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्यवंश का अभ्युदय] दशपूर्वघर-काल : आर्य स्थूलभद्र ४३५ कर दौड़ते हुए चन्द्रगुप्त को एकान्त में रोका और उसके कान में कहने लगा"चन्द्रगुप्त! तुम महान् भाग्यशाली हो, बिना उपचार के ही तुम्हारा प्राणहारी रोग स्वतः शान्त हो रहा है। पर्वतक की मृत्यु तुम्हारे लिये वरदान सिद्ध होगी। आगे चल कर एक न एक दिन तुम्हें इस पर्वतक को मार डालने के लिये बड़ा प्रयास करना पड़ता । यह राजनीति का अटल सिद्धान्त है कि अपने आधे राज्य के अधिकारी को जो मारने में पहल नहीं करता वह एक न एक दिन स्वयं ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है । तुम्हें तो इसे एक न एक दिन मारना ही था। आज यह तुम्हारे द्वारा बिना किसी प्रकार का प्रयास किये ही स्वयं मर रहा है, तो इसे मरने दो । अपने इस भाग्योदय को मौन धारण कर चुपचाप देखते रहो।" अपने भाग्यविधाता चाणक्य की आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस चन्द्रगुप्त में नहीं था। अन्ततोगत्वा विषकन्या के विषाक्त प्रारणहारी पसीने के प्रभाव से पर्वतक पंचत्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार वीर निर्वाण संवत् २१५ में जिस वर्ष कि प्राचार्य स्थलभद्र का स्वर्गवास हा, उसी वर्ष नन्दवंश का अन्त, पर्वतक का प्राणान्त और पाटलिपुत्र के विशाल साम्राज्य तथा पर्वतक के राज्य पर चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक हुआ। चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण-काल के सम्बन्ध में मतमद चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से वीर निर्वाण संवत् २१५ में नन्द राजवंश का अन्त कर पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर अधिकार किया, यह जैनों की प्राचीन काल से मान्यता चली आ रही है। इस मान्यता की पुष्टि जैन परम्परा के प्रति प्राचीन ग्रन्थ 'तित्थोगालियपइण्णा' के निम्नलिखित उल्लेख से होती है : जं रयरिंग कालगको अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयरिणमवंतीए अभिसित्तो पालो राया ।। पालग रण्णो सट्टी, परणपणसयं वियारिण गंदाणं । मुरियाणमट्ठिसयं तीसा पुण पूसमित्ताणं ॥ अर्थात् जिस रात्रि में तीर्थकर भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया, उसी रात्रि में पालक राजा का अवन्ती के राज्य सिंहासन पर अभिषेक हुप्रा । पालक का ६० वर्ष तक, तदनन्तर नन्दों का १५५ वर्ष तक, नन्दों के पश्चात् मौर्यों का १०८ वर्ष तक और तदनन्तर पुष्यमित्र का ३० वर्ष तक राज्य रहा। कालान्तर में : एवं च श्री महावीर मुक्त वर्षशते गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ।।३३६।। प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा अपने परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित इस श्लोक के आधार पर दूसरी नवीन मान्यता प्रचलित हई कि वीर नि० सं० १५५ में नन्द Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त वि० मतभेद वंश का अन्त कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर अधिकार किया। पर तथ्यों की कसौटी पर कसे जाने के पश्चात् यह नवीन मान्यता खरी नहीं उतरी और इतिहास के विद्वानों ने स्पष्ट रूप से यह कह दिया कि हेमचन्द्राचार्य की गणना में असावधानी से पालक के राज्य के ६० वर्ष छूट गये हैं।' प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा राजत्वकाल गणना में हुई इस भूल के कारण भगवान् महावीर के निर्वाण काल में भी ६० वर्ष का अन्तर आता था अतः विद्वानों द्वारा इस सम्बन्ध में गहन खोज की गई और उस खोज के परिणामस्वरूप यह तथ्य विद्वानों के समक्ष आया कि महाराजा कुमारपाल का कालं देते समय प्राचार्य हेमचन्द्र ने पालक के राज्यकाल के ६० वर्षों को कालगणना में सम्मिलित कर लिया है। यथा : अस्मिन्निर्वाणतो वर्षशतान्यमय षोडश । नवषष्टिश्च यास्यन्ति, यदा तत्र पुरे तदा ॥४५॥ कुमारपालभूपालो चौलुक्यकुलचन्द्रमाः ।। भविष्यति महाबाहुः, प्रचण्डाखण्डशासनः ।।४६।। [त्रिषष्टि शलाका पु० च०, पर्व १०, सर्ग १२] प्राचार्य हेमचन्द्र के इस कथन के अनुसार कुमारपाल वी० नि० सं० १६६६ में हुया और यह निर्विवाद रूप से माना जाता है कि राजा कुमारपाल ई० सन् ११४२-४३ में हरा । इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने भी महावीर निर्वाणकाल (वी० नि० सं० १६६६-११४२) ई० पूर्व ५२७ मान कर तित्थोगालियपइण्णा में दी गई कालगणना को तथ्यपूर्ण माना है। इस प्रकार के पुष्ट प्रमाणों के उपरान्त भी कुछ विद्वान् “पण पण सयं वियारिण गंदाणं" इस गाथापद का यह असंगत अर्थ लगा कर कि वीर निर्वाण संवत् १५५ में नन्दवंश का अन्त हा- यह मान्यता अभिव्यक्त करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीर नि० सं० १५५ में राजसिंहासन पर आसीन हुआ। चन्द्रगुप्त मौर्य ने वीर निर्वाण संवत् २१५ में नन्द राज्यवंश का अन्त कर राज्यारोहण किया अथवा वी० नि० सं० १५५ में, यह एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक प्रश्न है । इससे न केवल जैन इतिहास पर अपितु आज से लगभग २३०० वर्ष पहले के भारतवर्ष के इतिहास पर भी प्रभाव पड़ता है अतः यहां नन्द और चन्द्रगुप्त मौर्य के समय की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनामों का उल्लेख करना आवश्यक है। ईसा पूर्व मई ३२७ से ईसा पूर्व मई ३२४ तक लगातार तीन वर्ष तक भारतवर्ष पर अलेक्जेण्डर का अाक्रमण रहा । अलेक्जेण्डर द्वारा भारत में नियुक्त अधिकारियों द्वारा लिखे गये युद्ध के संस्मरग्गों एवं विभिन्न अन्य तथ्यों के प्राधार 1 Hemchandra must have omitted by oversight to count the period of 60 ycars of king Palaka after Mahaveera, Epitome of Jainism Appendix A, PIVI Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त वि० मतभेद] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभद्र पर यूरोपीय लेखकों ने भारत पर अलेक्जेण्डर के आक्रमणकाल की घटनाओं के विवरण समय-समय पर अपनी कृतियों में दिये हैं। उनसे यह निर्विवाद रूपेण सिद्ध होता है कि सिकन्दर के आक्रमण के समय चन्द्रगुप्त विदेशी आक्रान्ता से देश की रक्षार्थ लड़ा था और उस समय तक मगध पर नन्द का राज्य था। उन यूरोपीय लेखकों में से चार लेखकों की रचनाओं में से एतद्विषयक कुछ उद्धरण यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं : (१) ईसा से ३६ वर्ष पूर्व तक जीवित डियोडोरस ने मेगस्थनीज की. रचनाओं के आधार पर लिखा है : "पोरस ने सिकन्दर को सूचना दी कि गंगादिराई का राजा (नन्द) बिल्कुल दुश्चरित्र शासक है, जिसका कोई सम्मान नहीं करता और उसे लोग नाई की संतान समझते हैं।" (२) ईसा की पहली शताब्दी के यूरोपीय लेखक कर्टियस ने लिखा है : "पोरस (भारतीय राजा जिसे सिकन्दर ने झेलम की लड़ाई में पराजित किया और जो उस समय उस प्रदेश का सबसे महान् व्यक्ति था) ने सिकन्दर को बताया कि वर्तमान राजा (नन्द) न केवल ऐसा आदमी है जिसकी मूलतः कोई प्रतिष्ठा नहीं थी बल्कि उसकी स्थिति नीचतम थी । उसका पिता वास्तव में नाई था, जो चोरी छिपे रानी का प्रेमी बन गया और उसने छल से राजा का वध करवा दिया। फिर राजकुमारों के अभिभावक के रूप में काम करने के बहाने उसने सारी सत्ता अपने हाथ में कर ली और सारे अल्पवयस्क राजकुमारों की हत्या करवा दी, उसके बाद उसके संतान हुई जो वर्तमान राजा है । जिससे उसकी प्रजा घृणा करती है या उसे शूद्र समझती है।" (३) लगभग ४५ से १२५ ई० सन् में हुए प्लूटार्क नामक लेखक ने अपनी "लाइव्स" (जीवनियां) नामक रचना के ५७वें से ६७वें अध्यायों में सिकन्दर के जीवन की घटनाओं को देते हुए लिखा है : __ "सैंड्रोकोट्टस (चन्द्रगुप्त) जो उस समय नवयुवक ही था, स्वयं सिकन्दर से मिला था और बाद में वह कहा करता था कि सिकन्दर बड़ी आसानी से पूरे देश पर (गंगादिराई तथा प्रासाई देश पर, जिस पर नन्द राजा का शासन था) अधिकार कर सकता था क्योंकि वहां का राजा स्वभावतः दुष्ट था और उसका जन्म नीच कुल में हुआ था और इसीलिये उसकी प्रजा उसे घृणा तथा तिरस्कार की दृष्टि से देखती थी।" (४) ईसा की दूसरी शती में हुए यूरोपीय लेखक जस्टिन की रचना "एपिटोम" (सारसंग्रह) का एतद्विषयक उद्धरण अविकल रूप से पहले दिया जा चुका है, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से लिखा है कि चन्द्रगुप्त ने डाकूत्रों का दल संगठित कर के भारतवासियों में यूनानी शासन के विरुद्ध विद्रोह की आग भड़काई तथा वह युद्ध के मैदानों में एक जंगली हाथी पर सवार हो कर यूनानियों Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त वि० मतभेद से लड़ता रहा। उसने यूनानी शासन को भारत से समाप्त कर दिया और वह स्वयं राजा बन बैठा। इस प्रकार आज से क्रमशः दो हजार, १६ सौ, १८ सौ और १७ सौ वर्ष पूर्व हए विदेशी लेखकों की कृतियों के उपरिउद्धृत उद्धरणों से यह पूर्णरूपेण स्पष्टतः सिद्ध होता है कि ईसा पूर्व ३२७ से ३२४ अर्थात् वीर नि० सं० २०० से २०३ तक केवल चन्द्रगुप्त ही नहीं नन्द भी विद्यमान था और गंगा दरिया तथा भारत के पूर्वी क्षेत्रों पर नन्द का शासन था। - विदेशी लेखकों की कृतियों में इन महत्वपूर्ण विवरणों के पश्चात् और भी अनेक महत्वपूर्ण प्रमाण मिलते हैं, जिनमें चन्द्रगुप्त को भारत का सार्वभौम सत्तासम्पन्न शासक बताया गया है । यह तो एक निर्विवाद तथ्य है कि सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् सिकन्दर के साम्राज्य का उसके सेनापतियों ने परस्पर बंटवारा किया और उनमें संघर्ष चलता रहा । सिकन्दर के उन सेनापतियों में से सेल्यूकस ने सिकन्दर की मृत्यु के कुछ वर्ष पश्चात् ईरान तक अपने राज्य का विस्तार किया। इसके पश्चात् सेल्यूकस भारत की ओर बढ़ा और सिकन्दर द्वारा विजित भारतीय प्रदेशों पर पुनः अपना प्राधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करने लगा। उसने अनेक बार बड़ी शक्तिशाली सेना ले कर भारत के उत्तरपश्चिमी भाग पर आक्रमण किये, किन्तु उस समय तक चन्द्रगुप्त मौर्य भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर चुका था, अतः चन्द्रगुप्त के समक्ष यूनानी सेना एक बार भी नहीं टिक सकी और सेल्यूकस को भारत के विरुद्ध किये गये अपने सभी सैनिक अभियानों में हर वार पराजय का मुंह देखना पड़ा। चन्द्रगुप्त ने ई० पू० ३०४ में (नन्दवंश का अन्त कर राजा बनने के ८ वर्ष पश्चात् वीर निर्वाण सं० २२३ में) सेल्यूकस को करारी हार दी जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस को चन्द्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। विदेशी लेखक प्लूटार्क अपनी कृति "लाइव्स" के ४२वें अध्याय में इस संधि का उल्लेख अपने ढंग से इस प्रकार करता है : ___ "इसके कुछ ही समय पश्चात् सेन्ड्रोकोट्टस ने जो उसी समय राजसिंहासन पर बैठा था, सेल्यूकस को ५०० हाथी भेंट किये और ६,००,००० की सेना ले कर सारे भारत को अपने अधीन कर लिया।" इन सब ऐतिहासिक घटनाओं के पर्यालोचन से यह तथ्य प्रकट होता है कि वीर निर्वाण गंवत् २०० में जब सिकन्दर ने भारत पर अाक्रमण किया तो उस समय देश की रक्षार्थ चन्द्रगुप्त ने यूनानियों से नि० सं० २०४-५ तक लोहा लिया। यूनानी शासन को भारत से समाप्त करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने चाणक्य के नवावधान में शक्तिशाली सेना का मंगठन करना प्रारम्भ किया। धननन्द जैसे शक्तिशाली राजा मे युद्ध करने के लिये एक मणक्त सेना मुगठित करने में पर्याप्त समय लगा होगा। मैन्य संगठन के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने पाटलीपुत्र पर आक्रमण Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त वि. मतभेद) दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभद्र किया, पर उस प्रथम युद्ध में नन्द ने उसकी सेना को नष्ट कर दिया। अपनी भयंकर पराजय के पश्चात् चन्द्रगुप्त और चाणक्य को जंगलों और पहाड़ों में छुप-छुप कर अपने प्राणों की रक्षा करते हुए काफी समय तक इधर से उधर भटकना पड़ा। तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने नये सिरे से पुनः सेना संगठित की। सैन्य संगठन के पश्चात् चाणक्य ने राजा पर्वतक से मित्रता की मोर उसे नन्द के राज्य पर प्राक्रमण करने को येन-केन-प्रकारेण सहमत किया। पर्वतक की सहायता प्राप्त करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने दूसरी बार नन्द पर पाक्रमण किया और इस युद्ध में चन्द्रगुप्त ने नन्द राजवंश का अन्त कर पाटलीपुत्र के राज्यसिंहासन पर अधिकार किया। इन सब अति दुष्कर कार्यों को सम्पन्न करने में चन्द्रगुप्त को निश्चित रूप से १० वर्ष अवश्य लगे होंगे। इस प्रकार वीर निर्वारण संवत् २१५ में नन्दवंश के अन्त और मौर्य साम्राज्य के प्रारम्भ के जो उल्लेख जैन वाङ्मय में उपलब्ध होते हैं, वे उपरिलिखित ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर शतप्रतिशत खरे उतरते हैं। चन्द्रगुप्त ने वीर निर्वाण संवत् २१५ में नन्द राजवंश को समाप्त कर मौर्य राजवंश की स्थापना की; इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि अशोक के १३वें शिलालेख से भी होती है। प्रशोक के सभी अभिलेखों पर उसके राज्याभिषेक के पश्चात बीते हुए वर्षों के अनुक्रम से तिथियां डाली गई हैं। उदाहरण के तौर पर अशोक के राज्याभिषेक के दो वर्ष पश्चात् लिखे गये अभिलेख पर दो, पांच वर्ष पश्चात लिखे गये अभिलेख पर ५ और १३ वर्ष पश्चात् लिखे गये अभिलेख पर १३ की संस्था लिखी गई है । इस प्रकार अशोक के जिस अभिलेख पर जो संख्या लिखी गई है, वह उसके राज्याभिषेक के उसी संख्या वाले वर्ष में लिखा गया है। पशोक के १३वें राज्यवर्ष में जो तेरहवां शिलालेख लिखा गया उसका भारतीय इतिहास में तिथिक्रम की दृष्टि से बहुत बड़ा महत्व है। इस १३वें शिलालेख में अशोक ने यूनान के उन पांच सबसे अधिक महत्वपूर्ण राजाओं का उल्लेख किया है, जिनके साथ प्रशोक ने अपने शिष्टमंडलों के माध्यम से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर रखे थे। उन पांचों यूनानी राजाओं के नाम उनके इतिहाससम्मत राज्यकाल के साथ यहां दिये जा रहे हैं : १. मंतियोक - बेबिलोन तथा ईरान का राजा ऐंटियोकस, द्वितीय थियोस, २६१-२४६ ई०पू० २. तुरमय - मिस्र का राजा तोलेमाइयस, द्वितीय फिलाडेल्फोस, २८५ २४७ ई०पू० ३. प्रतिकिनि - मकदूनियां का राजा ऐंटिगोनस गोनाटस, २७७-२४० ४. मक - साइरीन का राजा मगस, ३००-२५० ई० पू० (बैलोख तथा गैबेर के अनुसार) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त वि० मतभेद ५. प्रलिकसुन्दर - एपिरस का अलेक्जेण्डर, ( ई० पू० २५५ तक जीवित ) । ' अशोक के राज्याभिषेक के समय के सम्बन्ध में इस ग्रन्थमाला के प्रथम भाग में बताया जा चुका है कि उसका राज्याभिषेक ई० पू० २६६ में हुआ । इस हिसाब से अशोक का यह तेरहवां श्रभिलेख ई० पूर्व २५६ में लिखा गया । ऊपर बताये हुए पांचों यूनानी राजा इस अभिलेख के लेखन - समय में जीवित थे यह उनके सामने दी हुई तिथियों से स्पष्ट हो जाता है । ४४० वीर निर्वारण संवत् २१५ अर्थात् ई० पू० ३१२ में चन्द्रगुप्त ने नन्दवंश को समाप्त कर उसके राज्य पर अधिकार किया । ३१२ ई० पूर्व चन्द्रगुप्त के राज्यासीन होने के काल और २६६ ई० पू० अशोक के राज्याभिषेक काल में ४३ वर्ष का अन्तर रहा । इसमें से १८ वर्ष चन्द्रगुप्त का और २५ वर्ष बिन्दुसार का मिलाकर कुल ४३ वर्ष का इन दोनों का शासनकाल हो गया । इन सव प्रबल प्रमारणों से पूर्णरूपेरण यह सिद्ध हो जाता है कि जैन मान्यतानुसार चन्द्रगुप्त ने वीर निर्वारण संवत् २१५ तदनुसार ई० पू० ३१२ में नन्द राजवंश को समाप्त कर पाटलीपुत्र में मौर्य राजवंश की स्थापना की । प्रायं स्थूलभद्र का शिष्य-परिवार आर्य स्थूलभद्र का शिष्य परिवार यों तो बड़ा विशाल था पर उन शिष्यों में अतिशय प्रतिभासम्पन्न निम्नलिखित दो शिष्य थे : १. श्रार्यं महागिरी एलापत्यगोत्रीय श्रीर २. श्रार्य सुहस्ती, वाशिष्ठगोत्रीय श्रयं महागिरि और प्रार्य सुहस्ती भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर एवं आठवें प्राचार्य स्थूलभद्र के पश्चात् वें प्राचार्य प्रार्य महागिरि और १०वें प्राचार्य सुहस्ती हुए । ६. श्रायं महागिरि महागिरि का गोत्र एलापत्य था । आाप ३० वर्ष गृहस्थ पर्याय में रहे । श्रापकी सामान्य व्रतपर्याय ४० वर्ष, प्राचार्यकाल ३० वर्ष, सम्पूर्ण चारित्र पर्याय ७० वर्ष और पूर्ण आयु १०० वर्ष थी । वीर निर्वारण सं० २४५ में प्रापका स्वर्गवास हुआ । १०. प्रार्य सुहस्ती सुहस्ती ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए। प्रापकी सामान्य व्रतपर्याय २४ वर्ष, प्राचार्यकाल ४६ वर्ष, कुल चारित्रपर्याय ७० वर्ष और पूर्ण आयु १०० वर्ष थी। आपका गोत्र वाशिष्ठ था। वीर नि० सं० २६१ में आपका स्वर्गगमन हुआ । चन्द्रगुप्त मौर्य और उसका काल (डा. राधाकुमुद मुकर्जी), पृ० ७१-७२ १ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वघर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती गृहस्थ जीवन आर्य महागिरि और सुहस्ती के माता-पिता कौन थे और कहां के रहने वाले थे, एतद्विषयक कोई उल्लेख जैन साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। इन दोनों के दीक्षित होने से पहले के जीवन का केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि इन दोनों को शैशवावस्था से ही प्रार्या यक्षा की देखरेख में रखा गया। इन दोनों का लालन-पालन-शिक्षण प्रादि आर्या यक्षा के तत्वावधान में हुआ । कहा जाता है कि इसी की स्मृति के रूप में इन दोनों के नाम से पहले आर्य विशेषण रखा गया पर यह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "आर्य” इस विशेषण का प्रयोग शास्त्रों में सुधर्मा और जम्बू के लिये भी प्रयुक्त किया गया है । इन दोनों ने क्रमश: ३०. ३० वर्ष की वय में प्राचार्य स्थलभद्र के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण की । आर्य महागिरि का जन्म वीर निर्वाण संवत् १४५ में और प्रार्य सुहस्ती का जन्म वीर निर्वाण संवत् १६१ में हुआ। अमरण-दीक्षा ऊपर दिये गये इन दोनों प्राचार्यों के जन्म, दीक्षा, प्राचार्यकाल और स्वर्गारोहण के आँकड़ों के अनुसार आर्य महागिरि का दीक्षाकाल वी० नि० सं० १७५ और आर्य सुहस्ती का दीक्षाकाल वी० नि० सं० २२१ माना गया है। दुःषमा श्र० संघस्तोत्रयंत्र के अनुसार इन दोनों प्राचार्यों की पूर्णायु सौ-सौ वर्ष मानी गई है तथा युगप्रधान पट्टावली में प्राचार्य स्थूलभद्र के पश्चात् इन दोनों प्राचार्यो का प्राचार्यकाल क्रमशः ३० और ४६ वर्ष का माना गया है', इससे उपरिवरिणत काल की पुष्टि होती है। जहां तक आर्य महागिरि का सम्बन्ध है, उपरोक्त कालगणना में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती किन्तु ऊपर बताये हुए प्रांकड़ों के अनुसार आर्य सुहस्ती की दीक्षा का काल वी०नि० सं० २२१ में आता है; उसमें सबसे बड़ी आपत्ति यह पाती है कि आर्य सुहस्ती को प्राचार्य स्थूलभद्र का हस्तदीक्षित शिष्य माना गया है और आचार्य स्थूलभद्र वीर नि० सं० २१५ में ही स्वर्गवासी हो गये थे। ऐसी स्थिति में आचार्य स्थूलभद्र के पास वीर नि० सं० २२१ में उनके दीक्षित होने की बात संगत और सत्य नहीं बैठती। प्राचार्य स्थूलभद्र के स्वर्गगमनकाल को १० वर्ष पागे सरका कर इसकी संगति बैठाने का कुछ विद्वानों की ओर से प्रयास किया गया है पर इस प्रकार की पद्धति को अपनाने से तो अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनामों की प्रमाणिकता ही समाप्त हो जायगी। ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य सुहस्ती २३ वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए हों और किसी लिपिकार के प्रमाद से तेवीस के स्थान पर तीस की संख्या प्रचलित हो गई हो । तेवीस वर्ष की अवस्था में इनके दीक्षित होने की बात को स्वीकार कर ' (वीर निर्वाण सं० २१५ में प्रा० स्थूलभद्र के स्वर्गगमन के पश्चाद) अज्ज महागिरि तीसं, मज्ज सुहत्यीण वरिस छायाला । [स्थविरावली] Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्रमण-दीक्षा लेने से प्राचार्य स्थूलभद्र के पास वी० नि० सं० २१४ -१५ में इनके दीक्षित होने की संगति भी बैठ जाती है और किसी महान् प्राचार्य के प्रायुष्य को इच्छानुसार .कम या ज्यादा करने का प्रयास भी नहीं करना पड़ता । आर्य सुहस्ती तो शंशवावस्था से ही श्रमणोचित संस्कारों में ढाले गये थे । ऐसी स्थिति में उनकी प्रौपचारिक दीक्षा ७ वर्ष पहले हो अथवा पश्चात्, उससे उनके महान संत जीवन में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं पड़ता। श्रमण-जीवन वीर निर्वाण सं० १७५ में दीक्षित होने के पश्चात् आर्य महागिरि ने अपने गुरु प्राचार्य स्थूलभद्र की सेवा में रहते हुए दश पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमश: ३० और अनुमानतः २३ वर्ष की अवस्था तक विदुषी आर्या यक्षा के सान्निध्य में रह कर उन दोनों ने निश्चित रूप से एकादशांगी का समीचीनरूपेण अध्ययन कर लिया होगा । तदनन्तर दीक्षित होने के पश्चात् आर्य महागिरि ने याचार्य स्थलभद्र से १० पूर्वो का अध्ययन किया। आर्य सुहस्ती की दीक्षा के पश्चात् प्राचार्य स्थूलभद्र लगभग एक वर्ष तक जीवित रहे, अतः उन्होंने ग्रार्य सुहस्ती को पूर्वो का अध्यापन प्रारम्भ तो कर दिया होगा पर उनके स्वर्गगमन के पश्चात् उन्हें दश पूर्वो का पूर्ण अध्यापन आर्य महागिरि ने ही किया होगा । सम्भवतः यही एक बहुत बड़ा कारण था कि आर्य सुहस्ती ने जीवन पर्यन्त आर्य महागिरि का अपने गुरु की तरह पूर्ण सम्मान किया । इन दोनों महापुरुषों ने क्रमशः ४० और ३१ वर्ष के अपने सामान्य व्रतपर्याय के समय में कठोर तपश्चरण, निरतिचार विशुद्ध संयमपालन एवं स्थविर श्रमणों की सेवा शुश्रूषा के साथ-साथ अनवरत अभ्यास और पूर्ण निष्ठा के साथ ज्ञानार्जन किया। ये दोनों महाश्रमण दो वस्तु कम १० पूर्वो के पूर्ण ज्ञाता थे। प्राचार्य-पद वीर निर्वाण संवत् २१५ में अपने स्वर्गगमन के समय प्राचार्य स्थूलभद्र ने अपने इन दोनों सुयोग्य शिष्यों-आर्य महागिरि और आर्य सहस्ती- को अपने उत्तराधिकारी के रूप में भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर-पद पर प्राचार्य नियुक्त किया। प्रायः कल्पसूत्र स्थविरावळी, परिशिष्ट पर्व, विभिन्न पट्टावलियां मादि सभी उपलब्ध प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों में प्राचार्य स्थूलभद्र द्वारा प्रार्य महागिरि और सुहस्ती - इन दोनों को साथ-साथ आचार्य पद प्रदान किये जाने का उल्लेख किया गया है। पर यह वस्तुतः विचारणीय है। इसका कारण यह है कि आर्य सुहस्ती प्राचार्य स्थूलभद्र के पास दीक्षित होकर संभवतः एकादशांगी का अभ्यास भी पूर्ण नहीं कर पायें होंगे कि स्थूलभद्र स्वामी स्वर्गस्थ हो गये। प्रार्य सुहस्ती का पूर्व श्रुत का अभ्यास आर्य महागिरि के सानिध्य में उन्हीं की कृपा से पूर्ण हुआ, जैसा कि परिशिष्ट पर्वकार ने स्वयं प्रार्य सुहस्ती. के Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य-पद] दशपूर्वधर-काल : आर्य महागिरि-सुहस्ती मुख से प्रार्य महागिरि के लिये कहलवाया है - "ममैते गुरवः खलु" - 'ये मेरे गुरु हैं । ऐसी स्थिति में वीर नि० सं० २१५ में स्वल्प दीक्षाकाल वाले आर्य सुहस्ती को प्राचार्य स्थूलभद्र द्वारा महागिरि के साथ प्राचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की बात पूर्ण संगत प्रतीत नहीं होती। इन सब तथ्यों के संदर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों को एक साथ आचार्यपद पर नियुक्त किये जाने के उल्लेख के पीछे कोई न कोई विशिष्ट स्थिति अथवा कारण अबश्य होना चाहिए। एतद्विषयक सभी तथ्यों के सम्यक् पर्यालोचन से यह अधिक संभव प्रतीत होता है कि प्रार्य महागिरि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते समय प्राचार्य स्थूलभद्र ने अपने विशिष्ट ज्ञान से प्रार्य सुहस्ती को शासन संचालन में विशेष कुशल एवं प्रतिभाशाली समझकर आर्य सुहस्ती को कालान्तर में प्राचार्यपद प्रदान करने का उन्हें (महागिरि को) आदेश दिया हो । संभवतः इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर आर्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती - इन दोनों की शिष्य-परम्पराओं का गुरु-परम्परा के रूप में स्थूलभद्रस्वामी के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने की दृष्टि से इन दोनों को एक साथ प्राचार्य स्थूलभद्र का पट्टधर बताया गया हो। इसके अतिरिक्त दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि विशिष्ट श्रुतपर और शिष्यसम्पदा सम्पन्न होने पर भी इन दोनों प्राचार्यों की साधु परम्पराएं वात्सल्य भाव से एक ही व्यवस्था में रही हों और वीर नि० सं० २१५ से २४५ तक जब कि आर्य महागिरि युगप्रधान प्राचार्य रहे, उस काल में भी पीछे चल कर आर्य महागिरि ने वाचना के अतिरिक्त व्यवस्थाकार्य प्रार्य सुहस्ती को संभला रखा हो। संभव है इस कारण से भी आर्य सुहस्ती को आर्य महागिरि के साथ आचार्यपद पर नियुक्त किये जाने का उल्लेख किया गया हो। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्रायः सभी ग्रन्थों में प्राचार्य स्थूलभद्र के पश्चात् प्राचार्य महागिरि और आर्य सुहस्ती के आचार्य होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है तथापि यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता है कि चूणिकार जिनदास महत्तर ने निशीथ चूरिण में प्रायः सभी प्राचीन ग्रन्थों, पट्टावलियों एवं परम्परागत मान्यता से पूर्णरूपेण भिन्न उल्लेख किया है। चूरिणकार जिनदास महत्तर ने प्रार्य महागिरि और सुहस्ती दोनों को प्राचार्य स्थूलभद्र के युगप्रधान शिष्य एवं प्रार्य महागिरि को ज्येष्ठ मानते हुए भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि प्राचार्य स्थूलभद्र ने प्रार्य महागिरि को अपना गण न देकर प्रार्य सुहस्ती को दिया। ऐसा होने पर भी आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती एक साथ ही विचरण करते रहे।' 'भूलभहस्स जुगप्पहाणा दो सीसा - प्रज्ज महागिरि अज्ज सुहत्थी य । अज्ज महागिरी जेट्ठो। अज्ज सुहत्थी तस्स सट्ठियरो।। थूलभद्दसामिणा अज्ज सुहत्यिस्स नियमो गणो दिण्णो। तहावि अज्ज महागिरि प्रज्ज सुहत्थी य पीतिवसेरण एक्कयो विहरंति । [निशीथ सूत्र भाष्य चूरिण सहित, २ विभाग, उ० ५, पृ० ३६१] Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचार्य-पद नन्दी सूत्र की चूणि' पार्य महागिरि और सुहस्ती की प्राचार्य-परम्पराओं के पृथक-पृथक रूप में अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख किया गया है फिर भी निशीथ चूणिकार ने प्रार्य महागिरि को प्राचार्य न मानकर केवल आर्य सुहस्ती को ही स्थूलभद्र स्वामी द्वारा गण सम्हलाये जाने की मान्यता अभिव्यक्त की है, इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य है - यह नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार की स्थिति में सहज ही अनेक प्रश्न उठ सकते हैं। क्या आर्य महागिरि प्राचार्य नहीं थे ? यदि थे तो किस गण के, स्थूलभद्र स्वामी द्वारा गण दिये जाने के समय तक प्रार्य सुहस्ती १० पूर्वो के ज्ञाता हो चुके थे अथवा उसके पश्चात् हुए ? यदि उसके पश्चात् हुए तो उन्होंने १० पूर्वो का ज्ञान किन से प्राप्त किया और तब तक गण के प्राचार्य कौन रहे आदि अनेक प्रश्न स्पष्ट निर्णय की अपेक्षा रखते हैं। इन सब प्रश्नों का समुचित समाधान आर्य महागिरि को आचार्य मानने पर ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह संभव है कि चूणिकार ने पश्चाद्वर्ती किसी मतभेद से प्रभावित होकर निशीथचूरिण में इस प्रकार का उल्लेख किया हो । इन दोनों प्राचार्यों के प्राचार्यकाल में जैन धर्म का भारतवर्ष के सुदूर प्रदेशों में प्रचार एवं प्रसार हुआ। यों तो प्राचार्य भद्रबाहु के शिष्य गोदास से निकले हुए गोदासगण की ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिका, पुण्ड्रवर्द्धनिका आदि शाखाएं क्रमशः दक्षिण बंगाल के तत्कालीन प्रसिद्ध बन्दर ताम्रलिप्ति, पश्चिमी बंगाल के कोटिवर्ष नगर और उत्तरी बंगाल की तत्कालीन राजधानी पुण्ड्रवर्द्धन में फैल चुकी थीं किन्तु फिर भी जैन परम्परा का प्रधान केन्द्र मुख्यतः मगध प्रदेश ही रहा । इन दोनों प्राचार्यों के समय में अवन्ती प्रदेश का भी जैन परम्परा के एक सुदृढ़ केन्द्र के रूप में आविर्भाव हुा । ११ अंग और १० पूर्वो के विशिष्ट अभ्यासी इन दोनों प्राचार्यों ने जैन परम्परा को उत्कर्ष की एक उल्लेखनीय सीमा तक पहुंचा दिया। __इन महान् आचार्यों के शान्त, दान्त, तपःस्वाध्यायपूत आदर्श श्रमरण-जीवन से श्रमणों तथा अन्य साधकों ने महती प्रेरणा प्राप्त की और अपने जीवन को उज्ज्वल और आदर्श बनाये रखा। प्रार्य महागिरि की विशिष्ट साधना आर्य महागिरि ने अपने अनेक शिष्यों को आगमों की वाचनाएं देकर उन्हें एकादशांगी का निष्णात विद्वान् बनाया। तदनन्तर उन्होंने अपना गच्छ भी प्रार्य सुहस्ती को संभला दिया और गच्छ की नेश्राय में रहते हुए उच्छिन्न जिन' सुहत्थिस्स सुठ्ठित - सुपडिबुद्धादो प्रावलीते जहा दसासु तहा भारिणतन्वा, इहं तेहिं अहिगारो गत्थि, महागिरिस्स पावलीए अधिकारो। [नंदी चूणि, पृ० ८ पुण्यविजयजी द्वारा संपादित] Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ प्रार्य महा० की साधना] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती कल्प का श्रमणाचार पालन करना प्रारम्भ किया।' आर्य महागिरि ने जिनकल्पी प्राचार स्वीकार करने के पश्चात् भी गच्छवास नहीं छोड़ा। उनका विचरण तो आर्य महस्ती और अपने श्रमणों के साथ ही होता था। किन्तु वे भिक्षाटन एकाकी ही करते और निर्जन एकान्त स्थान में एकाकी ही ध्यानमग्न रहते। उन्होंने यह घोर अभिग्रह किया कि जो रूखा-सूखा-बासी अन्न गृहस्थों द्वारा बाहर फेंकने योग्य होगा, भिक्षा में उसी अन्न को वे ग्रहण करेंगे। विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए प्रार्य महागिरि और आर्य सुहस्ती एक समय अपने श्रमणसमूह के साथ पाटलिपुत्र पधारे। वहां पर वसुभूति नामक एक अति समृद्ध श्रेष्ठी ने प्रार्य सुहस्ती के उपदेश से प्रबुद्ध हो श्रावकधर्म अंगीकार किया । श्रेष्ठी वसुभूति ने अपने परिवार के सब सदस्यों को जिनप्ररूपित धर्म की महत्ता समझाते हुए जैन धर्मावलम्बी बनाने का बहुत प्रयास किया। जब वसुभूति ने देखा कि वह उन्हें धर्म के गूढ़ तत्व को संतोषजनक ढंग से नहीं समझा पा रहा है तो उसने प्रार्य सुहस्ती से प्रार्थना की कि वे उसके घर पधार कर उसके परिवार के लोगों को धर्म का सही स्वरूप समझावें। श्रेष्ठी वसुभूति की प्रार्थना स्वीकार कर आर्य सहस्ती वसुभूति के घर जाकर उसके परिवार के सदस्यों को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाकर उन्हें जिनधर्मानुरागी बनाने लगे। जिस समय आर्य सुहस्ती उपदेश दे रहे थे उसी समय आर्य महागिरि भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए श्रेष्ठी वसुभूति के निवासस्थान पर पधारे। आर्य महागिरि को देखते ही आर्य सुहस्ती ने प्रासन से उठकर बड़े विनय के साथ उन्हें वन्दन-नमन किया। ___महागिरि के लौट जाने पर श्रेष्ठी वसुभूति ने प्रार्य सुहस्ती से पूछा - "गुरुवर ! आप तो विश्ववंद्य हैं। क्या आपके भी कोई गुरु हैं जो आपने अभी यहां आये हुए मुनिराज को वन्दन किया ?" आर्य सुहस्ती ने कहा- "श्रोष्ठिमुख्य ! वे महान् तपस्वी मेरे गुरु हैं। ग्रहस्थों द्वारा बाहर फेंके जाने योग्य अन्न को ही वे भिक्षा में ग्रहण करते हैं। यदि इस प्रकार का त्याज्य अन्न भिक्षा में न मिले तो वे उपवास पर उपवास करते रहते हैं। वस्तुतः उनका नाम निरन्तर रटने योग्य और चरणरज मस्तक पर चढ़ाने योग्य है।" ' महागिरिनिजं गच्छमन्यदादात्सुहस्तिने । विहर्तुं जिनकल्पेन त्वेकोऽभून्मनसा स्वयम् ॥३॥ व्युच्छेदाज्जिनकल्पस्य गच्छनिश्रास्थितोऽपि हि । जिनकल्पाहया वृत्या विजहार महागिरिः ॥४॥ [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११] सुहस्ती स्माह भो ! श्रेष्ठिन्ममैते गुरवः खलु । त्यागाहभक्तपानादिभिक्षामाददते सदा ।।१३।। ईदृग्भिक्षाशना येतेऽपरथा स्युरुपोषिताः । सुगृहीतं च नामैषां वन्यं पादरजोऽपि हि ॥१४॥ [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११] Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [आर्य महा० की साधना तदनन्तर श्रेष्ठिपरिवार को प्रतिबोध देकर प्रार्य सहस्ती अपने स्थान पर लौट गये। श्रेष्ठी वसूभूति ने अपने घर के सब लोगों को समझा दिया कि वे मुनि जब कभी इस घर में भिक्षार्थ आयें तो उन्हें यह अभिव्यक्त करते हुए भिक्षा में समुचित भोज्य सामग्री दें कि भगवन् ! यह सब कुछ हम बाहर डाल रहे थे। दूसरे दिन प्रार्य महागिरि भिक्षार्थ श्रेष्ठी वसुभूति के घर पधारे तो श्रेष्ठी के भृत्यों एवं परिजनों ने विपुल भोजन सामग्री को त्याज्य बताते हुए उन्हें भिक्षा में देना चाहा। महातपस्वी महागिरि ने ज्ञानोपयोग से समझ लिया कि वह भिक्षा उनके अभिग्रह के अनुसार विशुद्ध और निर्दोष नहीं है अतः वे बिना भिक्षा ग्रहण किये ही श्रेष्ठी के घर से लौट गये। तत्कालीन श्रमणसंघ में प्राचार्य महागिरि का स्थान सर्वोच्च माना जाता रहा है। वे पूर्वज्ञान के विशिष्ट अभ्यासी होने के साथ-साथ विशुद्ध आचार के भी सबल समर्थक एवं पोषक थे। उन्हें आहार, विहार एवं संयम में स्वल्पमात्र भी शिथिलता सह्य नहीं थी। जब उन्होंने श्रेष्ठी वसुभूति की धर्मभक्ति और रागवश सदोष आहार देने की प्रवृत्ति देखी तो उन्होंने एक दिन आर्य सुहस्ती से कहा"सुहस्तिन् ! कल तुमने श्रेष्ठिपरिवार के समक्ष मेरे प्रति विनय प्रदर्शित कर वहां मेरे लिये अनेषणा की स्थिति पैदा कर दी। तुम्हारे मुख से प्रशंसा सुनकर उन लोगों ने आज मुझे भिक्षा में देने हेतु भोजन परित्यक्त के रूप में सजा रखा था।" आर्य सुहस्ती ने आर्य महागिरि के चरणों पर अपना मस्तक रखते हुए क्षमायाचना की और कहा - "भगवन् ! भविष्य में मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा।" इस प्रकार उच्छिन्न जिनकल्प के अनुसार साधुचर्या का पालन करते हुए आर्यगिरि ने अनेक वर्षों तक बड़ी उग्र तपस्याएं करके अपने समय में एक उच्च कोटि के श्रमणजीवन का मापदण्ड स्थापित किया। वे अपने समय के अद्वितीय चारित्रनिष्ठ और उच्चकोटि के श्रमणश्रेष्ठ थे। अन्त में वे एलकच्छ (दशार्णपुर) के पास गजाग्रपद नामक स्थान पर पधारे और वहां उन्होंने अनशन कर वीर निर्वाण सं० २४५ में १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया। मार्य महागिरिकालीन राजवंश यह पहले बताया जा चुका है कि आर्य स्थूलभद्र के प्राचार्यकाल के अन्तिम दिनों में (वीर नि० सं०२१५ में) मौर्य राजवंश का अभ्युदय हुमा । आर्य महागिरि के प्राचार्यत्वकाल में इस राजवंश के प्रथम राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्रेरणास्रोत महामात्य चाणक्य के परामर्शानुसार अनेक वर्षों तक विदेशी और प्रान्तरिक राजसत्ताओं के साथ संघर्षरत रहते हुए समस्त भारत को अपने सुदृढ़ शासनसूत्र में बांध कर एक सार्वभौम सत्तासम्पन्न, सशक्त एवं विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसने काबुल और कन्धार से भी यूनानी विजेता सेल्यूकस को खदेड़ कर उन प्रदेशों को वृहत्तर भारत की राज्यसीमा में सम्मिलित किया। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य महा० राजवंश] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती ४४७. अनेक प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि जिस समय चन्द्रगुप्त मौर्य पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन हुया उस समय वह जैन धर्मावलम्बी नहीं था। पर चाणक्य ने अनेक युक्तियों से जैन धर्म और जैन श्रमणों की महत्ता सिद्ध कर चन्द्रगुप्त को जैन धर्मावलम्बी बनाया। इसके परिणामस्वरूप आगे चल कर चन्द्रगुप्त जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखने वाला परम श्रद्धालु श्रावक बन गया और उसने जिन-शासन की उल्लेखनीय सेवाएं की। कहीं कोई षड्यन्त्रकारी धोखे से विष आदि के प्रयोग द्वारा चन्द्रगुप्त की हत्या न कर दे, इस दृष्टि से दूरदर्शी चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन करने के पश्चात् शनैः शनैः भोज्य पदार्थों के साथ प्रति स्वल्प मात्रा में विष खिलाना प्रारम्भ कर दिया था । अनुपात से बढ़ाया गया वह प्राणहारी विष चन्द्रगुप्त के लिये अमृततुल्य परमावश्यक पौष्टिक औषध का काम करने लगा। अनुक्रमशः इस प्रकार चन्द्रगुप्त के प्रतिदिन के भोजन में विष की मात्रा इतनी अधिक बढ़ा दी गई कि यदि चन्द्रगुप्त के लिये बने उस भोजन में से कोई दूसरा व्यक्ति थोड़ा सा अंश भी खा लेता तो उसके लिये वह विषमिश्रित भोजन तत्काल प्राणापहारी सिद्ध हो जाता था। __ बिन्दुसार का जन्म एक दिन मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त जिस समय भोजन कर रहे थे, उसी समय गभिरणी राजमहिषी वहाँ उपस्थित हुई। महारानी ने चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करने की इच्छा अभिव्यक्त की। चन्द्रगुप्त ने ज्यों-ज्यों निषेध किया, त्यों-त्यों राजमहिषी का हठाग्रह बढ़ता ही गया और अन्ततोगत्वा महारानी ने चन्द्रगुप्त के थाल में से थोड़ी सी भोज्य सामग्री झपट कर अपने मुंह में रख ही ली। विषाक्त भोजन ने तत्काल अपना प्रभाव दिखाया और देखते ही देखते महारानी मूद्धित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। तत्क्षण राजप्रासाद में सर्वत्र हाहाकार व्याप्त हो गया। उसी समय महामात्य चाणक्य घटनास्थल पर उपस्थित हुए। "अब महारानी के प्राण किसी भी उपाय से नहीं बचाये जा सकते"यह कहते हुए चारणक्य ने शल्यचिकित्सिकानों को प्रादेश दिया कि वे यथाशीघ्र महारानी के पेट को चीर कर गर्भस्थ शिशु के प्रारणों की रक्षा करें। तत्काल शल्य क्रिया द्वारा गर्भस्थ शिशु को गर्भ से बाहर निकाल लिया गया। माता द्वारा खाये गये विषाक्त भोजन का बालक पर कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ था, केवल उसके ललाट पर नीले रंग की बिन्दी का चिन्ह ही बन पाया था। विषजन्य बिन्दी के कारण राजकुमार का नाम बिन्दुसार रखा गया। वीर निर्वाण सं० २१५ से १८ वर्ष तक भारत के बहुत बड़े भूभाग पर शासन करने के पश्चात् मौर्यसाम्राज्य का संस्थापक मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त वीर नि० सं० २३३ में इहलीला समाप्त कर परलोकगामी बना। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहाम-द्वितीय भाग [बिन्दुमार मौर्य सम्राट् बिन्दुसार चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र विन्दुमार भारत के निणाल साम्राज्य का स्वामी बना । विभिन्न ग्रन्थों में बिन्दुमार के विभिन्न नाम उपलब्ध होते हैं। वायुपुराण आदि पुराणग्रन्यों में उसे भद्रसार एवं वारिसार के नाम से. महावंश तथा दीपवंश नामक बौद्ध ग्रन्थों में बिन्दुसार के नाम से और यूनानी अभिलेखों एवं पुस्तकों में अमित्रचेटस और अमित्रघात के नाम से अभिहित किया. गया है। __ वृहत्कल्पभाष्य के उल्लेखानुसार' सम्राट् वनने के पश्चात् विन्दुमार ने अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य की सीमाओं में अभिवृद्धि की । वह बड़ा न्यायप्रिंय, दयालु और जैन धर्म में आस्था रखने वाला प्रजावत्सल सम्राट् था। अपने शासनकाल में पड़े दुष्काल के समय में उसने दानशालाएँ एवं सार्वजनिक भोजनणाला खोल कर अपनी दुष्कालपीड़ित प्रजा की मुक्तहस्त हो सहायता की। विन्दुसार के दरबार में सेल्यूकस के पुत्र ऐंटिनोकोस प्रथम की ओर से डाइमैकस नामक यूनान का एक राजदूत रहता था। बिन्दुसार का अपर नाम अमित्रघात (शत्रुओं का संहारक) उपलब्ध होता है, इससे विद्वानों द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि उसे काफी समय तक युद्धरत रहना पड़ा होगा और शत्रुओं पर विजय के उपलक्ष में उसने "अमित्रघात" की उपाधि धारण की होगी। बिन्दुसार के शासनकाल.के अन्तिम चरण में उसके साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी प्रान्त तक्षशिला में विद्रोह उठ खड़ा हुया था। उस विद्रोह को दबाने के लिये उसे एक बहुत बड़ी सेना के साथ राजकुमार प्रशोक को भेजना पड़ा। चाणक्य की मृत्यु • छाया की तरह अपने अनन्य अनुगामी मौर्य-सम्राट् चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् चाणक्य ने श्रमणधर्म में दीक्षित हो प्रात्मकल्याण करने का निश्चय किया था किन्तु बिन्दुसार द्वारा बारम्बार आग्रह एवं अनुनय-विनय किये जाने पर उसने कुछ समय तक महामात्य पद पर कार्य करना स्वीकार किया। अहर्निश मगध साम्राज्य के महामात्य पद की प्राप्ति के स्वप्न देखने वामा सुबन्धु नामक एक अमात्य राजा, राज्य और प्रजा पर चारणक्य के वर्चस्व एवं सर्वतोमुखी प्रभाव को देख कर मन ही मन चाणक्य से जलने लगा। उसने यथावसर येन-केन-प्रकारेण बिन्दुसार को चाणक्य के विरुद्ध भड़काना प्रारम्भ किया । एक दिन सुबन्धु ने बिन्दुसार के समक्ष उसकी माता की मृत्यु की घटना का अतिरंजित रूप में इस ढंग से चित्रण किया कि मानो चाणक्य ने ही उसकी (बिन्दुसार की माता की) हत्या की हो । इस प्रकार बिन्दुसार के मस्तिष्क चाणक्य के प्रति मनोमालिन्य उत्पन्न करने में अन्ततोगत्वा मुबाधु को सफलता 'वृहत्कल्पभाष्य, गाथा ११२७ । निणीय भाष्य हरिल, मा. ४. १२१ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य की मृत्यु] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती ४४६ मिल गई । बिन्दुसार के मनोगत भावों को दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने तत्काल ताड़ लिया और वह संसार से विरक्त हो अशन-पानादि का परित्याग कर नगर के बाहर एकान्त स्थान में ध्यानस्थ हो गया । अपनी धाय मां से वास्तविकता का बोध होते ही बिन्दुसार को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उसने चाणक्य के समक्ष उपस्थित हो वार-बार क्षमायाचना करते हुए उन्हें यथावत् महामात्य पद का कार्यभार सम्हालने की प्रार्थना की, पर चाणक्य समग्र ऐहिक आकांक्षाओं का परित्याग कर आत्मचिन्तन में लीन हो चुके थे; अतः बिन्दुसार को हताश हो खाली हाथों लौटना पड़ा । जैन वाडमय में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि सुबन्धु सेवा करने के बहाने से चाणक्य के पास रहने लगा और रात्रि में उसने उस कण्डों के ढेर में आग लगा दी जिस पर कि चाणक्य ध्यानस्थ बैठे थे । चाणक्य ने आग से बचने का कोई प्रयास नहीं किया और समाधिस्थ अवस्था में ही स्वर्गारोहण किया। दिगम्बर परम्परा के “आराधना"', "हरिषेण कथाकोष"२ और "अाराधना कथाकोष'3 आदि ग्रन्थों में चाणक्य के दोक्षित होने, ५०० शिष्यों के साथ पादपोपगमन संथारा करने और सुबन्धु द्वारा उन्हें कण्डों की प्राग में जला डालने तथा समाधि मरण द्वारा चाणक्य के स्वर्गस्थ होने का उल्लेख उपलब्ध होता है। "पाराधना-कथाकोष" में चाणक्य के सिद्ध होने का उल्लेख किया गया है, वह नितान्त भ्रान्त धारणा का ही प्रतिफल प्रतीत होता है। सुबन्धु द्वारा किया गया यह घृरिणत एवं जघन्य अपराध जनसाधारण और विन्दुसार से छुपा न रह सका । राजा एवं प्रजा द्वारा क्रमशः अपदस्थ एवं अपमानित किये जाने के पश्चात् सुबन्धु विक्षिप्त हो गया। उसकी बड़ी दुर्दशा हुई और अनेक प्रकार के घोर कष्टों से पीड़ित हो वह अन्त में पंचत्व को प्राप्त हुआ। प्राचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में उल्लेख किया है कि गृहत्याग से पहले कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने सुबन्धु को उसकी कृतघ्नता का दण्ड देने के लिये एक बहुत बड़े सन्दूक को अनेक तालों से बन्द कर अपने कोशागार में रख दिया। कण्डों के ढेर में आग लगा कर चाणक्य को उसमें जलता छोड़ सुबन्धु चाणक्य के निवास स्थान पर पहुंचा और उस सन्दूक को देखते ही हर्षविभोर ' गोठे पयोगदो सुबधुणा गोबरे पलिविदम्मि । उज्झन्तो चाणक्को पड़िवण्णो उत्तमं ठाणं ॥१५५६।। [भाराधना] २ चाणक्याख्यो मुनिस्तत्र, शिष्यपंचशतैः सह । पादोपगमनं कृत्वा, शुक्लध्यानमुपेयिवान् ।। उपसर्ग सहित्वेमं सुबन्धुविहितं तदा। समाधिमरणं प्राप्य, चाणक्यः सिद्धिमीयिवान् ।। [हरिषेण कथाकोष] 3 पाराधना कथाकोष, श्लोक ४१-४२, पृ० ३१० । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चाणक्य की मृत्यु हो गया उसने यह सोच कर उसे खोला कि उसमें अपार सम्पत्ति भरी पड़ी होगी । पर सन्दूक के खुलते ही उसमें से एक तीव्र गन्ध निकली और उसके प्रभाव से सुबन्धु तत्काल नितान्त अस्थिर प्रकृति का एवं अर्द्धविक्षिप्त बन गया । 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' इस उक्ति का अनुसरण करते हुए चारणक्य ने उस सन्दूक में इस प्रकार की प्रौषधियां रख दी थीं, जिनकी तीव्र गन्ध से मस्तिष्क की शिराएं सदा के लिए सिकुड़ जायं । चारणक्य भली-भांति जानता था कि उसकी मृत्यु के पश्चात् सुबन्धु उसकी सम्पत्ति पर येन-केन-प्रकारेण अवश्य अधिकार करेगा । चाणक्य द्वारा चलाया गया युक्ति का तीर ठीक लक्ष्य पर लगा और सुबन्धु अनेक प्रकार के कष्टों से पीडित हो बड़ी दुर्दशापूर्ण स्थिति में काल का कवल बना । प्रायं सुहस्ती के प्राचार्यकाल का राजवंश वीर नि० सं० २४५ में आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् जिस समय श्रार्यं सुहस्ती प्राचार्य बने उस समय मौर्य सम्राट् बिन्दुसार के शासनकाल का अनुमानतः बारहवां वर्ष चल रहा था । प्रार्य सुहस्ती के आचार्यकाल में लगभग १३ वर्ष तक बिन्दुसार का सत्ताकाल रहा । २५ वर्ष तक शासन करने के पश्चात् वीर नि० सं० २५८ में बिन्दुसार परलोकवासी हुआ । मौर्यसम्राट अशोक प्रार्य सुहस्ती के प्राचार्यत्वकाल में बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक ( वीर नि० सं० २५८ में ) ' मगध के विशाल साम्राज्य का अधिपति बना । उपलब्ध प्रमारों के आधार पर अनेक इतिहासविदों की मान्यता है कि शोक का पिता बिन्दुसार तथा पितामह चन्द्रगुप्त दोनों ही जैनधर्मावलम्बी थे, अतः अशोक भी प्रारम्भ में जैनधर्मावलम्बी ही था । अपने राज्य के ८वें वर्ष ( वीर नि० सं० २६६ ) में प्रशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया । कलिंगपति क्षेमराज अपनी सशक्त विशाल सेना ले कर रणांगरण में आ डटा । दोनों ओर से बड़ा भीषण युद्ध हुआ । क्षेमराज के वीर सैनिकों ने कलिंग की रक्षा के लिये बड़ी वीरता पूर्वक युद्ध किया किन्तु मगध साम्राज्य की प्रतिप्रबल अगणित सेना सम्मुख भीषण रक्तपात के पश्चात् अन्ततोगत्वा उन्हें पराजय का मुख देखना पड़ा । कलिंग के उस युद्ध में डेढ़ लाख सैनिक बन्दी बनाये गये, एक लाख योद्धा मारे गये तथा इससे कहीं अधिक योद्धा युद्ध में लगे घावों के फलस्वरूप युद्धसमाप्ति के पश्चात् मर गये । इस भीषण नरमेध से के अशोक के हृदय पर बड़ा " गुर्जरा, रूपनाथ, सहसराम ब्रह्मगिरि, सिंहपुर, गोविमठ और २५६ का अंक उल्लिखित है । इसे इतिहासज्ञ वीर नि० सं० २ मौर्य साम्राज्य का इतिहास की के० पी० जायसवाल द्वारा लिखित भूमिका । अहरोरा के शिलालेखों पर २५६ मानने लगे हैं । [सम्पादक ] Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य सम्राट् अशोक ] दशपूर्वर-काल : प्रायं महागिरि - सुहस्ती ४५१ गहरा आघात पहुंचा । उसने अपने १३ वें शिलालेख में इसके लिये स्वयं को दोषी बताते हुए गहरा दुःख प्रकट किया है । प्रशोक ने धर्म विजय को अपने साम्राज्य की नीति बताते हुए घोषणा करवा दी कि अब भविष्य में वह कभी इस प्रकार के नरसंहार एवं रक्तगत द्वारा किसी भी देश पर विजय अभियान नहीं करेगा । जिस समय अशोक अनुताप की अग्नि में जल रहा था उस समय संभवतः वह बौद्ध भिक्षुसंघ के प्राचार्य के सम्पर्क में आया और उनसे प्रभावित हो कर बौद्धधर्मावलम्बी बन गया। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पश्चात् अशोक ने अपना शेष जीवन बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार और अभ्युत्थान में लगा दिया । उसने भारत के पड़ोसी देशों में धर्मप्रचारकों को भेज कर बौद्ध धर्म का प्रचार किया; 'यही नहीं अपितु अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये बौद्ध श्रमण श्रीर श्रमरणी के रूप में दीक्षित करवा कर लंका में भेजा । अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ प्रजा के हित के लिये भी अनेक लोककल्याणकारी कार्य किये और अनेक शिलालेख उत्कीर्ण करवाये, जिनमें जनहित की दृष्टि से अनेक प्रकार की धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रज्ञाएं प्रसारित की गई थीं ।' गहन शोध से पहले अधिकांश इतिहासज्ञों की यह धारणा थी कि मौर्यकालीन जितने भी शिलालेख उपलब्ध होते हैं, वे प्रायः सब के सब मौर्य सम्राट् अशोक द्वारा उत्कीर्ण करवाये हुए और बौद्ध धर्म से ही सम्बन्धित हैं किन्तु अब ज्यों-ज्यों विद्वान् शोधार्थियों द्वारा इस विषय में और अधिक गम्भीर शोध की जा रही है त्यों-त्यों यह तथ्य प्रकाश में श्राता जा रहा है कि वस्तुतः मौर्यकालीन शिलालेखों में चन्द्रगुप्त से ले कर सम्प्रति तक के सभी मौर्य सम्राटों के शिलालेख सम्मिलित हैं और जिन शिलालेखों को आज तक अशोक के शिलालेखों के नाम से केवल बौद्ध धर्म से सम्बन्धित शिलालेख समझा जाता रहा था, उनमें से कतिपय शिलालेख सम्प्रति, बिन्दुसार और चन्द्रगुप्त के एवं जैन धर्म से सम्बन्धित भी हैं । सारनाथ के स्तम्भ के शीर्ष भाग में ४ सिंह और उन चारों सिंहों के ऊपर धर्मचक्र उत्खनित है । इसे भ० बुद्ध द्वारा सारनाथ में बौद्ध धर्म के प्रवर्तन का प्रतीक माना जाता रहा है । भ० बुद्ध को गिरनार के १३वें अभिलेख में उत्तम हस्ति के रूप में स्मरण किया गया है। सिंह के चिह्न का सम्बन्ध बुद्ध के साथ उतना संगत नहीं बैठता जितना कि भगवान् महावीर के साथ । भगवान् महावीर का चिह्न ( लांछन ) सिंह था और केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् भगवान् महावीर के साथ-साथ सिंह का चिह्न भी चतुर्मुखी दृष्टिगोचर होने लगा था । सिंहचतुष्टय पर धर्मचक्र इस बात का प्रतीक है कि जिस समय तीर्थंकर विहार करते हैं, उस समय धर्मचक्र नभमण्डल में उनके आगे-आगे चलता है । इस ... अब इतिहास के अनेक विद्वान् यह मानने लगे हैं कि ये सभी शिलालेख केवल अशोक के ही नहीं अपितु चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, सम्प्रति आदि सभी मौर्य सम्राटों के हैं। इन पर गहन शोध की आवश्यकता है । [सम्पादक ] Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मौर्य सम्राट अशोक प्रकार के अनेक तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है । मौर्यकालीन शिलालेखों में उपलब्ध प्रियदर्शी और देवानांप्रिय शब्द जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से व्यवहृत होते रहे हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वानों द्वारा देवानांप्रिय शब्द को बौद्ध परम्परा का शब्द तथा प्रियदर्शी शब्द को अशोक का उपनाम माना जाता रहा है, इस कारण भी अनेक भ्रान्तियां हुई हैं । इन सब तथ्यों के सम्बन्ध में भी नये सिरे से शोधकार्य अपेक्षित है। __यों तो मौर्यवंशी सभी मगध के सम्राट् बड़े प्रतापी, प्रजावत्सल, न्यायप्रिय और धर्मनिष्ठ हुए हैं पर प्रेम, सौहार्द और सौजन्य से अपने देश के ही नहीं अपितु विदेशी एवं विजातीय कोटि-कोटि लोगों के हृदयों को सामूहिक रूप से जीतने का भारतीय संस्कृति का जो अनुपम उदाहरण मौर्य सम्राट अशोक ने विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया, उस प्रकार का उदाहरण विश्व के इतिहास में अन्यत्र कहीं खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होगा। बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार में मौर्य सम्राट अशोक ने जो उल्लेखनीय कार्य किये हैं, उनके कारण बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक का नाम चिरकाल तक पादर के साथ स्मरण किया जाता रहेगा। २४ वर्ष तक मगध के साम्राज्य का संचालन करने के पश्चात् वीर नि० सं० २८२ में मौर्य सम्राट अशोक का देहावसान हुआ। वौद्ध ग्रन्थों में अशोक का राज्यकाल ४१ वर्ष बताया गया है। उसकी विद्वानों द्वारा इस प्रकार संगति बैठाई जाती है कि बिन्दुसार की मृत्यु के ४ वर्ष पश्चात् अशोक का राज्याभिषेक हुआ। तदनन्तर अशोक ने २४ वर्ष तक सम्राट बने रह कर शासन किया और उसके पश्चात् अपने अल्पवयस्क पौत्र सम्प्रति को मगध का सम्राट बना कर उसके अभिभावकः ( Regent ) के रूप में १३ वर्ष तक साम्राज्य की बागडोर को सम्हाले रखा। तदनन्तर अशोक ने अपना शेष जीवन सब प्रपंचों का परित्याग कर आत्मकल्याण में व्यतीत किया। कतिपय इतिहासज्ञों की मान्यता है कि अशोक अपने जीवन के अन्तिम चार वर्षों में पुनः जैन धर्मावलम्बी बन गया था। मौर्य सम्राटों के सत्ताकाल के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताओं के ग्रंथों में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। "जैन ग्रन्थों में भी इस सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएं अभिव्यक्त की गई हैं। पहली मान्यता के अनुसार वीर निर्वाण सं० २१५ में नन्दवंश के अंत के साथ मौर्य राजवंश का अभ्युदय माना गया है। दूसरी मान्यता के अनुसार वीर निर्वाण सं० १५५ में नन्द वंश के अन्त के साथ मौर्यवंश के उदित होने का अभिमत प्रकट किया गया है। ____वस्तुतः द्वितीय भद्रवाहु के पास दीक्षित हुए चन्द्रगुप्ति नामक अवन्ती के किसी राजा के दीक्षित होने की घटना को श्रुतकेवली भद्रवाह और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त से सम्बद्ध करने के प्रयास में ही उपरोक्त दूसरी मान्यता प्रचलित की Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ मौर्य सम्राट अशोक ] दशपूर्वधर काल : श्रार्य महागिरि-सुहस्ती गई है । उस सम्बन्ध में पहले विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा चुका है और मौर्यकालीन अभिलेखों एवं सिकन्दरकालीन लेखकों के अभिलेखों के आधार पर पाश्चात्य लेखकों के ग्रन्थों के उद्धरण दे कर प्रमाणपुरस्सर यह सिद्ध कर दिया गया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीर नि० सं० २१५ में नन्द वंश के प्रभुत्व को समाप्त कर पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। उन सब तथ्यों को यहां पुनः दोहराने की आवश्यकता नहीं । से पुराणों एवं अन्य ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल २४ वर्ष बताया. गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द को युद्ध में पराजित करने के दृढ़ निश्चय के साथ जब चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र पर प्रथम वार आक्रमण किया, उस समय कुछ वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त पंजाब के किसी छोटे मोटे राज्य का स्वामी प्रवश्य वन गया होगा । बिना किसी राज्य का अधिपति हुए चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र जैसे सशक्त साम्राज्य से युद्ध करने की किसी भी दशा में न क्षमता ही प्राप्त कर सकता था और न साहस ही कर सकता था । ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द वंश का अन्त कर पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन होने से पूर्व का जो चन्द्रगुप्त का किसी छोटे-मोटे राज्य पर सत्ताकाल रहा उस काल को भी चन्द्रगुप्त के शासन काल में सम्मिलित कर गिना गया है । अशोक के पश्चात् उसका पौत्र सम्प्रति मगध साम्राज्य का अधिपति वना । सुहस्ती द्वारा सम्प्रति को प्रतिबोध कल्पचूरिंग में इस प्रकार का उल्लेख है कि प्रार्य सुहस्ती जीवित स्वामी को वंदन करने के लिये एक बार उज्जयिनी गए और रथ यात्रा के साथ चलते हुए वे राजप्रासाद के प्रांगन में पहुंचे । राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठे हुए राजा सम्प्रति ने जब उन्हें देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उन्हें उसने कहीं न कहीं देखा है । ईहापोह करते हुए राजा सम्प्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । उसने अपने सेवकों को आचार्य सुहस्ती के सम्बन्ध में मालूम करने का आदेश दिया कि वे कहां ठहरे हुए हैं । अपने अनुचरों से आचार्यश्री के ठहरने के स्थान का पता चलने पर राजा सम्प्रति उनकी सेवा में पहुंचा और उपदेश श्रवण के पश्चात् उसने आचार्यश्री से प्रश्न किया- "भगवन् ! धर्म का फल क्या है ?" आचार्यश्री ने उत्तर दिया- "राजन् ! अव्यक्त सामायिक धर्म का फल राज्यपद प्राप्ति आदि है ।" " सत्य कहते हैं भगवन् ! " यह कहते हुए सम्प्रति ने प्रार्य मुहस्ती से प्रश्न किया- "महाराज ! क्या आप मुझे पहिचानते हैं ? ज्ञानोपयोग से सम्प्रति के पूर्वजन्म के वृत्तान्त को जान उत्तर दिया- "तुम मेरे परिचित हो। इससे पूर्व के अपने भव कर प्राचार्यश्री ने मं तुम मेरे शिष्य Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [सु० द्वारा स० को प्रति. थे।" तदनन्तर राजा सम्प्रति पांच अणुव्रतधारी, त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी और श्रमणसंघ की उन्नति करने वाला महान् प्रभावक हो गया।' निशीथ चूणि में उपरोक्त घटना के विदिशा नगरी में घटित होने का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि विदिशा में जीवित स्वामी की रथयात्रा में प्रार्य सुहस्तीस्वामी को देख कर राजा सम्प्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वह तत्काल महलों से नीचे आया और प्राचार्य सुहस्ती के चरणों में गिर कर उसने प्रश्न किया - "भगवन् ! क्या आप मुझे जानते हैं ?" प्राचार्य सुहस्ती ने कुछ क्षण के लिये ज्ञानोपयोग लगा कर सोचने के पश्चात् कहा - "हां ! मैं तुम्हें जानता हं, तुम मेरे पूर्व भव के शिष्य हो।" तदनन्तर आर्य सुहस्ती ने सम्प्रति को उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया। सम्प्रति ने श्रावकधर्म स्वीकार किया और आर्य सुहस्ती एवं राजा सम्प्रति में परस्पर घनिष्ट धर्मस्नेह हो गया। इसी संदर्भ में आगे विदिशा के स्थान पर उज्जयिनी में आर्य सुहस्ती के साथ सम्प्रति के मिलन का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वह प्राचार्य सुहस्ती का उपदेश सुन कर प्रवचन का भक्त और परम श्रावक बन गया.' सम्प्रति का पूर्वभव राजा सम्प्रति के प्रश्न के उत्तर में उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाते हुए आर्य सुहस्ती ने कहा- "राजन् ! तुम्हारे इस जन्म से पूर्व की बात है, एकदा विचरण करते हुए मैं अपने श्रमणशिष्यों सहित कोशाम्बी नामक नगर में पहुंचा। उस समय वहां दुष्काल का प्रकोप चल रहा था अतः सामान्य लोगों को अन्न का दर्शन तक दुर्लभ हो गया था। श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा एवं भक्ति के कारण इतो य प्रज्जसुहत्थी उज्जेरिण वंदनो आगमो रहारगुज्जाणे य हिंडतो राउलंगणपदेसे रना मालोयणगतेण दिट्ठो, ताहे रन्नो ईहापोहं करेंतस्स जाइसरणं जातं तह तेरण मणुस्सा भरिणता पडिचरह पायरिए कहिं ठितत्ति तेहिं पडिचरिउं कहितं सिरिघरे ठिता । ताहे तत्य गंतु धम्मो णेण सुनो, पुच्छितं धम्मस्स किं फलं ? 'भणितं अव्यक्तस्य तु सामाइंयस्स राजाति फलं, सो संमंतो होति, सच्चं भणसि अहं भे कहिं दिट्टेल्लमो प्रायरियेहि उवउन्जितं दिठेलो त्ति ताहे सो सावो जाग्रो पंचाणुवयधारी तसजीवपडिक्कमग्रो पभावप्रो समणसंघस्स ।" [कल्पचूणि] ' मण्ण्या पायरिया पीतीदिसं (?) जियपडिम वंदियं गतामो। तत्य रहारगुज्जाणे रण्णो घरे रहोवरि अंचति । संपतिरण्णा प्रोलोयणगएण अज्जसुहत्यी दिठ्ठो । जातीसररर्ण जातं । [निशीथ चूरिण, भा॰ २, पृ० ३६२] । उज्जेणीए समोसरणे प्रणुजाणे रहपुरतो रायंगणे बहुसिस्स परिवारो पालोयण ठितेरण रणा मज सुहत्यी पालोइयो, तं दळूण जाति संभरिया ।...''ताहे सो पवयणभत्तो परम साबगो जातो। [निशीथचूरिण, भाग ४, पृ० १२६] Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रति का पूर्वभव] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती ४५५ श्रद्धालु गृहस्थ उन्हें भिक्षाटन के समय पर्याप्त मात्रा में प्रशनपानादि प्रदान करते थे। एक समय कोशाम्बी में भिक्षाटन करते हुए मेरे शिष्य एक गृहस्थ के घर में पहुंचे। उनके पीछे-पीछे एक दीन, हीन, दरिद्र और भूखे भिक्षुक ने उस गृहस्थ के घर में प्रवेश किया। उस गृहस्थ ने साधुओं को तो पर्याप्त रूपेण भोजन-पानादि का दान किया किन्तु उस भिक्षक को उसने कुछ भी नहीं दिया। वह भूखा भिक्षुक साधुओं के पीछे हो लिया और उनसे भोजन की याचना करने लगा। साधुनों ने उससे कहा कि वे लोग तो अपने साधु आचार के अनुसार किसी गृहस्थ को कुछ भी नहीं दे सकते । भूख से पीड़ित वह भिक्षुक मेरे शिष्यों का अनुसरण करता हुअा मेरे स्थान पर पहुंच गया। उसने मुझसे भी भोजन की याचना की। मुझे ज्ञानोपयोग से ऐसा विदित हा कि अगले जन्म में यह भिक्षक.जिनशासन का प्रचार एवं प्रसार करने वाला होगा। मैंने उससे कहा कि यदि तुम श्रमणधर्म में दीक्षित हो जामो तो तुम्हें हम तुम्हारी इच्छानुसार पर्याप्त भोजन दे सकते हैं। भिक्षुक ने यह सोच कर कि उसकी इस दीन-हीन दुखद अवस्था की तुलना में तो श्रमरण-जीवन के कष्ट सहना कठिन नहीं है, तत्काल मेरे पास श्रमणदीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षित हो जाने पर वह हमारे द्वारा भिक्षा में प्राप्त भोजन का अधिकारी हो गया प्रतः उसे उसकी इच्छानुसार भोजन खिलाया गया। वस्तुतः वह कई दिनों का भूखा था अतः उसने जी भर कर स्वादिष्ट भोजन खाया। रात्रि में उस नवदीक्षित भिक्षुक की उदरपीड़ा के कारण मृत्यु हो गई और वह अशोक के अन्ध राजकुमार कुणाल के यहां पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। राजन् ! तुम वही भिक्षक हो जो अपने इस सम्प्रति के भव से पहले के भव में मेरे पास दीक्षित हुए थे। यह सब तुम्हारे एक दिवस के श्रमणजीवन का फल है कि तुम बड़े राजा बने हो।" बमणसंध में विसंमोग का प्रारम्भ निशीथ भाष्य, चूणि मादि ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर के शासन में प्राचार्य सुधर्मा से स्थूलभद्र तक श्रमरणसंघ का परस्पर सांभोगिक व्यवहार प्रक्षुण्ण बना रहा। श्रमणसंघ में संभोगविच्छेद की सर्वप्रथम घटना प्रार्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती के प्राचार्यकाल में घटित हुई। संभोग-विच्छेद का प्रारम्भ कब, क्यों और किसके समय में प्रारम्भ हुआ, इसका विशद परिचय देते हुए निशीथ एवं वृहत्कल्प-चूरिण में उल्लेख किया गया है कि राजा सम्प्रति द्वारा दुष्काल के समय खोली गई दानशालाओं तथा प्रसारित किये गये उदारतापूर्ण आदेशों के कारण कर्मचारी वर्ग एवं प्रजाजनों के माध्यम से श्रमणों को भिक्षा में पर्याप्त एवं विशिष्ट भोजन मिलता देख कर आर्य महागिरि को ' परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११ २ संभूयस्स थूलभद्दो, थूलभदं जाव सव्वेसि एक्कसंभोगो मासी । [निशीथ चूणि, भा० २ पृ. ३६०] - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ विसंभोग का प्रारम्भ उसके राजपिण्ड होने की शंका हुई और उन्होंने आर्य सुहस्ती से यह जाँच करने ये कहा कि कहीं साधुनों को सदोष आहार तो भिक्षा में नहीं मिल रहा है । सुहस्ती ने बिना किसी प्रकार की जांच किये ही कह दिया- “यथा राजा तथा प्रजा, महाराज ! यह राजपिण्ड नहीं है । कारण कि तैली तैल, घृत वाले घी, कपड़े वाले वस्त्र और हलवाई भोज्य मिष्टान्न स्वयं ही देते हैं ।" प्रार्य सुहस्ती का उत्तर सुन कर प्रायं महागिरि ने विचार किया - यह मायावी है, शिष्यानुराग के कारण सदोष आहार ग्रहरण से साधुओं को रोक नहीं रहा है। उन्हें प्रार्य सुहस्ती पर क्षोभ हुआ और उन्होंने श्रार्य सुहस्ती से कहा"आर्य ! तुम्हारे समान दोषादोष के ज्ञाता भी अपने शिष्यों के प्रति राग के कारण राजपिण्ड का उपभोग करते हैं, तो ऐसी दशा में मैं प्राज से तुम्हारे साथ साध्वोचित भोजनादि व्यवहार विषयक सम्बन्धों का विच्छेद करता हूं ।" यह कह कर आर्य महागिरि ने प्रार्य सुहस्ती के साथ तत्काल साम्भोगिक सम्बन्ध विच्छेद कर दिया। इस प्रकार संयममार्ग की शिथिलता दूर करने हेतु महागिरि को सुहस्ती के प्रति उपालम्भ देते समय तीक्ष्ण एवं कटु शब्दों का भी प्रयोग करना पड़ा । तदनन्तर प्रार्य सुहस्ती ने अपना मोड़ (रुख) बदल कर इसके लिये पश्चात्ताप किया और बोले - "भगवन् ! भविष्य में सदोष प्रहार नहीं लिया जायगा ।" इस पर ग्रार्य महागिरि ने उस समय तो प्रार्य सुहस्ती के साथ सांभोगिक व्यवहार प्रारम्भ कर दिया पर कालान्तर में यह सोचते हुए कि 'प्रायः मानवस्वभाव में माया का बाहुल्य है" - उन्होंने प्रार्य सुहस्ती के साथ सांभोगिक व्यवहार बन्द ही रखा। संभोगविच्छेद के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गई घटना में यह बताया गया है कि सम्प्रति के राज्यकाल में प्रार्य महागिरि ने सुहस्ती द्वारा सदोष आहार आदि ग्रहण की प्रवृत्ति को देख कर उनके साथ संभोगविच्छेद कर दिया। यहां पर आर्य महागिरि का सम्प्रति के राज्यकाल में विद्यमान रहना बताया गया है पर ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में देखने पर सम्प्रति का महागिरि के समय में विद्यमान होना प्रमाणित नहीं होता । महागिरि के समय में सम्प्रति के विद्यमान न होने के निम्नलिखित ऐतिहासिक प्रमारण गहराई से विचारने योग्य हैं : --- १. श्वेताम्बर परम्परानुसार वी० नि० सं० २४५ में आर्य महागिरि का स्वर्गवास माना गया है । २. ग्रार्य महागिरि के स्वर्गगमन के समय में विन्दुसार का राज्यकाल था जो वीर नि० सं० २५८ तक रहा । ។ अज्ज महागिरी उवउत्तो, पायेण मायाबहुला मरगुय 'त्ति काउ विसंभोगं ठवेति । [ निशीथभाष्य, भा० २, पृ० ३६२ ( गा० २१५४ की ब्राण ) ] Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसंभोग का प्रारम्भ ] दशपूर्वघर - काल : श्रार्य महागिरि-सुहस्ती ३. वीर नि० सं० २५८ से २८३ तक मौर्य सम्राट् अशोक का शासनकाल रहा और इसके पश्चात् संप्रति का शासनकाल प्रारम्भ हुआ । इन ऐतिहासिक तथ्यों के प्रकाश में विचार करने पर यही प्रकट होता है कि मौर्य सम्राट् सम्प्रति का शासनकाल वीर नि० सं० २८३ से पूर्व किसी भी दशा में नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में वीर नि० सं० २४५ में स्वर्गस्थ हुए आर्य महागिरि द्वारा वीर नि० सं० २८३ के पश्चाद्वर्ती सम्प्रति के शासनकाल सुहस्ती के साथ संभोगविच्छेद की घटना का जो निशीथ चूरिंग आदि में उल्लेख किया गया है वह संगत प्रतीत नहीं होता । संभव है इस प्रकार की घटना बिन्दुसार के शासन काल में वीर नि० सं० २३३ से २४५ के बीच में घटित हुई हो और उसे सम्प्रति के विशिष्ट प्रौदार्य को देख कर अनुमानबल से सम्प्रति के साथ जोड़ दिया गया हो । तत्कालीन घटनाक्रम के पर्यवेक्षरण से स्पष्टतः प्रकट होता है कि साधारणतया अपने समस्त शासनकाल में और विशेषतः दुर्भिक्ष आदि जैसी संकटापन्न स्थिति में प्रजावात्सल्य की प्रवृत्ति मौर्यवंशीय राजानों की विशेषता रही है । बौद्ध ग्रन्थों में उह उल्लेख उपलब्ध होता है कि बिन्दुसार अपने शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में प्रतिदिन ६० हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया करता था ।' ऐसी स्थिति में कोई प्राश्चर्य की बात नहीं कि बिन्दुसार के शासनकाल की घटना का श्रुति श्रथवा स्मृति में कहीं स्खलना के कारण सम्प्रति के शासन में घटित हुई घटना के रूप में उल्लेख कर दिया गया हो । एक के जीवन की घटना को दूसरे के जीवन की घटना से जोड़ने के अन्य भी अनेक उदाहररंग उपलब्ध होते हैं । ४५७ आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व के ११वें सर्ग में सम्प्रति के जातिस्मरण ज्ञान होने में प्रार्य सुहस्ती के दर्शन को निमित्त माना है और उन्हें ही सम्प्रति के पूर्वभव सम्बन्धी गुरु मानने का उल्लेख किया है। किन्तु आगे चल कर इन्हीं प्राचार्य ने परिशिष्टपर्व में राजा सम्प्रति के राज्यकाल में ही महागिरि द्वारा सुहस्ती के साथ सांभोगिक सम्बन्धविच्छेद का उल्लेख किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने आर्य महागिरि के जीवनकाल आदि तथ्यों की गहराई में न जा कर सरसरी तौर पर श्रार्य सुहस्ती के साथ आर्य महागिरि के उज्जयिनी जाने का और सम्प्रति के राज्यकाल में ही सांभोगिकविच्छेद का उल्लेख कर दिया है। जहाँ तक राजा सम्प्रति को प्रतिबोध दिये जाने का प्रश्न है, प्रायः सर्वत्र यही उल्लेख मिलता है कि ग्रार्य सुहस्ती ने सम्प्रति को प्रतिबोध दिया। महागिरि • द्वारा सम्प्रति को प्रतिबोध दिये जाने का कहीं भी कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । " पिता सठ्ठिसंहस्सानि ब्राह्मणे ब्रह्मपक्खि के । भोजेसि सो पिते येव, तीरिण वस्सानि भोजयि ॥ २३ ॥ [ महावंशो परिच्छेद ५ ] Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विसंभोग का प्रारम्भ ऐतिहासिक घटनाक्रम और प्राचीन उल्लेखों से यह निर्विवाद रूप से ज्ञात होता है कि अशोक के राज्याभिषेक के कतिपय वर्ष पश्चात् राजकुमार कुणाल को चक्षुविहीन कर दिया गया और अन्धा हो जाने के कारण कुमारभुक्ति में मिला हुआ.उज्जयिनी का राज्य उससे ले कर दूसरे राजकुमार को दे दिया गया। सम्प्रति का जन्म होने पर अन्ध कुमार कुणाल ने गन्धर्व कला से अशोक को प्रसन्न कर काकिणी-राज्य की अपने सद्यःजात पुत्र के लिये याचना की । वस्तुस्थिति से अवगत होते ही प्रशोक ने तत्काल सम्प्रति को यूवराज पद प्रदान कर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और तत्कालीन राज्यपरम्परा के अनुसार उज्जयिनी का राज्य शिशु सम्प्रति को कुमारभुक्ति के रूप में प्राप्त हुप्रा । ये सब घटनाएं अशोक के राज्यकाल की हैं और अशोक का राज्याभिषेक वीर निर्वाण संवत् २५८ में होने के कारण द्रमक के दीक्षित होने से लेकर सम्प्रति के जन्म तक की सभी घटनाएं प्रार्य महागिरि के स्वर्गगमन के अनन्तर कम से कम १३ वर्ष से पहले की तो किसी भी दशा में नहीं हो सकतीं। ऐसी स्थिति में आर्य महागिरि का सम्प्रति के जन्म समय अथवा उसके राज्यकाल में विद्यमान होना तो दूर द्रमक की दीक्षा के समय भी आर्य महागिरि का अस्तित्व संभव नहीं होता। कारण कि आर्य महागिरि का स्वर्गवास अशोक के राज्याभिषेक से १३ वर्ष पहले वीर नि० सं० २४५, तदनुसार बिन्दुसार के राज्यकाल में ही हो चुका था। राजा सम्प्रति द्वारा जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार जैन साहित्य में मौर्य सम्राट् सम्प्रति को वही स्थान प्राप्त है जो कि मौर्य सम्राट अशोक को बौद्ध साहित्य में। अनेक जैन ग्रंथों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि राजा संप्रति ने प्रार्य सुहस्ती से प्रतिबोध पाने के पश्चात् समस्त भारतवर्ष ही नहीं अनेक अनार्य प्रदेशों में भी अपने अधिकारियों, कर्मचारियों और सैनिकों को जैन साधुओं के वेश में भेज कर जैन धर्म का सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार किया तथा उसने अपने समस्त सामन्तों को दृढ़ जैनधर्मावलम्बी बनाया। साधु के वेश में सम्प्रति के कर्मचारियों ने अनार्य देशों में विचरण कर वहां की अनार्य जनता को श्रावक के कर्तव्यों एवं श्रमणाचार से परिचित कराते हुए उन अनार्य देशों को श्रमणों के विहार के योग्य बना डाला । राजा सम्प्रति की प्रार्थना पर प्रार्य सुहस्ती ने अपने कतिपय श्रमणों को अनार्य भूमि में धर्म का प्रचार करने के लिये भेजा और उन्होंने वहां के लोगों की जैनधर्म के प्रति अपूर्व श्रद्धा देख कर हर्ष का अनुभव किया। साधुओं ने प्रार्य देश की तरह बड़ी सुगमता से अनार्य प्रदेशों में विहार करते हुए वहां जैन धर्म का अधिकाधिक प्रचार एवं प्रसार किया । त्यागी, तपस्वी और ज्ञानधनी सन्तों के उपदेशों का अनार्य प्रदेशों की जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन लोगों के आचार-विचार में एक प्रकार की क्रान्ति सी आ गई । अनार्य प्रदेश के निवासियों ने बड़ी संख्या में श्रावकधर्म अंगीकार किया । अनार्य प्रदेशों में धर्म-प्रचार करने के पश्चात् लौटे हुए साधुओं Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्र• एवं प्र०] दशपूर्वघर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती ४५६ ने आर्य सुहस्ती की सेवा में पहुंच कर अनार्य प्रदेशों के निवासियों की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा का विवरण सुनाया, जिसे सुन कर आर्य सुहस्ती बड़े प्रसन्न हुए ।' ... सम्प्रति के सम्बन्ध में कतिपय जैन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि उसने भारत के प्रार्य एवं अनार्य प्रदेशों में इतने जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया कि वे सारे प्रदेश जिन-मन्दिरों से सुशोभित हो गये ।। - राजा सम्प्रति द्वारा किये गये कार्यों के सम्बन्ध में प्रसिद्ध जैन इतिहासवेसा स्व० मुनि श्री कान्ति सागरजी ने कुछ अंशों की जो पाण्डुलिपि तैयार की, उसके एतद्विषयक अंश को यहां अविकल रूप से दिया जा रहा है : "यह एक आश्चर्य की बात है कि मौर्य साम्राज्य के इतिहास में सम्प्रति के संबंध में जो कुछ भी उल्लेख मिलता है, वह उसके कृतित्व पर वास्तविक प्रकाश नहीं डालता। जैन साहित्य में सम्प्रति के सम्बन्ध में विशद विवेचन उपलब्ध है। उस विवेचन के अनुसार सम्प्रति ने जैन संस्कृति के प्रचार व प्रसार के लिये अपने पुत्रों तथा प्रसूर्यपश्या कहलाने वाली अपनी पुत्रियों तक को कृत्रिम मुनियों का व साध्वियों का वेष धारण करवा कर अपने अनेकों सामन्तों के साथ दूर-दूर प्रदेशों में भिजवाया और इस तरह अशोक के आदर्श को सम्प्रति ने अपने जीवन में भी मूर्त रूप दिया। चूरिण और नियुक्तियों में यह भी सूचित किया गया है कि सम्प्रति ने प्रचुर मात्रा में जिन-मूत्तियों की, मन्दिरों एवं देवशालाओं में स्थापना करवा कर जन संस्कृति और सभ्यता को स्थान-स्थान पर फैलाया था। जहां तक जैन मूर्ति-विधान एवं उपलब्ध पुरातन अवशेषों का प्रश्न है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मन्दिर या मूर्तियां भारतवर्ष के किसी भी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। श्वेत पाषाण की कोहनी के समीप गांठ के माकार के चिह्न वाली प्रतिमाएं जैन समाज में प्रसिद्ध रही हैं और उन सभी का सम्बन्ध राजा सम्प्रति से स्थापित किया जाता है। ऐसी प्रतिमाओं के अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित होने का भी उल्लेख किया गया है। मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्य काल की तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकतीं। ' एवं राज्ञोऽतिनिबन्धादाचार्यः केऽपि साधवः । विहर्तुमादिदिशिरे ततोन्द्रमिलादिषु ||६|| निरवद्यं श्रावकत्वमनार्येष्वपि साधवः । दृष्ट्वा गत्वा स्वगुरवे पुनराख्यन्सविस्मयाः ॥१०॥ परि० पर्व, स० ११ २ येन सम्प्र तिना त्रिखंगमितापि मही जिनप्रासादमंडिता विहिता, साधुवेश-धारिनिजवंडपुरुषप्रेषणेनानायंदेशेऽपि साधुबिहार: कारितः । [तपागन्य पट्टापली] .... .. * Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जैन धर्म का प्र० एवं.प्र. ___ दशम सदी से पूर्व के बहुत कम ऐसे शिल्पावशेष मिले हैं जो श्वेत प्रस्तरों पर उत्कीरिणत हों। मौर्यकाल में अधिकतर प्रादेशिक पत्थर ही शिल्पकला में व्यवहृत होते थे। मौर्यकाल की मूर्तियां जितनी भी उपलब्ध हैं, लगभग सभी सचिक्वण हैं । ये प्रतिमाएं अपनी शैली के कारण दूर से ही पहिचानी जा सकती हैं । पाटन-लोहानीपुरा मोहल्ले से निकलीं कुछ खण्डित प्रतिमाएं पटना-म्यूजियम में सुरक्षित हैं। एक बात और भी है कि मन्दिर बनवाने के सम्बन्ध में भी यदि स्पष्ट कहा जावे तो स्थिति सन्देहात्मक ही है, कारण कि मौर्य-शासित प्रदेशों में जहां कहीं भी उत्खतन हुअा है वहां इनके अवशेष या चिह्न कहीं नहीं मिले हैं। यदि संप्रति राजा ने इतना विशद् शैल्पिक निर्माण करवाया होता तो कम से कम कहीं न कहीं तो इनके अवशेषों एवं चिह्नों की प्राप्ति होनी ही चाहिये थी। इन बातों के बावजूद भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जैनत्व के प्रति राजा सम्प्रति के हृदय में अगाध श्रद्धा और आस्था थी। विदेशों में समनीया जाति कही जाती है । वह असम्भव नहीं, सम्प्रतिकालिक प्रचार एवं पुरुषार्थ का ही प्रतिफल हो । श्रमरण और समनीया का साम्य स्पष्ट है । कालान्तर में उचित जैन संस्कारों के अभाव में समनीया जाति में से जैनत्व के संस्कार विलुप्त हो गये हों, पर नाम समणीया आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है।" उपरोक्त विचारों पर पाठक तटस्थता से चिन्तन कर तथ्य पर पहुंचने का प्रयास करें। उत्कट साधना का अनुपम प्रतीक प्रवन्तिसुकुमाल आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए आर्य सुहस्ती एकदा पुनः उज्जयिनी पधारे और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने अपने दो साधुओं को भद्रा नाम की एक अति समृद्ध श्रेष्ठिमहिला के पास भेजा और उससे किसी स्थान में ठहरने की आज्ञा चाही। भद्रा ने बड़ी श्रद्धापूर्वक श्रमणद्वय को वन्दन किया और उनसे उनके पाने का प्रयोजन ज्ञात होने पर उसने अपनी वाहनकुटी में साधुओं को ठहरने की अनुमति प्रदान की। तदनन्तर आर्य सुहस्ती अपने शिष्य परिवार सहित भद्रा की वाहनकूटी में ठहरे ! दूसरे दिन प्रदोषवेला मे प्राचार्य सुहस्ती नलिनीगुल्म नामक अध्ययन का सस्वर पाठ कर रहे थे। उस समय भवन की सातवीं मंजिल पर अपनी ३२ सुकुमार पत्नियों के साथ सोये हुए भद्रा के पुत्र अवन्तिसुकुमाल के कर्णरन्ध्रों में आचार्यश्री का सुमधुर स्वर प्रतिध्वनित होने लगा। अवन्तिसुकुमाल प्राचार्य सुहस्ती के स्वर को दत्तचित हो सुनने लगा। वह पाठ उसे इतना कर्णप्रिय लगा कि वह उसे और अधिक स्पष्ट रूप से सुनने और समझने की उत्कण्ठा से प्रेरित हो मन्त्रमुग्ध की तरह अपने महलों से उतरा और प्राचार्यश्री के पास आकर बड़े ध्यान से सुनने लगा । पाठ को सुन कर अवन्तिसुकुमाल के मन में उथल-पुथल सी Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कट साधना का प्रतीक] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-मुहम्ती मच गई और उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि पाठ में वाणत मुखों का उसने कहीं न कहीं अनुभव किया है। ईहापोह करते हए उमने स्मृति पर जोर दिया और उसे तत्काल जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अवन्तिसुकुमाल ने प्राचार्यश्री के समीप उपस्थित हो उन्हें भक्ति सहित वन्दन किया और कहने लगा - "भगवन ! मैं गृहस्वामिनी भद्रा का पुत्र हूं। आपके इस पाठ को सुनकर मुझे जातिम्मरगा ज्ञान हो गया है। मैं अपने इस जन्म से पहले नलिनीगुल्म नामक विमान में देवता था । अब पुनः वहीं जाने के लिये मेरे मन में तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हो चुकी है । आपके पास श्रमणत्व स्वीकार कर मैं पुनः वहीं नलिनीगुल्म विमान में जाना चाहता हूं । कृपा कर मुझे प्रव्रज्या प्रदान कीजिये।" । प्राचार्य सुहस्ती ने उसे श्रमरगजीवन की दुष्करता से अवगत कराते हुए कहा - "सौम्य ! तुम अत्यन्त सुकुमार हो। लोहे के चने चबाना और अग्नि में खड़े रहना किसी के लिये साध्य हो सकता है पर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित श्रमणाचार का पालन करना बड़ा ही कठिन और दुस्साध्य कार्य है।" अवन्तिसुकूमाल ने कहा - "भगवन ! प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरे मन में तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हो चुकी है। मैं प्रव्रज्या तो अवश्य ही ग्रहण करूंगा। साधु समाचारी के अनुसार चिरकाल तक तो मैं निरतिचार थामण्य का परिपालन नहीं कर सकूगा अतः मैं प्रारम्भ में ही अनशन सहित श्रमणत्व ग्रहण करूगा और थोड़े समय के लिये घोरातिघोर कष्ट को भी साहसपूर्वक सहन कर लूंगा।" अवन्तिसुकुमाल को अपने निश्चय पर अटल देखकर आर्य सुहस्ती ने कहा"भद्रानन्दन ! यदि तुम दीक्षित होने के लिये कृतसंकल्प हो तो इसके लिये तुम अपने स्वजनों की अनुमति प्राप्त करो।" ____तदनन्तर अवन्तिसुकुमाल ने अपनी माता और पत्नियों से उसे दीक्षार्थ अनुमति देने के लिये कहा किन्तु पूरी तरह प्रयास कर चुकने पर भी उसको स्वजनों से दीक्षा लेने की अनुमति नहीं मिली। अवन्तिसुकुमाल तो नलिनीगुल्म विमान में यथाशीघ्र जाने के लिये आतुर हो रहा था। उसने स्वयं ही केशलुंचन कर श्रमणवेष धारण कर लिया और वह आर्य सुहस्ती की सेवा में उपस्थित हुअा। आर्य सुहस्ती ने अपने शरीर से भी निर्ममत्व और संसार से पूर्णरूपेण विरक्त अवन्तिसुकमाल को स्वयंग्रहीत साधुवेष में देखकर विधिपूर्वक श्रमण दीक्षा प्रदान को । तदनन्तर अवन्तिसुकुमाल ने प्रार्य सुहस्ती से निवेदन किया "प्रभो! में लम्बे समय तक श्रमणजीवन के कष्टों को सहन नहीं कर पाऊंगा अतः मुझे प्रामरण अनशनपूर्वक साधना करने की आज्ञा प्रदान कीजिये।" मार्य सुहस्ती से प्राज्ञा प्राप्त कर अवन्तिसुकुमाल नगर से बाहर निर्जन श्मशान भूमि में पहुंचा और कायोत्सर्ग कर खड़ा हो गया। प्रत्यन्त सुकुमार अवन्तिसुकुमाल प्रथम बार ही नंगे पांवों इतनी दूर तक चला था प्रनः कंकरों Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उत्कट साधना का प्रतीक तथा कंटकों से उसके पादतल बिंध गये और उन व्रणों से खून टपकने लगा। बड़े धैर्य के साथ इस पीड़ा को तथा भूख-प्यास के कष्टों को सहन करते हुए वह आत्मचिन्तन में तल्लीन हो गया। सूर्य की प्रखर किरणों से श्मशानभूमि आग की तरह तपने लगी पर अवन्तिसुकुमाल ने बड़ी शान्ति के साथ उसे सहन किया। दिन ढलने लगा, सूर्यास्त हुना, शनैः शनैः अन्धकार ने अपना साम्राज्य जमा लिया। यत्र-तत्र वनैले हिंस्र जन्तुओं के दिल दहला देने वाले आक्रन्दारावों से वह भीषण रात्रि साक्षात् कालरात्रि के समान भयावह बन गई थी। किन्तु सद्यः प्रवजित सुकुमार श्रमण अवन्तिसुकुमाल उस श्मशानभूमि में परम शान्त, दान्त एवं विरक्त अवस्था में एकाग्र चित्त हो ध्यानमग्न खड़े रहे। उनके पदचिह्नों पर लहूमिश्रित धूलिकरणों की गन्ध का अनुसरण करती हुई एक श्रृगालिनी अपने कतिपय बच्चों के साथ अवन्तिसुकुमाल मुनि के पास आ पहुंची। मुनि के पैरों से टपके हुए लहूकरणों की गन्ध पा कर उसने मुनि के पैरों को चाटना प्रारम्भ किया। प्राध्यात्मिक ध्यान में रमण करते हुए मुनि निश्चल खड़े रहे। मुनि की ओर से किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न होता देख कर श्रृगालिनी का साहस बढ़ा। उसने मुनि के पैर की मांसल पिण्ड्ली में दांत गडा दिये। गरम-गरम खून की धाराएँ बह निकलीं। अपने बच्चों सहित श्रृंगालिनी लहपान के साथ-साथ मुनि के पैर को काट-काट कर खाने लगी। क्रमशः मुनि का ध्यान चिन्तन की मनोभूमि के उच्च से उच्चतर सोपान पर चढ़ने लगा । विना किसी प्रकार का प्रतिरोध किये मुनि शान्त चित्त हो सोचने लगे – “यह श्रृगालिनी मेरे कर्मकलुष को काट-काट कर मेरे लिये नलिनीगुल्म विमान के कपाट खोल रही है।" श्रृगालिनी और उसके बच्चों ने मूनि का दूसरा पैर भी काट-काट कर खाना प्रारम्भ कर दिया। मुनि का शरीर पृथ्वी पर गिर पड़ा किन्तु उनका ध्यान अधिकाधिक ऊंचाई पर चढ़ता गया। मुनि की दोनों जंघाओं और भुजदण्डों को खा चुकने के पश्चान् श्रृगाल-परिवार ने उनके पेट को चीर फाड़ कर खाना प्रारम्भ किया। मुनि ने भी अपने अात्मचिन्तन को शुभ से शुभतर बनाना प्रारम्भ किया और अन्ततोगत्वा समाधिपूर्वक प्राणेत्सर्ग कर मुनि अवन्ति सुकुमाल अपने प्रिय लक्ष्यस्थान नलिनीगुल्म विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। । दूसरे दिन आर्य सुहस्ती से सब वृत्तान्त ज्ञात होने पर अवन्तिसूकमाल की माता भद्रा ने अपनी एक भिणी पुत्रवधु को छोड़ कर शेष ३१ पुत्रवधुओं के साथ श्रमणीधर्म की दीक्षा ग्रहण की। प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा परिशिष्ट पर्व में किये गये उल्लेख के अनुसार अवन्तिसुकुमाल के पुत्र ने अपने पिता की स्मृति में उनके मरणस्थल पर एक विशाल देवकुल का निर्माण करवाया जो आगे चल कर महाकाल के नाम से विख्यात हप्रा।' --...-...- . - - - - - ---- -------- ' गुा जातेन पुत्रेण चक्रे देवकुलं महत् । प्रवन्तिसुकुमालस्य मरणस्थानभूतले ।। १७६।। तद्देवकुलमद्यापि विद्यतेऽवन्तिभूषणम् । महाकालाभिषानेन लोके प्रथितमुच्चकैः ।।१७७।। [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११, . Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ जैन धर्म का प्र० एवं प्र०] दशपूर्वधर-काल : प्रायं महागिरि-सुहस्ती ___आर्य सुहस्ती के शिष्य अवन्तिसुकुमाल के इस प्रकार के अलौकिक साहस, अद्भुत त्याग और वैराग्य से उस समय का जनमानस कितना प्रभावित हुना होगा, इसको कल्पना से भी नहीं आंका जा सकता। प्रार्य महागिरि की शिष्य-परम्परा । कल्पसूत्रानुसार' आर्य महागिरि की शिष्य परम्परा क्रमशः इस प्रकार है :१. स्थविर उत्तर (बहुल) ५. स्थविर कौडिन्य २. स्थविर बलिस्सह ६. स्थविर नाग ३. स्थविर धनाढ्य । ७. स्थविर नागमित्र ४. स्थविर श्री आढय ८. कौशिक गोत्रीय षडुल्लूक रोहगुप्त इन्हें प्रत्यक्ष शिष्यों की अपेक्षा पारम्परिक शिष्य मानना अधिक उपयुक्त होगा। आठवें शिष्य कौशिक गोत्रीय स्थविर षडुल्लूक रोहगुप्त से राशिक (निन्हवों) की उत्पत्ति हुई। स्थविर उत्तर और स्थविर बलिस्सह से उत्तरबलिस्सह नामक गण निकला जिसकी ये निम्नलिखित ४ शाखाएं हैं :१. कौशाम्बिका, २. शुक्तिवतिका, ३. कोडंबाणी और ४. चन्दनागरी। प्राचार्य सुहस्ती की शिष्य परम्परा प्राचार्य आर्य सुहस्ती का शिष्यपरिवार बड़ा विशाल था। उनके १२ प्रमुख शिष्य थे, जिनके नाम, उनसे निकली हुई शाखाओं एवं कुलों के नाम सहित इस प्रकार हैं :' थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावचगुत्तस्स इमे अट्ठ पेरा अन्तेवासी महावच्चा अभिण्णाया हुत्या, तंजहा- १. थेरे उत्तरे, २. येरे बलिस्सहे, ३. थेरे घरगड्ढे, ४. थेरे सिरिड्ढे, ५. थेरे कोडिन्ने, ६. थेरे नागे, ७. थेरे नागमित्ते, ८. घेरे छलए रोहगुप्ते कोसियगुत्तेणं : थेरेहिन्तो र छलूएहितो रोहगुत्तेहितो कोसियगुतैहितो तत्य रणं तेरासिया निग्गया। थेरेहिन्तो रणं उत्तर बलिस्सहेहिन्तो तत्य णं उत्तर बलिस्सहे नाम गणे निग्गये । तस्सणं इमामो चत्तारि साहायो एवमाहिज्जति; तंजहा : १. कोसंबिया, २. सोइत्तिया (सुत्तिवत्तिमा) ३. कोडंनाणी, ४. चन्दनागरी । २ पेरे प्रजरोहण, जसभद्दे मेहगणी, य कामिड्ढी । मुठिय, सुप्परिबुढे, रक्खिय तह रोहगुत्ते प्र ॥१॥ इसिगुत्ते सिरिगुत्ते गणो म बम्मे गणी य तह सोमे ।। दस दो प्र गणहरा खलु, एए सीसा सुहत्यिस्स ।।२।। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पा० सु० की शिष्य-पर० १. स्थविर प्रार्य रोहण । इनसे उद्देहगण निकला। उद्देहगण से निम्नलिखित. ४ शाखाएं निकलीं : (१) उदंबरिज्जिया, (२) मासपूरिया, (३) मइपत्तिा और (४) पुण्यपत्तिका। उद्देहगण के निम्नलिखित ६ कुल थे : (१) नागभूय, (२) सोमभूय, (३) उल्लगच्छ, (४) हत्थलिज्ज, (५) नन्दिज्ज और (६) परिहासय । २. प्राचार्य यशोभद्र - इनमे उडुवाडिय गगग निकला । इस गण से निम्नलिखित ४ शाखाएं निकलीं : (१) चंपिज्जिया, (२) भद्दिज्जिया, (३) काकन्दिया, और (४) मेहलिज्जिया। इस उडुवाडिय गण के निम्नलिखित ३ कुल हुए : (१) भद्रयश, (२) भद्रगुप्त और (३) यशोभद्र । ___३. मेघगणी - कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके सम्बन्ध में कोई परिचय नहीं दिया गया है। इनसे कोई पृथक् गण नहीं निकला। ये गुणसुन्दर, गुणाकर और घनसुन्दर के नाम से भी पहिचाने जाते थे। श्यामाचार्य इन्हीं के शिष्य माने जाते हैं। ४. प्राचार्य कामधिगणी- इनसे बेसवाडिय गण निकला जिसकी (१) सावत्थिया, (२) रज्जपालिया, (३) अन्तरिज्जिया और (४) खेमिलज्जिया नाम की चार शाखाएं तथा (१) गणिय, (२) मेहिय, (३) कामड्ढिय एवं (४) इन्द्रपुरग नाम के चार कुल थे। ५. प्राचार्य सुस्थितसूरि और | इन दोनों प्राचार्यों के गण, शाखाएं ६. प्राचार्य सुप्रतिबद्धसूरि Jऔर कुल सम्मिलित थे। इन प्राचार्य सुस्थित से कोडिय-काकंदिय नामक गच्छ निकला। इस गच्छ की निम्नलिखित ४ शाखाएं और चार ही कुल थे :शाखाएं : (१) उच्चानागरी, (२) विद्याधरी, (३) वज्री और (४) मज्झिमिल्ला। कुल : (१) बम्भलिज्ज, (२) वत्थलिज्ज, (३) वाणिज्य और (४) पण्हवाहणय । उपरिलिखित ४ शाखाएं वस्तुतः कोटिकगण की मूल एवं मुख्य शाखाएं हैं। इनका प्रारम्भ प्रा. सुस्थित और सुप्रतिवद्ध के संतानीय क्रमशः स्थविर Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० सु० की शिष्य-पर०] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती ४६५ शान्ति श्रेणिक, स्थविर विद्याधर गोपाल, स्थविर प्रार्य वज्र और स्थविर प्रियग्रंथ से होना बताया गया है। इनके अतिरिक्त कोटिकगरण की प्रज्जसेरिणया, प्रज्जतावसी, अज्जकुबेरा, अज्जइसिपालिमा, प्रज्जनाइली, अज्ज पोमिला, प्रज्ज जयन्ती, एवं ब्रह्मद्वीपिका ये उप-शाखाएं और नागेन्द्रकुल, चन्द्रकुल प्रादि उपकुल थे। ७. प्रा० रक्षित ) इनसे किसी शाखा या गण के प्रकट ८. प्रा० रोहगुप्त | होने का उल्लेख नहीं मिलता। ६. प्राचार्य ऋषिगुप्त - इनसे मानवगण निकला । इस गण की निम्नलिखित ४ शाखाएं : (१) कासवज्जिया, (२) गोयमज्जिया, (३) वासिट्ठिया तथा (४) सोरट्ठिया । और (१) ईसिगुत्तिय, (२) ईसिदत्तिय तथा (३) अभिजयन्त-ये ३ कुलथे। १०. प्रा० श्रीगुप्त (हारितगोत्रीय) - इनसे चारण गण निकला, जिसकी निम्नलिखित ४ शाखाएं और ७ कुल थे : शाखाएं :(१) हारियमालागारी, (२) संकासिया, (३) गवेधुया और (४) वज्जनागरी। कुल :(१) वत्यलिज्ज, (२) पीइधम्मिय, (३) हालिज्ज, (४) पूसमि तिज्ज, (५) मालिज्ज, (६) प्रज्जवेडय मोर (७) कण्हसह (कृण्णसख)। ११. प्रा० ब्रह्मगणी । इनसे भी किसी गण या शाखा के प्रकट १२. प्रा० सोमगणी होने का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । प्राचार्य सुहस्ती का शिष्य-समुदाय वस्तुतः सुविशाल था। उसमें अनेक उच्चकोटि के विद्वान् साधक-श्रमण थे पर उन सब का परिचय उपलब्ध नहीं होता। समुच्छववादी वौषा निम्हव-परवमित्र (वीर-निर्वाण संवत् २२०) मार्य महागिरि के प्राचार्यकाल के पांचवें वर्ष में अर्थात् वी. नि. संवत् २२० में समुच्छेदवादी (क्षणिकवादी) प्रश्वमित्र नाम का चौथा निह्नव हुमा । निह्नव अश्वमित्र प्रार्य महागिरि के कोडिन्न नामक शिष्य का शिष्य था। एक. समय वह मथुरा नगरी में शास्त्राभ्यास कर रहा था। उस समय दावें अनुवाद पूर्व की नेउणिया नामक वस्तु के छिन्नछेद नय की वक्तव्यता के निम्नलिखित पाठ पर वह विचार करने लगा : Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चौथा निह्नव प्रश्वमित्र " सव्वे पडुप समय नेरइया वोच्छिज्जिस्संति एवं जाव वेमारिणयत्ति ।" इस पाठ का अर्थ यह है कि जो वर्तमान काल के नारकीय हैं, वे दूसरे समय में विनाश को प्राप्त होते हैं। ऐसी अवस्था में पहले समय के नारकीय की जो पर्याय थी, वह विनष्ट हो जाती है और दूसरे समय में विशिष्ट दूसरी पर्याय हो जाती है । ४६६ वस्तुतः यह पाठ पर्याय पलटने के सम्बन्ध में है पर ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण, प्रश्वमित्र ने इसके वास्तविक अर्थ को नहीं समझते हुए अपनी भ्रान्त धारणा बना ली कि संसार की समस्त वस्तुएं, पाप, पुण्य और यहां तक कि आत्मा भी क्षण-क्षरण के अन्तर से नष्ट होने वाला है । अश्वमित्र के गुरु ने उसे अनेक प्रकार से उपरोक्त पाठ का सही अर्थ समझाने का प्रयास किया पर उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा और वह अपनी क्षणिकवाद की मान्यता पर दुराग्रहपूर्वक डटा ही रहा । समझाने के सभी प्रकार के प्रयास निष्फल हो जाने पर गुरु द्वारा उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया गया । . संघ से बहिष्कृत किये जाने के पश्चात् प्रश्वमित्र अपने नये सामुच्छेदिक मत का घूम-घूम कर प्रचार करने लगा। ऐसा अनुमान किया जाता है कि समुच्छेदवादी चौथे निह्नव अश्वमित्र के समय तक बौद्ध धर्म के क्षणिकवाद का काफी प्रचार हो चुका होगा । सम्भव है अश्वमित्र पर भी बौद्धों के क्षणिकवाद का प्रभाव पड़ा हो। वह अपने अनेक साथियों के साथ विभिन्न क्षेत्रोंमें घूम-घूम कर अपने इस नये मत का प्रचार करने लगा और लोगों को उपदेश देने लगा कि जो जीव पहले समय में पाप करता है, वह दूसरे समय में नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार प्रथम समय में किया हुआ पुण्य दूसरे समय में नष्ट हो जाता है । प्रश्वमित्र अपने मत का प्रचार करता हुआ एक दिन अपने साथियों सहित राजगृह नगर पहुंचा। वहां उस समय नगर के चौकी-चुंगी विभाग का उच्चाधिकारी सच्चा श्रमरणोपासक था । उसने श्रश्वमित्र को सही मार्ग पर लाने के उद्देश्य से अपने कर्मचारियों द्वारा पकड़वा कर पिटवाना प्रारम्भ किया। पीड़ा से कराहते हुए श्रश्वमित्र ने उस अधिकारी से पूछा - "मैं साधु हूं और तुम श्रमणोपासक हो । मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम मुझे क्यों पीट रहे हो ?" उस चुंगी अधिकारी ने उत्तर में कहा- "तुम्हारे समुच्छेदवाद की मान्यता के अनुसार तुम्हारे शरीर में साधु के रूप में प्रात्मदेव विराजमान था वह तो कभी का विनष्ट हो गया। उसी प्रकार मेरे अन्तर में श्रमरणोपासक के रूप में जो आत्मा थोड़ी देर पहले विद्यमान था, वह भी समाप्त हो चुका। इस दृष्टि से अब न तुम साधु हो और न मैं श्रमणोपासक ।" इस प्रत्यक्ष अनुभव और प्रमाण से प्रश्वमित्र की बुद्धि तत्काल ठिकाने पर प्रा गई । उसे अपनी त्रुटि समझ में भा गई कि वस्तुतः वह भ्रमवश बिल्कुल मिथ्या धारणा बना बैठा था। चुंगी अधिकारी की बुद्धिमत्ता मे भटके हुए Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा निह्नव प्रश्वमित्र] दशपूर्वधर-काल : मार्य महागिरि-सुहस्ती ४६७ विपथगामी अश्वमित्र को प्रतिबोध देकर पुनः सही पथ पर लगा दिया। अश्वमित्र तत्काल अपने गुरु के पास पहुंचा और उनसे क्षमा मांग कर एवं अपने मिथ्यात्त्व के लिये प्रायश्चित्त ले कर पुनः श्रमणसंघ में सम्मिलित हो गया। विक्रियावादी पांचवा निहव-गंग (वीर-निर्वाण संवत् २२८) वीर नि० सं० २२८ में भगवान् महावीर के शासन का पांचवां निह्नव द्विक्रियावादी गंग नामक प्रणगार हुमा । निह्नव गंग अथवा गंगदेव प्राचार्य महागिरि के शिष्य धनगुप्त का शिष्य था। गंग प्रणगार एक दिन दुपहर की कड़ी धूप में उलूगातीर नामक नदी को पार कर रहा था। उक्त नदी को पार करते समय अणगार गंग को अपने पैरों से ठंड का और ऊपर से चिलचिलाती धूप की गर्मी का अनुभव हुमा । एक ही साथ ठंड और गर्मी का अनुभव होने के कारण उसके मन में विचार उत्पन्न हुया - "भगवान् महावीर ने तो फरमाया है कि एक समय में दो क्रियाएं नहीं होती, दो प्रकार का उपयोग नहीं होता। एक समय में एक ही क्रिया की जाती और एक ही प्रकार का उपयोग होता है। पर वह तो प्रत्यक्ष ही ठंड और गर्मी दोनों का अनुभव एक साथ, एक ही समय में कर रहा है । तो, इससे स्पष्टतः यह सिद्ध होता है कि एक ही समय में दो प्रकार की क्रियाएं और दो प्रकार का उपयोग हो सकता है। भगवान् महावीर का यह फरमाना कि एक समय में एक ही क्रिया और एक ही उपयोग होता है - वस्तुतः असत्य है।" अपने गुरु धनगुप्त के पास पहुंच कर गंग मणगार ने द्विक्रियावाद की नवीन. मान्यता रखी। प्रार्य धनगुप्त ने गंग के मन में उत्पन्न हुई शंका को मिटाने का प्रयास करते हुए कहा- "वत्स! तुम्हें इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिये कि एक क्षण के अन्दर प्रसंख्य समय होते हैं। तुम जिसे समय की संज्ञा दे रहे हो वह समय नहीं, क्षण है । समय तो क्षण का असंख्यातवां भाग है । समय वस्तुतः क्षण का वह असंख्यातवां सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग है, जिसका और कोई टुकड़ा या भाग नहीं किया जा सकता। एक क्षण में अनेक क्रियाओं का अनुभव हो सकता है, पर एक समय में कभी नहीं। तुम्हें नदी में जो गरमी और सर्दी का अनुभव हुमा, वह एक समय में नहीं हुमा । गर्मी का अनुभव होने के पश्चात् जो सर्दी का अनुभव हुआ, वह वस्तुतः असंख्यात समय पश्चात् हुमा । इन दोनों प्रकार के उपयोगों के बीच में असंख्यात समय का व्यवधान है, अन्तर है। समय वस्तुतः काल का वह सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग है जिसका और कोई दूसरा विभाग नहीं हो सकता, जबकि क्षण, काल का वह भाग है, जिसमें प्रसंख्यात समय समाविष्ट होते हैं । इस प्रकार असंख्यात समयों के पुंज 'क्षरण' नामक काल विभाग में जो तुम्हें दो प्रकार के अनुभव हुए, दो प्रकार के उपयोग हुए हैं, वे एक समय में हुए दो उपयोग नहीं, अपितु एक क्षण में हुए दो उपयोग हैं। जिस प्रकार, एक पुद्गल के उस छोटे से छोटे, सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग को परमाणु कहते हैं, जिसका कि और कोई विभाग Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पांचवां निह्नव गंग नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार समय भी काल का सबसे छोटा, सबसे सूक्ष्म भाग है, जिसका और कोई विभाग नहीं किया जा सकता । काल के इतने छोटे अन्तिम विभाग 'समय' में दो क्रियाएं अथवा दो उपयोगों के उत्पन्न होने की कोई गुंजायश ही नहीं रह जाती क्योंकि वह काल का ऐसा सूक्ष्म भाग है जिसके दो विभाग किये ही नहीं जा सकते । ऐसी स्थिति में एक समय के अन्दर दो क्रियाओं अथवा दो प्रकार के उपयोगों के उत्पन्न होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्व को प्रत्यक्ष की तरह देखने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने जो फरमाया है, वह पूर्णरूपेण सत्य है । उसमें तुम्हें शंका नहीं करनी चाहिये।" अपने गुरु के मुख से इस प्रकार के हृदयग्राही, तर्कसंगत सूक्ष्म विवेचन को सुनने के उपरान्त भी प्रणगार गंग ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, तो अन्ततोगत्वा उसे संघ से बहिष्कृत घोषित कर दिया गया । ____ संघ से बहिष्कृत किये जाने के पश्चात् गंग ने 'द्विक्रिय' नामक एक नया मत चलाया। यह मत थोड़े समय तक ही चल पाया था कि गंग को अपनी त्रुटि का अनुभव हो गया। उसने अपने गुरु के पास प्राकर क्षमा मांगी और प्रायश्चित्त लेकर पुनः संयममार्ग पर प्रारूढ़ हो गया। प्राचार्य सुहस्ता क बाद की सघ-व्यवस्था संध-व्यवस्था में प्राचार्य का बड़ा महत्वपूर्ण और सभी दृष्टियों से सर्वोपरि स्थान माना जाता रहा है । आर्य सुधर्मा से आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती तक लगभग ३०० वर्ष पर्यन्त जिनशासन का सम्यक् रूपेण संचालन संरक्षण प्राचार्यों ने ही किया। प्राचार्य के अतिरिक्त उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, स्थविर, प्रवर्तक मादि पदों के भी शास्त्र में नाम उपलब्ध होते हैं। पर प्राचार्य, गणधर और पर-स्थविर के अतिरिक्त तीर्थकर काल से महागिरि तक के काल में किसी अन्य पद या उसके कार्य का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। जहां-तहां स्थविर का उल्लेख मिलता है। वे ही प्राचार्य के प्रमुख सहायक रूप से सवदीक्षितों को संयमधर्म की शिक्षा और शास्त्रवाचना प्रदान करते रहे। इसके लिये शास्त्रों में जगह-जगह उल्लेख मिलते हैं- 'येरारणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जई। संभव है स्थिर शील स्वभाव के कारण उपाध्याय के लिये स्थविर शब्द का भी प्रयोग किया गया हो । अपवा अधिकांश प्राचार्य ही अपने समाश्रित श्रमणवर्ग को प्राचारमार्ग में जोड़ने एवं स्थिर रखने के साथ-साथ श्रुतवाचना का कार्य भी सम्पन्न करते रहे हों और मारमार्थी मेधावी शिष्य एक बार कहने से ही सरलता के साथ मर्यादा में चलते रहे हों। इस कारण प्रवर्तक, उपाध्याय, गणी प्रादि पदों का प्रवकतः उल्लेख नहीं किया गया हो । स्थिति कुछ भी रही हो, उपलब्प उल्लेखों से तो यही प्रकट होता है कि हजारों साधुओं की संस्था Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ मा०सु० के बाद संघ-व्य.] दशपूर्वधर-काल : महागिरि-सुहस्ती वाले विशाल साधुसमुदाय एक आचार्य के शासन में पूर्णतः व्यवस्थित रूप से चलते रहे। विभिन्न प्रान्तों में विचरने वाले विशाल साधुसमुदाय की व्यवस्था के लिये अनेक प्राचार्यों की सत्ता में भी संघ का प्रमुख नेतृत्व एक ही प्राचार्य के हाथ में रहा। प्रार्य यशोभद्र के समय से कूल, गरण मौर शाखाओं का उद्भव होने लगा पर भद्रबाहु और स्थूलभद्र जैसे प्रतिभाशाली प्राचार्यों के प्रभाव से श्रमणसंघ में कोई मतभेद उभर न सका। पार्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती ने भी मतभेद की दरारों को उत्पन्न होते ही पाटते हुए अपने अस्तित्वकाल में जिनशासन का ऐक्य बनाये रखा। भावी संतति में यत्किचित् परम्परा-भेद भी कहीं उग्र रूप धारण न कर ल तथा श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म की विशुद्ध परम्परा कहीं विनष्ट अथवा अपने स्वरूप से स्खलित न हो जाय, इस दृष्टि से उन्होंने प्राचार्य पद के प्रावश्यक कर्तव्यों एवं अधिकारों को (१) गणाचार्य, (२) वाचनाचार्य और (३) युगप्रधानाचार्य - इन तीन भागों में बांट दिया। इस व्यवस्था के फलस्वरूप निम्नलिखित तीन परम्पराएं प्रचलित हुई : (१) गणधरवंश - इसमें गण के अधिनायक उन प्राचार्यों की प्रतिष्ठापना की गई, जो गुरु-शिष्य क्रम से उस गरण की परम्परा का संचालन करते रहे। इनकी परम्परा दीर्घकाल तक चलती रही। वर्तमान के गणपति उसी के अवशेष कहे जा सकते हैं। (२) वाचकवंश - वाचकवंश के प्राचार्य वे कहलाते थे, जो आगमज्ञान की विशुद्ध परम्परा के पूर्ण मर्मज्ञ और वाचना-प्रदान में कुशल होते थे। इनकी सीमा अपने गण तक ही सीमित न हो कर पूरे संघ में मान्य होती थी। (३) युगप्रधान परम्परा - इस परम्परा के अन्तर्गत युगप्रधानाचार्य उसे ही बनाया जाता था जो विशिष्ट प्रतिभा एवं योग्यता के कारण जनधर्म ही नहीं, उससे बाहर भी प्रभावोत्पादक होता। वाचनाचार्य या युगप्रधानार्य के लिये किसी गरण अथवा परम्परा का नियमन नहीं होता था कि वह किसी निश्चित गण अथवा परम्परा का ही हो । एक युगप्रधान के पश्चात् उससे भिन्न गण अथवा परम्परा का सुयोग्य श्रमण भी उस पद का अधिकारी हो सकता था। उपरोक्त परिवर्तन की स्थिति विचारणीय है कि भगवान महावीर के पश्चात् लगभग ढाई-पौने तीन सौ वर्ष तक जो संघ व्यवस्था संघसंचालन एवं वाचनाप्रदान - इन दोनों कार्यों के एक ही गणाचार्य द्वारा निष्पादित किये जाने के रूप में सुव्यवस्थित रीति से चलाई जाती रही, वहां प्रार्य सुहस्ती के समय में ऐसी कौनसी अावश्यकता उत्पन्न हो गई कि सुदीर्घकाल से चली आ रही उस सुव्यवस्था को बदल कर संघसंचालन के लिये गणाचार्य तथा प्रागमवाचना के लिये वाचनाचार्य की नियुक्ति कर एक के स्थान पर - दो प्राचार्यों की और तदनन्तर युगप्रधानाचार्य की परम्परा को प्रचलित करना पड़ा? Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा. सु. के बाद चूंकि इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता अतः निश्चित रूप से तो इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी तत्कालीन कतिपय घटनाओं और पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों एवं लेखकों द्वारा उल्लिखित कुछ विवरणों के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि दूरदर्शी प्राचार्यों ने कालप्रभाव से होने वाले गणभेद, सम्प्रदायभेद एवं मान्यताभेद मादि विभिन्न भेदों को दृष्टिं में रखते हुए भेद में प्रभेद को. चिरस्थायी बनाने का यह मार्ग ढूंढ निकाला हो। प्रार्य महागिरि और सुहस्ती के जीवनपरिचय से यह तथ्य स्पष्टतः प्रकट होता है कि उनके समय में मतभेद का बीजारोपण तो नहीं हो पाया था पर श्रमणवर्ग में कतिपय श्रमण कठोर श्रमणाचार के पक्षपाती और अधिकांश श्रमरण समय, सामर्थ्य प्रादि को दृष्टिगत रखते हुए अपवादमार्ग के समर्थक हो चले थे। "वर्तमान का यह थोड़ा सा भी प्राचारभेद आगे चल कर पारस्परिक संपर्क के अभाव में कहीं अधिक उग्र रूप धारण न कर ले" - इस दृष्टि से भाचार्य सुहस्ती ने पार्य महागिरि के पश्चात् शास्त्रीय परम्परा में एकवाक्यता एवं एकरूपता बनाये रखने की शासनहित की भावना से दोनों गणों द्वारा मान्य उनके शिष्य बलिस्सह को वाचनाचार्य पद पर नियुक्त कर एक नवीन परम्परा का सूत्रपात किया। __ गणाचार्य के साथ वाचनाचार्य की स्वतन्त्र नियुक्ति से दोनों विचारधारामों के श्रमणों का सदा निकटतम सम्पर्क बने रहने से श्रमणसंघ में यथावत् ऐक्य बना रहा। . हां तक युगप्रधानाचार्य परम्परा का प्रश्न है, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रार्य सुहस्ती के समय में मौर्य सम्राट सम्प्रति द्वारा उत्कट निष्ठा मोर लगनपूर्वक किये गये शासनसेवा के कार्यों से जैनधर्म के उल्लेखनीय प्रचार-प्रसार के साथसाथ श्रमरणसंध भी खूब फलाफूला। श्रमणों के समूदाय देश और विदेशों के दूरवर्ती प्रदेशों में पहुंच कर धर्म का प्रचार करने लगे। फलस्वरूप प्रार्य सुहस्ती की सर्वतोमुखी प्रतिभा बहुगुणित हो चमक उठी और महान् प्रभावक होने के कारण वे समस्त संघ में यूगप्रधानाचार्य के रूप में विख्यात हो गये। तभी से युगप्रधानाचार्य की तीसरी परम्परा भी अधिक स्पष्ट रूप में उभर माई । वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य ये दोनों पद किसी गणविशेष में सीमित न रह कर योग्यता विशेष से सम्बन्धित रहे। यह भी संभव प्रतीत होता है कि प्रार्य सुहस्ती के समय में उनके विशाल साधुसंघ के श्रमण तथा अन्य गणों के श्रमण कालान्तर में स्वतन्त्र प्राचार्य के अधीन स्वतन्त्र गण के रूप में विचरण करने लगे हों और उन्हें उसी रूप में रहने की अनुमति के साथ-साथ एकता के सूत्र में बांधे रखने की दृष्टि से स्पविरों ने सोच-विचार के पश्चात् युगप्रधानाचार्य की परम्परा को सर्वमान्य एवं सर्वोपरि स्थान प्रदान किया हो। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था दशपूर्वधर-काल : मायं महागिरि-सुहस्ती वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य के पद किसी गणविशेष में सीमित न रख कर विशिष्ट योग्यता से सम्बन्धित रखे गये, इसलिये ये दोनों पद उभय परम्पराओं एवं कालान्तर में सभी गणों के लिये मान्य रहे। युगप्रधानाचार्य का प्रमुख कर्त्तव्य समस्त गणों को एक सूत्र में संगठित रख कर मूल रीति-नीति पर चलाना, कठिन समय में शासन-संरक्षण के साथसाथ जैनधर्म की गौरवगरिमाभिवृद्धि में अपनी योग्यता और प्रतिभा का परिचय देना था। उनका निर्णय जनेतर समाज में भी प्रमाणभूत माना जाता था। दुष्षमाकाल श्रमणसंघस्तोत्र के अनुसार भगवान महावीर के धर्मशासन में दुष्षमाकाल के अन्त तक सुधर्मा प्रादि २००४ प्राचार्यों को युगप्रधान माना गया है। वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य की नयी व्यवस्था का तात्कालिक लाभ यह हया कि गण, कूल प्रादि के प्रादुर्भाव के उपरान्त भी संघ एकता के सूत्र में बंधा रहने के कारण छिन्न-भिन्न होने से बचता रहा । ऊपर लिखित तीनों परम्पराओं के प्राचार्यों के काल की ऐतिहासिक घटनामों का देवद्धि क्षमाश्रमण तक का परिचय देने से पूर्व यहां पर तीनों परम्पराओं के प्राचार्यों की नामावली प्रस्तुत की जा रही है :- . पट्टधरों के क्रम में आर्य स्थूलभद्र के दो प्रमुख एवं पट्टधर शिष्यों-प्रार्य महागिरि और आर्य सुहस्ती-में आर्य महागिरि बड़े थे। इस दृष्टि से मार्य महागिरि की शाखा सभी तरह से प्रमुख शाखा मानी जानी चाहिये। तदनुसार प्राचीन प्राचार्यों द्वारा आर्य महागिरि की शाखा को ही प्रमुख माना भी गया है।' अतः यहां सर्वप्रथम, वाचकवंश-परम्परा के नाम से प्रसिद्ध आर्य महागिरि की आचार्य परम्परा की नामावली प्रस्तुत की जा रही है : वाचकवंश-परम्परा १. प्रार्य सुधर्मा १०. प्रार्य सुहस्ती २. आर्य जम्बू ११. आर्य बलिस्सह ३. आर्य प्रभव १२. प्रार्य स्वाति ४. आर्य शय्यंभव १३. आर्य श्याम ५. प्रार्य यशोभद्र १४. प्रार्य सांडिल्य ६. आर्य संभूत विजय १५. आर्य समुद्र ७. आर्य भद्रबाहु १६. आर्य मंगु ८. आर्य स्थूलभद्र १७. प्रार्य धर्म . आर्य महागिरि १८. आर्य भद्रगुप्त 'अत्र चायं वृद्धसंप्रदाय: - स्थूलभद्रस्य शिष्यद्वयम् - मार्यमहागिरिः प्रायं सुहस्ती च । तत्र पार्यमहागिरेर्या शाखा सा मुख्या। [मेरुतुंगीया स्थविरावली - Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वाचकवंश-परमरा १६. प्रार्य वज २६. आर्य हिमवन्त २०. प्रार्य रक्षित २७. आर्य नागार्जुन २१. प्रार्य प्रानन्दिल २८. प्रार्य गोविन्द २२. मार्य नागहस्ती २९. प्रार्य भूतदिन २३. प्रार्य रेवतिनक्षत्र. ३०. मार्य लौहित्य २४. प्रार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह ३१. प्रार्य दूष्यगरिण २५. प्रार्य स्कंदिलाचार्य ३२. प्रार्य देवद्धिगणि प्राचार्य मेरुतुंग ने प्रार्य महागिरि की शाखा को मुख्य मानते हुए इसके प्राचार्यो की, मार्य बलिस्सह से माचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण तक की नामावली दो गाथामों में दी है । वे गाथाएं इस प्रकार हैं : सूरि बलिस्सह, साई, सामज्जो, सँडिलो य जीयघरो अज्ज समुद्दो, मँगू, नंदिल्लो, नागहत्थी य । रेवईसिंहो, खंदिल, हिमवं, नागज्जणा य गोविन्दा । सिरि भूइदिन्न-लोहिच्च-दूसगणिणो य देवड्ढी ।। इन गाथानों में, ऊपर दी गई नामावली में उल्लिखित आर्य धर्म, आर्य भद्रगुप्त, मार्य वज पोर मार्य रक्षित-इन चार प्राचार्यों के नामों को सम्मिलित नहीं किया गया है। नन्दी के वृत्तिकार एवं चूर्णिकार ने भी स्थविरावली की गाथा सं० ३१, ३२ और ४१ को प्रक्षिप्त मानते हुए इन चारों प्राचार्यों के साथ साथ मार्य गोविन्द का नाम भी नंदी स्थविरावली में सम्मिलित नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरुतंग स्थविरावली की उपरोक्त दो गाथानों तथा नन्दी स्थविरावली में प्रार्य महागिरि की परम्परा अर्थात् वाचकवंश परम्परा के प्राचार्यों का पदक्रम से उल्लेख है और प्रक्षिप्त गाथानों में वाचकवंश परम्परा के प्राचार्यों के समकालीन युगप्रधानाचार्यों के नाम दे दिये गये हैं। वस्तुतः अधोलिखित युगप्रधानाचार्य-पट्टावली में इन चारों प्राचार्यों के नाम विद्यमान हैं । युगप्रधानाचार्य परम्परा की नामावली १. प्रार्य सुधर्मास्वामी ६. आर्य संभूतिविजय २. प्रार्य जम्बूस्वामी ७. आर्य भद्रबाहुस्वामी ३. मार्य प्रभवस्वामी ८. आर्य स्थूलभद्रस्वामी ४. प्रार्य शय्यंभवस्वामी ६. प्रार्य महागिरि ५. प्रार्य यशोभद्रस्वामी १०. प्रार्य सुहस्ती ' नन्दी-स्थविरावली की गाथा सं० ३१, ३२ पौर ४१ जिन्हें कि प्रक्षिप्त माना गया है, उनके.अनुसार मार्य धर्म, भद्रगुप्त, वज, रक्षित और प्रार्य गोविन्द इन पांच प्राचार्यों के नाम जोड़ने पर ही मार्य देवद्धि तक इस परम्परा के प्राचार्यों की संख्या ३२ होती है । नन्दी स्थविरावली की मूल गायामों के अनुसार प्रार्य देवलिंगणी २७ वें प्राचार्य हैं। [सम्पादक] Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्य-परम्परा] दशपूर्वघर-काल : मायं महागिरि-सुहस्ती ११. मार्य गुरणसुन्दर १६. आर्य रक्षित १२. प्रार्य श्यामाचार्य २०. प्रार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र (कालकाचार्य प्रथम) २१. प्रार्य वज्रसेन १३. मार्य स्कंदिलाचार्य २२. प्रार्य मागहस्ती १४. आर्य रेवतीमित्र २३. प्रार्य रेवतीमित्र १५. प्रार्य धर्म २४. प्रार्य सिंह १६. प्रार्य भद्रगुप्त २५. आर्य नागार्जुन १७. प्रार्य श्रीगुप्त २६. प्रार्य भूतदिन्न १८. आर्य वचस्वामी २७. आर्य कालकाचार्य (चतुर्थ) __ गणाचार्य-परम्परा आर्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती, इन दोनों प्राचार्यों के पृथक्-पृथक् दो गण थे और उन दोनों गणों के अनुक्रमशः अलग-अलग प्राचार्य हुए हैं। इन दो गरणों के अतिरिक्त कालान्तर में स्वतन्त्र रूप से जो अनेक गण हुए, उन सब गणों के भी भिन्न-भिन्न प्राचार्य पट्टानुक्रम से हुए हैं। इसके साथ ही साथ अनेक वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य ऐसे भी हुए हैं, जो अपने-अपने गणों के गणाचार्य रहते हुए वाचनाचार्य अथवा युगप्रधानाचार्य भी रहे हैं। ऐसी स्थिति में सभी गणों के गणाचार्यों की नामावली का दिया जाना संभव प्रतीत नहीं होता। विभिन्न गणों की पट्टावलियों से ही उनके सम्बन्ध में परिचय प्राप्त किया जा सकता है। उन गणों में प्रार्य सुहस्ती का गण प्रारम्भ से ही प्रति विशाल और प्रसिद्ध रहा। कल्पसूत्र-स्थविरावली को प्रार्य सुहस्ती की प्राचार्य परम्परा माना गया है। प्रतः उसे यहां दिया जा रहा है : कल्पसूत्रस्थ स्थविरावली १. प्रार्य सुधर्मा ६. प्रार्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध २. ॥ जम्बू १०. , इन्द्रदिन्न ३. . , प्रभव ११. , दिन , शय्यंभव १२. , सिंहगिरि ५. , यशोभद्र १३. , वज्र ६. , संभूतविजय-भद्रबाहू १४. , रथ ७. , स्थूलभद्र १५. , पुष्यगिरि ८. ,, सुहस्ती १६. , फल्गुमित्र ' तत्र सुहस्तिनः सुस्थित - सुप्रतिबुद्धादिक्रमेणावलिका यथा 'दसासु' तथैव द्रष्टव्या, न तयेहाधिकारः, महागिर्यावलिकयेहाधिकारः । [नंदी वृत्ति (श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित), पृ० ११] Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [११. मार्य बलिस्सह १७. आर्य धनगिरि २६. आर्य संपलितभद्र १८. , शिवभूति २७. , वृद्ध १६. , भद्र २८. , संघपालित २०. , नक्षत्र , हस्ती २१ , दक्ष धर्म २२ , नाग ३१. , सिंह २३ , जेहिल ३२. , धर्म २४. , विष्णु ३३. , सांडिल्य' २५. , कालक महागिरि की परम्परा मुख्य होने के कारण यहाँ पर सर्व प्रथम नन्दी सूत्र को स्थविरावली के अनुसार महागिरि की परम्परा के प्राचार्यों का तथा उनके साथ ही उपरोक्त दोनों परम्परागों के प्राचार्यों का परिचय अनुक्रमशः दिया जा रहा है। ११. प्रार्य बलिस्सह वीर नि० सं० २४५ में आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् उनके ८ प्रमुख स्थविरों (शिष्यों) में से प्रार्य बलिस्सह गणाचार्य नियुक्त हुए। उनके गण का नाम उत्तर बलिस्सह रखा गया। यहाँ शंका हो सकती है कि बहुल और बलिस्सह इन दोनों स्थविरों में ज्येष्ठ होने पर भी बहुल का नाम गणाचार्य में न देकर बलिस्सह को गणनायक वताने का क्या विशिष्ट कारण है, जब कि गरण के नाम में उत्तर-बलिस्सह इस नामान्तर से बहुल को भी जोड़ा गया है ? ऐसा प्रतीत होता है कि बहुल ने बलिस्सह से ज्येष्ठ और बहुश्रुत होने पर भी अपनी अल्पायु आदि कारणों से स्वयं आचार्य न बन कर अधिक प्रतिभाशाली बलिस्सह को ही प्राचार्य बनाना उचित समझा हो और इसीलिये बलिस्सह ने भी ज्येष्ठ के आदरार्थ गरण का नाम उत्तर बलिस्सह मान्य किया हो। बलिस्सह के जन्म, दीक्षा, माता-पिता आदि का परिचय उपलब्ध नहीं होने के कारण इतना ही लिखा जा सकता है कि बलिस्सह कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण थे । आर्य महागिरि के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर उन्होंने १० पूर्वी का ज्ञान प्राप्त किया। प्रार्य महागिरि के समान प्रार्य बलिस्सह प्राचार-साधना में भी विशेष निष्ठा रखने वाले थे। यही कारण है कि आर्य महागिरि के पश्चात् वे इस परम्परा में प्रमुख गणाचार्य माने गये । महागिरि परम्परा के अन्य स्थविरों ने भी इनका गणनायकत्व स्वीकार 'कल्पसूत्र स्थविरावली के अंत में दी गई देवद्धि क्षमा श्रमण की वंदन गाथा के आधार पर सांडिल्य के पश्चात् देवद्धि को चौतीसवां प्राचार्य माना गया है परन्तु इस गाथा के मन्यकतक होने के कारण इसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। -सम्पादक Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. मार्य बलिस्सह] दशपूर्वघर-काल : मायं बलिस्सह ४७५ किया। फलस्वरूप आठ स्थविरों में से रोहगुप्त के अतिरिक्त किसी ने भी अलग गण स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया। पहले बताया जा चुका है कि आर्य सुहस्ती ने संघ की ऐक्यता बनाये रखने के लिये गणाचार्य के अतिरिक्त वाचनाचार्य एवं युगप्रधानाचार्य की नई परम्परा प्रचलित की। तदनुसार उन्होंने दोनों परम्परामों में सामंजस्य एवं सहयोग बनाये रखने की दृष्टि से प्रागम के विशिष्ट ज्ञाता बलिस्सह को सम्पूर्ण संघ का वाचना. चार्य नियुक्त किया। आर्य बलिस्सह ने श्रमण-समुदाय में पागमज्ञान का प्रचार-प्रसार करते हए जिन-शासन की प्रशंसनीय सेवा की और अपने समय में हुई श्रमसंघ की वाचना में ११ अंगों एवं १० पूर्वो के पाठों को व्यवस्थित करने में भी अपना पूर्ण योगदान दिया, जैसा कि हिमवन्त स्थविरावली में बताया गया है : "पहले जो १२ वर्ष तक दुष्काल पड़ा था उसमें आर्य महागिरि पौर मार्य सुहस्ती के बहुत से शिष्य शुद्ध आहार न मिलने के कारण कुमारगिरि नामक पर्वत पर अनशन कर के शरीर छोड़ चुके थे। उसी दुष्काल के प्रभाव से तीर्थकर महावीर द्वारा प्ररूपित बहुत से सिद्धान्त भी नष्टप्राय हो गये थे। यह जान कर भिक्खुराय ने जैन सिद्धान्तों का संग्रह और जैन धर्म का विस्तार करने के लिये सम्प्रति राजा की तरह श्रमण-निग्रन्थ तथा निग्रन्थियों की एक सभा कुमारगिरि पर प्रायोजित की, जिसमें प्रार्य महागिरि की परम्परा के प्रार्य बलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य प्रादि २०० जिनकल्प की तुलना करने वाले साधु, तथा आर्य सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, श्यामाचार्य प्रभृति ३०० स्थविरकल्पी साधु सम्मिलित हुए। प्रार्या पोइरणी आदि ३०० साध्वियां भी वहां उपस्थित हुई थीं। भिक्खुराय एवं सीवंद, चूर्णक, सेलक प्रादि ७०० श्रमरणोपासक और भिक्खुराय की महारानी पूर्णमित्रा प्रांदि ७०० श्राविकाएँ भी उस सभा में उपस्थित थीं।" कहा जाता है कि बलिस्सह ने वाचना के प्रसंग पर विद्यानुप्रवाद पूर्व से अंग-विद्या जैसे शास्त्र की भी रचना की। बलिस्सह के गरण में सैंकड़ों साधु एवं साध्वियां होने पर भी उनका कहीं उल्लेख नहीं होने के कारण यहाँ परिचय नहीं दिया जा सकता। इतना ही कहा जा सकता है कि इनके ४ शिष्यों से. उत्तर बलिस्सह गण की ४ शाखाएँ प्रकट हुई, जिनका कल्पसूत्रीय स्थविरावली में भी उल्लेख मिलता है। उन शाखामों के नाम इस प्रकार हैं: १. कोसंबिया २. सोतित्तिया ३. कोडंबाणी और ४. चन्दनागरी ।' 'थेरेहितो णं उत्तरबलिस्सहेहितो तत्य णं उत्तरबलिस्सह गणे नामं गणे निग्गए । तस्स णं इमामो चत्तारि साहापो एवमाहिज्जति, तं जहा - कोसंबिया, सोतित्तिया, कोडंबाणी. चंदनागरी ॥२०६।। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [गु.सु. - युगप्रधानाचार्य इस प्रकार आर्य बलिस्सह महागिरि की परम्परा के गणाचार्य और समस्त संघ के वाचनाचार्य - इन दोनों पदों को चिरकाल तक सुशोभित करते रहे। इनके प्राचार्य काल आदि का परिचय उपलब्ध नहीं होता। अनुमानतः वीर नि० सं० २४५ से ३२६ तक इनका सत्ताकाल हो सकता है। ११. गुर पुन्दर-युगप्रधानाचार्य युगप्रधान-परम्परानुसार प्रार्य बलिस्सह के समय में आर्य गुणसुन्दर (गुणाकर) युगप्रधानाचार्य बताये गये हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : प्राचार्य सहस्ती के पश्चात वीर नि० सं० २६१ में गुणसुन्दर युगप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त किये गये। इनका जन्मकाल. वीर नि० सं० २३५, दीक्षाकाल २५६ और युगप्रधान-पदारोहण २९१ में माना गया है। ४४ वर्ष तक युगप्रधान रूप से जिनशासन की सेवा कर वीर नि० सं० ३३५ में आपने १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्गारोहण किया। प्राचार्य सुहस्ती के शिष्यसमूह में आर्य गुणसुन्दर का मेघगणी के नाम से उल्लेख किया गया है। यह पहले बताया जा चुका है कि मेघगरणी, गुणसुन्दर, गुणाकर एवं घनसुन्दर -ये चारों इन्हीं युगप्रधानाचार्य के नाम माने गये हैं। इनके शिष्य-समुदाय एवं कार्यकलापों का विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता। ११. सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध-गणाचार्य प्रार्य सुहस्ती के पश्चात् जिस प्रकार गुणसुन्दर युगप्रधानाचार्य हए उसी प्रकार मार्य सुहस्ती की परम्परा में प्रार्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध गणाचार्य नियुक्त किये गये। प्रार्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध - ये दोनों सहोदर थे। इनका जन्म काकंदी नगर के व्याघ्रापत्य गोत्रीय राजकुल में हुमा था। ऐसा उल्लेख उपलब्ध होता है कि इन दोनों प्राचार्यों ने सूरिमंत्र का एक करोड़ वार जाप किया। इस कारण इनका गच्छ, कौटिक गच्छ के नाम से विख्यात हुमा। इससे पहले प्रार्य सुधर्मा से प्रार्य सुहस्ती तक भगवान् महावीर का धर्मसंघ निर्ग्रन्थ गच्छ के नाम से विख्यात था। हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार कुमारगिरि पर्वत पर कलिंगपति महामेघवाहन द्वारा भागमवाचनार्य जो चतुर्विधसंघ एकत्रित किया गया था, उसमें ये दोनों प्राचार्य भी उपस्थित थे। 'ग्य सुठिय-सुपरिवह उम (1) साइ सामग्वाइणं घेरकप्पियाणं वि तिमिसया णिगंठाणं समागया । [हिमवन्त स्वपिरावनी हस्तनिधित Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७७ सुस्थित सुप्रतिबुद्ध दशपूर्वधर-काल : मार्य बलिस्सह प्राचार्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के निम्नलिखित ५ शिष्य थे :१. आर्य इन्द्रदिन्न ४. आर्य ऋषिदत्त और २. आर्य प्रियग्रन्थ ५. आर्य अर्हदत्त . ३. आर्य विद्याधर गोपाल इनमें से प्रथम शिष्य आर्य इन्द्रदिन्न प्राचार्य सुस्थित-सूप्रतिबद्ध के पश्चात् गणाचार्य और द्वितीय शिष्य आर्य प्रियग्रन्थ बड़े मन्त्रवादी प्रभावक हुए। इन दोनों का परिचय प्रागे यथास्थान दिया जा रहा है। आर्य सूस्थित का जन्म वीर नि० सं० २४३ में हरा । ३१ वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहने के पश्चात् उन्होंने वीर नि० सं० २७४ में आर्य सुहस्ती के पास श्रमण-दीक्षा प्रहरण की। आर्य सुहस्ती के १२ प्रमुख शिष्यों में आपका पांचवां स्थान था। १७ वर्ष तक सामान्य श्रमणपर्याय में रहे। वीर नि० सं० २६१ में प्रार्य सहस्ती के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् आपको गणाचार्य नियुक्त किया गया। ४८ वर्ष तक गणाचार्य पद पर रहते हुए आपने भगवान् महावीर के शासन की उल्लेखनीय सेवाएं कीं और वीर नि० सं० ३३६ में ६६ वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्गारोहण किया। प्रार्य बलिस्सह कालोन राजवंश पहले किये गये उल्लेखानुसार यह तो निश्चित है कि आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् आर्य बलिस्सह वीर नि० सं० २४५ में प्रार्य महागिरि के गण के गरणाचार्य बने । इसके पश्चात् आर्य बलिस्सह को संघ का वाचनाचार्य बनाया गया। परन्तु इस प्रकार का उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं होता कि वीर नि० २४५ से प्रारम्भ हुआ आर्य बलिस्सह का प्राचार्यकाल कब तक रहा। इस सम्बन्ध में बलिस्सह विषयक जो-जो उल्लेख विभिन्न पुस्तकों में उपलब्ध हैं, उन्हीं के आधार पर अनुमान का सहारा लेना होगा। हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेखानुसार कलिंगपति महामेघवाहन भिक्खुराग ने पूर्वज्ञान और एकादशांगी का पुनरुद्धार करने हेतु, जो कुमारगिरि पर चतुर्विध संघ को एकत्रित किया था, उसमें आर्य बलिस्सह विद्यमान थे।' यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वीर निर्वाण सं० ३२३ में मौर्यवंश के अन्तिम राजा वृहद्रथ को मार कर उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग मगध के सिंहासन पर प्रारूढ़ हुमा । पुष्यमित्र के प्रत्याचारों से संत्रस्त मगध की जैनधर्मावलम्बी जनता की 'पुग्विं तित्ययरगणहरपरुवियं पवयणं वि बहुसो विरणोपायं पाऊण तेणं मिक्सुरायणिवेणं मिणपवयण संगहनें जिणषम्मवित्परळं संपहरिणवुम्ब समणाणं रिणग्गठाणं पिगंठी य एगा परिसा तत्व कुमरीपम्बयतित्पम्मि मेलिया । तस्य रणं राणं प्रजमहानिरीलगनुपताणं गतिस्ताह बोहिमिंग, देवापरि धम्मसेल नसताबरिया विणकप्पिनुमत्तं कुणमालाणं दुनिया पिगंगणं समागया। हिमवंत स्पपिरावनी, हस्तलिक्षित] Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा. बलि. का. राजवंश पुकार सुन, भिक्खुराय ने मगध पर प्राक्रमण कर पुष्यमित्र को दो बार पराजित किया। इसके पश्चात् भिक्खुराय ने कुमारगिरि पर आगमों के उद्धार हेतु श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों एवं श्राविकानों को एकत्रित किया और अंगशास्त्रों तथा पूर्वज्ञान का संकलन, संग्रह अथवा पुनरुद्धार करवाया। ___ अंगशास्त्रों के संकलन, संग्रह अथवा संरक्षण हेतु खारवेल द्वारा किये गये उपरोक्त संघसम्मिलन का समय वीर नि० सं० ३२३ के पश्चात् का ३२७ से ३२६ के बीच का ठहरता है। क्योंकि वीर नि० के पश्चात् ६० वर्ष तक पालक का, तदनन्तर १५५ वर्ष तक नन्दवंश का, तत्पश्चात् १०८ वर्ष तक मौर्यवंश का राज्य रहा । इस प्रकार वीर नि० सं० ३२३ में पुष्यमित्र पाटलिपुत्र के सिंहासन पर प्रारूढ़ हुमा। पाटलिपुत्र के सिंहासन पर आसीन होते ही पुष्यमित्र ने बोद्धों और जैनों पर घोर अत्याचार करने प्रारम्भ किये। जैन धर्म के परम पोषक कलिंगराज महामेघवाहन भिक्खुराय खारवेल को जब पुष्यमित्र द्वारा जैनों पर किये जाने वाले प्रत्याचार की सूचना मिली तो उसने अपने राज्यकाल के ८ वें वर्ष में पाटलिपुत्र पर एक बड़ी सेना लेकर प्राक्रमण कर दिया।' संभव है पुष्यमित्र ने कलिंगराज की अजेय शक्ति के समक्ष झुक कर भविष्य में जैनों पर किसी प्रकार के अत्याचार न करने की प्रतिज्ञा कर खारवेल के साथ संधि कर ली होगी । संधि के पश्चात् खारवेल के लौट जाने पर जब जैन धर्म के परम विद्वेषी पुष्यमित्र ने पुन: जैनों पर अत्याचार करना प्रारम्भ किया तो पहले आक्रमण के चार वर्ष पश्चात् खारवेल ने अपने राज्य के १२वें वर्ष में एक विशाल सेना ले कर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया । उसने पुष्यमित्र के सुगांगेय नामक राजप्रासाद में अपने हाथियों को पानी पिलाया। पुष्यमित्र को अपने पैरों पर गिरा कर नंदराजनीत कालिंगजिन संनिवेस'..."और रत्नादि को ले कर खारवेल पुनः कलिंग लौट गया । ____ इस प्रकार जैनों के उस समय के भयंकर शत्रु पुष्यमित्र से अच्छी तरह निबट चुकने के पश्चात् वीर नि० सं० ३२७ से ३२६ के बीच के किसी समय में 'ठमे च वसे महता सेना....."गोरपगिरि घातापयिता राजगह उपपीडापयति (1) एतिनं च कंमापदान-संनादेन संवितसेन-वाहनो विपमुंचित् मधुरं प्रपयातो यवनराज हिमित । [कलिंग च. म. खारवेल के शिलालेख का वि. पृ. १५] २ वारसमे च वसे....."हस के ज. सबसेहि.."वितासयति उत्तरापथ - राजानो........ मगवानं च विपुलं भयं जनेतो हथी सुगंगीय (.) पाययति (1) मागधं च राजानं वसहतिमितं पादे वंदापयति (1) नंदराजनीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं ....... गह-रतनान पम्हिारेहि अंगमागधवसुं च नेयाति (1) (कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेल के शिलालेख का विवरण श्री के. पी. जायसवालकृत पृ. १६) Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭૨ प्रा. लि. का. राजवंश ] दशपूर्वघर-काल : भायं बलिस्सह खारवेल ने कुमारगिरि पर श्रमरणसंघ प्रादि चतुविध संघ को एकत्रित कर द्वादशांगी के पाठों को सुव्यवस्थित करवाया होगा । श्रागम-वाचनार्थ आयोजित उपरोक्त सम्मेलन में 'हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेखानुसार वाचनाचार्य प्रार्य बलिस्सह भी सम्मिलित थे । इस प्रकार के उल्लेख से यह प्रकट होता है कि प्रार्य बलिस्सह का वाचनाचार्यकाल वीर नि० सं० २४५ से ३२७-३२६ तक रहा। जब तक अन्य प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध न हो तब तक हिमवन्त स्थविरावली के उपरिउद्धृत उल्लेख को अप्रामाणिक मानने का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसी स्थिति में श्रार्य बलिस्ह की पूर्ण श्रायु कम से कम १०५ वर्ष होना अनुमानित किया जा सकता है । उपरोक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाय तो भार्य बलिस्सह के वाचनाचार्यकाल में निम्नलिखित प्रमुख राजाओं का राज्यकाल होना अनुमानित किया जाता है : --- १. मौर्य सम्राट् बिन्दुसार के वीर नि० सं० २३३ से २५८ तक के २५ वर्ष के राज्यकाल में से १३ वर्ष ( वीर नि० सं० २४५ से २५८ तक ) का राज्यकाल । २. मौर्य सम्राट् अशोक का वीर नि० सं० २५८ से २८३ तक राज्यकाल । ३. मौर्यसम्राट् सम्प्रति का वीर नि० सं० २८३ से २९३ तक का शासनकाल । उसमें से प्रथम दो वर्ष पाटलिपुत्र में प्रौर शेष ६ वर्ष उज्जयिनी में । ४. जैन परम्परानुसार पुण्यरथ और वृहद्रथ तथा हिन्दू पौराणिक परम्परानुसार शालिक, देववर्मा, शतधनुष और वृहद्रथ का अनुमानतः वीर निर्वाण सं० २९३ से ३२३ तक राज्यकाल । मौर्य सम्राट् सम्प्रति के पश्चात् इन राजाधों का उज्जयिनी पर भी अधिकार रहा । ५. कलिंग में भिक्खुराय प्रपरनाम महामेघवाहन तथा खारवेल' का जैसा कि प्रागे बताया जायगा, अनुमानतः वीर नि० सं० ३१६ से ३२९ तक का शासनकाल । ६. पुष्यमित्र के वीर नि० सं० ३२२ से ३५२ तक के ३० वर्ष के शासनकाल में से वीर नि० सं० ३२७-३२६ के बीच तक का काल । पुष्यमित्र की राजधानी भी पाटलिपुत्र में रही प्रौर उज्जयिनी का राज्य भी इसके अधीन रहा । • तस्स रणं भिक्खुरायणिस्स तिष्णि णामधिज्जे एवमाहिज्जेति । एवं गं ग्गिंठालं भिक्खुणं भतिं कुणमारणो भिम्बुरावति । दुब्वं गं गिव पुम्ववारणुगय महामेहरणामधिज्ज गयवाहणलाए महामेहबाहयति। तीयं णं तस्स सावरत रावहासीताए सारखेला हिवति । [हिमवन्त-स्थविरावली ] Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा. बलि. का. राजवंश उपर्युल्लिखित राजाओं में से बिन्दुसार, अशोक और सम्प्रति के राज्यकाल की प्रमुख घटनाओं का विवरण ऊपर यथास्थान दे दिया गया है। हां, सम्प्रति के राज्यकाल के सम्बन्ध में विभिन्न उल्लेख उपलब्ध होते हैं। जिनसुन्दरकृत दीपालिकाकल्प में उल्लेख है कि भगवान् महावीर के निर्वाणानन्तर ३०० वर्ष व्यतीत हो जाने पर सम्प्रति हुआ।' किन्तु हिमवन्त स्थविरावली में उल्लेख किया गया है कि वीर नि० सं० २४४ में सम्प्रति को पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बिठला कर अशोक निधन को प्राप्त हुना। सम्प्रति केवल दो वर्ष ही पाटलिपुत्र में रहने के पश्चात् अपनी राजधानी उज्जयिनी ले गया और शेष ६ वर्ष तक वहीं राज्य करता रहा ।' जिन शासन की अनेक प्रकार से महती प्रभावनाएं कर सम्प्रति वीर नि० सं० २६३ में दिवंगत हुआ। हिमवन्त स्थविरावली में सम्प्रति का शासनकाल ४६ वर्ष बताया गया है । वस्तुतः वीर नि० सं० १५५ में नन्दवंश के अंत और मौर्यवंश के प्रभ्युदय की मान्यता के आधार पर मौर्यशासन की संगति बैठाने के लिये ही इस प्रकार का उल्लेख किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिमवन्त स्थविरावलीकार ने सम्प्रति के निधन का समय तो ठीक दिया है, पर उसके राज्यासीन होने का समय उल्लिखित करते समय उपरोक्त मान्यता के अनुसार मौर्यशासनकाल की संगति बैठाने में सम्प्रति का शासनकाल ११ वर्ष के स्थान पर बढ़ा कर ४६ वर्ष कर दिया है। वस्तुतः चन्द्रगुप्त मौर्य ने वीर नि० सं० २१५ में नन्दवंश का अन्त कर मौर्यशासन का सूत्रपात्र किया था। इस सम्बन्ध में पहले विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा चुका है। मौर्यशासन के समीचीनतया पर्यवेक्षण से सम्प्रति का शासनकाल वीर नि० सं० २८२-८३ से २६३ तक का ही ठीक बैठता है । सम्प्रति के निधन के मनन्तर जैनाचार्यों ने पुण्यरथ और उसके पश्चात् वृहद्रथ - केवल इन दो मौर्यवंशी राजामों का पाटलिपुत्र में शासन होने का उल्लेख किया है। घटनाक्रम के पर्यवेक्षण से यहां ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् गृहकलह के कारण सम्प्रति को अपनी राजधानी 'दिनतो मम मोक्षस्य, गते वर्षशतत्रये। उज्जयिन्यां महापुर्या, भावी सम्प्रतिभूपतिः ॥१०७।। [दीपालिकाकल्प] २. तमढे सोच्चा मसोम णिवेणं कोहाक्कतेणं तां णियभज्ज मारिता दोसपरावरे वि प्रणेगे राजकुमारा मारिया। पच्या कुणालपुत्तं संपदणामपिज्ज.रज्जे ठाइत्ता से रणं मसोम शिवो वीरामो चत्तालीसाहिय दो सय वासेसु विइक्कतेसु परलोमं पत्तो। [हिमवन्त स्थविरावली] संपर रिणवोवि पाडलिपुत्तमि णियाणेगसत्तुभयं मुणित्ता रायहारिण तच्चा पुग्विं णियपिउभुत्तिलखावंतीणयरिम्मि. ठिमो सुहंसुहेणं रज्जं कुणइ । [वही] ४ मह वीरामो दोसयतेणउइ वासेसु विक्कतेसु जिपम्माराहणपरो संपइ णिवो सग्नं पत्तो। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० बलि० का० राजवंश] दशपूर्वघर-काल : प्रार्य बलिस्सह ४८१ पाटलिपुत्र से हटाकर अवन्ती (उज्जयिनी) स्थानान्तरित करनी पड़ी। अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र बौद्धों का सुदृढ़ केन्द्र बन चुका था। बहुत सम्भव है कि बौद्धधर्मावलम्बियों ने अशोक के द्वितीय पुत्र दशरथ को- जो कि बौद्धधर्मावलम्बी था-- मगध के सिंहासन पर बिठाने का प्रबल प्रयत्न किया हो । और बौद्धों के प्राबल्य अथवा अन्य कारणों से सम्प्रति को अपने शासन के दो वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र का परित्याग कर कुणाल को कुमारभूक्ति में प्राप्त अवन्तीराज्य की नगरी उज्जयिनी में अपनी राजधानी स्थापित करनी पड़ी हो। ___ पाटलिपुत्र से अवन्ती की ओर सम्प्रति के प्रस्थित होते ही अशोक के दूसरे पुत्र दशरथ ने पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर अधिकार कर लिया। और इस प्रकार मौर्य-राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। पाटलिपुत्र में दशरथ का राज्य रहा और अवन्ति में सम्प्रति का। “संपइ रिणवोवि पाडलिपुत्तंमि रिणयाणेगसत्तुभयं मुणित्ता, रायहारिंग तच्चा .... अवंतीरणयरिम्मि ठिग्रो. सुहंसुहेणं रज्जं. कुणइ।" हिमवन्तस्थविरावली के इस पाठ से भी इस घटना की सत्यता सिद्ध होती है। वीर नि० सं० २६३ में सम्प्रति की मृत्यु के पश्चात् संभव है पाटलिपुत्र के मौर्यवंशीय राजा दशरथ के पुत्र ने अवन्तिराज्य पर भी अधिकार कर लिया। संप्रति के निधन के पश्चात् जैन ग्रन्थों में पुण्यरथ और वृहद्रथ – इन दो मौर्य राजाओं का ही उल्लेख उपलब्ध होता है। इस प्रकार जैन ग्रन्थों के उल्लेखानुसार चन्द्रगुप्त द्वारा प्राप्त की गई राजसत्ता (१) चन्द्रगुप्त, (२) बिन्दुसार, (३) अशोक, (४) कुरणाल, (५) सम्प्रति, (६) पुण्यरथ और (७) वृहद्रथ इन सात पीढ़ियों तक ही रही। जबकि नन्द की राजकुमारी द्वारा चन्द्रगुप्त के रथ में एक पैर रखने के समय चन्द्रगुप्त के रथ के ६ ग्रारों के टूटने पर चाणक्य के कथनानुसार चन्द्रगुप्त की ६ पीढ़ियों तक मौर्यवंश का राज्य रहना चाहिये 1 इससे यह प्रकट होता है कि सम्प्रति और वहद्रथ के शासनकाल के बीच की अवधि में मौर्य सत्ता के पाटलिपुत्र और उज्जयिनी इन दो पृथक स्थानों में, दो भागों में विभक्त होने तथा पुनः एक होने के कारण कहीं कुछ भ्रान्ति हो जाने के फलस्वरूप दो मौर्य राजारों का उल्लेख करने में कहीं कोई त्रटि रह गई हो। सनातन परम्परा के पुराणग्रन्थों में चन्द्रगुप्त से लेकर वृहद्रथ तक है मौर्य राजाओं का उल्लेख किया गया है। भागवत्कार का एतद्विषयक उल्लेख सर्वाधिक स्पष्ट है। भागवत्कार ने एक के पश्चात् होने वाले निम्नलिखित ६ मौर्यवंशी राजाओं के नाम दिये हैं - १. चन्द्रगुप्त, २. वारिसार, ३. अशोकवर्द्धन, ४. सुयशा, ५. संगत, ६. शालिशूक. ७. सोमशर्मा (सोमवर्मा), ८. शतधन्वा. और ६. वृहद्रथ ।' ' स एव गुप्तं वे, द्विजो राज्येऽभिपेक्ष्यति । तत्सुतो वारिसारस्तु, ततश्चाशोकवर्द्धनः ।।१३।। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पा. बलि का. राजवंश भागवतकार ने उपरोक्त ६ नाम देने के पश्चात् लिखा है - "मौर्या ह्येते दश नृपाः" ऐसा प्रतीत होता है कि विष्णुपुराण में पांचवें मौर्य राजा का नाम दशरथ दिया है, जो कि सम्प्रति के उज्जयिनी चले जाने के अनन्तर पाटलिपुत्र का अधिपति बना ! मत्स्यपुराण' में भी दशरथ के नाम सहित १० मौर्य राजाओं का उल्लेख है। संभव है उसी मान्यता को ध्यान में रखते हुए भागवतकार ने दश नाम न देकर भी १० की संख्या उल्लिखित कर दी हो। वायु पुराण में ६ मौर्य राजाओं के नाम दिये गये हैं। ... "६ पीढ़ियों तक तुम्हारा राज्य चलता रहेगा"-परिशिष्ट पर्वकार प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा चाणक्य के मुख से कहलवाये गये इस वाक्य की संगति तभी बैठती है, जबकि चन्द्रगुप्त से लेकर वृहद्रथ तक मौर्य राजाओं की संख्या ६ मानी जाय । उपरिलिखित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर, पुराणकारों द्वारा उपरोक्त कम से दी गई मौर्य राजाओं की संख्या ही उचित प्रतीत होती है। भिन्न-भिन्न ग्रन्थकारों द्वारा, इनमें से कतिपय राजाओं का नामभेद के साथ उल्लेख किया गया है, इसके पीछे यह कारण हो सकता है कि उन राजाओं को अपरनाम से भी सम्बोधित किया जाता रहा हो.। उदाहरणस्वरूप कुरणाल' और 'सम्प्रति', कम से कम ये दो नाम तो उन राजाओं के वास्तविक नाम न होकर न्यार के नाम ही हो सकते हैं। . इस प्रकार यदि आर्य बलिस्सह का वाचनाचार्यकाल वीर नि० सं० २४५ से ३२६ तक का अर्थात् ८४ वर्ष का माना जाय तो यह कहना होगा कि उनके प्राचार्यकाल में बिन्दुसार का १३ वर्ष और शेष ७ मौर्य राजाओं का ६५ वर्ष तक शासन रहा। कलिंगपति महामेघवाहन खारवेल कालिंगाधिपति महाराजा भिक्खराय खारवेल का स्थान कलिंग के इतिहास में तो अनन्यतम है ही पर जैन इतिहास में भी उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जाता रहकर अमर रहेगा। अपने राज्य की अभिवद्धि के लिये सुयशा भविता तस्य, संगतः सुयशः सुतः । शालिशूकस्ततस्तस्य, मोमशर्मा भविष्यति ।।१४।। शतधन्वा ततस्तस्य, भविता तद् वृहद्रथः । मोर्या ह्यते दश नृपाः, सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम् ।।१५।। [श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १२, प्र० १] ' इत्येते दश मौर्यास्तु, ये भोक्ष्यन्ति वसुन्धराम् । [मत्स्यपुराण, अ० २७१, श्लोक २१ से २५] २ इत्येते नव भूपा ये, भोक्ष्यन्ति च वसुन्धराम् । सप्तत्रिशच्छतं पूर्ण तेभ्यस्तु गोभविष्यति ।।१६५।। [वायुपुराण, अनुषंगपाद-समाप्ति] Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ कलि० महामेघ० खार०] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य बलिस्सह सैनिक अभियान करने वाले राजाओं की गणना नहीं की जा सकती। ऐसे उदाहरणों से विश्व के इतिहास भरे पड़े हैं। किन्तु दूसरे राज्य के शक्तिशाली राजा द्वारा किये गये अत्याचारों से संत्रस्त स्वधर्मी प्रजा के कारण के लिये युद्ध का खतरा उठाने के उदाहरण विरले ही दृष्टिगोचर होते हैं। महाराजा खारवेल ने न केवल जैनधर्म और जन संस्कृति के विकास के लिये अपना अमूल्य योगदान देकर कलिंग की कीति में अभिवृद्धि की अपितु उन्होंने मगध राज्य की जैन प्रजा और निग्रंथ श्रमणों पर पाशविक अत्याचार करने वाले मगधपति पुष्यमित्र शंग (अपरनाम बृहस्पतिमित्र) पर दो बार प्राक्रमण कर उसे दण्डित एवं पराजित किया।' विगत अनेकों सहस्राब्दियों के इतिहास में इस प्रकार का अन्य कोई उदाहरण दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे खारवेल के जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ प्रेम, अनुपम स्वधर्मीवात्सल्य, अद्भुत साहस और अप्रतिम वीरता, महानता प्रादि का स्पष्टतः परिचय प्राप्त होता है। यह बड़े प्राश्चर्य की बात है कि धार्मिक, राजनैतिक एवं ऐतिहासिक आदि सभी दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण खारवेल जैसे महान् राजा का भारतीय ग्रन्थराशि में और विशेषतः जैन साहित्य में कहीं नामोल्लेख तक नहीं है। कलिंग चक्रवर्ती खारवेल का यत्किचित परिचय हाथीगंफा के शिलालेख एवं 'हिमवन्त-स्थविरावली' नामक एक छोटी सी हस्तलिखित पुस्तिका से प्राप्त हुआ है । ___हाथिगुंफा वाला खारवेल का शिलालेख उड़िसा प्रदेशान्तर्गत भुवनेश्वर तीर्थ के निकटस्थ कुमारगिरि (खण्डगिरि अथवा उदयगिरी) की एक चौड़ी गुफा के ऊपर खुदा हुमा है। हिमवन्त स्थविरावली में कलिंगपति खारवेल के सम्बन्ध में जो उल्लेख हैं, उनसे हाथीगुंफा के शिलालेख में उपलब्ध कतिपय विवरणों की न केवल पुष्टि ही होती है अपितु शिलालेख में उटैंकित दो-तीन तथ्यों पर विशिष्ट प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के रूप में उपरोक्त शिलालेख और हिमवन्त स्थविरावली में उल्लिखित निम्नलिखित तथ्य द्रष्टव्य हैं : (१) हाथीगुंफा के शिलालेख में खारवेल के वंश का परिचय देते हुए लिखा है: - "चेतराजवसवधनेन" - अर्थात् चेत वंश का वर्धन करने वाले ने । शिलालेख के इस वाक्य के माधार पर कतिपय विद्वान् कलिंगपति खारवेल को चेदि वंश का, तो कतिपय विद्वान् चैत्रवंश का मानते हैं । (२) हिम श स्थविरावली में खारवेल को चेटवंशीय बताते हुए लिखा है कि कूरिणक के साथ युद्ध में पराजित हो वैशाली गणराज्य के अधिपति महाराज चेटक के स्वर्गगमन के पश्चात् उनका शोभनराय नामक पुत्र अपने श्वसुर कलिंग - 'देखिशारत के हापीगुफा वाले शिलालेख की पंक्ति संख्या ८ मोर १२ । [सम्पादक] Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कलिं० महामेघ० खार० पति सुलोचन के पास चला गया। सुलोचन के कोई पुत्र नहीं था अतः उसने अपने जामाता शोभनराय को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। तदनुसार सुलोचन की मृत्यु के पश्चात् शोभनराय कलिंग के सिंहासन पर बैठा। चेटक के पुत्र शोभनराय की दशवीं पीढ़ी में खारवेल हुआ। इस प्रकार खारवेल के शिलालेख में विद्यमान 'चेतराजवसवधनेन' इस संदिग्ध वाक्यांश को हिमवन्त स्थविरावली में पूर्णतः स्पष्ट कर दिया गया है। (३) हाथीगुफा के शिलालेख में जायसबालजी के वाचन के अनुसार अंगशास्त्रों के उद्धार से सम्बन्धित केवल इतना ही उल्लेख है कि - मौर्यकाल में विच्छिन्न हुए ६४ अध्याय वाले अंगसप्तिक का चौथा भाग फिर से तैयार करवाया ।' (४) हिमवन्त स्थविरावली में अंग-शास्त्रों के उद्धार के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख के साथ-साथ यह भी बताया गया है कि कुमारगिरि पर खारवेल द्वारा आयोजित उस चतुर्विध संघ के सम्मेलन में किन-किन श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं ने भाग लिया। इसमें बताया गया है कि प्रार्य बलिस्सह आदि जिनकल्पियों की तुलना करने वाले२०० श्रमणों, प्रार्यसुस्थित प्रादि ३०० स्थविरकल्पी साधुओं, प्रार्या पोइगी आदि ३०० श्रमरिगयों, भिक्षराज, सीवंद, चूर्णक, सेलक आदि ७०० श्रावकों और पुर्णमित्रा (खारवेल की अग्रमंहिषी) आदि ७०० श्राविकाओं ने कुमार गिरि पर हुए उस सम्मेलन में भाग लिया । भिक्खुराय की प्रार्थना पर उन स्थविर श्रमरणों एवं श्रमणियों ने अवशिष्ट जिनप्रवचन को सर्वसम्मत स्वरूप में भोजपत्र, ताड़पत्र वल्कल प्रादि पर लिखा और इस प्रकार वे सुधर्मा द्वारा उपदिष्ट द्वादशांगी के रक्षक बने । हाथीगुंफा वाले खारवेल के शिलालेख में ऐसे किसी निश्चित संवत् का उल्लेख नहीं किया गया है जिससे कि खारवेल. के सत्ताकाल का असंदिग्ध रूप से निर्णय किया जा सके। फिर भी उसमें कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किया गया है, जिनसे खारवेल का सत्ताकाल निश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती है। खारवेल के उपरिचर्चित हाथोगुंफा वाले शिलालेख की सातवीं पंक्ति के अंत में तथा आठवीं पंक्ति में लिखा है कि खारवेल ने अपने राज्य के पाठवें वर्ष में एक बहुत बड़ी सेना ले गोरथ गिरि को तोड़कर राजगृह नगर को घेर लिया। खारवेल की शौर्यगाथाओं के शंखनाद को सुनकर यवनराज डिमित-डिमिट्रियस ' मुरियकालवोच्छिन्नं च चोयठि अंग सतिकं तुरियं उपादयति । [खारवेल का शिलालेख] २ इह तेणं णिवेणं चोइएहिं तेहि थेरेहिं अजि- प्रसिठं जिणपवयणं दिठिवायं रिणग्गंठगणाप्रो योवं थोवं साहिइता मुज्ज लाइपत्तेसु प्रक्खरसत्रिवायोवयं .