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________________ ५०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग प्रायं प्रियग्रंथ भी दशा में धर्म नहीं कहा जा सकता। यदि तुम लोग वास्तविक धर्म का स्वरूप समःना चाहते हो तो यज्ञ में की जाने वाली हिंसा को बन्द करो और यहां तुम्हारे नगर में विराजित पार्य प्रियग्रंथ मुनि की सेवा में उपस्थित हो उनसे आत्मकल्याण का प्रशस्त पथ समझो।"" इस प्रकार कल्पसुबोधिका नामक ग्रंथ में बताया गया है कि प्रार्य प्रियग्रंथ ने संघ के कल्याण और जैन संस्कृति के प्रताप को बढ़ाने के लिए मन्त्रविद्या का सहारा लिया और वहां के अनेक ब्राह्मणों को प्रबुद्ध किया। १४. प्रार्य षांडिल्य - वाचनाचार्य श्यामाचार्य के पश्चात् कौशिक गोत्रीय आर्य षांडिल्य वाचनाचार्य हुए। इनको स्कंदिलाचार्य भी कहा जाता है। प्राचार्य देववाचक (देवद्धि क्षमाश्रमण) ने - "वंदे कोसियगोत्तं सांडिल्लं अज्जजीयधरं।" - इस पद से कौशिक गोत्रीय षांडिल्य को बन्दन किया है। गाथा में प्रयुक्त पद - अज्जजीयधरं" - से प्रकट होता है कि प्राचार्य षांडिल्य जीतव्यवहार के प्रति अधिक निष्ठावान् थे। तपागच्छ पट्टावली में इन्हें 'जीतमर्यादा'नामक शास्त्र का रचनाकार बताया गया है । किन्तु हिमवन्त स्थविरावली में इससे भिन्न प्रकार का उल्लेख मिलता है। उसमें बताया गया है कि आपके एक शिष्य का नाम गार्य जीत था, इस कारण आपको आर्य जीतधर कहा गया है। केवल आर्य जीत नामक शिष्य के कारण ही आपको आर्य जीतधर कहा गया ही, यह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। हो सकता हैं कि आपके शिष्य का नाम आर्य जीत हो किन्तु यहां 'जीतधर' शब्द से जीत हनिष्यत नु मां हुत्यः, बध्नीतायात मा हन । युष्मद्वनिर्दयः स्यां चेत्, तदा हन्मि क्षरणेन वः ।। यत्कृतं रक्षसां दंगे कुपितेन हतूमता ।। तत्करोम्येव वः स्वस्थः, कृपा चेन्नान्तरा भवेत् ।। यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुधातकाः ।। यो दद्यात् कांचनं मेरु, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्या-न च तुल्यं युधिष्ठिर ।। महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् । भीताभयदानस्य, क्षय एव न विद्यते ।। इत्यादि ।। कस्त्वं प्रकाशयात्मानं, तेनोक्त पावकोऽस्म्यहम् । ममैनं वाहनं कस्मा-ज्जिघांसय पशु वृथा ।। इहास्ति श्री प्रियग्रंथः सूरीन्द्रः समुपागतः । त पृच्छत शुमं धर्म, समाचरत शुद्धितः ।। पषा नक्री नरेन्द्रा, घानुष्कारणां धनंजयः । तथा धुरि स्थितः साघुः, स एकः सत्यवादिनाम् !! कल्पसुबोघिका, २ अधि०, ८ क्षण] २ तेषां षांडिल्याचार्याणां प्रायं जीतधरार्यसमुद्राख्यो द्वौ शिष्यावभूताम् । [हिमवन्त स्थविरावली] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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