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________________ आर्य प्रियग्रंथ] दशपूर्वघर-काल : प्रार्य श्यामाचार्य ५०७ लिए इसे सदा हेय बताया गया है, पर संस्कृति-संघर्ष के युग में वादविवाद आदि में प्रतिपक्ष को लोगों की निगाहों से गिरा अपने पक्ष की विजय से जनमत को प्रभावित करने एवं स्वपक्षप्रताप परिवृद्ध्यर्थ इस प्रकार के प्रयत्नों को अपनाया भी गया है। वैयक्तिक स्वार्थसिद्धि के लिए तो मन्त्र-तन्त्र और औषधि आदि का प्रयोग जैन साधु के लिए सर्वथा निषिद्ध माना गया है, पर शासन हित तथा संघ के कल्याणार्थ प्रभावकों, प्राचार्यों को कभी-कभी इस प्रकार के कार्य भी करने पड़ते थे, जो प्रत्यक्षत: अथवा लौकिक दृष्टि से जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रतिकूल दृष्टिगोचर हो सकते थे। स्व० मुनि कान्तिसागरजी ने प्रियग्रन्थ सूरि का परिचय निम्न रूप में दिया है : "एक समय प्रियग्रंथ मुनिराज विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हए अजमेर के समीप हर्षपूर पहँचे । हर्षपुर में ब्राह्मणों और श्रमणोपासकों के परिवार पर्याप्त संख्या में थे। मगधपति पुष्यमित्र शुंग द्वारा किये गए दो अश्वमेध यज्ञों के कारण देश में एक बार पुनः यज्ञ-यागादि की लहर दौड़ चुकी थी। हर्षपुर के ब्राह्मण वैदिक क्रियाकाण्ड के प्रति इतने अनुरक्त थे कि वे लोग खूले ग्राम पशुओं की बलि देने में भी संकोच का अनुभव नहीं करते थे : तदनुसार ब्राह्मणों ने बड़े समारोह के साथ एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया । उस यज्ञ में बलि के लिए एक हृष्ट-पुष्ट बकरा खूटे से बांध दिया गया। श्रमणोपासकों ने आर्य प्रियग्रंथ के समक्ष पूरी स्थिति रखी। बताया जाता है कि हिंसक यज्ञों की प्रवृत्ति को रोकने एवं शासन की प्रभावना को दृष्टिगत रखते हए प्रिय ग्रन्थसूरि ने एक अभिमन्त्रित चूर्ण श्रावकों को देकर उसे बलि के बकरे पर डाल देने के लिए कहा । श्रावकों ने येनकेन प्रकारेण वह चूर्ण बकरे पर डाल दिया। वासक्षेप के प्रभाव से बकरा मनुष्य की बोली में कहने लगा :- "प्राप लोग मुझे अग्नि में झौंकने जा रहे हो । यदि मैं आप लोगों के समान निर्दयी बन जाऊं तो आप सबको तत्काल समाप्त कर सकता है । पर मेरा अन्तर्मन मुझे ऐसा करने के लिए साक्षी नहीं देता, क्योंकि मेरे हृदय में दया का निवास है। हनमानजी ने रावण की नगरी, लंका में जो ताण्डव नृत्य किया था, उससे भी अधिक भीषण दशा मैं तुम लोगों की कर सकता हूं।' बकरे के मुंह से इस प्रकार की बात सुन कर इस तरह की अभूतपूर्व घटना से मव ब्राह्मण भयविह्वल और आश्चर्यान्वित हो गये। किमी तरह माहम बटोर कर उनमें से एक ब्राह्मण बोला :-- "तुम कौन हो? तुम्हारा स्वरूप क्या है ?' बकरे ने उत्तर दिया - "मैं अग्नि हं, छाग मेरा वाहन है। आप मेरी यनि दकर किस धर्म की साधना करना चाहते हो? क्या स्वर्ग की प्राप्ति अथवा इन्द्रासन के लिए पशुबलि करना उचित है ? इस प्रकार का अधर्म किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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