कारइत्ता भिवखुरायणियमरणोरहं पूरिता प्र वएसियदुवालसंगीरक्खमा ते संजाया । रेमवन्त स्पविरावनी] Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिं० महामेघ० खार० ) दश पूर्वघर - काल : श्रायं बलिस्सह ४८५ मथुरा का घेरा उठाकर अपने दल-बल सहित वापिस ( अपने देश की ओर ) लोट गया । १ शिलालेख की ये दोनों पंक्तियां ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं। यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि पुष्यमित्र वीर नि० सं० ३२३ में मौर्यवंश के अन्तिम राजा वृहद्रथ को मारकर मगध के राजसिंहासन पर बैठा । राज्यारोहण करते ही उसने बौद्धों और जैनों पर भयंकर अत्याचार करने प्रारम्भ किये। बौद्धों की महायान शाखा के ग्रंथ 'दिव्यावदान' में पुष्यमित्र द्वारा किये गए अत्याचारों का बड़ा ही रोमांचक विवरण दिया गया है। उसमें लिखा है : 'पुष्यमित्र ने राज्यासीन होते ही अपने मंत्रियों से पूछा कि किन कार्यों को करने से उसका नाम चिरस्थायी रह सकता है ? जब मंत्रियों ने उसे अशोक की तरह धर्मकार्य करने की सलाह दी, तो वह उसे रुचिकर नहीं लगी। एक ब्राह्मण द्वारा सुझाये गये उपाय के अनुसार उसने संघारामों, स्तूपों आदि को नष्ट करने का संकल्प किया और उसने अपने राज्य में यह घोषणा करवा दी कि जो कोई व्यक्ति उसे श्रमरण का शिर लाकर देगा उसे वह प्रत्येक शिर के बदले में १०० स्वर्णमुद्राएं देगा । २ तदनुसार पुष्यमित्र के राज्य में श्रमणों की हत्याएं की जाने लगीं । पुष्यमित्र ने स्वयं एक बड़ी सेना लेकर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक के संघारामों और बौद्ध स्तूपों को विध्वस्त कर दिया । जैन ग्रन्थों में कल्कि द्वारा जैन श्रमरणों पर किये गए अत्याचारों का जो वर्णन उपलब्ध होता है, वह वस्तुतः पुष्यमित्र द्वारा किये गए अत्याचारों का ही विवरण प्रतीत होता है । दिव्यावदान में पुष्यमित्र सम्बन्धी उल्लेखों के अध्ययन से यह अनायास ही प्रकट हो जाता है कि पुष्यमित्र को अपना नाम चिरस्थाई बनाने की बड़ी तीव्र उत्कण्ठा थी । अतः उसने मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होते ही, अपने विश्वस्त परामर्शदाताओं के परामर्शानुसार बौद्धधर्म और जैन धर्म को जड़ से उखाड़ फेंकने के दृढ़ संकल्प के साथ जैनों और बौद्धों पर घोर अत्याचार करने प्रारम्भ किये । जो अन्य धर्मावलम्बी पिछली कई शताब्दियों से राज्याश्रय से वंचित रहे, उन लोगों का निश्चित रूप से पुष्यमित्र को अपने धर्मान्धता के उस अभियान में पूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ होगा । इस अनुमान को पतंजलि व्याकरण भाष्यकार के - 'पुष्यमित्रं याजयामः', इस वाक्य से पर्याप्त बल मिलता है । इतिहासकारों ने - , खारवेल का शिलालेख, पंक्ति २ यावत् पुष्यमित्रो यावत् संघारामं भिक्षूंश्च प्रघातयन् प्रस्थितः स यावत् शाकलमनुप्राप्तः । तेनाभिहितं - यो मे श्रमरणशिरो दास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि । [ दिव्यावदान, श्रवदान २६ ] Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कलि० महामेघ० खार० पतंजलि का समय भी ईसा से २००-१७५ वर्ष पूर्व का तदनुसार वीर नि० सं० ३२७-३५२ के प्रासपास का माना है। यह समय पुष्यमित्र के राज्यकाल और बाद तक का है। तदनुसार वीर नि० सं० ३२३ में पाटलिपुत्र के राजसिंहासन को हथियाते ही पुष्यमित्र ने बौद्धों और जैनों पर अत्याचार करने प्रारम्भ किये और इसकी सूचना प्राप्त होते ही खारवेल ने (अपने राज्य के ८वें वर्ष में) वीर नि० सं० ३२४ में पुष्यमित्र पर पहला अाक्रमण किया। खारवेल ने अपने राज्य के बारहवें वर्ष में तदनुसार वीर नि० सं० ३२८ में दूसरी बार पुष्यमित्र को पराजित किया। इससे यह सिद्ध होता है कि खारवेल वीर नि० सं० ३१६ में कलिंग के राज्यसिंहासन पर बैठा। हाथीगुंफा के शिलालेख में खारवेल के राज्यकाल के १३ वर्षों का ही विवरण दिया गया है। इस पर इतिहासज्ञों का यह अनुमान है कि संभवतः १३ वर्ष राज्य करने के पश्चात् खारवेल की मृत्यू हो गई हो। इस प्रकार शिलालेख पर दिये गये विवरणों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है किवीर नि० सं० ३१६ से ३२६ तक खारवेल का सत्ताकाल सुनिश्चित रूप से रहा । हिमवन्त स्थविरावली में भी खारवेल के दिवंगत होने का समय वीर नि० सं० ३३० दिया हुआ है।' हिमवन्तस्थविरावली में उल्लेख किया गया है कि खारवेल वीर नि० सं० ३०. में कलिंग के राजसिंहासन पर प्रारूढ़ हुअा। स्थविरावलीकार का यह कपन, तथ्यों की कसौटी पर कसे जाने के अनन्तर खारवेल के हाथीगुंफा वाले हिलालेख के एतविषयक उल्लेख की तुलना में प्रामाणिक नहीं ठहरता। शिलालेख में उटैंकित इस तथ्य से कि खारवेल ने अपने राज्य के ८ वें वर्ष में पुष्यमित्र पर पहला मौर १२वें वर्ष में दूसरा अाक्रमण किया- यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि वह वीर नि० सं० ३१६ में कलिंग के राजयसिंहासन पर बैठा । पुष्यमित्र ने ३२३ में मौर्यराज्य का अन्त कर पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर बैठते ही बब बनों पर अत्याचार करना प्रारम्भ किया तो खारवेल ने उसे राह पर लाने के लिए मगध पर अपने राज्य के ८ वें वर्ष में तदनुसार वीर नि० सं० ३२४ में पहला पाक्रमण पोर वीर नि० सं० ३२८ में दूसरा आक्रमण किया, यह ऊपर बताया जा चुका है। इतिहासविदों के अनुमान के अनुसार यदि इस बात को ठीक मान लिया बाय किहाचीगुफा के शिलालेख में खारवेल के राज्य के केवल तेरह वर्षों का हो विवरण दिया हमा है, यह इस बात का द्योतक है कि उसके पश्चात् खारवेल की मृत्यु हो गई, तो उस दशा में हिमवन्त स्थविरावली में खारवेल के वीर नि० सं० ३३. में निधन को प्राप्त होने का उल्लेख करीब-करोब सही सिद्ध होता है। एखविणसासलपभावगो मिसुराय रिणवो णेगे धम्मकयारिण किच्चा सुझायोववेपो पाराबोर सोसाहित तिसय बासेसु विदकतेमु सग्गं पत्तो। [हिमवन्त स्थविरावली] Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ भिवावराय खारवेल का वंश] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य बलिस्सह तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं के साक्ष्य से यह सिद्ध होता है कि वस्तुतः खारवेल का जन्म वीर नि० सं० २६२ में, युवराजपद ३०७ में, राज्याभिषेक ३१६ में और निधन वीर नि० सं० ३२६ में हना था। भिक्खराय खारवेल का वंश कलिंगपति भिक्खुराय खारवेल के सम्बन्ध में यद्यपि हाथीगंफा के शिलालेख तथा हिमवन्त स्थविरावली में पर्याप्त उल्लेख विद्यमान हैं तथापि इस सम्बन्ध में विद्वान् अद्यावधि किसी निश्चित एवं सर्वमान्य निर्णय पर नहीं पहुंच सके हैं। अंतः खारवेल के वंश के सम्बन्ध में यहां थोड़ा प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। हिमवन्त स्थविरावली में भिक्खुराय को वैशाली गणराज्य के प्रमुख महाराजा चेटक के पुत्र शोभनराय का वंशज बताया गया है। हाथीगुफा के शिलालेख में भिक्खुराय के वंश के सम्बन्ध में दो बार उल्लेख किया गया है। अहंतों एवं सिद्धों को नमस्कार के पश्चात् इस शिलालेख का पहला शन्द ऐरेन वस्तुतः भिक्खुराय के वंश के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाल देता है। इससे दो शब्द पश्चात् ही "चेतराजवसवधनेन" यह एक और शब्द देकर लेख की पहली पंक्ति में ही खारवेल के वंश का पूर्ण परिचय दे दिया गया है। रलयोः डलयोश्चव, शषयोः वबयोस्तथा । वदन्त्येषां तु सावर्ण्यमलंकारविदो जनाः ।। इस सर्वजनसुविदित सूक्ति के अनुसार ऐलेन शब्द को उपरोक्त प्रथम पंक्ति में 'ऐरेन' लिखा गया है जिसका सीधा सा अर्थ है- चन्द्रवंशी ने । पुराण-इतिहास के विज्ञ इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि चन्द्रपुत्र बुध और इला.के संयोग से उत्पन्न हुए पुरुरवा से चन्द्रवंश की उत्पत्ति हुई। पुराणों में चन्द्रवंश को सोमवंश और ऐलवंश के नाम से भी अभिहित किया गया है। इला का पुत्र होने के कारण पुरुरवा की ऐल नाम से भी प्रसिद्धि हुई। चन्द्रवंश की प्रागे चल कर अनेक शाखा-प्रशाखएं प्रसृत हुई। पुरुरवा के प्रतापी पुत्र का नाम ययाति था। ययाति के छोटे पुत्र यदु से यादव वंश चला, आगे चल कर यादव वंश की भी अनेक शाखाएं हुई। यदु के बड़े पुत्र सहस्रजित् के एक ही पुत्र था जिसका नाम था शतजित् । शतजित् के तीसरे और सबसे छोटे पुत्र हैहय से हैहयवंशी यादव क्षत्रियों की शाखा प्रचलित हुई। महाराज चेटक इसी हैहयवंशी शाखा के चन्द्रवंशी, सोमवंशी अथवा ऐलवंशी क्षत्रिय थे। उनके पुत्र शोभनराय ने कलिंग में अपने श्वसुर के पास शरण ली और उसकी मृत्यु के पश्चात् वे कलिंगपति बने । उन शोभनराय की वंशपरम्परा में ही भिक्खुराय हुमा, इसी कारण इसे शिलालेख में ऐल लिखा गया है। 'श्रीमद्भागवत, कंघ ६, प्र. १ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भिक्वुराय खारवेल का वंश ययाति के बड़े पुत्र अनु की वंश परम्परा में आगे चल कर हुए कलिंग नामक राजकुमार के नाम पर कलिंग का राजवंश और कलिंग राज्य चला।' इस दृष्टि से शोभनराय से पहले के राजा भी चन्द्रवंशी ही थे पर वे हैहय शाखा के नहीं, अपितु कलिंग शाखा के थे । बार्हद्रथों के नाम से विख्यात चेदिवंश भी मूलतः चन्द्रवंश की ही शाखा होने के कारण क्षत्रियों की चेदि शाखा में उत्पन्न हुया प्रत्येक व्यक्ति भी 'ऐल' के विशेषण से अभिहित किया जा सकता है। वस्तुतः चन्द्रवंशी राजा ययाति के परम पितृभक्त पुत्र पुरु से जो पौरवों का वंश चला, उसी से क्षत्रियों की चेदी शाखा निकली थी। चेदि देश के अधिपति उपरिचर वसु की गणना पुरुवंश के पूर्व - पुरुषों में की गई है। वैदिक परम्परा के पुराणों तथा जैन परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में उपरिचर वसु को हरिवंश (चन्द्रवंश) का राजा बताया गया है । ___ इस प्रकार कलिंग का राजवंश, चेदि राजवंश और हैहय-क्षत्रिय चेटक का वंश-ये तीनों ही राजवंश चन्द्रवंशी माने गये हैं, अतः इन्हें सोमवंशी और ऐलवंशी तथा हरिवंशी- इन नामों से भी अभिहित किया जा सकता है। हाथीगंफा के शिलालेख में प्रयुक्त 'ऐलेन' एवं 'चेतराजवसवधनेन' इन शब्दों के आधार पर निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि खारवेल उपरोक्त तीन राजवंशों में से किस वंश के थे । हिमवन्त स्थविरावली में इस गुत्थी को सुलझाते हुए स्पष्ट कर दिया गया है कि भिक्खुराय खारवेल चन्द्रवंशी हैहय क्षत्रिय चेटक के वंशधर थे। ___ इस शिलालेख की दूसरी पंक्ति में 'वेनाभिविजयो' शब्द को देख कर कुछ विद्वानों ने उत्तानपाद के वंश में उत्पन्न वेन के साथ खारवेल का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किया है, जो निराधार होने के कारण किसी भी दशा में मान्य नहीं हो सकता। शिलालेख में प्रयुक्त 'वेनाभिविजयो' शब्द के प्रयोग से भिक्खुराय खारवेल को गरुड़ की तरह प्रबल वेग से शत्रुओं पर आक्रमण कर विजय प्राप्त करने वाला बताया गया है । खारवेल के शिलालेख का लेखनकाल हाथीगुंफा वाले खारवेल के शिलालेख के सम्बन्ध में जहां तक हमारा खयाल है प्रायः सभी विद्वानों का यही अभिमत रहा है कि यह शिलालेख स्वयं खारवेल ने अपने जीवन-काल में ही उट्ट कित करवाया था पर वास्तविकता इससे कुछ भिन्न प्रतीत होती है। इस लेख में प्रयुक्त शब्दों पर भाषाविज्ञान की दृष्टि से तथा इसमें चचित घटना पर ऐतिहासिक सन्दर्भ के साथ गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह सिद्ध ' श्रीमद्भागवत, नवम स्कन्ध, अ० ३०, श्लोक ५ २ श्रीमद्भागवत, नवम स्कन्ध, अ० २२, श्लोक ६ ३ जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भा० १, पृ० १४४, १५० Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ सारवेल के शि० का ले०] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य बलिस्सह हो जाता है कि यह शिलालेख्न खारवेल की मृत्यु के पचास वर्ष पश्चात् वीर नि० सं० ३७६, तदनुसार ई० पूर्व १४८ में लिखवाया गया। निम्नलिखित तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है : १. शिलालेख की १६वीं पंक्ति में लिखा है - "खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा पसंतो अनुभवंतो कलाणानि" इस पंक्ति में खारवेल के लिये स शब्द का प्रयोग किया गया है, जो तत् शब्द का प्रथमा विभक्ति का एक वचन का रूप है। यह सर्वजनविदित है कि भाषाविज्ञान की दृष्टि से तत् शब्द का प्रयोग देश अथवा काल से अन्तरित - दूरदर्शी व्यक्ति के लिये ही किया जाता है। भिक्खुराय के लिये यह 'स' शब्द का प्रयोग इस बात का संकेत करता है कि यह शिलालेख भिक्खुराय की विद्यमानता में अथवा जीवनकाल में नहीं लिखवाया गया। यदि यह शिलालेख भिक्खुराय के जीवनकाल में लिखवाया गया होता तो निश्चित रूप से उनके लिये 'स' के स्थान पर 'एषः' शब्द का प्रयोग किया जाता। २. शिलालेख की १६वीं पंक्ति में ऊपर 'उद्धत किये गये वाक्य से पहले निम्नलिखित वाक्य दिया हुआ है : "मुरियकाले वोछिने च चोयठिसतिकंतरिये उपादयति । इस वाक्य की संस्कृत छाया होगी- “मौर्यकाले व्युत्छिन्ने च चतुष्पष्टिअग्रशतकांतरिते उत्पादयति ।" इसका सीधा-सा अर्थ होता है - मौर्यकाल की समाप्ति के पश्चात् अर्थात् मौर्य सं० १.६४ में उट्ट कित करवाया गया है। __ जैसा कि प्रमाणपुरस्कार सिद्ध किया जा चुका है मौर्यकाल वीर नि० सं० २१५ में प्रारम्भ होकर १०८ वर्ष पश्चात् वीर नि० सं० ३२३, तदनुसार ई० पूर्व २०४ में समाप्त हो गया था। इस प्रकार मौर्य सं० १६४ अंतिम मौर्य राजा वृहद्रथ की मृत्यु के ५६ वर्ष पश्चात् वीर नि० सं० ३७६ तदनुसार ई० पूर्व १४८ में माता है। ऊपर यह बताया जा चुका है कि भिक्खुराय खारवेल का सत्ताकाल वीर नि० सं० ३१६ से ३२६ तदनुसार २११ से १९८ ई० पूर्व तक रहा। शिलालेख की १६वीं पंक्ति के उपर्युल्लिखित वाक्य को श्री के. पी. जायसवालजी ने निम्नलिखित रूप में पढ़ा है - "मुरियकालवोछिनं च चोयठि-अंग-सतिकं तुरियं उपादयति ।" उन्होंने इसका अर्थ किया है - "मौर्यकाल में नष्ट हुए ६४ अध्याय वाले "अंगसप्तिक" के चौथे भाग को संकलित करवाया। किन्तु उपरोक्त पंक्ति में वैडूर्य के स्तंभों के प्रतिस्थापित किये जाने के उल्लेख के साथ-साथ 'उपादयति' का पाठ स्पष्टतः यही प्रकट करता है कि प्रमुक समय में हाथीगुंफा के इस लेख को उत्कीर्ण करवाया गया। यदि अंगशास्त्रों अथवा अंगतुल्य किसी ग्रन्थ के उद्धार का उल्लेख इस पंक्ति के द्वारा अभिहित होता तो निश्चित रूप से स्तंभ आदि की प्रतिष्ठापना की तुलना में इस महान् कार्य को अत्यधिक महत्व दिया जाकर उल्लेख में प्राथमिकता दी जाती। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६९ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [खा० के शि० का ले० ३. खारवेल के उपरोक्त शिलालेख में एक ऐसी ऐतिहासिक घटना का उल्लेख विद्यमान है, जो खारवेल की मृत्यु के २८ वर्ष पश्चात् घटित हुई। इस शिलालेख की आठवीं पंक्ति में यूनानी आक्रामक यवनराज डिमित के दलबल सहित पलायन करने (संभवतः बैक्ट्रिया लौट जाने) का उल्लेख किया गया है । वह पंक्ति इस प्रकार है : ___....। अठमे च वसे महता सेना .... गोरथगिरि (७वीं पंक्ति) घातापयिता राजगहं उपपीड़ापयति (1) एतिनं च कंमापदान - संनादेन संवित सेन - वाहनो विपमुंचितु मधुरं अपयातो यवनराज डिमित...... (पंक्ति ८) इस पंक्ति में स्पष्ट रूप से यही दर्शाया गया है कि कलिंगपति खारवेल द्वारा राजगह पर किये गये प्रचण्ड अाक्रमण की बात सुनकर यवनपति डिमित (डिमिट्रियस) हिन्दुस्तान छोड़कर अपने देश बैक्ट्रिया की ओर लौट गया । । यूनानी आक्रान्ता डिमिट्रियस द्वारा भारत पर किये गये आक्रमण का उल्लेख पुष्यमित्र के पुरोहित एवं अग्निमित्र के राज्यकाल में भी विद्यमान व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने पाणिनी व्याकरण के सूत्र "अनद्यतने ल" के उदाहरण में "अरुणद्यवनः साकेतम्," "अरुणद्यवनो माध्यमिकाम्" - इन दो वाक्यों के द्वारा किया है। गार्गी संहिता के युगपुराण प्रकरण में पांचाल, मथुरा, पाटलिपुत्र एवं मध्यदेश पर यवन आक्रमण का उल्लेख किया गया है ।' भीषण गृह कलह के कारण उस यवन आक्रान्ता के स्वदेश लौटने का भी गार्गीसंहिता में उल्लेख किया गया है । यूनानी इतिहासकारों ने भी मिडिट्रियस के सम्बन्ध में लिखा है कि जिस समय वह भारतविजय के अपने अभियान में उलझा हुआ था, उस समय उसके प्रतिद्वन्द्वी ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया और इस सूचना के मिलते ही डिमिटियस भारत से दलबल सहित स्वदेश-बैक्ट्रिया लौट गया। गार्गीसंहिता और ग्रीक इतिहासकारों के उल्लेख एक दूसरे की पुष्टि करते हैं। यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि पुष्यमित्र का शासन ईसा पूर्व २०४ से ईसा पूर्व १७४ तक अर्थात् वीर नि० सं० ३२३ से ३५३ तक रहा। यूनानी इतिहासकार डिमिट्रियस के बैक्ट्रिया लौटने की घटना को ईसा पूर्व १७५ की मानते हैं। खारवेल का समय २११ से १९८ ईसा पूर्व का तदनुसार वीर नि० सं० ३१६ से ३२६ का रहा है। इस प्रकार डिमिट्रियस के भारत से स्वदेश लौटने की घटना खारवेल की मृत्यु के २३ वर्ष पश्चात् घटित हुई । यह एक ही तथ्य इस ' ततः साकेतमाक्राम्य, पांचालान्मथुरां तथा। यवनाः दुष्टविक्रान्ताः, प्राप्स्यन्ति कुसुमध्वजम् ।। [गार्गीसंहिता, युगपुराण प्रकरण] २ मध्यदेशे न स्थास्यन्ति, यवनाः युद्धदुर्मदाः । • प्रात्मचक्रोत्थितं घोरं, युद्धं परमदारुणम् ॥ [वही] Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खा० के शि० का ले० ] दशपूर्वर- काल : भार्य बलिस्सह ४६१ बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि हाथीगुंफा का शिलालेखं खारवेल के जीवनकाल में नहीं अपितु काफी समय पश्चात् लिखा गया है । पुष्यमित्र शुंग भिक्खुराय खारवेल द्वारा आयोजित संघ-सम्मेलन में प्रार्य बलिस्सह की उपस्थिति विषयक हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेख को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाय तो आर्य बलिस्सह के आचार्यकालं में पुष्यमित्र शुंग का भी राज्यकाल रहा । खारवेल के परिचय में यह तो बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ३२३ में अन्तिम मौर्य - राजा वृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर बैठा । पुष्यमित्र ब्राह्मण था, क्षत्रिय था अथवा किसी इतर जाति का इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रभिमत उपलब्ध होते हैं । बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में पुष्यमित्र को केवल क्षत्रिय ही नहीं अपितु प्रशीक का, वंशज बताया गया है । श्रीमद्भागवत, २ वायुपुराण, मत्स्यपुराण और हिमवन्त स्थविरावली' में पुष्यमित्र को वृहद्रथ का सेनापति बताया गया है। पर इनमें से किसी ग्रंथ में पुष्यमित्र की जाति के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया गया है । इतिहास और पुरातत्व के प्रसिद्ध विद्वान् श्री के० पी० जायसवाल ने पुष्यमित्र को ब्राह्मण जाति का बताते हुए अपनी "कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेल के शिलालेख का विवरण" - नामक पुस्तिका में लिखा है" बहसतिमित्त की रिश्तेदारी अहिच्छत्र के राजाओं से थी, जो ब्राह्मण थे, यह area - भोसा के शिलालेख से साबित है ।" पतंजलि के व्याकरण भाष्य, श्रीमद्भागवत आदि पुराणों, बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान और हिमवन्त स्थविरावली आदि में अन्तिम मौर्य राजा वृहद्रथ को मार कर मगध के सिंहासन पर आसीन होने वाले इस शुंगराज का नाम पुष्यमित्र लिखा है पर खारवेल के हाथीगुंफा वाले शिलालेख में मगधपति का ' पुण्यधर्मणः पुष्यमित्रः सोऽमात्यानामंत्रयते कः उपायः स्याद् यदस्माकं नाम चिरं तिष्ठते । तैरभिहितं देवस्य च वंशादशोको नाम्ना राजा बभूवेति, तेन चतुरशीतिधर्मराजिका सहस्र प्रतिष्ठापितं 'देवोऽपि चतुरशीतिधर्मराजिकासहस्रं प्रतिष्ठापयतु । [दिव्यावदान, अवदान २६] २ हत्वा वृहद्रथं मौर्य, तस्य सेनापतिः कलौ । पुष्यमित्रस्तु शुंगाह्वः, स्वयं राज्यं करिष्यति ।। 3 पुष्प मित्रस्तु सेनानीरुद्धृत्य स वृहद्रथम् । पुष्यमित्रस्तु सेनानीरुद्धृत्य स वृहद्रथान् । कारयिष्यति वै राज्यं, षट्त्रिंशति समा नृपः । ४ [ श्रीमद्भागवत, स्कंध १२, प्र०१] [ वायु पु०, अनुषंगपादसमाप्ति ] [ मत्स्य पु०, ० २७१] ५ तं वि सुगय धम्मारणुगं वुड्ढरहं रिगवं मारिता तस्स सेराहिवइ पुप्फमित्तो पाडलिपुत्त रज्जे ठिश्रो । [ हिमवन्त स्थविरावली अप्रकाशित ] Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पुष्यमित्र शुंग नाम वहसतिमित्त (बृहस्पति मित्र) दिया हुआ है । प्रसिद्ध पुरातत्वविद् श्री जायसवाल ने अपनी उपर्यल्लिखित पुस्तक में लिखा है- "मैंने पुष्यमित्र (जो शंग वंश के ब्राह्मण थे) और बृहस्पतिमित्र का एक होना बतलाया है। पुष्य नक्षत्र का बृहस्पति मालिक है। इस एकता को योरप के नामी ऐतिहासिकों ने मान लिया है।" हिमवन्त स्थविरावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि खारवेल ने मगधपति पुष्यमित्र को युद्ध में पराजित कर अपना प्राज्ञानुवर्ती बनाया।' इससे यह सिद्ध होता है कि पुष्यमित्र और बृहस्पतिमित्र ये दोनों नाम एक ही राजा के नाम हैं। पुष्यमित्र का ही अपर नाम बृहस्पतिमित्र था, इस तथ्य की पुष्टि पुराणों के उल्लेखों एतं प्राचीन सिक्कों से भी होती है। श्रीमद्भागवत में पुष्यमित्र के पुत्र का नाम अग्निमित्र बताया गया है, जो कि भारत का एक बड़ा ही शक्तिशाली राजा हुया है। इन दोनों पिता-पुत्र के जो सिक्के उपलब्ध हुए हैं, वे परस्पर एक दूसरे से पर्याप्त साम्यता रखते हैं। बृहस्पतिमित्र के सिक्के की तरह ठीक उसी आकार-प्रकार तथा कोटि का अग्निमित्र का भी सिक्का मिलता है । पुरातत्वविदों का अभिमत है कि अग्निमित्र के सिक्के बृहस्पतिमित्र के सिक्कों की अपेक्षा कुछ पश्चाद्वर्ती काल के हैं। पुराणों द्वारा पुष्यमित्र के पुत्र का नाम अग्निमित्र उल्लिखित किया जाना और बहसतिमित्त (बृहस्पतिमित्र) तथा अग्निमित्र के सिक्कों में पर्याप्त साम्य होना इस बात का प्रमाण है कि पुष्यमित्र का अपर नाम बृहस्पतिमित्र भी था। . __ऐसा विश्वास किया जाता है कि पुष्यमित्र का शासनकाल मगधराज्य में जैनों तथा बौद्धों के अपकर्ष का और वैदिक कर्मकाण्ड के उत्कर्ष का काल रहा । सम्भवतः कलिंगपति खारवेल की मृत्यु के पश्चात् पुष्यमित्र ने जैनों और बौद्धों के प्रति अपना कड़ा रुख और कड़ा कर लिया होगा। दक्षिण में जैन धर्म के प्रबल प्रचार-प्रसार के पीछे पुष्यमित्र का जैनों के प्रति कड़ा रुख भी प्रमुख कारण अनुमानित किया जा सकता है। संभव है पुष्यमित्र द्वारा किये गये प्रत्याचारों ने उन्हें मगध छोड़ने के लिये वाध्य किया हो और फलतः उन्होंने दक्षिण को अपना कार्य-क्षेत्र चूना हो। उपरोक्त घटनाक्रम के सन्दर्भ में विचार करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्य बलिस्सह के वाचनाचार्य-काल में जहां जैन धर्म को सम्प्रति जैसे धर्मनिष्ठ एवं परम भक्त प्रभावक राजा के राज्यकाल में प्रचार-प्रसार की पूर्ण सुविधा प्राप्त हुई, वहां पुष्यमित्र जैसे जैनों से विद्वेष रखने वाले राजा के राज्य में घोर संकटापन्न दौर में से गुजरना पड़ा। - एसो रणं भिक्खुरायो अईव परक्कमजुप्रो गयाइसेरणाकंतमहियलमंडलो मगहाहिवं पुप्फमित्तं णिवं महिणि क्खित्ता णियाणम्मि ठाइत्ता............ [हिमवन्त स्थविरावली] Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्यमित्र शुंग] दशपूर्वधर-काल : आर्य बलिस्सह ४६३ वाचनाचार्य आर्य बलिस्सह के समसामयिक युगप्रधानाचार्य आर्य गुणसुन्दर का युगप्रधानाचार्यकाल वीर नि० सं० २६१ से ३३५ तक और आर्य सुहस्ती की परम्परा के गणाचार्य प्रार्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध का गणाचार्यकाल वीर नि० सं० २६१ से ३३६ तक रहा, यह ऊपर बताया जा चुका है । आर्य बलिस्सह के वाचनाचार्यकाल में ही इन दोनों प्राचार्यों के अधिकांश आचार्यकाल का समावेश हो जाता है अतः इनके समय के राजवंशों के सम्बन्ध में पृथकतः उल्लेख करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इनके आचार्यकाल के सम्बन्ध में केवल इतना ही कहना अवशिष्ट रह जाता है कि आर्य बलिस्सह एवं कलिंगाधिपति खारवेल के दिवंगत होने के पश्चात् इन दोनों प्राचार्यों के प्राचार्यकाल में मगध के जैनधर्मावलम्बियों को जैनों के प्रबल विरोधी पुष्यमित्र के राज्यकाल में अनेकों बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। १२. प्रार्य स्वाति आचार्य बलिस्सह के पश्चात् आर्य स्वाति प्राचार्य हुए। नंदीसूत्र स्थविरावली के अनुसार प्रार्य स्वाति का जन्म हारीत गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।' आर्य बलिस्सह के त्यागपूर्ण उपदेश सुन कर आपको संसार से विरक्ति हो गई और आपने तरुण वय में संसार के सब प्रपंचों का परित्याग कर प्राचार्य श्री के चरणों में श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् आर्य स्वाति ने गुरु की सेवा में रहते हुए बड़ी निष्ठा एवं लगन के साथ क्रमशः एकादशांगी और १० पूर्यों का सम्यकरूपेण अध्ययन किया। विशेष परिचय के अभाव में आप द्वारा किये गये शासन-सेवा के कार्यों का परिचय नहीं दिया जा सकता। तपागच्छ पट्टावली में यह संभावना अभिव्यक्त की गई है कि इन्हीं आर्य स्वाति के द्वारा तत्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों की रचना की गई। परन्तु इतिहासज्ञ विद्वानों का इस विषय में मतभेद है। इतिहास लेखकों ने प्रार्य स्वाति से वाचक उमास्वाति को भिन्न माना है। उनके अनुसार उमास्वाति उच्चनागर शाखा के विद्वान् प्राचार्य माने गये हैं। इसके अतिरिक्त उमास्वाति का काल विक्रमीय तीसरी शताब्दी माना गया है। संभव है नामसाम्य के कारण पट्टावलीकार ने दोनों को एक मान लिया हो। वीर नि० सं० ३३६ (३३५) में आप स्वर्गस्थ हुए। हिमवन्त स्थविरावली प्रादि प्राचीन गिने जाने वाले ग्रन्थों में इन पार्य स्वाति के द्वारा तत्वार्थसूत्र के प्रणयन का उल्लेख नितान्त निराधार तो नहीं माना जा सकता। ऐसा अनुमान किया जाता है कि संभवतः इन आर्य स्वाति के ' हारियगोतं साइं च...... [नंदीसूत्र] २ बलिस्सहस्य शिष्यः स्वातिः तत्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव सभाव्यन्ते । [पट्टावली समुच्चय, पृ० ४६] Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [१२, आर्य स्वाति द्वारा प्राकृत भाषा में सर्वप्रथम तत्वार्थसूत्र के संक्षिप्त मूलस्वरूप का प्रणयन. किया गया हो । हिमवन्तस्थविरावली के उल्लेखों से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि प्रार्य बलिस्सह के समय से अंगविद्या के ग्रंथों के पृथकतः प्ररणयन की प्रवृत्ति का प्रारम्भ हुआ ।' ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की प्रवृत्ति तत्वजिज्ञासुत्रों में काफी लोकप्रिय रही और उनकी प्रार्थना पर अथवा स्वतः भव्यजनहितार्थ आगमों से तत्वज्ञान को उद्धृत कर सरल एवं सुबोध्य प्राकृत शैली में तत्वार्थसूत्र की रचना की हो । कालान्तर में उसी तत्वार्थसूत्र को उमास्वाति ने परिवर्द्धित कर संस्कृत भाषा में प्रस्तुत किया हो । वस्तुतः तत्वार्थसूत्र की रचना श्रार्यस्वाति ने की अथवा उमास्वाति ने यह प्रश्न पर्याप्त शोध की अपेक्षा रखता है । केवल नामसाम्य की युक्ति देकर इसे टाल देना उचित नहीं । स्वाति का आचार्यकाल कब प्रारम्भ हुआ, इस सम्बन्ध में किसी निश्चित काल का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। फिर भी आर्य बलिस्सह के परिचय में दिये गये उनके स्वर्गारोहण के अनुमानित काल के आधार पर यह खयाल किया जाता है कि वीर नि० सं० ३२६ में आर्य स्वाति वाचनाचार्य पद पर नियुक्त किये गये । इस प्रकार आर्य स्वाति का वाचनाचार्यकाल वीर नि० सं० ३२६ से ३३५ तक रहा । आपके वाचनाचार्य काल में आर्य गुरणसुन्दर युगप्रधानाचार्य और सुस्थित सुप्रतिबुद्ध गरणाचार्य रहे । १३. श्यामाचार्य ( कालकाचार्य) वाचनाचार्य नन्दी सूत्र की स्थविरावली में वाचनाचार्य स्वाति के पश्चात् उन्हीं के शिष्य आर्य श्यामाचार्य को वाचनाचार्य माना गया है । प्रभावक चरित्र तथा कालकाचार्य-प्रबन्ध में श्यामाचार्य को आचार्य गुणाकर के पश्चात् युगप्रधानाचार्य बताया गया है । यही पहले कालकाचार्य हैं । इस प्रकार आर्य श्यामाचार्य वाचकवंश और युगप्रधान - परम्परा - दोनों के आचार्य माने गये हैं । श्यामाचार्य का जन्म वीर नि० सं० २८० में हुआ । श्रापने वीर नि० सं० ३०० में २० वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की । ३५ वर्ष तक श्रमरणधर्म की साधना के पश्चात् वीर नि० सं० ३३५ में आपको वाचनाचार्य श्रौर युगप्रधान पद प्रदान किया गया । ४१ वर्ष तक वाचनाचार्य एवं युगप्रधानाचार्य पद पर रहते हुए अपने जिनशासन की महती सेवा और प्रभावना की । वीर नि० सं० ३७६ में आपने ६६ वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्गारोहण किया । श्यामाचायं अपने समय के, द्रव्यानुयोग के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्हीं श्यामाचार्य को निगोदव्याख्याता प्रथम कालकाचार्य माना गया है । इस सम्बन्ध ' बलिरसह शिष्याः स्वात्याचार्याः श्रुतसागरपारगास्तत्वार्थ सूत्राख्यं शास्त्रं विहितवन्तः । तेषां शिष्यं रायंश्यामः प्रज्ञापना प्ररूपिता । [ हिमवन्त स्थविरावली ] Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यामाचार्य दशपूर्वघर-काल : प्रार्य श्यामाचार्य में विचारश्रेणी में एक उल्लेख मिलता है - "एक समय महाविदेह क्षेत्र में सीमंधरस्वामी निगोद की व्याख्या फरमा रहे थे। उसे सुनने के पश्चात् मौधर्मेन्द्र ने सीमंधर प्रभु से प्रश्न किया - "भवगन् ! क्या भरतक्षेत्र में भी इस प्रकार निगोद का वर्णन करने वाला कोई श्रुतधर प्राचार्य आज विद्यमान है ?" __उत्तर में भगवान् ने फरमाया - "हां, भरतक्षेत्र में प्रार्य श्यामाचार्य द्रव्यानयोग के विशिष्ट ज्ञाता हैं। वे तबल से निगोद का भी यथार्थ स्वम् बता सकते हैं।" सौधर्मेन्द्र को यह सुन कर तीव्र उत्कण्ठा हुई और वह भन्तक्षेत्र में श्यामाचार्य को वन्दन करने पहुंचा। उसने प्राचार्यश्री से निगोद का स्वरूप पूछा और उनके मुख से यथार्थ स्वरूप सुनकर सौधर्मेन्द्र बड़ा प्रसन्न हुया । ग्राचार्य को वन्दन करने के पश्चात् लौटते समय सौधर्मेन्द्र ने आर्य श्याम के णियों को अपने प्रागमन से अवगत कराने के लिए चिन्हस्वरूप उपाश्रय का द्वार दूमरी दिशा की ओर मोड़ दिया।' यही श्यामाचार्य पन्नवरणा सूत्र के रचयिता भी हैं। यह सूत्र अाज भी ३६ पदों अर्थात् प्रकरणों में विद्यमान है। जीवाजोवादि समस्त पदार्थों के प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से इस शास्त्र को तत्वज्ञान का अनुपम भण्डार कहा जा सकता है। जैनदर्शन के गहन तत्वज्ञान को समझने में इस सूत्र का अध्ययन बड़ा सहायक माना गया है। प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण के पश्चात् दो वन्दनपरक गाथानों द्वारा प्रार्य श्याम को वन्दन किया गया है। टीकाकार द्वारा इन्हें अन्यकर्वक बताया गया है। वस्तुतः ये हैं भी अन्यकर्तक ही। उन गाथाओं में श्यामाचार्य की स्तुति करते हुए कहा गया है – “वाचकवंश के २३ वें धीरपुरुष, जो दुर्धर पूर्वश्रुत को धारण करने वाले हैं तथा जिन्होंने शिष्यगरण के हितार्थ अथाह श्रुतसागर से उद्धरण कर उत्तम श्रुतरत्न प्रदान किया है, उन प्रार्य श्यामाचार्य को प्रणाम हो।"२ आर्य श्याम को कालकाचार्य (प्रथम) के नाम से भी अभिहित किया जाता है। ऐतिहासिक घटनामों के पर्यवेक्षण से यह स्पष्टतः प्रकट होता है. कि पृथक-पृयक समय में कालकाचार्य नाम वाले ४ प्राचार्य हुए हैं। शेष तीनों कालकाचार्यों का परिचय यथास्थान आगे दिया जायगा। ' सिरिवीरजिरिणदानो वरिससया तिन्नि बीस (३२०) पहियायो। कालयसूरी जामो, सक्को पडियोहिरो जेण ।। [विचारश्रेणिपरिशिष्टम्] २ वायगवरवंसामो, तेवीसइमेण धीरपुरिसेरणं । दुदरघरेण मुरिणरणा, पुश्वसुयसमिदबुद्धीरणं ।।३।। सुयसागरा विणेऊरण, जेणं सुयरयरणमुत्तमं दिन्नं । सीसगणस्स भगवरो, तस्स नमो प्रज्ज सामस्स ॥४॥ [पत्रवणा, (रायनपतसिंह) पत्र ४ (१)] Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्यामाचार्य इतिहास के विशेषज्ञ मुनि कल्याणविजयजी ने भी आर्य श्याम को ही प्रथम कालकाचार्य माना है। "रत्नसंचयप्रकरण' के एतद्विषयक उल्लेख पर टिप्पण करते हुए मुनिजी ने लिखा है - "जहां तक हमने देखा है श्यामाचार्य नामक प्रथम कालकाचार्य का सत्ताकाल सर्वत्र, निर्वाण सं० २८० में जन्म, ३०० में दीक्षा, ३३५ में युगप्रधानपद और ३७६ में स्वर्गगमन लिखा है।" पनवणा सूत्र के प्रारम्भ में आर्य श्याम की स्तुतिपरक उपरोक्त दो गाथाओं में श्यामाचार्य को वाचकवंश का २३ वां पुरुष बताया गया है पर पट्टक्रमानुसार यह संख्या मेल नहीं खाती। क्योंकि आर्य सुधर्मा से आर्य श्याम पट्टपरम्परा में १३ वें प्राचार्य होते हैं। विचारश्रेणी में इस समस्या का समाधान करते हुए बताया गया है कि वाचकवंश में गणधरों को सम्मिलित कर आर्य श्याम को तेबीसवां वाचक समझना चाहिए । टीकाकार ने भी - "वाचकाः पूर्वविदः" इस पद से वाचक का अर्थ पूर्वविद् किया है। उन गाथाओं में स्तुतिकार ने गणधरों की भी वाचकों में गणना करते हुए श्यामार्य को २३ वां वाचक बताया है ।' आचार्य मेरुतुंग का यह कथन शतप्रतिशत युक्तिसंगत है । वस्तुतः गणधरों की जीवनचर्या में एक तरह से आगमवाचना देने का प्राधान्य रहता है। इस दृष्टि से यदि इन्द्रभूति आदि गणधरों को वाचक कहा जाय तो इसमें अनौचित्य के लिए कोई अवकाश नहीं रहता। इस दृष्टिकोण से पन्नवरणा के प्रारम्भ में मंगलाचरण के पश्चात् दो गाथाओं में स्तुतिकार द्वारा प्रार्य श्याम को वाचकवंश का २३ वां धीर पुरुष बताना संगत ही है। १२ वें युगप्रधानाचार्य प्रार्य श्याम वाचनाचार्य प्रार्य श्याम के परिचय में ऊपर यह बताया जा चूका है कि कि आर्य स्वाति के पश्चात् १३ वें वाचनाचार्य के पद पर तथा प्रार्य गुणसुन्दर के पश्चात् १२ वें युगप्रधानाचार्य के पद पर आर्य श्याम को नियुक्त किया गया। वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ तक इन दोनों महत्वपूर्ण पदों पर निरन्तर ४१ वर्ष तक रह कर आर्य श्याम ने शासन की महती सेवा की। प्रार्य श्याम के प्राचार्यकाल की राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिति १३ वें वाचनाचार्य तथा १२ वें युगप्रधानाचार्य - इन दोनों पदों को विभूषित करने वाले आर्य श्याम के आचार्यकाल में पुष्यमित्र ने वैदिक धर्म को राज्याश्रय दिया। इसके परिणामस्वरूप यज्ञ-यागादि वैदिक कर्मकाण्ड का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा। पुष्यमित्र ने अनुमानतः वीर नि० सं० ३३० से ३४० के बीच के किसी समय में अश्वमेध यज्ञ किया। हरिवंश पुराण में इस घटना की ओर सिद्धान्ते श्री. वीरादन्वेकादशगणभृद्भिः सह त्रयोविंशतितमः पुरुषः श्यामार्य इति प्यास्पातः। [विचारश्रेणी] Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा०श्याम राधा० स्थिति] दशपूर्वधर-काल : आर्य श्यामाचार्य ४६७ स्पष्ट संकेत किया गया है। उसमें बताया गया है कि राजा जन्मेजय द्वारा किये गये वाजिमेध की परिसमाप्ति पर कृष्ण द्वैपायन ने राजा से कहा - राजन् तुमने जो यह अश्वमेध यज्ञ किया है, इसे अब प्रलय काल तक कोई क्षत्रिय नहीं करेगा।" यह सुनकर जन्मेजय को बड़ी निराशा हुई। उसने व्यास से प्रश्न किया- "भगवन् ! भविष्य में यदि और भी कोई इस यज्ञ को करने वाला हो तो उसके सम्बन्ध में मुझे वताइये ।"२ व्यासजी ने कहा – “कलियुग में एक काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण सेनापति होगा, वही तुम्हारे पश्चात् इस यज्ञ को पुनः करेगा।" हाथीगंफा के शिलालेख पर विचार करते समय पहले यह बताया जा चुका है कि यूनानी आक्रान्ता डिमिट्रियस ने भिक्खुराय खारवेल की मृत्यु के पश्चात् पुष्यमित्र के राज्यकाल में पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर उस पर अधिकार भी कर लिया था। इससे ऐसा अनुमान किया जाता है कि डिमिट्रियस के आक्रमण से पूर्व ही पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कर लिया हो। ग्रीक इतिहासकारों के अनुसार डिमिट्रियस के - भारत छोड़कर बैक्ट्रिया लौटने का समय यदि वीर नि० सं० ३५२, तदनुसार ईसा से १७५ वर्ष पूर्व माना जाय तो पुष्यमित्र द्वारा किए गये इस यज्ञ का समय वीर नि० सं० ३४७ और उसके अनुसार ईसा पूर्व १७० के आसपास का ठहरता है। पुष्यमित्र द्वारा किये गए अश्वमेध यज्ञ के साथ ही देश में यज्ञों की एक तरह से लहर सी दौड़ गई। देश के विभिन्न भागों में छोटे-बड़े अनेक यज्ञ होने लगे । यही कारण है कि शृंगों के राज्यकाल में यत्र-तत्र अनेक यज्ञों के किए जाने के शिलालेख उपलब्ध होते हैं। यह पहले बताया जा चुका है कि आर्य बलिस्सह के वाचनाचार्यकाल में शुंगों का राज्यकाल वीर नि० सं० ३२३ में प्रारम्भ हुमा। वीर नि० सं० ३५३ में पुष्यमित्र शंग की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र शंग मगध के राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ । शुंग वंश के संस्थापक पुष्यमित्र शुंग के अतिरिक्त इस वंश के अन्य राजाओं एवं उनके राज्यकाल का जैन साहित्य में विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता। पौराणिक (हिन्दू) ग्रन्यों में शुंगवंश के राजामों एवं उनके राज्यकाल का उल्लेख निम्नलिखित रूप में उपलब्ध होता है :१. पुष्यमित्र ३६ वर्ष २. अग्निमित्र ८, ३. वसु ज्येष्ठ - त्वया वृत्तं ऋतुं चैव, वाजिमेधं परंतपः । क्षत्रिया नाहरिष्यन्ति. यावद्भूमि परिष्यति ।। [हरिवंश पु० ३।२।३५] २ यद्यस्ति पुनरावृत्तियज्ञस्याश्वासयस्व माम् । [वही] ३ भौद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी काश्यपो विजः । अश्वमेघ कलियुगे, पुनः प्रत्याहरिष्यति ।। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० श्याम रा० धा० स्थिति ४. वसुमित्र १० वर्ष ५. भद ६. पुलिन्दक ७. घोष ८. वज्रमित्र 8. भागवत १०. देवभूति शुंगवंशी पुष्यमित्र और अग्निमित्र के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मालविकाग्नि मित्र में काली सिन्धु के तट पर राजकुमार वसुमित्र शुंग का यवनों के साथ युद्ध होने का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। अनुमान किया जाता है कि वसुमित्र का यह युद्ध डिमिट्रियस के जामाता मीनाण्डर के साथ हुआ। यह पहले बताया जा चुका है कि डिमिट्रियस के प्रतिद्वन्द्वी यूक्रेडाइटीज ने डिमिट्रियस की अनुपस्थिति में उसके बैक्ट्रिया (बाल्हीक) के राज्य पर अधिकार कर लिया था। इस कारण डिमिट्रियस को अपनी सेनाओं के साथ भारत छोड़कर स्वदेश लौटना पड़ा। डिमिट्रियस बाल्हीक पहुंचा, उससे पहले ही यूक्रेटाइडीज . बाल्हीक में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर चुका था अतः डिमिट्रियस को अपने बाल्हीक के राज्य से हाथ धोना पड़ा और वह केवल गान्धार और उसके आसपास के राज्य का ही अंधिपति रह गया। वह गृहयुद्ध में मारा गया । डिमिट्रियस की मृत्यु के पश्चात् मीनाण्डर और यूक्रेटाइडीज के वंशजों ने लगभग एक शताब्दी से भी अधिक वर्षों तक पंजाब पर शासन किया। मीनाण्डर इन सभी यवन शासकों में प्रतापी माना गया है । . प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ 'मिलिन्द पह्नो' की रचना ही मिलिन्द नामक राजा द्वारा बौद्ध भिक्षु नागसेन से किये गए प्रश्नों के आधार पर की गई है। इसमें बताया गया है कि नागसेन से अपने प्रश्नों का पूर्ण सन्तोषप्रद उत्तर सुनकर राजा मिलिन्द बौद्धधर्मावलम्बी बन गया। इतिहासविदों का अभिमत है कि 'मिलिन्द पह्नों' का प्रमुख पात्र मिलिन्द वस्तुतः यवन शासक मीनाण्डर ही था। भारतीय राजवंशों की नामावलियों के पर्यवेक्षण से उस समय में मिलिन्द नामक किसी भारतीय राजा का नाम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। शंगवंशी राजाओं के राज्यकाल पर ध्यानपूर्वक दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस वंश के 8वें राजा भागवत के अतिरिक्त अन्य किसी राजा का शासन सुदृढ़ एवं शान्तिपूर्ण नहीं रहा। पांचवें से आठवें- इन चार शुंगवंशी राजाओं का राज्यकाल तो एक प्रकार से नगण्य ही रहा। शंगवंश के राज्यकाल की घटनाओं के विहंगमावलोकन से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि इस वंश के शासनकाल में पारस्परिक धार्मिक सद्भावना का केवल प्रभाव ही नहीं रहा अपितु धार्मिक असहिष्णुता अपनी चरम सीमा तक Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वघर - काल : श्रार्य श्यामाचार्य ૪૨૨ पहुंच चुकी थी । पुष्यमित्र द्वारा किया गया बौद्धभिक्षुत्रों का कत्लेग्राम इसका प्रमाण है । भ्रम का निराकररग अहिंसा के महान् सिद्धान्तों, प्राचीन भारतीय एवं विश्व इतिहास की ऐतिहासिक घटनाओं का पूरी तरह मूल्यांकन न कर पाने तथा यत्किचित् साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण कतिपय आधुनिक इतिहासकारों ने इस प्रकार की भ्रान्ति उत्पन्न करने का प्रयास किया है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म द्वारा किये गये हिंसा के व्यापक प्रचार-प्रसार के कारण विदेशियों ने भारत पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया। उनका कहना है कि विदेशियों के आक्रमण के समय मौर्यवंश का अन्तिम राजा वृहद्रथ मुण्डित हो बौद्ध भिक्षुत्रों के प्रास धर्मश्रवरण करता रहता । इसके कारण विदेशी आक्रान्ताओं को अपने भारतविजय अभियान में सफलताएं मिलीं। और इससे जनमानस में अहिंसा के प्रति क्षोभ उत्पन्न हुआ । हिंसा से ऊब कर सेना और जनता ने वृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र का साथ दिया । परिणामतः पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य की प्रजा और सेना के समक्ष अंतिम मौर्यवंशी राजा वृहद्रथ की हत्या कर दी । ऐतिहासिक घटनाक्रम के पर्यवेक्षरण से इस प्रकार का प्रचार वस्तुतः भ्रान्त और निराधार सिद्ध होता है । इतिहास और पुराण साक्षी हैं कि पुष्यमित्र ने अपनी वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये अपने स्वामी के साथ विश्वासघात कर धोखे से उसकी हत्या की । यदन श्राक्रान्ता डिमिट्रियस ने वृहद्रथ के शासनकाल में नहीं, अपितु पुष्यमित्र के शासनकाल में भारत पर आक्रमण किया । पुष्यमित्र द्वारा पहला प्रश्वमेव सम्पन्न किये जाने के पश्चात् ही डिमिट्रियस द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया गया। पाटलिपुत्र की प्राचीरों को धूलिसात् कर डिमिट्रियस ने पाटलिपुत्र में भीषण नरसंहार किया ।' उस युद्ध में पुष्यमित्र डिमिट्रियस से पराजित हुआ । गृहकलह के कारण डिमिट्रियस को अपनी विशाल वाहिनी के साथ स्वदेश लौटना पड़ा। बैक्ट्रिया के गृहयुद्ध में डिमिट्रियस अपने अनेक योद्धाओं के साथ मारा गया । अन्यथा पुष्यमित्र के शासनकाल में ही देश विदेशी प्राक्रान्ता की दासता में आ चुका होता। एक अश्वमेध यज्ञ के पश्चात् डिमिट्रियस से पराजय के कारण ही पुष्यमित्र को दूसरा अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा। उस द्वितीय प्रश्वमेध के घोड़े की रक्षा के लिये पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र को काली सिन्धु के तट पर संभवतः यवन श्राक्रान्ता मीनाण्डर से युद्ध करना पड़ा, जिसका कि उल्लेखं मालविकाग्निमित्र में उपलब्ध होता है । ऐसी स्थिति में इस प्रकार का आरोप लगाना नितान्त निराधार और तथ्यहीन है कि बौद्धों और जैनों द्वारा किये गये अहिंसा प्रचार के प्रभाव में १ यवनाः दुष्टविक्रान्ता:, प्राप्स्यति कुसुमध्वजं । ततः पुष्पपुरे प्राप्ते, कर्दमे प्रथिते हि ते ।। [ गार्गी संहिता, युगपुराण ] Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भ्रम का निराकरण राजाओं के आ जाने के कारण विदेशी आक्रान्ताओं को भारत पर आक्रमण करने का अवसर मिला। ___ भारत पर विदेशी आक्रमणों के इतिहास का निष्पक्ष दृष्टि से पर्यालोचन किया जाय तो यह स्पष्टतः प्रकट हो जायगा कि गृहकलह, धार्मिक असहिष्णुता, विशृखल शासन और विकृत आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था आदि कारणों में से ही कोई न कोई कारण विदेशी आक्रमण के मूल में रहा है । भारत पर विदेशियों के प्राक्रमण का सबसे प्राचीन उल्लेख श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि पौराणिक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि हैहयों एवं तालजंघों ने यवनों, शकों और बर्बर जाति के विदेशियों की सहायता से अयोध्या के सूर्यवंशी राजा बाहक पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। बाहक अपनी रानियों के साथ अयोध्या से निकल कर जंगलों में चला गया और वहां रहने लगा। अयोध्या के राज्यसिंहासन से सूर्यवंशी राजा को पदच्युत करने की पुराणकारों द्वारा यह सर्वप्रथम घटना बताई गई है। तदनन्तर बाहुक के पुत्र सगर ने युवावस्था में प्रवेश करते ही अयोध्या के अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार किया। अयोध्या के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ़ होते ही सगर ने हैहयों तथा तालजंघों के साथ-साथ विदेशी यवनों, शकों और बर्बरों को इतनी बुरी तरह से कुचला' कि फिर शताब्दियों ही नहीं अनेक सहस्राब्दियों तक विदेशी आततायियों ने भारत की ओर मह तक नहीं किया। तत्पश्चात् भारत पर दूसरा बड़ा विदेशी आक्रमण महाभारत के महान् संहारक युद्ध से कुछ वर्ष पूर्व काल-यवन द्वारा किया गया, जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा काल-यवन कराल काल के गाल का कवल बना दिया गया। पुराणवेत्ता इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि उक्त दोनों विदेशी आक्रमण भारत के ग्रहकलह के ही परिणामस्वरूप हुए थे। भारत पर तीसरा बड़ा विदेशी आक्रमण ईसा से ३२७ वर्ष पूर्व यूनान के महत्त्वाकांक्षी योद्धा सिकन्दर ने किया। भारत पर सिकन्दर के आक्रमण का कारण ज्ञात करने से पहले ईरान और यूनान के तात्कालिक पारस्परिक सम्बन्धों पर सरमरी तोर में दृष्टिपात करना होगा। भारतीयों की तरह ईरानी और यूनानी भी प्रार्य हैं । यूनानी लोग गणतन्त्र व्यवस्था में विश्वास करते थे। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में यूनान में अधिकांशतः नगरों के रूप में गणा राज्य थे। ईरान के विशाल साम्राज्य की 'सगरश्चक्रवासीत्, सागरो यत्सुतः कृतः । यस्तालजंघान् यवनाञ्छकान् हैहयबबंरान् ।।५।। नावधीद् गुरुवाक्येन, चक्रे विकृतवेषिणः । मुडाञ्छ्मश्रुधरान् कांश्चिन्मुक्त के शार्घ मण्डितान् ।।६।। श्रीमद्भागवत, ६ स्कंध, ८ अ०] Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम का निराकरण] दशपूर्वधर-काल : मायं श्यामाचार्य ५०१ उत्तरी सीमा पर सीथियन लोग आये दिन उत्पात एवं लूटपाट करते रहते थे। कास्पियन सागर का निकटवर्ती प्रदेश उन लोगों का शरणस्थल था, जो बड़ा ही विकट तथा अगम्य था। ईरान के तत्कालीन सम्राट डेरियस ने सीथियनों का दमन करने के लिये उनके गढ़ पर ही आक्रमण की योजना तैयार की। डेरियस की सेना ने ज्योंही केस्पियन सागर के निकटवर्ती क्षेत्र की ओर बढ़ने के लिये यूनान की सीमा में प्रवेश किया तो यूनानियों ने इसे अपनी प्रभुसत्ता पर भयंकर प्राघात मानते हुए. डेरियस की सेनाओं का प्रतिरोध किया। डेरियस की सेनाएं प्रतिरोध को कुचल कर आगे बढ़ गईं। सीथियनों ने डेरियस की सेनामों को अपनी गुरिल्ला रणनीति से बुरी तरह परेशान किया। अन्ततोगत्वा ईरान की सेनाओं को बाध्य होकर . लौटना पड़ा। डेरियस ने और उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र क्षयार्ष ने क्रमशः दो बार यूनान पर भीषण आक्रमण किये पर उन दोनों युद्धों में ईरानी सेनाओं को बड़ी भारी हानि के साथ पराजय का मुंह देखना पड़ा। इन दो बड़े युद्धों के कारण यूनानियों के मनों में ईरानियों के प्रात प्रगाढ़ शत्रुता के भाव प्रवृद्ध हो चुके थे। प्रत्येक यूनानी ईरान से प्रतिशोध लेने के लिये पातुर हो रहा था। मेसीडोनियां के शासक फिलिप ने ईरान से प्रतिशोध लेने का बीड़ा उठाया। यूनानियों ने प्रारम्भिक प्रतिरोध के पश्चात् अन्ततोगत्वा फिलिप का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। फिलिप ईरान पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर चुका था, उस समय उसकी हत्या कर दी गई। फिलिप का पुत्र सिकन्दर उसका उत्तराधिकारी बना। राज्यासीन होने के दो वर्ष पश्चात् ईसा पूर्व ३३४ में सिकन्दर ने ईरान पर प्राक्रमण कर दिया। उस समय सिकन्दर की आयु २२ वर्ष थी। ईरान के ईसस क्षेत्र में ईरानी सेनाओं ने सिकन्दर की सेना के साथ तुमुल युद्ध किया। ईरान का सम्राट डेरियस तृतीय, जो कि बड़ा ही विलासप्रिय सम्राट् था, अपनी माता तथा स्त्रियों को रणक्षेत्र में ही छोड़ कर भाग खड़ा हुआ। सिकन्दर के भाग्य ने उसका साथ दिया और ईरानियों के साथ इस प्रथम युद्ध में उसे आशातीत सफलता के साथ विजयश्री ने वरण किया। सिकन्दर ने ईसस विजय के पश्चात् मिस्र पर आक्रमण किया। मिस्री जनता ईरानियों की दीर्घकालीन दासता से मुक्त होना चाहती थी, अतः मिस्र में सिकन्दर को प्रतिरोध के स्थान पर सर्वतोमुखी स्वागत प्राप्त हुआ। मिस्र विजय से सिकन्दर की महात्वाकांक्षाएं जागृत हुईं। मिस्र के धर्माध्यक्षों ने सिकन्दर को यूनानी देवता ज्यूस का पुत्र बता कर उसे अलौकिक सम्मान से विभूषित किया। मिस्रवासियों द्वारा प्रदत्त इस सम्मान से सिकन्दर वास्तव में अपने पापको महान् देवता ज्यूस का पुत्र समझने लगा। उसने तत्काल पुनः ईरान पर आक्रमण किया। डरपोक ईरानी सम्राट् डेरियस के नेतृत्व में ईरानी सेना ने अरवेला में यूनानी सेना के साथ युद्ध किया पर ईरानियों को भीषण पराजय का मुंह देखना पड़ा । डेरियस परवेला के युद्ध में भी रणभूमि से Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भ्रम का निराकरण भाग खड़ा हुआ और उसी के एक अधिकारी द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार ईसा पूर्व ३३१ में सिकन्दर २६ वर्ष की वय में सम्पूर्ण यूनान, पूरे मिस्र और समस्त ईरान के विशाल साम्राज्य का सम्राट् बन गया। प्रतिस्वल्प काल में ही प्राप्त हुई इतनी बड़ी सफलताओं ने सिकन्दर के मन में विश्वविजय की. भावना को बड़े प्रबल वेग से जागत किया। उसने अपने सेनापतियों के समक्ष भारत पर आक्रमण करने की अपनी योजना रखी। जिनजिन लोगों ने भारत पर आक्रमण करने का विरोध किया उन्हें चुन-चुन कर सिकन्दर ने मौत के घाट उतार दिया। अन्ततोगत्वा ईसा पूर्व ३२७ में सिकन्दर ने महज विश्वविजय की अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये भारत पर आक्रमण कर दिया। . ___ यद्यपि शशि गुप्त और तक्षशिला के शासक प्रांभी जैसे घर के भेदी देशद्रोहियों का सिकन्दर को पूर्ण सहयोग प्राप्त था और भारत का उत्तरी सीमान्त प्रदेश छोटे-छोटे गणराज्यों में विभक्तं था तथापि देश की आन-बान की रक्षा के लिये हंस-हंस कर प्राण देने वाले रणबांकुरे प्रश्वकों, प्रश्वाहकों, गौरों, गान्धारपति-हस्ति, केकयराज पुरू, ग्लुचकायनों, कठों, आद्रिजों आदि ते प्राणपण से पग-पग पर सिकन्दर की सेनाओं के साथ क्रमशः बड़े ही लोमहर्षक युद्ध किये। भारत के उत्तरी सीमान्त के उन छोटे-छोटे गणराज्यों और राजाओं में संगठन के एक सूत्र में बंधे न होने के कारण अन्ततोगत्वा यद्यपि सिकन्दर की विशाल सेना के साथ युद्ध में पराजय का मुख देखा, पर इनके भीषण प्रहारों से सिकन्दर की सेना को बड़ी भारी क्षति उठानी पड़ी। यूनानियों के हौसले पस्त हो गये। सिकन्दर के सेनापतियों एवं सेनाओं ने स्पष्ट शब्दों में आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। इससे सिकन्दर की विश्वविजय की महत्वाकांक्षा मिट्टी में मिल गई। उसके हृदय पर इससे ऐसा आघात पहुँचो कि वह कई दिनों तक अपने शिविर में तम्बू से बाहर तक नहीं निकला। यह पहले बताया जा चुका है कि भारतीयों के भीषण प्रतिरोध, अपनी सेनामों के आगे बढ़ने से इन्कार करने तथा अपने विजित क्षेत्रों में विद्रोह की भीषण आग भड़क उठने के कारण सिकन्दर को स्वदेश लौटने के लिये बाध्य होना पड़ा। स्वदेश लौटते समय रावी के तटों पर बसे मालवों ने सिकन्दर की सेनाओं के साथ बड़ा भीषण युद्ध किया। मालवों के साथ युद्ध करते समय सिकन्दर के सीने में एक गहरा घाव लगा.। इसी घाव के कारण ईरान पहुँचने पर ईसापूर्व ३२४ में केवल ३२ वर्ष की युवावस्था में ही सिकन्दर संसार से चल बसा। भारत पर किये गये अपने दुस्साहसपूर्ण अाक्रमण के प्रतिफल रूप में सिकन्दर को धन-जन-क्षय और अपनी मौत के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। भीषण नरसंहारक तुमूल युद्धों के उपरान्त भी सिकन्दर को वृहत्तर भारत का केवल थोड़ा सा पश्चिमोत्तरी भाग ही हाथ लगा और वह भी सिकन्दर के ईरान की ओर मुंह करते ही पुनः पूर्ण स्वतन्त्र हो गया.। छोटे-छोटे गणतन्त्रों और Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम का निराकरण] दशपूर्वपर-काल : प्रायं श्यामाचार्य छोटे-छोटे राजारों के राज्यों को पृथक्-पृथक् और प्रसंगठित सेनानी ने मिस्र, ईरान और यूनान के सुविशाल साम्राज्य के स्वामी सिकन्दर की सेनामों को नाकों चने चबवा दिये। यदि वे छोटे-छोटे राज्यों की सेनाएं सम्मिलित रूप से सिकन्दर के साथ युद्ध करती तो क्या परिणाम होता, इसका रणनीतिविशारद सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। ___ भारत पर किये गये उपरिचर्चित तीनों प्राक्रमणों के कारणों के सम्बन्ध में विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पहले दो आक्रमण भारत के गृहकलह के कारण हुए और तीसरे भाक्रमण का मूल कारण था एक अहम्मानी प्राक्रान्ता की महज महत्वाकांक्षा। इन तीनों में से एक भी माक्रमरण ऐसा नहीं, जिसके लिये कहा जा सके कि वह अहिंसा के सिद्धान्तों का पालन करने के फल स्वरूप अथवा अहिंसा के पुजारी किसी राजा की अहिंसाप्रधान नीति के परिणाम स्वरूप हुआ हो। भारत के प्राद्योपान्त इतिहास का सिंहावलोकन करने से यही तथ्य प्रकट होता है कि जब तक भारत में अहिंसा के महान् सिद्धान्तों का प्राधान्य, प्राबल्य अथवा प्रभुत्व रहा तब तक सम्पूर्ण देश में सहअस्तित्व, समानता, सौहार्द सहिष्णुता और सर्वतोमुखी सद्भावना का साम्राज्य रहा। अहिंसा के प्राधारभूतमूलभूत इन सहअस्तित्व आदि मानवीय गुणों का जब तक भारतीयों के जीवन में प्राचुर्य रहा तब तक भारत समृद्ध-सम्पन्न, सशक्त एवं समुन्नत बना रहा। अहिंसा के अनन्य उपासक शिशुनागवंशी उदायी, नन्दीवर्द्धन, मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक एवं सम्प्रति के शासनकाल में किसी विदेशी शक्ति को भारत की पोर मांख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था। देश धन-धान्य से सम्पन्न और देशवासी सब तरह से सुखी थे। नगरों का प्रबन्ध नगरपरिषदों, एवं ग्रामों का प्रबन्ध ग्राम-सभामों के माध्यम से किया जाता था। उद्योगधन्धों को संस्थापित कर समुन्नत बनाना, क्रय-विक्रय पर नियन्त्रण, मतिथियों का स्वागतसत्कार के पश्चात् प्रतिथिगृहों में ठहराने का प्रबन्ध करना, जन-चिकित्सा और पशुचिकित्सा का समुचित प्रबन्ध करना, कर एकत्रित करता प्रादि जनहित के सभी कार्य समुचित रूप से नगरपरिषदों और ग्रामसभामों की देखरेख में सम्पन्न किये जाते थे। कृषि उन्नति के लिये राज्य की मोर से विशिष्ट प्रबन्ध किये जाते थे। सिंचाई की यथासंभव पूरे देश में समुचित व्यवस्था की जाती थी। कृषि कार्यों को उत्तरोत्तर समुन्नत बनाने तथा बांधों के निर्माण के लिये एक परिषद का निर्माण किया जाता था। नई सड़कों के निर्माण, पुरानी सड़कों के सुधार एवं मार्गों में यात्रियों की सुरक्षा की देख-रेख आदि कार्य एक विभाग किया करता था। देश की सुरक्षा के लिये नवीनतम शस्त्रास्त्रों से लैस-तैस सशक्त एवं विशाल सेना सदा सन्नद्ध रखी जाती थी। सेना की देख-रेसका कार्य एक समरपरिसद सम्हालती थी। पदातिसेना, अश्वारोही सेना, रथ-सेना, हस्ति-सेना और नौसेना Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भ्रम का निराकरण सेना के इन पांचों विभागों की देखरेख, समुन्नति एवं अभिवृद्धि के लिये सामरिक परिषद द्वारा पृथक्-पृथक् एक-एक समिति नियुक्त की जाती थी। सामरिक परिषद द्वारा नियुक्त एक पांच सदस्यीय समिति सेना के लिये आवश्यक साजसामान, नवीनतम शस्त्रास्त्रों के निर्माण प्रादि की व्यवस्था करती थी। ___ कोई प्राभ्यन्तरिक अथवा बाहरी शत्रु देश की प्रभुसत्ता अथवा सुरक्षा पर किसी भी प्रकार का आघात पहुँचाने का प्रयास करता तो उसे तत्काल संन्य-शक्ति के माध्यम से सदा के लिये कुचल दिया जाता। ___इसी प्रकार असामाजिक तत्वों के लिये, अपराधियों के लिये कड़े से कड़े दण्ड की व्यवस्था थी। कठोर दण्ड व्यवस्था के कारण कोई अपराध करने का दुस्साहस ही नहीं करता था। यह भी एक कारण था कि उस समय अपराधों की संख्या नगण्य थी। उच्च शिक्षा के साथ-साथ सदाचार की शिक्षा का भी उस समय में समुचित प्रबन्ध किया जाता था। अपराधी मनोवृत्ति के उन्मूलन में सदाचार की शिक्षा का भी बहुत बड़ा महत्वपूर्ण योगदान माना गया है। ___मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में यूनानी राजदूत मैगस्थनीज बहुत वर्षों तक भारत में राजदूत रहा। उसने भारत विषयक अपने संस्मरणों में लिखा है- "भारतीय सम्राट चन्द्रगुप्त का शासन बहुत ही सुसंगठित और सुदृढ़ है। सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना में ६ लाख पैदल सेना, ३० हजार अश्वारोही, ६ हजार हाथी और हजारों रथ सदा सन्नद्ध रहते हैं।" ___ चीनी यात्री हुएनत्सांग और फाहियान ने अपने यात्रा विवरणों में तत्कालीन भारत की समृद्धि, राज्य व्यवस्था, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाविषयक आंखों देखे हाल का चित्रण करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि प्रजा पूर्णतः सम्पन्न और सुखी है, लोग अपने घरों तथा हीरे, जवाहरात, स्वर्ण एवं चांदी आदि की दुकानों पर भी ताले नहीं लगाते । राज्य की ओर से लम्बी-चौड़ी सड़कों के आसपास धर्मशालाओं, अतिथिगृहों, प्रपाओं तथा यात्रियों के लिए सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं एवं सुरक्षा की समुचित व्यवस्था है। भारत के लोग सुखी सम्पन्न और खुशहाल हैं। वे अतिथिसत्कार को अपना पुनीत कर्त्तव्य मानते हैं। ___ तत्कालीन भारत के सम्बन्ध में विदेशियों द्वारा लिखे गये विवरणों, राजाओं द्वारा उत्कीर्ण करवाये गए शिलालेखों तथा प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध उल्लेखों से यह प्रकट होता है कि राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध बड़ा ही सौहार्दपूर्ण था। राजा प्रजा की सुख-सुविधा एवं सुरक्षा हेतु समुचित प्रबन्ध करना अपना परम पवित्र कर्त्तव्य मानता था। प्रजा भी शासन को सदा अपने लिए हितकर मानकर राजाज्ञामों का अक्षरशः पालन करती थी। राजा और प्रजा के बीच प्रेम पूर्ण व्यवहार के कारण शासन स्वचालित यन्त्र की तरह सुचारु रूप से चलता था, न कि सैन्य बल के सहारे । यद्यपि शक्तिशाली सुविशाल सेनाएं सदा सन्नद्ध रखी जाती थीं पर उनका विदेशी आक्रान्ताओं को कुचल डालने एवं आभ्यांतरिक शत्रुओं के दमन के लिए ही उपयोग किया जाता था। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम का निराकरण] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य श्यामाचार्य राजा अपनी प्रजा के सुख में ही अपना सुख मानता था ।' अशोक द्वारा शिलाओं पर खुदवाये गये निम्नलिखित अभिलेख का एक-एक अक्षर इस तथ्य की साक्षी देता है : मेरा यह कर्तव्य है कि शिक्षा के प्रसार द्वारा मै प्रजाजनों का उपकार करूं । निरन्तर चलने वाले उद्योग एवं न्याय का समुचित प्रबन्ध ये सर्वसाधारण के हित की आधारशिलाएं हैं- इनसे बढ़कर फलप्रद अन्य और कुछ भी नहीं है। मेरे सभी प्रयासों-प्रयत्नों का मूल उद्देश्य यही है कि मैं सभी लोगों के ऋण से उऋण हो जाऊं। जहां तक मुझसे सम्भव है, मैं सर्वसाधारण को सुखी बनाने के लिए प्रयत्न करता रहता है । मेरी यह प्रान्तरिक अभिलाषा है कि सब लोग भविष्य में भी स्वर्गीय सुख प्राप्त करें, मेरे पुत्र, पौत्रादि भावी पीढ़ियां भी सर्व साधारण को सुख पहुंचाने में सदा निरत रहें। मैंने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लिपि उत्कीर्ण करवाई है।" कितना ऊंचा आदर्श रहा है अहिंसा के उपासक राजाओं का ? इस प्रकार का प्रादर्श खोजने पर भी संसार के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलेगा। अहिंसा और जैन धर्म के महान सिद्धान्तों से परिचित न होने के कारण अनेक विद्वानों को यह विदित नहीं है कि वस्तुतः अपराधियों, प्रातताइयों, अंसामाजिक तत्त्वों और आक्रान्तानों को समुचित दण्ड देने में अहिंसा के सिद्धान्त कहीं किसी प्रकार की कोई बाधा उपस्थित नहीं करते। इस प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में विश्वधर्म-जैनधर्म के प्रादि-संस्थापक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने जिस समय सर्वप्रथम राज्य-व्यवस्था, सामाजिक-व्यवस्थाएवं अर्थ-व्यवस्था की नींव डाली, उसी समय उन्होंने देश और समाज में अशान्ति तथा अव्यवस्था फैलाने का प्रयास करने वाले असामाजिक तत्वों, आतताइयों एवं अपराधियों के दमन के लिये जनहितायसमष्टिहिताय कठोर दण्डनीति की व्यवस्था की। उस दण्ड-व्यवस्था में अपराधियों के अंगछेदन तक की व्यवस्था थी। भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित उस कठोर दण्ड-व्यवस्था का जनहित में औचित्य बताते हुए प्राचीन आचार्य भद्रेश्वर सूरि ने अपने "कहावली" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जिस प्रकार भयंकर विषधर अथवा आग की भट्टी की ओर बार-बार मना करने पर भी बढ़ते हुए प्रबोध बालक को उसका पिता बालक के हित की दृष्टि से रस्सी से एक स्थान पर बांध देता है, घसीटता अथवा ताड़न-तर्जन करता है, उसी प्रकार समष्टि के हित की दृष्टि से अपराधियों की अपराध करने की प्रवृत्ति के उन्मूलन हेतु भगवान् ऋषभदेव ने कठोर दण्डव्यवस्था की।' . ........"बीस पुबलक्खोवरि राया जामो ति । न य एवं उस्सुत्तं, चडियपाडणे वि बबहारथियो भगवमो तुलहारिव्य दोसो। महवा एगो गोवालगो कीलंतो सप्पहरतसं गयो । तत्थ य तं दसिउकामो सप्पो पुणो पुणो हेल्लाउ देतो बालगपिउणा कहवि दिट्ठो। तपो तुरियमागंतूण तेण मणिपो बालगो-पुत्तगा एहि एहि मा सप्पेणेत्य रसिजसि । सो पगालं तूपावणेणं सप्पाभिमुहं चेव वच्चंत दळूण तस्सेव हियकरणत्यं पायाइस Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भ्रम का निराकरण ... इससे यह निर्विवाद रूपेण सिद्ध होता है कि अहिंसा के महान सिद्धान्तों में शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये अपराधियों तथा अातताइयों को समुचित दण्ड देने का पूरा प्रावधान युगादि से ही रखा गया है । ___ यही नहीं संसार को सुशासन देने के लिये समय-समय पर हुए बारह चक्रवतियों ने विशाल वाहिनियों के साथ दिग्विजय की। उनमें शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीन चक्रवर्ती क्रमशः सोलहवें,सत्रहवें और अठारहवें तीर्थंकर हुए हैं। ऐसी स्थिति में यदि कोई विद्वान वास्तविकता की ओर से दृष्टि घुमाकर तथा इन ज्वलंत ऐतिहासिक तथ्यों को नजरन्दाज करके यह कहने की हठधर्मिता करते हैं कि अहिंसा के प्रचार-प्रसार के कारण राजतन्त्र अथवा राजालोग शिथिल एवं शक्तिहीन बने और देश फलतः विदेशी आक्रमरणों का शिकार बना, तो यह उनका केवल साम्प्रदायिक व्यामोहमात्र है - उनके इस कथन में कहीं कोई किंचित्मात्र भी तथ्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि अहिंसा के परमोपासक राजाओं का जब तक देश पर आधिपत्य रहा, तब तक देश सुसंपन्न सशक्त, स्वर्गोपम सौख्यशाली और समुन्नत रहा । अहिंसा के परमोपासक मौर्य सम्राट अशोक को विदेशियों और संसार के प्रायः सभी विचारकों ने संसार का सर्वश्रेष्ठ शासक एवं उसके शासन को विश्व का सर्वोत्कृष्ट सुशासन माना है। इतिहास साक्षी है कि ज्यों-ज्यों राष्ट्र, राजतन्त्र और राजाओं की अहिंसा के महान् सिद्धान्तों के प्रति आस्था कम होती गई, त्यों-त्यों असहिष्णुता, असमानता, आपसी कलह आदि की अभिवृद्धि होती गई । आपसी-कलह - फूट, वर्ग-विद्वेषआदि हिंसा की संततियां ही देश की दासता का प्रमुख कारण बनीं, इस तथ्य से कोई विचारक इन्कार नहीं कर सकता। प्रार्य इन्द्रदिन्न - गणाचार्य आर्य सुहस्ती की परम्परा में आर्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ३३६ में कौशिक गोत्रीय आर्य इन्द्रदिन्न गणाचार्य नियुक्त किये गए। आर्य इन्द्रदिन्न के सम्बन्ध में इसके अतिरिक्त और कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। आपके गणाचार्य काल में आपके गुरुभाई आर्य प्रियग्रन्थ बड़े ही प्रभावक श्रमण बताये गए हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रार्य प्रियग्रंथ आर्य प्रियग्रन्थ जैन साहित्य में मन्त्रवादी प्रभावक के रूप में विख्यात रहे हैं। यों तो मन्त्रवाद का जैनजगत में कोई महत्व नहीं माना गया है। साधुओं के घेत्त रण कडिनो पिउणा "जहा य बालस्स धम्मनित्यर हल्लागाइ पीडासंभवे वि परिणामसुंदरतणयो कड्ढेतस्स पिउणो न दोसो दिवो" तहा भगवमो पयाए, परिणाम सुंदर योवदोसनिग्गहाइ दंडं कुणमाणस्स न ताण बंपे कोवि दोसो प्रत्थीति ।। [कहावली - भद्रेश्वरमूरि - प्रकाणित] Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य प्रियग्रंथ] दशपूर्वघर-काल : प्रार्य श्यामाचार्य ५०७ लिए इसे सदा हेय बताया गया है, पर संस्कृति-संघर्ष के युग में वादविवाद आदि में प्रतिपक्ष को लोगों की निगाहों से गिरा अपने पक्ष की विजय से जनमत को प्रभावित करने एवं स्वपक्षप्रताप परिवृद्ध्यर्थ इस प्रकार के प्रयत्नों को अपनाया भी गया है। वैयक्तिक स्वार्थसिद्धि के लिए तो मन्त्र-तन्त्र और औषधि आदि का प्रयोग जैन साधु के लिए सर्वथा निषिद्ध माना गया है, पर शासन हित तथा संघ के कल्याणार्थ प्रभावकों, प्राचार्यों को कभी-कभी इस प्रकार के कार्य भी करने पड़ते थे, जो प्रत्यक्षत: अथवा लौकिक दृष्टि से जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रतिकूल दृष्टिगोचर हो सकते थे। स्व० मुनि कान्तिसागरजी ने प्रियग्रन्थ सूरि का परिचय निम्न रूप में दिया है : "एक समय प्रियग्रंथ मुनिराज विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हए अजमेर के समीप हर्षपूर पहँचे । हर्षपुर में ब्राह्मणों और श्रमणोपासकों के परिवार पर्याप्त संख्या में थे। मगधपति पुष्यमित्र शुंग द्वारा किये गए दो अश्वमेध यज्ञों के कारण देश में एक बार पुनः यज्ञ-यागादि की लहर दौड़ चुकी थी। हर्षपुर के ब्राह्मण वैदिक क्रियाकाण्ड के प्रति इतने अनुरक्त थे कि वे लोग खूले ग्राम पशुओं की बलि देने में भी संकोच का अनुभव नहीं करते थे : तदनुसार ब्राह्मणों ने बड़े समारोह के साथ एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया । उस यज्ञ में बलि के लिए एक हृष्ट-पुष्ट बकरा खूटे से बांध दिया गया। श्रमणोपासकों ने आर्य प्रियग्रंथ के समक्ष पूरी स्थिति रखी। बताया जाता है कि हिंसक यज्ञों की प्रवृत्ति को रोकने एवं शासन की प्रभावना को दृष्टिगत रखते हए प्रिय ग्रन्थसूरि ने एक अभिमन्त्रित चूर्ण श्रावकों को देकर उसे बलि के बकरे पर डाल देने के लिए कहा । श्रावकों ने येनकेन प्रकारेण वह चूर्ण बकरे पर डाल दिया। वासक्षेप के प्रभाव से बकरा मनुष्य की बोली में कहने लगा :- "प्राप लोग मुझे अग्नि में झौंकने जा रहे हो । यदि मैं आप लोगों के समान निर्दयी बन जाऊं तो आप सबको तत्काल समाप्त कर सकता है । पर मेरा अन्तर्मन मुझे ऐसा करने के लिए साक्षी नहीं देता, क्योंकि मेरे हृदय में दया का निवास है। हनमानजी ने रावण की नगरी, लंका में जो ताण्डव नृत्य किया था, उससे भी अधिक भीषण दशा मैं तुम लोगों की कर सकता हूं।' बकरे के मुंह से इस प्रकार की बात सुन कर इस तरह की अभूतपूर्व घटना से मव ब्राह्मण भयविह्वल और आश्चर्यान्वित हो गये। किमी तरह माहम बटोर कर उनमें से एक ब्राह्मण बोला :-- "तुम कौन हो? तुम्हारा स्वरूप क्या है ?' बकरे ने उत्तर दिया - "मैं अग्नि हं, छाग मेरा वाहन है। आप मेरी यनि दकर किस धर्म की साधना करना चाहते हो? क्या स्वर्ग की प्राप्ति अथवा इन्द्रासन के लिए पशुबलि करना उचित है ? इस प्रकार का अधर्म किसी Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग प्रायं प्रियग्रंथ भी दशा में धर्म नहीं कहा जा सकता। यदि तुम लोग वास्तविक धर्म का स्वरूप समःना चाहते हो तो यज्ञ में की जाने वाली हिंसा को बन्द करो और यहां तुम्हारे नगर में विराजित पार्य प्रियग्रंथ मुनि की सेवा में उपस्थित हो उनसे आत्मकल्याण का प्रशस्त पथ समझो।"" इस प्रकार कल्पसुबोधिका नामक ग्रंथ में बताया गया है कि प्रार्य प्रियग्रंथ ने संघ के कल्याण और जैन संस्कृति के प्रताप को बढ़ाने के लिए मन्त्रविद्या का सहारा लिया और वहां के अनेक ब्राह्मणों को प्रबुद्ध किया। १४. प्रार्य षांडिल्य - वाचनाचार्य श्यामाचार्य के पश्चात् कौशिक गोत्रीय आर्य षांडिल्य वाचनाचार्य हुए। इनको स्कंदिलाचार्य भी कहा जाता है। प्राचार्य देववाचक (देवद्धि क्षमाश्रमण) ने - "वंदे कोसियगोत्तं सांडिल्लं अज्जजीयधरं।" - इस पद से कौशिक गोत्रीय षांडिल्य को बन्दन किया है। गाथा में प्रयुक्त पद - अज्जजीयधरं" - से प्रकट होता है कि प्राचार्य षांडिल्य जीतव्यवहार के प्रति अधिक निष्ठावान् थे। तपागच्छ पट्टावली में इन्हें 'जीतमर्यादा'नामक शास्त्र का रचनाकार बताया गया है । किन्तु हिमवन्त स्थविरावली में इससे भिन्न प्रकार का उल्लेख मिलता है। उसमें बताया गया है कि आपके एक शिष्य का नाम गार्य जीत था, इस कारण आपको आर्य जीतधर कहा गया है। केवल आर्य जीत नामक शिष्य के कारण ही आपको आर्य जीतधर कहा गया ही, यह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। हो सकता हैं कि आपके शिष्य का नाम आर्य जीत हो किन्तु यहां 'जीतधर' शब्द से जीत हनिष्यत नु मां हुत्यः, बध्नीतायात मा हन । युष्मद्वनिर्दयः स्यां चेत्, तदा हन्मि क्षरणेन वः ।। यत्कृतं रक्षसां दंगे कुपितेन हतूमता ।। तत्करोम्येव वः स्वस्थः, कृपा चेन्नान्तरा भवेत् ।। यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुधातकाः ।। यो दद्यात् कांचनं मेरु, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्या-न च तुल्यं युधिष्ठिर ।। महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् । भीताभयदानस्य, क्षय एव न विद्यते ।। इत्यादि ।। कस्त्वं प्रकाशयात्मानं, तेनोक्त पावकोऽस्म्यहम् । ममैनं वाहनं कस्मा-ज्जिघांसय पशु वृथा ।। इहास्ति श्री प्रियग्रंथः सूरीन्द्रः समुपागतः । त पृच्छत शुमं धर्म, समाचरत शुद्धितः ।। पषा नक्री नरेन्द्रा, घानुष्कारणां धनंजयः । तथा धुरि स्थितः साघुः, स एकः सत्यवादिनाम् !! कल्पसुबोघिका, २ अधि०, ८ क्षण] २ तेषां षांडिल्याचार्याणां प्रायं जीतधरार्यसमुद्राख्यो द्वौ शिष्यावभूताम् । [हिमवन्त स्थविरावली] Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ प्रार्य षांडिल्य] दशपूर्वधर-काल : आर्य षांडिल्य कल्प जैसे शास्त्र को धारण करने वाले अथवा जीतव्यवहार का सम्यकरूपेण पालन करने वाले- इस प्रकार का अर्थ मानना विशेष संगत प्रतीत होता है। सम्भव है स्थविरावलीकार ने 'प्रज्जजीयधर' को एक पद मान कर इसे संज्ञावाचक माना हो पर विचारपूर्वक देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि "प्रज्ज" शब्द "सांडिल्ल" का विशेषण है और छान्दसत्वात् "प्रज्जं" के स्थान पर “अज्ज" रखा गया है। इतिहास के विशेषज्ञ इस पर विशेष प्रकाश डालें। "प्रभावक चरित्र" में उपलब्ध उल्लेख से ऐसा अनमान किया जाता है कि प्राचार्य वृद्धवादी इन्हीं आर्य षांडिल्य के शिष्य थे। आचार्य षांडिल्य से 'षांडिल्य गच्छ' निकला जो आगे चलकर 'चन्द्रगच्छ' में सम्मिलित हो गया। आर्य षांडिल्य का जन्म वीर नि० सं० ३०६ में हमा। २२ वर्ष की आयु में आपने भागवती दीक्षा ग्रहण की। आप ४८ वर्ष तक सामान्य साधु-पर्याय में रहे। तदनन्तर वीर नि० सं० ३७६ में आपको वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य - ये दोनों पद प्रदान किये गए। २८ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहते हुए जिनशासन की सेवा कर आपने १०८ वर्ष की आयु पूर्ण कर वीर नि० सं० ४१४ में स्वर्गारोहण किया। युगप्रधानाचार्य - यह बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ३७६ से ४१४ तक आर्य षांडिल्य वाचनाचार्य पद के साथ-साथ युगप्रधानाचार्य पद पर भी रहे। तदनुसार आप वाचकवंश परम्परा के १४ वें आचार्य और युगप्रधानाचार्य परंपरा के १३ वें प्राचार्य रहे। आपके जीवन का इससे अधिक विशिष्ट परिचय उपलब्ध नहीं होता। प्रार्य दिन - गणाचार्य आर्य सुहस्ती की परम्परा में आर्य इन्द्रदिन के पश्चात् आर्य दिन गणाचार्य हुए। आप गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। आपका जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं होता। १५. प्रार्य समुद्र -- वाचनाचार्य आर्य संडिल्ल के पश्चात् आर्य समुद्र वीर नि० सं० ४१४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए। प्राचार्य देववाचक ने नन्दी-स्थविरावली में - "तिसमूहखायकित्ति" - इस पद से यह बतलाया है कि वे आसमुद्र कीत्ति वाले थे। आगे के पदों में उनकी ज्ञानगरिमा का गुणगान करते हुए देववाचक ने कहा है - "दीवसमुद्देसु गहिय - पेयालं' – अर्थात् द्वीपों एवं समुद्रों के विषय में आप तलस्पर्शी ज्ञाता थे। यद्यपि स्पष्ट रूप से प्रार्य समुद्र के श्रुताराधन का परिचय नहीं मिलता, तथापि देववाचक द्वारा प्रापके लिये प्रयुक्त किये गये प्रशंसात्मक विशेषणों से यह सहज ही निर्णय किया जा सकता है कि आप क्षेत्र विभाग (द्वीप-समुद्र) के Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [प्रायं समुद्र वा० विशिष्ट ज्ञाता थे और श्रापका उपदेश सर्वप्रिय होने के साथ ही परम प्रभावकारी भी था । "त्रिसमुद्रख्यात कीति" इस विशेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रापका. विचरण सुदूरवर्ती प्रदेशों में भी रहा, अन्यथा सम्पूर्ण देश में आपकी इस प्रकार . की ख्याति नहीं हो पाती । ५१० संभवतः आर्य समुद्र तत्वज्ञान के अतिरिक्त मुख्य रूपेण भूगोल के विशेषज्ञ थे । आपके लिये देववाचक द्वारा प्रयुक्त "अक्खुब्भियसमुद्दगंभीर"" पद इस बात का द्योतक है कि विविध शास्त्रों के विशिष्ट ज्ञाता एवं प्रकाण्ड पण्डित होने पर भी आप में समुद्रवत् गाम्भीर्य का अद्भुत गुण विद्यमान था । प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आपका मन किंचित्मात्र भी क्षब्ध नहीं होता था । आपकी विद्वत्ता का दूसरा प्रबल प्रमाण यह भी है कि आर्य मंगु जैसे विविध विद्याओं के ज्ञाता मुनि आप ही के शिष्य थे । लगभग ४० वर्ष तक श्राचार्य पद पर विराजमान रह कर वीर-शासन की सेवा करने के पश्चात् प्रापने वीर नि० सं० ४५४ में स्वर्गारोहण किया । वृद्ध परम्परा के प्राधार पर ऐसा कहा जाता है कि अपनी आयु के अन्तिम वर्षो में आर्य समुद्र का जंघाबल क्षीण हो गया था और वे विहार करने में श्रसमर्थ हो गये थे । ऐसी स्थिति में संभव है कि कुछ काल के स्थिरवास में ही उनका प्राणोत्सर्ग हुआ हो । 1 आर्य समुद्र के प्राचार्यकाल के अन्तिम समय में आर्य कालकाचार्य नामक एक महान् प्रभावक आचार्य हुए। उनका परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है :कालकाचार्य (द्वितीय) प्रथम कालकाचार्य से लगभग एक शताब्दी पश्चात् वीर निर्वाण की पांचवीं शताब्दी में द्वितीय कालकाचार्य हुए। उत्तराध्ययन टीका, वृहत्कल्पभाष्य, निशीथचूरिंग आदि के आधार पर उनका परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है : धारावास के राजा वैरसिंह और रानी सुरसुन्दरी के पुत्र का नाम कालक और पुत्री का नाम सरस्वती था। राजकुमारी सरस्वती नाम के अनुसार रूप और गुणों में भी सरस्वती के समान थी । दोनों भाई-बहिन में इतना प्रगाढ़ स्नेह था कि वे दोनों प्रायः साथ-साथ ही रहा करते थे। किसी समय राजकुमार कालक अपनी बहिन सरस्वती के साथ अश्वारूढ़ हो घूमने निकला । नगर के बाहर एक उद्यान में उस समय एक जैन मुनि धर्मोपदेश दे रहे थे । कालक और सरस्वती ने भी उनका उपदेश सुना और उन्हें संसार से विरक्ति हो गई । " नंदीसूत्र स्थविरावली, गा० २६ २. जंघाबल परिक्षीणानामुदधिनाम्नामायं समुद्राणामपराक्रमं मरणमभूदिति वृद्धप्रसिद्धिः । [ आचारांग वृत्ति, १ श्रु०, ८ प्र०, १० ] Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वर- काल : प्रायं समुद्र ५११ कालकाचार्य (द्वितीय) ] माता-पिता की अनुमति से कालक और सरस्वती ने गुणाकर मुनि के पास जैन श्रमण दीक्षा स्वीकार कर ली ।' आर्य कालक ने अल्प समय में ही गुरु के पास शास्त्राभ्यास कर वीर नि०सं० ४५३ में प्राचार्य पद प्राप्त किया । कालकाचार्य अपने समय के एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् थे पर कहा जाता है कि उनके द्वारा दीक्षित शिष्य उनके पास अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाते थे । इसे अपने मुहूर्तज्ञान की त्रुटि समझ कर उन्होंने विशिष्ट मुहूर्तज्ञान के लिये प्राजीवकों के पास निमित्त ज्ञान का अध्ययन किया । 3 इस प्रकार प्राचार्य कालक जैनागमों के अतिरिक्त ज्योतिष और निमित्तविद्या के भी विशिष्ट ज्ञाता बन गये । किसी समय आर्य कालक अपने श्रमण संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। नगर के बाहर उद्यान में आर्य कालक के दर्शन के लिये अन्य श्रमणियों के साथ आई हुई साध्वी सरस्वती को राजा गर्दभिल्ल ने मार्ग में देखा । उसके अनुपम रूप लावण्य पर मुग्ध हो कर गर्दभिल्ल ने अपने राजपुरुषों द्वारा साध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण करवा उसे अपने अन्तःपुर में पहुंचा दिया । गर्दभिल्ल के इस घोर अनाचारपूर्ण पाप का पता चलते ही आर्य कालक श्रौर उज्जयिनी के संघ ने गर्दभिल्ल को समझाने का यथाशक्य पूरा प्रयास किया किन्तु उस कामान्ध ने साध्वी सरस्वती को उन्हें नहीं लौटाया। इससे क्रुद्ध होकर प्राचार्य कालक ने गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने की प्रतिज्ञा की । भावी संकट से गर्दभिल्ल कहीं सतर्क न हो जाय, इस दृष्टि से दूरदर्शी प्राचार्य कालक कुछ दिनों तक विक्षिप्त की तरह उज्जयिनी के राजमार्गों एवं चौराहों पर - "गर्दभिल्ल राजा है तो क्या ? उसका अन्तःपुर रम्य है तो क्या ? मैं भिक्षार्थ इधर-उधर घूमता हूँ तो क्या, यदि मैं शून्य देवल में रहता हूँ तो क्या ?" इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप करते हुए घूमते रहे । जब उन्होंने देखा कि गर्द भिल्ल को उनके विक्षिप्त होने का पूरा विश्वास हो गया है, तो वे उज्जयिनी से निकल पड़े । उस समय भरौंच में राजा बलमित्र और भानुमित्र नामक बन्धुद्वय का राज्य था, जो साध्वी सरस्वती और प्रार्य कालक के भागिनेय थे। आर्य कालक अच्छी तरह जानते थे कि गर्दभिल्लं जैसे शक्तिशाली राजा को पराजित करने के लिए .१ गुणाकरसूरि के पास श्रार्य कालक के दीक्षित होने का उल्लेख प्रथम कालकाचार्य आर्य श्याम की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि गुरणाकरसूरि का समय वीर नि० सं० २९१ से ३३५ तक रहा है । [सम्पादक ] * एवं वीर निर्वाण वर्ष ४५३ । प्रस्मिश्च वर्षे गर्दभिल्ल कोच्छेदकस्य श्री कालकाचार्यस्य सूरिपदप्रतिष्ठाभूत् । [विचारश्रेणी] • एसिउं पढिउं सो न नाम्रो मुहुत्तो जत्थ पब्वाविप्रो थिरो होज्जा । तेण निव्वेएण भाजीबगारण समासे निमित्तं पठियं । " [ पंचकल्पचूरिंग, पत्र २४ ] Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ कालकाचार्य (द्वितीय) इस प्रकार के छोटे राज्य की शक्ति अपर्याप्त है और अन्य कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं है, जो गर्दभिल्ल से युद्धभूमि में टक्कर ले सके । अतः उन्होंने अपनी बहन को मुक्त करवाने तथा गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने के लिए अपने भानजे बलमित्र - भानुमित्र के अतिरिक्त शकों की भी सहायता प्राप्त की । आर्य कालक ने अपनी बहिन को मुक्त करवाने के लिए शकों की भी सहायता प्राप्त की, इस सम्बन्ध में प्रायः सभी लेखक एकमत हैं । किन्तु शक लोग देश के बाहर से लाये गये, अथवा देश में ही विद्यमान युद्धोपजीवी अन्य जातियों एवं शकों को साथ लेकर युद्ध जीता गया, इस सम्बन्ध में ऐतिहासिकों का मतैक्य नहीं है । अधिकांश लेखक आर्य कालक. द्वारा विदेश से शकों का लाया जाना और उनकी सैनिक सहायता से गर्द भिल्ल को राज्यच्युत करना मानते हैं । इसके विपरीत कुछ इतिहासज्ञों ने गहन अनुसन्धान के पश्चात् यह प्रभिमत अभिव्यक्त किया है कि आर्य कालक के समय में सिन्ध प्रान्त में शकों का राज्य था। आर्य कालक उज्जयिनी से सीधे सिन्ध प्रदेश में गये और वहां के शकों को उज्जयिनी पर प्राक्रमरण करने के लिए सहमत किया । तदनन्तर शकों और बलमित्र - भानुमित्र की सेना ने एक साथ उज्जयिनी पर आक्रमण कर गर्दभिल्ल को पराजित किया तथा साध्वी सरस्वती को मुक्त करवाया । प्राचीन ग्रन्थ निशीथचूरिंग में कालक के फारस देश में जाने का नहीं अपितु 'पारिसकुल' जाने का तथा वहां के शकराज को अपने निमित्तज्ञान से प्रभावित कर अपना सहायक बनाने का उल्लेख किया गया है। फारस में शकों के साम्राज्य की समाप्ति के पश्चात् वहां के शाह द्वारा चलाये गये शकविरोधी अभियान के कारण जो शक लोग सिन्ध प्रदेश में आकर रहने लगे थे, संभवतः निशीथचूरिंगकार उन्हीं शकों के लिए पारिस्कुल' शब्द का प्रयोग किया हो। उज्जयिनी से प्रार्य कालक का फारस जैसे सुदूरवर्ती एवं अपरिचित देश में जाना, वहां के शकों का विश्वास प्राप्त करना तथा उन्हें भारत जैसे विशाल देश पर आक्रमण करने के लिए सहमत करना, ये सब कार्य बड़े कष्टसाध्य, समयसाध्य एवं संशयास्पद प्रतीत होते हैं । ऐसी स्थिति में आर्य कालक द्वारा उस समय सिन्ध प्रदेश में शासन करने वाले शकों की सहायता प्राप्त करने तथा बलमित्र भानुमित्र एवं शकों की संगठित सैन्यशक्ति से गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने की बात अधिक संगत प्रतीत होती है। जो भी हो इतना तो निश्चित है कि श्रार्य कालक जैसे समर्थ आचार्य ने विवश होकर अन्याय का प्रतिकार तथा दुष्ट का दमन करने के लिए ही अन्य कोई उपाय न होने के कारण युद्ध का सहारा लिया। अपनी सती-साध्वी बहिन के सतीत्व एवं सम्मान की रक्षा के लिए सैन्य शक्ति एकत्रित कर आर्य कालक ने गर्दभिल्ल को उसके अनाचारपूर्ण निकृष्ट दुष्कृत्य का जो दण्ड दिया, उसमें राष्ट्र के विघटन की स्वल्पमात्र भी गंध नहीं हो सकती । यदि आर्य कालक के अन्तर में देश के विघटन की किञ्चित्मात्र भी भावना होती तो वे शकों की सेना के साथ बलमित्र भानुमत्र की सेना को नहीं लेते । इतिहास साक्षी है कि शकों के साथ उज्जयिनी Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्य (द्वितीय)] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य समुद्र की ओर बढ़ते हुए आर्य कालक ने मार्ग में भरौंच के राजा - अपने भानजे बलमित्र-भानुमित्र को भी साथ लिया और बलमित्र तथा शकों की संयुक्त सेनाओं ने उज्जयिनी पर प्रबल वेग से आक्रमण किया।' भीषण युद्ध के पश्चात उज्जयिनी की सेना बुरी तरह परास्त हई। गर्दभिल्ल की विद्या को निरर्थक कर दिया गया और उसको बन्दी बनाकर साध्वी सरस्वती को छुड़ा लिया गया। जिस शकराज के यहां आर्य कालक ठहरे थे, उसे उज्जयिनी के राज्य-सिंहासन पर बैठाया गया। उससे शक वंश प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार वीर निर्वाण संवत् ४६६ में उज्जयिनी पर कुछ काल के लिए शकों का शासन स्थापित हुआ। आर्य कालक के निर्देशानुसार गर्दभिल्ल को बन्दीगृह से छोड़ दिया गया। . प्रायं कालक ने संघ रक्षार्थ किये गये इस महा प्रारम्भजन्य पाप की समुचित प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धी की और अपनी बहिन सरस्वती को भी पुनः दीक्षित कर संयम मार्ग में स्थापित किया। तप संयम की साधना करते हुए प्राचार्य कालक पुनः जिनशासन की सेवा में निरत हो गये। आपने सुदूर प्रदेशों में विचरण कर । (क) ......"ताहे जे गद्दहिल्लेनावमारिणया लाडरायाणो मष्णे य ते मिलिउं सम्वेहिं पि रोहिया उज्जेणी। [कहावली, २, २८५] (ख) निशीपचूरिण, १० उ०, भा० ३, पृ० ५६ निशीथचरिण, भा० ३, पृ. ५६ के उल्लेखानुसार गर्दभिल्ल ने गर्दभी विद्या की साधना कर रक्खी थी। उस विद्या के बल से वह अपने पापको अपराजेय समझता था। किसी भी शत्रु के आक्रमण की सूचना पाकर वह गर्दभी को एक उच्चतम अट्टालिका पर स्थापित कर स्वयं अष्टम तप पूर्वक उस विद्या की साधना करता। विद्या के सिद्ध होते ही गर्दभी बड़े उच्च स्वर में रेंकती। गर्दभी का प्रखर स्वर शत्रुनों का जो भी सैनिक अथवा हस्ती, अश्व प्रादि पशु सुनता, वही तत्काल मुंह से रक्त-वमन करता हुआ निश्चेष्ट हो पृथ्वी पर गिर पड़ता। आर्य कालक इस गुप्त रहस्य से परिचित थे अतः उन्होंने १०८ शब्दवेषी धनुर्धर योदामों को पहले से ही सनद रखा और गर्दभिल्ल द्वारा सिह की हुई गर्दभी ने बोलने के लिए ज्यों ही अपना मुंह खोला त्यों ही उन योताओं ने बाणों से उसका मुह भर दिया। परिणामतः गर्दभिल्ल की विद्या का प्रभाव नष्ट हो गया। -सम्पादक 3 (क) कालगज्जो समल्लीणो सो तत्य राया अधिवो। राया ठवितो, ताहे सगवंसो उप्पण्यो । - [निशीषणि, १० उ०]. (ख) सूरी जप्पासि ठिमो, पासी सो वंतिसामियो सेसा। ___तस्सेवगा य जाया, तमो पउत्तो म सगवंसो॥ [कालकाचार्य कथा, गा० ८०] एरिसे वि महारंभे कारणे विधीए सुदो प्रजयणा पच्चत्तियं, पुण करेति पच्छित्त। _ [निशीषण, उ• १०, भा० ३, पृ. ६०] ५. (क) भगिरिण पुणरवि संजमे ठविया..... [निशीयरिण, उ० १., भाग ३, पृ. ६०] (ख) भिल्ल निगृह्य सरस्वती मुमोच, मूलम्वेवेन शोधयित्वा पुनः श्रामण्ये स्थापयत् । [अभियान राजेन, भा० ३, पृ. ४६०] Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ कालकाचार्य (द्वितीय) जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और अनेक भव्य जीवों का उद्धार किया । आपका शिष्य परिवार इतना विशाल था कि वह भारत और भारत से बाहर के विभिन्न प्रदेशों में विचरण कर अगणित भव्य जनों को सद्धर्म का अनुयायी बनाने लगा । इधर शक राजाओं के पारस्परिक वैमनस्य के कारण उज्जयिनी में शकों का राज्य शनैः शनैः शक्तिविहीन होने लगा । चार वर्ष' भी नहीं हो पाये थे कि विक्रमादित्य ने एक प्रबल सेना ले कर वीर निर्वाण संवत् ४७० में उज्जयिनी के शक-राज पर भयंकर आक्रमण किया और युद्ध में शकों को पराजित कर उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर अधिकार कर लिया । जैन वाङ्मय में अनेक ऐसे पुष्ट प्रमारण विद्यमान हैं, जिनसे निर्विवादरूपेण यह सिद्ध होता है कि विक्रमादित्य ने वीर नि० सं० ४७० में शकों को परास्त कर उज्जयिनी के राजसिंहासन पर अधिकार किया और उसी वर्ष से विक्रम संवत् प्रचलित हुआ । इस प्रकार के प्रवल प्रमारणों की विद्यमानता में भी गह प्रश्न आज तक एक अनबूझ पहेली के रूप में विद्वानों के समक्ष उपस्थित है कि विक्रम संवत् विक्रम के राज्यारोहण के समय से प्रारम्भ हुआ अथवा उसकी मृत्यु पश्चात् | जैन वाङ्मय में ही उपलब्ध एक-दो उल्लेखों ने इस प्रश्न को और भी जटिल रूप प्रदान कर दिया है, जिनमें यह बताया गया है कि विक्रमादित्य ने उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर आसीन होने के १७ वर्ष अथवा १३ वर्ष पश्चात् संवत्सर प्रचलित किया । के विक्रमादित्य के वीर नि० सं० ४७० में राज्यासीन होने का सीधा और स्पष्ट उल्लेख 'विचारश्रेणी' की एक गाथा में दृष्टिगोचर होता है, जो इस प्रकार है : विक्कमरज्जारंभा, परप्रो, सिरिवीरनिव्वुई भणिया । सुन- मुणिवेय ( ४७०) जुतो, विक्कमकालाउ जिरणकालो || अर्थात् भगवान् महावीर के निर्वाण दिन से ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम का राज्य प्रारम्भ हुआ । विक्रमादित्य ने विक्रम संवत् उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ़ होते ही प्रचलित किया अथवा कालान्तर में - इस प्रकार के प्रश्न के उत्पन्न होने के पीछे भी एक कारण है । वह यह है कि दशाश्रुतस्कन्ध चूरिंग की एक गाथा में, गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य के वीर नि० सं० ४५३ में होने का उल्लेख किया गया है ।" उस गाथा में दिये हुए संवत् के श्राधार पर साध्वी सरस्वती के अपहरणकर्त्ता गर्दभिल्ल का शकों द्वारा उच्छेद किया जाना ४५३ में और विक्रमादित्य द्वारा शकों का उन्मूलन एवं उज्जयिनी के सिंहासन पर आरूढ़ होना [विचारश्रेणी (मेरुतु ग ) ] १ . ..." सग्गस्स चउ"... २ तह गद्द भिल्लरज्जस्स छेत्रगो कालगांयरियो होही । तेवन्नचउसएहि ( ४५३) गुरणसयकलियो पहाजुत्तो ॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्य (द्वितीय)] दशपूर्व घर काल : प्रार्य समुद्र ५१५ ४५७ में मान लिया गया। यह पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ४५३ में प्रार्य कालक को प्राचार्य पद प्रदान किया गया था । वीर नि० सं० ४५७ और ४७० के बीच सम्भवतः तालमेल बैठाने के लिए निम्नलिखित गाथा का उपयोग किया गया, जो कि विचारश्रेणी में उल्लिखित है : विक्कम रज्जारणंतर सतरसवासेहिं वच्छरपवित्ती उज्जयिनी के राज्य पर आसीन होने के १७ वर्ष पश्चात् विक्रम द्वारा विक्रम संवत्सर प्रचलित किये जाने की बात भी कालगणना को दृष्टि से ठीक नहीं बैठती । यदि वीर नि० सं० ४५७ में राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के १७ वर्ष पश्चात् विक्रम द्वारा संवत्सर प्रचलित करने की बात मानी जाय तो विक्रम द्वारा संवत्सर प्रवर्तन का काल भगवान् महावीर के निर्वारण के ४७० वर्ष पश्चात् नहीं अपितु ४७४ वर्ष पश्चात् का ठहरता है । इस वैषम्य को हल करने वाली एक अन्य गाथा विचारश्रेणी के परिशिष्ट में मुनि जिनविजयजी ने दी है विक्कम रज्जारणंतर तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती । -: इस गाथा में बताया गया है कि विक्रम ने सिंहासनारूढ़ होने के १३ वर्ष पश्चात् संवत् चलाया । इसके अतिरिक्त वीर नि० सं० ४७० से पहले वीर नि० सं० ४५७ अथवा अन्य किसी समय में शकों को पराजित कर विक्रम द्वारा उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर अधिकार करने की मान्यता का जन्म सम्भवतः उपरोक्त दो प्राचीन गाथानों और चतुर्थी के दिन पर्युषण पर्वाराधन प्रारम्भ किये जाने विषयक निशीथचूरिंग के उल्लेख के आधार पर हुआ है । निशीथचूरिंग में यह उल्लेख विद्यमान है कि प्रार्य कालक शक राज्य की समाप्ति के पश्चात् उज्जयिनी गये । उस समय उनके भानजे बलमित्र और भानुमित्र उज्जयिनी राज्य के स्वामी थे । उज्जयिनी में अनुकूल प्रथवा प्रतिकूल परीषह उपस्थित किये जाने पर कालक ने उज्जयिनी से प्रतिष्ठानपुर की भोर विहार कर दिया। प्रतिष्ठानपुर में पहुँचने पर वहां के राजा सातवाहन की प्रार्थना पर आर्य कालक ने परम्परागत पंचमी के स्थान पर चतुर्थी के दिन पर्यावरण पर्वाराधन किया । ऐसा प्रतीत होता है कि निशीथ चूरिंग के इस प्रकार के उल्लेख की पुष्टि हेतु ही उपर्युल्लिखित दोनों गाथाओं में से किसी एक की रचना की गई हो । . ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में समीचीनतया पर्यालोचन से गर्दभिल्ल तथा शकों के पश्चात् बलमित्र - भानुमित्र द्वारा उज्जयिनी पर अधिकार किया जाना किसी भी दशा में प्रमाणित नहीं होता । श्रार्य कालक के भागिनेय बलमित्र भानुमित्र उस समय में भृगुकच्छ (भड़ोंच) के राजा थे और उनका राज्य, शकों का उज्जयिनी पर से विक्रम द्वारा प्राधिपत्य समाप्त किये जाने के पश्चात् भी भडोंच तक ही सीमित रहा । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कालकाचार्य (द्वितीय) वर्तमान में जो वीर नि० सं०, विक्रम सं० और शक सं० प्रचलित हैं, वे पूर्ण प्रामाणिक होने के साथ-साथ परस्पर एक-दूसरे से पूरी तरह तालमेल रखते हैं। इन तीनों ही संवतों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने में सबसे अधिक सहायक एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण यदि कोई उल्लेख है, तो वह विचारश्रेणी का निम्नलिखित उल्लेख है : ज रणि कालगो अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयरिणमवंतिवई अहिसित्तो पालो राया ।। सट्ठी पालगरण्णो, पणवनसयं तु होइ नंदाणं । अट्ठसयं मुरियाणं, तीसंचिय पूसमित्तस ।। बलमित्त भानुमित्ताण सट्ठि वरिसारिण चत्त नहवहरण। तह गद्दभिल्लरज्जं, तेरस वासे सगस्स चउ ।। इन गाथामों के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण को प्राप्त होने के पश्चात निम्नलिखित राजाओं का उनके नाम के आगे उल्लिखित वर्षों तक राज्य रहा : ६० वर्ष नन्दवंश १५५ ॥ मौर्यवंश पुष्यमित्र बलमित्र-भानुमित्र नभोवाहन गर्दभिल्ल पालक १०८ ॥ ६० ४० पूर्ण योग ४७० वर्ष इसके पश्चात् 'विचारश्रेणी' में निम्नलिखित उल्लेख किया गया है : तदनु विक्रमादित्यः धर्मादित्यः भाइल्लः नाइल्लः नाहहः उभयं (ऊपर के ४७० और ये १३५) तदनु शाकसंवत्सरप्रवृत्तिः । उक्तच - श्रीवीरनिर्वृतेर्वषः षड्भिः पत्रोत्तरः शतैः । शाक संवत्सरस्यैषा, प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्य (द्वितीय) ] दशपूर्वर- काल : आर्य समुद्र ५१७ इसकी पुष्टि 'तिलोयपण्णत्ती,' 'त्रिलोकसार' आदि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों द्वारा भी की गई है । " उपरोक्त उल्लेखों से यह निर्विवादरूपेण सिद्ध हो जाता है कि वीर नि० सं० ४६६ में गर्दभिल्ल को राज्यच्युत कर उज्जयिनी राज्य पर अधिकार करने वाले शकों को विक्रमादित्य ने वीर नि० सं० ४७० में पराजित किया । इसी वर्ष प्रर्थात् वीर नि० सं० ४७० में उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर श्रारूढ़ होते ही विक्रमादित्य ने अपने नाम का संवत्सर प्रवृत्त किया । यह सम्भव है कि विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित किया गया यह संवत्सर प्रारंभ में उज्जयिनी राज्य तक ही सीमित रहा हो और शकों को भारत के सम्पूर्ण भूभाग से बाहर खदेड़ने तथा भारत के अनेक पड़ोसी राज्यों को अपने शासन के अन्तर्गत ला वृहत्तर भारत का निर्माण करने के पश्चात् उसने पूर्वप्रचालित संवत्सर ही विधिवत् अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में मान्य करने की घोषणा की हो। इस प्रकार की घोषणा का काल वीर नि० सं० ४७० से १७ अथवा १३ वर्ष पश्चात् का हो सकता है, न कि संवत्सर - प्रवर्तन का । डिमिट्रियस मीनाण्डर, यूक्रेडा इटीज और अन्य शकों द्वारा भारत के अनेक भागों पर किये गये श्राधिपत्य को हटाने में विक्रम को १३ अथवा १७ वर्ष अवश्य ही लगे होंगे। हमारे अनुमान से उपरोक्त दोनों गाथाएं विक्रम द्वारा की गई इस प्रकार की उद्घोषरणा की मोर ही संकेत करती हैं । ऐसी स्थिति में एक प्रकार से निश्चित रूपेण यह कहा जा सकता है कि निशीथचूरिकार को, बलमित्र भानुमित्र का भडोंच के स्थान पर उज्जयिनी में राज्य होने का और वहां स तन्निमित्त से प्रायं कालक के विहार का उल्लेख करने प्रवश्य कोई भ्रांति हुई हो । पंचमी के स्थान पर चतुर्थी का पर्वाराधन प्रार्य कालक ने पंचमी के बदले चतुर्थी को पर्यावरण पर्व का प्राराधन प्रचलित किया इस घटना का विवरण देते हुए निशीथचूर्णी में निम्न प्रकार से उल्लेख किया गया है : -- "अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए प्रार्य कालक उज्जयिनी ( भडोंच) पधारे. और वहां वर्षावास किया। उस समय वहां बलमित्र का राज्य था और उनके अनुज भानुमित्र युवराज थे । बलमित्र - भानुमित्र की एक बहिन थी जिसका नाम भानुश्री था । भानुश्री का पुत्र बलभानु प्रकृति से बड़ा ही सरल एवं विनीत था और साधुनों के प्रति " जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ. ५४५ कारणिया चउत्थी प्रज्ज कालगायरिएण पवत्तिया । [निशीयचूर्णी, भा० ३ १० १३१] [ कालकाचार्य कथा ] 3 बलमित्त भाणुमित्ता, प्रासि भवंतीइ रायजुवराया | निय भाणिज्जति तया, तत्य गम्रो कालगायरियो ।। ६४ ।। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ५१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चतुर्थी का पर्वाराधन प्रगाढ़ निष्ठा तथा भक्ति रखता था । संयोगवश कालकाचार्य का उपदेश सुन कर वह प्रतिबुद्ध एवं संसार से विरक्त हो उन्हीं के पास दीक्षित हो गया। इसके फलस्वरूप बलमित्र और भानुमित्र ने रुष्ट होकर कालकाचार्य को वर्षाकाल में ही उज्जयिनी ( भडोंच) से विहार करने के लिये बाध्य किया । प्रशासन की ओर से उत्पन्न की गई प्रतिकूल परिस्थिति में प्राचार्य कालक ने अपने शिष्य-समूह सहित उज्जयिनी (भडोंच) से प्रतिष्ठानपुर की भोर विहार किया । । प्राचार्य के प्रति उनकी प्रति प्रबल ईर्ष्या उत्पन्न वर्षाकाल में विहार करने जैसी प्रतिकूल विकट परिस्थिति का अन्य प्राचार्य एक दूसरा ही कारण बताते हैं। उनका कहना है कि आचार्य कालक के भागिनेय होने के कारण बलमित्र - भानुमित्र अपने मातुल प्राचार्य के प्रति प्रान्तरिक श्रद्धाभक्ति रखते और उनका अत्यधिक श्रादर-सम्मान करते थे निस्सीम श्रद्धा देख कर पुरोहित के मन में प्राचार्यश्री के हुई और वह राजा तथा युवराज के सम्मुख बार-बार यह कह कर कि - ये वेदबाह्य हैं, पाषंडी हैं, उनकी निन्दा करता रहता था । धार्मिक असहिष्णुता से प्रेरित हो पुरोहित ने एक दिन बलमित्र - भानुमित्र के समक्ष आचार्य कालक के साथ सैद्धान्तिक चर्चा प्रारम्भ की। आचार्य ने प्रश्नोत्तर में पुरोहित को निरुत्तर श्रीर हतप्रभ कर दिया । अपनी इस पराजय से पुरोहित के अन्तर में प्राचार्य के प्रति विद्वेषाग्नि भड़क उठी । पुरोहित ने उपयुक्त अवसर देख कर राजा को श्राचार्य Saree के प्रति भड़काते हुए कहा - "राजन् ! ये ऋषि बड़े प्रतापी, पुण्यात्मा और महान तपस्वी हैं । जिस मार्ग से ये जाते हैं, उस मार्ग से किसी राजपुरुष को नहीं चलना चाहिये । उस मार्ग से चलने पर उनके चरणचिन्हों पर पैर गिरना संभव है । गुरु चरणों पर पैर गिरने से राज्य में दैवी प्रकोप आदि के रूप में प्रशिव व्याप्त हो सकता है । अतः राज्यहित और जनहित में इन्हें यहां से विदा कर देना ही श्रेयस्कर है ! ". इस प्रकार कारणान्तर से चातुर्मासावधि में ही आचार्य कालक ने वहां से प्रतिष्ठानपुर की ओर विहार कर दिया और प्रतिष्ठानपुर के श्रमणसंघ को संदेश पहुँचाया कि वे पर्यूषण पर्वाराधन से पूर्व ही प्रतिष्ठानपुर पहुंच रहे हैं अतः पर्वाराधन सम्बन्धी आवश्यक कार्यक्रम उनके वहां पहुंचने के पश्चात् निश्चित किया जाय । प्रतिष्ठानपुर का राजा सातवाहन जैनधर्मावलम्बी और परम श्रद्धालु श्रमणोपासक था । वह वहां के संघ, राजन्यवर्ग, भृत्यगरण, परिजन एवं प्रतिष्ठित पौरजनों सहित स्वागतार्थं प्राचार्यश्री के सम्मुख पहुँचा और बड़े ही आदर-सत्कार एवं उल्लास के साथ कालकाचार्य का नगर प्रवेश हुआ । नगर में पहुँचने के पश्चात् ग्रार्य कालकाचार्य ने संघ के समक्ष कहा कि भाद्रपद शुक्ला पंचमी को सामूहिक रूप से पर्यूषण पर्वाराधन किया जाय । श्रमणोपासक संघ ने आचार्य के इस निर्देश को स्वीकार किया परन्तु उसी समय राजा सातवाहन ने कहा - "भगवन्! पंचमी के दिन लोकपरम्परानुसार मुझे इन्द्र Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ चतुर्थी का पर्वाराधन] दशपूर्वघर-काल : मार्य समुद्र महोत्सव में सम्मिलित होना होगा। ऐसी स्थिति में यदि पंचमी के दिन पर्वाराधन किया गया तो मैं साधुवन्दन, धर्मश्रवण और समीचीनतया पर्वाराधन से वंचित रह जाऊंगा । अतः ६ के दिन पर्वाराधन किया जाय तो समुचित रहेगा।" प्राचार्य ने कहा - "पर्व-तिथि का अतिक्रमण तो नहीं हो सकता।" राजा सातवाहन ने कहा - "ऐसी दशा में एक दिन पहले चतुर्थी को पर्वाराधन कर लिया जाय तो क्या हानि है ?" अपनी सहमति प्रकट करते हुए कालकाचार्य ने कहा - "ठीक है, ऐसा हो सकता है।" इस प्रकार प्रभावक होने के कारण कालकाचार्य ने देश-काल मादि की परिस्थिति को देखते हुए भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी में पनोसवरण (पर्युषण पर्वाराधन) प्रारम्भ किया। कुछ पट्टावलीकारों ने वीर निवारण संवत् ६६३ में कालकाचार्य (चतुर्थ) द्वारा चतुर्थी का पयूषण पर्व प्रचलित किये जाने का उल्लेख किया है। उसी को दृष्टि में रखकर मेरुतुंग ने अपनी विचारश्रेणी में चतुर्थी पर्व के कर्ता कालकाचार्य को निर्वासित करने वाले बलमित्र भानुमित्र को वीर नि० सं० ४७० से ४७२ की अवधि के बीच विद्यमान बलमित्र-भानुमित्र से भिन्न और वीर नि० सं० ६६३ में विद्यमान होने का उल्लेख किया है। संभव है उनके सम्मुख निम्नलिखित गाथा रही हो : तेणउम्र नक्सएहि, समइकतेहि वद्धमारणामो। पज्जोसवण चउत्थी, कालगसूरीहिं तु ठविया ।। मूलतः यह गाथा किस ग्रंथ की है, इस बात का निर्णय भनेक अंगों के सम्यगवलोकन के पश्चात् भी अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसी दशा में इसे प्रक्षिप्त गाथा ही कहा जा सकता है। कल्पसूत्र की संदेहविषौषधि नामक अपनी टीका में प्राचार्य जिनप्रभ ने इसे तित्योगालियपइन्ना की गाथा बेताया है। पर वहां इस गाथा का कहीं नाम-निशान तक नहीं है। कालकाचार्य कथा में इस गापा को- “उक्तं च प्रथमानुयोगसारोदारे" - लिखकर प्रथमानुयोगसारोबार की होना बताया है पर इस नाम का कोई भी ग्रंथ प्राज मस्तित्व में नहीं है। कालसप्ततिका में गाथांक ४१ के साथ यह गाथा उपलब्ध होती है, पर इस ग्रंथ की प्रवचूर्णी में इस गाथा के सम्बन्ध में एक शब्द तक नहीं लिखा गया है। इससे स्पष्ट रूप से यह प्रकट होता है कि वस्तुतः यह गाथा कालसप्ततिका की नहीं अपितु प्रक्षिप्त है। जैसा कि कल्पकिरणावली में कहा गया है :___"इति गाथाचतुष्टयं तीर्थोद्गाराद्युक्तसम्मतितया प्रदर्शितं तीर्थोद्गारे च न दृश्यते इत्यपि विचारणीयम् । यद्यपि 'तेणउपनवसएहि' इति गाथा कालसप्त• निशीषणि, उ० १०, भा० ३, पृ० १३१ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कालकाचार्य (द्वितीय) तिकायां दृश्यते परं तत्र प्रक्षेपगाथानां विद्यमानत्वेन तदवचूर्णावव्याख्यातत्वेन चेयं न सूत्रकृत्कर्तृकेति संभाव्यते ।" इस प्रकार उक्त गाथा का मूल स्थान अनिर्णीत होने के कारण इसे अविश्वसनीय और प्रक्षिप्त ही कहा जा सकता है। फिर भी यह अवश्य विचारणीय है कि वीर नि० सं० ६६३ में चतुर्थी पर्युषणा प्रारम्भ होने की गाथोक्त वात तथ्यों की कसौटी पर खरी उतरती है या नहीं। ऊपर बताया जा चुका है कि निशीथ चूर्णी और अन्य ग्रन्थों में निर्विवाद रूप से यह बात मानी गई है कि प्रतिष्ठानपुर के राजा सातवाहन के निवेदन पर कालकाचार्य ने सकारण चतुर्थी के दिन पर्युषणा की। जब यह मान लिया जाता है कि सातवाहन के समय में ही पर्यषणा पर्व चतुर्थी को हुआ तब यह मानना किसी भी तरह संगत नहीं होगा कि वी० नि० सं० ६६३ में कालकाचार्य ने चतुर्थी से पर्व का अाराधन प्रारम्भ किया। क्योंकि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में प्रान्ध्र राज्य का अन्त हो चुका था। भडौंच में बलमित्र - भानुमित्र का राज्यकाल और प्रतिष्ठानपुर में सातवाहन का राज्यकाल भी, कालकाचार्य द्वितीय द्वारा वीर नि० सं० ४७० से ४७२ के बीच में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी के दिन पर्वाराधन प्रारम्भ किये जाने के काल से मेल खाता है । । ऐसी स्थिति में निर्विवाद रूप से यही प्रमाणित होता है कि कालकाचार्य द्वितीय में वीर नि० सं० ४७० से ४७२ के बीच किसी समय बलमित्र- भानुमित्र के पुरोहित द्वारा उत्पन्न की गई प्रतिकूल परिस्थिति के कारण चातुर्मासावधि में भडोंच से विहार कर प्रतिष्ठानपुर में वहां के राजा सातवाहन की प्रार्थना पर चतुर्थी के दिन पर्युषण पर्व की प्रतिष्ठापना की। ऐसा प्रतीत होता है कि वी० नि० सं० ६६३ में कालकाचार्य चतुर्थ द्वारा वल्लभी के राजा ध्रुवसेन के पुत्र-शोक-निवारणार्थ संघ के समक्ष पहले-पहल कल्पसूत्र की बाचना की गई, नामसाम्य के कारण उस घटना के साथ द्वितीय कालकाचार्य द्वारा चतुर्थी के दिन पर्वाराधन की घटना को भी जोड़ दिया गया हो। इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि आगे चल कर विक्रम की बारहवीं शताब्दी में चतुर्थी के स्थान पर पुनः पंचमी को पर्वाराधन की प्रक्रिया प्रचलित हुई, उस समय चतुर्थी के पर्वाराधन को अर्वाचीन ठहराने की दृष्टि से किसी ने यह गाथा बना कर, किसी प्राचीन ग्रन्थ के नाम से प्रक्षिप्त कर दी हो। द्वितीय कालकाचार्य के इस समय के सम्बन्ध में दशाश्रुत स्कंध की चूरिण में एक प्राचीन गाथा भी उपलब्ध होती है, जो इस प्रकार है : तह गद्दभिल्लरज्जस्स छेयगो कालगायरियो होइ । तेवण चउसयेहि, गुणसयकलियो सुप्रपउत्तो ।।२ - कल्पकिरणावली, पृ० १३१ २ (क) दुस्समाकालसमणसंघथयं, प्रवचूरि [पट्टावली समुच्चय (ख) अपापा वृहत्कल्प Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थी का पर्वाराधन] दशपूर्वघर-काल : पायं समुद्र ५२१ ___ इस गाथा के अनुसार भी द्वितीय कालकाचार्य का अस्तित्व वी०नि० सं० ४५३ में होना सुनिश्चित रूप से सिद्ध होता है। कालकाचार्य (द्वितीय) स्वर्णभूमि में अपनी आयु के अन्तिम चरण में एक समय प्राचार्य कालक (द्वितीय) अपने सुविशाल शिष्य-परिवार के साथ उज्जयिनी में विचर रहे थे। वृद्धावस्था होते हुए भी वे अपने शिष्यसमूह को प्रागम-वाचना देने में सदा तत्पर रहते थे। उन्हीं दिनों प्रार्य कालक के प्रशिष्य प्रार्य सागर जो कि सूत्रार्थ के अच्छे शाता थे - स्वर्णभूमि में विचरण कर रहे थे। ____ अपने समीपस्थ शिष्यों में प्रागमों के अध्ययन के प्रति यथेष्ट रुचि और. तत्परता का अभाव देख कर प्राचार्य कालक एक दिन बड़े खिन्न हुए। वे सोचने लगे - "ये मेरे शिष्य मनोयोग से अनुयोगश्रवण नहीं कर रहे हैं । ऐसी दशा में इनके बीच ठहरने से क्या लाभ ? मुझे उसी स्थान पर रहना चाहिये जहां कि अनुयोगों की प्रवृत्ति अच्छी तरह से हो रही हो। संभव है, मेरे अन्यत्र चले जाने पर शिष्य भी लज्जित होकर अनुयोग ग्रहण करने के लिये उत्साहित हो जायं।" ऐसा विचार कर मार्य कालक ने शय्यातर से कहा- "मैं स्वर्णभूमि की पोर जा रहा हूं। तुम मेरे शिष्यों को अनायास ही यह बात मत बताना । जब ये अत्यधिक प्राग्रह करें तो कह देना कि प्राचार्य स्वर्णभूमि में सागर के पास गये हैं।" . इस प्रकार शय्यातर को अवगत कर रात्रि में शिष्यों के जागृत होने से पहले ही कालकाचार्य स्वर्णभूमि की ओर प्रस्थित हुए और स्वर्णभूमि में पहुंच कर सागर के गच्छ में प्रविष्ट हो गये। आर्य सागर ने भी- “यह कोई खंत है" ऐसा समझ कर उपेक्षा से अभ्युत्थानादि नहीं किया। अर्थ-पौरुषी के समय तत्वों का व्याख्यान करते हुए प्राचार्य सागर ने नवागन्तुक वृद्ध साधु (कालकाचार्य) से पूछा – “खन्त ! क्या तुम यह समझते हो?" प्राचार्य ने उत्तर दिया - "हाँ ।” सागर ने सगर्व स्वर में - "तो फिर सुनो" - यह कह कर अनुयोग प्रारम्भ किया। उधर उज्जयिनी में रहे हए शिष्यों ने जब प्राचार्य को नहीं देखा पौर सब ओर ढूंढने पर भी उन्हें नहीं पाया तो उन्होंने शय्यातर से प्राचार्य के सम्बन्ध में पूछा। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [का (दि.) स्वर्णभूमि में शय्यातर ने कहा- "जब पाप के प्राचार्य ने प्राप लोगों को भी नहीं बताया तो मुझे कैसे बताते । अपने प्राचार्य की इस प्रकार अप्रत्याशित अनुपस्थिति से चिन्तित होकर जब शिष्यों ने बार-बार प्रत्याग्रहपूर्वक पूछा तो शय्यातर ने कहा- "पागमों के अध्ययन में पाप लोगों की मन्द प्रवृत्ति को देखकर प्राचार्य को बड़ा निर्वेद हमा है, प्रतः वे प्रार्य सागर के पास स्वर्णभूमि चले गये हैं।" यह कह कर शय्यातर ने अध्ययन के प्रति उपेक्षा के लिये उन शिष्यों को कटु शब्दों में उपालम्भ दिया। इससे लज्जित हो शिष्य भी उसो समय स्वर्णभूमि की ओर चल पड़े। मार्ग में लोग जब उनसे पूछते कि यह कोन प्राचार्य जा रहे हैं? तो वे उत्तर देते"प्राचार्य कालक।" इस प्रकार, यह सूचना बड़ी तीव्र गति से स्वर्णभूमि में सर्वत्र फैल गई और लोगों ने सागर से कहा- "बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले प्राचार्य कालक यहां पधार रहे हैं।" । यह सुनकर भाचार्य सागर बड़े प्रसन्न हुए और अपने शिष्यो से कहने लगे- "मेरे श्रदेय दादागुरू मा रहे हैं। उनसे मैं कुछ ज्ञातव्य बातें पूछंगा।" सागर अपने अनेक शिष्यों को साथ लेकर उस युग के महान् भाचार्य अपने दादागुरू मार्य कालक की अगुपानी के लिये सम्मुख पहुंचा । प्रागन्तुक शिष्य समूह ने उनसे पूछा- "क्या यहां प्राचार्य प्राये हैं।" उन्होंने उत्तर दिया- “नहीं ! एक अन्य खंत तो पाये हुए हैं।" उपाश्रय में पहुँच कर उज्जयिनी से पाये हुए साधु-समूह ने जब भावविभोर हो निस्सीम श्रद्धा के साथ अपने प्राचार्य के चरणों में वन्दन किया, तब पार्य सागर को मात हुमा कि ये खंत ही उसके दादागुरू प्राचार्य मार्य कालक हैं। वह लज्जा से भूमि में गड सा गया। वह पश्चात्ताप भरे स्वर में बोला- "अहो ! मैंने बहुत प्रलाप किया और क्षमाश्रमण से वन्दन भी करवाया।" तदनन्तर प्रासातना की शुद्धि के लिये प्रार्य सागर ने अपराह्न में 'मिथ्यादुष्कृत' किया और प्राचार्य के चरणों में मस्तक झुकाते हुए विनम्र स्वर में पूछा- "क्षमाश्रमण ! मैं कैसा अनुयोग करता हूं ?" प्राचार्य कालक ने कहा- "अच्छा है, पर कभी भूल कर भी गर्व मत करना।" मार्य कालक ने मुट्ठी में धूलि ले उसे एक स्थान पर रखा। उसे पुनः उठा-उठा कर क्रमशः तीन स्थानों पर रखा और सागर को बताया कि जिस प्रकार यह धूलि की राशि एक स्थान पर डालने के पश्चात् वहां से दूसरे, तीसरे मादि स्थानों पर रखने और उठाने से निरन्तर कम होती जाती है, इसी प्रकार प्रर्थ भी तीर्थंकरों से गणधरों को, गणधरों से हमारे पूर्ववर्ती भनेक प्राचार्य-उपाध्यायों को परम्परा से प्राप्त हुआ है। इस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान में मातेमाते इस अर्थ के कितने पर्याय निकल गये हैं, छूट गये हैं, विलीन हो गये हैं, इसकी Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० (द्वितीय) स्वर्णभूमि में] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य समुद्र ५२३ कल्पना तक करना कठिन है। प्रतः ज्ञान के सम्बन्ध में कदापि गर्व करना उचित नहीं।" इस प्रकार प्राचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य आर्य सागर को प्रतिबुद्ध किया। एक इस प्रकार की भी मान्यता दृष्टिगोचर होती है कि इन्हीं द्वितीय कालकाचार्य की परम्परा से षांडिल्य गञ्छ निकला। प्राचार्य वृद्धवादो पौर सिखसेन विक्रमीय प्रथम शताब्दी के प्राचार्यों में वृद्धवादी का एक विशिष्ट स्थान है। प्राप सिद्धसेन के गुरू और बड़े ही प्रतिभाशाली एवं दृढ़ संकल्पशील संत थे। गौड़ देश के कौशल ग्राम में इनका जन्म हुआ। प्रापका जन्मनाम मुकुन्द था। विद्याधर वंश के प्राचार्य स्कन्दिलसूरि के उपदेश से विरक्त हो मुकुन्द ने उनके पास श्रमरण-दीक्षा ग्रहण की। प्रौढ़ वय में दीक्षित होने पर भी वे ज्ञानाभ्यास के बड़े रसिक थे। वे ज्ञान की पिपासा लिये दिन-रात बड़ी लगन के साथ विद्याभ्यास करते। उच्च स्वर से अभ्यास करते रहने के कारण अन्य साधुओं को विक्षेप होने लगा और उन्होंने उन्हें प्रातःकाल जल्दी उठ कर पढ़ने से मना किया। अन्य साधुनों द्वारा समय-समय पर उच्च स्वर से प्रयास करने का निषेध किये जाने के उपरान्त भी ज्ञानप्राप्ति की तीव्र लगन के कारण उनसे नहीं रहा गया । एक दिन किसी साधु ने उन्हें कह दिया- "इतने उच्च स्वर से पढ़कर क्या तुम्हें मूसल के फूल लगाना है ?" __ मकुन्द मुनि के मन में यह बात चूभी और उन्होंने गुरुकृपा से सरस्वतीमंत्र प्राप्त कर २१ दिन तक निरन्तर प्राचाम्ल व्रत के साथ उसकी साधना की। मंत्रसिद्धि के परिणामस्वरूप सरस्वती प्रसन्न होकर बोली- “सर्वविद्यासिद्धो भव।" इस प्रकार देवी प्रभाव से कवीन्द्र होकर मुनि मुकुन्द गुरुचरणों में उपस्थित हए और उच्च स्वर से संघ के समक्ष बोले - "जो मेरा यह कह कर उपहास करते हैं कि क्या वृद्धावस्था में यह मूसल के फूल लगायेगा, वे सब देखें, आज मैं वस्तुतः मूसल को पुष्पित किये देता हूं।" यह कह कर मुकुन्द मुनि ने मैदान में खड़े हो अपनी विद्या के बल से सब के देखते-देखते प्रासुक जल से सींचकर मूसल को पुष्पित कर दिया और यह "जहा एस धूली ठविज्जमाणी उक्खिप्पमारणी य सम्वत्य परिसडइ, एवं प्रत्यो वि तित्यगरे. हितो गणहराणं, गणहरेहितो जाव अम्हं पायरिय उवज्झायाणं परंपराएण प्रागयं, को जाणइ कस्स केइ पज्जाया गलिया ? ता मा गव्वं काहिसि । [वृहत्कल्प, सभाष्य, १ भा., पृ. ७३-७४] १ मुहर्त मिव तत्रास्थात्, दिनानामेकविंशतिम् । सत्वतुष्टा ततः साक्षाद् भूत्वा देवी तमब्रवीत् ।। [प्रभावक च०, पृ० ५५] ' वही, पृ० ५५. श्लोक ३१ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० ३० पौर सिद्धसेन प्रमाणित कर दिया कि दृढ़ संकल्प वाले मनुष्य के लिये कोई भी कार्य प्रसाध्य नहीं है। . वृद्ध मुनि मुकुन्द की अप्रतिम विद्वत्ता के कारण कोई भी प्रतिबादी उनके समक्ष वाद में खड़ा नहीं रह पाता था, इसलिये वृद्धवादी के नाम से उनकी चारों ओर प्रसिद्धि हो गई। सब प्रकार से योग्य समझ कर मार्य स्कन्दिल ने उन्हें प्राचार्य पद पर नियुक्त किया। एक समय विहारक्रम से घूमते हुए वृद्धवादी भृगुपुर की ओर जा रहे थे। उस समय सिद्धसेन नाम के एक विद्वान्, जो अपने प्रज्ञाबल-बुद्धिबल के समक्ष संसार के अन्य विद्वानों को तृणवत् समझ रहे थे, शास्त्रार्थ की इच्छा से देश-देशान्तर में घूमते हुए भृगुपुर की मोर पहुंचे। वृद्धवादी की विद्वत्ता की यशोगाथाएं सुन कर वे उनके पीछे चल पड़े। उस समय वृद्धवादी विहार में थे। सिद्धसेन भी उनके पीछे-पीछे गये और मार्ग में दोनों का मिलन हुआ। मिलते ही सिद्धसेन ने वृद्धवादी से कहा- "मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।" प्राचार्य वृद्धवादी ने कहा-"अच्छी बात है, पर यहां शास्त्रार्थ की मध्यस्थता करने वाला कोई विद्वान सभ्य नहीं है। ऐसी दशा में बिना सम्यों के वाद में जयपराजय का निर्णय कौन करेगा?". वाद की तीव्र उत्कण्ठा का शमन करने में असमर्थ सिद्धसेन ने चरवाहों की पोर इंगित करते हुए कहा- ये गोपाल ही सभ्य बनें।" वृद्धवादी ने सिद्धसेन का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया । गोपालकों के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुमा। सिद्धसेन ने वाद की पहल की। उन्होंने सभ्य गोपालों को सम्बोधित कर बड़े लम्बे समय तक पदलालित्यपूर्ण संस्कृत भाषा में बोलते हुए अपना पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया। पर सिद्धसेन की एक भी बात उन गोपों के समझ में नहीं आई । जब सिद्धसेन अपना पूर्वपक्ष रखने के पश्चात् चुप हुए तो अवसरज्ञ वृद्धवादी ने दृढ़ कच्छा बांध कर संगीत की लय में बोलना प्रारम्भ किया, जिसका भावार्थ है- जो किसी जीव को नहीं मारता, चोरी नहीं करता, परदारगमन का परित्याग करता और यथाशक्ति थोड़ा-थोड़ा दान करता है, वह धीरेधीरे स्वर्गधाम प्राप्त कर लेता है।' वृद्धवादी की बात सुनकर गोप बड़े प्रसन्न हुए और बोले - "मो, हो ! बाबाजी महाराज ने कैसा श्रुतिसुखद, सुन्दर और सही मार्ग बतलाया है। ये सिद्धसेनजी तो क्या बोले, क्या नहीं बोले, यह भी ज्ञात नहीं हुमा । केवल जोर-जोर से बोल कर इन्होंने हमारे कानों में टीस पैदा कर दी।" ' न वि मारियइ न वि चोरिय इ, परदारह गमणु निवारियइ । थोवा थोवा दाइयइ, सग्गि टुकु टुकु जाइयइ ।। [प्रबन्धकोश] Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० वृद्धवादी और सिद्धसेन] दशपूर्वधर-काल : प्रायं समुद्र ५२५ गोषों का यह निर्णय सुन कर सिद्धसेन ने अपनी पराजय स्वीकार की और कहा- "भगवन ! आप मुझे दीक्षित कर अपना शिष्य बना लें, क्योंकि सम्यों ने अापकी विजय घोषित की है।" प्राचार्य वृद्धवादी ने कहा - "सिद्धसेन ! भृगुपुर में चल कर राजसभा में हम दोनों का शास्त्रार्थ हो, गोपालमण्डल के समक्ष किये गये वाद का क्या महत्त्व है ?" पर सिद्धसेन अपने वचन पर दृढ़ रहे और बोले - “महाराज! आप कालज्ञ हैं। जो कालज्ञ होता है, वह सर्वज्ञ होता है अतः आप मके दीक्षित कीजिये। सिद्धसेन के दद-निश्चय को देखकर प्राचार्य वृद्धवादी ने उन्हें दीक्षित कर लिया और दीक्षा के पश्चात् उनका नाम कुमुदचन्द्र रखा। कालान्तर में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित दिये जाने के पश्चात् कुमुदचन्द्र की प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर के नाम से प्रसिद्धि हुई। अपने सुयोग्य शिष्य सिद्धसेन को प्राचार्य पद पर नियुक्त करने के पश्चात् वृद्धवादी अन्यत्र विचरण करने लगे और सिद्धसेन अवन्ती की ओर पधारे। अवन्ती के संघ ने प्राचार्य का बड़ा स्वागत किया और "सर्वज्ञ-पुत्र" आदि विरुद से उनकी जय बोलते हुए उन्हें नगरप्रवेश करवाया। संयोगवश उस समय महाराज विक्रमादित्य गजारूढ़ होकर सामने की ओर आ रहे थे। “सर्वज्ञपुत्र" का विरुद सुनते ही उन्होंने परीक्षा के लिये हाथी पर बैठे-बैठे ही मन से सिद्धसेन को नमस्कार किया। इस पर सिद्धसेन ने हाथ उठाकर विक्रमादित्य द्वारा किये गये मानसिक वन्दन का उत्तर दिया। राजा ने प्राचार्य से प्रश्न किया- "क्या आपका आशीर्वचन इतना सस्ता है कि वन्दन नहीं करने वाले व्यक्ति को बिना वन्दन किये ही वह दे दिया जाता है ?" उत्तर में प्राचार्य सिद्धसेन ने कहा - "राजन् ! तुमने तन से नं सही पर मन से वन्दन किया है।" इस पर प्रसन्न होकर महाराज विक्रमादित्य ने सर्वजन समक्ष हाथी से उतर कर उन्हें वन्दन किया और उनके चरणों पर कोटि मुद्राओं की भेंट समर्पित की।' धन-धान्य प्रादि परिग्रह के सम्पूर्ण त्यागी प्राचार्य ने विक्रमादित्य को समझाते हुए कहा - "राजन् ! कंचन-कामिनी को ग्रहण करना तो दूर, जैन मुनि इनका स्पर्श तक नहीं करते।" राजा ने भी यह सोचकर कि यह राशि मुनि के निमित्त की जा चुकी है, उसे पुनः स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार उस राशि का जनहित के शुभ कार्यों में व्यय किया गया । . (क) धर्मलाभ इति प्रोक्त, दूरादुच्छितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय, ददो कोटि नराधिपः ।। [प्रबन्धकोश, प्रबन्ध ६} (ख) तस्य दक्षतया तुष्ट: प्रीतिदाने ददो नृपः । कोटि हाटक टंकानां, लेखक पत्रकेऽलिखत् ।। [प्रभावक च., पृ. ५६, श्लो० ६३] Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा० वृ० पौर सिद्धसेन प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर की विद्वत्ता और उनके चमत्कारों के सम्बन्ध में बहुत सी जनश्रुतियां प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक में कहा गया है कि चित्रकूट के मानस्तम्भ से सिद्धसेन ने मंत्र-विद्या का एक पत्र प्राप्त किया, जिसमें कि दो विद्याएं थीं। प्रथम-हेमसिद्धि विद्या से यथेप्सित स्वर्ण तैयार किया जा सकता था और दूसरी "सर्सप-विद्या" से सरसों की तरह अगणित सैनिक उत्पन्न किये जा सकते थे। उपरोक्त दोनों विद्याएं लेकर प्राचार्य सिद्धसेन कुरिपुर पहुंचे और वहां के राजा देवपाल को अपने विद्याबल से विजयवर्मा के साथ युद्ध में विजयी बनाया। कृतज्ञतावश राजा देवपाल सिद्धसेन का परम भक्त बन गया और उन्हें उच्चतम राजकीय सम्मान और 'दिवाकर' पद से सम्मानित कर प्रतिदिन वन्दन करने जाता। राजभक्ति से प्रभावित हो प्राचार्य सिद्धसेन भी पालकी में बैठकर राजा को दर्शन देने जाया करते। यह नियम है कि रागातिरेक से मानवमन सहज ही प्रभावित हो जाता है। प्राचार्य सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं रहे। राजा और पुरमान्य भक्तजनों की भक्ति से वे संयम-साधना में कुछ शिथिल हो गये। खा-पीकर आराम करने और सोने में उनका अधिकांश समय व्यतीत होने लगा। वे अपने श्रमण वर्ग को भी साधना की प्रेरणा नहीं दे पाते । प्रबन्धकोशकार ने लिखा है - "जहां गुरु निश्चित होकर सोये रहते हों, वहां शिष्यवर्ग पीछे क्यों रहेगा। उनके शिष्य भी खा-पीकर प्रायः दिन-रात सोये रहते हैं और इस प्रकार शयन की स्पर्धा में मुनियों द्वारा मोक्ष पीछे की ओर ठेल दिया जाता है।" . धर्मस्थान में शिथिलाचार के प्रवेश का चित्र खींचते हुए राजशेखरसूरि ने खेदपूर्वक कहा है : "सदोष जलपान, फूल, फल और गृहस्थ के सावध कर्मों का यतनारहित होकर वहां सेवन किया जाता था। अधिक क्या कहा जाय, वहां साधु वेष की विडम्बना हो रही थी।" वृद्धवादी ने जब सिद्धसेन की कीर्ति के साथ-साथ उपरोक्त शिथिलाचार के समाचार सुने, तो उन्हें खेद हुआ और वे सिद्धसेन को प्रतिबोध देने हेतु योग्य साधुनों को गच्छ की व्यवस्था सम्हला कर स्वयं एकाकी रूप से कूर्मारपुर की पोर चल पड़े। वहां पहुंच कर वे पालकी उठाने वालों में सम्मिलित हो गये और सिद्धसेन को पालकी में बिठा कर चलने लगे। 'सुमइ गुरु निच्चितो, सीसा वि सुवंति तस्स प्रणुकमतो। मोसाहिज्जइ मुक्खो, हुड्डाहुड्डं सुवंतेहिं ।। [प्रबन्धकोश, ६।१२] २ दगपाणं पुप्फफलं, प्रणेसरिणज्जं गिहत्थकज्जाई । प्रजया पडिसेवंति, जइवेसविडंबगा नवरं । [वही, १३] वर्तमान काल में भी शनैः-शनैः धर्मस्थानों में बिजली की रोशनी, पंखे तथा नल के पानी का उपयोग होने लगा है । मुनिराज गृहस्थों का कार्य बताकर इन कार्यों के लिए वस्तुत मौन स्वीकृति प्रदान कर रहे हैं । -सम्पादक Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. वृद्धवादी और सिद्धसेन] दशपूर्वधर-काल : आर्य समुद्र ५२७ सिद्धसेन ने डगमगाती चाल देख कर वृद्ध पालकीवाहक से पूछा"भूरिभारभराक्रान्तः, बाधति स्कन्ध एष ते?" वृद्धवादी ने उत्तर में कहा :"तथा न बाधते स्कन्धः, यथा बाधति बाधते।" परिचित स्वर में उत्तर सुन कर सिद्धसेन चौंक उठे और सोचने लगे -"मेरी भूल बताने वाला यह कौन ? ये कहीं मेरे गुरू वृद्धवादी तो नहीं हैं ?" उन्होंने तत्काल पालकी से नीचे उतर कर देखा और वृद्धवादी को पहिचान कर लज्जित मन से क्षमायाचना की। प्रसंगवश सिद्धसेन को साधना में और अधिक स्थित करने के लिये वृद्धवादी ने निम्नलिखित गाथा पढ़ कर उनसे इसका अर्थ पूछा : अणफुल्लिप फुल्ल म तोडइ, मा रोवा मोडहिं । मणकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु, हिंडहि कांइ वणेण वणु ।।१४।। [प्रबन्धकोश] बहुत कुछ सोचने पर भी सिद्धसेन इस श्लोक का यथार्थ भाव नहीं समझ सके । तब वृद्धवादी ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा "प्रणफुल्लिय फुल्ल म तोडइ" अर्थात् - सिद्धसेन ! योगरूपी वृक्ष के यश कीर्ति और प्रताप प्रादि जो फूल हैं, उन्हें केवलज्ञानरूपी फल के पाये बिना ही अविकसित दशा में मत तोड़। __ "मा रोवा मोडहिं" - अर्थात् - महाव्रतों के रोपों (पौधों) को व्यर्थ ही मत मरोड़, मत रोंद। "मणकुसुमेहिं प्रच्चि निरंजणु" - अर्थात् सद्भावरूपी मन के कुसुमोंफूलों से निरंजन जिनेन्द्रदेव की पूजा कर । अथवा सिद्धि प्राप्त निरंजन प्रभु की मनकुसुमों से पूजा कर ।' ___ "हिंडहि कांइ वणेण वणु" अर्थात् - व्यर्थ ही वन से वन भटकने की तरह राजरंजन मादि निरर्थक कार्य क्यों करता है ? कितनी सुन्दर शिक्षा है ? . वृद्धवादी की शिक्षा को सुन कर सिद्धसेन ने पालोचनापूर्वक शुद्धि की। वे संयम-साधना में पूर्णरूपेण स्थिर हुए और राजा को पूछ कर वृद्धवादी के साथ कठोर साधना करते हुए विचरण करने लगे। ___ जैनशास्त्रों की भाषा के प्रश्न को ले कर ब्राह्मण विद्वान् प्रायः कहा करते थे कि जैन परम्परा के प्राचार्य संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे। अन्यथा शास्त्रों की रचना प्राकृत जैसी सरल भाषा में नहीं की जाती। इतना ही नहीं इनका महामन्त्र भी साधारण जनों की भाषा-प्राकृत में बोला जाता है। जातिगत संस्कार और (क) प्रभावक परित्र में पालकी उठाने का उल्लेख नहीं है। (1) मारव निरंचनं वीतरागम् । [प्रभावक परिष Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० वृ० और सिद्धसेन । बाल्यकाल में संस्कृत के अभ्यास के कारण सिद्धसेन को उनका यह कयन बुरा लगा। नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः - इस प्रकार नमस्कार मंत्र का उन्होंने संस्कृत में उच्चारण कर विद्वत्समाज को सुनाया और उपाश्रय में प्राकर अपने गुरू के समक्ष नमस्कारमन्त्र का संस्कृत रूपान्तर सुनाते हुए जैन शास्त्रों को संस्कृत भाषा में रचने का विचार प्रस्तुत किया। इस पर संघ ने कहा - "सिद्धसेन ! आपने वाणी के दोष से पाप का उपार्जन कर लिया है। तीर्थकर भगवान और गणधर संस्कृत से अनभिज्ञ नहीं थे । ऐसा करने से तीर्थकर-गणधरों की अवहेलना होती है। आपने अनादि शाश्वत नमस्कार मंत्र का संस्कृत भाषा में अनुवाद कर घोर अपराध किया है। आप इसकी शुद्धि के लिये दशवें पारांचिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं । ____ यह सुनकर सिद्धसेन ने संघ और गुरु को साक्षी से १२ वर्ष पर्यन्त मौन के साथ मुखवस्त्रिका रजोहरण रूप साधुवेश को गुप्त रख कर शासन की सेवा करने का पाराश्चिक प्रायश्चित्त स्वीकार किया। वे गुप्त रूप से शासन की सेवा के कार्य में निरत हो गये और अनेक राजानों को प्रतिबोध देते हुए सातवें वर्ष के पश्चात् उज्जैन पहुंचे। कहा जाता है कि अवधूत वेष में वे महाकालेश्वर के मन्दिर में जा, शिवलिंग की ओर पैर फैलाकर लेट गये। प्रभाचन्द्र और राजशेखर ने शिवलिंग की अोर पर करके लेटने का उल्लेख नहीं किया है। प्रातःकाल जब पुजारियों ने उन्हें शिवलिंग की पोर पर किये देखा तो उन्होंने सिद्धसेन को वहां से हट जाने के लिए बहुत कुछ कहा-सुना पर उनके सभी प्रयत्न निष्फल रहे । अन्त में उन्होंने राजा के पास पुकार की। राजा ने क्रुद्ध हो अपने सेवकों को आदेश दिया कि वे तत्काल उस योगी को कोड़े मार कर वहां से भगा दें। राजपुरुषों ने महाकालेश्वर के मन्दिर में पहुँच कर उस योगी को बहुत कुछ समझाया, डराया, धमकाया और इस पर भी उसके न हटने पर उसे कोड़ों से मारना प्रारम्भ किया। सब लोग यह देखकर विस्मित हो गये कि योगी के शरीर पर एक भी कोड़ा नहीं लगा। यह देख राजपुरुष अवाक रह गये। उन्होंने राजा को सूचित् किया। इस अद्भुत घटना से आश्चर्यचकित हो राजा विक्रमादित्य स्वयं तत्काल महाकाल के मन्दिर में गये और योगी से कहने लगे-"महात्मन ! श्रापको इस प्रकार शिवलिंग की ओर पैर करके सोना शोभा नहीं देता। आपको तो विश्ववन्द्य शिव को प्रणाम करना चाहिये।" __योगी ने कहा- "राजन् ! आपका यह देव-शिवलिंग मेरा नमस्कार सहन नहीं कर सकेगा।" राजा द्वारा बार-बार आग्रह किये जाने पर सिद्धसेन ने महादेव ' (क) ततो विमृश्याभिदधेऽसौ - संघोऽवधारयतु, प्रहमाश्रितमोनो द्वादशवार्षिकं पाराञ्चिकं नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखवस्त्रिका-रजोहरणादिलिङ्गः प्रकटितावधूतरूपश्चरिष्याम्युपयुक्तः । [प्रबन्धकोश, पृ० १८] (ख) प्रभावक चरित्र पु०५८ २.यह घटना प्रार्य खपुट के जीवन परिचय में दी गई घटना से मेल खाती है। - सम्पादक Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ आ० वृद्धवादी और सिद्धमेन] दशपूवंधर-काल प्रायं समुद्र के मच्चे स्वरूप की स्तुति प्रारम्भ की । कतिपय कथा ग्रन्थों में बताया गया है। कि सिद्धसेन स्तुति के कुछ ही श्लोकों का उच्चारण कर पाये थे कि अद्भुत तेज के साथ वहां भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हो गई । राजा विक्रमादित्य प्रचिन्त्य आत्मशक्ति के अनेक चमत्कारों को देख कर सिद्धसेन के परम भक्त बन गये । इस प्रकार सिद्धसेन ने ७ वर्षों में १८ राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। कहा जाता है कि प्रायश्चित्तकाल के ५ वर्ष अवशिष्ट रह जाने पर भी श्रीसंघ ने सिद्धसेन के महाप्रभावक कार्यों से प्रसन्न हो कर उनके प्रायश्चित के शेष काल को क्षमा कर दिया। महाराज विक्रमादित्य और उनके धर्मकृत्यों पर प्राचार्य सिद्धसेन का गहरा प्रभाव माना जाता है । सिद्धसेन के प्रभाव से ही महाराज विक्रमादित्य ने जैनधर्मानुयायी बन कर अनेक परोपकार के कार्य किये थे। जैन साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में आज भी विक्रमादित्य के गुण- गौरव का विशद वर्णन उपलब्ध होता है । प्राचार्य सिद्धसेन उद्भट विद्वान्, महाप्रभावक मधुर वक्ता, कुशल संघसंचालक एवं उच्च कोटि के साहित्यकार थे। उनकी चतुर्मुखी प्रतिभा को प्रमाणित करने वाला उनका विशाल साहित्य प्राज भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है । आप न्यायावतार, सन्मतितर्क, बत्तीस द्वात्रिशिकाएं, नयावतार, कल्याणमन्दिर स्तोत्र, और प्राचारांग पर गन्धहस्ती के विवरण की टीका आदि प्रमुख ग्रन्थों के रचनाकार माने गये हैं । सिद्धसेन दिवाकर का काल विक्रम की पहली शता माना जाता है । कुछ विद्वानों ने आपका काल विक्रम की चौथी पांचवीं शताब्दी माना है । प्रभावक चरित्र, प्रबन्धकोश आदि के उल्लेखों से श्रापका काल विक्रम की पहली शताब्दी ही प्रमाणित होता है । आपके पिता का नाम देवर्षि श्रौर माता का नाम देवश्री था । आप जाति से कात्यायन ब्राह्मण थे। कहा जाता है कि दीक्षित होने से पहले वे पाण्डित्य के अभिमान में पेट पर लोहे का पट्टा, एक हाथ में कुदाली और दूसरे हाथ में निसैनी रख कर चला करते थे । घटनाचक्र के चित्रण पर निष्पक्षरूप से विचार करने पर प्रतीत होता है कि ग्रंथकारों द्वारा अनेक स्थलों पर साहित्यिक अलंकार के रूप में अतिरंजन के साथ भी कतिपय घटनात्रों का उल्लेख किया गया है। चार्य पुट द्वितीय कालकाचार्य के पश्चात् प्रभावक श्राचार्यों में श्रार्य खपुट विशेष प्रभावशाली माने गये हैं। इनके जन्म, जन्मस्थान, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में परिचय उपलब्ध नहीं होता। इनके जीवन की कतिपय प्रभावोत्पादक घटनाओं का उल्लेख जैन साहित्य में दृष्टिगोचर होता है । आर्य खपुट का युग सम्भवतः विशिष्ट विद्याओं का युग रहा है । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य खपुट आवश्यक चूणि, निशीथचूणि आदि में इन्हें विद्यासिद्ध एवं विद्याचक्रवर्ती जैसे विशेषणों से अभिहित किया गया है।' इससे यह स्पष्टरूपेण प्रमाणित होता है कि वे अतिशय विद्याओं के विशिष्ट ज्ञाता थे। इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ विशिष्ट घटनाओं का परिचय इस प्रकार है : .. एक बार आर्य खपुट भृगुकच्छपुर पधारे। वहां उनका भगिनीपुत्र भुवन आपके उपदेशों से प्रभावित होकर आपके शिष्यरूप से श्रमणधर्म में दीक्षित हो गया। बुद्धिशाली समझ कर आर्य खपुट ने भुवन मुनि को कतिपय विद्याएं सिखाईं। संयोगवश भृगुपुर में बौद्ध भिक्षुओं ने राजा बलमित्र के सम्मान से गवित होकर जैन श्रमणों के उपाश्रय में घास की पूलियां गिराकर उन्हें पशुतुल्य बताते हुए द्वेष प्रकट करना प्रारम्भ किया। इससे भुवन मुनि बड़ा क्रुद्ध हुआ और श्रावक समुदाय को लेकर राजा बलमित्र की सभा में पहुंचा। वहां उसने उच्च स्वर में कहा- "हे राजन् ! तुम्हारे गुरु गेहेनर्दी बन कर जैन श्रमणों की निन्दा करते हैं। हम उनके साथ शास्त्रार्थ करने के लिए आ गये हैं। तुम उनको एक बार बुला कर मेरे साथ शास्त्रार्थ करवा दो। जिससे लोग भी वास्तविकता को जान सकें।" मुनि के आह्वान पर राजा ने बौद्धभिक्षणों को बुलाया और मनि भुवन के साथ शास्त्रार्थ करवाया। बौद्ध भिक्षु भुवन की अकाटय युक्तियों के समक्ष चर्चा में परास्त हो गये । भूवन मुनि की विजय से जैन-संघ में हर्ष की लहर फैल गई पर बौद्ध संघ को इस अपमान से गहरा दुःख हुआ। उन्होंने गुडशस्त्रपुर से बौद्धाचार्य वुड्ढकर को बुलाया और भुवन मुनि को उसके साथ शास्त्रार्थ के लिए कहा गया। भुवन मुनि ने विद्याबल एवं तर्क-बल से उसे भी पराजित कर दिया। इस अपमान से दुःखित होकर वृद्धकर कुछ ही दिनों पश्चात् काल कर गुहशस्त्रपुर में यक्ष के रूप से उत्पन्न हुमा । पूर्व-जन्म के वैर के कारण वह जैन संघ और श्रमणों को डराने एवं विविध यातनाएं पहुंचा कर सताने लगा। संघ ने प्रार्य खपुट को वहां की परिस्थिति से परिचित कर गुडशस्त्रपुर पधारने की प्रार्थना की। प्रार्य खपुट गच्छ के अन्य साधुओं के साथ भुवन मुनि को वहीं भृगुपुर में रख कर स्वयं गुडशस्त्रपुर पधारे । जाते समय प्रार्य खपुट ने एक कपर्दि (जन्त्रीपट्ट) भुवन मुनि को देकर उसे सावधानी से रखने एवं कभी न खोलने का प्रादेश दिया। गुडशस्त्रपुर पहुंच कर प्रार्य खपुट ने यक्ष को अपने प्रभाव से अपना भक्त बना लिया और राजा सहित समस्त नागरिकजनों को भी प्रभावित किया। (क) विज्वाणचक्कवट्टी विग्जासिदो स जस्स वेगाऽवि । सिज्मेज्ज महाविग्मा, विज्जासिदोजखउरोग्य ।। [भावश्यक मलय, पृ. ५४१] (ब) बो बिग्माबलेण जुत्तो जहा प्रज्य बउगे। [निशीषणि, भा०३, पृ. ५८]] Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य खपुट] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य समुद्र ५३१ आर्य खपूट गडशस्त्रपुर में ही विराजित थे कि उनके पास भृगपुर से दो साधु आये और उन्होंने निवेदन किया- "भगवन् ! आपके इधर चले आने पर भुवन मुनि ने आपकी सम्हलाई हुई गोपनीय कपर्दी को खोल कर उसमें से एक पत्र प्राप्त किया, जिसमें उसे पाठ मात्र से सिद्ध होने वाली प्राषिणी विद्या प्राप्त हो गई है। वह उस विद्या के प्रभाव से प्रतिदिन उत्तमोत्तम भोजन मंगवा कर खाने लगा। इस पर स्थविरों ने जब उसे ऐसा करने से मना किया तो वह क्रुद्ध होकर सौगतों के विहार में चला गया है। विद्या के प्रभाव से पात्र आकाशमार्ग से जाते और भोज्य पदार्थों से भरे लौटते हैं। इस प्रकार के प्रभाव को देख कर श्रावक भी भुवन मुनि की ओर आकर्षित होने लगे हैं। ऐसी स्थिति में आपको वहां पधार कर संघ को प्राश्वस्त करना चाहिये ।" मुनि युगल की बात सुन कर आर्य संपुट कुछ विचारमग्न हुए और गुड. शस्त्रपुर से भृगकच्छपुर की मोर चल पड़े। भृगुकच्छपुर पहुंच कर आर्य खपुट कहीं गुप्त रूप से ठहरे और भूवन मुनि द्वारा प्राकर्षिणी विद्या से मंगवाये गए अन्नपूर्ण पात्रों को आकाशमार्ग में ही शिला द्वारा फोड़ कर गिराने लगे। पात्रों से मिष्टान्न आदि भोजन लोगों के सिर पर गिरने लगा। अपने श्रम को विफल होता देखकर भुवन मुनि को यह समझने में देरी नहीं लगी कि आर्य खपुट वहां पधार चुके हैं। भयभीत होकर वह भृगुपुर से भाग निकला। आर्य खपुट मुनिमण्डल सहित बौद्ध-विहार में पहुंचे और अपनी विद्या के प्रभाव से सबको प्रभावित कर उन्होंने अन्य क्षेत्र की ओर विहार किया। [मावश्यक चूरिण के पाषार पर] विशिष्ट विद्यानों के माध्यम से चमत्कार-प्रदर्शन के उस युग में प्रार्य खपुट ने जिन शासन की सेवाएं की। तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार पार्य खपुटाचार्य का समय वीर नि० सं० ४५३.और प्रभावक चरित्र में वीर नि० सं० ४८४ बताया गया है। इन दोनों उल्लेखों को एक-दूसरे का पूरक, अर्थात वीर नि० सं० ४५३ में उनके प्राचार्य काल का प्रारम्भ और वीर नि० सं०४८४ में अवसान मान लिया जाय तो उपरोक्त दोनों ग्रन्थकारों के उल्लेख संगत और आर्य खपुट के प्राचार्य काल के निर्णायक बन सकते हैं। प्रार्य रेवतीमित्र (युगप्रधानाचार्य) प्रार्य स्कन्दिलाचार्य के पश्चात् आर्य रेवतीमित्र युगप्रधानाचार्य हुए। मापके कुल, जन्म, जन्मस्थान प्रादि का परिचय प्राप्त नहीं होता । युगप्रधान यंत्र ' (क) श्रीवीरात् त्रिपंचाशदधिकचतुःशतवर्षातिक्रमे ४५३ भृगुकच्छे मार्य खपटाचार्य इति पट्टावल्याम् । प्रभावकचरित्रे तु चतुरशीत्यधिकचतुःशत ४८४ वर्षे मार्य खप्टाचार्यः । [तपागच्छ पट्टावली] (ख) श्रीवीर मुक्तितः शतचतुष्टये चतुरशीतिसंयुक्त । वर्षाणां समजायत, श्रीमानाचार्यखपुटगुरुः ।।७६ [प्रभावक चरित्र, (विजयसिंहमूरिचरिते) पृ: ४३] Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य रे० (युगप्र०) एवं मेरुतुंगाचार्य विरचित विचारश्रेणी में युगप्रधानाचार्यों के गृहस्थपर्याय, सामान्य यतिपर्याय,युगप्रधानपर्याय और पूर्ण आयुका विवरण प्रस्तुत करने वाली गाथाओं के अनुसार रेवतीमित्र १४ वर्ष की आयु में दीक्षित हुए । ४८ वर्ष तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सम्यकरूपेण उपासना करते हुए उन्होंने सामान्य साधुरूप से श्रमणधर्म की परिपालना की। वीर नि० सं० ४१४ में प्रार्य स्कंदिल (षांडिल्य के स्वर्गगमेन के पश्चात् आप युगप्रधान पद पर आसीन हए। तदनन्तर आपने ३६ वर्ष, ५ मास और ५ दिन तक युगप्रधान पद पर रहते हुए जिन-शासन की उल्लेखनीय सेवाएं की। वीर नि० सं० ४५० में १८ वर्ष की आयु पूर्ण कर आपने स्वर्गारोहण किया। गणाचार्य - ऐसा प्रतीत होता है कि प्रार्य समुद्र के समय में प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के गणाचार्य आर्य दिन ही रहे। प्रार्य समुद्र के समय के राजवंश प्रार्य समुद्र के वाचनाचार्य काल में पाटलिपुत्र में शंगों, उज्जयिनी में नभोवाहन तथा नभोवाहन के पश्चात् गर्दभिल्ल तथा प्रतिष्ठानपुर में सातवाहन राजवंस के संस्थापक शिशुक का राज्य रहा। इस समय में अधिकांशतः यज्ञ यागादि कर्मकाण्ड एवं वैदिक संस्कृति का भारत में व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। १६. प्रार्य मंगू-वाचनाचार्य प्राचार्य समुद्र, जिनका परिचय ऊपर दिया जा चुका है, वे रसों में इतने अनासक्त थे कि सरस-नीरस जो भी आहार भिक्षा में प्राप्त होता, उसको बिना स्वाद की अपेक्षा किये एक साथ मिला कर प्रशान्त भाव से सेवन कर लिया करते थे। उन्हें सदा यह विचार रहता था कि रसों में आसक्ति के कारण कहीं प्रात्मा कर्मपाश में प्राबद्ध हो भारी न बन जाय ।' इनके इस प्रकार स्वाद-विजय और लाभ के प्रति अनासक्ति के कारण प्राचार्य देवद्धि ने 'अक्खुब्भिय समुद्दगंभीर' इस पद से पाएकी स्तुति की है। पार्य मंगू इन्हीं प्रार्य समुद्र के शिष्य थे। प्राचार्य समुद्र के स्वर्गगमन के पश्चात् उनके शिष्य पार्य मंगू वीर नि० सं० ४५४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए। आप बड़े ज्ञानी, ध्यानी और सम्यग्दर्शन के प्रबल प्रचारक थे। प्राचार्य देववाचक ने नन्दी की स्थविरावली में मापके लिए भरणगं करगं झरगं' इन तीन विशेषणों का एक साथ प्रयोग करते हुए अभिव्यक्त किया है कि आप भक्तिपूर्वक सेवा करने वाले शिष्यों को कुशलता के साथ सूत्रार्थ प्रदान करते और सद्धर्म की देशना द्वारा सहस्रों भव्य जनों को प्रतिबोध देकर जिनशासन की महत्वपूर्ण सेवा करते थे। निशीथ भाष्य और चूरिण के अनुसार आर्य मंगू बहुश्रुत और बहुशिष्य परिवार वाले होने पर भी उद्यतविहारी थे। एक समय विहारक्रम से विचरण 'परिपक्से मात्र समुद्दा, ते रसगिडीए भीता एक्कतो सम्बं मेलेउं मुंजति । [निशीथ पूणि] Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपूर्वधर-काल : आर्य मंगू ५३३ करते हुए प्राचार्य मंगू मथुरा पधारे और अपने मृदु, मनोहर एव वैराग्यपूर्ण वचनों से मथुरा के नागरिकों को उपदेश से प्रतिबुद्ध करने लगे। प्राचार्य के ज्ञान, वैराग्यपूर्ण प्रवचन के प्रभाव से प्रभावित हो मथुरा के श्रद्धालु भक्तों ने वस्त्रादि से उनकी बड़ी भक्ति की। दूध, दही, घृत, गुड़ आदि स्वादिष्ट पदार्थों से वे उन्हें प्रतिदिन प्रतिलाभित करते । प्राचार्य का मोह भाव जागृत हुआ और उन्होंने साता- सुख में प्रतिबद्ध होकर वहीं स्थिरवास कर दिया। साथ के शेष मुनि वहां से विहार कर गये। निमित्तों का भी बड़ा प्रभाव होता है। उपादान अर्थात् आत्मसामर्थ्य में किश्चित्मात्र दुर्बलता पाते ही निमित्त को अपना प्रभाव जमाने में देरी नहीं लगती। स्थिरवास में रहने के कारण प्राचार्य के तप, संयम, साधना में शिथिलता मा गई । उनका चारित्राराधन मन्द हो गया और ऋद्धि, रस, साता-गौरव का प्राबल्य बढ़ गया। भक्तजनों द्वारा दिये गए सुस्वादु आहार और प्रेमपूर्ण सेवा से वे उपविहार को छोड़ कर वहीं पर प्रमादभाव में रहने लगे । अन्तिम समय में अपने सदोष आचरण की बिना आलोचना किये और बिना प्रमाद त्यागे प्रायु पूर्ण कर वे चारित्र धर्म की विराधना के कारण यक्ष योनि में उत्पन्न हुए।' ज्ञान के द्वारा जब अपने पूर्व भव का परिचय प्राप्त किया तो वे पश्चात्ताप करने लगे- "अहो ! मैंने दुर्बद्धि के कारण पूर्ण पुण्य से पाने योग्य महानिधान की तरह दुर्गतिहारी जिनमत पाकर भी अपना जीवन विफल कर दिया। ठीक ही कहा है - "चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता भी प्रमाद के कारण अनन्तकाय में जाकर उत्पन्न होते हैं।"२ इस प्रकार परमनिर्वेद भाव से वे अपने पूर्वकृत प्रमाद की निन्दा करते रहे। एकदा उन्होंने स्थंडिल भूमि की ओर जाते हुए अपने पूर्वभव के शिष्यों को देखा तो उन्हें प्रतिबोध देने हेतु वे अपना विचित्र स्वरूप बना कर मुह से लम्बी जिहा निकाल मार्ग में खड़े हो गये। यक्ष को देख कर एक सात्विक भावना ' (क) मयुरा मंगू मागम, बहुसुय वेरग्ग सढ़पूया य । सातादि-लोम-रिणतिए, मरणे जीहाइ णिमणे ।।३२००।। सोवि प्रणालोइय परिक्कतो विराहिय सामण्णो वंतरो पिटमण जक्खो जातो। [निशीप चूरिण, भा०. ३, पृ० १५२-१५३] (स) कालं काऊण भवणवासी उबवण्णो, साहू परियोहणट्ठा भागमो। ___ वही, भा० २. पृ० १२५] (ग) सो गाढपमायपिसाय - गहियहिययो, विमुक्क तवचरणे । गारवतिग-परिवतो, सड्ढेसु ममत्त संजुत्तो ॥३ दडसिटिमयसामन्नो, निस्सामन्न पमायमचइता। कालेण मरिय जामो, जसो तत्येव निदमणे ॥४॥ [दर्शनशुद्धि सटीक चरदसपुम्बधरावि, पमायमो जंविनंतकायेसु । एपि ह हा हा पावं, जीवनतए तया सरियं ॥१०॥ [पार्य मंगू कथा] Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [१६. आयं मंगू वाले शिष्य ने कहा - "देवानुप्रिय ! तुम देव, यक्ष अथवा जो भी हो प्रकट होकर बोलो। इस प्रकार तो हम लोग तुम्हारा अभिप्राय किंचित्मात्र भी नहीं समझ पा यक्ष ने खेदपूर्ण स्वर में कहा - "हे तपस्वियो! मैं वही तुम्हारा गुरु प्रार्य मंगू हूँ।". साधुओं ने भी खिन्न मन से कहा - "देव ! आपने इस प्रकार की दुर्गति किस प्रकार प्राप्त की ?" यक्ष ने कहा - "प्रमाद के अधीन होकर चारित्र में शिथिलता लाने वालों की ऐसी ही गति होती है। हमारे जैसे ऋद्धि-रस-साता के गौरव वाले शिथिलविहारियों की ऐसी गति हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? तुम लोग यदि दुर्गति से बचना और सुगति की ओर बढ़ना चाहते हो तो प्रमादरहित होकर उद्यत-विहार से विचरते हुए निर्ममत्व भाव से तप-संयम की आराधना करते रहना।" साधुनों ने कहा - "यो देवानुप्रिय ! तुमने हमें ठीक प्रतिबुद्ध किया है।" यह कह कर उन्होंने तत्परता के साथ संयम-धर्म का प्राराधन प्रारम्भ किया और उद्यत-विहार से विचरने लगे। नंदीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य देववाचक ने, भणगं इस पद से कालिक आदि सूत्रों को पढ़ने वाले. करगं से सूत्रोक्त क्रियाकलाप को करने वाले और झरगं पद से धर्मध्यानं ध्याने वाले प्रादि विशेषणों से प्रार्य मंगू की स्तुति करते हुए उन्हें श्रुतसागर का पारगामी प्राचार्य बताया है। उनके द्वारा कहे गये - "पभावगं नारणदसंणगुणाणं" - इस पद से ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य मंगू ज्ञान दर्शन के प्रबल प्रभावक थे। आगे चल कर प्राचार्य देववाचक ने यहां तक लिख दिया है - "श्रुतसागर के पारगामी एवं धीर आर्य मंगू को वंदन हो।"२ . दिगम्बर परम्परा के मान्य शास्त्र "कसाय-पाहुड" की टीका जयघवला के अनुसार प्रार्य मंक्ष और प्रार्य नागहस्ती कसायपाहुड के चूणिकार प्राचार्य यतिवृषभ के विद्यागुरू माने गये हैं। जैसा कि जयधवलाकार ने लिखा है- प्राचार्य मंक्ष और प्राचार्य नागहस्ती द्वारा प्राचार्य यतिवृषभ को दिव्यध्वनिरूप किरण प्राप्त हुई।' ' दृष्ट्वा प्रासारयद्दीर्घा, जिह्वां बोधयितु सुधीः । तेष्वेकः सात्विक: साघुरुचे त्वं कोऽसि गुह्यकः ।।५।। [प्राचारकल्प] २ भणगं करगं झरगं, पभावगं णाणदसणगुणाणं । वंदामि अज्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं ॥३०॥ [नंदीसूत्र स्थविरावली] 3 .."विउलगिरिमत्थयत्य वड्ढमाणदिवायरादो विरिणग्गमिय गोदम - लोहज्ज - जंबुसामियादि पाइरियपरम्पराए प्रागंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय प्रजमखु - णागहत्थीहितो जइवसहायरियमुवणमिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिग्वज्झरिण-किरणादो गव्वदे। - [कसायपाहुड (यदिवृषभाचार्यकृत चूणि एवं जयधवलाटीका सहित) अणुभागविभक्तो भाग ५, पृ० ३८८] Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. मार्य गंगू] दशपूर्वधर-काल : मार्य मंगू ५३५ यह पहले उल्लेख किया जा चुका है कि नन्दी स्थविरावली की ३१ वीं तथा ३२ वीं गाथाओं में वाचक परम्परा के आर्य मंगू के पश्चात् आर्य धर्म, आर्य भद्रगुप्त, प्रार्य वज्र और प्रार्य रक्षित - इन चार युगप्रधान प्राचार्यों को वाचनाचार्य भी बताया गया है। रिणकार जिनदासगरिण महत्तर, वृत्तिकार प्राचार्य हरिभद्र और टीकाकार मलयगिरि ने इन दोनों गाथाओं का नंदीसूत्र की चूरिण, वृत्ति और टीका में निर्देश तक नहीं किया है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने इन गाथामों को प्रक्षिप्त माना है । इन चार युगप्रधान प्राचार्यों में से आर्य वज्र स्पष्ट रूप से प्रार्य सहस्ती की परम्परा के प्राचार्य हैं। शेष तीन आचार्य आर्य महागिरि की परम्परा के प्राचार्य है अथवा सुहस्ती की परम्परा के- इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये तीनों युगप्रधानाचार्य किसी अन्य ही स्वतन्त्र परम्परा के अथवा प्रार्य महागिरि की परम्परा की किसी शाखा के प्राचार्य हों और इनकी अप्रतिम प्रतिभा के कारण इन्हें वाचनाचार्य माना हो। अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेखों तथा युगप्रधानाचार्य पट्टावली से यह निर्विवाद रूपेण प्रमाणित होता है कि ये चारों ही प्राचार्य अपने समय के महान् प्रभावक युगपुरुष और पागमों के पारदृश्वा थे। इनकी विशिष्ट प्रतिभा के कारण ही इन्हें युगप्रधान प्राचार्य के साथ-साथ वाचनाचार्य भी माना गया है।. ___ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य मंगू, आर्य नन्दिल और आर्य नागहस्ती ये तीनों ही वाचनाचार्य सुदीर्घजीवी हुए हैं और उनके वाचनाचार्य काल में ही उपरोक्त चारों युगप्रधानाचार्य वाचक वंश के न होते हुए भी अपनी विशिष्ट प्रतिभा एवं तलस्पर्शी आगम-ज्ञान के कारण वाचनाचार्य माने गये हैं। इन सभी तथ्यों और मुख्य परम्परा को दृष्टिगत रखते हुए इन चारों प्राचार्यों का परिचय वाचनाचार्य परम्परा में न देकर युगप्रधानाचार्य परम्परा में दिया जा रहा है। मार्य धर्म - युगप्रधानाचार्य मार्य रेवतीमित्र के पश्चात् वीर निर्वाण सं० ४५० में प्रार्य धर्म युगप्रधानाचार्य हुए । प्राप १८ वर्ष की वय में दीक्षित हुए। ४० वर्ष तक श्रमण धर्म की साधना कर माप युगप्रधान पद पर आसीन हुए। ४४ वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहते हुए मापने वीरशासन की प्रभावशाली सेवा की। १०२ वर्ष, ५ मास, ५ दिन की पूर्ण मायु भोग कर आप वीर नि०सं० ४६४ में स्वर्गस्थ हुए । मेरुतुंगीया 'विचारश्रेणी' के उल्लेखानुसार वृद्ध परम्परा में आर्य मंगू का ही अपर नाम धर्म माना गया है। यदि इसमें तथ्य होता तो नंदी स्थविरावली और जयधवला में भी अवश्य इस प्रकार का उल्लेख होता। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग मार्य सिंहगिरि- गणाचार्य आर्य सुहस्ती की परम्परा में आर्य दिन्न के पश्चात् आर्य सिंहगिरि गणाचार्य हुए। आपके सम्बन्ध में केवल इतना ही परिचय उपलब्ध होता है कि आप विशिष्ट प्रतिभाशाली एवं जातिस्मरण ज्ञान सम्पन्न प्रभावशाली प्राचार्य थे। खुशाल पट्टावली के अनुसार वीर नि. सं० ५४७-४८ में अपना स्वर्गवास हुआ। वीर नि. सं. ४६६ में आर्य वज्र का जन्म हुमा, उससे बहुत पहले आर्य समित सिंहगिरि के पास दीक्षित हो चुके थे इससे अनुमान किया जाता है कि आर्य सिंहगिरि वीर नि. सं. ४६० में आचार्य रहे हों। आपके सुविशाल शिष्यपरिवार में से केवल आर्य समित, आर्य धनगिरि, आर्य वज्र और प्रार्य अर्हद्दत्त इन चार प्रमुख शिष्यों के ही नाम उपलब्ध होते हैं । उनका परिचय इस प्रकार है : मार्य समित आर्य समित का जन्म अतिसमृद्ध अवन्ती प्रदेश के तुम्बवन नामक ग्राम में हुआ । आपके पिता का नाम धनपाल था जो कि बहुत बड़े व्यापारी थे। गौतम गोत्रीय वैश्य श्रेष्ठी धनपाल की उस समय के प्रमुख कोट्यधीशों में गणना की जाती थी। आर्य समित के अतिरिक्त श्रेष्ठी धनपाल के एक पुत्री भी थी, जिसका नाम सुनन्दा था। श्रेष्ठी धनपाल ने अपने होनहार पुत्र समित की शिक्षायोग्य वय में शिक्षादीक्षा की समुचित व्यवस्था की। प्रार्य समित बाल्यकाल से ही विरक्त की तरह रहते थे। ऐहिक सुखोपभोगों के प्रति उनके चित्त में किञ्चित्मात्र भी अभिरुचि नहीं थी। किशोरावस्था में प्रवेश करते ही उन्होंने अतुल धन-वैभव और सभी प्रकार की प्रचुर भोगसामग्री का परित्याग कर प्राचार्य सिंहगिरि के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी तुम्बवन ग्राम के निवासी श्रेष्ठी धन के पुत्र-धनगिरि को समितं के साथ प्रगाढ़ मैत्री थी। श्रेष्ठी धनपाल ने अपने पुत्र समित के प्रवजित हो जाने पर उसके मित्र धनगिरि के समक्ष अपनी पुत्री सुनन्दा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा। यद्यपि धनगिरि ऐहिक भोगों के प्रति उदासीन था, तथापि अपने मित्र के पिता द्वारा अनन्य आग्रह किये जाने पर उसने अन्ततोगत्वा सुनन्दा के साथ विवाह किया। आर्य समित की बहिन सुनन्दा ने समय पर महान् प्रतापी एवं प्रभावक प्राचार्य वज्र को जन्म दिया। प्रार्य समित ने दीक्षित होने के पश्चात् गुरुसेवा में रहते हुए विधिपूर्वक शास्त्रों का बड़ी ही लगन के साथ अध्ययन किया। वे मन्त्रविद्या के भी विशेषज्ञ ये। उन दिनों अचलपुर के समीप कृष्णा और वेणा नामक दो नदियों से घिरे हुए एक पाश्रम में ५०० तापस निवास करते थे। उनके कुलपति का नाम देवशर्म Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ प्रार्य समित] दतपूर्वधर-काल : प्रार्य मंगू था.।' दो नदियों से घिरा हा होने के कारण वह पाश्रम ब्रह्मद्वीपक के नाम से प्रसिद्ध था। संक्रान्ति प्रादि कतिपय पर्व दिनों के अवसर पर देवशर्म अपने मत की प्रभावना करने के उद्देश्य से पैरों पर एक विशिष्ट प्रकार का लेप लगाकर सभी तापसों के साथ कृष्णा नदी के जल पर चलता हुमा प्रचलपुर पहुंचता। इस प्रकार का चमत्कारपूर्ण अद्भुत दृश्य देख कर भोले-भाले और भावुक लोग बड़े प्रभावित होते और अशनपानादि से उन तापसों का बड़ा आदर-सत्कार करते। तापसों के भक्तगण बड़े गर्व के साथ श्रावकों के समक्ष अपने गुरु की प्रशंसा करते हए उनसे पूछते - "क्या तुम्हारे किसी गुरु में इस प्रकार की अद्भुत सामर्थ्य है ?" श्रावकों को मौन देखकर वे लोग और अधिक उत्साह और गर्व भरे स्वर में कहते - "हमारे गुरु की तपस्या का जैसा अद्भुत एवं प्रत्यक्ष चमत्कार है, उस प्रकार का चमत्कार और अतिशय न तुम्हारे धर्म में है और न तुम्हारे गुरुषों में ही। वस्तुतः हमारे गुरु प्रत्यक्ष देव हैं, इन्हें नतमस्तक हो श्रद्धापूर्वक नमन करो।" तापसों के भक्तों के इस प्रकार के व्यंगभरे वचनों से श्रावकों के अन्तर्मन को गहरा आघात पहुंचता। उन्हीं दिनों प्रार्य सिंहगिरि के शिष्य एवं प्रार्य वज के मातुल प्रार्य समितसूरि का अचलपुर में पदार्पण हुमा। श्रावकगण ने मार्य समित को वन्दन-नमन करने के पश्चात् भूतल की तरह ही नदी के जल पर भी तापसों के चलने-फिरने की सारी घटना निवेदित की । प्रार्य समित कुछ क्षणों तक मौन रहे । श्रावकों ने पुनः निवेदन किया- "देव ! जनमानस में जिनमत का प्रभाव कम होता जा रहा है । कृपा कर कोई न कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे कि जैन धर्म का प्रभाव बढ़े।" ___आर्य समितसूरि ने सस्मित स्वर में कहा - "तापस जल पर चलते हैं, इसमें तपस्या का कोई प्रभाव नहीं, यह तो उनके द्वारा अपने पैरों पर किये जाने वाले लेप का प्रभाव है । भोले-भाले लोगों को वृथा ही भ्रम में डाला जा रहा है।" ____ श्रावकों ने तापसों द्वारा फैलाये गये मायाजाल और भ्रम को सर्वसाधारण पर प्रकट करने का दृढ़ संकल्प लिए कुलपति सहित सभी तापसों को अपने यहां भोजनार्थ निमन्त्रित किया। जब दूसरे दिन सभी तापस भोजनार्थ श्राधकों के यहां आये तो श्रावकों ने उष्ण जल से सभी तापसों के पैरों को धोना प्रारम्भ किया। कुलपति ने श्रावकों को रोकने का पूरा प्रयास किया। किन्तु श्रावकों ने उनकी एक भी बात नहीं सुनी। "पाप जैसे महात्मानों के चरणकमलों को बिना धोये ही यदि हम आपको भोजन करवा दें तो हम सब के सब महान् पाप के भागी हो जाएंगे" - यह कहते हुए श्रावकों ने बड़ी तत्परतापूर्वक उन सब तापसों के पैरों को खुब मल-मल कर धो डाला। भोजनोपरान्त तापस अपने प्राश्रम की ओर प्रस्थित हुए। श्रावकों ने उन्हें ससम्मान विदा करने के बहाने हजारों नर-नारियों को वहां पहले ही एकत्रित कर लिया था। तापसों के पीछे विशाल जनसमूह जयघोष करता हुअा चलने लगा। ' देवशर्मनामा कुलपतिः परिवसति । [पिण्डनियुक्ति, पत्र १४ (१)] Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ५३८ । जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य समित वेणा के तट पर पहुंचते ही कुलपति के साथ-साथ समस्त तापससमुदाय झिझका। उनके समक्ष प्रति विकट समस्या उपस्थित थी। एक अोर नदी में डूबने का डर था तो दूसरी ओर बड़ी कठिनाई से उपार्जित कीर्ति के मिट्टी में मिलने का भय । लेप का थोड़ा-बहुत प्रभाव तो अवश्य रहा होगा - यह विचार कर कुलपति वेणा के जल में उतरा। वेणा का प्रवाह तेज था और कुलपति के पैरों का लेप गरम पानी से पहले ही धुल चुका था। अतः तापसों का कुलपति वेणा के अगाध एव तीव्र प्रवाहपूर्ण जल में डूबने लगा। उसी क्षण प्रार्य समितसूरि वेणा-तट पर पहुंचे और तापसों के कुलपति को वेणा में डूबता हुआ देखकर बोले - "वेण्णे! हमें उस ओर जाने के लिए मार्ग चाहिये।" यह देख कर विशाल जनसमूह स्तब्ध रह गया कि तत्क्षण नदी का जल सिकुड़ गया और उस नदी के दोनों पाट पास-पास दृष्टिगोचर होने लगे। आर्य समित एक डग में ही वेणा के दूसरे तट पर पहुंच गये। आर्य समितसूरि की अनुपम प्रात्मशक्ति से सभी तापस और उपस्थित नर-नारी बड़े प्रभावित हुए। प्रार्य समित ने उन सबको धर्म का सच्चा स्वरूप समझाते हुए स्व-पर का कल्याण करने के लिए प्रेरित किया। आर्य समित के अन्तस्तलस्पर्शी उपदेश को सुनकर तापस कुलपति अपने ४६६ शिष्यों सहित निर्ग्रन्थ-श्रमण-धर्म में दीक्षित हो गये। वे ५०० श्रमण पहले ब्रह्मद्वीप आश्रम में रहते थे अतः श्रमण धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् उनकी शाखा "ब्रह्मद्वीपिका शाखा" के नाम से लोक में प्रसिद्ध हो गई।' - आर्य समित अपने समय के महान् प्रभावक प्राचार्य थे। उन्होंने आत्मकल्याण के साथ-साथ अनेक भव्यों को साधना-पथ पर आरूढ़ कर जिनशासन की अनुपम सेवाएं की। प्रार्य धनगिरि . प्रार्य सिंहगिरि के दूसरे प्रमुख शिष्य आर्य धनगिरि ने युवास्था में बिपुल वैभव और अपनी पतिपरायणा गुर्विरणी पत्नी के मोह को छोड़ कर जो उत्कट त्याग-वैराग्य का अनुपम उदाहरण रखा उस प्रकार का अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। आपका परिचय आर्य वज्र के परिचय के साथ दिया जा रहा है । मार्य महत्त पापका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। मायं मंगू के समय के प्रमुख राजवंश मार्य मंगू के वाचनाचार्यकाल में, वीर नि० सं० ४७० में तदनुसार ईसा से ५७ वर्ष पूर्व तथा शक संवत् से १३५ वर्ष पूर्व अवन्ती के राज्य-सिंहासन पर 'तेरपंचतावससया समियारियस्स समीवे पव्वतिता । ततो य बंभदीवा साहा संभुत्ता। [निशीथचूरिण, भा० ३, गा० ४२७२, पृ० ४२६] Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायं मंगू के स० के प्र० रा०] दशपूर्वघर-काल : मायं मंगू महान् प्रतापी एवं परमप्रजावत्सल विक्रमादित्य नामक गण-राजा आसीन हुआ। विक्रमादित्य जिस दिन उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ, उसी दिन से अवन्ती राज्य में ओर उसके १७ अथवा १३ वर्ष पश्चात् सम्पूर्ण भारतवर्ष में उसके नाम से एक संवत् प्रचलित हुअा जो क्रमशः कृत संवत्, मालव संवत्, मालवेश संवत् और विक्रम सम्वत् के नाम से व्यवहृत हुा । आज भारत के प्रायः सभी भागों में विक्रम संवत् प्रचलित है और प्रतिदिन उस ऐतिहासिक दिवस का जन-जन को स्मरण कराता रहता है, जिस दिन शकारि विक्रमादित्य राज्य सिंहासन पर बैठा। दो सहस्र से भी अधिक वर्षों से विक्रम संवत् जैन कालगणना को सुनिश्चित करने तथा भारतीय ऐतिहासिक तिथिक्रम को प्रामाणिक रूप से सुनियोजित-सुव्यवस्थित बनाये रखने में प्रमुख एवं सर्वसम्मत आधार माना जाता रहा है। वीर विक्रमादित्य के शौर्य, दानशीलता, परोपकारपरायणता, न्यायप्रियता एवं प्रजावत्सलता आदि गुणों से अोतप्रोत यशोगाथाओं से भारतीय वाङ्मय भरा पड़ा है। ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी के विद्वान् गुणाढ्य की पैशाची भाषा की महान् कृति "वृहत्कथा" के आधार पर सोमदेव भट्ट द्वारा रचित "कथासरित्सागर" में विक्रमादित्य को अनाथों का नाथ, बन्धुहीनों का बान्धव, पितृहीनों का पिता, निराश्रितों का आश्रयदाता और प्रजाजनों का प्राण-त्राण एवं सर्वस्व तक बताया गया है।' विक्रम सम्बन्धी साहित्य के सम्यक पर्यालोचन के पश्चात् यदि यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम और महान् कर्मयोगी श्रीकृष्ण के पश्चात् भारतीय साहित्य, साहित्यकारों और जनमानस पर सबसे अधिक गहरा प्रभाव विक्रमादित्य का रहा है। वस्तुतः विक्रमादित्य का नाम भारतीय जनमासन में रम गया है। एक अज्ञात प्राचीन कवि ने तो विक्रमादित्य के लिये यहां तक कह दिया है कि - विक्रमादित्य नृपति ने उन महान कार्यों को किया, जिनको कि कभी कोई नहीं कर सका, इतने बड़े-बड़े दान दिये, जो कभी कोई नहीं दे सका और ऐसे-ऐसे असाध्य कार्यों को साध्य बनाया, जिनको अन्य कोई साध्य नहीं बना सका।२।। __ भारतीय विभिन्न भाषाओं में विक्रमादित्य के सम्बन्ध में बड़ी ही प्रचुर मात्रा में साहित्य निर्मित किया गया है। उस समग्र साहित्य की यदि सूची तैयार की जाय तो संभवतः वह एक बहुत बड़ी सूची होगी। विक्रमादित्य के जीवन से सम्बन्धित अनुमानतः ५० से ऊपर पुस्तकें तो जैन साहित्य में आज दिन तक उपलब्ध हैं। अनुमानतः इतनी ही विक्रम सम्बन्धी पुस्तकें जैनेतर वाङमय में होनी चाहिये। इनके अतिरिक्त लोकभाषाओं में हजारों जनप्रिय लोककथाएं एक ' स पिता पितृहीनानामबंधूनां स बान्धवः अनाथानां च नाथः सः, प्रजानां कः स नाभवत् ।। १८।११६२ २. तत्कृतं यन्न केनापि तहत्तं यन्न केनचित् । ___ तत्साधितमसाध्यं यदि क्रमार्केण भूभुजा ।।१२४६।। [साङ्गधरपद्धति Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० प्राख्यान प्रचलित हैं, जिनमें विक्रम की न्यायप्रियता, परोपकारिता प्रादि अनेक अद्भुत गुणों का बड़ा ही रोचक वर्णन उपलब्ध होता है । कुछ जैन ग्रन्थों के अाधार पर विक्रमादित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : मालव प्रदेश की अवन्ती नगरी में गर्दैभिल्ल नामक राजा न्यायपूर्वक शासन करता था । उसकी पहली रानी धीमती से भर्तृहरि श्रौर उसके पश्चात् दूसरी सनी श्रीमती से विक्रम का जन्म हुआ ।" अश्विनीकुमारों के समान सुन्दर स्वरूप वाले वे दोनों कुमार क्रमशः किशोर वय में प्रविष्ट हुए । गर्दभिल्ल ने अपने बड़े पुत्र का राजा भीम की राजकुमारी अनंगसेना के साथ बड़ी धूमधाम- पूर्वक पाणिग्रहण संस्कार करवा दिया । तदनन्तर गर्दभिल्ल ने अनेक देशों को विजित कर उन पर अपना श्राधिपत्य स्थापित किया । जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ भार्य मंगू के स. के प्र. रा. 1 कालान्तर में शूल रोग से राजा गर्दभिल्ल की मुत्यु हो गई और मन्त्रियों भर्तृहरि का प्रवन्ती के राज्यसिंहासन पर राज्याभिषेक कर दिया । एक दिन अपने अग्रज भर्तृहरि द्वारा किसी तरह अपमानित किये जाने के कारण विक्रमादित्य प्रमर्षवशात् खड्ग लेकर एकाकी ही प्रवन्ती राज्य से निकल पड़ा । 3 इस प्रकार बड़ा भाई भर्तृहरि प्रवन्ती राज्य पर शासन करने लगा और उसका अनुज विक्रमादित्य देश-देशान्तरों में परिभ्रमण करने लगा । २ १ तत्र न्यायाध्वना सर्वा, जनता पालयन् सदा । गर्दभिल्लः नृपो राज्यं चकार स्वर्गिनाथवत् ॥१८॥ धीमती श्रीमतीत्याह्वे द्वे पत्न्यौ तस्य सुन्दरे ।।२१। दधाना धीमती गर्भं सुन्दरस्वप्नसूचितम् । शुभेऽह्नि सुषुवे पुत्रं पूर्वेवार्कस्फुरद्युतिम् ।। २२ ।। जन्मोत्सवं नृपः कृत्वाकार्य सज्जनबान्धवान् । ददौ भर्तृ हरेत्याख्यां पुत्रस्य मुदिताशयः ।। २३ ।। सम्प्राप्त समये हारिवासरेऽर्कोदयक्षले । श्रीमती सुषुवे पुत्रं निधानमिव मेदिनी ॥ २६ ॥ गर्दभिल्ल क्षमापालः कृत्वा जन्मोत्सवं मुदा । विक्रमार्केति नामादात्, सूनोरकं विलोकनात् ॥३०॥ २ प्रत्येद्यः शूलरोगेण गर्दभिल्लमहीपतिः । मृत्वा कस्मान्मरुद्धाम, जगाम धर्मतत्परः ||३६|| मृत्युकृत्यादिके कार्ये कृते मन्त्रीश्वरादयः । मदुत्सवं व्यधुर्भतृहरे राज्याभिषेचनम् ।।४०।। भूपेन विक्रमादित्योऽपमानं गमितान्यदा । एकाकी खङ्गमादाय ययौ देशांतरे क्वचित् ॥४२ [विक्रमचरितम्, सगं १ ] [ वही ] [ वही] Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगू के स० के राजवंश] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य मंगू शुभशीलगणी ने विक्रमादित्य के माता-पिता, भाई आदि का उपरोक्त परिचय देने के पश्चात् “यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता" यह लोकविश्रुत श्लोक देते हुए अमरफल वाला वृत्तान्त दिया है, जिसमें एक ब्राह्मण द्वारा अमरफल प्राप्त करने, उसे भर्तृहरि राजा को देने, राजा द्वारा अपनी रानी को दिये जाने, रानी द्वारा कुबड़े अश्ववाहक को, प्रश्ववाहक द्वारा गरिएका को और गरिएका द्वारा पुनः राजा भर्तहरि को उस फल के दिये जाने का उल्लेख है। इसमें बताया गया है कि वस्तुस्थिति से अवगत होते ही भर्तहरि संन्यस्त हो वन में चला गया और उसके पश्चात् विक्रमादित्य उज्जयिनी के राज्य-सिंहासन पर आसीन हुमा । अन्यान्य विद्वानों द्वारा रचित विक्रमचरित्रों में कतिपय अंशों में इससे मिलता-जुलता विक्रम का प्रारम्भिक परिचय दिया हमा है। इनमें से किसी भी ग्रंथ में विक्रमादित्य के वंश के सम्बन्ध में प्रकाश नहीं डाला गया है। हिमवन्त स्थविराबलोकार और विक्रमादित्य प्राकृत और संस्कृत भाषा की हस्तलिखित पुस्तक “हिमवन्तस्थविरावली" में विक्रमादित्य को मौर्यवंशी बताया गया है। हिमवन्त स्थविरावली का एतद्विषयक उल्लेख निम्नलिखित रूप में है :. 'अवन्ती नगरी में सम्प्रति के निष्पुत्र निधन के अनन्तर अशोक के पौत्र तथा तिष्यगुप्त के पुत्र बलमित्र एवं भानुमित्र नामक राजकुमार अवन्ती के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ़ हुए। वे दोनों भाई जैनधर्म के परमोपासक थे। उनके निधन के पश्चात्. बलमित्र का पुत्र नभोवाहन प्रवन्ती के राज्य का स्वामी बना। नभोवाहन भी जैनधर्म का अनुयायी था। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र गर्दभिल्ल राजा बना । गर्दभिल्ल ने कालकाचार्य द्वितीय की बहिन साध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण करवा कर उसे अपने अन्तःपुर में बन्द कर दिया । सब प्रकार से समझाने-बुझाने पर भी गर्दभिल्ल ने त्याग-पष की पथिका साध्वी सरस्वती को मुक्त नहीं किया। अन्ततोगत्वा कालकाचार्य ने अन्य और कोई चारा न देख भगुकच्छ के अधिपति अपने भागिनेय बलमित्र-भानुमित्र' एवं सिन्धप्रदेश के शक राजामों की सम्मिलित सेना द्वारा उज्जयिनी पर माक्रमण करवा दिया। भीषण युद्ध में गर्दभिल्ल मारा गया और शकों ने उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। प्रार्य कालक ने अपनो बहिन साध्वी सरस्वती को पुनः संयम धर्म में स्थापित किया और वे स्वयं भी समुचित प्रायश्चित्त कर संयमसाधना में निरत हुए। ये दोनों बन्दु पार्यकालक के मागिनेव गुबन्ध राज्य के अधिपति बलमित्र मानुमित्र से मित्र हैं। इनका सत्ताकाल वीर वि.सं. ३५३ से ४१३ तक का है जबकि महाप के बनमिन-बानुमित्र का समय बीर निवारण से ४५४ वर्ष पश्चात् का है। [सम्पादक Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [हि स्थ० और विक० विदेशी शकों के अत्याचारों से संत्रस्त प्रजा का नेतृत्व कर विक्रमादित्य ने शकों को परास्त किया और ४ वर्ष पश्चात् ही पुनः अपने पैतृक राज्य पर अधिकार कर लिया।'' प्राचार्य मेरुतुग की 'विचारश्रेणी' तथा अनेक प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित राजवंशों के विवरणों के संदर्भ में विचार करने पर हिमवंत स्थविरावली में वरिणत उपरोक्त घटनाक्रम संगत और विश्वसनीय प्रतीत होता है। कहावली एवं परिशिष्ट पर्व में वीर निर्वाण के पश्चात् राजवंशों की कालगणना में पालक के राज्य के ६० वर्षों को सम्मिलित न किये जाने के कारण जो कालक्रम के पालेखन में त्रुटि रही है, तथा उसके परिणामस्वरूप कालगणनाविषयक एक नवीन मान्यता विगत अनेक शताब्दियों से प्रचलित रही है, उसका प्रभाव हिमवन्त स्थविरावली. कार पर भी पूरी तरह से पड़ा है। उपरिचित उद्धरण में हिमवन्त स्थविरावलीकार ने जो ऐतिहासिक घटनाओं का तिथिक्रम दिया है, उन सभी तिथियों में यह ६० वर्ष का अन्तर स्पष्टतः परिलक्षित होता हैं। जैन कालगणना विषयक उस दूसरी मान्यता के प्रभाव में हिमवन्तस्थविरावलीकार ने ६० वर्ष पश्चात् घटित होने वाली घटनाओं का तिथिक्रम ६० वर्ष पहले का दे दिया है। नन्दवंश के अन्त एवं मौर्य-शासन के प्रारम्भ होने के काल की चर्चा करते समय इस कालभेद के सम्बन्ध में पहले प्रमाण-पुरस्सर पूरा प्रकाश डाला जा चुका है। अतः यहां उसकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। सोमदेव रचित कथासरित्सागर में विक्रमादित्य के पिता का नाम महेन्द्रादित्य और माता का नाम सौम्यदर्शना दिया गया है। उसमें यह बताया गया है कि महेन्द्रादित्य ने पुत्र की कामना से शिव की उपासना की। शंकर के कृपाप्रासद से शंकर का माल्यवान नामक गण सौम्यदर्शना के गर्भ से उत्पन्न हुआ और महेंद्रादित्य ने उसका नाम विक्रमादित्य रखा। सिंहासन बत्तीसी आदि अनेक ग्रंथों में भर्तहरि और विक्रमादित्य के जन्म के सम्बन्ध में बड़ा ही अद्भुत् उल्लेख उपलब्ध होता है। उससे सभी परिचित हैं प्रतः उसे यहां देने की आवश्यकता नहीं। पहावंती एयरम्मि संपइ णिवस्स णिपुत्तस्स सग्गगमणंतरमसोगणिवपुत्ततिस्सगुत्तस्स बलमित्तभाणुमित्तणामधिज्जे दुवे पुत्ते वीरानो दो सय चउणवई वासेसु विइक्कतेसु रजं पत्ते । ते णं दुन्नि वि भाया जिणधम्माराहगे वीरानो चउवनाहियतिसयवासेसु विइक्कतेसु सग्गं पत । तयणंतरं बलमित्तस्स पुत्तो रणभोवाहणो अवंती रज्जे ठिभो । से यि य रणं जिरणधम्मारणुगो वीरानो तिसयचउणवइ वासेसु विइक्कतेसु सग्गं पत्तो । तो तस्स पुत्तो गद्दहोविज्जोवेप्रो गहिल्लो णिवो भवंतीणयरे रज्ज पत्तो।। ............" तत्थ णं भीसणे जुज्झे जायमाणे गद्दहिल्लो णिवो कालं किच्चा णेरइयातिहिमो जायो ।...... तउ गद्दहिल्लरिणवपुतो विक्कमणामधिज्जो तं सामंतणामधिज्ज सगरायमाकम्म वीरानो दसाहियच उसयवासेसु विइक्कतेसु अवंती रगयरे र पत्तो । से वि य रणं विक्कमक्को रिणवो मईव परक्कमजुमो जिणधम्माराहगो परोपयारेगणिट्ठो भवंतीए गयरे रज्ज कुणमारणो लोग्गारणमईव पियो जानो। [हिपवन्तस्थविरावली, मप्रकाशित] Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि० स्थ० और विक्रमादित्य ] दशपूर्वघर - काल : श्रार्य मंगू ५४३ जहां एक ओर विक्रमादित्य का संवत् आज से २०३० वर्ष पहले से चला ग्रा रहा है, संस्कृत, प्राकृत एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं में विक्रम का जीवनपरिचय देने वाले १०० से ऊपर ग्रंथ, हजारों आख्यान और लोककथाएं भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं तथा विक्रम के अस्तित्व को प्रमाणित करने वाले सैकड़ों शिलालेख, दानपत्र आदि विद्यमान हैं, वहां दूसरी ओर यह देखकर बड़ा आश्चर्य और दुःख होता है कि भारतीय जनजीवन में शताब्दियों से पूर्णतः रमे हुए, भारतीयों के हृदयसम्राट् महान् प्रतापी राजा विक्रमादित्य के अस्तित्व के विषय ' में भी कतिपय पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् सन्देह प्रकट करते हैं । 'ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में इस प्रकार का महान् प्रतापी विक्रमादित्य नामक राजा हुआ अथवा नहीं।' अपनी इस शंका की पुष्टि में मुख्य रूप से उन विद्वानों द्वारा यही कहा जाता है कि ईसा से ५७ वर्ष पूर्व यदि विक्रमादित्य नाम का महान् प्रतापी राजा हुआ होता और उसने अपने नाम से संवत् प्रचलित किया होता तो उसके नाम के सिक्के अवश्य उपलब्ध होते । इसके साथ ही साथ ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से ले कर ईसा को दवीं शताब्दी के बीच के किसी समय के कम से कम एक दो शिलालेख तो विक्रम संवत् के उल्लेख के साथ मिलते | पर इस अवधि के बीच का एक भी शिलालेख इस प्रकार का नहीं मिलता जिस पर स्पष्ट शब्दों में विक्रम संवत् अंकित हो । विक्रम संवत् के उल्लेख से युक्त सबसे पहला शिलालेख चण्डमहासेन नामक चौहान राजा का धोलपुर से मिला है जिस पर विक्रम संवत् ८६८ खुदा हुआ है । इस प्रकार यह लेख ई० सन् ८४१ का है । इससे पहले के जितने भी अभिलेख विक्रमादित्य के संवत् से सम्बन्धित बताये जाते हैं, उन पर विक्रम संवत् नहीं अपितु निम्नलिखित पद खुदे हुए हैं : (१) श्रीमालवगरणाम्नाते प्रशस्ते कृतसंज्ञिते । (२) कृतेषु चतुषु वर्षशतेष्वेकाशीत्युत्तरेष्वस्यां मालवपूर्व्वस्यां । ( नगरी का लेख ) (३) मालवानां गरणस्थित्या याते शतचतुष्टये । त्रिनवत्यधिकेऽब्दानामृतौ सेव्यघनस्तने ।। ( मन्दसोर का कुमारगुप्त ( १ ) का शिलालेख ) जो विद्वान् इस प्रकार की शंका उठाते हैं, उन्हें सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी और उसके पश्चात् की भी कतिपय शताब्दियों में देश की राजनैतिक स्थिति कितनी अस्थिर, डांवाडोल और विदेशी प्राक्रमरणों, गृह कलहों के कारण उथलपुथल से भरी होगी। इस प्रकार के संक्रान्तिकाल में यह बहुत कुछ संभव है कि वह ऐतिहासिक सामग्री बाद में प्राये हुए शकों द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर दी गई हो अथवा वह सामग्री इधर-उधर बिखर गई हो । वह कितना भीषण संक्रान्तिकाल था, इसका अनुमान मालव गण द्वारा अपनी जन्मभूमि झेलम के तट ( पंजाब ) का परित्याग किया जाकर प्रथमतः Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [हि० स्थ० और वि० पूर्वी राजस्थान में और उसके पश्चात् अवन्ती राज्य में बसने से लगाया जा सकता है। विक्रम ने अवन्ती के राज्यसिंहासन पर आसीन होते ही अपने नाम का संवत् चलाने के स्थान पर कृत संवत् अथवा मालव संवत् क्यों चलाया ? इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय विद्वानों ने आज तक एक बड़े महत्वपूर्ण तथ्य की ओर किंचित्मात्र भी दृष्टिनिक्षेप नहीं किया है। उस तथ्य की ओर ध्यान देने से संभवतः इस प्रश्न का सहज ही समाधान हो जाता है। वह तथ्य यह है कि बलमित्र-भानुमित्र तथा शकों की सम्मिलित सेना द्वारा पराजित एवं राज्यच्युत होने के पश्चात् गर्दभिल्ल की मृत्यु हो गई। ऐसी स्थिति में युवा राजपुत्र विक्रमादित्य के पास न तो कोई संगठित सेना ही रही और न कोई छोटा-मोटा राज्य ही। अपने पैतृक राज्य पर अधिकार करने के लिये निश्चित रूप से उसे विदेशी शकों के विरुद्ध प्रजा में विद्रोह भड़काने तथा किसी अन्य शक्ति की सहायता लेने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था। ऐसी स्थिति में क्या यह अनुमान लगाना अनुचित होगा कि विक्रम ने उस समय की एक वीर और योद्धा जाति के मालवों के साथ वैवाहिक अथवा अन्य किसी प्रकार के सम्बन्ध के माध्यम से मैत्री कर कार्यसिद्धि के लिये उनकी सहायता प्राप्त करने का पूरे मनोयोग से प्रयास किया होगा? इस प्रयास में सफलता प्राप्त होते ही निश्चित रूपेण विदेशी आतताइयों के अत्याचारों से पीड़ित अवन्ती की प्रजा में विद्रोह की आग भड़का, मालवों की सहायता से विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर प्रवन्ती के अपने पैतक राज्य पर अधिकार कर लिया होगा। झेलम के तटवर्ती पंजाब के उपजाऊ प्रदेश को परिस्थितिवश छोड़ कर आये हुए मालव लोगों ने भी अवन्ती प्रदेश की उर्वरा भूमि पर स्थायी रूप से बस जाने की प्राशा लिये शक राज्य के विनाश के लिये प्राणपण से विक्रमादित्य की सहायता की होगी। ___मालवों के इस प्रसीम उपकार के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये विक्रमादित्य ने प्रवन्ती प्रदेश का नाम मालवं प्रौर मालवों के साथ हुई मैत्री को अमर बनाने के लिये प्रारम्भ में मालव राज्य में और कालान्तर में समस्त भारत में कृत सम्वत् अथवा मालव संवत् चलाया। लेखन प्रादि में भले ही यह कृत संवत् मालव संवत् लिखा जाता रहा हो पर शकों को भारत की धरा से भगा देनेवाले अपने प्रतापी एवं परोपकारी सम्राट के प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा प्रकट करते हुए जनता जनार्दन ने बोलचाल में इसे विक्रम सम्वत के नाम से ही व्यवहार में लिया होगा। कोटि-कोटि कण्ठों पर चढा हुमा विक्रम संवत् अन्ततोगत्वा लेखन मादि में भी कृत संवत्-मालव संवत के स्थान पर व्यवहृत होने लगा। __ ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नामक एक महाप्रतापी राजा हुमा, इस तथ्य की पुष्टि केवल जनश्रुति ही डिण्डिमघोष के साथ नहीं करती अपितु ऐतिहासिक मनुश्रुति भी इसकी पुष्टि करती है। सभी मम्वप्रतिष्ठ विद्वानों को Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ विक्रमादित्य] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य मंगू विक्रम संवत के आधार पर, ईसा की पहली शताब्दी के ऐतिहासिक विद्वान सातकर्णी राजा हाल को 'गाथासप्तशती' के उल्लेखों एवं उन्हीं के समकालीन विद्वान् गुरगाढय की वृहत्कथा के उल्लेखों के आधार पर यह तो स्वीकार करना ही होगा कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में विक्रमादित्य नामक प्रतापी राजा हा है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान डॉ० स्टेनकोनो ने भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता के इस पहल को स्वीकार किया है।। जनअनुश्रुति और ऐतिहासिक अनुश्रुति के साथ-साथ साहित्यिक अनुश्रुति से भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता की पुष्टि होती है। यह पहले बताया जा चुका है कि जैन एवं जैनेतर साहित्य के १०० से अधिक संस्कृत-प्राकृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के ग्रन्थ और हजारों आख्यान विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हैं। उनमें स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् तदनुसार ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नामक एक प्रतापी राजा हुमा । अब यहां इस तथ्य की पुष्टि करने वाले कतिपय प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं . १. ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य के अस्तित्त्व को सिद्ध करने वाले प्रगणित साधनों में विक्रम संवत् सबसे प्रमुख और प्रकाव्य प्रमाण है। हाथ कंगन को क्या प्रारसी' - तथा 'प्रत्यक्षे कि प्रमाणम्' - इन सूक्तियों को सार्थक करते हुए विक्रम संवत् ने वस्तुतः विक्रमादित्य के अस्तित्व को अमर बना दिया है। जिस संवत् का विगत २०३० वर्षों से अनवच्छिन्न-अजस्र गति से व्यवहार भारत में चला पा रहा है, उसका प्रचलन विक्रम नामक एक महान् प्रतापी राजा ने किया था- इस तथ्य को किस आधार पर अस्वीकार किया जा सकता है ? भारत के सुविशाल भूभाग में प्रायः सर्वत्र विक्रम संवत् का व्यवहार किया जाता है। इतने सुविशाल भूभाग में विक्रम.संवत् का पिछले २०३० वर्षों से उपयोग किया जाना- यह एक तथ्य ही इस बात का प्रबल एवं पर्याप्त प्रमाण है कि प्राज से २०३० वर्ष पहले विक्रम का अस्तित्व था, जिसने कि विक्रम संवत् का प्रचलन किया। २. ईसा की प्रथम शताब्दी में हुए सातवाहनवंशी राजा हाल ने अपने 'गाथासप्तशती' नाम - मंगठीत ग्रन्थ में विक्रमादित्य की दानशीलता का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित गाथा प्रस्तुत की है : संवाहणसुहरसतोसिएण, देन्तेण तुहकरे लक्खं । चलणेण विक्कमाइ, चरिममणुसिक्सि तिस्सा ।।४६४ प्रर्थात् - जिस प्रकार महादानी राजा विक्रमादित्य अपने सेवकों द्वारा की हुई चरणसंवाहनादि साधारण सेवामों से भी संतुष्ट होकर उन्हें लाखों स्वर्ण मुद्रामों का दान कर देता था, उसी प्रकार विक्रमादित्य को उस दानशीलता का a "Problems of Saka and Satavabava History" - Journal of the Bibar and Orissa • Research Society, 1930. Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग . [विक्रमादित्य अनुकरण करते हुए लाख के लाल रस से रंगे हए प्रियतमा के चरणों ने प्रियतम द्वारा किये गए चरण-संवाहन से तुष्ट होकर प्रियतम के हाथों मे लाख (लाख स्वर्णमुद्राओं के समान लाख का लाल रंग) दे डाला। गाथा में वर्णित शृगाररस के अद्भुत श्लेष से यहां कोई प्रयोजन नहीं । यहां इस गाथा से यही बताना अभिप्रेत है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में हए विद्वान् राजा हाल ने विक्रम की लोकप्रसिद्ध दानशीलता का उल्लेख किया है। गाथा सप्तशती में हाल ने अपने समय में प्रसिद्ध, चुनी हुई, चमत्कारपूर्ण गाथाओं का संग्रह किया था - इस तथ्य से यह प्रमाणित होता है कि उपरोक्त गाथाराजा हाल के समय से पूर्व की कोई प्रसिद्ध रचना है और हाल से बहुत पहले ही विक्रमादित्य की दानशीलता की यशोगाथाएं लोक में गुंजरित हो चुकी थीं। . __यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 'गाथासप्तशती' के रचयिता महाराजा हाल के ही एक पूर्वज के हाथों विक्रमादित्य रणक्षेत्र में आहत हुए थे और उस शस्त्राघात के फलस्वरूप उज्जयिनी लौटने पर विक्रमादित्य की मृत्यु हुई थी। ३. सातवाहन वंशी राजा हाल के समकालीन विद्वान् गुणान्य ने पैशाची भाषा में "वृहत्कथा" नामक ग्रन्थ की रचना की थी। आज वह मूल ग्रंथ कहीं उपलब्ध नहीं है। सोमदेव भट्ट ने 'वृहत्कथा' का संस्कृत भाषा में रूपान्तर कर कथासरित्सागर की रचना की, जो प्राज उपलब्ध है। कथासरित्सागर के लम्बक ६, तरंग १ में विक्रमादित्य का विस्तार के साथ परिचय दिया हुआ है। . "कथासरित्सागर" के लम्बक १८, तरंग १ के निम्नलिखित श्लोक में विक्रमादित्य की, महिमा का जिन शब्दों में गान किया गया है, उस प्रकार का सौभाग्य संभवतः श्री राम कृष्ण को छोड़ कर अन्य किसी राजा को प्राप्त नहीं हुप्रा हीगा : . स पिता पितृहीनानामबंधूनां स बान्धवः । अनाथानां च नाथः सः, प्रजानां कः स नाभवत् ।। ४. 'भविष्यपुराण' में भी विक्रमादित्य का अधोलिखित रूप में उल्लेख उपलब्ध होता है : शकानां च विनाशार्थमार्यधर्मविवृद्धये । जातः शिवाज्ञया सोऽपि, कैलाशात् मुह्यकालयात् ।। विक्रमादित्य नामानं, पिता कृत्वा मुमोह ह । तस्मिन्काले द्विजः कश्चिजयंतो नाम विश्रुतः ।। तत्फलं तपसा प्राप्तः, शक्तश्च स्वगृहं ययौ। जयंतो भर्तहरये, लक्ष स्वर्णेन वर्णयन् ।। भुक्त्वा भर्तहरिस्तत्र योगारूढ़ो वनं गतः । विक्रमादित्य एवास्य, भुक्त्वा राज्यमकंटकम् ॥ [भविष्य पुराण, सण्ड २, अध्याय २३] Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमादित्य ] दशपूर्वघर - काल : श्रार्य मंगू ५४७ ५. स्कन्द पुराण में भी विक्रमादित्य का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिसमें बताया गया है कि कलियुग के ३००० वर्ष बीतने पर ( ईसा से १०० वर्ष पूर्व ) विक्रमादित्य का जन्म होगा । ६. गुरणाढ्य की 'वृहत्कथा' के आधार पर क्षेमेन्द्र द्वारा रचित 'वृहत्कथा मंजरी' में भी निम्नलिखित रूप में विक्रमादित्य का उल्लेख किया गया है :• ततो विजित्य समरे कलिंग नृपति विभुः । राजा श्री विक्रमादित्यः स्त्रीप्रायः विजयश्रियम् ॥ अथ श्री विक्रमादित्यो, हेलया निर्जिताखिलः । म्लेच्छान् काम्बोज यवनान् चीनान् हुरगान् सबर्बरान् ॥ तुषारान् पारसीकांश्च त्यक्ताचारान् विशृंखलान् ! हत्वा भ्रूभंगमात्रेरण, भुवो भारमवारयत् ।। तं प्राह भगवान् विष्णुस्त्वं ममांशो महीपते । 'जातोऽसि विक्रमादित्य पुरा म्लेच्छ शकांतकः ।। यह यहां उल्लेखनीय है कि कथासरित्सागर के विद्वान् सम्पादक श्री. दुर्गाप्रसाद शास्त्री ने गुणाढ्य का समय ई० सन् ७८ के आसपास का माना है । ७: श्रीमद्भागवत् में भी गर्दभिन् राजानों के होने का संक्षेप में उल्लेख है, जो इस प्रकार है : " सप्ताभीरा श्रावभृत्या, दशगर्दभिनो नृपाः । कंका षोड़श भूपाला, भविष्यन्त्यति लोलुपाः ||२६ [ श्रीमद्भागवत, स्कंध १२, अ० १] ८. पहली शताब्दी ई० पूर्व की कुछ मालव मुद्राएं मालव प्रान्त में प्राप्त हुई हैं, उनमें से कतिपय मुद्राओं पर एक ओर सूर्य का चिन्ह तथा दूसरी प्रोर 'मालवानां जय:' और 'मालवगरणस्य जयः' की छाप लगी हुई है । ये मुद्राएं ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य द्वारा शकों पर मालव जाति के योद्धाओं की सहायता से प्राप्त की गई बड़ी विजय की साक्षी देती हैं। इन मुद्राओं पर एक और अंकित सूर्य का चिन्ह विक्रमादित्य शब्द के संक्षिप्त रूप " श्रादित्य" का द्योतक है । 1 ६. महाकवि बारण भट्ट के पूर्व कालिक कवि सुबन्धु ने 'वासवदत्ता' के प्रास्ताविक पद्य १० में विक्रमादित्य का निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया है :सारसवन्ता विहता, नवका विलसन्ति चरति नो कंकः । सरसीव कीर्ति शेषं, गतवति भुवि विक्रमादित्ये ॥ १०. विक्रम संवत् के प्रचलन से पहले चेटक, श्रेणिक, कूरिणक, चण्ड प्रद्योत, नन्द, चन्द्रगुप्त, प्रशोक प्रादि महाप्रतापी राजाओं में से किसी ने विक्रमादित्य के विरुद को धारण नहीं किया। ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य से लगभग दो तीन शताब्दी पश्चात् सात वाहन सम्राट् गौतमीपुत्र 'सातकरिण मे भौर लगभग चार सौ - पांच सौ वर्ष पश्चात् गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विक्रमादित्य ने 'विक्रमादित्य' का विरुद धारण किया। यह भी इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नामक राजा हुया और उसने विक्रम संवत् चलाया। उसे प्रादर्श मान कर सातकरिण और गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त ने भी अपने अपने नाम के साथ 'विक्रमादित्य' का विरुद लगाया। ११. विक्रमादित्य की राजसभा में ६ रत्न थे - इस प्रकार का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। 'ज्योतिविदाभरण' ग्रन्थ में विक्रमादित्य की राज्यसभा के ६ रत्नों के नामों का उल्लेख है, जो इस प्रकार है : धन्वन्तरिक्षपणकाऽमरसिंह शंकु, वैतालभट्रघटखपरकालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां, रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ।। इन ६ रत्नों के समय को निर्धारित करने के सम्बन्ध में विद्वान् प्रयत्नशील हैं । इनमें से कतिपय रत्नों का समय ईसा पूर्व पहली शताब्दी ही ठहरता है। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य राजा हुआ और उसने विक्रम संवत् चलाया। १२. इन सब के अतिरिक्त विक्रमादित्य के अस्तित्व को सिद्ध करने वाला एक ऐसा प्रमाण है जो पूर्णतः निष्पक्ष और विदेशी साक्ष्य पर आधारित है। वह साक्षी है अरब देश के साहित्य की जो इस प्रकार है : "हजरत मोहम्मद साहब से १६५ वर्ष पूर्व 'जहम बिनतोई' नामक अरब का एक कवि हो गया है, जो प्रोकाज- मक्का में प्रतिवर्ष भरे जाने वाले अरव के उस समय के सबसे बड़े मेले के कवि सम्मेलन में तीन वर्ष तक लगातार सर्वप्रथम प्राता रहा । मक्का के इस मेले में हजरत मोहम्मद साहब से लगभग २००० वर्ष पूर्व तक के कवि सम्मेलनों में प्रथम आने वाले कवियों की कविताओं को सोने के पत्रों पर अंकित कर मक्का के विशाल मंदिर में टांगा जाता पा रहा था। प्ररव के उस समय के महाकवि 'जहम बिनतोई की, उन तीन कविताओं में से एक कविता इस प्रकार है :इत्रश्शफाई सनतुल बिकरमतुन, फहलमिन करीमुन यर्तफीहा वयोवस्सरू । बिहिल्लाहायसमीमिन एला मोतकब्बेनरन,बिहिल्लाहायूही कैद मिन होवा यफखरू। फज्जल-प्रासारि नहनो मोसारिम बेजेहलीन, युरोदुन बिप्राबिन कजनबिनयखतरू । यह सबदुन्या कनातेफ़ नातेफी बिजेहलीन, प्रतदरी बिलला मसीरतुन फ़खेफ़ तसबहू । कउन्नी एजा माजकरलहदा वलहदा, प्रशमीमान, बुरुकन क़द तोलुहो वतस्तरू । बिहिलाहा यकजी बैनना वले कुल्ले अमरेना, फहेया जाऊना बिल प्रमरे विकरमतुन । . . [सेमरूल-प्रोकूल, पृ० ३१५] वे लोग धन्य हैं, जो राजा विक्रम के राज्यकाल में उत्पन्न हुए, वो (राणा विक्रम) बड़ा दानी, धर्मात्मा पौर प्रजापालक था। परन्तु ऐसे समय हमारा Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमादित्य] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य मंगू ५४६ अरब ईश्वर को भूल कर भोग विलास में लिप्त था। छल-कपट को ही लोगों ने सब से बड़ा गुरण मान रखा था। हमारे तमाम देश (अरब) में अविद्या ने अंधकार फैला रक्खा था। जैसे बकरी का बच्चा भेड़िये के पंजे में फंस कर छटपटाता है, छूट नहीं सकता, ऐसे ही हमारी जाति मूर्खता के पंजे में फंसी हुई थी। संसार के व्यवहार को अविद्या के कारण हम भूल चुके थे, सारे देश में अमावस्या की रात्रि की तरह अन्धकार फैला हुमा था परन्तु अब जो विद्या का प्रातःकालीन सुखदाई प्रकाश दिखाई देता है, वह कैसे हमा? यह उसी धर्मात्मा राजा विक्रम की कृपा है, जिसने हम विदेशियों को भी अपनी दया दृष्टि से वंचित नहीं किया और पवित्र धर्म का सन्देश दे कर अपनी जाति के विद्वानों को यहां भेजा, जो हमारे देश में सूर्य की तरह चमकते थे। जिन महापुरुषों की कृपा से हमने भुलाए हए ईश्वर और उसके पवित्र ज्ञान को जाना और सत्पथगामी हुए, वे लोग राजा विक्रम की प्राज्ञा से हमारे देश में विद्या और धर्म के प्रचार के लिये प्राए थे।"' १३. शान्टियर', रॅप्सन', फ्रेंकलिन एजर्टन प्रादि पाश्चात्य विद्वानों ने कालकाचार्य कथा में उल्लिखित शकों द्वारा गर्दभिल्ल की पराजय और तदनन्तर विक्रमादित्य द्वारा शकों को परास्त कर उज्जयिनी पर अधिकार करने की घटनामों को ऐतिहासिक मानते हुए विक्रमादित्य द्वारा ईसा पूर्व ५८-५७ में विक्रम सम्वत् प्रचलित किये जाने की मान्यता अभिव्यक्त की है। उपरिलिखित प्रमाणों से न केवल विक्रमादित्य का अस्तित्व ही सिद्ध होता है.मपितु यह भी प्रमाणित होता है कि विक्रमादित्य वस्तुतः बड़ा साहसी, परोपकारी और अरब जैसे सुदूर देशों में भी प्रसिद्धि प्राप्त राजा था। उसने अनेक वर्षों तक न्यायपूर्वक राज्य करते हुए केवल भारत ही नहीं अपितु भारत के पड़ोसी एवं सुदूरवर्ती राष्ट्रों से भी अविद्या और गरीबी को मिटाने तथा मानवसमाज को सुसभ्य एवं सुखी बनाने के लिए अनेक प्रयास किये। विक्रमादित्य का व्यक्तित्व वस्तुतः विराट था। . विक्रय स्मृति प्रन्य (सिन्धिया प्रोरिएन्टल इन्स्टीट्यूट, ग्वालियर) में प्रकाशित श्री महेश प्रसाद, मौलवी प्रालिम फाजिल के लेख से उद्धृत । Oply one legend, the Kalkacharya-Kathapaka 'the story of the teacher Kalaka' tells us about some events which are supposed to have taken place in Ujjain and other parts of Western India during the first part of the first century B. C. or immediately before the foundation of the Vikrama era in 38 B. C. This legend is perhaps pot totally devoid of all historical interest. (Cambridge History of India, Vol. 1. P. 1671 The memory of an episode in the history of Ujjain..... may possibiy be preserved in the Jain story of Kalka............Both the tyrant Gardabhilla whose misdeeds were responsible for the introduction of these evengers, and his son Vikramaditya, who afterwards drove the Sakas of the realm, according to the story, may perhaps be historical characters. [बही, pp.532-33] "It seems on the whole at least possible, and perhaps probable, that there really was a king named Vikramaditya who reigned in Malva and founded the era of 58-57 B.C. (Op. W. LXVIJ 2. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [विक्रमादित्य 'विक्रम चरित' के अनुसार किसी सातवाहन वंशी राजा के साथ युद्ध में विक्रमादित्य के घातक प्रहार लगा और उज्जयिनी लोटने पर उसकी वहां मृत्यु हो गई । ५५० ई० सन् १०३० के आसपास हुए इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् भलबेरूनी ने भी अरबी भाषा की अपनी पुस्तक 'किताबुलहिन्द' में शालिवाहन नामक एक जमींदार के साथ विक्रमादित्य के युद्ध का और उस युद्ध में विक्रमादित्य की मृत्यु होने का उल्लेख किया है । प्रायः सभी जैन ग्रन्थों में विक्रमादित्य को जैन धर्मानुयायी बताया गया है । १७ (२१) आर्य नन्दिल - वाचनाचार्य श्रार्य मंगू के पश्चात् वाचक-परम्परा में श्रार्य नन्दिल वाचनाचार्य हुए । नन्दीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य देवद्धि ने श्रायें नन्दिल की स्तुति करते हुए लिखा है : "नामि दंसणंमि य, तवविरणए निक्वकालमुज्जत । प्रज्जं नन्दिल खमरणं, सिरसा वंदे पसन्नमरणं ॥ उपरोक्त गाथा में प्रार्य देवद्धि ने नंदिल को ज्ञान, दर्शन, तप और विनय में सदा-काल तत्पर बतलाया है। उन्होंने नंदिल के जीवन का परिचय देते हुए "स्मरणं और पसन्नमरणं" - ये दो विशेषरण दिये हैं, इससे ज्ञात होता है कि आपका जीवन तपप्रधान था और श्राप कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सदा प्रसन्नमन रहते थे । प्रभावकचरित्र के अनुसार प्राप वैरोट्या नामक देवी के प्रतिबोधक माने गये हैं । वैरोट्या के प्रतिबोध की घटना संक्षेप में इस प्रकार है : I सार्थवाह वरदत्त की प्रियपुत्री वैरोट्या का पद्मिनी खण्ड के पदमकुमार नामक सार्थवाह के साथ पाणिग्रहण हुआ । सास की सेवाशुश्रुषा करते रहने पर भी वैरोट्या उसे संतुष्ट नहीं कर सकी। फलस्वरूप सास के प्रवज्ञापूर्ण कटु वचनों को सुन कर वैरोट्या चिन्ता से कृष रहने लगी। वह सदा यही सोचा करती "मेरे कृतकर्म का फल सुझे ही भोगना है। हंस कर भोगूंगी तो मुझे ही भोगना है भौर हाय-हाय करके भोगूंगी तो भी मुझे ही भोगना है ।' इस प्रकार विचार कर वह सदा मन को शान्त करने का प्रयास करती पर शरीर दुःख से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । उसमें कृषता आ गई । " -: एक दिन नागेन्द्र के शुभस्वप्न के साथ वैरोट्या ने गर्भ धारण किया । सास अपने दुष्ट स्वभाववश यद्वा तद्वा बोला करती - "इस अभागिनी के भाग्य में पुत्र कहां, इसके तो पुत्री ही होगी ।" वैरोच्या साम के सब तानों को शान्त भाव से सुना करती । तीन महिने के गर्भकाल में वैरोट्या को दुग्धपाक (खीर) का दोहद उत्पन्न हुआ । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य नंदिल वा०] दशपूर्वधर-काल : मार्य नंदिल. इसी बीच आर्य नन्दिल का वहां पदार्पण हुआ। वैरोट्या ने वन्दन-नमन के पश्चात् प्राचार्य श्री को अपना सब दुःख कह सुनाया। प्राचार्य ने क्षमाधर्म की आराधना का उपदेश देते हुए उसे प्राश्वस्त किया और दूधपाक के दोहद की जानकारी देते हुए कहा "तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो जायगी, चिन्ता मत करो।" __ चैत्री पूर्णिमा के दिन वैरोट्या ने पुंडरीक तप का उपवास किया और उसकी सास ने दूसरे दिन साधर्मियों को भोजन कराने हेतु दुग्धपाक बनाया। उसमें से बची हुई कुछ खीर उसने वैरोट्या को भी दी। खीर का पात्र लेकर वैरोट्या तालाब पर गई और वस्त्र से प्रावृत्त क्षीरपात्र को तट पर एक सघन वृक्ष के मूल के पास रख कर स्वयं पैर धोने लगी। सहसा उस समय नागराज की अग्रमहिषी आई और उसने वह सब खीर पी ली। जब वैरोट्या ने लौट कर क्षीर पात्र को रिक्त देखा तो वह हर्षित मन से बोली- "जिसने भी खीर का पास्वादन किया है उसके मनोरथ पूर्ण हों।" सर्वभूतानुकम्पा रूप परोपकार की उस उत्कट भावना के फलस्वरूप नागराज की महिषी बड़ी प्रसन्न हुई। उससे वैरोख्या की उद्दात्त भावना जान कर नागराज ने भी दयार्द्र हो उसकी सास को स्वप्न में वैरोच्या के दोहद की पूर्ति करने की प्रेरणा की। तदनन्तर वैरोट्या का दोहद पूर्ण हुप्रा और समय पर उसने एक पुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया। बालक का नाम नागदत्त रखा गया। - कालान्तर में वैरोट्या ने अपने पति पद्मदत्त और पुत्र नागदत्त के साथ श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। संयम की समुचित रूपेण पालना करते हए अन्त में पद्मदत्त तथा नागदत्त समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग कर सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए और वैरोट्या नागेन्द्र के ध्यान से प्रायु पूर्ण कर धरणेन्द्र की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। .. - आचार्य नन्दिल ने वैरोट्या के प्रशान्त जीवन में ज्ञानोपदेश द्वारा शान्ति प्रदान की थी अतः वैरोट्या धरणेन्द्र की महिषी के रूप में उत्पन्न होने के पश्चात् आचार्य नन्दिल के प्रति भक्ति एवं बहुमान रखने लगी। भगवान् पार्श्वनाथ के चरणों में भक्ति रखने वाले भक्तों के कष्टों का निवारण करने में वह समय-समय पर उनकी सहायता करने लगी। कहा जाता है कि प्राचार्य नन्दिल ने वैरोच्या के स्तुतिपरक "नमिऊण जिणं पासं" इस मंत्रभित स्तोत्र की रचना कर वैरोट्या की स्मृति को चिरस्थायी बना दिया। मार्य भद्रगुप्त-युगप्रधानाचार्य आर्य धर्म के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ४६४ में आर्य भद्रगुप्त युगप्रधानाचार्य पद पर अधिष्ठित हुए। दशपूर्वधर पार्य भद्रगुप्त मागमज्ञान के पारगामी और अप्रतिम विद्वान् थे। आपको वचस्वामी जैसे महान् युगप्रधान Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग भद्रगुप्त-घु० प्रा० प्राचार्य के शिक्षागुरू होने का सौभाग्य प्राप्त है। वजस्वामी ने प्रापसे १० पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। मार्य भद्रगुप्त का यत्किचित परिचय उपलब्ध होता है, वह इस प्रकार है आपका जन्म वीर नि० सं० ४२८ में, श्रमण-दीक्षा वीर नि० सं० ४४६ में इक्कीस वर्ष की अवस्था में, युगप्रधानचार्य पद वीर नि० सं० ४९४ में और स्वर्ग गमन वीर नि० सं० ५३३ में हुप्रा। आपने ४५ वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में और ३६ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहते हुए भगवान महावीर के शासन की महती सेवा की। इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि आर्य रक्षित सूरि ने आपकी निर्यामणा (अन्तिम पाराधना) करवाई। आपकी पूर्ण प्रायु १०५ वर्ष, ४ मास और ४ दिन की थी। गरणाचार्य प्रार्य नन्दिल के वाचनाचार्य काल में वीर नि० सं० ५४७-४८ में प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के गणाचार्य प्रार्य सिंह गिरि का स्वर्गवास हुआ। १८ (२२) प्रार्य नागहस्ती-वाचनाचार्य प्राचार्य आर्य नन्दिल के पश्चात नागहस्ती वाचनाचार्य हए । नन्दीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने प्रापको कर्मप्रकृति के प्रधान ज्ञाता तथा जिज्ञासुमों की जिज्ञासामों का समुचित एवं संतोषप्रद समाधान करने में कुशल बताया है । 'पूर्वज्ञान' के धारक होने के कारण द्रव्यानुयोग और कर्मविषयक ज्ञान के पाप मर्मज्ञ माने गये हैं। श्रमरणसंघ-स्तोत्र आदि ग्रन्थों के अनुसार नागहस्ती (आर्य नाग) को युगप्रधान-प्राचार्य भी माना गया है पर इस सम्बन्ध में यह अन्वेषणीय है कि आर्य नागहस्ती और प्रार्य नागेन्द्र एक ही प्राचार्य के नाम हैं अथवा दोनों अलग-अलग समय के प्राचार्य हैं । हमारे विचार से आर्य नन्दिल के शिष्य वाचनाचार्य नागहस्ती और यूगप्रधानाचार्य नागेन्द्र, जिन्हें प्रार्य नाग तथा आर्य नागहस्ती के नाम से भी अभिहित किया जाता है, दोनों भिन्न-भिन्न काल के दो भिन्न प्राचार्य होने चाहिए। हमारे इस अनुमान में निम्न आधार विचारणीय हैं : १. नागहस्ती को प्रभावकचरित्रानुसार पादलिप्त का गम माना गया है' और पादलिप्त का आर्य रक्षित से पहले होना प्रमाणित है। कारण कि पार्य रक्षित द्वारा संकलित अनुयोगद्वार सूत्र में “तरंगवईकारे" पद से प्रार्य पादलिप्त की स्मृति की गई है। इसके विपरीत प्रार्य नागेन्द्र को प्रार्य रक्षित के पश्चाद्वर्ती प्रार्य वज्रसेन की शिष्य-परम्परा में माना गया है । ' गच्छे विद्याधराख्यस्यायं नागहस्तिमूरयः ।।१५।। पुमिच्छसि चेत्तेपां, पादशौच जलं पिवे ।।१६।। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. पायं नागहस्ती] . दशपूर्वधर-काल : पायं नागहस्ती ५५३ . २. प्रार्य नागहस्ती वाचकवंश के प्रभावक प्राचार्य माने गये हैं, जिनके लिये देवद्धि क्षमाश्रमण ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - "वड्ढ उ वायगवंसो, जसवंसो अन्जनागहत्थीणं।" __ अर्थात् -प्रार्य नागहस्ती का वाचकवंश यशोवंश की तरह वृद्धिगत हो। गाथा में नागहस्ती को वाचकवंश से सम्बद्ध बताया गया है, जब कि वज्रसेन संतानीय पार्य नाग नाइली शाखा, नागेन्द्र गच्छ और नागेन्द्र कुल के प्रवर्तक माने गये हैं। ऐसी स्थिति में यदि वज्रसेन संतानीय नागेन्द्र ही वाचकवंशीय नागहस्ती. होते तो उनके लिये 'वड्ढउ वायगवंसो' के स्थान पर 'वड्ढउ नाइलवंसो' इस प्रकार का पद प्रयुक्त किया जाता। क्योंकि आर्य नाग नाइल शाखा, नागेन्द्र कुल एवं नागेन्द्र गच्छ के प्रवर्तक माने गये हैं। ___ श्वेताम्बर-परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा के प्रमुख ग्रंथों में भी आर्य मंगू और नागहस्ती का परिचय उपलब्ध होता है। श्वेताम्बर साहित्य की तरह. यद्यपि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आर्य मंगू और आर्य नागहस्ती का कोई खास परिचय प्राप्त नहीं होता फिर भी कसायपाहुड़ की जयधवला टीका में प्राचार्य वीरसेन ने आर्य मंगू और आर्य नागहस्ती को रिणकार यतिवृषभ के गुरु होने का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित रूप में इन दोनों की स्तुति की है : गुणहरवयणविणिग्गय, गाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो, सणागहत्थी वरं देऊ ।।७।। जो अज्ज मंखु सीसो, अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।८।। इन गाथाओं में बताया गया है कि जिन आर्य मंखु और नागहस्ती ने गुणधराचार्य के मुख-कमल से विनिर्गत गाथाओं के सम्पूर्ण अर्थ को सम्यक्रूपेण अवधारण किया, वे प्राचार्य मुझे वर प्रदान करें। जो प्रार्य मंख के शिष्य और आर्य नागहस्ती के भी अंतेवासी हैं, वे वृत्तिसूत्र के कर्ता यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें। नन्दीसूत्र की स्थविरावली के समान ही दिगम्बराचार्य वीरसेन ने 'जयघवला' में इन दोनों आचार्यों को कर्मसिद्धान्त के विशिष्ट ज्ञाता और प्रागम-ज्ञान के पारगामी के रूप में स्वीकार किया है । 'जय धवला' टीका में बताया गया है कि गुणधराचार्य द्वारा १८० गाथाओं में 'कसायपाहुड़' का उपसंहार कर लिये जाने पर वे सूत्र गाथाएं आचार्य-परम्परा से आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती को प्राप्त हईं। तदनन्तर उन दोनों प्राचार्यों के चरणकमलों में बैठकर भट्टारक यतिवृषभ ने उन १८० गाथाओं के अर्थ को भलीभांति समझा और प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित हो उन पर चूरिणसूत्र की रचना की । जैसा कि टीका में कहा है -- "पुणो तापो चेव सुत्तगाहाम्रो पाइरियपरंपराए प्रागच्छमाणीयो अज्ज .मखुनागहत्थीणं पत्तागो। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [१८. प्रायं नागहस्ती गुणहरमुख-कमल-विरिणग्गयाणमत्थं सम्म सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुणि सुत्तं कयं ।"' उपरिलिखित उद्धरणों में यतिवृषभ को आर्य मंखु (मंगु) का शिष्य एवं आर्य नागहस्ती का अंतेवासी बताया गया है। शिष्य' एवं 'अंतेवासी' शब्दों की भाषा-विज्ञान की दृष्टि से परिभाषा की जाय तो समानार्थक होते हुए भी ये दोनों शब्द अपने आपमें विशिष्टार्थ को लिये हुए होने के कारण अपना-अपना पृथक स्थान रखते हैं। 'शिष्य' शब्द का अर्थ है संयमसाधना अथवा विद्याध्ययन हेतु गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करने वाला । 'अंतेवासी' शब्द का अर्थ होता है -जीवनपर्यंत अथवा सुदीर्य काल तक ज्ञानदाता के पास रहते हुए तथा उनकी सेवा-शुश्रूषा करते हुए ज्ञानार्जन करने वाला। इन शब्दों की इस प्रकार की व्युत्पत्ति स्वीकार करने पर यह संभव प्रतीत होता है कि आर्य मंगू के स्थिरवास काल से कुछ समय पूर्व यतिवृषभ ने उनके पास दीक्षा स्वीकार की हो और उनकी स्थिरवास में रसगृद्धि एवं शिथिलाचार की भोर प्रवृत्ति देखकर आर्य मंगू के अन्य श्रमण परिवार की तरह उनका साथ छोड़ आर्य नागहस्ती की चरण-शरण ग्रहण की हो। तदनन्तर नागहस्ती के अन्तकाल तक उनकी सेवा में निरत रहते हुए उन्होंने उनसे ज्ञानार्जन किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की ओर संकेत करने के अभिप्राय से ही जयधवलाकार ने यतिवृषभ के लिये "आर्य मंखु के शिष्य" और “आर्य नागहस्ती के अन्तेवासी" - इन भिन्न पदों का प्रयोग किया है । ___नंदी-स्थविरावली की ३१वीं एवं ३२वीं प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार पर प्रार्य मंगू और आर्य नागहस्ती के बीच में आर्य धर्म, आर्य भद्रगुप्त, आर्य वज्र तथा आर्य रक्षित के नाम देखकर कतिपय विद्वानों ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि आर्य मंगू और आर्य नागहस्ती के बीच लगभग १५० वर्ष का अन्तराल रहा अतः यतिवृषभ को कसायपाहुड़ का ज्ञान देने वाले मंखु एवं प्राय नागहस्ती श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य मंगु और नागहस्ती से भिन्न हैं । वस्तुतः उन विद्वानों की इस प्रकार की मान्यता केवल भ्रान्ति पर आधारित होने के कारण मान्य नहीं की जा सकती। जिन ४ प्राचार्यों के नाम देखकर कुछ विद्वानों ने जो इस प्रकार की कल्पना की है, वस्तुतः आर्य धर्म से आर्य रक्षित तक के वे चारों प्राचार्य वाचक परम्परा के मुख्य प्राचार्य नहीं थे । वे तो वास्तव में अन्य परम्परा के तत्समयवर्ती वाचक प्राचार्य रहे हैं। उन चारों का मुख्य स्थान युगप्रधान-परम्परा में माना गया है। यह एक ही तथ्य इस भ्रान्ति का निराकरण करने के लिये पर्याप्त है। इन सब तथ्यों के सन्दर्भ में विचार करने पर वाचक-परम्परा में आर्य मंगू के पश्चात् आर्य नन्दिल और नन्दिल के पश्चात् नागहस्ती - यह क्रम ही उचित प्रमाणित होता है। इस क्रम की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाने पर आर्य मंगू और ' जयधवला, भाग १, पृ. ८८ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. प्रार्य नागहस्ती] दशपूर्वधर-काल · प्रार्य नागहस्ती ५५५ नागहस्ती का सत्ताकाल समसामयिक सिद्ध होने के साथ-साथ जय धवलाकार का वह कथन भी संगत संभव हो सकता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि यतिवृषभ ने आर्य मंखु और नागहस्ती- इन दोनों के चरणों में बैठकर कसायपाहड़ की गाथाओं का अवधारण किया। ___तिलोयपण्णत्ती' भी यतिवृषभ की रचना है । तिलोयपण्णत्ती में वीर नि० सं० १००० तक के काल में हुए राजाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है। इस उल्लेख को आधार बनाकर कतिपय विद्वान् यतिवृषभ का समय वीर निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् का मानते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कालगणना की शृंखला की कड़ियों को जोड़ने के लिये उक्त गाथानों में से अनेक गाथाएं कालान्तर में अन्य विद्वानों द्वारा प्रक्षिप्त की गई हों। प्रायः सभी विद्वानों की यह मान्यता है कि तिलोयपण्णत्ती में प्रक्षिप्त गाथाओं का बाहुल्य है। यद्यपि यतिवृषय ने आर्य मगू और नागहस्ती का अपनी चूरिण में कहीं नामोल्लेख नहीं किया है तथापि जयधवलाकार ने इन दोनों प्राचार्यों की स्तुति करते हुए स्पष्ट रूपेण यह लिखा है कि यतिवृषभ ने आर्य मंक्षु और नागहस्ती से कसायपाहुड़ का ज्ञान प्राप्त किया। जयधवताकार के इस कथन को प्रामाणिक न मानने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता। ऐसी स्थिति में एक बड़ा प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या आर्य यतिवृषभ विक्रमीय प्रथम शताब्दी के प्रथम चरण में विद्यमान थे ? यह प्रश्न गहन शोध की अपेक्षा रखता है। प्राशा है इतिहास के विद्वान् इस पर प्रकाश डालेंगे। आपके शिष्यों में आर्य पादलिप्त बड़े ही प्रभावक प्राचार्य हुए हैं । संक्षेप में यहां उनका परिचय दिया जा रहा है : प्रार्य पादलिप्त ____ आर्य खपुट की तरह आर्य पादलिप्त भी बड़े प्रतिभाशाली प्राचार्य माने गये हैं। कोशला नगरी के महाराज विजयवर्मा के राज्य में फुल्ल नाम का एक बुद्धिमान और दानवीर श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम प्रतिमाना था। बह रूप, शील और गुरण की अाधारभूमि होकर भी पुत्र रहित थी। किसी ने उसे परामर्श दिया कि वैरोट्या देवी की पाराधना की जाय तो पुत्रलाभ हो सकता है । इष्टसिद्धि के लिए उसने भी तप, नियम के साथ वैरोट्या का समाराधन कर उसे प्रसन्न किया। देवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा - "बोलो ! मुझे किस लिये याद किया है ?" श्रेण्ठिपत्नी बोली - "पुत्र के लिए।" । देवी ने कहा - "विद्याधर वंश में प्रार्य नागहस्ती नाम के प्राचार्य है, जो इस समय यहां प्राये हुए हैं । उनका चरणोदक पिया जाय तो तुम्हें पुत्र की प्राप्ति हो सकती है।" Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रार्यं पादलिप्त उसने वैसा ही किया । प्राचार्य से १० हाथ दूर एक मुनि के हाथ के पात्र से उसने चरणोदक लेकर पी लिया । फलस्वरूप उसको १० पुत्र होने का भविष्य बताया गया । श्रेष्ठिपत्नी प्रतिमाना ने घर पहुंच कर अपने पति को पूरी बात सुना कर कहा - "१० पुत्र होंगे तो उनमें से एक प्रथम पुत्र को गुरुदेव के चरणों में भेंट कर देना है ।" ५५६ कालान्तर में प्रतिमाना ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम नागेन्द्र रखा गया । प्रतिमाना ने उसे गुरु की निधि मान कर ८ वर्ष तक बड़े दुलार के साथ उसका लालन-पालन किया और फिर उसे गुरुचरणों में भेंट कर दिया । ८ वर्ष का जान कर गुरु ने नागेन्द्र की दीक्षित किया और मण्डन नामक मुनि की देख-रेख में उसकी शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया । प्रखर बुद्धि के कारण बालक मुनि नागेन्द्र स्वल्पकाल में ही सर्वविद्याविशारद बन गया । एक बार गुरु ने उसे जल लाने हेतु भेजा और जब वह कांजी लेकर लौटा तो गुरु ने उससे पूछा - " कहां से लाये हो ?" उत्तर में मुनि नागेन्द्र ने काव्यमयी भाषा में कहा : अंबं तंबच्छीए अपुफियं पुप्फदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नववहूइ कुडएण मे दिन्नं || ' पुष्प की तरह दन्तपंक्ति वाली किसी ताम्राक्षी नववधु ने मुझे डांगर की तरोताजा कांजी करुए ( मृत्पात्र ) से बहराई है । गुरु ने नागेन्द्र मुनि के शृंगाररसगर्भित वचन सुनकर कहा - "पलित्तोऽसि । " बालमुनि नागेन्द्र बोला - "भगवन् ! मात्रा बढ़ाकर प्रसाद कीजिए ।" गुरु ने बाल मुनि की विचक्षणता देख उसे पादलेप की विद्या प्रदान की । इससे मुनि नागेन्द्र आकाशमार्ग से भ्रमरण करने में समर्थ हो गया । पाटलिपुत्र में सुरुण्ड के राज्य के समय की एक घटना है कि मुरुण्डराज के शिर में ६ नास से असह्य वेदना हो रही थी । संयोगवश पादलिप्त भी आचार्य पद से संघ के दायित्व को सम्हालने के अनन्तर पाटलिपुत्र पहुंचे । उस समय तक राजा ने शिरोवेदना की शान्ति के लिए विविध मंत्र-तंत्र, प्रौषध प्रादि के प्रयोगों के उपरान्त भी जब शान्ति प्राप्त नहीं की तब मंत्री को आचार्य पादलिप्त के पास भेज कर उनसे प्रार्थना की कि वे भूपाल की शिरोवेदना को दूर करने की कृपा करें । प्राचार्य राजप्रासाद में गये घुमाते हुए उन्होंने मंत्र शक्ति से 9 प्रभाषक चरित्र, पादलिप्तसूरिचरितम्, पृ० २६ और एक ओर बैठ कर अपने घुटने पर अंगुलि राजा की शिरोवेदना पूर्णतः शान्त कर दी । २ (क) जह-जह एसिरिंग जाणुयम्मि पालित्तश्रो भमाडे । तह-तह से सिरवेयरण परणस्सइ मुरुण्डरायस्स ।। [ प्रभावक चरित्र, पृ० ३० ] (स्व) सांसे वियरण, पणासति मुरुड रायस्स । ४४६० [ नि० भा० चू०, भा० ३पृ० ४२३ ] Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य पादलिप्त] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती ५५७ शिरोवेदना दूर हो जाने से राजा परम प्रसन्न हंपा। उसने प्राचार्य पादलिप्त की और भी अनेक प्रकार से परीक्षा की और अन्त में वह उनका परम भक्त बन गया। आर्य पादलिप्त की अप्रतिम प्रतिभा के सम्बन्ध में अनेक आख्यानों में से कुछ इस प्रकार हैं : (१) एक बार प्रतिष्ठानपुर में राजा सातवाहन के यहां विद्वानों की सभा में सहसा बात चली कि सर्व विद्या विशारद प्राचार्य पादलिप्त वहां पहुंचने वाले हैं। विद्वानों ने अपनी प्रौढ़ता बताने के लिए जमे घृत से भरा एक कटोरा देकर एक आदमी को आचार्य श्री के पास भेजा। प्राचार्य पादलिप्त ने घी में एक सूई डाल कर कटोरा पुनः लौटा दिया। राजा ने यह सब वृत्तान्त सुन कर पण्डितों से पूछा कि घी से भरा कटोरा आचार्य श्री के पास भेजने में उन लोगों का क्या अभिप्राय था? पण्डितों ने उत्तर दिया- 'कटोरे में घी के समान नगर विद्वानों से भरा है इसलिए आप सोच-समझ कर इस नगर में प्रवेश करें। इसके उत्तर में प्राचार्य ने घी में सूई डाल कर कटोरा लौटाया है।" राजा ने कहा - "आप लोगों के प्रश्न का प्राचार्य ने निर्भयता से यह उत्तर दिया है कि जिस प्रकार जमे हुए घी में तीक्ष्ण सुई समा गई, उसी प्रकार मैं भी विद्वानों से मण्डित इस नगर में प्रवेश कर सकेंगा।" प्राचार्य के उत्तर से सब प्रभावित हुए और राजा तथा पण्डितों ने सम्मुख जाकर सम्मानपूर्वक प्राचार्य श्री का नगर-प्रवेश करवाया। (२) आचार्य पादलिप्त की प्रत्युत्पन्नमति का एक उदाहरण इस प्रकार है :एक बार वादियों के साथ विचारगोष्ठि में किसी ने कहा : पालित्तय ! कहसु फुड, सयलं महिमंडलं भमंतेणं । दिठ्ठ मुयं च कत्थवि, चन्दणरससीयलो अग्गी ।। अर्थात् - हे पादलिप्त ! भूमण्डल पर विचरण करते समय तुमने कहीं चन्दनरस के समान शीतल अग्नि को देखा अथवा सुना हो तो स्पष्ट कहो। प्रत्युत्पन्नमति प्राचार्य पादलिप्त ने तत्काल उत्तर दिया : अयसाभियोग संदूणियस्स, पुरिसस्स सुद्धहिययस्स । होइ वहंतस्स दुहं, चन्दणररासीयलो अग्गी ।। अर्थात् - प्रकीति के अभियोग से संतप्त-पीडित शुद्ध हृदय वाले पुरुष को अकीतिजन्य दुःख का वहन करते हुए अग्नि भी चन्दन के रस के समान शीतल प्रतीत होती है। (३) 'तरंगवती जैसे विद्वत्तापूर्ण काव्य को देखकर जब सव विद्वानों ने पादलिप्त की प्रशंसा की तब राजा ने प्राचार्य से कहा - "हम सब संतुष्ट हैं और Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य पादलिप्त आपकी स्तुति करते हैं । केवल यह विदुषी वेश्या गुणज्ञा होकर भी आपकी स्तुति नहीं करती। आप कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे यह भी आपकी स्तुति करे।" - राजा की बात सुनकर आचार्य पादलिप्त अपने स्थान पर चले पाये और रात्रि में गच्छ की सम्मति से प्राण निरोध कर कपट मृत्यु से निष्प्राण हो लेट गये। प्राचार्य को प्रर्थी पर लिए जब लोग रुदन करते हुए उस गरिणका के द्वार पर पहुंचे तो वह भी द्वार पर पाई और रुदन करती हुई बोली : सीसं कहवि न फुट्ट जमस्स पालित्तयं हरंतस्स। जस्स मुहनिझराम्रो तरंगलोला नई बूढा ।। अर्थात्-अरे! उन पादलिप्त का हरण करते समय यमराज का शिर क्यों नहीं फूट गया, जिनके मुख रूपी निर्भर से 'तरंगलोला' तरंगवती नदी प्रवाहित हुई है ? प्राचार्य यह सुनकर तत्काल उठ बैठे। गणिका ने कहा - "प्राचार्यवर! क्या प्राप मर कर स्तुति करवाते हैं ?" .. प्राचार्य ने कहा- "क्या तुमने नहीं सुना - 'मृत्वापि पंचमो गेयः' - मर कर भी पंचम वेद गाना चाहिये। . कितना चमत्कारपूर्ण उत्तर है ? प्रभावक चरित्र में गणिका के स्थान पर पांचाल नामक विद्वान् के नामोल्लेख के साथ यही कथानक दिया गया है। प्राचार्य पादलिप्त ने अपने प्राचार्य काल में स्व-पर कल्याण के साथ-साथ जिनशासन की बड़ी ही उल्लेखनीय सेवाएं की।" प्राचार्य पादलिप्त ने 'तरंगवती', 'निर्वाणकलिका' एवं 'प्रश्न प्रकाश आदि ग्रन्थों की रचनाएं की। 'तरंगवती' प्राकृत कथा साहित्य का ग्रन्थरत्न माना जाता है। प्राचार्य पादलिप्त के जीवन से सम्बन्धित कतिपय घटनामों के पर्यवेक्षण से उनका विहार-क्षेत्र बड़ा विस्तृत प्रतीत होता है। मान्यखेट का कृष्णराजा, मोकारपुर का भीमराजा आदि अनेक राजा-महाराजा उनके अनुयायी थे। पाटलिपुत्र, भृगुकच्छपुर प्रादि में उन्होंने अपने प्रभाव का प्रयोग कर अन्य मतावलम्बियों द्वारा जैन धर्मावलंबियों के विरोध में उत्पन्न किये गये वातावरण को शान्त कर अनेक लोगों को जैन-धर्म का अनुयायी बनाया। प्राचार्य पादलिप्त के सम्बन्ध में जैन साहित्य में अनेक कथानक प्रचलित हैं। उनमें बताया गया है कि वे औषधियों के पादलेप द्वारा गगनमार्ग से विचरण करते थे। इस विद्या से प्रभावित होकर ढंक गिरि का निवासी नागार्जुन नामक एक क्षत्रिय उनका अनन्य उपासक बन गया। नागार्जुन का परिचय पृथकतः यथास्थान दिया जायगा। ' रागस्य पंचमो वेदः। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य पादलिप्त] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती ५५६ प्रबन्ध कोश तथा प्रभावक चरित्र के अतिरिक्त सभाष्य निशीथचूणि और वृहत्कल्प भाष्य में भी अनेक स्थलों पर प्राचार्य पादलिप्त के समय में हुए मुरुण्ड राजा के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। मुरुण्डराज को बहिन द्वारा जैन श्रमणी धर्म को दीक्षा वृहत्कल्प भाष्य में मुरुण्डराज की बहिन के श्रमणी धर्म में दीक्षित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है : एक बार मुरुण्डराज की विधवा बहिन ने उसके समक्ष प्रवजित होने की अभिलाषा प्रकट की। किस धर्म की अनुयायिनी साध्वी के पास उसे दीक्षित करवाया जाय और कौन सा धर्म वस्तुतः वास्तविक पात्मिक धर्म है - इस बात की परीक्षा लेने का मुरुण्ड ने निश्चय किया। उसने महावत को आदेश दिया कि वह हाथी पर बैठ कर राजप्रासाद के पास वाले मार्ग पर इधर-उधर घूमे और ज्यों ही किसी भी धर्म की साध्वी उसे दृष्टिगोचर हो, वह हाथी को उसकी ओर यह कहते हुए बढ़ाए-"तुम्हारे तन पर जो भी वस्त्र हैं, उन्हें दूर फेंक दो अन्यथा यह मदोन्मत्त हाथी तुम्हें कुचल डालेगा।" हस्तिचालक ने मुरुण्डराज के आदेश का पालन किया । विभिन्न मतोंवाली साध्वियों की ओर उन्हें वस्त्र फेंक देने की चेतावनी देते हुए महावत जब-जब हाथी को बढ़ाता तो वे तत्काल सब वस्त्र दूर फेंक कर नग्न हो जातीं। मुरुण्डराज अपने प्रासाद के गवाक्ष से इस प्रकार के दृश्य देखता रहता। अंततोगत्वा एक दिन एक जैन साध्वी को उस पथ पर यतनापूर्वक जाती हुई देख कर महावत ने उसे सब वस्त्र फेंक देने की चेतावनी देते हुए उसकी मोर हाथो को वेग से बढ़ाया। हाथी को तीव्र गति से अपनी ओर बढ़ते हुए देख कर भी साध्वी ने धैर्य नहीं छोड़ा। उसने सबसे पहले हाथी की प्रोर अपनी मुखवस्त्रिका गिरा दी।' हाथी थोड़ी देर रुका, उसने सूंड से मुखवस्त्रिका को पकड़ कर देखा और फिर उसे एक ओर फेंक वह साध्वी की ओर बढ़ा । साध्वी ने उसी धैर्य के साथ अब की वार अपना रजोहरण हाथी की मोर डाला। हाथी रजोहरण को संड से पकड़ कर थोड़ी देर तक हवा में फहराता रहा और पुनः साध्वी की ओर बढ़ा। प्रार्या बड़े धैर्य के साथ अपने अन्यान्य बाह्य उपकरणों को एक-एक करके हाथी की ओर डालती रही। हाथी प्रत्येक बार रुक कर साध्वी द्वारा अपनी ओर डाले गये उपकरणों को इधर-उधर कर देखता और साध्वी की ओर बढ़ता। अंत में साध्वी के पास. लज्जा ढांकने का केवल एक ही वस्त्र बचा रह गया। महावत बार-बार तीव्र स्वर में साध्वी को वस्त्र फेंकने के लिए कहता रहा पर वह नटी की तरह कभी हाथी के इस ओर तो कभी उस भोर होकर अपना बचाव करने लगी। राजपथ पर दर्शकों की भारी भीड़ एकत्रित हो गई। साध्वी के अपूर्व साहस और प्रत्युत्पन्नमति से ' तीए पढ़मं मुहपोत्तिया मुक्का, ततो निसिबा। [वृहत्कल्प भा., भा० ४, पृ० ११२३] Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मुरुण्ड की बहिन की दीक्षा जनता प्रभावित हुई। चारों ओर से प्राक्रोशपूर्ण तीव्र स्वर महावत पर गर्जनतर्जन के साथ बरसने लगे- "यह दुष्टता बन्द करो, मोड़ दो हाथी को, पूज्या आर्या की ओर एक डग भी बढ़ाया तो तुम्हारा प्रक्षेम होगा।" उद्वेलित सागर की तरह ऋद्ध अपार जनसमुद्र के आक्रोशपूर्ण कोलाहल से हाथी भी किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया और साथ-साथ महावत भी। साध्वी धैर्य की प्रतिमूर्ति की तरह वस्त्र में लिपटी एक ओर खड़ी थी। मुरुण्डराज राजप्रासाद के गवाक्ष से यह सब दृश्य देख रहा था। उसने जैन श्रमणी को परीक्षा में पूर्णतः उत्तीर्ण पाकर महावत की ओर संकेत किया । हस्तिवाहक ने विचित्र शब्दों के उच्चारण के साथ अपना अंकुश गजराज के गण्डस्थल पर दे मारा। हाथी तत्काल अपनी सूंड, पूंछ एवं बड़े-बड़े कान फटकारता हुमा मुड़ा और एक चिंघाड़ के साथ तीव्रगति से हस्तिशाला की ओर बढ़ गया। मुरुण्डराज ने अपनी बहिन से कहा - "सहोदरे ! यही धर्म सर्वज्ञ-दृष्ट है।' तुम अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहती हो तो इस जैन साध्वी के पास दीक्षा ग्रहण कर सकती हो।" मुरुण्डराज की विधवा बहिन ने जनश्रमणी दीक्षा ग्रहण कर ली। मुरुण्डकाल में धार्मिक कटुता मुरुण्ड राज के समय देश के कतिपय भागों में धार्मिक कटुता अथवा धार्मिक असहिष्णुता किस प्रकार पर किये हुए थी, इसका परिचय भी निम्नलिखित छोटे से आख्यान से प्राप्त होता है। पाटलिपुत्र के मुरुण्डराज की पुरुषपुर (पेशावर) के राजा के साथ प्रगाढ़ मैत्री थी। एक बार मुरुण्ड ने अपना एक दूत पुरुषपुर के अधिपति के पास भेजा। वहां के विदेश मंत्री ने उस विशिष्ट दूत के लिए समुचित प्रातिथ्य एवं प्रावास आदि की व्यवस्था कर उसे दूसरे दिन पुरुषपुराधिप से मिलने के समय के सम्बंध में सूचित किया। दूत दूसरे दिन राजा से मिलने हेतु अतिथिभवन से प्रस्थित हुआ। उन दिनों पुरुषपुर बौद्धों का केन्द्रस्थल बना हुआ था। वह बौद्धभिक्षुओं से इतना संकुल था कि भवन से बाहर निकलते ही दूत की दृष्टि सर्वप्रथम एक बौद्ध भिक्षु पर पड़ी। दूत ने इसे घोर अपशकुन समझा और उस दिन राजा से मिलने का विचार छोड़कर पुनः अतिथिभवन में लौट गया। लगातार तीन दिन तक जब-जब भी दूत राजा से मिलने हेतु अतिथिगृह से बाहर निकला, तो उसे प्रत्येक बार सर्व ' एस धम्मो सवन्नु दिट्ठो। [वृहत्कल्प भा०, भा० ४, पृ० ११२३] - " साधूनां समीपे भगिनी प्रव्रज्या ग्रहणायं विसर्जिता। [वही, पृ० ११२४] Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुण्डकाल में धार्मिक कटुता ] दशपूर्वर-काल आर्य नागहस्ती ५.६१ प्रथम बौद्ध भिक्षु ही दृष्टिगोचर हुग्रा और वह उस तथाकथित अपशकुन से त्रस्त हो तत्काल अपने कक्ष की ओर लौट पड़ा । तीन दिन बीतने पर भी जब दूत पुरुषपुर के राजा की सेवा में नहीं पहुँचा तो विदेशामात्य दूत के पास पहुँचा और उसने दूत से राजा की सेवा में नहीं पहुँचने का कारण पूछा । सरल हृदय दूत ने अपने मन में जमे विश्वास को प्रकट करते हुए उत्तर दिया - "बौद्ध भिक्षु के दर्शन से बढ़ कर और कोई अन्य प शकुन नहीं । मैं जब-जब भी राजा की सेवा में उपस्थित होने इस भवन से बाहर निकला तभी जिस व्यक्ति पर मेरी सबसे पहली दृष्टि पड़ी, वह बौद्ध भिक्षु था । अब आप ही बताइये इस प्रकार के घोर अपशकुन की अवस्था में मैं राजदर्शन के लिए कैसे आता ?" मंत्री ने दूत को बार बार समझाया कि गली के अन्दर अथवा बाहर बौद्ध भिक्षु दृष्टिगोचर हो तो उससे अपशकुन नहीं होता, पर अपशकुन का भय दूत के हृदय से पूर्ण रूपेण नहीं निकला। मंत्री के आग्रह पर वह डरता डरता राजा की सेवा में पहुँचा । मत्स्य पुराण, वायु पुराण और श्रीमद्भागवत' आदि में मुरुण्ड राजाओं का पुरुण्ड, परुण्ड और गरुण्ड नाम से उल्लेख उपलब्ध होता है ! मुरुड लोग अफगानिस्तान में काबुल के आस-पास के मुरण्ड प्रदेश के रहने वाले थे । प्राचीन काल में मुरण्ड प्रदेश को लम्बक के नाम से भी पहिचाना जाता था । ग्राजकल उस प्रदेश को लमघान कहते हैं ।" 1 १/२ युगप्रधानाचार्य : :- श्रार्य नागहस्ती के वाचनाचार्य काल में क्रमशः आर्य श्रीगुप्त और वज्र और रक्षित ये तीन युगप्रधानाचार्य हुए । प्रार्य श्रीगुप्तं युग प्रधानाचार्य आर्य भद्रगुप्त के स्वर्गगमनानन्तर प्रार्य श्रीगुप्त युगप्रधानाचार्य हुए। आपका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता । दुष्षमाकाल श्रमरण-संघ-स्तव के अन्त में जो युगप्रधान यन्त्र दिया हुआ है, उसके अनुसार प्रापके जीवन की प्रमुख घटनाओं का तिथिक्रम इस प्रकार है : श्रार्य श्री गुप्त का जन्म वीर नि० सं० ४४८ में हुआ । २५ वर्ष की युवावस्था में आपने वीर नि० सं० ४८३ में श्रमरण-धर्म की दीक्षा ग्रहरण की । ५० वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में रहते हुए आपने तप, संयम एवं विनय धर्म की ' ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः । भूयो दश गुरुण्डांश्च, मौना एकादशैव तु ॥३०॥ [ श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १२ ० १ ] २ मुरण्ड - muranda, m a country to the north-west of Hindustan (also called Lampaka and now Lamghan in Cabul). गुरुण्ड-murunda .. a king ... dynasty and a people [ मोम्बोर मोम्योर डिक्शनरी ] Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य श्रीगुप्त-युग प्रधा• पाराधना के साथ साथ अंग शास्त्रों एवं दश पूर्वो का अध्ययन किया। आपने वीर नि० सं० ५३३ से ५४८ तदनुसार १५ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद से जिन शासन की सेवा की और १०० वर्ष, ७ मास एवं ७ दिन की पूर्णायू का उपभोग कर वी० नि० सं० ५४८ में स्वर्गारोहण किया। छठा निह्नव रोहगुप्त पाप ही का शिष्य था। छठा निन्हव रोहगुप्त वीर नि० सं० ५४४ में रोहगुप्त से राशिक दृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है ।' भगवद्वचन के एक देश का अपलाप करने के कारण रोहगुप्त को निह्नव माना गया है। पैराशिक मत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आवश्यक चूणि में निम्नलिखित उल्लेख किया गया है : ___ अंतरंजिका नगरी के बाहर भूतगुहा नामक एक चैत्य था। एक समय वहां श्रीगुप्त नामक प्राचार्य अपने शिष्य समूह के साथ पधारे। उस समय अंतरंजिका में राजा बलश्री का राज्य था। प्राचार्य श्रीगुप्त के अनेक शिष्यों में से रोहगुप्त नाम का एक बड़ा बुद्धिमान शिष्य था। वह ग्रामान्तर से प्राचार्यश्री की सेवा में अंतरंजिका पहुंचा। मार्ग में उसने एक परिव्राजक को देखा, जो अपने पेट पर लोह का पट्टा बांधे और हाथ में जामन की टहनी लिये हए था। लोगों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि ज्ञानाधिक्य के कारण पेट कहीं फट न जाय, इसलिये उस संन्यासी ने अपने पेट पर लोह का पट्टा बांध रखा है। पेट पर लोहे का पट्टा रखने के कारण उसकी पोट्टसाल के नाम से प्रसिद्धि हो गई । परिव्राजक अपने हाथ में जम्बू (जामुन) की डाली को धारण किये मानो इस बात की ओर संकेत कर रहा था कि समस्त जम्बूद्वीप में उसके साथ वाद करने वाला कोई प्रतिवादी नहीं है। शास्त्रार्थ करने के लिये विद्वानों का आह्वान करते हुए वह ढिंढोरा पिटवा रहा था। __ रोहगुप्त ने परिव्राजक द्वारा की गई घोषणा को सुना और परिव्राजक के अतिशय गर्व को देख कर ढिंढोरा रोका। उसने कहा- "मैं परिव्राजक के साथ शास्त्रार्य करूंगा।" • परिव्राजक के ढिंढोरे को रोकने के पश्चात् रोहगुप्त गुरु की सेवा में पहुंचा और वन्दन-नमन के पश्चात् उसने प्राचार्य श्रीगुप्त की सेवा में निवेदन किया"भगवन् ! मैंने.पोट्टसाल परिव्राजक के साथ वाद करना स्वीकार किया है ।" . प्राचार्य श्रीगुप्त ने कहा - "परिव्राजक के साथ वाद स्वीकार कर तुमने उचित नहीं किया। परिव्राजक विद्याबली है। यदि वह वाद में पराजित हो भी गया तो भी वह विद्यामों के प्रयोग से तुम्हें परास्त करने का पूरा प्रयास करेगा।" ' पंचसया पोयाला, तइया सिदिमयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए, तेरासियदिदिठ उप्पना ॥२४५१॥ [विजेवावश्यक भाष्य Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा निन्हव रोहगुप्त ] दशपूर्वघर - काल : प्रार्य नागहस्ती ५६३ रोहगुप्त बोला - "अब तो वाद करना स्वीकार कर लिया है अतः अब उसे कैसे परास्त किया जाय, यह बताने की कृपा करें ।" इस पर प्राचार्य श्रीगुप्त ने सिद्धमात्र विद्याएं देकर रोहगुप्त को अपना रजोहरण भी दिया और कहा - "यदि विद्याओं के उपरान्त भी कोई उपद्रव खड़ा हो जाय तो रजोहरण को घुमा देना । तुम्हें कोई नहीं जीत सकेगा ।” रोहगुप्त गुरु द्वारा प्रदत्त विद्याएं और रजोहरण लेकर राजसभा में पहुंचा और बोला - "परिव्राजक ! अपना पूर्वपक्ष उपस्थित करो ।" परिव्राजक ने सोचा कि यह श्रमण बड़े कुशल होते हैं अतः इन्हीं के सिद्धान्त को मैं अपनी ओर से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करूं । इस प्रकार सोच कर वह बोला - "संसार में दो राशियां हैं - जीव राशि और प्रजीवराशि ।” रोहगुप्त ने प्रतिपक्ष में कहा - "नहीं राशियां तीन होती हैं। जीव-प्रजीव और नोजीव ।” जीव अर्थात् चेतना वाले प्राणी, जीव घटपदादि जड़ पदार्थ और नोजीव - छिपकली की कटी हुई पूंछ ।” संसार में अन्य भी तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं । दंड के भी तीन भाग होते हैं - प्रादि मध्य और अन्त । लोक भी उर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक - इस प्रकार तीन होते हैं । इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि राशियां दो ही होती हैं ।' इस प्रकार थोड़ी ही देर के शास्त्रार्थ में रोहगुप्त के प्रबल तर्कों से निरुत्तर होकर परिव्राजक खिसिया गया और वह अपनी विद्याओं के बल से रोहगुप्त को जीतने का प्रयास करने लगा। परिव्राजक ने क्रमशः वृश्चिकी, सर्पिकी, मूशिकी काकी एवं मृगी विद्यानों का रोहगुप्त पर प्रयोग किया। रोहगुप्त ने मयूरी, नकुली, मार्जारी, व्याघ्री और उलूकी विद्यानों के प्रयोग द्वारा परिव्राजक की उन सभी विद्यानों को प्रभावहीन बना दिया । विद्याबल के प्रयोग में भी रोहगुप्त से पराजित हो जाने पर परिव्राजक बौखला उठा । उसने अन्त में अपने अन्तिम अस्त्र के रूप में सुरक्षित गर्दभी विद्या का रोहगुप्त पर प्रयोग किया। रोहंगुप्त के पास उसे निरस्त करने वाली कोई विद्या नहीं थी अतः उसने गुरु द्वारा प्रदत्त रजोहरण के माध्यम से गर्दभी विद्या hi प्रभावहीन बना परिव्राजक को पराजित कर दिया। रोहगुप्त को विजयी और परिव्राजक को पराजित घोषित राजा और सभ्यों द्वारा किया गया । परिव्राजक को पराजित करने के पश्चात् रोहगुप्त अपने गुरु की सेवा में लोटा और उसने अपनी विजय की सारी घटना उन्हें कह सुनाई । तीन राशियों की प्ररूपणा की बात सुनकर प्राचार्य श्रीगुप्त ने कहा" वत्स ! उत्सूत्र प्ररूपरगा कर विजय प्राप्त करना उचित नहीं । सभा से उठते ही तुम्हें यह स्पष्टीकरण कर देना चाहिये था कि हमारे सिद्धान्त में तीन राशियां नहीं हैं। मैंने तो केवल वादी की बुद्धि को पराभूत करने के लिये ही तीन राशियों - Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छठा निन्हव रोहगुप्त की प्ररूपणा की है। वस्तुतः राशियां दो ही हैं। जीवराशि और अजीव राशि । अब भी समय है, तुम तत्काल राजसभा में जाकर सत्यव्रत की रक्षा के लिये स्पष्टीकरण के साथ वास्तविक स्थिति रख दो।" : गुरु की आज्ञा को अनसुनी कर रोहगुप्त राजसभा में जाने के लिये उद्यत नहीं हुआ। वह मौन धारण किये अपने स्थान पर बैठा रहा। जब प्राचार्य श्रीगुप्त ने राजसभा में जाने के लिये उसे बार बार बल दिया तो वह उनसे वाद करने को उद्यत हो गया। उसने अपनी बात को सही प्रमाणित करने का प्रयास करते हुए कहा - "मैंने तीन राशियों की बात कह दी तो इसमें मुझे कौनसा दोष लग गया? राशियां तीन हैं ही।" रोहगुप्त को अपने साथ वाद करते देख प्राचार्य श्रीगुप्त ने राजकुल में जाकर कहा - "राजन् ! मेरे शिष्य रोहगुप्त ने जो आपकी राजसभा में तीन राशियों की प्ररूपणा की है, वह वास्तव में सिद्धान्तविरुद्ध है। सिद्धान्त में वस्तुतः दो ही राशियां मानी गई हैं। आप हम दोनों के बीच होने वाले वाद-प्रतिवाद को सुनकर सत्य का निर्णय करें। राजा द्वारा स्वीकृति प्रदान किये जाने के पश्चात् गुरू शिष्य के बीच वादविवाद प्रारम्भ हुआ और निरन्तर ६ मास तक चलता रहा । अन्त में राजा बलश्री ने प्राचार्यश्री से निवेदन किया- "भगवन् ! राज्यकार्य में बड़ा विक्षेप हो रहा है । अतः वाद को अब शीघ्र समाप्त करने की कृपा करें।" बलश्री को आश्वस्त करते हुए प्राचार्य श्रीगुप्त ने कहा- "राजन् ! कल वाद-विवाद समाप्त हो जायगा।" दूसरे दिन प्राचार्य श्रीगुप्त ने ६ महिनों से चले पा रहे शास्त्रार्थ को निर्णायक स्थिति में लाने का उपक्रम करते हुए राजसभा के समक्ष राजा से कहा"राजन् ! कुत्रिकापण में संसार भर के सब द्रव्य (पदार्थ) उपलब्ध होते हैं। आप वहां से जीव, अजीव और नोजीव इन तीनों द्रव्यों को मंगवाइये।" राजा द्वारा तत्काल राज्याधिकारियों को कृत्रिकापण पर भेजा गया। वहां जीव और अजीव की तो उपलब्धि हो गई पर नोजीव मांगने पर कोई वस्तु नहीं मिली। राजा ने अपना निर्णय सुनाते हए कहा - "कुत्रिकापण पर संसार के सभी द्रव्य मिल जाते हैं। वहां पर जीव और अजीव मिल गये, नोजीव नामक द्रव्य नहीं मिला। इससे यह प्रमाणित होता है कि संसार में जीव और अजीव ये दो ही राशियां हैं. नोजीव नाम की तीसरी कोई राशि नहीं। ऐसी स्थिति में प्राचार्य श्रीगुप्त को वाद में विजयी घोषित किया जाता है और उनके दुविनीत शिष्य रोहगुप्त को पराजित ।" राजा ने रोहगुप्त को अपने देश से निर्वासित भी कर दिया।' 'वाए पराजिमो सो, निव्यिसमो कारिमो नरिदेण ।। घोसावियं च नयरे, जयइ जियो बदमाणोत्ति ।।२५०६. विशेषावश्यक भाष्य Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा निन्हव रोहगुप्त] दशपूर्वधर-काल : मार्य नागहस्ती __प्राचार्य श्रीगुप्त ने भी दुराग्रही समझ कर रोहगुप्त को श्रमणसंघ से बहिष्कृत कर दिया। शास्त्रज्ञान तथा अनेक विद्यामों में निष्णात, ज्ञान और प्रतिभा दोनों ही का धनी रोहगुप्त मिथ्याभिनिवेश के वशीभूत होकर मिथ्यात्वी हो गया। इससे प्रमाणित हो जाता है कि मिथ्याभिनिवेश वस्तुतः महान् अनर्थों का मूल है । मिथ्याभिनिवेश के वशीभूत व्यक्ति वर्षों से अर्जित ज्ञान, सम्यक्त्व, गुरुभक्ति प्रादि को तिलांजलि देकर अपनी प्रात्मा का घोर पतन कर बैठता है। जैन साहित्य मोर इतिहास के अनुसार यही रोहगुप्त वैशेषिक दर्शन का प्ररण्यनकर्ता माना गया है। रोहगुप्त का पौलुक्य गोत्र होने के कारण इसके द्वारा प्रणीत वैशेषिक दर्शन को पौलुक्य दर्शन तथा छः द्रव्यों का उपदेश करने के कारण पडोलुक्य दर्शन के नाम से भी अभिहित किया जाता है । कल्पसूत्र स्थविरावली में कौशिक गोत्रीय षडुलूक रोहगुप्त को प्रार्य महागिरि का शिष्य बताया गया है। प्रार्य महागिरि का प्राचार्यकाल वीर नि० सं० २१५ से २४५ तक माना गया है और रोहगुप्त द्वारा राशिक दर्शन का प्रवर्तन वीर नि० सं० ५४४ में किया गया। ऐसी स्थिति में रोहगुप्त को आर्य महागिरि का साक्षात् शिष्य किसी भी दशा में स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि वी. नि. सं. २४५ में स्वर्गस्थ हुए प्रार्य महागिरि के साक्षात् शिष्य का उनसे ३२६ वर्ष पश्चात् विद्यमान रहना संभव नहीं। वस्तुतः रोहगुप्त युगप्रधानाचार्य श्रीगुप्त के साक्षात् शिष्य थे। आर्य श्रीगुप्त वास्तव में प्रार्य महागिरि की परम्परा में हुए अथवा किसी अन्य परम्परा में- इस प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। कल्पसूत्र स्थविरावली के इस उल्लेख से कि रोहगुप्त महागिरि के शिष्य थे, इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि युगप्रधानाचार्य श्रीगुप्त मार्य महागिरि की मूल परम्परा से निकली किसी शाखा में हुए हैं। इन सब तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् यही निष्कर्ष निकलता है कि रोहगुप्त श्रीगुप्त का साक्षात् शिष्य और आर्य महागिरि की परम्परा के अन्तर्गत शिष्यानशिष्य सन्तति का एक श्रमण था । कल्प स्थविरावली के एतद्विषयक पाठ का अभिप्राय भी यही होना चाहिए। लिपिकार के दोष. अथवा वास्तविक पाठ के विस्मृति के गर्भ में तिरोहित हो जाने के कारण ही कल्पस्थविरावली में रोहगुप्त को प्रार्य महागिरि का शिष्य बताया गया है। 'नामेण रोहगुत्तो, गुत्तेण ५ लप्पए स चोलूमो।। दवाइ छप्पयत्यो- वएसरणामो छलूमोत्ति ॥२५०८ [वही] 'थेरस्स. णं प्रज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी प्रहावच्चा अभिण्णाया होत्था। तंजहा - थेरे उत्तरे.... थेरे छलुए रोहगुत्ते कोसिय गुत्तेणं । थेरेहितो पं छलुएहितो रणं रोहगुत्तेहितो तेरासिया साहा निग्गया। Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग प्रार्य वनस्वामी भगवान् महावीर के शासन में हुए प्रभावक प्राचार्यों में मार्य वचस्वामी का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। आपके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि आपको अपने जन्म के तत्काल पश्चात् ही जातिस्मरण ज्ञान हो गया और अपने जन्म के प्रथम दिन से ही आप संसार से पूर्णरूपेण विरक्त एवं वैराग्य भावनाओं से प्रोत-प्रोत हो जीवनपर्यंत अहर्निश स्व-पर कल्याण में निरत रहे। __ आर्य वज्रस्वामी के पितामह श्रेष्ठी धन अवन्ती प्रदेश के तुम्बवन नामक नगर के निवासी थे। उनकी गणना अवन्ती राज्य के प्रतिसमृद्ध, प्रतिष्ठित एवं प्रमुख श्रेष्ठियों में की जाती थी। दानशीलता, दयालुता एवं उदारता आदि गुणों के कारण श्रेष्ठी धन का यश उस समय आर्यधरा में दूर-दूर तक फैला हुआ था। श्रेष्ठी धन के धनगिरि नामक एक मात्र पुत्र था जो बड़ा तेजस्वी, सुकुमार, सौम्य और सुन्दर था। श्रेष्ठिपुत्र धनगिरि बाल्यावस्था से ही ऐहिक आकर्षणों के प्रति उदासीन और अपनी अवस्था के अननुरूप. सदा धार्मिक विचारों में ही निमग्न रहता था। संभवतः आर्य धनगिरि के युवा होने से पूर्व ही श्रेष्ठी धन का देहावसान हो चुका था। उन दिनों तुम्बवन नगर में धनपाल नामक एक व्यापारी रहता था, जो विपुल वैभव तथा अतुल सम्पत्ति का स्वामी था। श्रेष्ठी धनपाल के समित नामक एक पुत्र और सुनन्दा नाम की एक सर्वगुण-सम्पन्ना परम रूप-लावण्यवती पुत्री थी। श्रेष्ठिपुत्र समित ने आर्य सिंहगिरि के उपदेश से प्रबुद्ध हो पूर्ण तरुणावस्था में ही अपने पैतृक अमित वैभव का परित्याग कर उत्कृष्ट वैराग्य के साथ आर्य सिंहगिरि के पास धमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। उधर जव सुनन्दा किशोरावस्था के कगार पर पहुंची तो धनपाल को अपनी कन्या के योग्य वर ढूंढने की चिन्ता हुई। अपने समान कुल, शील एवं धनसम्पन्न श्रेष्ठी धन के पुत्र धनगिरि को अपनी पुत्री के लिये योग्य समझ कर धनपाल ने उसके समक्ष सुनन्दा से पाणिग्रहण करने का प्रस्ताव रखा। सांसारिक भोगों से निस्पृह धनगिरि ने अति विनम्र शब्दों में एक प्रकार से धनपाल के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए प्रश्न किया- "क्या भवसागर की भयावहता से भलीभांति परिचित आप जैसे स्वजनहितैषी महानुभावों द्वारा अपने किसी प्रियजन को भव-पाश में प्राबद्ध करना उचित कहा जा सकता है ?" धनपाल ने अतिशय स्नेहसिक्त स्वर में अनेक युक्तियों एवं दृष्टान्तों से धनगिरि को समझाते हुए कहा- “सौम्य ! भवार्णव से असंख्य भव्यों का समुद्धार करने वाले भगवान् ऋषभदेव ने भी ऋण चुकाने के समान भोगों का उपभोग करने के पश्चात् त्यागमार्ग को अंगीकार कर स्व तथा पर का कल्याण किया था। प्रतः तुम्हें भी मेरी बात को स्वीकार कर लेना चाहिये।" Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य वजस्वामी] . दशपूर्वपर-काल : पायं नागहस्ती भोगों के प्रति अनिच्छा होते हुए भी धनपाल के प्रत्यधिक प्रेमपूर्ण प्राग्रह के समक्ष धनगिरि को झुकना पड़ा। अन्ततोगत्वा एक दिन शुभ मुहूर्त में सुनन्दा के साथ धनगिरि का विवाह बड़ी धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हो गया। नवदम्पति सहज-सुलभ सांसारिक भोगोपभोगों का मर्यादापूर्वक उपभोग करने लगे। कुछ ही दिनों पश्चात् सुनन्दा के गर्भ में एक भाग्यशाली जीव अवतरित हुआ। . गर्भसूचक शुभ-स्वप्न से धनगिरि और सुनन्दा को दृढ़ विश्वास हो गया कि उन्हें प्रत्यन्त सौभाग्यशाली पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। गर्भ की अभिवृद्धि के साथसाथ सुनन्दा के हर्ष की भी अभिवृद्धि होने लगी। आशा के अतिसुन्दर मानसरोवर में उसका मनमराल हिलोरों के साथ पठखेलियां करने लगा। वह ग्रहनिश अनिर्वचनीय प्रानन्द का अनुभव करती हुई परमप्रमुदित मुद्रा में रहने लगी। _ "ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः" - इस उक्ति के अनुसार ज्ञाततत्त्वा विरक्त धनगिरि के मन में सांसारिक भोगों के प्रति किसी प्रकार का प्राकर्षण प्रवशिष्ट नहीं रहा। वे घर परिवार, और वैभव मादि को प्रगाढ़ बन्धन एवं प्रपंचतुल्य समझते थे। . उन्होंने प्रात्मकल्याण के लिये उपयुक्त अवसर समा कर अपनी पत्नी की प्रसन्न मुद्रा से लाभ उठाने का निश्चय किया। . धनगिरि ने एक दिन सुनन्दा से कहा- “सरले ! तुम्हें यह विदित ही है कि मैं सापनापथ का पथिक बन कर प्रात्महित-साधन करना चाहता है। सौभाग्य से तुम्हें अपना जीवन यापन करने के लिये शीघ्र ही पुत्र का प्रवलम्बन प्राप्त होने वाला है। अब मैं प्रवजित हो भात्मकल्यारण करना चाहता है। तुम्हारे जैसी प्रार्य सन्नारियां अपने दयित के अभ्युत्थान-मार्ग में किसी प्रकार का अवरोष उपस्थित करना उचित नहीं समझतीं। वे अपने प्रियतम के अभीष्ट पथ को प्रशस्त बनाने हेतु महान् से महान त्याग करने के लिये सदा सहर्ष कटिबद्ध रहती हैं । अतः तुम मेरे आत्मसाधना के मार्ग में सहायक बन कर मुझे प्रवजित होने की अनुमति प्रदान करो। यही मेरी हार्दिक इच्छा है।" प्रार्य धनगिरि के अन्तस्तलस्पर्शी उद्गारों से सुनन्दा का सुषुप्त प्रार्य-नारीत्व अपने सनातन स्वरूप में सहसा जागृत हो उठा। उसने शान्त, मन्द पर सुदृढ़ स्वर में कहा:-"प्राणाधार ! भाप सहर्ष अपना परमार्थ सिद्ध कीजिये। मैं आपके द्वारा दिये हुए सम्बल के सहारे आर्यनारी के अनुरूप गौरवमय जीवन व्यतीत कर लूंगी।" 'प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रभावक चरित्र में उल्लेख किया है कि गौतमस्वामी द्वारा प्रष्टापद पर्वत पर प्रतिबोधित सामानिक वैश्रमण देव देवायु पूर्ण होने पर सुनन्दा के गर्भ में उत्पन्न हुमा । वही जन्म ग्रहण करने के पश्चात् वजस्वामी के नाम से विख्यात हुमा । यथा:- स वैश्रमणजातीयसामानिक सुरोऽन्यदा। अष्टापदाद्रिशृंगे यः प्रत्यबोषीन्द्रभूतिना ।।४२॥ सुनन्दाकुक्षिसारेयावतीर्ण: स्वायुषः आये। [प्रभावक परित्र Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [मार्य वज्रस्वामी सुनन्दा से अनुमति प्राप्त कर धनगिरि तत्काल घर से निकल पड़े । उस समय संयोगवश आर्य सिंहगिरि तुम्बवन में पधारे हुए थे । धनगिरि ने श्राचार्य सिंहगिरि की सेवा में उपस्थित हो निग्रंथ प्रव्रज्या ग्रहरण की श्रीर गुरुचरणों में श्रागमों का अध्ययन करने के साथ-साथ कठोर तपश्चरण एवं संयम साधना करने लगे । श्रार्यं धनगिरि वैराग्य के रंग में इतने गहरे रंग गये थे कि उन्होंने कभी क्षरण भर के लिये भी अपनी पत्नी का स्मरण तक नहीं किया । ५६८ सुनन्दा ने गर्भकाल पूर्ण होने पर वीर निर्वाण संवत् ४६६ में एक परमतेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । सुनन्दा द्वारा पुत्र को जन्म दिये जाने के समाचार जिस किसी ने सुने, उसने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की । परिवार की स्त्रियों और सुनन्दा की सखियों ने बड़े हर्षोल्लास से पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। उस श्रानन्द के अवसर पर किसी ने कहा- "यदि इस बालक के पिता धनगिरि प्रव्रजित न हुए होते तो आज इसका जन्मोत्सव और भी अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता ।" उपरोक्त वाक्य के कर्णरन्ध्रों में पड़ते ही पूर्वजन्म के संस्कारों से बालक को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । नवजात शिशु ने मन ही मन विचार किया - "अहो ! मेरे पिता बड़े पुण्यशाली हैं कि उन्होंने श्रमणत्व स्वीकार कर लिया । मुझे भी कालान्तर में यथाशीघ्र संयम ग्रहण करना है, क्योंकि संयम के परिपालन से ही मेरा भवसागर से उद्धार हो सकता है। उसकी माता का उसके प्रति पुत्रस्नेह प्रगाढ़ न बने और उसके व्यवहार से पीड़ित हो माता उसका शीघ्र ही परित्याग कर दे, इसके लिये रुदन को ही शीघ्र फलदायी समझ कर बालक ने तत्काल रुदन करना प्रारम्भ किया। बालक को रुदन से उपरत कराने हेतु सुनन्दा ने, सुनन्दा की सखियों ने और सभी बड़ी, बूढ़ी, सयानी स्त्रियों ने सभी प्रकार के उपाय कर लिये किन्तु बालक का रुदन निरन्तर चलता रहा । अपने पुत्र के अनवरत क्रन्दन से सुनन्दा बड़ी दुखित रहने लगी। उसे न रात्रि में क्षणभर के लिये चैन था न दिन में । वह बार-बार दीर्घ निश्वास छोड़ कर कहती - " पुत्र ! यों तो तू बड़ा नयनाभिराम है, तुझे देख-देख कर मेरी आँखें प्राप्यायित हो जाती हैं पर तेरा यह अहर्निश क्रन्दन बड़ा क्लेशप्रद लगता है। यह मेरे हृदय में शूल की तरह चुभता है । इस प्रकार येन केन प्रकारेण सुनन्दा ने ६ मास छः वर्षों के समान व्यतीत किये। संयोगवश उस समय प्रार्य सिंहगिरि का तुम्बवन में पुनः पदार्पण हुआ । मधुकरी की वेला में जिस समय प्रार्य धनगिरि मधुकरी हेतु अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त कर प्रस्थान करने लगे, उस समय किसी पक्षिविशेष के रव को सुन कर निमित्तज्ञ आर्य सिंहगिरि ने अपने शिष्य धनगिरि को सावधान करते हुए कहा " वत्स ! ग्रांज तुम्हें भिक्षा में सचित्त, प्रचित्त ग्रथवा मिश्रित जो भी वस्तु मिले. उसे बिना किसी प्रकार का विचार किये तुम ग्रहण कर लेना ।" - Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायं वनस्वामी] दशपूर्वघर-काल : प्रायं नागहस्ती ५६६ "यथाज्ञापयति देव" कह कर आर्य धनगिरि प्रार्य समित के साथ भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए सर्वप्रथम सुनन्दा के घर पहुँचे । आर्य धनगिरि और.समित को सुनन्दा के घर में भिक्षार्थ प्रवेश करते देख कर सुनन्दा की अनेक सखियां तत्काल सुनन्दा के पास पहुंची और उससे कहने लगीं- "सुनन्दे ! तुम अपना यह पुत्र धनगिरि को दे दो।" सुनन्दा अपने पुत्र के कभी बन्द न होने वाले रुदन से दुखित तो थी ही। उसने अपनी सखियों की बात सुन कर तत्काल पुत्र को दोनों हाथों में उठा कर धनगिरि को वन्दन करते हुए कहा - "आपके इस पुत्र के प्रतिपल क्रन्दन से मैं तो बड़ी दुखित हो चुकी हूँ । कृपया आप इसे ले लीजिये और अपने पास ही रखिये। यदि यह आपके पास रह कर सुखी रहता है तो उससे भी मुझे सुखानुभूति ही होगी।" आर्य धनगिरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा- "श्राविके! मैं इस को लेने के लिये तैयार है किन्तु स्त्रियों की बात का कोई विश्वास नहीं । पंगु व्यक्ति की तरह उनकी बात आगे चलती नहीं । कालान्तर में किसी प्रकार का विवाद उपस्थित न हो जाय, इस दृष्टि से तुम अनेक व्यक्तियों को साक्षी बनाते हुए उनके समक्ष यह प्रतिज्ञा करो कि भविष्य में तुम कभी अपने पुत्र के सम्बन्ध में किसी प्रकार की कोई बात नहीं कहोगी।" सुनन्दा ने अतीव खिन्न स्वर में कहा - "एक तो ये आर्य समित (संसार पक्ष से सुनन्दा के सहोदर) मेरे साक्षी हैं और इनके अतिरिक्त मेरी ये सभी सहेलियां साक्षी हैं। इन सबको साक्षी बनाकर मैं स्वीकार करती है कि इस क्षण के पश्चात् मैं अपने इस पुत्र के सम्बन्ध में कभी कोई बात नहीं कहूंगी।" तदनन्तर सुनन्दा ने अपने पुत्र को मुनि धनगिरी के पात्र में रख दिया। बालक ने तत्काल परम सन्तोष का अनुभव करते हुए रुदन बन्द कर दिया। मुनि धनगिरि ने झोली के वस्त्र में सुदृढ़ गांठें लगाई और दक्षिण हस्त से दृढ़तापूर्वक पात्रबन्ध को थामे हए वे सुनन्दा के घर से उस स्थान की ओर प्रस्थित हए जहां आर्य सिंहगिरि विराजमान थे । सुनन्दा के गृहांगण से निकल कर उपाश्रय पहुंचते पहुँचते मुनि की भुजा उस शिशु के भार से भग्न सी होने लगी। वे उस भार को उठाये किसी तरह अपने गुरु के समक्ष पहुँचे। भार से एक ओर अधिक झुके हुए धनगिरि को दूर से ही देख कर आर्य सिंहगिरि अपने शिष्य के सम्मुख पाये और धनगिरि के हाथ से उन्होंने वह झोलीबन्ध अपने हाथ में ले लिया। झोलीबन्ध को हाथ में लेते ही प्रार्यसिंह गिरि ने धनगिरि से आश्चर्य भरे स्वर में पूछा"मुने ! तुम यह वज्र के समान अत्यन्त भारयुक्त प्राज क्या ले पाये हो ? यह तो मेरे हाथों की पकड़ से भी खिसका जा रहा है।" यह कहते हुए आर्य सिंहगिरि ने अपने प्रासन पर पात्र को रखा और झोली को खोलकर देखा। पात्र में चन्द्रमा के समान कान्तिमान परमतेजस्वी बालक को देखकर मार्य सिंहगिरि ने उस बालक Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग पाय वज का नाम वज रखा और कहा - "यह बालक प्रवचन का प्राधार होगा, इसका संरक्षण किया जाब।" प्राचार्य सिंहगिरि ने साध्वियों के उपाश्रय में शय्यातरी की देखरेख में बालक वज को सम्हला दिया और स्वयं वहां से किसी अन्य क्षेत्र के लिए विहार कर गये। शय्यातरी बाविका अपने बालकों को सम्हालने से पहले बालक वज्र के दुग्धपान, स्नानमर्दन मादि का पूरा ध्यान रखती भौर दिनभर उपाश्रय में रखकर रात्रि में अपने घर से पाती। बालक भी मल-मूत्र की शंका होने पर मुखाकृति अथवा रुदन से शय्यातरी को सचेत कर देता और उन्हें कष्ट नहीं होने देता। बालक की इस बदली हुई स्थिति और शय्यातरी श्राविका द्वारा बड़ी लगन के साथ की गई. सेवाशुश्रूषा के कारण उसके हृष्ट-पुष्ट होने की बात सुनकर सुनन्दा अपने पुत्र को देखने के लिए एक दिन उपाश्रय में प्रा पहुंची। अपने सुन्दर एवं स्वस्थ पुत्र को प्रसन्न मुद्रा में देखकर सुनन्दा के हृदय में मातृस्नेह उद्वेलित सागर की तरह उमड़ पड़ा। उसने शय्यातरी से अपने पुत्र को लौटाने का प्राग्रह किया किन्तु शय्यातरी ने देना स्वीकार नहीं किया। सुनन्दा स्नेहवश बालक वज को यथासमय पाकर स्तनपान करा जाती। इस तरह बालक वज ३ वर्ष का हो गया। वह जाति-स्मरण ज्ञान के कारण प्रस्तुत माहार ही ग्रहण करता और साध्वियों के मुख से शास्त्रों के श्रवण में बड़ी रुचि रखता। कालान्तर में प्रार्य सिंहगिरि अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए अपने शिष्यों सहित तुम्बवन में पधारे। सुनन्दा ने मार्य धनगिरि के पास पहुंच कर उनसे अपना पुत्र लोटाने की प्रार्थना की। प्रार्य धनगिरि ने सुनन्दा को साध्वाचार के सम्बन्ध में समझाते हुए कहा - "श्राविके! हम साधु लोग साधु-कल्प के अनुसार जिस प्रकार एक बार ग्रहण की हुई वस्त्र-पात्रादि वस्तु को लौटा नहीं सकते, ठीक उसी प्रकार एक बार ग्रहण किये हुए बालक वज को भी तुम्हें नहीं लौटा सकते । तुम तो स्वयं धर्मज्ञा हो, प्रतः एक बार स्वीकार की हुई बात से मुकरने जैसा मनुचित कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता। तुमने मार्य समित और अपनी सखियों को साक्षी बना कर बालक वज को हमें देते हुए कहा था- 'यह बालक में आपको देती हूं, अब मैं कभी इस बालक के सम्बन्ध में किसी प्रकार की बात नहीं करूंगी।' प्रतः अब तुम्हें अपनी उस प्रतिज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन करना चाहिये।" आर्य धनगिरि द्वारा अनेक प्रकार से समझाने - बुझाने पर भी सुनन्दा ने जब अपना प्रविचारपूर्ण हठ नहीं छोड़ा तो संघ के प्रमुख सदस्यों ने भी उसे समझाने का प्रयास किया। किन्तु इस पर भी सुनन्दा ने हठाग्रह नहीं छोड़ा और उसने राजद्वार में उपस्थित हो राजा के समक्ष अपनी मांग रखते हुए न्याय की प्रार्थना की। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रार्यं वज्रस्वामी ] दशपूर्वघर - काल : श्रार्यं नागहस्ती ५७१ न्यायाधिकारियों ने दोनों पक्षों से पूर्ण जानकारी की और इस जटिल मामले को निर्णय के लिये राजा के समक्ष रखा। दोनों पक्षों के मुख से क्रमश: वालक को देने और लेने की स्वीकारोक्ति सुन कर राजा सहित न्यायाधीश बड़े असमंजस में पड़ गये कि एक ओर तो माता अपने पुत्र को प्राप्त करने की मांग कर रही है । दूसरी ओर स्वयं सुनन्दा द्वारा स्वेच्छा से अपना पुत्र उस मुनि को दिया जा चुका है, जो उस पुत्र का जनक और सुनन्दा का पति रहा है । साधु को दिये जाने के कारण वह बालक संघ का हो चुका। संघ वस्तुतः सर्वोपरि है क्योंकि तीर्थंकरों ने भी संघ को सम्मान दिया है । अन्ततोगत्वा बहुत सोच-विचार के पश्चात् राजा ने यह निर्णय दिया कि यह बालक दोनों पक्षों में से जिस पक्ष के पास स्वेच्छा से चला जायगा, उस ही के पास रहेगा । राजाज्ञा के अनुसार प्रथम अवसर माता को दिया गया। सुनन्दा ने बालकों Date अपनी प्राकर्षित कर लेने वाले अनेक प्रकार के सुन्दर एवं मनोहर खिलौने, बालकों को अत्यन्त प्रिय मिष्टान्न आदि बालक वज्र की ओर प्रस्तुत करते हुए उसे अपने पास बुलाने के लिए अनेक बार मधुर सम्बोधनों एवं करतलध्वनि के साथ करयुगल प्रसारण आदि से उसका आह्वान किया। पर सब व्यर्थ । एक प्रबुद्धचेता योगी की तरह वह प्रलोभनों की ओर किंचित्मात्र भी आकृष्ट नहीं हुआ। वह अपने स्थान से उस से मस तक नहीं हुआ । तदनन्तर राजा ने बालक के पिता मुनि धनगिरि को अवसर दिया । चार्य घनगिरि ने अपना रजोहरण बालक वज्र की ओर उठाते हुए कहा :- " वत्स ! यदि तुम तत्वज्ञ और संयम ग्रहण करने के इच्छुक हो, तो अपनी कर्म-रज को झाड़ फेंकने के लिए यह रजोहररण ले लो ।"" आर्य धनगिरि अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाये थे कि बालक वज्र अपने स्थान से उछल कर उनकी गोद में आ बैठा और उनके हाथ से रजोहरण लेकर उसे चंवर की तरह ठुलाने लगा । समस्त परिषद् यह देखकर क्षरण भर के लिए स्तब्ध रह गई । धर्म के जयघोषों से गगनचुम्बी राजप्रासाद गूंज उठा । "बालक वज्र संघ के पास ही रहेगा" - यह राजाज्ञा सुनाते हुए राजा ने साधुग्रों एवं संघ के प्रति भावभरा सम्मान प्रकट किया। तदनन्तर सब अपने-अपने स्थान को लौट गये । सुनन्दा मन ही मन विचार करने लगी- "मेरे सहोदर श्रार्य समित दीक्षित हो गये, मेरे पतिदेव भी दीक्षित हो गये और पुत्र भी दीक्षित के समान ही । ऐसी दशा में मुझे भी श्रमणी धर्म में दीक्षित हो जाना चाहिये ।" पर्याप्त सोच-विचार के पश्चात् उसने दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय किया और १ जद्द सिकयव्ववसातो धम्मज्झयभूसियं इमं वइर । गेव्ह लहं रयहरणं, कम्मरयपमज्जणं धीर ॥ [ प्रावश्य मलयवृत्ति, उपोद्घात, पृ० ३८७] Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य वचस्वामी साध्वियों की सेवा में पहुँच कर उसने श्रमणी-धर्म की दीक्षा स्वीकार की। उस समय तक बालक वज्र ३ वर्ष के हो चुके थे। ज्यों ही वालक वज्र पाठ वर्ष की आयु का हुअा त्यों ही प्रार्य सिंहगिरि ने साध्वियों के सान्निध्य से हटाकर उसे श्रमण-दीक्षा प्रदान की और अपने पास रखना प्रारम्भ कर दिया। उस समय तक बालक वज्र ने साध्वियों के मुख से सुन-सुन कर एकादश अङ्ग प्रायः कण्ठस्थ कर लिए थे। अपने शिष्यपरिवार सहित अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए कालान्तर में आर्य सिंहगिरि एक दिन एक पर्वत के पास पहुँचे। मुनि वज्र की परीक्षा लेने के अभिप्राय से वहां उनके पूर्वभव के मित्र जूंभक देवों ने अपनी वैक्रियशक्ति से घोर गर्जन करती हुई घनघोर मेघघटा की रचना की। वर्षा के आसार देखकर प्रार्य सिंहगिरि ने अपने शिष्यों सहित उस पर्वत की एक गुफा में प्रवेश किया। उनके गुफा में पहुंचते-पहुंचते बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक के साथ मुसलधार वर्षा होने लगी। थोड़ी ही देर में चारों पोर जलबिम्ब ही जलबिम्व दृष्टिगोचर होने लगा । वर्षा बन्द न होने के लक्षण देखकर सब साधुओं ने उपवास का व्रत ग्रहण कर लिया और परम सन्तोष के साथ वे आत्मचिंतन में निरत हो गये। सायंकाल होते-होते वर्षा बन्द हुई अतः आर्य सिंहगिरि ने अपने शिष्यों सहित रात्रि उसी गिरिकन्दरा में व्यतीत की। दूसरे दिन मध्याह्नवेला में आर्य वज्र मुनि अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त कर भिक्षार्थ वसति की ओर प्रस्थित हुए। थोड़ी दूर जाने पर मुनि वज्र ने एक छोटी सी सुन्दर वसति देखी और उन्होंने भिक्षार्थ एक घर में प्रवेश किया। उस गृह में अत्यन्त सौम्य प्राकृति के कतिपय भद्र पुरुषों ने मुनि वज्र को नमस्कार किया और वे उन्हें कुष्माण्डपाक भिक्षा में देने हेतु समुद्यत हुए। लघुवय होते हुए भी विचक्षण वज्रमुनि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से विचार करते हुए मन ही मन सोचा कि द्रव्य-कूष्माण्डपाक, क्षेत्र-मालव प्रदेश, काल-ग्रीष्मकाल और भाव की दृष्टि से अम्लान-कुसुममालाधारी दिव्य दानकर्ता, जिनके पैर हलनचलन ग्रादि क्रिया करते समय पृथ्वीतल का स्पर्श तक नहीं करते- ऐसी दशा में निश्चितरूपेण ये लोग मनुष्य नहीं अपितु देव होने चाहिये। देवताओं द्वारा दिया गया दान साधु के लिए किसी भी दशा में कल्पनीय नहीं माना गया है। , ताहे अटुवासयो संजतिपडिस्सतानो निकालियो ताहे उज्जेरिण गतो। [आवश्यक चूरिण, प्रथम भाग, पृ० ३६२] (क) प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने "प्रभावक चरित्र" में लिखा है कि प्रायसिंहगिरि ने वज्रस्वामी को जब वे तीन वर्ष की आयु के थे, उम ही ममय दीक्षित कर लिया। यथा : त्रिवार्षिकोऽपि न स्तन्यं, पपो वज्रो व्रतेच्छया ।। दीक्षित्वा गुरुभिस्तेन तत्र मुक्तः समातृक: ।।१२।। अथाष्टदापिकं वज्र,कृष्ट्वा साध्वीप्रतिश्रयात् । श्री सिंह गिरयोऽन्यत्र, विजह सपरिच्छदाः ।।३।। [प्रभावक चरित्र, पृ० ५] Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायव ५७३ दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती इस प्रकार जब उन्हें यह निश्चय हो गया कि दी जाने वाली भिक्षा वस्तुतः सदोष है, तो मुनि वज्र ने अस्वीकृतिसूचक सस्मित स्वर में उन मानववेषधारी देवों से कहा - "धुसदो! यह कूष्माण्डपाक देवपिण्ड होने के कारण श्रमणों के लिए अग्राह्य है।" वज्रमुनि के विलक्षण बुद्धिकौशल को देखकर वे जंभकदेव बड़े चकित एवं प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर वज्रमुनि को भक्तिपूर्वक वन्दन किया और उनके विशुद्ध श्रमणाचार के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वे अपने स्थान को लौट गये । कालान्तर में उन्हीं जंभक देवों ने एक बार पुनः वज्रमूनि की परीक्षा लेने की ठानी। एक दिन ग्रीष्मकालीन मध्याह्न की चिलचिलाती धूप में वज्रमुनि भिक्षाटन कर रहे थे। परीक्षा के लिए उपयुक्त अवसर समझ कर जंभक देवों ने अपनी वैक्रियशक्ति से सद्गृहस्थों का रूप बना कर देवमाया द्वारा रचित अपने घर से वज्रमूनि को भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की। वज्रमुनि ने भिक्षार्थ घर में प्रवेश किया। गृहस्थवेषधर मुंभकों ने मिष्टान्न (फैनियों) से भरा थाल मुनि के समक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्हें ग्रहण करने की अभ्यर्थना की। शरत्काल में बनाये जाने वाले मिष्टान्न को मध्य-ग्रीष्मर्तु में देख कर वज्रमुनि ने दीयमान वस्तु तथा दाता आदि के सम्बन्ध में बड़ी बारीकी से समीचीन रूपेण पर्यवेक्षण किया और उस भिक्षा को देवपिण्ड बताते हुए अस्वीकार कर दिया। वज्रमुनि की विशुद्ध प्राचारनिष्ठा एवं भिक्षान्न की पूर्ण गवेषणा से प्रसन्न होकर उन्होंने वज्रमनि को आकाशगामिनी - विद्या प्रदान की। आवश्यक नियुक्ति में महापरीक्षा अध्ययन से भी प्रार्य वज्र द्वारा प्राकाशगामिनी विद्या प्राप्त करना बताया गया है । आर्य वज्र बाल्यकाल से ही बड़े ज्ञान रसिक और सेवावृत्ति वाले थे। वे अल्प समय में ही अपने शम, दम, विनय और गुणग्राहकता आदि अंनुपम गुणों के कारण गुरुदेव और अन्य सभी श्रमणों के प्रेमपात्र बन गये । गुरुदेव के पास उन्होंने अङ्ग शास्त्र के ज्ञान को पूर्ण कर उनके गूढ रहस्यों को हृदयंगम किया। पार्य वज्र की प्रतिमा और विनयशीलता उपरिवरिणत घटना के दूसरे ही दिन जब प्रार्य सिंहगिरि शौचनिवृत्त्यर्थ जंगल की ओर एवं अन्य सभी साधु गोचरी अथवा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए उपाश्रयस्थल से बाहर गये हुए थे, उस समय एकान्त पाकर वज्रमूनि के मन में बालसुलभ चापल्य प्रादुर्भूत हुआ। उन्होंने सभी साधुओं के विटनों (वस्त्रों) को मंडलाकार में रखा और उनके मध्य भाग में बैठ कर क्रमशः अंग और पूर्वो की वाचना देने लगे। धाराप्रवाह घनरवगम्भीर स्वर में प्रार्य वज्र द्वारा शास्त्रों की वाचना का क्रम चल रहा था, ठीक उसी समय आर्य सिंहगिरि जंगल से लौटे । आर्य वज्र की ध्वनि को पहिचान कर आर्य सिंहगिरि द्वार के पास दीवार की प्रोट। में खड़े रह गये । बालक मुनि के मुख से शास्त्र के एक-एक सूत्र का अतीव स्पष्ट Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य क्य की प्रतिभा एवं सुन्दर विवेचन सुनकर आर्यसिंहगिरि हर्षविभोर हो गद्गद् हो उठे। परमानन्द की अनुभूति के साथ उनके हृदय में सहसा इस प्रकार के उद्गार उद्भूत हुए "धन्य है भगवान् महावीर का यह शासन, धन्य है यह गच्छ, जिसमें इस प्रकार . का अलौकिक शिशुमुनि विद्यमान है।" बालक-मुनि कहीं हतप्रभ अथवा लज्जित न हो जायं इस दृष्टि से आर्य सिंहगिरि ने उच्च स्वर से आगमनसूचक "निस्सिही-निस्सिही" शब्द का उच्चारण किया। अपने गुरु का स्वर पहिचानते ही वज्रमुनि को लज्जामिश्रित भय का अनुभव हुा । उन्होंने शीघ्रतापूर्वक साधुओं के विटणों को यथास्थान रखा और वे अधोमुख किये हुए गुरु के सम्मुख पहुंचे। आर्य वज्र ने सविनय वन्दन के पश्चात् अपने गुरु के पैरों का वस्त्र से प्रमार्जन कर साफ किया। अपने गुरु के स्नेहसुधासिक्त सस्मित दृष्टिनिक्षेप से वज्रमूनि ने समझ लिया कि उनका प्रच्छन्न कार्य गुरु से छुपा नहीं रहा है। आर्य सिंहगिरि ने रात्रि में अपने शिष्य वज्र मुनि की अद्भुत प्रतिभा पर विचार करते हुए मन ही मन सोचा कि वय में लघु पर ज्ञान में वृद्ध इस बालक मुनि की अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनियों की सेवा शुश्रूषा करने में जो अवज्ञा हो रही है, उसे भविष्य में नहीं होने दिया जाना चाहिये । सोच-विचार कर उन्होंने इसके लिए एक उपाय खोज निकाला। प्रातःकाल सिंहगिरि ने अपने शिष्यसमूह को एकत्रित कर कहा- "मैं आज यहां से विहार कर रहा है। शिक्षार्थी सब श्रमरण यहीं पर रहेंगे।" ___अंगशास्त्रों का अध्ययन करने वाले श्रमणों ने प्रति विनीत एवं जिज्ञासा भरे स्वर में पूछा - "भगवन् ! हमें शास्त्रों की वाचना कौन देंगे ?" आर्य सिंहगिरि ने शान्त, गम्भीर एवं दृढ़ स्वर में छोटा सा उत्तर दिया- "लघु मुनि वज्र।" यदि उस समय प्राज के समान दूषित वातावरण होता तो निश्चित रूपेण शिष्यों द्वारा गगनभेदी अट्टहास से गुरु की धज्जियां उड़ा दी जातीं पर वे विनयशील शिष्य गुरुवाक्य को ईश्वरवाक्य समझते थे। सहज मुद्रा में "यथाज्ञापयति देव" कह कर सब श्रमणों ने गुरु के आदेश को शिरोधार्य किया। तदनन्तर आसिंहगिरि ने कुछ स्थविर साधनों के साथ वहां से किसी अन्य स्थान के लिये विहार कर दिया। वाचना का समय होते ही साधुओं द्वारा एक पाट पर ववमुनि का प्रासन बिछाया जा कर उस पर वजमुनि को पासीन किया गया। सब साधु वचमुनि के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित कर अपने-अपने प्रासन पर बैठ गये। वज्रमुनि ने उन्हें शास्त्रों की वाचना देना प्रारम्भ किया। प्रत्येक सूत्र की, प्रत्येक गाथा की, समीचीन रूप से विस्तारपूर्वक व्याख्या करते हुए वषमुनि ने प्रागमों के निगूढ़ से निगूढ़ रहस्यों को इस प्रकार Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विनयशीलता] दशपूर्वधर-काल : प्रायं नागहस्ती ५७५ सरल रीति से समझाया कि प्रत्येक साधु के मस्तिष्क में उनका स्पष्ट अर्थ अमिट रूप से अंकित हो गया। प्रतिदिन शास्त्रों की वाचना का क्रम चलता रहा । वज्रमुनि से शास्त्रों की वाचना ग्रहण करते समय प्रत्येक साधु ने अमृत तुल्य रसास्वादन की अनुभूति की। __ कतिपय दिनों के पश्चात् आर्य सिंहगिरि पुनः वहां लौट आये । सब श्रमणों ने गुरुचरणों में भक्तिसहित अपने मस्तक झुकाये। गुरु ने अपने शिष्यों से प्रश्न किया- "कहो श्रमणो ! तुम्हारा प्रागमों का अध्ययन कैसा चल रहा है ?" सब साधुनों ने एक साथ आनन्दातिरेक भरे सम्मिलित स्वर में उत्तर दिया- "गुरुदेव ! गुरुकृपा से बहुत सुन्दर, अतिसमीचीन । वाचना ग्रहण करते समय हमें परमानन्द की अनुभूति होती है। भगवन् ! अब सदा के लिये आर्य वज्र ही हमारे वाचनाचार्य रहें।" असीम संतोष का अनुभव करते हुए आर्य सिंहगिरि ने कहा- "प्रत्यक्षानुभव से मैंने यह सब कुछ जान लिया था। इसी लिये इस बालकमुनि की अनुपम गुणगरिमा से तुम लोगों को अवगत कराने के लिये ही मैंने जानबूझ कर यहां से विहार किया था।" अनेक प्रकार के तपश्चरण के साथ-साथ मुनि वज्र साधु-समूह को वाचना भी देते रहे और अपने गुरु के पास अध्ययन भी करते रहे। स्वल्प समय में ही आर्य वज्र ने अपने गुरु के पास जितना प्रागम-ज्ञान था वह सब ग्रहण कर लिया। आर्य सिंहगिरि ने तदनन्तर आर्य वज्र को अवशिष्ट श्रुतशास्त्र का अध्ययन कराने के लिये किसी सुयोग्य विद्वान् मुनि की सेवा में भेजने का विचार किया। विहारक्रम से एक दिन वे दशपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां से उन्होंने प्रार्य वज्र को प्रवन्ती (उज्जयिनी) में विराजित दशपूर्वधर मार्य भद्रगुप्त के पास अध्ययनार्थ भेजा। गुरुप्राज्ञा को शिरोधार्य कर प्रार्य वज़ मुनि उन विहार करते हुए अवन्ती नगर पहुंचे । संध्याकाल हो जाने के कारण प्रार्य वन ने रात्रि नगर के बाहर ही एक स्थान में बिताई। प्रातःकालीन आवश्यक कार्यों को सम्पन्न करने के पश्चात् मुनि वज़ दशपूर्वधर प्राय भद्रगुप्त के स्थान की पोर प्रस्थित हुए। उस समय प्रार्य भद्रगुप्त ने अपने शिष्यों से कहा- "वत्सो! मैंने रात्रि में एक स्वप्न देखा कि खीर से भरे हुए मेरे पात्र को एक सिंह-शावक ने माकर पी लिया एवं जिहवा से चाट लिया है।' इसं स्वप्नदर्शन से ऐसा प्रतीत होता है कि दश पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने का इच्छुक कोई महान् बुद्धिशाली व्यक्ति पाने ही वाला है।" प्रार्य भद्रगुप्त ने अपनी बात समाप्त की ही थी कि मनि वन ने उनके सम्मुख उपस्थित हो भक्ति सहित उन्हें वन्दन-नमन के पश्चात् अपने मागमन का ' सो मागंतूड सीहोयएण पीतो मेहिनोय। [पावश्यक मलय, पत्र ३८६ (१)]. Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [आर्य वज्र की प्रतिभा , प्रयोजन बताते हुए श्रुतशास्त्र का अध्यापन करने की प्रार्थना की। शरीर की चेष्टायों और लक्षणों से वज्र मुनि को श्रुतशास्त्र के ज्ञान का सुयोग्य पात्र समझ कर आर्य भद्रगुप्त ने उन्हें पूर्वज्ञान की वाचनाएं देना प्रारम्भ किया। मुनि वज्र को दश पूर्वो का साथै सम्पूर्ण अध्यापन कराने के पश्चात् आर्य भद्रगुप्त ने पुनः आर्य सिहगिरि की सेवा में लौटने की अनुज्ञा प्रदान की। वज्र मुनि अपने गुरु आर्य सिंहगिरि की सेवा में उपस्थित हुए। प्राचार्य ने प्रसन्न हो दशपुर में आकर उन्हें वाचक पद से सुशोभित किया। अपने प्रिय शिष्य वज्रमुनि को दशपूर्वधर के रूप में देख कर आर्य सिंहगिरि ने परम संतोष का अनुभव किया और अपनी आयु का अन्तिम समय सन्निकट समझ कर उन्होंने वी०नि० सं०५४८ में अपने शिष्य दशपूर्वधर पार्य वज्र को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया। आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि की मान्यतानुसार वज्र स्वामी के पूर्वभव के मित्र गुह्यकों ने प्राचार्य सिंहगिरि द्वारा आर्य वज्रस्वामी को प्राचार्यपद दिये जाने के अवसर पर बड़ा अद्भुत महोत्सव किया। उस समय आचार्य वज्र ५०० साधुओं के साथ विचर रहे थे। आर्य वज्रस्वामी ने भी अपने गुरु सिंहगिरि की अन्त समय तक बड़ी लगन के साथ सेवा-शुश्रूषा की। गुरुदेव के स्वर्गगमन के पश्चात् प्राचार्य वज्रस्वामी ने बड़ी योग्यता के साथ संघ का संचालन करते हुए जिनशासन की सेवा की। विभिन्न क्षेत्रों में धर्म का प्रचार करते हुए वे एक समय पाटलिपुत्र पधारे और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे । आपके तात्विक उपदेशों से अपने मानस को और दर्शनों से नेत्रों को पवित्र करने के लिये हजारों की संख्या में नरनारीवृन्द उद्यान में उपस्थित हुए। आपकी अतीव रोचक एवं अद्भुत व्याख्यानशैली से प्रबुद्ध हो अनेक नरनारियों ने सम्यक्त व, व्रत, नियमादि ग्रहण कर अपना आत्मकल्याण किया। पाटलिपुत्र नगर के निवासी धन नामक एक अतुल सम्पत्तिशाली श्रेष्ठी की रुक्मिणी नाम की कन्या ने अपनी यानशाला में विराजित साध्वियों से आर्य वज्र के गुणों की प्रशंसा सुनी। उसने एक दिन प्राचार्य वज्रस्वामी के दर्शन किये और उनका व्याख्यान सुना। जब उसने अखण्ड ब्रह्मचर्य के अपूर्व तेज से प्रदीप्त पार्य वज्र के सौम्य मुखमण्डलं को देखा और उपदेश देते समय उनकी सुधासिक्त मधुर वाणी को सुना तो श्रेष्ठिकन्या रुक्मिणी आचार्य वज्र पर प्राणपण से मुग्ध हो ' (क) जस्स अणुनाए वायगत्तणे दसपुरम्मि नयरम्मि । .. देवेहि कया महिमा, पयारणुसारि नमसामि ।। ७६७ [प्राव.] (ख) वज्रप्राग्जन्मसुहृदो ज्ञानाद् विज्ञाय ते सुराः । तस्याचार्यप्रतिष्ठायां चक्रुरुत्सवमद्भुतम् ॥ १३२ [प्रभावकचरित्र, पृ० ६] २ वयरसामि वि पंचहि अरणगारसयेहिं संपरिवुडो विहरइ । २ [प्रावश्यक मलय, ३८६ (२)] Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विनयशीलता ] दशपूर्वर- काल : श्रार्यं नागहस्ती ५७७ · गई। उसने प्रण किया "यदि आर्य वज्र मेरे पति हों तो मुझे संसार में रहना है अन्यथा भोगों का पूर्ण रूपेण परित्याग कर देना है ।' कहा जाता है कि रुक्मिणी ने अपनी सखियों के माध्यम से अपने पिता को कहलवाया कि उसने वज्रस्वामी को अपने पति के रूप में वरण कर लिया है अतः यदि वज्रस्वामी के साथ उसका विवाह नहीं किया गया तो वह निश्चित रूप से अग्नि में प्रवेश कर आत्मदाह कर लेगी । पिता अपनी पुत्री की दृढ़प्रतिज्ञता एवं हठ से भलीभांति परिचित था प्रत: वह पुत्री की सहेलियों के मुख से उसके दृढ निश्चय की बात सुन कर बड़ा घबराया । बहुत सोच-विचार के पश्चात् अनेक बहुमूल्य रत्न और अपनी अनुपम रूपवती पुत्री को अपने साथ ले कर वह उस उद्यान में पहुँचा जहाँ कि आचार्य वज्रस्वामी अपने शिष्यों सहित विराजमान थे। श्रेष्ठी धन ने वज्रस्वामी को नमस्कार करने के पश्चात् निवेदन किया- "आचार्यप्रवर ! मेरी यह परम रूपगुणसम्पन्ना कन्या आपके गुणों पर मुग्ध हो श्रापको अपने पति के रूप में वरण करना चाहती है । मेरे पास एक अरब रौप्यक का धन है । अपनी कन्या के साथ मैं वह सब धन आपको समर्पित करना चाहता हूँ । उस धन से प्राप जीवन भर विविध भोगोपभोग, दान, उपकार आदि का आनन्द लूट सकते हैं । आप कृपा कर मेरी इस कन्या के साथ पारिग्रहरण कर लीजिये । २ प्राचार्य वज्र ने सहज शान्त सस्मित स्वर में कहा - "भद्र ! तुम वस्तुतः अत्यन्त सरल प्रकृति के हो। तुम स्वयं तो सांसारिक बन्धनों में बन्धे हुए हो ही, दूसरों को भी उन बन्धनों में आबद्ध करना चाहते हो। तुम नहीं जानते कि संयम के मार्ग में कितना अद्भुत अलौकिक श्रानन्द है । वह पथ कण्टकाकीर्ण भले ही हो पर इसका सच्चा पथिक संयम और ज्ञान की मस्ती में जिस श्रनिर्वचनीय श्रानन्द का अनुभव करता है, उसके समक्ष यह क्षणिक पौद्गलिक सुख नितान्त नगण्य, तुच्छ और सुखाभास मात्र हैं । संयम से प्राप्त होने वाला प्रनिर्वचनीय आध्यात्मिक आनन्द अमूल्य रत्नराशि से भी अनन्तगुरिणत बहुमूल्य है । तुम कल्पवृक्षतुल्य संयम के सुख की तुच्छ तृरण तुल्य इन्द्रिय-सुख से तुलना करना चाहते हो । सौम्य ! मैं तो निस्परिग्रही साधु है । मुझे संसार की किसी प्रकार की सम्पदा अथवा विषय-वासना की कामना नहीं है । यदि यह तुम्हारी कन्या वास्तव में मेरे प्रति अनुराग रखती है, तो मेरे द्वारा स्वीकृत परम सुखकर संयममार्ग पर यह भी प्रवृत्त हो जाय ।" प्राचार्य वज्र की त्याग एवं तपोपूत विरक्तिपूर्ण सयुक्तिक वारणी सुन कर श्रेष्ठिकन्या रुक्मिणी के अन्तर्मन पर माया हुआ प्रज्ञान का काला पर्दा हट गया । उसके प्रतक्षु उन्मीलित हो गये । उसने तत्काल संयम ग्रहरण कर लिया प्रौर 1 जइ सो मम पति होज्जा, ताऽहं भोगे भुजिस्सं । इयरहा श्रलं भोगेहिं २ जो कन्नाइ धणेण य निमंतिम्रो जुम्बरणम्मि नयरम्मि कुसुमनामे, तं वइररिसि [ आवश्यक मलयगिरी, पत्र ३८६ ( २ ) ] गिहवणा । नम॑सामि ||७६८ | [प्रावश्यक मलय, पत्र ३६० (१)] Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रार्य वज्र की प्रतिभा संयम का समीचीन रूप से पालन करती हुई वह आर्या रुक्मिणी भी साध्वियों के साथ विचरण करने लगी । यद्यपि आर्य वज्रस्वामी के पूर्वभव के मित्र जृंभक देवों ने उन्हें प्रसन्न हो गगनगामिनी विद्या दी थी पर स्वयं उन्होंने अपने अथाह श्रागमज्ञान के सहारे प्राचारांग सूत्र के महापरिज्ञा अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या को ढूंढ निकाला और भयंकर संक्रान्तिकाल में अनिवार्य आवश्यकता पड़ने पर भूतहितानुकम्पा से प्रेरित हो उस मगनगामिनी विद्या का प्रयोग कर अनेक मानवों के प्राणों की रक्षा की। इस प्रकार अनेक विद्यासम्पन्न प्राचार्य वज्र अपने ग्राचार्यकाल में विचरते हुए भारत के पूर्वी भाग से उत्तर प्रदेश में पधारे। वहां भारत के समस्त उत्तरी भाग में घोर अनावृष्टि के कारण भीषण दुष्काल पड़ा । खाद्य सामग्री के प्राभव के कारण प्रभाव - अभियोगों से संत्रस्त प्रजा में सर्वत्र हाहाकार व्याप्त हो गया । तृण-फल- पुष्पादि के प्रभाव में पशुपक्षिगरण और अन्न के प्रभाव में आबालवृद्ध मानव भूख से तड़प-तड़प कर कराल काल के अतिथि बनने लगे। उस दैवी प्रकोप से संत्रस्त संघ आचार्य वज्रस्वामी की शरण में आया और त्राहि-त्राहि की पुकार करने लगा । आचार्य वज्रस्वामी ने संघ की करुण पुकार सुन कर दया से द्रवित हो विशाल 'जनसमूह की प्रारणरक्षार्थ, समष्टि के हित के साथ-साथ धर्महित की दृष्टि से, साधुओं के लिए वर्जित होते हुए भी आकाशगामिनी विद्या के प्रयोग से संघ को माहेश्वरीपुरी में पहुंचा दिया। वहां का राजा बौद्धधर्मानुयायी होने के कारण जैन उपासकों के साथ विरोध रखता था पर आर्य वज्र के प्रभाव से वह भी श्रावक बना और इससे धर्म की बड़ी प्रभावना हुई । दुष्कालों की परम्परा केवल भारत में ही नहीं, अन्य अनेक देशों में भी प्राचीन काल से चली आ रही है । दुष्कालों ने मानवता को समय-समय पर बड़ी बुरी तरह से झकझोरा है । दुष्कालों के दुष्प्रभाव के कारण मानव - संस्कृति, शताब्दियों के अथक परिश्रम और अनुभव से उपार्जित आध्यात्मिक ज्ञान तथा मानवतामूलक धर्म की पर्याप्त क्षति हुई है परन्तु इस प्रकार की संकट की घड़ियों में भी वज्रस्वामी जैसी महान आत्माओं ने अपने अपरिमेय प्रात्मिक बल से संयम और प्राध्यात्मिक ज्ञान की ज्योति को प्रदीप्त रखा। इसी प्रकार के प्राध्यात्मिक नेताओं के कृपाप्रसाद से हमारा धर्म, प्राध्यात्मिक ज्ञान और संस्कृति आदि शताब्दियों से भीषण दुष्कालों, राज्यक्रान्तियों, धर्मविप्लवों की थपेड़ें खाने के उपरान्त भी आज तक जीवित रह कर मानवता को अनुप्राणित करते आ रहे हैं । प्राचार्य वज्रस्वामी की यह आन्तरिक अभिलाषा थी कि श्रुतगंगा की पावन धारा अबाध एवं अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रहे किन्तु दश पूर्वी का ज्ञान ग्रहण करने वाले किसी सुयोग्य पात्र के प्रभाव में उन्हें अपने जीवन के [ प्रभावक चरित्र ] " महापरिज्ञाध्ययनादाचा रांगान्तर स्थितात् । श्री व गोद्धृता विद्या, तदागगनगामिनी ।। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ और विनयशीलता] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती संध्याकाल में चिन्ता रहने लगी कि कहीं दश पूर्वो का ज्ञान उनके साथ ही विच्छिन्न न हो जाय । महान् विभूतियों को आध्यात्मिक चिन्ता अधिक दिनों तक नहीं रह सकती, इस पारम्परिक जनश्रुति के अनुसार आर्य तोसलिपुत्र के आदेश से युवा मुनि प्रार्य रक्षित प्राचार्य वज्रस्वामी की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने आर्य वज्रस्वामी से ह पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया पर दसवें पूर्व का वे प्राधा ही ज्ञान प्राप्त कर सके। एतद्विषयक पूरा विवरण प्रार्य रक्षित के इतिवृत्त में दिया जा रहा है। तत्पश्चात् अनेक क्षेत्रों में भगवान महावीर के धर्म-शासन का उद्योत करते हुए वज्रस्वामी आर्यावर्त के दक्षिणी क्षेत्र में पधारे। वहां कफ की शान्ति के लिए उन्होंने अपने किसी शिष्य से सोंठ मंगवाई। उपयोग के पश्चात् अवशिष्ट सोंठ को वज्रस्वामी ने अपने कान के ऊपरी भाग पर रख लिया और भूल गये। मध्याह्नोत्तर वेला में प्रतिलेखन के समय मुखवस्त्रिका को उतारने के साथ ही सोंठ पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देखकर वज्रस्वामी ने मन ही मन विचार किया "मेरी पायु का वस्तुतः अन्तिम छोर प्रा पहुंचा है और मैं प्रमादशील हो गया है इसी कारण कान पर सोंठ को रखकर मैं भूल गया। प्रमाद में संयम कहां? अतः मेरे लिए भक्त का प्रत्याख्यान कर लेना श्रेयस्कर है।"' तत्काल उन्होंने ज्ञान के उपयोग से देखा कि शीघ्र ही एक और बड़ा भयावह द्वादशवार्षिक दुष्काल पड़ने ही वाला है, जो पहले के दुष्काल से भी प्रत्यन्त भीषण होगा । उस भीषण दुष्काल के कारण कहीं ऐसा न हो कि एक भी साधु जीवित न रह सके । इस दृष्टि से साधुवंश की रक्षा हेतु वज्रस्वामी ने अपने शिष्य वज्रसेन को कुछ साधुओं के साथ कुंकुरण (कोंकण) प्रदेश की ओर विहार करने और सुभिक्ष न हो जाने तक उसी क्षेत्र में विचरण करने की प्राज्ञा दी। उन्होंने प्रार्य वज्रसेन से यह भी कहा - "जिस दिन एक लाख मुद्रामों के मूल्य के चावलों के आहार में कहीं विष मिलाने की तैयारी की जा रही हो, उस दिन तुम समझ लेना कि दुष्काल का अन्तिम दिन है। उसके दूसरे दिन ही सुभिक्ष (सुकाल) हो जायगा।"२ गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर आर्य वजसेन ने कतिपय साधुओं के साथ कंकुरण की ओर विहार कर दिया और धन-धान्य से परिपूर्ण उस क्षेत्र में विचरण करने लगे। प्रार्य ववस्वामी जिस क्षेत्र में विचरण कर रहे थे, उस क्षेत्र में शनैः शनैः दुष्काल का दुष्प्रभाव भीषण से भीषणतर होने लगा। कई दिनों तक भिक्षा प्राप्त न होने के कारण भूख से पीड़ित साधुनों को वज्रस्वामी ने अपने विद्या बल से प्रतिदिन समानीत पिण्ड देते हुए कहा- "यह विद्या पिण्ड है और इस प्रकार ' तेसि उवमोगो जातो अहो ! पमत्तो जातो, पमत्तस्स मे नत्थि संजमो, तं सेयं खलु मे भत्त - पच्चक्खाइत्तए। [मावश्यक मलय पत्र, ३६५ (२)] इत्याकयं मुनिः प्राह, गुरुशिक्षाचमत्कृतः । धर्मशीले शृणु श्रीमद्ववस्वामिनिवेदितं ॥१६०।। स्थालीपाके किलकत्र, लक्षमूल्ये समीक्षिते ।। सुभिक्षं भावि सविषं, पाकं मा कुरु तथा ॥१६१॥ . [प्रभावक चरित्र पृ०८] Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रार्य वज्र की प्रतिभा 4 १२ वर्ष व्यतीत करने हैं । यदि संयमगुण की वृद्धि मालूम होती हो तो यह पिण्ड ग्रहरण करो और यदि संयमगुरण में किसी प्रकार का लाभ नहीं दिखता हो तो हम लोगों को श्राजीवन अनशन ( संधारा) कर लेना चाहिये । आप लोग स्वेच्छापूर्वक इन दो मार्गों में से जिस मार्ग को श्रेयस्कर समझते हों, उस ही मार्ग को अंगीकार कर सकते हैं ।" वज्रस्वामी की उपरिकथित बात सुनकर सब ( ५००) साधुनों ने एकमत हो आमरण अनशन करने का अपना निश्चय उनके सामने अभिव्यक्त किया । अपने ५०० ही शिष्यों का एक ही दृढ़ निश्चय सुनकर प्राचार्य वज्रस्वामी ने अपने शिष्यसंघ सहित दक्षिण प्रदेश के मांगिया' नामक एक पर्वत की ओर प्रस्थान किया । उन्होंने अपने नववय के एक साधु को अनशन में सम्मिलित न होने के लिए समझाया पर वह नहीं माना। मार्ग में प्राचार्य वज्रस्वामी ने उस नववय के साधु किसी कार्य के व्याज से एक गांव में भेज दिया और वे अपने अन्य सब साधुत्रों के साथ उस पर्वत पर जा पहुँचे । पर्वत पर पहुंचने के पश्चात् आर्य वज्र स्वामी तथा उनके सभी शिष्यों ने भूमि का प्रतिलेखन किया और सबने यावज्जीव सभी प्रकार के प्रशन - पानादि का परित्याग कर अनशन ग्रहण कर लिया । उधर वह युवा साधु गांव से पुनः उसी स्थान पर लौटा, जहां से उसके गुरु ने उसे गांव में भेजा था । अन्य साधुओं सहित वज्रस्वामी को वहां न देख कर वह युवा साधु समझ गया कि गुरु ने जानबूझ कर उसे अनशन के लिए साथ नहीं लिया है। उसने मन ही मन सोचा "गुरुदेव मुझे सत्वहीन समझ कर पीछे छोड़ गये हैं । क्या मैं वस्तुत: निस्सत्व है, निर्वीर्य है ? सम्भवतः मुझे अनशन के अयोग्य समझ कर ही गुरुदेव ने पीछे छोड़ दिया है । संयम की रक्षार्थ गुरुदेव अन्य सब साधुषों के साथ अनशन ग्रहण कर रहे हैं, तो मुझे भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना चाहिये ।" यह विचार कर उस युवा साधु ने उत्कट वैराग्य के साथ पर्वत की तलहटी में पड़ी हुई एक प्रतप्त पाषाणशिला पर पादपोपगमन अनशन ग्रहण कर लिया । तप्तशिला श्रीर सूर्य की प्रखर किरणें मुनि को भाग की तरह जलाने लगीं । पर अनित्य भावना से श्रोतः प्रोत मुनि ने अपने शरीर के साथ मन को भी पूर्णरूपेण निश्चल रखा और अंतर्मुहूर्त काल में ही वे अपने विनाशशील शरीर का परित्याग कर स्वर्गवासी हुए । देवों ने दिव्य घोष के साथ मुनि के धैर्य, वीर्य एवं गाम्भीर्य का गुणगान किया । दक्षिण प्रदेश के जिस मांगिया नामक पर्वत पर प्राचार्य वज्ज्रस्वामी और उनके साधु अनशनपूर्वक निश्चल प्रासन से श्रात्मचिन्तन में निरत थे, उस ही पर्वत के धोभाग में देवताओं द्वारा मनाये जा रहे महोत्सव की दिव्यध्वनि सुन कर एक वृद्ध साधु ने वज्रस्वामी से उसका कारण पूछा। प्राचार्य वज्रस्वामी ने किशोर वय के मुनि द्वारा प्रतप्त शिला पर पादपोपगमन अनशन ग्रहण करने और उसके " बीर वंशावली प्रथवा तपागच्छ बुद्ध पट्टावली, जैन साहित्य संशोधक, खंड १, अंक ३, पू. १५ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ पौर विनयशीलता] दशपूर्वधर-काल : मार्य नागहस्ती स्वर्गगमन आदि का विवरण सुनाते हुए कहा कि उस मुनि के स्वर्गगमन के उपलक्ष में देवगण महोत्सव मना रहे हैं। नितान्त नव-वय के उस मुनि के अद्भुत आत्मबल से प्रेरणा लेकर सभी मुनि उच्च अध्यवसायों के साथ प्रात्मचिंतन में तल्लीन-एकाग्र हो गये। उन मुनियों के समक्ष व्यन्तर देवी द्वारा अनेक प्रकार के उपसर्ग उपस्थित किये गए पर वे सभी मुनि उन देवी उपसर्गों से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हए। वनस्वामी ने अपने उन सभी मुनियों के साथ समीपस्थ दूसरे पर्वत के शिखर पर जाकर भूमि का प्रतिलेन किया तथा वहां उन्होंने अपने-अपने आसन जमाये ।' वहां प्राध्यात्मिक चिन्तन (समाधि भाव) में तल्लीन उन सभी साधुनों ने अपनीअपनी आयु पूर्ण कर स्वर्गगमन किया। . अनशनस्थ अपने सब शिष्यों के देहावसान के पश्चात् आर्य वज्रस्वामी ने भी एकाग्र एवं निष्कम्प ध्यान में लीन हो अपने प्राण विसर्जित किये। इस प्रकार जिनशासन की महान विभूति आर्य वज्रस्वामी का वीर नि० सं० ५८४ में स्वर्गवास हुआ। प्राचार्य वज्रस्वामी के स्वर्गगमन के साथ ही दशम पूर्व और चतुर्थ संहनन (अर्धनाराच संहनन) का विच्छेद हो गया ।। प्राचार्य वचस्वामी का ज्ञान कितना अगाध था, इसका मापदण्ड आज के युग में हमारे पास नहीं है । जिस पुण्यात्मा वज्र स्वामी ने जन्म के तत्काल पश्चात् जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो जाने के कारण स्तनंधयी शैशवावस्था में स्तनपान के स्थान पर साध्वियों के मुख से उच्चरित तीर्थेश्वर की वाणी का पान करते हुए एकादशांगी को कण्ठस्थ कर लिया हो और जिन्होंने पोगण्डावस्था से ही संसार के समस्त प्रपंचों-झमेलों से सर्वथा दूर रहते हुए निरन्तर समर्थ गुरुपों के सान्निध्य में रह कर प्रहनिश ज्ञानाराधना की हो, उनके निस्सीम ज्ञान का थाह पाने में कल्पना भी ऊंची से ऊंची उडाने भरती हुई अन्ततोगत्वा थक कर निराश हो जायगी । ऐसी ही महान् विभूतियों के तपोपूत त्याग-विराग और ज्ञान की प्राभा से शताब्दियों के तिमिराच्छन्न अतीत के उपरान्त भी साधक आज आलोक का लाभ कर रहे हैं। प्राचार्य वज्रस्वामी ने ५० वर्ष तक विशुद्ध संयम का पालन करते हए धर्म का प्रसार किया। वस्तुतः वे जन्मजात योगी थे। उनकी वक्त त्वशैली हृत्तलस्पर्शी, प्रभावोत्पादक और अत्यन्त प्राकर्षक थी। उन महान् प्राचार्य की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए वीर नि० सं० ५८४ में उनके स्वर्गगमन के पश्चात् बज्जीशाखा की स्थापना की गई। वज्रस्वामी के शिष्यों द्वारा प्रचालित वज्जीशाखा के अतिरिक्त उनके प्रशिष्यों से जो शाखाएं प्रचलित हुई, वे इस प्रकार हैं :' यामो ध्यात्वेति ते जग्मुस्तदासन्नं नगान्तरम् ॥१७२।। परि० पर्व, २ दुष्कर्मावनिभृढणे, श्री वजे स्वर्गमीयुषि । विच्छिन्न दशमं पूर्व तुर्य संहननं तदा ॥१७६।। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रायं वज्र की प्रतिभा (१) वज्रसेन सूरि के शिष्य नागहस्ती से वीर नि० सं० ६०६ में नाइला शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। कालान्तर में इस नाइला शाखा से नाइल, चन्द, निव्वई और विज्जाहर नामक चार कुल प्रशाखा के रूप में उद्भूत हुए। इन चारों कुलों की गच्छ के रूप में प्रसिद्धि हुई। (२) प्राचार्य पद्म श्री से पोमिली शाखा का उद्भव हुआ। (३) ऋषि जयन्त से जयन्ती शाखा प्रचलित हुई। (४) तापस नामक मुनि से तापसी शाखा प्रकट हुई । ये तापस श्री शान्ति श्रेणिक नामक महात्मा के शिष्य थे।' अार्य वज्रस्वामी के बहुमुखी अनुपम महान् व्यक्तित्व का एक कवि ने निम्नलिखित शब्दों में चित्रण किया है : कि रूपं किमुपांगसूत्रपठनं शिष्येषु किं वाचना। कि प्रज्ञा किमु निप्पृहत्वमथ किं सौभाग्यभंग्यादिकं ।। किं वा संघ समुन्नतिः सुरनतिः किं तस्य किं वर्णनं । वज्रस्वामिविभोः प्रभावजलधेरेकैकमप्यद्भुतम् ।। गणाचार्य - आर्य सुहस्ती की परम्परा के गणाचार्य भी उपरोक्त अवधि में आर्य वज्र ही रहे। दिगम्बर परम्परा में वनमुनि श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा के 'उपासकाध्ययन' और हरिषेणकृत वृहत्कथाकोश में भी प्रभावना अंग का वर्णन करते हुए वज्रमुनि का उल्लेख किया गया है। दोनों परम्पराओं में वज्रमुनि को विविध विद्याओं का ज्ञाता और धर्म का प्रभावक माना गया है। दोनों परम्परामों में एतद्विषयक जो अन्तर अथवा समानता है वह संक्षेप में इस प्रकार है : श्वेताम्बर परम्परा में आर्य वज्र के पिता का नाम धनगिरि और माता का नाम सुनन्दा बताया गया है जबकि दिगम्बर साहित्य में आर्य वन को पुरोहित सोमदेव और यज्ञदत्ता का पुत्र बताया है। दिगम्बर परम्परा के उपरोक्त दोनों ' (क), यज्ञदत्ताभट्टिनीभर्ता सोमदत्तो नाम पुरोहितोऽभूत् । [उपासकाध्ययन (भारतीय ज्ञानपीठ), पृ. ६४] (ख) मुंजानाया रति तेन सोमदत्तेन भोगिना। बभूव सहसा गर्भो यज्ञिकायाः सुतेजसः ।।१६।। - [वृहत्कथाकोश, भारतीय विद्याभवनः, पृ० २३) २ अज्ज नाइली शाखा एवं जयन्ती शाखा के प्रवर्तकों के सम्बन्ध में कल्प स्थविरावली की संक्षिप्त तथा वृहत्वाचनामों में मत भिन्न्य दृष्टिगोचर होता है। जहां संक्षिप्त वाचना में प्रार्य नाइल से नाइली शाखा का तथा प्राय जयन्त से जयन्ती शाखा का प्रादुर्भाव बताया हैं वहां विस्तृत वाचना में प्रार्य वज्रसेन से नाइली शाखा का और मार्य रथ से जयन्ती शाखा का उद्गम बताया है । यह विचारणीय है। -सम्पादक Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में वज्रमुनि ] दशपूर्वधर - काल : प्रार्यं नागहस्ती ५८३ ग्रन्थों में उल्लेख है कि जिस समय आर्य वज्र गर्भ में थे उस समय उनकी माता यज्ञदत्ता को माल खाने का दोहद उत्पन्न हुआ । उस समय आम्रफल की ऋतु नहीं थी । दोहद की पूर्ति न हो सकने के कारण यज्ञदत्ता दिनप्रतिदिन दुर्बल होने लगी । सोमदेव को अपनी गुर्विरणी पत्नी के कृषकाय होने का कारण ज्ञात हुआ' तो वह बड़े असमंजस में पड़ गया । अन्ततोगत्वा वह अपने कुछ छात्रों के साथ आम्रफल की खोज में घर से निकला । वह अनेक आम्रनिकुंजों, वनों प्रौर उद्यानों में घूमता फिरा किन्तु असमय में आम्रफल कहां से प्राप्त होता ? पर सोमदेव हताश नहीं हुआ, वह आगे बढ़ता ही गया। एक दिन वह एक विकट वन में पहुंचा। उस वन के मध्यभाग में उसने एक सघन प्राम्रवृक्ष के नीचे बैठे हुए एक तपस्वी श्रमण को देखा। यह देख कर उसके हर्ष का पारावार नहीं रहा कि वह आम्रवृक्ष बड़े-बड़े एवं पक्व श्राम्रफलों से लदा हुआ है । आम्र की ऋतु नहीं होते हुए भी आम्रवृक्ष को माम्रफलों से लदा देख कर सोमदेव ने उसे मुनि के तपस्तेज का प्रभाव समझा और भक्तिविभोर होकर उसने मुनि के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया । सोमदेव ने अपने साथ प्राये हुए छात्रों में से एक छात्र के साथ अपनी पत्नी के पास आम्रफल भेज दिया और शेष छात्रों के साथ मुनि की सेवा में बैठ कर उपदेश - श्रवरण करने लगा। मुनि के त्याग - वैराग्यपूर्ण उपदेश और उनसे अपने पूर्वभव के वृत्तान्त को सुन कर सोमदेव को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । भीषण भवाटवी के भयावह भवप्रपंच से मुक्त होने की एक तीव्र उत्कण्ठा उसके अन्तर में उद्भूत हुई और उसने तत्क्षण समस्त सांसारिक भटों को एक ही झटके में तोड़ कर उन अवधिज्ञानी सुमित्र मुनि के पास निर्ग्रथ-श्रमण-दीक्षा ग्रहण करली । सोमदेव के साथ आये हुए छात्र अहिछत्र नगर को ओर लौट गये । एक छात्र के साथ आये आम्र से यज्ञदत्ता का - दोहदपूर्ण हो गया । वाद में प्राये छात्रों के मुख से अपने पति के प्रव्रजित होने का समाचार सुन कर यज्ञदत्ता को बड़ा दुःख हुआ । गर्भकाल की समाप्ति पर यज्ञदत्ता ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । उन्हीं दिनों मुनि सोमदेव अपने गुरु सुमित्राचार्य के साथ विचरण करते हुए सोपारक नगर आये। मुनि सोमदेव गुरु की आज्ञा ले पास ही के पर्वत पर पहुँचे और वहां एक शिला पर खड़े हो सूर्य की प्रतापना लेते हुए ध्यानमग्न हो गये । यज्ञदत्ता को जब यह विदित हुआ कि मुनि सोमदेव निकटस्थ पर्वत पर सूर्य की प्रतापना ले रहे हैं तो वह नवजात शिशु को लेकर उस पर्वत पर मुनि के पास पहुँची । उसने बड़ी ही अनुनय-विनयपूर्वक सोमदेव को एक बार अपने तेजस्वी पुत्र की ओर देखने तथा घर लौट कर अपने गार्हस्थ्य भार को वहन करने की प्रार्थना की। बड़ी देर तक अनुनय-विनय करने के पश्चात् भी मात्राणि खादितुं नाथ, दोहदं मे मनः प्रियम् ॥ २१ ॥ [वृहत्कथाकोश ] २ बज्र के पिता श्रायं धनगिरि के गुरू को जातिस्मरणज्ञान था, इस प्रकार के उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध होते हैं । [सम्पादक ] , Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दि० परम्परा में वजमुनि जब उसने देखा कि मुनि सोमदेव ने घर चलना तो दूर, अपने पुत्र की भोर मांख उठा कर भी नहीं देखा है तो उसने क्रुद्ध हो आक्रोशपूर्ण स्वर में कहा- "मो मेरे मन को जला डालने वाले पाषाण हृदय मूर्ख वंचक ! इस दिगम्बर वेष को स्वेच्छा से छोड़ कर मेरे साथ घर चलता हो तो चल, अन्यथा सम्हाल अपने इस पुत्र को।"' इतना कहने पर भी मुनि को निश्चल भाव से ध्यानमग्न देख कर यज्ञदत्ता ने अपने उस कुसुमकोमल नवजात पुत्र को मुनि के चरणों पर लिटा दिया और स्वयं अपने घर की ओर लौट गई। सूर्य के प्रचण्ड ताप से शिला जल रही थी। पैरों पर से प्रतप्त शिला पर गिरने से बालक का कहीं प्राणान्त न हो जाय, इस करुणापूर्ण प्राशंका से मनि सोमदेव अपने पैरों को विष्टर की तरह बनाये अचल मुद्रा में खड़े रहे। मुनि ने मन ही मन दृढ़ संकल्प किया कि जब तक वह उपसर्ग समाप्त नहीं हो जायगा तब तक आहारादि ग्रहण करना तो दूर, शरीर को किंचित्मात्र भी हिलाएंगेडुलाएंगे तक नहीं । २ मुनि इस प्रकार का अभिग्रह कर पुनः ध्यानमग्न हो गये। यज्ञदत्ता के लौटने के थोड़ी ही देर पश्चात् भास्करदेव नामक विद्याधरराज अपनी पत्नी के साथ मुनिदर्शन हेतु वहां पहुंचा। जब उसने सुन्दर, स्वस्थ और तेजस्वी शिशु को मुनि के पैरों पर लेटे हुए देखा तो मुनि वन्दन के पश्चात् उसने उसे उठा कर अपनी पत्नी की गोद में देते हुए कहा - "धर्मिष्ठे ! लो। मुनिदर्शन के तात्कालिक सुखद फल के रूप में हम सन्ततिविहीनों को यह पुत्र मिल गया है।" सूर्य की प्रखर रश्मियों की ज्वालामाला का उस शिशु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, इस कारण विद्याधरदम्पती ने बालक का नाम वज़ रखा । उन्होंने वज्र को अपना पुत्र घोषित करते हुए बड़े दुलार के साथ उसका लालन-पालन किया। शिक्षायोग्य वय में वज्र को समुचित शिक्षा दिलाने तथा चमत्कारपूर्ण विद्याएं सिखाने की व्यवस्था की गई। दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा की तरह आर्य वज्र का साधुसंघ में रहना नहीं माना गया है। वृहत्कथाकोश के अनुसार पवनवेगा नाम की एक विद्याधर कन्या के साथ और उपासकाध्ययन के अनुसार इन्दुमती और पवनवेगा नामक दो कन्याओं के साथ वज्रकुमार का विवाह होना माना गया है। उपरोक्त दोनों ग्रन्थों में बताया गया है कि अनेक वर्षों तक गार्हस्थ्यजीवन का सुखोपभोग करने के पश्चात् एक दिन वज्रकुमार को अपने मित्रजनों से जब यह विदित हुया कि भास्करदेव उसके पिता नहीं अपितु पालक मात्र है । वस्तुतः ' यदीमं दिगम्बर प्रतिच्छन्दमवच्छिद्य स्वच्छयच्छयागच्छसि तदागच्छ । नो चेद्गृहाणेनमात्मनो नन्दनम् । [उपासकाध्ययन] २ उपमर्गा महानेप यदि क्षेमेण यास्यति । तदाहारशरीरादेः प्रवृत्तिर्मे भविष्यति ।।३१।। [वृहत्कथाकोश, पृ० २३] Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ दिगम्बर परम्परा में वज्रमुनि ] दशपूर्वघर-काल : प्रायं नागहस्ती उसके पिता तो सोमदेव हैं, जो उसके जन्म से पहले ही मुनि बन चुके हैं। वस्तुस्थिति से परिचित होते ही वज्रकुमार ने प्रतिज्ञा कर डाली कि वह अपने पिता के दर्शन किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा । भास्करदेव तत्काल वज्रकुमार को साथ लेकर मुनि सोमदेव के दर्शनों के लिये प्रस्थित हुआ । दर्शन-वन्दन के पश्चात् मुनि के त्याग विरागपूर्ण उपदेश को सुन कर वज्रकुमार को संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने उसी समय सोमदेव मुनि के पास निग्रंथ श्रमरणदीक्षा ग्रहण कर ली । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराम्रों में आर्य वज्र को चारणऋद्धिसम्पन्न मुनि माना गया है और दोनों परम्परात्रों के मध्ययुगीन कथासाहित्य में उनके द्वारा आकाशगामिनी विद्या के अद्भुत चमत्कारपूर्ण कार्यों से जिनशासन की महती प्रभावना किये जाने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आर्य वज्र के प्रगुरू का नाम सुमित्र और गुरु का नाम सोमदेव बताया गया है जब कि श्वेताम्बर परम्परा इन्हें जातिस्मरणज्ञानधारी प्रार्य सिंहगिरि का शिष्य मानती है। नाम, स्थान आदि विषयक कतिपय विभिन्नताओं के उपरान्त भी आर्य वज्र के पिता द्वारा वज्र के जन्म से अनुमानत: ६ मास पूर्व ही प्रव्रज्या ग्रहण करने, माता द्वारा उन्हें उनके पिता को दे दिये जाने, आर्य वज्र के गगनविहारी होने, जैनों के साथ बौद्धों द्वारा की गई धार्मिक उत्सव विषयक प्रतिस्पर्धा में श्रार्य वज्र द्वारा जैन धर्मावलम्बियों के मनोरथों की पूर्ति के साथ जिन शासन की महिमा बढ़ाने आदि श्रार्य वज्र के जीवन की घटनाओं एवं सम्पूर्ण कथावस्तु की मूल आत्मा में दोनों परम्पराओं की पर्याप्त साम्यता है, जो यह मानने के लिये आधार प्रस्तुत करती है कि प्रार्य वज्र के समय तक जैन संघ में पृथकतः श्वेताम्बर तथा दिगम्बर - इस प्रकार का भेद उत्पन्न नहीं हुआ था । दोनों परम्पराओं के मान्य ये मुनि निश्चित रूप से वे ही वज्रमुनि हैं, जो वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में हुए प्रार्य रक्षित के विद्यागुरु थे । परम्परा भेद के प्रकट होने का इतिहास भी इसी बात को प्रमाणित करता है। कारण कि श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परा का स्पष्ट भेद आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ६०६ में और दिगम्बर परम्परा मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में माना गया है । की दशपूर्वर-विषयक दिगम्बर मान्यता यह पहले बताया जा चुका है कि दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में भगवान् महावीर के निर्वाण पश्चात् ६२ वर्ष का तथा कुछ ग्रन्थों में ६४ वर्ष का केवलिकाल माना गया है । इन्द्रभूति, सुधर्मा र जम्बूस्वामी इन ३ अनुबद्ध केवलियों के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में भी ५ श्रुतकेवली अर्थात् एकादशांगी और १४ पूर्वी के ज्ञाता - Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दश पूर्व. वि. दि. मान्यता माने गये है। परन्तु दोनों परम्परामों द्वारा माने गये श्रुतकेवलियों के नामों में तथा सत्ताकाल में थोड़ी भिन्नता है। केवल पांचवें श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के नाम के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं का मतैक्य है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रार्य प्रभव, आर्य शय्यंभव, प्रार्य यशोभद्र, पार्य संभूत विजय और मार्य भद्रबाहु - इस प्रकार ५ श्रुतकेवली और इनका श्रुतकेवलीकाल १०६ वर्ष का माना गया है। जबकि दिगम्बर परम्परा में विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु इन ५ श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष का समय माना गया है । 'श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य १० पूर्वधरों का परिचय दिया जा चुका है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा ६४ वर्ष का केवलिकाल, १०६ वर्ष का श्रुतकेवलिकाल और ४१४ वर्ष का दशपूर्वधर-काल माना गया है । केवलिकाल के ६४ वर्ष, श्रुतकेवलिकाल के १०६ वर्ष और दशपूर्वधरकाल के ४१४ वर्ष-ये कुल मिला कर ५८४ वर्ष होते हैं। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० ५८४ तक १० पूर्वो का ज्ञान विद्यमान रहा। किन्तु दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर ६२ वर्ष तक केवलिकाल, तत्पश्चात् १०० वर्ष तक श्रुतकेवलिकाल और तदनन्तर १८३ वर्ष तक दशपूर्वधरों का काल रहा। इस प्रकार दिगम्बर मान्यतानुसार वीर नि० सं० ३४५ तक ही १० पूर्वो का ज्ञान विद्यमान रहा। दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य १० पूर्वधरों के नाम इस प्रकार हैं: १. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय. ५. नागसेन, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेरण, ८. विजय, ६. बुद्धिल, १०. गंगदेव और ११. धर्मसेन । इन ग्यारहों प्राचार्यों को गुणभद्राचार्य ने द्वादशांग के अर्थ में प्रवीण तथा दश पूर्वधर बताया है।' ___प्रा. नागहस्ती एवं पा. वज के समय की राजनैतिक स्थिति यह पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ४७० से ५३० तक देश में विक्रमादित्य का शासन रहा.। विक्रमादित्य के शासनकाल में भारत राजनैतिक, मार्थिक सामाजिक, बौद्धिक एवं सैनिक शक्ति की दृष्टि से सबल, सुसमृद्ध एवं समुन्नत रहा । विक्रमादित्य के पश्चात् उसके पुत्र विक्रमसेन के शासनकाल में भी साधारणतया देश समृद्ध और सबल रहा । विक्रमसेन के शासन के अन्तिम दिनों में शकों के पुनः प्राक्रमण होने प्रारम्भ हुए और विदेशी शकों ने भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। विक्रमसेन की मृत्यु के पश्चात् शकों के आक्रमणों का दबाव बढ़ता ही गया । - 'बादशांगापं-कुशला, दशपूर्वधराश्च ते। [उत्तर पुराण, पर्व ७६, श्लो. ५२३] Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वधर-काल (वीर नि. सं. ५८४ से १०००) सामान्य पूर्वधर-काल के प्राचाय १६. प्राचार्य रक्षित प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. ५८४ से ५६७ २०. प्राचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. ५९७ से ६१७ २१. प्राचार्य वनसेन प्राचार्यकाल – वी. नि. सं. ६१७ से ६२० २२. प्राचार्य नागहस्ती (नागेन्द्र) प्राचार्यकाल - वी. नि. सं. ६२० से ६८६ २३. प्राचार्य रेवतीमित्र प्राचार्यकाल - ६८६ से ७४८ २४. प्राचार्य सिंह आचार्यकाल -७४८ से ८२६ २५. प्राचार्य नागार्जुन प्राचार्यकाल - ८२६ से ६०४ २६. प्राचार्य भूतविन्न प्राचार्यकाल - ६०४ से ६८३ २७. प्राचार्य कालकाचार्य (चतुर्थ) प्राचार्यकाल - ६८३ से ६६४ २८. प्राचार्य सत्यमित्र प्राचार्यकाल-९६४ से १००१ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वधर - काल वीर नि० सं० १७० से ५८४ तक के दशपूर्वधरकाल के आचार्यों का परिचय दिया जा चुका है। वीर नि० सं० ५८४ से वीर नि० सं० १००० तक सामान्य पूर्वधरकाल रहा । इस अवधि में आर्य रक्षित सार्द्धनव पूर्वो के ज्ञाता प्राचार्य हुए। प्रार्य रक्षित के पश्चात् भी पूर्वज्ञान की क्रमशः परिहानि होती रही । आरक्षित के पश्चात् होने वाले आचार्यों में कौन-कौन से आचार्य कितने-कितने पूर्वी के ज्ञाता रहे, एतद्विषयक कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । ऐसी दशा में निश्चित रूप से तो यही कहा जा सकता है कि वीर नि० सं० १००० तक सम्पूर्ण रूपेण १ पूर्व का और शेष पूर्वो का प्रांशिक ज्ञान विद्यमान रहा । २३. रेवतीनक्षत्र - वाचनाचार्य २४. रेवतीमित्र - युगप्रधानाचार्य आर्य नागहस्ती के पश्चात् श्रार्यं रेवतीनक्षत्र वाचनाचार्य हुए। वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र और युगप्रधानाचार्य रेवतीनक्षत्र एक ही श्राचार्य थे अथवा भिन्न-भिन्न, इस प्रश्न का स्पष्टीकरण करने वाला कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । इन दोनों ग्राचार्यों के नाम में पर्याप्त साम्य होने के कारण प्रायः प्रत्येक व्यक्ति को यह भ्रान्ति हो सकती है कि रेवतीनक्षत्र और रेवतीमित्र एक ही श्राचार्य के दो नाम हैं, जो वाचनाचार्य भी थे और युगप्रधानाचार्य भी । किन्तु वाचनाचार्य श्रौर युग प्रधानाचार्य इन दोनों परम्पराम्रों के प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर स्पष्टतः यह अनुमान होने लगता है कि वस्तुतः वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र और युगप्रधानाचार्य रेवतीमित्र भिन्न-भिन्न में हुए दो भिन्न प्राचार्य थे । समय जिस प्रकार पादलिप्त के गुरू एवं आर्य रक्षित के समकालीन वाचनाचार्य आर्य नागहस्ती और आर्य वज्रसेन के शिष्य युगप्रधानाचार्य प्रार्य नागहस्ती ( नागेन्द्र) के बीच काल का पर्याप्त व्यवधान होना सिद्ध किया जा चुका है, ठीक उसी प्रकार ब्रह्मद्वीपकसिंह के शिष्य श्रार्यं रेवतीनक्षत्र से नागेन्द्र के शिष्य आर्य रेवतीमित्र भी पर्याप्त काल पश्चात् होने चाहिये । आर्य वज्रसेन के समय के आसपास होने के कारण वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र का स्वर्गगमन अधिक से अधिक वीर निर्वारण सं० ६४०-६५० के आसपास होना चाहिये जबकि युगप्रधानाचार्य श्रार्य रेवतीमित्र का स्वर्गगमन वीर नि० सं०.७४८० में माना गया है, जो आर्य 'रेवतीनक्षत्र के स्वर्गगमन से लगभग १०० वर्ष पश्चात् का ठहरता है । प्रायं रेवतीनक्षत्र की स्तुति करते हुए प्राचार्य देववाचक ने भी कहा है : "रेवतीनक्षत्र का वाचकवंश वर्द्धमान् हो ।" आचार्य देववाचक ने प्रार्य वड्ढउ वायगवंसो, रेवइनक्खत्त नामारणं । [ नंदी - स्थविरावली ] Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य रेवतीनक्षत्र रेवतीनक्षत्र के शरीर का वर्ण जातीय अंजन, पकी दाख अथवा नील कमल के समान श्याम बताया है। आर्य रेवतीनक्षत्र के समय में वाचकवंश की उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागम-वाचना में पाप विशिष्ट रूप से कुशल थे। आपके जन्म, दीक्षा आदि काल का परिचय उपलब्ध नहीं होता । प्रार्य रक्षित - युगप्रधानाचार्य ____आर्य वज्रस्वामी के पश्चात् प्रार्य रक्षित एक विशिष्ट युगप्रधान प्राचार्य माने गये हैं। इनका जन्म वीर नि० सं० ५२२ में, दीक्षा २२ वर्ष की वय होने पर वीर नि० सं० ५४४ में, युगप्रधानपद ४० वर्ष तक सामान्य श्रमणपर्याय पालन के पश्चात् वीर नि० सं० ५८४ में और ७५ वर्ष की पूर्णायु के पश्चात् वीर नि० सं० ५९७ में स्वर्गवास माना गया है। कुछ प्राचार्यों ने वीर नि० सं०.५८४ में आपका स्वर्गवास होना बताया है। आपके दीक्षागुरु प्राचार्य तोषलिपुत्र और विद्यागुरु आर्य वज्र माने गये हैं। आवश्यक रिण आदि प्राचीन ग्रंथों में आपका परिचय इस प्रकार उपलब्ध होता है : मालव प्रदेश के दशपुर (मन्दसोर) नामक नगर में सोमदेव नामक एक ब्राह्मण पुरोहित रहते थे। उनकी धर्मपत्नी रुद्रसोमा जैनधर्म की उपासिका थी। सोमदेव के ज्येष्ठ पुत्र का नाम रक्षित और दूसरे का फल्गुरक्षित था। सोमदेव ने अपने पुत्र रक्षित को दशपुर में शिक्षा दिलाने के पश्चात् उच्च शिक्षा के लिए पाटलीपुत्र भेजा। प्रतिभाशाली किशोर रक्षित ने पाटलीपुत्र में रह कर स्वल्प समय में ही वेद-वेदांगादि १४ विद्याओं में निष्णातता प्राप्त की और अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् दशपुर लौटे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् अपने पुरोहित-पुत्र के लौटने का समाचार सुन कर दशपुर के राजा ने और नागरिकों ने रक्षित का भव्य स्वागत किया। स्वागतार्थ उपस्थित लोगों में आर्य रक्षित को उनकी माता रुद्रसोमा कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुई। सब लोगों का अभिवादन स्वीकार करने के पश्चात् रक्षित ने घर आकर माता को प्रणाम किया। सामायिक में होने के कारण रुद्रसोमा ने अपने पुत्र की प्रोर मध्यस्थभाव से देखा और 'स्वागतं' कह वह पुनः आत्मचिन्तन में लीन हो गई। माता की ओर से अपेक्षित वात्सल्य और उल्लास का अभाव और मध्यस्थ भाव देख कर रक्षित ने पूछा - "अम्ब ! मेरे विद्याध्ययन कर लौटने पर नगर में सबको प्रसन्नता है पर तुम्हारे मुख पर मुझे सन्तोष दृष्टिगत नहीं होता। इसका क्या कारण है ?" माता रुद्रसोमा ने कहा- "पुत्र ! तुमने हिंसावर्द्धक ग्रन्थ पढ़े हैं, इससे तो जन्म-मरण रूपी भवभ्रमण की ही वृद्धि हो सकती है। ऐसी दशा में मुझे सन्तोष किस प्रकार हो ? स्व-पर का कल्याण करने वाले दृष्टिवाद को पढ़कर पाया होता तो मुझे सन्तोष होता।" Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वधर-काल : प्राचार्य रक्षित रक्षित ने बड़ी जिज्ञासापूर्वक दृष्टिवाद और उसके ज्ञाता प्रादि के सम्बन्ध में अपनी माता से अनेक प्रश्न किये और माता ने पुत्र की जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा - "पुत्र ! इक्षुवाटिका में प्राचार्य तोषलिपुत्र विराजमान हैं, वे दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं।" "कल ही मैं उनके पास अध्ययनार्थ चला जाऊंगा।" - यह कह कर रक्षित ने माता को आश्वस्त किया और दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही माता की माज्ञा ले वह दशपुर से इक्षुवाटिका की ओर प्रस्थित हुमा । नगर से बाहर निकलते ही रक्षित को सामने की ओर से प्राते हए एक वृद्ध सज्जन मिले जो सोमदेव के बालसखा थे। यथोचित अभिवादनादि के पश्चात् रक्षित का परिचय मिलते ही आगन्तुक वृद्ध ने हर्ष प्रकट करते हुए कहा- "पुत्र मैं तुम्हें देखने के लिए ही आया हूँ । लो, मैं तुम्हारे लिए यह सौगात लाया हूँ।" यह कह कर वृद्ध ने ६ पूर्ण और एक आधा इस तरह साढ़े नौ इक्षुदण्ड रक्षित की ओर बढ़ाये। रक्षित ने विनम्र स्वर में वृद्ध से कहा- "तात ! मैं अध्ययनार्थ बाहर जा रहा है। प्राप घर पधारें, ये इक्षयष्टियां माता को ही दे दें और कह दें कि रक्षित मुझे मिल गया था।" . इस प्रकार आगन्तुक से थोड़ी देर तक बात करने के पश्चात् रक्षित अपने गन्तव्य स्थान की ओर आगे बढ़ा। इक्षुवाटिका पहुँचने के पश्चात् रक्षित यह सोचते हुए उपाश्रय के बाहर ही खड़ा हो गया कि आचार्य के पास किस प्रकार जाना और अभिवादन करना चाहिये । रक्षित इस प्रकार सोच ही रहा था कि एक श्रावक उपाश्रय के अन्दर से आया और दैहिकचिन्ता से निवृत्त हो पुनः उपाश्रय में लौटने लगा। रक्षित ने भी तत्क्षण उस श्रावक का अनुसरण करते हुए उपाश्रय में प्रवेश कर प्राचार्य तोषलिपुत्र को विधिपूर्वक उसी तरह प्रणाम किया जिस प्रकार कि उस श्रावक ने किया। प्राचार्य ने नवागन्तुक को यथाविधि वंदन करते हुए देखकर पूछा- "वत्स तुमने यह धर्मक्रिया का ज्ञान कहां से पाया?" आर्य रक्षित ने उस श्रावक की ओर इंगित करते हुए कहा - "इनसे ।" तदनन्तर प्राचार्य द्वारा आगमन का कारण पूछने पर रक्षित ने विनयपूर्वक निवेदन किया- "भगवन् ! मैं दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए पापकी सेवा में पाया है।" आचार्य द्वारा यह कहने पर कि दृष्टिवाद का ज्ञान तो दीक्षित होने पर हो दिया जा सकता है, रक्षित तत्काल दीक्षा ग्रहण करने के लिए सहर्ष उबत हो गया। श्रमण-दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात रक्षित मुनि ने अपने गुरु तोषलिपत्र से निवेदन किया- "भगवन् ! यहां के राजा का और सभी नागरिकों का मेरे Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य रक्षित प्रति अत्यधिक मनराग है। मुझे माशंका है कि वे लोग कहीं मुझे बलात् घर लौटा कर न ले जाएं प्रतः मेरे लिए श्रेयस्कर यही है कि अब शीघ्र ही यहां से किसी अन्य स्थान के लिए विहार कर दिया जाय।" नवदीक्षित मुनि रक्षित की प्रार्थना स्वीकार कर प्राचार्य तोषलिपुत्र ने अपने शिष्यसमूह सहित इक्षुवाटिका से विहार कर दिया। गुरु-सेवा में रह कर बड़ी लगन के साथ अध्ययन करते हुए मुनि रक्षित ने अल्प समय में ही प्राचारांग मादि एकादश मंगों का पूर्ण अध्ययन और दृष्टिवाद का जितना ज्ञान प्राचार्य तोषलिपुत्र के पास था, उसका अध्ययन कर लिया। .. तदनन्तर पाचार्य तोषलिपुत्र ने मुनि रक्षित को पूर्वो के अग्रेतन अध्ययन के लिए दश पूर्वधर प्राचार्य व स्वामी के पास भेजा। आर्य वज्र की सेवा में जाते समय मुनि रक्षित उज्जयिनी पहुंचे। वहां स्थविर भद्रगुप्त ने युवा मुनि रक्षित का स्वागत करते हुए कहा- "वत्स! तुम ठीक समय पर आ गये। अब मेरा अन्तिम समय मा चुका है। मेरी संलेखना में यहां अन्य कोई निर्यामक नहीं है प्रतः तुम निर्यामक बन कर मेरी संलेखना पूर्ण होने तक यहां मेरे पास ही रहो जिससे कि मेरी संलेखना पूर्ण समाधि के साथ सम्पन्न हो ।” तपोधन श्रमणश्रेष्ठ स्थविर की अन्तिम सेवा के स्वरिणम सुयोग को अपना महोभाग्य समझ कर मुनि रक्षित उज्जयिनी में स्थविर भद्रगुप्त के पास रहे और उन्होंने बड़ी लगन के साथ उनकी सेवा की। । अन्त में स्थविर भद्रगुप्त ने मुनि रक्षित से कहा - "वत्स ! तुम पूर्वो का मान प्राप्तकरने के लिए प्राचार्य वध के पास जा रहे हो, यह तो ठीक है पर तुम उनसे अलग उपाश्रय में ठहर कर विद्याभ्यास करना। क्योंकि इस समय प्रार्य वज्र की जन्म कुण्डली में इस प्रकार का योग पड़ा हुआ है कि जो कोई भी उनके पास एक रात्रि के लिए भी ठहरेगा, उसका उन्हीं के साथ मरण होना सुनिश्चित है।" मार्य रक्षित ने स्थविर भद्रगुप्त की आज्ञा को शिरोधार्य किया। स्थविर भद्रगुप्त के समाधिपूर्वक स्वर्गगमन के पश्चात् आर्य रक्षित ने आर्य वज की सेवा में उपस्थित होने के लिए उज्जयिनी से विहार किया। वे सीधे आर्य वज के उपाश्रय में न जाकर एक पृयक स्थान में ठहरे । प्रातःकाल रक्षित मुनि प्राचार्य वष की सेवा में पहुंचे। मार्य रक्षित के उपाश्रय में पहुँचने से कुछ समय पहले प्राचार्य वज ने अपने शिष्यों से कहा- "मैंने आज रात्रि के अवसान समय में स्वप्न देखा कि एक प्रागन्तुक हमारे यहां पाया और मेरे पात्र में रखा हुआ अधिकांश दूध उसने पी लिया, अल्प दुग्ध ही शेष रहा।" जिस समय मायं वज अपने शिष्यों से यह कह ही रहे थे, उसी समय आर्य रक्षित ने उनकी सेवा में पहुँच कर सविधि भक्तिसहित वन्दन किया। । प्राचार्य वजस्वामी ने प्रागन्तुक से पूछा - "कहां से आये हो।" मुनि रक्षित ने कहा - "प्रार्य तोषलिपुत्र की सन्निधि से।' Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य रेवती नक्षत्र प्राचार्य वज्र ने पूछा - "क्या तुम प्रार्य रक्षित हो ?" विनयावनत हो आर्य रक्षित ने कहा - "हां, भगवन् ।" प्राचार्य वज्र ने "स्वागतम्" कह कर पूछा - "क्या तुम यह नहीं जानते कि पृथक् स्थान में रहते हुए समीचीन रूप से अध्ययन नहीं होता ?" आर्य रक्षित ने जब प्राचार्य भद्रगुप्त से प्राप्त निर्देश के अनुसार पृथक ठहरने की बात कही तो प्राचार्य वज्र ने कहा - "ठीक है, स्वर्गस्थ प्राचार्य ने किसी कारण से ही ऐसा रहा होगा।" तदनन्तर प्राचार्य वज्र ने प्रार्य रक्षित को पूर्वो की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। महामेधावी आर्य रक्षित ने बड़ी लगन और तत्परता से अध्ययन करते हुए अल्प समय में ही नव (6) पूर्वो की शिक्षा पूर्ण कर ली और दशवें पूर्व का अध्ययन प्रारम्भ किया। __उधर आर्य रक्षित के माता-पिता पुत्रवियोग से चिन्तित हो सोचने लगे - "अहो ! हमने सोचा था कि पुत्र उद्योत करेगा पर वह तो घर में अंधेरा कर चला गया।". उन्होंने आर्य रक्षित को बुला लाने के लिए अपने कनिष्ठ पुत्र फल्गुरक्षित को भेजा। . फल्गुरक्षित ने आर्य रक्षित के पास पहुँच कर कहा - "माता आपको अहनिश स्मरण करती रहती है। आप अगर एक बार दशपुर चलो तो मातापिता आदि सभी स्वजन प्रव्रज्या ग्रहण कर लेंगे।" __आर्य रक्षित पूर्णतः अध्यात्मज्ञान में रम चुके थे। उन्होंने समझ लिया था - "संसार के सभी सम्बन्ध नश्वर हैं। तन, धन, परिजन दे कोई मेरा नहीं है। मैं शरीर से भिन्न शुद्ध चेतन हूँ । ज्ञान मेरा स्वभाव और विवेक ही मेरा मित्र है।" - उन्होंने फल्गुरक्षित से कहा - "वत्स ! यदि मेरे चलने पर माता-पिता आदि प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए तत्पर हैं, तो पहले तुम तो प्रव्रज्या ग्रहण कर लो।" फल्गुरक्षित ने तत्काल प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और वे श्रमणधर्म का यथाविधि पालन करते हुए सदा पार्य रक्षित को दशपुर चलने की स्मृति कराते रहे । एक दिन आर्य रक्षित ने प्राचार्य वज्र से पूछा - "भगवन् ! अब दशवां पूर्व कितना और पढ़ना शेष है ?'' प्राचार्य वज्र ने कहा - "वत्स अभी तो सिन्धु में से बिन्दु जितना हुआ है और समुद्र जितना शेष है।" आर्य रक्षित ने इतना विशाल ज्ञान अर्जन करना अपने सामर्थ्य से बाहर ममझ कर आर्य वज्र से दशपुर जाने की अनुमति चाही पर आर्य वज्र ने उन्हें अाश्वस्त करते हुए कहा - "वत्स ! धैर्य धागा करो । अभी और पढ़ो।".. १ दशमस्यास्य पूर्वस्य, मयाधीन कियत्प्रभो। अवशिष्ट कियच्चेति, सप्रसादं समादिश ।। [परिशिष्ट पर्व, सर्ग १३] Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ प्राचार्य रक्षित "यथाज्ञापयति देव !" कह कर प्रार्य रक्षित ने पुनः आगे पढ़ना प्रारम्भ किया, पर क्योंकि अब उन्हें पहले के समान आत्मविश्वास नहीं रहा था कि वे अवशिष्ट प्रथाह ज्ञान को हृदयंगम कर सकेंगे अतः वे पुनः पुनः आचार्य वज्र से दशपुर जाने के लिए अनुमति चाहने लगे । इस पर प्राचार्य वज्र के मन में विचार प्राया कि क्या दशवां पूर्व उनके देहावसान के साथ ही विच्छिन्न हो जायगा ? उन्होंने ज्ञानोपयोग लगा कर देखा - "वस्तुतः अब प्रार्य रक्षित दशपुर जाने के पश्चात् लौट कर नहीं आयेगा ।" न कोई ऐसा अन्य सुयोग्य पात्र ही दृष्टिगोचर होता है, जो समस्त पूर्वज्ञान को ग्रहण कर सके और न मेरा आयुष्य ही अब इतना अवशिष्ट है । ऐसी दशा में दशवां पूर्व मेरी आयुसमाप्ति के साथ ही भरतक्षेत्र से नष्ट हो जायगा ।" ५१४ इस प्रकार अपने ज्ञानोपयोग से अवश्यंभावी भवितव्य को देख कर प्राचार्य वज्र ने अन्ततोगत्वा श्रार्य रक्षित को दशपुर जाने की अनुमति प्रदान कर दी । इस प्रकार प्रार्य रक्षित ६ पूर्वो का सम्पूर्ण और दशवें पूर्व का प्रपूर्ण - प्राधा ज्ञान ही प्राप्त कर सके । श्राचार्य वज्र की अनुमति प्राप्त होते ही वे अपने अनुज मुनि फल्गुरक्षित के साथ दशपुर की ओर प्रस्थित हुए। दशपुर पहुँचने के पश्चात् प्रार्य रक्षित ने अपने माता-पिता आदि परिजनों को उपदेश देकर प्रतिबुद्ध किया । इसके फलस्वरूप वे सब श्रमरणधर्म में दीक्षित हो गये । रक्षित के पिता खंत ( वृद्ध मुनि) सोमदेव भी पुत्रानुरागवश उनके साथ विचरते रहे पर बाल्यकाल से चले आ रहे संस्कार और लज्जावश वे निर्ग्रन्थ के लिए विहित लिंग वेश धारण नहीं कर पाये । उन्हें आरम्भ में छत्र, उपानत्, यज्ञोपवीत आदि धारण करने की छूट देकर फिर शनैः शनैः पूर्णरूपेण साधुमार्ग में स्थिर किया गया । 1 नवदीक्षित साधु को लेकर प्रार्य रक्षित अपने गुरु आर्य तोषलिपुत्र की सेवा में पहुँचे । साढ़े नौ पूर्वो के ज्ञानधारी अपने शिष्य श्रार्यं रक्षित को देख कर प्राचार्य तोषलिपुत्र ने परम संतोष का अनुभव किया और उन्हें सर्वथा योग्य समझ कर अपना उत्तराधिकारी प्राचार्य नियुक्त किया । प्राचार्य रक्षित ने विभिन्न क्षेत्रों में विहार कर अनेक भव्यजनों को प्रबोध दिया । आवश्यक नियुक्ति में आर्य रक्षित को अनुयोगों का पृथक्कर्ता बताने के साथ-साथ उन्हें शक्रेन्द्र द्वारा वन्दित भी बताया गया है । "देविदवंदिएहि " इस विशेषरण की सार्थकता बताते हुए प्रावश्यक नियुक्ति में बताया गया है कि सीमंधरस्वामी के मुखारविन्द से प्रार्य श्याम ( प्रथम कालकाचार्य ) की ही तरह श्रयं रक्षित की निगोद व्याख्याता के रूप में प्रशंमा सुन कर इन्द्र आर्य रक्षित की " सोऽथामंस्तेत्यतोयातो, नायमायास्यति पुनः । २ तथा दशमपूर्व च मय्येव स्थास्यति ध्रुवम् [ परिशिष्ट पर्व, सर्ग १३] [ प्रभावक च० पृ० १२] Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ सामान्य पूर्वघर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र परीक्षा लेने पाया और उनके मुख से निगोद की सूक्ष्मतर व्याख्या सुनकर बड़ा प्रसन्न हुमा।' अनुयोगों का पृथक्करण मनुयोगों के पृथक्कर्ता के रूप में प्रार्य रक्षित का नाम जैन इतिहास में सदा अमर रहेगा। जैन शासन में प्रारम्भ से ही यह पद्धति रही है कि प्राचार्य अपने मेधावी शिष्यों को मागम के छोटे-बड़े सभी सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का उन्हें बोध करा दिया करते थे। उनकी वाचना का वह सही रूप हमारे समक्ष नहीं है तथापि इतना कहा जा सकता है कि वे वाचना देते समय प्रत्येक सूत्र पर माचारधर्म, उनके पालनकर्ता, उनके साधनक्षेत्र का विस्तार भोर नियम ग्रहण की कोटि एवं भंग मादि का वर्णन कर सभी अनुयोगों का एक साथ बोध करा देते होंगे। इसी को अपृथक्त्वानुयोग वाचना कहा जाता है। अपृयक्त्वानुयोग की व्याख्या करते हुए प्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति में कहा गया है - "जब चरणकरणानुयोग प्रादि चारों अनुयोगों का प्रत्येक सूत्र पर विचार किया जाय तो उसे अपृथक्त्वानुयोग कहते हैं। प्रपृथक्त्वानुयोग में विभिन्न नय-दृष्टियों का अवतरण किया जाता है और उसमें प्रत्येक सूत्र पर विस्तार के साथ चर्चा की जाती है। पर पृथक्त्वानुयोग की व्यवस्था में ऐसा करना आवश्यक नहीं होता।" वाचना की यह प्रपृथक्त्वानुयोगात्मक पद्धति आर्य वज तक अक्षुण्णरूपेण चलती रही.। जैसा कि कहा गया है : "मार्य वजस्वामी तक कालिक मागमों के अनुयोग (वाचना) में अनुयोगों का अपृथक्त्व रूप रहा, उसके पश्चात् मार्य रक्षित से कालिक-श्रुत और दृष्टिवाद के पृषक मनुयोग की व्यवस्था की गई।" प्रयोगों के पृथक्करण को वह घटना इस प्रकार है :- "प्रार्य रक्षित के धर्मशासन में शानी, ध्यानी, तपस्वी मोर वादी सभी प्रकार के साधु थे। प्रार्य रक्षित के उन शिष्यों में पुष्यमित्र नाम के तीन शिष्य विशिष्ट गुणसम्पन्न और महामेधावी थे। उनमें से एक को दुर्बलिकापुष्यमित्र दूसरे को घृतपुष्यमित्र और तीसरे को वस्त्रपुष्यमित्र के नाम से सम्बोधित किया जाता था। दूसरे और तीसरे पुष्यमित्र मुनि लन्षिसम्पन्न थे। देविंदरदिएहिं महालुमावेहि रक्सिय प्रबेहि । जुगमासब बिहत्तो, पणुमोगो ता कमो पउहा ॥७७४।। [पावश्यक मलयगिरि वृत्ति, प० ३६१ (२)] 'पपुहुत्तमेगमावो, सुते सुते सुबित्वरं गत्य । भन्नंतणुभोगा, बरणपम्मसंतागदपाणं ॥ [पावश्यक मलयगिरि वृत्ति पृ० ३८३ (२)] ' जाति प्रग्यारा अपुरत्त बानियामोगे य । तेणारेण पुइत कानिवखुष विट्ठियारे 4 ॥१६३।। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अनुयोगों का पृथक्करण घृतपुष्यमित्र अपनी लब्धि के प्रभाव से साधुनों को जितने घृत की आवश्यकता होती उतना ही घृत और वस्त्र-पुष्यमित्र वस्त्रलब्धि के प्रताप से श्रमरणों की आवश्यकतानुसार वस्त्र किसी गरीब से गरीब गृहस्थ के यहां से भी प्राप्त कर सकते थे। लब्धि के कारण उन दोनों को प्रत्येक ग्रहस्थ क्रमशः घृत और वस्त्र देने के लिए सहर्ष उद्यत रहता था। दुर्बलिकापुष्यमित्र स्वाध्याय के बड़े रसिक थे अतः अहर्निश स्वाध्याय में निरत रहते थे। निरन्तर स्वाध्याय के कारण वे बड़े दुर्बल हो गये थे। गुरु-चरणों में रहकर सतत. अध्ययन करते हुए उन्होंने पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर लिया। . आर्य रक्षित के गण में दुर्बलिकापुष्यमित्र, विन्ध, फल्गुरक्षित और गाष्ठामाहिल ये चार सर्वाधिक प्रतिभा एवं योग्यतासम्पन्न मुनि माने जाते थे। उनका अन्य साधुनों पर भी बड़ा प्रभाव था। इनमें विन्ध मुनि प्रत्यन्त मेघावी और सूत्रार्थ की धारणा में पूर्णतः समर्थ थे। अध्ययन के समय अन्य शिक्षार्थी साधुओं के साथ उन्हें जितना सूत्रपाठ प्राचार्य श्री से प्राप्त होता था, उससे उनको संतोष नहीं होता था। मुनि विन्द्य ने एक दिन प्राचार्य की सेवा में निवेदन किया"भगवन् ! मुझे पर्याप्त सूत्रपाठ नहीं मिल पाने के कारण मेरा अध्ययन समीचीन रूपेण नहीं हो रहा है अतः कृपा कर मेरे लिए एक पृथक वाचनाचार्य की व्यवस्था करें।" प्राचार्य रक्षित ने मुनि विंद्य की प्रार्थना स्वीकार कर प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र को आज्ञा दी कि वे विन्द्य मुनि को वाचना दें। कतिपय दिनों तक विन्द्य मनि को वाचना देने के पश्चात् दुर्बलिकापुष्यमित्र ने प्राचार्य की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया- "गुरुदेव ! मुनि विन्द्य को वाचना देने में निरत रहने के कारण मैं पठित ज्ञान का पूरा परावर्तन नहीं कर पाता अतः अनेक सूत्रपाठ मेरे स्मृतिपटल से तिरोहित हो रहे हैं। पहले पारिवारिक लोगों के यहां आने-जाने के कारण भी परावर्तन नहीं हो पाया था। इस प्रकार मेरा नौवें पूर्व का ज्ञान नष्ट हो रहा है।" अपने मेधावी शिष्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के मुख से विस्मरण की बात सुन कर प्राचार्य रक्षित ने सोचा - "जब ऐसे परम मेधावी मुनि को भी पठितार्थ का स्मरण न करने के कारण विस्मरण हो रहा है तो अन्य की क्या स्थिति होगी ?" उपयोग-बल से प्राचार्य रक्षित ने भविष्यकालीन साधुओं (शिष्यों) की धारणाशक्ति को मंद जान कर उन पर अनुग्रह करते हुए, वे सुखपूर्वक ग्रहरण और धारण कर सकें इसके लिए प्रत्येक सूत्र के अनुयोग पृथक कर दिये। अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य नयदृष्टि का मूल भाव नहीं समझ कर कहीं कभी एकान्त ज्ञान, कभी एकान्त क्रिया या एकान्त निश्चय अथवा एकान्त व्यवहार को Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..अनुयोगों का पृषककरण] सामान्य पूर्वधर-काल : मायं रेवती नक्षत्र ५६७ . ही उपादेय नहीं मान लें तथा सूक्ष्म विषय में मिथ्याभाव नहीं प्रहण करें, एतदर्थ नयोंका विभाग नहीं किया। मार्य रख- गणाचार्य मार्य वज्र के मार्य वनसेन, प्रार्य पद्म और आर्य रथ - ये तीन प्रमुख शिष्य थे। पार्य वनसेन को कालान्तर में प्रार्य रक्षित तथा प्रार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के पश्चात युगप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त किया गया। मार्य पद्य से मार्य पमा शाखा तथा पार्य रथ से जयन्ती शाखा के प्रकट होने का उल्लेख उपलब्ध होता है। कल्प स्थविरावली में आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् स्थविर प्रार्य रथ को गरणाचार्य नियुक्त किया जाना और उनसे प्रचलित हुई प्राचार्य-परम्परा को प्रमुख परम्परा बताया गया है। कल्प स्थविरावली के एतद्विषयक पहले सूत्र ' (क) नाऊण रक्सियजो, मइमेहाधारणासमग्गंपि । किच्छेणं घरमाणं, सुपण्णवं पूसमित्त पि ॥ भइसयकमोवनोगो, मइमेहाधारणाइपरिहीये। नाऊण मेस्सपुरिसे, खेत्तं कालाणुस्वं च ॥ साणुग्गहोऽणुमोगे, वीसुंकासी य सुपविभागेण । सुहगहणाइनिमित्त, नए य सुनिगूहिय विभागे ॥ सविसयमसद्दहता, नयाण तम्मत्तयं च गेण्हता। मन्त्रताय विरोह, प्रपरिणामातिपरिणामा॥ गन्छेज मा हु मिच्छं, परिणामा य सुहुमादि बहुभेए। होला सत्ते घेत्तुं, न कालिए तो नयविभागो।।। [आवश्यक मलय, पृ० ३६६ (१)] (स) पावश्यकणि (ग) श्रुत्वेत्यचिन्तयत् सूरिरीहग्मेषानिधियंदि। विस्मरत्यागमं तहि कोज्यस्तं धारयिष्यति ॥२४० ततश्चतुर्विधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया। ततोऽङ्गोपाङ्ग मूलाख्य ग्रंथच्छेदकृतागमः ॥२४१ अयं चरणकरणानुयोगः परिकीर्तितः । उत्तराध्ययनाबस्तु, सम्यग्धर्मकथापरः ॥२४२ (घ) सूर्यप्रज्ञप्तिमुस्यस्तु गणितस्य निगद्यते । इम्यस्य दृष्टिवादोऽनुयोगाश्चत्वार ईदृशः ॥२४३ [प्रभावक चरित्र, पृ० १७] (5) नाऊण गहणधारणहाणि चहा पिहीको जेण । प्रमोगो तं देविदवंदियं रक्खियं वन्दे ॥२१० . [ऋषिमंडलस्तोत्र] (ब) विशेषावश्यक भाष्य .रसक प्रज्जवहरस्स गोयमसगुत्तस्स इमे तिन्नि मन्तेवासी......."होत्था । थेरे प्रज्ज पारसेणे, घेरे मज्ज पउमे, थेरे मज्ज रहे ॥१४ . [कल्प स्थविरावली] Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग में गौतम गोत्रीय प्रायं वज्र से वज्री शाखा का प्रकट होना प्रार्य रथ से जयन्ती शाखा के प्रकट होने का उल्लेख है ।" कल्प सूत्रस्थ स्थविरावली में आर्य रथ से प्रचलित हुई श्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों का ही गणाचार्य परम्परा के रूप में नामोल्लेख किया गया है अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में भी कल्पसूत्रीया स्थविरावली का अनुसरण करते हुए उसे प्रमुख मानकर गरण परम्परा के रूप में उस ही का उल्लेख किया गया है। दुर्भाग्य है कि आर्य रथ से प्रचलित हुई इस गणाचार्य परम्परा के प्राचार्यों का नामोल्लेख के अतिरिक्त कोई परिचय प्राज उपलब्ध नहीं होता। दूसरी ओर गुर्वावली, तपागच्छ पट्टावली और वीरवंशावली श्रादि में वज्रसेन के पश्चात् प्रार्य चन्द्र से प्राचार्य परम्परा चलती है । ऐसी स्थिति में प्रार्य रथ से चलने वाली प्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों का कोई परिचय उपलब्ध न होने के काररण यहां उनके नाम मात्र बताये जा सकेंगे । और श्रार्य चन्द्र से चलने वाली परम्परा के प्राचार्यों का यत्किचित् जो परिचय प्राप्त होता है, उसे यहां संक्षेपतः दिया जायगा । [प्रायं रथ गणाचार्य तथा प्रगले सूत्र में सातवां निहव गोष्ठामा हिल सातवां एवं अन्तिम निह्नव गोष्ठामाहिल वीर नि० सं० ५८४ में हुआ । गोष्ठा माहिल ने भगवान् महावीर के सिद्धान्तों के विपरीत प्रपसिद्धान्त 'प्रबद्धिकदर्शन' का प्ररूपण एवं प्रवर्तन किया अत: वह निह्नव कहलाया । गोष्ठामाहिल श्रौर उसके द्वारा प्ररूपित प्रबद्धिक दर्शन का परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है । अपने जीवन के अन्तिम वर्ष में प्रार्य रक्षित उद्यत विहार से अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए एक दिन अपने शिष्य परिवार सहित दशपुर नगर के बहिरांचल में अवस्थित इक्षुधर नामक स्थान में पधारे । उन दिनों मथुरा में प्रक्रियावादियों का वर्चस्व बढ़ रहा था। उन्होंने सभी धर्मावलम्बियों को शास्त्रार्थ के लिये चुनौती दी। प्रक्रियावादियों के साथ वाद करने का किसी विद्वान् ने साहस तक नहीं किया। जैन धर्म की चिरमजित प्रतिष्ठा की रक्षार्थं संघ ने एकत्रित होकर विचार-विमर्श किया । अन्य किसी विद्वान् को प्रक्रियावादियों के साथ शास्त्रार्थ करने में समर्थ न पाकर संघ ने प्रार्थ रक्षित के पास दशपुर ( मन्दसौर) सन्देश भेजकर उन्हें मथुरा में श्राकर प्रक्रियावादियों को परास्त करने की प्रार्थना की। प्रव्रजित होने के प्रथम दिन से ही अपने कर्म समूहों को तप-संयम की प्रचण्ड ज्वालाओं में भस्मावशेष कर डालने का हड़ संकल्प लिये आर्य रक्षित अपने शरीर को अस्थिपंजर मात्र बना चुके थे । . इसके उपरान्त वे बहुत वृद्ध हो चुके थे और उन्हें यह विदित था कि उनके जीवन 'थेरेहितो गां प्रज्ज वइरेहिंतो गोयमसगुतेहिंतो इत्य गं प्रज्ज वइरीसाहा ग्गिया ||१३|| रोहितां अज्ज र हेहितो इत्थ गं प्रज्ज जयंती साहा णिग्गया || १४ [कल्प स्थविरावला ] Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां निहव गोष्ठामाहिल] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र ५६९ का अन्तिम समय अब सनिकट आ चुका है। ऐसी स्थिति में उन्होंने अपना जाना उचित न समझकर शास्त्रार्थ में कुशल एवं सुयोग्य अपने शिष्य गोष्ठामाहिल को मथुरा भेजा। __ अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर गोष्ठामाहिल मथुरा पहुंचे। प्रक्रियावादियों के साथ गोष्ठामाहिल ने शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया। गोष्ठामाहिल के प्रबल तर्कों एवं अकाट्य युक्तियों के समक्ष प्रक्रियावादियों के पैर उखड़ गये। मध्यस्थों एवं सभ्यों ने सर्वसम्मत समवेत स्वरों में प्रक्रियावादियों को पराजित और गोष्ठामाहिल को विजयी घोषित किया। जिनशासन की महती प्रभावना हुई और संघ में सर्वत्र हर्ष की हिलोरें लहरा उठीं। विजयी होकर गोष्ठामाहिल गुरुसेवा में दशपुर लौटे। उनके साथ मथुरा संघ के प्रतिष्ठित प्रतिनिधि भी थे। उन्होंने आर्य रक्षित से प्रार्थना की कि वे मुनि गोष्ठामाहिल को मथुरा नगरी में चातुर्मास करने की प्राज्ञा प्रदान करें। संघ की प्राग्रह एवं अनुनयविनयपूर्ण विनति को आर्य रक्षित ने स्वीकार किया और गोष्ठामाहिल ने पुनः मथुरा की ओर विहार किया। चातुर्मासावधि में जब आर्य रक्षित दशपुर में और उनके शिष्य गोष्ठामाहिल मथुरा में थे, उस समय आर्य रक्षित ने अपने शरीर की स्थिति क्षीण और प्रायु का अन्तिम समय समीप समझकर संघ के समक्ष अपने उत्तराधिकारी के विषय में विचार विमर्श किया। प्रार्य रक्षित के शिष्य-सग्रह में घृतपुष्यमित्र, वस्त्रपुष्यमित्र, दुर्बलिका पुष्यमित्र, विन्द्य, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल ये ६ शिष्य बड़े प्रतिभाथाली थे। आर्य रक्षित के मुनिमण्डल में से कतिपय मुनि मार्य फल्गुरक्षित को और कुछ मुनि गोष्ठामाहिल को प्राचार्य पद का उत्तराधिकारी बनाने के पक्ष में थे। पर आर्य रक्षित केवल दुर्बलिकापुष्यमित्र को ही अपने उत्तराधिकारी प्राचार्य पद के योग्य समझते थे। अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के प्रश्न के सम्बन्ध में जब प्रार्य रक्षित ने अपने शिष्यसमह में मतभेद देखा तो उन्होंने बड़ी ही सूझबूझ से काम लिया। सबको एकत्रित कर वे बोले- "कल्पना करो कुछ इंगितज्ञ श्रावकों ने यहां तीन घड़े प्रस्तुत किये। उनमें से एक घड़े में उड़द, दूसरे में तेल और तीसरे में धृत भरा और साधुसमूह एवं समस्त संघ के समक्ष उन तीनों घड़ों को दूसरे तीन घड़ों में क्रमशः उल्टा करवा दिया। उन तीनों रिक्त घड़ों में कितना कितना उड़द, तेल और घृत प्रवशिष्ट रहेगा ?" मार्य रक्षित का प्रश्न सुनकर शिष्यों एवं श्रावकप्रमुखों ने उत्तर दिया"भगवन् ! जो घट उड़द से भरा था, वह पूर्णतः रिक्त हो जायगा, तेल के घट में थोड़ा बहुत तेल.प्रवशिष्ट रह जायगा पर घृत के घट में घृत इधर-उधर चारों पोर चिपके रहने के कारण पर्याप्त मात्रा में प्रवशिष्ट रह जायगा।" - प्रार्य रक्षित ने अपने शिष्यसमूह और संघमुख्यों को सम्बोधित करते हुए निर्णायक स्वर में कहा- "उड़द धान्य के पद की तरह में प्रपना समस्त मान Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल दुर्बलिकापुष्यमित्र में उंडैल चुका हूं। जिस प्रकार पूरी तरह उंडेल दिये जाने पर भी तेल के घडे तथा घी के घडे में थोडी मात्रा में तेल और उससे अधिक मात्रा में घत अवशिष्ट रह जाता है, उसी प्रकार शेष शिष्य मेरे सम्पूर्ण ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सके हैं।" आर्य रक्षित के इस संक्षिप्त किन्तु सारगभित एवं युक्तियुक्त निर्णय से उत्तराधिकार का प्रश्न तत्क्षरण हल हो गया। शिष्यसमूह सहित समस्त संघ ने सर्वसम्मति से दूर्बलिकापुष्यमित्र को प्रार्यरक्षित का उत्तराधिकारी स्वीकार किया। प्रार्य रक्षित ने नवनिर्वाचित प्राचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र और संघ को संघ-संचालन विषयक निर्देश दिये। तदनन्तर अध्यात्म-ध्यान में लीन हो आर्य रक्षित ने समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया। प्रार्य रक्षित के स्वर्गारोहण के समाचार सुनकर गोष्ठामाहिल भी चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् साधुसंघ के पास आये और प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के गणाचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की बात सुनकर बड़े खिन्न हुए।' श्रमरणसंघ एवं श्रावकसंघ द्वारा उन्हें समझाने का पूरा प्रयास किया गया पर गोष्ठामाहिल ने किसी की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे सब साधुनों से पृथक् एक अन्य ही उपाश्रय में ठहर कर सूत्र-पौरुषी के समय एकाकी स्वाध्याय करने लगे। अर्थ-पौरुषी के समय जब गणाचार्य प्रार्य दुबंलिकापुष्यमित्र साधुसमूह को आगमवाचना देते, उस समय भी गोष्ठामाहिल उपस्थित नहीं होते । वे मन ही मन गणाचार्य के प्रति विद्वेष रखने लगे। गणाचार्य द्वारा की जाने वाली वाचना के अनन्तर मुनि विन्ध जब अर्थवाचना करते, तब गोष्ठामाहिल वहां उपस्थित होते और आठवें पूर्व की व्याख्या सुनते। __अपने अन्तर में उत्पन्न हुए गणाचार्य के प्रति विद्वेष और कांक्षामोह के उदय के कारण वे आठवें पूर्व के भावों को यथार्थरूपेण ग्रहण न कर उनका विपरीत अर्थ ही ग्रहण करने लगे। . . आठवें कर्मप्रवादपूर्व की वाचना के समय प्रार्य विन्द्य ने कर्मबन्ध के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा :- "मात्मा के साथ कर्म का बन्ध तीन प्रकार का होता है - बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित । जीव प्रदेशों के साथ कर्म-परमारणों के सम्बन्ध मात्र को बद्ध कहते हैं। जैसे कषायरहित जीव के ईपिथिक कर्म का बन्ध सूखी दीवार पर गिराई गई चूर्ण की मुष्टि के समान कालान्तर में बिना स्थिति पाये ही अलग हो जाता है। दूसरा बद्ध-स्पृष्ट - जो कर्म गीली दीवार पर गिराये गये स्नेहयुक्त चूरणं की तरह कुछ काल तक प्रात्मप्रदेशों के साथ मिला रहकर अलग हो जाता है, उसे बद्धस्पृष्ट कहा गया है। तीसरा निकाचित कर्म- वही बद्ध - स्पृष्ट कर्म जब अध्यवसायों और रस की अति तीव्रता के कारण न्यूनाधिक्य के रूप में एवं विहियपुहुत्तेहिं रखियज्जेहिं पूसमितम्मि। ठविए गम्मि किर गोट्ठमाहिलो परिनिवेसेणं ।।२२६६ [विशेषावश्यक भाष्य] Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल] सामान्य पूर्वधर-काल : पाय रेवतीनक्षत्र परिवर्तन की स्थिति को पार कर जाता है तथा फलभोग के पश्चात् ही जिस कर्म से छुटकारा हो सकता है, उस कर्मबन्ध को निकाचित बन्ध कहा है। बद्ध, बद्ध-स्पृष्ट और निकाचित कर्म के बन्ध को सरलता से समझने के लिये सूचिका का दृष्टान्त दिया जाता है। बद्ध कर्म का आत्मा के साथ डोरे से लिपटी सुई की तरह सम्बन्ध बताया गया है। जिस प्रकार स्वल्पतर प्रयास मात्र से धागे से लिपटी हुई सुई को धागे से पृथक किया जा सकता है, उसी प्रकार आत्मा को बद्ध कर्म से सहज ही वियोजित किया जा सकता है। बद्ध-स्पृष्ट कर्म को लोहे के पत्र से प्राबद्ध. सुई की तरह बताया गया है। जिस प्रकार लोहपत्र से प्रबद्ध सूचिका को पृथक करने में विशेष प्रयास की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार बद्ध-स्पृष्ट कर्मों को प्रात्मप्रदेशों से वियोजित करने में थोड़े पौरुष की अावश्यकता रहती है। तीसरे निकाचित कर्मबन्ध की, सूचिकाओं के उस समूह से तुलना की गई है, जिसे तपाकर धन-प्रहार से संपृक्त कर दिया गया हो । जिस प्रकार तपाकर घरण की चोट से परस्पर मिलाई गई सूचिकाओं को पुनः गलाकर सांचे में ढालने से ही पूर्व रूप में लाया जा सकता है उसी प्रकार निकाचित कर्म के फलभोग के अनन्तर ही उसे प्रात्मप्रदेशों से पृयक् किया जा सकता है।" . विन्द्य मुनि द्वारा किये गये कर्मबन्ध विषयक उपरोक्त विवेचन को सुनकर गोष्ठामाहिल ने कहा- "मुने! यदि कर्म की इस प्रकार की व्याख्या करोगे कि जीवप्रदेशों के साथ अन्योन्य अविभक्त रूप से कर्म का बन्ध होता है, तो उस दशा में प्रात्मा कभी कर्मबन्ध से मुक्त नहीं हो सकेगा। कंचुकी और पुरुष के समान प्रात्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है। कंचुकी पुरुष को स्पृष्ट कर रहता है बद्धं करके नहीं। ठीक उसी प्रकार कर्म भी आत्मा के साथ दूध पानी की तरह घुलमिल कर बद्ध नहीं होते, केवल स्पृष्ट होकर ही रहते हैं।" . गोष्ठामाहिल की बात सुनकर विन्द्य ने कहा - "हमको गुरु ने इसी प्रकार बताया है।" गोष्ठामाहिल ने कहा- "वह स्वयं नहीं जानते तो क्या व्याख्यान करेंगे?" इस पर सरलमना विन्द्य मुनि शंकित हुए और प्राचार्य के चरणों में पहुंचकर कर्मबन्ध विषयक उपरोक्त विवेचन एवं गोष्ठामाहिल का अभिमत सुनाते हुए उन्होंने स्पष्टीकरण चाहा कि वस्तुतः सूत्र का अर्थ क्या है ? दुर्बलिकापुष्यमित्र ने कहा - "सौम्य ! जो तुम कहते हो वह ठीक है। एतद्विषयक गोष्ठामाहिल का कथन ठीक नहीं है। उसने, प्रात्मा के साथ बद्ध,. बढस्पृष्ट मौर निकाचित सम्बन्ध मानने पर जीव से कर्म के पृथक् न होने की बात रखी, वह प्रत्यक्ष विरोधिनी, है । प्रायुकर्म का अन्त अथवा वियोजन मरण के रूप में प्रत्यक्षा है। गोष्ठामाहिल का यह कथन भी ठीक नहीं है कि अन्योन्य प्रविभाग से रहे हुए का वियोग नहीं होता। एक रूप से मिले हुए दूध-पानी का उपाय विशेष से पृथक्करण देखा जाता है। लोहगोलक और अग्नि का पविभक्त सम्बन्ध भी Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ सातवां निह्नब गोष्ठामाहिल इसी प्रकार पृथक् होते देखा जाता है । जैसे अग्नि में तपाये गये लोहपिण्ड के करण करण में, प्रत्येक प्रदेश में अग्नि व्याप्त हो जाती है और शीतल जल प्रादि के प्रयोग से पुनः वह लोहगोलक शीतल - अग्निरहित हो जाता है। इसी प्रकार जीव के श्रात्मप्रदेशों में घुलमिल कर रहा हुआ भी कर्मारणु सम्यग्ज्ञान एवं क्रिया के योग से पृथक् किया जाता है मोर जीव कर्म रहित हो अपने "सत्यं शिवं सुन्दरम् "स्वरूप को प्राप्त कर लेता है ।" विन्द्यमुनि ने गोष्ठामा हिल को वीतराग प्रभु द्वारा उपदिष्ट एतद्विषयक अर्थ समझाने का प्रयास किया । पर गोष्ठामाहिल अपने एकान्त प्रभिमत पर अड़ा रहा। मुनि विन्द्य ने वस्तुस्थिति गरणाचार्य के समक्ष रखी। श्राचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ने भी शास्त्रीय प्रमारणों और युक्तियों से गोष्ठामाहिल को समझाने का प्रयास किया पर सब व्यर्थ । फिर श्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ने अन्यगच्छों के स्थविरों एवं शासनाधिष्ठात्री देवी के माध्यम से भी गोष्ठामाहिल को आत्मा के साथ कर्म के बन्ध के विषय में समझाने का पूरा प्रयास किया पर उसने हठाग्रह नहीं छोड़ा । गोष्ठा माहिल द्वारा को जाने वाली उत्सूत्र प्ररूपरणा से खिन्न हो धर्मसंघ ने उसे सप्तम निह्नव घोषित करते हुए संघ से बहिष्कृत कर दिया । सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल किस समय हुआ, यह प्रश्न शताब्दियों से विद्वानों के समक्ष पहेली के रूप में उपस्थित रहा है । विशेषावश्यक भाष्य की - पंचसया चुलसीया, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । आबद्धियाण दिट्ठी दसपुर नयरे समुप्पन्ना ॥ इस गाथा से वीर नि० सं० ५८४ में दशपुर नगर में प्रबद्धिक दृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है पर ऐतिहासिक अन्य ग्रन्थों में दुर्बलिकापुष्यमित्र के ऐतिहासिक काल के साथ प्रार्य रक्षित के सम्बन्ध को देखते हुए ५८४ का काल मेल नहीं खाता । यह श्रार्यरक्षित के स्वर्गगमन के पश्चात् की घटना है और यह एक सर्वसम्मत तथ्य है कि श्रार्यरक्षित वीर नि० सं० ५६७ में स्वर्गस्थ हुए। इतिहासविज्ञ इसके लिये विशेष गवेषरणा का प्रयत्न करेंगे ऐसी आशा है । २०. प्रायं दुर्बलिकापुष्यमित्र - युगप्रधानाचार्य वीर नि० सं० ५६७ में प्राय रक्षित के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् श्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र युगप्रधानाचार्य बने । आपका जो थोड़ा बहुत परिचय उपलब्ध होता है, वह इस प्रकार है : "दुर्बलिकापुष्यमित्र का जन्म वीर नि० सं० ५५० में एक सुसम्पन्न बौद्ध परिवार में हुआ । वीर नि० सं० ५६७ में आपने १७ वर्ष की अवस्था में प्रार्य रक्षित के पास निग्रंथश्रमण-दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् वर्षो विनयपूर्वक गुरुसेवा करते हुए निरन्तर के पठन, मनन और परावर्तन से प्रापने एकादशांगी मोर सार्द्धनव पूर्वो का ज्ञान अर्जित किया । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वघर - काल : प्रायं रेवती नक्षत्र ६०३ "जिस प्रकार सरसों से भरे घड़े को उंडेलने पर घड़े में एक भी सर्सपकरण श्रवशिष्ट नहीं रह जाता, उसी प्रकार मैंने अपना सम्पूर्ण ज्ञान प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र को सिखा दिया है" - श्रार्य रक्षित द्वारा अपने अन्तिम समय में संघ के समक्ष प्रकट किये गये इन उद्गारों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि सार्द्धनव पूर्वघर प्रार्य रक्षित से प्रार्यं दुर्बलिकालपुष्यमित्र ने साढ़े नव पूर्वो का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । श्रार्य दुर्बल का पुष्यमित्र प्रबल श्रात्मबल के धनी होते हुए भी शारीरिक • दृष्टि से बड़े दुर्बल रहते थे । वे अध्ययन, चिन्तन, मनन में इतने अधिक तल्लीन रहते थे कि प्रहर्निश किये जाने वाले उस अत्यधिक परिश्रम के कारण स्निग्धतर और गरिष्ठ से गरिष्ठतम भोजन से भी उनके शरीर में श्रावश्यक रस का निर्माण नहीं होता था । इसी शारीरिक दुर्बलता के कारण आप संघ में दुर्बलिकापुष्यमित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए ।" भारतीय इतिहास और जैन इतिहास- इन दोनों ही दृष्टियों से प्राचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र का प्राचार्यकाल बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रापके प्राचार्यकाल में ऐतिहासिक महत्व की निम्नलिखित दो घटनाएं घटित हुईं : १. आपके प्राचार्यकाल ( वीर नि० सं० ६०५ ) में प्रतिष्ठानपुर के अधिपति गौतमीपुत्र सातवाहन ने आर्यधरा से शक - शासन का अन्त कर शालिवाहन शाक-संवत्सर की स्थापना की, जो विगत १६ शताब्दियों से प्राज तक भारत के प्रायः सभी भागों में प्रचलित है । २. आपके प्राचार्यकाल (वीर नि० सं० ६०९) में जैन संघ - श्वेताम्बर मौर दिगम्बर इन दो भागों में विभक्त हो गया । - यह पहले बताया जा चुका है कि श्रार्य रक्षित ने प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र द्वारा परावर्तन के प्रभाव में पठितार्थ के विस्मरण की बात सुन कर कालप्रभाव से भावी शिष्यसन्तति की परिक्षीयमारण स्मरणशक्ति को लक्ष्य में रखते हुए अनुयोगों का पृथक्करण किया। जैन इतिहास की दृष्टि से, अति महत्वपूर्ण, अनुयोगों के पृथक्करण की घटना में भी प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ही निमित्त माने गये हैं । ३० वर्ष तक सामान्य व्रतपर्याय में रहने के अनन्तर वीर निर्वाण सं० ५६७ में श्राप युगप्रधानाचार्य बने । युग - प्रधानाचार्य पद से भगवान् महावीर के धर्मशासन की २० वर्ष तक उल्लेखनीय सेवा भौर प्रभावना करने के पश्चात् वीर नि० सं० ६१७ में मापने स्वर्गारोहण किया । श्रापकी पूर्ण आयु ६७ वर्ष, ७ मास भोर ७ दिन की मानी गई है। दुष्षमाकाल श्रीश्रमरणसंघस्तोत्र की तालिका में पक्षान्तर का उल्लेख करते हुए प्रापका युगप्रधानाचार्यकाल २० के स्थान पर १३ वर्ष और पूर्णायु ६७ वर्ष, ७ मास एवं ७ दिन के स्थान पर ६० बर्ष, ७ मास तथा ७ दिन बताई गई है। Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग शालिवाहन शाक-संवत्सर प्रतिष्ठान राज्य के अधिपति सातवाहन वंशीय गौतमीपुत्र सातकर्णी ने शक्तिशाली शक- शासक नहपान को मार कर तथा भारत के दक्षिणी भाग, सौराष्ट्र एवं गुजरात से शक महाक्षत्रपों का समूलोन्मूलन कर शकारि विक्रमादित्य का विरुद धारण करने के साथ-साथ वीर निर्वारण संवत् ६०५, तदनुसार विक्रम सं० १३५ तथा ई० सन् ७८ में शाक-संवत्सर प्रचलित किया । ६०४. 6 प्राचीन कथासाहित्य के प्राधार पर सातवाहन वंश के सम्बन्ध में अनुमान किया जाता है कि संभवतः प्रान्ध्र के किसी नागवंशीय शासक एवं महाराष्ट्रीय . विधवा ब्राह्मरणी के संयोग से सिमुक नामक बालक का जन्म हुआ, जो प्रागे चल कर सातवाहन वंश का संस्थापक हुआ । “प्रबन्ध कोश" के सातवाहन प्रबन्ध प्रर अलबरूनी द्वारा किये गये उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि सातवाहनवंश का मूल पुरुष सिमुक विक्रमादित्य का समकालीन था । " सातवाहन वंश में अनेक प्रतापी, शक्तिशाली और विद्वान् राजा हुए हैं । सातवाहन राजवंश के राजाओं ने भारतभूमि पर शकों के शासन का अन्त करने में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया । वायुपुराण में सातवाहन वंश के १६ राजाओं का नामोल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है : १. शिशुक ( सिमुक ), २. कृष्ण, ३. सातकरिण, ४. पुलुमायी, ५. श्ररिष्टकर्ण, ६. हाल (गाथासप्तसती का रचयिता ), ७. पत्तलक, ८. पुरीन्द्रसेन, ह. सुन्दर, १०. चकोर, ११. शिवस्वाति, १२. गौतमीपुत्र, १३. पुलुमायी - (द्वितीय), १४. शिवश्री, १५. शिवस्कन्द, १६. यशश्री, १७ विजय, १८. चन्द्रश्री श्रौर, १६. पुलुमायी (तृतीय) * २ तथा सातवाहन नूतनया भग्नमवन्तीशितुर्बलम् । विक्रमनरपतिरपि पलाय्य ययाववन्तीम् । तदनु सातवाहनो राज्येऽभिषिक्तः प्रतिष्ठानं च निज-निज विभूति परिभूतवस्वीकसाराविधान् धवलगृह देवगृहट्टपंक्तिराजपथप्राकारपरिखादिभिः सुनिविष्टमजनिष्ट पत्तनम् । [ प्रबन्धकोश, सातवाहन प्रबन्ध, पृ० ६८ ] २ (क) शिशुकोऽन्ध्रः सजातीयः प्राप्स्यतीमां बसुन्धराम् । त्रयोविंशत्समाराजा शिशुकस्तु एकोनविंशति ते प्रान्ध्रा भोक्यन्ति भविष्यति ॥ २ ॥ वं महीम् ||१६|| [ मत्स्य पुराण, कलौ भाविनृपान्वयवर्णनम् ] (ख) सिन्धुको प्रजातीयः, प्राप्स्यतीमां वसुन्धराम् । . त्रयोविशत्सवा राजा सिन्धुको भविता त्वथ ।। ३४८ ।। भ्रष्टी भातस्श वर्षाणि तस्माद्दश भविष्यति ( ? ) ।। ३४६ ।। श्री शातकरिंगविता तस्य पुत्रस्तु वै महान् । पंचाशतं समाः षट् च शातकरिणर्भविष्यति ।। ३५० ।। ततः संवत्सरं पूर्ण हालो राजा भविष्यति ।। ३५२ ।। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिवाहन शाक-संवत्सर] सामान्य पूर्वधर-काल : पार्य रेवती नक्षत्र ६०५ सातवाहनवंशीय उपरिलिखित १६ राजामों में से इस वंश का आदिपुरुष शिशुक-सिन्धुक अथवा सिमुक अवन्तीपति महाराज विक्रमादित्य के निधन के कुछ वर्ष पश्चात् युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसका छोटा भाई कृष्ण प्रतिष्ठान का राजा बना। कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सातकर्णि बड़ा ही प्रतापी राजा प्रा। सातकरिण ने अपने राज्य की सीमा में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की। महाराष्ट्र के किसी बड़े जागीरदार की पुत्री नायनिका के साथ इसका विवाह सम्पन्न हुप्रा इससे इसकी शक्ति में अभिवृद्धि हुई। सातकणि ने पश्चिमी घाट एवं कोंकरण पर विजय प्राप्त की तथा वह पूरे महाराष्ट्र और कर्नाटक का अधिपति बन गया। सातकरिण की तेजस्विता और प्रताप के कारण इसके पश्चाद्वर्ती सातवाहनवंश के सभी राजानों के नाम के साथ सातकरिण उपनाम भी जुड़ता रहा। कतिपय इतिहासविदों की मान्यता है कि सातवाहनवंश के संस्थापक सिमुक और कृष्ण बाल्यकाल में मान्ध्र देश में रहे थे प्रतः इनकी प्रान्ध्र सातवाहन नाम से प्रसिद्धि हुई। हमारा अभिमत है कि आन्ध्र के किसी नागवंशी राजा की संतति होने के कारण ही सातवाहनवंशी राजाओं को प्रान्ध्रसातवाहन कहा जाने लगा। यह पहले बताया जा चुका है कि ईसा से लगभग दो शताब्दी पूर्व शक लोग अपने मूल निवासस्थान को छोड़ ईरान की ओर बढ़े और उन्होंने सम्पूर्ण ईरान पर आधिपत्य जमा लिया। शक लोग युद्ध प्रिय और बर्बर थे। वे जब कभी राजा च गौतमीपुत्र एकविंशत्समा नषु । एकोनविंशति राजा यज्ञश्री: सातकर्यच ।। ३५५ ।। इत्येते वै नृपास्त्रिंशदन्ध्रा भोक्ष्यन्ति ये महीम् ।। ३५७ ।। [वायुपुराण, अनुषंगपाद, प्र. ६६] वायुपुराण के उपरोक्त अध्याय में सातवाहनवंशीय पन्द्रह-सोलह राजामों के ही नाम दिये गये हैं पर इनकी संख्या ३० बताई गई है.। मत्स्यपुराण के उपरि उन त श्लोक में सातवाहनवंशी राजाओं की संख्या १६ बताई गई है। ब्रह्माण्ड पुराण में भी इन राजाओं की संख्या १६ ही बताई गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन वंश की दक्षिण कोशल शाखा में हुए ११ राजामों को भी इन १९ राजामों के साथ गणना कर के ३० की संख्या पूरी कर दी गई है। विभिन्न पुराणों में दी गई सांतवाहनवंशी राजामों की नामावली को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनके नाम भी उत्तराधिकार के अनुक्रम से नहीं दिये गये हैं। [सम्पादक] 'तत्र चंकदा दो वैदेशिकतिजो समागत्य विषवया स्वम्रा साकं कस्यचित्कुंभकारस्य शालायां तस्थिवांसी ।....प्रन्येयुः सा तयोविप्रयोः स्वसा जलाहरणाय गोदावरी गता। तस्याश्च रूपमप्रतिस्पं निरूप्य स्मरपरवशोन्तहदवासी शेषो नाम नागराजो हदान्निगंत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह बलादपि सम्भोगकेलिमकलयत् । भवितव्यताविलसितेन तस्या सप्तधातुरहितस्यापि तस्य दिव्यशक्त्या शुक्रपुद्गलसंचारात् गर्भाधानमभवत् । स्वनामधेयं प्रकाश्य व्यसनसंकटे मां स्मरेरित्यभिधाय च नागराजः पाताललोकमगमत् । सा च गृहं प्रत्यगच्छत् । [प्रबन्धकोश, सातवाहनप्रबन्ध, पृ. ६६) Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शालिवाहन शाक-संवत्सर किसी देश पर आक्रमण करते तो टिड्डी दल की तरह तूफानी आक्रमण करते थे। उनके स्वभाव में स्वेच्छाचारिता और अहं का प्राधिक्य होने के कारण उनका शासन बड़ा ही कर्कश और उनके द्वारा विजित राष्ट्र पर किये जाने वाले प्रत्याचार बड़े ही लोमहर्षक होते थे। ईरान की जनता शकों की दासता से मुक्त होने के लिये स्वल्पकाल में ही छटपटाने लगी। ईरान के प्राचीन राजवंश ने ईरान से शकों के शासन को समाप्त करने का बीड़ा उठाया और वहां के शाह ने एक लम्बे संघर्ष के पश्चात् शकों की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर ईरान में एक सशक्त साम्राज्य. की स्थापना की। ईरान में अपने प्रति भीषण असंतोष और प्रतिकार की भावना की तीव्र लहर देखकर शकों ने भारत के सिन्ध प्रदेश की ओर अपना सैनिक अभियान किया और उन्हें सिन्ध के कुछ भाग पर अधिकार करने में सफलता भी मिल गई। उन्हीं दिनों अपनी बहिन सरस्वती साध्वी को गर्दभिल्ल के अन्तःपुर से मुक्त कराने के प्रश्न को लेकर कालकाचार्य द्वितीय ने सिन्ध के शकों की सहायता प्राप्त की और कालकाचार्य के बुद्धिकौशल एवं भड़ोंच के शासक बलमित्र भानुमित्र की सहायता से शकों ने गर्दभिल्ल को परास्त कर अवन्ती राज्य पर अधिकार कर लिया। प्रवन्ती राज्य पर शकों का शासन कठिनाई से चार वर्ष ही चल पाया था कि गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर प्रवन्ती राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। - यह भी पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ५३० में महाराज विक्रमादित्य की मृत्यु के अनन्तर शकों ने पुनः भारत पर प्रबल आक्रमण प्रारम्भ किये और उन्होंने भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अनेक भागों पर अधिकार कर लिया। उन्हीं दिनों पार्थियन जाति के विदेशी आक्रान्ता भी ईरान होते हुए भारत में पाये । पाथियन राजा गोंडोफरनीज ने तक्षशिला पर अधिकार कर लिया। उसने अपने राज्य की सीमा में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की और अनेक प्रदेशों में अपनी क्षत्रपियां स्थापित की। .. सातवाहनवंशी राजा पुलोमावि (प्रथम) के शासनकाल में पश्चिमी क्षत्रपों के वंश के संस्थापक चष्टन का प्राबल्य बढ़ा। उसने पुलोमावि के राज्य के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर उज्जयिनी पर भी अपना प्राधिपत्य स्थापित कर लिया। चष्टन के पौत्र रुद्रदामा ने अपनी पुत्री का विवाह पुलुमावि के साथ किया । कुछ काल पश्चात् किसी कारणवश श्वसुर जामाता के बीच युद्ध ठन गया। उस युद्ध में पुलुमावि का पराजय ने और रुद्रदामा का विजयश्री ने वरण किया। शकों की बढ़ती हुई शक्ति को प्रतिष्ठान के सातवाहनवंशी शासकों ने समय समय पर क्षीण करने का प्रयास किया । वीर नि० सं० ५५२ के प्रासपास. यूबी जाति के विदेशी कुषाणों ने भारत ...में बने हुए पापियन जाति के विदेशियों को पराजित कर अफगानिस्तान और Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालि• शाक-संवत्सर] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र ६०७ पंजाब के कतिपय क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। शकों एवं पाथियन लोगों की तरह कुषाणों ने भी भारतीय संस्कृति और भारतीय धर्मों को अपनाया। उन लोगों ने अपने नाम तक भारतीय पद्धति के अनुरूप रखे और उनमें से प्रायः सभी ने बौद्ध, हिन्दू, शैव, जैन और भागवत धर्मों को अपना लिया। शकराज रुद्रदामा भारतीय भाषामों तथा व्याकरण एवं तर्कशास्त्र का अपने समय का एक माना हुमा विद्वान् था। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा निर्मित सुदर्शन झील पर बहुत बड़ी धनराशि व्यय करके उसका जीणोद्धार करवाया। ‘वीर नि० सं० ५६५ से ६०५ तक नहपान नामक एक शक महाक्षत्रप का भारत के पश्चिमी एवं अनेक दक्षिणी भागों पर शासन रहा । नहपान ने भृगुकच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात आदि पर अपना आधिपत्य स्थापित कर प्रतिष्ठान की भोर प्रयाण किया। उस समय प्रतिष्ठान पर गौतमीपुत्र सातकरिण का शासन था। गौतमीपुत्र ने नहपान की बढ़ती हुई सेनाओं को रोका। दोनों सेनाओं के बीच बड़ा भीषण युद्ध हुमा। कड़े संघर्ष के पश्चात् गौतमीपुत्र सातकणि ने रणस्थल में नहपान को मौत के घाट उतार दिया। गौतमीपुत्र सातकणि ने भारत से शकों के शासन का अन्त कर शकारि विक्रमादित्य की उपाधि धारण की और इस विजय के उपलक्ष में उसने वीर निर्वाण संवत् ६०५ में शाक-संवत्सर की स्थापना की। सातवाहनवंशी राजाओं में से कुछ राजापों ने प्रश्वमेध यज्ञ किये, इस प्रकार के शिलालेख उपलब्ध होते हैं। अनेक इतिहासविदों का अभिमत है कि सातवाहनवंशी राजाओं के समय में हिन्दू धर्म का उत्कर्ष हुआ। दूसरी ओर जैन ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि सातवाहनवंशी राजामों में से कतिपय जैन थे। शालिवाहन शाक-संवत्सर - इस पद में शाक शब्द को देखकर कतिपय साधारण लोगों को सहज ही भ्रम होना संभव है कि क्या यह संवत्सर किसी विदेशी शक राजा के द्वारा चलाया हुप्रा संवत्सर है ? वस्तुतः यहां शाक शब्द शक्ति का द्योतक है। शालिवाहन शाक-संवत्सर का शाब्दिक अर्थ है - शालिवाहन द्वारा चलाया गया शक्ति-संवत्सर । प्रायः सभी प्रामाणिक शब्दकोशों में "शाक" (क) सातवाहनोऽपि क्रमेण दक्षिणापथमनणं विधाय तापीतीरपर्यन्तं चोत्तरापथ साधयित्वा स्वकीय संवत्सरं प्रावीवृतत् । [प्रबन्धकोश पृ०६८] (ख) इत्यं य पणहिय छसएसु सागसंवग्छरुप्पत्ती ।। [विचारश्रेणी (ग) श्रीवीरनिवृतेवर्ष, षड्भिः पंचोतरं शतैः । शाकसंवत्सरस्यैषा, प्रवृत्तिमरते ऽभवत् ।। [वही] २ (क) जनश्च समजनि । [प्रबन्धकोश, पृ० ६८] (ख) प्रस्तुत ग्रन्थ में कालकाचार्य (द्वितीय) का प्रकरण । 3 शाक - m. power, might, help, aid. - Samvatsara - for any era · [Sanskrit-English Dictionary-by Sir Monier Williams. ] Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग (शालि. शाक-संवत्सर शब्द का अर्थ शक्ति सामर्थ्य, ऊर्जा तथा वर्ष - विशेषतः शालिवाहन संवत्सर किया गया है।' जैन कालगणना में वीर निर्वाण संवत् के पश्चात् सर्वाधिक महत्व शालिवाहन शाक-संवत्सर को दिया गया है। जैन शासन में सम्प्रदाय मेव .. आर्य सुधर्मा से लेकर आर्य वज्र स्वामी तक जैन शासन विना किसी सम्प्रदाय - भेद के चलता रहा। यद्यपि गणभेद और शाखाभेद का प्रारम्भ प्राचार्य यशोभद्र के समय से ही प्रारम्भ हो गया था और आर्य सुहस्ती के समय से तो गरणभेद परम्पराभेद के रूप में भी परिणत हो गया था पर तब भी उसमें सम्प्रदाय भेद का स्थूल रूप दृष्टिगोचर नहीं हो पाया। समस्त जनसंघ श्वेताम्बर-दिगम्बर प्रादि बिना किसी भेद के "निग्रंथ" नाम से ही पहिचाना जाता रहा । आवश्यकतानसार वस्त्र रखने वाले और जिनकल्प की तुलना करने वाले- दोनों ही वीतराग भाव की साधना को लक्ष्य में रख कर परस्पर विना टकराये चलते रहे। एक प्रोर महागिरि जैसे प्राचार्य जिनकल्प तुल्य साधना करने की भावना से एकान्तदास को अपनाते तो दूसरी ओर प्रार्य सुहस्ती भव्यजनों को प्रतिबोध देने एवं जिनशासन का प्रचार-प्रसार करने की भावना से प्रेरित हो ग्राम-नगरादि में भव्य भक्तजनों के साथ संम्पर्क बनाये रख कर विचरण करते। फिर भी उन दोनों का परस्पर प्रेम सम्बन्ध रहा। उस समय तक वस्तुतः वस्त्रधारी मुनि भोर वस्त्ररहित मुनि समान रूप से सम्माननीय, वन्दनीय और मुक्ति के अधिकारी माने जाते रहे। मुनित्व और मुक्तिपथ के लिए न सवस्त्रता बाधक समझी जाती थी और न निर्वस्त्रता ही एकान्त मूक्ति-सहायिका। वस्त्रधारी मुनियों का यह प्राग्रह न था कि बिना धर्मोपकारणों के मुक्ति नहीं और न निर्वस्त्र मुनियों का ही यह प्राग्रह था कि वस्त्र रखने वाला मुनि, मनि नहीं। थोड़े से में कहा जाय तो उस समय तक सवस्त्रता और निर्वस्त्रता मुनि की महानता अथवा लघुता का मापदण्ड नहीं बन पाई थी। ज्ञान, दर्शन चारित्र की सम्यक् अाराधना ही वस्तुतः मुनिता का सही मापदण्ड माना गया है। किन्तु वीर नि० सं० ६०६ में वह स्थिति समाप्त हो गई और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर के नाम से जैन शासन में सम्प्रदायभेद स्पष्ट रूप से प्रकट हो गया। जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण ने कहा है - "वीर निर्धारण से ६०६ वर्ष बीतने पर रथवीरपुर में बोटिक मत (दिगम्बर मत) की उत्पत्ति हुई।"3. 1" संस्कृत हिन्दीकोश, वामन शिवराम प्राप्टे । . पञ्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं । जतत्थं गहणत्थं च, लोगे लिग पयोयणं ।।३२।। नाणं च दंसरणं चेव, चरितं चेव निच्छए ।।३३।। [उत्तराध्ययन, प्र. २३ ] खम्वास सयाई, तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिठ्ठी, रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥२५५०।। [वि० भाष्य] Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन में सं० भेद] सामान्य पूर्वघर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र इस सम्प्रदायभेद के उत्पन्न होने की घटना का जो उल्लेख विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूरिण प्रादि ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसका सारांश इस प्रकार है : .. एक वार रथवीरपुर के दीप नामक उद्यान में प्राचार्य कृष्ण का प्रागमन हुप्रा। वहां शिवभूति नाम का एक राजपुरोहित रहता था। राजा का कृपापात्र होने के कारण वह नगर में विविध भोग-विलासों का उपभोग करता हुमा यथेप्सित रूप से घूमता रहता और मध्यरात्रि के पश्चात् अपने घर पहुँचता था। . एक दिन शिवभूति की पत्नी ने अपना वह दुःख अपनी सास को सुनाते हुए कहा - "आपके पुत्र रात्रि में कभी समय पर नहीं पाते, सदा अर्द्धरात्रि के पश्चात् आते हैं, अतः मैं भूख और जागरण के दुःख से बड़ी दुःखित है।" सास ने वधू को आश्वस्त किया और दूसरे दिन वधू को सुला कर स्वयं वृद्धा ने जागरण किया। मध्यरात्रि के पश्चात् जब शिवभूति ने प्राकर घर का द्वार खटखटाया तो उसकी वृद्धा माता ने क्रुद्ध स्वर में डांटते हुए कहा- "जहां इस समय द्वार खुले रहते हों, वहीं चले जानो। यहां तेरे पीछे कोई मरने वाला नहीं है।" इस प्रकार अपनी बुढ़िया मां से फटकार सुन कर शिवभूति अहंकारवश तत्क्षण लौट पड़ा। नगर में घूमते हुए जब उसने उपाश्रय का द्वार खुला देखा तो उसमें चला गया और दूसरे दिन प्राचार्य कृष्ण के पास दीक्षित होकर उनके साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने लंगा। ___कालान्तर में प्राचार्य कृष्ण अपने शिष्यमण्डल सहित पुनः रथवीरपुर आये। उस समय वहां के राजा ने पूर्वप्रीति के कारण शिवभूति मुनि को एक बहुमूल्य रत्नकम्बल भेंटस्वरूप प्रदान किया। प्राचार्य को ज्ञात होने पर उन्होंने कहा - "साधु को इस प्रकार का मूल्यवान् वस्त्र रखना उचित नहीं।" . गुरू द्वारा बहुमूल्य वस्त्र अपने पास न रखने का निर्देश प्राप्त होने के उपरान्त भी शिवभूति ने ममत्ववश उस वस्त्र का परित्याग नहीं किया और उसे सावधानी के साथ गठरी में बांधकर रख लिया। एक दिन अवसर देख कर आचार्य ने उस रत्नकम्बल के खण्ड-खण्ड कर उन्हें साधुनों में वितरित कर दिया। जब शिवभूति को यह विदित हुमा, तो उसे बड़ा दुःख हुआ। इस घटना के पश्चात् शिवभूति अपने अन्तर में प्राचार्य के प्रति कलुषित भाव रखने लगा। ... एक समय आचार्य कृष्ण अपने शिष्य-समूह के समक्ष जिनकल्पपारी .साधुओं के प्राचार का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने कहा- "जिनकल्पिक २ प्रकार के होते हैं, पाणिपात्र और पात्रधारी। उनमें से प्रत्येक के सवस्त्र और निर्वस्त्रये दो भेद होते हैं । उपधि की अपेक्षा जिनकल्प में ८ विकल्प होते हैं। जिनकल्पी Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जैन शासन में सं० भेद कम से कम रजोहरण और मुखवस्त्रिका-ये दो उपकरण रखते हैं। इस तरह ३ से लेकर १२ उपधि तक के अन्य ७ विकल्प बताये गये हैं। ___इस प्रकार जिनकल्प का वर्णन सुन कर शिवभूति ने कहा - "यदि ऐसा है तो प्राज प्रोधिक और प्रोपग्रहिक के नाम से इतने उपकरण क्यों रखे जाते हैं ?" प्राचार्य ने कहा- "जम्बूस्वामी के निर्वाणानन्तर संहनन की मन्दता से जिनकल्प परम्परा विच्छिन्न मानी गई है।" - शिवभूति अपने रत्नकम्बल के हरण से खिन्न तो था ही, उसने कहा"महाराज! मेरे जीते जी जिनकल्प का विच्छेद नहीं होगा। परलोकार्थी को भय-मूर्या और कषाय बढ़ाने वाले संपूर्ण परिग्रह से दूर ही रहना चाहिये।" गुरू ने कहा - "वत्स! वस्त्र आदि उपकरण एकान्ततः कषायवृद्धि के कारण नहीं है। शरीर की तरह ये वस्त्र आदि उपकरण धर्म में सहायक भी होते हैं। जिस प्रकार धर्म-साधन के लिए ममता- मूर्छा रहित होकर शरीर धारण किया जाता है, उसी प्रकार वस्त्र आदि आवश्यक उपकरण भी धर्म-साधन की भावना से रखना अनुचित नहीं है। बिना किसी प्रकार की ममता-मूर्छा के इन्हें केवल साध्य की सिद्धि के लिए उपकरण मात्र समझ कर रखना चाहिये ।” इस प्रकार प्राचार्य ने उसे प्रमाणपुरस्सर अनेक युक्तियों से समझाया पर शिवभूति अपने प्राग्रह पर डटा रहा और उसने वस्त्रादि सभी उपकरणों का परित्याग कर नग्नत्व स्वीकार कर लिया। वह अपने गुरू और साधु परिवार से मनग नगर के बाहर एक उद्यान में रहने लगा! शिवभूति की उत्तरा नाम की एक पहिन भी अपने भाई का अनुगमन कर दीक्षित हो गई। पर उसने फिर वस्त्र धारण कर लिया। इस प्रकार शिवभूति, जिनको सहस्रमल्ल भी कहते हैं, उनसे श्वेताम्बर परम्परानुसार दिगम्बर मत की उत्पत्ति मानी गई है। शिवभूति के कोण्डिन्य पौर कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए और इस प्रकार शिवभूति से वोटिक मत की परम्परा चली। श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रंथों में प्रायः ऐसा ही मिलता-जुलता उल्लेख है। श्वेताम्बर परम्परा में जिस प्रकार वीर नि० सं० ६०६ में दिगम्बर मत की उत्पत्ति बताई गई है, उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में वीर नि० सं०६०६ में सेवरसंघ-श्वेतपट संघ (श्वेताम्बर संघ) की उत्पत्ति की बात कही गई है। ' (क) रहबीरपुरं नगरं, दीवगमुजाणमज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुबहिम्मि, पुच्छा थेराण कहणा य ।।२५५१।। गोरिय सिवभूईमो, बोरियलिंगस्स होइ उप्पत्ति। कोरिष-कोट्टवीरा, परम्पराफासमुप्पना ।।२५५१।। [विशेषावश्यक भाष्य, वृ० वृ०, पृ० १०२०] (0) पापक पूणि-उपोदनात नियुक्ति, पृ. ४२७-२८ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन में सं० भेद] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र भावसंग्रह के रचनाकार देवसेनसूरि ने लिखा है - "विक्रमादित्य की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में श्वेतपट-श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई।'' देवसेन सूरि ने इस सम्बन्ध में विशेष परिचय देते हए लिखा है- "विक्रम की दूसरी शताब्दी में निमित्त ज्ञानी भद्रबाह ने अपने श्रमसंघ से कहा कि निकट समय में ही १२ वर्ष का दुभिक्ष होने वाला है अतः आप लोग अपने संघ के साथ देशान्तर में चले जायं । सभी गणधर भद्रबाह के वचनानुसार अपने-अपने साधु.. समुदाय को लेकर दक्षिण की ओर विहार कर गये पर शान्ति नाम के एक प्राचार्य ने अपने बहुत से शिष्यों के साथ सौराष्ट्र प्रदेश की वल्लभी नगरी की ओर प्रस्थान किया, जहां उन्हें भयंकर दुष्काल का सामना करना पड़ा। वल्लभी में घोर दुष्काल के कारण ऐसी बीभत्स स्थिति उत्पन्न हो गई कि क्षुधातुर रंक लोग दूसरों के पेट चीर-चीर कर उसमें से सद्यःभुक्त अन्न निकाल कर अपनी भूख की ज्वाला मिटाने लगे। तत्कालीन भयङ्कर स्थिति से विवश होकर प्राचार्य शान्ति के साधु दण्ड, कम्बल, पात्र और आवरण हेतु वस्त्र धारण करने लगे। वे वसतियों में इच्छानुसार जाकर और वहां गृहस्थों के घर बैठ कर भोजन करने लगे। जब दुष्काल समाप्त हुआ तो प्राचार्य शान्ति ने संघ के सभी साधुओं को सम्बोधित कर कहा- "अब सुभिक्ष हो गया है अतः इस हीन प्राचार को छोड़ दो और दुष्कर्म की आलोचना कर सच्चे श्रमणधर्म को ग्रहण करो।" - इस पर.उनके शिष्यों ने कहा- "उस प्रकार के कठोर प्राचार आज कौन पाल सकता है? इस समय हम लोगों ने जो मार्म ग्रहण किया है, वस्तुतः यह सुखकर है अतः इसको छोड़ना हमारे लिए सम्भव नहीं।" __ जब प्राचार्य शांति ने अधिक कहा तो उनके मुख्य शिष्य ने उनके सिर पर डण्डे से भरपूर प्रहार किया। उससे प्राचार्य शान्ति की तत्काल मृत्यु हो गई और वे व्यन्तर रूप से उत्पन्न हुए।"२ . भावसंग्रह में प्राचार्य देवसेन ने शान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्र से ही श्वेतपट्ट संघ की उत्पत्ति बताई है। - रत्ननन्दी के "भद्रबाहु चरित्र" में और हरिषेण के "वृहत्कथाकोष" में भी थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति का कुछ इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। वहां स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र के साधु से श्वेताम्बर मत के प्रचलित होने की बात कही गई है। ___वृहत्कथाकोष में बताया गया है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुतकेवली भद्रबाहु की प्राशानुसार कुछ साधु विशाखाचार्य के साथ दक्षिण के पुन्नाट प्रदेश में चले गये ' छत्तीसे वरिससए, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्पण्णो सेवडो संघो हु वलहीए ।।१२।। - [भावसंग्रह] २ भावसंग्रह, गा० ५३ से ६५ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन शासन में सं० भेद तथा रामिल्ल, स्थलाचार्य और स्थूलभद्र अपने-अपने साधुसंघ के साथ सिन्धु प्रदेश की ओर गये । रामिल्ल आदि को भयंकर दुष्काल का सामना करना पड़ा। वे श्रद्धालु श्रावकों के भाग्रह से भिखारियों के संकट से बचने के लिए वहां रात्रि में भिक्षा लेने जाते मोर उसे दिन में खा लिया करते थे। श्रावकों की प्रार्थना से वे बांयें स्कन्ध पर एक वस्त्र भी रखने लगे। दुष्काल के पश्चात् दोनों ओर के श्रमरणसंघों का मध्यप्रदेश में पुनः मिलन हुम्रा । उस समय रामिल्ल, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र ने तो भवभ्रमण के भय से त्रस्त हो वस्त्र का त्याग कर निर्ग्रन्थ रूप धारण कर लिया।' पर कुछ साधु जो कष्ट सहने से घबराते थे, उन्होंने जिनकल्प और स्थविरकल्प की कल्पना कर निर्ग्रन्थ परम्परा से विपरीत स्थविर कल्प को प्रचलित किया । इसमें यह नहीं बताया गया है कि स्थूलाचार्य आदि प्राचार्यों में से किस प्राचार्य के किस शिष्य से श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति हुई। - रत्ननन्दी ने अपने “भद्रबाहु चरित्र" में अर्द्धफालक मत से श्वेताम्बर उत की उत्पत्ति बताई है। उनके अनुसार वल्लभीपुर के महाराज लोकपाल ने महारानी चन्द्रलेखा की प्रार्थना पर उज्जयिनी में विराजमान उसके गुरू जिनचन्द्र को वल्लभी बुलवाया। जिनचन्द्र के शरीर पर मात्र एक वस्त्र देख कर वल्लभी नरेश असमंजस में पड़ गया और उन्हें बिना वन्दन-नमन किये ही अपने राजप्रासाद की ओर लौट गया। तब रानी ने अपने पति के भावों को समझ कर जिनचन्द्र मुनि के पास वस्त्र भेज कर उन्हें वस्त्र धारण करने की प्रार्थना की। साधुनों द्वारा वस्त्रधारण की बात सुन कर राजा ने भक्तिसहित उनका पूजन किया। उसी दिन से श्वेत वस्त्र धारण करने के कारण अर्द्धफालक मत श्वेताम्बर मत के नाम से प्रसिद्ध हुआ और यह श्वेताम्बर मत विक्रम नृपति की मृत्यु से १३६ वर्ष पश्चात् प्रचलित हुप्रा।' ' रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी। महावैराग्य सम्पन्ना, विशाखाचार्यमाययुः ।।६।। स्यक्त वादकपटं सद्यः, संसारात्त्रस्तमानसाः । नग्रंन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः ॥६६।। [वृहत्कथाकोष, कथानक १३१, पृ. ३१८, ३१६] ३ इष्टं न यगुरोर्वाक्यं, संसारागवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च, विधाय द्विविधं भुवि ॥६॥ प्रद फालकसंयुक्तमझातपरमार्थकः । तैरिदं कल्पितं तीर्थ, कातर शक्तिवजितः ॥१८॥ धृतानि श्वेतवासांसि, तहिनासमजायत । श्वेतांबरमतं ख्यातं, ततोऽळफालकमतात ॥५४॥ मते विक्रमभूपाले, षट्त्रिंशदषिके हते। गतेदानामभूल्लोके, मतं श्वेताम्बराभिषम् ॥५॥ गवाह परिस, (warsion Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन में सं० भेद] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य रेवती नक्षत्र ६१३ दिगम्बर परम्परा के. ग्रन्थों भावसंग्रह, वृहत्कथाकोष और रत्ननन्दी के भद्रबाहु चरित्र - इन तीनों में भिन्न-भिन्न प्रकार से श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति का उल्लेख उपलब्ध होता है। श्वेताम्बर परम्परा में बोटिक मत (दिगम्बर मत) की उत्पत्ति के वर्णन में विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूरिण और स्थानांग आदि में मूल घटना की पूर्णरूपेण समानता और वैषम्यरहित मनःस्थिति का परिचय मिलता है, जबकि दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में विविधरूपता व विषम मनस्थिति की प्रतिध्वनि प्रकट होती है। दोनों परम्पराओं के ग्रंथों के एतद्विषयक उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि वीर नि० सं० ६०६ अथवा ६०९ के लगभग श्वेताम्बर-दिगम्बर का सम्प्रदायभेद प्रकट हुआ' दिगम्बर परम्परा में संघमेद श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर - ये चार शाखाएं और विविध कुल प्रकट हुए। इसी प्रकार. दिगम्बर परम्परा में भी काष्ठा संघ, मूल संघ, माथुर संघ और गोप्य संघ आदि अनेक संघ तथा नन्दीगण, बलात्कार गण एवं शाखाओं के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। उसका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है। दिगम्बर परम्परा के साहित्यकारों का ऐसा मंतव्य है कि भगवान् महावीर के निर्वाणानन्तर प्राचार्य अर्हबलि तक मूलसंघ अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। परन्तु वीर नि० सं० ५६३ में जब प्राचार्य अर्हबलि ने पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के अवसर पर महिमा नगर में एकत्रित किये गये महान् यति - सम्मेलन में प्राचार्यों एवं साधुओं में अपने २ शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपात देखा तो उन्होंने मूल संघ को अनेक भागों में विभाजित कर दिया। तत्पश्चात् मूलसंघ के वे सब भाग स्वतंत्र रूप से अपना-अपना पृथक् अस्तित्व रखने लगे। उन्होंने उस समय जिन संघों का निर्माण किया, उनमें से कतिपय के नाम इस प्रकार हैं :१. नन्दिसंघ ६. भद्र संघ २. वीर संघ ७. गुरगधर संघ ३. अपराजित संघ. ८. गुप्त संघ ४. पंचस्तूप संघ ६. सिंह संघ ५. सेन संघ १०. चंद्र संघ इत्यादि 'यही समय भार्य रक्षित का भी है। [सम्पादक] २ यह सम्मेलन मुख्य रूप से किस उद्देश्य को लेकर किया गया, इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता [सम्पादक] २ धवला, भाग १, प्र. १४ । Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दि० परम्परा में संघभेद दिगम्बर परम्परा के कतिपय मान्य ग्रन्थों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जिनमें बताया गया है कि भिन्न-भिन्न समय में होने वाले अनेक संघों में से कतिपय संघों में शिथिलाचार व्याप्त हो गया प्रतः उन संघों की जैनाभासों में गणना की जाने लगी। प्राचार्य देवसेन ने इस प्रकार के पांच संघों की उत्पत्ति का उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं : १. द्राविड़ संघ, २. यापनीय संघ, ३. काष्ठा संघ, ४, माथुर संघ और ५. भिल्लक संघ । आचार्य नंदि ने अपने नीतिसार नामक ग्रन्थ में १. गोपुच्छक, २. श्वेताम्बर, ३. द्राविड़, ४. यापनीय, ५. निष्पिच्छिक -ये ५ जैनाभास बताये हैं।' इनमें गोपुच्छक अर्थात् काष्ठा संघी और निष्पिच्छिक-माथर संघीये, दोनों देवसेन के अनुसार जैनाभासी कहे गये हैं। परन्तु प्रेमीजी के अनुसार इनका मूल संघ से अधिक पार्थक्य नहीं है, जिससे कि उनको जैनाभासी कहा जा सके। सब संघों का परिचय दिया जाना कठिन होने के कारण यहाँ केवल उन्हीं संघों का उल्लेख किया जा रहा है, जिनकी कि शास्त्रीय उल्लेखों (दि. प. के ग्रन्थों) के आधार पर खोज हो सकती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं: १. अनन्तकीर्ति संघ, २. अपराजित संघ, ३. काष्ठा संघ, ४. गुणधर संघ, ५. गुप्त संघ, ६. गोपुच्छ संघ, ७. गोप्य संघ, ८. चन्द्र संघ, ६. द्राविड़ संघ १०. नंदी संघ, ११. नंदीतट संघ, १२. निष्पिच्छिक संघ, १३. पंचस्तूप संघ, १४. पुन्नाट संघ, १५. बागड़ संघ, १६. भद्र संघ, १७. भिल्लक संघ, १८. माघनन्दि संघ, १६. माथुर संघ, २०. यापनीय संघ, २१. लाडबागड़ संघ, २२. वीर संघ, २३. सिंह संघ, और २४. सेन संघ । दिगम्बर परम्परा के अनुसार मूल संघ में से ही उत्तरोत्तर अन्य सर्व संघों की उत्पत्ति मानी गई है। अतः मूल संघ को भिन्न न मान कर सामान्य दिगम्बर संघ का नाम ही बताया गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् वीर के पश्चात् ३८३ वर्ष की प्रागम-प्रसिद्ध प्राचार्य परम्परा बताई गई है। वीर नि० सं० ३८३ के पश्चात् ५६५ तक के प्राचार्यों का उल्लेख नहीं मिलता। ३८३ के पश्चात् ५६४ में संघ-विभाजन किस प्रकार हुमा और आगे की प्राचार्य परम्परा किस रूप में चली, इसे बताने के लिए एक काल्पनिक वृक्ष बना कर बताया गया है। उसमें सर्व प्रथम वीर नि० की छठी सातवीं शताब्दी के प्राचार्य माघनन्दी, धरसेन और गुणधर के नाम दिये गये हैं। इनका काल वीर नि० सं० ५६५ से ६७३ तक का माना गया है। माचार्य महंदबलि ने वीर नि० सं० ५६३ में मूल संघ से जिन संघों का विभाजन किया, उनके अतिरिक्त भी उत्तर काल में कई संघ प्रकट हुए पोर ' योपुग्छक: श्वेतवासा, द्रविणे, यापनीय निष्पिच्छश्चेति पंच जैनामासाः। [नीतिसार] - Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि० परम्परा में संघभेद] सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य रेवती नक्षत्र ६१५ श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी शाखाओं और कुलों का काफी विस्तार फैला । श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों की ऋमिक पट्ट-परम्परा और आगमवाचना का स्पष्ट परिचय उपलब्ध नहीं होता। संभव है इस प्रकार का, ऋमिक पट्ट-परम्परा के लेखन का प्रयास ही नहीं हुमा हो। यापनीय संघ वर्तमान समय में जैन समाज में श्वेताम्बर और दिगम्बर -ये दो सम्प्रदाय ही मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं पर पूर्व काल में 'यापनीय संघ' नामक एक तीसरा सम्प्रदाय भी भारतवर्ष में एक बड़े संघ के रूप में विद्यमान था। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले अनेक पुष्ट प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। यापनीय संघ किस समय अस्तित्व में प्राया, इस संघ का आदि संस्थापक कौन था तथा इसका अस्तित्व किन परिस्थितियों में, किस समय उठ गया, इस विषय में पुष्ट प्रमारणों के अभाव के कारण निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी यापनीय संघ के सम्बन्ध में यत्र-तत्र जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी से चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक 'यापनीय संघ' जैन धर्म के एक सम्प्रदाय के रूप में आर्यधरा पर विद्यमान रहा। यापनीय संघ के आपुलीय संघ और गोप्य संघ - इन दो और नामों का भी उल्लेख मिलता है। ___यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जहां कतिपय श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि दिगम्बर सम्प्रदाय से यापनीय संघ की उत्पत्ति हुई, वहां 'भद्रबाहु चरित्र' के रचनाकार प्राचार्य रत्ननन्दी ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय से इसकी उत्पत्ति होना बताया है। · श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्य मलधारी राजशेखर ने अपने ग्रन्थ 'षड्दर्शनसमुच्चय' में गोप्य संघ अर्थात यापनीय संघ को दिगम्बर परम्परा का एक भेद बताते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है : दिगम्बराणां चत्वारो, भेदा नाग्न्यव्रतस्पृशः । काष्ठासंघो मूलसंघः, संघो माथुरगोप्यको ॥२१ . प्राचार्य रत्ननंदी ने 'भद्रबाहु चरित्र' में उल्लेख किया है कि विक्रम संवत् १३६ (वीर नि.सं. ६०६) में सौराष्ट्र के वल्लभी नगर में श्वेताम्बरों की उत्पत्ति हुई' और कालान्तर में श्वेताम्बरों से करहाटाक्ष नगर में यापनीय संघ की उत्पत्ति हुई। मृते विक्रम भूपाले, षट्त्रिंशदधिके शते । गतेऽब्दानामभूल्लोके, मतं श्वेताम्बराभिधम् ॥५५।। [भद्रबाहुचरित्र, रत्ननंदी, ४ परिच्छेद] २ तदातिवेलं भूपाद्य:, पूजिता मानिताच तः । घृतं दिग्वाससा रूपमाचारः सितवाससाम् ॥१५३।। गुरु शिक्षातिगं लिंगं, नटवद् भण्डिमास्पदम् । ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम् ॥१५४।।' Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग यापनीय संघ दिगम्बराचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' नाम की अपनी छोटी-सी पुस्तक में श्रीकलश नामक श्वेताम्बर आचार्य से विक्रम सं० २०५ में यापनीय संघ की उत्पत्ति होने का उल्लेख इस प्रकार किया है : कल्लाणे वरणयरे, दुण्णिसए पंच उत्तरे जादे । जावरिणय संघ भावो, सिरिकलसादो हु सेवड़दो ।।२६।। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय जैन श्रमणसंघ श्वेताम्बर और दिगम्बर रूप में विभक्त हुआ, लगभग उसी समय में यापनीय संघ का भी मध्यममार्गावलम्बीसमन्वयवादी परम्परा के रूप में प्रादुर्भाव हुआ हो। दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार श्वेताम्बर दिगम्बर भेद के ६६ वर्ष पश्चात् यापनीय संघ की उत्पत्ति मानी गई है। स्व. श्री नाथूराम 'प्रेमी' ने तीनों परम्पराओं की एक ही समय में उत्पत्ति होने की संभावना प्रकट करते हुए अपने ग्रन्थ- 'जैन साहित्य और इतिहास' में लिखा है-"यदि मोटे तौर पर यह कहा जाय कि ये तीनों ही सम्प्रदाय लगभग एक ही समय के हैं, तो कुछ बड़ा दोष न होगा। विशेष कर इसलिए कि संप्रदायों की उत्पत्ति की जो तिथियां बताई जाती हैं, वे बहुत सही नहीं हुआ करतीं।"" यापनीय शब्द के अर्थ सम्बन्धी सभी पहलुओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर भी इस प्रश्न का कोई संतोषप्रद संगत उत्तर नहीं मिलता कि इस संघ का नाम 'यापनीय संघ' किस अभिप्राय से रखा गया। इस सम्बन्ध में पन्यास श्री कल्याणविजयजी का अभिमत ही तर्कसंगत प्रतीत होता है। मुनिश्री ने अपने ग्रन्थ 'पट्टावली पराग संग्रह में लिखा है कि जिस प्रकार मरुधरा के यति परस्पर मिलते एवं विछूड़ते समय 'मत्थएण वंदामि' कहकर एक-दूसरे का अभिवादन करते थे, इस कारण यतिसमूह का नाम ही जनसाधारण द्वारा 'मत्थे।' रख दिया गया तथा वर्ष में एक बार लुंचन करने वाले साधु समुदाय का-कूचिक की तरह उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी-मूछ देखकर कूचिक नाम रख दिया गया, ठीक उसी प्रकार यापनीयों द्वारा गुरुवन्दन के समय 'जावरिणज्जाए' शब्द का कुछ उच्च स्वर में प्रयोग किये जाने के फलस्वरूप संभवतः जनसाधारण ने उस साधुसमूह. का नाम यापनीय रख दिया हो। यद्यपि आज भारतवर्ष में यापनीय संघ का कहीं अस्तित्व नहीं है और न इस संघ का कोई अनुयायी ही है, तथापि उपलब्ध अनेक उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि भारत में लगभग बारह सौ-तेरह सौ वर्षों तक एक प्रमुख धर्म-संघ के रूप में रहे हुए यापनीय संघ का सर्वांगपूर्ण साहित्य विद्यमान था। प्राचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'ललित विस्तरा' में यापनीयतन्त्र का उल्लेख किया है, इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि यापनीयों का अपना समृद्ध साहित्य किसी समय यहां विद्यमान था। ' जन साहित्य और इतिहास, पृ० ५६ । Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापनीय संघ] सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य रेवती नक्षत्र यापनीय प्राचार्य शाकटायन अपरनाम 'पाल्यकीति' द्वारा रचित 'ममोघवृत्ति', 'स्त्रीमुक्ति-प्रकरण', 'केवलि-भुक्ति प्रकरण', यापनीय आचार्य अपराजित द्वारा भगवती 'पाराधना' पर लिखी गई विजयोदया टीका आदि ग्रन्थ प्राज भी उपलब्ध हैं। स्वर्गीय दिगम्बर विद्वान् श्री नाथूराम प्रेमी ने भगवती 'पाराधना' के रचयिता शिवार्य को यापनीय प्राचार्य और उनकी रचना भगवती 'पाराधना' को प्रमाण पुरस्सर यापनीय संघ का धर्मग्रन्थ सिद्ध करते हुए लिखा है कि मूलाराधना की अनेक गाथाएं दिगम्बर मान्यता से मेल नहीं खातीं और उसमें उद्त कल्पव्यवहार आदि श्रुतशास्त्र, अधिकांश गाथाएं एवं मेतार्य मुनि का पाख्यान उसी रूप में दिये गये हैं, जिस रूप में कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं ।' शाकटायन की अमोघवत्ति में दिये गये अनेक उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि यापनीय संघ श्वेताम्बरों के प्रागमग्रन्थों, अावश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, दशवकालिक आदि को अपने प्रामाणिक धर्मग्रन्थ मानता था ।२ यापनीय प्राचार्य अपराजित ने जिस प्रकार अपने यापनीय सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थ भगवती 'पाराधना' पर 'विजयोदया' नाम की टीका की रचना की, उसी प्रकार उन्होंने 'दशवकालिक' सूत्र पर भी 'विजयोदया' नाम की टीका की रचना की थी। इसका उल्लेख स्वयं अपराजित ने भगवती 'पाराधना' की गाथा संख्या ११९७ की अपनी 'विजयोदया' टीका में निम्नलिखित शब्दों में किया है : ___'दशवकालिक टीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादि दोषा इति नेह प्रतन्यते'- अर्थात् उद्गमादि दोषों का दशवकालिक की टीका में वर्णन कर दिया गया है अतः यहां पिष्टपेषण नहीं किया जा रहा है। यापनीय प्राचार्य अपराजित का ही दूसरा नाम विजयाचार्य था और उन्होंने ही भगवती 'आराधना' तथा दशवकालिक की 'विजयोदया' टीकाएं लिखीं, इस बात की पुष्टि पं० पाशाधर द्वारा 'अनगार प्राभृत टीका' के पृष्ठ ६७३ पर लिखे गये इस वाक्य से होती है :- 'एतच्च श्रीविजयाचार्यविरचितसंस्कृतमूलाराधनटीकायां सुस्थितसूत्रे विस्तरतः समर्थितं दृष्टव्यम् । ___ इन सब उल्लेखों से सिद्ध होता है कि यापनीय संघ भी आचारांगादि उन सभी भागमों को अपने धर्मग्रन्थों के रूप में मानता था, जो श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं और जिन्हें दिगम्बर परम्परा विलुप्त हुआ मानती है । उपरोक्त तथ्यों से यह भी अनुमान किया जाता है कि यापनीय भाचार्यों ने दशवकालिक की तरह अन्य भागमों पर भी टीकाओं की रचनाएं की होंगी। अपराजित ने स्थान स्थान ' जैन साहित्य और इतिहास (श्री नाथूराम प्रेमी), पृ. ६८ से ७३ २ (क) एतमावश्यकमध्यापय । इयमावश्यकमध्यापय। [ममोषवृत्ति १-२-२०३-४] (ख) भवता खलु छेद-सूत्रं वोढव्यम् । निर्युक्तीरधीष्य नियुक्तीरधीते। [वही ४-४-११३-४.] (ग) कालिकसूत्रस्यानध्यायदेशकालाः पठिताः । [वही ३-२-४७] (१) प्रथो अमाश्रमरणस्त ज्ञानं बीयते [पही १-२-२०१] Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [यापनीय संघ पर अपने पक्ष की पुष्टि में प्राचारांग, उत्तराध्ययन आदि श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रागमों के उद्धरण प्रमाण के रूप में दिये हैं', इससे इस बात में किंचित्मात्र भी सन्देह नहीं रह जाता कि यापनीय संघ आचारांगादि आगमों को अपने प्रामाणिक धर्मग्रन्थ मानता था। यापनीयों की मान्यताओं के सम्बन्ध में दर्शनप्राभृत की टीका में श्रुतसागर ने लिखा है - "यापनीयास्तु वेसरा इव उभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति ।" षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में गुणरत्न ने यापनीयों के सम्बन्ध में लिखा है - "यापनीय संघ के मुनि नग्न रहते हैं, मोर की पिच्छी रखते हैं, पाणितल भोजी हैं, नग्न मूर्तियों की पूजा करते हैं तथा वन्दना करने पर श्रावकों को 'धर्मलाभ' कहते हैं।" प्राचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ ललितविस्तरा में यापनीयतन्त्र का एक उद्धरण दिया है। यद्यपि आज 'यापनीय-तन्त्र' कहीं उपलब्ध नहीं पर उस उद्धरण से ऐसा प्रतीत होता है कि आगमों के अतिरिक्त यापनीय संघ का एक ऐसा ग्रन्थ भी पूर्वकाल में विद्यमान था, जिसमें यापनीय संघ की मुख्य-मुख्य मान्यताओं को सहजसुबोध प्राकृत भाषा में संकलित किया गया था। वह उद्धरण इस प्रकार है :' (क) अथवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तत्कथं ? (ख) प्राचार प्रणिधो भणितं । - (ग) प्रतिलेखेत्पात्रकम्बलें ध्र वमिति प्रसत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्र वं क्रियते ? (घ) प्राचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो लोक विचयोनाम, तस्य पंचमे उद्देशे एवमुक्तम् - "पडिलेहणं पादपुंछणं उग्गहं कदासणं अण्णदरं उवधि पावेज्ज । (ङ) वत्थेसणाए वृत्तं तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज, पडिलेहणं बिदियं । एत्थ एसे जुग्गिदे देसे दुवे वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं तिदियं । एत्य एसे परिस्सहं अणधिहासस्स तगो वत्यारिण धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं । (च) पुनश्वोक्त तत्रव - "मालाबुपत्तं वा दारुगपत्तं वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपारणं अप्पबीज अप्पसरिदं तहा अप्पाकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिसामीति" वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्य कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते ? (छ) परिसं चीवरधारी तेन परमचेलगो जिणो। (ज) ण कहेज धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिदि । (झ) कसिणाई वत्यकंबलाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहगं इदि । (ब) द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं पाचारांगे विद्यते - "प्रह पुण एवं जाणेज्ज - पातिकते हेमंतेहिं सुपडिवण्णे से अथ पडिजुण्णमुवधि पदिट्ठावेज्ज।" [भगवती 'माराधना' की गाथा सं० ४२७ की अपराजित द्वारा रचित विजयोदया टीका] Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापनीय संघ] सामान्य पूर्वघर-काल : पार्य रेवती नक्षत्र "स्त्रीमुक्ती यापनीयतन्त्रप्रमारणम् - यथोक्त यापनीयतन्त्रे - "रणो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अभव्वा, रण यावि दंसरण विरोहिणी, गो प्रमाणुसा, गो प्रणारि (य) उप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, गो प्राइकरमई, णो ण उवसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ववसायवज्जिया, णो अपुवकरण विरोहिणी, पो गवगुणदाणरहिया, णो अजोग्गा लद्धीए, गो अकल्लाण भायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति । [ललित विस्तरा, पृ० ४०२] यापनीय संघ का कर्नाटक और उसके पड़ोस-पड़ोस के क्षेत्रों में बड़ा प्रभाव था । इस तथ्य की कदम्बवंश एवं अन्य राजवंशों के राजाओं द्वारा ई० सन् ४३५४७५ के मासपास यापनीय संघ को दिये गये भूमिदान के दानपत्र साक्षी देते हैं।' यापनीय संघ का जो थोड़ा बहुत परिचय विभिन्न ग्रन्थों से उपलब्ध होता है, उससे यह प्रमाणित होता है कि यह संघ पूर्वकाल में एक प्रभावशाली संघ रहा है। कागवाड़ा जैनमंदिर के भौहरे में विद्यमान शक सं० १३१६ (वि० सं० १४५१) के शिलालेख में यापनीय आचार्य नेमिचन्द्र को 'तुलुवराज्यस्थापनाचार्य' की पदवी से विभूषित बताया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि विक्रम की १५वीं शताब्दी तक यापनीय संघ राजमान्य सम्प्रदाय रहा है। ऐसी स्थिति में यदि प्रयास किया जाय तो यापनीय संघ और उसके साहित्य के सम्बन्ध में विपुल सामग्री एकत्रित की जा सकती है। आशा है शोधप्रिय इतिहासविद् इस दिशा में अवश्य प्रयास करेंगे। - २१. प्रार्य वज्रसेन - युगप्रधानाचार्य वीर नि० सं० ४६२ में आर्य वज्रसेन का जन्म हुआ। आपने ६ वर्ष की वय में वीर नि० सं० ५०१ में श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। ११६ वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में रहते हुए आपने आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। वीर नि० सं० ६१७ में आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के पश्चात् आप युगप्रधान पद पर अधिष्ठित किये गये। मापके जन्मस्थान एवं कुल आदि का कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता फिर भी इतना असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि आपने आर्य वज्र से पूर्व प्रार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा ग्रहण की थी। विशिष्ट प्रतिभा और विद्यातिशय सम्पन्न होने के कारण प्रार्य वज्र को आर्य सिंह ने अपनी विद्यमानता में ही माचार्य पद का कार्यभार सम्हला दिया और स्वर्गवास के समय उन्हें विधिवत् प्राचार्यपद प्रदान किया। सम्भव है आर्य वज्र के ज्ञानातिशय के सम्मान हेतु वज्रसेन ने उनकी विद्यमानता में प्राचार्यपद स्वीकार नहीं किया हो। आवश्यक चूणि आदि के उल्लेख से इनका आर्य वज्र के साथ गुरु-शिष्य का सा सम्बन्ध प्रतीत होता है। जैसा कि आर्य वज्र द्वारा ५०० साधुओं के साथ ' दाण्डेकर की - History of the Guptas, page 87-91 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य वयसेन-युगप्र. अनशन करने से पूर्व मावो दुर्भिक्ष की समाप्ति के पूर्वलक्षण के रूप में सोपारक के श्रेष्ठी जिनदत्त के यहां बहुमूल्य अन्न में विष मिलाने की वज्रसेन को दी गई पूर्व-सूचना से प्रमाणित होता है । इस प्रकार दीक्षा-पर्याय से कनिष्ठ होने पर भी ज्ञानपर्याय की ज्येष्ठता एवं श्रेष्ठता की दृष्टि से प्रार्य वज्र ही दश पूर्वधर होने के कारण प्राचार्य पद के लिए सर्वाधिक योग्य माने गये हों । वीर नि० सं०५८४ में प्रार्य वषसेन गणाचार्य घोषित किये गये और दश से कुछ कम पूर्व के ज्ञाता पार्य रक्षित वज के पश्चात वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य नियुक्त किये गये। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रार्य वनसेन संघ-व्यवस्था के कार्यों में कुशल एवं प्रतिभाशाली होकर भी आर्य वन आदि के समान पूर्वज्ञान के विशेषज्ञ नहीं थे। इसी कारण आर्य रक्षित के पश्चात् पूर्वज्ञानी दुर्बलिकापुष्यमित्र को युगप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त करना उपयुक्त माना गया और उस समय तक वनसेन गणाचार्य पद का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। १२ वर्ष के दुष्काल के अन्त में जब विहारक्रम से अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए प्रार्य वचसेन सोपारक नगर में पधारे तब वहां के श्रेष्ठी जिनदत्त और श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी ने अपने चारों पुत्रों के साथ वीर नि० सं० ५९२ में मार्य वज्रसेन के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की। जिनदत्त के चार पुत्रों में से नागेन्द्र से नागेन्द्रगच्छ, नाइली शाखा, चन्द्रमुनि से चन्द्रकुल, विद्याधर मुनि से विद्याधर कुल तथा निर्वृत्ति मुनि से निर्वृति कुल- इस प्रकार ये चार मुख्य कुल प्रकट हुए। __ श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वज्रसेन के समय में ही वीर नि० सं० ६०६ में प्राचार्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति से दिगम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ। इसका विस्तृत परिचय "संप्रदायभेद" नामक शीर्षक के नीचे दिया जा चुका है। वीर नि० सं० ६१७ में दुर्बलिका पुष्यमित्र के स्वर्गवासानन्तर, मार्य वषसेन युगप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त हुए। तीन वर्ष तक सुचारू रूप से युगप्रधानाचार्य पद से जिनशासन की सेवा कर आपने वीर नि० सं० ६२० में १२८ वर्ष की सुदीर्घायु पूर्ण कर स्वर्गारोहण किया। १५. प्रायं चन्द्र - गणाचार्य आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् भारद्वाज गोत्रीय पार्य वषसेन एक बार विहारक्रम से सोपारक नगर पधारे। वहां पर सल्हड़ गोत्रीय श्रेष्ठी जिनदत्त अपनी पत्नी ईश्वरी एवं परिवार के साथ रहता था। संयोगवश आर्य वनसेन भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए श्रेष्ठी जिनदत्त के घर पहुंचे। उस समय दुष्काल का प्रकोप अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। खाद्यान्नों का सर्वत्र पूर्ण प्रभाव था। अतुलं सम्पत्ति के होते हुए भी धान्याभाव में भूख से तड़प-तड़प कर अपने कुटुम्ब के मरने की कल्पना से जिनदत्त सिहर उठा। अपनी पत्नी से परामर्श के Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘प्रार्य चन्द्र-गणाचार्य] सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य रेवती नक्षत्र ६२१ पश्चात् उसने भूख से छटपटाकर मरने के स्थान पर सकुटुम्ब विषमिश्रित भोजन कर एक साथ इहलीला समाप्त करने का निश्चय किया। विष मिलाने के लिये एक समय की भोजन-सामग्री जुटाना भी बड़ा कठिन कार्य था । श्रेष्ठी जिनदत्त ने एक लाख रुपये व्यय कर येन-केन-प्रकारेण एक समय की भोजन-सामग्री जुटाई। जिस समय आर्य वज्रसेन श्रेष्ठी जिनदत्त के घर में भिक्षार्थ पहुंचे, उस समय श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी भोजन में विष मिलाने का उपक्रम कर रही थी। लक्ष रोप्यक मूल्य के भोजन में ग्रह-स्वामिनी को विष का मिश्रण करते देख आर्य वज्र सेन को उन्हें आर्य वज्र द्वारा कहा गया भविष्य कथन स्मरण हो पाया। उन्होंने शान्त एवं गम्भीर स्वर में गृहस्वामिनी ईश्वरी से कहा - "सुभिक्षं भावि सविषं, पाकं मा कुरु तद्वथा ।' श्राद्ध! अब दुष्काल का अन्त सन्निकट है। तुम भोजन में विष मत मिलायो। कल तक प्रचुर मात्रा में अन्न उपलब्ध होने लगेगा।" 'परोपकारैकव्रती महापुरुषों के वचन अन्यथा नहीं होते।' इस दृढ़ विश्वास के साथ श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी ने तत्काल प्रस्तुत भोजन मुनिराज को बहरा कर संतोषानुभव किया। आर्य वज्रसेन के कथनानुसार दूसरे ही दिन धान्य से भरे पोत सोपारक नगर पहुंचे। भूख से पीड़ित दुष्कालग्रस्त निराश लोगों में जीवन की नवीन आशा का संचार हुआ । आवश्यकतानुसार सबको अन्न मिलने लगा । यह देखकर श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी बड़ी प्रसन्न हुई। उसने श्रेष्ठी जिनदत्त से कहा- "कल यदि मुनि ने हमें आश्वस्त नहीं किया होता तो आज हमारे परिवार का एक भी व्यक्ति संसार में दिखाई नहीं देता। हम सब के सब यमराज के अतिथि बन चुके होते। श्रमणश्रेष्ठ ने हम सब को जीवन-दान दिया है। ऐसी स्थिति में क्यों न हम सभी जिनधर्म की शरण ग्रहण कर अपने-अपने जीवन को सफल कर लें।" श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी का परामर्श सब को रुचिकर लगा और श्रेष्ठिदम्पती ने अपने चारों पुत्रों चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर के साथ समस्त वैभव का त्याग कर निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। चन्द्र, नागेन्द्र आदि चारों मुनियों ने विनयपूर्वक क्रमशः अंग शास्त्रों एवं पूर्वो को अध्ययन किया और वे चारों प्राचार्य पद के योग्य बने। 'प्रभावक चरित्र, प्रथम प्र., श्लो. १९१ २ एवं जाते च संध्याया, बहित्राणि समाययुः । प्रशष्य शष्यपूर्णानि, जलदेशान्तराध्वना ।।१६३।। प्रभावक च., वज ।। ३ सुभिक्षं तत्क्षणं जज्ञे, ततः सा सपरिच्छदा । अचिन्तयदहो मृत्यु, भविष्यदरी ततः ।। जीवितव्यफलं किं न, गृह्यते संयमग्रहात् । वज्रसेनमुनेः पार्वे, जैनबीजस्य सद्गुरोः ।। ध्यात्वेति सा सपुत्राहि, व्रतं जग्राह साग्रहं ।...... [जन साहित्य संशोधक, खंड २, अंक ४ में प्रकाशित विचार श्रेणि, परिशिष्ट, पृ.१०] Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य चन्द्र-गणाचार्य ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य वज्रसेन ने अपनी विद्यमानता में ही अपने इन चारों शिष्यों को पृथक्-पृथक् श्रमण-समुदाय सम्हला कर प्राचार्य पद पर नियुक्त कर दिया था। आर्य चन्द्र से चन्द्रकुल, आर्य नागेन्द्र से नाइली शाखा (नागेन्द्रकुल), प्रार्य निर्वत्ति से निर्वत्ति कुल और आर्य विद्याधर से विद्याधर नामक ४ कुल प्रकट हुए।' चन्द्रकुल ही आगे चल कर चन्द्र गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कतिपय प्राचार्यों ने आर्य चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृति और विद्याधर-इन चारों को किंचिदून १० पूर्वो का ज्ञाता बताया है। चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित पट्टावली एवं टिप्परणों में इस प्रकार के उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं कि चन्द्र, नागेन्द्र आदि चारों प्राचार्यों में से प्रत्येक ने अपनेअपने सुविशाल शिष्य-समूह में से २१-२१ सुयोग्य श्रमणों को पृथक-पृथक रूप से प्राचार्य पदों पर नियुक्त किया, जिन से वीर नि. सं. ६११ में ४ गणों और ८४ गच्छों की उत्पत्ति हुई। __ गहराई से सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ८४ गच्छों की उत्पत्ति विषयक इस प्रकार का उल्लेख केवल इन चारों गच्छों का महत्त्व बढ़ाने की दृष्टि से किया गया है। इसमें यथार्थता होती तो उपाध्याय धर्मसागर 'तपागच्छ पदावली' में- "तस्माच्च क्रमेणानेक गरणहेतवोऽनेके सूरयो बभूवांसः'४ - इस प्रकार का प्रनिश्चित उल्लेख नहीं करते। इसके अतिरिक्त यदि इन ४ गरणों से ८४ गच्छ उत्पन्न हए होते तो उनमें से थोड़े बहत गच्छों का नामोल्लेख भी पट्टावली में अवश्य किया जाता। यही नहीं, अज्ञातकत्र्तक कुछ श्लोकों में इन चारों गच्छों के सम्बन्ध में परिचय देते हुए ८४ गच्छों का कोई उल्लेख न कर - . 'अद्यापि गच्छास्तन्नाम्ना, जयिनोऽवनिमण्डले ।'५ - इस पद से केवल इतना ही उल्लेख किया गया है कि उनके नाम से गच्छ आज भी विद्यमान हैं । उपरोक्त उल्लेखानुसार वीर नि० सं० ६११ में ८४ गच्छों की उत्पत्ति होने की बात सही मानी जाय तो पश्चाद्वर्ती काल में होने वाले बड़गच्छ, खरतरगच्छ, ' नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृति, विद्याधराख्यान् चतुरः सकुटुम्बान् इभ्यपुत्रान् प्रवाजितवान् । तेभ्यश्च स्व स्व नामांकितानि चत्वारि कुलानि संजातानीति । [तपागच्छ पट्टावली, भा. १, स्वोपजवृत्ति (प० कल्याण विजयजी) पृ. ७१] २ नागेन्द्रो निर्वृत्तिश्चन्द्रः, श्रीमान् विद्याधरस्तथा ।। प्रभूवंस्ते किचिदनदशपर्वविदस्ततः । चत्वारोऽपि जिनाधीशमतोद्धार धुरंधरा ।। [जन सा. संशोधक, खं. २, अं. ४ में प्रकाशित विचार श्रेणि के साथ का परि. १. १०] 3 आदी चत्वारो गणा, एकस्मिन् एकस्मिन् गच्छे एकविंशति प्राचार्याः स्थापिताः । एवं क्रमेण श्री वीरात् ६११ वर्षे ८४ गच्छा: संजाताः । [वही] ४ तपागच्छ पट्टावली, भा. १, (मुनि कल्याण विजय जी) पृ. ७१ ५ विचाररिण के साथ संलग्न परिशिष्ट, जन सा. सं. खं. २, अंक ४ में प्रकाशित । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य चन्द्र-गणाचार्य ] सामान्य पूर्वधर - काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र ६२३ प्रांचलगच्छ, धर्मघोषगच्छ, आदि ८४ गच्छों को वीर नि० सं० ६११ में हुए ८४ गच्छों से निश्चित रूप से पृथक् मानना होगा। क्योंकि इन ८४ गच्छों में से अनेक गच्छ प्रशस्तियों एवं अन्य उल्लेखों के आधार पर वीर नि० सं० ६११ से कई शताब्दियों पश्चात् उत्पन्न हुए सिद्ध होते हैं। इस प्रकार वीर निर्वारण सं० ६११ में ८४ गच्छों की उत्पत्ति की बात को सही मानने की दशा में गच्छों की संख्या ८४ के स्थान पर १६८ माननी होगी, जिसका कि औचित्य किसी भी दशा में सिद्ध नहीं किया जा सकता। वीर नि० सं० ६११ में जो ८४ गच्छों की उत्पत्ति की बात कही जाती है, उसे इस आधार पर भी विश्वसनीय नहीं माना जा सकती कि उन ८४ गच्छों में से किसी एक गच्छ का नाम भी कहीं उपलब्ध नहीं होता । इन सब तथ्यों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में उत्पन्न होने वाले ८४ गच्छों का स्रोत चन्द्रगच्छ को बता कर इसका महत्व बढ़ाने की दृष्टि से इस प्रकार का उल्लेख किया गया हो । तपागच्छ पट्टावली में श्रापका जन्म वीर नि० सं० ५७६ में, दीक्षा ६१३ में, ७ वर्ष गुरू की सेवा करने और २३ वर्ष तक गरणाचार्य पद से शासन की सेवा करने एवं वीर नि० सं० ६४३ में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख किया गया है' पर तत्कालीन घटनाचक्र के पर्यवेक्षण से एवं सोपारक में दुर्भिक्ष के अन्त में प्रार्य वज्रसेन के पास आपके दीक्षित होने के उल्लेख को देखते हुए वीर नि० सं० ५६२ में आपकी दीक्षा होना संगत प्रतीत होता है । इसी प्रकार तपागच्छ पट्टावली के उपरोक्त उल्लेखानुसार ३७ वर्ष की अवस्था में प्रापके द्वारा दीक्षा ग्रहण करना माना गया है, वह भी ठीक प्रतीत नहीं होता । "जैन परम्परा नो इतिहास" नामक ग्रन्थ में त्रिपुटी ( मुनित्रय) ने आपके वी० नि० सं० ५६२ में दीक्षित होने और ६५० में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख किया है । यदि गरणाचार्य चन्द्र की पूर्णायु ६७ वर्ष और स्वर्गस्थ होने का समय वीर नि० सं० ६४३ सही मान लिया जाय तो उस दशा में उनके जन्म, दीक्षा, प्राचार्यपद प्रादि का समय निम्नलिखित रूप से अनुमानित किया जाना पर्याप्तरूपेण संगत और उचित होगा । जन्म वीर नि० सं० ५७६, दीक्षा ५६३, गणाचार्य पद वीर निं० सं० ६२० में और स्वर्गारोहण वीर नि० सं० ६४३ में । चैत्यवास आर्य सुधर्मा से सामंतभद्रसूरि के पहले के समय तक जैन मुनि अधिकांशतः वनों एवं उद्यानों में ही निवास करते रहे, जैसा कि निरयावलिका सूत्र में सुधर्मा स्वामी के गुरणशील उद्यान में अवग्रह लेकर विचरने का उल्लेख मिलता है । तपागच्छ पट्टावली, स्वोपज्ञ वृत्ति सहित (प० कल्याणविजयजी), पृ० ७६ २ निरयावलिका, १, अ० १ सू० २ 1 Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चैत्यवास भपवाद रूप से भले ही कभी किसी ने वसतिवास किया हो पर उस समय तक साधुनों का प्रायः वन में ही निवास होता था। इतना होते हुए भी वे साधु वनवासी गच्छ के नाम से नहीं अपितु निग्रंथ गच्छ के नाम से ही पहिचाने जाते रहे । इसके पश्चात् सामन्तभद्र का समय आता है । उस समय में सामन्तभद्र का साधुसमुदाय 'वनवासी गच्छ' - इस नये नाम से पुकारा जाने लगा इसके पीछे कोई खास कारण होना चाहिये । सामन्तभद्र ने कोई नवीन रूप से वनवास स्वीकार नहीं किया पर सम्भव है उनके समय में वसतिवास का प्रचार बढ़ चला हो और वनवासी अल्पसंख्या में रहे हों। उस स्थिति में वसतिवास के बढ़ते प्रचार को रोकने के लिए सामन्तभद्र ने वनवास का प्रचार करना प्रारम्भ किया हो। जैसा कि तपागन्छपट्टावलीकार ने उल्लेख किया है : "पूर्वश्रुत के विशारद और वैराग्यनिधि सामन्तभद्र ने शरीर की सुखसुविधा को छोड़ कर निर्ममत्व भाव से देवकुल और वन-उद्यान आदि में ठहरना स्वीकार किया इसलिए वे "वनवासी" नाम से पुकारे जाने लगे।"" सामन्तभद्र द्वारा की गई इस व्यवस्था के लिए कहना चाहिये कि यह एक । प्रकार से त्यागी वर्ग में शिथिलता के प्रवेश को रोकने का एक शुभ प्रयत्न था। पर समय के प्रभाव और मनोबल की मन्दता से साधु-समुदाय में इस प्रकार की कड़ी व्यवस्था अधिक समय तक नहीं चल सकी। प्रभावक चरित्र में मानदेवसूरि के प्रबन्ध में वृद्धदेवसूरि को चैत्यवासी बताया गया है। वे चैत्य की व्यवस्था करते थे पर सर्वदेवसूरि द्वारा प्रतिबोध पाकर उन्होंने चैत्य का वैभव छोड़ दिया। उपरोक्त घटना यदि सत्य हो तो इससे प्रमारिणत होता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में भी चैत्यवास प्रचलित था। - कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि सामन्तभद्र द्वारा पुनरुज्जीवित वनवास अधिक समय तक नहीं चल सका । अल्प समय में ही वसतिवास में परिवर्तन होते-होते वीर नि० सं० ८०० के आसपास उसने चैत्यवास का रूप धारण कर लिया, जैसा कि धर्मदास गणो ने तपागच्छ पट्टावली में उल्लेख किया है : "धीर नि० सं० ८८२ के पश्चात" "चैत्यस्थितिः" अर्थात चैत्यवास की स्थिति हुई।" वस्तुतः तात्कालिक स्थिति का अध्ययन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इससे भी काफी पहले इसका प्रचलन विद्यमान था। मुनि कल्याणविजयजी आदि इतिहासज्ञ विद्वानों का भी खयाल है कि इससे भी पहले चैत्यवास की जड़ जम गई थी और वीर नि० सं० ७८२ तक तो इसकी सार्वत्रिक प्रवृत्ति हो गई थी। " श्री चन्द्रसूरिपट्टे षोडश: श्री सामन्तभद्रसूरिः । स च पूर्वगतश्रुतविशारदो वैराग्यनिधिनिर्ममतया देवकुलवनादिष्ववस्थानात् लोके बनवासीत्युक्तस्तस्माच्चतुर्य नाम वनवासीति प्रादुर्भूतम् । [तपागच्छ पट्टावली, पृ० ७१] २ दयशीत्यधिकाष्टशत (८८२) वर्षातिकमे चैत्यस्थितिः । – पट्टा० समु०, पृ० ५० Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंत्यवास] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य रेवती नक्षत्र __ वस्तुत: इतिहास इस बात का साक्षी है कि ज्यों ज्यों श्रमणों में राजनैतिक सम्मानों के प्रति आकर्षण बढ़ता गया, त्यों त्यों वैयक्तिक प्रभाव के माध्यम से मुनिगण संयम-मार्ग से उत्तरोत्तर विचलित होते गये । स्वाध्याय के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ती गई और उनके लिये धर्म के मोलिक प्राचरण केवल वाणीविलास के साधनमात्र रह गये । यह एक तथ्य है कि जब सुखोपभोग की वृत्तियां जीवन में साकार होती हैं, तब संयमित जीवन की यथावत् प्रतिपालना समस्या का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार जीवन में सुखोपभोग की वृत्तियों के साकार होने के फलस्वरूप वनवास से वसतिवास, तदनन्तर वसतिवास से चैत्यवास प्राया और विक्रम की १५वीं शताब्दी के पश्चात् यही चैत्यवास परिवर्तित होते होते यतिसमाज के मठवास-उपाश्रयवास के रूप में बदल गया। त्रिपुटी मुनि द्वारा, 'जैन परम्परा नो इतिहास, प्रथम भाग' में किये गये उल्लेखानुसार चन्द्रकुल के प्राचार्य सामन्तभद्र ने जिस समय बनवास प्रचलित किया, उस समय उनके साथ नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुलों के अन्य श्रमण भी वन में रहने लगे और तब से "वनवासी गच्छ” नाम प्रारम्भ हुमा । परन्तु समय की विषमता के कारण वन के निवास में बहुत सी बाधाएं खड़ी होने लगीं। राजाओं के एक-दूसरे के साथ भयंकर युद्ध, बारम्बार दीर्घकाल के दुष्काल, माहार-पानी की दुर्लभता, पठन-पाठन में अन्तराय-विक्षेप, श्रुत का ह्रास, शक्ति की क्षीणता, लोकों की प्रीति एवं संघ की अस्तव्यस्तता इत्यादि कारणों से श्रुतधरों ने गम्भीर विचारणा के पश्चात् श्रावकों की बस्ती में नहीं किन्तु मन्दिरों के पास उपाश्रय में उतरने की मर्यादा प्रचलित की। इसका प्रारम्भ वीर सं०८८२ में हो गया। यद्यपि उस समय वन के बदले मुनि लोग वसति के चैत्य और उपाश्रय मात्र में उतरते थे किन्तु वहां वे स्थानपति होकर नहीं रहते थे। चैत्यवसति में उतरने पर भी वे सततविहारी होने के कारण विहरूक कहलाते थे। पर समय के प्रभाव से इस मर्यादा में भी शिथिलता पाई और कितने ही मुनियों ने स्थायी रूप से चैत्यवास अपना लिया। वीर निर्वाण की बारहवीं, अर्थात् विक्रम की माठवीं शती के अन्त में तो यह चैत्यवास विकृत होकर घरवास जैसा बन गया। जैन श्रमण अपनी निर्ग्रन्थता और वीतरागभाव की साधना के लिये सदा से यह परमावश्यक मानते रहे हैं कि जितना हो सके गृहीजनों के संसर्ग से बचा जाय, ताकि उनके मन में रागभाव की उत्पत्ति ही न हो सके। चिरकाल तक किसी एक स्थान पर रहने से रागवृद्धि के साथ निर्ग्रन्थता में विकृति पाना संभव है। इस दृष्टि से उन्होंने अपना निवास भी गृहस्यों के संसर्ग से दूर और अस्थिर रखा। इसी भावना को लेकर भगवान् महावीर के पश्चात् भी जैन श्रमरण अनसंसर्ग से दूर विविक्तवास और "गामे गामे एग रायं, नगरे नगरे पंच रायं" इस वचन के अनुसार प्रतिबद्ध भाव से नवकल्पी विहार करते रहे। Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ · जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चत्यवास परन्तु जब चैत्यवास के रूप में गृहीजनों के निकट सम्पर्क में जैन श्रमणों का निवास प्रारम्भ हुमा तो यह सुनिश्चित था कि आसपास के भक्तजन प्रातः-सायं जितना भी अधिक हो, सेवाभक्ति का लाभ लेने लगें । भावूक भक्तों के बारम्बार गमनागमन और उनके द्वारा की गई उपासना से श्रमणवर्ग का मन भावविभोर हो उठा। परिणामतः मुनियों द्वारा अपने मलमलीन देह और धूलिधुसरित प्रावरणों की, भावुकजनों की प्रीति हेतु धुलाई-सफाई की जाने लगी। चैत्यवासजन्य जनसंसर्ग ने केवल इन सब प्रवृत्तियों को ही जन्म नहीं दिया अपितु इससे रागातिरेक के कारण मुनियों में स्थिरवास की प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी। रागातिरेक से किसी एक स्थान पर स्थिरवास कर लेने पर साधनामय जीवन में कितनी विकृति आ सकती है, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। चैत्यवास के कारण यही सब कुछ हुप्रा । " प्राचार्य हरिभद्र ने चैत्यवासजन्य तात्कालिक उन विकृतियों का अपने ग्रन्थ "संबोधप्रकरण' में एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। उससे चैत्यवास के दुष्परिरणामों को भलीभांति समझा जा सकता है। प्राचार्य हरिभद्र के वे विचार इस प्रकार है : ___वे साधु लोच नहीं करते, प्रतिमा वहन करने में शर्माते, शरीर से मैल उतारते, पादुका-उपानत् आदि पहन कर घूमते और निष्कारण कटिवस्त्र धारण करते हैं।" यहाँ लोच नहीं करने वाले को प्राचार्य ने क्लीब - कायर कहा है।' उन्होंने आगे फिर लिखा है : "ये कूसाधू चैत्यों और मठों में रहते हैं। पूजा करने का प्रारम्भ एवं देवद्रव्य का उपभोग करते हैं। ये कुसाधु जिन-मन्दिर और शालाएं चुनवाते, रंगबिरंग, सुगन्धित एवं धूपवासित वस्त्र पहनते, बिना नाथ के बलों की तरह स्त्रियों के आगे गाते, प्रायिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते, तरह-तरह के उपकरण रखते, जल, फूल, फल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते, दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं।" "ये लोग मुहूर्त निकालते, निमित्त बताते और भभूति भी देते हैं। जीमनवार में मिष्टान्न ग्रहण करते, आहार के लिये खुशामद करते और पूछने पर भी सच्चा धर्म नहीं बताते हैं।" "ये लोग स्नान करते, तेल लगाते, श्रृंगार करते और इत्र-फुलेल का भी उपयोग करते हैं। स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों की आलोचना करते हैं।" ___ इस प्रकार की विकृत स्थिति में भी जो लोग तीर्थंकरों का वेष समझ कर उन मुनियों को वन्दनादि करते हैं, उनके लिये भी प्राचार्य हरिभद्र ने बड़ी दर्दभरी भाषा में कहा है : कीबो न कुणइ लोयं, लम्बइ पडिमाइ जस्समुबरणे । सोबाहणो य हिगड, बंधइ कम्पिट्टयमकज्जे ॥ [सम्बोध प्रकरण, गा० १४] Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्यवास ] सामान्य पूर्वधर - काल : प्रायं रेवती नक्षत्र ६२७ "कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थंकरों का वेष है । इसे भी नमस्कार करना चाहिये । अहो ! धिक्कार है उन्हें । मैं अपने शिरः शूल की पुकार किसके आगे करू ?" " जिनवल्लभ ने अपने संघपट्टक की भूमिका में चैत्यवास का इतिहास. प्रस्तुत करते हुए लिखा है : - "वीर नि० सं० ८५० के लगभग कुछ मुनियों ने उग्रविहार छोड़ कर मन्दिर में रहना प्रारम्भ कर दिया । इनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई और समयान्तर में वे बहुत प्रबल हो गये ।" . उन्होंने यह प्रतिपादन करना प्रारम्भ कर दिया कि वर्तमान काल के मुनियों का त्यों में रहना उचित है । उन्हें पुस्तकादि के लिये यथावश्यक द्रव्य भी रखना चाहिये ।” " यह भी कहा जाता है कि वि० सं० ८०२ में राहिलपुर पाटण के राजा बनराज चावड़ा द्वारा उनके गुरु शीलगुणसूरि ने यह ग्राज्ञा प्रसारित करवा दी कि उनके नगर अरण हिलपुर पाटण में चैत्यवासी साधुओं के अतिरिक्त अन्य वनवासी आदि साधु प्रवेश तक नहीं कर सकेंगे। उस अनुचित प्राज्ञा को निरस्त करवाने के लिये विक्रम सं० १०७४ में जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामक दो विधिमार्गी विद्वान् साधुयों ने राजा दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया और तब कहीं पाटण में विधिमागियों का प्रवेश हो सका । विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि अल्पसंख्यक सुविहित मुनियों की विद्यमानता में भी चिरकाल तक चैत्यवासियों की प्रभुता बनी रही । फिर भी शासनप्रेमी सुविहित मुनियों ने शिथिलता का विरोध करते हुए सिद्धान्तानुगामी मार्ग पर अपने चरण जमाये रखे । जिनवल्लभ के पश्चात् आचार्य जिनदत्त एवं जिनपति और सौराष्ट्र में मुनिचन्द्र एवं मुनिसुंदर आदि विधिमार्गी विद्वान् मुनि भी अपनी रचनात्रों एवं उपदेशों के माध्यम से चैत्यवासियों के साथ टक्कर लेते रहे और अन्त में उन्होंने चैत्यवासियों को हतप्रभ कर दिया । विक्रम की १५वीं शताब्दी के पश्चात् यही चैत्यवास परिवर्तित हो कर यतिसमाज के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा । श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी इसका प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है । भट्टारकों की गादियां उस चैत्यवास श्रौर मठवास की ही प्रतिनिधि कही जा सकती हैं । प्राचार्य कुंदकुंद के "लिंगपाहुड़" से पता चलता है कि उस समय ऐसे भी जैन साधु थे जो गृहस्थों के विवाह जुटाते और कृषिकर्म, वाणिज्य श्रादि हिंसा-कर्म करते थे । चैत्यवास के समर्थक मुनि शिवकोटि ने अपनी रत्नमाला में मिला है , बाला वयंति एवं वेसो तित्यंकराण एसो बि । नमणिज्जो विद्धि महो, सिरसूलं कस्स पुक्करिमो || [ संबोधप्रकरण, गा० ७६ (जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा महमदाबाद द्वारा प्रकाशित ) } * जो जोडेज्ज विवाह, किसिकम्मवाणिज्जजीवनादं च । [मिय बाद] Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ जन-धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चत्यवास कि उत्तम मुनियों को कलिकाल में वनवास नही करना चाहिये । जिनमन्दिरों और विशेष कर ग्रामादि में रहना ही उनके लिये उचित है।' अनुमान किया जाता है कि दिगम्बर मुनियों ने वि० सं० ४७२ में वनवास छोड़ कर "निसीहि" आदि में रहना प्रारम्भ किया हो एवं उसमें विकृति होने पर वि० सं० १२१६ के पश्चात् मठवास चालू हुअा हो और उनमें रहने वाले मठवासी भट्टारक कहे जाने लगे हों।। ... . उपलब्ध साहित्य के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि विक्रम संवत् “१२८५ से "चैत्यवास" सर्वथा बन्द हो गया और मुनियों ने उपाश्रय में उतरना प्रारम्भ कर दिया। यथास्थान इस विषय में विशेष प्रकाश डाला जायगा। तत्कालीन राजनैतिक स्थिति - आर्य रेवतीनक्षत्र के समय की राजनैतिक स्थिति के सम्बन्ध में कुछ खिने से पूर्व उस समय से पहले की राजनैतिक स्थिति पर थोड़ा प्रकाश डालना आवश्यक है। यह पहले बताया जा चुका है कि पुष्यमित्र शुंग के राज्यकाल में बेक्ट्रिया के यूनानी राजा डिमिट्रियस ने एक प्रबल सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। मथुरा, साकेत आदि प्रदेशों को विजित करने के पश्चात् उसने पाटलिपुत्र पर भी आक्रमण किया। किन्तु उसी समय उसे उसके घर में गृहकलह होने तथा यूक्रेटाइडीज द्वारा उसके राज्य पर अधिकार कर लिये जाने की सूचना मिली। अतः उसे तत्काल अपने दलबल सहित बेक्ट्रिया की ओर लौटना पड़ा। वहाँ गृहकलह में उसकी मृत्यु हो गई। डिमिट्रियस की मृत्यु के पश्चात् उसके निकटतम सम्बन्धी मेनेण्डर ने भारत पर आक्रमण किया। उसके पास पर्याप्त धन और शक्तियाली विशाल सेना थी। मेनेण्डर ने पंजाब पर अधिकार कर साकल अर्थात् स्यालकोट में अपनी राजधानी स्थापित की। पंजाब-विजय के समय मेनेण्डर का अनेक बौद्ध भिक्षुषों से साक्षात्कार हुना। उसने एक बौद्ध प्राचार्य से अध्यात्म और दर्शन. विषयक अनेक प्रश्न किये । बौद्धाचार्य से अपने प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर सुन कर वह बड़ा प्रभावित हुआ और उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया। इतिहासज्ञों का अनुमान है कि 'मिलिन्दपन्हो' नामक बौद्ध धर्मग्रन्थ मेनेण्डर के प्रश्नों और बौद्धाचार्य नागसेन द्वारा दिये गये उन प्रश्नों के उत्तर के आधार पर बना हुआ है। बौद्ध ग्रन्थों में मेनेण्डर को मिलिन्द के नाम से अभिहित किया गया है। मिलिन्द ने बौद्धधर्म को राज्याश्रय देकर उसके प्रचार-प्रसार में पर्याप्त सहायता प्रदान की। ... पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् मिलिन्द (मेनेण्डर) ने सिन्ध की राह से भारत-विजय का अपना अभियान प्रारम्भ किया। काठियावाड़, 'कलो काले वने वासो, वय॑ते मुनिसत्तमैः । स्थीयते व जिनागारे, प्रामादिषु विशेषतः ॥२२॥ [रलमाला] 2: Tbe Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, page 3 Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्का० राजन० स्थिति] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं रेवती नक्षत्र ६२६ माध्यमिका (मज्झिमा) और मथुरा को अपने अधिकार में करता हुआ वह मागे बढ़ा । सिन्धु (संभवतः कालीसिन्ध) नदी के दक्षिण तटवर्ती किसी स्थान पर पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र ने मेनेण्डर को भयंकर युद्ध के पश्चात् बुरी तरह परास्त किया। इस करारी हार के पश्चात् यूनानियों का राज्य केवल पंजाब और भारत के पश्चिमोत्तर सीमावर्ती कुछ प्रदेशों तक ही सीमित रहा ।। इसी समय शकों ने भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर प्राक्रमण कर वहां. से यूनानियों की सत्ता को समाप्त कर दिया। शकराज मोगा अपरनाम मोस प्रथम ने शैव धर्म अंगीकार किया और उसने कतिपय वर्षों तक गान्धार (अफगानिस्तान) तथा पंजाब पर राज्य किया। इसके पश्चात् शकों ने उत्तर प्रदेश, राजपूताना और कुछ दक्षिणी प्रदेशों तक अपने राज्य का विस्तार किया। शकों ने भारत के अनेक प्रदेशों में अपनी क्षत्रपियां स्थापित की। उनमें से मथुरा की क्षत्रपी का राजुल नामक शासक एक शक्तिशाली क्षत्रप हुआ, जिसके अनेक सिक्के उपलब्ध होते हैं। वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के प्रथम चरण की समाप्ति के अनन्तर, तदनुसार ईसा की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भकाल में पार्थियनों ने ईरान के अनेक प्रदेशों पर अधिका करने के पश्चात् भारत पर आक्रमण किया। इनका शकों के साथ संघर्ष हुमा। पाथियनों ने शकों को परास्त कर भारत के पश्चिमोत्तर सीमावर्ती क्षेत्रों एवं पंजाब पर अधिकार कर लिया। इसके परिणामस्वरूप शकों का राज्य भारत के दक्षिण-पश्चिमी सौराष्ट्र प्रादि प्रदेशों में ही रह गया। पाथियनों ने पंजाब.पर अधिकार करने के पश्चात् अपने राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया। गोंडाफरनीज नामक पाथियन शासक ने तक्षशिला, मथुरा उज्जयिनी प्रादि में अपनी क्षत्रपियां स्थापित की। थोड़े समय पश्चात् ही अधिकांश पाथियन क्षत्रपों ने अपने आपको स्वतन्त्र घोषित कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप पार्थियनों का शक्ति विकेन्द्रित होने के कारण शनैः शनैः क्षीण होती गई। ___ यह उल्लेखनीय है कि प्रायः सभी पार्थियन एवं शक शासकों ने भारतीय धर्म स्वीकार कर भारतीय संस्कृति को विकसित-पल्लवित करने के बड़े प्रयास किये। उन लोगों ने पूर्णतः भारतीय शासन-प्रणाली के अनुसार राज्य करते हुए अनेक जनहित के कार्य किये। - अब तक किये गये उल्लेखों से यह तो स्पष्ट ही है कि भारत पर जब जब भी विदेशी आक्रान्ताओं ने प्राक्रमण किये, तब-तब भारत के गरण राज्यों, राजाओं और जनता ने उन विदेशी शक्तियों के साथ बड़ी बीरता से युद्ध किया। यद्यपि भारत में सुदृढ़ केन्द्रीय राज्यसत्ता के प्रभाव और विदेशियों की सुसंगठित मालविकाग्निमित्र (कालीदास)। : .2 The Gupta Empire by Shri.Radhakumud Mookerji, page 3 ३.बही, page 4 Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [तत्का० राजन० स्थिति विशाल सेनाओं के कारण विदेशियों को भारत के विभिन्न प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में सफलताएं मिलीं पर भारतीय राज्य शक्तियां उन विदेशियों के साथ प्रायः निरन्तर संघर्षरत रहीं। भारतीय जनता एवं राज्य शक्तियों द्वारा किये गये उन संघर्षों तथा विदेशी आक्रान्ताओं के परस्पर टकराने के फलस्वरूप अन्ततोगत्वा वे विदेशी शक्तियां क्षीण होते होते विलीन ही हो गई। जिस प्रकार यूनानियों के शासन को प्रथमतः चन्द्रगुप्त मौर्य और तदनन्तर शकों ने, शकों के शासन को वीर नि० सं० ४७० में विक्रमादित्य ने और तदनन्तर वीर नि० सं० ६०५ में गौमतीपुत्र सातकर्णी (शालिवाहन) ने समाप्त किया, उसी प्रकार भारत के विदेशी पार्थियनों के शासन को विदेशी यू-ची जाति के कुषाणों ने समाप्त किया। प्रार्य रेवतीनक्षत्र के वाचनाचार्य-काल से पूर्व कुजुल कैडफाइसिस (प्रथम) नामक कुषाण सरदार ने पार्थियनों को पराजित कर गान्धार (अफगानिस्तान) और पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसके पुत्र वेम कंडफाइसिस ने भारत में और आगे बढ़ना प्रारम्भ किया और. आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के युगप्रधानत्व काल में पूरे पंजाब तथा दुपाबा पर अपना अधिकार करने के पश्चात् पूर्व में वाराणसी तक अपने राज्य की सीमा का विस्तार कर लिया। विदेशी आक्रमणों के कारण देश को सर्वतोमुखी हानि हुई। विदेशी माक्रान्ताओं के अत्याचारों से संत्रस्त जनमानस में असहिष्णता, पारस्परिक जातीय, सामाजिक एवं धार्मिक विद्वेष ने बल पकड़ा। विदेशियों द्वारा देश एवं देशवासियों की जो दुर्दशा की जाती उसके लिए एक जाति दूसरी जाति को एक धर्मावलम्बी दूसरे धर्मावलम्बियों को, एक वर्ग दूसरे वर्ग को दोषी ठहराने लगा। देशवासियों के मन में उत्पन्न हुई इस प्रकार की घातक मनोवृत्ति से देश को जो हानि हुई, उसे प्रांका तक नहीं जा सकता क्योंकि वस्तुतः वह विदेशी प्राक्रमणों से हई हानि से कई गुना अधिक थी। इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार की विकृत मनोवृत्ति को निहित-स्वार्थ लोगों ने समय-समय पर उभाड़ा। इसका परिणाम यह हमा कि सहस्राब्दियों से साथ-साथ रहते प्राये वर्गों, धर्मावलम्बियों एवं जातियों ने परस्पर एक दूसरे को मिटाने के अनेक प्रयास किये। भारत से बौदधर्म की समाप्ति में अनेक कारणों के साथ-साथ इस प्रकार का धार्मिक विद्वेष भी प्रमुख कारण रहा है। पुष्यमित्र शंग द्वारा बौद्धों और बौद्धधर्म के विरुद्ध किया गया अभियान इस तथ्य का साक्षी है। भारत में विदेशी प्राक्रान्तामों की सफलतामों के परिणामस्वरूप उत्पन हुई उन विषम परिस्थितियों में जैनधर्मावलम्बियों को भी बरे कठिन दौर से गुजरना पड़ा। मौर्य सम्राट् सम्प्रति के राज्यकाल में, जहां भारत और भारत के पड़ोसी राष्ट्रों में भी जनधर्म का प्रभूतपूर्व प्रचार-प्रसार हमा, वहां की पहली शताब्दी के प्रथम चरण से भारत पर प्रारम्भ होने बामे मामलों पश्चात् जैन धर्मावलम्बियों की संख्या में उनरोमर ह्रास होता बनाया। Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वधर-काल : मायं ब्रह्मद्वीपकसिंह ६३१ २० (२४) ब्रह्मद्वीपकसिंह-वाचनाचार्य वाचनाचार्य प्रार्य रेवतीनक्षत्र के पश्चात् आर्य ब्रह्मद्वीपकसिंह २०वें वाचनाचार्य हए। चौबीसवें युगप्रधानाचार्य प्रार्य सिंह के साथ नाम साम्य होने के कारण वाचनाचार्य प्रार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह और यूगप्रधानाचार्य सिंह को अधिकांश लेखकों द्वारा एक ही प्राचार्य मान लिया गया है। वाचनाचार्य सिंह के नाम के पहले 'ब्रह्मद्वीपक' विशेषण से यह अनुमान किया जाता है कि युग-प्रधानाचार्य सिंह से प्राप भिन्न और पूर्ववर्ती प्राचार्य हैं । २३वे युगप्रधानाचार्य रेवतीमित्र के पश्चात् होने वाले २४वें युगप्रधानाचार्य प्रार्य सिंह २०वें वाचनाचार्य ब्रह्मद्वीपसिंह से भिन्न हैं अथवा नहीं, यह एक गवेषणा का विषय है, क्योंकि दोनों भिन्न-भिन्न न होकर एक ही होते तो वाचनाचार्य सिंह और युगप्रधानाचार्य सिंह की भिन्नता बताने वाला 'ब्रह्मद्वीपक' विशेषण वाचनाचार्य सिंह के नाम के साथ नहीं जोड़ा जाता। आशा है विद्वान् गवेषक इस सम्बन्ध में शोध कर प्रकाश डालेंगे। आर्य ब्रह्मद्वीपकसिंह का परिचय प्रागे आर्य सिंह के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। २२. आर्य नागेन्द्र (नागहस्तो)-युगप्रधानाचार्य प्रार्य वज्रसेन के पश्चात् यूगप्रधान परम्परा में नागहस्ती का नाम आता है। नागेन्द्र सोपारकपुर के श्रेष्ठी जिनदत्त के दोक्षित चार पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। युगप्रधानों की नामावलि में आर्य नागेन्द्र का प्रार्य नागेन्द्र नाम से उल्लेख न कर नामसाम्य-तन्य त्रुटि से नागहस्ती के नाम से उल्लेख किया गया है। वस्तुतः युगप्रधान नागेन्द्र वाचक आर्य नागहस्ती से सर्वथा भिन्न प्रतीत होते हैं। दुष्षमाकाल श्रमणसंघस्तोत्र के अनुसार नागेन्द्र का दीक्षाकाल ५६२-६३ माना गया है। किंचिन्यून १० पूर्वधर होने से प्रार्य नागेन्द्र ही वनसेन के पश्चात् युगप्रधानाचार्य नियुक्त किये गये। ६६ वर्ष जैसे सुदीर्घ काल तक आपने युगप्रधानाचार्य पद से जिनशासन की सेवा की। वीर नि० सं०,६८६ में इनका स्वर्गवास माना गया है। पहले यह बताया जा चुका है कि प्रार्य नागहस्ती और नागेन्द्र - दोनों, दो भिन्न-भिन्न प्राचार्य हैं। प्राचार्य नागहस्ती वाचकवंश परम्परा के प्राचार्य हैं और उनके गुरू मार्य नन्दिल माने गये हैं जबकि नागेन्द्र युगप्रधान परम्परा के प्राचार्य पौर वज्रसेन के शिष्य हैं। पहले वनसेन के पूर्ववर्ती प्राचार्य हैं तो दूसरे वज्रसेन के पश्चाद्वर्ती उनके उत्तराधिकारी। वाचक नागहस्ती और यूगप्रधान नागेन्द्र की भिन्नता इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि आर्य नागहस्ती का दिगम्बर परम्परा के साहित्य में भी यतिवृषभ के गुरु रूप से उल्लेख किया गया है पर मार्य नागेन्द्र को संशयमिथ्यादृष्टि, श्वेताम्बर प्रादि विशेषणों से अभिहित किया गया Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य नागेन्द्र है।' इससे भी प्रतीत होता है कि चन्द्रमुनि के ज्येष्ठ गुरुबन्धु नागेन्द्र ही श्वेताम्बर आचार्य के रूप से दिगम्बर परम्परा में चर्चित होते रहे हैं। नागहस्ती परम्परा-भेद होने से पूर्व के प्राचार्य होने के कारण दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उन्हें कहीं पर भी श्वेताम्बर विशेषरण से अभिहित नहीं किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर नागहस्ती और नोगेन्द्र ये दोनों भिन्न-भिन्न काल के दो भिन्न प्राचार्य प्रमाणित होते हैं। प्रार्य मंगू और आर्य नागहस्ती ये दोनों पर्याप्त अंशों में समकालीन होने चाहिये । पर नागेन्द्र को नागहस्ती मान लेने पर किसी भी दशा में संगति नहीं बैठती। क्योंकि आर्य नागेन्द्र का जन्म वी. नि. सं. ५७३ में होने का उल्लेख उपलब्ध होता है जब कि आर्य मंगू का प्राचार्यकाल ४७० माना गया है । वाचनाचार्य प्रार्य नागहस्ती और युगप्रधानाचार्य प्रार्य नागहस्ती (नागेन्द्र) ये दोनों भिन्न-भिन्न काल में हुए दो भिन्न आचार्य हैं। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले सर्वाधिक सबल शास्त्रीय प्रमाण, अनुयोगद्वार सूत्र के पाठ का वाचनाचार्य आर्य नागहस्ती के प्रकरण में उल्लेख किया जा चुका है। १६. प्राचार्य सामन्तमद्रनारणाचार्य वीर नि० सं० ६४३ में आर्य चन्द्रसूरि के स्वर्गगमन के पश्चात् १६ वें गणाचार्य सामन्तभद्र हए। आपके जन्म, कुल आदि का परिचय उपलब्ध नहीं होता । आपका जो कुछ परिचय उपलब्ध होता है, उससे यह विदित होता है कि पाप पूर्वश्रुत के प्रम्यासी होते हुए भी अस्खलित चारित्र को प्राराधना करने वाले थे। निर्मोह भाव से विचरण करते हुए ये संयमशुद्धि के लिये अधिकांशतः वनों, उद्यानों, यक्षायतनों, एवं शून्य देवालयों में ही ठहरा करते थे। इनके उत्कट वैराग्य और वनवास को देख कर लोग इन्हें वनवासी और इनके साधुसमुदाय को वनवासी-गच्छ कहने लगे। सौधर्मकाल के निग्रंथ गच्छ का यह चौथा नाम वनवासी गच्छ कहा जाता है। वनवासी शब्द सापेक्ष होने के कारण वसतिवास की स्मृति दिलाता है। भगवान् महावीर और सुधर्मा के समय तक साधुओं का प्रायिक निवास वन-प्रदेशों में ही होता था फिर भी उस समय के श्रमण वनवासी न कहला कर निग्रंथ नाम से ही पहिचाने जाते रहे। क्योंकि उनके सम्मुख वनवासी से भिन्न वसतिवासी नामक कोई भिन्न श्रमणवर्ग नहीं था। ' (क) इन्द्रचन्द्रनागेन्द्रवादी मिथ्यादृष्टिः । संशयवादी किलेवं मन्यते, सेयंबरो य । [बोषप्रामृत, गा० ५३ श्रुतसागरी टीका] (ख) इन्द्रकद्रनागेन्द्रगच्छोत्पन्नानां तंदुलकपायोदकादिसमाचारीसमाश्रयीणां श्वेतपटाना। [भावप्राभृत, गा० १३५, अतसागरी] २ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ५५२ 3 विपुटी के अनुसार वीर नि० स० ६५० । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सामन्तभद्र ] सामान्य पूर्वघर - काल : श्रायं ब्रह्मद्वीपकसिंह जब निग्रंथ गच्छ, कौटिक गच्छ, और चन्द्रगच्छ के नामान्तरों से गुजरता हुआ साधु-समुदाय जनसम्पर्क में आगे बढ़ा, तब श्रमरणों का प्रावास भी मुख्य रूप से वसतियों में होने लगा हो, यह स्वाभाविक है। संभव है प्रायं रक्षित के पश्चात् साधु सम्प्रदाय में शिथिलता अधिक बढ़ी हुई देख कर संयमशुद्धि और उग्र साधना को बनाये रखने के लिये सामन्तभद्र ने शिथिलाचार के विरुद्ध वनवास स्वीकार किया हो । दूसरा यह भी संभव है कि वीर नि० सं० ६०६ में हुए श्वेताम्बर - दिगम्बर सम्प्रदायभेद को पाट कर दोनों में समन्वय करने की दृष्टि से उग्र संनमाराधन का प्रयत्न प्रारम्भ किया गया हो । आचार्य सामन्तभद्र द्वारा किया गया यह उम्र प्रचार का अभियान शिथिलाचार के विरोध में कुछ समय तक अवश्य प्रभावोत्पादक रहा होगा । पर इसमें यथेप्सित स्थाई सफलता नहीं मिल पाई । इसी अवधि में दिगम्बर परम्परा में भी समन्तभद्वै नामक एक प्राचार्य के होने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार उनका समय ईसा की दूसरी शताब्दी में प्राता है ।" हो सकता है सामन्तभद्र को ही समन्तभद्र समझ कर उनके उत्कट प्रचार के कारण उन्हें सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखा एवं अपना लिया गया हो । ६३३ आपके जन्म, दीक्षा, प्राचार्यपद और स्वर्गवास का समय उपलब्ध नहीं होता । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार आपका अस्तित्वकालं वीर नि० सं० ६७० के आसपास माना गया है । १७. श्राचार्य वृद्धदेव-गरणाचार्य आचार्य सामन्तभद्र के पश्चात् १७वें गरणाचार्य वृद्धदेव हुए। इनका केवल इतना ही परिचय मिलता है कि वृद्धावस्था में प्राचार्य पद प्राप्त करने के कारण सभी उन्हें वृद्धदेवसूरि के नाम से संबोधित करने लगे । सामन्तभद्र की परम्परा के आचार्य होने के कारण आपको भी उग्र क्रिया का समर्थक माना गया है । १८. प्राचार्य प्रद्योतन-गरणाचार्य आचार्य वृद्धदेव के पश्चात् श्रार्य प्रद्योतनसूरि गरणाचार्य हुए। पट्टावलियों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध है कि अजमेर और स्वर्णगिरि में आपने प्रतिष्ठा करवाई पर स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजी के अनुसार इतिहास के प्रकाश में इस प्रकार के उल्लेखों की सच्चाई संदिग्ध मानी गई है। आपका स्वर्गवास वीर नि० सं० ६६८ में होना बताया गया है । १६. प्राचार्य मानदेव-गरणाचार्य प्राचार्य प्रद्योतनसूरि के पश्चात् १६ वें पट्टधर गणाचार्य मानदेव हुए । प्राचार्य मानदेव त्याग तप की विशिष्ट साधना में इतने प्रसिद्ध थे कि जैन १ जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भा० १, पृ० ३३६ २ मुनि कान्तिसागरजी द्वारा लिखित जैन इतिहास की पाण्डुलिपि, पृ० १०६ । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचार्य मानदेव समाज में संभवतः विरला ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो अापके प्रभाव से अपरिचित हो। नाडोल निवासी प्रख्यात श्रेष्ठी धनेश्वर आपके पिता और धारिणी माता थी। अपना एकमात्र पुत्र होने के कारण माता-पिता ने आपका नाम मानदेव रखा। एक बार प्राचार्य प्रद्योतन विहार क्रम से नाडोल पधारे। भाग्यवश मानदेव ने भी प्राचार्यश्री के उपदेशों को सुनने का सुअवसर पाया। प्राचार्य प्रद्योतनसूरि की वैराग्यपूर्ण वारणी सुनकर मानदेव को अपूर्व उल्लास हुप्रा और उन्होंने गुरुचरणों में प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। बड़ी कठिनाई से मानदेव ने माता-पिता से अनुमति प्राप्त की और शुभ समय में श्रमरण-दीक्षा अंगीकार कर वे विनयपूर्वक ज्ञानाराधन के साथ कठोर तप की साधना करने लगे। प्रखर प्रतिमा के कारण अल्प समय में ही उन्होंने ११ अंगश्रुत, मूल, छेद और उपांग श्रुतों का पूर्ण अभ्यास कर लिया।' ____ गुरु ने मानदेव को योग्य समझकर प्राचार्य पद से सुशोभित करना चाहा पर कहा जाता है कि लक्ष्मी (लावण्यश्री) और सरस्वती का आपस में एकत्र अद्भुत सम्मिलन देखकर गुरुदेव इस बात के लिए चिन्तित हुए कि मुनि मानदेव से चारित्र का पालन किस प्रकार निभ सकेगा। गुरू की चिन्ता से मानदेव चारित्र के प्रति और अधिक आस्थावान् बन गये । गुरुदेव की प्रीति हेतु उन्होंने सम्पूर्ण रूप से विगइ-विकृति का परित्याग कर दिया और भक्तजनों के यहां से आहार लाना भी वन्द कर दिया। प्रात्मसाधना के प्रति सजगता विश्व को सहज ही झूका देती है। इस नियमानुसार मानदेव के चरणों में भी कुछ दैवी शक्ति का सामीप्य हो गया था, इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। प्रार्य नागेन्द्र के समय की राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिति इससे पहले के प्रकरण में बताया जा चुका है कि आर्य रेवतीनक्षत्र के वाचनाचार्य काल में कुषाणवंश के राजा वेम कैडफाइसिस ने अपने पिता कुजुल कैडफाइसिस द्वारा ईरान की सीमा से लेकर सिन्धु नदी तक संस्थापित राज्य की सीमा में विस्तार करना प्रारम्भ किया। वेम ने पूरे पंजाब और दोबाबा को जीत कर पूर्व में वाराणसी तक अपने राज्य का विस्तार किया। वेम कैडफाइसिस की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कनिष्क वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में तदनुसार शक सम्वत्सर के प्रचलित होने के पश्चात् राज्य सिंहासन पर आसीन हुअा। कनिष्क ने पुरुषपुर-पेशावर नामक एक नवोन नगर बसा कर वहाँ अपनी राजधानी स्थापित की। 'अंगकादशकेधीती, छेदमौलेषु निष्ठितः । उपांगेपु च निष्णातस्ततो जज्ञे बहुश्रुतः ॥२३॥ [प्रभावक चरित्र, प्रकरण१३] Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य ना के समय की] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य ब्रह्माद्वीपकसिंह कनिष्क ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर विजय का अभियान प्रारम्भ किया। इसने पाथियनों के शासन को भारत से मूलतः उखाड़ फेंका। काश्मीर-विजय के पश्चात् कनिष्क ने चीनी साम्राज्य के प्रदेशों - चीनी तुकिस्तान, काशगर, यारकन्द एवं खोतान पर अपना प्राधिपत्य स्थापित कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। कनिष्क का साम्राज्य ईरान की सीमाओं से वाराणसी, चीनी, तुर्किस्तान से काश्मीर और दक्षिण में विन्ध्य-पर्वतश्रेणियों तक फैला हुआ था।' कनिष्क ने काश्मीर में अपने नाम पर कनिष्कपुर नामक एक नगर बसाया। उसने जन्मजात भारतीय की तरह भारतीय संस्कृति को अपनाया। उसने विदेशी होते हुए भी मोर्यसम्राट अशोक द्वारा अपनाई गई नीति का अनुसरण करते हुए बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में बड़ा योगदान दिया। कनिष्क ने काश्मीर के कुण्डलवन नामक स्थान पर बौद्ध - संगीति (बौद्ध भिक्षुत्रों, विद्वानों एवं बौद्ध धर्मावलम्बियों के धर्म-सम्मेलन) का आयोजन किया। उस संगीति में बौद्ध धर्म के प्रचार एवं उसमें नये सुधार से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लिये गये। इतिहासकारों का ऐसा अनुमान है कि कनिष्क द्वारा की गई उस बौद्ध-संयोति के पश्चात् बौद्धधर्म हीनयान और महायान - इन दो संप्रदायों में विभक्त हो गया। बुद्ध के निराडम्बर, सहज-सरल धर्म एवं जीवन-दर्शन को मानने वालों की संख्या स्वल्प थी प्रतः उन लोगों के संप्रदाय का नाम 'हीनयान' पड़ा। बुद्ध को भगवान् का अवतार मान कर उनकी मूर्ति की पूजा करनेवालों की संख्या अधिक थी मतः उन लोगों का संप्रदाय महायान कहा जाने लगा। कनिष्क ने महायान संप्रदाय को प्रश्रय दिया। कनिष्क के शासनकाल में बुद्ध को प्रतिमाओं की बड़े आडम्बर के साथ पूजा होने लगी और देश में मूर्तिकला का बड़ा विकास हुआ। कनिष्क बौद्ध धर्मावलम्बी था फिर भी उसने अन्य सभी धर्मावलम्बियों के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार रखा। कनिष्क के शासनकाल में संस्कृत साहित्य की उल्लेखनीय उन्नति हुई। उसके द्वारा सम्मानित महाकवि अश्वघोष ने 'बुद्धचरित्र', सौन्दरानन्दम्' एवं 'वज्रशूची' ' नामक उत्कृष्ट कोटि के संस्कृत-ग्रन्थों की रचनाएं की। कनिष्क ने अपने विशाल साम्राज्य के शासन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिये भारत के विभिन्न प्रदेशों में क्षत्रपियां स्थापित की थीं। उनमें से मथुरा, वाराणसी, गुजरात, काठियावाड़ एवं मालवा की क्षत्रपियों एवं उनके खरपल्लान वनस्फर प्रादि क्षत्रपों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं।' • शक्तिशाली कुषाणवंशी महाराजा कनिष्क के देश-विदेशव्यापी विजय अभियानों के संक्रान्तिकाल में भी कतिपय भारतीय राजाओं ने बड़े शौर्य और धैर्य के साथ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखा। इसका ज्वलन्त उदाहरण है 1. His Empire in India included Kapisa, Gandhara and Kasmira and extended in the east upto Varanasi and beyond. (The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, p. 31 1. The Gupta Empire' dy Radhakumud Mookerji, p. 4., Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ रा० एवं धार्मिक स्थिति दक्षिणापथ का सातवाहन राजवंश, जिसके, विक्रमादित्य के समय से वीर नि० सं० ६६३ तक प्रक्षुण्ण राज्य चलने के अनेक उल्लेख जैन वाङ्मय में तथा अन्य इतिहास ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । कतिपय सातवाहनवंशी राजाओं के जैन धर्मावलम्बी होने विषयक अनेक उल्लेख जैन साहित्य में विद्यमान हैं । महाराजा कनिष्क के समय में कुषारगवंशी विदेशी राजसत्ता बौद्ध धर्मावलम्बियों के साथ इतनी अधिक घुलमिल गई थी कि दोनों एक दूसरे के उत्कर्ष को अपना स्वयं का उत्कर्ष समझने लगे थे । इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण कुषारणसाम्राज्य के उत्कर्ष में बौद्ध संघ का सर्वतोमुखी सहयोग और बौद्ध संघ में कनिष्क का वर्चस्व बढ़ता ही गया। बौद्ध और कुषारणों की इस प्रकार की घनिष्ठता जहाँ एक श्रोर बौद्धधर्म के तात्कालिक उत्कर्ष में बड़ी ही सहायक हुई, वहाँ दूसरी श्रोर वह बौद्धधर्म के लिए महान् अभिशाप सिद्ध हुई । विदेशी दासता से मुक्ति चाहने वाली समस्त भारतीय प्रजा के हृदय में कुषारणों के प्रति जो घृरणा थी, वह कुषारणों के शासन को सुदृढ़ बनाये रखने में सहायता प्रदान करने वाले बौद्ध संघों, बौद्धभिक्षुत्रों एवं बौद्ध धर्मावलम्बियों के प्रति भी उत्तरोत्तर बढ़ने लगी । भारत की स्वतन्त्रताप्रिय प्रजा बौद्ध संघ को राष्ट्रीयता के धरातल से च्युत, प्राध्यात्मिक स्वतन्त्रता से विहीन एवं प्राततायी का प्राणप्रिय पोष्य-पुत्र समझने लगी । भारतीय जनमानस में उत्पन्न हुई इस प्रकार की भावना अन्ततोगत्वा भारत में बौद्धधर्म के अपकर्ष ही नहीं अपितु सर्वनाश का कारण बनी । नाग भारशिव राजवंश का प्रभ्युदय बौद्धों के सर्वतोमुखी सहयोग के बल पर बढ़ते हुए विदेशी दासता के उस उत्पीड़न ने भारशिव नामक नाग राजवंश को जन्म दिया । लकुलीश नामक एक परिव्राजक ने विदेशी दासता के जूड़े को उतार फेंकने के लिये लालायित भारतीय जनमानस में शिव के संहारक स्वरूप की उपासना के माध्यम से प्रारण फूंकने का अभियान प्रारम्भ किया। भारशिव नागों ने लकुलीश को शिव का अंशावतार मानकर उनके प्रत्येक प्रदेश का अक्षरशः पालन किया । कनिष्क की मृत्यु होते ही भारशिव नागवंश एक राजवंश के रूप में उदित हुआ । आगे चलकर इन भारशिवों ने कुषाण साम्राज्य का अन्त कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। " ऐतिहासिक तथ्यों के पर्यवेक्षरण से कनिष्क का गन्धार के सिंहासन पर श्रासीन होने का समय वीर नि० सं० ६०५ ( ई० सन् ७८) तथा मृत्यु का समय वीर नि० सं० ६३३ ( ई० सन् १०६ ) ठहरता है। तदनुसार भारशिव नागों के Several Vakataka inscriptions mention Bhavanaga, sovereign of the dynasty known as the Bharsivas who were so powerful that they had to their credit the performance of as many as ten Asvamedha sacrifices following their conquests along the Bhagirathi (Ganges). [The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, page 7] . 2 The Gupta Empire' by Radhakumud Mookerji, page 3-4. १ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारशिवों का प्रभ्युदय] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह ६३७ प्रारम्भिक अभ्युदय का समय वीर निर्वाण सं० ६३३ के पश्चात् का अनुमानित किया जाता है। . भारशिव नागवंशी मूलतः पद्मावती, कान्तिपुरी और विदिशा के निवासी थे। ब्रह्माण्ड पुराण और वायुपुराण में नागों को वृष (शिव का नन्दी) नाम से सम्बोधित करते हुए इनके विशाल साम्राज्य का उल्लेख किया गया है। जिसमें मद्र (पूर्वी पंजाब), राजपूताना, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, मालवा, बुन्देलखण्ड और बिहार आदि प्रदेश सम्मिलित थे। शुंगकाल में शेष, भोगिन, रामचन्द्र, धर्मवर्मन और बंगर इन पांच नागवंशी राजानों का विदिशा में राज्य होने के प्रमाण मिलते हैं। इसके अतिरिक्त शुंगोत्तरकाल में भूतनन्दी, शिशुनन्दी, यशनन्दी, पुरुषदात, उसभदात, कामदात, भवदात तथा शिवनन्दी नामक पाठ नागराजामों का विदिशा में राज्य होना कतिपय शिलालेखों एवं मुद्राओं से प्रमाणित होता है। कनिष्क द्वारा कुषारण राज्य के विस्तार के समय ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण में नागों को अपने मूल निवास-स्थान विदिशा, पद्मावती और कान्तिपुरीको छोड़कर मध्यभारत की ओर सामूहिक निष्क्रमण करना पड़ा। ये लोग विन्ध्य के पाश्र्ववर्ती प्रदेशों में निर्वासितों की तरह रहने लगे। विदिशा, पद्मावती और कान्तिपुरी पर कुषाणों ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। नाग लोगों को कुषाणों की बढ़ती हुई प्रबल शक्ति के कारण निष्क्रमण करना पड़ा था पर समु. चित अवसर प्राप्त होते ही अपने परम्परागत राज्य पर पूनः अधिकार कर लेने की अभिलाषा उनके अन्तर में बलवती बनी रही। अतः वे लोग अवसर की प्रतीक्षा में शक्ति संचय करते रहे। नागों ने अपने निर्वासनकाल में नागपुर, पुरिका, रीवां आदि के शासकों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क बनाये रखा। ____ कनिष्क को मृत्यु के उपरान्त नागों ने अपने मूल निवास स्थान विदिशा प्रादि को कुषाणों की दासता से पुनः मुक्त कराने का दृढ़ संकल्प किया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये वे सैनिक अभियान हेतु सभी आवश्यक सामग्री जुटाने में बड़ी तत्परता से जुट गये। २३ आर्य रेवतीमित्र-युगप्रधानाचार्य (वीर नि० सं० ६८९-७४८) आर्य नागेन्द्र के पश्चात् आर्य रेवतीमित्र युगप्रधानाचार्य हुए। आपका यत्किचित् परिचय वाचनाचार्य आर्य रेवतीनक्षत्र के साथ दे दिया गया है। भारशिव और कुषाण महाराजा हुविष्क प्रतापी महाराजा कनिष्क की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र हुविष्क मनमानतः वीर नि० सं० ६३३ (ई० सन् १०६) में कुषाणवंश के विशाल साम्राज्य का अधिपति बना । हुविष्क के शासनकाल में नाग जाति की.भारशिव शाला पुनः एक राज्यशक्ति के रूप में उदित हुई। भारशिवों ने विन्ध्य के निकटवर्ती प्रदेशों में अपनी शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ कुषाण साम्राज्य पर प्राक्रमण करने प्रार Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ बन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भारशिव और हुविक किये। उत्तरप्रदेश से चीनी तुर्किस्तान तक फैले कुषाणों के विशाल साम्राज्य से लोहा लेना भारशिवों की नवोदित राज्य शक्ति के लिए कोई साधारण साहसं का कार्य नहीं था। मध्यप्रदेश से बुन्देलखण्ड की राह भारशिवों ने कुषाणों के विरुद्ध अपने सैनिक अभियान द्वारा कुषाण साम्राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों को अपने अधिकार में करना प्रारम्भ किया। भारशिवों ने बड़े साहस और रणचातुरी से काम किया। . इस प्रकार हुविष्क के शासनकाल में ही कुषाण-साम्राज्य का शन-शन ह्रास प्रारम्भ हो गया। कुषाण महाराजा वाशिष्क वीर नि० सं० ६६५ में हुविष्क की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र वाशिष्क कुषाणवंश के ह्रासोन्मुख साम्राज्य का अधिकारी बना। वाशिष्क ने काश्मीर में अपने पिता के नाम पर हुविष्कपुर नामक एक नगर बसाया। वाशिष्क का शासनकाल वीर नि० सं० ६६५ से ६७६ तदनुसार ई० सन् १३८ से १५२ तक रहा। भारशियों द्वारा कुषारण-साम्राज्य पर प्रहार वाशिष्क के शासनकाल में नवनागे के नेतृत्व में भारशिव नागों ने अपने सोये हुए परम्परागत राज्य को पुनः हस्तगत करने के लिये कुषाण साम्राज्य पर बड़ी वीरता के साथ प्रवल आक्रमण किये। उत्तरप्रदेश के अनेक क्षेत्रों से कुषारण शासन की समाप्ति के पश्चात् अन्ततोगत्वा वीर नि० सं० ६७४ तदनुसार ई० सन् १४७ के प्रासपास नवनाग ने कुषाणों की दासता से कांतिपुरी के राज्य को मुक्त कर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। नागवंशी प्रथम भारशिव राजा नवनाग ने कान्तिपुरी में अपना राज्य स्थापित करने के पश्चात् कुषाण-साम्राज्य को समाप्त करने के उद्देश्य से मद्रकों, यौधेयों, मालवों एवं अन्य गणतन्त्रप्रिय संघों को अपना संरक्षण प्रदान किया। भारशिवों से सामरिक सहायता प्राप्त कर वे गणतन्त्र पुनः सक्रिय हुए। नवनाग एवं मद्रक, मालव, योद्धेय आदि गरण-जातियों के प्राकस्मिक अाक्रमणों से कुपारण राज्य निरन्तर क्षीण और आकार में छोटा होता गया। कुषाण महाराजा वासुदेव __ वीर नि० सं० ६६९ में वाशिष्क के देहावसान के पश्चात् उसका पुत्र वासुदेव कुषाण राज्य का अधिपति बना । कान्तिपुरी का राजा नवनाग भारशिव अपमे शेष जीवन काल में वासुदेव के साथ युद्धरत रहा। वीर नि० सं० ६६७ तदनुसार ई० सन् १७० के आसपास नवनाग की मृत्यु के अरान्त उसके पुत्र वीरसेन ने कांतिपुरी के राजसिंहासन पर आसीन होते ही बड़े प्रबल वेग से कुशाण साम्राज्य पर प्रहार करने प्रारम्भ किये। वीरसेन ने अनेक युद्धों में कुपागों को पराजित किया। यौधेय, मद्रक, अर्जुनायन, शिवि एवं मालव प्रादि गरगराज्यों Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुषाण म. वासुदेव] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं ब्रह्मद्वीपकसिंह ने भी भारशिवों द्वारा कुषाण साम्राज्य की समाप्ति के लिये प्रारम्भ किये गये अभियान में बड़ा उल्लेखनीय योगदान दिया और अन्ततोगत्वा भारशिव राजा वीरसेन ने ईसा की दूसरी शताब्दी के समाप्त होते होते आर्य धरा से सदा के लिये कुषाणों के शासन को समाप्त कर दिया । भारशिवों ने अपनी विजयों के उपलक्ष में काशी में गंगा के किनारे पर १० अश्वमेघ यज्ञ किये' और इन यज्ञों की स्मृति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिये उस स्थान पर दशाश्वमेध घाट का निर्माण करवाया। यद्यपि भारशिवों ने कुषाण राजवंश के शासन को भारत भूमि से सदा के लिये समाप्त कर दिया पर भारत के अन्तिम कुषाण राजा वासुदेव के पश्चात् भी कुषाण वंश के कतिपय और भी राजा हुए। उनका राज्य काबुल की घाटी और सीमान्त प्रदेश तक हो सीमित रहा। गुप्त राजवंश के चरमोत्कर्षकाल में काबुल की घाटी और सीमान्त प्रदेश के बचे-खुचे कुषाण राज्य भी समाप्त हो गये। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तंभलेख में गान्धार और काश्मीर के कृषारण राजाओं द्वारा बहुमूल्य वस्तुओं की भेंट के साथ समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार किये जाने का उल्लेख है। किदार नामक एक कुषाणवंशी राजा के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इन तथ्यों से ऐसा प्रकट होता है कि ईसा की पांचवीं शताब्दी तक गान्धार और काश्मीर में कुषारणों का राज्य रहा।२ मारशिव राजवंश की शाखाएं विदेशी कुषाणों के शासन का अन्त करने के पश्चात् भारशिव वंशी नाग राजा वीर सेन ने अपने एक पुत्र हयनाग को कान्तिपुरी के राज्य का, दूसरे पुत्र भीमनाग को पद्मावती के राज्य का और तीसरे पुत्र को जिसका कि नाम अज्ञात है - मथुरा के राज्य का अधिकारी बनाया। हयनाग के पश्चात् कान्तिपुरी के राज्य पर क्रमशः त्रयनाग, बर्हिन नाग, चरजनाग और भवनाग ने शासन किया। भवनाग ने अन्त समय में अपने दौहित्र रुद्रसेन (वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन के पौत्र) को पुरिका का राज्य दिया। इस प्रकार भारशिव राजवंश की एक शाखा का राज्य वाकाटक राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया। पद्मावती के राजसिंहासन पर भीमनाग के पश्चात् क्रमशः स्कन्दनाग, बृहस्पतिनाग, व्याघ्रनाग, देवनाग और गणपति नाग बैठे। वाकाटकों और गुप्तों के साथ भारशिवों के वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हए । इस वैवाहिक गठबन्धन के परिणामस्वरूप इन तीनों राजवंशों ने भारत को एक लम्बे समय तक विदेशी आक्रान्ताओं के भय से सर्वथा मुक्त रखा। ...... Bharsivas who were so powerful that they had to their credit the performance of as many as teo Ashvamedha sacrifices following their conquests along the Bhagirathi (Ganges) [The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, p. 7) २ [बही; page4] Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भारतियों की शाखाएं भारशिववंश की तीन शाखाएं मानी गई हैं। उनके राजाओं के नाम इस . प्रकार हैं : १. कान्तिपुरीको मुख्य शाखा १. नवनाग ५. बहिननाग २. वीरसेन ६. चरजनाग ३. हयनाग ७. भवनाग ४. अयनाग ८. वाकाटक राजा रुद्रसेन (भवनाग का दौहित्र) जिसको भवनाग ने पुरिका का राज्य दिया। - २. पद्मावती शाखा १. भीमनाग . ४. व्याघ्रनाग २. स्कन्दनाग ५. देवनाग ३. बृहस्पतिनाग ६. गणपतिनाग (इसके सिक्के बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं) गणपतिनाग के पश्चात् संभवंतः पद्मावती शाखा में नागसेन नामक राजा हुमा जिसे कवि हरिषेण के इलाहाबाद स्थित स्तम्भ लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने अपने पहले विजय अभियान में ही पराजित एवं अपदस्थ किया। महाकवि बाण ने भी 'हर्षचरित्र' में नागसेन को पद्मावती का राजा बताते हुए उसकी मूर्खता का उल्लेख किया है। ३. मयुरा शाखा मथुराशाखा के राजाओं के नाम उपलब्ध नहीं होते। वाकाटक राजवंश का अभ्युदय गुप्त राजवंश के उत्कर्ष से पूर्व भारत के बहुत बड़े भूभाग पर वाकाटक राजवंश का विशाल साम्राज्य था। अर्जुनायन, माद्रक, यौधेय, मालव प्रादि गणराज्य तथा पंजाब, राजपूताना, मालवा, गुजरात मादि प्रान्तों के प्रायः सभी राजा वाकाटक साम्राज्य के करद एवं अधीनस्थ थे। पुराणों में वाकाटक राजवंश को विध्यक के नाम से ही अभिहित किया गया है। वाकाटक राजवंश के अनेक सिक्के, शिलालेख एवं ताम्रपत्र उपलब्ध होते हैं। प्रजन्ता के गुहाचित्रों एवं अभिलेखों से भी वाकाटक राजवंश के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । इतिहासज्ञों ने विन्ध्यशक्ति नामक नाग को वाकाटक राजवंश का संस्थापक माना है। पुराणों में कोलिकिल वृषों (भारशिवों) में से इस राजवंश के संस्थापक विष्यशक्ति का अभ्युदय बताया गया है । 'विन्ध्यकानां कुले तीते... ॥३७३॥ [वायुपुराण, अध्याय ९६] २ तच्छन्नेन च कालेन, ततः कोसिकिमा वृषाः ॥३६६॥ ततः कोलिकिलेम्यश्च, विन्ध्यशक्तिमविष्यति ।...॥३६॥ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ वाकाटक राजवंश] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं ब्रह्मदीपकसिंह "ततः कोलिकिलेभ्यश्च, विन्ध्यशक्तिर्भविष्यति ।" इस श्लोकाधं से यह प्रकट होता है कि भारशिव नागों के साथ विन्ध्यशक्ति का अति सन्निकट का सम्बन्ध था। भारशिव भी नागवंशी थे और विन्ध्यशक्ति भी नागवंश की किसी शाखा विशेष में उत्पन्न हुया था। संभव है वह नागवंश की शाखा वाकाटक नाम से विख्यात किसी ग्राम, स्थान अथवा प्रदेश विशेष की रहने वाली हो अत: भारशिव आदि अन्य नागवंशियों से अपनी भिन्नता अभिव्यक्त करने के लिये विन्ध्य- . शक्ति एवं उसके वंशजों ने अपनी शाखा का नाम वाकाटक रखा हो। उपरिंलिखित श्लोकांश के आधार पर ही संभवतः कतिपय इतिहासज्ञ अपनी यह मान्यता अभिव्यक्त करते हैं कि विन्ध्यशक्ति वस्तुतः भारशिवों की सेना का सर्वोच्च अधिकारी था और उसने विन्ध्य प्रदेश में अपनी पृथक राजसत्ता स्थापित कर उसका विस्तार किया अतः विन्ध्य से नवोदित शक्ति के रूप में वह विन्ध्यशक्ति के नाम से विख्यात हुआ। उपरोक्त श्लोकपद से यह तो निर्विवादरूपेण सिद्ध होता है कि भारशिव नागवंश से ही वाकाटक राजवंश उदित हुप्रा । । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है वाकाटक राजवंश के अनेक राजाओं के सिक्के, शिलालेख आदि उपलब्ध होते हैं किन्तु इस राजवंश के संस्थापक विन्ध्यशक्ति के न तो कोई सिक्के ही उपलब्ध हुए हैं और न अभिलेखादि ही। ऐसी स्थिति में विन्ध्य शक्ति के सत्ताकाल को सुनिश्चित करने के लिये अन्य प्रमाणों का सहारा लेना होगा। .. __ भारशिव वंश के सातवें राजा भवनाग की पुत्री का विवाह वाकाटक सम्राट प्रवरसेन (विन्ध्यशक्ति के पुत्र) के पुत्र गौतमी पुत्र के साथ तथा गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की पुत्री प्रभावती गुप्ता का पाणिग्रहण वाकाटक नृपति पृथ्वीषेण (प्रथम) के पुत्र रुद्रसेन द्वितीय के साथ हुआ। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इन तीनों राजवंशों के सत्ताकाल पर विचार करने पर यह अनुमान किया जाता है कि वाकाटक राजवंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति भारशिव राजवंश के चौथे राजा त्रयनाग तथा गुप्त राजवंश के संस्थापक राजा श्रीगुप्त का गमकालीन था। पुराणों में विन्ध्यशक्ति का शासनकाल जो ६६ वर्ष बताया गया है, वह वस्तुतः वाकाटकों का साम्राज्यकाल है। उसमें ३६ वर्ष विन्ध्य शक्ति का और ६० वर्ष प्रवीर अर्थात् प्रवरसेन का राज्य, इस प्रकार १६ वर्ष का वाकाटकों का साम्राज्यकाल बताया गया है। प्रवरसेन के पश्चात् उसके पौत्र रुद्रसेन प्रथम (भवनाग के दोहित्र) और उसके पश्चात् पृथिवीषेण प्रथम- इन दो वाकाटक राजापों का शासनकाल ज्ञात करना अवशिष्ट रह जाता है। प्रथिवीषेरण प्रथम का पुत्र रुद्रसेन द्वितीय, गुप्तसम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय का जामाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ई० सन् ३७५ में ' "समा:पण्णवति मात्या, पृथिवीं च समेष्यति ॥३६॥ (बापुपुराण, अनुषंगपादतमाप्ति विन्ध्यशक्तिसुताचापि, प्रवीरो नाम बीर्यवान् । मोरयन्तिपसमा पष्टि पूरी कांचनको ॥३७३॥ · [वही].. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वाकाटक राजवंश गुप्त साम्राज्य का अधिपति बना, यह प्रायः सभी इतिहासज्ञ स्वीकार करते हैं और मोटे तौर पर यही समय चन्द्रगुप्त द्वितीय के जामाता रुद्रसेन द्वितीय का भी होना चाहिए। कवि हरिषेण द्वारा उट्ट कित करवाये गये इलाहाबाद स्थित कौशाम्बी के स्तम्भलेख से यह स्पष्ट है कि गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने रुद्रसेन प्रथम (वाकाटक महाराजा) को कौशाम्बी के युद्धक्षेत्र में पराजित किया। समुद्रगुप्त का समय ई० सन् ३३५ से ३७५ के आसपास का माना जाता है और रुद्रसेन प्रथम का समय ई० सन् ३४ से ३४८ माना गया है।' . गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के जामाता रुद्रसेन द्वितीय के सिंहासनासीन होने का समय ई० सन् ३७५ मान लिये जाने पर पृथ्वीषेण प्रथम का समय स्वतः ही ३० सन् ३४८ से ३७५ तक का सिद्ध हो जाता है। इन तथ्यों से वाकाटक राजवंश के संस्थापक विन्ध्यशक्ति का शासनकाल ३६ वर्ष उसके पुत्र प्रवरसेन का ६० वर्ष, रुद्रसेन प्रथम का ४ वर्ष और पृथ्वीषेण प्रथम का शासनकाल २७ वर्ष का तथा इन चारों वाकाटक बंछ के राजाभों का कुल मिलाकर ई. सन् ३७५ तक १२७ वर्ष का शासनकाल सिद्ध होता है। इस प्रकार ३७५ में से १२७ घटाने पर वाकाटक राजवंश के संस्थापक विन्ध्यशक्ति के राज्यसिंहासनारूढ़ होने का समय ई० सन् २४८ प्रमाणित होता है । गुप्तवंश के संस्थापक श्री गुप्त का शासनकाल ई० सन् २४० से २८० तक का और भाराशिव राजवंश के चौथे राजा त्रयनाग का शासनकाल ई० सन् २४५ से २५० तक का अनुमानित किया जाता है। ऐसी स्थिति में विन्ध्यशक्ति गुप्तवंश के प्रथम राजा श्रीगुप्त और भाराशिव वंश के चौथे राजा प्रयनाग का समकालीन सिद्ध होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ राधाकुमुद मुकर्जी ने भी विन्ध्यशक्ति का लगभग यही समय अनुमानित किया है। विन्ध्यशक्ति ने कांचनका (बुंदेल खण्ड) में अपनी राजधानी स्थापित की और ई० सन् २४८ से २८४ तदनुसार वीर नि० सं०७७५ से ११ तक के ३६ वर्ष के शासनकाल में अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। इसके शासनकाल का विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता। वाकाटक सबाट प्रवरसेन (प्रबोर) विन्ध्यशक्ति की मृत्यु के पश्चात् वीर नि० सं० ८११ में प्रवरसेन कांचनका के राजसिंहासन पर बैठा। वीर नि० सं० ८११ से ८७१ तक के अपने ६० वर्ष The first of these kings was Rudradeva who is ideatified with Rudrasena I Vakataka (A.D. 344-48) and wbo must bave been deprived of the eastern part of his territory between jumos & Vidios, i. e. Buodelk hand.' (The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, p. 231 Thus we may assume a period of 150 years at the least for the reigns of the four kings from. Vindhyashakti I to Viodbyasbakti II and the date A. D. 250 for the foundation of Vakataka I dynasty by Vindhyashakti. (The Gupta Empiro, by Radbakumud Mookerfi, p. 43) Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् प्रवरसेन] सामान्य पूर्वघर-काल : प्रायं ब्रह्मद्वीपकसिंह ६४३ के शासनकाल में प्रवरसेन ने अनेक विजय अभियान किये और भारत के सुविशाल भू-भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। अपनी विजयों के उपलक्ष में उसने ४ अश्वमेध किये और अपने आपको सम्पूर्ण भारतवर्ष का सम्राट घोषित किया। भारशिवों ने लम्बे समय तक कुषाणों के साथ युद्धरत रहकर भारत को विदेशी दासता से मुक्त किया। अपनी उन महान् विजयों के उपलक्ष में भारशिवों ने जो दश अश्वमेध किये, इससे यही प्रतीत होता है कि उन्होंने भारत से कुषारण शासन का पूर्णतः उन्मूलन कर दिया। ऐसी स्थिति में अनुमान किया जाता है कि प्रवरसेन . के समक्ष विदेशी शक्तियों के साथ संघर्ष करने का कोई अवसर ही उपस्थित नहीं हप्रा और उसने भारशिवों, अन्य राजाओं एवं गणराज्यों के साथ युदरत रहकर उन पर विजय प्राप्त की। प्रवरसेन के बड़े पुत्र गौतमीपुत्र का भारशिव वंशी राजा भवनाग की पुत्री से विवाह हुमा । पुराणों में प्रवरसेन के ४ पुत्र होने का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवरसेन से पहले ही उसके बड़े पुत्र गौतमी पुत्र की मृत्यु हो गई, जिसके परिणामस्वरूप प्रवरसेन का पौत्र रुद्रसेन (प्रथम). अपने दादा के पश्चात् वाकाटक साम्राज्य का अधिकारी बना। प्रवरसेन के शेष तीन पुत्र भी अन्य राज्यों के अधिकारी बने। हबसेन प्रथम __ऊपर बताया जा चुका है कि रुद्रसेन (प्रथम) का ई० सन् ३४४ से ३४८ तक केवल ४ वर्ष ही शासन रहा । रुद्रसेन को अपने दादा से कांचनका का विशाल साम्राज्य और मातामह भवनाग से पुरिका का राज्य मिला था। समुद्रगुप्त ने इसे युद्ध में परास्त किया और इस प्रकार वाकाटक साम्राज्य के भग्नावशेषों पर गुप्त साम्राज्य का निर्माण हुआ। रुद्रसेन प्रथम के पश्चात् हुए वाकाटक वंश के अनेक राजा गुप्त साम्राज्य के करद रहे। . वाकाटक वंश के राजाओं का शासनकाल इस प्रकार है :१. विन्ध्यशक्ति प्रथम ई० सन् २४८ से २८४ २. प्रवरसेन प्रथम (गौतमीपुत्र) ,,, २८४ से ३४४ ३. रुद्रसेन प्रथम (भारशिवराज भवनाग का दौहित्र) , , ३४४ से ३४८ ४. पृथ्वीषेण प्रथम ., ३४८ से ३७५ ५. रुद्रसेन द्वितीय (चंद्रगुप्त द्वितीय का जामाता) , ३७५ से ३९५ ६. दिवाकरसेन की अभिभाविका प्रभावती गुप्ता . , , ३६५ से ४०५ ७. दामोदरसेन की अभिभाविका प्रभावती गुप्ता , ४०५ से ४१५ ८. प्रवरसेन द्वितीय ,, ४१५ से ४३५ ' यक्ष्यन्ति वाजपेयश्च, समाप्तवरदक्षिणः ।... ||३७४।। . वायुपुराण, अध्याय ६६] २ .तस्य पुत्रास्तु चत्वारो, भविष्यन्ति नराधिपाः ॥३७४॥ . [बही] १ समुद्रगुप्त की विजयों का हरिषेण हारा तैयार करवाया गया इलाहाबाद स्थित स्तम्भलेख । Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [रुद्रसेन प्रथम ९. नरेन्द्रसेन " , ४३५ से ४७० १०. पृथ्वीषेण द्वितीय ,,, ४७० से ४८५ ११. देवसेन , , ४८५ से ४६० १२. हरिषेण ,,, ४६० से ५२० वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा :१. विन्ध्यशक्ति ५. प्रवरसेन द्वितीय २. प्रवरसेन प्रथम ६. (अज्ञात नामा) ३. सर्वसेन ७. देवसेन ४. विन्ध्यसेन (विन्ध्यशक्ति द्वितीय) ८. हरिषेण २० मार्य ब्रह्मद्वीपिकसिंह - वाचनाचार्य २४. मार्य सिंह - युगप्रधानाचार्य प्राचार्य रेवतीनक्षत्र के स्वर्गगमन पश्चात् आर्य ब्रह्मद्वीपकसिंह वाचनाचार्य हुए । आपकी श्रमण-दीक्षा नन्दीसूत्र स्थविरावली के अनुसार अचलपुर में हुई। प्राचार्य देवद्धि ने नन्दीसूत्र की स्थविरावली में 'बंभगदीवगसीहे इस पद से आपको ब्रह्मद्वीप का सिंह एवं कालिक श्रुत की व्याख्या करने में अत्यन्त निपुण, धीर और उत्तम वाचक पद को प्राप्त करने वाला बताया है। __ आर्य सिंह के नाम के साथ ब्रह्मद्वीपक विशेषण से प्राचार्य देवद्धि ने सिंह नाम के अनेक मुनियों से प्रार्य सिंह को भिन्न बताने के लिए इन्हें 'ब्रह्मद्वीप का सिंह इस नाम से अभिहित किया है । ब्रह्मद्वीप शब्द को देख कर सहज ही ब्रह्मद्वीपिकी शाखा की स्मृति हो सकती हैं और ऐसा अनुमान होना भी स्वाभाविक है कि आर्य सिंह ब्रह्मद्वीपिका शाखा के मुनि होंगे। किन्तु ज्यों ही इनका रेवतीनक्षत्र के साथ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध और देवद्धि द्वारा कथित वाचकपदधरों का ध्यान आता है, तब विचार आता है कि ये प्राय सिंह वाचकवंश के ही विशिष्ट प्राचार्य दोने चाहिये। क्योंकि युगप्रधान परम्परा में रेवतीमित्र के शिष्य ब्रह्मद्वीपकसिंह का नहीं अपितु सिंह का उल्लेख मिलता है। कल्प स्थविरावली में स्थविर पार्य धर्म के शिष्य प्रार्य सिंह का नाम अवश्य उपलब्ध होता है। यदि. उन्हें ब्रह्मद्वीपिकी शाखा के प्राचार्य मान कर स्कन्दिलाचार्य का गुरु माना जाय तो समय का मेल बैठ सकता है। परन्तु नन्दीसूत्र की चूणि, वृत्ति' प्रादि में स्कंदिल को स्पष्ट रूप से वाचक प्राय सिंह के शिष्य के रूप में मान्य किया है। ___सम्भव है ब्रह्मद्वीपकसिंह का वाचनाचार्यकाल भी वीर नि० की ८ वीं । शताब्दी का मन्तिम काल रहा हो। दुष्षमाकालश्रमसंघस्तोत्र के अनुसार युगप्रधान प्राचार्य सिंह का काल इस प्रकार मान्य किया गया है :गरेषु नित-प्रसियनी देवी से बनगर निर्मतवावः तान वन्द सिमांचकनियान् . निन्दी स्वविरागनी, हारिमायावृत्ति, गा.] Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वघर-काल : भार्य सिह युगप्र० १४५ वीर नि० सं० ७१० में जन्म, १८ वर्ष पश्चात् ७२८ में दीक्षा, २० वर्ष सामान्य साधु-पर्याय और ७८ वर्ष युगप्रधानकाल पूर्ण कर वोर नि० सं० ८२६ में स्वर्गवास । वाचक आर्य सिंह को युगप्रधान सिंह से भिन्न मानने पर आर्य स्कंदिल का कार्यकाल २६ वर्ष अधिक होता है जबकि युगप्रधान आर्य सिंह को ही वाचक प्रार्य सिंह मानने से प्रार्य स्कन्दिल का कार्यकाल वीर नि० सं० ८२६ में प्राता है। इतिहास के विशेषज्ञ विद्वान् तथ्यों को ध्यान में लेकर निर्णय करें कि वाचक आर्य सिंह और युगप्रधान आर्य सिंह भिन्न प्राचार्य हैं अथवा एक। २०: गणाचार्य मानतुंग . प्राचार्य मानदेव के पश्चात् प्राचार्य मानतुंग बड़े ही प्रभावक प्राचाय हुए हैं। ये वाराणसी के ब्रह्मक्षत्रिय श्रेष्ठी धनदेव के पुत्र बताये गये हैं। उस समय वाराणसी में नग्न जैन मुनियों का आगमन हुमा। मानतुंग उनका उपदेश सुन कर भोगवासना से विरक्त हुए। मुनि चारुकीर्ति ने मानतुग की इच्छा देख कर माता-पिता की अनुमति से उसे मुनिधर्म में दीक्षित किया और दीक्षानन्तर मानतुंग का नाम महाकीत्ति रखा। कहा जाता है कि मुनि महाकोत्ति को अपनी बहिन द्वारा कमण्डलु के जल में असावधानी से रहे हुए जलीय जन्तु दिखाये जाने पर प्रेरणा हुई और उन्होंने प्राचार्य अजीतसिंह के पास श्वेताम्बरी दीक्षा स्वीकार की। एक बार राजा हर्ष ने मयूर और बाण की विद्वत्ता. एवं चमत्कारपूर्ण भक्ति को देख कर प्राचार्य मानतुंग को सादर निमन्त्रित किया । मन्त्री के आग्रह पर शासन-प्रभावना का सुअवसर जान कर प्राचार्य मानतुग राजभवन पधारे । महाराज हर्ष ने भी अभ्युत्थानपूर्वक अभिवादन कर कहा- "महात्मन् ! भूमण्डल पर ब्राह्मण कितने अतिशयसम्पन्न हैं। एक ने सूर्य की प्राराधना से अपने अंग का कुष्ट रोग मिटा दिया जब कि दूसरे ने (बारण ने) चण्डिका की उपासना से कटे हाथ पैर पुनः प्राप्त कर लिये। यदि आपकी भी शक्ति हों तो कुछ चमत्कार बताइये।" - राजा की बात सुन कर प्राचार्य मानतुंग ने कहा - "भूपाल ! हम गृहस्थ नही हैं, जो धन, धान्य, पुत्र, कलत्र आदि के लिये राजरंजन आदि किया करें। परन्तु शासन का उत्कर्ष ही हमारा कार्य है।" मुनि की बात सुन कर राजा ने कहा- "इनको बेड़ियों से जकड़ कर अन्धेरे कोठों में बन्द कर दिया जाय।" राजपुरुषों ने ४४ लोहमय बन्धनों से प्राचार्य मानतुंग को जकड़ कर अन्धेरे कमरों में बन्द कर ताले लगा दिये। प्राचार्य मानतुंग ने बिना किसी प्रकार के क्षोभ के एकाग्र मन से भगवान् श्री.ऋषभदेव की स्तुति रूप भक्तामर स्तोत्र की रचना प्रारम्भ की। स्तोत्र के ४४ श्लोक पूरे होते-होते ताले पौर Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [गणाचार्य मानतुंग कमरों के द्वार स्वतः ही खुल गये और प्राचार्य मानतुंग के सभी बन्धन कट गये । बन्धन-मुक्त प्राचार्य पूर्वाचल से उदीयमान भास्कर की तरह राजसभा में जा उपस्थित हुए। इस प्रकार मानतुंगसूरि के त्याग-तप और प्रतिभा के चमत्कार से प्रभावित राजा हर्ष प्रापका परम भक्त बन गया। प्राचार्य मानतुंग ने भी वीतराग-मार्ग का उपदेश सुना कर अपने स्थान की ओर प्रस्थान किया। उनके द्वारा निर्मित "भक्तामरस्तोत्र" आज भी जैन समाज में बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति के साथ घर-घर में गाया जाता है। ___ "भयहरस्तोत्र" भी प्राचार्य मानतुंग की रचना मानी जाती है। चिरकाल तक जैनशासन का उद्योत कर अपने सुयोग्य शिष्य गुणाकर को आचार्य पद पर नियुक्त कर संलेखनापूर्वक आप वीर नि० सं० ७५८ में स्वर्गस्थ हुए। तपागच्छ पट्टावली में बताया गया है कि प्राचार्य मानतुंग के पश्चात क्रमशः (२१) श्री वीरसूरि, (२२) श्री जयदेवसूरि, और (२३) देवानन्दसूरि गणाचार्य हुए। इन प्राचार्यों का विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होने के कारण यहां इनकी नामावली मात्र प्रस्तुत की गई है। युगप्रधानाचार्य प्रार्य सिंह के काल में गुप्त राजवंश का अभ्युदय पुण्यभूमि भारत को विदेशी शासकों की दासता से उन्मुक्त करने का जो देशव्यापी अभियान भारशिवों ने प्रारम्भ किया था, उसमें उन्होंने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। भारशिवों द्वारा प्रारम्भ किये गये स्वातन्त्र्य-संग्राम को वाकाटक राजवंश ने और अधिक व्यापक बनाया और उनके पश्चात् गुप्त राजवंश ने उसे अन्तिम रूप से सम्पन्न कर अफगानिस्तान, काश्मीर, नेपाल, आसाम और बंगाल से लेकर समुद्रपर्यन्त समस्त दक्षिण-पश्चिमी प्रदेशों तक भारत की चप्पा-चप्पा भूमि को एक सुदृढ़ शासनसूत्र में बांधकर सुविशाल गुप्त साम्राज्य की संस्थापना की। सभी इतिहासकारों एवं पाश्चात्य विद्वानों ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि गुप्त साम्राज्य के समय में भारत ने चहुंमुखी प्रगति की। इतिहासकारों का ' स्वयमुद्घटिते द्वारयन्त्रे संयमसंयतः । सदानुच्छखल : श्रीमानुच्छ खलवपुर्वभौ ।।१४१॥ [प्रभावक चरित्र, पृ० ११६] कतिपय कथाकारों द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि प्राचार्य मानतुंग को एक के अन्दर एक करके ४४ कोटरियों में अलग-अलग ४४ ताले लगा कर बन्द किया गया। प्राचार्य मानतुंग प्रादिनाथस्तोत्र के एक-एक श्लोक की रचना करते गये प्रौर कोटरियों के ताले व द्वार क्रमशः स्वतः ही खुलते गये । राजा हर्ष का समय वीर निर्वाण की १२वीं शताब्दी है। हर्ष की मृत्यु ई० सन् ६४८ में हुई। ऐसी स्थिति में प्राचार्य मानतुंग हर्ष के समकालीन नहीं हो सकते। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभावक चरित्रकार ने यहाँ राजा का नाम उल्लेख करने में स्खलना की है। -सम्पादक Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त राजवंश] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य सिंह युगप्र० ६४७ इस विषय में भी मतैक्य है कि गुप्त राजवंश का प्रादि संस्थापक श्रीगुप्त था। श्रीगुप्त के सत्ताकाल को निश्चित रूप से निर्णीत करने वाले प्रभिलेखादि अभी तक भारत में उपलब्ध नहीं हुए हैं। ई० सन् ६७२ में इ-त्सिग नामक एक चीनी यात्री भारत में पाया। उसके भारत यात्रा के विवरण श्रीगुप्त के सत्ताकाल पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं। इ-त्सिग ने अपने भारत-भ्रमण के विवरण में ई० सन् ६६० में लिखा है कि ५०० वर्ष पूर्व श्रीगुप्त ने चीनी तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिये मृगशिखावन के समीप एक मन्दिर का निर्माण करवा उसके व्ययभार को वहन करने के लिये २४ गाँव प्रदान किये। इत्सिग ने लिखा है कि मृगशिखावन नालन्दा से पूर्व में ५० स्टेग (अनुमानतः २५० मील) दूर, गंगा नदी के किनारे पर स्थित है। नालन्दा को इत्सिग ने महाबोधि से उत्तर-पूर्व में ७ स्टेग (लगभग ३५ माइल) दूरी पर अवस्थित बताया है। ... . इ-त्सिग के उपरिलिखित उल्लेखानुसार मगधराज श्रीगुप्त का समय ई० सन् १६० के प्रासपास का और उसके राज्य की सीमा नालन्दा से आधुनिक मुर्शिदाबाद तक होना अनुमानित किया जाता है । श्रीगुप्त के सत्ताकाल के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार राधाकुमुद मुकर्जी का अभिमत है कि गुप्त राजवंश के सम्पूर्ण शासनकाल पर गहराई से विचार करने पर श्रीगुप्त का सत्ताकाल ई० सन् १६० के स्थान पर ई० सन् २४० से २८० तक का अनुमानित किया जाता है। क्योंकि श्रीगुप्त के शासनकाल से ५०० वर्ष पश्चात् जनश्रुति के आधार पर एक विदेशी द्वारा उल्लिखित समय में थोड़ा फरक पाना अवश्यम्भावी है।' गुप्त महाराजा किस जाति अथवा वंश के थे - इस प्रश्न का समुचित समाधान गुप्त सम्राटों के किसी भी अभिलेख से नहीं होता। पाकाटक महाराजा रुद्रसेन द्वितीय की महारानी प्रभावती गुप्ता (चन्द्रगुप्त : द्वितीय : विक्रमादित्य की पुत्री) के पूना के ताम्रपत्रीय अभिलेख में गुप्त राजामों का 'धारण' गोत्र बताया गया है। गुप्तवंश के प्रादि संस्थापक श्रीगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र घटोत्कच मगध के राज्य सिंहासन पर बैठा । इतिहासज्ञों द्वारा इसका शासनकाल वीर नि० सं० ८०७ से ८४६ (ई० सन् २००-३१९) अनुमानित किया जाता है पर इसके पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा भनेक राज्यों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् वीर नि० सं० ८४६ में गुप्त संवत् प्रचलित किये जाने की ऐतिहासिक घटना को दृष्टि में रखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वीर नि० सं० ८४६ से कुछ वर्ष पहले ही इसका देहावसान हो चुका था। सम्राट् चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल में श्री घटोत्कचगुप्त नामक वैशाली का शासक (मुक्ति अधिकारी) था। उसके नाम के मुद्रालेख प्राप्त हुए हैं। • The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, p. 11 वाकाटक नृपति दिवाकरसेन और दामोदर-प्रवरसेन की माता एवं अभिमाविका का पूना • का ताजपत्राभिलेख । Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [गुप्त राजवंश श्री घटोत्कचगुप्त वस्तुतः महाराजा घटोत्कच का पश्चाद्वर्ती कुमारामात्य मात्र था न कि गुप्त राजाओं के वंशवृक्ष का महाराजा ।' गुप्त नृपति घटोत्कच के सम्बन्ध में उसके नामोल्लेख के अतिरिक्त और कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। २१ (२५) आर्य स्कन्दिल-वाचनाचार्य वाचक वंश परम्परा में आर्य स्कन्दिल बड़े प्रभावक और प्रतिभाशाली प्राचार्य हो गये हैं। उन्होंने अति विषम समय में श्रुतज्ञान की रक्षा कर जो शासन की सेवा की है, वह सदा जैन-इतिहास में स्वरिणम अक्षरों से लिखी जाती रहेगी। हिमवन्त स्थिविरावली के अनुसार प्रार्य स्कन्दिल का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : "मथुरा के ब्राह्मण मेघरथ और ब्राह्मणी रूपसेना के यहां आपका जन्म हुआ। गर्भकाल में माता ने चन्द्र का स्वप्न देखा अतः पुत्र का नाम सोमरथ रखा गया । आपके माता-पिता प्रारम्भ से ही जैन धर्मावलम्बी थे। एक बार ब्रह्मद्वीपक आचार्य सिंह विहारक्रम से मथुरा पधारे। उनके धर्मोपदेश को सुनकर सोमरथ ने वैराग्य भाव से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। गुरु ने दीक्षा के समय आपका नाम स्कन्दिल रखा। मुनि स्कन्दिल ने अपने गुरु प्रार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह की सेवा में निरत रहते हुए एकादशांगी एवं पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। आर्य सिंह ने स्कन्दिल को सुयोग्य एवं प्रतिभाशाली समझकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। तदनुसार प्रार्य सिंह के स्वर्गगमन के पश्चात् प्रार्य स्कन्दिल को संघ द्वारा वाचनाचार्य पद पर नियुक्त किया गया।" कल्प स्थविरावली में प्रार्य संडिल्ल को काश्यप गोत्रीय प्रार्य धर्म का शिष्य बताया गया है। संडिल्ल और स्कन्दिल को एक मानकर कुछ लेखकों ने स्कंदिलाचार्य को काश्यप गोत्रीय आर्य सिंह के शिष्य प्रार्य धर्म का शिष्य बताया है, जबकि नन्दीसूत्र-स्थविरावली में उल्लिखित वाचक प्रार्य स्कन्दिल रेवतीनक्षत्र के शिष्य आर्य ब्रह्मद्वीपिकसिंह के अन्तेवासी माने गये हैं। हिमवन्त स्थविरावली में भी यही आर्य ब्रह्मद्वीपिक सिंह स्कन्दिलाचार्य के गुरु माने गये हैं। इन्हीं ब्रह्मद्वीपिकसिंह के मधुमित्र और प्रार्य स्कन्दिल नामक दो प्रमुख शिष्य थे। प्राचार्य परम्परागों को गहराई से देखने पर प्रतीत होता है कि आर्य सिंह नाम के अनेक प्राचार्य हुए हैं। पहले पार्यवज के गुरु सिंह गिरी। दूसरे प्रार्य धर्म के गुरु काश्यपगोत्रीय प्रार्य सिंह । इनके गुरु का नाम भी प्रार्य धर्म बताया गया है। तीसरे रेवती नक्षत्र के शिष्य पार्य ब्रह्मद्वीपिक सिंह । समान नाम वाले इन तीन प्राचार्यों में वस्तुतः दो प्रार्य सिंह आर्य सुहस्ती की परम्परा के हैं, जबकि तीसरे ग्रायं ब्रह्मद्वीपिकसिंह रेवती नक्षत्र के शिप्य और प्रार्य महागिरि की १ The Gapla Empire', Radhakumud Moukerji, p. 12. Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायं स्कन्दिल वाचना० ] सामान्य पूर्वघर - काल : श्रार्य स्कन्दिल परम्परा के प्राचार्य माने गये हैं । हिमवन्त स्थावरावली भी इसी बात की पुष्टि करता है । सम्भव है प्रार्य समित द्वारा प्रवर्तित ब्रह्मद्वीपिक शाखा से भिन्न ये कोई तत्प्रदेशवर्ती साधु-समुदाय के प्रमुख साधु रहे हों। पट्टावली और परम्परा लेखक स्वयं भी कितनी ही जगहों पर पूर्णतः स्पष्ट नहीं हो पाये इसलिये अनेक स्थानों पर नामसाम्य के कारण एक का परिचय उन्होंने दूसरे के साथ जोड़ दिया है, जिससे कतिपय स्थलों पर विपर्यास भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । ६४६ स्कन्दिलाचार्य का कार्यकाल वीर नि०सं० ८२३ से ५४० के प्रास-पास का प्रायः सर्वसम्मत रूप से स्वीकार किया गया है पर स्थविरावलीकार ने वि० सं० १५३ मे श्राचार्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में साधु-समुदाय को एकत्रित करने का उल्लेख किया है, जो स्थविरावली में उद्धृत गन्धहस्ती के विवरणकाल को बताने वाली गाथाओं से भी बाधित होता है । प्राचार्य गन्धहस्ती ने स्कन्दिलाचार्य के प्रनुरोध से विक्रम सं० २०० में आचारांग का विवरण पूर्ण किया, इस प्रकार का उल्लेख हिमवन्त स्थविरावली में उद्धत गाथाओं में किया गया है। संभव है लिपिदोष अथवा दृष्टिदोष 'विक्रमार्कस्य त्रिशताधिक त्रिपंचाशत संवत्सरे' इस पद को - विक्रमार्कस्यैकशताधिक त्रिपंचाशत संवत्सरे - ' समझ लिया गया हो। इस सम्बन्ध में प्राचीनतम प्रति से निर्णय किया जा सकता है । इस प्रकार आर्य स्कन्दिल का कार्यकाल वीर नि० सं० ८२३ के पश्चात् का मानने पर ही प्रागे के घटनाक्रम hat fनर्विरोध संगति बैठ सकती है। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में भी आर्य स्कन्दिल का समय वीर नि० सं० ८२३ ही दिया हुआ है । मेरुतुरंग ने स्पष्ट लिखा है कि विक्रम से ११४ वर्ष पश्चात् श्रार्य वज्रस्वामी हुए और प्रार्य व स्वामी से २३६ वर्ष पश्चात् श्रार्य स्कन्दिल हुए।' वीर निर्वारण से ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम संवत् चला और उससे ३५३ वर्ष पश्चात् आर्य स्कन्दिल हुए। इस प्रकार आर्य स्कन्दिल का समय वीर नि० सं० ८२३ ठीक बैठता है । यह समय बड़ा ही विषम समय था । एक ओर सौराष्ट्र में बौद्धों और जैनों के बीच संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर मध्य भारत में हूरणों के साथ गुप्तों का भयंकर युद्ध चल रहा था। उसी विषम समय में १२ वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा और उस दीर्घकालीन दुष्काल ने भयंकर संघर्षों से पूर्ण उस संक्रान्तिकाल की विभीषिका को और अधिक बढ़ा दिया। इस प्रकार के संकटपूर्ण समय में जैन मुनियों और विशेषतः श्रुतधरों की संख्या घटते घटते प्रति न्यूनं रह गई । फलतः आगम-विच्छेद की स्थिति आ चुकी थी। इस प्रकार के अति विकट समय में सुभिक्ष होने पर वी० नि० सं० ८३० से ८४० के मध्यवर्ती किसी समय में स्कन्दिल सूरि ने उत्तर-भारत के मुनियों को मथुरा में एकत्रित कर आगम १ यतः श्री विक्रमात् ११४ वर्षेर्वचस्वामी, तदनु २३६ वर्षे: स्कन्दिल:.. 1 [मेरुतुंगीया विचारश्रेणी ] Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [प्रायं स्कंदिल वाचना ० वाचना की । जैसा कि एक प्राचीन गाथा में कहा गया है :- "दुर्भिक्ष के समाप्त होने पर प्रार्य स्कन्दिलसूरि ने श्रमरणसंघ को मथुरा में एकत्रित कर अनुयोग प्रारम्भ किया ।" " आर्य स्कन्दिल के तत्वावधान में आगमों की वांचना हुई और अनुयोग व्यवस्थित किया गया, जो आज भी संघ में प्रचलित है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए प्रबल प्रमाण के रूप में नन्दी - स्थविरावलो की निम्नलिखित गाथा पर्याप्त है : सिमिम प्रोगो पयरइ अज्जावि श्रड्ठभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ||३३|| अर्थात् जिनके द्वारा संगठित सुव्यवस्थित अनुयोग ( प्रागमपाठ) भाज भी भरतक्षेत्र में प्रचलित है, उन महान यशस्वी आर्य स्कन्दिल को प्रणाम करता है । इस गाथा की टीका करते हुए मलयगिरि ने लिखा है "स्कन्दिलाचार्य के समय में दुष्षमाकाल के प्रभाव से बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा। उस भयंकर दुर्भिक्ष के समय में साधुओं को प्रहार की प्राप्ति दुर्लभ हो गई। इससे पूर्व सूत्रार्थ - ग्रहरण एवं पठित का परावर्तन प्रायः नष्ट हो चुका था । बहुत सा प्रतिशययुक्त श्रुत भी इस काल में विनष्ट हो गया तथा परावर्तन न हो सकने के कारण अंग - उपांगगत श्रुत भी पूर्ण रूप में नहीं रहा । जब बारह वर्ष का दुर्भिक्ष समाप्त होने पर सुभिक्ष हुआ तो मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की प्रमुखता में श्रमरणसंघ ने एकत्र मिलकर आगम-वाचना प्रारम्भ की । जिस-जिस स्थविर को जो-जो श्रुतपाठ स्मरण था, उसे सुन-सुन कर श्रागमों के पाठ को स्कन्दिलाचार्य ने सर्वानुमति से सुनिश्चित किया । इस प्रकार कालिकश्रुत और पूर्वगत को सम्यग् अनुसन्धान के पश्चात् सुव्यवस्थित किया गया । मथुरा में यह संघटना हुई इसलिए इसको माथुरी वाचना कहते हैं और यह उस समय के युगप्रधान स्कन्दिलाचार्य को मान्य थी एवं अर्थरूप से उन्होंने ही शिष्यों को उसका अनुयोग दिया था इसलिए वह स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहलाता है । दूसरे प्राचार्यों का कहना है कि दुर्भिक्ष से कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ " "केवल अनुयोग करने वाले सभी प्रमुख प्राचार्य दुर्भिक्ष के समय में काल के ग्रास बन चुके थे । केवल एक स्कन्दिलाचार्य १ दुभिक्खम्मि पट्टे, पुरणरवि मिलिन समरणसंघाश्रो । fuge गो, पवईयो खंदिलो सूरि ।। [पट्टावली समुच्चय, परिशिष्ट ] Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्य स्कंदिल-वाचना•] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं स्कन्दिल ६५१ ही बचे रह गये थे अतः उन्होंने दुभिक्ष के अन्त में मथुरा में पुनः अनुयोग (साधुओं को सूत्रार्थ का अध्यापन) प्रारम्भ किया।' कहा जाता है कि १२ वर्षीय दृष्काल में भिक्षा न मिलने के कारण कितने ही जैन मुनि वैभारपर्वत तथा कुमारगिरि पर अनशन कर स्वर्गवासी हो गये। दुष्काल के पश्चात् जब आर्य स्कन्दिल ने मथुरा में जैन मुनियों की महती सभा प्रायोजित की तो उस समय स्थविर मधुमित्राचार्य और आर्य गन्धहस्ती प्रमुख १२५ निग्रंथ उसमें उपस्थित थे। उन निग्रंथों के स्मृतिपटल पर अंकित अवशिष्ट कण्ठस्य पाठों को मिला कर प्राचार्य गन्धहस्ती आदि की सम्मति से प्रार्य स्कंदिल ने ११ अगों का संकलन किया । वे ही सूत्र माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह भी कहा जाता है कि मथुरा निवासी प्रोस वंशीय श्रावक पोलाक ने गन्धहस्ती के विवरण सहित उन सूत्रों को ताड़पत्रादि पर लिखा कर मुनियों को प्रदान किया। जिस समय मथुरा में प्राचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगम-वाचना हुई, लगभग उसी समय में दक्षिण के श्रमणों को एकत्रित कर प्राचार्य नागार्जुन ने भी वल्लभी में एक भागम-वाचना की। इस प्रकार के उल्लेख 'कहावली', 'योगशास्त्र प्रकाश' मोर 'ज्योतिषकरण्डक' आदि में उपलब्ध होते हैं । दुभिक्ष की समाप्ति के पश्चात् मथुरा और वल्लभी में हुई दोनों आगमवाचनामों का उल्लेख करते हुए भद्रेश्वरसूरि ने अपने ग्रन्थ 'कहावली' में लिखा है कि मथुरा में विशाल आगमज्ञान के धनी स्कन्दिल नाम के प्राचार्य और वल्लभी में नागार्जुन नामक प्राचार्य थे। दुष्काल के समय में उन महान् विरक्त आचार्यों ने साधुनों को दूर-दूर के देशों में भेज दिया। उस संकटकाल को किसी न किसी 'प्रयायमनुयोगोधभारते व्याप्रियमाणः कथं तेषां स्कन्दिलनाम्नामाचार्याणां सम्बन्धी ? उच्यते, इह स्कन्दिलाचायंप्रतिपत्तो... ... ..'द्वादशवार्षिक दुभिक्षमुदपादि तत्र चवं ये महति दुमिमे भिक्षालाभस्यासंभवादवसीदतां साधूनामपूर्वार्थग्रहणपूर्वार्थानुस्मरणश्रुतपरावर्तनानि मूलत एवापजग्मुः । श्रुतमपि चातिशायिप्रभूतमनेशत् । अंगोपांगादिगतमपि भावतो विप्रणष्टम् । तत्परावर्तनादेरभावात्, ततो द्वादशवर्षानन्तरमुत्पन्ने सुभिक्षे मयुरापुरि स्कन्दिलाचार्यप्रमुखश्रमणसंधेनंकत्र मिलित्वा यो यत् स्मरति स कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वश्रुतं च किंचिदनुसंधाय घटितं, यतश्चतन्मपुरापुरि संघटितं इयं वाचना "मापुरी"त्यभिधीयते, सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तरेव चार्थतः शिष्य. बुद्धि प्रापितेति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां सम्बन्धीति व्यपदिश्यते । प्रपरे पुनरेवमाहुः न किमपि श्रुतं दुभिभवादनेशत्, किन्तु तावदेव तत्काले तमनुवर्तते स्म । केवलमम्ये प्रषाना येऽनुयोगधराः ते सर्वेऽपि दुभिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कंदिलसूरयो विद्यन्ते स्म । ततस्तैर्दुभिक्षापगमे मयुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्तित इति वाचना माथुरीति व्यपविम्यते, अनुपोगाच तेषामाचार्याणामिति ।" [नन्दीसूत्र, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ५१ (२) मधुरानिवासिना श्रमणोपासकवरेण मोसवंशविभूषणेन पोलाकाभिधेन तत्सकलमपि प्रवचन गंधहस्तिकृतविवरणोपेतं तालपत्रादिषु लेखयित्वा भिक्ष म्यः स्वाध्यायार्थ समर्पितम् । [हिमवन्त स्थविरावली] Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मामं स्कंबिम-वाचता. प्रकार बिताकर सुकाल होने पर वे साधु पुनः मिले । स्वाध्याय करते समय उन्होंने अनुभव किया कि जो कुछ उन्होंने पहले अध्ययन किया था, वह आगमजान अनेक स्थलों की विस्मृति के कारण खंडित हो गया है। कहीं श्रुतज्ञान क्निष्ट न हो जाय, इस विचार से उन दोनों प्राचार्यों ने आगमों का उद्धार करना प्रारम्भ किया। जो पूरी तरह स्मरण था, उसको उसी प्रकार रख लिया गया और जो-जो स्थल विस्मृति के कारण नष्ट हो चुके थे, उनको पूर्वापर सम्बन्ध से सूत्रों के अनुसार पुनः सुसंगठित किया गया।' वाचनाभेद का कारण बताते हुए कहावलीकार ने लिखा है कि – 'मदुरा और वल्लभी में पृथक्-पृथक् हुई आगम-वाचनामों में प्रागमों का उद्धार करने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन मिल नहीं सके। उनका स्वर्गवास हो गया। इसलिये उनके द्वारा उद्धरित सिद्धान्तों में समानता होने पर भी कहींकहीं पर जो वाचनाभेद रह गया था, वह वैसा ही बना रहा। पापभीरू पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने उसे नहीं बदला। फलस्वरूप विवरणकारों ने भी 'नागार्जुनीयाः पुनः एवं कथयन्ति' इस प्रकार के उल्लेख से वाचनाभेद सूचित किया। योगशास्त्र की वृत्ति में भी उपरोक्त दोनों वाचनामों का उल्लेख करते हुए वत्तिकार ने लिखा है कि नागार्जुन और स्कन्दिलाचार्य ने दुष्षमाकाल के प्रभाव से जिनवचन को नष्टप्राय समझकर पुस्तकों में लिखा।' ___ इसी प्रकार ज्योतिषकरण्डक की टीका में भी मथुरा और वल्लभी में हुई वाचनाओं तथा उन दोनों वाचनामों में परस्पर वाचना-भेद होने का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि विस्मृत सूत्र एवं अर्थ को याद करके व्यवस्थित करने में वाचनाभेद हो जाना अवश्यम्भावी है। 'अस्थि महराउरीए सुयसमिद्धो, खन्दिलो नाम सूरि तह वलहीनयरीए नागज्जुणो नाम सूरि । तेहिं य जाए वरिसीए दुक्काले निवउ भावमो वि फुट्टिकाऊरण पेसिया दिसोदिसि साहवो गमिउं च कहवि दुत्थं ते पुणो मिलिया सुगाले, जाव सज्झायंति ताव खंडुखुरूडीहूयं पुष्वाहियं । तमो मा सूयविच्छित्ती होइत्ति पारद्धो सूरीहिं सिद्धन्तुद्धारो। तत्थवि जन वीसरियं तं तहेव संठवियं पम्हुवट्ठाणे उण पुन्वावराउत सुतत्थाणुसारमो कया संघडणा। [कहावली, २६८ (मप्रकाशित)] २ परोप्परासंपन्नमेलावा य तस्समयानो खंडिलनागज्जुणायरिया कालं काउं देवलोगं गया तेण तुल्लयाए वि तदुरियसिद्धताणं जो संजाप्रो कथमवि वायणभेप्रो सोय न चालिमो पच्छिमेहि । तमो विवरणकारेहि वि "नागज्जुरणीया उण एवं पढ़ती" ति समुल्लिगिया तहेवायाराइसु । - [वही] 3 जिनवचनं च दुःषमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । [योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २०७] ४ इह हि स्कंदिलाचार्यप्रवृत्ती दुष्षमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिक सर्वमप्यनेशत् । ततो दुभिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तथा एको वलभ्यामेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदः न काचिदनुपपत्तिः ।" . [ज्योतिषकरण्डक टीका]. Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५३ माय स्कंदिल-वाचना•] सामान्य पूर्वधर-काल : पायं स्कन्दिल आगमज्ञान को नष्ट होने से बचाकर प्रार्य स्कन्दिल ने जिन-शासन की अमूल्य सेवा के साथ-साथ मुमुक्षों, तत्त्वजिज्ञासुमों एवं साधकों का जो असीम उपकार किया है, उसके लिये जिन-शासन में प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ उनका स्मरण किया जाता रहेगा। प्रागमवाचना की समाप्ति के पश्चात् कितने वर्ष तक आर्य स्कन्दिल प्राचार्य पद पर रहे, यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, केवल अनुमानित कालं ही बताया जा सकता है। सम्भव है माप वीर नि० सं० ८४० के प्रासपास किसी समय में स्वर्गाधिकारी हुए हों। आपने अन्तिम समय में अनशन एवं समाधिपूर्वक मधुरा नगरी में प्राणोत्सर्ग किया। प्राचार्य स्कन्दिल और नागार्जुन भागमवाचनाओं के पश्चात् परस्पर मिल नहीं सके, इसी कारण दोनों वाचनाओं में रहे हुए पाठ-भेदों का निर्णय अथवा समन्वय नहीं हो सका। २२ (२६) दिमवन्त क्षमाश्रमण-वाचनाचार्य प्राय स्कन्दिल के पश्चात् आर्य हिमवान् वाचनाचार्य हुए। आपके जन्म, दीक्षा प्रादि का स्पष्ट काल-निर्देश उपलब्ध नहीं होता। केवल नंदीसूत्रस्थ स्थविराक्ली से प्रापका थोड़ा सा परिचय प्राप्त होता है। नंदी-स्थविरावली में प्राचार्य देवदि ने प्राय हिमवन्त की स्तुति करते हुए कहा है :- . ततो हिमवंतमहन्तविक्कमे धिइपरक्कममणंते । सज्मायमणंतधरे, हिमवन्ते वंदिमो सिरसा ॥३३॥ कालिप्रसुयप्रणुप्रोगस्स, धारए धारए य पुव्वाणं । हिमवंतखमासमणे, वंदे णागज्जुणायरिए ॥३४॥ स्थविरावलीकार प्रार्य देववाचक ने आर्य हिमवन्त के विक्रम की हिमालय पर्वत से तुलना की है। इसका अभिप्राय स्पष्ट करते हुए रिणकार ने बताया है :"जिनका यश उत्तर में हिमवान् पर्वत व शेष दिशाओं में समुद्र तक फैला हुआ है और जो विशिष्ट सामर्थ्ययुक्त, कुल, गण एवं संघ के हित में प्रतिवादियों पर विजय प्राप्त करने एवं विशिष्ट लब्धिसम्पन्न होने के कारण महान् पराक्रमशाली तथा परीषह-उपसर्ग-सहन एवं तपविशेष में भी धृति-बल से महान थे, उन महान माचार्य हिमवंत को प्रणाम करता हूँ । जैसा कि कहा है : "महंत विक्कमो कहं- उच्यते सामर्थ्यतो महन्ते वि कूलगरण-संघ पोयणे तरति ति-परप्पवादिजयण वा विशेषबललब्धिसंपन्नतणतो वा महंत विक्कमो, महवा परिसहोवसग्गे तवविसेसे वा घितिबलेण परक्कमंतो महंतो। अणंत गम पाजवत्तरातो परतधरो तं महंत हिमवंत सामं वंदे ।' 'मौलि, पृ० १०, गा० ३३ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [हिमवंत क्षमा० वा. देवद्धि द्वारा प्रणीत उपरोक्त गाथानों से यह स्पष्टतः प्रतीत होता है कि हिमवंत क्षमाश्रमण कई पूर्वो के ज्ञाता और समर्थ व्याख्याता-वाचनाचार्य थे। उन्होंने दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर जैन धर्म का उल्लेखनीय प्रचार एवं प्रसार किया था। प्रचारक्षेत्रों में आने वाले कष्टों को भी उन्होंने बड़े धैर्य के साथ सहन किया। नंदीसूत्र-स्थविरावली के अनुसार प्राचार्य हिमवान् (हिमवन्त) स्कन्दिलाचार्य के शिष्य माने गये हैं। आपके जन्म, दीक्षा, प्राचार्यकाल एवं स्वर्गगमन विषयक स्पष्ट उल्लेख के नहीं होते हुए भी इतना तो कहा जा सकता है कि आप वीर को नौवीं शताब्दी के मध्यवर्ती काल के प्राचार्य होने चाहिए। २३ (२७) प्राचार्य नागार्जुनः वाचनाचार्य हिमवन्त क्षमाश्रमण के पश्चात् आर्य नागार्जन वाचनाचार्य हए। कहा जाता है कि नागार्जुन ढंक नगर के क्षत्रिय संग्रामसिंह के पुत्र थे। उनकी माता का नाम सुव्रता था । नागार्जुन के गर्भ में आते ही माता ने स्वप्न में सहस्र फन वाला नाग देखा, इसलिये बालक का नाम नागार्जुन रखा गया। कहा जाता है कि नागार्जुन ने बाल्यावस्था में ही एक सिंह को मार गिराया और प्रारम्भ से ही प्रबल साहसी होने के कारण पर्वतों की गुफाओं एवं जंगलों में घूम-घूम कर वनवासी महात्माओं के संसर्ग से वनस्पतियों, जड़ियों और रसायनों द्वारा रस बनाना सीख लिया। उसने बचपन से ही पादलिप्तसूरि के अद्भुत चमत्कारों की बात सुन रखी थी अतः एक दिन प्राचार्य पादलिप्तसूरि के पास उनके किसी शिष्य के माध्यम से उसने एक रसकूपिका पहुंचाई। प्राचार्य ने रसकूपिका में भरे रस को एक पत्थर पर उंडेल दिया और उसमें अपना प्रस्रवण भर उसे नागार्जुन के पास लौटा कर कहला भेजा कि वह अपनी रसकूपिका सम्हाल ले । नागार्जुन ने भी उस रसकूपिका को पत्थर पर दे मारा । कूपिका को पत्थर पर पछाड़ते ही पत्थर में अग्नि प्रदीप्त हो उठी और वह पत्थर तत्काल स्वर्ण के रूप में परिवर्तित हो गया। यह देख कर नागार्जुन दंग रह गया और पादलिप्तसूरि के पास जाकर उनके चरणों में गिर गया। उसी दिन से नागार्जुन प्राचार्य पादलिप्त का परम भक्त बन कर उनके पास रहने लगा । नागार्जुन इतना प्रतिभावान् था कि वह पादलिप्तसूरि के पैरों के लेप को संघ-संघ कर १६० वनस्पतियों के गुण-धर्म आदि से परिचित हो गया। लेप द्वारा वह स्वयं गगन-विचरण की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने लगा। पर एक वस्तु की अपूर्णता के कारण वह कुछ दूर तक आकाश में गमन करने के पश्चात् पृथ्वी पर गिर पड़ता। यह जान कर प्राचार्य ने उसकी सूक्ष्म बौद्धिक प्रगल्भता से प्रसन्न हो कर कहा - "वत्स ! तुम्हारा औषधविज्ञान निस्संदेह गवेषगापूर्ण है पर इसमें कुछ गुरुगम्य ज्ञान की न्यूनता रह गई है।" Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागार्जुन वाचना० ] सामान्य पूर्वधर - काल : प्राचार्य नागार्जुन ६५५ प्राचार्य ने मार्ग-दर्शन करते हुए कहा - " इस प्रौषधि को चावल के धोवन प्रौर कांजी में घिस कर लेप किया जाय तो गगन में सरलता से गमन किया जा सकता है ।" तदनन्तर आचार्य ने उसे यह भी शिक्षा दी कि वह सदा भौतिक विभूतियों के प्रलोभनों से दूर रह कर प्रन्तर्मन से वीतराग मार्ग का श्राराधन करता रहे, इसी में उसकी श्रात्मा का सच्चा कल्याण निहित हैं । उपरोक्त उल्लेख में, नागार्जुन ने पादलिप्त से विद्या ग्रहरण की, यह तो बताया गया है, पर उसने कब और किसके पास दीक्षा ग्रहण की यह नहीं बताया गया है । यहाँ यह विचारणीय है कि प्रा० पादलिप्त का समय वीर नि० सं० ५६७ से पूर्व का है। नंदीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य हिमवन्त के पश्चात् नागार्जुन का उल्लेख किया गया है। तदनुसार चूरिंगकार जिनदास द्वारा नंदी चूरिंग में प्रोर हिमवन्त स्थविरावली के अंत में स्पष्ट रूप से प्रापको हिमवन्त का शिष्य बताया गया है । प्राचार्य देवद्ध ने नन्दी स्थविरावली में निम्नलिखित शब्दों में आपकी स्तुति की है : मिउमद्दव संपन्ने, श्रारणुपुव्विवायगत्तणं पत्ते । मोहसुयसमायारे, नागज्जुरगवायए ( गं ) वंदे ||३६|| अर्थात् - जो सरलता श्रादि मनोज्ञ गुरणों से संपन्न हैं और जिन्होंने क्रमश: योग्यता का विकास करते हुए वाचक पद की प्राप्ति की, उन प्रोधश्रुत श्रर्थात् विधिमार्ग की समाचररणा करने वाले वाचक नागार्जुन को वन्दन करता हूँ । गाथा में प्रयुक्त 'प्रागुपुव्वि' पद वस्तुतः विशिष्ट रूप से विचारणीय है, जो अनुक्रम से वाचक पद की प्राप्ति बताता है। यहां अनुक्रम शब्द से श्रुतग्रहण का क्रम- पौर लघुवृद्ध की अपेक्षा बताई गई है । चूर्णिकार ने भो इसी अर्थ को मान्य किया है ।" प्रानुपूर्वी से वाचक पद प्राप्त करने की बात का अभिप्राय तत्कालीन प्राचार्य परम्परा के क्रम को देखने से जाना जा सकता है । इतिहास के प्राप्त उल्लेखानुसार प्रार्य स्कन्दिल, श्रार्य हिमवान् और श्रार्य नागार्जुन समकालीन मोर वाचनाचार्य माने गये हैं । नन्दी स्थविरावली में नागार्जुन को हिमवन्त क्षमाश्रमरण का पश्चाद्वर्ती आचार्य बताया गया है, जब कि युगप्रधान पट्टावली श्रोर दुष्षमाकाल श्रमरणसंघस्तोत्र में नागार्जुन को प्रार्य सिंह के पश्चात् युगप्रधान माना गया है । निर्दिष्ट काल श्रीर क्रम को ध्यान में रख कर विचारने से ऐसा प्रतीत होता है कि वीर नि० सं० ८२६ में युगप्रधान प्रार्य सिंह के स्वर्गवास काल में प्रार्य स्कन्दिल को विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न और बड़ा मान कर वाचक पद प्रदान किया गया और उसी समय युवा मुनि नागार्जुन युगप्रधानाचार्य नियुक्त किये गये । "धारणुपुवि" - सामाइप्रादि सुतग्गहणेणं कालतो य पुरिम परियायत्तणेण पुरिसारणुपुव्वितो य वायगतरणं पत्तो । [ नंदी चूरिंग (पुण्य विजयजी) पृ० १० गा० ३५ ] Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाप [मागार्जुन वाचनमा फिर वीर सं० ८४० के लगभग वाचनाचार्य आर्य स्कन्दिल के स्वर्गस्थ होते ही ज्येष्ठ मुनि हिमवान् को वाचनाचार्य नियुक्त किया और हिमवान् के स्वर्ग गमनानन्तर अन्य वाचनाचार्य के अभाव में नागार्जुन को ही युगप्रधानाचार्य के कार्यभार के साथ वाचनाचार्य का पद भी सम्हला दिया गया। ऐसा मानने पर आर्य स्कन्दिल आर्य हिमवान् और नागार्जुन के समकालीन और वाचनाचार्य होने की समस्या सहज ही हल हो सकती है। . नन्दी सूत्र के चूर्णिकार जिनदास मे भी अनुक्रम से वाचक पद प्राप्त करने का यही अर्थ - 'पुरिसारणपुग्विनो' पद से मान्य किया है। जैसा कि उन्होंने कहा है - "सामायिक आदि श्रुतग्रहण से तथा काल की अपेक्षा पूर्वकालीन दीक्षापर्याय प्रोर पुरुषानुक्रम से नागार्जुन ने वाचक पद प्राप्त किया।" चूरिणकार के इस विवेचन से हमारे अनुमान की स्पष्टतः पुष्टि हो जाती है। आर्य स्कंदिल के प्रकरण में बताया गया है कि जब मथुरा में प्रार्य स्कंदिल ने आगम-वाचना की, उस समय नागार्जुन ने भी दक्षिणापथ के श्रममा संघ को एकत्र कर वल्लभी में वाचना की। नागार्जुन द्वारा प्रानुपूर्वी से वाचकपद प्राप्त करने की बात को मानने पर इसकी संगति भी बराबर बैठ सकती है । - कुछ लेखकों ने नागार्जुन को योगरत्नावली, योगरत्नमाला और अनेकाक्षरी प्रादि ग्रन्थों का रचनाकार माना है। ये दोनों नागार्जुन एक हैं या भिन्न-भिन्न, यह कहना सरल नहीं । विशेषज्ञ इस पर अनुसन्धान करें, यह अपेक्षित है। युगप्रधान-यन्त्र के अनुसार युगप्रधानाचार्य नागार्जुन के जीवन की प्रमुख घटनाओं का कालक्रम इस प्रकार है : "नागार्जुन का वीर नि० सं० ७९३ में जन्म, १४ वर्ष की अवस्था अर्थात् वीर नि० सं० ८०७ में दीक्षा, १६ वर्ष तक सामान्य साधुपर्याय का पालन करने के पश्चात् वीर नि० सं० ८२६ में युगप्रधानपद और ७५ वर्ष तक प्राचार्य पद से जिनशासन की सेवा करने के पश्चात् वीर नि० सं० ६०४ में १११ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास । प्रार्य स्क्रन्दिल एवं नागार्जुन के समय के राजवंश प्रार्य नागार्जुन के युगप्रधानत्वकाल में गुप्तवंश के महाराजा घटोत्कच का वीर नि० सं० ८४६ तक शासन रहा । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त वंश के राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त प्रथम घटोत्कच की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त (पथम) मगध के राज्यसिंहासन पर ग्रामीन हुअा। इतिहासविदों का अनुमान है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का शासनकाल ई० सन :१६ मे ३३५, तदनुसार वीर नि० सं० ८४६ से ८६२ तक रहा। इतिहास के लब्धप्रतिष्ठ पाश्चात्य विद्वान् फ्लीट ने चन्द्रगुप्त द्वारा Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त प्रथम] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य नागार्जुन ६५७ प्रचलित किये गये गुप्त संवत्, नेपाल के लिच्छवी राजा जयदेव (प्रथम) के साथ चन्द्रगुप्त (प्रथम) के घनिष्ठ सम्बन्ध, वल्लभी संवत् तथा शक संवत् प्रादि के सन्दर्भ में गहन विचार करने के पश्चात् यह सिद्ध किया है कि ई० सन् ३१६ से ३२० में चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने महाराजाधिराज का विरुद धारण कर गुप्त सम्वत् चलाया। ऐगी स्थिति में सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'महाराजाधिराज' की पदवी धारण करने से पहले चन्द्रगुप्त को राजा बनने के पश्चात् महाराजाधिराज का पद धारण करने के लिये मगध के अड़ोस-पड़ोस के राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में कम से कम चार-पांच वर्ष का समय तो अवश्य ही लगा होगा। एक राजा सिंहासन पर आसीन होते ही तत्काल महाराजाधिराज का विरुद धारण करने योग्य विशाल भूभाग को कुछ ही मास में अपने अधिकार में कर ले - यह संभव प्रतीत नहीं होता। इन तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त के राज्यासीन होने का समय ई० सन् .३१६-२० से कुछ वर्ष पूर्व अनुमानित करना ही युक्तिसंगत होगा। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह के पश्चात् चन्द्रगुप्त प्रथम लिच्छवियों की सहायता से महाराजाधिराज बना । चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने अभिलेखों में गुप्तपुत्र के स्थान पर अपने आपको 'लिच्छवी दौहित्र' लिखा है। इतिहासमों ने समुद्रगुप्त के राज्यसिंहासनासीन होने का समय ई० सन् ३३५ अनुमानित किया है। स्मृतिग्रन्थों में २५ वर्ष की वय राजा बनने के योग्य वय मानी गयी है। ऐसी स्थिति में अनुमान किया जा सकता है कि सन् ३०८ के आसपास चन्द्रगुप्त प्रथम का लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ पारिणग्रहण और ई० सन् ३१० । के लगभग कुमारदेवी की कुक्षि से समुद्रगुप्त का जन्म हुआ होगा। इन सब घटनाओं पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि ई० सन् ३१० से ३१५ के मध्य- वर्ती किसी समय में चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक हुप्रा अथवा उसने युवराज काल में ही अपने पिता के राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया होगा। भगवान महावीर की विद्यमानता में मगध के आसपास लिच्छवियों के शक्तिशाली गणतन्त्रों के उल्लेख मिलते हैं। नेपाल के लिच्छवी राजा जयदेव द्वितीय के अभिलेख में भी उल्लेख किया गया है कि उसके पूर्वज सुपुष्प का जन्म (ईसा की पहली शताब्दी में) पाटलिपुत्र में हुआ था। ऐमा प्रतीत होता है कि कुषारणों के साम्राज्य विस्तार के परिणामस्वरूप लिच्छवियों की शक्ति क्षीण हो गई और इनका कोई छोटा-मोटा राज्य ही प्रवशिष्ट रह गया हो। लिच्छवी क्षत्रियों की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह के पश्चात् चन्द्रगुप्त प्रथम ने राज्य विस्तार किया - इस ऐतिहासिक तथ्य से यह अनुमान किया जाता है कि मगध और मगध के अड़ोस-पड़ोस में चन्द्रगुप्त प्रथम के समय में भी लिच्छवी क्षत्रियों की धनी ग्राबादी रही होगी। [सम्पादक] Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त प्रथम लिच्छवी क्षत्रियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध के पश्चात् लिच्छवियों की सहायता से चन्द्रगुप्त ने राज्य विस्तार किया । इस तथ्य की पुष्टि अयोध्या, बर्दमान् और गया में मिले सम्राट् समुद्रगुप्त के उन सिक्कों से होती है, जिन पर दुल्हन को अंगूठी भेंट करते हुए दूल्हे का चित्र, एक ओर चन्द्रगुप्त, दूसरी ओर 'लिच्छवय. ' और ' कुमार देवी' अंकित है । ६५८ चन्द्रगुप्त प्रथम ने किन-किन राजाओं एवं राज्यों को जीतकर उन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, इस सम्बन्ध में कोई अभिलेख अथवा अन्य 'प्रकार की कोई साक्षी उपलब्ध नहीं होती । पुराणों में समुच्चय रूप से गुप्तों के राज्य का उल्लेख उपलब्ध होता है । वायुपुराण में गंगा के निकटवर्ती प्रदेशों, प्रयाग, साकेत और मगध राज्य पर गुप्त राजाओं के आधिपत्य का उल्लेख है ।' इससे ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का उपरोक्त राज्यों पर अधिकार रहा । इतिहासज्ञों ने श्रीगुप्त को गुप्त राजवंश का और चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का संस्थापक माना है। इलाहाबाद में एक स्तम्भ अभिलेख सुरक्षित है । इस स्तम्भ के ऊपरी भाग पर मौर्य सम्राट् अशोक का अभिलेख और उसके नीचे समुद्रगुप्त का अभिलेख उट्टंकित है। समुद्रगुप्त के इस स्तम्भ लेख में उट्टं कित कुछ पंक्तियों से ऐसा अनुमान किया जाता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने कनिष्ठ पुत्र समुद्रगुप्त को सर्वाधिक सुयोग्य समझकर अपनी राज्यसभा के समक्ष उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए कहा - "अब तुम इस पृथ्वी की प्रतिपालना करो ।" इस स्तम्भ - अभिलेख में इस बात का भी संकेत है कि चन्द्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर उसकी राज्यसभा स्तम्भित रह गई और समुद्रगुप्त के भाइयों ( तुल्यकुलजाः) के मुख पीले पड़ गये । स्तम्भलेख में खुदे - "घमण्ड पश्चात्ताप में पलट गया ।" इस वाक्य से प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त को राज्य सिंहासन पर अधिकार करने में गृहकलह का भी सामना करना पड़ा। काच ( काचगुप्त ) द्वारा प्रचलित घटिया सोने के सिक्कों से यह अनुमान लगाया जाता है कि समुद्रगुप्त के बड़े भाई काच ने कुछ समय के लिये पाटलिपुत्र के सिंहासन पर अधिकार कर लिया था जिसे थोड़े समय पश्चात् ही समुद्रगुप्त ने अपदस्थ कर दिया । चन्द्रगुप्त प्रथम का इससे अधिक परिचय उपलब्ध नहीं होता । , अनुगङ्ग प्रयागं च, साकेतं मगधांस्तथा । एताञ्जनपदान् सर्वान्, भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजा ॥ ३८३ ॥ [ वायुपुराण, अनुषङ्गपाद, प्र. CC ] २ प्रार्थी हीत्युपगुह्य भावपिशुनः रुत्करिणतं रोमभिः, सभ्येपूच्छ्वमितेषु तुल्य कुलजम्लानाननोद्वीक्षितः । स्नेहव्याकुलितेन वाष्पगुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा, यः पित्राभिहितो निरीक्ष्य निखिलां पाह्य वमुर्वीमिति ॥ ४ ॥ ॥ का अशोक एवं समुद्रगुप्त का स्तम्भलेख, जो इलाहाबाद में विद्यमान है । Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वघर-काल : प्रार्य नागार्जुन ६५६ आर्य नागार्जुन के समय के राजवंश गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त पराक्रमांक यह पहले बताया जा चुका है कि परम भट्टारक महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने अपने जीवन के संध्याकाल में अपने कनिष्ठ पुत्र समुद्रगुप्त को सर्वतः सुयोग्य समझकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।' चन्द्रगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् गृहकलह का बड़े साहस के साथ दमन कर वीर नि० सं० ८६२ तदनुसार ई० सन् ३३५ में समुद्रगुप्त मगध के राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ । वामन ने अपने 'काव्यालंकार' नामक ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त के पुत्र का नाम चन्द्रप्रकाश उल्लिखित किया है। इससे अनुमान किया जाता है कि संभवतः समुद्रगुप्त का दूसरा नाम चन्द्रप्रकाश हो और समुद्र तक अपने राज्य का विस्तार करने के पश्चात अपने राज्य की सीमाओं के समुद्र द्वारा सुरक्षित होने के अर्थ को द्योतित करने के लिये उसने अपना नाम 'समुद्रगुप्त' रखा हो। ____ इलाहाबाद के स्तम्भलेख में समुद्रगुप्त द्वारा दिग्विजय में विजित राजामों, उनके राज्यों, गणराज्यों एवं तत्कालीन अनेक घटनामों का उल्लेख है। कौशाम्बी में जिस स्तम्भ पर अशोक ने अपना अभिलेख उत्कीर्ण करवाया, उसी स्तम्भ पर नीचे की ओर समुद्रगुप्त का यह अभिलेख उसके सांधिविग्रहिक कवि हरिषेण ने सुन्दर गद्यपद्यमयी संस्कृत भाषा में अंकित करवाया। सांधिविग्रहिक पद के साथ साथ हरिषेण कुमारामात्य और महादण्डनायक के पदों पर भी कार्य करता था।' ऐतिहासिक दृष्टि से इलाहाबाद का यह स्तम्भलेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। इससे भारत की तात्कालिक भौगोलिक एवं राजनैतिक स्थिति के साथ-साथ उस समय के राजाओं, राज्यों की सीमाओं, गणराज्यों आदि का विशद परिचय मिलता है। इस स्तम्भलेख का आज के शोधयुग की दृष्टि से सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अंकित घटनाचक्र की एक भी तिथि का उल्लेख नहीं किया गया है। यदि इसमें समुद्रगुप्त के विजयोल्लेखों के साथ साथ तिथियां भी उम्र कित की जाती तो यह स्तम्भलेख ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता और इससे उलझी हुई अनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझाने में बड़ी सहायता मिलती। इस कमी के रहते हुए भी इस स्तम्भलेख का बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है। १ ऋद्धपुर के शिलालेख में उत्कीर्ण- "तत्पादपरिगृहीत" पद से भी इलाहाबाद के स्तंभलेख में उट्ट कित इस बात की पुष्टि होती है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने बड़े पुत्रों से समुद्रगुप्त को अधिक सुयोग्य समझकर उसे अपना उतराधिकारी घोषित किया। [सम्पादक] २ एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारक पदानां दासस्य ... महादण्डनायकध्र वभूतिपुत्रस्य साधिविग्रहिककुमारामात्यमहादण्डनायक हरिषेणस्य सर्वभूतहितायास्तु । [अशोक स्तम्भ के अधोभाग पर अंकित समुद्रगुप्त का ___ इलाहाबाद स्थित स्तम्भलेख] Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ समुद्रगुप्त महादण्डनायक, कुमारामात्य और सांधिविग्रहिक पदों को धारण करने वाले श्रमात्य कवि हरिषेण द्वारा उट्टं कित करवाये गये इलाहाबाद स्थित कौशाम्बी के उपरोक्त स्तम्भलेख में समुद्रगुप्त के तीन विजयाभियानों का विवरण दिया गया है । इस प्रभिलेख में समुद्रगुप्त द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ का विवरण नहीं दिया गया है अतः यह प्रमाणित होता है कि अश्वमेध के प्रायोजन से पूर्व ही यह स्तम्भ लेख उत्कीर्ण करवाया गया । ६६० प्रथम विजय अभियान समुद्रगुप्त द्वारा आर्यावर्त में किये गये उसके सर्वप्रथम विजय अभियान का विवरण देते हुए इस स्तम्भलेख में बताया गया है कि इस सैनिक अभियान में समुद्रगुप्त ने कतिपय राज्यों को जड़ से उखाड़ फेंका । जिन राज्यों का समुद्रगुप्त द्वारा उन्मूलन किया गया, उनमें अहिच्छत्र के राजा अच्युत और पद्मावती के नागवंशी राजा नागसेन के राज्य प्रमुख थे । ' द्वितीय विजय अभियान अपने दूसरे विजय अभियान में समुद्रगुप्त अपनी सुविशाल एवं सशक्त विजयवाहिनी के साथ दक्षिणापथ की विजय के लिये प्रस्थित हुआ । इस सैनिक अभियान में समुद्रगुप्त ने क्रमशः निम्नलिखित राज्यों को जीत कर अपने साम्राज्य के अधीनस्थ बनाया : कोशल, विन्ध्य के घने जंगलों से प्राच्छादित दुर्गम एवं भयावह महाकान्तार - जहां वाकाटकों का शक्तिशाली सामन्त व्याघ्र राज्य करता था, कौराल ( कोलेर झील एवं मध्यप्रदेश के वर्तमान सोनपुर जिले के आसपास का राज्य जहां मन्तराज का शासन था ), विष्टपुर ( महेन्द्रगिरि का राज्य ), कोटूरा ( विजगापट्टम अथवा गंजम जिला ), काञ्ची ( जहां का राजा विष्णुगोप था ), अवमुक्त (जहां नीलराज का राज्य था ), वेगी ( हस्तिवर्मन का राज्य ), पलक्क ( संभवतः वर्तमान नेल्लोर जिला, जहां उग्रसेन का राज्य था ), देवराष्ट्र (कलिंग प्रान्तवर्ती राज्य, जहां उस समय कुबेर नामक राजा का राज्य था ) और कुश्थलपुर ( कुशस्थली नदी का निकटवर्ती राज्य, जहां उस समय धनंजय नामक राजा का राज्य था ) । ' दक्षिणापथ के उपरोक्त विजय अभियान का उल्लेख करते हुए हरिषेण ने इलाहाबाद स्थित उपरिचर्चित स्तम्भलेख में यह भी बताया है कि समुद्रगुप्त ने १ - १ उद्वेलोदितवाहुवीर्य रभसादेकेन येन क्षरणा दुन्मूल्याच्युतनागसेन । [ इलाहाबाद स्तम्भलेख ] तस्य विविध समरशतावत ररण्दक्षस्य स्वभुजबलपराक्रमं कबन्धो, पराक्रमांकस्य परशुशरशंकुशक्तिप्रासासितोमर भिन्दिपालनाराचवैतस्तिकाद्यनेकप्रहरणविरूढा कुलव्रणशतांकशोभासमुदयोपचितकान्ततरवर्ष्मणः कौशलक - महेन्द्र-महाकान्तारक व्याघ्रराज - कैरल कमण्टराजपुर महेन्द्रगिरकोट्ट रकस्वामिदत्तैरण्डपल्ल कदमनकांचेयक विष्णुगोपावमुक्त नीलराजहस्तिव मंगलकोग्रसेन देवराष्ट्रक कुबेरकौस्थलपुरकधनंजय प्रभृति सर्वदक्षिणापथराजग्रहण मोक्षानुग्रहजनितप्रतापोन्मिश्रमहाभाग्यस्य । [ इलाहाबाद स्थित अशोक स्तम्भ के अधोभाग पर अंकित समुद्रगुप्त का लेख ] Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रगुप्त सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य नागार्जुन दक्षिणापथ के अभियान में अनेक राजानों को बन्दी बनाया, अनेक राजाओं को बन्दी बनाकर पुनः मुक्त कर दिया एवं अनेक राजाओं पर कृपा कर उनका राज्य उन्हें लोटा दिया । दक्षिण-विजय के फलस्वरूप समुद्रगुप्त के राज्य विस्तार के साथ-साथ उसके प्रताप और कोषबल की भी अपूर्व वृद्धि हुई। तृतीय विजय अभियान - अपने द्वितीय विजय अभियान द्वारा दक्षिणविजय के पश्चात् मगध में लौटने पर समुद्रगुप्त ने यह अनुभव किया कि उसका मगध राज्य वस्तुतः ऐसे राजामों से घिरा हना है, जिनके हृदय में उसकी श्री-अभिवृद्धि सदा शूल के समान चुभती रहती है। यदि वे सब संगठित हो जायं तो किसी भी समय उसके शासन के लिये संकट के बादल बन सकते हैं। ___इस संभावित संकट को सदा के लिये समाप्त कर डालने का दृढ़ संकल्प लिये उसने आर्यावर्त में दूसरी बार सैनिक अभियान किया। इस विजय अभियान में भीषण नरसंहार हुआ। लोमहर्षक युद्ध के पश्चात् समुद्रगुप्त का विजयश्री ने वरण किया । रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्यु. तनन्दी, बलवर्मा आदि आर्यावर्त के राजाओं की पूर्ण पराजय हई।' - उपरोक्त तीन विजयाभियानों में समुद्रगुप्त ने पश्चिमी शकों के अतिरिक्त भारत के प्रायः सभी छोटे-बड़े दुर्दान्त राजाओं को युद्ध में परास्त कर एक सार्वभौम सत्ता सम्पन्न सुविशाल गुप्त साम्राज्य की स्थापना की। उसके प्रचण्ड प्रताप से अभिभूत हो समतट (ताम्रलिप्ति से पूर्व का समुद्र-तटवर्ती प्रदेश समतात). डवाक (आसाम का डबोक क्षेत्र), कामरूप (प्रासाम का गोहाटी जिला), नेपाल, कर्तपुर आदि राज्यों के राजाओं एवं मालव, अर्जुनायन, यौधेय, माद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक तथा खरपरिकादि गणराज्यों ने करप्रदानादि से समुद्रगुप्त को संतुष्ट कर उसकी अधीनता स्वीकार की। कवि हरिषेण ने उपरोक्त स्तम्भलेख में उकित करवाया है कि देवपुत्र शाहि, शाहानशाहि, शक, मुरुण्ड, ग्रादि विदेशी राजा तथा सिंहल आदि द्वीपों के शासक समुद्रगुप्त की सेवा में आत्मनिवेदन करते, अपनी कन्याएं भेंट में देते तथा अपने विषय एवं भुक्ति के लिये समुद्रगुप्त की गरुडांकित राजमुद्रा के चिन्ह से युक्त आज्ञाएं मांगते रहते थे । ' रुद्रदेवमतिलनागदतचन्द्रवर्मगणपतिनागनागसेन अच्युतनन्दि बलवर्मानेकार्यावर्त राजप्रसभोद्धरणोद्वत्तप्रभावमहतः, परिचारकीकृतसटिविक राजस्य... [इलाहाबाद स्थित हरिषेण का स्तम्भलेख] २ समतटउवाककामरूपनेपालकनु पुरादिप्रत्यन्तनपतिभि: मालवा नायनयौधेयमाद्रकाभीर प्रार्जुनसनकानीककाकखरपरिकादिभिश्च सर्वकरदानाज्ञाकरणप्रणामागमनपरितोपित प्रचण्डशासनस्य.... । [वही]] 3 देवपुत्रशाहिशाहानुशाहि शक मुरुण्डः सहलकादिभिश्च सर्वद्वीपवासिभिरात्मनिवेदनकन्योपायनदान गमत्मदंकस्व विषयभुक्तिशासमयाचनाद्य पायसेवाकृत बाहुवीर्यप्रसरधरणिबन्धस्य... [वही] Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -द्वितीय भाग [समुद्रगुप्त इलाहाबाद स्थित उपरिचर्चित स्तम्भलेख से यह प्रमाणित होता है कि समुद्रगुप्त युद्धों में सबसे आगे रहकर युद्ध करने वाला महान् योद्धा,' कवि', संगीतज्ञ, दयालु और लोकोत्तर गुणों से सम्पन्न था। यद्यपि इलाहाबाद स्थित उपरोक्त स्तम्भलेख में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं है कि समुद्रगुप्त ने कोई अश्वमेघ यज्ञ किया अथवा नहीं, तथापि प्रभावती गुप्ता के पूना - दानपत्र, स्कन्दगुप्त के अभिलेख तथा समुद्रगुप्त के उन अश्वमेधिक सिक्कों से, जिन पर एक पोर यूप के सम्मुख अश्व का चित्र, दूसरी ओर महारानी का चित्र क्रमशः "अश्वमेध पराक्रमः" और "राजाधिराजःपृथिवीमवित्वा दिवं जयति अप्रतिवार्यवीर्यः" - इन पदों के साथ अंकित हैं, यह स्पष्टत: सिद्ध होता है कि समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किये थे। समुद्रगुप्त ने सुदूरवर्ती एवं सीमावर्ती राज्यों को विजित करने के पश्चात् पुनः उन्हें पराजित राजाओं को लौटाकर उनके साथ जो उदारतापूर्ण व्यवहार किया, उससे उसका यश चारों ओर फैल गया। शत्रुओं के प्रति इस प्रकार के सुन्दर व्यवहार से यह प्रमाणित होता है कि वह बड़ा दूरदर्शी, स्थायी शान्ति का इच्छुक और सबके साथ सच्चा सौहार्द रखने के लिये समुत्सुक था। समुद्रगुप्त के कुल मिलाकर आठ प्रकार के सिक्के उपलब्ध होते हैं, जो सभी विशुद्ध स्वर्ण के हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में भारत कितना समृद्धिशाली देश था । अनुमान किया जाता है कि समुद्रगुप्त ने वीर नि० सं० ८६२ से ६०२ तक शासन किया। ' (क) संग्रामेषु स्वभुजविजिता नित्यमुच्चापकारी। (ख) ....परशुशरशंकुशक्तिप्रासासितोमरभिन्दिपालनाराचवंतस्तिकाद्यनेकप्रहणविरूढाकुल - व्रणशतांकशोभासमुदयोपचितकान्ततरवर्मणः....। २ प्रध्येयः सूक्तमार्गः कविमतिविभवोत्सारणं चापि काव्यं । [वहीं] 3 निशितविदग्धमतिगान्धर्वललितः वीडितत्रिदशपतिगुरुतुम्बुरुनारदादेः । [वही] ४ ....अनेकभ्रष्टराज्योत्सन्न राजवंशप्रतिष्ठापनोद्भूतनिखिलभुवनविचरणशान्तयशसः.. (वही) ५ सुचरितस्तोतव्यानेकाद्भुतोदारचरितस्य,... ६ ...तस्य सत्पुत्रो महाराज श्री चन्द्रगुप्तः तस्य सत्पुत्रोऽनेकाश्वमेधयाजी लिच्छिविदौहित्रो महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नो महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तः ...... [प्रभावती गुप्ता का पूना - दानपत्र] ......न्यायगतानेकगोहिरण्यकोटिप्रदस्य चिरोत्सन्नाश्वमेधाहतु: महाराजश्रीगुप्तप्रपौत्रस्य महाराज श्री घटोत्कचपौत्रस्य महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तपुत्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तस्य पुत्र:.... [प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन खण्ड २] . [वही] [वही] Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सामान्य पूर्वघर-काल : मार्य गोविन्द ((२८) मार्य गोविन्द - वाचनाचार्य आर्य गोविन्द एक विशिष्ट अनुयोगधर और प्रसिद्ध वाचक हुए हैं। नंदीसूत्र स्थविरावली की मूल गाथाओं में प्रार्य गोविन्द का नाम नहीं मिलता किन्तु प्राचार्य मेरुतुंग की विचारश्रेणी में नागार्जुन और भूतदिन के बीच भार्य गोविन्द का नाम आता है। नंदीसूत्र स्थविरावली की प्रक्षिप्त दो गाथानों में भी भूतदिन से पूर्व प्रार्य गोविन्द की स्तुति की गई है ।' __ आर्य गोविन्द आर्य महागिरि की परम्परा के मुख्य वाचक रहे अथवा शाखान्तर के, इस सम्बन्ध में निश्चित एवं स्पष्ट उल्लेख न मिलने पर भी इतना तो असंदिग्धरूपेण कहा जा सकता है कि प्रार्य गोविन्द भी तत्कालीन विशिष्ट वाचक प्राचार्य थे। निशीथ चूणि के ११वें उद्देशक में 'ज्ञानस्तेन' का वर्णन करते हुए चूणिकार ने बताया है : गोविन्दज्जो नाणे, दंसणे सुत्तट्ट हेउ अट्ठावा। पावादिय उवचरगा, उदायिवधगादिगा चले ॥३६५६।। आर्य गोविन्द के ज्ञानस्तेन होने की घटना का चूर्णिकार ने निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया है : "गोविन्द नामक एक बौद्ध भिक्षु ने किसी जैनाचार्य के साथ वाद में १८ बार पराजित हो चुकने पर सोचा- "जब तक इनके सिद्धान्त का स्वरूप नहीं जान लिया जायगा तब तक इनको नहीं जीता जा सकेगा।" यह विचार कर गोविन्द ने जैन सिद्धान्तों का अध्ययन करने की अपनी प्रान्तरिक इच्छापूर्ति मात्र के लिये एक जैनाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। सामायिक प्रादि श्रुत का अभ्यास करते हुए उन्हें जब शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्ति हो गई तब उन्होंने गुरू को नमस्कार करते हुए निवेदन किया- "भगवन् ! मुझे व्रत ग्रहण करवाइये।" गुरू ने कहा- "वत्स ! तुम्हें तो पंच महाव्रत ग्रहण करवाये जा चुके हैं, अब तुम्हें मोर कोनसे व्रत दिये जायं ?" इस पर गोविन्द ने गुरु के समक्ष अपनी व्याज-दीक्षा का वास्तविक वृत्तान्त कह सुनाया। प्राचार्य ने अनुग्रह कर उन्हें पुनः व्रत ग्रहण करवाये । समय पा कर वही मार्य गोविन्द प्राचार्य-पद के अधिकारी हुए। निशीय घरिणकार ने "गोविन्द नियुक्ति" का उल्लेख किया है। इससे मार्य गोविन्द नियु. क्तिकार भी प्रमाणित होते हैं। प्राज न तो गोविन्द-नियुक्ति ही उपलब्ध है पोर न इस प्रकार का कोई उल्लेख ही कि वह नियुक्ति किस मागम पर थी। ऐसी स्थिति में प्रमारणाभाव के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि प्रार्य गोविन्द ने ' गोविन्दाणं पि नमो, पणुमोगे विउसपाररिंगदाणं । नि संतिदयाएं, पसणे दुस्मभिदाणं ॥ [नंदीस्थविरावली] Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [प्रायं गोविन्द वाचना० किस आगम पर नियुक्ति की रचना की थी। ऐसा अनुमान किया जाता है कि मायं गोविन्द ने सम्भवतः श्राचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन पर नियुक्ति की रचना की हो । शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में स्थावर और सकाय का जीवत्व प्रमाणित किया गया है। चूरिंणकार ने भी - " तेण एगिंदिय जीव साहरणं, गोविंदनिज्जुत्ती कया" - इस वाक्य द्वारा एकेन्द्रिय जीवों के अस्तित्व को स्पष्टतः प्रमाणित करने वाली नियुक्ति का निर्माण करना बताया है । स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार नियुक्ति के प्रणेता प्राचार्य गोविन्द अन्य कोई नहीं पर जिनको नंदीसूत्र में अनुयोगधर के रूप में और युगप्रधान पट्टावली में २८ वें युगप्रधान होने के साथ माथुरी वाचना के प्रवर्तक आर्य स्कन्दिल से चौथे युगप्रधान बताया गया है, वे ही होने चाहिये। मुनि पुण्यविजयजी ने श्रार्य गोविन्द का सत्ताकाल विक्रम की पूवीं शताब्दी का पूर्वार्ध बताया है । ' श्राद्ध दिनकृत्य की गाथा सं० ६० में जिनशासन को अज्ञान, मोह मोर मिथ्यात्व की. व्याधि का विरेचन बताया है। इसी की टीका एवं बालबोध में क्रमशः आर्य शय्यंभव, खिलातीपुत्र भोर गोविन्द वाचक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं । २ इन सब तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि प्रार्य गोविन्द अपने समय के महान् प्रभावक वाचनाचार्य हुए हैं । २४. (२६) श्रार्य भूतदिन: वाचनाचार्य आर्य नागार्जुन के पश्चात् वाचनाचार्य प्रार्यं भूतदिन्न हुए। प्रापका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता फिर भी नन्दो - स्थविरावली और दुष्ष भाकाल श्रमण संघस्तोत्र के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है : -- नन्दी - स्थविरावली में श्रार्य भूतदिन को वाचक नागार्जुन का शिष्य बताया गया है । पर 'दुष्षमाकाल श्री श्रमण संघस्तोत्र' में इनको युगप्रधानाचार्य माना गया है । स्थविरावली में आचार्य देववाचक द्वारा निर्दिष्ट परिचय के अनुसार - " प्राप मृदु-मनोहर उपदेश से भव्यजनों के वल्लभ और अप्रमत्त भाव से दयाधर्म के परिपालक एवं प्रचारक थे। आचारांग प्रादि अंग श्रीर अंगबाह्य विशिष्ट अभ्यास के कारण आप भारतवर्षीय तत्कालीन मुनियों में प्रमुख माने जाते थे। संघ-संचालन की प्रापकी कुशलता बताते हुए देववाचक ने कहा है कि जिन्होंने श्रनेकों योग्य साधुनों को स्वाध्याय श्रौर वैयावृत्य प्रादि कार्यों में नियुक्त किया, ऐसे नागेन्द्र-कुल-वंश की प्रीति करने वाले और उपदेश द्वारा भक्तों के • वृहत्कल्पभाष्य की प्रस्तावना, भा० ६, पृ० १६-२० २ श्राद्धदिनकृत्य और प्रात्मनिन्दाभावना, बालबोध, पृ० १८ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६६५ सामान्य पूर्वघर-काल : प्रायं भूतदिन भवभय को दूर करने वाले प्राचार्य भूतदिन को वन्दन करता है।" आपके शरीर की कान्ति तपाये हए कंचन के समान गौरवर्ण बताई गई है।' .नंदी स्थविरावली की प्रक्षिप्त मानी जाने वाली गाथा में आपको तपसंयम में नित्य अनिविन, पंडितजन सम्मान्य और संयमविधिज्ञ कह कर वन्दन किया गया है। इससे भी आपकी श्रुतज्ञान के साथ गंभीर संयमनिष्ठा प्रकट होती है। देववाचक द्वारा निर्दिष्ट इस प्रकार के विस्तृत परिचय से यह सहज ही प्रकट होता है कि प्राचार्य भूतदिन के प्रति देववाचक देवद्धिगरणी के हृदय में अत्यन्त श्रद्धा भक्ति थी। संभव है प्राचार्य भूतदिन्न देवद्धि की गुरु-परम्परा में हों पौर उनके साथ देवद्धि का साक्षात्कार भी हुआ हो। युगप्रधान यन्त्र के अनुसार यदि इन्हों भूतदिन को युगप्रधान भी माना जाय तो उनका कार्यकाल इस प्रकार बताया गया है : वीर नि० सं० ८६४ में जन्म, ८८२ में दीक्षा । वीर नि० सं०६०४ में युगप्रधान पद और ६८३ में स्वर्गगमन । इस प्रकार प्राप १८ वर्ष गृहवास, २२ वर्ष सामान्य साधुपर्याय और ७६ वर्ष युगप्रधान पद को भोग कर ११६ वर्ष को पूर्ण आयु में समाधिपूर्वक स्वर्ग के अधिकारी हुए। मार्य नागार्जुन एवं भूतदिन के समय का राजवंश चन्द्रगुप्त द्वितीय वीर नि० मं०६०२-६४१ (६० सन् ३७५-४१४) वीर नि० सं० ६०२ में समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय विशाल गुप्त साम्राज्य का स्वामी बना। एरण की प्रशस्ति में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के अनेक पुत्रों एवं पौत्रों के होने का उल्लेख है। 3 जिस प्रकार समुद्रगुप्त के पिता (चन्द्रगुप्त प्रथम) ने अपने अनेक पुत्रों में से छोटे पुत्र समुद्रगुप्त को सर्वतः सुयोग्य समझकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था उसी प्रकार समुद्रगुप्त ' तवियवरकरणग चंपग-विमउल कमलगब्भसरिवने । भवियजगहियय दइए, दयागुणविसारए धीरे ।। ४३ ।। प्रड्ढभरहप्पमाणे, बहुविहसज्झाय सुमुरिणयपहाणे। अणुमोगियवरवसभे, नाइलकुलवंसनंदिकरे ।। ४४ ।। भूयहियप्पगब्भे, वंदेहं भूयदिनमायरिए । भवभयवुच्छेयकरे, सीसे नागज्जुणरिसोरणं ।। ४५ ।। [नंदीसूत्र स्थविरावली] २ तत्तो य भूयदिन्नं, निच्चं तवसंजमे अनिविण्णं । ___पंडियजणसम्माणं, वंदामो संजमविहिण्णु ॥ ४२ ॥ [नंदी स्थविरावली] 3 ....(धीर) स्य पौरुषपराक्रमदत्तशुक्ला, हस्त्यश्वरत्नधनधान्यसमृद्धियुक्ता । .....(यस्य)....गृहेषु मुदिता बहुपुत्र पौत्रसंक्रामणी कुलवधूः वतिनी निविष्टा ।। . [एरण की प्रशस्ति] Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने भी अपने अनेक पुत्रों में से चन्द्रगुप्त द्वितीय को सभी दृष्टियों से सुयोग्य समझ कर उसका अपने उत्तराधिकारी के रूप में चयन किया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के मयुरा स्थित शिलालेख तथा स्कन्दगुप्त के बिहार एवं भितरी के शिलालेखों में चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए क्रमशः 'तातपरिग्रहीतेन' और तातपरिगृहीत'- पदों के प्रयोग को देखकर कुछ विद्वानों की इस धारणा के लिये किंचित्मात्र भी अवकाश नहीं रह जाता कि समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल के बीच में दो-तीन वर्ष के थोड़े से समय के लिये रामगुप्त जैसे अकर्मण्य एवं क्लीब शासक का शिथिल शासन रहा था। उपरि चचित तीन शिलालेखों में से प्रथम में जो 'तातपरिगृहीतेन और शेष दो में 'तातपरिगृहीत' पद का प्रयोग चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिये किया गया है, उससे निर्विवाद रूपेण यह प्रमाणित हो जाता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय को स्वयं उसके पिता ने गुप्त साम्राज्य का स्वामी बनाया था। गुप्तवंशी सम्राटों के सभी शिलालेखों एवं अभिलेखों में तथा द्वितीय चन्द्रगुप्त-विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावती गुप्ता (वाकाटक नृपति रुद्रसेन द्वितीय की महारानी तथा वाकाटक नृपतियों दिवाकर सेन तथा दामोदर सेन की ई० सन् ३६५ से ४१५ तक अभिभाविका) के पूना के दानपत्र में जो गुप्त राजवंशी राजामों की वंशावली दी गई है, उनमें रामगुप्त का नामोल्लेख तक नहीं किया गया है। इन सभी अभिलेखों में गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त के पश्चात् दितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को ही उसका उत्तराधिकारी गुप्त सम्राट् बताया गया है।' समुद्रगुप्त के पश्चात् यदि रामगुप्त नामक कोई गुप्त राजा गुप्त साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा होता. तो कोई कारण नहीं था कि प्रभावती गुप्ता अपने पूना वाले दानपत्र में और स्कन्दगुप्त अपने भितरी के स्तम्भलेख में समुद्रगुप्त के पश्चात् तथा चन्द्रगुप्त (द्वितीय) से पहले रामगुप्त के नाम का उल्लेख नहीं करते। साहित्यिक उल्लेखों की अपेक्षा शिलालेख, स्तम्भलेख, ताम्रपत्राभिलेख अधिक ' (क) सिद्धम् । सर्वराजोन्छेत्तुः पृथिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधिसलिलास्वादितयशसो धन दवरुणेन्द्रान्तकसमस्य कृतान्तपरशोः न्यायागतानेकगोहिरण्यकोटिप्रदस्य चिरोत्सना. श्वमेधाहतुंः महाराज श्रीगुप्तप्रपौत्रस्य महाराज श्री घटोत्कचपौत्रस्य महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तपुत्रस्य लिच्छिवीदौहित्रस्य महादेव्यां कुमार देव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तस्य पुत्रः तत्परिगृहीतो महादेव्यां दत्तदेव्यामुत्पन्नः स्वयं चाप्रतिरथः परम भागवतो महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तः तस्य पुत्रः तत्पादानुध्यातो महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नः परम भागवतो महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्तः तस्य.... [स्कन्दगुप्त का भितरी (जिला गाजीपुर उत्तरप्रदेश) का स्तम्भलेख] .......श्री समुद्रगुप्तः तत्सत्पुत्रतत्पादपरिगृहीत पृथिव्यामप्रतिरथः सर्वराजोच्छेत्ता चतुरुदधिसलिलास्वादितयशानेकगोहिरण्यकोटिसहस्रप्रद परम भागवतो महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तः तस्य दुहिता धारण सगोत्रा नागकुलसंभूतायां श्री महादेव्या कुबेरनागायामुत्पन्नोभयकुलप्रलंकारभूतात्यन्तभगवद्भक्ता वाकाटकानां , महाराजा श्रीरुद्रसेनस्याग्रमहिषी युवराज श्री दिवाकर सेन जननी श्री प्रभावति गुप्ता...' [प्रभावती गुप्ता का पूना (महाराष्ट्र) का दानपत्र] Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त द्वितीय] सामान्य पूर्वधर-काल : मायं भूतदिन महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक होते हैं, यह एक सर्वसम्मत निर्विवाद तथ्य है। शिलालेखों में जहां किसी तथ्य का स्पष्ट उल्लेख हो, उसके समक्ष कम से कम किसी नाटक में किये गये उससे विपरीत उल्लेख का तो कोई महत्व नहीं। क्योंकि नाटकों में प्रायः अधिकांश कथावस्तु एवं पात्र कल्पित होते हैं, उनमें चरित्र चित्रण अतिरंजित, अतिशयोक्तिपूर्ण और कभी-कभी वास्तविकता से कोसों दूर रहता है। ऐसी स्थिति में केवल किसी नाटक में किये गये किसी उल्लेख के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों के निर्णय की प्रक्रिया को अपनाया जाने लगे तो इतिहास की प्रामाणिकता ही समाप्त हो जायगी। उदाहरण के तौर पर यदि "कौमुदी महोत्सव" नामक नाटक में तत्कालीन जनमनरंजन के लिये किये गये. उल्लेखों को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में अंगीकार कर लिया जाय तो लिच्छिवी जाति के विशुद्ध क्षत्रियों को म्लेच्छ, लिच्छिवी राजकुमारी के साथ विवाह करने वाले चण्डसेन (चन्द्रगुप्त) को पाटलीपुत्र के मौखरी राजा सुन्दर वर्मन का दत्तकपुत्र और गुप्तवंश के राजाओं को कारसकर (कृषक) मानना पड़ेगा। नाटक की दृष्टि से 'कौमुदी महोत्सव' का महत्त्व हो सकता है पर ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं, क्योंकि उसमें एक राजवंश से दूसरे राजवंश को नीचा दिखाने की भावना की गंध स्पष्टतः प्रकट होती है। कुछ विद्वानों द्वारा इसी प्रकार के 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नामक एक नाटक के प्राधार पर गुप्त सम्राटों को नामावली में समुद्रगुप्त और द्वितीय चन्द्रगुप्त के बीच में रामगुप्त का नाम जोड़ने का प्रयास किया गया है। 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नामक नाटक ईसा की छटी शताब्दी की कृति अनुमानित की जाती है। यह नाटक मूल रूप में तो उपलब्ध नहीं होता पर उसके कतिपय उद्धरण 'नाट्यदर्पण' नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। इसके कर्ता के विषय में भी विद्वान् अभी तक अपना कोई निश्चित अभिमत नहीं बना पाये हैं। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि संभवतः 'मुद्राराक्षस' नाटक का रचयिता विशाखदत्त ही इस नाटक का रचनाकार हो, पर इस अनुमान की अन्य किसी प्रकार से पुष्टि नहीं होती। विशाखदत्त ने अनेक नाटकों की रचना की, इस प्रकार का उल्लेख 'मुद्राराक्षस' नाटक में विद्यमान है।' यदि अधीन राजवंशोत्पन्न विशाखदत्त को 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नाटक का रचनाकार मान लिया जाय तो इस सन्देह की पुष्टि होती है कि भारत के एक सुविख्यात एवं प्रतिष्ठित राजवंश को जनसाधारण की निगाहों में गिराने की भावना लिये किसी राजवंश का निहित स्वार्थ भरा हाथ इस नाटक की रचना के पीछे अदृष्ट रूप से अवश्य रहा होगा। ___ 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नाटक के जो थोड़े बहुत उद्धरण उपलब्ध हैं, उनसे केवल निम्नलिखित सूचना प्राप्त होती है - १. अपने प्रजाजनों के आश्वासन हेतु रामगुप्त ने अपनी महारानी ध्रुवदेवी __ को शकराज की सेवा में समर्पित करना स्वीकार किया। 'कर्ता वा नाटकानामिममनुभवति क्लेशमस्मद्विषो वा।- मुद्राराक्षस ४॥३ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य २. कुमार चन्द्रगुप्त ने स्त्रीवेष में शकराज के पास जाने और उसे मारने की पूरी तैयारी की और इष्टसिद्धि हेतु प्रस्थान किया।' ३. ध्रुवदेवी के कक्ष के समीप से जाते हुए चन्द्रगुप्त ने राहु द्वारा प्रस्त चन्द्रकला के समान दुःख, करुणा और शोक से म्लान, अपने पति के नपुंसक तुल्य पाचरण के कारण प्रात्यन्तिक लज्जा, कोप, विषाद, भय एवं घृणा से प्रपीड़िता ध्रुवदेवी को देखा। ईसा की सातवीं शताब्दी के कवि बाण ने अपने ग्रन्थ 'हर्षचरित्र' में सौराष्ट्र के पर-स्त्री-लम्पट शकराज (रुद्रसिंह तृतीय) को स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त द्वारा मार दिये जाने का उल्लेख निम्नलिखित एक वाक्य में किया है :"परिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेशगुप्तः चन्द्रगुप्तः शकपतिमशातयत् ।" ईसा की नौवीं शताब्दी के शंकराय नामक टीकाकार ने उपरोक्त वाक्य की टीका करते हुए लिखा है- "शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्तभ्रातृजायां ध्रुवदेवी प्रार्थयमानः चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन व्यापादितः ।" अर्थात् शक राजा ने चन्द्रगुप्त के भाई की महारानी ध्रुवदेवी को अपने पास पहुँचाने की मांग की। इस पर चन्द्रगुप्त ने ध्रुवदेवी का वेष पहिन कर स्त्री वेषधर पुरुषों को साथ ले शक राजा को मार डाला। ईसा की दशवीं शताब्दी के कन्नोजाधिपति यशोवर्मा के राजकवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा में हिमाद्रि की पर्वतमालानों पर किसी खस राजा के धेरे में आये हुए शर्मगुप्त नामक राजा द्वारा अपनी महारानी ध्रुवस्वामिनी को उस खस राजा को अपित किये जाने और वहाँ से हतोत्साहित हो लोटने का उल्लेख किया है। राजशेखर ने उस राजा की क्लैब्यता पर व्यंग कसते हुए आगे लिखा है कि षण्मुख कार्तिकेय के हिमालयवर्ती उस नगर की कामिनियां हिमालय पर्वत की गफानों में वायु के संसर्ग से निकलती हुई विविध ध्वनियों की लय के साथ प्रो शर्मगुप्त ! तेरे यश के गीत गा रही हैं। ' प्रकृतीनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीसंप्रदाने अभ्युपगते राजा रामगुप्तेन परिवधनार्थ यियासुः प्रतिपन्नध्रुवदेवी नेपथ्यः कुमारचन्द्रगुप्तो विज्ञपयन्नुच्यते । ['देवीचन्द्र गुप्त' का नाट्यदर्पण' में उद्धरण] २ यथा 'देवीचन्द्रगुप्ते' चन्द्रगुप्तो ध्रुवदेवीं दृष्ट्वा स्वगतमाह-इयमपि सा देवी तिष्ठति । यंषा - रम्यां चारतिकारिणी च करुणाशोकेन नीतां दशाम्, तत्कालोपगतेनराशिरसा गुप्तेव चान्द्रीकला। पत्युःक्लीवजनोचितेन चरितेनानेन पुसः सतः ।। लज्जाकोपविषादभीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यते । [वही] 'दत्वा रुटगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीम्, पस्मात् खण्डितसाहसो निववृते श्री शर्मगुप्तो नृपः । तस्मिन्नेव हिमालये गुरगुहाकोणतावरणत्किन्नरे, गीयन्ते तब कार्तिकेयनगरस्त्रीणां गणः कीर्तयः ।। [काव्य मीमांसा, राजशेखर] Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त द्वितीय ] 'सामान्य पूर्वधर - काल : प्रायं भूतदिन ६६६ कुछ विद्वानों ने कवि की इस व्यंगोक्ति को भी ध्रुवस्वामिनी और शर्म के साथ गुप्त शब्द को देख कर तथाकथित रामगुप्त और ध्रुवस्वामिनी के कथानक के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। हालांकि राजशेखर ने चन्द्रगुप्त द्वारा खसराज को मार कर ध्रुवस्वामिनी के लौटाने और अपनी महादेवी बनाये जाने का कोई उल्लेख नहीं किया है । उपरिचित उद्धरणों के आधार पर रामगुप्त का कथानक इस प्रकार बनता है : “गुप्तसम्राट् चन्द्रगुप्त के पश्चात् कायर एवं बुद्धि विहीन रामगुप्त गुप्त साम्राज्य का स्वामी बना । उस पर शकराज ने आक्रमण किया । डरपोक रामगुप्त पराजित हुआ । उसने शकराज के साथ सन्धिवार्ता की और अपनी सती साध्वी महारानी ध्रुवदेवी ( ध्रुवस्वामिनी) को शकराज की सेवा में प्रस्तुत करना स्वीकार कर लिया। रामगुप्त का अनुज चन्द्रगुप्त (द्वितीय) स्त्रीवेष धारण कर ध्रुवदेवी का स्वांग बनाये शकराज के शिविर में पहुँचा । कामुक शकराज ध्रुवदेवी से मिलने की उत्कण्ठा लिये ज्यों ही एकान्त कक्ष में पहुँचा त्यों ही स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त ने सिंह की तरह झपट कर शकराज को मौत के घाट उतार दिया । तदनन्तर अवसर पाकर चन्द्रगुप्त ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की भी गुप्त रूप से हत्या करवा दी। अपने पति की मृत्यु के पश्चात् ध्रुवदेवी ने चन्द्रगुप्त के साथ विवाह ( विधवा विवाह ) कर लिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त (द्वितीय) गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना ।" मुख्यतः लोकरंजन के लिये बनाये गये नाटक 'देवी चन्द्रगुप्तम्' में वरिणत रामगुप्त का उपरोक्त कल्पित कथानक ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया, त्यों-त्यों विकृत होता गया । ईसा की १२वीं शताब्दी के अरबी ग्रन्थ 'मुजमलुत् तवारीख' में इस कथानक ने विकृत होते-होते निम्नलिखित रूप धारण कर लिया : "भारत में रव्वल नामक एक राजा था । उसके छोटे भाई बरकमारिस द्वारा स्वयंवर में प्राप्त एक राजकुमारी के रूप पर मुग्ध हो रब्बल ने उसके साथ विवाह कर लिया। इस घटना के पश्चात् बरकमारिस अध्ययन में जुट गया और वह एक उच्चकोटि का विद्वान् बन गया । रव्वल के पिता के शत्रु ने प्राक्रमरण कर रव्वल को पराजित किया । रव्वल ने अपने परिवार एवं परिजनों के साथ पर्वत की चोटी पर बने एक दुर्ग में शरण ली और शत्रु से सन्धि की प्रार्थना की । शत्रु द्वारा रखी गई सन्धि की शर्त के अनुसार ख्वल ने अपनी उस रानी श्रीर सामन्तों की पुत्रियों को शत्रु के समर्पित करना स्वीकार किया। बरकमारिस ने राजा की आज्ञा से एक चाल चली । सामन्तपुत्रों सहित स्त्रीवेष धारण कर उसने स्वयं ने रानी का और शेष युवकों ने सामन्तपुत्रियों का स्वांग बनाया। उन सबने अपने परिधानों में एक एक शस्त्र छुपा लिया। बरकमारिस ने अपने स्त्रीवेषधारी सब साथियों को समझा दिया कि शत्रु राजा को मौत के घाट उतारने के पश्चात् Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त द्वितीय ज्योंही वह बिगुल बजाये, त्यों ही सब युवक बिजली की तरह शत्रुनों पर टूट पड़ें । बरकमारिस और उसके साथियों को सफलता मिली। रव्वल विजयी हुआ पर मन्त्री द्वारा बरकमारिस के प्रति सन्देह उत्पन्न करा दिये जाने के कारण वह पागल हो गया । वरकमारिस ने महल में पहुँच कर ख्वल को मार डाला । उसने राजसिंहासन पर बैठ कर स्वयंवर में प्राप्त उस रानी से विवाह कर लिया । बरकमारिस ने सम्पूर्ण भारत पर अधिकार किया और उसका यश दूरदूर तक फैल गया । "" ईसा से ५७ वर्ष पूर्व हुए विक्रम संवत् के प्रवर्तक वीर विक्रमादित्य के सम्बन्ध में बड़ी ही विचित्र अनेक लोक कथाएं शताब्दियों से केवल भारत ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में प्रचलित रही हैं। यह पहले बताया जा चुका है कि इस्लाम की उत्पत्ति से कतिपय शताब्दियों पूर्व वीर विक्रमादित्य से सम्बन्धित साहित्य अरब में बड़ा लोकप्रिय रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि अरबी लेखक द्वारा लिखा गया भारत के बरकमारिस का उपरोक्त कथानक, संवत्सर प्रवर्तक विक्रमादित्य के सम्बन्ध में प्रचलित हजारों लोक कथानकों में से किसी एक कथानक का विकृत स्वरूप है । अपने बड़े भाई भर्तृहरि द्वारा अपमानित किये जाने पर विक्रमादित्य के घर से एकाकी निकलने और अनेक वर्षों तक देशविदेशों में घूमने का उल्लेख 'विक्रमचरित्र' नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होता है । 3 संजन से प्राप्त राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ( प्रथम ) के दानपत्र ( ताम्रपत्र ) में भी सुनी-सुनाई किवदन्ती के आधार पर लिखा है - "हमने सुना है कि गुप्तवंश के कलियुगी दानी एक राजा ने अपने भाई को मार कर उसके राज्य और उसकी स्त्री पर अधिकार कर लिया ।" इस प्रकार की सुनी-सुनाई, किंवदन्तियों और नाटकों पर आधारित बातों को इतिहास का रूप देना वस्तुतः इतिहास के साथ अन्याय करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता । इतिहास के लब्ध प्रतिष्ठ निष्पक्ष विद्वानों ने ऐतिहासिक तथ्यों के निर्णय में इस प्रकार के नाटकों को नितान्त अविश्वसनीय माना है । * उपरोक्त तथ्यों पर निष्पक्ष दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने, तथा गुप्त सम्राटों एवं वाकाटक राजमाता प्रभावती गुप्ता द्वारा अभिलेखों में दिये गये गुप्त राजाओं के वंशवृक्ष में रामगुप्त के नाम का उल्लेख तक न होने से यही निष्कर्ष निकलता है कि गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त के पश्चात् द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य १ अबुल हसन (१०२६ ई०) द्वारा अरबी ग्रन्थ का पारसी ग्रनुवाद। देखिये - 'Elliot and Dawson, History of India, I, 110-111.2 २ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृष्ठ ५४८-४९ प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ५४० As Sylvian Levi points out, these later historical dramas cannot be considered as trustworthy sources of the history they make for purposes of the drama. 'Mudrarakshasa' is not considered as a reliable source of Maurya history. 3 Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त द्वितीय) सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य मूतदिन . ६७१ ही गुप्त साम्राज्य के सिंहासन पर आसीन हुआ। इन दोनों सम्राटों के बीच में रामगुप्त नाम का कोई गुप्त राजा नहीं हुआ। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) बड़ा पराक्रमी एवं प्रतापी राजा हुआ है। उसने .मालवा, सौराष्ट्र और गुजरात के शक महाक्षत्रपों को परास्त एवं शक महाक्षत्रप सत्यसिंह के पुत्र रुद्रसिंह (तृतीय) को मौत के घाट उतार कर वीर नि० सं० ६२७ तदनुसार ई० सन् ४०० के आसपास भारत से शकों के शासन का सदा के लिये अन्त किया। शकों के राज्य का अन्त करने के कारण प्रजाजनों ने उसे शकारि विक्रमादित्य के विरुद से विभूषित किया। वह बड़ा न्यायप्रिय, सच्चरित्र और विद्वान् सम्राट् था। उसने सम्पूर्ण भारत को एक सार्वभौम सत्तासम्पन्न शासनसूत्र में बांधा। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के निम्नलिखित ७ अभिलेख अद्यावधि उपलब्ध हुए हैं : (१) मथुरा का गु० सं० ६१ (ई० सन् ३८०) का स्तम्भलेख । (२) उदयगिरि का गु० सं० ८२ का गहा-लेख । (३) गढवा का गु० सं० ८८ का शिलालेख । (४) सांची का गु० सं० १३ का वेष्टनी पर खुदा लेख । (५) उदयगिरि का बिना तिथि का गहा (गहा सं० ७) लेख । (६) मथुरा का बिना तिथि का खण्डित शिलालेख, जिसमें चन्द्रगुप्त तक गुप्तवंशी राजाओं की वंशावली उकित है। (७) मेहरौली का बिना तिथि का लोह-स्तम्भलेख । ____मेहरौली का लोहस्तम्भलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसमें चन्द्र नामक राजा द्वारा बंगाल में शत्रुओं की सामूहिक शक्ति को पराजित किए जाने, समुद्र के सात मुखों तुल्य सात नदियों वाले प्रदेश पंजाब को पार कर बालिकों को जीतने एवं विष्णु की भक्ति से प्रेरित हो विष्णुपद पर्वत पर विष्णु की ध्वजा के प्रारोपित किये जाने का उल्लेख हैं।' ' यस्योद्वर्तयत: प्रतीपमुरसा शत्रुन् समेत्यागतान्, बंगेष्वाहववर्तिनोऽभिलिखिता खंगेन कीतिमुजः । तीर्खा सप्तमुखानि येन समरे सिन्धोज्जिता बालिकाः, यस्याद्याप्यधिवासते जलनिधिः वीर्यानिलदक्षिणः ।।१।। खिन्नस्येव विसृज्य गां नरपतेर्गामाश्रितस्येतरां, मूर्त्या कर्म जितावनी गतवतः कीर्त्या स्थितस्य मिती । शान्तस्येव वने हुतभुजो यस्य प्रतापो महाप्राचाप्युत्सृजति प्रणाशितरिपोः यत्नस्य शेषः मितिम् ।।२।। प्राप्तेन स्वमुजाजितं च सुचिरं चंकाध्यराज्यं मिती, चन्द्राह्वन समग्रचन्द्रसदृशीं वक्त्रश्रियं विभ्रता । तेनायं प्रणिधाय भूमिपतिना भावेन विष्णोः मतिम्, प्रांशुविष्णुपदे गिरी भगवतो विष्णोर्ध्वजः स्थापितः ।।३।। [चन्द्र का मेहरोसी का लोहस्तम्भनेख] Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त द्वितीय मेहरौली का लोहस्तम्भलेख द्वितीय चन्द्रगप्त विक्रमादित्य का है अथवा चन्द्र नामक किसी अन्य राजा का, यह इतिहास के विद्वानों के लिये आज भी प्रश्न ही बना हुआ है। विद्वानों ने इस सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं प्रकट करते हुए अनेक ऊहापोहों के साथ अपने-अपने अभिमत की पुष्टि में बहुत सी युक्तियां प्रस्तुत की हैं। उन सब अभिमतों पर गहन विचार करने के पश्चात् भी द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा यशस्वी विष्णुभक्त, समस्त भारत ही नहीं अपितु बालीक देश तक अपनी विजयं का डंका बजाने वाला परम प्रतापी एकराट् चन्द्र भारतीय इतिहास के क्षितिज में खोजने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके विपरीत अन्य किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में यही कहना होगा कि मेहरौली का लोहस्तम्भ अभिलेख गुप्त-सम्राट् द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ही है। प्रार्य भूतदिन्न के समय की राजनैतिक स्थिति द्वितीय चन्द्रगुप्त-विक्रमादित्य की मृत्यु के उपरान्त उसका बड़ा पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) विशाल गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना। उसकी माता का नाम ध्रुवदेवी था।' कुमार गुप्त के शासनकाल के अनेक शिलालेख और दानपत्र मिलते हैं, जिनसे इसके विशाल साम्राज्य, शौर्य, शासन पद्धति, सुशासन एवं धार्मिक सहिष्णुता आदि के सम्बन्ध में बड़ी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इन अभिलेखों में गुप्त सं. ६६. (ई. सन् ४१५) से पूर्व का तथा गुप्त सं. १३५ (ई. सन् ४५४) के पश्चात् का कोई अभिलेख नहीं है अतः यह अनुमानित किया जाता है कि ई. सन् ४१४ से ४५५ तदनुसार वीर नि. सं. ६४१ से .९८२ तक कुमार गुप्त का शासन रहा। इसके चांदी के सिक्कों पर अंकित अन्तिम तिथि गुप्त सं. १३६ (वीर नि. सं. ९८२) है, इससे भी उपर्युक्त अनुमान की पुष्टि होती है। कुमार गुप्त प्रथम के विभिन्न सिक्कों पर लालित्यपूर्ण संस्कृत भाषा के छोटे-छोटे एवं सुन्दर भिन्न-भिन्न वाक्य अंकित हैं, जो इस प्रकार हैं :.. (१) विजितावनिरवनिपतिः (पृथ्वीविजयी पृथ्वीपति) (२) महितलं जयति (सम्पूर्ण पृथ्वी का विजेता) (३) क्षितिपतिरजितो विजयी महेन्द्रसिंहो दिवं जयति (पूरी पृथ्वी का स्वामी, अविजितों का विजेता महेन्द्रसिंह स्वर्ग-विजय कर रहा है)। (४) साक्षादिव नरसिंहो सिंह-महेन्द्रो (साक्षात् नृसिंह तुल्य हैं सिंह-महेन्द्र) (५) युधि सिंहविक्रमः (युद्ध में सिंह के समान पराक्रमशाली), ' महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तस्य महादेव्यां ध्र वदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज कुमारगुप्तस्य। [भिलसद, जिला एटा का स्तम्भलेख - फ्लीट का लेख सं. १०] २ भिलसद का स्तम्भलेख [फ्लीट का लेख सं. १०] 3 मथुरा के गुप्त संवत् ११३ एवं गुप्त सं. १३५ के जन प्रभिलेख । [कारपस इन्स्कृपशनं इंडिकेरम् भाग ३, सं. ६३] Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारगुप्त सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं भूतदिन ६७३ (६) व्याघ्रबल-पराक्रमः, (७) गुप्तकुल न्योमशशी और (८) गुप्तकुलामलचन्द्रो (गुप्तवंश के निष्कलंक चन्द्र) । इन सिक्कों से स्पष्टतः विदित होता है कि कुमारगुप्त बड़ा पराक्रमी प्रतापी और लोकप्रिय सम्राट् था। यद्यपि समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त के समान कुमारगुप्त के विजयाभियानों एवं अश्वमेघ का एक भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता तथापि उपरोक्त सिक्कों तथा इसके प्रश्वमेधिक सिक्के से ऐसा प्रतीत होता है कि इसने दिग्विजय करने के पश्चात् अश्वमेध किया । अश्वमेघ के परिचायक सिक्के पर अश्व का चित्र, अश्व के पैरों के बीच में 'अश्वमेध', यूप, महारानी के चित्र आदि के साथ-साथ 'जयतादेव कुमार, जयति दिवं कुमारगुप्तोऽयम्' तथा 'अश्वमेधमहेन्द्रः' अंकित हैं । कुमारगुप्त के वीर नि० सं० ६४१ से १८२ तक के ४१ वर्ष के शासनकाल में अन्तिम ५ वर्षों को छोड़कर कोई विशेष राजनैतिक घटना के घटित होने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। वीर निर्वाण सं० ६७७ के पास-पास नर्मदा नदी के तटवर्ती दक्षिणी प्रदेश की पुष्यमित्र' नामक जाति ने कुमारगुप्त के साम्राज्य को उलट देने के दृढ संकल्प के साथ बड़ी शक्तिशाली विशाल सेना लेकर कुमार गुप्त पर आक्रमण किया। दोनों ओर से भीषण युद्ध हुआ। संभवतः इस संघर्ष की उत्पत्ति गुप्तों की दासता के जूड़े को उतार फेंकने अथवा महात्वाकांक्षा के लक्ष्य को लेकर हुई थी। इस सशस्त्र विद्रोह का प्रारम्भ पुष्यमित्रों ने पटुमित्रों, दुर्मित्रों और नर्मदा घाटी के मेकल प्रदेशवासियों की सहायता से किया। इन सब जातियों का सम्मिलित कोषबल एवं सैन्यबल इतना प्रबल था कि पुष्यमित्रों को युद्ध में निरन्तर सफलताएं मिलती गई। कुमारगुप्त की सेना के पैर उखड़ गये । पुष्यमित्रों को दृढ़ विश्वास हो गया कि विजयश्री उनका वरण करने ही वाली है। किन्तु जय-पराजय के उन निर्णायक क्षणों में कुमारगुप्त (प्रथम) के बड़े पुत्र राजकुमार स्कन्दगुप्त ने अपूर्व धैर्य मोर शोर्य के साथ स्थिति को सम्हाला । उसने नई कुमुक के साथ शत्रु सैन्य पर भीषण प्रत्याक्रमण कर पुष्यमित्रों को पराजित किया। इस प्रकार कुमारगुप्त के साम्राज्य की उसके पुत्र स्कन्दगुप्त ने संकट के विकट क्षणों में रक्षा की। तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाचक्र के पर्यालोचन से ऐसा प्रतीत होता है कि कुमारगुप्त के साथ हुए पुष्यमित्रों के युद्ध में वाकाटकों द्वारा पुष्यमित्रों की सहायता की गई होगी। इस अनुमान को वाकाटक नृपति पृथ्वीषेण (द्वितीय) के बालाघाट ताम्रपत्र से बल मिलता है। बालाघाट के ताम्रपत्र में पृथ्वीषण (द्वितीय) ने अपने पिता नरेन्द्रसेन (ई० सन् ४३५ से ४७०) को महाराष्ट्र, पुष्यमित्रा भविष्यन्ति, पट्टमित्रास्त्रयोदश ॥३७३।। मेकलायां नृपाः सप्त, भविष्यन्ति च सत्तमा ।....३७४॥ [वायुपुराण, प्र. ६६] २ विचलितकुललक्ष्मीस्तम्भनायोक्तेन, नितितलमयनीये येन नीता त्रियामा। समुदितबलकोशान् पुष्यमित्रांश्च जित्वा, मितिपवरणपीठे स्थापितो वामपाद: ॥४॥ [स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कुमारगुप्त कोंकण, कुन्तल, पश्चिमी मालवा, गुजरात, कोशल, मेकल, आन्ध्र और सम्पूर्ण विन्ध्य की तलहटी का स्वामी बताया है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी दिग्विजय में इन प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि कुमार गुप्त के शासन के अन्तिम वर्षों में वाकाटकों, पुष्यमित्रों, पट्टमित्रों (पटुमित्रों) एवं मेकलवासियों ने स्वातन्त्र्यप्राप्ति के लिये गुप्त साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया हो। उस सम्मिलित प्रयास को स्कन्दगुप्त द्वारा कुचल दिये जाने के अनन्तर भी वाकाटक लोग अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील एवं अवसर की प्रतीक्षा में रहे। स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात् वाकाटक नृपति पृथ्वीसेन (ई० सन् ४७० से ४८५) ने अपने वंश की खोई हुई राज्यलक्ष्मी को पुनः प्राप्त कर "कोशलमेकलमालवाधिपत्यभ्यचितशासनः" की उपाधि धारण की।' कुमारगुप्त और पुष्यमित्रों के बीच हुए उस भीषण गृहयुद्ध के कारण भारत की शक्ति क्षीण हुई। यदि यह गृहयुद्ध न हुआ होता तो हूणों को भारत पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं होता। २५ (३०) आर्य लोहित्य-वाचनाचार्य आर्य भतदिन के पश्चात आर्य लोहित्य वाचनाचार्य हए। नन्दीसूत्र की स्थविरावली में आपके श्रतज्ञान सम्बन्धी परिचय के अतिरिक्त आपका अन्यत्र भौर कोई परिचय उप्लब्ध नहीं होता। नन्दी स्थविरावली में प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण ने इन्हें सूत्रार्थ के सम्यक धारक और पदार्थो के नित्यानित्य स्वरूप का प्रतिपादन करने में प्रति कुशल बताया है। दिगम्बर परम्परा में भी आर्य लोहित्य से नाम साम्य रखने वाले लोहाचार्य अथवा लोहार्य नामक अष्टांगधारी प्राचार्य की प्रमुख प्राचार्यों में गणना की जाती है। २६ (३१) प्रार्य दूष्यगरणी-वाचनाचार्य आर्य लोहित्य के पश्चात् आर्य दूष्यगणी वाचनाचार्य हुए। युगप्रधान पट्टावली में इनका परिचय नहीं मिलता। नंदी सूत्र की स्थविरावली में इन्हें लोहित्य के पश्चात् वाचनाचार्य माना गया है। . प्राचार्य देवद्धिगणी समाश्रमण ने नंदी स्थविरावली में तीन गाथानों द्वारा जिन शब्दों से इनकी स्तुति की है, उससे स्पष्टतः प्रतीत होता है कि दूष्यगणी उम समय के विशिष्ट वाचनाचार्य थे और सैकड़ों अन्य गच्छों के ज्ञानार्थी श्रमण ' पृथ्वीषेण (द्वितीय) का बालघाट-ताम्रपत्र सुमुरिणयनिच्चानिच्च, सुमुरिणयसुतस्थषारयं वंदे। मसाल्यालवा, सत्यं लोहिच्चरणामाणं ।।४६॥ [नन्दी स्थविरावली Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य दूष्यगणी-वाच०] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य दूष्यगणी उनकी सेवा में श्रतज्ञान का अध्ययन करने आया करते थे। श्रुतज्ञान के व्याख्यान में दूष्यगणी इतने समर्थ वाचक थे कि उन्हें व्याख्यान करने में कभी शारीरिक एवं मानसिक थकान का अनुभव नहीं होता था। देवद्धि क्षमाश्रमण ने दूष्यगणी को श्रृतार्थ की खान, प्रकृति से ही मधुरभाषी, तप, नियम, सत्य-संयम आदि गुणों के विशिष्ट साधक एवं अनुयोग में युगप्रधान बताते हुए प्रणाम किया है।' "प्रशस्त लक्षणों से संयुक्त सुकोमल तलवों वाले आर्य दूष्यगणी के चरण युगल में मैं प्रणाम करता है"२ इन शब्दों में स्थविरावलीकार देवद्धि क्षमाश्रमण ने जो उन्हें प्रणाम किया है, इससे स्पष्टरूपेण यह प्रमाणित होता है कि वे (देवद्धि) आचार्य दूष्यगणी के शिष्य थे और उसी कारण वे उनके लक्षणयुक्त सुकोमल तलवों वाले चरणों से भलीभांति परिचित थे। कल्पसूत्र की स्थविरावली में संडिल्ल के गुरुभाई की परम्परा में प्रार्य देसीगरणी क्षमाश्रमरण का नाम उपलब्ध होता है। संभव है दृष्यगरणी और देसीगणी ये दोनों नाम एक ही प्राचार्य के हों। प्रापका विशेष परिचय और काल का स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं होता । फिर भी इतना निश्चित है कि वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी का मध्यभाग इनका सत्ताकाल रहा है। २७ (३२) देवद्धिक्षमाश्रमण-वाचनाचार्य एवं गणाचार्य भगवान महावीर के धर्म-शासन में हए महान प्राचार्यों में वाचनाचार्य प्रार्य देवद्धि क्षमाश्रमण का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। प्राज से लगभग १५२० वर्ष पूर्व दूरदर्शी प्राचार्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण ने वल्लभी नगरी में श्रमण संघ का सम्मेलन आयोजित किया। उसमें उन्होंने न केवल आगमवाचना द्वारा द्वादशांगी के विस्मृत पाठों को सुव्यवस्थित-सुसंकलित ऐवं सुगठित ही किया अपितु भविष्य में सदा-सर्वदा बिना किसी प्रकार की परिहानि के पागम यथावत् बने रहें, इस अभिप्राय से एकादशांगी सहित सभी सूत्रों को पुस्तकों के रूप में लिपिबद्ध करवा कर अपूर्व दूरदर्शिता का परिचय दिया। आपके द्वारा किये गये इस अनिर्वचनीय अपूर्व उपकार के प्रति पंचम प्रारक की समाप्ति पर्यन्त अजस्र रूप से चलने वाला प्रभु महावीर का चतुर्विध संघ पूर्णतः ऋणी रहेगा। . देवद्धि जन्मत: काश्यप गोत्रीय क्षत्रिय थे। प्रापको देवद्धि क्षमाश्रमण और देववाचक, इन दो नामों से सम्बोधित किया जाता है। पाप क्षान्ति, धीरता'प्रत्यमहत्यसारिण, सुसमणवक्खाणकहणनिव्वाणि । पयईए महरवारिंग, पयमो पणमामि दूसरण । ४४॥ तवनियमसञ्चसंजम, विणयज्जवखंतिमहबरयाणं। . सीलगुणगहियाणं, अणुप्रोगजुगप्पहोणाणं ॥४८॥ [नंदी स्थविरावली] २ सुकुमालकोमलतले, तेसि पणमामि लक्मरणपसत्ये। . . पाए पावयपीणं, परिच्थ्यसयएहिं परिणवइए ॥४॥ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवदि क्षमाश्रमण गम्भीरता प्रादि गणों के धारक, एक पूर्व के ज्ञाता एवं प्राचारनिष्ठ समर्थ वाचनाचार्य थे। जैसा कि कल्प स्थविरावली के अन्त की निम्नलिखित गाथा में कहा गया है : सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दव गणेहिं संपन्ने । देवड्ढिखमासमणे, कासवगुत्ते परिणवयामि ।।१४।। देवद्धि के सम्बन्ध में एक आख्यान प्रचलित है। उसके अनुसार प्रापका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : सौराष्ट्र प्रान्त के वैरावल पाटण में आपका जन्म हुआ। उस समय वहाँ के शासक महाराज अरिदमन थे। उनके सामान्य अधिकारी काश्यप गोत्रीय कार्माद्ध क्षत्रिय की पत्नी कलावती की कुक्षि से देवद्धि का जन्म हुआ। प्राप पूर्वजन्म में हरिणंगमेषी देव थे। माता की कुक्षि में जब आप गर्भ रूप से उत्पन्न हुए तब गर्भ के प्रभाव से कलावती ने स्वप्न में ऋद्धिशाली देव को देखा प्रतः नामकरण के समय पुत्र का नाम देवद्धि रखा गया। माता-पिता ने बालक देवद्धि को समय पर योग्य शिक्षक के पास पढ़ाया और युवा होने पर दो कन्याओं के साथ उसका विवाह कर दिया। युवक देवद्धि बचपन की कुसंगति के कारण आखेट-क्रीड़ा का रसिक बन गया और समय-समय पर मित्रों के साथ जंगल में शिकार करने जाया करता था। नवोत्पन्न हरिशंगमेषी देव देवद्धि को सन्मार्ग पर लाने हेतु विभिन्न उपायों से समझाने का प्रयास करने लगा। एक दिन जब देवद्धि मृगयार्थ वन में गया तो उस देव ने उसके सम्मुख भयंकर सिंह, पीछे की ओर गहरी खाई और दोनों ओर दो बड़े-बड़े दंतशूल वाले बलिष्ठ शूकर खड़े कर दिये। देवद्धि भयभीत हो कर प्राण बचाने के लिये इधर-उधर बच निकलने का प्रयास करने लगे तो उन्होंने देखा कि उनके पैरों के नीचे की पृथ्वी कम्पायमान और ऊपर से बड़े वेग के साथ मूसलाधार वर्षा हो रही है। उस समय सहसा देवद्धि के कानों में ये शब्द पड़े - "अब भी समझ जा, अन्यथा तेरी मृत्यु तेरे सम्मुख खड़ी है।" भयविह्वल देवद्धि ने गिड़गिड़ा कर कहा- "जैसे भी हो सके मुझे बचाओ, तुम जैसा कहोगे वही मैं करने के लिये तैयार हूँ।" देव ने तत्काल उसे उठा कर प्राचार्य लोहित्य सूरि के पास पहुंचा दिया और देवद्धि भी आचार्य लोहित्य' का उपदेश सुन कर उनके पास श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये । गरू की सेवा में निरन्तर ज्ञानाराधन करते हुए आपने एकादशांगी और एक पूर्व का ज्ञान-प्राप्त कर कालान्तर में प्राचार्य पद प्राप्त किया। देवद्धि क्षमाश्रमण पहले गणाचार्य पद पर अधिष्ठित किये गये और तदनन्तर दूष्यगरणी के स्वर्गगमन के पश्चात् प्रापको वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया । इस कथानक के आधार पर ही संभवतः देवति क्षमाश्रमण को मार्य लोहित्य का शिष्य समझने की मान्यता प्रचलित हुई प्रतीत होती है। [सम्पादक] Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्धि क्षमाश्रमण] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमणे ६७७ ___ कुछ लेखक आपको दृष्यगणी का शिष्य मान कर उनका उत्तराधिकारी वाचनाचार्य बताते हैं और कतिपय लेखक लोहित्य का शिष्य एवं उत्तराधिकारी। वास्तव में देवद्धिगणी किस परम्परा के और किसके शिष्य थे, इस विषय में आगे विचार किया जायगा। परम्परा से यह कहा जाता है कि देवद्धि क्षमाश्रमण ने श्रमणसंघ की अनुमति से वीर नि. सं. ९८० में बल्लभी में एक वृहत् मुनिसम्मेलन किया और उसमें आगमवाचना के माध्यम से, जिनको जैसा स्मरण था, उसे सुन कर उपलब्ध शास्त्रों के पाठों को व्यवस्थित कर आगमों को पुस्तकारूढ किया। जैसा कि कहा गया है : बलहिपुरम्मि नयरे, देवढिपमूहसमणसंघेणं । पुत्थइ आगम लिहिलो, नवसय असियानो वीरानो।। श्रद्धालुओं द्वारा परम्परा से यह मान्यता अभिव्यक्त की जा रही है कि आपके तप-संयम की विशिष्ट साधना एवं आराधना से कपर्दि यक्ष, चक्रेश्वरी देवी तथा गोमुख यक्ष सदा आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे। प्रागमवाचना अथवा लेखन मथुरा में प्रार्य स्कन्दिल द्वारा और वल्लभी में नागार्जुन द्वारा की गई आगमवाचना के पश्चात् १५० वर्ष से भी अधिक समय बीतने पर प्राचार्य देवद्धिगरणी ने वल्लभी में श्रमण संघ को एकत्र कर श्रतरक्षा की विचारण की। कहा जाता है कि समय की विषमता, मानसिक दुर्बलता और मेधा की मन्दता आदि कारणों से जब सूत्रार्थ का ग्रहण, धारण एवं परावर्तन कम हो गया, स्वयं देवद्धि भी कफ व्याधि की शान्ति के लिये प्रौषधरूप से लाई गई सोंठ का सेवन करना भूल गये। प्रतिलेखन के समय सोंठ को नीचे गिरी हुई देख कर उन्हें स्मृति हुई तो प्राचार्य ने एक मुनि-परिषद की प्रायोजना कर संघ के समक्ष विचार रखा कि भावी मन्द मेघावी श्रमरणों में इस प्रकार श्रुतिपरम्परा से शास्त्रज्ञान किस तरह अक्षुण्ण रह पायेगा? अतः कोई उपाय सोचना चाहिए जिससे कि श्रुतज्ञान का यथावत् रक्षण हो सके । विचार-विमर्श के पश्चात् सब ने निर्णय किया कि विद्यमान शास्त्रों एवं ग्रन्थों को लिपिबद्ध कर लिया जाय । उस मूनि-परिषद का देवद्धि क्षमाश्रमरण ने नेतृत्व किया। परिषद में आगमवाचना की गई अथवा शास्त्र लिपिबद्ध किये गये, इस विषय में इतिहास लेखक एकमत नहीं हैं । परम्परानुसार कई विद्वान् इसे आगमवाचना मानते हैं तो कतिपय नवीन शोधक इसे मात्र आगम-लेखन ही। वास्तव में इसे वाचनापूर्वक आगमलेखन कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। यह तो सुनिश्चित है कि वीर नि.सं. १८० में देवद्धि क्षमाश्रमण ने प्रागमों को लिपिबद्ध करने का निर्णय किया। उन्होंने प्रथमतः उपस्थित श्रमणों से आगमों के पाठों को सुन एवं ध्यान में लेकर उन्हें व्यवस्थित किया और जहां कुछ वाचनाजन्य भेद सामने आया, वहां Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रागमवाचना प्र० लेखन नागार्जुनीया वाचना के जो महत्वपूर्ण पाठ थे, उन्हें भी यथावत् वाचनान्तर के रूप से सुरक्षित कर सब को पुस्तकारुढ करवाया । यहां यह विचार हो सकता है कि क्या देवद्धि क्षमाश्रमण से पूर्व शास्त्र लिपिबद्ध नहीं हुए थे । यद्यपि पुष्ट प्रमारण के अभाव में स्पष्ट रूप से इस विषय में निर्णय करना संभव नहीं है फिर भी जैन साहित्य में यत्र-तत्र कतिपय पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा किये गये उल्लेखों को देखते हुए यह संभव लगता है। कि प्रार्य रक्षित के समय में शास्त्रीय भागों का कुछ अभिलेखन प्रारम्भ हो गया हो। क्योंकि अनुयोगद्वार सूत्र में द्रव्यश्रुत का नामोल्लेख करते हुए पुस्तक पर लिखित सूत्र का उल्लेख किया गया है। जैसा कि कहा है - "पत्तयपुत्थय लिहियं"" ६७८ निशीथ चूरिंग में शिष्य के उपकारार्थ पुस्तक -पंचक के ग्रहण का भी उल्लेख किया गया है । यथा :- 'सेहउग्गहधारणादि परिहारिंग जाणिऊरण कालियसुयट्ठा, कालियसुयनिज्जुत्तिनिमित्तं वा पुत्थगपरणगं धिप्पति । . इतिहासज्ञ मुनि कल्याण विजयजी देवद्धिगणी के पहले आगम-लेखन के पक्ष में निम्न विचार प्रस्तुत करते हैं : "देवद्धिगरणी के पहले यदि श्रागम लिखे हुए नहीं होते तो श्रनुयोगद्वार सूत्र में द्रव्यश्रुत के वर्णन में 'पुस्तक लिखितश्रुत' का उल्लेख नहीं होता । इससे यह बात तो निश्चित है कि देवद्धिगणी के समय से बहुत पहले जैन शास्त्र लिखने की प्रवृत्ति हो चली थी । छेद सूत्रों में साधुयों को कालिक श्रुत और कालिक श्रुत-निर्युक्ति के लिये ५ प्रकार की पुस्तकें रखने का अधिकार दिया गया है ।" 3 फिर मथुरा और वल्लभी की वाचनात्रों में भी आगमों का संकलन कर उन्हें लेखबद्ध किया गया इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। जैसा कि हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में कहा है : . “जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भि नागार्जुनस्कन्दिलाचार्य प्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।' ।"४ इसके समर्थन में हिमवन्त स्थवि - रावली में उल्लेख मिलता है कि मथुरा निवासी श्रोसवंशीय श्रमणोपासक पोलाक ने गन्धहस्तिकृत विवरण के साथ सब शास्त्रों को तालपत्र आदि पर लिखा कर साधु को अर्पित किया । १ अनुयोगद्वार, द्रव्यश्रुताधिकार सूत्र, ३४ २ निशीय चूरिण, उ. १२ 3 वीर निर्वाण और जैन काल गणना, पृ. १०६ ४ योगशास्त्र, प्रकाश ३ पत्र २०७ मयुरानिवासिना श्रमणो रास कवरे गौशव शविभूषणेन पोलाकाभिधेन तत्सकलमपि प्रवचनं गंधहस्तिकृत विवरणोपेतं तालपत्रादिषु लेग्वयित्वा भिक्षुभ्यः स्वाध्यायार्थं समर्पितम् । [ हिमवन्त स्थविरावली, अप्रकाशित ] 2 Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रागमवाचना प्र० लेखन ] सामान्य पूर्वघर-काल : देवद्धि क्षमाश्रम ૬૧ उपरोक्त उल्लेखों के आधार पर यह अनुमान होता है कि देवद्धिगणी के सूत्र - लेखन से पहले भी जैन शास्त्र लिखे जाते थे । लेखनारंभ के निश्चित समय के सम्बन्ध में तो कुछ नहीं कहा जा सकता पर इतना कह सकते हैं कि आर्य रक्षित के समय से ही पूर्वी के अतिरिक्त शास्त्रीय भाग का अल्प प्रमाण में लेखन प्रारम्भ हो गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । परन्तु उन्होंने सम्पूर्ण श्रागमों का लेखन करवाया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । श्रागम लेखन के लिये तो देवद्धि क्षमाश्रमरण का काल ही सर्वसम्मत माना जाता है। संभव है पूर्ववर्ती आचार्यों के समय में शास्त्र के कुछ विशिष्ट स्थलों का आलेखन किया गया हो । यदि देवद्ध की तरह पहले ही सम्पूर्ण शास्त्रों का किसी ने लेखन करवा लिया होता तो श्रुतरक्षण हेतु उन्हें इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। स्कंदिल के समय में श्रमणोपासक पोलाक द्वारा सम्पूर्ण प्रवचन के लेखन का कथन भी किसी शास्त्र विशेष अथवा स्थल विशेष को लेकर ही संगत हो सकता है । देवद्ध ने अपने श्रागम-लेखन कार्य में उन लिखित भागों को अपने अभ्यस्त पाठों और नागार्जुनपरम्परा के पाठों के साथ मिलाकर उन्हें व्यवस्थित किया होगा । देवद्धिगरणी को इस कार्य में श्रार्य कालक का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ और इस प्रकार दोनों वाचनाओं को एक संयुक्त रूप देने में श्राचार्य देवद्ध ने सफलता प्राप्त की । इस प्रकार ग्रागमलेखन को प्रमुख मानते हुए भी दोनों वाचनानों के पाठों को ध्यान में रखा गया है । अतः इसे 'वाचना के साथ आगमलेखन' कहना ही उचित होगा । दुष्षमाश्रमरणसंघस्तोत्र यंत्र की प्रति में एक गाथा उपलब्ध होती है - वालब्भसंघकज्जे, उज्जमियं जुगपहारणतुल्लेहिं । गंधव्ववाइवेयाल, संतिसूरीहि बलहीए ॥२॥ गाथा में बताया गया है कि युगप्रधान तुल्य गन्धर्व - वादि वैताल शान्तिसूरि ने वालभ्य संघ के कार्य हेतु वल्लभी नगरी में उद्योग किया । गाथा में आये हुए "वालब्भसंघकज्जे उज्जमिय" इस पद पर से कुछ विद्वान् यह प्राशंका अभिव्यक्त करते हैं कि दोनों वाचनात्रों को संयुक्त कर एक रूप देने में दोनों वर्गों के बीच संघर्ष हुआ और उस समय वालभ्य संघ अर्थात् नागार्जुनीय परम्परा के श्रमरणसंघ में प्रचलित वाचना को मनवाने के लिये शान्तिसूरि ने अपनी पूरी शक्ति लगाई । पर हमारे विचार से इस प्रकार की आशंका करना उचित प्रतीत नहीं होता । काररण कि आर्य स्कंदिल और प्रार्य नागार्जन की वाचनाएं जो दोनों के स्वर्गस्थ होने के कारण एक नहीं की जा सकीं, उनको एक रूप देने के लिये दोनों परम्पराओं के श्रमणों ने सद्भावपूर्वक आचार्य देवद्धि के नेतृत्व में मुनि-परिषद की । ऐसी स्थिति में विवाद की आशंका करना वस्तुतः उनकी सद्भावना को भुलाना होगा । वाचना को एक रूप देने की भावना ही उनके अनाग्रह भाव को प्रकट करती है । फिर जिस परिषद् के नेता आर्य देवद्धि एवं भायें 'कालक जैसे प्रमुख श्रमण हों, वहां शास्त्रीय पाठों को लेने न लेने जैसे महत्वपूर्ण Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन का मौलिक इतिहास-विसीय भाग [मागम वा०मा लेखन प्रश्न पर दुराग्रह अथवा संघर्ष की संभावना ही किस प्रकार हो सकती है ? संभव है 'वालभ्य संघ के लिये कार्य किया'-इसका अभिप्राय वल्लभी में मिले हुए दोनों परम्परामों के श्रमणसंघ का मागम लेखन कार्य ही इष्ट हो और शान्ति सूरि ने मागम लेखन और पाठ निर्धारण के कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान किया हो। देखि मौर देववाचक देवद्धि क्षमाश्रमण की गुरु परम्परा का निर्णय करने से पहले यह देख लेना मावश्यक है कि देवदि क्षमाश्रमण ही देववाचक हैं अथवा दोनों भिन्न-भिन्न । यद्यपि यह सर्वविदित है कि देवद्धिगणि क्षमाश्रमण वल्लभी में हुई अंतिम आगमवाचना के सूत्रधार और नन्दीसूत्र के रचनाकार थे, पर नन्दीसूत्र की टीका में प्राचार्य हरिभद्र एवं मलयगिरी ने तथा नन्दीसूत्र की चूरिण में चूरिणकार जिनदास ने नन्दीसूत्र के रचयिता के रूप में दुष्यगरणी के शिष्य देववाचक का उल्लेख किया है।' इससे देववाचक पौर देवदिगणी क्षमाश्रमण के भिन्न-भिन्न होने की भ्रांति हो सकती है। किन्तु विभिन्न ग्रन्थकारों एवं इतिहासकारों के विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि देववाचक और देवद्धिगणी क्षमाश्रमण दो नहीं अपितु दो नाम के एक ही प्राचार्य थे। पूर्वाचार्यों ने वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर और वाचक इन शब्दों को एकार्थवाचक बताया है। पूर्वगत श्रुत के जानकार के लिये इन शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टि से देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण और देववाचक दोनों शब्द दो भिन्न व्यक्तिवाचक नहीं होते । यह तो एक निस्संदिग्ध तथ्य है कि देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण अपने समय के एक लब्धप्रतिष्ठ महान् गणनायक होने के साथ-साथ एक समर्थ वाचनाचार्य भी थे । संभव है उनके वाचनाचार्य पद की अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनके नाम के प्रथम दो अक्षरों- "देव" के साथ वाचक शब्द जोड़ कर "देवद्धिगणी वाचक" के स्थान पर इनका संक्षिप्त नाम देववाचक रख दिया गया हो। देववाचक नाम के साथ ही साथ गणधर के रूप में उनकी अधिक प्रसिद्धि होने के ' (क) क एवमाह - दूष्यगणि शिष्यो देववाचक इति गाथार्थः। [नन्दी, हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० २०] (ख) देयवाचकोऽषिकृताध्ययनविषयभूतस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां कुर्वनिदमाह- .. (वही, पृ० २३] (ग) तत प्राचार्योऽपि देववाचकनामा ज्ञानपंचकं व्याचिख्यासुः..... तीथंकृत्स्तुतिमभिधातुमाह [श्री मलयगिरीया नन्दीवृत्तिः पत्र २] (घ) दूष्यगणिपादोपसे वि पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारको देववाचको योग्यविनेयपरीक्षां कृत्वा सम्प्रत्यधिकृताध्ययन विषयस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां विदघाति- [वही, पत्र ६५ (१)] (इ) दूसगरिणसीसो देववावगो साधुजण हियट्ठाए इणमाह- [नन्दी चूणि, पृ० १०] २ वाई य ख मासमरणे, दिवायरे वायगति एगट्ठा । पुव्वगम्मि मुने, एए सद्दा पउजति ।। [पुरातन प्राचार्य] Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पूर्वघर - काल: देवद्धि क्षमाश्रमरण ६८१ देवद्धि श्रौर देववाचक ] कारण उनका दूसरा नाम देवद्विगरणी क्षमाश्रमरण अथवा देवद्धि क्षमाश्रमरण ही व्यवहार में बोला जाता रहा हो तो कोई श्राश्चर्य नहीं । वाचकवंश की परम्परा में प्राचार्य दृष्यगणी के पश्चात् जो २५वें प्राचार्य देववाचक माने गये हैं, वे कोई अन्य नहीं, देवद्धि क्षमाश्रमरण ही हो सकते हैं । जैसा कि जयसिंह सूरिकृत धर्मोपदेश माला में गणधर और वाचनाचार्यों में देवद्धगरणी को ही प्रार्य जम्बू से २४वें आचार्य होना बताया है । यह कोई निरी कल्पना नहीं अपितु इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमाण हैं कि देवद्धगरणी क्षमाश्रमरण का ही दूसरा नाम देववाचक था । कर्मग्रन्थ की स्वोपज्ञ वृत्ति में देवेन्द्रसूरि ने अवधिज्ञान के भेद के विवेचन में नन्दीसूत्रगत पद का उल्लेख करते हुए कहा है :- “यदाह देवद्धि क्षमाश्रमरण: - " से किं तं अरणारगुगामियमित्यादि । " " - अर्थात् - नन्दीसूत्र में देवद्धि क्षमाश्रमण ने कहा है"वह अनानुगामी क्या है ? इत्यादि । यदि देववाचक और देवद्धि दो भिन्न प्राचार्य होते तो देवेन्द्रसूरि वस्तुतः देववाचक के स्थान पर देवद्धि क्षमाश्रमण को नन्दी सूत्र का रचनाकार नहीं बताते । फिर दूसरा प्रमारण यह है कि देववाचक यदि देवद्धि क्षमाश्रमरण से भिन्न कोई दूसरे ही श्राचार्य होते तो स्कन्दिलाचार्य की वाचना का प्रतिनिधित्व भी देववाचक को ही मिलना चाहिये था न कि देवद्धि क्षमाश्रमण को । परन्तु स्थिति इससे सर्वथा विपरीत है । यह एक सर्वसम्मत तथ्य है कि वल्लभी वाचना में नागार्जुनीया वाचना के प्रतिनिधि प्राचार्य नागार्जुन की परम्परा के उत्तराधिकारी प्राचार्य कालक (चतुर्थ) और स्कन्दिली ( माथुरी) वाचना के प्रतिनिधि श्रार्य स्कन्दिल की परम्परा के उत्तराधिकारी प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमरण माने गये हैं । इससे यही प्रमाणित होता है कि देवद्ध क्षमाश्रमरण ही देववाचक हैं, भिन्न नहीं । मेरुतुंग की स्थविरावली में भी यह उल्लेख है कि देवद्धिगरणी ने सिद्धान्तों को विनाश से बचाने के लिये पुस्तकारूढ किया । २ इन्होंने अपनी स्थविरावली में भी पट्टक्रम का निर्देश करते हुए श्री भूतदिन्न, लोहित्य, दृष्यगणी और देवद्धिगणीइस प्रकार दृष्यगरणी के पश्चात् स्पष्टरूपेण देवद्धिगरणी का उल्लेख किया है । daa क्षमाश्रमरण की गुरु-परम्परा देवद्धि क्षमाश्रमण की गुरु-परम्परा के विषय में इतिहासज्ञ एकमत नहीं हैं । कुछ विद्वान् कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार देवद्धि को सुहस्ती शाखा के १ (क) यदाह भगवान् देवद्ध क्षमाश्रमण :- नारणं पंचविहं पन्नत्तमित्यादि । यदाह देवद्धवाचक :- से कि तं मइनारणेत्यादि । (ख) यदाहुनिर्दलिताज्ञानसंभारप्रसरा देवद्धिवाचकबरा : तं समासो चउविहं पन्नत्तमित्यादि । [ प्रा० देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ-स्वोपज्ञवृत्ति ] २ श्री वीरादनु सप्तविंशतमः पुरुषो देवगिरिण. सिद्धान्तान् ग्रव्यवच्छेदाय पुस्तकाधिरूढानकार्षीत् । [मेरसंगीया येरावली, टीका, ५] Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि को गुरु-परम्परा आर्य षांडिल्य के शिष्य बता रहे हैं और दूसरे नन्दीसूत्र की स्थविरावली, जिनदास रचित चूणि, हारिभद्रीया वृत्ति, मलय गिरीया टीका और मेरूतुंगीया विचारश्रेणी के आधार पर देवद्धि को दृष्यगरणी का शिष्य बताते हैं। तीसरा पक्ष देवदि को आर्य लौहित्य के शिष्य होने का भी उल्लेख करता है। इन विभिन्न विचारों में से यह निर्णय करना है कि वास्तव में देवद्धि किस परम्परा के और किनके शिष्य थे। इतिहास के विशेषज्ञ मुनि श्री कल्याणविजयजी प्रादि लेखकों ने इनको सुहस्ती-परम्परा के आर्य षांडिल्य का शिष्य मान्य किया है। उनका कहना है कि नन्दीसूत्र की स्थविरावली देवद्धि की गर्वावली नहीं अपितु युग प्रधानावली है, देवद्धि की गर्वावली तो कल्पसूत्रीया स्थविरावली है। अपने इस मन्तव्य की पुष्टि में उन्होंने कहा है कि कल्पसूत्रस्थ स्थविरावली में पांडिल्य के पश्चात् कुछ गाथाएं देकर देवद्धि को वंदन किया गया है। ___ कल्प स्थविरावली के गद्य पाठ के अन्तिम सूत्र में आर्य धर्म के अन्तेवासी काश्यपगोत्रीय आर्य षांडिल्य बताये गये हैं। इसके पश्चात् १४ गाथामों से कतिपय प्राचार्यों को वंदन किया गया है। उनमें फल्गुमित्र से काश्यपगोत्रीय धर्म तक तो पाठगत स्थविरों की ही वन्दना की गई है। तदनन्तर (१) स्थविर आर्य जम्बू, (२) प्रार्य नन्दियमपिय, (३) माढरगोत्रीय आर्य देसिगणी, (४) स्थिरगुप्त क्षमाश्रमण, (५) स्थविर कुमार धर्म, और (६) देवद्धिक्षमाश्रमण काश्यपगोत्रीय को प्रणाम किया गया है। बस यही कल्पम्त्रीय स्थविरावली को देवद्धि को गुवविली मानने का प्राधार माना है। स्थविरावली के अन्य प्राचार्यों की तरह जम्बू आदि स्थविरों के लिये यह नहीं बताया गया है कि ये किनके अन्तेवासी थे । गाथाओं की शैली और उनमें फल्गुमित्र प्रादि कुछ प्राचार्यों के नामों का पुनरावर्तन कर वन्दन करने से प्रतीत होता है कि पीछे के किसी लेखक ने भक्तिवश जम्व आदि पाठ प्राचार्यों को वन्दन कर अन्तिम गाथा में देवद्धि क्षमाश्रमरण का नाम भी जोड़ दिया है। स्थविरावली के मूलपाठ में तो इनका कहीं उल्लेख तक नहीं है। ऐसी स्थिति में केवल देवद्धि क्षमाश्रमण ने कल्पसूत्र का संकलन किया और उसकी स्थविरावली में प्रार्य धर्म के अन्तेवासी पार्य पांडिल्य का अन्तिम नाम है, यही एक पांडिल्य को देवद्धि के गुरु मानने का आधार हो सकता है। अन्यथा कल्पसूत्रीया स्थविरावली में ऐसा कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता, जिन पर से कि देवद्धि के गुरु का स्पष्टल: निर्णय किया जा सके । ___ गाथाओं में निर्दिष्ट प्राचार्यक्रम के आधार से यदि देवद्धि की गुरु परम्परा मान्य की जाय तो स्थविर कुमार धर्म को देवदि का गुरू मानना होगा। क्योंकि कुमार धर्म की वन्दना के पश्चात् देवद्धि क्षमाश्रमण को प्रणिपात किया गया है । वस्तुतः कल्प स्थविरावली की अन्त की गाथानों में देवद्धि क्षमाश्रमण के आसपास कहीं पांडिल्य का नामोल्लेख भी नहीं है। हम नहीं समझ पाते कि ऐसी स्थिति में देवद्धि को प्रार्य पाण्डिल्य का शिष्य किस प्राधार पर बताया जाता है । थवि रावली को गहराई से देखने पर भी प्रार्य पाण्डिल्य को देवद्धि का गुरु मानने Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्ध की गुरु परम्परा ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ६८३ का कोई कारण समझ में नहीं आता । आर्य षाण्डिल्य यदि देवद्ध के गुरु होते तो अवश्य उनके प्रति कुछ विशिष्ट शब्दों द्वारा वन्दन पूर्वक गुरु भाव व्यक्त किया जाता । मुनिश्री की कल्पना के अनुसार यदि देवद्धिगरणी आर्य सुहस्ती की शाखा के प्राचार्य होते तो नंदीसूत्रस्थ स्थविरावली के समान ही कल्पसूत्रस्थ स्थविरावली में भी प्रत्येक श्राचार्य का विशेष स्तुतिपूर्वक परिचय दिया जाता । पर वस्तुतः कल्पसूत्रीया स्थविरावली में वैसा न कर, अमुक स्थविर का अन्तेवासी अमुक, केवल इतना ही परिचय दिया गया है । नन्दीसूत्रीया स्थविरावली में प्रत्येक प्राचार्य को वंदन और षांडिल्य के पश्चात् अधिकांश आचार्यों का स्तुतिपूर्वक स्मरण किया गया है । इसके विपरीत कल्प की स्थविरावली में आदि से अंत तक इतना ही बताया गया है कि कौन किसका शिष्य था । अन्तिम सूत्र में - "थे रस्स दिया है। इस णं प्रज्ज धम्मस्स कासवगुत्तस्स प्रज्ज संडिल्ले थेरे अंते वाक्य से केवल इतना ही अभिव्यक्त होता है कि स्थविर प्रायं धर्म के अंतेवासी श्रार्य पाण्डिल्य थे । इसके आगे १४ गाथाओं द्वारा १७वें स्थविर फल्गुमित्र से ३२ वें आर्य धर्म तक का स्मरण किया गया है। अंत में जम्बू प्रादि ६ प्राचार्यों का स्मरण कर किसी अन्यकर्तृक गाथा से देवद्धि का स्मरणपूर्वक वंदन किया गया है । कल्पसूत्रीया स्थविरावली गुरु-शिष्य क्रमवाली होने और षांडिल्य के पश्चात् अन्यकर्तृक गाथा द्वारा देवद्धि को वन्दन करने मात्र से ही यह अनुमान कर लेना कि सूत्र के लेखक प्राचार्य ( देवद्धि) की भी यही गुरु-परम्परा है और स्थविरावली के अन्तिम आचार्य पाण्डिल्य उनके दीक्षा- गुरु हैं, उचित नहीं । श्रार्य स्थविर वाण्डिल्य यदि देवद्धि के गुरु होते तो अवश्य ही कुछ विशिष्ट विशेषरणों से उनका दृष्यगणी के समान परिचय दिया जाता । ऐसी स्थिति में नन्दीसूत्र की स्थविरावली को माथुरी वाचनानुगत युगप्रधान स्थविरावली श्रथवा वाचकवंश पट्टावली कह कर उसे देवद्ध की गुर्वावली न मानना न तो कोई सयौक्तिक ही है और न किसी प्रमाण द्वारा पुष्ट ही । -- यह ठीक है कि नन्दीसूत्र की स्थविरावली में मुख्य रूप से वाचकवंश की परम्परा प्रस्तुत की गई है और इसलिये कहीं-कहीं गुरुभाई एवं गणान्तर के प्राचार्य का भी वहां वाचक रूप से उल्लेख हो गया है पर इसका यह अर्थ नहीं कि उसमें गुरु-शिष्य का क्रम सर्वथा ही नहीं है । प्राचार्य नन्दिल से आगे के सभी नाम नन्दी की स्थविरावली में भी प्रायः गुरु-शिष्य क्रम से ही दिये गये हैं । श्रार्य सुधर्मा और जम्बू जैसे शिवंगत प्राचार्यों और अन्य विशिष्ट श्रुतधरों का कल्प की तरह यहां भी नाममात्र से स्मरण कर भूतदिन और दृष्यगरणी का तीन और दो गाथाओं से अभिवादन कर उनके चरणों में प्रणाम किया गया है। बिना विशिष्ट अनुराग और भक्ति के इस प्रकार गुणगानपूर्वक चरणवन्दन संभव नहीं होता । निश्चय ही इस प्रकार के अभिवादन के पीछे ग्राचार्य का कोई विशिष्ट अभिप्राय होना चाहिये और वह विशिष्ट अभिप्राय शिक्षा-दीक्षा यादि उपकार Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि को गुरु-परम्परा जन्य गुरुभक्ति के अतिरिक्त अन्य नहीं हो सकता। देवद्धि द्वारा नंदी स्थविरावली की ४०वीं एवं ४१वीं गाथानों में प्राचार्य दूष्यगणी के प्रशस्त लक्षण युक्त कोमलसुकुमार चरणों का जिस रूप में वर्णन करते हुए वंदन किया गया है, उस प्रकार का वर्णन किसी साक्षात् द्रष्टा श्रद्धालु द्वारा ही किया जा सकता है। यदि देवद्धि सुहस्ती की परम्परा के वाचक होते तो वे अवश्य ही कल्पस्थ स्थविरावली में भी ऐसी स्तुति-परक गाथा द्वारा षांडिल्य के गुणों के उल्लेखपूर्वक उनका अभिवादन करते। पर वहां ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता। कल्प स्थविरावली के अन्त में जो देवद्धि के लिये स्तुतिपरक गाथा दी गई है, वह भी अन्यकर्तृक होने के कारण गुरुपरम्परा का निर्णय करने में प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। ___ इन सब तथ्यों पर तटस्थ गवेषक की दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर देवद्धि को दूष्यगणी का शिष्य मानना ही उचित प्रतीत होता है । दूष्यगणी के साथ देवगिणी का गणीपदान्त नाम भी दोनों के बीच गुरु-शिष्य जैसा निकट सम्बन्ध सूचित करता है। देवद्धि क्षमाश्रमण को परम्परा से उग्रविहारी एवं दृढाचारी माना जाता है। जैसा कि एक प्राचीन गाथा द्वारा प्रकट होता है - . देवड्डिखमासमणजा; परं परं भावो वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दम्वेण परंपरा बहुहा ।' अर्थात् - देवद्धि क्षमाश्रमण पर्यंत प्राचार मार्ग की भाव-परम्परा चलती रही। उनके पश्चात् शिथिलाचार के कारण द्रव्य-परम्परा का बाहुल्य हो गया। उपरोक्त गाथा के निर्देशानुसार देवद्धि क्षमाश्रमण का भावपरम्परानुगामी रुख भी उनका महागिरीया परम्परा के प्राचार्य होना प्रमाणित करता है। कुछ वर्ष पहले नन्दी सूत्र की प्रस्तावना में हमने देवद्धि के लिये सुहस्ती की परम्परा के प्राचार्य होने का उल्लेख किया था किन्तु वर्तमान के अनुसन्धान से आज इसी निर्णय पर पहुंचते हैं कि देवद्धि क्षमाश्रमण दोनों परम्पराओं में मान्य होने पर भी वाचक दृष्यगरणी के ही शिष्य होने चाहिए। संभव है कि प्रार्य देवद्धि विशिष्ट श्रुतधर एवं सर्वप्रिय उदारमना आचार्य होने के कारण दोनों ही परम्परामों में समान रूप से सम्मान-प्राप्त माने गये हों। इसके उपरान्त भी नन्दी स्थविरावली को एकान्ततः महागिरी की ही परम्परा नहीं कहा जा सकता, इसमें सुहस्ती की शाखा के नागार्जुन जैसे आचार्यों के नाम भी सम्मिलित हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी इसमें महागिरि की परम्परा के प्राचार्यों की प्रधानता एवं बाहुल्य होने के कारण नन्दी स्थविरावली को लब्धप्रतिष्ठ प्राचार्यों द्वारा टीका चूणि आदि में महागिर्यावलिका ही माना गया है। दूष्यगणी महागिरी की शाखा के प्राचार्य हैं, अतः देवद्धि क्षमाश्रमण को भी प्राचार्य महागिरी की शाखा के ही प्राचार्य मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। जैसा कि टीकाकार मलयगिरि ने कहा है - ' आगम अष्टोत्तरी Pie Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८५ देवद्धि को गुरु-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ... "सुहस्ति से सुस्थित-सुप्रतिबुद्धादि क्रम से चलने वाली प्रावलिका दशाश्रुत स्कन्ध के अनुसार खनी चाहिए। यहां (नन्दी सूत्र में) उसका अधिकार नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन के रचनाकार देवद्धि का उसमें (कल्प स्थविरावली में) प्रभाव है इसलिये यहां महागिरी की प्रावलिका से ही प्रयोजन है।" इस प्रकार टीकाकार प्राचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि कल्पस्थविरावली में देवद्धि (देववाचक) का नाम नहीं है, ऐसी स्थिति में दूष्यगरणी को देवद्धि के दीक्षा-गुरु मानने में और देवद्धिगणी को महागिरि की शाखा के वाचनाचार्य मानने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती। चूणिकार जिनदासगणी ने भी स्पष्ट लिखा है - "दूसगणि सीसो देववायगो गाधुगण हियट्ठाए इणमाह।"२ । ___ संभव है कल्पसूत्रीय स्थविरावली के अंत में प्राई हुई गाथाओं में निर्दिष्ट देसिगरणी पद दृष्यगणी का ही बोधक हो। आचार्य मेरुतुंग ने भी अपनी स्थविरावली में वृद्ध संप्रदाय का उल्लेख करते हुए लिखा है :- "स्थूलभद्र" के दो शिष्य हए, आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती। उनमें से प्रार्य महागिरि की शाखा मुख्य है । 3 इससे आगे आचार्य मेरुतुंग ने और भी स्पष्ट करते हुए दो गाथाओं द्वारा बलिस्सह आदि क्रम से महागिरि परम्परा के प्राचार्यों की नामावली प्रस्तुत की है। उसमें दूष्यगणी के साथ देवद्धि का नाम अन्त में दिया गया है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं : सूरि बलिस्सहसाई, सामज्जो संडिलो य जीयधरो। अज्जसमुद्दो मंगू, नंदिल्लो नागहत्थी य ।। रेवइ-सिंहो खंदिल हिमवं नागज्जुरणा गोविंदा । सिरि भूइदिन्न-लोहिच्च-दूसगरिगणो य देवड्डी ।। यहां यह अनमान करना कि मेरुतंग और मलयगिरि के उल्लेखों का कोई ठोस आधार नहीं है - ठीक नहीं। उनके पीछे महागिरि परम्परा के वाचकों का गुरु-शिष्य क्रम से उल्लेख करने वाली नन्दी-स्थविरावली की गाथाओं का पुष्ट एवं स्पष्ट प्रमाण विद्यमान है। प्राचार्य मेरुतंग ने ऐसा प्रानने का आधार जो वृद्ध सम्प्रदाय बताया है, उसका अर्थ किंवदन्ती रूप नहीं किन्तु मेरुतंग के समक्ष पूर्वाचार्यों की ऐसी परम्परा विद्यमान थी, ऐसा मानना चाहिए। बिना किसी पुष्ट प्रमाण के केवल कल्पना के आधार पर मलयगिरि और मेरुतुंग की मान्यता को अप्रामाणिक मानने का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। ' थूलभद्दस्स अंतेवासी इमं दो थेरा-महागिरि एलावच्चसगोत्ते सुहत्थीवासिद्धसगोत्त। सुहत्थिस्स सुट्ठितसुपडिबुद्धादयो प्रावलीते जहा दसासु (म० ८ सूत्रं २१०) तहा भारिणतम्वा, इहं तेहिं अहिगारो पत्थि, महागिरिस्स प्रावलीए अधिकारो। [नंदी चूणि, पुण्य विजयजी, पृ० ८] २ नंदी चूणि, पृ० १०. 3 अत्र चायं वृद्ध सम्प्रदायः-स्थूलभद्रस्य शिष्यद्वयम्-१ प्रार्य महागिरिः, २ मार्य सुहस्ती च। तत्र आर्य महागिरेर्या शाखा सा मुख्या । [मेरुतुंगीया विचारश्रेणिः ] Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि की गुरु-परम्परा प्रार्य महागिरि और सुहस्ती की शाखामों में बड़े होने के कारण महागिरि की शाखा को 'वृद्धशाखः' कहा जाना उचित ही है। जैसा कि विधिपक्ष पट्टावली में प्राचार्य देवद्धि की वन्दना करते हुए कहा गया है - वीरस्स सत्तबीसे, पट्टे सुत्तत्थरयणसिंगारं । देवड्डिखमासमणं, पणमामि य वुड्डसाहाए ।।२१।।' अर्थात् - वृद्ध शाखा में प्रभु महावीर के २७वें पट्टधर सूत्रार्थ रत्न के शृंगार से सुशोभित देवद्धि क्षमाश्रमण को नमस्कार करता हूँ। वल्लमी-परिषद का प्रागम-लेखन श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय की यह परम्परागत एवं सर्वसम्मत मान्यता है कि वर्तमान में उपलब्ध पागम देवद्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा लिपिबद्ध करवाये गये थे। लेखनकला का प्रारम्भ भगवान ऋषभदेव के समय से मानते हुए भी यह माना जाता है कि प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण से पूर्व प्रागमों का व्यवस्थित लेखन नहीं किया गया। पुरातन पराम्परा में शास्त्रवारणी को परमपवित्र मानने के कारण उसकी पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये प्रागमों को श्रतपरम्परा से कण्ठाग्र रखने में ही श्रेय समझा जाता रहा। पूर्वकाल में इसीलिये शास्त्रों का पुस्तकों अथवा पन्नों पर पालेखन नहीं किया गया। यही कारण है कि तब तक श्रुत नाम से ही शास्त्रों का उल्लेख किया जाता रहा । जैन परम्परा ही नहीं वैदिक परम्परा में भी यही धारणा प्रचलित रही और उसी के फलस्वरूप वेद वेदांगादि शास्त्रों को श्रति के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा । जैन श्रमणों की अनारम्भी मनोवत्ति ने यह भी अनुभव किया कि शास्त्र-लेखन के पीछे बहत सी खटपटें करनी होंगी। कागज. कलम, मसी और मसिपात्र प्रादि लाने, रखने तथा सम्हालने में प्रारम्भ एवं प्रमाद की वृद्धि होगी। ऐसा सोच कर ही वे लेखन की प्रवृत्ति से बचते रहे । पर जब देखा कि शिष्यवर्ग की धारणा-शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती चली जा रही है, शास्त्रीय पाठों की स्मृति के प्रभाव से शास्त्रों के पाठ-परावर्तन में भी ग्रालस्य तथा संकोच होता जा रहा है, बिना लिखे शास्त्रों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकेगा ,शास्त्रों के न रहने से ज्ञान नहीं रहेगा और ज्ञान के अभाव में अधिकांश जीवन विषय, कषाय एवं प्रमाद में व्यर्थ ही चला जायगा, शास्त्र-लेखन के द्वारा पठन-पाठन के माध्यम से जीवन में एकाग्रता बढ़ाते हुए प्रमाद को घटाया जा सकेगा और ज्ञानपरम्परा को भी शताब्दियों तक अबाध रूप से सुरक्षित रखा जा सकेगा, तब शास्त्रों का लेखन सम्पत्र किया गया । इस प्रकार संघ को ज्ञानहानि और प्रमाद से बचाने के लिये संतों ने शास्त्रों को लिपिबद्ध करने का निश्चय किया। जैन परम्परानमार यार्य रक्षित एवं आर्य स्कन्दिल के समय में कुछ शास्त्रीय भागों का लेखन प्रारम्भ हुग्रा माना ' भाबसागर की 'विधिपक्ष पदावली' । Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.-परि० का पागम ले०] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ६८७ गया है। किन्तु प्रागमों का सुव्यवस्थित सम्पूर्ण लेखन तो आचार्य देवद्धि क्षमाश्रमरण द्वारा वल्लभी में ही सम्पन्न किया जाना माना जाता है। देवदि के समय में कितने व कौन-कौन से शास्त्र लिपिबद्ध कर लिये गये एवं उनमें से प्राज कितने उसी रूप में विद्यमान हैं, प्रमारणाभाव में यह नहीं कहा जा सकता। "प्रागम पुत्थय लिहियो" इस परम्परागत अनुश्रुति में सामान्य रूप से आगम पुस्तक रूप में लिखे गये - इतना ही कहा गया है । संख्या का कहीं कोई उल्लेख तक भी उपलब्ध नहीं होता। अर्वाचीन पुस्तकों में ८४ पागम और अनेक ग्रन्थों के पुस्तकारूढ करने का उल्लेख किया गया है। नंदीसूत्र में कालिक और उत्कालिक श्रुत का परिचय देते हुए कुछ नामावली प्रस्तुत की है। बहुत सम्भव है देवदि क्षमाश्रमण के समय में वे श्रुत विद्यमान हों और उनमें से अधिकांश सूत्रों का देवद्धि गरणी क्षमाश्रमण ने लेखन करवा लिया हो। नन्दीसूत्रानुसार कालिक एवं उत्कालिक सूत्रों की संख्या निम्न प्रकार है :-- उत्कालिक सुय (धुत) १. दसवेयालियं १६. सूरपण्णत्ती २. कप्पियाकप्पियं १७. पोरिसिमंडल ३. चुल्लकप्पसुयं १८. मंडलपवेस ४. महाकप्पसुयं १६. विज्जाचरणविरिणच्छयो ५. उववाइय २०. गणिविज्जा ६. रायपसेरगइय २१. झारणविभत्ती ७. जीवाभिगम २२. मरणविभत्ती ८. पन्नवरणा २३. प्रायविसोही ६. महापन्नवरणा २४. वीयरागसुयं १०. पमायप्पमाय २५. संलेहरणासुयं ११. नंदी २६. विहारकप्पो १२. अणुप्रोगदाराई २७. चरणविहि १३. देविन्दथव २८. पाउरपच्चक्खारण १४. तंदुलवेयालिय २६. महापच्चक्खाण, आदि १५. चंदाविज्जय कालिक सुय (श्रुत) १२ अंग १. पायारो ७. उवासगदसायो २. सुयगडो ८. अंतगडदसाम्रो ३. ठाणं ६. अरगुत्तरोव वाइयदसाम्रो ४. समवाप्रो १०. पण्हावागरणाई ५. विवाहपण्णत्ती ११. विवाग सुयं ६. नायाधम्मकहानो १२. दिठिवाओ (विच्छिन्न) Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग १. उत्तरज्भयरणा इं २. दसा ३. कप्पो ४. ववहारो ५. निसीह ६. महानिसीह ७. इसिभासियाई ८. जंबूदीवपण्णत्ती ६. दीवसागरपण्णत्ती १०. चंदपण्णत्ती ११. खुड़ियाविमारणपविभत्ती १२. महल्लिया विमारंगपविभत्ती १३. अंगचूलिया १४. विवाह चूलिया १५. अरुणोववा १६. वरुणोववाए १७. गरुलोववाए १८. धरणोववाए १ आचारांग २ सूत्रकृतांग ३ स्थानांग ४ समवायांग ५ भगवती ६ ज्ञाताधर्मकथांग १ प्रोपपातिक २ राजप्रश्नीय ३ जीवाभिगम ४ प्रज्ञापना ५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ६ चन्द्र प्रज्ञप्ति इस प्रकार कुल ७५ श्रुत बताये गये हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा द्वारा वर्तमान में ४५ श्रागम माने जाते हैं पर स्थानकवासी और तेरापन्थ परम्परा में ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद और १ श्रावश्यक इस प्रकार ३२ शास्त्रों को प्रामाणिक मानते हैं । ४५ सूत्रों की संख्या इस प्रकार है : ११ अंग : १६. वेसवणोववाए २०. वेलंधरोववाए २१. देवेन्दोववाए २२. उट्ठारणसुयं २३. समुट्ठारणसुयं २४. नागपरियावलियानो २५. निरयावलियाम्रो २६. कप्पिया २७. कप्पवडंसिया २८. पुफियाओ २६. पुप्फचूलियानो ३०. वहिदा १२ उपांग : ३१. श्रासीविसभावरणारणं ३२. दिट्ठिविभावरणाणं ३३. सुमिरणभावणारणं ३४. महासुमिरणभावरणा ३५. तेयग्गिनिसग्गाणं [ कालिकश्रुत ७ उपासकदशांग अंतकृतदशांग ६ अनुत्तरोपपातिकदशांग १० प्रश्नव्याकरण ११ विपाक श्रुत ७ सूरप्रज्ञप्ति ८ कल्पिका C कल्पावतं सिका १० पुष्पिका ११ पुष्पचूलिका १२ वृष्णिदशा Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक पामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ६८६ १० प्रकीर्णक :१ चतुश्शरण प्रकीर्णक ६ चन्द्रविद्यक २ अातुर प्रत्याख्यान ७ देवेन्द्रस्तव ३ भक्त प्रत्याख्यान ८ गरिणविद्या ४ संस्तार प्रकीर्णक ६ महाप्रत्याख्यान ५ तंदुल वैचारिक १० मरणसमाधि ६ छेवसूत्र :१ निशीथ ४ व्यवहार २ महानिशीथ ५ दशाश्रुतस्कंध ३ वृहत्कल्प ६ जीतकल्प १ दशवैकालिकसूत्र २ उत्तराध्ययन ३ अनुयोगद्वार ४ नन्दीसूत्र २पलिका १ प्रोपनियुक्ति - २ पिण्डनियुक्ति कुछ लेखक नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्र को चूलिका मानते हैं । १. प्रावश्यक इनमें से १० प्रकीर्णक, अंतिम २ खेदसूत्र और २ चूलिकामों के तिरिक्त ३२ सूत्रों को स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय मान्य करती हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ को प्रामाणिक स्वीकार करती है। नन्दीसूत्र-गत कालिक उत्कालिक सूत्रों की तालिका में १० में से ४ प्रकीर्णक, २ छेदसूत्र एवं २ चूलिकाएं (मोनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति) नहीं हैं और ऋषिभाषित का नाम जो कि नंदी सूत्र की तालिका में है, वह वर्तमान ४५ प्रागमों की संख्या में नहीं है। संभव है ४४-४५ पागम और ज्योतिषकरंडक प्रादि वीर नि. सं० १८० में हई वल्लभी परिषद में लिखे गये हों। विद्वान् इतिहासज्ञ पुरातन सामग्री के प्राधार पर इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक गवेषणा करें तो सही तथ्य प्रकट हो सकता है। स्पष्टीकरण मूल मूत्रों की संख्या और क्रम के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं। कुछ विद्वानों ने ३ मूल सूत्र माने हैं तो कहीं ४ की संख्या उपलब्ध होती है। क्रम की दृष्टि से उत्तराध्ययन को पहला स्थान दे कर फिर आवश्यक और दशवकालिक बताया गया है जब कि दूसरी ओर उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यक इस प्रकार मूलसूत्रों की संख्या तीन की गई है। पिण्डनियुक्ति Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग स्पष्टीकरण तथा, कहीं-कहीं पिण्डनियुक्ति और प्रोपनियुक्ति को संयुक्त मान कर चार की संख्या मानी गई है। स्थानकवासी परम्परा के अनुसार आवश्यक और पिण्डनिर्यक्ति के स्थान पर नंदी और अनयोगद्वार को मिला कर चार मूल सूत्र माने गये हैं। जब कि दूसरी परम्परा नन्दी और अनुयोगद्वार को चूलिका सूत्र के रूप में मान्य करती है। देवद्धि क्षमाश्रमरण का स्वर्गगमन और पूर्व-ज्ञान का विच्छेद वाचनाचार्य आर्य देवद्धि क्षमाश्रमण के जन्म, श्रमण-दीक्षा, गणाचार्य एवं वाचनाचार्य-काल के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक उल्लेख आज उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार अापके स्वर्गारोहरण-काल के सम्बन्ध में भी कोई स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। परम्परागत मान्यतानुसार आर्य देर्वाद्ध क्षमाश्रमरण अंतिम पूर्वधर माने गये हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है भगवती-सूत्र के उल्लेखानुसार भगवान् महावीर के निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् पूर्वज्ञान का विच्छेद माना गया है। ऐसी स्थिति में एक प्रकार से यह सुनिश्चित हो जाता है कि अंतिम पूर्वधर प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमरण वीर नि० सं० १००० में स्वर्गस्थ हए। इसके उपरान्त भी कतिपय पट्टावलीकारों का अभिमत है कि अंतिम पूर्वधर यूगप्रधानाचार्य सत्यमित्र थे तथा सत्यमित्र का वीर नि० सं० १००० में और देवद्धि क्षमाश्रमण का उनसे पहले वीर नि० सं० ६६० में स्वर्गगमन हुआ। 'तित्थोगालिय पइन्ना' की हस्तलिखित प्रति का अध्ययन करते हुए हमें दो गाथाएं दृष्टिगोचर हुईं, जिनमें स्पष्टतः उल्लेख है - "भगवान महावीर के मोक्षगमनामन्तर १००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर अन्तिम वाचक वृषम (वाचनाचार्य) के साथ पूर्वज्ञान विलुप्त हो जायगा। वर्द्धमान भगवान् के निर्वाण के १००० वर्ष पूर्ण होते ही परिपाटी से जिसको जितना पूर्वज्ञान प्राप्त होगा, वह नष्ट हो जायगा।" वे गाथाएं इस प्रकार हैं : वोलीणम्मि सहस्से, वरिसारण वीरमोक्खगमणाम्रो । उत्तरवायग - वसभे, पूवगयस्स भवे छेदो॥८०५।। वरिस सहस्से पुण्गो, तित्थोगालीए वड्ढमारणस्स । नासिहि पुत्वगतं, अपरिवाडीए जं जस्स ।।८०६।। इन गाथानों में देवद्धि क्षमाश्रमरण का नाम तो स्पष्टतः उल्लिखित नहीं है परन्तु प्रथम गाथा के - "उत्तरवायगवसभे, पुव्वगयस्स भवे छेदो" - इन पदों में प्रयुक्त-'उत्तर-वाचक-वृषभ' पद अंतिम वाचनाचार्य प्रार्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण का ही बोधक है। क्योंकि समस्त जैन वाङमय में देवद्धि को ही सर्व सम्मत रूपेण अन्तिम वाचनाचार्य स्वीकार किया गया है। तित्थोगाली पइन्ना की एक गाथा में प्रार्य सत्यमित्र नामक एक मुनिपुंगव को अंतिम दशपूर्वधर बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि तित्थोगाली पइन्ना Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदि का स्वर्गगमन | सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ६६१ की उस गाथा में अंतिम दशपूर्वधर आय सत्यमित्र के लिये अभिव्यक्त किये गये भावों को नाम साम्य के कारण २८व युगप्रधानाचाय सत्यमित्र के साथ जोड़ कर भ्रान्तिवश पट्टावलोकारों द्वारा उन्ह अन्तिम पूर्वधर मान लिया गया है । तित्थोगाली पइन्ना की पूर्वगत श्रुतविषयक गाथायों के समीचीनतया पालोचन से यह स्पष्टतः प्रकट हो जाता है कि सत्यमित्र को अंतिम दशपूर्वधर बताया गया है, न कि अंतिम एक पूर्वधर । वीर नि० सं० ६६४ से १००१ तक युगप्रधान पद पर रहने वाले २८व युगप्रधानाचार्य आर्य सत्यमित्र यदि अंतिम पूर्वधर होते तो तित्थोगाली पइना में अंतिम वाचक-वृषभ (देवद्धिगरणी) को अंतिम पूर्वधर न बता कर आर्य सत्यमित्र को बताया जाता। पूर्व-ज्ञान के लुप्त होने विषयकं तथा श्रमणोत्तम प्रार्य सत्यमित्र से सम्बन्धित तित्थोगाली पइन्ना की वे गाथाए इस प्रकार हैं : नामेण सच्चमित्तो, समणो समणगुणनिउण विचतियो। होही अपच्छिमो किर, दसपुव्वी धारो वीरो ।।८०२।। एयस्स पुवसुयसारस्स, उदहिव्व छल्ल अपरिमेयस्स । सुरसु जह अथ काले, परिहारणी दीसते पच्छा ।।८०३।। पुव्वसुयतेल्ल भरिए, विज्झाए सच्चमित्त दीवम्मि। धम्मावायनिसिल्लो, होही लोगो सुयनिसिल्लो ।।८०४।। अर्थात् - श्रमरण-गुणों की परिपालना में पूर्णतः निपुण सत्यमित्र नामक वीर भ्रमण अन्तिम दशपूर्वधर होंगे । अगाध उदधि के समान छलाछल भरे सारभूत पूर्वश्रुत का कालान्तर में किस प्रकार ह्रास होगा, यह सुनिये । पूर्वश्रुत रूपी तेल से भरे आर्य सत्यमित्र रूपी दीपक के बुझ जाने पर लोग (अंधिकांशतः) धर्माचरण एवं श्रुताराधन से विरत हो जायेंगे।" ऐसा प्रतीत होता है कि उपरोक्त गाथा संख्या ८०४ से किसी समय इस प्रकार की भ्रान्ति का जन्म हुमा कि सत्यमित्र के स्वर्गगमन के साथ ही सम्पूर्ण पूर्वज्ञान विनष्ट हो गया और उसके फलस्वरूप लोग धर्माचरण एवं श्रुताराधन से विहीन हो गये । वस्तुतः इस गाया द्वारा अन्तिम दशपूर्वधर सत्यमित्र के स्वर्गगमन से हुई धर्म एवं श्रुत को हानि का ही उल्लेख किया गया है, न कि पूरे पूर्वगत ज्ञान के विलुप्त होने का। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है प्रायें देवद्धिगरंगी 'क्षमाश्रमण को ही तित्थोगाली पइन्ना में अन्तिम पूर्वधर बताते हुए स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि उनके निधन के साथ ही पूर्वगतज्ञान विलुप्त हो जायगा। - इस प्रकार ऊपर बताये हुए सब तथ्यों पर विचार करने से सुनिश्चित रूपेण यह सिद्ध हो जाता है कि वीर नि० सं० ६८० से लेकर पंचम प्रारक की समाप्ति तक के २००२०.वर्षों जैसे सुदीर्घ काल में होने वाले कोटि-कोटि श्रमणों, श्रमरिणयों, श्रमरणोपासकों, श्रमणोपासिकामों एवं साधकों पर प्रागमलेखन द्वारा अनन्त उपकार करने के पश्चात् अन्तिम वाचकवृषभ देवद्धि श्रमाश्रमण वीर नि० सं० १००० के समाप्त होने पर स्वर्ग सिधारे। Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग २७ कालकाचार्य (चतुर्थ) - युगप्रधानाचार्य २६वें युगप्रधानाचार्य आर्य भृतदिन के पश्चात् आर्य कालक २७वें युगप्रधान हए। चतुर्थ कालकाचार्य' के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप से परिचय उपलब्ध होता है : नागार्जुन की परम्परा में आगे चल कर प्रार्य कालक हए । उनका जन्म वीर सं० १११ में, दीक्षा ९२३ में, युगप्रधान पद ६८३ में और स्वर्गवास वीर सं० ६६४ में माना जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में यही प्राचार्य कालक, चतुर्थ कालकाचार्य के रूप में विख्यात हैं। वल्लभी में हुई अन्तिम भागम-वाचना में जिस प्रकार प्राचार्य स्कंदिल की माथुरी-वाचना के प्रतिनिधि आचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण थे, उसी प्रकार प्राचार्य नागार्जुन की वल्लभी-आगमवाचना के प्रतिनिधि कालक सूरि (चतुर्थ कालका. चार्य) थे। वल्लभी में वीर नि० सं०६८० में हुई अन्तिम प्रागमवाचना में इन दोनों प्राचार्यों ने मिल कर दोनों वाचनाओं के पाठों को मिलाने के पश्चात् जो एक पाठ निश्चित किया, उसी रूप में प्राज पागम विद्यमान हैं। इस प्रकार के प्राचीन उल्लेख उपलब्ध हैं कि वीर नि० सं० ६६३ में वल्लभी के राजा ध्रुवसेन के राजकुमार की मृत्यु हो गई और शोकसंतप्त राजपरिवार बड़नगर में निवास करने लगा। कालकाचार्य ने उस वर्ष वहाँ चातुर्मास कर राजकुटुम्ब के शोकनिवारणार्थ संघ के समक्ष कल्पसूत्र की वाचना प्रारम्भ की। राजा ने भी शोक का परित्याग कर, उपाश्रय में प्रा कल्पसूत्र का श्रवण किया। तभी से संघ के समक्ष कल्पसूत्र का प्रकट रूप से वाचन होने लगा, जो आज तक भी प्रचलित है। . प्रथम और द्वितीय कालकाचार्य का यथासम्भव पूर्ण परिचय यथास्थान दिया जा चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ४७४ पर कल्पसूत्रीया स्थविरावली के प्राचार्यो की नामावली में क्रम संख्या २५ पर प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के २५वें गणाचार्य प्रार्य कालक का नाम दिया गया है। मार्य सुहस्ती की परम्परा के १३वें प्राचार्य मावण के पश्चात् कल्प. सूत्रीया स्थविरावली में जिन माचार्यों के नाम दिये गये हैं, उन प्राचार्यों का परिचय . उपलब्ध नहीं होता। यही कारण है कि प्रस्तुत प्रन्य में उन गणाचार्यों का नामोल्लेख के अतिरिक्त कोई परिचय नहीं दिया जा सका है । प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ कालकाचार्य का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् सहज ही प्रत्येक पाठक को तृतीय कालकाचार्य का परिचय प्राप्त करने की जिज्ञासा होना संभव है। पर वस्तुतः तृतीय कालकाचार्य का केवल इतना ही परिचय उपलब्ध है कि वे प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के २५वें गणाचार्य थे। भाप माढर गोत्रीय प्रायं विष्णु के शिष्य एवं पट्टधर थे। प्रार्य कालक के प्रमुख शिष्य का नाम संघपालित था, जो कल्प-स्पविरावली के अनुसार मापके स्वर्गारोहण के पश्चात् प्रायं सुहस्ती की परम्परा में २६वें प्राचार्य बने । रत्नसंचय प्रकरण (पत्र ३२) केसत्तसयवीस अहिए, कालिगगुरू सक्कसंयुणियो ॥५७॥ इस उल्लेख के अनुसार मापके गणाचार्य पद पर प्रासीन होने का समय वीर नि.सं. ७२० माना गया है। -सम्पादक Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्य चतुर्थं ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमण ६६३ इस प्रकार आचार्य कालक उस समय के प्रधान आचार्य माने गये हैं । दुष्षमाकाल श्रमरणसंघ - स्तोत्र के अनुसार वज्रसेन ( वीर नि० सं० ६२० ) के पश्चात् ६६ वर्ष नागहस्ती, ५६ वर्ष रेवतीमित्र, ७८ वर्ष ब्रह्मद्वीपकसिंह, ७८ वर्ष नागार्जुन, ७६ वर्ष भूतदिन और तदनन्तर ११ वर्ष कालकाचार्य का प्राचार्यकाल रहा । तदनुसार वीर नि० सं० ६६४ में कालकाचार्य का स्वर्गवास माना गया है । वीर नि० सं० ६६३ में कालकाचार्य द्वारा चतुर्थी के दिन पर्यपरण पर्व मनाने की जो बात कही जाती है, वह उल्लेख वस्तुतः वीर नि० सं० ४५७ से ४६५ के बीच किसी समय द्वितीय कालकाचार्य द्वारा प्रचलित किये गये चतुर्थी - पर्वाराधन के स्थान पर मध्य काल में जो पंचमी के दिन पर्वाराधन का प्रचलन हो गया था, उसे निरस्त कर पुनः चतुर्थी - पर्वाराधन को स्थिर करने की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है । २८ श्रयं सत्यमित्र - युगप्रधानाचार्य दुष्षमाकाल श्रमरणसंघस्तोत्र के अनुसार २८वें युगप्रधानाचार्य श्रार्य सत्यमित्र का द्वितीयोदय के युगप्रधानाचार्यों में आठवां स्थान माना गया है। युगप्रधान कालकाचार्य (चतुर्थ) के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ९६४ में प्रार्य सत्यमित्र २८वें युगप्रधानाचार्य हुए। श्रापका केवल यही परिचय उपलब्ध होता है कि वीर नि० सं० ६५३ में भाका जन्म हुआ । वीर नि० सं० ६६३ में श्रापने १० वर्ष की बाल्यावस्था में श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। तीस वर्ष तक सामान्य श्रमण-पर्याय में रहने के अनन्तर वीर नि० सं० ६६३ में प्रापको युगप्रधानाचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया । आपने ७ वर्ष तक युग प्रधानाचार्य के रूप में जिन शासन की सेवा करने के पश्चात् ४७ वर्ष, ५ मास और ५ दिवस की प्रायु समाधिपूर्वक पूर्ण कर वीर नि० सं० १००१ में स्वर्गारोहण किया । देवद्ध कालीन राजनैतिक स्थिति गुप्त-सम्राट् स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (वीर नि० सं० ६८२ -६६४) वीर नि० सं० ६८२ में कुमार गुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र स्कन्दगुप्त सुविशाल गुप्त साम्राज्य का स्वामी बना । इसका पहला अभिलेख, जूनागढ़ का चट्टान-अभिलेख गुप्त सम्वत् १३६ का और अन्तिम गढवा का शिलालेख गुप्त सं० १४८ का है । इन दोनों शिलालेखों के आधार पर यह विश्वास किया वयरसेण ३, नागहस्ति ६६, रेवतीमित्र ५६, बह्मदीवगसिंह ७८, नागार्जुन ७८, एवं वर्षारण ६०४, भूतदिन ७६, कालकाचार्य ११ [ दुष्पमाकाल श्रमण संघस्तोत्र, भवचुरि, पट्टा० समु० पृ० १८ ] २ देखें द्वितीय कालकाचार्य का प्रकरण, पृ० ५१७ - २१ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन वर्ग का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवदि कालीन रा० स्थिति जाता है कि स्कन्दगुप्त का शासनकाल वीर नि० सं० ९८२. से ९६४ (ई० सन् ४५५-४६७) तक रहा। स्कन्दगुप्त बड़ा ही शूरवीर और प्रतापी सम्राट् था: उसे जीवन भर संघर्षरत रहना पड़ा। यह पहले बताया जा चुका है कि स्कन्दन ने अपने पिता के शासनकाल में पुष्यमित्रों की बड़ी शाकशाली विशाल सेना को परास्त कर गुप्त-साम्राज्य की रक्षा की थी। गुप्त-साम्राज्य की बागडोर सम्हालते ही स्कन्दगुप्त ने मध्य एशिया से पाये हुए बर्बर हूण आक्रान्तामों से अपनी मातृभूमि भारत की रक्षार्थ बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया। यूरोप और एशिया के अनेक भू-भागों को अपने घोड़ों की टापों से पददलित करते हुए हरणों ने टिवी दल की तरह भारत पर आक्रमण किया। एशिया की बड़ी-बड़ी राजसनारों को भू-लुण्ठित करने के पश्चात हरण जाति का सरदार प्रांटीला बड़े गर्व के साथ कहा करता था- "जिस भूमि पर मेरे घोड़े की टाप एक बार गिर जायगो, उस भूमि पर बारह वर्ष पर्यन्त घास तक नहीं उग सकेगी।" _हूण सैनिक, संख्या में अत्यधिक होने के साथ-साथ निपुण अश्वारोहा थे। उन्होंने प्रलयकालीन प्रांधी की तरह भारत पर मायाम किया। स्कन्दगुप्त अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये एक सशक्त सेना ना रणांगण में हूणों की सेना से जा भिड़ा। बड़ा भीषण युद्ध हमा: हरण सनि: भारतीयों के भीषण प्रतिरोध से तिलमिला उठे क्योंकि अब तक प्रत्येक देश में वण्डर की तरह बढती हुई उनकी दुर्दान्त अश्वारोही सेना को इस प्रकार अन्यत्र कहीं नहीं रोका गया था। हरणों ने अपने प्रारणों.की बाजी लगा कर पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ने का प्रयास किया । षण्मुख कार्तिकेय के समान स्कन्दगुप्त ने भारतीय सेना का संचालन करते हुए आततायी हूण पाक्रान्ताओं का संहार किया और उन्हें मागे नहीं बढ़ने दिया। लोमहर्षक तुमुलयुद्ध में जनधन की अपार क्षति उठाने के अनन्तर बुरी तरह हारा हुमा हप सरदार अपनी बची खुची सेना के साथ रणांगण से भाग खड़ा हुमा। ऐसा अनुमान किया जाता है कि भारत पर हुए विदेशी भाक्रमरणों में हगों द्वारा किया गया प्राकमण सबसे अधिक भीषण था।' स्कन्दगुप्त ने अद्भुत शौर्य पोर साहस के साथ दुर्दान्त हूणों को परास्त कर भारत की एक महान संकट से रक्षा की। - यद्यपि इस युद्ध में एणों की शक्ति नष्टप्रायः हो चुकी.पी तथापि अपनी पराजय का प्रतिषोष लेने के लिये हरणों ने अनेक बार भारत पर पाक्रमण किये। · हठी हूण सरदार ने पन्द्रह-पन्द्रह, सलह-सोलह वर्ष की आयु के हूण किशोरों को युद्ध में झौंक या घर हर बार स्कन्दगुप्त ने रणक्षेत्र में हूमों को बुरी तरह पराजित किया। • अपने १२ वर्ष के शासनकाल में निरन्तर युद्धों में उलझे रहने के कारण स्कन्दगुप्त का कोषबल प्रत्यधिक क्षीण हो चुका था तथापि उसने अपने जीवनकाल में बर्बर हूण प्रातताइयों को भारत की धरती पर मागे नहीं बढ़ने दिया। 'हवंयस्य समागतस्य समरे बोम्या घरा कम्पिता। - [स्कन्दगुप्त का भितरी (जिला गाजीपुर, उत्तरप्रदेश) स्तम्भलेख] Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्धि का० रा०स्थिति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ६६५ कतिपय इतिहासज्ञों का अभिमत है कि गुप्त सम्राट् कुमार गुप्त के निधनानन्तर पुरुगुप्त राज्य सिंहासन पर बैठा । पुरुगुप्त को अपदस्थ करने एवं गुप्त साम्राज्य के सिंहासन पर अपना अधिकार करने के लिये स्कन्दगुप्त को गृहयुद्ध में उलझना पड़ा। उस गृह-कलह में स्कन्दगुप्त अन्ततोगत्वा विजयी हुप्रा और पुरुगुप्त को राज्यच्युत कर उसने गुप्त साम्राज्य के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। अपने इस अभिमत की पुष्टि में उन विद्वानों द्वारा स्कन्दगुप्त के भितरी (उत्तरप्रदेश) स्तम्भलेख का निम्नलिखित श्लोक प्रस्तुत. किया जाता है : पितरि दिवमुपेते विप्लूतां वंशलक्ष्मीम. भुजबलविजितारिर्यः प्रतिष्ठाप्य भूयः । जितमिव परितोषान्मातरं साश्रुनेत्राम, ___ हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेतः ।।६।। इस श्लोक का भावार्थ यह है कि पिता के दिवंगत होने के पश्चात् अपने बाहुबल से शत्रुनों पर विजय प्राप्त कर स्कन्दगुप्त ने संकटों से घिरे गप्त साम्राज्य की पुनः पूर्ववत् प्रतिष्ठा स्थापित की। जिस प्रकार कंस आदि शत्रुनों का संहार करने के पश्चात् श्री कृष्ण (अपनी विजय का संदेश सुनाने) मां देवकी की सेवा में उपस्थित हुए, उसी प्रकार स्कन्दगुप्त ने भी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अपनी माता को अपनी विजय का संदेश सुनाया। उसकी माता के नेत्रों में हर्ष के मांसू भर पाये। __कुमारगुप्त के पश्चात् पुरुगुप्त को गुप्तसम्राट मानने वाले विद्वान् “विप्लुतां वंशलक्ष्मीम्" इस पद से यह अनुमान लगाते हैं कि दायादाधिकार के प्रश्न को लेकर स्कन्दगुप्त का अपने पुरुगुप्त प्रादि अन्य भाइयों से झगड़ा हुआ। उस गृहकलह के फल स्वरूप वंशलक्ष्मी विप्लत अर्थात संकटाच्छन्न हो गई। स्कन्दगप्त ने अपने भुजबल से उन शत्रुओं (न कि भाइयों) को जीत कर उस विप्लुत (पलायनोबत) वंशलक्ष्मी को पुनः स्थिर किया। _ वस्तुतः इस प्रकार के प्रबल प्रमाण विद्यमान हैं, जिनसे यह स्पष्टतः सिद्ध होता है कि कुमार गुप्त की मृत्यु के पश्चात गप्तसाम्राज्य पर जो संकट के काले बादल छाये, वे हूणों के प्रबल आक्रमण के फलस्वरूप थे, न कि तथाकथित दायादाधिकार के प्रश्न को लेकर परस्पर भाइयों में हुए किसी गृहकलह के कारण। इस तथ्य की पुष्टि में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं : . १. कुमारगुप्त के समय का गुप्त सं० १३५ का मथुरा से प्राप्त जैन शिलालेख। २. कुमारगुप्त के चांदी के वे सिक्के, जिन पर गुप्त सं० १३६ अंकित है। ३. स्कन्दगुप्त का गुप्त संवत् १३६ का जूनागढ़ स्थित चट्टान अभिलेख । उपरि लिखित तीन प्रमारणों में से पहले दो प्रमाण इस बात की साक्षी Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि का० रा० स्थि. देते हैं कि कुमारगुप्त का शासनकाल गुप्त संवत् १३६ (ई० सन् ४५५) तदनुसार वीर नि० सं० ६८२ में समाप्त हो गया। उपरोक्त प्रमाणों में से अंतिम प्रमाण (जूनागढ़ का चट्टान-अभिलेख) इस तथ्य को तो सिद्ध करता ही है कि गुप्त संवत् १३६ में कुमारगुप्त की मृत्यु होते ही स्कन्दगुप्त का शासनकाल प्रारम्भ हुआ। इस तथ्य के अतिरिक्त निम्नलिखित तथ्य भी जूनागढ़ के उपरोक्त चट्टान अभिलेख से प्रकट होते हैं : १. गुप्त संवत् १३६ ( ई० सं० ४५५, वीर नि० सं० ९८२) में जिस समय कुमारगुप्त की मृत्यु हुई और स्कन्दगुप्त विशाल गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना, उसी वर्ष में हूणों ने भारत पर बड़ा भयंकर आक्रमण किया। २. उसी वर्ष में अर्थात् वीर नि० सं० ६८२ में स्कन्दगुप्त ने हूणों के साथ युद्ध किया और युद्ध में उनका भीषण रूप से संहार कर उन्हें बुरी तरह पराजित किया। उपरिवरिणत तथ्यों से यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि गुप्त सं० १३६ (ई० सन् ४५५) में कुमारगुप्त की मृत्यु होने पर उसका उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त विशाल गुप्त-साम्राज्य के राज-सिंहासन पर आसीन हुआ। उसके राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही ई० सन् ४५५ में हरगों ने भारत पर आक्रमण किया। उसी वर्ष स्कन्दगुप्त ने हूणों को पराजित कर जूनागढ़ का शिलालेख उट्ट कित करवाया। ऐसी स्थिति में कुमारगप्त (प्रथम) और स्कन्दगुप्त के बीच में पुरुगुप्त के सम्राट् बनने का न कोई प्रश्न ही उत्पन्न होता है और न कोई अवकाश ही रह जाता है। वस्तुतः कुमारगुप्त (प्रथम) के पश्चात् स्कन्दगुप्त गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना यह एक निर्विवाद सत्य है। हणों को पराजित करने के पश्चात् स्कन्दगुप्त ने अपने साम्राज्य के सभी प्रान्तों में अपने परम विश्वासपात्र और सुयोग्य शासकों को नियुक्त किया। जिससे कि देश के शत्रुओं को शिर उठाते ही कुचल दिया जा सके। उन दिनों सौराष्ट्र सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रदेश माना जाता था। डिमिदि' क्रमेण बुढ्या निपुणं प्रधार्य, ध्यात्वा च कृत्स्नान् गुणदोषहेतून् । व्यपेत्य सर्वान्मनुजेन्द्रपुत्रान्, लक्ष्मी: स्वयं यं वरयाञ्चकार ॥ [जूनागढ़ का लेख] २ प्रथयन्ति यशांसि यस्य, रिपवोऽप्यामूलभग्नदर्पा निर्वचना म्लेच्छ देशेषु। [वही] "स्कन्दगुप्त ने जिन शत्रुमों की शक्ति को मामूलचूल विनष्ट कर उनके घमण्ड को चकनाचूर कर डाला, वे शत्रु स्वयं द्वारा पूर्वतः विजित म्लेच्छ देशों (ईराक, ईरान प्रादि) में भी भीगी बिल्ली की तरह चुपचाप रह कर स्कन्दगुप्त के यश का विस्तार कर रहे है" - यह तीखा कटाक्ष शतप्रतिशत हूणों पर ही पटित होता है। वस्तुतः स्कन्दगुप्त ने हूणों की , रीढ़ की हड्डी तोड़ दी थी। ई० सम् ४५५ के इस युद्ध में हूणों को जनधन की इतनी अधिक क्षति हुई कि इस युद्ध के ४५ वर्ष पश्चात् कहीं हूणों का सरदार तोरमाण भारत पर बड़ा आक्रमण करने का साहस कर सका पौर. सन् ५०२ में उमने मालवा पर अधिकार किया। -सम्पादक Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदि का. रा. स्थिति सामान्य पूर्वधर-काल : देवटि क्षमाश्रमण ६६७. यस, मेनेण्डर प्रादि विदेशी प्राक्रान्ताओं ने सौराष्ट्र को ही भारत का प्रवेश-द्वार बनाया था। शकों ने तो कुछ व्यवधानों को छोड़ कर शताब्दियों तक सौराष्ट्र को अपनी सत्ता का गढ़ बनाये रखा था। स्कन्दगुप्त ने इस महत्त्वपूर्ण प्रदेश की सुरक्षा के लिये किसी सुयोग्य शासक का चयन करने के सम्बन्ध में बहुत दिनों तक सोच-विचार किया और अन्त में पर्णदत्त को ही सर्वाधिक सुयोग्य समझ कर उसे सौराष्ट्र का शासक नियुक्त कर परम संतोष का अनुभव किया। ___ स्कन्दगुप्त ने जनकल्याण के अनेक कार्य किये । मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में वीर नि० सं० २२७ के आस पास बनी सुदर्शन झील का स्कन्दगुप्त ने विपुल धनराशि व्यय कर जीर्णोद्धार करवाया। स्कन्दगुप्त स्वयं विष्णुभक्त था पर अन्य सभी धर्मों के प्रति वह सद्भाव रखता था। उसके शासनकाल में शवों, जैनों एवं बौद्धों को अपने धर्म का प्रचारप्रसार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर जिले के कहोम नामक स्थान से प्राप्त शिलालेख में किसी मद्र नामक व्यक्ति द्वारा प्रादिकर्ता प्रहंतों (श्री भगवानलाल इन्द्रजी के अभिमतानुसार एक ही स्तम्भ में आदिनाथ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ तथा महावीर) की मूर्तियाँ बनवाई गईं। जूनागढ़ के शिलालेख तथा भितरी के स्तम्भलेख में स्कन्दगुप्त के शौर्य, प्रौदार्य, सच्चरित्रता, प्रजावत्सलता आदि सम्राटोचित गुणों का जो चित्रण किया गया है, उसके.कतिपय अंश पहले उद्धत किये जा चुके हैं। स्कन्दगुप्त के शासनकाल में भारतीय जनसाधारण भी भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि से बड़ा समृद्ध था। यथा राजा तथा प्रजा की कहावत को चरितार्थ करने वाले कुछ अंश यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं। स्कन्दगुप्त के विमल चरित्र का भितरी के स्तम्भलेख में निम्नलिखित रूप से उल्लेख किया गया है :चरितममलकीतः गीयते यस्य शुभ्रम, दिशि दिशि परितुष्टैराकुमारं मनुष्यैः ।।५।। ' सर्वेषु देशेषु विधाय गोप्तृन्, संचिन्तयामास बहुप्रकारम् । सर्वेषु मृत्येष्वपि संहतेषु, यो मे प्रशिष्यन्निखिलान्सुराष्ट्रान् । माम् ज्ञातमकः खलु पर्णदत्तो, भारस्य तस्योढहने समर्थः ।। [स्कन्दगुप्त का, जूनागढ़ का शिलालेख] 'जूनागढ़ का शिलालेख ३ पुण्यस्कंघ स चक्रे जगदिदमखिलं संसरतीक्ष्य भोतो, बेवोऽयं भूतभूत्यं पथि नियमवतामहंतामादिकर्तन् । मस्तस्यात्मजोऽभूत् द्विजगुरुयतिषु प्रायशः प्रीतिमान्यः । [कहोम का स्तम्भलेख] Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जैन धर्म का मोलिक इतिहास--द्वितीय भाग [देवद्धि का० रा० स्थिति वाहम्यामवनि विजित्य हि जितेप्वार्तेषु कृत्वा दयाम् । नोसिक्तो न च विस्मितः प्रतिदिनं संवर्द्धमानद्युतिः गीतैश्च स्तुतिभिश्च वन्दकजनो यं प्रापयत्यार्यताम् ।।७।। स्कन्दगप्त की प्रजा किस प्रकार आदर्श मानवता से ओतप्रोत, धर्मनिष्ठ, सुखी और समृद्ध थी, इसका चित्रण जूनागढ़ के शिलालेख में निम्नलिखित शब्दों में किया गया है :--- सस्मिन्नृपे शासति नैव कश्चित्, धर्माद्व्यपेतो मनुजः प्रजासु । प्रार्तो दरिद्रो व्यसनी कदर्यो, दण्ड्यो न वा यो भृशपीडितःस्यात् ।। राजा और प्रजा में इस प्रकार के आदर्श गुणों की समानता विश्व के इतिहास में बहुत कम दृष्टिगोचर होती है। .. वीर नि० सं० ६८२ से ६६४ तक के अपने १२ वर्ष के शासनकाल में स्कन्दगप्त ने अनेक युद्धों में शत्रयों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। स्कन्दगुप्त के शासनकाल में जनकल्याण के अनेक कार्य किये गये। __ भारतीय इतिहास में स्कन्दगुप्त का नाम अमर रहेगा। हूणों जैसी प्राततायी बर्बर जाति की मदभरी शक्ति को विचूरिणत कर स्कन्दगुप्त ने न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप के निवासियों का बड़ा उपकार किया। यदि स्कन्दगप्त ने हरगों की उन्मत्त अजेय शक्ति को नष्ट न किया होता तो हरणों के अत्याचारों से संत्रस्त हो सम्पूर्ण एशिया त्राहि-त्राहि की पुकार के साथ बड़े लम्बे समय तक कराहता रहता। समुद्रगुप्त के शासनकाल से स्कन्दगुप्त के शासनकाल तक, अर्थात् वीर०नि० सं०८६२ से ६६४ तक गुप्त साम्राज्य का उत्कर्ष काल रहा। स्कन्दगुप्त के निधन के पश्चात् गुप्त साम्राज्य का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया। स्कन्दगुप्त के कोई पुत्र नहीं था अतः उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका भाई पुरुगुप्त गुप्त-साम्राज्य का अधिकारी बना। संभवतः डेढ़ वर्ष तक ही पुरुगुप्त का राज्य रहा। वीर नि० सं० ६६६ में पुरुगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नरसिंह गुप्त अयोध्या के सिंहासन पर बैठा। वीर. नि० सं० १००० में नरसिंह गुप्त की भी मृत्यु हो गई और उसके पश्चात् कुमार गुप्त (द्वितीय) गुप्त-राज्य का स्वामी बना। वीर नि० सं० १००० तक हुए गुप्त राजवंश के राजामों की तिविक्रम सहित नामावली नाम : अनुमानित शासनकाल :१. श्री गुप्त वीर नि० सं०७६७ से ८०७ २. घटोत्कच " " " ८०७ से ८४६ ३. चन्द्रगुप्त प्रथम " " " ८४६ से ८६२ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्ध का० रा० स्थिति ] सामान्य पूर्वघर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ४. समुद्रगुप्त वी० नि० सं० ५. चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य ६. कुमारगुप्त ( प्रथम ) महेन्द्रादित्य ७. स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ८. पुरुगुप्त ६. नरसिंह गुप्त "} "1 "" " 17 (७) पुत्रं - महाराजाधिराज श्री पुरुगुप्त महादेवी - चन्द्रदेवी "} "7 " ( १ ) महाराजा श्रीगुप्त (२) पुत्र - महाराजा श्री घटोत्कच (३) पुत्र - महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त पथम महादेवी - कुमारदेवी " 11 17 21 गुप्त वंश के वें राजा बुधगुप्त के नालन्दा से प्राप्त हुए लेख में श्रीगुप्त से बुधगुप्त तक गुप्तराजानों की नामावली दी प्रकार है : 17 (६) पुत्र - महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त प्रथम महादेवी - अनन्तदेवी 17 11 (४) पुत्र - लिच्छविदोहित्र महाराजाधिराज समुद्रगुप्त महादेवी - दत्तदेवी ६६६ ८६२ से ६०२ ९०२ से ६४१ ४१ से ८२ ६८२ से ६६४ ६६४ से ६६६ ६६६ से १००० (५) अप्रतिरथ - परमभागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त द्वितीय महादेवी - ध्रुवदेवी एक मुद्रा अभिहुई है, जो इस ( ८ ) पुत्र - परमभागवत महाराजाधिराज श्री बुधगुप्त इस अभिलेख में कुमारगुप्त के पश्चात् स्कन्दगुप्त का और पुरुगुप्त के पश्चात् कुमारगुप्त द्वितीय का नाम छोड़ दिया गया है। सामान्य पूर्वधर - काल सम्बन्धी दिगम्बर परम्परा की मान्यता निर्वाणानन्तर दश पूर्वधर - काल तक की श्रुतपरम्परा तथा प्राचार्य परम्परा के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर - दोनों ही परम्पराम्रों की मान्यताओं का इस ग्रन्थ में यथाप्रसंग जो विवरण दिया गया है, उससे यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि एक ही मूंग की दो फाड़ के समान प्रभु वीर की उपासक इन दोनों परम्पराओं की मान्यताओं में परस्पर पर्याप्त अन्तर है । पूर्वधरों के नाम, उनकी संख्या तथा पूर्व - ज्ञान के अस्तित्वकाल विषयक भेद के अनन्तर इन दोनों परम्पराओं का मान्यता-भेद उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है । जहां श्वेताम्बर परम्परा चतुर्दश पूर्वधरों की विद्यमानता वीर नि० सं० ६४ से १७०, तदनुसार १०६ वर्ष मानती है, वहां दिगम्बर परम्परा में चौदह पूर्व Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितोय भाग [पूर्वधर काल सं० दिग. मा. धारियों का समय वीर नि० सं० ६२ से १६२ तक १०० वर्ष का माना गया है। यद्यपि दोनों परम्पराएं चतुर्दश पूर्वधरों की संख्या समान रूप से ५ मानती हैं तथापि अंतिम चतुर्दश पूर्वधर भद्रवाह के अतिरिक्त शेष चारों चतुर्दश पूर्वधरों के जो नाम दोनों परम्परागों के प्रामाणिक ग्रन्थों में दिये गये हैं, वे पूर्णतः भिन्न हैं। - इसी प्रकार दश पूर्वधरों का काल जहां श्वेताम्बर परम्परा में वीर नि० सं० १७० से ५८४ तक ४१४ वर्ष का माना गया है, वहां दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में इनका काल वीर नि० सं० १६२ से ३४५ तक, केवल १८३ वर्ष का ही बताया गया है। दश पूर्वधर प्राचार्यों की संख्या दोनों परम्पराओं में समान रूप से ११ मानी गई है पर इन ग्यारहों प्राचार्यों के जो नाम दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, वे एक दूसरी परम्परा द्वारा दिये गये नामों से पूर्णतः भिन्न हैं। दश पूर्वधरों के काल के अनन्तर श्वेताम्बर परम्परा में वीर नि० सं० ५८४ से १००० तक ४१६ वर्ष का पूर्वधर-काल माना गया है। उस ४१६ वर्ष की अवधि में १० प्राचार्यों को पूर्वज्ञान का धारक माना गया है, जिनमें प्रार्य रक्षित सार्द्धनव पूर्वो के ज्ञाता तथा देवद्धि क्षमाश्रमण एक पूर्व के अन्तिम ज्ञाता थे । मूलागम भगवतीसूत्र में वीर नि० सं० १००० तक पूर्वज्ञान के विद्यमान रहने का उल्लेख होने के कारण श्वेताम्बर परम्परा द्वारा अपनी इस मान्यता को निर्विवादरूपेण पूर्णत: प्रामाणिक माना जाता है। इस प्रकार जहां श्वेताम्बर परम्परा की यह मान्यता है कि वीर नि० सं० १००० के पश्चात् पूर्वज्ञान का विच्छेद हुमा, वहां दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में यह स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि अंतिम दश पूर्वधर धर्मसेन के स्वर्गस्थ होते ही वीर नि० सं० ३४५ में पूर्वज्ञान का विच्छेद हो गया और तदनन्तर वह (पूर्वज्ञान) एक देश अर्थात् अांशिक रूप में ही विद्यमान रहा । पूर्वज्ञान के अस्तित्वकाल के सम्बन्ध में दोनों परम्परायों की मान्यता में यह ६५५ वर्ष का अन्तर वस्तुतः प्रत्येक विचारक के लिये केवल चिन्तन ही नहीं अपितु चिन्ता का विषय भी है। पूर्वज्ञान जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अति विशाल ज्ञान का क्रमिक ह्रास तो युक्तिसंगत एवं बुद्धिगम्य हो सकता है किन्तु विना किसी असाधारण परिस्थिति १ (क) गोयमा ! जंबूदीवे णं दीवे भारहेवासे इमोसे प्रोसप्पिणीए ममं एग वाससहस्सं पुष्वगए अणुसज्जिसइ। . [भगवती सूत्र, श० २०, उ०८, मू० ६७७ (सुतागमे, पृ० ७०४)] (ख) वोलोणम्मि सहस्से वरिसारण वीरमोक्खगमरणाप्रो । उत्तर वायगवसभे, पुवगयस्स भवे छेदो ।।८०५॥ वरिस सहस्से पुण, तित्थोगालिए बढमारणस्स ।। नासीहि पुव्वगतं, अगुपरिवाडीए जं जस्म ।।८०६।। [तित्थोगालियपइन्ना - अप्रकाशित! Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वधर काल सं. दिग. मा०] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७०१ अथवा विप्लवकारी घटना के उल्लेख के, यह कहा जाय कि अंतिम दश पूर्वधर प्राचार्य धर्मसेन के वीर नि० सं० ३४५ में स्वर्गस्थ होते ही दशों पूर्वो का ज्ञान सहसा एक ही क्षण में विलुप्त हो गया, दश में से एक भी पूर्व का ज्ञान अवशिष्ट नहीं रहा, यह बात किसी निष्पक्ष विचारक के गले नहीं उतर सकती। पूर्वज्ञान विषयक दोनों परम्पराओं के इस गहन मान्यता-भेद की अपेक्षा एक और अत्यधिक गम्भीर मतभेद एकादशांगी की विच्छित्ति के सम्बन्ध में है। दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में स्पष्टतः एक स्वर से यह उल्लेख किया गया है कि वीर नि० सं०६८३ में एकादशांगी का विच्छेद हो गया और उसके पश्चात् उसका केवल एक देश ज्ञान ही अवशिष्ट रह गया।' जैसा कि पहले बताया जा चुका है, श्वेताम्बर परम्परा का मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ आगमों को और स्थानकवासी तथा तेरापंथ ये दोनों सम्प्रदाय ३२ भागमों को वर्तमान काल में विद्यमान मानते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के इन तीनों सम्प्रदायों की स्पष्ट पौर निश्चित मान्यता है कि काल-प्रभाव से मागमज्ञान अंगोपांगादि उत्तरोत्तर क्षीण, अति क्षीण और क्षीणतर होते रहने पर भी दुष्षमाकाल की समाप्ति पर्यंत वीर नि० सं० के २१००३ वर्ष ८ मास १४ दिन बीत जाने पर १५वें दिन प्रथम प्रहर तक अपने शुद्ध स्वरूप में अंशतः विद्यमान रहेगा। यहां यह विचारणीय है कि दिगम्बर परम्परा के सभी मान्य ग्रन्थों में अंगप्रविष्ट प्राचारांगादि (द्वादशांगी) के विच्छेद का तो उल्लेख है किन्तु अंगबाह्य प्रादि शेष भागमों के विच्छिन्न होने का किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं किया गया है। दिगम्बर परम्परा की प्रचलित मान्यता के अनुसार तो द्वादशांगी की तरह मंगबाह्य भागम भी विच्छिन्न की कोटि में गिने जाते हैं पर यदि दिगम्बर परम्परा के उपलब्ध वाङमय का समीचीनतया अनुशीलन किया जाय तो उसमें कहीं इस बात का संकेत तक भी नहीं मिलेगा कि अंगबाह्य भागम विलुप्त हो गये। यदि निष्पक्ष एवं सूक्ष्म दृष्टि से इन दोनों परम्पराओं के आगमों का तुलनात्मक विवेचन किया जाय तो स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति (केवलि-कवलाहार) आदि छोटी बडी ८४ बातों के मान्यताभेद के अतिरिक्त शेष सभी सिद्धान्तों का प्रतिपादन, ' (क) पट्खण्डागम, वेदनाखण्ड, धवला टीका, भाग ६, पृ० १३० (ख) हरिवंश, पु०, सर्ग ६६, श्लोक २२ से २४ (ग) उत्तरपुराण, पर्व ७६, श्लोक ५१६ से ५२७ (घ) महापुराण पुष्पदन्त, सन्धि १००, पृ० २७४ (3) तिलोयपणती, प्रधि० ४, गा० १४६२ (च) श्रुतावतार (इन्द्रनन्दी), श्लोक ७८.८४ (छ) छ सयतिरासिय वासे रिणवारणा अंगच्छित्ति कहिय जिग ।।१७।। (नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली) Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पूर्वधर काल सं० दिग. मा. तत्वों का निरूपण प्रादि दोनों परम्परागों में पर्याप्तरूपेण समान ही मिलेगा। यही नहीं, दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम और कषायपाहुड़ जैसे एकादशांगी के सर्वाधिक सन्निकट समझे जाने वाले प्रागमिक ग्रन्थों की क्रमशः धवला और जयधवला टीका में श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारांगादि प्रागमों के उद्धरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। विवेच्य वस्तुविषय की साम्यता के साथ-साथ दिगम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों में अधिकांशतः ऐसी गाथाएं उपलब्ध होती हैं जो श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रांगमों, नियुक्तियों, भाष्यों आदि की गाथानों से अक्षरशः मिलती-जुलती हैं। वस्तुतः दोनों परम्परामों के कतिपय मागम ग्रन्थों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करते समय ऐसा अनुभव होता है, मानो एक ही सुधासागर के अमृत को भिन्न-भिन्न पात्रों में भरकर नामभेद से रखा गया हो। दिगम्बर परम्परा के पूर्व एवं अंगज्ञान के एक देशधर प्राचार्य ने षट्खण्डागम आदि आगमों में जो तात्विक तथा सैद्धान्तिक निरूपण किया है, यह समग्ररूपेण वही है जो श्वेताम्बर परम्परा द्वारा सम्मत एकादशांगी, अंगबाह्य मागमों, छेदसूत्रों, उपांगों, निर्यक्तियों एवं भाष्यों आदि में सूत्ररूपेण अथवा विशद रूपेण पहले से ही विद्यमान है। दोनों परम्परामों के प्रागमों में विभेद नाम की यदि कोई वस्तु है तो केवल नाम, शैली और क्रम की ही है। श्वेताम्बर परम्परा के जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगम वर्तमान काल में विद्यमान हैं, उनका नामोल्लेख तो दिगम्बर परम्परा के प्रागमों में ज्यों का त्यों विद्यमान है ही पर सार रूप में इन प्रागमों के विषय का जो परिचय दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में दिया गया है, वह भी श्वेताम्बरं परम्परा के विद्यमान आगमों के विषय से अधिकांशतः मिलता-जुलता ही है। यदि यह कह दिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रागम-ग्रन्थों में मूलत: जिन विषयों का प्रतिपादन किया गया है, वे अर्थतः वे ही हैं जो श्वेताम्बर परम्परा के प्रागमों एवं मागम - ग्रन्थों में विशद रूपेण वरिणत हैं। उनकी टीकामों में भी उपर्युक्त ८४ मान्यताभेदों के अतिरिक्त नवीन कुछ नहीं है। उदाहरणस्वरूप षट्खण्डागम को ही ले लिया जाय । दिगम्बर परम्परा के प्रागम-ग्रन्थ के रूप में षट्खण्डागम का सर्वोपरि स्थान है। वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ तक १३वें वाचक (वाचनाचार्य)पद पर और १२वें युगप्रधान पद पर रहे प्रार्य श्यामाचार्य द्वारा पूर्वज्ञान से उद्धृत उपांग-"पन्नवरणा (प्रज्ञापना) सूत्र" और वीर नि० सं० ७६३ से ७६१ के बीच हुए प्राचार्य अर्हद्बलि' के पश्चाद्वर्ती प्राचार्य ' अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य के पश्चात् हुए प्राचार्य विनयंधर में अहंद्वलि एवं महतलि से धरसेन तक के प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में केवल एक अविश्वसनीय-नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के आधार पर दिगम्बर परम्परा के कतिपय उच्चकोटि के विद्वानों ने दिगम्बर परम्परा के आगमों एवं प्राचीन ग्रन्थों से भिन्न मान्यता प्रचलित करने का प्रयास किया है, इस विषय पर इसी अध्याय में आगे प्रकाश डाला जा रहा है। -सम्पादक . Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वधर काल सं० दिन. मा.] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण धरसेन' के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा रचित षट्खण्डागम के तुलनात्मक अध्ययन से यह आश्चर्यजनक तथ्य प्रकट होता है कि शैलीभेद को छोड़कर पन्नवरणा सूत्र और षट्खण्डागम में पर्याप्त साम्य है। इन दोनों प्रागमों की समानता सिद्ध करने वाले कतिपय तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं :- ... (१) जीव तथा कर्म का सैद्धान्तिक विवेचन इन दोनों शास्त्रों का विषय है। (२) दोनों का मूल स्रोत दृष्टिवाद है।' -- (३) इन दोनों रचनामों में निरूपण-साम्य के अतिरिक्त समान शब्दावलि एवं उक्तियों का प्रयोग भी अनेक स्थलों पर उपलब्ध होता है। . (४) इन दोनों की रचना सूत्र रूप में है। (५) दोनों में ही सूत्र कहीं-कहीं गाथात्मक भी हैं। (६) प्रज्ञापनासूत्र पौर षट्खण्डागम को निम्नलिखित गाथाएं पर्याप्त स्पेण समान हैं :प्रज्ञापना सूत्र समयं बक्कंतारणं, समयं तेसि सरीर निव्वत्ती। समयं पारगुग्गहरणं, समयं ऊसास-नीसासे ||६| एक्कस्स उजं गहरणं, बहूरण साहारणाणं तं चेव । जं बहुयारणं गहरणं, समासयो तं पि एगस्स ॥१०॥ साहारणमाहारो, साहारणमारणुपारणगहणं च । साहारगजीवाणं, साहारणलक्खरणं एवं ॥१०॥ हरिवंशपुराण में जिनसेन द्वारा दी गई प्राचार्यों की पट्टावली में उल्लिखित प्राचार्य परसेन के अतिरिक्त अन्यत्र किसी पट्टावली में पुष्पदन्त तथा भूतबलि के गुरू प्राचार्य परसेन का नाम दृष्टिगोचर नहीं होता । हरिवंशपुराण में दी गई पढावली के अनुसार बिनयंधर से १८वें प्राचार्य परसेन को यदि पुष्पदन्त मोर भूतबलि का शिक्षागुरू मान लिया जाता है तो घरसेन का समय वीर नि० सं० १.१३ से १०४३ के बीच का ठह- रता है। पुन्नाटसंघीय प्राचार्य धरसेन से यदि चन्द्रगुहावासी परसेन को भिन्न माना जाता है तो भी महंसी के पापहर्ती होने के कारण इनका समय निश्चित रूप से वीर नि.सं. ७८३ के पश्चात का ही ठहरता है। २ (क) प्रज्झयणमिणं चित्तं, सुयरयणं दिट्ठीवायणीसंद। जह वम्पियं भगवया, महमवि तह वष्णइस्सामि ॥३॥ (पण्णवणासुत, पृ०१) (स) प्रायणीयपूर्वस्थित पंचमवस्तुगत चतुर्षमहा-1 कर्मप्राभृतकाः सूरिधरसेन नामाभूत् ।।१०।। कर्म प्राकृतिप्राभृतमुपसंहार्यवषनिरिह सण्डः ॥१३४।। (श्रुतावतार-इन्द्रनन्दीकृत) (ग) भूदवालि-भयवदा जिणवालिद पासे दिट्ठ विसदिसुतेण पप्पामोति प्रवणयविण वालिदेण महाकम्मपडिपारस्स बोन्दो होहदि ति समुप्पणबुटिणा पुणे दम्बपमाणाणुगममादि कारण गंपरयणा कदा । (षट्सण्डागम, जीवट्ठाण, भा. १, पृ.७१) Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ पूर्वघर काल सं० दिग. मा. " पट्खण्डागम, पुस्तक १४, सूत्र १२२ से १२५ :साहारणमाहारो, साहारणमारणपारणगहणं च । साहाररणजीवाणं, साहाररणलक्खरणं भणिदं ॥। ' एयस्स भरगुग्णहरणं, बहूरण साहारणारणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं, समासदो तं पि होदि एयस्स ॥ समगं वक्कंताणं, समगं तेसि सरीरणिप्पत्ती । समगं न अरगुग्गहणं, समगं उस्सासरिणस्सासो | उपर्युक्त तीन गाथाम्रों का षट्खण्डागम में जो पाठ दिया गया है.. अपेक्षा पनवरणासूत्रान्तर्गत पाठ अधिक व्यवस्थित भौर विशुद्ध है । (७) पनवरणा सूत्र में ऐसी अनेक गाथाएं हैं जो षट्खण्डागम में भी हैं । इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम, पुस्तक सं० १३ के गाथा सूत्र ४ से ६, १२, १३, १५ प्रौर १६ प्रावश्यक नियुक्ति (गाथा सं० ३१ से ) तथा विशेषावश्यक भाष्य ( गा० ६०४ से) की गाथाओं से मिलती-जुलती हैं । उसकी (5) इन दोनों में अल्प- बहुत्व प्रायः समान रूप से वर्णित हैं और उन्हें महादण्डक के नाम से अभिहित किया गया है । (E) प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र १४४४ से ६५ ) और षट्खण्डागम ( पुस्तक ६, सूत्र ११६, २२० प्रादि), इन दोनों के गत्यागत्यादि प्रकरण में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, तथा वासुदेव के पदों की प्राप्ति के उल्लेख की समानता तो वस्तुतः प्राश्चर्यजनक है । (१०) इन दोनों में प्रवगाहना, अन्तर प्रादि भनेक विषयों का समान रूप से प्रतिपादन किया गया है। (११) जीवों के अल्प-बहुत्व विषयक विचार के प्रसंग में प्रज्ञापनासूत्र मौर षट्ण्डागम के अधोलिखित पाठों की प्रतिपादनशैली प्रादि की समानता भी वस्तुतः विचारणीय है : "ग्रह भंते ! सव्वजीवष्पबहुं महादंडयं वत्तइस्सामि सम्बत्यो वा गग्भवक्कंतिया मरगुस्सा "सजोगी विसेसाहिया ९६, संसारत्या बिसेसाहिया ९७, सव्व जीवा विसेसाहिया १८ ||" - पन्नवरणा, सूत्र ३३४ । "एतो सव्वजीवेसु महादंडयो कादव्बो भवदि । सम्बत्यो वा मरणुस्सपज्जता गग्मोवक्कतिया .....रिणगोदजीवा विसेसाहिया || - षट्खण्डागम, पु० ७, सूत्र १-६६ । (१२) प्रज्ञापनासूत्र में इसके ३६ पदों में से २३ वें से २७ वें धौर ३५ वें पद के क्रमशः कर्मप्रकृतिपद, कर्मबन्ध पद, कर्मबन्धवेद पद, कर्मवेदबन्ध पद, कर्म - - इस सूत्र सं० १२१ के पाठ से अनुमान किया जाता तत्थ इमं साहारण लक्खरणं भणिदं । है कि ये गाथाएं कहीं से उड़त हैं। • - सम्पादक Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वधर काल सं० दिग. मा.] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७०५ वेदवेदक पद और वेदनापद ये ६ नाम उल्लिखित हैं। षटखण्डागम के टीकाकार ने षटखण्डागम के ६ खण्डों के क्रमश: जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महावन्ध -ये ६ नाम दिये हैं। वस्तुतः ये तुलना करने योग्य हैं। प्रज्ञापना में उपर्युक्त पदों के अन्तर्गत जिन तथ्यों की चर्चा की गई है, उन्हीं की चर्चा पट्खण्डागम के तत्समान नाम वाले खण्डों में भी की गई है। . (१३) ग्राहारक एवं अनाहारक जीवों का वर्गीकरण करते हए इन दोनों प्रागमों में सयोगिकेवली द्वारा प्रहार ग्रहण किये जाने तथा अयोगिकेवली एवं समुद्घातगत सयोगिकेवली द्वारा ग्राहार ग्रहण न किये जाने का समान रूप में उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है: पण्प्रवरणा सूत्र- "केवलि आहारए णं" भंते ! केवलि आहारए त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूण पुन्वकोडिं ।।" सूत्र १३६६ । ___ "सजोगि भवत्थकेवलि प्रणाहारए णं भंते ! • पुक्छा। गोयमा ! अजहरणमरगुक्कोसेणं तिणि समया।" सूत्र १३७२ । "प्रजोगिभवत्थकेवलि अणाहारए णं • पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेरण वि अंतोमुहुत्तं ।" सूत्र १३७३ ।। षटखण्डागम - "पाहाराणुवादेरण अस्थि आहारा प्रणाहारा" ॥सूत्र १७५ । "पाहारा एयंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।।" - जीवट्ठाण संतपरूवरणा, सू० १७६ । अर्थात् आहारमार्गणा की दृष्टि से जीव आहारक और अनाहारक दोनों ही प्रकार के होते हैं । १७५ आहारक जीव एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवलि पर्यन्त होते हैं ॥१७६।। "प्रणाहारा चदुसु ठाणेसु विग्गहगइ-समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्धादगदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ।।१७७।। इन दोनों मूल आगमों के सूल पाठ में केवलि-भुक्ति का समान रूप से समान भावद्योतक शब्दों में प्रतिपादन किया गया है। (१४) प्रज्ञापनासूत्र और षटखण्डागम - इन दोनों ही प्रागमों में गति नादि मार्गणास्थानों की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व पर विचार किया गया । प्रज्ञापनासूत्र में अल्प-बहुत्व की मार्गणामों में २६ द्वार हैं, जिनमें जीव-अजीव न दोनों का ही विचार किया गया है। षट्खण्डागम में चौदह गुरणस्थानों से "न्धित गत्यादि मार्गणास्थानों को दृष्टिगत रखते हुए जीवों के प्रल्प-बहुत्व वचार किया गया है । यद्यपि प्रज्ञापनासूत्र में अल्प-बहुत्व की मार्गणामों के Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० और षट्खण्डागम द्वार २६ और षटखण्डागम में १४ हैं तथापि दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से सहज ही यह प्रकट हो जाता है कि षटखण्डागम में वरिणत १४ मार्गरणाद्वार वस्तुतः प्रज्ञापना सूत्र में वरिणत २६ द्वारों में से १४ के साथ पूर्णतः मिलते-जुलते हैं, जैसा कि निम्नलिखित तालिका से स्पष्टतः प्रकट होता है :प्रज्ञापनासूत्र पटखण्डागम प्रज्ञापनासूत्र षट्खण्डागम (पुस्तक ७, पृ० ५२०) १३. उपयोग १. दिशा १४. आहार १४. आहारक १५. भाषक २. गति १. गति १६. परित ३. इन्द्रियः २. इन्द्रिय १७. पर्याप्त ४. काय ३. काय. १८. सूक्ष्म ५. योग ४. योग । १६. संजी १३. संज्ञी ६. वेद ५. वेद २०. भव ११. भव्य ७. कषाय ६. कषाय । २१. अस्तिकाय ८. लेश्या १०. लेश्या २२. चरिम ६. सम्यक्त व १२. सम्यक्त व २३. जीव १०. ज्ञान ७. ज्ञान २४. क्षेत्र ११. दर्शन ६. दर्शन २५. बंध १२. संयत ८. संयम २६. पुद्गल' १५ जिस प्रकार पन्नवणासूत्र के बहुवक्तव्यता नामक तीसरे पद में गति आदि मार्गणास्थानों की अपेक्षा से २६ द्वारों द्वारा जीवों के अल्प-बहुत्व पर विचार करने के पश्चात् इस प्रकरण के अन्त में - "अह भंते ! सन्यजीवप्पबहं महादंडयं वत्तइस्सामि" - इस वाक्य द्वारा महादण्डक प्रस्तुत किया गया है, ठीक उसी प्रकार षटखण्डागम में भी १४ गुण स्थानों में गति आदि १४ मार्गरणास्थानों द्वारा जीवों के अल्पबहत्व पर विचार करने के पश्चात् इस प्रकरण के अन्त में महादण्डकों का उल्लेख किया गया है । प्रज्ञापनासूत्र में जीव को केन्द्र मान कर जीवप्रधान निरूपण किया गया है। षट्खण्डागम में प्रद्यपि कर्म को केन्द्र बना कर कर्मप्रधान निरूपण किया गया है. तथापि "खुद्दाबंध" नामक द्वितीय खण्ड में बन्धक - जीव का विचार १४ मार्गणा-: ' सूत्र २१२ दिसि गति इंदिय काए जोगे वेदे कसाय लेस्सा य । सम्मत्त गाण दंसरण संजय उवयोग प्राहारे ॥१८० गाथा।। भासग परित्त पज्जत्त सुहम सण्णी भवस्थिए चरिमे। जीवे य खेत. बंधे पोग्गल महदंडए चेव ॥१८१ गाथा।।. [पन्नवणासुत्त, तइयं बहुवत्तव्वपयं, सूत्र २१२] २ षट्खण्डागम, पुस्तक ७, पृ. ७४५ । Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ प्रशा० प्रौर षट्सण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७०७ स्थानों द्वारा किया गया है । इस प्रकरण में पन्नवणासूत्र की शैली को अपना लिया गया है। . इन दोनो प्रागमों के सूक्ष्म तथा निष्पक्ष अध्ययन से इस प्रकार की और भी कतिपय समानताओं को प्रकाश में लाया जा सकता है। उपरिलिखित समानतामों पर विचार करने के पश्चात् कम के कम यह तथ्य तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि इन दोनों का स्रोत एक है, इन दोनों का विषय एवं इन दोनों की प्रतिपाद्य वस्तु एक है। यदि इनमें भिन्नता नाम की कोई वस्तु है तो वह है ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नाम की और निरूपण-शैली की। गति प्रादि मार्गरणास्थानों द्वारा जीव के अल्प - बहुत्व पर विचार करने के तत्काल पश्चात् इन दोनों ग्रन्थों के एतद्विषयक प्रकरण में महादण्डक का निरूपण तथा षटखण्डागम के "खुद्दाबंध" नामक द्वितीय खण्ड में पन्नवणासूत्र के समान जीवप्रधान निरूपण शैली को अपनाना-ये दो तथ्य निष्पक्ष विचारकों के इस अनुमान को पुष्ट करते हैं कि इन दोनों ग्रन्थों में से किसी एक की रचना के समय उसके रचनाकार के समक्ष इनमें से कोई एक ग्रन्थ अवश्य ही आधार रूप में विद्यमान रहा होगा। पन्नवरणासूत्र और षट्खण्डागम इन दोनों ग्रन्थों में अधिक प्राचीन कौनसा ग्रन्थ है, इसका निर्णय इन दोनों ग्रन्थों के प्रणेतामों के काल-निर्णय के अनन्तर स्वतः ही हो जाता है। श्वेताम्बर परम्परा की परम्परागत मान्यतानमार पन्नदगामुत्र के प्रणेता दश पूर्वघर प्रार्य श्यामाचार्य और दिगम्बर परम्परा की परम्परागत मान्यतानुसार षट्खण्डागम के प्रणयनकार हैं पूर्व तथा अंगज्ञान ? एक दशधा सादार्य परसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि । दश पूर्वधर प्रार्य श्यामाचार्य ने पन्नवणासूत्र की रचना की इस श्वेताम्बर परम्परा की परम्परागत मान्यता की पुष्टि में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं : १. पन्नवणासूत्र के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा तीन गाथाएं दी गई हैं। पहली गाथा में सिद्धों को नमस्कार करने के अनन्तर त्रैलोक्य गुरू भगवान् महावीर का बंदन किया गया है। दूसरी और तीसरी गाथा में ग्रन्थकार ने कहा है कि भव्य जीवों का उद्धार करने वाले भगवान् ने श्रुतरत्ननिधान स्वरूप सब भावों की प्रज्ञापना का उपदेश दिया। जिस प्रकार भगवान् ने वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं भी दृष्टिवाद से उद्धृत श्रुतरत्नस्वरूप इस अति सुन्दर अध्ययन का वर्णन करूगा। ... तीसरी गाथा के अन्तिम चरण में आये हए - "अहमवि तह वाइस्सामि" से ग्रन्थकार के नाम का बोध नहीं होता अतः प्राचीन काल में किसी प्राचार्य ने Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ प्रज्ञा० और षट्खण्डागम इस दृष्टि से कि भविष्य में कहीं ग्रन्थकार के सम्बन्ध में भ्रान्ति न हो जाय, दूसरी और तीसरी गाथा के बीच में निम्नलिखित दो गाथाएं रख दीं :तेबीसइमेण धीरपुरिसेण । वायगरवसा दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीरण || १ || सुयसागरा विरऊरण जेरण सुयरयरणमुत्तमं दिण्णं । सीगरणस्स भगवो तस्स नमो प्रज्जसामस्स ||२|| ७०५ अर्थात् - वाचकश्रेष्ठों (वाचनाचार्यों) के वंश में हुए पूर्वश्रुत - ज्ञान से समृद्ध बुद्धि वाले मुनियों में अधिक गहन ज्ञान धारण करने वाले जिनतेवीसमें धीर मुनिवर ने प्रथाह श्रुतसागर से सूत्र रत्न निकाल कर शिष्यगरण को दिया, उन आर्य श्याम को नमस्कार है । तीसरी गाथा में प्राये हुए "अहमवि' की परिचायक ये दो अन्य कर्तक गाथाएं किसी ने बहुत सोच विचार के पश्चात् उचित स्थान पर ग्रन्थ के मूल भाग में रखी हैं । हरिभद्रसूरि और मलयगिरि ने पन्नवरणा की स्वनिर्मित वृत्तियों में इन दोनों गाथाओं को स्थान देकर अन्यकर्तृक अथवा प्रक्षिप्त बताते हुए इनकी व्याख्या की है । प्राचार्य हरिभद्र वस्तुतः धवलाकार प्राचार्य वीरसेन से लगभग १२५ वर्ष पूर्व हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि ये गाथाएं विक्रम की ८ वीं शताब्दी से बहुत पूर्व की हैं। यह भी संभव है कि श्यामार्य के किसी शिष्य ने उनके जीवन काल में अथवा कुछ समय पश्चात् ही इन गाथाओं को पन्नवरणा के प्राद्य मूल पाठ के साथ जोड़ दिया हो । २. दूसरा प्रमाण हिमवन्त स्थविरावली का प्रस्तुत किया जाता है, जो इस प्रकार है : *-- 'समरणारणं' गिग्गंठारणं' रिगंठीणं' य जिरणपवयरणसुलहबोहट्ठ' रणं अज्जसामेहिं' थेरेहिं य तत्थ पण्णवरणा परूविया । " ग्रर्थात् श्रमरण निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थनियों को जिन - प्रवचनों का सुगमतापूर्वक बोध कराने के उद्देश्य से स्थविर प्रार्य श्याम ने "पन्नवरणा" नामक सूत्र की प्ररूपणा की । पट्खण्डागम का निर्माण पुष्पदंत और भूतबलि ने धरसेन से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् किया, दिगम्बर परम्परा की इस परम्परागत मान्यता की पुष्टि में मुख्य रूप से धवला और इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार के निम्नलिखित उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं : १. तदो सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरिय - परंपराएं आगच्छमारणो धरसेरगायरियं संपत्तो । ( षट्खण्डागम, जीवट्ठाण (धवला ), भा० १, पृ० ६८ ) . पुरणो तेहिं धरसेरण भयवंतस्स जहावित्तेण विरगए णिवेदिदे सुट्ठ हिमवन्त स्थविरावली, हस्तलिखित । , Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशा० पौर षट्खडागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवधि क्षमाश्रमण तुट्टेण धरसेण भडारएण सोम्म-तिहि-णक्खत्त-वारे गंथो पारद्धो। पुणो कमेण वक्खागतेण तेण प्रासाढ-मास-सुक्क-पक्ख-एक्कारसीए पुन्वहे गंथो समारिणदो। विणएण गंथो समारिणदो ति तुझेहिं भूदेहि तत्थेयस्स महदी पूजा पुप्फ - बलि - संख- तूर - रवसंकुला कदा । तं दळूण तस्स 'भूदबलि' त्ति भडारएण गणामं कयं । मवरस्स वि भूदेहिं पूजिदस्स प्रत्य - वियत्य - ट्ठिय - दंत - पंतिमोसारिय भूदेहि समीकय-दंतस्स 'पुप्फयंतो' ति णामं कयं । ..... ...." तदो पुष्फयंताइरिएण जिणवालिदस्स दिक्खं दाऊण विंसदि सुत्तारिण कारिय पढ़ाविय पुणो सो भूदबलि - भयवंतस्स पासं पेसिदो। भूदलिभयवदा जिणवालिद-पासे दिट्ठ विसदि सुत्तेण अप्पाउनो ति अवगय -जिरणवालिदेण महाकम्मपयडिपाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुप्पण्णबुद्धिरणा पुणो दव्य - पमाणाणुगममादि काऊरण गंथरयणा कदा। तदो एवं खंड सिद्धतं पच्च भूदबलि - पुप्फयंताइरियावि कत्तारो उच्चति । (वही, पृ० ७१ - ७२) . इस प्रकार विक्रम सं० २३० (वीर नि० सं० १३००) के प्रासपास हुए प्राचार्य वीरसेन ने धवला में षखण्डागम का रचनाकार पूर्व तथा अंग -शान के एक देशवर माचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदंत तथा भूतबलि को माना है । २. इसकी पुष्टि में दूसरे प्रमाण के रूप में इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार के निम्नलिखित श्लोक प्रस्तुत किये जाते हैं : देशे ततः सुराष्ट्र, गिरिनगर पुरान्तिकोर्जयन्तगिरौ। चंदगुहाविनिवासी, महातपा परम मुनि - मुख्यः ।।१०३।। अग्रायणीयपूर्वस्थितपंचमवस्तुगतचतुर्थमहा- . कर्म - प्राभृतकज्ञः, सूरिधरसेननामाभूत् ।।१०४॥ सोऽपि निजायुष्यान्तं, विज्ञायास्माभिरलमधीतमिदम् । शास्त्रं व्युच्छेदमवाप्स्यतीति संचिन्त्य निपुणमतिः ।।१०।। देशेन्द्र देशनामनि, . वेणाकतटीपुरे महामहिमा । समुदितमुनीन् प्रति, ब्रह्मचारिणा प्रापयल्लेखम् ।।१०६।। -अभिवन्ध कार्यमेवं, निगदत्यस्माकमायुरवशिष्टम् । स्वल्पं तस्मादस्मन् तस्य शास्त्रस्य व्युच्छित्तिः ॥१०॥ न स्यावथा तथा दो, यतीश्वरी ग्रहणधारणसमयौ। निशित-प्रज्ञो यूयं, प्रस्थापयतेति लेखार्थम् ॥११०॥ सम्यगवधार्य तैरपि तथाविधी दो मुनी समन्विष्य । प्रहितो तावपि गत्वा, चापतुररमूर्जयन्तगिरिम् ॥१११।। -सोऽप्यति योग्याविति सन्चिन्त्य ततः सुप्रशस्ततिथिवेलानक्षत्रेषु तयोख्यिातुं, प्रारब्धवान् ग्रन्थम् ।।१२४।। दिवसेषु कियत्स्वपि गतेष्वथाषाढमासि सितपक्षे । एकादश्यां च तियो ग्रन्थसमाप्तिः कृता विधिना ।।१२६॥ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा और षट्खण्डागम हेदन एवैकस्य द्विज-पंक्ति विषमितामपास्य सुरैः।। कृत्वा कुन्दोपमितां नाम कृतं पुष्पदन्त इति ॥१२७।। अपरोऽपि तुर्यनादर्जयघोषैर्गन्धमाल्यधूपाद्यः । भूतपतिरेष इत्याहूतो भूतैर्महं कृत्वा ।।१२८।। स्वासनमृति ज्ञात्वा मा भूत्संक्लेशमेतयोरस्मिन् । इति गुरुणा संचिन्त्य द्वितीय दिवसे ततस्तेन ॥१२६।। प्रियहित वचनैरमुष्य तावुभावेव कुरीश्वरं प्रहितौ। ................................. .............. ॥१३०।। -अथ पुष्पदन्त मुनिरप्यध्यापयितुं स्व भागिनेयं तम् । कर्म प्राकृतिप्राभृतमुपसंहायैव षड्भिरिह खण्डैः ।।१३४॥ वांछन् गुणजीवादिकविंशतिविधसूत्रसत्प्ररूपणया। युक्त जीवस्थानाद्यधिकारं व्यरचयत्सम्यक् ।।१३।। सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतबलिगुरोः पार्श्वम्। तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेशेऽपि ॥१३६।। तेन ततः परिपठितां, भूतबलिः सत्प्ररूपणां श्रुत्वा । षट्खण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदन्तगुरोः ।।१३७।। विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन्मानवान् प्रतीत्य ततः । द्रव्यप्ररूपणाद्यधिकारः खण्डपंचकस्यान्वक् ॥१३८।। सूत्राणिषट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाह्वयं ततः षष्टकं खण्डम् ॥१३६।। त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थं व्यरचयदसौ महात्मा । तेषां पञ्चानामपि खण्डानां शृणत नामनि ॥१४०॥ --एवं षट्खण्डागमरचनां प्रविधाय भूतबल्यायः । आरोप्यासद्भावस्थापनया पुस्तकेषु ततः ।।१४२।। इन्द्रनन्दी के कथन का सारांश यह है कि वीर नि० सं० ६८३ में अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य के स्वर्गगमन के साथ अंग ज्ञान का भी विच्छेद हो गया। उनके पश्चात् पूर्व और अंगज्ञान के एक-देश-धर क्रमशः (१) विनयधर, (२) श्रीदत्त, (३) शिवदत्त, (४) अर्हद्दत्त, (५) अहंवली और (६) माघनन्दी नामक आचार्य हुए । माघनन्दी से अनिश्चित काल पश्चात् धरसेन नामक महान् तपस्वी प्राचार्य हुए। धरसेन के समय, इनकी गुरु परम्परा अथवा शिष्य परम्परा आदि से सम्बन्धित किसी प्रकार की सूचना देने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए इन्द्रनन्दी ने लिखा है कि इस सम्बन्ध में न तो किसी मुनि को जानकारी है और न कहीं किसी पुस्तक में ही इस प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध होता है।' आचार्य १ गुणधर धरसेनान्वय गुर्वोः पूर्वापरकमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।।१५१॥ [श्रुतावतार - इन्द्रनन्दीकृत] Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा० अौर षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वपर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण धरसेन अग्रायणीय पूर्व की पंचम वस्तु के अन्तर्गत चतुर्थ महाकर्मप्राभृत के ज्ञाता थे। अपने जीवन के संध्याकाल में धरसेन को चिन्ता हुई कि कहीं उनके निधन के साथ ही "महाकर्म प्रामत" विलुप्त न हो जाय। उन्होंने महामहिमा नगरी में एकत्रित श्रमण-समूह की सेवा में एक पत्र भेज कर दो मेधावी मुनियों को अपने पास भेजने की प्रार्थना की, जिन्हें वे चतुर्थ महाकर्म प्राभूत का ज्ञान देकर उसे नष्ट होने से बचावें । वेगातट पर सम्मिलित श्रमणों ने' धरसेन के निर्देशानुसार श्रमण-समूह में से दो मेधावी मुनियों को चुन कर उनके पास भेजा । अच्छी तरह परीक्षण के पश्चात् प्राचार्य धरसेन ने उन दोनों मेधावी मुनियों को चतुर्थ महाकर्मप्राभूत के ज्ञान के लिये सुयोग्य पात्र समझ कर शिक्षा देना प्रारम्भ किया। परमं निष्ठा, परिश्रम और विनय-पूर्वक अध्ययन करते हुए उन दोनों मुनियों ने उस सम्पूर्ण ग्रन्थ का अध्ययन समुचित समय में सम्पन्न किया । सुरों ने बड़े उत्सव के साथ उन दोनों मुनियों में से एक का नाम पुष्पदन्त और दूसरे का भूतपति (भूतबलि) रखा। अध्ययन की समाप्ति के दूसरे दिन ही धरसेन ने अपना अंन्त समय सन्निकट समझ कर उन दोनों मुनियों को हितकर निर्देश देकर अपने यहाँ से करीश्वर नामक स्थान के लिये विदा किया। हदिनों में वे दोनों कूरीश्वर पत्तन पहुंचे। वहाँ वर्षावास बिताने के पश्चात् दक्षिण की ओर विहार कर वे कर. हाट पहुंचे। वहां पुष्पदन्त मुनि के भानजे जिनपालित ने अपने मातुल मुनि के सान्निध्य में निर्ग्रन्थ श्रमरण-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर पुष्पदन्त ने जिनपालित के साथ वनवास में और भूतबलि द्रविड़ देश के मधुरा नामक नगर में रहने लगे। पुष्पदन्त प्राचार्य ने गुण, जीव आदि बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बना उन्हें जिनपालित को पढ़ाकर उसे भूतबलि के पास भेजा। जिनपालित के मुख से सत्प्ररूपणा को सुनकर भूतबलि ने समझ लिया कि अब । पुष्पदन्त की माय स्वल्प ही अवशिष्ट रही है और उनकी यह प्रान्तरिक अभिलाषा है कि षट्खण्डागम की रचना की जाय । तदनुसार भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की। पन्नवणा सूत्र और षट्खण्डागम - इन दोनों ही पागमों के मूल पाठ में कहीं इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं है, जिससे इनके रचयितामों का नाम ज्ञात हो सके । इन दोनों रचनामों के रचनाकारों का नामोल्लेख दूसरे विद्वानों द्वारा किया गया है । मन्तर केवल इतना है कि जहां पन्नवरणासूत्र के प्रणेता का दिगम्बर परम्परा में यह मान्यता प्रचलित है कि महंबली ने उन दोनों मुनियों को धरसेन के पास भेजा । पर इस मान्यता का कोईः प्रामाणिक भाषार दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय में खोजने पर भी नहीं मिलता। हरिवंशपुराण और श्रुतावतार के अनुसार महबलि का स्वर्गवास वीर नि. सं. ७८३ अथवा ७६१ में अनुमानित किया जाता है। इनके पश्चात् माघनन्दी २१ वर्ष तक प्राचार्य पद पर रहे तदनुसार वी. नि. सं०८०४ प्रयवा १२ के पश्चात् का धरसेन का समय हो सकता है। -सम्पादक १ पट्खडागम (पु. १, पृ. ७२) में - "भूतबलि भहारमो वि दमिल विसयं गदो।" इस प्रकारका उल्लेख है। Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ प्रज्ञा० और षट्खण्डागम नामोल्लेख करने वाले दो प्रमुख विद्वानों में से एक ने पन्नवरणा सूत्र की आदि के मूल मंगलपाठ में हो अपनी ओर से २ गाथाएं देकर इस तथ्य को प्रकट किया है कि पन्नवरणा सूत्र की श्रुतसागर के मन्थन द्वारा तेवीसवें वाचक श्रेष्ठ श्यामाचार्य ने रचना की वहां षट्खण्डागम के रचनाकार का नामोल्लेख करने वाली दोनों ही साक्षियां स्वयं मूल ग्रन्थ की न होकर इतर दो ग्रन्थों की हैं। आज से १३०० वर्ष पूर्व भी प्राचार्य श्यामार्य का पन्नवरणा सूत्रकार के रूप में परिचय देने वाली उपरिलिखित दोनों गाथाएं मूल मंगल पाठ में निहित थीं इस तथ्य की साक्षी विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र सूरि ने पन्नवखासूत्र की स्वरचित वृति में इन गाथाओं को केवल स्थान देकर ही नहीं अपितु इनकी व्याख्या करके दी है ।' इसमें तो किसी की दो राय नहीं होंगी कि याकिनी महत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र ने पन्नवरणा सूत्र पर टीका की रचना करते समय पन्नवरणासूत्र की उनके समय में उपलब्ध हो सकने वाली प्राचीन से प्राचीनतम प्रतियों को प्राप्त करने का प्रयास किया होगा । श्राज के युग में भी आज से ८००-१०० वर्ष पुरानी आगमों की हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध होती हैं। हरिभद्र सूरि को भी टीका की रचना करते समय आठसौ-नवसौ वर्ष पुरानी न सही कम से कम २०० वर्ष पूर्व लिखी हुई ताड़पत्रीय प्रतियां तो अवश्य मिली होंगी - यह मानने में तो किसी को किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती । आचार्य हरिभद्र का समय पुरातत्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी द्वारा अन्तिम रूप से विक्रम सं० ७५७-६२७ निर्णीत किया जा चुका है, जिसे सभी इतिहासज्ञों ने स्वीकार किया है । २ उद्योतनसूरि पर नाम दाक्षिण्यचिन्ह ने प्राकृत भाषा के अपने उच्चकोटि के ग्रन्थ कुवलयमाला में प्राचार्य हरिभद्रसूरि को इन शब्दों में नमन किया है:जो इच्छइ भवविरहं, भव विरहं को रण वंदए सुयणो । समय-सय-सत्य-गुरुरणो, समरमियंका कहा जस्स || [ कुवलय माला, प्रारम्भ ] 1 १ प्रस्याश्च गाथायाः " प्रज्झयणमिरणं वित्त" मित्यनया गाथयासहाभिसम्बन्धः । प्रतश्च यं सत्वानुग्रहाय श्रुतसागरादुद्धृता प्रसावप्यासन्नतरोपकारित्वादस्मद्विधानां नमस्काराहं इत्यतस्तद्विषयमिदमपांतराल एवान्यकत्तुं के गाथाद्वयमिति । "वायगवर: " गाथा, वाचकाः पूर्वविदः वाचकाश्च ते वराश्व वाचकवराः वाचकप्रधाना इत्यर्थः तेषां वंशः प्रवाही वाचकवरवंशस्तस्मिन् त्रयोविंशतितमेन तथा च सुधर्मादारभ्य श्रार्य श्यामस्त्रयोविंशतितम एव, [ हारीभद्रया प्रज्ञापनावृत्ति, पृ० ४-५ ] २ (क) जंन साहित्य संशोधक, भाग १, अंक १, वीर नि० सं० २४४६, पृष्ठ २१ से ५३, (ख) "समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र" (पं० सुखलाल संघवी डी० लिट्) पृ० ८, 3. "विरह" शब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितम् विरहांकत्वात् हरिभद्रसूरेरिति । [जिनेश्वर सूरिकृत 'भ्रष्टम प्रकरण' टीका ]. · Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा और षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण .७१३ सो सिद्धतेरण गुरू, जुत्ती-सत्येहि जस्स हरिभद्दो । बहु-सत्थ-गंथ-वित्थर-पत्थारिय-पयड-सव्वत्थो ।। [कुवलयमाला प्रशस्ति] " इस प्रकार उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में हरिभद्र सूरि को अनेक ग्रन्थों की रचना द्वारा समस्त श्रुतशास्त्र का सच्चा अर्थ प्रकट करने वाले तथा स्वयं को प्रमाण और न्यायशास्त्र के सिखाने वाले गुरू के रूप में स्मरण किया है। 'कुवलय मालाकार' उद्योतन सूरि, अपर नाम दाक्षिण्यचिन्ह ने अपने इस ग्रन्थरत्न के अन्त में इसके समापन के समय का उल्लेख इस प्रकार किया है: ..........."अह चोहसीए चित्तस्स, किण्हपक्खम्मि । निम्मविया बोहकरी, भव्वाणं होउ सव्वाणं ।। सगकाले वोलीणे, वरिसारण सएहिं सत्तहिं गएहिं । एग दिणे णूणेहिं, एस समत्ता वरण्हम्मि ।। अर्थात् -शक संवत् ७०० की समाप्ति से एक दिन पूर्व शुभ बेला में इस (कुवलयमाला) की रचना सम्पूर्ण की। चैत्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन पूर्ण की गई यह (कुवलयमाला) सभी भव्यजनों के लिये बोधप्रद हो। 'कुवलयमाला' जैसे अद्भुत एवं उच्चकोटि के ग्रन्थ का प्रणयन करने योग्य पाण्डित्य प्राप्त करने में उद्योतन सूरि को कम से कम २५-३० वर्ष का समय अवश्य लगा होगा। यह एक निर्विवाद सत्य है कि पाण्डित्य का प्रवेश द्वार प्रमाण और न्यायशास्त्र का अध्ययन माना गया है। उद्योतन सूरि को दीक्षित करने के अनन्तर उनके गुरू तत्तायरिय ने उनकी सुतीक्ष्णबुद्धि और विलक्षण प्रतिभा देख कर उन्हें उस युग के लिये परमावश्यक प्रमाण और न्यायशास्त्र की शिक्षा दिलाने हेतु हरिभद्र सूरी की सेवा में रखा। उस समय तक हरिभद्र सूरि के प्रखर पाण्डित्य की कीर्तिपताका दिग्दिगन्त में फहरा रही होगी, यही प्रमुख कारण हो सकता है कि तत्तायरिय ने हरिभद्र सूरि को अपने मेधावी शिष्य के शिक्षक के रूप में चुना। इससे यह अनुमान किया जाता है कि शक सं० ६७० के आसपास उद्योतन सूरि न्याय शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने हेतु हरिभद्र सूरि की सेवा में उपस्थित हुए होंगे। यह भी अनुमान किया जा सकता है कि हरिभद्र को शक सं०६७० तक इस प्रकार की सर्वतो व्यापिनी प्रसिद्धि कम से कम ३० वर्ष की अनवरत साहित्य सेवा एवं अपूर्व जिन शासन सेवा के पश्चात् ही प्राप्त हुई होगी। इस प्रकार सम्भवतः हरिभद्र सूरि ने शक सं० ६४० के आस-पास साहित्य-सृजन का कार्य प्रारम्भ किया होगा एवं उस समय उनकी अनुमानित वय ४० के लगभग और जन्मकाल शक सं० ६०० होना चाहिए । हरिभद्र सूरि ने उपलब्ध सूची के अनुसार Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨૪ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ प्रज्ञा० औौर षट्खण्डागम छोटे बड़े ८६ ग्रन्थों की रचना की। उनका सुविशाल साहित्य ही इस बात का पुष्ट प्रमारण है कि वे प्रवश्यमेव शतजीवी रहे होंगे । इन सब तथ्यों पर विचार करने पर हरिभद्र सूरि का जन्मकाल शक सं० ६०० और निधनकाल शक सं० ६६० से ७०० के आसपास का अनुमानित किया जा सकता है | इस प्रकार 'कुवलयमाला' के उल्लेखानुसार निश्चित रूप से शक सं० ७०० से पहले और अनुमानतः शक सं० ६०० से ७०० तदनुसार विक्रम सं० ७३५. से ८३५ के बीच हुए प्राचार्य हरिभद्र के समक्ष पनवरणा की टीका लिखते समय उपरोक्त दो गाथाएं पन्नवरणा के मूल पाठ में विद्यमान थीं, जिनमें श्रार्य श्यामाचार्य को पन्नवरणासूत्र का प्रणेता बताया गया है । पनवरणा पर टीका की रचना करते समय यदि हरिभद्र सूरी के समक्ष २०० वर्ष पुरानी पनवरणा की प्रतियां भी रही हों तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्व भी ये दो गाथाएं पन्नवरणा के मूल पाठ में अन्यकर्तृक गाथाओं के रूप में विद्यमान थीं, जिनमें यह बताया गया है कि प्राचार्य श्यामार्य ने पन्नवरणा सूत्र की रचना की । इन तथ्यों से प्रमाणित होता है कि प्रार्य श्यामाचार्य को पन्नवरगा का रचनाकार सिद्ध करने वाली साक्षी हरिभद्र द्वारा किये गये उल्लेख की दृष्टि से विक्रम सं० ७८५ के आसपास की और उनके समक्ष पन्नवरणा (मूल) की जो प्रति विद्यमान रही, उसकी दृष्टि से विक्रम सं० ५८५ की है । प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की, इस प्रकार का उल्लेख मुख्य रूप से प्राचार्य वीर सेन ने षट्खण्डागम की अपनी धवला नामक टीका में और इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में किया है। ये दोनों साक्षियाँ पन्नवरणा सूत्र को आर्य श्यामाचार्य की रचना बताने वाली उपरोक्त प्राचीन साक्षी की तुलना में अर्वाचीन और कम वजनदार हैं। डॉ० हीरालाल ने प्राचार्य वीर सेन का समय शक सं० ७३८ तदनुसार विक्रम सं० ८७३ निश्चित रूप से निरणींत किया है ।" इन्द्रनन्दी का श्रुतावतार भी विक्रम की ११ वीं शताब्दी का रचना मानी गई है । - उपर्युक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचार्य श्यामाचार्य का पन्नवरणाकार के रूप में परिचय देने वाली उपरिचर्चित २ गाथाएं प्राज से १४५० से भी अधिक पूर्वकाल से पन्नवरणा सूत्र के मूल पाठ के साथ चली आ रही हैं । धरसेन का षट्खण्डागमकार के रूप में परिचय देने वाला घवला का उल्लेख आज १९५८ वर्ष पहले का होने के कारण पन्नवरणा विषयक उल्लेख से लगभग ३०० वर्ष पीछे का है । १ षट्खण्डागम ( जयघवला ) प्रथम खण्ड (द्वितीय संस्करण) की प्रस्तावना, पृ० ३६ २ "जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार ( फतेहचन्द बेलानी), पृ० ११ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा और पट्खण्डागम ] सामान्य पूर्वधर काल : देवद्ध क्षमाश्रमण ७१५ इन उल्लेखों के अतिरिक्त पन्नवरणाकार आर्य श्यामाचार्य और षट्खण्डागमकार प्राचार्य धरसेन के काल के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो आर्यश्याम वस्तुतः दशपूर्वघर होने के कारण' अंग पूर्वदेशधर प्राचार्य घरसेन से बहुत पूर्ववर्ती प्राचार्य सिद्ध होते हैं । नंदी सूत्रान्तर्गत पट्टावली की गाथा सं० २० से २६ में जिन महापुरुषों का स्मरण और वन्दन किया गया है, उनमें आर्यश्यामाचार्य का २३वां स्थान है । दुष्षमाकाल श्रमण संघस्तोत्र की अवचूरि, विचारश्रेणी, तपागच्छ पट्टावली ४ प्रादि अनेक ग्रन्थों में आपका युगप्रधानाचार्यकाल वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ बताया गया है । प्रथमोदय युगप्रधान यंत्र में आपका गृहस्थपर्याय २० वर्ष, व्रतपर्याय ३५ वर्ष, युग प्रधानाचार्यकाल ४१ वर्ष और पूर्ण श्रायु ६६ वर्ष, १ मास तथा १ दिन का बताया गया है । तपागच्छ पट्टावली के प्रतिरिक्त 'विचारश्रेणी' में भी प्रार्य श्यामाचार्य को 'प्रज्ञापनासूत्र' का रचनाकार बताते हुए लिखा है : "ततः ३३५ श्रनुनिगोदव्याख्याता कालकाचार्य: । 'किलास्मद्वत् संप्रति भरते कालकाचार्यो निगोदव्याख्यातेति' श्रीसीमंधरवाचं श्रुत्वा वृद्धविप्ररूपेणेन्द्रः कालकाचार्य-पार्श्वे तथैव निगोदव्याख्याश्रवणादनु निजमायुरपृच्छत् । तैश्च श्रुतोपयोगादिन्द्रोऽसाविति ज्ञातः । प्रयं च प्रज्ञापनोपांगकृत्" यह पहले ही बताया जा चुका है कि पन्नवरणा सूत्र की रचना का उपक्रम करते हुए पन्नवरणा सूत्रकार ने इसकी आदि में जो तीन गाथाएं दी हैं, उनमें दूसरी और तीसरी गाथा के बीच में आर्य श्यामाचार्य के पश्चादूवर्ती किसी आचार्य ने "वायगवरवंसाप्रो, तेवीस इमेण धीरपुरिसेग" - इन पदद्वय से प्रारम्भ होने वाली दो गाथाएं जोड़कर सदा के लिये स्पष्ट कर दिया है कि इस श्रतरत्न पन्नवरणा सूत्र की रचना श्रार्य श्याम ने की है । इन सभी उपर्युक्त सुस्पष्ट, परस्पर पुष्ट एवं प्रबल प्रमारणों से यह निर्विवाद रूपेण सिद्ध हो जाता है कि वीर निर्वारण सं० ३३५ से ३७६ तक युग प्रधान पद पर रहे तेवीसवें वाचक श्रेष्ठ प्रार्य श्याम ने पन्नवरणा सूत्र की रचना की । ' महानिरि सुहस्ती च सूरिश्री गुणसुन्दरः । श्यामा स्कन्दिलाचार्यो, रेवतीमित्र सूरिराट् ॥ श्री धर्मो भद्रगुप्तश्च, श्री गुप्तो वज्रसूरिराट् । युगप्रधानप्रवरा, दर्शते दशपूर्विण: ।। [विचारश्रेणि परिशिष्टम्, जैन साहित्य संशोधक खं० २,४] ૨ पट्टावली समुच्चय, भाग १, पृ० १७ 3 गुण सुन्दर चउप्राला, एवं तिसयापरणतीसा || ततो इगचालीसं निगोयवक्खाय कालिगायरियो | [जैन सा० संशोधक श्रं० २, पृ० ४] बलिस्सहस्य शिष्यः स्वाति तच्छिष्यः श्यामाचार्य प्रज्ञापनाकृत् । श्री वीरात् षट्सप्तत्यधिकशतत्रये ( ३७६) स्वर्गभाक् । [ पट्टावली समुच्चय, भा० १, पृष्ठ ४६ ] Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० प्रौर षट्खण्डागमे दिगम्बर परम्परा के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान डॉ० हीरालाल जैन और श्रीपादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने षट्खण्डागम, प्रथम खण्ड के द्वितीय संस्करण के अपने सम्मिलित सम्पादकीय में - "प्रार्य श्याम ही पन्नवरणा सूत्र के रचनाकार है" - इस तथ्य को संदेहास्पद सिद्ध करने का प्रयास करते हुए लिखा है :-- .........."उन दोनों प्रक्षिप्त गाथानों में पन्नवणा सूत्र का नाम भी नहीं माया । जिस श्रुतरत्न का दान श्यामाचार्य ने दिया उससे किसी अन्य ग्रन्थरत्न का भी तो अभिप्राय हो सकता है। यदि हरिभद्राचार्य ने भी इन गाथाओं को प्रक्षिप्त कह कर टीका की है, तो इससे इतना मात्र सिद्ध हया कि उनके समय अर्थात् प्राठवीं शती में श्यामाचार्य की ख्याति हो चुकी थी। किन्तु इससे पूर्व कब व किसके द्वारा वे गाथाएं जोड़ी गईं, इसके क्या प्रमाण हैं। उन गाथानों में श्यामाचार्य को वाचक वंश का तेइंसवां पुरुष कहा है । यह वंश कब प्रारम्भ हुआ पौर उसकी तेईसवीं पीढ़ी कब पड़ी, इसका लेखा-जोखा कहां है ? उनसे पूर्व ग्रन्थ की अंगभूत गाथा में तो स्पष्ट कहा गया है कि पण्णवणा का उपदेश भगवान् जिनवर ने भव्य जनों की निवृत्ति हेतु किया था, जब कि प्रक्षिप्त गाथाओं में दुर्धर धीर व समृदबुद्धि मुनि श्यामाचार्य द्वारा किसी अनिर्दिष्ट श्रुतरत्न का दान अपने शिष्यगण को दिया गया। क्या प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्त्तत्व के विषय में मूल और प्रोप की मान्यता एक ही कही जा सकती है ।'' .. डॉ. द्वय की प्रथम तीन और अंतिम, इन चार दलीलों में तो वस्तुतः कोई मनहीं है। क्योंकि उपर्युक्त दो गाथाएं पन्नवरणा सूत्र की मूल गाथाओं के बीच जोड़ी गई हैं तथा तीसरी गाथा के चतुर्थ चरण में ग्रन्थकार द्वारा अपने लिये प्रयुक्त - "अहमवि तह वण्णइस्सामि" को पूर्णतः स्पष्ट करने वाली हैं कि यह "महमवि" कहने वाले प्राचार्य श्याम ही हैं, अन्य कोई नहीं । मूल गाथानों के बीच में दी हुई इन गाथात्रों को पढ़ते ही साधारण से साधारण पुरुष को भी सहज ही यह ज्ञात हो जाता है कि निश्चित रूप से पन्नवणा सूत्र को उद्दिष्ट कर ही ये गाथाएं यहां रखी गई हैं और प्रार्य श्याम ने इसी ग्रन्थरत्न पन्नवणा सूत्र का अपनी शिष्य-प्रशिष्य सन्तति को दान दिया है । यदि ये दोनों गाथाएं पन्नवरणा सूत्र की मूल गाथाओं के बीच में न होकर अन्यत्र कहीं फूटकर रूप में होती तो सम्पादक द्वय की इन दोनों दलीलों में बड़ा महत्वपूर्ण वजन होता। तीसरी दलील का सीधा सा उत्तर इस प्रकार हो सकता है - हरिभद्राचार्य को पनवणा की टीका करते समय मूल पन्नवरणासूत्र की जो प्रतियाँ मिलीं वे उनके समय से कम-अज-कम ४००-५०० वर्ष पुरानी तो सुनिश्चित रूपेण होंगी स्योंकि आज भी कतिपय आगमों की ८००-६०० वर्ष पुरानी प्रतियां अनेक प्रत्यागारों-ग्रन्थभण्डारों में विद्यमान हैं। जब प्राचार्य हरिभद्र को अपने समय से ४००-५०० वर्ष पुरानी प्रतियों में उपरिलिखित २ गाथाएं मिलीं और इन्हें 'पट्खण्डागम प्रथम खंड, द्वितीय संस्करण, सम्पादकीय, पृ० ८ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा प्रौर षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवरि क्षमाश्रमण अन्यकर्तृक बताते हुए उन्होंने इनकी व्याख्या की, तो इससे तो ये गाथाएं प्रज से १६००-१७०० वर्ष पुरानी सिद्ध होती हैं । ___ जहां तक प्रक्षिप्त गाथानों के प्रक्षेप के समय का पीर प्रक्षेपकर्ता के नाम का प्रश्न है, स्वयं डॉ० ए० एन० उपाध्ये इस तथ्य से भलीभांति परिचित है कि प्रक्षेपक का नाम और समय बताना शतप्रतिशत मामलों में न सही ९९ प्रतिशत में तो एक प्रकार से असंभव ही है। प्रवचनसार पर ईसा की १० वीं शताब्दी में अमृतचन्द्र' ने टीका लिखी, उस समय स्त्री की उसी भव में मुक्ति का निषेध करने वाली "पेच्छदि ण हि इहलोग" मादि ११ गाथाएं उसमें नहीं थीं पतन तो अमृतचन्द्र ने उन गाथाओं को अपने टीका-ग्रन्थ में स्थान ही दिया और न उनकी व्याख्या ही की। प्राचार्य प्रमृतचन्द्र से लगभग २०० वर्ष पश्चात हुए जयसेनानाय ने उन ११ माथानों को अपनी टीका में स्थान देकर उनकी व्याख्या की है। उन्होंने सष्ट रूप से टीका में लिखा है : "तदनन्तरं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणप्रधानत्वेन 'पेच्छदि ण हि इह लोग' इत्याद्येकादश गाथा भवन्ति । ताश्चामृतचन्द्रटीकायां न सन्ति ।" इन ११ गाथानों को किसने और कब प्रवचनसार में प्रक्षिप्त किया इसका सन्तोषप्रद उत्तर संभवतः किसी विद्वान् के पास नहीं होगा। पन्नवणा सूत्र की प्रादि की दूसरी पार तीसरी गाथामों के बीच में प्रक्षिप्त , २ गाथाओं में प्रार्यश्याम को वाचकवर-वंश का तेवीसवां पुरुष बताया गया है। इस सम्बन्ध में डॉक्टर द्वय ने अपने सम्पादकीय में एक बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है कि यह वाचकवंश कब प्रारम्भ हुआ और उसकी तेवीसवीं पीढ़ी कब पड़ी-- इसका लेखा-जोखा कहां है ? । वस्तुतः यह प्रश्न विचारणीय है । प्राचार्य परम्परा से संबन्धित वाङ्मय में इसका हल विद्यमान है पर कतिपय विद्वानों का ध्यान उस ओर नहीं गया है। पन्नवणा सूत्रान्तर्गत उपयुद्धत दो अन्यकर्तृक गाथाओं में से प्रथम गाथा में प्रार्य श्याम को वाचक वंश का २३ वां पुरुष बताया गया है । वाचक शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार हरिभद्र ने लिखा है - "वाचकाः पूर्व-विदः" अर्थात् वाचक शब्द का अर्थ है पूर्वज्ञान के ज्ञाता । पूर्व-विदों को वाचक मान लिये जाने की स्थिति में भगवान महावीर के ग्यारहों गाधरों की. वाचकवंश में गणना करना आवश्यक हो जाता है। आर्य सुधर्मा से वाचनाचार्यों की गणना किये जाने पर आर्य श्याम का नाम १३ वें स्थान पर प्राता है। पर इन्द्रभूति प्रादि ग्यारहों ' Introduction-by A. N. Upadhye-on Pravachansara p. 101. २ Same-p. 104. 3 प्रवचनसार (ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित), पृ० २६६ • हारीभद्रीया प्रज्ञापना वृत्ति, पृ० ५ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० पौर षट्खण्डागम गणधरों को वाचक मान लिये जाने पर प्रार्य श्याम निश्चित रूप से २३ वें वाचक ही ठहरते हैं । वस्तुतः सभी गणधर वाचक अर्थात् प्रागमों की वाचना देने वाले होते ही हैं प्रतः उनकी वाचकों में गणना करना उचित भी है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है नन्दी सूत्रान्तर्गत पट्टावली की २० वीं और २१ वी गाथा में ११ गरगघरों के नाम देने के पश्चात् गाथा सं० २३ से २६ में सुधर्मा से लेकर मार्य शाण्डिल्य तक वाचनाचार्यों को वंदन किया गया है, इनमें गौतम गणधर से प्रार्य श्याम तक नामों की गणना की जाय तो आर्य श्याम का नाम तेवीसवें स्थान पर ही पाता है। . इसी प्रकार विचारश्रेणी में भी गणधरों की वाचकों में गणना कर पायं श्याम को २३वां वाचकवर बताते हुए लिखा है : __ "मयं च प्रज्ञापनोपांगकृत सिद्धान्ते श्रीवीरादन्वेकादशगणभृद्भिः सह प्रयोविंशतितमः पुरुषः श्यामार्य इति व्याख्यातः।" सिद्धान्त में प्रज्ञापना उपांग के रचनाकार पार्य श्याम को भगवान महावीर के पश्चात्, ग्यारह गणधरों को वाचकों की गणना में सम्मिलित कर तेवीसवां पुरुष बताया गया है' - प्राचार्य मेरुतुंग का यह कथन संभवतः नन्दीसूत्रान्तर्गत पट्टावली की पोर ही संकेत करता है।' नन्दीसूत्रान्तर्गत पट्टावली वीर निर्वाण संवत् १८० में प्रागम-निष्णात एवं एक पूर्वधर प्राचार्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण द्वारा अपने समय में उपलब्ध सभी प्राचीन तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् निर्मित की गई; यह एक ऐतिहासिक तथ्य है । अतः नन्दीसूत्रान्तर्गत पट्टावली की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में किसी प्रकार के संदेह का किंचित्मात्र भी अवकाश नहीं रह जाता। यह भी सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वीर नि० सं० ६२३ के पासपास मार्य स्कंदिल और नागार्जुन के तत्वावधान में हुई स्कंदिलीया एवं नागार्जुनीया आगमवाचनाओं में अनेक आगम निष्णात स्थविर श्रमणों ने विचारविमर्श के पश्चात् जिन प्रागमों के पाठों को सुस्थित एवं सुस्थिर किया, उन्हीं मागमों को वीर नि० सं०६८० में देवद्धिक्षमाश्रमरण और कालकाचार्य चतुर्थ के तत्वावधान में वल्लभी में हुई अंतिम आगवाचना में स्कंदिली और नागार्जुनीइन दो भिन्न आगम-वाचनाओं के पाठों का परस्पर मिलान करने के पश्चात् सर्व सम्मत रूप से एक पाठ निर्धारित कर आगमों को पुस्तकारूढ किया गया। वीर - - ' जैन साहित्य संशोधक खंड २, अंक ३ में प्रकाशित विचार श्रेणी' पृ० ५ २ (क) जेसि इमो प्रणुप्रोगो;पयरइ प्रज्जावि प्रड्ढभरहम्मि । बहुनगरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥३२॥ [नंदी सूत्र पट्टावली] (ख) दुर्भिक्षान्ते च विक्रमार्कस्यैकशताधिक त्रिपंचाशत (६२३) संवत्सरे स्थविररायस्कदिलाचार्यरुत्तरमथुरायां जैन भिक्षुणी संधो मेलितः । [हिमवंत स्थाविरावली] Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रज्ञा० और पटवण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७१६ नि० सं० ६२६ में हुई पागम वाचनायों के जिन पाठों के सम्बन्ध में दोनों वाचनामों के प्रतिनिधि एक मत न हो सके, उन दोनों पाठों को यथावत् पुस्तकारुढ करते हुए नागार्जुनीया वाचना के पाठों के सम्बन्ध में "नागज्जुरणीया पुरण एवं भरणन्ति" अथवा "अण्णे पुगण एवं भान्ति" - इस प्रकार का निर्देश कर दिया गया । नंदीसूत्र के मूल पाठ में पन्नवणा सूत्र का उल्लेख निम्न लिखित रूप में विद्यमान है: "८१ से कि तं उक्कालियं ? उक्कालियं प्रणेगविहं पण्णत्तं, त जहा :दसवेयालियं १, कप्पियाकप्पियं २, चूल्लकप्पसुत्तं ३, महाकप्पसुत्त ४, प्रोवाइयं ५, रायपसेरिणयं ६, जीवाभिगमो ७, पण्णवरणा ८,"......."महापच्चक्खाणं २६ से तं उक्कालियं । यह एक निविवाद तथ्य है कि वीर नि० सं० १८० में हुई आगमवाचना में प्रार्य स्कंदिल और गार्य नागार्जुन इन दोनों के तत्वावधान में वीर नि० सं० ६२३ में हुई पागमवाचनामों में जिन आगमों का पाठ सुस्थित एवं सुस्थिर किया गया था, उन्हीं प्रागमों के दोनों पाठों का एकीकरण करते हुए उसे पुस्तकास्ट किया गया था । ऐसी स्थिति में यह तो सुनिश्चित रूप से सिद्ध हो जाता है कि वीर निर्वाण ६२३ के बहुत पहले से ही पन्नवणा सत्र श्रमण-श्रमणी-समूह के स्मृतिपटल पर अंकित हो उनका कण्ठाभरण बना हुआ था। पनवणासत्र वस्तुतः वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ तक युगप्रधानपद पर विराजमान २३ वें वाचकवर आर्य श्यामाचार्य की ही कृति है - इस तथ्य के परस्पर एक दूसरे द्वारा परिपुष्ट जितने अधिक प्रबल और प्राचीन प्रमाण उपलब्ध हैं, उतने अधिक संभवतः द्वादशांगी को छोड़कर शेष प्रागमों में से बहुत कम के ही उपलब्ध हो सकेंगे। उपरोक्त सभी प्रबल प्रमाणों के परिप्रेक्ष्य में निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर यह पूर्णतः सिद्ध हो जाता है कि पनवणा सत्र आर्यश्याम द्वारा वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ के बीच के किसी समय में दृष्टिवाद से उद्धृत उनकी कृति है। यद्यपि नन्दी सूत्रान्तर्गत वाचकवंश की पट्टावली और मेरुतुंगीया विचार श्रेणी के उपर्युक्त उल्लेखों से भली-भांति यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचार्य श्याम वाचकवंश के एक दृष्टि से १३ वें और दूसरी दृष्टि से २३ वें पुरुष हैं तथापि हम शोधार्थियों के समक्ष शोध हेतु एक जटिल प्रश्न उपस्थित करना चाहते हैं। याकिनी महत्तरासन आचार्य हरिभद्र ने पन्नवणा सत्र की टीका में उपर्युक्त दो अन्यकतक गाथाओं की टीका करते हुए प्रार्य श्याम को वाचकवंश का २३ वां पुरुष तो बताया है, पर उन्होंने उन्हें गौतम गणधर से २३ वां पुरुष न बता कर आर्य सुधर्मा से ही २३ वा पुरुष बताते हुए लिखा है :' नंदी सूत्र सणि (मुनि पुण्य वियजी द्वारा संपादित), पृ० ५७ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रजा० प्रौर षट्खण्डागम ___ "वाचकाः पर्वविदः, वाचकाश्च ते वराश्च वाचकवराः वाचकप्रधाना इत्यर्थः, तेषां वंशः - प्रवाहो वाचकवरवंशस्तस्मिन् त्रयोविंशतितमेन, तथा च सुधर्मादारभ्य प्रार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एव,...... वर्तमान में जितनी भी प्राचार्य परम्परा की पट्टावलियां उप... ध हैं, उन सब में प्रार्य सुधर्मा से गणना कर प्रार्यश्याम को १३ वां वाचनाचार्य और १२ वां युगप्रधानाचार्य बताया गया है । सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में ऐसी एक भी प्राचार्य परम्परा की पट्टावली दृष्टिगोचर नहीं होती, जिसमें आर्य सुधर्मा से गणना कर आर्य श्याम को २३ वां पुरुष बताया गया हो। प्राचार्य हरिभद्र के - "तथा च सुधर्मादारभ्य आर्य श्यामस्त्रयोविंशतितम एव"-इन शब्दों से तो स्पष्टतः यही प्रतिध्वनित होता है कि उनकी दृष्टि में निश्चितरूपेण आर्यश्याम आर्य सुधर्मा से २३ वें पुरुष ही थे। तभी उन्होंने साधिकारिक भाषा में लिखा है - "सुधर्मादारभ्य आर्य श्यामस्त्रयोविंशतितम एव ।" तो क्या प्राचार्य हरिभद्र के समक्ष कोई ऐसी पदावली विद्यमान थी, जिसमें प्रार्य श्याम को प्रार्य सुधर्मा से २३ वां पुरुष बताया गया था? यह एक ऐसा जटिल प्रश्न है, जिसका उत्तर प्राचार्य परम्परा की वर्तमान काल में उपलब्ध पट्टावलियों में खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगा। प्राचार्य हरिभद्र जैसे उच्च कोटि के विद्वान् प्राचार्य बिना किसी ठोस प्रमाण के इस प्रकार की आधिकारिक भाषा में मार्य श्याम को आर्य सुधर्मा से २३ वां पुरुष कभी न लिखते। इस प्रश्न पर गहराई से विचार करने के पश्चात् हमें तो इसी निष्कर्ष पर पहँचना पड़ता है कि ग्यारहों गणधरों की वाचकों में गणना करने पर ही मार्य श्याम २३ वें वाचक ठहरते हैं। हरिभद्रसरि को भी सुनिश्चित रूपेण ग्यारहों गणधरों की वाचकों में गणना करना अभीष्ट था, इसी कारण उन्होंने वाचक शब्द की व्याख्या करते हए - "वाचकाः पूर्वविदः" अर्थात पर्वज्ञान के वेत्ताओं को वाचक माना गया है - यह लिखा है। शास्त्रों की वाचना देने का सबसे पहला काम तो वस्तुतः गगधरों का ही था अतः वाचकों में न्यायतः सर्वप्रथम उनकी गणना होनी ही चाहिए। हरिभद्र ने भी गणधरों को वाचक मानकर पार्य श्याम को २३ वां वाचक लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने "इन्द्रभूति गौतमा. दारभ्य" लिखा होगा। किन्तु आर्य सुधर्मा से प्रारम्भ हुई पट्टावलियों को ध्यान में रखते हुए किसी लिपिक ने “इन्द्रभूतिगौतमादारभ्य" - इस पाठ को प्रचलित पट्टपरंपरा के विपरीत समझ, जानबूझ कर उसके स्थान पर - सुधर्मादारभ्य"यह लिख दिया हो। अपनी समझ में लिपिक ने अपने प्रयास को टि-परिहार माना होगा पर ऐसा करते समय लिपिक ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया कि आर्य सुधर्मा से प्रार्य श्यामाचार्य २३वें नहीं अपितु १३वें वाचक ही होते हैं। तथ्यों पर आधारित हमारे इस अनुमान का मूल्यांक चिन्तक इतिहासविदों पर ' हरिभद्रीया प्रज्ञापनावृत्ति, पृ० ५ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा और षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण __७२१ निर्भर करता है। प्रार्य सुधर्मा से आर्य श्यामाचार्य तक ३७६ वर्ष का समय अनेक प्रामाणिक उल्लेखों द्वारा परिपुष्ट और तर्क की कसौटी पर भी खरा उतरता है । अतः नन्दी सूत्रान्तर्गत पट्टावलि में उल्लिखित आचार्यों के अतिरिक्त और भी कोई अज्ञातनामा १० प्राचार्य हुए हों, इस प्रकार की कल्पना तो किसी भी दशा में नहीं की जा सकती। ___ वस्तुतः – “सुधर्मादारभ्य" किस दृष्टि से लिखा गया है, इस सम्बन्ध में कहीं कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध न होने के कारणं हम साधिकारिक रूप से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। इतिहास के विद्वान इस सम्बन्ध में समूचित खोज कर विशेष प्रकाश डालेंगे तो प्रत्युत्तम होगा। "पन्नवणासूत्र आर्य श्याम की कृति है" - इस तथ्य के प्रति शंका प्रकट करते हुए श्री ए. एन. उपाध्ये और श्री हीरालालजी- इन डाक्टरद्वय ने षट्खण्डागम, प्रथम पुस्तक (द्वितीय संस्करण) के अपने संपादकीय में लिखा है --- " - ग्रन्थ की अंगभूत गाथा में तो स्पष्ट कहा गया है कि पण्णवणा का उपदेश भगवान् जिनवर ने भव्यजनों की निवृत्ति हेतु किया था, जब कि प्रक्षिप्त गाथाओं में दुर्द्धर, धीर व समृद्धबुद्धि मुनि श्यामाचार्य द्वारा किया प्रनिर्दिष्ट श्रुतरत्न का दान अपने शिष्यगण को दिया गया। क्या प्रस्तुत ग्रन्थ कर्त्तत्व के विषय में मूल और प्रक्षेप की मान्यता एक ही कही जा सकती है ?" प्राज के जैन जगत के उच्च कोटि के इन दो विद्वानों द्वारा लिखी गई उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर संभवतः प्रत्येक प्रबुद्ध पाठक को वस्तुतः बड़ा आश्चर्य होगा। क्योंकि पन्नवणा सूत्र की अंगभूत दूसरी और तीसरी गाथा का अर्थ इस प्रकार है : ___"भव्य जनों की निवत्ति करने वाले जिनेश्वर ने श्रतरत्न के प्रक्षय्य भण्डार स्वरूप सभी भावों की प्रज्ञापनाओं का उपदेश दिया ॥२॥ जिस प्रकार भगवान ने (सब भावों की प्रज्ञापना का) वर्णन किया, उसी प्रकार मैं भी दृष्टिवाद से उद्धृत अद्भुत श्रुतरत्न स्वरूप इस अध्ययन (पन्नवरणा सूत्र) का निरूपण-वर्णन करू गा ॥३॥ ___तोसरी गाथा के अन्त में उल्लिखित वे "अहमवि" कौन हैं, यह सुनिश्चित रूप से बताने के लिये ही मुख्यतः किसी अज्ञातनामा प्राचार्य ने दो गाथाएं मूल के बीच में जोड़ी हैं, जिनमें सार रूप में यह बताया गया है कि जिस तेवीसवें वाचकोत्तम प्रार्य श्याम ने श्रुतसागर से उद्धत कर (यह) श्रुतरत्न शिष्य समूह को दिया, उन आर्य श्याम को नमस्कार है। __मूल गाथाओं के पश्चात् इन अन्यकर्तक प्रक्षिप्त गाथाओं को पढ़ने से अनायास ही यह बोध हो जाता है कि मूल गाथाओं में ग्रन्थकार ने अपना नाम न बताकर अपने लिये जो केवल "अहमवि" शब्द का प्रयोग किया है, उसे दो प्रक्षिप्त .' पनवणा, गा. २ भोर ३ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहाम-द्वितीय भाग [प्रज्ञा प्रौर षट्खण्डागम गाथानों ने पूरक गाथाओं का काम करते हुए स्पष्ट कर ग्रन्थकार का सार रूप में मावश्यक परिचय दे दिया है। समझ में नहीं पाता कि षटखण्डागम के विद्वान् सम्पादकों को यहां मूल और प्रक्षेप की मान्यता में विभेद किस प्रकार दृष्टिगोचर हुमा। मूल गाथा में भगवान् को मूलतंत्रकर्ता और अपना 'महमवि' से परिचय देने वाले प्राचार्य को वस्तुतः उपतन्त्रकर्ता - अर्थात् पण्णवरणाकार बताया है। प्रक्षिप्त कही जाने वाली उन दो अन्यकत्र्तृक गाथाओं में भी ग्रन्थकार के नामोल्लेख के साथ मूल गाथानों की पुष्टि की गई है। "पन्नवणा सूत्र की रचना भगवान् महावीर ने की," यह निष्कर्ष विहान् सम्पादकों ने किस प्रकार निकाला? मूल और प्रक्षिप्त-दोनों ही प्रकार की गाथाओं में पनवणाकार भगवान् को न बता कर 'प्रहमवि' के रूप में अपना परिचय देने वाले आर्य श्याम को पन्नवरणाकार बताया गया है। त्रिपदी के उपदेश कर्ता के रूप में मूलतन्त्रतकर्ता तो प्रभु महावीर ही हैं। उस उपदेश के प्राधार पर द्वादशांगी की रचना करने वाले ग्यारहों गणधर अनुतन्त्रकर्ता और अनुतन्त्र दृष्टिवाद से प्रार्य श्याम ने 'पन्नवणा सूत्र' उवृत किया प्रतः मार्य श्याम उपतन्त्रकर्ता हैं।' मूलतः तो पन्नवणा सूत्र भी भगवान् की ही वारणी है। जिस प्रकार पनवणा को प्रार्य श्याम की कृति माना गया है, उसी प्रकार पट्खण्डागम को पुष्पदन्त-भूतबलि की कृति माना गया है।' भगवान महावीर के उपदेशों को प्राधार बनाकर पन्नवणाकार की तरह श्वेताम्बर और दिगम्बर, परम्परा के अनेक विद्वान् प्राचार्यों ने अनेक प्रन्यों की रचनाएं कीं, इस तथ्य के प्रमाण जैन वाङ्मय में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। बोधप्राभत की निम्नलिखित गाथानों से यह प्रमाणित होता है कि पन्नवणाकार के पद-चिन्हों पर अनेक प्राचार्य चले हैं : रूवत्यं शुद्धत्यं, जिसमग्गे जिरणवरेहि जह भणियं । भग्वजणबोहणस्थं, छक्कायहियंकरं उत्तं ॥६०॥ सद्दवियारो हुमो भासासुतेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं गाणं, सीसेरण भद्दबाहुस्स ॥६१।।' पन्नवणाकार ने अन्य रचना का उपक्रम करते हुए प्रतिज्ञा की है कि श्री वीर प्रभु ने जिस तरह संसार के समस्त भावों की प्रज्ञापनामों का उपदेश .' पुण अण्णेहिं विसुवागमबुद्धिजुत्तेहि बेरेहि अप्पाठयाणं मणुयाणं प्रप्पबुद्धिसत्तीणं कदुग्गाहक-ति पाऊण तं देव प्रापाराइ सुयणाणं परंपरगतं अत्यतो गंपतोय प्रतिबहु ति काऊरण प्रणुकंपा णिमित्तं दसवेतालियमादि पवियं तं पणेगमेदं मरणंगपविलु। .. [पावश्यक पूणि, मा १, पृ.] 'तदो मतंतकत्ता बढमाण भडारप्रो, प्रणुतंतकता गोदमसामी, उपवंतकतारा दवनि पुष्फयंतादयो। [षट्सम्यागम, भाग १, पृ.७३] Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा प्रौर षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वघर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७२३ दिया, उसी तरह मैं भी प्रज्ञापनासूत्र नामक इस अद्भुत श्रुतरत्न का वर्णन करूंगा। ठीक उसी तरह अपने ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए बोधपाहुडकार ने भी कहा है कि भव्यजनों को बोध देने एवं षड्जीव निकाय के हितार्थ भगवान ने जो उपदेश दिया, वह शब्दों के रूप में ढाला जाकर भाषा सूत्रों के स्वरूप में प्रकट हुआ। जिनेन्द्र प्रभु के उस उपदेश को उसी रूप में भद्रबाह के शिष्य ने कहा है। इन सब तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से सहज ही यह सिद्ध हो जाता है कि पन्नवणासूत्र तेवीसवें वाचक आर्य श्याम की ही कृति है। श्री ए० एन० उपाध्ये और श्री हीरालालजी द्वारा प्रस्तुत शंकायों के बारे में जो विचार ऊपर प्रस्तुत किये गये हैं, उनसे यह स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि उनकी शंकाएं न न्याय संगत ही हैं और न तर्कसंगत ही। उपर्युल्लिखित विस्तृत विवेचन से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि पत्रवरणासूत्र की रचना प्रार्यश्याम ने वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ के बीच किसी समय की। इसके विपरीत षट्खण्डागम के रचनाकार प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि का निश्चित समय बताने वाले प्रामाणिक उल्लेख दिगम्बर परम्परा के साहित्य में आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं। हरिवंश पुराण में दी हई प्राचार्यपरम्परा की पट्टावली पर विचार करने के पश्चात् अर्हद्बलि का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७८३ अथवा ७६१ तक का सिद्ध होता है। यद्यपि धरसेन और पुष्पदंत तथा भूतबलि को कोई प्रामाणिक पट्टपरम्परा उपलब्ध नहीं होती, फिर भी धवलाकार तथा इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार विषयक विवरण को पढ़ने से धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समय वीर नि० सं० ८०० और उससे भी पश्चात् का अनुमानित किया जाता है। आगे अभी इसी अध्याय में इस प्रश्न पर विशेष प्रकाश डाला जा रहा है । षट्खण्डागम के समान ही कषाय-पाहुड़ का भी दिगम्बर परम्परा के मागम ग्रन्थों में सर्वोपरि स्थान है। जयधवलाकार ने जयधवला में तथा इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में प्राचार्य गुणधर को कषाय-पाहड़ का कर्ता बताया है। दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में कहीं प्राचार्य गुणधर का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इन्द्रनन्दी ने भी श्रुतावतार में लिखा है कि प्राचार्य गुणधर और धरसेन की गुरू-शिष्य परम्परा का पूर्वापर क्रम कहीं उपलब्ध नहीं होता। इतना सब कुछ होते हुए भी अर्हबलि द्वारा किये गये संघ विभाजन का विवरण प्रस्तुत करते हुए इन्द्रनन्दी ने लिखा है : ये शाल्मलीमहाद्रुममूलाद्यतयोऽभ्युपागता तेषु । काश्चिद् गुणधर संज्ञान्कांश्चिद् गुप्ताह्वयानकरोत् ।।१४।। .. अर्थात् - शाल्मली महावृक्ष के मूल से जो साधु आये थे, उनमें से कतिपय को प्रहबलि ने गुणधर संज्ञा और कतिपय को गुप्त संज्ञा प्रदान की। ' प्राभृत संग्रह, पृ० ६६ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० और षट्खण्डागम इससे अनुमान लगाया जाता है कि गुणधर संघविभाजन से पर्याप्तरूपेण पूर्ववर्ती प्राचार्य रहे हैं और उनकी शिष्य प्रशिष्य संतति को प्रर्हद्वलि ने गुणधर संघ के नाम से अभिहित किया। कषाय-पाहड़ के उद्धरण, प्राधार, साक्षी एवं निर्देश प्रादि श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों 'शतकरिण' तथा 'सप्ततिकारिण' आदि में उपलब्ध होते हैं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि पूर्ववर्ती समय में यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में भी उसी प्रकार मान्य था, जिस प्रकार कि दिगम्बर परम्परा में मान्य है। कपाय-पाहुड़ की चूणि में "सवलिंगेसु च भज्जाणि" - अर्थात् चारित्रवेष धारण किये विना जीव अन्य तीथिकों के वेष में भी क्षपक हो सकता है - यह जो बात कही गई है, वह दिगम्बर परम्परा की मान्यता से विरुद्ध पड़ती है। इसके अतिरिक्त कषाय-पाहड़ की चूरिण में ऋजुसूत्र नय को द्रव्याथिक नय के रूप में बताया गया है। वस्तुतः यह दिगम्बर परम्परा की मान्यता के विपरीत है। दिगम्बर परम्परा में नेगम, संग्रह और व्यवहार नय को द्रव्यार्थिक नय तथा ऋजुसूत्रादि नयों को पर्यायाथिक नय माना गया है। कषाय प्राभृत चूणि में 'देशोपशमना' का अधिकार श्वेताम्बर अन्य 'कम्मपयडि' में से जान लेने का निर्देश दिया गया है।' जयधवला में कषाय-पाहड़ के रचयिता आचार्य गुणधर को तथा यतिवृषभ के गुरु प्रार्य मंच एवं नागहस्ति को वाचक बताया है। वाचक परम्परा वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा की एक क्रमबद्ध एवं विश्रुत परम्परा मानी गई है। केवल यही नहीं गुणधर, मंक्षु और नागहस्ति ये तीनों प्राचार्य दिगम्बर परम्परा की किसी भी क्रमवद्ध अथवा प्रक्रमबद्ध पट्टावली में दृष्टिगोचर नही होते। इन कतिपय तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में श्वेताम्बर परम्परा के अनेक विद्वानों द्वारा गुणधर को श्वेताम्बर आचार्य तथा उनकी कृति कसाय पाहुड़ को श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ बताया जाता है। वस्तुत षट्- खण्डामम और कषाय-पाहुड़ ये दोनों मूल ग्रन्थ दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य होने योग्य हैं। कालनिर्णय के सम्बन्ध में गम्भीर भ्रान्ति : हरिवंशपुराण, धवला, जयधवला, उत्तर पुराण, तिलोयपन्नत्ती, जंबूद्वीप पण्णत्ती, इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार, और नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली आदि दिगम्बर परम्परा के सभी मान्य ग्रन्थों में वीर नि० संवत् ६८३ तक अंग ज्ञान की विद्यमानता का उल्लेख किया गया है। वीर नि. सं. ३४५ में अंतिम दश पूर्वधर १ जा सा कर गोवसामणा सा दुविहा.... 'देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसामरणा त्तिवि । अपसत्थ उवसामणात्ति वि । एसा कम्मपडिसु । (कसाय-पाहुड़ चूरिण, पृ० ७०७). Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० सं० में ग० भ्रांति ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमण ७२५ प्राचार्य धर्मसेन के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर पूर्वज्ञान के विच्छिन्न होने का इन सभी ग्रन्थों में उल्लेख है। यहां तक केवल केवलिकाल को छोड़कर दशपूर्वधरों' तक की श्रुतपरम्परा की विद्यमानता के सम्बन्ध में उपरोक्त ग्रन्थों के रचयिताओं का मतैक्य है । इसके पश्चात् एकादशांगधर प्रौर प्राचारांगधर आचार्यों के काल के सम्बन्ध में भी नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली के अतिरिक्त उपरोक्त सभी ग्रन्थों में. यह सर्वसम्मत अभिमत व्यक्त किया गया है कि वीर नि. सं. ५६५ में अंतिम एकादशांगघर कंसार्य के दिवंगत होने पर एकादशांगधरों की परम्परा समाप्त हो गई और वीर निर्वारण सं. ६५३ में अंतिम आचारांगधर लोहार्य का स्वर्गवास होते ही आचारांग भी विच्छिन्न हो गया । इन सभी ग्रन्थों में एक स्वर से यह मान्यता प्रकट की गई है कि एक अंग ( श्राचारांग ) धारियों में अंतिम आचार्य लोहार्य हुए और उनके पश्चात् सभी श्राचार्य पूर्वज्ञान तथा अंगज्ञान के एक देशघर ही हुए तथा पंचम धारक की समाप्ति पर्यन्त सभी प्राचार्य पूर्व एवं अंगज्ञान के एक देशघर होंगे । दिगम्बर परम्परा की कतिपय पट्टावलियों में भी उपयुक्त ग्रन्थों के उपरिलिखित अभिमत की पुष्टि की गई है । दिगम्बर परम्परा में शताब्दियों से सर्वसम्मत रूपेरण चली प्रारही इस मान्यता एवं प्रास्था को ई० सन् १९१३ के " जैन सिद्धान्त भास्कर", भाग १, किरण ४ में छपी नन्दी संघ की (तथाकथित) प्राकृत पट्टावली ने थोड़ा हिला दिया । ई० सन् १९३६ में प्रकाशित धवला, प्रथम भाग की प्रस्तावना में प्रसिद्ध विद्वान् डा. हीरालाल ने गौतम आदि आचार्यों के समय पर विचार करते हुए धवला, जयधवला, हरिवंश पुराण, श्रुतावतार ( इन्द्रनन्दीकृत) आदि के एतद्विषयक उल्लेखों को प्रस्तुत करने के पश्चात् नन्दीसंघ की तथाकथित पट्टावली को उद्धृत किया । इस पट्टावली में निर्वाण पश्चात् के ३ केवलियों, ५ श्रुतकेवलियों और ११ अंगधरों का तो वही समय दिया गया है, जो हरिवंश पुराण, तिलोय पण्णत्ती, धवला, जयधवला, उत्तर पुराण, श्रुतावतार आदि में उल्लिखित है । परन्तु अंतिम १० पूर्वधर धर्मसेन के पश्चात् पांच एकादशांगधरों का समय जहां उपर्युक्त प्राचीन ग्रन्थों में २२० वर्ष बताया गया है, वहां नन्दी संघ की कही जाने वाली इस पट्टावली में १२३ वर्ष ही दिया गया है । जहां धवला आदि उपरिचित सभी ग्रंथों में सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य को एकांगधारी ( प्राचारांगधर ) बताते हुए इन चारों का समय समुच्चय रूप से ११८ वर्ष उल्लिखित किया गया है, वहां नन्दी संघ की इस पट्टावली में उत्तरपुराण ( पर्व ७६, पृ. ५३७ ) और पुष्पदन्तकृत प्रपभ्रंश के महापुराण में वीर नि. सं० १ से ६४ तक केवलिकाल माना गया है । - सम्पादक २ सुभद्रोऽथ यशोभद्रो, भद्रबाहुगंणाग्रणी । लोहाचार्येति विख्याता, प्रथमांगा ब्धिपारगाः ॥ १० ॥ [काष्ठा संघस्य गुर्वावली ? Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति इन्हें दश, नव एवं प्राठ अंगधारी' बताकर एकादशांगधारियों के काल में से काटे गये ६७ वर्षों को इनके साथ संलग्न करते हुए इन चारों का समय ६७ वर्ष बताया है । इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के प्रामाणिक माने जाने वाले सभी ग्रंथों में अन्तिम श्राचारांग - धर लोहार्य का समय जहां वीर निर्वारण संवत् ६८३ बताया गया है, उसे नन्दी संघ की इस प्राकृत पट्टावली में ११८ वर्ष पीछे की श्रोर ढकेल कर वीर नि. सं. ५६५ उल्लिखित किया गया है । तदनन्तर लोहार्य के पश्चात् हुए विनयधर श्रादि ४ प्रराती मुनियों का समय निर्देश तो दूर नामोल्लेख तक इस पट्टावली में नहीं किया गया है। केवल यही नहीं अपितु दिगम्बर परम्परा के समस्त वाङ्मय की मान्यता से पूर्णतः विपरीत एक प्रति विलक्षण एवं प्राश्चर्यजनक उल्लेख के साथ नन्दी संघ की तथाकथित पट्टावली में लोहार्य के पश्चात् श्रहंद्वलि, माघनंदी, धरसेन, पुष्पदंत और भूतवली, इन पांच प्राचार्यों को प्राचारांगधर बताने के साथ साथ इन पांचों का कुल समय ११८ वर्ष बताया गया है । इस प्रकार अंग ज्ञान के विच्छिन्न होने का समय हरिवंश पुराणादि की मान्यतानुसार वीर नि. सं. ६८३ यथावत् रखते हुए पट्टावलीकार ने सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु, और लोहार्य को १०, ६ तथा अष्टांगधर बनाकर वीर नि. सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए लोहार्य का ११८ वर्ष पूर्व, वीर नि. सं. ७८३ के लगभग स्वर्गस्थ हुए प्राचार्य अर्हद्वलि का वीर नि० सं० ५६३ में दिवंगत होना बताया है | धवला प्रथम भाग की प्रपनी प्रस्तावना में डॉ० हीरालालजी ने इस पट्टावली की विशेषताओं और दोषों का उल्लेख करने के पश्चात् इसकी प्रामारिकता और अप्रामाणिकता के संबंध में अपना कोई निश्चित अभिमत व्यक्त नहीं करते हुए लिखा है- "समयाभाव के कारण इस समय हम इसकी प्रोर अधिक जांच पड़ताल नहीं कर सकते । किन्तु साधक-बाधक प्रमारणों का संग्रह करके इसका निर्णय किये जाने की आवश्यकता है ।" " धवला के उपर्युक्त प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण के सम्पादकीय में डॉ० द्वय श्री हीरालालजी और ए. एन. उपाध्ये ने 'पन्नवरणा सूत्र और पट्खण्डागम' में प्रतिपादित विषय तथा अन्य कतिपय साम्यताओं पर अपने बहुमूल्य विचार प्रकट कर विशेष प्रकाश डाला है किन्तु नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली के प्रकाशन से निर्वारणानन्तर हुए प्राचीन आचार्यों के काल के सम्बन्ध में जो भ्रान्त एवं संदिग्ध धारणा उत्पन्न हो गई है, उसके सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं किया है । यद्यपि डॉ० हीरालालजी ने उक्त प्रस्तावनान्तर्गत अपने निष्कर्ष में "नन्दी संघ प्राकृत पट्टावली' की प्रामाणिकता अथवा प्रामाणिकता विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है पर हरिवंश पुराणादि में दिये गये वीर नि. सं. १ से ६८३ " नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली में यह नहीं बताया गया है कि इन चारों प्राचार्यों में से कौन-कौन से प्राचार्य कितने कितने अंगों के ज्ञाता थे । - सम्पादक २ धवला, प्रथम भाग की प्रस्तावना, पृ. २५ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि समाश्रमण तक हुए गौतमादि लोहार्यान्त प्राचार्यों के समुच्चयकाल की तुलना में नन्दी संघ प्राकृत पट्टावलीकार द्वारा प्रत्येक प्राचार्य के पृथक् पृथक् दिये गये काल को कुछ अधिक विश्वसनीय बताया है।' इसके साथ ही हरिवंश पुराण, धवला, श्रुतावतार आदि में उल्लिखित पांच एकादशांगधरों के समुच्चय २२० वर्ष के काल के स्थान पर नन्दीसंघ की प्राकृत पावली में दिये गये १२३ वर्ष के काल निर्देश का तथा प्राचारांगधर सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहार्य को दश, नव व पाठ अंगधारी बताते हुए शेष बचे ६७ वर्ष के समय को इन चारों में विभक्त किये जाने एवं इन चार प्राचारांगधरों के स्थान पर अहंबली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन अंगज्ञान के एक देशधरों का प्राचारांगधरों के रूप में उल्लेख कर शेष ११८ वर्ष का समय इनमें विभक्त किये जाने को एक प्रकार से बुद्धिगम्य अथवा तर्कसंगत बताते हुए डॉ० हीरालालजी ने लिखा है : "इस पट्टावली में जो अंग विच्छेद का क्रम और उसकी कालगणना पाई जाती है, वह अन्यत्र की मान्यता के विरुद्ध जाती है। किन्तु उससे अकस्मात् अंगलोप सम्बन्धी कठिनाई कुछ कम हो जाती है और जो पांच प्राचार्यों का २२० वर्ष का काल असंभव नहीं तो दुःशक्य जंचता है। उसका समाधान हो जाता है। पर यदि यह ठीक हो तो कहना पड़ेगा कि श्रुत परम्परा के संबंध में हरिवंश पुराण के कर्ता से लगाकर श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दी तक के सब प्राचार्यों ने धोखा खाया है और उन्हें वे प्रमाण उपलब्ध नहीं थे जो इस पट्टावली के. कर्ता को थे।" यद्यपि डॉ० हीरालालजी ने अपनी उक्त प्रस्तावना में इस प्रश्न को अनिर्णीत ही छोड़ दिया है कि नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली विश्वसनीय एवं प्रामाणिक है अथवा नहीं तथापि उनकी प्रस्तावना के उपरिलिखित दो उद्धरणों से नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली द्वारा प्रकाश में आये, नये एवं अति विलक्षण अभिमत को बल मिला। पं० जुगलकिशोरजी द्वारा प्राचार्य अहंबलि का समय वीर नि० सं० ७१३ अनुमानित किया गया है। पर नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के अभिमत को मान्य कर लिये जाने पर इनका समय इससे १२० वर्ष पूर्व अर्थात् वीर नि० सं० ५६३ ठहरता है । परम श्रद्धेय अर्हबलि आदि प्राचार्य नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में उल्लिखित मान्यतानुसार अधिक प्राचीन सिद्ध होते हैं, इस दृष्टि से प्रात्यन्तिक धर्मानुरागवशात् प्राकृत पट्टावली की मान्यता केवल ' "जहां अनेक क्रमागत व्यक्तियों का समय समष्टि रूप से दिया जाता है, वहां बहुधा ऐसी भूल हो जाया करती है। किन्तु जहां एक एक व्यक्ति का काल निर्दिष्ट किया जाता है, वहां ऐसी भूल की संभावना बहुत कम हो जाती है ..............." प्रस्तुत परम्परा में इन २२० वर्षों के काल में ऐसा ही भ्रम हुआ प्रतीत होता है।" _ [धवला, भाग १ (द्वितीय संस्करण) की प्रस्तावना, पृ. २४] २ समन्तभद्र, (पं० जुगलकिशोर मुख्त्यार) पृ० ६१ । । 3 नंदीसंघ की प्राकृत पट्टावली गा० सं० १५ और १६ । Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति साधारण जन-मानस में ही नहीं अपितु चोटी के विद्वानों के हृदय में भी घर करने लगी। क्षल्लक जिनेन्द्रवर्णी जैसे बहश्रत एवं अध्ययनशील विद्वान ने भी प्रति श्लाघनीय परिश्रम से निर्मित अपने जनेन्द्र सिद्धान्त कोश में डॉ० हीरालालजी के अपूर्ण अभिमत को-४ प्राचार्य परम्परा-इस शीर्षक के नीचे -दृष्टि नं० २ (धवला, भाग १, प्रस्तावना २४/ नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली- इस पंक्ति द्वारा एक मान्यता के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया है।' छद्मस्थ द्वारा भूल संभव है, इस संदर्भ में तथ्यातथ्य की गहराई में उतरे बिना डॉ० हीरालालजी द्वारा प्रकट किये गये अभिमत को, जिस पर स्वयं उन्होंने अपना निर्णय और अधिक तथ्यों की गवेषणा के पश्चात् ही देने का स्पष्टतः उल्लेख किया है, प्राचीन प्राचार्यों की मान्यता के समकक्ष ही नहीं अपितु उससे भी सबल मान्यता के रूप में प्रतिष्ठापित करते हुए वर्णी जी ने निम्न नोट प्राधिकारिक भाषा में लिख दिया है ___"नोट - पहली दृष्टि में लोहाचार्य तक ही ६८३ वर्ष पूरे कर दिये, परन्तु दूसरी दृष्टि में लोहाचार्य तक ५६५ वर्ष ही हुए हैं। शेष ११८ वर्षों में अन्य ६ प्राचार्यों का उल्लेख किया है, जो आगे बताया जाता है। इन दोनों में प्रथम (द्वितीय) दृष्टि ही युक्त है। इसके दो कारण हैं, एक २२० वर्ष में ५ आचार्यों का होना दुःशक्य है और दूसरे ६८३ वर्ष पश्चात् षट्खण्डागम की रचना प्रसिद्ध है, उसकी संगति भी इसी मान्यता से बैठती है.।"3 वर्णीजी ने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष - प्रथम भाग के पृष्ठ ३३१ पर जो प्राचार्यपरम्परा की समयसारिणी दी है, उसमें गौतम से लोहाचार्य का वीर नि० सं० १ से ६८३ तक के काल का विवरण देने के पश्चात् डॉ० हीरालालजी द्वारा अर्द्धसमर्थित नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में लिखे गये गौतमादि लोहाचार्यान्त प्राचार्यों के वीर नि० सं० १ से ५६५ तक के काल का उल्लेख किया है। किन्तु इस चार्ट के पश्चात् पृष्ठ ३३२ पर दी गई लोहाचार्य से भूतबली तक के काल की सारिणी, पृष्ठ ३३५ से ३३६ पर - "४ समयानुक्रम से प्राचार्यों की सूची" शीर्षक के नीचे दी गई सारिणी, पृष्ठ ३४५ पर दी गई पुन्नाट संघ के प्राचार्यों की काल निर्देश सहित सूची तथा पृष्ठ ३४८ से ३५५ पर - ६ पागम परम्परा, समयानुक्रम से पागम की सूची- नामक शीर्षक के नीचे दी गई सारिणी में एक मात्र नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को ही मान्यता प्रदान कर अर्हबली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि का समय ५६५ से ६८३ के बीच का देते हुए इनसे पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों का भी उनके वास्तविक काल से लगभग १६० वर्ष पूर्व होने का उल्लेख किया है। १ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० १, पृ० ३३१ । २ यहां "प्रथम दृष्टि" यह संभवतः प्रेस की गलती से छप गया है। वर्णी जी का अभिप्राय नन्दीसघ की प्राकृत पट्टावलो में उल्लिखित द्वितीय दृष्टि से है। . - सम्पादक 3 जनेन्द्र मिद्धान्त कोश, भा० १, पृ० ३३१ । Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७२६ हरिवंश पुराण में दी गई आचार्य परम्परा के अनुसार अर्हबलि का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७८३ अथवा ७६१ के बीच का सिद्ध होता है किन्तु वर्णीजी ने आज से ११६० वर्ष पूर्व के लिखित पुष्ट प्रमाण की अपेक्षा भी डॉ० हीरालालजी द्वारा केवल अनुमान के आधार पर अर्द्धसमर्थित नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टीवली में उल्लिखित अर्हबलि के वीर नि० सं० ५६५ से ५६३ तक के काल को प्रश्रय देकर पूर्ण प्रामाणिक ठहराने का प्रयास करते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में उस ही का उल्लेख किया है।' हरिवंशपुराण में प्राचार्य जिनसेन ने लोहाचार्य को अंतिम आचारांगधर बताते हुए उनका अंतिम समय ६८३ और स्वयं द्वारा हरिवंश पुराण की रचना का काल शक सं० ७०५ तदनुसार वीर नि० सं० १३१० उल्लिखित किया है। पर वर्णीजी ने पुन्नाट संघ की प्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों की जो सूची दी है, उसमें हरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेन का तो वही समय (शक सं० ७०५) दिया है, जो हरिवंश में उल्लिखित है किन्तु लोहाचार्य का समय हरिवंशपुराण के उल्लेखानुसार वीर नि० सं० ६८३ न देकर नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार वीर नि० सं० ५१५ से ५६५ दिया है । कतिपय प्राचार्यों तथा उनकी कृतियों को, उनके वास्तविक समय से दोढाई सौ वर्ष पूर्वकालीन सिद्ध करने के प्रयास का ही प्रतिफल है कि प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेखों की प्रामाणिकता को संदेहास्पद बता नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को सर्वाधिक प्रश्रय देकर उसे प्रामाणिकता का जामा पहनाने का असफल प्रयास किया जा रहा है। वस्तुतः इस प्रकार की प्रवृत्ति इतिहास की गरिमा के लिये बड़ी घातक सिद्ध हो सकती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में नन्दीसंघ की प्राकृत पद्रावली के उल्लेखों को एक मान्यता के रूप में स्थान दे दिया गया है। यह प्रवृत्ति आगे न बढ़ने पाये और यहीं समाप्त कर दी जाय इस दृष्टि से यहां इस प्रश्न पर विस्तारपूर्वक विशेष प्रकाश डाला जा रहा है। वास्तविक स्थिति को समझने के लिये सर्व प्रथम धवला तिलोयपण्णत्ती, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, श्रुतावतार आदि प्राचीन ग्रन्थों के उन उल्लेखों को यहां प्रस्तुत करना आवश्यक है, जो कि परम्परागत मान्यता के मूल प्राधार हैं। प्राचार्य वीरसेन (शक सं० ७३८) ने दिगम्बर परम्परा के परम मान्य षट्खण्डागम-वेदना खण्ड की टीका में वीर नि० सं० १ से ६८३ तक प्राचार्यों के काल एवं क्रम का निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया है : ___ "भगवान् महावीर के मुक्त होने पर गणधर गौतम केवलज्ञानी हुए। १२ वर्ष तक केवली रूप में विचरण कर वे भी मुक्त हुए। उनके पश्चात् प्राचार्य लोहार्य केवलज्ञान के धारक हुए। वे भी १२ वर्ष तक केवली रूप में विहारकर निर्वाण को प्राप्त हुए। ३८ वर्ष तक केवल विहार से विचरण कर प्रार्य जम्बू भी सिद्ध हुए। पार्य जम्बू के मुक्त होने पर केवलज्ञान परम्परा का भरत क्षेत्र में 'जनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा० १, पृ० ३४५ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [काल नि० गं० भ्रान्ति वर्ष व्युच्छेद हो गया । इस प्रकार वीर निर्वाण के ६२ वर्ष पश्चात् भरत क्षेत्र से केवलज्ञान रूपी सूर्य अस्त हो गया । श्रार्य जम्बू के निर्वाण के पश्चात् सकल श्रुतज्ञान की परम्परा को धारण करने वाले ( द्वादशांग एवं चतुर्दश पूर्व-घर ) प्राचार्य विष्णु हुए । उनके पश्चात् चतुर्दश पूर्वज्ञान की अविच्छिन्न सन्तान परम्परा के रूप में क्रमश: नन्दि, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये सकल श्रुत ( द्वादशांगी) के धारक हुए। इन पांच श्रुतकेवलियों के काल का योग १०० रहा । भद्रबाहु के स्वर्ग गमनानन्तर भरत क्षेत्र से श्रुतज्ञान रूपी चन्द्र पूर्णावस्था में नहीं रहा और भरत क्षेत्र अज्ञानान्धकार से परिपूर्ण हुआ । भद्रबाहु के पश्चात् ११ अंगों तथा विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंग के धारक ( एकादशांग तथा दश पूर्वधर) विशाखायें हुए । विद्यानुवाद के प्रागे के ४ पूर्व, उनका एक देश अवशिष्ट रहने के कारण व्युच्छिन्न हो गये । इस विकलावस्था में श्रुतज्ञान विशाखाचार्य से क्रमश: प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन- इन प्राचार्यों की परम्परा से १८३ वर्ष तक रह कर व्युच्छिन्न हो गया । धर्मसेन के स्वर्गस्थ होने के साथ ही दृष्टिवाद रूपी प्रकाश के नष्ट हो जाने पर ११ अंगों एवं दृष्टिवाद के एक देश के धारक प्राचार्य नक्षत्र हुए । वह एकादशांग रूप श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन श्रौर कंस - इन (५) श्राचार्यों की परम्परा से २२० वर्ष पर्यन्त रहकर व्युच्छिन्न हो गया । कंसाचार्य के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर ११ अंग रूप प्रकाश के व्युच्छिन्न हो जाने पर सुभद्राचार्य श्राचारांग के तथा शेष अंगों एवं पूर्वी के एक देश के धारक हुए। श्राचारांग भी सुभद्राचार्य से क्रमशः यशोभद्र यशोबाहु और लोहाचार्य की परम्परा से ११८ वर्ष रहकर व्युच्छिन्न हो गया । इस ( गौतम से लेकर अंतिम आचारांगधर लोहार्यं तक ) सब काल का योग ( ६२ + १०० + १८३+२२०+११८ =६८३) छह सौ तेरासी वर्ष होता है ।' धवलाकार ने आगे चलकर स्पष्ट शब्दों में कहा है- "लोहाइरिये सग्गलोगंगदे प्रायार दिवायरो प्रत्थमिनो । एवं बारससु दिरणयरेसु भरहखेतम्मि प्रत्थमिसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद पेज्जदोस-महाकम्मपडिपाहुडादीरणं धारया जादा ।" अर्थात् लोहार्य के स्वर्गस्थ होने पर प्राचारांग रूपी सूर्य अस्त हो गया । इस प्रकार भरत क्षेत्र से १२ सूर्यो के प्रस्त हो जाने पर शेष प्राचार्य सब अंगों तथा पूर्वो के एकदेशभूत 'पेज्जदोस' प्रोर 'महाकम्मपयडिपाहुड' प्रादिकों के धारक हुए । १ महादिमहाबीरे लिम्बुदे संते केवलरणारणतारणहरो गोदम सामी जादो" 'सुभद्दाइरियो प्रायारंगस्स सेसंगपुम्वा रण मेग देसस्स य घारभो जादो । तदो मायारंगंवि जसद्द - जसबाहु-लोहाइरियपरंपराए अठ्ठारहोत्तरमरिससयमागंतूण बोच्छिणं । सव्वकाल समासो तेयासीदीए महियछस्सदमेत्तो ( षट्खण्डागम, वेदनाखण्ड, धवलाटीका युक्त, भाग ६, पृ० १३० - १३१ ) वही, पृ० १३३ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३१ . काल नि० ब्रान्ति] सामान्य पूर्वघर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण - दिगम्वर परम्परा के प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थ तिलोय पण्णत्ती में भी वीर नि० सं० १ से ६८३ तक हुए प्राचार्यों के तथा थुतपरम्परा के काल का जो विवरण दिया गया है वह उपरिलिखित धवला के विवरण से पर्याप्त रूपेण मिलता है । तिलोय पण्णत्तों में भी लोहार्य को अंतिम याचारांगधर बताते हुए वीर नि० सं०६८३ में उनका स्वर्गस्थ होना बताया गया है और यहां स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि लोहार्य के पश्चात् भरत क्षेत्र में कोई प्राचारांगधर नहीं होगा।' इन्द्रनन्दी ने भी अपने ग्रन्थ श्रुतावतार में वीर नि० सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए अंतिम याचारांगधर लोहार्य सौर उनके पश्चाद्वर्ती कतिपय प्राचार्यों का नामोल्लेख करते हुए कुछ ऐतिहासिक घटनाग्रों पर निम्नलिखित रूप में प्रकाश डाला है : भगवान महावीर का निर्वागा होते ही तत्क्षण गौतम गणधर को केवल ज्ञान हुमा और वे १२ वर्ष केवली रह कर मुक्त हुए । गौतम का निर्वाण होते ही मुधर्म मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया। सूधर्म भी १२ वर्ष केवली के रूप में विचरण कर सिद्ध हुए। सुधर्म के निर्वाण के समय ही जम्बू को केवल ज्ञान की प्राप्ति हई और वे ३८ वर्ष तक केवली रूप से विचरण कर मुक्त हुए। ये तीनों ही अनुबद्ध केवली थे । जम्बू के मुक्त होते ही केवल्य सूर्य भरत क्षेत्र से प्रस्त हो गया। (तीनों केवलियों के काल का योग १२+१२+३८६२) । - जंबू के पश्चात् विष्णु, नन्दि, अपराजित गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये ५ श्रुतकेवली हुए इन पांचों श्रुतकेवलियों का सम्मिलित काल १०० वर्ष रहा । श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष का काल व्यतीत हो जाने पर क्रमशः विशाखदत्त, प्रोप्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिपेण, विजयसेन, बुद्धिमान्, १ बासट्ठी वासारिण गोदमपहुदीरण गाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले, परिमारणं पिंडरूवेणं ।।१४७८।। णंदी य दिमित्तो विदियो अवराजिदो तइज्जो य । गोवद्धणो चउत्थो, पंचमग्रो भद्दवाहुत्ति ॥१४८२।। पंच इमे पुरिसवरा, च उदस पुन्वी जगम्मि विक्खादा ।......।।१४८३।। पंचाण मेलिदाणं कालपमारणं हवेदि वाससदं ।...... ।।१४८४।। ..........दसपुवघरा इमे सुविक्खादा । पारंपरिप्रोवगदो, तेसीदिसदं च ताण वासाणि ।।१४८६।। -एक्कारसंगधारी, पंच इमे वीर तित्थम्मि ॥१४८८।। दोणि सया वीसजुदा, वासाणं ताण पिण्ड परिमारणं ।......||१४८६।। पढमो सुभद्दणामो, जसभद्दो तह य होदि जसबाहू । तुरिमो य लोहणामो, एते पायार अंगधरा ।।१४६०।। सेसेक्करसंगाणं चोद्दसपुव्वाणमेक्कदेसधरा । एक्कसयं अट्ठारसवासजुदं ताण परिमाणं ।।१४६१।। तेसु प्रदीदेसु तदा, प्राचारधरा ण होंति भरहम्मि गोदममुणिपहुदीणं, वासाणं (६८३) छस्सदाणि तेसीदी ।।१४९२।। . [तिलोयपण्णत्ती, ४ महाधिकार] Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति गंग और धर्म ये ११ मुनि दशपूर्वधर हुए। इन ग्यारहों दशपूर्वधरों के काल का योग १८३ वर्ष है। अंतिम दशपूर्वधर धर्म मुनि के स्वर्गगमन के पश्चात् अनुक्रम से नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, द्रुमसेन और कंस नामक ५ मुनि एकादश अंगों के धारक हुए । इन पांच ११ अंगधरों के काल का योग २२० वर्षे होता है। एकादशांगधारियों का २२० वर्ष का समय बीत जाने पर क्रमशः सुभद्र, अभयभद्र, जयबाहु मोर लोहार्य ये चार मुनि आचारांगधर (एक अंगधारी) कुल मिला कर ११८ वर्षों में हए।' इस प्रकार भगवान् महावीर के . निर्वाण के पश्चात् केवलज्ञानी गौतम से लेकर अंतिम पाचारांगधर लोहार्य तक वीर निर्वाण सं० के ६८३ वर्ष व्यतीत हुए। इसी प्रकार उत्तरपुराण तथा ब्रह्महेमचन्द्र कृत् श्रुत स्कन्ध में भी इन्द्रभूति गौतम से अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य तक प्राचार्यों का उपरिचित.क्रम देने के पश्चात् लोहार्य के पश्चात् आचारांग का विच्छेद बताया गया है। ब्रह्म ' भगवत्परिनिर्वाणक्षणएवावाप केवलं गणभृत् । गौतमनामा सोऽपि, दादभिवत्सरमुक्तः ॥७२।। निर्वाणक्षण एवासावापत् केवलं सुधर्ममुनिः ।। बादशवर्षाणि विहृत्य सोऽपि मुक्ति परामाप ।।७३॥ जम्बूनामापि ततस्तनिर्वतिसमय एव कंवल्यम् । प्राप्याटत्रिशतमिह समा विहृत्याप निर्वाणम् ॥७४।। -जम्बूनामा मुक्ति प्राप यदासी तथैव विष्णुमुनिः । पूर्वांगभेदभिन्नाशेषश्रुतपारगो जातः ॥७६॥ एवमनुबद्धसकलश्रुतसागरपारगामिनोऽत्रासन् । नन्द्यपराजितगोवर्द्धनाह्वया भद्रबाहुश्च ॥७॥ एषां पंचानामपि काले वर्षशतसम्मितेऽतीते । दशपूर्वविदोऽभूवंस्तत एकादश महात्मानः ।।७।। तेषामाद्यो नाम्ना विशाखदत्तस्ततः क्रमेणासन् । प्रोष्ठिलनामा क्षत्रियसंज्ञो जयनागसेनसिदार्थाः ।।७।। धतिषेण विजयसेनी च बुद्धिमान् गंग धर्मनामानी। एतेषां वर्षसतं अशीतियुतमजनि युगसंख्या ||८०॥ . नक्षत्रो जयपालः पाण्डुदुमसेनकंसनामानी। एते पंचापि ततो बभूवुरेकादशांगपराः ।।१।। विशत्यधिकं वर्षशतद्वयमेषां बभूव युगसंख्या। भाचारांगधराश्चत्वारस्तत उदभवन् क्रमशः ॥२॥ प्रथमस्तेषु सुभद्रोऽभयभद्रोऽन्यापरोऽपि जयबाहुः । लोहार्योऽन्त्यश्चतेऽष्टादशवर्षयुगसंख्या ॥३॥ [श्रुतावतार - इन्द्रनन्दी] २ उत्तर पुराण, पर्व ७६, श्लो० ११८ से १२० तथा श्लो. ५१५ से ५२७ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३३ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण हेमचन्द्र ने इन्द्रनन्दीकृत तावतार के समान ही अपने श्रतस्कंध में इन्द्रभति गौतम से लेकर अंतिम पाचारांगधर लोहार्य तक वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष व्यतीत होने का उल्लेख किया है।' उपर्यल्लिखित पांचों पट्रावलियों में दिये गये तथ्यों की जम्बूद्वीप पण्णत्ती के अन्तर्गत दी गई श्रतधर पट्टावली द्वारा पूर्णतः पुष्टि की गई है। पाठकों को अन्यत्र खोजना न पड़े इस दृष्टि से उसे यहाँ अविकल रूप से दिया जा रहा है : ___ श्रुतधर-पट्टावलि गमिऊण वड्ढमाणं, ससुरासुरवंदिदं विगयमोहं । वरसुदगुरुपरिवाडिं, वोच्छामि जहाणुपुन्वीए ॥ १॥ विउल गिरितुंगसिहरे, जिरिंगद इंदेरण वड्ढमारणेण । गोदममुरिणस्स कहिदं, पमाणणयसंजुदं प्रत्थं ॥ २॥ तेण वि लोहज्जस्स य, लोहज्जेण य सुधम्मरणामेण । गणहर सुधम्मरणा खलु, जंबू णामस्स रिपट्टि ॥ ३ ॥ चदुरमलबुद्धि सरिदे, तिण्णेदे गणधरे गुणसमग्गे। केवलणाणपईवे, सिद्धिपत्ते णमंसामि ।। ४ ।। गंदी य णंदिमित्तो, अवराजिद मुरिगवरो महातेप्रो। गोवड्ढरणो महप्पा, महागुणो भद्दबाहू य ॥ ५॥ पंचेदे पुरिसवरा, चउदसपुव्वी हवंति गायव्वा। बारस अंगधरा खलु, वीर जिरिंणदस्स रणायव्वा ॥ ६ ॥ तह य विसाखायरिमो,पोटिलो खत्तिमोय जय रणामो। णागो सिद्धत्यो वि य, धिदिसेरणो विजय णामो य ॥७॥ बुद्धिल्ल गंगदेवो, धम्मसेणो य होइ पच्छिमनो। . पारंपरेण एदे दसपुव्वधरा समक्खादा ॥८॥ रणक्खत्तो जसपालो पंडु धुवसेण कंस आयरियो । एयारसंगधारी, पंचजणा होंति णिद्दिट्टा ।।६।। पामेण सुभद्द जसभद्दो तह य होइ जसबाहू । आयारधरा गया, अपच्छिमो लोह गामो य ।।१०।। पाइरिय परंपरया सायर दीवारण तह य पण्णत्ती। संखेवेण समत्थं, वोच्छामि जहाणुपुव्वीए ।।११।। इसी प्रकार काष्ठा संघ की गुर्वावली में भी इन्द्रभूति गौतम से लेकर लोहार्य तक यही क्रम देते हुए निम्नलिखित श्लोक में लोहार्य को अंतिम प्राचारांगघर बताया गया है : सुभद्रोऽथ यशोभद्रो, भद्रबाहर्गणाग्रणीः । लोहाचार्येति विख्याता, प्रथमांगान्धिपारगाः ।।१०।। - ' ब्रह्महेमचन्द्र विरचित श्रुतस्कंध, गाथा ६६, ६७,७१ से ७६ - Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति पुनाट संघ के प्राचार्य जिनसेन ने वीर नि० सं० १ से १३१० तक की प्राचार्य परम्परा की पट्टावली दो है । आचार्य परम्परा की इतनी लम्बी अवधि की क्रमबद्ध एवं अविच्छिन्न पट्टावली दिगम्बर परम्परा में अन्यत्र देखने में नहीं प्राती । इस पट्टावली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्द्रभूति गौतम से लेकर अंतिम श्राचारांगधर लोहार्य तक ६८३ वर्ष की श्राचार्य परम्परा का उल्लेख करने के पश्चात् लोहाचार्य के अनन्तर संघ विभाजन से पूर्व के प्राचार्यों के क्रमबद्ध नाम देकर तत्पश्चात् संघ विभाजन के अनन्तर हुए पुन्नाटसंघ के प्राचार्य का अनुक्रमशः नामोल्लेख किया है । इस पट्टावली के महत्त्व को अभी तक प्रांका नहीं गया है । यदि यह कहा जाय तो भी अनुचित नहीं होगा कि इस पट्टावली की प्राज दिन तकं विद्वानों द्वारा उपेक्षा की जाती रही है । ७३४ नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के माध्यम से प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में जो एक जटिल समस्या उत्पन्न कर दी गई है, उसका समुचित रूपेण सदा के लिए समाधान करने में यह पट्टावली बड़ी सहायक सिद्ध होगी, अतः इसे यहां यथावत् दिया जा रहा है : : हरिवंश पुराणान्तर्गत पट्टावली त्रयः क्रमात्केवलिनो जिनात्परे, द्विषष्टिवर्षान्तरभाविनोऽभवन् । ततः परे पंच समस्त पूर्विणस्तपोधना वर्षशतान्तरे गताः ||२२|| त्र्यशीतिके वर्षशते तु रूपयुक्, दशैव गीता दशपूर्विणः शते । द्वये च विशेऽङ्गभृतोऽपि पंच ते, शते च साष्टादशके चतुर्मुनिः ||२३|| गुरू: सुभद्रो जयभद्रनामकः परो यशोबाहुरनन्तरस्ततः । महार्हलोहार्य गुरुश्च ये दधुः, प्रसिद्धमाचारमहाङ्गमत्र ते ।। २४ ।। इसी तरह अपभ्रंश भाषा के लब्धप्रतिष्ठ कवि पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में वीर निर्वाण के पश्चात् हुए केवलियों, श्रुतके वलियों, दशपूर्वधरों, एकादशांगधरों तथा एकांगधरों का उपरिवरिणत काल बताते हुए लोहाचार्य को अंतिम श्राचारांगधर बताया है ।" इस प्रकार धवला, तिलोयपण्णत्ती, इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार, ब्रह्म हेमचन्द्र कृत श्रुतस्कन्ध, उत्तर पुराण, जम्बूद्वीप पण्णत्ती के अन्तर्गत दी हुई श्रुतधर पट्टावली और हरिवंश पुराण में वीर नि० सं० १ से ६८३ तक हुए इन्द्रभूति गौतम से लेकर अंतिम प्रचारांगधर लोहार्य तक प्राचार्यों का काल तथा क्रम सर्वसम्मत रूपेण एक समान दिया गया है। गौतम से लोहार्य तक सभी प्राचार्यों के काल अथवा क्रम के सम्बन्ध में उपरिवरिणत सभी ग्रन्थकार एक मत हैं । कहीं किसी का किंचितमात्र भी मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता । दिगम्बर परम्परा के उपरिलिखित प्राचीन एवं प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थों के स्पष्ट उल्लेख के उपरान्त भी आचारांगधर लोहाचार्य का काल वीर नि० , महापुराण (पुष्पदन्त), सन्धि १००, पृ० २७४ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७३५ सं० ५६५ अनुमानित करने की मान्यता का एक मात्र आधार नन्दि आम्नाय की प्राकृत पट्टावली है । इस पट्टावली के प्रारम्भ के श्लोंकों एवं पट्रावली की गाथानों पर भाषा, शब्द, भाव आदि की दृष्टि से विचार करने पर स्वतः ही यह प्रकट हो जाता है कि न तो यह कोई उच्च कोटि के विद्वान् को ही कृति है और न प्रति प्राचीन ही । इस पट्टावली के प्रथम श्लोक के तृतीय एवं चतुर्थ चरण तथा तृतीय श्लोक को पढते ही साधारण से साधारण भाषाविद् पर भी सहज ही प्रकट हो जाता है कि यह पट्टावली प्रति स्वल्प भाषाबोध वाले किसी साधारण रचनाकार की सामान्य कृति है। इतना सब कुछ होते हुए भी प्राचीन पुराणों एवं तिलोय पणत्ती जैसे माने हुए ग्रन्थ से भिन्न मान्यता की जननी होने के कारण इस पट्टावली का बहत ही बड़ा महत्व है । इतिहास में अभिरुचि रखने वाले विज्ञों के विचारार्थ इस पट्टावली को यहां दिया जा रहा है: __नन्दि प्राम्नाय को पट्टावली श्री त्रैलोक्याधिपं नत्वा, स्मृत्वा सद्गुरुभारतीम् । वक्ष्ये पट्टावली रम्यां मूल संघ गणाधिपाम् ।।१।। श्री मुलसंघ प्रवरे, नन्द्याम्नाये मनोहरे।। बलात्कार गणोत्तंसे, गच्छे. सारस्वतीयके ।।२।। कुन्दकुन्दान्वये श्रेष्ठमुत्तमं श्रीगणाधिपं ।। तमेवात्र प्रवक्ष्यामि, श्रूयतां सज्जना जनाः ॥३॥ पट्टावली: अंतिम-जिण-णिव्वाणे, केवलणाणी य गोयम मुरिंणदो। वारहवासे य गये सुधम्मसामी य संजादो ॥१॥ तह बारह वासे पुरण संजादो जंबुसामि मुरिणरणाहो।। अठतीसवास रहियो, केवलणारणी य उक्किट्ठो ।।२।। वासट्ठी-केवलवासे तिहि मुणी गोयम सुधम्म जम्बू य ।। बारह वारह दो जण, तिय दुगहीणं च चालीसं ।।३।। सुयकेवलि पंच जणा बासट्रि वासे गये सुसंजादा।। पढम, चउदहवासं विण्हुकुमारं मुणेयव्वं ।।४।। नंदिमित्त वास सोलह तिय अपराजिय वास बावीसं । इगहीण वीसवासं, गोवद्धरण भद्दबाहु गुणतीसं ॥५ सदसुय केवलगाणी, पंच जरणा विण्ह नंदिमित्तो य। अपराजिय गोवद्धरण तह भद्दबाहु य संजादा ।।६॥ सद बासट्टि सुवासे गए सु- उप्पण्ण दह सुपुत्वहरा। सद-तिरासि । वासारिण य एमादह मुणिंवरा जादा ।।७।। - पायरिय विसाखपोटुल खत्तिय जयसेरण नागसेण मुणी। सिद्धत्थ धित्ति विजयं बुहिलिंग देव , धमसेणं ।।८।। Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति दह उगरणीस य सत्तर, इकवीस अट्ठारह सतर । अट्ठारह तेरह वीस चउदह चोदय (सोडस) कमेणेयं ।।६।। अंतिम जिण णिव्वाणे, तियसय-पगण-चालवास जादेसु । एगादहंगधारिय. पंचजणा मुरिणवरा जादा ।।१०॥ नक्खत्तो जयपालग पंडव धुवसेन कंस पायरिया।। अठारह वीस-वासं गुणचालं चोद बत्तीसं ।।११।। सद तेवीस वासे, एगादह अंगधरा जादा।। वासं सत्तारणवदिय, दसंग नव अंग अट्टधरा ।।१२।। सुभदं च जसोभई, भद्दबाहु कमेण च । लोहाचय्य मुणीसं च, कहियं च जिणागमे ।।१३।। छह अट्ठारह वासे तेवीस वावरण (पणास) वास मरिण गाहं । दस रणव अटुंगधरा, वास दुसदवीस सधेसु ।।१४।। पंचसये पणसठे, अंतिम-जिण-समय जादेसु ।। उप्पणा पंचजणा, इयंगधारी मुणेयन्वा ।।१५।। अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुप्फयंत भूदवली । अडवीसं इगवीस उगणीसं, तीस वीस वास पुणो ।।१६।। इगसय-अठार-वासे, इयंगधारी य मुणिवरा जादा । छ सय तिरासिय वासे गिव्वाणा अंगछित्तिकहिय जिणे ।।१७।। सत्तरि-चउ-सद युतो, जिणकाला विक्कमो हवइ जम्मो । अठ वरस बाललीला सोडस वासेहि भम्मिए देसे ।।१८।। पगरस वासे रज्जं, कुणंति मिच्छोवदेससंयुत्तो। चालीस बरस जिगवर-धम्म पालीय सुरपयं लहियं ।।१६।। इस पट्टावली के अनुसार वीर के पश्चात् की प्राचार्य - कालगणना इस प्रकार पाती है: वीर निर्वाण के पश्चात् १. गौतम केवली १२ ___६. विशाखाचार्य दश पूर्वधर १० २. सुधर्म , १२ १०. प्रोष्ठिल ३. जम्बू स्वामी , . ३८ ११. क्षत्रिय ६२ १२. जयसेन ४. विष्णु श्रुतकेवली १४ १३. नागसेन ५. नन्दिमित्र , १६ १४. सिद्धार्थ ६. अपराजित , २२ १५. धृतिषण .७. गोवर्धन , १६ १६. विजय ८. भद्रबाहु . , १७. बुद्धिलिंग . १८. देव २६ ܘܘ} Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ २० कास नि. ग. भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि समाश्रमण १६. धर्मसेन दश पूर्वधर १४ ( १६) २६. यशोभद्र १०,६ व ८ अंगधारी १८ योग १८१ (१८३) -- २७. भद्रबाहु (२), २३ २०. नक्षत्र ११ अंगधारी १८ २८. लोहाचार्य , ५२ (५०) २१. जयपाल , २० योग ६६ (६७) २२. पाण्डव , . ३६ २६. अहंद्बलि १ अंगधर २८ वर्ष २३. ध्रुवसेन , १४ ३०. माघनन्दि , २१ २४. कंस , ३२ ३१. धरसेन १६ योग १२३ ३२. पुष्पदंत २५. सुभद्र १०,६,८ ३३. भूतबलि " अंगधारी ६ योग ११८ पूर्ण योग ६२+१००+१८३+१२३+६७+११८६८३ . हरिवंशपुराण, श्रुतावतार और नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली - इन तीन ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य सभी उपर्युक्त ग्रन्थों में ग्रन्थकारों ने आर्य लोहाचार्य तक समाप्त हुए वीर नि० के ६८३ वर्षों के पश्चात् न तो प्राचार्यों का नामनिर्देश ही किया है और न कालनिर्देश ही। . __इन्द्रनन्दि द्वारा श्रतावतार के श्लोक संख्या ७४, ७५, ७६, ८१ और २ में 'ततः' शब्द का प्रयोग पूर्वापर अनुक्रम बताने के लिये. किया गया है । 'तत.' शब्द का स्वतः सिद्ध सीधा सा अर्थ है- उसके पश्चात् । उपरिचचित श्लोकों में भी 'ततः' (तदनन्तरम्) शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है कि पूर्ववरिणत प्राचार्य के पश्चात् अमुक-अमुक प्राचार्य हुए, पूर्वचर्चित श्रुतपरम्परा के अनन्तर अमुक श्रुतपरम्परा का अस्तित्व रहा और इन इन ऐतिहासिक घटनामों के घटिरः होने के पश्चात् ये ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई। वीर निर्वाण सं० १ से ६८३ वर्षों के सुदीर्घकाल में हुए गौतमादि लोहार्यात प्राचार्यों केवली, श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी पौर प्राचारांगधारी श्रुतपरम्परा परिचय देने के पश्चात् इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में पुन: 'ततः' शब्द के ! के साथ अंग-पूर्व के देशधर प्राचार्यों का अनुक्रम निम्नलिखित रूप में दिया । :: श्रीदत्तः, शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते । पारातीया यतयस्ततोऽभवन्नंगपूर्वदेशधराः ।।८४॥ * गंगपूर्वदेशकदेशवित्पूर्वदेशमध्यगते । श्रापुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽहंबल्याख्यः ।।८।। अर्थात् - ततः तदनन्तरं (अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य के पश्चात्) विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और मर्हद्दत्त नाम के चार (४) पारातीय मुनि अंगपूर्व Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति . के एक देश के धारक हुए । ततः - अर्हद्दत्त के पश्चात् पूर्वदेश के मध्यभाग में स्थित श्रीपुण्ड्रवर्धनपुर में सब अंगों एवं पूर्वो के देशधर अर्हद्वलि नामक मुनि हुए। इन्द्रनन्दि ने इस स्थल पर एक श्लोक से अर्हद्वलि के गुणों का वर्णन करते हए कहा है -- "वे अर्हद्वलि जिनवाणी के धारण और प्रसारण के विशुद्ध अतिशय से युक्त एवं सत् - विमल क्रिया (साध्वाचार) के पालन में सदा उद्यत रहते थे। वे अष्टांग निमित्त के ज्ञाता तथा सन्धान, अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ थे।" . __ अर्हद्वलि की महिमा का वर्णन करने के पश्चात् संघविभाजन का उल्लेख करते हुए श्रुतावतारकार ने लिखा है - "एक समय पांच वर्षों के पश्चात् किये जाने वाले युग-प्रतिक्रमण के अवसर पर सौ-सौ योजन से मूनिसमाज एकत्रित हमा। युग-प्रतिक्रमण के अवसर पर अर्हद्वलि ने एकत्रित सकल श्रमण संघ को यह कहते हुए कि भविष्य में कालप्रभाव से गणपक्षपात का प्राबल्य रहेगा-श्रमण संघ को नन्दीसंघ, वीर संघ, अपराजित संघ, देव संघ, सेन संघ, भद्रसंघ, गुणधर संघ, गुप्त संघ, सिंह संघ और चन्द्र संघ- इन दश संघों में विभाजित किया।" संघ-विभाजन का विवरण देते हुए इन्द्रनन्दि ने लिखा है कि उस युग प्रतिक्रमण के अवसर पर एकत्रित हुए समस्त मुनि गिरिगुहा, अशोकवाट, पंचस्तूप, शाल्मलीमहाद्रुममूल और खण्डकेसर नामक ५ स्थानों से पाये थे । प्रत्येक स्थान से आये हुए मुनियों को दो दो भागों में विभक्त कर अर्हद्वलि ने अनुक्रमशः उपरोक्त १० संघों की स्थापना की। अपने इस अभिमत का आधार प्रस्तुत करते हुए इन्द्रनन्दि ने एक अज्ञातलेखक का निम्नलिखित प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है : प्रायातो नन्दिवीरो प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटा.द्देवाश्चान्योऽपरादिर्जित इति यतिपो सेन भद्राह्वयो च । पंचस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधर - वृषभः शाल्मलीवृक्षभूलानिर्यातौ सिंहचन्द्रौ प्रथितगुणगणो केसरात्खण्डपूर्वात् ।। एक अन्य मान्यता का उल्लेख करते हुए इन्द्रनन्दि ने लिखा है - "गिरिगुहा से पाये हए मूनियों से नंदिसंघ, अशोक वन से पाये हए मुनियों से देव संघ, पंच स्तूप से प्राये हुए मुनियों से सेन संघ, शाल्मलीतरु के मूल में निवास करने वाले मुनियों से वीर संघ और खण्डकेसर वृक्ष के मूल में रहने वाले मनियों से भद्रसंघ इस प्रकार पांच संघ ही गठित किये गये । इस प्रकार मुनिसंघों के प्रवर्तक अर्हलि के प्रति विनय प्रदर्शित करने वाले पांच प्रकार के कुलों के प्राचार से पूजनीय (उपास्य) पांच प्राचार्य थे।" अर्हद्वलि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् माघनन्दि नामक प्राचार्य हुए। वे भी एक देश अंगपूर्व की प्ररूपणा कर समाधिपूर्वक स्वर्गस्थ हुए । इन्द्र नन्दि ने माघनन्दि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर महातपा घरसेनाचार्य के होने का तो उल्लेख किया है किन्तु प्राचार्य धरसेन प्राचार्य माघनन्दि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् तत्काल Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि०. ग• भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण ७३६ उनके उत्तराधिकारी बने अथवा अनिश्चित काल व्यतीत होने पर प्राचार्य बने, इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया है । इन्द्रनन्दि द्वारा श्रुतावतार के श्लोक सं० १५१ में किये गये निर्देश से तो यही प्रकट होता है कि इन्द्रनन्दि के समय में धरसेन के काल, गुरुपरम्परा, शिष्यपरम्परा तथा गण - गच्छ प्रादि के सम्बन्ध में न तो कहीं किसी प्रकार का कोई उल्लेख ही उपलब्ध था और न किसी को एतद्विषयक कोई जानकारी ही थी। इन्द्रनन्दिकृत श्रतावतार में उल्लिखित पट-परम्परा को शोधपूर्ण सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर सहज ही यह तथ्य प्रकट हो जाता है कि वीर नि० सं०६८३ में दिवंगत हुए अंतिम प्राचारांगधर प्राचार्य लोहार्य के पश्चात् विनयंधर से लेकर प्रहबलि तक प्रभु वीर के पट्टधरों का जो नामोल्लेख किया है, वह अनुक्रमशः एक के पश्चात् हुए प्राचार्यों का क्रमबद्ध उल्लेख है। यदि किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो तो श्रुतावतार के श्लोक संख्या ८४ का सीधा सा अर्थ इस प्रकार होता है :- “ततः - तदनन्तर अर्थात् वीर नि० सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए लोहार्य के पश्चात् क्रमशः विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्तं पोर प्रहद्दत नाम के अंग एवं पूर्वज्ञान के एकदेशधर चार मारातीय मुनि हुए।" - इस श्लोक की शब्दरचना से इस प्रकार का किंचिन्मात्र भी प्राभास नहीं होता कि विनयधर प्रादि वे चारों मुनि एक ही समय में अर्थात् समकालीन हुए होंगे, क्योंकि सम्पूर्ण श्रतावतार को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर उसके १८७ श्लोकों में से एक भी ऐसा श्लोक दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसमें एक ही समय में हुए दो अथवा दो से अधिक मुनियों का उल्लेख किया गया हो। ऐसी स्थिति में इन चारों प्रारातीय मुनियों के एक ही समय में होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। ____ इस प्रकार की स्पष्ट स्थिति के होते हुए भी विश्रुत विद्वान पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने एतद्विषयक उपलब्ध अन्य प्रामाणिक साक्ष्य की मोर ध्यान न देकर अपनी पुस्तक 'समन्तभद्र' के पृष्ठ १६१ पर केवल अपने अनुमान के प्राधार पर विनयधर आदि चारों पारातीय मुनियों को समकालीन मानकर इन चारों का समुच्चय रूप से २० वर्ष का समय अनुमानित किया है। जन जगत् के ख्याति प्राप्त विद्वान् डा. हीरालालजी ने भी मुख्तारजी की कल्पना को बल देते हुए लिखा है : ____ "लोहार्य के पश्चात् चार पारातीय यतियों का जिस प्रकार इन्द्रनन्दि ने एक साथ उल्लेख किया है, उससे जान पड़ता है कि संभवतः वे सब एक ही काल में हुए थे। इसी से पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने उन चारों का एकत्र समय २० वर्ष अनुमान किया है।' श्री मुख्तार सा० और डॉ० हीरालालजी के उपर्युद्धत अनुमान. का अक्षरशः अनुकरण करते हुए क्षु० श्री जिनेन्द्रवर्णीजी ने एक प्रकार से सुनिरीत तथ्य के संमान विनयधर आदि चारों पारातीय मुनियों को समकालीन बता कर इन चारों ' षट्खण्डागम, भाग १, द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना, पृ. २० Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति का समष्टि रूप से २० वर्ष का समय अपने "जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश" में उल्लिखित कर दिया है। वस्तुतः कोश का बहुत बड़ा महत्व होता है । वह भावी पीढ़ियों के लिये सहस्राब्दियों तक एक प्रामाणिक थाती के रूप में प्रकाश स्तम्भ का काम करता है। उसमें उल्लिखित प्रत्येक तथ्य सभी दृष्टियों से पूर्वाग्रहों से परे और परम प्रामाणिक होना चाहिए । वर्गीजी ने सैकड़ों ग्रन्थों के साथ-साथ हरिवंश पुराण का भी पालोड़न किया है। उन्होंने प्राज से १२०० वर्ष पूर्व की हरिवंश पुराण की साक्षी को दरगुजर कर पुन्नाट संघ की पट्टावली देते हुए आधुनिक विद्वानों के केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित अभिमत को प्रश्रय दे कर लोहाचार्य आदि प्राचार्यों के काल को ११८ वर्ष पीछे की ओर ठेलने का प्रयास किया है। किन्तु पुन्नाट संघ के प्राचार्य शान्तिसेन, जयसेन और हरिवंश पुराणकार .जिनसेन का समय उपलब्ध साहित्य में उल्लिखित है अतः उन्हें उसे बिना हेर फेर किये यथावत् देना पड़ा है । इससे वास्तविक तथ्य स्वतः ही प्रकट हो जाता है।' वस्तुतः इन्द्रनन्दिकृत श्रतावतार के श्लोक संख्या ८४ में प्रयक्त 'ततः' शब्द का अध्याहार विनयधर आदि चारों मुनियों के साथ कर लिया जाता और हरिवंश पुराण में वीर नि० सं०६८३ के पश्चात् की जो आचार्य परम्परा दी गई है, उस ओर दृष्टिपात किया जाता तो वास्तविकता सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट हो जाती और मुख्तार सा० आदि तीनों विद्वानों को कल्पना एवं अनुमान का सहारा लेने की किंचित्मात्र भी आवश्यकता नहीं होती। हरिवंश पुराण में वीर नि० सं०६८३ के पश्चात् लोहाचार्य से उत्तरवर्ती प्राचार्य परम्परा इस प्रकार दी हुई है : महातपोभृद्विनयंधरः श्रुतामृषिश्रुति गुप्तपदादिकां दधत् । मुनीश्वरोऽन्यः शिवगुप्त संज्ञको गुणः स्वमर्हबलिरप्यधात् पदम् ॥२५॥ अर्थात् वीर नि० सं० ६८३ में लोहार्य के स्वर्गस्थ होने पर क्रमशः महान् तपस्वी विनयंधर, गुप्तश्रुति, गुप्त ऋषि, मुनीश्वर शिवगुप्त और प्रर्हबलि प्राचार्य पद पर अधिष्ठित हुए। यह लोहाचार्य के पश्चात् की और अर्हबलि के समय में हुए संघ-विभाजन से पूर्व की प्राचार्य परम्परा है। यहां स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि लोहाचार्य के पश्चात् विनयंधर, उनके पश्चात् गुप्तश्रुति, फिर गुप्त ऋषि, तदनन्तर शिवगुप्त और उनके अनन्तर अहंबलि प्राचार्य हुए। वस्तुतः विनयंधर आदि ये पांचों ही प्राचार्य मूल आचार्य परम्परा के क्रमशः - एक के पश्चात् एकहुए आचार्य हैं, इस तथ्य को स्वीकार करने में तो किसी को कोई बाधा नहीं होनी चाहिये, क्योंकि दिगम्बर संघ में परम्परा से यह मान्यता चली आ रही है कि १ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३३२ २ हरिवंश पुराण, सर्ग ६६, श्लोक २२-३३ ३ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० १ पृ. ३४५ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७४१ अर्हबलि ने भावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पृथक् पृथक् संघों का निर्माण किया। इन्द्रनन्दि ने तो अपने श्रुतावतार में अर्हबलि द्वारा किये गये संघ-विभाजन का विशद् एवं सुस्पष्ट विवरण दिया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि विनयंधर से अहंबलि तक जो पांच आचार्यों के नाम हरिवंशपुराण और श्रतावतार में दिये गये हैं, वे अनुक्रमशः हुए मूल प्राचार्य-परम्परा के ही प्राचार्य हैं। यहां एक बात जो विचारणीय है, वह यह है कि हरिवंश पुराणकार तथा श्रुतावतारकार-इन दोनों ने ही लोहार्य के पश्चात् तथा संघविभाजन से पूर्व हुए प्राचार्यों की संख्या समान रूप से यद्यपि ५ ही दी है तथापि उन ५ प्राचार्यों में से २ प्राचार्यों के नाम दोनों ने एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न दिये हैं। इन दोनों ग्रन्थकारों ने लोहाचार्य के पश्चात् हुए प्रथम प्राचार्य का नाम विनयंधर और पांचवें प्राचार्य का नाम अहंबलि दिया है। इन्द्रनन्दि ने तीसरे प्राचार्य का नाम शिवदत्त और जिनसेन ने चौथे प्राचार्य का नाम शिवगुप्त दिया है। क्रम के अतिरिक्त इस नाम में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दूसरे और चौथे प्राचार्यों के नाम इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में श्रीदत्त एवं अर्हद्दत्त लिखे हैं पर जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण में दूसरे प्राचार्य का नाम गुप्तश्रुति तथा चौथे प्राचार्य का नाम गुप्त ऋषि उल्लिखित किया है । यह नाम वैषम्य अवश्य ही कुछ खटकने वाला है पर पूर्वापर दोनों प्राचार्यों के समान नाम, तीसरे प्राचार्य का नगण्य अन्तर के साथ नाम साम्य तथा दोनों ही ग्रन्थों में प्राचार्यों की समान संख्या को देखते हुए इन उल्लेखों की प्रामाणिकता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पाता। उपरिलिखित विभिन्न ग्रन्थों में कतिपय आचार्यों के नामों की भिन्नता प्रायः यत्र तत्र दृष्टिगोचर होती है। दिगम्बर परम्परा के कतिपय ग्रन्थों में केवल प्राचार्यों ही नहीं अपितु गणधरों के नामों में भी वैभिन्य पाया जाता है। इसके अतिरिक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हरिवंश पुराण में दी गई आचार्य परम्परा की पट्टावली अपने आपमें परिपूर्ण एवं सभी दृष्टियों से अन्य उपलब्ध पट्टावलियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक है। वीर नि. सं. १ से ६८३ तक और दूसरे शब्दों में केवली गौतम से लेकर अन्तिम प्राचारांगधर लोहार्य तक की ६८३ वर्ष की अवधि में जिनसेन ने २८ प्राचार्यों के नाम दिये हैं, जो धवला, तिलोयपण्णत्ती, श्रुतावतार आदि सभी प्रामाणिक ग्रन्थों द्वारा समर्थित हैं। लोहाचार्य के पश्चात् वीर नि. सं. ६८३ से वीर नि. सं. १३१० (शक सं. ७०५) तक कुल मिलाकर ६२७ वर्षों में जिनसेन ने ३१ (स्वयं को मिलाकर शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषत्तरां पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजेऽपरां, सूर्याणामधिमंडलं जय युते वीरे वराहेऽवति ॥५२।। कल्याणः परिवर्धमानविपुलश्री वर्धमाने पुरे, श्री पालियनन्नराजवसतौ पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चाहोप्तटिका-प्रजाप्रजनितप्राज्याचनावर्चने, शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ।।५३।। [हरिवंश पुराण, सर्ग ६६] Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति ३२) प्राचायों का होना बताया है, जो सभी दृष्टियों से सुसंगत प्रतीत होता है । यद्यपि जिनसेन ने विनयंधर से लेकर आचार्य अमितसेन तक ३१ आचार्यों का पृथक् पृथक् श्राचार्यकाल नहीं दिया है तथापि लोहाचार्य के पश्चात् वीर नि. सं. ६८३ से स्वयं द्वारा हरिवंश पुराण की समाप्ति का समय शक सं. ७०५ तदनुसार वीर नि. सं. १३१० देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि लोहार्य से लेकर उन स्वयं ( जिनसेन ) तक की ६२७ वर्षों की अवधि में ३१ आचार्य हुए। इस ६२७ वर्ष के समुच्चय काल को ३१ प्राचार्यों में विभक्त किया जाय तो मोटे तौर पर एक एक आचार्य का काल २० वर्ष के लगभग प्रांका जा सकता है । इस प्रकार हरिवंश पुराण की प्राचार्य - परम्परा की पट्टावली में उल्लिखित तर्कसंगत एवं इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार द्वारा समर्थित प्रामाणिक तथ्यों से विनयंधरादि प्रदुबल्यान्त पांच आचार्यों का, प्रत्येक आचार्य के २० वर्ष के काल के हिसाब से, समुच्चयकाल १०० वर्ष और तदनुसार अर्हदुबलि का आचार्यकाल वीर नि० सं० ७६३ से ७५३ तक का सिद्ध होता है, न कि नन्दीसंघ की प्राकृत्त पट्टावली के अनुसार वीर नि० सं० ५६५ से ५६३ तक का । यह १६० वर्ष का गोलमाल वस्तुतः श्रुतावतार के श्लोक संख्या ८४ का पूर्वाग्रहानुसार अर्थ लगाने एवं हरिवंश पुराण में दी हुई पट्टावली की उपेक्षा करने के कारण हुआ है । यदि दिगम्बर परम्परा के अग्रगण्य विद्वानों ने हरिवंश पुराणान्तर्गत प्राचार्य परम्परा की पट्टावली पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया होता तो न तो प्राचार्यों के काल के विषय में इस प्रकार की गम्भीर भ्रान्ति ही उत्पन्न होती और न उसे कोश जैसे प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थ में स्थान ही दिया जाता। इन ऐतिहासिक तथ्यों के प्रकाश में अर्हदुबलि के पश्चादद्वर्ती माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द आदि आचार्यों के काल के सम्बन्ध में भी पुनर्विचार करना परमावश्यक हो गया है । उपरिलिखित सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर सहज ही यह तथ्य प्रकाश में आ जाता है कि प्राचार्यों के काल के विषय में हुई इस भूल की मूल जननी वस्तुतः नन्दीसंघ की उपर्युद्धृत प्राकृत पट्टावली है, जिसकी कि हस्तलिखित मूल प्रति डॉ० हीरालालजी के कथनानुसार आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं । ' ऊपर उद्धृत की गई पट्टावलियों एवं सम्बद्ध उल्लेखों से यह तथ्य तो निर्विवाद रूपेण प्रकट हो चुका है कि दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय में खोजने पर एक भी इस प्रकार की पंक्ति उपलब्ध नहीं होगी, जिससे कि नन्दी १ इस पट्टावली की जांच करने के लिये हमने सिद्धान्त भवन, आरा को उसकी मूल हस्तलिखित प्रतिं भेजने के लिये लिखा, किन्तु वहां से पं० भुजबली जी शास्त्री सूचित करते हैं कि बहुत खोज करने पर भी उस पट्टावली की मूल प्रति मिल नहीं रही है ऐसी श्रवस्था में हमें उसकी जांच मुद्रित पाठ पर से ही करनी पड़ती है । [ षट्खण्डागम, भा० १ ( द्वितीय संस्करण) की प्रस्तावना, पृ० २४] Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमणं ७४३ संघ को प्राकृत पट्टावली में प्राचार्यों एवं श्रुतपरम्परा की अवस्थिति के सम्बन्ध में उल्लिखित 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' इस लोकोक्ति को चरितार्थ करने वाले विचित्र अभिमत की पुष्टि होती हो। प्राचीन, मध्ययुगीन और अर्वाचीन सभी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में लोहार्य को अंतिम प्राचारांगधर बताते हुए एक स्वर से यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वीर नि० सं०६८३ में लोहार्य के स्वर्गस्थ होते ही द्वादशांगी में से अवशिष्ट एक मात्र प्राचारांग भी विच्छिन्न हो गया । लोहार्य के पश्चात् कोई प्राचार्य किसी एक भी सम्पूर्ण अंग का ज्ञाता नहीं हुमा । लोहार्य के पश्चाद्वर्ती सभी प्राचार्य अंगज्ञान एवं पूर्व ज्ञान के एक देशघर ही हुए। ऐसी स्थिति में नन्दी संघ की तथाकथित प्राकृत पावली, जिसकी कि मूल प्रति प्राज कहीं उपलब्ध नहीं, जिसके रचनाकार एवं रचनाकाल तक का कोई पता नहीं, उसे कहां तक प्रामाणिक अथवा अप्रामाणिक माना जा सकता है, इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करना परमावश्यक हो जाता है। _इस पट्टावली में सर्व प्रथम ३ श्लोक संस्कृत के और १६ गाथाएं प्राकृत की हैं। डॉ० हीरालालजी ने इस पट्टावली के सम्बन्ध में लिखा है :- "यह पट्रावली प्राकृत में है और संभवतः एक प्रति पर से बिना कुछ संशोधन के छपाई गई होने से उसमें अनेक भाषादि दोष हैं। इस लिये उस पर से उसकी रचना के समय के सम्बन्ध में कुछ कहना अशक्य है। पटावली के ऊपर जो तीन संस्कृत श्लोक हैं, उनकी रचना बहुत शिथिल है। तीसरा श्लोक सदोष है।' पर उन पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका रचयिता स्वयं पट्टावली की रचना नहीं कर रहा, किन्तु वह अपनी उस प्रस्तावना के साथ एक प्राचीन पट्टावली को प्रस्तुत कर रहा है।" . वस्तुस्थिति यह है कि इस पट्टावली के प्रारम्भ के तीन संस्कृत श्लोकों को यदि अन्यकत्र्तक मान लिया जाता है अथवा इन्हें. पट्टावली में से हटा दिया जाता है तो उस दशा में केवल गाथाओं को पढ़ने से किसी को किंचित्मात्र भी इस प्रकार का आभास नहीं हो सकेगा कि यह किस संघ की पडावली है। ऐसी स्थिति में न तो इन तीन श्लोकों को इस पट्टावली से पृथक् ही किया जा सकता. है और न इन्हें अन्यकर्त्तक हो कहा जा सकता है। यदि इस पड़ावली को भाषा विज्ञान एवं गणित की कसौटी पर कसा जाय तो न केवल इसके आदि के तीन संस्कृत श्लोक हो, अपितु यह सम्पूर्ण पट्टावली ही दोषों से भरी हुई प्रतीत होगी। ' वस्तुतः पहला श्लोक भी सदोष है। चतुर्थ चरण में गणाधिपां के स्थान पर गणाधिपानां होना चाहिए पर उस दशा में छन्दभंग होता है । __ -सम्पादक २ (क) डॉ. हीरालालजी ने यह किस आधार पर लिखा है ? कुछ समझ नहीं पड़ता क्योंकि प्रथम श्लोक में ही स्पष्टतः कहा गया है - "वक्ष्ये पट्टावलि रम्या, मूलसंघ गणाधिपाम्" अर्थात् - मूलसंघ के गणाधिनायकों की पट्टावली कहूंगा। - सम्पादक (ख) षट्खण्डागम, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ० २४-२५ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति १६ गाथाओं की इस छोटी सी पट्टावली में काल - गरगना में गणित की दृष्टि से दो स्थानों पर इस प्रकार की त्रुटियां की गई हैं कि इतिहास के विशेषज्ञों को ११ दशपूर्वघरों में से किसी एक महापुरुष की आयु को २ वर्ष बढ़ाने तथा दशनवाष्टांगघरों में से किसी एक महामुनि की श्रायु को २ वर्ष घटाने का प्रयास करना पड़ रहा है, क्योंकि इन दोनों वर्गों के प्राचार्यों का जो पृथक्-पृथक् काल दिया गया है, वह पिण्ड रूप में दिये गये उनके काल से मेल नहीं खाता । ' ७४४ - इस पट्टावली की गाथाओं पर भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी विचार किया जाय तो ये सदोष ही सिद्ध होंगी। इसकी गाथा संख्या २ के तृतीय चरण में प्रयुक्त 'रहियो' शब्द प्राकृत भाषा की शब्दावली में 'रहा' - इस अर्थ में कहीं देखने में नहीं आया । प्राकृत भाषा में 'रहिम्रो' शब्द का प्रयोग पार्थक्य अथवा घटाने के अर्थ में होता है। हाँ, डिंगल, राजस्थानी- गुजराती, अपभ्रंश एवं कतिपय देशज भाषाओं में 'रहियो' शब्द का प्रयोग 'रहा' के अर्थ में होता है। इसके अतिरिक्त गाथा संख्या १३ में चार बार 'च' शब्द का प्रयोग किया गया है जो खटकने के साथ-साथ इस बात का द्योतक है कि पट्टावलीकार का भाषा पर पूर्णाधिकार नहीं था । इस पट्टावली को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर एक बात बड़ी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है कि पट्टावलीकार को जहां परम्परागत मान्यता और प्राचीन ग्रन्थों से विपरीत बात कहनी थी, वहां उसने जिनागम और जिनकथन की दुहाई दी है । सभी प्राचीन ग्रन्थों द्वारा समर्थित यह परम्परागत मान्यता रही है कि ६८३ में अंतिम प्राचारांगंधर लोहार्य स्वर्गस्थ हुए। इसके विपरीत लोहार्य को आठ अंगों के धारक और वीर नि० सं० ५६५ में स्वर्गस्थ हुए सिद्ध करने के लिये पट्टावलीकार ने गाथा संख्या १३ में - " लोहाचय्य मुणीसं च, कहिथं च जिरणागमे" इस गाथार्द्ध द्वारा अपने अभिमत पर जिनागम की छाप लगाने का प्रयास किया है। इसी प्रकार लोहाचार्य के पश्चात् प्रनुक्रमशः हुए विनयंधर आदि चार प्राचार्यों को अपनी पट्टावली में स्थान न देकर ८० वर्ष के प्राचार्यकाल को ऊपर ही ऊपर उड़ाने का प्रयास करते हुए जहां अंग पूर्व के एक देशधर अलि, माघनंदी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन ५ प्राचार्यों को आचारांगधर सिद्ध करने एवं भूतबलि का ६८३ में स्वर्गस्थ होना तथा उनके साथ ही अंग विच्छेद होने की बात सिद्ध करने का प्रयास किया है, वहां पर भी पट्टावलीकार ने लिख दिया है कि जिनेन्द्र भगवान् ने इस प्रकार कहा है :अहिवल्लि माघनंदि य धरसेरा पुप्फयंत भूदबली । अडवीसं इगवीस उगणीसं तीस वीस वास पुगो ।। १६ ।। इगसय अठारवासे दसंगधारी य मुणिवरा जादा । छ सय तिरा सिय- वासे रिव्वारणा अंगच्छिति कहिय जिणे ।। १५ ।। वस्तुतः : वास्तविक स्थिति यह है कि किसी जिनागम में अथवा दिगम्बर परम्परा के किसी ग्रन्थ में एक पंक्ति तो क्या एक शब्द भी इस प्रकार का उपलब्ध लिये प्रस्तुत ग्रन्थ का पृष्ठ ७३७ 9 Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७४५ नहीं होता, जिससे नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के रचनाकार के उपरिलिखित अभिमतों की किंचिन्मात्र भी पुष्टि होती हो । एक बात और बड़ी विचारणीय है, वह यह है कि इस पट्टावली के मादि के प्रथम श्लोक में पट्टावलीकार ने त्रैलोक्येश्वर प्रभु को नमस्कार एवं सद्गुरु की वारणी का स्मरण करने के पश्चात् मूलसंघ के गणनायकों (प्राचार्यों) की सुन्दर पावली की रचना करने की तथा दूसरे एवं तीसरे श्लोक में "श्रेष्ठ मूल संघ के नन्दी प्राम्नायी बलात्कारगरण के सरस्वती गच्छ में जितने कुन्दकुन्दान्वयी आचार्य हुए हैं, उन सबका विवरण मैं यहां प्रस्तुत करूगा अतः सब सज्जन उसे सुनें"', इस प्रकार की प्रतिज्ञा की है। पट्रावलीकार की उपरोक्त प्रतिज्ञा के सन्दर्भ में इस सम्पूर्ण पावली को ध्यानपूर्वक पढ़ा जाय तो स्वतः ही यह तथ्य प्रकट हो जायगा कि यह पट्टावली वस्तुतः अपने प्राप में अपूर्ण है। क्योंकि पट्टावलीकार की उपर्युद्धृत प्रतिज्ञानुसार न इस पट्टावली में कहीं नन्दी आम्नाय का, न बलात्कार गण का, न सरस्वती गच्छ का और न प्राचार्य कुन्दकुन्द का ही कहीं उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। . इस पट्टावली की गाथा संख्या १४ के चतुर्थ चरण - "वास दुसद वीस सधेसु ॥" पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर विचारकों के मस्तिष्क में यह प्राशंका उत्पन्न होती है कि इस पट्टावली के रचनाकार ने प्राचीन, प्रचलित एवं प्रामाणिक पट्टावलियों में उल्लिखित तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर इसमें प्रस्तुत किया है । सभी पट्टावलीकारों की वर्णनशैली का अनुसरण करते हुए नन्दी संध की प्राकृत पट्रावली के प्रणयनकार ने भी प्रत्येक श्रतपरम्परा के प्राचार्यों के काल का उल्लेख करते हुए - "सदतेवीस वासे एगादह अंगधरा जादा" - इस गाथार्द्ध से एकादशांगधारियों का काल १२३ वर्ष तथा - "वासं सत्तारणवदिय, दसंग नव अंग अट्टधरा" इस प्राधी गाथा द्वारा दश नव-अष्टांगधरों का काल ६७ वर्ष बताया है। इस सारी पट्टावली को पढ़ने पर यह स्पष्टतः ज्ञात हो जाता है कि इसमें सर्वत्र पृथक्-पृथक श्रुत परम्परा का पृथक्-पृथक् काल दिया है, दो श्रुत परम्पराओं का सम्मिलित काल नहीं । परन्तु : ट्रा एकादशांगधारियों के परम्परागत २२० वर्ष के काल का प्रश्न पाया और उसे पट्टावलीकार ने विवादास्पद बनाया वहां - "दस नव अगधरा वास दुसदवीस सधेसु ।।१४।।" इस गाथार्द्ध द्वारा एकादशांगधारियों एवं दशनवाष्टांगधारियों का सम्मिलित समय २२० वर्ष बताने का प्रयास किया है। यहां पट्टावलीकार द्वारा भयंकर त्रुटि हो गई है। पट्टावलीकार गाथा संख्या १२ १ इन तीन श्लोकों में पट्टावलीकार ने दो बार कहा है कि मूल संघ में हुए गणाचार्यों तथा मूल संघ के नन्दी प्राम्नायी बलात्कार गरण के सरस्वती गच्छ में कुन्द कुन्दान्वयी जितने भी प्राचार्य हुए हैं उनके सम्बन्ध में मैं कथन करूंगा। ऐसी स्पष्ट दो उक्तियों के होते हुए भी डॉ. हीरालालजी ने इन श्लोकों का अर्थ यह किस प्रकार लगाया है कि पट्टावलीकार किसी पुरातन पट्टावली को प्रस्तुत कर रहे हैं । पाठकगण स्वयं इस पर निर्णय करें। [सम्पादक] Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति में एकादशांगधारियों का १२३ वर्ष का काल और दश-नव-अष्टांगधारियों का १७ वर्ष का काल बता चुकने के पश्चात् गाथा संख्या १४ द्वारा पुनः दश, नव तथा आठ अंगधारियों का काल ६७ वर्ष के स्थान पर २२० वर्ष बताते है । यहां पट्टावलीकार द्वारा वस्तुतः बड़ी भारी भूल हो गई है। गाथा की शब्दयोजना पर विचार करने की दशा में यह गाथा टिपूर्ण और नितान्त अशुद्ध प्रतीत होती है । गाथा के पूर्वार्द्ध में दी हुई संख्या ६+१८+२३+५२ (५०) का योग ६६ और १७ आता है पर गाथा के उत्तरार्द्ध में दश, नव तथा पाठ अंगधारियों का काल २२० वर्ष बीतने तक बताया गया है। पूर्वापर सम्बन्ध की खींच तान से तो इस गाथा का अर्थ येन केन प्रकारेण यह लगाया जा सकता है कि २२० वर्षों में एकादशांगधर तथा दंश-नव-अष्टांगधर हुए, पर गाथा की शब्द रचना से तो गाथा का सीधा सा अर्थ यही निकलता है कि इसमें दश-नवअष्टांगधरों का काल २२० वर्ष बताया गया है। इस अप्रासंगिक, अनावश्यक एवं सदोष उल्लेख को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस पट्टावलीकार के समक्ष एकादशांगधरों का २२० वर्ष का काल बताने वाली अनेक पट्टावलियां विद्यमान थीं। उनमें से हरिवंश पुराणान्तर्गत पट्टावली का - "द्वये च विशेऽङ्गभूतोऽपि पंच ते" तथा जय धवला का - "तदो तमेकारसंग सुदरणारणं जयपाल-पांडु-धुवसेएकंसोत्ति पाइरिय परम्पराए वीसुत्तर बेसद वासाइमागंतूण वोच्छिण्णं ।" यह पद एवं श्रुतावतार के निम्नलिखित पद पट्टावलीकार के कर्णरन्ध्रों में गूंजते रहे : एते पंचापि ततो बभूवुरेकादशांगधराः । विशत्यधिकं वर्षशतद्वयमेषां बभूव युगसंख्या ।।८।। उन पदों की छाप जो नन्दीसंघ प्राकृतः पट्टावलीकार के मस्तिष्क में थी, वह अनावश्यक एवं अप्रासंगिक होते हए भी इस पड़ावली की गाथा संख्या १४ में "दस नव अटुंगधरा, वास दुसदवीस सधेसु" के रूप में उतर आई । अन्यथा "वास दुसदवीस सधेसु" यह चरण इस गाथा में किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं जंचता । यह पद ही इस बात का साक्षी है कि यहां हेर फेर के रूप में कुछ गड़बड़ की गई है किन्तु वास्तविकता इस चतुर्थ चरण के रूप में अपना चिन्ह छोड़ गई है। यही नहीं, अपितु इस नन्दीसंघ की प्राकृत पावली के प्रणेता ने भावी पीढ़ियों को एक बड़ी उलझन में भी डाल दिया है । गाथा सं० १२ के उत्तरार्द्ध से १४ वीं गाथा तक सुभद्र आदि । प्राचार्यों को दश, नव, पाठ अंगों का धारक तो वताया है, पर यह स्पष्ट नहीं किया है कि वे चारों ही प्राचार्य उपरोक्त तीनों ही अंगों के धारक थे अथवा इनमें में विभिन्न अंगों के। यदि वे विभिन्न अंगों के धारक थे तो कौन-कौन से प्राचार्य किस-किस अंग के धारक थे? उपरिचित गाथाओं में प्राचार्यों की संख्या ४ और अंगों की संख्या तीन ही है अतः चारों हो पाचार्यों को उपरोक्त तीनों अंगों का समान रूप से धारक माना जाय, उस दशा में तो ठीक है किन्तु उन चारों प्राचार्यों में से प्रत्येक को उपरोक्त तीनों अंगों में से पृथक-पृथक Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४७ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण अंगों का ज्ञाता माने जाने की स्थिति में यह प्रश्न एक जटिल पहेली का रूप धारण कर लेता है। __इस प्रकार प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में जो तथ्य ऊपर प्रस्तुत किये गये हैं, उन सब पर और विशेषतः हरिवंश पुराण एवं श्रुतावतार में लोहार्य से उत्तरवर्ती वीर निर्वाण सं०६८३ के पश्चात् की प्राचार्य-परम्परा के जो उल्लेख ऊपर उद्धत किये गये हैं, उन पर निष्पक्ष एवं सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली भट्टारककालीन किसी अति साधारण रचनाकार की नितान्त साधारण, त्रुटिपूर्ण एवं अपूर्ण कृति होने के कारण वस्तुतः अविश्वसनीय और अप्रामाणिक है । एकादशांगधरों के काल के विषय में की गई काट-छांट, दश, व एवं पाठ अंगधरों की कल्पना के साथ उनके काल के सम्बन्ध में जोड़-तोड़, लाहाचार्य के पश्चात् हुए विनयंधर आदि चार प्राचार्यों को प्राचार्यों के क्रम में सम्मिलित तक न करना, अंगपूर्वज्ञान के एक देशधर प्राचार्य अर्हबलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि को एक अंगधारी मनवाने का प्रयास करना, ये सब बातें वस्तुतः पट्टावलीकार को स्वयं को ऐसी कल्पनाएं हैं, जिनके समर्थन में दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण साहित्य का मंथन करने पर भी एक शब्द तक उपलब्ध नहीं होगा। ऐसी दशा में नंदीसंघ की प्राकृत पावली की किसी भी तरह प्रामाणिकता की कोटि में गणना नहीं की जा सकती। ऐसा प्रतीत होता है कि कतिपय प्राचार्यों को उनके वास्तविक काल से प्राचीन सिद्ध करने के उद्देश्य से भट्टारक काल में इस पट्टावली की रचना की गई है। दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय से पूर्णतः विरुद्ध जो विचित्र मान्यताएं नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में प्रस्तुत की गई हैं, उनके सम्बन्ध में स्व० डॉ० हीरालालजी ने लिखा है "उससे अकस्मात् अंग लोप सम्बन्धी कठिनाई कुछ कम हो जाती है ।" दिगम्बर परम्परा के सभी प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थों में जिस प्रकार वीर नि० सं० ३४५ में पूर्वज्ञान का और ६८३ में अंगज्ञान का विच्छिन्न होना बताया गया है; नन्दीसंघ की पट्टावली में भी इन दोनों प्रकार के ज्ञान का ठीक उसी समय में विच्छेद बताया गया है। ऐसी दशा में इससे काल की कठिनाई तो किंचित्मात्र भी कम नहीं होती। केवल तीन अंगों के लोप की कठिनाई काल की दृष्टि से नहीं अपितु क्रम की दृष्टि से कुछ कम होती है पर शेष ६ अंगों के अकस्मात् लोप की कठिनाई तो ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। इसी प्रकार पूर्वज्ञान के लोप की कठिनाई में भी इस पट्टावली के उल्लेखों से किसी प्रकार की कमी नहीं आती। कठिनाई को कम करना तो दूर इस पट्टावली ' इनके पश्चात् प्रागे के जिन चार प्राचार्यों को अन्यत्र एकांगधारी कह कर श्रुतज्ञान की परंपरा पूरी कर दी गई है उन्हें यहां क्रमशः दश,नव और पाठ अंगों के धारक कहा है, पर यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कौन कितने अंगों का ज्ञाता था। [षट्खण्डागम, भाग १, द्वि० सं०, प्र०, पृष्ठ २३] Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहाम-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति ने दिगम्बर परम्परा के परम प्रामाणिक माने जाने वाले धवला जैसे प्राचीन ग्रन्थों के एतद्विषयक उल्लेखों के प्रति प्रगाढ़ आस्था को झकझोर कर न सही, पर थोड़ा हिलाकर अनेक नवीन उलझनें उत्पन्न कर दी हैं और कतिपय विद्वानों द्वारा इसको प्रश्रय दिये जाने के कारण प्राचार्यों के काल के प्रश्न को लेकर एक बड़ी अजीब संशयात्मक स्थिति जनमानस में व्याप्त हो गई है। माज के युग के उच्च कोटि के विद्वानों के एतद्विषयक अभिमत को पढ़ कर प्रबुद्ध जनमानस ईहापोह करने लगा है कि आज से लगभग १२०० वर्ष पूर्व तपोपूत महात्माओं द्वारा प्राचीन ग्रन्थों में प्राचार्यों का जो कालक्रम लिखा गया है, उसे प्रामाणिक माना जाय अथवा आज के युग के कतिपय विद्वानों द्वारा प्रश्रय प्राप्त तथाकथित "नंदीसंघ की प्राकृत पट्टावली" के उल्लेखों को, जिसके कि न तो लेखक का ही कोई पता है और न लेखनकाल ही का। _____ इस उलझन भरी जटिल ऐतिहासिक गुत्थी को प्रमाण पुरस्सर सुलझाने का प्रयास किया जाय, एक मात्र इसी सदुद्देश्य से. प्रेरित होकर यहां इस प्रश्न पर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के ही अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों के उद्धरण इस दृष्टि से प्रस्तुत किये गये हैं कि पाठकों एवं शोधार्थियों को एक ही स्थान पर पूरी आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो जाय और उन्हें विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों को प्राप्त करने के प्रयास में समय एवं श्रम व्यर्थ ही व्यय न करना पड़े। ऊपर जो ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत की गई है, उसमें "हरिवंश पुराण" के उल्लेखों का एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि उनमें वीर नि० सं० १ से १३१० तक की प्राचार्य परम्परा का अविच्छिन्न रूप से उल्लेख है। इसमें उल्लिखित, वीर नि० सं०६८३ में दिवंगत हुए लोहार्य तक की प्राचार्य परम्परा धवला, जयधवला, उत्तर पुराण, तिलोय पण्णत्ती, जम्बूदीव पण्णत्ती के आदि में दी हुई श्रुतधर पट्टावली, इन्द्रनन्दीकृत श्रृतावतार तथा अनेक पट्टावलियों एवं शिलालेखों द्वारा पूर्ण रूपेण समर्थित है। नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को अनेक प्रमाणों एवं तर्क संगत तथ्यों द्वारा पूर्णतः अप्रामाणिक और अविश्वसनीय सिद्ध किया जा चुका है। इस पट्टावली के अतिरिक्त अन्यत्र कोई एक भी उल्लेख (लोहार्य के समय वीर नि० सं०६८३ तक)हरिवंश पुराण के विपरीत उपलब्ध नहीं होता। .ऐसी स्थिति में लोहार्य के अंतिम आचारांगधर होने तथा उनके समय वीर नि० सं० ६८३ की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में किंचित्मात्र भी संदेह के लिये स्थान नहीं रह जाता। लोहार्य के पश्चात् वीर नि० सं० ६८३ से अनुमानतः ७८३ तक, संघ विभाजन से पूर्व की प्राचार्य परम्परा का जो उल्लेख हरिवंश पुराण में किया गया है, वह इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार द्वारा (दो प्राचार्यों के नाम विभेद के साथ) समर्थित है। उपरिलिखित अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों में लोहार्य के पश्चात् की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में हरिवंश पुरागा में लोहार्य के पश्चात् अनुक्रमशः हुए विनयंधर, गुप्तश्रुनि, गुप्तऋपि, शिवगुप्त पार Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम नि. ग. प्रान्ति] सामान्य पूर्वपर-काल : देवटि समाश्रमण ७४६ महवाल, इन पांच प्राचार्यों के नाम दिये हैं, उनके क्रमगत प्राचार्यत्व और प्राचार्य काल के सम्बन्ध में भी वस्तुतः किसी को किसी प्रकार का संदेह नहीं रहना चाहिए। इस प्रकार विस्तार सहित प्रस्तुत किये गये उपरिलिखित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में निर्वाण पश्चात् गौतम से लेकर पहलि तक हुए दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों का क्रम एवं काल निम्नलिखित रूप से सुनिश्चित सिद्ध होता है : केवली १. इन्द्रभूति गौतम २. सुधर्मा (लोहार्य) ३. जम्बू १२ वर्ष १२ वर्ष ३८(४०) वर्ष योग ६२ (६४) . श्रुतकेवली ] ४. विष्णु (नन्दी) ५. नन्दिमित्र ६. अपराजित ७. गोवर्धन ८. भद्रबाहु समुच्चय काल १०० वर्ष ९. विशाख एकादशांग । एवं दशपूर्वधर समुच्चय काल १८३ वर्ष १०. प्रोष्ठिल ११. क्षत्रिय १२. जय १३. नाग १४. सिद्धार्थ १५. तिषण १६. विजय १७. बुद्धिल १८. गंगदेव १९. धर्मसेन एकादशांगधर ] समुच्चय काल २०. नक्षत्र २१. यशःपाल २२. पाण्डू २३. ध्रुवसेन २४. कंसाचार्य २२० वर्ष Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० . जैन धर्म का मौसिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि. ग. प्रान्ति २५. सुभद्र माचारांगधर ] २६. यशोभद्र समुच्चय काल २७. यशोबाह २८. लोहार्य ११८ वर्ष पूर्ण योग ६८३ वर्ष २६. विनयंधर अंग-पूर्व के २० वर्ष (अनुमानतः) एक देशधर ३०. गुप्तऋषि ३१. गुप्तश्रुति ३२. शिवगुप्त ३३. अहंदुबलि' २० ॥ योग १०० पूर्ण योग . ७८३ अहंबलि के पश्चात् हरिवंशपुराण में वीर नि० सं० १३१० तक की प्रविच्छिन्न प्राचार्य परम्परा दी है, वह पुन्नाट संघ की प्राचार्य-परम्परा प्रतीत होती है। यह तथ्य विचारणीय है कि हरिवंश पुराणकार ने इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया है कि पुनाट संघ के प्रवर्तक प्रथम प्राचार्य कौन हुए। हरिवंश पुराण के ६६३ सर्ग के ३१वें श्लोक में पुराणकार ने अमितसेन को पवित्र पुन्नाट गण का अग्रणी प्राचार्य बताया है। इसका अर्थ यही हो सकता है कि वे पुत्राट संघ के एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न प्राचार्य थे, न कि मूल पुरुष । पुनाट संघ के प्रथम प्राचार्य तो अनुमानतः मन्दरार्य ही होने चाहिए जो कि मूल संघ का विभाजन करने वाले अर्हबलि के पश्चात् इस पट्टावली में बताये गये हैं। यह पहले बताया जा चुका है कि अर्हबलि (वीर नि० सं० ७६३-७८३) ने दिगम्बर संघ को १० संघों में विभाजित किया। उन संघों में से अधिकांश.के . नाम तो ग्राज केवल पत्रों पर ही अवशिष्ट रह गये हैं। कालान्तर में उपरोक्त संघों के अतिरिक्त और भी कई संघ समय-समय पर उत्पन्न हुए तथा उनमें से भी अनेक संध विलुप्ति के गहन गह्वर में विलीन हो गये। ऐसी स्थिति में प्रहंबलि . के उत्तरवर्ती काल की मूल संघ की कोई एक सर्व-सम्मत प्राचार्यपरम्परा की पट्टावली प्रस्तुत करना संभव प्रतीत नहीं होता। क्योंकि इस प्रकार की कोई प्रामाणिक एवं अविच्छिन्न पट्टावली कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में अहंद्बलि के पश्चात् जिन ४ प्राचार्यों के नाम दिये हैं, उन्हीं के ' हरिवंश पुराण, सर्ग ६६, श्लोक २५ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० प्रान्ति ] सामान्य पूर्वधर- काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७५१ नाम नन्दी संघ की तथाकथित प्राकृत पट्टावली में भी दिये गये हैं । अहंदुबलि द्वारा किये गये संघ विभाजन का विवरण देने के पश्चात् इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में लिखा है : तस्यानन्तरमनगारपुंगवो माघनन्दिनामाभूत् । सोऽप्यंगपूर्वदेशं प्राकाश्य समाधिना दिवं यातः । १०२ प्रर्थात् - प्रर्हदुबलि के पश्चात् मुनिश्रेष्ठ माघनन्दि नामक प्राचार्य हुए । वे भी अंग और पूर्वज्ञान के एक देश का उपदेश कर स्वर्गस्थ हुए । इन्द्रनन्दि के इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्हदबलि के पश्चात् माघनन्दि प्राचार्य पद पर श्रधिष्ठित हुए । संघ - विभाजन के विवरण को दृष्टिगत रखते हुए इस श्लोक का यह अर्थ भी लगाया जा सकता है कि महंदुबलि ने मूल संघ को १० अथवा ५ संघों में विभाजित किया, उन संघों में नन्दीसंघ का सर्वप्रथम स्थान था और उस नन्दिसंघ के प्राचार्य माघनन्दि हुए । इसी कारण इन्द्रनन्दि ने महंदुबलि के पश्चात् माघनन्दि का प्राचार्य पद पर अधिष्ठित होना बताया है । प्रर्हदुबलि के पश्चात् जो प्राचार्य - परम्परा इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुताबतार में दी है, उसके साथ भानुमानित रूप में यदि नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली में उल्लिखित उन प्राचार्यो का काल जोड़ दिया जाय तो प्रर्हदुबलि के पश्चात् प्राचार्यों का क्रम और काल निम्नलिखित रूप में होगा : गान ३४. माघनन्दि ३५. घरसेन ३६. पुष्पदन्त ३७. भूतबलि प्राचार्यकाल २१ वर्ष १६, ३० 21 १०, योग पूर्ण योग ६० वर्ष ८७३ वर्ष किन्तु प्राचार्य अर्हदुबलि के पश्चात् ऊपर बताये हुए चार प्राचार्यों के क्रम और काल को मानने में निम्नलिखित बाधाएँ उपस्थित होती हैं : इन्द्रनन्दि ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि धरसेन की गुरु शिष्यपरम्परा के सम्बन्ध में उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं है । इस दशा में धरसेन को माघनन्दि का उत्तराधिकारी प्राचार्य नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार इन्द्रनन्दि को धरसेन के समय के सम्बन्ध में भी विदित नहीं है । अतः उनके उपरोक्त काल को भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । धवला तथा श्रुतावतार के उल्लेखानुसार पुष्पदन्त और भूतबलि धरसेन की परम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा के मुनि थे। ऐसी स्थिति में एक क्रमबद्ध Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि... प्रान्ति भाचार्य-परम्परा की प्रामाणिक पट्टावली में पुष्पदन्त को धरसेन की परम्परा का उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता। घरसेन पुष्पदन्त मोर भूतबलि किस संघ की परम्परा के प्राचार्य अथवा मुनि थे, इस प्रश्न का समाधान करने वाला एक भी ठोस.प्रमाण दिगम्बर परम्परा के साहित्य में उपलब्ध नहीं है। . धरसेन नामक एक तपोधन प्राचार्य का उल्लेख पुत्राट संघ की पट्टावली में अवश्य विद्यमान है' पर वे पहंदुद्वलि के पश्चात् १३वें पट्टधर प्राचार्य बताये गये हैं। संयोगकी बात है कि इन्द्रनन्दि ने धरसेन को महातपा के विशेषण से और जिनसेन ने तपोधन के विशेषण से संबोधित किया है। किन्तु श्रुतावतार में परिणत महातपा धरसेन को मार हरिवंश पुराण में उल्लिखित तपोषन धरसेन को एक मानने में दिगम्बर परम्परा के प्रायः सभी विद्वानों को बहुत बड़ी मापत्ति होगी। क्योंकि हरिवंश पुराण में लोहार्य के पश्चात् ६२७ वर्षों में हुए ३१ माचार्यो में प्राचार्य धरसेन का स्थान १८वां है। ३१ प्राचार्यों में ६२७ वर्ष के समय को मोटे तौर पर विभाजित किया जाय तो प्रत्येक प्राचार्य का प्राचार्य-काल २० वर्ष फलित होता है। इस प्रकार वीर नि० सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए लोहार्य के पश्चात् १८३ पाचार्य धरसेन का समय (१८ प्राचार्यों के ३६० वर्षों को ६८३ में जोड़ने पर) वीर नि० सं०१०४३ सिद्धहोता है । षटाण्डागम के निर्माता पुष्पदन्त एवं भूतबलि के गुरु धरसेन का समय वीर नि० सं० १०२३ से १०४३ स्वीकार करने के लिये संभवतः दिगम्बर परम्परा का कोई विद्वान् तैयार नहीं होगा। मूलतः धवला, जयधवला, तिलोयपण्यत्ति मौर उत्तरपुराण तथा तदनन्तर हरिवंश पुराण एवं श्रुतावतार के उल्लेखानुसार ग्रहद्वलि का काल वीर नि० सं०७६३ से ७५३ के लगभग निर्णीत हो जाने पर प्राचार्य कुन्दकुन्द के काल के सम्बन्ध में अग्रेतर विचार करना परमावश्यक हो जायगा। क्योंकि लोहाचार्य से पश्चाद्वर्ती प्राचार्य-परम्परा का पट्टावलियों, शिलालेखों मादि में जो उल्लेख किया गया है, वह प्रायः एक प्रकार से अपूर्ण और प्राचार्यों के क्रम की दृष्टि से परस्पर विरोधी है। सिदर वसति के शक सं० १३२० के लेख संख्या १०५ में तथा अन्य अनेक शिलालेखों में लोहाचार्य के पश्चात् कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा उटैंकित की हुई मिलती है। उनमें लोहाचार्य प्रौर कुन्दकुन्दाचार्य के मध्यवर्ती प्राचार्यों का कोई उल्लेख नहीं है। केवल शक सं० १३२० के सिर वसति के लेख सं० १०५ में लोहाचार्य के पश्चात हए प्राचार्यों की कुन्दकुन्दाचार्य तक नामावली और तदनन्तर कुन्दकुन्दाचार्य की शिष्य परम्परा में हुए प्राचार्यों की नामावली दी गई है, जो इस प्रकार है :१. कुम्भ २. विनीत ३. हलघर ४. वसुदेव ५. प्रचल . ६. मेरुधीर ७. सर्वज्ञ ८. सर्वगुप्त ६. महीधर १०. धनपाल ११. महावीर १२. वोर १३. कोण्डकुन्द ' "तपोषन : श्री धरसेन नामक:"-हरिवंश पु., सगं ६६, श्लोक २८ २ श्रुतावतार (इन्द्रनन्दिकृत), श्लोक १०३ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .७५३ काल नि० ग० भ्रान्ति]. सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण कुन्दकुन्द की शिष्य-परम्परा के प्राचार्य :(कुन्दकुन्द) १४. उमास्वाति (गृध्रपिच्छ) १८. देवनन्दी (मपरनाम जिनेन्द्र बुद्धि, पूज्यपाद) १५. बलाकपिच्छ १६. भट्टाकलंक १६. समन्तभद्र २०. जिनसेन १७. शिवकोटि २१. गुरगभद्र गुणभद्र के पश्चात् अर्हबलि का नाम देते हुए उपरोक्त लेख में निम्नलिखित रूप से संघ-विभाजन का विवरण दिया गया है : यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्यद्वितयेन रेजे। फलप्रदानाय जगज्जनानां, प्राप्तोऽकुराभ्यामिव कल्पभूजः ॥२५॥ अर्हबलिस्संघ चतुर्विधं स, श्रीकोण्डकुन्दान्वय मूलसंघं । कालस्वभावादिह जायमान,- द्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥२६।। सिताम्बरादो विपरीत रूपेऽखिले विसंघे वितनोतु भेदं । तत्सेन नन्दि-त्रिदिवेश-सिंह-संधेषु यस्तं मनुते कुहक्सः ।।२७।। प्रर्थात् - पुष्पदन्त और भूतबलि- इन दो शिष्य रूपी अंकुरों से अंकुरित कल्पवृक्ष के समान जो संसारियों को मनोवांछित फल प्रदान करने के लिए प्रकट हुए, उन मर्हबलि ने काल स्वभाव से प्रवर्द्धमान द्वेष को कम करने के लिये कोण्डकुन्दांन्वय मूल संघ को (१) सेन, (२) नन्दी, (३) देव और (४) सिंह - इन चार संघों में विभक्त किया । जो व्यक्ति इन चारों संघों में भेद मानता है, वह कुदृष्टि-मिथ्यादृष्टि है। २२. महबलि २३. पुष्पदंत २४ भूतबलि भूतबलि के पश्चात् उक्त शिलालेख सं० १०५ में निम्नलिखित प्राचार्यों के नाम उटंकित हैं : २५ नेमिचन्द्र २६ माघनन्दि (उनके वंश में) अभयचन्द्रदेव (अभयचन्द्रदेव के अनुज) श्रुतकीर्ति श्रुतमुनि चारुकोति (इनके प्रशिष्य) पण्डितदेव (स्वर्ग १३२०) अभिनव श्रुत मुनि अभिनव पण्डित Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि• ग० भ्रान्ति हरिवंश पुराण और श्रुतावतार के उल्लेखों के प्राधार पर यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि वीर नि० सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए अंतिम भाचारांगधर लोहार्य के पश्चात् पोर लगभग वीर नि० सं०७६३ से ७८३ तक प्राचार्य पद • पर रहे प्राचार्य अहंद्वलि से पूर्व क्रमशः विनयंघर प्रादि चार प्राचार्य हुए। इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार तथा प्रज्ञातकर्तक नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में प्रहद्वलि के पश्चात् क्रमशः माघनन्दी धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन चार प्राचायों के होने का उल्लेख है। नन्दी संघ की पट्टावली में भी कुन्दकुन्दाचार्य की गुरुपरम्परा निम्न रूप में उल्लिखित है : भद्रबाहु गुप्तिगुप्त . माघनन्दि जिनचन्द्र कुन्दकुन्द . इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में सुस्पष्ट रूप से लिखा है कि षट्सण्डागम और कषाय-प्राभूत का ज्ञान गुरु परिपाटी से पद्मनन्दी मुनि को कुण्डकुन्दपुर में प्राप्त हमा प्रौर उन्होंने षटखण्डागम के प्राद्य तीन खण्डों पर १२,००० श्लोक परिमारण की परिकर्म नामक टीका की रचना की। इस प्रकार हरिवंश पुराण, इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार, नन्दी संघ की प्राकृत पावली-इन तीनों ग्रन्थों के उल्लेखों से अहंद्वलि निश्चित रूपेण कुन्दकुन्दाचार्य के प्रगुरु (दादागुरु) माघनन्दि से पूर्ववर्ती प्राचार्य सिद्ध होते हैं। नन्दी संघ की पट्टावली में सर्वप्रथम भद्रबाह (द्वितीय) और उनके पश्चात् गुप्ति गुप्त का नाम दिया है पर इस पट्टावली से विद्वान् यही निष्कर्ष निकालते हैं कि माघनन्दी ही वस्तुतः नन्दी संघ के प्रथम प्राचार्य, उनके शिष्य जिनचन्द्र और जिनचन्द्र के शिष्य कुन्दकुन्दाचार्य हुए। ऐसी स्थिति में सिद्धरबस्ती के उपरिलिखित स्तम्भलेख में कुन्दकुन्द के पश्चात् उनकी वी पीढ़ी में प्रतिलि को, दशवीं पीढ़ी में पूष्पदन्त-भूतबलि को और १२वीं पीढ़ी में माघनन्दी को बताया गया है, उसे किस प्रकार प्रामाणिक माना जा सकता है, यह इतिहास के विद्वानों के लिये विचारणीय है। वस्तुतः ये चारों प्राचार्य कुन्दकुन्दाचार्य के पूर्वज हैं। हरिवंश पुराण सिद्धरबस्ती के उपरिलिखित लेख संख्या १०५ से ६१५ वर्ष पूर्व लिखा गया था। इसी प्रकार इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार की रचना भी इस लेख से लगभग २५० वर्ष पूर्व की भी Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण ७५५. क्योंकि इन्द्रनन्दि इतिहासज्ञों द्वारा विक्रम की ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ के प्राचार्य माने गये हैं।' दिगम्बर परम्परा के गग्य-मान्य विद्वानों ने बड़े खेद के साथ इस प्रकार के उद्गार अभिव्यक्त किये हैं कि अंगधारियों के पश्चाद्वर्ती काल की दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्यों को जितनी परम्पराएं उपलब्ध हैं, वे सब अपूर्ण हैं और उस समय संग्रह की गई हैं, जब मूल संघ प्रादि भेद हो चुके थे और विच्छिन्न परम्पराओं को जानने का कोई साधन नहीं रह गया था। जिस प्रकार मथुरा के कंकाली टोले की तीन बार की गई खुदाई में कुषाण सं० ५ से १८ (ई० सन् ८३ से १७६) तक के ऐसे लेख मिले हैं, जिनमें उन ३ गणों, १२ कुलों और १० शाखाओं के नाम उकित हैं, जो कि श्वेताम्बर परम्परा के पागम - कल्पसूत्र में उल्लिखित हैं, तथा नन्दीसूत्रान्तर्गत वाचकवंश के प्राचार्यों की पट्टावली के आर्य समुद्र, आर्य मंगु, आर्यनन्दिल, आर्य नागहस्ती तथा प्रार्य भूतदिन के नाम भी कंकाली टीले से प्राप्त लेखों में उकित मिले हैं,3 उसी प्रकार यदि दिगम्बर-परम्परा के प्राचार्यों, गणों, गच्छों आदि के उल्लेख भी उपलब्ध हुए होते तो दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों के क्रम एवं काल को सुनिश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती। पर कंकाली टीले से दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों के सम्बन्ध में कोई अभिलेख नहीं मिला। श्री माणिकचन्द्र - दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित "जैन शिला. लेख संग्रह के तीनों भागों के समीचीनतया पर्यालोचन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि अंगधारियों के पश्चात् की प्राचार्य परम्परा की एक भी पूर्ण पट्टावली उपलब्ध नहीं है । डॉ० हीरालालजी एवं पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' के शब्दों में सब अपूर्ण हैं। ऐसी स्थिति में जबकि अंगधारियों के उत्तरवर्ती काल के दिगम्बर प्राचार्यों की एक भी पूर्ण पट्टावली उपलब्ध नहीं होती; दिगम्बर परम्परा के कतिपय प्रामाणिक ग्रन्थों एवं नन्दी संघ की पट्टावली में उपलब्ध तथ्यों से श्रवणबेल्गोल ' (क) जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार (फतेचन्द बेलानी) पृ० ११ । (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० १, पृ० ३३८, कम सं० २१४ २ (क)... इस प्रकार महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष व्यतीत हुए थे। बहुत से लेखों में भागे के प्राचार्यों की परम्परा कुन्दकुन्दाचार्य से ली गई है। दुर्भाग्यतः किसी भी लेख में उपयुक्त श्रुतमानियों पोर कुन्दकुन्दाचार्य के बीच की पूरी गुरु-परंम्परा नहीं पाई जाती । केवल उपयुक्त लेख नं. १०५ (शक सं० १३२०) में ही इस बीच के प्राचार्यों के कुछ नाम पाये जाते हैं.... .. [जैन शिलालेख संग्रह, भा० १, भूमिका (गे. हीरालाल), पृ० १२७-१२८] (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में अंगपारियों के बाद की जितनी परम्पराएं उपलब्ध है, वे सब अपूर्ण हैं और उस समय संग्रह की गई हैं जब मूल संघ प्रादि भेद हो चुके थे और विच्छिन्न परम्परामों को जानने का कोई साधन न रह गया था। [स्व. श्री नापूराम प्रेमी, भगवती माराधना की प्रस्तावना] 3 जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, प्रस्तावना (गे. गुलाबचन्द पौधरी), पृ. १६-१८ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति के उपरिचचित शिलालेख के प्राचार्यों के क्रम सम्बन्धी तथ्य अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं, तथा हरिवंश पुराण एवं इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में दी हुई पट्टावलियों के प्राधार पर प्रहंबील का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७८३ के बीच का एक तरह से मुनिश्चित हो जाता है, तो उस दशा में प्रहंद्वलि से पर्याप्त रूपेण पश्चाद्वर्ती कुन्दकुन्दाचार्य के काल का प्रश्न एक जटिल समस्या के रूप में विद्वानों के समक्ष उपस्थित होता है। यह देख कर तो और भी बड़ा आश्चर्य होता है कि पंचस्तूपान्वयी प्राचार्य वीर सेन ने धवला में, पुन्नाट संघीय जिनसेन ने हरिवंश पुराण में पौर वीर सेन के शिष्य जिनसेन (पंचस्तूपान्वयी) ने जय-धवला में दिगम्बर परम्परा के उद्भट विद्वान् कुन्दकुन्दाचार्य का कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया है। कुन्दकुन्दाचार्य के समय के सम्बन्ध में निम्नलिखित एक अज्ञातकर्तृक श्लोक बड़ा प्रसिद्ध है : वर्षे सप्तशते चैव, सप्तत्या च विस्मती। उमास्वामिमुनिर्जातः, कुन्दकुन्दस्तथैव च ॥' प्रर्थात् - ७७० वर्ष व्यतीत हो चुकने पर उमास्वामी और (प्राचार्य) कुन्दकुन्द हुए । श्लोक में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि यह ७७० सम्वत् वस्तुत: वीर नि० सं० है, विक्रम संवत् है, शक सं० है अथवा अन्य कोई संवत् । यही नहीं, इसमें कुन्दकुन्द के पश्चाद्वर्ती प्राचार्य उमास्वामी के अनन्तर प्राचार्य कुन्दकुन्द का नाम देते हए इन दोनों को स्पष्टतः समकालीन बताया गया है। इसके साथ ही साथ यह श्लोक कहां का है, किसकी तथा किस समय की रचना है, ये सब तथ्य भी अंधकार में छुपे हुए हैं। अतः विद्वानों द्वारा इस श्लोक को कुन्दकुन्दाचार्य के कालनिर्णय के सम्बन्ध में न तो विशेष प्रामाणिक ही समझा जा रहा है और न कोई महत्व ही दिया जा रहा है। ' कतिले बस्ती के एक स्तम्भ-लेख (लेख सं० ५५, लगभग शक सं० १०२२) में कुन्दकुन्द को ही निम्नलिखित श्लोक द्वारा मूल संघ का प्रादि गरणी बताया गया है: श्रीमतो वर्द्धमानस्य, वर्द्धमानस्य शासने । श्री कोण्डकुन्दनामाभूत्, मूल संघापणी गरणी ॥३॥ इसी प्रकार लेख सं० ५४ (शक सं० १०५०), ४० (शक सं० १०५५) और लेख सं० १०८ (शक सं० १३५५) में गौतम के उल्लेख के पश्चात् उनकी संतति में भद्रबाह, चन्द्रगुप्त के अनन्तर उन्हीं के अन्वय में कुन्दकुन्द मुनि के होने का उल्लेख किया गया है। प्राचार्य परम्परा के सम्बन्ध में इन सब परस्पर . ' स्वामी समन्तभद्र, पं० जुगल किशोर, पृ० १४७ २ जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० ११५ 3 जन शिलालेख संग्रह, भा०१ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि समाश्रमण विरोधी और विखण्डित उल्लेखों को देख कर ही स्वर्गीय प्रेमीजी को दिगम्बर परम्परा की उपलब्ध पट्टावलियों के सम्बन्ध में कहना पड़ा कि वे अपूर्ण हैं तथा ऐसे समय में संग्रहीत की गई हैं, जब कि विच्छिन्न परम्परामों को जानने का कोई साधन न रह गया था। प्रवचनसार की जयसेनाचार्यकृत टीका के प्रारम्भ में शिवकुमार और प्राध्यात्मी बालवन्द्रकृत कन्नड टीका में 'शिवकुमार महाराजम्' के उल्लेख को माधार बना कर कतिपय विद्वानों ने यह अनुमान लगाया कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने महाराजा शिवकुमार को बोष देने हेतु प्रवचनसार नामक ग्रन्थ की रचना की। कन्नड़ टीका में उल्लिखित शिवकुमार महाराज को शक सं० ४५० में हुए शिव मृगेश वर्म मान कर न्याय शास्त्री पं० श्री गजाधर लालजी जैन ने प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय शक सं०.४५० लिखा है : "श्री शिवकुमार-महाराज-प्रतिबोधनार्थ विलिलेख भगवान् कुन्दकुन्द : स्वीयं ग्रन्थमिति, समाविर्भावितं च पंचास्तिकायस्य क्रमशः कार्णाटिक-संस्कृतटीकाकारः श्री बालचन्द्र-जयसेनाचार्यः ततो युक्त यानयापि भगवत्कुन्दकुन्द समयः तस्य शिवमृगेशवर्मसमानकालीनत्वात् ४५० तम-शक-संवत्सर एवं सिद्धयति, स्वीकारे चास्मिन् क्षतिरपि नास्ति कापीति ।" अर्थात्-श्री शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के उद्देश्य से प्राचार्य भगवान् कुन्दकुन्द ने इस ग्रन्थ की रचना की- यह कर्णाटिक टोकाकार बालचन्द्र और संस्कृत टीकाकार जयसेनाचार्य ने प्रकट किया है। इस युक्ति से भी प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय शिवमृगेशवर्म (कदम्ब राजवंशी) के समकालीन होने से ४५० वां शक संवत्सर सिद्ध होता है और इसे स्वीकार करने में किसी प्रकार की बाधा भी उपस्थित नहीं होती। प्रवचनसारादि की टीकामों में किये गये इस उल्लेख के माधार पर कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने शिवकुमार अथवा शिवकुमार महाराज नामक प्रासन्न भव्य के प्रतिबोधार्य प्रवचनसार का उपदेश दिया, डॉ. पाठक ने भी प्राचार्य कुन्दकुन्द को कदम्दवंशी महाराजा शिवमृगेशवर्म का समकालीन बताते हुए उनका समय शक सं० ४५० माना है। - इसी प्रकार प्रोफेसर चक्रवर्ती ने भी टीकाकारों द्वारा किये गये शिवकुमार के उल्लेख को प्राधार बना यह अनुमान लगाया है कि पल्लववंशी महाराजा शिवस्कन्द-युवा महाराजा के बोधार्थ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इस ग्रन्थ की रचना की। ___ सर्वप्रथम तो यह बात विचारणीय है कि माज जितने भी अन्य प्राचार्य कुन्दकुन्द की कृति माने जाते हैं उनमें से "बारस अणुवेक्खा" नामक ग्रन्थ को समय प्राभूत (प्रथम संस्करण ई० १९१४ में प्रकाशित) की प्रस्तावना, पृ०८ समय प्राभूतम् भौर षट् प्रामृत संग्रह (मानिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, पुष्प १७) की प्रस्तावना, पृ. १५ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ जैन धर्म का मोलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति छोड़ कर शेष किसी भी ग्रन्थ के मूल पाठ में इस प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, जिससे यह सिद्ध होताहो कि अमुक ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की रचना है। यही नहीं, प्राचार्य कुन्दकुन्द की कृति माने जाने वाले किसी एक भी ग्रन्थ के मूल पाठ में कहीं किंचित्मात्र भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं है कि अमुक ग्रन्थ की, किसी अमुक व्यक्ति को, शिवकुमार को अथवा शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिये रचना की गई। . ईसा की १० वीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र' ने प्रवचनसार की तात्पर्य वृत्ति में न तो प्रवचनसार के प्रणयनकार का ही कोई उल्लेख किया है और न यही लिखा है कि अमुक व्यक्ति को प्रतिबोध देने के लिये इस ग्रन्थ की रचना की गई। इससे यही सिद्ध होता है कि ईसा की १० वीं शताब्दी तक निश्चित रूपेण किसी को यह ज्ञात नहीं था कि इस ग्रन्थ के कर्ता कौन हैं और इसकी रचना किसको बोध देने के लिये की गई है । ईशवन्दन एवं अनेकान्तवाद की जयकार के साथ प्रवचनसार की वृत्ति करने का अपना उद्देश्य प्रकट करने के अनन्तर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है : "अथ खलु कश्चिदासन-संसारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमितसमस्तकान्तवादविद्याभिनिवेशः परमेश्वरीमनेकान्तविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रहतयात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा पुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेष्ठिप्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायकपुरःसराम् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवन्दनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारम्भेण मोक्षमार्ग संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते ।" इसका सारांश यह है कि- निकट भविष्य में मुक्त होने वाला कोई भव्य अपने अन्तर में विवेक की ज्योति के प्रकट होने तथा उसके फलस्वरूप एकान्तवाद के समस्त मिथ्याभिनिवेशों की समाप्ति के साथ ही अनेकान्त सिद्धान्त को स्वीकार एवं समस्त मिथ्या पक्षों का परित्याग कर मध्यस्थ हो परम सत्य मोक्ष सुख को ही उपादेय के रूप में चुन कर समस्त तर्थंकरों को वन्दनपूर्वक समस्त प्रारम्भ समारम्भों से निवृत हो मुक्तिप्रदायी श्रमणत्व को स्वीकार करते हुए प्रतिज्ञा करता है। उस आसन्न भव्य की प्रतिज्ञा ने ही प्रवचनसार ग्रन्थ का रूप धारण कर लिया। अमृतचन्द्र ने, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उस पासान भव्य का कोई नामोल्लेख नहीं किया है । प्राचार्य अमृतचन्द्र से लगभग २०० वर्ष पश्चात (ईसा की १२ वीं शताब्दी में) हुए जयसेन ने प्रवचनसार पर निर्मित अपनी तात्पर्यवृत्ति में प्राचार्य : * Introduction on Pravachansar, by Dr. A. N. Upadhye, p. 101 प्रवचनसार, A. N. उपाध्ये द्वारा संपादित (रामचन्द्र जैन शास्त्र माला), पृ. २ I Introduction on Pravachansar by A. N. Upadhye, p. 104. Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति ] सामान्य पूर्वघर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमण अमृतचंद्र द्वारा उल्लिखित उस प्रसान्न भव्य का नाम बिना किसी विशेषण के केवल शिवकुमार दिया है ।" यहां यह विचारणीय है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र ने समय प्राभृत आदि की टीकाओं में न ग्रन्थकार का नाम दिया है श्रौरन यही उल्लेख किया है कि वह ग्रन्थ किसके प्रतिबोधार्थ निर्मित किया गया। इसके विपरीत आचार्य जयसेन ने 'पंचास्तिकाय प्राभृत' की अपनी तात्पर्य वृत्ति में ग्रन्थकार का नाम आचार्य कुन्दकुन्द बताते हुए उनके विदेह-गमन, वहां श्रीमंदरस्वामी की वाणी के श्रवण आदि का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि विदेह क्षेत्र से लौटने के पश्चात् प्राचार्य कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज आदि संक्षेपरुचि शिष्यों को प्रतिबोध देने के लिये पंचास्तिकाय प्राभृत की रचना की । जयसेन के पश्चात् ईसा की १३ वीं शताब्दी के प्रथम चरण के लगभग हुए प्राध्यात्मी बालचन्द्र ने प्रवचनसार की अपनी कन्नड़ टीका में, अमृतचन्द्र द्वारा "आसन्न संसारपार : " के रूप में तथा जयसेन द्वारा " कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमार नामा" के रूप में उल्लिखित उस प्रसन्न भव्य का अपनी श्रोर से विशेषरण लगा कर "आसन्नभव्यनं अप्प शिवकुमार महाराजम् " के रूप में परिचय दिया है । ७५. उपर्युक्त तीनों टीकाकारों के इन उल्लेखों के सम्बन्ध में विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि प्रवचनसार की रचना कुन्दकुन्द द्वारा और वह भी शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिये की गई, यह ईसा की १२वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए टीकाकार जयसेन की अपनी स्वयं की कल्पना है । यदि ईसा की १०वीं शताब्दी तक इस प्रकार की मान्यता प्रचलित होती अथवा किसी ग्रन्थ में इस प्रकार का उल्लेख होता कि कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार की रचना की और शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिए की, तो ईसा की १०वीं शताब्दी के टीकाकार अमृतचन्द्र अपनी टीका में जयसेन की तरह अवश्य ही इस प्रकार का उल्लेख करते । स्त्री उसी भव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती - इस विषय का प्रतिपादन करने वाली ११ गाथाओं का अमृतचन्द्र द्वारा अपनी टीका में सम्मिलित न किया जाना भी प्रत्येक तटस्थ विचारक के मस्तिष्क में १ प्रवचनसार ( ए. एन. उपाध्ये द्वारा संपादित ) पृ० १-२ (क) अथ कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव शिष्यः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं गत्वा वीतराग सर्वज्ञ श्रीमंदरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवरणावधारित पदार्थाच्छुद्धात्मतत्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीमत्कुण्डकुन्दाचार्य देवः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयेरन्तस्तत्त्व बहिस्तस्त्वगौरण मुख्यप्रतिपत्त्यर्थं प्रथवा शिवकुमार महाराजादि संक्षेपरुचि शिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पञ्चास्तिकाय प्रामृतशास्त्रे, यथाक्रमेणाविकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यागंव्याख्यानं कथ्यते । [ पंचास्तिकायप्राभूत, जयसेनाचार्यकृततात्पर्यवृत्तिः ] (ख) मय प्राभूतग्रन्थे शिवकुमार महाराजो निमित्त अन्यत्र द्रव्य संग्रहादी मोमा श्रेष्ठ्यादि ज्ञातव्यम् । [ वही, गावा एक की जयसेनाज़ायंकृत वृत्ति ] २ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति एक प्रकार का गहरा संदेह उत्पन्न कर देता है कि जिन-जिन ग्रन्थों को प्राचार्य कुन्दकुन्द की कृति बताया जा रहा है, उनमें से वस्तुतः कौन-कौन से ग्रन्थ प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा लिखे गये हैं। पंचास्तिकाय प्राभृत की गाथा संख्या २ और १७३ को ध्यानपूर्वक ढ़प लेने के पश्चात् यह तथ्य स्वतः ही प्रकट हो जाता है कि श्री जयसेन एवं अध्यात्मी बालचन्द्र द्वारा अपनी-अपनी टीकानों में किया गया शिवकुमार महाराज का उल्लेख पूर्णतः उनकी स्वयं की निराधार कल्पना मात्र है। उस कल्पना में कोई तथ्य नहीं। . .पंचास्तिकाय की दूसरी गाथा में ग्रन्थकार ने निम्नलिखित प्रतिज्ञा की है: "श्रमण (भगवान् महावीर) के मुख से प्रकट हए, चारों गतियों का अन्त करने वाले एवं मोक्षप्रदायी अर्थपूर्ण समस्त श्रुत को प्रणाम कर मैं इस (पंचास्तिकाय ग्रन्थ) का कथन करूगा, उसे सुनो।" अपनी प्रतिज्ञानुसार पंचास्तिकाय संग्रह सूत्र का कथन समाप्त करने के पश्चात् अन्त में ग्रन्थकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है : मग्गपभावण8, पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं, पंचत्थियसंगहं सुत्तम् ।।१७३॥ प्रर्थात् - प्रवचन की भक्ति से प्रेरित हो जिन-मार्ग की प्रभावना हेतु मैंने प्रवचन के सारभूत पंचास्तिकाय संग्रह सूत्र का कथन किया है। . . - ऐसा विचित्र उदाहरण तो संभवतः साहित्य के इतिहास में अन्यत्र खोजने पर भी नहीं मिलेगा । ग्रन्यकार जहां स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि प्रवचन के प्रति अपनी भक्ति से प्रेरित होकर उन्होंने जिनशासन को प्रभावनार्थ इस ग्रन्थ का कथन किया है, वहां इसके विपरीत टीकाकार का यह कथन किसी भी दशा में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि शिवकुमार महाराज को प्रतिबोष देने हेतु कुन्दकुन्दाचार्य ने इस ग्रन्थ की रचना की। जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका में प्राचार्य कुन्दकुन्द को कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव का शिष्य बताया है। अन्य किसी प्रमाण से इसकी पुष्टि न होने तथा सिदान्तदेव की उपाधि के विशेष प्राचीन न होने के कारण दिगम्बर परम्परा के विद्वान, जयसेन द्वारा किये गये उल्लेख की, प्रामाणिकता की कोटि में गणना नहीं करते। संस्कृत टीकाकार जयसेन एवं कन्नड़ टीकाकार बालचन्द्र द्वारा पंचास्तिकायप्राभृत की टीकामों में किया गया 'शिवकुमार महाराज' का उल्लेख ही जब काल्पनिक और प्रप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है तो उस दशा में शिवमृगेशवर्म, पल्लवनरेश शिवस्कन्ध अथवा युवा महाराजा को कुन्दकुन्द का समकालीन मान 'कुन्दकुन्द प्राभूतसंग्रह (जीवराज जैन ग्रन्थमाला ९) की प्रस्तावना, (५० कलाशचन्द्र) पृष्ठ . Introductory on Pravachansara, by, Dr. A. N. Upadhye, p. 10-14 Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि. ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७६१ कर प्राचार्य कुन्दकुन्द के.समय का निर्णय करना वस्तुतः आकाश कुसुम में सुगन्ध ढूंढने तुल्य निरर्थक प्रयास ही होगा। ____ख्यातनाम विद्वान् डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने स्वसंपादित प्रवचनसार की प्रस्तावना में प्राचार्य कुन्दकुन्द के काल के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । स्वर्गीय श्री नाथूराम प्रेमी, डॉ० पाठक, प्रोफेसर चक्रवर्ती और पं० जुगलकिशोर मुख्तार के अभिमतों को पस्तुत करते हुए उन्होंने केवल प्रोफेसर चक्रवर्ती के इस अभिमत एवं संभावना को अपना थोड़ा समर्थन प्रदान किया है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लवनरेश शिवस्कन्द के समकालीन तथा तामिल भाषा के प्रसिद्ध ग्रन्थ कुरल के कर्ता थे। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने विस्तृत विवेचन के पश्चात् ऊहापोह के साथ जो अपना अभिमत व्यक्त किया है, वह दस रूप में है :-. __ "कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में की गई इस लम्बी चर्चा के प्रकाश में, जिसमें हमने उपलब्ध परम्पराओं की पूरी तरह से छान-बीन करने तथा विभिन्न दृष्टिकोणों से समस्या का मूल्य प्रांकने के पश्चात् केवल संभावनाओं को समझने का प्रयत्न किया है। हमने देखा है कि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्द्ध' और ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का पूर्वाद्ध बतलाती है। कुन्दकुन्द से पूर्व षट्खण्डागम की समाप्ति की सम्भावना उन्हें ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य के पश्चात् रखती है । मर्करा ताम्रपत्र से उनकी अन्तिम कालावधि तीसरी शताब्दी का मध्य होना चाहिये । चचित मर्यादाओं के प्रकाश में, ये संभावनाएं कि कुन्दकुन्द पल्लववंशी राजा शिवस्कन्द के समकालीन थे और यदि कुछ और निश्चित आधारों पर यह प्रमाणित हो जाये कि वही एलाचार्य थे तो उन्होंने कुरल को रचा था, सूचित करती है कि ऊपर बतलाये गये विस्तृत प्रमारणों के प्रकाश में कुन्दकुन्द के समय की मर्यादा ईसा की प्रथम दो शताब्दियां होनी चाहिए। उपलब्ध सामग्री के इस विस्तृत पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं विश्वास करता हूँ कि कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है (प्रवचनसार प्रस्तावना पृ० २२)२ डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार पर लिखी गई अपनी प्रस्तावना में प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जो टापने विचार रखे हैं, उनमें संभावनाओं के अतिरित्त ऐसा कोई ठोस प्रमाण दृष्टिगोचर नहीं होता, जिससे कि उनके द्वारा प्रकट किये गये अभिमत की पुष्टि होती हो एवं सुनिश्चित 'प्राचार्य कुन्दकुन्द के सामान्यतः सभी ग्रन्थों से एवं विशेषतः सुत्तपाहर से यह स्पष्टतः सिड होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य उस समय के प्राचार्य हैं, जिस समय श्वेताम्बर-दिगम्बर मतमेव परम सीमा तक पहुंच चुका था। यह तो दोनों परम्परामों द्वारा सम्मत ऐतिहासिक तथ्य है कि बीर नि. सं. ६.६ अथवा ६.६ में निग्रंथ संप इन दो संघों में विमल हुमा । ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उतराई भी कुन्दकुन्द का समय हो सकता है, इस प्रकार की परम्परागत मान्यता तो कहीं देखने सुनने में नहीं पाई। -सम्पात कुन्दकुन्द प्राभूत संग्रह की प्रस्तावना, पृ. ३६ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति रूपेण इस निर्णय पर पहुँचा जा सके कि - "कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है।"१ डॉ० उपाध्ये ने विविध संभावनाओं पर तो विस्तार पूर्वक चर्चा की है पर उनकी प्रस्तावना के पढ़ने के पश्चात् यह बात खटकती है कि आचार्य कुन्दकुन्द के कालनिर्णय में सर्वाधिक सहायक दिगम्बर परम्परा के आज उपलब्ध प्रमारणों में सबसे अधिक प्राचीन लिखित प्रमाण की ओर उनका ध्यान नहीं गया। जैसा कि पहले बताया जा चुका है - गौतम से लोहार्य (वीर नि० सं०.६८३) तक की प्राचार्य-परम्परा का सभी प्रामाणिक ग्रन्थों में समान उल्लेख है । वीर निर्वाण सं० ६८३ में दिवंगत हुए लोहाचार्य के पश्चात् की, संघविभाजन के समय तक की प्राचार्य परम्परा पुन्नाट संघीय आचार्य 'जिनसेन ने हरिवंश पुराण, सर्ग६६, श्लोक २५ में उल्लिखित की है। हरिवंश पुराण का यह उल्लेख दिगम्बर परम्परा के उपलब्ध प्रमाणों में सबसे अधिक प्राचीन है, इस तथ्य को तो कोई विद्वान् अस्वीकार नहीं कर सकता। इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार के श्लोक संख्या ८४ तथा ८५ द्वारा हरिवंश पुराण के उपरोक्त श्लोक में उल्लिखित तथ्यों की पुष्टि की है कि आर्य लोहाचार्य के पश्चात् अनुक्रमशः पांच प्राचार्य हुए। जिनमें से प्रथम का नाम विनयधर और पांचवें का अहद्वलि था । अर्हद्बलि के पश्चात् हरिवंश पुराण में तो पुन्नाट संघ के प्राचार्यों की नामावलि दी गई है किन्तु इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार के श्लोक सं० १०२ -१०४, १२७, १२८, १३२, १३३, १४६ द्वारा अहबलि के पश्चात् हुए माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त; भूतबलि, और जिनपालित इन ५ प्राचार्यों के नामों का उल्लेख किया है । तदनन्तर श्लोक संख्या १६० तथा १६१ द्वारा इन्द्रनन्दी ने कुण्डकुन्दपुर में आचार्य पद्मनन्दी (कुन्दकुन्दाचार्य) के होने तथा उनके द्वारा षखण्डागम के प्राद्य ३ खण्डों पर १२,००० श्लोक परिमारण के परिकर्म नामक ग्रन्थ के लिखे जाने का उल्लेख किया है। ___षटखण्डागम के आद्य तीन खण्डों पर परिकर्म नामक एक ग्रन्थ लिखा गया था” – इन्द्रनन्दि के इस कथन की तो पुष्टि होती है, पर वह "कोण्डकुन्दपुर के पद्मनन्दि द्वारा लिखा गया था," इस कथन की पुष्टि करने वाला एक भी प्रमाण आज उपलब्ध नहीं है। धवलाकार ने धवला टीका में परिकर्म नामक ग्रन्थ का प्रचुर मात्रा में उल्लेख करने के साथ-साथ उसके अनेक उद्धरण भी दिये हैं । जीवट्ठारण के द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोगद्वार के सूत्र ५२ को धवला टीका को पढ़ने पर तो यह पूर्णतः प्रमाणित हो जाता है कि परिकर्म वस्तुतः षखण्डागम के पश्चाद्वर्ती काल का ही नहीं अपितु षट्खण्डागम का ही व्याख्या-ग्रन्थ है। उपरोक्त सूत्र में लब्धपर्याप्त मनुष्यों का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा से जगतश्रेणी के असंख्यातवें भाग बताने के पश्चात् यह भी कहा गया है कि जगतश्रेणी के प्रसंख्यातवें भाग रूप श्रेणी असंख्यात करोड़ योजन प्रमाण होती है। इस पर धवला में यह शंका उठाई गई है कि इसके कहने की क्या मावश्यकता थी? इस शंका 1. I am inclined to believe, after this long survey of the available material, that Kundkunda's age lies at the beginning of the Christian era. (Introduction op Pravacbausara, by A. N. Upadhye, p. 22] Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि समाश्रमण ७६३ का समाधान करते हुए कहा गया है कि इस सूत्र से इस बात का ज्ञान नहीं हो सकता था कि जगतश्रेणी के असंख्यातवें भाग रूप श्रेणी का प्रमाण असंख्यात करोड़ योजन है। इस पर पुनः शंका की गई है कि इस बात का ज्ञान तो परिकम से ही हो जाता है, ऐसी दशा में सूत्र में इस कथन की क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि इस सूत्र के बल अर्थात् प्राधार से ही तो 'परिकर्म' की प्रवृत्ति हुई है। __प्राचार्यों से संबंधित इन्द्रनन्दि द्वारा श्रुतावतार में उल्लिखित विवरण को पढ़ने के पश्चात् यह स्पष्ट आभास होता है कि माघनन्दी और धरसेन के बीच तथा जिनपालित एवं कुन्दकुन्द के बीच में और भी अनेक प्राचार्य हुए होंगे और उनके सम्बन्ध में किसी प्रकार की सूचना उपलब्ध न हो सकने के कारण इन्द्रनन्दि उन प्राचार्यों के क्रम, नाम, संख्या आदि का उल्लेख नहीं कर पाये। . वस्तुतः हरिवंश पुराण में उल्लिखित और इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार द्वारा समर्थित उपरिवरिणत तथ्यों की ओर ध्यान न आने के कारण ही डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार प्रवचनसार पर प्रस्तावना लिखते समय धवला में विद्यमान परिकर्म के विपुल उल्लेखों एवं उद्धरणों की ओर डॉ० उपाध्ये का ध्यान नहीं गया, उसी प्रकार हरिवंश पुराण में उल्लिखित उपयुक्त तथ्यों की ओर भी ध्यान नहीं गया है। घवला के प्रकाशित होने के पश्चात् उन्होंने अपमा अभिमत बदल दिया है।' पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार एवं श्री नाथूरामजी प्रेमी ने प्रा० कुन्दकुन्द के समय पर अपने विचार प्रस्तुत करते समय डॉ० ए० एन० उपाध्ये की तरह इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में उल्लिखित तथ्यों की उपेक्षा तो नहीं की है पर हरिवंश पुराण में उल्लिखित लोहाचार्य से संघविभाजन तक की प्राचार्य परम्परा की ओर संभवतः उनका ध्यान नहीं गया है, जिसके परिणाम स्वरूप, यद्यपि इन्द्रनन्दि ने अपने सम्पूर्ण श्रुतांवतार में एक ही काल में हुए एक से अधिक प्राचार्यों का कहीं एक साथ उल्लेख नहीं किया है, फिर भी श्लोक सं० ८४ की शब्द-रचना पर ऊहापोह करते हुए यह अनुमान लगाया कि विनयधर मादि चार पारातीय मुनि समकालीन थे और उनका सम्मिलित काल २० वर्ष हो सकता है। यदि इन दोनों विद्वानों का ध्यान हरिवंश पुराण, सर्ग ६६ के श्लोक संख्या २५ की ओर जाता तो वे बहुत संभव है इन चारों प्राचार्यों को-एक के पश्चात् एक-अनुक्रमशः हुए प्राचार्य मानकर इन चारों का काल २० के स्थान पर ८० वर्ष अनुमानित करते और इस प्रकार इनके पश्चात् हुये प्राचार्य प्रहंदुबलि का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७५३ के बीच का अनुमानित करते। . 'कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, प्रस्तावना, पृ० १३ थी जिनेन्द्रवर्णी ने भी मुख्तार सा. के इस.मनुमान के मापार पर अपने चैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, प्रथम भाग के पृष्ठ ३३२ पर इनको समकामीन मानते हुए इन चारों का सम्मिलित काल २० वर्ष दिया है। -सम्पादक Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति आज से १११० वर्ष पूर्व के हरिवंश के उल्लेख और उपरिवरिणत तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्राचार्य महद्वलि का अंतिम समय वीर नि सं. ७८३ के पास-पास का सुनिश्चित किया जा सकता है । इस प्रकार अहंबलि का समय वीर नि० सं० ७८३ सिद्ध हो जाने पर उनके पश्चात् हुए माघनन्दि का प्राचार्यकाल २० वर्ष, माघनन्दि और धरसेन के बीच हुए प्राचार्यों के नाम और संख्या विषयक उल्लेख के अभाव में उनके काल की गणना न कर के धरसेन का काल २० वर्ष, (वी० नि० सं० ८२३) पुष्पदन्त का ३० वर्ष, जिनपालित का समय ३० वर्ष अनुमानित किया जाय तो जिनपालित का अंतिम समय वीर नि० सं० ८८३ के पास-पास का अनुमानित किया जा सकता है। इससे आगे जिन पालित और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच में कितने काल में कितने प्राचार्य हुए, इस तथ्य को प्रकट करने वाले तथ्यों के अभाव में इन्द्रनन्दि द्वारा पद्मनन्दि के सम्बन्ध में श्रुतावतार में उल्लिखित निम्नलिखित श्लोक के आधार पर अनुमान का सहारा लेने के अतिरिक्त पद्मनन्दि (कुन्दकुन्दाचार्य) के काल के बारे में विचार करने का और कोई मार्ग ही अवशिष्ट नहीं रह जाता : एवं द्विविधोद्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ श्री पद्मनन्दि मुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थ परिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ।।१६१॥ . इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि जिनपालित और कुन्दकुन्द के बीच में अधिक न सही तीन-चार प्राचार्य अवश्य हुए होंगे। उन प्रज्ञातनाम ३-४ प्राचार्यों का समुच्चय काल कम से कम ६० वर्ष भी मान लिया जाय तो प्राचार्य पमनन्दि, अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य का समय वीर नि० सं० ९४३ के आस-पास का मौर माघनन्दी तथा धरसेन के बीच में तीन-चार प्राचार्यों का अस्तित्व मान लेने की दशा में वीर नि० सं० १००० के आस-पास का अनुमानित किया जा सकता है । ईसा की १२वीं शताब्दी के टीकाकार जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका में प्राचार्य कुन्दकुन्द को देवनन्दि सिद्धान्त देव का शिष्य बताया है, नन्दिसंघ की पट्टावली में इन्हें भद्रबाहु द्वितीय का परम्परा-शिष्य तथा जिनचन्द्र का शिष्य बताया गया है, बोध प्राभृत की गाथा संख्या ६१ तथा ६२ के माधार पर कतिपय विद्वान् यहां तक कल्पना करते हैं कि प्राचार्य कुन्दकुन्द वस्तुतः चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के साक्षात् शिष्य थे। शक सं० १३२० के सिद्धरबस्ती के लेख सं० १०५ के श्लोक सं० १३ में कुन्दकुन्द का नाम आचार्य वीर के पश्चात् दिया गया है। इससे यह आशंका भी उत्पन्न होती है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु का नाम वीर था। इन सब उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि ईसा की १२वीं शताब्दि ' शिलालेख संग्रह, भा०१, पृ० १७ पर दिये गये इस लेख के श्लोक सं० १३ में उल्लिखित "इत्याचनेक सूरीष्वय सुपदमुपेतेषु" इस पद से प्रकट होता है कि लोहाचार्य और Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्धि क्षमाश्रमरण ७६५ के टीकाकार जयसेन के समय में ही नहीं अपितु उससे पहले ईसा की ११वीं शताब्दी के अंत के श्रुतावतारकार इन्द्रनन्दि के समय में भी दिगम्बर परम्परा के साहित्य में प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु के नाम के सम्बन्ध में कोई सर्वसम्मत प्रामाणिक उल्लेख ग्रस्तित्व में नहीं था । यही कारण है कि विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं पट्टावलियों में उनके गुरु के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उल्लेख उपलब्ध होते हैं । आचार्य परम्परा विषयक विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों, पट्टावलियों आदि में उपलब्ध उल्लेखों का पूर्णतः तटस्थ दृष्टि से पर्यवेक्षरण करने पर निम्नलिखित संभावनाएं अनुमानित की जा सकती हैं । १. आचार्य कुन्दकुन्द नन्दिसंघ की परम्परा के परम प्रतिभाशाली महान् प्राचार्य थे । २. जिस प्रकार भद्रबाहु द्वितीय और माघनन्दि के बीच ६ प्राचार्यों के होते हुए भी नन्दि संघ की पट्टावली में उन्हें भद्रबाहु के शिष्य गुप्ति गुप्त का शिष्य बताया गया है, उसी प्रकार माघनन्दि श्रौर जिनचन्द्र के बीच में भी अनेक प्राचार्यों के होने के उपरान्त भी जिनचन्द्र को माघनन्दि का शिष्य बताया गया है । इसका कारण संक्षेप में वर्णन करने की प्रणाली का अवलम्बन अथवा बीच के प्राचार्यों के नामों की विस्मृति हो सकता है । ३. कुन्दकुन्द को जिन प्राचार्य जिनचन्द्र का शिष्य बताया गया है वे जिनचन्द्र कहीं पुष्पदन्त के भांगिनेय एवं शिष्य जिनपालित ही तो नहीं हैं । गृहस्थ काल का जिनपालित नाम प्राचार्यकाल में चन्द्र के समान धर्मोद्योत करने पर जिनचन्द्र के रूप में परिवर्तित हो जाना बुद्धिसंगत भी प्रतीत होता है । ४. जिस प्रकार भद्रबाहु द्वितीय तथा माघनन्दि के बीच में श्रौर माघनन्दि तथा जिनचन्द्र ( जिनपालित) के बीच में अनेक प्राचार्यों के होने के उपरान्त भी उनका परस्पर साक्षात् गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना दिया गया, ठीक उसी तरह यह भी संभव है कि जिनपालित - जिनचन्द्र और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच में अनेक श्राचार्यों के होते हुए भी नन्दिसंघ की पट्टावली में इनका उल्लेख साक्षात् गुरुशिष्य के रूप में कर दिया गया हो । यदि उपरोक्त संभावनाएं इतिहास के विशेषज्ञों द्वारा तथ्य की कसौटी पर कसी जाने के अनन्तर खरी उतरें तो प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय, राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीय के राज्यकाल के शक सं० ७१६ और ७२४ के दो ताम्रपत्रों के आधार पर डॉ० के० पी० पाठक द्वारा प्रकट किये गये उनके श्रभिमतानुसार शक सं० ४५०, तदनुसार वीर नि० सं० १०५५ तो नहीं पर जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, वीर नि०सं० १५० के प्रास-पास का श्रौर उनका स्वर्गारोहणकाल वीर नि० सं० १००० के पश्चात् तक का हो सकता है : कुन्दकुन्द के बीच में हुए जितने प्राचायों के नाम लेख में दिये गये हैं, उनके प्रतिरिक्त मोर भी प्राचार्य हुए थे । सम्पादक wap Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि ग० भ्रान्ति ___राष्ट्रकूटवंशी राजा गोविन्द तृतीय के वे दोनों ताम्रपत्राभिलेख विद्वानों में बड़े चर्चा के विषय रहे हैं अतः पाठकों की सुविधार्थ उन्हें यहां यथावत् उद्ध त किया जा रहा है : राष्ट्रकूटवंशीय महाराज गोविन्द तृतीय शक सं०७१६ का ताम्रलेख प्रासीद् (वै) तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः । स . चैतद्विषये श्रीमान्, शाल्मलीग्राममाश्रितः ।। निराकृततमोऽराति, स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजोद्योतित क्षोणिश्चण्डाचिरिव यो बभौ ।। तस्याभूत् पुष्पनन्दी तु शिष्यो विद्वान् गणाग्रणीः । तच्छिष्यश्च प्रभाचन्द्रस्तस्येयं वसतिः . कृता। गोविन्द तृतीय का शक सं०७२४ का दूसरा ताम्रलेख कोण्डकोन्दान्वयोदारो, गणोऽभूद् भुवनस्तुतः। तदेतद् विषय विख्यातं' शाल्मली ग्राममावसम् (द) । पासीद् (वै) तोरणाचार्यस्तपः . फलंपरिग्रहः । तत्रोपशमसंभूतभावनापास्तकल्मशः , पण्डितः पुष्पनन्दीति, .. बभूव भुवि विश्रुतः ।. अन्तेवासी मुमेस्तस्य सकलश्चन्द्रमा .. इव ॥ प्रतिदिवस भववृद्धिनिरस्तदोषो व्यपेत हृदयमलः । । परिभृतचन्द्रबिम्बस्तच्छिष्योऽभूत् प्रभाचन्द्रः ।। उपर्युल्लिखित दोनों ताम्रपत्राभिलेखों का भावार्थ यह है कि कोण्डकुन्दान्वयी तोरणाचार्य शाल्मली ग्राम में प्राकर रहे। उन्होंने प्रज्ञानान्धकार को ध्वस्त कर लोगों को सत्पथ का पथिक बनाया। अपने तंपस्तेज से पृथ्वी-मण्डल को प्रकाशित करते हुए वे मध्याह्न के सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। उनके शिष्य पुष्पनन्दि हुए, जो बड़े विद्वान् एवं दूर-दूर तक विख्यात थे। उन पुष्पनन्दि के अन्तेवासी शिष्य प्रभाचन्द्र नामक मुनि हुए, जो सब प्रकार के दोषों से रहित, विशुद्ध हृदय एवं पूर्णिमा के चन्द्र के समान देदीप्यमान मुखमण्डल वाले थे। - स्व० गॅ० के० बी० पाठक का कहना है कि पहले का लेख शक सं०७१६ का है तो प्रभाचन्द्र के दादागुरु तोरणचार्य शक सं० ६०० के पास-पास रहे होंगे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है । तोरणाचार्य जब कुन्दकुन्दान्वय में हुए हैं तो . . "विषयस्यातं' पाठ होना चाहिये प्रन्यया छन्दो-मंग की स्थिति होती है। न शिलालेख संग्रह, भा॰ २, पृ. १२२, १२३ भोर १२६, Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल नि० ग० भ्रान्ति ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्धि क्षमाश्रमरण - ७६७ कुन्दकुन्द का समय उनसे १५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक सं० ४५० के लगभग मानने में कोई हानि नहीं । यहां श्री पाठक ने तोरणाचार्य और कुन्दकुन्दाचार्य के समय निर्धारण में जिस अनुमान अथवा कल्पना की प्रक्रिया का अवलम्बन किया है, उसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक अनुभव करेगा कि किसी भी तरह के आधार के अंकुश के प्रभाव में इस प्रकार के काल्पनिक काल को तो कोई यथेच्छ घटा अथवा बढ़ा सकता है । ताम्रपत्र में उल्लेख है कि शक सं० ७१६ में प्रभाचन्द्र के नाम पर वसति का निर्मारण कराया गया । वे प्रभाचन्द्र पुष्पनन्दि के शिष्य एवं तोरणाचार्य के प्रशिष्य थे । इनमें से प्रत्येक आचार्य का ४० वर्ष का प्राचार्य काल गिनने पर ही श्री पाठक के कथनानुसार तोरणाचार्य का प्राचार्य पद पर आसीन होने का काल शक सं० ६०० के आस-पास हो सकता है। एक से अधिक - अनेक प्राचार्यों के प्रज्ञात काल के सम्बन्ध में किसी संभावित निर्णय पर पहुँचना हो तो मोटे तौर पर प्रत्येक प्राचार्य का काल २० वर्ष के लगभग अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य के काल निर्णय के प्रयास में श्री पाठक ने अनुमान लगाया है कि तोरणाचार्य से १५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक सं० ४५० के लगभग कुन्दकुन्दाचार्य का समय मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है । एक विद्वान् कह सकता है कि कुन्दकुन्दाचार्य और तोरणाचार्य के बीच का अन्तराल काल २०० वर्ष माना जाय । इसी प्रकार दूसरा ५० वर्ष और तीसरा विद्वान् १०० वर्ष का अन्तराल काल मानने की बात कह सकता है | श्री पाठक ने अपने अनुमान को साधार बनाने हेतु पंचास्तिकाय की टीका में टीकाकार जयसेन और बालचन्द्र द्वारा निर्दिष्ट शिवकुमार महाराज के शिवमृगेश वर्म होने की संभावना प्रकट करते हुए लिखा है- "शक सं० ५०० में कीर्ति नामक चालुक्य वंशी राजा ने बादामी में कदम्बवंश के राज्य का अन्त किया इससे यह निश्चित होता है कि शक सं० ४५० में शिवमृगेशवमं राज्य करते थे । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिये पंचास्तिकाय की रचना की, इस प्रकार का उल्लेख टीकाकार जयसेनाचार्य और बालचन्द्र ने किया है । वे शिवकुमार महाराज वस्तुतः शिवमृगेशवर्म ही जान पड़ते हैं । श्रतः कुन्दकुन्दाचार्यं. का समय भी उनके शिवमृगेशवमं के समकालीन होने के कारण शक सं० ४५०, तदनुसार वि० सं० ५८५ सिद्ध होता है ।" यह तो पहले सिद्ध किया जा चुका है कि जयसेनाचार्य से लगभग २०० वर्ष पहले हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा पंचास्तिकाय प्रादि की अपनी टीका में शिवकुमारं महाराज और प्राचार्य कुन्दकुन्द का किसी प्रकार का उल्लेख न किये जाने के फलस्वरूप जयसेनाचार्य तथा बालचन्द्र द्वारा किया गया उपर्युद्धत उल्लेख प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । ऐसी दशा में जयसेनाचार्य तथा बालचन्द्र द्वारा किये गये उक्त उल्लेख पर तो विश्वास नहीं किया जा सकता। हां, अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के प्राधार पर श्री पाठक ने शिवमृगेशवर्म और प्राचार्य कुन्दकुन्द के सम Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति कालीन होने का अनुमान किया है, उस पर माघनन्दि, धरसेन जिनपालित (जिनचन्द्र) आदि के सम्बन्ध में ऊपर प्रस्तुत किये गये तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर श्री पाठक का अनुमान तथ्य के थोड़ा निकट पहुँचता हुप्रा प्रतीत होता है। यह यहले बताया जा चुका है कि प्राज से ६० वर्ष पूर्व पं० गजाधरजी जैन, न्यायशास्त्री ने भी कुन्दकुन्द का समय शक सं० ४५० तदनुसार वीर नि० सं० १०५५ के आस-पास का अनुमानित किया था।' - आचार्य कुन्दकुन्द के समय पर विचार करते समय कोरिण महाराजा अविनीत (कोङ्गणि द्वितीय) का मर्करा के खजाने से प्राप्त ताम्रपत्र (संस्कृत कन्नड़), जिस पर कि संवत्सर ३८८ (सोमवार स्वाति नक्षत्र) अंकित है, विद्वानों में विगत अनेक वर्षों से बड़ा चर्चा का विषय रहा है । इस ताम्रपत्र के-"श्रीमान् कोङ्करिण महाराज अविनीत नामधेय दत्तस्य देसिगगरणं कोण्डकुन्दान्वय गुणचन्द्रभट्टार शिष्यस्य अभयरणंदि" आदि अंश में 'देसिग गणं कोण्डकुन्दान्वय' के ६ प्राचार्यों का उल्लेख देख कर ए० एन० उपाध्ये 3 आदि अनेक विद्वानों ने कुन्दकुन्दाचार्य का समय ईसा की तीसरी शताब्दी अनुमानित किया था। पर डॉ० गुलाबचन्द चौधरी ने गहन शोध के पश्चात् प्रमाणपुरस्सर मर्करा के उक्त ताम्रपत्र को बनावटी सिद्ध कर दिया है। डॉ० हीरालालजी ने भी श्री चौधरी के शोधपूर्ण अभिमत की पुष्टि करते हुए लिखा है : "(११) मर्करा के जिस ताम्रपत्र लेख के आधार पर कोण्डकुन्दान्वय का अस्तित्व ५ वीं शती में माना जाता है, वह लेख परीक्षण करने पर बनावटी सिद्ध होता है, तथा देशीय गण की जो परम्परा उस लेख में दी गई है, वह लेख नं० १५० (सन् ९३१) के बाद की मालूम होती है। (१२) कोण्डकुन्दान्वय का स्वतन्त्र प्रयोग आठवीं नौवीं शती के लेख में देखा गया है तथा मूल संघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ सर्वप्रथम प्रयोग लेख नं० १८० (लगभग १०४४ ई०) ५ में हरा पाया जाता है।" ... उपरिलिखित तथ्यों और विस्तृत चर्चा से कुन्दकुन्दाचार्य का काल वीर नि० सं० १००० के आस-पास का सुनिश्चित हो जाने के अनन्तर विद्वानों के लिये यह खोज करना भी परमाश्यक हो जाता है कि वस्तुतः प्राचार्य कुन्दकुन्द ने किन-किन ग्रन्थों का निर्माण किया। ' प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ७५७ . २ जैन शिलालेख संग्रह, भा॰ २, पृ० ६३-६४ : 3 Introduction on Pravachansar, (by A. N. Upadhye) p. 22 ४ चैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, (मा० दिग० ग्रन्थमाला) प्रस्तावना, पृ० ४६.५० ५ जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० २२० (मा. दिग• जैन ग्रं. माला) 'जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, प्राक्कपन, पृ० ३ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण केवली-काल से पूर्वधरकाल तक साध्वी-परम्परा जैनधर्म की अनादिकाल से यह विशेषता रही है कि इसमें पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी साधनापथ पर अग्रसर होने की पूर्ण अधिकारिणी माना गया है। जिस प्रकार किसी भी वर्ण, वर्ग अथवा जाति का मुमुक्ष पुरुष अपने सामर्थ्यानुसार प्रणवत अंगीकार कर श्रावक एवं पंच महाव्रत धारण कर श्रमण बन सकता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वर्ग, वर्ण अथवा जाति की स्त्री भी अपनी शक्ति एवं इच्छा के अनुरूप श्रमणोपासिका-धर्म अथवा श्रमणी-धर्म ग्रहण कर सकती है । "स्त्रीशूद्रो नापीयेताम्" - इस प्रकार के प्रतिबन्ध के लिये जैनधर्म में कभी कहीं किंचिरमात्र भी स्थान नहीं रखा गया है। इसका अकाट्य प्रमाण है अनादिकाल से तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने समय में साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना किया जाना । यदि स्त्रियों को इस अधिकार से वंचित रखा जाता तो जैनधर्म में पतुर्विध तीर्थ के स्थान पर साधु और श्रावक वर्ग के रूप में द्विविध तीर्थ ही होता । वस्तुस्थिति यह है कि अनादिकाल से तीर्थंकर तीर्थ-स्थापना के समय पुरुष वर्ग की तरह नारीवर्ग को भी साधनाक्षेत्र का सुयोग्य एवं सक्षम अधिकारी समझकर चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते पाये हैं। इतिहास साक्षी है कि सभी तथंकरों द्वारा प्रदत्त इस अमूल्य अधिकार का स्त्रियों ने सहर्ष हार्दिक स्वागत किया। इस अधिकार का सदुपयोग करते हुए महिलाएं भी पुरुषों की तरह बड़े साहस के साप साधनापथ पर अग्रसर हुईं और उन्होंने पारमकल्याण के साथ-साथ बनकल्याण करते हुए जैनधर्म के प्रचार, प्रसार तथा अभ्युत्थान में परम्परा से बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान दिया। चौबीसों तीर्थकरों के साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकानों की संस्था के तुलनात्मक ईक्षण से तो वस्तुतः ऐसा प्रकट होता है कि साषनापथ में महिलाएं सदा पुरुषों से बहुत पागे रही है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के प्रामाणिक ग्रन्थों में भगवान महावीर के साधुषों की संख्या बहां १४,००० दी है, वहां साध्वियों की संख्या ३६,००० दी है, जो साधुनों की संख्या की तुलना में बाईगुना से भी अधिक है। प्रभु महावीर की श्राविकामों की संख्या भी श्रावकों की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा के अन्यों में दुगुनी मोर. दिगम्बर परम्परा के अन्यों में तिगुनी बताई गई है। इसी प्रकार दोनों परम्परामों के अन्यों में शेष २३ तीपंकरों के साधुनों की अपेक्षा साध्वियों की तथा श्रावकों की अपेक्षा श्राविकानों की संख्या सवागुनी से लेकर चतुर्गुणित तक अधिक बताई गई है। दिगम्बर परम्परा में तो (यापनीय संघ को छोड़) स्त्री-मुक्ति नहीं मानी गई है। पर श्वेताम्बर परम्परा के मागम 'जम्मूढीप प्राप्ति' में भगवान ऋषभदेव Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा की ४००० साध्वियों के मोक्षगमन का उल्लेख है। मुक्त हुई इन साध्वियों की यह संख्या उनके मुक्त हुए साधुनों की संख्या से दुगुनी है। इसी प्रकार कल्पसूत्र में भगवान् अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर की क्रमशः ३ हजार, २ हजार एवं १४०० साध्वियों के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का उल्लेख है। इन तीनों तीर्थंकरों के मुक्त हुए साधुओं की अपेक्षा मुक्त हुईं इनकी साध्वियों की संख्या भी दुगुनी है।' इन सब तथ्यों से निर्विवादरूपेण यही सिद्ध होता है कि अनादि-प्रतीत में जितने भी तीर्थकर हुए हैं और महाविदेह क्षेत्र में जो तीर्थंकर विद्यमान हैं, उन सब ने पुरुषों और स्त्रियों को समान रूप से साधना के क्षेत्र में अग्रसर होने का अवसर अथवा अधिकार प्रदान किया है । भगवान् महावीर ने भी धर्मतीर्थ की स्थापना के समय जिस प्रकार इन्द्रभूति गौतम आदि ११ गणधरों को उनकी शिष्य-मण्डली सहित श्रमण-धर्म में तथा अन्य मुमुक्षु पुरुषों को श्रमणोपासक धर्म में दीक्षित कर पुरुष वर्ग को साधना. पथ का अधिकारी घोषित किया, उसी प्रकार चन्दनबाला प्रादि महिलामों को भी श्रमणी-धर्म में तथा अन्य मुमुक्षु महिलावर्ग को श्रमरणोपासिका धर्म में दीक्षित कर नारी वर्ग को भी पुरुषों के समान ही साधना द्वारा स्व-पर-कल्याण करने का अधिकारी घोषित किया। . सकल चराचर के शरण्य विश्वकबन्धु प्रभु महावीर ने जिस समय चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना की, उस समय आर्यावर्त में धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति बड़ी विचित्र थी। "स्त्रीशद्रो नाधीयेताम्" का नाद घर-घर में, सर्वत्र गंजरित हो रहा था। पुरुष भोक्ता है और नारी भोग्या-इस प्रकार का 'अहं' पुरुषवर्ग में जागत हो चरम सीमा पर पहुंच चुका था। वह नारी को अपने समकक्ष स्थान देने के लिए सहमत नहीं था। अपनी प्रांखों पर पड़े स्वार्थपरता के प्रावरण के कारण पुरुषवर्ग ने नारी की हीनता का अंकन करने में किसी प्रकार की कोरकसर नहीं रखी थी। साधना के क्षेत्र में भी अपना एकाधिपत्य बनाये रखने की आकांक्षा लिये पुरुषवर्ग ने नारी को अबला घोषित कर सन्यस्त जीवन के लिये अनधिकारिणी बतलाया। देश में सर्वत्र यही लोक-प्रवाह चल रहा था। ___ इस लोक-प्रवाह के विरुद्ध नारी को सन्यास-धर्म में दीक्षित करने का किसी धर्मप्रवर्तक को साहस नहीं हो रहा था। बोधर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध भी नारी को भिक्षुणी-धर्म में प्रवजित करने का सहसा साहस नहीं कर पाये, यह बौद्ध धर्मग्रन्थ 'चुल्लवग्ग' के निम्नलिखित विवरण से स्पष्टतः प्रकट होता है :___"बात उन दिनों की है जब भगवान बुद्ध कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विराजमान थे। महाप्रजापति गौतमी (भगवान् बुद्ध की मौसी, जिसने नवजात शिशु बुद्ध की माता के देहावसान के पश्चात् उन्हें अपना स्तनपान करा उनका 'न धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १ (परिशिष्ट) पृष्ठ ५८६-५१० Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७१ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण सामान्य पूवषर-काल : अपने पुत्र के समान लालन-पालन किया था), जहां भगवान् थे, माई, प्राकर भगवान् को अभिवादन किया। अभिवादन कर एक ओर बैठ गई। वह भगवान् से बोलीभन्ते ? मैं नारी, प्रगार धर्म से अनगार धर्म में आकर तथागत-प्रवेदित धर्म-विनयदीक्षा पाना चाहती हूँ। भगवान् बुद्ध ने कहा - गौतमी ! तुम्हारी (नारी की) तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय-भिक्षु धर्म में रुचि न हो, यही अच्छा है। महाप्रजापति ने तीन बार प्रावेदन किया और भगवान् बुद्ध ने तीनों ही बार अस्वीकार किया। भगवान् नारी को तथागत-प्रवेदित धर्म में दीक्षित नहीं करते हैं, यह देख गौतमी दुःखी दुर्मन और अश्रुमुखी होती हुई, रोती हुई भगवान् को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर लौट गई। __ कपिल वस्तु से विहार करते हुए भगवान् वैशाली प्राये, महावन स्थित कूटागार शाला में टिके । तब महाप्रजापति गौतमी केशच्छेदन कर, काषाय वस्त्र पहन, बहुत सी शाक्य महिलाओं के साथ वैशाली प्राई। वह महावन में स्थित कूटागार-शाला की ओर चली। उसके नंगे पैर धूल के करणों से भरे थे। दुःखी, दुर्मन, प्रश्रमुखी गौतमी बाहरी द्वार पर ठहरी । प्रायुष्मान् मानन्द ने महाप्रजापति गौतमी को इस स्थिति में देखा। देख कर पूछा - यह सब क्यों ? गौतमी बोलीभन्ते प्रानन्द ! भगवान् नारी को तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में पाने की अनुशा नहीं, देते हैं। प्रानन्द ने कहा - मुहूर्त भर तुम यहीं ठहरो, मैं भगवान् से इस सम्बन्ध में याचना कर पाऊँ। . प्रायुष्मान् प्रानन्द भगवान् के पास पाया, अभिवादन कर एक अोर बैठा, भगवान् से निवेदन किया - महाप्रजापति गौतमी, भगवान् नारी को दीक्षित नहीं करते, यह देख दुःखी, दुर्मन और आंसू गिराती हुई बाहरी द्वार पर बैठी है, उसके नंगे पैर धूल से भरे हैं । भगवन् ! अच्छा हो, नारी तथागत-प्रवेदित विनय-धर्म में दीक्षा पा सके । भगवान् ने कहा- नहीं प्रानन्द ! नारी को तथागत-प्रवेदित धर्मविनय में दीक्षित किया जाय, ऐसी रुचि तुम्हारी नहीं होनी चाहिए। मानन्द ने दूसरी बार और तीसरी बार भी निवेदन किया और भगवान् ने निषेध । तब प्रानन्द ने देखा, यों तो भगवान् नारी को दीक्षित होने को अनुशा नहीं दे रहे हैं, दूसरी विधि से उनसे कहूं । तब प्रायुष्मान् प्रानन्द ने भगवान से निवेदन किया - भगवन् ! क्या नारी अगार जीवन से अनगार जीवन में प्रा, तथा'गत-प्रवेदित धर्म-विनय में प्रवजित हो, स्रोतापत्रफल, सकृदागारि-फल, अनागारिफल और अर्हत्-फल का साक्षात्कार कर सकती है ? भगवान ने कहा- ऐसा हो सकता है। तब आनन्द बोला- भगवन् ! यदि ऐसा है तो महाप्रजापति गौतमी, जिसका हम पर बहुत उपकार है, जो भगवान् की मौसी है, जिसने भगवान् का पोषण किया, दूध पिलाया, भगवान् की जननी के काल कर जाने पर भगवान को स्तनपान कराया, अच्छा हो, तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में दीक्षा-लाभ कर सके। Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा भगवान् बोले-आनन्द ! यदि गौतमी पाठ गुरु धर्म स्वीकार करे तो उसकी उपसम्पदा (दोक्षा) हो सकती है।' चुल्लवग्ग के अनुसार उनमें (पाठ गुरु धर्मो में) से मुख्य-मुख्य ये हैं - १. सौ वर्ष पूर्व भी दीक्षित भिक्षुणी उसी दिन दीक्षित भिक्षु का भी प्रभि . वादन - प्रत्युत्थान व अंजलि-कर्म करे। २. जिस गांव में भिक्षु न हो, वहां भिक्षुणी न रहे। ३. हर पक्ष में उपोसत्य किस दिन है और धर्मोपदेश सुनने के लिये कब माना है, ये दो बातें वह भिक्षु-संघ से पूछे । ४. चातुर्मास के पश्चात् भिक्षुणी को भिक्षु-संघ पोर भिक्षुणी संघ से प्रवा___ रणा-स्व-दोष-ज्ञापन की प्रार्थना करनी होगी। ५. किसी भी कारण से भिक्षुणी भिक्षु को डांटे-फटकारे नहीं और भिक्षु __ भिणियों को उपदेश दे। तदनन्तर भगवान् बुद्ध ने महाप्रजापति गौतमी को उपसम्पदा दी पर अन्ततः वे इससे तुष्ट नहीं थे। उन्होंने मानन्द से कहा कि धर्म-संघ सहस्रों वर्ष चलता पर क्योंकि नारी को इसमें स्वीकार कर लिया गया है अतः यह चिरकाल तक नहीं टिकेगा । अब यह सैकड़ों वर्ष ही टिकने वाला है।" ___ महाप्रजापति गौतमी के प्रव्रज्या-प्रसंग को पढ़ने से ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध नारी-प्रव्रज्या के लिए अन्ततः सहमत नहीं थे। महाप्रजापति गौतमी द्वारा तीन बार निवदेन किया जाना, बुद्ध द्वारा तीनों बार निषेध किया जाना, भगवान के अनन्य मन्तेवासी प्रामन्द द्वारा भी तीन बार अनुरोध किया जाना, उस पर भी बुद्ध की प्रस्वीकृति-ये घटनाक्रम यह सिद्ध करते हैं कि मानन्द द्वारा दूसरे प्रकार से पुनः प्रार्थना किये जाने पर बुद्ध ने महाप्रजापति गौतमी की प्रव्रज्या की जो स्वीकृति दी, वह केवल प्रानन्द का मन रखने के लिए थी। वे ऐसा कर प्रसन्न नहीं थे। संघ के उत्तरोत्तर उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में उनकी प्राशा धूमिल हो गई, जो उनके अन्तिम वाक्यों से प्रकट होता है। .. इस सन्दर्भ में हम यदि भगवान महावीर के विचारों पर गहराई से ऊहापोह करें तो उनके चिन्तन में ऐसा भेद ही प्रतीत नहीं होता कि अमुक मुमुक्ष · पुरुष है या नारी । उनकी दृष्टि में केवल, यह साधनोन्मुक्त व्यक्ति है, इतना सा रहता है। जिस प्रकार जाति, वर्ण, वर्ग का भेद उनके मन पर कोई असर नहीं करता, उसी प्रकार लिंग-भेद भी उनके समक्ष समस्या बन कर नहीं पाता। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भगवान् महावीर ने बिना किसी संकोच के तीर्थस्थापना के अवसर पर गौतमादि पुरुषों को श्रमरण-धर्म में दीक्षित कर तत्काल चन्दनबाला प्रादि नारियों को भी श्रमणी-धर्म में दीक्षित किया। ' ल्म बन्न १०, १.१ २ पुल्ल बग्ग १०, २. २ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७७३ । महाप्रजापति के उपर्युक्त प्राख्यान और भगवान् महावीर द्वारा तीर्थस्थापना के दिवस की तात्कालिक वेला में ही चन्दनबाला आदि नारियों को श्रमणी धर्म में दीक्षित किये जाने के विवरण से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि गौतम बुद्ध को व्यावहारिक भूमिका ने छू लिया था और तीर्थंकर महावीर को वह व्यावहारिक भूमिका किंचित्मात्र भी छू नहीं सकी। तीर्थंकर अनुस्रोतगामी नहीं होते। वे तो सत्यविमुख रूढ परम्परामों, अंधश्रद्धानों और निस्सार-थोथी मान्यतामों का उन्मूलन कर एक नूतन क्रान्तिकारी प्राध्यात्मिक संस्कृति की प्रतिष्ठापना करते हैं। ऐसे महापुरुष भला लोक-प्रवाह में कैसे बह सकते हैं ? सर्वज्ञसर्वदर्शी प्रभु महावीर ने स्व-पर-कल्याणकारी धर्माराधना-अध्यात्म साधना के क्षेत्र में तत्वतः पुरुष और नारी जैसा कोई भेद न रख कर साधना की सापवाद (देशविरति) और निरपवाद (सर्वविरति.)-इन दोनों विधामों अर्थात् श्रावकश्राविका धर्म एवं साधु-साध्वी धर्म के अनुसरण-अनुपालन के लिये पुरुष तथा नारी वर्ग का समान रूप से आह्वान किया। यह वस्तुतःभगवान् महावीर की महावीरता थी। इसका परिणाम भी अतीव श्रेष्ठ और परम सुखावह रहा । नारी वर्ग ने यह सिद्ध कर दिया कि आत्मा के अभ्युत्थान के लिये अध्यात्म-साधना-पथ का अवलम्बन करने की नारी भी पुरुष के समान पूर्ण प्रधिकारिणी है, प्रबुद्ध पुरुष की तरह प्रबुद्धा नारी भी उत्कट संयम का पालन और सर्वोच्च त्याग करने में सर्वतः सक्षम है। भगवान महावीर द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन काल से लेकर आज तक का जैन धर्म का इतिहास इस बात का साक्षी है कि श्रमरणी-धर्म में दीक्षित नारियों ने जिस बड़ी संख्या में, जिस अद्भुत प्रात्मबल, प्रबल साहस और उत्कट उत्साह के साथ संयमका निर्वहन तथा धर्म का प्रचार-प्रसार किया, एवं कर रही हैं, वह, संख्या आदि कतिपय दृष्टियों से पुरुष-साधकों की अपेक्षा कुछ बढ़कर ही कहा जा सकता है । भगवान् महावीर की विद्यमानता में ३६,००० नारियों ने प्रभु के उपदेशों से प्रबुद्ध हो साध्वी-धर्म की दीक्षा अंगीकार की। उनमें से अनेक के साध्वीजीवन का प्रेरणाप्रदायी विशद विवरण प्रागम ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। काली प्रादि महासतियों के प्रति कठोर तपश्चरण का जो वर्णन पागम में उल्लिखित है, उसे पढ़कर प्रबल मनोबल वाले पाठकों के भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं और उन उत्कट साधिकारों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा से मस्तक सहसा स्वतः ही झुक जाते हैं। वस्तुतः साध्वियों का जीवन भी साधक-साधिकारों के लिये बड़ा प्रेरणादायक और दिशानिर्देशक है। वीर निर्वाण सं० १ से १००० तक की प्राचार्य परम्परा का जिस प्रकार विस्तृत परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, उसी प्रकार उस काल की साध्वी-परम्परा का परिचय भी प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित है किन्तु वीर निर्वाण पश्चात् की साध्वी-परम्परा का क्रमबद्ध इतिहास देना तो दूर एक बहुत बड़ी कालावधि में हुई साध्वियों के नाम तक अाज समस्त जैन साहित्य का मालोड़न करने पर भी उपलब्ध नहीं होते। Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा भगवान् की प्रथम शिष्या चन्दनबाला भगवान् के निर्वाण से पूर्व ही मुक्त हुई अथवा पश्चात् - इस सम्बन्ध में भी श्वेताम्बर तथा दिगम्बर - दोनों परम्परामों के किसी ग्रन्थ में कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। भगवान् के निर्वाण के पश्चात् भगवान् की ३६,००० साध्वियों में से बहुत-सी साध्वियां निश्चित रूप से विद्यमान रही होंगी, पर उनमें से किसी एक का भी नामोल्लेख निर्वाणोत्तर काल के जैन वाङमय में उपलब्ध नहीं होता। न कहीं इस प्रकार का कोई एक भी उल्लेख दृष्टिगोचर होता है कि निर्वाण के तत्काल पश्चात् अथवा वीर नि० सं० १ से १००० तक की सुदीर्घ कालावधि में साध्वी संघ की प्रवर्तिनियां कौन-कौन रहीं। ___वीर नि० सं० १ में दीक्षित हुए प्रार्य जम्बूस्वामी की दीक्षा के प्रसंग में आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में उल्लेख किया है कि जम्बूकुमार की माता, पत्नियों और सासुमों (सासों) को प्रार्य सुधर्मा ने श्रमणी धर्म की दीक्षा प्रदान कर उन्हें साध्वी सुव्रता की आज्ञानुवर्तिनी बनाया। साध्वी सुव्रता साध्वियों के किसी संघाटक की मुख्या थी अथवा सम्पूर्ण श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी, इस सम्बन्ध में परिशिष्ट पर्व में कोई संकेत नहीं किया गया है। परिशिष्ट पर्व में उपर्युक्त विवरण के पश्चात् उल्लेख किया गया है कि ५१० पुरुषों और १७ महिलाओं, कुल मिलाकर ५२७ मुमुक्षुत्रों के साथ जम्बूकुमार को दीक्षित करने के पश्चात् आर्य सुधर्मा अपने शिष्यों को साथ लिये प्रभु महावीर की सेवा में पहुंचे। परिशिष्टपर्वकार द्वारा किया गया यह उल्लेख प्रामाणिक नहीं माना जा सकता क्योंकि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों ही परम्परामों के सभी मान्य ग्रन्थों में वीर निर्वाण के पश्चात् जम्बूकुमार के दीक्षित होने का उल्लेख है। परम्परागत मान्यता भी यही रही है कि जम्बूकुमार ने वीर निर्वाण के पश्चात् वीर नि० सं० १ में किसी समय दीक्षा ग्रहण की। परिशिष्ट-पर्वकार द्वारा किये गये इस वीर नि० विषयक उल्लेख के संशयास्पद सिद्ध होने की स्थिति में परिशिष्ट पर्व में किये गये उस उल्लेख पर भी पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता, जिसमें कि श्रमणी समूह की मुख्या साध्वी का नाम सुव्रता बताया गया है । यह पहले बताया जा चुका है कि साधु समाज की तरह साध्वी समाज ने भी मानवता पर अनेक महान् उपकार किये हैं। सहज करुणा-कोमल-हृदय सती. वर्ग के उद्दात्त चारित्र और हितप्रद मधुर उपदेशों से मानव समाज सदा साधना के सत्पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणाएं लेता रहा है। प्रार्य महागिरि, आर्य सुहस्ती, आर्य वज्र एवं याकिनी महत्तरासून प्राचार्य हरिभद्र प्रादि महान् प्रभावंक प्राचार्य जिस प्रकार जिन-शासन की उत्कट सेवा और जनकल्याण के महान् कार्य करने में सफल हुए, वह सब मूलतः साध्वी-समाज की ही देन रही है। इन सब वास्तविकताओं को दृष्टिगत रखते हुए निर्वाणोत्तर काल की. साध्वी-परम्परा की जितनी अधिक महत्तरामों, प्रतिनियों, स्थविरामों के जीवन का परिचय दिया जाय, वह केवल साधकों ही नहीं अपितु समस्त मानव-समाज के लिये उतना Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७७५ ही अधिक श्रेयस्कर, प्रेरक और दिशावबोधक हो सकता है। निर्वाणोत्तर काल की साध्वी परम्परा का सर्वांगीण परिचय प्रस्तुत करने हेतु अनेक ग्रन्थों का अवलोकन किया गया, अनेक विद्वान् इतिहासविदों, सन्तों एवं साध्वियों से पावश्यक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया गया पर इन सब प्रयत्नों का कोई उत्साहप्रद परिणाम नहीं निकला। श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों तथा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर - दोनों परम्परामों के शिलालेखों के उल्लेखों से यह तो पूरी तरह सिद्ध होता है कि तीर्थस्थापन के काल से लेकर वर्तमान काल तक जैन. श्रमरणीवर्ग की पुनीत एवं पावन परम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। परन्तु समय-समय पर जो प्रमुख साध्वियां हुई, उनका जीवन-परिचय मिलना तो दूर अधिकांशतः नामोल्लेख तक दृष्टिगोचर नहीं होता। बड़े विस्तीर्ण काल के व्यवधान के पश्चात् दो चार प्रमुख साध्वियों के नाम अथवा नामोल्लेख के अभाव में उनका केवल साध्वियों के रूप में उल्लेख मात्र मिलता है। निर्वाण काल से पूर्व की चन्दन बाला, मृगावती प्रादि कतिपय श्रमणी मुख्यानों का परिचय प्रस्तुत ग्रन्थमाला के प्रथम भाग में दिया जा चुका है । अव, निर्वाण पश्चात् १००० वर्ष की अवधि में हुई श्रमरणी-मुख्यानों में से जिन-जिन का जिस रूप में परिचय उपलब्ध होता है, उसे यहां संक्षेप में दिया जा रहा है : १. प्रार्या चन्दनवाला - आर्या चन्दनबाला का नाम जैन जगत् में इन्द्रभूति गौतम और प्रार्य सुधर्मा के समान ही अमर रहेगा। प्राप श्रमण भगवान् महावीर की. प्रथम शिष्या और प्रभु के सुविशाल श्रमणी-समुदाय की प्रमुख एवं संचालिका थीं। आपके कुशल संचालकत्व काल में वीर प्रभु का श्रमणी समूह खूब फला-फूला और उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। चन्दनबाला चम्पानगरी के महाराजा दधिवाहन और महाराणी धारिणी की परम दुलारी पुत्री थीं। प्रभू महावीर ने छद्मस्थ काल में प्रति कठोर अभिग्रहपूर्ण बड़ी लम्बी तपस्या का पारणा चन्दनबाला के हाथों किया था, प्रतःप्रवर्तमान अवसर्पिणी काल की समस्त साध्वियों में प्रापको सर्वाधिक पुण्यशालिनी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। चम्पानगरी में हुए भयानक राज्य. विप्लव के परिणामस्वरूप बाल्यावस्था में आपको जिन घोर कष्टों को सहना पड़ा, उनको सुनने मात्र से अच्छे-अच्छे साहसी भी सिहर उठते हैं। उस संकट काल में बालिका चन्दनबाला ने जिस साहस और धैर्य से दुखों को सहन किया, उसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रारम्भिक जीवन में भी उनका प्रात्मबल कितना प्रबल था। आर्या चन्दनबाला के जीवन का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में दिया जा चुका है।' बाल ब्रह्मचारिणी महासती चन्दनबाला ने राजकुमारियों, श्रेष्ठिकन्याओं, राजरानियों, इभ्यपत्नियों एवं सभी वर्गों की भुमुक्षु . जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० ४७६-४८४ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा - महिलामों को हजारों की संख्या में श्रमणी-धर्म में दीक्षित कर कल्याण-मार्ग में उनका नेतृत्व किया । मापने स्वयं प्रभु द्वारा प्रदत्त श्रमणीसंघ-मुख्या (प्रवर्तिनी) पद पर रहते हुए ३६,००० साध्वियों के प्रति विशाल साध्वी-संघ का बड़ी कुशलता के साथ संचालन किया। भापके तत्वावधान में प्रापका समस्त श्रमणी समूह सम्यक् रूपेण संयमप्रतिपालन, स्वाध्याय, ज्ञानार्जन, तपश्चरण 'मादि में निरत रह स्व-पर कल्याण में उत्तरोत्तर प्रग्रसर होता रहा। प्रवर्तिनी चन्दना बड़ी अनुशासनप्रिय थीं। मापके अनुशासन की यह विशेषता थी कि श्रमणी वर्ग की सभी साध्वियां सदा सजग रह कर स्वतः ही श्रमणी-प्राचार का समीचीन रूप से पालन करती रहती थीं। प्रवर्तिनी चन्दनबाला श्रमणाचार में साधारण से साधारण शैथिल्य एवं छोटी से छोटी भूल को भी भविष्य के लिय भयंकर अनर्थ का मूल मान कर अनुशासन और साध्वी समाज के हित की दृष्टि से किसी भी साध्वी को, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, प्रेमपूर्वक सावधान करने में किंचित्मात्र भी संकोच नहीं करती थीं। आपने साध्वी मृगावती जैसी उच्चकोटि की साधिका को भी प्रभु के समवसरण में असमय तक बैठे रहने पर उपालम्भ देने में संकोच नहीं किया। अपनी गुरुणी द्वारा दिये गये उपालम्भ पर महासती मृगावती ने भी अपनी भूल के लिये निश्छल भाव एवं विशुद्ध अन्तःकरण से पश्चात्ताप किया और तत्क्षण क्षपकश्रेणी पर प्रारूढ़ हो केवलज्ञान की अनुत्तर, अक्षय एवं अनन्त परम ज्योति प्राप्त कर ली। एक लम्बे समय तक जिनशासन की सेवा एवं स्व-पर का कल्याण करते हुए प्रवर्तिनी चन्दनबाला ने ४ घातीकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान और तदनन्तर अवशिष्ट चार अघाती-कर्मों का क्षय कर अन्त में प्रखण्ड-अव्याबाध-अनन्त प्रानन्दस्वरूप मोक्ष प्राप्त किया ।' महासती चन्दनबाला का परम श्लाघनीय एवं प्रेरणाप्रदायी संयमी-जीवन श्वेताम्बर .मौर दिगम्बर दोनों ही परम्परामों में बड़ा सम्मानास्पद माना गया है । मापकी आज्ञानुवर्तिनी प्रभु महावीर की ३६००० साध्वियों में से १४०० साध्वियों ने (चन्दनबाला सहित) समस्त कर्म समूह को ध्वस्त कर मोक्ष प्राप्त किया ।२. महासती चन्दनबाला के प्रवर्तिनीकाल में समस्त श्रमणी-संघ अविच्छिन्न और एकता के सूत्र में बन्धा रहा। इनके समय में साध्वी सुदर्शना के अतिरिक्त श्रमरिणयों का कोई अन्य संघाटक श्रमणी-संघ से पृथक् अथवा स्वेच्छाचारी हुमा हो, ऐसा कहीं कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। साध्वी सुदर्शना भी प्रभु महावीर के प्रथम निन्हव जमाली के प्रति स्नेहवश कुछ समय के लिए विपरीत श्रद्धानुगामिनी बन गई थी किन्तु अल्पकाल पश्चात् ही ढंक प्रजापति की प्रेरणा से प्रतिबद्ध हो एक हजार साध्वियों के साथ प्रायश्चित्तादि से प्रात्मशुद्धि कर पुनः आपके संघ में सम्मिलित हो गई। १-२ 'स्त्री तद्भव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती' - इस मान्यतानुसार दिगम्बर परम्परा ____ में इन सबका मोक्ष जाना, नहीं माना गया है। -सम्पादक Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्बी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि समाश्रमण मार्या चन्दनबाला के अनुपम उदात्त जीवन से मुमुक्षु साधक सदा प्रेरणा लेते रहेंगे। महासती चन्दनबाला ने भगवान् महावार से पूर्व निर्वाण प्राप्त किया अथवा पश्चात्, इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख अभी तक प्रकाश में नहीं पाया है; प्रतः इस विषय में खोज की प्रावश्यकता है । प्राशा है शोषप्रिय विद्वान् इस दिशा में प्रयास करेंगे। २. मार्या सुव्रता एवं धारिणी मावि (वीर निर्वाण सं०') प्रभु महावीर के प्रथम पट्टधर प्रार्य सुधर्मा के प्राचार्यकाल में महासती सुव्रता का उल्लेख मिलता है पर उनका कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता। मार्या सुव्रता प्रवर्तिनी चन्दनबाला की माज्ञानुवर्तिनी स्थविरा थी अथवा प्रार्य सुधर्मा के श्रमणी-संघ की प्रवर्तिनी, यदि वे प्रवर्तिनी थीं तो 'किस समय से किस समय तक प्रवर्तिनी रहीं.- इस सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। वीर नि० सं० १ में जब राजगही में प्रार्य सुधर्मा के उपदेश से श्रेष्ठिकुमार जम्बू भवप्रपंच से विरक्त हो दीक्षित हुए उस समय १७ उच्चकुलीन महिलाओं ने भी मार्या सुव्रता की सेवा में श्रमणोधर्म की दोसा स्वीकार की। उनके नाम इस प्रकार हैं: १. प्रार्या धारिणी (जम्बूकुमार की माता) जम्मकी सासे:२. पप्रावती ६. कमलावती ३. कमल भाल ७. सुश्रेरणा ४. विजयश्री ८. वीरमती ५. जयश्री ६. अजयसेना . जम्मू की धर्मपत्नियाँ :१०. समुद्रश्री १३. सेना ११. पाश्री १५. कनकश्री १२. पासेना १६. कनकवती १३. कनकसेना १७. जयश्री' परम वैरागी जम्बूकुमार के वैराग्योत्पादक एवं युक्तिसंगत हित-मित तथ्यपूर्ण वचनों से प्रभावित होकर उन १७ महिलायों ने प्रार्या सुव्रता के पास दीक्षा ग्रहण कर जीवनपर्यन्त उत्कट भाव से विशुद्ध तप-संयम की आराधना की। '' दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जम्मूकुमार की चार पत्नियों का ही उल्लेख है। -सम्पादक - Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [वाणी-परम्परा समुद्रश्री प्रादि जम्बूकुमार की ऐश्वर्य में पली प्रभुपम सुन्दरी माठों पत्नियों ने भोगयोग्या भरपूर यौवनभरी अवस्था में समस्त काम-भोगों, सुखसुविधाओं एवं अपार सम्पदा को ठुकरा कर एक बार मनसा वरण किये गये अपने पति जम्बूकुमार के साथ जिस प्रकार अपने प्रविचल प्रेम का अन्त तक निर्वहन किया, वह वस्तुतः प्रति महान्, अद्वितीय, अनुपम- अनूठा, प्रत्यद्भुत और मुमुक्षुधों के लिये प्रेरणा का प्रक्षय स्रोत रहा है और रहेगा । विश्व के साहित्य में इस प्रकार का और कोई उदाहरण दृष्टिगोचर नहीं होता । ७७६ परम प्रभाविका यक्षा श्रादि साध्वियां (बीर नि० दूसरी-तीसरी शती) प्रायं सुधर्मा और जम्बू के समय की कतिपय प्रमुख साध्वियों का यथोपलब्ध थोड़ा-सा परिचय ऊपर दिया गया है। भार्य जम्बू के पश्चात् प्रार्य प्रभव, आर्य शय्यंभव और प्रार्य यशोभद्र के प्राचार्यकाल की साध्वियों का परिचय उपलब्ध नहीं होता । इन प्राचार्यों के समय में भी साध्वी-परम्परा प्रविछिन्न रूप से निरन्तर चलती रही पर उस समय की प्रमुख साध्वियों के नाम अभी तक • उपलब्ध जैन साहित्य में कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुए हैं। ● आर्य यशोभद्र के शिष्य प्राचार्य संभूतिविजय के प्राचार्यकाल में महामंत्री शकडाल की ७ पुत्रियों के दीक्षित होने का उल्लेख मिलता है। यक्षा श्रादि सातों बहिनों की स्मरणशक्ति बड़ी प्रखर प्रोर प्रबल थी। कठिन से कठिन एवं कितने ही लम्बे गद्य प्रथवा पद्य को केवल एक बार सुन कर ही यक्षा उसे अपने स्मृतिपटल पर अंकित कर तत्क्षरण यथावत् सुना देती थी। इसी प्रकार दूसरी, तीसरी यावत् सातवीं बहिन क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छ मोर ७ बार सुन कर किसी भी गद्य-पद्य को यथावत् सुना देती थी । इन सातों बहिनों ने अन्तिम नंद की राजसभा में वररुचि जैसे पण्डित को अपनी प्रभुत स्मरणशक्ति के चमत्कार से हतप्रभ कर किस प्रकार उसके 'अहं' को विचूर्णित किया, यह भार्य स्थूलभद्र के प्रकरण में बताया जा चुका है। वररुचि द्वारा नियोजित षड्यन्त्र के परिणाम स्वरूप महामन्त्री शकडाल द्वारा मृत्यु का वरण किये जाने और महाराज नवम नन्द द्वारा दिये जा रहे महामात्यपद को ठुकरा कर स्थूलभद्र के प्रव्रजित हो जाने पर स्थूलभद्र की यक्षा आदि सातों विदुषी बहिनों ने भी अपने भ्राता श्रीयक से अनुमति ले उस समय की श्रमणी मुख्या के पास पंच महाव्रत रूप श्रामण्य की दीक्षा ग्रहण की। इन सातों विदुषी साध्वियों ने एकादशांगी का गहन अध्ययन कर अनेक वर्षों तक जिन-शासन की महती सेवा की । प्रद्भुत् स्मरणशक्ति वाली उन सातों साध्वियों ने कितना अथाह ज्ञान अर्जित किया होगा, इसका प्राज अनुमान नहीं किया जा सकता । श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि क्रमशः भार्य महागिरि और भार्य सुहस्ती ने बाल्यकाल से ही उस समय की Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७९ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवति क्षमाश्रमण महान् विदुषी प्रार्या यक्षा के सान्निध्य में रह कर एकदशांगी का तलस्पर्शी शान प्राप्त किया था। प्रार्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती जैसे प्राचारनिष्ठ प्रतिभाशाली एवं महान् प्रभावक श्रमण-श्रेष्ठों में प्रारम्भ से ही उच्चकोटि के संस्कार ढालने वाली महासती यक्षा कैसी विदुषी, कितनी तेजस्विनी, माचारनिष्ठा तथा संस्कारनिर्माण में कितनी कुशल होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रार्या यक्षा के विदेह-गमन का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें यह बताया गया है कि पार्य स्थूलभद्र और तदनन्तर यक्षा प्रादि सातों बहिनों के प्रवजित हो जाने के कुछ समय पश्चात् स्थूलभद्र के कनिष्ठ सहोदर श्रीयक ने भी श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। श्रीयक मुनि अत्यन्त सुकोमल प्रकृति के थे। वे भूख-प्यास को सहन करने में इतने अधिक प्रक्षम थे कि एक उपवास की तपस्या करना भी उनके लिये बड़ा दुष्कर कार्य था। साध्वी यक्षा ने अपने भ्राता मुनि को तपस्या करने के लिये प्रोत्साहित करते हुए एक दिन कहा-"मूनिवर! तपस्या की अग्नि से ही कर्मसमूह को ध्वस्त किया जा सकता है। यदि उपवास करना कठिन प्रतीत होता है तो आज एकाशन ही कर लीजिये। धीरे-धीरे इस प्रकार तपस्या करने का अभ्यास हो जायगा।" - अपनी बड़ी बहिन की प्रेरणा से मुनि श्रीयक ने एकाशन व्रत करने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मध्याह्न तक का समय बड़े प्रानन्द के साथ व्यतीत हो गया। श्रीयक को भूख प्यास ने अधिक नहीं सताया। मध्याह्नोत्तर काल में साध्वी यक्षा ने श्रीयक मुनि के पास जा कर जब यह सुना कि उन्हें उस समय तक तो भूख प्यास विशेष असह्य नहीं हो रही है, तो उन्होंने श्रीयक मुनि को उपवास कर लेने का परामर्श दिया। उत्साहवशात् श्रीयक मुनि ने उपवास का संकल्प कर लिया। रात्रि में भूख एवं प्यास ने उग्र रूप धारण कर लिया और उपोसित श्रीयक मुनि का संभवतः कड़ी प्यास के कारण प्राणान्त हो गया। प्रातःकाल होते ही मुनि श्रीयक की मृत्यु के समाचार सुन कर साध्वी यक्षा ने श्रीयक मुनि की मृत्यु में अपने पापको कारण मान कर बड़े दुःख, पश्चात्ताप और आत्मग्लानि का अनुभव किया। संघ ने बार-बार उन्हें समझाया कि वे निर्दोष हैं पर साध्वी यक्षा ने कई दिनों तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। संघ द्वारा बार-बार विनती किये जाने पर साध्वी यक्षा ने कहा "यदि कोई प्रतिशयज्ञानी (केवलज्ञानी) यह कह दें कि यक्षा निर्दोष है, तभी मैं अन्न-जल ग्रहण करूंगी, अन्यथा नहीं।" अन्ततोगत्वा शासनाधिष्ठात्री देवी की संघ ने पाराधना की और देवी सहायता से प्रार्या यक्षा महाविदेह क्षेत्र में श्रीमंदरस्वामी के समवशरण में पहुँची। घट-घट के अन्तर्यामी तीर्थंकर श्रीमंदरस्वामी ने श्रीमुख से प्रार्या यक्षा को निर्दोष बताया और ४ अध्ययन प्रदान किये । विदेह क्षेत्र में श्रीमंदर प्रभु के दर्शनों से अपना जीवन सफल तथा उनकी वाणी से अपने पापको निर्दोष मान कर मार्या यक्षा देवी सहायता से पुनः लौट पाई। उन्होंने वे चारों प्रध्याय संघ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जैन धर्म का मोनिक इतिहास-वितीय भान साम्बी-परम्परा के समक्ष प्रस्तुत किये, जो माज भी धूमिकामों के रूप में विद्यमान है। तदनन्तर साध्वी यक्षा पुनः पूर्ववत् अपनी बहिनों के साथ स्व-पर-कल्याण एवं जिनशासन की. सेवा के कार्यों में निरत हो गई। . इस प्रकार मार्य संभूति विजय के प्राचार्य-काल में दीक्षित होकर मार्या यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिना, सेणा, वेणा मोर रेणा ने साध्वीसंघ में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त किया। यक्षा प्रादि सातों साध्वियों का संयम-काल पार्य संभूति विजय, प्रार्य भद्रबाहु मोर मार्य स्थूलभद्र के प्राचार्यत्वकाल में कितना कितना रहा तथा ये प्रवर्तिनी मादि पद पर रहीं. अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में प्रमाणाभाव के कारण कुछ भी कहना वस्तुतः कल्पना की उडान के अतिरिक्त और कुछ न होगा । यक्षा प्रादि इन बालब्रह्मचारिणी, महामेधाविनी एवं विशिष्ट श्रुतसम्पन्ना महासतियों से युगयुगान्तर तक साध्वीमंडल ही नहीं, समस्त जैन संघ गौरवानुभव और प्रेरणा प्राप्त करता रहेगा। मार्या पोइरणी (अनुमानतः वी• नि० सं० ३०० से ३३० के पास पास)' वाचनाचार्य मार्य बलिस्सह के समय में साध्वीमुख्या विदुषी महासती पोइणी मोर ३०० अन्य निर्गन्थिनी साध्वियों की विद्यमानता का उल्लेख हिमवन्त स्थविरावली में उपलब्ध होता है। कलिंग चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल द्वारा वीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी के प्रथम चरण में कुमारिगिरि पर प्रायोजित भागमपरिषद में वाचनाचार्य प्रार्य बलिस्सह एवं गणाचार्य मार्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध की परम्परामों के ५०० श्रमणों के विशाल मुनि-समूह के साथ प्रार्या पोइणी मावि ३०० निर्गन्य श्रमणियों के उपस्थित होने का स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगत होता है।' . इस प्रकार के प्राचीन उल्लेखों से यह भलीभांति सिद्ध होता है कि श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु प्रायोजित वाचनामों, विचारणामों अथवा परिषदों में साधुसंघ के समान साध्वीसंघ और यहां तक कि श्रावक-श्राविकामों के संघों का भी सर्वथा पूर्ण सहयोग प्राप्त किया जाता था। ' "एसो एवं जिणसासणपभावगो भिक्खुराय रिणवो........."वीरामोणं तीसाहिय तिसय बासेसु विक्कतेसु सम्ग पत्तो।"-हिमवन्त स्पविरावली के इस उल्लेख के उनुसार खारवेल का अंतिम समय वीर नि० सं० ३३० सिड होता है । महासती पोइरणी भी खारवेल द्वारा पायोजित मागम-परिषद् में सम्मिलित थीं मतः उनका भी यही समय मनुमानित किया . जाता है। -सम्पादक २ ....... तेणं भिक्खुरायणिवेणं जिणपवयण संगहठं जिणधम्म वित्थरह्र य संपह रिणम्य समणाणं रिणग्गंठाणं णिग्गंठीणं य एगा परिसा तस्य कुमारिपम्बय-तित्यम्मि मेलिया ।......."मज्जा पोइणीयाईणं प्रज्जाणं णिग्गंठीणं तिन्नि सया समेया । [हिमवन्त स्थविरावली, अप्रकाशित] - - Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्ची-परम्परा] सामान्य पूर्वघर-कान : देवरि समाश्रमण प्रागमं के पाठों को स्थिर प्रथवा सुनिश्चित करने में जिस साम्बी की सहायता ली गई हो, वह साध्वी कितनी बड़ी शान-स्थविरा, मागम-मर्मशा, प्रतिमाशालिनी और प्रकाण्ड विदुषी होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। ज्ञान और क्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति भार्या पोइणी जैसी विदुषी का कुल, वय, शिक्षा, दीक्षा एवं साधना संबन्धी परिचय पंचपि माज उपलब्ध नहीं है तथापि यह अनुमान किया जा सकता है कि भार्या यक्षा के पश्चात् किसी निकटवर्ती समय में ही प्रार्या पोइणी ने साध्वी संघ में प्रमुख स्थान प्राप्त किया और वह एक बहुश्रुता, संघ संचालन में कुशल एवं प्राचारनिष्ठा साध्वी थीं। . प्रार्य महागिरि के प्राचार्यकाल तक श्रमण संघ में एक प्राचार्य को परम्परा रही, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रार्या यक्षा के समय तक साध्वी संघ एक हो प्रवर्तिनी अथवा साध्वीसंघमुख्या के नेतृत्व में चलता रहा । विदुषी साध्वी पोइणी के समय में साधु-संघ की तरह साध्वी-संघ में भी पृथक् नेतृत्व का प्रचलन हो गया था अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख उपलब्ध न होने के कारण निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । परन्तु अनुमान किया जाता है कि प्रार्य महागिरि के पश्चात् श्रमण-संघ में हुए पृथक् नेतृत्व के प्रादुर्भाव का साध्वी-संघ पर भी सहज ही प्रभाव पड़ा होगा। इतना सब कुछ होते हुए भी यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि साधारण मतभेद होने के उपरान्त भी उस समय तक मन-भेद नहीं हुआ था। इस अनुमान की हिमवन्त स्थविराली के निम्नलिखित उल्लेख से भो पुष्टि होती है, जिसमें कुमारिगिरि पर प्रायोजित मागम परिषद में दोनों परम्परागों के मुनिमण्डलों के एकत्रित होने का स्पष्ट उल्लेख है : ".............."तेणं भिक्खुराय रिणवेणं.........."समणाणं णिग्गंठाणं रिणग्गंठीणं य एगा परिसा तत्य कुमारि पव्वयतित्यम्मि मेलिया । तत्य गं राणं अज्जमहागिरीणमणुपत्ताणं बलिस्सह बोहिलिंग देवायरि धम्मसेण नक्खतायरियाइ जिणकप्पि तुलत्तं कुणमारणाणं दुणिसया रिणग्गंठारणं समागया। प्रज्ज सुट्ठिय सुवडिवड्ढ उमसाइ सामज्जाइणं थेरकप्पियाणं वि तिग्निसया निग्गंठाणं समागया।............" अर्थात् - महाराज भिक्खुराय द्वारा प्रायोजित निग्रन्थ श्रमण-श्रमणियों की परिषद् में प्राचार की दृष्टि से जिनकल्पियों के समान व्यवहार करने वाले मार्य बलिस्सह प्रादि २०० साधु और स्थविरकल्पी आर्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध आदि ३०० साधु एकत्रित हुए। बाह्य वेष के साधारण भेद के उपरान्त भी उनके अन्तर्मन एक थे, भेद रहित थे और उन सब ने एक साथ बैठकर पारस्परिक सहयोग से विचारों के आदान-प्रदान से आगम-परिषद को सफल बनाया। . साधु-समूह के समान साध्वी-समूह के समक्ष जिनकल्प और स्थविरकल्प का प्रश्न न होने की दृष्टि से यद्यपि साध्वी-संघ में पृथक् नेतृत्व की भावना के 'हिमवन्त स्थविरावली (अप्रकाशित) Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ साध्वी-परम्परा उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं था तथापि साध्वी- समुदाय परम्परा से श्रमणसंघ का अभिन्न अंग रहा है। पृथक् समुदायों के रूप में इन दोनों का अस्तित्व रहने के उपरान्त भी नीति निर्देश, ज्ञानार्जन, मार्गदर्शन प्रादि की दृष्टि से साध्वी समूह सदा से श्रमण संघ के तत्वावधान में कार्य करता रहा है अतः यह सुनिश्चित सा प्रतीत होता है कि श्रमरणसंघ का नेतृत्व ज्यों ही अनेक प्राचायों में विभक्त हुआ त्यों ही श्रमणी - समूह का नेतृत्व भी उन पृथक् हुए प्राचार्यों की प्रमुख शिष्यानों के तत्वावधान में विभक्त हो गया होगा । चाहे प्रार्या पोइणी तटस्थ भाव से अपने साध्वी-समाज का नेतृत्व करती रही हों, चाहे वह प्रार्य बलिस्सह प्रथवा सुस्थित की परम्परा की साध्वियों के समुदाय की संचालिका रही हों पर कुमारी पर्वत पर हुई ग्रागम-परिषद् में साध्वी पोहणी के उपस्थित होने और एकादशांगी के पाठों के निर्धारण में उनके द्वारा सहयोग दिये जाने सम्बन्धी हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप समस्त चतुविध संघ साध्वी पोइणी की ज्ञान-गरिमा का बड़ा समादर करता था और संघ में उनका बड़ा महत्वपूर्ण स्थान था । पोइणी का संस्कृत रूपान्तर है 'पोतिनी' - प्रर्थात् बहुत बड़ी जहाज । इस नाम से भी यही प्रकट होता है कि वे प्रपने समय की बड़ी ही प्रभाविका महासती हुई हैं, जिन्हें भव्यजन भव-सागर से पार लगाने वाली धर्मजहाज मानते थे । कलिंग जैसे दूरस्थ प्रदेश के कुमारी पर्वत के समान दुरूह एवं विकट स्थान पर ३०० श्रमरिगयों के एकत्रित होने सम्बन्धी हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि वीर निर्वारण की चौथी शती में श्रमणी - समुदाय का स्वरूप सुविशाल था और भारत के विभिन्न प्रान्तों में श्रमरणों की तरह श्रमणियां भी प्रतिहत विहार करती हुईं जन-जन के मन में प्राध्यात्मिक चेतना उत्पन्न कर रही थीं । साध्वी सरस्वती ( वीर निर्वाण की पांचवीं शताब्दी) वीर की पांचवीं शती के पूर्वार्द्ध (आर्य गुणाकर के समय) में द्वितीय कालकाचार्य के साथ उनकी भगिनी सरस्वती द्वारा पंच महाव्रत स्वरूप निर्ग्रन्थ श्रमण-दीक्षा ग्रहण किये जाने का उल्लेख मिलता है । द्वितीय कालकाचार्य के प्रकरण में साध्वी सरस्वती का पूरा परिचय दिया जा चुका है ।' साध्वी सरस्वती ने अपने ऊपर आये हुए संकट में बड़े साहस से काम लिया । गर्दभिल्ल के राजमहल में बन्दिनी की तरह बन्द किये जाने, १ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ५१०- ५१३ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि समाश्रमण ७८३ गर्दभिल्ल द्वारा अनेक प्रकार की यातनाएं, भय एवं प्रलोभन दिये जाने के उपरान्त भी वे सत्पथ से विचलित नहीं हुई। गर्दभिल्ल के पाश से मुक्त होने के पश्चात् प्रार्या सरस्वती ने प्रात्मशुद्धि पूर्वक जीवन पर्यन्त कठोर तप एवं संयम की साधना को और अन्त में समाधिपूर्वक देह त्याग कर सद्गति प्राप्त की। साध्वी सुनन्दा (वीर की छठी शताब्दी का प्रारम्भ) वीर की पांचवीं शताब्दी के द्वितीय एवं तृतीय चरण में हुई साध्वी सरस्वती के पश्चात् वीर नि० सं० ५०४ के आसपास मार्य वज की माता सुनन्दा द्वारा प्रार्य सिंह गिरि की प्राज्ञानुवर्तिनी स्थविरा साध्वी के पास श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख उपलब्ध होता है । धनगिरि जैसे भवविरक्त महान् त्यागी की पत्नी और मार्य वज जैसे महान युगप्रधानाचार्य की माता सुनन्दा का गौरव-गरिमापूर्ण उल्लेख जैन इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में किया जाता रहेगा। यौवन भरी प्रथम वय में सुनन्दा ने गुविणी होते हुए भी दीक्षित होने के लिये उत्कण्ठित अपने पति को प्रवजित होने की अनुमति देकर जो प्रादर्श भारतीय नारी का उदाहरण प्रस्तुत किया, वह अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होगा। _ . उपलब्ध प्राचीन साहित्य में यद्यपि विगत की बीच-बीच की अनेक कालावधियों में सध्वियों के नामोल्लेख नहीं मिलते तथापि कतिपय ऐसे प्रबल प्रमाण साहित्य में मिलते हैं, जिनके आधार पर सुनिश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वीर निर्वाण के पश्चात् साध्वी-परम्परा कभी विच्छिन्न नहीं हुई अपितु वह प्रक्षुण्ण रूप से चलती रही है। - उन अनेक प्रबल प्रमाणों में से एक प्रमाण है प्रार्य वज्र का शंशवकाल । प्रायं वज्र का वीर नि० सं०४६६ में जन्म हुमा। जन्म के थोड़ी देर पश्चात् ही अपनी माता की सहेलो के मुख से अपने पिता धनगिरि के दीशित होने की बात सुनकर शिशु वज्र को जातिस्मर ज्ञान हो गया। उनके प्रति माता की ममता न बढ़े और उसके परिणाम स्वरूप उन्हें समय पर दीक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय - यह विचार कर बालक वज ने रुदन ठाना । वज्र का रुदन तभी बन्द हा जब कि उसकी माता सुनन्दा ने उसे सदा-सर्वदा के लिये श्रमण-संघ को अर्पित करते हुए पार्य धनगिरी की झोली में रखा। अपने शिष्य धनगिरि को तुम्बवन में मधुकरी के समय प्राप्त हुए शिशु वच को आर्य सिंहगिरी ने समुचित समय तक पालनार्थ शय्यातरी श्राविका को सम्हला दिया। जातिस्मर-ज्ञान-सम्पन्न बालक वज ने शय्यातरी के साथ दिन के समय निरन्तर ज्ञानस्थविरा श्रमणियों के मुख से सुन-सुनकर बाल्यकाल में ही सम्पूर्ण एकादशांगी को कण्ठस्थ कर लिया। इस प्रकार आर्य वज्र द्वारा श्रमणियों के मुखारविन्द से सुन-सुनकर एकादशांगी के कण्ठस्थ किये जाने का उल्लेख इस बात का प्रबल प्रमाण है कि बीच Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा बीच के अनेक अन्तरालों में साध्वी-परम्परा की साध्वियों के नाम सुरक्षित न रह पाने के कारण उपलब्ध साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होते तथापि न केवल साध्वीपरम्परा ही अपितु सम्पूर्ण एकादशांगी की पारंगत साध्वी-परम्परा सदा प्रक्षुण्ण रूप में विद्यमान रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो एकादशांगी के ज्ञान में निष्णात सानियों से बालक वज्र द्वारा ऐकादशांगी के कण्ठान किये जाने का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं किया जाता। वस्तुतः प्रार्या सुनन्दा और वे अनपलब्धनामा ज्ञानस्थविरा आर्याएं, जिनसे बालक वज ने एकादशांगी कण्ठस्थ की और जिनके पास वज्र की महामहिमामयी माता सुनन्दा ने. श्रमण-धर्म अंगीकार किया, उस अक्षुण्णा साध्वी-परम्परा की श्रृंखला की अविच्छिन्न कडियां हैं, जो तीर्थस्थापन की वेला से आज तक मनवरत रूप से स्व-पर-कल्याण करती चली पा रही है । . प्रार्या सुनन्दा का विस्तृत परिचय प्रार्य सिंहगिरि के प्रकरण में दिया जा चुका है। बालब्रह्मचारिणी साध्वी विमरणी (वीर निर्वाण की छठी शताब्दी का पूर्वार्द) साधना पथ पर अग्रसर होने वाले नरशार्दूलों के समान नाहरियों तल्य पराक्रमशालिनी नारियों द्वारा किये गये त्याग के भी एक से एक बढ़ कर बड़े ही अद्भुत एवं अनुपम उदाहरण जैन वाङमय में उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार के प्रत्युञ्चकोटि के त्याग करने वाली महामहिमामयी महिलाओं में साधिका रुक्मिरणी का भी बहुत ऊंचा स्थान है । वस्तुतः साध्वी रुक्मिरणी का त्याग अपने आप में सब से निराला-सबसे अनूठा है । एक क्षरण पहले मोह के मादक नशे के वशीभूत हए मन ने जिसे अपने विलासितापूर्ण भोगमार्ग के आराध्य देव के रूप में वरण कर लिया हो, दूसरे ही क्षण, मोह का नशा उतार दिये जाने पर भोग-मार्ग के लिये चूने गये उसी प्राराध्य देव को योग-मार्ग का प्राराध्य देव बना कर समस्त भोगों को ठकरा जीवन भर के लिये कण्टकाकीर्ण योग-पथ का पथिक बन जानायह कोटिपति श्रेष्ठि की इकलौती पुत्री रुक्मिणी के जीवन की अप्रतिम एवं बड़ी ही अद्भुत् विशेषता है । वह अभूतपूर्व घटना इस प्रकार है :. गणाचार्य आर्य सिंहगिरि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् मार्य वज्र विहार क्रम से पाटलीपुत्र पहुंचे। अपने समय के महान् युगपुरुष के, अपने नगर के बहिर्भाग में प्रवस्थित उपवन में, शुभागमन का समाचार सुनते ही पाटलीपुत्र का अपार जनसमूह उद्वेलित सागर के समान आर्य वज्र के दर्शन एवं उपदेश श्रवरण की उत्कण्ठा लिये उस उपवन की अोर उमड़ पड़ा। पाटलिपुत्र के धन नामक कोट्यधीश श्रेष्ठी की इकलौती पुत्री कुमारी रुक्मिणी भी अपनी सखी-सहोलयों के साथ उस उपवन में पहुँची। . देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ५६६-५७२ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण ७५ प्रखण्ड ब्रह्मचर्य के प्रत्यद्भुत तेज में देदीप्यमान मार्य वज के सौम्य, सान्त एवं नयनाभिराम मुखमण्डल को निनिमेश नयनों से निहारता हुमा जनसमुद्र पाप्यायित हो उठा। गणाचार्य प्रार्य वज के धनरव-गम्भीर निर्घोष से प्रवाहित सुधा-सुरसरी तुल्य श्रुतसरिता में निमज्जन-उन्मज्जन करते हुए उपस्थित मावालवृद्ध ने एक अलौकिक तथा प्रनिर्वचनीय प्रानन्द की अनुभूति की। . कुमारी रुक्मिणी की मोहविमुग्ध दृष्टि ने प्राय वज़ को एक और ही रूप में देखा। मोह के प्राबल्य से वह सम्मोहित हो गई। उसने क्षण भर में ही अपने एहिक सुख के एक नवीन रंगीन-संसार की कल्पना कर ली। योग-मार्ग के महान् पथिक पार्य वज रुक्मिणी को अपने भोग-मार्ग के माराध्य देव प्रतीत हुए। उसने मन ही मन मार्य वज का अपने पति के रूप में वरण करते हुए दृढ़ प्रतिज्ञा कर डाली कि वह मार्य वज को छोड़ अन्य किसी के साथ प्रणय-सूत्र में नहीं बंधेगी । मोह ने उसके मन, मस्तिष्क पौर रोम-रोम पर अधिकार कर लिया था मतः वह यह सोच ही नहीं सकी कि अपनी इस प्रतिज्ञा द्वारा वह अमृत के देवता को गरल-पान का निमन्त्रण देना, मनन्त प्राकाश को मुट्ठी में बन्द करना और समुद्र की प्रथाह जलराशि को अपनी मंजलि में समा देना चाहती है। मोह का मावरण पड़ने पर मन, मस्तिष्क और दृष्टि की गति बड़ी विचित्र हो जाती है। रुक्मिणी उस समय भला इस प्रकार कैसे सोचती, जब कि उसके तन मन पर मोह छाया हुमा था। - मार्य वज के दर्शन एवं उपदेश-श्रवण के पश्चात् भावविभोर जनसमूह मुनि-परणों में मस्तक का शनैः-शनैः पाटलीपुत्र की मोर उसी प्रकार लौट गया, मानो ज्वारभाटे की समाप्ति के अनन्तर पूणिमा के चन्द्र की किरणों से प्राप्यापित-सृप्त सागर पुनः अपनी सीमा में सिमट गया हो। 'कुमारी रुक्मिणी भी गहन विचारों में डूबती-उतराती, कल्पना के अनेक मनोहारी रंगीन चित्र चित्रित करती हुई, भारी मन लिये अपने घर लौटी । उसके हृदय में प्रबल वेग से उद्भूत हई मार्य वज्र की चरणचबरी बनने की तीव्र उत्कण्ठा ने एक एक क्षण का विलम्ब भी उसके लिये एक एक युग के समान भारी बना डाला था। अन्तर की ज्वालाओं के शमन का और कोई उपाय न पा, लाचार हो उसने लोकलाज को एक प्रोर रख स्वयं अपने पिता के पास जाकर अपना यह दृढ़ संकल्प रखा- "मैं प्रार्य वज्र को प्रारणपण से अपना प्राराध्यदेव पुन चुकी है। यदि उनके साथ मेरा प्रणयसूत्र में गठबन्धन संभव नहीं हुआ तो में अग्नि में प्रवेश कर प्रात्मदाह कर लूंगी।' __ श्रेष्ठि धन प्रपनी इकलौती पुत्री की कठोर प्रतिज्ञा सुनते ही क्षण भर के लिये प्रवाक रह गया। "वणिक सभी वस्तुएं अपनी तराजू और बाटों से तोलता 'बमाचे जनकं स्वीयं, सत्यं मद्भाषितं शृणु । भीमरणाय मां पन्छ, शरणं मेऽन्यणनलः ।। १३८ ।। [प्रभावक चरित्र, पृ० ६] Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साम्बी परम्परा है" - इस लोकोक्ति के अनुरूप उसने मन में सहसा अपनी अपार सम्पदा के साथ प्रार्य बंज से सौदा करने का निश्चय किया। वह सौ करोड़ (एक परब) मुद्राएं और वस्त्राभूषणादि से अलंकृता अपनी पुत्री को साथ ले वज स्वामी के पास पहुंचा।' धन श्रेष्ठि ने अभिवादनपूर्वक वज्र स्वामी से निवेदन किया- "नाय! मेरी यह पुत्री अपने प्राणनाथ के रूप में प्रापका वरण कर चुकी है। प्रतःप्राप कृपा कर मेरी इस अनुपम रूप-लावण्य-यौवन संपन्ना पुत्री को ग्रहण कीजिये । इसके साथ ये एक अरब मुद्राएं भी ग्रहण कीजिये । जीवन पर्यन्त प्राप स्वेच्छा . पूर्वक सभी प्रकार के सांसारिक सुखोपभोगों का प्रानन्द लें, तो भी यह धनराशि समाप्त नहीं होगी।" यह कह कर श्रेष्ठि धन महर्षि वन के चरण कमलों पर अपना मस्तक रख प्रभीष्ट उत्तर की प्राशा लिये उनके मुखकमल की मोर उत्कण्ठा पूर्वक देखने लगा। ___ प्रार्य वज़ ने सहज शान्त स्वर में कहा - "श्रेष्ठिन् ! तुम अत्यधिक सरल और बड़े भोले हो, जो स्वयं संसार के बंधनों में बंधे रहने के कारण, भव-प्रपंच से बहुत दूर जो लोग हैं, उन्हें भी बांधना चाहते हो। जिस प्रकार कोई मुषामुग्ध व्यक्ति धूलि के ढेर के बदले में रत्नों की राशि, तृण के बदले में कल्पवृक्ष, कोए के बदले में हंस, भील की झोंपड़ी के बदले में देवविमान और क्षारयुक्त जल के बदले में अमृत के क्रय करने का मूर्खतापूर्ण व्यर्थ प्रयास करता है, ठीक उसी प्रकार तुम भी अपने इस तुच्छ कुधन द्वारा मुझे गरलोपम विषयभोगों का रसास्वादन कराने के बदले में परमात्मपद-प्रदायी मेरा तप-संयम मुझ से छीनना चाहते हो । क्षणिक विषय-सुख घोर दुखानुबन्धी और अनन्तकाल तक विकट भवाटवी में भटकाने वाले हैं । शाश्वत शिवसुख की तुलना में संसार का समस्त धन बालुकरण तुल्य है । यदि तुम्हारी यह पुत्री अन्तर्मन से वस्तुतः अनुरक्त हो मेरे शरीर की छाया के समान मेरा अनुसरण करना चाहती है तो सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप मेरे द्वारा ग्रहण किये हए महाव्रतों को अंगीकार कर शाश्वत सुखप्रदायी श्रेयस्कर साधनापथ पर अग्रसर हो प्रात्मकल्याण में निरत हो जाय।" जिस प्रकार गले से नीचे उतरते ही अमृतकण घातक से घातक विष के प्रभाव को नष्ट कर देता है, ठीक उसी प्रकार शाश्वत सुख और सुखाभास का वास्तविक बोध कराने वाले आर्य वज्र के हितकर वचनों को सुनते ही कुमारी रुक्मिणी के मन, मस्तिष्क और नेत्रों पर छाया हुआ मोह का नशा तत्क्षण उतर गया। उसने अनुभव किया कि उसके अन्तर में प्रकाश की एक किरण प्रकट हुई है, जो शनैः शनैः तेज होती हई उसके हृदय में व्याप्त निबिड़तम अन्धकार को उजाले के रूप में परिवर्तित कर रही है। उसे लगा, जैसे उसकी प्रांखों पर पड़ा आवरण दूर हो गया है और उसके परिणामस्वरूप उसे समस्त दृश्यमान जगत् बदला हुआ सा, परिवर्तित स्वरूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। उसे समस्त एहिक सुख-विषय-कषाय आदि विष तुल्य हेय प्रतीत होने लगे। कुछ ही क्षणों पहले . प्रभावक चरित्र, श्लोक संख्या १३६ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण ७० उसका जो मन प्रार्य वज को प्राप्त कर सांसारिक भोगोपभोगों के लिये माकुलव्याकुल हो रहा था, अब वही मन मार्य वज्र को अपना योग-मार्ग का पाराध्यदेव बनाकर कण्टकाकीर्ण साधनापथ पर तत्काल अग्रसर होने के लिये व्यग्र हो उठा। . रुक्मिणी ने प्रार्य वच के समक्ष शिर झका अंजलिबद्ध हो प्रार्थना की"मेरे माराध्य गुरुदेव ! आपने मेरे अन्तर के नेत्र उन्मीलित कर दिये हैं। मुझे मापने धर्ममार्ग पर प्रवृत्त कर नया जन्म दिया प्रतः भाप मेरे धर्म-पिता है। अपनी धर्म-पुत्री के गुरुतर सब अपराधों को क्षमा कर अपने संघ की शरण में लीजिये । मैं प्रवजित होना चाहती हूँ।" ___ इस प्रकार के प्रश्रुत-पूर्व अद्भुत हृदय-परिवर्तन और प्रपूर्व 'त्याग के समाचार विद्युत्वेग से तत्क्षण समस्त पाटलीपुत्र में फैल गये। जिसने सुना, उसी का शिर रुक्मिणी के प्रति श्रद्धा से सहसा मुक गया। रुक्मिणी ने मार्य वज की प्राज्ञानुवर्तिनी साध्वीमुख्या के पास श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर जीवनपर्यंत विशुद्ध संयम का पालन कर भवाटवी में भटकाने वाले कर्मभार को हल्का किया। प्रार्या रुक्मिणी का अनुपम त्यागपूर्ण जीवन साधक-साधिकानों के लिये बड़ा प्रेरणादायक रहा है और भावी सहस्राब्दियों तक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। . महासतीपारिलो. (वीर नि०सं० २४-६० के लगभग). .. साध्वी धारिणी का जीवन चरित्र जैन इतिहास में वस्तुतः प्रादर्श नारी का प्रतीक माना जाकर सदा स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता रहेगा। श्रमणी धर्म में दीक्षित होने से पूर्व अपने सतीत्व को रक्षा हेतु अतुल ऐश्वर्य और अपनी संतति तक का मोह त्याग कर तथा श्रमणी धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् दो राज्यों के युद्ध में संभावित भीषण नरसंहार को रोक कर महासती परिणी ने संसार के समक्ष जो दो उच्चकोटि के प्रादर्श प्रस्तुत किये, उनसे प्रार्य सन्नारियों अपने पापको गौरवान्वित अनुभव करती हुई सदा प्रेरणाएं लेती रहेंगी। धारिणी प्रवन्ती-राज्य के अधीश्वर महाराजा पालक के छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन की पत्नी (चण्डप्रद्योत की पौत्रवधु) थी। अवन्तीश पालक ने वीर नि० सं० २० में अपने बड़े पुत्र अवन्तीवर्द्धन को प्रवन्ती का राज्य और छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन को युवराज पद दे कर आर्य सुधर्मा के पास श्रमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। अवन्तीवर्धन अपने छोटे भाई युवराज राष्ट्रवर्द्धन के परामर्श से राज-काज का संचालन करने लगा। युवराज्ञी धारिणी ने एक पुत्र को जन्म दिया। शिशु का नाम प्रवन्तीसेन रखा गया। धारिणी अपने पति के साथ अवन्ती राज्य के ऐश्वर्य एवं विविध एहिक सुखों का उपभोग करती हुई अपना समय व्यतीत कर रही थी। ' महासती धारिणी का परिचय प्रस्तुत अन्य के पृष्ठ ७७८ पर मार्या यक्षा से पूर्व दिया जाना चाहिए था पर असावधानी से यह भूल रह गई। - सम्पादक २ प्रावश्यक चूरिण, भाग २, पृ. १८६ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा एक दिन प्रवन्तीवर्दन ने राजप्रासाद के उद्यान में क्रीड़ा करती हुई धारिणी को देखा। वह उस पर मासक्त हो गया। अपनी विश्वस्ता दासी के माध्यम से उसने अपने भाई की पत्नी के पास अपना निन्द्य प्रस्ताव पहुंचाया। धारिणी ने भर्त्सना भरे शब्दों में अपने ज्येष्ठ के कामुकतापूर्ण कुत्सित प्रस्ताव को ठुकराते हुए दासी के माध्यम से उसे कहलवाया कि उनके अनुज के अतिरिक्त संसार के समस्त पुरुषवर्ग को वह पिता, भाई एवं पुत्र तुल्य समझती है । अवन्तीवर्धन पर धारिणी की फटकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह धारिणी को पाने के लिये, जल से स्थल पर पटकी हुई मछली के समान छटपटाने लगा। पारिणी को पाने का और कोई उपाय न देख उस कामान्ध अवन्तीवर्द्धन ने अपने सहोदर राष्ट्रवर्धन की बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से हत्या करवा दी। गुर्विणी (गभिणी) धारिणी को काल की उस कराल करवट ने कुछ समय के लिये किंकर्तव्यविमूढ बना दिया। उसे अपने चारों ओर घोर अन्धकार ही अन्धकार प्रतीत होने लगा। अपने सतीत्व पर प्राने वाले संकट की कल्पना मात्र से वह सिहर उठी। उसका पुत्र प्रवन्तीसेन उस समय एक प्रबोध बालक था। उसे कहीं कोई सहारा दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। उसे समस्त सांसारिक कार्यकलाप विडम्बनापूर्ण प्रतीत होने लगे। उस प्रति विकट संकटापन्न स्थिति में भो, जबकि उसके चारों ओर घोर निराशा के बादल मंडरा रहे थे, धारिणी ने धर्य नहीं त्यागा। उसने अपने सतीत्व की रक्षा का दृढ़ संकल्प किया। अपने और अपने पति के कतिपय बहुमूल्य प्राभूषणों को एक गठरी में लपेट कर राजप्रासाद का सदा के लिये परित्याग करने हेतु वह उद्यत हुई। प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए अपने पुत्र प्रवन्तीसेन की मोर ममता भरी दृष्टि का निक्षेप कर उसने एक बार ऊपर अनन्त प्राकाश की पोर एक क्षरण के लिये देखा और वह प्रछन्न वेष में राजप्रासाद से बाहर निकली । जिस मोर डग पड़े उसी ओर बढ़ती हुई धारिणो नगर के बाहर पहुँची। उसे स्वयं को भी पता नहीं था कि अन्ततोगत्वा उसे कहां पहुंचना है, वह विगविमूढ़ की तरह निरन्तर आगे की ओर बढ़ती रही। उसने मुड़ कर देखाप्रवन्ती, प्रवन्ती के गगनचुम्बी राजप्रासाद, भव्य भवन, अट्टालिकाएं-सब क्षितिज के उस छोर में छुप गये हैं। उसने संतोष की एक दीर्घ सांस ली और वह पुनः अपने लक्ष्य-विहीन पथ पर अग्रसर हुई। विकट वन्य प्रदेशों को पार करती हुई धारिणी रात भर चलती रहो । सूर्योदय हो चुका था, वह थक कर चूर हो चुकी थी तथापि वह अदम्य साहस की पुतली सी बनी, बिना एक क्षण भी विश्राम किये प्रागे की पोर बढ़ती रही । एक टेकरी की चढ़ाई को पूरा करने के पश्चात् ढलान की ओर बढ़ते हुए उसने देखा कि एक सार्थ रात्रि के विश्राम के अनन्तर अपना पड़ाव उठा कर आगे बढ़ने को उद्यत हो रहा है । धारिणी के अन्तर्मन में पाशा और संतोष की एक लहर उठी । वह तीव्र गति से सार्थ की ओर बढ़ी और Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाशमण उसके साथ धारिणी ने आगे की ओर प्रस्थान किया। सार्थ में सम्मिलित महिलायों के साथ वह घुलमिल गई । कतिपय दिनों की यात्रा के पश्चात् सार्थ के साथ-साथ धारिणी कौशाम्बी नगर पहुंची। कौशाम्बी के महाराजा की यानशाला में ठहरी हुई स्थविरा श्रमणियों के दर्शन और उपदेश-श्रवण से धारिणी को अद्भुत् शान्ति की अनुभूति हुई। सांसारिक प्रपंचों से दूर, केवल आध्यात्मिक चिंतन में लीन उन जैन साध्वियों का शान्त-दान्त जीवन धारिणी को बड़ा सुखकर लगा। राष्ट्रवर्द्धन की हत्या, कामान्ध अवन्तीवर्द्धन द्वारा संभावित संकट और पुत्रवियोग के कारण धारिणी का हृदय भोषण भट्रो की तरह जल रहा था । उसको ज्वालाएं उसके तन, मन, रोम-रोम को भस्मसात् किये जा रही थीं। साध्वियों के सानिध्य में धारिणी को अनुभव होने लगा कि उसके अन्तर को प्राग शनैः-शनैः शीतल होती चली जा रही है, उसके तन-मन की जलन मिटती जा रही है। उसके अंतर में प्राशा की नयी किरण उदित हुई। उसके मन में विश्वास जमने लगा कि इन श्रमरिणयों की सेवा में रह कर वह सदा सर्वदा के लिये भवताप को भी समाप्त करने में सिद्धकाम हो सकती है। उसने श्रमणी-धर्म में प्रवजित होने का दृढ़ निश्चय किया। उसने सोचा - "यदि संघाटक-मुख्या साध्वी को उसके गर्भिणी होने की बात विदित हो गई तो निश्चित रूप से वे उसे श्रमरणी-धर्म की दीक्षा प्रदान नहीं करेंगी।" अब उसका वैराग्य अपनी चरम सीमा पार कर चुका था, अब उसे दीक्षित होने में एक-एक भरण का विलम्ब भी प्रसह्य हो रहा था। अतः धारिणी ने इस रहस्य को प्रकट नहीं किया और श्रमणी-मुख्या के पास पंच महाव्रत रूप श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। साध्वी धारिणी अपने बीते दिनों की याद भूला कर अहर्निश साध्वियों की सेवा, ज्ञानार्जन और प्रात्मचिन्तन में तल्लीन रहने लगी। कुछ समय पश्चात् गर्भसूचक स्पष्ट चिन्हों को देख कर संघाटक-मुख्या स्थविरा ने धारिणी से वस्तुस्थिति के बारे में पूछा। धारिणी ने अपना पूरा परिचय देते हुए अपने साथ घटी माद्योपान्त सारी घटना यथातथ्य रूप से गुरुपीजी को सुना दी। केवलिकाल के, प्रार्य जम्बू के प्रकरण में प्रद्योत राजवंश का परिचय देते समय प्रस्तुत पुस्तक में यह बताया जा चुका है कि गर्भकाल पूर्ण होने पर धारिणी ने पुत्र को जन्म दिया और रात्रि में उसने नवजात शिशु को उसके पिता के आभूषणों के साथ कौशाम्बी नरेश के राजप्रासाद के प्रांगण में रख दिया। बालक ने रुदन किया। कौशाम्बी नरेश स्वयं अपने शयनकक्ष से नीचे उतर कर पाया और प्रांगण में रखे बालक और उसके पास पड़ी गठरी को उठा कर शयनकक्ष में लोट गया ।पार में खड़ी धारिणी ने जब देखा कि शिशु उपयुक्त स्थान पर पहुंच गया है.तो वह उपाश्रय की मोर लौट गई। वह अपनी गुरूपीजी के निर्देशानुसार प्रायश्चित ले मात्मशुद्धि कर पुनः तप-संयम की साधना में तल्लीन हो गई । कौशाम्बी के महाराजा के कोई संतान नहीं थी अतः राजदम्पति ने उस बालक Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा को अपना पुत्र घोषित कर उसका लालन-पालन एवं शिक्षण-दीक्षण किया। उन्होंने अपने (दत्तक) पुत्र का नाम मणिप्रभ रखा। भाई की हत्या करवाने पर भी जब अवन्तीवर्द्धन को धारिणी नहीं मिली तो उसका सम्मोह दूर हमा। अपने प्रति निकृष्ट दुष्कृत्य पर उसे प्रान्तरिक पश्चात्ताप हुप्रा। अपने छोटे भाई राष्ट्रवर्धन के पुत्र प्रवन्तीसेन को राज्यसिंहासन पर आसीन कर अनुमानतः वीर नि० सं० २४ में प्रवन्तीवर्द्धन ने श्रमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। कौशाम्बीपति अजितसेन की मृत्यु के पश्चात् मणिप्रभ कौशाम्बी के राजसिंहासन पर बैठा। इस प्रकार राष्ट्रवर्धन और देवी धारिणी का बड़ा पुत्र अवन्तीसेन अवन्ती का और छोटा पुत्र मणिप्रभ कौशाम्बी का शासन करने लगा। कौशाम्बी और अवन्ती के राजवंश में चण्डप्रद्योत के समय से ही परस्पर शत्रुता चली आ रही थी। प्रवन्तीसेन ने भी किसी छोटे-बड़े कारण को लेकर कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से युद्ध की पूरी तैयारियां हो चुकी थीं, भीषण नरसंहार प्रारम्भ होने ही वाला था, उस समय अहिंसा की प्रतिमूर्ति साध्वी धारिणी ने मणिप्रभ और अवन्तीसेन के पास जाकर उन्हें बताया कि वे दोनों एक दूसरे के सहोदर हैं, मणिप्रभ छोटा और अवन्तीसेन बड़ा। वस्तुस्थिति का बोध होते ही दोनों भाई बड़े प्रेम से मिलकर एक दूसरे को मानन्दाश्रुओं से सिंचित करने लगे। साध्वी धारिणी द्वारा किये गये बीच-बचाव के फलस्वरूप भीषण नरमेध होते होते बच गया। महत्तरा विजयवती और साध्वी विगतमया (वीर नि० सं० ४४ के लगभग) प्रावश्यक चूरिण में महत्तरा विजयवती की शिष्या विगतभया का उल्लेख , पाता है। जिस समय अवन्तीसेन ने कौशाम्बी पर प्राक्रमण किया, उससे थोड़े समय पहले साध्वी विगतभया द्वारा कौशाम्बी में अनशन किये जाने का विवरण आवश्यक चूरिण में किया गया है। चूणि में यह भी बताया गया है कि साध्वी विगतभया द्वारा संलेषना पूर्वक अनशन किये जाने के अवसर पर कौशाम्बी के श्रावक-श्राविका संघ ने अनेक दिनों तक महोत्सव का आयोजन कर उनके प्रति अपूर्व संम्मान प्रकट किया। इस उल्लेख के अतिरिक्त रिण में महत्तरा का और उनकी शिष्या का और कोई परिचय नहीं दिया है। पालक ने वीर नि० सं० २० में दीक्षा ली, उसके लगभग ४ वर्ष पश्चात् अवन्तीवर्द्धन और धारिणी ने दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार वीर नि० सं० २४-२५ में धारिणी ने मणिप्रभ को जन्म दिया। जिस समय अवन्तीसेन ने मणिप्रभ के साथ यूद्ध करने के लिये कौशाम्बी पर माक्रमण किया, उस समय मणिप्रभ की वय कम से कम २० वर्ष तो अवश्य होनी चाहिये। इस हिसाब से अवन्तीसेन द्वारा कौशाम्बी पर आक्रमण किये पावश्यक रिण, भाग २, पृ० १६१ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६१ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण जाने की घटना का काल अनुमानतः वीर नि० सं० ४४-४५ के आसपास ठहरता है। इस आक्रमण से कुछ समय पूर्व साध्वी विगतभया द्वारा अनशन किये जाने का उल्लेख आवश्यक चूरिण में है। इससे यह सिद्ध होता है कि महतरा विजयवती वीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी के प्रथम चरण में साध्वियों के किसी छोटे अथवा बड़े संघाटक की प्रमुखा थीं। प्रजातनामा साध्वी मुरुण्ड-राजकुमारी (वीर की पांचवी छठी शती) जिस प्रकार भगवान् महावीर के श्रीचरणों में कोटिवर्ष के-उस समय विदेशी समझे जाने वाले---चिलातराज के श्रमण-धर्म में दीक्षित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है, उसी प्रकार निर्वाणोत्तर काल में भी एक विदेशी महिला के श्रमरणीधर्म में दीक्षित होने का उल्लेख उपलब्ध होता है। विशेषावश्यक भाष्य एवं निशीथ चूरिण के उल्लेखानुसार मुरुण्डराज (विदेशी शक शासक) के समक्ष उसकी विधवा बहिन ने प्रवजित होने की इच्छा प्रकट की । मुरुण्डराज ने अपनी बहिन को प्रवजित होने की अनुज्ञा प्रदान करने से पूर्व यह परीक्षा करना चाहा कि कौनसा धर्म सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें दीक्षित होकर उसकी बहिन सच्चे अर्थों में अपनी आत्मा का उद्धार कर सके । बहुत सोचविचार के पश्चात् इस प्रकार की परीक्षा लेने का एक उपाय उसे सूझा । उसने अपनी हस्तिशाला के एक कुशल हस्तिवाहक (महावत) को आदेश दिया कि वह हस्तिशाला के सबसे विशालकाय हाथी पर आरूढ़ हो राजपथ पर राजप्रासाद के समीपस्थ चतुष्पथ पर खड़ा हो जाय । जब भी जिस किसी धर्म की कोई साध्वी उस पथ पर उसे दृष्टिगोचर हो तो उसकी ओर हाथी को तीव्र वेग से हांकते हुए बड़े कर्कश स्वर में कठोर चेतावनी दे कि वह सब वस्त्रों को तत्काल डालकर निर्वसना हो जाय, अन्यथा मदोन्मत्त हाथी उसे अपने पांवों से कुचल डालेगा। - मुरुण्डराज ने राजप्रासाद के गवाक्ष से देखा कि हस्तिवाहक उसके आदेश का अक्षरशः पालन कर रहा है और उस पथ पर आने-जाने वाली साध्वियां भीमकाय गजराज को अपनी ओर अतिवेग से बढ़ते देख, घबड़ा कर, हस्तिवाहक. की कड़ी चेतावनी के अनुसार अपने सभी वस्त्र एक ओर फेंक आशाम्बरा हो जाती हैं। यह देखकर मुरुण्डराज को बड़ी निराशा हुई। वह चिन्तित हो सोचने लगा कि उसकी स्नेहमयी सहोदरा कृतसंकल्पा है प्रजित होने के लिये पर इन काषाय, पीत, गेरुक, श्वेत आदि विभिन्न रंग के परिवेश को धारण करने वाली विभिन्न मतमतान्तरों की परिव्राजिकाओं में एक भी ऐसी समर्थ साध्वी प्रतीत नहीं होती, जिसके पास प्रवजित हो वह अपना इहलोक और परलोक सुधार सके । उपर्युक्त विचारों में डूबे हुए मुरुण्डराज के कर्णरन्ध्रों में पुनः हाथी की चिघाड़ के साथ हस्तिवाहक का कर्कश स्वर गूंज उठा । मुरुण्डराज ने कुछ उन्मने, ' जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० ४५०-४५१ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा कुछ उत्सुकता भरे भाव से चतुष्पथ पर दृष्टिपात किया। वह सहसा एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ। वह गवाक्ष में भूक कर सांस को जहां की तहां रोके बड़ी उत्सुकता के साथ चतुष्पथ की ओर देखने लगा। यह देखकर उसके पाश्चर्य का पारावार न रहा कि कालोपम हस्तिराज चिंघाड़ता हुआ एक श्वेताम्बरा कृषकाय-साध्वी की पोर बड़े वेग से बढ़ा जा रहा है। हस्तिवाहक द्वारा बिजली की कड़क के समान अति कठोर स्वर में पुनः पुनः दुहराई गई चेतावनी समस्त वातावरण को विभत्स बनाती हुई गगन में गुंजरित हो रही है पर वह साध्वी शान्त मुखमुद्रा धारण किये सहजगति से अपने गन्तव्य की ओर, जिस ओर से कि हाथी उस पर झपटा पा रहा है, उसी ओर निडर हो बढ़ती जा रही है। उसकी ओर बढ़ता हुआ हाथी जब उससे थोड़ी ही दूर पर रह गया तो साध्वी ने अपनी मुखवस्त्रिका हाथी की ओर डाली। हाथी सहसा रुका, मुखवस्त्रिका को सूंड में पकड़ इधर-उधर करते हुए देखा और उसे एक ओर डालकर पुनः द्रुतगति से साध्वी की ओर बढ़ने का उपक्रम करने लगा। निरन्तर अति तीव्र स्वर में चीख-चीख कर चेतावनी देने के कारण अब हस्तिवाहक के कण्ठ से फटे बांस की फटकार के समान स्वर निकल रहे थे। हाथी पुनः चिंघाड़ कर आगे बढ़ा। सहजशान्त-निर्भय मुद्रा में खड़ी साध्वी ने अपना रजोहरण हाथी की ओर गिराया।' वह बढ़ने से पुनः रुका। उसने रजोहरण की डंडी को अपनी संड में पकड़ कर कुछ क्षणों तक चामर की तरह इधर-उधर हवा में घुमाया-फेरा और फिर एक ओर फेंक दिया। इसी प्रकार वह साध्वी एक-एक करके अपने पात्रादि अन्य धर्मोपकरणों को हाथी की ओर डालती रही और वह उन्हें थोड़ी-थोड़ी देर इधरउधर करके देखता और अन्त में एक ओर फेंकता रहा। प्रब साध्वी के पास एक वस्त्र के अतिरिक्त और कुछ भी बचा न रहा। हाथी पुनः प्रागे बढ़ा । एक वसन में लिपटी दुबली-पतली साध्वी द्रुतगति से कभी हाथी के इस भोर तो कभी उस मोर होती हई बड़े धर्य के साथ स्वयं को बचाती रही। चतुष्पथ पर एकत्रित विशाल जनसमूह तपोपूता साध्वी के अद्भुत बुद्धिकौशल और अनुपम धैर्य एवं साहस को देख कर स्तब्ध रह गया। उपस्थित जन-समूह के धैर्य का पात्र किनारे तक भर चुका था, सब का प्याला लबरेज हो चुका था। अब धैर्य प्रतिकार के रूप में वह निकला । क्रुद्ध जन-समूह ने हस्तिवाहक को ललकारा । सहस्रों कण्ठों से क्रोष-प्राक्रोश भरा यह निर्घोष सहसा गंज उठा - "बन्द करो इस दुष्टता को। अब यदि हाथी ने एक डग भी भागे बढ़ा दिया तो न तुम्हारी कुशल है, न हाथी की ही। कुल भीड़ के कोलाहल से हाथी और महावत दोनों ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके थे। हस्तिवाहक ने मुरुण्डराज की मोर दृष्टि धुमाई, उसे कुछ संकेत मिला । मुरुग्णराज का संकेत पाते ही हस्तिवाहक ने एक विचित्र ध्वनि करते हुए हाथी के स्कन्द भाग पर अंकुश का प्रहार किया। एक चिंघाड़ के साथ हाथी मुड़ा और अपनी लम्बी पूंछ, सूंड और कानों को फटकारता हुमा हस्तिशाला की भोर भाग खड़ा हुमा। १ वहत्कल्प भाष्य, मा. ४, पृ. ११२३ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७६३ मुरुण्ड राज ने अपनी बहिन से कहा - "सहोदरे ! इस अगाध धर्यशालिनी सर्वसहा, समर्था साध्वी के पास तुम प्रवजित हो सकती हो। वस्तुतः इस साध्वी का धर्म श्रेष्ठ और सर्वज्ञ-प्ररूपित धर्म है।" ____ अपने भाई की अनुमति प्राप्त होते ही मुरुण्ड-राजकुमारी ने उस तपोपूता, कृषकाया जैन-साध्वी के चरणों पर अपना मस्तक रखते हुए उनसे विधिवत् श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। सहस्रों शिर उस अतुल आत्मबलशालिनी तपोकृषा अज्ञातनामा साध्वी और उनकी सद्यः दीक्षिता शिष्या मुरुण्ड कुमारी के चरणों में भूक गये । सहस्रों कण्ठों से उद्घोषित जयंघोषों द्वारा सर्वसम्मानिता वे दोनों साध्वियां- गरुणो और शिष्या जन-जन के मन में श्रद्धा का अजस्र स्रोत प्रस्फुटित करती हुई उपाश्रय में पहुंचीं। . __ साहस, सहनशीलता, शान्ति एवं साधना की प्रतिमूर्ति उन गुरुणीजी और उनकी शिष्या साध्वी मुरुण्डराज कुमारी का नाम लम्बे प्रतीत की अनेक परतों के नीचे छुपा होने के कारण आज भले ही पुस्तकों, पन्नों, पत्रों एवं अभिलेखों में अंकित न हो पर उनके यत्किचित् इतिवृत्त को पढ़ते ही उनका प्रति सौम्यपति शान्त चित्र प्रत्येक श्रद्धालु साधक के हृदय में अंकित हो, उसे साधनापथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता रहता है। साध्वी सोमा (वीर को छठी शती) यदि किसी परिवार में धर्म के प्रति आन्तरिक एवं अनन्य निष्ठा रखने वाला एक भी सदस्य हो तो वह सम्पूर्ण कुटुम्ब का सही अर्थ में उद्धार कर देता है-तिरा देता है। साध्वी बनने से पूर्व का रुद्रसोमा का गार्हस्थ्य जीवन इस तथ्य का एक प्रादर्श प्रतीक माना जाता है। रुद्रसोमा दशपुर के वेदवित् विद्वान् सोमदेव की पत्नी थी। सोमदेव दशपुर के महाराजा के राजपुरोहित थे। उनका राजपरिवार, राजसभा, समाज पौर समस्त प्रजावर्ग में बड़ा सम्मान था। रुद्रसोमा जैन धर्म में प्रगाढ़ निष्ठा रखने वाली श्रद्धालु श्रारिका थी। राजपुरोहित-पत्नी रुद्रसोमा ने वीर नि. सं. ५२२ में एक महान भाग्यशाली पुत्र मार्य रक्षित को जन्म दिया। मागे चल कर आर्य रक्षित जैन धर्म का परमोद्योत करने वाले महान् प्रभावक युग-प्रधानाचार्य हुए। रुद्रसोमा के दूसरे पुत्र का नाम फल्गुरक्षित था। राजपुरोहित सोमदेव ने शिक्षा योग्य वय में बालक रक्षित की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। प्रारम्भिक शिक्षा की समाप्ति पर सोमदेव ने अपने पुत्र रक्षित को उच्च शिक्षा दिलाने हेतु पाटलिपुत्र भेजा। पाटलिपुत्र में अनेक ' "एस धम्मो सवन्नु दिट्ठो” – वृहत्कल्प भाष्य, भाग ४, पृ. ११२३ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा वों तक विद्याभ्यास करते हुए कुशाग्र बुद्धि रक्षित ने छहों अंगों सहित वेदों का अध्ययन किया। सभी विद्याओं में पारंगत होने के पश्चात् वीर नि. सं. ५४४ में जब रक्षित पाटलिपुत्र से दशपुर पहँचा तो राजा और प्रजा ने भव्य समारोद के साथ नगर-प्रवेश करा उसे सम्मानित किया। जिस समय हर्षोल्लास में भरा रक्षित अपनी मां के पदवन्दन हेतु घर में पहँचा, उस समय रुद्रसोमा सामायिक ग्रहण किये आत्म चिन्तन में तल्लीन थी। रक्षित अपनी मां के चरणों में निढाल हो जाना चाहता था पर उसे सामायिक में देख उसने दूर से ही उसके चरणों में भावविभोर हो प्रणाम किया। उसे प्राशा थी कि उसकी मां उसे देखते ही हर्ष गद्गद् हो अपनी गोद में समेट कर उसकी सहस्रों बलयां लेगी। जिस प्रकार दशपुरपति, दशपुर की प्रजा, पिता और पारिवारिक जनों ने उस पर स्मित एवं हर्ष विभोर मुखमुद्रा तथा मधुर वचनों के माध्यम से अपार स्नेह और सम्मान का सागर उस पर उंडेल दिया, उसी प्रकार मां भी उसे देखते ही अवश्यमेव उससे बढ़कर संसार के समस्त मातृवात्सल्य को उस पर उंडेल कर उच्च अध्ययन में किये गये अथक श्रम की थकान को दूर कर देगी। पर उसे यह सब कुछ मां की ओर से नहीं मिला। मां तो केवल एक बार स्नेहभरी दृष्टि डाल कर पुनः अपने नित्य-नियम में तल्लीन हो गई। वह मां के सम्मुख विचारमग्न मुद्रा में बैठ गया। उसके मन में प्रश्न उठा - "क्या मां रुष्ट है ?" दूसरे ही क्षण अन्तर्मन ने उत्तर दिया"नहीं। मां कभी रुष्ट नहीं होती। मां तो स्नेह और ममता की प्रतिमूर्ति है जिसके नेत्रों से, रोम-रोम से स्नेह की सरिताएं निरन्तर बहती रहती हैं।" रक्षित ने देखा कि उसकी मां ने सामायिक का पारण कर लिया है। वह आगे बढ़ा और मां के चरणों से लिपटते हुए उन पर अपना मस्तक रख दिया। मां का स्नेहिल वरद हस्त रक्षित के मस्तक, भाल, कपोल, ग्रीवा और पृष्ठ भाग को सहलाता रहा और रक्षित मां के चरणों से अपना मस्तक चिपकाये चुपचाप लेटा रहा। कई क्षणों तक यही स्थिति रही। रक्षित ने मौन भंग करते हुए रुंधे कण्ठ-स्वर में कहा- "मेरी मां ! सफलतापूर्वक उच्च अध्ययन कर लोटे हुए तेरे लाड़ले लाल का आज दशपुराधीश और दशपुर की प्रजा ने अपनी प्रांखों की पलकें बिछा स्वागत-सम्मान किया। माँ ! अपने पुत्र की इस सफलता और अपूर्व सम्मान पर जिस प्रकार की प्रसन्नता तुम्हें होनी चाहिये, वह में तुम्हारे मुख पर नहीं देख रहा हूँ । सच-सच कहो माँ ! यह कहीं मेरा दृष्टिदोष तो नहीं है ?" रुद्रसोमा ने शान्त स्वर में कहा - "वत्स! भला संसार में ऐसी कौन प्रभागिन मां होगी जो अपने पुत्र की सफलता पर प्रसन्न न हो । तुम्हारी सफलता पर सब को प्रसन्नता है पर तुम जिस विद्या में निष्णात होकर पाये हो, उस विद्या का फल सांसारिक सुखोपभोग प्रदान करने और अपना स्वयं का तथा अपने परिजनों का भरण-पोषण करने तक ही सीमित है। स्व-पर-कल्याण ranamamawuly Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७६५ अथवा प्राध्यात्मिक अभ्युत्थान में वह विद्या किचित्मात्र भी सहायक नहीं। पुत्र! सच कहती है, मुझे वास्तविक खुशी तो तब होती जबकि तुम अध्यात्म-विद्या से प्रोतःप्रोत दृष्टिवाद का अध्ययन कर पाते। अपनी और अपने आश्रितों की उदरपूर्ति तो पशुपक्षि तक भी कर लेते हैं। मेरे जीवन की एकमात्र यही साध थी, आन्तरिक अभिलाषा थी कि मेरा पुत्र दृष्टिवाद का अध्ययन कर अध्यात्मविद्या में निष्णात हो अध्यात्म-मार्ग का सफल पथिक और कुशल पथ-प्रदर्शक बने ।” - माँ के हृदय के गहन तल से प्रकट हुए अमोघ उद्गार पुत्र के हृदयपटल पर सदा-सदा के लिये अंकित हो गये। उसने दृढ स्वर में कहा- "माँ ! मैं तुम्हारी प्रान्तरिक अभिलाषा को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है। मेरी अच्छी मां ! तुमने मेरी अंतर की प्रांखें खोल दी हैं। मैं दृष्टिवाद का अध्ययन करके ही तुम्हारी सेवा में पुनः लौटुंगा । पर माँ ! यह तो बतायो कि मुझे दृष्टिवाद की शिक्षा कहां मिलेगी ?"--- "नगर के बाहर अपनी इक्षुवाटिका में प्राचार्य तोषलिपुत्र विराजमान हैं, उनकी सेवा में चले जायो। सव व्यवस्था हो जायगी।" माँ ने कहा। दिवस का अवसान होने ही वाला था अतः वह रात्रि तो रक्षित ने मन मसोस कर जिस किसी तरह घर पर बिताई। प्रातःकाल होते ही रक्षित मां की चरणरज भाल पर लगा दृष्टिवाद के अध्ययन की उमंग लिये अपनी इक्षुवाटिका में विराजमान प्राचार्य तोषलिपुत्र की सेवा में पहचा। "निर्ग्रन्थ श्रामण्य की दीक्षा ग्रहण करने पर ही दृष्टिवाद का अध्ययन कराया जा सकता है, अन्यथा नहीं" - प्राचार्य तोषलिपुत्र से अपनी प्रार्थना का यह उत्तर सुनकर रक्षित ने तत्काल बिना किसी हिचक के प्रार्य तोषलिपुत्र के पास श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर ली। मार्य रक्षित ने प्राचार्य तोषलिपुत्र के पास एकादशांगी का गहन अध्ययन करने के पश्चात् किस प्रकार मार्य वज्र की सेवा में पहुँच कर सार्द्ध नव पूर्व का शान प्राप्त किया, किस प्रकार माता-पिता द्वारा स्वयं (आर्य रक्षित) को लिवा लें जाने के लिये आये हुए अपने अनुज फल्गुरक्षित को श्रमण धर्म में प्रवजित किया, यह सब प्रार्य रक्षित के प्रकरण में बताया जा चुका है। आर्य रक्षित साढ़े नव पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर पुनः अपने गुरु प्राचार्य तोषलिपुत्र की सेवा में पहुंचे। गुरू ने सार्द्ध नव पूर्व के ज्ञान से सम्पन्न अपने शिष्य को सर्वथा योग्य समझ कर, उन्हें गणाचार्य पद प्रदान किया और तदनन्तर वे समाधि संलेषना पूर्वक स्वर्गस्थ हुए। प्राचार्य पद पर अधिष्ठित होने के पश्चात् मार्य रक्षित पूर्व में फल्गुरक्षित के माध्यम से किये गये माता रुद्र सोमा के अनुरोध और अनेक दीक्षार्थियों के हित को दृष्टिगत रखते हुए दशपुर पहुंचे। Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साध्वी-परम्परा - रुद्रसोमा ने और रुद्रसोमा द्वारा निर्मित प्रेरणाप्रद भूमिका के फलस्वरूप राजपुरोहित सोमदेव तथा उनके परिवार के अनेक मुमुक्षुत्रों ने प्राचार्य रक्षित के पास पंचमहाव्रत स्वरूप अरणगार-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। आर्या रुद्रसोमा ने कठोर तपश्चरण करते हए अनेक वर्षों तक विशुद्ध संयम की साधना की। आर्या रुद्रसोमा के दोनों ही जीवन, गार्हस्थ्य जीवन और साध्वी-जीवन, मानवमात्र के लिये बड़े प्रेरणादायक हैं। वंश-विस्तार और अपने वंश की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने अर्थात् वंश का नाम स्थायी रखने की लोकरूढ़ बात का स्व-पर-कल्याण की तुलना में रुद्रसोमा के समक्ष कोई महत्व नहीं था। वह मानव-जीवन की सफलता, वंश-विस्तार में नहीं अपितु स्व-परकल्याण में मानती थी। प्रारम्भिक जीवन से ही जैन धर्म में प्रगाढ़ प्रास्था रखने वाली दृढ़ सम्यक्त्वधारिणी रुद्रसोमा की यह सुनिश्चित धारणा थी कि जो मानव अध्यात्म-विद्या का अध्ययन कर साधना-पथ पर स्वयं अग्रसर होता हुअा और अन्य लोगों को साधनापथ पर अग्रसर करता हुआ जन-जीवन में आध्यात्मिक चेतना के जागरण से जितना अधिक स्व तथा पर के कल्याण में निरत रहता है, वस्तुतः वह उतना ही अधिक अपने मानव-जीवन को सफल बनाता है। कितने उच्चकोटि के विचार थे रुद्रसोमा के ? उसने अपने इन विचारों को अपने जीवन में अक्षरशः ढाला। उसके वंश का नाम आगे चलेगा अथवा नहीं, इस बात की किंचित्मात्र भी चिन्ता न करते हुए उसने अपने दोनों पुत्रों में उच्चकोटि के. संस्कार डाल कर उन्हें आध्यात्मिक साधनापथ के पथिक और पथप्रदर्शक बनने तथा अपना एवं प्रौरों का कल्याण करने की प्रेरणा दी। रुद्रसोमा की प्रेरणा का ही प्रतिफल था कि बालक रक्षित आगे चलकर युगप्रधानाचार्य प्रार्य रक्षित बना। आर्य रक्षित ने जन-जन के मन में आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न कर स्व-पर का कल्याण एवं जिनशासन की सेवा करने में जो उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की, उसका मूलतः श्रेय रुद्रसोमा को ही है। यद्यपि सोमदेव और रुद्रसोमा की संतति, वंश-परम्परा पार्य रक्षित एवं फल्गुरक्षित के दीक्षित हो जाने के कारण आगे नहीं चली किन्तु जैन इतिहास में प्रयोगों के पृथक्कर्ता के रूप में आर्य रक्षित के नाम के साथ-साथ पुरोहित सोमदेव और मुख्यतः रुद्रसोमा का नाम अमर हो गया। रुद्रसोमा के समय से लेकर प्राज तक एक तरह से असंख्य महिलाएं हुई हैं, जिनकी संतति-वंशपरम्परा चली। उनमें से आज का मानव-समाज किसी का नाम नहीं जानता परन्तु लगभग दो हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी आज तक श्रद्धालुओं एवं साधकों द्वारा बड़ी श्रद्धा के साथ रुद्रसोमा का नाम स्मरण किया जाता रहा है और भविष्य में भी सहस्रों शताब्दियों तक भक्ति के साथ स्मरण किया जाता रहेगा। प्रातः स्मरणीया रुद्रसोमा के उद्दात्त एवं अनुकरणीय जीवन से प्राज का मानवसमाज, मुख्यतः महिला-समाज यदि थोड़ी बहुत भी प्रेरणा ले तो भौतिकता की प्रचण्ड भट्टी में जलते हुए आज के मानवसमाज को राहत देने वाली, शान्ति पहुंचाने वाली Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७६७ महान् आत्माएं समय-समय पर समाज में उभर कर मानवता को सच्चे सुख की ओर अग्रसर कर सकती हैं । साध्वी ईश्वरी (वीर की छठी शती का अंतिम दशक). संसार वस्तुतः दुःखों का अथाह सागर है, जिसका कोई प्रोर है न छोर । एक भी ऐसा मानव नहीं; जिसे जीवन में दुःखों ने नहीं घेरा हो, संकटों ने नहीं सताया हो । गर्भ-काल से लेकर मृत्यु पर्यन्त प्रत्येक मानव छोटे-बड़े किसी न किसी प्रकार के दुःखों से घिरा ही रहता है। दारुण दुःख की घड़ियां बीत जाने पर मानव दुःख के दिनों को भूल कर पुनः मृगमरीचिका तुल्य सुख की खोज में दौड़ लगाता है, पुनः दुःख पा घेरते हैं, कुछ समय पश्चात् फिर उन्हें भूल जाता है। प्रत्येक मानव के जीवन में यही क्रम प्रायः मृत्यु पर्यन्त चलता रहता है। लाखों में से विरला ही कोई मानव ऐसा होता है, जो अपने ऊपर आये हुए दुःख से शिक्षा ग्रहण कर सदा-सर्वदा के लिये दुःख से छुटकारा पाने का सही और सच्चा प्रयास करता है। साधिका ईश्वरी की गणना उन विरलों की श्रेणी में शीर्ष स्थान पर की जा सकती है। भीषण दुष्कालजन्य अन्नाभाव की बीभत्स संकटापन्न स्थिति में भूख से तड़प-तड़प कर मरने के स्थान पर सोपारक नगर के ईभ्य (अतुल सम्पदाशाली) जिनदत्त और उसकी पत्नी ईश्वरी ने अपने चार पुत्रों और पूरे परिवार सहित विषमिश्रित भोजन कर स्वेच्छा-मृत्यू का वरण करने का निश्चय किया। एक लाख मुद्राएं व्यय करने पर भो जिनदत्त अपने परिवार के अन्तिम (विषमिश्रित) भोजन के लिये बड़ी कठिनाई से केवल दो अंजलिभर अन्न जुटा पाये। ईभ्य-पत्नी ईश्वरी ने उस अन्न को पीसकर अपने परिवार के लिये भोजन बनाया। उस भोजन में विष मिलाने के लिये ज्योंही ईश्वरी ने सद्यःप्राणहारी कालकूट की पुड़िया खोली, त्योंही युगप्रधानाचार्य वज्रसेन ने वहां पदार्पण किया। आसन्नमृत्यु के विकट क्षरणों में मुनिदर्शन को अपना परम पुण्योदय मान ईश्वरी ने हर्षगद्गद् हो मुनि को भक्ति सहित भावपूर्ण त्रिधा वन्दन किया। . श्रेष्ठिपत्नी के हाथ में कालकूट विष देख आर्य वज्रसेन ने कारण पूछा। श्रेष्ठिपत्नी के मुख से वास्तविक स्थिति से अवगत होते ही प्राचार्य वज्रसेन को अपने गुरु द्वारा की गई उस भविष्यवाणी का स्मरण हो पाया, जिसमें प्रार्य वज्रसेन को बताया गया था कि जिस दिन तुम लक्षपाक अर्थात् १ लाख मुद्रामों के मूल्य के भोजन में गृहस्वामिनी को विष मिलाते हुए देखो उसी क्षण समझ लेना कि दूसरे दिन दुष्कालजन्य अन्नाभाव की दुःखावह स्थिति सुनिश्चित रूप से समाप्त हो जायगी। Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग साध्वी-परम्परा प्राचार्य वज्रसेन ने ईश्वरी से कहा - "श्रीविके ! भोजन में विष मिलाने की कोई आवश्यकता नहीं । कल यहां प्रचुर मात्रा में अन्न उपलब्ध हो जायगा।" - मुनिवचनों की अमोघता में अनन्य प्रास्थावती ईश्वरी ने विष की पुड़िया समेट कर उसे विनष्ट करने हेतु एक ओर रख दिया। ईश्वरी द्वारा प्रति करुण स्वर में बार-बार हार्दिक अनुरोध किये जाने पर प्रार्य वज्रसेन ने दो कवल भोजन उस विशुद्ध आहार में से ग्रहण किया। भविष्यदर्शी सत्यवक्ता मुनियों के वचन कभी मोघ नहीं होते। उसी रात्रि में अन्न से लदे जहाज सोपारकपूर के बन्दर पर पहुँचे। सूर्योदय होते ही नागरिकों को यथेप्सित मात्रा में अन्न उपलब्ध होने लगा। प्रारणहारी भीषण संकट के टलते ही सबने सुख की सांस ली। सबका कार्यकलाप पूर्ववत् चलने लगा। जैसे उन पर कभी कोई संकट पाया ही न हो। सूर्य की प्रचण्ड किरणों के संसर्ग से मरुभूमि की बालुराशि में उत्पन्न हुई दिगन्त व्यापिनी चमक में जलाशय की भ्रान्त कल्पना कर प्यासा मृग जिस तरह जल के लिये अनवरत दौड़ लगाता रहता है, ठीक उसी प्रकार लोगों में सर्वत्र सुखाभास की ओर ताबड़तोड़ दौड़ में होड़ लग रही थी। श्रेष्ठि जिनदत्त के घर पर भी अन्न पहुंचा। सबने भूख की ज्वाला को शान्त किया। श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी ने बीते प्राणापहारी संकट की विभीषिका पर विचार करते हुए अपने पति और चारों पुत्रों को सम्बोधित कर कहा :"यदि महामुनि वज्रसेन कुछ ही क्षण विलम्ब से आते तो हम सब लोग असंयतावस्था में, अवतावस्था में ही अकालमृत्यु द्वारा ग्रस्त हो अधोगति के भागी बनते। जीवन और मृत्यु के सन्धिकाल के अन्तिम क्षण में मुक्ति के देवता के रूप में मुनि उपस्थित हुए और उन्होंने हम सबको कराल काल के गाल में जाने से बचा लिया। मुनिराज ने ही हमें जीवन-दान दिया है। विषय-कषाय के प्रचण्ड झोंकों से निरन्तर जाज्वल्यमान् इस जन्म, जरा, मृत्यु रूपी दुःखदावानल में बारम्बार जलने के स्थान पर तो हम सबके लिये यह परम श्रेयस्कर होगा कि हम लोग प्राचार्य वचसेन के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर तप और संयम की अग्नि में अपने कर्मेन्धन को जला सदा के लिये इस दारुण दुःख-दावानल से बचने का प्रयास करें।" ईश्वरी के इस अति सुखद सुन्दर सुझाव की सराहना करते हुए जिनदत्त मादि सभी ने संसार से विरक्त हो प्रवजित होने का दृढ़ निश्चय कर लिया। ईम्य जिनदत्त, ईम्यपत्नी ईश्वरी तथा उनके नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति एवं विद्याधर-इन चारों पुत्रों ने अपार वैभव और समस्त सांसारिक भोगों को करा कर प्राचार्य वज्रसेन के पास सर्वविरति स्वरूप अणगार-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। ईश्वरी ने उस संकटकाल से शिक्षा ग्रहण की और उसके चिन्तन की सही दिशा ने उस भीषण संकट के अभिशाप को भी स्वयं के लिये तथा अपने परिवार के लिये वरदान के रूप में बदल दिया। किसी शायर की Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी-परम्परा ] सामान्य पूर्वघर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमरण ७६६ "शमा महफिल देख ले, यह घर का घर परवाना है ।" यह उक्ति ईश्वरी के परिवार पर अक्षरशः घटित होती है । घर का घर प्रव्रजित हों जीवन भर अध्यात्म-ज्योति का परमोपासक बना रहा । श्राज जो चन्द्र गच्छ, नागेन्द्र कुल, निर्वृत्ति कुल और विद्याधर कुल ये चारं गच्छ प्रथवा कुल श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध हैं, वे उन महामहिमामयी साधिका ईश्वरी के महान् प्रभावक पुत्रों के नाम पर ही प्रचलित हुए थे । - साध्वी ईश्वरी का जीवन वस्तुतः साधक एवं साधिकाओं के लिये बड़ा ही'प्रेरणाप्रदायी है । वह मानव मात्र को निरन्तर यही प्रेरणा देता रहता है कि. श्रो मानव ! दुःख की थपेड़ खा कर सम्हल जा, उसी क्षरण से ऐसे प्रयास में जुट जा, जिससे तुझे फिर कभी दुःख का दिन देखना ही न पड़े । महती प्रभाविका साध्वी ईश्वरी के पश्चात् देवद्धि क्षमाश्रमरण के काल तक साध्वियों का परिचय उपलब्ध न होने के कारण यहां नहीं दिया जा रहा है 1 उपसंहार प्रस्तुत ग्रन्थ में वीर निः सं. १ से लेकर १००० तक का जैन धर्म का इतिहास दिया गया है जिसमें १००० वर्ष की अवधि में हुए प्राचार्यो, प्रमुख साधु-साध्वियों महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं, राजवंशों, राज्य परिवर्तनों प्रादि का यथाशक्य प्रामाणिक विवरण देने का प्रयास किया गया है । वीर नि. सं. १००० के पश्चाद्वर्ती काल का इतिहास आगे के भागों में दिया जायगा । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. शब्दानुक्रमणिका २. सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. शब्दानुक्रमणिका (क) तीर्थकर, प्राचार्य मुनि, राजा, श्रावकादि अनु - ४८ अंगभूपण - ४२ अनुरुद्ध – २७४, अंगारकारक - २१८ अनिका - २५७, २५८ अंजु श्री - १६५ अनिकापुत्र - २५७, २५८, २५६, २६०, अंतहुंडी देवी - १७० २६१, २६२ अंतिकिनी राजा - ४३६ अपराजित - १८४, २६१, ३१५, ३२३, अतियोक राजा - ४३६ ३५८, ५८६, ६१७, ७३०, ७३१, अकपित - ६, २४, २७, ३२, ५८, १२७ ७३६, ७४६ अकलंक देव - ७१, १३१, १५४ अबुलहमन -- ६७० अभंगसेन चोर - १६५ अग्निकुमार - १३४ अग्निदत्त - ३८० अभयचन्द्रदेव - ७५३ अग्निभूति - ७, ६. १३, २४, २७, ४०, अभयदेव सूरि - ७५, ६३, ६४, ६५, १०१, १०७, १२०, १२६, १३०, १३१, ४३, ५३, ५८, ६०, १२५, १२६ १४२, १५७, १५८, १७० अग्निमित्र - १५१, ४६०, ४६२, ४६७, अभयभद्र - ७३२ अभयसार प्राचार्य - १६६ प्रचल-७५२ । अचल भ्राता -६, २४, २७, ३२, ५८, १२७ अभिनव पंडित - ७५३ अभिनव श्रुतमुनि - ७५३ प्रचलराम :- १२७ अच्युत - ६६० अभीचिकुमार - १३३ अच्युत नन्दी-६६१ अमित सेन - ७४२, ७५० अजय सेना - ७७७ अमित्रघात -४४८ प्रजात शत्रु -- २४६, २५०, २५, २५५, अमित्र चेटम - ४४८ २७४, २७५ अमोघ वर्ष -६७० अजितनाथ - १२४, १२७ अमनचन्द्र - ७१७, ७५८, ७५६, ७६७ प्रजितमेन - २८१, २८२, अम्बडं परिव्राजक - १३३ अजीतसिंह - ६४५ परगणक श्रावक - १४६ प्रतिमुक्तकुमार - १५४ अरनाथ -५०६ अनंगसेना - ५४० अरिदमन - ६७६ अनंतदेवी-६६६ अरिष्टकरणं - ६०४ अनंतनाथ - १२६ अरिष्टनेमि – १२५, ६६७, ७७० अनाधृतदेव - २०१, २०५, २०६, २२१, परिष्टोबुलम - ४२० २२२, २२७, अर्जुनमाली - १५४ ४६८ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ अर्जुनायन - ६३८, ६६१ प्रहदत्त - ४७७, ५३६, ७१०, ७३७, ७३८, ७३९,७४१ प्रहंदास - ६७, २२७, २३४, २३६, २३८, २३६, २४२. २४३, २४६ महंदबलि - ६१३, ६१४, ७०२, ७०३, ७१०,७११, ७२३, ७२४, ७२६, ७२७, ७२८, ७२६, ७३७, ७३८, ७३६, ७४१, ७४२, ७४४, ७४७, ७८६, ७५०, ७५१. ७५२, ७५३, ७५४, ७५६, ७६३, ७६४ मलबेस्नी -५५०, ६०४ भलिकसुन्दर - ४४० अलेक्जेण्डर - ४१९. ४३६, ४३७, ४४० भवन्ति सुकुमाल - ४६०, ४६१, ४६२, प्राढ्य -४६३ आदिनाथ – ६६७ ग्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये - २३२, ७१६, ७१७, ७२१, ७२३, ७२६, ७५८, .७५६, ७६१, ७६३, ७६८ प्रानन्द श्रावक - १५०, १५२, ७७१, ७७२, मानन्दिल - ४७२ आर्जवमुनि - १८०, १८८, १६१ प्रार्द्रकुमार ११३ प्राशाधर - ६१७ प्राषाढाचार्य - ४१५, ४१६ प्रासिल - १११ इत्सिंग - ६४७ इन्दुमति -५८४ इन्द्रदिन्न - ४७३, ४७७, ५०६ इन्द्रनन्दी-७०८, ७०६, ७१०, ७१४, ७२३, ७२४, ७२५, ७२७, ७३१, ७३२, ७३३, ७३७, ७३८, ७३६, ७४०, ७४१,७४२,७४८, ७५२, ७५४, ७५५, ७५६, ७६३ इन्द्रभूतिगौतम - ३, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, २१, २२, २३, २४, २६, २७, २८, २९, ३०, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०,४१, ४३, ४४, ४५, ४८, ५०, ५३, ६०, ६१, ६२, ६३, ६५, ६८, ६६, ७०, ११३, १२७, १२६, १३१, १७३, २२७, २२८, २३०, २३२, ३१५, ४६६, ५८५, ७३२, ७३३, ७३४, ७४६, प्रवन्तीवर्धन- २७९, २८०, २८१,७८८, ७८९ प्रवन्ती सेन - २८०, २८१, २८२, २८३, २८४, २०५, २८६, ७८७. ७८८ प्रवमुक्त - ६६. प्रविनीत-७६८ मनोक - २६४, ३४५, ४३६, ४४०, ४४८, ४५०, ४५१, ४५२.४५३, ४५५, ४५७, ४५८, ४५६, ४७६, ४८०, ४८१,४८५, ४६१, ५.३, ५०६, ५४१, ५४७, ६३५, ६५८, ६५६ प्रशोकवर्षन - ४८१ अश्वघोष - ६३५ अश्वमित्र - ४६५, ४६६, ४६७ अश्वसेन - २५४, २५६ अश्विनीकुमार-१४. असुरकुमार-१३४ पसोम केवली-१३३ पहिल्या - १६. (पा) मांटोला - ६६४ मांभी-५.२ पाजेय - २७४ इला-४८७ इसिभद्र पुत्र - १३३ ईश्वरी - ६२०, ७६७, ७६८, ७६६ (1) उग्रसेन - १४५, ६६० उज्मितकुमार - १६४ उज्जुमई - ३२४ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०५ ए०के० मजूमदार - २५१ एणा - ३८६ एलाचार्य -७६१ ऐंटिगोनस - ४३६ ऐंटियोकस - ४३६, ४४८ ऐल-४८७ . उत्तर-४६३ उत्तरा-६१० उत्तानपाद - ४८८ उत्पलकुमार - ३७६ उत्पला- १३३ उदधिकुमार - १३४ उदयगिरी- ६७१ उदयन - १३३, २६७, २७४, उदायी - २५०, २५४, २५६, २६३, २६४, २६५, २६६. २७३, २७५, २७६, २७७, २७६, ३७७, ३८३, ५.०३, उदयवर्द्धन - ३८० उदयाश्व - २५०, २६४ उदायी हम्ती-१३४ उद्योतन सूरि - ७१२, ७१३ उपकोणा - ३९५ उपनंदन भद्र - ३२४ उपरिचर वसु-४८८ उमरदत्त - १६५ उमास्वाति - ४७५, ४६३, ४६४, ७५३ उमास्वामी -७५६ उसभदात- ६३७ प्रोनेसिक्रिटस - ४२० । (प्रो) पौर्व - २५२ (क) ऊहड़-३७६ कचना-१६० कंस - ६६५, ७३०, ७३२, ७३७ कंसार्य - १८५ कंसावाये - ७३०, ७४६ कछुल्ल नारद - १४७ कनकवती- २०६, ७७७ कनकश्री -- २०६, २३६, ७७७ कनकसेना - २०६, ७७७ कनिष्क - ६३४, ६३५, ६३६, ६३७ कपदियक्ष - ६७७ कपिल - १३६, २६८ कपिल ब्राह्मण - २६६ कमलभाल-७७७ कमलमाला - २०६ कमलावती- २०६, ७७७ कलावती- ६७६ कल्प - ३६०, ७५१ कल्पक - ३८३ कल्पाक - २६६, २३०, २७१, २७२, २७३ कल्याण विजय - २३१, ४६६, ६१६, ६२२, ६२३, ६२४, ६७८, ६८२ कान्तिमागर - ४५६. ५.७, ६३३. काकवर्ण -- २५५, २७६ ऋषभ - १२४ ऋषभदत - १३३, २००, २०१, २०२, २०३, २०४, २०५, २०६, २०७, २०६, २११, २१३, २१४, २१५, । २१६, २२१, २२५, २३४, २६३ ऋषभदेव - १, ५, ३०, १२६, १२७, १२८, १७१, ५०५, ५६६, ६४५, ६८६, ऋषभसेन - ३०, ३१ ऋषिगुप्त - ४६५ ऋषिदत्त - ४७७ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ ६३७ गुप्त - ६५८ कात्यायन - ५२६ कामदेव - १५० कामधिगरणी - ४६४ कामदात कामलता - २४३, २४६ काटियस - ४३७ कार्तिक - १३४ कार्तिकेय - ६६८, ६६४ कालक - १७६, ४७४, ५१०, ५११, ५१२, ५१३, ५१५, ५१७, ५१८, ५२१, ५२२, ५२३, ५४१, ६७६, ६८१, ६६२, ६६३ कालकाचार्य - १७६, ३६६, ३८१, ४७३, ४६४, ४६५, ४६६, ५१०, ५११, ५१४, ५१७, ५१६, ५२१, ५२३, ५२६, ५४१, ५४६, ५८७, ६०६, ६०७, ६६२, ६१३, ७१८, ७८२ कालीदास - ६२६ काली रानी - १५४ किदार - ६३६ किन्नरी - १६० कुन्थुनाथ - १२५, १२७, ५०६ कुजुल केडफाइसिस - ६३०, ६३४ कुणाल ३४५, ४५५, ४५८, ४८१, ४८२ कुन्ड कौलिक १५०, १५१ कुण्डरीक - १४८, १४९ कुंदकुंद - ६२७, ७४२, ७४५, ७५२, ७५३, ७५४, ७५५, ७५६, ७५७, ७५८, ७५६, ७६०, ७६१, ७६२, ७६३, ७६४, ७६५, ७६७, ७६८ कुबेर - २०२, २३, ६६० कुबेरदत्त - २०६, ३००, ३०१, ३०२, ३०३, ३०४ कुबेरदत्ता - ३००, ३०१, ३०२, ३०३, ३०४ कुवेर मित्र - ३५३, - - कुवेरसेन - २०६ कुबेरसेना - ३००, ३०१, ३०३ कुमारगिरि - ६५१, ७८० कुमारगुप्त - ५४३, ६७२, ६७३, ६६३, ६५, ६६६, ६८, ६६६ कुमारदेवी - ६५७, ६५८, ६६६ कुमारधमं - ६८२ कुमारनन्दि - ७६० कुमारपाल - ४३६ कुमारभुक्ति - ४८१ कुमारामात्य - ६४८, ६६० कुमुदचन्द - ५२५ १७० कुम्भ - ७५२ कुभधरयक्ष कुशाग्रपुर - २४६ कुषारण - ६०७, ६३० कूणिक - १३३, १३८, २२२, २२४, २२५, २२७, २३०, २३७, २४६, २५०, २५४, २५५, २५६, २६४, २७४, २७५, २७६, ४८३, ५४७ कृतिकाय - ३५८ कृष्ण (राजा) - १४५, १४७, १५३, ४६७, ५००, ५३६, ५५८, ६०४, ६०५, ६०, ६६५ के. पी. जायसवाल – ४५०, ४७८, ४८४, ४८६, ४६१, ४६२ के० पी० पाठक - ७६५, ७६६ केशी - १३३, २५६ केसरी - ४३ कोट्टवीर - ६१० कोडिन - ११६, ४६३, ४६५, ६१० कोण्डकुन्दान्वय -- ७६८ कोशा - ३८३, ३६३, ३६५, ३६८, ३६६, ४००, ४०१. ४०२, ४०३, ४०४, ४११, ४१२ क्रेन्डल - ४२६ क्लियोफिस- ४२२ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०७. गुणपाल – १६०, २०४, २१५, २२२, २२८, २३१ गुणभद्र - २२७, २३२, २३८, ५८६, ७५३ गुण सुन्दर - ३८१, ४६४, ४७३, ४७६, क्षत्रिय - १८५, ५८६, ७३१, ७३६, ७४६ क्षत्रौजा - २५४, २५५ • क्षहया -५०१ क्षुद्रक - ४१६ क्षेमकीर्ति सूरी- ३६२ । क्षेमधर्मा - २७६ क्षेमराज- ४५० क्षेमवर्मा - २५४, २५५ क्षेमेन्द्र - ५४७ खन्तमुनि - १९३, १९४, ५६४ खपुट - ५२६, ५३०, ५३१, ५५५ खस राजा - ६६८, ६६६ खारवेल - ४७८, ४७६ ४८३, ४८४, ४८६, ४६०,४६३, ७८० खेमराजा – ४८६ गुणाकर - ४६४, ४६४, ५११, ६४६ गुणाढ्य - ५४७, गुप्तऋषि - ७४०, ७४१, ७४८, ७५०. गुप्तिगुप्त - ३५७, ७५४ गुलाबचन्द -७५५, ७६८ गयेर - ४३६ गोंडाफरनीज - ६२६, ६०६ गोदास - ११६, ३८०, ४४४ गोनाटस - ४३६ गोपाल - २७६, ४६५, ४७७ गोमतीपुत्र-६३० गोमुखयक्ष - ६७७ गोवर्धन - १८४, २६१, ३१५, ३२५, ३४१, ३४७, ३४८, ३४६, ३५८, ५८६, ७३०, ७३१, ७३६, ७४६ गोविन्द - ३७५, ४७२, ६६३, ६६४, ७६५, गोशालक - ११३, १३१, .१३३, १३४, १३८, १०, १५१, १७२ गोष्ठामाहिल -५६७. ५९६, ५६६, ६००, गंग-४६७, ४६८, ७३२ गंगदेव - १३४, ४६७, ५८६, ७३०, ७४६, गंगा -- ६५८ गगनगति- २३७ गजसुकुमाल-१५३ गजाधर -७५७, ७६० गणपति - ६६१, ६४० गन्धहस्ती - ६५१ गरुन-५६१ गर्दभिन् - ५४७ गर्दभिल्ल - ५११, ५१२, ५१३, ५१५, ५१६, ५१७, ५३२, ५४०, ५४१, ५४४, ५४६, ६०६, ७८२, ७५३ गांगिला -३०८ गांगेयभंग- १३३ गार्गी - ४६६. गुणचन्द्रगरिण - ३१ गुरणचन्द्रभट्टार -७६८ गुग्णज्ञा - २१० गुणधराचार्य-५५३, ७२४ गौतम - १८, १६, ३१, ३३, १०८. १३०, १३२, १३३, १४०, १४२. १५२, १५३, १७०, २३२, २३३. २३०, २४६, २८०, ३३०, ३५८, ७२५, ७२७, ७२८, ७२६, ७३१, ७३२. ७४१, ७५६, ७६२, ७७३ गौतमी - ६०४, ६०७, ६४३, ७७०, ७७१, ७७२ घटोत्कच - ६५६, ६६८, ६६६, ६४७,. .६४८ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ घनसुन्दर.-.४६४ चन्द्र प्रकाश-६५६ घासीलाल - ६१ चन्द्रलेखा - ६१२ घृतपुष्यमित्र - ५६५, ५६६ चन्द्रवर्मा - ६६१ घोष - ४६८ चन्द्रविद्यक - ६८६ चन्द्रश्री - ६०४ चकोर - ६०४ चन्द्रसूरी- ६३२ चक्रवर्ती -७६१ चरजनाग - ६३६, ६४० चक्रेश्वरी देवी - ६७७ चष्टन - ६०६ चणकेश्वरी - ४२३ चाणक्य - ३४५, ४२२, ४२३, ४२४, चरणी – ४२३ ४२५. ४२६, ४२७, ४२८, ४२६, चण्डप्रद्योत - ५. २६५, २७६, २८०, २८१, .. ४३१, ४३२, ४३३, ४३४,४३५, २८६, ५४७, ७८७, ७६. ४३८, ४३६, ४४७, ४s,me, चण्डमहासेन - ५४३ ४०२ चण्डमारि - २४७ चामरी- ४१, ४३ चण्डसेन-६६७ चारणमुनि - १३४ चन्दनबाला - ७७०, ७७२, ७७४, ७७५, चारूकीति - ६४५, ७५३ ७७७ चिलातराज-७६१ चन्दना - ७७६ चिलातीपुत्र - ६६४ चन्द्र (मुनि) - ५६८, ६२०, ६२१, ६२२, चुलणिमतक - १५० ६२७, ६३२ चुलगोपिता श्रावक - १५० चन्द्र (राजा) - ६७१, ३७२, ७६८ चुल्लवग्ग - ९७०, ७७२ । चन्द्रगुप्त - ३४२, ४१६, ४२१, ४२२, चेटक-१३८, २५०, २५३, २८६, ४०४, ४२५, ४२६, ४२७, ४२८, ४२६, ४८७,४८८,५४७ ४३०, ४३१, ४३२, ४३३, ४३४, . चेलना- १५५ ४३५, ४३६, ४३७, ४३८, ४३६, चेलिनी- २२७ ४४०, ४६, ४४७, ४४८, ४५०, · चोखा- १४६ ४५१, ४५२, ४५३, ४८०, ४८१, . ४८२, ५०३, ५०४, ५४७, ५४८, ६.७, ६३०, ६४१, ६४२, ६४३, छज्जीवरिणकाय - १.४ ७४७, ६५६, ६५७, ६५८, ६५६, छागलिक कसाई - १६५ ६६५, ६६६, ६६७, ६६८, ६६६, ६७०, ६७१, ६७२,.६७४, ६९७, जंभक देव-५७८ ६१८, ६६९, ७५६ चन्द्रगुप्ति - ३४५, ३४६, ३४७, ३४६, जक्खदिण्णा - ३२४ ३५१,.३५२, ३५३, ३५५, ३५६, जक्साशिष्या - ३२४ ४५२ जन्मेजय-५६७ चन्द्रचूल - २३७ जमालि - ११९, १३३, ७७६ Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बू - ३, ५७, ६६, ६७, ७०, ७२, १३०, १७७, १०४, १८७, १८६, २००, २०२, २०६, २०७, २०८, २०१, २१०, २११, २१२, २१३, २१४, २१५, २१६, २१८, २१, २२०, २२१, २२२, २२३, २२४, २२५, -२२६, २२७, २२८, २२६, २३०, २३१, २३२, २३३, २३४, २३५, २३६, २३७, २३८, २३६, २४०, २४१, २४२, २४३, २४४, २४५, २४६, २४७, २६७, २८१, २६२, २६३, २९४, २६५, २६७, २६८, २६६, ३००, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, ३१०, ३११, ३१२, ३१४, ३१५, ३१६, ३२४, ३५८, ३७८, ४७१, ४७२, ४७३, ५८५, ६१०, ६०१, ६८२, ६८३, ७२६, ७३०, ७३१, ७३६, ७४६, ७७४, ७७७, ७७८, ७८६ जय - १८५, ३५०, ५०६, ७३०, ७३१, ore जयदेव - ६५७ जयदेव सूरि- ६४६ जयन्त ५८२ जयन्ती - १३३ जयपाल १५५, ७३०, ७३२, ७३७ जयबाहु - ७३२ जय श्री - २०६, ४१८, ७७७ 'जयसिंह - २५७, २५८, २५६, ६८१ जयसेन - ७१७, ७३६, ७४०, ७५७, ७५८, ७५६, ७६०, ७६४, ७६५, ७६७ - - जयसेना - २०६ जहंम बिनतोई - ५४८ जवाहरलाल ११०, १७६ जसमद्द - ३२४ जसभद्र - ३२८ जसमित्र - २०३, २०५ जस्टिन - ४२१, ४२६. ४३०, ४३७ कालीकुमार - १५५ जितशत्रु – १४६, २७५, ३३४, जिनकरूप - ६००, ६१२, ७८१ जिनचन्द्र- ३३६, ३४०, ६११, ६१२,७४६, ७५४ जिनदत्त - ६२०, ६२१, ६२७, ६३१, ७६७ जिनदास - २०१, २४७, २७३, ३५१, ४४३, ५३५, ६५५, ६५६, ६८०, ६८२, ६८५ जिनदासी - २३९ जिनपति - ६२७ जिनपालित - १४६, ७१२, ७६२, ७६३, ७६४, ७६५, ७६८ जिनभद्रगणी - ६०८ जिनभती - ६७, २३४, २३६, २४२, २४३, २४४, २४५, जिन रक्षित - १४६ जिन बल्लभ - ६२७ जिनविजय- ५१, ५१५, ७१२ जिन सुन्दर - ४५० जिन सेन - ७०३, ८०६ ७२६, ७३४, ७४०, ७४१, ७४२, ७५२, ७५३, ७५६, ७६२ जिनेन्द्रबुद्धि - ७५३ जिनेन्द्र वर्णी- ६३३, ७२८, ७३६, ७६३ जिनेश्वर - ६२७, ७१२ जीत - ५०८, जीत कल्प ६८६ जीवितस्वामी - ४५३, ४५४ जेहिल - ४७४ जुगल किशोर मुख्तार - ७२७, ७३६, ७५६, ७६१ ज्यूस - ५०१ -- टुडि - ४२१ डाइमेक्स - ४४८ (2) (ङ) Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० डिमोडोरस - ४२७ डिमिट्रियस - ४८४, ४६०, ४६७, ४६८, ४६, ५१७, ६२८, ६६६ डिमित - ४१० डियोडोरस - ४२२ डेरियस - ५०१ ढंकगिरी - ५५८ तंत्र प्रजापति - ७७६ (8) तत्तायरिय - ७१३ तापसमुनि - ५८२ तामली तापस - १३२ (त) तारा - १६० तिष्यगुप्त - ५६, ५४.१ तीसभद्द - ३२४ तुरमय - ४३६ तोरणाचार्य - ७६६, ७६७ तोरमाण - ६६६ तोलेमाइयस - ४३६ तोसलिपुत्र - ३६५, ५७६, ५६०, ५६१, ५६२, ५६४, ७६५ थावच्चापुत्र - १४५ थियोस - ४३६ त्रयनाग - ६३६, ६४०, ६४१, ६४२ त्रिपुटी महाराज - २८६, ६२५ त्रिपृष्ठ वासुदेव - ४०, १२७ त्रियाशडिसस - ४२० त्रैराशिक – ४६३ त्रैलोक्यसिंह - ३७६ (थ) (ब) दक्ष - ४७४, दत्तदेवी दधिवाहन - ७७५ - ६६६ दर्शक -- २५४, २६४, २७४ दशरथ - ४८१ दाक्षिण्य चिन्ह - ७१२, ७१३ दाण्डेकर - ६१६ दामोदर प्रवरसेन - ६४७ दामोदर सेन - ६४३, ६६६ दिन - ४७३, ५०६, ५३६ दिवाकरसेन - ६४३, ६६६ दिशाकुमार - १३४ दीहद्द - ३२४ दुःप्रसह् - १५०, १०२, १८३ दुर्गाप्रसादशास्त्री - ५४७ दुर्बलिका (पुष्यमित्र ) - ३६४, ३७०, ४७३. ५८७, ५६५, ५६६, ५६६, ६०० ६०१, ६०२, ६०३, ६२०, ६३० दुर्मति पुरुष - १५१ 'दुर्लभदेव - ६२७. दुष्यगली - ४७२, ६७४, ६७५, ६७६, ३७७, ६८०, ६८१, ६८२, ६८३ ६८४, ६८५ धर्मा - १६८, १६६ देव - १८५, ३५८, ४७५, ७३६ देवकी - ६६५ देवकोट्ट - ३४१ देवदत्त - २५७, २५८ देवनन्दी - ७१, ७६४ देवनाग - ६४० देवपाल - ५२६ देवभूति - ४६८ देवद्ध - ११७, १३६, १४०, १७९, १७६, ४७१, ४७२, ५५०, ५५२, ६४४, ६५३, ६७४, ६७५, ६७६, ६७७, ६७८, ६७६, ६८०, ६८१, ६८२, ६८३, ६८५, ६६६, ६८७, ६६०, ६६२ देवर्षि - ५२६ देववर्मा - ४७६ देववाचक - ५०८, ५८६, १३, ६६०, ६८१ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवशर्म - ५३६, ५३७ धर्म - (प्राचार्य) – ३८१, ४७१, ४१२, देवशर्मा - ३६, ३७ ४७३, ४७४, ५३५, ५५४, ६४४ देवसेन - ३३७, ३४०, ३४१, ३४४, ६११, ६८२, ७३२ धर्मघोष - २८२ देवानन्द - १३३, ६४६, धर्मचन्द्र - २८, २९, ४०, ४३ देवीचन्द्रगुप्तम् - ६६७, ६६८, ६६६ धर्मदासगणी- ६२४ देवेन्द्रसूरि - ६८१ धर्मनाथ - १२५ देसीगणी - ६७५, ६८२, धर्मभद्र - ३२८ द्रमक -४५८ धर्मयश - २८२, २८५, २८६ द्रुमसेन - ७३२ धर्मवती - ६६, २४१ द्रौपदी - १४७, १६० धर्मवर्मन -६३७ द्वीपकसिंह - ४७२, ५८६, ६३१, ६४४, धर्मसागर - ३३६, ३६४, ४०७, ६२२ ६४८, ६६३ 'धर्मसेन - १८५, ४७५, ५८६, ७००,७०१, द्वीपकुमार - १३४ ७२५, ७३०, ७३७, ७४६ दीपायन - १११ धर्मादित्य - ५१६ . धारिणी- १५५, २००,२०२, २०३, २०४, २०५, २०७, २०६, २१४, २२१, धनंजय -६६० २३४, २४४, २८०, २८१, २८२, धन (श्रेष्ठी) - ५७६, ५७७, ७८४ . २८३, २८५, ६३४, ७७५, ७८७, धनगिरि - ४७४, ५३६, ५६६, ५६७,५६८, ७८८, ७८६, ७६० ५६६, ५७०, ५७१ धीमती-५४० . धनगुप्त - ४६७ ध्रुवदेवी - ६६७, ६६८, ६७२, ६६E धनद -२०२ • ध्रुवसेन - १८५, ५२०, ६६२, ७३७, ७४६ धनदेव - २७८, ४१४, ४१५, ६४५ ध्रुवस्वामिनी- ६६८, ६६६ धननन्द - ३७७, ३७८, ४१८, ४३१, ४३२, धृतिसेन - ६८५ ४३३, ४३४,४३८ धतिषेण - ३५८, ५८६, ७३०, ७३१, धनपतसिंह - ६१, ६३, १७६, १७७, ४६५ ७३६, ७४६ धनपाल-५३६, ५६६, ५६७, ७५२ धनाढ्य -४६३ नंद - २५०, २६७, २६८, २७०, २७१, धनेश्वर -- ६३४ २०२, २७३, २७५, २७७, ३३३, ध ।। - १४४ ३७८, ३७६, ३८३, ३८५, ३८६, धन्ना (सार्थवाह) - १४५, १५५ ३८७, ३६०, ३६१, ३६३, ३६४, धम्मिल्ल - ४६, ५१, ५२ ३६५, ३९६, ४०३, ४११, ४१७, धरसेन - ६१४, ७०२, ७०३, ७०७, ७०८, ४१८, ४२५, ४२८, ४३२, ४३७, ७०६, ७१०, ७११, ७१५, ७२३, ७२६, ७२७, ७२८, ७३७, ७३८, ४३८, ४३६, ४८१, ५४७, ७७८ ७३६, ७४२, ७४४, ७४७,७५१, नंदनभद्र - ३२४ ७५२, ७५४, ७६२, ७६३, ७६८ नंदमणिकार - १४६ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२. नंदमती - १५४ नंदा - १५४, १५५ नंदि - ६१४, ७३०, ७३१ नंदिनी पिता - १५२ नंदि मित्र - १५४, २६१, ३१५, ३२२, ५८६,७३६, ७५६ नन्दियमपिय - ६८२. नन्दिल - ५३५, ५५०, ५५१, ५५२, ५५४, ६३१, ६८३, ७५५ नन्दिवर्धन – २५०, २५४, २७३, २७४, २७५, २७७, २७८, २७६, ३७७, ३७६, ५०३, नन्दी - १३६, १६६, १८४ नदीषेण - १६५ नक्षत्र ( प्राचार्य) ७३२ . नभसेना - २०६ नभोवाहन - ५१६,५३२ नमिनाथ - १२५, १२८ नरसिंह गुप्त - ६६०, ६६६ नरेन्द्रसेन - ६४४, ६७३ नवनाग - ६३८, ६४० नहपान -- ६०४, ६०७ नाग ३५८, ४६३, ४७४, ७३०, ७४६ नाग कुमार - १३४ - - १८५, ४७४, ४७५, नागदत १८६, ३७३, ५५१, ६६१ नागमित्र - ४६३ नागसेन - १८५, ४६८, ५८६, ६२८, ६४०, ६६०, ६६१, ७३१, ७३६ नागहस्ती - ३१५, ४७२, ४७३, १३४, १३५, ५१२, ५५३, ५५४, १५५, ५६१, १६२, ५०६, ३६७, ६३१. ६३२, ६६३, ७२४ नाग श्री - १४७ नागार्जुन - १८२, ४७२, ४७३, ५५८, ५८७, ६५१, ६५२, ६५३, ६५४, ६५५, ६५६, ६५६, ६६५, ६७७, ६७६, ६६३, ७१८, ७१६ ६६३, ६६४ ६८१, ६६४, नागिला - १८६, १६१, १६२, १६४ नागेन्द्र - ३५०, ५२, ५५६, ५०६, ६२० ६३१, ६३४, ६३७, ७६८ नाथूराम - ६१६, ६१७, ७५५, ७६१ नायनिका - ६०५ नारदपुत्र - १३२ नाहड़ ५१६ निग्राकंस - ४२० निकानोर - ५१६ निवृत्ति ( मुनि) – ६२०, ६२२, ७६८ नीलराज - ६६० नेमिचन्द्र - २३३, ६१६, ७५३ नेमिनाथ - १५३, ३४१ नंड्रम - ४२१ पंडितदेव - ७५३ पंडुभद्द - ३२४ पंधक मुनि - १४५, पतंजलि - ४६६, ४६० पत्तलक ૬૪ पद्म - ५८२, ५६७, पद्मकुमार - ५५० पद्मदत्त - (4) ५५१ पद्मधर - ३४७, ३४८, ३४६ पद्मनंदी - ७५४, ७६२, ७६४ पद्मनाभ - १४७ पद्मरथ - १६६, १६७, १६८, ३४१ पद्मश्री - २०६, २१६, २१८, २३६, २४३, २४७,७७७ पद्मसेना - २०६, ७७७ पद्मावती - १५३, १६०, २०६, ६६०, ७७७ परशुराम - २७७ परुण्ड - ५६१ पर्णदत्त - ६६७ पर्युपासन - ३५७ पर्वतक - ४३२, ४३३, ४३४, ४३५, ४३६ पलक्क - ६६० Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ८१३ ३ बनदेना-५५४ पुष्परती-२५९ चाय (थिम्)-१५ पुनगिरि -७३ पुष्यनिय-१७९, ४७७, ४७, १९, . समू-१८५,७६०, ७३२, ONE ४०३, ४०५, ४०६,४१. Yat, पाइली-७८०, ७२ ४२२, ४६३, ४९६, ४९७, ४६८, पाटनी न- २६२, २६३ ४६६, ५०७, ५१६, ५६५, ६२०, पाठक (०)-७५७, ७६१ ६२८, ६२६, ६७३, ६७४, ६८४, पावलिप्तरि- ३६५, ५५२, ५५५, ५५७, पृथ्वी-७ . ५५८, ५५६, ५८६, ६५५, ६५४ पृथ्वीपेण- ६४१, ६४२, ६४३,.. पालक-५, २७६, २८०,४३१, ४७८, ६४४, ६७३ ५१६, ७८७ 'पृथ्वीसेन - ६७४ पानाव- १२३, १२६, १४६, २४६, पोइणी- ४७५, ४०४, ७८१ २५६, १२६, ५५१, ६९७, ७७० पोखली-१३३ पास्यकीति -- ६१७ पोटिस-१२८, १४७ 'नव-६१. पोट्टसास-५६२ पुंगरीक-११२, १४८, १४ पोम्पीट्रोपी-४२६ - m पुष्पमह - ३२४ पोनाक-६५१,६७८, ६७६ पुपर-४७९,४०, ४८१. पौरव-४१० पुण्य विजय-१८१,४,४७३, ६५५ प्रतिबुख-५१८ . ६६४, ६८५, ७१९ प्रतिमामा-५९६ पुष्पमित्यु-१७१ प्रधुम्न-१४५ पुरलुप्त-६६५, ६१८, ६६९ प्रयोतन-६३३, ६३४, पुरीम्बन- ६.४ प्रभव-५७, १७७, २००, २१५, २१६, २१६, २२२, २२३, २३०, २३५, पुर्णमित्रा-४४ २४७, २४८, २८६, २६१, २६२, पुनिन्दक- ४८ २९४, २६५, २१७, २९८, २६६, पुलुमायी-६०४ ३.०, ३०४, ३०६, ३०७, ३१०, पुमोमावि-६.६ ३११, ३१२, ३१३, ३१४, ३१५, पुष्कमी-१३३ ३१६, ३७८, ४७१, ४७२, ४७३, पुष्पडून-२६०, २५६ ५८६, ७७८ पुष्पमा-२६०,२६१ प्रमापन्द्र -५२८, ५७२, ५७६, ७६६,७६७ पुष्पदंत - २३३, ७.१,७०३,७०७,७०८, प्रभावक-६२१ ७०६, ७११, ७१४, ७२२, ७२६, प्रभावती- ६४१, ६४३, ६४७, ६६२, ७२७, ७२८, ७३४, ७४२, ७४४, ७४७, ७५१, ७५२, ७५३, ७५४, ६६६, ६७० ७६२, ७७४ प्रभास-६, २४, २७, ३२, ५८ .पुष्पमन्दि-७६६, ७६७ प्रवचनादेवी - १७० Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ प्रवरसेन - ६४१, ६४२, ६४३, ६४४ प्रसन्नचन्द्र - १८८, २००, २०२ प्रसेनजित - २४६, २५४, २५५, २७५ प्रश्नसेन- ३४ प्लूटार्क-४३७, ४३८ प्रार्जुन - ६६१ प्रोप्ठिल - १८५, ३५८, ५८६, ७३०, ७३६, ७३६, ७४६ बाहदय - ४८८ बालचन्द्र - ७५७, ७६०, ७६७ बाल्हीक - ४६८ बाहुक - २५२, ५०० बिन्दुमार - २४६, २५०, २५१, २५४, . २५६, २७४, २७५, ३४५, ४४०, ४४७, ४४८, ४४६, ४५०, ४५१, ४५७, ४७६, ४८०, ४८१,४८२ युद्ध - ५, २७६, ४५१, ४८७, ७७०, ७७२ फतेहचंद - ७१४, ७५५ बुद्धगुप्त - ६६६ . फल्गुमित्र - ४७३, ६८२ . बुद्धिमान – ७३१ फल्गुरक्षित - ३६५, ५९० ५६३, ५९६, बुद्धिल-१८५, ३५८, ५८६, ७३०, ७४६ ५९६, ७६३, ७६५; ७६६ । बुद्धिलिंग - ७३६ । फाहियान - ५०४ . बुद्धिसागर - ६२७ फिलाडेल्फोस - ४३६ ब्रह्मगणी- ४६५ फिलिप - ४१६, ५०१ फुल्ल-५५५ फ्रेंकलिनएजर्टन - ५४६ भगवानलाल-६६७ (ब) भददत्ता - ३८६ भद्दिला - ४६, ५१ बंगर -६३७ भद्र - ४७४, ४६८ बनराज - ६२७ बरकमारिस - ६६६, ६७० भद्रगुप्त - ३६५, ३८१, ४७१, ४७२, ४७३, ५३५, ५५१, ५५२, ५५४, ५६१, बहिननाग - ६३६, ६४० ५७६,५६२,५६३ बलदेव - १५३, ७०४ भद्रनन्दि - १६५ बलभद्र - ४१६, ४१७ भद्रबाहु - ४७, ८३, ६५, १७७, १८२, बलमित्र - ५११, ५१२, ५१३, ५१५, ५१६, १८४, १८५, २७८, २७६, २८६, ५१७, ५१६, ५२०, ५३०, ५४१, २६१, ३१५, ३२१, ३२२, ३२३, ५४४, ६०६ ३२४, ३२५, ३२६, ३२७, ३२८, बलवर्मा - ६६१ बलथी - ५६२ ३२६, ३३०, ३३१, ३३२, ३३३, बलाकपिच्छ - ७५३ ३३४, ३३५, ३३६, ३३७, ३४१, ३४२, ३४४, ३४५, ३४६, ३४७, लिम्मह - ४६३, ४७१, ४७२, ४७४, ४७५, ४७६. ४७७, ४७६, ४८२, ४८४, ३४८, ३४६, २५१, ३५२, ३५३, ४६१, ४६२, ४६३, ४६४, ४६७, ३५५, ३५७, ३५८, ३५६, ३६०, ६८५, ७८०,७८१, ७८२ ३६१, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, बहल - ४७४ ३६६, ३६७, ३६८, ३६६, ३७०, वारण - ५४७, ६४० ६६८ ३७१, ३७२, ३७३, ३४, ३७५, Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६, ३७७, ३७८, ३८०, ३८३, भीमराजा- ५५८ ४०३, ४०४, ४०५, ४०६, ४०७, भीमसेन - ३७६ ४०८, ४०६, ४१३, ४४४, ४५२, भुवनमुनि - ५३०, ५३१ ४६६, ४७१, ४७२, ५८६, ६११, भूतदिन्न – ४७२, ४७३, ५८७, ६६३, ६६४, ७००, ७२३, ७२५, ७२६, ७२७, ६६५, ६७२, ६८१, ६८३, ६९२, . ७३०, ७३१, ७३६, ७३७, ७४६. ६६३, ७५५ ७५४,.७५६, ७६४, ७६५, ७८० भूतदिन्ना - ३२४, ३८४, ४०२, ७८० भद्रा-४६०, ४६१, ४६२ भूतनन्दी- ६३७ भद्रेश्वर - ३०, ३१, ३६, ५०६, ६५१. भूतपति -७११ भरत- १२५ भूतबलि -७०३, ७०७, ७०८, ७०६, ७११, ७२३, ७२६, ७२७, ७२८, भरत खण्ड-२ ७३७, ७४२, ७४४, ७४७, ७५१, भरतचक्रवर्ती - ३०, १२७ ७५२, ७५३, ७५४, ७६२ भरतबक्री- १२६ भूतवाद - १११ भरतसेन - ३४१ भूता - ३८४, ३८६, ४०२, ७८० भर्तृहरि - ४००, ५४०, ५४१, ५४२, ६७० भूया - ३२४ . भव (मुनि)- ३१५ भृगुकच्छ - ५१५, ५४१ भवदत्त - ६६, ६७, १८६, १६१, १९४ । भोगिन - ६३७ भवदात-६३७ । भवदेव - ६६, ६७, १८६, १६०, १९१, १९५, १६७, २४१ मन- ३१५, ५३४, ७२४ भवनाग - ६३६, ६४०, ६४१, ६४३ मंखु-५५३, ५५४, ५५५ भवसागर - ६८६ . मंगू - ३६६, ४७१, ५१०, ५३२, ५३३, भाइल्ल-५१६ ५३४, ५३५, ५३८, ५५०, ५५३, भागिनेय -५१५ ६३२, ७५५ भानुमित्र-५११, ५१२, . ५१३, ५१५, · मण्डन -५५६ ५१८, ५१६, ५२०, ५४१. मंडलिक - १२४ भानुश्री-५१७ मंडित - ६, २४, २७, ५८, २७८, ३५८ भारशिवगज-६४३ मक-४३६ भावदेव - २४१, २४२ मगम - ४३६ भास्करदेव - ५८४ मजूमदार-२५२ भिक्खुराजा - ४८६ मणक - ३१६, ३१७, ३१८, ३१६, ३२०, भिक्खुराय - ४७५, ४.७७, ४७८, ४७६; ४८२, ४८४, ४८७, ४६८, ४६१, मणिप्रम -- २६१, २८२, २८३, २८४, २८५, ४६७, ७८१ २८६, ७६० भिक्षुराज - ४८४ मणिभद्द - ३२४ भीम -५४० मणिरत्न- ३७६ भीमनाग - ६३६, ६४० मणिलाल - ५१, ५२ ३२१ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ नतिल - ६६१ मद्र:- ६६७ महुक - १३४ मघुमित्र - ६४८, ६५१, मलयगिरी - ६४, १०८, ५.३५, ६५०. ६८०, ६८५, ७०८. मल्लिनाथ - १२६, १४५ मल्लीभगवती - १४६ महाकीति - ६४५ महागिरी ३८१, ४४०, ४४१, ४४२, ४४३, ४४४, ४४५, ४४६, ४५०, ४५५, ४५६, ४५७, ४५८, ४६०, ४६३, ४६५, ४६७, ४६८, ४:६, ४७०, ४७१, ४७२, ४७३, ४७४, ४७५, ४७६, ४७७, ५३५, ५६५, ६४८, ६६३, ६८४, ६८.५, ६८६, ७७४, ७७८, ७७६, ७८० महादण्डक - ७०४ महानन्द - २५० महानन्दी - २५४, २७८ महापद्म - ११७, १४८, २४१, २७७, २७८, २७६ महामेघवाहन - ४७६, ४७६ महावीर - १, २, ६, ६, १०, ११, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २६, ३०, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६,३६, ४०, ४१, ४३, ४४, ४५, ४७, ४८, ४६, ५०, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८, ६६, ७१, ६०, १, १०४, १११, ११३, १२३, १२४, १२५, १२६, १२७, १२८, १३०, १३१, १३२, १३३, १३४, १३८, १४०, १४४, १४६, १५०, १५१, १५२, १५३, १७०, १७२, १७३, १७६, १८५, १८६, १८७, १८८, २००, २०१. २०३, १०५, २०७, २२३, २२५ २२६.२२७, २२८, २२, २३०, ३३२,२३८, २४१, २४६, २५० २५५, २७८, २८०, २८४, २२, ३१२, ३१३, ३१४, ३१५, ३२१, ३२२, ३२३, ३२४, ३२५, ३२६, ३५७, २५८, ३६१, ३६८, ४०६, ४१३, ४३५, ४३६, ४४०, ४५१, ४५५. ४६७, ४६६, ४५१, ४७५, ४७६. ५१४, ५१५, ५१६, ५४५, ५५२, ५७४, ५७६, ५८६, ५६६, ६०३, ६१३, ६२५, ६३२, ६५७, ६७५, ६०, ६६७, ७०७, ७१७, ७१८. ७२२, ७२६, ७३२, ७५२, ७५५, ७६६, ७७०, ७७२, ७७३, ७७७ ७६१ महाशतक - १५१ महाशिलाकष्टक- २३२, १३८, १७२ महीचन्द्र - ४२ महीधर - ७५२ महेन्द्र - ४५१, ६६०, महेन्द्रसिंह - ६७२. महेन्द्रादित्य- ५४२ महेशप्रसाद - ५४६ महेश्वरदत्त - १६५ ३०७, ३०८, ३०६ माघनंदी - ६१४, ७१०, ७११, ७२६, ७२७, ७२८, ७३७, ७३८, ७४२, ७४४, ७४७, ७५३ ७५४, ७५७, ७६२, ७६३, ६६४, ७६५, ७६८, माणकमुनि - १०४ माणिकचन्द्र - ७५५ मातिल – ६६१, माद्रक - ६६१ मानतुंग - ६४५ ६४६ मानदेव - ६३३. ६३४, ७४५ मानदेव भूरि- ६२४ मिडिट्रियस - ४६० Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंद - २७४ मित्र श्री-५६ पक्षा- ३२८, ३०, ३०६, ४०२, ४.९, मिलिन्द -४६८ .. ४१०,४१,४२, ७७८, ७७६, मीनाण्डर - ४६७, ५१७ यज्ञदत्त-३८० मुकुन्द -५२३,५२४ यज्ञदत्ता-५८२, ५५३, ५९४ मुनिसुव्रत – १२५ पाश्री-६०४ मुरुण्डराज- ५५६, ५५६, ५६०, ५६१, यति पृषभ - ३१५, ५३४, ५५३, १५४, ६६१, ७७३, ७६१, ७६२, ७९३, १५१, ६३१, ७२४ मृगांक - २३५, ३३७, २३८, २४० ययाति - ४८७,४८८ मृगापुत्र- १६४ यशनन्दी-६३७ . भृगालोदा-- १६४ यशपाल-७४ यशोधरा-१६५ मृगावती-७७५, ७७६ मेगस्थनीज- २६४, ४२०, ४३०, ४३७, १३. १३७ यशोदाहु-७३०, ७५० । यशोभद्र -१८५, २८६, २६१, ३१६, ३२०, मेषकुमार -- १४३, १४४ ३२१, ३२२, ३२३, ३२४, ३२५, मेघगणी- ४६४, ४७६ ३२७, ३२६, ३३४, ३५५, ३७८, मेषमुनि - १४४ ४६४, ४६८, ४७१, ४७२, ४७३, मेघरप - ६४८ ५८६, ७२५, ७२६, ७२७, ७३०, मेतार्य - ६, २४, २७, ३२, ५८, ६१७ ७३७,७५०, ७७८, मेनेण्डर - ६२८, ६२६, ६६७ यशोवर्मा-६६८ मेरुतुंग - ४७२, ४९६, ५१४, ५१६, ५३२, यूकेटाइडीज-४६८, ५१७ ५४२, ६४६, ६६३, ६८५, ७१८ योय - ६६१ मेरुधीर-७५२ मककिंडल-४२१, ४२२ रंगिका-४१, ४३ मेणा - ३८४ रक्षित - ३६४, ३६५, ३६६, ३७०, ४६५, मोगा-६२६ ४७२, ४७३, ५३५, ५५२, ५५४, मोस-६२६ ५६१, ५७६, ५८७, ५८६, ५६०, मोहनलाल --५१ ५६१, ५६२, ५६३, ५९४, ५६५, मोहम्मद -५४८ ५६६, ५६८, ६००, ६०२, ६१३, मौनिभट्टारक-३४१ ६१३, ६२०, ६३३, ६७६, ७६३, मौर्यपुत्र - ६, २४, २७, ५८, १२६, १२७, ७६४, ७६५, ७६६ २७८, ३५८ रनकीति- ३४७ रलचूल - २३५, २३७, २३८, २४० यक्षदत्ता - ३८६ रत्ननन्दी- ३४४, ३४७, ६१२, ६१५ यादिना - ३४, ३८६, ४०२, ७८० रलप्रभसूरि-१९४, २०४, २२२, २९४, यक्षदेव-३८० ३०१,३०६, ३७६, ३८. यमदेव सूरि-३८. रख (पा)-४७३, ५८२, ५९७, ५६८ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ रथ मूसल - १३२, १३८, १७२ रप्सन - ५४६ रघु - २७, ४३, ५०, ३४५, ३४६ रम्वल - ६६६ राजमल्ल - ६५, ६७, ६८, २३३, २३४, २३५, २४०, २४१, २४२, २४७, ३१५ राजशेखर - ३२७, ३३४, ५२६, ५२८, ६१५, ६६६ राजुल - ६२६ राधाकुमुद मुकर्जी - ४४०, ६३५, ६३६, ६३६, ६४७ रामकृष्ण ५४६ रामगुप्त - ६६६, ६६६, ६७०, ६७१ रामचन्द्र - ६३७ रामबलदेव - १२४ ww रामल्य - ३५२, ३५३, ३५४, ३५६ ५०७ रामिल्ल - ३४२, ३४३, ३४४, ३४६, ६१२ रावरण राष्ट्रवर्धन- २७७, २८०, ७८७, ७८८, ७८६,७६० रुक्मिणी - १४५, १६०, ५७६, ५७७, १७८, ७८४, ७८५, ७८६, ७८७ रुक्मी- २५२ - रुद्रदामा - ६०६ रुद्रदेव - ६६१ रुद्रसिंह - ६६८, ६७१ रुद्रसेन - ६३६, ६४०, ६४१, ६४२, ६४३, ६४७, ६६६ इद्रसेना - ६४८ रुद्रसोमा – ५६०, ७ε३, ७६४, ७६६ रूपश्री - २३६ रेवती - १५१, १९१ रेवतीगाथापत्नी - ६५ रेवती नक्षत्र - ४७२, ५८६, ५६०, ६२८, ६३०, ६३१, ६३४, ६३७, ६४४, ६४८ रेवतीमित्र - ३५१, ४७३ ५३१, ५३२ ५३५, ५८७ ५८६, ६३७, ६४४, ६६३ रेणा शिष्या - ३२४, ३८४, ३८६, ४०२, ७८० रोहक - १३२ रोहगुप्त ११६, ४६३, ४६५, ४७५, ५६३, ५६५, ५६२ रोहण - ४६४ रोहिणी - १६० (ल) लकुलीश - ६३६ ललिता - २६८ लक्ष्मीदेवी - ३८४, ३८५, ४०३ लेपगाथापति - ११३ लोकपाल - ६१२ लोकमुनि - १४४ लोहार्य ६५, १८५, ३५८, ६७४, ७०२, ७१०, ७२५, ७२६, ७२७, ७२८, ७२६, ७३०, ७३१, ७३२, ७३३, ७३४, ७३७, ७३६, ७४०, ७४१ ७४२, ७४४, ७४७, ७४८, ७५०, ७५४, ७५५, ७६२ लोहित्य - ४७२, ६७४, ६७६, ६८१, ६८२ (ब) वज्र - ४७, ३६५, ३८१, ४६५, ४७२, ४७३, ५३५, ५३६, ५३७, ५५४, ५६१, ५७०, ५७१, ५७२, ५८३, ५८४, ५६२, ५१३, ५६५, ५६७, - ५६८, ६१६, ६४८, ६६२, ७७४, ७८३, ७८४, ७८५, ७८६, ७८७, ७६५ वज्रकुमार - ५८४, ५८५ वज्रदत्त १६५ वज्रदन्त ६६, २४१ वामित्र - ४६८ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रमुनि - ५७३, ५७४, ५७५, ५७६, ५८२ वाशिष्क - ६३८ वज्रशूचि - ६३५ वासुकी- १८६ वज्रसेन - ४७३, ५५३, ५७६, ५८७, ५६७, वासुदेव - ६३८, ७०४ . ५६८, ६१६, ६२०, ६२१, ६२२, वासुपूज्य-१२६ ६२३, ६३१, ६६३, ७६७, ७६८ वज्रसेनसूरि – ५८२ विक्रम- ३३७, ५१४, ५१५, ५१६, ५१७, वज्रस्वामी -६६, ३६४, ३६५, ३७१, ५२५, ५२६, ५३६, ५४०, ५४१, ४७३, ५५१, ५५२, ५६६, ५७७, ५४२, ५४३, ५४४, ५४५, ५४६, ५७८, ५७६, ५८०, ५८१, ५६०, ५४७, ५४८, ५४६, ५५०, ५८६, ६०८,६४६ ६०४, ६०५, ६०६, ६०७, ६११, वढ़राजा - ४८६ ६३६, ६४७, ६७०, ६७१ वत्स-२४८ विक्रमसेन - ५८६ वनमाला - ११७ विगतभया - २८२, ७६०, ७६१ नयरसेरण-६६३ विजय - १२६, १८५, ५८६, ६०४, ७३०, वरदत्त - ५५० ७३६, ७४६ वररुचि – ३८५, ३८६, ३८७, ३८८, ३८६, विजयचोर-१४४ ३६०, ३६५, ३६६, ४०२, ७७८ विजयवती-२८२, ७६. वराहमिहिर - ३२६, ३३०, ३३१, ३३२, विजयवर्मा-५२६, ५५५ ३३३, ३३४, ३३५, ३३६, ३५८, विजयश्री-२०६, ७७७ ३७२, ३७४, ३७५, ३७७ विजयसेन -७३१ वरुणनाग – १३२ विजया- २७८ वर्द्ध मान कुमार - २४६ वर्द्धमान भगवान् - ६६० विद्यादेवी - १४२, १७० वसु - ५६, ६०, ४६७ विद्याधर - ६२०, ६२१, ६२२, ७६८ वसुदेव - १५३, ७५२ विद्यानन्द-७१ वसुधारा - १९७ विद्युत्कुमार - १२६, १३४ वसुपालित - २०६ विगुच्चोर - २२७, २३५, २३८, २४३, वसुभूति -७, ४४५, ४४६ २४४, २४५, २४६, २४७, ३१५, वसुमित्र - ४६८, ६२६ विद्युत्प्रभ - २३६ वसुषेण - २०६ विद्युत्राज - २३६ वस्तुपुष्यमित्र -५६५, ५६६, ५९६ विद्युन्मती- १६० वहसति मित्त - ४६२, विद्युन्माली-१८८, १८६, २००, २०१, वामन - ६५६ २०४, २०६, २२५, २४२ वायुकुमार - १३४ विनयधर - ७०२, ७०३, ७१०, ७२६, वायुभूति -७, ६, २४, २७, ४१, ४३, ५३, ७३७, ७३६, ७४०, ७४१, ७४२, ७४४, ७४८, ७५०, ७५४,७६३ वारिसार- ४८१ विनय श्री- २३६ वादिदत्त - २४२, २४३ विनीत-७५२ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० . विन्ध्य - २९२, ५९६, ५९६, ६००, ६.१ वृद्धदेव - ६१३ ६०२, ६३७, ६६० वृद्धदेव मूरि- ६२४ विन्ध्यक- ६४० वृद्धवादी-५२३, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७ विन्ध्यशक्ति - ६४०, ६४१, ६४३, ६४४ . वृहप - ४७७, ४७६, ४८०, ४८१, ४८२, विन्ध्यसेन - ६४४ विमलनाथ - १२६ बृहस्पतिनाग - ६४० विमलप्रसाद - २३६ वेण (शिष्या)- ३२४, ३८६, ४०२, ५३६, विमलमती-२३६ - ७८० विमलसेन - ३३७, ३४४ वेम कैडफाइसिस - ६३०, ६३४ बी० पी० जैन - २३३ वरसिंह - ५१० वीर - ६५, ६७, ६८, २३३, २३५, २३६, रोट्यादेवी - १४२, १७०, ५५०, ५५१, २३७, २३८, ३४०,७५२ वीरमती-२०६, ७७७ वैषमण - २०२ वीर विरचितं -२३३ व्यक्त-६, २४, २७, ४६, ५३, ५८, ६८ वीरसूरि - ६४६ व्याघ्र -६६० वीरसेन - २३३ ५५३, ६३८, ६४०, ७०८, व्याघ्रनाग - ६४० ७०६, ७१४, ७२६, ७५६ विलासवती-२३८ शंकरायं-६६८ विशाख - १८, १८५, ३४२, ३४३,. .३५२, शंख- १३३ ३५५, ३५६, ५८६, ६११, ७३० शकटार - ३८३, ३८४, ३८५, ३८६, ३८७, ७३६, ७४६ ३६८, ३८६, ३६०, ३६१, ३६२, विशाखदत्त -- ६६७, ७३१ ३६३, ३६५ विशाखमुनि - ३४७ शकडाल - ३३३, ३८३, ३८४, ३६५, विशाल गुप्त - ६६५ ४०२, ४११,४१७, ७७८ विशालाक्षी- ४१, ४२ शकराज ५१२, ६६१, ६६७, ६६८, ६६६ विश्वलोचन - ४१ शकपर्ण- २५३ विष्णु - २३५, ३१४, ३१६, ३५८, ४७४, शतजित - ४८७ ५८६, ६७१, ६६२, ७३०, ७३१, शतधनुष – ४७६ ७४६ शतधन्वा - ४८१ . विष्णुकुमार - १८४ शतानीक -२८१ विष्णुगोप - ६६० शतायुध - २६८ विष्णुनन्दि - २६१, ३१५, ३१६ शय्यंभव - १०४, २८६, २६१, ३१३, विष्णुमुनि --१८० ३१४, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६, विष्णु श्रुत केवली-७३६ ३२०, ३२१, ३२२, ३२८, ३७८, बुड्ढ़कर - ५३० ४७१, ४७२, ४७३, ६६४, ७७८ वृद्ध - ४७४ शय्यालर- १२१, ५२२ बुडकर-५३० शर्मगुप्त- ६६८ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ - शशि गुप्त ५०२ शीलांकाचार्य - ७५, ७६, ८३, १२, १०७, शांडिल्य - २७, ४२, ४३, ३८१, ४७१, १७५, १७६, ३६२ शीलाचार्य - ८२ ४७४, ७१८ शान्ति- १७०, ३३७: ३३८, ३३६, ३४०, शुक-१४४ ३४१, ३६२, ३६४, ३६६, ३६७, शुकदेव - १४५ शुभशीलगणी - ५४१ शान्तिनाथ - १२६,१२७, ५०६, ६६७ शेष-६३७ शान्ति श्रेणिक - ४६५, ५८२ शोभनराय - २८६, ४८३, ४०४, ४८७, ४८८ शान्ति सूरि - ३६१, ६७६, ६८० श्याम-३८१ शान्ति सेन - ७४० श्यामाचार्य- ४६४, ४७१, ४७३, ४७५, . शाकटायन - ६१७ ४९४,४६५, ४९६, ५०८, ७०७, शान्टियर-५४८ ७०८, ७१२, ७१४, ७१५, ७१६, शालिवाहन - ५५०, ६०३, ६०४, ६३० ७१७,७१८, ७१९, ७२०, ७२१, शालिशूक - ४७६, ४८१ ७२२, ७२३ शाहानुशाहि - ६६१ श्यामा - १६५ शिव - ६३६ श्रमणदत्त - २०६ शिवकुमार -६६, १९५, १९७, १९८, श्रीकलश-६१६ १६६, २४१, ७५७, ७५६, ७६०, श्रीगुप्त - ३८१, ४६५, ४७३, ५६१, ५६२, ५६३, ५६५, ६४१, ६४२, ६४७, शिवकोटि - ६२७, ७५३ ६६८, ६६९ शिवगुप्त -७४१, ७४८, ७५० श्रीदत्त -७१०,७३७,७३६, ७४१ शिवदत्त -७१०, ७३७, ७३६, ७४१ श्रीपाठक-७६७ शिवनन्दी-६३७ . श्रीमंदर-७५६, ७७६ शिवभूति - ४७४, ६०६, ६१०, १२० श्रीमती-५४० शिवमृगेशवर्म-७५७, ७६७ श्रीराम - ५३६ शिवराज- १३३ श्रीयक- ३८४, ३९०, ३६१, ३९२, ३६३, शिवश्री-६०४ ३९५, ४०२, ४१०, ४१७, ७७८, ७७६ शिवस्कन्द -६०४, ७५७, ७६१, ७६०, श्रीषेण - २४६ शिव स्वाति-६०४ शिवायं-६१७ श्रुतकीति-७५३ शिशुक-५६२ श्रुतदेवता- १७० शिशुनन्दी-६३७ श्रुतदेवी-१४२ शिशुनाक - २५३, २५४ श्रुतमुनि-७५३ श्रेणिक-४१, १४, १५५, १८८, २००, शिशुनाव-२५१, २५२, २५४ २०१, २०२, २०४, २२५, २२६, शिशुपाल-२५२ २२७, २३५, २३७, २३८, २४०, शीतलनाप- १२६, १२७ २४६, २७, २४६, २५०, २५१, खीमगरणसरि- ६२७ .२५३, २५४, २६५, २७५ - Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३३ श्रेयांशनाथ - १२६, १२७ (ब) पांडिल्य - ५०८, ५०६, ६८२, ६८४ (स) संगत - ४८१ संघपालित - ४७४ संघमित्रा - ४५१ संडिल्ल - ६७५ संधीरण - २५८ संपलितभद्र - ४७५ संप्रति - ३४५, ४५१, ४५२, ४५३, ४५४, ४५५, ४५६, ४५७, ४५८, ४५६, ४६०, ४७०, ४७६, ४५०, ४८१, ४५२, ४६२, ५०३, ५४१ संभूतविजय - २८६, २९१, ३२२, ३२३, ३२४, ३२५, ३२८, ३२९, ३३६, ३७८, ३६६, ३६७, ४००, ४०२, ४०३, ४०५, ४१२, ४७१, ४७३, ५८६ संभूतिविजय - ३६५, ४७२, ७७८, ७८० संभूतिश्रमरण - १८० संवर - २४६ सकलकीर्ति - २२ सगर - १२६, २५२, २४३, ४०० सच्चिकादेवी - ३८०. सत्यमित्र - १७६, ५८७, ६६१, ६६३ सिंह - ६७१ सद्दालपुत्त - १५१ सनत्कुमार ६६ समन्तभद्र - ७२७, ७३६, ७५३, ७५६ समित - ५३६, ५६६, ५६६, ५७१, ६४६ समितसूरि - ३६५, ५३७, ५.३८ समुद्र - ३६६, ४७१, ५०६, ५१०, ५३२, ७४६, ७५५ समुद्रगुप्त - ६३६, ६४२, ६४३, ६५७६६२, ६६५–६६७, ६७० ६७३, ६६८, ६६६ समुद्रदत्त - २०६, ३०७, समुद्र प्रिय - २०६, २६८ समुद्र विजय - १४५, १५३ समुद्रश्री - २०६, २१६, २१६, ७७७, ७७८ सरस्वती - ५१० - ५१४, ६०६, ७८२, ७८३ सर्वगुप्त - ७५२ सर्वदेवसूरि- ६२४ सर्व नन्दि – ४५ सर्व सेन - ६४४ सर्वार्थसिद्धि - ७१ सहस्रमल्ल - ६१० साइरीन - ४३६ सागर - ५२१-५२३ सागरचन्द्र - ६६, २४१ सागरदत्त - १६५ - १६७, २०२, २०६, २३६ सातकर्ण - ६०४ सातकरण - ५४७, ५४८, ६०७ सातवाहन - ५१८-५२०, ५५७, ६०३ सामंतभद्र - ६२४, ६२५, ६३२, ६३३ सामंतभद्रसूरि - ६२३ सालिहीपिता - १५२ सावत्थी - १३३ सिंह - ४७३, ४७४, ५८७, ६३१, ६४४६४६, ६४८, ६५५ सिंहगिरी - ३६५, ४७३, ५३६-५३८, ५६६, ५६८, ५७२- ५७६, ५८५, ६१६, ६४८, ७८३, ७८४ सिंहसेन - १६५ सिंहसूरषि - सिकन्दर - ४१८ - ४२२, ४३०, ४३७, ४३८, ५००- ५०३ - ४४ सिद्धसेन - ५२३-५२८ सिद्धान्तदेव - ७६० सिद्धार्थ - १८५, ३५८, ५०६, ७३०, ७३१, ७३६, ७४९ सिमुक - ६०४, ६०५ सीता - १६० Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ सीमंधर स्वामी- ४१०, ५९४, ४६५ सीवंद-४७५, ४८४ सीहा- ६५ सुन्दर - ३६२, ६०४, ६२७ सुन्दरवर्मन - ६६७ सुकाली-१५४ सुज्येष्ठा - २५०, २५१ सुदर्शन - १३३ सुदर्शना -७७६ सुधर्मस्वामी - १३०, ७३१, ७३६ सुधर्मा - ३, ५, ८, ९, २४, २७, २९, ३२, ३३, ४४, ४५, ४७-६५, ६७-७२, १०५, १२८-१३०, १७१, १७३, १७७, २०३, २०४, २०७-२०६, २१५, २२३-२२६, २२८-२३० २३२-२३४, २३८, २४२, २४७, २४६, २७६, २८०, २८६, २६४, ३१२, ३२३, ४५५, ४६८, ४७१४७३, ४७६, ४८४, ४६६,५८५, ६०८, ६२३, ६३२, ६८३, ७१७७२१, ७४६, ७७४, ७७७, ७७८, ७८७ सुनन्दा-५३६, ५६६-५७०, ५५२, ७८४, सुपाश्वनाथ - १२७ सुपुष्प - ६५७ सुपतिबदसूरि - ४६४, ४७५-४७७, ४६३, ४६४, ५.०६, ६८५, ७८१ सुप्रतिष्ठ - ६५-६८, २४१, २४२ सुप्रभा-२४७, ३४२ सुबन्धु-४८-४५०, ५४७ . सुबाहु-१६ सुबुद्धि-१४६ सुभद्रा-३७, १६०, ७२५-७२७, ७३०, ७३२, ७५० सुमाल्य - २७७ . सुमिणभद्द - ३२४ मुमित्राचार्य - ५८३, ५८५ 'सुयशा - ४८१ सुरसुन्दरी-५१० सुरादेव-१५० सुरूपा - १६०. सुलोचना २८६, ४८४ सुवर्णगुलिका - १६० सुविधिनाय - १२६, १२७ सुविशालगुप्त - ६६३ सुव्रता - २२३, ६५४, ७७४, ७७७ सुघेणा -७७७ . सुषेणा - २०६ सुस्थित (प्राचार्य) - १८६, १६०, ४६४, ४७३, ४७५-४७७, ४८४, ४६३, ४९४, ६८५, ७१८, ७५१, ७५२ . सुहस्ती - ४७, ३६६, ३८१, ४४०-४४६, ४५०, ४५३-४५७, ४६०, ४६१, ४६५, ४६८-४७३, ४७५-४७७ ४६३, ५०६, ५०६, ५३२, ५३५, ५३६, ५८२, ६०८, ६४८, ६८३ ६८६, ६९२, ७७४, ७७८, ७७६ सेंड्रोकोट्टस- ४२१, ४२६, ४३७, ४३८ । सेऊल्ल-मोकूल - ५४८ सेणा-३२४, ३८४,४०२,७८० सेनप्रश्न - ३४ सेना-७७७ सेलक- १४५, ४७५, ४८४ सेल्यूकस - ४२१, ४२२, ४३८, ४४६, ४८ सोमगणी-४६५ सोमदत्त -३८० सोमदेव-५३६, ५४२, ५४६, ५८२-५८५, ५९०,५६१, ७६३ सोमरथ - ६४८ . सोमशमां - ३४१, ३४७, ३४८, ४८१ सोम श्री-३४१, ३४७, ३४८ सोमिल- ६, १०, ३१, ५०, ५३, १३४ सौधर्मकुमार - ६६, ६७, २४१, २४२ सौधर्म मुनि - ६६ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ सौधर्मेन्द्र -४६५ होम्य दर्शना-५४२ हनुमान-५०७ स्कण्दक- १३२ हयनाग-६३६, ६४. स्कन्दगुप्त - ६६२, ६६६, ६७३, ६७४, हरिएंगमेषी-६७६ ६६३-६६६ हरिभद्र - २७३, ४०५, ५३५, ६१६, ६१८, स्कन्दनाग - ६४० ६२६, ६८०, ७०८, ७१२-७१४, स्कन्दिल - ११७, १८१, १८२, ४७२, ४७३, ७१६,७१८, ७२०, ७७४ ५२३, ५२४, ५३१, ५३२, ६४, हरिषेण - १२७, १२८, ३४१, ३४४,५८२, ६४५, ६४८,-६५६, ६६४, ६७७, ६११, ६४०, ६४२-६४, ६५६६७६, ६८१, ६८६, ६९२, ७१८, ७१६ हरमन जैकोबी - ६६, ६७, ३५६ स्कन्दिली वाचना-६८१,७१८ हर्ष - ६४५ स्टेनकोन-५४५ हलधर-७५२ स्तनितकुमार - १३४ हस्तितापस-११३ स्थंडिला-४२, ४३ हस्ती- ४७४ स्यूलभद्र - १७६, ३२४, ३२५, ३२८, हस्तीमल- १६९ ३४२-३४४, ३४६, ३५२-३५४, हस्तीवर्मन- ६६० ३५६, ३६३, ३६४, ३७१, ३७७, हाल (राजा)-५४६ ३७८, ३८१, ३८३, ३८४, ३६३- हिमवंत - ४७२, ६५३-६५५ ३६९, ४०२, ४०४, ४०७-४१५, हिमवान - ६५५, ६५६ ४१७, ४३५, ४४०-४४४, ४४६, हीरालाल-७१४, ७१६, ७२१, ७२३, ४५५, ४६८, ४७१-४७३, ६११, ७२५,-७२६, ७३६, ७४३, ७४५, ६१२, ६८५, ७७५-७८० . ७४७, ७५५, ७६८ स्थूल वृद्ध - ३४२-३४४ हुएनत्सांग-५०४ स्थूलाचार्य- ३४२, ३४६, ३४७, ३५२- हेमचन्द्र - २४, ३४, १०८, २२५, २२६, .. ३५४, ३५६, ३५७, ६११, ६१२ २५०, २५१, २६२, २७३, ३५८, स्वयं प्रभसूरि-३७६ ३५९, ३६१, ३७४, ४१३, ४२३, स्वर्णकुमार-१३४ ४२८, ४३५, ४३६, ४, ४५७, स्वाति -- ४७१, ४६३, ४६४, ४६६ ४६२, ६७८, ७३३, ७३४,७७४ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ (ख) प्राम, नगर, प्रान्त, स्थानादि इक्षुधर - ५६८ इक्षुवाटिका - ५६१, ५६२, ७६५ इलाहाबाद - ६३६-६४१, ६४३, ६५८ ईराक - ६६६ ईरान - ४३८, ४३६, ५००-५०३, ६०५, ६०६, ६२६, ३३४, ६३५ अंग-१२, २४६, ३०५ अंतरंजिका - ५६२ प्रचलपुर-५३६, ५३७, ६४४ प्रजन्ता-६४० अजमेर-६३३ भणहिलपुर-६२७ प्रपापा नगर-8 अफगानिस्तान - ५६१, ६०६, ६२६, ६३०, ६४७ अमरकंका-१४७ अयोध्या- २५२, ५००, ६५८, ६६८ परव-५४८, ५४६, ६७० परवेला-५०१ पर्जुनायन - ६४० प्रलवरभंडार - २०४, २०८ प्रवन्ती - ५, १२, ४१, ४२, २४८, २६७, २७६, २८०, ३४२, ३४६, ३५१, ३५३, ३५५, ३७६, ४३५, ४, ४५२, ४८१, ५२५, ५३६, ५३८.. ५४१, ५४४, ५६६, ५७५, ६०५, ६०६, ७८७, ७६० अवमुक्तप्रदेश-६६० अशोकवनिका - १५० अशोकोबान- ३६३ अशोकवाट -७३८ आस्मिग्राम - १३३ महमदाबाद -१, ६२७ महिछत्रनगर - ५८३, ६६० उज्जयिनी -- २६५, २६७, २७६, २८०, २८१, २८३, २८५, २८६, ३३७, ३४०, ३४२, ३४६, ३४६, ३५२, ३५३, ४५३, ४५४, ४५८, ४६०, ४७६-४८१, ५११-५१५, ५१७, ५१८, ५२१, ५२२, ५३६, ५४१, ५४६, ५४६, ५५०, ५६२, ६.६, .६१२,६२६ उड़ीसा - ४८३, ५४५ उत्तरप्रदेश - ५७८, ६२७, ७३६, ६३८,. उत्तरमथुरा - २५७, २५८ उदयगिरि - ४८३, ६७१ उपकेशनगर - ३७६, ३८० उर्जयन्त (गिरनार) - ३४१ उलूगातीर नदी - ४६७ ऋजुकूला नदी - २८ एपिरसनगर - ४४० एशिया - ६१८ ऐरवत क्षेत्र - १२८ मानन्दोघान – १०, ५३ मान्ध्र -५१७, ६०५, ६७४ प्राभीर -६६१ मामकल्पानगरी- ५६ . मालंभिकानगरी- १३३ प्रासाम - ६६१, ६४६. ओंकारपुर - ५५८ प्रोकाज-मक्का - ५४० प्रोसियां - ३७६, ३.. Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंकालीटीला - ७५५. कंधार - ४४६ कनकपुर - २८६ कनिष्कपुर - ६३५ कत पुर - ६६१ कर्नाटक -६०५, ६१६ कलिंग - २४८, २८६, ३७६, ४५०, ४७८, ४७६, ४८२, ४८३, ४८६, ६६०, ७८२ कहोम -६६७ कांचनका - ६४२, ६४३. कांची - ६६० काकंदीनगर - ४७६ काक (गणराज्य) - ६६१ काकिणी (राज्य) - ४५८ कागवाड़ा - ६१६ काठियावाड़ - ६२८, ६३५ कान्तिपुरी - ६३७-६३६ काबुल - ४१८, ४४६, ५६१, ६३६ कामरूप -६६१ कालीसिन्धु - ४६८, ६२६ काशगरप्रदेश .. ६३५ काशीदेश - ४१, २४६, २५४ काश्मीर - ४१८, ६३५, ६३६, ६४६ कास्पियनसागर - ५०१ कुंकण (कोंकरण) - २७६ कुंड कुन्दपुर - ७५४, ७६२. कुडलवन - ६३५ कुन्तलप्रदेश - ६७४ कुमारगिरिपर्वत-४७५-४७६,४८३, ४८४ कुमारीपवंत -७८२ कुरीश्वर - ७११ कुशस्थली नदी - ६६. कुश्यलपुर - ६६० कुषाण साम्राज्य - ६३६, ६३७ फटागारशाला -७७१ कूर्मारपुर - ५२६ . कृष्णा नदी - ५३६, ५३७ केरल - २३७, २३८ कोंकण - ६०५, ६७४ कोंगरिणप्रदेश - ७६८ कोटिपुर - ३४१ कोटि वर्ष नगर - ४४४ कोट्टपुर - ३४७, ३४८ कोटूरा - ६६० कोरंटानगर - ३७६ कौलेरझील - ६६० कोल्लाग ग्राम – ४८ कोल्लुमाग्राम - ४६ कोल्लागसनिवेश - ५१, ५२, १५० कोशल - ६६०, ६७४ कोशला नगरी - ५५५ कोसम-पभोसा-४९१ कोण्डकुन्द - ७५२, ७६२ कौशल राज्य – २४६, ६६० कौशल ग्राम - ५२३ कौशाम्बी - २४८, २४६, २६७, २८० २८६, ३७६, ४५४, ४५५, ६४२, ६५८-६६०, ७८९ कोशिकी नदी - ४६ क्षप्रा नदी - ३४२ क्षिति प्रतिष्ठित नगर - २४९ खण्डकेसर -७३८ खण्ड गिरी - ४८३ खरिपरिकादि गणराज्य - ६६१ खोतान प्रदेश - ६३५ गंगा- ४६, २५७, २६१ २६३, ३८६-३६०, ६५८,४३८ गंगा (तट) - २५६, गंगादिराई-४३७ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंजम - ६६० गंडक - ४६ गढ़वा - ६७१ गया ६५८ • गाजीपुर - ६६६, ६६४ गान्धार - ६२६, ६३०, ६३६, ६३ε गिरनार - ३४७ गिरिगुहा - ७३८ गिरिव्रज - २५३, २५५ - गुजरात - ६०४, ६०७, ६३५, ६४०, ६७१, ६७४ गुडशस्त्रपुर - ५३०, ५३१ गुणशील (चैत्य ) - ३६, ६८, २०७, २०८ गुणशील ( उद्यान ) - ५६, ६२३ गुर्जरा - शिलालेख गोब्बर ग्राम ४५० 6 ू - गोरखपुर - ६१७ गोल्लप्रदेश - ४२३ गोविमठ - ४५० गोहाटी - ६६१ ग्वालियर - ५४६ चम्पानगरी - ३६, ३७, २२४- २२६, २३७, २४६, २५५, २५६, २६३, ३०५, ३१७, ७७५ चरणक नगर चित्रकूट - ५२६ चिनाव - ४१६ चीनी तुर्किस्तान चीनी साम्राज्य चेदि देश ४५५ २४६, ४२३ - (212) - ६३५, ५३८ ६३५ जम्बूद्वीप - १२१, १२३, १२८, २०१, २०४, २२१, २३१, ५६२ जम्भिका नगरी - ५२ जृंभक ग्राम - २८ जयपुर - २१५, २३५, २२, २४, ३१२ जर्मन - ६७ जूनागढ़ - ६६३, ६६५-६६८ जूनागढ़ का शिलालेख - ६६६ जैन ग्रंथ प्रकाशक सभा टर्की - २५३ (झ) झेलम - ४१६, ४३७, ५४४ (z) . डबोक - ६६१ डवाक - ६६१ ढंक - ६५४ - (3) (x) • ६२७ (त) तक्षशिला - ४१८, ४१९, ४२८, ४३०, ४४८ ५०२, ६०६, ६२६ तरंगवती नदी - ५५८ ताम्रलिप्त नगर - ३०७ तिलंग देश १२ तुंगिया - १३२ तुंबवन ग्राम - ५३६, ५६६, ५६८, ७८३ तुर्किस्तान - २५२, ६३८ (2) दशाश्वमेध घाट - दीप उद्यान - ६०६ दुप्राबा - ६३०, ६३४ देव कुरुक्षेत्र - १२३ देवराष्ट्र - ६६० ८२७ दशपुर- ५७५, ५७६, ५६०, ५६१, ५६३ ५६४, ५६८, ५६६, ६०२, ७६३ ७६५ ६३६ (घ) धनगिरि - ५८२, ५८३, ७८३ धातकी खण्डद्वीप - १२६ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ धौलपुर ५४३ पिष्टयपुर-६६० पुण्डरीकिणी-१४८, १९५ . नर्मदा-६७३ पुण्ड्वर्घन राज्य - ३४१, ३४७ नागपुर-६३७ पुण्ड्व र्घनपुर-७३८ नाडोल-६३४ पुन्नाट - ३४२, ६११ नालन्दा- ६६, ३८४,४२८, ४२६, ६४७, पुरिका - ६३७, ६३६, ६४०, ६४३ पुरुषपुर-५६०,५६१, ६३४ नेपाल-३२८, ३६५, ४०१, ४०५, ४०६, पुष्कलावती विजय-१६५, १६६ ६४६, ६५७, ६६१ पुष्पभद्रा नगरी- २५६, २६.१ नेल्लोर - ६६० पूना - ६४७, ६६२, ६६६ पूर्णभद्र (चत्य) - २२४ । प्रतिष्ठानपुर- ३२५, ३३०, ३३२, ३३४, पंचस्तूप -७३८ ३३५, ५१५, ५१८, ५२०, ५३२, पंजाब - ४१८, ५४, ४५३, ६०७, ६२८ ५५७,६०३, ६०४, - ६३०, ६३४, ६४०, ६७१ । प्रयाग-६५८ पउलाषाढ (चैत्य)-४१५ प्राय (चत्य) - ४०६ पद्मावती (नगर)- ६३७ प्रार्जुन (राज्य)-६६१ पलक्कप्रदेश -६६० प्रासाई देश - ४३७ पांचाल -४६० पाटण-६२७ फारस देश -५१२ पाटन-४६० पाटली-२५७ पाटलिकग्राम - ४५ बंग (देश)- १२, २४६, ६४६, ६७१ पाटलीपुत्र- ८, २४६, २५७, २६३ - बड़नगर - ६६२ २७०, ३२८, ३३३, ३७७, ३७८, बालाघाट - ६७३ ३८७, ३८८, ३६०, ४०१, ४०४- बाह्निक - ६७१, ६७२ ४०८, ४१५, ४१६, ४२४, ४२८, बिहार - ५४५, ६३७ ४३१-४३३, ४३३, ४३५, ४३६, बुन्देलखण्ड - ६३७, ६३८, ६४२ ४३८-४४०, ४४५, ४४७, ४५३, बेबिलोन - ४१६, ४३६ ४७८-४६२, ४९६, ४६०, ४६१, बैक्ट्रिया - ४६०, ४६७-४६६, ६२८ ४६७, ४६६, ५३२, ५५६, ५५८, बैलोख - ४३६ ५६०, ५७६, ५६०, ६५७, ६५८, ब्रह्मगिरि - ४५० ६६७, ७८४, ७८५, ७८७, ७९३, ब्रह्मद्वीपक - ५३७ ७६४ ब्राह्मण नगर - ४२ पाण्ड्य राष्ट्र - ४५ पावापुरी - ३६, ५३, २२७ । भड़ौच - ५११, ५१३, ५१५, ५५७, ५१८, पार्श्वनाथ - १२५, १२८, १३८ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ v३.७३ भरत क्षेत्र - १, ४२, १२८, १८०, २००, .. ६४८-६५३, ६५६, ६६६, ६७१, २२५, २३१, ३५८, ४६५, ५६४, ६७२, ६७८, ६९५, ७५५ ६५०, ७३०, ७३१ मद्र (पूर्व पंजाब) - ६३७, ६३८ भाद्रपद (स्थान)-३४२ मधुरा -७११ भारतवर्ष-१, २, ४६, ११५, २२८, २४८, मध्यएसिया-६६४ २५२, २६४, २८७, ३४७, ४१८, मध्यदेश - ४६०, ६१२, ६३७, ६३८, ६६० ४१६, ४२१, ४२२, ४२८, ४३०, मध्यमपावा - ५३, ६२, ६३ ४३६-४३८, ४४४, ४४६-४४८ मध्यमानगरी - ३१ ४५१, ४५८, ४५६, ४६०, ४६७, मन्दसौर -५४३, ५९०, ५६८ ४६६, ५००, ५०२-५०४, ५१४, मलयगिरि - ३६२ ।। ५४५, ५४६, ५७८, ६०४, ६०६, महाकाल- ४६२ ६०७, ६१५, ६१६, ६२८-६३०, महाकालेश्वर (मंदिर)-५२८ ६३५, ६३६, ६३६, ६४३, ६४६, महाबोधि - ६४७ । ६४७, ६५६, ६६१, ६६२, ६६६- महाराष्ट्र - ३२६, ६०५, ६७३ ६७२, ६७४, ६६४, ६९६, ६९८ .. महाविदेह - ६६, १५२, १९५, ४१०, ४६५ भारतीय ज्ञानपीठ - ५८२ महिमा नगर - ६१३, ७११ भारतीय विद्या-भवन - ५८२ महेन्द्र गिरी (राज्य) - ६६. भिन्नमाल - ३७६ -महोद्यान - २४७ भिलसद - ६७२ मांगिया (पर्वत) - ५८० भुवनेश्वर - ४८३ माद्रक - ६४०, ६६१ भूतगुहा - ५६२ माध्यमिका- ६२६ भृगुकच्छपुर -५३०, ५३१, ५५८ मान्यखेट -५५८ भृगुपुर - ५२४, ५२५, ५३०, ५३१ मालवा - २६५, ३५१, ४१९, ५४०, ५४४, ५७२, ५६०, ६३५, ६३७, ६३८, ६४०, ६६१, ६७१, ६७४, ६६६ मकदूनिया - ४३६ माहेश्वरीपुरी - ५७८ मगच - ७, ४२, ६६, १८६, २०२, २२२, मिस्र - ४३६, ५०१, ५०३ २४१, २४०-२५१, २५३-२५५, मुर्शिदाबाद - ६४७ २६३, २६५, २६८, २७२-२७४, मृगशिखावन - ६४७ २७७, ३७६, ३८४, ३६२, ३६५, मेकल प्रदेश - ६७३ ४१२, ४१८, ४२४, ४३१-४३३, मेढियाग्राम - ६५ ४३७, ४४८, ४५२, ४७७, ४७८, मेरुपर्वत - १२८, ४१२ ४८१, ४८३, ४८५, ४८६, ४६३, मेहरोली - ६७१, ६७२, ६७४ . ४६७, ६५६-६५६, ६६१ मैं सीडोनिया - ५०१ मगधपुर - २२८ मथुरा - १८१, २४७, २५०, २५७, ३००, ३०३, ४६५, ४८५, ४६०, ५३३, यारकन्द प्रदेश - ६३५ ५६८, ५६६, ६२८, ६२६, ६३५, यूनान – ४२०, ४४८, ५००, ५०१, ५०३ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. योरप-४६२, ६६४ विन्ध्य (विन्ध्यप्रदेश विन्ध्याचल)- २१५ . गोषेय - ६३८,६४०, ६६१ . . २३५, २६२, २६४, ६३५, ६६०, ६७४ विपुलाचल- ४१, २२७, २३४, २३८ रल नंदी- ३५३ विशाख -३५८ रत्नपुर-११३ विशाखानगर-१३४ रणवीरपुर-६०७, ६०६ विष्णुपद (पर्वत)- ६७१ राजगृह-७,३६, ४१, ५८, ५६, ६७, ६८, . वीतशोकानगरी-१९६, १९७ ७०. १३४, १४६, १५२, १७१, वृषभपुर - २४६ १५८, २००-२०६, २०६, २०७, वेगी-६६. २१३,२२१, २२४, २२५, २२८, २३७, २३८, २४२, २४, २४६, वेणानदी-५३८,७११ २४६, २९३, ३१३, ३१०, ४१६, वंभारगिरि-२०३, ३७६, ४१७, ६५१ ४१७, ४६६, ४८४, ४१०, बरावल पाटण - ६७६ राजपूताना-६२९, ६३७, ६४० वंशाली - ४६, २४६, २५२, २५३, २७१, राजस्थान-५४४ २८६, ४८३, ६४७, ७७१ रावी-५०२ वंशाली गणराज्य- २५०, ४८७ रीवां- ६३७ लंका - २७४, ४५१, ५०७ लवरण समुद्र - १२३, २२०, ३४२ लाट देश - १२ शाल्मलीग्राम - ७६६ शाल्मलीमहाद्रुममूल - ७३८ शोरिपुर -३०१ श्यालकोट - ४८५ श्रदपुर - ६५६ श्रवण वेल्गोल-७५५ श्रावस्ती - ४१४ श्री प्रतिष्ठान नगर - ३२६ श्वेताम्बिका नगरी- ४१५ वत्सका नदी- २८२, २८५, २८६ वर्टमान (ग्राम)- ४४, ६६, २४१, वल्लभी - १८२, ३३७, ३३८, ३४० ५२०, ६११, ६१२, ६१५, ६५१, ६५२, ६५६, ६७५, ६७७-६८०, ६८७, ६८६, ६६२, वसन्तपुर - २६८ वाराणसी - २५३ - २५६, ३३०, ६३४, . ६३५, ६४५ वाल्हीक देश - २५१, ६७२ विजयगापट्टम - ६६० विदिशा नगरी - ४५४ विदिशा ६३७ विदेह प्रदेश - ४८, ४६, १४८, २४६, ७५६ - ७७६ संवाहनपुर -६६, २४१ सनकानीक - ६६१ सर्व-कामप्रदायीद्रह - २१७ सांची-२८६, ६७१ साकेत - ६२८, ६५८ सारनाथ - ४५१ सिद्धरबस्ती- ७६४ सिन्धिया मोरिएण्टल इन्स्टीट्यूट - ५४६ सिन्धुनदी - ४१८ -४२०, ६३४ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्धुप्रदेश - ३४२, ५१२, ५४१, ६०६, स्यालकोट - ६२८ ६१२, ६२८, ६२६ स्वर्णगिरि- ६३३ सिंहपुर - ४५० स्वर्णभूमि -५२२ सिंहल-६६१ सुग्राम - १८८, १९१ . सुदर्शन झील-६९७ हंसदीप- २३७, १३८ सेसदविया (उदक्शाल)- ११३ हर्षपुर-५०७ सोन नदी -२६३ हस्तिनापुर - २३५, २४६ सोनपुर - ६६० हाषिगुंफा ४८३, ४८६, ४८८, ४८६, ४६१, सोपारक नगर-५८३, ६२०, ६२३, ६३१, ४६७ ७६७, ७६८ हाल-६.४ सोरठप्रदेश - ३३७, ३४०, हिन्दुकुश-४१८ सौराष्ट्र - ६०४ ६०७, ६११, ६१५, ६२७, हिमालय -४६ ६२६, ६६८, ६७१, ६७६, ६६६ हुविष्क- ६३७, ६३०. . (ग) सूत्र, प्रत्यादि अनुत्तरोववाइय दशा .1 ७०, १५४, अंगचूलिया (श्रुत) - ६८८ मनुत्तरोववाइय दशामो - ६८७ अंगपण्णत्ति - ७३, ६१, ६५, ११०, १५४- अनुयोग द्वार - ७३, १७८, ६८६, ७६२ १५७, १८४, २३५, ३२६, ३५७, अनुयोग द्वार सूत्र 1 ५५२, ६३२, ६७८, अणुयोग दाराई । ६८७ अंगसप्तिक ग्रंथ - ४८४ अनुषङ्गपाद - ६५८ अंगुत्तरनिकाय - १२० अनेकाक्षरी - ५५६ अंतगडदसाण -७० अपापावृहत्कल्प - ५२० अंतयडदसा - ७३. अंतकृत्दशा - १५२, १५४, १५६, १७४, अपृथक्त्वानुयोग याचना - ५६५ १७८ अभिधानचिन्तामरिण - १०६ अंतकृत दशांग - ६८८ अभिधान राजेन्द्र - ५१३ अंतगड सूत्र - १५३, ६८७ अमोघवृति - ६१७ प्रनायरणी पूर्व-२६ अवग्रहैषणा नामक अध्ययन - १० अग्रायणीय पूर्व -- १६७, १७५ प्रबन्ध्यपूर्व - १६८, १७५ अथर्व वेद - ७, ४६ अवचूरि - ३७८. अधर्म द्वार - १५८ अशोकावदान - २७४ अधर्म-स्थान - १६० अष्टांगधर - ७२६ अनगार-प्राभूत टीका - ६१७ अनुतरोपपातिक दशांग - ६८८ अष्टांगनिमित्त - ७३८ अनुत्तरोपपातिक सूत्र - ७०, ७३, १५४, प्रस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व - २६, १७, १७५ • १५५, १७४, १७८ प्रहरोरा के शिलालेख - ४५० Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ - ६०, ३६०, ५३४ प्राचrरकल्प धाचार प्रकल्प ६०, ६८, ६६ - १०१ माचार प्रणिधान (प्रध्ययन ) - ३२१ प्राचारत प्रध्ययन ११३ प्राचार अंगादि - २६, ५५ (UIT) भाचारांगसूत्र - ७०, ७३–७५, ७७, ७६, ८०, ८२, ८३, ८५, ८६, ८१ - १००, १०२, - १०७, १०६, ११०, १२३, १२४, १२७, १७० - १७२, १७४, १७७, १५०, १०२-१८४, ३२५, ३३३, ३७०, ५२६, ५७६, ५६२, ६१८, ६३४, ६८८, ७०१ प्राचारांग टीका - ५२ प्राचारांग पूर्ण - ८६ १५७ प्राचारांग नियुक्ति - ७५, ८३-८६, १२, ६६, १०१, १०६ प्राचार्यभाषित अध्ययन - प्राउर पच्चक्खाण - ६८७ श्रागम अष्टोत्तरी - ६८४ प्रातुर प्रत्याख्यान ६८६ प्रात्मनिन्दा भावना ६६४ प्रात्मप्रवादपूर्व - २६, १६७, १७५ ११२ - - - प्रादान अध्ययन - १८४, १८५ - श्रादि पुराण - श्राप्तमीमांसा – २५ श्रावद्धिक दर्शन - ५६८ प्राथविसोहि (श्रुति) - ६८७ प्रायारो - ६८७ प्राराधना - ४४९ आराधनाकथाकोष - ४४६ आर्द्रकुमार के अध्ययन - ११३ आवश्यक कथा २५० आवश्यक रिण - २३, २४, २६-३४, ४८, ५६, २६७, २७३, २७५, २८३, २८५, ३२७, ३२८, ३५८, ३७५, ३७७, ४०७, ४०८, ५३०, ५३१, ५६२, ५७२, ५६०, ६०६, ६१०, ६१३, ६१७, ६१६, ७२२, ७८७, ७६०, ७६१ धावश्यक निर्युक्ति - ७, ५०, ५३, ५८, ५६, ६१, ६२, ६४, ६८, ६६, २४६, ३६४, ३६५, ३६८, ३७०, ३७३, ५६४, ७०४ प्रावश्यक मलय वृत्ति - ७, १५, १६, ३०, ३१, ६५, ५३०, ५७१, ५७५५७७, ५७६, ५६७ प्रावश्यकमलय गिरि वृत्ति - ५६५ प्रावश्यक वृत्ति - १११, २६७, २७३ प्रावश्यकवृहद् वृत्ति - १०० प्रावश्यक सूत्र - १७८, ३२५, ६८६ मावश्यक हारिभद्वीया - २४६, २६७, २७३ प्रावश्यक हारिभद्रीया टीका ३७५ प्रावश्यक हारिभद्रीयावृत्ति - २७५ - ३७७ प्रासीविसभावणा ( श्रुत) - ६८८ प्राहार परिज्ञा प्रध्ययन - ११२ (इ) इन्वेजन ग्राफ इंडिया बाई अलेक्जेंडर - ४२१, ४२२ इलियट एण्ड डॉसन हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया - ६७० इसिभा सियाई (श्रुति) - ६८८ इसावास्योपनिषद् - २० . (उ) उत्कालिक श्रुत - ६८७ उत्पादपूर्व - २६, १६७, १७५. उत्तरपुराण - १८४, १८५, २२७, २३३, २३८, २४०, ३१५, ५८६, ७०१ ७२४, ७२५, ७२६, ७३२, ७३४, ७४८,७५२, उत्तराध्ययन सूत्र - १७, ७०, १२५, ३२५, ३६१, ३६४, ३६६, ३६७, ५१०, ६०८, ६१८, ६८६ Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाई (श्रुत.) -६८८ कल्याणवाद पूर्व - १६८ उपकेशगच्छपट्टावली-३७६, ३८०, कल्प किरणावली ५१६, ५.२० उपदेशपद - ४०५ कल्पचणि - ३७५,४५३, ४५४ उपदेशमाला-दोषट्टी वृत्ति - १८८, २०६, कल्पभाष्य - ३६६ कल्प व्यवहार - ६१७ उपधान श्रुत - ७५, ९ कल्प सुरोषिका -८, १३, १४, ३८, ५०८ उपसर्गहर स्तोत्र - ३२५ कल्प सूत्र -५, २७, ३२४, ३२५, ३७२, उपासक दसा सूत्र - ३५, ३६, ७३, १४६ ४१०,४६३, ५१६, ५२०, ६६२, उबसग्गहर स्तोत्र - ३३३, ३६२, ३७२, ७५३,७७० ____३७४, १५२, १७४, १७७, ६८७, कल्पसूत्रस्थविरावली - ६१, ३२४, ४२, १८८ ४६३, ४६४, ४७३-४७५, ५६५, उबवाइय (प्रागम) - १३६, ६८५ ५८२, ५६७, ५६८, ६४४, ६४५, ६४८, ६७५, ६७६, ६८१-६८४, ऋग्वेद - ७, ४६ ६६२. ऋषिभाषित अध्ययन - १५७, ३२५ कल्पान्तर्वाच्यानि - २०८ ऋषिमण्डल स्तोत्र - ५९७ कल्पावतंसिका (उपांग)- ६८८ कल्पिका-६८९ एपिटोम - ४२१, ४२६ कल्याणफलवियाक - ३४ एरण की प्रशस्ति - ६६५ कल्याण मन्दिर स्तोत्र -५२६ कषायपाहड़ - ६४, ५३४, ५३३, ५५५, पोष-नियुक्ति - ३६१, ३६८, ६८६, ६९० ७०२, ७२३, ७२४ प्रोष (सूत्र) - ३६६ कषाय-प्रामृत - ७५४ (प्रो) कहावली-३०, ३६, ३७, ५०५, ५०६, प्रोपपातिक सूत्र – २४६, ६८८ ५१३, ५४२, ६५१, ६५२ कारपसइन्स्कृपशनं इन्डिकेरम् - ६७२ कालसप्तिका सूत्र - ५१६ . कथासरित्सागर - ५३६, ५४२, ५४६, ५४७ कालिक सूत्र - १३४, ३६४, ३६६, ५६५ कप्पियाकप्पियं (श्रुत) ६८७ कालिक श्रुत -- ६४४, ६५०, ६७८, ६८७ कप्पिया-६८९ कालिक उत्कालिक मूत्र-६८९ कप्पवर्डसिया (श्रुत) ६८८ काव्य मीमांसा - ६६८ . कम्मपडि - ७२४ काव्यालंकार - ६५६ कर्मग्रन्थ - ६८१ काष्ठासंघस्यगुर्वावली - ७२५, ७३३ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ वृत्ति - ६८१ किताबबुलहिन - ५५० . कर्मप्रकृतिपद - ७०४ कुन्दकुन्द प्राभत संग्रह -७६०, ७६१, ७६३ कर्म प्रवादपूर्व - २६, १.६७, १७५, ६०० कुरल (ग्रंथ).-७६१ कर्म विपाक - १२५ कुवलयमाला-७१२, ७१४ . कर्मवेद बन्ष पद -७०४ केवली-भुक्ति - ६५, ६१७ (मो) Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४. केमिज हिस्ट्री - ४१६, ५४६ कोमलप्रश्न अध्ययन - १५७ कौमुदीमहोत्सव नाटक -६६६ क्रियाविशालपूर्व - २६, १६८, १७५ । क्रियास्थान अध्याय - १२२ क्षुल्लकाचार- ३२१ चउपन्न महापुरिस परियं - ११, १७, १८ चतुश्शरणप्रकीर्णक - ६८९ चरणविहि - ६८७ चुल्लकप्पसुयं-६८७ छिन्नछेदनय - ६८७ छेदसूत्र - ३५८, ३५६, ६१७ खातोदक-अध्ययन- १४६ खारवेल का शिलालेख-४८३ खुणियाविमारण पविभत्ती- ६८९ सुशालपट्टावली - ५३६ जम्बू चरित्र - २०४, २०६, २१५, २२२, २२८, २३१, २३३, २३४, २३७, २३८, २४०, २९४, ३०१, ३०६, गण्डिकानुयोग - १६६ जम्बूद्वीपपण्णत्ती- ६८८, ७२४, ७३४, गन्ध हस्ती के विवरण को टीका-५२९ ७४८, ७६६ गच्छाचार पइन्ना ३२७, ३२९, ३३३, ३६२ जम्बू स्वामी चरितम् - ६५-६७, १६०, गणघरवाद को टीका - २० १९४, २३३, २३५, २३६, २४०, गरणहर सत्तरी-६२ २४२, २४७, २४८ गरिणपिटक (सूत्र)- ६६, १२८, १४२, जरनल माफ दी बिहार एण्ड उडीसा रिसर्च - १७० सोसाइटी - २५० गणिविज्जा (श्रुति) - ६८७ जय धवला - ७२, ६१, ११०, ५३४, ५३५, गणिविद्या - ६८६ ५५३, ५५४, ७०२, ७१४, ७२४, गल्लोववाए - ६८८ ७२५, ७४८, ७५२, ७५६ गर्गसंहिता- २६४, २७४ जीतमर्यादा - ५०८ गार्गी संहिता-४६० जीवाभिगम - १३६, ६८७, ६८८ गाथासप्तशती-५४५, ५४६ . जन इतिहास की पांडुलिपि ६३३ गुर्वावली-३६२, ५९८ जैन ग्रंथ प्रौर ग्रंथकार - ७१४ गुरुपट्टावली-३२३, ३३६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास -१६६ गोम्मटसार -७३, ६१, २३३ जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग - गोविंद नियुक्ति - ६६३ ३४, ३७, १३६, २५५, २८०, गौतम चरित्र - २८, ४०, ४१ ४८८, ७७०, ७७५ जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास -५१ चन्द्र प्रध्ययन-१४६ चन्द्रं गच्छ - ७६E चन्द्र प्रज्ञप्ति – ३३०, ६८८ चंदविज्जय - ६८७ जैन परंपरा नो इतिहास - २८६, ६२३ जैन शिलालेख संग्रह भाग १ -७५५, ७५६, ७६६, ७६८ जन साहित्य और इतिहास - ६१६, ६१७ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्त भास्कर - भाग १ - ७२५ जैन साहित्य संशोधक - ५१, ५००, ६२१, ७१५, ३५७, ६३३, ७२६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष - ३५७, ६१४, ६३३, ७२८, ७२९, ७४०, ७५५, ७६३ ज्ञाता धर्म कथा - } गाया धम्म कहा १४४, १७४, १७७, २२६, ६८८ (झ) झारणविभत्ती - ६५७ (त) तंदुलवेयालिय - ६८७ तत्वार्थश्लोकवार्तिक - ७१ ज्ञान प्रवाद पूर्व- २६, १६७, १७५ ज्योतिष करण्डक - ६५१, ६८९, ६५२ - ५६, ७०, ७३, ५, १०५, १४३, तत्वार्थसूत्र - २५, ४९३, ४९४ तपागच्छ पट्टावली - ५१, २३१, ३२३, ३३६, ३६४, ५०६, ५३१, ४०७, ४५६, ४६३, ६२२-६२४, ६४६, ७१५ तपागच्छवृद्ध पट्टावली - ५१, १८० तरंगवती ( काव्य ) - ५५७ तात्पर्यवृत्ति - ७५८ तित्वोगालीपना - ५, ६८, १७६, १८१ - १८४, ३२७, ३२८, ३६०, ३६१, ३७५, ३७७, ४०५-४०७, ४१२, ४१३, ४३५, ४३६, ५१६, ६६०, ६६१,७०० तिलोयपणती - ५, ३५, ६४, १८४, १८५, २३२, २३६, ५१७, ५५५, ७०१, ७२४, ७२५, ७३१, ७३४, ७३५, ७४१, ७४८, ७५२ १४७ - तेतलीपुत्र प्रध्ययन त्रिपदी ( सूत्र ) - ७२२त्रिलोकसार - ११७ ८३५ त्रिषष्टिशलाका पुरुष- चरित्र - ६, २४, २६, २९, १०८, २५०, ४३६ ददुर प्रध्ययन १४६ दर्शन शुद्धि सटीक - ५३३ (2) दर्शनसार - ३३७, ३४४, ६१६ दर्शनप्राभृत की टीका - ६१८ दशवैकालिक सूत्र - १, ७०, १०४, १०६, १७८, ३१६, ३२०, ३२५, ६१७. ६६८, ६८७, ६८६ दशाश्रुत स्कंध - १५०, ३२५, ३२६, ३६०, ३६३, ३६६, ३७२, ३७४, ५१४, ५२०, ६६६, ६८६ दिट्ठिवाय - १६६, ६८७ दिव्यावदान - ४८५, ४६१ दी गुप्ता एम्पायर - ६३५, ६३६, ६४२, ६४७ दी जरनल ग्राफ दी घोरिसा बिहार रिसर्च सोसायटी - २५१ दी हिन्दू हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया - २५१ दीप वंश (ग्रंथ) - ४४८ दीपालिका कल्प दीर्घनिकाय - २७४ ४५० दीवसागर पणती - ६८८ दुःख विपाक - ७१, १६४ दुष्षमा श्रमण संघ स्तोत्र - ३७८, ४४१ दृष्टिवाद - ७०, ७३, १७, १०६, १६६, १६६, १७४, १७५ १७८, ४०६, ५७, ५११, ५६५, ७०३, ७०७, ७२१, ७३०, ७१५, देवीचन्द्र गुप्तम् (नाटक) - ६६७, ६६१ देविन्दथन - ६८७, ६८६ पट्टी - ३०१, ३२९ द्रवश्रुताधिकार सूत्र - ६७८ प्रम्यद्युत - ६७८ इम्यानुयोग - ४९४, ४९५ --- Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ नन्दी हारिभद्रीया वृति :- २६, ६८० धन्नासार्थवाह के अध्ययन - १४४ नकुली विद्या - ५६३ धरणोववाए - ६८८. नयष्टि - ५६६ धर्म अध्ययन - १११ नरक विभक्ति-१११ धर्म प्रकरण - १०१ नलिनी गुल्म अध्ययन - ४६०-४६२ धर्म संग्रह १२० नव ब्रह्मचर्य -७५, ६२, ६३ ६५, ६६, धर्मोपदेश माला - ६८१ १०३, १२५ धवला-७०, ६१, ६५, ११०, १५४, १५७, नागपरियावलियामो-६५८ नागार्जुनीयावाचना - ६७८ २३३, ६१३, ७०१, ७०२, ७०८, नाट्यदर्पण - ६६७, ६६८ ७०६, ७२३, ७२८, ७३०, ७३१, नायाधम्म कहरमो-७१, १४३, २२६, ७३४, ७४१, ७४८, ७५१, ७५२, २३०, ६८७ ७५६, ७६३ नालंदीय अध्ययन - ११३, ११५ निरयावलिका सूत्र - ६०, ६२३, ६८९ नंदि प्राम्नाय की पट्टावली - ७३५ निर्वाण कलिका -५५८ नंदि चूर्णि- ६३, १६७, १६६, १८१,४४, निशीथ - ६०, ६६-१०३, १०६, १०६, ६५३, ६५५, ६८०,६८५ ३२५, ३६०, ३७२, ३७५, ४३, ४४४, ४५५, ४५७, ५१०, ११२ नंदीफल अध्ययन - १४७ नंदी बालावदोष - १७६ ५१३, ५१५, ५१७, ५१६, ५३०, ५३२, ५३३, ५३८, ५५६, ६६३, नंदी मलयवृत्ति - १०८, १५७ ६७८, ६८८, ६८६, ७६१ नंदी वृत्ति - १७४, ४७३ निशीष भाष्य - ४५६ नंदी संघ की प्राकृत पट्टावली-७०१,७२६, निशीपमाष्य पूरिण- ४५५ नीतिशास्त्र - २१२ ७६५ नीतिसार - ६१४ नंदीसूत्र - ६६, ७२, ७५, ७६, ६०-६२, न्यायावतार -५२६ ६४.९७, ६६, १०२, १०६-१०८, ११०, ११५, १२६, १५६, १५७, पंचकल्प चूरिण - ३६०, ५११ १६६, १६६, १७४, १७६, १७७, पंचकल्प भाष्य - १०१ १८६, ३७५, ४४, ४७४, ५३५, पंचकल्प भाष्य की चरिण - ३६० ५५०, ५५२, ६४४, ६५६, ६६४, पंचकल्प महाभाष्य - ३६. ६७४, ६८०, ६८१, ६८४, ६८७, पंचसिद्धान्तिका - ३७२ ६८६, ७१८, ७१६, ७२१, ७५५ । पंचस्कन्धवाद - १११ नंदी स्थविरावली - १८१, ३२२, ४७२, पंचास्तिकाय की टीका -७६४,७६७ ४६३, ४६४-५०६, ५१०, ५१०, पंचास्तिकाय प्राभूत -७५६ ५३२, ५३४, ५३५, ५५३, ५८९, पंचास्तिकाय संग्रह -७६० ६४४, ६५०, ६५३, ६५४, ६५५, ६६३-६६५, ६७४, ६७५, ६८२- पतंजलि व्याकरण भाष्य - ४९१ पतंजलि व्याकरण -४८५ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ पट्टावली समुच्चय - ५, ३२३, ३३६, ३७८ प्रत्याख्यानपद पूर्व - १६७, १७५ .४६३, ५२०, ५६८, ६१६, ६४६, प्रबन्ध कोश - ३२७, ३३४, ५२४-५२६, ६५०, ७१५, ५५६, ६०४, ६०५, ६०७, पम्हावागरणं - १५६, ७६८ प्रभावक चरित्र-५५, ५६, ४६४, ५०६, मिनी खण्ड-५५० ५२३, ५२५, ५२७-५२६, ५३१, पन्नवणा -१३६, ५५०, ५५२, ५५६, ५५८, ५५६, पण्णवणा-1४६५, ४९६, ६८७, ७०२ ५६७, ५७२, ५७६, ५७८, ५७६, ७.७, ७१२, ७१४-७१७, ७१६, ५६४, ५६७, ६२४, ६३४, ६४६, ७२१-७२३, ७२६ ७८५, ७८६ पमायप्पमाय -६८७ परिकर्म - १६६, ७५४,.७६२ प्रभुवीर पट्टावली ५१, ५२ परिशिष्ट पर्व - २२१, २२३, २२५, २२६, प्रवचनसार - ७१७, ७५७-७५६, ७६१ २३२, २५७, २६२, २६७, २६८, प्रवचन सारोद्धार - ३१, १६६ २६६, २७३, २७५, ३२२, ३५९, प्रश्न व्याकरणसूत्र-१, ७३, ६५, १००, ३७५, ४१३, ४२३, ४२८, ४३५, १०४, १०५, १५६-१५८, १६४, ४४२,४५, ४४६, ४५५, ४५७, .१७४, १७८, ५५८, ६८८ ४६२, ५४२, ५८१, ५६३, ५६४, प्राकृत पट्टावली-७०२,७२४-७२६,७३७, ७७४ पाणिनी.व्याकरण - ४९० ७४२, ७४३, ७४५, ७४६-७४८, पावलिप्तसूरि चरितम् - ५५६ ७५१, ७५४ पापणा.-६० प्राणवाय पूर्व - २६ पावनाष की परम्परा का इतिहास - ३८० प्राणायु पूर्व- १६८, १७५ पारवनाथ बस्ती का शिलालेख - ३५८ प्राभूत संग्रह -७२३ पिण्डनियुक्ति - ३६६, ५३७, ६८६, ६९० प्रोबलम मॉफ सका एण्ड सातवाहना हिस्ट्रीपिणपात अध्ययन - १०४ . ५४५ पिपणा - ९०, ९१, १३, ३२१ पीयरागसुयं-६८७ बत्तीसवात्रिशिकाएं - ५२९ पुग्गलपम्पत्ती- १२० बलात्कारगरण की पट्टावली-३५७ पुष्परीक अध्ययन -१४८ बाहु प्रश्न अध्ययन - १५७ पुन्नाटसंपकी पट्टावली-७४०, ७५२ बुद्ध चरित्र - ६३५ पुष्पालिका - ६८८ मोष पाहुः-६३२, ७२२, ७२३ पूर्वगत विभाग - १६७ ब्रह्म श्रुतावतार - ७३२ पोरिसिमंटन-६८७. . ब्रह्म हेमचन्द्र कृत श्रुत स्कंध - ७३२ प्रकीर्णक प्राप्ति ३५७ ब्रह्माण्ड पुराण - ६३७ प्रशापना सूत्र - ४६५, ६६८, ७०३-७०५, १५, ७२३ प्रतिक्रमण चित्रपी- ११. . भक्त प्रत्यास्थान -६८९ प्रत्यास्यान पूर्व - २६, ६८, ९, ११३, भक्तामर स्तोत्र - ६४५, ६४६ १२४ . भगवती माराधना-६१७, ६१८, ७५५ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ बागपता ५६ भगवती व्याख्या भगवती शतक - ― भगवती सूत्र - ३५, ३६, ४०, ४३, ६५, १३०, १३१, १४०, १४१, १७२, ६८८, ६६०, ७०० भद्रबाहु चरित्र - ३५३, ३५४, ६११–६१३, ६१५ भद्रबाहु संहिता - ३२५, ३७२-३७४ भद्रसार - ४४८ भयहर स्तोत्र - ६४६ भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति २७३ भविष्यपुराण - ५४६ भागवत - · २५२, २५४, २७५, २७७ ४८२, ४५७, ४८८, ४६१, ४६२, ४६८, ५४७, ५६१ भागवत पुराण - २६५३०४२९६६ # १४२, १७० ५६ ૪ भाबना ६०, भावप्राभृत - ६३२ भाव संग्रह - ३३७, ३४४, ६११, ६१३ भाषेषणा - १०४ - मंगू कथा. ५३३ मंडल प्रवेश ( श्रुति ) - ६७८ मत्स्य पुराण - २५०, २५४-२५६४८२, ४१, ५६१, ६०४ २६४ मधु बिन्दु का श्राख्यान मयूराण्ड अध्ययन - • १४५ मरण समाधि - ६८६ मरणविभक्ती - ६८७ मलयगिरीया नन्दी वृत्ति - ६८० मलयगिरि पिडनियुक्ति टीका - ३२६ मल्ली अध्ययन १४५ महल्लिया विभावप विभत्ती - ६८८ महाकष्पसुय - ६८७ महानिसीह - ६८८ (म) 1 महानिशीथ - ६८४ महापच्चक्खाण - ६८७ महापन्नावरणा- ६८७ महापरिज्ञा ( अध्ययन ) - ७५, ८२-८७, १०३, १७७, ५७३, ५७८ महापुराण - १८५, २२७, २३३, २३८, ७३४ महाप्रत्याख्यान - ६८६ महाभारत - १२०, २५१, ५०० महावंश - २७४, ४४८, ४५७ महावीर चरित्र - २४, २७, २६, ३१, ३२, ४०, ५०, ३४५, ३४६ महावीर भाषित अध्ययन - १५७ महावीर वाणी- १७०, १८६ महाभ्युत्पत्ति - १२० महासुमिरणभावरणार- १८६ कन्दी पध्ययन - ६०६ . माथुरी वाचना - ६६४ मालविकाग्निमित्र - ४१८, ६२९ मो - ४६८, ६२८ मुण्डकोपनिषद् - ८० भुजमलुत्तवारीख - ६६६ मुद्राराक्षस - ६६७, ६७० " मेरुतु गीयास्थविरावली - ४७१, ४७२ मेरुतु गया स्थविरावली टीका - ६८१ मेरुतु गीयाविचार श्रेणी - ६८२, ६८५, ७१६ मोन्योर मोन्योर डिक्शनरी - ५६१ मौर्य साम्राज्य का इतिहास - ४५० (घ) यजुर्वेद – ७, ४६ युग पुराण ૪૨૨ - युग पुराण प्रकरण - ४६० — युग प्रधान पट्टावली - ३२२, ३७५, ४४१, ४७२, ५३५, ६५५, ६६४ योग बिन्दुसार - ३० योगरत्नमाला ६५६ -- Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग रलावली - ६५६ वासवदत्ता-५४६ योगशास्त्र प्रकाश - ५५१, ६५२, ६७८ ।। विक्रमचरितम् -५४० विक्रम चरित-५५०, ६७० विक्रम स्मृति ग्रंथः-५४६ रत्नमाला-६२७, ६२८ विचार श्रेणी परिशिष्टम् - ४६५, ४६६, रल संचय प्रकरण-४६६, ६९२ ५११, ५१४, ५१५, ५४२, ६०७, रब्बल-६७० ६२२, ७१५, ७१८ राजवातिक-७१, ६१, ११०, १५४, १५५, विजयसिंह मूरिचरित- ५३१ तर १५७ विजयोदया टीका- ६१७, ६१८ राजवातिक टीका - ७१ विज्जाचरण विरिणसमो-६८७ रायपसेणइज्ज - १३६, ६८७ विधिपक्ष पट्टावली-६६६ राजप्रश्नीय - ६८८ विधानुप्रवादपूर्व - २६, १६७, १७५, ४७५ रूपनाथ (शिलालेख) - ४५० विनयसमाधि-३२१ विपाक सूत्र-७३, ९५, १६४, १७४, १७८, ललितविस्तरा - ६१६, ६१८, ६१६ ६८७,६८८ लाइस (पुस्तक) - ४३५, ४३८ विमुक्ति-११, ११, १०१, १०२ लिंग पाहुए- ६२७ विमोक्ष:- ७५, ८७ लोकबिन्दुसार पूर्व-२६, १६६, १७५ . विमोह-७ लोकविजय - ७५, ७६ विवाह चूलिया-६८८ सोक विभाग (पं)-४३-४५ विक्खापत्ति-७३ लोकसार -७५, ७८ विवाहपण्यत्ति - १३०, १४०, १७६, ६८७ विहारकप्पो- ६८७ विशेषावश्यक टीका -३११ वहिदसामो-६६८ विशेषावश्यक भाष्य -७, १८,५६२,६००, वराही संहिता-३३ ६०२, ६०-६१०, ६१३, ७०४, बरपोरवाए - ६१८ बल्लभीवाचना-१३९ विशेषावश्यक भाष्य टीका-१ पबहारो-६८९ विष्णुपुराण-४६२ बसुदेव परित्र- ३२५ वीरवेशपट्टावलीबसुदेवहिंडी प्रथम अंश- २००, २०५, २०६ वीरवंशावली-५८०, ५६५ बस्वैपसा-t. वीरस्तुति-१११ वायु पुराण- २५०, २५३, २५४, २५६, बी मध्ययन - १११ २६३, २६४, २७४-२७८, me, बीर्य प्रबार पूर्व-२६, १६७ ४२, ४६१, ५६१, १०४.५, बीर वर्षमान परिष-१२ ६३७, १४०, १४१, ११, १५८, पट्टावनी .. ५२ ग्वाधिसूरि परित्र-५५ वाचकमकी पटावनी- बृहत्कथा- ५३९, ५४१, ५७ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० वृहत्कथाकोश - ३४१, ३४४, ५८२ - ५८४, ६११-६१३ वृहत्कथामंजरी - ५४७ बृहत्कल्प चुरिण - ४५५ वृहत्कल्पपीठिका की टीका - ३६२ वृहत्कल्प भाष्य - ४४८, ५१० ५५६, ५६०, ६६४, ७६२, ७६३ बृहत्कल्प सूत्र - ३६६, ५२३, ६८६ वृहदारण्यकोपनिषद् - १६ वेदनाखण्ड - ७०१, ७३० वेदवेदकपद - ७०५ वेलघरोववाए - ६८८ वे सरगोववाए - ६८८ वैदिक साहित्य - ३०७ वैशेषिक दर्शन - ५६५ व्यवहारकला - १०१ व्यवहारभाष्य - १८१ ६८६ व्यवहार सूत्र - ३२५, ३६०, ३७२, व्याख्या प्रज्ञप्ति - ७०, ७३, १३०, १३१, १३८, १४३, १७०, १७२, २२६ (श) शतक चूरिण - ७२४ शस्त्रपरिज्ञाप्रध्ययन - ६६४ शीतोष्णीय - ७५, ७७ शीलांक कृत आचारांग की टीका - ८२, ८६, ३६१ श्रमण संघस्तोत्र - ३७८, ४७१, ५५२, ६०३, ६३१, ६५५, ६६४, ६६३, ७१५ श्राद्धदिनकृत्य - ६६४ श्रुतधर पट्टावली - ७३३, ७३४, ७४८ श्रतरत्न ७२१ श्रुतावतार - १८४, ७०१, ७०३, ७१०, ७११, ७२४, ७२५, ७२७, ७३१, ७३४, ७३७, ७३६, ७४०, ७४२, ७४८, ७५१, ७५२, ७५४, ७५६, ७६३ (ब) षट्खण्डागम - २३३, ७०१-७०७, ७०६, ७११, ७१४, ७१६, ७२२-७२४, ७२८-७३०, ७३६, ७४२, ७४३, ७४७, ७५२, ७५४, ७६१, ७६२ षड्जीवनिकाय - ३२१ षड् दर्शन समुच्चय - ६१५, ६१८ (स) संग्रहगाथा - ७४ संग्रहणीपद - १४१ संदेहविषोषषि - ५१६ संबोध प्रकरण - ६२६ संहरणासुयं - ६८७ संस्कृत इंग्लिस डिक्सनरी बायसर मोनियर विलियम्स - ६०७ संस्तार प्रकीर्णक - ६८६ सत्यप्रवाद पूर्व- २६, १६७, १७५ सन्मतितर्क - ५२६ सप्ततिका चूरण - ७२४ सप्तसप्तिका - ८५ समयभामृत - ७५७ समयाभूत ( सूत्र ) - २७, ३२, ३४, ६९, ७०, ७२, ७३, ७५, ७६, ६१-६७, ६, १०० - १०८, ११०, ११५, १२०, १२१, १२२, १२४, १२५, १२६, १३०, १५६, १५७, १६६, १६६, १७४, १७७, १७८, १६०, ३७५, ६८७, ६८८ समाधि - ११२ समुट्ठारणसुयं - ६८८ सवार्थसिद्धि - ७१ सहसराम ( शिलालेख ) - ४५० सामवेद - ७, ૪૨ सारसंग्रह ४३० सिंहासन बत्तीसी - ५४२ सिद्धसेन स्तुति – ५२९ सुखविपाक - ७१, १६४ - Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तपाड़-७६१ स्मिथ्स प्रशोका - ४१६ सुत्तागम - १७१, ७०० सूत्रकृतांग-७३, ६५, १६, १०२, ११४, हत्थिसुत्त-४२८ ११५, १७४-१७७, १८०, ३२५, हाथीगुंफा के शिलालेख - ४८० ३६६, ३७०, ६८७. ६८८ हरिभद्रीया प्रज्ञापना वृत्ति-७१२,७१६,७२० सूरिमन्त्र - ४७६ हरिवंश पुराण - ४६६, ४६७, ७०१, ७०३, सूर्य प्राप्ति- ३२५, ३३०, ३७४, ६८७ ७११, ७२३-७२७, ७२६, ७३४, ७३७, ७४०-७४२, ७४७, ७४८, ६८८ ७५०, ७५२, ७५४, ७६२, ७६३ सौन्दरानन्दम् - ६३५ हरिषेण कथाकोष -४४६ स्कन्दपुराण - ५४७ हर्ष चरित्र - ६४०, ६६८ स्कंदिलीय अनुयोग १८१ हिमवन्त स्थविरावली-६१, २८६, २८७, स्त्री मुक्ति प्रकरण. ६१७, ७०१ ४७५-४७७, ४७६-४८१, ४८३, स्थानांग-६, ७, ७०, ७३, ७६, १००, ४८४, ४८६-४८८, ४९१-४६४, १०२, १०४, १०५, ११६, १२०, ५०८, ५४१, ५४२, ६४८, ६४६, १२१, १२६, १५४-१५७, १६६, ६५१, ६५५, ६७८, ६७६, ७०८, १७४, १७७, १८०, २२४, ३७५, ७१८,७८०-१८२ ६१३, ६०८, ___ हिस्ट्री माफ दी गुप्ताज- ६१६ (घ) मत, सम्प्रदाय, वंश, गोत्रादि अव्यक्तवादी - ४१५, ४१७ अंग वंश- १२७ प्रश्वायन (जाति) ४१८, ६२३ प्रकारकवाद - १११ (मा) प्रक्रियावादी - ११०, ११२, ५६८, ५९६ मांचलंगच्छ -- ६२३ अग्निवेश्यायनगोत्र - ४६, ६२ प्रात्मषष्टवाद - १११ अचेलक परम्परा - १३१, ३१५ प्रारमतवाद - १११ प्रग्यासिपानिमा - ४६५ प्रापुनीय संघ - ६१५ प्रयकुबेरा-४६५ प्रम जयन्ती-४६५ इक्वाकुवंश - २५२, २५६ मज्जतावसी-४६५ इन्द्रपुरग (कुल)- ४६४ मज्जनाइनी- ४६५ इस्लाम-६७. मज्यपोमिमा -४६५ मज्जबेग्य - ४६५ मज्यसेपिया - ४६५ ईसिगुत्तिय - ४६५ मानवादी- ११०, ११२ इसित्तिय - ४६५ मनन्तकीतिसंच - ६१४ मातरिणिवा -४६४ उन्धानामरी- ४६४ अपराजित संघ-- ६११ ११४,७३० उनुपादिय- ४६४ पमिषयन्त (कुल)-४१५ उत्तरवस्लिमह- १७९,४५, ४. Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४३ उद्देहगण - ४६४ उदुबरिज्जिया - ४६४ उल्लगच्छ - ४६४ कोसंबिया-४७५ कौशिक गोत्र -- ४६३, ५०६, ५०८, ५६५ क्रियावादी-११०-११२ क्षणिकवाद - ४६६ एकात्मवाद - १११ एलापत्य - ४४० खरतरगच्छ - ६२२ खेमिलज्जिया- ४६४ ऐलवंश-४८७, ४८८ • (प्रो) मोसवंश - ६५, ६७८ मौलुक्यगोत्र - ५६५ गणधरवंश - ४६६ गरिणया - ४६४ गवेधुया - ४६५ गणधर संघ - ६१३, ६१४, ७३८ गुप्त राजवंश - ६३६, ६४१, ६४२, ६४६, ६४७, ६५६, ६५८, ६६६, ६६७, ६७० गुप्त संघ - ६१३, ६१४, ७३८ गुप्तसंवत् - ६५७ गुप्तसाम्राज्य - ६६४, ६६८ गोदासगण - ३८०,४४४ गोपुच्छक - ६१४ गोप्यसंघ-- ६१३-६१५ गोयमज्जिया-४६५ गौतम गौत्र-७, ३५, १८०, ३८४, ५३६, ५६८ कण्हसह - ४६५ कदम्बवंश- ६१६, ७५७ कर्तृत्ववाद - १११ कलिंग राजवंश - २८७ कलिंग (शाखा) - ४८८. कश्यप गोत्र - २२६ काकन्दिया - ४६४ कात्यायन गोत्र-१९२ कान्तिपुरी (शाखा)-६४० कामढिय - ४६४ काश्यप - ३८०, ४६७, ६७५, ६७६, ६२ काष्ठावंश-६१३, १४ कासवज्जिया - ४६५ . कुशील-१११ . . . . कुषाणवंश-६३४, १३६, ६३८, ६३६ धर्म अध्ययन - १५ कृत संवत् -५३९ कोटिकगच्छ-६३३ कोटिकगण - ४६५ कोटिपिका-m कोडवाणी-४६३, ४७५ कोडीपरिसिया-३८० कोशाम्बिका-४६३ पन्दनागरी-४६३, ४७५ चन्द्रकुस-४६५, ६२०, ६२५ चन्द्रगच्छ -५०६, ६२२, ६२३, ६३॥ चन्द्र-५८२, ६२५ चन्द्र संघ- ६१३, ६१४,७३८ . . चन्द्रवंशी- २५२, ४८७, ४६८ चम्पिणिय -४६४ चातुर्याम धर्म - १४८ पेटवंशीय-४६३ . पेदिराजवंश - २४८, २८६, ४६८ चैत्यवासी-६२७, ६२८ जयन्ती शाखा - ५८२, ५६८ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तपागच्छ-५१८ नन्दवंश- २६७, ४२२, ४५२, ४३३, ४३५, तापसीशाखा-५८२ ४३६, ४३६, ४४०, ४५३, ४८०, तामलितिया - ३८० ५१६, ५४२, ४५२ ताम्रलिप्तिका -४ नन्दिज्ज-४६४ तालबंध - २५२, ५... नन्दीसंघ - ३५७, ६१४,७०२,७२४,७२५-. तुंगिपायन- ३२२ ७२६, ७३७, ७३८, ७४२, ७४३, तेरापंथ - ६८६, ७०१, ७४५-७४८, ७५१, ७५३, ७५४, राशिक - १११, ५६५ नन्दीगण - ६१३ दासी खबरिया -३८० . नाइल्ल-५१६ विगंबर परंपरा- २७, २८, ३५, ४०,४३, नाइली शाखा - ५५३, ५८२, ६२०, ६२२ ६४, ६५, ६७, ७२, ७३, ६१, ६५, नागदशक - २५४ ।। .११०, ११६, १५४, १५६-१६८, नागभूय - ४६४ १६६, १७४, १७५, १४, १८५, नागवंशी-२५५, ६०४, ६०५, ६३७, १४१, २२६, २२७, २३२, २३४-२३६, २४०, २६१, ३१४-३१६, ३२२, नागार्जुनीया - ६८१,७१८, ७१६ ३२५-३२७, ३३७, ३४१, ३४, नागेन्द्रकुल- ४६५, ५५३, ६१३, ६२०, ३४७, १५७, ३५८, ३८३, ४१३, ६२१, ६२५, ६३२, ६६४, ७६६ ४, ५१७, ५३४, ५५३, ५८२, नियन्यगच्छ - ४७६, ६२४, ६३२, ६३३ ५८४-५८६, ६०३, ६.८, ६१०, निवृत्ति- ६१३, ६२०-६२२, ६२५, GEE ६१३-६१६, ६२०, ६२७, ६२८, निवई-५८२ ६३१-६३३, ६४८, ६७४, ६६९ निष्पिच्या संघ-६१४ ७०२, ७०७, ७०८, ७११, ७१६, नेउणिया - ४६५ ७०-७२६, ७२६, ७३१, ७३४, ७४०-७४, ७४७, ७४६, ७१०, ७५२, ७५५, ७५७, ७६२, ७६५, ७६६, ७७४, ७७६, ७७७ पंचस्तूपसंघ - ६१३, ६१४ दी गुप्ता एम्पायर - ६३६ पंडबरिणया - ३८० देवसंघ - ७३८, ७५३ पंटुमित्र - ६७३ देहात्मवाद -१११ पट्टमित्र-६७४ द्वाविड़ संघ - ६१४ पण्हवाहणय - ४६४ प्रिक्रियावादी-४६७, ४६८ पपावती- ६४. द्विवन्दनिक गच्छ - ३८० पल्लववंशी- ७५७, ७६१ परिहासय - ४६४ धर्मघोष गच्छ - ६२३ पाखण्डमत ११० Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिसकुल - ५१२ भारताज-१८०, ६२० . पापियन -६०६, ६०७, ६२६, ६३५ भारशिव-६३६-६४१, ६४३, ६४६ पाश्र्वपरम्परा-३७९ . भिल्सक संघ-६१४ पायांपत्य-१३२, १३८ पीडम्मिय-४६५ पुपरीक तप-५५१ महपत्तिमा-४६४ पुगप निका-m मज्झिमिल्ला- ४६४ पुष्पपतिका-४६४ मथुराशाखा - ६४० पुबाट संघ-३४१, ६१४,७०३,७२८, ७२६ महायान-६३५ ७३४, ७४०, ७५०, ७५७, ७६२, माघनन्दि - ६१४ पुरुवंश-४८८ माढरंगोत्र - १८०, ३२३, ६८२, ६६२ पूर्णमित्रा-४७५ माथुर संघ - ६१३, ६१४ पूसमित्तिज-४६५ माथुरी वाचना - ६५०, ६५१, ६६४, ६८३, पड़ासपुर-१९३ पोमिली-५८२ मालव संवत् - ५३६ पौरप-२४८, २८६ मालिज - ४६५ प्रयोत-२४८, २७६, २८६ महागिरिया -६८४,६८५ प्राचीनगोत्रीय - ३२५, ३२७, ३६०, ३७१ मासपूरिया - ४६४ प्रियान्व-४७७, ५०६-५०८ मूल संघ- ६१३, ७४५, ७५३, ७५५ मेहिय - ४६४ मौर्यवंश-४१६, ४२२, ४२३, ४३३, ४३६, बड़गच्छ-६२२ ४६, ४७८, ४८०, ४८१, ४८५, बम्मलिज-४६४ ४९६, ५१६, ५४१ बलात्कारगरण-६१३, ७४५ बागड़संप-६१४ यादव वंश-४८७ बेसवाडियगरण-४६४ | यापनीयपरम्परा - ६५, ६१४ बोटिकमत-६०८, ६१३३ यापनीय संघ-६१५-६१६, ७६६ बोधिलिंग-४७५ युग प्रधान परम्परा- ४६६, ४६४, ६३१ बौसमर्म-४७, ४६६, ४८५, ६३५ यूची जाति - ६०६,६३० बौद्ध परम्परा- १२०, ४५२, ४६६, ६०७, '. यूनानी- ४६७ ६६७ ... ब्रह्मतीपिका - ३६५, ४६५, ६४, ६ve रज्जपालिया - ४६४ राष्ट्रकूट वंश - ७६६ भद्दिज्जिया-४६४ भद्रसंघ-६१३, ६१४, ७३८ भागवत-६०७ लाड बागड संघ - ६१४ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छवी - ४६, २५२, २५३, ६५७, ६५८, वृद्धसंप्रदाय - ६८५ वोटिकमत- ६१० लीबड़ी संध- ५१ व्याघ्रापत्य गोत्र - ४७६ शंकराय - ६६८ वक्षस गोत्र -.५१ शकट अध्ययन - १६५ वज्जनागरी- ४६५ . शकराज - ६६८, ६६६ बज्जी - २५३, ५८१ शक संवत् - ६५७, ६६१ वनी-४६४,५६८ शय्यंभव-५८६, ६६४ वयलिज्ज - ४६४, ४६५ शाक संवत्सर - ६०३ बस्स-३१८ शिवि-६३८ वत्सगुल्म-६४ शिशुनागराजवंश- २४८, २५०, २५१, वत्सगोत्र-५१, ३१६ २५३-२५६, २६७, २७५-२७७, बनवासी गच्छ - ६२४, ६२५, ६३२ - २७६, २८७, ३७७, ५०३ वल्लभी संवत् - ६५७ .. शुंग- ४६७, ४६७, ६३७ वाकाटक- ६३६-६४४, ६४६, ६६०, ६६६, शंव- ६०७, ६२६, ६६७ । ६७०, ६७३, ६७४ श्याम - ५९४ वाचक वंश- १७६, ४६८, ४७१,४७२, श्लोकवातिक-७२' ४६४-४६६, ५०६, ५५०, ५५३, श्वेतपट श्वेतांबर संघ - ६११ ५६०, ६३१, ६४८, ६८१, ६८३, श्वेताम्बर परम्परा - १७८, २२६, २२७, . ७१६, ७१७, ७५५ २३२-२३५, २६७, २६१, ३११, वाणिज्य - ४६४ ३१६, ३२६, ३२७, ३२६, ३३७, बालम्य संघ-६७६, ६८० ३४०, ३४१, ३४४, ३४५, ३५६, वाशिष्ठ गोत्र-४० ३७१, ३७२, ४१३, ४५६, ५५३, वासिट्ठिया - ४६५ ५५४, ५८२-५८६, ६०३, ६०८, वाहीककुल- २५१, २५३, २७५ ६१०-६१८, ६२०, ६२७, ६३१, विक्रम संवत् - ५३६ ६८६, ६८६, ६६६, ७००, ७०२, विजाहर-५५२ ७०७, ७२२, ७२४, ७५५, ७६६, विद्याधर शाखा-४६४, ६१३ ७७४, ७७८, ७७६, ७६९ विद्याधर वंश - ५२३, ५५५, ६२०, ६२५, पारिल्यगच्य-५०६, ५२३ संकासिया-४६५ विधिमार्गी- ६२७ सकालकुम- १७९ विनयवादी-११०, ११२ सबेसक परंपरा-३१५ वीरसंघ-६१३, ६१४,७३० सनकानीक-६६१ वृष्णिकुल- १५३ समुच्येदवादी-४६५ बुद्ध परंपरा-५१. सरस्वतीगच्च-७४५ खशाला-६८६ . सहगोत्र -१२० Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ सातवाहन वंश - ५४५, ५४६, ५५०, ६०४, सोरट्ठिया - ४६५ ६०५, ६३६ सामुच्छेदिक मत - सावत्थिया - ४६४ ४६६ सिंह संघ - ६१४, ६१६, ७३८ सीथियन - ५०१ सुहस्ती शाखा -६६१, ६८२. सूर्यवंश - ५०० सेन संघ - ६१३, ६१४, ७३८, ७५३ सोर्तित्तिया - ४७५ सोमभूय - ४६४ सोमवंश - ४८७, ४८८ स्थानकवासी - ६८६, ६६०, ७०१ हत्थलिज्ज - ४६४ हरिद्रायणगोत्र - ५१ हरिवंश - ४८८ हस्तिनायन जाति - ४१८ हारित गोत्र - १८०, ४६५, ४१३ हारिय मालागारी - ४६५ हा लिज्ज्ज - ४६५ हीनयान - ६३५ हूरण - ६६५ हैहयवंश - २५१ - २५३, ४८७, ४८८, ५०० Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. संदर्भ ग्रन्थों एवं शिलालेखादि की सूची अंग पण्णती, शुभचन्द्र (विजय कीति शिष्य) प्रावश्यक नियुक्ति-प्रवरिण रचित, प्रकाशक-माणिकचन्द्र दि० जन मावश्यक मलयगिरीया वृत्ति ग्रन्थ माला, बम्बई . भावश्यक वृहद्वृत्ति अनुयोगद्वार-वृत्तिकार हेमचन्द्रमूरि, प्रकाशक प्रावश्यक हारिभद्रीया वृक्ति राय धनपतसिंह बहादुर Introduction by A.N. Upadhye on अभिधान चिन्तामणि, प्राचार्य हेमचन्द्रकृत । Pravachansara. ___टीका विजयधर्म सूरि वीर सं० २४४१ इन्वेजन माफ इण्डिया राई अलेक्जेण्डौअभिधान राजेन्द्र, भाग १-७, विजय राजेन्द्र मैकक्रिडिलकृत सूरि रचित, प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर समस्त संघ, जन प्रभाकर प्रिन्टिंग प्रेस, 'उत्तरपुराण, गुणभद्राचार्यकृत, भारतीय ज्ञान पीठ, दुर्गाकुण्ड रोड़ वाराणसी, रतलाम सन् १९१३ सं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, अमोघवृत्ति-शाकटायन व्याकरण पर यापनीय . प्राचार्य द्वारा रचित स्वोपनवृत्ति संवत् २०११ .. अशोकावदान .. उत्तराध्ययन सूत्र, जीवराज घेलामाई, मागम अष्टोत्तरी, कस्तूरचन्द जबरचन्द अहमदाबाद गादिया, बम्बई . उत्तराध्ययन मूत्र-पाइय टीका-शान्तिसूरिकता माचारकल्प उपदेश माला दोषट्टी वृत्ति, रत्नप्रभसूरि, पाचारांग, मनुवाद मा० मारमारामजी म., धनजीभाई देवचन्द्र बोहरी, मिजो स्ट्रीट, प्रकाशक मा. श्री प्रात्माराम जैन प्रकाशन समिति, सुधियाना Epitome of Jainism. प्राचारांग (नियुक्ति सहित) वृत्तिकार एरण की प्रशस्ति शीलांकाचार्य, प्रकाशक-राय पनपतसिंह माप्त मीमांसा, समन्तभद्ररचित मोपनियुक्ति-द्रोणाचार्यकृता टीका, प्र. मार्य मंगू कथा .. श्री विजयानन्द सूरी बन ग्रन्थमाला, पाराधना कथा कोश गोपीपुरा सूरत, सं० २०१४ पावश्यक कथा पोपपातिक सूत्र टीका अनुवाद धासीसालपी पावश्यक चूणि, प्रा. जिनदास गणि महत्तर, महाराज, प्र.म. भारतीय श्वे. स्था. रतलाम से सन् १९२८ में प्रकाशित चन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, भावश्यक नियुक्ति, भद्रबाहु (वि०) रचित, सं० २०१५ हारिभद्रीया वृत्ति, हेमचन्द्र सूरि कथासरित्सागर, सोमदेव भट्ट, बिहार राष्ट्र टिप्पणकम्, सं० १९७६.. __ भाषा परिषद पटना, ६.शक सं० १९८३ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कर्मग्रन्थ भा० १ देवेन्द्र सूरि, कन्हैयालाल Cambridge History of India मालचन्द भटेवरा रतलाम, गण्याचार पइण्णा, दान विजय गणी, प्र. वि.सं. २०३० दयाल विमलजी प्रन्यमाला, अहमदाबाद गणपरबाद, सं० मुनि रत्नप्रम विजयजी कल्प सूत्र - देवेन्द्र मुनि द्वारा सम्पादित गर्ग संहिता अदित, गाथा सप्तशती-हालरचित (काव्य माला कल्प सूत्र - पुष्य विजयजी द्वारा सम्पादित २१ में) निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, - (मुजराती). • सन् १९३३ .कल्पान्तर्वाच्यानि (हस्तलिखित) अलवर । गार्गी संहिता युग पुराण प्रकरण भण्डार के सौजन्य से प्राप्त कलिंग पक्रवर्ती महामेषवाहन खारवेल के गुर्वावली - सुन्दरसूरिकृत “शिलालेख का विवरण, श्री के० पी० गौतम परित्र, भट्टारक धर्मचन्द्रकृत, जायसवाल, काशी नांगरी प्रचारिणी पं० हीरालालजी शास्त्री, ब्यावर नशियां सभा की भोर से-इण्डियन प्रेस लि. से प्राप्त प्रयाग, सन् १९२८ घउवन्न महापुरिसरियं, शीलांकाचार्य, प्राकृत कसाय पाहुर पूणि सहित, भारतीय दि० जैन टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी ५ संब, पौरासी, मधुरा चन्द्र का मेहरीली का लोह स्तम्भ लेख कहावती-भद्रेश्वरसूरि (हस्तलिखित), चन्द्रगुप्त मौर्य और उसका काल, पं. बससुख भाई मालवणिया, संचालक, लाल भाई दलपत भाई, भारतीय संस्कृति राधा कुमुद मुकर्जी, राजकमल प्रकाशन विद्या मन्दिर, महमदाबाद के सौजन्य से चुल्लवग्ग कहोम का स्तम्भलेख छान्दोग्योपनिषद् (शांकर भाष्य सहित) कारपस इन्स्क्रिप्शनं इन्डिकेरम्, भाग ३ . प्र. गीताप्रेस गोरखपुर कालकाचार्य कथा, प्रकाशक-श्री साराभाई ज्योतिविदाभरण नवाब, अहमदाबाद ज्योतिष्करण्डक टीका काम्य मीमांसा-राजशेखर काष्ठा संघस्य गुर्वावली, हस्तलिखित, जम्बू चरियं, गुणपाल, सं०मा० जिनविजयजी पं० दरबारीलालजी कोठिया, न्यायाचार्य प्र. सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय दुमराव कोलोनी, वाराणसी से प्राप्त । . विद्या भवन, बम्बई ७ जम्बू स्वामि चरित्र, रत्नप्रभ सूरि कुन्दकुन्द प्रामृत संबह, सम्पादक पं. कसाशचन्द्र, प्रकाशक-जैन संस्कृति जम्बू स्वामि चरितम्, पं० राजमल्ल रचित संरक्षक संघ शोलापुर, १९६.. . जावू सामि चरिउ, वीर रचित, सं. कुवलय माला-उबोतन सूरि (दाक्षिण्यॉ . विमलप्रसाद जैन चिन्ह) सिंधी सिरीज जरनल प्रॉफ दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिपर्च मिति प्रकरणम्-शाकटायन, जैन सोसायटी, दिसम्बर. १९१६, वोल्यूम ५ साहित्य संशोधक, सं० २ अंक ४ भाग ४ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, श्री फतेचन्द बेलानी, दर्शनसार, देवसेनाचार्य विरचित, प्र. जैन अन्य सन्मति प्रकाशन, जैन संस्कृति संशोधक रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, बम्बई मण्डल, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, दशवकालिक चूरिण-अगस्त्य सिंह रचित बनारम, १९५० ई० दशवकालिक नियुक्ति-भद्रबाहु (द्वितीय) जैन धर्म का मौलिक इतिहास, दशवकालिक, सं० श्री घेवरचन्द बोठिया, प्रा. हस्तीमलजी म. प्रकाशक-इतिहास साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ सैलाना, सं० २०१४ समिति, लाल भवन, चौड़ा रास्ता जयपुर, ' दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति ई० १९७१ जैन परम्परानो इतिहास, भाग १,२-त्रिपुटी दशाश्रु त स्कन्ध-नियुक्ति-भद्रबाहु (द्वितीय) जैन शिलालेख संग्रह भाग १ श्री माणिकचन्द्र दी गुप्ता एम्पायर-बाई पार० के० मुकर्जी दि० जन ग्रन्थ माला समिति हीरा बाग, The Journal of the Royal Asiatic पो. गिरगांव, बम्बई Society, 1920 भाग २ " दिव्यावदान , भाग ३ दीपमालिका कल्प, जिनसुन्दरसूरि, सं० २००६ , भाग ४ डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी की प्रस्तावना जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १-४, श्री जिनेन्द्र __ दुषमाकाल श्री श्रमण संघ स्तोत्र वचूरि (पट्टावली समुच्चय प्र० भाग) वर्णी, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन प्र० श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र, प्राचार्य हेमचन्द्र वीरमगांव (गुजरात) तत्वार्थ श्लोक वात्तिक, विद्यानन्द प्र० नन्दीचूणि, जिनदास महत्तर, पुष्प विजयज़ी ___गांधी नाथारंग जैन ग्रन्थमाला, बम्बई मा द्वारा सम्पादित, प्रकाशक-प्राकृत तत्त्वार्थ सूत्र, उमा स्वाति ग्रन्थ परिषद वाराणसी , तत्त्वार्थाधिगम स्वोपज्ञ भाप्य उमा स्वाति अहमदाबाद ६, १९६६ ई. तपागच्छ पट्टावली, धर्म सागर गणि रचित नन्दी मलय गिरीया वृत्ति, प्र० राय पनपतसिंह स्वोपज्ञ वृत्ति सहित, पन्यास श्री कल्याण नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली अज्ञात करीक, विजयजी द्वारा सम्पादित षट्खण्डागम भाग १ की डा० हीरामाल तित्थोगालिय पइन्ना, हस्तलिखित, पं० दलसुख जी को प्रस्तावना-श्री दरबारीलालजी भाई मालवरिणया, संचालक -लालभाई कोठिया से प्राप्त दलपत भाई, भारतीय संस्कृति विद्या नन्दी सूत्र, प्रा० श्री हस्तीमलजी म. द्वारा मन्दिर अहमदाबाद के सौजन्य से प्राप्त अनूदित, प्रकाशक-रायब०की मोतीलाल तिलोय पण्णत्ती भाग १, यतिवृषभ, जैन मूथा, भवानी पेठ, सतारा सिटी संस्कृति रक्षक संघ शोलापुर सम्पादक नन्दी सूत्र-पू० घासीमालनी क. प्रकाशक-ए. एन. उपाध्ये और प्रो० हीरालाल अखिल भा. श्वे. स्वा. अन शास्त्रोदार सं० २०१२ समिति, राजकोट नन्दी सूत्र हारिभद्रीया वृत्ति दर्शनशुद्धि सटीक नाट्यदर्पण Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मायाषम्म कहामो, पागमोदय समिति द्वारा पट्टावली समुच्चय, मनि दर्शन विजयजी, काशित, सन् १९१९ प्र. श्री चरित्र स्मारक प्रन्यमाला, . निरयावलिया सूत्र भाषा टीका, राय धनपत वीरमगाव (गुजरात) - सिंह, . १९४५ पत्रवणा-मुनि श्री पुण्यविजयनी व निनीय पूज्य घासीलालजी महाराज द्वारा पं. दलसुख मालवरिणवा द्वारा सम्पादित अनूदित पनवणा सूत्र वृत्ति, प्र. रायवहादुर धनपतसिंह निशीष सूत्र-भाष्य, विसाहगणि, विशेष Prof. Hultzsch. corp. Inser. Indic. बूगि-जिनदास महत्तर, सं० कविं Pt. 1. Pref. xxxiii Problems of Shaka & Satvahana - अमरचन्दजी, मुनि कन्हैयालालजी कमल, History, Journal of the Bihar & सन्मति ज्ञानपीठ, प्रागरा Orissa Research Society, 1930 नीतिसार परिशिष्ट पर्व-प्राचार्य हेमचन्द्र रचित पंचकल्प पूणि-हस्तलिखित पंचकल्प भाष्य-संघदास गणि वोध प्राभृत-श्रुत सागरी टीका पंचास्तिकाय प्राभृत जयसेनाचार्यकृत तात्पर्य भगवती पाराधना की विजयोदया टीका, वृत्ति अपराजित (यापनीय) रचित, प्र. प्रजापना सूत्र-हारिभद्रीया वृत्ति देवेन्द्रकीति दि. जन अन्धमाला, कारंजा प्रबन्धकोश राजशेखर सूरि रचित, सं० भगवदी आराहणा-शिवार्य (यापनीय), जिनविजयजी, प्रकाशक-सिंधी जैन ज्ञान प्र. देवेन्द्र. दि. जैन ग्रन्थमाला, कारंजा पीठ, शान्ति निकेतन भगवती सूत्र-प्र. टी.-पूज्य घासीलालजी म., प्रभावक चरित्र, प्राचार्य प्रभाचन्द्र, सिंघी जैन प्रकाशक-भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार अन्यमाला, सन् १९२७ समिति राजकोट, १९६१ प्रभावती गुप्ता का पूना का दानपत्र भगवती सूत्र-प्र० श्री घेवरचन्दजी वांठिया,. प्रवचनसार, ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित । प्र०-जैन संस्कृति रक्षक संघ, सलाना भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, Introductory by A. N. Upadhye on पूर्वार्द्ध मुनि ज्ञान सुन्दरजी, प्र०-श्री रत्न . Pravachanasara . प्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला फलौदी प्रवचन सारोदार, नेमिचन्द्र सूरि रचित, (मारवाड़) सन् १९४३ प्रकाशक-देवचन्द लालभाई पुस्तकोदार भद्रबाहु चरित्र-रत्ननन्दिकृत समिति, बम्बई सन् १९२२, १९२६ भविष्य पुराण प्रश्न व्याकरण सूत्र-अनु० ५० घेवरचन्द __ भाव प्राभूत-श्रुतसागरी टीका बांठिया, प्र. अगरचन्द भैरौंदान सेठिया, . साठया, भाव संग्रह-प्रा. देवसेन (विमलसेन के बीकानेर शिष्य), दर्शनसार के कर्ता से भिन्न प्रश्न व्याकरण वृत्ति, मभयदेव सूरिकृता, प्र० राय बहादुर पनपतसिंह . . मत्स्य पुराण-प्र० नन्दलाल मोर, ५ क्लाइम प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन __रोड, कलकत्ता १, सन् १९५४ ___ सटीक Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५१ मनुस्मृति-सं० स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, वृहत्कल्पपीठिका-मलयगिरीया टीका पुस्तक मन्दिर, मथुरा, सं०. २०१६ । वृहत्कल्प सूत्र, पुण्य विजयजी म. द्वारा मलयगिरीया पिण्ड नियुक्ति टीका संपादित, भाग १ अत्मानंद जैन सभा, महापुराण-जिनसेन (धवलाकार) प्रकाशक- भावनगर सन् १९३३-१९४२. . भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ई० १९५१ . वृहद्-प्रारण्यकोपनिषद् महापुराण पुष्पदन्त रचित वसुदेव हिण्डी, प्रथम अंश-संघदास गणी, महाभारत कर्ण पर्व, गीता प्रेस गोरखपुर प्र. श्री जैन प्रात्मानन्द सभा सन् १९३० महावीर चरित, गुणचन्द्रगणि ___ वायुपुराण, दूसरा खण्ड, सं. श्रीराम शर्मा, महावीर चरित्-कवि रयधू (हस्त लिखित), ' प्र. संस्कृति संस्थान, बरेली (उ.प्र.), पं. हीरालालजी शास्त्री, ब्यावर नसियां १९६७-ई. के सौजन्य से प्राप्त वासवदत्ता-भासरचित महावंशो-बौद्ध भिक्षु धेनुसेन (लंका) रचित मालविकाग्नि मित्रम्-कालिदास विक्रम चरित्रम्-शुभ शील गणि रचित, (हस्त मुण्डकोपनिषद् प्र० गीताप्रेस गोरखपुर लिखित), प्राचार्य श्री विनय चन्द्र ज्ञान मुद्राराक्षस-विशाखदत्त ' भण्डार जयपुर के सौजन्य से प्राप्त मूलाचार-बट्टकेर रचित विक्रम स्मृति प्रन्थ, प्रकाशक-सिन्धिया मेरुतुगीया स्थविरावली, जैन साहित्य संशोधक. प्रोरिएन्टल इन्स्टीट्यूट, ग्वालियर खण्ड २ अंक २ विचार धणि (परिशिष्ट सहित), जैन साहित्य संशोधक, खं. २, मंक ४ में Monter Monier Dictionary, by Sir प्रकाशित Villiam Monia मौर्य साम्राज्य का इतिहास, के. पी. जायसवाल विधिपक्ष पट्टावली-भावनागररचित विशेषावश्यक भाष्य मलधारी हेमचन्द्र टीका द्वारा लिखित. भूमिका विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञ टीका, जिनभद्र योग बिन्दु सार क्षमाश्रमण, लालभाई दलपत भाई योग शास्त्र-हेमचन्द्राचार्य स्वोपज्ञ टीका सहित भारतीय सं. वि. अहमदाबाद रत्नमाला V. A. Smith's Ashoka, P. I. रत्न संचय प्रकरण Cambridge History. राजवात्तिक-प्रकलंक वीर निर्वाण और जैन कालगणना, मुनि ऋषि मण्डल स्तोत्र कल्याण विजयजी प्रकाशक-क. वि. लिंग पाहुड़-षट् प्राभृतादि संग्रह, प्रकाशक शास्त्र समिति, जालोर (मारवाड़) ___ माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, वम्बई संवत् १९८७ लोक विभाग (संस्कृत) सिंहसूरपि रचित वीर वंशावली अथवा तपागच्छ वृद्ध पट्टावली, जैन साहित्य संशोधक, खंड १. ग्रंक ३ में वृहत्कथा कोश हरिषेणकृत, भारतीय प्रकाशित विद्या भवन वीर वदमान चरित्र, भट्टारक श्री मकलकीति वृहत्कथा मंजरी-क्षेमेन्द्रकृत 1 वृहत्कल्प टीका-क्षेत्रकीतिकृता श्राद्ध दिनकृत्य Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ श्रुतस्कन्ध-ब्रह्महेमचन्द्र विरचित, माणिक्य समायांग सूत्र-टीका अनुवाद, पू. घासीलालजी । चन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला - म., प्र. भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार श्रु तावतार इन्द्रनन्दी कृत समिति, राजकोट श्रीमद्भागवत महा पुराण, गीता प्रेस समवायांग, प्र. रायबहादुर धनपत सिंह गोरखपुर सर्वार्थ सिद्धि-देवनन्दि पूज्यपाद (जिनेन्द्रबुद्धि) शान्तिनाथ चरित्र रचित, प्रकाशक-सखाराम नेमिचन्द्र जैन ग्रन्थमाला सोलापुर षट्खण्डागम-धवला टीका (पूर्ण), प्र.-जैन साङ्गधर पद्धति संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर सुत्तपाहुड़-प्रा. कुन्दकुन्द प्रणीत, षट् प्राभृतादि संबोष प्रकरण, प्रा. हरिभद्र, प्रकाशक संग्रह, प्रकाशक-माणिकचन्द्र दि. जैन जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, अहमदावाद ग्रन्थमाला बम्बई स्कन्द पुराण । सूत्रकृतांग, प्रा. जवाहर लाल जी म. द्वारा स्कंध गुप्त का जूनागढ शिलालेन्त्र अनूदित, प्रकाशक-शम्भूमल गंगाराम स्कंध गुप्त का भितरी का स्तम्भलेख मूथा, बंगलोर : स्थानांग सूत्र घासी लाल जी म. द्वारा संपादित, सुत्तागमे प्रथमो अंसो सं. पुष्फभिक्ख, प्र. भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्वार समिति, गम प्रकाशक समिति, रेल्वे रोड, राजकोट द्वारा प्रकाशित गुड़गांव छावनी, १९५३ ई. स्थानांग सूत्र-टीका अभयदेव मूरि, प्रकाशक Sacred Books of the East, Vol. 22 by Hermapo Jacobi राय धनपत सिंह समंत भद्र-पंडित जुगल किशोर मुख्त्यार हरिवंश पुराण, प्रा. जिनसेन (पुन्नाट संघीय) समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र- पं. सुखलाल संघवी - प्रगीत सं. पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य डी. लिट., प्रकाशक राजस्थान प्राच्य प्र. भारतीय ज्ञानपील, काशी, सन् १९६२ विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर १९३३ ई. हरिवंश पुगण-कृष्ण द्वैपायन, समय प्राभृत कुन्दकुन्दाचार्य, प्रथम संस्करण हरिपेरण द्वारा कोशाम्बी में उकित करवाया ई. १९१४ हुआ समुद्र गुप्त का (इलाहाबाद स्थित) समय प्राभृतम् और प्राभृत संग्रह, प्र. स्तम्भ लेख माणिकचन्द्र दि जन ग्रन्थमाला, हिमवन्त स्थविरावली (हस्तलिखित), मुनिश्री (पुष्प १७), बम्बई कल्याण विजयजी से प्राप्त सयवायांग अभय देवीया टीका. History of the Guptas, by Dandekar. विशेष-सूची में दिये गये ग्रन्थों के अतिरिक्त उपलम्ब सम्पूर्ण भागम साहित्य और भनेक प्रन्यों से महायता ली गई है। उन सब की मूत्री देना संभव नहीं। . Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परोपग्रहो जीवानाम JUST * जय र तत्वरसमा वगासणारा गस्य सत्त नाण जयपर जैन इति हास समिति Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOTION या क U INR च UN सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल बापू बाजार, जयपुर-302 003 (राज.) दूरभाष : 0141-565997 जैन इतिहास समिति लाल भवन, चौडा रास्ता जयपुर-302 003 (राज.)